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धीरे न्द्रँरथार न र

कीरकह ननय ांर


ईबक
ु रकेररूपरमें र
स हहत्र
यशिल्रपीरकेरप ोककरकअरथनप
ु मरंें

1
धीरे न्द्ँ था न
जन्म : 25 दिसंबर 1956, उत्तर प्रिे श के शहर मेरठ में । मेरठ, मज
ु फ्फरनगर, आगरा और
अंततः िे हरािन
ू से ग्रेजए
ु ट।
13 जन
ू 1978 को िे हरािन
ू में लललता बबष्ट से प्रेम वििाह के बाि दिल्ली आगमन।
दहंिी के सबसे बड़े पस्
ु तक प्रकाशन संस्थान राजकमल प्रकाशन से रोजगार का आरं भ। तीन िर्ष
यहां काम करने के बाि लगभग नौ महीने राधा प्रकाशन में भी काम।
पत्रकाररता : सन ् 1981 के अंततम दिनों में टाइम्स समह
ू की साप्तादहक राजनैततक पबत्रका
'दिनमान' में बतौर उप संपािक प्रिेश। पांच िर्ष बाि दहंिी के पहले साप्तादहक अखबार 'चौथी
ितु नया' में मुख्य उप संपािक! सन ् 1990 में सपररिार मुंबई गमन। एक्सप्रेस समूह के दहंिी
िै तनक 'जनसत्ता' में फीचर संपािक तनयुक्त। मुंबई शहर की पहली नगर पबत्रका 'सबरं ग' का पूरे
िस िर्ों तक संपािन। सन ् 2001 में फफर दिल्ली लौटे । इस बार 'जागरण' समूह की पबत्रकाओं
'उिय' और 'सखी' का संपािन करने। सन ् 2003 में फफर मुंबई। सहारा इंडिया पररिार के दहंिी
साप्तादहक 'सहारा समय' के एसोलसएट एिीटर बन कर। फफलहाल 'राष्रीय सहारा' दहंिी िै तनक के
मुंबई ब्यूरो प्रमुख।
कृततयां : लोग हालशए पर, आिमी खोर, मुदहम, विचचत्र िे श की प्रेमकथा, जो मारे जाएंगे, उस
रात की गंध, खल
ु जा लसमलसम, नींि के बाहर (कहानी संग्रह)। समय एक शब्ि भर नहीं है,
हलाहल, गुजर क्यों नहीं जाता, िे श तनकाला (उपन्यास)। 'रूबरू', अंतयाषत्रा (साक्षात्कार)।
पहली कहानी 'लोग हालशए पर' सन ् 1974 में छपी जब उम्र केिल 18 िर्ष की थी। रचनात्मक
स्तर पर तनरं तर सफिय। फफल्मी ितु नया के बैकड्रॉप पर ललखा लघु उपन्यास 'िे श तनकाला'
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से पुस्तक रूप में प्रकालशत।
लसनेमा पर भी एक फकताब िाणी प्रकाशन से आने को है ।
पुरस्कार : पहला महत्िपूणष पुरस्कार 1987 में दिल्ली में लमला : राष्रीय संस्कृतत पुरस्कार जो
मशहूर पें टर एम.एफ. हुसैन के हाथों स्िीकार फकया। पत्रकाररता के ललए पहला महत्िपूणष
पुरस्कार सन ् 1994 में मौलाना अबुल कलाम आजाि पत्रकाररता पुरस्कार, मंब ु ई में । मुंबई में
सन ् 1995 का घनश्याम िास सराफ सादहत्य सम्मान। सन ् 1996 में इंि ु शमाष कथा सम्मान से
निाजे गये। सन ् 2011 में मह र ष्ट्र की हहांदी स हहत्य थक दमी ने छत्रपनि शिलव जी र ष्ट्रीय
सम्म न से समग्र स हहत्य के शििए नव ज ।
अततररक्त : एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह जापान के ओसाका विश्िविद्यालय के एम.ए.
(दहंिी) पाठयिम में शालमल। एक कहानी गोिा विश्िविद्यालय के बी. ए. के पाठयिम में
शालमल। एक कहानी गढ़िाल विश्िविद्यालय के बी. ए. के पाठयिम में शालमल। मंब
ु ई, हररयाणा
और कनाषटक के विश्िविद्यालयों में विलभन्न पस्
ु तकों पर लघु शोध (एम. फफल) जारी।

2
िम
1. ंि

2. गुफ एां
3. जअ म रे ज येंगे
4. उसरधस
ू ररसन्द्न े रमें रर
5. उसरर िरकीरगांध र

6. खि
ु ज शिसमशिसम
7. ककास एक त्र सद फांि सी क
8. और आदमी रअय
9. ववचित्र दे ल की प्रेम क
10. वपि
11. म नसी
12. मेरीरफ़न ाडीज़रक्य रिुमरिकरमेरीरआव ज़रपहुुँििीरहै र
13. नीांदरकेरब हर
14. और ुँगरउ ुँग
15. दक्
ु खमररलरणमरगच्छ शिम!

3
ंूि

इस भत
ू से िह और फकतने दिनों तक अकेला ही टकराता रहे गा? क्या इस लड़ाई में
अनीता को दहस्सेिार बनाया जा सकता है ? यदि हां, तो भी अंततः उसे जूझना तो अकेले ही
पड़ेगा। अनीता राजिार तो बन सकती है, मगर दहस्सेिार कैसे बनेगी? हो यह भी सकता है फक
राजिार बनते ही अनीता िह न रहे जो है और अगर ऐसा हुआ तो उसे अनीता के 'एस्केप' का
शायि उतना मलाल नहीं होगा जजतना इस बात से फक उसकी कायरता सहसा ही अपराध की
संज्ञा में बिल गयी है । अपराध जब तक िस
ू रे की जानकारी का दहस्सा नहीं बनता तभी तक
शायि उसे कुछ मोहक नाम दिये जा सकते हैं- मसलन बुद्धं शरणं...उसने गरिन उठायी और
आदहस्ता से बोला, 'सुनो, मैं एक बात...।'
लेफकन बात पूरी फकये बगैर उसे रुक जाना पड़ा। अनीता जजस मुद्रा में उसे अपलक ताके
जा रही थी उसके जारी रहते फकसी भी नाजुक बात को पूरा करना सम्भि नहीं था। िह रुक
गया।
'रुक क्यों गये?' अनीता ने उसी तरह िे खते हुए कहा।
'फफर सही।' उसने जल्िी से कहा, 'चलो, चलें।'
'मुझे तुम पर िोध भी आता है और तरस भी। सुनो, तुम अपने-आपको बिल नहीं
सकते?'
'मैं तुम्हारे िोध और तरस पर लसफष हं स सकता हूं-एक बात। िस
ू री बात यह है फक
अपने-आपको बिलना क्या होता है , मैं नहीं जानता। चलो, अब चलें। तम्
ु हें आज घर नहीं
जाना?'
'तुम क्या कह रहे थे उस समय?'
'कह नहीं रहा था, कहना चाह रहा था, पर मुझे लगता है फक अपना बहुत कुछ या कहूं
फक अपना सभी कुछ मुझे अपने साथ ही ले जाना होगा...।'
'तुम खल
ु ते क्यों नहीं? क्या एक लम्बे पररचय के बाि भी मैं इस काबबल नहीं हुई फक
मुझ पर यकीन फकया जा सके?'
'नहीं, िह बात नहीं है । मुझे लगता है , तुम झेल नहीं सकोगी।'
'तुम झेल सकते हो तो मैं भी...।'
'तम्
ु हारा भ्रम है । मैं भी नहीं झेल पा रहा हूं। काश झेल पाता! पर यह सम्भि नहीं है ।
शायि आिमी की सहन-शजक्त से भत ू की शजक्त ज्यािा बड़ी होती है ।'
'भत
ू ?'
'हां भत
ू ,... जो मेरे ितषमान को खा रहा है ।'
'मैं समझी नहीं।'

4
'कोई बात नहीं।' उसने कहा और उठ खड़ा हुआ। अनीता कुछ िे र तक िैसे ही बैठी रही।
चोट खायी। आहत। फफर तमककर उठी और तेजी से बाहर तनकल गयी। उसने काउं टर पर
आकर िो चाय के पैसे दिये और धीरे -धीरे बाहर आ गया। उनके किम पररचचत रास्ते को नाप
रहे थे, रोज की तरह। रे स्तरां के एकिम बगल िाला पाकष बीच से पार करते हुए उन्हें िस
ू री
तरफ जाना था, जहां अनीता का बस-स्टॉप था। िह अपने सस् ु त किमों से रास्ता नाप रहा था
और एक गहरी तकलीफ से उसका चेहरा तना हुआ था। उसके व्यिहार से अनीता आज फफर
अपमातनत हो गयी थी। उसका मन्तव्य यह नहीं था। लेफकन िह मजबरू था। िह आज तक नहीं
सोच पाया फक अपने-आप में ऐसा कौन-सा पररितषन लाये जजससे अनीता सख
ु ी हो सके? िह परू ी
लशद्दत से चाहता है फक कम-से-कम कोई एक व्यजक्त ऐसा जरूर हो जो उससे जुड़कर अपने को
सुखी अनुभि कर सके। िह व्यजक्त अनीता ही हो, िह यह भी चाहता है , पर...।
सहसा उसे रुक जाना पड़ा। अनीता ने अपना रुआंसा चेहरा उसकी बांह पर रख दिया था।
'सुनो, ये क्या कर रही हो?' िह झुंझला गया, 'सीन फिएट हो जायेगा।'
अनीता अलग हट गयी। उसे फफर िख ु हुआ। उसने चलते-चलते ही उसकी हथेली िबायी
और मधरु आिाज में बोला, 'प्लीज...मुझे गलत मत समझो। फकसी भी दिन, जब चीजें हि से
गुजर जायेंगी, मैं अपने-आपको खोल िं ग
ू ा।'
'कोई जरूरत नहीं।' अनीता ने सहसा ही तमककर कहा, 'मैं इस अजनबी ररश्ते को और
नहीं ढो सकती। कल से मेरा इंतजार मत करना, मैं नहीं आऊंगी।' अनीता ने अजन्तम िाक्य
जोर से कहा और तेज-तेज किमों से आगे बढ़ गयी। िह खड़ा रहा। जब अनीता पाकष के
अजन्तम लसरे पर पहुंचने को हुई तो उसने चीखकर कहा, 'लेफकन मैं आऊंगा।'
अनीता ने मुड़कर िे खा तो िह इस फफल्मी अन्त पर मुसकराया और लसगरे ट सुलगाने
लगा। लसगरे ट का कश लेकर िह िापस मुड़ गया। अंधेरा तेजी से उतर रहा था। पाकष की घड़ी
में सात बजे थे।

00

अचानक उसे लगा, उसका िम घुट रहा है । 'सुबह िाली जस्थतत।' उसने चौंककर सोचा
और झटके से अपना मुंह रजाई से बाहर तनकाल ललया। टे बबल-लैंप का जस्िच उसने लेटे-लेटे ही
ऑन फकया। कमरे में रोशनी होते ही उसे बड़ा अजीब-सा लगा। सब ु ह भी ऐसा ही हुआ था। िह
उठकर बैठ गया। अटैंिेंस-रजजस्टर पर अपने िस्तखत ठोकने के बाि िह लमसेज पाठक की सीट
के बगल से होता हुआ गजु रा था। लमसेज पाठक अपनी आित के मत ु ाबबक बोल-बोल कर
अखबार पढ़ रही थीं। उनकी सीट के पास से गज ु रते हुए उसने सन
ु ा, 'िे हरािन
ू के तनकट रे न
िघु ट
ष ना' और िह लड़खड़ा गया। िे हरािन
ू । उसे लगा, उसका िम घट ु रहा है और िह अपनी सीट

5
पर पहुंचने से पहले ही चगर पड़ा। जब तक लोग-बाग हड़बड़ा कर भागे और उसके इिष -चगिष एकत्र
हुए तब तक िह उठकर अपनी सीट पर बैठ चक ु ा था।
'ठोकर लग गयी थी।' उसने अपनी ओर घरू ती कई जोड़ी आंखों को जिाब दिया था और
लसर झक
ु ा ललया था। जब तक लोग अपनी-अपनी सीटों पर चले नहीं गये, उसका लसर झक
ु ा रहा
था। लोग उसकी चप
ु रहने की आित से पररचचत थे, इसललए िह सहानभ
ु तू त या व्यंग्य-भरे
जम
ु ले सन
ु ने से बच गया, िरना जस्थतत बड़ी ऑि हो जाती। फफर दिन भर उसका मन उखड़ा
उखड़ा ही रहा और अभी अभी उसे फफर लगा था, जैसे उसका िम घट
ु रहा है । माथे और चेहरे
पर उसने पसीने का अनभ
ु ि भी फकया और हृिय की धड़कन को असाधारण रूप से तीव्र भी
पाया। कुछ िे र िह उसी तरह बैठा रहा, फफर खाट से नीचे उतरकर टहलने लगा। क्या फकसी
दिन ऐसा भी हो सकता है फक उसका िम घुटने लगे, िह छटपटाता रहे , लोग नींि में िूबे रहें ,
अनीता सपनों में खोयी रहे , नीचे चौकीिार घूमता रहे , रे डियो पर रखी घड़ी दटक-दटक करती रहे
और िह मर जाये? अगले दिन शाम को साढ़े -पांच से कब तक इंतजार करती रहे गी अनीता?
कब तक इंतजार फकया होगा मीना ने? हो सकता है , उसने कुछ दिनों या महीनों बाि
फकसी और से वििाह कर ललया हो। िबाि तो उसके ऊपर तभी पड़ने लगा था। िो िर्ष की सांस-
तोड़ कोलशशों और आहत चाहतों की धैयि
ष ान दहस्सेिार थी मीना। िह उसकी िो िर्ष लम्बी
बेकारी से भी ऊबी नहीं थी। उसने कहा था, िह उसके सफल होने तक इंतजार करे गी। सफल?
िह हं सा। ठहाका लगा कर। लेफकन तुरन्त ही इस अलशष्टता पर उसे अफसोस हुआ। शरीफ लोगों
की कॉलोनी में रात के िो बजे इस तरह हं सना सौ प्रततशत बेहूिगी थी। िह खाट पर बैठ गया।
आहटों के प्रतत संिेिनशील उसका मकान-माललक सपररिार बेहोश था शायि, िरना तुरंत ही
चेतािनी िे ने चला आता, 'कमाल करिे हो तुसी। तुसी फकस तरह िे पढ़े -ललखे बंिे हो? हुण सोण
िा िेला है ते तुसी हं स रहे हो। तुिािे िास्ते ऐ बड़ी शमष िी गल है ।'
उससे हमेशा ऐसी ही हरकतें होती रही हैं जजन पर शमष आये। िह उिास हो आया और
फफर चहलकिमी करने लगा। उसने हमेशा प्रयत्न फकया है फक जाने...जाने फक िो कौन-सी िजहें
हैं जो ऐन िक्त पर उसकी चेतना को िब
ु ल
ष , असहाय और िरपोक बना िालती हैं? उसने सोचा
और बबस्तर में घुस गया। ठं ि लगने लगी थी। ललहाफ को गरिन तक ओढ़ कर उसने टे बल लैंप
का जस्िच ऑफ कर दिया। कमरे में घुप्प अंधेरा हो गया। सारी चीजें िूब गयीं।
ऐसा ही घुप्प अंधेरा िह अपने दिमाग में चाहता है । इतना घना फक एक स्मतृ त उसे
भेिकर न आ सके। कोई भी चचत्र बनने से पहले लमट जाये, कोई भी आकृतत उभरने से पहले
िूब जाए। पर आकृतत उभरती ही है , चचत्र बनता ही है । बनता है और उसके मजस्तष्क के एक-
एक बंि
ू रक्त को अपने बनने की प्रफिया में सोख ले जाता है ।
ठीक यही क्षण होता है जब उसे लगता है फक उसका िम घट
ु रहा है , माथे पर, चेहरे पर
पसीना चह
ु चह
ु ा रहा है , पलकें थरथरा रही हैं, टांगें लड़खड़ा रही हैं और आंखों के सामने का सब

6
कुछ चक्कर खा रहा है । यह उसकी अनुपजस्थतत का क्षण होता है । और इसी क्षण की भयािहता
का अंिाजा लगा पाने में असमथष अनीता के ललए िह तनमषम, रूक्ष और असहाय हो जाता है ,
सैक्शन-ऑफफसर की नजरों में लसतनक और लमसेज पाठक की नजरों में हास्यास्पि बन जाता है ।
कौन बांटेगा उसका िख
ु ?

'गम बढ़े आिे हैं क निि की ननग हक की िरह


िम
ु छुप िअ मझ
ु े ऐ दअाि गन
ु हक की िरह।'

कहीं 'टे प' पर कोई गजल सुन रहा है ? रात के िो बजे, कौन है उसके आस-पास जो इस
गजल को सुनता जाग रहा है ? उसे आश्चयष हुआ, सुकून भी लमला। पूरा सन्नाटा, पूरा अंधेरा,
पूरा गम, पूरी स्मतृ त। िह बेआिाज चीखा। उसने चीखते हुए चाहा फक छत से एक ईंट टूटकर
चगरे और लसर पर इस तरह लगे फक याद्दाश्त चली जाये।
पर, याद्दाश्त आिमकि होती जाती है । इस आिमकि स्मतृ त में एक आिमकि चेहरा
उभरता है । यह मां है ।
'जल्िी आना।' मां ने कहा था, और उसने जिाब दिया था फक िह गया और आया। उसके
हाथ में मां का मंगलसूत्र था जजसे औने-पौने िामों में बेचकर उसे लौटना था। उस समय रात के
नौ बजे थे। मंगलसूत्र को फकसी भी िक
ु ान पर, फकसी भी कीमत पर बेचकर उसे तुरन्त लौटना
था--मां के पास। मां, जो वपता के मत
ृ शरीर के पास है रान खड़ी थी, आंखों में गहरा अविश्िास
और चेहरे पर यंत्रणा के चचन्ह ललये। िह भागा था-मंगलसूत्र बेचने, मीना को खबर िे ने और
वपता के िोस्तों को बुला लाने के ललए। उसे जल्िी आना था-वपता का अजन्तम संस्कार करने, िो
छोटी बहनों और िो छोटे भाइयों को दिलासा िे ने, मां को यह विश्िास दिलाने फक मकान का
फकराया उसी तरह दिया जाता रहे गा, भाई-बहनों की पढ़ाई उसी तरह जारी रहे गी, राशन का बबल
उसी तरह जमा होता रहे गा, वपता द्िारा नारं ग सेठ से पच्चीस प्रततशत सालाना ब्याज की िर
पर ललये गये छह हजार रुपयों की फकस्तें उसी तरह जमा होती रहें गी, वपता की बीमारी का बबल
िॉक्टर गुप्ता को शीघ्र ही चक
ु ा दिया जायेगा, कपड़े िाले के तीन सौ वपचहत्तर रुपये जल्िी ही
िे दिये जायेंगे और मीना को बहू बनाकर घर ले आया जायेगा। और इन सारी समस्याओं का
एकमात्र हल फफलहाल िह इकलौता मंगलसूत्र था जो कभी चार सौ रुपये में खरीिा जाकर रात
के नौ बजे फकसी भी एक िक
ु ान पर चगड़चगड़ा कर सौ रुपये में बबकना था। यह सात िर्ष पहले
की बात है ।
िह तेजी से उठ बैठा। लाइट जलाकर उसने िराज से नींि की गोली तनकाली, मंह
ु में
िाली, खाट के नीचे रखे चगलास से पानी वपया और लाइट बझ
ु ाकर, बबस्तर में घस
ु कर थर-थर

7
कांपने लगा। काफी िे र तक िह सोचता रहा फक उसको कंपकंपाहट ठं ि से है या भय से, या िह
कमजोर हो गया है ?

00

सब
ु ह जब आंख खल
ु ी तो नौ बजे थे। िह हड़बड़ा कर उठ गया। िफ्तर साढ़े नौ का है ।
बाजार जाकर चाय पीने और तब लैटरीन जाने का िक्त नहीं था। उसने पानी पीकर लसगरे ट
जलायी और कमरे से बाहर तनकल आया।
लौटकर तैयार होने तक साढ़े नौ बज गये थे। नहाना और चाय आज के सुबह िाले
कायषिम से 'डिलीट' हो गये थे। िरिाजा बन्ि करने से पहले उसने कमरे की िशा िे खी और
घबरा गया। सब कुछ इस तरह अस्त-व्यस्त था जैसे फकसी घमासान युद्ध का लशकार बना हो।
िरिाजा बंि कर िह सीदढ़यां उतरने लगा।
'तुम्हारी अनगढ़ जजन्िगी को मेरी जरूरत है ।' मीना ने कहा था।
'हां।' उसने सपने में खोते और हकीकत से वपटते ितषमान को महसूस कर जल्िी से कहा
था। सचमुच, उसने चाहा था। कैसे? उसने सोचा था।
'आधा दृश्य तुम हो।' अनीता ने कहा था, 'और आधा दृश्य मैं हूं।'
'ये िोनों आधे दृश्य लमलकर भी पूरे नहीं बन सकेंगे।' उसने अपने भीतर धज्जी-धज्जी
होते ख्िाब को महसूस कर जबाब दिया था।
'क्यों?'
'मुझे लगता है मैं आधा दृश्य भी नहीं हूं। पूरे दृश्य की स्मतृ त हूं।'
'ओफ तुम्हारी फफलॉसफी!' अनीता ऊब गयी थी। सब्र का आकार फकतना बड़ा होना
चादहए-उसने सोचा था और थक गया था।
िफ्तर पहुंचते ही चपरासी ने बताया फक सैक्शन-ऑफफसर याि कर रहे हैं। उसने समय
िे खा, पौने ग्यारह होने को थे। उसने अटैंिेंस-रजजस्टर की ओर िे खा, िह अपनी जगह नहीं था।
लोगों की व्यंग्यात्मक नजरों से स्ियं को बचाते हुए िह सैक्शन-ऑफफसर लमस्टर काललया के
कमरे में प्रिेश कर गया। रजजस्टर िहीं था।
'यह लीजजए हमारी कम्पनी का कुटे शन, जजसे तैयार करके आप इराक भेजने जा रहे हैं!'
लमस्टर काललया ने एक पीली-सी पतली फाइल उसके घस
ु ते ही उसके मंह
ु पर िे मारी। िह झक
ु ा
और जमीन पर चगर पड़ी फाइल को उठा, कुटे शन-लैटसष िे खने लगा।
'सॉरी सर!' माथे पर आये पसीने को पोंछते हुए उसने लड़खड़ाती जबान में कहा, 'मैं
समझ नहीं पा रहा हूं, यह कैसे हुआ? िब ु ारा तैयार कर िे ता हूं।' जल्िी से पीछा छुड़ा कर िह
जाने के ललए मड़ु ा। उसकी टांगें थरथराने लगी थी और जबान ऐंठने लगी थी।

8
'और सुतनए। यह सरकारी िफ्तर नहीं है । बी पंक्चअ
ु ल!'
'जी।' उसने कहा और बाहर तनकल आया।
'लमस्टर हरीश, व्हाट है प्पंि?' उसके बाहर तनकलते ही लमस पांिे ने उससे तपाक से पछ
ू ा।
उसने नजरें उठायीं और यह िे खकर फक लमस पांिे की नजरों में उपहास नहीं है , आदहस्ता से
बोला, 'आई िांट टु िाई। कैन यू है ल्प मी?'
लमस पांिे को सन्न छोड़ िह अपनी सीट पर जा बैठा। चपरासी से चाय लाने को बोलकर
उसने अपना चक्कर खाता लसर कुरसी की पश्ु त से दटका ललया। दिसम्बर के इस दठठुरे मौसम
में उसका माथा पसीना छोड़ रहा था। चाय पीते हुए उसने िे खा-कुटे शन लैटर पर उसने िॉक्टर
गुप्ता का बबल एक सौ अस्सी रुपये, मकान का फकराया िो सौ िस रुपये, नारं ग सेठ की बकाया
रकम चौंतीस सौ साठ रुपये और वपता के िाह-संस्कार के खाते में साढ़े तीन सौ रुपये भी िजष
फकये हुए थे। इस कुटे शन-लैटर को इराक जाना था, ताफक उसकी कंपनी को ठे का लमल सके।
उसने लैटर की चचंिी-चचंिी करके टोकरी में फेंक िी और लसगरे ट सुलगाने लगा।

00

जब िह रे स्तरां के सबसे कोने िाली अपनी पररचचत मेज पर पहुंचा तो अनीता िहां बैठी
थी। उसने बेहि फीकी मुसकान से अनीता को विश करते हुए पूछा, 'आ गयीं?'
'दिख नहीं रही हूं?' अनीता ने चहक कर जिाब दिया, लेफकन उसे लगा, अनीता ने हमला
फकया है । िह चप
ु , अनीता के सामने बैठ गया।
'मैं थक गया हूं।' उसने उं गली से मेज पर एम बनाते हुए कहा, 'तुम मुझे छुपा सकती
हो?'
'तुम्हारी नेचर से मेल नहीं खाता यह िायलॉग।'
'मेरी नेचर?' िह मुसकराया और सहसा ही चौंक पड़ा। रे स्तरां का गुरखा नौकर भीख
मांगने िाली एक बूढ़ी औरत को, जो भीतर घुस आयी थी, धक्के िे कर बाहर तनकाल रहा था।
मां-उसने सोचा और तीर की-सी तेजी से बाहर झपटा...िह औरत मां नहीं थी।
'झल्ली है, साब!' गुरखा ने सूचना िी और िह िापस लौट पड़ा। उसकी िायीं कनपटी के
पास िाली नस तेजी से उछलने लगी थी।
'क्या था?' अनीता हतप्रभ थी।
'हें ?' िह चौंककर बोला, 'कुछ नहीं। चलो, यहां से चलें।'
'कहां?'
'चलो, मेरे घर चलो।'
'घर?'

9
'नहीं, घर नहीं, घर तो तम्
ु हारे बबना कैसे बनेगा? कमरे पर चलो।'
'पर साढ़े सात बजे तक मझ
ु े अपने घर पहुंचना होता है ।'
'तो?'
'यहीं बैठते हैं।'
िह फफर बैठ गया। सात िर्ष-उसने सोचा! वपछले साल भत
ू की उम्र छह िर्ष थी। उससे
पहले पांच िर्ष। उससे भी पहले चार िर्ष और सबसे पहला िह दिन जब भत
ू पैिा हुआ था। भत

हर साल बड़ा हो रहा है । क्या फकसी दिन ऐसा भी होगा जब भतू का आकार उसके अपने आकार
को छा लेगा। इस भत
ू को कद्दािर बनाते जाने में फकस-फकसकी आहों ने योग दिया होगा?
फकतने लोगों के विश्िास खंडित होने पर एक भूत का जन्म होता है ? मां ने क्या फकया होगा?
मीना ने क्या सोचा होगा? बंटी, बबली, राजू और सुनील फकस तरह याि करते होंगे उसे? और
नारं ग सेठ, और िॉक्टर गुप्ता, और मकान-माललक और खन्ना साहब और वपता के िोस्त और
वपता का विश्िास!
'सुतनए।' िह मिष होकर रोने लगा था, 'आप इस तरह धोखा नहीं िे सकते। यह गद्दारी है ।
फाउल है । नहीं, आप ऐसा हरचगज नहीं कर सकते। मुझे थोड़ी मोहलत और िीजजए, सुतनये,
अच्छा मुझे पान की िक
ु ान ही खल
ु िा िीजजए। प्लीज...मेरी बात सुतनए।' उसने चगड़चगड़ाकर कहा
था। पर वपता के शरीर में कोई भी हरकत नहीं हुई थी।
'जल्िी आना!' मां ने उसके हाथ में मंगलसूत्र िे कर कहा था और उसने जिाब दिया था
फक िह गया और आया। यह सात िर्ष पहले की बात है , जो सात ही िर्ष से किम-िर-किम
उसका पीछा कर रही है । िह जानना चाहता है फक सात िर्ष पहले के इस दृश्य (जो उसकी
स्मतृ त में जस का तस ठहरा हुआ है , जैसे फ्रीज हो गया हो) की जस्थतत अब क्या है ? कौन-कौन
रुका होगा उसके इंतजार में ?
'ितु नया तुम्हारे इंतजार में रुकी नहीं रहे गी, हरीश!' अनीता ने िोध से तमतमाते हुए
कहा।
'और तुम?' उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया और अनीता की आंखों में झांकने लगा,
शरारत से।
'मैं ितु नया से बाहर नहीं हूं।' अनीता ने नजरें चरु ा लीं। 'इतनी आत्मलीनता को कोई भी
टॉलरे ट नहीं कर सकता, मैं भी नहीं।'
'काश, मैं अपने भीतर से तनकल सकता!' िह बझ
ु गया। उसने हचथयार िाल दिए और
लसगरे ट सल
ु गाने लगा।

00

10
फफर िही रात। िही याि। िही जागरण। िही नींि की गोललयां। मौत। धोखा। बोचधसत्ि।
प्रेम। फजष। भाई। बहन। मां। वपता। प्रेलमका। घर। िफ्तर। स्मतृ त। गलती। गन
ु ाह। प्रायजश्चत।
भत
ू । कहां ठहर सकता है िह?
तम
ु तो अजेय थे। तम
ु ने कहा था, 'ईश्िर मझ
ु े उतने कष्ट नहीं िे सकता जजतने मैं सहन
कर सकता हूं।' तो फफर? तम
ु हार कैसे गये? िॉ. गप्ु ता का इलाज तम
ु जी-जान से करते रहे थे।
तो फफर? तम
ु ठीक भी हो रहे थे। िॉक्टर गप्ु ता ने कहा था फक अब तमु बच जाओगे और पन ु ः
िही शजक्त, िही ऊजाष हालसल कर लोगे जजसके िम पर तमु ने ईश्िर को ठें गा दिखाया हुआ था।
तो फफर तमु अचानक नींि की गोललयां खाकर क्यों चल दिये? गद्दारी तो तम ु ने की थी। मैंने तो
कमजोर और हतप्रभ क्षणों में एक बौराया हुआ तनणषय ललया था। सही है फक मैं घबरा गया था,
मगर यह भी सही है फक मैंने कोई िािा भी नहीं फकया था। तुमने तो िािे भी फकये थे। पररिार
और जजम्मेिाररयों का विस्तार भी फकया था। मैंने लसफष इतना फकया था फक तुम्हारे विस्तार को
स्िीकार नहीं फकया। कर नहीं सका। मुझे मालूम है फक कई लोग मुझसे नफरत करते हुए मरें गे
या मरे होंगे, लेफकन इस नफरत का लसललसला तम ु से आरम्भ हुआ है । कारण तुम ही हो। सन
ु ो।
मैं सच्चे मन से कह रहा हूं फक अपनी असहायता के इस अंततम क्षण में भी मैं तुमसे नफरत
कर रहा हूं। तुम न भागे होते तो मैं भी न भागता। रास्ता तुमने ही बताया था। तम
ु ने कहा,
लड़ो और खि
ु भाग ललए। कैसे लड़ता मैं?
मैं नहीं जानता फक मीना ने इंतजार फकया या वििाह कर ललया। मां ने जहर खाया या
युद्ध फकया। मैं यह भी नहीं जानता फक उस रात तुम्हारा िाह-संस्कार हुआ भी या नहीं? मैं
जानता हूं उस भूत को जो तुम्हारे मरते ही पैिा हो गया था। जजसने वपछले सात िर्ों में मुझे
खोखला कर दिया है । आज अपने-आपके लायक भी नहीं रह गया हूं मैं। मां ने कहा था, 'जल्िी
आना।' मैं गया ही नहीं। उसकी अंततम पूंजी, उसका मंगलसूत्र भी छीन लाया था मैं। जरा सोचो,
वपछले सात साल से िमशः बड़े होते भूत से कौन लड़ेगा मेरे साथ? अपनी जलालत की शौयष-
गाथा फकससे बयान कर सकता हूं मैं?
यह मैं हूं, िमशः िब
ु ल
ष होती चेतना और घने होते अपराधबोध के साथ। यह मेरा
ितषमान है । घायल। तनरथषक और िीतरागी। मेरा समाधान बन सकती हैं ये गोललयां, पर तुम्हारा
समाधान ये नहीं थीं। नहीं ही थीं। पर तुमसे नफरत करते हुए भी तुम्हें क्षमा।
उसने िे खा, िह अभी तक कमरे के बीचोंबीच खड़ा हुआ था। रात के ग्यारह बजे। सुबह
से भख
ू ा, मगर लड़ता हुआ।
जतू े मोजों समेत िह बबस्तर में घस
ु ा और ठहाका लगाकर हं स पड़ा। हं सता रहा। िे र
तक। िह चाहता था फक मकान माललक आये और िे खे फक ितु नया में इतने अलशष्ट लोग भी
होते हैं जो जत
ू -े मोजे पहनकर सो जाते हैं और इतने धाकड़ लोग भी होते हैं जो ठहाके लगाते
हुए मर जाते हैं।

11
नींि की बची हुई िसों गोललयां उसने पानी के साथ सटक लीं और फफर ठहाके लगाने
लगा। ज्यािा िे र नहीं लगी। उसके कमरे का उढ़का हुआ िरिाजा चरमराया और खल ु गया।
उसे मालम ू था फक आने िाला शख्स मकान माललक ही होगा। उसके होंठ टे ढ़े हो गये।
विद्रप
ू की तरह।
नहीं, भत
ू के पांिों की तरह।

रिन क ि : 1982

12
गुफ एां

चीजें या तो अपना अथष खो बैठी थीं या अपने मूल में ही तनरथषक हो गयी थीं। जीप में ,
ड्राइिर की बगलिाली सीट पर बैठा िह, अपने जीिन में पसर गयी जड़ता की टोह लेने के
प्रयत्न में थका जा रहा था और ग्रहणशीलता से लगभग खाली हो चक
ु ी उसकी आंखों के सामने
से झरने, पहाड़, िादियां, सीदढ़यों िाले खेत और नेपाली यि
ु ततयों के झंि
ु इस तरह गज
ु र रहे थे
मानो बायस्कोप के जमाने के मि
ु ाष दृश्यों की ऊब चथर हो गयी हो। जीप नेपाल के एक ऐसे
पहाड़ी कस्बे की तरफ बढ़ रही थी, जजसके बारे में उसके िोस्त लशि ने कहा था, 'दिल्ली के
जजस नरक में तुम जल रहे हो, उसमें तानसेन तम्
ु हारे ललए फुहार और ताजगी का काम करे गा।'
फुहारे ! िह हं सा, तभी ड्राइिर ने जीप को एक झरने के पास रोक दिया, 'साहब! यहां का
पानी बड़ा गजब हैं। फ्रेश हो लें।'
फ्रेश? िह बड़ी जोर से चौंका। यही तो कहा था उसने अपनी पत्नी से, 'बरसों-बरस एक
जैसी जजंिगी जीते-जीते मेरे भीतर जीिन का सोता शायि सूख गया है । मैं अब फ्रेश होना चाहता
हूं। अगर पंद्रह-बीस रोज के ललए अकेला ही तनकल जाऊं?'
यात्रा पर अकेला िह कभी नहीं जाता था फफर भी, पत्नी ने बबना िे र लगाये अनुमतत िे
िी थी। वपछले लंबे समय से िह खि
ु यह महसूस कर रही थी फक अविनाश सारे काम कुछ इस
तरह कर रहा है मानो कोई प्रेत फकसी तांबत्रक के इशारे पर बोल-िोल रहा हो। इस प्रेत से लड़ते-
लड़ते िह खि
ु प्रेत हुई जा रही थी। िफ्तर से लेकर िोस्तों के बीच हुई कहासुनी तक को शब्िशः
बयान कर िे नेिाला अविनाश अब एक लशला में बिल गया था। उसकी खामोशी और खखंचे-खखंचे
रहने के भाि के कारण जो ऊब और मनहूलसयत उन िोनों के बीच पसर गयी थी, उसका असर
बच्चों की कोमल आत्माओं पर फकसी बबजूखे की तरह उतरने लगा था - बच्चों को बाप से न
लसफष अलगाता हुआ बजल्क उन्हें बाप की उपजस्थतत से आतंफकत, उिास और तनललषप्त करता
हुआ। अब अविनाश के, रात को घर लौटने के िक्त का भी इंतजार नहीं करते थे बच्चे।
अविनाश भी घर लौटकर बच्चों के बारे में कुछ नहीं पूछता था। हि तो यह थी फक चचदियों के
बारे में एक पागल उत्सुकता से भरा रहने िाला अविनाश अब अपने नाम आये खतों को यूं
िे खता था मानो िे खत न होकर अखबार के भीतर से तनकले फकसी कपड़ों, इलेक्रोतनक्स या
जत
ू ों की नयी िक
ु ान के इश्तहार हों। कई बार तो िह अपने नाम आयी चचदियों को कई-कई
दिन तक बंि ही पड़ा रहने िे ता था। िह समझ नहीं पा रही थी फक अविनाश के जीिन में कहां,
क्या गलत हो गया है फक तभी अविनाश ने बाहर जाने का प्रस्ताि रखा।
'कहां जाओगे?' उसने पछ
ू ा था।

13
'नेपाल।' अविनाश ने उत्सादहत होकर नहीं, एक टूटती हुई उिासी के बीच आंखें झपकाते
हुए कहा था, 'बस्ती में लशि है । िह एक जीप और ड्राइिर का इंतजाम करिा िे गा।'
लशि ने पछ ू ा था, 'मैं भी साथ चलं?
ू '
'नहीं।' उसने साफ मना कर दिया था, 'अगर मझ
ु े ड्राइविंग आती, तो ड्राइिर को भी साथ
न ले जाता।'
'क्या हो गया है तम्
ु हें ?' लशि सशंफकत हो गया था। िह अविनाश की आितों से पररचचत
था। िह जानता था फक अविनाश जजस समय टूट रहा होता है , तनपट अकेला होता है । बरु ा िक्त
गज
ु र जाने के बाि ही िोस्तों को पता चलता था फक अविनाश फकसी हािसे की चगरफ्त से
छूटकर लौटा है । अपनी यातनाओं में फकसी को दहस्सेिार बनाने का अहसास तक अवप्रय था उसे।
'मेरे ललए यह जीिन बेमानी हो गया है । सुना तुमने!' अविनाश हांफते हुए बोला था,
'जीिन रहे या न रहे , मैं िोनों अहसासों से खाली हो गया हूं.... और इतना अचधक खालीपन
मुझसे खझल नहीं रहा है । मुझे अकेले ही जाने िो, लसफष अपने साथ। मैं िे खना चाहता हूं फक
लसफष अपने ही साथ रहा जा सकता है या नहीं।'
'मगर िहां तुम अकेले होगे। उनके तौर-तरीकों से एकिम अपररचचत। अजनबबयों के बीच
यूं अकेले जाना...'
इस िाक्य पर अविनाश ने यूं िे खा फक लशि को अपना आप एकिम बेगाना-सा लगने
लगा! बेगाना और अथषहीन। इसके बाि िह कुछ नहीं बोला।

एक ठं िा मगर सख्त आतंक सहसा उसके कलेजे पर पसर गया। पहले तानसेन और फफर
पोखरा, और इन िोनों के बीच का सफर, जजसे फुहार बताया था लशि ने, और जजन िो कस्बों के
प्राकृततक िैभि पर अलभमान था नेपाल को-कुछ भी तो नहीं छू पाया था उसे।
जीप के भीतर घुस आये बािल, झील, शराब की बेशुमार िक
ु ानें , यौिन से लिी-फंिी
नेपाली युिततयां, झरने, पहाड़, पेड़, सारे संसार से आये वििे शी पयषटक, खब
ू सूरत सेल्स गल्सष,
सुहाना एकांत, अकेली पगिडियां, लकिक बाजार, कोहरा, ररमखझम बरसात, उद्दाम, छलरदहत
और उन्मुक्त जीिन, चट्टानें, हनीमून मनाने आये जोड़ों का उत्साह, संगीत-फकतना कुछ था
नेपाल की धरती पर! थ्कतना समद्ध
ृ , फकतना अप्रततम और फकतना स्िजप्नल!
लेफकन इन सबके बीच िह कहीं नहीं था। इन सबके बीच से, एक अदृश्य और अतप्ृ त
आत्मा की तरह गजु रता हुआ िह फफर तानसेन के होटल लसद्धाथष के उसी कमरा नंबर तेरह में
था, जहां िह आते हुए रुका था-ठीक उसी जस्थतत में -टूटा, थका, बेचन
ै , उिास, जड़ और
प्रततफियाहीन। अपने भीतर के अंधकार में , बौराये हुए आिमी की तरह, हाथ-पांि मारता हुआ।
लसरे से ही पराजजत लेफकन फफर भी जीवित।

14
क्यों? उसने सोचा और ड्रेलसंग टे बल के सामने आ गया। उसने िे खा, िह हांफ रहा था।
उसने चाहा फक हाथ में पकड़े शराब के चगलास को आइने पर फोड़ िे । 'क्यों जीवित है िह?
जीवित है भी या लसफष जीवित होने के भ्रम को जी रहा है ? अपने भीतर यह फकस अंधेरी गफ
ु ा
में उतर गया है िह, जहां कोई छाया, कोई रोशनी, कोई आहट नहीं पहुंच पा रही है ? िह कौन-
सा शापग्रस्त क्षण था, जब उसके बीचोबीच धरा गया था िह?'
ऐसे ही एक जजषर, विरक्त और बीहड़ क्षण में , जब ितु नया उसे तनराश करने लगी थी,
िह अपने भीतर उतर गया था, िबे पांि। उत्सक ु ता में िूबा हुआ िरू तक तनकल गया। लौटने
लगा, तो रास्ते खो चक
ु े थे। ठीक उसी तरह, जैसे पोखरा की महें द्र गफ
ु ा में खो गये थे। उस
ऊबड़-खाबड़, पथरीली, नक
ु ीली चट्टानों से भरी गुफा में िह तब तक चलता रहा था, जब तक एक
ठोस अंधकार ने उसका रास्ता नहीं रोक ललया। िापसी में िह भटक गया और बाहर तनकलने के
उस रास्ते की तरफ मुड़ गया, जजसके बारे में उसे बताया गया था फक इस रास्ते से लसफष
िःु साहसी लोग ही बाहर तनकलते हैं-अपने साहस और सामथ्यष की परीक्षा लेने के ललए।
लेफकन िह अपने साहस की थाह लेने उस रास्ते नहीं गया था। िह तो भटककर िहां
पहुंचा था। ऊंची-नीची, गोल, फफसलन-भरी, संकरी और ठोस अंधकार में िूबी कई चट्टानों पर पांि
दटकाते उन्हें छलांगते हुए अंत में िह पायिान आता था, जजस पर खित्रे होकर एक संकरे रास्ते
के जररये, छलांग लगाकर बाहर तनकलना होता था। इस संकरे रास्ते से तीन चट्टान पहले जो
चट्टान थी, उसमें और िस
ू री चट्टानों के बीच एक गहरी खाई थी-अंधेरे में जड़ तक िूबी हुई। और
इसी चट्टान पर छलांग लगानी थी और िह भी बबना फकसी सहारे के। अंधेरे में उसकी दहम्मत
जिाब िे गयी। उसने लौटना चाहा, लेफकन यह िे खकर लगभग चीख ही पड़ा फक जजस चट्टान पर
िह था, उस तक आना तो सरल था लेफकन िहां से िापस लौटने के ललए फफर एक अंधेरी
छलांग की जरूरत थी और गलत छलांग का अंजाम जजस्म का खाई की अतल और नुकीली
गहराई में चगर जाना था।
इतनी खामोश, अकेली और ममाांतक मौत! व्ह लसहर उठा था और िोनों तरफ से कटी
हुई उस चट्टान पर बैठा रह गया था-एक धलू मल-सी प्रतीक्षा में , फक शायि कोई आये।
और करीब पौने घंटे की व्याकुल और िहशत-भरी प्रतीक्षा के बाि लड़फकयों का एक िल
उधर आया था। उसी रास्ते-अपने साहस को तौलता हुआ। उस िल की मुखखया लड़की ने उसे
सबसे पहले िे खा। पहले घने अंधकार में , फकसी प्रेत की तरह बैठे हुए, फफर टॉचष की रोशनी में ,
उसकी बेबसी और कातरता को पढ़ते हुए।
'ऐसे आना चादहए यहां!' मखु खया लड़की की आिाज अंधेरे में गंज
ू ी। िह एकाएक ढे र-सी
खश
ु ी से भर उठा। इस हत्यारी गफ
ु ा में अकेला नहीं है िह।
िे नेपाली यि
ु ततयां थीं। रस्सी और रोशनी की मिि से उन्होंने उसे चट्टान से नीचे उतारा
और बाहर तनकलने के सीधे रास्ते तक पहुंचा आयीं।

15
महें द्र गुफा की हत्यारी खाइयों से मुक्त करा दिया था उसे, नेपाली युिततयों ने। लेफकन
अपने भीतर की जजस हत्यारी गफु ा में िह, िोनों तरफ से कटी हुई चट्टान पर बैठा है , िहां से
कौन आकर ले जायेगा उसे! मखु खया लड़केी का िाक्य फफर उसी चेतना में कौंध उठा-'ऐसे आना
चादहए यहां!'
महें द्र गफ
ु ा में पैंतालीस लमनट प्रतीक्षा करनी पड़ी थी उसे, लेफकन अपनी भीतर की गफ
ु ा
में कैि हुए तो जमान गज
ु र गया है । बाहर, कैसा होगा जीिन, उसने सोचा और रुआंसा हो
आया।
शराब चढ़ ही नहीं रही थी। तीन लाजष पैग पी लेने के बाि भी लग रहा था, मानो बीयर
का पहला घूंट भरा हो।
'हे ईश्िर! मुजक्त िो मुझ।े ' िह बुिबुिाया। अचानक ही िह बहुत ियनीय हो उठा था।
अपनी इस ियनीयता को िे ख उसे सहसा िे क्षण याि हो आये, जब इस धरती पर अपनी
उपजस्थतत को िह एक गहरी मोहासजक्त के भाि से महसूस फकया करता था। िस
ू रों को आपस
में नफरत करते और एक िूर प्रततदहंसा में िूबते-उतराते िे ख, अपने एकांत में िह उनके ओछे पन
पर खल
ु कर और खखलकर, एक संत की तरह, उपेक्षा भाि से मुस्कराता था। अपने होने को एक
िल
ु भ
ष अहसास की तरह संिारा था उसने। उसे मालूम था फक िस
ू रे ही नहीं, स्ियं उसकी बीिी
भी कई िफा उससे कहती थी, 'इतना िं भ अच्छा नहीं है अविनाश, िस
ू रों का इतना ठं िा
ततरस्कार एक दिन तुम्हें बहुत अकेला कर िे गा।'
िह लसफष हं सता था और लापरिाही से कहता था, 'मैं िं भी नहीं हूं। लेफकन मुझसे जुड़ने
के ललए लोगों को मेरे स्तर तक उठकर सोचना और महसूस करना होगा। अगर लोग मेरी तरह
सहनशील और कल्पनाशील नहीं हो सकते, तो मुझे मेरे साथ तो रहने िे सकते हैं फक नहीं। या
फक मैं भी नीचे चगरे जाऊं।'
तब िह नहीं जानता था फक बाह्य जगत के शोर, हलचल, घटनाओं और लोगों से िरू
रहकर िह जो यात्रा अपने साथ कर रहा है , िह उसे एक ऐसी चट्टान पर ले जाकर खड़ा कर
िे गी जजस पर लसफष िहीं होगा, लोगों की चचंताओं, सरोकारों और दिलचस्पी से कतई खाररज। िह
नहीं जानता था फक एक दिन लगेली चट्टान पर बैठे-बैठे, चप
ु चाप मर जाने की पीड़ा उसके
अजस्तत्ि को नोचने-खसोटने और चींथने लगेगी, फक चट्टान पर बैठे-बैठे ही मरना होगा उसे।
यही सही। उसने सोचा और एक पैग शराब और पीकर कुसी पर पसर गया। तभी उसकी
नजर घड़ी पर गयी। अभी लसफष शाम के छः बजे थे। कल उसे चले जाना था। िह पंद्रह दिन का
कायषिम बनाकर आया था और छः दिन के भीतर ही भाग रहा था। यािगार के ललए कुछ
खरीिारी कल ली जाये, उसने सोचा और कुसी से उठ खड़ा हुआ। मंह
ु -हाथ धोकर और बाल
संिारकर िह कमरे से बाहर आया और होटल की सीदढ़यां उतरने लगा। होटल के ठीक सामने
पाफकांग स्थल पर, उसकी जीप खड़ी थी। लेफकन ड्राइिर का कहीं पता नहीं था।

16
पी रहा होगा िह भी। उसने सोचा और बाजार की चढ़ाई चढ़ने लगा। बाजार की सीमा पर
जस्थत मोततयों की मालाओं और कंगनों की एक छोटी-सी िक
ु ान पर िह दठठक गया।
िह एक खाली िक ु ान थी। यानी ग्राहकों से खाली। चेहरे -मोहरे से नेपाली लगते हुए भी,
जो लड़की सामान बेच रही थी, उसे लगा, िह नेपाली नहीं है । यानी एक दहंिस् ु तानी की िक
ु ान।
िह िक
ु ान की करीब आया।
आहट पाकर, जरा भी उत्सादहत हुए बबना, लड़की ने उसकी तरफ िे खा।
हे भगिान! लड़की की आंखें िे खकर िह लसहर उठा। क्या यह भी िोनों तरफ से कटी हुई
फकसी चट्टान पर बैठी है -एक अनजाने अलभशाप को जीती हुई, फकसी बद्दुआ की मस
ु लसल यातना
में जलती हुई!
लड़की अजीब तरीके से सुंिर थी। उसकी आंखें बहुत गहरी थीं लेफकन आंखों से भी
अचधक गहरी थी िह उिासीनता, जो उनमें िरू तक पसरी हुई थी। एक नजर में यूं लगता था
जैसे आंखों को जीिन से तनिाषलसत हो जाने का िं ि लमला हो। उसके होठों में रस था लेफकन
यौिन की जीिंतता नहीं थी। उसके गाल रजक्तम थे लेफकन कुछ-कुछ तनस्तेज भी थे। उसके
बाल, उसकी गिष न, उसकी उं गललयां, उसका ललाट... जैसे फकसी स्िप्न का शापग्रस्त टुकड़ा थी
िह।
'क्या चादहए?' लड़की ने कहा।
िह चौंक गया। उसकी आिाज में उत्सुकता नहीं, भय था। मानो िह कुछ खरीिने नहीं,
लड़की के एकांत को तहस-नहस करने आया हो।
उसने जिाब नहीं दिया और लड़की को िे खता रहा। लड़की कुछ इस तरह खि
ु को
सहे जने-समेटने लगी फक अपना िे खना उसे खि
ु ही नागिार लगने लगा।
'कुछ लेंगे?' लड़की ने फफर पूछा।
'क्या?'
'कुछ भी।' लड़की थोड़ा असहज हो गयी, 'कंगन, माला... मेरे पास बहुत सुंिर-सुंिर हैं।'
'जो चाहे िे िो।' िह मंत्रमुग्ध था जैसे।
'जो चाहूं...!' लड़की बुिबुिायी और िक
ु ान में इधर-उधर िे खने लगी। िह कुछ परे शान-सी
हो गयी थी, मानो तय न कर पा रही हो फक क्या िे । आखखर उसने सफेि मोततयों की एक
सुंिर-सी माला तनकाली, 'यह िे खखए... लसफष पैंताललस रुपये।'
'नेपाली या इंडियन?' िह बाकायिा ग्राहक बन गया।
'इंडियन। पैक कर िं ?
ू ' लड़की थोड़ा-थोड़ा िक
ु ानिार की मद्र
ु ा में आ रही थी।
'तम्
ु हें पसंि है ?' उसने अचानक ही पछ
ू ा।
'क्या?' लड़की जैसे समझी नहीं।
'हार।'

17
'मुझ!े ' लड़की चौंक गयी, फफर मुस्कराकर बोली, 'मेरी पसंि से उनके ललए हार लेंगे।'
'कौन उनके?' उसने सहजता से पछ
ू ा। िरअसल िह बाचीत को िे र तक चलने िे ना
चाहता था। और िे र तक ही इस िक
ु ान पर बने भी रहना चाहता था।
'अपनी पत्नी के ललए।' लड़की भी सहज थी।
'मैंने अभी वििाह नहीं फकया।'
'तो फफर होने िाली के ललए ले रहे होंगे।'
'होनेिाली भी कोई नहीं।' िह पि
ू ि
ष त सहज था।
'तो फफर इस िक
ु ान पर क्यों आये हैं?' लड़की को असमंजस ने घेर ललया था।
'तुमसे बात करने के ललए।' उसने तनस्संकाच कहा।
'यानी आप यह हार नहीं ले रहे हैं?' लड़की कुछ-कुछ िख
ु ी होने लगी थी।
'ले रहा हूं, अगर यह तुम्हें पसंि है ।'
'मेरी पसंि का हार यह है ।' लड़की ने एक-िस
ू रा हार दिखाते हुए कहा, 'इसकी' चमक
कभी फीकी नहीं पड़ती। पर यह एक सौ पचास रुपये का है ।'
उसने चप
ु चाप एक सौ पचास रुपये लड़की को पकड़ा दिये। लड़की के होंठों पर मुस्कराहट
खेलने लगी। िह हार की बबिी पर कम, अपनी पसंि की स्िीकार पर ज्यािा प्रसन्न थी। उसकी
प्रसन्नता उसके पोर-पोर से छलकने लगी थी।
लड़की को प्रसन्न िे ख उसे बहुत अच्छा लगा। शब्िों में भरपूर आत्मीयता उं िेलते हुए
उसने पूछा, 'तुम नेपाली नहीं लगती!'

18
जअ म रे ज येंगे

ंशिू मक

ये बीसिीं शताब्िी के जाते हुए साल थे - िभ


ु ाषग्य से भरे हुए और िर में िूबे हुए। कहीं
भी, कुछ भी घट सकता था और अचरज या असंभि के िायरे में नहीं आता था। शब्ि अपना
अथष खो बैठे थे और घटनाएं अपनी उत्सक
ु ता। विद्िान लोग हमेशा की तरह अपनी विद्िता के
अलभमान की नींि में थे-फकसी तानाशाह की तरह तनजश्चंत और इस विश्िास में गकष फक जो कुछ
घटे गा िह घटने से पूिष उनकी अनुमतत अतनिायषतः लेगा ही। यही िजह थी फक तनरापि भाि से
करोड़ों की िलाली खा लेने िाले और सीना तानकर राजनीतत में चले आने िाले अपराचधयों और
काततलों के उस िे श में खबर िे ने िालों की जमात कब िो जाततयों में बिल गयी, इसका ठीक-
ठीक पता नहीं चला। इस सच्चाई का मारक एहसास तब हुआ जब खबरनिीसों का एक िगष
सिणष कहलाया और िस ू रा वपछड़ा हुआ। इस कथा का सरोकार इसी िगष से है , इस तनिेिन के
साथ फक बीसिीं शताब्िी के अंततम िर्ों में घटी इस िघ
ु ट
ष ना को लसफष कहानी माना जाये। इस
कहानी के सभी पात्र-जस्थततयां-स्थान काल्पतनक हैं। फकसी को फकसी में फकसी का अक्स नजर
आये तो िह शुद्ध संयोग होगा और लेखक का इस संयोग से कोई लेना-िे ना नहीं होगा।

िररत्र-पररिय

वपछड़ी जातत के खबरनिीस िरअसल खबरनिीस थे ही नहीं। िे विद्िान लोग थे। अलग-
अलग अखबारों-पबत्रकाओं में नौकरी करने के बािजूि उनमें एक साम्य यह था फक िे अपने
आसपास के समाज और िातािरण से असंतुष्ट और िख
ु ी थे। िे मोटी-मोटी फकताबें पढ़ते थे।
समाज बिलने के विलभन्न रास्तों पर गंभीर बहसें करते थे। िे श में हो रहे िं गे-फसािों को िे ख
चचंततत होते थे। पुरस्कार प्राप्त करते थे और पुरस्कार िे ने िाली सलमततयों के सिस्य भी थे। िे
भार्ा के धनी थे। कल्पनाशील थे। मेधािी थे। एक-िस
ू रे का सम्मान करते थे लेफकन अपने-
आपमें लसमटे रहते थे। िे कविताएं ललखते थे। कहातनयां ललखते थे। आलोचनाएं ललखते थे।
सेलमनारों में भार्ण िे ते थे। िे लसगरे ट भी पीते थे, बीड़ी भी और लसगार भी। उनका कोई ब्रांि
नहीं था। सवु िधा और सहजता से जो भी लमल जाये उसे अपना लेते थे। िे जोखखम मोल नहीं
लेते थे और िख
ु ी रहते थे फक व्यिस्था बिल नहीं रही है । िे रम भी पी लेते थे और जव्हस्की
भी। मात्रा कम हो तो िे रम और जव्हस्की को लमलाकर पी लेते थे। पी लेने के बाि भािक
ु हो
जाना उनकी कमजोरी थी। पीने के बाि कभी िे 'हम होंगे कामयाब' िाला गीत गाते थे, कभी
अपने न होने के बाि के शन्
ू य और अभाि के भाि कविताओं में िजष करते थे। हर संि
ु र स्त्री से

19
प्रेम करने को िे आतुर रहते थे और पत्रकाररता के लगातार चगरते स्तर से क्षुब्ध रहते थे। उन्हें
पत्रकाररता को सज
ृ नशीलता से जोड़े रखने की गहरी चचंता थी और अपनी प्रततभा पर उन्हें नाज
था। िे सब अपने-अपने माललकों को धनपशु कहते थे और उनकी सनकों-आितों पर ठहाके
लगाते थे। पत्रकाररता की ितु नया में िे खि
ु को श्रेष्ठतम और योग्यतम मानते थे और इस बात
पर है रान रहते थे फक जब भी कोई नया अखबार शरू
ु होता है तो उनके पास बल
ु ािा क्यों नहीं
आता है ।
सिणष जातत के खबरनिीस भी िरअसल खबरनिीस नहीं थे। यश, धन और सत्ता की
उच्चाकांक्षा लेकर िे पत्रकाररता में घस
ु े थे और आंख बचाकर राजनीतत के गललयारे में िाखखल हो
गये थे। िे फकताबें नहीं पढ़ते थे, राजनेताओं का जीिन-पररचय रटते थे। अपने माललकों का िे
बहुत सम्मान करते थे। और उनकी संतानों तक को खश ु रखते थे। तस्करों, अचधकाररयों और
दिग्गज नेताओं से उनके सीधे ताल्लुक थे। िे खबरों के ललए मारे -मारे नहीं घूमते थे बजल्क खबरें
उनके पास चलकर आती थीं। िे अपनी जेबों में गुप्त टे प ररकॉिषर रखते थे और विशेर् बातों को
टे प कर ललया करते थे। िे जींस पहनते थे, स्कॉच पीते थे और कारों में चलते थे। िे मंबत्रयों के
साथ हिाई जहाजों में उड़ते थे और चन
ु ाि के समय छुटभैयों को दटकट दिलाते थे। उनके नाम
से नौकरशाही कांपती थी और उनके काम से उद्योगपततयों को कोटे -परलमट लमलते थे। तनष्ठा,
प्रततबद्धता और विद्िता को िे उपहास की चीज समझते थे और सादहत्य तथा संस्कृतत को
बिाषश्त नहीं कर पाते थे। लोग इन्हें प्रोफेशनल कहते थे और स्टार मानते थे। जब भी कोई नया
अखबार शुरू होता था, तो इन्हीं के पास बड़े-बड़े पिों के ललए प्रस्ताि आते थे। बीसिीं शताब्िी
के जाते हुए िर्ों ने इन्हें पहचाना था और हाथ पकड़कर सिणष जातत की कतार में खड़ा कर
दिया था।
यह कथा इन्हीं िो जाततयों के उत्थान और पतन, द्िंद्ि और अंतद्षिंद्ि तथा हर्ष और
विर्ाि का साक्ष्य है । इसे ललख दिया गया है ताफक सनि रहे और भविष्य में काम आये।

दृश्य : एक

िह मैं नहीं हूं, जो मारा गया। पुष्कर जी बार-बार अपने को यही दिलासा िे ने का प्रयास
कर रहे थे पर जो घटा था उनके साथ, िह इतना नंगा और सख्त था फक अपनी उपजस्थतत उन्हें
शमष की तरह लग रही थी। िशषक िीघाष जैसे ताललयों से गंज
ू रही थी और िह वििर्
ू क की तरह
खड़े थे मंच पर-एकिम अकेले और असरु क्षक्षत। िशषकों का शोर िमशः उग्र हो रहा था और
जमीन थी फक फट नहीं रही थी, परिा था फक चगर नहीं रहा था। सीधे हाथ की उं गललयों में बझ
ु ी
बीड़ी ललये िह कुसी पर इस तरह बैठे हुए थे मानो फकसी मतू तषकार का लशल्प हों। परू े िस िर्ों
की मेहनत और प्रततबद्धता एक असंभि लेफकन िूर मजाक की तरह उन्हें मंह ु चचढ़ा रही थी और

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िःु स्िप्न था फक शेर् ही नहीं हो रहा था। अपने सामने पड़ी मैनेजमें ट की तीन लाइन की चचिी
उन्होंने फफर पढ़ी। एकिम साफ ललखा था : 'आप नये पाठक िगष को समझ नहीं पा रहे हैं
इसललए फफल्म के पेज विनय को सौंप िें । नया कायषभार लमलने तक आप चाहें , तो छुट्टी पर जा
सकते हैं।'
सब कुछ फकतना पारिशी था! कहीं कोई पें च नहीं, अस्पष्टता नहीं। मैनेजमें ट ने उनसे
उनके िे पेज ही नहीं छीने थे, जो उन्होंने अपने िस िर्ों की मेहनत, ज्ञान, प्रततभा और
सफियता से संिारे थे, प्रततजष्ठत फकये थे बजल्क उनकी पेशि
े र क्षमता और फफल्म माध्यम की
समझ को भी नकार और लताड़ दिया था। कहां असफल हुए िे? कौन नहीं समझ पा रहा है
पाठक िगष को? कौन-सा पाठक िगष? अखबार क्या अब मनोरं जक लसनेमा की तजष पर
तनकलेंगे? उनके पन्नों को अब विनय िे खेगा, जो लसनेमा की ए बी सी िी भी नहीं जानता,
तारकोिस्की और गोिार का नाम सुनकर जजसे गश आ जाता है और लमथुन चििती को जो
सिषश्रेष्ठ हीरो मानता है और श्रीिे िी पर जो फफिा है ? गहरे अिसाि की चगरफ्त में थे पुष्कर
जी। 'नया कायषभार लमलने तक िह चाहें , तो छुट्टी पर जा सकते हैं' -क्या मतलब है इसका?
पुष्कर जी को सब कुछ साफ समझ आ रहा था, पत्रकाररता की नयी ररजीम में अट नहीं पा रहा
है उनका ज्ञान। अखबार में उनकी उपजस्थतत को व्यथष लसद्ध कर िे ने की कारष िाई है यह। फफल्म
पत्रकाररता के ललए राष्रीय सम्मान प्राप्त कर चुके पुष्कर जी का विकल्प है विनय, जो नये
पाठक िगष को समझता है और हमारे गौरिशाली अतीत को संस्कृतत का कूड़ेिान कहकर मुंह
बबचकाता है । ठीक है , यही सही। पुष्कर जी ने ठं िी सांस ली और सोचा, हालशये पर ही सही
लेफकन रहें गे िह तनकर ही।

दृश्य : दअ

पुराने संपािक को हटाकर नये संपािक को लाये जाने के क्षोभ से मुक्त भी नहीं हुए थे
प्रिीण जी फक अभी-अभी आये सुमन जी के फोन ने उन्हें और उद्विग्न कर दिया। सुमन जी ने
सूचचत फकया था फक उनके अखबार के संपािक को डिमोट कर दिया गया है जजसके विरोधस्िरूप
िह इस्तीफा िे गये हैं। कवियों के कवि कहे जाते थे सुमन जी के संपािक। दहंिी को उन्होंने
अनेक नये शब्ि दिये थे। उनके संपािन में तनकल रहा अखबार बौवद्धक संसार की महत्िपूणष
घटना बना हुआ था। मैनेजमें ट का तकष था फक स्तर भले ही उठ रहा हो अखबार का, लेफकन
सकषु लेशन चगर रहा है । उनकी जगह 32 िर्ष के जजस यि
ु क को संपािक बनाकर लाया जा रहा
था, िह प्रधानमंत्री के एक सलाहकार के भाई का भतीजा था।
यानी पत्रकाररता का पतन शरू
ु हो गया है । प्रिीण जी ने सोचा। इस पतन पर परू ी तरह
चचंततत भी नहीं हो पाये थे िह फक चपरासी ने आकर बताया फक उनके नये संपािक ने उन्हें

21
याि फकया है । सहसा िह घबरा गये। उठकर संपािक के केबबन की तरफ चले, तो पाया फक पूरा
हॉल उन्हें ही घरू रहा है । अपने लसमटे -लसमटे िजि
ू को और अचधक लसमटाकर िह धीरे -धीरे चले
और केबबन में घस
ु गये।
सामने संपािक था। लकिक सफारी में दरपल फाइि पीता हुआ। सन ु ा था फक यहां आने
से पहले िह फकसी िसू रे िे श की प्रसारण सेिा में था। सामना होने पर उसे ऐसा ही पाया प्रिीण
जी ने। अपने यहां के लोगों की तरह थका-थका और चचंताग्र ्रस्त नहीं बजल्क चस्
ु त-िरु
ु स्त और
आिामक। बहुत अशक्त और असरु क्षक्षत-सा महसस ू फकया प्रिीण जी ने खिु को।
'आप सादहत्य िे खते हैं?' पछ
ू ा संपािक ने। कोई भलू मका नहीं। िआ
ु -सलाम की कोई
औपचाररता नहीं और कुसी पर बैठने का आग्रह करने िाली कोई लशष्टता नहीं।
आहत हो गये प्रिीण जी। उन्होंने कुछ इस अंिाज में गिष न दहलायी मानों सादहत्य िे खते
रहकर िह अब तक एक अक्षम्य अपराध करते आ रहे हों।
'अगले अंक से सादहत्य बंि।' संपािक ने कश ललया। 'आप न्यूज के पन्नों पर लशफ्ट हो
जाइए।'
'लेफकन...' प्रिीण जी की आिाज फंस-सी गयी। िह खि
ु एक प्रततजष्ठत कथाकार थे और
अपने सामने फकसी सनकी तानाशाह की तरह बैठे इस नये संपािक को झेल नहीं पा रहे थे।
इतने आिे शात्मक स्िर में उनके पूिष संपािक ने कभी बात नहीं की थी उनसे। लेफकन िह
अंतमखुष ी स्िभाि के बेहि संकोची व्यजक्त थे इसललए बहुत-बहुत चाहने पर भी गुस्से से उखड़
नहीं सके। िबे-िबे शब्िों में रुक-रुककर बोले, 'लेफकन, हमारी मैगजीन के बहुत प्रेस्टीजजयस पेज
हैं ये।'
'नाओ यू कैन गो।' संपािक ने लसगरे ट ऐश रे में मसल िी और फोन करने में व्यस्त हो
गया।
कई टुकड़ों में कट चक
ु े अपने जजस्म को ललये-दिये फकसी तरह केबबन से बाहर तनकले
प्रिीण जी और अपनी सीट पर जाकर धआ
ु ं-धआ
ु ं हो गये।

दृश्य : िीन

बहुत दिन जब्त नहीं कर सके सुमन जी। अपने नये संपािक पर ताि आ ही गया उन्हें ।
आता भी क्यों नहीं? आखखर सहायक संपािक थे। इससे पहले तीन संपािक भग
ु त चक
ु े थे। एक
संपािक के जाने और िस
ू रे संपािक के आने के अंतराल िाले दिनों में अखबार के कायषिाहक
संपािक कहलाते थे। अपने पि
ू ष संपािक के जाने का गम भी शेर् नहीं हुआ था अभी और उस
िौर को िह अपना स्िखणषम अतीत मानते थे। नये संपािक का आगमन उन्हें िज्रपात-सा लगा
था और अखबार के प्रतत अपनी रागात्मकता में भी िरार-सी आयी महसस
ू की थी उन्होंने। नये

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संपािक द्िारा फकये जा रहे िांततकारी पररितषनों का शुरू में उन्होंने प्रततिाि फकया भी फकया,
लेफकन बाि में यह सोचकर ठं िे पड़ गये फक अखबार कौन उनके बाप का है । िे नौकर हैं और
नौकरी करते रहना ही नौकर का अंततम सच है । कला, सादहत्य, संस्कृतत के सभी तनयलमत-
अतनयलमत स्तंभ नये संपािक ने अपने साथ लाये नये लड़कों को सौंप दिये थे। कविता-कहानी
छापने पर प्रततबंध लगा दिया था। सेक्स और ग्लैमर का स्पेस बढ़ा दिया था। धमष को प्रमख
ु ता
से छापा जाने लगा था। सम
ु न जी फकसी िख
ु ि हािसे की तरह सब कुछ बिाषश्त करते आ रहे
थे। उनके अखबार के बारे में जनता की धारणा बिलने लगी थी और उनके दहतैर्ी उन्हें सलाह
िे ने लगे थे फक अब आपको इस अखबार से हट जाना चादहए। कई बार तो लोग मजाक-मजाक
में उनके अखबार को प्रधानमंत्री तनिास का मुखपत्र तक कह िालते थे। सुमन जी जानते थे फक
यह सब पररितषन मैनेजमें ट की शह पर हो रहे हैं क्योंफक मैनेजमें ट में भी अब नये लोग आ गये
थे। ये नये लोग अखबार से मुनाफा चाहते थे। इस चाहत से सुमन जी को कोई एतराज नहीं
था, लेफकन यह बात उनकी बुवद्ध में नहीं अटकती थी फक पररिषतन की दिशा पतन की ओर जाना
क्यों जरूरी है । इन सब तनािों में मुजब्तला रहने के कारण सुमन जी की नींि गायब रहने लगी
थी। लेफकन सुकून खोजने िह जाते भी तो कहां? हर पबत्रका, हर अखबार में पररितषन की यह
तेज आंधी चल रही थी। जजस्म दिखाऊ हीरोइनों की तरह सभी तो अपने ज्यािा-से ज्यािा कपड़े
उतारने की होड़ में शरीक थे। लेफकन अब पानी लसर के ऊपर बह रहा था। राम जन्मभूलम-बाबरी
मसजजि वििाि के मसले पर अखबार ने साफ तौर पर धमाांध दहंिओ
ु ं का प्रिक्ता बनना शुरू
फकया, तो सुमन जी बौखला गये। उनकी सोची हुई प्रगततशीलता ने अंगड़ाई ली और उठ खड़ी
हुई।
एक दिन शाम के साढ़े सात-आठ बजे के करीब सुमन जी तीन पैग रम पीकर संपािक
के कमरे में घुस गये।
जजस समय सुमन जी संपािक के कमरे में घुस,े िहां ठहाके गूंज रहे थे। अखबार के ही
तीन-चार जूतनयर पत्रकारों से तघरा संपािक अपनी कोई शौयष-गाथा बयान कर रहा था और उसके
सामने बैठे लोग हैं-हैं, हैं-हैं कर रहे थे।
सुमन जी को यकायक आया िे ख कमरे में सन्नाटा छा गया। जूतनयर पत्रकारों को
आग्नेय नेत्रों से ताका सुमन जी ने, लेफकन आश्चयष फक िे बबना सहमे और बबना विचललत हुए
उसी तरह बैठे रहे ।
'आप लोग जरा बाहर जायें।' सम
ु न जी ने ठं िे स्िर में कहा। िह अपने िोध को गलत
जगह जाया नहीं करना चाहते थे।
'सब अपने ही लोग हैं सम
ु न जी,' संपािक ने सम
ु न जी के आिे श पर घड़ों पानी उलट
दिया, 'बताइए-बताइए, व्हाट्स ि प्रॉबलम?'

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इस बेधक अपमान से सुमन जी का चगरे बां जैसे चाक हो गया। खि ु को सहे जने की बहुत
कोलशश की उन्होंने पर माहौल का िं श और नशे की आिामकता उन्हें उग्र बबंिओ
ु ं तक खींच ही
ले गयी। तन्नाकर बोले, 'सांप्रिातयकता को हिा िे रहे हैं आप! यह मनष्ु य-विरोधी हरकत है ।'
'अच्छा?' संपािक की आंखें विस्मय से फट-सी गयीं, 'और यह जो दहंिस्
ु तान में रहते हैं,
दहंिस्
ु तान का खाते हैं लेफकन जय पाफकस्तान की बोलते हैं, यह कौन-सी हरकत है ।?' संपािक
बेहि संयत स्िर में पछ
ू रहा था। 'इतना ही पाफकस्तान से प्रेम है तो रहें जाकर पाफकस्तान में
ही।'
'लेफकन...' सम
ु न जी ने प्रततिाि करना चाहा मगर बीच में ही उनकी बात काटकर िहां
बैठे एक पत्रकार ने कहा, 'बबल्कुल ठीक कहा सर जी ने। हम खि
ु को दहंि ू कहें तो सांप्रिातयक।
िे खि
ु को मुसलमान कहें , तो धमषतनरपेक्ष। गजब थ्योरी है प्रगततशीलता की। अजी साहब, आप
िे खते रदहये, जजस तेजी से इनकी जनसंख्या बढ़़ रही है उसे िे खते हुए दहंि ू ही एक दिन
अल्पसंख्यक कहलायेंगे।'
'एक दिन क्यों?' संपािक ने लसगरे ट सुलगाते हुए कहा, 'अंतराषष्रीय नक्शे पर नजर िालो,
पता चल जायेगा फक ितु नया में दहंि ू ज्यािा हैं या मुसलमान।'
'लेफकन हम जागरुक लोग हैं।' सुमन जी ने अपना पक्ष रखा।
'जागरुक हैं तो आत्महत्या कर लें ?' संपािक ने पूछा तो िहां मौजूि पत्रकार ठहाका
लगाकर हं स पड़े। ठहाकों ने सुमन जी को हत्थे से उखाड़ दिया। चीखकर बोले, 'आप पागल हो
गये हैं। जहर उगलने िाले संपािकीय ललखते हैं आप। आप पत्रकार हैं। आप पर भारी िातयत्ि
है । एक बड़े अखबार के संपािक हैं आप। आपको यह अचधकार नहीं है फक धालमषक जुनून को
हचथयारबंि करें ।'
'इट्स लललमट।' संपािक का संयम जिाब िे गया। घंटी बजाते हुए उसने कड़िाहट से
पूछा, 'आप खि ु बाहर जायेंगे या...?'
सुमन जी चप
ु चाप बाहर तनकल गये। उन्हें लग रहा था फक रक्तरं जजत खंजर थामे
िं गाइयों की भीड़ में िह एकिम तनहत्थे और अकेले छोड़ दिये गये हैं।
चार दिन बाि सुमन जी मैनेजमें ट की चचट्टी पढ़ रहे थे। शराब पीकर संपािक से अभद्र
व्यिहार करने के िं िस्िरूप उन्हें तनलंबबत कर दिया गया था।

दृश्य : ि र

'विमल जी, कोई नयी कविता ललखी आपने?' श्याम जी ने तीसरे पैग का अंततम लसप
लेकर लसगरे ट जलाते हुए पछ
ू ा। श्याम जी बहुत दिनों बाि सोवियत रूस से लौटे थे और यह

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सिाल पूछने से पहले बता रहे थे फक रूसी समाज अपने लेखकों और संस्कृततकलमषयों का फकतना
सम्मान करता है ।
श्याम जी प्राध्यापक थे। समाजिािी चचंतक थे और कविताएं ललखते थे। िह राजधानी में
एक पॉश इलाके में तीन बेिरूम के फ्लैट में सुखपूिक
ष रहते थे और िे श में हो रहे अनाचार,
भ्रष्टाचार और जल्
ु म की कहातनयां पढ़-सन
ु कर व्यचथत रहते थे। हाल ही में उन्हें सोवियत लैंि
नेहरू एिािष लमला था जजसे सेललब्रेट करने िह प्रेस क्लब में अपने लमत्रों के साथ आये थे।
श्यामजी के प्रश्न से विमल जी को ममाांतक चोट लगी। िह तो जैसे यह भल
ु ा ही बैठे थे
फक िह कवि हैं। जजस पबत्रका में िह काम करते थे िह राजनीततक पबत्रका थी और उसमें िह
वििे शी मामलों के प्रभारी थे। चीन, जापान, नेपाल, पाफकस्तान, बब्रटे न, अमेररका और क्यूबा की
राजनीतत उन्हें इतनी मोहलत ही कहां िे ती थी फक िह कविता का खयाल रख पाते। श्याम जी
का सिाल सुन चप्ु पी साध गये और उस दिन को अपराध की तरह याि करने लगे जब िह
अच्छी-खासी बैंक की नौकरी छोड़कर पत्रकाररता में आये थे।
'यह कविता ललखने का समय है ?' जिाब दिया प्रिीण जी ने। 'आप प्रोफेसर हैं इसललए
यह बात समझ ही नहीं सकते फक यह कविता-विरोधी, शब्िविरोधी समय है ।'
'हम अखबारों में नहीं, आत्महत्या केंद्रों में नौकरी कर रहे हैं।' एक फीकी और ििष भरी
मुस्कान के साथ बोले पुष्कर जी, 'हमारा सब पढ़ा-ललखा अब अप्रासंचगक हो चक
ु ा है । अपने-अपने
अखबारों में हम हालशये पर फेंक दिये गये लोग हैं।'
'अखबारों में ही क्यों? जीिन में भी कहां हैं हम?' सुमन जी ने पूछा और रम का लसप
लेकर खि
ु ही जिाब भी दिया, 'जजस िे श में प्रततभा को िे शतनकाला लमल जाये िहां लसफष जीते
रहने के लसिा कर भी क्या सकते हैं हम? एक िरे और भौंचक आिमी से कविता ललखने की
उम्मीि कैसे की जा सकती है भला? जो हालात हैं उनमें जीते रहकर कभी-कभी तो ऐसा भी
लगता है श्याम जी, फक जो जीिन हमने जजया िह एकिम ही फफजूल और अताफकषक था।'
श्याम जी को िातािरण की गंभीरता और गमगीनी का अहसास हो रहा था। एक भारी-सी
'हूं' की उन्होंने और शून्य में ताकने लगे।
'असल में , सफलता के िरिाजे नहीं खोज पाये हम।' पुष्कर जी के स्िर में ततक्तता थी।
'हम कभी नहीं जान पाये फक हमारा ज्ञान ही हमारा शत्रु है ।'
'लेफकन मुझे इसका कोई पछतािा नहीं है ।' सहसा विमल जी ने चप्ु पी तोड़ी। 'मुझे भरोसा
है फक एक दिन इसी िे श के लोग उठें गे और सब कुछ बिल िें गे।'
'एक दिन!' एक जोरिार ठहाका लगाया सम
ु न जी ने और उठ खड़े हुए। लड़खड़ाते स्िर में
बोले, 'एक दिन। हम होंगे कामयाब एक दिन। िांततकारी भी यही गाना गाते हैं और सरकार ने
भी इसे अपना ललया है । एक दिन...' सम
ु न जी बोले और सबको भौंचक छोड़ प्रेस क्लब से बाहर
तनकल गये।

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'क्या बात है , सुमन जी कुछ ज्यािा ही डिप्रेस हैं?' श्याम जी ने शराब का एक बड़ा घूंट
ललया।
'यह डिप्रेशन का ही समय है डियर।' विमल जी बोले, 'आओ, अब घर चलें फक अब िही
एक जगह बाकी है जहां कुछ-कुछ सरु क्षक्षत हैं हम।'
श्याम जी ने बबल अिा फकया और सभी लोग उठ खड़े हुए। उनके खड़े होते ही कोने की
एक मेज से तीन-चार ककषश ठहाके उछले। इस मेज पर सिणष पत्रकारों की टोली बैठी थी।

दृश्य : प ांि

वपछड़ी जातत के तकरीबन सभी पत्रकार प्रेस क्लब में इकिे थे। उनके इस भारी जमािड़े
से सिणष जातत के पत्रकार खासी उलझन और परे शानी में पड़ गये थे क्योंफक प्रेस क्लब में
करीब तीन-चौथाई जगह पर वपछड़ी जातत काबबज थी। कोने की मेज पर बैठा एक सिणष जातत
का पत्रकार इस िखलंिाजी से खासा क्षुब्ध था। िनदहल के पैकेट से लसगरे ट तनकाल उसने सामने
बैठी अपनी मदहला पत्रकार लमत्र से कहा, 'इन चचरकुटों की एंरी पर बैन लगना चादहए यहां। मूि
ऑफ कर िे ते हैं।'
'लीि इट यार।' मदहला पत्रकार ने जजन का लसप ललया और उपेक्षा से बोली, 'ये अपनी
मौत मरें गे।'
वपछड़ी जातत के पत्रकार अपनी सामूदहक खश
ु ी का जश्न मनाने यहां आये थे। दिन-भर िे
फोन द्िारा एक-िस
ू रे को बधाई िे ते-लेते रहे थे। उपेक्षा और अपमान से स्याह पड़े उनके चहे रे
एक ताजे उल्लास से चमक रहे थे। उनका खोया हुआ आत्मविश्िास लौट आया था और उनकी
आत्माओं पर छाया अंधकार छं ट गया था। इनमें से कोई िस िर्ष से पत्रकाररता में था, कोई
चौिह िर्ष से और कोई-कोई तो बीस िर्ष की पत्रकाररता कर युगपुरुर् होने की एक तरफ बढ़ रहा
था। यहां मौजूि आधे से अचधक लोग कोई न कोई पुरस्कार पा चक ु े थे। बहुतों की रचनाओं के
अनुिाि जापानी, रूसी, अंग्रेजी और चीनी भार्ा तक में हो चक
ु े थे। तीन-चार लोगों की कहातनयों
पर फफल्में बन चक
ु ी थीं और िो-एक लोगों की रचनाएं वििे शों के पाठ्यिम में शरीक थीं। इतने
भारी स्िीकार के बािजूि अपने घर में िह मुगी होकर भी िाल बने हुए थे और वपछड़ी जातत में
खड़े होने के अलभशाप को जी रहे थे। उनके साथ ही नहीं उनके बहुत बाि में आये कई पत्रकार
इस बीच नये अखबारों में बड़े-बड़े पिों पर चले गये थे। स्कूटरों को छोड़कर मारूततयों में लशफ्ट
हो गये थे और नेताओं की जेबों से तनकलकर मख् ु यमंबत्रयों के घरों में पहुंच गये थे। इतने िर्ों
में , लेफकन वपछड़ी जातत के पत्रकारों के पास कोई अच्छा ऑफर आना तो िरू , उसकी अफिाह भी
नहीं आयी थी। सत्ता, समय और समाज के सबसे अंततम पायिान पर खड़े थे िे और अपने
स्िजनों को मरता हुआ िे ख रहे थे लगातार। लेफकन आज उनकी िापसी का दिन था। आज के

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दिन को अपनी पुनप्रषवप्रष्ठा की तरह याि रखना था उन्हें , अपनी इसी िापसी का जश्न मनाने
िह सिणष पत्रकारों के इस क्लब में उपजस्थत हुए थे। आज िे श के सबसे बड़े उद्योगपतत ने
अखबार तनकालने का ऐलान फकया था। इस उद्योगपतत का िािा था फक िह िे श के बाकी
अखबारों को तबाह कर िे गा। िे श के सभी प्रमख
ु अखबार और प्रसारण केंद्र इस घोर्णा के
विज्ञापन से अटे पड़े थे और पत्रकारों के ललए नये अखबार का आगमन खश
ु ी का कारण नहीं
था। उनकी खश
ु ी की िजह यह थी फक इस अखबार के प्रधान संपािक के पि पर उन्हीं की जातत
के एक साथी को तनयक्
ु त फकया गया था। आज के समय में वपछड़ी जातत के एक पत्रकार का
इतने बड़े पैमाने पर तनकलने जा रहे अखबार में संपािक बनना परू ी अखबार-बबरािरी के ललए
एक रहस्यमयी घटना थी। विद्िान लोगों ने तत्काल यह बयान जारी फकया फक यह 'प्रततभा की
िापसी' का िर्ष है । इसी महान खश
ु ी को सेललब्रेट करने वपछड़ी जातत के पत्रकार प्रेस क्लब में
एकत्र हुए थे। दिन में िे सब भािी संपािक से लमल चक
ु े थे और बधाई िे चक
ु े थे।
भािी संपािक यह िे खकर भाि-विह्िल हो गया था फक उसकी बबरािरी के इतने सारे
पत्रकार उसके हाथ मजबूत करने के ललए प्रस्तुत हैं। उसने घोर्णा की थी फक प्रततबद्ध पत्रकाररता
का युग फफर शुरू होगा। उसने अपनी जातत के पत्रकारों से एकिम साफ कहा था फक
प्रोफेशनललज्म के नाम पर सनसनीखेज समाचार छापने-ललखने िाले अपढ़ सिणों को उनकी
औकात बता िी जायेगी। उसने आश्िासन दिया था फक इस अखबार के माध्यम से हम सब
अपना होना एक बार फफर लसद्ध करें गे और सज
ृ नशील पत्रकाररता का गौरि फफर से प्रततस्थावपत
करें गे। उसने कहा था फक विद्िान और अनुभिी लोगों की टीम ही इस पतनशील समय का
मुकाबला कर पायेगी। उसने यह भी कहा था फक अब िे सब तनजश्चंत रहें क्योंफक उनके सहयोग
के बबना तो िह चार किम भी नहीं चल पायेगा।
संपािक के प्रततबद्ध और संिेिनशील िचनों को सुनकर वपछड़ी जातत के पत्रकार भािुक
हो गये थे और एक बार फफर सज
ृ नशीलता के प्रतत अपनी प्रततबद्धता को महसूस कर िे खि
ु पर
गौरिाजन्ित हुए थे। प्रेस क्लब में शराब पीते हुए िे इस बात की अटकलें लगा रहे थे फक फकसे
क्या पि लमलेगा।
शराब का छठा राउं ि समाप्त हुआ, तो पुष्कर जी लड़खड़ाते हुए उठे और जोर से चीखे,
'दिल्ली...'
'हम तुझसे बिला लेंगे।' उनके बाकी साचथयों ने नारा लगाया।
इस नारे से प्रेस क्लब की िीिारें थराष गयीं।

दृश्य : छह

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प्रेस क्लब की इस पाटी के ठीक एक महीने बाि उस िे श की राजधानी से एक विचचत्र
अखबार प्रकालशत हुआ। विचचत्र इस मायने में फक यह एक परू ा अखबार था - कई िै तनकों,
पाक्षक्षकों, साप्तादहकों और मालसकों को अपने में उिरस्थ फकये हुए।
बत्तीस पेज के इस िै तनक अखबार में स्कूप भी थे, स्कैंिल भी। धमष भी था, विज्ञान भी।
फैशन भी था, पयषटन भी। लशकार-कथाएं भी थीं, प्रेत-कथाएं भी। ज्योततर् भी था, कंप्यट
ू र भी।
फैशन भी था, ग्लैमर भी। फफल्में भी थीं, िरू िशषन भी। रसोई भी थी, बेिरूम भी। इसमें रे खा
भी थी और श्रीिे िी भी। इसमें फिकेट भी था और शतरं ज भी। इसमें सच्ची अपराध-कथाएं भी थीं
और बलात्कार करने के तरीके भी। इसमें कानन
ू था और उससे बचने के उपाय भी। इसमें
माफफया सरिारों के इंटरव्यू थे और फकीर से तस्कर बने लोगों की शौयषगाथा भी। इसमें शेयर
बाजार भी था और नौकरी पाने के तरीके भी। इसमें संगीत था, कला थी, संस्कृतत थी, सादहत्य
था और सेक्स भी। इसमें आचायष रजनीश के प्रिचन भी थे और िे श के िं गे भी। इसमें
प्रधानमत्री तनिास भी था और विपक्षी गललयारा भी। यहां बाबरी मजस्जि भी थी और राम
जन्मभूलम भी। इसमें िे सी राजनीतत भी थी और वििे शी मामले भी। इसमें लोग और फोक गायक
भी थे और पाश्चात्य गीतकार भी। इसमें ब्रा और पें टी के उत्तेजक विज्ञापनों से लेकर हे यर
ररमूिर और सेक्स क्लीतनकों तक के इश्तहार थे। इसके सोलह पेज रं गीन थे और सोलह काले।
इसकी कीमत इतनी कम थी फक पूरा िे श अखबार पर टूटकर चगरा। पहले ही दिन से अखबार
बाजार में छा गया।
सिणष जातत के सभी जाने-माने पत्रकार इसकी संपािकीय टीम में शालमल थे। संपािक के
लसिा और कोई ऐसा शख्स इसमें खोजे भी नहीं लमला, जो वपछड़ी जातत से लेश मात्र भी
ताल्लुक रखता हो।

थांनिम दृश्य

प्रेस क्लब फफर गुलजार था। तीन-चौथाई से अचधक मेजें फफर से िनदहल और दरपल
फाइि के धए
ु ं की जि में थीं और जव्हस्की तथा जजन पानी की तरह बह रही थी। सब खश
ु थे,
फकसी का मूि ऑफ नहीं था।

(------)

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उसरधस
ू ररसन्द्न े रमें रर

फोन करने िाले ने जब आद्रष स्िर में सूचना िी फक ब्रजेंद्र बहािरु लसंह थोड़ी िे र पहले
गुजर गए तो मुझे आश्चयष नहीं हुआ।

उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था, जब आसमान पर मटमैले बािल छाए हुए थे
और सड़कों पर धल
ू भरी आंधी मचल रही थी। अखबारों में मौसम की भविष्यिाणी सुबह ही की
जा चक
ु ी थी। अफिाह थी फक लोकल रे नें बन्ि होने िाली हैं। गोराई की खाड़ी के आसपास
मूसलाधार बाररश के भी समाचार थे। कोलाबा हालांफक अभी शांत था लेफकन आजाि मैिान धल

के बिंिरों के बीच सूखे पत्ते सा खड़खड़ा रहा था।

यह रात के ग्यारह बजे का समय था। क्लब में उिासीनता और थकान एक साथ तारी हो
चक
ु ी थीं। लास्ट डड्रंक की घंटी साढ़े िस बजे बज गई थी-तनयमानुसार, हालांफक आज उसकी
जरूरत नहीं थी। क्लब की चहल-पहल के सामने, ऐन उसकी छाती पर, मौसम उस रात शायि
पहली बार प्रेत-बाधा सा बन कर अड़ गया था। इसललए क्लब शुरू से ही िीरान और बेरौनक
नजर आ रहा था।

उस दिन बंबई के िफ्तर शाम से पहले ही सूने हो गए थे। हर कोई लोकल के बंि हो
जाने से पहले ही अपने घर के भीतर पहुंच कर सुरक्षक्षत हो जाने की हड़बड़ी में था। भारी बाररश
और लोकल जाम-यह बंबईिालसयों की आदिम िहशत का सिाषचधक असुरक्षक्षत और भयािांत
कोना था, जजसमें एक पल भी ठहरना चाकुओं के बीच उतर जाने जैसा था।

और ऐसे मौसम में भी ब्रजेंद्र बहािरु लसंह शाम सात बजे ही क्लब चले गए थे। क्लब
उनके जीिन में धमतनयों की तरह था-सतत जाग्रत, सतत सफिय। क्लब के िेटर बताते थे फक
ब्रजेंद्र बहािरु लसंह पजश्चम रे लिे के रे क पर बने बंबई के सबसे अंततम स्टे शन िदहसर में बने
अपने िो कमरों िाले फ्लैट से तनकल कर इतिार की शाम को भी आजाि मैिान के पास बने
इस क्लब में चले आते थे। सो, उस शाम विपरीत मौसम के बािजूि, ब्रजेंद्र बहािरु लसंह क्लब में
जजि की तरह मौजूि थे।

करीब ग्यारह बजे उन्होंने खखड़की का पिाष सरकाकर आजाि मैिान के आसमान की तरफ
ताका था। नहीं, उस ताकने में कोई िजु श्चंता नहीं तछपी थी। िह ताकना लगभग उसी तरह का

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था जैसे कोई काम न होने पर हम अपनी उं गललयां चटकाने लगते हैं लेफकन सुखी इस तरह हो
जाते हैं जैसे बहुत िे र से छूटा हुआ कोई काम तनपटा ललया गया हो।

आसमान पर एक धस ू र फकस्म का सन्नाटा पसरा हुआ था और आजाि मैिान तनपट


खाली था-िर्ों से उजाड़ पड़ी फकसी हिेली के अराजक और रहस्यमय कंपाउं ि सा। विर्ाि जैसा
कुछ ब्रजेंद्र बहािरु लसंह की आंखों में उतरा और उन्होंने हाथ में पकड़े चगलास से रम का एक
छोटा घट
ूं भरा फफर िह उसी चगलास में एक लाजष पैग और िलिा कर टीिी के सामने आ बैठ
गए-रात ग्यारह के अंततम समाचार सुनने।

ब्रजेंद्र बहािरु लसंह क्लब के तनयमों से ऊपर थे। उन्हें साढ़े िस बजे के बाि भी शराब
लमल जाती थी, चप
ु के चुपके, फफर आज तो क्लब िैसे भी लसफष उन्हीं से गुलजार था। छह िेटर
और ग्राहक िो, एक ब्रजेंद्र बहािरु लसंह और िस
ू रा मैं।

मैं िफ्तर में उनका सहयोगी था और उनके फ्लैट से एक स्टे शन पहले बोरीिली में
फकराए के एक कमरे में रहता था। उतरते िह भी बोरीिली में ही थे और िहां से ऑटो पकड़कर
अपने फ्लैट तक चले जाते थे। मैं उनका िोस्त तो था ही, एक सुविधा भी था। सुबह ग्यारह बजे
से रात ग्यारह, बारह और कभी कभी एक बजे तक उनके संग-साथ और तनभषरता की सुविधा।
हां, तनभषरता भी क्योंफक कभी-कभी जब िह बांद्रा आने तक ही सो जाते थे तो मैं ही उन्हें
बोरीिली में जगा कर िदहसर के ऑटो में बबठाया करता था। मेरे पररचचतों में जहां बाकी लोग
नशा चढ़ने पर गाली-गलौज करने लगते थे या िेटरों से उलझ पड़ते थे िहीं ब्रजेंद्र बहािरु लसंह
चप
ु चाप सो जाते थे। कई बार िह क्लब में ही सो जाते थे और जगाने पर ‘लास्ट फॉर ि रोि‘
बोल कर एक पैग और मंगा कर पी लेते थे। कई बार तो मैंने यह भी पाया था फक अगर िह
लास्ट पैग मांगना भूल कर लड़खड़ाते से चल पड़ते थे, तो क्लब के बाहरी गेट की सीदढ़यों पर
कोई िेटर भूली हुई मोहब्बत सा प्रकट हो जाता था-हाथ में उनका लास्ट पैग ललए।

ऐसे क्षणों में ब्रजेंद्र लसंह भािुक हो जाते थे, बोलते िह बहुत कम थे, धन्यिाि भी नहीं
िे ते थे। लसफष कृतज्ञ हो उठते थे। उनके प्रतत िेटरों के इस लगाि को िे ख बहुत से लोग खफा
रहते थे। लेफकन यह बहुत कम लोगों को पता था फक क्लब के हर िेटर के घर में उनके द्िारा
दिया गया कोई न कोई उपहार अिश्य मौजि ू था-बॉलपेन से लेकर कर कमीज तक और पें ट से
लेकर घड़ी तक।

नहीं, ब्रजेंद्र बहािरु लसंह रईस नहीं थे। जजस कंपनी में िह परचेज ऑफीसर थे, िहां
उपहारों का आना मामूली बात थी। यही उपहार िह अपने शुभचचंतकों को बांट िे ते थे। फफर िह
शुभचचंतक चाहे क्लब का िेटर हो या उस बबजल्िंग का िरबान, जजसमें उनका छोटा सा, िो

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कमरों िाला फ्लैट था। फफलीपींस में असेंबल हुई एक कीमती ररस्टिाच उस िक्त मेरी कलाई में
भी िमक रही थी जब ब्रजेंद्र बहािरु लसंह आजाि मैिान के आसमान में रं गे उस सन्नाटे से
टकरा कर टीिी के सामने आ बैठ गए थे-अंततम समाचार सन
ु ने।

कुछ अरसा पहले एक चगफ्ट मेकर उन्हें यह घड़ी िे गया था। जजस क्षण िह खब
ू सूरत
रै पर को उतारकर उस घड़ी को उलट-पुलट रहे थे, ठीक उसी क्षण मेरी नजर उनकी तरफ चली
गई थी। मुझसे आंख लमलते ही िह तपाक से बोले थे-‘तुम ले लो। मेरे पास तो है ।‘

यह िया नहीं थी। यह उनकी आित थी। उनका कहना था फक ऐसा करके िह अपने
बचपन के बुरे दिनों से बिला लेते हैं। लसफष उपहार में प्राप्त िस्तुओं के माध्यम से ही नहीं,
अपनी गाढ़ी कमाई से अजजषत धन को भी िह इसी तरह नष्ट करते थे। एक सीलमत, बंधी
तन्ख्िाह के बािजूि टै क्सी और ऑटो में चलने के पीछे भी उनका यही तकष काम कर रहा होता
था।

सुनते हैं फक अपने बचपन में ब्रजेंद्र बहािरु लसंह अपने घर से अपने स्कूल की सात
फकलोमीटर की िरू ी पैिल नापा करते थे क्योंफक तब उनके पास बस का फकराया िो आना नहीं
होता था।

टीिी के सामने बैठे ब्रजेंद्र बहािरु लसंह अपना लास्ट पैग ले रहे थे और मैं टॉयलेट गया
हुआ था। लौटा तो क्लब का मरघटी सन्नाटा एक अविश्िसनीय शोरगुल और अचरज के बीच
खड़ा कांप रहा था, पता चला ब्रजेंद्र बहािरु लसंह ने अपने सबसे चहे ते िेटर हनीफ को चांटा मार
दिया था।

जजंिगी के तनचले पायिानों पर लटके-अटके हुए लोग, िांतत की भार्ा में उनके पास खोने
के ललए कुछ नहीं था। अगर प्रततफिया स्िरूप सारे िेटर एक हो जाएं और उस सन ु सान रात में
एक चांटा भी ब्रजेंद्र बहािरु लसंह को जड़ िें तो उसकी आिाज परू े शहर में कोलाहल की तरह
गूंज सकती थी और मीमो बन कर ब्रजेंद्र बहािरु लसंह के बेिाग कैररयर में पैबंि की तरह चचपक
सकती थी।

ऐसा कैसे संभि है ? मैं परू ी तरह बौराया हुआ था और अविश्िसनीय नजरों से उन्हें घरू
रहा था। अब तक अपना चेहरा उन्होंने अपने िोनों हाथो में छुपा ललया था।

क्या हुआ? मैंने उन्हें छुआ। यह मेरा एक सहमा हुआ सा प्रयत्न था। लेफकन िह उलझी
हुई गांठ की तरह खल ु गए।

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उस तनजषन और तूफानी रात के नशीले एकांत में मैंने िे खा अपने जीिन का सबसे बड़ा
चमत्कार। िह चमत्कार था या रहस्य। रहस्य था या ििष । िह जो भी था इतना तनष्पाप और
सघन था फक मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

ब्रजेंद्र बहािरु लसंह के अधेड़ और अनुभिी चेहरे पर िो गोल, पारिशी आंसू ठहरे हुए थे
और उनकी गहरी, भूरी आंखें इस तरह तनस्संग थीं, मानों आंसू लुढ़का कर तनिाषण पा चक ु ी हों।
िोनों घुटनों पर अपने िोनों हाथों का बोझ िाल कर िह उठे । जेब से क्लब का सिस्यता कािष
तनकाला। उसके चार टुकड़े कर हिा में उछाले और कहीं िरू फकसी चट्टान से टकरा कर क्षत-
विक्षत हो चक
ु ी भराषई आिाज में बोले -‘चलो, अब हम यहां कभी नहीं आएंगे।‘

‘लेफकन हुआ क्या? मैं उनके पीछे -पीछे है रान-परे शान जस्थतत में लगभग तघसटता सा
क्लब की सीदढ़यों पर पहुंचा।

बाहर बाररश होने लगी थी। िह उसी बाररश में भीगते हुए जस्थर किमों से क्लब का
कंपाउि पार कर मुख्य िरिाजे पर आ खड़े हुए थे। अब बाहर धल ू के बिंिर नहीं, लगातार
बरसती बाररश थी और ब्रजेंद्र लसंह उस बाररश में फकसी प्रततमा की तरह तनविषकार खड़े थे।
तनविषकार और अविचललत। यह रात का ग्यारह बीस का समय था और सड़क पर एक भी टै क्सी
उपलब्ध नहीं थी। मुख्य द्िार के कोने पर जस्थत पान िाले की गुमटी भी बन्ि थी और बाररश
धारासार हो चली थी।

‘मुझे भी नहीं बताएंगे?‘ मैंने उत्सुक लेफकन भराषई आिाज में पूछा। बाररश की सीधी मार
से बचने के ललए मैंने अपने हाथ में पकड़ी प्लाजस्टक की फाइल को लसर पर तान ललया था और
उनकी बगल में आ गया था, जहां िख
ु का अंधेरा बहुत गाढ़ा और चचपचचपा हो चला था।

‘िो साला हनीफ बोलता है फक सि


ु शषन सक्सेना मर गया तो क्या हुआ? रोज कोई न
कोई मरता है । सि
ु शषन ‘कोई‘ था?‘

ब्रजेद्र बहािरु लसंह अभी तक थरथरा रहे थे। उनकी आंखें भी बह रही थीं-पता नहीं िे
आंसू थे या बाररश?

‘क्या?‘ मैं लगभग चचल्लाया था शायि, क्योंफक ठीक उसी क्षण सड़क से गुजरती एक
टै क्सी ने च्चीं च्चीं कर ब्रेक लगाए थे और पल भर को हमें िे ख आगे रपट गई थी।

‘सुिशषन मर गया? कब?‘ मैंने उन्हें लगभग खझंझोड़ दिया।

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‘अभी, अभी समाचारों में एक क्षण की खबर आई थी-प्रख्यात कहानीकार सि
ु शषन सक्सेना
का नई दिल्ली के सफिरजंग अस्पताल में लंबी बीमारी के बाि िे हांत।‘ ब्रजेंद्र बहािरु लसंह
समाचार पढ़ने की तरह बि
ु बि
ु ा रहे थे, ‘तम
ु िे खना, कल के फकसी अखबार में यह खबर नहीं
छपेगी। उनमें बलात्कार छप सकता है , मंत्री का जक
ु ाम छप सकता है , फकसी जोकर कवि के
अलभनंिन समारोह का चचत्र छप सकता है लेफकन सि
ु शषन सक्सेना का तनधन नहीं छप सकता।
छपेगा भी तो तीन लाइन में ... मानों सड़क पर पड़ा कोई लभखारी मर गया हो,‘ ब्रजेंद्र बहािरु
लसंह िमशः उत्तेजजत होते जा रहे थे। आज शराब का अंततम पैग उनकी आंखों में नींि के
बजाय गस्
ु सा उपजस्थत फकए िे रहा था। लेफकन यह गस्
ु सा बहुत ही कातर और नख-िं त विहीन
था, जजसे बंबई के उस उजाड़ मौसम ने और भी अचधक अकेला और बेचारा कर दिया था।

‘और िो हनीफ...‘ सहसा उनकी आिाज बहुत आहत हो गई, ‘तमु टॉयलेट में थे, जब
समाचार आया। हनीफ सोिा रखने आया था... तम
ु जानते ही हो फक मैंने फकतना कुछ फकया है
हनीफ के ललए... पहली तारीख को सेलरी लेकर यहां आया था जब हनीफ ने बताया था फक
उसकी बीिी अस्पताल में मौत से जझ
ू रही है ...परू े पांच सौ रुपए िे दिए थे मैंने जो आज तक
िापस नहीं मांगे... और उसी हनीफ से जब मैंने अपना सिमा शेयर करना चाहा तो बोलता है
आप शराब वपयो, रोज कोई न कोई मरता है ... चगरीश के केस में भी यही हुआ था। दिल्ली से
खत आया था विकास का फक चगरीश की अंत्येजष्ट में उस समेत दहंिी के कुल तीन लेखक थे।
केिल ‘ितषमान‘ ने उसकी मौत पर आधे पन्ने का लेख कंपोज करिाया था लेफकन साला िह भी
नहीं छप पाया था क्योंफक ऐन िक्त पर ठीक उसी जगह के ललए लक्स साबुन का विज्ञापन आ
गया था... यू नो, हम कहां जा रहे हैं?‘

सहसा मैं घबरा गया, क्योंफक अधेड़ उम्र का िह अनभ


ु िी, परचेज ऑफीसर, क्लब का
तनयलमत ग्राहक, बल
ु ंि ठहाकों से माहौल को जीिंत रखने िाला ब्रजेंद्र बहािरु लसंह बाकायिा
लससकने लगा था।

हमें लसर से पांि तक पूरी तरह तरबतर कर िे ने के बाि बाररश थम गई थी, और ब्रजेंद्र
बहािरु लसंह को शायि एक लंबी, गरम नींि की जरूरत थी। ऐसी नींि, जजसमें िह मनहूस
हाहाकार न हो जजसके बीच इस समय ब्रजेंद्र बहािरु लसंह घायल दहरनी की तरह तड़प रहे थे।

तभी एक अजाने िरिान की तरह सामने एक टै क्सी आकर रुकी और टै क्सी चालक ने
फकसी िे िित
ू की तरह चचषगेट ले चलना भी मंजूर कर ललया। हम टै क्सी में लि गए।

बाररश फफर होने लगी थी। ब्रजेंद्र बहािरु लसंह टै क्सी की सीट से लसर दटका कर सो गए
थे। उनके थके-थके आहत चेहरे पर एक साबुत िेिना अपने पंख फैला रही थी।

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00

फफर करीब छह महीने तक उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। िह िफ्तर से लंबी छुट्टी पर थे।
तीन चार बार मैं अलग-अलग समय पर उनके फ्लैट में गया लेफकन हर बार िहां ताला लटकता
पाया।

इस बीच िे श और ितु नया, समाज और राजनीतत, अपराध और संस्कृतत के बीच काफी


कुछ हुआ। छोटी बजच्चयों से बलात्कार हुए, तनरपराधों की हत्याएं हुईं, कुछ नामी गंुुिे चगरफ्तार
हुए, कुछ छूट गए, टै क्सी और ऑटो के फकराए बढ़ गए। घर-घर में स्टार, जी और एम०टी०िी
आ गए। पूजा बेिी कंिोम बेचने लगी और पूजा भट्ट बीयर। फफल्मों में लि स्टोरी की जगह
गैंगिार ने ले ली। कुछ पबत्रकाएँ बंि हो गईं और कुछ नए शराबघर खल
ु गए। और हाँ, इसी
बीच कलकत्ता में एक, दिल्ली में िो, बंबई में तीन और पटना में एक लेखक का कैंसर,
हाटष फेल, फकिनी फेल्योर या ब्रेन ट्यूमर से िे हांत हो गया! गाजजयाबाि में एक लेखक को गोली
मार िी गई और मुरािाबाि में एक कवि ने आत्महत्या कर ली।

ऐसी हर सूचना पर मुझे ब्रजेंद्र बहािरु लसंह बेतरह याि आए। लेफकन िह पता नहीं कहां
गायब हो गए थे। क्लब उनके बबना सूली पर चढ़े ईसा सा नजर आता था!

फफर तीन महीने बाि अप्रैल की एक सुबह ब्रजेंद्र बहािरु लसंह िफ्तर में अपनी सीट पर
बैठे नजर आए। िफ्तर के हॉल में घुसने पर जैसे ही मेरी नजर उनकी सीट पर पड़ी और िे उस
पर बैठे दिखाई दिए तो अचरज और खश
ु ी के आचधक्य से मेरा तन मन लरज उठा। मैं तो इस
बीच उनको लगभग खो िे ने की पीड़ा के हिाले हो चक
ु ा था। लेफकन िह थे, साक्षात।

‘बैठो!‘ मझ
ु े अपने सामने पा कर उन्होंने अत्यंत संयत और सधे हुए लहजे में कहा। िे
फकसी फाइल में नत्थी ढे र सारे कागजों पर िस्तखत करने में तल्लीन थे और मेरी उत्सक
ु ता थी
फक पसीने की मातनंि गिष न से फफसल कर रीढ़ के सबसे अंततम बबंि ु पर पहुंच रही थी। मैं
चपु चाप, अपनी उत्सुकता में बफष सा गलता हुआ अपने उस चहे ते, अधेड़ िोस्त को अनुभि कर
रहा था जो नौ महीने पहले बंबई की एक मनहूस, बरसाती रात में मुझसे बबछुड़ गया था और
आज, अचानक, बबना पूिष सूचना के अपनी उस चचर पररचचत सीट पर आ बैठा था जो इन नौ
महीनों में तनरं तर घटती अनेक घटनाओं के बािजूि एक जजद्दी प्रतीक्षा में चथर थी।

ब्रजेंद्र बहािरु लसंह िब


ु ले हो गए थे। उनकी आंखों के नीचे स्याह थैललयां सी लटक आई
थीं। कनपदटयों पर के में हिी से भरू े बने बाल झक्क सफेि थे। आंखों पर नजर का चश्मा था
जजसे िह रह-रह कर सीधे हाथ की पहली उं गली से ऊपर सरकाते थे। और हां, िस्तखत करने के

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िौरान या बीच बीच में पानी का चगलास उठाते समय उनके हाथ कांपते थे। उनकी आंखों में एक
शाश्ित फकस्म की ऐसी तनस्संगता थी जो जीिन के कदठनतम यथाथष के बीच आकार ग्रहण
करती है । नौ महीने बाि लौटे अपने उस परु ाने लमत्र को इन नई जस्थततयों और अजाने रहस्यों
सदहत झेलने का माद्दा मेरे भीतर बहुत िे र तक दटका नहीं रह सका। फफर, मझ
ु े भी अपनी सीट
पर जाकर अपने कामकाज िे खने थे।

‘लमलते हैं।‘ कह कर मैंने उनके सामने से उठने की कोलशश की तो िे एक अत्यंत तटस्थ


सी ‘अच्छा‘ थमा कर फफर से फाइल के बीच गुम हो गए।

मैं अिाक रह गया। उत्सुकता को कब का पाला मार चक


ु ा था। फफर सारे दिन ििष की
ऐंठन से घबरा कर जब-जब मैंने उनकी सीट की तरफ ताका, िह फकसी फंतासी की तरह यथाथष
के बीचोंबीच झल
ू ते से लमले।

छत्तीस साल गुजारे थे मैंने इस ितु नया में । उन छत्तीस िर्ों के अपने बेहि मौललक
फकस्म के िख
ु -ििष , हर्ष-विर्ाि, अपमान और सुख थे मेरे खाते में । नाते-ररश्तेिारों और एकिम
करीबी लमत्रों के छल-कपट भी थे। प्यार की गमी और ताकत थी तथा बेिफाई के संगदिल और
अनगढ़ टुकड़े भी थे। नशीली रातें , बीमार दिन, सूनी िप
ु हररयां, अश्लील नीली फफल्में और धल

चाटता उत्साह-क्या कुछ तो िजष नहीं हुआ था इन छत्तीस सालों में लेफकन इन छत्तीस कदठन
और लंबे िर्ों में मैं एक पल के ललए भी उतना आंतफकत और उिास नहीं हुआ था जजतना इस
एक छोटे से लम्हे में ब्रजेंद्र बहािरु लसंह की िीतरागी उपजस्थतत ने मुझे बना िाला था। क्या िह
ितु नया में रहते हुए भी ितु नया से बाहर चले गए हैं? ितु नया िे ख लेना और ितु नया से बाहर चले
जाना क्या एक ही लसक्के के िो पहलू हैं या इनका कोई अलग अलग मतलब है ? नौ महीने बाि
िापस लौटे ब्रजेंद्र बहािरु लसंह के पास ऐसे कौन से रहस्य हैं जजन्होंने उन्हें इतना रूक्ष और ठं िा
बना दिया है ? मां के गभष में नौ महीने बबताने िाला लशशु भी क्या कुछ ऐसे रहस्यों के बीच
विचरण करता है जो आज तक अनाित
ृ नहीं हुए। आखखर फकस गभष में नौ महीने बबता कर लौटे
हैं ब्रजेंद्र बहािरु लसंह।

पूरा एक दिन मेरा सिालों के साथ लड़ते-झगड़ते बीत गया। िो सेरीिॉन सटकने के
बािजूि ििष माथे पर जोंक सा चचपटा हुआ था और उधर ब्रजेंद्र बहािरु लसंह की सिा-बहार-
खशु गिार सीट पर जैसे एक िजषन मुिों का मातम कोहरे सा बरस रहा था।

आखखर िह उठे । शाम के सात बजे। िफ्तर साढ़े पांच बजे खाली हो चक
ु ा था। अब तीन
लोग थे-मैं, िे और चपरासी िीनियाल। मैं रूठा सा बैठा रहा, उनके उठने के बािजूि। िे धीरे -

35
धीरे चलते हुए मेरी सीट तक आए। मैंने उन्हें िे खा, उन्होंने मुझ।े उनकी आंखों में रोशनी नहीं,
राख थी। मैं पल भर के ललए लसहर गया।

‘उठो िोस्त!‘ िे बोले, उनकी आिाज कई सदियों को पार कर आती सी लग रही थी। मैंने
िे खा, िह ठीक से खड़े नहीं हो पा रहे थे। कभी िाएं झूल जाते थे, कभी बाएं, मानों फकसी बांस
पर कोई कुताष हिा में अकेला टं गा हो।

००

बबना िाताषलाप का तीसरा पैग चल रहा था और मैं भािुकता के कगार पर आ पहुंचा था।
हम उनके िदहसर िाले फ्लैट में थे- नौ महीने के स्पशष और संिािहीन अंतराल के बाि। कमरे
में रौशन तीन मोमबजत्तयों की लौ एक नंबर पर चलते पंखे की हल्की हल्की हिा के बीच
पीललया के मरीज सी कांप रही थीं। फ्लैट में घुसते ही उन्होंने बता दिया था फक अब उन्हें
अपनी रातें कम से कम रोशनी के बीच ही सुखकर लगती हैं और पूरा अंधरे ा तो उन्हें बुखार में
बफष की पट्टी सा अनुभि होता है । चीजों, रहस्यों और सत्यों को अंधेरे में टटोल टटोलकर पाने
का सुख ही कुछ और है ।

आखखर एक घंटे की मुसलसल खामोशी के सामने मेरा धैयष तड़क गया। शब्िों में तरलता
उं िेलते हुए मैंने धीमे धीमे कहन शुरू फकया, ‘आपको मालूम है , आपके सबसे वप्रय नौजिान कवि
ने कुछ समय पहले पंखे से लटक कर जान िे िी।‘

‘हां, यह समाचार मैंने िाजजषललंग में पढ़ा था।‘ उन्होंने आदहस्ता से कहा और चप
ु हो गए।
मैं चफकत रह गया। यह िे ब्रजेंद्र बहािरु लसंह नहीं थे जजन्होंने नौ महीने पहले क्लब में अपने
चहे ते िेटर हनीफ को चांटा मार दिया था।

‘और... और आपके बचपन के िोस्त, हम प्याला-हम तनिाला शायर विलास िे शमुख भी


जाते रहे ...‘ एक सच्चे िख
ु के ताप के बीच खड़ा मैं वपघल रहा था... ‘बहुत कारुखणक अंत हुआ
उनका। घदटया से अस्पताल में बबना इलाज के मर गए... यहाँ की दहंिी और उिष ू अकािलमयों ने
कुछ नहीं फकया। िे अंत समय तक यही तय नहीं कर पाईं फक एक महाराजष्रयन व्यजक्त को उिष ू
का शायर माना जाए या दहन्िी का गज़लगो।‘ मैंने क्षुब्ध स्िर में उन्हें जानकारी िे नी चाही।

ब्रजेंद्र बहािरु लसंह ने गहरी खामोशी के साथ अपने चगलास से रम का एक बड़ा घूँट भरा
और बबना फकसी उतार चढ़ाि के पहले जैसी शांत-जस्थर आिाज में बोले -‘हाँ, उन दिनों मैं
िे हरािन
ू में था अपनी एक िरू की भतीजी के पास, मुझे कोई अजीब सी जस्कन प्रॉब्लम हो गई

36
थी। चालीस दिन तक लगातार सहस्रधारा के गंधक िाले सोते में नहाता रहा। इस वििाि के बारे
में मैंने अखबारों में पढ़ा था।‘

अखबार... समाचार... खबर... हर मत्ृ यु पर िे क्लब के िेटर हनीफ़ की तरह बोल रहे थे-
िूरता की हि तक पहुँची तनस्संगता के लशखर पर खड़े हो कर। नहीं, िे मेरे िोस्त ब्रजेंद्र लसंह तो
कतई-कतई नहीं थे। मेरे उस िोस्त की काया में कोई संिेिनहीन, तनलषज्ज और पथरीला िै त्य
प्रिेश पा चक
ु ा था।

चौथा पैग खत्म करते करते मेरा जी उचट गया। एक क्षण भी िहां बैठना भारी पड़ने
लगा मुझ।े मँह
ु का स्िाि कैसला हो गया था और शब्ि मन के भीतर पारे की तरह थरथराने
लगे थे।

और फफर मैं उठा। लड़खड़ाते किमों से बबजली के जस्िच बोिष के पास जाकर मैंने सारे
बटन िबा दिए। कमरा कई तरह के बल्बों और ट्यूबलाइट की लमली-जुली रोशनी में नहाता हुआ
विचचत्र सी जस्थत में तन गया। साथ ही तन गईं, अब तक फकसी संत की तरह बैठे ब्रजेंद्र लसंह
के माथे की नसें।

‘ऑफ... लाइट ऑफ!‘ िे िहाड़ पड़े। यह िहाड़ इतनी भयंकर थी फक िर के मारे मैंने
फौरन ही कमरे को फफर अंधेरे के हिाले कर दिया।

‘सर, ब्रजेंद्र बहािरु लसंह, आप तो ऐसे नहीं थे?‘ मैंने आहत होकर कहा था और जस्िच
बोिष िाली िीिार से दटक कर जमीन पर पसर गया था, ‘जीिन की उस करुणा को कहाँ फेंक
आए आप जो...‘

‘यंग मैन!‘ मोमबजत्तयों के उस अपादहज उजाले में ब्रजेंद्र बहािरु लसंह का भराषया और
गीला स्िर गँज
ू ा-‘फकस करुणा की बात कर रहे हो तुम, करुणा की जरूरत फकसे है आज? नौ
महीने इस शहर में नहीं था मैं... क्या मेरे बबना इस ितु नया का काम नहीं चला?‘

‘िो तो ठीक है सर...‘ अब तक मेरा स्िर भी आद्रष हो चक


ु ा था।

‘कुछ ठीक नहीं है यंगमैन।‘ उनकी थकी-थकी आिाज़ उभरी, ‘तुम जानते हो फक मेरा
अपना कोई पररिार नहीं है । क्लब में घटी उस घटना के बाि मैं अपनी सारी जमा पूंजी लेकर
यात्रा पर तनकल गया था। इस उम्मीि में फक शायि कहीं कोई उम्मीि नज़र आए लेफकन
ग़लत... एकिम ग़लत... मेरे प्यारे नौजिान िोस्त! संिेिनशील लोगों की ज़रूरत फकसी को नहीं
है और कहीं नहीं है । मुझे समझ में आ गया है फक उस रात हनीफ़ ने फकतने बड़े सच को मेरे

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सामने खड़ा फकया था। रोज़ कोई न कोई मरता है ... क्या फ़कष पड़ता है फक फकसी कवि ने
आत्महत्या की या कोई कारीगर रे ल से कटा। कवि का मरना अब कोई घटना नहीं है । िह भी
लसफ़ष एक खबर है ।‘

‘तो?‘ मैंने ततनक व्यंग्य के साथ प्रश्न फकया।

‘तो कुछ नहीं। फफतनश। इसके बाि भी कुछ बचता है क्या?‘ िे मुझसे ही पूछने लगे थे।
फफर से िही मुिाष राख उनकी आँखों में उड़ने लगी थी, जजससे मैं िरा हुआ था।

यह मेरी उनसे आखखरी मुलाकात थी। नशे में थरथराती उस िाशषतनक सी लगती रात के
िो महीने बाि तक िह फफर िफ़्तर नहीं आए थे। कुछ व्यस्तता के कारण और कुछ उनको
बिाषश्त न कर पाने की कमज़ोरी के कारण मैं स्ियं भी उनकी तरफ़ नहीं जा सका था।

और अब यह सच
ू ना फक ब्रजेंद्र बहािरु लसंह चल बसे। मैंने बताया न, मझ
ु े आश्चयष नहीं
हुआ। क्योंफक उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था जब आज़ाि मैिान के आसमान पर िह
धसू र सन्नाटा पसरा हुआ था। जजस रात उन्होंने क्लब के िेटर हनीफ़ के गाल पर चाँटा मारा
था। उसी रात जब रात के अंततम समाचारों की अंततम पंजक्त में िरू िशषन िालों ने सि
ु शषन
सक्सेना के िे हांत की खबर िी थी और सर ब्रजेंद्र बहािरु लसंह तनपट अकेले थे।

नहीं, सर ब्रजेंद्र बहािरु लसंह लेखक या कवि या कलाकार नहीं थे। िह तो एक


व्यािसातयक कम्पनी में परचेज ऑफीसर थे।

लेफकन उनका िभ ु ाषग्य फक िह उन फकताबों के साथ बड़े हुए थे जजनकी अब इस ितु नया
में कोई ज़रूरत नहीं रही।

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उसरर िरकीरगांध र

लड़की मेरी आंखों में फकसी अश्लील इच्छा की तरह नाच रही थी।

‘पेरोल भरिा लें।‘ कह कर कमल ने अपनी लाल मारुतत जह


ु ू बीच जाने िाली सड़क के
फकनारे बने पेरोल पंप पर रोक िी थी और िरिाजा खोल कर बाहर उतर गया था।

शहर में अभी-अभी िाखखल हुए फकसी अजनबी के कौतुहल की तरह मेरी नजरें सड़क पर
चथर थीं फक उन नजरों में एक टै क्सी उभर आई। टै क्सी का वपछला िरिाजा खल
ु ा और िह
लड़की बाहर तनकली। उसने बबल चक
ु ाया और पसष बंि फकया। टै क्सी आगे बढ़ गई। लड़की पीछे
रह गई।

यह लड़की है ? विस्मय मेरी आंख से कोहरे सा टपकने लगा।

मैं कार से बाहर आ गया।

कोहरा आसमान से भी झर रहा था। हमेशा की तरह तनःशब्ि और गततहीन। कार की


छत बताती थी फक कोहरा चगरने लगा है । मैंने घड़ी िे खी। रात के साढ़े िस बजने जा रहे थे।

रात के साढ़े िस बजे मैं कोहरे में चप ु चाप भीगती लड़की को िे खने लगा। घट
ु नों से बहुत
बहुत ऊपर रह गया सफेि स्कटष और गले से बहुत बहुत नीचे चला आया सफेि टाुप पहने िह
लड़की उसे गीले अंधेरे में चारों तरफ िचू धया रौशनी की तरह चमक रही थी। अपनी सि ु ौल,
चचकनी और आकर्षक टांगों को िह जजस लयात्मक अंिाज में एक िस
ू रे से छुआ रही थी उसे
िे ख कोई भी फफसल पड़ने को आतरु हो सकता था।

जैसे फक मैं। लेफकन ठीक उसी क्षण, जब मैं लड़की की तरफ एक अजाने सम्मोहन सा
खखंचने को था, कमल गाड़ी में आ बैठा। न लसफष आ बैठा बजल्क उसने गाड़ी भी स्टाटष कर िी।

मैं चप
ु चाप कमल के बगल में आ बैठा और तंदद्रल आिाज में बोला, ‘लड़की िे खी?‘

‘ललफ्ट चाहती है ।‘ कमल ने लापरिाही से कहा और गाड़ी बैक करने लगा।

‘पर यह अभी अभी टै क्सी से उतरी है ।‘ मैंने प्रततिाि फकया।

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‘ललफ्ट के ही ललए।‘ कमल ने फकसी अनुभिी गाइि की तरह फकसी ऐततहालसक इमारत के
महत्िपण
ू ष लगते तथ्य के मामल
ू ीपन को उद्घादटत करने िाले अंिाज में बताया और गाड़ी सड़क
पर ले आया।

‘अरे , तो उसे ललफ्ट िो न यार!‘ मैंने चचरौरी सी की।

जुहू बीच जाने िाली सड़क पर कमल ने अपनी लाल मारुतत सरष से आगे बढ़ा िी और
लड़की के बगल से तनकल गया। मेरी आंखों के दहस्से में लड़की के उड़ते हुए बाल आए। मैंने
पीछे मुड़ कर िे खा-लड़की जल्िी में नहीं थी और फकसी-फकसी कार को िे ख ललफ्ट के ललए अपना
हाथ लहरा िे ती थी।

‘अपन ललफ्ट िे िे ते तो...‘ मेरे शब्ि अफसोस की तरह उभर रहे थे।

‘माई डियर! रात के साढ़े िस बजे इस सन


ु सान सड़क पर, टै क्सी से उतर कर यह जो
हसीन परी ललफ्ट मांगने खड़ी है न, यह अपन
ु को खलास भी करने को सकता। क्या?‘ कमल
मिाललयों की तरह मस्
ु कराया।

अपने पसंिीिा पॉइंट पर पहुंच कर कमल ने गाड़ी रोकी।

िक
ु ानें इस तरह उजाड़ थीं, जैसे लुट गई हों। तट तनजषन था। समुद्र िापस जा रहा था।

‘िो चगलास लमलेंगे?‘ कमल ने एक िक


ु ानिार से पूछा।

‘नहीं साब, अब्बी सख्ती है इधर, पन ठं िा चलेगा। िरू ...समंिर में जा के पीने का।‘
िक
ु ानिार ने रटा-रटाया सा जिाब दिया। उस जिाब में लेफकन एक टूटता सा िख
ु और साबत

सी चचढ़ भी शालमल थी।

‘क्या हुआ?‘ कमल चफकत रह गया। ‘पहले तो बहुत रौनक होती थी इधर। बेिड़े कहां
चले गए?‘

‘पुललस रे ि मारता अब्बी। धंधा खराब कर दिया साला लोक।‘ िक


ु ानिार ने सूचना िी और
िक
ु ान के पट बंि करने लगा। बाकी िक
ु ानें भी बुझ रही थीं।

‘कमाल है ?‘ कमल बुिबुिाया, ‘अभी छह महीने पहले तक शहर के इंटलैक्चअ


ु ल यहीं बैठे
रहते थे। िो, उस जगह। िहां एक िक
ु ान थी। चलो।‘ कमल मुड़ गया, ‘पाम ग्रोि िाले तट पर
चलते हैं।‘

40
हम फफर गाड़ी में बैठ गए। तय हुआ था फक आज िे र रात तक मस्ती मारें गे, अगले दिन
इतिार था-िोनों का अिकाश। फफर, हम करीब महीने भर बाि लमल रहे थे-अपनी-अपनी
व्यस्तताओं से छूट कर। चाहते थे फक अपनी-अपनी बिहिासी और बेचन
ै ी को समद्र
ु में िुबो दिया
जाए आज की रात। समद्र
ु फकनारे शराब पीने का कायषिम इसीललए बना था।

गाड़ी के रुकते ही िो-चार लड़के मंिराने लगे। कमल ने एक को बुलाया, ‘चगलास


लमलेगा?‘

‘और?‘ लड़का व्यिसाय पर था।

'िो सोिे, चार अंिे की भुज्जी, एक विल्स का पैकेट।‘ कमल ने आिे श प्रसाररत कर दिया।

थोड़ी ही िरू ी पर पलु लस चैकी थी, भय की तरह लेफकन मारुतत की भव्यता उस भय के


ऊपर थी। सारा सामान आ गया था। हमने अपना िीएसपी का हाफ खोल ललया था।

िरू तक कई कारें एक िस
ू रे से सम्मानजनक िरू ी बनाए खड़ी थीं-मयखानों की शक्ल में ।
फकसी फकसी कार की वपछली सीट पर कोई नियौिना अलमस्त सी पड़ी थी-प्रतीक्षा में ।

सड़क पर भी फकतना तनजी है जीिन। मैं सोच रहा था और िे ख रहा था। िे ख रहा था
और शहर के प्यार में िूब रहा था। आइ लि बांबे। मैं बुिबुिाया। फकसी िआ
ु को िोहराने की
तरह और लसगरे ट सुलगाने लगा। हिा में ठं िक बढ़ गई थी।

कमल को एक फफलीस्तीनी कहानी याि आ गई थी, जजसका अधेड़ नायक अपने युिा
साथी से कहता है -‘तुम अभी कमलसन हो याकूब, लेफकन तुम बूढ़े लोगों से सुनोगे फक सब
औरतें एक जैसी होती हैं, फक आखखरकार उनमें कोई फकष नहीं होता। इस बात को मत सुनना
क्योंफक यह झूठ है । हरे क औरत का अपना स्िाि और अपनी खश
ु बू होती है ।‘

‘पर यह सच नहीं है यार।‘ कमल कह रहा था, ‘इस मारुतत की वपछली सीट पर कई
औरतें लेटी हैं, लेफकन जब िे रुपयों को पसष में ठूंसती हुई, हं सकर तनकलती हैं, तो एक ही जैसी
गंध छोड़ जाती हैं। बीिी की गंध हो सकता है , कुछ अलग होती हो। क्या खयाल है तुम्हारा?‘

मझ
ु े अनभ
ु ि नहीं था। चप
ु रहा। बीिी के नाम से मेरी स्मतृ त में अचानक अपनी पत्नी
कौंध गई, जो एक छोटे शहर में अपने मायके में छूट गई थी-इस इंतजार में फक एक दिन मझ
ु े
यहां रहने के ललए कायिे का घर लमल जाएगा और तब िह भी यहां चली आएगी। अपना यह
िख
ु याि आते ही शहर के प्रतत मेरा प्यार िमशः बझ
ु ने लगा।

41
हमारा िी०एस०पी० का हाफ खत्म हो गया तो हमें समुद्र की याि आई। गाड़ी बंि कर
हमने पैसे चक
ु ाए तो सविषस करने िाला छोकरा बायीं आंख िबा कर बोला, ‘माल मंगता है ?‘

‘नहीं!‘ कमल ने इनकार कर दिया और हम समुद्र की तरफ बढ़ने लगे, जो पीछे हट रहा
था। लड़का अभी तक चचपका हुआ था।

‘छोकरी जोरिार है सेठ। िोनों का खाली सौ रुपए।‘

‘नई बोला तो?‘ कमल ने छोकरे को िपट दिया। तट तनजषन हो चला था। पररिार अपने
अपने दठकानों पर लौट गए थे। िरू ...कोई अकेला बैठा िख
ु सा जाग रहा था।

‘जह
ु ू भी उजड़ गया स्साला।‘ कमल ने हिा में गाली उछाली और हल्का होने के ललए
िीिार की तरफ चला गया-तनपट अंधकार में ।

तभी िह औरत सामने आ गई। बििआ


ु की तरह।

‘लेटना मांगता है ?‘ िह पूछ रही थी।

एक क्िाटष र शराब मेरे जजस्म में जा चुकी थी। फफर भी मुझे झुरझुरी सी चढ़ गई।

िह औरत मेरी मां की उम्र की थी। परू ी नहीं तो करीब-करीब।

रात के ग्यारह बजे, समुद्र की गिाही में , उस औरत के सामने मैंने शमष की तरह छुपने
की कोलशश की लेफकन तुरंत ही धर ललया गया।

मेरी शमष को औरत अपनी उपेक्षा समझ आहत हो गई थी। झटके से मेरा हाथ पकड़
अपने िक्ष पर रखते हुए िह फुसफुसायी, ‘एकिम कड़क है । खाली िस रुवपया िे ना। क्या? अपुन
को खाना खाने का।‘

‘िो...उधर मेरा िोस्त है ।‘ मैं हकलाने लगा।

‘िांिा नईं। िोनों ईच चलेगा।‘

‘शटअप।‘ सहसा मैं चीखा और अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से भागा-कार की तरफ। कार
की बॉिी से लग कर मैं हांफने लगा-रौशनी में । पीछे , समुद्री अंधेरे में िह औरत अकेली छूट गई
थी-हतप्रभ। शायि आहत भी। औरत की गंध मेरे पीछे -पीछे आई थी। मैंने अपनी हथेली को नाक
के पास ला कर सूंघा-उस औरत की गंध हथेली में बस गई थी।

42
‘क्या हुआ?‘ कमल आ गया था।

‘कुछ नहीं।‘ मैंने थका-थका सा जिाब दिया, ‘मुझे घर ले चलो। आई...आई हे ट दिस
लसटी। फकतनी गरीबी है यहां।‘

‘चलो, कहीं शराब पीते हैं।‘ कमल मुस्कराने लगा था।

×××

तीन फुट ऊंचे, संगमरमर के फशष पर, बहुत कम कपड़ों में , चीखते आकेस्रा के बीच िह
लड़की हं स हं स कर नाच रही थी। बीच-बीच में कोई िस-बीस या पचास का नोट दिखाता था
और लड़की उस ऊंचे, गोल फशष से नीचे उतर लहराती हुई नोट पकड़ने के ललए लपक जाती थी।
कोई नोट उसके िक्ष में ठूंस िे ता था, कोई होठों में िबा कर होठों से ही लेने का आग्रह करता
था और नोट बड़ा हो तो लड़की एक या िो सैकेंि के ललए गोि में भी बैठ जाती थी। उत्तेजना
िहां शमष पर भारी थी और िीभत्स मस्
ु कराहटों के उस बनैले पररदृश्य में सहानभ
ु तू त या संिेिना
का एक भी कतरा शेर् नहीं बचा था। पैसे के िािानल में लड़की सूखे बांस सी जल रही थी।

उस जले बांस की गंध से कमरे का मौसम लगातार बोखझल और कसैला होता जा रहा
था। मैं उठ खड़ा हुआ। ‘नीचे बैठेंगे।‘ मैंने अल्टीमेटम सा दिया।

‘क्यों?‘

‘मुझे लगता है , लड़की मेरी धमतनयों में विलाप की तरह उतर रही है।‘

'शरीफ बोले तो? चग


ु ि!‘ कमल ने कहकहा उछाला और हम सीदढ़यां उतरने लगे।

नीचे िाले हॉल का एक अंधेरा कोना हमने तेजी से थाम ललया, जहां से अभी अभी कोई
उठा था-दिन भर की थकान, चचढ़, नफरत और िोध को मेज पर छोड़कर-घर जाने के ललए।

मुझे घर याि आ गया। घर यानी मालाि के एक सस्ते गैस्ट हाउस का िस बाई िस का


िह उिास कमरा जहां मैं अपनी आिामक और तीखी रातों से िो-चार होता था। मुझे लगा, मेरी
चचिी आई होगी िहां, जजसमें पत्नी ने फफर पूछा होगा फक ‘घर कब तक लमल रहा है यहां?‘

मैं फफर बार में लौट आया। हमारी मेज पर जो लड़की शराब सिष कर रही थी, िह खासी
आकर्षक थी। इस अंधेरे कोने में भी उसकी सांिली िमक कौंध कौंध जाती थी।

43
िी०एस०पी० के िो लाजष हमारी मेज पर रख कर, उनमें सोिा िाल िह मुस्कराई, ‘खाने
को?‘

‘बॉइल्ि एग‘, कमल ने उसके उभारों की तरफ इशारा फकया।

‘धत्त।‘ िह शमाष गयी और काउं टर की तरफ चली गई।

‘धांसू है न?‘ कमल ने अपनी मि


ु ी मेरी पीठ पर मार िी।

‘हां। चेहरे में कलशश है ।‘ मैं एक बड़ा लसप लेने के बाि लसगरे ट सुलगा रहा था।

‘लसफष चेहरे में ?‘ कमल खखलखखला दिया।

मुझे ताज्जुब हुआ। हर समय खखलखखलाना इसका स्िभाि है या इसके भीतरी िख ु बहुत
नुकीले हो चकु े हैं? मैंने फफर एक बड़ा लसप ललया और बगल िाली मेज को िे खने लगा जहां एक
खब
ू सूरत सा लड़का चगलास हाथ में थामे अपने भीतर उतर गया था। फकसी और मेज पर शराब
सिष करती एक लड़की बीच बीच में उसे थपथपा िे ती थी और िह चौंक कर अपने भीतर से
तनकल आता था। लड़की की थपथपाहट में जो अिसाि ग्रस्त आत्मीयता थी उसे महसूस कर
लगता था फक लड़का ग्राहक नहीं है । इस लड़के में जीिन में कोई पक्का सा, गाढ़ा सा िख
ु है ।
मैंने सोचा।

‘इस बार में कई फफल्मों की शूदटंग हो चक


ु ी है ।‘ कमल के भीतर सोया गाइि जागने
लगा, ‘फाइट सीन ऊपर होते हैं, सैि सीन नीचे।‘

‘हम िख
ु ी दृश्य के दहस्से हैं?‘ मैंने पछ
ू ा और कमल फफर खखलखखलाने लगा।

शराब खत्म होते ही लड़की फफर आ गई।

‘ररपीट।‘ कमल ने कहा, ‘बॉइल्ि एग का क्या हुआ?‘

‘धत्त।‘ लड़की फफर इठलाई और चली गई।

उसके बाि मैं ध्िस्त हो गया। मैंने कश ललया और लड़की का इंतजार करने लगा।

लड़की फफर आई। िह िो लाजष पैग लाई थी। बाुइल्ि एग उसके पीछे -पीछे एक पुरुर्
िेटर िे गया।

अंिों पर नमक तछड़कते समय िह मुस्करा रही थी। सहसा मुझसे उसकी आंख लमली।

44
‘अंिे खाओगी?‘ मैंने पूछा।

मैंनें ऐसा क्यों पूछा होगा? मैंने सोचा। मैं भीतर से फकसी फकस्म के अश्लील उत्साह से
भरा हुआ नहीं था। तो फफर?

तभी लड़की ने अपनी गिष न ‘हां‘ में दहलायी, मेरे भीतर एक गुमनाम, अजाना सा सुख
ततर आया।

‘ले लो।‘ मैंने कहा।

उसने एक नजर काउं टर की तरफ िे खा फफर चप


ु के से िो पीस उठाकर मंुह में िाल ललए।
अंिे चबा कर िह बोली, ‘यहां का चचली चचकन बहुत टे स्टी है , मंगिाऊ?‘

‘मंगिा लो।‘ जिाब कमल ने दिया, ‘बहुत अच्छी दहंिी बोलती हो। यूपी की हो?‘

लड़की ने जिाब नहीं दिया। तेजी से लौट गई। मुझे लगा, कमल ने शायि उसके फकसी
रहस्य पर उं गली रख िी है ।

चचली चचकन के पीछे पीछे िह फफर आई। इस बार अपनी साड़ी की फकसी तह में तछपा
कर िह एक कांच का चगलास भी लाई थी।

‘थोड़ी सी िो न?‘ उसने मेरी आंखों में िे खते हुए बड़े अचधकार और मान भरे स्िर में
कहा। उसके शब्िों की आंच में मेरा मन तपने लगा। मझ ु े लगा, मैं इस लड़की के तमाम रहस्यों
को पा लंग
ू ा। मैंने काउं टर की तरफ िे खा फक कोई िे ख तो नहीं रहा। िरअसल उस िक्त मैं
लड़की को तमाम तरह की आपिाओं से बचाने की इच्छा से भर उठा था। अपनी सारी शराब
उसके चगलास में िाल कर मैं बोला, ‘मेरे ललए एक और लाना।‘

एक सांस में पूरी शराब गटक कर और चचकन का एक टुकड़ा चबा कर िह मेरे ललए
शराब लेने चली गई। उसका खाली चगलास मेज पर रह गया। मैं चोरों की तरह, चगलास पर छूटे
रह गए उसके होंठ अपने रूमाल से उठाने लगा।

‘भािुक हो रहे हो।‘ कमल ने टोका। मैंने चैंक कर िे खा, िह गंभीर था।

हमारे िो लाजष खत्म करने तक, हमारे खाते में िह भी िो लाजष खत्म कर चक
ु ी थी। मैंने
‘ररपीट‘ कहा तो िह बोली, ‘मैं अब नहीं लूंगी। आप तो चले जाएंगे। मुझे अभी नौकरी करनी है ।‘

45
मेरा नशा उतर गया। धीमे शब्िों में उच्चारी गयी उसकी चीख बार के उस नीम अंधेरे में
कराह की तरह कांप रही थी।

'तुम्हारा पतत नहीं है ?‘ मैंने नकारत्मक सिाल से शुरूआत की, शायि इसललए फक िह
कंु आरी लड़की का जजस्म नहीं था, न उसकी महक ही कंु िारी थी।

'मर गया।‘ िह संक्षक्षप्त हो गई-कटु भी। मानो पतत का मर जाना फकसी विश्िासघात सा
हो।

'इस धंधे में क्यों आ गई?‘ मेरे मुंह से तनकल पड़ा। हालांफक यह पूछते ही मैं समझ गया
फक मुझसे एक नंगी और अपमानजनक शुरूआत हो चक
ु ी है ।

'क्या करती मैं?‘ िह िोचधत होने के बजाय रूआंसी हो गई, ‘शरू


ु में बतषन मांजे थे मैंने,
कपड़े भी धोए थे अपने मकान माललक के यहां। िे खो, मेरे हाथ िे खो।‘ उसने अपनी िोनों
हथेललयां मेरी हथललयों पर रगड़ िीं। उसकी हथेललयां खरु िरु ी थीं-कटी फटी।

‘इन हथेललयों का गम नहीं था मुझे जब आिमी ही नहीं रहा तो...‘ िह अपने अतीत के
अंधेरे में खड़ी खल
ु रही थी, ‘बतषन मांज कर जीिन काट लेती मैं लेफकन िहां भी तो...‘ उसने
अपने होंठ काट ललए। उसे याि आ गया था फक िह ‘नौकरी‘ पर है और रोने के ललए नहीं, हं सने
के ललए रखी गई है ।

‘और पीने का?...‘ िह पेशि


े र हो गई। कठोर भी।

‘मैं तुम्हारे हाथ चम


ू सकता हूं?‘ मैंने पूछा।

‘हुंह।‘ लड़की ने इतनी तीखी उपेक्षा के साथ कहा फक मेरी भािक


ु ता चटख गई। लगा फक
एक लाजष और पीना चादहए।

अपमान का िं श और शराब की इच्छा ललए, लेफकन मैं उठ खड़ा हुआ और कमल का


हाथ थाम बाहर चला आया। पीछे , अंधेरे कोने िाली मेज पर, चचली चचकन की खाली प्लेट के
नीचे सौ-सौ के तीन नोट िे र तक फड़फड़ाते रहे -उस लड़की की तरह।

बाहर आकर गाड़ी के भीतर घुसने पर मैंने पाया-उस लड़की की गंध भी मेरे साथ चली
आई है । मैंने अपनी हथेललयां िे खीं-लड़की मेरी हथेललयों पर पसरी हुई थी।

46
×××

पता नहीं कहां कहां के चक्कर काटते हुए जब हम रुके तो मारुतत खार स्टे शन के बाहर
खड़ी थी। रात का सिा बज रहा था।

कह नहीं सकता फक रात भर बाहर रहने का कायषिम तय करने के बािजूि हम स्टे शन


पर क्यों आ गए थे। शायि मैं थक गया था। या शायि घबरा गया था। या फफर शायि अपने
कमरे के एकांत में पहुंच कर चपु चाप रोना चाहता था। जो भी हो, हम स्टे शन के बाहर थे-एक-
िस
ू रे से वििा होने का ििष थामे।

उसी समय कमल के ठीक बगल में , खखड़की के बाहर, एक आकृतत उभर आई। िह एक
िीन-हीन बुदढ़या थी। बितमीज होंठों से तनकली भद्दी गाली की तरह िह हमारे सामने उपजस्थत
हो गई थी और गंिे इशारे करने लगी थी।

मझ
ु े उबकाई आने लगी।

‘क्या चादहए?‘ कमल ने हं स कर पूछा।

‘चार रुपए।‘

'एकिम चार। क्यों भला?‘

‘िारू पीने का है , िो मेरे िास्ते, िो उसके िास्ते,‘ बदु ढ़या ने एक अंधेरे कोने की तरफ
इशारा फकया।

‘िौ कौन?‘ कमल पूछ रहा था।

‘छक्का है । मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुदढ़या ने इशारे से भी बताया फक उसका साथी
दहजड़ा है ।

‘बच्चा नहीं तेरे को?‘ कमल ने पूछा।

‘हैं न!‘ बदु ढ़या की आंखें चमकने लगीं, ‘लड़की है । उसकी शािी हो गई माहीम की
झोंपड़पट्टी में । लड़का चला गया अपनी घरिाली को लेकर। धारािी में धंधा है उसका।‘

‘तेरे को सड़क पर छोड़ गए?‘ मेरी ऊब के भीतर एक कौतुहल ने जन्म ललया, ‘पतत क्या
हुआ तेरा?‘

47
‘बुड्ढा परसोईं मरे ला है । पी के कट गया फास्ट से, उधर िािर में । अब्बी मैं उसकेइच
साथ रहती।‘ बदु ढ़या ने फफर अपने साथी की तरफ इशारा फकया और वपंि छुड़ाती सी बोली,
‘अब्बी चार रुवपया िे न! ‘

‘तेरा घर नहीं है ?‘ कमल ने पसष तनकाल कर चार रुपए बाहर तनकाले।

‘अख्खा बंबई तो अपना झोंपड़पट्टी है ।‘ बुदढ़या ने ऐसे अलभमान में भर कर कहा फक


उसके जीिट पर मैं चैंक उठा। कमल के हाथ से रुपए छीन बुदढ़या अपने साथी की तरफ फफसल
गई, जो एक झोंपड़ी के पास खड़ा था-प्रतीक्षातुर।

मैं पेशाब करने उतरा। झोंपड़ी फकनारे अंधेरे में मैं हल्का होने लगा।

झोंपड़ी के भीतर बदु ढ़या और उसका साथी कच्ची शराब खरीि कर पी रहे थे। बदु ढ़या
अपने साथी से कह रही थी, ‘खाली पीली रौब नईं मारने का। अपन
ु भी तेरे को वपला सकता,
क्या? ओ कार िाले सेठ ने दिया। रात रात भर कार में घम
ू ता साला लोक, रहने को घर नईं
साला लोक के पास और अपनु से पछ
ू ता, तेरे को सड़क पे छोड़ गए क्या?‘ बदु ढ़या मेरा मजाक
उड़ा रही थी।

िारू गटक कर िोनों एक िस


ू रे के गले में बांहें िाले, झूमते हुए झोंपड़ी के बाहर आ रहे
थे।

‘थ!ू ‘ बुदढ़या ने सड़क पर ढे र सा बलगम थक


ू दिया और कड़िाहट से बोली, ‘चार रुवपया
िे के साला सोचता फक अपुन को खरीि ललया।‘

मैं अभी तक अंधेरे में था, हतप्रभ। मारुतत को अभी तक खड़े िे ख बुदढ़या दठठकी फफर
अपने साथी से बोली, ‘िो िे ख गाड़ी अब्बी भी खड़ेला है । मैं तेरे को बोली न, घर नईं साला लोक
के पास।‘

'सच्ची बोली रे तू।‘ बुदढ़या के साथी ने सहमतत जतायी और िोनों हं सते हुए िस
ू री तरफ
तनकल गए।

कलेजा चाक हो चक
ु ा था। खन
ू से लथ-पथ मैं मारुतत की तरफ बढ़ा। बाहर खड़े खड़े ही
मैंने अपना तनजीि हाथ कमल के हाथ में दिया और फफर तेजी से िौड़ पड़ा प्लेटफामष की तरफ।

‘क्या हुआ? सुनो!‘ कमल चचल्लाया मगर तब तक मैं रे न के पायिान पर लटक गया
था।

48
सीट पर बैठ कर अपनी उनींिी और आहत आंखें मैंने छत पर चचपका िीं। और यह िे ख
कर िर गया फक रे न की छत से बदु ढ़या की गंध लटकी हुई थी।

मैंने घबरा कर अपनी हथेललयां िे खीं-अब िहां बुदढ़या नाच रही थी।

49
खि
ु ज शिसमशिसम

के. आ रही थी।


मेज पर उसका पत्र खल
ु ा पड़ा है । िही ललखािट है जजसे मैं आंखें बंि कर उं गललयों के
स्पशष मात्र से पहचान सकता हूं। बबना कॉमे, फुलस्टॉप के ललखी जाने िाली के. की ललखािट।
िह पत्र नहीं ललखती, पत्रों में बहती है । और जो बह रहा हो उसे इतना अिकाश अथिा होश कहां
फक िह अधषविराम या पण
ू वष िराम का व्यिधान स्िीकार करे । के. का पत्र शरू
ु हो ने के बाि सीधा
खत्म होता है लेफकन अंततम शब्ि ललखने के बाि भी िह पण
ू वष िराम का प्रयोग नहीं करती।
के. से िजह पूछी थी एक बार पत्र में ही। उसने हं सकर (मतलब उसने जो शब्ि ललखे
उनकी बनािट बता रही थी फक इन्हें ललखते समय िह हं सी होगी) ललखा ...'पूणवष िराम न होने
का मतलब है फक पत्र समाप्त नहीं हुआ है पत्र समाप्त हो सकता है क्या...'
यही के. आ रही है ।
पत्र में ललखा है ... '27 को दिल्ली पहुंच रही हूं सुबह 'शाहजहां' होटल के कमरा नंबर 203
में सुबह िस बजे से तुम्हारे इंतजार में बैठ जाऊंगी जानती हूं फक उस दिन तुम्हारा िफ्तर होगा
आ सकोगे न तुम्हारी कालमनी'
'आ सकोगे न' और 'उस दिन तुम्हारा िफ्तर होगा' ललखकर के. ने छे ड़ा है । उसकी छे ड़-
छाड़ भी फकतनी शालीन है । यह नहीं फक छड़ने की ओट में छोटा कर दिया अथिा िख
ु िे दिया।
आज छब्बीस है । यानी कल। यानी आज का दिन और आज की रात बहुत लंबी हो
जायेगी। कल की छुट्टी लेनी होगी। िो सी.एल. अभी बची हुई हैं। काम चल जायेगा।
के. आ रही है । यह एक ऐसा िाक्य है जो चेतना में फकसी कणषवप्रय धन
ु की तरह बज
रहा है । हौले-हौले लगातार। आंखों को सिजप्नल और हृिय को रागमय बनाता हुआ। के. है ही
ऐसी जजसके पत्र पढ़ने भर से हृिय के शोक अनुपजस्त हो जाते हों और लसके शि इस कदठन
ितु नया को कामल करते हों। उससे रूबरू होने की कल्पना को मूतत
ष ा िे ने के ललए शब्ि नाकाफी
हैं। िह आ रही है ... सात महीने के पररचय में पहली बार। इन सात महीनों में जजस तरह के.
पूरे पांच िजषन पत्र के. ने ललखे हैं और उन पत्रों में िमशः विकास पाता जो भाि इस बीच
सजृ जत हुआ है उसकी प्रौढ़ आंच में मेरी संपूणष चेतना चारों तरफ से धीरे -धीरे लसक रही है मानो
और के. द्िारा ललखे गये शब्ि िराज में बंि फाइल से तनकल-तनकल कर आकार ग्रहण कर रहे
हैं। ऐसा आकार जो आपको छा ले। गम
ु हो जायें जजसमें आप।
'आप'। यह पहला शब्ि था जो के. ने अपने पहले पत्र में ललखा था बबना फकसी संबोधन
के, बबना फकसी खतो फकताबत िाली औपचाररकता में पड़े हुए। इसके बाि बना था परू ा
िाक्य...'आप मझ
ु े अपने लमत्रों में शालमल करें गे आपके लेखन में मझ
ु े एक ऐसी करुणा दिखाई

50
पड़ती है जजसकी मैं आकांक्षी हूं यह करुणा िल
ु भ
ष होती जा रही है आज के समय में कौन नहीं
चाहे गा इस करुणा को सहे ज कर रखना आपकी कालमनी'
मैंने इस पत्र को कई तरह से पढ़ा था और इसके कई अथों को ग्रहण फकया था। मेरे
जीिन का यह पहला ऐसा पत्र था जजसमें कोई अधषविराम था, न पण
ू वष िराम। मैंन अपनी सवु िधा
से अलग-अलग जगहों पर अधषविराम और पण
ू वष िराम लगाकर इस पत्र को कई बार पढ़ा था। मैं
मान नहीं पा रहा था फक इस तरह का पत्र ललखने िाली कोई स्त्री 'पंक्चए
ु शन' की जानकारी नहीं
रखती होगी। पत्र ललखने का यह उसका तनजी स्टाइल था शायि। पहला ही पत्र फकतना
अनौपचाररक, फकतना स्पष्ट, फकतना पारिशी और फकतने-फकतने अथों को समेटे हुए। 'आपकी
कालमनी' और 'कौन नहीं चाहे गा इस करुणा को सहे ज कर रखना' मैंने िजषनों बार पढ़े और हर
बार एक नया अथष खल
ु ता लगा। 'आप मुझे अपने लमत्रों में शालमल करें गे' िाक्य के बाि न
प्रश्निाचक चचन्ह था न पूणष विराम और न ही विस्मयबोधक चचन्ह। मैं समझ ही नहीं पाया फक
इस िाक्य से आिे श की ध्ितन तनकलती है , आग्रह की, अथिा अपेक्षा की। और सहसा उस
अभूतपूिष क्षण में मैंने चाहा, पुरुर् होने के बािजूि चाहा फक यह आिे श ही हो। मेरी यह चाहत
यह संकेत िे रही थी फक मैं इसी क्षण से कालमनी के प्रेमी में रूपांतररत हो गया हूं।
अजीब और भािुक लग सकता है यह सोचना फक फकसी लड़की के पहले ही पत्र को पा
कर कोई खि
ु को उसके प्रेमी के रूप में िे खने लगे। पर यह पत्र लड़की का था क्या? फकसी
लड़की में ऐसा पत्र ललखने की क्षमता ओर समझ होती है फक िह शब्िों के कारीगर को विजस्मत
कर िे ? लड़फकयां विजस्मत करती हैं लड़कों को, अपने लड़कपन से, चफूं क लड़फकयों का लड़कपन
लड़कों के लड़कपन को तष्ु ट करता है , मोदहत करता है । यही िजह है फक लड़कपन की उम्र पीछे
छूट जाने पर भी जो लड़की अपना लड़कपन नहीं छोड़ पाती िह लड़कपन छोड़ चक
ु े लड़के को
भीतर तक तोड़ती है । उम्र बीत जाने पर िही अिाएं और आितें िोध और विक्षोभ का कारण
बनती हैं जो कभी मोदहत करती थी। के. लड़की नहीं थी, यह बात मुझे के. को िे खे-जाने बगैर
उसके पहले ही पत्र से पता चल गयी थी। मैंने बाि के पररचय में भी अपने अनुमान को पुष्ट
करने की कोलशश नहीं की। यह खल
ु ा अपने आप। लगभग तीन महीने बाि, जब पत्र लसफष पत्र
नहीं रह गये थे, सांस लेते रहने का सबब बन गये थे।
उसने ललखा... 'तुम्हारा खत पहली बार उन्होंने खोलकर पढ़ ललया नहीं जानती फक क्यों
ऐसा मेरे जीिन में पहली बार हुआ है इसललए विश्लेर्ण करना होगा फक क्यों उनके मन में
पहली बार कोई अपराधी जागा हालांफक यह स्िीकार करते हुए उन्होंने पत्र मझ
ु े िे भी दिया फक
इसे उन्होंने पढ़ ललया है नहीं तम्
ु हारे बारे में एक शब्ि नहीं पछ
ू ा उन्होंने लगा नहीं फक आहत
हुए होंगे संबंधों को लेकर भी आहत हुआ जा सकता है यह उनकी जीिन शैली में नहीं आता िे
आहत होते हैं तब जब बबजनेस में कोई बड़ी चोट लगे तम्ु हारे पत्र का जिाब इस पत्र में िे ना
तुम्हारे पत्र का महत्ि कम करना होगा इसललए कल िस
ू रा पत्र ललखग
ंू ी तम्
ु हारी कालमनी'

51
कह नहीं सकता फक इस पत्र में ऐसा क्या था जजसने िफ्तर से एक दिन की छुट्टी लेकर
कनाट प्लेस के लंबे बारामिों और इंडिया गेट के पाकष में भटकने पर मजबरू फकया। िह क्या था
जजसने अपने अनम
ु ान के सच तनकलने पर सख
ु के बजाय िख
ु सौंप दिया? स्त्री को भी अपनी
'प्राइिेट प्रापटी' मानने िाला िह कौन-सा सामंत था जो इंडिया गेट के पाकष में िे र शाम तक
मेरी चेतना पर सटाक-सटाक चाबक
ु बरसाता रहा? क्या मैं इस यथाथष का सामना नहीं कर पाया
था उस रोज फक कालमनी फकसी और परु
ु र् की पत्नी है या फक मेरी कंु ठा इस सच्चाई से उपजी
थी फक मैं अपनी पत्नी का फकसी अन्य परु
ु र् की प्रेलमका बनना स्िीकार नहीं कर सकता था।
'मेरा मेरा' चीखने िाला कौन-सा वपशाच उस िोपहर कनाट प्लेस के बारामिों में मेरा पीछा करता
रहा था?
कालमनी के हर तनणषय और विश्लेर्ण को उचचत और बारीक मानने िाला मैं उस रोज
क्यों एक गहरे संिेह से भर उठा था। ऐसा कैसे हो सकता है फक कालमनी का पतत मेरा पत्र
पढ़कर आहत ही न हुआ हो, मैंने सोचा था। अगर िह आहत हुआ होता तो मुझे कोई पीड़ा न
होती। मेरी पीड़ा थी फक कालमनी के पतत को पीड़ा क्यों नहीं हुई? क्या कालमनी का पतत अपनी
उिारता के रथ पर िौड़ता हुआ मुझे रौंिना चाहता है , मैंने सोचा था और मेरा सिाांग ऐंठने लगा
था। क्या तमाम सारी बड़ी-बड़ी बातें करने के बािजूि मैं छोटा हूं?
मैंने कालमनी के अगले दिन आने िाले पत्र का इंतजार नहीं फकया था और उसी रात
अपनी पीड़ा एक पत्र में उं िेल कालमनी के नाम रिाना कर िी थी।
अगले दिन कालमनी के जजस पत्र को आना था, िह नहीं आया। उसके अगले दिन भी
नहीं और उसके अगले से अगले दिन भी उसका कोई खत नहीं लमला। उसका पत्र लमला पूरे िस
रोज बाि। उसका यह पत्र मेरी पीड़ाओं का जिाब लाया था।
'वप्रय कौशल' के तुरंत बाि उसने ललखा था -'हमारे यहां वििाह असफल क्यों होते हैं इसे
मुझसे बेहतर तुम जानते होगे मेरा अपना विचार इस मामले में यह है फक िे िे ह पर दटके होते
हैं इसीललए तनरथषक साबबत हो जाते हैं और प्रेम िह इसललए अपनी चमक और ऊष्मा खो िे ता
है क्योंफक िे ह के इई चगिष मंिराने लगता है यह िे ह बड़ी अजीब चीज है इससे गुजरे बगैर प्रेम
का पूणत
ष ा नहीं लमलती और इस पर ठहर जाने से प्रेम नष्ट होने लगता है मैं इस बात को नहीं
मानती फक प्रेम लसफष िे ने का नाम है िे ना तभी हो सकता है जब लमलना भी उसमें तनदहत हो
यह लमलना आकांक्षा नहीं है यह तो प्रफिया है जब िो जने िे रहे हैं तो िोनों को लमलेगा भी तो
िो में से एक ने भी िे ना बंि फकया और लसफष लेना चाला फक समझो प्रेम की रहा में बड़ी
िघ
ु टष ना घटी मेरे वपछले पत्र से जो यथाथष तम
ु तक पहुंचा उसे जानकर तम्ु हारे भीतर जो घटा
मझु े लगता है उसे तम ु ठीक ठीक पकड़ नहीं पाये मझु े यकीन है फक तम्
ु हें िख
ु नहीं हुआ ठे स
लगी है और ठे स तम्
ु हें इसललए लगी फक यथाथष को तम
ु ने आधे अंधेरे और आधे उजाले में िे खा
तम्
ु हें लगा होगा फक मैं िो के बीच बटी हुई औरत हूं परू ी रोशनी का सच यह है फक फकसी को

52
प्रेम से िंचचत िे ह सौंप िे ने का कोई अथष ही नहीं है अथष होता है तब जब इसके पीछे कोई
वििशता न हो तो वििशता उसी ितु नया का सच है जजसमें हम जी रहे हैं और जजसमें हमें जीना
है यह जानने के बाि फक तम
ु पष्ु पा जी के पतत हो मझ
ु े न तो कोई अपराधबोध है न ही िख

क्यों होगा प्रेम करना तो जीिन का सिषश्रेष्ठ भाि है प्रेम हमें ऊपर उठाता है हममें यह भाि पैिा
करता है फक हमारा होना साथषक है मझ
ु े नहीं लगता फक तम
ु से प्रेम करके मैं पष्ु पा जी से
उनका प्राप्य छीन रही हूं अगर पष्ु पा जी का प्राप्य उन्हें नहीं लमल पा रहा तो इसकी जजम्मेिारी
मझ
ु े पर क्यों जाती है िे इतना क्यों नहीं िे सकतीं या िे पातीं जो तम् ु हारे प्रेम को उन एक
एकाग्र करे ठीक यही जस्थतत मेरे संिभष में भी है तम
ु विश्लेर्ण के बजाय भािक
ु ता पर ठहर गये
इसललए तुम्हारे भीतर पीड़ा का जन्म हुआ प्रेम भािना है मगर भािुकता नहीं है तुम्हारे संिभष में
भाुुिकता जंचती नहीं तमु ने चेहरा मांगा है और इस मांग के साथ ही मेरे भीतर यह भय उतर
आया है फक कहीं तुम िे ह पर आकर न ठहर जाओ एक उम्र के बाि मैंने िह पाया है जजसकी
आकांक्षा थी िरती हूं कहीं उसे खो न िं ू जजसके कारण पुनजीिन लमला है चेहरा भेज रही हूं
-तुम्हारी कालमनी'

यह एक अजीब पत्र था जजसे पढ़कर मुझे लगा, मैं जगह-जगह से तछल गया हूं। बजाय
इसके फक मेरे भीतर अपने प्रेम को लेकर एक अलभमान पैिा होता, मुझमें एक पागलपन पैिा
हुआ। एक जजि पैिा हुई फक ऐसा कुछ करूं जजससे उसका प्रेम छोटा लसद्ध हो। यह शायि मेरे
भीतर का पुरुर् था जो स्त्री के विराट स्िरूप को िे ख आहत हुआ था। अगर कालमनी की
विराटता ने मेरे पुरूर् को छोटा फकया है तो मेरे भीतर िह क्या है जो स्त्री के इसी विराट का
आकांक्षी रहा है । मैंने सेाचा था और उलझ गया था। उलझ गया था और यह नहीं सोच पा रहा
था फक कालमनी ने अपने प्रेम की जो लकीर खींची है उसे अगर छोटा ही करना है तो अपने प्रेम
की बड़ी लकीर खींच िं ।ू बड़ी लकीर खींचने के बजाय मैं कालमनी की लकीर की कतर-ब्योंत पर
उतर आया। मैंने बबल्ली की तरह िांि फेंके, लेफकन हर िांि खाली गया। हर बार मैं कालमनी
द्िारा खींची लकीर को कुतरने की कोलशश करता और हर बार लकीर थोड़ी और बड़ी हो जाती।
अपनी झुंझलाहट और हताशा में मैं लगातार छोटा होता गया। जजस प्रेम में मुझे ऊंचा उठना
चादहए था उसमें मैं इतना नीचे चगरा `फक कतल पर पहुंच गया। छोटे पन की सबसे तनचली सतह
पर पहुंच कर मैंने कालमनी को ललखा -'मैं अपनी नौकरी को लेकर बहुत तनाि में हूं। इस नौकरी
की िजह से मैं एक भी शब्ि नहीं ललख पा रहा हूं। इसे तरु ं त छोड़ िे ना चाहता हूं, पर ऐसा कैसे
संभि है ? तो क्या जजम्मेिाररयों की राह में मझ
ु े अपना लेखन कुबाषन कर िे ना चादहए?'
ज्िाब में कालमनी ने ललखा -'अगर नौकरी सचमच
ु ही इतनी तनािपण
ू ष हो गयी है फक
तम्
ु हारी रचनात्मकता को कुतरने लगी है तो इसे फौरन छोड़ िो बबजनेस में जो मेरा दहस्सा है

53
उसमें से एक हजार रुपये महीना मैं तुम्हें बबना कोई दिक्कत उठाये भेजती रह सकती हूं मेरा
जो कुछ भी है िह तम्
ु हारा है इसललए इन पैसों स्िीकार करके तम ु कहीं से भी छोटे नहीं होओगे
मझ
ु े सख
ु लमलेगा फक तम्
ु हें तम्
ु हारा हक लमल पा रहा है उत्तर की प्रतीक्षा में तम्
ु हारी कालमनी'
जैसे रे त से बना हुआ फकला हो। मैं अपने गंब
ु िों और बजु जयों सदहत ढह पड़ा। मेरा अहं
आंखों की राह बह तनकला और िे र तक बहता रहा। एक भी कण भीतर नहीं बचा उसका। अहं
के शेर् होते ही चगल्ट अपने आिमकि रूप में झांकने लगा। समपषण के लसिा टौर कोई राह नहीं
थी उस आग से बचने की जो आत्मा को परू ी तरह अपनी जि में ललये हुए थी। अपनी
तच्
ु छताओं का तनष्कपट बखान फकया मैंने और कालमनी को भेज दिया।
कालमनी ने जिाब दिया -'अब तुम इतने ऊपर उठ चक
ु े हो फक तनभषय होकर तुमसे लमला
जा सकता है तुमने बुलाया नहीं है लेफकन मुझे मालूम है फक तुम्हें मेरी जरूरत है इन दिनों मैं
अगले पत्र में ललखग
ूं ी फक कब पहुंच रही हूं'
और उसने ललख दिया है फक िह 27 तारीख को पहुंच रही है । आज 26 है यानी कल।

0000

रात िस बजे घर में घुसने पर जब मैंने पाया फक पुष्पा हमेशा की तरह तनी हुई नहीं है
तो थोड़ा अचरज हुआ। घर की सीदढ़यां चढ़ते हुए मैंने सोचा था फक उसके फकन प्रश्नों का क्या
जिाब िं ग
ू ा। सात िर्ष के िैिादहक जीिन में इतना तो जान ही गया हूं फक उसके प्रश्न क्या और
कैसे होते हैं और उनका क्या और कैसा जिाब दिये जाने से झगड़ा टल सकता है । लेफकन उसने
कोई प्रश्न ही नहीं फकया तो मेरी समझ में नहीं आया फक जो जिाब मैंने सोचे हुए हैं उनका
क्या फकया जाये? िैसे, इधर मैं िे ख रहा हूं फक पुष्पा के व्यिहार में पररितषन आता जा रहा है ।
क्यों? यह मेरे दिमाग में अभी स्पष्ट नहीं है । इसका एक कारण शायि यह हो सकता है फक
जब से मैं के. से जुड़ा हूं तब से मैंने पुष्पा को लेकर काफी हि तक सुखी या िखु ी होना छोड़
दिया है । तो क्या मेरी उिासीनता ने ही पुष्पा के भीतरी संसार को बिला है ? और क्या सचमुच
ही पुष्पा का भीतरी संसार बिल रहा है ? मैं सोच रहा हूं और उसे गिष न झुकाये मेज पर खाना
लगाते िे ख रहा हूं।
आजकल मैं जब भी िे र से घर आता हूं, खाना बाहर ही खा आता हूं। आज भी मद्रास
होटल में िोसा खा आया था। लेफकन उसकी खामोशी को िे ख मेरी दहम्मत नहीं हो रही है फक
उसे बता िं ।ू खामोश आिमी इतना भय क्यों जगाता है ?
शरू
ु में ऐसा नहीं था। खाना मैं घर ही खाता था। लेफकन जब मेरे िे र से घर आने के
विरोध स्िरूप पष्ु पा द्िारा खाना न बनाने का लसललसला चल तनकला तो मैं भाग ललया। अपने

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प्रततकूल खड़ा संसार मुझमें कष्ट तो पैिा करता है लेफकन मैं उसे अपने अनुकूल बनाने के ललए
संघर्ष करने के बजाय िहां से भाग लेता हूं। अपने बेटे का नाम लसद्धाथष रखने के पीछे क्या मेरी
यही मानलसकता या स्िभाि काम कर रहा है ।
ज्यािा समय नहीं हुआ। यद्ध
ु इस घर का एक अतनिायष और अविभाज्य दहस्सा था। एक
बार िफ्तर में मझ
ु से एक ऐसी भलू हो गयी थी जजसके कारण नौकरी पर बन आयी थी। तनाि
में िूबा और भविष्य को लेकर आधा िरा हुआ मैं उस शाम अपने चंि अंतरं ग िोस्तों के साथ
शराब पीता रहा था। करीब ग्यारह बजे रात घर लौटा तो पष्ु पा हमेशा की तरह योद्धा की मद्र
ु ा में
टहल रही थी। उस िक्त मझ
ु े बीिी की नहीं मां की जरूरत थी। मैंने उस मां को पष्ु पा में पाने
की कोलशश करते हुए कहा था, 'आज िफ्तर में एक गड़बड़ हो गयी है यार! और मैं थक भी
बहुत गया हूं।'
'भाड़ में गयी तुम्हारी गड़बड़, और थक तो तुम राज ही जाते हो।' तन्नायी हुई पुष्पा ने
एक िूर िाक्य थमा दिया था। मैं आहत हुआ था और िोचधत भी लेफकन अपने पर जब्त कर
आदहस्ता से बोला था, 'बात तो सुन लो।'
'बातें, बातें , बातें ,' पुष्पा चीखी थी, 'इस घर में बातों के अलािा भी कुछ होता है क्या? मैं
तंग आ चकु ी हूं।'
'तो?' मैं अचानक ही बेहि रूखा हो आया था।
'मैं अब एक लमनट भी इस घर में नहीं रहूंगी।'
'इससे पहले भी सैकड़ों बार यह बात कह चक ु ी हो, और लगातार इस घर में बनी हुई हो।'
मैंने पहली बार इतनी तीखी बात कही थी और कुसी पर बैठ गया था। जिाब में बबफरी हुई
पुष्पा साड़ी उतार कर पेटीकोट और ब्लाउज में बबस्तर के भीतर चली गयी थी। िोध से उसके
होंठ फड़क रहे थे। िो लमनट के भीतर ही िह अपनी आित के मुताबबक नींि के समुद्र में लुढ़क
गयी थी और मैं हमेशा की तरह अपने पेट की भूख और दिमाग के चीत्कार से लड़ने के ललए
अकेला छूट गया था।
उन दिनों लसद्धाथष पैिा नहीं हुआ था।
'खाना' पुष्पा मेज के सामने आकर खड़ी हो गयी है ।
'भूख नहीं है ।' मैंने िही कहा जो कहता हूं।
'मीट बनाया था।'
'कोई बात नहीं।' मैंने जिाब दिया और उठकर कपड़े बिलने लगा। पष्ु पा खाना उठा ले
गयी। पहले के दिन होते तो यह घर उठाती। मझ ु े अपनी असािधानी पर अचरज हुआ फक मैं
पष्ु पा के पररितषन को िमशः नहीं पकड़ पाया। फफर मैं खाट पर आ गया। िस
ू री खाट पर
लसद्धाथष लेटा था। तनजश्चत। पष्ु पा उसकी बगल में आ चप
ु लेट गयी थी। क्या यह पष्ु पा का कोई
नया धोख्चाुा है , मैंने सोचा और करिट बिल ली।

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मैंने अक्सर इन प्रश्नों के बारे में सोचा है फक फकतने विश्िासों के टूटने पर आिमी
अविश्िासी हो जाता है और फकतने धोखे खा लेने के बाि सतकष? लेफकन न सतकष हो सका हूं
और न ही अविश्िासी। नतीजा यह तनकला है फक मेरे जीिन में उन लोगों की संख्या लगातार
बढ़ती चली गयी है जजन्होंने मझ
ु े बड़ी शान से धोखे दिए और बड़ी आन से मेरे विश्िासों को
कुचल िाला। इसके बािजिू मैं उन लोगों से न तो घण ृ ा कर सका हूं और न ही उन्हें अपने
जीिन में काटकर फेंक सका हूं। ऐसा भी नहीं है फक िःु ख मझ
ु े नहीं व्यापता या मैं घण
ृ ा और
कंु ठा से ऊपर जस्थत कोई परमहं स हूं। हाड़-मांस से बने मेरे तन में भी कमजोररयों और
िष्ु टताओं की लमट्टी से बना कोई कंु दठत और घाघ शैतान रहता ही होगा। तो फफर?
तो फफर क्यों होता है ऐसा फक जो मुझे यातना िे ता है िही अगर कुछ समय बाि मुझसे
फफर जुड़ना चाहे तो मैं तनश्छलम न से फफर उसके सामने बबछ जाता हूं? ऐसा भी नहीं है फक
चीजें मुझे बबल्कुल ही याि न रहती हों। िे न लसफष याि रहती हैं बजल्क रह-रह कर सालती भी
है ।
एक बार अपने इस स्िभाि पर िे र तक विचार करने के बाि मेरे हाथ यह लगा था फक
लोगों को क्षमा कर िे ने के बाि मेरे मन में आत्ममुग्धता का गहरा भाि जन्म लेता है । जो मुझे
चोट िे ता है उसी को फफर से अपनाते हुए मुझे लगता है फक मेरे जैसे लोग इस ितु नया में िल
ु भ

होते जा रहे हैं। िल
ु भ
ष ता के इस अहसास ने मुझे अक्सर ररझाये रखा है । हो सकता है एक कारण
यह भी हो जो मोहभंग के ठोस अंधकार में भी मेरे मोह को चकनाचरू होने से बचाता हो।
इस प्रश्न को मैंने के. के सामने भी रखा था फक ऐसा क्यों है मेरे साथ? उसने ललखा -
'जजन्हें अपने साथ रहने की आित नहीं होती उनके साथ ऐसा संभि है जो क्षमा करता है लोगों
को िह िरअसल तुम्हारे भीतर का ईसा मसीह नहीं अपने अकेलेपन से घबरा उठने िाला बहुत
कमजोर आिमी है जो अच्छे लोगों के अभाि के कारण उन्हीं से जुड़ने के ललए अलभशप्त है जो
उसे तोड़ते हैं या तोड़ िे ना चाहते हैं मैं तुम्हारे इसी अकेले और कमजोर आिमी को प्यार करती
हूं क्योंफक ऐसे ही आिमी की करुणा तनष्कपट हो सकती है और ऐसे ही आिमी का प्रेम अपने
पार जा सकता है '
जब-जब के. का पत्र मुझे लमला है , ऐसा लगा है जैसे मैं बरसों से एक ऐसी गुफा के
बाहर खड़ा हूं जजसमें लोगों और जीिन के रहस्य बंि हैं। गुफा का िरिाजा 'खल ु जा के.' कहने
से खल ु ता है जब फक मैं 'खिु जा लसमलसम' को मंत्रों की तरह िोहराता रहा हूं और इस बात पर
है रान हूं फक सही िाक्य पा लेने के बाि भी गफ
ु ा बंि क्यों है । के. का हर पत्र मझु े इस अचरज
में भी िाल िे ता है फक जजसे आप प्रेम करते हैं उसे उससे भी ज्यािा जान लेने की कला भी क्या
प्रेम ही लसखाता है ? और क्या िस
ू रों को उससे भी अचधक जानना कला है ? या यह कोई ऐसी
अलौफकक शजक्त है जजसे चीन्हा नहीं जा सकता, जजया जा सकता है । के. को यह शजक्त हालसल
है और इसीललए कभी-कभी के. का अब तक न िे खा गया शरीर मझ
ु े अपनी कल्पना में एक ऐसी

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बैसाखी में रूपांतररत होता लगा है जजसकी अनुपजस्थतत में मेरी िे ह चलने-फफरने और संभल कर
खड़े होने से इनकार कर िे गी।
मैं जीिन के आरं भ से ही शायि अपादहज रहा हूं। बबना सहारे के न खड़ा हो पाता हूं
और न ही ठीक ढं ग से सोच-समझ पाता हूं। एक बैसाखी पाने की चाह मेरे भीतर मेरे जन्म के
साथ ही पैिा हो गयी थी शायि! इस चाह को परू ा करने की उत्कट इच्छा ही मझ
ु े गलत लोगों
के सामने ले जाकर खड़ा करती रही है । के. से जड़
ु ने के बाि ही रहस्य भी अनाित्ृ त हुआ फक मैं
समद्र
ु पार कर सकता हूं। लेफकन इसके ललए उसकी उपजस्थतत जरूरी है जो हनम ु ान को यह
विश्िास दिलाये फक तम
ु में शजक्त है , तम
ु समद्र
ु के पार जा सकते हो। के. इसी तरह की बैसाखी
है जो मेरी पंगुता को काल्पतनक ठहराती हुई मुझमें समथषता का बोध उपजाती है ।
के. से पहले मैंने इस बैसाखी को पुष्पा में तलाशा था। अपने पत्रों में उसने ऐसा आभास
भी दिया था फक िह बैसाखी बन सकती है और मैं उसके सहारे पिषत लांघ सकता हूं। सहज ही
विश्िास कर लेने की आित के चलते मैंने पुष्पा को वििाह से पूिष भौततक स्तर पर जीने की
जरूरत ही नहीं समझती। मैं उसे आत्मा के स्तर पर उसके पत्रों में जी ही रहा था इसललए
वििाह से पहले हम आपस में ज्यािा लमले-जुले ही नहीं।
और जब हम एक हो गये तो मैं समूचा एक चीख में बिल गया। पुष्पा लसफष लेने जानती
थी। प्रेम में िे ना भी होता है , खोना भी होता है इस बात का अहसास ही नहीं था उसे। िह एक
ऐसी पत्नी थी जजसका चुनाि हालांफक मैंने फकया था लेफकन जो तनकली बबल्कुल िैसी ही थी
जैसी पजत्नयां आिमी अपने वपता की इच्छा से घोड़ी पर चढ़कर लेने जाता है । जजसने मुझे पत्र
ललखे और जजसने मुझसे वििाह फकया, ये िो पुष्पाएं थीं। इतना बुतनयािी फकष कहां से जन्मा, मैं
सोचता और उलझ जाता। पत्रों िाली पुष्पा और बिीिी बनकर आयी पुष्पा के बीच जो छत्तीस
का ररश्ता था उसने मेरी रातों की नींि हर ली। बहुत दिनों तक मैं यह सोचकर खि
ु को सांत्िना
िे ता रहा फक प्रेलमका जब पत्नी बनती है तो शायि ऐसा हो जाता होगा। लेफकन साथ ही मैं यह
भी जानता था फक मेरा ऐसा सोचना खि
ु को तसल्ली िे ना भर है । िास्तविकता से उसका कोई
सरोकार नहीं है ।
वििाह का िस
ू रा िर्ष समाप्त होने को था जब मैंने पुष्पा का रहस्य पा ललया। उस दिन
पुष्पा ने भी मेरे साथ पी ली थी। शराब ने अपना असर दिखाया था और पुष्पा मुखर होने लगी
थी। पुष्पा को इस तरह खल
ु ता िे ख मुझे अचानक लगा फक उसे जान लेने का यह एक िल
ु भ

क्षण है । प्रेम संबंधी अपना चाहतों और धारणाओं को एक फकनारे हटा मैं सहसा ही पहली बार
पष्ु पा के स्तर पर उतर आया। मेरा यह व्यिहार पष्ु पा के ललए अचरच का विर्य होना चादहए
था लेफकन उसने इस व्यिहार को अचरज की तरह नहीं एक िल
ु भष सख
ु की तरह ललया और
तनहाल हो गयी। उसने कहा, 'मझ
ु े गोि में उठाकर नाच'। मैं नाचा। उसने कहा, 'छत पर चल, मैं
भागंग
ू ी, तू मझ
ु े पकड़ना।' मैंने ऐसा ही फकया। उसने पछ
ू ा, 'क्या तू मेरी खाततर इस छत से नीचे

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कूि सकता है?' मैंने जिाब नहीं दिया, छत की िीिार पर चढ़ने लगा। उसने मुझे रोका और
खश
ु होकर मेरा बिन चम
ू ने लगी। उसने फमाषइश रखी, 'रोज शाम को िफ्तर से सीधे घर आ
जाया कर, मेरा मन नहीं लगता'। मैंने स्िीकार कर ललया। उसने पछ
ू ा, 'हर इतिार को बाजार
करने हम साथ-साथ जाया करें गे?' मैंने हामी भर ली। लगभग िो िर्ष से िबी हुई उसकी तमाम
चाहतें लसर उठाती रहीं और मैं उन्हें सहलाता रहा। आखखर जब िह भीतर से रीत गयी और उसे
यकीन हो गया फक िह जीिन को नये लसर से और उसकी इच्छाओं के अनरू
ु प शरू
ु करने जा रहे
हैं तो िह रोने लगी। िह सख
ु के कारण रो रही थी। उसे इतने गहरे सख
ु में िे ख एकबारगी में
लड़खड़ा गया और सोचने लगा फक जब इसका सख
ु मझ
ु े भी कहीं छू रहा है तो क्यों नहीं मैं
इसका सुख इसके पास बना रहने िे ता? एक सामान्य, पारं पररक, नासमझ और स्िप्नजीिी स्त्री
की जो इच्छाएं होती हैं िही इसकी भी हैं। मैं चाहूं तो इस इच्छाओं को फकसी हि तक तो पूरा
कर ही सकता हूं। सुख की जजस भाने िाली आकर्षक और राहत िे ती रोशनी में िह नहा रही थी
उसे अनुभि कर एक पल के ललए मैं दठठक गया। लेफकन मैंने उस िक्त सोचा, मुझे इसके सुख
से बैर थोड़े ही है ।, मैं तो यह जानना चाहता हूं फक सुख कुछ िस ू रे ही थे। पत्रों िाली पुष्पा की
नजरों से िखें तो इस पुष्पा के सुख-िख ु इतने बौने और हे य हैं फक िया आती है । ऐसा क्यों है ,
मैं यही तो जानना चाहता हूं और यही क्षण है जब इस ततललस्म को खोला जा सकता है । मैंने
सोचा और उसकी पलकों को चम ू ते हुए पूछा, 'तुम इतने खब
ू सूरत पत्र कैसे ललख लेती थीं?'
उस क्षण िह आह्लाि और हर्ष की गुनगुनी धप
ू में आंख बंि फकये स्ियं को समूची
आस्था के साथ िे रही थी। तनष्पाप ढं ग से, फकसी नींि में चलने िाली स्त्री की तरह बोली,
'नाराज तो नहीं होओगे?'
'बबल्कुल नहीं।' मैंने उसके माथे को चम
ू ललया, जैसे उसे अभय दिया हो।
'िे पत्र मैंने नहीं पल्लिी ने ललखे थे।'
'पल्लिी?' मेरा नशा उतरने लगा।
'मेरी एक सहे ली थी। मैं तुम्हारे पत्र उसे सौंप आती थी। िह उनका जिाब ललखकर िे
जाती थी। मैं उस जिाब की अपनी राइदटंग में नकल करके तुम्हें पोस्ट कर िे ती थी। असल में
क्या है फक मैं तुम्हें फकसी भी कीमत पर पा लेना चाहती थी। हमारे जजंिगी के प्रोफेसर ने
बताया था फक तुम बहुत प्रलसद्ध आिमी हो, बड़े-बड़े अखबारों में तुम्हारा नाम छपता है । जजस
कहानी को पढ़कर मैंने तम्
ु हें पहला पत्र ललखा था िह कहानी मझ ु े सर से ही पढ़ने को िी थी,
िह पहला पत्र भी मैंने पल्लिी से ही......'
मैं तब तक उसके ऊपर से लढ़
ु क कर बगल में चगर पड़ा था। जैसे चौक्का लगाने के ललए
सन्नद्ध और सतकष खड़े बैट्समैन के माथे पर तेजी से आती हुई गें ि लग जाये। फटा हुआ माथा
ललये चोट के ििष से कांप रहा था मैं जब पष्ु पा आंख खोलकर मेरी ओर पलटी।

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'तुम शब्िों से इतना प्यार क्यों करते हो?' उसने तमककर और घनघोर लापरिाही के
साथ कहा, 'खत भले ही पल्लिी ने ललखे पर प्यार तो मैंने ही फकया न तम्
ु हें ।'
मैं मस्
ु कराया। कुछ इस तरह जैसे मरने जा रहा बीमार आिमी यह दिलासा िे ने के ललए
मस्
ु कराता है फक मझ ु े कुछ नहीं हुआ, अभी ठीक हो जाऊंगा। मस्ु कराकर आंखें बंि करते हुए
अिसाि में िूबा मेरा मन रे शा-रे शा बबखर गया। उन बबखरे हुए रे शों को बड़े यत्न से जोड़ते हुए
मैंने पाया फक मैं पल्लिी को पाना चाहता हूं। पल्लिी चादहए मझ
ु े चाहे िह कानी, चेचक के िागों
िाली, पीललयाग्रस्त, कैंसर से पीडड़त या तीन बच्चों की मोटी और बेिौल मां ही क्यों न हो गयी
हो इस िक्त तक। इस रूपिती, सग
ु दठत िे ह और उन्नत िक्षों िाली पष्ु पा को ले जाये कोई और
पल्लिी को ला िे । मैं आंख बंि फकये रहा और मेरी यातना बफष बन-बन कर पानी होती रही।
बफष के पानी में िूबी मेरी चेतना ने तब पुष्पा का क्षमा कर दिया। द्िंद्ि लमट गया था। अब
पल्लिी को खोजना था।
यह पल्लिी लमली मुझे के. में । के. जो कल सुबह िस बजे मुझे शाहजहां होटल में
लमलेगी। कैसा अनुभि होगा िह?
'कब तक जागते रहोगे?' सहसा ही बगल से आिाज आयी तो मुझे पता चला फक पुष्पा
जाग रही है । यह भी एक अनुभि था। बबस्तर पर लेटते ही खराषटे भरने िाली पुष्पा की नींि
कौन ले गया? क्या पुष्पा की भी नींि छीन सकता है कोई?
'सोयीं नहीं?'
'तुम जो जाग रहे हो।'
यह िस
ू रा अनुभि था।
'मेरा ख्याल कैसे आ गया आज?' मैंने कटाक्ष फकया। उसके संिाि को इतनी आसानी से
मैं अनुभि नहीं मान सकता था।
'मैं भी तुम्हारा ख्याल नहीं रखग
ूं ी तो तुम जजयोगे कैसे?' पुष्पा ने गहरे िःु ख के साथ
कहा, 'काश, तुम भी सोच पाते मेरे जीने के बारे में । कम से कम साल में एक बार ही सोच
ललया करो ताफक बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन मैं उस एक दिन के इंतजार में काट दिया करूं।
आज मेरा जन्मदिन था।'
जन्मदिन? जैसे फकसी ने मुझे मेरे ही घर में आकर छोटा कर दिया हो। मैं चौंककर उठ
बैठा। ऐसा क्यों हुआ फक मैं भूल गया? पर अब कुछ नहीं हो सकता था। िघ ु ट
ष ना घट चक
ु ी थी।
मेरा मन रोने-रोने को हो आया। मेरे मन में हमेशा यह भाि बना रहता है फक मेरी िजह से
फकसी को यातना नहीं लमलनी चादहए। कम से कम ऐसी यातना जजसकी जजम्मेिारी यातना पाने
िाले पर न जाती हो। मझ ु े है रानी हुई फक अपने जन्मदिन की पंद्रह दिन पहले से िुगिुगी पीटने
िाली पष्ु पा इस बार इतनी खामोश क्यों रही? हमेशा 'मेरा मेरा' रटने िाला कोई आिमी अपने
बारे में एकाएक बोलना बंि कर िे तो िजह तो ढूंढनी ही चादहए। क्या पष्ु पा सचमच
ु बिल रही

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है ? मैंने सोचा और िर गया। नहीं, अब मैं नहीं चाहता फक पुष्पा बिल जाये, िैिादहक जीिन के
सात िर्ों में मैंने लगातार यह चाहा है फक पष्ु पा बिले ताफक मेरी पल्लिी की तनरथषक खोज पर
विराम लगे। लेफकन अब नहीं। अब अगर पष्ु पा पल्लिी बनने लगी तो मैं के. को परू ा समपषण
कैसे िे पाऊंगा?
'क्षमा कर िे ना!' मैंने अफसोस के साथ कहा : 'मैं इस तारीख को याि नहीं रख पाया।'
'कोई बात नहीं' पष्ु पा ने धीरे ओर प्यार से कहा : 'तारीख को याि रखना ही प्रेम नहीं
है ।'
यही तीसरा अनभ
ु ि था। और चौथा अनभ
ु ि उपलब्ध करने की मेरी आकांक्षा नहीं थी।
लेफकन तुरंत ही मुझे लग गया फक मैं झूठ सोच रहा हूं। मैं न लसफष चौथा बजल्क पांचिां, छठा
और सातिां अनुभि भी पाने के ललए व्याकुल हूं।
आदहस्ता से पुष्पा के कान में 'अिाइसिीं साल चगरह मुबारक हो, कहने के बाि मैंने
उसकी पलकों को चम
ू ललया। उसकी आंख से एक बूंि लुढ़की और गाल पर फैल गयी। मैंने उस
बबखरी हुई बूंि को अपने होठों से समेट ललया और पुष्पा बाकायिा लससकने लगी।
उसके चेहरे को अपनी छाती में छुपाकर उसके बालों को सहलाते हुए मझु े लगा, कुछ
समीकरण ऐसे हैं जजन्हें मैं शायि जीिन-भर सुलझा नहीं सकंू गा।
पुष्पा अब भी लससक रही थी और मैं सोच रहा था फक पुष्पा के बालों को प्यार से
सहलाता हुआ जो शख्स के. का इंतजार कर रहा है िह आखखर चाहता क्या है ? मानि संबंधों की
बारीफकयों, सामथ्यष और सीमाओं को िरू तक जानने िाला (या यह भ्रम रखने िाला) मैं क्या
एक ही स्त्री में सब कुछ पा लेने का आकांक्षी हो उठा हूं? अगर हां तो इस बात की क्या गारं टी
है फक के. में मुझे सब कुछ लमल ही जायेगा? अगर यह सच है फक पूरा सुख अजस्तत्ि ही धारण
नहीं करता तो पूरे सुख को पाने का अलभलार्ी मेरा मन क्या फकसी भी सुख में मुजक्त नहीं पा
सकेगा?
मैं सोच रहा था और सात महीने से पुष्पा के प्रतत तनरपेक्ष मेरे मन में पुष्पा के प्रतत ढे र
सारा प्यार उमड़ा पड़ रहा था।
यह प्रेम है या खाललस करुणा? मैंने विश्लेवर्त करने का प्रयत्न फकया और पाया फक
'केिल करुणा' कहकर में प्रेम सच को नकार नहीं सकता। खिु को धोखा िे सकता हूं लेफकन प्रेम
के अजस्तत्ि से इंकार नहीं कर सकता। क्या पतछले सात महीनों में मुझे के. से जो प्रेम लमला है
मैं उस प्रेम को ही पष्ु पा को सौंप रहा हूं या इसका कारण स्ियं पष्ु पा में ही तनदहत है । या कहीं
ऐसा तो नहीं फक मैं के. को भी पाना चाहता हूं और पष्ु पा को भी खोना नहीं चाहता। क्या पष्ु पा
को 'न खोना' चाहने िालो मेरे मन में यह आशंका है फक कहीं ऐसा न हो फक मैं पष्ु पा को भी
खो िं ू और के. को भी न पा सकंू । क्या अगाध विष्िास के साथ-साथ प्रेम संिेह और विश्िास को

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भी जन्म िे ता है । क्या प्रेम आिमी को बड़ा बनाने के साथ ही छोटा भी बनाता है ? अगर नहीं
तो में यह क्यों चाहता हूं फक के. विधिा हो जाये।
इतने हृियहीन सच और सोच को अपने सामने पा मैं सहसा ही गहरी ग्लातनस से भर
उठा। के. जो मझ
ु से और मेरे सख
ु ों से इतना गहरा प्रेम करती है , भी क्या कभी-कभी पष्ु पा की
मत्ृ यु चाहती होगी? मैंने सोचा ओर पष्ु पा को इस तरह कसकर अपने सीने से चचपटा ललया
मानों मत्ृ यु सचमच
ु उसे लेने आ पहुंची हो। पष्ु पा को खो िे ने की कल्पना भर से जो भयभीत है
क्या यह िही अपने अकेलेपन से घबराने िाला कमजारे आिमी है जजसको के. ने खोजा है मेरे
भीतर।
प्रश्न आपस में इस तरह उलझ गये थे फक तनाि से मेरा दिमाग फटने लगा। पुष्पा को
बगल में ललटाकर मैं भी बबस्तर पर पसर गया और सोचने लगा फक क्या इस िक्त के. भी जाग
रही होगी।
पुष्पा सो गयी थी।

000

एक शािीशुिा आिमी एक शािीशुिा स्त्री से लमलने आया है । फफर भी यह हृिय अियस्क


दिनों के प्रेम की तरह क्यों थरथरा रहा है । क्यों बिन के रक्त में सनसनी िौड़ रही है । क्यों
पलकें भारी हुई जा रही हैं और क्यों िो किम आगे बढ़ रहे हैं तो एक किम पीछे हट रहा है ।
और क्यों इस सबसे एक अजीब-सी सुखि अनुभूतत हो रही है । ऐसा क्यों लग रहा है जैसे बरसों
से बंि कोई पररंिा वपंजरा तोड़कर उड़ गया हो खल
ु े आकाश में । क्या के. भी इसी अनुभि को
जीती हुई प्रतीक्षातुर होगी? मैं सोचे जा रहा हूं और स्कूटर 'शाहजहां' जाने िाली सड़क पर
भागा जा रहा है - तनबाषध। सब ु ह के पौने िस बजे हैं। आज सत्ताइस तारीख है ।
तारीखें इततहास में इसी तरह जाती हैं शायि! बने, यह तारीख मेरे जीिन की ही
ऐततहालसक तारीख बने। मैं इस तारीख को फेंटे सी की तरह जीकर इततहास के हिाले कर
जाऊंगा। राजाओं के बारे में ललखने िाला इततहास आज एक पररंिे का सच ललखेगा।
मगर अफसोस। शुरू होने के ललए जो बबंि ु के. ने चन
ु ा है िह बहुत िूर है । 'शाहजहां' के
सामने स्कूटर के रुकते ही मुझे ऐसा लगा। राजधानी का पांच लसतारा होटल। जबफक मैं अपनी
इस तीस बरस की उम्र में तीन लसतारा होटल में भी पांि नहीं रख पाया था।
मेरे मगरूर व्यजक्तत्ि की जमीन पर सहसा ही एक निजात हीनताबोध ने लसर उठाया।
अपने को संयत करते हुए मैंने अपनी आंखों के सामने से गज ु रे उन तमाम शब्िों को
बड़ी लशद्दत से पक
ु ारा जजन्होंने लसखाया था फक प्रेम में कोई िगष नहीं होता। वििेक नहीं होता।
संिेह नहीं होता। हीनता नहीं होती क्योंफक प्रेम तो हमें इन भािों के पार ले जाता है । पर उन

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शब्िों ने एक बार मुड़कर भी नहीं िे खा फक सांत्िना लमल पाती। बबना फकसी शब्ि के मुझे भीतर
प्रिेश करना था और आज की तारीख को इततहास को सौंपना था।
'कुछ िरू आगे जाकर तम्
ु हें एक आग की निी लमलेगी। उस निी में बबना फकसी भय के
कूि पड़ोगे तो आग शीतल जल में बिल जायेगी। नहीं में कूिते ही पीछे से तरह-तरह की
आिाजें तम्
ु हें पक
ु ारें गी लेफकन खबरिार, भल
ू से भी पीछे मत िे खना िरना निी सचमच
ु आग हो
जायेगी। निी पार करते ही तम्
ु हें फकनारे पर िह स्त्री लमलेगी जजसे एक बार िे खा है और बार-
बार िे खने की तमन्ना है । तम
ु उस स्त्री के पास जाना और मेरा हाल बताना। िह पसीज
जायेगी। क्या तम
ु मेरा यह काम नहीं कर िोगे? मैं उस स्त्री का विरह सहन नहीं कर सकता।
अगर तुम नहीं जाओगे तो मैं यहीं पत्थर से अपना लसर टकराकर जान िे िं ग
ू ा। मेरे हाल पर
तरस खाओ और जाओ। और पहले सिाल का जिाब खोजने तनकला हाततमताई उस दिशा की
ओर बढ़ने लगा जहां आगे चलकर आग की निी थी।'
मैंने िे खा। मैं 203 नंबर कमरे के सामने खड़ा घंटी बजा रहा हूं और के. से होने िाली
पहली मुलाकात के ललए खि ु को बटोर रहा हूं। बहुत सोचने पर भी मैं तय नहीं कर पा रहा था
फक जजस के. को मैं वपछले सात महीने से अपनी सांसों की तरह से ले और छोड़ रहा हूं। िह
जब कुछ ही क्षण बाि सामने होगी तो मैं क्या करूंगा? क्या करना चादहए मुझ?

मेरा असमंजस मुझ पर हािी था फक िरिाजा खल
ु गया। चचत्र में जड़ी और खतों की
इबारत में बसी के. सामने थी जैसे ग्रीक त्रासिी की कोई नातयका हो। गोरे रं ग में सांिला पुट।
गहरी आंखें। उन्नत िक्ष। सफेि साड़ी ब्लाउज में ललपटी सुगदठत िे ह। पतली-लंबी उं गललयां और
गिीला चेहरा लेफकन अपने गिष को कायम रखने के संघर्ष में भीतर से टूटा हुआ और इसीललए
उिास। यह सचमुच की के. थी, उस चचत्र िाली नहीं जजसे भेजते हहुए उसने ललखा था 'तुमने
चेहरा मांगा है और इस मांग के साथ ही मेरे भीतर यह भय उतर आया है फक कहीं तुम िे ह पर
आकर न ठहर जाओ।'
'तुम मुझे इतना छोटा समझती थीं के.' मैंने उनकी कनपदटयों के पास िो चार सफेि हो
गये बालों को िे खते हुए सोचा 'फक चचत्र िाली के. का अपने सामने खड़ी के. से लमलान करने पर
विमुख हो जाऊंगा। मैंने िे ह नहीं चाही है । िे ह तो है मेरे पास।'
मैं सोच रहा था और के. सुन रही थी मानो। मैं अभी तक यह नहीं बताया था फक मैं
कौशल हूं। मगर िह पी रही थी मुझे और मैं अनुभि कर रहा था फक सात महीने से प्यासी के.
मझ
ु े फकस तरह टूट कर पी रही है ।
'आओ।' आखखर रुकी और उसके पतले लेफकन भरे हुए होंठ दहले और मेरे भीतर का
पररंिा पंख फड़फड़ाने लगा। भीतर से कोई आिाज िे ने लगा फक तम
ु भी इसे वपयो।
लेफकन तब तक के. मड़
ु चक
ु ी थी।
'आओ।' उसने गिष न मोड़कर कहा और मैं मंत्रमग्ु ध की तरह कमरे में प्रिेश कर गया।

62
'बैठो!' उसने कहा और मुस्करायी। यह िही मुस्कराहट थी जो मैंने उसके चचत्र में िे खी
थी। उस चचत्र में जो कुछ ही समय पहले उसने मझ
ु े भेजा था लेफकन जो यकीनन आज से सात-
आठ बरस परु ाना रहा होगा। लेफकन इन सात-आठ िर्ों का कोई भी असर उसकी मस्
ु कराहट पर
नहीं पड़ा था।
'यह मझ
ु से फकतनी बड़ी होगी?' मैंने सोचा और उसके मस्
ु कराते चेहरे को िे खा।
'बैठो न।' उसने फफर कहा और मैं सामने पड़े सोफे पर बैठ गया। सोफे पर बैठते समय
मैंने कंधे पर लटके अपने बैग को सोफे से दटका कर जमीन पर रख दिया।
'लाओ मझ
ु े िो। मेज पर रख िं 'ू िह फफर मस्
ु करायी।
'नहीं, ठीक है ।' मैंने जिाब दिया और कमरे का मुआयना करने लगा। कमरे में चोरी-चोरी
घूमती मेरी नजर जैसे ही बायीं ओर पड़े िबलबैि पर गयी मेरे भीतर का पररंिा छटपटाने लगा।
जैसे सात समंिर पार बड़े से जंगल को लांघकर आने िाले भुतहा महल के तहखाने में तीस फुट
ऊंचाई पर लटके वपंजरे में बंि उस तोते की गिष न कोई ऐंठ रहा हो जजसमें पररंिे की जान है ।
िबलबैि पर एक लंबा-चौड़ा पुरुर् करिट बिलकर लेटा हुआ था। मेरी उपजस्थतत से
बेखबर। लेफकन मेरी उपजस्थतत को अनुपजस्थत लसद्ध करता हुआ। उस पर से होती हुई मेरी
आहत नजर के. की आंखों से टकरायी तो िह सकुचाकर बोली -'मेरे पतत।'
पतत? मुझे लगा मैं आदहस्ता से उठा हूं और कमरे का िरिाजा खोलकर बाहर तनकल
गया हूं। तनरथषकता के इस बोध को जीते हुए भी मैं लेफकन सोफे पर बैठा हुआ था। क्यों? क्या
अब भी कोई आशा है ? क्या जीिन को अथ से आरं भ करने जा सकता हूं मैं? कहां जाऊंगा जब
लौटकर फफर यहीं आना है ।
पतत जाग गया था और फकसी जंगली जानिर की तरह आंखें मींच कर और मुंह फाड़कर
जम्हाई लेने में तल्लीन था। मुझे लगा? िस
ू रे की उपजस्थतत ही आिमी को शालीन बनाती है ।
शायि अपने एकांत में मैं भी इसी तरह आदिम असभ्यता को जीता होऊंगा।
तो यह है के. का ितषमान। मैंने सोचा और के. की तरफ िे खा जो इस बीच विस्मयकारी
तरीके से बिल गयी थी। उसका स्नेदहल चेहरा तन गया था और आंखों के तमाम कोमल भाि
कठोर पड़ गये थे। मैं तेजी से स्ियं को एक ऐसे दृश्य के ललए तैयार करने लगा जजसमें कोई
भी हािसा घट सकता था।
लेफकन आश्चयष, कोई भी हािसा नहीं घटा। के. का पतत उठा, बबस्तर पर बैठा। मैंने विश
की। उसने कोई जिाब नहीं दिया। िह बबस्तर से उतरा और सट
ू केस के कपड़े तनकाल कर
बाथरूम में चला गया। मैं चप
ु उसके आने का इंतजार करता रहा। िह कपड़े पहनकर आया और
एक उपेक्षक्षत-सी 'है लो' फेंककर सामने िाले उस सोफे पर बैठ गया जजस पर के. बैठी थी। मैंने
सहारे के ललए अपने बैग से लसगरे ट तनकाली और शालीनता से बोला, 'मैं कौशल...'
'खश
ु ी हुई लमलकर।' िह भारी आिाज में बोला और मेरी लसगरे ट को घरू ने लगा।

63
'इन्हें लसगरे ट के धए
ु ं से एलजी है ।' यह के. थी।
मैंने बबना जिाब दिये लसगरे ट िापस पैकेट में रख ली। मरते हुए पररंिे की चीख में साफ
सन
ु पा रहा था। सात समंिर पार रहने िाले तोते की जरूर ही आंखें फट गयी होंगी और जीभ
बाहर तनकल आयी होगी। मरी हुई हर चीज फकतनी कुरूप हो जाती है । फफर चाहे िह पररंिा हो
या स्त्री।
मैं खि
ु को संजोने का प्रयत्न कर ही रहा था फक के. का पतत खड़ा हो गया और
लापरिाही से बोला, 'मैं नीचे रे स्त्रां में नाश्ता लंग
ू ा, फफर िहीं से नाथष एिेन्यू चला जाऊंगा। िो-
एक िोस्तों से लमलना है । जब से एम.पी. हुए हैं, मल
ु ाकात ही नहीं हुई है ।'
के. ने कुछ नहीं कहा। मैं समझ गया, यह शख्स खानिानी रईस नहीं है । नीचे से उठकर
ऊपर गया है । अपनी महत्ता का प्रिशषन भी ठीक से करना नहीं जानता।
उसके विरोध में और ज्यािा बातें सोचने से मैंने खि
ु को सहसा ही रोक ललया। मुझे
लगा, इस तरह उसके विरुद्ध हो जाने से मैं उसका प्रततद्िंद्िी हो जाऊंगा। जबफक मैं प्रततद्िंद्िी
नहीं था। के. की ितु नया में हम िोनों की अलग-अलग सत्ता थी। और उसकी तो शायि सत्ता
भी नहीं थी। िह तो के. की सत्ता में एक अिना-सा कमषचारी भर होगा शायि।
मैंने पाया फक खि
ु को रोकने के बािजूि मैं लगातार उसके खखलाफ जा रहा हूं तो सोचना
छोड़कर फफर से कमरे की भव्यता को पढ़ने लगा।
'सुनो, तुम लसगरे ट पी लो!' आिाज के. की थी। मैंने गौर फकया, जजसे धए
ु ं से एलजी थी,
िह कमरा छोड़ चक
ु ा था। तुरंत मेरे भीतर एक बच्चा रूठ गया। मैंने के. को िे खे बबना कहा,
'इच्छा नहीं है ।'
'प्लीज' के. की आिाज से लगा फक उसका चेहरा कातर हो गया होगा। िे खने पर पता
चला मैं सही था। इस िक्त के. की आंखों में उन खतों की इबारत िमशः मूतष हो रही थी जो
मेरी पूंजी थे। मैंने लसगरे ट तनकालकर सुलगा ली। के. के चेहरे का तनाि घुलने लगा। मुझे उसके
चेहरे के तनाि को घुलता िे ख यक-ब-यक पुष्पा के उस सुख की याि आ गयी जो मैंने उसे
दिया था।
मैं जस्त्रयों को सुख िे सकता हूं यह सोचकर मुझे अपने पर अलभमान हुआ। लेफकन
जस्त्रयां? यह जो मुझसे अलौफकक फकस्म का प्रेम करने िाली अभी कुछ क्षण पहले अपने पतत
की एलजी का ख्याल रख रही थी क्या सचमुच उसे प्रेम से िंचचत िे ह सौंप पाती होगी?
'यह प्रेम नहीं आित है ।' के. ने कहा। िह जैसे मेरे सोचे हुए को सन
ु रही थी, 'एक अरसे
के बाि पतत स्त्री की आित में शम ु ार हो जाता है ।'
'और पत्नी आिमी की आित में ।' मैंने हाजजर जिाबी दिखायी लेफकन तरु ं त ही अपनी
नजरों में छोटा हो गया। मैं यहां झगड़ा करने आया हूं या के. को जीने। क्या पष्ु पा का यह
आरोप सही है फक मैं उत्तेजजत होने के मौके तलाशता रहता हूं और िःु खी होने के भी।

64
'पुष्पा जी कैसी हैं?' के. ने पूछा तो मुझे लगा, मेरा छोटापन रे खांफकत फकया गया है । के.
एक व्यजक्त की सशरीर उपजस्थतत को ततरोदहत कर रही थी और मैं एक अनप
ु जस्थत स्त्री को
सशरीर उपजस्थत फकये िे रहा था।
'पष्ु पा मजे में है । तम
ु अपने पतत के साथ क्यों आयी हो?' मैं सीधे सिालों पर उतर
आया। अपने छोटे पन से बचने का यही एक तरीका था।
'उनका तम्
ु हें िे ख लेना जरूरी था। मैं अपने प्रेम को अपराध की तरह नहीं जी सकती।'
के. ने कहा। उसके चेहरे का गिीला भाि लौट रहा था।
'तम
ु ने तो ललखा था िह आहत नहीं होते लेफकन जजस तरह िह यहां से गये हैं...'
'मैंने तब गलत सोचा था', के प्रश्न पूरा सुने बबना ही जिाब िे ने लगी, 'जरूरी तो नहीं है
फक मैं हमेशा सही भविष्यिाखणयां ही करती रहूं।'
भविष्यिाखणयां शब्ि पर िह मुस्करायी है , यह मैंने िे ख ललया था। उसके जीिट पर मुझे
अचरज हुआ। सचमुच, के. है ही ऐसी फक उसका प्रेम पाकर खि ु को धन्य समझा जाये।
'मुझसे लमलकर तनराश तो नहीं हुए?' के पूछ रही थी।
'क्यों भला?' मैं समझा नहीं।
'मैं सन ् चिाललस में पैिा हुई थी।' के. मुस्करायी।
मैंने तुरंत जोड़ ललया फक के. इस समय इकताललस बरस की है । यानी मुझसे ग्यारह िर्ष
अचधक।
'जस्त्रयां अपनी उमर कम बताती हैं, तुम ज्यािा क्यों बता रही हो।'
मेरे जिाब पर िह खल
ु कर हं सी फफर शरारती हो उठी, 'स्त्री कोई भी हो अपनी प्रशंसा पर
प्रसन्न होती है । चाय यहीं लोगे या नीचे।'
'यहीं ठीक है ?' मैं भी मुस्कराया। शायि यहां आने के बाि पहली बार, 'िो क्या है फक
भीड़ में मैं औपचाररक हो जाऊंगा।'
के. फोन पर चली गयी। िहीं से पूछा उसने, 'कुछ खाने को लोगे?'
'नहीं।'
के. ने फोन पर हाफ सैट चाय का आिे श दिया और िहीं से बोली, 'यहां आ जाओ। सोफे
पर भी तुम औपचाररक ही रहोगे।'
मैंने चौंककर िे खा लेफकन उसके चेहरे पर या आंखों में फकसी फकस्म का संकेत नहीं था।
लसफष मेरे बारे में 'जानकार' होने का िपष था। क्या मैं इसी िपष को प्यार करता हूं। मैंने सेाचा
और खड़ा हो गया। इस बीच के. आराम से बैि पर पसर गयी थी। मैं पायताने जा कर बैठ
गया, सकुचाता-सा।
'अरे , यहां तो तम
ु ज्यािा औपचाररक हो गये।' के. खखलखखला कर हं स पड़ी। मैं जत
ू े
उतारकर आल्थी-पाल्थी मार बबस्तर पर आ गया।

65
'तो तुम हो के.।' के. ने मेरा िायां हाथ पकड़ ललया और मेरी लंबी-पतली उं गललयों को
सहलाने लगी जैसे यकीन करना चाहती हो फक मैं सचमच ु हूं और उसी के सामने हूं।
स्पशष। के. का स्पशष। मैं रोमांचचत हो गया। एक गहरा सखु लमला मझु े इस स्पशष में
उत्तेजना नहीं एक ऐसी शीतलता थी जो भीतर तक सक ु ू न पहुंचाती है ।
'के. तो तम
ु हो!' मैंने भी उसकी लंबी-पतली उं गललयों को अपने हाथ में लेकर िे खा। िे
कलाकारों जैसी थीं।
'अपना नाम तम
ु ने कौशल कब रखा?'
'उसी क्षण जब तम्
ु हारा नाम कालमनी रखा जा रहा था।'
'सच!' के. की आंखें स्िजप्नल हो गयीं।
कुछ ही क्षणों में उसकी स्िजप्नल आंखें नीले आसमान में रूपांतररत हो गयीं। मैंने िे खा,
उस आसमान के नीले विस्तार में िरू एक पररंिा उन्मुक्त उड़ रहा था-तनभषय, तनःसंकोच और
तनबाषध।
'तुम्हारी आंखों में एक पररंिा है ।' मैंने कालमनी से कहा।
'यह तुम्हारी आंखों का पररंिा है ।' कालमनी ने कहा, 'मेरी आंखें तो आईना हैं।'
और मैंने उस आईने को चम
ू ललया।

000

अगर कालमनी की आंखें आईना हैं और उनमें उड़ते हुए जजस पररंिे को मैं िे ख पा रहा हूं
िह िरअसल मेरी आंखों में उड़ता पररंिा है तो मेरी आंखों में उड़ते जजस पररंिे को कालमनी ने
िे खा है क्या िह िरअसल खि
ु कालमनी का पररंिा है और क्या मेरी आंखें भी आईना हैं। कालमनी
को प्रेम करने िाला मैं क्या असल में अपने आप से प्रेम करता रहा हूं। िस ू रे का इस किर
स्िीकार फक िह िस ू रा रह ही न जाये, ही क्या प्रेम है , मैं सोच रहा था और कालमनी एक ऐसे
मुग्ध भाि से मुझे िे ख रही थी जजसमें अलभमान उपजस्थतत था। मनोिांतछत पा लेने की
उपलजब्ध क्या ऐसे ही अलभमान को जन्म िे ती है ।
तभी एक कोयल कूकने लगी।
यह कूक तुम्हारे सीने से उठी है कालमनी या मेरे भीतर कोई कोयल जागी है । मैंने पूछा
नहीं लसफष सोचा। मेरे सोचे हुए को मेरी आंखों में पढ़कर कालमनी मस्
ु करायी और बोली, 'िेटर
होगा।'
'ओह!' मेरे होंठ गोल हो गये। शायि विस्मय से या शायि अपने अज्ञान के अफसोस से।
या फफर शायि अपनी कल्पना के खंडित होने से।

66
जो कूक मैंने सुनी थी और जजसे सुन एक कोयल को अपने और कालमनी के हृिय में
आकार लेते मैंने िे खा था अभी-अभी, िह िरअसल इस कमरे की घंटी थी जजसे चाय लाने िाले
िेटर ने बजाया था।
कलमनी ने िरिाजा खोल दिया। िेटर ही था। मैं िापस सोफे पर आ गया। चाय मेज पर
रखने के बाि िेटर चाय के बबल पर कालमनी के िस्तखत लेने लगा। बाइस रुपये पचास पैसे का
बबल था। मेरे आधे दिन की तनख्िाह। मेरे प्रेम पर जैसे फाललज का आिमण हुआ हो। एक
उिास अंधेरे में िूबते अपने मन को संभालते हुए मैंने गहरे िःु ख के साथ सोचा, मैं इतनी छोटी-
छोटी बातों से आहत क्यों हो जाता हूं? प्रेम मझ
ु े मेरे िगष से बाहर क्यों नहीं खींच पा रहा है ?
'चीनी?' के. पूछ रही थी।
'िो चम्मच।' मैंने जिाब दिया और उसे चाय बनाता िे खता रहा। िह बहुत शालीन दिख
रही थी।
क्या यह शालीनता और नफासत स्त्री में उसी िक्त तक रहती है जब तक िह प्रेलमका
रहती है । अगर हां तो यह बहुत ििष नाक है । पत्नी होते ही स्त्री िमशः फूहड़ता और असभ्यता
और बबषरता की दिशा में क्यों बढ़ती है ? मैं सोच रहा था लगातार और िे ख रहा था फक चाय
वपलाने से लेकर प्रेम करने तक की यात्रा के बीच पुष्पा को कहीं भी यह ध्यान नहीं रहता फक
यह समूची यात्रा एक ऐसी कला है जजसको जानने के कारण ही स्त्री पुरुर् को ररझाती और
झुकाती आयी है । मैंने यह भी िे खा फक इसी तरह की फकसी तुलना में के. भी तल्लीन है । क्या
तुलना के इस अलभशाप से पुष्पा और कालमनी का पतत बच नहीं सकते?
मैं लसगरे ट तनकालने लगा।
'चाय पी लो पहले।' यह के. थी। उसके स्िर को आिे शात्मक ध्ितन ने मुझे पुष्पा की
याि दिला िी। इस बार तुलना के ललए नहीं, साम्य के ललए। यह जो सुना था मैंने स्िर, उसमें
पत्नी जैसा अचधकार भाि था, लेफकन यह तनकला था कालमनी के कंठ से, जो फकसी और की
पत्नी थी।
मुझे िःु ख हुआ।
'चप
ु क्यों हो?' आदहस्ता से पूछा के. ने।
'सोच रहा हूं फक...' मैंने अंततः लसगरे ट जला ही ली। लसगरे ट न हो तो मेरे िाक्य बबगड़ने
लगते हैं। िफ्तर में बॉस के कमरे में लसगरे ट साथ नहीं होती इसीललए मेरे जिाब उसे संतुष्ट
नहीं कर पाते। केबबन से बाहर आकर जब लसगरे ट पीता हुआ अपनी मेज पर बैठा होता हूं तो
मझ
ु े याि आता है फक बॉस के इन-इन प्रश्नों का ये-ये जिाब दिया जा सकता था।
'क्या सोच रहे हो?' के. शायि व्यग्र थी।
'यह मल
ु ाकात ठीक नहीं रही।' मैंने गहरा कश ललया।

67
'क्यों?' के. का पूरा बिन दहल गया। यातना का एक महाकाव्य उसकी आंखों में पढ़ा जा
सकता था। मझ ु े िःु ख हुआ। मेरा मकसि यह नहीं था, मैं तो अपनी ही एक गत्ु थी में उलझ
गया था। मेरी समस्या यह थी फक इस मल ु ाकात ने मझ
ु े जो गहरा सख
ु दिया था िह कालमनी
के चले जाने के बाि एक िःु खभरी स्मतृ त में बिल जाने िाला था। कालमनी से लमल लेने के बाि
उसके बबना रहने की कल्पना ने मझ ु े भयभीत फकया हुआ था।
मेरे साथ ऐसा ही होता है । भविष्य की चचंता ने मेरे ितषमान को अक्सर िबोचे रखा है ।
आने िाला कल मेरे आज को अक्सर लीलता रहा है । भविष्य के िःु खों ने मेरे ितषमान सख
ु ों का
यातना में बिला है हरिम। अभी भी ऐसा ही हुआ। के. मेरे सामने है और मैं के. रदहत समय
की कल्पना से पीडड़त हूं।
'तुम्हारी अनुपजस्थतत अब ज्यािा िःु ख िे गी।' मैंने धीमे-धीमे कहा, 'तुम्हारे साथ का सुख
जब तक जाना नहीं था तब तक उस िःु ख को भी नहीं जाना था जो तुम्हारे न रहने पर मुझे
पकड़ लेगा। कब जा रही हो तुम!'
'परसों सुबह की फ्लाइट से।' कालमनी ने जिाब दिया : 'लेफकन चले जाने के बािजूि मैं
यहीं रहूंगी। नहीं?'
'हां। सन
ु ने में अच्छा लगता है फक तुम्हारे चले जाने पर यहां पीछे छूट जाने िाला मैं
िरअसल तुम्हारे साथ ही चला जाऊंगा। लेफकन यह लसफष दिलासा भर है ।' मैंने हं सकर कहा।
लेफकन शायि मैं हं सा नहीं था। खखलसयाया था। या शायि रोया था। क्योंफक मेरे जिाब को सुन
के. सामने िाले सोफे से उठ मेरे सोफे पर आ गयी थी। मेरे एकिम तनकट। इतना फक उसकी
सांसों का आना-जाना मैं बहुत स्पष्ट सुन पा रहा था। उसकी तनकटता मुझे कमजोर बनाने
लगी। लगा फक एक भी शब्ि फकसी ने बोला तो मैं टूट जाऊंगा। मेरा मन हुआ फक मैं कालमनी
के कंधे पर अपना लसर रख लूं और अपने भरे हुए मन को उलीच हूं।
मैं थोड़ा ततरछा हुआ ताफक बगल में बैठी कालमनी को पूरी तरह िे ख सकंू । िह एकटक
मुझे िे ख रही थी। बेसुध। लगा, जैसे मेरे समूचे अजस्तत्ि को अपनी आंखों के भीतर सुरक्षक्षत कर
लेने की प्रफिया में हो। ऐसे में मैं कुछ भी कहता, उसे सुनाई नहीं पड़ता इसललए चप
ु रहा और
उसके िे खने को िे खता रहा।
'मैं सचमुच तुम्हें बहुत प्यार करने लगी हूं।' कालमनी के होंठ दहले। बबल्कुल इस तरह
जैसे नींि में दहल हों।
स्िप्न के भीतर का स्िप्न शायि यही होता है , मैंने सोचा और कालमनी के होठों को
अपनी उं गली से छू दिया। िे तप रहे थे और आधे खल
ु गये थे। कालमनी को ऐसी स्िजप्नल मद्र
ु ा
में िे ख मेरे रक्त में तेज सनसनी होने लगी। सहसा ही मझ
ु े लगा मेरे मजस्तष्क की रे खा मेरे
हृिय की रे खा में जाकर विलीन हो गयी है और अब इस बिन का माललक लसफष हृिय है ।
कालमनी के यहां भी शायि ऐसा ही कुछ घदटत हुआ था। उसकी आंखें मंि
ु ने लगी थीं और िे ह

68
धीमे-धीमे थरथराने लगी थी। संयम और संकोच के आखखरी बबंि ु शायि पीछे छूट गये थे। मैंने
पाया फक मेरे िोनों हाथ उठे और उन्होंने कालमनी का चेहरा अपनी चगरफ्त में ले ललया। फफर उन
हाथों ने कालमनी के चेहरे को आगे फकया। कालमनी के भी हाथ उठे और मेरी पीठ पर जाकर बंध
गये। यह तनभषय प्रेम का विराट क्षण था। कालमनी के होठ मेरे होठों के बीच िबे हुए इस क्षण के
अनश्िर गिाह बने हुए थे। मैं कालमनी की और कालमनी मेरी सांसें पी रही थी।
तभी कमरे की कोयल फफर कूकने लगी।
हम प्रेम में थे, पाप में नहीं। और इसका प्रमाण यह था फक कोयल की कूक ने हमें
झटके से अलग नहीं फकया। हम जजस तरह धीरे -धीरे बंधे थे उसी तरह धीरे -धीरे हटे । मैंने िे खा
कालमनी के चेहरे पर उत्तेजना का एक भी चचन्ह शेर् नहीं हर गया था। उसकी आंखों की शांतत
फकसी चपु , ठहरी हुई झील का आभास करा रहा रही थी। सुख और तजृ प्त के इसी अनुभि के
सहारे एक उम्र पार की जा सकती है क्या, मैंने अपने आप से प्रश्न फकया और पाया फक एक
ईमानिार इनकार मेरे भीतर रूठे हुए बच्चे-सा खड़ा है । तो क्या, अचानक ही मेरा प्रेम कालमनी
की िे ह मांगने लगा है । मैंने सोचा और अपने अपराधी मन के सामने एक तकष को लाकर खड़ा
फकया...हाड़-मांस के मनुष्य अगर प्रेम कर रहे हैं तो िे ह गैरहाजजर कैसे रहे गी और क्यों रहे ?
िेटर था। चाय के बतषन लेने आया था। कालमनी उसे खाने का आिषर ललखा रही थी,
मुझसे पूछे बगैर। िेटर के जाते ही िह बोली, 'खाना आने तक तुम नहा लो।'
'नहा लूं? मैं चौंका फफर मुस्कराता हुआ बोला, 'चलो, िोनों साथ नहाते हैं।'
'अभी-अभी तो नहाये थे।' कालमनी मुस्करायी फफर गंभीर हो गयी। उसका गंभीरता से
घबराकर मैं तुरंत ही अपनी पाली में लौट आया। जैसे उसकी गंभीरता बीच की िह रे खा थी जो
हमें अपनी-अपनी पाली में लौटने पर मजबूर करती थी।
'क्या हमें इतनी िरू जाने का हक है जहां से लौटना संभि न हो?' कालमनी की गंभीरता
ने अपना चेहरा दिखाया।
'हक।' मुझे यह श्ब्ि चभ
ु गया : 'हमें फकतनी िरू जाना है , इसकी इजाजत लेनी होगी
फकसी से?'
'हां।' कालमनी ने जिाब दिया तो मेरा माथा तपने लगा। कनपटी के पास िाली नस का
उछलना महसूस करते हुए मैंने तीखे शब्ि उच्चारे :'फकससे? तुम्हारे पतत से?'
'नहीं। पुष्पा से।' कालमनी शांत थी।
'इसललए फक िह मेरी पत्नी है ?' मैं शांत नहीं हो पा रहा था।
'नहीं। इसललए फक िह तम्
ु हें उतना ही प्यार करती है जजतना मैं। मैं अचधकार की तो
उपेक्षा कर सकती हूं लेफकन प्रेम की नहीं।'
'लेफकन पष्ु पा मझ
ु े प्रेम करती है यह तम्
ु हें फकसने बताया?'
'पष्ु पा ने।'

69
'पुष्पा ने?' मैं बड़ी जोर से चौंका : 'पुष्पा तुम्हें कहां लमली?'
'लमली नहीं, उसके पत्र हैं मेरे पास।'
'पष्ु पा के पत्र?' मैं लड़खड़ा गया। लगा, कमरे में विस्फोट हुआ है । कमरा गोल-गोल
घम
ू ता लगा मझ ु ।े कालमनी भी घम ू रही थी। मेरी गिष न पर पसीना उतर आया था।
पष्ु पा ने पत्र ललखे तम्
ु हें ? मैंने पछ
ू ना चाहा, लेफकन शब्ि गले के भीतर ही फंसे रह गये।
बोलने की कोलशश में एक अजीब-सी गों-गों हुई जजसने मझु े भयभीत कर दिया। मां के पेट में
पड़े-पड़े चिव्यह
ू में घस
ु ना भर सीखा था अलभमन्यू ने इसीललए प्रिेश तो कर गया मगर भेि
नहीं पाया। अंत में मारा गया। मझ
ु े लगा, मैं िही अलभमन्यु हूं। उत्साह-उत्साह में चिव्यह
ू के
भीतर तो आ गया लेफकन बाहर तनकलने का िरिाजा न लमल पाने के कारण िमशः मत्ृ यु की
ओर बढ़ रहा हूं।
यह जानते हुए भी फक कालमनी से पुष्पा द्िारा ललखे गये पत्रों की इबारत जानना खिु
को छोटा और ओछा बना लेना होगा, मैं रुक नहीं सका और लभंचे-लभंचे स्िरों में बोला, 'उसने
क्या ललखा तुम्हें ?'
'ऐसा कुछ नहीं जो तुम्हें आहत करे ।' कालमनी सामने िाले सोफे पर बैठ गयी। मुझे लगा,
जब यह जिाब िे कर कालमनी ने मुझे छोटा कर दिया है ।
'पर उसे तुम्हारा पता कहां से लमला?'
'तुम्हारी िायरी से।'
'िायरी भी पढ़ी उसने?' मेरा आश्चयष ज्यों-ज्यों बढ़ रहा था त्यों-त्यों मेरा ब्लिप्रेशर घट
रहा था मानो, 'यह िगाबाजी है । बहुत छोटी तनकली िह।' मैं क्षुब्ध था।
'न यह िगाबाजी है और न ही िह छोटी है ,' कालमनी जैसे पुष्पा की लड़ाई लड़ रही थी,
'उसने मुझे ललखा फक मैं तुम्हारी िे ह ले हूं लेफकन हृिय उसके ललए रहने िं ।ू छोटी औरत ऐसा
नहीं चाह सकती। ऐसा लसफष िही चाह सकता है जो प्रेम करता हो। और प्रेम का मैं अपमान
नहीं कर सकती। पुष्पा नासमझ जरूर है पर छोटी नहीं है ।'
'और क्या-क्या ललखा उसने?' मैं कटुता से भरता जा रहा था पुष्पा के प्रतत।
'मुझ पर कोई आरोप नहीं लगाया उसने। उसका मानना है फक तुम्हारे इस तरह मुझसे
जुड़ जाने की िजहें उसी के भीतर हैं। और िह उन िजहों को िरू करना चाहती है ।'
कालमनी चप ु हुई तो मैंने सोफे से उठना चाहा। लेफकन दहल भी नहीं सका। मैंने चाहा फक
लसगरे ट ही पी लं,ू लेफकन हाथ में जंबु बश भी नहीं हुई। समचू ा बिन जैसे काठ हो गया था।
यानी पष्ु पा इस संबंध के बारे में सब कुछ जानती है । संकेत तक नहीं दिया उसने फक
उसे कालमनी के बारे में जानकारी है । ऐसा क्योंकर संभि हुआ। मैं सोच रहा था और जस्त्रयों के
रहस्यों से आतंफकत हुए जा रहा था।
'तो?' अचानक मेरे मंह
ु से तनकला।

70
कालमनी ने कोई जिाब नहीं दिया।
'हमने जो फकया, िह प्रेम था या कोई सध
ु ारिािी आंिोलन का ड्रामा?' मैंने पछ
ू ा, 'पष्ु पा
को सध
ु ारने के ललए प्रेम कर रहे थे हम?'
'नहीं।'
'तो फफर?'
'मैं तरु ं त कोई जिाब नहीं िे सकती। बीरबल नहीं हूं मैं, एक कमजोर स्त्री हूं। तम्
ु हारी
तरह मैं भी टूटती और आहत होती हूं कभी-कभी। हर समस्या का समाधान मैं ही क्यों करूंगी।
तम
ु परु
ु र् होकर भी नहीं लड़ सकते तो मझ
ु से यह उम्मीि क्यों करते हो फक मैं अपनी भी लड़ाई
लिूं और तुम्हारी भी।' कालमनी की आंखें िबिबा आयी थीं और अंततम िाक्य पर आते-आते स्िर
भराष गया था।
मैं लसहर गया। टूटी हुई कालमनी का सामना करना मेरे ललए एक बड़ी यातना थी। उसकी
हताशा मेरे कमजोर मन को बबठा िे सकती थी। जजसकी रोशनी में सूरजमूखी सांस ले रहा हो
उसी सूयष के गायब हो जाने पर िह मर नहीं जायेगा?
'सुनो। मैं अब जाऊंगा।' मैं अचानक उठ खड़ा हुआ।
'नहीं,' कालमनी की चीख-सी तनकली, 'ऐसी जस्थतत में मुझे छोड़कर नहीं जा सकते तुम।
आखखर मेरा भी हक है तुम पर।' कालमनी तेजी से उठी और मेरे तनकट आ गयी।
कोयल फफर बोली। शायि खाना आया था। कालमनी ने िरिाजा खोला। उसका पतत था।
पतत के पीछे ही खाना भी था।
'मैं अब चलूंगा।' पतत के पास खड़ी कालमनी से मैंने कहा।
िह मुड़ी और उसने आिे श दिया : 'कहीं नहीं जाओगे तुम। मैं तुमसे लमलने ही यहां तक
आयी हूं।'
काले पड़ते कालमनी के पतत के चेहरे को िे खता मैं पुनः सोफे पर बैठ गया।
'मुझे शायि अभी नहीं आना चादहए था।' कालमनी के पतत के चेहरे पर व्यंग्य उतर आया
था।
'हां।' कालमनी ने सख्त स्िर में जिाब दिया :'मुझे िःु ख है फक तुम िःखी हो। लेफकन मैंने
तुमसे पहले ही कहा था फक मुझे अकेले जाने िो।'
'कालमनी! स्ितंत्रता की भी एक सीमा होती है ।'
'अच्छा!' कालमनी मस्
ु करायी, 'स्ितंत्रता की सीमा तम
ु बताओगे मझ
ु ।े तम
ु , जो सीमाओं
को बहुत पहले नष्ट कर चकु े हो!'
'भाड़ में जाओ तम
ु ।' कालमनी ने पतत के िोचधत होकर जिाब दिया और कमरा छोड़
दिया।

71
िेटर खाना मेज पर लगा रहा था। कालमनी गुस्से में कांपती चप
ु खड़ी थी और मैं सोच
रहा था फक ऐसा कोई यंत्र नहीं लमल सकता मझ
ु े जो कालमनी की ितु नया को मेरे ललए पारिशी
बना िे ।
िेटर के जाने के बाि िरिाजे को बंि कर कालमनी बाथरूम में चली गयी। मैं इस बीच
उस पांच लसतारा होटल के छह लसतारा पकिान को िे ख-िे ख अपनी गरीबी पर कुढ़ता रहा।
कालमनी बाथरूम से आयी तो बिल गयी थी। फफर िही जस्नग्ध मस्
ु कान उसके चेहरे पर लौट
आयी थी जो उसे कमनीय बनाती थी।

000

भूत को पाये बगैर न तो भविष्य से टकराया जा सकता है और न ही ितषमान को जाना


जा सकता है । अपने बबस्तर पर करिटें बिलता हुआ रात के िेढ़ बजे मैं उस िाक्य के बारे में
सोच रहा हूं जो िोपहर िो बजे शाहजहां होटल के कमरा नंबर 203 में मैंने कालमनी से कहा था
और इस िाक्य के बोले जाते ही कालमनी का अभेद्य संसार इस तरह खल
ु गया था जैसे मेरा
िाक्य कोई मंत्र रहा हो। रात िस बजे तक मैं कालमनी के साथ था। मेरे िहां से आने तक
उसका पतत नहीं आया था। शाम सात बजे यह खबर आयी थी फक िह होटल के बार में बैठा
शराब पी रहा है और जब उसकी जरूरत पड़े, उसे बुला ललया जाये। उस समय तक कालमनी की
ितु नया मेरे ललए अजनबी नहीं रह गयी थी इसललए मुझे कालमनी के पतत के व्यिहार पर
कौतूहल नहीं हुआ था।
रात िस बजे तक कालमनी के साथ गुजरा िक्त जैसे एक महास्िप्न था जजसमें मैं
कालमनी की उं गली पकड़े पकड़े घूमता रहा था और कभी चफकत होता था, कभी उत्तेजजत और
कभी उिास। कालमनी मुमताज नहीं थी जजसकी याि में ताजमहल खड़ा हुआ था। कालमनी
ताजमहल थी जजसकी संगमरमरी िे के तहखाने में कामनाओं के मकबरे थे।
सुबह िस बजे से रात िस बजे तक के बारह घंटों में उसने मुझे प्रेलमका का प्यार दिया
था, बहन का स्नेह, मां का अभय और संरक्षण तथा िोस्त की तरह मेरे सामने खि
ु को
अनाित्ृ त फकया था। मैं चाहता तो पत्नी की तरह उसकी िे ह को भी ले सकता था लेफकन उसे
जान पाने का सुख इतना विराट था फक िे ह सुख की कल्पना भी नहीं उगी मन में ।
कालमनी को जानने का अनभ
ु ि कुछ कुछ ऐसा था जैसे िेताल पच्चीसी की फकसी कथा
को जीना। ठीक ऐसा ही घदटत हुआ था उस िक्त जब कालमनी के भत ू में प्रिेश कर रहा था
मेरा ितषमान। मैं वििमाकष था जैसे और अपने हठ में कालमनी के शि को पेड़ से उतार कंधे पर
िाल चप
ु चाप श्मशान की ओर चलने लगा था।

72
और तब शि में जस्थत िेताल ने कहा था : 'भारत िे श के कलकत्ता शहर में कालमनी
नाम की एक राजकुमारी रहा करती थी। वपता जे. आर पटिद्धषन, जो नगर के पांच बड़े
उद्योगपततयों में से एक थे लेफकन अंत समय तक पहुंचते-पहुंचते जजनका कारोबार बहुत घट
गया था, की इकलौती संतान होने के कारण कालमनी को नत्ृ य, संगीत, कला और सादहत्य में
पत्र
ु की तरह पारं गत होने का अिसर लमला। खल
ु ी हिा और स्ितंत्र विचारों के आलोक में जिान
होने िाली कालमनी को बाईस िर्ष की उम्र में पता चला फक उसका वििाह एक ऐसे परु
ु र् से होने
जा रहा है जजसे िह जानती ही नहीं। यह वपता की मत्ृ यु का सतय था। िचन को गीता की
कसम की तरह तनभाने िाले वपता का अनरु ोध कालमनी टाल नहीं सकी और उसने लसर झक
ु ा कर
आर. एस. िद्धषन नाम के उस पुरुर् को अपने पतत के रूप में िरण फकया जो एक तबाह हो चक
ु े
बड़े उद्योगपतत का कंगाल पुत्र था। िह धन से ही नहीं हृिय और मजस्तष्क से भी कंगाल था।
तीन िर्ष के भीतर ही उसने कालमनी की आधी पूंजी को भी िुबो दिया और तब कालमनी ने
अपने पुश्तैनी व्यापार को बंि कर एक बड़ा-सा छापाखाना खोला जो बाि में चलकर नगर का
सबसे बड़ा छापाखाना कहलाया। वििाह के बाि कालमनी को पता चला फक उसके पतत के नगर
की अनेक कुख्यात जस्त्रयों से अनैततक संबंध हैं और छापेखाने की कमाई का एक बड़ा अंश िह
उन जस्त्रयों के रख-रखाि पर खचष करता है । वपता के िचन को अलभशाप की तरह जीने िाली
कालमनी ने अपने को पूरी तरह सादहत्य और संस्कृतत की ितु नया में िुबो दिया और तब उसके
जीिन में आया-अलमताभ िास। सुसस्कृत बंगला पररिार का नगर भर में चचचषत दहंिी कवि। तब
कालमनी को उम्र तीस बरस थी और तब अलमताभ िास चालीस िर्ष का था। तब तक कालमनी ने
अपने पतत की और उसके पतत ने कालमनी की ितु नया से अपने को हटा ललया था।
अलमताभ के साथ कालमनी के संबंध चले चार िर्ष तक। चार िर्ों के िमशः प्रगाढ़ हुए
भािात्मक संबंधों में कालमनी ने अपनी िे ह अलमताभ िास को सौंपने में कोई संकोच नहीं फकया।
अलमताभ के पररचय ने कालमनी को गभषधारण भी कराया लेफकन एक रात पतत के जंगली हो
उठने पर कालमनी का गभष सात माह के समय में चगर गया और उसके बाि िह फफर कभी गभष
धारण नहीं कर सकी। इन चार िर्ों में अलमताभ की िो कविता पुस्तकें कालमनी के खचष पर
कालमनी के ही छापेखाने में छपीं और ऐसा बीलसयों बार हुआ फक फकसी होटल के बार से रात के
बारह, एक या िो बजे कालमनी के पास फोन गया फक अलमताभ नशे में धत्ु त है और उसके पास
होटल का बबल चक
ु ाने का पैसा भी नहीं है । ऐसे हर िक्त में कालमनी होटलों में पहुंची और
अलमताभ को अपनी कार में िालकर उसके घर छोड़कर आयी।
यह कालमनी का प्रेम था। लेफकन जब यह प्रेम काफी हाउस और होटलों के बारों में खि

अलमताभ के मंह
ु से ही चटखारे का विर्य बनने लगा तो कालमनी एक झटके से मक्
ु त हो गयी।
कालमनी के मक्
ु त होने पर अलमताभ फकतना नीचे चगरकर उसके बारे में कैसी-कसी अफिाहें गढ़ने
लगा इस पर एक ग्रंथ ललखा जा सकता है । लेफकन कालमनी ने उफ नहीं की और इस यातना का

73
सफर अकेले ही तय फकया। अलगाि के एक िर्ष बाि अलमताभ अपनी पत्नी और िो बच्चों को
लेकर िापस गांि चला गया जहां से कालमनी ने उसे कलकत्ता बल
ु ाया था।
और अब िह जड़
ु ी है कौशल से और उसे खोना नहीं चाहती। िह यह भी नहीं चाहती फक
पष्ु पा को उसके प्राप्य से िंचचत कर दिया जाये। ऐसी जस्थतत में क्या करे कालमनी और क्या करे
कौशल?
अगर इस प्रश्न को पछ
ू ने के बाि कहा होता िेताल ने वििमाकष से फक जिाब न िे ने की
जस्थतत में तम्
ु हारा लसर टुकड़े-टुकड़े होकर चगर पड़ेगा तो मझ
ु े िःु ख न होता क्योंफक तब आंख
मींच कर मत्ृ यु की प्रतीक्षा की जा सकती थी। लेफकन ऐसी कोई शतष नहीं थी सामने इसललए मैं
अपने बबस्तर पर लेटा जाग रहा था रात के िेढ़ बजे और सोच रहा था, अलभमन्यु मारा गया था
या उसने आत्महत्या की थी?
'क्या है जो तुम्हें सोने नहीं िे रहा है ?' यह पुष्पा थी जो बगल की चारपाई पर पड़ी मेरे
साथ-साथ जाग रही थी शायि! लगातार।
'कालमनी का भूत!' मैंने जिाब दिया और अंधेरे में पुष्पा का चेहरा पढ़ने की कोलशश की।
'कौन कालमनी?' उधर से गहरे आश्चयष में िूबा स्िर उभरा।
'बनो मत!' मैंने उस स्िर को िपट दिया और चप
ु हो गया।
'इसका मतलब उन्होंने तम्
ु हें बता दिया' पुष्पा का स्िर आहत था, 'मैंने उनसे तनिेिन
फकया था फक िे तुम्हें यह न बतायें फक मैं उनके और तुम्हारे बारे में जान गयी हूं।'
'उसने लशकायत नहीं की तुम्हारी, गुणगान फकया,' मैंने चचढ़कर कहा।
'िे बड़ी औरत हैं।' पुष्पा शांत थी। लेफकन उसकी शांतत से मैं उखड़ गया : 'हां बड़ी औरत
है िह। हर कोई तुम्हारी तरह छोटा नहीं होता।'
'लेफकन छोटा आिमी बड़ा बन तो सकता है ' पुष्पा अभी तक शांत थी।
'अब िे र हो गयी है पुष्पा।' मैंने ठं िी आिाज में जिाब दिया।
'मैंने ठं िी आिाज में जिाब दिया।'
'बबल्कुल िे र नहीं हुई।' पुष्पा ने जिाब दिया और उसके जिाब के साथ ही 'खट' करके
बबजली जल गयी। अंधेरे की अभ्यस्त हो चक ु ी मेरी आंखें सहसा ही चौंचधया गयीं। हाथ रखना
पड़ा मुझे उन पर। पुष्पा इस बीच मेरी खाट पर चली आयी थी।
'सुनो, मुझे कालमनी जी के कारण कोई कष्ट नहीं है ।' पुष्पा ने कहा, 'अगर िे तुम्हारे
साथ आकर रहना चाहें तो मैं चप
ु चाप चली जाऊंगी।'
पष्ु पा के आत्मसमपषण पर मझ
ु े खश
ु होना चादहए था लेफकन मैं गहरे िख
ु से भर उठा।
यह प्रेम है या िया भाि? मैंने सोचा और पष्ु पा की आंखों में िे खा जो बहुत िरू तक खाली थी।
िह जैसे तनस्संग हो चकु ी थी।
'कहां चली जाओगी?' मैंने पछ
ू ा।

74
'बहुत बड़ी है ितु नया' पुष्पा के भीतर अचानक ही एक मजबूत औरत ने जन्म ललया,
'क्या मझ
ु े ऐसा एक भी आिमी नहीं लमलेगा जो मझ ु े मेरे लसद्धाथष के साथ अपना सके?'
'आिमी? लसद्धाथष?' मेरे मंह
ु से तनकला और तरु ं त ही मझ
ु े पता चल गया फक फकतने
गलत और कमजोर शब्ि मेरे मंह
ु से तनकले हैं।
पष्ु पा ने कोई जिाब नहीं दिया। मैं भी चप
ू रहा लेफकन मेरे दिमाग में एक तीखा शोर
उठा। यह तो मैंने सोचा ही नहीं था फक पष्ु पा के जीिन से चले जाने का मतलब है लसद्धाथष का
भी चले जाना।
और तब यातना के उस एकांत में मझ ु े अनभु ि हुआ फक मैं ऐसा बद्ध
ु ू हूं जजसे बोचधसत्ि
प्राप्त नहीं हुआ है । मैं िह िवु िधाग्रस्त अजुन
ष हूं जजसे कृष्ण का साथ उपलब्ध नहीं है । कैसे
लड़ूग
ं ा मैं इस महाभारत को?
यह कैसा प्रेम है जजसमें संघर्ष के लसिा और कुछ नजर नहीं आता िरू -िरू तक।
महाभारत में पांिि जीत गये थे। मैं पांििों का प्रतीक हूं या कौरिों का? पुष्पा को भी लड़ना है
यह अठारह दिनों का संग्राम और कालमनी को भी। कौन जीतेगा इस युद्ध में ? और जो भी
जीतेगा क्या उसके दहस्से में जनहीन धरती ही आयेगी? क्या होगा ऐसे राज्य का जजसमें प्रजा
ही नहीं होगी।
और तब कोलाहल को चीरता हुआ एक िाक्य िसों दिशाओं में गूंज उठा -'अश्ित्थामा
हतो हतः'। इस िाक्य के तुरंत बाि नगाड़ों के शोर ने दिशाओं को लील ललया। नगाड़ों के शोर में
'नरो िा कंु जरो िा' सुनाई ही नहीं पड़ा और मैं झटके से चारपाई पर उठ बैठा। पसीना माथे से
चलकर गिष न से होता हुआ पेट और पीठ की तरफ बढ़ रहा था और दिमाग में हल्के-हल्के
विस्फोट हो रहे थे। मैंने िोनों हाथों से कसकर अपना माथा िबा ललया लेफकन िहां जो कुछ घट
रहा था लगातार, उससे कलेजा मुंह को आ रहा था।
पुष्पा संभितः घबरा गयी थी और भागकर रसोई से पानी का चगलास ले आयी थी। मेरी
आंखें उलटी जा रही थीं और मन में तेज इच्छा थी फक मुंह में उं गली िालकर िमन करूं।
'क्या हुआ?' पुष्पा सचमुच घबरा गयी थी और मेरे मुंह पर पानी के छींटे मारने लगी थी।
'मैं मरा नहीं हूं पुष्पा। मैं मर नहीं सकता। अजेय हूं मैं।' मैंने िोनों हाथों से पष्ु पा को
पकड़ ललया, 'नगाड़ों के शार में कुचले हुए सच को पकड़ो, 'नरो बा कंु जरो िा' धीमा हो सकता है
पर िह है । जो मरा है िह हाथी है । अश्ित्थामा जीवित है पष्ु पा। नगाड़ों के पार खड़े हुए शब्िों
को जानो। सच्चाई हमेशा शोर के पीछे जीवित रही आयी है ।' मैं बोल रहा था लगातार और पष्ु पा
एक गहरे िःु ख और विस्मय के िलिल में धंसती कांप रही थी। अंततः उसने मझ
ु े आदहस्ता से
खाट पर ललटा दिया लेफकन मैं फफर उठ बैठा और पष्ु पा से चचपट कर चीखा -'स्िीकार है मझ
ु ।े
कालमनी के भत
ू में अलमताभ िास नाम का जो अजगर पसरा हुआ है उसको झेल नहीं सकता
मैं।'

75
'कौन अलमताभ िास?' पुष्पा विस्मय और िःु ख के िलिल में धंसी हुई थी पूिि
ष त और
तब उसे बाहर तनकालने के ललए मैंने पष्ु पा की तरह अपना हाथ बढ़ाया।
उसने अपना हाथ मेरे हाथ में दिया और मैं उसका हाथ थामे उस दिशा की ओर बढ़
चला, जहां आगे जाकर कालमनी का रहस्यमय और उबड़-खाबड़ संसार खंजर की तरह तना हुआ
था।
जब हम कालमनी की ितु नया से लौटे तो पष्ु पा की आंखें फटी हुई थीं और मेरी आंखों से
रह रहकर िे शब्ि बह रहे थे जजन्हें मैं आकार नहीं िे पा रहा था।
'सचमच
ु यह बहुत खौफनाक है ।' पष्ु पा हांफ रही थी।
'खौफनाक नहीं कारुखणक है ।' मैंने उसे सध
ु ारा।
'कारुखणक तुम्हारे ललए होगा लेफकन एक स्त्री के ललए यह सब झेलना बेहि िरािना है ।'
पुष्पा ने जिाब दिया।
'मैं सोना चाहता हूं।' मैंने याचना सी की।
'अब तुम कभी नहीं सो पाओगे।' पष्ु पा ने िूरता से कहा। कम से कम मुझे ऐसा ही
लगा।
पुष्पा बबजली बंि करके िापस अपनी खाट पर चली गयी थी लसद्धाथष की बगल में , और
मैं अपनी खाट पर अकेला छूट गया था --पुष्पा, लसद्धाथष और कालमनी के बािजूि।
और उस अंधेरे में एक विशालकाय अजगर फुंफकारता हुआ मेरी तरफ बढ़ रहा था।
लगातार। मारे भय के मेरी तघग्घी बंधी हुई थी।

0000

अलीबाबा नहीं था मैं। शायि कालसम था। गुफा में प्रिेश कर तो गया था और िहां मौजूि
तमाम माल-असबात थैलों में भर चक ु ा था लेफकन जब लौटने का समय हुआ तो मैं भूल गया
फक क्या कहने से गुफा खल
ु ती है ।
यह आंतक का क्षण था और मेरी डिब्बी की तमाम लसगरे टें खत्म हो चक
ु ी थीं। मैंने गहरे
िःु ख, पश्चाताप और भय में तघर कर कालमनी को िे खा। उसका चेहरा एक घने अिसाि में िूब
कर लशचथल पड़ गया था और आंखों में कोई भी भाि नहीं था। कुछ ही क्षण पहले उसकी आंखों
में तजृ प्त और संतोर् के जो भाि थे िे अब फकसी स्िप्न की तरह एक स्मतृ त भर रह गये थे।
'कुछ और चादहए तम्
ु हें ?' सहसा ही कालमनी ने एक ऐसा प्रश्न फकया जजसने मझ
ु े भीतर
तक कई हजार टुकड़ों में बांट दिया। िःु खी हो सकता था मैं, हुआ। बहुत बेचन
ै होकर मैंने उसे

76
िे खा। िह तनविषकार ढं ग से पेटीकोट में ललपटी फशष पर बबखरी साड़ी समेट रही थी। मैं उसे
िे खता रहा। उसने साड़ी तह करके सोफे पर रखी और तौललया लेकर बाथरूम में चली गयी।
मैंने के. को पा ललया था लेफकन इस पाने के साथ ही खि
ु को भीतर तक खाली महसस

करने लगा था। यह पाना कोई अथष नहीं रखता था क्योंफक जो कुछ मैंने पाया था िह मेरे साथ
जाने िाला नहीं था। यह ऐसी िौलत थी जो तब तक बेमानी थी जब तक यह आश्िासन न हो
फक इस पर मेरा हक है । समय हो चक
ु ा था और मैं भल
ू गया था फक गफ
ु ा का िरिाजा क्या
कहने से खल
ु ता है ? थोड़ी ही िे र बाि मैं चार टुकड़ों में तब्िील फकया जाकर गफ
ु ा के चार कोनों
में लटक जाने िाला था।
यह थी मेरी पररणतत। कोई भी नहीं चाहता इस पररणतत को पहुंचना। मैंने भी नहीं चाहा
था। पर चाहने मात्र से क्या होता है ?
'मुझसे शािी करोगे?' यह सीधा सिाल फकया था के. ने, मेरे इस प्रश्न के जिाब में फक
'क्या ऐसा नहीं हो सकता फक तुम कलकत्ता न जाओ?'
'शािी?' मेरी लहलहाती हुई कामना को पाला मार गया था जैस,े लेफकन पुष्पा का क्या
होगा?' मेरे मुंह से तनकला था।
'उसे छोड़ िे ना।' के. ने जजस लापरिाही से यह िाक्य कहा उसे िे ख मैं लसहर गया
अचानक।
'छोड़ िं ?
ू '
'हां।' के. की लापरिाही बरकरार थी, 'मैं भी तो अपने पतत को छोड़कर ही यहां रही
सकती हूं।'
'लेफकन तुम्हारे पतत और पुष्पा में फकष है ।,' मैंने एक तकष को उठाकर सीधा फकया, 'उन्हें
कोई िस
ू री औरत लमल जायेगी मगर पुष्पा को िस
ू रा आिमी नहीं लमलेगा।'
'यह तुम कैसे कह सकते हो?'
'मुझे मालूम है ।'
'कहीं ऐसा तो नहीं फक तम
ु यह बिाषश्त ही न कर पा रहे हो फक पुष्पा फकसी िस
ू रे आिमी
से जुड़?
े '
'हो सकता है ।' मैंने हचथयार िाल दिये।
'तो, मुझे तुमने क्या रखैल समझा हुआ है ?'
'के.?' मेरे मंह
ु से चीख तनकली और कनपटी के पास िाली नस तेजी से उछलने लगी।
उत्तेजना या िःु ख का िबाि भारी हो तो मेरी यह नये उछलने लगती है और दिल में सायं-सांय
होती है । मैं यकीन नहीं कर पा रहा था फक ये शब्ि के. के मंह
ु से तनकले हैं। गहरे अविश्िास से
मैंने उसे िे खा। िह होठों पर हथेली रख लससकने लगी थी। मैंने उसे रोने दिया। मझ
ु े मालम
ू था,
िह पश्चाताप की आग में जल रही है । रोने से अपने आपको पवित्र और हल्का महसस
ू करे गी।

77
'कौशल!' सहसा ही िह मुझसे चचपट गयी और लससफकयां भरते हुए बोली, 'मैं क्या करू?
आखखर मैं भी एक औरत ही हूं।'
मेरी एक आंख चप
ु चाप रहने लगी। जस्थततयों की भयािहता और जदटलता जब आकर को
छाने लगती है तो आंख चप
ु -चप
ु बहती ही है --फफर चाहे हारने िाला परु
ु र् हो या स्त्री।
अपनी पराजय और असमथषता के उन कमजोर क्षणों में कालमनी के जजस्म पर मेरी
जस्नग्ध और आत्मीय पकड़ अचानक ही सख्त हो गयी और मैंने पाया फक प्रत्युत्तर में कालमनी
के साथ भी ऐसा ही हुआ है । उसके लससफकयों के कारण फड़कते हुए शीतल होठ अनायास ही
एक आदिम तवपश से सल ु गने लगे और मेरे होठों से आकर चचपक गये।
शायि यही िह क्षण था जब मेरे रोम-रोम ने कहा 'खल
ु जा लसमलसम' और गुफा में
मौजूि जमाने भर की िौलत से चौंचधयाई हुई आंखों को लमचलमचाते हुए मैं गुफा में और और
गहरे प्रिेश कर रहा था और उस िौलत को िोनों हाथों से बटोरता हुआ थैले पर थैले भरता जा
रहा था। इस पागलपन में कालमनी भी मेरे साथ थी।
आखखर हम िोनों ही तनढाल हो गये और मूजच्छष त से एक तरफ चगरे पड़े। और जब मेरी
आंख खल
ु ी तो मैंने पाया फक कालमनी मेरे साथ नहीं है और गुफा का िरिाजा बंि है । और तब
मुझे अहसास हुआ फक जजसे मैं मुजक्त का क्षण समझ रहा था िह िरअसल गुलामी का क्षण था।
अब मैं चाहूं भी तो कालमनी से अलग नहीं हो सकता। जो शब्िातीत सुख उसके साथ ने मुझे
दिया था िह एक मायािी स्मतृ त की तरह यही रह जाने िाला था और कालमनी कल सुबह की
फ्लाइट से कलकत्ता लौट जाने िाली थी।
नहीं। मेरे भीतर कोई जोर से रोया और मैंने पाया फक मैं अधषनग्न हालत में बाथरूम का
िरिाजा पीट रहा हूं।
'क्या हुआ?' भीतर से आिाज आयी और िरिाजे की चचटखनी खल ु ी। मैं धड़धड़ाता हुआ
भीतर प्रिेश कर गया। भीतर कालमनी थी चौंकी हुई, बिहिास और सर से पांि तक नग्न।
'मत जाओ, प्लीज...' मैंने चगड़चगड़ाकर कहा और उसके िक्ष के बीच अपना लसर रख
दिया। िह खड़ी थी। उसका चेहरा ममत्ि से भर उठा था। मैं घुटनों के बल बैठा उसकी कमर को
अपनी बाहों से घेर कर उसकी आंखों में ताक रहा था और िह एकटक मुझे िे खती हुई मेरे लसर
को सहला रही थी। फफर िह थोड़ा झुकी और उसने मेरे माथे को चम
ू कर आदहस्ता से कहा :
'बाहर जाओ।'
'नहीं।' मैंने जिाब दिया और उसे चमन
ू े लगा। मैं एकिम पागलों की तरह बार-बार उसका
माथा, आंखें, होठ, गिष न और िक्ष चम
ू रहा था और िह मग्ु ध भाि से मझ
ु े ऐसा करते िे ख रही
थी। इन क्षणों में उसकी आंखों में जो भाि था उसे िे ख मैं और भी पागल हुए जा रहा था और
सोच रहा था फक क्या शब्िों के संसार से अलग िास्तविक जीिन में भी उस अनभ ु ि को पाया
जा सकता है जहां पहुंचकर कालमनी का समच
ू ा जजस्म मेरे भीतर विलीन हो जाये।

78
'लो, मुझे लो।' एकाएक ही कालमनी के होठ बुिबुिाये और िह आंखें बंि कर मेरी बांहों में
झल
ू गयी। पानी में भीगा उसका जजस्म सहसा ही जलने लगा था और मैं िमशः वपघल रहा
था। िह क्षण फफर लौटा जब मझ
ु े लगा मैं और कालमनी िो नहीं एक ही है और फफर अनायास
ही हम बाथरूम के फशष पर आ गये। यह िह क्षण था जहां मैं और कालमनी ही सच थे और
बाकी सब चीजें कजल्पत और बेमानी थीं।
'ऐसा प्यार मझ
ु े फकसी ने नहीं दिया के.।' कालमनी ने अस्फुट स्िरों में कहा और लशचथल
पड़ गयी।
'सच?' मैंने यंू ही पछ
ू ा और उसकी बगल में आ शांत लेट गया।
'हां।' कालमनी की आंखें अभी तक बंि थी। िह जैसे अभी-अभी गुजरे िक्त को पकड़े
रखना चाहती थी। फफर उसने धीरे -धीरे आंखें खोलीं और गहरे विश्िास से कहा, 'हां, फकसी ने
नहीं। अलमताभ िास ने भी नहीं।'
'अलमताभ िास?' मेरी छाती पर जैसे घूंसा पड़ा। मैं तड़प कर उठा और शािर खोलने
लगा। िे र तक चप
ु चाप नहाने के बाि मैं बिन पर तौललया लपेट बाथरूम से बाहर आ गया और
कपड़े पहनने लगा। कालमनी भीतर से ही तैयार होकर आयी और टे लीफोन पर िेटर को चाय का
आिे श िे ने लगी। मैं सोफे पर बैठा था और लसगरे ट पीना चाहता था। लेफकन लसगरे टें खत्म हो
गयी थीं।
'उसे लसगरे ट के ललए भी बोल िे ना।' मैंने आदहस्ता से कहा।
कलमनी ने चाय के साथ 'दरपल फाइि' का पैकेट लाने को भी कहा तो मैं एकाएक ही
उिास हो गया। यह जानते हुए भी फक मेरा ब्रांि 'चाम्सष' है , कालमनी ने 'दरपल फाइि' मंगिायी,
इस बात ने मुझे आहत फकया। कह नहीं सकता क्यों? शायि मेरा हीनताबोध ऐसे में उग्र हो
उठता था।
कलमनी फोन करके सोफे पर आयी तो मैं अलमताभ िास के बारे में सोच रहा था और
एक विशाल अजगर को अपनी ओर सरकते हुए महसूस कर रहा था।
'क्या सोचने लगे?' कालमनी ने पूछा।
'हूं।' मैंने गिष न घुमायी और कालमनी को िे खा जजसकी आंखों में एक चमकिार आभा
दिप-दिप कर रही थी।
'मैं अजगर के बारे में सोच रहा हूं।' मैंने एक लंबी सांस लेते हुए कहा और सामने पड़ी
मेज पर उं गली से 'अजगर' शब्ि ललखने लगा।
'अजगर?' कालमनी बड़ी जोर से चौंकी।
'हां।' उसके विस्मय से तनरपेक्ष मैंने दृढ़ आिाज में कहा, 'तम्
ु हारे संसार में एक अजगर है
जो तम्
ु हारे तन में नहीं मन में कंु िली मारकर बैठा है ।'
'ओह...!' कालमनी का चेहरा सिष पड़ गया और आंखों की आभा जाती रही।

79
'है तो।' उसने थके हुए स्िर में कहा, 'क्योंफक मैंने उसे शरीर के स्तर पर नहीं भािना के
स्तर पर जजया था, लेफकन मैं खि ु भी चाहती हूं फक उसे अपने संसार से हटा िं ।ू '
'यह इतना आसान होता कालमनी, तो मैं भी एक झटके से पष्ु पा को छोड़ िे ता। लेफकन
मझ
ु े पता है फक पष्ु पा को छोड़ते ही िह और गहराई से अपनी जड़ें जमा लेगी। कहीं जड़
ु जाना
जजतना आसान होता है उतना आसान िहीं से कट जाना नहीं है । जड़
ु ना एक हि तक हमारे हाथ
में है लेफकन कटना हमारे िश से परे है ।'
'इस भलू मका की जरूरत नहीं है ।' कालमनी ने जिाब दिया।
'यह भलू मका नहीं है ।' मैंने प्रततिाि फकया।
'यह भूलमका ही है और भूलमका बनाने की जरूरत ही नहीं है क्योंफक वििाह की बात मैंने
तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में कही थी। मेरी अंततम आकांक्षा वििाह पर जाकर समाप्त भी नहीं
होती। मैंने तो तुम्हें आईना दिखाया था।'
'कोई और तरीका नहीं है ?'
'फकस बात का?'
'हमारे साथ रहने का?'
'उसकी जरूरत ही क्या है? तुम्हें जो चादहए िह सब तो िे रही हूं मैं।'
'क्या 'चाहने' का अजस्तत्ि इतना-भर ही है ?'
'तुम जजरह पर उतर आये हो।'
'यह जजरह नहीं है कालमनी। अगर इन प्रश्नों को हल फकये बगैर तुम लौट गयीं तो मैं...।'
मेरे स्िर में पीड़ा तैरने लगी थी, 'अपने मन से पूछो फक यहां से जाकर क्या तुम चैन से सो
पाओगी?'
'नहीं।' कालमनी ने कहा।
'यह जानते हुए भी तुम िापस जाओगी ही?'
'जाना ही होगा।' कालमनी ने दृढ़ आिाज में कहा, 'क्योंफक हम अपने प्रेम को फकसी और
रूप में जी नहीं सकते। हमारे अतीत और ितषमान में कंु िली मारकर बैठे हुए अजगर हमारी
चाहतों से ज्यािा विशाल हैं। अगर हमने इन अजगरों की उपेक्षा की तो िे हमारे उस सख
ु को
भी लील लेंगे जो अभी हमें उपलब्ध है ।' कालमनी लसर दटकाकर बैठ गयी। कुछ िे र की चप्ु पी के
बाि बोली, 'हम जैसे लोगों को प्रेम करते हुए यह अलभशाप जीना ही पड़ता है फक अलग-अलग
रहकर तो सथ हो सकें लेफकन साथ रहकर अलग-अलग हो जाएं। इस प्रेम का यह विरोधाभास
हमें स्िीकारना ही होगा कौशल। यह प्रेम अपने इस विरोधाभास के कारण ही आह्लािकारी और
शाश्ित है ।'
मैंने िे खा, कालमनी की आंखें भर आयी थीं। िह गहरे िःु ख में थी। और गहरे प्रेम में भी।

80
'हमारा सच जैसा भी है, तनष्कपट है ।' मैंने कालमनी का चेहरा अपनी छाती में तछपाते हुए
कहा।
'और इसीललए खब
ू सरू त है ।' कालमनी ने जिाब दिया और मस
ु कराने लगी।
तभी कमरे में कोयल कूकने लगी।
आने िाला िेटर था।
हम चप
ु चाप चाय पीते रहे ।
उस समय शाम के पांच बजे थे।
कल सब
ु ह पांच बजे की फ्लाइट से कालमनी को िापस जाना था।
िापस जाना था ताफक िापस आ सके।
मुझे लगा, इस इस सत्य की उपलजब्ध ही िह मंत्र है जजसे 'खल
ु जा लसमलसम' कहते हैं
और जजसके उच्चारण से गुफा का िरिाजा खोलकर भीतर प्रिेश फकया जा सकता है ।
अब मुझे कोई भय नहीं था क्योंफक मैं गुफा से बाहर भी जा सकता था। मैं कालसम से
अलीबाबा में बिल गया था और और वििाई के ललए उठ खड़ा हुआ था।
'शाहजहां' से तनकलकर स्कूटर पर बैठते हुए मैं िःु खी नहीं था लेफकन जब कालमनी ने
कहा, 'तुम्हें जब भी मेरी जरूरत होगी, मुझे पता चल जाएगा और मैं तत्काल आऊंगी।' तो मेरी
आंखें नम हो गयीं। स्कूटर पर बैठकर कालमनी से िमशः िरू होते हुए मेरी नजर भी धध
ुं ली
पड़ती जा रही थी और जब 'टप-टप' करके िो आंसू मेरी गोि में चगर तो मैं सोच नहीं पाया फक
मैं सुख में हूं या िख
ु में ।
'फकधर चलना है ?' स्कूटर िाले ने अचानक पूछा तो मैं तय नहीं कर पाया फक कहां जाना
है ।
'पटे ल नगर।' मैंने आदहस्ता से अपने घर का रास्ता बता दिया।
पुष्पा को हो या न हो, लेफकन मुझे इस िक्त पुष्पा के साथ की बहुत शख्त जरूरत थी।
अपनी इस जरूरत में मैं बहुत तनष्पाप था।
आप चाहे इस पर यकीन करें या न करें ।

रिन क ि : 1985

81
ककास एक त्र सद फांि सी क

िह एक तनजषन जगह थी, जहां तफ


ू ान की तरह उन्मत्त िौड़ती राजधानी एक्सप्रेस
एकाएक रुकी थी। रात के िो बजे थे। चारों ओर अंधेरा और सन्नाटा था-एकिम ठोस। न कोई
आहट, न रोशनी की कोई फांक। राजधानी के फकसी िब्बे की खखड़की से फकसी संपन्न आिमी ने
शजक्तशाली टॉचष की रोशनी बाहर फेंकी - तभी दिखा था, िरू तक फैला बीहड़। टॉचष की रोशनी
का संतल
ु न बबगड़ गया। िह ऊपर, नीचे, िायें, बायें थरथरायी और फफर बझ
ु गयी। शायि टॉचष-
माललक का जजस्म भयातरु हो लड़खड़ाया था।
यूं िोनों बातों में कोई ताल्लुक नहीं था, पर िक्त एक ही था। जजस िक्त राजधानी उस
बीहड़ में अचानक रुकी थी, ठीक उसी िक्त राजधानी की एक वपछड़ी बस्ती में अपने फकराये के
मकान की छत पर उद्विग्न घूमते एक आिमी ने अपने अिसाि के घने अंधेरे में चीत्कार करते
हुए सोचा था-बस, बहुत हो चक
ु ा। फफर िह अचानक थम गया था।
आिमी वपछले चौिह बरस से िौड़ रहा था-अकेला। इन चौिह बरसों में उसने खि
ु को
थककर चगरने से कई बार बचाया था - इस सपने के तहत फक एक दिन आयेगा, जब कोई और
भले ही उसकी सुध न ले, लेफकन िह खि
ु इस फुरसत और साहस के बीच जरूर खड़ा होगा फक
अपने पांि के जख्मों और दिल-दिमाग में उतरते सूने अंधकार के बीच एक चीख की तरह
उपजस्थत हो और बेरहम संबंधों के मकड़जाल को तछन्न-लभन्न कर िे ।
पर इन चौिह बरसों में यह क्षण कभी नहीं आया। इस बीच उसके इस छोटे -से सपने ने
आघात सहते-सहते फकसी मरे हुए कुत्ते की तरह अपनी आंखें फाड़ िी थीं और जीभ बाहर फेंक
िी थी। अपेक्षाओं की भीड़ में अकेले पड़ गये कमजोर आिमी के एकालाप की तरह िह लगातार
'रे जजक एकांत' में बिल रहा था।
िह एकांतवप्रय लोगों में से नहीं था। चौिह बरस पहले का उसका कॉलेज-जीिन
जजंिादिली, ठहाकों और हं गामों की ऐसी स्मतृ त था, जजसके सहारे उसने अब तक का समय जी-
जीकर फेंका था। पर अब यह स्मतृ त भी नष्ट हो रही थी। इस स्मतृ त को याि भर करने से मन
ततक्त होने लगता था। जैसे शहं शाहों की तरह रहने िाले फकसी आिमी को अचानक आयी
स्थायी गरीबी में अपना अतीत एक तनमषम मजाक-सा याि आता है , िैसे ही िह अपने अतीत को
याि करते ही खि
ु को एक विद्रप
ू की तरह पाने लगता था। ऐसे में आम लोगों की तरह िह
अपनी पत्नी या बच्चों पर अपनी झंझ
ु लाहट नहीं उतारता था, बजल्क उनसे तछटककर अपनी
खाट पर चप
ु पड़ जाता था, उनकी उपजस्थतत के बािजि
ू ।
ये िही दिन थे, जजन दिनों उसने पाया फक िह शोर और िस
ू रों की उपजस्थतत से कतराने
लगा है । पर थमा िह तब भी नहीं। अपने में गम
ु चलता रहा, ताफक िस
ू रे इस भयािह अकेलेपन
और तनमषम विर्ाि से बच सकें... धीरे -धीरे उसने पाया फक िमशः अकेले पड़ते जाने की प्रफिया

82
अब उस बबंि ु पर है , जहां िह लगभग अकेला है - लोगों की बातचीत, चह
ु ल और गीतों से िरू ,
उनकी नींि और सपनों से बदहष्कृत। यह रीढ़ की हड्िी को ऐंठा िे ने िाला एहसास था। तकलीफ
से विकृत हो आये चेहरे पर काबू पाते हुए उसने तब अपनी पत्नी की ितु नया पर आस बंधी
तनगाह िौड़ायी और लड़खड़ा गया। िह आत्मीयता और लगाि के तमाम एहसास से एकिम रीत
चक
ु ी थी। िहां लसफष चंि औपचाररक िाक्य भर बचे रह गये थे। ऐसा क्यों हुआ, आिमी ने
चलते-चलते सोचा, फक अपनी अपररहायष मौजि ू गी के बािजि
ू िह लोगों की ितु नया में अप्रासंचगक
है ?
लोगों की ितु नया में अपनी जरूरत को स्िाथी होता िे ख उसका मन भीतर तक रुआंसा हो
आया। उसके तेज किम सुस्त पड़ने लगे। किमों का सुस्त पड़ना था फक पत्नी के पास सुरक्षक्षत
चंि औपचाररक िाक्यों की पूंजी भी मानो लूट गयी। क्यों? उसने िख
ु ते अचरज में सोचा और
बेतरह िर गया। तब पहली बार उसके किम रुक-रुक कर पड़ने लगे।
किमों के इस तरह थकते ही िह एकिम तन्हा था। ऊपर आसमान था, अपने अट्टहासों
के साथ। नीचे धरती, अपने रुिन को थामे। िह न आसमान के अट्टहास में शालमल था, न धरती
के रुिन में । चीजें िांततकारी छलांगिाले तनयम के तहत लसरे से ही बिल गयी थीं। उसे लगा,
अब थम जाना चादहए, ऐसी िौड़ का कोई अथष नहीं, जजसे न कोई महसूस कर रहा हो, न ही
उसे लेकर चचंततत या आभारी हो। सब अपनी-अपनी नींि में और अपने-अपने सपनों में थे, उससे
बेखबर, जबफक यह नींि और सपने उसकी िौड़ ने ही लोगों को सौंपे थे।
िह रुका। रुकते-रुकते भी उसने पूरी ईमानिारी से सोचा फक कहीं उसका विक्षोभ एक
आत्महं ता प्रततशोध में तो नहीं ढल रहा। भीतर से एक रोता हुआ स्िीकार तनकला। पर मैं अिश
हूं, उसने बड़बड़ाते हुए सोचा, बस बहुत हो चक ु ा। उसने अपने-आपको सुनाया और इसके बाि िह
पूरी तरह रुक गया।
यह िही क्षण था जब राजधानी बीहड़ में रुक गयी थी। राजधानी में जीिन िमशः अस्त-
व्यस्त हुआ। सबसे पहले बेचनै होनेिाला िही शख्स था, जजसकी टाचष की रोशनी ने बीहड़ को
िे खा था। िह कुछ िे र दठठका रहा, फफर उसने अपनी पत्नी को भी जगा दिया। पत्नी ने
झल्लाकर कहा, रुकी है , तो चल भी जायेगी, मुझे सोने िो। लेफकन जब काफी िे र के बाि भी
राजधानी रुकी ही रही, तो उसने फफर अपनी पत्नी को जगा दिया। अब पत्नी भी आशंफकत हो
गयी और अपना सामान संभालने लगी। इस बीच बाकी िब्बे भी बीच नींि में तड़क गये।
राजधानी को रुके पयाषप्त िे र हो चक
ु ी थी। छोटे बच्चों ने रोना शरू
ु कर दिया था और
बड़े बच्चों ने सिाल पछ
ू ने आरं भ कर दिये थे फक क्या राजधानी भी रुक सकती है ? क्या
राजधानी के लोगों को भी लट
ू ा जा सकता है ? राजधानी बीहड़ में क्यों रुकी है ? बीहड़ फकसे
कहते हैं? आदि-आदि। जस्त्रयां उबासी, आतंक और आश्चयष के बीच चथर थीं। परु
ु र्ों के चेहरों पर
बच्चों के सिालों से उपजी झंझ
ु लाहट और राजधानी के रुकने से पैिा हुआ िोध बबखरा हुआ था।

83
फकसी िब्बे में 'काम करने िाली सरकार' की असफलता पर चचाष गरम हो गयी थी, तो
फकसी में राजधानी के रुकने का ररश्ता उग्रिािी कारष िाईयों से जोड़कर िे खा जाने लगा था। काफी
लोग राजधानी से बाहर आ गये थे और जल
ु स
ू की शक्ल में ड्राइिर की दिशा में बढ़ने लगे थे।
राजधानी को रुके तीन घंटे हो गये थे। रात का सीना उघड़ने लगा था फक तभी इस अलस्सब
ु ह
एक हािसा हुआ। बीहड़ के, पता नहीं फकस कोने से िो तीन आिमी तनकले और राजधानी से
थोड़ी िरू घम
ू ती एक यि
ु ती को घसीट ले गये। लड़की की चीख से, जब तक लोग चौंके, तब तक
िहां कुछ नहीं था-न चीख, न यि
ु ती, न ही िे आिमी। बाहर खड़े लोगों में भगिड़ मच गयी।
सब चगरते-पड़ते राजधानी के भीतर समाने लगे। खखड़फकयां और िरिाजे बंि फकये जाने लगे।
अपने-अपने लोगों और सामान की चगनती की जाने लगी। कुछ ही िे र में पूरी राजधानी िहशत
की चगरफ्त में थी।
मांओं ने अपने बच्चे छाततयों से चचपटा ललये थे। अगिा की गयी युिती की बूढी मां को
दिल का िौरा पड़ गया था। निवििादहता जस्त्रयां अपने-अपने पततयों से सटकर सहमी हुई
कबूतररयों की तरह कांपने लगी थीं। बूढ़ों की खांसी उखड़ गयी थी और अलग-अलग कंपतनयों के
अचधकारी बड़ी-बड़ी चचंताएं भूल अपने-अपने पररिार को ढाढ़स बंधाने में जुट गये थे। राष्रीय
िै तनक का एक विशेर् संिाििाता अपनी सीट पर धंसा लसगरे ट के कश खींचता हुआ इस समस्या
में मुजब्तला था फक कैसे िह इस 'एक्सक्ल्यूलसि समाचार' को फौरन से पेश्तर अपने अखबार
तक पहुंचाये। िहशत और अतनश्चय के तीन या चार या पांच घंटों पर िह मन ही मन
ममषस्पशी रपट बुनने में तल्लीन था। अगिा यि
ु ती और उसे लेकर राजधानी की नपुंसकता पर
उसने िो बॉक्स आइटम भी बना ललये थे। अब िह तीसरे बॉक्स आइटम के ललए 'झलफकयां' िे ख
और सोच रहा था।
तभी िस
ू रे फकसी िब्बे से एक आतषनाि गूंजा। राजधानी क्योंफक भीतर-ही-भीतर पूरी जुड़ी
हुई थी, इसललए कुछ लोग आतषनाि की दिशा में िौड़ पड़े, कुछ को उनकी पजत्नयों ने उठने से
पहले ही आंख के इशारे से रोक ललया। आतषनाि एक अधेड़ औरत का था। उसका पतत इस
िहशत को झेल न पाने के कारण हाटष अटै क से मर गया था। सुबह के साढ़े सात बजे थे।
राजधानी की गड़बड़ी पता नहीं चल पा रही थी। ड्राइिर, टी.सी. और राजधानी के पुललसकमी
हताश और चफकत थे। पुललस को िे ख विशेर् संिाििाता जजरह करने लगा था फक जजस िक्त
लड़की का अपहरण हुआ, िे क्या कर रहे थे। लोगों का गुस्सा िमशः एक कातर ियनीयता में
बिल रहा था।

सबसे पहले आिमी की मां चफकत हुई। मां ने कहा, घर में आटा खत्म हो गया है ।
आिमी ने जिाब दिया, 'तो?' मां ने सच
ू ना िी, तम्
ु हारे िोनों छोटे भाइयों को मास्टर ने स्कूल से
लौटा दिया है और कहा है , जब तक ड्रेस न बन जाये, स्कूल मत जाना। आिमी ने कहा, 'पैसे

84
होंगे, तो िे खा जायेगा।' उसके जिाबों को सुन पत्नी पहले तो चौंक गयी, फफर खश
ु हुई फक
आिमी सध ु र रहा है । लेफकन जब िक्त गज ु र जाने पर भी आिमी िफ्तर के ललए तैयार नहीं
हुआ तो उसे लगा, कोई गड़बड़ है । उसने िजह पछ ू ी, आिमी ने कहा, 'मन नहीं है ।' उसने फफल्म
का प्रस्ताि रखा, आिमी ने खाली जेब दिखा िी। िह झल्लाकर ऊंची आिाज में बोली फक उसका
जीिन नरक हो गया है । आिमी बाथरूम चला गया। बाथरूम में साबन
ु नहीं था, आिमी बबना
साबन
ु के नहाने लगा।
बाहर आिमी की मां के चेहरे पर कुतह
ू ल और पत्नी के चेहरे पर एक हताश िोध उभर
आया था। िे िोनों आिमी को लेकर फकसम-फकसम की शंकाएं प्रकट करने लगी थीं।
न जंजीर खींची गयी थी, न पटररयां उखाड़ी गयी थीं। न इंजन में कोई खराबी थी, न
राजधानी से कटकर कोई मरा था। इसके बािजूि राजधानी रुकी हुई थी, मानो काला नाग अपने
जहर से उसे नीला कर गया हो।
अब तक पूरे िे श में तहलका मच चक
ु ा था। समूचे िे श की रे न-व्यिस्था अस्त-व्यस्त हो
गयी थी। जजस पटरी पर राजधानी खड़ी थी, उससे होकर आने और जानेिाली सभी गाडड़यां रद्द
कर िी गयी थीं। हे लीकॉप्टरों से याबत्रयों के ललए भोजन के पैकेट चगराये जा रहे थे। बीहड़ िो
प्रिे शों की सीमा पर था, इसललए िोनों प्रिे शों के मुख्यमंत्री बयान जारी कर चक
ु े थे। रे लमंत्री
हे लीकॉप्टर से मुआयना कर गये थे और उन्होंने राजधानी में िहशत से मरने िाले अधेड़ आिमी
के पररिार को िस हजार रुपये और गायब युिती के पररिार को पांच हजार रुपये िे ने की
घोर्णा कर िी थी। राजधानी के पुललसकलमषयों को तनलंबबत कर दिया गया था और गायब युिती
को खोजने का काम केंद्रीय जांच ब्यूरो के जजम्मे आ पड़ा था। बीमारों की िे खभाल के ललए
िॉक्टरों का एक िल पहुंचने ही िाला है , ऐसी घोर्णा भी हुई थी। प्रधानमंत्री रं गभेि की
अंतराषष्रीय समस्या हल करने वििे श गये हुए थे-उनसे संपकष साधा जा रहा था। उन्हें इस
िघ
ु ट
ष ना में वििे शी ताकत का हाथ साफ दिखायी पड़ गया था। विरोधी िल बंि और धरनों की
तैयारी में लग गये थे, चंद्रशेखर ने पियात्रा की घोर्णा कर िी थी। छात्रों ने बसें जला िी थीं
और कॉलेज अतनजश्चत काल के ललए बंि हो गये थे। संसि और विधानसभाओं में सरकार के
खखलाफ अविश्िास प्रस्ताि पेश फकये जाने की मुदहम तेजी पर थी।
अविश्िास प्रस्ताि मुहल्ले के नुक्कड़ों पर आिमी के खखलाफ भी पेश फकये जा रहे थे।
मुहल्ले में आिमी को लेकर तरह-तरह की अफिाहें जन्म ले चक
ु ी थीं।
आिमी िस दिन से न िफ्तर गया था, न पाटष टाइम काम पर। आटे , िाल, चािल, घी,
चीनी, िध
ू और लमट्टी के तेल को लेकर घर में हाहाकार मच गया था। मह
ु ल्ले के िक
ु ानिार ने
उधार िे ने से साफ मना कर दिया था। उसे शक था फक आिमी पागल हो चक
ु ा है । कुछ बढ़
ू ी
औरतों का खयाल था फक आिमी पर फकसी ने टोना-टोटका कर दिया है । कुछ बढ़
ू े इस बात पर
सहमत थे फक यह हि िजे की गैर जजम्मेिारी है । एक उिाहरण श्रिणकुमार का है , जजसे सोच

85
भर लेने से आंखें मारे खुशी के उछलने लगती हैं और एक उिाहरण यह है , मन होता है फक मारे
जत
ू ों के साले की अक्ल दठकाने कर िी जाये। लभखारी और कोढ़ी तक अपने पररिार के ललए
जान हलकान फकये रखते हैं और एक यह शख्स है । औरतों का विश्िास था फक आिमी बैरागी हो
गया है, क्योंफक उसकी औरत बिचलन है ।
आिमी इन सब अफिाहों से तनरपेक्ष अपनी खाट पर चप
ु पड़ा रहता। उसकी आंखें िरू
तक खाली हो गयी थीं और चेहरे की लगातार बढ़ती िाढ़ी ने उसे कुछ-कुछ िाशषतनक की मद्र
ु ा
सौंप िी थी। बच्चों ने उसके पास जाना छोड़ दिया था। पत्नी तो उसे अपने वपछले जन्म का
पाप मानने ही लगी थी।
एक दिन आया, जब आिमी को लेकर उड़ने िाली अफिाहों ने मकान माललक को
विचललत कर दिया। उसे आशंका हुई फक कहीं उसका फकराया खतरे में न पड़ जाये। िह आया
और आिमी की पत्नी को बोल गया फक इस पहली से िे लोग कोई िस ू रा मकान खोज लें, या
फफर उसे कम-से-कम िो महीने का फकराया पेशगी िे िें । पत्नी ने उस रात पहले अपने िोनों
बच्चों को पीटा, फफर उन्हीं की आिाज में अपनी आिाज लमलाकर िे र तक रोती रही। पर आिमी
के जजस्म में जुंबबश भी नहीं हुई।
राजधानी के जजस्म में जुंबबश हो गयी। िे श के आला दिमाग इंजीतनयरों के एक िल ने, जजसे
वििे शों में प्रलशक्षक्षत करने पर सरकार ने करोड़ों रुपया खचष फकया था, आखखर राजधानी के 'इनर
िल्िष' में हुई गड़बड़ी को खोज तनकाला और ठीक पंद्रहिें रोज राजधानी ने अपनी पुरानी रफ्तार
पकड़ ली। पूरे िे श में तहलका मच गया। जगह-जगह पटाखे छोड़े गये और रोशनी की गयी।
पांच लसतारा होटलों में जश्न मनाये गये और शराब बहायी गयी। प्रधानमंत्री ने राष्र के नाम
अपने संिेश में सगिष घोर्णा की फक हम लगातार विकास के रास्तों पर बढ़ रहे हैं और हमारी
टे क्नोलॉजी फकसी भी िे श से कमतर नहीं है । लोगों का सरकार में भरोसा फफर से कायम होने
लगा। विरोधी िलों के पांिों के नीचे की जमीन कुछ और कमजोर पड़ गयी। जीिन फफर िौड़ने
लगा।
पर आिमी अभी तक रुका हुआ था। उसके िोनों छोटे भाई खाट से जा लगे थे और मां
का िमा उखड़ आया था। पत्नी के विरोध करने की सारी ताकत पेट की भख
ू ने सोख ली थी
और आखखर उसने तमाम बातें अपने मायके ललख भेजी थीं। अब िह इंतजार में पथरा रही थी।
आिमी तो पहले से ही पथराया हुआ था।
जजस रोज राजधानी चली, उसी रोज आिमी का चार िर्ीय बेटा िरते-िरते उसके पास
आया और उसके सख ू े हुए चेहरे पर हाथ फफराते हुए बोला, 'पापा, आप नाराज हैं?'
जैसे सख
ु ष तिे पर पानी की बंिू छन्न से बजी हो! आिमी ने अपने बेटे को लपककर
छाती में छुपा ललया। और फफर गंज
ू ा उसका आतषनाि। ठीक िैसे, जैसे राजधानी ने चलने से

86
पहले अपनी सीटी से पूरे बीहड़ को गुंजा दिया था। िह धीरे से उठा और बेटे के गाल थपथपाकर
घर से बाहर तनकल गया।
बेटे की आंखें चमकने लगीं थीं।

-----

87
और आदमी रअय

अगर फकसी संिेिनशील आिमी ने यह दृश्य िे ख ललया होता तो तनजश्चत रूप से उसका
मन ितु नया के समच
ू े कायष-व्यिहार से उचट जाता। बाहर बाररश हो रही थी। कमरे के भीर पंखा
घम
ू रहा था। नाइट बल्ब की अशक्त रोशनी में घड़ी के रे डियम मढ़े अक्षर साफ चमक रहे थे।
छोटी सई
ु बारह और एक के बीच तथा बड़ी सई
ु के पांच पर ठहरी हुई थी। छत पर बाररश की
आिाज थी। भीतर घड़ी की दटक-दटक और पंखे की सर-सराहट। मेज पर शाम का अखबार था
और बबस्तर पर उस आदिमी की पत्नी, जो मेज के सामने पड़ी कुसी पर बैठा बबस्तर पर उस
आिमी की पत्नी, जो मेज के सामने पड़ी कुसी पर बैठा बेआिाज रो रहा था।
रात के साढ़े बारह बजे, जब लोग अपनी-अपनी नींि में हों, अपने सपनों और हािसों के
साथ, तब केिल एक आिमी को इस तरह रोते िे खना क्या बेचन
ै कर िे नेिाला अनुभि नहीं है ?
कमरे में और भी बहुत कुछ था, फकताबों की अलमारी, बेंत का सोफा, मोनाललसा की
मुस्कान, िीनस का बुत और एक िो बाई िेढ़ फुट का ऐसा चचत्र, जजसमें आिमी अपनी पत्नी
और इकलौते बच्चे के साथ खड़ा इस तरह मुस्करा रहा था मानो उसने जीिन का सच पा ललया
हो।
और इसी आिमी की िोनों आंखों से आंसुओं की धार पतछले पांच लमनट से अनिरत बह
रही थी।
इस समूचे दृश्य को पें दटंग में बांधकर फकसी कलािीघाष में रख दिया जाता तो कई लोगों
की नींि गायब हो जाती और कई लोग अपने एकांत में इस दृश्य की स्मतृ त से लसहर-लसहर
उठते, लेफकन फफलहाल इस दृश्य को िे खनेिाला कोई नहीं था।
बबस्तर पर लेटी आिमी की पत्नी और उसके बगल में लेटा आिमी का बेटा इस सबसे
तनरपेक्ष अपनी-अपनी नींि में थे। नींि में भी उस आिमी की पत्नी के चेहरे पर िही िपष ठहरा
हुआ था, जजससे टकरा-टकराकर आिमी की छाती खोखली हो गयी थी। उन िोनों के बीच पसर
गये तनाि की छायाएं बच्चे के चेहरे पर फकसी बििम
ु ा िाग की तरह उभर आयी थीं। बच्चा
वपछले िो बरस से अपने मां-बाप की जजस मुठभेड़ के बीच फंसा हुआ था, उसने उसके चेहरे की
चपलता, कोमलता और मासूलमयत को जैसे जड़ में पहुंचकर सोख ललया था। उसके छः िर्ीय
चेहरे पर जैसे कोई सत्तर बरस का प्रेत से लभड़ा हुआ था। रह-रहकर उसके होंठ टे ढ़ हो जा रहे
थे और िह बार-बार करिट बिल रहा था।
अलमारी पर रखा हुआ चचत्र चार बरस पहले का था और उस पर जमी धल ू को शायि
कई दिनों में पोंछा नहीं गया था, इसीललए िह कुछ धध
ंु लाया हुआ-सा था-एक ऐसी स्मतृ त की
तरह, जो तेजी से घटती घटनाओं के कोलाहल में िूबी हुई हो।

88
झगड़ा उन दिनों में पहले भी होता था, पहले यानी उस समय भी, जब का चचत्र अलमारी
पर रखा था, लेफकन तब झगड़े में आिमी टूटता नहीं था। उसे लगता था फक उन िोनों के बीच
जो कुछ भी गलत है , उसकी उम्र बहुत कम है और उसके मन में अपनी पत्नी को लेकर जो
तनमषल और शांत-सी प्रेम की निी बहती है , उसकी आहट एक दिन पत्नी सन
ु ही लेगी, तब
शायि सब कुछ ठीक हो जाये, पर ऐसा हो नहीं सका। पत्नी की आंखों, मन और मजस्तष्क में
जो सवपषणी के िपष-सा अहं समाया हुआ था, िह िमशः नष्ट होने की बजाय विराट होता रहा
और आिमी के मन में बहती निी उसी अनप ु ात में सख
ू ती रही, उसके भीतर का खालीपन
विस्तत
ृ होता रहा और फफर आिमी को लगा फक िह टूटने लगा है और अकेला छूट गया है ।
उसने पाया फक पत्नी के ललए उसकी उपयोचगता समाप्त हो गयी है , और उसका छोटा-सा घर िो
कमरों िाले मकान में तब्िील हो गया है ।
इस मकान को उसने बड़े चाि से बनाया और अपनी सारी ऊजाष इसमें झोंक िी थी। जब
उसके पररचचतों, िोस्तों और ररश्तेिारों तक यह खबर पहुंची थी फक उसने दिल्ली जैसे शहर में
अपना खिु का मकान बनिा ललया है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ था। यकीन खि ु उसे भी नहीं
हुआ था, लेफकन मकान बना हुआ सामने था और उसके बाहर, िरिाजे के चौकोर खंभे पर सफेि
पत्थर ललखा हुआ था-तनशा।
तनशा आिमी की पत्नी का नाम था। मकान का नाम ही नहीं, उसका माललकाना हक भी
आिमी ने अपनी पत्नी के ही नाम फकया था, लसफष इसललए ताफक िह जान सके फक उसका पतत
उसे फकतनी लशद्दत के साथ चाहता है । वििाह की पहली रात उसका आिमी ने अपनी पत्नी से
अकबर के से अंिाज में पूछा था, 'बोल, तुझे क्या चादहए?' तब िे िक्षक्षण दिल्ली की एक सिेंट
कालोनी में मुगे के िड़बे जैसे फकराये के एक कमरे में रहते थे। पत्नी ने कहा, 'एक अपना घर',
और आिमी जंग के ललए तनकल पड़ा। उसने अठारह-अठारह घंटे काम फकया, पूरे आठ बरस।
आठ बरस बाि जब उसने यमुनापार की एक गरीब बस्ती में पचास गज के टुकड़े पर िो कमरों
का एक छोटा-सा घर बनाया और उस 'तनशा' का नाम खि
ु िाया तो उसे पता चला फक तनशा कहीं
नहीं है । रात-दिन काम में खटे रहने के कारण िह यह ध्यान नहीं रख पाया फक तनशा भी उसके
साथ-साथ आ रही है या नहीं।
इसका पता तत्काल नहीं लगा। जैसे प्याज के तछलके उतरते हैं, उसी तरह िह इस
यथाथष के सामने पहुंचा फक तनशा साथ नहीं िे पायी और जजसे उसने घर समझकर बनाया, िह
ईंट और सीमें ट का िो कमरों िाला एक मकान ही बन सका, ऐसा मकान जजसकी छत के नीचे
एक आिमी और एक औरत विपरीत दिशाओं से आकर एक-िस
ू रे के विरुद्ध खड़े हो गये हैं।
मकान में रहते एक िर्ष भी परू ा नहीं गज
ु रा था फक विसंगततयां और लशकिे उभरने लगे। िह
समझ ही नहीं पाया फक आठ िर्ों तक दिल्ली के विलभन्न कमरों में उन िोनों ने जो यातना,
पीड़ा और अभाि झेला, जो धप
ू , जाड़ा और बरसात सही, नौकरी और पाटष टाइम को अठारह-

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अठारह घंटे िे ने के कारण प्रेम-रदहत जीिन गुजारा, एक-िस
ू रे को िक्त न िे पाने का कष्ट
जजया, िह सबका सब अपने घर में पहुंचकर सख ु में बिलने की बजाय एक अपार िःु ख और
ितु नषिार यातना में कैसे बिल गया, बीते हुए आठ बरस अपने साथ उन िोनों के बीच का
अनरु ाग और संिेिना क्यों साथ ले गये? िख
ु ों का एक मस
ु लसल लसललसला जजस सख
ु के ललए
अपनाया था, िह सख
ु एक अजेय प्रततद्िंद्िी में क्योंकर बिल गया?
और फफर, अपने घर में आने से पहले ही जो हल्का-हल्का झगड़ा, मतभेि, वििाि गस्
ु सा
और चचड़चचड़ापन शरूु हुआ था, िह घर में आने के बाि िोनों के जीिन पर फकसी अपारिशी
कोहरे की तरह फैल गया। घर बनने तक उसने तनशा को नौकरी की सख्त यातना से बचाये
रखा, लेफकन घर बनते ही तनशा ने जजि में आकर खि
ु भी नौकरी कर ली। िह कुछ भी कहता
और तनशा आहत सवपषणी की तरह अपना फन उठाकर फुफकारने लगती। आखखर उसने खि
ु को
हालात के हिाले कर दिया और घर आने से बचने लगा। घर में घर जैसा कुछ रह भी नहीं गया
था।
और एक दिन डिप्रेशन के एक गहरे क्षण में उसने तय फकया फक िह नौकरी छोड़ िे गा।
क्यों करे नौकरी? फकसके ललए इतना िःु ख, अपमान और कष्ट उठाये? कोई भी तो यह महसूस
करनेिाला नहीं था फक उसने फकतना कुछ सहा और खोया। तो फफर, फकसके ललए ठहरा हुआ है
िह? उसने सोचा और नौकरी छोड़ िी।
यह छः महीने पहले की बात है ।
नौकरी छोड़ने के िो महीने के भीतर ही उसे पता चल गया फक उसने फकतनी बड़ी गलती
कर िाली। अब िह और ज्यािा अकेला हो गया था। िफ्तर में एक पूरा दिन चप
ु चाप गुजर जाता
था, लेफकन अब यह दिन उसके लसर पर सिार हो गया था। िस
ू रे यह फक वपछले िर्ों में उसने
जो अठारह-अठारह घंटे काम फकया था, उसने उसके जजस्म को तोड़ िाला था। नौकरी करने के
िौरान यह पता नहीं चला, लेफकन जब उसने छोड़ िी तो वपछले कई बरस की थकान उसके
जजस्म पर इस तरह चढ़ बैठी, जैसे घायल हाचथयों का हुजूम अपनी ही सेना को रौंिता गुजरने
लगे। उसने पाया फक िह थक गया है और एक थकी उम्र में जब उसे साथ और सहारे की सबसे
अचधक जरूरत थी, िह अकेला छोड़ दिया गया है ।
घर से िह सुबह ही तनकल आता, बबलकुल उसी तरह जैसे बेरोजगार जिान लड़के तनकल
जाते हैं और अपना िक्त इधर-उधर गुजारते हैं। प्रोवििेंट फंि से उसे िस हजार रुपये लमले थे,
जजन्हें उसने बैंक में जमा कर दिया था और संयम से खचष कर रहा था। िह लसगरे ट के बजाय
बीड़ी पीने लगा, िो िक्त के बजाय एक िक्त खाना खाने लगा, िह भी फकसी सस्ते ढाबे में ।
उसने िोस्तों से लमलना बंि कर दिया।
कई बार ऐसा भी होता फक ठे क पर उसकी स्मतृ त में अपने बेटे की याि चली आती और
िह पीना छोड़कर अपने घर चल पड़ता। घर में घस
ु ते ही िह बेटे को प्यार करना चाहता तो

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तनशा तमककर उसके सामने खड़ी हो जाती। िह एक चांटा लगता और तनशा पर जैसे िौरा पड़
जाता। उस िौरे में िह उसके ऊपर चगलास, प्लेट और तफकये उठाकर मारने लगती। एक बार तो
तनशा ने पेपरिेट ही उठाकर फेंक मारा, जजससे उसका माथा थोड़ा-सा फट गया। रोया िह तब
भी नहीं।
िजह थी शाम का अखबार, जो सेंरल पाकष में खरीिा था, लेफकन पढ़ा अभी तक नहीं
था। िह रात को हमेशा की तरह, खाना खाकर लास्ट बस से करीब ग्यारह बजे घर लौटा था।
जब िह आया, तनशा सो रही थी। िरिाजा खोलकर िह फफर सो गयी। तभी बाररश होने लगी।
कुछ िे र िह खखड़की से लगकर खड़ा बाररश का बरसना िे खात रहा, फफर खखड़की बंि कर कुसी
पर आ बैठा। थोड़ी िे र िह कुसी पर यूं ही बैठा रहा। फफर उसने अखबार उठा ललया और नाइट
बल्ब की कमजोर रोशनी में खबरें पढ़ने की कोलशश करता रहा। अखबार के आखखरी पेज पर,
कैबरे के विज्ञापनों के ढ़े र में िबी हुई एक छोटी-सी खबर पर उसकी नजर पड़ी, जजसका शीर्षक
था-'अकेली थी, मर गयी। उत्सुकतािश खबर पढ़ने लगा। ललखा था - 'लमरांिा हाउस में पढ़ने
िाली एक 24 साल की लड़की ने कल नींि की गोललयां खाकर आत्महत्या कर ली। लड़की के
पास से एक कागज बरामि हुआ है , जजस पर ललखा है -'मैं अकेलेपन से लड़ते-लड़ते थक गयी हूं
और अपनी मजी से मर रही हूं।
खबर पढ़कर उसने अखबार िापस मेज पर रख दिया और अपना माथा सहलाने लगा।
उसे लगा, जैसे भीतर ही भीतर िह कमजोर पड़ रहा है । फकतना साहस फकया होगा लड़की ने,
उसने सोचा। अचानक उसके मन में आया फक अगर िह लड़की को जानता होता तो उसे मरने
से बचा सकता था। एक बेहि अकेली लड़की
अगर एक बेहि अकेले आिमी से पररचचत होती तो शायि... तो शायि, उसने सोचा और
सहसा उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
बाहर बाररश अभी भी हो रही थी, रात के साढ़े बारह बजने ही िाले थे और बत्तीस बरस
का एक आिमी चौबीस साल की एक अनजान लड़की को याि कर के रो रहा था।

(------)

91
ववचित्र दे ल की प्रेम क

इस कहानी के नायक कालीचरण माथरु , जो खि


ु को के.सी. माथरु कहना पसंि करता है ,
में ऐसा एक भी गण
ु नहीं फक उसे नायक का िजाष दिया जाये। लेफकन इसमें मैं क्या कर सकता
हूं फक जो कहानी मैं ललखने जा रहा हूं िह कालीचरण माथरु की ही है । अगर पाठकगण
अतनिायष सहानभु तू त के साथ विचार करें तो तथ्य यह प्रकालशत होगा फक गण
ु हीनता की
जजम्मेिारी बबचारे के.सी. पर नहीं जाती। इस गण
ु हीनता का िारोमिार है उस विचचत्र फकस्म के
िे श पर जजसमें के.सी. ने अपनी चाहतों और तमन्नाओं को मत
ू ष रूप िे ना चाहा और जजसमें कुछ
भी यथास्थान नहीं रह गया था - न गुण, न धमष और न ही जीिन।
सचमुच िह एक विचचत्र िे श था। िहां इस बात की कोई गारं टी नहीं थी फक जो शख्स
सुबह अपने घर से िफ्तर के ललए तनकला है िह शाम को सही-सलामत लौट भी आयेगा। िहां
ििाई खाकर आिमी मर सकता था और जहर खाने के बािजूि बचा रह सकता था।
ऐसे विचचत्र िे श में कालीचरण माथरु उफष के.सी. को अपने साथ पढ़ने िाली जीनत से
वििाह करने की इच्छा हुई। इस इच्छा के जीनत और के.सी. के मन में रहने तक तो सब ठीक-
ठाक रहा। लेफकन जैसे ही यह इच्छा सािषजतनक हुई के.सी. की मां ने आत्मिाह करने की और
के.सी. के वपता ने के.सी. को धक्के मारकर घर से तनकाल िे ने की धमकी िे िाली। के.सी. इस
समस्या से तनपट भी नहीं पाया था फक एक शाम जीनत के भाइयों ने गली के मुहाने पर के.सी.
को रोक उसकी गिष न पर चाकू रख दिया और गुराषकर बोले, 'खैररयत चाहता है तो इसी िक्त
शहर से िफा हो जा।'
के.सी. कहना चाहता था-प्रजातंत्र, आजािी, प्रेम िगैरह-िगैरह लेफकन गिष न पर चाकू की
नोक प्रततपल चभ
ु ती जा रही थी सो इन शब्िों को कहने के प्रयत्न में उसके गले से एक
तघतघयाहट-सी उभरी और िूब गयी। आश्चयष और िःु ख में िूबा के.सी. जीनत के भाइयों के साथ
बस अड्िे आया और राजधानी जाने िाली बस में बैठ गया। दटकट जीनत के भाइयों ने ही
खरीि दिया। जब तक बस चल न िी, जीनत के भाई िहीं खड़े रहे ।
उस शहर से चलने िाली यह बस जब फकसी खराबी के कारण पास के एक कस्बे में रुकी
तो इस सारे घटनािम से है रान और परे शान के.सी. ने सोचा फक िह उतर ले और भाग कर
जीनत के पास पहुंच जाये। लेफकन िस
ू रे ही क्षण इस इच्छा का िमन करती उिासीनता की एक
तेज लहर के.सी. के दिमाग से उठी और दिल को िबोच कर बैठ गयी। के.सी. ने कुछ िे र संघर्ष
फकया और अंततः इब्ने इंशा के इस शेर में शरण ली--'इशा जी उठ्ठो, कूच करो, इस शहर में जी
का लगाना क्या?'
इस प्रकार इस कहानी के नायक ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ खाली हाथ और क्षुब्ध
मन िे श की राजधानी में किम रखा और खरामा-खरामा पैिल चलता हुआ अपने चाचा के घर

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पहुंचा। चाचा एक फमष में सेल्स मैनेजर थे और तीन बच्चों के वपता तथा एक मररयल-सी
तनस्तेज चेहरे िाली औरत के पतत थे। उन्होंने अपने बाल धपू में सफेि नहीं फकये थे। िह क्लकष
से वििय प्रतततनचध और वििय प्रतततनचध से वििय अचधकारी की सीदढ़यां चढ़ते हुए परू े बीस
िर्ों की कदठन तपस्या और हाड़-तोड़ मेहनत के बाि वििय प्रबंधक बने थे। उन्होंने दहंिी
सादहत्य में एम.ए. फकया था और पी.एच.िी. करने की तमन्ना ललये ललये क्लकी में आ लगे थे।
इततहास, िशषन, राजनीतत और सादहत्य की एक हजार से ऊपर फकताबें उनकी तनजी लमजल्कयत
थीं और िह चौड़े फ्रेम का मोटे शीशों िाला नजर का चश्मा पहनते थे। िह समझ गये फक
के.सी. झठ
ू बोल रहा है ।
के.सी. ने चाचा से कहा था फक िह घूमने-फफरने आया है ।
'बबना कपड़े-लत्तों के?' चाचा ने सव्यंग्य पूछा और कहा, 'मैंने ितु नया िे खी है , मुझे
बनाने की कोलशश मत करो।' और के.सी. ने बनाने की कोलशश छोड़ उगल दिया फक उसके साथ
क्या हािसा हुआ है ।
फफर के.सी. ने इस हािसे की सूचना जीनत और अपनी मां को भेजी और मां से प्राथषना
की फक कम से कम िो सौ रुपये और िो जोड़ी कपड़े उसे तुरंत लभजिा िे ।
एक हफ्ते बाि मां का खत आया जजसमें सूचना िी गयी थी फक सौ रुपये मनीऑिषर से
और कपड़े पासषल से भेजे जा रहे हैं। आगे ललखा था फक 'तूने अच्छा ही फकया जो शहर छोड़
दिया। जान है तो जहान है । तेरे बाऊ जी को भी जीनत के भाई धमका गये थे। तुझे तो पता ही
है फक यहां िं गे होते ही रहते हैं। तेरे बाऊजी ने अपने रांसफर के ललए अजी िी है । तुझसे िे
बहुत खफा हैं। घर की हालत तो तुझे पता ही है इसललए िो सौ रुपये नहीं भेज सकी। अच्छा हो
फक तू अब िहीं जमने की सोचे। अपने चाचा से कहना फक तेरे ललए फकसी काम का जग ु ाड़ कर
िें । पत्र िालते रहना। तेरी मां।'
जीनत के नाम के.सी. ने जो पत्र भेजा िह जब उसके घर पहुंचा तो जीनत के भाई
िोपहर का भोजन कर रहे थे और जीनत कॉलेज गयी थी। जीनत के नाम चफूं क कहीं से भी
आने िाला यह पहला पत्र था और के.सी. कांि अभी ताजा था इसललए भाइयों ने पत्र के ऊपर
'व्यजक्तगत' ललखे होने के बािजूि पत्र खोला, पढ़ा और के.सी. का पता नोट करने के बाि पत्र
को फाड़कर नाली में बहा दिया।
जजस दिन के.सी. को मां द्िारा भेजे सौ रुपये का मनीआिषर और कपड़ों का पासषल प्राप्त
हुआ उसी शाम उसे जीनत के भाइयों द्िारा भेजा एक खत भी लमला जजसमें सच ू ना िी गई थी
फक िे राजधानी आकर भी के.सी. को जमीन में जजंिा गाड़ सकते हैं इसललए के.सी. अपनी
हरकतों से बाज आये और पठानों की इज्जत से खेलने की जरु ष त न करे ।
के.सी. इस पत्र को पढ़कर िर गया और चाचा से सलाह लेने उपजस्थत हुआ। चाचा ने
सलाह िी फक जीनत के भाई ठीक कहते हैं और अगर के.सी. को वििाह करने की ही इच्छा है

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तो बबरािरी में लड़फकयों की भीड़ खड़ी है । के.सी. कहे तो बात चलायी जाये। के.सी. को पता नहीं
है फक कायस्थों में आजकल लड़के की कीमत एक लाख को छू रही है फक उस रुपये से अपना
कोई व्यापार फकया जा सकता है , के.सी. जीनत को मन से तनकाल िे और राजधानी में रहकर
कम से कम अपना एम.ए. ही परू ा कर ले।
इस सलाह को सन ु कर के.सी. को गहरा सिमा पहुंचा और उसने बड़े गहरे अविश्िास से
चाचा को िे खा। उसे नहीं पता था फक जजन चाचा को िह सल ु झे हुए विचारों का प्रगततशील
आिमी समझता था िह भी ठीक उसके वपता के िफकयानस
ू ी विचारों की लीक पर चल सकते हैं।
चाचा की सलाह के विपरीत के.सी. को जीनत और तेजी से याि आने लगी।
थक कर के.सी. ने चाचा की फकताबों में शरण ली। िह सारा-सारा दिन फकताबों में िूबा
रहता और सारी-सारी रात जीनत में । हफ्तों तक उसे िाढ़ी बनाने का ख्याल नहीं आता। चाची
खाना िे िे ती तो खा लेता, भूल जाती तो याि नहीं दिलाता। एक अजीब फकस्म का िीतरागी
भाि उसके चेहरे पर हरिम चचपका रहता। उसके इस व्यिहार पर चाची को कभी िोध आता
और कभी एक भािुक फकस्म की करुणा में भर कर िह 'च्च-च्च' कर उठतीं। चाचा के िस, बारह
और पंद्रह िर्ष के तीनों लड़के उसे इस बीच अजूबा समझने लगे थे। और इसी बीच के.सी. ने
जीनत के नाम करीब-करीब तीन िजषन पत्र ललख कर अपने पास जमा कर ललये थे।
इस तरह तीन महीने गुजरे और इन तीन महीनों में के.सी. का शरीर आधा हो गया। अब
चाचा को चचंता हुई और उन्होंने के.सी. के सामने प्रस्ताि रखा फक अगर िह चाहे तो उसे अपनी
फमष में क्लकी दिला िें । के.सी. ने िो दिन का िक्त मांगा लेफकन िो ही घंटे के भीतर अपनी
सहमतत िे िी।
इस तत्काल तनणषय का कारण बना के.सी. की बहन का पत्र जो ऐन उसी िक्त पहुंचा
जजस िक्त के.सी. चाचा का प्रस्ताि गिष न झुका कर सुन रहा था। के.सी. उस पत्र को लेकर
कमरे में गया। पत्र पढ़ने के बाि िह पूरे िेढ़ घंटे सचमुच रोया और उसके आधे घंटे बाि उसने
चाचा का प्रस्ताि स्िीकार कर ललया।
के.सी की बहन ने ललखा था -'वपछले दिनों जीनत का तनकाह बहुत धम
ू धाम के साथ
फकन्हीं प्रो. असलम के साथ हो गया। िह अपने शौहर के संग यहां से चली गयी है ।' जीनत ने
यह संिेश लभजिाया था फक 'उसे मरते िम तक यह अफसोस रहे गा फक के.सी. इतने कायरतापूणष
ढं ग से भाग तनकला। भागते समय क्या के.सी. को एक पल के ललए भी यह ख्याल नहीं आया
फक एक बार उसने बहुत आत्मविश्िास के साथ कहा था फक उन िोनों का वििाह इस समाज के
सामने एक आिशष उपजस्थत करे गा।' जीनत ने यह भी पछ
ु िाया था फक 'उनका प्रेम बड़ा था या
प्रेम के बीच में आ जाने िाला चाकू? के.सी. ने यह कैसे सोच ललया फक अगर िह मर जाता तो
जीनत जजंिा रह जाती।' इसके बाि जीनत ने ललखिाया था फक 'िह चाहती तो तनकाह के िक्त
भी घर से भागकर के.सी. के पास राजधानी आ सकती थी लेफकन फकस विश्िास पर?' और अंत

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में के.सी. के नाम अपने अंततम संिेश के बतौर जीनत ने कहलिाया था फक 'िह के.सी. के
कायरतापण
ू ष रिैये के विरोध में यह तनकाह कर रही है फक यह सब ललखाते हुए उसे कोई भय
अथिा संकोच नहीं है । के.सी. चाहे तो यह पत्र उसके शौहर को भेज सकता है ।' पत्र के अंत में
बहन ने पन
ु श्चः ललखकर सच
ू ना िी थी फक वपताजी का रांसफर ऑिषर आ गया है और िह लोग
एक सप्ताह के भीतर यह शहर छोड़कर जा रहे हैं। नये शहर का पता ललखने के बाि के.सी. की
बहन ने जीनत के शौहर का पता भी ललखा हुआ था।
और यही एक बात ऐसी थी फक के.सी. फूट-फूट कर िेढ़ घंटे तक लगातार रोया। अगर
पत्र में जीनत का नया पता न होता तो के.सी. इस पत्र को बड़ी सहजता से 'ततररया चररत्र' की
संज्ञा से विभूवर्त कर जीनत को भूल जा सकता था लेफकन जीनत ने अपना पता भेज कर
के.सी. को के.सी. के अनुसार न लसफष अपने प्रेम की गहराई का सबूत दिया था बजल्क जीिन-भर
के ललए उसे एक जलील फकस्म के पछतािे में तड़पने के ललए भी छोड़ दिया था।
बहन का पत्र पढ़ने के तरु ं त बाि के.सी. के मन में िो विचार उठे । पहला यह फक उसे
फौरन जीनत के पास पहुंचना चादहए, फक उसका प्रेम िे ह की पवित्रता अपवित्रता के आग्रहों-
िरु ाग्रहों से कहीं ज्यािा ऊंचा है फक अभी भी कुछ नहीं बबगड़ा और िह अगर चाहे तो जीनत को
अपने साथ राजधानी ले आ सकता है । िस
ू रा यह फक िह इस पत्र को तो नहीं, बजल्क उन तीन
िजषन पत्रों को जीनत के पते पर रिाना कर िे जो इन दिनों उसने ललखकर अपने पास रख ललये
हैं। ये पत्र जीनत को उसकी मजबूररयों और प्रततबद्धता की कहानी सुना सकेंगे। यह िस
ू रा विचार
के.सी. को खि
ु ही मूखत
ष ापूणष और कायरतापूणष लगा और पहले विचार की प्रततफियास्िरूप उसकी
एक आंख में िे चाकू उतर आये जो जीनत के भाइयों ने उसकी गिष न पर दटकाये थे और िस
ू री
आंख में कुछ अरसा पहले हुए उस िं गे के दृश्य उभरने लगे जजसमें िो संप्रिाय के लोग एक
पागल जुनून में एक िस
ू रे को तलिारों की नोंक पर उछालने लगे थे। गिष न झटककर िोनों
आंखों के खौफनाक दृश्यों को भूल के.सी. ने अपने सूखे होठों पर जीभ फफरायी थी, कुसी के हत्थे
से दटककर िेढ़ घंटे रोया था और रोने के आधा घंटे बाि कमरे से बाहर तनकल चाचा से बोला
था -'मैं नौकरी करना चाहता हूं।'
पाठकगण क्षमा करें गे फक इस कहानी को ललखते समय मेरी कलम फकंचचत संकोच में पड़
दठठक गयी है । मैं, जो कालीचरण माथरु उफष के.सी. की असली कहानी ललखने बैठा हूं, इस
पसोपेश में पड़ गया हूं फक जो घटा है के.सी. के साथ, िैसा ही िणषन करूं या के.सी. जैसा है
उसे िैसा ही दिखाया जाये या एक कहानी के नायक को जैसा होना चादहए, िैसा चचबत्रत फकया
जाये?
मसलन जजस समय के.सी. जीनत के भाइयों के चाकू दिखाये जाने पर 'बड़ा बेआबरू
होकर जीनत के कूचे से तनकल रहा था' और उसकी बस पास के एक कस्बे में खराब हो गयी
थी और उसने सोचा था फक िापस जीनत के पास िौड़ चले, उस िक्त इस इच्छा का िमन

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करता इब्ने इंशा का एक शेर उसे याि आया, 'इंशाजी, उिो कूच करो, इस शहर में जी का
लगाना क्या' और िह चप
ु चाप राजधानी आ गया था, उस स्थल पर मेरे अपने मन में आया था
फक िास्तविक जीिन में के.सी. ने भले ही कुछ भी फकया हो लेफकन अब जबफक िह एक कहानी
का नायक बन कर उतरा है और सैकड़ों-हजारों लोग उससे प्रेरणा लेने को उं कड़ू बैठे हैं तो उसकी
प्रततफिया भी नायकों जैसी होनी चादहए। और मैंने सोचा फक इसे िापस जीनत के पास ललये
चलता हूं और जीनत के भाइयों से लभड़ा िे ता हूं। इब्ने इंशा के पलायनिािी शेर की टक्कर में
मेरे पास फैज अहमि फैज की िे पंजक्तयां भी थीं जो मैं उससे गिा सकता था - -'अब टूट
चगरें गी जंजीरें , अब जजंिानों की खैर नहीं, जो िररया झम
ू के उिे हैं, ततनकों से न टाले जायेंगे।'
लेफकन जब इस स्थल पर आ, कहानी ललखना छोड़, मैं अपना यह प्रस्ताि ले के.सी. के
पास गया तो उसने बड़े ही बितमीज लहजे में कहा, 'कहानी मेरी ललखी जा रही है या मेरे नाम
पर फकसी और की?'
पाठकगण फफर क्षमा करें गे फक मैं इस प्रश्न के जिाब में कोई सैद्धांततक बहस छे ड़ने के
बजाय लसफष 'हें हें हें ' ही कर सका था और के.सी. की अक्ल पर लसर धन
ु ता हुआ चप
ु लौट आया
था।
इसी प्रकार अब जबफक जीनत का संिेश पढ़कर के.सी. ने नायकोचचत व्यिहार नहीं फकया
तब मैं भी इस कहानी के अनेक पाठकों की तरह व्यजक्तगत रूप में क्षुब्ध हूं लेफकन प्रश्न यही है
फक कहानी कालीचरण माथरु की ललखी जा रही है या उसके नाम पर फकसी और की? और जब
कहानी कालीचरण माथरु की ललखी जा रही है तो सादहत्य और लेखक के िातयत्िों का तकाजा
कुछ भी हो, हम िही िे खने झेलने के ललए अलभशप्त हैं जो कालीचरण माथरु ने फकया--जजया है ।

00

तो, राजधानी में तीन िर्ष के क्लकीय जीिन ने के.सी को तीन चीजें भें ट कीं। नंबर एक-
नजर का चश्मा। नंबर िो-िायरी ललखने की आित। नंबर तीन-एक ऐसी समझिार स्त्री िोस्त की
उत्कट चाह जजसकी उपजस्थतत को के.सी. अपने रक्त में बजता महसूस कर सके।
जजन दिनों के.सी. के मन में इस चाह ने जन्म ललया उन दिनों मुल्क के रक्त में एक
िस
ू री ही स्त्री बज रही थी। उन दिनों के.सी. चाचा का घर छोड़ अपना एक अलग फकराये का
कमरा ले उसमें लशफ्ट कर गया था और िे र रात तक या तो पढ़ता रहता था या िायरी ललखता
था। के.सी. ने खिु को सोलह-सोलह और सत्रह-सत्रह घंटे िफ्तर के काम में िुबोया हुआ था
इसललए मल् ु क के रक्त में बजती स्त्री का अहसास भी उसे बहुत िे र बाि जाकर हुआ और जब
हुआ तो िह बहुत भीतर तक काठ होता चला गया।

96
हुआ यूं फक एक रोज िह रात के करीब ग्यारह बजे अपने कमरे में लेटा जाजष आिेल का
उपन्यास '1984' पढ़ रहा था फक िरिाजे पर िस्तक हुई। फकताब को खाट पर उल्टा रख उसने
िरिाजा खोला और बाहर से पड़े तेज धक्के के पररणामस्िरूप जमीन पर चगर पड़ा। आने िाले
चार शख्स थे। तीन खाकी ििी में , बंिक
ू ों के साथ और चौथा सािी ििी में । उठने से पहले ही
के.सी. ििीधाररयों की चगरफ्त में आ चक
ु ा था और है रानी से सािी ििीधारी की गततविचधयां
िे खता रहा था। सािी ििीधारी ने कमरे का सामान उलट-पल
ु ट कर दिया था। '1984' तथा
उसकी िायरी समेत कुछ अन्य फकताबों को कब्जे में ललया था और खाकी ििी िालों को इशारा
कर बाहर तनकल आया था। बाहर िैन थी और खामोशी थी। अगल-बगल के तमाम मकान गहरे
सन्नाटे और अंधेरे में िूबे हुए थे। के.सी. ने जजस जगह '1984' को पढ़ना छोड़ा था उस जगह
ललखा था-'सािधान, बड़े भाई तुम्हें िे ख रहे हैं?' अब, चलती हुई िैन से बाहर झांकने पर उसने
पाया था फक राजधानी के हर चौराहे पर एक स्त्री के बहुत बड़े-बड़े पोस्टर अंधेरे में भी चमक रहे
थे। ठीक उसी तरह जैसे '1984' में पूरे मुल्क के चौराहों पर बड़े भाई के बड़े-बड़े पोस्टर अंधेरे में
चमकते थे। पोस्टरों में मुस्कराती स्त्री का हं सता हुआ चेहरा के.सी. के रक्त में सनसनी पैिा
करने लगा। अपने सुन्न हुए चेहरे को घुमा कर उसने उन चारों आिलमयों को िे खा और िर
गया। िे पोस्टर िाली स्त्री की तरह मुस्करा रहे थे। उन चारों की िबी बातचीत के उड़ते हुए
टुकड़ों से के.सी. को जानकारी लमली फक उस पर कई दिन से नजर रखी जा रही थी, फक उसकी
गततविचधयां संदिग्ध थीं, फक उसका अजस्तत्ि िे श के ललए एक बड़ा खतरा बन गया था, फक एक
ऐसे िक्त में जब समूचा मुल्क शाम के छह बजे ही बबस्तरों में िब
ु क जाता था, के.सी. रात के
ग्यारह-ग्यारह बजे तक लाइट जलाकर क्या करता था, यह जानने के ललए हुकूमत बेचन
ै थी, फक
आखखर िह पकड़ा ही गया। और यह सब सुन के. सी. हं सा। राजधानी के अपने तीन िर्ीय
जीिन में के.सी. पहली बार हं सा और हं सता ही चला गया। िह तब तक हं सता रहा जब तक
एक खाकी ििी ने उसके मुंह पर बंिक
ू का कंु िा न मार दिया। कंु िे की चोट से के.सी. का एक
िांत टूट गया और मुंह से खन
ू बहने लगा। मुंह से बहते रक्त को पोछते हुए भी के.सी.
मुस्कराया। उसे अचानक ही पोस्टरों में मुस्कराती स्त्री के साथ सहानुभूतत हो आयी। के.सी. की
सहानुभूतत से तनरपेक्ष और अप्रभावित िैन से बाहर पोस्टर िाली स्त्री का चेहरा उसी तरह
मुस्कराता रहा।
पंद्रह दिन की सख्त पूछताछ और मारपीट के बाि के.सी. को छोड़ दिया गया। यहां भी
चाचा ही के.सी. के काम आये जजन्होंने परू ा फकस्सा फमष के माललक से बयान फकया और अपने
भतीजे को छुड़ाने की प्राथषना की। फमष के माललक के उस िे श के साथ व्यापाररक संबंध थे जजस
िे श के द्िारा दिये गये कजों
में के.सी. का िे श गले-गले तक िूबा हुआ था। सो, उच्चस्तरीय
टे लीफोन खड़कने के बाि के.सी. मक्
ु त हुआ। मजु क्त से पहले उसे यह ललखकर िे ना पड़ा फक िह

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आपजत्तजनक फकताबों से िरू रहे गा और रात के आठ बजे के बाि उसके कमरे की बत्ती जलती
हुई नहीं पायी जायेगी।
और ताज्जब ु ! इस करार पर िस्तखत करने के बािजि
ू के.सी. ने जेल से तनकलते ही
चाचा से पहला िाक्य जो कहा उसका अथष था 'इस औरत की हुकूमत नष्ट होनी चादहए।' चाचा
ने कोई प्रततफिया व्यक्त नहीं की, लसफष है रानी से के.सी. को ताका क्योंफक के.सी. का िाक्य
उन्हें समझ नहीं आया था। क्योंफक के.सी. ने 1984 के नायक की तरह कहा था -'बड़े भाई का
नाश हो।'

00

के.सी. को उम्मीि थी फक िफ्तर पहुंचते ही िह अपने साचथयों के तरह-तरह के प्रश्नों से


तघर जायेगा लेफकन यह िे खकर उसका चश्मा नाक से फफसलने लगा फक समूचा िफ्तर एक ठोस
सन्नाटे की विस्मयकारी चगरफ्त में था। उसका स्िागत करना तो िरू , फकसी ने उसे विश भी
नहीं फकया। यहां तक फक उसके लमत्र रामकुमार और कृष्णकांत भी उसके पास नहीं फटके। पूरे
दिन में लसफष एक बार फमष के माललक लमस्टर लालिानी ने उसे अपने केबबन में बुलाया और
दहिायत िे ते हुए कहा, 'तुम मेहनती आिमी हो इसललए इस बार तुम्हें छुड़िा ललया। आइंिा के
ललए ध्यान रहे फक कोई ऊटपटांग हरकत अब मत करना। इस बार कुछ हुआ तो मैं भी कुछ
नहीं कर पाऊंगा।'
के.सी. पूछना चाहता था फक उसने क्या फकया? िह तो एक उपन्यास पढ़ रहा था लेफकन
लालिानी साहब ने उसकी बात सुनने से पहले ही उसे बाहर जाने का इशारा कर दिया था। बाहर
तनकलते िक्त उसके कानों में लालिानी साहब की आिाज गूंजी थी, 'मैिम इज कंरी एंि कंरी
इज मैिम। अंिरस्टैंि?'
मैिम? के.सी. ने बाहर तनकलते ही सोचा था और यह िे खकर उसकी तघग्घी-सी बंधने
लगी थी फक पोस्टर िाली स्त्री के चार आिमकि चचत्र िफ्तर की चारों िीिारों पर लगे हुए थे।
अपनी सीट पर आकर के.सी. ने िे खा था फक चाचा समेत हर शख्स का चेहरा फाइलों, रजजस्टरों
या टाइपराइटरों में घुसा हुआ था और िरिाजे पर खड़े िरबान की आंखें अखबार में थीं।
अखबार, के.सी. ने अखबारों में शरण ली लेफकन अखबारों के मुखपष्ृ ठों पर इस लसरे से
उस लसरे तक पोस्टर िाली स्त्री की मस्
ु कान नाच रही थी। िह पढ़ने बैठता तो फकताबों के पष्ृ ठों
पर स्त्री का चेहरा उग आता। सोचने बैठता तो दिमाग में स्त्री का अिाहस गंज
ू ने लगता और
सोने लगता तो स्त्री की मस्
ु कान से िर कर जाग जाता। समच
ू ा मल्
ु क स्त्रीमय हो उठा था।
के.सी. चाहता था फक कोई हो जजसे िह बता सके फक स्त्री का जाि ू कैसे तोड़ा जा सकता है ,
लेफकन िरू -िरू तक कोई नहीं था। लोग या तो िफ्तरों में कैि थे या जेलों में । लाचार के.सी. ने

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पुनः फकताबों में शरण लेनी चाही लेफकन यह िे खकर उसकी आंखें कोनों तक फट गयीं फक
उसकी दिलचस्पी की तमाम फकताबें जब्त की जा चक
ु ी थीं। नयी फकताबें छप नहीं रही थीं और
परु ानी फकताबें अपने-अपने स्थानों से हटायी जा चक
ु ी थीं। मसलन चाचा के पास आचायष रजनीश
की फकताबें तो थीं लेफकन राहुल सांकृत्यायन नहीं थे। रामायण थी लेफकन गीता नहीं थी।
राजधानी के तमाम पस् ु तकालयों में ताले थे और छापेखाने 'बातें कम, काम ज्यािा' के पोस्टर
छापने में व्यस्त थे। िे श आगे बढ़ रहा था। के.सी. पीछे छूट रहा था।
और पीछे छूटते हुए के.सी. के पास न फकताबें थीं, न अखबार, न हमजब
ु ां थे, न हमििष
और न ही िायरी थी। परु ानी िायरी जब्त की जा चक
ु ी थी और उसी के साथ के.सी. के तीन
िर्ों का इततहास भी जब्त हो गया था। अपने घनघोर एकांत में लसर धन
ु ती हुई के.सी. की
हताशा पर पुनः एक िीतरागी भाि िमशः चचपकने लगा। उसे लगने लगा फक यह मुिों का िे श
है और यहां का पहला और आखखरी सच है पोस्टर िाली स्त्री।
असल में के.सी. गलती पर था। क्योंफक पोस्टर िाली स्त्री के बािजूि मुल्क में भूलमगत
तौर पर पचे भी बंट रहे थे और लड़ाई भी चल रही थी। इस सच का अहसास हुआ के.सी. को
उस रोज जब उसने िे खा फक खतरनाक ढं ग से चप
ु लोगों ने पोस्टर िाली स्त्री के हाथों से सत्ता
छीन ली है । के.सी. को ताज्जुब भी हुआ और खश
ु ी भी फक अंततः इस मुल्क के लोगों ने एक
नया इततहास ललख ही िाला। िह आश्िस्त हुआ।
लेफकन यह आश्िजस्त बहुत िे र नहीं चल पायी। पोस्टर िाली स्त्री फफर से उसी तरह
मुस्कराने लगी। लोगों को शायि अपने ही हाथों ललखा नया इततहास पसंि नहीं आया था
इसललए उन्होंने उसे फाड़ कर फफर पुराना इततहास अपने सीने से चचपका ललया था। तब पहली
बार के.सी. ने लोगों के खखलाफ सोचा-'यहां के लोगों को जुल्मों में जीने की सख्त आित है ।'
जजस शाम के.सी. ने नयी िायरी खरीिकर उसके पहले पष्ृ ठ पर यह िाक्य ललखा उसके
अगले रोज उसे िो संिेश लमले। पहला मां की तरफ से फक उसकी बहन का वििाह फलां तारीख
को तय है फक िह कम से कम एक सप्ताह की छुट्टी और कुछ पैसों को लेकर आ जाये और
िस
ू रा यह फक लालिानी साहब उसे क्लकीं में ही नहीं फंसाये रखना चाहते, इसललए उसे पंद्रह
दिन के टूर पर फमष के काम से बाहर भेजा जा रहा है । बहन के वििाह और टूर की तारीखें
आपस में टकरा रही थीं इसललए के.सी. पुनः चाचा की शरण में उपजस्थत हुआ। िह चाचा ही
नहीं उसके बॉस भी थे। चाचा ने चाचा की है लसयत से कहा फक उसे बहन के वििाह में इसललए
भी शालमल होना चादहए क्योंफक िह जब से घर छोड़ कर आया है तब से एक बार भी िहां नहीं
गया और बॉस की है लसयत से कहा फक आिे श चफंू क सीधे लालिानी साहब का है इसललए िह
कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते, फक उसे इस टूर पर तनजश्चत रूप से जाना चादहए। फफर के.सी.
को िवु िधा में िे ख उन्होंने बीच का रास्ता तलाशते हुए कहा, 'तमु टूर पर चले जाओ, मैं वििाह
अटैंि कर लेता हूं और भाई साहब ि भाभी को तम् ु हारी मजबरू ी समझा िं ग
ू ा।'

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इन्हीं बातों को विस्तार के साथ चाचा ने के.सी. को घर पर समझाया और उसे बताया
फक फकस प्रकार फकन-फकन मौकों पर उन्होंने फमष के दहतों की खाततर अपने को कहां-कहां मारा
है , फक आज िे जहां हैं िहां तक पहुंचने के ललए उन्होंने क्या-क्या कुबाषतनयां िी हैं फक जजंिगी
इसी विरोधाभास का नाम है फक गीता में एक जगह ललखा है...।
उस रात के.सी. पहली बार शराब पीकर लौटा और बहुत िे र तक बैठा अपनी नयी िायरी
के पन्नों पर नशे में थरथराते हाथ से, टे ढ़े-मेढ़े अक्षरों में एक ही िाक्य ललखता रहा -'बड़े भाई
का नाश हो।'
सब
ु ह उठकर िह पंद्रह दिन के टूर पर चला गया।

00

राजधानी की सबसे महं गी और व्यस्त सड़क पर विश्ि विजेता लसकंिर की तरह लसर
ताने खड़ी िस मंजजला इमारत के चौथे माले पर थी लालिानी साहब की फमष। सत्तािन
कमषचाररयों के स्टाफ िाली इस फमष में ग्यारह लड़फकयां भी थीं। लेफकन के.सी. ने इनमें से फकसी
लड़की की ओर आंखें उठाकर नहीं िे खा था। लेफकन अब उसकी आंखें बरबस ही उस बारहिीं
लड़की की ओर उठ गयी थीं जो वपछले ही महीने तनकाले गये स्टे नोग्राफर खन्ना की जगह
तनयुक्त हुई थी और ठीक के.सी. के सामने िाली सीट पर बैठती थी। उत्तेजक उभारों, खब
ू सूरत
अंिाकार चेहरे और मासूम-सी आंखों िाली गीता भसीन नामक इस लड़की को जब के.सी. ने
पहली बार िे खा तो उसके दिमाग के तार झनझना उठे और कान तपने लगे। उसने घबराकर
अपनी आंखें झुका लीं। फफर यह रोजाना का तनयम-सा बन गया। के.सी. रोज सुबह उससे आंखें
लमलाता और फफर पूरे दिन अपनी फाइलों में िूबा रहता। लंच टाइम में लड़फकयां अपने ग्रुपों में
तथा पुरुर् अपने ग्रुपों में खाना खाते थे। के.सी. चफूं क िोपहर का खाना सुबह-सुबह चाचा के घर
ही खा आता था इसललए िह बैठा-बैठा फकताब पढ़ा करता था। फकताब पढ़ने के िौरान िह बीच-
बीच में नजर उठाकर गीता भसीन को भी िे ख ललया करता था जो सबसे अलग अपनी सीट पर
बैठकर लंच लेती थी। गीता भसीन फमष में काम करने िाली अन्य लड़फकयों की अपेक्षा के.सी.
को अचधक संजीिा नजर आती थी। के.सी. ने न तो कभी उसे टपर-टपर बोलते सुना था और न
ही अन्य जिान लड़फकयों की तरह इठला या इतरा कर चलते हुए ही िे खा था। िह चलती थी तो
के.सी. को लगता था जैसे अपने सौंियष से िह खि
ु ही शमषसार है । बोलती थी तो के.सी. को
महसस
ू होता था, िरू कहीं चगरजाघर में प्राथषना हो रही हो।
इस गीता भसीन को िे खते-िे खते एक रोज के.सी. के मन में मद्द
ु त से िबी स्त्री िोस्त की
चाह ने अंगड़ाई ली और िह दहम्मत करके लंच टाइम में गीता भसीन की सीट पर पहुंच गया।
खाना खाती गीता ने नजर उठाकर के.सी. को िे खा और संकोच के मारे उसका चलता हुआ मंह

100
रुक गया। के.सी. ने जजतने भी िाक्य बोलने की तैयारी अपने मन में की थी िे सभी िाक्य उसे
अपने भीतर कहीं गहरे में िूबते लगे और उसने रुक-रुक कर आदहस्ता से कहा, 'मेरा नाम के.सी.
माथरु है ।'
'मैं जानती हूं।' गीता ने कहा और के.सी. के कान गमष हो गये।
'खाना लीजजए।' गीता ने फफर कहा और के.सी. 'धन्यिाि' कहकर अपनी सीट पर लौट
आया। अचानक उसका दिल भर आया था। उसे सहसा ही जीनत याि आ गयी थी जो कॉलेज में
उसके ललए अपने लंच बॉक्स में उसका भी खाना लेकर आती थी।
जजस रोज के.सी. की गीता से यह संक्षक्षप्त-सी बातचीत हुई उस रात के.सी. ने अपनी
िायरी में एक प्रेम-कविता ललखने की कोलशश में कई पष्ृ ठ बरबाि फकये और जजस रोज गीता
भसीन लंच टाइम में अपना दटफफन लेकर के.सी. की सीट पर आ गयी और उससे जजि करने
लगी फक िह भी उसके साथ खाना खाये उस रात के.सी. ने अपनी िायरी में कम से कम तीन
िजषन बार गीता भसीन का नाम ललख िाला।
जादहर है फक कालीचरण माथरु एक बार फफर प्रेम की ितु नया में उतर गया था।
यह उन दिनों की बात है जब उस अखंि राष्र के एक क्षेत्र विशेर् में रहने िाले कुछ
लोग अपने ललए एक स्ितंत्र राज्य की मांग करने लगे थे और एक संप्रिाय विशेर् के लोगों को
बसों से उतार-उतार कर गोललयों से भून रहे थे। अपने इस खन
ू ी जुनून में उन्होंने न लसफष
तनहत्थे और तनिोर् नागररकों को गोली से उड़ाया बजल्क िे श के एक सम्मातनत पत्रकार,
प्रोफेसर और पुललस अचधकारी को भी गोललयों से भून दिया।
मुल्क के लोग उन दिनों पोस्टर िाली स्त्री से प्राथषना कर रहे थे फक िह जल्िी ही इस
समस्या का कोई समाधान करे और मुल्क के बुवद्धजीिी इस तरह खामोश थे मानों इस सबसे
उनका िरू का भी ररश्ता नहीं है । उन्हीं दिनों के.सी. का प्रेम िमशः विकलसत हो रहा था और
उसे लगने लगा था फक जीनत का विकल्प गीता भसीन हो सकती है । िफ्तर के बाि िह गीता
भसीन के साथ राजधानी के दिल में जस्थत सेंरल पाकष में घूमता था या महं गे बाजारों की भव्य
िक
ु ानों के बारामिों में । िे महं गी िक
ु ानों से छोटी-छोटी चीजें खरीिकर एक-िस
ू रे को भें ट करते
थे। मसलन गीता भसीन ने के.सी. को बॉलपेन, सेफ्टी-रे जर, िायरी और कुछ फकताबें भें ट की थीं
और के.सी. ने गीता को खब
ू सूरत-सा लंच बॉक्स, शांतततनकेतनी बैग और कोल्हापुरी चप्पलें
उपहार में िी थीं। िे चाट खाने के बजाय पाइनएप्पल जूस पीना पसंि करते थे और फफल्में
िे खने के बजाए नाटक िे खते थे। संक्षेप में यह फक मल्
ु क में हो रही गोलीबारी की घटनाओं और
तेजी से घटते राजनैततक घटनाचि के प्रतत िे उतने ही तनरपेक्ष थे जजतना मल्
ु क के बवु द्धजीिी।
इस बीच के.सी. गीता भसीन को जीनत कांि से लेकर जेल जाने तक की यात्रा-कथा बयान कर
चक
ु ा था और गीता भसीन ने कोई आपजत्त व्यक्त नहीं की थी।

101
और इसी बीच पोस्टर िाली स्त्री लोगों की प्राथषना से पसीज गयी थी। लोगों की प्राथषना,
जो अब तक लगभग आतषनाि में बिल चक
ु ी थी, से पसीज कर िह मस्
ु करायी और समस्या का
समाधान हो गया।

00

'यह ठीक नहीं हुआ?' भव्य िक


ु ानों के लंबे बारामिों में घम
ू ते िक्त गीता भसीन ने बहुत
उिास होकर कहा।
'क्या ठीक नहीं हुआ?' के.सी. अचानक चौंक गया। िह अनायास ही एक ऐसी लड़की को
िे खने लगा था जो अभी-अभी सफेि रं ग की पारिशी ड्रेस में ललपटी ऊंची एडड़यों की सैंिल में
खट-खट करती तेज-तेज गुजरी थी। िह समझा फक उस लड़की को िे खने का गीता भसीन बुरा
मान गयी है ।
'तुम्हारी फौज हमारे पवित्र पूजा-स्थल में जूते पहनकर घुस गयी।' गीता ने ततक्त और
क्षुब्ध स्िर में कहा।
'क्या?' के.सी. बौखला गया। उसने है रान होकर आंखें चौड़ी कीं और आदहस्ता से बोला,
'यह हम िोनों के बीच हमारा-तुम्हारा कहां से आ गया?'
'मैंने तो एक बात कही है ।' गीता लजज्जत हो गयी।
'पर यह बात हमें शोभा नहीं िे ती।' के.सी. ने समझाया।
उसके बाि िे िोनों ब्रेख्त का नाटक 'काकेलशयन चाक सकषल' िे खने चथयेटर में घुस गये।

00

के.सी. बीस दिन के टूर से लौटकर आया तो उसे पता चला फक एक हफ्ता हुआ, उसके
वपता का िे हांत हो गया, चाचा िहां गये हुए हैं। के.सी. अपनी सीट पर कटे पेड़-सा चगरा
(मुहािरा पुराना है पर के.सी. िास्ति में इसी तरह चगरा जैसे कटा हुआ पेड़ चगरता है )। गीता
भसीन ने अपनी सुंिर नमष हथेललयों से िफ्तर की परिाह फकये बगैर के.सी. की नम आंखें साफ
कीं और धीमे से कहा, 'बी ब्रेि, िी ऑल आर इन ि सेम बोट।' लालिानी साहब ने उसकी सीट
पर आकर अफसोस जादहर फकया और सच ू ना िी फक उसके कलमटमें ट को िे खते हुए उस प्रमोट
कर सेल्स ऑफीसर बनाया जा रहा है ।
के.सी. उसी िम मां के पास जाने के ललए उठ खड़ा हुआ और सफर के िौरान उसने
अपनी िायरी में अपनी नौकरी के बारे में ललखा, 'तम्
ु हें जीते हुए भी मैं तम
ु से घण
ृ ा कर रहा हूं।'

102
पता पूछते-पाछते जब के.सी. रात के िक्त घर पहुंचा तो चाचा खाट पर लेटे हुए थे और
मां एक कुसी पर बैठी छत की कडड़यां ताक रही थी। क्षणांश के ललए के.सी. के मन में आया फक
िह उल्टे पांि लौट चले। उसकी समझ में नहीं आ रहा था फक इतने अरसे बाि, अपना सब कुछ
खो चक
ु ी मां का सामना कैसे करे ? तनजश्चत रूप से िह वपता का ही नहीं मां का भी अपराधी है ।
अकेली मां ने कैसे सहा-जजया होगा यह हािसा। चाचा भी पता नहीं कब पहुंचे होंगे। और बबट्टो?
सहसा उसे याि आया फक घर में बहन तो दिखाई ही नहीं िे रही है । कौन-कौन शालमल हुआ
होगा वपता की अथी में ? कपाल फिया फकसने की होगी? तो क्या अब वपता की आत्मा ताउम्र
भटकती फफरे गी। कहते हैं : बेटा कपाल फिया न करे तो वपता की आत्मा िर-िर भटकती है और
रात-रात भर आतषनाि करती है । के.सी. का कलेजा लरजने लगा। िह धीरे से मां के पास जाकर
खड़ा हो गया। मां उसी तरह छत की कडड़यां ताकती रही तो उसने मां के लसर पर हाथ रख
दिया जैसे मां छोटी-सी बच्ची हो और के.सी. मां का संरक्षक।
हाथ के स्पशष से चौंककर मां ने के.सी. को िे खा। िे र तक िे खती रही और फफर गूंजा
उसका आतषनाि। िीिारों को तोड़ता, छत को फोड़ता एक सहनशील औरत का असहनीय विलाप।
चाचा चौंक कर जाग गये और के.सी. को िे ख आदहस्ता से बोले, 'आ गया काली। बहुत िे र कर
िी। भाई साहब के साथ बुरा हुआ, िह लािाररस की तरह जले।'
के.सी. की आंख रोने लगी और उसने मां का चेहरा अपने सीने में कसकर चचपटा ललया।
फफर िह चाचा से बोला, 'क्या बबट्टो भी नहीं आयी?'
'बबट्टो आयी थी िो दिन बाि, आज सुबह चली गयी। जंिाई साहब साथ नहीं थे। िह खि

बीमार हैं' चाचा ने लसगरे ट सुलगाते हुए कहा, 'यह तो अच्छा हुआ फक मैं फूल चन
ु ने िाले रोज
पहुंच गया था िरना...' चाचा ने कश ललया और छत घूरने लगे। मां अभी तक बबलख रही थी।
तब तक कुछ पड़ोसी भी आ गये थे। एक औरत िस
ू री के कान में फुसफुसा रही थी, 'यो
बड़ा लड़का दिक्खे। हाय राम! ऐसे लड़कों से तो तनपूते भले।'
के.सी. ने उस औरत को बड़ी ही कातर तनगाहों से िे खा। फफर उसका लसर झुक गया।
औरत अपनी जगह ठीक थी।
जजसे पलक झपकाये बगैर जागना कहते हैं, के.सी. उस रात ठीक िैसे ही अपलक जागता
रहा। उसके पास न पड़ोलसयों के प्रश्नों का जिाब था, न ही मां के आहत मन का। मां ने पूछा
था फक िह इतना कठोर कैसे हो गया? िह कह ही नहीं सका फक िह कभी भी कठोर नहीं रहा।
मां ने बताया था फक अंत समय तक वपता की जब
ु ान पर उसी का नाम रहा। उन्होंने तो उसे
माफ कर दिया था। िे तो चाहते थे, ररटायर होने के बाि काली के ही पास जाकर रहें गे। के.सी.
चप
ु सब सन
ु ता रहा था और बेआिाज बेआंसू रोता रहा था। उसने तय फकया था फक तेरहिीं के
बाि मां को अपने साथ ही ले जायेगा।

103
00

के.सी. िफ्तर पहुंचा तो िहां एक अफिाह सबकी मेज पर चचपकी हुई थी फक पोस्टर
िाली स्त्री का कत्ल हो गया। लालिानी साहब अखबारों के टे लीफोन खड़का रहे थे लेफकन िहां से
लसफष यही कहा जा रहा था 'सन
ु ते हैं।'
आखखर तीन बजे सांध्यकालीन अखबार िफ्तर में आ ही गया। यह अफिाह नहीं सच्चाई
थी फक पोस्टर िाली स्त्री को उसके अंगरक्षकों ने उसके ही घर में गोललयों से भन
ू दिया था।
पांच बजे शाम लालिानी साहब ने घोर्णा कर िी फक अगले तीन दिन िफ्तर बंि रहे गा।
के.सी. और गीता भसीन चप
ु -चप
ु िफ्तर से बाहर तनकले और िे र तक खड़े रहे ।
'अब?' के.सी. ने सहसा पूछा।
'हां अब?' गीता ने जिाब दिया।
'यह सचमुच बुरा हुआ।' के.सी. ने यूं ही कहा।
'हां, यह सचमुच ही ज्यािा बुरा इसललए हुआ फक हत्यारे हमारी बबरािरी के थे।' गीता ने
अफसोस के साथ कहा।
'हत्यारों की कोई बबरािरी नहीं होती।' के.सी. ने गीता के कंधे पर हाथ रख दिया।
'काश ऐसा ही हो।' गीता ने जिाब दिया और के.सी. की हथेली को अपने हाथों में ले
ललया।
'तो अब हम तीन दिनों तक लमलेंगे नहीं क्या?' के.सी. ने हं सते हुए पूछा।
'क्यों नहीं लमलेंगे?' गीता ने तत्परता से जिाब दिया और मुस्करायी।
'ऐसा करें , कल मैं तुम्हारे घर आऊं, िहां से अपने घर चलेंगे। तुम्हें मां से लमला िे ता हूं।'
'फकतने बजे?'
'शाम तीन बजे तक आता हूं।'
'ओ.के.' गीता ने कहा और के.सी. की हथेली िबाकर छोड़ते हुए बोली, 'तो फफर कल का
पक्का।' इसके बाि िह अपने बस स्टॉप की तरफ मुड़ गयी।

00

सब
ु ह नौ बजे मां के खझंझोड़ने पर के.सी. जागा। मां थर-थर कांप रही थी।
'क्या हुआ?' के.सी. हड़बड़ाकर उठ बैठा।
मां ने खखड़की की तरफ इशारा फकया। उसका चेहरा सफेि था और आंखें बाहर को
तनकली पड़ रही थीं। लगता था, मां की आिाज िूब रही है । उसके गले से एक विचचत्र फकस्म की
गों-गों तनकल रही थी।

104
के.सी. झपटकर खखड़की की तरफ भागा और उसकी आंखें फट गयीं। सामने िाले प्रीतम
लसंह जी का मकान ध-ू धू करके जल रहा था। मकान ही नहीं, खि
ु प्रीतम लसंह जी भी जल रहे
थे और चीखते हुए इधर से उधर भाग रहे थे। उन्हें एक भीड़ ने घेरा हुआ था। भीड़, जजसके हाथ
में लोहे की छड़ें, लमट्टी के तेल के पीपे और सररये थे। भीड़ चीख रही थी -'खन
ू का बिला खन

से लेंगे...' और जलते हुए प्रीतम लसंह जी पर सररयों की बाररश कर रही थी। आखखर प्रीतम लसंह
जी ऐंठ कर चगरे और उनका समच ू ा बिन कोयले की तरह काला पड़ गया। उत्तेजजत भीड़ अब
कोछड़ साहब के घर की तरफ बढ़ रही थी। कोछड़ साहब मल् ु क के माने हुए चचत्रकार थे। के.सी.
के मंह
ु से चीख तनकली और िह तेजी से कपड़े पहनकर तैयार होने लगा। उसे सहसा ही गीता
भसीन की याि आ गयी थी।
मां ने झपटकर के.सी. को पकड़ा और बबस्तर पर बबठा दिया। के.सी. कसमसाया और
हांफते स्िर में बोला, 'मां मुझे रोको मत, गीता की जान खतरे में है । िह तुम्हारी बहू है मां।'
'क्या?' मां ने चौंककर कहा और के.सी. िौड़ता हुआ घर से बाहर तनकल गया। बाहर
कोछड़ साहब और उसकी पत्नी के ऊपर लमट्टी का तेल तछड़का जा रहा था और उनका मकान
उनकी पें दटंग्स सदहत ध-ू धू कर रहा था। के.सी. घबरा गया। उसका एक पांि तेज तेज चल बस
स्टॉप तक पहुंचना चाहता था और िस ू रा पांि लकिे की-सी जस्थतत में में आगे बढ़ने से लाचार
था। के.सी. जलते हुए मकानों, स्कूटरों और इंसानों के सामने से होता हुआ माथे पर पसीना और
हलक में कांटे संभाले हुए बस स्टॉप तक पहुंच ही गया। उसका दिल 'धड़ धड़' कर रहा था और
टांगे कांप रही थीं।
बसें चल नहीं रही थीं। बस स्टॉप पर चचडड़या का बच्चा भी नहीं था। पीछे कॉलोनी से
उत्तेजजत भीड़ का शोर सुनाई पड़ रहा था। सड़क के िोनों ओर रक जल रहे थे। के.सी. का दिल
जोर से रोया। तभी एक स्कूटर िहां से गुजरा। के.सी. जोर से चीखा -'रोको।'
स्कूटर 'च्चीं च्चीं' कर रुक गया। स्कूटर ड्राइिर ने पीछे झांककर िे खा और के.सी. को
िे ख स्कूटर नजिीक ले आया। गीता भसीन का घर के.सी. के घर से लसफष िस फकलोमीटर िरू
था लेफकन स्कूटर िाला पचास रुपये मांग रहा था।
'िं ग
ू ा।' के.सी. ने कहा और उछलकर स्कूटर में बैठ गया।
रास्ते भर के.सी. थर-थर कांपता रहा। भीड़ ने स्कूटर को कई जगह रुकिाया और भीतर
बैठे के.सी. को िे ख जाने की स्िीकृतत िे िी।
जहां गीता भसीन का मकान था िहां एक जला हुआ खंिहर खड़ा था। मकान के सामने
तीन जली हुई लाशें थीं। के.सी. पागलों की तरह लाशों पर झक
ु ा और एक लाश के पास बैठते ही
उसकी रुलाई कंठ तोड़ कर गंज
ू ी। िह गीता भसीन थी। उत्तेजक उभारों, खब
ू सरू त अंिाकार चेहरे
िाली गीता भसीन जो चलती थी तो लगता था जैसे अपने सौंियष पर खि
ु ही शमषसार है । बोलती
थी तो लगता था मानों िरू कहीं चगरजाघर में प्राथषना हो रही हो। जजसकी हथेललयां नमष थीं और

105
पांि कोमल। जजसका दिल मोम-सा मुलायम था और जजसका मजस्तष्क स्िस्थ था। जो सर से
पांि तक प्यार में िूबी हुई थी और जजसने के.सी. को इस असहनीय ितु नया में भी जीने का
संबल दिया हुआ था। के.सी. ने उसे पहचाना उस अंगठ ू ी से जो आग की लशकार होने से पहले
काफी खब
ू सरू त थी और जजसमें नग की जगह खि ु ा हुआ था--'के।'
यह अंगठ ू ी के.सी. ने वपछले दिनों गीता को राजधानी की एक महं गी िक
ु ान से पांच सौ
रुपये में खरीि कर िी थी। ये पांच सौ रुपये के.सी. ने पांच महीने की बचत से जमा फकये थे।
अंगठ
ू ी गीता भसीन की जली हुई उं गली की जली हुई हड्िी में फंसी हुई थी और उसके नग की
जगह खि ु ा 'के' अक्षर आग में झल
ु सने के बािजि
ू पढ़ा जा सकता था।
के.सी. से उठा नहीं गया।

00

फफर के.सी. से कई दिन तक उठा नहीं गया।


जब िह उठा तो मुल्क में चन
ु ाि हो रहे थे।
के.सी. ने चाहा फक इस बार के चन
ु ाि में पोस्टरिाली स्त्री की पाटी नेस्तनाबूि हो जाये।
िे श के बुवद्धजीिी भी यही चाहते थे। अखबार भी यही चाहते थे और विरोधी िल तो चाहते ही
थे।
लेफकन पररणाम आया तो के.सी. के मजस्तष्क और हृिय पर इतने जोर का घूंसा पड़ा फक
उसके बिन का जराष-जराष दहल गया और रे शा-रे शा बबखर गया।
पोस्टरिाली स्त्री की पाटी भारी बहुमत से चन
ु ाि जीत गयी थी और विरोधी िलों के छोटे
तो छोटे , बड़े-बड़े नेताओं की जमानतें जब्त हो गयी थीं।
यह उस विचचत्र िे श के विचचत्र नागररकों का विचचत्र जनािे श था।
सचमुच, िह एक विचचत्र िे श था। िहां प्रेम करने िाले लोग जजंिा जलाये जा सकते थे
और नफरत करने िाले लोगों का राजततलक फकया जा सकता था।

00

सचमच
ु , िह एक विचचत्र िे श था जजसमें इस कहानी के नायक कालीचरण माथरु ने प्रेम
करना चाहा था।

रिन क ि : 1985

106
वपि

'अपन का क्या है/अपन तो उड़ जायेंगे अचषना/धरती को धता बताकर/अपन तो राह लेंगे


अपनी/पीछे छूट जायेगी/घण
ृ ा से भरी और संिेिना से खाली/इस संसार की कहानी' - एयर इंडिया
के सभागार में वपन ड्रॉप साइलेंस के बीच राहुल बजाज की कविता की पंजक्तयां एक ऐंद्रजाललक
सम्मोहन उपजस्थत फकये िे रही थीं। अब फकसी सभागार में राहुल बजाज की कविता का पाठ
शहर के ललए एक िल
ु भ
ष घटना जैसा होता था। प्रबद्ध
ु जन िरू िरू के उपनगरों से लोकल, ऑटो,
बस, टै क्सी या अपनी तनजी कार से इस क्षण का गिाह बनने के ललए सहर्ष उपजस्थत होते थे।
राहुल शहर का मान था। सादहत्य के जजतने भी भारतीय अिािष थे िे सब के सब राहुल के घर
में एक गिीले ठाठ के साथ शोभायमान थे। ितु नया भर की प्रलसद्ध फकताबों से उसकी स्टिी अंटी
पड़ी थी। अखबार, पबत्रकाओं और टीिी चैनल िाले जब तब उसका इंटरव्यू लेने के ललए उसके
घर की सीदढ़यां चढ़ते उतरते रहते थे। उसके मोबाइल फोन में प्रिे श के सीएम, होम लमतनस्टर,
गिनषर, कल्चररल सेिेटरी, पुललस कलमश्नर, पेज थ्री की सेललबब्रदटज और बड़े पत्रकारों के
पसषनल नम्बर सेि थे।
िह युतनिलसषदटयों में पढ़ाया जा रहा था। असम, िाजजषललंग, लशमला, नैनीताल, िे हरािन
ू ,
इलाहाबाि, लखनऊ, भोपाल, चंिीगढ़, जोधपुर, जयपुर, पटना और नागपुर में बुलिाया जा रहा
था। मुंबई जैसे मायािी नगर में िह टू बेिरूम हॉल के एक सुविधा और सुरुचच संपन्न फ्लैट में
जीिन बसर कर रहा था। िह मारुतत जेन में चलता था। रे मंि तथा ब्लैक बेरी की पैंटें, पाकष
एिेन्यू और िेनह्यूजन की शटें और रे ि टे प के जूते पहनता था। विगत में घटा जो कुछ भी
बुरा, बिरं ग और कसैला था, उन सबको िह झाड़-पोंछकर नष्ट कर चक
ु ा था। लेफकन चीजें इस
तरह नष्ट होती हैं क्या! 'अतीत कभी िौड़ता है , हमसे आगे, भविष्य की तरह, कभी पीछे भूत
की तरह लग जाता है । हम उल्टे लटके हैं आग के अलाि पर, आग ही आग है नसों के बबल्कुल
करीब, और उनमें बारूि भरा है ।' यह उसके बचपन का एक बहुत खास िोस्त बंधु था जो
कॉलेज पहुचने तक कविताएं ललखने लगा था और नक्सली गततविचधयों के मह ु ाने पर खड़ा रहता
था। िह बारूि की तरह फटता इससे पहले ही िे हरािन
ू की िादियों में कुछ अज्ञात लोगों द्िारा
तनमषमता पूिक
ष मार दिया गया।
राहुल िर गया। इसललए नहीं फक उसने पहली बार मौत को इतने करीब से िे खा था।
इसललए फक चौबीस बरस का बंधु बीस साल के राहुल के जीिन की पाठशाला बना हुआ था। यह
पाठशाला उजड़ गई थी। उसने गिष न उठाकर िे खा, शहर के तमाम रास्ते तनजषन और िरािने लग
रहे थे। एक खब
ू सरू त शहर में कुछ अलभशप्त प्रेतों ने िेरा िाल दिया था। िह एकिम अकेला था
और तनहत्था भी। कुछ कच्ची अधपकी कविताएं, थोड़े बहुत विद्रोही फकस्म के विचार, कुछ

107
मौललक और पवित्र तरह के सपने, एक इंटरमीडियेट पास का सदटष फफकेट, अहं कारी, तानाशाह,
सिषज्ञ और गीता इलेजक्रकल्स के माललक वपता के एकाचधकारिािी साये के नीचे बीत रहा था
जीिन। यह सबकुछ इतना थोड़ा और आततायी फकस्म का था फक राहुल िगमगा गया। उस रात
िह िे र तक पीता रहा और आधी रात को घर लौटा। पीता िह पहले भी था लेफकन तब िह बंधु
के साथ उसके घर चला जाता था।
राहुल को याि है । एकिम साफ साफ। वपता ने उसे पिे की रॉि से मारा था। िह वपटते
वपटते आंगन में आ गया था और हैंिपंप से टकराकर चगर पड़ा था। पंप और हत्थे को जोड़ने
िाली मोटी-लंबी कील उसके पेट को चीरती गज
ु र गई थी। पेट पर िायीं ओर बना छह इंच का
यह काला तनशान रोज सुबह नहाते समय उसे वपता की याि दिलाता है । लसद्धाथष अपनी पत्नी
और बच्चों को छोड़कर एक रात घर से गायब हुआ था और गौतम बुद्ध कहलाया था। राहुल
अपने वपता, अपनी मां और कमरे की खखड़की से झांकते अपने तीन भाई-बहनों की भयािांत
आंखों को ताकते हुए, खन
ू से लथपथ उसी हैंिपंप पर चढ़कर आंगन की छत के उस पार कूि
गया था। उस पार एक आग की निी थी और तैर के जाना था। पीछे शायि मां पछाड़ खाकर
चगरी थी।
मेरे पास गाड़ी है , बंगला है , नौकर हैं। तुम्हारे पास क्या है ? अलमताभ बच्चन ने िपष में
ऐंठते हुए पूछा है । शलश कपूर शांत है । ममत्ि की गमाषहट में लसंकता हुआ। उसने एक गहरे
अलभमान में भरकर कहा - मेरे पास मां है । अलमताभ का िपष िरक रहा है।
राहुल को समझ नहीं आता। उसके पास मां क्यों नहीं है ? राहुल को यह भी समझ नहीं
आता फक क्यों ितु नया का कोई बेटा घमंि से भरकर यह नहीं कहता फक मेरे पास बाप है । बाप
और बेटे अक्सर द्िंद्ि की एक अदृश्य िोर पर क्यों खड़े रहते हैं?
'अब जबफक उं गललयों से फफसल रहा है जीिन/ और शरीर लशचथल पड़ रहा है / आओ
अपन प्रेम करें िैशाली।' एस.एन.िी.टी. मदहला विजश्िविद्यालय के कॉन्फ्रेन्स रूम में राहुल बजाज
की कविता गूंज रही है । कविता खत्म होते ही िह ऑटोग्राफ मांगती नियौिनाओं से तघर गया
है ।
िह कुमाऊं विश्िविद्यालय के दहन्िी विभाग का सभागार था। उसके एकल काव्यपाठ के
बाि विभागाध्यक्ष ने अपनी सबसे मेधािी छात्रा को नैनीताल घुमाने के ललए उसके साथ कर
दिया था। इस छात्रा के साथ राहुल का छोटा-मोटा भाित्मक और बौवद्धक पत्र-व्यहार पहले से
था। िह पबत्रकाओं में राहुल की कविताएं पढ़कर उसे खत ललखा करती थी। बीस साल पहले माल
रोि की उस ठं िी सड़क पर केतकी बबष्ट नाम की उस एम.ए. दहन्िी की छात्रा ने सहसा राहुल
का हाथ पकड़कर पछ ू ा था -'मझ
ु से शािी करोगे?'
राहुल अिाक। हलक भीतर तक सख ू ी हुई। अक्तब
ू र की उस पहाड़ी ठं ि में माथे पर चली
आई पसीने की चंि बंि
ू ें । आंखों में अचरज का समंिर। एक यि ु ा, प्रततभाशाली, तेज-तराषर कवि

108
के रूप में राहुल को तब तक मान्यता लमल चक
ु ी थी। िह दिल्ली के एक साप्तादहक अखबार में
नौकरी कर रहा था। लेफकन शािी के ललए इतना काफी था क्या? फफर िह लड़की के बारे में
ज्यािा कुछ जानता नहीं था। लसिा इसके फक िह कुछ कुछ ररबेललयन फकस्म के विचारों से
खिबिाती रहती थी, फक जीिन की चन
ु ौततयां उसे जीने की लालसा से भरती थीं। उसकी आंखें
गजब के आत्मविश्िास से िमक रही थीं।
आत्मविश्िास की इस िगर पर चलता हुआ क्या मैं अपने स्िप्नों को पैरों पर खड़ा कर
सकंू गा? राहुल ने सोचा और केतकी की आंखों में झांका। 'हां!' केतकी ने कहा और केतकी का
माथा चम
ू ललया। आसपास चलती भीड़ आश्चयष से ठहरने लगी। बीस बरस पहले यह अचरज की
ही बात थी। खासकर नैनीताल जैसे छोटे शहर में । बबष्ट साहब की बेटी... बबष्ट साहब की बेटी...
हिाओं में हरकारे िौड़ पड़े।
लेफकन अगली सुबह नैनीताल कोटष में बबष्ट िं पती तथा विभागाध्यक्ष की गिाही में राहुल
और केतकी पतत-पत्नी बन गए। उसी शाम राहुल और केतकी दिल्ली लौट आए-सरोजजनी नगर
के एक छोटे से फकराये के कमरे में अपना जीिन शुरू करने। एस.एन.िी.टी. के सभागार में
ऑटोग्राफ सेशन से तनपटने के बाि एक कुसी पर बैठे राहुल को अपना विगत अपने से आगे
िौड़ता नजर आता है ।
राहुल अंधेरी स्टे शन की सीदढ़यां उतर रहा था। विकास सीदढ़यां चढ़ रहा था। उसकी
उं गललयों में लसगरे ट िबी थी। राहुल ने विकास की कलाई थाम ली। लसगरे ट जमीन पर चगर
पड़ी। राहुल विकास को घसीटता हुआ स्टे शन के बाहर ले आया। एक सुरक्षक्षत से लगते कोने पर
पहुंचकर उसने विकास की कलाई छोड़ िी और हांफते हुए बोला, 'मैंने तम
ु से कहा था, जीिन का
पहला पैग और पहली लसगरे ट तुम मेरे साथ पीना। कहा था ना?' 'ज्जी!' विकास की तघघ्घी बंधी
हुई थी। 'तो फफर?' राहुल ने पूछा। विकास ने गिष न झुका ली और धीरे से कहा, 'सॉरी पापा! अब
ऐसा नहीं होगा।' राहुल मुस्कुराया। बोला, 'िोस्त जैसा बाप लमला है । कद्र करना सीखो।' फफर
िोनों अपने अपने रास्तों पर चले गए।
विकास मुंबई के जेजे कॉलेज ऑफ आट्षस में प्रथम िर्ष का छात्र था। केतकी उसे िॉक्टर
बनाना चाहती थी लेफकन विकास के कलात्मक रूझान को िे ख राहुल ने उसे हाई स्कूल साइंस के
बाि इंटर आट्षस से करने और उसके बाि जेजे में एिलमशन लेने की स्िीकृतत िे िी थी। िह
कमलशषयल आदटष स्ट बनना चाहता था। राहुल उन दिनों एक िै तनक अखबार का न्यूज एिीटर था।
आधी रात को आना और सब ु ह िे र तक सोते रहना उसकी दिनचयाष थी।
इतिार की एक सब
ु ह उसने केतकी से पछ
ू ा, 'विकास नहीं दिख रहा।'
'बेटे की सध
ु आई?' केतकी व्यंग्य की िोर थामे उस पार खड़ी थी।
'लेफकन घर तो शरू
ु से ही तम्
ु हारा ही रहा है ।' राहुल ने सहजता से जिाब दिया।

109
'यह घर नहीं है ।' केतकी ततक्त थी। उसे बहुत जमाने के बाि संिािों की ितु नया में
उपजस्थत होने का मौका लमला था, 'गेस्ट हाउस है । और मैं हाउस कीपर हूं। लसफष हाउस कीपर।'
राहुल उलझने के मि ू में नहीं था। सीईओ ने उसे पण
ु े एिीशन की रूपरे खा बनाने की
जजम्मेिारी सौंपी थी। िोपहर के भोजन के बाि अपनी स्टिी में बंि होकर िह होमिकष कर लेना
चाहता था। उसने विकास का मोबाइल लगाया।
'पापा...।' उधर विकास था।
'बेटे कहां हो तम ु ?' राहुल थोड़ा तशु ष था।
'पापा, बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है अगले मंि।े इसललए एक हफ्ते से अपने िोस्त
कवपल के घर पर हूं। ररहसषल चल रही है ।'
'ररहसषल? कैसा शो?'
'पापा आपको अपने लसिा कुछ याि भी रहता है , वपछले महीने मैंने आपको बताया नहीं
था फक मैंने एक रॉक बैंि ज्िाइन फकया है ।'
'ररहसषल घर पर भी हो सकती है ।' राहुल उत्तेजजत होने लगा था, दटवपकल वपताओं की
तरह।
'पापा, आप यह भी भूल गए?'
विकास की आिाज में भी व्यंग्य तैरने लगा था, 'अभी कुछ दिन पहले जब मैं रात को प्रैजक्टस
कर रहा था तब आपने घर आते ही मुझे फकतनी बुरी तरह िांट दिया था फक यह घर है नाचने
गाने का अड्िा नहीं।'
'शटअप' राहुल ने मोबाइल ऑफ कर दिया। उसने िे खा, केतकी उसे व्यंग्य से ताक रही
थी। उसने लसर झुका ललया। िह धीमे किमों से अपनी स्टिी में जा रहा था। पीछे पीछे केतकी
भी आ रही थी।
'क्या है ?' राहुल ने पूछा और पाया फक उसकी आिाज में एक अजीब फकस्म की टूटन
जैसी है । इस टूटन में फकसी शोध में असफल हो जाने का ििष समाया हुआ था।
'तुम हार गए राहुल।' केतकी की आंख में बरसों पुराना आत्मविश्िास था।
'तुम भी ऐसा ही सोचती हो केतकी?' राहुल ने अपनी कमीज और बतनयान उलट िी।
'क्या तुम चाहती थीं फक पेट पर पड़े ऐसे ही फकसी तनशान को िे खकर विकास को अपने बाप की
याि आया करती?'
'नहीं।'
'तो फफर?' राहुल की आिाज में ििष था। 'मैंने विकास को एक लोकतांबत्रक माहौल िे ने का
प्रयास फकया था। मैं चाहता था फक िह मझ ु े अपना बाप नहीं, िोस्त समझे।'

110
'बाप िोस्त नहीं हो सकता राहुल। िह िोस्तों की तरह बबहे ि भले ही कर ले। लेफकन
होता िह बाप ही है । और उसे बाप होना भी चादहए।' केतकी ने झटके से अपना िाक्य परू ा
फकया और स्टिी से बाहर चली गई।
राहुल अराम कुसी पर ढह गया। अगली सब ु ह जब िह बहुत िे र तक नहीं उठा तो केतकी
ने अपने फैलमली िॉक्टर को तलब फकया। िॉक्टर ने बताया, 'इनके जीिन में हाई ब्लि प्रेशर ने
सेंध लगा िी है ।'
राहुल की आंखें आश्चयष से भारी हो गईं। िह लसगरे ट नहीं पीता था। शराब कभी कभी
छूता था। तला हुआ और तैलीय भोजन नहीं खाता था। घर से बाहर का पानी तक नहीं पीता
था।
'तो फफर?' उसने केतकी से पूछा।
लेफकन तब तक िॉक्टर की बताई ििाइयां लेने के ललए केतकी बाजार जा चक
ु ी थी।
ग्यारह लसतंबर िो हजार एक को अमेररका के िल्िष रे ि सेंटर पर हुए विनाशक हमले के
ठीक एक हफ्ते बाि राहुल बजाज को रात ग्यारह बजे उसके बेटे विकास ने मोबाइल पर याि
फकया। राहुल उन दिनों एक टीिी चैनल में इनपुट एिीटर था और पत्नी के साथ दिल्ली में रहता
था। चैनल की नौकरी में विकास तो विकास, केतकी तक राहुल को कभी कभी फकसी भूली हुई
याि की तरह उभरती नजर आती थी। िह विकास को अपने मुंबई िाले बसे-बसाये घर में
अकेला छोड़ आया था। विकास तब तक एक मल्टीनेशन कंपनी के मुंबई ऑफफस में विजुलाइजर
के तौर पर नौकरी करने लगा था। आम तौर पर विकास का मोबाइल 'नॉट रीचेबल' ही होता था।
पंद्रह बीस दिनों में कभी उसे मां की याि आती तो िह दिल्ली के लैंिलाइन पर फोन कर मां से
बततयाता था। केतकी के जररये ही राहुल को पता चला फक विकास मजे में है । उसकी नौकरी
ठीक है और िह एक उभरता रॉक गायक भी बन गया है । िह मां को बताता था फक मकान का
में टेनेंस समय पर दिया जा रहा है , फक लैंि लाइन फोन का बबल और बबजली का बबल भी समय
पर दिया जा रहा है । सोसायटी के लोग उन्हें याि करते हैं और उसने अपने एक िोस्त से
फकस्तों पर एक सेफकंि हैंि मोटर साइफकल खरीि ली है । िह बताता फक मुंबई की लोकल में भीड़
अब जानलेिा हो गई है । अब तो फकसी भी समय चढ़ना-उतरना मुजश्कल हो गया है । एक खाते-
पीते मध्यिगीय पररिार के लक्षण यहां भी थे, िहां भी। राहुल की जजंिगी बीत रही थी। केतकी
की भी। व्यस्त रहने के ललए केतकी दिल्ली में कुछ टयूशन करने लगी थी।
इसीललए विकास के फोन ने राहुल को विचललत कर दिया।
'बापू....' विकास लाड़, शराब और स्ितंत्रता के नशे में था, 'बापू, िल्िष रे ि सेंटर की
बबजल्िंग में हमारा भी हे ि ऑफफस था। सब खल्लास हो गया। ऑफफस भी, माललक भी।
मालफकन ने ई-मेल भेजकर मंब
ु ई ऑफफस को बंि कर दिया है ।'
'अब?' राहुल ने संयत रहने की कोलशश की, 'अब क्या करे गा?'

111
'करे गा क्या स्रगल करे गा। अभी तो एक महीने नोदटस की पगार है अपने पास। उसके
बाि िे खा जाएगा।' विकास आश्िस्त लग रहा था।
'ऐसा कर, तू घर में ताला लगाकर दिल्ली आ जा। मैं तझ
ु े अपने चैनल में फफट करिा
िं ग
ू ा।' राहुल की हमेशा व्यस्त और व्यािसातयक आिाज में बहुत दिनों के बाि एक चचंतातरु
वपता लौटा।
'क्या पापा...।' विकास शायि चचढ़ गया था, 'आप भी कभी कभी कैसी बातें करते हैं। मेरा
कैररयर, मेरे िोस्त, मेरा शौक, मेरा पैशन सब कुछ यहां है ... यह सब छोड़कर मैं िहां आ जाऊं,
उस गांि में जहां लोग रात को आठ बजे सो जाते हैं। जहां बबजली कभी कभी आती है । ओह
लशट... आई हे ट िै ट लसटी।' विकास बहकने लगा था, 'मम्मी मुझे बताती रहती है िहां की
मुसीबतों के बारे में । अपुन इधरीच रहे गा। आई लि मुंबई, यू नो। अगले महीने मैं अपना बैंि
लेकर पूना जा रहा हूं शो करने।'
'जैसी तेरी मजी।' राहुल ने समपषण कर दिया, 'कोई प्रॉब्लम आए तो बता जरूर िे ना।'
'शाब्बाश। ये हुई न मिों िाली बात।' विकास ने ठहाका लगाया फफर बोला, 'टे क केयर...
बाय।'
राहुल का जी उचट गया। उसने खि ु को सांत्िना िे ने की कोलशश की। आखखर सब कुछ
ं मशीन, गैस, िबल बेि,
तो है मुंबई िाले घर में । टीिी, फफ्रज, कंप्यूटर, िीसीिी प्लेयर, िालशग
िािषरोब, सोफा, बबस्तर। इतना सक्षम तो है ही अपना बेटा फक िो िक्त की रोटी जुटा ले। उसने
तनजश्चंत होने की कोलशश की लेफकन कुछ था जो उसके सुकून में सेंध लगा रहा था। थोड़ी िे र
बाि िह घर लौट आया। लौटते िक्त उसने मोबाइल पर अपनी सोसायटी के सेिेटरी से ररक्िेस्ट
फकया फक कभी में टेनेंस लमलने में िे र हो जाये तो िह लमस कॉल िे िे । पैसा सोसायटी के
अकाउं ट में रांस्फर हो जाएगा। फफर उसने सेिेटरी से आग्रह फकया फक विकास का ध्यान रखना।
सेिेटरी लसख था। खश
ु लमजाज था। बोला, 'तुसी फफि न करो। अलस हैं न। िैसे त्िािा मुंिा बड़ा
मस्त है । किी-किी दिखता है बाइक पर तो बाय अंकल बोलता है ।'
राहुल को घर आया िे ख केतकी विजस्मत रह गई। अभी तो लसफष पौने बारह बजे थे।
राहुल कभी भी िो बजे से पहले नहीं आता था।
'विकास का फोन था।' राहुल ने बताया, 'उसकी नौकरी चली गई है लेफकन यह कोई चचंता
की बात नहीं है ।'
'तो?' केतकी कुछ समझी नहीं।
'उसने शराब पी रखी थी।' राहुल ने लसर झक
ु ा ललया। उसकी आिाज िस
ू री शताब्िी के
उस पार से आती हुई लग रही थी। राख में सनी, मटमैली और अशक्त। केतकी के भीतर बझ ु ते
अंगारों में से कोई एक अंगार सल
ु ग उठा। राहुल की आिाज ने उसे हिा िी थी शायि।

112
'जब हम दिल्ली आ रहे थे मैंने तभी कहा था फक विकास को मुंबई में अकेला मत
छोड़ो।'
'केतकी, मख
ू ों जैसी बात मत करो। बच्चे जिान होकर लंिन, अमेररका, जमषनी और
जापान तक जाते हैं। नौकररयां भी आती-जाती रहती हैं। फफर हम अभी जीवित हैं न!' राहुल
सोफे पर बैठ गया और जत ू े उतारने लगा, 'उसका नशे में होना भी कोई धमाका नहीं है । ऑफ्टर
ऑल बाइस साल का यंग चैप है ।'
'तो फफर?' केतकी पछ
ू रही थी, 'तम
ु परे शान फकस बात को लेकर हो?'
'परे शान कहां हूं?' राहुल झठ ू बोल गया, 'एक प्रततकूल जस्थतत है जो फफलहाल विकास को
फेस करनी है । टे लेंटेि लड़का है । िसू री नौकरी लमल जाएगी। इस उम्र में स्रगल नहीं करे गा तो
कब करे गा? उसे अपने खि
ु के अनुभिों और यथाथष के साथ बड़ा होने िो।'
'तुम जानो।' केतकी ने गहरी तनश्िास ली, 'कहीं तम्
ु हारे विश्िास तुम्हें छल न लें।'
'िोंट िरी। मैं हूं न!' राहुल मुस्कुराया। फफर िे सोने के ललए बेिरूम में चले गये। रात का
खाना राहुल िफ्तर में ही खाया करता था। उस रात राहुल ने लसफष िो काम फकये। िाएं से बाएं
करिट ली और बाएं से िाएं।
सुबह हमेशा की तरह व्यस्तताओं भरी थी। अखबार, फोन, खबरें , न्यूज चैनल, इंटरव्यू,
प्रशासतनक समस्याएं, कंरोिसी, माकेदटंग स्रे टेजी, ब्यूरो कोऑडिषनेशन, आिे श, तनिे श, टागेट...।
एक तनरं तर हाहाकार था जो चौबीस घंटे, अनिरत उपजस्थत था, इस हाहाकार में समय हिा की
तरह उड़ता था और संिेिनाएं मोम की तरह वपघलती थीं। इन्हीं व्यस्तताओं में दिल्ली का
दिसंबर आया। ठं ि, कोहरे और बाररश में दठठुरता। विकास से कोई संपकष नहीं हो पा रहा था।
घर का फोन बजता रहता। दिल हूम हूम करता। पता नहीं विकास ने क्या खाया होगा? खाना
हलक से नीचे उतरने से इंकार कर िे ता। केतकी कुमार गंधिष और भीमसेन जोशी की शरण
लेती। विकास का मोबाइल राई करती। सोसायटी की सिेटरी की पत्नी से फोन पर पूछती,
'विकास का क्या हाल है ?' एक ही जिाब लमलता, 'दिखा नहीं जी बड्िे दिनों से। मैं इनसे पूछ के
फोन करांगी।' पर उसका फोन नहीं आता। केतकी अपनी कातर तनगाहें राहुल की तरफ उठाती
तो िह गहरी तनस्संगता से भर कर जिाब िे ता, 'नो न्यूज इज गुि न्यूज।'
'कैसे बाप हो?' आखखर एक रात केतकी ढह गई, 'तीन महीने से बेटे का अता-पता नहीं है
और बाप मजे में है ।'
'केतकी?' राहुल ने केतकी को उसके ममषस्थल पर लपक ललया, 'मैं बीस साल की उम्र में
अपना घर छोड़ कर भागा था। िे हरािनू से। फफर तम
ु से शािी की। स्रगल फकया, अपना एक
मक
ु ाम बनाया। बेशक तम
ु साथ साथ आ रही थीं। हम िे हरािन
ू से दिल्ली, दिल्ली से लखनऊ,
लखनऊ से गि ु ाहाटी और गि
ु ाहटी से मंब
ु ई पहुंच।े और अब दिल्ली में हैं। क्या तम्
ु हें एक बार भी
याि नहीं आया फक मेरा भी एक वपता था। मैं भी एक बेटा था?'

113
'लेफकन इस मामले में मैं कहां से आती हूं राहुल?' केतकी ने प्रततिाि फकया। 'िह तुम्हारा
और तम्
ु हारे वपता का मामला था। लेफकन यहां मैं इन्िॉल्ि हूं। मैं विकास की मां हूं। मेरे दिल में
हर समय सांय-सांय होती है । सोचती हूं फक कुछ दिनों के ललए मंब ु ई हो आती हूं।'
'ठीक है ।' राहुल गंभीर हो गया, 'मैं कुछ करता हूं।'
नये िर्ष के पहले दिन िोपहर बारह पैंतीस की फ्लाइट से राहुल मंबु ई के ललए उड़ गया।
उसके ब्रीफकेस में घर की चाबबयों और पसष में तीन बैंकों के िेबबट तथा िेडिट कािष थे।
घर विस्मयकारी तरीके से बिरं ग, उिास, अराजक और उजाड़ था। राहुल का घर, जजसे
िह बतौर अमानत विकास को सौंप गया था। िरिाजे के बाहर लगी नेमप्लेट जरूर राहुल के ही
नाम की थी लेफकन भीतर मानों एक अपादहज पहरे िार की छायाएं िोल रही थीं।
धीरे -धीरे राहुल को िर लगना शुरू हुआ। 'मैं उधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।'
राहुल ने सोचा। इक्कीसिीं सिी का अंधेरा उसके जजस्म में भविष्य की तरह ठहर जाने पर
आमािा था। उसके विश्िास, उसके मूल्य, उसकी समझ जजस पर िे श का पढ़ा-ललखा तबका
यकीन करता था, उसके अपने घर में विकास के मैले-कुचैले कपड़ों की तरह जहां-तहां बबखरे पड़े
थे। हॉल में बने बुक शेल्फ में मकड़ी के जाले लगे हुए थे और उनमें तछपकललयां आराम कर
रही थीं। उसने फोन का ररसीिर उठाकर िे खा - िह मत ृ कों की ितु नया में शालमल था। यानी घंटी
एक्सचें ज में बजा करती होगी। नागाजुन
ष , तनराला और मुजक्तबोध की रचनािललयों के साथ
काललिास ग्रंथािली जैसी िल
ु भ
ष और बेशकीमती पुस्तकें सदियों पुरानी धल
ू के नीचे हांफ रही थीं।
सोफे के ऊपर एक इलेक्रोतनक चगटार औंधा पड़ा था। टीिी के ऊपर एक नहीं तीन-तीन ऐश-रे
थीं, जजनमें चट
ु की भर राख झाड़ने की भी जगह नहीं थी। शोकेस के फकनारे कोने में लसगरे ट के
खाली पैकेट पड़े थे। फशष पर चलते हुए धल
ू पर जूतों के तनशान छप रहे थे।
राहुल भीतर घुसा- एक साबुत आशंका के साथ। फकचन के प्लेटफामष पर बबसलरी के बीस
ं मशीन का मुंह खल
लीटर िाले कई कैन कतार से लगे थे - खाली, बबना ढक्कन। िालशग ु ा था
और उसमें गरिन तक विकास के गंिे कपड़े ठुंसे हुए थे। पिों पर तेल और मसालों के िाग थे।
बाथरूम और लैटरीन के िरिाजों पर कुछ वििे शी गायकों के अहमकों जैसी मुद्रा िाले पोस्टर
चचपके थे। राहुल का स्टिी रूम बंि था। बैिरूम में रखा कंप्यूटर और वप्रंटर निारि था। राहुल ने
चाबी से स्टिी का िरिाजा खोला- िहां धलू , उमस और सीलन जरूर थी लेफकन बंि होने की
िजह से बाकी कमरा जस का तस था- जैसा राहुल उसे छोड़ गया था। थका हुआ, प्रतीक्षातुर
और उिास। यह कमरा मानों राहुल को यह सांत्िना िे रहा था फक अभी सब कुछ समाप्त नहीं
हुआ है । अपनी राइदटंग टे बल के सामने पड़ी ररिॉजल्िंग चेयर पर बैठकर राहुल ने विकास का
मोबाइल लगाने की एक व्यथष सी कोलशश की लेफकन आश्चयष फक घंटी बज गई।
'है लो...' यह विकास था हूबहू राहुल जैसी आिाज़ में । तीन महीने से अदृश्य।
'कहां है ?' राहुल ने पछ
ू ा।

114
'पापा...!' विकास चीखा, 'कैसे हो, मॉम कैसी है ?'
'तझ
ु से मतलब?' राहुल चचढ़ गया।
'पापा, मेरा मोबाइल बंि था, परसों ही चालू हुआ है । मैं आपको बताने ही िाला था। गि ु
न्यज
ू । परसों ही मेरी नौकरी लगी है - ररलायंस इन्फोकॉम में । पगार है पंद्रह हजार रुपये। तीन
महीने से खाली भटकते-भटकते मैं पागल हो गया था। बीच में मेरा एक्सीिेंट भी हो गया था। मैं
पंद्रह दिन अस्पताल में पड़ा रहा। बाइक भी टूट गई। भंगार में बेच िी।' विकास बताता जा रहा
था। बबना रुके, बबना फकसी िख
ु , तकलीफ या पछतािे के। खाललस खबरों की तरह।
'तन
ू े एक्सीिेंट की भी सच
ू ना नहीं िी?' राहुल को सहसा एक अनाम िखु ने पकड़ ललया।
'उससे क्या होता?' विकास तकष िे रहा था, 'आपका ब्लि प्रेशर बढ़ जाता। आप लोग
भागे-भागे यहां आते। ठीक तो मुझे ििाइयां ही करतीं न? फफर िोस्त लोग थे न। फकस काम
आते साले हरामखोर। आप िे खते तो िर जाते पापा। बाईं आंख की तो िाट लग गई थी। पूरी
बाहर ही आ गई थी। माथे पर सात टांके आये। होंठ कट गया था। अब सब ठीक है ।'
'पैसा कहां से आया?' राहुल ने पूछा।
'िोस्त ने दिया। कंप्यूटर बेचना पड़ा। अब धीरे धीरे सब चक
ु ा िं ग
ू ा।'
'और घर कबसे नहीं गया?'
'शायि आठ-िस दिन हो गए।' विकास ने आराम से बताया।
'और घर का फोन?'
'िो िैि है ।' विकास ने बताया, 'मैं भाड़ा कहां से िे ता? खाने के ही िांिे पड़े हुए थे।'
'में टनेंस भी नहीं दिया होगा?'
'हां।' विकास बोला।
'तुझे यह सब बताना नहीं चादहए था?' राहुल झुंझला गया, 'इस तरह बताषि करती है तुम
लोगों की पीढ़ी अपने मां-बाप के साथ?'
'पापा आप तो लेक्चर िे ने लगते हो।' विकास भी चचढ़ गया, 'मकान कोई छीन थोड़े ही
रहा है ? अब नौकरी लग गई है , सब कुछ िे िं ग
ू ा। अच्छा सुनो, मम्मी से बात कराओ न!'
'मम्मी दिल्ली में है ।'
'दिल्ली में ? तो आप कहां हैं?' विकास थोड़ा विजस्मत हुआ।
'मुंबई में । अपने घर में ।' राहुल ने बताया।
'ओके बाय, मैं शाम तक आता हूं।' विकास ने फोन काट दिया। उसकी आिाज में पहली
बार कोई लहर उठी थी। क्या फकष है ? राहुल खि
ु से पछ
ू रहा था। लसफष इतना ही न फक मैं घर
से भाग गया था और विकास घर से िरू है - अपनी तरह से जीता-मरता हुआ। अपनी एक
समानांतर ितु नया में । िह एक अदृश्य सी िोर से अपने मम्मी-पापा के साथ बंधा हुआ है और
राहुल की ितु नया में यह िोर भी नहीं थी। घर से भागने के परू े सात िर्ष बाि जब जोधपरु में

115
वपता का ब्रेन कैंसर से िे हांत हो गया, तब मां का मौन टूटा था। और मां की आज्ञा से छोटे भाई
ने उसका पता खोज कर उसे टे लीग्राम दिया था -'वपता नहीं रहे । अगर आना चाहो तो आ सकते
हो।'
िह नहीं गया था। अगर वपता उसके जीिन से तनकल गए थे, अगर मां, मां नहीं बनी
रह सकी थी, अगर भाई-बहन उसे ठुकरा चकु े थे तो राहुल ही क्यों एक बंि ितु नया का िरिाजा
खोलने जाता? जब अपने लहुलह
ु ान शरीर को ललए िह घर के बाहर कूि रहा था तब िरिाजा
खोलकर मां बाहर आकर उसके किमों की जंजीर नहीं बन सकती थी? वपता को एक बार भी
ख्याल नहीं आया फक बीस साल का एक इंटर पास लड़का इतनी बड़ी ितु नया में कहां मर-खप
रहा है ?
राहुल बजाज ने पाया फक उसकी बाईं आंख से एक आंसू ढुलककर गाल पर उतर आया
है । शायि बाईं आंख दिल से और िाईं आंख दिमाग से जुड़ी है । राहुल ने सोचा और अपनी खोज
पर मुस्कुरा दिया।
िो बाइयों की मिि से घर शाम तक सामान्य जस्थतत में आ गया। सोसायटी का सेिेटरी
बिल गया था। नोदटस बोिष पर में टेनेंस न िे ने िालों में राहुल बजाज का नाम भी शोभायमान
था। राहुल ने पूरे दहसाब चक
ु ता फकये और बारह महीने के पोस्ट िेटेि चेक सेिेटरी को सौंप
दिये। बबजली के बबल के खाते में भी उसने पुराने चौिह सौ और अचग्रम सोलह सौ लमलाकर
तीन हजार का चेक जमा करिा दिया। टे लीफोन सरें िर करने की अप्लीकेशन भी उसने सेिेटरी
को िे िी- साइन फकये हुए िॉस्ि चेक के साथ। विकास के सारे गंिे कपड़े धोबी के यहां लभजिा
ं मशीन उसने िस हजार रुपये में केतकी के एक िोस्त को बेच
दिए। टीिी, फफ्रज और िालशग
दिये। इसी िोस्त रे िती के पतत लललत ततिारी के घर िह रात के खाने पर आमंबत्रत था।
रात आठ बजे विकास आया। िह अपने साथ बैगपाइपर की बॉटल लाया था।
'आपने कहा था न, पहला पैग मेरे साथ पीना।' विकास बोला, 'िह तो नहीं हो सका
लेफकन मेरी नयी नौकरी की खश
ु ी में हम एक साथ चचयसष करें गे।'
'मंजूर है ।' राहुल तनविषकार था, 'मैं घर में ताला लगाकर जा रहा हूं।'
'चलेगा।' विकास ततनक भी परे शान नहीं हुआ, 'मेरा िफ्तर मरोल में है । अंधेरी से मीरा
रोि की रे न में चढ़ना अब पॉलसबल नहीं रहा। मैं िफ्तर के पास ही कहीं पेइंग गेस्ट होने की
सोच रहा हूं।'
विकास रे िती और लललत के घर खाने पर नहीं गया। उसने पष्ु पक होटल से अपने ललए
चचकन बबररयानी मंगिा ली।
अगली सब ु ह इतिर था। राहुल सोकर उठा तब तक विकास तैयार था। उसने पापा के
ललए िो अंिों का ऑमलेट बना दिया था।
'कहां?' राहुन ने पछ
ू ा।

116
'मेरी ररहसषल है ।' विकास ने कहा, 'आज शाम सात बजे बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है ।'
'क्या उस शो में मैं नहीं आ सकता?' राहुल ने पछ
ू ा।
'क्या?' विकास अचरज के हिाले था। 'आप मेरा शो िे खने आएंगे? लेफकन आप और
मम्मी तो कुमार गंधिष भीमसेन जोशी टाइप के लोगों...।'
'ऑफ्टर ऑल, जो तू गाता है िह भी तो संगीत ही है न?' राहुल ने विकास की बात काट
िी।
'येस्स' विकास ने िोनों हाथों की मदु ियां हिा में उछालीं, 'मैं इंतजार करूंगा।' फफर िह
अपना चगटार लेकर सीदढ़यां उतर गया। िे र तक राहुल की आंख में विकास के कानों में लटकी
बाललयां और छोटे छोटे कलर फकये गए खड़े बाल उलझन की तरह िूबते-उतराते रहे । जब केतकी
का फोन आया तो राहुल ठीक ठीक बता नहीं पाया फक िह फकसके साथ है - विकास के या
अपने? केतकी जरूर विकास के साथ थी, 'जब उसके ललए तुमने घर ही बंि कर दिया है तो
उसका अंततम संस्कार भी हाथोंहाथ क्यों नहीं कर आते?' िह रो रही थी। िह मां थी और
स्िभाितः अपने बेटे के साथ थी। राहुल मां को नहीं जानता। िह केतकी के रुिन से ततनक भी
विचललत नहीं हुआ।
रासबेरी। नई उम्र के लड़के-लड़फकयों का डिस्कोथेक। बाहर पोस्टर लगे थे - न्यू सेंसेशन
ऑफ इंडियन रॉक लसंगर विकास बजाज। राहुल तीन सौ रुपये का दटकट लेकर भीतर चला गया।
िहां अजीबोगरीब लड़के-लड़फकयों की भीड़ थी। हिाओं में चरस की गंध थी। बीयर का सरू
ु र था।
यौिन की मस्ती थी। क्षण में जी लेने का उन्माि था। लड़फकयों की जीन्स से उनके तनतंबों के
कटाि झांक रहे थे। लड़कों ने टाइट टी शटष पहनी हुई थी। उनके बाल चोदटयों की तरह बंधे थे।
स्लीिलेस टी शट्षस से उनके मसल्स छलके पड़ रहे थे। ब्रा की कैि से आजाि लड़फकयों के स्तन
शट्षस के भीतर टे तनस की गें ि की तरह उछल रहे थे। राहुल िहां शायि एकमात्र अधेड़ था जजसे
रासबेरी का समाज कभी कभी कौतुक भरी तनगाह से तनहार लेता था।
एक संक्षक्षप्त से अनाउं समें ट के बाि विकास मंच पर था - अपने चगटार के साथ। उसने
कान-फाड़ शोर के साथ गिष न को घुटनों के पास तक झुकाते हुए पता नहीं क्या गीत गाया फक
हॉल ताललयों से गड़गड़ाने लगा, लड़फकयां झूमने लगीं और लड़के उन्मत्त होकर नाचने लगे।
इस लड़के की रचना हुई है उससे? राहुल ने सोचा और युिक-युिततयों द्िारा धकेला
जाकर एक कोने में लसमट गया। भीड़ पागल हो गई थी और विकास के ललए 'िन्स मोर' का
नारा लगा रही थी। राहुल का दिल िो-फांक हो गया। उसने केतकी को फोन लगाया और धीरे से
बोला, 'शोर सन
ु रही हो? यह विकास की कामयाबी का शोर है । मैं नहीं जानता फक मैं सख
ु ी हूं
या िख
ु ी। पहली बार एक वपता बहुत असमंजस में है केतकी।' राहुल ने फोन काट दिया और मंच
पर उछलते-कूिते विकास को िे खने लगा।

117
ब्रेक के बाि िह बाहर आ गया। 'हाय गाइज, है लो गल्सष' करता हुआ विकास भी बाहर
तनकला। उसके मंुह में लसगरे ट िबी थी। उसने राहुल के पांि छू ललए और बोला, मैं बहुत खश
ु हूं
फक मेरा बाप मेरी खश ु ी को शेयर कर रहा है ।'
'मेरे बच्चे' राहुल ने विकास को गले लगा ललया, 'जहां भी रहे , खशु रहे । मझु े अब जाना
होगा। मेरी िस पैंतीस की फ्लाइट है । अपने सारे प्रेस फकये हुए कपड़े तझ
ु े रे िती आंटी के घर से
लमल जाएंगे।' राहुल बजाज का गला रूंध गया था, 'कल से तू कहां रहे गा? क्या मैं घर की
चाबबयां?'
राहुल बजाज के भीतर एक वपता वपघलता, तब तक विकास का बल ु ािा आ गया। उसने
िापस राहुल के पांि छुए और बोला, 'मेरी चचंता मत करो पापा। मैं ऐसा ही हूं। आप जाओ।
बेस्ट ऑफ जनी। सॉरी।' विकास ने हाथ नचाए, 'मैं एयरपोटष नहीं आ सकता। मां को प्यार
बोलना।' विकास भीतर चला गया। भीड़ और शोर और उन्माि के बीच।
बाहर अंधेरा उतर आया था। इस अंधेरे में राहुल बजाज बहुत अकेला, अशक्त और
िवु िधाग्रस्त था। िह सबके साथ होना चाहता था लेफकन फकसी के साथ नहीं था। उसके पास न
वपता था, न मां। उसके पास बेटा भी नहीं था। और दिल्ली पहुंचने के बाि उसके पास केतकी
भी नहीं रहने िाली थी। राहुल ने हाथ दिखाकर टै क्सी रोकी, उसमें बैठा और बोला, 'सांतािूज
एयरपोटष ।'
टै क्सी में गाना बज रहा था -'बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।'

थप्रैि 2005

118
म नसी

मानसी! मानसी! मानसी!


बहुत शोर था मानसी का। चार एक हजार मकानों िाली उस मध्यिगीय कॉलोनी का
खंभा-खंभा जैसे मानसी के अजस्तत्ि से रोमांचचत हो, स्तब्ध खड़ा था। जजतने मंह
ु उतनी बातें ।
लेफकन कमाल यह फक सारी बातें या तो मानसी की प्रशजस्त में , या मानसी की भत्सषना में । जैसे
मानसी न होती, तो लोगों की िाक्शजक्त बबला जाती और घरों में मनहूलसयत छा जाती। जिान
लड़कों के दिनों को उजड़ने से और जस्त्रयों को आपस में टकराने से मानो मानसी ने ही रोका
हुआ था। सुबह, िोपहर, शाम औरतों में एक ही चचाष रहती...
मानसी चलती बहुत शान से है ... मानसी संिरती बहुत आन से है ... मानसी बोलती बहुत
सलीके से है ... मानसी हंसती बहुत कायिे से है ... मानसी को िांस बहुत अच्छा आता है ...
मानसी गाती बहुत सुरीला है ... मानसी बड़ों का सम्मान करती है ... मानसी छोटों को प्यार करती
है ... मानसी ने जब ज्यॉग्रफी से इंटर में दिल्ली टॉप फकया, तो राजधानी के सारे अखबारों में
उसके फोटो छपे... मानसी कॉलोनी का गौरि है ... मानसी बहुत लशष्ट, सभ्य और सुसंस्कृत
लड़की है ... मानसी कविताएं ललखती है ... मानसी को घूमने का बहुत शौक है ... मानसी को
इतना स्ितंत्र नहीं होना चादहए... उसकी संगत से कॉलोनी की बाकी लड़फकयां भी बबगड़ रही हैं...
मानसी को छाती पर िप
ु ट्टा िालकर रहना चादहए... मानसी िे र रात तक बाहर क्यों रहती है ?
जब घर में टी. िी. मौजूि है , तो नाटक िे खने के ललए चथयेटर जाना क्यों जरूरी है ? मानसी
जींस क्यों पहनती है ? मानसी को लमरांिा कॉलेज में िाखखला नहीं लेना चादहए था... जिान
लड़के और उनके वपता जजस तरह मानसी को िे ख कर एक साथ लार टपकाते हैं, िह क्या
अच्छी बात है ? मानसी के मां-बाप उसे िबाकर क्यों नहीं रखते? मानसी के कारण कई घरों में
लमयां-बीिी के बीच तकरार हो चक
ु ी है ... मानसी चररत्रहीन है ।
फकसी लड़की का इतना शोर हो और उस तक न पहुंच,े ऐसा कैसे संभि था? िह, जो हर
लड़की के भीतर एक नातयका की तलाश करने लगता था, कब तक मानसी से बचा रहता?
सुबह-सुबह घर से तनकलकर रात को बारह-एक बजे तक घर से बाहर रहने के बािजूि मानसी
का शोर उस तक पहुंच ही गया। और जब शोर पहुंचा, तो मन के एकांत कोने में अलसायी पड़ी
नातयका उसकी चेतना में फकसी आदिम इच्छा की तरह उभर आयी।
'कौन है मानसी?' एक रात उसने अपनी पत्नी से पछ
ू ही ललया।
पत्नी उस िक्त मेज पर खाना लगा रही थी। उसका सिाल सन
ु कर िह न लसफष चौंक
गयी, बजल्क सतकष भी हो गयी। पहले िह तन्नायी, फफर मस
ु करायी और फफर बेहि संजीिगी से
बोली, 'तम्
ु हारी बेटी के बराबर है िो।'

119
'छत्तीस साल के फकसी आिमी की चौबीस साल की बेटी हो ही नहीं सकती।' उसने
मजाफकया अंिाज में कहा और मस
ु करा दिया।
'अरे बाप रे ।' पत्नी लगभग चीख ही पड़ी, 'तम्
ु हें तो उसकी उमर तक पता है !'
प्रत्यत्ु तर में िह फफर मस
ु कराया।
'मैं तम्
ु हारी नस-नस से िाफकफ हूं।' पत्नी ने चचढ़कर कहा, फफर िह चचढ़ाते हुए बोली,
'िैसे बेफफकर रहो। तम् ु हें घास नहीं िालनेिाली िह।'
'तझ
ु े पता है , मैं घास नहीं खाता।' उसने तत्काल जिाब दिया और पत्नी को पकड़ ललया।
और इस तरह मानसी उसके घर में आकर भी पसर गयी।
उसे पत्रकाररता के एक राष्रीय पुरस्कार से सम्मातनत फकया गया था। रात टे लीविजन के
समाचारों में इस पुरस्कार की सूचना के साथ उसका चेहरा भी पूरे िे श को दिखाया गया था और
आज सुबह के सभी प्रमुख अखबारों में उसके चचत्र छपे हुए थे। पत्रकाररता में उसके योगिान,
उसकी चचंताओं, रुझानों, उपलजब्धयों और संघर्ों की भी विस्तार से चचाष की गयी थी। लगभग
आत्ममुग्ध जस्थतत में , बौराया हुआ-सा िह अखबारों में िूबा था फक हाथ में अखबार ललये,
लगभग िौड़ते हुए एक लड़की ने प्रिेश फकया और हांफते हुए बोली, 'आंटी! अंकल को इतना बड़ा
पुरस्कार लमला...' इससे आगे की बात िह पूरी नहीं कर पायी और आदहस्ता से बोली, 'आंटी
कहां हैं?'
'तुम?' िह थोड़ा असहज हो गया।
'मैं मानसी।' लड़की ने लजाकर कहा।
'मानसी!' िह विजस्मत हो गया।
'आंटी नहीं हैं?' लड़की रुक-रुककर बोली, 'मैं बाि में आऊंगी। िैसे, आपको बधाई!' उसने
लगभग इतराकर कहा, 'मुझे पता नहीं था फक आप इतने बड़े आिमी हैं।'
'अरे नहीं।' िह अभी तक चफकत था, लेफकन इससे पहले फक कुछ और कहता, मानसी
उसी तरह िौड़ती चली गयी, जजस तरह आयी थी-बबल्कुल एक स्िप्न की तरह।
मानसी जा चक
ु ी थी, लेफकन िह अभी तक उसी दिशा में िे ख रहा था, जहां से िह
अदृश्य हुई थी।
'तुम सचमुच एक स्िप्न हो।' िह बड़बड़ाया, 'नहीं, तुम स्िप्न नहीं, स्िप्न और यथाथष के
बीचोंबीच खड़ी एक फेंटे सी हो।' उसने सोचा। सहसा िह उिास हो गया फक मानसी ने उसके ललए
'अंकल' संबोधन का इस्तेमाल फकया। उसे िःु ख हुआ फक मानसी पत्नी के साथ अपने ररश्ते के
माध्यम से उसे जानती है । उसे अफसोस हुआ फक मानस-नातयका जैसी मानसी से िह अब तक
अपररचचत रहा।
'मानसी! तमु इतनी िे र में क्यों आयी?' उसने सोचा और अपने को बहुत अकेला, हताश
और तनराश अनभ ु ि फकया। परु स्कार के आह्लाि पर सहसा मानसी का अभाि उसने अपनी

120
चेतना पर तारी होते अनुभि फकया और अपनी बेचारगी से तार-तार हो गया। उसने तमाम
अखबार समेटकर एक तरफ रख दिये और कुरसी पर आराम की मद्र
ु ा में पसर गया।
'फकतना मजबरू है िह,' उसने सोचा, 'फक मानसी से पररचचत होने के रास्ते पर सन
ु ीता
खड़ी हुई है , उसकी पत्नी, अपने तमाम अचधकारों से लिी-फंिी। जब तक सनु ीता की आंखें
सहमतत न िें , तब तक िह मानसी से बोलना तो िरू , उसे अपने तनकट िे ख भी नहीं सकता।'
हर समय असंतष्ु ट और अधैयष में िूबा रहनेिाला उसका मन एकाएक एक ठोस कातरता से
टकराकर कलपने लगा।
अचानक एक बेहि िूर और नंगा सिाल फकया उसने अपने आपसे। 'मानसी क्यों चादहए
उसे? ऐसा रूपिान या स्िजप्नल पुरुर् नहीं है िह फक संसार की तमाम सुंिर और संिेिनशील
जस्त्रयां उसकी कामना करने लगें । तो फफर िह क्यों करता है ऐसी कामनाएं, जो असंभि हों और
जजनके पूरा न होने की जस्थतत में िह खामखाह की यंत्रणा में खील-खील होने लगे!' लेफकन यह
लसफष प्रश्न था। ऐसा प्रश्न, जजसका उत्तर पाकर आिमी खि
ु को पालतू और घरे लू फकस्म की
ललजललजी शख्सीयत में तब्िील हुआ महसूस करता है । इसललए प्रश्न प्रश्न ही रहा, उसकी यंत्रणा
को कम नहीं कर पाया। फफर उसे लगा, ऐसे व्यथष और असवु िधाजनक प्रश्नों से उलझने का कोई
अथष ही नहीं है । मानलसयां ऐसे प्रश्नों के पार खड़ी रहकर ही धड़का करती हैं। मानलसयां न हों,
तो आिमी न रच सके और न ही जी सके। इस कदठन और स्िाथी संसार को मानलसयां ही
कोमल, तनष्कलुर् और रागात्मक बनाती आयी हैं आज तक। मानसी के बारे में इस तरह सोचना
अच्छा लगा उसे और सहसा उसने पाया फक एक राचगनी की तरह बज रही है मानसी उसके मन
में ।
लमनट के साठिें दहस्से में भी िे ख ललया था उसने फक मानसी स्त्री के अजस्तत्ि का नहीं,
स्त्री होने की शतों और एहसास का प्रततरूप है । उसका तेजी से आना, दठठकना, लजाना, इतराना
और उसके बड़प्पन को गहरी तनष्ठा से स्िीकार कर, स्िप्नमयी हो अदृश्य हो जाना - इतना
कुछ एक साथ िे ख और महसूस कर कौन नहीं चाहे गा फक मानसी लसफष उसी के रक्त में एक
उबाल की तरह उपजस्थत रहे ! उसने िे खा था, उन कुछ ही चमत्कारी-से क्षणों में उसने िे खा था
फक मानसी स्िप्न िे खने का सलीका भी जानती है और उन्हें पूरा करने का तरीका भी। िह िबंग
भी है और विनम्र भी। िह आजाि रह सकती है और आजाि रख भी सकती है । िह समपषण
करा भी सकती है और समवपषत होने में भी उसे संकोच या िवु िधा नहीं होगी। िह साथ हो, तो
अचधकारों का द्िंद्ि यद्ध
ु नहीं, अचधकारों का सह-अजस्तत्ि रचा जा सकता है । मानसी संहार का
नहीं, तनमाषण का आमंत्रण है जैसे। और जैसे भी हो, यह तनमाषण करना ही है उसे। खि
ु को नष्ट
करके भी इस तनमाषण को संभि करना है , क्योंफक तनलमषतत के ललए आतरु और एकतनष्ठ
मानलसयां सड़कों पर नहीं खड़ी रहतीं। उन्हें खोजना होता है । िह खि
ु क्या वपछले लंबे समय से
इस खोज में नहीं लगा रहा है ?

121
अनायास ही उसकी आंखें नम हो आयीं। उसे लगा, मानसी के रूप में उसे िर्ों से खोयी
हुई कोई िल
ु भ
ष चीज दिख गयी है । उसका रोम-रोम कह रहा था फक मानसी फफर आयेगी।
मानसी आती रहे गी। मानसी का आना और उसके साथ लमलकर एक रचनात्मक स्िप्न को
तनलमषत करना तो फकसी पवित्र ग्रंथ में मंत्रों की तरह बहुत पहले से ललखा जा चक
ु ा है ।
पत्नी चफकत थी। िह यह मानने के ललए हरचगज तैयार नहीं थी फक अरविंि सध ु र सकता
है । लेफकन इस सच्चाई को भी िह कैसे नकार सकती थी फक वपछले काफी समय से अरविंि
अपनी हर छुट्टी घर पर बबताने लगा था और शाम को सात-आठ बजे तक लौट आने लगा था।
शराब पीना उसने नहीं छोड़ा था, लेफकन यह सख
ु भी कम नहीं था फक वपछले काफी समय से
उसकी तनजी िायरी में अरविंि से लमली यातना की कोई अलभव्यजक्त िजष नहीं हुई थी। उसे
मालूम था फक अरविंि के जीिन में आया यह पररितषन मानसी के कारण है । लेफकन मानसी को
लेकर उसे कोई खतरा नहीं था। िह अरविंि को 'अंकल' और उसे 'आंटी' कहती थी और िैसा ही
आिर-भरा बरताि करती थी। फफर मानसी अरविंि की उपजस्थतत में कभी घर नहीं आती थी,
इसललए भी उसे मानसी की तरफ से ज्यािा चचंता नहीं थी। अरविंि के रलसक स्िभाि की
जानकारी थी सुनीता को, लेफकन िह यह भी जानती थी फक अरविंि के ललए उसकी प्रततष्ठा और
गररमा इतनी बड़ी लक्ष्मणरे खा है , जजसे लांघकर िह कोई काम नहीं कर सकता, और इस
कॉलोनी में तो कतई नहीं। इसललए इस तरफ से िह एकिम तनजश्चंत थी फक मानसी की
उपजस्थतत उसके िांपत्य संबंधों में फकसी अतनष्ट की तरह प्रिेश ले लेगी, लेफकन उस इतनी
जहीन, लेफकन सपनों में िूबी रहनेिाली लड़की का अरविंि-मोह उसे खि
ु मानसी के ललए
दहतकारी नहीं लगता था। अरविंि की अनुपजस्थतत में मानसी उसके पेन, उसकी फकताबों और
फकसी न फकसी बहाने उसके कपड़ों को जजस अंिाज में छूती-स्पशष करती थी, उससे िर भी लगता
था सुनीता को। सुनीता के जररये अरविंि की फकतनी ही रुचचयों-आितों को गहराई से जान गयी
थी मानसी। िह फकसी भी शाम हाथ में कटोरी ललये चली आती, 'आंटी, ये भरिां करे ले। अंकल
को पसंि हैं न?' या, 'आंटी, अंकल को फलानी कविता के ललए बधाई िे ना।' या 'आंटी, अंकल
पर िबाि िाललए न, िे इतनी शराब न वपया करें ।' एक दिन तो हि ही हो गयी। सुनीता अरविंि
की मैली पैंट-शटष लेकर उन्हें धोने बाथरूम जा रही थी फक मानसी चली आयी और बोली, 'लाइए,
मैं धो िे ती हूं।'
'अरविंि को तो कुछ नहीं होगा।' तब सोचा था सुनीता ने। 'ऐसा न हो फक यह लड़की
कहीं की न रहे ।'
और इसी प्रफिया में एक कांि कर दिया था मानसी ने। जो भी लड़का उसे िे खने आता
था, उसे िह कोई-न-कोई मीन-मेख तनकालकर ररजेक्ट कर िे ती थी। जब वपछले दिनों आये चौथे
लड़के के ललए भी मना कर दिया मानसी ने, तो सन
ु ीता ने सहज जजज्ञासािश पछ
ू ही ललया
उससे, 'आखखर तेरी भी तो कोई कल्पना होगी। कैसा लड़का चाहती है तू?'

122
एक अजीब अलभमान में िूबकर गरिन ऊपर उठायी मानसी ने और तनःसंकोच बोली,
'नाराज नहीं होना आंटी! अगर आप नहीं होतीं अंकल के जीिन में , तो मझ
ु े अंकल ही चादहए थे।
अंकल में जो बात...' मानसी ने अपनी िोनों हथेललयां आपस में जोर से भींचकर कहा था और
सन
ु ीता को भौंचक छोड़ चली गयी थी।
ये सारी सच
ू नाएं सन
ु ीता के जररये अरविंि तक भी आती थीं, लेफकन िह लापरिाही से
उड़ा िे ता था उन्हें । िह बबल्कुल नहीं चाहता था फक सन
ु ीता को इस बात का आभास तक हो फक
िह खि ु मानसी को लेकर कहीं बहुत भािक
ु या कमजोर है । इस अंततम बात को भी उसने
सन
ु ीता के सामने यह कह ध्िस्त कर दिया फक लड़फकयां अपने पतत के रूप में अपने वपता की
और लड़के अपनी पत्नी के रूप में अपनी मां की ही कल्पना करते हैं, ऐसा मनोविज्ञान की
िजषनों फकताबों में ललखा है , फक मानसी अभी बच्ची है और उसका यह फकशोर सुलभ उन्माि
उसकी उम्र के साथ-साथ ढल जायेगा एक दिन।
सुनीता को तनभषय कर दिया था अरविंि ने, लेफकन खि
ु उलझ गया था। िह चाहने लगा
था फक मानसी से रोज लमले, लेफकन इधर उसने उसकी अनुपजस्थतत में भी घर आना छोड़ दिया
था। सुनीता से कह तो दिया था उसने फक उसे अंकल ही चादहए थे, लेफकन कहने के बाि िर भी
गयी थी और सुनीता का सामना करने की दहम्मत नहीं जुटा पा रही थी, इसललए नहीं आ रही
थी।
आखखर मानसी आयी, उसकी मौजूिगी में िस
ू री बार। पहली बार तब, जब अरविंि ने उसे
पहली बार िे खा था और िस
ू री बार अब, उसके जन्मदिन पर। िह सबसे अंत में आयी। बबन
बुलाये। थोड़ा सकुचाती-सी। उसकी आंखें, उसके होंठ, उसकी उं गललयां, उसकी चाल, उसकी
उलझन, उसका उल्लास, उसकी खझझक-सब कुछ यह बता रहा था फक जन्म दिन की पाटी में
आये राजधानी के चचचषत लेखकों, पत्रकारों, रं गकलमषयों और अचधकाररयों को िे कर िह न लसफष
प्रभावित और सहमी हुई है , बजल्क मुग्ध और गविषत भी है । िह नीली साड़ी पहनकर आयी थी
और एक काली िायरी लायी थी। िायरी के मुखपष्ृ ठ पर लाल गुलाब अंफकत था और उसकी
लंबी, पतली, पारिशी उं गललयों के पीछे से झांक रहा था।
मानसी ने िहां उपजस्थत सब लोगों का बहुत शालीनता से अलभिािन फकया, िायरी उसे
थमायी और हौले से मुसकराकर भीतरिाले कमरे में चली गयी, सुनीता के पास।
उसने चप
ु चाप िायरी खोली। िायरी खोलते िक्त उसकी उं गललयां थरथरा रही थीं और
हृिय एक अजीब-सी आतरु ता और आकुलता के बीच आ-जा रहा था। िायरी के पहले पन्ने पर,
बहुत संि
ु र अक्षरों में , नीली स्याही से ललखा था -'वप्रय अरविंि को, मानसी का मन'।
एकाएक यकीन नहीं हुआ उसे। धल ू , धप
ू , हिा, िर्ाष, अभाि, िख
ु , कष्ट, तनराशा, िंचना,
यातना और तनमषमता से लड़ते-लड़ते लगभग प्रौढ़ और खरु िरु ी हो चली उसकी चेतना चौबीस िर्ष
की यि
ु ा और कोमल लड़की का यह समपषण सहसा झेल नहीं पायी। उसे लगा, यह हकीकत नहीं,

123
उसके भीतर िबी कामना का स्िप्न रूप है , लेफकन बार-बार पढ़ने पर भी 'वप्रय अरविंि को,
मानसी का मन' ही अलमट रहा - मानसी की आंटी और उसकी पत्नी सन
ु ीता के आतंक या
नाराजगी से अप्रभावित, अपने में स्िायत्त और नेह की ऊष्मा से मंि-मंि िहकता हुआ। उसने
िायरी बंि कर तत्काल अपनी मेज की ड्रॉअर में , कागजों के नीचे िबा िी। मानसी द्िारा ललखे
शब्िों का, सन
ु ीता तक पहुंच जाने का अथष था - इस घर से मानसी का संपण
ू ष बदहष्कार। मानसी
की दहम्मत िे ख िह एकाएक अपनी नजरों में छोटा भी हो आया। एक असहाय कायरता का िंक
अपने सीने में गड़ा महसस
ू करते हुए भी, लेफकन एक पल को उसे लगा फक मानसी के सहारे िह
फकसी भी विघ्न को लशकस्त िे सकता है । बत्तीस बरस के शंकाल,ु िवु िधाग्रस्त और िरे हुए
अरविंि की मुजक्त अगर कहीं है , तो केिल चौबीस िर्ष की मानसी के स्िप्न-संसार में ही। यह
मानसी ही है , जो उसके अनकहे िःु ख को अपने पवित्र और समवपषत ममत्ि से एक ऐसी
अलभव्यजक्त िे गी फक शब्िों के कारीगर तक चौंक उठें ।

तीसरी बार मानसी से मंिी हाउस की एक सड़क पर सामना हुआ उसका।


'अंकल, आप?' खश ु ी से सराबोर हो उठी मानसी, लेफकन प्रत्युत्तर में िह चप
ु ही रहा, तो
मानसी जैसे ताड़ गयी फक कहां, क्या गलत हुआ है । उसने एक बार भरपूर तनगाह से अरविंि को
िे खा फफर गरिन झुकाकर धीमे से बोली, 'िो क्या है फक 'अंकल' शब्ि आित में शुमार हो गया
है न, इसीललए मुंह से तनकल जाता है । कोलशश करूंगी आित बिलने की।'
िह चप
ु मानसी को िे खता रहा और उसकी समझ पर मुग्ध होता रहा। उसके इस तरह
लगातार िे खे जाने से शायि मानसी को असुविधा होने लगी थी। उसका इरािा मानसी को
असुविधा में िालने का नहीं था, लेफकन इस असुविधाजनक जस्थतत से मानसी के गाल जजस तरह
गुलाबी से सफेि और सफेि से गुलाबी हो रहे थे और जजस तरह उसकी पलकें तथा िक्ष ऊपर-
नीचे उठ-चगर रहे थे, उस सबसे िह खि
ु को भीतर-ही भीतर काफी आनंदित और रोमांचचत
महसूस कर रहा था। आखखर इस जस्थतत को तोड़ने की पहल मानसी ने ही की, 'बहुत अच्छा
ललखते हैं आप।'
'अच्छा?' िह शरारती हो उठा, 'बिले में क्या कहना चादहए मुझ?
े '
'इतने युिा िायलॉग भी बोल लेते हैं आप?' मानसी ने खखलखखलाकर कहा, 'अच्छा ही है ,
इससे आपका आतंक कम होता है ।'
'आतंक क्यों?' िह जजज्ञासु हो उठा।
'बस, होता है ।' मानसी इतरा रही थी, 'फकतना बड़ा-सा तो प्रभामंिल है आपका। मझ
ु े तो
आपसे बात करते भी असवु िधा होने लगती है ।'
'फफर तो यह आतंक टूटना बहुत जरूरी है ।' अरविंि ने लसगरे ट सल
ु गाते हुए कहा।
'क्यों, जरूरी क्यों है ?' मानसी इठलायी।

124
'क्योंफक अपना मन तुम मुझे िे चक
ु ी हो।' अरविंि ने एक-एक शब्ि पर रुकते हुए कहा
और थोड़े अचधकार, लेफकन ज्यािा संकोच के साथ मानसी के कंधे पर अपना हाथ रख दिया।
उसकी आंखें भािक
ु हो आयी थीं और मानसी की आंखों में नाि-सी थरथराने लगी थी।
जैसे भि
ू ोल आया हो और सब कुछ अपनी जगह से इधर-उधर हो गया हो। मानसी का
रोम-रोम लसहर उठा। जैसे सड़क पर लसफष मानसी थी और अरविंि थे, नहीं, अरविंि था। बाकी
सब भि
ू ोल की भें ट चढ़ गया था। जैसे मानसी को सजृ ष्ट पैिा करनी थी अरविंि के साथ
लमलकर। उसने गहरी तड़प के साथ अरविंि की आंखों में िे खा, अपनी एडड़यों को पंजों के बल
थोड़ा ऊपर उठाया, फकसी ऐंद्रजाललक सम्मोहन की पक
ु ार की तरह अरविंि के माथे पर अपने
होंठ छुआये और 'ईडियट' कहकर िौड़ लगा गयी।
अरविंि की ितु नया में जैसे हाहाकार मच गया। अपने प्रेम का इतना तनभषय िान िे कर
मानसी ने अरविंि की पीड़ा को और गहरा कर दिया था मानो। िह एक गहरे अफसोस से तघर
गया। उसे लगा, अगर िह भी बीस-बाईस िर्ष का बेफफि और खखलंिड़ा युिक होता, तो इस
िौड़ती हुई मानसी को भागकर पकड़ लेता और उसे उसके प्रेम का प्रततिान िे िे ता। लेफकन िह
छत्तीस िर्ष का एक ऐसा आिमी है , जजसे ढे र सारे लोग संजीिा और गंभीर मानते हैं। बहुत
संभि है फक उसे जाननेिाले कई लोग उसे मानसी से बात करते और मानसी को उसका चब
ुं न
लेते हुए भी िे ख चक
ु े हों और अपने-अपने सस्मरणों में चटपटा इजाफा भी कर चक
ु े हों। नहीं,
'ईडियट' कहकर लगातार आंखों से िरू जाती मानसी का पीछा नहीं कर सकता िह।
मानसी जा चक
ु ी थी िह इसी तरह जाती थी। यह तीसरी मुलाकात थी। तीनों बार िह
अचानक आयी थी और सहसा चली गयी थी--अगली मुलाकात का कायषिम तय फकये बगैर।
चौथी बार मानसी उसके िफ्तर ही चली आयी। िह लसर झुकाये एक लेख ललख रहा था
फक कानों में एक झनझनाता और पररचचत स्िर पड़ा, 'मैं आपको आपके िफ्तर में काम करते
िे खना चाहती थी, इसललए चली आयी।'
उसने चौंककर लसर उठाया और एक पल के ललए उसकी आंखें चौंचधया गयीं। पीली साड़ी,
पीला ब्लाउज, काला पसष, गिीला विनम्र चेहरा। प्रश्नाकुल आंखें और अधखुले होंठ। मानसी उसके
िफ्तर में थी, ऐन उसके सामने। थोड़ा-सा झुककर खड़ी हुई। मानसी को िे ख सहसा उसके जेहन
में 'ईडियट' शब्ि उतर आया और उसका हाथ अनायास अपने माथे पर पहुंच गया, जहां मानसी
के होंठों का स्पशष अभी भी िहक और महक रहा था।
िह उससे बैठने को कहता या उसके इस अचानक आगमन के स्िागत में उठकर खड़ा
होता, इससे पहले ही मानसी ने पछ
ू ा, 'मैं जल हूं या रे त?'
'मतलब?' िह अचकचा गया।

125
जिाब में मानसी ने उसकी मेज पर रखे शीशे के नीचे ललखी एक कवि की पंजक्तयों पर
अपनी उं गली दटका िी, 'मझ
ु े क्षमा फकया जाये। और जल को जल तथा रे त को रे त कहने दिया
जाये।'
'निी।' िह कहना चाहता था, 'तम
ु निी हो,' लेफकन तब तक मानसी 'फफर लमलेंगे' कहकर
ऊंची एड़ी की सेंडिलों से फशष पर खट-खट करते हुए िफ्तर से बाहर तनकल चक
ु ी थी-उसे हमेशा
की तरह चफकत और व्यचथत छोड़कर।
तब मंिी हाउस की सड़क थी और िह िौड़ नहीं सका था। अब िफ्तर था और िह
मानसी को पीछे से पक
ु ार भी नहीं सकता था।
और इसीललए इस बार िह झुंझला गया। मानसी के जजस व्यिहार ने पहले पहल उसे
मुग्ध कर दिया था, उसकी चौथी बार पुनरािजृ त्त होते िे ख उसके भीतर कहीं हलकी-सी कंु ठा और
तकलीफ ने जन्म ललया। आखखर क्या जताना चाहती है मानसी? क्यों करती है िह ऐसा?
ज्यािा िक्त नहीं गुजरा। िो ही दिन बाि िह फफर िफ्तर में थी। इस बार शाम के
समय। नीली ड्रेस में आयी थी।
'मैं कल भी आयी थी।' मानसी ने आते ही कहा।
'अच्छा? फकसी ने बताया नहीं?' उसने शांत स्िर में कहा, मानो मानसी के आने पर कोई
विशेर् सुख न हुआ हो उसे।
'मैंने पूछताछ नहीं की। िे खा, आपकी मेज की िराजें बंि थीं और बैग भी नहीं है, सो चप

लौट आयी।' मानसी ने इस अंतरं गता से कहा, जैसे िह उसकी आितों, रहन-सहन और स्िभाि
से िर्ों से पररचचत हो।
'उठें गे नहीं?' उसने अचधकार-भरे स्िर में कहा। फफर उसका स्िर अनुरोध में बिल गया,
'आज मैं आपका थोड़ा-सा िक्त लेना चाहती हूं।'
'कोई विशेर् बात?' उसने शांत और संयलमत आिाज में पूछा। हालांफक मानसी का
अनुरोध सुन खश
ु ी का एक बिंिर-सा उसके भीतर उठा था और तेज-तेज मंिराने लगा था।
'मंिी हाउस?' उसने संजीिा स्िर में पूछा।
'आपकी पसंि।' मानसी ने जिाब दिया।
चौंकाने में , मानसी को, लगता है , मजा आता था। अरविंि एक सुखि आश्चयष से तघर
गया। मानसी को कैसे पता चला फक उसे 'आपकी पसंि' में बैठकर अच्छा लगता है । 'आपकी
पसंि' में बैठकर रे स्तरां में बैठे रहने की सािषजतनकता के साथ ही तनजता का सख
ु भी लमलता
था।
एक गहरी कृतज्ञता के से भाि से उसने मानसी की आंखों में िे खा, उठकर खड़ा हुआ,
िराज बंि की, बैग उठाया और मानसी के साथ िफ्तर की सीदढ़यां उतरने लगा। नीचे उतरकर
उसने स्कूटर रोका और मानसी को बैठने का तनमंत्रण दिया। मानसी की चेतना जैसे लप्ु त हो

126
चक
ु ी थी और िह अरविंि के तनिे श पर ही जी रही थी इस समय। चेतना के इस लोप ने उसके
चेहरे को प्राथषना के मासम
ू क्षणों की तरह पवित्र और तनिोर् जस्थतत में ढाल दिया था। िह चप
ु ,
स्कूटर में बैठ गयी। मानसी के बैठने के बाि िह खि
ु भी बैठ गया और बोला, 'िररयागंज।'
हिा के अनिरत झोंके से मानसी के िप
ु ट्टे का पल्ला उसके चेहरे से टकरा रहा था,
लेफकन मानसी इस तरफ से शायि एकिम बेखबर थी। उसने भी ऐसा होते रहने दिया। यह एक-
िस
ू रे को महसस
ू करने के सिाषचधक तल्लीन और तनष्ठािान क्षण थे शायि।
'आप रोज शराब क्यों पीते हैं?' सड़क की तरफ िे खती, अपने में गम
ु , मानसी ने
अचानक मंह
ु घम
ु ाकर पछ
ू ा।
यह अप्रत्यालशत था। िह इस समय मंिी हाउस की सड़क पर खड़ा था और मानसी उसके
माथे को इस तरह चम
ू रही थी, मानो तनभषय होने का िरिान िे रही हो। इसीललए मानसी के
इस सिाल को सुन िह अचानक ऐसे व्यजक्त की तरह हो आया, जो अभी-अभी, बीच नींि में ,
अपना िध होते िे ख, घबराकर जागा हो। बड़े अचरज से उसने मानसी को िे खा और गहरे िःु ख
से भरकर पूछ बैठा, 'सुनीता ने बताया?'
'नहीं, लेफकन मैं जानती हूं। परसों रात बारह बजे जब आप नशे में अपने घर के बाहर
की सीदढ़यों से फफसलकर खंभे से टकराये, मेरा मन फकया, िौड़कर आपको संभाल लूं। पर ऐसा
संभि नहीं था न।' मानसी की आंखों में हताशा उतर आयी थी।
उसका हाथ अपने माथे पर चला गया। पर, मानसी तब कहां थी? उसने सोचा और
है रानी से मानसी को िे खा।
'जब तक आप घर नहीं आ जाते, मैं अपनी खखड़की से आपको िे खा करती हूं।' मानसी ने
रहस्योद्घाटन-सा फकया।
'तुम्हारा घर कहां है ?' उसे ताज्जुब हुआ फक िह यह भी नहीं जानता फक मानसी का घर
कहां है ।
'आपके घर से तीन घर पहले। आप रोज रात मेरे कमरे की खखड़की के सामने से ही
गुजरते हैं।' मानसी ने बताया।
तीन घर पहले? उसने कुछ याि करना चाहा, लेफकन तभी मानसी बोल पड़ी, 'नीचे िाला
घर नहीं, ऊपर िाला घर। आप मुझे नहीं िे ख सकते।'
'पर मेरे लौटने तक तुम क्यों जागती रहती हो?' उसने सीधा सिाल फकया। िह अपने
प्रतत मानसी के लगाि के रे श-े रे शे को जान लेना चाहता था।
'मैं बहुत िरी हुई रहती हूं। मझ
ु े लगता है फक आपके साथ कोई 'लमसहै पतनंग' न हो जाये।
कई बार तो ऐसा हुआ फक आपके आने से पहले मझ ु े झपकी आ गयी और मैंने नींि में िे खा फक
एक रक... '

127
'सुनो मानसी!' उसने मानसी का हाथ पकड़ ललया, 'मुझे कमजोर मत करो।' मानसी की
तनष्ठा ने उसके आकांक्षी मन को कहीं बहुत भीतर जाकर छू ललया था।
'पर आप रोज क्यों पीते हैं?'
'क्योंफक सोने की जरूरत रोज पड़ती है ।' िह संक्षक्षप्त होकर िब
ु ोध हो गया। इतने नाजक

सिाल का जिाब िे ने का यह सही मौका नहीं था।
िररयागंज आ गया था। उसने स्कूटर को रुकने का संकेत दिया और मीटर िे खने लगा।
'पैसे मैं िं ग
ू ी।' मानसी पसष खोलने लगी।
'नहीं।' उसने थोड़ा जोर से कहा और स्कूटर का बबल चक
ु ा दिया। कुछ ही समय बाि िे
'आपकी पसंि' के सुखकारी माहौल में थे। 'आपकी पसंि' में कई नामों की चाय थी। मानसी ने
'हम िोनों' का आिे श दिया।
'आपकी मेज पर इब्सन की एक पंजक्त ललखी हुई है ।' मानसी ने कहा, 'सबसे शजक्तशाली
व्यजक्त िह है , जो तनतांत अकेला है । क्या यह सही है ?'
'तुम्हें क्या लगता है ?' उसने प्रततप्रश्न फकया।
'मुझे लगता है , यह गलत है । मैं तो खि
ु को बहुत कमजोर अनुभि करती हूं।' मानसी
का स्िर उखड़ा, हताश और टूटा हुआ था, 'हो सकता है , आपके संिभष में यह सही हो, फफर आप
अकेले कहां हैं?'
'मैं भी अकेला ही हूं मानसी।' अरविंि का स्िर भािुकता से भर उठा, 'और कमजोर भी
बहुत हूं।'
'क्यों होता है ऐसा?' मानसी ने पूछा, 'इतने सारे लोगों के होते हुए भी आिमी अकेला
क्यों रह जाता है ?'
'क्योंफक अकेलापन भौततक नहीं, मानलसक जस्थतत है ।' िह गंभीर हो गया, 'जब तक मन
का साझीिार न लमले, तब तक अकेलेपन से मुजक्त संभि नहीं है ।'
'तो फफर?' मानसी ने उसकी हथेललयां थाम लीं और तुरंत ही छोड़ भी िीं।
'क्या यह अपराध है ?' पछ
ू ा मानसी ने।
'अपराध?' इस बार अरविंि ने मानसी की लगभग पसीजी हथेललयों को बहुत कोमलता से
थाम ललया और उन पर अपनी हथेललयां फफराता हुआ बोला, 'अपराध लसफष अपनी इच्छा के
विरुद्ध जीना है मानसी। पर हम क्या करते हैं? घर से लेकर िफ्तर और तनजी से लेकर पररिार
के स्तर तक लगातार िह जीते हैं, जजससे बहुत भीतर तक घण
ृ ा करते हैं।' अरविंि एक ऐसी
तकलीफ के बीच खड़ा तड़क रहा था, जजसने मानसी को बहुत िरू तक व्यचथत कर दिया। उसने
चाहा फक इस तनिोर् और गररमामय बच्चे को अपने सीने में छुपा ले। अपने से बारह साल बड़ा
अरविंि अपनी टूटन में उसके सामने एक ऐसे अबोध बच्चे में बिल गया था, जजसे चारों तरफ

128
से ढे र सारी विपजत्तयों ने घेरा हुआ हो। अपना जीिन िे कर भी इस अरविंि को बचाना चाहती
थी मानसी। पर कैसे?
सहसा मानसी को झटका-सा लगा। उसकी हथेललयों पर अरविंि की पकड़ िमशः कठोर
पड़ने लगी थी। और अचधक िूबने से, बड़ी मजु श्कल से रोका मानसी ने खि
ु को। यह सािषजतनक
स्थान था और अरविंि की पहचान का कोई भी व्यजक्त यहां फकसी भी समय प्रिेश ले सकता
था। उसका क्या है ? कौन जानता है उसे? पर अरविंि ? उफ! मानसी का सीना ििष कर उठा।
फकतना मजबरू है यह शख्स! कैसे-कैसे बंधनों में जकड़ा हुआ! यश आिमी को इस किर गलु ाम
भी बनाता है , यह अनभ
ु ि मानसी को पहली बार हो रहा था। अभी तो फकतनी सच्चाइयां जाननी
हैं मानसी को, इस अपने कल्पनापुरुर् के जररये।
'आपने िायरी में क्या ललखा?' मानसी फफर एक जजज्ञासु प्रशंलसका में बिल गयी और
उसने आदहस्ता से अपनी हथेललयां छुड़ा लीं।
'उसमें ललखने के ललए तो पहला पन्ना फाड़ना पड़ेगा।'
'तो फाड़ िीजजए।' मानसी मुस्करायी।
'शब्िों को नष्ट करना इतना सरल नहीं होता मानसी!'
'चलें?' मानसी ने विर्य बिल दिया। इतनी िे र हो चक
ु ी थी फक घर में चचंता और िोध
टहलने लगते।
'चलो।' अरविंि उठ खड़ा हुआ। उसे अच्छा लगा। पहली बार मानसी चलने के ललए पूछ
रही थी। उठकर चली नहीं गयी थी।

दअ

महत्त्िाकांक्षाओं, स्िप्नों, िजु श्चंताओं, आशंकाओं, बेचन


ै ी, प्रश्नों, संिेिनाओं, चाहतों,
िस्
ु साहस और छोटे -बड़े िरों से लमलकर बना था मानसी का व्यजक्तत्ि। प्रश्न चाहे खोजी
पत्रकाररता की सीमा और संभािना से जुड़ा हो, चाहे वििाहे तर संबंधों की नैततकता और तकाजे
से, या सेक्स की पेचीिचगयों, अतनिायषता और मनोविज्ञान से, मानसी सबके बारे में सब कुछ
जानने को हरिम व्यग्र रहती थी। उससे बात करने में सुख लमलता था, लेफकन कई बातें इतना
अचधक विस्तार पा लेती थीं फक एक ऊब और उलझन-सी होने लगती थी और अरविंि का मन
बीच बहस में उचट जाता था।
एक दिक्कत और थी मानसी के साथ। इस दिक्कत का एहसास अरविंि को मानसी के
साथ अपने छह महीने के पररचय में बहुत गहराई से हो गया था। दिक्कत यह थी फक बात चाहे
फकसी भी विर्य पर चल रही हो और मानसी ने बातचीत का चाहे कोई भी लसरा थाम रखा हो,
लेफकन अंततः होता यह था फक केंद्र में मानसी आ जाती थी और विर्य उससे शरू
ु होकर उसी

129
पर शेर् होने लगता था। मललषन मुनरो उसकी वप्रय नातयका थी और इस बात से िह बहुत पीडड़त
रहती थी फक रूप, यौिन, यश और िौलत के कल्पनातीत सख ु के बीचोंबीच रहनेिाली मललषन को
नींि की गोललयां खाकर एकिम चप
ु चाप और अकेले मरना पड़ा। 'मैं होती मललषन की जगह तो,'
मानसी कहा करती थी, 'तो इतनी तनहा मौत कभी नहीं चन
ु ती और न ही अपनी साथषकता परु
ु र्
में ही ढूंढ़ने की कोलशश करती।' मललषन के बाि मानसी को लसमोन ि बि
ु ा आकवर्षत करती थी।
बि
ु ा की 'ि सेकेंि सेक्स' फकताब उसने कई बार पढ़ी थी और फकताब से उठे कई प्रश्नों को लेकर
घंटों उसका दिमाग चाटा था।
'आपकी पसंि' में छह बजे लमलने को कहा था मानसी ने और इस समय छह-तीस हो रहे
थे। अरविंि िो प्याले चाय और तीन लसगरे ट फूंक चक
ु ा था उसकी प्रतीक्षा में और झल्ला रहा था
फक आखखर ऐसा क्या है मानसी में फक उसके जैसा पररपक्ि और व्यस्त आिमी एक फकशोर
प्रेमी की-सी आतुरता में मानसी की प्रतीक्षा में गकष हो रहा है ! िह फकलस रहा था और मन-ही-
मन मानसी का विश्लेर्ण कर रहा था फक बड़ी हड़बड़ाहट के साथ प्रिेश फकया मानसी ने। छह-
चालीस हो रहे थे। ठं ि बढ़ने लगी थी।
'मैं फंस गयी थी।' मानसी ने जल्िी से कहा, रूमाल से अदृश्य पसीना पोंछा और कुसी
पर बैठ गयी।
िह चप
ु रहा और िोनों हाथों की उं गललयां आपस में फंसाकर, उन पर अपना चेहरा दटका,
मानसी को िे खने लगा।
'नाराज हैं?' मानसी ने पूछा।
'मैं तुम्हारा कौन हूं?' उसने उसी मुद्रा में कहा।
'फ्रेंि, फफलॉसफर एंि गाइि।' मानसी हं स िी।
'मेरी फीस?' िह पूिि
ष त ् संजीिा था।
'फीस?' मानसी इस बुरी तरह चौंकी, जैसे अरविंि पगला गया हो। लेफकन उसे उसी तरह
संजीिा िे ख एकाएक उसके चहे रे पर सख्ती उभर आयी। उसने एक-एक शब्ि पर ठहर-ठहरकर
पूछा, 'क्या आप सीररयस हैं?'
'हां।'
'सचमुच फीस चादहए आपको?'
'सचमुच।'
'क्या लेंगे?' मानसी की आंखों में अजीब-सी दृढ़ता उभर आयी थी।
'यह तम
ु जानो।' अरविंि उसी मद्र
ु ा में बैठा था और जैसे हिा से बातें कर रहा था।
'तो उठें ' मानसी ने जजस्म को रोमांचचत कर िे नेिाली, आिे शात्मक आिाज में कहा और
खट-खट करती रे स्तरां से बाहर तनकल गयी।

130
मानसी के इस रूप की जानकारी नहीं थी उसे। कुछ िे र िह यूं ही अिाक् बैठा रहा, फफर
पैसे चक
ु ाकर बाहर तनकल आया। बाहर मानसी एक स्कूटर रुकिाकर उसमें बैठ चक
ु ी थी और
उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे सचमच
ु लसहरन-सी होने लगी। क्या करने जा रही है मानसी?
कहां जा रही है मानसी? उसे भी साथ जाना है , या अकेली ही जायेगी मानसी? आशंकाओं से
तघरा हुआ िह स्कूटर के करीब आया।
'बैठें।' मानसी की आिाज ही नहीं, चेहरा भी तंदद्रल हो गया था, पर साथ ही उसकी
आंखों में कुछ कर गज
ु रने का अजीब-सा जजद्दी भाि भी उतर आया था।
िह चप
ु चाप फकसी नटखट, लेफकन िरे हुए बच्चे की तरह स्कूटर में आ बैठा, मानसी से
बचते हुए। उसके बैठते ही मानसी ने स्कूटरिाले से कहा, 'शांततिन।'
शांततिन! उसकी चेतना पर यह सुहानी और रोमानी जगह फकसी पत्थर-सी टकरायी।
उसने चप
ु चाप घड़ी िे खी। सात बजकर िस लमनट। इस समय तक तो शांततिन एक गहरे
सन्नाटे और पारिशी अंधेरे में िूब चक
ु ा होगा। उसके घने िक्ष
ृ ों के नीचे अंधेरा भय की तरह
उतर आया होगा। उसे सचमुच ठं ि लगने लगी।
शांततिन आ गया था। मानसी उसके समानांतर चलती रही। चप
ु , तनविषकार। इतनी सघन
और रहस्यमय चप्ु पी से लड़ने के ललए अरविंि ने लसगरे ट जला ली। जब तक लसगरे ट खत्म हुई,
िे पेड़ों के एक बड़े झुरमुट के घने और खामोश साये के नीचे अंधेरे से एकाकार हो चक
ु े थे।
तभी मानसी रुक गयी। इतने अचानक फक संभलते-संभलते भी अरविंि मानसी से टकरा
ही गया। और इससे पहले फक उसके होंठ स्िभाििश 'सॉरी' शब्ि का उच्चारण करते, उन पर
मानसी के उत्तप्त, अछूते और जिान होंठ आकर चचपक गये।
'लो, और लो।' मानसी बड़बड़ायी और उसके होंठों, माथे, गरिन और गालों पर फकसी
दहस्टीररया के रोगी की तरह टूट पड़ी।
मानसी के इस अप्रत्यालशत ज्िार को उसका जस्थर, अप्रस्तुत और प्रेम का शालीनता से
लेन-िे न करनेिाला तन-मन झेल नहीं पाया।
'मानसी!' उसने सख्त लेफकन फुसफुसाहट सरीखी आिाज में मानसी को अपने से अलगाने
की कोलशश करते हुए कहा। उसे ध्यान आ गया फक इस हालत में अगर कोई उसे िे ख ले, तो
िह अखबारों का विर्य तो बन ही जायेगा, उसका अपना घर कंु भीपाक नरक में तब्िील हो
जायेगा। घर, िफ्तर, कॉलोनी, िोस्त, प्रततद्िंद्िी पत्रकार - फकस-फकसको जिाब िे ता फफरे गा और
फकस-फकससे टकरायेगा उसका अंतमख
ुष ी, संकोची और भीरू व्यजक्तत्ि?
मानसी अलग नहीं हटी थी, बजल्क और भी कसकर उससे चचपट गयी थी।
'मानसी, हटो!' अचानक उसने मानसी को कसकर धक्का िे दिया।
उसके धक्के से मानसी लड़खड़ा गयी और पेड़ से टकरा गयी। उसका शॉल नीचे चगर
पड़ा। एक पल के ललए उसकी आहत आंखें अरविंि के चेहरे से टकरायीं और िस
ू रे ही पल िह

131
फफर हांफती हुई-सी अरविंि के जजस्म से आ लगी और लड़खड़ायी आिाज में बोली, 'छह महीने!
छह महीने से अभाि के नरक में जल रही हूं मैं, और नहीं।'
'लेफकन उसका यह तरीका नहीं है ।' अरविंि ने उसे फफर छुड़ाने की कोलशश की।
'मैं फकसी तरीके को नहीं मानती। अरविंि जी के प्रभामंिल से लड़ते-लड़ते टूट गयी हूं मैं।
मझ
ु े अरविंि जी नहीं, अरविंि चादहए, लसफष अरविंि और िह भी तत्काल।' मानसी ने टूटे , थके
और समवपषत शब्िों में कहा और उसके गले से लगकर रोने लगी।
अरविंि का मन भर आया। मानसी के जजस्म का उद्दाम आिेग एक लशचथल और कातर
उपजस्थतत में ढल रहा था। उसे लगा फक सारी िजषनाओं और आशंकाओं के पार जाकर िह इसी
पल मानसी को अपना ले-संपूणष और सिाांग। आखखर यही तो चाहता रहा है िह खि
ु भी। तो
फफर इतना संकोच क्यों? प्रेम का इतना खल
ु ा, सािषजतनक और िेगिान तनमंत्रण भी उसकी
लशराओं के रक्त को गरमा क्यों नहीं पा रहा है ? इस सिष रात में एक युिा, सुंिर और िहकता
हुआ स्त्री-शरीर उसे ऊष्मा िे ने के बजाय बफाषनी एहसास के आगोश में क्यों धकेल रहा है ?
शायि प्रेम का इतना िबंग, आिामक और आकजस्मक समपषण उसके संस्कार और व्यिहार की
ितु नया में एकिम अनजाना और अपररचचत रहा है , इसीललए आज िह उस मोरचे पर बबना लड़े
पराजजत हो रहा है, जजसे फतह करने की कामना में ही जी रहा था िह, वपछले छह महीने से।
उसने पुनः एक लसगरे ट सुलगा ली। जमीन से मानसी का शॉल उठाकर उसे ओढ़ाया और बोला,
'चलो।'
मानसी ने लसर झुका ललया और अंधेरे को चीरकर आगे बढ़ते अरविंि का पीछा करने
लगी। तनःशब्ि। उसके आगे, सब कुछ पाकर, िीतरागी हो उठे आिमी की तरह चल रहा था
अरविंि-लगातार यह सोचते हुए फक मानसी के तनमंत्रण को ठुकराकर शायि उसने अच्छा नहीं
फकया। पर अब क्या हो सकता था, लसिा एक गहरे पश्चाताप में िूबने-उतराने के।
मानसी को नींि नहीं आती। तीन महीने से उसकी आंखें अनिरत जल रही हैं। जब भी
आंख बंि करती है , शांततिन िाला दृश्य उसकी चेतना में हा-हा, हू-हू करने लगता है । फकतनी ही
रातें िह चौंककर उठ बैठी है । और फकतनी ही रातें पूरी-पूरी रात जागी रह गयी है । घर में ,
कॉलेज में , फकताबों में , नींि में हर कहीं बस एक ही दृश्य। इस दृश्य से टकराते-टकराते उसका
मजस्तष्क जगह-जगह से िरक गया है मानो। अगर तीन महीने पहले शांततिन की उस स्तब्ध
रात में उसके उन्मािी समपषण को अपना ललया होता अरविंि ने, तो शायि उसकी आत्मा में
मनहूलसयत की तरह गंजू ता यह विलाप उसे इस तरह न सताता। उसे खि ु पता नहीं, कैसे क्या
हुआ। उसने तो हमेशा अरविंि के सम्मान, प्रभामंिल, लोकवप्रयता और प्रततभा से ही प्रेम फकया।
िह हमेशा यही चाहती रही फक उसके जीिन में अरविंि एक िक्ष
ृ की तरह उपजस्थत रहें और िह
उनकी घनी और सरपरस्त छांि में रहते रहकर ही इस प्रततकूल ितु नया में अपने स्ितंत्र
अजस्तत्ि को आकार िे । अरविंि को एक परु
ु र् की तरह न उसने चाहा था, न ही अरविंि के

132
पुरुर् में अपने अजस्तत्ि की साथषकता पाने की उसने इच्छा की थी। तो फफर क्यों हुआ ऐसा फक
अरविंि उसके स्िप्नों में , उसकी कामनाओं में एक परु
ु र् की तरह आकार लेते रहे ? अरविंि की
आितों, अरविंि के स्िभाि, अरविंि की चाहतों, अरविंि के शब्िों, अरविंि के अकेलेपन और
अपने प्रतत अरविंि के झक
ु ाि को जानने-समझने और गहराई से महसस
ू करने की तीव्रता ने ही
क्या उसे इस पररणतत तक पहुंचाया फक छत्तीस िर्ष के शािीशि ु ा और समाज के प्रततजष्ठत,
लगभग प्रौढ़ अरविंि उसकी ितु नया में जजस्मानी और रूहानी स्तर पर एक कल्पना-परुु र् के रूप
में मत
ू ष हो उठे ? लेफकन इसका क्या करे िह फक उसकी जैसी लड़की का कल्पना-परु
ु र् अरविंि
जैसा व्यजक्त ही हो सकता है ? कॉलोनी में उसकी स्ितंत्रता को चाहे जजतने भी तछछले और
अश्लील स्तर पर ललया जाता हो, उसके खयालों और आचरण से खफा होकर वपता भले ही एक
अजनबी में बिल गये हों, लेफकन उसका अंतमषन जानता है फक िह फकतना तनष्पाप और बेिाग
जीिन बबताती आयी है ।
अरविंि से पहले फकसी को भी अपना मन नहीं दिया मानसी ने। उसे लगा ही नहीं फक
उसकी जैसी स्िप्निशी और महत्त्िाकांक्षी लड़की को पत्नी के रूप में कोई पारं पररक पुरुर् झेल
सकता है । या खि
ु िही फकसी ऐसे पुरुर् को पतत स्िीकार कर सकती है , जो जमाने-भर की
मूखत
ष ाओं, अंधविश्िासों और कंु ठाओं से भरा हुआ हो। सुखों-िख ु ों, स्िप्नों-यातनाओं को बबना कंु ठा
और पूिाषग्रहों के शेयर कर सकनेिाले पुरुर् की प्रतीक्षा में उसने अपने जीिन के चौबीसिें िर्ष को
भी सूना, अधरू ा और ररक्त रहने दिया। उसकी फकतनी ही हमउम्र सहे ललयां इस बीच घर बसाकर
यहां-िहां चल िीं। फकतनी ही सहे ललयों के घर-आंगन में बच्चे ठुनकने लगे और फकतनी ही
सहे ललयां घर बसाने के बाि घर तोड़कर अिालतों में तारीखें भुगत रही हैं। िह भी चाहती, तो
ऐसा ही कुछ कर लेती अब तक। पर उसने ऐसा नहीं फकया, क्योंफक अपनी ही शतों पर जीिन
को आकार िे ना चाहती थी िह। उसे भरोसा था फक िे र-सबेर िह एक ऐसे जीिनसाथी को खोज
ही लेगी, जो उसे भी स्िाधीन रखे और खि
ु भी स्िाधीन रहे ।
और ऐसे आिमी का अजस्तत्ि उसे अरविंि में दिखा, इसका क्या करे िह?
अपने कल्पना-पुरुर् की प्रतीक्षा में , अरविंि के बाहर ही खड़ी रहती िह, लेफकन खि

अरविंि जजस तरह अपने प्रभामंिल से बाहर तनकल कर उससे लमले-घुले और खल
ु े, उससे
लक्ष्मणरे खा के भीतर पहुंच गयी िह। यह सही है फक उनके जम्नदििस पर िायरी में अपना मन
पहले उसी ने दिया, लेफकन अरविंि उस मन को अस्िीकृत भी तो कर सकते थे। उन्होंने अपना
क्यों ललया उसका मन? और जब अपनाया था, तो शांततिन में उसका इतना तनमषम मिष न क्यों
कर दिया? क्यों इतनी संजीिगी से मांगी थी उन्होंने फीस? क्यों पछ
ू ा था फक िह मेरे कौन हैं?
और जब स्त्री होने के बािजि
ू उसने खि
ु ही उनके और अपने ररश्ते को आकार िे ना चाहा, तो
उन्होंने धक्का िे दिया।

133
उफ! मानसी की कनपटी फफर तड़-तड़ करने लगी। अरविंि द्िारा धक्का दिये जाने का
दृश्य फफर से कद्दािर होने लगा। बस, इसी दृश्य को नहीं झेल सकती मानसी। काश, यही एक
दृश्य कोई उसकी स्मतृ त से लमटा िे ! यह दृश्य उसके स्नेदहल और रागात्मक संसार को दहंसक
और बबषर रणस्थली में बिल िे ता है । अरविंि द्िारा अपमातनत कर दिये जाने पर भी उनके
विरुद्ध नहीं जा सकती मानसी।
पर उसे ठुकराकर खि
ु भी तो एक रौरि नरक में जल रहे हैं अरविंि। शांततिन िाली
घटना के बाि िह अरविंि से एक बार भी नहीं लमली, लेफकन रोज रात बारह और एक बजे नशे
से आिांत अपने आत्मघाती व्यजक्तत्ि को थरथराते किमों से अपने घर तक पहुंचाते, उसी की
खखड़की के नीचे से ही तो गुजरते हैं िह। आंटी बता रही थीं फक पहले से ज्यािा पीने लगे हैं
अरविंि।
अरविंि जल रहे हैं, अरविंि नष्ट हो रहे हैं, अरविंि मर रहे हैं। उसके समपषण को
अस्िीकार करके अरविंि भी सुखी नहीं हैं-एक अजीब-सा सुख लमला मानसी को।
लेफकन यह सुख भी मानसी के ललए अतनद्रा ही लाता है । कैसे सोये मानसी? मानसी
जानती है फक खि
ु को नष्ट कर िें गे अरविंि, लेफकन उससे एक शब्ि नहीं कहें गे। अपने बड़प्पन
के िायरे से तनकलकर लमत्रता की पुरस्थाषपना िह खि
ु कभी नहीं करें गे। आंटी लसफष कहती हैं,
लेफकन अरविंि की नस-नस को जानती है मानसी। यह जानना ही उसके और अरविंि के संताप
का स्रोत है , यह भी जानती है मानसी। इस स्रोत को ही नष्ट करना होगा, िरना मुजक्त संभि ही
नहीं।
खखड़की से लसर दटकाये, अरविंि के इंतजार में जागती सोच रही है मानसी फक खि
ु को
अरविंि से और खि
ु से अरविंि को कैसे मुक्त करे िह!
तभी सड़क पर शोर-सा हुआ। अंधेरे में आंखें फाड़कर िे खा मानसी ने-खिु को संभाल न
पाने के कारण नशे में धुत्त अरविंि ररक्शे से लुढ़ककर सड़क पर चगर पड़े हैं। मानसी के कंठ से
िबी-िबी चीख तनकल पड़ी। ररक्शेिाला अरविंि की घड़ी खोल रहा था। शोर मचाने से अरविंि की
प्रततष्ठा जा सकती थी, इसललए आंखों में आंसू ललये लसफष िे खती रही मानसी फक अरविंि के
लसर पर लात मारकर भाग गया ररक्शेिाला।
हे भगिान! मानसी को लगा फक पथ्
ृ िी को फट जाना चादहए। इस आिमी के ललखे एक-
एक शब्ि को फकतने गौर से पढ़ते हैं लोग! 'हे ईश्िर!' मानसी ने प्राथषना की, 'इस ररक्शेिाले को
क्षमा करना, यह नहीं जानता फक इसने क्या फकया।'
अरविंि उठ रहे थे, लड़खड़ाते हुए िह उसकी खखड़की के ऐन नीचे आये। लसर उठाकर
उन्होंने एक पल के ललए ऊपर ताका और आगे बढ़ गये-अपने घर की तरफ।
अब घंटी बजायी होगी उन्होंने। मानसी ने सोचा। कुछ ही िे र बाि िरिाजा खल
ु ने और
बंि होने की आिाज सन
ु ी मानसी ने और अपना लसर खखड़की की चौखट पर िे मारा।

134
मानसी को पता चला-अरविंि जा रहे हैं। उनका अखबार उन्हें बंबई भेज रहा है । फफलहाल
अकेले जा रहे हैं, बाि में आंटी को भी आकर ले जायेंगे। खि
ु को रोक नहीं पायी मानसी।
अरविंि के िफ्तर पहुंच गयी। िह उठने की तैयारी कर रहे थे। उसे िे खा और चेहरे पर बबना
कोई भाि लाये धीमे से बोले, 'मैं जानता था, तम
ु आओगी। 'हम िोनों' पीने 'आपकी पसंि'
चलोगी?'
मानसी चप
ु रही। परू े छह महीने बाि इतने करीब से िे ख रही थी िह अरविंि को। जरा
भी नहीं बिले। लसफष चश्मा नया है और आंखों के नीचे की सज
ू न थोड़ा और बढ़ गयी है ।
'घड़ी कहां गयी?' मानसी ने पछ
ू ा।
'शांततिन िाली घटना के बाि से मेरा इंतजार करना भी बंि कर दिया था क्या?' शांतत
से पूछा अरविंि ने।
उफ! भीतर तक लसहर गयी मानसी। इसीललए तो चादहए था यह शख्स मुझ।े उसने
सोचा। इसीललए तो दिया था इस आिमी को अपना मन, क्योंफक यह मन की कद्र करना जानता
है ।
'बंबई कब जा रहे हैं?'
'िो रोज बाि।'
'क्यों?'
'क्योंफक मन में बैठी हुई मानसी से लसफष समुद्र ही मुक्त कर सकता है ।'
पहली बार चक ू हुई मानसी से। िह समझ नहीं पायी फक अरविंि क्या कहना चाहते हैं,
समुद्र को बीच में लाकर। आहत होकर बोली, 'आप तो मुक्त हो जायेंगे। मुझे कौन मुक्त
करे गा?'
'मानसी का मन।' कहा अरविंि ने।
'पर िह तो आपके पास है ।'
'इसीललए मैंने आज तक उस पर कुछ नहीं ललखा।' अरविंि ने अपनी मेज की िराज
खोलते हुए कहा, 'मुझे मालूम था फक एक रोज तम्ु हारा मन तुम्हें लौटाना होगा।' अरविंि ने
मानसी द्िारा िी हुई िायरी तनकाली और कहा, 'इसे रख लो। घर से उठाकर यहां ले आया था
फक आओगी, तो लौटा िं ग ू ा। िे खो, यह एकिम कोरी है ।'
'फकतना तनलषज्ज झूठ बोलते हैं आप!' मानसी का स्िर एक साथ उद्धत और आहत हो
गया, 'इसके पन्ने-पन्ने पर मानसी का मलसषया ललखने के बािजि
ू कहते हैं फक यह कोरी है !'
'मानसी!' अरविंि का स्िर िूब गया।
'हम िोनों।' मानसी ने धीरे से कहा और रूमाल से अपनी आंखें पोंछ लीं।
अरविंि ने अपना बैग उठा ललया। मानसी भी उठ खड़ी हुई।

135
'आपकी पसंि' में 'हम िोनों' पीने तक कोई कुछ नहीं बोला। चाय खत्म करके मानसी ने
ही कहा, 'फकतने दिन गज
ु र गये यहां की चाय वपये।'
'लसफष तम्
ु हें ।' अरविंि ने जिाब दिया, 'मैं छह महीने से यहां रोज आ रहा हूं। एक चाय
अपने दहस्से की पीता हूं, एक तम् ु हारे दहस्से की।'
'क्यों?' मानसी के भीतर एक स्त्री रोने लगी, 'क्यों करते रहे अरविंि ऐसा?' उसने सोचा,
'छत्तीस बरस का यह संगदिल-सा दिखने िाला परु
ु र् इतना भािक
ु क्यों है ?'
'मानसी!' अरविंि ने लसगरे ट जलाते हुए कहा, 'वपछले छह महीने में मैंने बार-बार सोचा है
और हर बार पाया है फक मैं तम ु से प्यार करता हूं। ऐसा प्यार, जो मन और तन िोनों पर
अचधकार चाहता है । मैं चाहता, तो छह महीने पहले तुम्हें ले सकता था, पर मैंने खि
ु को रोक
दिया। जानती हो, क्यों? क्योंफक मैं नहीं चाहता था फक मानसी जैसी लड़की समाज में िस
ू री
औरत या रखैल कहलाये। यह सच है मानसी!' अरविंि ने लसगरे ट का लंबा कश ललया, 'फक मैं
तुम्हें अपनी बीिी नहीं बना सकता। सुनीता जैसी सहनशील और मेरे भीतर के नरक को
तनविषरोध स्िीकार कर लेनेिाली औरत तुम शायि कभी नहीं बन पातीं।'
'चलें!' मानसी बीच में ही पूछ बैठी।
'नहीं, मुझे पूरा सुने बगैर नहीं जा सकतीं तुम।' अरविंि ने आिे श-सा दिया, 'तुमने लसफष
मेरा उजास िे खा है । मेरे भीतर के अंधकार और िग
ु ध
ां से पररचय नहीं है तम्
ु हारा। मेरे भीतर की
अंधेरी, घखृ णत और असहनीय ितु नया में लसफष सुनीता ही रह सकती है मानसी! तुम्हारा तो िम
घुट जायेगा िहां। मेरे अशक्त और खोखले हो चक
ु े तन को प्रेलमका की नहीं, पररचाररका की
जरूरत है मानसी और पररचाररका मानलसयां नहीं, सुनीताएं ही हो सकती हैं।'
'और कुछ?' कातर हो उठी थी मानसी। अरविंि सच कह रहे थे। अरविंि के भीतर बसे
सामंत को उसके भीतर बैठी स्िाधीन स्त्री शायि स्िीकार नहीं कर पाती। जब जस्थततयां इतनी
साफ हैं, तो मन जुड़ता क्यों है अरविंि से?
'अपनी इच्छा से जा रहा हूं मैं।' अरविंि ने कहा, 'यहां रहूंगा, तो तुमसे िरू रह नहीं
पाऊंगा।'
'लसफष एक इच्छा पूरी करें गे मेरी?' मानसी ने पूछा।
'नहीं कर पाऊंगा, मानसी।' अरविंि ने हताशा-भरे स्िर में कहा, 'बबना शराब वपये मैं
सचमुच नहीं सो पाता। तुम होतीं जीिन में , तो शायि कोलशश भी करता।'
मानसी का मन हुआ फक लपककर रोक ले अरविंि को और कह िे फक उसे िस ू री औरत
बनना मंजरू है । अपने सारे स्िप्नों और स्िाधीनता की ततलांजलल िे सकती है मानसी, अगर
अरविंि आधा ही उसका हो जाये।
पर ऐसा कह नहीं सकी मानसी। न उस रोज, न उसके अगले रोज और न ही उस िक्त,
जब आंटी के साथ स्टे शन चली आयी थी िह - अरविंि को वििा करने। गाड़ी चली गयी और

136
अरविंि का दहलता हुआ हाथ दिखना बंि हो गया, तो आंटी की गोि में लसर छुपाकर फकसी
छोटी-सी बच्ची की तरह फूट-फूटकर रो पड़ी मानसी।

रिन क ि : 1988

मेरीरफ़न ाडीज़रक्य रिम


ु रिकरमेरीरआव ज़रपहुुँििीरहै र

बोरीिली... कांदििली...मालाि...गोरे गाँि... मेरी फनाांडिस।

मेरी फनाांडिस? हड़बड़ा कर मेरी आँख खल


ु गई। गाड़ी जोगेश्िरी पर रुकी थी। गोरे गाँि से
अगला स्टे शन जोगेश्िरी ही होता है और गाड़ी जोगेश्िरी पर ही रुकी भी थी।

तो फफर? गोरे गाँि के बाि मेरी उनींिी स्मतृ त में जोगेश्िरी के बजाय मेरी फनाांडिस क्यों
उतर आई? गाड़ी फफर चल पड़ी थी... मैं लसर झटक कर फफर नींि में था। स्मतृ त मेरी नींि में
नींि के बाहर खड़ी होकर सफिय थी।

मेरी फनाांडिस? मैं भी छलांग लगाकर अपनी नींि से बाहर आ गया। गाड़ी खार पर रुकी
थी। कहाँ है मेरी फनाांडिस? मैं खखड़की के बाहर िे ख रहा था, जहां लोगों का हुजूम मानिश्रख ृ ल
ं ा
की मुद्रा में चथर था। चथर लेफकन व्यग्र। क्या इनकी व्यग्रता में भी कोई मेरी फनाांडिस टहल रही
होगी? गाड़ी आगे बढ़ रही थी। मैं फफर नींि में सरक ललया था।

खट खट खटाक। खट, खट खटाक। बगल से विरार फास्ट गज


ु र गई। मेरी आंख खल
ु ी।
गाड़ी बांद्रा से आगे जा रही थी। कौन-सा स्टे शन आने िाला है ? फकसी ने मेरी कोहनी थपथपा
कर पूछा।

मेरी फनाांडिस। मेरे होठ बि


ु बि
ु ाए। गाड़ी मादहम पर खड़ी थी और स्टे शन पर ऐसी कोई
लड़की मौजि
ू नहीं थी जो मेरी फनाांडिस से रत्ती भर भी मेल खाती हो।

तुम से कौन मेल खा सकता है मेरी फनाांडिस? तुम तो...तुम तो...

मेरी पलकें मुंिने लगी थीं।

137
िह पालघर की शाम थी। मेरे स्िस्थ-प्रसन्न जीिन में िभु ाषग्य की तरह उतरी हुई शाम।
लेफकन उस शाम, जब िह घट रही थी, चारों तरफ सख ु ही सख ु पसरा हुआ था। हल्की-हल्की
ठं ि के साथ सड़कों पर उतरता सांिला सा कस्बाई अंधेरा मझ
ु े भा रहा था। िहां मेरे अपने
महानगर का सघन और शाश्ित शोर नहीं था। कोई फकसी के कंधे नहीं छील रहा था। फकसी को
कहीं जाने की जल्िी नहीं थी। फकतने दिन, नहीं फकतने बरस बाि मैं सक
ु ू न में था। मैं सड़क पर
खड़ा, सड़क फकनारे मछली बेचती कोली बाइयों को िे ख रहा था और उनके कायष व्यापार पर
मग्ु ध था फक तभी फकसी सनकी जजि की तरह इस इच्छा ने लसर उठाया फक आज रात तो यहीं
ठहरना है । रुकने का पैसा िफ्तर िे ही िे गा। िफ्तर िालों को क्या मालम
ू फक मेरा काम आज
शाम ही तनपट गया है । उसे कल तक आराम से खींचा जा सकता है । और बस, मैं पालघर की
शांत सड़कों का आिारा बन गया।

'ऐई, लफड़ा नईं करने का। िं ग


ू ा एक लाफा तो सारी आिारगी उतर जाएगी।' डिब्बे में
शोर मच गया। िो लोग लड़ पड़े थे। िख
ु , गमी, पराजय, मेहनत और थकान के बीच खड़े इस
शहर के लोगों को गस्
ु सा जल्िी-जल्िी आता है । लेफकन उतनी ही जल्िी िह उतर भी जाता है ।
फकसी के पास शाश्ित संघर्ष के ललए फालतू िक्त नहीं है ।

लेफकन उस गहराती हुई पालघर की शाम में मेरे पास ढे र सारा फालतू िक्त था जजसमें
से काफी सारा मैंने खचष कर दिया था। और फफर मैं गहरी थकान से भर उठा। आंखों के सामने,
उस कस्बे के ललहाज से, एक बेहतरीन बबजल्िंग थी, जजसके अहाते में फव्िारों िाला बगीचा था।
िरिाजे पर िरबान तैनात था। िह िहां का मशहूर होटल 'लसमलसम' था।

बाम्बे सेंरल उतरने का है । कोई जोर से चीखा और मेरी पलकें खल


ु गईं। काफी बड़ी भीड़
उतर रही थी। गाड़ी के चलते ही मैं फफर स्मतृ त लोक में था।

ग्रांट रोि...चनी रोि... मरीन लाइंस...मेरी फनाांडिस! उठो। चचषगेट आ गया। फकसी ने मुझे
जगा दिया। मैं उठा। अंगड़ाई ली और गाड़ी से उतर गया। अब मुझे टै क्सी लेकर नरीमन पाइंट
जाना था।

तुमने तो मेरे जीिन में उस रात एक मौललक अचरज और अविश्िसनीय सुख की तरह
प्रिेश ललया था मेरी फनाांडिस। तो फफर तुम मेरे जीिन का सबसे विराट िख
ु कैसे बन गईं?
टै क्सी लसिन्हम कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। सड़क पर, कारों के बोनट पर लसिन्हम की
सुंिररयां िक्ष और जांघें उघाड़े बेशमों की तरह उपजस्थत थीं। शहर के बबंिास जीिन और फफल्मों
की उिार नग्नता ने उन्हें बितमीज तरीके से लापरिाह और बोल्ि बना दिया था। लड़फकयों िाली
यह गली शहर के स्त्री सौंियष का कामांध आईना थी। इस गली में फकसी समय गले में

138
ईसामसीह का लॉकेट लटकाए मेरी फनाांडिस भी बसा करती थी। आह! ििष मेरी रगों में तेजाब
की तरह उतर रहा था। लसफष छह घंटे, हां लसफष छह घंटे तम्
ु हारे साथ बबताने के बाि जजतनी बार
मैं तम्
ु हारा नाम ले चक
ु ा हूं मेरी फनाांडिस, उतनी बार तो तम्
ु हारी मां ने तम्
ु हें नौ महीने अपनी
कोख और सोलह बरस अपने घर-आंगन में पालने के बािजि ू नहीं ललया होगा।

टै क्सी रुक गई। मैं बाहर तनकला। सामने विशाल समुद्र था, शहर का गौरि और सुख।
ओबेराय होटल था, एक्सप्रेस टॉिसष था, एयर इंडिया की बबजल्िंग थी।

ऐ चौबीस और अिाइस मालों िाले विशाल भिनों, तुम गिाह रहना फक अभी चंि रोज
पहले सफल और सुखी जीिन बबताने िाले एक तनरपराध शख्स का संसार अकारण ही नष्ट हो
गया है । मुझे मालूम है मेरी फनाांडिस, तुम मुझसे पहले इस संसार से वििा लोगी लेफकन यह
याि रखना फक अंत समय में भी प्रभु यीशू तुम पर अपनी करुणा की िर्ाष नहीं करें गे।

िस लमनट तक ललफ्ट नहीं आई तो मैं सीदढ़यां चढ़ने लगा। िस


ू रे माले तक पहुंचते-
पहुंचते सांस उखड़ गई। कुछ समय, शायि िो साल या तीन साल या चार साल बाि मैं इन
सीदढ़यों पर नहीं चढ़ा करूंगा।

अपने केबबन में घुसकर मैंने अपनी कुसी, अपनी मेज और अपने फोन को एक गुमशुिा
हसरत की तरह स्पशष फकया। सब कुछ िैसा ही था-कल की तरह, परसों की तरह, वपछले हफ्ते
की तरह-और उससे भी पहले िाले उस हफ्ते की तरह जजसकी एक शाम मैं पालघर के
'लसमलसम' में 'कैरे िान' बार की एक मेज पर था, िो पैग पी लेने के बाि उल्ललसत उत्तोजना में ।
तभी फोन की घंटी बजी। उस तरफ कोई मदहला स्िर था। मेरी फनाांडिस! मेरी चेतना में कोई
िीप जला और बुझ गया। मुझे नहीं बात करनी फकसी भी औरत से-मैंने कहा और फोन काट
दिया। बिन में कंपकंपी सी होने लगी थी। मेज पर रखा पानी का चगलास उठाकर मैंने थोड़ा-सा
पानी वपया और कुसी पर बैठ कर तौललए से चेहरा साफ करने लगा।

घंटी फफर बजी। मैंने फोन उठाया।

'फोन मत काटना। मैं जस्मता हूं।' उधर से आिाज आई।

'हां, बोलो।' मैंने कहा। िह मेरी छोटी साली थी।

'िीिी बता रही थी फक जब से आप पालघर से लौटे हैं, बेहि गुमसुम रहने लगे हैं। क्या
हुआ?' जस्मता की आिाज भी िैसी ही थी, उतनी ही खनक भरी जजतनी पहले हुआ करती थी-
मेरी फनाांडिस से पहले िाले दिनों में ।

139
'कुछ नहीं!' मैंने कहा, 'लसफष थकान है और थोड़ा-सा िफ्तर का टें शन। िो-चार रोज में
ठीक हो जाएगा।'

'िो-चार रोज में ?'

'हां िो-चार रोज में , सच्ची। कविता से बात हो तो उसे बोल िे ना फक चचंता न करे ।' मैंने
कहा और फोन रख दिया। कविता मेरी पत्नी थी और पहले मैं जस्मता से लंबी-लंबी बातें फकया
करता था।

िो-चार रोज में ? मैंने िोहराया और लसहर गया। इस बार इंटरकॉम की घंटी बजी। डिप्टी
जीएम थे।

'कुछ दिनों से तम्


ु हारे काम में सस्
ु ती आ गई है ?' िह पछ
ू रहे थे। िांटकर नहीं, प्यार से,
'फकतनी सारी जरूरी फाइलें तम्
ु हारे पास अटकी हुई हैं।'

'सॉरी सर।' मैंने अिब से कहा, 'तबीयत थोड़ी ढीली रही इस बीच। शायि मौसम की
िजह से।'

'मौसम? मौसम को क्या हुआ? िह तो बहुत शानिार है ।' उन्होंने याि दिलाया फक मैं
जून-जुलाई में नहीं दिसंबर के शहर में हूं।

'जी।' मैंने कहा, 'तीन दिन में सारी फाइलें तनपटाता हूं।'

'कोई समस्या हो तो बोलो।' उनके भीतर का बड़ा भाई जाग गया था।

'नहीं सर। थैंक्यू। थैंक्यू िेरी मच।'

'ओके। गो अहे ि।' उन्होंने फोन रख दिया।

गो अहे ि! मैंने िोहराया, लेफकन कहां? मैंने सोचा और सारी संभािनाओं पर राख झरने
लगी। सिी के सबसे िारुण िख
ु से मेरी आत्मा गले लमल रही थी।

००

कैरे िान' में इक्का-िक्


ु का लोग ही थे। इस छोटे कस्बे में इतनी मंहगी विलालसता कौन
भोग सकता होगा। मुझे अच्छा लग रहा था। ररमखझम करते नीले अंधेरे के बीच तीसरे पैग का
सुरूर शांत उत्तोजना में जीिंत अंगड़ाइयां ले रहा था। मेरे सामने मेरा अकेलापन बैठा था। पैग
खत्म करके सड़कों पर भटकने का तनणषय मैं ले चक
ु ा था फक तभी मेरे िाएं कान की तरफ

140
संगीत सा बजा-'मैं आपके साथ बैठूं?' धीमे-धीमे थरथराते अपने चेहरे को मैंने िाईं ओर घुमाया
और विजस्मत रह गया। सामने खड़ी िे ह से जो आलोक झर रहा था उसका सामना कर मेरा
शहर शमषसार हो सकता था। मेरी एल्कोहललक उत्तोजना कौतक
ु में ढल रही थी।

िोनों हाथ मेज पर दटका कर िह थोड़ा झुकी। उसके गले में लटका ईसामसीह का लॉकेट
बाहर की तरफ झूल आया। िह मैक्सी के स्टाइल िाली कोई भव्य पोशाक पहने हुए थी।
'मेरा नाम मेरी है , मेरी फनाांडिस।' िह बुिबुिाई, 'मैं आपके साथ बैठूं?'

मैं उस समय चफकत हो कर उसके िचू धया उजास को तक रहा था। उसने फफर अपना
नाम बताया और बैठने के ललए पूछा। मैं झेंप गया और जल्िी से बोला, 'हां, हां, बैदठए न।'
'िन लमनट।' िह मुस्कराई और घूम गई। ऊंची एड़ी की सेंडिल पहने िह खट-खट करती काउं टर
की तरफ जा रही थी।

हे भगिान! मेरी आंखों में फकतने सारे अनार एक साथ फूटने लगे थे। उसके कटाििार
तनतंबों को छूने के ललए छोटे शहरों में िं गा हो सकता था। और उस पर उसकी चोटी। अपने अब
तक के कुल जीिन में मैंने इतनी लंबी और ऐश्ियषशाली चोटी कहीं नहीं िे खी थी। िह घुटनों के
जोड़ से भी नीचे चली गई थी। थोड़ी और बड़ी होती तो एडड़यां ही छू लेती।

जब तक िह काउं टर पर कुछ बततया कर लौटी, मैं मारा जा चक


ु ा था।

'यह असली है ?' मैं अभी तक हतप्रभ था, 'इसे छू कर िे ख?


ंू '

प्रत्युत्तर में िह मुस्कराई और उसने चोटी को मेज पर बबछा दिया फफर हाथ में चगलास
उठाकर बोली-'चचयसष। तुम्हारी लंबी, सुखी जजंिगी के नाम।'

'चचयसष।' मैं स्िप्न में चल रहा था। उसी िशा में बुिबुिाया -'तुम्हारे अप्रततम सौंियष के
नाम।' और अपने बाएं हाथ से उसकी चोटी को सहलाने लगा।

उसका िस
ू रा और मेरा चौथा समाप्त होने तक उसके यहां होने का रहस्य मैं जान चक
ु ा
था। कभी िह भी लसिन्हम में पढ़ती थी। िही आम कहानी, जो ऐसे जीिन के इिष -चगिष
अतनिायषत: रहती है । अभी लसफष सत्रह की है और एक बरस पहले ही यहां आई है । मां बंबई में
है । छह दिन यहां रह कर सातिें दिन मां के पास जाती है । बंबई में यह काम करने का नैततक
साहस नहीं हुआ। उसकी एक िोस्त, जो अपना महं गा जेब खचष अजजषत करने कभी-कभी यहां
आती थी, ने उसे 'लसमलसम' का द्िार दिखाया।

मैं उसे लेकर करुणा लमचश्रत प्रेम से भर उठा था।

141
'क्या तुम्हें पाया जा सकता है ?' मैंने सीधे उसे अपनी इच्छा से अिगत करा दिया। नहीं
जानता फक ऐसा फकस सम्मोहन के तहत हुआ। जबफक इन मामलों में मैं खासा संकोची
सिगह
ृ स्थ रहा हूं। लेफकन कुछ था उसके व्यजक्तत्ि में फक मैं फफसल ही तो पड़ा।

'रात भर के बारह सौ रुपये काउं टर पर जमा करा िीजजए।' िह अपने लॉकेट से खेलने
लगी।

मैंने तत्काल बारह सौ रुपये उसे थमा दिए। िह उठकर काउं टर पर चली गई। मैं उसकी
प्रतीक्षा में कांपने लगा। कैसा होगा इसका बिन? एक उत्तेजजत चाकू मेरी नसों को चीर रहा था।

िह आई और मेरा हाथ थाम कर फस्टष फ्लोर िाले मेरे कमरे की तरफ बढ़ने लगी।

०००

'मे आई कम इन?' केबबन का िरिाजा खोल कर एक लड़की झांक रही थी।

'तुम मेरी फनाांडिस तो नहीं हो न?' बेसाख्ता मेरे मुंह से तनकला।

'नहीं।' िह खश
ु ी-खश
ु ी भीतर आ गई, 'क्या आपने मुझे पहले कहीं िे खा है या फक मेरी
शक्ल मेरी फनाांडिस से लमलती है ?' िह घतनष्ठता बढ़ाने की कोलशश में थी। मैं समझ गया यह
फकसी अच्छी कंपनी की पीआरओ है । पुरुर् हो या स्त्री-पीआरओ को मीठा, नरम और स्नेदहल
जीिन जीने की ही पगार लमलती है ।

फकसी नये प्रोिक्ट के ररलीज फंक्शन की कॉकटे ल पाटी का तनमंत्रण िे कर और आने का


पक्का िायिा लेकर िह वििा हुई।

०००

कमरे के नीम अंधेरे में मेरी फनाांडिस की गमष सांसें मेरे चेहरे पर बबखर रही थीं। उसने
अपनी चोटी खोल िी थी। बीसिीं शताब्िी के तमाम बचे हुए साल उसके मािक बालों पर फफसल
रहे थे।

मैं मेरी फनाांडिस के कपड़े उतार रहा था।

०००

142
शेि बनाते-बनाते मैंने सामने रखे शीशे में िे खा, बाथरूम से नहा कर तनकला मेरा बेटा
मेरे तौललए से अपना बिन पोंछ रहा था।

अरे ? झन्न से मेरे भीतर कुछ टूट गया। मैं लपक कर उठा और बेटे के गाल पर चांटा
जड़ दिया।

'क्या हुआ?' चांटे की आिाज सुन कविता फकचन से िौड़ी-िौड़ी आई।

'यह मेरा तौललया इस्तेमाल कर रहा है ।' मैं अपने िोध के चरम पर खड़ा कांप रहा था।

'अरे तो इसमें चांटा मारने की क्या बात है ?' कविता तन


ु क गई, 'कुछ दिनों से तम

एबनामषल बबहे ि कर रहे हो।' िह बबगड़ी फफर रुआंसी होकर बोली, 'तम
ु ने हम लोगों को प्यार
करना भी छोड़ दिया है ।'

'नहीं कविता।' मेरी दृढ़ता खंि-खंि हो बबखरने लगी लेफकन मैंने खि


ु को संभाल ललया।
'यह मेरा प्यार है ।' मैं बुिबुिाया और फफर शेि बनाने लगा।

सामने रखे शीशे में मेरी फनाांडिस उभर रही थी। तनिषस्त्र। मैं पागलों की तरह उसे चम

रहा था-हर जगह। िह मेरे कपड़े खोल रही थी। अपने िोनों िक्षों के बीच उसने मेरा लसर रख
ललया था और मेरी गिष न सहलाने लगी थी। फफर िोनों हाथों से उसने मेरा चेहरा उठाया और
अपने उत्ताप्त होठ मेरे होठों पर रख दिए।

सुख मेरे भीतर बूंि-बूंि उतर रहा था।

फकचन में कविता ने कोई बतषन चगराया। िह अपने बीहड़ िख


ु के िि
ु ाांत अकेलेपन में
खड़ी बौरा रही थी।

मैं अपना तौललया लेकर बाथरूम में चला गया। कपड़े उतार कर मैंने शॉिर चला दिया।
और फकतने दिन? मैंने सोचा। इस शॉिर में नहाने का सख
ु कब तक बचा रहने िाला है मेरे
पास?

०००

मैं नहा कर तनकला तो मेरी फनाांडिस पलंग पर उलटी लेटी हुई थी। मैंने उसके बिन पर
हाथ फफराया और उसकी गिष न चमू ते हुए बोला, 'बहुत गहरा सुख दिया है तम
ु ने मेरी फनाांडिस,
मैं इस रात और तुम्हें याि रखग
ूं ा।'

143
'सुख?' मेरी फनाांडिस पलट गई।

'अरे ?' मैं चौंक गया। यह कैसा हो गया है मेरी फनाांडिस का चेहरा?

'सुख?' मेरी फनाांडिस का चेहरा अबूझ कठोरता में तना था, 'सुख तुम्हारे जीिन से वििा
ले चक
ु ा है मूखष आिमी।'

'मेरी?' मैंने तड़प कर कहा।

'यस।' मेरी खड़ी होकर कपड़े पहनने लगी। फफर मेरी तरफ चेहरा घुमाकर बोली, 'याि तो
तम्
ु हें रखना ही होगा।' मैंने िे खा उसकी आंखों में प्रततशोध के चाकू चमक रहे थे। एक कुदटल
लेफकन लापरिाह हं सी हं सते हुए िह बोली, 'कपड़े पहनो और घर जाओ। मैंने तम्
ु हें िस ललया है ।'
उसका स्िर दहंसक था।

'मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं मेरी। साफ-साफ बताओ। िे खो, मैंने तुमको प्यार फकया
है ।' मेरा स्िर याचना की तरफ फफसल रहा था।

'तुम मेरे बीसिें लशकार हो।' मेरी गुराषई। अब िह अपना ईसामसीह िाला लॉकेट पहन रही
थी।

'मतलब?' मैंने मेरी का हाथ पकड़ ललया।

'मैंने तम्
ु हें एड्स िे दिया है ।' उसका स्िर पत्थर था।

'क्या?' मैं चकरा कर पलंग पर चगरा, 'तुमको एड्स है ?'

'हां।'

'लेफकन क्यों? तुमने ऐसा क्यों फकया? मुझे बताया क्यों नहीं? मैंने तुम्हारा क्या बबगाड़ा
था?' मैं रोने-रोने को था, बिन के सब रोंगटे खड़े हो गए थे।

'मैंने फकसका क्या बबगाड़ा था?' मेरी आिामक थी, 'जजस अरब शेख ने मझ
ु े यह तोहफा
दिया, मैंने उसका क्या बबगाड़ा था? एक सख
ु ी जीिन के िास्ते मैं कुछ समय के ललए इस
ितु नया में आई थी। मझ
ु े क्या लमला?' मेरी पर जैसे िौरा पड़ गया था, 'जजतना भी समय मेरे
भाग्य में है उसे मैं तम
ु परु
ु र्ों का भाग्य नष्ट करने में लगा िं ग
ू ी। सन
ु ा तम
ु ने। तम
ु नष्ट हो
चक
ु े हो।' मेरी खट-खट करती कमरे से बाहर चली गई। िरिाजा धड़ाम से बंि फकया उसने।

मेरे सामने, मेरे मंह


ु पर, मानो मेरे जीिन का िरिाजा बंि हो गया था।

144
'ओह मेरी...यह क्या फकया तुमने?' मैं चेहरा ढांप कर लससकने लगा था।

पानी चला गया था। मैंने िे खा, मैं बाथरूम में खड़ा रो रहा था। मेरी फनाांडिस के जजस्म
का कोई दहस्सा मेरे शरीर में घुल चक
ु ा था जो मुझे घुन की तरह लगातार कुतर रहा था।

बाहर कविता बाथरूम का िरिाजा खटखटा रही थी। मैं बाहर आया तो उसने अजीब
अविश्िास से मेरी तरफ िे खा फफर बोली, 'क्या हो गया है तुम्हें , बताते क्यों नहीं?'

'कुछ भी तो नहीं हुआ है ।' मैंने मस्


ु कराने की कोलशश की और कपड़े पहनने लगा।

अचानक, अपनी यातना के िारुण अंधकार में मैं बहुत-बहुत अकेला छूट गया था। मेरा
िर रोज बड़ा हो रहा था। मेरी फनाांडिस, क्या तम
ु को मेरी आिाज सन
ु ाई िे ती है ? अगर हां तो
सनु ो, तम
ु खश
ु हो न, िस
ू रे को टूटते-हारते हुए िे ख कर संतोर् होता है न, एक िूर संतोर्। पर,
फकतना कमीना है यह संतोर्। मेरी फनाांडिस, तम ु सन ु रही हो न? अपने िख ु ों का दहस्सेिार
फकसे बना सकता हूं मैं? फकतना बेचारा और तनरीह बना दिया है तम
ु ने मझ
ु ।े

०००

मेरी आंखें खल
ु ी हुई थीं और छत से टकराि की जस्थतत में थीं।

सहसा कविता पलटी और मेरे ऊपर आ गई।

'अरे ?' मैं झपाटे से उठकर बैठ गया, 'क्या करने पर तुली हो तुम?'

'तम
ु ...तम
ु को मालम
ू है ...' कविता िख
ु में थी, 'औरत होने के बािजि
ू आज मैं पहल कर
रही हूं... हमने िो महीने से प्यार नहीं फकया है ?'

िो महीने? आतंक मेरे दिल को िबोच रहा था। िो महीने? फकतने महीने और? मेरा
सिाांग ऐंठ रहा था। 'ऐ कविता', कोई मेरे भीतर उध्ित हुआ, 'ऐ कविता, क्या मैं तम्
ु हें बता िं ू
फक मैं मारा जा चकु ा हूं...' मेरे माथे पर पसीना था, सीने में थरथराहट।

'तुम पागल हो गई हो।' मैंने अस्फुट स्िर में कहा। शब्ि फकसी संकट में तघरे कांप रहे
थे।

'क्या तुम्हारे जीिन में कोई और आ गया है ?' कविता बबफर चक


ु ी थी।

145
'कोई और? मेरी फनाांडिस?' मेरा दिल िूबने लगा। लेफकन मैंने ताकत बटोरी और कविता
को अपने से सटा ललया। सहसा, उत्तोजना के उस भीर्ण चरण में मेरी आंखों के भीतर मेरा
सख
ु ी संसार भयािह रूप से दहचकोले लेने लगा।

'नहीं, यह हत्या है ।' कोई मेरे भीतर गुराषया।

'सुख तुम्हारे जीिन से वििा ले चक


ु ा है मूखष आिमी।' मेरी फनाांडिस मुस्करा रही थी।
मैंने कविता को अपनी चगरफ्त से मक्
ु त कर दिया और बबस्तर छोड़ दिया।

दिसंबर की ठं ि में अपनी जलती आंखों से मुझे बुद्दुआ िे ती हुई कविता अपने कपड़े सहे ज
रही थी। पता नहीं, मैं उसके जीिन में बुझ रहा था या िह मेरे जीिन में जल रही थी। जो भी
था, मेरी फनाांडिस के प्रततशोध तले तड़-तड़ तड़क रहा था।

असमाप्त यातना के उस ितु नषिार क्षण में कोई याचक मेरे भीतर चगड़चगड़ाना चाह रहा
था-ऐ कविता, मेरे कदठन दिनों कीं धैयि
ष ान िोस्त, तम्
ु हारी हत्या नहीं हो पाएगी मझ
ु से। िे खो,
मझ
ु े समझने की कोलशश करो। तम ु नहीं जानतीं फक तमु से फकतना प्यार करता हूं मैं। मेरे प्यार
की कसम, मझ ु से िरू रहो। मेरे साये से भी बचना है अब तम्ु हें । मैं इस सकल संसार के ललए
अस्पश्ृ य हो चक
ु ा हूं अब।' लेफकन कुछ नहीं कह सका मैं। रात भर कविता और मेरे बीच एक
अथषपूणष जीिन तनरथषक लगता रहा।

०००

अजीबोगरीब सिालों, शंकाओं और पछतािों के साथ मैं तनरं तर मुठभेड़ में फंस गया था
और िह भी एकिम तन्हा। ररश्तों और लमत्रताओं की एक अच्छी-खासी संख्या के बािजूि मैं
अपने शोक में अकेला था। यहां तक फक अपनी सिाषचधक अंतरं ग ऊष्मा कविता को भी यह नहीं
बता पा रहा था फक मेरा आखेट फकया जा चक
ु ा है । लेफकन इसका अंत कहां है ? अपने रहस्य को
गोपनीय बनाए रखने की सामथ्यष लगातार छीज रही थी। ग्लातन और पश्चाताप की सबसे ऊंची
अटारी पर अटक गया था मैं और मझ
ु से बाहर संपण
ू ष जीिन िैसा ही गततशील और स्िाभाविक
था जैसा फक उसे होना चादहए था-लालसा से छलछलाता और रक्त-सा गरम।

रक्त! मेरी सोच को झटका लगा। अपने रक्त की जांच भी तो करिा सकता हूं मैं। मैंने
तुरंत फोन उठाया और अपने एक िॉक्टर िोस्त का नंबर िायल करने लगा। लेफकन उधर से है लो
आने पर ररसीिर मेरे हाथ से छूट गया। िस तरह के सिाल करे गा िॉक्टर। तुम्हें क्यों जांच

146
करिानी है ? फकसी गलत जगह तो नहीं चले गए थे? तुम तो ऐसे नहीं थे? और जांच का
नतीजा सकारात्मक तनकल आया तब? िफ्तर, समाज, संबंधों की रागात्मक और अतनिायष
ितु नया से मक्खी की तरह तछटक कर फेंक दिया जाएगा मझ
ु ।े सबसे पहले तो िह िॉक्टर िोस्त
ही अस्पताल लभजिा िे गा। फफर िफ्तर नौकरी से तनकालेगा। और कविता? क्या मालम
ू िह भी
अपने बच्चे के भविष्य का िास्ता िे कर मझ
ु से अलग हो जाए। और िोस्त...मैंने िे खा मैं सड़कों
पर बिहिास भागा जा रहा हूं। एक भीड़ अपने उग्र कोलाहल के साथ मेरे पीछे है । जजस भी
िरिाजे के सामने जाकर खड़ा होता हूं िह तड़ाक से बंि हो जाता है । भीड़ का विचार है फक एक
अंधेरा बंि कमरा मेरे ललए ज्यािा उपयक्
ु त है , जजसमें ततलततल कर गलना है मझ
ु ।े

िोनों हथेललयां पसीने से तर थीं मेरी। इन दिनों कुछ ज्यािा ही पसीना आने लगा है ।
कभी-कभी अचानक उठने पर चक्कर भी आता है । अक्सर भख
ू का भी अपहरण होने लगा है ।
जीभ पर एक मैटेललक फकस्म का स्िाि स्थायी जगह बना चक
ु ा है । पता नहीं मैं अपने िहम का
आखेट हो रहा हूं या मेरी फनाांडिस का िरिान फल-फूल रहा है । और अपनी कातरता के उस
एकांततक समय में मझ ु े फफर मेरी फनाांडिस की याि आई। तम
ु कहां हो मेरी फनाांडिस। और
कैसी हो? तम
ु भी तो गल रही होगी न? मेरे बाि और फकतने सख
ु ी जनों को सिषनाश की आग
में धकेल चक
ु ी हो?

क्या मेरी फनाांडिस को चगफ्तार नहीं कराया जा सकता? मेरे मन में एक जनदहत का
विचार उठा और लड़खड़ा कर चगर पड़ा। इस संबध
ं में अगर अपने एक पत्रकार िोस्त से बात
करूं तो िह सबसे पहला सिाल यही करे गा फक तम्
ु हें कैसे मालम
ू फक सौंियष की िह िे िी प्रेम के
एकांत क्षणों में मत्ृ यु का अलभशाप बांटती है ? फफर िह खबर छाप िे गा और फफर अपने जीिन
में बचा ही क्या रह जाएगा लसिा एक ऐसे अंधेरे बंि कमरे के, जजसमें प्रिेश लेने से जीिन िे ने
िाले िॉक्टरों की भी रूह कांपती हो...

सबसे अच्छा यही है लमत्र। कोई मेरे भीतर चप


ु के से फुसफुसाया फक तुम चुपके से तनकल
लो। आज नहीं तो िो-चार साल बाि तुम्हें िैसे भी इस मायािी संसार से अतनिायष वििा लेनी ही
है । लेफकन िह वििाई फकतनी शमषनाक और यंत्रणाभरी होगी। अभी, बबना फकसी को कुछ भी
बताए, बबना आहट के तनकल चलोगे तो कम से कम कविता का आगामी जीिन तो तनष्कंटक
और शंका रदहत बना रहेगा। बात उजागर हो गई तो शंका के कठघरे में कविता को भी ताउम्र
खड़े रहना पड़ेगा।

तो? मेरे भीतर तनणषय-अतनणषय का संग्राम जारी था। सामने की िीिार पर लगे एयर
इंडिया के कैलें िर में कोई विमान पररचाररका नमस्कार की मुद्रा में जड़ थी। मेज पर रखी फाइलें
मेरी प्रतीक्षा में थीं।

147
सहसा, पता नहीं मुझे क्या हुआ फक मैं बाघ की-सी तेजी से उठा और फाइलें उठाकर
विमान पररचाररका की आकृतत पर पटकने लगा।

आखखर थक कर मैं पुन: अपनी कुसी पर चगर पड़ा और हांफने लगा। मेरी आंख से आंसू
टपक रहे थे और मैं बुिबुिा रहा था-मैं थक गया हूं मेरी फनाांडिस। अपने आप से लड़ते-लड़ते मैं
बहुत-बहुत थक गया हूं। तुम सुन रही हो न मेरी फनाांडिस! क्या तुम तक मेरी आिाज पहुंचती
है ?

148
नीांदरकेरब हररर

छह दिसंबर के आठ साल बाि, छह दिसंबर को ही, धनराज चैधरी की बाबरी मजस्जि भी


ढह गई, लेफकन इस बार न कहीं िं गा हुआ न ही बम-विस्फोट। सम्राट समूह का मीडिया
िायरे क्टर धनराज चैधरी, जो लकिक िोस्तों की चकमक ितु नया में धनराज के नाम से मशहूर
था, ने जेब से रूमाल तनकालकर अपना चश्मा साफ फकया, िापस आंखों पर चढ़ाया और खड़ा हो
गया। ऑफफस से लमली हुई कार की चाबी और मोबाइल उसने पसषनल िायरे क्टर को पकड़ाए
और जाने के ललए मुड़ा।

‘जस्ट ए लमनट।‘ पसषनल िायरे क्टर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फीकी मस्
ु कान के
साथ बोला, ‘ऑल ि बेस्ट। यू नो िी ऑल आर इन ि सेम बोट। जाना सभी को है । फकसी को
पहले, फकसी को बाि में । माकेट में सम्राट समूह का खाता बन्ि हो रहा है ।‘

‘जी!‘ धनराज ने अस्फुट स्िरों में कहा और पसषनल िायरे क्टर के केबबन से बाहर आ
गया।

यह तो बहुत भीर्ण चतू तयापा हो गया गुरु। धनराज ने सोचा, अभी तो ररटायर होने में
परू े पंद्रह बरस बाकी हैं। िह सुस्त किमों के साथ अपने केबबन में घुसा तो िहां सहायक
कैलशयर उसके इंतजार में था।

'सर, यह रहा आपके िी. आर. एस. का चेक।‘ सहायक कैलशयर ने धनराज को उसका
दहसाब समझाया, ‘िस िर्ष की नौकरी का कंपनसेशन बीस महीने की सेलरी चार लाख रुपये।
पांच महीने की ग्रेच्युटी एक लाख रुपये। इनकम टै क्स एक लाख रुपये। यह रहा आपका चेक
चार लाख रुपये। ओ.के. सर?‘

‘फकतने लोग इस स्कीम के तहत तनकाले गए हैं लमस्टर लसन्हा?‘ धनराज ने पूछा।

‘फफलहाल चालीस।‘ सहायक कैलशयर ने बताया, ‘लेफकन माचष तक साठ और जाएंगे।‘

‘ओ०के० ऑल ि बेस्ट।‘ धनराज हं सा। लेफकन लसन्हा के जाते ही उसे लगा उसके भीतर
कहीं जोरिार िं गा हो गया है ।

149
चेक को ललफाफे में रख उसने ब्रीफकेस में िाला, िराजों से अपना छोटा-मोटा तनजी
सामान उठाया। ब्रीफकेस बंि कर बड़ी हसरत से अपने केबबन का मआ
ु यना फकया और बझ
ु े मन
से बाहर आ गया।

ये ग्लोबलाइजेशन के उत्थान पर पहुंच रहे दिन थे। कंप्यूटर िांतत घर कर चक


ु ी थी। पूरी
ितु नया एक गांि में बिल रही थी। गली-गली में साइबर कैफे खल ु गए थे। जिान लड़के-लड़फकयां
नेट सफफांग के जररये अपने जीिन साथी तलाश रहे थे। सौंियष प्रततयोचगता बाजार तय कर रहा
था। विश्ि सुंिरी का ताज हर िर्ष भारतीय लड़की के माथे पर िमकने पर मजबूर था, क्योंफक
पूरी ितु नया की तनगाहें अब भारतीय बाजार पर थीं। लगभग हर कंपनी में िी आर एस लागू कर
कमषचाररयों को घर बबठाया जा रहा था। तमाम सरकारी उपिम तनजी हाथों में जा रहे थे या
जानेिाले थे। कोकाकोला और पेप्सी में जंग जारी थी। अपने जमाने के सप
ु रस्टार ने परू े िे श को
विशाल जआ
ु घर में बिल िाला था और तमाम टीिी चैनलों के िशषक छीन ललए थे। िह िे श के
आम लोगों को करोड़पतत बनाने पर तल
ु ा था और उस गेम शो से प्राप्त पाररश्रलमक से अपने
लसर पर चढ़ा करोड़ों का कजाष उतार रहा था। ररततक रोशन का खश
ु नम
ु ा जमाना था।

इन्हीं खश
ु नुमा दिनों में धनराज चैधरी पूरे पैंतालीस बरस की उम्र में सड़क पर आ गया
था और टै क्सी के इंतजार में था।

बाहर सब कुछ पूिि


ष त था। लोग-बाग सड़क पार कर रहे थे। िोसा-इिली, बड़ा-पाि खा रहे
थे। बसें पकड़ रहे थे और घर जा रहे थे। नरीमन पाुइंट के समुद्र में रात चमक रही थी।

ओबेराय होटल के टै रेस पर मखमली अंधेरा उतर रहा था। नरीमन पाुइंट की बबजल्िंगें
लसर ताने खड़ी थीं। उसी नरीमन पॉइंट की अटलांटा बबजल्िंग के भीतर कुछ ही िे र पहले धनराज
की ितु नया ढहा िी गई थी और सब चप
ु थे-तनिाषक।

चमकती हुई रात के उस नाचते हुए अंधेरे में धनराज की रीढ़ की हड्िी में एक तेज
लसहरन-सी उठी। उसने टै क्सी की खखड़की का शीशा आधा चगरा दिया। समुद्री हिा का एक ठं िा
टुकड़ा टै क्सी के भीतर आकर लसर उठाने लगा। धनराज को मलेररया जैसी कंपकंपी अपने बिन
पर रें गती अनुभि हुई। यह कैसी कंपकंपी है , धनराज ने सोचा और ठं िी हिाओं को भीतर आने
दिया। बाहर कई लड़फकयां कम िस्त्रों में जॉचगंग कर रही थीं।

माना फक िह दिसंबर की रात थी लेफकन िह मंब


ु ई का दिसंबर था, जो दिल्ली की तरह
कटखना नहीं होता। टै क्सी के बाहर मायािी और दिलकश मरीन ड्राइि पर िैभि की एक
चमकिार धल
ू धारासार बरस रही थी। धनराज ने टै क्सी को ‘लोटस‘ की तरफ मड़
ु िा दिया।

150
'लोटस‘ में हमेशा की तरह शहर की सबसे सुंिर, सबसे जिान और सबसे उत्तेजक
लड़फकयां नाच रही थीं, अंिरिल्र्ि के सबसे बड़े िॉन के सबसे खतरनाक गंि
ु े उन लड़फकयों की
दहफाजत में चाकुओं की तरह तने थे। अपनी पसंिीिा मेज पर बैठते ही धनराज को याि आया
फक अब िह सम्राट समह
ू का मीडिया िायरे क्टर नहीं है और फकसी बड़े अखबार के बड़े पत्रकार
को कंपनी के दहत में पटाने यहां नहीं आया है। अपनी पसंिीिा मेज और पसंिीिा लड़की को
छूटी हुई जगह की तरह ताकते हुए िह ‘लोटस‘ से बाहर आ गया। एक समय था, जब महीने
की बीस रातें धनराज ‘लोटस‘ में ही बबताता था-नींि के बािजि
ू ।

लेफकन आज धनराज अकेला था और नींि के बाहर था। पूरे िस िर्ष से धनराज नींि के
एक ततललस्मी बाजार में बैठा जाग रहा था। नींि के भीतर इस ततललस्मी ितु नया में बड़े लोग,
बड़े व्यापार, बड़ी पादटष यां, बड़ी संि
ु रता और बड़ी मारकाट थी। इस ितु नया में बड़ी सफलता के
साथ धनराज ने अपना होना लसद्ध फकया हुआ था। इसीललए िह समझ नहीं पा रहा था फक नींि
के बाहर की जजस लगभग अजनबी हो चक ु ी ितु नया में उसे अचानक उठाकर फेंक दिया गया है ,
िहां िह खि
ु को कैसे साबबत करे गा?

‘लोटस‘ के बाहर बाररश हो रही थी, बेमौसम बरसात? धनराज ने सोचा और लसहर गया।
उसने उस बाररश में विपजत्तयों को बरसते िे ख ललया था।

पैिर रोि की िाईन शॉप के फकनारे टै क्सी रुकिाकर धनराज ने ड्राइिर को सौ का नोट
पकड़ाते हुए कहा, ‘एक ओल्ि मौंक का क्िाटष र और बबसलरी की बॉटल पकड़ लो तो।‘ ड्राइिर ने
बड़े अचरज के साथ धनराज को ताका तो धनराज के मुंह से ‘सॉरी‘ तनकल गया। असल में िह
फफर भूल गया था फक िह कंपनी की गाड़ी में , कंपनी के ड्राइिर के साथ नहीं, टै क्सी में बैठा है ।
खि
ु बाहर जाकर उसने अपना सामान ललया और िापस टै क्सी में आ बैठा। बबसलरी का थोड़ा
पानी पीकर उसने रम का क्र्िाटर बचे हुए पानी में लमला दिया और एक चुस्की लेकर लसगरे ट
जला ली।

लसवद्ध विनायक मंदिर जा रहा था। धनराज ने गिष न झुका िी। उसने तो गिष न झुकाए-
झुकाए ही काम फकया था, तो फफर िी आर एस की गाज उसके लसर पर क्यों चगरी? बहुत
मेहनत की थी धनराज ने सम्राट समूह में । सुबह आठ बजे तैयार होकर िह अपनी कार में बैठ
जाता था और पौने िस तक िफ्तर ‘टच‘ कर लेता था। शाम सात बजे तक िफ्तर में रहने के
बाि िह जन संपकष अलभयान पर तनकलता था। रात िस-साढ़े िस पर घर के ललए रिाना होकर
बारह-सिा बारह तक घर पहुंचता था। घर पर जाते ही िह खाना खाता था और सो जाता था।
सुबह छह बजे उठकर फफर तैयार होने लगता था। घर, बाजार, कॉलोनी, बच्चा सब कुछ उसकी
पत्नी सररता ने संभाला हुआ था।

151
तो फफर? धनराज ने सोचा और एक लंबा घूंट भरा, अब इसका िह क्या कर सकता था
फक सम्राट समह
ू का एक महत्िाकांक्षी प्रोिक्ट ‘सम्राट नमक‘ बाजार में वपट गया। बाजार िे खना
तो माकेदटंग का काम है । िह जो कर सकता था, उसने फकया। पत्रकारों के एक िल को लेकर
िह नमक का प्लांट दिखाने पालघर ले गया था। कई अखबारों ने उस नमक की तारीफ में लेख
भी छापे थे। एक अखबार के पत्रकार को तो उसने पालघर के एक होटल में काुलगलष भी मह
ु ै या
करिाई थी।

‘रीजेंसी‘ जा रहा था। इस होटल से िह सररता के ललए पहाड़ी कबाब और बेटे के ललए
ड्राईचचली पनीर पासषल कराता था। जाने िो। धनराज ने सोचा और ‘रीजेंसी‘ को टै क्सी के भीतर
से ही हाथ दहला दिया।

मीरा-भायंिर रोि की एक सुनसान जगह पर टै क्सी रुकिाकर उसने पेशाब फकया और


खाली बोतलें झाडड़यों में फेंक िीं। िस लमनट के बाि टै क्सी उसके घर के नीचे थी। टै क्सीिाले
को चार सौ रुपये िे कर उसने लसगरे ट सुलगा ली और घर की सीदढ़यां चढ़ने लगा। उसका फ्लैट
पहले माले पर था। गेट के बाहर उसकी नेमप्लेट चमक रही थी। धनराज ने घंटी बजा िी, अपने
विशेर् अंिाज में । रात के िस बज रहे थे।

‘इतनी जल्िी‘, सररता ने िरिाजा खोलते ही पूछा।

धनराज ने ब्रीफकेस मेज पर रखा और सोफे पर बैठकर लसगरे ट एश रे में मसल िी।
फफर उसने चश्मा उतारा और ततपाई पर रख दिया। फफर िह घड़ी उतारने लगा।

‘अरे ? आज ड्राइिर ऊपर तक नहीं आया?‘ सररता चैंक गई, ‘और मोबाइल फकधर है , खो
दिया क्या?‘

धनराज िो-तीन मोबाइल खो चक


ु ा था और उसका ड्राइिर ब्रीफकेस उठाकर कमरे के
भीतर तक आता था। एक चगलास पानी पीकर िह सुबह आने का समय पूछ कर तब जाता था।

‘गाड़ी खराब है और मोबाइल िफ्तर में छूट गया।‘ धनराज झूठ बोल गया, ‘रोदहत कहां
है ?‘ उसने बेटे की जानकारी ली।

‘रोदहत इस समय तक कहां आता है ? अभी तो रे न में होगा। तुम आज जल्िी आ गए


हो। सब ठीक तो है न?‘ सररता आशंफकत-सी हो गई।

‘हां।‘ धनराज संक्षक्षप्त हो गया, ‘कुछ सलाि िगैरह लमलेगा?‘

152
सररता फकचन में चली गई। धनराज ने अपनी बहुत बड़ी िॉल यूतनट में बने छोटे -से बार
को खोल अपने ललए रम का एक पैग बनाया और फफ्रज में से पानी तनकालकर चगलास में लमला
दिया। चगलास को ततपाई पर रखकर िह मंह
ु -हाथ धोने चला गया। तब तक सररता एक प्लेट में
चचकन के िो टुकड़े रख गई।

धनराज ने चगलास हाथ में ललया और घूमकर पूरे घर का मुआयना-सा करने लगा।

ं मंशीन थी, एसी


घर में टीिी था, िीसीआर था, फफ्रज था, म्यूजजक लसस्टम था, िालशग
था, सोफा था, िॉल यूतनट थी, िबल बेि था, िाइतनंग टे बल थी, ड्रेलसंग टे बल थी, सेंटर टे बल थी,
िािषरोब था, फोन था, कंप्यूटर था, इंटरनेट कनेक्शन था, वप्रंटर था, स्कैनर था, फैक्स मशीन
थी, बतषन थे, बबस्तर थे, कपड़े थे, बीिी थी, बेटा था और बीते दिनों की यािें थीं।

और? और तुम्हें क्या चादहए धनराज? धनराज ने सोचा और रम का बड़ा घूंट ललया।

सररता सलाि लेकर आई तो धनराज की आंखें नम थीं। तभी घंटी बजी, रोदहत था।
धनराज ने ध्यान से िे खा, रोदहत मंछ
ू िाला होने के पायिान पर था। सब
ु ह िह जा रहा होता था
तो रोदहत सोता होता था। रात को जब लौटता था तो रोदहत सो चक
ु ा होता था। उसका िीकली
ऑफ संिे होता था और रोदहत शतनिार रात अपने िोस्तों के साथ िीकएंि की पादटष यों में चला
जाता था। रोदहत इतिार की रात िस-ग्यारह बजे खाना खाकर लौटता था, तब तक धनराज सो
चक
ु ा होता था। इतिार को धनराज पूरे हफ्ते की नींि चरु ा लेता था।

'पापा ऽऽ‘, रोदहत धनराज से चचपट गया।

‘बेटा ऽऽ‘, धनराज ने प्रश्न फकया, ‘हमारा नमक क्यों वपट गया?‘

'वपट गया?‘ रोदहत ने लापरिाही से कहा, फफर लापरिाही में थोड़ा-सा व्यंग्य लमलाकर
बोला, ‘वपटना ही था। अपना सब कुछ वपटने ही िाला है ।‘

अरे बाप रे ! धनराज चफकत रह गया। ये स्साला तो खासा बड़ा और समझिार हो गया
है ।

‘तेरे िेब मीडिया के क्या हाल हैं?‘ धनराज ने वपताओं जैसी उत्सक
ु ता जताने की कोलशश
की।

अपने कमलशषयल आटष का डिप्लोमा करने के बाि रोदहत िेब मीडिया नाम की कंपनी में
रे नी ग्राफफक डिजाइनर हो गया था।

153
‘उसको छोड़े तो तीन महीने हो गए पापा, आपको कुछ पता भी रहता है ।‘ रोदहत ने
ततनक गिष से बताया, ‘इन दिनों मैं एक अमेररकी कंपनी में प्रोबेशन पर चल रहा हूं।‘

‘अरे िाह!‘ धनराज थोड़ा मुदित हुआ, ‘पैसे?‘

‘लमलते हैं न। प्रोबेशन तक छह हजार, उसके बाि आठ हजार लेफकन मैं चक्कर में हूं फक
कहीं और तनकल जाऊं।‘ रोदहत मुस्कराया।

‘लेफकन इतनी जल्िी-जल्िी नौकरी बिलना क्यो?‘ धनराज चचंततत-सा हुआ।

‘नौकरी नहीं पापा, जॉब...जॉब।‘ रोदहत खखलखखलाने लगा, ‘हमारी जेनरे शन एक जगह
बंधकर नहीं रहती आप लोगों की तरह...जहां ज्यािा पगार िहीं पर काम। हम प्रोफेशनल लोग
हैं। हमें आपकी तरह थोड़े ही रहना है , साल में ढाई तीन सौ रुपये का एक इनिीमें ट...हमें एक
साल में तीन हजार का इनिीमें ट चादहए िरना तो अपने को परिड़ेगा नहीं।‘ रोदहत तेजी से
दहंिी, मराठी, अंग्रेजी में बोलकर बेिरूम में चला गया।

बहुत दिनों या शायि महीनों या फफर सालों बाि तीनों एक साथ खाना खाने बैठे। रोदहत
अपनी कंपनी, अपने जॉब, अपने नाम आनेिाली ई-मेल और अपनी गलष फ्रेंड्स की ितु नया में
मगन था। जब िह चप
ु होता तो सररता कॉलोनी में गुजरती अपनी दिनचयाष की गठरी खोल िे ती
थी। धनराज को लगा, अपनी जा चक
ु ी नौकरी की सच
ू ना इस समय िे ना पररिार की खलु शयों के
ऊपर बम विस्फोट करने जैसा हो जाएगा। िह चप
ु चाप मां-बेटे के उल्लास के बीच भीगता रहा।

फफर हमेशा की तरह सुबह छह बजे का अलामष लगाकर िह सोने चला गया।

xxx

धनराज सोता ही रह जाता और चीखते हुए चारों तरफ के शोर में , अपनी नींि में ही
बेआिाज मर जाता, अगर सम्राट समूह में मीडिया िायरे क्टर िाली उसकी नौकरी बनी रहती।

बहुत-बहुत बरु े दिनों की बहुत बिहाल और कमजोर सीदढ़यों पर किम जमा-जमाकर ऊपर
चढ़ा था धनराज। उम्र के पैंतीस िर्ष उसने हालात से वपटते और सपना िे खते हुए काटे थे।
मेरठ, मजु फ्फरनगर, रुड़की, िे हरािन ू और फफर एकिम जोधपरु में उसका जीिन कटा था। और
फफर एकाएक िह मंब
ु ई आ गया था-सम्राट समह
ू में मीडिया मैनेजर होकर। िो साल के भीतर
िह समह
ू का मीडिया िायरे क्टर हो गया था। एक सख
ु ी जीिन उसका अंततम सपना था। इस
सख
ु ी जीिन की गोि में पहुंचते ही िह प्राणपण से उसे संिारने और बटोरने में लग गया।

154
सम्राट समूह ने उसे तनचोड़ा भी बहुत, लेफकन इसका उसे कोई चगला नहीं रहा। िह
अपनी नींि में यह सोचते हुए जीता रहा फक उसके सखु शाश्ित हैं। नींि से बाहर की एक बड़ी
ितु नया से असंपक्
ृ त िह घर से िफ्तर और िफ्तर से घर की यात्रा में मस
ु लसल मजु ब्तला रहा।
िह यह याि ही नहीं रख पाया फक उसका एक अतीत भी है , जजसमें बहुत बरु े दिन रहते हैं।

इसीललए नौकरी चले जाने के बाि जब नींि से बाहर की ितु नया से उसकी मुठभेड़ हुई तो
िह हक्का-बक्का रह गया। िह सोचता था फक जजस कदठन जीिन को िह बहुत पीछे छोड़ आया
है , उस जीिन से अब कम से कम उसका कोई लेन-िे न बाकी नहीं रहा है । लेफकन यह लेन-िे न
न लसफष बाकी था, बजल्क चििवृ द्ध ब्याज सदहत उसके लसर पर सिार हो गया था।

इस ज्ञान ने धनराज की नींि उड़ा िी।

लसललसला यूं शुरू हुआ।

नौकरी जाने के अगले रोज धनराज रोज की तरह िफ्तर जाने के ललए तैयार हुआ और
मीरा रोि स्टे शन पहुंचा। सब
ु ह के साढ़े आठ बजे थे। दटकट खखड़की पर खड़ी लंबी कतारों को
िे ख धनराज के पसीने छूट गए। आधा घंटा कतार में खड़े रहने के बाि उसने चचषगेट का
द्वितीय श्रेणी का दटकट खरीिा और प्लेटफामष पर आ गया। उसका कलेजा थरथरा रहा था। िह
समझ नहीं पा रहा था फक प्लेटफामष पर जो भीड़ है , िह उसे मधम
ु जक्खयों के छत्ते सरीखी क्यों
लग रही है ? इस छत्ते में धनराज ने लसफष िो काम फकए। चचषगेट ले जानेिाली रे न के करीब
पहुंचा और धक्के मार-मारकर िरू धकेल दिया गया। लोग िरिाजों पर ही नहीं, खखड़फकयों पर भी
लटके हुए थे। एक घंटे के भीतर सात रे नें तनकल गईं और धनराज फकसी भी रे न में नहीं चढ़
पाया। असल में धनराज को लोकल रे न का अभ्यास ही नहीं था। आखखरकार जब रे न पकड़ने के
चक्कर में िह वपट-वपटकर अधमरा हो गया तो मुचड़े हुए कपड़ों, टूटे हुए जजस्म और चगर चक
ु े
महं गे चश्मे का गम संभाले खराम-खरामा चलता हुआ अपने घर लौट आया।

घर पर रोदहत अपने िफ्तर जाने के ललए तैयार हो रहा था। सररता रोदहत का दटफफन
तैयार कर रही थी।

धनराज को िापस घर आया िे ख िोनों ने एक साथ पछ


ू ा, ‘क्या हुआ?‘

धनराज खखलसया गया। फफर उसने लगभग रुआंसे स्िर में बताया फक लोकल में तो िह
चढ़ ही नहीं पाया, उसने अपना गोल्िन फ्रेम का चश्मा भी गंिा दिया है ।

155
रोदहत हा...हा...कर हं सने लगा, ‘मीरा रोि से कैसे चढ़ोगे पापा? मीरा रोि से विरार जाने
का, फफर िहां से बननेिाली रे न में चढ़कर आने का। क्या समझे?‘

धनराज कुछ नहीं समझा।

फफर सररता ने चफकत होकर पूछा, ‘मगर गाड़ी खराब होने पर तो तुम टै क्सी से जाते
हो...आज लोकल की सनक फकसललए?‘ इसके बाि उसने धनराज को याि दिलाया फक उसके
चश्मे का फ्रेम िो हजार का था।

इस बीच रोदहत ‘बाय‘ बोलकर तनकलने लगा तो धनराज ने पीछे से पुकार कर पूछा,
‘अरे , तू कैसे जाएगा?‘

पापा, मैं रोज रे न में ही जाता हूं।‘ रोदहत फराषटे से तनकल गया।

अरे ? धनराज विजस्मत रह गया।

‘अब बताओ, चक्कर क्या है ?‘ सररता उसके ललए एक कप चाय ले आई और उसके


सामने हे िमास्टर की-सी मुद्रा में खड़ी हो गई।

‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज ने आत्मसमपषण कर दिया।

‘तो इसमें शहीि होने की क्या बात? क्या यह पहली बार हुआ है ? सम्राट समह ू से पहले
भी तम्
ु हारी नौकररयां आती-जाती रही हैं। तब तो हम इतने अच्छे दिनों में भी नहीं रहते थे।‘
सररता ने उसे ढांढस बंधाया तो धनराज विजस्मत रह गया।

फफर कई दिनों तक धनराज विजस्मत ही होता रहा।

उसने पाया फक हर समय व्यस्त रहनेिाला उसका फोन मत


ृ कों की तरह ितु नया से बाहर
चला गया है । िह ररसीिर उठाकर िे खता तो िायल टोन मौजूि लमलती। एक बार उसने अपने
एक खास िोस्त अजश्िनी पाराशर को फोन फकया। अजश्िनी की सेिेटरी ने पूछा फक िह कौन
बोल रहा है , कहां से बोल रहा है और उसे फकस बारे में बात करनी है ? धनराज ने चचढ़कर कहा
फक िह अजश्िनी का िोस्त है तो सेिेटरी ने विनम्रता के साथ बताया फक साहब मीदटंग में हैं ,
िह अपना फोन नंबर बता िे , धनराज ने नंबर बताकर फोन रख दिया और अजश्िनी के फोन का
इंतजार करने लगा। मगर अजश्िनी का फोन नहीं आया।

उसने एक और िोस्त को फोन फकया। िह भी मीदटंग में था। तीसरे िोस्त की आन्सररंग
मशीन पर उसने मैसेज ररकॉि कराया, लेफकन कोई उत्तर नहीं आया।

156
‘बबल और ब्लिप्रेशर मत बढ़ाओ।‘ आखखर सररता ने हस्तक्षेप फकया, ‘सम्राट समूह के
दिनों में तम
ु भी या तो मीदटंग में होते थे या टॉयलेट में ।‘

'पापा, जो सामने है , उसे एक्सेप्ट करो।‘ रोदहत ने सलाह िी, ‘आप ही तो बताते थे फक आपने
बहुत बरु े दिन िे खे हैं। ये तो अच्छे दिन हैं, एनज्िाय करो।‘

एनज्िाय? अच्छे दिन? लेफकन फकतने दिन? पांच-सात लाख रुपयों के सहारे फकतने दिन
दटकेंगे अच्छे दिन? धनराज ने सोचा और चचंततत हो गया।

सररता ने धनराज की दिनचयाष बता िी। सुबह छह बजे जागकर चाय पीना, फ्रेश होना
और एक घंटे तक पाकष में टहलना। पाकष से लौटकर अखबार पढ़ना और नाश्ता लेना। नाश्ते के
बाि नहाना-धोना और भायंिर की लायब्रेरी जाकर फकताबें पढ़ने की कोलशश करना, लौटकर खाना
खाना और सो जाना। शाम को उठकर चाय पीना और माकेदटंग करना। लौटकर टीिी िे खना,
रात का खाना खाना और सो जाना। फकताबों की सूची भी सररता ने ही तैयार कर िी।

धनराज के माथे पर त्यौररयां चढ़ गईं। िह चचढ़कर बोला, ‘मैं क्या ररटायर हो गया हूं?‘

'ररटायर हुए नहीं हो, ररटायर कर दिए गए हो।‘ रोदहत ने समझाया, ‘आप तो पैंतालीस
िर्ष के हो। इस कालोनी में पैंतीस-छत्तीस के आिमी भी बेकार घूमते हैं। उनकी भी कंपतनयां बंि
हो गई हैं।‘

चचंततत और बिहिास धनराज ने इसके बािजि


ू िोस्तों की ितु नया पर तनगाह िालनी बंि
नहीं की। लगातार तनराश होने के बाि अंततः उसने स्िीकार कर ललया फक िह नींि के बाहर का
आिमी है और उसकी आिाज नींि के भीतर की ितु नया से टकराकर लौटने को अलभशप्त है ।

नींि के भीतर की ितु नया बहुत विराट थी। उस नींि के भीतर एक महानींि थी। उस
महानींि की ितु नया महाविराट थी। उस ितु नया में नींि के बाहर पड़े हुए लोगों का प्रिेश िजजषत
था। उस ितु नया में कोई फकसी का िोस्त नहीं था। िहां संबंध नहीं कारोबार दटकता था। िहां एक
महाबाजार लगा हुआ था, जजसमें लोग या तो उपभोक्ता थे या वििेता। इस ितु नया के सारे रास्ते
बाजार की तरफ जाते थे। और इस बाजार में धनराज की कोई जरूरत नहीं थी।

धनराज चचंततत नहीं, विचललत हुआ।

कालोनी के लोगों से उसका िआ


ु सलाम होने लगा था।

तभी एक हािसा हुआ।

157
सकीना नाम की एक जिान लड़की ने चह
ू ों को मारने िाला जहर ‘रै टोल‘ खाकर
आत्महत्या कर ली।

सकीना उस कॉलोनी में रहनेिाले एक टे लर याकूब की इकलौती बेटी थी और बारहिीं में


पढ़ती थी। सररता से बहुत दहली-लमली थी सकीना इसललए इस मौत से सररता अंिर तक दहल
गई। अस्पताल से लौटकर बताया उसने, िह कुछ बताना चाहती थी, लेफकन बता नहीं पाई।
शायि उस लड़की को उसके कालेज के कुछ गुंिे लड़कों का गैंग परे शान कर रहा था।

‘तुमको याि नहीं है ।‘ बताया सररता ने, ‘ये लोग चारकोप में भी हमारे पड़ोसी थे, इसके
पापा की िहां भी माकेट में िजी की िक
ु ान थी। दिसंबर के िं गों में उनका घर और िक
ु ान जला
दिए गए थे।‘

‘अरे ?‘ धनराज चैंक गया, ‘बेचारा उस बस्ती में भी बरबाि हुआ और इस कॉलोनी में भी।‘

धनराज को याि आया।

दिसंबर के िं गोंिाले दिनों में िह भी कांदििली की एक तनम्न मध्यिगीय बस्ती चारकोप


में फकराए पर रहता था। िह बुरे दिनों से अच्छे दिनों में जाने का संिमण काल था।

‘इसमें कॉलोनी का क्या िोर् है ?‘ सररता तुनक गई, ‘पूरी कॉलोनी के लोग अस्पताल में
हैं। लाश को लेकर आ रहे हैं।‘

धनराज ने छह दिसंबर में जाकर िे खा-रात के िस बजे थे। बंबई ने अभी जागने के ललए
अंगड़ाई ली थी। धनराज का िाक्टर िोस्त जयेश और उसकी खब
ू सूरत युिा पत्नी सोनाली रात
भर रुकने का कायषिम बनाकर धनराज के घर आए थे। सररता ने िहीिाला चचकन बनाया था
और मछललयां फ्राई की थीं। उसका बेटा रोदहत अपने एक मुजस्लम िोस्त के घर मालिणी गया
हुआ था और रात को िहीं रुकनेिाला था।

शराब पीते हुए और मछललयां खाते हुए धनराज ने टीिी के पिे पर िे खा-बंबई से हजारों
फकलोमीटर िरू एक छोटे से शहर में एक मजस्जि चगराई जा रही थी। धनराज िर गया। चगलास
समेटकर िह अस्फुट स्िरों में बोला, ‘गुरू तनकल लो। तुम्हारे साथ एक सुंिर औरत है ...बेहतर
होगा फक तुरंत तनकल जाओ।‘

छह दिसंबर की उस रात िाक्टर िं पजत्त चारकोप से चार बंगला अपने घर सरु क्षक्षत पहुंच
गए और मालिणी की मजु स्लम बस्ती में गया धनराज का बेटा रोदहत भी घर लौट आया। इसके
बाि सड़कों पर एक िहशी प्रेत अपनी बांहें फैलाए हा हा हू हू करता हुआ कहर ढाने तनकला।

158
अगली सुबह या शायि उससे अगली सुबह धनराज नींि में था फक सररता ने उसे
झकझोर दिया, ‘उठो, ऐसे कैसे सो सकते हो तम
ु ? िे खो, अपने जले हुए घर की िि
ु ष शा िे खने
आई नजमा को बस्ती के कुछ आिारा लड़कों ने पकड़ ललया है । कुछ भी हो, ऑफ्टर आल
नजमा हमारे रोदहत की टीचर है । उसे बचाओ।‘

‘पुललस? पुललस कहां है ?‘ धनराज बड़बड़ाया था और अपनी बगल में सोए रोदहत पर हाथ
फफराकर फफर नींि में चला गया था।

पुललस कस्टिी में जब तक नजमा पहुंची तब तक उसकी छाततयों से गालों तक के दहस्से


में पचपन घाि िजष हो चुके थे, और उसकी जांघों के बीच से रक्त का परनाला बह रहा था।

धनराज उस दिन िफ्तर नहीं जा पाया। तब तक उसे कंपनी की कार नहीं लमली थी।
कांदििली रे लिे स्टे शन ले जाने के ललए भी ऑटो उपलब्ध नहीं था। हालांफक ऑटो की तलाश में
िह लगभग एक फकलोमीटर िरू मछली माकेट तक पैिल चला गया था।

मछली माकेट श्मशान की तरह भत


ु ैला और िरािना था। मछली, मग
ु े और मटन
बेचनेिाले के बाकड़े और िड़बे जले पड़े थे। लकी ड्राईक्लीनर, जहां धनराज के कपड़े धल
ु ते और
प्रेस होते थे, नष्ट हो चक
ु ा था। उसके जले हुए कपड़ों की ढे र सारी राख के बीच से एक जख्मी
हाहाकार झांक रहा था। लकी ड्राईक्लीनर का माललक अनिर अपनी पत्नी और िो बच्चों सदहत
खल
ु ी सड़क पर तंिरू ी चचकन की तरह भून दिया गया था।

सहमा-थका सा धनराज घर िापस लौटा तो सररता लसर ढांप कर लेटी थी और फोन


घनघना रहा था, िस
ू री तरफ जोगेश्िरी में रहने िाला उसका एक कांरेक्टर िोस्त साजजि था।
िह पछ
ू रहा था, ‘क्यों लमयां? हमारी ही मजस्जि चगरा िी और हमको ही मारा-काटा जा रहा है ।
यह लोकतंत्र है या िािाचगरी?‘

‘मुझे इस पचड़े में मत फंसाओ यार।‘ धनराज ने हताश होकर कहा था और फोन रख
दिया था। तभी िरिाजे की घंटी बजी थी।

िरिाजे पर कॉलोनी के कुछ लोग थे। उनके पीछे लंपट फकस्म के कुछ छोकरों का समूह
था। धनराज उनमें से फकसी को नहीं पहचानता था। िह आधी रात िाली ितु नया का नागररक
था, उस ितु नया का, जजसमें पड़ोलसयों से पररचय रखने की रस्म नहीं होती। शोर जैसा सुनकर
सररता भी िरिाजे तक चली आई थी। सररता को िे खते ही भीड़ का चेहरा खखल उठा था। उनमें
से तीन-चार लोग ‘भाभी जी नमस्ते‘ कहते हुए कमरे के भीतर चले आए। बाकी िरिाजे पर खड़े-

159
खड़े कमरे के भीतर रखे सामान का मुआयना करने लगे। इस भीड़ के कुछ चहरों को वपछली ही
रात धनराज ने गली के कोने पर रहनेिाले िॉ. हबीबल्
ु लाह का सामान उठाकर भागते िे खा था।

‘आज रात बहुत चैकस रहना है भाभीजी।‘ उनमें से एक बहुत रहस्यमय अंिाज में बोला
था, ‘हमें पक्की खबर लमली है फक नागपाड़ा से एक रक भरकर लोग इस तरफ आएंगे... हम भी
तैयार हैं लेफकन...‘

‘हमें क्या करना होगा?‘ सररता घबराई-सी आिाज में बोली थी।

‘आपको क्या करना है , बस जागते रहना है । रात को कोई लड़का पुललस से बचकर
भागता हुआ आए तो उसे छुपा लेना है ...हमारा कोि ििष है भालू आया। िैसे हमारे लड़के तो रात
भर जागें गे हीं...‘ िस
ू रे ने विस्तार से समझाया था फफर मुस्कराते हुए बोला था, ‘लड़कों का
जागरण चन्िा तो लमलेगा न?‘

‘हां, हां।‘ सररता तरु ं त भीतर गई और सौ-सौ के िो नोट लाकर बोली, ‘हम लड़ नहीं
सकते...यही हमारा योगिान है ।‘

िे शोर मचाते हुए लौट गए।

रात की शराब का चंिा बटोरा जा रहा था। शायि शराब पीने के बाि जजस्मों पर घाि
बनाने में ज्यािा मजा आता हो या लूट-मार करने की अततररक्त ताकत लमलती हो।

उनके जाते ही धनराज बबफर उठा था, ‘यह कैसा तमाशा है ? कैसे कैसे लुच्चों से संबंध
रखती हो तुम?‘

‘लच्
ु चे नहीं हैं ये।‘ सररता ने उल्टा उसे ही िांट दिया था, ‘यही लोग छह दिसंबर की रात
तम्
ु हारे बेटे को मालिणी से सरु क्षक्षत तनकाल लाए थे...कुछ मालम
ू भी है तम्
ु हें , मालिणी में हमारे
फकतने लोग काट दिए गए...उन्होंने लोगों की पैंटें उतरिाईं, चेक फकया और जजतने भी हमारे
लोग थे, सबको गाजर-मूली की तरह काट िाला।‘ सररता के चेहरे पर िहशत और िोध एक साथ
बरस था, ‘तुम ला सकते थे अपने बेटे को िहां से?‘

धनराज को आश्चयष हुआ। क्या यह िही सररता है , जो नजमा को बचा लेने की पवित्र
करुणा से भरी हुई थी। और तब उसे अपने बेटे रोदहत का खयाल आया।

‘रोदहत को मैंने अपनी मम्मी के घर भेज दिया है ।‘ सररता ने जानकारी िी।

160
सररता की मां कांदििली में ही रहती थी, लेफकन फ्लैट में । िं गों में फ्लैट अपेक्षाकृत
सरु क्षक्षत रहते हैं। ठीक उसी समय धनराज के मन में यह इच्छा जजि की तरह उठी थी फक कैसे
भी करके अपना एक फ्लैट खरीिना है ।

नागपाड़ा से तो कोई रक नहीं आया, लेफकन उसी रात बस्ती के बचे हुए बंि घरों को
लूटकर उनमें आग लगा िी गई। उन जलने िाले घरों में एक घर सकीना का भी था।

सकीना के जनाजे में धनराज भी शालमल हुआ।

जनाजे में सकीना के बाप याकूब के अलािा सब के सब दहंि ू थे। यह गखणत धनराज को
समझ नहीं आया। जो लोग चारकोप में सकीना का घर जला रहे थे, िो और जो लोग सकीना
के जनाजे में शालमल हैं िो, िोनों की जात में क्या फकष है ?

‘क्या धनराज साब।‘ रास्ते में कॉलोनी के टीएल प्रसाि ने पछ


ू ा, ‘सन
ु ा है , आपकी नौकरी
चली गई?‘

‘हां, चली गई है ।‘ धनराज ने रुखे लहजे में जिाब दिया।

‘अब क्या करें गे?‘

‘िड़ा-पाि का ठे ला लगाऊंगा।‘ धनराज इतने ठं िे स्िर में बोला फक प्रसाि िस


ू रे व्यजक्त के
साथ लग गया, प्रसाि एक मल्टी नेशनल कंपनी में टीिी इंजीतनयर था।

लौटते समय बंि


ू ा-बांिी होने लगी। धनराज याकूब की बगल में आ गया।

‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने सहानुभूतत से पूछा।

‘है िराबाि चला जाऊंगा।‘ याकूब ने तनणषयात्मक स्िर में कहा, ‘िैसे भी यहां अकेला रहकर
क्या करूंगा। है िराबाि में मामू हैं, पापा हैं और तीसरी बार बबाषि होने की मुझमें ताकत भी
नहीं।‘ याकूब बाकायिा लससकने लगा, ‘इस बार तो मुझे मेरे लोगों ने बबाषि फकया है ।‘

‘मतलब?‘ धनराज चैंक गया।

‘कालेज के जजन चार लड़कों ने सकीना की इज्जत लट


ू ी है , िे हमारी ही जात के हैं।‘
याकूब ने रहस्योद्घाटन-सा फकया तो धनराज थराष गया।

‘तो तुम पुललस में क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें सकीना ने बताया था यह सब?‘ धनराज
की उत्सक
ु ता बढ़ती जा रही थी।

161
‘बबन मां की बच्ची और फकसे बताती?‘ याकूब ने दहचकी ली, ‘मैं एक गरीब िजी...कौन
सन
ु ेगा मेरी? िे चारों लड़के नेताओं के शहजािे हैं...सकीना बताती रहती थी उनकी बिमालशयों के
बारे में ... पर मैं सोचता था फक फकसी तरह िह यहां अपनी बारहिीं पास कर ले तो उसे लेकर
है िराबाि चला जाऊं...क्या पता था फक इतनी जल्िी ऐसा हो जाएगा।‘

‘हे भगिान!‘ धनराज का दिमाग कलाबाजजयां खाने लगा, ‘ये फकस ितु नया में आ गया हूं
मैं?‘ फफर िह बहुत उिास हो गया।

×××

उिासी के उन्हीं दिनों में जोधपुर से धनराज का छोटा भाई बबना पूिष सूचना के अचानक
उसके घर आया-पहली बार।

धनराज बहुत खश
ु हुआ, लेफकन िापस उिास हो गया।

छोटा भाई उससे पांच साल छोटा था, लेफकन उसके लसर के ज्यािातर बाल उड़ गए थे।
बचे हुए बालों को सफेिी खा गई थी। उसके गाल वपचके हुए थे और िह थोड़ा झुककर चलता
था।

‘िस साल बाि लमल रहे हैं हम।‘ धनराज ने भाई को गले से लगा ललया। ‘लेफकन ये क्या
हालत बना ली है तन
ू ?
े ‘

‘कोई नहीं बनना चाहता ऐसा!‘ धनराज का छोटा भाई राकेश चैधरी हं सा, एक विर्ािग्रस्त
हं सी, ‘आपने भी कहां सुध ली हमारी...केिल अड़तीस सौ रुपये की नौकरी में अपने बीिी-बच्चों
के साथ मां, भाई और बहन को पालता रहा हूं मैं। ऐसा तो होना ही था।‘ भाई धनराज के गले
से अलग होकर बोला और फ्लैट में बसे ऐश्ियष को ताकने लगा।

‘मैं तो अभी भी नहीं आता...‘ भाई ने गिष न झुका ली, ‘लेफकन मां ने जबरन भेज दिया।
बोली अगर धनराज अपने फजष भुला बैठा है तो क्या? बंबई जा और बहन का हक छीनकर ला।‘

‘मतलब?‘ धनराज सन्न रह गया, ‘तू यहां लड़ाई-झगड़ा करने आया है ?‘

'नहीं भाई साहब। बबल्कुल नहीं। मां की भार्ा है िो। एक थक चक


ु ी मां की भार्ा। आप
शायि भूल गए हैं फक एक बहन भी है हमारी, जो इन िस िर्ों में चैबीस बरस की हो गई है ।
उसकी शािी करनी है । मैंने एक लड़का िे खा है ।‘

'चौबीस बरस की?‘ धनराज सोफे पर ढह गया।

162
‘आप शायि भूल गए हैं फक एक बहन भी है हमारी।‘ एक हथौड़ा उठा और धनराज की
खोपड़ी पर बजा। उसे याि आया-हर साल राखी पर एक मड़
ु ा-तड़
ु ा ललफाफा आता था जोधपरु से,
बबला नागा, जजसका जिाब उसने कभी नहीं दिया। बारह बजकर पांच लमनट पर एक फोन आता
था जोधपरु से ही, उसके जन्म दिन पर, उसके िस
ू रे भाई बबलू का। तीन-चार साल बाि िह
फोन आना भी बंि हो गया।

'मैं रे फ्रीजजरे टर मैकेतनक हूं, लेफकन मेरे अपने घर में फफ्रज नहीं है ।‘ भाई ने भाभी को
बताया और हं सने लगा।

अपराध-बोध के बीच टहलती सररता ने िे िर के ललए िहीिाला चचकन बनाया और


धनराज ने रम की बोतल खोली, ‘पीता है न?‘

'मुफ्त की लमल जाए तो।‘ भाई फफर हं सने लगा।

आधी रात बीतने तक कुछ-कुछ हताशा, कुछ-कुछ िोध और कुछ-कुछ गिष के साथ
रोकश चैधरी बीते हुए िस िर्ों में खड़े अपने संघर्ों के बारे में बताता रहा। धनराज और सररता
फकसी अपराधी की तरह सब सन ु ते रहे ।

‘बबलू क्या करता है ?‘ बीच बहस में धनराज को बबलू याि आ गया।

‘िो गुंिा बन गया है ।‘ राकेश चैधरी ने सूचना िी।

‘क्या बात कर रहा है ?‘ धनराज उत्तेजजत हो गया, ‘गुंिा मतलब?‘

'क्या मालम
ू ? उसके कुछ िोस्त लोग ही ऐसा बताते हैं। पता नहीं जोधपरु से बाहर कहां-
कहां जाता रहता है । िो-एक बार मैंने उसकी अटै ची में ररिाल्िर िे खी तो िर गया। सीधे मंह

बात भी कहां करता है ?‘ राकेश के चेहरे पर पन
ु ः बीता हुआ िःु ख उतर आया।

‘अरे ?‘ धनराज के िःु ख बढ़ते ही जा रहे थे।

‘पूरे चार साल इंतजार फकया उसने आपका, फफर अंधेरी गललयों में उतर गया। तीन साल
से तो अपने घर को पूरी तरह छोड़ दिया है । कभी-कभी ही आता है । अपना एक कांटेक्ट नंबर
दिया है उसने मां को। िहां मैसेज िे ने पर उसे लमल जाता है ।‘ राकेश चैधरी ने अपना चगलास
उलटा कर दिया।

‘क्या नंबर है उसका?‘ धनराज ने पछ


ू ा।

163
‘िो भी बस मां को ही पता है । कभी फोन करना हो तो मां ही करती है ।‘

धनराज को याि आया। उसने घर छोड़ते समय बबलू से िािा फकया था फक बंबई में
सैदटल होते ही िह उसे बंबई बुला लेगा और फफल्म इंिस्री में स्रगल करने का मौका िे गा।
बबलू को नाटक िगैरह करने का शौक था और िस साल पहले िह बीस िर्ष का था।

'मैं तो बहुत बुरा आिमी तनकला।‘ बबस्तर पर लेटते ही धनराज के िख


ु ों में नये आयाम
जुड़ने लगे।

×××
उस रात बहुत-बहुत दिनों के बाि धनराज अपने कदठन दिनों में लौटा।

िहां एक घर था। छोटा-सा िो कमरों का घर, जो वपता के आखखरी अरमान और आखखरी


सामान की तरह बचा रह गया था। इस मकान के बन जाने के कुछ ही समय बाि बीच नौकरी
में ही वपता चल बसे थे। वपता की मत्ृ यु से एक-िो महीने पहले ही धनराज िे हरािन
ू में अपनी
नौकरी गंिाकर सररता और छोटे रोदहत के साथ जोधपरु बसने पहुंचा था, वपता के ही घर में ।
राकेश उन दिनों शहर की सबसे बड़ी इलेक्रातनक्स की िक
ु ान में रे फ्रीजजरे टर मैकेतनक के रूप में
लगा हुआ था। उसी िौलत इलेक्रातनक्स में धनराज भी बतौर चीफ कैलशयर तनयुक्त हुआ। वपता
की मत्ृ यु हुई तो धनराज ने भाग-िौड़ करके राकेश को वपता के बिले उन्हीं के िफ्तर में लगिा
दिया। पूरा पररिार प्रसन्न था फक घर का एक सिस्य सरकारी मुलाजजम हुआ। सररता को एक
छोटे -से स्कूल में पढ़ाने का काम लमला हुआ था। छोटी-सी ही सही लेफकन एक बंधी हुई रालश मां
को पें शन के रूप में लमलने लगी थी। इन्हीं दिनों में जीते हुए धनराज वपता को कृतज्ञता की
तरह याि करता था फक उन्होंने एक घर बनिा दिया था, िरना तो पूरा कुनबा सड़क पर ही आ
जाता। जैसे-तैसे समय बीत रहा था।

उन्हीं दिनों बंबई जाते रहने िाले धनराज के एक िोस्त फकशोर ने उसके सामने प्रस्ताि
रखा फक अगर िह पच्चीस हजार खचष करे तो फकशोर उसे बंबई के सम्राट समूह में घुसिा सकता
है । सम्राट समूह बंबई की नामी कंपनी थी। प्रस्ताि खासा आकर्षक था। यह प्रस्ताि धनराज के
स्िप्नों को पंख िे ता था, लेफकन पच्चीस हजार बड़ी रालश थी। धनराज को लगा फक िह जोधपुर
में ही सड़ जाएगा। उन दिनों सबके पैसे मां के पास जाते थे- धनराज के, राकेश के, सररता के,
पें शन के। उस सामूदहक आय से कुनबा चलता था। साझे िख
ु ों और साझे सुखों का आत्मीय
जमाना था। मां को भनक लमली तो उसने अपना मंगल सूत्र बेच दिया। सररता ने भी अपने कड़े
उतार दिए। पांच हजार रुपये राकेश ने भी लमलाए।

164
और इस तरह धनराज बंबई आ पहुंचा। तब तक राकेश की शािी नहीं हुई थी।

फकशोर ने उस पैसे का क्या फकया, यह धनराज नहीं जानता। उसे बस इतना याि है फक
फकशोर ने उसे सम्राट समूह के पसषनल िायरे क्टर से लमलिाया। िायरे क्टर ने उससे एक
एप्लीकेशन ली, बायोिाटा के साथ और सातिें दिन िह चफकत-मुदित आंखों से अपने एपाइंटमें ट
लेटर को िे ख रहा था। छह महीने के प्रोबेशन पीररयि के साथ धनराज चैधरी सम्राट समूह का
मीडिया मैनेजर हो गया था।

बाि की सफलताएं धनराज ने खि


ु अजजषत की थीं।

इसके बाि धनराज आगे नहीं सोच पाया। कमरे में उसके खराषटे गूंजने लगे थे।

सब
ु ह राकेश चैधरी ने बताया, ‘मैं कल तीन बजे िोपहर की रे न से लौट जाऊंगा।‘

‘इतनी जल्िी?‘ सररता ने टोका, ‘िो चार दिन मुंबई तो घूम लेत।े ‘

‘घूमने की अय्याशी मेरे भाग्य में नहीं है भाभी।‘ राकेश बोला, ‘मैं सरकारी नौकरी में
जरूर हूं, लेफकन मेरा काम ऐसा है फक ज्यािा छुदट्टयां नहीं लमलतीं। मुझे सैतनक अचधकाररयों के
घर फफ्रज ठीक करने जाना होता है न!‘

‘आपको मां का मंगलसूत्र लौटाना है ।‘ अचानक राकेश ने याि दिलाया तो धनराज हड़बड़ा
गया।

‘शािी िेढ़ लाख में हो रही है ।‘ राकेश ने ब्यौरे िे ने शरू


ु फकए, ‘ममता की शािी में पचास
हजार मैं लगा रहा हूं। पच्चीस हजार बबलू भी िे गा। बाकी वपचहत्तर हजार रुपये आपको िे ने
हैं।‘

और ममता के गहने?‘ सररता ने पूछा।

‘िस साल पहले मां का मंगल सूत्र िस हजार का था, ऐसा मां ने बताया है ।‘ राकेश ने
सूचना िी, ‘बाकी आप लोगों की श्रद्धा, मैं तो पचास हजार भी कजे पर उठा रहा हूं। मैंने िस िर्ष
तक सबको पाला है । इसके बाि मेरा िम तनकल जाएगा।‘ राकेश ने बेचारगी से कहा, ‘मेरी भी
िो बेदटयां हैं।‘

हड़बड़ाए हुए धनराज चैधरी ने बड़ी कातर दृजष्ट से सररता को िे खा। सररता ने आंख के
इशारे से कहा, हां कह िो।

165
‘ठीक है ।‘ धनराज ने एक लंबी सांस छोड़ी, ‘मां के मंगलसूत्र को जाने िो। ममता के ललए
हाथ, कान और गले के गहने हम िें गे। वपचहत्तर हजार का चैक चलेगा?‘

‘हां।‘ राकेश ने राहत की सांस ली और सोचा, इतना बुरा भी नहीं है उसका भाई। राकेश
को उम्मीि नहीं थी फक भाई इतनी आसानी से हां कर िे गा।

‘अब मैं भी तुझे एक खबर िे ही िं ।ू ‘ धनराज ने मुस्कराने की असफल कोलशश करते हुए
कहा, ‘मेरी नौकरी छूट गई है ।‘

‘यह तो अच्छी खबर नहीं है । पर क्या कर सकते हैं ?‘ राकेश को सचमुच िःु ख हुआ।

थोड़ी ही िे र में िोस्तों के साथ िीकएंि मनाकर रोदहत भी घर आ गया और इतने िर्ों
के बाि अपने चच्चू को िे ख उछल पड़ा।

‘अबे, तू तो बहुत बड़ा हो गया।‘ राकेश ने रोदहत को गले लगा ललया, ‘इतना बड़ा भतीजा
भी चच्चू को चचिी नहीं ललखता।‘ राकेश ने उलाहना दिया।

‘चचिी का जमाना चला गया चच्च।ू तू अपना ई-मेल एड्रेस बना ले फफर िे ख मैं तुझे रोज
एक ई-मेल करूंगा।‘ रोदहत ने राकेश के उलाहने को मजाक में बिल दिया। फफर िह अपने चच्चू
को लेकर बबजल्िंग के टै रेस पर चला गया।

राकेश को वििा करने स्टे शन तक रोदहत ही गया। रोदहत बहुत खश ु था फक ममता बुआ
की शािी में जोधपुर जाएगा। चच्चू की शािी में भी िह जोधपुर नहीं गया था, क्योंफक उन दिनों
धनराज की सम्राट समूह में नयी-नयी नौकरी लगी थी और िह खि ु इतना बड़ा नहीं हुआ था फक
अकेले ही जोधपुर चला जाता। धनराज उन दिनों सम्राट समूह में दिन-रात एक फकए हुए था।
उसे समूह में खि
ु को प्रमाखणत करना था।

‘खि
ु को प्रमाखणत करते-करते तुम चतू तया बन गए गुरु।‘ धनराज ने सोचा और नम
आंखों के साथ भाई को वििा फकया।

उस रात िे र रात तक नींि नहीं आई।

िो

पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों नींि नहीं आती। िे र रात तक िह अपनी विशाल
कॉलोनी में जहां-तहां घूमता रहता। पहले जीिन नाक की सीध में चलता था, इसललए िह

166
कॉलोनी तो क्या अपनी सोसायटी तक के लोगों से अपररचचत था, मगर अब तो िह पूरी कॉलोनी
के ही रहस्यों से िो-चार होने लगा था।

पता नहीं क्या सोचकर बबल्िर ने कॉलोनी का नाम गोल्िन नेस्ट रखा था। िाल-िाल और
पात-पात तो क्या, िहां कहीं भी कोई सोने की चचडड़या बसेरा नहीं करती थी। इस सुनहरे घोंसले
को बबल्िर ने इस तरह बनाया था फक उसमें सभी आय िगष के लोग रह सकें। ऊंची-ऊंची िीिारों
से तघरी उस कॉलोनी का विशाल मेन गेट बंि होते ही िह पूरी तरह से बंि, सुरक्षक्षत फकले जैसी
हो जाती थी। गेट के भीतर की तरफ खल
ु ते ही बीचों-बीच िरू तक चली गई सड़क के िोनों ओर
बाजार था। सड़क के पहले िाएं मोड़ पर िन रूम फकचन के ढाई सौ फ्लैटों िाला सेक्टर-एक था।
िस
ू रे िाएं मोड़ पर िन बेि रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों िाला सेक्टर-िो था। सड़क के पहले बाएं
मोड़ पर टू बेि रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों िाला सेक्टर-तीन था और िस
ू रे बाएं मोड़ पर सेक्टर-
चार था। सड़क जहां समाप्त होती थी िहां बंगलेनम
ु ा पचास रो हाउसेज थे। यह सेक्टर-पांच
कहलाता था। इस कॉलोनी के भीतर एक बहुत बड़ा पाकष, स्िीलमंग पल ु , अस्पताल, ब्यट
ू ी पालषर,
पोस्ट ऑफफस, लसनेमा हॉल, स्कूल, हे ल्थ क्लब और बैंक भी था। सेक्टर पांच यानी रो हाउसेज
आधे से ज्यािा खाली थे, बाकी फकराए पर उठे हुए थे। इनमें अचधकतर तनजी नलसांग होम,
कोचचंग क्लासेज, ब्यट
ू ी पालषर, अंग्रेजी के प्राइमरी स्कूल, कंप्यट
ू र सेंटर, फेलमली रे स्त्रां, साइबर
कैफे और कम्युतनकेशन सेंटर खलु हुए थे। सड़क के िोनों ओर बने बाजार सभी तरह की िक ु ानों
से भरे हुए थे। जरूरत का हर सामान िहां मौजि
ू था। कॉलोनी में िो मंदिर भी थे-एक गणपतत
का, िस
ू रा लशरिी के साईंबाबा का। हां, मजस्जि िहां एक भी नहीं थी। िह कॉलोनी के बाहर,
हाईिे के उस तरफ, स्टे शन जाने िाली सड़क पर बसे नया नगर इलाके में थी।

यह छह दिसंबर के बाि हुए िं गों का ध्रि


ु ीकरण था फक ज्यािातर मस
ु लमान हाईिे के उस
तरफ और दहंि ू हाईिे के इस तरफ लसमट गए थे। नया नगर का परू ा इलाका लगभग मजु स्लम
पररिारों का था। मीरा रोि के दहंि ू नया नगर को लमनी पाफकस्तान कहते थे। हाईिे के उस पार
भी काफी पररिार दहंिओ
ु ं के थे लेफकन ज्यािा आबािी मजु स्लमों की ही थी। िहां भी जब जजसको
मौका लमलता, अपना घर बेचकर गोल्िन नेस्ट आ जाता था। गोल्िन नेस्ट में मस
ु लमानों के
सात-आठ पररिार ही थे, लेफकन िे सभी िहां फकराएिार थे, मकान माललक नहीं। उन्हीं में से
एक टे लर मास्टर याकूब भी था, जजसकी लड़की सकीना ने चह
ू े मारनेिाला जहर खाकर
आत्महत्या कर ली थी। िह सेक्टर-एक में फकराएिार ही था और अब है िराबाि चला गया था।

धनराज का घर सेक्टर-िो में था।

सेक्टर-िो में ज्यािातर लोग सरकारी या गैर सरकारी कंपतनयों में काम करनेिाले
कमषचारी थे, जजन्होंने इधर-उधर से कजष लेकर चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपने फ्लैट

167
बना ललए थे। सेक्टर-एक में तनम्न-मध्यिगीय लोग रहते थे। इनमें छोटे -मोटे अध्यापक, लोअर
डििीजनल क्लकष, ऑटो टै क्सी चलानेिाले, फफल्मों और सीररयलों में काम पाने के ललए स्रगल
कर रहे भविष्य के अलभनेता, पटकथा लेखक और गीतकार-संगीतकार तनिास करते थे। सेक्टर
तीन और चार साहबों की ितु नया थी। इनमें िॉक्टर, इंजीतनयर, छोटे -बड़े प्रोड्यस
ू र, शेयर माकेट
के ब्रोकर, बैंकों के अचधकारी, मल्टीनेशनल कंपतनयों के कमषचारी, टीिी चैनलों के कायषिम
अचधकारी, कालबा िे िी के छोटे व्यापारी, मेडिकल स्टोरों के माललक, अखबारों के संिाििाता,
िकील और प्रोफेसर रहा करते थे।

सेक्टर तीन और चार के नागररक सेक्टर एक और िो की तरफ जाना तो िरू झांकना भी


पसंि नहीं करते थे। यह अलग बात है फक बाजार ने उनकी तनजी पहचान लमटा िी थी। सेक्टर
एक और िो के लोग भी अपनी-अपनी विलशष्टता कायम रखने का प्रयत्न करते थे लेफकन उनकी
संपन्नता में िस बाई पंद्रह के लसफष एक कमरे का फकष था, इसललए उन िो सेक्टरों में
आिाजाही चलती रहती थी।

सेक्टर एक और िो के ही नहीं, मुख्य बाजार के भी काफी लोग, सेक्टर-िो के ताजा-ताजा


बेरोजगार हुए धनराज चौधरी को नाम और शक्ल से पहचानने लगे थे। िाइन शापिाला बबना
मांगे ओल्ि मौंक कम िे ता था, लसगरे टरिाला विल्स का पैकेट। मटन शापिाला चांप और गिष न
का गोश्त िे ता था, साथ में मछली हड्िी। सब्जीिालों को पता था फक उसे करे ला, कटहल,
पालक, दटंिा, मटर और शलगम-गाजर पसंि हैं। चचकन की उसकी अपनी पसंिीिा िक
ु ान थी
और मछली की अपनी। घर का राशन पानी अजस्मता सप
ु र माकेट से आता था और बाल लकी
हे यर कदटंग सैलन
ू में कटते थे। मेडिकल स्टोरिाला धनराज को िे खते ही नारमेस फाइि एम जी
का पत्ता पकड़ा िे ता था। शीतल नानिेज का माललक उसे नाम से बुलाता था और उसे िे खते ही
िेटर को पहाड़ी या रे शमी कबाब पासषल करने का हुक्म सन
ु ा िे ता था।

िह मोलभाि करने और सजब्जयां खरीिने में पारं गत हो गया था। कॉलोनी और उसके
बीच जो अपररचय का विंध्याचल था, िह िमशः गलने लगा।

धनराज ने िे खा फक िै नंदिन जीिन जीते, संघर्षरत लोगों को इस बात से कोई फकष नहीं
पड़ता फक कौन, कहां, क्या काम कर रहा है या नहीं कर रहा है । िे लसफष इस बात पर नजर
रखते थे फक फकसके फकचन में क्या पका, फकसके घर कौन-सा नया सामान आया, फकसने
फकसके जन्मदिन पर क्या दिया या फकस घर की लड़की या लड़का फकससे फंसा हुआ है ।
रोजगार उनके ललए लसफष माध्यम था, ताकत या घमंि का प्रतीक नहीं। उनके िःु ख इस विर्य
में ललपटे थे फक सुबह पानी समय पर नहीं आया और उन्हें बबना नहाए काम पर जाना पड़ा।

168
समय पर रे न पकड़ लेना उनके ललए सबसे बड़ी जंग थी। फोन के खराब हो जाने पर िे घंटों
बहस कर सकते थे और बबजली चले जाने पर सड़कों पर रै फफक जाम कर सकते थे।

धनराज ने पाया फक कॉलोनी की औरतें उससे बात करने लगी हैं और बच्चे नमस्ते
अंकल कहने लगे हैं। िाचमैन उससे अपनी तकलीफें शेयर करने लगे हैं और िक
ु ानिार लगातार
चगरते बाजार का रोना रोने लगे हैं। इतने सारे लोगों में फकसी को इस बात की चचंता नहीं थी
फक धनराज की नौकरी चली गई है । उन्हें लगता था फक ऐसे लोगों की नौकररयां लगती-छूटती
रहती हैं।

‘भाई साहब, हमारा एक काम करें गे क्या?‘ एक दिन रास्ते में उसे िे विका ने टोक दिया।

‘क्या?‘ धनराज ने िे विका को जांचा।

िह ऊंची, भरी-परू ी, शानिार मदहला थी। अगर उसके पास अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप
और कामचलाऊ जेिर होते, तो िह सेक्टर एक और िो की हे मा माललनी बन सकती थी। िह
सेक्टर-एक में रहती थी और धनराज समेत सेक्टर-िो के कई घरों में उसका आना-जाना था।

‘इनकी दहम्मत नहीं पड़ रही है आपसे बात करने की।‘ उसने अपने पतत का पक्ष सामने
रखा, ‘ये लेिीज के अंिर गामेंट्स बेचने िाली कंपनी के सेल्समैन हैं। टूर से लौटकर इन्हें अपनी
ररपोटष िे नी पड़ती है । लेफकन ये अंग्रेजी नहीं जानते। क्या आप इनकी दहंिी ररपोटष को अंग्रेजी में
बना िें गे?‘

‘ठीक है ।‘ उसने गिष न दहला िी।

‘धन्यिाि भाई साहब।‘ िे विका गिगि हो गई। रात के भोजन पर सररता ने बताया,
‘िे विका के घर से तुम्हारे ललए लमची का अचार और गट्टे की भाजी आई है ।‘

लेफकन िे विका के पतत रतन केडड़या की माकेट ररपोट्षस ने धनराज को विचललत कर


दिया।

रतन केडड़या की ररपोटें िे सी रोजगार का मलसषया थीं। जयपरु हो या जोधपरु , गोिा हो या


नागपरु , सातारा हो या सांगली, अजमेर हो या कोल्हापरु , पण
ु े हो या नालसक, रत्नाचगरी हो या
इंिौर-हर जगह जस्त्रयों के अंतःिस्त्रों पर नामी ब्रेंि हािी थे। बड़े शहरों में जस्त्रयों के तन वििे शी
ब्रेंि ढक रहे थे। ऐसे में रतन केडड़या की लोकल कंपनी कहां ठहर सकती थी?

कुछ ही समय बाि रतन केडड़या की ररपोटें आनी बंि हो गईं।

169
रतन केडड़या ने बताया फक उसे नौकरी से तनकाल दिया गया है और हं सने लगा।

नौकरी चले जाने पर ये लोग हं सते क्यों हैं? धनराज ने सोचा लेफकन उसे जिाब नहीं
लमला।

उन्हीं दिनों एक रात िह थैले में सजब्जयां, अंिे और शराब लेकर लौट रहा था फक उसने
सेक्टर िो के सेिेटरी दहमांशु शाह को उसके फ्लैट के नीचे खड़े लसगरे ट पीते िे खा।

‘नीचे क्यों खड़े हो?‘ धनराज ने यंू ही सिाल उछाल दिया।

शाह ने नयी लसगरे ट सल


ु गा ली, ‘आज मझ
ु े नौकरी से हटा दिया गया है ।‘ शाह खखलसया
कर बोला, ‘समझ नहीं आ रहा है फक यह बात ऊपर जाकर हवर्षता को कैसे बताऊं?‘

हवर्षता दहमांशु की पत्नी का नाम था।

दहमांशु अपोलो टायर में काम करता था। बीस दिन पहले ही उसने अपनी बेटी का पहला
जन्म दिन मनाया था और पूरे सेक्टर-िो को चचकन बबरयानी की िाित िी थी। धनराज के ललए
उसने विशेर् इंतजाम फकया था। लोगों की नजरें बचाकर िह धनराज को अपने बेिरूम में छोड़
आया था, जहां रायल चैलेंज की एक बाटल तीन-चार सोिों के साथ पड़ी थी।

धनराज तीन पैग पीकर िापस टै रेस पर चलती पाटी में शरीक हो गया था।

‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने पछ


ू ा।

‘िे खते हैं।‘ दहमांशु बोला, ‘कुछ नहीं हुआ, तो घर-बार बेचकर गांि चले जाएंगे।‘ दहमांशु
अपने फ्लैट की सीदढ़यां चढ़ने लगा।

गांि? धनराज की हलक में कांटे-से गड़ने लगे। गांि के नाम पर उसे सुबह ही पढ़ी गई
एक खबर याि आ गई। िह मध्यप्रिे श के छतरपुर जजले के बरानांि गांि की खबर थी।

शताब्िी के सबसे भीर्ण सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों में जस्थततयां विकट हो गई थीं।
गांि के लोग पेड़ों की छाल पीसकर खा रहे थे। फसलें तबाह हो गई थीं। जजन लोगों के पास
फकराए लायक पैसे थे, िे काम की तलाश में तनकट के शहरों को तनकल गए थे। जजनके पास
नहीं थे, िे गांि में भूखे-प्यासे मर रहे थे।

और यह केिल बरानांि गांि की कहानी नहीं थी।

170
गांि-िर-गांि भूख-प्यास का प्रेत मंिराता फफर रहा था। कुटीर उद्योग तबाह हो गए थे।
रोजगार उपलब्ध नहीं थे। ऐसी कोई कंपनी नहीं बची थी, जहां िस, बीस या तीस प्रततशत
कमषचारी छं टनी के लशकार नहीं हो रहे थे।

ऐसे में धनराज का जन्म दिन आया।

सुबह-सुबह जगाकर सररता और रोदहत ने धनराज को विश फकया, फफर सररता ने ताना
जैसा मारा, ‘आज कोई पाटी-िाटी नहीं हो रही?‘

धनराज ने नींि की ितु नया में जाकर िे खा - िह एक तीन लसतारा होटल का पाटी रूम
था, जहां उसके जन्मदिन की पाटी प्रायोजजत की गई थी। शहर के करीब पचास लोग उस पाटी
में शरीक थे। उनमें एक टीिी चैनल का कायषिम प्रमुख था। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठे केिार थे,
कुछ होलसेल वििेता थे। िो बैंकों के डिप्टी मैनेजर थे। अनेक बबजनेस समूहों के मीडिया मैनेजर
थे। कुछ पी आर ओ और कुछ सरकारी अचधकारी थे। एक इंटरनेट कंपनी का कंसलटें ट एिीटर
था और थीं कुछ उिीयमान मािल। सब-के-सब कोई-न-कोई तोहफा लेकर आए थे और अपने-
अपने डड्रंक्स के साथ अपने-अपने जुगाड़ में व्यस्त थे। एक फोटोग्राफर इस खश
ु गिार मौके को
कैमरे में कैि कर रहा था। िेटर पनीर दटक्का, चचकन दटक्का और सीख कबाब सिष करने में
तल्लीन थे। िख
ु ों की सूचनाओं तक से िरू जगर मगर करता एक बाजार िहां बबछा पड़ा था।

जन्मदिन िाले रोज धनराज सुबह-सुबह तैयार होकर फोन के पास बैठ जाता था। उस
दिन िह िफ्तर से छुट्टी लेता था। कई िर्ों से यही तनयम था। हर बरस िह चगनती करता था
फक जन्म दिन की बधाई िे ने िालों में फकतने लोगों की घट-बढ़ हुई। यह उसका वप्रय शगल था।
बधाई िे नेिालों में से कुछ को िह शाम को होनेिाली पाटी में तनमंबत्रत करता था। सम्राट समूह
से कोई कांरेक्ट हालसल करने का इच्छुक व्यापारी यह पाटी आयोजजत करता था। इस पाटी में
सौिों का लेन-िे न भी होता था। ऐसी अनेक पादटष यों के फोटो एलबम धनराज की िाुल यूतनट
की शोभा बढ़ा रहे थे।

लेफकन इस बार धनराज िे र तक सोता रहा। पत्नी के ताने पर िह मुस्करा भर दिया।


दिन भर में कुल लमलाकर तीन फोन आए। एक उसके भाई राकेश चैधरी का, एक उसकी सास
का और तीसरा उसके फैलमली िाक्टर राणाित का।

शाम सात बजे चैथा फोन आया उसके पड़ोसी दहमांशु शाह और उसकी पत्नी हवर्षता का।
उसे याि आया-एक जन्मदिन के भव्य आयोजन में उसने शाह िं पजत्त को भी तनमंबत्रत फकया
था।

171
‘तुम्हारा फोन आने से सचमुच अच्छा लगा दहमांशु।‘ धनराज द्रवित हो गया।

'क्या बात करते हैं धनराज जी।‘ दहमांशु ने गमषजोशी से कहा, ‘आज आपके जन्मदिन की
पाटी हमारी तरफ से हमारे घर में है । आप भाभी और रोदहत के साथ आठ बजे तक पहुंच
जाइए।‘

धनराज बेआिाज बबखर गया।

तनष्कपट जीिन नींि के बाहर ही है धनराज, धनराज ने सोचा। तम


ु ने व्यथष ही अपना
जीिन यों सुखा िाला। पैसे कमाने के बजाय अगर तुमने ररश्ते कमाए होते, तो जीिन का रं ग
आज कुछ और ही होता। और पैसे भी क्या कमाए? एक छोटा-सा फ्लैट, जरा-सा बैंक बैलेंस और
िह भी अपनी नींिें बेचकर? मां जैसे ितु नया के सबसे कीमती ररश्ते की अकारण नाराजगी मोल
लेकर।

धनराज को अपनी मां याि आ गई।

बचपन िाली मां।

मां धनराज का जन्मदिन मना रही थी।

िह मुजफ्फरनगर का सड़क फकनारे बना एक सीलन भरा कमरा था, जजसके बाहर बने
बड़े से नाले से कीचड़ और मल-मूत्र लगातार बहता रहता था। उन दिनों वपता का रांसफर
जोशीमठ में हो गया था और वपता ने पररिार को यहां रखा हुआ था क्योंफक जोशीमठ में पररिार
को साथ रखने की अनुमतत नहीं थी।

मज
ु फ्फरनगर के उस फकराए के कमरे में माथे पर टीका लगाकर लमठाई के नाम पर गुड़
खाया था धनराज ने और गल्
ु ली-िंिा खेलने मैिान में चला गया था। तब तक बबलू और ममता
पैिा नहीं हुए थे, लेफकन उनके पैिा होने के बाि भी घर में लसफष धनराज का ही जन्म दिन
मनाया जाता रहा। पता नहीं क्यों?

×××

पता नहीं धनराज को इन दिनों बहुत अजीब और बेहूिा-बेहूिा खयाल आते रहते और िह
चचंता से भर जाता। पढ़-ललखकर या पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए सेक्टर-एक के जिान छोकरों को
धनराज पाकष की बेंचों, चायघरों या पान की िक
ु ानों के बाहर खाली बैठे िे खता और उसे लगता

172
इनमें से कुछ लड़के जल्िी ही अरुण गिली या िाउि इब्रादहम के गैंग में शालमल हो जाएंगे। िह
उन्हें अपनी कल्पना में सेक्टर-चार के लोगों को शट
ू करते िे खता और पसीने-पसीने हो जाता।
िह िे खता फक रोदहत की कंपनी भी बंि हो गई है और िह गोल्िन नेस्ट के बाहर उबले हुए अंिे
बेचने लगा है । कभी िह िे खता फक उसने अपना मकान बेचकर सेक्टर-एक में िन रूम फकचन
ले ललया है और ऑटो चलाने लगा है । कभी उसे दिखाई िे ता फक उसने बबलू को फोन फकया है
और बबलू ने मंब
ु ई आकर सम्राट समह
ू के चेयरमैन का भेजा भन
ू दिया है ।

जब कभी िह माकेट में खरीिारी के ललए तनकलता, तो एक-एक िक


ु ान को गौर से
िे खता और सोचता फक िह फकस चीज की िक
ु ान खोल ले, ताफक व्यस्त भी रहे और चार पैसे
भी कमाए। लेफकन हर िक
ु ान का माललक उसे बताता फक उसका धंधा मंिा चल रहा है । िक
ु ानें
उठ रही हैं। व्यिसाय बैठ रहे हैं। अपहरण, िकैती और हत्याएं बढ़ रही हैं।

धनराज जब-जब एटीएम मशीन से पैसे तनकालने जाता, अपना बैलेंस िे ख कर चचंताग्रस्त
हो जाता। बैंक में पैसे जमा नहीं हो रहे थे, लसफष तनकलते जा रहे थे। अगले महीने ममता की
शािी थी। हाथ, गले और कान के जेिरों का उसने जो िािा फकया था, उनका एस्टीमें ट पैंतीस
हजार बैठ रहा था। कम से कम िस हजार आने-जाने-रहने में खचष होनेिाले थे।

अभी तक धनराज ने रोदहत की तनख्िाह पर नजर नहीं िाली थी, लेफकन अब उसे रोदहत
के खचष खटकने लगे। उसने पाया फक रोदहत ने अब तक जो भी कमाया था, िह सब का सब
महं गी कमीज-पैंटों, िीकएंि पादटष यों, लसनेमा और जूतों पर उड़ा दिया था, अब उसे जीन्स और
टाुप पहनकर कभी-कभी घर चली आनेिाली रोदहत की गलष फ्रेंड्स भी अखरने लगी थीं।

‘तू मोबाइल और बाइक कब लेगा यार?‘ लड़फकयां धनराज के सामने ही रोदहत को नये
खचों के ललए उकसातीं और धनराज कुढ़ता रहता।

इसी कुढ़न में एक दिन धनराज ने अपना एसी और िीसीआर बेच दिया और पैसे बैंक में
जमा कर दिए। उसका तकष था फक मुंबई में एसी की कोई जरूरत नहीं है और िीसीआर गए
जमाने की चीज हो गई है । इतने सारे चैनल हैं, चैबीस घंटे चलती फफल्में हैं, ऐसे में िीसीआर
की कोई उपयोचगता नहीं है । कुछ दिनों के बाि उसने एक साइबर कैफे को अपना कंप्यूटर,
वप्रंटर, स्कैनर मय कंप्यूटर टे बल के बेच दिया। उसका कहना था फक अब रोदहत पूरे दिन िफ्तर
में व्यस्त रहता है और शामों को कंप्यूटर के नये कोसष की कक्षाओं में । इसललए घर में फालतू
सामानों की भीड़ बढ़ाने की कोई तुक नहीं है । कुछ दिनों के बाि धनराज अपनी फैक्स मशीन भी
बेच आया। उसका कहना था फक जब नौकरी ही नहीं है तो फैक्स फकसके आएंगे?

173
सररता और रोदहत आिशष पत्नी और आज्ञाकारी बेटे की तरह जीते आए थे, इसललए
उन्होंने धनराज की हरकतों का सीधा विरोध तो नहीं फकया, लेफकन अब िे िोनों भी चचंततत हो
गए। िोनों को एक साथ लगा फक धनराज कहीं उन्हें मंब
ु ई के पहलेिाले दिनों में तो नहीं ले
जाना चाहता है ! िोनों को लगा फक समय रहते जाग जाना चादहए।

एक रात िो पैग पी लेने के बाि धनराज का सामना रोदहत से हो गया। उसने टीिी बंि
फकया और रोदहत को अपने सामने बबठा ललया। रोदहत चौकन्ना हो गया।

‘िे खो, मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है । तुम्हारी खलु शयों का िश्ु मन नहीं हूं मैं।
लेफकन तुम खि ु बताओ...‘ धनराज ने तीसरा पैग बनाया, ‘अब जब तुम्हारा बाप बेरोजगार है ,
ऐसे में क्या तुम्हें शोभा िे ता है फक तुम अपनी पगार िेनह्यूजन की पैंटों, चचरागिीन की शटों
और िो-िो हजार के जूते खरीिने में खचष करो...िीकएंि की पादटष यों में हजार-पांच सौ का
कंरीब्यूशन करो...मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चादहए रोदहत, तुम्हें छह हजार रुपये लमलते हैं। एक
हजार रुपये अपने खचे के ललए रखो और पांच हजार रुपये बैंक में जमा करा िो। एक साल में
साठ हजार रुपये...यू नो, ये पैसा एक दिन तुम्हें बहुत ताकत िे गा।‘ धनराज ने तीसरा पैग
समाप्त कर दिया।

‘मैं ऐसा नहीं सोचता पापा...मैं कमाने और खचष करने में यकीन रखता हूं। रोदहत ने
पहली बार अपने वपता के साथ बहस की, ‘आप िे खते ही हैं फक िी गैंग के शूटर बबल्िरों,
प्रोड्यूसरों, िाक्टरों को गोललयों से भून िे ते हैं और उनका पैसा यहीं पर रह जाता है । वपछले
दिनों सेक्टर चार में रहने िाला मेरा एक िोस्त मकरं ि जोगेश्िरी में एक खंभे से टकराकर रे न
से चगरा था। िह अब तक कोमा में है । मकरं ि एक मल्टीनेशनल कंपनी में िेब डिजाइनर था।‘

‘अरे िाह!‘ धनराज ताललयां बजाने लगा, ‘तुम तो बहुत समझिार हो गए हो।‘ धनराज
हसंने लगा, ‘िैसे मैं तुम्हें बता िं ू फक सेक्टर-चार के लड़कों के साथ तम्
ु हारी िोस्ती बहुत अच्छे
संकेत नहीं हैं।‘

‘तो क्या मैं सेक्टर-एक के टपोरी लड़कों के साथ रहा करूं?‘ रोदहत ने ततललमला कर
जिाब दिया।

धनराज चप
ु हो गया। िह खि
ु भी यह कहां चाहता था फक उसका बेटा सेक्टर-एक के
लड़कों जैसा हो जाए। तो फफर?

क्या चाहता है धनराज? धनराज ने सोचा और चैथा पैग बनाने लगा।

174
‘अब बस करो।‘ आखखर सररता ने हस्तक्षेप फकया, ‘लड़के की तनख्िाह पर आंख गड़ाने
से बेहतर है फक तम
ु शराब पीना छोड़ िो।‘

‘क्या?‘ धनराज आहत हो गया, ‘तुम भी? ओ.के. छोड़ िे ता हूं।‘ धनराज ने कहा और रम
की बची हुई बाटल को खखड़की से बाहर फेंक दिया।

रात के अंधेरे और सन्नाटे में फ्लैट के वपछिाड़े चगरने के बािजूि बाुटल के टूटने ने
खासा शोर फकया। िाचमैन की सीदटयां गूंजने लगीं। िो-तीन लोगों ने अपनी-अपनी खखडड़फकयों से
झांककर भी िे खा। धनराज पर कोई प्रततफिया नहीं हुई। उसकी आंखें एक अजीब-से अचंभे में
पहुंचकर जस्थर हो गई थीं, फफर िह सोफे पर ही पसर गया।

बहुत दिनों के बाि धनराज बबना खाना खाए सो गया।

'सारी पापा।‘ सोते हुए धनराज के माथे पर फकस फकया रोदहत ने, ‘मैं आपकी तकलीफ
को समझता हूं।‘

सररता की आंख में बड़े दिनों के बाि कुछ आंसू आए। िह धनराज के जूते उतारने लगी।
िे र तक बेिरूम की खखड़की से बाहर के अंधेरे को ताकती हुई िह सोचती रही फक उनकी गह
ृ स्थी
को फकसका शाप लगा है ।

उस रात दिल्ली के एक महं गे इलाके में एक धन पशु काुलेज की एक लड़की से


बलात्कार करने के बाि उसे काट-काटकर तंिरू में भून रहा था और मंुुबई के कुछ होटलों में
बीवियां बिलने का खेल चल रहा था।
×××

गोल्िन नेस्ट के बाहर हाईिे पर शेयर ऑटो लमलते थे। है रान परे शान धनराज ने शेयर
ऑटो फकया और पांच रुपये में भायंिर स्टे शन पहुंच गया। पुल पार करके िह भायंिर पजश्चम
पहुंचा और उसने भगत लसंह पुस्तकालय की सिस्यता ले ली।

इस पुस्तकालय में होनेिाली एक छोटी-मोटी-सी कवि गोष्ठी में एक बार िह मुख्य


अततचथ बनकर आया था।

‘िस दिन जब ितु नया दहल उठी‘ नाम की फकताब इशु कराकर िह पस्
ु तकालय की मेज के
एक कोने पर चला गया। उसे फकताब के नाम ने आकवर्षत फकया था। लेफकन जल्िी ही िह ऊब
गया। उसने फकताब िापस कर िी और बाहर आ गया।

175
रे ल की पटररयों के पास एक बड़ी-सी खल ु ी जमीन, जजस पर लकड़ी के मोटे -मोटे स्लीपर

पड़े थे, पर धनराज ने बहुत सारे बढ़ ू ों को िे खा। उसे लगा, बढू े लोगों की कोई सभा है । उन बढ़
ू ों
के पास से गजु रता हुआ धनराज िापस पल
ु पर आ गया और पल
ु पर चढ़ती-उतरती भीड़ को
िे खने लगा।

बहुत भीड़ हो गई है । उसने सोचा और खि


ु भी भीड़ का दहस्सा बन कर सीदढ़यां उतरने
लगा। पूिष में आकर िह शालीमार फनीचर के उपाध्याय जी के पास बैठ गया। धनराज के घर
का ज्यािातर फनीचर शालीमार से ही गया था। उन्होंने धनराज के ललए काफी मंगिा ली।

‘बड़े दिनों के बाि आना हुआ?‘ उपाध्याय जी ने पूछा, ‘क्या चादहए?‘

‘अब घर में जगह ही कहां बची है ।‘ धनराज ने जिाब दिया, ‘सब कुछ तो है ।‘

'सो तो है ।‘ उपाध्याय जी खखलसयाकर बोले, ‘इस धन्धे में भी बहुत मंिी आ गई है । कई-
कई दिन बीत जाते हैं कोई कुछ खरीिने ही नहीं आता। लगता है सब लोग सब कुछ खरीि चक ु े
हैं। अब तो िक
ु ान का फकराया तनकालना भी भारी पड़ रहा है ।‘ उपाध्याय जी ने अपनी विशाल
िक
ु ान को तनहारते हुए ठं िी सांस ली।

धनराज ने बूढ़ों के बारे में पूछा, ‘िे कौन लोग हैं?‘

उन्हें उनके बेटे-बहुओं या िामाि-बेदटयों ने घर से तनकाल दिया है । इसललए दिन भर


पटररयों पर टाइम पास करते हैं।

‘क्यों?‘ धनराज थोड़ा-सा चफकत हुआ और थोड़ा-सा उिास, ‘घर से क्यों तनकाल दिया है ?‘

‘क्या है फक लोग एक-एक कमरे के घरों में रहते हैं। बेटा या िामाि काम पर चले जाते
हैं तो बेटी-बहुओं के बीच एक कमरे में कैसे रहें गे? इन्हें सब
ु ह तनकाल दिया जाता है और रात
को िापस ले ललया जाता है ।‘ उपाध्याय जी ने समझाया।

इसका मतलब अपने सेक्टर-एक के भी कुछ बढ़


ू ों का जीिन यही होगा। धनराज ने सोचा
और पछ
ू ा, ‘और इनका खाना?‘ िह बढ़
ू ों को लेकर चचंततत हो गया।

'खाना, रात को लमलता है न! दिन में बड़ा पाि िगैरह खा लेते होंगे।‘ उपाध्याय जी ने
लापरिाही से कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है । मैं कुछ ऐसे बूढ़ों को जानता हूं, जजन्हें उनके बेटों ने
विरार से चचषगेट का पास बनिा दिया है । बूढ़े सुबह विरार रे न में जाकर बैठ जाते हैं और रात
को उसी रे न से उतरकर अपने घर चले जाते हैं।‘

176
‘और लैटरीन-बाथरूम?‘ धनराज पूछ बैठा।

‘उसके ललए स्टे शन हैं न!‘ उपाध्याय जी को धनराज की अज्ञानता पर चचढ़-सी मची,
‘और बताइए क्या चल रहा है ?‘

‘चलना क्या है ?‘ धनराज मुस्कराया और िापस शेयर ऑटो में बैठकर घर लौट आया।

धनराज का घर!

रात को जब धनराज ने बबना शराब वपए खाना खा ललया तो सररता खश


ु होने के बजाय
िख
ु ी हो गई। उसके भीतर एक खरा पश्चाताप उग आया, ‘इतनी कठोर बात नहीं करनी चादहए
थी इस आिमी से, जजसने पररिार को सारे सख
ु दिए। क्यों औरतें पतत और बेटे में से फकसी
एक के साथ खड़ी नहीं रह पातीं?‘ सररता ने सोचा और िबिबाई आंख ललए फकचन में चली गई।

ग्यारह बजे के करीब रोदहत घर में घुसा। उसने धनराज को सोफे पर पड़े िे खा तो इशारों
से सररता से पूछा। सररता ने उस चप
ु रहने का इशारा फकया और रोदहत चप
ु चाप बेिरूम में आ
कपड़े बिलने लगा।

खाना खाकर रोदहत हॉल में आया और बोला, ‘पापा, लाइट बंि कर िं ?
ू ‘

‘नहीं।‘ धनराज ने जिाब दिया और करिट बिल ली। फफर पूरी रात धनराज ने िो ही
काम फकए-िाएं से बाएं करिट ली और बाएं से िाएं।

उसकी करिटों को िे र रात तक महसस


ू फकया रोदहत और सररता ने।

अगली सुबह फ्रेश होकर धनराज िापस भगतलसंह पुस्तकालय चला गया। उसने
अल्माररयों में लगी बहुत-सी फकताबों को िे खा-िाइम एंि पतनशमें ट, अन्ना कैरे तनना, राम की
शजक्त पूजा, मुजक्त बोध रचनािली, उखड़े हुए लोग, मां, सारा आकाश, आदि विद्रोही, कुरू कुरू
स्िाहा, एक चचथड़ा सुख, अपने-अपने अजनबी, लमत्रो मरजानी, भागो नहीं ितु नया को बिलो,
पंज
ू ी, ररिोल्यश
ू न इन ि ररिोल्यश
ू न, हं ड्रि
े इयसष ऑफ सालीट्यि
ू , आधी रात की संतानें, तमस,
काला जल, कव्िे और काला पानी, िशषन दिग्िशषन, कम्यतु नस्ट मेनीफेस्टो, कसप, अंधेरे बंि
कमरे , ठुमरी, गोिान, कनवु प्रया, अंधा यग
ु , मि
ु ाषघर, बेिी समग्र, मंटोनामा, िािर पल
ु के बच्चे।

फफर िह थक गया। फकताबों से उसका िास्ता बीए पास करने तक का ही रहा था। उसे
लगा यह ितु नया उसकी नहीं है । बहुत-बहुत हताश होकर िह िापस मेज पर बैठ गया। िे र तक
बैठा रहा फफर थके किमों से बाहर तनकल आया।

177
बाहर जीिन युद्धरत था। लोग हाथों में ब्रीफकेस ललए, कंधे पर झोला लटकाए, लसर पर
बोझ उठाए रे न पकड़ने के ललए भागे जा रहे थे। दटकट विंिों की लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे,
रे लिे स्टाल पर खड़े-खड़े बड़ा पाि, पाि समोसा, कचैरी खा रहे थे, कोक पी रहे थे, कानों से
मोबाइल चचपकाए संिेश सन
ु रहे थे, भागकर रे न के पायिान पर लटक रहे थे। फकसी के पास
फकसी के ललए फुसषत नहीं थी। भीड़ को िे ख अंिाजा लगाना मजु श्कल था फक कौन काम पर जा
रहा है और कौन काम से तनकाला जाकर लौट रहा है । फकसके पास पैसा है और फकसके पास
पैसा नहीं है । सबके चेहरों में लसफष एक ही समानता थी फक सबके चेहरे खामोश, चचंताग्रस्त और
खोए-खोए से नजर आते थे-फफर चाहे िे चेहरे जस्त्रयों के हों या परु
ु र्ों के।

धनराज पुल पार करके भायंिर पूिष की तरफ आ रहा था फक एक ठीक-ठाक से दिखते
लड़के ने उसे सीदढ़यों पर टोक दिया, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘ धनराज अचकचा गया और
तेजी से बोला ‘हां हैं, क्यों?‘

‘मुझे िीजजए न!‘ लड़के ने आग्रह फकया।

‘क्यों भई!‘ धनराज ने पूछा। लड़का कहीं से भी लभखारी जैसा नहीं लगता था।

‘िड़ा पाि खाना है ।‘ लड़के ने गिष न झुका िी।

‘घर से भागकर आए हो?‘ धनराज ने पछ


ू ा।
‘हां।‘ लड़के ने स्पष्ट जिाब दिया।

‘कहां से?‘ धनराज की उत्सुकता में इजाफा हुआ।

‘बबहार से।‘ लड़का मासूलमयत से बोला।

‘क्यों?‘ धनराज के तेिर आिामक हुए।

‘काम की तलाश में ।‘ लड़का सहमा-सा बोला।

‘तो काम करो। भीख क्यों मांगते हो?‘ धनराज ने उसे नसीहत और तीन रुपये एक साथ
दिए।

‘लाइए काम।‘ लड़का तत्परता से बोला, ‘मैं काम करने को तैयार हूं। सब बोलते हैं, काम
करो, पर काम िे ता कोई नहीं है ।‘

178
‘कहां-कहां काम ढूंढा? पढ़े -ललखे हो?‘ धनराज के भीतर लड़के को लेकर दिलचस्पी पैिा
होनी शरू
ु हुई। यंू भी िह खाली ही तो था, अच्छा टाइम पास हो रहा था।

'कालबा िे िी के बाजारों से लेकर भायंिर के बाजारों तक घूमा हूं। िसिीं पास हूं पर सब
बोलते हैं फक फकसी जान-पहचान िाले को लाओ।‘ लड़का व्यचथत था।

'मुबई आने की सलाह फकसने िी?‘ धनराज ने पूछा।

'फकसी ने नहीं।‘ लड़का सहजता से बोला, ‘बबहार के लड़के भाग कर या तो मंब


ु ई आते हैं
या कलकत्ता जाते हैं।‘

‘तम्
ु हारे ललए ज्यािा कुछ नहीं कर सकता मैं।‘ धनराज गहरी उिासी में िूबकर बोला और
उसने लड़के को जेब से एक बीस रुपये का नोट तनकालकर िे दिया।

धनराज रे लिे स्टाल पर खड़ा इिली सांभर खा रहा था, जब उसने उसी लड़के को एक
िस
ू रे आिमी से पूछते िे खा, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘

'तो भीख मांगने का यह आधतु नक तरीका है ?‘ धनराज ने सोचा और खि


ु को छला गया
महसूस फकया। पैसे चक
ु ाकर िह स्टे शन के बाहर तनकल रहा था फक एकिम अचानक उसे अपने
वपता की याि आई। उसने िे खा स्टे शन के बाहर, दटकट विंिो के सामने एक 40-45 साल का
थका-थका-सा आिमी बांसुरी पर गा रहा था-

‘चप
ु के-चप
ु के रोनेिाले

रखना छुपा के दिल के छाले...

ये पत्थर का िे स है पगले

कोई न तेरा होय।‘

धनराज रुक गया। कई लोग रुके हुए थे। िह आिमी भीख नहीं मांग रहा था, लसफष गाना
गा रहा था। लेफकन उसकी आिाज में इतनी करुणा, इतना विलाप और ििष था फक लोग खुि-ब-
खि
ु उसे एक रुपया, आठ आना, िो रुपया दिए जा रहे थे। धनराज ने भी एक िो रुपये का
लसक्का उसे दिया और सोचा, बबहार से आए उस लड़के को इस आिमी के सामने केिल खड़ा
कर िे ना चादहए।

रखना छुपा के दिल के छाले...धनराज ने िोहराया और वपता की याि गहरी हो गई।

179
मत्ृ यु से कुछ समय पहले तक वपता बबस्तर में लेटे-लेटे यही गाना गाया करते थे-

वपंजरे के पंछी रे

तेरा ििष न जाने कोय...

मत्ृ यु की तरफ जाते वपता िे ख रहे थे फक जीिन भर के जी तोड़ संघर्ष के बािजि


ू घर
उनसे संभल नहीं पाया था। अपने अंततम दिनों में िह बहुत हताश थे और आंखें बंि कर के
गाते रहते थे –

रखना छुपा के दिल के छाले रे ...

यह तब की बात है , जब धनराज बी.ए. करने के बाि जोधपुर में नौकरी के ललए मारा-
मारा घूम रहा था और राकेश एक बबजली की िक
ु ान में पढ़ाई छोड़कर रे फ्रीजजरे टर मैकेतनक हो
गया था। बाि में उसी िक
ु ान पर धनराज भी लगा, लेफकन तब तक वपता के छाले फूट गए थे
और उन छालों को उन्होंने हमेशा के ललए छुपा ललया था।

घर पहुंचकर धनराज लेटने के ललए चला गया। सररता ने खाने के ललए पूछा, तो उसने
मना कर दिया। सररता ने बताया फक िह सेक्टर चार जा रही है ।

‘सेक्टर चार। क्यों?‘ धनराज है रान रह गया।

‘सेक्टर चार के पजब्लक स्कूल में मैथ की टीचर चादहए। सोचती हूं एप्लाई कर आऊं।‘
सररता ने बताया।

'ओह।‘ धनराज के होंठ गोल हो गए। सररता गखणत की अच्छी जानकार थी।

‘ठीक है ।‘ धनराज ने एक ठं िी सांस भरी और गुनगुनाने लगा-रखना छुपा के दिल के


छाले रे .

शाम चार बजे धनराज बैठा अपने ब्रीफकेस की सफाई कर रहा था फक उसे एक कािष
लमला-अयूबी लसक्योररटीज। धनराज को याि आया फक जजन दिनों सम्राट समूह का पालघर िाला
प्लांट लग रहा था, उन दिनों अयूबी लसक्योररटीज के माललक महमूि अयूबी ने उससे प्राथषना की

180
थी फक िह उसे काम दिलाए। फफल्मों में विलेन बनने आए महमूि अयूबी ने लंबे संघर्ष से
ऊबकर छोटे स्तर पर लसक्योररटी गाड्र्स का धंधा अपना ललया था। अयब
ू ी चारकोप में उसका
पड़ोसी था। बाप का तंबाकू का व्यिसाय था, जो उसे रास नहीं आया। िह मंब
ु ई में प्राण या प्रेम
चोपड़ा या फफर अमजि खान बनने आया था, लेफकन तनमाषताओं ने उसे मौका ही नहीं दिया।
िापस घर लौटने में हे ठी होती थी, इसललए उसने इस धंधे में उतरने की सोची। उसने चारकोप
में अपने बाजू में एक और घर फकराए पर ललया और अपने शहर अलीगढ़ से जांबाज फकस्म के
एक िजषन बेकार यि
ु कों को बल
ु ाकर उस घर में रख दिया। घर के बाहर उसने बोिष टांगा ‘अयब
ू ी
लसक्योररटीज‘ और धंधे की तलाश में तनकल पड़ा।

उन्हीं दिनों धनराज ने उसके बारह में से छह गबरू जिानों को अपने पालघर के प्लांट में
रखिाया था। अयब
ू ी ने कहा था, ‘यह मस
ु लमान की जब
ु ान है धनराज सेठ। आपने हमारी मिि
की। कभी हमको भी आजमा कर िे खना।‘ बाि के दिनों में धनराज को पता चलता रहा फक
महमि
ू अयब
ू ी चारकोप की पतरे िाली बैठी चाल से तनकलकर एक िो कमरोंिाले फ्लैट में लशफ्ट
हो गया है । उसका धंधा चल तनकला है और उसकी लसक्योररटी सविषस में अब पचास से ज्यािा
लोग हैं। सबके सब अलीगढ़, सहारनपरु , नजीबाबाि और मेरठ के मस
ु लमान नौजिान, जो बबना
रोजगार के अपने-अपने शहरों में बेकार भटक रहे थे। मंब
ु ई जैसे शहर में अयब
ू ी पचास से ज्यािा
लड़ाकू नौजिानों का माई-बाप था। यह छोटी बात नहीं थी। लोग उन लड़कों को अयूबी के फंटर
बोलते थे।

घटाटोप अंधेरे में जैसे एकाएक टाचष जलकर बझ


ु जाए। धनराज उछल पड़ा। उसे लगा,
मस
ु लमान की जब
ु ान को जांचने का मौका आ पहुंचा है ।

समस्या यह थी फक उसके पास अयूबी का नया पता-दठकाना नहीं था। उसने तय फकया
फक अयूबी के पुराने घर चारकोप चलता है । फटाफट तैयार होकर धनराज घर से तनकल पड़ा।
मीरा रोि पहुंच कर उसने बोरीिली का दटकट ललया और प्लेटफामष पर आ गया। शाम के छह
बज रहे थे। चचषगेट से आनेिाली गाडड़यां थके-टूटे -झल्लाए, भुनभुनाते और भन्नाए लोगों को
प्लेटफामष पर फेंक रही थीं। व्यस्त घंटे शुरू हो गए थे। उस तरफ के प्लेटफामष पर लोगों की
भीड़ दटड्िी िल की तरह बबछी पड़ी थी। लसर ही लसर। न उभरी हुई छाततयों का आकर्षण, न
उत्तेजक तनतंबों को लेकर कोई लससकारी। जैसे िीतराचगयों का हड़बड़ाया हुआ समह
ू मायालोक
से तनकलकर मजु क्त के रास्तों पर भागा जा रहा हो।

हालांफक चचषगेट जानेिाली गाडड़यां खाली थीं, फफर भी एहततयातन धनराज ने प्रथम श्रेणी
का ही दटकट ललया था। बोरीिली तक ही तो जाना था। रे न आई तो िह आराम से चढ़ गया

181
और गेट पर खड़ा होकर हिा खाने लगा। िह िदहसर और बोरीिली के बीच बसी झोंपड़पट्टी और
उनमें रहते हुए लोगों का मआ
ु यना-सा करने लगा।

िो-तीन लोग पास में डिब्बा या बोतल रखकर पूरे जमाने से तनरपेक्ष होकर पटररयों पर
बेफफिी के साथ तनपट रहे थे। कुछ औरतें अपनी झोपडड़यों के बाहर बैठी परात में आटा गूंथ
रही थीं। झोंपड़पट्टी से थोड़ा हटकर एक मैिान जैसी जगह में कुछ छोटे लड़के फिकेट खेल रहे
थे। चार जिान छोकरे और िो अधेड़ ताश खेल रहे थे और फकसी बात पर ठहाके लगाकर हं सते
जा रहे थे। एक बच्चा घुटनों-घुटनों सरकता हुआ पास बहते गंिे नाले में जा चगरा था, जजसे
बचाने के ललए एक औरत झोपड़ी से तनकल नाले की तरफ चचल्लाती हुई भागी जा रही थी। इस
बीच रे न आगे बढ़ गई।

यह जीिन पहले भी था धनराज। धनराज के भीतर कोई बुिबुिाया, बजल्क इससे भी


ज्यािा बितर और बेमानी। जरा सोचो क्या तुम इस जीिन के भीतर िो-पांच दिन के ललए भी
सांस ले सकते हो। उसमें रहकर ठहाके लगा सकते हो। खझललमल करती, मिमस्त मुंबई का
चकाचैंध करने िाला स्िगष इस जीिन के नरक पर ही दटका हुआ है । इस जीिन से ताकत लो
धनराज।

धनराज बौखला गया। ऐसा उसके जीिन में पहले कभी नहीं हुआ था। यह कौन उसके
भीतर छुपा उसे पुकार रहा है ?

बोरीिली उतर धनराज िेस्ट में आ गया। चारकोप के ऑटो में बैठकर उसने लसगरे ट जला
ली।

चारकोप का चेहरा बिल गया था। चारकोप बस डिपो से गोराई जानेिाली खाड़ी के जजस
मोड़ तक धनराज कभी रात में गज
ु रने की सोच भी नहीं सकता था, िह परू ा इलाका लकिक
बाजारों, छोटे बंगलों और हाउलसंग सोसायटी के फ्लैटों से जगर-मगर हो गया था। इस नये
चारकोप के भीतर से पुराने चारकोप को तलाशना खासा कदठन था। धनराज अपने घर ले
जानेिाली गली को भूल गया। धनराज आठ बरस के बाि चारकोप लौट रहा था। उसने ऑटो मेन
रोि पर छोड़ दिया और बस डिपो के बगल में बनी पहली गली और उस गली के नुक्कड़ पर
बने साईंबाबा के मंदिर को खोज तनकाला। मंदिर पहले से ज्यािा बड़ा और भव्य हो गया था।
उसने मंदिर के सामने खड़े होकर हाथ जोड़े और गिष न झुका िी। इसी गली के अंततम लसरे पर
िो मैिान था, जजसमें दिसंबर के िं गों में मुसलमानों का सामान जलाया गया था। िहां एक सात
मंजजला इमारत खड़ी थी। उस इमारत को पार कर धनराज आगे बढ़ गया। आखखर िह रुका और
उसने एक पानिाले से पूछा, ‘क्यों बास, सेक्टर चार में िॉ. लिंगारे िाली गली कौन-सी है ?‘

182
िॉ. लिंगारे का क्लीतनक उस गली के मोड़ पर एकिम शुरू में था, जजस गली में कभी
धनराज रहा करता था। िॉ. लिंगारे अपने मरीजों को इतनी गोललयां िे ता था फक उनसे पेट भर
जाए। इसीललए सररता उसे घोड़ों का िॉक्टर कहती थी।

लिंगारे िाली गली िही थी, जजसके सामने कभी मैिान और अब सात मंजजला इमारत
खड़ी थी। धनराज उस गली में आगे बढ़ गया, आखखर, रोि पर ही बनी 440/41 नंबर िाली
पतरे की चाल के सामने िह रुक गया। यह था उसका अपना घर।

उसने बंि घर के बाहर लगी बेल बजा िी।

िरिाजा खल
ु ा और धनराज एललस के आश्चयषलोक में जा चगरा।

िही थी, एकिम िही। सपना सारस्ित। मालाि के चांिनी बार की उसकी पसंिीिा िांसर,
बीते दिनों में एंटरटे नमें ट के िाउचर बना-बनाकर बहुत पैसे लट
ु ाए थे उसने सपना सारस्ित पर।

‘तुम? िोनों के मुंह से एक साथ तनकल पड़ा।

‘आओ। भीतर आओ।‘ सपना ने मुस्करा कर कहा, फकतने बरसों बाि आए हो...लेफकन
ध्यान रखना मेरे तनकलने का टाइम हो गया है । सपना ने अपनी घड़ी दिखाई।

धनराज भीतर आ गया। िह सपना को भूल उस घर को घूम-घूमकर िे खने लगा।

'पलु लस में भती हो गए हो क्या?‘ सपना खखलखखलाई।

‘पागल। इस घर में कभी मैं रहता था।‘ धनराज ने सपना के गालों को थपथपा दिया।
फकतने जमाने के बाि उसके जीिन में एक मचलता हुआ उल्लास लौट रहा था।

‘क्या बात करते हो?‘ सपना िं ग रह गई, ‘तो क्या मैं तुम्हारे घर में रहती हूं?‘

‘नहीं रे ।‘ धनराज उसी उल्लास के बीच खड़ा-खड़ा बोला, ‘बंबई में घर इतनी आसानी से
नहीं बनते। तुम तो िैसी की िैसी हो...एकिम चकाचक।‘ अब िह सपना को तनहारने लगा।

‘हमको चकाचक रहना पड़ता है धनराज। हमारा पेशा है यह।‘ सपना की आिाज उखड़ने
लगी।

‘उखड़ो मत, उखड़ो मत।‘ धनराज ने अचानक गाजजषयन की भूलमका संभाल ली, ‘धंधे का
टाइम हो रहा है तुम्हारे । अभी भी चांिनी बार में ही नाचती हो?‘

183
‘नहीं। अभी मैं लोटस में हूं।‘ सपना ने इतराकर कहा।

‘अरे बाप रे ? लोटस तक पहुंच गईं तुम?‘ धनराज चफकत हो गया, ‘अगली छलांग कहां
की है , िब
ु ई की?‘

लड़फकयां श्रीिे िी और रे खा बनने बंबई आती थीं और बारों में नाचने लगती थीं। बारों में
नाचते-नाचते उनका सपना अलभनेत्री बनने के बजाय ‘लोटस‘ पहुंच जाने का हो जाता था। लोटस
में नाचते-नाचते िे िब
ु ई पहुंच जाती थीं-शेखों के िरबार में । पांच-सात साल िब
ु ई में गुजारकर िे
िापस मुंबई लौटती थीं-ढे र सारे हीरे -जिाहरात, मोटे बैंक बैलेंस, तनचड़
ु े हुए सीनों और गंभीर
बीमाररयों के साथ। मुंबई की फकसी अच्छी जगह पर अपना फ्लैट खरीितीं और उसी फ्लैट में
खाते-पीते और मुटाते हुए एक दिन मर जाती थीं।

‘मुझे नहीं जाना िब


ु ई।‘ सपना लसहर गई।

‘िब
ु ई तो तम
ु को जाना ही पड़ेगा रानी।‘ धनराज हं सने लगा। ‘लोटस‘ के शब्िकोश में ‘न‘
अक्षर छपा ही नहीं है । तम
ु इतनी संि
ु र हो फक तम्
ु हें िब
ु ई जाना ही पड़ेगा।‘

सपना लजा गईं फफर बाहर तनकल ताला बंि करने लगी। खाली जाते ऑटो को रोक िह
उसमें बैठती हुई बोली, ‘ितु नया बहुत छोटी है , शायि हम फफर लमल जाएं। िैसे तुमने मेरा घर,
सारी अपना घर तो िे खा ही हुआ है ।‘

‘बाय।‘ धनराज ने हाथ दहला दिया, फफर िह घर के बाहर बनी िीिार की रे ललंग पर बैठ
गया।

िो लड़फकयां सामने से गुजरीं। उन्होंने धनराज को उड़ती नजर से िे खा, फफर उनमें से
एक एकाएक दठठक गई?

‘आप धनराज अंकल हैं ?‘ िह बोली, ‘रोदहत के पप्पा?‘

‘हां!‘ धनराज ने कुछ याि करने की कोलशश की, ‘तम


ु ?‘

‘अंकल मैं िॉली हूं। िॉली काकड़े।‘ लड़की पास चली आई।

‘अरे ? आप इत्ते बड़े हो गए?‘ धनराज को याि आ गया। यह विनोि काकड़े की बेटी थी,
जो कभी-कभी अपने घर से उसके ललए फफश फ्राई लाती थी। विनोि काकड़े इसी सोसायटी में
अंिर रहता था और बेस्ट में ड्राइिर था।

184
‘घर चललए न अंकल।‘ लड़की मचलने लगी।

‘अभी नहीं बेटे।‘ धनराज ने मना कर दिया, ‘मुझे तुम यह बताओ फक सामने िाली
सोसायटी में जो अयूबी अंकल रहते थे, उनका पता कहां से लमलेगा?‘

‘पानबुड़े भाभी से पूतछए न।‘ लड़की ने सलाह िी और बोली, ‘आंटी को बोललए न, कभी
इधर भी आएं।‘

‘जरूर।‘ धनराज ने जिाब दिया और पानबड़


ु े भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगा।

पानबड़
ु े भाभी अपने घर के बाहर िक
ु ान लगाती थीं और अयब
ू ी का िहां लसगरे ट-सोिे-
नमकीन का खाता चलता था। पानबड़
ु े भाभी का पतत अच्छा गायक था, लेफकन फफल्मों में मौका
न लमल पाने के कारण शराब पी-पीकर मर गया था, िह इस गली की जगत भाभी थीं।

चारकोप के दिनोंिाली िस
ू री होली में धनराज ने भाभी के स्तनों पर रं ग मल दिया था।
भाभी गुराषने लगी थीं, फफर कमरे में जाकर चापर तनकाल लाई थीं। धनराज ने माफी मांग ली
थी। िह थोड़ा मुटा गई थीं, लेफकन हं सती अभी भी उसी अंिाज में थीं, जजसे िे ख आिमी
फफसलने-फफसलने को हो जाए।

‘अयूबी अब्भी बहुत बड़ा सेठ है ।‘ भाभी ने बताया, ‘अब्भी इिर एक सेक्टर छह बन
गएला है गोराई के बाजू में , कोई भी ऑटो में बैठ जाओ, अयबू ी तक पहुंचा िे गा। कोई खास
बात?‘

‘नहीं भाभी। बस यूं ही। सोचा लमल लेता हूं। फफर आता हूं।‘ धनराज भाभी से वििा लेकर
खाली जाते ऑटो में बैठ गया और बोला, ‘सेक्टर छह। अयूबी के िफ्तर।‘

ऑटो िाले ने धनराज का लसर से पांि तक मआ


ु यना फकया और बोला, ‘ऑफफस नजीक
ही है , पन पचास रुपया लगें गा। और अपुन ऑफफस के सामने नई छोड़ेंगा। िरू से दिखा के चला
आएंगा, चलेगा?‘

‘चलेगा।‘ धनराज ने जिाब दिया।

सेक्टर-छह की पुललस चैकी के पास ऑटोिाले ने धनराज को उतार दिया और बताया, ‘िो
सामने काले कांच के िरिाजों िाली बबजल्िंग अयूबी सेठ की है ।‘

धनराज ने चप
ु चाप पचास रुपये िे दिए। ऑटो मुजश्कल से िस लमनट चला होगा।

185
धनराज को याि आ गया। यह िही रास्ता है जो गोराई बीच ले जाने िाले तट पर जाता
है । तट से बोट लेकर उस पार उतरते हैं, फफर तांगे में बैठकर गोराई बीच जाते हैं। चारकोप िाले
दिनों में िह सररता और रोदहत के साथ कई बार इस रास्ते से गोराई बीच जा चक
ु ा है । लेफकन
तब यह रास्ता सन
ु सान रहता था। बबजल्िंग और रो हाउस तो क्या चाय की एक गम
ु टी भी यहां
नजर नहीं आती थी। लगातार मंब
ु ई आ रहे लोग एक दिन इसकी एक-एक इंच जगह पर खड़े हो
जाएंगे। धनराज ने कल्पना की।

काले कांच के िरिाजों के बाहर धनराज को िो सशस्त्र िाचमैनों ने रोक ललया, ‘फकससे
लमलने का है ?‘

‘अयूबी से।‘ धनराज ने उत्तर दिया।

‘कािष?‘ एक िाचमैन ने हाथ आगे बढ़ाया।

धनराज ने पसष तनकाला। संयोग से सम्राट समह


ू के मीडिया िायरे क्टरिाले िो-तीन
विजजदटंग कािष उसमें मौजि
ू थे। उसने एक कािष पकड़ा दिया और िे खा-बबजल्िंग के गेट पर
सन
ु हरे अक्षरों में अयब
ू ी लसक्योररटीज ही ललखा था। िह थोड़ा-सा आश्िस्त हुआ। उनमें से एक
िाचमैन भीतर गया और करीब तीन लमनट बाि िापस आया, ‘जाइए।‘

धनराज ने काले कांच का िरिाजा भीतर की तरफ धकेल दिया और एसी की ठं िी फुहार
से प्रफुल्ल हो गया।

'सॉरी सर।‘ एक मदहला ऑपरे टर बोली और उसने अपने सामने की बेंच पर बैठे कुछ
सािी ििीिालों को इशारा फकया। तत्काल िो लोग उठे और उन्होंने धनराज को लसर से पांि तक
मय ब्रीफकेस के जांच ललया। इसके बाि उनमें से एक ने उसे अपने पीछे आने का इशारा फकया।
धनराज चल पड़ा, एक गललयारा पार करने के बाि साथ आए आिमी ने एक कमरे का िरिाजा
खोला और बोला, ‘जाइए।‘

भीतर अयूबी था।

िह अयूबी नहीं, जजसकी धनराज ने कभी मिि की थी।

यह चमकते लेफकन खखंचे हुए कटाििार चेहरे िाला िह अयब ू ी था, जैसा िह फफल्मों में
बनने आया था, सन
ु हरे पिे पर उसे यह मौका नहीं लमला तो िास्तविक जीिन को उसने इस
दिशा में मोड़ ललया। िह कीमती शेरिानी में था। उसके बाएं हाथ में रािो घड़ी और िाएं हाथ में

186
सोने का ब्रेसलेट था। गले में काफी मोटी सोने की चेन िाले एक बड़ी-सी मेज के पीछे िह
ररिाजल्िंग चेयर पर बैठा था।

धनराज के प्रिेश करते ही िहां मौजूि तीन-चार लोग कमरे से बाहर तनकल गए।

‘िेलकम धनराज सेठ।‘ अयूबी ने खड़े होकर अपनी बांहें फैला िीं, ‘बहुत दिनों के बाि
अपनु को याि फकया।‘

अयब
ू ी से गले लमलकर धनराज उसके सामनेिाली कुसी पर बैठ गया। िह समझ नहीं
पाया फक बात का लसरा फकधर से थामे। चप
ु रहकर िह इस बात का अंिाजा लगाने में भी
व्यस्त था फक ‘अयूबी लसक्योररटीज‘ में उसे उसके लायक क्या काम लमल सकता है ।

'मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज तत्काल मद्द


ु े पर आ गया।

‘अपुन को क्या करने का है ?‘ अयूबी ने पूछा, ‘अपुन ने तुमको जुबान दिया था सेठ।
बोलो, अपुन तुम्हारे िास्ते क्या कर सकता है ?‘

‘मुझे तुम्हारे यहां नौकरी लमल सकती है ?‘ धनराज ने सीधे ही पूछ ललया।

उसके सिाल पर अयूबी की हं सी छूट गई। हं सते-हं सते उसकी आंखों में पानी आ गया।
थोड़ा संभलकर िह बोला, ‘मजा आ गया धनराज सेठ। तुम बबल्कुल नहीं बिले...अभी भी एकिम
िैसे ही हो...लसर झुका कर कोल्हू के बैल का माफफक िगर-िगर करते हुए। अच्छा टाइम पास
हुआ आज।‘ फफर उसने इंटरकाुम उठाकर ऑपरे टर से कहा, ‘सलीम लंगड़े को भेजो तो।‘

भरे -परू े बिन और शाततर-सी आंखोंिाले, िोनों पैरों पर चलकर आनेिाले जजस आिमी ने
भीतर आकर अयब
ू ी से ‘यस बास‘ कहा उसे िे ख धनराज अचरज में पड़ गया, ‘इसका नाम
लंगड़ा क्यों है ?‘

‘लंगड़े!‘ अयब
ू ी फफर हं सने लगा, ‘यह धनराज सेठ है ...अपने शरीफ दिनों का शरीफ
िोस्त। अपन को उठाने में इसने बहुत मिि फकया था। अभी इसको मिि का जरूरत है । अपन

लोग इसके िास्ते क्या कर सकता है ?‘

'फकस टाइप का मिि बॉस?‘ सलीम लंगड़े ने अिब के साथ पूछा।

‘इसका सेठ इसको नौकरी से तनकाल दिया है ।‘ अयूबी ने बुिबुिा कर कहा।

187
‘सेठ को खल्लास करने का है ?‘ लंगड़े ने तत्परता से पूछा।

‘नहीं।‘ धनराज िर गया और सहम कर कुसी से उठ खड़ा हुआ।

‘बैठ जाओ धनराज सेठ। िस साल के बच्चे का माफफक िरो मत। अपुन तम्
ु हारी समस्या
पर डिस्कस कर रे ला ऐ।‘ अयूबी ने धनराज को कंधे पकड़कर िापस बैठा दिया। फफर उसने
अपने िोनों हाथों की उं गललयों को आपस में लमला ललया। फफर िह कुछ-कुछ संजीिगी और कुछ-
कुछ हताशा की-सी जस्थतत में बोला, ‘अयूबी की जुबान झूठा पड़ गया धनराज। तुम शरीफ
आिमी हो, अपुन तुमको अपने यहां काम नहीं िे सकता। अपुन का धंधा अभी बिल गएला है ।‘

'तो मैं चलूं?‘ धनराज उठने लगा।

‘पचास हजार या लाख जो बोलो, ब्रीफकेस में रखिा िं ?


ू ‘

अयूबी की सिाशयता को िे ख धनराज विजस्मत रह गया। लाख-पचास हजार की बात


अयूबी इस तरह कर रहा था, जैसे सौ पचास रुपये िे ने हों।

‘नहीं, धन्यिाि। मैं चलता हूं।‘ धनराज पूरी तरह खड़ा हो गया।

‘ठीक है ।‘ अयूबी भी खड़ा हो गया, ‘मेरे को गलत मत समझना। क्या है फक ये काम


तुमको परिड़ेगा नईं।‘

धनराज चप
ु चाप बाहर आ गया।

बाहर िरू -िरू तक कोई ऑटो नहीं था। धनराज पैिल-पैिल चलता मेन रोि पर आ गया।
ऑटो में बैठकर िह थका-थका-सा बोला, ‘मुझे घर ले चलो।‘

'घर?‘ ऑटोिाला चकरा गया।

‘बोरीिली स्टे शन छोड़ िो।‘ धनराज ने लगभग बि


ु बुिाते हुए कहा और लसगरे ट जलाने
लगा।

घर खोजने, घर बनाने, घर संिारने, घर संभालने और घर बचाने में ही जीिन बीत गया


है धनराज। अब घर से थोड़ा ऊपर उठो। िरना पता चलेगा फक घर भी नहीं बचा और जीिन भी
गया। धनराज का मजस्तष्क सहसा िाशषतनक फकस्म की बातें सोचने लगा।

बोरीिली स्टे शन के बाहर पटररयों के फकनारे बसे गरीबों के घर टूट रहे थे। मनपा का
तोड़ू िस्ता पलु लस के संरक्षण में लोगों के घर उजाड़ रहा था और लोग अपना छोटा-मोटा सामान

188
बचाने में जुटे थे। धनराज उन टूटे हुए घरों को िे खता हुआ पुल पर चढ़ा और बोरीिली पूिष की
तरफ उतरने लगा। गजब है इनका जीिन। धनराज सोच रहा था। िो दिन बाि ये लोग फफर
यहां घर खड़ा कर लेंगे, आखखर, बंबई आने के बाि कोई यहां से जाता थोड़े ही है । घर रहे या न
रहे ! प्लेटफाुमों पर खड़ी भीड़ उन्मत्त और आिामक थी। धनराज ने मान ललया फक उससे रे न
नहीं पकड़ी जाएगी। रात के नौ बज रहे थे। इस िक्त बोरीिली से विरार की रे न पकड़ना
असाधारण िीरों का ही काम है । सीदढ़यां उतरकर खोमचों, ठे लों और िक
ु ानों को तनरुद्देश्य ताकता
हुआ िह भायंिर जानेिाली बस के स्टाप पर आ गया।

बस समय जरूर ज्यािा लेती थी, लेफकन ठीक गोल्िन नेस्ट के िरिाजे के बाहर उतारती
थी।

िरिाजे के बाहर खासी भीड़ थी। पांचों सेक्टरों की लमली-जुली भीड़। कुछ पुललसिाले भी
इधर-उधर टहल रहे थे। उस भीड़ को चीरते हुए धनराज राजकुमार पान बीड़ी शाप पर चला
गया, उसकी लसगरे ट खरीिने की तनयलमत िक
ु ान। िक
ु ान के माललक राजकुमार ने रहस्यमय
अंिाज में रस ले-लेकर बताया, सेक्टर-पांच के सोना ब्यूटी पालषर पर पुललस की धाड़ पड़ी है ।
काुलेज की पांच लड़फकयां पांच अधेड़ पुरुर्ों के साथ अश्लील हरकतें करती पकड़ी गई हैं। पकड़े
गए पुरुर्ों में एक िमाष साहब भी हैं, सेक्टर-चार के िमाष साहब, जजनकी गोरे गांि पजश्चम में
बहुत बड़ी रे िीमेि कपड़ों की िक
ु ान है और जजनका बेटा फोटष की एक कंपनी में कंप्यूटर
इंजीतनयर है ।

‘िमाष साहब ने सेक्टर-चार की इज्जत का कचरा कर दिया है ।‘ राजकुमार हं सने लगा,


‘इस उमर में तो आिमी पालक हो जाता है , मेरे को लगता है फक चस
ु िा रहे होंगे।‘ राजकुमार
फफर हं सा...‘हा...हा...हा...अब उनकी बेटी इस रोि पर से कैसे गुजरे गी? हा...हा...हा...!‘

×××

बीसिीं सिी के उत्तराधष की कोख से पैिा हुआ उत्तर आधतु नक समय हं स रहा था। शहर
के अखबार और बाजार िॉट कॉम कंपतनयों के विज्ञापनों से अटे पड़े थे। जुहू की गललयों में
चोरी-तछपे चलनेिाला िे ह व्यापार का धंधा वपछड़ रहा था। महं गे और बड़े कॉलेजों की बबंिास
फकशोररयां चचपकी हुई जींस और टॉप के साथ कालेजों से बाहर तनकलकर केिल एक रात के
डिस्को जीिन और डिनर विि बीयर के सौिे पर लेन-िे न कर रही थीं। इंटरनेट पर पोनो साईट
सबसे ज्यािा पैसा पीट रही थीं। पूरी ितु नया की हजारों नंगी लड़फकयों को करोड़ों बाप-बेटे
कंप्यूटर के मानीटसष पर िे खने में मशगूल थे। सरकारें अपने कमषचाररयों को समय पर िेतन

189
नहीं िे पा रही थीं। मल्टीनेशनल कंपतनयों का अजगर बाजार को लीलता हुआ घुसा चला आ रहा
था। कारें बढ़ती जा रही थीं। हिा और पानी समाप्त हो रहे थे। मंह
ु में चीज बगषर या चचकन
सैंिविच या मटन रोल िबाए और हाथ में कोक की बोतल थामे यि
ु ा लड़के िॉट कॉम कंपतनयों
में चैिह-चैिह घंटे खप रहे थे। जिान होती लड़फकयां अपने उत्तेजक सीनों और कामातरु तनतंबों
के साथ फफल्म फाइनेंसरों की हथेललयों पर नाच रही थीं। अकेले छूट गए बढ़
ू े लोगों को उनके
फ्लैटों में घस
ु कर कत्ल फकया जा रहा था। बच्चों को िेच में फेंक दिया गया था और मांएं
लोकल में लटक कर काम पर जा रही थीं।

ितु नया की सबसे छोटी कविता लोकवप्रयता के सिोच्च लशखर पर खड़ी अिहास कर रही
थी-आई। व्हाई?

आई। व्हाई? गोल्िन नेस्ट के सेक्टर-चार की उिीयमान अलभनेत्री गीता अलूलकर ने


सोचा और सातिें माले के अपने कीमती फ्लैट की खखड़की से छलांग लगा िी। गीता अलूलकर
के साथ-साथ उसके गभष में जन्म ले चक
ु ा उसका बच्चा भी मारा गया।

आई। व्हाई? सेक्टर-एक के शराबी ऑटो ड्राइिर की बीिी शोभा नािेकर ने सोचा और
बिन पर लमट्टी का तेल िालकर आग लगा ली। फफर घर से तनकलकर पूरे सेक्टर में िह पछाड़
खाती फफरती रही।

नागपाड़ा पुललस चैकी में बबना सोए छत्तीस घंटे से ड्यूटी िे रहा कांस्टे बल सालंुुके
बड़बड़ाया-आई। व्हाई? फफर उसने खि
ु को गोली मार ली।

घर से तनकाल दिए गए सत्तर साल के सतिीर राणा ने िोहराया-आई। व्हाई? फफर िह


विरार फास्ट के आगे कूिकर कट गया।

बारहिीं में पढ़ रहे साइंस के स्टुिेंट नालसर हुसैन ने सोचा-आई। व्हाई? और बस स्टाुप
पर खड़ी अपनी सहपाठी रमेश दटपखणस के चेहरे पर तेजाब फेंककर भाग खड़ा हुआ।

आई। व्हाई? एक समिेत और नसों को तड़का िे नेिाला शोर उठा और मालाि, गोरे गांि,
चें बूर, िोंबीिली, कुलाष, भायंिर, मुलुंि, कल्याण, विरार के नौजिान और हताश लड़के सीधे हाथ
की उं गललयों को ररिाल्िर की शक्ल में ताने िगड़ी चाल की गललयों में गुम हो गए, जहां सात-
सात हजार में शूटरों की भती चल रही थी।

आई। व्हाई? छोटे -मोटे बबल्िर और शराबघरों के माललक सोचते थे और चुपके से सत्ता
के गललयारों में िाखखल हो जाते थे।

190
पत्र-पबत्रकाएं बंि हो रही थीं। पुस्तकालय सूने पड़े थे। बड़े लेखक या तो मर गए थे या
चक
ु गए थे। मीडियाकर लेखकों को शौचालयों के माललक, जत
ू ों और टायरों के माललक, शराब
कंपतनयों के दहस्सेिार लाखों रुपये में परु स्कार बांट रहे थे। जन संघर्ों में सफिय रूप से जड़
ु े
रचनाकारों को सलाखों के पीछे िाला जा रहा था। यि
ु ा लेखक टीिी सीररयलों के फूहड़ संसार में
सेंध लगा रहे थे। अपहरण ने उद्योग का और हफ्ता िसल
ू ी ने धंधे का रूप धर ललया था। गंि
ु े
नगरसेिक बन गए थे, िाक्टर व्यापारी और फिकेटर घपलेबाज।

और इस पूरे ‘सीन वपचहत्तर‘ में धनराज के ललए कहीं कोई जगह नहीं थी।

तीन

नहीं, यह िह बबलू नहीं था, जजसे धनराज अलमताभ बच्चन बनने का सपना िे खते हुए
जोधपुर में छोड़ गया था। यह सलोने, लंबोतरे चेहरे , स्िजप्नल आंखों और बात-बेबात पर
मुस्कराता फकशोर नहीं था। यह नागेश चैधरी था।

नागेश चौधरी का चेहरा सख्त और खरु िरु ा था। उसकी आंखों में एक बनैली दहंसा और
िूर चमक कौंधती थी। हं सता िह अभी भी था, लेफकन अब उसकी हं सी में एक उपेक्षा जैसा कुछ
रहता था। सबसे बड़ी बात, उसकी बातें अजनबी हत्यारों के रहस्यमय िे श से आती अंततम
आिे शों जैसी थीं।

इस नागेश चैधरी को अपने सामने खड़ा पा धनराज तो एकाएक लड़खड़ा ही गया।

धनराज जोधपरु आया हुआ था, सपररिार। बहुत जमाने के बाि िह अपने कुल कुनबे के
बीच था। एक बहुत सािे वििाह समारोह में ममता को वििा कर िे ने के बाि िे सब लोग
अजीब-सी फुसषत में एकाएक खाली हो गए थे। शािी का सारा इंतजाम, भागिौड़ और सरं जाम
राकेश ने एक जजम्मेिार अलभभािक की तरह अंजाम दिया था और अब िह अपने प्रयत्नों को
शहीिों की-सी मुद्रा में एकालाप की तरह गा रहा था। धनराज और सररता उसकी शौुैयग
ष ाथा को
बड़ी तन्मयता से सुन रहे , जबफक नागेश के चेहरे पर एक अजीब-सा िीतराग था।

यह िीतराग धनराज ने अपनी मां के चेहरे पर भी िे खा। पता नहीं, मां-बेटे में से फकसने-
फकसके चेहरे से यह िीतराग चरु ा ललया था। ठीक-ठीक यही िीतराग धनराज ने वपता के अंततम
समय में उनके चेहरे पर भी िे खा था। कहां से आता है यह िीतराग और क्यों?

191
बआ
ु की शािी में , लड़केिालों के िल में शालमल होकर रोदहत जमकर नाचा था और अब थककर,
िािी की गोि में लसर छुपाकर एक बेफफि नींि में चला गया था। राकेश की पत्नी अपनी िोनों
बेदटयों के साथ िस
ू रे कमरे में जा चक
ु ी थी। बैठकिाले कमरे में बाकी लोग थे-सररता, धनराज,
राकेश, नागेश, मां और सोता हुआ रोदहत। बीच-बीच में ममता की यािें भी टहलने चली आती
थीं। इस परू े कुनबे को बैठक की िीिार में , फ्रेम में जड़े वपता मस्
ु कराते हुए िे ख रहे थे। राकेश
की शौयषगाथा से परू ी तरह तनरपेक्ष नागेश टीिी पर समाचार सन ु और िे ख रहा था। अचानक िह
रुका। धनराज ने िे खा - टीिी पर उद्घोवर्का कह रही थी - ‘जनाचधकार अलभयान के लसललसले
में मुंबई आए भूतपूिष प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने पत्रकारों को बताया फक या तो एनरान द्िारा
महाराष्र को लूट ललया जाएगा या महाराष्र की जनता एनरान को लूट लेगी। केंद्र सरकार की
उिार अथषव्यिस्था तथा िैश्िीकरण की प्रफिया को भारत के ललए खतरे की घंटी बताते हुए श्री
चंद्रशेखर ने कहा फक उिारीकरण एिं वििे शी कंपतनयों के ललए िरिाजे खोल दिए जाने के कारण
इतनी विर्मता पैिा हो गई है फक गरीब इलाकों में भारी तनाि की जस्थतत छाई हुई है ।
बेरोजगारी बढ़ने के साथ-साथ कारखाने बंि हो गए हैं। सजब्सिी बंि हो जाने के कारण हमारे
फकसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। श्री चंद्रशेखर ने कहा फक जो आत्महत्या करने पर
मजबूर होता है, कल िह हत्या भी कर सकता है ।‘

'गुि!‘ बबलू उफष नागेश चैधरी चहका, ‘बुजआ


ुष नेता भी चचंततत हैं।‘ फफर उसने टीिी बंि
कर दिया।

धनराज ने राहत की सांस ली, फफर बात शु


ु ुरू करने के ललहाज से बोला, ‘बज
ु आ
ुष
मतलब?‘

'आप नहीं समझेंगे। छोडड़ए।‘ नागेश हं सी में दहकारत-सी भरकर बोला, जजससे धनराज को
चोट लगी।

‘राकेश बता रहा था फक तुम गुंिागिी करने लगे हो?‘ धनराज ने पलटकर िार फकया।

बहुत जोर का ठहाका लगाया नागेश चैधरी ने फफर ततक्त लहजे में बोला, ‘बीिी बच्चे,
मां, बहन, नौकरी, आचथषक तंगी की सिाबहार रुलाई के बीच में ढक की तरह टराष-टराषकर जीिन
गुजारते राकेश भाई की कोई गलती नहीं है । िे भी उसी सड़े गले समाज का दहस्सा हैं , जजसे हम
बिलना चाहते हैं।‘

192
‘क्या बिलना चाहते हो तुम?‘ धनराज ततनक जोर से बोला, ‘मुझे तुम्हारी बातें समझ में
नहीं आ रहीं?‘

‘आएंगी भी नहीं।‘ नागेश फफर टहलने लगा, ‘आप मुंबई के अपने सुखी जीिन में मस्त
रदहए।‘

'क्या सुखी जीिन?‘ धनराज ततललमला गया, ‘मेरी नौकरी को गए छह महीने हो गए हैं।‘

‘तो क्या हुआ?‘ नागेश रुका, ‘रोदहत कमाता है न?‘

‘केिल छह हजार रुपये?‘ धनराज ने याि दिलाया।

केिल छह हजार रुपये? नागेश फफर हं सा, ‘केिल? उन दिनों को भूल गए आप जब


केिल छह सौ रुपये में हमारा बाप हम सबको पालता था। ममता को हम इंटर के बाि क्यों नहीं
पढ़ा सके? इसललए फक हम हर महीने उसकी फीस नहीं भर सकते थे। बबहार के जजन गांिों में
मैं काम करता हूं, िहां के लड़के इंटरव्यू का बुलािा आने पर भी दिल्ली-मुंबई इसललए नहीं जा
पाते, क्योंफक उनके पास रे ल का फकराया नहीं होता।‘

'बबहार के गांिों में क्या काम करते हो तुम?‘ धनराज की उत्सुकता जागी।

‘िो भी आपको समझ में नहीं आएगा।‘ नागेश उपेक्षा से बोला।

‘मगर यह कैसा काम है ?‘ धनराज बज


ु ग
ु ों की तरह बड़बड़ाया।

‘यह ऐसा काम है , जो पूरा होने पर िे श का नक्शा बिल िे गा।‘ नागेश की आंखें चमकीं,
‘लेफकन उस बिले हुए नक्शे में आप लोगों के ललए भी जगह नहीं होगी। िगष शत्रओ
ु ं के कत्ले-
आम के िौरान आप जैसे लोग भी मारे जाएंगे। पैटी बुजआ
ुष रास्कल।‘

धनराज सहम गया। उसे लगा राकेश ने शायि ठीक कहा था फक बबलू गुंिा हो गया है ।
धनराज ने राकेश की तरफ िे खा, िह ऊबा-ऊबा सा, सोने के ललए िस
ू रे कमरे में जा रहा था।
फफर नागेश भी बाहर चला गया, शायि फकसी िोस्त से लमलने। ऐसे कौन-से िोस्त हैं, जो इतनी
रात को भी जागते हैं। धनराज सोच रहा था। अंततः धनराज और सररता ने भी उसी कमरे में
चटाई पर बबस्तर लगा ललया और रोदहत को जगाकर उस बबस्तर के एक कोने पर सुला दिया।
मां अपने कोने में पसर गई। मां का िर्ों पुराना कोना।

यह वपता का घर था।

193
रखना तछपा के दिल के छाले ऽऽऽ!

घर छालों की तरह फट गया था। घर की िि


ु ष शा को िे खते-िे खते धनराज ने सररता की तरफ
ताका, तो पाया फक सररता धनराज को ताक रही थी।

‘क्या सोच रही हो?‘ धनराज ने पूछा।

‘मुझे लगता है , हमें इस घर को इस तरह नहीं भल


ु ा िे ना था।‘ सररता की आंखें नम थीं।
िह एक सच्चे पश्चताप के बीच खड़ी वपघल रही थी।

‘मुझे भी ऐसा ही लगता है ।‘ धनराज ने जिाब दिया और करिट बिल ली।

सब
ु ह जब िह जागा, तो कमरे के एक कोने में रोदहत, उसका बबलू चच्चू और राकेश की
िोनों बेदटयां बातों में व्यस्त थे। सररता शायि मंजू के साथ फकचन में थी और मां?

धनराज ने इधर-उधर िे खा-मां कमरे की खखड़की के पार सीदढ़यां चढ़कर छत पर जाती


िीख रही थी। शायि धप
ू में टहलने के ललए। धनराज ने िे खा फक इस िक्त बबलू का चेहरा
बबलू का ही था। शायि इसललए फक िह मासूम बच्चों की तनष्पाप ितु नया में बैठा था।

बबलू रोदहत को समझा रहा था-इन्फमेशन टे क्नोलाजी का लालीपाप थोड़े-से लोगों के ललए
है बेटे। ये सब, लोगों को चतू तया बनाने का गोरख-धंधा है । जजस िे श में सत्तरर प्रततशत लोगों
को रोटी नहीं लमलती, उस िे श में कंप्यूटर िांतत को तरजीह िे ना अिाम के साथ एक भौंिा
मजाक है । हकीकत यह है फक मल्टीनेशनल कंपतनयों के माध्यम से इस िे श में उपतनिेशिाि की
िापसी हो रही है ।‘

‘उपतनिेशिाि क्या होता है चच्च?


ू ‘ रोदहत ने पछा।

‘यह बताना तो बहुत कदठन है बेटे।‘ बबलू उलझ गया, ‘इसे इस तरह समझ फक अंग्रेजों
के समय में हम उनकी एक कॉलोनी थे, जहां िे लूटमार करते थे। अभी भी हम लूटमार की मंिी
हैं, लेफकन इस बार उन्होंने गैट और उिारीकरण का नकाब पहना हुआ है ।‘

‘पर चच्चू मंब


ु ई में तो मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी पाना खश
ु ी की बात समझी जाती
है ।‘ रोदहत अपनी नौकरी को जस्टीफाई करने के चक्कर में था।

194
'मुंबई िे श नहीं है बेटे। मुंबई िे श के जजस्म पर उगा हुआ कैंसर है ।‘ बबलू हं सने लगा।
धनराज को लगा बबलू की आत्मा में फफर से नागेश चैधरी प्रिेश ले रहा है । एक समय था।
धनराज को याि आया, यही बबलू मंब
ु ई जाने के नाम से रोमांचचत हो उठता था।

‘मैंने सुना है ।‘ बबलू पूछा करता था। ‘िहां हे मा माललनी सड़कों पर सब्जी खरीिती हुई
दिख जाती है ?‘

'चच्चू मेरे को अपनी वपछतौल दिखाओ न?‘ यह सोना थी, राकेश की छोटी बेटी।

नागेश जेब से ररिाल्िर तनकालने लगा।

धनराज फफर सहम गया और करिट बिलकर िापस सो गया।

िब
ु ारा जब िह जागा, तो धप
ू चढ़ आई थी। उस धप
ू में घर की िि
ु ष शा और भी चमकीली
हो गई थी। यह ठीक है फक इन दिनों िह बेकार है , लेफकन सुखी दिनों में तो उसे कुछ पैसे हर
महीने मां को भेजते रहने चादहए थे। िह सोचता था फक नो न्यूज इस ि गुि न्यूज। उसे क्या
पता था फक उसके भाई, उसकी बहन और उसकी मां अपने िाररद्र्य के अलभमान की ऊंची
अटाररयों पर चढ़े बैठे थे। शुरू में कुछ समय तक मां की चचदियां आती रही थीं। उनमें िही सब
होता था जो ढहते हुए घरों से आनेिाली चचदियों में होता है -ममता चप
ु रहने लगी है । राकेश
चचड़चचड़ा हो गया है । बबलू के लच्छन ठीक नहीं हैं। िह रात-रात भर बाहर रहता है । कई-कई
दिन तक घर नहीं आता। तू बबलू को अपने पास क्यों नहीं बल
ु ा लेता?

तब धनराज चारकोप की बैठी चाल िाले एक कमरे में रहता था। उसकी नयी-नयी नौकरी
थी जजसके नये-नये जानलेिा तनाि थे। िह सोचता था फक थोड़ा संभल जाए, तो कुछ करे ,
लेफकन तब तक मां की चचदियां ही आनी बंि हो गईं।

धनराज जानता है फक ये सब केिल खि


ु को दिलासा दिलाने िाले तकष हैं। गुनहगार तो
िह है ।

तभी रोदहत के साथ िह आता दिखा-बबलू। नहीं, नागेश चैधरी।

‘ररिाल्िर से क्या करते हो?‘ धनराज ने लेटे-लेटे पछ


ू ा।

'ररिाल्िर से उस आिमी का भेजा उड़़ा िे ते हैं , जो भूखी, बिहाल लड़फकयों के साथ


बलात्कार करता है , जो बच्चों से अपने खेत में बंधआ
ु मजिरू ी करिाता है , जो फकसानों के घर
जला िे ता है ।‘ नागेश चैधरी हं सा, ‘और कुछ जानना है ?‘

195
‘चच्चू, तू लोगों को मार िे ता है ?‘ यह रोदहत था, पूरे आश्चयष के बीचोबीच।

‘हां बेटा, कभी-कभी मार िे ना पड़ता है ।‘ बबलू ने रोदहत को इस तरह समझाया मानो
कभी-कभी िह मच्छर को मसल िे ता हो।

‘तुझे पुललस नहीं पकड़ती चच्चू?‘ रोदहत ने प्रश्न फकया।

‘पलु लस में भी अपने िोस्त होते हैं बेटा। िो बता िे ते हैं फक भाग जाओ। फफर हम भाग
जाते हैं।‘ बबलू अभी तक बबलू था, मस्
ु कराता हुआ, सहज और सरल।

‘और कभी तू पकड़ा गया तो?‘ रोदहत की जजज्ञासाएं उफान पर थीं।

‘तो तेरा चच्चू मार दिया जाएगा।‘ बबलू जोर-जोर से हं सने लगा, ‘मरना तो सभी को
होता है बेटे। फकस मकसि के ललए मरे , बड़ी बात यह है ।‘

खाना खाकर बबलू रोदहत को जोधपुर का फकला दिखाने ले गया। धनराज के दिमाग में
हथौड़े चलने लगे-मकसि। मकसि। मकसि।

बच्चों को पढ़ाना-ललखाना, उन्हें अच्छी लशक्षा दिलाना, पररिार को सुखी रखना क्या यह
सब मकसि के िायरे में नहीं आता? धनराज सोच रहा था। लगातार। क्या जीिन में उससे कोई
चक
ू हो गई है ? लोग गरीब हैं, भूखे हैं, अलशक्षक्षत हैं, गटर में हैं, सड़क पर हैं, मारे जा रहे हैं-
इसमें उसका क्या िोर् है ?

मां आ रही थी। धीरे -धीरे । धीर गंभीर।

धनराज उठकर बैठ गया।

मां के पीछे -पीछे सररता भी आई और सररता के पीछे ‘ताई ताई‘ करती राकेश की िोनों
बेदटयां-सोना, मोना। राकेश अपनी नौकरी पर जा चक
ु ा था।

‘सुखी तो है न?‘ मां ने पूछा और सोना-मोना को अपनी गोि में बबठा ललया।

धनराज हं सा, एक फीकी हं सी। पछतािे और िख


ु में िूबी-िूबी सी। फफर उसने अचानक
पछ
ू ा, ‘िैिी की याि आती है ?‘

मां ने इनकार में गिष न दहला िी। धनराज ने िे हरािन


ू िाले दिनों में जाकर िे खा-वपता
नशे में धत्ु त हैं और मां को लात-घूसों से पीट रहे हैं। उसने एकाएक वपता का हाथ पकड़ ललया

196
है और भौंचक्के वपता ने मां को छोड़ धनराज को पकड़ ललया है । धनराज के मुंह पर झापड़
रसीि कर उन्होंने उसे ठं िे बाथरूम में बंि कर दिया है ।

मां का चेहरा एकिम शांत है । उसे कोई िख


ु -सुख नहीं व्यापता।

'अपने िख
ु फकसके साथ बांटती हो?‘ धनराज ने पूछा।

‘मझ
ु े कोई िख
ु नहीं है ।‘ मां मस्
ु कराने लगी, ‘मेरे िख
ु भी उसके हैं और सख
ु भी उसी के।‘

‘उसके? उसके कौन?‘ धनराज चौंका।

‘राम के।‘ मां ने आंखें बंि कर लीं।

मां का राम कौन है ? धनराज असमंजस में पड़ गया। उसने छह दिसंबर में जाकर िे खा-
राम का नाम लेकर ढे र सारे लोग मजस्जि चगरा रहे थे।

खाना खाकर धनराज सोना-मोना को गोि में लेकर छत पर चला गया। गमी के दिनों में
इसी छत पर वपता की महफफल जमती थी। वपता के अंततम दिनोंिाला घर, जो उन्होंने िर-िर
की ठोकरें खाने के बाि आखखरकार जोधपुर में बना ही िाला था। वपता सोचते थे फक अपने-अपने
पैरों पर खड़े होने के बाि उनके तीन बेटे इस घर को तीन मंजजला भिन में बिल िें गे।

‘बड़े पापा हम मंब


ु ई जाएंगे,‘ मोना ने धनराज को टोका।

‘औल हम भी।‘ छोटी सोना ने सुर में सुर लमलाया।

‘जरूर।‘ धनराज ने िोनों को आश्िासन दिया और छत से दिखती, िरू जाती उस सड़क


को िे खने लगा, जजससे गुजरकर धनराज मुंबई और बबलू बबहार चला गया था। एक ही सड़क
लोगों को अलग-अलग जगहों पर क्यों ले जाती है। धनराज सोच रहा था। िोनों लड़फकयां आपस
में झगड़ने लगी थीं। धनराज उन्हें लेकर नीचे आ गया।

रात को जमीन पर बैठकर सब लोगों ने एक ही कमरे में एक साथ खाना खाया। गोश्त
और चािल। गोश्त मां ने पकाया था। मंजू ने बताया, ‘मां जी ने कई साल बाि अपने हाथ से
मटन पकाया है ।‘

धनराज को फफर वपता याि आ गए। वपता कहते थे -‘तेरी मां बबना मसालों के भी ऐसा
गोश्त पकाती है फक बख्शी िा ढाबा भी शरमा जाए।‘ बख्शी िा ढाबा िे हरािन
ू का एक मशहूर
रे स्त्रां था, जजस पर हर समय भारी भीड़ रहती थी। खासकर रात में ।

197
‘मैंने भी कई सालों के बाि गोश्त खाया है ।‘ बबलू हं सने लगा।

‘चच्चू तेरे इलाके में मटन नहीं लमलता है ?‘ यह रोदहत था।

'ज्िार की मोटी मोटी रोटी पर लहसुन और लाल लमचष की चटनी लमल जाए, तो लोग
खश
ु हो जाते हैं बेटे।‘ बबलू बता रहा था, ‘और अगर साथ में चोखा हो, तो बात ही क्या?‘

‘चोखा क्या होता है चच्च?


ू ‘ रोदहत पछ
ू रहा था।

‘आलू को उबालकर उसे सरसों के तेल में मसल िे ते हैं...‘

‘बस?‘ रोदहत चफकत था, ‘कौन लोग इतने गरीब होते हैं चच्च?
ू ‘ पीजा, बगषर, कोक की
ितु नया में बड़ा हुआ रोदहत उबले हुए आलू के साथ सुख का सामंजस्य नहीं बबठा पा रहा था।

हर मेहनत करनेिाला गरीब होता है बेटे।‘ बबलू ने जिाब दिया।

‘घर के सब लोग बैठे हैं।‘ अचानक धनराज बोला, ‘बबलू तम


ु क्या सोचते हो? मझ
ु े अब
क्या करना चादहए?‘

बबलू को सम्भितः धनराज से इस प्रश्न की उम्मीि नहीं थी। िह अचानक हड़बड़ा-सा


गया। फफर संजीिा होकर बोला, ‘बरु ा मत मानना भाई साहब। परू े वििेक के साथ बोल रहा हूं।
असल में आपकी समस्या यह है फक आपके जीिन का कोई मकसि नहीं है । आप जैसे लोग
िोनों तरफ से मारे जाते हैं। आपकी जरूरत न इधर है न उधर।‘ बबलू ने कहा, ‘एलशया की
सबसे नारकीय झोपड़पट्टी धारािी आपकी मंब
ु ई में ही है । कभी िहां गए हैं आप? आपने नालसक
के िे िलाली गांि के बारे में सन
ु ा है । उसे विधिाओं का गांि कहते हैं। िहां के सारे परु
ु र् फायररंग
रें ज में चोरी से घस
ु कर पीतल-तांबा बटोरते हैं, ताफक उसे बेचकर पेट भर सकें। पीतल-तांबा
बटोरते-बटोरते िहां का एक-एक परु
ु र् तोप के गोलों का लशकार हो गया। तनपाणी का नरक िे खा
है आपने? मुंबई की फकतनी सारी कपड़ा लमलें बंि हो गई हैं। उनके मजिरू क्या कर रहे हैं, पता
है आपको? मुझे मालूम है , इन सिालों से नहीं टकरा सकते आप। ये बहुत असुविधाजनक सिाल
हैं। आपका पूरा जीिन मैं से मैं के बीच चक्कर काटते बीता है , इसीललए बाकी लोग खि
ु ब खुि
आपके जीिन से बाहर चले गए हैं। उन सबके जीिन में आपकी कोई जरूरत नहीं है ।‘ बबलू
रुका, फफर िह नागेश चैधरी िाली हं सी हं सने लगा, ‘ऐसा करो, आप मुरारी बापू की शरण में
चले जाओ। सुना है , मुंबई में उसकी नौटं की सुपर-िुपर दहट है ।‘

धनराज का लसर झक
ु गया।

198
‘बबलू,‘ सररता ने खाना रोक दिया, ‘तुम हि के बाहर जा रहे हो।‘

‘सारी भाभी,‘ बबलू ने विनम्रता से जिाब दिया, ‘मेरा मकसि फकसी का भी दिल िख
ु ाना
नहीं था।‘ फफर िह हाथ धोने के ललए आंगन में बने नल पर चला गया।

रात िस बजे कोई लड़का बिहिास-सा बबलू से लमलने आया। कुछ िे र आंगन में कुछ
खस
ु ुर-फुसुर की उन्होंने, फफर बबलू उसी के साथ घर के बाहर चला गया।

जब बबलू को गए िो घंटे बीत गए, तो धनराज ने प्रश्नाकुल हो राकेश की तरफ िे खा।


राकेश ने बड़ी सहजता से जिाब दिया, ‘िो गया। िो ऐसे ही जाता है ।‘

धनराज जड़ हो गया।
×××

मुंबई पहुंचने के अगले रोज धनराज के सीने में तेज ििष उठा। उसका बिन पसीने-पसीने
हो गया। तकलीफ से उसका चेहरा ऐंठने सा लगा और िोनों आंखें बाहर तनकलने को आतुर हो
उठीं।

रोदहत उस समय अपने ऑफफस में था और सररता ‘कौन बनेगा करोड़पतत‘ िे ख रही थी।
धनराज छटपटाकर बेिरूम में ड्रेलसंग टे बल के पास चगरा। उसके चगरने की आिाज सुनकर सररता
भागकर बेिरूम में पहुंची, फफर िह सामनेिाले पड़ोसी के.के. महाजन की मिि से उसे सेक्टर-
पांच के नलसांग होम में ले गई।

धनराज को दिल का िौरा पड़ा था।

स्िस्थ होने में धनराज को एक महीना लगा।

उसकी बीमारी में जोधपरु से कोई नहीं आ पाया। राकेश को छुट्टी नहीं लमली। ममता
ससरु ाल में थी। उस तक खबर काफी िे र से पहुंची। अकेली मां आ नहीं सकती थी और बबलू
बबहार के गांिों में था।

बबस्तर पर पड़ा-पड़ा धनराज अपने एकान्त में गुनगुनाया करता –

रखना छुपा के दिल के छाले रे ऽऽऽ!

199
उन्हीं दिनों सररता को सेक्टर-चार के पजब्लक स्कूल में नौकरी लमल गई।

धनराज और अकेला हो गया।

यह अकेला धनराज एक रात गौतम बुद्ध की तरह सररता और रोदहत को सोता छोड़ कहीं
अंधेरे में गुम हो गया।

कुछ लोगों का कहना है फक उन्होंने धनराज को हाथ में एक ईंट ललए अयोध्या के रास्ते
पर पैिल-पैिल जाते िे खा था।

रचनाकाल: जनिरी 2001

200
और ुँगरउ ुँग

यह तो िह समय था न, जब आप िौड़ना छोड़ चुके होते हैं। तो फफर? मैं सोच रहा हूँ और
िौड़ रहा हूँ, एक द्िार से िस
ू रे द्िार तक। लेफकन आश्चयष फक हर द्िार जैसे मेरे ही ललए बंि।
हर िःु स्िप्न जैसे मेरे ही ललए छोड़ दिया गया। घण
ृ ा और िश्ु मनी का एक-एक कतरा जैसे मेरे ही
विरुद्ध तना हुआ। फकनाराकशी की हर मुद्रा जैसे मेरे ही खाते में ।

यह तो घटना-विहीन, उत्सक
ु ता से खाली और उबा िे ने िाली शांत-सी जीिन-जस्थततयोंिाला
समय था न। तो फफर?

फफर? एक चीखता हुआ सा आश्चयष मेरी चेतना पर 'धप्प' से आ चगरा है ।

सामने चाँिनी चौक को जाती लंबी सड़क है - एकिम ठसाठस। िौड़ती हुई, लसर ही लसर, मैं
लाल फकले के सामने िाले कई बस स्टॉप में से एक पर बैठ गया हूँ। यँू ही, समझ नहीं पा रहा हूँ
फक कहाँ जाऊँ? सब जगह तो जा आया हूँ।

बगल में िे र से एक अधेड़ आिमी बैठा आती हुई बसों के नंबर पढ़ रहा था। सोचा मेरी
मिि कोई नहीं कर रहा है तो क्या? मैं तो फकसी की मिि के ललए आगे बढ़ँू ।

कहाँ जाएँगे भाई साहब?' मेरे स्िर में अततशय नम्रता है । सहानुभूतत की आद्रष ता में रची-
बसी।

'कौन मैं?' बगलिाला अधेड़ चौंक-सा पड़ा। 'क्यों? कहीं नहीं जाना है ।'

कहीं नहीं जाना है ? मुझे धक्का-सा लगा। यह भी उन्हीं में से है । याि आया। लाल फकले
में गाइि का काम करनेिाला मेरा एक बचपन का िोस्त (बचपन में यह कहाँ पता था फक इसकी
तनयतत गाइि बन जाना होगी) एक बार मुझसे इसी स्टॉप पर टकरा गया था - एकाएक।

'तम
ु ? आप? नमस्ते जी! पहचाना? मैं? िे हरािन
ू ।' उसने एक-िस
ू रे से असंबद्ध इतने शब्ि एक
साथ बोले। और िह भी इतनी मद्र
ु ाओं में फक जब मैंने उसे पहचाना तो िह लगभग रो-सा पड़ा।

यह मेरे बचपन का िोस्त था, जजसके साथ मैंने बहुत-से िख


ु िे खे थे। फफर बीच में पंद्रह
साल का अंतराल था जजन्होंने उसे याचक और मुझे िाता के िायरे में खड़ा कर दिया था।

201
'मैं पाँच साल से यहीं हूँ साहब जी!'

'पाँच साल से?' मैं बुिबुिाया था फफर नकली िोध में भर कर बोला था, 'यह साहब जी-
साहब जी क्या लगा रखी है प्रेम!' प्रेम कहते हुए मैं बेहि आत्मीय हो गया था। सच बात तो यह
है फक मुझे काफी िे र बाि उसका नाम याि आया था।

आप यहाँ कैसे?' िह बोला था। 'कोई बस लेनी है ?'

'बस?' मुझे िख
ु हुआ था, कुछ-कुछ क्षोभ भी। िख
ु इसललए फक िक्त प्रेम को बस से आगे
सोचने की कल्पना भी नहीं िे सका और क्षोभ इसललए फक इसने मेरे संिभष में भी बस की
कल्पना की।

'नहीं, बस नहीं।' मैं खखलसया कर बोला। मानो मेरे आलभजात्य पर चोट लगी हो। 'मैं इतनी
भीड़-भरी बसों में नहीं चल पाता।' मैंने सफाई-सी िी। 'मैं ऑटो के इंतजार में हूँ। तुम यहाँ कैसे?'

मैं लाल फकले में चपरासी हूँ। प्रेम के चेहरे पर कोई पछतािा नहीं था। बजल्क एक तरह
का िैसा सुख था जैसा आत्मतनभषर आिमी के मन में होता है । िह आगे बोला, 'मैं अचधकाररयों
की आँख बचा कर कभी-कभी फकसी मोटी पाटी का गाइि भी बन जाता हूँ।'

'अच्छा-अच्छा।' मैंने लापरिाही से कहा, 'तो यहाँ खड़े क्या कर रहे थे?'

'यह मेरा शौक है ।' प्रेम ने रहस्योद्घाटन-सा फकया। 'मैं िक्त तनकाल कर अक्सर यहाँ आ
जाता हूँ और बस स्टॉप पर बैठे या खड़े लोगों के चेहरे पढ़ा करता हूँ।'

'अच्छा?' मैं अचरज से भर उठा था।

'ये बस स्टॉप न होते तो बहुत-से लोग मारे जाते।' प्रेम ने िस


ू रा रहस्योद्घाटन फकया था।

'िह क्यों?' मेरा अचरज उत्सुकता में ढल रहा था।

'क्यों क्या? िक्त काटने की इससे अच्छी जगह क्या हो सकती है भला! इन स्टॉपों पर
बीलसयों लोग ऐसे बैठे रहते हैं जजन्हें कहीं नहीं जाना होता। िे यहाँ सुबह आ जाते हैं और रात
तक बैठे रहते हैं।'

'क्या?' मैं लगभग चीख ही तो पड़ा था।

202
'यह तो कुछ भी नहीं है ।' प्रेम मेरी अज्ञानता पर रस लेने लगा था। 'यहाँ बैठे-बैठे कई धंधे
भी होते रहते हैं।'

धंधों की फेहररस्त में जाने का समय नहीं था तब। मैंने अपने िफ्तर और घर का पता
उसे दिया था और कभी आने का तनमंत्रण िे कर िहाँ से चला आया था।

और अब बगल में बैठे अधेड़ ने जब चौंक कर बताया था फक उसे कहीं नहीं जाना है , तो
मझ
ु े प्रेम से अपनी िह अचानक हुई मल
ु ाकात याि हो आयी है ।

तो मैं क्यों हूँ यहाँ? मैंने सोचा। मुझे कहाँ जाना है ? क्या मैं भी िक्त काट रहा हूँ? मैं और
िक्त काट रहा हूँ? हे भगिान, जजस शख्स के पास एक क्षण की फुसषत नहीं होती थी िह यहाँ,
लाल फकले के स्टॉप पर खड़ा िक्त काट रहा है ? औराँग उटाँग क्या इसी को कहते हैं?

सहसा मेरी आत्मा के तनस्तब्ध अँधेरे में पसरा शोकाकुल मौन चीख ही तो पड़ा - िध
करो! िध करो! िध करो उन सबका, जो शालमल हैं तुम्हारी हत्या के जश्न में ।

मैं मारा जा चक
ु ा हूँ क्या? मैंने सोचा और िर गया। तभी बगल िाले अधेड़ ने गहरी
सहानुभूतत में भर कर पूछा, 'तुम्हें भी कहीं नहीं जाना है न?'

'मैं घर जाऊँगा।' मैंने कुछ इस तरह जिाब दिया मानो मुझसे प्रश्न पूछता िह अजनबी
मेरा न्यायाधीश हो।

'घर जाओगे?' मेरा िह न्यायाधीश जैसे आहत हो गया। 'भाग्यशाली हो।' उसने बि
ु बि
ु ा कर
कहा, 'तो फफर तनकल लो। अँधेरा होने को है ।'

मैंने पाया, अँधेरा आसमान से चगरने को ही था और हिा ने ठं िी खन


ु क के साथ धीरे -धीरे
बहना शुरू कर दिया था।

मैंने हिा से पछ
ू ा, औराँग उटाँग माने क्या? हिा ने सन
ु ा। दठठकी। मस्
ु कराई और फकनारा
कर गई।

फकनारा तो ऐसे-ऐसे लोगों ने कर ललया था फक कलेजा मँह


ु को आ लगा था। मुहािरे
अपनी उपजस्थतत फकस तरह प्रकट करते हैं, यह इन्हीं दिनों जाना था मैंने। पैंतीस की उम्र में जब
कनपदटयों पर के बाल कहीं-कहीं से सफेि पड़ने लगे हैं। और आँखों के नीचे स्याह धब्बे उतरने
को ही हैं।

203
पैंतीस की उम्र। ईश्िर, मत्ृ यु और अध्यात्म के सिालों पर लौटने-फफसलने का मन करता
है न पैंतीस की उम्र में ?

तो फफर? फकसी बद्दुआ की तरह यह बेराजगारी कैसे सामने आ गई पैंतीस की उम्र में ?

एक भीड़-भरी बस में धँस गया हूँ और सरकता हुआ एक कोने में जा लगा हूँ - शमष की
तरह तछपता हुआ। ऑटो िाले दिन सीने में जख्म-से ररसने लगे हैं।

यह तो बहुत तनरापि और श्लथ समय था न! यह तो िह समय था जब पजब्लक स्कूल


में पढ़ते हुए बच्चे स्कूल की तरफ से कभी आगरा, कभी बंबई और कभी गोिा के टूर पर जाते
रहते हैं और आप माथे पर बबना कोई लशकन लाए िो सौ, तीन सौ या पाँच सौ रुपए चप
ु चाप
उन्हें थमाते रहते हैं - कुछ-कुछ इस अहसास के साथ मानो अपने खि
ु के िंचचत और बुरे बचपन
की स्मतृ त से बिला चक
ु ा रहे हों।

उफ! फकसी ने पाँि कुचल दिया है ।

यह तो िह समय था न जब आप बबना सोचे थ्री व्हीलर पर सिार हो जाते हैं , जब पैसे से


ज्यािा कीमती िक्त हो जाता है ।

'िक्त बहुत बड़ी चीज है गुरु।' बस के फकसी यात्री ने अपने साथी से कहा है , 'िक्त से
पहले और भाग्य से ज्यािा कुछ नहीं लमलता।'

मेरे माथे पर लशकन पड़ गई है । सब


ु ह घर से तनकलते समय पत्नी ने कहा था, 'तम
ु पर
शतन की साढ़े साती है । इसका तनिान ढूँढ़ो।'

औराँग उटाँग माने क्या? मैं सोच रहा हूँ। यही न! हो जाना बेरोजगार पैंतीस की उम्र में ?

पैंतीस की उम्र और सहसा जाती रही नौकरी का कोई अंतसांबंध नहीं समझ पा रहा हूँ मैं।
यह तो बहुत लापरिाह और कुछ-कुछ िं भी समय था न! ऐसे समय में नौकरी का चले जाना ही
क्या औराँग उटाँग है ?

घर के सामने खड़ा हूँ मैं और बेल बजाने से िर रहा हूँ। पत्नी का पहला सिाल होगा,
नौकरी लमली? कैसा मजाक है ? जो शख्स नौकरी दिया और दिलाया करता था, िह नौकरी ढूँढ़ रहा
है ! एक नाजस्तक के घर में भाग्य ने िेरा िाला है ।

204
बेल बजा िी है और इस तरह खड़ा हो गया हूँ जैसे फकसी लभखारी की याचना।

000

पत्नी को हर समय गुस्सा आता रहता है । एक दिन मारे गुस्से के रो ही पड़ी। कातर
आिाज में बोली, 'क्या ऐसा भी हो सकता है फक अब तुम्हें नौकरी लमले ही न?'

सिाल पर जोर से हँ स पड़ने का मन हुआ। इतना लंबा अनुभि अध्ययन, शोहरत और


इज्जत, इस सबके बािजि
ू नौकरी नहीं लमलेगी? लेफकन रात होते-होते मैं िर गया।

मेरी आत्मा के जंगल में एक ही सिाल लसर पटकता रहा - कहीं ऐसा तो नहीं फक सचमुच
अब नौकरी लमले ही न?

और यह जो अनभ
ु ि, ज्ञान, शोहरत, इज्जत है - नौकरी की राह में कहीं यही चार बाधाएँ
तो नहीं खड़ी हैं?

आशंका पर हँ स पड़ने का मन हुआ, पर आश्चयष फक िोनों आँखें रो रही थीं।

पैंतीस रुपए महीने से शरू


ु हो कर साढ़े तीन हजार रुपए तक पहुँचा था मैं और फफर
सड़क पर आ गया था - जादहर है फक एक बार फफर से शुरू होने का समय खो कर।

'यह तो गनीमत हुई फक छोटे ही सही, पर िो कमरों के अपने मकान में तो हैं।' एक दिन
पत्नी ने ईश्िर को धन्यिाि िे ते हुए कहा था, 'िरना तो...'

'िरना तो' के बाि िह चप


ु हो गई थी और मैंने मजे-ले-ले कर सोचा था, िरना तो औराँग
उटाँग हो जाता।

इस समय िह एकिम चचत पड़ी है - छत पर आँखें गड़ाए। शायि उस समय को कोस


रही होगी जब उसने अपना भाग्य मेरे जैसे हतभाग्य के साथ बाँधा। सहसा िह पलटी और
िाशषतनक अंिाज में बोली, 'सब लोग कायिे से नौकरी कर रहे हैं, एक तम्
ु हारी ही नौकरी क्यों चली
गई?'

मैं 'तड़' से पड़े इस तमाचे पर कोई प्रततफिया व्यक्त करता, उससे पहले ही मेरे मँह
ु से
बेसाख्ता तनकला - 'औराँग उटाँग।'

205
'तछह' उसने करिट बिल ली और आँखें बंि कर लीं।

000

मैं पढ़ रहा हूँ। सच यह है फक पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ। छोटा बेटा आ गया है । बोला,
'पापा, जब आपको नौकरी लमल जाएगी तो मेरे ललए स्पाइिरमैन के जस्टकर ला िोगे?'

बेटे के सिाल से दिमाग कई जगह से तड़का है शायि। तभी न कँपकँपी-सी छूट गई। जेब
से िो रुपए तनकाल कर उसे दिए और आदहस्ता से बोला, 'अपने पापा का इस तरह अपमान नहीं
करते बेटा। जाओ और जस्टकर ले आओ।'

अब तो पढ़ने में एकिम मन नहीं लग रहा है । उठूँ और चलँ ।ू लेफकन कहाँ? लाल फकले के
स्टॉप पर? नहीं, लाल फकले के भीतर। प्रेम के पास। बता रहा था फक उसे आठ सौ पचास िेतन
लमलता है । प्रेम भी तो पैंतीस का ही है । उसका-मेरा जन्मदिन, पंद्रह दिन आगे-पीछे ही तो पड़ता
था। उसी से पूछता हूँ फक बबना अपने मकान के, आठ सौ पचास में कैसे चलता है जीिन, पैंतीस
की उम्र में !

206
दक्
ु खमररलरणमरगच्छ शिम!रर

अंधेरा पूरा था और सन्नाटा संगदिल। उस विशाल कैफे के ठं िे हॉल में मेरे किम
इस तरह पड़े जैसे आश्चयष लोक में एललस। हॉल लसरे से खाली था और मैं तनपट
अकेला। उढ़के हुए शानिार िरिाजे को खोल कर भीतर आने पर सबसे पहला सामना
काउं टर के ऊपर िाली िीिार पर टं गी घड़ी से हुआ। सब
ु ह के चार बजकर बीस लमनट हो
रहे थे। घड़ी के ठीक ऊपर एक मकषरी बल्ब जल रहा था, लसफष घड़ी के ललए। लगभग
बफष हो चुकी उं गललयों को एक िस
ू रे से लगातार लभड़ाकर उन्हें गमष करने के तनष्फल
प्रयत्न के िौरान मैं एक विशाल िपषण के सामने आ गया। िहां मैं था जैकेट और
कनटोप के साथ अपनी उं गललयां रगड़ता। जैकेट के साथ लगे लसर के कनटोप को मैंने
पीठ पर चगरा दिया और िोनों हथेललयों को कसकर रगड़ने के बाि चेहरे पर जोर-जोर से
फफराने लगा। िपषण में मेरा प्रततरूप मेरे साथ-साथ था एक दठठुरते और धंध
ु लाते अक्स
की तरह।

तभी बाहर कहीं फकसी तनजषन सड़क पर कोई रक गुजरा। मैंने सुना एकिम साफ
फक रक की आिाज में एक कमषठ व्यजक्तत्ि और मिाषना लय जैसा कुछ था। फकसी रक
के गुजरने को मैंने इससे पहले इस तरह नहीं सुना था। शहरों, खासकर बड़े शहरों में तो
एक अराजक शोर भर होता है । और मंब
ु ई में तो फकसी िाहन की अपनी कोई तनजी
आिाज ही नहीं होती।

कैफे में जागरण का कोई चचह्न नजर नहीं आ रहा था। ऐसा लगता था मानो
फकसी भयािह आपिा की खबर पाकर लोग बाग बरसों पहले इस कैफे को छोड़कर जा
चुके हों। भविष्य लोक से आती फकसी भूली भटकी प्राथषना की आहट तक िहां नहीं थी।
हर कुसी और मेज पर एक अिाक तनस्तब्धता सशरीर उपजस्थत थी। लगभग चालीस-
बयालीस मेजों और िेढ़ पौने िो सौ कुलसषयों िाले इतने बड़े तन्हा कैफै में उपजस्थत रहने
का यह मेरा पहला और मौललक अनुभि था। मैं घूम-घमकर कैफे को टटोलने लगा तो
लगा फक कहीं कोई आिाज है । मैं रुक गया। आिाज अनुपजस्थत हो गई। मैं काउं टर की
तरफ बढ़ा। आिाज फफर उभरी। ओहो! मैंने अपने अचरज को विश्राम दिया। यह मेरे
अपने चलने की आिाज थी।

207
मैंने कैफे को उसके अलभशाप के हिाले छोड़ दिया। बाहर पाकष था। एकिम
आिामक। िह िरू -िरू जलती उिास रोशनी के बीच ठं ि के चाकू लेकर तना हुआ था।
कनटोप को िापस कान पर साधते हुए मैंने सुना कहीं से टप-टप की आिाज आ रही थी।
मैं आिाज का पीछा करता चला गया। एक नल था, जो थोड़ा खुला रह गया था। उस
नल की गिष न ऐंठ कर मझ
ु े लगा जैसे बरसों-बरस बाि मैंने कोई काम संपन्न फकया हो।
मैं संभितः समयातीत समय में चल रहा था। यह एललस का आश्चयष लोक नहीं मेरा
ितषमान था, मेरी स्मतृ तयों, मेरी आितों और मेरे अभ्यासों के हाथ लगातार वपटता हुआ।
मैंने सुना अब एक बड़े जेनरे टर की आिाज गूंज रही थी, फकसी अग्रज की तरह आश्िस्त
करती फक मैं हूं न! जेनरे टर की उपजस्थतत को अनुभि करते हुए पाकष में रात भर बेखौफ
टहला जा सकता था। मैं इस तरह टहल रहा था जैसे यह इतना बड़ा पाकष तनतांत मेरा
है । मैं सहसा गिोन्नत हो उठा। मुंबई का िह िख
ु यकायक जाता रहा जजससे मैं अपने
घर की बाल्कनी में कुछ गमले, कुछ फूल, कुछ घास िे खने की आस में सतत तड़पा
करता था। िहां बाल्कनी ही नहीं थी। कहां से होते फूल, गमले, घास।

और फफर िो घोंसलों से टकरा गया मैं। िे एक पेड़ पर थे-कपड़े के घोंसले। यह


आश्िजस्त िे ते हुए फक िे तोड़े नहीं जाएंगे। जजस भी पक्षी का मन चाहे िह इनमें अपना
घर बसा ले। मुझे अचानक लगा फक हमारे शहर के तो पक्षी तक भी ‘स्रगलर‘ होते हैं।
पता है फक घोंसला टूटे गा फफर भी घर बनाते हैं।

घर बेतरह याि आया। घर में बीिी थी। चचड़चचड़ाती और पस्त होती हुई। िो बेटे
थे-तेज-तेज किमों से जिानी की तरफ जाते हुए-अपने -अपने सपनों और जजिों और
सूचनाओं के साथ। उन सपनों और जजिों और सूचनाओं में मां के गदठया का ििष और
वपता की हताशा तथा िेिना और एकाकीपन के ललए कोई जगह नहीं थी। िहां लड़फकयां
थीं, फोन थे, कंप्यूटर था। फन था और गतत थी।

मैं थके किमों से फफर कैफे में लौट आया। मेरा दिमाग बहुत सारे आंय-बांय
विचारों और न खत्म होने िाले हािसों की ममाांतक चीखों से लिा-पिा था। कैफे की घड़ी
पांच िस बजा रही थी। मुंबई में सुबह की लोकल रनों में लोग लि चुके थे। िािर का
फूल बाजार सज चुका था। रात एक पांच की आखखरी लोकल छोड़ चुके शराबी कवि-
कथाकार-पत्रकार सुबह चार िस की पहली रे न पकड़ अपने-अपने घर पहुंच चुके थे या

208
पहुंचने की प्रफिया में थे। नीलम, मेरी बीिी जाग रही थी। अलामष घड़ी की अलामष को
तेज गुस्से से बंि फकया होगा उसने।

‘कोई है ?‘ एक कुसी पर बैठकर मैं चचल्लाया। कैफे की छत बहुत ऊंची थी। मेरी
‘कोई है ‘ की अनचगनत प्रततध्ितनयां विलभन्न कुसी-मेजों तक हो आईं। इसके बाि फफर
िही ठं िा और सख्त सन्नाटा। मैं मुजक्तबोध की पानी और अंधकार में िूबी चक्करिार
सीदढ़यां उतरने को था फक बिन पर नीली कमीज िाले एक जिान लड़के ने काउं टर के
पीछे बने िरिाजे के उस पार से झांककर िे खा और शालीनता से बुिबुिाया-‘पहला नींबू
शबषत सब
ु ह छह बजे लमलेगा। तब तक आप पाकष में टहल लीजजए।‘

नींबू शबषत? इस पत्थर तोड़ ठं ि में ? मैंने सोचा भर था और इस सोचने के


अिकाश का लाभ उठाकर लड़का िापस फकचन में गुम हो गया था-अगली सिी के
आगमन तक! कम-से-कम मुझे ऐसा ही लगा था। एक पूरी सिी थी-ठं ि-से-ठं ि की तरफ
जाती हुई। यहां के हर अनुभि का आरं भ उस भीर्ण ठं ि की कंपकंपाहट से ही हो रहा
था।

सुबह पौने तीन बजे इस गांि के एक डिग्री िाले टें परे चर में मैंने प्रिेश ललया था।
ररसेप्शन पर इस अस्पताल की औपचाररकताएं पूरी करने के बाि मैं तीन बजे कमरे में
घुसा था और हीटर ऑन करके रजाई में घुस गया था। काफी िे र, शायि एकाध घंटे,
करिटें बिलने के बाि मैं उठ खड़ा हुआ था और ठं ि के साजो-सामान से लैस होकर इस
कैफे में चला आया था-यह सोचकर फक यह भी मब ंु ई की तरह रात भर जागता होगा। पर
मुंबई यहां इस तरह निारि थी जैसे चोर के पांि।

मैं अत्यंत मायूस होकर उठा और चोर के पांिों की तरह चलता हुआ ‘योगा हॉल‘
की तरफ बढ़ने लगा। हॉल के बाहर कुछ जोड़ी जूते-चप्पल रखे हुए थे और भीतर से
प्राथषना के स्िर आ रहे थे-

आरोग्यम ् शरणम गच्छालम!

तनसगषम ् शरणम ् गच्छालम!

कुछ िे र मैं उन दिव्य से लगते प्राथषना के स्िरों को सन


ु ता रहा। िे सभी स्त्री-परु
ु र्
प्रकृतत और स्िास्थ्य की शरण में जाना चाहते थे। मैं पलट गया।

209
अस्पताल का लंबा कारीिोर सूना पड़ा था और उस कारीिोर में प्राथषना के समिेत
स्िर अपनी पूरी तन्मयता और लय के साथ तैर रहे थे। मुझे लगा िे परलोक से आती
प्राथषनाओं की तरह हैं जो इहलोक में आते ही िघ
ु ट
ष नाओं में बिल जाते रहे हैं। अपनी
सपाट हथेली को मैंने सूनी और लसकुड़ती आंखों से िे खा, िहां बहत्तर साल तक जीते
चले जाने की बद्दुआ िजष थी। मैं बीते समय के पायिान उतरने लगा। िहां एक अंधा
भविष्य िक्ता था-मेरा िोस्त! शहर के बड़े-बड़े आंख, कान और दिमाग िाले लोग उससे
एपाइंटमेंट लेकर लमला करते थे। मेरा रे खाओं और अंक शास्त्र में बबल्कुल भी यकीन नहीं
था लेफकन मेरे उस अंधे भविष्यिक्ता िोस्त ने मेरी हथेललयों को छू-छूकर यह बता दिया
था फक बहत्तर साल से पहले मुझे कोई छू भी नहीं सकता है । बहुत बरस पहले जब मैं
अपने पुराने शहर में एक प्रततजष्ठत नौकरी खोकर िस
ू री प्रततजष्ठत नौकरी पाने के प्रयत्नों
में अपमातनत और उिास होता जा रहा था उस िोस्त ने भविष्यिाणी की थी: समुद्र िाले
एक सबसे बड़े शहर में , जहां लोग अंधों की तरह िौड़ते भागते हैं, एक सम्मातनत नौकरी
मेरा इंतजार कर रही है । इस भविष्यिाणी के चंि रोज बाि मैं मुंबई आ गया था और
भविष्यिक्ता पुराने शहर में छूटा रह गया था।

तो, अगर बहत्तर साल की उम्र तक मुझे कोई छू नहीं सकता है ...मैंने सोचा तो
इस िीराने में मुझे कौन से िर खींच लाए हैं? सहसा कहीं एक बांसुरी बजी। मैं कैफे से
बाहर आ गया-तीखी ठं ि और मुसलसल टपकती ओस के बीचों-बीच। सुबह-साढ़े पांच बजे
िह जनिरी के जयपुर का एक गांि था जहां अपनी अिम्य जजजीविर्ा से कोई बांसुरी पर
अपनी अद्वितीयता लसद्ध कर रहा था। योगा हॉल के भीतर से अब भी िे मंत्र तनरं तर
बाहर तनकल रहे थे जजनका अथष था-हमें प्रकृतत की शरण में जाना है ...हमें रोगों से िरू ले
चलो। मैं फफर पाकष में उतर गया। िहां कुछ मोर चले आए थे। मैं उनके तनकट चला
गया। मुझे िे खकर िे भागे नहीं। ितु नया िे ख चुके बूढ़ों की तरह िे पूरी शांतत से मेरे
साथ-साथ टहलते रहे । उनमें शहर के मनष्ु य का भय नहीं था।

भय मझ
ु में भी नहीं था। मरने से नहीं िरता था मैं। मेरी तनभषयता को िे ख मंब
ु ई
का मेरा एक िॉक्टर िोस्त िाघमारे मेरा इलाज छोड़कर भाग गया था। हुआ यूं फक एक
शाम िह बबना पि ू ष सच
ू ना के मेरे िफ्तर चला आया। मैं उस िक्त लसगरे ट पी रहा था।
िॉक्टर नाराज हो गया। गुस्से से बोला -‘िॉक्टर से झूठ बोलते हो। तुम्हें शमष आनी
चादहए। तम
ु तो फोन पर हमेशा कहते हो फक लसगरे ट छोड़ िी है । तो यह सब क्या है ?‘

210
'िॉ० िाघमारे ।‘ मैंने गंभीरता से कहा -‘आपने आज के अखबार पढ़े हैं?‘

‘नहीं।‘ िॉक्टर अपने ज्ञान को लेकर चचंततत हो गया। उसे लगा अमेररका में फकसी
ने लसगरे ट समथषक कोई खोज तो नहीं कर ली है ।

‘यह लीजजए।‘ मैंने अखबार उसके सामने रख दिया। िॉक्टर ने बोल-बोलकर पढ़ा-
चीन में भूकंप से चार हजारे मारे गए।

‘तो?‘ िॉक्टर ने अपनी उत्सुक आँखें मझ


ु से लमलाईं।

'तो यह िॉक्टर, फक इन चार हजार मरने िालों में से आधे से ज्यािा लोग लसगरे ट
नहीं पीते होंगे, यह मैं शतष लगा सकता हूं।‘ मैंने कहा।

‘तुम...‘ िॉक्टर गुस्से से कांपने लगा... ‘तुम एक नंबर के हरामी हो...तुम्हारा


इलाज बंि।‘ िॉक्टर उठा और गुि बाय बोलकर चला गया। शहर के एक योग्य िॉक्टर
और बेहतरीन िोस्त को मैंने इस तरह अकारण खो दिया था।

तो यहां क्या पाने आया था मैं? मैंने सोचा- लमस्टर िे ि लसन्हा, आपका दिमाग
क्या उस िक्त जलाितन पर था जब आप मुम्बई से हजारों फकलोमीटर िरू राजस्थान के
इस तनजषन गांि में आकर इलाज कराने का तनणषय ले रहे थे? मेरी घड़ी में पौने छह हो
गए थे। मैं पाकष से तनकलकर ररसेप्शन की तरफ चला आया। ररसेप्शन के िरिाजे के
पास पहुंच कर एक पल के ललए मैं रुका। िरिाजे के शीशे के पीछे झांकने पर मैंने पाया-
रात की ड्यूटी िाले शमाष जी काउं टर पर लसर रखे सो रहे थे। ऐसी एक बेफफि और
बेखझझक नींि के ललए फकतने बरसों से तड़प रहा था मैं। थके और उिास किमों से मैं
अपने कमरे का ताला खोलकर भीतर घस
ु ा और ललहाफ के भीतर िब
ु क कर लसगरे ट पीने
लगा। मुझे छह बजने का इंतजार था।

कैफे जीवित हो रहा था।

छह बजकर िस लमनट पर जब मैं जैकेट उतार, शाल ओढ़कर िापस कैफे में घस
ु ा
तो तीन-चार मेजों पर बैठे कुछ लोग नींबू-शहि का शबषत पीने में व्यस्त थे। मुझे सहसा
यकीन नहीं हुआ फक नींबू के पानी को भी इतने उत्साह और तन्मयता के साथ वपया जा

211
सकता है । उनमें से कुछ ने मुझे एक उड़ती नजर से िे खा और फफर से नींबू पानी में
व्यस्त हो गए। एक-िो लोगों के चगलासों को भेदिए की दृजष्ट से िे खता हुआ मैं काउं टर
पर चला गया।

मेरे कुछ मांगने से पहले ही नीली कमीज िाले लड़के ने मेरे सामने नींबू पानी का
चगलास रख दिया। मैंने चगलास को िे र तक घूरा फफर लड़के की आंखों में िे खते हुए
बोला-‘मुझे एक कप चाय की जरूरत है ।‘

लड़का हो-हो करके हं सा फफर शालीनता से बोला-‘यहां चाय फकसी को नहीं


लमलती।‘

नींबू पानी के चगलास को ठुकरा कर मैं िापस मड़


ु ा। िरिाजा खोलकर मैं बाहर
आया और ररसेप्शन िाले कमरे में घुसा। पौन घंटा पहले काउं टर पर लसर झुका कर सो
रहे शमाष जी चाक चैबंि खड़े थे।

‘यस सर!‘ उन्होंने अततशय विनम्रता से पूछा।

‘आज के अखबार आ गए क्या?‘ मैंने पूछा फफर घड़ी िे खी और तत्काल लग गया


फक सिाल गलत िक्त पर पूछा है । केिल साढ़े छह बजे थे। इस समय तक तो मुंबई में
भी अखबार नहीं लमलते। यहां कैसे लमलेंगे?

आश्चयष हर किम पर मेरे पीछे लगा हुआ था। लग रहा था फक मुझे नींि से जागे
हुए एक युग बीत गया है जबफक घड़ी की सुइयां केिल साढ़े छह बजा रही थीं।

मैंने अपनी गलती िरू


ु स्त की और पुनः पूछा-‘मेरा मतलब है , अखबार फकतने बजे
आते हैं?‘

‘अखबार तो यहां नहीं आते सर!‘ शमाष जी ने माफी-सी मांगते हुए कहा, ‘अखबारों
में फकतनी तो मारकाट, चोरी चकारी, बलात्कार, हत्या होती है । यहां के पवित्र िातािरण
पर िवू र्त प्रभाि न पड़े इसललए यहां अखबार नहीं आते।‘

‘मतलब?‘ मेरी आंखें शायि फटने जा रही थीं। मैंने उन्हें मसल कर िापस उनकी
जगह फकया, ‘लमस्टर शमाष, आपका मतलब यह है फक िे श और ितु नया में क्या हो रहा
है , इससे यहां के लोगों को कोई िास्ता नहीं है ?‘

212
‘िे श और ितु नया से थक जाने के बाि ही लोग यहां आते हैं सर।‘

‘लेफकन बबना अखबार का जीिन?‘ मैं फकसी िख ु ी बूढ़े की तरह गिष न दहलाता हुआ
अपने कमरे की तरफ बढ़ा, श्रीकांत िमाष की पंजक्तयां मेरे पीछे लग गई थीं-‘बंि करो
अखबारों के िफ्तर और रुपयों की टकसाल। मैंने बबताए हैं खबरों और पैसों के बबना कई
साल।‘

मैंने िो काम एक साथ फकए। अपनी कनपटी पर चांटा मारा। क्या मुझे यहां आए
हुए कई साल बीत गए हैं। उसके बाि कमरे का िरिाजा खोल दिया। फोन की घंटी बज
रही थी। भीतर कहीं बहुत िरू उल्लास और हर्ष का सोता-सा फूट पड़ा। फोन! मेरे ललए
फोन! इस जंगल में। जंगल के बािजूि।

‘गुि मातनांग लमस्टर िे ि!‘ उधर कोई स्त्री स्िर था।

‘कौन?‘ मैं अचकचा गया।

'सॉरी लमस्टर िे ि! परू न की तरफ से मैं माफी चाहती हूं। आपका ‘िाइट चाटष ‘ आ
गया है । आप दिन में िो बार हबषल टी ले सकते हैं। प्लीज कम।‘ स्त्री स्िर कमनीय था।
उसमें लोच और नजाकत थी, नफासत भी।

‘लेफकन आप अपना पररचय तो िीजजए।‘ मैंने दहचकते हुए कहा। शायि मेरे मन
के कुछ उजाड़ कोने यह आत्मीय स्िर सुनकर लसंच रहे थे।

‘आप आइए तो।‘ स्त्री स्िर ने आग्रह फकया, ‘पहले ही दिन रूठ जाएंगे तो कैसे
चलेगा। पूरन बच्चा है । अस्पताल के तनयमों से बंधा है । लेफकन मैं फकचन की मैनेजर हूं।
कुछ तनयम तोड़ सकती हूं।‘ स्त्री स्िर खखलखखलाने लगा। ‘बहुत जमाने के बाि इस
अस्पताल में कोई राइटर आया है ... हम भी तो िे खें, राइटर कैसे होते हैं?‘

‘आता हूं।‘ मैंने फोन रख दिया। होठों को गोल कर एक सीटी बजाई। जेब से कंधी
तनकाल कर बाल ठीक फकए। शॉल को कायिे से लपेटा और कमरे से बाहर तनकल कर
ताला बंि करने लगा। मझ
ु से पहले मेरी जानकाररयां उड़ रही हैं। मैंने सोचा, थोड़ा
आश्िस्त भी हुआ फक कोई तो लमलने िाला है जो अपने को लेखक की है लसयत से
जानता है या जानना चाहता है ।

213
स्त्री स्िर कैफे के िरिाजे पर ही खड़ा था। जींस की पें ट शटष , जींस की टोपी,
स्पोट्षस शूज, गोरा रजक्तम-सा चेहरा, टोपी के बाहर तनकलकर सीने पर लटक गई लंबी
चोटी। मासम
ू आंखें। यह स्त्री नहीं, बमजु श्कल 23-24 िर्ष की एकिम यि
ु ा, तरोताजा
लड़की थी। पुरुर्ों की दहंसा से गाफफल, पुरुर्ों के प्रेम में पड़ने को आतुर।

इस िीराने में , जीिन से थके-टूटे मरीजों के बीच यौिन और उमंग से लबरे ज यह


लड़की यहां क्या कर रही है ? मैंने सोचा और पूछा-‘आप?‘

‘आइए।‘ उसने िरिाजे पर जगह बनाते हुए कहा-‘मेरा नाम सोनल है । सोनल
खुल्लर! मैं फकचन की इंचाजष हूं।‘

मैंने िे खा-यह विशाल कैफे पन


ु ः खाली था, खाली और प्रतीक्षारत।

‘परू न!‘ लड़की ने आिाज लगाई, ‘िो हबषल टी। गड़


ु िाली।‘ लड़की ने मेज पर बैठने
का इशारा फकया।

‘गुड़ क्यों? मुझे चीनी चादहए।‘ मैंने हल्का-सा प्रततिाि फकया।

‘क्योंफक शुगर को हम लोग ‘व्हाइट पाइजन‘ मानते हैं।‘ लड़की खखलखखलाने लगी।
‘मैंने फोन पर िॉक्टर से आपके ललए स्पेशल परलमशन ली है , हबषल टी के ललए।‘

िही नीली कमीज िाला लड़का मेज पर िो कप चाय रखकर चला गया। तो, यह
महाशय परू न हैं। मैं मुस्कराया। काउं टर पर खड़ा परू न भी मस्
ु कराया।

‘सारे मरीज कहां गए?‘ मैंने कैफे में नजरें िौड़ाते हुए पूछा।

'इलाज कराने।‘ लड़की फफर हं सी।

‘आपको तुम बोल सकता हूं?‘ मैंने लड़की की आंखों में िे खा।

‘मुझे अच्छा लगेगा।‘ लड़की मुस्कराने लगी, ‘आपके ‘िाइट चाटष ‘ से पता चलता है
फक आप मझ
ु से िग
ु नी उम्र के हैं।‘

‘और क्या-क्या पता चलता है ‘िाइट चाटष ‘ से?‘ मैंने क्षुब्ध स्िर में कहा।

214
‘पूरा इंटरव्यू आज ही कर लेंगे। अभी तो पहला ही दिन है । आपको िस दिन
हमारे साथ रहना है ।‘ लड़की फफर खखलखखलाने लगी। लड़की को खखलखखलाता िे ख मुझे
याि आया फक मैं फकतने सारे फूलों के नाम भी नहीं जानता हूं।

‘तुम्हारे साथ रहना है ?‘ मैं रोमांचचत था।

‘मेरा मतलब हम सब लोगों के साथ।‘ लड़की का चेहरा रजक्तम हो आया, ‘एक


हबषल टी और लें गे?‘

‘क्या यह संभि है ?‘

‘क्यों नहीं?‘ िह ताजे उत्साह से िमािम थी, ‘आफ्टरआल आयम मैनेजर! इतना
राइट तो है मेरा।‘ फफर िह रुकी। शरारत से मुस्कराई और बोली, ‘अगर आप मैनेजमें ट
से चग
ु ली न करें तो?‘

‘तनजश्चंत रहें । इस उजाड़ की एकमात्र खुशी का िध नहीं करने िाला मैं।‘ मैं
मुस्कराया।

‘थैंक्य।ू ‘ िह फफर खखलखखलाने लगी, ‘आप लेखक लोग लोगों का दिल रखना खब

जानते हैं।‘ जुमला बोलकर िह लपकती हुई फकचन के भीतर चली गई। मेज पर उसकी
हं सी बबखरी रह गई थी। मैं उस हं सी की पंखुडड़यों को चन ु ते हुए सोच रहा था फक इतनी
ढे र सारी हं सी िह कहां से बटोर लाई है । रास्तों, प्लेटफामों, सीदढ़यों, पुलों और रे नों में
लिकर जाती मुंबई की लड़फकयां आगे-पीछे से उत्तेजक जरूर लगती हैं लेफकन उनकी
हं सी कोई छीनकर ले गया रहता है । इस सुनसान गांि के तनविड़ एकांत में बैठी सोनल
खुल्लर की मासूम मािकता को ऐश्ियाष राय िे ख कर भर ले तो विश्ि सुंिरी का ताज
उतार फेंके। सोनल के गालों की तल
ु ना गल
ु ाब से करने के छायािािी उपिम में था मैं
फक िह लौट आई। उसके हाथ में िो कप चाय थी।

‘पूरन और महे श मरीजों का नाश्ता तैयार कर रहे हैं। मैंने सोचा खुि ही बना लेती
हूं। चख कर िे खखए, ठीक तो है ।‘

215
‘तुमने बनाई है तो उम्िा ही होगी।‘ मैंने जिाब दिया। यह जिाब िे ते हुए मैं शोख
और चंचल बनना चाहता था लेफकन मैंने पाया फक मैं उिास हूं। बहुत-बहुत उिास। पता
नहीं क्यों?

‘इतनी खूबसूरत जगह में भी आप िख


ु ी हैं?‘ सोनल की नुकीली नाक की कोर से
बूंि-बूंि अचरज टपक रहा था। ‘अच्छा यह बताइए फक आप लेखक लोग कहीं भी सुखी
नहीं रह पाते क्या?‘

जजस समय उसने यह प्रश्न फकया, मैं अपना प्याला उठा रहा था। उसका प्रश्न
शायि सीधे प्याले पर जाकर लगा था या फफर मेरे अतीत के फकसी हरे जख्म को उसने
छू ललया था। मैंने आश्चयों के बोझ से चगरी जा रही पलकों को बमुजश्कल ऊपर उठाकर
उसे िे खा और उसकी आंखों के तेइस-चैबीस िर्ीय अबोध कौतूहल से टकरा गया।

मेरे हाथ का प्याला मेज पर चगर पड़ा था।

लड़की चौंक कर खड़ी हो गई थी।

मरीजों ने आना शुरू कर दिया था।

×××

उस पाला मारती ठं ि में शाम होते-होते मेरे िख


ु गमष हो गए। िॉ. नीरज ने मेरे
बिन में उच्च रक्तचाप, लीिर की सूजन और कोलेस्राल की बढ़ी हुई मात्रा को खोज
ललया था। रक्त में हीमोग्लोबबन की कमी थी और लसगरे ट का धुआं पेजप्टक अल्सर का
तनमाषण करने में व्यस्त था।

िह एक युिा िॉक्टर था। इतने युिा व्यजक्त को प्रकृतत की शरण में जाते हुए मैं पहली
बार िे ख रहा था। प्रकृतत, अध्यात्म और मुजक्त िगैरह के पचड़ों में अपने िे श के लोग
अमूमन पैंताललस-पचास के बाि पड़ते हैं और यह तो मुजश्कल से चालीस का भी नहीं था।
अगर मेरा अनम
ु ान सही है तो िॉक्टर उम्र में मझ
ु से तीन-चार साल छोटा था। ताजा, कटे
अनान्नास जैसा चेहरा था उसका। मेरी मेडिकल ररपोटों के बीच िह तनकर बैठा हुआ था।

216
ममाषहत कर िे ने िाली सिष आिाज में उसने अपना तनणषय सुनाया-आकाश, जल, िायु,
लमट्टी और अजग्न इन पांच तत्िों से यह शरीर बना है । इन्हीं में विलीन भी हो जाने िाला
है । अंत तो सबका सतु नश्चत है लेफकन समय से पहले क्यों? मंब
ु ई के मेरे िोस्त ने
बताया फक आप लेखक हैं। मैं भी पढ़ूंगा आपकी फकताबें , तो लेखक होने के कारण आपके
जीिन पर केिल आपका अचधकार नहीं है । उस पर समाज का हक है ...

िॉक्टर बोलता जा रहा था और मैं कहना चाह रहा था फक कौन से समाज की बात
कर रहे हो िॉक्टर? उस समाज की जो मुझे आप तक पहुंचने के ललए अपने उद्योगपतत
लमत्र की सहायता प्राप्त करने को मजबरू करता है । मैं तो फफर भी भाग्यशाली हूं फक चार
लमत्र ऐसे हैं लेफकन पूरे दिन में िो बड़ा पाि खाकर जीिन गुजारने िाले कैसे पहुंचेंगे आप
तक? उनको तो बबना इलाज के ही पांच तत्िों में विलीन होना है ।

कुछ नहीं कह सका मैं। क्या कह सकता था? िोपहर तक पता चल गया था फक
जहां मैं हूं, िह एक पांच लसतारा चचफकत्सालय है । एक हजार रोज िहां का खचष था। मेरे
िस दिन का मतलब था िस हजार इलाज के और िस हजार बजररए विमान यहां आने-
जाने के यानी पूरे बीस हजार का अहसान लेकर मैं यहां आ पाया था।

अचानक मैंने खुि को बहुत फंसा हुआ अनुभि फकया, िरअसल मैं एक गंिी और
शमषनाक बीमारी की चपेट में आ गया था। मुझे बिासीर हो गई थी और सभी तरह के
इलाज कराने के बािजूि िटी हुई थी। बिहिासी के उसी िौर में मुंबई के एक उद्योगपतत
िोस्त ने मझ
ु े यहां का पता और आने-जाने का दटकट पकड़ा दिया और मैं मख ू ों की तरह
यहां आकर िॉ. नीरज के सामने बैठ गया था। जजन्होंने बिासीर के अलािा भी पता नहीं
क्या-क्या खोज ललया था।

‘कल सुबह से आपका इलाज शुरू होगा।‘ िॉक्टर नीरज ने मुस्कराते हुए कहा,
‘कदहए, ओराग्यम ् शरणम ् गच्छालम।‘

‘क्या आप कभी अखबार नहीं पढ़ते िॉक्टर?‘ मैंने एक बेतुका-सा सिाल फकया।

‘कभी-कभी िे ख लेता हूं, जब बाहर जाता हूं।‘

‘और टीिी?‘

217
‘टीिी नहीं है मेरे पास। कई साल पहले अपनी पत्नी के साथ ‘मेरा नाम जोकर‘
िे खी थी। िॉक्टर उत्साह-उत्साह में लमत्रता जैसी नमष और आत्मीय सीदढ़यां उतरने लगा।
‘बहुत अच्छी फफल्म थी। अब शायि अच्छी फफल्में बनने का चलन नहीं रहा। क्यों आप
बहुत फफल्में िे खते हैं क्या?‘

‘नहीं, फफल्में तो मैं भी कभी-कभार ही िे खता हूं मगर एक अखबार तो आपको


मंगाना ही चादहए। नहीं?‘

‘लमस्टर िे ि‘ िॉक्टर की आिाज सहसा बहुत खुश्क हो गई। ‘लोग यहां पर अपना
इलाज कराने आते हैं। यहां की जो दिनचयाष है उसमें अखबार के ललए न तो समय है , न
ही जरूरत। आप खुि िे खखएगा। अब आप जा सकते हैं। मुझे राउं ि पर जाना है ।‘ िॉक्टर
उठ खड़ा हुआ। मैं भी।

िॉक्टर के चें बर से तनकल कर मैं लसगरे ट लेने के ललए पररसर से बाहर तनकला।
गेट पर सुरक्षा अचधकारी अड़ गए। ‘यहां सब बड़े लोग ही आते हैं। बड़प्पन का रौब तो
माररए मत। हमारे ललए सब मरीज हैं। बाहर जाकर आपने चाय लसगरे ट पी ली तो हमारी
तो नौकरी गई न! अपराध करें बड़े लोग, िं ि भरें छोटे लोग। यह तो न्याय नहीं हुआ न?
आप िॉ. नीरज से ललखिा लाइए, हम आपको जाने िें गे।‘

मेरा मूि उखड़ गया। मेरे पैकेट में केिल तीन लसगरे ट बाकी थीं। सुरक्षा
अचधकाररयों से खझड़की खाकर मैं कमरे में आ गया। मैंने तय फकया फक अपनी यह िस
दििसीय यात्रा ठीक इसी बबंि ु पर पहुंच कर समाप्त कर िे ना ज्यािा उचचत होगा। इतनी
सारी िजषनाओं, इतने घनघोर अकेलेपन, इस किर ितु नया से कटे रह कर केिल कुछ
मरीजों और एक िेढ़ िजषन स्टाफ के बीच तो मेरा िम ही घुट जाएगा।

क्या नीलम को याि नहीं रहा, मैंने बची हुई तीन लसगरे टों में से एक को बड़ी
लशद्दत से सुलगाते हुए सोचा, फक भीड़ और शोर और तनरं तर साथ मेरे जीिन में आरं भ
से ही अतनिायषता की तरह लगे हुए हैं तो फफर नीलम ने सोचा भी कैसे फक मैं उसके
बबना पूरे िस दिन ऐसी जगह रहूंगा जहां जीिन से हताश कुछे क मरीजों के लसिा कोई
नहीं होगा। आखखर क्या सोचकर उसने मुझे ठे ल-ठाल कर इस यात्रा के प्रस्ताि को
स्िीकार करने पर मजबूर फकया था।

218
यहां यह मेरी पहली शाम थी और िस
ू री शाम यहां करने का मेरा कोई इरािा नहीं
था। न लमले मुंबई की फ्लाइट। मैं घोड़ा, तांगा, टै क्सी, रे न कुछ भी लेकर यहां से
तनकलने का मन बना चक
ु ा था।

ठीक ऐसे त्रस्त मन के बीच मुझे गुटरगूं गुटरगूं सुनाई िी। कमरे की छत पर
शायि ढे र सारे कबूतर चले आए थे।

आह! मैंने लसगरे ट फेंकते हुए सोचा-फकतने बरस के बाि मैं कबूतरों को सुन रहा
था। बची हुई िो लसगरे टों को बड़े प्यार और जतन से छूते हुए मैंने घड़़ी िे खी। शाम के
साढ़े सात बजे थे। मुंबई में इस समय मैं अपने िफ्तर में होता था। लेफकन यहां रात के
खाने का समय आधा घंटा पार कर चुका था।

उसी िक्त फकसी भूली बबसरी याि की तरह फोन की घंटी बजने लगी।

उस तरफ सोनल थी।

×××
सात चालीस पर मैंने कैफे में प्रिेश ललया तो सोनल िरिाजे पर ही खड़ी थी।

‘खाने का समय छह से सात के बीच का है राइटर।‘ सोनल एअर इंडिया के


महाराज की तरह अिब से झुकते हुए बोली। मैंने क्षण के िसिें दहस्से में ताड़ ललया फक
‘राइटर‘ कहते समय उसकी मंशा उपहास उड़ाने की नहीं है । मैं सहज हो गया। मुस्कराया
और बोला, ‘मैं जैन साधु नहीं हूं मैिम फक सूयाषस्त से पहले ही खाना खा लूं।‘

‘सूयाषस्त से पहले खाना खा लेने के पीछे धमष नहीं विज्ञान है । खाने की भी एक


िैज्ञातनक थ्योरी है ।‘ सोनल गंभीर हो गई।

‘िैज्ञातनक थ्योरी तुम अपने पास रखो।‘ मैंने लापरिाही से कहा, ‘तुमने खाना खा
ललया?‘

‘मैंने?‘ सोनल पानी में िूबी चक्करिार अंधेरी सीदढ़यां उतरने लगी, ‘मैं तो जयपरु
के फामष हाउस में रहती थी। िहां कोई पूछता ही नहीं था। पापा फौज में थे। मम्मी
सोशल िकषर। अकेले रहते-रहते बड़ी हो गई तो पेशे के ललए एक ‘ररमोट एररया‘ चन

ललया। यहां भी कोई नहीं पूछता मेरे खाने के बारे में। आपके मन में मेरे खाने की याि

219
कहां से चली आई?‘ सोनल की आंखें पानी-पानी थीं। उस पानी पर रपटते हुए मैं अपने
शायर िोस्त तनिा फाजली के घर चला गया, जहां टे प पर उनकी गजल बज रही थी -
दिया तो बहुत

जजंिगी ने मुझे

मगर जो दिया िो दिया िे र से..

‘अंततम पेशेंट को खखला िे ने के बाि ही मुझे खाना चादहए, नहीं?‘ सोनल पूछ रही
थी।

‘क्या खखला रही हो?‘ मैं हं सा। हं सने के पीछे कोई तकष होता है क्या? मैंने सोचा।

‘आज छूट है , कुछ भी खाइए। कल सुबह से आपका इलाज चलेगा। रोज का जो


‘िाइट चाटष ‘ िॉ. नीरज की तरफ से आएगा, िही खाना होगा।‘

‘क्या-क्या है तम्
ु हारे फकचन में ?‘ मैंने पूछा, ‘तम
ु भी मेरे साथ क्यों नहीं खाती हो?
अकेले खाना मुझे भाता नहीं है ।‘ मैं सफेि झूठ बोल गया। मुंबई में मैं िोनों िक्त अकेला
ही खाता था। िोपहर को िफ्तर में , रात को बारह-एक बजे, सबके खा-पी लेने के बाि।
बच्चों को कालेज भेजने के ललए नीलम को सुबह पांच बजे उठना पड़ता था इसललए िह
रात को बच्चों के साथ नौ-िस बजे तक खा लेती थी।

‘अरे बाप रे ! आप तो मरिा िें गे।‘ सोनल चैंक गई, ‘एक मरीज में इतनी दिलचस्पी
लूंगी तो मैनेजमेंट तो मेरी छुट्टी ही कर िे गा। चललए टे बल पर बैदठए, मैं आपके सामने
खड़ी रहूंगी।‘ सोनल बोली और फकचन की तरफ मुंह करके चचल्लाई-‘पूरन, पालक सूप ले
आओ।‘

खाली कैफे की उस रात होती शाम में सोनल की आिाज मधुर तरीके से गूंज
उठी। मझ
ु े लगा इस आिाज के सहारे रहा जा सकता है िस दिन।

‘तम्
ु हारे पेशट
ें कहां गए?‘ मैंने यंू ही पछ
ू ा।

‘सब गए। पाकष में टहल रहे होंगे या अपने-अपने कमरों में होंगे।‘ सोनल ने
जानकारी िी। पूरन पालक सूप रख गया। सूप का पहला चम्मच पीते ही मुझे कुछ

220
खाली-खाली सा, कुछ छूट गया सा लगा। याि आया मुंबई में यह समय शराब पीने का
होता था या होनेिाला होता था।

सूप समाप्त होते ही मेज पर सलाि की प्लेट, छोटी-सी मक्के की रोटी, सरसों का
साग, गुड़ और िही आ गया। पत्ता गोभी और करे ले की भाजी भी थी।

‘अरे िाह।‘ मैं सचमुच प्रसन्न हो गया। ‘तुमको कैसे पता चला फक मुझे मक्के की
रोटी, सरसों का साग और करे ले की सब्जी पसंि है ?‘ मैंने आश्चयष से पूछा।

‘िाइट चाटष के साथ लगी आपकी मेडिकल और फफजीकल ररपोटष से। ‘ सोनल सहज
थी लेफकन मैं असहज और लजज्जत सा हो गया। इसका मतलब यह जान चुकी है फक
मझ
ु े बिासीर है , मैंने सोचा और तत्काल ही मेरा चेहरा लाल हो गया।

‘सहज हो जाइए।‘ सोनल खखलखखलाई, ‘यहां स्िस्थ लोग नहीं आते। हर पेशट
ें की
हर तकलीफ के बारे में जानना ही होता है िरना िे खभाल कैसे कर पाएंगे?‘

लेफकन बिासीर? एक अनजान जिान लड़की की जानकारी में। मेरी चेतना में एक
नामालूम-सी शमष दिप-दिप करने लगी।

मैं चुप खाना खाता रहा। रोटी खत्म करके मैंने सोनल की तरफ िे खा। िह शायि
मुझे चाि से खाना खाते ही िे ख रही थी। उसकी आंखों से मेरी आंखें टकरा गईं। िह
शरारात से मुस्कराई, ‘बस, और खाना नहीं लमलेगा।‘

'केिल एक रोटी?‘ मैं चफकत रह गया।

‘यह भी बहुत है िी हो गया है ।‘ सोनल ने दहिायत िी, ‘अब आप एक घंटा टहल


लें। चाबी यहां छोड़ जाएं। परू न सोते समय खाने के ललए आपके कमरे में खजरू रख
आएगा।‘

‘लेफकन मैं खजूर नहीं खाता।‘ मैंने प्रततिाि फकया।

‘क्यों? जजतनी भी अच्छी चीजें हैं, उन सबसे बैर है क्या?‘

‘तम
ु से कहां बैर है ?‘ मैं पता नहीं क्यों और कैसे बोल गया। आम तौर पर ऐसे
नायाब जुमले मुझे शराब पीने के बाि ही सूझते थे।

221
‘अब जाइए। टहल कर आइए और सो जाइए। मैं भी खाना खाकर सोने जाऊंगी।
सुबह चार बजे उठना होता है ।‘

‘लेफकन!‘ मैंने घड़ी िे खी, आठ बजकर पांच लमनट हुए थे, ‘इतनी जल्िी कैसे सो
जाऊं?‘

‘साढ़े नौ बजे लाइटें बंि हो जाएंगी।‘ सोनल ने नयी जानकारी िी। मुझे याि
आया, सुबह पौने तीन बजे जब मैं इस अस्पताल में आया था, तो कमरे में लाइट नहीं
थी। मुझे कमरे में रखी मोमबत्ती जलानी पड़ी थी।

‘यह तो ज्यािती है ।‘ मैं बुझे मन से उठा, ‘पानी तो वपलिाओ।‘

‘पानी खाना खाने के एक घंटे बाि अपने कमरे में पीजजएगा।‘

'इसमें भी कोई विज्ञान है ?‘ मैं चचढ़ सा गया।

'हां,‘ सोनल खखलखखलाने लगी, ‘आएगा, बहुत मजा आएगा। आपके साथ बड़ा मजा
आएगा।‘

‘गुि नाइट।‘ मैं चचढ़ा-चचढ़ा मुड़ गया।

‘कमरे की चाबी?‘ सोनल हं स कर बोली।

‘मझ
ु े नहीं चादहए तम्
ु हारे खजरू ।‘ मैंने चचढ़े -चचढ़े ही जिाब दिया और अपने कमरे
की तरफ मुड़ गया। कमरे में जाकर पहले एक लसगरे ट पीनी थी।

कमरे में आकर लसगरे ट पीते हुए मैंने सोचा, नीलम को फोन करूं क्या? उसे
बताऊं फक मैंने खाना खा ललया है और सोने जा रहा हूं। घर में फकसी को भी यकीन नहीं
होगा। छोटा बेटा पढ़ रहा होगा। बड़ा बेटा कॉलेज से लौटा नहीं होगा। इस िक्त रे न या
बस में होगा। नीलम खाना बना रही होगी। तनशा मेरे ललए शामी कबाब लेकर आई होगी
और यह सुनकर लसर धुन रही होगी फक उसके अंकल मुंबई में नहीं हैं...

तनशा मेरे एक मुसललम िोस्त की बेटी थी। उसका वपता शराब नहीं पीता था
इसललए िह अक्सर मेरे ललए शामी कबाब तलकर ले आती थी। ठीक शराब पीने के
समय या खाना खाने के चंि क्षणों पहले। तनशा बी०कॉम० में पढ़ती थी, इसके बािजूि

222
उसके हाथों के बने शामी कबाब अविस्मरणीय ढं ग से लजीज होते थे। उन कबाबों के
कुरकुरे पन में एक बेटी के अप्रततम प्यार की सोंधी खुशबू घुली-लमली होती थी।

ररसेप्शन पर आकर मैंने फोन फकया। फोन छोटे बेटे राहुल ने उठाया और आिाज
पहचान कर जोर से बोला, ‘पापा ऽऽऽ मेरे ललए राजस्थान की कठपुतली लाना।‘

‘मम्मी को िे ।‘ मैंने अधीरता से कहा।

‘मम्मी सब्जी लेने माकेट गई है ।‘

‘खाना खाया?‘

‘अभी नहीं।‘

‘लो कर लो बात।‘ मैंने सोचा और बोला, ‘अच्छा मम्मी को बोलना पापा ठीक से
हैं।‘

‘ओ०के० पापा, आपने टी०िी० िे खा?‘

‘टी०िी० यहां नहीं है बेटा।‘ मैं िख


ु ी-सा हो गया।

‘ओह लशट। पापा, पाफकस्तान के आतंकिादियों ने हमारा प्लेन हाईजैक कर ललया।‘

'अरे ?‘ मैं चौंक उठा।

‘हां, पापा।‘ राहुल उत्तेजजत था। ‘उन्होंने हमारे एक यात्री... को तो मार भी दिया।
जहाज में िेढ़ सौ इंडियन हैं।‘

'क्या बोल रहा है ?‘

‘हां पापा। आप अखबार तो पढ़ो?‘

‘ओके बेटा बाय! मैं सुबह फोन करूंगा?‘ मैंने कहा और फोन रख दिया। मेरी
बेचैनी मेरे लसर चढ़कर बोल रही थी। मैं पाकष में घूमने तनकल पड़ा।

पाकष एकिम खाली था। खाली और तनस्तब्ध। अचानक ऐसा लगा मानो इतनी बड़ी
पथ्
ृ िी पर मैं अकेला ही बचा रह गया हूं। एक राउं ि भी पूरा नहीं कर पाया था फक ठं ि के

223
कारण बिन कंपकंपाने लगा। प्यास भी खूब तेज लगने लगने लगी थी। मैं तेज किमों से
पाकष का चक्कर लगा कर िापस कमरे पर आ गया। घड़ी में पौने नौ बजे थे।

बजत्तयां गुल होने में पूरे पैंताललस लमनट बाकी थे।

मझ
ु े याि आया। मंब
ु ई में जब फकसी कारणिश जल्िी घर आना होता था तो मैं
नौ अिािन की रे न पकड़ा करता था। यूं आमतौर पर मैं रात ग्यारह उनताललस की
आखखरी फास्ट रे न पकड़ कर जाया करता था।

स्मतृ तयों पर अिसाि झर रहा था। न लसफष स्मतृ तयों पर िरन ् परू ी चेतना ही
पक्षाघात के जबड़े में जाने को आतुर थी। अपने िे श का एक पूरा विमान हाईजैक हो
गया था और यहां एक पांच लसतारा चचफकत्सालय में खा-खाकर बीमार हुए लोग अपने-
अपने कमरों में सो रहे थे।

‘मैं उल्लू का पिा हूं क्या?‘ मैं जोर से चचल्लाया।

पिा, पिा पिा...शब्ि मुझ तक लौट आए।

अस्पताल की बजत्तयां बझ
ु गईं। मतलब साढ़े नौ बज चुके थे।

मेरे पास लसफष एक लसगरे ट बची थी। मंब


ु ई में बच्चे विमान अपहरण का लाइि
टे लीकास्ट िे ख रहे होंगे। मैंने सोचा और बबस्तर में घुस कर ललहाफ ओढ़ ललया जैसे
शत
ु रु मग
ु ष रे त में मंुह गड़ा कर सो जाता है ।

×××

सुबह पांच बजने में पांच लमनट पर फोन आ गया। िह तब तक बजता रहा जब
तक मैंने फोन को उठा नहीं ललया।

‘जय श्री राम।‘ उधर से आिाज आई। ‘सुबह हो गई है । उदठए, फ्रेश होकर आधा
घंटा पाकष में टहलने जाइए। उसके बाि योगा हॉल में आइए, प्राथषना करें गे। नमस्कार।‘
और फोन कट गया।

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बबस्तर में घुसने से पहले मैंने बाथरूम की लाइट बंि नहीं की थी और िरिाजे को
भी खुला छोड़ रखा था। फोन बजने पर मैंने रजाई से मुंह तनकाला तो बाथरूम में उजाला
था और उसकी लाइट से कमरा भी थोड़ा-थोड़ा रोशन था।

बहुत चचढ़कर मैं उठा। बबना शराब वपए पूरी रात नींि नहीं आई थी। शायि सुबह
के चार सिा चार पर पलकें झपकी थीं। मैं उठा। अंततम लसगरे ट जलाकर बाथरूम में घुस
गया। फ्रेश होकर िापस बबस्तर पर आया। बगल की ततपाही पर रखे कागज को िे खा-िह
दिनचयाष चाटष था। यह चाटष कल दिन में नहीं था। शायि शाम को कोई रख गया होगा।

चाटष में िजष था-‘सुबह पांच बजे उठना। साढ़े पांच बजे तक पाकष में टहलना। छह
बजे तक योगा हॉल में प्राथषना, पौने सात तक हे ल्थ क्लब में जाकर नेतत, कंु जल और
एतनमा का इलाज लेना, सात बजे कैफे में जाकर नींबू-पानी-शहि पीना। आठ बजे तक
िापस योगा हॉल में जाकर योगासन करना। िहीं पर नौ बजे तक िॉ. नीरज का प्रिचन।
नौ से साढ़े ग्यारह तक हे ल्थ क्लब में जाकर लमट्टी पट्टी, माललश, ठं िा-गमष स्नान, भाप
स्नान, वपरालमि चचफकत्सा, चंब
ु क चचफकत्सा आदि लेना। साढ़े बारह तक कैफे में आकर
खा लेना। िो बजे तक पाकष में घूमना। आराम करना या पुस्तकालय में बैठकर स्िास्थय
संबंधी फकताबें पढ़ना। ढ़ाई बजे िापस कैफे में जाकर जस
ू पीना और पन
ु ः हे ल्थ कल्ब में
चल िे ना। साढ़े पांच बजे इलाज से लौटकर कैफे में फल खाना। साढ़े छह तक पाकष में
टहलना। साढ़े सात तक हर हाल में खाना खा लेना। साढ़े आठ तक पन
ु ः इलाज लेना। नौ
बजे कमरे में आना और साढ़े नौ तक सो जाना।‘

अचरज की चक्करतघन्नी में गोल-गोल घूमकर मेरे दिमाग की नसें तड़कने लगीं।
इस दिनचयाष में रोटी की मशक्कत, भाग-िौड़, हत्या, बलात्कार, िकैती, अपहरण की बरु ी
सूचनाएं, माधुरी िीक्षक्षत की धक-धक, बबजली गुल होने की समस्या, रै फफक जाम में फंस
जाने की पीड़ा, बेटे के िे र रात तक घर न लौटने पर नीलम का चचड़चचड़ापन और चचंता
कुछ नहीं था, कहीं नहीं था। यहां लसफष िॉ. नीरज थे और था उनका प्राकृततक इलाज।

मैं कमरे से बाहर आ गया-गमष कपड़ों से लिा हुआ। बाहर, पररसर में इस लसरे से
उस लसरे तक एक पागल ठं ि हा हा हू हू करती िौड़ रही थी। ठं ि के कारण मेरे िांत
बजने लगे थे।

225
पाकष में पररचचत सन्नाटा था। पररसर के विशाल गेट पर सुरक्षा अचधकारी तक
नहीं थे। मैंने गेट की छोटी खखड़की से मुंह बाहर तनकाल कर िे खा-ठीक सामने एक
छोटी-सी गम
ु टी जैसी बंि िक
ु ान थी। एक टूटी-फूटी कच्ची सड़क िाएं-बाएं िरू तक चली
गई थी। पता नहीं सामने िाली िक
ु ान में लसगरे ट लमलती है या नहीं? बाहर जाने की
स्पेशल परलमशन तो िॉ. नीरज से लेनी ही होगी।

मैं पलट कर पाकष में आ गया। पाकष के बीचों-बीच सोफे के आकार के जो छह


सात झूले खड़े थे, िे संभितः िोपहर की धूप में आराम करने के ललए रहे होंगे। तभी
एक हल्का-सा झोंका आया और मझ
ु े लगा पाकष में पत्तों की पाजेब बजी है ।

अब तक मैं आधे पाकष का चक्कर लगा चुका था। थोड़ा-थोड़ा उजास झरने लगा
था। पाकष की बजत्तयां िमशः बुझ रही थीं। हे ल्थ क्लब की बजत्तयां एकाएक जलने लगीं।
मैं एक छोटे से बांस के घर के सामने रुक गया। उसके भीतर प्यारे -प्यारे खरगोश टहल
रहे थे। जीिन में पहली बार मैंने खरगोशों से बातें कीं और उस दिन को नफरत की तरह
याि फकया जब मैंने पहली बार खरगोश का मांस खाया था।

उसी समय कबूतरों का एक झुंि िहां पर उतरा और पाकष की ओस में भीगी,


मखमली घास पर बबखर गया। मैंने तत्काल चप्पलें उतारीं और कबूतरों की तरह उस
गीली घास पर िे र तक चलता रहा। शुरूआती ठं ि के बाि हरी-गीली-नरम घास पर नंगे
पांि चलना एक सुखि आश्चयष जैसा लगा, मैं िे र तक नंगे पांि टहलता रहा और सोचता
रहा फक मंब
ु ई-दिल्ली-कलकत्ता के मेरे तमाम िोस्त इस समय तनजश्चत रूप से सो रहे
होंगे। जबफक उनसे अचधक िे र तक सोने िाला मैं यहां, नंगे पांि सूयष के स्िागत में खड़ा
था।

मेरी चचढ़ का क्या हुआ। क्या सचमुच मेरा भी कायाकल्प हो रहा है । मैं सजृ ष्ट
और उसके चमत्कार से लमत्रता करने की दिशा में फफसल रहा था क्या? यह एक अपूिष
अनभ
ु ि था-ठीक िैसा, जैसा तनमषल िमाष की कहातनयों और उपन्यासों में लमलता है -धंध
ु ,
धुएं, आलोक में ततरता रहस्यमय मगर चमकीला-सा, िर्ों के कठोर िख
ु ों को अनिरत
सहते रहने के बाि सहसा सामने आ खड़े मायािी सुख-सा, एक चचड़चचड़ी, थका िे नेिाली
जद्दोजहि के बाि की उनींिी नींि के बाि अजजषत हुआ विरल अनुभि। घड़ी िे खी-साढ़े पांच

226
बज गए थे। अब आधे घंटे की प्राथषना में जाना था। मैं योगा हॉल में जाने के बजाय
ररसेप्शन पर चला गया। मुझे मालूम था फक मुंबई में नीलम उठ चुकी होगी।

फोन लमलाया। नीलम ही थी।

‘मझ
ु े यकीन नहीं हो रहा है फक यह तम
ु हो?‘ नीलम ने खश
ु ी से लगभग चीखते
हुए कहा, ‘इतनी सुबह।‘

‘मातनांग िॉक से लौट रहा हूं।‘ मैंने रौब मार दिया।

‘िे ि, मैं ररयली बहुत खुश हूं...तुम खुश हो न?‘ नीलम ने आशंफकत होकर पूछा।

‘मैं अपनी अंततम लसगरे ट पी चुका हूं और कल रात शराब भी नहीं लमली।‘

नीलम को खश
ु होना चादहए था लेफकन उसके मंह
ु से अफसोस में िूबा ‘बेचारे ‘
शब्ि तनकल गया। मुझे खुशी हुई फक िह मेरी यातना को समझ पा रही है ।

‘और क्या समाचार है ?‘ मैंने पूछा।

‘सबसे बड़ा समाचार विमान अपहरण का ही है । तुमने नहीं पढ़ा?‘ नीलम चफकत
थी।

‘यहां टीिी और अखबार कुछ नहीं है ।‘ मैंने कुढ़कर कहा।

‘ओह!‘ नीलम बोली, ‘मैं तुम्हें फोन करती रहूंगी।‘

‘नहीं! तुम फोन मत करना। आज से मैं पेशेंट हूं। पता नहीं कब कहां रहूंगा। मैं ही
तुम्हें फोन करूंगा। बाय!‘ मैंने फोन काट दिया। फोन का बबल अपने खाते में जमा करने
का तनिे श शमाष जी को िे कर मैं बाहर तनकला तो थोड़ा प्रफुजल्लत था। यह नीलम से बात
हो जाने की प्रसन्नता थी शायि। हालांफक मन में कहीं यह कसक भी थी फक विमान में
बंधक याबत्रयों का थोड़ा विस्तत
ृ समाचार लमल जाता तो अच्छा था। योगा हॉल में जाकर
प्राथषना में शालमल होने का मन नहीं बन रहा था इसललए छह बजे तक मैं ररसेप्शन के
बाहर बने लंबे कारीिोर में टहलता रहा।

ठीक छह बजे मैं इलाज के ललए ‘हे ल्थ क्लब‘ की दिशा में तनकल पड़ा।

227
शायि प्राथषना ठीक छह बजे समाप्त नहीं हुई थी। इलाज के ललए पहुंचने िालों में
मैं सबसे पहला शख्स था।

एक िाढ़ी िाले िमाष जी ने मुझे एक जग गुनगुना पानी दिया और बोले, ‘पूरा


पानी पी जाएं और उसके बाि मुंह में उं गली िालकर उल्टी कर िें ।‘

उल्टी के साथ पीला-पीला वपत्त और बलगम भी बाहर आ गया। मुझे अच्छा


लगा। इसे ‘कंु जल‘ कहते थे। इसके बाि िमाष जी ने स्टील के एक नली िाले लोटे को
पकड़ा कर बताया, ‘िाईं नाक से पानी लेकर बाईं नाक से तनकालें , फफर बाईं नाक से
पानी लेकर िाईं नाक से तनकाल िें ।‘ यह ‘नेतत‘ थी। फफर िमाष जी ने मुझे ‘एतनमा‘ िाले
कमरे में पहुंचा दिया। नीम के पानी का ‘एतनमा‘ लेकर मैं ‘कमोि‘ पर बैठा तो लगा पूरा
पेट एक बार में ही खाली हो गया है ।

बाथरूम से तनकला तो िे खा बाकी मरीज आने शरू


ु हो गए थे। जस्त्रयों और परु
ु र्ों
की अलग-अलग व्यिस्था थी। जस्त्रयों के ललए स्त्री पररचाररकाएं थीं।

ठं ि से कुड़कुड़ाते हुए मैं कैफे में पहुंचा और पूरन से ‘हबषल‘ टी की मांग की।

‘नहीं साब!‘ पूरन मेरा िाइट चाटष िे खकर बोला, ‘आज से नींबू-पानी-शहि ही
लमलेगा।‘

मैं नींबू-शहि का चगलास लेकर एक कोने में बैठ गया और कैफे में िमशः प्रिेश
करते मरीजों को िे खने लगा। कोई बहुत मोटा था, कोई बहुत पतला। कोई लंगड़ा कर
चल रहा था, फकसी की कमर झुकी हुई थी। ज्यािातर अधेड़ स्त्री-पुरुर् थे, लेफकन सबके
सब तनजश्चत रूप से संपन्न रहे होंगे।

सात से आठ िाली योगासन की कक्षा मैंने छोड़ िी लेफकन आठ बजने में पांच
लमनट पर मैं ‘योगा हॉल‘ के भीतर था - िॉ. नीरज के प्रिचन के ललए। चचफकत्सालय के
‘योगा हॉल‘ के भीतर था-िॉ. नीरज के प्रिचन के ललए। चचफकत्सालय के ‘योगा हॉल‘ से
यह मेरा पहला साक्षात्कार था।

िह एक विशाल हॉल था। जजसमें सामने की िीिार पर बहुत बड़े आकार का तांबे
का ‘ऊँ‘ लगा हुआ था। उसके सामने िॉ. नीरज का सफेि आसन था और आसन के

228
सामने पूरे हॉल में कीमती िररयां बबछी हुई थीं। योगासन की कक्षा समाप्त हो गई थी
और सभी मरीज िॉ. नीरज के इंतजार में थे।

ठीक आठ बजे चीते जैसी फुती के साथ िॉ. नीरज ने प्रिेश ललया और मुझे गेट
पर खड़ा िे ख प्रसन्न हो गए।

'आइए।‘ िॉ. नीरज ने कहा और अपने आसन पर जाकर बैठ गए। बाकी मरीजों से
थोड़ा हट कर मैं भी एक तरफ बैठ गया।

‘पहले आप सबका अपने नये सिस्य से पररचय कराते हैं।‘ िॉ. नीरज ने मेरी
तरफ इशारा कर सभा को संबोचधत फकया। मैंने खड़े होकर सबको नमस्कार कर दिया।
प्रत्युत्तर में बाकी लोगों ने भी हाथ जोड़ दिए।

‘यह श्री िे ि लसन्हा हैं। लेखक और पत्रकार। मंुबई से आए हैं। मेरा श्री िे ि से
आग्रह है फक जब उनके जैसा व्यजक्त यहां आ ही गया है तो हमारे इस चेतना के
जागरण के विज्ञान का खि
ु भी लाभ ले और यहां से जाकर िस
ू रे लोगों को भी जागत

करे । मैं फफर कहता हूं फक ललखने-पढ़ने िालों का जीिन केिल उनका अपना नहीं होता।
आप यहां से एक बड़े समाज के ललए जनदहत का संिेश लेकर जाएंगे तो हमारे यह
प्रयत्न साथषक होंगे। चललए अब मेरे पीछे -पीछे बोललए-

तनसगषम ् शरणम ् गच्छालम

योगम ् शरणम ् गच्छालम

आरोग्यम ् शरणम ् गच्छालम!!

‘हां तो लमत्रो!‘ िॉ. नीरज शुरू हो गए, ‘जैसा फक आप जानते हैं फक ििा से रोग
िबा दिया जाता है । िबा हुआ रोग बार-बार उभरता है । हम रोग को िबाने में नहीं जड़ से
लमटाने में यकीन रखते हैं। हमारे केंद्र की एक बड़ी विशेर्ता यही है फक यहां रोगी न
केिल स्िस्थ होता है िरन खि
ु एक चचफकत्सक बन कर जीिन में लौटता है । हम मानते
हैं फक सारे रोग एक हैं और रोग की ििा भी एक ही है । आहार को लेकर हमारा अज्ञान
ही समस्त रोगों की जड़ है इसललए िवू र्त, जहरीले भोजन से ‘कचराघर‘ बन चुका पेट

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यहां सबसे पहले स्िच्छ फकया जाता है । आज हमारी इंिौरिासी मदहला मरीज श्रमती
कुसुम व्यास हमसे वििा ले रही हैं, हमारे केंद्र में आईं तो इनका िजन वपच्चासी फकलो
था। अब यह बासठ फकलो की हैं। क्यों बहन जी, कोई संिेश?‘

श्रीमती व्यास उठकर खड़ी हो गईं और लजाते हुए बोलीं -‘मुझे तो इतना ही कहना
है जी फक मैं यहां स्रे चर पर लाई गई थी और अपने पांिों से चलकर जा रही हूं।‘

सभागार ताललयों से गूंज उठा।

‘कोई प्रश्न?‘ िॉक्टर ने पछ


ू ा।

मेरा मन नहीं माना। मैंने हाथ उठा दिया।

'पूतछए!‘ िॉ० नीरज बोले।

'बाहर जो िख
ु है , शोक है , िै न्य है , रोजी-रोटी की मशक्कत है , भूख है , संताप है ,
अपहरण, बलात्कार, हत्याएं, तालाबंिी, हड़तालें और लाठीचाजष हैं, चैबीस घंटों की भागिौड़
और तनाि है , झुग्गी-झोपडड़यों का नरक और जीिन का विराट तथा अनिरत संग्राम है
और जजसके कारण ही बड़े-बड़े रोग हैं, तनधन है , लाचाररयां हैं, आत्महत्याएं है ...‘

‘बस बस! लमस्टर िे ि! मैं आपका प्रश्न समझ गया!‘ िॉ. नीरज ने मुझे टोक दिया,
‘लेफकन इस शाश्ित प्रश्न का जिाब मुंबई हाजस्पटल, अपोलो हाजस्पटल या ‘एम्स‘ का
कोई िॉक्टर िे सकता है ?‘ अंत तक आते-आते िॉ. नीरज का चेहरा तमतमाने लगा था।
‘आप चाहें तो इस विर्य पर हम अलग से बैठक कर सकते हैं लमस्टर िे ि िैसे आपकी
सूचना के ललए बता िं ू फक चचफकत्सक होने से पहले मैं कवि और उससे भी पहले
माक्सषिाि का विद्याथी था। और इन िोनों कारणों से ही मैं प्राकृततक चचफकत्सा की तरफ
आया। जजस बाईपास सजषरी का खचष मुंबई अस्पताल में िेढ़ िो लाख रुपये आता है उसी
रोगी हृिय को हमारे यहां बीस दिन और बीस हजार रुपये में ठीक कर िे ते हैं।‘

'थैंक्यू िॉक्टर। मेरी मंशा आपको चोट पहुंचाने की नहीं थी। एक लेखक होने के
कारण मेरी जजज्ञासाएं जरा िस ू री तरह की हैं।‘ मैंने जिाब दिया और उठ खड़ा हुआ
क्योंफक स्ियं िॉ. नीरज भी खड़े हो चुके थे। घड़ी में ठीक नौ बज रहे थे। मरीजों को
इलाज के ललए हे ल्थ क्लब जाना था।

230
×××
रात बारह बजे आने िाले फोन ने जगा दिया।

इस समय? मैंने ललहाफ में से मुंह तनकालकर सोचा और टे बल लैंप जलाकर घड़ी
िे खी-सचमुच बारह ही बजे थे। असल में दिन भर के इलाज ने शरीर को भरपूर राहत
िे ने के साथ-साथ बेतरह थका भी दिया था। आखखरी, गमष पानी में पैरों का स्नान और
नालभ में गाय के िध
ू से बना शुद्ध घी लगिा कर जब मैं कमरे पर लौटा तो रात ग्यारह
बजते-बजते ही बड़ी सुहानी नींि में चला गया था।

फोन पर शमाष जी थे।

‘कीचड़ स्नान के ललए जाना है क्या?‘ मैं चचढ़कर पछ


ू ा।

‘नहीं सर!‘ िायरे क्ट लाइन पर आपका फोन है मंब


ु ई से।‘ शमाष जी संयत थे।

‘आया।‘ मैंने कहा और बबस्तर से तनकल कर शाल ढूंढने लगा। इस समय फोन
क्यों फकया होगा नीलम ने? मैंने सोचा। हालांफक मुंबई के ललहाज से यह कोई ज्यािा
समय नहीं था। इस समय तक तो मैंने रात का खाना भी नहीं खाया होता था।

‘िे ि बुरी खबर है ।‘ नीलम हांफ-सी रही थी। ‘आज िोपहर तनशा ने ‘रै टौल‘ खाकर
आत्महत्या कर ली। अभी-अभी अस्पताल से उसकी बािी लेकर आए हैं। बाहर पूरी
काुलोनी जमा है । मैं उसे िे खने अस्पताल गई थी। िह अंत समय तक बड़बड़ा रही थी
फक िे ि अंकल होते तो मैं बताती मेरे साथ क्या हुआ?‘

‘ओह!‘ मेरे मुंह से तनकला। फफर मैंने फोन रख दिया। शरीर का एक-एक रोम खड़ा
हो गया था।

फफर रात भर नींि नहीं आई। ऐसा क्या हुआ होगा फक चाटष िष एकांउटें ट बनने का
स्िप्न िे खने िाली एक यि
ु ा लड़की को आत्महत्या करने पर मजबरू होना पड़ा?

लसगरे ट होती तो मैं शायि रात भर चहलकिमी करता। बबस्तर में पड़े-पड़े सब
ु ह
पांच बजे आने िाले फोन का इंतजार करता रहा। भूख भी बहुत कस कर लग रही थी
क्योंफक िॉ. नीरज ने मुझे तीन दिन के उपिास पर रख दिया था-लसफष नींबू-पानी-शहि
पीने की छूट थी।

231
×××

मैंने तुम्हें एक नया नाम दिया है । सुबह सात बजे मैं सोनल को बता रहा था।
सात से आठ िाली ‘योगा क्लास‘ से िॉ. नीरज ने मुझे मुजक्त दिला िी थी। इसललए यह
पूरा एक घंटा मेरा स्थायी रूप से कैफे में बीतता था-सोनल के साथ। यह मेरी पांचिीं
सुबह थी।

‘क्या नाम दिया है सुनें तों!‘ सोनल फकचन के उस पार से मेरे ललए खुि नींबू-
पानी-शहि लेकर आ गई थी।

‘ररमोट एररया की महारानी।‘ मैं बुिबुिाया।

सोनल ने सुना और खखलखखलाने लगी लेफकन खखलखखलाते खखलखखलाते िह िरू


चली गई। काउं टर के उस पार जाकर िह चीखी, ‘तम्
ु हारा आज का चाटष आ गया है
राइटर! आज तुमको िोपहर के खाने में एक प्लेट सलाि, सोयाबीन का िही और आधा
प्लेट उबला हुआ पालक लमलने िाला है ।‘

मैं विजस्मत रह गया। उसी विस्मय में थरथराता मैं काउं टर तक गया और बोला -
‘तुमको मालूम है , तुम मुझे तुम कह रही हो।‘

'क्या? नहीं!!‘ काउं टर के उस पार सोनल चथर थी।

फफर िह धीरे -धीरे पीछे हटी, एकाएक झटके से घूमी और भीतर फकचन में कहीं
गायब हो गई।

कुछ िे र इंतजार करने के बाि मैंने काउं टर पर ठक-ठक की तो पूरन बाहर


तनकला।

'सोनल कहां है ?‘ मैंने पछ


ू ा।

‘मेम साब अपने कमरे पर चली गई हैं।‘ पूरन ने बताया और मुझे अिाक छोड़
फकचन के भीतर चला गया।

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कैफे की एक मेज पर मेरा नींबू-पानी-शहि लािाररस पड़ा था।
×××

िोपहर का भोजन िही था जो सोनल ने बताया था लेफकन खुि सोनल िहां नहीं
थी। िह रात के खाने पर भी नहीं दिखी। पूरन ने बताया उनकी तबीयत ठीक नहीं है ।
िह कमरे पर हैं। बहुत िरते-िरते पूरन ने सोनल के कमरे का फोन नंबर दिया।

रात नौ बजे मैंने सोनल का फोन नंबर घुमा दिया। सोनल ही थी।

‘सोनल मैं िे ि!‘

‘जी।‘ उधर से िबा लभंचा स्िर आया।

‘बीमार हो?‘

‘हां।‘

‘तुम लोग भी बीमार पड़ते हो?‘ मैंने पररहास फकया, ‘खाना खाया?‘

‘नहीं।‘

‘क्यों?‘

‘क्यों इतना पूछते हैं?‘ सोनल बबिक गई।

‘आखखर तुम्हें हुआ क्या है ?‘ मैं झल्ला ही तो पड़ा।

‘मैं कमजोर पड़ गई हूं राइटर। मुझे बख्श िो प्लीज।‘ सोनल बाकायिा लससक रही
थी, ‘जैसा भी था मेरा एक जीिन था, जो लसफष मेरा अपना था, उसमें फकसी की पूछताछ
नहीं थी, उपेक्षा नहीं थी, अपेक्षा भी नहीं थी। तुमने ये सब चीजें मुझमें जगा िीं राइटर।
और मैं नहीं चाहती फक ये सब चीजें मुझमें जाग जाएं। प्लीज...गुि नाइट।‘ सोनल ने
फोन काट दिया, एकाएक।

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मैं सन्न रह गया। अनजाने ही मैंने एक िूर काम कर दिया था। हम लेखक लोग
अंततः िूर ही होते हैं। उम्मीिें जगाकर फफर उन्हें नष्ट कर िे ते हैं।

सचमुच सोनल को मेरे बीत चुके और आनेिाले जीिन के बारे में क्या पता था?
यह सच है फक चार-पांच रोज बाि मैं यहां से चला जाऊंगा। मेरे चले जाने के बाि सोनल
का जो जीिन होगा उसमें क्या कोई उससे पूछने िाला होगा फक तू इतनी उिास क्यों है
सोनल।

मैंने फफर फोन नंबर घुमाया। फोन एंगेज था। शायि सोनल ने फोन उठाकर रख
दिया था।

तभी कमरे की बत्ती चली गई।

अरे ? साढ़े नौ बज गए? मैंने सोचा और िोनों हाथों से माथा पकड़ कर बबस्तर पर
बैठ गया।

अगले रोज िोपहर मेरे जीिन में एक नया िख


ु लग गया। पूरन ने मुझे एक नीले
रं ग का खूबसूरत कागज दिया। उस पर ललखा था -‘राइटर! मैं यह चचफकत्सालय छोड़कर
जा रही हूं। हममें से फकसी एक को इस तरह जाना ही था। तुम तो संिेिनशील हो।
सहृिय हो। हो सके तो, इस तरह छोड़कर जाने के ललए, माफ कर िे ना। तुम्हारी-ररमोट
एररया की महारानी।‘

'पूरन। मुझे एक हबषल टी वपला सकते हो?‘ मैंने पूछा

‘नहीं साब।‘ पूरन ने सपाट-सा जिाब दिया।

‘शटअप।‘ मैं बड़बड़ाया और पाकष में जाकर एक झल


ू े पर लेट गया।

उसी समय मुझे ढूंढते हुए ररसेप्शन िाले शमाष जी आ गए। ‘िे ि साब, अपने घर
पर फोन करें । भाभी जी का फोन था। जरूरी बात करनी है ।‘

नीलम ने जो बताया उससे मेरे रहे सहे होश भी जाते रहे ।

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माललकों ने हमारी पबत्रका अपने फनीचर और कमषचाररयों सदहत दिल्ली के फकसी
सेठ को बेच िी थी। कमषचारी संगदठत होकर लेबर कोटष में जा रहे थे और चाहते थे फक
इस लड़ाई में मैं उनके साथ खड़ा नजर आऊं। मझ
ु े तत्काल बल
ु ाया गया था।

×××

शाम को मैं िॉक्टर से वििा ले रहा था। िॉक्टर ने जयपुर तक के ललए अपनी
गाड़ी का इंतजाम कर दिया था। जयपुर में मेरा एक िोस्त रात की फकसी फ्लाइट का
दटकट लेकर प्रतीक्षारत था।

‘मैं तो जा ही रहा था सोनल।‘ मैंने सोचा, ‘तुम क्यों चली गयीं?‘

‘सचमुच बहुत सुख लमला यहां।‘ मैंने िॉक्टर से हाथ लमलाया और कार में बैठ
गया। सरु क्षा अचधकाररयों ने चचफकत्सालय का विशाल द्िार खोल दिया।

बाहर िख
ु था।

रिन क ि:रम िार2000

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