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॥ॐ॥

॥श्री परमात्मने नम: ॥


॥श्री गणेशाय नमिः॥

॥ बृहस्पति स्मृतििः॥

श्री प्रभु के चरणकमल ों में समतपिि:

श्री मनीष त्यागी


सोंस्थापक एवों अध्यक्ष
श्री तहोंदू धमि वैतदक एजुकेशन फाउों डेशन

॥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

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॥ॐ॥
॥श्री परमात्मने नम: ॥
॥श्री गणेशाय नमिः॥

॥अथ बृहस्पतिस्मृतििः॥
अथ बृहस्पतिस्मृतिमारों भिः

इष्ट्वा ऋिुशिों राजाि समाप्त वरों दतक्षणम् ॥


भगवोंिों गुरु श्रेष्ठों पयिपृच्छबृहस्पतिम् ॥१॥

दे वराज इन्द्र ने तजनकी श्रेष्ठ दतक्षणा हुई है ऐसे सौ यज् ों क समाप्त


करके भगवान् उत्तम गुरु वृहस्पति जी से पूछा ॥ १ ॥

भगवन्केन दानेन सविििः सुखमेविे ॥


यदक्षयों महाथं च िन्मे ब्रूतह महत्तम ॥२॥

तक हे भगवन् ! तकस वस्तु के दान करने से सविदा सुखकी वृद्धि ह िी


है और तजस वस्तु के दानका अक्षय और महान् फल है उस दान क
भी हे िप धन! मुझसे कतहए ॥२॥

एवामद्रे ण पृष्ट ऽसौ दै वदे वपुर तहििः ।


वाचस्पतिमिहामाज् वृहस्पतिरुवाच ह ॥३॥

इन्द्र से इस प्रकार पूछे जाने पर दे वराज पुर तहि पोंतडि श्रेष्ठ, वाणी
के पति बृहस्पति ब ले तक ॥३॥

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सुवणिदानों भूदानों ग दानों चैव वासव ॥
एित्प्रयच्छमानस्तु सविपापैिः प्रमुच्यिे ॥४॥

हे इन्द्र ! सुवणिदान, ग दान और पृथ्वीदान का करनेवाला मनुष्य सब


पाप ों से छूट जािा है ॥४॥

सुवणि रजिों वस्त्र मतण रत्नों च वासव ॥


सविमेव भवेदत्तों वसुधा या प्रयच्छति ॥ ५॥

हे इन्द्र ! तजस मनुष्य ने पृथ्वी का दान तकया है मान ों उसने सुवणि,


चाों दी, वस्त्र, मतण, रत्न इन सबका दान कर तलया ॥५॥

फालकृष्टाों महीों दत्वा सवीनाों सस्यमातलनीम्॥


यावत्सूयििा ल कास्तावत्स्वगे महीयिे ॥६॥

हल से जुिी बीजयुक्त और तजसमें खेि श भायमान ह ऐसी पृथ्वीके


दान करनेवाला मनुष्य जब िक सूयि का प्रकाश तिल की में रहे गा
िब िक वह स्वगि में तनवास करै गा ॥६॥

यद्धकोंतचकुरुिे पापों पुरुष वृतत्तकतशिििः॥


अतप ग चमिमािेण भूतमदानेन शुध्यति ॥७॥

ज मनुष्य आजीतवका से दु िःखी ह कर क ईसा पाप करिा है वह


ग चमिकी बरावर पृथ्वी दान करनेसे सम्पूणि पाप स ों े मुक्त ह जािाहै
॥७॥
दशहस्तेन दों डेन तिोंशद्दों डा तनवििनम् ॥

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दश िान्येव तवस्तार ग चमैिन्महाफलम् ॥८॥

दश हाथ के दों ड से िीस दों ड भर लोंबी और चौडी पृथ्वी क ग चमि


कहा है, यह महान् फल की दे नेवाली ह िी है ॥८॥

सवृषों ग सहस्रों िु यि तिष्ठत्यिोंतद्रिम् ॥


बालवत्साप्रसूिानाों िि चमि इति स्मृिम् ॥ ९॥

जहाों हजार गौ और बैल आनोंदसतहि द्धस्थि ह ों उन गौओों में ज


प्रसूिा ह उसके बतछया बछडे भी ठहरें , उसे ग चमि कहिे हैं ॥९॥

तवप्राय दद्याच्च गुणाद्धििाय िप तनयुक्ताय तजिेंतदयाय ॥


यावन्मही तिष्ठति सागराोंिा िावत्फलों िस्य भवेदनोंिम् ॥१०॥

ज इस पृथ्वी क गुणवान, िपस्वी, तजिेद्धन्द्रय, ऐसे ब्राह्मण क दान


करिा है, उस पुरुष पर यह ससागरा पृथ्वी जब िक द्धस्थि रहेगी ऐसे
ब्राह्मण क दान का अनोंि फल िब िक भ ग करना ह गा ॥१०॥

यथा बीजातन र हों ति प्रकीणितन महीिले ।


एवों कामािः प्रर होंति भूतमदानसमतजििािः ॥११॥

पृथ्वी के िल पर ब ए हुए बीज तजस भाोंति जम आिे हैं ; उसी प्रकार


पृथ्वी दान के द्वारा सोंचय तकए हुए सम्पूणि काम जमिे हैं ॥११॥

यथाप्सु पतिििः शक िैलतविदुिः प्रसपिति ।


एवों भूम्ािः कृिों दानों सस्ये सस्ये प्रर हति ॥१२॥

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हे इन्द्र ! तजस प्रकार जल में पड़िे ही िेल की बूोंद उसी समय फैल
जािी है, उसी प्रकार भूतम दान खेि खेि में जम जािा है ॥१२॥

अन्नदािः सुद्धखन तनत्यों वस्त्रदश्चैव रूपवान् ॥


स नरिः सविद भूप य ददाति वसुोंधराम् ॥१३॥

अन्नका दान करनेवाला मनुष्य सविदा सुखी रहिाहै , वक्ष का दान


करनेवाला रूपवान ह िा है और ज मनुष्यों पृथ्वी दान करिा है वह
सविदा राजा ह िा है ॥१३॥

यथा गौभिरिे वत्सों क्षीरपुत्सृज्य क्षाररणी ॥


स्वयों दत्ता सहस्राक्ष भूतमभरति भूतमदम् ॥१४॥

तजस भाोंति दू धवाली गौ दू ध क छ डकर बच्चे का पालन करिी है


उसी प्रकार से हे इन्द्र ! अपने हाथ से दी हुई पृथ्वी भी अपने दािा
क पुष्ट करिी है ॥१४॥

शोंख भद्रासनों छिों चरस्थावरवारणािः ॥


भूतमदानस्य पुण्यातन फलों स्वगििः पुरोंदर ॥१५॥

हे इन्द्र ! पृथ्वी दान करनेवाले क शोंख, भद्रासन, (राजगद्दी) छि,


चमर, श्रेष्ठहा थी यह पृथ्वीदान के पुण्य से प्राप्त ह िे हैं और फल
स्वगि है ॥१५॥

आतदत्य वरुण बतनबिह्मा स म हुिाशनिः ।


शूलपातणश्च भगवानतभनोंदति भूतमदम् ॥१६॥

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सूयि, वरुण, अति, ब्रह्मा, चन्द्रमा, ह म की अति, तशव और तवष्णु यह
पृथ्वी के दे नेवाले की प्रशोंसा करिे हैं ॥१६॥

आस्फ टयोंति तपिरिः प्रवल्गति तपिामहािः ॥


भूतमदािा कुले जाििः स च िािा भतवष्याोंिे ॥ १७॥

तपिर अपने हाथ ों से अपनी भुजाओों क मल् ों के समान बजािे हैं


और तपिामह भली भाोंति आनोंतदि ह कर कहिे हैं तक हमारे कुल
में पृथ्वी का दान दे नेवाला उत्पन्न हुआ है वही हमारी रक्षा करनेवाला
ह गा ॥१७॥

िीण्याहुरतिदानातन गाविः पृथ्वी सरस्विी ॥


िारयोंिीह दािारों जपवापनद हनैिः ॥१८॥

'ग दान, भूतमदान और तवद्यादान इन िीन दान ों क ही श्रेष्ट कहा है ,


यह िीन दान दािा क क्रमानुसार दु हना, ब ना, और जप करना,
इनमें िार दे िे हैं ॥१८॥

प्रास्ता वस्त्रदा याोंति नन्ना याोंति ववस्त्रदािः।


िृप्ता याोंत्यन्नदािारिः क्षुतधिा याोंत्यनन्नदािः ॥१९॥

वस्त्र का दािा वस्त्र ों से आच्छातदि ह कर परल क में जािाहै , तजसने


वस्त्रदान नहीों तकए वह मनुष्य नि रहिा है ; अन्न का दे नेवाला िृप्त
ह िाहै; और तजसने अन्नदान नहीों तकया वह क्षुतधि ह कर जािा है
॥१९॥

काोंक्षति तपिरिः सवि नरकाद्भयभीरविः ॥

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गयाों यास्यति यिः पुििः स नस्रािा भतवष्यति ॥२०॥

नरकसे भयभीि हुए तपिर सविदा यह अतभलाषा करिे रहिे हैं तक


ज पुि गया में जाएगा; वही हमारी रक्षा करनेवाला ह गा ॥२०॥

एष्टव्या बहविः पुिा य क ऽतप गय ब्रजेि् ॥


यजेि वाश्चमेधेन नीलों वा वृषमुत्सृजेि् ॥२१॥

बहुि से पुि ों की इच्छा करनी चातहए क् तों क उनमें से एक ि अवश्य


गया क्षेि जाकर एक अश्वमेध यज् क करे गा अथवा नीले बैल से
वृष त्सगि करे गा ॥२१॥

ल तहिा यस्तु वणिन पुच्छाग्रे यस्तु पाोंडुरिः ॥


श्वेििः खुरतवषाणाभ्ाों स नील वृष उच्यिे ॥२२॥

तजसका रों ग लाल वणि का ह , और पूोंछ का अग्रभाग पीला ह , द न ों


सीोंग सफेद ह उसे नील बैल कहिेहैं ॥२२॥

नील: पाोंडुरलाोंगूलस्तृणमुिरिे िु यिः॥


पतष्टवषिसहसा तण तपिरस्तेन ितपििािः ॥२३॥

तजसका रों ग नीला ह , पूोंछ पीली ह , और ज िृण ों क उखाड ले बैल


के दान करनेसे तपिर साठ हजार वषि िक िृप्त ह िे हैं ॥२३॥

यस्य भृगगिों पोंक कलातत्तष्ठति ब द् धृिम् ॥


तपिरस्तस्य चाश्नोंिी स मल कों महाद् युतिम् ॥२४॥

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तजस बैल के सीोंग पर नदीकूल से उखाडा हुआ पोंक (कीचड) द्धस्थि
रहे ऐसे बैल के दान करनेवाले के तपिर' प्रकाशमान चन्द्रमा के ल क
क भ गिे हैं ॥२४॥

पृय यिदातदलीपस्य नृगस्य नहुपस्य च ॥


अन्येषाों च नरें द्राणाों पुनरन्य भतवष्यति ॥२५॥

पृथु, यदु , तदलीप, नग, नहुष, और अन्यान्य राजाओ में तफरकर


मरनेके उपरान्त अन्य ही राजा ह िाहै ॥२५॥

बहुतभविसुधा दत्ता राजतभिः सगरातदतभिः ॥


यस्य यस्य यथा भूतमस्तस्य िस्य िथा फलम् ॥२६॥

बहुिसे सगर आतद राजाओों ने पृथ्वी क म गा, तजसकी जैसी पृथ्त्री


हुई उस पर वैसा ही फल हुआ ॥२६॥

यस्तु ब्रह्मनिः स्त्रीव वा यस्तु वै तपिृघािकिः ॥


गवाों शिसहस्राणाों होंिा भवति दु ष्कृिी ॥२७॥

ज मनुष्य ब्रह्महत्या करनेवाला और स्त्री की हत्या करनेवाला है , वह


पापी लाख गौओों क मारनेवाला ह िा है ॥२७॥

स्वदिाों परदत्ताों वा य हरे ि वसुोंधराम् ॥


श्वतवष्टायाों कृतमभूत्वाि तपिृतभिः सहिः पच्यिे ॥२८॥

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ज मनुष्य अपनी दी हुई, अथवा दू सरे की दी हुई पृथ्वी क छीन लेिा
है, वह कुत्ते की तवष्ठा में कीडा ह कर अपने तपिर ों सतहि पकाया
जािा है ॥२८॥

आक्षेप्ता चानुमोंिा च िमेव नरकों व्रजेि् ॥


भूतमद भूतमहिाि ि च नापरों पुण्यपापय िः ॥
ऊचि िाध ऽवतिष्ठि यावदाभूिसोंप्लवम् ॥ २९ ॥

मारनेवाला और अनुमति दे ने वाला यह द न ों एक ही नरक में जािे


हैं; पृथ्वी का दािा और पृथ्वी क हरनेवाला अपने अपने पुण्य अथवा
पाप से क्रमानुसार स्वगि और नरक में प्रलयपविन्त द्धस्थि ह िे हैं
॥२९॥

अिेपत्यों प्रथम सुवणि भूवैष्णवी सूयिसुिाश्च गाविः।


ल काियस्तेन भवोंति दत्ता यिः काोंचनों गाों च महीों च दद्याि् ॥३०॥

अति का प्रथम पुि सुवणि है , पृथ्वी तवष्णु की पुिी है और गौ सूयि की


पुिी है , ज मनुष्य सुवणि, गौ, मही इन का दान करिाहै उसने मान ों
िीन ों ल क दान कर तलये ॥३०॥

षडशीतिसहस्राणाों य जनानाों वसुोंधरा ॥


स्वयों दत्ता िु सविि सविकामप्रदातयनी ॥३१॥

तजस मनुष्यने छयासी (८६) हजार य जन पृथ्वी स्वयों दान की है वह


पृथ्वी उसके सब मन रथ पूणि करिी है ॥३१॥

भूतम यिः प्रतिगृह्णाति भूतम यश्च प्रयच्छति ॥

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उभौ िौ पुण्यकाणी तनयि स्वगिगातमनी ॥ ३२॥

ज पृथ्वी का दान लेिा है , और ज पृथ्वी क दे िाहै वह द न ों पुण्यात्मा


तनरन्तर स्वगि मे जािे हैं ॥३२॥

सवेषामेव दानानामेकजन्मानुगों फलम् ॥


हाटकतक्षतिगौरीणाों सप्तजन्मानुगों फलम् ॥३३॥

एक ही जन्म में सम्पूणि दान का फल तमलिा है और साि जन्म िक


सुवणि, पृथ्वी, गौरी इनका फल तमलिा है ॥३३॥

य न तहोंस्यादहों ह्यात्मा भिग्रामों चिुतविधम् ॥


िस्य दे हातदयुक्तस्य भयों नाद्धस्त कदाचन ॥३४॥

ज मनुष्य "मैं सबका आत्मा हों" यह जानकर, अोंडज, स्वेदज,


उतद्वज्ज, जरायुज, इन चार प्रकार के भूि क
ों दु िःख नहीों दे िा उस
जीवात्मा क दे ह से पृथक् ह ने पर भी कभी भय नहीों ह िा ॥३४॥

अन्यायेन हृिा भूतमयनरै रपहाररिा ।


हरों ि हारयोंिश्च हन्युरासप्तमें कुलम् ॥३५॥

तजन मनुष्य ों ने अन्याय करके पृथ्वी छीन ली है , अथवा भूतम के छीनने


की तजसने अनुमति, दी है वह छीननेवालें और अनुमति दे नेवाले द न ों
ही अपने साि कुल ों क नष्ट करिे हैं ॥३५॥

हरिे हारयेद्यस्तु मोंदबुद्धिस्तम हििः ॥


स बि वारुणैिः पाशैद्धस्तयिग्य तनषु जायिे ॥२६॥

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ज दु बुिद्धि मनुष्य भूतम क छीनिा है अथवा तछनविा है वह वरुण
फााँस में बोंधकर तियिगय तन में उत्पन्न ह िा है ॥३६॥

असुतभिः पतििैस्तेषाों दानानामवकीििनम् ॥


ब्राह्मणस्य हृिे क्षेिे होंति तिपुरुवों कुलम् ॥३७॥

क् तों क उनके आाँ सू तगरने से समस्त दान भी नष्ट ह जािे हैं। ब्राह्मण
के खेि क हरण करने वाले मनुष्य की िीन पीढी नष्ट ह जािी हैं
॥३७॥
वापीकूपसहस्त्रेण अश्वमेध घशिेन च ॥
गवाों क तटप्रदानेन भूतमहिाि न शुद्ध्यति ॥३८॥

पृथ्वी क हरनेवाला हजार बावडी और कुओों क बनाकर, सौ


अश्वमेघ यज् करके एक कर ह गौ के दान करने से भी शुि नहीों
ह िा ॥३८॥

गामेकाों स्वणिमेकों वा भूमेप्यिनोंगुलम्॥


हरन्नरकमायाति यावदाभूिसोंप्लवम् ॥३९॥

एक गौ, एक अशफी और अिि अोंगुल पृथ्वी इनका हरने वाला मनुष्य


प्रलय िक नरकमें जािा है ॥३९॥

हुिों दत्तों िप धीिों यद्धकोंतचिमिसोंतचिम् ॥


अधािगुलस्य सीमायाों हरणेन प्रणश्यति ॥४०॥

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हवन, दान, िपस्या, पढना, और धमि से इकट्ठा तकया हुआ वह सभी
आध अोंगुल की सीमा हरने से नष्ट ह जािा है ॥४०॥

ग वीथीों ग्रामरथ्ाों च श्मशानों ग तपिों िथा॥


सोंपीडय नरकों याति यावदाभूि सोंप्लवम् ॥४१॥

गौओों का मागि, ग्राम की गली, शमशान और गुप्त रखा हुआ, इनके


ि डने से मनुष्य प्रलय िक नरक में जािा है ॥४१॥

ऊपर तनजिले स्थान प्रास्तों सस्य तववजियेि् ॥


जलाधारस्य कििव्य व्यासस्य वचनों यथा ॥१२॥

ऊपर और जलहीन पृथ्वी में खेि क नहीों ब ना चातहए, और


जलवाली पृथ्वी में व्यासजी के वचन - अनुसार खेि करना उतचि है
॥४२॥

पोंच कन्यानृिों होंति दश हति गवामृिम् ॥


शिमथानृिों हति सहस्त्रों पुरुषाोंन िम् ॥४३॥

कन्या के सम्बन्ध में झूठ ब लने से पाोंचक , ग के सम्बन्ध में झूठ


ब लने से दश क , घ डे के, तनतमत्त झूठ ब लने से सौ क और पुर के
तनतमत्त झूठ ब लने में हजार क मारने वाला ह िा है ॥४३॥

होंति जािानजािाोंश्च तहरण्याथेनृिों बदन्।


सवि भूम्पनृिों हति भास्म भूम्नृिों वदी: ॥४४॥

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सुवणि के सम्बन्ध ज झूठ ब लिा है , उसके कुल में ज उत्पन्न हैं और
ज उत्पन्न ह गा वह उन सबक नष्ट कर दे गा; और पृथ्वीके तनतमत्त
झूठ ब लने में सबक मारिा है, अिएव पृथ्वी के तवषय में झूठ ब लना
उतचि नहीों है ॥४४॥

ब्रह्मस्वे न रतिों कुयाि त्प्राणै: कोंठगिैरतप ॥


अनौषधभैष्यजयों तवषमेििलाहलम् ॥ ४५ ॥

चाहें प्राण भी कोंठ िक आ जाए परन्तु ब्राह्मण के धन की इच्छा कभी


नहीों करनी चातहए, ब्राह्मण का धन हलाहल तवषकी समान है ; इसकी
न ि तचतकत्सा है और न ही औषतध ही है ॥४५॥

न तवषों तवषतमत्याहुब्रिहस्वों तवषमुच्यिे ॥


तवषमेकातकनों हद्धन्त ब्रह्मस्वों पुिपौिकम् ॥४६॥

बुद्धिमान ों का कथन है तक तवष तवष नहीों हैं परन्तु ब्राह्मण का धन ही


तवष है क् तों क तवष क खाकर ि एक ही मनुष्य मरिाहै परन्तु
ब्राह्मण के धन क खाकर बेटे प िे िक मृिक ह जािे हैं ॥ ४६॥

ल हचूणिश्मचूणि च तवषों च जरयेन्नरिः ॥


ब्रह्मस्वों तिषु ल केषु क: पुमाञ्जरतयष्यति ॥४७॥

ल हे का चूणि, पत्थर का चूणि और तवष कदातचि इनक ि मनुष्य


एक वार पचा भी सकिा है परन्तु तिल की के बीच में ऐसा क ई पुरुष
भी सामथ्ि वाला नहीों ज तक ब्राह्मण के धन क पचा सकें ॥४७॥

मन्युपहरणा तवप्रा राजानिः शिपाणयिः ॥

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शास्त्रमेंमतकनों होंति ब्रह्ममन्युिः कुलियम् ॥४८॥

ब्राह्मण ों का क्र ध अस्त्र है , राजाओों के शस्त्र खड् ग इत्यातद हैं , इन


दनम ों ें खङ्ग ि एकही मनुष्य क मारिा है परन्तु ब्राह्मणका क्र ध
िीन ों कुल ों क नष्ट कर दे िा है ॥४८॥

अन्युमप्रहरणा तवप्राश्चकप्रहरण हररिः ॥


चक्रािीव्रिर मन्पुस्तस्मातद्वप्र न क षयेि् ॥४९॥

क्र ध ब्राह्मण ों का प्रहरण है , चक्र तवष्णु का प्रहरण है , चक्र से क्र ध


बड़ा िीक्ष्ण है ; इस कारण ब्राह्मण क क्र ध नहीों उत्पन्न करावना
चातहए ॥४९॥

अतिदग्ािः प्रर हों ति सूयिग्ास्तथैव च ॥


मन्युदग्स्य तवप्राणामोंकुर न प्रर हति ॥५०॥

वृक्षातद कदातचि् अति से दग् ह कर या सूयि की तकरण ों से भस्म


ह कर जम आिे हैं, परन्तु ब्राह्मण ों के क्र ध से दु ग् हुए मनुष्य ों का
अोंकुर िक भी नहीों जमिा ॥५०॥

िेजसातिश्च दहति सूयो दहति रद्धश्मना ।


राजा दहति दों डेन तवप्र दहति भन्युना ॥५१॥

अति अपने िेज से दग् करिे हैं , और सूयि भगवान् अपनी तकरण ों
के द्वारा दग् करिे हैं; राजा दों ड से दग् करिे हैं और ब्राह्मण केवल
अपनी आाँ ख ों क र के द्वारा ही दग् करिे हैं। ॥५१॥

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ब्रह्मस्वेन िु यत्सौख्यों दे वस्वेन िु या रतििः ॥
ििनों कुलनाशाय भवत्यात्मतव नाशनम् ॥५२॥

ब्राहाण के धन से ज सुख ह िा है ; और दे विा के धन से ज रति


ह िी है, वह धन कुल और आत्मा क नष्ट कर दे िा है ॥५२॥

ब्रह्मस्वों बह्महत्या च दररद्रस्य च यिनम् ॥


गुरुतमितहरण्यों च स्वगिस्यमतप पीडयेि् ॥५३॥

ब्राह्मण का धन हरण करने से ब्रह्म हत्या लगिी है , दररद्र और गुरु


का धन हरण करनेसे , तमि का धन हरण करने से और सुवणि के
चुराने से स्वगि में वास करने वाला भी दु िःख भ गिा है ॥५३॥

ब्रह्मस्वेन िु यद्धच्छद्रों िद्धच्छद्रों न प्रर हति ॥


प्रच्छादयति िद्धच्छद्रमप्यि िु तवसपिति ॥५४॥

ब्राहाण के धन हरण करने में ज द ष है , वह तकसी प्रकार से नहीों


तमटिा; उसक ज तकसी भाोंति तछपा भी तलया जाए ि भी वह प्रगट
ह जािाहै ॥५४॥

ब्रह्मस्वेन िु पुष्टातन साधनातन बलातन च ॥


सोंग्रामे िातन लीयोंिे तसकिासु यथ दकम ॥५५॥

ब्राह्मण के धन से पुष्ट हुए साधन और सेना यह सोंग्राम में इस प्रकार


नष्ट ह जािे हैं , तजस प्रकार रे ि में जल लीन ह जािा है ॥५५॥

श्र तियाय कुलीनाय दररद्राय च वासव ॥

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सोंिुष्टाय तवनीिाय सविभूितहिाय च ॥५६॥

हे इन्द्र ! कुलवान् और दररद्री वेदपाठी ब्राह्मण क िथा सोंि षी,


तवनयी, सम्पूणि प्रातणय ों का तहिकारी भी ह ॥५६॥

वेदाभ्ासस्तप ज्ानतमतद्रयाणाों च सोंयमिः ॥


ईदशािय सुरश्रेष्ठ यदत्तों तह िदक्षयम् ॥५७॥

ज वेद का अभ्ास करनेवाला ह ; िपस्या करिा ह ; और तजसने


इद्धन्द्रय ों क र क तलया है हे सुरश्रेष्ठ! ऐसे मनुष्य क ज कुछ दान
तकया जायगा वह अक्षय ह गा ॥५७॥

आमपािों यथा न्यस्तों क्षीरों दतध घृिों मधु ॥


तवनश्येत्पािदौबिल्यािच्च पािों तवनश्यति ॥५८॥

तजस भाोंति कच्चे पाि में रक्खा हुआ दू ध, दही, घी, सहि यह पाि
की दु बिलिा के कारण नष्ट ह जािे हैं और वह पाि भी नष्ट ह जािा
है ॥५८॥

एवों गाों च तहरण्यों च वस्त्रमन्नों महीों तिलान् ॥


अतवद्वान्मप्रतिगृह्णाति भस्मीभवति काष्ठवि ॥५९॥

उसी भाोंति गौ, सुवणि, वस्त्र, पृथ्वी तिल, इनक ज मूखि लेिा है ; वह
काष्ठ के समान भस्म ह जािा है ॥५९॥

यस्य चैव गृहे मूख ों दू रे चातप बहुश्रुििः


बहुश्रुिाय दािव्यों नाद्धस्त मूखे व्यतिक्रमिः ॥६०॥

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तजस मनुष्य के घर में मूखि तनवास करिा है और दू र पर तवद्वान का
तनवास है , ि पोंतडि मनुष्य क दान दे ने के अथि मूखि के उलोंघन
करने में द ष नहीों ह िा, अथािि् वह मूखि क दान न दे कर पोंतडि क
ही दान दे ॥६०॥

कलों िारयिे धीरिः सप्तसप्त च वासव ॥६१॥

हे इन्द्र! वह पोंतडिक दे कर अपने इक स कुल ों का उिार करिा है


॥६१॥
यस्तडागों नवों कुयाित्पुराणों वातप खानयेि ॥
स सवि कुलमुद्धृत्य स्वगिल के महीयिे ॥६२॥

ज मनुष्य नए िालाब क बनािा है या प्राचीन क खुदवािा है वह


मनुष्य सम्पूणि कुल ों का उिार कर स्वगि ल क में पूतजि ह िा है
॥६२॥
वापीकूपिोंडागातन उद्यान पवनातन च ॥
पुनिः सोंस्कारकिाि च लभिे मौद्धक्तकों फलम् ॥६३॥

बावडी, कूप, वडाग, वाग, और उपवन इनक ज मनुष्य तफर से


बनवािाहै , उस मनुष्य क नये बनवाने का फल तमलिा है ॥६३॥

तनदाघकाले पानीयों यस्य तिष्ठति वासव ॥


स दु गितवषमों कृत्सोंन कदातचदवाप्नुयाि् ॥६४॥

हे इन्द्र ! तजसके यहाों ग्रीष्म काल में भी जल रहिा है वह मनुष्य


तकसी दु िःखजनक दु रावस्था क नहीों भ गिा ॥६४॥

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एकाहों िु द्धस्थिों ि यों पृतथव्याों राजसत्तम ॥
कुलातन िारये िस्य सप्त सप्त पराण्यतप ॥६५॥

हे राजसत्तम ! तजसकी ख दी हुई पृथ्वी में एक तदन भी जल द्धस्थि


रहिाहै वह जल उसके अगले मी साि कुल ों क िारिाहै ॥६५॥

दीपाल कप्रदानेन वपुष्मान्स-भवेन्नरिः॥


प्रेक्षणीयप्रदानेन स्मृति मेधाों च तवोंदति ॥६६॥

दीपक के दान करनेपर मनुष्य का शरीर उत्तम ह िाहै और जलके


दान करनेसे स्मरण - और बुद्धिमान ह िा है ॥६६॥

कृत्वातप पापकमाितण य दद्यादन्नमतथिने ॥


ब्राह्मणाय तवशेषेण न स पापेन तलप्यिे ॥६७॥

बहुि से तनोंतदि कमि के करने पर भी यतद मनुष्य तभक्षुक क और


तवशेष करके ब्राह्मण क अन्न दान करिाहै , वह मनुष्य पाप से तलप्त
नहीों ह िा ॥६७॥

भूतमगािवस्तथा दारािः प्रसह्य तहयिे यदा ।


न चावेदयिे यस्तु िमाहुबिह्मवािकम् ॥६८॥

तजस मनुष्य ने बल करके पृथ्वी, गौ और स्त्री इनका हरण तकया है


बहु ब्रह्म हत्यारा कहलािा है ॥६८॥

तनवेतदिश्च राजा वै ब्राह्मणैमिन्युदीतपिै:॥

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न तनवारयिे यस्तु िमाहुब्रह्मघािकम् ॥६९॥

क्र ध से दीतपि हुए ब्राह्मण ों की प्राथिनासे ज राजा उस हरनेवाले क


तनषेध नहीों करिा उस राजा क ब्रह्मघािी कहिे हैं ॥६९॥

उपद्धस्थिे तववाहे च यज्े दाने च वासव ॥


म हाच्चरति तवघ्नों यिः स मृि जायिे कृतमिः ॥७०॥

हे इन्द्र ! ज मनुष्य उपद्धस्थि हुए, तववाह, यज्, इनमें म हवश ह तवघ्न


करिा है वह मरने के उपरान्त कीडे की य तन में जन्म लेिा है ॥७०॥

धनों फलति दानेन जीतविों जीवरक्षणाि् ॥


रूपमार ग्यमैश्वयिमतहों साफलमश्नुिे ॥७१॥

दान द्वारा धन सफल ह िा है, जीव की रक्षा करने से आयु की वृद्धि


ह िी है, ज मनुष्य तहोंसा नहीों करिा वह ऐश्वयि और आर ग्य रूप
अतहोंसा के फल क भ गिा है ॥७१॥

फलमूलाशनात्पूजा स्वगिस्सत्येन लभ्िे॥


प्राय पवेशनाद्राज्यों सवे च सुखमश्नुिे ॥७२॥

तनयमी ह कर ज मनुष्य फल मूल का भ जन करिा है वह तनश्चय ही


स्वगि क प्राप्त ह िा है और मरनेके तनतमत्त िीथिआतद पर बैठने से
राज्य और सम्पूणि सुख ों क भ गिाहै ॥७२॥

गवाढय: शक दीक्षायािः स्वगिगामी िृणाशनिः ॥


द्धस्त्रयद्धस्त्रषवणस्नायी वायुों पीत्वा क्रिुों लभेि् ॥७३॥

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हे इन्द्र ! ज मनुष्य मन्त्र का उपदे श लेिा है वह गौओों से युक्त ह िा
है; और ज मनुष्य िृण ों क खािाहै वह स्वगि जािा है , िीन काल में
स्नान करने वाला अनेक ों स्त्री वाला ह िा है और वायु क पीने वाला
यज् के फल क पािा है ॥७३॥

तनत्यस्नायी भवेदकि: सोंध्ये द्वे च जपद्धन्द्रजिः॥


नवों साधयिे राज्यों नाकपृष्ठमनाशकम् ॥७६॥

ज मनुष्य तनत्य स्नान करिा है , और ज द न ों सोंध्याओों में जप करिा


है, वह सूयिरूप ह िा है , और अनशन व्रि करिा है उसे नवीन राज्य
और सविदा स्वगि में तनवास प्राप्त ह िाहै ॥७४॥

अतिप्रवेशे तनयिों ब्रह्मल के महीयने॥


रसनाप्रतिसोंहारे पशून्पुिाोंश्च तवोंदति ॥७५॥

अति में प्रवेश करनेवाला ब्रह्मल क में पूतजि ह िा है और ज अपनी


तजह्वा क वश में रखिा है वह पशु और पुि ों क प्राप्त ह िा है ॥७५॥

नाके तचरों स वोंसिे उपवासी च य भवेि् ॥


सििों चैकशायी यिः स लभेदीद्धप्सिाों गतिम् ॥७६॥

ज मनुष्य, तनयमपूविक उपवास करिा है वह बहुि काल िक स्वगि


में तनवास करिा है ; और ज मनुष्य तनरन्तर एक ही शय्या पर शयन
करिा है; उसक अतभलतषि गति प्राप्त ह िी है ॥७६॥

वीरासनों वीरशय्याों वीरस्यातनमुपातश्रििः ॥

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अक्षय्यास्तस्य ल कािः स्युस्सविकामागिमास्तथा ॥७७॥

ज मनुष्य वीरासन, वीरशय्या, और वीरस्थान में द्धस्थि रहिा है ,


उसके सब ल क और सम्पूणि काम अक्षय ह जािे हैं ॥७७॥

उपवासों च दीक्षाों च अतभषकों च वासव ॥


कृत्वा द्वादशवषाितण वीरस्थानातद्वतशष्यिे ॥७८॥

हे वासव ! ज मनुष्य बारह वषि िक उपवास, दीक्षा, और अतभषेक


इनक करिा है वह स्वगि में उत्तम ह िा है ॥७८॥

अधीत्य सविवेदािै सद्य दु िःखात्प्रमुच्यिे ॥


पावनों चरिे धमि स्वगिल के महीयिे ॥७९॥

सम्पूणि वेद ों का पढने वाला शीघ्र ही दु िःख ों से छूट जािा है , और


पतवि धमि का करनेवाला स्वगिल क में पूतजि ह िा है ॥७९॥

बृहस्पतिमिों पुण्यों ये पठति तद्वजाियिः ॥


चत्वारर िेषाों विि िे आयुतविद्या यश बलम् ॥८०॥

ज तद्वज बृहस्पतत्त के पतवि मि क पढिे हैं , उनकी आयु, तवद्या,


यश, पल इन चार ों की वृद्धि ह िी है ॥८०॥

इति श्रीबृहस्पतिप्रणीिों धमिशास्त्रों समाप्तम् ॥

श्री बृहस्पति प्रणीि धमिशास्त्र समाप्त ॥

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