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बाबा उपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्र-योग-साधना पर आधारित उपन्यास

बाबाउपद्रवीनाथजी कोई महान चिट्ठाकार(Blog writer) हैं—इस भ्रम में न रहियेगा। जो आदमी बा-मुश्किल अपना
नाम लिख पाता हो,वो महान आत्मा ‘ब्लॉगराइटरी’ क्या करे गा ! किन्तु हां,आरजू करके,दबाव डाल कर,या फिर न हो
तो ‘लंठई’ करके भी,किसीको ब्लॉगराइटरी के लिए विवश कर सकने का हुनर है , बाबा उपद्रवी नाथ में ,जैसा कि मुझे
लगा।

बाबा कोई साहित्यकार नहीं हैं,और न मेरे रिश्तेदार ही हैं,फिर भी एक गहरा रिस्ता जोड़ लिया है मुझसे इन्होंने,वो
भी अपने ‘हुनर’ से। मुझे लगा कि ये किस्सा आपसे अवश्य साझा करने लायक है ।

मेरे ‘गह
ृ ’मंत्रालय से रोज-रोज फरमान जारी होता था–– सुबह-सबेरे उठकर ‘मॉर्निंगवाक’ के लिए। अब भला
आप ही बतायें– डेढ़-दो बजे रात तक कम्प्यट
ू र पर खटरपटर करते रहने वाला आदमी ‘ब्रह्मबेला’ में जगकर हवाखोरी
क्या खाक करे गा ?

‘गह
ृ मंत्रिणी’ की हिटलरशाही, और भावी ‘वाकयद्ध
ु ’ से त्राण पाने के लिए ‘वाक’ पर निकलना भी चाहूँ यदि, तो क्या
कहीं अनुकूल जगह मिलेगी वाकिं ग के लिए ! इसलिए मैं तो कहता हूँ - ब्रह्ममुहुर्त और मॉर्निंगवाक ये दोनों शब्द
‘बैक-टू-डेट’ हो चुके हैं।

मगर उस दिन वैसा कुछ हुआ नहीं । पहले झकझोर कर,और फिर ‘पूष की भोर’ में पानी का छींटा मार कर, मुझे
वाकआउट कर दिया गया।वैसे आप हिन्दी साहित्य से प्रेम रखते होंगे तो मुंशी प्रेमचन्द की पूष की रात का अनुभव तो
जरुर हुआ होगा। हालांकि ए.सी.वालों के लिए ये टॉपिक ही बेकार है ।

खैर, कहते हैं न- ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’,वैसे अब इसके लिए कोई और शब्द ढूढ़ना
पड़ेगा,अन्यथा सुप्रिमकोर्ट सोकॉज कर सकता है - मुहावरे में प्रयुक्त शब्द परतन्त्र भारत के हैं,जिनसे सामन्ती बू आ
रही है । वैसे भी यह मुहावरा कुछ गलत ही लगता है - धोबी का सम्बन्ध कुत्ते से ज्यादा, गदहे से होता है । किन्तु मैं न
धोबी हूँ,न मेरे पास कुत्ता है ,और न गदहा। घाट का भी पता नहीं है । नतीजन, अकेले ही निकल जाना पड़ा धक्के
खाकर,किधर जाऊँ...कहाँ जाऊँ- प्रश्न के साथ।

विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने हमारी ‘महाराजधानी’ को विश्व के महाप्रदषि


ू त

नगरों की सूची में गौरव के साथ शामिल कर लिया है – यह जानकर अब भला राजधानी की प्रशस्त सड़कों पर चहल
कदमी करने की हिम्मत होगी कभी ? डीजल-पेट्रोल के धए
ु ँ भरे प्रदष
ू ण में ‘लेड’ भी भारी मात्रा में घस
ु आया है । पर
जाऊँ कहाँ ! हालाकि ये बात मेरी श्रीमती समझे तब न !
सोच-विचार के बाद यमन
ु ा-तीर का ध्यान आया। सुन रखा था कि इसी नदी के तीर पर कदम्ब का कोई पेड़ था;
किन्तु तभी याद आया कि वह पेड़ तो वन्ृ दावन में था, हस्तिनापुर में कहाँ ! फिर भी नदी तो वही है न। चलो उधर ही
चला जाय। आज के पहले कभी जाना भी नहीं हुआ था,उस ओर। स्मति
ृ यों के झरोखे में यमुना का वही पावन पुलिन
हिलोरें ले रहा था।

काफी दरू तक चलने के बाद, एक चौड़ा सा नाला नजर आया,जहाँ आदमी- आसपास क्या, दरू -दरू तक भी
नदारथ। किससे पूछूँ- यमुना कितनी दरू है , सोच ही रहा था कि एक झाड़ी के पास उकड़ू बैठा- रात का अपना ‘वजन
हल्का करता’ एक इन्सान नजर आया। तनिक इन्तजार के बाद जब वह अपना लंगोट बांध-बंध
ू कर निश्चिन्त हुआ,
तो मैं उसके करीब जाकर, पूछ बैठा- ‘ भई यमन
ु ा किधर है ? ’

मेरे पछ
ू ने पर वह मस्
ु कुराया नहीं,बल्कि ‘रावण मार्का’ अट्टहास किया। मैं भयभीत हो उठा। उस रौद्र और वीभत्स
हँसी वाले का आपादमस्तक मुआयना करने लगा— दब
ु ली-पतली,छःफुटी काया- बिलकुल काली कलूटी। हाथ भर से
अधिक लम्बी,बिना गांठों वाली, फहराती चुटिया। खिचड़ी,लम्बी दाढ़ी। घनी मूछों को भेद कर बाहर झांकते दो विशाल
गजदन्त- विशद्ध
ु स्वर्णाभ,जिन्हें पता नहीं कब धोया-मांजा गया था। ये कॉलगेट-पेप्सोडेन्ट वालों के चमचमाते दांतों
के विज्ञापन की खबर,लगता है उसतक अभीतक, कोई पहुँच नहीं पाया था, और न बाबा रामदे व के पतञ्जली दन्त-
कान्ति का कोई एजेन्ट ही अभी तक मिल पाया था। परू े मुंह में दांत तो सिर्फ दो ही थे,मगर दन्तकान्ति की
आवश्यकता तो महसस
ू होनी ही चाहिए थी। नाक भी वैसी ही लम्बी- ‘वराह’ मार्का। डफली सा उदर प्रान्त। शरीर की
हड्डियों को गिनने-दे खने के लिए किसी एक्स-रे प्लेट की जरुरत नहीं। शरीर को ढांकने में असफल प्रयासरत
झूलनुमा अंगरखे-धोती को चिथड़ा कहने में भी संकोच हो रहा था,जिसपर और मैल जमने की जगह भी नहीं बची थी।

‘लगता है दिल्ली में नये आये हो।’ – हँसी रुकने के बाद उसने कहा– ‘दिल्ली वाले इसी को यमुना कहते हैं; और
तुम जिस यमन
ु ा की तलाश कर रहे हो,वो तो मथुरा और प्रयाग में भी शायद ही मिले। ‘तरनी तनूजा तट तमाल तरुवर
बहु

छाये’ वाला भारतेन्द ु का जमाना थोड़े जो है । वैसे, तुम्हारा आना कहां से हुआ है ?’

मैंने कहा—‘मैं पिछले कई वर्षो से यहीं हूँ- दिल्ली में ही। जिन्दगी की चक्की

चलाने में इतना उलझा रहा कि इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। पत्नी की प्रेरणा से आज हवाखोरी के लिए निकला,
तो सोचा, यमन
ु ा किनारे ही हो लूं।’

मेरी बात पर,वह फिर हँसा,लगभग वैसी ही हँसी। उसकी सांसों की दर्ग
ु न्ध एक बार फिर समा गयी मेरे नथुनों में ।

‘रहने वाले कहां के हो?’


‘बिहार का।’- मेरे छोटे से जबाव पर, उसकी आँखें विस्फारित हो आयी। आत्मीयता भी उमड़ पड़ी। दो पग आगे
बढ़, मुझसे लिपट पड़ने की धष्ृ टता करना चाहा,जिसे भांप कर, मैं ही चार पग पीछे हो लिया।

‘मैं भी वहीं का था कभी।’- मायूसी से,उसने कहा।

‘कभी ? तो फिर अब कहां हो ? क्या यहीं ? दिल्ली में ही ?’—मैंने पूछा।

‘अभी कहाँ का कहूँ,मुझे खुद पता नहीं। नील गगन के तले...धरती का प्यार पले...वो गाना है न किसी सिनेमा का !
कहीं सांझ-कहीं सबेरा।’

‘तो क्या भिक्षाटन करते हो? दे शाटन जैसा तो लग नहीं रहा है । तीर्थाटन की ये जगह नहीं है ।’- मेरी जिज्ञासा
पर,फीका सा मुस्कान बिखर गया उसकी घनेरी मूछों के बीच,जिसे लम्बें पीले दांत सम्भालने का अथक प्रयास करके
भी पराजित हुए।

‘मेरी क्या पूछते हो,अपनी कहो- क्या करते हो? कहाँ रहते हो?’

‘बस यहीं,पास में ही एकाध किलोमीटर....।’

उसने प्रसन्नता जाहिर की- ‘तब क्या पूछना है ,आज सबेरे-सबेरे अपने राज्य का कोई मिला है । बड़ी खुशी की
बात है । शहर वालों ने तो शब्दकोष में से ‘अतिथि’ शब्द वाला पन्ना ही फाड़ दिया है । और हो भी कहाँ से ! जहाँ मां-बाप
ही वद्ध
ृ ाश्रम में कालक्षेप करते हों,फिर अतिथि का सवाल ही कहाँ रह जाता है ! पश्चिम वालों ने,इतना तो सिखला ही
दिया कि “हम दो हमारे दो” से बाहर संसार

में कुछ भी नहीं है । “वसुधैव कुटुम्बकम ् ” कोई उपनिषद-महावाक्य थोड़े जो है !

और फिर “एकोऽहं द्वितीयो नास्ति” के सामने तो सब शेष है ।’- मेरी ओर प्रश्नात्मक दृष्टि भेदते हुए उसने कहा- ‘
अपने घर ले चलोगे मुझे या....?’

पता नहीं क्यों,उसकी ये थोड़ी सी बातें ही मुझे बाँध गयी थी। उसके बारे में विशेष कुछ जानने को मन ललक
रहा था। अतः मैं ‘ना’ न कर सका। भले ही अनजान है बिलकुल,किन्तु चलना तो चाहता है राज्यवासी की ललक
लेकर। स्वीकृति मुद्रा में सिर हिला,हाथों से इशारा करते हुए मैंने कहा- ‘चलो भाई,दिक्कत क्या है । दो रोटी ही तो
खाओगे....।’

मेरा ‘वाक’ परू ा हो गया। उस अजनवी को लिए डेरे की ओर वापस चल पड़ा। रास्ते में कुछ बातें भी होती रही,जो
मुझे अदृश्य रुप से बांधे जा रही थी।
दरवाजा खोलने से पहले ही पत्नी ने सवाल दागे- ‘बड़ी जल्दी वापस लौट आये,कहीं नजदीक से ही फांकीमार....!’

द्वार खुला। एक अनजान,वो भी अजीबो-गरीब स्थिति में । नजर पड़ते ही आँखों ही आँखों में पूछी,मेरे ‘पूछने
वाली’ ने- ‘ये किसे उठा लाये?’ क्यों कि वह मेरी आदत से परिचित थी- आये दिन,कब किसे लिए चला आऊँगा,कुछ
कहा नहीं जा सकता।और फिर स्थिति चाहे जो भी हो,आवश्यकतानस
ु ार आवभगत तो उसे ही करनी होती थी न।

‘हां,वहीं मिल गया यमुना किनारे । अपने ही राज्य का है ।’- अबतक प्राप्त

संक्षिप्त परिचय में थे थोड़ा शेयर किया पत्नी को भी,और गुसलखाने की ओर लपक

पड़ा,क्यों कि पेट गुड़गुड़ कर रहा था,बहुत दे र से।

उधर से फारिग होकर,आने पर दे खा- सारा माजरा ही बदला-बदला सा था। मैं तो घबरा रहा था कि आज फिर कुछ
पत्न्योपदे श लब्ध होगा,किन्तु हुआ उल्टा ही। सामने छोटी तिपाई पर चाय की प्याली के साथ बिस्कुट भी नजर
आये,जिसका अधिकांश कुतर चुके थे आगन्तुक महोदय।

बड़े गर्मजोशी से कहा उसने- ‘अजी जानते हो,ये तो मेरे मैके के बिलकुल करीब के निकले। इनके दादा जी मेरे
दादाजी के गहरे दोस्त थे। बराबर मेरे यहाँ आना-जाना होता था। मैं भी बचपन में कई बार इनके घर गयी हूँ। उपेन्द्र
नाथ भट्ट नाम है इनका।’

‘तो क्या महाप्रतापी गदाधर भट्ट के पौत्र हैं आप?’—तम


ु का ओछा सम्बोधन पल भर में ही ‘आप’ में बदल गया।
महापरिचय पर सघन पहल,मेरी पत्नी ने किया,या कि उन्होंने-- निर्णय करना जरा कठिन है । अतः इस पचरे में पड़ने
के वजाय मैं विषय वस्तु पर आ गया। उन्होंने सिर्फ सिर हिलाकर हामी भरी मेरे प्रश्न पर,क्यों कि हाथ और होठ दोनों
व्यस्त थे- चाय-बिस्कुट-संघर्ष में ।

श्रीमतीजी दो कप चाय और ले आयीं- अपने और मेरे लिए। आज अनजाने में ही उन्हें प्रसन्नता लब्ध हुयी
थी,इसलिए अच्छी चाय की एक प्याली तो बनती ही है न ! हमदोनों चाय की चुस्की लेने लगे। थोड़ी दे र में भट्टजी
चाय-विस्कुट पर विजय पा कर, कुछ कहने-बतियाने के मूड में आ गये।

बात श्रीमतीजी ने छे ड़ी- ‘उपेन्द..ऽ..ऽ..र.. भैया ! आप अचानक गायब कहां हो गये थे ? अपने विवाह मंडप से जो भागे
मामाजी से लड़-झगड़कर,सो आज अचानक नजर आरहे हैं,वो भी इस औघड़ वेश में ! ’

‘तुम नहीं मानोगी गायत्री। इतने वर्षों में भी, तुम जरा भी नहीं बदली। बिलकुल वैसी की वैसी ही हो आज
भी,बस कद और पद जरा बदल गया है ।’- मूछों में मुस्कान को छिपाने का व्यर्थ प्रयास करते हुए बोले- ‘अच्छा पहले ये
बतलाओ कि इतने दिनों बाद,वो भी इस रुप में ,इतनी सहजता से तम
ु मझ
ु े पहचान कैसे गयी?’
उनकी बात सुन गायत्री मुस्कुरायी- ‘वाह भैया उपद्रवीनाथ ! खब
ू कहा तुमने। तुम चाहे जिस वेश में रहो,मेरी ये
पारखी आँखें तुम्हें पहचान ही लेंगी,वस मौका चाहिए। इन बड़ी-बड़ी आँखों के चलते ही तुम मुझे ‘डाइन’ कहकर
चिढ़ाते थे न? अब भला ऊपर से नीचे तक चारों कर्मेन्द्रियों में ‘आकाश की वद्धि
ृ ’ क्या हर कोई के हाथ-पैर में दीखने
वाले चिह्न हैं? तिस पर भी तुम्हारे पीठ पर बचपन में मेरे द्वारा दिये गये गहरे घाव वाला स्थायी मुहर–– क्या इसे भी
विसराया जा सकता है ? शक तो मुझे चाँदी की रुपल्ली सी खनखनाती तुम्हारी हँसी से ही हुयी थी, जिसमें ये चारो
अंगठ
ू े गवाह बने,और जब कुल्ला करने के लिए तम
ु नाली के पास जरा पीठ टे ढ़ी किये,उस वक्त मैं पीछे खड़ी, इसी
ताक में थी कि एक और साक्ष्य मिल जाय,फिर फैसले पर दस्तख़त कर दँ ।ू ’

गायत्री की बात पर मैं ने गौर किया। कभी-कभी वह बहुत ही दार्शनिक अन्दाज में बोल जाया करती है ।
ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं है ,पर ‘सु नी-गु नी’ जरुर है । साधककुल का सं स्कार है शायद। बाबा के चार अतिरिक्त
अं गठ
ू े - कुछ खास सं केत जरुर दे रहे हैं - ऐसा उसकी बातों से लगा।

गतांश से आगे ....भाग 2

बाबा जोर से हँसे। उनकी गहरी हँसी नाभि-तल तक हिलोरे ले लिया। आजकल लोग ठीक से हँसना भी कहाँ जानते हैं !
हँसने के लिए भी खुशी कहीं से उधार लेने की जरुरत होती है ,जब कि दे गा कौन भला ! होठों की हँसी और नाभी

की हँसी में बहुत अन्तर है । नीचे से ऊपर अनायास, स्वतः आना,और ऊपर से नीचे सायास ले जाना- दोनों बिलकुल ही
अलग बात है । सांस छाती से लेंगे तो हँसी में भी सिर्फ होठों का ही इस्तेमाल हो सकेगा। पेट से सांस लेने की कला तो
सभ्य समाज का शत्रु बन बैठा है । ऐसे हँसो,ऐसे बोलो,ऐसे चलो,ऐसे खाओ,ऐसे सोओ,ऐसे रहो....ये ऐसे-ऐसे का नियम
सभ्यतायी चाबक
ु की मार है ,हमारी उन्मक्
ु तता का दमन है ,स्वतन्त्रता का शोषण है । सभ्य होते ही हम सांस भी
सभ्यता वाली लेने लगते हैं। खैरियत है कि सांस कब कितना लेना है ,यह जिम्मा प्रकृति ने हमारे अधीन छोड़ा ही नहीं
है , अन्यथा जीवन की आपाधापी में हम इसे भी समय पर लेना भूल जाते। और टें बोल जाते। हममें बहुत कम लोग ही
जानते हैं कि गिनती की सांसों के साथ हमें भेजा गया है ,कर्मभूमि में । २१,६०० प्रति अहोरात्र के हिसाब से,३६०दिनों
वाले सौ वर्षो का हिसाब है हमारे पास जीवन के खाते में । ‘कर्म’ ही गिनती का हिसाब लेता-दे ता है । कर्म पर हमारा
नियन्त्रण ही भावी भाग्य का लेखन करता है ,और प्रारब्ध बनकर भोगने को विवश करता है । सोने और जागने का
सांस भिन्न होता है । ध्यान और मैथुन का सांस भी भिन्न ही होगा,तय बात है । इस सांस की पूंजी को जितने हिसाब से
व्यय करें गे,जीवन उतना ही दीर्घ होगा...।

मैं गहरी सोच में डूब गया था। तभी,बाबा की हँसी थमी।
‘जानते हो ?’- झूलनुमा फटे अंगरखे के छे द को सरकाते हुए बाबा, अपनी पीठ दिखाने लगे- ‘ये जो गहरा दाग
दे ख रहे हो न,तुम्हारी पत्नी गायत्री के ही दिये हुए हैं। बात-बात में मैं इसे बहुत चिढ़ाता था। एक बार ऐसा ही कुछ कह
दिया,जिसका ये नतीजा है । पीछे से आकर नंगी पीठ पर ऐसा हबकी कि दो अंगुल भर मांस ही निकाल ली। बहुत दिनों
तक घाव बना रहा था। अब निशान शेष है , जो शरीरान्त तक साथ दे ता रहे गा।’

‘मुझे तुम्हारी आदत जो छुड़ानी थी, सो, छुड़ाने में सफल हुयी। फिर उसके बाद कभी तुमने मुझे सताया भी नहीं।’-
ढिठाई पूर्वक गायत्री ने कहा- ‘किन्तु क्या-क्या आदत छुड़ाती मैं ! ये बात-बात में घर से भाग जाना कहाँ छुड़ा पायी ?’

‘अच्छा हुआ कि ये आदत छुड़ाने का मौका नहीं मिला तुम्हें , वरना....।’-

कहते हुए बाबा रुक गये अचानक। शायद उनके मुंह से कुछ ऐसा निकला जा रहा था,जिसका अवसर शायद अभी न
था।

मेरी ओर दे खते हुये गायत्री ने कहा- ‘मैं अन्तिम बार इनके घर,इनकी शादी में ही गयी थी,फिर तो मौका ही न
मिला। बिना दल्
ु हा-दल्
ु हन के बारात,बैरंग वापस आगयी थी। बहु नहीं आयी, कोई बात नहीं। जमींदारों के यहां वैसे भी
बहुओं की भीड़ रहती है । बस,बेटा होना चाहिए। बहुयें तो आती-जाती रहती हैं। इनके पिताजी की ही पांच शादियां
थी,और सबके सब मौजूद भी। फिर भी सन्तान सुख के अभाव में ‘छट्ठी’ भी करनी पड़ी, और तब जाकर ढे ला-ईंटा
पूजते-पुजाते उपेन्दर भैया का जनम हुआ।’- जरा ठहर कर वह फिर कहने लगी- ‘ छूंछा बारात और पलायन कर गये
इकलौते बेटे का गम बेचारी चाची बरदास्त न कर सकीं। खबर सन
ु ते ही जो धब्ब से गिरी सो गिरी ही रह गयी।’

‘हां सुना था मैंने भी बहुत बाद में , माँ की मार्मिक मौत की खबर; किन्तु वापस आकर ही क्या करता ? एक
मात्र,चाहने वाली माँ ! रही नहीं, बाप के लिए तो उपद्रवीनाथ हूँ ही- कुलनाशक…कुलकलंक… कुलडुबोरन...न जाने
क्या-क्या। ’

‘तो ये उपनाम आपके पिता का ही दिया हुआ है ?’- मैंने मुस्कुराकर पूछा। वैसे भी अब,जब कि रिस्ता साफ हो
गया है - गायत्री ने भाई माना है , सो मुस्कुराने में कोई आपत्ति नहीं लगी मुझे।

‘निकला तो पहली बार पिता के ही श्रीमुख से था, जिसे घर,गांव,इलाका सबने मिलकर विज्ञापित कर दिया।
अब तो मुझे भी कुछ बुरा नहीं लगता इस सम्बोधन से । क्या रखा है - इन झूठे सम्बोधनों में जी ! कोई हमें कुछ भी
कह ले,मेरे ‘होने’ में क्या फर्क पड़ने को है ! “ सोऽहं ...सोऽहं ...हं सः...सोऽहं ....” ।’- कहते हुए बाबा एकाएक काष्ठवत हो
गये।
उनके कथन से मुझे भी थोड़ा झटका लगा। बाबा ठीक कह रहे हैं- ये नाम-रूप-यश सब तो उधार का है । पता
नहीं कब तगादा आ जाये,और इन सबको वापस लौटा दे ना पड़े,उसे ही,जिसने दिया है ये सब...। मैं भी चिन्तन मुद्रा में
आ गया,उनके साहचर्य के किं चित प्रभाव वश।

बाबा उपद्रवीनाथ का चेहरा ही अनजान था सिर्फ मेरे लिए,क्यों कि मिलने का सौभाग्य-संयोग न हो सका था
कभी। बाकी,इनके बारे में कौन नहीं जानता परू े इलाके में । ऊतुंग टुनटुनवां पहाड़ की छाती पर विशाल किला बनवाया
था इनके दादाश्री गदाधर भट्टजी ने। ये वही टुनटुनवां पहाड़ी है ,जिसके लिए अंग्रेजों के लार टपकते रहे अन्त-अन्त
तक ; किन्तु कोई रहस्य नहीं मिल सका- न उस टुनटुनाते ढोंके का,और न एक के भीतर एक बने उस गफ
ु ा का ही;
जितने मुंह उतनी बातें - सात है ,पांच है ,नौ है ....अन्दर-अन्दर ।

भट्टजी कोरे सामन्तवादी जमींदार ही नहीं,प्रत्यत


ु वेद-वेदांग, काव्य,

मीमांसा,तन्त्र, ज्योतिष, व्याकरण आदि अनेक विषयों के उद्भट्ट विद्वान भी थे। उनके तन्त्र-ज्योतिष चमत्कारों से
नतमस्तक होकर मीनाक्षीगढ़ के राजा ने अपना आधा राज ही उनके श्रीचरणों में अर्पित कर दिया था। तपती
जमींदारी के जमाने में पवईराज के राजपुरोहित होने का सम्मान भी उन्हें ही प्राप्त था। अंग,बंग, कलिंग,कौशल तक
तूती बोलती थी। उनके यश का पताका पश्चिमोत्तर भारत में शान से लहराता रहता था। अपने अन्तिम समय में ,
अर्जित सम्पदा का साढे पन्द्रह आना भाग उन्होंने विभिन्न शिक्षण और स्वास्थ्य–रक्षण-संस्थानों को अनद
ु ानित कर
दिया था। फिर भी ‘थऊसा हाथी,गदहे से ऊँचा ही’ था । निश्चित ही भविष्य दर्शन किया होगा महानुभाव गदाधर भट्ट
ने। उन्हें आभास हो गया होगा कि आगे उनके वंश का पतन नहीं, नाश होने वाला है । वद्ध
ृ भट्ट जी की भी चार शादियां
थी। तीन से कोई सन्तान लाभ नहीं। चौथी पत्नी से पांच पत्र
ु रत्न प्राप्त हुए,जिनमें क्रमशः चार बड़े, घोंघे-
सितुहे,कांच-कंकड़ से आगे न बढ़े । सिर्फ कनिष्ट पुत्र ही प्रतिभा लब्ध कर पाया। राज्य-लक्ष्मी घुटने टे के बैठी
थी,मगर विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती सदर द्वार तो दरू ,किसी खिडकी-गवाक्ष से भी अन्दर आने में संकुचित थी।
बेचारे गदाधर भट्ट तक ही सरस्वती की असली साधना रह पायी।

ऐसे ‘नीलरक्त’(blue blood) भट्टकुल के उपेन्द्र को उपद्रवी नाम दे ने में पिता का शौक नहीं, ‘शॉक’ ही रहा होगा।
आँखिर कोई प्रबद्ध
ु पिता अपने इकलौते पत्र
ु को इस प्रकार तिरष्कृत क्यों करे गा !

वातावरण में विखरे मौन को पत्नी ने फिर तोड़ा। ‘उपेन्द्र भैया,आप पहले स्नान-ध्यान कर लें। ये भी नहा-धोआ लें।
तब तक मैं आपलोगों के लिए कुछ जलपान की व्यवस्था कर दँ ।ू ’- कहती हुयी गायत्री,उठकर रसोई घर की ओर चली
गयी। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

अन्दर जाकर धीरे से कहा- ‘बाबा तो बिलकुल खाली हाथ हैं। झोला-झक्कड़ भी नहीं दीखता। लंगोट और झूल तो एक
ही है ,जो वदन पर चढ़ा हुआ है ।’
गायत्री मेरा इशारा समझ गयी। बक्से में से नयी धोती,चादर,गमछा ले

आयी निकालकर । साबन


ु की बट्टी भी। साबुन छोड़,शेष,वस्त्रों को सहर्ष स्वीकार

किया बाबा ने।

स्नान-ध्यान के पश्चात ् हमदोनों जलपान किये। मझ


ु े दफ्तर की हड़बड़ी थी। अतः बाबा से क्षमायाचना सहित दिन
भर के लिए मोहलत ले,बाहर निकल गया; यह कहते हुए कि अब क्या चिन्ता,जिसकी बहन अन्दर,उसका भाग
सिकन्दर...। किसी प्रकार की आवभगत में कोताही थोड़े जो होनी है । शाम को लौटूंगा,तो जमकर बातें होंगी । दिन
भले ही बिका होता है ,रात तो अपनी है न !

‘बहुतों की रातें भी बिकी होती है ...सांसें भी बिकी होती हैं.....।’- बाबा ने ध्यान दिलाया।

“सांसें भी बिकी होती है .. ”- बाबा के गूढ़ वाक्य पर विचार करता मैं, अखबार के दफ्तर की ओर कूच किया। पिछला
पखवारा ‘नाइट-ड्यूटी’ किया था, इस बार दिन वाली ड्यूटी चल रही थी। किसी तरह अपनी ड्यूटी बजाता रहा। न जाने
क्यों काम में आज जी न लग रहा था। सच में आदमी कितना बिका हुआ है । मन हो ना हो,रोटी जुटाने के लिए काम तो
करना ही है । नन
ू -तेल-लकड़ी के जुगत में ही जिन्दगी खप जाती है ,और फिर चार साथियों के सहारे राम नाम सत्य की
घोषणा सहित, श्मशान पहुँच जाना पड़ता है । अब तो वो चार साथी भी नहीं,चार चक्के वाली म्युनिसपैल्टी की गाड़ी
होती है ,और विजली की भट्ठी में क्षण भर में फू । कहाँ फुरसत है ,किसी को...श्मशान पहुँचाना भी कोई साधारण काम
थोड़े जो है ।

बे-मन के काम में आदमी कुछ ज्यादा ही थक जाता है । दे र शाम, कबूतरखाने को डेरा कहे जाने वाले ‘घर’ पहुँचा।
पत्नी इन्जार कर रही थी,चाय का समय बीता जा रहा था।

‘यहाँ अकेली बैठी हो...और तुम्हारे नये भाई सा’ब ?’

‘आते ही होंगे। तुम्हारे आने का समय पूछ-जान,सुबह ही निकल गये थे, तुम्हारे जाने के कुछ ही दे र बाद,यह कहकर
कि समय पर आ जाऊँगा। और हाँ,रात का खाना बनाने को भी मना करते गये हैं । कहा है उन्होंने कि रात की भोजन-
व्यवस्था उन्हीं के द्वारा रहे गी।’

मैं जरा चौंका- ये फक्कड़ आदमी क्या व्यवस्था लेकर आयेगा हम सबके लिए ! यकीन न आ रहा था जरा भी उनकी
बातों का । फिर भी गायत्री,और उसके तथाकथित औघड़ भाई की बात पर भरोसा तो करना ही था। गायत्री चाय-नास्ते
की तैयारी में जुट गयी । मैं वहीं,बालकनी में बेंत की कुर्सी पर बैठ ‘वासी’ अखबार के पन्ने पलटने लगा । दिन भर
अखबार के दफ्तर में ही गुजर जाता है , हजारों-हजार खबरों की छं टाई-कटाई-पिटाई में ,फिर भी खबरों के प्रति जिज्ञासा
बनी ही रहती है - मेरे किये गये छटाई का भी किसी सिनियर ने छं टाई तो नहीं कर दी...! कहते हैं न कि कहे जो झूठ-
सच हरदम उसे अखवार कहते हैं,जहाँ खाना मिले भरपूर उसे ससुरार कहते हैं,जो खाये औ’ न खाने दे उसे कंजूस कहते
हैं,किरानी से कलक्टर तक पिघल कर मोम बनता हो उसी को घूस कहते हैं...। आँखिर ये लोकतन्त्र का चौथा खम्भा
करता क्या है ! ये भी सिर्फ पैसा पहचानता है । ७५ % विज्ञापनों के बीच कुछ खबरें झांक भर लेती हैं- थोड़े से, बाकयी
काम की,बाकी अखबार-मालिक के काम की । खबर की परिभाषा किसी सिरफिरे ने सही ही की होगी- जो संपादक की
कलमियां धार से बंच जाये,और जिसके छपने से ऐतराज़ न हो मालिक को....वही तो असली खबर है ,जिसे हम-आप
पढ़ने को मजबरू हैं। सब
ु ह-सब
ु ह अखबार उठायें,चाय के प्याले के साथ तो ‘लिप्टन’ और ‘ताजमहल’ भी तीता-कड़वा
लगने लगता है । लूट,हत्या,बलात्कार की खबरें चूरन-चटनी की तरह चखी जाती हैं- ये सम्पादक को भी अच्छी तरह
पता होता है । आखिर उसे भी तो अपनी कुर्सी की रक्षा करनी है - जैसा कि भीष्म ने हस्तिनापुर की रक्षा की । किन्तु
नहीं, ऐसा कहना उचित नहीं । भीष्म लट
ु गये, मिट गये,पिट गये- अपनी प्रतिज्ञा की डोर से बंधे-बंधे...पर सम्पादक !
वो तो कुर्सी के पाये का बन्धुवा है ।

पत्नी चाय ले आयी कुछ नमकीन के साथ । प्याला उठाने ही वाला था कि सीढ़ियों पर आहट मिली, अगले दो मिनट
में बाबा सामने थे। हाथ खाली था सुबह की तरह ही। किन्तु हाँ, कंधे पर एक मैला-कुचैला सोशलिस्टिक झोला लटक
रहा था,परन्तु उसका कलेवर भी ‘इन्हीं’ की तरह दर्ब
ु ल दीख रहा था। मेरी सवालिया निगाहें गायत्री से जा मिली।
गायत्री भी समझ गयी- सवाल रात के भोजन से है ; किन्तु बिना कुछ कहे ,वह अन्दर चली गयी,बाबा के लिए चाय
लाने। बाबा भी पीछे हो लिए।

‘मेरे लिए चाय-वाय मत लाना गायत्री। सुबह तुमलोगों का मन रखने के लिए पी लिया था। जरा कुल्ला-उल्ला
कर लँ ,ू फिर बातें होंगी। और हां,याद है न- इस वक्त खाने की व्यवस्था मेरी ओर से है । बहन का अन्न कितना खाऊँगा
! हाजमा कमजोर है । एक शाम खा लिया,वो भी वस्त्र-दक्षिणा के साथ। इसका भी, द्रौपदी की साड़ी के फाड़ की तरह
हिसाब दे ना होगा। कृष्ण से जब नहीं पचा, तो मैं भला क्या पचा पाऊँगा ?’

मंह
ु -हाथ धोकर,बाबा इत्मिनान से आकर बैठ गये। भाई द्वारा दब
ु ारा याद

दिला दिये जाने के कारण गायत्री भी आश्वस्त हो,निश्चिन्त हो गयी कि अब तो इस समय कुछ काम-वाम है नहीं।
खाना बनाना नहीं है ,चप
ु बैठ कर गप्पें मारी जायें। अतः वह भी आकर बैठ गयी। मेरे चित्ताकाश में तैरते हुए सवालों
के काले-सफेद घनेरे बादल बरसने को आतुर थे।

‘वो विल्ली की खाल,और काली स्याही वाली बात याद है न उपेन्द्र भैया?’- गायत्री ने बात छे ड़ी। बाबा मुस्कुराते
हुए सिर हिलाये। गायत्री कहने लगी- ‘एक मजेदार वाकया सुना रही हूँ। इनके एक चचेरे भाई थे सुशान्त भट्ट। इनसे
पांच साल बड़े। नौवीं में पड़ते थे। एक दिन विज्ञान की कक्षा में बताये गये बिजली और चुम्बक के प्रयोग को उपेन्द्र
भैया को समझाये। और समझो कि बन्दर के हाथ नारियल लग गया,पता नहीं किसका सिर फोड़ दे । प्रयोग सीख-
समझ कर,उपेन्द्र भैया वैठक में रखा गुलदस्ता तोड़कर शीशे का रॉड निकाले। पालतु विल्ली घर में थी ही। सुशान्त
भैया को घर पर पढ़ाने के लिए लम्बी चुटिया वाले एक झाजी आते थे। वस उन्हीं पर प्रयोग कर डाला। गोद में बिल्ली
को दाबा,और उसके बदन पर शीशे के रॉड को तेजी से रगड़कर, झाजी की चुटिया से चुपके से सटा दिया। चुटिया सीधी
खड़ी हो गयी-लोहे के सलाखों की तरह। फिर रॉड हटाया,चुटिया नीचे...। थोड़ी दे र तक चुटिया का उठना-गिरना जारी
रहा। सुशान्त भैया का पेट फूलने लगा,हँसी रोके न रुक रही थी। उधर झाजी अचम्भे में कि अचानक इसे हो क्या गया-
पागलों की तरह हं से जा रहा है । तभी अचानक चाचाजी आगये। उपेन्द्र भैया की हरकत दे ख,आग-बबूला हो उठे । भेद
खल
ु ा,और फिर दोनों भाइयों की जम कर पिटायी हुयी।’

मझ
ु े भी हं सी आगयी,बाबा की परु ानी हरकत सन
ु । मस्
ु कुराते हुए बाबा ने कहा- ‘मैं तो छः-छः मांओं का दल
ु रुआ
था शिव-नन्दन कार्तिकेय की तरह;किन्तु पढ़ने-लिखने में मन कभी लगा नहीं। पांच वर्षो तक पहली जमात में ही
गुजारता रहा,पर ‘ककहरा-मात्रा’ भी सीख न पाया। गुरुजी को हिदायत थी कि इस पर विशेष ध्यान रखा जाय। नतीजा
ये कि जरा भी दे र होती कि विद्यालय से चार-चार विद्यार्थी आजाते, और यमदत
ू की तरह हांथ-पांव बांध कर ले
जाते। एक दिन खुराफात सूझा। मैं समय से काफी पहले विद्यालय पहुँच गया। स्याही की बोतली को दोनों सिरे पर
इस प्रकार बांधा कि आसानी से उसे दरू बैठ कर हिलाया-डुलाया जा सके,और गुरुजी की कुर्सी के ठीक ऊपर,फूस के
छप्पर में छिपाकर रख दिया। मोटे धागे का दस
ू रा सिरा,अपने हाथ में लेकर पीछे की मेज पर जा बैठा,बिलकुल भोले
स़रीफ़ बच्चे की तरह। कक्षा जैसे ही प्रारम्भ हुयी, गरु
ु जी की पीठ अचानक सराबोर होगयी काली-काली स्याही से।
चौंक कर इधर-उधर दे खने लगे। आसपास कोई होता तब न दिखता। किन्तु उनका सफेद कुरता-धोती काला हो गया
था। गुरुजी जोर से चीखे- “ ये किसकी हरकत है ? सामने आओ अभी मजा चखाता हूँ।” मैंने पीछे से कहा- “गुरुजी ये
तो आपका पसीना है ,मैं भी काला हूँ न आपही की तरह, ज्यादा गरमी लगती है तो मझ
ु े भी ऐसा ही काला-काला पसीना
आता है ।” सभी बच्चे ठठाकर हँसने लगे। गुरुजी तो सुलग कर काफ़ूर। तुरत बुलावा भेजे पिताजी को। उस दिन भी
जम कर पिटायी हुई। इसी तरह पिटाई होती रही बात-बात में , और मेरी शैतानी भी घटने के बजाय बढ़ती रही।’

बाबा के बचपन की लीला वाकई दिलचस्प थी। हमदोनों सत्यनारायण-कथा की तरह तन्मय होकर भक्तिभाव
से सुनते रहे । जरा ठहर कर बाबा ने कहा- ‘गुरुजी ने स्कूल से नाम काट दिया,और हिदायत दी कि अब कल से तुम्हें
नहीं आना है । खबर दादा जी तक पहुँची। उनका फरमान जारी हुआ,जो पिछले सारे फरमानों से ज्यादा घातक था मेरे
लिए। गोमास्ताजी को बुलाया गया,और उन्हें आदे श हुआ कि यथाशीघ्र कोई बढ़िया,और कड़ियल मास्टर खोज लाया
जाय,जो घर पर रह कर ही उपेन्द्र को शिक्षा दे गा। उसके रहने-खाने की पूरी व्यवस्था महल की ओर से होगी...।

‘....अगले दो दिनों बाद ही एक हट्ठे -कट्ठे पहलवान मार्का मास्टर साहब ढूढ़ लाये गये। उनके ऐशोआराम की परू ी
व्यवस्था हवेली की ओर से कर दी गयी। हवेली के ही एक खण्ड में कमरा मिल गया। खाना-पीना,कपड़ा-लत्ता,ऊपर से
साठ रुपये वेतन भी। मास्टर साहब को एक वर्ष में बोनस का भी ऐलान कर दिया दादाजी ने उसी दिन— हितोपदे श-
पञ्चतन्त्र,अमरकोश परू ा कर दें गे तो एक शाही घोड़ा भी दिया जायेगा। और मुझे आदे श हुआ- सुबह से दोपहर
तक,और फिर शाम अन्धेरा होते ही,लालटे न में तेल खतम होने तक नियमित रुप से पढ़ने की।
‘....शाही घोड़े की पीठ पर बैठने का बादशाही सपना दे खते,माटसा’ब बड़े लाड़-दल
ु ार से मुझे पढ़ाने लगे,जब कि खजरू
की छड़ी उन्हें दी गयी थी- दिन भर में एक पहाड़ा न याद करने पर पांच छड़ी का उपहार दे ने हे तु। मुझे अपने इस
आपातस्थिति से निपटने का कोई रास्ता नजर न आ रहा था। दिन तो दिन,रात में भी तीन-चार घंटे खड़िया-पट्टिका
लेकर लालटे न के सामने आँखें सुजाना बड़ा ही भारी पड़ रहा था।

‘....किसी तरह दो-तीन दिन गुजरा। चौथे दिन कलुआ को दे खा- सांझ का दीया-बाती उसीके जिम्मे रहता था। कमरे से
लालटे न लाकर,शीशा निकाला,और गोइठे की राख से मांजने लगा। वह शीशा मांज रहा था,और मैं अपना दिमाग।
थोड़े ही दे र में दोनों चमकने लगे- शीशा भी और मेरा दिमाग भी। लालटे न में जरुरत भर तेल भर, जलाकर, दीअट पर
रख, कलुआ चला गया। माटसा’ब सायं शौच से निवत
ृ होने गये हुए थे। कंडे की राख वहीं पड़ी हुयी थी। दो-तीन मुट्ठी
उठाया और लालटे न का ढक्कन खोल, राख डाल,मनोहरपोथी लेकर कर- अ से अनार,आ से आम करने लगा,खूब
जोर-जोर से,ताकि दालान में बैठे दादा के कानों तक जा सके होनहार पढ़ाकू पोते की तोते जैसी मीठी आवाज।
उधर,तोतारट करते दे ख माटसा’ब भी खुश,खुद को शाबासी दे ते हुए। किन्तु घड़ी भर बाद लालटे न टिमटिमाने लगी।
उन्हें लगा कि कलुआ ठीक से तेल भरा नहीं होगा। “ चलो कोई बात नहीं,कल याद कर लेना ”- कहते हुए मास्टर साहब
खैनी ठोंकने लगे।

‘...और फिर अगले दिन भी यही बात हुयी...और फिर अगले दिन भी । आखिर एक ही ऊख में रास्ता रोज-रोज तो
लगता नहीं ! अगले दिन कलआ
ु को डांट पड़ी। उसने अपने सफाई में कहा कि तेल तो नियमित डालता है ,किन्तु इधर
तीन दिन से पता नहीं क्यों कम तेल में ही लालटे न भर जा रहा है ।

‘...लालटे न विषय पर दादाजी के चौपाल में आकस्मिक बैठक हुयी,और जांच कमेटी बैठायी गयी,जिसके चेयरमैन थे
पिताजी। दिन के उजाले ने लालटे न की टं की का पोल खोल दिया। कलुआ अपराधी सिद्ध हुआ। अब उसे मार पड़ेगी,
जान कर मुझे बड़ा दःु ख हुआ,किन्तु आखिर करता क्या ! मगर कलुआ भी पक्का कांईआं निकला। मार खाने से पहले
ही उगल दिया – “ जी मालिक,मैं रोज दे खता हूँ, छोटे मालिक लालटे न में राख भर दे ते हैं, पर डर से टोका नहीं।” कलआ

की गवाही पर मुझे जो सजा मिली वो शायद कभी न भूलने वाली है - एक नहीं, सात-सात खजरू की कांटेदार छड़ी तोड़ी
गयी,मेरी पीठ पर,और मरहम पट्टी के वजाय बेरहमी पूर्वक बन्द कर दिया गया एक कमरे में , जहां अन्न था न जल।
कमरा हवेली के बाहरी हिस्से में था,जहाँ छः में से एक माता का भी करुण क्रन्दन पहुँचना मश्कि
ु ल था। मेरी रुलाई तो
कमरे की दीवारें ही हजम कर जा रही थी । छत्तीस से भी अधिक घंटों तक बन्द पड़ा रहा कालकोठरी में ,जहाँ पिताजी
के डर से ‘काल’ को भी प्रवेश करने में संकोच होरहा था।

‘....योगी लोग कहते हैं न कि अन्नमयकोश का जब सम्यक् शोधन हो जाता है ,तब प्राणमयकोश का पट्ट स्वतः खुल
जाता है ,और उत्तरोत्तर साधना यदि जारी रहे तो साधक एक-एक कोशों को भेदता मनोमय,विज्ञानमय और
आनन्दमय के प्रकाश-पञ्
ु ज का दर्शन कर लेता है । छतीसवां घंटा आते-आते, मेरा कोई और कोश तो भेदित नहीं
हुआ,परन्तु कुटिल बुद्धि का कोश प्रकाशमान हो उठा। बिजली की तरह विचार कौंधा,और उसे अमल में लाने की
योजना बनाने लगा। आंखिर कब तक रखते हो बन्द अपने लाडले को,दे खते हैं हम भी....।

‘...अगली सुबह दादा जी आकर किवाड़ खोल दिये। गोद में लेकर पुचकारते हुए बोले- “क्यों इतनी शरारत करते हो कि
मजबरू होकर तम्
ु हें दण्ड दे ना पड़ता है ...। जाओ,अन्दर जाकर जल्दी से नहा-धोआ कर,कुछ खा-पीलो। मेला चलना है ।
तुम्हें छोटा घोड़ा लेना है न? लेकिन हाँ,हमें अमरकोश के पांच श्लोक रोज सुनाने होंगे। ” मैं बिना कुछ कहे ,उनकी गोद
से कूद पड़ा,और भागा सीधे बड़ी मां के पास। मांये तो सब थी, परन्तु बड़ी मां मुझे सबसे ज्यादा लाढ़ करती थी। उनकी
गोद में घस
ु कर घंटो रोया, किन्तु अब लगता है कि वे आंसू पश्चाताप जनित नहीं थे। थे बिलकुल विद्रोही ज्वाले की
तरह।’

जरा ठहर कर,बाबा फिर कहने लगे- ‘ तम


ु दे खी होगी गायत्री ! कुम्हार को घड़े बनाते हुए- कितने नज़ाकत से निर्माण
करता है । कोई मां अपने बच्चे को क्या सहलायेगी इतने नाज़ुक हाथों से, जितना कि कुम्हार सहलाता है अपने कच्चे
घड़े को। चाक पर घुमाता है ,सूत की धार से बड़े चतुराई पूर्वक चाक से अलग करता है ,मानों बच्चे का नाल-छे दन कर
रहा हो,और फिर आहिस्ते से छांव में रखता है , जैसे मां पालने में बच्चे को सल
ु ा रही हो। कपड़े की पोटली में गोइठे की
राख भरकर,मिट्टी और लकड़ी के कड़े ‘थपकन’ से, आहिस्ते-आहिस्ते थपथपा कर घड़े को सही आकार दे ता है । दो दिन
तक कड़ी धूप भी नहीं लगने दे ता,उसे फटने-बिफरने से बचाने हे तु । और हम इन्सान ? अकसर इन्सान का सज
ृ न
तैयारी से नहीं ,बल्कि इत्तफाक से हो जाता है । कामातरु जोड़े आपस में टकराते हैं, आतरु ता पर्व
ू क, बरबरता पर्व
ू क
भी,और किसी कृत्रिम ‘अवरोधक की चूक’ वश सष्टि
ृ रचा जाती है , रची नहीं जाती। रचने और रचाने में बहुत फर्क
होता है । आसमान और जमीन सा फर्क । और, जो तैयारी से,योजनावद्ध रुप से रची ही नहीं गयी,उसे पल्लवित करने में
सज
ृ नहार की कितनी लालसा होगी ?

‘...सष्टि
ृ का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य- सन्तानोत्पत्ति,और नियम-सिद्धान्त की ऐसी धज्जियां उड़ती हैं कि पूछो मत ।
गर्भाधान पर ही विचार नहीं,फिर पंस
ु वन-सीमन्त की बात कौन सोचे ! अब तो ये शब्द सिर्फ सिसक रहे हैं,कोशों में
पड़े-पड़े। संस्कार चालीस से सिमट कर सोलह हुए, और अब उनका भी ठीक पता नहीं। हाँ मोमबत्तियों से घिरा केक
और ‘है प्पीबर्थडे टू यू’ नहीं भूलता...।

‘....मेला नहीं जाना था,सो नहीं गया। दादा जी कहते रहे । दल


ु ारते रहे । मेरे दिमाग में तो रात वाली योजना घूम रही
थी। दालान पर आज कोई नहीं था,न पिताजी न दादाजी। सबके सब मुड़ारीमेला गये हुए थे- हाथी खरीदने,और मुझे
मनाने के लिए छोटा घोड़ा भी। मास्टरसाहव भी साथ गये थे। मौका पाकर भल
ु ना को बल
ु ाया,क्यों कि कलआ
ु अब
भरोसे का नहीं रह गया था । उसकी बजह से ही मुझे इतनी सजा झेलनी पड़ी । अब तो उसे भी मजा चखाना ही होगा ।

‘...बड़ी मां से जिद्द करके चारआने मांगे,‘लकठो’ के लिए,और उसे भुलना को दे कर भावी योजना का साझेदार बनाने में
सफल हुए। योजना की गोपनीयता के लिए उसे अपने सिर का कसम भी दिलाये।
‘...शाम होते-होते भुलना के सहयोग से मेरी योजना साकार होगयी । सारी तैयारी कर ली गयी । अब इन्तजार
था कि जल्दी रात हो,सोने का वक्त हो। आज शाम की पढ़ाई में भी खब
ू जोर लगाया। लालटे न भी दे र तक जली ।
भोजन के बाद, सोने के लिए बड़ी मां के पास चला गया,जबकि रोज दादाजी के साथ सोता था । बड़ी मां कुछ उत्पाती
बच्चों की दख
ु द कहानियां सुनाकर,उपदे श दे रही थी कि मुझे मन लगाकर पढ़ना चाहिए, क्यों कि प्रतिष्ठित भट्ट कुल
के बालक हैं हम । तभी अचानक शोर मजा- मास्टर साहब को बिच्छु काट दिया । दालान में भीड़ लग चुकी थी ।
मास्टर साहव को टांग-टूग कर अपने कमरे से दालान में ही लाया गया था । औरों की तरह हम भी बाहर आये,भीड़ का
हिस्सा बनने,माटसा’ब को सहानुभूति जताने । विच्छु का एक दं श ही जानलेवा कष्टकारी होता है ,तिस तो
पीठ,जांघ,चूतड़,कमर...बीसियों दं श थे माटसा’ब के शरीर पर। ‘भीड़’ अपना-अपना तजुर्बा बता रही थी। किसी ने कहा
कि ठीक से वहीं जाकर ढूढो,जहां बिच्छु ने काटा था । यदि मिल जाय,तो उसे मार कर,लग्ु दी बना,दं शस्थान पर लेप
कर दो,तुरत छूमन्तर होजायेगा।

‘...तजुर्बा सुन कर लगा कि मुझे ही विच्छु का डंक लग गया। पर अब करता क्या । मन ही मन खुद को दरु
ु स्त
करने लगा- भावी उपहार के लिए। टॉर्च की रोशनी में विच्छु ढूढ़ा जाने लगा कमरे में । एक ने विस्तर से चादर
सरकायी,और परू े मामले का पोस्टमार्टम रिपोर्ट हाजिर हो गया । विस्तर पर बिच्छु नहीं,बिच्छुओं की जमात रें ग रही
थी । सबकी पंछ
ू में धागा बंधा हुआ था ।

‘...लोग चौंके,अरे ये क्या माज़रा है ! ढे र सारे बिच्छु, वो भी धागे से बन्धे

हुए...। अब,मास्टरसाहब को कौन दे खता,सभीलोग विच्छुओं की बरात दे खने आजुटे। कलुआ भी आंख मलते आया।
उसे तो हरिश्चचन्द्र बनने की बीमारी थी न। दे खते ही बोला- “छोटे मालिक ने भल
ु ना को चार आने दे कर,केवाल वाले
ढूह से विच्छु ढूढ़कर मंगवाया था। दोनों मिलकर,वांस की कमाची के सहारे ,उसके पूंछ में धागा बाधे,और गुरुजी के
विस्तर में पिरो दिया । दीया-बाती के समय उधर गया तो चुपके से इनलोगों की हरकत दे खी मैंने। शोर मचाने की
धमकी दे ने पर,भल
ु ना ने अपनी चवन्नी में से आधा हिस्सा मझ
ु े भी भोर होते ही दे ने का वायदा भी किया है ।” - कलह
ु ा
की गवाही, और नमकहरामी पर हम जलभुन गये । किन्तु करते ही क्या...।

‘...उस दिन भरी भीड़ के सामने ही पिताजी ने मझ


ु े नंगा करके,घोड़े वाले चाबक
ु से मारमार कर अधमआ
ु कर
दिया- “ नालायक...हरामी...पता नहीं किस अशुभ घड़ी में इसका नाम उपेन्द्रनाथ रखा गया...यह तो साक्षात
उपद्रवीनाथ है ।” और उसी दिन से मैं उपद्रवीनाथ हो गया। गांव तो उस रात ही जान चुका था,दो-चार दिन में ही इलाका
भी जान गया...मेरा यह नया नाम।

‘...विच्छुओं की पिष्टी बनाकर,माटसा‘ब के बदन में लेप लगाया गया । चंगे होने के बाद, अगले ही दिन वो अपने मूल
निवास को प्रस्थान किये,सो फिर कभी दर्शन न दिये। बेचारे का शाही घोडे पर सवार होने का सपना धरा ही रह
गया,और मुझे पढ़ा-लिखाकर विद्वान बनाने का पिताजी का सपना भी ।
‘...अगले ही दिन नया फरमान जारी हुआ- “ अब इस हरामी को किसी गुरुकुल में छोड़ आते हैं। यहाँ रहकर छः-
छः मांओं के लाढ़-दल
ु ार में बिगड़ गया है ।”

गतांश से आगे....तीसरा भाग

बाबा ने गायत्री की ओर दे खा,फिर मे री ओर । गायत्री तो हँ स-हँ स कर बे हाल होरही थी,पर मु झे हँ सी बहुत ही


कम आती है ,शायद मैं ज्यादा सभ्य हो गया हँ ू । मैं सोचने लगा था- बच्चों को नालायक और हरामी कहते समय मां -
बाप, भाई-बन्धु को कम से कम इन शब्दों के अर्थ पर तो विचार कर ही ले ना चाहिए । बाप अपने बे टे को हरामी
कहे ,या क् रोध में मां ही कह डाले यही शब्द- आखिर क्या मतलब ! कर्ण जै सा योद्धा आजीवन हरामीपने का दं श
झे लता रहा । क्षत्रिय का गु ण और सारे लक्षण-प्रमाण होते हुए भी ‘सूत-पु त्र’ सम्बोधन से अभिशापित रहा। कर्ण के
जन्म का रहस्य कुन्ती को तो ज्ञात था,फिर क्यों हुआ महाभारत ! क्या एक मात्र कुन्ती दोषी नहीं है - इस विनाश के
लिए ? पाण्डु जै सा उदार पति,जिसने आदे श दिया हो--जै से भी हो पु तर् प्राप्ति हो। फिर क्यों नहीं कुन्ती ने उसी दिन
पूरा सच बता दिया ? आधा सच बताकर,पांच पु तर् प्राप्त कर लिए। ठीक है ,मान ले ता हँ ू कि उस दिन, विवशता वश
कर्ण को त्याग दी थी,किन्तु रं गभूमि में - क्या बे होशी टू टी ही नहीं कभी ! या उसके बाद, कभी भी ऐसा क्षण नहीं आया
सत्य से साक्षात्कार करने का? जबकि, स्वयं उस भरतकुल में ही ताजा उदाहरण मौजूद था- माता सत्यवती के आदे श
से महर्षि व्यास द्वारा नियोग विधि से धृ तराष्ट् र, पाण्डु , और विदुर के जन्म का । ओह ! कितना सहृदय था उस दिन का
हमारा समाज ! बलात्कार-पीडिता, परित्यक्ता,कुंआरी मां ओं को कानूनी सं रक्षण दे कर सु प्रिमकोर्ट ने कोई नया काम
नहीं किया है आज। ऐसे सं रक्षण और सम्मान का प्रमाण तो हमारे प्राचीन पु स्तकों में भरे पड़े हैं । सत्काम जाबाल
का उपनिषद कालिक प्रसं ग तो ऐसी उदारता का अप्रतिम उदाहरण है । एक अज्ञात नाम-कुल-बालक गु रु के पास
शिक्षा-ग्रहण के उद्दे श्य से जाता है । गु रु द्वारा नाम-गोत्रादि पूछे जाने पर असमर्थता व्यक्त करता है । वापस आकर
माता से प्रश्न करता है । माता कहती है – “ मैं एक दासी हँ ।ू विभिन्न घरों में काम करती हँ ू । विभिन्न पु रुषों के
सम्पर्क में आती हँ ू । तु म्हारा जनक कौन है ,मु झे स्वयं ही स्पष्ट रुप से ज्ञात नहीं है ।” बालक अगले दिन गु रु चरणों में
पु नः उपस्थित होकर, मां के शब्दों को यथावत रख दे ता है । गु रु अतिशय प्रसन्नता पूर्वक कहते हैं - “निश्चित ही तु म
ब्राह्मण कुमार हो। जाबाला के पु तर् हो, सत्य को स्वीकर किया है तु मने । अतः सत्यकामजाबाल के नाम से ख्यात
होओगे जग में । सत्य को यथावत स्वीकारने की क्षमता सिर्फ ब्राह्मण में ही हो सकती है ।”- सामाजिक उदारता का
इससे सु न्दर उदाहरण और क्या हो सकता है ?

मैं सोच रहा था,तभी बाबा ने टोका- ‘ किस चिन्तन में डू ब गये जी?’

मैंने ना में सिर हिलाया,बोला कुछ नहीं। बाबा फिर कहने लगे,अपनी लीलाकथा— ‘ पिताजी का आदे श,दादाजी के
आदे श से भी कठोर था,जिसका पालन भी उतना ही कठिन। महज आठ साल के बालक को पढ़ने के लिए सुदरू दे श,
किसी गरु
ु कुल में विस्थापित करने की योजना बनने लगी। आजकल तो आधनि
ु क माता-पिता होश सम्हालते ही
बच्चों को बोर्डिंगहाउस में डाल दे ते हैं। प्रत्यक्ष कारण तो होता है -उसकी सही शिक्षा,किन्तु परोक्ष में कारण कुछ और ही
होता है - पैसे के बूत,े अपनी जिम्मेवारी से पलायन…। मूलतः व्यावसायिक, हॉस्टल में रह कर शिक्षा पाने वाले बच्चे
ही तो आगे चल कर मां-बाप के लिए भी वद्ध
ृ ाश्रम तलाशने लगते हैं। अपनी जवानी में मां-बाप स्वतन्त्रता खरीदते हैं ।
आगे चलकर ,बेटा-बहु भी फिर वही हासिल करना क्यों न चाहे गा ? सच पूछो तो ये भी पश्चिम का ही

दे न है । संयक्
ु त परिवार क्या होता है - ठीक से कहां पता है पश्चिम वालों को।
‘...खैर,मेरे रोअन-धोअन से हुआ सिर्फ इतना ही कि गुरुकुल पहुँचाने का कार्यभार पिताजी के वजाय दादाजी ने
लिया,और स्थान भी नियत किया उन्होंने ही- गयाजी के खरखरु ा संस्कृत विद्यालय में ,क्यों कि उसके संस्थापक
अवस्थीजी दादाजी के परम मित्र थे। ‘विच्छुकांड’ के तीसरे दिन ही पूर्व दिशा की यात्रा बन रही थी। लग्न और चन्द्रमा
सब अनुकूल जान,दादाजी ने यात्रा की मुझे साथ लेकर। ‘चन्द्रमा मनसोजाता..’ चन्द्रमा को मन का अधिपति माना
गया है । मेरे मन को नियन्त्रित करना ही तो अभीष्ट था मेरे अभिभावकों का। अतः चन्द्रमा को अनुकूल रहना ,या
रखना निहायत जरुरी था। वैसे भी ज्योतिष में लग्न और चन्द्र को सर्वाधिक महत्त्व पर्ण
ू कहा गया है । ज्योतिषीय
भविष्यवाणी का मूलाधार ये ही दोनों हैं।

‘...अवस्थीजी बहुत प्रसन्न हुए,मुझे अपने शिष्य रुप में पाकर- “अहोभाग्य मेरा कि अपने मित्र गदाधर भट्ट के पौत्र
को शिक्षा दे ने का मुझे अवसर मिल रहा है ।” दादाजी ने उन्हें लगभग सारी रामकथा सुना डाली,जिसके जवाब में
उन्होंने कहा -“ तुम चिन्ता न करो गदाधर ! तुम्हारा पौत्र मेरा पौत्र। मैं तुम्हारे बेटे की तरह क्रोधी-तपाकी नहीं हूँ। भला
अबोल बालक को कहीं ऐसी मार लगायी जाती है ! बच्चों को कैसे रखा जाता है ,मैं जानता हूँ। इसके
पालन,रक्षण,शिक्षण में मेरे पितध
ृ र्म और गुरुधर्म दोनों का सम्यक् उपयोग होगा। तुम दे खना,थोड़े ही दिनों में इसमें
अप्रत्याशित परिवर्तन ला दं ग
ू ा मैं। ”-कहते हुए अवस्थीजी की ललाट दर्पित हो आयी थी।

‘...मुंह अन्धेरे में ही ब्रह्ममुहूर्त की वापसी यात्रा की दादाजी ने। प्रणाम-पाती-विदा दे कर, अवस्थी जी अपने कमरे में
चले गये। रात की मित्र-वार्ता में ही मझ
ु े पता चल चक
ु ा था कि दादा जी यहां से पैदल ही कन्दौल,जो कि गया से समीप
ही है , की यात्रा करें गे, अपने मित्र वैद्य सिद्धनाथ मिश्र से मिलने के लिए। दिन भर वहीं बिता कर अगले दिन गांव
वापस जायेंगे। कुछ विशेष कारण से ही,घुड़सवारी को छोड़,पदयात्रा का ही चयन किया था इन्होंने इस बार। कुछ
मायने में ये इनकी एकान्तिक यात्रा कही जा सकती है ।

‘...अनुभवी परियोजना पदाधिकारी की तरह मुझे भी अपनी योजना बनाने में दे र न लगी। दादाजी के प्रस्थान के थोड़ी
दे र बाद ही,अवस्थीजी से आदे श,और उनका ही पीतल का लोटा लेकर, प्रातः शौच के लिए,मैं भी निकल गया,
विद्यालय-प्रांगण से बाहर। फाटक से बाहर कदम रखा तो लगा कि स्वच्छ आकाश में उन्मुक्त पक्षी सा पंख फड़फड़ा
रहा हूँ। कहां आ फंसा था इस पिंजरे में ! अब दे खता हूँ- अवस्थी के शिक्षण-रक्षण का दर्प !

रास्ता बहुत अन्जान नहीं था। पहले भी एक-दो बार दादाजी के साथ कन्दौल जा चुका था, और गयाजी की यात्रा तो
बीसियों बार हो चुकी थी- कभी घोड़े,कभी पालकी से। कहीं भी जाते, दादा जी मुझे जरुर साथ ले लिया करते थे। उनका
स्नेह मेरे ऊपर सर्वाधिक था,किन्तु क्या करता, कभी-कभी सर्वस्नेह की भी आहुति दे नी होती है । ये स्नेह ही मनष्ु य
का सबसे बड़ा अवरोधक है ,विघ्न है ....।’

उपद्रवी बाबा की इस बात पर मेरा मन खटका। स्नेह की आहुति क्यों- मुझे जरा भी पल्ले न पड़ा। अतः पूछ दिया-
‘माफ करें गे महानुभाव ! ये क्या कह रहे हैं ? किसी के प्रति आदर,सम्मान, स्नेह, प्रेम ही नहीं रहे गा तो फिर...? ’
मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये। उनकी मुस्कुराहट वैसी ही थी जैसी किसी बुजुर्ग की होती है , किसी बच्चे के बचकानी
सवाल पर। वे कहने लगे- ‘तुमने जो इन एक जैसे दिखने वाले अनेक शब्दों का इस्तेमाल किया ,वो बिलकुल भिन्न हैं।
प्रायः हम शब्दों के ‘तथाकथित पर्याय’ को भी ‘शब्द’ ही मान लेने की भूल ही नहीं,मूर्खता कर बैठते हैं। आदर-
सम्मान,और स्नेह-प्रेम को एक ही परियानी पर क्यों तौल रहे हो ? आदर-सम्मान बिलकुल अलग चीज है । इसकी
आहुति दे ने की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। ये किसी भी तरह से हमारे लिए विघ्नकारी नहीं हो सकते। माता-पिता,
गरु
ु जनों को आदर-सम्मान दे ना ही चाहिये,इसका कोई विकल्प भी नहीं है । माता-पिता कैसे भी हों,आदरणीय और
सम्मानीय होते ही हैं। वो ना होते तो मेरा वजूद ही कहां होता ! दे खो,फिर यहाँ संशय में मत पड़ जाना। माता के साथ
मैंने पिता को रखा है , ‘वाप’ को नहीं। वह वन्दनीय नहीं ‘भी’ हो सकता है । किन्तु पिता सदा वन्दनीय होता है । पिता
अनेक हो सकते हैं,पर वाप सदा एक ही होगा। इसकी अनेकता का सवाल कहाँ ! खैर,तम्
ु हारा सवाल यहां स्नेह से
सम्बन्धित है । मैं यहां बात भी स्नेह की ही कर रहा हूँ। स्नेह की,प्रेम की भी नहीं। यह जो ‘स्नेह’ है न, ‘श्लेष’ है ।
श्लेषित कर दे ता है - चिपका दे ता है , हमारे मन-प्राण को। और फिर इसी के गर्भ से मोह उत्पन्न होता है । इस मोह ने
अच्छे -अच्छों को मोहित किया है । महात्मा जड़भरत का नाम सन
ु ा होगा तम
ु ने,जिन्होंने संसार को ही विसरा दिया था,
किन्तु एक मग
ृ छौने के मोह ने- स्नेह ने,बांध लिया,और फिर से एक ‘शरीर’ लेना पड़ा। अस्तु, इस स्नेह की तो आहुति
दे नी ही होगी,आज दो,कल दो जब दो...और स्नेह का उल्टा परित्याग नहीं होता है । प्रायः शब्दों के गूढ़ार्थ को ही हम
समझने में चक
ू जाते हैं,फिर विपरीतार्थ तो बहुत दरू की बात है । साधक को शब्दों के महाजाल से बाहर आना होता है ;
इसीलिए गीता जैसा महान पथ-प्रदर्शक ग्रन्थ ‘निर्ग्रन्थ’ होने की सलाह दे ता है ।’

बाबा की अद्भत
ु बातें बरबस ही मझ
ु े बांधे जा रही थी। जरा ठहर कर, गहरी सांस लेकर, बाबा ने पन
ु ः कहना शरु
ु किया-
‘हाँ,तो मैं अपने दादाजी का पीछा करने लगा, उनकी स्वाभाविक चाल भी बहुत तेज थी। जवानों को भी उनके साथ
चलने में सांस फूलने लगता था। मुझे तो लगभग दौड़ना पड़ रहा था। कुछ दरू तक तो पता भी न चला कि किधर
निकल गये। सिर्फ अन्दाज से रास्ते पर बढ़ता रहा। अवस्थीजी के विद्यालय से कोसों दरू पश्चिम जाने पर नदी
किनारे उनकी गठरी नजर आयी। शायद शौच के लिए गये हों। सूर्योदय होने ही वाला था। मौका पाकर, गठरी को पानी
की धार पर रख दिया,जो तैरते हुए आगे सरक गया।

‘...गठरी बहाने के बाद, दो तरह के विचार मेरे मन में उठे - एक तो कि मैं चुपचाप पलायन कर जाऊँ यहाँ से,और दस
ू रा
यह कि यहीं कहीं छिप कर दे खूं कि आगे क्या होता है । दादाजी के प्रति स्नेह मुझे बांधे हुए था। संसार में दो ही प्रिय
लगते हैं मछ
ु े - बड़ी माँ और दादाजी। पिता तो फूटी आँखों भी नहीं सह
ु ाते। अपनी माँ से सामान्य लगाव है ,जैसा कि
अन्य चार मांओं से।

‘...थोड़ा सोच विचार के बाद दस


ू रा विकल्प ही सही लगा । अतः मैं वहीं एक ओर दब
ु क कर बैठ, तमाशा दे खने लगा।
थोड़ी दे र में दादाजी निवत
ृ होकर लौटे तो गठरी नदारथ पा,चौंक गये। कुछ दे र हक्केबक्के खड़े रहे । आसपास कोई
नजर न आया। गठरी आंखिर गयी कहाँ ! फिर कुछ सोच,नदी की धार में उतर कर,हाथ-मुंह धोये,और ऊपर आकर
आवाज लगाने लगे- “ उपेन्द्र कहाँ हो तुम, जल्दी सामने आओ। आंखिर मैं तुम्हारा दादा हूँ । मैं जानता हूं कि यह काम
तुम्हारा ही है , छिपने से कोई लाभ नहीं।“

‘…हँसते हुए मैं झाड़ी से बाहर आगया। बड़ी ढीठायी से बोला- आपकी

गठरी तो मैं नदी में बहा दिया। आप मुझे छोड़ कर क्यों आ गये? मैं वैसी जगह पर बिलकुल नहीं रहूँगा जहाँ न आप हैं
और न बड़ी माँ।

‘...मेरी बातों का जवाब दिये वगैर वे नदी की ओर लपके । पानी की धार

तेज न थी ।थोड़ी ही दरू पर गठरी किनारे लगी हुयी थी। झपट कर गठरी उठा लाये। और तब,मेरा हाथ पकड़ कर वहीं
बालू पर बैठ गये। पीठ पर हाथ फेरते हुए समझाने लगे- “ उपेन्दर तुम पढ़ोगे नहीं तो मेरे जैसा विद्वान कैसे बनोगे?
पढ़ने के लिए ही तो अवस्थी जी के पास रखा था,घर पर पढ़ाई अच्छी नहीं होती, और पिताजी मारते भी हैं। यहाँ रहने
में तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होती...।”

‘...इसी तरह की बहुत सी बातें कह-कह कर दादाजी घंटों मुझे समझाते रहे ,पर मैं टस से मस न हुआ अपने विचार से।
अन्त में लाचार होकर,बोले- “ ठीक है ,जैसी तुम्हारी मर्जी,मगर एक बात जान लो कि इस बार घर जाओगे तो तुम्हारा
बाप छठी का दध
ू याद दिला दे गा,और मैं भी कुछ नहीं बोलँ ग
ू ा- जान लो,क्यों कि तुम मेरी भी बात नहीं मानते।” फिर
कुछ सोचने के बाद,बोले- “अच्छा , तम
ु यहीं बैठो,तब तक मैं स्नान-ध्यान कर लँ ।ू तम
ु तो अपना झोला वहीं छोड़ आये
, और ऊपर से, अवस्थीजी का ये लोटा भी लिये चले आये हो। ”

‘...स्नान-पूजा के बाद,गठरी से निकाल कर कुछ जलपान किये,और तब, वहां से हम दादा-पोता आगे बढ़े - कन्दौल की
ओर,जो कि अभी चार-पांच कोस से कम न था।

दोपहर वाद हमलोग वहाँ पहुंचे। दादाजी ने एक पत्र,और अवस्थीजी का लोटा वैद्य जी के घुड़सवार को सौंप कर
कहा कि जल्दी वापस आ जाये,उपेन्द्र का झोला और अवस्थी जी का समाचार लेकर।

‘...अगले दिन वहां से वैद्यजी का घोड़ा लेकर,सीधे दक्खिन-पश्चिम का रुख किये। ये रास्ता मेरे लिए बिलकुल
अनजान था। पूछने पर भी दादाजी ने कुछ बतलाया नहीं। दोपहर से पहले ही हमलोग एक गांव में पहुंचे। दादाजी ने
बताया कि यहां पहाड़ के ऊपर बड़ा ही सन्
ु दर ऐतिहासिक मन्दिर है - ‘उमगा’- उमा,महे श,और गणेश का सिद्ध स्थल।
पहाड़ की तलहटी में बसा है गांव— पर्णा
ू डीह, जहाँ अनेक साधक हुए हैं। शाक्त उपासक ब्राह्मणों की सिद्धस्थली है यह।

‘...वहीं,पंडित ज्ञानेश्वर जी के यहाँ पहुँचे हमलोग। आवभगत और लम्बी


वार्ता के पश्चात ् पंडित जी ने कहा- “ गदाधर,यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो,तो मैं इस महाउदण्ड बालक को अपने पास
रख लँ ।ू ”

उनकी बात सुन, दादाजी हर्षित होकर बोले- “ मुझे क्यों आपत्ति होने लगी,मैं तो कुछ ऐसी ही कामना लेकर,चामुण्डा
के दरबार में आया हूँ। आप इस

विषय के ज्ञानी हैं। स्वयं जांच-परख लें कि ‘वटुक’ किस योग्य है ।”

“योग्यायोग्य का विचार न करो, और न संशय ही। मैं तो ललाट और आँखें दे ख कर ही जान लिया था कि यह बालक
किसी और उद्देश्य से जन्मा है । अमरकोश और पञ्चतन्त्र में कहाँ उलझाना चाहते हो इसे।”

‘...ज्ञानेश्वरजी मेरे दादाजी से काफी उमरदराज थे। उनकी आँखों का जाद ू मुझे भेदे जा रहा था। लगता था, मानों
किसी लोहे को शक्तिशाली चम्
ु बक खींचे जा रहा हो। उन्होंने मझ
ु े पास बल
ु ा कर एक लड्डू खाने को दिया,और पच
ु कार
कर गोद में बैठा लिया।

“तुम्हें यहीं रहना है मेरी सेवा में , रहोगे न ? रोज एक लड्डू मिलेगा,और पढ़ने-लिखने से भी छुट्टी। मगर एक काम
करना होगा- उधर पहाड़ी पर माँ का मन्दिर है , उसकी साफ-सफाई करनी होगी,पूजा के लिए फूल तोड़ना होगा,हवन के
लिये वेदी बनानी होगी,पास के जंगल से लकड़ियां भी लानी होगी। बोलो मंजूर है न? ”

‘...उनकी गोद में बैठा मैं, किसी प्रें षादोला के पेंगे सा आनन्दित हो रहा था। ऐसा सुकून न तो बड़ी मां की गोद में मिला
था और न दादाजी की गोद में ही कभी। लड्डू खाते-खाते धीरे से सिर हिला दिया।

‘...मेरी स्वीकृति से आश्वस्त हो,दादाजी मन्त्रमुग्ध, दे खने लगे,पंडितजी की ओर- “ अरे ये तो अद्भत
ु बात है ,कल ही
सब
ु ह कह रहा था कि जहाँ मैं और इसकी बड़ी मां नहीं होगी,वहां कदापि नहीं रह सकता।”

“ठीक ही तो कहा था इसने, गलत क्या है ! यहाँ पहाड़ पर उस माँ से भी बड़ी माँ विराजमान है , और इधर पहाडी के
नीचे, इसे गोद में बैठाने के लिए, इसके दादा से भी बड़ा दादा मैं जो हूँ। क्यों ठीक कह रहा हूँ न उपेन्द्र?”- पंडितजी की
बात पर मैंने फिर ‘हां’ में सिर हिला दिया। दादाजी की ओर दे खते हुए वे बोले- “ अग्नि प्रस्फुटित है ,गदाधर ! पथ्
ृ वी
जल में घुल चुकी है ,किं चित शुद्ध वायु की आवश्यकता है । अग्नि को वायु का संसर्ग दे कर,आकाश में उड़ा दे ना है ,वस
इतना ही तो काम है । आगे महामाया जाने।” दादाजी पंडितजी का मंह
ु दे खे जा रहे थे। उन्होंने आगे कहा- “ यह जो
पथ्
ृ वी है न सबसे ‘गुरु’ है , इसका गुरुत्व बहुत बाधक होता है । दीर्घ प्रयास और संघर्ष से जल के सहयोग से,किं चित
बिलीनता आती है , तभी इसकी गांठे टूटती हैं। किन्तु एक बहुत बड़े खतरे की भी आशंका रहती है - जल का सम्पर्क
सिर्फ द्रवित ही नहीं करता,प्रत्यत
ु अधोगामी भी बना दे सकता है । परन्तु कोई बात नहीं, अग्नि सम्भाल लेगा। सख
ु ा
दे गा। आकार दे दे गा। और फिर आकार को निराकार होने में बहुत पापड़ नहीं बेलने हैं। तुम इस प्रचण्ड ज्वाला को
अमरकोश और हितोपदे श से शान्त करने का दष्ु प्रयास कर रहे थे। सफलता कहाँ से मिलती? एक वामन अदिति के
गर्भ से अवतरित हुए,एक वामन तुम्हारे यहाँ उत्पन्न हुआ है । ‘उपेन्द’ वामन का ही तो नाम है । आठ वर्ष का यह
वामन अब तुम्हारे कुल का उद्धार करे गा। तुम बड़े सौभाग्यवान हो गदाधर ! बड़े सौभाग्यवान। ” –इसी तरह की कुछ
और भी बातें बड़ी दे र तक उन दोनों में चलती रही।

‘...पंडितजी की बातें मेरे कुछ पल्ले न पड़ी। पल्ले पड़ी सिर्फ यही कि अब मुझे यहीं रहना है । जगदम्बा की सेवा का
सामान जुटाना है ,लड्डू खाना है ,और मस्ती करना है ।

‘...दादाजी उसी दिन शाम होने से कुछ पहले ही चल दिये वापस अपने गांव । चलते समय मुझे गोद में उठा कर बड़े
स्नेह से चूमते हुए बोले- “ आराम से रहना। मन लगा कर माँ की सेवा करना, और पंडितजी की भी। ये भी तुम्हारे
दादाजी ही हैं,हमसे भी बड़े दादाजी। तम
ु कहाँ हो,ये बातें घर में किसी को बतायी न जायेगी। लोग यही जानेंगे कि
अवस्थीजी के विद्यालय में पढ़ रहे हो। बीच-बीच में फुरसत निकालकर मैं आया करुं गा। कम से कम दशहरा-
दीपावली तक यहीं रहो। छठ के समय घर ले चलूंगा,माँ के पास। ”

बाबा की इन लम्बी बातों का सिलसिला अभी और भी चलता रहता। असली बातें तो अभी शुरु ही हुयी थी,किन्तु घड़ी
की ओर दे खते हुए गायत्री ने टोका- ‘उपेन्दऽरऽ भैया ! समय बहुत हो गया है । भूख नहीं लग रही है क्या अभी ?’

मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा - ‘ मेरे भूख की परवाह ना किया करो। हां,

तुमलोगों को भूख लग गयी हो, तो खाने-पीने का बन्दोबस्त किया जा सकता है ।

बातें तो होती ही रहे गी। “कलौ अन्नगताः प्राणाः ” कलयुगी लोगों का प्राण तो अन्न में ही बसता है न। चलो, चलकर
पीढ़ा-पानी लगाओ। मैं अभी भोजन-सामग्री का प्रबन्ध करता हूँ।’

मैं गायत्री का मुंह दे खने लगा,वह भी मेरी ओर ही दे खे जा रही थी। कहीं

कुछ दीख नहीं रहा है ,भोज्य-व्यवस्था,और पीढ़ा-पानी की बात कर रहे हैं....। फिर भी बाबा की बात को आदे श की तरह
पालन करते हुए,सशंकित गायत्री उठकर भीतर बरामदे में चली गयी,और लोटा,गिलास,पीढ़ा-पाटी सजाने लगी।

बाबा भी उठे अपना झोला लिए। मुंह-हाथ धोकर भोजन के लिए पलथी मार कर बैठ गये। मुझे भी बैठने को कहा,और
गायत्री से बोले कि काठ का एक और पीढ़ा हो तो ले आओ।

गायत्री पीढ़ा ले आयी। उसे अपने सामने रख कर,झोली में हाथ डाल, एक अद्भत
ु गांठदार बड़े से ‘सीपी’ जैसा, और चांदी
की एक डिबिया निकालकर,पीढ़े पर रख दिये। अंजली में जलभर कर कुछ मन्त्र बुदबुदाये,और उसपर छिड़क कर
आँखें बन्द कर लिए। हमलोगों को भी आँखें बन्द करने को कहा,और हिदायत किया कि जब तक आदे श न हो आँखें,
बन्द ही रखी जायें।

मैं रोमांचित हो रहा था। उत्सुकता,और जिज्ञासा तो थी ही। करीब पांच मिनट के बाद आँख खोलने का आदे श हुआ।
आँखें खल
ु ी तो विस्फारित रह गयी, सामने का दृश्य दे ख कर- बाबा के सामने रखा पीढ़ा दाहिनी ओर खिसका हुआ था।
उस पर रखा गांठदार वस्तु और चाँदी वाली डिबिया भी गायब थी,या पुनः झोली में चली गयी थी,कह नहीं सकता। हम
तीनों के सामने बिलकुल ताजी पत्रावली में यथेष्ट मात्रा में सुस्वाद ु भोज्य पदार्थ रखे पड़े थे,जिनका सुगन्ध नथन
ु ों में
पहुंचकर,बच्चों सा लालायित-पल
ु कित कर रहा था-शीघ्र कौर उठाने को। बाबा कुछ बोले नहीं,सिर्फ इशारा किये भोजन
करने के लिए।

‘...भोजन शरु
ु किया बाबा ने,साथ ही हमदोनों ने भी। हमारी तो आदत है , रात के भोजन के समय ही टीवी पर समाचार
दे खने की । दिन भर के भाग दौड़ में वक्त ही कहां मिल पाता है ! टमटम के घोड़े की तरह सुबह से शाम,या दे र रात तक
जुते रहना – दाल-रोटी की जोड़ी की सलामती के जुगत में ,तिस पर भी कभी नमक गायब तो कभी दाल तो कभी
सब्जी...घी-दध
ू , मेवा-मिष्ठान्न तो पौष्टिक-आहार की किताब में ही दे खने को नसीब हो पाता है । बस यही तो
जिन्दगी है । ‘भोजन’ कभी किया कहाँ ! हाँ खाना भले खा लेता हूँ- वैसे ही जैसे कि रे ल के ईंजन में धड़ाधड़ बेलचे से
कोयला डाल दिया जाता है ,और किसी जंक्शन पर पहुँच कर मोटे नलके से पानी भी भर दिया जाता है । सुबह का
भोजन तो ऐसे ही होता है रोजदिन,और रात का- ठीक उससे विपरीत- ‘अबतक’ ‘आजतक’ ‘कब-कैसे-कहां’ जब तक
चलता,भोजन भी चलते रहता उसी रफ़्तार से। ये नहीं कि चार के बदले चौदह रोटियां खा जाता हूँ,रोटियां तो उतनी
होती हैं,पर खाने की गति गांधी वाली होती है । सुनते हैं कि गांधी पचास ग्राम चने को आध घंटे में आहिस्ते-आहिस्ते
चबा-चबाकर खाते थे। बचपन में खेलते-खलते खाता था तो मेरी दादी कहती थी- अन्तिम कौर पेट में पहुँचने तक तो
तुम्हारा पहला निवाला आंत में पहुंच जाता होगा...।

‘...आज सच में ‘भोजन’ किया,खाना नहीं खाया। बाबा के इशारे पर,मौन भोजन। भोजन क्या होता है ,कैसे किया जाता
है ,क्या अर्थ और औचित्य है भोजन का- आज स्वतः ही समझ आगया। बाबा का वह अद्भत
ु कृपा-प्रसाद– दिव्य भोजन,
जिसके गुण,रस और स्वाद की व्याख्या के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं हैं,अतः भोजन के बाद भी मौन ही रहना
अच्छा है ।

‘...बाबा के आगमन के बाद से अब तक हुयी बातों में ही अनेक बातें उलझी हुयी थी,जिसे सुलझाने को मन व्याकुल हो
रहा था; किन्तु अभी का ये चमत्कारिक भोजन-प्रसंग- सर्वाधिक जिज्ञासु बना दिया । इस रहस्य को जानने-समझने
को ललक उठा। भोजन के बाद,हम सभी उसी स्थान पर आ बैठे- बालकनी में । गायत्री ने जिज्ञासा प्रकट की- “ वो क्या
चीज थी उपेन्दर भैया,और कैसे हो गया ये सब? क्या जब चाहे तब इससे भोजन प्राप्त किया जा सकता है ?”
बाबा मुस्कुराये- “ अरे नहीं पगली ! ये कोई खेल-तमाशा नहीं है ,और न इससे भोजन जुटा कर राष्ट्र की भूखमरी ही दरू
की जा सकती है ।”

“ तो फिर क्या है ? ”- गायत्री का अगला सवाल था।

“तुम नहीं मानेगी, सब कुछ उगलवा ही लेगी मुझसे।”- कंधे से लटकती झोली में से बाबा ने पन
ु ः उन दोनों वस्तुओं को
निकालते हुए कहा- “ बहुत कर्ज है तेरा, मेरे सिर पर,पता नहीं अभी और कितना कर्जा खाना है तुम्हारा...ये ले आंचल
फैला।”

उत्सक
ु ता पर्व
ू क गायत्री अपना आंचल फैला दी बाबा के सामने। बाबा ने दोनों वस्तय
ु ें उसके आँचल में डालते हुए कहा-
“ ले जा,इसे अपने पूजा-स्थल में श्रद्दा, विश्वास और आदरपूर्वक रख दे । नित्य धूप-दीप दिखाना,और सच्चे मन से
प्रार्थना करना कि प्रभु मेरा कल्याण करो।”

गतांश से आगे...चौथा भाग

मेरी उत्सुकता अपनी सीमा तोड़ छलांग लगा गयी। पूछ बैठा- आंखिर ये

है क्या चीज?

मेरे प्रश्न पर बाबा झल्लाये,मगर क्रोध वाली झल्लाहट नहीं,स्नेह वाली-बिलकुल स्निग्ध - “ तुम अखबार वालों की
यही आदत है ,बाल की खाल निकाल कर अन्दर और अन्दर झांकने का प्रयास,यहां तक की तम
ु लोग कभी-कभी प्याज
को भी छीलने लगते हो, अन्दर किसी फल (परिणाम) की तलाश में । प्याज के अन्दर भी कोई फल होता है क्या,जिसमें
उसका बीज(कारण) हासिल हो सके ? कोई जरुरी नहीं कि फल के अन्दर बीज हो ही,और सिर्फ बीज से ही फल उत्पन्न
हो- यह भी जरुरी नहीं। जिज्ञासा अच्छी चीज है ,किन्तु हर जगह अच्छी नहीं है ।”

फिर भी ! जो वस्तु मुझे आप दे रहें है ,उसका परिचय तो जानना ही चाहिए न ? ये तो मेरा अधिकार बनता है ?

इस बार बाबा सच में झल्ला गये। - “ ये अधिकार वाली बातें सिर्फ नेताओं के लिए छोड़ दो । इसे वे हथियार की तरह
इस्तेमाल करके,जनता को मर्ख
ू बनाते हैं- उसके अधिकारों की गिनती गिना कर। काश ! कर्तव्यों की झोली में से
एकाध भी समझा दे ते,तो राष्ट्र और राष्ट्रवासियों का कल्याण हो जाता। खैर तुमने पूछा है ,तो कुछ तो बताना ही
पड़ेगा।” —गायत्री की आंचल में से वो गांठदार चीज निकाल कर मेरे हाथ में दे ते हुए बोले- “ इसे मोतीशंख कहते
हैं,किन्तु यह बजाने वाला शंख नहीं है । इस ‘पर’ साधना की जाती है ; और ‘इससे’ साधना भी की जाती है -
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम ्...चन्द्रमा का अति प्रिय पदार्थ है यह। सामान्य शंख की तुलना में यह जरा
दर्ल
ु भ है ,किन्तु बिलकुल अलभ्य नहीं। रामेश्वरम ् आदि समुद्री तट पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाता है । वैसे
बसरा की खाड़ी में सर्वोत्तम गुण-आकृति वाला मोतीशंख पाया जाता है । मोती सीपी से जरा भिन्न आकृति है इसकी।
और सामान्य शंख से तो बहुत ही फर्क है इसमें - रं ग,रुप, आकृति सब कुछ बिलकुल अलग। बस नाम भर है शंख-
मोती जैसा चमक होने के कारण मोतीशंख नाम चरितार्थ होता है । मोतीसीपी में से मोती निकलता है , मोतीशंख में से
मोती भी नहीं निकलता। तुम मानवी भाषा में इसे यूँ समझो कि मोतीसीपी नारी है ,और मोतीशंख नर। किन्तु नारियों
की तुलना में नर का अत्यन्त अभाव है । मोतीसीपी तो बहुत मिलते हैं,पर मोतीशंख अपेक्षाकृत कम। प्रकृति
अट्रासाउण्ड का प्रयोग करके स्त्रीभूण हत्या जैसा कुकृत्य नहीं करती । ये तो सभ्य कहे जाने वाले मानव वेषधारी
दानवों का तथाकथित सक
ु ृ त्य है ।...

“...इस मोतीशंख का विविध प्रयोग है तन्त्रशास्त्र में , उसकी ही एक बानगी, अभी दे खा तम


ु लोगों ने; किन्तु इसका ये
अर्थ नहीं कि इसे साध कर, अकर्मण्यों की भांति पड़े-पड़े सुस्वाद ु भोजन का आनन्द लेते रहा जाय। विशेष अवस्था में
साधकों का ‘सहायक’ है ये, ‘सहारा’ नहीं; और उस अवस्था में ही इसका प्रयोग करना चाहिए। हां,आमजनों के लिए
इसकी महत्ता और उपयोगिता है - मात्र,इसका द्राव्यिक गुण-प्रभाव। द्रव्य का अर्थ यहां रुपया-पैसा मत समझ लेना।
तुम अखवारी लोग कुछ का कुछ समझने में माहिर हो। कहने वाला कहता कुछ है , और उसे अपनी समझ से तोड़-जोड़
कर अलग रुप दे दे ते हो। द्रव्य का यहां वस्तुगत अर्थ में प्रयोग हुआ है । ये विशेष रुप से साधित मोतीशंख जहाँ कहीं भी
रहे गा,जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन का कदापि अभाव नहीं होने दे गा...

“…यहाँ फिर मेरे शब्दों पर ध्यान दे ना- मैं एक-एक शब्द महात्मा विदरु की भांति तौल-तौल कर बोलने का प्रयास
करता हूँ। शब्दों के पर्याय पर मझ
ु े आस्था नहीं है । यहां अपरिहार्य आवश्यकता की पर्ति
ू के साधन की बात कर रहा हूँ।
सभ्य कहे जाने वाले लोगों की उछृंखल,अकूत आवश्यकता-पूर्ति की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। तुम इसे यों समझो- मान
लो कि तुम बीमार हो,दवा के लिए विशेष रकम चाहिए,जो नहीं है तुम्हारे पास,तो ऐसी अवस्था में यह साधित
मोतीशंख तुम्हें पैसे के अभाव में मरने नहीं दे गा। पैसे के आभाव में तुम्हारी बेटी की शादी नहीं रुकेगी। किन्तु हवाई
जहाज पर उड़ने के लिए ये मोतीशंख पैसे नहीं जुटायेगा। महीने का घरखर्चा नहीं उठायेगा। गायत्री के क्रीम-पाउडर के
लिए तो तुम्हें कमाना ही होगा। ”- बाबा की बातों पर गायत्री मुस्कुरायी। बाबा कह रहे थे- “…किन्तु इस अपरिहार्य
आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के लिए भी श्रद्धा और दृढ़ विश्वास होना चाहिए। हमारे बहुत से काम बिगड़ जाते हैं,
इसी के अभाव में । पारस को भी पत्थर समझ लेते हैं,या कभी अन्धीश्रद्धा,अन्धविश्वास कंकड़ को भी तिजोरी में
रखवा दे ता है । वैसे, हम मनष्ु य माहिर हैं- कंकड़ को बचाकर,हीरे को गंवाने में । हमसब पूजा,अर्चना,प्रार्थना,दान,
जप,योग, तीर्थ,व्रत,यज्ञ सब कुछ करते हैं,किन्तु संशय सहित, प्रयोग,और आजमाइश के रुप में , या फिर बनिये की
तरह- हानि-लाभ का हिसाब दे खकर। भीतर में सच्ची श्रद्धा नहीं होती, और ना ही विश्वास होता है । करना चाहिये-
सुन-जान लिए और करने में लग गये। फल(परिणाम)कुछ दीखा नहीं,तो बस शास्त्र को दोषी करार दे दिये चट-पट।

‘... एक बार एक गांव में अकाल की स्थिति दे ख,इन्द्रप्रीत यज्ञ का आयोजन हुआ ताकि प्रचुर वर्षा हो सके। इस यज्ञ का
फल कहा गया है शास्त्रों में कि पूरी विधि से विश्वास पूर्वक किया जाय तो पूर्णाहुति होते-होते घोर वर्षा होती ही है - इन्द्र
का संकल्प है यह। उस गांव में यज्ञ हुआ। पूर्णाहुति के दिन सारा गांव ही नहीं, बल्कि आस-पड़ोस के गांव भी उमड़ पड़े
—यज्ञ का प्रसाद पाने को- “प्रसाद” वो कृपा-प्रसाद नहीं, जिसके लिए यज्ञ किया गया है ,बल्कि लड्डू,पेड़ा,केला,अमरुद
की भीड़ इकट्ठी हो गयी। सभी खाली हाथ यज्ञ मंडप की ओर दौड़ लगा रहे थे, ताकि पिछुआ न जायें। एक साधारण सा
आदमी चुपचाप अपने दरवाजे पर बैठा, जाते हुए लोगों को दे ख रहा था। किसी ने पूछ लिया- क्यों भाई तुम नहीं
जाओगे यज्ञ दे खने ? उसने सहजता से कहा- “ मेरी तबियत ठीक नहीं रहती। जरा सा भींग जाने पर बीमार हो जाता
हूँ। मेरे पास छाता भी नहीं है ,कैसे जाऊँ।” पूछने वाला हँसा उसकी बेवकूफी भरी बातों पर- “ पागल हो क्या ? क्या
लगता हैं बारिश होने वाली है ? मेघ कहीं नजर आ रहे हैं ? यज्ञ करने से भी कहीं वर्षा होती है ?” अब जरा सोचो- भीड़
भागी जारही है यज्ञ दे खने,और आस्था-विश्वास का लेश मात्र भी नहीं। उस परू े जमात में सच्चा विश्वासी अगर कोई है
तो वह आदमी,जो छाता न रहने के कारण यज्ञ का प्रसाद लेने नहीं जा पा रहा है । प्रसाद का असली अधिकारी वही है ।
ईश्वर उसे ही कुछ मदद करता है ,जिसे भरोसा है उस पर। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है - अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये
जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम ्।। (९-२२)। बात यहां अटूट भरोसे की है - जो सबकुछ
भुला कर, छोड़कर, विसराकर,एकमात्र उस परमात्मा का यजन-भजन करता है ,उसके हानि-लाभ,सुख-दःु ख का ध्यान
तो रखना ही पड़ेगा न उस भगवान को ! मोतीशंख बेचने वाले को तो बहुत अमीर हो जाना चाहिए था, किन्तु वह सिर्फ
व्यापारी ही रहता है । यहां इसका द्राव्यिकगुण काम नहीं आयेगा। ”

इतना कहकर,बाबा जरा रुके। मैं कुछ कहना ही चाहता था कि गायत्री पछ


ू बैठी- “ और ये क्या है भैया ! इस डिबिया
में ? ”

बाबा ने मेरे हाथ से मोतीशंख लेकर,पुनः गायत्री की आँचल में डाल दिया,और उसमें पड़ी चांदी वाली डिबिया निकाल
कर, उसे खोलकर दिखाया- छोटा सा,कोई ईंच भर घेरे की गोलाई वाला, ठीक छोटे आलू जैसा,किन्तु उसमें दो-दो ईंच
के रोयें का गुच्छा निकला हुआ, डिबिया में रखे पीले सिन्दरू से लिपटा-सना सा। मैंने हाथ में लेकर दे खा- अद्भत

सुगन्ध नथुनों में बरबस घुसा जा रहा था। बाबा ने कहा-

“ इसे सियारसिंगी कहते हैं। संस्कृत नाम श्रग


ृ ालश्रंग
ृ ी है । जांगम द्रव्यों में श्रग
ृ ालश्रंग
ृ ी एक अद्भत
ु और अलभ्य पदार्थ
है ।सियार के सभी पर्यायवाची शब्दों- जम्बुक,गीदड़ आदि से जोड़कर इसके भी पर्याय प्रचलित हैं;किन्तु सियारसिंगी
सर्वाधिक प्रचलित नाम है । आमलोग तो इसके होने पर ही संदेह व्यक्त करते हैं- कुत्ते-सियार के भी कहीं सींग होते
हैं? किन्तु तन्त्र शास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी जानता है कि सियारसिंगी कितना महत्त्वपर्ण
ू तान्त्रिक वस्तु
है । शहरी सभ्यता और पश्चिमीकरण ने नयी पीढ़ी के लिए बहुत सी चीजें अलभ्य बना दी हैं।बहुत सी जानकारियां
अब मात्र किताबों तक ही सिमट कर रह गयी हैं,अपना अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान अति संकीर्ण हो गया है । चांद और
मंगल की बातें भले कर लें,जमीनी अनुभव के लिए भी "विकीपीडिया" तलाशना पड़ता है ।

बहुत लोगों ने तो सियार दे खा भी नहीं होगा । चिड़ियाघर में शेर की तरह इन बेचारों को स्थान भी शायद ही मिला
हो,फिर शहरी बच्चे दे खें तो कहां? सियार काफी हद तक कुत्ते से मिलता-जल
ु ता प्राणी है ,किन्तु कुत्ते से स्वभाव में
काफी भिन्न। एक कुत्ता दस
ू रे कुत्ते को दे खकर गुरगरु ायेगा, क्यों कि उसमें थोड़ी वादशाहियत है ,शेखी है ।कुत्ता बहुत
समूह में रहना पसन्द नहीं करता,जब कि सियार बिना समूह के रह ही नहीं सकता। उसकी पूरी जीवन-चर्या ही
सामूहिक है । दे हात से जुड़े लोगों को सियार का समूहगान सुनने का अवसर अवश्य मिला होगा। वन्य-झाड़ियों में
माँद(छोटा खोहनुमा) बनाकर ये रहते हैं।दिन में प्रायः छिपे रहते हैं,और शाम होते ही बाहर निकल कर "हुआ ... हुआ"
का कर्क श कोलाहल शुरु कर दे ते हैं। सियारों के इस समूह में ही एक विशेष प्रकार का नर सियार होता जो सामान्य
सियारों से थोड़ा हट्ठा-कट्ठा होता है । अपने समह
ू में इसकी पहचान मखि
ु या की तरह होती है ,आहार-विहार-व्यवहार भी
वैसा ही।फलतः डील-डौल में विशिष्ट होना स्वाभाविक है ।अन्य सियारों की तुलना में यह थोड़ा आलसी भी होता है -
बैठे भोजन मिल जाय तो आलसी होने में आश्चर्य ही क्या? खास कर रात्रि के प्रथम प्रहर में यह अपने माँद से
निकलता है । विशेष रुप से कर्क श संकेत-ध्वनि करता है ,जिसे सन
ु ते ही आसपास के मांदों में छिपे अन्य सियार भी
बाहर आ जाते हैं,और थोड़ी दे र तक सामूहिक गान करते हैं- वस्तुतः भोजन की तलाश में निकलने की उनकी योजना,
और आह्वानगीत है यह। सामूहिक गायन समाप्त होने के बाद सभी सियार अपने-अपने गन्तव्य पर दो-चार की
टोली में निकल पड़ते हैं,किन्तु यह महन्थ(मखि
ु या)यथास्थान पर्व
ू वत हुँकार भरते ही रह जाता है । यहां तक कि प्रायः
मूर्छि त होकर गिर पड़ता है । ”

बाबा सियार के बारे में कह रहे थे। मैं मन ही मन मस्


ु कुरा रहा था,कि ये मझ
ु े और गायत्री को भी पक्का महानागर
ही मान लिये हैं।किन्तु कह न सका कि चन्द दिनों से दिल्ली में रहकर मैं पक्का शहरी कब हो गया ! कितने सियार
खदे ड़े हैं बचपन में – कोई हिसाब है ! सियारसिंगी नाम भी सुना-जाना सा है ,किन्तु दे खने का मौका आज ही लगा है ।
अतः उत्सक
ु ता तो बनी ही हुयी थी।

बाबा ने बतलाया- “...इसी महन्थ के सिर पर (दोनों कानों के बीच) एक विशिष्ट जटा सी होती है ,जिसे सियारसिंगी
कहते हैं। गोल गांठ को ठीक से टटोलने पर उसमें एक छोटी कील जैसी नोक मिलेगी,जो असलियत की पहचान है ।
भें ड़-बकरे की नाभी भी कुछ-कुछ वैसी ही होती है ,पर उसके अन्दर यह नोकदार भाग नहीं होता। जानकार शिकारी वैसे
समय में घात लगाये बैठे रहते हैं- पास के झरु मुटों में कि कब वह मूर्छि त हो। जैसे ही मौका मिलता है ,झटके से उसकी
जटा उखाड़ लेते हैं। चारों ओर से रोयें से घिरा गहरे भरू े (कुछ छींटेदार) रं ग का,करीब एक ईंच व्यास का गोल गांठ –
दे खने में बड़ा ही सुन्दर लगता है । एक सींग का वजन करीब पच्चीस से पचास ग्राम तक हो सकता है । तान्त्रिक
सामग्री बेचने वाले मनमाने कीमत में इसे बेचते हैं। वैसे पांच सौ रुपये तक भी असली सियारसिंगी मिल जाय तो लेने
में कोई हर्ज नहीं। ध्यातव्य है कि ठगी के बाजार में सौ-पचास रुपये में भी नकली सियारसिंगी काफी मात्रा में मिल
जायेगा। रोयें,रे शे,वजन, सब कुछ बिलकुल असली जैसा होगा,असली वाला दर्ग
ु न्ध भी होगा,सुगन्ध भी। वस्तुतः
सियार की चमड़ी में लपेट कर सुलेसन से गांठदार बनाया हुआ, मिट्टी-पत्थर भरा होगा। कस्तूरी और सियारसिंगी के
नाम से आसानी से बाजार में बिक जाता है । सच्चाई ये है कि कस्तरू ी तो और भी दर्ल
ु भ वस्तु है ,जो मल
ू तः, मग
ृ की
नाभि से प्राप्त होता है । अतः धोखे से सावधान ।
“...वैसे तो ये सब तन्त्र की बातें बहुत ही गोपनीय है । हर कोई इसे जानने का अधिकारी भी नहीं है , पता नहीं कौन
कब किस वस्तु का दरु
ु पयोग कर बैठे। यही कारण है कि योग्य शिष्य को ही इसका ज्ञान दे ने की बात कही जाती है
ग्रन्थों में । किन्तु दे खता हूँ कि इस गोपनीयता से भी तन्त्र-विद्या की क्षति हो रही है । एक ओर तन्त्र-मन्त्र के नाम पर
ठगी का बाजार गरम है ,तो दस
ू री ओर तन्त्र का सही अर्थ भी खो सा गया है । आम आदमी जो थोड़ा भी समझदार,पढ़ा-
लिखा है ,सीधे मान लेता है कि तन्त्र बहुत ही घटिया चीज है । इस विषय पर हम कभी बाद में विस्तार से बातें करें गे।
अभी सिर्फ इस अद्भत
ु वस्तु की साधना की संक्षिप्त चर्चा किये दे ता हूँ। तम
ु अखबारी लोग तो आसानी से इन बातों में
विश्वास करने वाले नहीं हो,किन्तु हम दे ख रहे हैं कि गायत्री को उत्सुकता अधिक हो रही है जानने की, और दे भी रहे हैं
इसे ही। इसकी साधना प्रक्रिया कोई जटिल और खतरनाक नहीं है , इस कारण कह-बतला दे ने में भी कोई हर्ज नहीं है ।

“...असली सियारसिगीं जब कभी भी प्राप्त हो जाय,उसे सुरक्षित रखकर, शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा करे । वैसे
अन्य नवरात्रों में भी साधा जा सकता है । गंगाजल से सामान्य शोधन करने के पश्चात ् नवीन पीले वस्त्र का आसन
दे कर यथोपलब्ध पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करें । तत्पश्चात ् श्रीशिवपंचाक्षर एवं दे वी नवार्ण मन्त्रों का कम से
कम एक-एक हजार जप कर लें। इतने से ही सियारसिंगी प्रयोग-योग्य हो गया। प्रयोग के नाम पर तो "बहुत और
व्यापक" शब्द लगा हुआ है ,किन्तु गिनने पर कुछ खास मिलता नहीं। बस एक ही मूल प्रयोग की पन
ु रावत्ति
ृ होती है ।
सियारसिंगी बहुत ही शक्ति और प्रभाव वाली वस्तु है । पज
ू न-साधन के बाद इसे एक डिबिया में (चांदी की हो तो अति
उत्तम) सुरक्षित रख दे ना चाहिये। जैसा कि ये रखा हुआ है । रखने का सही तरीका यही है कि डिबिया में पीला कपड़ा
बिछा दे । उसमें सिन्दरू भर दे ,और साधित सियारसिंगी को स्थापित करके,पन
ु ः ऊपर से सिन्दरू भर दें । नित्य
पंचोपचार पज
ू न किया करें । पज
ू न में सिन्दरू अवश्य रहे । इस प्रकार सियारसिंगी सदा जागत
ृ रहे गा। यह जहां भी
रहे गा, वास्तुदोष, ग्रहदोष आदि को स्वयमेव नष्ट करता रहे गा। किसी प्रकार की विघ्न-वाधाओं से सदा रक्षा करता
रहे गा। सियारसिंगी की उस डिबिया से निकाल कर थोड़ा सा सिन्दरु अपेक्षित व्यक्ति को अपेक्षित उद्देश्य (तन्त्र के
षटकर्म) से दे दिया जाय तो अचक
ू निशाने की तरह कार्य सिद्ध करे गा- यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है । प्रयोग करते
समय चुटकी में उस खास सिन्दरू को लेकर बस पांच बार पूर्व साधित दोनों मंत्रों का मानसिक उच्चारण भर कर लेना
है - प्रयोग के उद्देश्य और प्रयुक्त के नामोच्चारण के साथ-साथ। किन्तु ध्यान रहे - इस दर्नि
ु वार वस्तु का दरु
ु पयोग
बिना सोचे समझे (नादानी और स्वार्थ वश) न कर दे ,अन्यथा एक ओर तो कार्य-सिद्धि नहीं होगी,और दस
ू री ओर वह
साधित सियारसिंगी सदा के लिए निर्बीज(शक्तिहीन)हो जायेगी। शक्तिहीनता का पहचान है कि उसमें से अजीब सा
दर्ग
ु न्ध निकलने लगेगा- सड़े मांस की तरह,जब कि पहले उस साधित सियारसिंगी में एक आकर्षक मदकारी-
मोदकारी सुगन्ध निकला करता था- दे वी-मन्दिरों के गर्भगह
ृ जैसा सुगन्ध। अतः सावधान- स्वार्थ के वशीभूत न हो।

“...प्रसंगवश यहां एक बात और स्पष्ट कर दं ू कि सियारसिंगी की साधना में जो सिन्दरू प्रयोग किया जाय वह असली
सिन्दरू ही हो,क्यों कि आजकल कृत्रिम पदार्थों से तरह-तरह के सस्ते और महं गे सिन्दरू बनने लगे हैं,जो शोभा की
दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण हों,किन्तु पूजा-साधना में उनका कोई महत्व नहीं है । नकली सिन्दरू के प्रयोग से साधना
निष्फल होगी- इसमें जरा भी संदेह नहीं। फिर कभी मौका मिलने पर मैं तुम्हें असली सिन्दरू के बारे में भी
बतलाउं गा,और हो सका तो सिन्दरू बनाने का तरीका भी। फिलहाल तो इसे डिबिया में बन्द करदो,और ले जाकर
पूजा-स्थान में रख दो; और मुझे इज़ाजत दो। रात बहुत बीत चुकी है । तुमलोग अब आराम करो।”- इतना कह कर
बाबा उठ खड़े हुए।

“ इतनी रात गये कहाँ जाओगे भैया ? क्या यहीं सो नहीं सकते ? किस बात के संकोच में हो ? मैं उधर सोफे पर
सो रहूँगी,और तुमदोनों यहाँ चौकी पर आराम करो । इतनी बड़ी चौकी है ,दोनों तो हवा पहलवान ही हो। ” – गायत्री ने
हँस कर कहा।

“नहीं...नहीं गायत्री ! संकोच काहे का ! अपनों के बीच संकोच और औपचारिकता का कोई जगह नहीं होना चाहिए।
बात दरअसल कुछ और है । गह
ृ त्यागी के लिए किसी गह
ृ स्थ के यहाँ वास करना भी उचित नहीं है । मिलना-जल
ु ना और
बात है । अब ये सिलसिला लगभग जारी रहे गा।जब भी अवसर होगा,आकर तुमलोगों से मिला करुँ गा। अभी तो
रुकसत करो। ”

इतना कहकर बाबा निकल गये। नीचे गेट तक छोड़ने के लिए हमदोनों भी गये। विदाई के प्रणामपाती-कृत्य में पीठ
ठोंकते हुए बाबा ने कहा- “अरे इतनी दे र हमलोग गपशप करते रहे । अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा,और न तुम
बतलाये ही।”- फिर अपने आप में बद
ु बद
ु ाये- “ छोडो भी, नाम में क्या रखा है । काम से मतलब है । मझ
ु े तम
ु से बहुत
काम लेना है । करोगे न?”

मैंने हाँ में सिर हिलाया। बाबा विदा हो गये। हमदोनों ऊपर आकर सोने

का उपक्रम करने लगे, किन्तु नींद और आँखों की संगति दे र तक भी, बैठ न पायी। बाबा के विषय में ही बातें करते-
करते सबेरा हो गया।

दिन अपने अंदाज में गुजरता रहा- वही घिसे-पिटे क्षण,मिनट और घंटे। दो सप्ताह गुजर गये। हमलोगों को बाबा
का इन्तजार रहा,पर बाबा नहीं आये। उनका दिया हुआ दोनों कृपा-प्रसाद— मोतीशंख और सियारसिंगी गायत्री के
नित्य उपासना में शामिल हो चुके थे। अपने भाग-दौड़ भरी जिन्दगी से समय चुराकर, मैं भी कभी-कभार मिनट-दो
मिनट गायत्री के साथ ही बैठ लिया करता था उपासना में । उपासना क्या ! कुछ दे र आँखें बन्द कर, खल
ु ी आंखों वाली
हरकतें ही करते रहना- ये क्या कोई उपासना है ,साधना है ,ध्यान है ?—खुद से ये सवाल करता,पर कोई जबाव तो था
नहीं मेरे पास,अतः करते रहता,जो प्रायः दनि
ु या के बहुत से लोग करते रहते हैं,और स्वयं ही साधक होने का सेहरा भी
बांध दे ते हैं। साधना क्या है ,कैसे की जाती है - जानने के लिए मन हमेशा ललकता रहा है । किन्तु कोई योग्य व्यक्ति
मिला नहीं,जिससे कुछ जान-सीख सकंू । बाबा से मुलाकात के बाद, अचानक लगा कि अब कुछ पते की बात होगी,पर
बाबा हवा के झोंके की तरह आये,और उड़ गये।
एक दिन चिड़ियाघर के पास कुछ घटना हो गयी। ‘स्टोरी कवर’ करने के लिए मुझे ही जिम्मेवारी मिली। ड्यूटी
बजाकर,थका शरीर,और बोझिल मन लिए पैदल ही चल दिया डेरे की ओर। रास्ते में ही शनि मन्दिर पड़ता था। उस
दिन शनिवार भी था। काफी भीड़ होती थी शनि-मन्दिर में । कभी-कभी मुझे भी लगता कि मन्दिर जाना चाहिये, दे वी-
दे वताओं का दर्शन करना चाहिए। गायत्री भी उलाहने के लहजे में उपदे श दे दिया करती- ‘ तुमको तो मन्दिर-वन्दिर से
वास्ता नहीं रहता,किसी पर विश्वास और भरोसा ही नहीं। दनि
ु या क्या पागल है ,जो दौड़ लगा रही है ?’

हालाकि मैं कौन होता हूँ दनि


ु या को पागल कहने वाला;किन्तु औरों की तरह आस्तिकता ओढ़ लेना भी नहीं भाता।
क्या सच में लोग इतना आस्तिक हैं? इतनी आस्था है ईश्वर पर ? तो फिर वो ईश्वर कहाँ है ,जिसे हम मन्दिर,
मस्जिद,गिरजाघरों में ढूढते फिर रहे हैं? आज तक दीखा किसी को? क्या चार हाथ,दश हाथ,अठारह हाथ वाला विविध
स्वरुप ही ईश्वर है ? किन्तु भीतर से हमेशा यही आवाज आती- दनि
ु या सच में पागल नहीं फिर भी, मूर्ख और अज्ञानी
तो जरुर है । ईश्वर के ये सारे तथाकथित स्वरुप उसके कल्पना प्रसूत हैं। संसार की अलभ्य वस्तुओं के लिए उसने
स्वर्ग की कल्पना की। और स्वर्ग की कल्पना हो जाने के बाद,नरक की कल्पना तो आसान हो जाती है - स्वर्ग के ठीक
विपरीत नरक की मानसी सष्टि
ृ सहज हो जाता है । मुझे यही लगता है कि मनष्ु य अपनी सांसारिक
वासनाओं(इच्छाओं) की भूख लिये भिखारियों की तरह झोली फैलाता है - किसी मूर्ति के सामने,और इसी को पूजा
समझता है । सर्वव्यापी,सर्वशक्तिमान ईश्वर तो अमर्त
ू है ,फिर इस मर्ति
ू में हम क्या ढूढते हैं ? जो सब कुछ जानता
है ,उसे हम क्या जनाने की कोशिश करते हैं? पत्रंपुष्पंफलंतोयं तुभ्यमेव समर्पयेत ् – उसकी ही तो सारी चीजें हैं,फिर उसे
ही अर्पण करने का क्या औचित्य ? तो क्या मैं भी उसी का नहीं हूँ? यदि हूँ,तो खुद को ही क्यों नहीं अर्पित कर दे ता?
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शच
ु ः।।- ये अद्भत
ु संदेश है कृष्ण का !
आह्वान है कृष्ण का ! सबकुछ त्याग कर अपनी शरण में आजाने की बात कर रहे हैं । फिर ये अक्षत,फूल,पत्र, पष्ु प,
धूप,दीप,नैवेद्य- ये आलंकारिक पूजा? ये बड़े-बड़े यज्ञ ! यज्ञों में दिये जाने वाले विविध बलि विधान भी ….क्या है ये
सब ? और तो और, बद्ध
ु ,महावीर, पैगम्बर मह
ु म्मद, ईशा सबने तो यही कहा –मर्ति
ू से बाहर आकर,मर्ति
ू को त्याग कर;
स्वयं में भीतर घुसकर, उपासना का सही मार्ग दर्शन कराया, और हम कितने मूर्ख हैं कि उन मार्गदर्शकों की ही मूर्ति
बनाकर उपासना करने बैठ गये। क्या कृष्ण ने कभी कहा कि मेरी मूर्ति बनाकर पूजो? उनके उपदे शों का सर्वश्रेष्ठ
ग्रन्थ—वेद-शास्त्र,उपनिषदों का सारभत
ू गीता-सर्वोपनिषदो गावो,दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सध
ु ीर्भोक्ता
दग्ु धं गीतामत
ृ ं महत ्।।— में तो नहीं कहा गया ऐसा। और उससे भी मजे की बात है कि ये तुम्हारी मूर्ति...ये मेरी
मूर्ति...ये तुम्हारा ईश्वर...ये मेरा ईश्वर...अखिल ब्रह्माण्ड का रचयिता, क्या अलग-अलग है मेरा... उसका...उसका ?
कृष्ण और बुद्ध में अन्तर क्या है ? रास्ते का ही तो फर्क है ! मंजिल तो एक ही है सबका फिर ये झगड़ा किस बात का?
चलो,जाओ अपने रास्ते से- राह पकड़ तू एक चला चल,पा जायेगा मधुशाला- कविवर बच्चन ने क्या शरावखाने का
रास्ता दिखलाया है ? कहते हैं, जन्नत में शराब की दरिया है । पीओ जी भरकर,जितना पी सको। किसी ने कहा था एक
बार कि ये इशारा किसी दिव्य पेय का है ,जिसका कोष कभी रिक्त नहीं होता। किन्तु इसे पाया कैसे जाय- समझ नहीं
आता।
ऐसे ही विविध द्वन्द्वों से मैं हमे शा जूझते रहा हँ ।ू उस दिन भी यही कुछ उमड़-घु मड़ रहा था मन में ,और पां व धीरे -धीरे
शनि-मन्दिर की ओर बढ़े जा रहे थे ।

शनि-मन्दिर में पहुँचने के लिए तेइस सीढ़ियां तय करनी होती थी। किसी जानकार ने बड़े ही सोच-विचार कर इसका
निर्माण कराया होगा। शनि के लिए जप की संख्या भी तेइस हजार ही है न। इस तेइस का क्या चक्कर है - सोच रहा था,
सीढियां भी चढ़े जा रहा था। तीन-चार सीढी चढ़ा,तभी ध्यान गया-सीढियों से नीचे, बांयी ओर पंक्तिवद्ध भिखारियों की
जमघट पर।

अन्य दिनों दान न दे ने वाले भी शनिवार को दान जरुर करते हैं। ज्योतिष के अनुसार शनि की चाल और भावों पर
पकड़ शतरं ज के घोड़े जैसा खतरनाक है । बारह घरों में अधिकांश पर इनका प्रभुत्व किसी न किसी पाद वा दृष्टि से
बना ही रहता है । ये शनिदे व थोड़े कुपित ‘से’ दे व हैं न, ज्यादातर लोगों को परे शान करते हैं।

शनिदे व की कृपा से इस दिन भिखारियों की चांदी रहती है । खाने को दहीबड़े भी नसीब हो जाते हैं,लगाने के लिए तेल
भी मिल जाता है । कोई-कोई भक्त तो स्टील के कटोरे में भर कर तिल का तेल,और दहीबड़ा भी दे जाता है । पंडित जन
बताते हैं कि इस दिन भिखारियों को दान दे ना ब्राह्मण से भी अधिक महत्वपर्ण
ू है । ऐसे में भिखारियों की भीड़
स्वाभाविक है ।

भीड़ को निहारते हुए मैं अचानक ठिठक गया। एक परिचित सा चेहरा लगा। उत्सक
ु ता जगी। शनिदे व के दर्शन से भी
अधिक जरुरी लगा— उस चेहरे का दर्शन। तुरत उल्टे पांव सीढ़ियां उतर, उसके करीब गया। भिखारियों को लगा कि
कोई दान-दाता आ रहा है । सभी आवाज लगाने लगे, आतुर होकर, ताकि कहीं वे चूक न जायें। मैं उनकी आवाज को
अनसन
ु ा करते हुए आगे बढ़कर, उस चेहरे को गौर से दे खने लगा। यदि मेरी आँखें धोखा नहीं खा रही हैं,तो निश्चित ही
ये उपद्रवी बाबा ही हैं,जो अपने रूप को जरा और विकृत कर यहाँ भिखारियों की जमात में विराज रहे हैं—विचारते हुए
बिलकुल समीप जाकर टोका- ‘ उपेन्द्रबाबा ! आप यहाँ ?’ पहले उन्होंने मुझ पर ध्यान नहीं दिया था। शायद, किसी
और ही धन
ु में खोयें हों,अतः मेरी आवाज सन
ु कर चौंक गये। मेरी ओर गौर से दे खते हुए,क्षणभर को झिझके,या सिर्फ
मुझे ऐसा लगा कह नहीं सकता।

“अरे अखबारी बाबू ! तम


ु इधर,मन्दिर आये थे क्या? तम
ु तो कहते हो कि

मन्दिर वन्दिर जाता नहीं। आज क्या बात है ...?”- बात तो वे सोलह आना सही

कह रहे थे। मैं इतना निश्चित तौर पर जानता हूँ कि ईश्वर मन्दिरों में कैद रहने वाला नहीं है ,अतः उसे यहाँ छोड़ कहीं
और ही तलाशने की जरुरत है ।
‘जी,औरों की तरह नियमित मन्दिर सेवी मैं नहीं हूँ,मगर कोई कसम तो नहीं है कि जाऊँ ही नहीं। आज ऑफिस के
काम से इधर आना हुआ था। जी में आया कि जरा इधर भी होता चलँ ।ू ’- मैंने उनके प्रश्न का उत्तर दे ते हुए कहा-
‘पर,आप यहां क्या कर रहे हैं,भिखारियों के साथ?’

वे उठ खड़े हुए। बिछाया हुआ चट उठाकर,मोड़-माड़ कर वहीं पेड़ की डाल पर रख दिये, जहाँ पहले से ही एक बोरीनम
ु ा
झोला टं गा हुआ था। सामने रखा स्टील का गन्दा सा,बड़ा सा भिक्षा-पात्र पड़ा हुआ था,जो आधे से अधिक भरा हुआ
था,उसे भी उठा लिए। फिर बिना कुछ बोले, थोड़ा-थोड़ा निकाल कर पंक्तिवद्ध बैठे भिखारियों में बांटने लगे। पात्र
रिक्त हो जाने पर,मेरी ओर मख
ु ातिब हुए- “चलो,घर यानी डेरा जा रहे हो या कहीं और भी जाना है ? ”

‘नहीं बाबा,और कहीं नहीं जाना है । शाम हो रही है । सीधे डेरा ही जाऊँगा। चलिए ना आप भी।’- मेरे कहते ही,वे साथ हो
लिए।

“मैं भी सोच रहा था,बहुत दिन होगये,तुमलोगों से मिले हुए। आज रात से पहले वैसे भी मैं आता ही वहाँ। अच्छा हुआ
साथ मिल गये।”

‘एक बात पछ
ू ू ं बरु ा तो न मानेंगे ?’ – मैंने सवाल किया।

“एक क्या दस पूछो। बुरा क्यों मानने लगा ?” – चलते हुए बाबा ने कहा।

‘यहाँ,आपको इन भिखारियों की पंक्ति में बैठा दे ख मुझे बड़ा ही अजीब लगा। उस पर भी,जो कुछ भी भिक्षापात्र में
था सब,आपने इन्हीं में बांट दिया।’

मेरी बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “ यह तो मेरा रोजदिन का काम है । हर मन्दिर में भीड़-भाड़ का एक समय
होता है । कभी किसी मन्दिर में ,तो कभी किसी मन्दिर में । आज शनिवार को यहां भीड़ बहुत ज्यादा होती है ,जैसा कि
तुमने दे खा।”

सो तो मैंने दे खा ही,पर भिक्षा मांगना,और फिर भिखारियों में ही बांट भी

दे ना- ये बात मझ
ु े समझ नहीं आयी।

गतांश से आगे...पांचवां भाग

“ये कोई रहस्य जैसी बात नहीं है । अहं को विसर्जित करने का एक उत्तम

मार्ग भर है । मैं अपने लिए तो भीख मांगता नहीं, इतनी रकम भीख में मिलती है , उसे रख कर भी क्या करना है , कौन
कहें कि महल उठाना है । दो रोटी का जुगाड़ उपर वाला किसी न किसी तरह कर ही दे ता है । भीख में प्राप्त रकम में से
उतने ही अपने लिए रखता हूं , जितने में रोटी मिल जाय,शेष पैसे इनमें ही बांट दिया करता हूं। प्रतिदिन का यही काम
है ।”

किन्तु ,अहं का विसर्जन ? मैं कुछ समझा नहीं।

“ हाँ, अहं यानी अहं कार का विसर्जन- अहं करोति इति अहं कारः। यही मनुष्य का सर्वाधिक बलवान शत्रु है , ममता
इसकी जननी है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर- ये छः इसके छोटे भाई हैं। ये क्रमशः विचित्र प्रकार का ‘व्यूह’ -
‘उत्तरोत्तरशक्तिमान व्यह
ू ’ बना कर पंक्ति वद्ध रुप से खड़े हैं। सबसे पहले है - काम, उसके बाद क्रोध,उसके पीछे
लोभ,उसके पीछे मोह,उसके पीछे मद, उसके पीछे मत्सर, और सबसे अन्त में खड़ा है यह विकराल अहं कार। कमाल
की बात ये है कि ये सातो भाई उत्तरोत्तर सौगुना बलवान हैं,यानी काम से सौ गुना बलवान क्रोध,है , क्रोध से सौगुना
बलवान लोभ है ,लोभ से सौ गन
ु ा बलवान, मोह है ,मोह से सौ गन
ु ा बलवान मद है ,मद से सौगन
ु ा बलवान मत्सर है ,और
मत्सर से भी सौगुना बलवान है यह अहं कार। और इससे भी आश्यर्य की बात ये है कि शक्ति में जैसे-जैसे बलवान होते
गये हैं- उत्तरोत्तर, ठीक इसके विपरीत,आकार में सूक्ष्म होते गये हैं। इसे तुम यूं समझो कि वालू की भीत के पीछे
कच्ची मिट्टी की भीत है ,जो बालू वाली भीत से अपेक्षाकृत छोटी है ,फलतः यदि हम सामने खड़े होकर दे खते हैं,तो सिर्फ
बालू वाली भीत ही दिखायी दे गी। इसी भांति कच्ची मिट्टी वाली भीत के ठीक पीछे पक्की ईंटों वाली भीत भी है ,जो
पहले वाली से छोटी है । किन्तु है तो मजबूत न। उसके पीछे कंकरीट की भीत,थोड़ी छोटी,और उसके पीछे लोहे की भीत
है , उससे भी छोटी। इस प्रकार आकार तो छोटा होते जा रहा है ,जिस कारण सामने खड़ा रह कर दे ख पाना कठिन हो
रहा है ,किन्तु ताकत में तो उत्तरोत्तर बलवान है - हर अगली भीत ? यही कारण है कि इन्हें पहचानने में अच्छे अच्छों
को भी भ्रम हो जाता है । छठी मंजिल तक पहुंच कर भी सबसे बलवान शत्रु- अहं कार पराजित नहीं होता। एक तो उसकी
ताकत सबसे ज्यादा है ,और दस
ू री बात है दे खने, समझने, पहचानने में असुविधा।”

‘किन्तु मैंने तो सुना है कि काम मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है ।’- मैंने संशय व्यक्त किया।

“दरअसल, हम आकार से किसी को पहचानने के आदी हैं,और आकार में तो काम सबसे बड़ा है ही- इसमें कोई
दो राय नहीं। तुमने यह भी सुना होगा कि मरणं विन्द ु पातेन ् जीवनं विन्द ु धारयेत ्- वीर्य का एक बूंद-पातन भी मरण
समान है । इसका गणित भी बड़ा अजीब है । इसे ठीक से समझो । हमारा यह शरीर सात धातओ
ु ं से बना हुआ है । सात
धातु यानी सोना-चांदी नहीं। सात धातु हैं-रस,रक्त, मांस, मेद्य, अस्थि,मज्जा और शुक्र। हम जो भी भोजनादि ग्रहण
करते हैं, उससे रस निचोड़ कर हमारा शरीर ग्रहण कर लेता है , और अवशिष्ट (सिट्ठी)को मल के रुप में विसर्जित कर
दे ता है । उस रस का भी शोधन होता है ,उससे भी मल निकलता है ,उसका भी विसर्जन,उत्सर्जन हो जाता है । रस के
शोधन के पश्चात ् रक्त का निर्माण होता है ,पन
ु ः उसका शोधन, और उसके मलभाग का विसर्जन होता है ,तब मांस का
निर्माण होता है । मांस के शोधन,और उसके मलभाग के विसर्जन के बाद मेद्य का निर्माण होता है । मेद्य के
शोधन,और उसके मलभाग के उत्सर्जन के बाद अस्थि का सज
ृ न होता है । अस्थि का शोधन और उसके मलभाग का
विसर्जन होकर मज्जा धातु का निर्माण होता है । और अन्त में मज्जा का शोधन,और उसके मलभाग का विसर्जन
होकर शुक्र का निर्माण होता है । इस प्रकार आहार के रुप में ग्रहण किये गये भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, लेप्य,चौष्य,चर्व्य
आदि विविध पदार्थो का क्रमशः रसादि सात धातुओं में परिवर्तन,और आवश्यकतानुसार संग्रह होते रहता है हमारे
शरीर में । कोई भी धातु जरुरत से ज्यादा संग्रहित न होकर,अगली धातु में परिवर्तित हो जाता है । इसका परिणाम
होता है कि पूर्व का कोई भी धातु विकृत होने से बच जाता है । और अन्तिम धातु शुक्र भी शोधित होकर ओज में
परिवर्तित होकर ‘तेजपञ्
ु ज’ बन जाता है । तम
ु ने दे खा होगा- संत महात्माओं का लिलार चमकते रहता है ,चेहरे पर
अद्भत
ु आभा होती है । स्वस्थ सबल शरीर दमकते रहता है ,बिना किसी प्रसाधनिक क्रीम-पाउडर के। इस ओज की कोई
सीमा नहीं है । यह निःसीम है । ध्यान दे ने की बात है कि ओज बनने के लिए बीर्य का सघन होना आवश्यक है । वैसे ही
जैसे दध
ू को सघन कर के खोवा बनाते हैं,किन्तु ठीक खोवे से उपमा दे ना भी उचित नहीं,क्यों कि यह सघनता शोधन-
प्रक्रिया की है । अतः यदि इसे हम रोज-रोज के सम्भोग में बरबाद करते रहें गे, व्यर्थ बहाते रहें गे, तो संग्रहित कहां से
होगा? और संग्रहित ही नहीं होगा,तो ‘संघनित’ होकर ओज कैसे निर्मित करे गा ? वीर्य की महत्ता के इसी सूत्र को
पकड़ कर हमारे संतों ने ब्रह्मचर्य को सर्वाधिक महत्व दिया है । किसी भी प्रकार की साधना का पहला सोपान है -
ब्रह्मचर्य।”

किन्तु महाराज,मैंने तो सन
ु ा है कि मैथन
ु के दौरान जो क्षरित होता है वह शक्र
ु कीट (Sperm) के साथ-साथ
पौरुषग्रन्थि (Prostetgland) का स्राव होता है । विशेष मात्रा उसी की होती है ।

“हाँ, यह भी गलत समझ नहीं है आधुनिक विज्ञान का। आधुनिक विज्ञान अभी अपने खोज में वहीं तक पहुँचा
है । और हम बात कर रहे हैं- उससे आगे की खोज वाली, जो हमारे महर्षियों ने खोज रखा है ।”

‘यानी कि काम के बेग को नियंत्रित करके,वीर्य की बरबादी रोकी जा सकती है ?’-मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।

“हाँ, करना तो यही है ,किन्तु करते हैं हम गलत तरीके से। काम के वेग को रोकने के लिए हम उस पर पहरा
बिठा दे ते हैं। उसके साथ जोर-जबरद्स्ती करने लगते हैं। काम का दमन करने लगते हैं- एक शत्रु की तरह। यदि उसे
हम मित्र बनाकर, बहला-फुसलाकर रखें,तो कभी घात नहीं करे गा। और,मित्र बनाने के लिए ठीक से पहचानना जरुरी
है उसे। एक बहुत बड़ी गलती हुयी है - इसे पहचानने में । समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे शरु
ु में ही शत्रु
कहकर,सम्बोधित कर दिया। और एक बार जो शत्रु बन जाता है ,उसे मित्र बनाना बड़ा दष्ु कर हो जाता है । साधना की
अभिलाषा लिए हमारे बन्धुजन आजीवन उस गलत परिचय प्राप्त ‘मित्र’ से लड़ने में ही गुजार दे ते हैं। काश ! उसका
सही परिचय दिया गया होता। जीवन के अन्तिम अवस्था में पहुँचे हुए किसी सन्यासी से भी जाकर पछ
ू ो,और यदि वह
सच बोलने का साहस रखता हो,तो यही कहे गा कि अभी तक वह काम से लड़ रहा है । सच में वह शत्रु मान लिये गये
काम से ही लड़ रहा होता है । उससे आगे एक पग भी साधना की डगर पर बढ़ ही नहीं पाया है । हमारी भलाई इसी में है
कि हम काम को मित्रवत स्वीकार करें ।”
लम्बी,गहरी चिन्तन परक बातें करते,पैदल चलते,हमलोग घर पहुँच गये। बाबा को दे ख कर गायत्री प्रफुल्लित
हो उठी- “ वाह भैया खब
ू आये जल्दी ही…।”

भैया तुम्हारे आये नहीं है ,लाये गये हैं। इसलिए आने का श्रेय इन्हें न दे कर,मुझे लाने की शाबासी दो। जल्दी से
कुछ खिलाओ-पिलाओ। बडी भख
ू लगी है ।

“मैं आज खीर बनायी हूँ, बस, पूड़ी बनाना बाकी है - गरम-गरम। मगर

सब्जी तो तुम लाये नहीं होगे। जाते वक्त मैं भी कहना भूल गयी थी।”

“तो क्या हुआ,खीर के साथ ही पूड़ी खा लिया जायेगा। वैसे भी मेरा ‘अलोन’ व्रत चल रहा है सप्ताह भर से।”-
बाबा ने सब्जी की समस्या हल कर दी,अपनी स्वीकृति दे कर।

‘ये अलोन व्रत का क्या औचित्य और महत्त्व है बाबा?’- मैंने पूछा।

बाबा ने कहा- “ये सही है कि शरीर को नमक और चीनी दोनों प्रचुर मात्रा में चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है कि ये सीधे
प्रत्यक्ष रुप से ही केवल प्राप्त होते हैं। अन्य विविध खाद्य पदार्थों के माध्यम से हम जितनी मात्रा शरीर को दे दे ते
हैं,उनसे भी शरीर की आवश्यकता परू ी हो जाती है लवण की। यदि अभ्यास से बिलकुल ही लवण का त्याग कर दें ,तो
भी शरीर की कोई क्षति नहीं होगी। चौबीस घंटों में अधिकतम पांच ग्राम लवण पर्याप्त है शरीर के लिए,जब कि आम
आदमी दो से चार गुणा अधिक दे दे ता है ,विविध रुप से। साधना की दृष्टि से नमक पथ्
ृ वी तत्त्व का प्रतिनिधित्व
करता है । पथ्
ृ वी का धर्म है स्थल
ू ता। इसकी अधिक मात्रा के संग्रह से शरीर भारी हो जाता है । स्थल
ू ता दोष की वद्धि

होने लगती है ।फलतः ‘उर्ध्वमनोदै हिक’ विकास रूक सा जाता है । अतः इसे संतुलित रखने के लिए बीच-बीच में लवण
रहित भोजन लेना चाहिए। इसके परित्याग से आन्तरिक सौरऊर्जा का विकास होता है । सूर्य से विशेष शक्ति अर्जित
करने में ये अद्भत
ु सहायक है । डॉक्टर लोग अपने अंदाज में इसे व्याख्यायित करते हैं। वे कहते हैं- धमनियां संकीर्ण
होती हैं,जिसके कारण रक्त परिभ्रमण वाधित होता है ।”

हमलोग हांथ-मंह
ु धोकर भोजन के लिए बैठ गये। गायत्री खीर-पड़
ू ी परोस लायी। भोजन के बाद बाबा ने कहा- “आज
फिर भोजन कराकर,तुमने मुझ पर एहसान लाद दिया।”

“किस बात का एहसान भैया ! एक दिन के भोजन के बदले तम


ु ने जो मझ
ु े दिया है ,उसका मल्
ू य जीवन भर भोजन करा
कर भी चुकता नहीं किया जा सकता। सच में अद्भत
ु गुण है ,उन दोनों सामग्रियों में । इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैं इन थोड़े
ही दिनों में करने लगी हूँ। पहला प्रभाव तो मेरे स्वास्थ्य पर पड़ा है । इनकी कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा डॉक्टर के
यहां चला जाता था।ऐसा शायद ही कोई दिन गज
ु रा हो,कि मैं कोई दवा न खायी होऊँ; किन्तु इधर चार दिनों से मैंने
कोई दवा
नहीं ली। मानसिक शान्ति और सुकून भी बहुत महसूस कर रही हूँ। ”- गायत्री के

कहने पर बाबा मुस्कुराये।

“दरअसल तुम्हारा ये जो आवास है न,अतिशय पीड़ित है वास्तुदोषों से। तुम्हारे घर का प्रवेश द्वार दक्खिन दिशा में
है । तुम्हारा भोजन नैर्ऋ त्य कोण में बनता है । उसी ओर मुंह करके तुमलोग भोजन करने बैठते भी हो। शयन कक्ष भी
वैसा ही बेढंगा है । अपने अधिकार-क्षेत्र में पड़ने वाले जमीन का मध्य भाग बोझल है ,उसे बोझ-मुक्त करने का भी कोई
उपाय नहीं दीखता। अब भला दो-ढ़ाई सौ बर्गफुट के आवास में आदमी चाह कर भी कितना निवारण करे वास्त-ु दोषों
का। नतीजा ये होता है कि अज्ञान में या लाचारी में आदमी झेलता रहता है इसके परिणामों को। वो जो सियारसिंगी
और मोतीशंख मैंने दिये हैं तुम्हें ,उससे इन दोषों का मार्जन होना शुरु हो गया है । स्वास्थ्य ठीक हुआ,तो दवा के पैसे
बचें गे,साथ ही मानसिक शान्ति भी मिलनी ही है । बहुत जल्दी ही और भी परिवर्तन महसस
ू करोगी अपने जीवन में ।
विकास के अनेक मार्ग खुलते नजर आयेंगे।”

“सो तो ठीक है ,तुम्हारी कृपा रही तो सबकुछ हो जायेगा; किन्तु मैं अपने

स्वार्थ वश नहीं,बल्कि स्नेहवश कह रही हूँ,तम


ु यहां-वहां क्यों भटकते फिरते हो ? निःसंकोच यहीं आ जाओ।” - गायत्री
के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए मैंने,आज वाली घटना का जिक्र किया कि किस स्थिति में बाबा से मुलाकात हुयी।
जानकर गायत्री बहुत दःु खी हुयी,उसे तो इसका रहस्य पता था नहीं।

बाबा ने गायत्री को समझाया - “इसमें तुम्हें दःु खी होने की आवश्यकता नहीं। यह तो मेरी साधना का अंग है । वैसे भी
मेरे जैसे अभ्यासी साधक को सीधे गह
ृ स्थी के अधिक सम्पर्क में नहीं रहना चहिए। सिद्ध और साधक में बहुत अन्तर
होता है ।”

मैं पन
ु ः विषय पर आना चाहता था,जो डेरा पहुँचने पर रुक गया था,और भी कई सवाल घुमड़ रहे थे मस्तिष्क
में ,जिनमें एक था- बाबा का अद्भत
ु ज्ञान,जब कि कहते हैं कि ठीक से स्टे ल-पेन्सिल भी नहीं पकड़े हैं। अतः मैंने फिर
छे ड़ा- ‘आप तो कहते हैं - अंगूठा छाप हूँ, बामुश्किल हस्ताक्षर भर कर पाता हूँ ,फिर ये जो हर विषय पर अधिकार पूर्वक
बोला करते हैं,उसका क्या रहस्य है ?’

मेरी बात पर बाबा मुस्कुराये,और इत्मिनान से चौकी पर बैठते हुए कहने

लगे – “ तुम क्या समझते हो ये ज्ञान किताबों और विद्यालयों का दास है ? बिलकुल नहीं। किताबें, और विद्यालय
जानकारियों के बाहक भर हैं। ये केवल संग्रहित जानकारियों को साझा करते हैं। ज्ञान यहाँ से हासिल नहीं होता। तुमने
सन
ु ा होगा- शिकागो धर्मसम्मेलन में भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द एक जर्मन प्रोफेसर से मिलने गये, क्यों
कि उनकी अनुशंसा आवश्यक थी। उनके घर पहुँचकर,द्वार पर दस्तक दिये। दो-तीन बार के दस्तक की भी कोई
प्रतिक्रिया न हुयी,क्यों कि प्रोफेसर महोदय किसी पुस्तक में तल्लीन थे। चौथी बार विवेकानन्द ने शिष्टता पूर्वक
आवाज लगायी। इस बार प्रोफेसर की नजरें ऊपर उठी। अन्दर आने का आदे श दिया। बैठते हुए,अपना परिचय और
उद्देश्य स्पष्ट करने के बाद स्वामी जी ने एक सवाल किया- ‘क्या मैं जान सकता हूँ कि आप किस विषय में इतने
तल्लीन थे कि मेरे द्वारा बारबार दस्तक दिये जाने पर भी ध्यान भंग न हुआ?’ प्रत्युत्तर में प्रोफेसर ने कहा कि आज
कई दिनों से एक समस्या सुलझाने के प्रयास में हूँ ,किन्तु समाधान मिल नहीं रहा है ...।

“....स्वामी जी ने पन
ु ः आदे श मांगा- ‘यदि मुझे दे खने-जानने योग्य है ,तो कृपया इस पुस्तक को मुझे दे खने दें । हो
सकता है ,इसमें मैं आपकी मदद कर सकँू ।’ जिस पर प्रोफेसर ने कहा कि दे खने- जानने में तो कोई आपत्ति
नहीं,किन्तु यह

पस्
ु तक जर्मन भाषा में लिखी हुयी है । क्या आप जर्मन जानते हैं ?

“…स्वामी जी ने कहा कि जानता तो नहीं हूं,किन्तु प्रयास करने में क्या हर्ज है ।

“…उन्होंने पुस्तक स्वामीजी की ओर बढ़ा दी। विवेकानन्द ने आदर पूर्वक पुस्तक को लेकर, अपने ललाट से लगाया,
और फिर उलट-पल
ु ट कर थोड़ी दे र दे खने के बाद, वापस कर दिया। फिर इत्मिनान से बैठते हुए,उनकी समस्या पर
चर्चा करने लगे। गहन चर्चा हुयी। प्रोफेसर अवाक था। जिस समस्या से वह तीन-चार दिनों से जझ
ू रहा था,उसे
स्वामीजी ने चुटकी बजाकर हल कर दिया,जब कि इस भाषा और लिपि का भी ज्ञान नहीं है ।

“…ज्ञान किसी भाषा,लिपि,और पुस्तक का मोहताज़ नहीं है । योग मार्ग में ऐसे अनेक सूत्र हैं,जिन्हें साध कर किसी
पुस्तक का ज्ञान सहज ही किया जा सकता है । स्वामीजी ने भी वही किया । ये जो ललाट है न,मानव शरीर का बहुत ही
महत्वपर्ण
ू अंग है । भीतर जाने का सर्वोत्तम सहज द्वार भी यहीं है । विधियां और स्थान तो कई हैं,किन्तु इसे सबसे
निरापद,सरल,और सुसाध्य कहना चाहिए। हो सका तो किसी योग्य काल में इसके बारे में और भी बातें करुं गा,और
तुम्हें इस मार्ग से प्रवेश की विधि भी बतलाऊँगा। अभी तो मुझे लगता है कि तुम आज वाले विषय में ही उलझे हुए हो।
परू ी बात स्पष्ट रुप से गले में उतर नहीं पायी है ।”

बाबा ने सच में मेरे मन की बात छे ड़ दी। आज की बात अहं कार के विसर्जन से शुरु हुयी थी,और उसके सबसे छोटे भाई
काम पर आकर ठहर गयी थी। बाबा ने बड़े-बड़े संन्यासियों की समस्या का जिक्र किया था। आंखिर क्यों ऐसा होता
है ,क्यों अपने अन्तिम क्षणों तक साधक जझ
ू ते रह जाता है - इस प्रथम द्वार पर ही?

“ मैंने कहा था कि काम को मित्रवत स्वीकारने की जरुरत है ,शत्रव


ु त नहीं। तुमने रबर के गें द की हरकत को दे खा है
कभी गौर से- धरती की ओर उसे प्रेषित करते हैं,और वह दन
ू े वेग से पुनः ऊपर की ओर उठता है । यही हाल काम का है ।
शत्रु समझ कर हम उसे दमित करने में अपनी परू ी ऊर्जा खपा दे ते हैं। परिणाम ये होता है कि हर प्रेषण के साथ वह
अधिकाधिक बलवान होकर ऊपर उठता है ।”
‘आंखिर इसे मित्रवत कैसे स्वीकारा जाय महाराज?’- मैंने उत्सुक होकर पूछा।

बाबा ने कहा- “ शास्त्रों ने चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, गह


ृ स्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास की बात की है । ये बहुत ही वैज्ञानिक
व्यवस्था है । मनष्ु य की मानक पर्णा
ू यु सौ वर्ष को चार बराबर भागों में बांट कर पचीस-पचीस वर्षों की आश्रम व्यवस्था
कही गयी है । आजकल औसत आयु साठ से अस्सी वर्ष रह गयी है ,तद्नस
ु ार चौथाई-चौथाई भाग व्रह्मचर्य आदि चारों
आश्रमों के होने चाहिए। जब कि पश्चिम की दे खा-दे खी हो रहा है ठीक इससे उल्टा- तीस-पैंतिस में पढ़ाई-
लिखाई,नौकरी व्यवस्था से निश्चिन्त होकर,तब शादी की बात सोचते हैं,और इस मुकाम तक लड़के-लड़कियां कितना
ब्रह्मचर्य पालन कर पाते हैं- भगवान जाने। प्रथम आश्रम में यज्ञोपवीतादि दीक्षा लेकर,अध्ययन करने की बात कही
गयी है , तत्पश्चात ् विवाह बन्धन में बन्धकर सिर्फ विवाहिता पत्नी से ही सम्भोगरत होने का आदे श है , वो भी
मर्यादित ढं ग से। ये मर्यादा भी दे श-काल सापेक्ष कही गयी है । सम्भोग-काल को चन्द्रमा से जोड़कर,दिन,तिथियों का
निर्धारण किया गया है ,तो सूर्य से जोड़कर कालादि मान नियत किया गया है । तुलसीदास ने इसे बड़े ही ललित शब्दों
में वर्णित किया है - ‘दीप शिखा सम युवती तन,मन जन होसि पतंग। भजहिं राम तजि काम मद करहिं सदा सत्संग।।
काम,क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि,तिन्ह महँ अति दारुन दख
ु द मायारुपी नारि।।’ पत्नी के साथ भोग-विलास
करना है ,किन्तु पद्मपत्रमिवामभषा- कमल के पत्ते सदृश,जल में रह कर भी जल से अलग जैसी स्थिति बनाने की
जरुरत है । भोगो,भरपरू भोगो, किन्तु सदा ध्यान रहे - अनरु क्ति पतंगे वाली न हो कि दीपशिखा पर प्राण ही गंवा दे ।
नारी तो दीपक की लौ है ही। उसमें अनुरक्त होकर स्वयं को खपा मत दो। मैं पहले भी स्नेह और मोह पर तुमसे चर्चा
कर चुका हूँ। मैं निर्मोही होने नहीं कह रहा हूँ। निःसंग होने की बात कर रहा हूँ। ‘नारि नरक की खान ’- भी मेरा
अभिमत नहीं है । सोचने वाली बात है कि जो सष्टि
ृ की आधारशिला है ,वो नरक की खान कैसे हो सकती है ? किसी न
किसी नारी के गर्भ से ही पुरुष की उत्पत्ति होती है ,तो क्या पुरुष नरक से उपजा है ? जो आज किसी की पत्नी है ,वो
कल किसी की माता होने का सौभाग्य पायेगी। और माता होने के लिए पत्नी होना भी जरुरी है । मगर अफसोस, नारी
की अतिशय निन्दा भी की गई है ,उसमें हमारे संत कहे जाने वाले लोग ही अधिक हैं। अभी हाल में एक बहुत बड़े संत
हुए। लाखों की भीड़ जुटती- उनके प्रवचन सुनने के लिए। उनके संतत्व पर तो मैं कोई टिप्पणी नहीं करना
चाहता,किन्तु इतना जरुर कहना चाहता हूँ कि उन्हें नारी से घोर घण
ृ ा थी। भूल से भी कोई नारी चली आये उनके
समीप तो ,इतना अपमानित करते कि कोई गंड़
ु ा भी शरमा जाये। गाली बकने में महराथ हासिल था उन्हें । क्या ये
सन्त के लक्षण हैं? नारी के हर स्वरुप में महामाया का दर्शन नहीं कर पाये,और हर नारी उन्हें कामिनी ही दीखी??? ये
तो उनके आँखों की चूक है । मन का भ्रम है ,और इसी भ्रमजाल को अपने अनुयायियों में वितरित किया। जिसके पास
जो होगा, वही तो बांटेगा भी ! दमित काम का प्रबल वेग क्रोध का रुप बड़ी आसानी से ले लेता है ,क्यों कि उसके बाद का
भाई वही है न? इन स्थितियों को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘कुपित ब्रह्मचर्य का असाध्य रोगी’ कहा है ,अपने
एक औपन्यासिक प्रसंग में । जीवन भर शायद उन्होंने कुछ न किया,बस काम से लड़ने,और चेला मंडली के विस्तार में
गवां दिया...
“...नारी के ताड़नात्मक उपदे श ने ही तुलसी को तुलसीदास बना दिया....कामातुर विल्वमंगल को सूरदास; किन्तु
जटाजूट बढ़ाये,धूनी रमाये,चीवर-चिमटाधारी भगोड़ुओं से भी संसार पटा पड़ा है । क्या इन्हें सन्त कह सकते हो ? जो
गह
ृ स्थी का बोझ नहीं सम्भाल पाया,वो साधना का बोझ क्या सम्भालेगा ? घर-गह
ृ स्थी छोड़कर तो भाग गया,पर
संसार क्या छूटा कभी उससे? वो और भी अनुरक्त हो गया,आसक्त हो गया— कंचन-कामिनी में । आश्रम बनाकर
चेले-चेलियों की भीड़ इकट्ठी करने में हीरा जनम गंवा दिया। साधक को आश्रम की स्थापना,और संचालन की क्या
जरुरत पड़ गयी ? दरअसल वो परम स्वतन्त्र रहकर,ऐशोआराम की जिन्दगी गज़
ु ारने की ख्वाहिस रखता है , और वो
भी बिना मेहनत के। इसलिए ही ये सब करता है । साधना न उसका ध्येय होता है ,और न लक्ष्य...।”

बाबा पूरे प्रवाह में आगये थे। धर्म के नाम पर फैली सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार कर रहे थे। मैं चुप सुनता जा
रहा था। बहुत दिनों से ऐसे ही सवाल दिमाग में खाँव-खाँव करते रहे थे,आज उनका सही जवाब दे ने वाला सौभाग्य से
मिल गया है ।

बाबा कह रहे थे- “...संतो का एक बहुत बड़ा समुदाय है ,जो क्रोध के लिए सुख्यात है । लड़ाई-झगड़े के लिए विख्यात है ।
उनके भय से शासन-प्रशासन भी थर्राता है । धर्म के नाम पर आजतक जितने यद्ध
ु ,और कत्ल हुए हैं,उतना किसी और
कारण से नहीं। क्या धर्म यही कहता है ? मोक्ष का अधिकारी मानव मात्र है , प्राणीमात्र कहना,अधिक उचित होगा।
फिर ये तरह- तरह के धार्मिक राजनीति ? मन्दिर तोड़कर मस्जिद बना दो,मस्जिद तोड़कर मन्दिर बना दो...ये कौन
सा धर्म है ? सच पछ
ू ो तो यही कारण है कि ईश्वर-अल्लाह इन स्थानों को त्याग कर अन्यत्र अपना ठिकाना ढूढ़ने को
विवश है । तुम इस भ्रम में कदापि न रहना कि भगवान मन्दिर में रहते हैं, और अल्लाह मस्जिद में ,वो तो सष्टि
ृ के
कण-कण में व्याप्त है । हमारे भीतर हृदय-गुहा में छिपा बैठा है । उसे वहीं ढूढ़ो,वहीं मिलेगा। कहीं जाने की आवश्यकता
नहीं है ,वस शान्त होने का प्रयास करो। सरोवर में तरं गे उठ रही हैं, इसी कारण विम्ब नहीं बन पा रहा है । उसे थिर होने
दो। एक झलक मिल जायेगी प्रभु की। और एक बार मिल गयी,तो फिर नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति, प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्प मप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात ्।। (गीता २-४०) कृष्ण ने यही इशारा किया है - इस छोटे से एक प्रयास का
भी नाश नहीं होता,उत्तरोत्तर विकास ही होता जायेगा...।

“…अतः ‘काम’ को साधन-पथ का विघ्न न मानो,और न बनाओ। उसे साधना-शिखर पर आरुढ़ होने की सीढ़ी की तरह
इस्तेमाल करो। वामतन्त्र साधकों के एक बहुत बड़े वर्ग ने यहीं से रास्ता चन
ु ा है ,और अपेक्षाकृत कम समय में साधना
के अन्तिम सोपान पर विजय-ध्वज की स्थापना की है । किन्तु दर्भा
ु ग्य,यहाँ भी बहुतों ने धोखा खाया है । अज्ञान और
भ्रम वश,स्वर्णपथ से च्युत होकर,कुमार्गी हुए। तन्त्र के नाम पर आज जो समाज में उपेक्षा,घण
ृ ा और भय का सा भाव
है ,सम्यक् ज्ञान(जानकारी)के अभाव का ही नतीजा है । ‘तन्त्र’ शब्द कहते के साथ जो छवि आमजन-मानस में बनती
है ,वह है - जाल,फरे ब,धोखा, सम्मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, स्तम्भन और यहाँ तक कि मारण भी। तन्त्र काला जाद ू
नामक कुत्सित कृत्य के रुप में ही ज्यादातर दे खा,सुना,जाना और प्रचारित भी किया जा रहा है । चारों ओर तथाकथित
तन्त्र का जाल विछाये बैठे हैं,समाज के ठग-उच्चके,जो करने के नाम पर तो एक तिनका भी नहीं हिला सकते,परन्तु
सष्टि
ृ को ही विनष्ट करने का ढिंढोरा पीटते हैं। भोली जनता अपनी विविध कामनाओं से संत्रस्त होकर, उनके जाल में
सहज ही फंस जाती है । तन्त्र का मौलिक अर्थ और व्यवहार कहीं खो गया है । सच पूछो तो, हमारे ज्ञानकोष का एक
बड़ा सा हिस्सा आततायियों के हाथ पड़कर,नष्ट-भ्रष्ट हो चुका है । जो थोड़ा कुछ बचा,उसे अतिगोपनीयता का दीमक
चाट गया। कुछ ऐसा भी हिस्सा है , जो ऐसे हाथों में पड़ा है ,जिसके पास उसकी चाभी ही नहीं है । अतः इस पर गहन
मनन-चिन्तन-साधन करके, धीरे -धीरे उसे पुनरुज्जीवित करने की आवश्यकता है । आचार्य प्रवर डॉ. गोपीनाथ
कविराज जी ने अपनी अनन्यतम कृति- ‘भारतीय संस्कृति और साधना’ में गहन प्रकाश डाला है । कहीं उपलब्ध हो तो
समय निकाल कर उसका अध्यवसाय अवश्य करो। तुम तो पढ़े -लिखे हो, खुद को पत्रकार कहते हो,तब तो
अजन्ता,एलोरा,खजरु ाहो आदि के भित्तिचित्र,और उत्कीर्ण विविध मूर्तियों के बारे में भी अवश्य जानते होओगे,जो
हमारे ऐतिहासिक धरोहर हैं।’’

बाबा के इस बात पर गायत्री ने मेरी ओर कनखियों से दे खा,और कुछ कहने का इशारा की। मैंने उसका संकेत
समझकर कहा- हाँ महाराज ! वहां के बारे में सिर्फ किताबों में पढ़ा भर नहीं है ,संयोग से एक बार घूमने का मौका भी
मिला है । किन्तु वहां के बारे में जो दे खा,सुना,जाना वह तो बड़ा ही शर्मनाक है । क्या कोई सभ्य-समझदार आदमी
अपने परू े परिवार सहित उसे घूम-दे ख सकता है ? सुनते हैं किसी शासक ने उसके अधिकांश भागों को बन्द करवा
दिया। अधिकांश नष्ट भी कर दिये गये। पर्यटकों में कुछ के मुंह से मैंने स्वयं सुना है कि ये सब किसी जमाने के
विकृत मस्तिष्क के खरु ाफ़ात हैं...।

गतांश से आगे...भाग 6

मेरी बात पर बाबा एकदम से झल्ला गये– ‘ हां, खुराफ़ात तो हैं ही,पर

विकृत मस्तिष्क वालों के नहीं,बल्कि उन तथाकथित दिमागदार पागलों के,उन मूर्खों के जिन्हें भारतीय संस्कृति का
जरा भी ज्ञान नहीं है । तम्
ु हें क्या लगता है - कोई सामान्य कलाकार ने बनाया है इन मर्ति
ू यों को...किसी कामी और
भोगी ने बनवाया है इन्हें ? लानत है ऐसी सोच पर,जो खुद के दिमाग से कभी सोचने का प्रयास भी नहीं करता। तुम्हारे
दिमाग से ये कूड़ा निकालने के लिए मैं ये स्पष्ट कर दं ू कि वस्तुतः ये तन्त्र-साधना के महान केन्द्र रहे हैं किसी जमाने
में । किसी महान तन्त्र–साधक के दीर्घ अनुभव और ज्ञान के प्रतिविम्ब हैं ये भित्ति-शिल्प। इतना तो तुम जानते ही हो
कि कोई भी विषय हो उसका दो पथ,दो विचार-धारा या कहो पहलू अवश्य होता है - सीधा और उल्टा,दक्षिण और वाम।
हमारा तन्त्र भी लेफ्ट-राइट से अछूता नहीं है ,बल्कि ये कहो कि इसी ढर्रे पर सभी जगह दक्षिण-वाम भेद होता गया।
मुक्ति के दो रास्ते हैं,जो एक दस
ू रे को काटते नहीं,विरोधी भी नहीं। एक है आरज़ू-विनती वाला- सौम्य रास्ता; और
दस
ू रा है जोर-जबरदस्ती वाला कठिन रास्ता। एक पर्ण
ू तः निरापद है ,तो दस
ू रा असिधार वत, पर्ण
ू तः कंटकाकीर्ण।
किन्तु हां,एक कछुए की चाल है ,तो दस
ू रा विमाननगति। एक रास्ता त्याग की प्रशस्त पगडंडी से होकर जाता है ,और
दस
ू रा रास्ता भोग के कटीले चौड़े पथ से...।’

मुझे एक बात याद आयी- पिताजी कहा करते थे- कुलपरम्परानुसार ही साधना करनी चाहिए। यानी वाम-
दक्षिण जो भी हो,मार्ग परिवर्तन करने से,स्वयं की सिर्फ हानि ही नहीं,सर्वनाश होजाता है । अतः मार्ग कदापि न बदले–
आखिर इसका क्या मतलब हुआ महाराज?

जरा दम लेकर बाबा फिर कहने लगे - ‘ पहले मैं इस प्रसंग को परू ा करलंू,फिर तम्
ु हारी बात का जवाब दं ग
ू ा। हो
सकता है ,इन्हीं बातों में तुम्हारे लिए उत्तर भी हो। हां,तो मैं कह रहा था कि उन स्थानों का भ्रमण यदि तुम ठीक से
किये हो, तो दे खे होवोगे कि परिसर की भित्तियां पटी पड़ी है - मैथुन रत विविध मिथुनों से,विभिन्न भंगिमाओं में ।
पश्चिम के पर्यटकों यहां तक दार्शनिकों,मनोवैज्ञानिकों और सामाजशास्त्रियों को भी ये सब रहस्य समझ नहीं आया-
क्या मतलब- परिसर में नग्न मूर्तियां,और अन्दर सब कुछ खाली-खाली...बिलकुल रिक्त...कहीं कुछ नहीं...आकाश
की तरह शून्य...नीरव...शान्त कोष्ठ के सिवा। क्या कभी तुमने सोचा- ऐसा क्यों? नहीं न। सोच भी नहीं पाओगे,
समझ भी नहीं सकते इस गहन तन्त्र-विज्ञान को। पशु हो न और ये पशत
ु ा से पार लेजाने वाला विषय है । ’

मैंने नम्रता पूर्वक जिज्ञासा व्यक्त की- महाराज ! यदि मेरे सुनने-जानने लायक हो तो कृपया अवश्य बतायें-
आखिर क्या रहस्य है इन नग्न मिथन
ु ों में ।

सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ समझने वालों के लिए बहुत साधारण सी बात है ,और न समझने वाले के लिए
बिलकुल बकवास। स्कूलों में नर्सरी का क्लास होता है न,आजकल तो ‘प्ले’ भी हो गया है । वामतन्त्रसाधना का ये प्ले
है । साधना की पवित्र दीक्षा-भूमि में पदार्पण करने से पूर्व यानि इस महामन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व परिसर की
भित्तियों का अवलोकन करो,लम्बें समय तक प्रत्येक दृष्य को दे खो,मानों किसी दे व मूर्ति को दे ख रहे हो,और उससे
होने वाली मानसिक प्रतिक्रियाओं- कामोत्तेजना,आसक्ति,मोह आदि मनोवत्ति
ृ यों को टटोलो अपने भीतर। समझने
का प्रयास करो,नापने का प्रयास करो कि किस वत्ति
ृ ने कितना प्रभावित किया तुम्हारे चंचल चित्त को। और दीर्घ
काल तक खुद को जांचते-परखते हुए, जब ये पाओ कि इन मूर्तियों से उठी कोई तरं ग तुम्हारे चित्त सरोवर को
अशान्त नहीं कर रहा है ,उद्वेलित नहीं कर रहा है जरा भी,तब परिसर के भीतर,प्रकोष्ट में प्रवेश होगा। परन्तु अभी
खुश होने की बात नहीं है । क्यों कि अबतक तो दीवारों पर पत्थर की नंगी मूर्तियां मिली थी,पर अब द्वार पर तुम्हारे
स्वागत और परीक्षा के लिए जीती-जागती नग्न मूर्तियां मिलेंगी- पुरुष भी,स्त्री भी। और इस प्रकार इस कठिन परीक्षा
में भी जब उतीर्ण हो जाओगे तब जाकर उस वामतन्त्र-दीक्षा के अधिकारी बनोगे। साधना की असली विधि का निर्देश
तो तब प्राप्त होगा। तन्त्र कोई बच्चों का खेल नहीं है ,और न कामियों का क्रीड़ास्थल– इस बात को ठीक से न समझ
पाने के कारण ही मूर्खों,जाहिलों कामलोलुपों ने तन्त्र की गरिमा को ही धूमिल कर दिया है पिछले दो-ढाई हजार वर्षों
में । वैदिक-तान्त्रिक भारतीय संस्कृति की गंगा-यमन
ु ी छवि को बहुत विकृत कर दिया गया है । विकृति के इस दौर में
ही ऐसी बातें भी कही गयी एक दस
ू रे के विरोध में ।शैव,शाक्त,वैष्णव आदि के टं टे इसी दौर में चले। वैष्णव कब चाहे गा
कि कोई शाक्त होजाय,शाक्त कब चाहे गा कि कोई वैष्णव हो जाय। किन्तु मैं कहता हूँ कि ये दोनों ही बचकानी बात
कर रहे हैं,क्यों कि यह द्वैत(भेद) उनमें विद्यमान है ,यानी परिधि के ही यात्री है , केन्द्र की ओर यात्रा शुरु भी नहीं हुयी
है उनकी। मैं तो ये कहना चाहूंगा कि वाममार्ग का अभ्यास शुरु करने से पूर्व लम्बे समय तक दक्षिणमार्ग का अभ्यास
करना चाहिए,ताकि वाममार्ग की अड़चनें ,बाधायें दरू हों। महानगर की भीड़ में तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाने से पूर्व गांव
की गलियां तय करो। किन्तु हां,मेरे इस कथन का ऐसा अर्थ भी न लगा लेना कि वाम बड़ा है ,महान है । मैं यहां ऐसी
तुलना कर ही नहीं रहा हूँ। मैं केवल आपद-निरापद,सुविधा-असुविधा की बात कर रहा हूँ। गांव की गली में टकराने-
गिरने का खतरा नहीं है । गिरोगे भी तो चोट कम लगेगी,परन्तु शहर की भीड़ में टक्कर ही टक्कर है ,और उठने-
सम्भलने का भी अवकाश-सवि
ु धा न के बराबर है । अतः सावधान। इस सम्बन्ध में अभी सिर्फ इतना ही कहना चाहता
हूं कि दक्षिण-वाम तन्त्र पर फिर कभी अनुकूल समय दे ख कर और भी चर्चा हो सकती है । फिलहाल वस इतना ही
समझो कि हमारी संस्कृति न समग्र रुप से वैदिक है और तान्त्रिक,प्रत्युत वैदिक-तान्त्रिक परम्परा का अद्भत
ु संगम
है । इसमें अवगाहन करके आनन्द-विभोर हो जाओगे...।

“...अभी सिर्फ एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात की ओर यहां इशारा कर रहा हूँ,जो तुम्हारे मूल प्रश्न से संश्लिष्ट है – काम
की ये लड़ाई क्यों जारी है ? मनष्ु य बारम्बार आकर्षित होता ही क्यों है विपरीत लिंगी के प्रति- क्या इस विषय में कभी
सोचा तुमने?”

‘ यह तो प्राकृतिक आकर्षण है महाराज।’ – मेरा सीधा सा उत्तर था।

“ हां है तो प्राकृतिक ही,किन्तु इसका कारण क्या है ? कारण यही है कि नर और नारी दोनों अधरू े हैं। और इसकी पर्ति

का किं चित आभास मिलता है - मिलन में । पुरुष समा जाना चाहता है नारी में ,और नारी समेट लेना चाहती है पुरुष को
अपने आप में । मिलन के उस क्षण में एक अद्भत
ु घटना घटती है - क्षण भर के लिए उसकी सोयी शक्ति जागत
ृ होने हे तु
कुलबल
ु ाने लगती है । इस कुलबल
ु ाहट में ही अतल
ु नीय आनन्द का आभास मिलता है । वस्तत
ु ः वह आनन्द है नहीं,
वस आभास मात्र है । जल में पड़ने वाले चन्द्रमा के विम्ब को कोई अज्ञानी बालक भले ही चन्द्रमा ही क्यों न समझ
ले,वह असली चन्द्रमा कदापि नहीं हो सकता। अगले ही क्षण यह दृश्य समाप्त हो जाता है , अनुभूति खतम हो जाती
है , परितप्ति
ृ खो जाती है ,और उसे ही पन
ु ः पन
ु ः स्मरण करके,पन
ु ः प्राप्त करने की ललक से विकल होकर,आकर्षित
होता है मनष्ु य। विज्ञान कहता है कि यह सब हार्मोनिक एफेक्ट है - अन्तः स्रावी ग्रन्थियों के स्राव का फल है ।”

‘हाँ सो तो है ही।’- मैंने हामी भरी।

“…तप्ति
ृ का यह अधूरापन ही विकलता का कारण है अखबारी बाबू ! अनुभवियों ने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रयोग
सुझाया है अधिकाधिक तप्ति
ृ हे तु। तुमने सुना होगा,या अनुभव भी किया होगा कि सम्भोग के समय सांस की गति
काफी बढ़ जाती है । सांस का वह प्रहार ही उस सुप्त शक्ति को छे ड़ता है । यदि सांस पर नियंत्रण का अभ्यास किया
जाय, तो भोग की अवधि में आश्चर्यजनक वद्धि
ृ होगी,और भोग यदि लम्बा होगा,तो तप्ति
ृ भी अपेक्षाकृत टिकाऊ
होगी। तप्ति
ृ टिकाऊ होगी,तो अगले भोग की ललक भी दीर्घ अन्तराल वाला होगा। इस प्रकार प्रत्येक भोग के समय
का अभ्यास अगले भोग को दरू सरकाता चला जायेगा। जो काम वह नित्य करता था, साप्ताहिक हो जायेगा। पांच-
दस मिनट का भोग यदि आध घंटे का हो जाय तो अगले भोग की कामना महीनों के लिए टल जायेगी, और फिर वर्षों
बरस के लिए भी टालना आसान हो जायेगा। हालाकि मैं गलत कह रहा हूँ- टालना शब्द का प्रयोग यहाँ उचित नहीं
लगता। टालने का तो अर्थ हुआ कि उपस्थित है ,और उसे ‘सायास’ टाला जा रहा है । वस्तत
ु ः कामना की उपस्थिति ही
क्षीण हो जायेगी। कामना ही दर्ब
ु ल हो जायेगा और काम का वेग, जो अधोगमन कर रहा था,अब शनैः शनैः उर्ध्वगामी
होने लगेगा...। आह ! कितना अनुभवपूर्ण व्यवस्था है हमारी संस्कृति में - वीर्यरक्षण-पुष्टिकरण(ब्रह्मचर्य),मर्यादित
वीर्यक्षरण (गह
ृ स्थ)और तब वानप्रस्थ,और इसके बाद सन्यास। किन्तु सब गडमड हो गया- चोला रं ग दिये,सन्यासी
हो गये...। पटरी विछाई नहीं,रे लगाड़ी दौड़ा दी...।”

मैंने बीच में ही टोका- ‘ महाराज ! सामान्य जन को सम्भोग की अवधि बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए और फिर
भोग को योग कैसे बनाया जाय- इस विषय पर कुछ प्रकाश डालें।’

मेरी बात पर बाबा गम्भीर मुस्कान विखेरते हुए कहने लगे- “ मनुष्य प्रायः जो भी करता है ,अच्छा या बुरा,वह एक
प्रकार की बेहोशी में ही करता है । बेहोशी यानी सजगता रहित। मैं यहाँ भोग में भी परू े तौर पर सजग रहने की बात कर
रहा हूँ। काम-मद में मदहोश नहीं हो जाने की बात कर रहा हूँ। सम्भोग के समय ध्यान यदि सांस पर रखने का
अभ्यास किया जाय,तो भोग स्वाभाविक ही दीर्घकालिक हो जायेगा। इसकी एक और सरल विधि हो सकती है - भोग
कालिक प्रत्येक ‘प्रक्षेपण’ की गणना करते रहो,किन्तु ध्यान रहे ,गणना करते समय सांस रोके रहने की क्रिया हो।
मानसिक संकल्प रखो कि आज के भोग में हम पचीस प्रक्षेप पर्यन्त सांस रोकेंगे। सिद्धि हो जाने पर आगे पांच-पांच के
क्रम से बढ़ाते जाओ। पचास पर प्रयोग करो...पचहत्तर पर,फिर सौ पर....। सांस नियंत्रित हुआ नहीं कि भोग जादय
ु ी
करिश्मा बन जायेगा,और स्वयं आश्यर्य करोगे। पत्नी को ‘पतन’ का कारण न बनाकर, उत्थान का सोपान बनाओ। ये
न भूलो कि वह तुम्हारी अर्धांगिनी है ,भोग्या नहीं। यही अर्धांगिनी आगे चल कर भैरवी बन जायगी,और तुम भैरव।
पत्नी तम्
ु हारे दोनों मार्गों की संगिनी है - वैदिक-पौराणिक-काम्य अनष्ु ठानों में दक्षिणांगी है ,तो वामतन्त्र साधना हे तु
पकी-पकायी भैरवी,वशर्ते कि उसकी गरिमा और उपादे यता को समझो। वही धोबिन है ,वही चमारिन,वही डोमिन भी।
इसके लिए कहीं और भटकने, जाने की जरुरत जरा भी नहीं है । खैर,मैं कर रहा था सांस को चीन्हने- साधने की बात...।

“...अन्यान्य समय में भी सामान्य प्राणायाम की क्रिया,ध्यान आदि का अभ्यास करने का सुन्दर अवसर मिल
जायेगा। भोग में तप्ति
ृ होगी,तो जप-योग क्रियाओं में भी मन लगेगा,अन्यथा व्यर्थ का दिखावा भर लोग करते हैं-
आँखें बन्द कर काम-चिन्तन ही तो होता है । यहां काम शब्द का प्रयोग मैं समस्त सांसारिक कामनाओं के अर्थ में कर
रहा हूँ। ध्यान दे ने की बात है कि इस प्रारम्भिक अभ्यास में और कुछ करने की आवश्यकता नहीं,बस इतना ही करो
कि निरं तर(सोते-जागते,चलते-फिरते,खाते,बोलते) सांस की गति को दे खते रहो- एक चतुर ‘वाचमैन’ की तरह।
नियंत्रित,संयमित करना भी बहुत जरुरी नहीं है । ऐसा करते

हुए उत्तरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर होते जाओगे- इसमें कोई दो राय नहीं...।

“.....कुल मिलाकर,मेरे कथन का अभिप्राय यही है कि भोग को भी साधना-सोपान बनाने की जरुरत है । उसकी ओर
मुंह करके मित्रता का हाथ बढ़ाओ,पीठ करके शत्रत
ु ा भाव दिखलाओगे,घण
ृ ा और त्याग की दृष्टि डालोगे,तो वह हावी
होकर पीछा करे गा, अन्त-अन्त तक पिंड नहीं छोड़ेगा...दौड़ा-दौड़ाकर तक मारे गा। यहां तक कि बारबार जन्म लेते
रहोगे,मरते रहोगे...पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पन
ु रपि जननि जठरे शयने....भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज
मूढमते...।

“...यहाँ एक और बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि खान-पान,रहन-सहन,परिवेश आदि के प्रभाव से, जीवन की
जटिलताएँ दिनोंदिन पुरुषों को नपुंसक बनाए जा रही है । श्वांस की गति पर उनका नियंत्रण खोता जा रहा है । तप्ति

का अभाव वेचैन किए हुए है , और उसे पाने के लिए रासायनिक-कृत्रिम संसाधनों का सहारा लिया जा रहा है । ये
रसायन भी दो तरह से उपलब्ध हैं समाज में - एक तो वे जिन्हें कृत्रिम रसायन के रुप में जानते हैं,और दस
ू रे वे जो शुद्ध
आयुर्वेदिक और हानिरहित कह कर प्रचारित किये जा रहे हैं- अज्ञानता की यह बहुत बड़ी सामाजिक विडम्बना है ,साथ
ही ग्लानि और चिन्ता का विषय भी। हम ज्यों-ज्यों कृत्रिमता की ओर झक
ु रहे हैं,मौलिकता दरू होते जा रही है । ऐसी
स्थिति में काम का वेग,काम की ज्वाला समग्र मानवता को भस्म कर दे गा एक दिन। बड़े दःु ख की बात है कि सष्टि
ृ के
मूल सिद्धान्त- मैथुन की शिक्षा,और ज्ञान का पारम्परिक तौर पर कोई सही व्यवस्था नहीं है हमारे समाज में । और
इसका सबसे बड़ा कारण है कि अभिभावकों, वद्धि
ु जीवियों और धर्मगरु
ु ओं द्वारा इसे निकृष्ट,निंदित रुप से दे खा गया
है ,दे खा जा रहा है । कोई पिता यह हिम्मत नहीं कर सकता है कि समय पर अपने पुत्र को,और न कोई माता समय पर
अपनी पुत्री को काम की सही शिक्षा दे सके। नतीजा ये होता है कि प्राकृतिक रुप से शरीर में जब अन्तःस्रावी ग्रन्थियों
का प्रभाव (प्रकोप) आरम्भ होता है ,तो किशोर-किशोरी कस्तरू ी मग
ृ की तरह वेचैन होकर इधर-उधर भटकने लगते हैं।
एक ओर पारिवारिक तल पर शिक्षा का अभाव,और दस
ू री ओर ‘सिनेमायी जहर’ , जो आग में घी का काम करता है ;
फलतः बेचैन मग
ृ ,पहले से ताक लगाये, किसी शिकारी के सिकंजे में आ जाता है । तान्त्रिक और
सिद्धवैद्य(डॉ.सेक्शोलॉजिस्ट) बन कर, यव
ु ापीढ़ी को गम
ु राह करने के लिए शहर के हर नक्
ु कड़ पर जाल बिछाये बैठे हैं
ऐसे लोग,जिन पर न समाज का ध्यान है ,और न सरकार का। ट्रे न,बस,शहर-दे हात की दीवारें पटी पड़ी होती हैं, इनके
मुफ्त,भोंड़े विज्ञापनों से। युवावस्था का अति सामान्य संकेत- प्रदर और स्वप्नदोष, या अन्य संसर्गज बीमारियां,
आदि को अतिघातकता की हवा दे कर,ये न केवल पैसे लूटते हैं,बल्कि स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ करते हैं- युवापीढ़ी
नपुंसक होते जा रही है इनकी दवाइयों का सेवन करके। किसी तान्त्रिक कहे जाने वाले सामाज के उस ‘कोढ़ी’ के पास
यदि जाओ, तो पाओगे कि उसके पास आने वालों में अधिक संख्या किशोर-किशोरियों की ही मिलेगी,जो स्तम्भन,
सम्मोहन और वशीकरण, की चाह लिए भटक रहे हैं। दस
ू रे नम्बर में वो भुक्त भोगी महिलायें होंगी,जिनके पति
अपनी पत्नी से तो पतिव्रता होने की आश रखते हैं,पर स्वयं ‘किसी और की तलाश में ’ सम्मोहन-वशीकरण मन्त्र
साध-सधवा रहे होते हैं। उन साध्वी स्त्रियों का दर्द समझने लायक है ,जो ठगी का शिकार होती है ,अपने पति के
नाजायज प्रेम को विद्वेषित कराने के प्रयास में । हम दे खते हैं कि समाज में तरह-तरह की विकृतियां दिनों दिन सर्प
सा फन काढ़े खड़ी होती जा रही है । रिस्ते-नाते तार-तार हो रहे हैं। उम्र और पद की गरिमा भी सीमायें तोड़ चुकी हैं।
पिता-पुत्री,भाई-बहन, गुरु-शिष्या जैसा पवित्र रिस्ता भी निरापद नहीं रह पाया है । लूट,हत्या और बलात्कार की
घटनायें दिनों दिन बढ़ती जारही है - इस काम विकृति के कारण ही। जबकि, काम एक अद्भत
ु ऊर्जा है । इसकी गति को
संतुलित और नियंत्रित करके राम तक पहुँचा जा सकता है ,और दस
ू री ओर, असंतुलित-अनियंत्रित स्थिति मानवता
का विनाश कर सकती है ।”

बाबा का लम्बा व्याख्यान बहुत कुछ सोचने को विवश कर रहा था। काम के प्रति मन में बैठा निकृष्टता का भाव
तिरोहित हो चुका था। सच में धर्मगुरुओं द्वारा काम पर विजय पाने का उपदे श ही घातक हुआ है । गलत दिशा में मार्ग
और मंजिल तलाशने को विवश किया गया है । सष्टि
ृ क्रम का सबसे अहम सवाल ही अनुत्तरित,अव्याख्यायित रह
गया है । इसके लिए सामाजिक जागरण की आवश्यकता है । इस जागरण की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए।

“अच्छा तो तुम सोचो-विचारो, और आराम करो। मैं चला।”- कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए।

‘क्यों? हमने तो समझा कि गायत्री की बात मान कर,अब आप यहीं रहें गे; और रोज दिन आपसे कुछ ज्ञान अर्जित
करने का सौभाग्य मिलेगा।’

“नहीं-नहीं, हठ न करो। मेरी बात समझने की कोशिश करो। गायत्री की बात और तुम्हारा मान रखते हुए मैं केवल
इतना ही कर सकता हूँ कि रात का भोजन यहीं ले लिया करुँ गा, जब कभी भी दिल्ली में रहूँ। वैसे प्रायः यहां-वहां जाता
रहता हूं। कहीं स्थिर तो हूँ नहीं। हाँ, कल जरुर आऊँगा। तुम भी समय पर आ जाना,दे र न करना दफ्तर से आने में ।”-
कहते हुए बाबा बाहर निकल गये।

गायत्री तो बहुत पहले ही सो चक


ु ी थी, चलते समय उसे जगाने भी नहीं दिया।

काफी दे र तक विस्तर पर पड़ा,मैं विचार करता रहा- बाबा द्वारा कही गयी बातों पर। बाबा का बहु विषयी
ज्ञान,और स्वामी विवेकानन्द का उदाहरण अधिक खींच रहा था। उसकी तह तक जाने को मन ललक उठा। काम को
मित्रवत दे खने-समझने की बात भी कम दिलचस्प न थी। इसे भी ठीक से आत्मसात करके, प्रयोग करने की जरुरत
है ....– सोचते हुए कब आँखें लग गयी, पता न चला।

सुबह दध
ू वाली की आवाज से नींद खुली। गायत्री भी बिना मुझे जगाये

अपने रूटीन-वर्क में लग गयी थी। मेरे जगते ही उसने पूछा- “ रात कितने बजे गये
उपेन्दर भैया ? तुमने न तो उन्हें रोका,और न जगाया ही मुझे।”

वही करीब पौने एक बजे। बहुत सी गम्भीर बातें हुयी।

“ गम्भीर बातें हो रही थी,इसलिए तुमने मुझे जगाया भी नहीं ? मेरे सुनने-जानने लायक नहीं थी क्या ?”

थी क्यों नहीं। मेरा मन तो न कर रहा था कि वे जायें,किन्तु रोकने पर भी रुके नहीं। हाँ,आज जरुर आने को बोल गये
हैं।

शाम को निश्चित समय पर बाबा पधार चुके थे,मैं ही जरा लेट हो गया। डेरा पहुँचा तो दे खा,कि बाबा डटे हुए हैं, बैठक-
कम-बेडरुम में ,और गायत्री अपनी परु ानी यादों की पिटारी खोले हुए है । बाबा जब भी मिले,मैं अपनी ही जिज्ञासाओं में
उन्हें उलझाये रहा, गायत्री को मौका ही नहीं मिला,अपनी बातों के लिए। सो आज, मौका दे ख पहले ही बैठकी लगा
चुकी थी । गायत्री कह रही थी- “...उपेन्दर भैया! तुमको ऐसा नहीं करना चाहिए था, आखिर क्यों भाग गये थे शादी के
मंडप से ? क्या लड़की में कोई खोट थी,जो अचानक पता चला ?”

“नहीं गायत्री ! नहीं, लड़की में खोट रहती तो कम सोचने वाली बात थी,खोट थी उसके बाप की सोच में ; और ये सारा
तिगड़म भिड़ाया हुआ था- मेरे मामाश्री और पिताश्री का। ऊपर वाले का दिया हुआ इतना धन है कि सात पुस्त तक बैठ
कर भोग करे ; फिर भी इन दोनों को तो दौलत की भूख है न। निस्पुत्र के यहाँ मेरी शादी तय किया था इसी लोभ में ।
और वह कहता था कि शादी करके यहीं बस जाना होगा। एक मात्र यही वारिश है । इतनी सम्पत्ति है , कौन दे खभाल
करे गा? ”- बाबा कह रहे थे- “अब भला तुम ही बताओ गायत्री ! अपनी सम्पत्ति का दे खभाल तो मैं कर नहीं
सकता,फिर ये ससरु ाल की सम्पत्ति का बोझ कौन उठाता,वो भी घर-जमाई बन कर ? ये धन-सम्पत्ति जो है न बड़ी
खतरनाक चीज है , वो भी रजवाड़ों की,जमींदारों की सम्पत्ति। कौन कहें कि युधिष्ठिर के धर्मराजी विधि से अर्जित की
गयी है । ज्यादातर ऐसी सम्पत्तियाँ नाज़ायज़ तरीके से ही अर्जित की गयी रहती हैं। तुम नहीं जानती,पर है एकदम
सही—कर्म के विषय में जैसे कहा गया है - सात्विक,राजस,तामस तीन गण
ु ों वाला, उसी भांति धनार्जन में भी विचार
अवश्य करना चाहिए कि आगत धन का गुण क्या है । त्रिगुणात्मक सष्टि
ृ में सब कुछ तीन गुणों वाला ही है , और
उसका परिणाम भी वैसा ही होता है । तामसी वत्ति
ृ से अर्जित सम्पदा का भोग भी मनष्ु य को तामसी बना डालता
है ,और उसका विपाक बड़ा दीर्घकालिक होता है । कई जन्मों तक भी पीछा नहीं छोड़ता।”

‘मैंने तो सुना था कि तामसी आहार से सदै व बचना चाहिए। तामसी धन भी क्या इसी तरह बहुत घातक है ?’ -
इत्मिनान से बैठते हुए मैंने सवाल किया । बाबा से सवाल करके,गायत्री मेरे लिए चाय नास्ते की व्यवस्था में लग
गयी।
“ बड़ी ही समीचीन जिज्ञासा रखी तुमने। आजकल लोग ये सारी बातें एकदम ही विसार दिये हैं,फिजूल समझ कर।
सचपूछो तो ये ‘आहार’ शब्द भी बड़ा विचारणीय है ।” – कहते हुए बाबा ने पीछे गर्दन घुमाकर कीचन की ओर दे खा- “
तुम भी सुन रही हो न गायत्री ?”

“हां भैया, मेरा ध्यान तम्


ु हारी बातों में ही है । तम
ु अपना व्याख्यान जारी रखो । आहार-विहार पर मझ
ु े भी बहुत शंका
है । ” - गायत्री नाश्ते का ट्रे लिए आयी , और उसे मेरे सामने रखकर पुनः वापस चली गयी,चाय लाने, ‘ अभी आयी ’
कहती हुई।

बाबा कहने लगे- “ सीधे तौर पर हम आहार को भोजन के अर्थ में ले लेते हैं, और उससे भी मजे की बात ये है कि पिछले
हजारों वर्षों से इसकी बाह्य शुचिता को लेकर ही जझ
ू रहे हैं— खाना-पीना का छूआछूत- इसका छूआ मत खाओ,उसका
छूआ मत पीओ...नहीं तो धर्म चला जायेगा। अब जरा तम
ु ही सोचो- धर्म कोई ऐसी कमजोर चीज है जो जरा से छू-छा
कर दे ने से, चला जायेगा हमको छोड़ कर? बात उतर रही है जरा भी गले में ?”

गायत्री चाय चढ़ा कर आयी थी,जिसे झटपट लिए आगयी । चाय मेज पर

रखती हुई बोली- “ हां-हां,यही बात मैं भी सोचती हूँ- धर्म और छूआछूत के विषय में ।”

मैंने बीच में ही टोका- ‘ नहीं,तुम नहीं सोचती। तुम तो उल्टे मुझे ही समझाती हो इसके बारे में । अब बताओ उस दिन
तम
ु ने मझ
ु से कितनी बहस की, और अन्त में अच्छा-खासा कीमती टी-सेट ‘ महरी ’ को दे दी,क्यों कि उसमें मेरे
मुसलमान मित्र ने चाय पी ली थी,और मेरी गलती ये थी कि उसके बारे में मैंने तुम्हें पहले कहा नहीं कुछ कि कौन है ।
कहा होता तो शायद उसे कुल्हड़ में चाय दे ती या हो सकता है - चाय ही न पिलाती।’

हमदोनों की किचकिच पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले - “ ये अकेली तुम्हारी परे शानी नहीं है ,गायत्री। ये समस्या है
समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की,जो इसी भेद-भाव को अपना धर्म समझता है । मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि जिस-
तिस का, जैसे-तैसे दिया हुआ कुछ भी खा-पी लो। वैसे तो आज की ‘होटली सभ्यता और बफेडीनर’ ने इसे काफी बदल
दिया है ,पर वो भी गलत दिशा का मोड़ है । सच पूछो तो यह आहार विषय थोड़ा गम्भीर है ,और ठीक से समझने जैसी
बात है । एक ओर ‘काम-संघर्ष’,जिस पर हमलोगों की लम्बी बातें हुई, ने हमारे साधकों का समय नष्ट किया है ,तो
दस
ू री ओर इस आहार विषय ने भी कम परे शानी और उलझन में नहीं डाला है । सिर्फ साधक ही नहीं,सामान्य जन भी
इस नासमझी के घोर शिकार हुए हैं। इन दोनों से समाज का बहुत अहित हुआ है ।”

‘हां-हां,इस पर आप जरा विस्तार से कहिए; और समझाइये अपनी गायत्री बहन को।’ –मैंने गायत्री की ओर दे खते हुए
कहा।

गतांश से आगे...सातवां भाग(7)


बाबा कह रहे थे- “...‘आहार शुद्धि सर्व शुद्धि ’ का जो सूत्र है ,वह कुछ और ही व्याख्यायित करता है । पहली बात तो ये है
कि आहार यानी केवल मुंह से निगला गया भोजन ही नहीं,बल्कि ‘आहरण किया गया सब कुछ ’, और आहरण
(खींचना,ग्रहण करना,लेना) होता है - पांचों कर्मेन्द्रियों से,जिनमें सबसे घातक मात्रा होती है आँखों की- कुल आहरण
का लगभग ९०% भाग आँखों द्वारा संग्रहित होता है ,और चुंकि इसका स्वरुप अपेक्षाकृत सूक्ष्म होता है ,इस कारण
प्रभाव भी सूक्ष्म और प्रभावशाली होता है । आंखें बन्द करके,ध्यान-चिन्तन करने के पीछे यही रहस्य है ; किन्तु यहाँ
भी हम समझने में चक
ू जाते हैं- आंखें बन्द कर बाहरी दृश्यों का आहरण(दर्शन जनित)तो बन्द हो जाता है ,पर पर्व

संचित दृश्यों का संचालन होते ही रहता है ,क्यों कि मन की आँखें तो बन्द हुई नहीं रहती। मन का बे-लगामी घोड़ा दौड़
लगाते ही रहता है - पूर्व संचित चित्त-वत्ति
ृ यों के विस्तत
ृ मैदान में ,फलतः ध्यान तो दरू ,धारणा भी कठिन हो जाता
है ...।

“...दस
ू रे नम्बर पर है कानों द्वारा आहरण- जो कुछ हम सुनते हैं यानी ध्वनि के रुप में जो कुछ भीतर प्रवेश करता है ।
इसका भी योगदान कम नहीं है । गणित की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि आँखों के बाद शेष,दस प्रतिशत का
आधा,यानी कुल का ५% इन ध्वनियों का योगदान है । इसके बाद बारी आती है - स्पर्श (छूना-छुआना) की जो कुल
मात्रा का बामुश्किल दो प्रतिशत से अधिक नहीं है । अब बचा अन्तिम तीन प्रतिशत, जो सबसे स्थूल रुप में है - मुंह
द्वारा ठोस,तरल या गैस रुप में ग्रहण होता है । वहाँ, जैसे ‘काम’ को बड़े आकार के कारण हम पहले दे ख कर घबरा
जाते है ,उसी प्रकार यहां भी भोजन को बड़े(स्थूल) आकार के कारण पहले दे खकर घबरा जाते हैं,और सर्वाधिक ध्यान
इसी पर केन्द्रित हो जाता है ...।

“...आहार शुद्ध होगा,विहार शुद्ध होगा,व्यवहार शुद्ध होगा,तभी तो आगे की बात बनेगी। सिर्फ बाहरी खोल पर मुलम्मा
चढ़ाते रहने से क्या होने को है ! इन सारी शुद्धियों को गुण के पैमाने पर दे खो-परखो। सत्व-रज-तम – इन तीन ही गुणों
का है ये संसार,और जिसकी तुम्हें तलाश है वो तो गुणातीत है - गुणों से पार है , तुरीय से भी पार, तुरीयातीत...। सभी
तरह के आहारों में इनका विचार रखना होगा, सजग-सतर्क रहकर, पूरे होश में जागते हुए।”

जरा ठहर कर बाबा ने आगे कहा,गायत्री की ओर दे खते हुए- “ ये जो तुम खाना बनाती हो न,मान लिया बड़ी शुद्धता से
बना रही हो- प्रभु का प्रसाद समझकर। तुम्हारे सभी खाद्य पदार्थ बिलकुल शुद्ध हैं,सात्विक हैं,पवित्र हैं , किन्तु निर्माण
करते समय यदि तम्
ु हारे विचार शद्ध
ु न हुए,तो इनके प्रभाव से तम्
ु हारा खाना दषि
ू त हो जायेगा। आटा गंध
ू रही हो,और
किसी से बकझक कर रही हो,किसी को गाली बक रही हो- बोल कर नहीं भी,तो मन ही मन भुनभुना रही हो, ऐसी
स्थिति में सब गुड़ गोबर हो जायेगा। सात्विक प्रसाद भी तामसिक बन जायेगा,और फिर उसे खाने वाला भी तुम्हारे
द्वारा जाने-अनजाने में बमित तमोगुण का शिकार हो जायेगा। खाने वाले को तो पता भी नहीं चलेगा कि मामला क्या
है ,किन्तु दष्ु प्रभाव से भर जायेगा। स्थूल आहार में भी द्रव्य-दोष,क्रिया-दोष, भाव-दोष, विचार-दोष आदि अवगुण
समाकर आहार की मौलिकता नष्ट कर दे ते हैं। अतः सदा ध्यान रखो,सावधान रहो। भोजन बनाने की प्रक्रिया सिर्फ
रं धन-क्रिया नहीं है ,वस्तुतः वह किसी नित्यहोम की आहुति की तैयारी है । काय गत प्राण,अपान, उदान, व्यान, समान
वायुओं के संयोग से प्रज्वलित जठराग्नि में हम नित्य भोज्य पदार्थों की आहुति ही तो प्रदान करते हैं। इस रहस्य को
समझते हुए यदि भोजन का निर्माण और ग्रहण होगा,तो वह भोजन शरीर पर सही प्रभाव डालेगा...। इन सब रहस्यों
को समझ कर ही ‘स्वपाकी’(अपना भोजन स्वयं बनाने की) परम्परा बनायी गयी थी,किन्तु नासमझों ने इसे भी दस
ू रे
रुप में ग्रहण कर लिया। छूआछूत का हिस्सा बन गया।...

“...द्रव्य शुद्धि में ही बहुत सी बातें आ जाती हैं। जो चावल,आटा,दाल हम खा रहे हैं वह कैसा है ? हालाकि आज बाजार
वादी व्यवस्था में इन बातों का कोई परख-सूत्र नहीं रह गया है ,फिर भी कम से कम उस ‘द्रव्य’ का विचार तो थोड़ा
सावधान रह कर, कर ही लिया जा सकता है । जिस पैसे का उपयोग हम कर रहे हैं- वह कैसा है - मेरे पसीने की सही
कमाई है ,या कि चोरी,छीना-झपटी,लूट-हत्या, कुकर्म आदि से अर्जित सम्पत्ति है …?

“…इनमें बहुत सी बातों को हम जानकर भी अनजान बने रहते हैं। पापकर्म करते समय पापी से भी पापी की
अन्तरात्मा एक बार कोसती – सावधान करती जरुर है , किन्तु अपने ज़मीर की आवाज को हम नज़रअन्दाज़ कर दे ते
हैं। धन अर्जन करते समय जरा भी विचार नहीं करते कि आगे क्या होगा। तुमने दे खा होगा- कुछ थोड़े से लोग ऐसे
होते हैं,जो आर्थिक दृष्टि से तो बहुत ही कमजोर होते हैं, किन्तु सख
ु -शान्ति उनकी झोली में ज्यादा होती है । और ठीक
इसके विपरीत ज्यादातर ऐसे लोग होते हैं, जिनके पास दौलत तो अपार होता है ,पर सुख-शान्ति कोसों दरू होती है ।
कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा डॉक्टर या वकील या पुलिस ले जाती है । जन्मजात असाध्य रोगी, या विकलांग
सन्तान उत्पन्न हो जाती है । प्रायः लोग इसे प्रारब्ध-दोष मान कर सन्तोष करते हुए, आजीवन दःु ख झेलते रहते हैं।
प्रारब्ध तो अपनी जगह पर ठीक है ,परन्तु तात्कालिक कर्म भी कम प्रभावशाली नहीं है । द्रव्य-दोष इसमें बहुत बड़ा
कारक है - इसे न भूलो। गायत्री की बातों का जवाब मैंने यहीं से शुरु किया था,कि बीच में ही आहार की बात आगयी-
तुम्हारे द्वारा। ”

“हां भैया,मैंने यही पूछा था कि शादी की मंडप से भाग क्यों गये। खैर,

इसका जबाव तो तुमने दे दिया- दषि


ू त धन के पहरे दार और भोगनहार बनने के डर से भागे थे, शादी से नहीं। किन्तु
अभी जवाब अधूरा है - मेरे प्रश्न में यह भी था कि गये तो कहां गये,और इतने दिनों तक क्या करते रहे ...ये औघड़ी बाना
क्यों अख़तियार किये? ”- गायत्री ने प्रसंग को आगे खींचते हुए कहा।

मैंने गायत्री को टोकते हुए कहा- ‘ ये बातें तो तम


ु बाबा की जीवनी के बीच से उठा रही हो। बाबा ने अपनी कहानी
पूर्णाडीह के साधक श्री ज्ञानेश्वर जी के संरक्षण-स्वीकृति तक पहुँचाकर छोड़ी है । क्यों न बात फिर वहीं से शुरु हो।’ मेरी
बात पर गायत्री ने भी हामी भरी- ‘ ठीक है ,वहीं से शुरु हो,क्या फर्क पड़ता है ; किन्तु अब भोजन का भी समय हो रहा
है ,तुमलोग कुछ और बातें करो,तबतक मैं अपना रसोई घर का काम निपटा लँ ।ू भोजन के बाद,जमकर बातें होगी।
कल तो मैं कुछ थकी-थकी सी थी,खाकर तुरत सो गयी थी,और तुम चला दिये थे भैया को।’
‘अपने भगोड़ू भैया को चलाने का इल्ज़ाम मुझ पर न लगाओ। मैंने बहुत कहा,पर इन्हें गह
ृ स्थों के घर से डर लगता है ।
खैर,अब समझ गया। अतः रोकना फ़िजूल है । जब तक बातें होंगी, होंगी। फिर अगले अध्याय में जायेगा। तुम्हारे भैया
की दिलचश्प कहानी इतनी जल्दी पूरा होने वाली थोड़े जो है ।’

गायत्री चली गयी,रं धन कार्य में । मैंने परु ाने प्रसंग से ही एक नया प्रसंग निकाला- ‘ भाईजी ! आपने काम के बारे में तो
काफी कुछ स्पष्ट कर दिया। उसे सही रुप से साधने का तरीका भी बता दिया। किन्तु जैसा कि आपने कहा कि काम के
बाद क्रोधादि जो और सहज विकार हैं मनुष्य के अन्दर,उन पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है ? ’

बाबा ने कहा- “ मूल सूत्र तो एक ही है - सदा होश में रहने का प्रयत्न,और अस्त्र है - श्वांस। होश में यानी चैतन्य रहोगे तो
मित्र-शत्रु की सही पहचान सही समय पर कर लोगे,और पहचान हो जाने पर आगे की कारवाई भी समझ जाओगे। इस
काम(कामना मात्र)का जब दमन होता है ,किसी कारण से तब,क्रोध का जन्म होता है । अनियन्त्रित स्थिति में क्रोध
प्रबल शत्रु की तरह हावी होजाता है ;और हमसब उसके गुलाम हो जाते हैं। फिर कुछ के कुछ कर बैठते हैं। किन्तु होश में
रह कर, यदि उसे पहचान लो, दरू से आते हुए ही,तो उसपर नियन्त्रण बड़ी आसानी से किया जा सकता है । यहां भी
वैधिक रुप से विशेष कुछ करना नहीं है । क्रिया वही करनी है जो काम को नियन्त्रित करने के लिये मैंने बतलाया। तम

अनुभव किये होगे- काम के आवेग में सांस तेज हो जाती है , वैसे ही क्रोध के आते ही सांस तेज होने लगती है ,और जैसे-
जैसे क्रोध का वेग बढ़ता है ,सांस की गति भी बढ़ने लगती है । कृष्ण ने गीता में इन काम-क्रोधों को रजोगुण से उद्भत

कहा है - काम एष क्रोध एष रजोगण
ु समद्भ
ु वः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम ्।। रजोगण
ु से उत्पन्न काम
क्रोधादि महा अशन(भोजन)वाले हैं। और इसके पूर्व प्रसंग में ही कहा है - ...संगात्संजायते कामः
कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। और फिर क्रोध के आगमन के बाद की स्थिति स्पष्ट करते हैं, जो बहुत ही खतरनाक है -
काम दमित होकर क्रोध को आहूत करता है ,क्रोध आते ही अपने आप का सम्मोहन हो जाता है ,यानी योग्यायोग्य का
विचार खो जाता है ,और सम्मोहित चित्त में स्मति
ृ -विभ्रम हो जाना स्वाभाविक है । स्मति
ृ ही जब विभ्रमित हो
जाय,फिर बुद्धि का नष्ट हो जाने में क्या संशय? और संशययक्
ु त बुद्धि तो सबकुछ नष्ट करने की क्षमता रखता ही है ।
कृष्ण के ये वचन बहुत ही गुनने लायक हैं-क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मति
ृ विभ्रमः। स्मति
ृ भ्रंशाद् बुद्धिनाशो
बद्धि
ु नाशात्प्रणश्यति।। ”

‘ ये तो बड़े ही महत्व की बात आपने कही । यदि काम,क्रोध आदि को सही रुप में पहचान लिया जाय,तो उन पर
नियंत्रण पाना सरल हो जा सकता है । तो क्या श्वांस के अवलोकन वाली क्रिया से यह कार्य भी हो सकता है ? ’- मैंने
सवाल किया।

“ये सांसों का खेल बड़ा ही निराला है । योगशास्त्रों में तरह-तरह के श्वांस नियामक सूत्र दिये गये हैं। एक बड़ा ही
उपयोगी ग्रन्थ है - विज्ञानभैरवतन्त्र, जिसमें कुल जमा एक सौ बारह सूत्र हैं- शिव-पार्वती संवाद में । इसके पहले ही सूत्र
की साधना से सिद्धार्थ बद्ध
ु बन गये। उनके बद्ध
ु त्व प्राप्ति से चमत्कृत,परवर्ती जनों ने अज्ञानता में इसे बद्ध
ु ों का ही
ग्रन्थ समझ लिया। आज भी बौद्ध लामाओं द्वारा इन सिद्धान्तों का भरपरू उपयोग होता है । मैं कुछ विशेष करने की
बात नहीं कर रहा हूँ। कह रहा हूँ ,सिर्फ इतना ही कि शान्त बैठने की आदत डालो। व्यर्थ के शारीरिक-मानसिक
हलचलों को रोको-समझाओ अपने मन को कि व्यर्थ का बकवास बन्द करो। वाणी के प्रयोग में कंजूस बन जाओ।
किन्तु ऐसा नहीं कि बोलना बन्द और सोचना शुरु। ये नटखट मन जो है ,सर्वाधिक चंचल और गतिशील है । अर्जुन ने
भी कृष्ण से असमर्थता ज़ाहिर की है - मन को वश में करने हे तु। यह मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण बनता है - मन
एव मनष्ु याणाम ् कारणं बन्धमोक्षयोः। और इस मन को नियंत्रित करने में श्वांस ही सर्वाधिक सहायक हो सकता है ।
अतः इसकी गति पर ध्यान को केन्द्रित करने का प्रयास करो। मैं ध्यान करना नहीं बतला रहा हूँ। सच पूछो तो ध्यान
कुछ करने वाली चीज भी नहीं है । ध्यान किया नहीं जाता है , वह तो स्वतः हो जाता है । करने और होने में भारी अन्तर
है । काम का वेग हो या कि क्रोध का,सांस पर ध्यान गया नहीं कि वह थिर होने लगेगा। अति चंचल पारद को तल
ु सी के
पत्ते से नियंत्रित किया जाता है ,वैसे ही मन को नियंत्रित करने के लिए सांस पर ध्यान दे ना जरुरी है । वैसे करने को तो
जीवन में बहुत कुछ करता ही है मनष्ु य। जन्म से लेकर मत्ृ यु पर्यन्त सिर्फ करना ही करना तो है । अब जरा न करने
की भी आदत डालो। सन
ु ने में यह बड़ा आसान लग रहा होगा,और मन में ये सवाल भी उठ रहा होगा कि इतने जोग-
जाप-जतन से तो कुछ होता नहीं जल्दी,फिर ये सब छोड़ कर कुछ न करने से कैसे होगा भला ? सच पूछो तो करना ही
आसान है ।

कुछ न करना ज्यादा कठिन है ...। ”

बाबा का प्रसंग चल ही रहा था,कि गायत्री ने आवाज लगायी- “ मैं भी यही कह रही हूँ कि कुछ करने की जरुरत नहीं है
किसी को। किन्तु सांस चलती रहे , इसके लिए शरीर में कोयला-पानी डालना तो पड़ेगा ही। भोजन तैयार है । तुमदोनों
हाथ-मुंह धोकर यहीं आ जाओ। आज यहीं व्यवस्था कर दी हूँ। कल ही भैया ने टोका था कि भोजन बनाने और करने
का स्थान गलत है । बनाने का तो कोई विकल्प नहीं है ,किन्तु भोजन करने का स्थान तो कुछ बदला ही जा सकता है ।

कहते हैं न – ना मामा से भला काना मामा...। ”

आधे घंटे के बाद हम तीनों पन


ु ः इत्मिनान से बैठ गये। बाबा की जीवनी सुनने के लिए विशेषकर मैं, उतावला हो रहा
था। अतः मौका पाते ही छे ड़ दिया- ‘ हां,तो फिर क्या हुआ आगे पूर्णाडीह के ज्ञानेश्वरजी के अभिभावकत्व में आपने
कितने दिन,और कैसे गुजारे ?’

उपद्रवी बाबा ने कहना शुरु किया- “ दादाजी मुझे ज्ञानीजी को सुपुर्द कर,गांव चले गये,यह कर कि अब यहीं रहना है ।
सीधे छठ के समय ले चलंग
ू ा मां से मिलवाने। अपने वायदे के अनस
ु ार दादाजी सप्ताह-दस दिन पर घोड़ा दौड़ाये चले
आते थे,मुझसे मिलने। पिताजी या औरों को ये बात मालूम नहीं थी कि मैं यहां हूँ। लोग तो यही जान रहे थे कि मेरी
पढ़ाई शुरु हो गयी है खरखुरा,गया के अवस्थीजी के विद्यालय में । किन्तु मैं कौन सी पढ़ाई पढ़ रहा हूँ ज्ञानीजी ही
समझ रहे थे केवल। ज्ञानीजी पर भरोसा करके दादाजी भी कभी ये सवाल नहीं उठाये कि क्या सिखलाया-बतलाया जा
रहा है मुझे। उन्हें तो बस अपने कुलदीपक पौत्र के विकास से मतलब था,और इसके लिए ज्ञानीजी ने उन्हें परू ा
आश्वस्त कर दिया था।

“....मेरे रहने का प्रबन्ध ज्ञानीजी ने अपने ही कमरे में कराया था,और आठ पहर के दिन-रात में सात पहर उनकी
आंखों के सामने ही गुजरता था लगभग। मुझे भी बड़ा अच्छा लग रहा था उनका सानिध्य। पहुँचने के दस
ू रे ही दिन
सुबह-सुबह मुझे जगा दिया गया, और, एक झोला और दो लोटा लेकर ज्ञानीजी के साथ गांव के पास की पहाड़ी पर
चला आना हुआ। रास्ते में ही शौचादि से निवत
ृ होने की व्यवस्था थी। ऊपर पहाड़ी पर पहुँचने पर मैंने दे खा कि काठ
का एक छोटा सा पेटी लिए काला-कलूटा एकाक्षी पुरुष पहले से ही प्रतीक्षा में बैठा था- मन्दिर के बाहर ही, एक ढोंके
पर। बाद में पता चला कि वह गांव का नापित है ,जिसे मेरे मुण्डन के लिए ही बुलाया गया है । मेरा मुण्डन हुआ। मन्दिर
के पिछवाड़े में ही एक छोटा सा जलकंु ड था,जिससे पानी निकालने के लिए ज्ञानीजी ने एक बाल्टी दी,भीतर मन्दिर में
से लाकर,और कहा कि जल्दी से स्नान करके आ जाओ। थोड़ी दे र बाद,स्नान करके लौटने पर, मैंने दे खा कि ज्ञानीजी
स्वयं स्नानादि से निवत
ृ होकर,नापित की मदद से वहीं मन्दिर के सभागार में छोटी सी वालुका वेदी, और पूजा मंडप
सजा चुके हैं। एक ओर आसन लगाकर स्वयं विराज रहे हैं,मेरी प्रतीक्षा में । आसपास यथेष्ट मात्रा में सभी पूजा-
सामग्री भी उपलब्ध है । सबसे पहले मझ
ु े नयी धोती और गमछा दिये,अपने झोले में से निकाल कर। मझ
ु े तो ठीक से
धोती पहनना भी नहीं आता था, अतः नापित के सहयोग से पहनना पड़ा,और यह भी कहा गया कि ठीक से दे ख-समझ
लो,कल से ये धोती स्वयं ही पहननी है । नया वस्त्र और आसन दे कर,मेरा संस्कार शुरु हुआ। चार-पांच घंटे के वह
ृ त्
कर्मकाण्ड से, मझ
ु े यज्ञोपवीत के साथ गायत्री की दीक्षा दी गयी। कुछ अन्य वैदिक मन्त्रों का भी मौखिक अभ्यास
कराया गया। ज्ञानी जी के स्पर्श का प्रभाव कहें या कुछ और, मैंने पाया कि दो से तीन बार के सम्यक् उच्चारण के बाद
मन्त्र मुझे कंठस्थ हो जा रहे थे। उन्होंने बतलाया कि अब नित्य सुबह-दोपहर और शाम ये सभी क्रियायें करनी हैं- इस
क्रिया को त्रिकाल संध्या कहते हैं। जीवन में कुछ भी करने के लिए आगे का रास्ता यहीं से निकलता है । इसे बीज
समझो, और इस बीज की रक्षा भी सावधानी पूर्वक तुम्हें करनी है ...।

“....ज्ञानीजी रोज सब
ु ह मंह
ु अन्धेरे ही मझ
ु े जगा दिया करते, और साथ लिए उसी उमगा पहाड़ी पर चल दे ते। लगभग
दोपहर तक उनके साथ, निर्दिष्ट विविध क्रियायें संध्या-गायत्री,दे वीपूजन,स्तोस्त्र-पाठ आदि सम्पन्न होता। इस बीच
उनका एक सेवक दध
ू और कुछ मेवे,या कभी अन्य मौसमी फल दे जाता,जिसे मौका पाकर बीच में हमलोग ग्रहण
करते,और फिर क्रिया शरु
ु हो जाती। ज्ञानीजी ज्यादातर सिर्फ दध
ू ही लेते। मेवे और फल तो मैं ही गटकता। दध
ू के
साथ यथेष्ट मात्रा में गुड़ या रावा(विशेष प्रकार का शक्कर)का प्रयोग करते। उनका कहना था कि चीनी तो विदे शियों
द्वारा बनाया गया मीठा जहर है , साथ ही एक दषि
ू त पदार्थ भी। हमारे यहां इसकी सफाई गन्धक,चूना,फिटकिरी
आदि से करने का चलन था; किन्तु पश्चिम ने इसकी सफाई के लिए सीधे मवेशियों की हड्डी के चर्ण
ू (हाईड्रस)का
प्रयोग सिखला दिया,और इसे ही हमारे दे श की कम्पनियां भी अख़्तियार कर ली। परोक्ष रुप से हमारी शुचिता पर
छद्मघात है ये,जिसे हम भारतवासी समझने-बूझने को भी राजी नहीं हैं। विदे शी आततायियों में किसी ने दावे के साथ
कहा था कि सोने की चिड़िया वाली भारतभूमि पर काबू पाना है , तो सबसे पहले उसके धर्म और संस्कृति पर प्रहार
करो। भारत की आत्मा अध्यात्म में वसती है ,उसपर प्रहार करो,अन्यथा इसे बस में करना बहुत ही दरु
ु ह है । उसे धर्म
के सही रास्ते से चालाकी पूर्वक घसीट कर कुमार्ग पर ले आओ...। विविध पेय- चाय,कॉफी,कोला,तरह-तरह के सुस्वाद ु
वाइन...ये सब उसी सांस्कृतिक प्रहार के अमोघ अस्त्र हैं,जिनसे हमारी संस्कृति चोटिल होते रही; और अब तो
अभ्यस्त हो गयी है । मस्त हो गयी इन्हीं संस्कारों को विकास और उत्थान मान कर। खान-पान,रहन-सहन,
व्यसन,वेशभूषा सब कुछ प्रभावित हो गया है ...।

“…मध्याह्न संध्या के पश्चात ् पहाड़ी से नीचे आते हमलोग गांव वापस। घर आकर भोजन होता साथ-साथ ही- गुरु-
चेले का। थोड़े विश्राम के बाद,अपने कमरे ,जो बड़े से दालान के पर्वी
ू भाग में बना हुआ था,हमलोग बैठ जाते, और पहर
भर करीब पौराणिक कहानियां, धर्मशास्त्र, आदि विविध प्रसंगों पर चर्चा होती। इस बीच गांव-जेवार के कुछ लोग
मिलने-जुलने,सत्संग सुनने वाले भी आ जाते,या कोई अपनी व्यक्तिगत समस्या का समाधान ढूढ़ने ही आ टपकता।
घड़ी भर दिन रहते कमरे की बैठकी समाप्त होती,और पुनः पहाड़ी की चढ़ाई करके,सायंकालीन क्रियाएँ सम्पन्न
होती। दो घड़ी रात बीतने पर हमलोग वापस घर आते,रात्रि भोजन होता। कुछ दे र तक हितोपदे श-पंचतन्त्र की
कहानियां सन
ु ाते। तरह-तरह के सामान्य जीवनोपयोगी सवाल-जवाब भी होता,और फिर रात्रि-विश्राम–यही थी—
ज्ञानीजी की दिनचर्या,और मेरी दिनचर्या तो उनके साये की तरह ही पीछे -पीछे चलने वाली थी...। एक बात मैंने और
गौर किया,कई बार- जब कभी दे र रात लघुशंका के लिए नींद खुलती तो,ज्ञानीजी को अपनी चौकी पर पद्मासन में बैठे
पाता। पता नहीं वे रात में कितनी दे र सोते थे,या कि परू ी रात जगे ही रहते। कभी ढिठाई पर्व
ू क पछ
ू दे ता,तो हँसते हुए
कहते कि बुढ़ापे का शरीर है , बच्चों जैसी नींद कहाँ से लाऊँ?...

“....इसी तरह समय गुजरने लगा। इस बीच दादाजी कई बार आ चुके थे,

और मेरी स्थिति से पर्ण


ू संतष्ु ट भी थे। दिन और महीने किधर निकलते गये पता भी न चला। ध्यान तो तब आया जब
एक दिन ज्ञानीजी ने कहा कि परसों से शारदीय नवरात्र शुरु हो रहा है । कल अमावश्या को हमलोग पहाड़ी पर
जायेंगे,सो सीधे अगली एकादशी को ही वापस आयेंगे। इस बीच रहने-खाने की पूरी व्यवस्था वहीं मन्दिर में ही रहे गी।
तम्
ु हें भी मेरे साथ रात में कुछ अधिक जगना पड़ेगा। दिन में खेलने-घम
ू ने के लिए तो पहाड़ और जंगल है ही। हाँ एक
बात- इस पूरी अवधि में तुम्हें लड्डू खाने को नहीं मिलेगा, और न भात-रोटी ही। हाँ,मेवे और फल जितना खा
सको,खाओ। यानी कि पूरा फलाहारी बनकर रहना है ...।

“….हमलोगों का डेरा उमगा मन्दिर में पड़ गया। नवरात्र शुरु हो गया। सामान्य दै नन्दिनी के अतिरिक्त कई नयी
क्रियायें भी होने लगी। ज्ञानीजी श्रीदर्गा
ु सप्तशती का पाठ करने लगे,किन्तु मैंने दे खा, जैसा कि पाठ पिताजी या
दादाजी करते थे,उससे बिलकुल भिन्न था इनका पाठ। मझ
ु े तो विशेष ज्ञान था नहीं, फिर भी ऐसा लगता था कि
इनकी विधि कुछ और है । सीधे-सीधे कवचार्गलाकीलक,रात्रिसूक्त,नवार्ण,चरित्रत्रय,नवार्ण,दे वीसूक्त,रहस्यत्रय,
कुञ्जिका आदि का क्रम न होकर बड़ा ही बेतरतीब सा था....। ”

बहुत दे र से मनोयोग पूर्वक बाबा के मुखार्विन्द से उनका जीवन-वत्ृ त सुनता रहा था,कि अचानक सप्तशती के प्रसंग
ने टोकने को विवश कर दिया। प्रश्न तो गायत्री के मन में भी उठा,किन्तु मख
ु र न हो पाया। अतः पहल मैंने ही की-
‘ महाराज ! सप्तशती पाठ का ये कौन सा विधान है ,जो आपके ज्ञानीजी कर रहे थे?’

मेरी बात पर बाबा मस्


ु कुराये। उनके चेहरे पर स्नेह और प्रसन्नता की लाली दौड़ गयी। गायत्री की ओर दे खते हुए बोले-
“ ये तो परम वैष्णव परम्परा से आया है - निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे इसके दादाजी; किन्तु तुम तो शाक्त
परम्परा वाली हो। क्या तुम्हें भी इसके बारे में कुछ पता नहीं है ? कभी दे खा-सुना-जाना नहीं? ”

बाबा के प्रश्न पर गायत्री भी मुस्कुरायी,और सिर हिलाते हुए बोली- “ दे खी-सुनी जरुर,पर जानी-समझी नहीं कभी।
दादाजी प्रेरित करते थे,इन रहस्यमय विषयों की ओर, किन्तु न जाने क्यों पिताजी नहीं चाहते थे,और अफसोस कि
दादाजी का सानिध्य-सुख बहुत लम्बे समय तक नहीं मिल पाया मुझ।े पिताजी को दे खती थी कुछ भिन्न तरीके से
पाठ करते हुए। प्रत्येक दोनों नवरात्रियों में पिताजी प्रेरित करके श्रीदर्गा
ु सप्तशती का पाठ करवाते थे हम दोनों भाई-
बहनों से- घर में ही कुलदे वी के पास बैठा कर। और स्वयं तो चारो नवरात्र- चैत्र, आषाढ़, आश्विन और फाल्गन
ु पूरे
विधि-विधान से सम्पन्न किया करते थे,परू े अनष्ु ठानिक विधि से।”

बाबा ने बतलाया- “ महर्षि मार्क ण्डेय प्रणीत परु ाण अपने आप में एक अद्भत
ु तन्त्र-ग्रन्थ है । मैं तो अन्य परु ाणों की
अपेक्षा इसे अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। इसी महापुराण का अंश है श्री दर्गा
ु सप्तशती। साधना का अद्वितीय ग्रन्थ
इसे कहो। इसके एक एक मन्त्र अमोघ हैं। बनाने वाले ने तो इसे बहुत सोच-समझकर बनाया था मानव-कल्याण के
लिए, मगर अफसोस, हम ब्राह्मणों ने इसे आजीविका का साधन मात्र समझ लिया। नवरात्र में यजमान के यहाँ सादा
या सम्पुट पाठ करके कुछ अन्न,वस्त्र,द्रव्यादि पाकर ही खुश,और निश्चिन्त हो गया ब्राह्मण समुदाय। तुम कभी
ध्यान से इसे पढ़ो,किसी गुरु के सानिध्य में पुस्तक खोलो तो परत-दर-परत इसका रहस्य खुलता जायेगा। कितना
अद्भत
ु कथन शैली है - एक ओर सुरथ राजा समाधि वैश्य और मेघा ऋषि का आपसी संवाद चल रहा है ,बिलकुल
सांसारिक कथा की तरह,तो दस
ू री ओर साधना की पष्ृ ठभमि
ू गढ़ी जा रही है । सप्तशती की परू ी यात्रा वस्तत
ु ः
सप्तपादानों की यात्रा है । इसकी साधना की कई विधियां हैं- अनुलोम, विलोम, प्रतिलोम, प्रतिप्रतिलोम,
मन्त्रप्रतिलोम,वर्णप्रतिलोम आदि। इन गूढ़ रहस्यों के बारे में बहुत कम लोग ही जान-समझ पाते हैं। पुस्तक के अन्त
में सिद्धकुञ्जिका का समावेश,तो मानों किसी गड़े खजाने की चाभी थमाने जैसी ही है ,मगर दर्भा
ु ग्य कि हम इसे दे खते
हुए भी समझ नहीं पाते। कुछ अनाड़ी लोग सप्तशती के अमोघ मन्त्रों को बाहर निकालकर षट्कर्मों में घसीट लेते हैं,
तो कुछ सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए प्रयोग करते रहते हैं...। ये तो वैसा ही है न गायत्री ! कि कलछुल रसोई
घर की चीज है ,और उसे उठाकर किसी के सिर पर दे मारो,सिर तो फूटे गा ही न,पर इसमें कलछुल बनाने वाले का क्या
दोष है ? सिद्ध ज्ञानेश्वरजी महाराज इसके त्रैविध क्रिया साधक थे,चतुर्विध पर वे भी स्वयं को निष्णात नहीं समझते
थे- जैसा कि बातचित में उन्होंने कहा था एकदफा। साल के चारों प्रधान नवरात्रियों में अलग-अलग विधि से इसकी
साधना करते थे...।

“…उस नवरात्रि में मझ


ु े भी कुछ खास करने का निर्देश दिये। पस्
ु तकीय ज्ञान तो था नहीं मझ
ु े, सीधे व्यावहारिक विधि
पर उतार दिये। मैं उनके आदे शों-निर्देशों का बड़े मनोयोग से पालन करता रहा। महाष्टमी और नवमी की संधिबेला
में , निशीथ काल में मुझे मन्दिर-प्रांगण से भीतर गर्भ-गह
ृ में बुलाया गया। ज्ञानीजी पहले से ही वहां ध्यानस्थ थे।
समय पर मझ
ु े अन्दर आ जाने का संकेत पहले ही दे चक
ु े थे। मैं कौतह
ु ल पर्व
ू क भीतर प्रवेश किया। मेरे आगमन का
आभास पा उनकी आँखें थोड़ी खुलीं। हाथ से इशारा किये सामने- माँ की मूर्ति के समक्ष वीरासन में विराज जाने के
लिए। मुझे दोनों हथेलियों को केले के एक पत्ते पर उल्टा करके रखने का संकेत दिये; और स्वयं वाचिक रुप से
मन्त्रोच्चारण करते हुए, मेरी हथेली की पूजा करने लगे,वहां उपलब्ध पूजन सामग्रियों से। पूजन के पश्चात ् मेरा
दाहिना हाथ कस कर पकड़ लिए, और थोड़ा ऊपर उठाकर,मूर्ति के हाथों में सुशोभित कटार पर छप्प से दे मारे । अगले
ही पल मैंने दे खा- दाहिने हाथ का अतिरिक्त अंगठ
ू ा कटकर मां के चरणों में लोट रहा था,मानों कोई आतुर छटपटा रहा
हो माँ की कृपा-प्रसाद पाने को। फिर बिजली की−सी फुर्ती दिखायी उन्होंने, और पास के हवन कुण्ड से थोड़ा भभूत
लेकर कटे हुए भाग पर मल दिये। पहले तो मैं क्षणभर के लिए घबराया,डरा; किन्तु अगले ही क्षण सब गायब हो गया-
न डर न घबराहट। कटे भाग से रिसता हुआ रक्त भी थम चुका था,और दर्द-पीड़ा तो भभूत लगाते ही काफूर हो चुका
था। पुनः मुझे अपने आसन पर बैठने का आदे श हुआ और एक मन्त्र धीरे -धीरे मेरे कानों में बुदबुदाते हुए बोले कि बस
यही तम्
ु हारा असली मन्त्र है । अगले निर्देश तक केवल यही चलेगा,बाकी की किसी क्रिया में अब उलझने की
आवश्यकता नहीं है ...। ”

गायत्री ने कौतूहल पूर्वक बाबा का हाथ पकड़ लिया- “ अरे ! कहते हो कि अतिरिक्त अंगठ
ू ा कट गया था, मगर मैं तो
दे ख रही हूँ कि दोनों हाथ में अभी भी एक-एक और अंगूठा मौजूद ही है ।”

गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराये। पैरों की ओर अंगुली दिखाते हुए बोले- “ ये दे खो, यहाँ भी दोनों अतिरिक्त अंगठ
ू े
मौजूद ही हैं; किन्तु जरा ध्यान से दे खो,हाथ-पैर के मुख्य अंगठ
ू ों के बगल में सटा हुआ एक-एक और अंगठ
ू ा किसी वक्ष

की कटी हुयी डाल के समीप सट कर उग आयी,नयी डाल की तरह ही है । चार मख्
ु य नवरात्रियों के अष्टमी-नवमी
संधिवेला में बारी-बारी से एक-एक अंगूठे का बलिदान होते रहता है ,माँ के चरणों में और फिर नयी शाख−सी उगकर
अपने स्थान पर यथावत तैयार हो जाता है ,अगली नवरात्रि के लिए। तुमने सुना होगा- राक्षसराज लंकापति दशानन
अपने सिर काटकर शिव को अर्पित करता था,और शिव की कृपा से उसका मस्तक पुनःपुनः यथावत ्,अक्षुण्ण रह
जाता था। वैदिक और तान्त्रिक दोनों साधना पद्धतियों का अद्भत
ु संगम है रावण का व्यक्तित्व। रावण एक महासिद्ध
कापालिक था। कौल-कापालिक तो संसार में बहुत हुए हैं,किन्तु रावण अपनी जगह पर अकेला है ,उसका कोई
प्रतिद्वन्द्वी नहीं,कोई बराबरी नहीं। वाल्मीकि रामायण यद्ध
ु कांड में इसका विशद वर्णन महर्षि ने किया है । उसके
परिवार में साधना की अद्भत
ु परम्परा थी। रावण-पुत्र मेघनाद भी महाव्रती कापालिक था,जो निकुम्भिलादे वी की
उपासना में निष्णात था। युद्धभूमि में उसके विविध चमत्कारों की जो चर्चा महर्षि ने की है वह सब इन्हीं भगवती का
कृपा-प्रसाद है । जगदम्बा की कृपा पानी है ,तो महर्षि मार्क ण्डेय प्रणीत इस गूढ़ ग्रन्थ की विधियों में डूबो,बड़ा ही
आनन्ददायक है यह सब।”

और फिर मेरी ओर दे खते हुए बोले- “ तुम ये न समझो कि ये सब सिर्फ शाक्त (यहां वाम के अर्थ में प्रयुक्त) विधि से ही
सम्भव है ,तुम्हारी वैष्णव परम्परा को भी इसे स्वीकारने में कोई आपत्ति थोड़े जो है । राधा और काली में जरा भी भेद-
भाव न रखो। राधा-काली के अभेद को समझना हो तो व्रह्मवैवर्त परु ाण या दे वीभागवत परु ाण में डूबो। सब कुछ साफ
झलक जायेगा। यह तो साधना का राजपथ है , कोई भी साधक जा सकता है ,इस मार्ग से। जरुरत है सिर्फ सिद्ध गुरु की,
जो सही दिशा-निर्देश दे सके,पहुँचा सके— यात्री को अपनी मंजिल तक...। किन्तु यहाँ भी प्रायः समझ की चूक हो जाती
है । मुझे कुछ ऐसे लोग भी मिले हैं,जो शाक्त हो जाने के भय से वेदमाता गायत्री की सामान्य उपासना से भी घबराते
हैं। वैष्णव,शाक्त,शैव,सौर्य,और गाणपत्य का ये रहस्य बड़ा ही उलझा दे ता है नासमझ लोगों को। हम एक−दस
ू रे के
विरोध में खड़े हो जाते हैं। बद्ध
ु के काल में ऐसी विसंगति अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। तभी तो भगवान शंकर
को अवतरित होना पड़ा- शंकराचार्य के रुप में । आद्यशंकराचार्य ने पंचदे वोपासना का सूत्र दे कर,बांधा तत्कालीन
समाज को। भारतवर्ष के चार दिशाओं में चार सिद्धपीठों- बद्रीकाश्रम ्,रामेश्वरम ्, द्वारका,और परु ी का न्यास
करके,चारधाम की महत्ता समझायी जाहिलों को, अन्यथा आपस में लड़-कट कर नेस्तनाबूत हो जाते- दर्वा
ु सा शापित
वष्णि
ृ वंशियों की तरह। ‘शंकर’ के स्वधाम गमन के आज करीब ढाई-हजार वर्षों बाद,फिर कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति
पैदा हो रही है - नासमझ लोगों की भीड़ इकट्ठी हो रही है । और ना समझ भी कैसे कहें ! कोई सही ढं ग से समझने का
प्रयास करे तब न । पागल खुद को पागल नहीं कहता,नासमझ के साथ भी यही समस्या है । पहले से गड़ा हुआ
नासमझी का खूंटा उखाड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है । लाख समझाओ,पर उसका असर नहीं हो पाता। इसीलिए कहता
हूँ- शिष्य को गरु
ु के पास खाली झोली लेकर जाना चाहिए। पहले से ही कंकड़-पत्थर भरे रखोगे,तो फिर कहाँ रखोगे
गुरु का दिया प्रसाद ?”

कमरे में लगी घड़ी की ओर अंगल


ु ी दिखाते हुए बाबा ने कहा- “वो दे खो

दोनों कांटे अब आपस मिलने को उतावले हो रहे हैं। मुझे भी अपने गन्तव्य पर पहुँचने का वक्त चाहिए। तुम दोनों
अब विश्राम करो,और मुझे फुर्सत दो।”

गतांश से आगे....आठवां भाग


बाबा उठ खड़े हुए। हमदोनों को भी खड़ा ही हो जाना पड़ा। उन्हें यहीं रात्रि विश्राम के लिए बार−बार आग्रह करना
फिज़ूल था। नीचे गेट तक चलने को बढ़ा,तभी टोका उन्होंने- “ ये व्यर्थ की औपचारिकता छोड़ो,जाओ विश्राम करो।
आगे दो-तीन दिन तो आ नहीं पाऊँगा। दिल्ली से बाहर निकलना है । ”

बाबा निकल गये सो निकल ही गये। दो-तीन दिन के वजाय सात-आठ दिन गज
ु र गये। रोज दिन संध्या समय
दफ्तर से वापस आकर,उनकी प्रतीक्षा करता, किन्तु आये नहीं। गायत्री भी रोज सवाल करती, ‘ क्या कुछ कहा था
विशेष?’ लेकिन विशेष क्या कहा था, कुछ तो नहीं। जो भी बात हुयी गायत्री के सामने ही हुई। फिर भी हमसे ज्यादा
गायत्री ही चिन्तित थी। मैं तो माने बैठा था- रमता जोगी, बहता पानी- का क्या ठिकाना, कहीं रम गये होंगे,कहीं जम
गये होंगे। मेरे ही जैसा कोई जिज्ञासु मिल गया होगा। किन्तु गायत्री जैसी मुंहबोली बहन तो कहीं नहीं मिल सकती न-
गायत्री यही सोच-सोच कर बेचैन हो रही थी। इन थोड़े ही दिनों में बाबा ने ऐसा स्नेह-सूत्र जोड़ दिया था अपने साथ कि
मन-प्राण तड़प रहे थे।

बाबा तो नहीं आये पर,एक ऐसा चमत्कार सा हुआ,जो सतत प्रयास के बावजद
ू पिछले चार-पांच वर्षों में भी नहीं हो
पाया था,और अन्त में निराश होकर मैंने छोड़ दिया था कि मेरे भाग्य में ही नहीं है । ज़र्नलिज़्म की अच्छी डिग्री,लम्बा
अनुभव,बहुभाषीय ज्ञान,अनुवाद की क्षमता,सम्पादन पर अच्छा-खासा पकड़ रखते हुए भी,एक छोटे से अखबार में
छोटी−सी कुर्सी तोड़ रहा हूँ पिछले दस वर्षों से। कभी विचार और सिद्धान्त आड़े आ जाता,तो कभी जाति और धर्म।
मुझे समझ नहीं आता कि भारतीय लोकतन्त्र का यह चौथा पाया खुद के अधिकार और कर्तव्य की मीमांसा कब
करे गा? करे गा, कर पायेगा भी या नहीं ! पूर्णतया जाति,धर्म, मजहब,ऊँच,नीच,धनी,गरीब आदि द्वन्द्वों के
बजबजाते सोच वाले गड्ढे से बाहर निकल कर,निष्पक्षता के राजपथ पर खड़ा नहीं होगा, तब तक अपने कर्तव्य का
पालन क्या खाक करे गा पत्रकारिता ! और यही नहीं हो पा रहा है । दिनोंदिन पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा है ।
इसका निष्पक्षता धर्म तिरोहित होता जा रहा है । पत्रकारिता और न्याय के दो ‘डायगोनल’ स्तम्भ यदि सुदृड़ हो जाय,
फिर तो लोकतन्त्र का स्वरुप ही कुछ और हो जाय।

दे श के एक नामी-गिरामी अखवार में उच्च पद पर नियुक्ति के लिए मैं लम्बे समय से प्रयत्नशील था; किन्तु सफलता
न मिल रही थी,उक्त कारणों से ही। न्याय भी बिक चक
ु ा था,धनासेठों के हाथ। सप्रि
ु मकोर्ट तक का दरवाजा
खटखटाया,पर असफलता ही हाथ लगी। और उसी असफलता का सूत्र पकड़े,आज अचानक एक कॉल आ गया,उसी
अखबार की ओर से,जिसने कुछ कटु सत्य उद्घाटित करने के दं ड स्वरुप मुझे निष्कासित कर दिया था। पुराना
मालिक गज
ु र चक
ु ा था,और नयी पीढ़ी नये सोच-समझ वाली आयी थी। उसने बिना किसी अन्तर्वीक्षा और छानबीन
के,सीधे ज्वॉयनिंक-लेटर ही भेजवाया था, बड़े अनुनय और आग्रह पूर्वक अपने दिवंगत पिता की ओर से क्षमा-याचना
सहित, अपने निजी दत
ू से। हाथ में नियुक्ति-पत्र लिए मुझे लगा कि कोई सपना तो नहीं दे ख रहा हूँ। सम्पादक-मंडल
में मेज की धूल झाड़ने के योग्य भी जिसके पिता ने न समझा था, आज उसी का पुत्र प्रधान सम्पादक की ’कुर्सी‘
पहुँचाने घर तक आया है । क्षणभर के लिए स्वाभिमान ने ठोंकर मारा- क्या वहीं जाओगे,जहां से अपमानित हुए थे !

गायत्री ने जब उस पत्र को दे खा,तो सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त की - ‘ बाप का दं ड बेटे को क्यों ? तिस पर भी, बेचारा माफी
मांग रहा है । इस पद को अस्वीकार करके पत्रकारिता धर्म को तिरस्कृत न करो। आज राष्ट्र के एक सजग प्रहरी को
सजग और ईमानदार पत्रकार की आवश्यकता है । परु ानी बातों को भुला कर,राष्ठ्र की सच्ची सेवा में लग जाओ।’

गायत्री के कहने पर,उसी दिन नया पदभार ग्रहण कर लिया। अगले ही दिन कम्पनी के आलीशान नये आवास में जाने
की बात आयी। किन्तु इस कबूतर खाने को छोड़कर जाने में एक भय सताने लगा- बाबा को कैसे सूचित करुँ ! कहाँ ढूढ़ँू
उन्हें ,कोई अता-पता तो है नहीं। अखबार के नये दफ्तर में बैठे परू े दिन यही सवाल घम
ू ता रहा दिमाग में । नया कार्य,
पदभार भी पहले से कई गुना अधिक। स्वाभाविक है कि फुर्सत भी जल्दी मिलने वाला नहीं है । मन बहुत खिन्न−सा
था। अचानक बड़ा पद पाने की खुशी,बाबा से बिछुड़ने के आशंका के कारण दब गयी थी।

एकाएक प्यून आया,और कहा कि एक भिखारी आपसे मिलने की बहुत

जिद कर रहा है । समझाने पर भी मानता नहीं। आपका नाम तो नहीं बतलाता,पर कहता है कि अपने सबसे बड़े साहब
से मिलवा दो।

मैं उछल पड़ा,हो न हो ये बाबा ही होंगे, और बिना कुछ मीन-मेष के चल पड़ा उसके साथ। गार्ड ने मेन गेट के
बाहर ही रोक रखा था। वहाँ पहुँच कर दे खा- सच में बाबा ही थे। गेट से बाहर निकल कर मैं सीधे उनके चरणों में गिर
गया। दे खने वाले भौंचक्के थे।

ड्राईवर गाड़ी ले आया। कल तक जिसके पास सायकिल का भी ठिकाना नहीं, आज गाड़ीवाला हो गया है ..बंगले-वाला
वाला हो गया। आदर पूर्वक बाबा का हाथ पकड़ कर गाड़ी में बैठाया,और थोड़ी ही दे र में गायत्री के सामने उपस्थित हो
गये दोनों।

गायत्री की खुशी का ठिकाना नहीं। झपट कर लिपट पड़ी अपने मुंहबोले उपद्रवी भैया से- ‘ कहाँ उड़ जाते हो
बाबा उपद्रवीनाथ !’

बाबा ने अपनी झोली से एक बड़ा−सा पैकेट निकाला,और उसे गायत्री को दे ते हुए बोले- “ पहले मिठाई खाओ,
खिलाओ हमलोगों को भी,फिर शिकवे-शिकायत करती रहना रात भर बैठकर। आज रात मुझे कहीं जाना भी नहीं है ।
परू ी रात तम
ु लोगों के लिए लेकर आया हूँ । ”
हाथ-मुंह धोकर हमलोग बैठ गये। गायत्री तश्तरी में मिठाई ले आयी। मेज पर रखती हुयी बोली- ‘आज भी
किसी मन्दिर में पकड़ा गये क्या ? और ये मिठाई किस बात की? मिठाई तो मैं खिलाती, तुम्हें ।’

मैं अभी तक बाबा से पूछा भी नहीं था कि अचानक कैसे पहुँच गये नये दफ्तर में । बात कहां से शुरु करुँ ,सोच ही
रहा था कि बाबा खद
ु उचरने लगे – “ दे खो गायत्री, किसी को याद इतनी न किया करो कि उसे परे शानी होने लगे।”

‘मैं कुछ समझी नहीं।’- गायत्री उनका मुंह दे ख रही थी।

“ कल से ही तुम दोनों इतना पुकार रहे हो मुझे कि बरबस ही आना पड़ा, अन्यथा स्वाभाविक रुप से अभी दो
दिनों बाद आता। ”

इस बार चौंकने की मेरी बारी थी। बाबा के सौम्य चेहरे पर एकटक दे खते हुए पूछ बैठा - ‘ क्या सच में मेरी पुकार पहुँच
गयी आपके पास ? क्या मेरी पक
ु ार के सत्र
ू ने ही बांधकर सीधे मेरे नये दफ्तर तक पहुँचा दिया आपको ?’

बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “ यदि इस बात का सही जवाब दँ ू तो तुम अखबारी आदमी सौ नये सवाल करने लगोगे। फिर
भी तुमने पूछा है ,तो कुछ तो कहना ही पड़ेगा न। तुम क्या सोचते हो, ‘ इथरिक-सायन्स ’ कोई नया पैदा हुआ है ? ये
जान लो कि सायन्स कुछ पैदा नहीं करता,खोजता है सिर्फ ,और खोज उसकी ही हो सकती जो पहले से मौजूद है कहीं न
कहीं। ‘डिस्कवरी ’ और ‘इन्वेन्शन’ में मौलिक अन्तर है - इतना तो तुम जरुर समझते होवोगे? आज तरह-तरह के
‘बेतार’ के स्वरुप जो दे ख-सन
ु -व्यवहार कर रहे हो,कोई नयी चीज नहीं है । इसका प्रयोग हमारे मनीषी बहुत पहले से
करते आ रहे हैं । और ये जो संवाद-प्रेषण-शैली है ,यह तो बहुत साधारण−सी बात है । व्यष्टि मन का समष्टि मन से
कितना गहरा ‘तार’ (लगाव) जुड़ पा रहा है , इस पर निर्भर है ,यह क्रिया। बेटे को कोई परे शानी होती है , तो माँ को तुरत
सच
ू ना हो जाती है , भले ही वह सही विश्लेषण न कर पाये। दरअसल नाल कटने के बावजद
ू ,बेटे का सम्बन्ध माँ से
पूर्णतया विच्छे दित नहीं हो पाता । हो भी कैसे सकता है ! एक अदृश्य तन्तु जोड़े रहता है - माँ-बेटे को। कुछ ऐसा ही
‘बेतार का तार’ सष्टि
ृ के समस्त जड़-चेतन को जोड़े हुए है आपस में । आम आदमी इस सम्बन्ध को जान-समझ नहीं
पाता; किन्तु प्रकृति तो अपना काम किसी से पछ
ू कर नहीं करती न ! कौन कितना सस्
ु पष्ट सम्प्रेषण-क्षमता रखता
है ,कितना ग्रहण-क्षमता रखता है - इस पर एक दस
ू रे का आपस में जुड़ना-न-जुड़ना निर्भर करता है । जुड़ाव की ‘तीव्रता’
ध्यातव्य है । जुड़ाव की क्रिया महत्वपूर्ण है । मनष्ु य से सम्बन्ध जोड़ना हो या कि ईश्वर से,पत्थर से जोड़ना हो या कि
पेड़-पौधे से, सिद्धान्त एक ही है ; फर्क सिर्फ मात्रा और घनत्व का है । समष्टि का अंश है व्यष्टि। व्यष्टि का अस्तित्व ही
क्या है - समष्टि के बगैर ! तुमने कल से इतना प्रखर संप्रेषण

किया कि मझ
ु े मजबरू होकर आना ही पड़ा..।”

बाबा अभी कुछ और कहते,कि मैं बीच में ही टोक बैठा- ‘ किन्तु मैं तो इस विद्या या कला का अभ्यासी हूँ नहीं, फिर ये
चमत्कार कैसे हो गया?’
“….मैंने अभी कहा न,धनत्व और तीब्रता का महत्त्व है । लोग पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं,और फिर शिकायत भी
करते हैं कि कुछ हुआ नहीं,कुछ होता नहीं। व्यर्थ है ये सब...। एक बड़ा ही प्रसिद्ध वक्तव्य है - एकोऽपि कृष्ण सकृत
प्रणामौ, दशाश्वमेधावभत्ृ थैर्न तुल्यः । दशाश्वमेधि पुनरे ति जन्म,कृष्ण प्रणामि न पुनर्भवाय ।। कहते हैं न कि
श्रीकृष्ण को एक बार ‘ भी ’ प्रणाम करने का फल होता है - दश अश्वमेध यज्ञान्त अवभत्ृ थ स्नान के तुल्य। पुनः इसकी
महत्ता को दर्शाते हैं कि अवभत्ृ थ स्नान के पश्चात ् भी पन
ु र्जन्म की सम्भावना है ,किन्तु श्रीकृष्ण को प्रणाम कर लेने
वाले का पन
ु र्जन्म नहीं होता— अब भला सोचो,ये कहने वाला क्या कोई पागल है ,या बढ़ा-चढ़ाकर श्रीकृष्ण की महिमा
गाया है ? नहीं,ऐसा कुछ नहीं है , क्यों कि ये वक्तव्य अक्षरसः सत्य है । अब तुम कहोगे कि जीवन में कितनी बार तो
कृष्ण को प्रणाम करते हैं,कृष्ण का भजन करते हैं,फिर भी ऐसा क्यों नहीं होता? ऐसा इसलिए नहीं होता कि प्रणाम
करने में ,कृष्ण को पक
ु ारने में कोई त्रटि
ु रह जाती है । कुछ कसर रह जाता है । प्रार्थना में सम्यक् सघनता नहीं होती।
यहाँ एक और बात ध्यान में रखने की है कि अचानक,ऐसा होना भी सम्भव नहीं है । बारम्बार के सतत ् अभ्यास से
सम्यक् घनत्व उत्पन्न होता है ...।

“… इसे एक और उदाहरण से समझो- तुम किसी जंग लगे ताले को तोड़ने के लिए हथौड़े से प्रहार कर रहे हो। सौ हथौड़े
चलाकर,तुम थक कर या निराश होकर,छोड़ दे ते हो प्रयास करना। तभी कोई और आता है ,या खुद ही मन होता है - और
एक हथौड़ा मार दे ते हो। ताला टूट जाता है । तो क्या कहोगे- पहले किये गये सौ प्रहार व्यर्थ के थे? सच कहो तो एक
प्रहार भी व्यर्थ नहीं गया तुम्हारा। सभी प्रहारों का योगदान रहा ताले को तोड़ने में ...। नियम भी है - जपात ्
सिद्धि,जपात ् सिद्धि,जपात ् सिद्धि वरानने । ध्यान दो कि यहाँ शब्द ‘जपेन ् सिद्धि’ नहीं है , ‘ जपात ् सिद्धि ’ है - यानी जप-
से(करण कारक) सिद्धि नहीं होती,जप-से(आपादान कारक)सिद्धि होती है । शास्त्रों के ऐसे ही गढ़
ू संकेतों को समझने में
लोग चूक जाते हैं,और उल्टे शास्त्र को ही दोष दे ने लगते हैं। शब्द वही है , स्थिति बदल गयी। ‘ क्रिया ’ वही है , ‘ कारक ’
बदल गया,जिससे परिणाम भी बदल गया।

“...ईश भक्ति के सम्बन्ध में अनेक उदाहरण हैं,अनेक शर्तें भी है ,अनेक

स्थितियाँ भी हैं। एक प्रसंग है - विष्णु,नारद और एक भक्त का। एक बार नारदजी ने भगवान पर आरोप लगाया कि
तुम बड़े ही निष्ठुर हो। व्यर्थ ही तुम्हें लोग कृपालु, दयानिधान आदि नामों से अलंकृत कर दिये हैं। विष्णु चौंके,नारद
की इस टिप्पणी पर। आरोप का कारण जानना चाहा। पछ
ू ने पर नारद ने बतलाया कि आपका एक भक्त पीपल के पेड़
के नीचे बैठा दीर्घ काल से तपस्या कर रहा है । अब तो अन्तिम स्थिति है उसकी, फिर भी आपका कृपा-प्रसाद नहीं
प्राप्त हो रहा है उसे। भगवान ने कहा कि एक काम करो नारद, तुम उसे जाकर कह दो - ‘ जिस पेड़ के नीचे बैठा है ,
उसमें जितनी पत्तियां हैं,उतने ही बर्षों बाद मैं दर्शन दं ग
ू ा।’ सदा सर्वत्र विचरण करने वाले नारद,उस निराश हो रहे
भक्त के पास जाकर भगवान का संदेश सुनाये। नारद का संदेश सुनकर उसने कुछ कहा नहीं,बस नत्ृ य करने
लगा,पागलों की तरह। नारद को लगा कि यह निराशा में सच में ही मति-भ्रमित हो गया है । तभी गरुड़ के पंखों की
ध्वनि सुनाई पड़ी, उनके आगमन का संकेत मिला। आँखें उठा कर नारद ने दे खा- भगवान सामने हैं। अब तो नारद को
थोड़ा क्रोध भी आ गया। उन्होंने कहा- ‘ पहले तो मैं तुम्हें निर्दयी और कठोर ही कहता था,अब तो झूठा भी कहूँगा,क्यों
कि अभी-अभी तुमने झूठ बोला है । मुझसे कहा कुछ, और किया कुछ।’ भगवान मुस्कुराते हुए बोले- ‘ तुम जैसे मेरे
भक्त भी भ्रमित होजाते हैं यदि,फिर ये संसार तो अबोधों का है , उनका क्या कहना ? ना तो मैं झूठा हूँ,और ना कठोर
और निर्दयी। मुझे पाने की एक खास स्थिति है । वह जब, जैसे, जहाँ बन जाय,फिर मैं विवश हूँ दर्शन दे ने को। अब तक
जिस गति और गहराई से ये मुझे पुकार रहा था,उसके हिसाब से मैंने वह लम्बा समय बतलाया था। इसे कामना पूर्ति
होने की कोई निश्चित समय-सीमा भी ज्ञात न थी। किन्तु जैसे ही कामना पर्ति
ू की समय-सीमा निर्धारित कर दी
तुमने, इसके स्मरण करने की तीव्रता इतनी बढ़ गयी कि वह काल की लम्बी सीमा क्षण भर में समाप्त हो गयी,और
मुझे विवश होकर आना पड़ा। मुझ तक पहुँचने की दरू ी वही है , वो कभी, किसी के लिए बदलती भी नहीं है । बदलता है
सिर्फ यात्री की गति । पैदल चलने वाले और हवाईजहाज से चलने वाले की गति में ही तो अन्तर है , दरू ी तो वही रहती
है ...। नाम-जप करते रहो, करते रहो...एक ना एक दिन तुम्हारे कर्मों का खाता शून्य हो जायेगा,और ईश्वर का दर्शन
मिल जायेगा। और दर्शन मिलना क्या है - ईश्वर कहीं तुमसे दरू और अलग थोड़े जो है । हीरे के टुकड़े पर तुम्हारे कर्म-
संस्कारों की मैल चढ़ी हुयी है ,उसे धीरे -धीरे धोवो,या जल्दी से- ये तम्
ु हारी इच्छा पर है ।”

बातें हो रही थी। मिठाई का प्लेट भी खाली हो चुका था। गायत्री ने

टोका - “ अब मेरे सवाल का जवाब दो भैया, इनकी बातें और सवाल तो कभी खतम ही नहीं होने वाले हैं। पहला सवाल
ये है कि तम्
ु हारा अलोन व्रत अभी चल ही रहा है ,या खतम हुआ? रात का भोजन नमकीन होगा या मीठा-सादा ही? और
दस
ू री बात ये है कि मिठाई जो मुझे खिलानी चाहिए थी,पहले तुमने ही खिला दी। तुमने ठीक ही कहा था- मोतीशंख
और सियारसिंगी के प्रभाव से धीरे -धीरे सबकुछ ठीक हो जायेगा। अभी महीने भर भी नहीं हुए कि एकदम चमत्कार हो
गया। जो सपना दस वर्षों से दे ख रही थी,तुम्हारी कृपा से महीने के अन्दर परू ा हो गया।”

बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “मेरी कृपा की बात नहीं है गायत्री। कोई मनुष्य किसी पर क्या कृपा कर सकता है ! सब ‘
उनका ’ ही किया कराया है ।”-ऊपर की ओर हाथ दिखाकर बाबा ने कहा- “ उनकी ही प्रेरणा हुयी,तो तम
ु ने इन्हें
हवाखोरी को भेज दिया। वहां मैं मिल गया। मेरे पास ये दोनों सामान भी अभी हाल में ही, एक संत की कृपा से आया
था। मैं फकीर आदमी क्या करता ऐसे सांसारिक चीजों का,अतः तुम्हें दे दिया।”

मैंने दोनों हाथ जोड़कर बाबा को निवेदित किया- ‘ सो तो है ,सब कुछ ऊपर वाले की मर्जी से ही होता है । समय से पहले
और भाग्य से ज्यादा भी कुछ नहीं होता। किन्तु प्रत्यक्षतः तो हम इसे आपकी ही कृपा कहें गे। ईश्वर ने मेरा दिन
बदलने के लिए आपको ही निमित्त बनाया।’

“हां, निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन — कृष्ण ने अर्जुन को सिर्फ निमित्त बन जाने को कहा है , यानी अपने कर्तापन
को त्यागने भर से ही परम कल्याण हो जाता है ,और कुछ करने की जरुरत नहीं। ‘ हम करते हैं ’ - यह सोचना,
समझना ही सबसे बड़ा खतरा है । सबसे बड़ी मूर्खता है । ”- बाबा ने स्पष्ट किया।
बाबा के श्रीमुख से बारम्बार कृष्ण का उदाहरण सुन कर,मुझे उस दिन की बात याद आ गयी- बाबा ने कृष्ण की राधा
और काली में अभेदाभाव की ओर इशारा किया था। अभेद का यह प्रश्न मेरा मन मथित किये हुए था। अतः पूछ बैठा- ‘
महाराज ! उस दिन आपने वैष्णव के भयभीत रहने, और शक्ति से मुंह चुराने की बात कही थी। इसे स्पष्ट करने की
कृपा करें ।’

“हाँ, कहा था, और अब भी यही कहूँगा; किन्तु पहले गायत्री के सवाल का

जवाब तो दे लँ ।ू ”- उत्तर की प्रतीक्षा में सामने खड़ी गायत्री की ओर दे खकर बाबा ने कहा- “ अब जरा तम
ु ही बतलाओ-
कोई मुझे नये,सजे-धजे बड़े से दफ्तर में बैठ कर लगातार पुकारे जा रहा हो,तो वैसी जगह खाली हाथ जाना क्या शोभा
दे ता? और तुम्हारे दस
ू रे सवाल का जवाब ये है कि अलोन व्रत समय-समय पर सप्ताह-दस दिनों के लिए ले लेता हूँ
आवश्यकतानस
ु ार। फिलहाल तो नमक खाऊँगा ही,अतः तम्
ु हें रात्रि-भोजन में जो बनाना हो, बनाओ। और हाँ,मेरे नाम
पर विशेष कुछ करने-धरने की जरुरत नहीं।”

अपने सवाल का जवाब पाकर,गायत्री चली गयी रसोई-घर की ओर यह

कहती हुयी- ‘ वैसे मेरा ध्यान तो तम


ु लोगों की बातों में ही रहे गा,फिर भी ‘ बाबा की अपनी कहानी ’ शरु
ु नहीं होनी
चाहिए। वो भोजन के बाद ही होगी,ताकि इत्मिनान से मैं भी सुन सकँू । तबतक तुमलोग कुछ और ही विषय पर चर्चा
करो।’

चर्चा तो छे ड़ ही दी है मैंने- कृष्ण-काली वाली।

“ काली को तन्त्र-मत वाले अपनी मिलकियत समझते हैं, और कृष्णतत्व को वैष्णव अपना साम्राज्य; किन्तु यदि मैं
कहूँ कि कृष्ण तो ‘ महातान्त्रिक ’ ठहरे , तथा कृष्ण और काली में भेद नहीं है ,तो तुम भी चौंकोगे।” – बाबा ने मेरी ओर
दे खते हुए कहा- “ हाँ, साक्षात ् तन्त्र-मूर्ति कहो इन्हें । और इसे जांचने-दे खने के लिए कहीं अन्यत्र जाने-खोजने की
आवश्यकता भी नहीं है । तुम तो परम वैष्णव परिवार से हो, अतः जानते ही होओगे- श्रीमद्भागवत को लोग श्रीकृष्ण का
हृदय मानते हैं।”

मैंने हां में सिर हिलाते हुए कहा- ‘ सो तो है । श्रीकृष्ण का प्रधान ग्रन्थ महर्षि व्यास रचित श्रीमद्भागवत ही तो है । सुनते
हैं कि अपने एकमात्र पुत्र शुकदे वजी द्वारा गह
ृ त्याग कर दे ने से, पुत्रमोह में विकल, व्यासजी को नारदजी ने सुझाया
था कि श्रीकृष्ण का प्रधान लीलाग्रन्थ ग्रथित करो। इससे शान्ति-सख
ु -लाभ होगा।’

“हां,सही सुना है तुमने। मैं उस ‘श्री’ वाले भागवत की ही बात कहता हूँ। एक ओर श्रीकृष्ण को महातान्त्रिक कहना
चाहूँगा तो दस
ू री ओर उनके इस हृदय-ग्रन्थ को तान्त्रिक ग्रन्थ कहने में भी जरा भी संकोच नहीं है मझ
ु े।
श्रीकृष्णद्वैपायनव्यासजी के चिंतन-वक्ष
ृ का सर्वाधिक परिपक्व फल है श्रीमद्भागवत, जो वैदिक और तान्त्रिक
परम्पराओं का संगम-स्थल है । वैदिक के साथ-साथ तान्त्रिक उपासनाओं का विशद वर्णन मिलेगा यहाँ। श्रीकृष्ण और
सखा अर्जुन के संवाद में महाभारत का अंश,श्रीमद्भगवतगीता तो सर्वोपनिषद-सार है ही, श्रीमद्भागवत का उद्धवगीता
भी कम अवलोकनीय नहीं है । वैदिक,तान्त्रिक और मिश्र साधना विधि की विस्तत
ृ चर्चा है यहां। शीघ्र सिद्धि हे तु मिश्र
विधि अपनाने की भी बात कही गयी है —...वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीय व्रत धारणम ्(११-११-३७) तथा इसी स्कन्ध
में आगे कहते हैं-...उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये। (११-२७-२६) श्रीमद्भागवत, प्रथम स्कन्ध के पांचवे
अध्याय में कहा गया है - कुर्वणा यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयासकृत ्। गह्
ृ णन्ति गण
ु नामानि कृष्णस्यानस्
ु मरन्ति च ।।
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि । प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ।। इति मूर्त्यभिधानेन
मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम ् । यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शनः पुमान ् ।। इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य मदनुष्ठितम ् ।
अदान्मे ज्ञानमैश्वर्यंस्वस्मिन ् भावं च केशवः ।। (१-५-३६ से ३९) अभिप्राय ये है कि उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में
भगवान के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार श्रीकृष्ण के नाम-गुण- कीर्तन करते हैं। प्रद्युम्न,अनिरुद्ध,
संकर्षण और वासुदेव- इस चतुर्व्यूह रुपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा,प्राकृतमूर्ति रहित,अप्राकृतमन्त्रमूर्ति यज्ञपुरुष
का यजन करता है जो,उसीका ज्ञान पर्ण
ू और यथार्थ है । श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति तभी प्राप्त हो सकती है —यहाँ
भागवतकार ने बड़ी चतुराई से सिद्ध किया है कि श्रीकृष्ण का सिर्फ लीला-चरित ही तान्त्रिक नहीं है ,प्रत्युत उनका
श्रीविग्रह भी तान्त्रिक ही है - यानी वे साक्षात ् तन्त्रमूर्ति हैं। तन्त्र ही कृष्ण हैं,और कृष्ण ही तन्त्र है । इस विषय को और
भी स्पष्ट किया गया है - इसी ग्रन्थ के बारहवें स्कन्ध का कथन –विष्वक्सेनस्तंत्रमर्ति
ू र्विदितः पार्षदाधिपः ।
नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरे र्गुणाः ।। (१२-११-२०) विचारणीय है —जिसके पार्षद-प्रधान विश्वविश्रुत ्
विष्वक्सेन ही (पांचरात्रादि आगमरुप) तन्त्रमूर्ति हैं,उसके स्वामी को ‘ परमतन्त्रमूर्ति ’ स्वीकारने में क्या आपत्ति हो
सकती है ? श्रीकृष्ण का स्वाभाविक गुण—अष्टसिद्धियां(अणिमा,लघिमा,गरिमा,महिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य,
ईशीत्व,वशीत्व) आदि तो तन्त्र मार्ग के यात्रियों को रास्ते में पड़े कंकड़ के समान प्राप्त होते रहते हैं; किन्तु सच्चा
साधक अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है ,न कि इन सिद्धियों के लिए व्याकुल । यह ठीक वैसा ही है ,जैसे कोई पहाड़
चढ़ने का लक्ष्य रखता हो,उसके लिए कंकड़ बटोरने का क्या औचित्य ? बड़ी चतुराई से यहां इन अष्टसिद्धियों को
कृष्ण का द्वारपाल कहा गया है । महल में प्रवेश करोगे तो,पहले तो द्वारपालों का ही साक्षात्कार होगा न? और उनमें
ही उलझे रह गये यदि,फिर भीतर प्रवेश कैसे करोगे,राजा से भेट कैसे होगी? हमारे मनीषियों की यही विशेषता रही
है ,कि गूढ़ बातों को भी कथाशैली में कहते हुए, इशारे -इशारे में निकल जाते हैं। इन तथ्यों को न समझ पाने के कारण
ही अल्पज्ञ भ्रमित होते हैं।”

इतना कहकर,बाबा जरा ठहरे । और दिनों की अपेक्षा,आज वे अधिक प्रसन्न लग रहे थे। एक बार झांक कर गायत्री की
रसोई व्यवस्था का निरीक्षण किये,क्यों कि गायत्री की अनुपस्थिति उन्हें कुछ खल रही थी। वे जानते थे कि इन सब
विषयों में उसकी रुचि बहुत है ।

आवाज न मिलता पा,उधर से गायत्री ने ही टोका- ‘ क्यों भैया ! थक गये


या कि भुखा गये ? ये न समझो कि मैं रसोई में हूँ। यहाँ तो सिर्फ मेरा शरीर है ,मन-प्राण तो तुम्हारे प्रवचन में ही बसा
है । थोड़ा काम और रह गया है । बस निपटाकर उधर ही आती हूँ।’

“ यही जांचने के लिए तो मैं रुका।”- कहते हुए बाबा ने बात आगे बढ़ायी- “ कृष्ण पर चर्चा निकल पड़ी है ,तो आज कुछ
और गत्थि
ु यां भी खोल ही लो। क्यों कि कृष्ण के बारे में बहुत सी भ्रान्तियां भी हैं। ‘सम्भ्रान्त’ में से ‘सम’ को
निकालकर दे खने लगोगे तो क्या हाथ लगेगा- ‘भ्रान्त’ ही तो। कृष्ण को समझने में कुछ लोगों ने ऐसी ही भूल की है ।
कृष्ण की राधा के मोह में तो महर्षि व्यास उनके परमग्रन्थ श्रीमद्भागवत में सीधे-सीधे नाम लेने में भी चूक गये,या
भयभीत हो गये। कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि ‘ राधा ’ कभी बाद की कल्पना है । अब भला उन मतिभ्रमों को
कैसे समझाया जाय कि राधा-कृष्ण में अभेद है । राधा कृष्ण मयी हैं, कृष्ण राधा मय हैं। अब गाय के थनों में घी ढूढ़ने
की मूर्खता कोई करे तो क्या कहा जाय ? ऐसे ही कृष्ण की वांसुरी,कृष्ण की लीला, कृष्ण की भंगिमा- ये सब के सब बड़े
ही रहस्यमय हैं। जितनी ही गहरी डुबकी लगाओगे, उतना ही मोती पाओगे...।”

‘अच्छा तो तुमलोग अकेले-अकेले ही डुबकी मत मार लो,मेरा काम भी यहाँ खतम हो चुका है । विचार हो तो खाना-
पीना करके इत्मिनान से डूबा जाय कृष्ण-रस में ।’- बाबा आगे कुछ कहने ही जा रहे थे,तभी टपक पड़ी गायत्री यह
कहते हुए।

मैंने घड़ी की ओर दे खा-अभी तो मात्र नौ बजे हैं। घंटे भर की बैठकी तो और लगायी ही जा सकती है । अतः बोला- ‘
आओ बैठो गायत्री ! इस कृष्ण प्रसंग को समेट ही लें,फिर भोजन किया जायेगा। ग्यारह बजे मुझे एक बार फिर दफ्तर
जाना होगा- फाइनल टच के लिए। ये तो अब रोज रात का बखेड़ा रहे गा ही। खैर,एक-दो दिनों की ही बात है ,फिर तो
दफ्तर और आवास सब एक ही कम्पाउण्ड में होगा...बस गया और आया।’

“ तो तुम्हें फिर दफ्तर जाना है ग्यारह बजे रात में भी ? ”- बाबा और गायत्री दोनों ने एक साथ सवाल किये।

और नहीं तो क्या। बड़ी कुर्सी का बोझ भी तो ज्यादा होता है । इसे तो सम्भालना ही होगा। नौकर रहने और मालिक
बनने में क्या फर्क है - एक ही दिन में समझ आ गया। खैर,आप प्रसंग प्रारम्भ करें । हमने भी ठान ही लिया है - परू ा
रतजग्गा होगा आज। वैसे भी इस कुटिया में आज अन्तिम रात है हमलोगों की। जाग कर ही इसे विदाई दी जाय।

गतांश से आगे...नौवां भाग

बाबा पन
ु ः अपने प्रसंग पर आगये- “ क्या तम
ु ने कभी गहराई से सोचा है कृष्ण के बारे में ? ” - फिर, मेरे उत्तर की
प्रतीक्षा किये बगैर स्वयं ही बोलने लगे- “ सोचे होगे,पर गहरे रुप में नहीं, और बिना तलछट टटोले कुछ पा न सकोगे
इस छलिया के विषय में । तुलसीबाबा ने भी कुछ ऐसा ही कहा है - जनम-जनम मुनी जतन कराही... जन्म-जन्मांतर के
कर्मफल जब परिपक्व होते हैं तो कृष्ण का चिन्तन हो पाता है । जरा सोचो तो—बांकेविहारी ...त्रिभंगी... नटवर... क्या
ये किसी सीधे-सादे व्यक्ति की संज्ञा है या उलझे व्यक्तित्व की व्याख्या का संकेत? कृष्ण के व्यक्तित्व को लेकर कई
सवाल उठते हैं,और उन्हें सुलझाने का प्रयास, और भी उलझन में डाल दे ता है । इसी भय से मुक्ति के लिए कुछ लोगों
ने युक्ति निकाली- कृष्ण को टुकड़ों में ग्रहण करके। सूर के कृष्ण कोई और हैं, और मीरा के कृष्ण कोई और- भले ही
सुनने में यह अटपटा लग रहा हो,पर दोनों में कोई तालमेल नहीं है । श्रीमद्भभागवत के कृष्ण बिलकुल ही अलग हैं,
गीता के कृष्ण से। एकांगी कृष्ण को जानना शायद थोड़ा सरल हो,पर सर्वांगी कृष्ण...?

“…कृष्ण अबूझ हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व अपरम्पार है , अगम्य है । कृष्ण को बूझने का प्रयास आकाश को मुट्ठी में
बाँधने जैसा है । कृष्ण नाम की अन्वर्थता गोपालतापनियोपनिषद के इस श्लोक से दर्शनीय है - कृषिर्भूवाचकः शब्दः ण
श्च निवति
ृ वाचकः । तयोरै क्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।। कृष ् (कृषि) "भू" वाचक है , और "ण"
निवति
ृ (आनन्द)वाचक । ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है । कृष्ण की उपासना पर गहन पकड़ रखने वाला
ग्रन्थ "गौतमीयतन्त्र" में इस आशय को और भी पल्लवित किया गया है । यथा- कृषिशब्दश्च सत्तार्था
णश्चानन्दस्वरूपकः। सुखरुपो भवेदात्मा भावानन्दमयस्ततः ।

“...वस्तुतः यहाँ हे तु और हे तुमान का अभेदोपचार है । या कहें - परम बह


ृ त्तम सर्वाकर्षण आनन्द ही "कृष्ण" पदवाच्य
है । कृष्ण को समझने के लिए महात्रिपरु सन्
ु दरी रासराशेश्वरी श्री राधा की कृपा प्राप्त करनी होगी,क्यों कि "रा"
शब्दोच्चारणा दे व,स्फीतो भवति माधव । "धा" शब्दोच्चारणा दे व पश्चात ् धावति सम्भ्रमम ् ।। वत्ृ त के केन्द्र को
जानने के लिए परिधि को लांधने की आवश्यकता होती है , और यदि केन्द्र और परिधि में ही अभेद हो-भेदाभेद हो तो
क्या करे सामान्य मानव?

“…श्रीकृष्ण का ‘द्विभुजमुरलीधर’ रुप ही पूर्णतम है - शेष क्या? वे तो लीलाविलास मात्र हैं— पूर्ण और पूर्णतर मात्र;
पर्ण
ू तम कदापि नहीं। द्वारका के कृष्ण,मथरु ा के कृष्ण और व्रजविहारी कृष्ण में क्रमिक भेद है - पर्ण
ू > पर्ण
ू तर >
पूर्णतम । जैसा कि हरिभक्तिरसामत
ृ - सिन्धु में कहा गया है - कृष्णस्य पूर्णतमता व्यक्ताऽभूद् गोकुलान्तरे । पूर्ण
पूर्णतरता द्वारकामथुराऽऽदिषु ।। इस बात को जरा और खुलासे से समझना हो तो इस पौराणिक प्रसंग में झांक कर
टटोलो —

“...एक बार गिरिराज की उपत्यका में पारसौली नामक रासस्थली के कंु ज में बांकेविहारी विराज रहे थे। प्रेम-विह्वल
गोपियाँ उन्हें ढूढ़ती हुयी वहाँ पहुँच गयी। प्रेमातरु ाओं को दे खकर,गोपीनाथ को परिहास सझ
ू ा,और चट अपना
मुरलीधर रुप त्याग कर चतुर्भुज हो गये। गोपियाँ अचकचा गयीं। यहाँ तो ‘तुलसी’ से भी विकट स्थिति हो गयी।
तुलसी ने तो पहचान लिया था,अड़चन स्वीकारोक्ति में थी— कित मुरली कित चंद्रिका,कित गोपियन का साथ ।
तल
ु सी मस्तक तब नवैं धनष
ु -वाण लेयो हाथ ।। किन्तु यहाँ चतर्भु
ु ज का अंगीकार तो दरू , पहचान भी अस्वीकार।
त्रिलोकी के ‘प्रियतम’ से ही अपने ‘प्रियतम’ का पता पूछने लगीं,और स्पष्टी के अभाव में ,निराश गोपियाँ उन्हें अन्यत्र
ढूढ़ने लगीं। तभी अचानक ‘रासेश्वरी’ का प्रवेश हुआ। परम अंतरं गा ‘स्व-रुप-शक्ति’ वन्ृ दावनेश्वरी,राज-राजेश्वरी
राधा के समक्ष कृष्ण का छद्म रुप कैसे टिक पाता? चतर्भ
ु ज को लज्जित होना पड़ा। कहा गया है - भज
ु ाचतष्ु ट्यं क्वापि
नर्मणा दर्शयन्नपि । वन्ृ दावनेश्वरी प्रेम्णा द्विभुजः क्रियते हरिः ।। प्रेम के महामाधुर्य के समक्ष ऐश्वर्य का निर्वाह
असम्भव है । वस्तुतः श्रीकृष्ण का परम अधिष्ठान तो उनका द्विभुज विग्रह ही है - निराकारो महाविष्णुः साकारोऽपि
क्षणे क्षणे । यदा साकाररुपोऽसौ द्विभुजो मुरलीधरः ।। (सर्वोल्लास तंत्र १६/४२) ”

गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘उपेन्दर भैया ! तो क्या चार भज


ु ाओं वाले विष्णु स्वरुप की अपेक्षा दो भज
ु ाओं वाला
मुरलीधर रुप अधिक महत्त्वपूर्ण है ?’- गायत्री के प्रश्न पर बाबा जरा मुस्कुराये । फिर कहने लगे- “ हम मनष्ु य, दो
हाथ वाले मनष्ु य रुप धारी को जितनी आसानी से समझ सकते हैं, उतना चार हाथ वाले को समझ नहीं पाते। किन्तु
इसका ये अर्थ न लगा लेना कि कृष्ण ने स्वयं को समझाने के लिए ऐसा किया। पहले यहाँ इनकी मरु ली को ही थोड़ा
समझ लो,फिर मुरलीधारी को बूझने का प्रयत्न करना। ”

मैंने तपाक से टोका- ‘ मरु ली को क्या समझना है ? ’- मेरे इस टोक पर बाबा जरा झल्ला उठे ।

“ यही तो तुम नयी पीढ़ी वालों की चूक है । समझते कुछ नहीं, और सबकुछ समझने का दम्भ भरते हो। मुरली में तो
वह रहस्य है , जो अच्छे -अच्छों का होश ठिकाने लगा दे । वह मेले में बिकने वाली ‘नरकुल ’ की बांसुरी नहीं,जो कोई भी
दो पैसे में लेकर फूंक मार दे । श्रीकृष्ण का मुरलीधर नाम रहस्यमय है ,तो उनके होठों पर थिरकने वाली मुरली भी।
मुरली एक सुषिर वाद्य है । वेणु,वंशी आदि इसके समकक्ष होकर भी आकारिक भेद युक्त हैं- हस्तद्वयमितायामा
मख
ु रन्ध्रसमन्विता । चतःु स्वरश्छिद्रयक्
ु ता मरु ली चारुनादिनी ।।—से इसे व्याख्यायित किया गया है । यह ‘चारु’
नादवाली विशेष रुप से लम्बी है - दो हाथ लम्बी,जो मुखरन्ध्र सहित चार स्वरछिद्रयुक्त है ...।

“…वेणु का एक नाम ‘पाविक’ भी है । छः छिद्रों से युक्त बारह अंगुल लम्बाई वाला, स्थूलता में अंगष्ु ठ परिमित, जैसा
कि कहा गया है - पाविकाख्यो भवेद्वेणुर्द्वादशांगुलदै र्घ्यभाक् । स्थौल्येंऽगुष्ठमितः षड्भिरे ष रं ध्रैः समन्वितः ।।

“ और वंशी —अर्धांगुलान्तरोन्मानं तारादिविव राष्टकम ् । ततः सार्द्धांगुलाद्यत्र मुखरन्ध्रं तथांऽगुलम ् ।। शिरो


वेदांगुलं पुच्छं त्र्यंगुलं सा तु वंशिका । नवरन्ध्रा स्मत
ृ ा सप्तदशांगुलमिता बुधैः ।। दशांगुलान्तरा स्याच्चेत ् सा
तारमख
ु रन्ध्रयोः । महानन्दे ति विख्याता तथा सम्मोहिनीति च ।। भवेत ् सर्यां
ू तरा सा चेत्तत आकर्षणी मता ।
आनन्दनी तदा वंशी भवेदिन्द्रान्तरा यदि ।।- ये सारी बातें बहुत विस्तार से हरिभक्तिरसामत
ृ सिन्धु में कही गयी हैं।
तुम इसे ध्यान से सुनो,और हृदयंगम करने का प्रयास करो। आधे-आधे अंगुल के अन्तर पर तारादि अष्ट विवरों के
बाद, डेढ़ अंगल
ु पर मख
ु रन्ध्र होता है इसमें , तथा शिरोभाग चार अंगल
ु और पच्
ु छ भाग तीन अंगल
ु मात्र। परिमितिक
भेद से - नवरन्धों और सत्रह अंगुल वाली वंशी को ‘वंशिका’ कहते है । किं चित आकारिक भेद से महानन्दा, संमोहिनी,
आकर्षणी,आनन्दी आदि इसकी अन्य संज्ञायें भी हैं। वैसे महानन्दा तो संमोहिनी में ही समाहित है । थोड़े और गहराई
में जायें तो कायिक भिन्नता भी लक्षित होती है - मणिमयी,है मी(स्वर्णमयी) और वैणवी- यानि बाँस की बनी हुयी...।
“...अब जरा इससे आगे की बात को समझो- वंशी > वंशुली > वाँसुरी गोपांगनाओं को अतिशय प्रिय है । वावली
वष
ृ भानन
ु न्दिनी ने मचलकर कभी कहा था- ‘श्याम तेरी वंशी मैं नेकू बजाऊँ...तुम बनो वष
ृ भानु नन्दिनी, मैं नन्दलाल
कहाऊँ...।’ ‘श्रीराधाकृष्णगणोद्देशदीपिका’ में वंशी को ‘भुवनमोहिनी’ कहा गया है , जो रासेश्वरी के सुकोमल हृदमीन
के लिए बडिशी(कांटा) का काम करता है । ध्यान दे ने योग्य है कि ‘मीनहारी’- मछली मारने वाला, जिस उपकरण का
उपयोग करता है उसे भी ‘वंशी’ ही कहते हैं, जो जलक्रीड़ारत मछलियों की वेधिका है । प्रेमक्रीड़ा-विह्वल गोपांगनाओं
के हृदय को बींधकर, कायसौष्ठव को ‘कर्षित’ कर लेता है जो, वह ‘वंशी’ ही है ...राधाहृदयमीन- बडीशी महानन्दा
भिधाऽपि च...। छः रन्ध्र-युक्त इस वेणु की एक संज्ञा ‘मदनझंकृति’ भी है । क्यों न हो? कृष्ण का यह मोहक
स्वरुप,जिसका योगीजन नित्य ध्यान करते हैं, किसी बडीशी से कम है क्या? जरा दे खो तो इस पदलालित्य में
झांककर- वंशीविभषि
ू तकरान्नवनीरदाभात ्, पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात ्। पर्णे
ू न्दस
ु न्
ु दरमख
ु ादरविन्दनेत्रात ्,
कृष्णात्परं किमपितत्त्वमहं नजाने।। और ऐसा ही आकर्षक एक और स्वरुप चिन्तन श्रीमद्भागवत दशम ् स्कन्ध
‘वेणुगीत’ प्रसंग में शुकदे वजी की उक्ति-वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं , विभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं
च मालां। रन्ध्रान ् वेणोरधरसध
ु या परू यन ् गोपवन्ृ दै र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।.... इति वेणरु वं
राजन ् सर्वभूतमनोहरम ्। श्रुत्वा व्रजस्त्रियःसर्वा वर्णयन्त्योऽभिरे भिरे ।। त्रिभंगललित मुद्रा में मन्दस्मित खड़े,
नवनीरद आभावाले,पीताम्बरधारी नटवरनागर मुरलीमनोहर की सुपरिपक्व विम्बाफल (कुन्दरी) सदृश अधरोष्ठों पर
विराजित वेणु में ‘क्लीँ..क्लीँ..क्लीँ’ महा सम्मोहन की झंकृति जब होती है ,तो अनंग ‘मन्मथ’ का मन भी आलोड़ित हो
उठता है ,अन्य की क्या विसात ? इतना ही नहीं,जो स्मरारि-शिव के मन को भी मथित कर दे — तासामाविरभूच्छौरिः
स्मयमानमुखाम्बुजः । पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथ ।। श्रीमद्भागवत १०-३२-२ में शुकदे वजी का भाव
द्रष्टव्य है । सामान्य जन-मन-मन्थन-कर्ता कामदे व के भी चित्त को मथित करने वाले स्वरुप का वर्णन है
यहाँ,जिसकी व्याख्या चैतन्यमार्गी प्रभुपाद श्री जीवगोस्वामी किं चित भिन्न रीति से करते हैं। इनके अनुसार मन्मथ
का पदच्छे द है —मद् मथ। ‘मदयतीति मदः’ वा ‘मथ्नातीति मथ ्’

अर्थात ् मदन को भी मथित करने वाले- रुद्र से अभिप्राय है ...।

“....वस्तत
ु ः यहाँ बात इससे भी आगे बढ़ गयी है -असीम / निःसीम लंघन-प्रयास है । सामान्य जन-मन को मथित
करने वाले कामदे व को पराभूत किया शिव ने, और स्वयं को कामजयी सिद्ध किया,किन्तु श्रीकृष्ण के मोहिनी रुप
दर्शन ने उस कामजयी को भी मथित कर दिया। ओह ! कैसा अद्भत
ु -रोमांचकारी दृश्य रहा होगा- अपने ही वरदान से
आवद्ध, भस्मासरु से भयभीत, भत
ू भावन भोलेनाथ का इतस्ततः भागना, और तभी अचानक मोहिनीरुप-प्राकट्य...।
आद्यशंकर ने आनन्दलहरी में इस मनोहारी क्षण को इन शब्दों में वर्णित किया है -हरिस्त्वामाराध्य
प्रणतजनसौभाग्यजननीं, परु ा नारी भूत्वा परु रिपुमपि क्षेभमनयत ्....स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन
वपष
ु ा,मन
ु ीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम ् ।। - ध्यातव्य है कि ये स्तवन महात्रिपरु सन्
ु दरी के साथ-साथ
श्रीकृष्ण के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है ।”
बाबा भावविभोर हो रहे थे- इन वर्णनों में । अच्छा तो हमें और गायत्री को भी लग ही रहा था,किन्तु कहीं-कहीं
अतिगूढ़ बातें ऊपर-ऊपर ही निकल जा रही थी। परन्तु बाबा के कथन-प्रवाह में विघ्न बनना उचित न जान मौन साधे,
सुनता जा रहा था,और बाबा कहे जा रहे थे- “…अब जरा एक और प्रसंग सुनो – मोहिनी कृत कृष्णस्तोत्रम ् में ...रतिबीज
रतिस्वामिन ् रतिप्रिय नमोऽस्तुते- कह कर स्तवन किया गया है । क्या तुमने कभी जानने का प्रयास किया है कि यह
रतिबीज है क्या चीज? यह ‘रतिबीज’- कामराज ‘क्लीँ’,मूलतः सरस रुप है ॐ का। ओंकार का उदात्तीकरण ही
क्लींकार है । क्लींमोंकारं च एकत्वं पठ्यते ब्रह्मवादिभिः – ऐसा ही इशारा है गोपालोत्तरतापिन्यप
ु निषद् में । शायद
तुम नहीं जानते होगे कि गायत्री मन्त्र अनेक हैं,और उन समस्त गायत्रियों का शिरमौर है यह कामगायत्री- क्लीँ
कामदे वाय विद्महे पष्ु पबाणाय धीमहि तन्नोऽनंगः प्रचोदयात ् , और इस कामगायत्री का बीज क्लीँ - सर्वसार-
निःसत
ृ सार। इसकी विरुदावली के लिए कोई शब्द हो सकता है क्या? ‘वैखरी’ में सामर्थ्य कहाँ ? और ‘परा’ बहुत दरू
है ...।”

हम अनुभव कर रहे थे कि बाबा की प्रखर वाणी,और कथन शैली धीरे -धीरे गूढ़ से गूढ़तर-गूढ़तम की ओर बढ़
रही थी,जो मुझ जैसे अल्पज्ञों के लिए समझना बड़ा ही कठिन हो रहा था। फिर भी टकटकी लगी थी बाबा के दिव्य
मुखमंडल पर,और कान पीने का प्रयास कर रहे थे,उनकी सरस वाणी को। बाबा कह रहे थे- “...श्रीकृष्ण के प्रियतम
राग—गौरी और गर्ज
ु री में ,प्रियतमा-नाम— ‘राधा’ ही तो निरन्तर निर्झरित होते रहता है । कृष्ण की वंशी और कुछ नहीं
कहती,बस प्रियतमा का नाम-जप मात्र करती है । महर्षि व्यास ने इस अलौकिक क्षण का अद्भत
ु चित्रण किया है ।
श्रीमद्भागवत का रास प्रसंग (स्कन्ध १०, अध्याय २९ से ३३) इस सम्बन्ध में गहन अवलोकनीय है । अनुभवी जन
कहते हैं- रासपञ्चाध्यायी की चतर्मा
ु सीय साधना से, उन्मक्
ु त ‘काम’ निर्मूल होता है । महर्षि व्यास के इस ललित पद
को जरा परखो - विक्रीडितं ब्रजवधूभिरिदं च विष्णोः, श्रद्धान्वितोऽनुश्रण
ृ ुयादथ वर्णयेद् यः । भक्तिं परां भगवति
प्रतिलभ्य कामं, हृद् रोगमाश्र्वपहिनोत्यचिरे ण धीरः ।। - कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रद्धाभक्ति पूर्वक इस पंचाध्यायी का
सेवन करता है ,वह निश्चित रुप से हृदयरोग से सदा सर्वदा के लिए मक्
ु त हो जाता है । ये कोई ‘एन्जाइना-पेक्टोरीश’
और ‘मायोकार्डियल-एनफॉर्क शन’ की बात नहीं कर रहे हैं व्यास जी। संसार का सबसे बड़ा हृदयरोग तो है -
कामविकार। इससे लड़ते-झगड़ते ही जिन्दगी गुजर जाती है । और मजे की बात तो ये है कि झूठ बोलना पड़ता है कि
मझ
ु े कोई परे शानी नहीं है ,मैं तो कामजयी हो गया हूँ। साधकों का पहला चन
ु ौती तो यही है । दमन तो प्रायः सभी
साधक करते रहते हैं- आजीवन। शमन के इस अद्भत
ु रसायन का एक बार तो सेवन करके दे खा जाय...।
रासपंचाध्यायी का अनुष्ठानिक पाठ करना हो तो भाद्रकृष्णाष्टमी से प्रारम्भ करके कार्तिक शुक्ल एकादशी तक करे -
रात सोने से पहले एक पाठ नित्य। बड़ा ही सुन्दर अवसर है यह। या फिर अकेले कार्तिक महीने में भी साधा जा सकता
है । मार्गशीर्ष महीने की साधना का तो अपना अलग महत्त्व है ही । गोपियाँ श्रीकृष्ण की साधना इसी महीने में की थी।
कृष्ण के रहस्यों का कोई अन्त नहीं...इनकी साधना भी अनन्त ही है । वश कोई एक पगडंडी पकड़कर चल पड़ने की
जरुरत है ,क्यों कि हर पगडंडी वहां पहुँचा ही दे गी- यह निश्चित है । गीता में कृष्ण ने दावे के साथ कहा है -
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात ्।।(२-४०) कृष्ण-प्रेम के इस
रास्ते पर उठाया गया एक छोटा सा कदम भी भवसागर को पार करा ही दे गा- यह तय बात है ,क्यों इसमें ‘प्रत्यवाय’ भी
नहीं होता...। एक पैसा भी कृष्ण के इस बैंक में जमा कर दो तो चक्रातिचक्रवद्धि
ृ -दर से व्याज मिलता रहे गा....।

“...एक और बानगी यहाँ प्रस्तुत है —दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं, रमाननाभं नवकुङ्कुमा रुणम ्। वनं च
तत्कोमलगोभिरञ्जितं,जगौ कलं वामदृशां मनोहरम ्।। (श्रीमद्भागवत,१०-२९-३)। कितनी दक्षता पर्व
ू क व्यासजी यहाँ
सबकुछ कह कर भी कुछ न कहने जैसा प्रतीत हो रहे हैं। इस गोपनतन्त्र का ही चमत्कार है कि विद्वत ् जन भी प्रायः
भ्रमित होकर, साक्षात ् श्रीकृष्णविग्रह-श्रीमद्भागवत में ‘राधा’ नाम की अप्राप्ति में उलझ जाते हैं। अब भला ‘गोस्तन-
क्षरित’ दग्ु ध में किसी नादान बालक को घत
ृ कहाँ से दीखे? जब कि पर्ण
ू व्याप्ति है ...।

“…अब तनिक इस कामबीज को क्षरित करने वाले वेणु के विषय में विचारो–– श्रीकृष्ण का चिदानन्दमय वेणु
—‘व’+‘इ’+‘अण’ु यानि ब्रह्मानन्द + विषयानन्द दोनों को अण(ु तच्
ु छ) कर दे ,या कहें - जिसके समक्ष दोनों तच्
ु छ हो
जायें, जो परमानन्द का विधायक है - वह है वेणु- वेणुरिति वश्च इश्च वयौ स्वरुपानन्दविषयानन्दावणू यस्मात ् स
वेणुः। (श्रीमद्भागवत) वस्तुतः ‘नादब्रह्म’ किं वा ‘शब्दब्रह्म’ का अधिष्ठान व प्रकाशक है - वेणु। यह नाद ही सष्टि
ृ का
बीज है ,जो ‘प्रणव’ में अन्तर्निष्ठ है । नाद की अनन्त शक्तियां समाहित हैं इसमें । प्रथम स्पन्दन स्वरुप सज
ृ नात्मक
नाद प्रणव ही है । नाद ही किं चित स्थूल होकर शब्दब्रह्म- प्रणव में व्यक्त होता है ,जो विन्द ु स्वरुप वेद-बीज है , जिससे
चौबीश अक्षरा त्रिपदा वेदमाता ‘गायत्री’ का स्फुरण होता है । सच पूछो तो ‘क्लींकारी’ वेणु का माहात्म्य अनिर्वचनीय
है । नादब्रह्म > शब्दब्रह्म > प्रणव-निष्णात होकर ही परब्रह्मपरमात्मा की प्राप्तव्यता सिद्ध हो सकती है । यथा- द्वे
ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत ्। शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।। (विष्णुपुराण ६/५/६४)। इस
‘शब्दतत्त्व’ को ही अनादि-अनन्त ब्रह्म कहा गया है -अनादि निधनं ब्रह्म शब्दत्त्वं यदक्षरम ् । विवर्त्तते अर्थभावेन
प्रक्रिया जगतो यतः।। (वाक्यपदीयम ्)

“....वस्तुतः यह शब्दतत्व-कुछ और नहीं, प्रत्युत ॐ ही है - ऐसा कहने पर आशंका हो सकती है - किं चित भेद
भासित हो रहा है न - ॐ और परब्रह्म में ! इसे निर्मूल किया है - तैत्तिरीयोपनिषद् (१/४/१)- ब्रह्मणः कोशोऽसिमेधया
पिहितः कहकर। कुहरे में सूर्य दिखलायी नहीं पड़ता,तो सूर्य की अनुपस्थिति नहीं हो जाती,तद्भांति ही ‘लौकिक बुद्धि’-
आवत
ृ परब्रह्म की स्थिति है यहाँ। शब्दब्रह्म के अभ्यन्तर में परब्रह्म की उपस्थिति है । ‘ॐ’ परब्रह्म का वाचक है ।
वर्ण्य प्रसंग में यह मरु लीधर के लिए प्रयक्
ु त है । नाम-नामी अभिन्न हैं- नामचिंतामणिः कृष्णश्चैतन्यरसविग्रहः। पर्ण

शुद्धो नित्यमुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ।। (हरिभक्तिरसामत
ृ )। इस प्रकार नादब्रह्म श्रीकृष्ण से अभिन्न है ।
यथा- नादात्मकं नाद बीजं प्रयतं प्रणवस्थितम ्। वंदे तं सच्चिदानन्दं माधवं मुरलीधरम ्।। सुस्पष्ट है कि
नादब्रह्म<>शब्दब्रह्म का ही सूक्ष्मरुप है । प्राणीमात्र की अन्तरात्मा में ‘नादात्मादे वी’ का निरं तर नदन होते रहता है -
सोऽन्तरात्मा तदादे वी नादात्मा नदते स्वयम ् (शारदातिलक) ।
“...अब पुनः एक और पक्ष पर विचार करो— श्री कृष्ण की तान्त्रिकउपासना में कामबीज-‘क्लीँ’ कथित है , जिसकी
अधिष्ठात्री दर्गा
ु हैं। ”

इतनी दे र से लगभग सांस रोके,चुप्पी साधे गायत्री ने अचानक टोका- ‘ये कृष्ण की तान्त्रिक साधना में दर्गा
ु कहां से
टपक पड़ी उपेन्दर भैया? और इसके पहले आपने कृष्ण और काली में अभेद कहा था। आंखिर क्या रहस्य है इसमें ?
वैसे तो एक ही परम सत्ता के सभी अंश हैं- इसे स्वीकारती हूँ,फिर भी बहुत संशय है ....। ’

गायत्री की बात पर बाबा मस्


ु कुराये। सिर हिलाते हुए बोले - “ मैं जानता था कि तम
ु ये सवाल जरुर करोगी,क्यों कि
दर्गो
ु पासक कुल की हो न,और यहां बात आगयी कृष्ण की साधना की। तो क्या लगता है - ये घालमेल हो गया ? नहीं,
गलती नहीं हुयी है ,मिलावट भी नहीं हुआ है । बस समझ का जरा फेरा है । यहां वो तुम्हारी वाली त्रिगुणात्मिका दर्गा

नहीं, बल्कि वष
ृ भानन
ु न्दिनी रासेश्वरी राधा हैं। इस ‘दर्गा
ु ’ शब्द पर जरा विचार करो तो कुछ गत्ु थी सल
ु झे,मामला कुछ
स्पष्ट हो- कृच्छ्रे ण दरु ाराधनादि अर्थात ् बहु प्रयासेन गम्यते ज्ञायते इति...यानी जिसकी प्राप्ति हे तु कठिन साधना
करनी पड़े। नारदपांचरात्रोक्त राधासहस्रनाम श्लोक ४५ के पूर्वार्द्ध में कहा गया है - एकानंशा शिवा क्षेमा दर्गा

दर्गा
ु तिनाशिनी...। इतना ही नहीं,सम्मोहनतन्त्र में स्वयं दर्गा
ु (यहाँ दर्गा
ु अपने प्रचलित अर्थ में हैं) के वचन हैं-
यन्नाम्ना नाम्नि दर्गा
ु ऽहं गुणैर्गुणवती ह्यहम ्। यद् वैभवान्महालक्ष्मी राधा नित्या पराद्वया।। (ब्रह्मसंहिता) अर्थात ्
जिसके नाम से मैं गुणयुक्त दर्गा
ु हूँ,जिसके वैभव से महालक्ष्मी हैं,वही नित्या...परा...अद्वया राधा हैं। ध्यातव्य है कि
मन्त्रशास्त्र के सामान्य नियमानस
ु ार कोई कह सकता है कि जिस दे वता का मन्त्र होता है ,वही उसका अधिष्ठाता भी
होता है ; किन्तु क्या यहाँ यह नियम अपवाद है ? कदापि नहीं। राधा ही कृष्ण मन्त्र की अधिष्ठात्री हो सकती हैं, अन्य
कैसे ? ‘‘ राधा रासेश्वरी रम्या कृष्ण मंत्राधिदे वता ’’- (राधिकोपनिषद्)। वस्तुतः राधा-कृष्ण में अभेद का उद्घोष है
यह। राधाकृष्ण मूलतः अद्वय हैं। दो रुपों में प्रतिभास- मात्र लीला और क्रीड़ा है - येयं राधा यश्च कृष्णो
रसाब्धिर्देहे नैकः क्रीडनार्थं द्विधाऽभूत (राधिकोपनिषद्) या कहें - यस्माज्जोतिरे कमभूद् द्वेधा राधामाधव रुपधक
ृ ्
(सम्मोहनतन्त्र)। दीप शिखा से प्रकाश को अलग कैसे किया/माना जा सकता है ? हाँ,इतना कह सकते हैं कि दीपशिखा
में ध्यान से दे खने पर कुछ अन्तर भिन्नता दीख पड़ती है - यही तो श्यामज्योति और गौरज्योति है । गौरज्योति से
रहित श्यामज्योति की कल्पना भी सम्भव नहीं। इस द्वय प्रतिभासित अद्वय की सम्यक् आराधना की बात कही
गयी है । सम्मोहनतन्त्रान्तर्गत,पार्वतीश्वरसंवाद--श्री गोपालसहस्रनाम में कहा गया है - गौरतेजो विना यस्तु
श्यामतेजः समर्चयेत ् । जपेद्वा ध्यायते वाऽपि स भवेत ् पातकी शिवे ।। एक को छोड़ कर दस
ू रे की आराधना को शिव
ने महापातक कहा है ।

“….इन बातों की गहराई और भी लक्षित हो जायेगी आगे के कथन से- गोपीश्वर कृष्ण के उद्घोष का संकेत है
यह श्लोक- ‘रा’ शब्दोच्चारणादे व स्फीतो भवति माधव । ‘धा’ शब्दोच्चारणा दे व पश्चात ् धावति संभ्रमः ।। इन्हीं भावों
की अभिव्यक्ति है ब्रह्मवैवर्त परु ाण में भी- रा शब्दं कुर्वतः पश्चाद् ददामि भक्तिरुत्तमा । धा शब्दं कुर्वतः पश्चाद्
यामि श्रवणलोभतः ।।- अद्भत
ु सम्मोहन है राधा शब्द में । कृष्ण रस हैं,तो राधा उसका माधुर्य- रसो वै सः। तन्त्र-ग्रन्थों
में चर्चित महात्रिपुरसुन्दरी,ललिता आदि ये सारे नाम किसी और के नहीं,बल्कि राजराजेश्वरी,रासेश्वरी श्रीराधा का ही
है । राधा की सम्यक् आराधना ही श्रीकृष्ण-प्राप्ति का एक मात्र उपाय है । ब्रह्मवैवर्तपुराण,प्रकृति खण्ड (५६/३२-४९)में
वर्णित राधाकवच नामक अमोघ संजीवनी के बारे कुछ भी कहना,सूर्य को दीपक के प्रकाश में ढूढ़ने की नादानी जैसी
बात होगी। फिर भी यहाँ वैसी ही नादानी करने की मैं धष्ृ टता कर रहा हूँ। कृष्ण को राधा के रास्ते से ढूढ़ो,आसानी होगी
पहुंचने में ,पाने में । जरा इसके विनियोग-मन्त्र में ही इशारा दे खो- ऊँ अस्य श्री जगन्मङ्गल कवचस्य प्रजापति
ऋषिर्गायत्री छन्दः स्वयं रासेश्वरी दे वता श्रीकृष्णभक्ति सम्प्राप्तौ विनियोगः।। ’’

मैंने निवेदन करना चाहा बाबा से,राधाकवच के विषय में और स्पष्ट करने हे त,ु किन्तु मेरे कुछ कहने से पर्व
ू ही वे गा
उठे –

ऊँ राधेति चतर्थ्य
ु र्न्तं वह्निजान्तमेव च । कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवक्ष
ृ ःशिरोऽवतु ।।१।। ऊँ ह्रीं श्रीं राधिका ङेऽन्तं
वह्निजायान्तमेव च । कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु ।।२।। ऊँ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेऽन्तं वह्निजायान्त मेव
च । मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदावतु ।।३।। ऊँ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च । सर्वसिद्धिप्रदः पातु
कपोलं नासिका मख
ु म ् ।।४।। क्लीं श्रीं कृष्णप्रिया ङेऽन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम ् । ऊँ रां रासेश्वरी ङेऽन्तं स्कंदं १ पातु
नमोऽन्तकम ् ।।५।। ऊँ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पष्ृ ठं सदावतु । वन्ृ दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदावतु ।।६।।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितंम्बकम ् । कृष्णप्राणाधिका ङेऽन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम ् ।।७।। पादयुग्मं च
सर्वाङ्गं सततं पातु सर्वतः । राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु ।।८।। दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैऋतेऽवतु ।
पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता ।।९।। उत्तरे ससतं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी । सर्वेश्वरी सदै शान्यां पातु मां
सर्वपूजिता ।।१०।। जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा । महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम ् ।।११।।
कवचं कथितं दर्गे
ु श्री जगन्मङ्लं परम ् । यस्मै कस्मै न दातव्यं गूढ़ाद् गूढ़तरं परम ् ।।१२।। तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं
प्रवक्तव्यं न कस्यचित ् । गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकार चन्दनैः ।।१३।। कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ धत्ृ वा विष्णुसमो
भवेत ् । शतलक्षंजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत ् ।।१४।। यदि स्यात ् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत ् । एतस्मात ्
कवचाद् दर्गे
ु राजा दर्यो
ु धनः परु ा ।।१५।। विशारदो जलस्तंभे वह्निस्तभे च निश्चितम ् । मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं
च पष्ु करे ।।१६।। सर्य
ू पर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ । बलाय तेन दत्तं च ददौ दर्यो
ु धनाय स ।।१७।।
कवचस्यंप्रसादे न जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।।हरिऊँ इति।।

‘‘ वैसे एक और भी राधाकवच है - नारद पञ्चरात्र में जिसकी चर्चा है , उसकी भी महत्ता अपने आप में कम नहीं है ।
प्रसंगवश उसे भी बता ही दे ता हूँ। न जाने कब किसकी ओर मन खिंच जाये तुम्हारा। उसका विनियोग इस प्रकार
करना चाहिए-- ॐ अस्य श्री राधाकवच मन्त्रस्य महादे व ऋषिः अनुष्टुप छं दः श्रीराधादे वता रां बीजं कीलकं च
धर्मार्थकाममोक्षये जपे विनियोगः।। विनियोग का जलार्पण करके ही पाठ प्रारम्भ करना चाहिए। विनियोग के
शाब्दिक अर्थ पर जरा ध्यान दे ना- विशेषेण नियोगः.....। मूल पाठ इस प्रकार है - पार्वत्युवाच- कैलासवासिन ् भगवन ्
भक्तानुग्रहकारक । राधिका कवचं पुण्यं कथस्व मम प्रभो ।।१।। यद्यस्ति करुणा नाथ त्राहि मां दःु खतो भयात ् ।
त्वमेव शरणं नाथ शूलपाणे पिनाकधक
ृ ् ।।२।। शिव उवाच- श्रण
ृ ुष्व गिरिजे तुभ्यं कवचं पूर्वसूचितम ् । सर्वरक्षाकरं
पुण्यं सर्वहत्याहरं परम ् ।।३।। हरिभक्तिप्रदं साक्षाद्भक्ति
ु मुक्तिप्रासाधनम ् । त्रैलोक्याकर्षणं दे वि
हरिसान्निध्यकारकम ् ।।४।। सर्वत्र जयदं दे वि सर्वशत्रभ
ु यावहम ् । सर्वेषां चैव भूतानां मनोवत्ति
ृ हरं परम ् ।।५।। चतुर्धा
मुक्तिजनकं सदानंदकरं परम ् । राजसूयाश्चमेधानां यज्ञानां फलदायकम ्।।६।। इदं कवचमज्ञात्वा राधामन्त्रं च यो
जपेत ् । स नाप्नोति फलं तस्य विघ्नास्तस्य पदे -पदे ।।७।। ऋषिरस्य महादे वोऽनष्ु टुप ् छं दश्च कीर्तितम ् । राधाऽस्य
दे वता प्रोक्ता रां बीजं कीलकं स्मत
ृ म ् ।।८।। धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । श्री राधा मे शिरः पातु ललाटं
राधिका तथा ।।९।। श्रीमति नेत्र युगलं कर्णौ गोपेन्द्रनन्दिनी । हरिप्रिया नासिकां च भ्रुयुगं शशिशोभना ।।१०।। ओष्ठं
पातु कृपादे वी अधरं गोपिका तथा । वष
ृ भानुसुता दं तांश्चिबुकं गोपनन्दिनी ।।११। चन्द्रावली पातु गण्डं जिह्वां
कृष्णप्रिया तथा । कण्ठं पातु हरिप्राणा हृदयं विजया तथा ।।१२।। बाहू द्वौ चन्द्रवदना उदरं सब
ु लस्वसा ।
कोटियोगान्विता पातु पादौ सौभद्रिका तथा ।।१३।। नखांश्चन्द्रमुखी पातु गुल्फौ गोपालवल्लभा । नखान ् विधुमुखी
दे वी गोपी पादतलं तथा ।।१४।। शुभप्रदा पातु पष्ृ ठं कुक्षौ श्रीकान्तवल्लभा । जानुदेशं जया पातु हरिणी पातु सर्वतः ।।
१५।। वाक्यं वाणी सदा पातु धनागारं धनेश्वरी । पर्वां
ू दशं कृष्णरता कृष्णप्राणा च पश्चिमाम ् ।।१६।। उत्तरां हरिता
पातु दक्षिणां वष
ृ भानुजा । चन्द्रावली नैशमेव दिवा क्ष्वेडितमेखला ।।१७।। सौभाग्यदा मध्य दिने सायाह्ने
कामरुपिणी । रौद्री प्रातः पातु मांहि गोपिनी राजनीक्षये ।।१८।। हे तुदा संगवे पातु केतुमाला दिवार्धके ।
शेषाऽपराह्नसमये शमिता सर्वसंधिषु ।।१९।। योगिनी भोगसमये रतौ रतिप्रदा सदा । कामेशी कौतक
ु े नित्यं योगे
रत्नावली मम ।।२०।। सर्वदा सर्वकार्येषु राधिका कृष्णमानसा । इत्येतत्कथितं दे वि कवचं परमाद्भत
ु म ् ।।२१।।
सर्वरक्षाकरं नाम महारक्षाकरं परम ् । प्रातर्मध्याह्नसमये सायाह्ने प्रपठे द्यदि ।।२२।। सर्वार्थसिद्धिस्तस्य
स्याद्यद्यन्मनसि वर्तते । राजद्वारे सभायां च संग्रामे शत्रस
ु ंकटे ।।२३।। प्राणार्थनाशसमये यः पठे त्प्रयतो नरः ।
तस्य सिद्धिर्भवेद्देवि न भयं विद्यते क्वचित ् ।।२४।। आराधिता राधिका च तेन सत्यं न संशयः ।
गंगास्नानाद्धरे र्नामग्रहणाद्यत्फलं लभेत ् ।।२५।। तत्फलं तस्य भवति यः पठे त्प्रयतः शुचिः । हरिद्रारोचनाचन्द्रमंडितं
हरिचन्दनम ् ।।२६।। कृत्वा लिखित्वा भूर्जे च धारयेन्मस्तके भुजे । कण्ठे वा दे वदे वेशि स हरिर्नात्र संशयः ।।२७।।
कवचस्य प्रसादे न ब्रह्मा सष्टि
ृ ं स्थितिं हरिः । संहारं चाहं नियतं करोमि कुरुते तथा ।।२८।। वैष्णवाय विशद्ध
ु ाय
विरागगुणशालिने । दद्यात्कवचमव्यग्रमन्यथा नाशमाप्नय
ु ात ् ।।२९।।

बाबा भावमय थे। ऐसा लगता था मानों कृष्ण साक्षात खड़े हों उनके समक्ष। राधा कवच का पाठ पूरा होजाने पर,जरा
विलमे,और फिर कहने लगे– “...स्वप्न में ही सही, छलिया कृष्ण का साक्षात्कार कौन नहीं चाहे गा? क्लींकारी वंशी की
सुमधुर तान से कर्णगुहा को झंकृत कराना भला कौन नहीं चाहे गा? वन्ृ दा-कुसुम-गुच्छ,कदम्ब-कुसुम,वैजयन्ती-
माला,पुण्डरीक आदि के मिश्र-मदकारी सुगन्ध से अपने क्षुद्र नासारन्ध्रों को कौन नहीं आप्लावित करना चाहे गा?
अगर यह चाह प्रवल है ,प्यास तीव्र है ,तड़पन तड़ित सा है , तो इस ‘शब्दभंवर’ में बे झिझक कूद जाओ। कहने को तो
‘शब्द’ आकाशतत्व की तन्मात्रा है ,और इसका स्थान योगियों ने कंठ प्रदे श को बतलाया है ,किन्तु मैं कहता हूँ- जरा
नीचे आओ। शब्द तक पहुंचने की क्या हड़बड़ी है ,उसके पर्व
ू के वायत
ु त्व को ही साधो। वही तो संवाहक है शब्द का।
हृदयदे श में बारह पंखुड़ियों वाले कमल पर इस कामबीज को प्रतिष्ठित कर दो। वायुतत्व की तन्मात्रा है - स्पर्श। कृष्ण
का स्पर्श यहीं हो जायेगा,यदि राधा की कृपा होगयी। हालाकि खतरा है - भाग जाने का। कंू ए में गिरे ‘सूर’ को स्पर्श तो
हो गया था, परिचय भी खुल गया था,फिर भी...बात परू ी बनी नहीं। सूर का अन्धत्व भू-लुण्ठित अज्ञानी का प्रतीक है ।
कृष्ण ने सहारा दे कर कंु ए से बाहर कर दिया,किन्तु बाहर करते ही,स्वयं उनका हाथ छोड़ भी दिया- स्वतः चलने
को...। भूमि का भेदन होने पर ही बीज का अंकुरण होता है ; और इसके लिए विशेष शक्ति(ऊर्जा) का सम्बल आवश्यक
है । यहां, यह न भल
ू ो कि कृष्ण राधामय हैं , और राधा कृष्णमयी हैं-दे वी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदे वता।
सर्वलक्ष्मी मयी सर्वकान्तिः सम्मोहिनी परा ।। (वह
ृ द् गौतमीयतन्त्र)। इस सिद्धान्त को और भी दृढ़ करता है यह
श्रीकृष्णार्जुनसंवाद— श्रीमद्भगवद्गीतोक्त विश्वरुप दर्शन के समय अर्जुन का चित्त तो अन्यान्य विषयों में ही उलझा
रह गया-पश्यामि दे वांस्तव दे व दे हे....न हि प्रजानामि तव प्रवत्ति
ृ म ् ।। (अ.११-श्लो.१५-३१) कालान्तर में , पश्चाताप
पूर्वक लालसा हुयी-रासलीलादर्शन की; किन्तु कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उस अन्तरं ग लीलादर्शन हे तु राधा की
स्वीकृति अनिवार्य है ,अतः तुम महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना करो,उस रासेश्वरी की, जिसके सर्वांग वर्णन में
वागीश्वरी की जिह्वा भी अशक्त है ; और वह राधा ‘स्वयंदत
ू ी’ वंशी से आवद्ध है । उस वंशी से,जिससे निरं तर क्लीँकार
निर्झरित हो रहा है ,जो अन्ततः राधा नाम ही तो है - ईकारः प्रकृती राधा महाभाव स्वरुपिणी...(वह
ृ द् गौतमीयतन्त्र)।
यहाँ एक और रहस्यमय बात का ध्यान दिला दँ ू कि ये महात्रिपुरसुन्दरी रासरासेश्वरी आद्याललिता या कहो राधा ही
स्थितिनस
ु ार परु
ु ष रुप में आती है । श्रीकृष्ण के तान्त्रिक स्वरुप को हृदयंगम करने हे तु ही यह लीला होती है । इसका
संकेत तन्त्रराजतन्त्र में इस प्रकार मिलता है - कदाचिदाद्या ललिता पुंरुपा कृष्ण विग्रहा । वंशीनादसमारम्भादकरोद्
विवशं जगत ् ।। राधा ही कृष्ण बन कर वंशीनाद करती है ,और अपने ही अंश को क्लीँकार में प्रकटकर त्रिभुवन को
वशीभूत करती है । यहाँ श्रीकृष्ण और महात्रिपुरसुन्दरी में तत्वतः अभेद दर्शाया गया है ।”

बाबा की बात पर मैं जरा चौंका- ये तो अद्भत


ु लीला है महाराज ।कभी कृष्ण कभी राधा..कृष्ण राधा बनजाते हैं,तो कभी
राधा कृष्ण बन जाती है ।और यहां तो तन्त्रस्वामिनी त्रिपरु सन्
ु दरी को ही आप इनसे अभेद बतला रहे हैं।

“...मूलतः अभेद ही है । भेद या भेदाभास तो लीलाविलास मात्र है । परमसत्ता में क्या स्त्री,क्या पुरुष ! शक्ति और
शक्तिमान में भेद कैसे हो सकता है ! हम नासमझी वश भेद कर लेते हैं। मनष्ु य परु
ु ष या कि नारी है ,अतः वह परु
ु ष
और नारी की ही भाषा और स्वरुप को समझ सकता है । इससे जरा भी भिन्न हुआ कि मनष्ु य के गले से नीचे उतरना
कठिन होने लगता है । सब कुछ बिलकुल आसान है ,फिर भी समझ से परे हो जाता है ।

“...लोग कहते हैं- सच्चिदानन्द- इस शब्द पर कभी सोचा है तुमने? ”

गायत्री ने तपाक से कहा- ‘हां भैया ! सत ्+चित ्+आनन्द ही तो मिलकर सच्चिदानन्द बनता है । सत है जो, परम
चैतन्य है जो,और परमानन्द है जो, वही तो सच्चिदानन्द कहलाता है ।’
बाबा मुस्कुराये- “ हां,गायत्री! बिलकुल सही कहा तुमने। यहां सत ् ही अधिष्ठान है ,यानी कि आधार है । चित ् अन्तस्थ
है ,यानी भीतर छिपा हुआ है ,और आनन्द इन दोनों को समेटकर,आवत
ृ कर बाहर आकारवान है । इसे बिपरीत क्रम से
समझो तो कह सकोगे कि प्रेम को प्रस्फुटित करके,आनन्द को लब्ध करो,आनन्द को लांघ कर चिति- यानी परम
चैतन्य को पाओ,तब कहीं जाकर सत ् की सता तक पहुंचने की बात होगी...।”

विषय अति गम्भीर चल रहा था,जिसे छोड़कर उठने की जरा भी इच्छा न हो रही थी,न मुझे और न गायत्री को ही;
किन्तु काल-पाश में वद्ध पशु की विसात ही क्या? यहां तो महाकाल से भी कहीं बड़ा पाश - नौकरी- परवशता की
विवशता बांधे हुए है । दर्ल
ु भ,और रोचक प्रसंग के बीच भी आंखे उठ जा रही है बारबार घड़ी की ओर। गायत्री ने टोका- ‘
आपको तो फिर एक बार दफ्तर जाना है न ? तो हो ही आइये। खाना खाकर निकल जाइये जल्दी। उधर से लौटने पर
ही बाकी बातें होंगी। वैसे भी आज रात होनी कहां है हमलोगों के लिए ! ’

‘हाँ’- कहते हुए,मैं उठ कर नलके की ओर बढ़ा,मुंह-हाथ धोने के लिए। बाबा को भी आग्रह किया,भोजन के लिए।
गायत्री रसोई की ओर लपकी,खाना परोसने के लिए।

जल्दी-जल्दी भोजन किया,जैसा कि आजकल लोग प्रायः किया करते हैं। भोजन जैसा आवश्यक कार्य भी चैन से
करना नहीं हो पाता बहुतों को। और फिर भागा प्रेस-कार्यालय। खैरियत थी कि गाड़ी लगी थी,क्यों कि अब तो
गाड़ीवाला हो गया था न । बाबा माने या न माने,मैं तो यही मानता हूँ कि यह सब बाबा के कृपा-प्रसाद से ही हुआ है ।
बाबा ने अपनी मुंहबोली बहन गायत्री को जो दो उपहार- मोतीशंख और सियारसिंगी दिये,उसी का सब करिश्मा है ।
गायत्री का भी यही मानना है ।

कोई डेड़ घंटे बाद दफ्तर से वापस आया तो,बाबा को चौकी पर ही ध्यानस्थ पाया। दबे पांव भीतर गया तो दे खा-
गायत्री सामानों की पैकिंग कर रही थी। कल ही यह आवास छोड़ दे ना है । इस दर्बे से निकलकर,दफ्तर से मिले नये
बंगले में जा बसना है - गाड़ी,वाड़ी, नौकर,माली...सारी सवि
ु धाओं से सस
ु ज्जित कोठी में । आजतक कभी गायत्री को
ढं ग की साड़ी भी न पहना पाया था। रोटी-दाल की जोड़ी को बचा पाने में ही कनपटी के बाल ललियाने लगे हैं। कभी-
कभी तो जीवन ही बोझ सा लगने लगता था, किन्तु सहनशीला,सहधर्मिणी गायत्री की सान्त्वना के सम्बल से दःु सह
जीवन-यान की खिंचाई या कहें ठे लाई हो रही थी। मुझे आया दे ख गायत्री कमरे से बाहर,लॉबी में आगयी,जहाँ बाबा
विराजमान थे।

‘ भैया ने कहा था कि तम
ु आ जाओ तब फिर बातें होंगी। ध्यान में हैं-

इसकी परवाह किये बिना एक बार आवाज लगा दे ना।’- मुझे इस बात की
जानकारी दे कर उसने आवाज लगायी- ‘ भैया ! वो उपेन्दर भैया!...!’

गतांश से आगे...दसवां भाग

तीसरे पुकार की जरुरत न पड़ी। बाबा आंखें खोल, आराम से बैठ गये,तकिये का सहारा लेकर- “ लगता है , तुमलोग
तैयार बैठे हो। ”

‘ हां,भैया,इन्हीं का इन्तजार था,मैं तो पैकिंग का काम निपटाते हुए भी बातें सुनती रहूंगी।’-लॉबी में एक ओर पड़े मोढ़े
को समीप खींचती हुयी गायत्री ने कहा,जिसकी बातों का मैंने खंडन किया— सो सब नहीं होगा। पैकिंग की चिन्ता
छोड़ो। तुम भी आराम से बैठो। विषय बहुत ही गम्भीर चल रहा है । मेरे मन में अभी कई नये सवाल उधम मचा रहे हैं।
उनका जवाब पाये वगैर,चैन नहीं।

“ हां,गायत्री,बैठो तुम भी । जब तक रहे गी जिन्दगी,फुरसत न होगी काम से,कुछ समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो राम
से...है न ?”- कहते हुए बाबा ने गायत्री का हाथ पकड़ कर मोढ़े पर बैठा दिया । मैं,बाबा के साथ ही चौकी पर पलथी
लगाकर बैठते हुए बोला- ‘ महाराज ! अभी पिछले बैठक में हमलोगों की बात श्रीकृष्ण और राधा के अभेद पर चलते
हुए सत ्,चित ्,आनन्द पर आ रुकी थी। इस अभेद में ही कुछ ‘भेद’ लगता है मुझे । कृष्ण अर्जुन को जिस रासदर्शन के
लिए आद्याललिता रुपी राधा की आराधना करने को कहे , उसमें तो अगनित गोपबालायें भी शामिल थी। क्या वे सभी
ललिता की साधिका रह चक
ु ी थी,जो रास-दर्शन ही नहीं,रास-सेवन का सौभाग्य प्राप्त की? और मेरी दस
ू री शंका भी
इसी रास से सम्बन्धित है । महारास और चीरहरण जैसी दो घटनायें क्या कृष्ण के दिव्यत्व को प्रश्न-चिह्नित नहीं
करती ? गोकुल के शेष कृत्यों को तो बाल लीला मानने में किसी को आपत्ति नहीं,किन्तु ये दो घटनायें सामान्य बुद्धि
में समा नहीं पाती। भले ही संत लोग इसे दिव्य धाम की लीला कह कर समझा दे ते हैं।’

मेरी बातों पर बाबा मुस्कुराते हुए गायत्री की ओर दे खे- “ क्यों तुम्हें भी कुछ खटकता है ,या सिर्फ अखबारी बाबू को ही
ऐसा लग रहा है ?”

गायत्री कुछ बोली नहीं । मेरी ओर दे खकर,आंखें मटकायी। उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर बाबा कहने लगे- “
पहले मैं तुम्हारे दस
ू रे सवाल का ही जवाब दे लूं। ये जो शत-सहस्र गोपियां थी न,जानते हो कौन थी ? पुरुष को ‘पुरुष’ से
मिलने की लालसा जगेगी,तो उसे ‘स्त्री’ होना पड़ेगा । हर पुरुष में नारी,और हर नारी में पुरुष विद्यमान है - इसे तो अब
तुम्हारा विज्ञान भी स्वीकारने लगा है । सिगमण्डफ्रायड ने भी इसकी स्वीकृति दे दी है । अतः आधुनिकों को ज्यादा
भ्रमित नहीं होना चाहिए। परु
ु ष से स्त्री का ही मिलन हो सकता है ,या कहो आनन्दानभ
ु ति
ू के लिए स्त्री होना पड़ेगा।
मर्यादापुरुषोत्तम राम के समय तपस्यारत ऋषियों में ‘रमण’ की लालसा जगी थी। अन्यान्य घटनाक्रम में और भी
बहुत से प्रत्याशी थे, जिन सबकी कामना पूर्ति के लिए लीलाबिहारी को अवतरित होना पड़ा। मर्यादा की डोर में बंधे हुए
पुरुषोत्तम उनकी लालसा परू ी कैसे कर पाते ? अतः उन्हें वचन दिया था कि आगे कृष्णावतार में लालसा पूरी करुं गा।
चुकि हम मनष्ु यों की विचार,चिन्तन,दृष्टि आदि की क्षमता बड़ी सीमित है ,बहुत ही संकीर्ण है । पुरुष और नारी से
जरा भी बाहर हट कर सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि इससे बाहर की बातें समझने-बझ
ू ने में भारी कठिनाई होती
है । और इतना ही नहीं,पुरुष-नारी के बीच बनने वाले सम्बन्धों के बारे में भी हमारा सोच बड़ा संकीर्ण है । पुरुष-नारी
यानी प्रेमी-प्रेमिका,वो भी कायिक तल पर,काम-तल पर। मनोविज्ञानी फ्रॉयड ने भी दावा किया है कि मां अपने बेटे को
स्तनपान कराती है ,वहां भी कामसख
ु का वही विम्ब है ...ये बड़ा ही गहन चिन्तन है । तम्
ु हारी आशंका गोपियों और
कृष्ण के आपसी सम्बन्ध को लेकर है न। चलो,ठीक है ,तुम्हारी ही आँखों से हम भी दे ख लेते हैं,थोड़ी दे र- जिस समय
की ये घटना है - चीरहरणवाली,या कि रासलीला वाली,उस समय कृष्ण की उम्र क्या थी पता है - मात्र आठ वर्ष के
करीब,और गोपियाँ- कोई मामी थी,कोई चाची,कोई दादी भी,कोई बहन भी- यानी बाला,किशोरी,तरुणी और प्रौढ़ा
भी,और वे सब के सब समान रुप से कृष्ण को चाहती थी—अब इस चाहत को तुम क्या कहोगे? बाला से प्रौढा तक, एक
बालक को,जो ठीक से किशोर भी नहीं हुआ है ,से कामतप्ति
ृ की चाह रखी जा रही है ? ये कहीं उचित लग रहा है ? ”

अचानक गायत्री ने टोका- ‘ उम्र तो ठीक बताया तुमने भैया उन गोपियों का- बाला, किशोरी, तरुणी,प्रौढ़ा; किन्तु
अगहन के महीने में कड़ाके की सर्दी में यमन
ु ा में स्नान,और कात्यायनी पूजन का ये महामन्त्र कात्यायनि महामाये
महायोगिन्यधीश्वरि । नन्दगोपसत
ु ं दे वि ! पतिं में कुरुते नमः ।। (श्रीमद्भागवत१०-२२-४) स्पष्टतौर पर कृष्ण को पति
रुप में पाने की लालसा ही नहीं,कामना भी कर रही हैं गोपियां। मैंने भी पिताजी के कहने पर विवाह के पूर्व साधना की
थी इस महामन्त्र का,तब जाकर ये महाशय मिले थे मुझ।े ’

गायत्री की बातों पर मैं चौंका- अच्छा तो तुमने मुझे पाने के लिए उस तान्त्रिक महामन्त्र को साधा था- ये तो बातबात
में आज पता चला। मुझे तो तुम कभी दे खी नहीं थी,फिर इतनी आसक्ति क्यों हो गयी हममें ?

मेरे प्रश्न पर गायत्री लजा गयी,क्यों कि उसके भाई के सामने ही मैंने ये सवाल कर दिया। थोड़ी झेंपती हुयी बोली- ‘
दे खने न दे खने की बात नहीं है ,और न मैंने तम्
ु हारे नाम-रुप का सम्मोहन ही किया था। सीधी सी बात है - इस मन्त्र की
साधना करने से मनोनुकूल पति की प्राप्ति होती है ,वो भी अति शीघ्र। और वो भी क्या मैं अपने मन से की थी,पिताजी
ने मां से कहा,मां हमें आदे श दी। तो क्या हो गया इसमें ?’

अच्छा तो अब समझा। तुमको जल्दी घर से भगाने की हड़बड़ी हो गयी थी लोगों को- हँसते हुये मैंने कहा।

गायत्री जरा झझ
ुं लायी- ‘ तुमने तो बात का बतंगड़ बना रहे हो। यहां कितनी गम्भीर बात चल रही थी- चीरहरणलीला
की,और तुम...।’

“अच्छा,अब तुमलोग आपस में झगड़ा न करो। वस इतना ही जान लो कि तन्त्र-मन्त्र से तुम्हें बांध ली है मेरी बहना।
अब चुपचाप इसके आदे श का पालन करते जाओ। ”- हँसते हुये बाबा ने कहा,और प्रसंग को आगे बढ़ाया- “ चीरहरण
के प्रसंग को लेकर कई तरह की शंकायें की जाती हैं । सच पूछो तो सच्चिदानन्द भगवान की दिव्य मधुर रसमयी
लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य कुछ भाग्यवानों को ही होता है ,शेष जन तो सांसारिक भंवर में ही उब-चूब होते
रहते हैं- जैसा कि मैंने पहले भी कहा- काम(सेक्स)से रत्ती भर भी बाहर निकल ही नहीं पाते। सोच ही नहीं पाते। कृष्ण
का शरीर कोई पञ्चभौतिक तो है नहीं। जिस प्रकार चिन्मय है उनका शरीर,उसी प्रकार उनकी समस्त लीलायें भी
चिन्मयी ही है । रसमय साम्राज्य के जिस परमोन्नत स्तर पर ये लीलायें होती हैं,उसकी ऐसी विलक्षणता है कि
सामान्य की क्या,कई बार तो ज्ञान-विज्ञानस्वरुप विशद्ध
ु चेतन परब्रह्म में भी उसका प्राकट्य नहीं होता। फलतः
ब्रह्म-साक्षात्कार-प्राप्त महापुरुष भी इस दिव्य लीलारस का सम्यक् आस्वादन करने से वंचित रह जाते हैं। ज्ञानमार्ग
की साधना इसीलिए रुक्ष कही जाती है ,भक्तिमार्ग की तुलना में । श्रीकृष्ण तो भक्ति के आधान हैं। इनका माधुर्य
चखने के लिए भक्तियोग ही एकमात्र अवलम्ब है । इस दिव्यलीला का यथार्थ प्रकाश तो प्रेममयी गोपियों के हृदय में
ही हो सकता है । इस स्तर पर आने के लिए ‘गोपीभाव’ अत्यावश्क है ,वो भी वष
ृ भानुनन्दिनी की कृपा से ही प्राप्त हो
सकती है । और ये गोपियां कोई और नहीं रासेश्वरी के अंग-उपांग ही हैं। पता नहीं इनमें कौन क्या थी,कितने दिनों से
प्यास थी,प्रयास था- कोई ऋषि है , कोई ऋषि पत्नियां,कोई महासाधक,कोई कुछ,कोई कुछ। इनके अनन्त जन्मों का
पुण्य फलित हुआ तब कहीं जाकर गोपी-तन मिला,और उस शरीर में आने के बाद भी बहुत कुछ वासना शेष रह गयी
थी,जो कृष्ण के दर्शन-स्पर्शन से तिरोहित हुआ। दरअसल अनन्त जन्मों के शुभाशुभ संस्कारों का पिटारा है हमारा
जीवन,ये शरीर।”- जरा ठहर कर बाबा ने हमदोनों की ओर गौर से दे खा,और फिर बोले- “ इस प्रसंग को बहुत ध्यान
से सुनो,और गुनो भी। भक्तिरसामत
ृ वक्ष
ृ का परिपक्व फल है यह । चीरहरण को कोई मामूली घटना समझने की
मूर्खता न करो...।

“....श्रीमद्भागवत समूचा पढ़ने-समझने का सामर्थ्य न हो तो भी कम से कम दशम स्कन्ध का अध्यवसाय करो।


इसके इक्कीसवें अध्याय में कहा गया है कि भगवान की रुप-माधुरी, वंशीध्वनि, प्रेम-लीलायें दे ख-सुनकर गोपियां
मग्ु ध हो गयीं। अगले ही अध्याय में वर्णन है कि वे इस आनन्दघन श्यामसन्
ु दर को पाने की अतिशय लालसा से
कात्यायनी-साधना में लग गयी। जरा इस श्लोक को गुनो- न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते । भर्जिता
क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते ।। (१०-२२-२६) भगवान को जब लगा कि अब ये अपने मन-प्राण मुझे ही समर्पित
कर चक
ु ी हैं,इनकी कामनायें अब सांसारिक भोगों की ओर लेजाने में समर्थ नहीं रह गयी हैं,तो इनकी मनोकामना पर्ण

होनी चाहिए। भुने या उबाले हुए बीज में जैसे अंकुरण असम्भव है ,वैसे ही पूर्णतया भगवदार्पण मन-बुद्धि में सांसारिक
विकार उत्पन्न नहीं हो सकते । गोपियां क्या चाहती हैं- यह तो उनकी आपसी चर्चा से ही स्पष्ट है । इसे वहीं ‘वेणुगीत’
में तलाशो। वेणग
ु ीत में गोपियों की चाहत खुलकर सामने आयी है । ”

बाबा ने गायत्री को ईंगित कर कहा- “ क्या तुम कभी चाहोगी कि तुम्हारा यह पति-प्रेमी किसी और स्त्री की ओर आँख
उठाकर दे खे? नहीं न ? संसार की कोई स्त्री नहीं चाह सकती ऐसा। दो स्त्रियां किसी एक परु
ु ष का चरित्रगान कर ही
नहीं सकती खुलकर। खास कर तब तो और नहीं जब उन्हें पता हो कि यह पुरुष इसे भी चाहता है । वहां तो सीधे
शत्रभ
ु ाव(सौत-भाव)उदित हो जायेगा। सख्यत्व का कहां सवाल है ! किन्तु यहां जरा गोपियों की आपसी वार्तालाप पर
गौर करो–साधना रत गोपियां मार्ग में कृष्ण का चरितगान करती जाती हैं यमन
ु ा-स्नान के लिए। सबके सब यही
मनाती है - मानसिक ही नहीं वाचिक रुप से भी कि कृष्ण हमें पति रुप में प्राप्त हों- पतिं में कुरु ते नमः –यही कामना है
न? क्या सामान्य अवस्था में कोई नारी-समूह ऐसी कामना एकत्र कर सकती है ? कदापि नहीं। अनेक स्त्रियों का एक
साथ एक ही पुरुष को पाने की लालसा से एक ही तरह का अनुष्ठान कदापि सम्भव नहीं है । यहां भी सामान्य मानवी
स्वभाव और बद्धि
ु से बिलकुल भिन्न लक्षण-प्रमाण लक्षित हैं।”

“...अब इसे दस
ू रे रुप में समझने का प्रयास करो- वैधी भक्ति का पर्यवसान होता है रागात्मिका भक्ति में ,और
रागात्मिका भक्ति ही पूर्ण समर्पण की स्थिति में ले जाती है । जल, अक्षत, फूल,धूप, दीपादि ये जो क्रियात्मक रुप की
बाह्य पूजा है , इसे ही वैधी भक्ति जानो। भक्ति का बुनियाद है यह। निरं तर इसे करते-करते, अचानक रागात्मिका
भक्ति स्फुरित हो उठती है । और तब कहीं जाकर स्व-समर्पण की स्थिति बनती है । कात्यायनी साधना में गोपियों की
वैधीभक्ति-क्रिया हो रही है । रागात्मिका भक्ति तो उनके मनप्राणों में पहले से ही गुप्त है ,सुप्त है । ध्यान दे ने की बात
है कि एक ओर रागानुरागी, रागमयी गोपियां कृष्ण के लिए व्याकुल हैं । उन्हें ये पता है कि श्रीकृष्ण कोई और नहीं
परात्पर ब्रह्म ही हैं,जिसकी व्याप्ति सर्वत्र है । संसार में बांधने वाले उनके सारे संस्कार लगभग नष्ट हो चुके हैं,किन्तु
यत्किंचित अभी शेष हैं। जिसके कारण कृष्ण को ये चीरहरण-लीला करनी पड़ी। ”

मेरी ओर दे खते हुए बाबा ने कहा- “....इसे अविशेष दृष्टि से,सामान्य दृष्टि से सोचो- परु
ु ष-स्त्री का पर्ण
ू मिलन तभी हो
सकता है ,जब उनके बीच किसी प्रकार का व्यवधान न रह जाय। किसी प्रकार की बाधा न पुरुष को पसन्द है , और न
स्त्री ही चाहती है अपने एकान्त मिलन में । झीना से झीना आवरण भी पूर्ण मिलन में बाधक ही है । आत्मा और
परमात्मा के मिलन के बीच हमारे संस्कारों में यत्किंचित ् भी शेष रह जायेगा,तो मिलन अधूरा रहे गा। यहां अनजाने में
गोपियों से दो भूलें हो रही हैं- एक तो यह कि एक तरफ उन्हें ज्ञात है कि कृष्ण सर्वव्यापी परब्रह्म हैं,तो फिर ये क्यों
नहीं समझ है कि जिस जल को वे आवरण समझे हुए हैं,वहां भी कृष्ण की उपस्थिति है ! कृष्ण ही जलतत्त्व भी हैं,वे
ही आकाशतत्त्व हैं,वे ही वायुतत्त्व हैं,वे ही सर्वस्व हैं...। और दस
ू री बात यह कि जिस कृष्ण की उन्हें चाह है , वही तो
पक
ु ार रहा है उन्हें ; परन्तु वे कहती हैं कि पहले वस्त्र दे दो,नंगी कैसे वहां आऊँ? यानी कि सबकुछ भल
ु ा दे ने,यानी
संस्कारों के सभी बीज नष्ट हो जाने के बाद भी अभी कुछ शेष प्रतीत हो रहा है । संसार छोड़ भी रहे हैं,और पकड़े हुए भी
हैं । जिन वस्त्रों का हरण कर लिया है कृष्ण ने गोपियों पर कृपा करके,उन्हीं संस्कार रुपी वस्त्रों को पुनः मांग रही हैं
गोपियां । वस्त्रों के आवरण की चाह अभी बनी ही हुयी है । स्वाभाविक है कि मिलन में बाधा होगी। कृष्ण इसी बाधा को
दरू करने की बात करते हैं । साधकों के लिए निर्वस्त्र,निरावरण, निःशंक, निर्विकार होने की बात कही जा रही है । दे ह-
गेह की परिमिति से बाहर आने की बात कही जा रही है ।

“…कृष्ण के आह्वान पर गोपियां बाहर आयीं, जल से निकलकर,यानी संसारार्णव से मुक्ति मिल गयी; किन्तु आंखें
मुदीं हैं,लज्जा से,संकोच से। गुप्तांगों को ढके हुए हैं गोपियां अपने हाथों से। जलरुपी संसार तो छूट गया, किन्तु
त्याग,और त्यागी का भान अभी शेष ही है । ‘स्व’ का भान अभी बचा हुआ है । यह भेद भी बचा हुआ ही है कि कृष्ण
पुरुष हैं और हम गोपियां नारी। एक मजेदार घटना घटी थी एक बार- कृष्णप्यारी मीरा नाचती हुयी जब मन्दिर में
घुसने जा रही थी,तो पुजारी ने रोक दिया,यह कहते हुए कि इस मंदिर में नारी का प्रवेश वर्जित है । सिर्फ पुरुष ही जा
सकता है । पुजारी के वक्तव्य पर मीरा चौंकी- ‘और तुम क्या हो ? क्या तुम स्वयं को पुरुष समझते हो ? मैं तो यही
जानती हूँ कि ‘पुरुष’ सिर्फ एक है - श्रीकृष्ण,बाकी सब प्रकृति है ,नारी है । गोपियां जल में कृष्ण को नहीं दे ख पा रही
थी,मीरा ने विष के प्याले को भी कृष्ण का होठ समझ लिया। और पान कर गयी। यही है विलक्षण प्रेमाभक्ति।’

“…सांसारिक रुप से दे खते हो- नारी किसी नारी के सामने चट से नंगी हो जा सकती है ,पर...। इस भेद,और त्याग के
बचे हुये संस्कार को भी नष्ट करने का अगला प्रयास है कृष्ण का। त्यागने की भावना का भी जब त्याग हो जाये तभी
सही त्याग है । हमने किया- में ‘हम’ बचा हुआ है । इस हम का भी नष्ट हो जाना जरुरी है । चीवर,चिमटा, जटा-जूटधारी
महं थों से कभी मिलो तो कहें गे- हमने घर छोड़ दिया,पत्नी छोड़ दिया,धन छोड़ दिया,लाखों-करोड़ो मन्त्र जपे,दान
दिये,पुण्य किये...ये किये-त्यागे का लम्बा सा फ़ेहरिस्त होता है उनके पास। किन्तु जान लो कि जब तक ये ‘मैंने
किया’ बचा हुआ है ,तब तक सच पूछो तो तुमने कुछ नहीं किया,

सिर्फ लिस्ट बनाते रहे हो अब तक।

“…लौकिक दृष्टि से गोपियों से यहां एक और भल


ू हो रही है - जल में नग्न स्नान शास्त्र वर्जित है । इसका भी प्रायश्चित
कराना था गोपियों से,भले ही लोकहितार्थ कर्म था ये। ऊपर की ओर हाथ उठा कर सूर्यदे व से क्षमायाचना की क्रिया में
एकसाथ दोनों काम हो जा रहा है - लौकिक मर्यादा के उलंघन-दोष से भी मुक्ति होगयी और ‘स्व’ का शेष भान भी
विनष्ट हो गया।

“…ये सब तो हुआ गोपी-पक्ष । अब जरा चीरहरण को कृष्ण-पक्ष से भी दे ख लो। कुछ नासमझ लोग कहते हैं- कृष्ण
कामी है । क्या किसी कामी पुरुष में इतना धैर्य हो सकता है कि नंगी खड़ी अगनित गोपियों को सामने पाकर भी एक
वर्ष आगे का समय दे दे ? दे खो,वहीं अगले श्लोक में कृष्ण कहते हैं- याताबला व्रजं सिद्धा मयेमारं स्यथ क्षपा । यदद्दि
ु श्य
व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ।। अगली शरतपूर्णिमा की रात्रि में मिलने का वचन दिया कृष्ण ने। इस पर गोपियां
निराश नहीं हुयी,उदाश नहीं हुयी। बल्कि प्रसन्न हुयी। क्यों कि उनकी कामना परू ी हुयी है । काम का लेश भी रहता
यदि किसी पक्ष में ,तो खिन्नता होती,जब कृष्ण कहते कि ये लो अपने वस्त्र,इसे पहनो और अपने-अपने घर वापस
लौट जाओ,क्यों कि तुमलोग सती-साध्वी हो। ”

मेरे विचारों के बहुत से काले घनेरे बादल छं ट गये,बाबा की बातों से,फिर भी कृष्ण के विषय में अभी और सुनने को
मन ललक ही रहा था। बाबा भी परू े भावमय थे।
जरा ठहर कर बाबा ने कहा- “ गोपियों के अन्तिम संस्कार को अनावत
ृ करने में कृष्ण को बहुत प्रयास करना पड़ा,तब
जाकर सफलता मिली; किन्तु ठीक इसके विपरीत,बिलकुल विलक्षण भाव हैं विदरु ानी(विदरु -पत्नी) के,जहां कृष्ण को
कुछ करना नहीं पड़ा। हालाकि किये,किन्तु चीरहरण के ठीक विपरीत क्रिया हुयी- अपना उत्तरीय-प्रदान किए
विदरु ानी को। एक बार की बात है , श्रीकृष्ण अचानक उनके महल में पहुँचे। विदरु ानी स्नान कर रही थी। ज्यों ही कृष्ण
की पुकार कानों में पड़ी बेसुध होकर बाहर निकल आयी- निर्वस्त्र ही। उनकी इस अवस्था को दे खकर कृष्ण ही
संकुचित हो गये । चट,अपना दक
ु ू ल उनके ऊपर फेंक दिया। क्या कहोगे इस दृश्य को ? सामान्य मानवी बद्धि
ु पहुंच
सकती है इस अवस्था तक ? आत्मविस्मति
ृ साधक का अन्तिम आवरण परित्याग है ,वो भी अनायास । सायास नहीं।
विदरु ानी इतना कृष्ण मय हैं सदा कि उन्हें ‘स्व’ का भान ही नहीं रहा। उन्हें तो बस यही सुनायी दिया कि कृष्ण पुकार
रहे हैं। जल्दी से द्वार खोल दे ना चाहिए । ताकि उन्हें प्रतीक्षा न करनी पड़े । कृष्ण के टुपट्टे का स्पर्श विदरु ानी को और
भी मोहित कर दिया। छोटी पीठिका उठा लायी उन्हें बैठने के लिए। और मजे की बात ये है कि विदरु ानी ने उसे उल्टा
रख कर बैठने का आग्रह किया । लीलाविहारी कृष्ण भी कम नहीं । बस बैठ गये,उसी उल्टी पड़ी पीठिका पर। विदरु ानी
को टोका भी नहीं,उनकी भल
ू के लिए। भावलीला यहीं समाप्त नहीं हुयी,इससे भी मजे की घटना आगे हुयी - विदरु ानी
केले ले आयी कृष्ण के प्रसाद के लिए। शबरी ने तो प्रेम परवश प्रभु श्रीराम को चख-चख कर बेर ही खिलाया था,किन्तु
यहां विदरु ानी केले फेंकती गयी छील-छीलकर,और छिलके दे ती गयी प्रभु को...यही है प्रेम माधुर्य लीला...कृष्ण भी
मस्
ु कुराते हुए खाये जा रहे हैं केले का छिलका । ये भी नहीं टोकते कि ये क्या कर रही हो विदरु ानी । सच पछ
ू ो तो केले
और छिलके का भेद तो हमारे तुम्हारे लिए है ! कृष्ण के लिए क्या केला,क्या छिलका !

“…कुछ ऐसी ही बेसध


ु ी की स्थिति गोपियों की भी हुयी, जब आगामी शारदीय पर्णि
ू मा को कृष्ण ने वंशी
टे री...सम्मोहन महामन्त्र क्लीँकार गँज
ू ा बनप्रान्तर से गोकुल की गलियों तक,तो गोपियां स्वयं को रोक न पायी। वे
जिस अवस्था में थी चल पड़ी। बड़ा ही प्रीतिकर वर्णन है उस दृश्य का व्यास जी द्वारा— जगौ कलं वामदृशां मनोहरम ्
वाली कामगायत्री की वंशी टे र के बाद जरा दे खो, क्या स्थिति हो रही है गोपियों की- निशम्य गीतं तदनङ्गवर्धनं
व्रजस्त्रियं कृष्ण गह
ृ ीतमानसाः । आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।। ....लिम्पन्त्यः
प्रमज
ृ न्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने । व्यत्यस्तवस्त्रा भरणाः काश्चित ् कृष्णान्तिकं ययुः ।....तमेव
परमात्मानं जारबद्
ु ध्यापि सङ्गताः । जहुर्गुणमयं दे हं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।। (१०-२९-३ से ११) वंशी की धन
ु कानों
में पड़ते ही गोपियां बेसुध हो गयी- अपने आप में रह ही नहीं गयी। लाज,डर, भय, संकोच,मर्यादा,शील- ये सारी की
सारी लोक-वत्ति
ृ यां छिन गयी,गिर गयी,निरस्त हो गयी मानों; और दौड़ पड़ी यमन
ु ा पुलिन की ओर,जिधर से
वंशीध्वनि तरं गित हो रही थी । वेग इतना था कि कानों के कंु डल झोंके खा रहे थे। किसी ने चूल्हे पर चढ़ाया दध

खौलते छोड़ दिया,किसी ने लपसी के जलने की भी परवाह न की, थाली में परोसा जा रहा भोजन अधूरा रह गया किसी
का,तो किसी की सुश्रुषा बाकी रह गयी,किसी के एक आंख में अंजन थे,तो किसी के एक कान में कंु डल,किसी ने
अधोवस्त्र को ही उर्ध्व समझ लिया,तो किसी ने उर्ध्व को अधो बना लिया...ऐसा इसलिए हो रहा था कि कृष्ण का
महातान्त्रिक सम्मोहन मन्त्र सबके चित्त का आहरण नहीं,कर्षण भी नहीं,बल्कि अपहरण कर लिया था। विरह की
वेदना की आँच इतनी तेज हो गयी कि सारे कर्म-संस्कार क्षण भर में जल कर भस्म हो गये । इतना ही नहीं किसी-
किसी ने इस प्राकृतिक पञ्चभूतात्मक शरीर को ही छोड़ दिया, और विशुद्ध अप्राकृत शरीर से उपस्थित हो गयी कृष्ण
के पास। कृष्णभक्तिरसामत
ृ का जो सेवन कर लेता है ,उसकी ऐसी ही स्थिति होती है । ऐसी ही गति होती है ।”

जरा ठहर कर बाबा पन


ु ः कहने लगे- “ ऐसी दिव्य स्थिति में महारास प्रारम्भ हुआ- रासोत्सवः सम्प्रवत्ृ तो
गोपीमण्डलमण्डितः । योगेश्वरे ण कृष्णेन तासां मध्ये द्वरोर्द्वयोः ।।(१०-३३-३) प्रत्येक युगल गोपियों के मध्य एक
कृष्ण....शतसहस्र गोपियां, शतसहस्र कृष्ण भी । एक गोपी-एक कृष्ण के क्रम से एक महावलय निर्मित हो गया
यमन
ु ा के रमणरे ती पर। प्रत्येक गोपी यही समझ रही है कि कृष्ण तो मेरे आलिंगन में हैं । महानत्ृ य चलता रहा,चलता
रहा। चराचर थम सा गया, उस दृश्य से मुग्ध होकर। भक्तप्रवर जयदे व ने अपने काव्य गीतगोविन्द में अद्भत
ु चित्रण
किया है - पीनपयोधरभारभरे ण हरिं परिरभ्य सरागम ् । गोपवधूरनग
ु ायति काचिदद
ु ञ्चितपञ्चमरागम ् ।। कापि
विलासविलोलविलोचनखेलनजनित मनोजम ् । ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदनवदनसरोजम ् ।। कापि कपोलतले
मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले । चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले ।। केलिकलाकुतुकेन च काचिदमुं
यमुनाजलकूले । मञ्जुलवञ्जुलकुञ्जगतं विचकर्ष करे ण दक
ु ू ले ।। करतलतालतरलवलयावलिकलितकलस्वनवंशे ।
रासरसे सहनत्ृ यपरा हरिणा युवतिः प्रशशंसे ।। श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि रमयति कामपि रामाम ् । पश्यति
सस्मितचारु परामपरामनग
ु च्छति वामाम ् ।। - कोई गोपी अपने स्तनों के भार से प्रेमपर्व
ू क श्रीकृष्ण का आलिंगन
करती हुयी उनके स्वर में स्वर मिलाकर गान कर रही है । कोई गोपी अपने चंचल नेत्रों के कटाक्षों के कामोत्पादक
संचार से कृष्ण के मुखारबिन्द का ध्यान कर रही है । कोई सुन्दर जघनों वाली गोपी कान में कुछ कहने के बहाने
कृष्ण का मख
ु मंडल ही चम
ू ले रही है , तो कोई वेतस लता के कंु ज में श्रंग
ृ ार करने की कामना से उनका वस्त्र खींच रही
है । कोई गोपी साथ-साथ नत्ृ य करती हुयी वंशीध्वनि में अपने कंकणध्वनि को मिला रही है । कृष्ण किसी गोपी का
आलिंगन कर रहे हैं,किसी का चुम्बन कर रहे हैं, किसी का अनुसरण कर रहे हैं,किसी के साथ मद
ृ ु मुसकान सहित
बिहार कर रहे हैं...– ऐसा ही विलक्षण दृश्य है रमण-रे ती यमन
ु ा-पलि
ु न का। जयदे वस्वामी ने तो मानों कलम तोड़कर
रख दी है -इस महारास वर्णन में ।

“...कृष्ण ने गीता में अर्जन को समझाते हुए इसे महागोपनतन्त्र कहा है - इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय
कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसय
ू ति ।। रास शब्द का मूल रस है ,और रस हैं स्वयं श्रीकृष्ण- रसो वै सः
- जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रुप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादन करे -
आस्वाद,आस्वादक, लीला,धाम, आलम्बन,उद्दीपन सभी रुपों में क्रीडा करे , उसी का नाम रास है । वंशीध्वनि, गोपि के
अभिसार,बातचीत,रमण, अन्तर्धान, प्राकट्य, वसनासनारुढ, कूट संवाद, नत्ृ य,क्रीडा, जलकेलि, वनविहार- ये सब के
सब मानवी दीखते हुए भी परम दिव्य हैं । हम समान्य जनों के लिए भ्रमित होना कोई आश्चर्य नहीं । बड़े बड़े ऋषि-
मनि
ु भी भ्रमित हो गये हैं,तो फिर मानव की क्या गिनती ! जड़ की सत्ता जड़ दृष्टि में ही होती है । दे ह और दे ही का
भान प्रकृति के राज्य में तो होगा ही न । अप्राकृतलोक में जहां चिन्मय है सब कुछ, वहां ऐसा नहीं होता । जड़ राज्य की
जड़ धारणायें,जड़ विचार,जड़ क्रियायें दिव्य-चिन्तन कर ही नहीं पाती, इसी कारण सारा भ्रम होता है ।
ब्रह्मा,शंकर,उद्धव,अर्जुन आदि सबने गोपियों की उपासना करके, गोपीश्वरी ललिता की कृपा प्राप्त करके कृष्ण तक
पहुंचने की सीढ़ी का निर्माण किया है ...

“...ये जो प्राकृत शरीर है न,जो दृष्यमान है ,मल


ू तः यह एक त्रिकुटी है - स्थल
ू ,सक्ष्
ू म और कारण शरीर मिल कर यह
शरीर बना है । कारण शरीर यानी कि जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से निर्मित शरीर। यह जब तक पूर्णतः नष्ट नहीं
होगा,जन्म-मरण का चक्कर लगा ही रहे गा । सात प्रकार की धातुओं के बारे में मैं तुमलोगों से पहले भी चर्चा कर चुका
हूँ,स्मरण होगा। ”- मेरी ओर दे खते हुए बाबा ने कहा,जिसके उत्तर में मैंने कहा- ‘ जी हां, बिलकुल याद है । अन्तिम
धातु शुक्र को ओज में बदलने की विधि भी आपने बतलायी थी मुझ।े ’

“ प्रकृति के राज्य में जितने शरीर हैं- चाहे वो कामजनित निकृष्ट समझे (कहे ) जानेवाले मैथन
ु से उत्पन्न हुये हों या
कि ऊर्ध्वरे ता महापुरुषों के संकल्प से,या बिन्द ु के अधोगामी होने पर कर्त्तव्यरुप श्रेष्ठ मैथुन से,अथवा बिना मैथुन के
ही नाभि,हृदय,कर्ण,कंठ, नेत्र,सिर,मस्तकादि से- ये सभी मैथुनी-अमैथुनी शरीर प्राकृत शरीर ही हैं । यहां तक कि
योगियों द्वारा निर्मित ‘ निर्माणकाय ’ अपेक्षाकृत शद्ध
ु होते हुए भी प्राकृत ही हैं । दिव्य कहे -माने जाने वाले पितरों,
और दे वों के शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण है । यह ठीक है कि दे वादि शरीर रक्त-मांसादि
सप्त धातुओं से निर्मित नहीं होते, किन्तु फिर भी उन्हें अप्राकृतिक शरीर नहीं कहा जा सकता। श्रीकृष्ण का शरीर
प्राकृत शरीर तल्
ु य दीखते हुए भी चिन्मय है । वहां दे ह-दे ही,रुप-रुपी,नाम-नामी,लीला-लीलापरु
ु षोत्तम का जरा भी भेद
नहीं है । कृष्ण का नख भी सम्पूर्ण कृष्ण है ,आँख भी सम्पूर्ण कृष्ण है , रोम-रोम सम्पूर्ण ही है । वे आँखों से सूंघ सकते
हैं,नाक से बोल सकते हैं,कान से दे ख सकते हैं। कोई फर्क नहीं है । गीता में कहा गया है - सर्वतः पाणिपादं तत ्
सर्वतोक्षिशिरोमुखम ् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावत्ृ य तिष्ठति ।। इन्हीं भावों को तुलसी ने भी दह
ु राया है - बिनु पग
चलै,सुनै बिनु काना,कर विनु करम करै बिधि नाना...। अब भला ऐसे विलक्षण शरीर में मैथुनी भाव- काम-पिपासा
कहां से हो सकती है ? किन्तु हम मनुष्य इस दिव्यत्व को समझ नहीं पाते, सारी शंकाओं का जड़ यही है । और इसी का
परिणाम है कि चीरहरण और रासलीला को मानवी दृष्टि से सोच-विचार कर कृष्ण को कलंकित करने में भी नहीं
हिचकते।”

बड़ी दे र से चप्ु पी साधे गायत्री ने सवाल किया- ‘ जब ऐसी बात है भैया,तब कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ
रानियाँ,उनसे उत्पन्न पुत्र-पौत्र की करोड़ों की संख्या- ये सब क्या तमाशा है ?’

गायत्री की बात पर बाबा मस्


ु कुराये- “ इतना सन
ु चक
ु ने के बाद भी तम
ु अभी यहीं अटकी हुयी हो? श्रीकृष्ण का ये
सन्तान-व्यूह मैथुनी नहीं है ,और न दै वी। इसका निर्माण शुक्र-शोणित-संयोग से नहीं हुआ है । ये ‘ योगमाया की
भागवती सष्टि
ृ ’ है - सष्टि
ृ के विविध प्रकारों में एक; और योगमाया तो उनकी सहचरी ठहरी। स्वयं ये योगेश्वर कहे
जाते हैं। अखण्ड ब्रह्मचारी हैं । श्रीमद्भागवत में उनके लिए एक शब्द प्रयक्
ु त हुआ है - अवरुद्धसौरत ”
मैंने सिर हिलाते हुए कहा- इनके ब्रह्मचर्च की परीक्षा का एक प्रसंग मुझे भी याद आ रहा है - एक बार यमुना में भयंकर
बाढ़ आयी थी। मालूम हुआ कि उस पार महर्षि दर्वा
ु सा पधारे हुए हैं। गोपियां उनकी सेवा में भोज्य-थाल सजाये बैठी
थी, किन्तु जायें तो कैसे – विकट सवाल था। चिन्तातुर गोपियों को दे खकर कृष्ण ने कहा- ‘ जाओ,और यमन
ु ा से
कहना कि अखण्ड ब्रह्मचारी कृष्ण ने हमें भेजा है । हे यमन
ु े ! मार्ग दे दो।’ गोपियां ठिठकीं। कृष्ण के साथ नित रमण
करने वाली गोपियां भला कैसे स्वीकारें कि कृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हैं ।अखण्ड ब्रह्मचारी के लिए तो अष्टविध मैथुन-
नारी दे ह का चिन्तन,स्पर्शन,दर्शन,लीलावर्णन...आदि सबकुछ वर्जित है ,फिर ये ब्रह्मचारी कैसे ! गोपियों के भाव को
समझ कर कृष्ण ने पुनः कहा- ‘ जाओ तो सही,दे खो यमन
ु ा क्या करती है । हो सकता है मार्ग मिल ही जाये।’ कृष्ण का
मान रखने के लिए गोपियां अनमनी सी यमन
ु ा-तट पर गयी,और उनके शब्द दह
ु रा दिये । आश्यर्य कि यमन
ु ा तत्क्षण
ही सख
ू गयी लगभग,और गोपियां सहजता से उस पार चली गयी।

हजारों थालियां सज कर गयी थी । महर्षि ने सबका मान रखा । सब चट कर गये । भोजन कराने के बाद गोपियाँ
अपना-अपना थाल लिए संकुचित खड़ी थी, क्यों कि यमन
ु ा पूर्ववत हुंकार भर रही थी। उन्हें संकुचित दे खकर दर्वा
ु सा ने
पूछा- ‘ क्या बात है ,तुमलोग अब जाती क्यों नहीं?’ यमुना की स्थिति व्यक्त करने पर ऋषि ने पन
ु ः प्रश्न किया- ‘ तो
फिर आयी कैसे थी? ’ गोपियों ने कृष्ण का वक्तव्य दह
ु रा दिया। ऋषि मुस्कुराये,और बोले- ‘ ठीक है , जाओ,यमुना से
कह दे ना कि सदा निराहारी दर्वा
ु सा ने हमें भेजा है , हे यमन
ु े ! मार्ग दे दो।’ अभी-अभी हजारों थालियां छक कर जाने
वाले ऋषि की बातों पर गोपियों का अविश्वास स्वाभाविक था- ये आदमी निराहारी कह रहा है स्वयं को। बुतबनी
गोपियों को दे ख ऋषि ने फिर टोका,जाती क्यों नहीं? ’ शिवांश दर्वा
ु सा की क्रोधाग्नि की चर्चा सुन रखी थी गोपियां ।
अतः बिना कुछ आशंका व्यक्त किये,भयभीत,वहां से चल दे ना पड़ा। किन्तु आश्चर्य, उनका मार्गदर्शन काम आया।
निराहारी दर्वा
ु सा ने भेजा है - कहते ही यमन
ु ा पन
ु ः सूख गयी,और गोपियां पूर्ववत वापस आगयी ।

बाबा के होठों पर गम्भीर मुस्कान तैर गया एक बार। लम्बी सांस छोड़ते हुए बोले- “ सामान्य मानवी बुद्धि में नहीं समा
सकती ये बातें । गोपियां जब शंकित हो सकती हैं,तो फिर आम आदमी का क्या ! अकर्तापन का अनन्यतम उदाहरण
है ये दोनों घटनायें । सबकुछ करते हुए भी न करने वाला...।

“…ये महारास की लीला जो है न दिव्यातिदिव्य है । श्रीकृष्ण ही जगत के आत्मा हैं, और आत्माकार वत्ति
ृ ही श्रीराधा
हैं,और शेष आत्माभिमख
ु वत्ति
ृ याँ ही गोपियाँ हैं । इनका अनवरत,धाराप्रवाह आत्मरमण ही महारास है । ये किसी
लौकिक स्त्री-पुरुष का दे ह-मिलन कदापि नहीं है । यहां न ‘जारभाव’ है ,और न ‘औपपत्य’ का ही प्रश्न है । मायिक
पदार्थों के द्वारा मायातीत प्रभु का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है । भगवान के दिव्य उपदे शों का पालन(अनुसरण)
तो अवश्य करे , किन्तु उनके सभी लीलाओं और कृत्यों का अनुकरण कदापि न करे । ”

इतना कह कर बाबा चुप हो गये। यह प्रसंग समाप्त हो गया—शायद इसलिये । किन्तु मेरे मन में अभी भारी
कुलबल
ु ाहट चल ही रहा था। बाबा ने कृष्ण को महातान्त्रिक कहा था- इस प्रसंग के प्रारम्भ में । अब तक की बातों से
काफी हद तक तो सिद्ध भी हो गया,फिर भी कुछ रहस्य अभी गर्भगत ही रह गया। मेरे मन का उद्वेलन इसी कारण
था। कुछ दे र तक तो दे खता रहा, उनके चेहरे को,शायद और कुछ बोलें; किन्तु काफी दे र हो जाने पर छे ड़ना ही पड़ा– ‘
तो क्या महारास में गोपियों के साथ नत्ृ यगान भी तान्त्रिकता है ,या कुछ और? जैसा कि आपने कहा- गोपियों और
कृष्णों का चक्राकार व्यूह रचित हो गया,और आगे की सारी क्रिया-लीला उस व्यूह-संरचना में ही होते रही,जैसा कि
स्वामी जयदे व ने भी चित्रित किया है ; किन्तु क्या इसे भैरवीचक्र की क्रिया से भी कुछ वास्ता है ?’

मेरे मुंह से ये ‘भैरवीचक्र’ शब्द सुन कर बाबा अचकचाये । उनके चेहरे का

रं ग कुछ बदला । मुझे लगा कि वे क्रोधित हो रहे हैं । आँखें जरा लाल हो आयी,और विस्फारित भी। कभी मेरी,और
कभी गायत्री की ओर घूरे जा रहे थे। तभी, गायत्री ने कहा- ‘ हाँ भैया ! मैं तो हमेशा इन शब्दों के अर्थ और व्यवहार पर
ही भ्रमित होते रहती हूँ; किन्तु इसके बारे में पछ
ू ू ँ -जानँू तो किससे,कोई उचित व्यक्ति मिले तब न । जिस दिन, ये सब
बताने वाले दादाजी थे,उस दिन अभिरुचि नहीं थी,और अब जिज्ञासा होती है , तो वे न रहे । सोचती हूँ- तरह-तरह के
टोटके,तन्त्र-मन्त्र के नाम पर जीवों का बलि-विधान,मदिरा-मांस का धड़ल्ले से प्रयोग- क्या ये सब उचित और
सनातन है ? ’

गायत्री के प्रश्न पर, बाबा थोड़े सामान्य हुए,और कहने लगे- “ अच्छा,तुम दोनों के सवालों का जवाब दे ता हूँ । पहले
जरा इस तन्त्र को ही समझ लो,क्यों कि विडम्बना है कि आजकल बड़े ही संकीर्ण और गर्हित अर्थों में प्रायः जाना-
समझा जा रहा है । विस्तत
ृ अर्थ कहीं खो सा गया है । हमने पहले भी तुमलोगों से कहा है , फिर दह
ु रा रहा हूँ कि हमारी
संस्कृति वैदिक और तान्त्रिक परम्पराओं का अद्भत
ु महासंगम है । यहां तन्त्र शब्द- आगम,यामल,डामर और तन्त्र –
इन चारो अर्थों में प्रयक्
ु त है । आगम,यामल,डामर पर कभी बाद में विस्तार से चर्चा करूंगा । चंकि
ु अभी हमलोगों की
बात महातान्त्रिक श्रीकृष्ण पर चल रही थी,इसलिए विशेषकर ‘आगम’ पर एक आँख खोलने वाली बात कह दं -ू आगतं
शिववक्त्राब्जाद् गतं तु गिरिजामुखे । मतं च वासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते ।। वासुदेव (कृष्ण) का मत, शिव के मुख
से आकर(निकलकर), पार्वती के कानों में गया, यानी आगत (आया) का ‘आ’, गतं(गया) का ‘ग’ और मतं(मत-विचार)
का ‘म’- आ+ग+म से शब्द बना आगम। इस प्रकार ‘आगम मात्र’(सभी आगम) वासुदेव कृष्ण के मत (विचार) कहे जा
सकते हैं। वैसे इनकी मान्यता पंचविध है - शैव,शाक्त,वैष्णव,सौर और गाणपत्य । आगे इन पांचों के भी अनेक भेद हैं।
वाराही तन्त्र में आगम का लक्षण इस प्रकार निरुपित है - सष्टि
ृ श्च प्रलयश्चैव दे वतानां यथार्चनम ् । साधनश्चैव सर्वेषां
पुरश्चरणमेव च ।। षट्कर्मसाधनश्चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं तद्विदर्ज
ु नाः ।। यानी
सष्टि
ृ , प्रलय, दे वतार्चन, पुरश्चरण, षट्कर्म,ध्यान और योग- इन सात चीजों का समन्वय है आगम-शास्त्र। किन्तु
अभी तो तुमलोग इस तन्त्र शब्द के अर्थ में ही उलझे हुए हो,अतः इसे ही पहले समझने की चेष्टा करो,फिर अवसर
मिलने पर इन्हें बूझने का प्रयास करना। तन्त्र शब्द के भी अनेक अर्थ हैं। ‘तनु विस्तारे ’ में ‘ष्ट्रन ्’ प्रत्यय लगाने से
तन्त्र शब्द बनता है । इसमें कर्म और ज्ञान दोनों का समावेश है । तथा ‘तन्त्रिधारणे’ से ‘धञ ्’ प्रत्यय करके भी तंत्र शब्द
बनता है । अमरकोष, शब्दकल्पद्रम
ु आदि कोषग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ हैं- तन्त्रं प्रधाने सिद्धान्ते सूत्रवाये
परिच्छे दे ..। तथा सर्वानुपायानाथ संप्रधाय समुद्धरे त ् स्वस्थ कुलस्य तन्त्रम ् — प्रधान,सिद्धान्त,करघा,ताना,साज-
सामान, औषधि,परिच्छे द,श्रुतिशाखा,विधि,नियम, व्यवस्था,साधना,विस्तार,राष्ट्र,करण,कुल,शास्त्र,
सैन्य,प्रबन्ध,शपथ,धन,गह
ृ ,वयन,साधन, कल्याण आदि विविध अर्थो में तन्त्र शब्द का प्रयोग होता है ,भले ही
आमजनों में तन्त्र सिर्फ जाद-ू टोना-टोटका,मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि अभिचार कर्म के रुप
में ही जाना जाता है । तन्त्र को इस प्रकार भी परिभाषित किया गया है - यत ् सकृत्कृतं बहूनामुपकरोति तत ्
तन्त्रमित्यच्
ु यते । शैवसिद्धान्त कामिक आगम में कहा गया है - तनोति विपल
ु ानर्थान ् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान ् ।
त्राणञ्च कुरुते यस्मात्तन्त्रमित्यभिधीयते ।। तथा कालीविलासतन्त्र में कहा गया है - तं त्राति पतितं घोरे तन्त्र
इत्यभिधीयते —इस घोर संसार में पतित जीवों की जो रक्षा करे ,वही तन्त्र है । उत्कृष्ट साधना और सष्टि
ृ नियम-
सिद्धान्त को भी उद्धाटित करता है यह- इसे बहुत कम लोग ही जान-समझ पाते हैं । यही कारण है कि तन्त्र के प्रति
बहुतों का घण
ृ ाभाव है ,या कहो कि इसे लोग निकृष्ट कोटि की कोई क्रिया मात्र समझने की भूल कर बैठते हैं।
हालांकि,इस जन-भावना के पीछे भी बहुत बड़ा कारण है ।आज जो तन्त्र का विकृत रुप दे खने-सुनने को मिल रहा
है ,वह अचानक नहीं हो गया है । न जाने कब, कैसे, धीरे -धीरे बौद्धतन्त्र से लेकर हिन्द ु तन्त्र तक, विशेष कर वाममार्गी
साधना में शिश्नोदर-पीड़ित भोगवादी अनाधिकारी लोगों का प्रवेश होता चला गया । स्वाभाविक है कि अनाधिकारी
कहीं भी घुसेगा को मूल चीजों को नष्ट-भ्रष्ट ही तो करे गा। तन्त्र की मर्यादा-कीर्ति को भी इन अनाधिकारियों ने ही
कलंकित किया । आज हम कृष्ण को महातान्त्रिक कहें , भगवान दतात्रेय को महाकापालिक कहें ,तो आमजनों को ऐसा
ही कुछ भ्रम या अविश्वास होगा। महानिर्माणतन्त्र स्पष्ट कहता है - उत्तमो ब्रह्म सद्भावः, ध्यान भावस्तु मध्यमः ।
स्तुतिर्जपोधमो भावो बहिर्पूजाधमाधमा ।।- बाह्यपूजा-जप,तप,स्तुति आदि बाहरी पूजा प्रक्रिया को वरीयता क्रम में
अधम कहा है ,और ध्यान भाव को मध्यम,तथा ब्रह्मभाव को साधना की उत्तम कोटि में रखा गया है । कृष्ण ने भी
बारम्बार कर्मकाण्डीय आडम्बरों का वहिष्कार किया है । तन्त्र की गुह्यतम साधना के विषय में कहा गया है —
क्रूरान्खलान्पशून्पापान्नास्तिकान्कुलदष
ू कान ् । निन्दकान्कुलशास्त्राणां चक्राद्दूरतरं त्यजेत ् ।। – क्रूर, खल,
पशु(अष्टपाशवद्ध), नास्तिक, कुलदष
ू ण, शास्त्र-निंदक आदि को ‘चक्रसाधना’ से दरू ही रखा जाना चाहिए । क्यों कि
हं सविलास तन्त्रानस
ु ार यह असिधारावत- तलवार की धार के समान है - असिधाराव्रतसमो मनोनिग्रहहे तक
ु ः।
स्थिरचित्तस्य सुलभः सफलस्तूर्णं सिद्धिदः ।। इन्हीं बातों को कुलार्णवतन्त्र में भी किं चित शब्दभेद से कहा गया है -
कृपाणधारागमनात ् व्याघ्रकण्ठावलम्बनात ् । भुजंगधारणान्नन
ू मशक्यं कुलवर्तनम ् ।। यानी इन साधनाओं को
अपनाना तलवार की धार पर चलने,वाघ को गले लगाने,सर्प को गले में धारण करने तल्
ु य है । इससे स्पष्ट होता है कि
तपे-तपाये, बिलकुल जितेन्द्रिय साधकों के लिए है ये सब साधना।”

जरा दम लेकर बाबा ने आगे कहा- “ ऊपर गिनाये गये अन्य शब्द तो स्पष्ट अर्थ वाले हैं, किन्तु पशु- विशेष अर्थ वाला
है - घण
ृ ा शंका भयं लज्जा जुगप्ु सा चेति पंचमी । कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः - घण
ृ ा,शंका, भय,
लज्जा, जुगप्ु सा,कुल,शील और जाति- ये आठ पाशों (रस्सियों) से बंधे होने के कारण सभी जीव पशु कहे गये है ,न कि
सिर्फ चौपाया- गाय, बैल आदि। अब जरा सोचो इस विस्तत
ृ सीमा के बाहर(मक्
ु त) होकर ही तो चक्रसाधना का
अधिकारी हुआ जा सकता है । कितना कठोर तप है यहां तक पहुंचने में । पहले तो, केवल पशुता से बन्धन-मुक्त होना
ही अति कठिन है ,यानी साधना-क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकार पाना ही जब कठिन है ,फिर सोचा जा सकता है कि
साधना कितनी कठिन होगी ! यहाँ पग-पग पर गिरने(नष्टहोने) का खतरा बना हुआ है । विरले ही कोई साधक सिद्ध
हो पाता है । कृष्ण ने भी कहा है - मनष्ु याणाम ् सहस्रेषु कश्चितद्यतति सिद्धये....हजारों व्यक्तियों में कोई एक साधना
पथ पर अग्रसर होता है ,और उनमें भी (.०००१%करीब) विरले ही कोई पहुँच पाता है सही ठिकाने पर। साधकों के भाव-
स्तर भी तीन कहे गये हैं- पश,ु वीर,और दिव्य। पन
ु ः वीर का भी दो स्तर है - विभाव और सभाव। आम साधक तो
पशुभाव में ही हुआ करता है ,क्यों कि पूर्व में कहे गये अष्टपाशों से मुक्ति कोई साधारण बात नहीं है । प्रथम प्रकार के
वीरभावी साधक- यानी विभाववीरभाव वाले मद्यादि पंचतत्त्व का सेवन सीधे करने के अधिकारी नहीं है ,बल्कि
उसका प्रतिनिधि- अनक
ु ल्प सेवन करते हैं । वही आगे चल कर सभाव की अवस्था में सद्यः मद्यादि का प्रयोग होता
है । यहां भी आमश्रुति में काफी भ्रामक स्थिति है । तुमने भैरवीचक्र के बारे में प्रश्न किया,तो निश्चित है कि उसके
प्रति जिज्ञासा बनाया होगा,या कहो खींचा होगा उसका बहुचर्चित सिद्धान्त ही तुमको। क्यों कि आम लोगों में यह
भ्रामक श्लोक खब
ू चर्चित है ।”

‘ जी महाराज ! ’- मैंने करवद्ध निवेदन किया- मैंने बहुतों से सुन रखा है , तन्त्र के विषय में - मद्यं,मांस,च मीनं च
मद्र
ु ामैथन
ु मेव च । मकार पञ्चकंप्राहुर्योगिनां मक्ति
ु दायकम ् ।। - यानी इन पंचमकारों की साधना होती है । मेरी
जिज्ञासा यही है , कि क्या यह सही बात है ? पतन के ये गर्त, साधना के सोपान कैसे हो सकते हैं?

सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- “ सही जिज्ञासा है तुम्हारी । साधना का सोपान ये कैसे हो सकता है ? तन्त्र को
गर्हित,निकृष्ट की पंक्ति में ढकेल दे ने के लिए यह श्लोक काफी है – किसी अनाड़ी के हाथ पड़कर । विभिन्न प्रयोगों में
कुलार्णवतन्त्र (१०-५),महानिर्वाणतन्त्र(५-२२) आदि ग्रन्थों में किं चित शब्द भेद सहित यह श्लोक आया है ,जैसे- मद्यं
मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च । शक्ति पूजा विधावाद्ये पंचतत्त्वं प्रकीर्तितम ् ।। तथा च- मद्यं मांसं च
मत्स्यश्च मुद्रा मैथुनमेव च । मकारपंचकं दे वि दे वता प्रीतिकारकम ् ।। ये बातें अनाड़ियों के कानों में घुसकर उसे
मथित कर दिया है । महज भोगवादी प्रवति
ृ से आकृष्ट होकर तन्त्र-मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। परिणामतः स्वयं भी
डूबा,और तन्त्र शास्त्र को भी कलंकित कर डुबो दिया। जैसा कि अभी-अभी मैंने कहा- पश्वादि त्रिविध साधक-भाव-
स्थिति,और सबसे महत्त्वपूर्ण बात गुरु-सानिध्य,गुरुगम्यता,गुरु-आदे श-निर्देश-दीक्षा पर निर्भर है । इसके अभाव में
पतन तो होना तय है । आमतौर पर भोगवादी शब्द तो आकर्षित कर लेते हैं, पर उस तक पहुँचने की स्थिति न रहने पर
पतन ही पतन है । ये पंचमकार वस्तत
ु ः पंचमहाभत
ू ों की साधना है । स्थिति क्रम में ,या कि संहार क्रम में इनके
सजावट का क्रम भी बदल जाता है । जैसे स्थितिक्रम में होगा- मैथुन, मांस, मद्य, मत्स्य,और मुद्रा। इसे ही उलट दो
तो हो जायेगा संहार का क्रम । ये पांचो महा अमत
ृ हैं,किन्तु महाविष भी इसे ही समझो। पंच मकारों की साधना
अत्यावश्यक है , वाममार्गीय तन्त्र-साधना में ,चाहे वह शैव कापालिक हो या कि शाक्त कौल । अष्टपाशों के मोचन में
इन पंचमकारों का सेवन बहुत ही सहायक है । अहं कार,अविद्यादि हृद् ग्रन्थियों के उच्छे दन के फलस्वरुप ही पूर्णतया
निर्ग्रन्थ (ग्रन्थिमुक्त) होकर ही वीरभाव की आगे की साधना की जा सकती है ,और इसमें पंचमकारों का महत ्
योगदान है । पाशमुक्ति के पश्चात ् सदाशिव भाव का उद्रे क होता है ,और तब सम्यक् वीरभाव उद्भत
ु होता है । इसके
वगैर साधना परू ी नहीं हो सकती। जैसा कि तन्त्रदीपिका में कहा भी गया है - पंचतत्त्वं विना पूजा अभिचाराय कल्पते
। नष्टा सिद्धिः साधकस्य प्रत्यूहाश्च पदे -पदे ।। किन्तु कठोर अनुशासन एवं मर्यादा से आवद्ध है । इन तत्त्वों का सेवन
सिर्फ दे वता प्रीत्यर्थ ही होना चाहिए,न कि ऐंद्रिक तष्ृ णा हे तु- मादिपंचकानीशानि दे वताप्रीतये सुधीः । यथाविधि
निषेवेत ् तष्ृ णया चेत ् स पातकी ।। अब प्रथम मकार मदिरा(मद्य)को ही ले लो। वस्तत
ु ः यह त्रिशापित है -
शुक्र,कृष्ण,और ब्रह्मा के शाप का विमोचन किये वगैर मदिरा सेवन करना उचित नहीं । और जैसे ही इन तीनों शापों
का विधिवत विमोचन हो जाता है , मदिरा मदिरा रह ही नहीं जाता,अमत
ृ हो जाता है । अब भला,इस रहस्य को जाने-
बझ
ू े वगैर जिह्वालोलप
ु व्यक्ति भ्रष्ट होकर नाली में ही तो गिरे गा ! किन्तु इसका ये अर्थ भी मत लगा लेना कि कोई
पियक्कड़ इन शापों का विमोचन करके दारु ढालने लगे । मदिरादि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ दे वता प्रीत्यर्थ ही
विहित है , न कि जिह्वालोलुप जन के लिए- जैसा कि अभी-अभी मैंने कहा भी है । इसी भांति मांस सेवन के पूर्व भी
वीरभाव-साधक को एक विशिष्ट मन्त्र से अभिमन्त्रित करना होता है मांस को,तभी सेवनीय होता है । तम
ु ने सन
ु ा
होगा- विषस्य विषमौषधम ् - विष से ही विष की चिकित्सा की जाती है । संखिया (Arcenic) महाविनाशकारी विष है ,जो
पहाड़ी विच्छुओं के दं श से प्राप्त होता है ,जब वह विष की उष्मा से पीड़ित होकर पहाड़ों में दं श मारता है । इसी संखिया
को योग्य आयर्वे
ु दज्ञ शोधित करके औषधि के रुप में प्रयोग करता है ,और मनष्ु य का जीवन-रक्षण होता है । किन्तु
अज्ञानी बिना जाने-समझे सिर्फ वैद्य को ऐसा करता हुआ दे ख कर, खुद भी करने बैठ जाये तो उसकी क्या गति होगी-
समझ सकते हो। कामवासना से पीड़ित मनुष्य का साधना-जगत में , भला प्रवेश कैसे हो सकता है ? जैसा कि कुलार्णव
तन्त्र में कहा गया है – यावत ् कामादि दीप्येत यावत ् संसारवासना । यावदिन्द्रियचापल्यं तावत्तत्त्वकथा कुतः ।। (१-
११३) प्रारम्भिक साधना तो पशुभाव से मुक्ति हे तु ही करने की है ,क्यों कि यहीं से वीरभाव का द्वार खुलता है ,और
फिर आगे चल कर दिव्यभाव प्रस्फुटित होता है - पाशबद्धः पशुर्ज्ञेयः पाशमुक्तो महे श्वरः । अतः पशुभाव की प्रारम्भिक
अवस्था में पंचमकारों के सीधे व्यवहार का सवाल ही कहां उठता है ! यहां तो अनुकल्पों(विकल्पों)का सहारा लेना है ,
जैसा कि मद्य के स्थान पर नारियल (डाभ)का जल,ताम्रपात्र में रखा दध
ू , गड़
ु , शर्क रा,मधु आदि; मांस के स्थान पर
लहशुन;मत्स्य(मछली)के स्थान पर लम्बा(कलौंजी वाला) बैंगन; मुद्रा के अनुकल्प में तण्डुल, धान्यादि; तथा मैथुन
के अनुकल्प में अपने इष्टमन्त्र-जप पूर्वक जगदम्बा के श्री चरणों का ध्यान- अतस्तेषां प्रतिनिधौ शेषतत्त्वस्य
पार्वति । ध्यानं दे व्याः पदांभोजे स्वेष्ट मन्त्र जप- स्तथा ।। (महानिर्वाणतन्त्र ८-१७३)। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है
कि वीरभाव की भी दो स्थितियां हैं- विभाव और सभाव । विभावी वीरभाव के साधक को झिझक मिटाने के लिए
अनुकल्पिक पंचमकार के प्रयोग के साथ साथ कुमारीपूजन करने का निर्देश है । ध्यातव्य है कि कुमारीपूजन में किसी
भी जाति की कन्या को ग्रहण किया जाना चाहिए- ऊँच,नीच जाति भेद सख्त वर्जित है । संसार की सभी कुमारियों में
पराम्बाभाव को दे खने का प्रयास करना है - कुमारीपूजन का यही रहस्य है । निरं तर कुमारीपूजन करते-करते
परम्बतत्त्व का अनुभव हो जाता है । इस प्रकार एक बहुत बड़े पाश(बन्धन)से मुक्ति मिल जाती है । प्रसंगवश यहां
एक और बात स्पष्ट कर दं ू कि इस वीरभाव के दो और भी प्रकार हैं- दक्षिणाचार एवं वामाचार। दक्षिणाचार में शिव रुप
में शक्ति का सेवन होता है ,और वामाचार में शक्तिरुप में शक्ति का सेवन होता है । सर्वोल्लासतन्त्र(१८-१०) में कहा
गया है -स्वधर्मनिरतो भूत्वा पंच तत्त्वैः प्रपूजयेत ् । स एव दक्षिणाचारो शिवो भूत्वा यजेत ् पराम ् ।। तथा वहीं आगे
(४८-१) यह भी कहा गया है - स्वपुरुषैः पंचतत्त्वैश्च पूजयेत ् कुलयोषिताम ् । वामाचारः स विज्ञेयो वामा भूत्वा यजेत ्
पराम ् ।। ये सब है ,किन्तु एक बात दृढ़ता पूर्वक जान लो कि ‘पूर्णाभिषेक’ के बिना केवल मद्यपान करने लेने भर से
कोई कौलसाधक नहीं हो जाता। मगर अफसोस कि सांसारिक विविध वासनाओं में जकड़े मर्खों
ू ,अनाड़ियों,जाहिलों के
हाथ तन्त्र का सिद्धान्त पड़ कर, कुछ ऐसा ही हुआ है , पिछले हजार-दो हजार वर्षों में । अतः इसे बड़े संघर्ष पूर्वक पुनः
परिष्कृत कर अपने मूल सिंहासन पर आरुढ़ करने की आवश्यकता है । महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज
जैसे कई महानभ
ु ावों ने इस क्षेत्र में पन
ु ीत कदम उठाये हैं । हमें उनके मार्गदर्शन से लाभ उठाना चाहिए। ”

इतना कह कर बाबा जरा विलमे। एक बार हमदोनों के चेहरे को निहारे , मानों कुछ ढूढ रहे हों- हमारी मनःस्थिति भांप
रहे हों, फिर उचरने लगे- “ तन्त्र की गहन साधना के विषय में मार्क ण्डेय,पद्म,ब्रह्माण्ड,श्रीमद्भागवत,कूर्मादि विविध
पुराणों के अतिरिक्त छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, भावोपनिषद्, बह्
ृ वच
ृ ोपनिषद्,
दे व्युपनिषद्,कठोपनिषद्,त्रिपुरातापिन्युपनिषद्,रुद्रोपनिषद्, ध्यानबिदप
ू निषद्,योगतत्वोपनिषद् आदि अनेक
उपनिषद् ग्रन्थों में भी विषद वर्णन मिलता है । मनस्
ु मति
ृ के टीकाकार कुल्लक
ु भट्ट ने तो श्रति
ु श्च द्विविधा वैदिकी-
तान्त्रिकी च कहकर हिन्द ू धर्म-संस्कृति को प्रतिष्ठित किया है । इतना गहन और महत ् है हमारी संस्कृति। किन्तु
कुछ लोलुप,स्वार्थी,अज्ञानी,मूर्ख,नासमझों ने इसे कलंकित करने में जरा भी कसर नहीं छोड़ा,जिसका परिणाम है
वर्तमान की भ्रामक स्थिति । अतः हमें इन प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान-सागर में गोता स्वयं लगाकर(केवल किताबी बातें
नहीं और न सुनी-सुनायी बातें ही),तन्त्र-साधना के शुभ्र मुक्ता का परख करना होगा। ”

गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘ यानी कि भैया,तन्त्र के भाव,अर्थ,और उद्देश्य को सही ढं ग से न समझ पाने के चलते ये
सब हुआ है ? ’

बाबा ने कहा- “ बिलकुल यही बात है । गूढभाव में कहा कुछ गया है , समझा कुछ गया है ,और किया कुछ और गया है ।
साधना की गहराई में जैसे-जैसे उतरने की बात हुयी है ,कूटशब्दों का खेल भी खब
ू खेला गया है । बहुत जगह स्पष्ट
द्वयर्थक शब्द आये हैं,तो कहीं ‘श्लिष्ट’ शब्द भी हैं,तो कहीं कूट(कोड) भी है । सामान्य कर्मकाण्डी लोग सीधे इसे
लौकिक प्रयोजन में उतार लेते हैं,जैसा कि मार्क ण्डेय पुराण के श्रीदर्गा
ु सप्तशती का नवरात्र में पाठ करके कुछ
द्रव्यार्जन कर लेना भर उद्देश्य रह गया है ब्राह्मणों का। उसके रहस्यों में डूबने-जानने का फुरसत भी नहीं है किसी को।
वैसे ही कर्पूरस्तोत्र के लिए भी ख्याति है कि इसका नियमित पाठ करने से सामान्य जीवनोपयोगी आवश्यकता की
पूर्ति अवश्य हो जाती है । द्वयर्थक,कूट और श्लिष्ट शब्दों के लिए दक्षिण काली की गहन उपासना में बहुचर्चित
‘कालीकर्पूरस्तोत्र’ की एक बानगी दे खो- सलोमास्थि स्वैरम्पललमपि मार्जार मसिते ।
परं चोष्ट्रम्मेषन्नरमहिषयोश्छाग मपिवा । – साधना में मार्जार(बिल्ली), उष्ट्र(ऊँट), मेष (भेड़), छाग (बकरा),नर
(आदमी), महिष (भैंस) आदि की बलि दे ने की बात कही जा रही है ; किन्तु गौर करने की बात है कि ये दक्षिणकाली की
उपासना क्रम में है । यहां इन सभी शब्दों के अर्थ बिलकुल भिन्न हैं । यहां मनष्ु य के षडरिपुओं (छःशत्रओ
ु ं)की बात की
जा रही है । इन जीवों के मूल स्वभाव के अनुसार व्याख्यायित करने पर अर्थ स्पष्ट होगा । काम ही छाग है , क्रोध
महिष है ,लोभ मार्जार है ,मोह मेष है ,मात्सर्य उष्ट्र है , और मद नर है । इन छः प्रबल शत्रओ
ु ं की बलि दे नी है ,न कि छः
जीवों की। इन पर विजय पाना है । हमारे मनीषियों ने प्रायः कूट शब्दों का ही प्रयोग किया है । घोर बौद्ध तान्त्रिक
वज्रयानी एवं सहजयानी सिद्धों की अभिव्यक्ति की भाषा भी हमेशा ऐसी ही मर्यादित और रहस्यमयी रही है , जिसे
संघाभाषा या संघावचन कहा जाता है । महानिर्वाणतन्त्र की ऐसी ही एक बानगी और दे खो- मातभ
ृ ोमौ क्षिपेत ् लिंगं
भगिन्याः स्तनमर्दनम ् । गरु ोर्मूर्ध्नि पदं दत्वा पन
ु र्जन्म न विद्यते ।। इस श्लोक की यदि शाब्दिक व्याख्या करें तो
कितना घणि
ृ त अर्थ निकलेगा- माँ की योनि में लिंग स्थापन, बहन का स्तन मर्दन,और गुरु के सिर पर पांव रखने की
बात की जा रही है । सच्चाई ये है कि यहां कुण्डलिनी योग-साधना की बात कही जा रही है । प्रथम ‘चक्र’ स्थित त्रिकोण
ही भग है ,जिसमें स्वयंभलि
ू गं प्रतिष्ठित हैं । यहीं वह अद्भत
ु शक्ति विद्यमान है । इसे योग-साधन-प्रक्रिया से ऊपर
उठा कर गुरुपद यानी सप्तम पायदान पर ले जाना(पांव धरना) है । हे मबज्रतन्त्र में इन शब्दों को किं चित अन्य रुप में
भी स्पष्ट किया गया है - जननी भण्यते प्रज्ञा जनयति यस्याज्जगजनम ् । भगनीति तथा प्रज्ञा विभागं च निगद्यते ।
गण
ु स्य दह
ु णा प्रज्ञा दहि
ु ता च निगद्यते ।।- वस्तत
ु ः ‘प्रज्ञा’ की बात की जा रही है । चार प्रकार की मद्र
ु ाओं की बात की
जा रही है - जननी, भगिनी,भागिनेयी,पुत्री आदि संकेतों से- कर्ममुद्रा,ज्ञानमुद्रा,महामुद्रा, एवं फलमुद्रा का ही संकेत है ।
इतना ही नहीं, इस श्लोक के अन्य भी कई गूढार्थ हैं। अब भला योग्य गुरु का अभाव होगा, तो अर्थ का अनर्थ तो
लगेगा ही न?...

गतांश से आगे...ग्यारहवां भाग

“ अब हम तु म्हारे मूल प्रश्न पर आते हैं कि रासचक् र और भै रवीचक् र में क्या कहीं समानता भी है या...? एक बात
दृढ़ता पूर्वक मान लो कि परमतत्त्व में स्त्री-पु रुष का भे द होता ही नहीं है । यह भे द तो मानवी-बु दधि ् की सं कीर्णता का
द्योतक है । साथ ही इसे कह सकते हो कि साधक की भावना पर ही निर्भर है । परतत्त्व का साक्षात्कार कभी ‘पुं ’ रुप में
तो कभी ‘स्त्री’ में होता है । श्रीराधातन्त्र में शिव का राधात्व,और शक्ति का कृष्णत्व वर्णित है । एक बार शिव ने
पार्वती का स्वयं से श्रग ृं ार किया,और पार्वती ने शिव का । एक दस ू रे को श्रगृं ारित करते समय परस्पर आकर्षित

होकर,अचानक पार्वती कष्ण के रुप में आविर्भूत हो उठी। उन्हें इस रुप में दे ख कर शिव चटपट राधा बन बै ठे- राधां शेन
पु मान् ज्ञे यः कृष्णां शात् शक्तिरुपधृ क्- राधा-कृष्ण यु गल रुप अद्भुत है यह। कहीं-कहीं भाव चित्र में दे खते होगे -
ऊँकार के अन्तर्गत ही यह यु गल छवि उल्लसित है । भक्त की आँ खें जो ना दे ख ले ...भक्त का चिन्तन जो न सोच ले ।
सु चर्चित अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना इन्हीं तान्त्रिक पृ ष्ठभूमि पर हुयी है । वै से तो पु रुष के अन्दर नारी,और नारी
के अन्दर पु रुष विराजमान है ही- यह विज्ञान सम्मत भी हो चु का है । बौद्ध वज्रयानी तं तर् में यही दृष्टि-बोध
प्रज्ञापारमिता बु द्ध के ‘यु गनद्धवाद’ के रुप में सु ख्यात है । राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति का सामरस्य रुप एक दिव्य
मिथु न(जोड़ा) अखण्ड श्रग ृं ार में अनवरत लीन है ,और मनु ष्य के निगूढ़ आध्यात्मिक धरातल पर सदा विराज मान है ।
उस महाभाव में आत्मविश्रान्ति की अज्ञात प्रेरणा ही भौतिक रुप से नर-नारी के पारस्परिक सं योग की तीव्र इच्छा
और प्रत्यक्षतः मांसल रति(सम्भोग)के लिए प्रेरित करते रहता है ,जहां मनु ष्य(या कहें प्राणी मात्र) अवश हो
जाता है । विवश हो जाता है - मिथु न-मिलन के लिए। महाकवि दिनकर ने इसे कुछ यूं व्यक्त किया है - ये वक्षस्थल के
कुसु मकुंज,सु रभित विश्राम भवन ये ,जहाँ मृ त्यु का पथिक ठहर कर श्रान्ति दरू करता है ...। पु रुष को जो शान्ति यहां
पहुंच कर मिलती है ,स्त्री को जो चरम-परम सु ख यहां आकर मिलता है ,उसकी तु लना किसी अन्य सु ख से शायद नहीं
किया जा सकता- भले ही वह क्षणिक हो; और यह क्षणभं गुरता ही भावी विकलता का कारण बन जाता है । काश ! यह
टिकाउ होता...पर हो कैसे ? एक प्रसं ग है कहीं का- ब्रह्मा ने एक आकृति बनायी । सर्वगु ण सम्पन्न किया उसे । किन्तु
थोड़े चिन्तित हो उठे - यह तो हमें ही विसरा दे गा- यह सोचकर उसे पटक दिया। आकृति दो भागों में विखण्डित हो
गयी,और चै तन्य होकर छटपटाने लगी- एक दस ू रे से मिलने को। यही आकृति है - पु रुष और नारी,जो निरन्तर विकल है
मिलने को। मै थुन में क्षणभर के लिए एकरसता आती है ,और चली भी जाती है । प्राणी विकल का विकल ही रह जाता
है । साधना के सोपान पर चढ़कर,आत्मा की दिव्यभूमि का अहसास जब होता है ,तो सारी विकलता समाप्त हो जाती
है - ‘आत्मरति’ ‘पररति’ से विरत कर दे ता है । साधना के आलोक में यदि मनु ष्य का ज्ञान-चक्षु थोड़ा भी खु ल जाये ,तो
पाये गा कि आभ्यन्तर दिव्य आलोक सदा भासित है । सं भोग काल की क्षणिक विश्रान्ति परम विश्रान्ति में परिवर्तित
हो जाये गा । भोग से ही योग-तन्त्र-साधना का मूल सिद्धान्त है - भोगो योगायते साक्षात् पातकं च सु कृतायते ।
मोक्षायते च सं सारः कुलधर्मे कुले श्वरि।। (कुलार्णवतन्त्र-२-२४)। जहां भोगवादी प्रवृ ति है ,वहां योग का ले श मात्र
भी स्थान नहीं हो सकता, और जहाँ योगवादी प्रवृ ति का अं श भी विद्यमान है ,वहां भोग टिक नहीं सकता। यत्रास्ति
भोग बाहुल्यं तत्र योगस्य का कथा । योगे ऽपि भोग विरहः कोलस्तूभयमश्नु ते ।। (महानिर्वाणतन्त्र ४-३९) सच्चे
कौल साधक के एक हाथ में भोग है ,तो दस ू रे हाथ में योग है - श्रीसु न्दरी साधन तत्पराणां भोगश्च योगश्च करस्थ एव
। यह वीरभाव के साधक के लिए ही है । पशु भावी को तो बहुत ही सम्भल कर रहने की आवश्यकता है । विभावी
वीरभाव का साधक स्थूल मै थुन के मार्ग से दिव्य मै थुन की स्थिति में हठात् छलां ग लगा ले ता है - आत्मसाक्षात्कार के
रुप में । वाल्मीकि रामायण का एक प्रसं ग है - राम प्रेरित लक्ष्मण विदे ह जनक के पास जाते हैं – अध्यात्म-ज्ञान हे तु;
किन्तु कक्ष के द्वार पर से ही झांक कर लौट आते हैं । राम द्वारा, शीघ्र लौट आने का कारण पूछने पर लक्ष्मण ने कहा
कि वै से व्यक्ति से क्या ज्ञान ले ना जो अभी स्वयं काम-पिपासु हो,क्यों कि द्वार से झांक कर दे खा कि जनक का एक हाथ
किसी नायिका का स्तन-मर्दन कर रहा है । हँ स कर राम ने कहा- और उनका दस ू रा हाथ- क्या तु मने उसे भी दे खा ?
जाओ पु नः जाओ और दे खो । भ्रातृ भक्त सौमित्रेय को पु नः जाना पड़ा; और इस बार जो उन्होंने दे खा- वह चौंकाने
वाला था । जनक का दस ू रा हाथ अग्नि-कुण्ड में तप्त हो रहा था,पर उन्हें जरा भी चिन्ता न थी इसके लिए। यही है
विदे ह का अर्थ । समान समय में असमान विविध कार्यों में स्वयं को सं लग्न रख कर भी पद्मपत्रमिवां भषा बने रहना।
कुछ ऐसी ही स्थिति वज्रयानी सहजिया बौद्धतन्त्र में कायचतु ष्टय—निर्माणकाय, सं भोगकाय,धर्मकाय,और
सहजकाय, तथा तदनु सार ही चक् रचतु ष्टय —निर्माणचक् र, सं भोगचक् र,धर्मचक् र,और सहजचक् र की साधना के
परिणामस्वरुप आनन्द चतु ष्टय — आनन्द, परमानन्द, विरमानन्द और सहजानन्द, तथा क्षण चतु ष्टय—विचित्र,
विपाक, विमर्द और विलक्षण की परिकल्पना है । गु ह्यसाधना की सारी प्रक्रिया अविद्या के नाशपूर्वक
आत्मसाक्षात्कार हे तु ही है । यह अविद्या भी बहुत बूझने वाली चीज है । महामु नि कपिल प्रणीत साख्यदर्शन के
बारहवें सूतर् में इस अविद्या को पांच गाठों वाली कहा गया है - पञ्चपर्वा अविद्या । अविद्या पांच प्रकार की होती है -
अविद्या, अस्मिता,राग, द्वे ष और अभिनिवे श...। ”

मैंने बीच में ही टोका- ‘ सांख्यकार तो संख्या गिना कर रह गये हैं । आप भी यही कह कर निकल जायेंगे, तो मुझ जैसा
बेवकूफ आदमी कैसे समझ पायेगा इन दरु
ु ह बातों को । समय तो लग ही रहा है ,किन्तु कृपा करके इसे जरा विस्तार से
समझाते तो अच्छा होता। ’

मेरी बातों पर बाबा मस्


ु कुराये,और बोले-“ यदि कोई खद
ु को बेवकूफ मान ले तो फिर काबिल बनने के उसके सारे
दरवाजे खुलने लगते हैं । लगता है ,तुम भी अब बेवकूफ नहीं रह गये हो,क्यों कि ऐसे-ऐसे गूढ सवाल करने लगे हो,और
ध्यान से सुन भी रहे हो । सुनने वाला चेष्टित हो यदि,तो सुनाने वाले को भी मन लगता है । अन्यथा बकने वाले बक
जाते हैं, परन्तु, बात इस कान से उस कान तक की होकर रह जाती है । बारम्बार एक ही विषय को समय-समय पर
कहना पड़ा है विचारकों को- इसका मूल कारण यही है ..।”

सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- “ ठीक है ,इसे मैं विस्तार से ही कहता हूँ। महर्षि पतञ्जलि ने भी इसे योगदर्शन के
साधन पाद में विस्तार से ही कहा है । अनित्य में नित्य, अपवित्र में पवित्र,दःु ख में सुख,और अनात्मा में आत्मा की
समझ (अविवेक पूर्ण अनुभव) ही अविद्या है । बुद्धि में आत्मबुद्धि अस्मिता है । सुख की इच्छा यानी लोभ की वत्ति

का नाम राग है । सख
ु -साधन में विघ्न डालने वालों के प्रति घण
ृ ा अथवा द्वेष ही द्वेष कहलाता है । तथा मत्ृ यु से
भयभीत होने की जो वति
ृ है उसे अभिनिवेश कहते हैं । इन्हीं को दस
ू रे शब्दों में क्रमशः तमस ्,मोह,महामोह, तामिस्र
और अन्धतामिस्र भी कहते हैं। पतञ्जलि का कथन बड़ा ही गूढ है – योगश्चित्तवत्ति
ृ निरोधः ।।
(योगदर्शन,समाधिपाद,सूत्र-२) में ‘अथ’ और ‘इति’ दोनों है । इसे ही साधने में खप जाता है - आम साधक। चित्त की
वत्ति
ृ यों का निरोध (रुकना नहीं) ही योग है । अविद्या एक वत्ति
ृ ही तो है ,जिसके कारण विविध क्लेश उत्पन्न होते
हैं,और जीवन पर्यन्त झेलने को विवश होता है मनुष्य। इस अविद्या के कारण ही जड़ चित्त और परम चेतन पुरुष
चिति में भेद नहीं समझ आता। चित्त और चिति में अविवेक ही अस्मिता नामक क्लेश है ।चित्त और चिति में विवेक
न रहने के कारण ही जड़तत्व में सख
ु की वासना उत्पन्न हो जाती है । इस वासना का ही नाम राग है । इस अविवेकी
राग में विघ्न पड़ने पर दःु ख होता है ,और दःु ख दे ने वाले व्यक्ति,या कारण से द्वेष की उत्पत्ति होगी ही । दःु ख पास न
आवे- इस भय से भौतिक शरीर को बचाने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है । जब कि सभी जानते हैं,कि जो जन्म
लिया है , वह मरे गा अवश्य । गीता भी यही कहती है - जातस्य हि ध्रव
ु ो मत्ृ यःु ..। मत्ृ य के इस भयवत्ति
ृ को ही
अभिनिवेश कहते हैं । यक्ष ने युधिष्ठिर से कुछ ऐसा ही गूढ़ सवाल किया था कि ‘आश्चर्य’ क्या है ? जिसके उत्तर में
उन्होंने कहा था- "अह्नि-अह्नि भूतानि,गच्छन्ति यम मन्दिरम ् । अपरे स्थातुमिच्छन्ति,किमाश्चर्यं अतः परम ् ।।"
इस पंचविध अविद्या का नाश ही गह्
ु यसाधना का ध्येय है । यह अविद्या वस्तत
ु ः हमारा कल्पित आवरण मात्र है ।
कबीर ने इसे अपने अंदाज में व्यक्त किया है - जल में कुम्भ,कुम्भ में जल है ,बाहर भीतर पानी... घड़े को नदी में डुबो
दे ने पर वह भर जाता है – जल से परिपूर्ण हो जाता है । वही जल जो बाहर है ,घड़े के भीतर भी होता है । दोनों में तत्त्वतः
कोई अन्तर लेशमात्र भी नहीं होता । यदि कोई पछ
ू े कि घड़े में भरे हुए जल और नदी में बह रहे जल में अन्तर क्या
है ,तो इसका जवाब शायद हर कोई दे दे - दोनों एक ही है , कोई फर्क नहीं है । सवाल ये है कि फिर बाधक क्या है ? इसका
उत्तर भी हर कोई सहज ही दे सकता है कि घड़े की दीवार ही बाधा है ,जो भेद पैदा किये हुए है । जो दरू ी बना रखा है
दोनों जल में । किन्तु इसी सरल बात को समझाने के लिए शास्त्र चीख रहे हैं- अविद्या की इस दीवार को ढहा दो ज्ञान
का प्रकाश प्रस्फुटित होते ही तुममें और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा । इसलिए कि दोनों एक ही है -
अहं ब्रह्मास्मि या कहो सोऽहं । पुरुष और नारी में कोई भेद नहीं रह जायेगा, जिसके लिए तुम इतने व्याकुल हो रहे हो।
भैरवीसाधना में साधक, गुरु के कठोर निर्देशों के अन्तर्गत यही तो साधता है । वहां कायिक भोग,कायसुखानुभूति का
जरा भी गंज
ु ाइश नहीं है । रासलीला में राधा-कृष्ण या कृष्ण और अन्यान्य गोपियों का चक्राकार व्यह
ू घटित होता है ।
परमतत्त्व की यह दिव्यलीला भोगात्मक (भोगभासित) कौलमत का विशिष्ट संकेत है । रासचक्र भैरवीचक्र का
उदात्त ही नहीं परम उदात्त रुप है । परम ‘संस्कृत स्वरुप’ है - परतत्त्व का परममिलन है वहां। किं चित क्रिया-भेद
सहित, वही विन्यास यहां भी है - पंक्त्याकारे ण वा सम्यक् चक्राकारे ण वा प्रिये । शिवशक्तिधिया सर्वं चक्रमध्ये
समर्चयेत ् ।। अविभक्तौ यथा आवां लक्ष्मीनारायणौ तथा । यथा वाणीविधातारौ तथा वीरः सशक्तिकः ।।
(कुलार्णवतन्त्र,८-१०५,१०६)। दोनों मंडलाकार ही हैं । भैरवीचक्र में चक्रेश्वर-चक्रेश्वरी स्वरुप गुरु, अपनी शक्ति के
साथ अधिष्ठित होते हैं,और वलयाकार परिधि पर चारों ओर अन्य साधक अपने-अपने निर्धारित जोड़े के साथ
उपविष्ट होते हैं । कृष्ण,शुक्राचार्य,ब्रह्मादि के त्रिविध शापों से मुक्त करके सुरापान होता है । इन शापों के उद्धार-मन्त्र
के प्रयोग के बिना तो सुरा निरा सुरा ही है - तारातन्त्र एवं सर्वोल्लासतन्त्र में कहा गया है - अशोधितं पिबेन्मद्यं रमणं
चाप्यशोधितम ् । पानेऽपि नरकं याति रमणं मरणं भवेत ् ।। मंत्राभिषिक्त मांस भक्षण भी होता है । पंचतत्त्व-शोधन
की पूरी तान्त्रिक प्रक्रिया दीर्घकाल तक चलती है । नारायणीतन्त्र में वर्णित भैरवीचक्र की बाह्यपूजा विधान पर जरा
ध्यान दो तो तुम्हारा सारा भ्रम दरू हो जाये । इस अनूठी क्रिया के प्रति जो घणि
ृ त भावना है ,सदा के लिए तिरोहित हो
जाय।गरु
ु -ध्यान,रुप-चिन्तन, प्राणायाम,जप,मैथन
ु , दक्षिणा,नमस्कर, स्तोत्रपाठ, और अन्त में नत्ृ यगान- यही तो नौ
क्रम हैं। वीरतन्त्र में कहा गया है -नवमे गायनं नत्ृ यं भगलिंगामत
ृ ं शिवे । नत्ृ यं श्रंग
ृ ारभावेन दे वता प्रीतिभाग्भवेत ् ।।
दे वतागुणवाक्यं वा गायनं भक्ति दायकम ् । चक्रमध्ये चरे द् गानं भैरवो गाननायकः ।। केवलं गायनेनापि नवमं
पात्रभक्षणम ् । ततश्च दे ही परमे दशमेऽपि लयो भवेत ् ।। जरा सोचो इन नौ क्रमों में काम को ठहरने का स्थान ही कहाँ
मिलेगा ? क्यों कि गुरु का कठोर अनुशासन है । कठिन परीक्षा के बाद ही प्रवेश मिला है यहाँ- इस चक्र में उपविष्ठ
होने का। सिद्धाद्वैत वीर साधक ही अधिकारी है इस साधना का । इतना ही नहीं चक्र में प्रवेश (उपविष्ठ) हो जाने के
बाद वथ
ृ ालाप,यहां तक कि निष्ठीवन(थूक-खंखार),अधोवायु,आदि भी निषिद्ध है -चक्रमध्ये वथ
ृ ालापं चांचलं
बहुभाषणम ् । निष्ठीवनमधोवायुं वर्णभेदं विवर्जयेत ् ।। (महानिर्वाण तन्त्र-८-१९०), और आगे की स्थिति पर जरा गौर
करो- कालीविलासतन्त्र का स्पष्ट निर्देश है —दीक्षित परनारीषु यदि मैथुन माचरे त ् । न बिन्दोः पातनं कार्यं कृतं च
ब्रह्महा भवेत ् । यदि न प्रपतेद् बिन्दःु परनारीषु पार्वति । सर्वसिद्धीश्वरी भूत्वा विहरे त ् क्षितिमण्डले ।। (१०-२०,२१)।
दे ख रहे हो कितना कठिन है यह साधना। शिश्नोदरियों से क्या यह सम्भव है ? नारी-भग में सीधे मैथन
ु तो करना
है ,किन्तु शुक्र-पातन नहीं होना चाहिए । इससे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा । कहीं-कहीं तो सीधे कह दिया गया है कि
बाकी क्रियायें सही ढं ग से सम्पन्न हो गयी,किन्तु भूल से भी यदि वीर्य-पातन हो गया,तो तत ् क्षण ही साधक का सिर
फट जायेगा—ब्रह्मरन्ध्र का भयंकर विस्फोट— यही ब्रह्महत्या है । और यदि सफल हो गया इस अघोर क्रिया में , तो
भूमंडल पर परमसिद्ध होकर विचरण करे गा,और दे ह-त्याग के पश्चात ् परमसत्ता में विलीन हो जायेगा...।”

मैं अभिभूत था,बाबा के श्रीमुख से साधना का वर्णन सुनकर। गायत्री भी काष्ठमौन होकर, पीये जा रही थी-
अमत
ृ वाणी को । वर्षों से घिरा घना कोहरा छं टा जा रहा था । ज्ञान का सूर्य उदित होता सा प्रतीत हो रहा था। शंकायें
निर्मूल होती जा रही थी।
बाबा कह रहे थे- “…नाथपंथियों की एक अतिगुह्य साधन-क्रिया है - वज्रोली । ये तो और भी विकट है । इस सम्बन्ध में
हठयोग प्रदीपिका के निर्देश को दे खो, और परखो, अपनी अल्प बुद्धि से—नारी भगे पतेत्विन्दन
ु भ्यासेनोर्ध्वमाहरे त ् ।
चलितं च निजं बिन्द ु मूर्ध्वमाकृष्य रक्षयेत ् ।। एवं संरक्षयेद् बिन्दं ु मत्ृ युं जयति योगवित ् । मरणं बिन्दप
ु ातेन जीवनं
बिन्दध
ु ारयेत ् ।। (३-८७,८८)- कहते हैं कि बिन्दप
ु ातन हो भी जाय,तो उसे पुनः ऊपर खींच लो,नारी-भग में पतित शुक्र
का ऊर्ध्वचालन करो, और क्षुब्ध कर,सुषुम्णामार्ग से ऊपर ले जाओ। इसी ‘बिन्दप
ू ातन-सिद्धान्त’ को आधे-अधूरे रुप से
पकड़ कर दक्षिणमार्गी लोग भी कठोर ब्रह्मचर्य की बात करते हैं,और काम से लड़ने में ही जीवन गंवा दे ते हैं ।
बिन्दप
ु ातन से मरण सर्वत्र कैसे हो सकता हैं- सोचने वाली बात है । लगता है , लोगों ने सूत्र का संदर्भ-विचार नहीं किया।
मूलतः यह हठयोग का सूत्र है -जैसा कि तुमने भी सुना। साधक को एक विशेष अवस्था में सावधान किया गया है - यह
कह कर। न कि इसे सर्वत्र लागू कर लेना है । हालाकि यह कहकर,मैं ब्रह्मचर्य की महत्ता और मर्यादा को उपेक्षित नहीं
कर रहा हूँ । ब्रह्मचर्य की अपनी महत्ता है । वीर्य का जितना ही कम क्षरण होगा,ओज की वद्धि
ृ उतनी ही तीव्रता और
गहनता से होगी । वीर्य की रक्षा तो हर कोई को प्रयत्न पूर्वक करना ही चाहिए । ऐसा नहीं कि यह नियम सिर्फ साधकों
के लिए ही बना है ।”

बाबा के इस बात पर मैं जरा चौंका- ‘ ये क्या कह रहें हैं महाराज ! जहाँतक मुझे शरीर विज्ञान(Anatomy) और
शरीरक्रिया विज्ञान(Physiology) का ज्ञान है , मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि ऐसा कोई ऊपाय(मार्ग) नहीं
है ,जिससे गिरे हुए वीर्य को उठाकर ऊपर ले जाया जा सके,वो भी माथे तक । साथ ही यह भी निश्चित है कि पुरुष लिंग
कोई ‘साइफनसिस्टम ’ जैसा तो है नहीं,फिर ये क्रिया होगी कैसे?’

“ यही तो सोचने-समझने वाली बात है । यह बिलकुल व्यावहारिक (Practical) ज्ञान वाली बात है । सिद्धान्त में क्या,
कैसे कहा जाय । योग्य साधना-गुरु के बिना इसे समझा भी नहीं जा सकता । खैर,यहाँ तो मैं सिर्फ वज्रोली की
सैद्धान्तिक दरु
ु हता की बात कर रहा हूँ, और उसकी महत्ता बता रहा हूँ कि साधक मत्ृ यु पर भी विजय प्राप्त कर ले
सकता है ,इस अद्भत
ु क्रिया द्वारा । साक्षात्मन्मथमन्मथः से विभूषित श्रीकृष्ण के बारे में कहना ही क्या । वहां कहां
प्रश्न रह जाता है - भौतिक काम-विकारों का? श्रीकृष्ण को सामान्य योगविद नहीं,बल्कि योगेश्वर कहा जाता है ...वीक्ष्य
रन्तंु मनश्चक्रे योगमायानप
ु ा श्रितः (श्रीमद्भागवत ् १०-२९-१ उत्तरार्थ)। कृष्ण को ‘अमना’ भी कहा गया है - जिसमें मन
हो ही नहीं, ऐसे अमना भी गोपियों के प्रेमवश स-मन बने,और रासलीला किये । रासचक्र में कायव्यूह से प्रत्येक गोपी-
द्वय के बीच विराज कर दिव्य नत्ृ य किये । एक ही कृष्ण के अनेक रुप हो गये । सभी गोपियां इस विश्वास में रहीं कि
कृष्ण तो मेरे पास हैं, मेरे आलिंगन में हैं,मेरे बाहुपाश में हैं- योगेश्वरे ण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः । ऐसे
श्रीकृष्ण को मानवी बुद्धि में समाने-समझने के लिए हं सविलासतन्त्र ने तो स्पष्ट कर दिया- कृष्णो भोगी,शुको योगी,
वसिष्ठः कर्मकारकः । राजानौ रामजनकौ पंचैते तत्त्वदर्शिनः ।। ये तो तत्वदर्शी हैं। रास के इस दिव्यत्व को समझना
हो तो ‘सरू के सागर’ में उतरो,और भी स्पष्ट हो जायेगा । बहुत सी बातें ऐसी हैं,जिन्हें सिर्फ भावजगत में ही समझा जा
सकता है , निरीह शब्दों में इतना सामर्थ्य नहीं है कि व्यक्त किया जा सके । परम उदात्त रासलीला का अनुदात्त रुप
भैरवीचक्र के बारे में तो बहुत कुछ कह भी दिया,किन्तु महारासचक्र के सम्बन्ध में पूर्ण अभिव्यक्ति हे तु शब्दों में भी
शक्ति नहीं है ,इसके लिए तो महात्रिपुरसुन्दरी श्रीराधा की कृपाकटाक्ष ही आवश्यक है । ”

बहुत दे र से चुप्पी साधे,बाबा का व्याख्यान सुनती गायत्री ने कहा- ‘रासचक्र और भैरवीचक्र के सामरस्य और
उदात्तता के सम्बन्ध में बहुत कुछ बातें स्पष्ट होगयी। समाज में फैली कुरीतियों और भ्रमों का भी निवारण होगा- इन
बातों की समझ रखने से। किन्तु यहाँ एक-दो शंकायें और उठ रही हैं,इसी से सम्बन्धित । एक तो मैं पहले ही पूछ चुकी
हूँ- मांसाहार,और बलिविधान के औचित्य पर,और दस
ू री एक छोटी सी शंका है कि पंचमकारों में मांस और मत्स्य
(मछली)को अलग-अलग क्यों रखा गया,क्या मछली में मांस नहीं है ? और इसी से लगे एक और सवाल भी उठ जाता
है कि कुछ लोग बकरा तो नहीं खायेंगे,मछली भी नहीं खायेंगे,किन्तु मछली और बकरे का मुंडभाग प्रसाद के रुप में
ग्रहण कर लेते हैं । क्या इसमें भी कोई रहस्य है या यूँ ही भ्रान्ति है ? ’

गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “ बलिविधान और औचित्य पर तो अभी बहुत कुछ कहना बाकी है ,किन्तु
ये जो सवाल तुमने किया- मांस और मछली में भेद वाली इस पर पहले विचार कर लिया जाय । जैसा कि मैंने
पंचमकरों को सीधे पांच महातत्त्वों से सम्बन्धित बतलाया,उसी प्रसंग को पन
ु ः हृदयंगम करो। मांस और मत्स्य में
तात्विक भेद है - एक वायु तत्त्व है ,तो दस
ू रा जलतत्त्व इसे सही ढं ग से समझने के लिए सारणी को मानस में उतार
लेना होगा, साथ ही कुछ और बातें भी स्पष्ट होंगी। ”

बाबा के इस बात पर,गायत्री चट उठ खड़ी हुयी,और पास के आलमीरे से अपनी डायरी और कलम उठा लायी। पुनः
यथास्थान बैठती हुयी बोली- ‘ इसे जरा धीरे -धीरे बोलो उपेन्द्र भैया । मैं नोट करना चाहती हूँ।’ बाबा ने कहना शुरु
किया। गायत्री लिखने लगी,और एक सारणी तैयार हो गयी-

“ सारणी तो तुम समझ लिए। बना कर दे ख भी लिये । इसे ठीक से हृदयंगम कर लो। साधनपथ के बहुत से मार्ग
दर्शित हो जायेंगे । इसे न समझने के कारण प्रायः लोग तरह-तरह के संशय में पड़ जाते हैं । और अब जरा, पंचमकार
की महिमा के विषय में कुछ और भी सन
ु ो-गन
ु ो। कहा गया है — सेविते न कुलद्वव्ये कुलतत्त्वार्थदर्शनः। जायते
भैरवावेशः सर्वत्र समदर्शिनः ।। मंत्रपूतं कुलद्रव्यं गुरुदे वार्पितं प्रिये । ये पिबन्ति जनास्तेषां स्तन्यपानं न विद्यते।।
(कुलार्वणवतन्त्र ७४,७६) तथा ये भी कहा गया है - सुरा शक्तिः शिवो मांसं तद्भोक्ता भैरवः स्वयम ् ।
तयोरै क्यसमुत्पन्न आनन्दो मोक्ष उच्चते ।। (कुलार्वणवतन्त्र-५-७९) यहाँ कुलद्रव्य का अर्थ सुरा ही है । गुरु-आदे श
से,मन्त्रपूरित सुरा का सेवन करने से स्तनपान से मुक्ति मिल जाती है ,यानी फिर जनमना-मरना नहीं हो सकता।
वीरभाव की यह ‘कुलसाधना’ कौलमार्ग की कठिनतम साधना है । जिसका चित्त पूर्ण रुपेण सध गया है ,किसी प्रकार
के विकार शेष नहीं रह गये हैं,वही उतर सकता है -तलवार की धार पर रें गने का साहस कर सकता है । सीधी सी बात
यही समझो कि मदिरा-मांस के लोभ में पड़ कर वामतन्त्र के प्रति आकर्षित मत होओ,अन्यथा कहीं के न रहोगे- धोबी
का कुत्ता न घर का न घाट का । वाममार्ग की साधना में विरले ही कोई साधक पूर्ण सफल हो पाता है । हालाकि यह भी
कहा गया है कि कलिकाल में आगम और तन्त्र ही मान्य है - कृते श्रत्ु यक्
ु तमार्गः स्यात्त्रेतायां स्मति
ृ भावतः। द्वापरे तु
पुराणोक्तः कलावागमसम्भवः ।।(साधनदीपिका-२-८९) यानी सतयुग में वैदिक,त्रेता में स्मार्त,द्वापर में पौराणिक,
और कलयुग में तन्त्रागम की साधना प्रसस्त है । हम सबका शरीर एक जागत
ृ (चलता-फिरता) शिवालय है ,जहां शिव
विराज रहे हैं अपनी शक्ति के साथ । दे हो दे वालयो दे वि जीवो दे वः सदाशिवः । त्यजेदज्ञान निर्माल्यं सोऽहं भावेन
पूजयेत ् ।।(कुलार्णवतन्त्र ९-४२) तुम वही हो,कुछ और नहीं। इस रहस्य को समझो,अनुभव करो। सिर्फ जानो नहीं।
क्यों कि जानना अधूरा का भी अधूरा ज्ञान है । इसे अपने गणित से चौथाई भी मत समझ लेना,क्यों कि तुम तो सीधे
कहोगे- आधा का आधा यानी चौथाई । किन्तु मैं यह नहीं कह रहा हूँ । जानकारी को ज्ञान कहना ही मर्ख
ू ता है ,भले ही
आजकल हम इस शब्द के अर्थ के साथ भी अनर्थ कर बैठे हैं ।”

डायरी और कलम को एक ओर रखती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ इनकी जिज्ञासा- भैरवीसाधना और महारास का
तुलनात्मक विश्लेषण तो तुमने बहुत ही सुन्दर ढं ग से किया उपेन्दर भैया । बहुत दिनों से मेरे मन में भी ये प्रश्न
उठते रहते थे, किन्तु योग्य व्यक्ति कोई मिले,तब न जिज्ञासा शान्त हो । आज तुम्हारी कृपा से अज्ञानता की मोटी
काई छं ट गयी। प्रसंग के शरु
ु में ही मैंने एक सवाल किया था- सामान्य जन का मांस-खाना,और धार्मिक कृत्य के रुप
में बलि-विधान- कहाँ तक धर्म-संगत है ? मुझे ये हमेशा खलते रहता है ,कि ये दोनों बातें उचित नहीं है । इस पर कुछ
प्रकाश डालो।’

जरा ठहर कर बाबा ने पुनः कहना आरम्भ किया- “ कोई भी नियम दे श-

काल-पात्र सापेक्ष होता है - ये तुम गांठ बांध लो। नियम सामाजिक हो,राजनैतिक हो, या कुछ और। राजनीति में तो
दे श-काल को भुलाकर पात्र को प्रधान रखकर,वो भी मुंहदे खी करके कोई नियम लागू किया जाता है ।”

बाबा के इस प्रसंग ने मुझे बीच में ही बोलने का मौका दे दे या- ‘ हाँ महाराज ! एकदम सही कह रहे हैं। राजनीति में तो
मुंहदे खी नियम चलते हैं प्रायः। खास कर आज की राजनीति में तो वोट और कुर्सी का सवाल भर रह गया है ।
जनसेवा,राष्ट्रसेवा का लेशमात्र भी स्थान नहीं रहने दिया है ,राजनेताओं ने। इन सेवाओं की आड़ में निज सेवा और
व्यक्तिगत स्वार्थ ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है । जैसे कि इस आरक्षण के नियम को ही लेलें ।स्वतन्त्रता के बाद
तत्कालीन स्थिति को दे खते हुए कुछ वर्षों के लिए आरक्षण नियम को लागू किया गया था,ताकि आगे रे स-लाइन
बराबर हो जाये,और सभी जाति-धर्म-सम्प्रदाय वालों की सही भागीदारी हो सके राष्ट्र के विकास में । किन्तु स्वतन्त्रता
के इतने वर्षों बाद भी रे स-लाइन बराबर नहीं हो सका है ; और घोड़े के पांव में सांकल बांध दिया गया है , क्यों कि वह
गदहे से तेज चलता है ।’

गायत्री ने फिर टोका- ‘ बलि-विधान और मांसाहार के सवाल के बीच ये घोड़े-गदहे को घसीट कर तुमने फिर मेरे सवाल
को पीछे ढकेल दिया। कितना बढ़िया प्रसंग चल रहा था।’

गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले- “ छोड़ो भी,इस आरक्षण के मुद्दे को। कोढ में खाज है ,बस खुजाते रहो,जब
तक नेताओं का स्वार्थ सिद्ध न हो जाये। इस विषय पर हम कभी बाद में बातें करें गे। गायत्री को तो अभी मेरी जीवनी
भी सुननी है न। और उसमें ये राजनैतिक-सामाजिक प्रसंग भी कुछ मिल ही जायेंगे। क्यों,कैसे,किन परिस्थितियों में
मैं, एक जमींदार का राजदल
ु ारा,औघड़ी जीवन-यापन तक पहुँचा- इसके पीछे भी कई कारण हैं। फिलहाल तो गायत्री के
अहम ् सवाल का उत्तर दे ना ही समीचीन है ।”

जरा ठहर कर बाबा फिर कहने लगे- “ जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा- कोई भी नियम दे श-काल-पात्र-सापेक्ष हुआ करता
है । नियम का लचीलापन भी बहुत महत्त्वपर्ण
ू है । अन्यथा व्यवस्था चरमरा जायेगी। प्राकृतिक रुप से शरीर-संरचना
और शरीरक्रियाविज्ञान पर विचार करें , तो हम पायेंगे कि मनुष्य के शरीर में आंत,दांत, जबड़े , चयापचय की अन्य
रासायनिक गतिविधियां आदि ऐसी नहीं हैं कि मांसाहार किया जाये। इसे अन्नाहार और शाकाहार के योग्य बनाया है
विधाता ने । किन्तु परिवेश कुछ ऐसे भी हैं जहां मांसादि भक्षण की मजबरू ी भी है । अन्न, फल,शाकादि वहाँ उचित
मात्रा में उपलब्ध ही नहीं हैं । विवश होकर उसे मांसाहार करना ही पड़ता है । वैसे स्थान पर जन्म लेने-रहने के कारण
उसका खान-पान भी वैसा ही हो जाता है । दे श-काल की परम्परा पात्र को प्रभावित करती है । एक सूत्र यह भी है - जीवो
जीवस्य भोजनम ्- जीव का भोजन जीव ही है । छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है । छोटे वन्य जीव को बड़े वन्य
जीव खा जाते हैं। किन्तु इसका ये मतलब नहीं कि हम छोटे को गटक ही जांय। उसे जीने का भी उतना ही अधिकार
है ,जितना बड़े को। हालांकि ऊपर के सूत्र में ‘जीव’ शब्द जरा विचारणीय है । कोई भी वस्तु हमें पोषण कैसे दे गा,जिसमें
जैविक शक्ति नहीं होगी? प्राण के रक्षण में प्राण-ऊर्जा का ही योगदान हो सकता है । गहराई से सोचो यदि तो पाओगे
कि निर्जीव ही कहां है कुछ ! वनस्पतियों में भी प्राण-ऊर्जा है ,ये बहुत बाद में लोगों को पता चला,जब जगदीश चन्द्र
बोस ने प्रमाणित कर दिखाया। ये पत्थर,मिट्टी क्या तुम्हें निर्जीव लगते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। ये सभी सजीव हैं।
सभी चैतन्य हैं,क्यों कि चेतन के ही अंश हैं । चेतन का अंश आखिर अचेतन कैसे हो सकता है ? हमारे शरीर का
निर्माण पंचमहाभूतों या कहो पंचतत्त्वों से हुआ है । ये सभी वहुत ही सुव्यवस्थित रुप से मौजूद हैं शरीर में । जरा भी
इनमें अव्यवस्था-असंतुलन होता है ,तो हमारा शरीर रोगी हो जाता है । फिर उस रोग की चिकित्सा भी इन्हीं पंचतत्त्वों
से ही की जाती है । तत्त्वों के तात्कालिक असंतुलन को येन-केन-प्रकारे ण संतुलित कर दे ना ही सही अर्थों में रोग
निवारण है ...।

“...मांसाहार करना चाहिए या नहीं करना चाहिए- यह पूर्णरूप से समय, स्थान, व्यक्ति और स्थिति पर निर्भर है ।
असली अध्यात्म को इससे कुछ लेना-दे ना नहीं है । जीवन भर मांसाहार करने वाला भी परमात्मा को सहज ही प्राप्त
हो सकता है ,और आजीवन शाकाहार का सेवी भी अनन्त जन्मों तक भटकता रह सकता है । परमात्म तत्व को इससे
कोई मतलब नहीं है । आहार के विषय में पहले भी थोड़ी चर्चा कर चुका हूँ। भोजन के अर्थ में प्रयुक्त आहार शब्द बहुत
ही संकीर्ण अर्थ में है । व्यापक आहार तो पंचेन्द्रियों द्वारा होता है ।समस्त आहरण ही आहार है , इस पर तो विशद चर्चा
पहले भी कर ही चुके हैं। किं चित शेष बातों पर भी जरा गौर कर लो । त्रिगुणात्कम जगत की अन्य चीजों की भांति,
आहार के भी मुख्य रुप से तीन प्रकार कहे गये हैं- सात्त्विक,राजस और तामस। श्री कृष्ण ने गीता में इस पर विशद
प्रकाश डाला है - आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः । और फिर तीनों को अलग-अलग परिभाषित भी किया
गया है - आयुःसत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः । रस्या स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः । आहारा राजस-स्येष्टा दःु खशोका मयप्रदाः ।। यातयामं गतरसं पूति
पर्युषितं च यत ् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम ् ।। (१७-८,९,१०) आयु,सत्त्व,बल,सुख,प्रीति को बढ़ाने
वाले रस्य, स्निग्ध,हृद्य आहार सात्त्विकों को प्रिय होते हैं । कड़वे,तीखे,चरपरे ,अधिक नमकीन,
रुक्ष,दाहकारक,अधिक गर्म,दःु ख और चिन्ता दे ने वाले,रोगकारी आहार राजसियों के प्रिय होते हैं। तथा दे र का बना
हुआ(तीन घंटे पूर्व का), रसहीन, दषि
ू त, जूठा, बासी आदि आहार तामसियों के प्रिय होते हैं । तामसियों के प्रिय आहार
में (श्लोक संख्या १०) ‘अमेध्यम’ शब्द जरा ध्यान दे ने योग्य है - गीताकार ने इसका आशय मांसादि पदार्थों से ही लिया
है (गीतसाधकसंजीवनी)। दस
ू री बात गौरतलब है कि आहार की विशेषता या प्रकार से, कहीं अधिक महत्त्व है आहारी
(आहार करने वाले) की प्रकृति से। आहार करने वाले की जैसी प्रकृति होगी,उसे उसी प्रकार का आहार रुचिकर लगेगा ।
सात्त्विक प्रकृति वाला स्वतः सात्त्विक आहार के प्रति आकर्षित होगा,रासजी प्रकृति का व्यक्ति राजसी आहार के
प्रति,और तामसी प्रकृति का व्यक्ति तामसी आहार के प्रति । हाँ,यह भी सत्य है कि आहार के मुताबिक ही विहार-
विचार-व्यवहार भी बदलने लगते हैं । ध्यान दे ने योग्य बात है शास्त्रों का सारभूत श्रीमद्भगवत्गीता मांस खाने न खाने
की बात नहीं करता,वह तो मनष्ु य की प्रकृति के अनस
ु ार आहार का विश्लेषण कर रहा है ,किन्तु इससे यह भ्रम भी न
पाल लेना कि गीता हमें मांसाहार करने का आदे श दे रहा है । तुम कैसे हो,किस अवस्था में हो, किस परिवेश में
हो,तुम्हारी मनःस्थिति कैसी है , मनोवत्ति
ृ कैसी है - ये सब महत्त्वपूर्ण हैं । श्रीकृष्ण ने यहां तक कह दिया है कि अपने
मन-बुद्धि को मुझमें अर्पित कर दो और युद्ध करो- मय्यर्पितमनोबुद्धि...मामनष्ु मर यद्ध
ु च.....। इस बात को तुम जरा
दस
ू रे रुप में भी परखो- एक आम नागरिक हत्या करता है ,उसे कानून सजा दे ती है ,किन्तु वही हत्या एक सैनिक करता
है सीमा पर,तो परु ष्कृत होता है ।

और वही सैनिक नगर में आकर किसी नागरिक की हत्या कर दे तो भी उसे कानून
सजा ही दे गी। ऐसा क्यों हुआ- क्रिया वही,व्यक्ति वही,फिर परिणाम भिन्न क्यों ? ऐसी ही बात को समझाने के लिए
श्रीकृष्ण को इतना बकबक करना पड़ा,अर्जुन जैसे तर्क शील व्यक्ति के साथ । युद्ध जैसे दषि
ू त काम को ‘कर्म’ की संज्ञा
दी गयी- कर्म एक खास अवस्था में किया गया काम ही है ,बाकी तो सब ‘काम’ काम भर होकर रह जाता है । किन्तु ये
बहुत बाद की बातें है - मंजे हुए साधक से ही यह हो सकता है । हठात कोई चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकता। इसी तरह,
आहार के विषय में भी गीता में स्पष्ट निर्देश है - युक्ताहारविरास्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो
भवति दःु खहा ।। (गीता ६-१७) साधक कर क्या रहा है , किस अवस्था में है - ये ध्यान दे ने योग्य है । मन को प्रिय लगने
भर से साधक का काम नहीं चलेगा । मन की अवस्था कैसी है - ये समझने योग्य है । किसी शराबी को शराब पीने का
मन कर रहा है - ये उसके मन की दर्ब
ु लता है । अब इसे वह गीता के आदे श का हवाला न दे दे - कि कृष्ण ने तो मना ही
नहीं किया है । शराब पीकर ध्यान-साधना नहीं की जा सकती। मांस खाकर, मदिरा पीकर उन्मत्त हुआ जा सकता है ।
चित्त को विभ्रमित किया जा सकता है ,निरुद्ध नहीं । पतंजलि ने चित्त को निरुद्ध होने की बात कही है -
योगश्चित्तवत्ति
ृ निरोधः । प्याज,लहसुन जैसे कन्द (ग्रन्थि) को वैष्णव मतावलम्बियों ने महात्याज्य बतलाया है ।
इसकी उत्पत्ति की पौराणिक कथायें कही हैं- प्याज गौ के रक्त से उद्भत
ु है ,और लहसन
ु कुत्ते के नख से। किन्तु ये
शाक्त और वैष्णवों का आपसी मतभेद है । कृष्ण ने इस पर सीधे अपने अन्दाज में प्रकाश डाला है । ऐसा नहीं है कि
भूल से भी प्याज या लहसुन खा लेंगे तो हमारा धर्म नष्ट हो जायेगा । आहार अपनी रुचि का विषय है । आहार हमारी
प्रकृति को ईंगित करता है । हमारे विचारों को प्रभावित करता है । मैं नहीं खाता प्याज-लहसन
ु ,इसका ये अर्थ नहीं कि
ये खराब है ,घण
ृ ा करने योग्य है – यही तो अष्टपाश है ,जिसमें बन्ध कर हम पशु कहलाते हैं। घण
ृ ा जैसी चीज से भी घण
ृ ा
नहीं करनी है – ऐसा अभ्यास करना है । चन्दन और विष्टा में समानता बरतने की बात कही गयी है - समदर्शी के
लक्षणों में । हाँ इतना जरुर कहूँगा कि प्याज,लहसुन का तासीर उष्ण है । इसे ध्यानियों को सेवन नहीं करना
चाहिए,अन्यथा ध्यान में बाधा पड़ेगी। सिंघाड़े का आटा जिसे हम फलाहार कहते हैं,यदि पेटभर कर खा लिया जाये, तो
उसका आयुर्वेदीय गुण कहां जायेगा? चुंकि वह गरिष्ठ है ,इसलिए ध्यान में नुकसान करे गा ही, यदि अधिक मात्रा में ले
लिया जाय। दध
ू तो बहुत ही पवित्र है , किन्तु अधिक मात्रा में सेवन करने से पेट में गैस बनेगा,और ध्यान में विचलन
होगा । इसी भांति साधक को किसी भी आहार-विहार का विचार करना चाहिए। ये श्रेष्ट है , ये त्याज्य है ,ये घणि
ृ त है -
ऐसा सोचना उचित नहीं है । ध्यान बस इतना ही रखने की जरुरत है कि तामसी और राजसी भोजन करके सात्त्विक
क्रियायें नहीं की जा सकती। जैसी क्रिया करनी हो,वैसा ही आहार भी होना चाहिए । सारी सष्टि
ृ त्रिगुणात्मक है ।
परमात्मा तो त्रिगण
ु ातीत है । इन सब गण
ु ों से परे है ,गण
ु ों से पार है ...।

‘‘ मांस शब्द भी अपने आप में कम विचारणीय नहीं है । वैदिक,औपनिदिक से लेकर पौराणिक काल तक के ग्रन्थों पर
जरा गौर करो तो अनेक बातें सामने आयेंगी।किन्तु आधुनिक लोग तो कुछ पढ़ने-गुनने-जानने से कतराते हैं न। उन्हें
तो शॉर्टकट चाहिए। बस सुनी-सुनायी बातों पर उड़ने लगते हैं,और सबसे बड़ी बात होती है ,कि जो मन को भा जाये,वस
उसीसे सिद्धान्त भी गढ़ लेते हैं। शास्त्रों का भी हवाला दे दे ते हैं। आयुर्वेद में के एक से एक नाम मिलेंगे जड़ी-बूटियों के-
जैसे गजकन्द,अश्वकन्द,वाराहीकन्द आदि। ये सब लाक्षणिक हैं,चारित्रिक हैं। व्याकरण की दृष्टि से मांस शब्द
नपुंसक लिंगी है । किसी फल के गूदे(आन्तरिकभाग)या कन्द के अर्थ में इसका प्रयोग होता है । अब भला वाराहीकन्द
का अर्थ कोई सूअर का मांस लगा ले तो उसकी बुद्धि को तो दाद दे नी पड़ेगी न। इसी भांति गजकन्द, अश्वकन्द आदि
तद्रप
ू वनस्पतियों,कन्दों के हृदय(मूल,जड़ नहीं)भाग आर्थात ् आन्तरिक गूदे को कहते हैं। इतना ही नहीं शब्द संरचना
और उनके गूढ़ार्थ पर जरा गौर करो- गेहूं(गोधूम)और यव(जौ)के मिश्रण को लोम कहते है (शतपथब्राह्मण), यहां लोम
यानी शरीर का रोंआं नहीं है । ताजा हरा जौ तक्म कहलाता है । गेहूं के आटे को भून कर पकाया गया पिस्टान्न मांस
कहलाता है । तोक्म शब्दे न यवा विरूदा उच्चते, तोक्यानि मांसम ् ! (वह
ृ दारण्यकोपनिषद्)। माँस,मांस,और माष
शब्दों में पर्याप्त भेद है - इस पर भी गौर करना चाहिए। अब आज के लोग विन्द,ु चन्द्रविन्द ु को एक ही में लपेट दें गे तो
अर्थ का अनर्थ तो होगा ही न ! और ऐसा ही अनर्थ करके मांसाहार का सबूत ढूढ़ भी जुटा लिया है । ”

इतना कह कर बाबा जरा ठहरे । गायत्री की ओर दे खते हुए बोले- “ विचार क्या-कैसे हैं,इसे स्पष्ट करने के लिए एक बड़ा
ही रोचक प्रसंग सुना रहा हूँ। एक बार श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा अर्जुन सहित बनप्रान्तर में भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने
दे खा कि एक मनुष्य जमीन पर पेट के बल सरक-सरक कर चल रहा है । दे खने में हट्ठा-कट्ठा भी है । सिर के बाल और
दाढ़ी-मूछें बेतरतीब बढ़ी हुयी हैं। उसके एक हाथ में नंगी चमचमाती तलबार भी है ,और जीभ से सूखी पत्तियां उठा-
उठाकर खाये जा रहा है । उसे दे खकर अर्जुन को आश्चर्य लगा कि ये कौन है ,और ऐसा क्यों कर रहा है । सूखी पत्तियां
क्यों खा रहा है ,जब कि जंगल में अकूत फल-फूल, कन्द-मल
ू उपलब्ध हैं । कृष्ण के इशारे पर अर्जुन उसके समीप
जाकर पूछे- ‘‘तुम कौन हो और सूखी पत्तियां क्यों खा रहे हो,कुछ और क्यों नहीं खाते?’’ अर्जुन के पूछने पर उसने
कहा- “ मेरे काम में बाधा न डालो। मेरा समय नष्ट न करो। जानदार हरी पत्तियां तोड़ना अपराध है । इसे हिंसा कहते
हैं । सख
ू ी पत्तियों से ही इस शरीर का पोषण यदि हो जा रहा है ,फिर क्या जरुरत है फिजल
ू की हिंसा करने की ।”
अर्जुन चौंके- एक ओर हिंसा का घोर पुजारी मालूम पड़ता है ,और दस
ू री और हाथ में नंगी तलवार ! उनके इस जिज्ञासा
के उत्तर में उसने जो कुछ भी कहा, वो और भी चौंकाने वाला था। उसने कहा- ‘‘ मैं निरं तर ईश्वर के भजन में लगा
हुआ हूँ । मझ
ु े दःु ख है कि मेरे प्रभु को एक हठी बालक ने,एक नारी ने,और एक स्वार्थी परु
ु ष ने कष्ट दिया है । मैं उन्हीं
को ढूढ रहा हूँ । कहीं मिल जायें तो उनका बध कर दँ ू ।’’ किसने और कैसे कष्ट दिया तुम्हारे प्रभु को – अर्जुन के पूछने
पर उसने कहा- “ उत्तानपाद के वेटे ध्रुव ने हमारे भगवान को नंगे पांव दौड़ा कर अपने पास बुला लिया। इन्द्रप्रस्थ की
पटरानी कही जानेवाली द्रौपदी ने भी ऐसा ही किया- मेरे प्रिय द्वारकाधीश को विवश कर दिया हस्तिनापरु आने को।
और वो अर्जुन, उसने तो सारी हदें पार कर दी- मेरे प्रभु के कोमल हाथों में घोड़े का राश पकड़ा कर सारथी बना लिया।
ये तीनों ही अपराधी हैं । इनका बध किये बिना मुझे शान्ति नहीं ।” घबराये हुए अर्जुन कृष्ण का मुंह ताकने लगे। ये
क्या कहे जा रहा है - एक ओर घोर अहिंसक और दस
ू री ओर वाल-हत्या,स्त्री-हत्या और राज-हत्या का संकल्प लिए बैठा
है - ये कैसा अहिंसक है ? कृष्ण मुस्कुराये- ‘ यही तो समझने-सोचने वाली बात है । आम आदमी यहीं आकर उलझ
जाता है । शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ कर बैठता है । परिभाषायें पारिस्थितिक होती हैं। दे श-काल-पात्र उन्हें प्रभावित
करता है । इन महान हिंसाओं के पश्चात ् भी यह परम अहिंसक कहा जायेगा। ये महात्मा जड़भरत हैं। तुम इन्हें प्रणाम
करो,और परिचय दिए वगैर, धीरे से निकल चलो यहां से । यदि पहचान लिए गये तो फिर खैर नहीं...।’
“...ये सब सुन-जानकर तुम्हारी एक जिज्ञासा तो आशा है पूरी हो ही गयी होगी। अब इसके ही दस
ू रे पक्ष पर बात करता
हूँ । तुमने पूजा में बलि-विधान का सवाल उठाया है । वलि का शाब्दिक अर्थ होता है - ग्रास अथवा भोजन। राजसी और
तामसी पूजा-अर्चना में बलि की परम्परा है । काम्य कर्म- यज्ञादि में इष्ट को प्रसन्न करने के लिए उसके प्रिय पदार्थों
की बलि दी जाती है । वैदिक यज्ञों में भी बलि का विधान है ,और कहा जाता है - वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति...। वैसे यह
किसी विशेष परिस्थिति में कही गयी बात है । विशेष विधि से विशेष यज्ञ के संदर्भ में कही गयी बात है । सामान्य
स्थिति के लिए तो स्पष्ट निषेध ही है । किसी भी तरह के यज्ञ-पज
ू ादि में जीव-हिंसा की वकालत नहीं की गयी है ।
हमारी संस्कृति में कालान्तर में समायी गयी व्यवस्था है ये। महाभारत का स्पष्ट वचन है -सुरामत्स्याः पशोर्मांसं
द्विजातीनां बलिस्तथा । धूर्तैः प्रवर्तितं यज्ञे नैतद् वेदेषु कथ्यते ।। (शान्तिपर्व) यानी मदिरा-मांसादि बलि धूर्तों द्वारा
बाद में प्रयोग होने लगा है ,जब मल
ू पज
ू कों पर राक्षसी प्रवति
ृ वाले हावी होकर,आधिपत्य जमा लिए । परु ाने स्थानों पर
नयों का कब्जा हो गया । दै वी प्रवति
ृ पर राक्षसी प्रवति
ृ का आधिपत्य हो गया। मूलतः यह हमारी वैदिक परम्परा नहीं
है । लेकिन ये भी स्पष्ट है कि महाभारत काल में (या तत्पूर्व) ये विकृति आगयी थी समाज में ,तभी तो महर्षिव्यास को
ये कहना पड़ा। श्रीदर्गा
ु सप्तशति वैकृतिक रहस्य में भी संकेत है ...बलिमांसादिपज
ू ेयं विप्रवर्ज्या मयेरिता – यहाँ
ब्राह्मणादि को बलिमांसांदि से पूजन करना निषिद्ध कहा गया है । व्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखंड के पैंसठवें अध्याय में
स्पष्ट कहा गया है - हिंसाजन्यं च पापं च लभते नात्र संशयः । यो न हन्ति स तं हन्ति चेति वेदोक्तमेव च ।। यानि
बलि दे नी है ,किन्तु बलि हिंसात्मक नहीं होनी चाहिए। क्योंकि हिंसा से मनष्ु य धर्म के वजाय पाप का भागी होता है ।
बलि के लिए जो जिसका बद्ध करता है ,वह मारा गया प्राणी भी जन्मान्तर में उस मारने वाले का वद्ध अवश्य करे गा–
ऐसा वेदमत है । यही कारण है कि बैष्णव विधान में दही-माष (उड़द), पूप(पूआ),हलवा आदि का विधान है ...

“…सच पूछो तो विविध शास्त्रों में प्रत्यक्ष बलि का भी विशद विधान है ;

किन्तु उस प्रकार का बलि दे ने का अधिकारी कौन है ,और कैसे दिया जाय- यह भी कम विचारणीय नहीं हैं । वैदिक
यज्ञों में महानतम यज्ञ है अश्वमेधयज्ञ । इसी तर्ज पर गो,छाग,नर,उष्ट्र, महिषादि का मेध भी होता है , विभिन्न
काम्य यज्ञों में । यहाँ भी स्पष्ट और कूट दोनों अर्थों का प्रयोग है । उक्त ‘पशु’ है ,और नहीं भी है - उसका अर्थ कुछ और
है । घोड़ा है ,और घोड़ा नहीं भी है । पहले ‘है ’ के अनस
ु ार ही विचार कर लो । यह यज्ञ एक विशेष परिस्थिति में ही किसी
के द्वारा करना सम्भव है । यज्ञ के लिए एक विशेष अश्व (घोड़ा) है ,जो दे वराज इन्द्र का धरोहर है । इसे यज्ञार्थ उनसे
मांग कर लाना होता है । उसके गले में पट्टिका बांध कर यज्ञेच्छु राजा घोषणा करता है - ‘मैं सर्वश्रेष्ठ वीरपुरुष हूँ,अतः
मेरी अधीनता स्वीकारो, या यद्ध
ु में हमें पराजित करो।’ आगे-आगे वह विशेष अश्व चलता है ,और उसके पीछे अगनित
योद्धा (सिपाही) चलते हैं। मार्ग में पड़ने वाले छोटे राजा उस बड़े राजा की अधीनता स्वीकर करके,भेट दे ते हैं,या अपनी
अस्वीकृति व्यक्त करके निर्णायक युद्ध करते हैं। इस प्रकार चारों ओर से भ्रमण करता हुआ अश्वमेध का दिव्य अश्व
अपने स्थान पर लौट आता है । तब उसकी विशेष पज
ू ा-अर्चना होती है । फिर उसका बध करके उसके ही मांस से
आहुति प्रदान की जाती है । विशेष बात ये है कि यज्ञान्त में पर्णा
ू हुति मन्त्रों के साथ-साथ पुनरुजीवित होकर वह घोड़ा
यज्ञकुण्ड से बाहर निकल आता है ,और अपने परमधाम को चला जाता है । किसी और समय में उसी एक घोड़े को कोई
और राजा यज्ञ की कामना से इन्द्र से मांग लाता है । यही क्रम चलता है ...। किन्तु इस कथा का समान्तर अर्थ ये है कि
कुण्डलिनी-साधना के क्रम में ये बात कही जा रही है । इन्द्र,अश्व,मेध,मांगना,लौटाना,भ्रमणकरना,विजय पाना...आदि
शब्दों के गूढ़(कूट)प्रयोग हैं, खास अर्थ हैं,जो साधना का रहस्यमय विषय है । इसे तन्त्रदीक्षा के पश्चात ही समझा जा
सकता है ,उससे पहले कदापि नहीं। यदि समझा भी दिया जाय तो प्रयोगकर्ता का अनिष्ट ही होगा। तुम ब्राह्मण
हो,अतः जरुर जानते होओगे कि जप,ध्यान,पज
ू न आदि के बाद आसन त्यागने से पर्व
ू परिक्रमा अवश्य करनी
चाहिए,और आसन के नीचे जल गिरा कर तिलक लगा लेना चाहिए,अन्यथा क्रिया का फल इन्द्र हरण कर लेते हैं- अब
भला सोचने वाली बात है कि क्या इन्द्र यही करते रहते हैं- छीना-झपटी ! नहीं,यहां बात कुछ और है , सामान्य जन को
इतने भर से छुट्टी दे दीगयी। कुण्डलिनीयोग का साधक इस इशारे को बड़ी सहजता से समझ जायेगा कि बात क्या हो
रही है ।परिक्रमा क्या है ,और तिलक क्या है ...।”

जरा ठहर कर बाबा फिर कहने लगे- “ अब इस घटना को दस


ू री ओर से दे खो- यदि साधक में इतनी क्षमता है कि किसी
को मार कर पुनः जीवित कर दे , तो फिर उसके मारने और न मारने का कोई खास अर्थ नहीं रह जाता,न वह हिंसा-
हत्या के दायरे में ही आता है । बद्ध
ु ने अंगुलीमाल को कुछ ऐसे ही उपदिष्ट किया था- सामने खड़े पेड़ की एक टहनी को
काटने की चन
ु ौती दी गयी थी उसे। अहं कारी,तामसी अंगल
ु ीमाल ने हं सते हुए, अपने खड्ग से टहनी काट डाली- कि ये
कौन सी बड़ी बात है । किन्तु अगले ही पल जब बुद्ध ने उसे कहा कि टहनी को पन
ु ः जोड़ दो वक्ष
ृ की डाल से,तो
अंगुलीमाल पसीने से तर हो गया। यह उसके वस की बात नहीं थी। तुम जिसे जोड़ नहीं सकते,उसे तोड़ने वाले तुम
कौन होते हो ? सज
ृ न नहीं कर सकते ,तो संहार भी तम्
ु हारे अधिकार में नहीं है । अश्व हो या छाग या कि नर,बध करने
का अधिकार उसीको है , जिसमें जीवन दे ने की क्षमता भी मौजूद है ,अन्यथा बिलकुल नहीं । यज्ञ और साधना के नाम
पर आज जहां कहीं भी जो बलि दिया जा रहा है ,वह केवल घोर तामसी कार्य है ,अपराध है ,हिंसा है । जिह्वालोलुप लोगों
द्वारा इसे प्रश्रय दिया जा रहा है । दे वी-दे वताओं के नाम पर मांस-भक्षण का बहाना भर है । यह साधारण सोच की बात
है कि जिसे तुम जगदम्बा कहते हो- यानी जगत की माता,क्या वह उस निरीह बकरे और मुर्गे की माता नहीं है ? क्या
कोई मां अपनी एक सन्तान का बध करके,दस
ू री सन्तान को सिद्धि-लाभ दे सकती है ? कदापि नहीं । शास्त्रों में वर्णित
बलि का विधान अपनी जगह बिलकुल सही है ,किन्तु उसकी क्रियाविधि,व्यवहारविधि,और साधनाविधि कहीं खो गयी
है - अज्ञानियों की जमात में । भैरवीसाधना की क्रिया जैसे ‘विभाव’ में पहुँचे हुए वीरभावसाधक के लिए,कठोर गुरु-
निर्देश में ही प्रशस्त है ,उसी भांति पशुबलि का विधान भी बीरभाव-साधकों के लिए ही उचित है । जो अभी स्वयं ही पशु
है ,पशुभावचारी है ,उसे वीरभाव की साधना का अधिकार ही कहाँ है ? साथ ही यह भी समझ लो कि दक्षिणाचारी,
सात्त्विक साधकों के लिए इन बलि-विधानों की अलग(भिन्न) प्रक्रिया है । सीधी सी बात है कि
काम,क्रोध,लोभ,मोहादि साधन-पथ के विघ्नकारी पशुओं को बध करने की बात कही गयी है । वहां साधकों के लिए ये
ही पशु हैं- अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही उनका नामकरण कूट अर्थों में हुआ है । साधक का ज्ञान ही खड्ग है ,
जिससे इन पशओ
ु ं का बध करना है ,न कि कोई प्रत्यक्ष पश।ु किन्तु जिह्वालोलप
ु ों ने,जो खास कर जीभ और
जननेन्द्रिय के गुलाम हैं, धर्म की आड़ लेकर ये सब किये जा रहे हैं दीर्घकाल से,और आज यह प्रथा नियम का रुप ले
चुका है ,जिसे सुधारने,मिटाने में भी बहुत वक्त लगेगा। सुधर भी पायेगा या नहीं- कह नहीं सकता। ”

जरा दम लेकर बाबा ने पन


ु ः कहा- “ अब जरा सोचो ब्राह्मण,वो भी शाकद्वीपीय जो कि सूर्य के उपासक हैं- मग कहे
जाते हैं- ‘म ’यानी सर्य
ू , ‘ग’ यानी उपासक। और इन महाशयों में कुछ कुल ऐसे हैं, जहाँ धड़ल्ले से मांसाहार होता है ।
कहा ये जाता है कि मांसाहार नहीं करोगे तो वंशवद्धि
ृ रुक जायेगी। जरा सोचो- कितना संकीर्ण और मूर्खतापूर्ण सोच है -
मांसाहार को वंशवद्धि
ृ से क्या ताल्लुक? अरे भाई मांस खाना ही है , तो खाओ,कौन रोक रहा है , किन्तु अपने कुलदे वता
को क्यों घसीट रहे हो इसमें ? शाकद्वीपियों के मल
ू आराधक तो सर्य
ू हैं,और सर्य
ू को मांस बलि से क्या प्रयोजन ?
अतः अपनी जीभ के लिए इन्हें बदनाम न करो । कुछ मग ब्राह्मण ये कह कर मांसाहार करते हैं कि मेरी कुलदे वी तारा
हैं । तारा को बलि दी जाती है ,और बलि दी गयी तो प्रसाद ग्रहण तो करना ही होगा न। यहां ये बात भी समझ नहीं
आती कि शाकद्वीपी की कुलदे वी तारा कहां से हो गयीं,वो भी मांस खाने वाली वामतारा? सच पूछो तो ये वैसे ही
हैं,जैसे शिवभक्ति के नाम पर धूनी रमाकर,जटाजूट बढ़ाकर लोग भांग,गांजा और चरस पीते हैं। शिवभक्ति का चोला
ओढ़कर गांजा-भांग का लाइसेन्स ले लेते हैं- समाज से । सच पूछो तो भगवान शिव को इन सब चीजों से क्या मतलब
? शिव ने तो संसार को महागरल के प्रकोप से बचाने के लिए उसका पान कर लिया,और नीलकंठ हो गये।
लोककल्याण की भावना से विष पीकर,उन्होंने संसार के लोगों को एक उपदे श भी दिया, एक संकेत भी दिया- इसे लोग
नहीं समझते । हलाहल पीने की क्षमता है ,तो पीओ। मगर मैं फिर कहता हूँ कि दे खादे खी न करो। सबकुछ सबके लिए
नहीं होता। और ये कोई दायविभाग की बात भी नहीं कि सबका हिस्सा बराबर होगा।”- कहते हुए बाबा ने एक बार
दीवार पर लगी घड़ी की ओर दे खा- “ ओह ! साढे तीन बजने वाले हैं । खैर, एक छोटे से प्रसंग की और चर्चा कर आज
की सभा विसर्जन की जाय। तुमलोगों को भी कुछ आराम करना चाहिए।”

बाबा की बातों पर मैंने हँस कर कहा- ‘ नहीं महाराज ! हमलोगों के आराम की चिन्ता न करें । हमलोग तो आज संकल्प
लेकर बैठे हैं- आपकी अमत
ृ वाणी पीने का। सोना तो रोज होता है । अब नये आवास में ही जाकर आराम करना होगा।
हाँ आपको यदि ब्रह्ममुहूर्त के ध्यान-पूजन में लगना है तो और बात है ।’

“ ठीक है ,चलने दो,जब तक चले।”- मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर बाबा ने कहा-“ हां, तो मैं दे खादे खी का एक किस्सा कह
रहा था- एक संत अपने कुछ शिष्यों के साथ भिक्षाटन-वत्ति
ृ पर जीवन-निर्वाह करते थे। भिक्षाटन भी अति सीमित
मात्रा में - उस दिन की जरुरत भर सिर्फ ,न कि जमा करने के ख्याल से। एक दिन की बात है कि सारा दिन गुजर
गया,कुछ भी प्राप्त न हो सका। शाम होने को आयी। भूख-प्यास सबको सताने लगी। संत ने दे खा, एक दक
ु ानदार
मछलियां तल रहा है । वे आगे बढ़े ,और दक
ु ानदार से निवेदन किये कुछ मछलियों के लिए। दक
ु ानदार ने भी बिना कुछ
मीन-मेष के उन्हें मछलियां दे दिया। पीछे खड़े शिष्यों को आश्चर्य लगा कि ये क्या कर रहे हैं गुरुजी,किन्तु भूख-प्यास
की व्याकुलता में किसी ने कुछ कहा नहीं,और जब गुरुजी ही मछली खाने को तत्पर हैं,फिर शिष्यों का क्या ! सबने
मछली खायी,और अगले दिन से इस मांसाहार-बन्धन से भी मुक्त मान लिया स्वयं को। इस घटना के काफी समय
बीत गये। मछली खाने वाली बात आयी-गयी हो गयी। शिष्य भूल भी बैठे कि इस पर कोई सवाल किया जाय। और
फिर एक दिन वैसा ही हुआ- सारा दिन गुजर गया,रात होने को आयी । कहीं कुछ मयस्सर न हुआ। बाजार भी लगभग
बन्द होने लगे । संत ने दे खा- एक लोहार भाती चलाते हुए लोहा गरम कर रहा है । भूख-प्यास से व्याकुल संत-मंडली
ने अपनी दयनीय स्थिति व्यक्त की,किन्तु वह उज्जड्ड लोहार जरा भी द्रवीभूत न हुआ। उल्टे उन्हें डांट लगायी- ‘
हट्ठा-कट्ठा दे ह पाले हो,और भीख मांगते हो,मिहनत करो पसीने बहाओ,तब भोजन करो पसीने की कमाई का।’ भूखे
संत ने पन
ु ः आग्रह किया- ‘ घर में कुछ भी हो तो दे दो भैया ! बड़ा पण्
ु य होगा।’ लोहार झल्लाया- ‘ पन्
ु य तो तम
ु लोग
कमा ही रहो हो भूखे हर कर। मैंने कहा न मेरे पास कुछ नहीं है । वस ये गरम लोहा है ,और कुछ नहीं।’ संत ने अंजिलि
बढ़ा दी- ‘ तो यही दे दो,आज प्रभु का यही प्रसाद है ।’ झक्की लोहार ने चिमटे से लाल लोहे के टुकड़े को उठाया और संत
की अंजली में डाल दिया । संत ने उसे प्रणाम किया, और सीधे गटक गये। उधर,लोहार तो लोहार, उनके शिष्य भी
हक्के-बक्के रह गये,क्यों कि पीछे मुड़कर संत ने इशारा किया- आगे आकर उन्हें भी लाल लोहा गटकने को।”

जरा ठहर कर बाबा ने कहा- “ सभी शिष्य लोट गये गुरु के चरणों में ,साथ ही लोहार भी। उन्हें आशीष दे ते हुए संत ने
कहा- ‘ अनुकरण और अनुशरण में गहरा अन्तर है । उस दिन मछली खाने में तो बहुत मजा आया था, इसलिये कि
तुम्हारे गुरुजी ही मछली खा लिये। तो आगे बढ़कर ये गरम लोहा भी क्यों नहीं खा लेते, क्यों कि तुम्हारे गुरु ने इसे भी
खाया है ? ’ कुछ ऐसी ही बात तो कृष्ण के साथ भी है - कृष्ण की सोलह हजार एकसौ आठ रानियां थी। अगनित
गोपियों से भी उन्हें हार्दिक ही नहीं आत्मिक लगाव था। अबूझ कृष्ण को नहीं बूझने वाले नासझ, उन पर तरह-तरह के
आक्षेप लगाने से भी नहीं चूकते । उन्हें कृष्ण की रासलीला तो कुछ-कुछ समझ में आ जाती है ,पर शकटासुर,वकासुर,
प्रलम्बासरु , कालियनाग,और इससे भी महत ् विराटरुप प्रदर्शन की घटना, अतिरं जना-प्रवीण महर्षि व्यास की कपोल-
कल्पना प्रतीत होती है – इसे क्या कहोगे ?”

गतांश से आगे...बारहवां भाग

बाबा की बातों में रस लेती गायत्री ने सवाल किया- ‘ कृष्ण और रास की बात फिर आगयी, तो इससे जुड़ा एक और
सवाल भी मैं कर ही लँ ू । राधा कृष्ण की प्रियतमा सखी हैं,अर्धांगिनी भी कही गयीं हैं । भागवत तो थोड़ा बहुत पढ़ी
हूँ,वहां कुछ ऐसा प्रसंग मिला नहीं है । इस सम्बन्ध में मेरी शंका का समाधान करो न उपेन्दर भैया ! कि मामला क्या
है - क्या राधा कृष्ण की पत्नी भी बनी हैं या सखी ही रह गयी ?’

गायत्री के प्रश्न पर बाबा बड़े प्रसन्न हुए। मस्


ु कुराते हुए बोले- “ अर्धांगिनी का अर्थ तम
ु क्या समझती हो-
पत्नी...भोग्या? वैसे लोक-प्रसिद्ध अर्थ यही है ,जो तुम समझती हो। सदा पूर्ण रहने वाले कृष्ण भी राधा के वगैर अपूर्ण
हैं, राधा के बिना आधा हैं। कहते हैं न राधा के बिना श्याम आधा...। राधा तो अर्धांगिनी है ही कृष्ण की। पुराणों में राधा
की उत्पत्ति श्रीकृष्ण के वामांग से कही गयी है ,और श्रीमद्भागवत इसका अपवाद है ,जहां प्रत्यक्षतः राधा नदारथ हैं।
किन्तु कुछ और प्रसंगों को गुनो-बूझो तो और भी आनन्द आये। एक प्रसंग है — मेघैर्मेदरु मम्बरं वनभुवः
श्यामास्तमालद्रम
ु ैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ! गह
ृ ं प्रापय। इत्थं नन्दनिदे शतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रम
ु ं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमन
ु ाकूले रहः केलयः।। भक्तकवि जयदे व के अहोभावमय इन ललित पंक्तियों का तनिक
रसास्वादन करो—एक बार नन्दजी गौवों को लेकर भाण्डीरवन में विचरण कर रहे थे। साथ में शिशु श्रीकृष्ण भी थे-
बिलकुल छोटे ,अभी अपने पांवों से चलने में भी असमर्थ । तभी अचानक आकाश में मेघ घुमड़-घुमड़कर गर्जन-तर्जन
करने लगे। घोर गर्जना से भयभीत श्रीकृष्ण नन्दबाबा के गले से चिपट गये,और जोर-जोर से रोने लगे। नन्दजी
चिन्तित हो उठे कि गौवों को सम्भालूं या रोते श्रीकृष्ण को। गोद में चिपकाये कृष्ण को पुचकारते हुए चुप कराने का
प्रयास करने लगे,और पराम्बा का ध्यान भी- ‘हे महाशक्ति ! तुम जरा थिर हो जाओ,मेरा बालक भयभीत हो रहा है ।’
तभी एकाएक राधा प्रकट हुयी। राधा का यह स्वरुप अतिशय दिव्य था। अपने परममित्र वष
ृ भानु की लाडिली राधा को
तो नन्दजी कई बार दे ख चुके थे,किन्तु आज सामने खड़ी मन्द स्मिता राधा का रुप-लावण्य विलक्षण था। कुछ पल
अपलक उसे निहारते रहे ,और फिर जब ‘स्व’ का भान हुआ तो हर्षित होते हुए बोले- ‘तूने मेरी समस्या का निवारण कर
दिया राधे । जाओ कृष्ण को मैया यशोदा के पास पहुँचा दो। मैं भी गौवों को लेकर आता हूँ।’

“...चुंकि वष
ृ भानु नन्दिनी के रुप में राधा, कृष्ण से काफी बड़ी हैं,अतः उन्हें चतुर जान,नन्दजी ने राधा की गोद में
कृष्ण को दे दिया। राधा तो चाहती ही थी, कुछ ऐसा अवसर मिले- कृष्ण के एकान्त सेवन का। नन्दबाबा का आदे श
मिलते ही राधा चल पड़ी कृष्ण को लेकर,उनके घर पहुँचाने। कैसी विलक्षण लीला है कृष्ण की- महान भय को भी
भयभीत करने वाले त्रिलोकपति, मेघ-गर्जन से भयभीत हो रहे हैं...।

“...अब दे खो जरा आगे की लीला- नन्द की गोद से निकल कर राधा की गोद में आरुढ़ कृष्ण चल दिये,सो चल दिये।
इस सम्बन्ध में कृष्ण का हृदय कहा जाने वाला श्रीमद्भागवत तो मौन है लगभग, राधा का स्पष्ट नामोच्चारण भी नहीं
हुआ है वहां; किन्तु ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड,अध्याय १५ में वर्णन है कि उसी नन्द-गह
ृ -यात्रा के बीच मार्ग
में अनेक लीलायें हुयी। शिशु कृष्ण को गोद में चिपकाये, चूमती, सहलाती राधा गजगामिनी सी चली जा रही हैं, तभी
अचानक कृष्ण गायब हो जाते हैं- राधा की गोद खाली हो जाती है । हिरणी सी चंचल राधा की आंखें वन में इधर-उधर
ढूढ़ने लगती हैं कृष्ण को। थोड़ी दे र बाद किशोर कृष्ण नजर आते हैं,जिनके हाथों में मरु ली है ,मोर मक
ु ु ट है माथे
पर,और त्रिभंगलिलत मुद्रा में खड़े,मुस्कुरा रहे हैं राधा की ओर दे खकर। विरह-व्याकुल राधा दौड़ कर लिपट पड़ती है
बांकेबिहारी से। थोड़ी दे र तक उलाहनों-शिकायतों का सिलसिला चलता है । उसी समय श्रीकृष्ण राधा को गोलोकधाम
का स्मरण दिलाते हैं,अपनी अन्तरं गा शक्ति राधा का भेद याद दिलाते हैं। अभेद को भी भेद भान होता है क्षण भर के
लिए,और फिर माया का डोर खिंच जाता है ,सब कुछ पूर्ववत हो जाता है । इसी अवसर पर, चतुरानन ब्रह्मा प्रकट होते
हैं। राधा-कृष्ण की आमग-विधि से स्तुति करते हैं, और आगे की लीलाओं के लिए निवेदन करते हैं। क्षण भर में दृश्य
परिवर्तित हो जाता है । रत्नमंडप सज जाता है । दे व,यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, अप्सरायें सभी उपस्थित हो जाते हैं। एक
साथ पिता और परु ोहित दोनों का कार्यभार सम्भालते हुये ब्रह्माजी, राधा का कन्यादान करते हैं,और परम निर्बन्ध
श्रीकृष्ण-राधा को वैवाहिक बन्धन में बांध कर, पिता बन कर आशीष भी दे ते हैं,और पुरोहित के रुप में ‘अक्षय भक्ति’
की दक्षिणा भी मांगते हैं..।

“...फिर मिलययामिनी की दिव्य शैय्या सजती है । कृष्ण पान खिलाते हैं अपनी प्रियतमा को,राधा भी पान खिलाती हैं
अपने प्रियतम को। दोनों आलिंगनवद्ध होते हैं,और तभी पन
ु ः छलिया छल कर जाता है । राधा स्वयं को बिलकुल
अकेली, घोर वन में खड़ी पाती हैं । गोद में रुदन करते शिशु कृष्ण की करुण चित्कार से जंगल गुंजायमान हो जाता है ।
तेजी से पग बढ़ाती राधा नन्दगह
ृ की ओर लपक पड़ती है । नन्दगह
ृ में पहुँच कर, मैया यशोदा की गोद में कृष्ण को
सौंपती हुयी उदास राधा कहती हैं- आज तम्
ु हारे लल्ला ने मझ
ु े बहुत सताया– इस प्रकार राधा-कृष्ण की दिव्य लीलायें
अनन्त हैं । जितना ही डूबोगी,उतनी ही रसानुभूति लब्ध होगी।”

गायत्री ने स्वीकारोक्ति-मद्र
ु ा में सिर हिलाते हुए कहा- ‘ हां भैया,आपने गीतगोविन्द का वो पहला श्लोक अभी सन
ु ाया
। राधा-कृष्ण की मधुर प्रेम-लीलाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन स्वामी जयदे व ने गीतगोविन्द में किया है । मुझे तो ये
पूरा काव्य ही याद करा दिया था पिताजी ने बचपन में ही। ब्राह्मणों के यहां शादी-विवाह में , खास कर भोजन के समय
गीतगोविन्द की मधरु रागिनी अवश्य छिड़ती थी। मेरी माँ तो भाष्य सहित गीतगोविन्द के द्वितीय सर्ग का गायन
हारमोनियम और घुंघरु के ताल पर इस तरह करती थी कि सुनने वाले भावविभोर हो जाते। कोई-कोई रसिक विप्र
वाराती तो फरमाइश कर उठते-प्रथमसमागम लज्जितया पटुचाटुशतैरनुकूलम ् । मद
ृ म
ु धुरस्मितभाषितया
शिथिलीकृतजघनदक
ु ू लम ् । सखि हे केशिमदनमद
ु ारम ्...। किसलय शयननिवेशितया चिरमरु सि ममैव शयानम ् ।
कृतपरिरम्भणचुम्बनया परिरभ्य कृताधरपानम ् ।। अलसनिमीलितलोचनया पुलकावलि ललितकपोलम ् ।
श्रमजलसिक्त कलेवरया वरमदन मदादतिलोलम ् ।।(प्रथम समागम की लज्जा से वशीभूत,मन्दमद
ृ भ
ु ाषिणी गोपी
कहती है अपनी सखि से कि बड़ी पटुता से अनेक प्रसंशनीय बातों को बोलने वाले,मेरी जांघ पर की साड़ी हटाने वाले
कृष्ण से मिला दो । कोमल पत्तों की शैय्या रचने वाली,आलिंगन करके प्रिय को चूमनेवाली गोपी कहती है - मेरे
वक्षस्थल पर दे र तक सिर रखकर शयन करने वाले, मेरा आलिंगन करके मेरे अधरोष्ठों का पान करने वाले श्रीकृष्ण
को मुझसे मिला दो...। रतिजनित आनन्द से उत्पन्न आलस्य से आंखों को भींचने वाली,रति के परिश्रम से निकलते
पसीने से भींगी दे हवाली गोपी कहती है - मेरे साथ रोमांच से गल
ु ाबी गाल वाले,कामदे व के मद से भी अधिक चंचल मेरे
कृष्ण का रमण करा दो...) ऐसे ललित गीतगोविन्द और यदक
ु ु लज्योनार के बिना ब्राह्मणों का भोजन ही अधूरा माना
जाता था,किन्तु दर्भा
ु ग्य है कि आज की पीढ़ी इन सब चीजों को विसारती जा रही है । आज तो डीजे के दिल धड़काने
वाली १४०-६०डेसीबल की कर्क श आवाज,और फूहड़ फिल्मी गानों के सामने ये सब इतिहास के गर्त में दफ़न हो गये हैं
।कृष्ण को समझने के लिए समय ही कहां रह गया है लोगों के पास।’

बातें हो ही रही थी कि नीचे तेज हॉर्न सुनाई पड़ा,और मेरी आँखे उठ गयी दीवार-घड़ी की ओर- ‘ अरे राम ! छः बज गये।
ड्राइवर को बोला था,सुबह ही आ जाने को,वैन लेकर।’ और फिर गायत्री की ओर दे खते हुए बोला- ‘ तुम जल्दी से मुंह-
हाथ धोकर तैयार हो जाओ । तब तक मैं कुछ सामान लदवा दे ता हूँ वैन में ।’
‘ सामान ही कितना है हमलोगों के पास,एक ट्रिप से ज्यादा थोड़े जो होगा । सारा सामान मैं रात में ही पैक कर चुकी हूँ
। वस उठाकर वैन में डाल दे ना है । स्नान-ध्यान अब नये आवास में ही चल कर होगा ।’- कहा गायत्री ने और बाथरुम
की ओर बढ़ चली।

‘और मेरी चाय,वो भी नये वंगले में ही जाकर पीना होगा क्या ?’- मेरी बात पर भाई-बहन दोनों हँस पड़े।

“बेड’ टी- अंग्रेजियत का दम


ु चिपक गया है हिन्दस्
ु तानियों में ।”- बाबा को कुछ कहने का अवसर मिल गया— “ इसके
वगैर काम ही नहीं चलता। मैं ये नहीं कहता कि चाय बरु ी चीज है ,पर ये अवश्य कहूँगा कि इसकी आदत बहुत ही बरु ी
है , वो भी सुबह-सबेरे,बिलकुल खाली पेट में तो सीधे जहर पीने जैसी है । मुझे याद है , पिताजी अपने युवावस्था का
वाकया सुनाते थे– उन दिनों कलकत्ते में रहते थे। ब्रुकब्रॉन्डइण्डिया डेगा-डेगी दे रही थी। भारतीय संस्कृति में उसका
प्रवेश आमजन क्या,खासजन तक भी न के बराबर था। सब
ु ह-सब
ु ह मह
ु ल्ले के नक्
ु कड़ पर बड़ी सी गाड़ी- पेट्रोल-डीजल
ढोने वाले टैंकर की तरह आ लगती- कुछ विशेष प्रकार की बनावट वाली - भीतर ही भट्ठा भी था,टैंकर में चाय बन रही
होती,और लोगों को पुकार-पुकार कर मुफ्त में चाय पिलायी जाती। साथ ही चलते समय चाय की छोटी दो पुड़िया और
दध
ू -चीनी का पैकेट भी थमाया जाता। एक पर्ची भी साथ में दी जाती,जिस पर चाय-चालीसा होता- यह कह कर कि
शाम को भी जरुर पीजियेगा,इसमें बतायी गयी विधि से,घर में बनाकर,फिर अगली सुबह तो हम यहां पिलायेंगे ही-
सोचो जरा,कैसा लाजवाब तरीका है ,हमारी आदत को प्रभावित करने का,हमारी संस्कृति को ध्वस्त करने का । कुछ
दिनों तक चाय-विज्ञापन का यह क्रम चला,और धीरे -धीरे लोग अंग्रेजों की गल
ु ामी के साथ चाय की गल
ु ामी में भी
जीना सीख गए। हम भारतीय, गाय का धारोष्ण दध
ू पीते थे,वो भी बिना शक्कर,चीनी, गुड़ के। रात, सोते समय
हल्की शक्कर डाल कर गरम दध
ू पीने का रिवाज था। गर्मियों में सिकंजी,मट्ठा,लस्सी पीते थे। जीरा,गोलकी,
सौंफ,गुलाब, केवड़ा, खस मिश्रित मिश्राम्बुपान करते थे। अमीर लोग चिरौंजी-बादाम का शर्बत पीते थे। और अब
सुबह से रात तक चाय,कॉफी,कोला,पेप्सी,लिमका...पता नहीं क्या-क्या अनाप-सनाप जहर पीये जा रहे हैं ।और ये
व्यापारी मोटे होते जा रहे हैं । बहुत सी बेतुकी,वाहियात चीजें हमारी आदतों में समा गयी हैं,और दिनों दिन समाती जा
रही हैं । बड़े-बड़े व्यापारियों ने हमें परवश कर रखा है ,गुलाम बना लिया है - अपने विविध उत्पादों का । इतने आहिस्ते
से,बड़े मनोवैज्ञानिक ढं ग से प्रवेश करते हैं,ये व्यापारी हमारे घरों में कि पता भी नहीं चलता । खाने-पीने से लेकर
दै निक उपयोग की बहुत सी वस्तुओं पर इनका ही वर्चस्व है । हम चाह कर भी इनसे पिंड छुड़ा नहीं पाते। दरअसल
हमारी सोंच ही बदल दे ते हैं ये कलाबाज़।”

पेस्ट का झाग बेसिन के हवाले करती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ और ये भी

अंग्रेजों का दम
ु ही है न भैया? नीम-बबूल की ताजी दातुन को विसार कर, प्लास्टिक का झाड़न दांतों पर फेर रहे
हैं...एक झाड़न वर्षों घसीटें गे दांतों पर।’- फिर मेरी ओर दे खती हुयी बोली- ‘ तुम निराश न होओ,तुम्हारी चाय अभी
हाजिर करती हूँ । इसीलिए सबकुछ तो पैक कर दी थी,पर चाय का सारा सामान अभी बाहर ही पड़ा है । तम
ु भी जल्दी
से फ्रेश हो लो,और भैया तुम भी। आज इस डेरे की अन्तिम चाय है हमलोगों की । आज तुम्हें भी पिलाऊँगी-
लौंग,अदरख,इलाइची वाली कड़क स्वास्थ्यवर्द्धक चाय ।’-– कहती हुयी गायत्री रसोई की ओर लपकी; और मैं बाहर
बालकनी में निकल गया,यह कहते हुए कि जरा बता दँ ू ड्राईवर को- सामानों की व्यवस्था,जो दो लेबरों के साथ अभी-
तक नीचे ही खड़ा है ।

अगले दो घंटे बाद,गायत्री और बाबा को साथ लिए नये बंगले में दाखिल हुआ । बंगला- वाकई खुशनुमा था। एक छोटे
से कमरे और कीचन,तथा छःफुटी लॉबी में पिछले दस-बारह साल गज
ु ारने के बाद, चार बड़े कमरों के साथ बड़ा सा
बैठकखाना,कीचन, स्टोर,दो-दो लैट्रिन-अमेरिकन और इंडियन, बाथिंग टब वाला बाथरुम,बड़ा सा गार्डेन, आउट
हाउस, टै रेश,और भी बहुत कुछ– घूम-घूम कर दे खती हुयी गायत्री के खुशनुमा गाल और भी गुलाबी हो चले थे। दर्भा
ु ग्य
! आजतक मैं बेचारी को कभी ढं ग की साड़ी भी नहीं पहना पाया था। आधनि
ु क श्रंग
ृ ार प्रसाधनों से तो इतनी दरू
थी,जितनी उसके गांव से दिल्ली की दरू ी है । आज अचानक ये सबकुछ जो हुआ है ,उसे वह सिर्फ और सिर्फ बाबा के
चरणों का प्रताप मान रही है । सुपरिचित मुंहबोले भाई तो हैं ही,पर अब मन ही मन उन्हें भगवान का दर्जा दे बैठी है
गायत्री। कल ही मुझसे कह रही थी- किसी तरह अनुनय-विनय करके उपेन्दर भैया को अब यहीं साथ में ही रखग
ूं ी।
पहले तो जगह की कमी के लिहाज में वे भी बहानाबाजी करके निकल जाया करते थे,किन्तु अब वो सब नहीं होने
दं ग
ू ी। मैं भी इधर-उधर घूम कर गायत्री की प्रसन्नता का आंशिक लाभ लिए

जा रहा था।

‘ ये ऊपर में ,टै रेश वाला कमरा बिलकुल एकान्त है ,भैया का आसन इसी

में रहे गा। सामने से यमन


ु ा-छवि का भी दर्शन होते रहे गा ।’- कहा गायत्री ने,जिसे सन
ु ते ही बाबा चिहुंक उठे ,मानों बर्रे ने
डंक मार दिया हो- ‘ क्या कहा तूने मेरा कमरा ? मैं यहाँ क्यों रहने लगा ? मुझ फक्कड़-घुमक्कड़ को इस कैदखाने में
क्यों बन्द करना चाहती हो? मैं जहां हूँ,वस ठीक हूँ।’

लपक कर गायत्री ने उनके पैर पकड़ लिए । बाबा पीछे खिसकने का प्रयास करते रहे ,पर पैर तो गायत्री के
गिरफ्त में थे।

‘ये क्या कर रही हो गायत्री ! बहन का रिस्ता रखती हो ,और पैर छू कर पाप चढ़ा रही हो?’

‘ मैं पाप-पुण्य नहीं जानती । मैं एक ही बात जानती हूँ कि मुझसे रिस्ता जोड़ा है , तो ठीक से निभाओ। यहाँ
जगह की कोई कमी नहीं है । इतने बड़े बंगले में क्या किसी में हाथ,किसी में पैर धर कर सोयेंगे हम दो जन? तुमको
यहीं रहना होगा वस,और कुछ नहीं जानती, मेरी कसम है तम्
ु हें । तम्
ु हारी साधना-क्रिया में मैं किसी तरह का बाधक
नहीं बनना चाहती,इसलिए तुम्हें एकान्त स्थान भी दे रही हूँ । बस कृपा करो,कहीं और जाने का विचार छोड़ दो। तुम्हें
तो पता ही है कि बचपन से ही कितनी जिद्दी हूँ मैं । जबतक स्वीकृति नहीं दोगे,मैं तुम्हारी पांव छोड़ने वाली नहीं हूँ,चाहे
जितना पाप-पुण्य चढ़ जाये तुम्हारे ऊपर।’

काफी ना-नुकुर के बाद अन्ततः गायत्री सफल हुयी बाबा की स्वीकृति लेने में । मुझे भी अतिशय प्रसन्नता
हुयी- चलो,अच्छा ही हुआ,बाबा अब हमेशा हमलोगों के साथ रहें गे।

मजदरू ों के सहयोग से ड्राईवर सारा सामान अपने स्तर से व्यवस्थित कर चुका था। रही-सही कसर गायत्री अपने स्तर
से दरू करने में जुट गयी । मैं भी कुछ हाथ बटाने लगा उसके काम में । बंगले में आवश्यकता की लगभग सारी चीजें
स्थायी रुप से पहले से ही मौजूद थी- सोफा,पलंग,कुर्सी,मेज,ड्रेसिग
ं -टे बल,एसी, पंखे,यहां तक कि फ्रीज और वासिंग-
मशीन भी । एक बड़ा सा टीवी बैठकखाने की शोभा बढ़ा रहा था। एक मध्यम आकार का टीवी ब्रैकेट पर शयनकक्ष में
भी रखा हुआ था। बड़े से शयनकक्ष का एक हिस्सा केबिन के रुप में घेर कर बनाया हुआ था, जिसमें
कम्प्यूटर,प्रिंटर,फैक्स,लैंडलाइन आदि की आधुनिक सुविधायें भी थी। इन सारी चीजों को दे ख-दे ख कर गायत्री
कितना प्रफ्फुलित हो रही थी,इसका अन्दाजा वही लगा सकता है ,जिसने सिर्फ सपने दे खे हों सख
ु -सवि
ु धाओं का,और
बारम्बार जमींदोज़ भी हुए हों, सपनों के राजमहल जिसके । मुझे अच्छी तरह याद है , बिलकुल आज की बात सी ताजी
है ,मेरे ज़ेहन में - शादी की पहली वर्षगांठ। मुझे इच्छा थी कि बंगाली स्टाइल वाली शंख की चूड़ी भें ट करुं गायत्री को,
किन्तु बाजार और जेब टटोला तो वो मेरे औकाद से बाहर की निकली । मन मसोस कर, साधारण सी डिबिया वाली
सिन्दरू और एक मखमली हैंकी का गिफ्ट पैक कराकर उदास चेहरे पर जबरन हँसी थोपते हुए घर में घुसा था । किसी
और ने तो नहीं, किन्तु गायत्री ताड़ गयी मेरी मनःस्थिति पर। मेरी बाहों में सिमटती हुयी कहा था उसने- ‘ अभिनय
करना नहीं आता तो क्यों करते हो ? क्या समझते हो अभिनय बहुत आसान काम है ? तम्
ु हारे बस की चीज नहीं है ।’
उसके कपोलों को आहिस्ते से छूते हुए मैंने पूछा था- ‘ क्या कह रही हो,मैं कुछ समझा नहीं।’

‘ मैं जानती हूँ,आज तम


ु कुछ मन-माफिक गिफ्ट दे ना चाहते थे,जो नहीं ला पाये हो। इसमें शर्मिंदगी की क्या
बात है ? मैं तुम्हारी प्रेमिका बनने से पहले तुम्हारी पत्नी हूँ,अर्द्धांगिनी हूँ । मायूस क्यों होते हो।’- कहती हुयी गायत्री,
मेरे कुर्ते का जेब टटोलने लगी थी,जिसके एक कोने में आज का गिफ्ट पड़ा,छिपा सा था- ‘ लाओ जल्दी से दे दो,जो
लाये हो मेरे लिए।’

मेरे कांपते हाथ,खुद के कुर्तें की जेब में घुसे थे,मानों किसी का पॉकेट मारने जा रहा हूँ । खुद की ही नजरों में
गिरा हुआ मैं, झक
ु ी आँखों से गायत्री को दे खते हुए,बांया हाथ उसकी आंखों पर धर दिया था और दाहिने हाथ ने, जल्दी
से जेब टटोल कर छोटा सा पैक निकालकर,गायत्री के दायें हाथ के हवाले कर दिया था। अपनी आंखों पर से मेरी हथेली
को झटके से हटाती हुयी गायत्री ने एक हाथ से पैकेट थामा,और लिपट पड़ी थी मुझसे । दे र तक लिपटी रही यूंही ।
दोनों में किसी के पास कोई शब्द न थे । थी तो सिर्फ कुछ ध्वनियां, जो दो दिलों की धड़कनों के माध्यम से बाहर
निकलने को बेताब हो रही थी। सच में खास क्षणों में शब्द कितने निरीह हो जाते हैं...!

और फिर संघर्षमय वैवाहिक-जीवन का ‘सिलवरजुबली’ भी यूँ ही गुजर चुका था,बिना कुछ टीम-टाम के।

गायत्री की पुकार पर मेरे विचारों की तन्द्रा टूटी । मॉर्डेन कीचन को अपने ढं ग से अरें ज कर, मुझे पुकार रही थी-
मुआयना करने को।

चाय का प्याला थमाती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ कैसा लगा मेरा अरे जमें ट? ’

प्याले को पूर्ववत ट्रे में रखते हुए,दायें-बायें झांका। बाबा शायद बाथरुम में

थे । आगे बढ़कर गायत्री को आगोश में लेते हुए बोला- ‘ लगना कैसा है ,जैसी तुम हो, वैसा ही तुम्हारा रसोईघर भी....।’

‘ धत्त ! बड़े रोमांटिक हो रहे हो आज । दफ्तर नहीं जाना है क्या ?’- बाहुपाश से मक्
ु त होती गायत्री ने कहा।

‘ कौन कहें कि मीलों जाना है ,अब । इस कोठी से निकला,और उस कोठी में घुसा...। मैं अभी तैयार होता हूँ,
स्नान करके। अभी समय ही कितना हुआ है ।’- कहते हुए प्याला उठाकर,बाहर आ गया। बाबा का स्नान हो चुका था।
उन्हें लिए गायत्री ऊपर चली गयी, उनका कमरा दिखाने,और वहां की व्यवस्था दे खने।

कमरे में पहले से पड़ी बड़ी सी चौकी,बाहर टै रेश पर निकाली जा चुकी थी। कुर्सी वगैरह बाकी के सामान भी वहीं
बाहर में ही पड़े थे। गायत्री के कहे मुताबिक नौकर ने कमरे को धो-पोंछ कर नया कम्बल बिछा दिया था। कमरे में
गग
ू ल
ु -दे वदार की भीनी सग
ु न्ध फैली हुयी थी।

‘ यहां की व्यवस्था में और क्या चाहिए भैया,बता दोगे,ताकि...।’- कमरे में घुसती हुयी गायत्री ने पूछा,जिसके
बीच में ही टोकते हुये बाबा बोले- ‘ चाहिए क्या मझ
ु े,कुछ नहीं। कमरा,और कमरे में एक कम्बल। बाकी के मेरे सौगात
तो मेरी झोली में है ही।’

गायत्री मुस्कुरायी ।वह जानती थी कि उनकी झोली में क्या है - एक जोड़ी झूल-लंगोटी,और लाल ‘बन्धने’ में
बंधी हुयी कुछ...तस्वीर,या कुछ और...यही थे उनके सौगात । ‘ तो ठीक है ,तुम अपनी धर्म-साधना में लगो,और मैं
अपनी कर्म-साधना में । आज काम कुछ ज्यादा दीख रहा है ,फिर कल से तो...।’-कहती गायत्री कमरे से बाहर आगयी,
तभी याद आयी- ‘ दिन में क्या लेते हो आदतन,मझ
ु े निःसंकोच बताना।’

प्रश्न दिन के भोजन से था,जिसके उत्तर में बाबा ने स्पष्ट कहा- ‘ किसी तरह की औपचारिकता की जरुरत
नहीं है । तुम जानती ही हो कि चौबीस घंटे में सिर्फ एक बार अन्नाहार लेना पसन्द करता हूँ। अब इसे दिन में दे दो,या
कि रात में - तुम्हारी सुविधा और मर्जी।’
‘मेरी सुविधा और मर्जी नहीं,तुम्हारी इच्छा और तुम्हारी मर्जी।’

‘ तो ठीक है ,दिन में किसी समय दध


ू दे दे ना- गुड़ के साथ। भोजन तुमलोगों के साथ रात में ही लूंगा। अभी कुछ
नहीं चाहिए। तुम जाओ अपना काम दे खो। दरवाजा भिड़काती जाना,और ध्यान रखना- इधर कोई आये-जाये नहीं।’

आना-जाना किसे है ,नौकरों को मैं हिदायत कर दं ग


ू ी। हां, माली आयेगा,वो भी शाम को, गमलों में पानी दे न।े

नया दफ्तर,नयी व्यवस्था। सबकुछ नया-नया सा। कार्यभार भी काफी

अधिक। कहने को दफ्तर और आवास पास-पास थे,किन्तु बहुत कम ही समय ऐसा

मिलता कि आवास में चैन से रह सकँू । आवास में रहूँ भी तो आवासीय दफ्तर में काम निपटाने में ही ज्यादा वक्त
गुजर जाता। नतीजा ये हुआ कि सप्ताह भर करीब निकल गये बाबा के साथ बैठकी लगा न पाया। खाने-पीने का
समय भी तय जैसा नहीं, भागमभाग की जिन्दगी में खुद के लिए समय निकालना भी मुश्किल सा हो गया । चाहता
कि कम से कम रात का भोजन बाबा के साथ हो,पर वह भी वीते सप्ताह में नसीब न हुआ। दे र रात सारे काम
निपटाकर थोड़ा निश्चिन्त सा होता,तो बाबा को अपने कक्ष में ध्यान-चिन्तन में लगा दे खता,और गायत्री...उस बेचारी
का क्या, थकी-हारी सी दब
ु की रहती विस्तर में । सुख के साधन अपने साथ इतने जंजाल लेकर आयेंगे,शायद उसने
सोचा भी न होगा ।

रात का खाना परोसती गायत्री ने एक दिन कहा - ‘भैया कल विन्ध्याचल जा रहे हैं। दस दिनों बाद सम्भवतः लौटें
उधर से। मैंने बहुत पहले ही मन्नत मांगी थी माँ विन्ध्यवासिनी से कि तुम्हें अच्छा काम मिल जाये, तो उनकी सेवा
में हाज़िर होऊँगी । काम तो सच में अच्छा मिल गया- उम्मीद से भी ज्यादा; किन्तु तुम्हारी कार्यव्यस्तता दे खते हुए
सोचती हूँ- कैसे कब पूरा कर पाऊँगी माँ का मन्नत !’

तभी मुझे ध्यान आया,अगले ही सप्ताह दो दिनों के लिए इलाहाबाद जाना है , दफ्तर के काम से। अतः गायत्री
को आश्वस्त किया- ‘ तम
ु चिन्ता न करो। भगवती की कृपा से अच्छा पद और व्यवस्था मिली है ,तो समय भी वही
निकालेंगी। भैया को जाने दो अभी। सप्ताह भर से अधिक करीब उन्हें रहना ही है उधर। तो वहीं मिलेंगे उनसे। उनका
ठिकाना तो बेठिकाना होता है ,पर हमारा तो निश्चित है न। अगले रविवार हमदोनों निकल चलेंगे साथ ही । दो दिनों में
अपना काम निपटाकर,तुम्हें प्रयाग भी घुमा दें गे,फिर माँ का दर्शन भी कर लेंगे।’

सुबह-सुबह नींद खुली बाबा की खड़ाऊँ की खटर-पटर से । वे निकलने को तैयार थे। गायत्री ने रात वाली बात
बतलायी,जिसे सन
ु कर बहुत ही प्रसन्न हुए- ‘ ये तो अच्छा संयोग है । तम
ु अपना काम निपटा कर,जब भी
विन्ध्याचल आओगे,तो सीधे तारामाँ के मन्दिर में आजाना,जो कि विन्ध्यवासिनी से करीब आधमील सीधे उत्तर,
गंगा किनारे ही है । वहाँ बिलकुल सुनसान रहता है । आमलोगों से उपेक्षित सी है वह जगह; किन्तु है बिलकुल
शान्त,एकान्त,निरापद। ठहरने के लिए भी चाहोगे तो मैं वहीं व्यवस्था करा दं ग
ू ा,या फिर किसी होटल,लॉज में ही
रहना चाहो तो वहीं रहो,कोई बात नहीं।’

नहीं महाराज ! ऐसा नहीं कि मैं सप्ताह भर में ही सच में इतना बड़ा हो गया कि आपकी दी हुयी व्यवस्था को
छोड़कर किसी बड़े होटल की तलाश करुँ गा। आपका सानिध्य, वो भी विन्ध्यवासिनी के अंचल में वसी माँतारा के
प्रांगण में - ये तो हमदोनों के लिए सौभाग्य की बात होगी- क्यों गायत्री ! ठीक कहा न मैंने?

‘ हाँ भैया! यही बात पक्की रही। मंगलवार को सुबह ही हमलोग वहां पहुँच जायेंगे। और फिर वहां न इनका
दफ्तरी बोझ होगा,और न किसी तरह का किचकिच।’- खश
ु होकर गायत्री ने कहा।

बाबा चले गये । उनकी अनुपस्थिति में सप्ताह भर का समय कुछ मन्थर गति से गुजर रहा था। गायत्री के लिए समय
की गति और भी धीमी थी,क्यों कि उसके जीवन का ये पहला अवसर आने जा रहा था,जब मेरे साथ कहीं घूमने जा रही
हो । जरुरी यात्रा करना,और घूमने के लिए घूमने में बहुत अन्तर होता है । भले ही ये मेरा ऑफिशियल टूर है ,फिर भी
गायत्री के साथ होने से लुत्फ ही कुछ और होगा । मैं भी जल्दी से सप्ताह को गुजरने का आग्रह कर रहा था।

रविवार आ ही गया। सब
ु ह चार बजे ही हमलोग दिल्ली छोड़ दिये। इलाहाबाद पहुंच कर गायत्री को एक होटल
में विश्राम के लिए छोड़कर,रात की मीटिंग अटें ड किये। अगले दिन का काम बहुत थोड़ा ही था- एक नये दफ्तर का
विजिटिंग रिपोर्ट तैयार करना था, जिसके लिए एक बजे का समय तय था, कुछ और भी छोटे -मोटे काम निपटाने थे।
अतः भोर होते ही त्रिवेणीस्नान के लिए निकल गये । उधर से ही अक्षयवट भ्रमण-दर्शन करते हुए पन
ु ः होटल में
गायत्री को छोड़, अपने काम पर निकलने की बात तय हुयी। सवारी के लिए तांगा ही सबसे अच्छा साधन लगा। दिन
का भोजन इसी बीच सुविधानुसार कहीं ले लिया जायेगा। गायत्री ने कहा कि समय मिले तो भारद्वाज आश्रम भी
जरुर दे ख लेना चाहिए,क्यों कि इसके लिए बाबा ने भी इशारा किया है । निश्चित ही कोई खास बात है ।

अक्षयवट की वर्तमान स्थिति को दे खकर बड़ा ही क्षोभ हुआ । भले ही

आज वह राष्ट्रीय धरोहर के रुप में सुरक्षित है ; किन्तु अधिकांश खण्ड आमजन-प्रवेश से वंचित होकर सैनिक-छावनी
में तबदील है । मुझे याद है ,बचपन में पिताजी के साथ आया था यहाँ। चप्पे-चप्पे घूम-घूम कर सारा किला दे खने का
मौका मिला था। ऊपर जितना दीख रहा है ,उससे कहीं अधिक महत्त्वपर्ण
ू है नीचे– भग
ू र्भ में । आर्यावर्त की रहस्यमय
संस्कृति का उत्कृष्ट नमन
ू ा कह सकते हैं इस किले को । अक्षयवट नामक सनातन वटवक्ष
ृ है यहां, जिसके नाम पर
किले का नामकरण हुआ है । विविध शास्त्रों में इसका विस्तत
ृ परिचय उपलब्ध है । मान्यता है कि खण्ड प्रलय में भी
इसका नाश नहीं होता। ये वही वट वक्ष
ृ है ,जिसके पत्ते पर विराजमान भगवान वालमुकुन्द ने महर्षि मार्क ण्डेय को
दर्शन दिया था । वर्षों पहले किसी विदे शी वैज्ञानिक ने इसकी एक छोटी टहनी का परीक्षण कर प्रमाणित किया था कि
इस नयी कोंपल की आयु अनुमानतः तीस-बत्तीसहजार वर्ष है । अब इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि परू े
वक्ष
ृ की आयु क्या हो सकती है । आमजन दर्शन के लिए वक्ष
ृ का ऊपरी भाग ही दृश्यमान है ,शेष तो अतल दर्ग
ु -गह्वर
में छिपा है । ऊपर की मंजिल पर चढ़कर, नीचे झांकने पर स्पष्ट रुप से अन्तःसलिला सरस्वती के श्वेताभ प्रवाह को
परखा जा सकता था उन दिनों। कहते हैं कि किले के भीतर से सरस्वती छिप कर प्रवाहित होती हुयी गंगा से आ मिली
हैं,और उधर से कालिंदी की नीलधारा का आगमन हुआ है - नील,पीत,श्वेत का अद्भत
ु मिलन होकर,त्रिवेणी की
सार्थकता स्वतः सिद्ध होती है । मानों स्व-स्वशाप भुक्ता तीनों दे वियों ने यहां आकर गले मिल कर सन्धि कर ली हो।
श्रीकृष्ण की तीनों प्रियाओं का अद्भत
ु मिलन है प्रयाग का त्रिवेणी स्थल । वैसे तो नाव पर चढकर गंगा की बीच धारा में
जाने पर भी किं चित आभास होजाता है - नील-पीत संगम का,किन्तु त्रिवेणी का असली दर्शन तभी हो पाता था।
पिताजी कहा करते थे- यही है ‘मुक्तत्रिवेणी’, इसमें अवगाहन करके ही पूर्णतः मुक्त हुआ जा सकता है ,अन्यथा स्व
‘यक्
ु तत्रिवेणी’ का परिचय पाये बिना तो कितनों का इतिश्री हो जाता है संसार में । पिताजी के इस कथन का अभिप्राय
आज तक समझ न सका,हां सूत्र स्मरण में सुप्त है आज भी —मुक्तत्रिवेणी और युक्तत्रिवेणी।

भारद्वाज आश्रम की विलक्षणता अपने आप में अद्वितीय है । वेद-वेदांगों के विविध ज्ञान-विज्ञान,यहां तक की


विद्युत और विमानन अभियान्त्रिकी तक की शिक्षा की व्यवस्था थी महर्षि के आश्रम में । मानव-कल्याणार्थ प्राचीन
आयुर्विज्ञान को अष्टांग रूप में विभक्त कर अपने शिष्यों को प्रदान करने का श्रेय भी इन्हीं को है ।
वायप
ु रु ाण,वाल्मीकि रामायणम ् आदि में इनके बारे में विशद वर्णन मिलता है । वनगमन के समय श्रीराम-जानकी
इनके आश्रम में पधारे थे। अयोध्या वापसी के समय भी इनका दर्शन किये थे।

गंगा किनारे कोलोनगंज इलाके में स्थित भारद्वाज आश्रम के विशाल प्रांगण के बीचो-बीच बने गोल गुम्बजाकार
मन्दिर में शिवलिंग की स्थापना की गयी है ,जो भारद्वाजेश्वर के नाम से ख्यात है । चौड़ी-ऊँची पांच-छः सीढ़ियां चढ़
कर, तीन मेहराबी दरवाजों से बने इसके विस्तत
ृ सभामण्डप में पहुँचा जाता है । मुख्य मन्दिर के दांयें-वायें अन्य कई
छोटे -बडे मन्दिरनम
ु ा स्थल हैं,जहां अनगिनत दे वी-दे वताओं की मर्ति
ू यां स्थापित हैं, उनमें श्रीराम-लक्ष्मण-
जानकी,महिषासुर- मर्दिनी,सूर्य,शेषनाग,नरवाराह आदि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आश्रम की प्राचीनता असंदिग्ध है ,
किन्तु कुछ लोग आशंका व्यक्त करते हैं कि प्राचीन भारद्वाज-आश्रम यह नहीं है । वैसे यह ऐतिहासिक शोध का
विषय हो सकता है ; किन्तु मझ
ु े दे खने-घम
ू ने से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि इसकी प्राचीनता पर अंगल
ु ी उठा सकँू ।
गायत्री को बारबार बाबा याद आ रहे थे । उसने कहा- ‘ उपेन्दर भैया साथ होते तो घूमने का मजा ही कुछ और होता ।
यहाँ के रहस्यों से पर्दा उठाते।’ उनकी कमी तो मुझे भी खल ही रही थी। बहुत से प्रश्न अनुत्तरित थे ।

गर्भगह
ृ में थोड़ी दे र के लिए ध्यान लगाने का प्रयास किया। क्षण भर के ध्यान ने ही मन को शान्त और प्रफ्फुलित कर
दिया । सच में ध्यान लगाने की चीज नहीं है ,वह तो स्वतः लगने वाली स्थिति है –आज मुझे कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ।
इसके पहले सैकड़ों बार ध्यान लगाने का प्रयास किया था । वस्तुतः जो प्रयास , लोग किया करते हैं, वह तो धारणा की
होती है ,और इसे ही ध्यान कहने की भूल कर बैठते हैं,जिन्हें योग का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है । बाबा ने प्रसंगवश एक
दिन कहा था- धारणा तक जाओ,ध्यान की चिन्ता छोड़ो । आज का क्षणिक अनुभव सच में विचित्र रहा ।
भारद्वाजेश्वर दिव्यस्थली का आभामंडल मन-प्राणों को शान्ति-रस से आप्लावित कर गया। गायत्री की इच्छा थी
अभी कुछ दे र और यहीं विताने की, किन्तु समय के हाथों बिका होने के कारण उसकी इच्छा के विपरीत, तुरत वहाँ से
निकल जाना पड़ा।

वहीं के लोगों से पछ
ू ने पर पता चला कि आसपास ही और भी कई दर्शनीय स्थल हैं। सच पछ
ू ें तो विविध तीर्थों का
जमघट पूरा प्रयाग ही दर्शनीय है ,जिनमें वासुकि नाग-मन्दिर,उर्वशीतीर्थ, उर्वशीकंु ड,गौघाट, इन्द्रे श्वर, तारकेश्वर,
परशुरामतीर्थ, लक्ष्मीतीर्थ, कपिलतीर्थ, शिशिरमोचन,आदित्यतीर्थ आदि कुछ विशिष्ट स्थल हैं । थोड़ा बाहर निकलने
पर श्रंग
ृ वेर स्थल,लाक्षागह
ृ , सोमेश्वर, अलोपी, ललिता,शीतला,तक्षकेश्वर,समुद्रकूप आदि भी कम दर्शनीय नहीं हैं।
फिर भी माधवमन्दिर और मनकामेश्वर मन्दिर जाने की इच्छा प्रवल हुयी। माधव मन्दिर के नाम से ख्यात कोई एक
स्थल नहीं है ,बल्कि कुल बारह स्थल हैं,जो अलग-अलग स्थानों में अवस्थित हैं। यथा- साहे ब माधव,अद्वेनी माधव,
मनोहरमाधव,चारामाधव,गदामाधव,आदममाधव,अनन्तमाधव,बिंदम
ु ाधव, अशीमाधव, संकटहरणमाधव, विष्णु
आद्य माधव,वटमाधव । इन सबका भ्रमण दर्शन सप्ताह भर का काम हो सकता है । वट-माधव का दर्शन तो
अक्षयवट दर्शनक्रम में ही हो गया था। अतः समयाभाव को दे खते हुए बलवती इच्छा से समझौता करना पड़ा।

‘ अब वापस लौटना चाहिए ’- मैंने कहा,तो गायत्री की चहक अचानक गायब हो गयी। उसने मायूस होते हुए कहा- ‘
कम से कम मनकामेश्वर का दर्शन तो कर ही लो। जीवन का भागदौड़ तो हमेशा लगा ही रहता है ।’

‘ मनकामेश्वर? ’- मैं जरा चौंका- ‘ महादाता ने तो बहुत कुछ दे दिया, अनुमान से भी कहीं अधिक। अब क्या
मनोकामना लेकर मनकामेश्वर की लालसा रखे हुये हो ? अधिक लोभ अच्छी बात नहीं है ।’

उदास होती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ तो तुम्हें क्या लगता है - कुछ मांगने के लिए उतावली हूँ ? नहीं,ऐसी बात नहीं है ।
कामनाओं का अन्त नहीं है जीवन में , एक की पूर्ति होती है ,तो अनेक की चाह बन जाती है । फिर भी मैं उन स्वार्थी
औरतों में नहीं हूँ। वस यूँ ही मन में लगा कि इतना घम
ू -दे ख चक
ु ी तो कम से कम इस स्थल को भी दे ख ही लँ ।ू ’

मैंने घड़ी दे खी- बारह बजने ही वाले थे । समय की गल


ु ामी,नौकरी की नौ-कड़ियों वाला जंजीर गले की फांस बनी हुयी
थी । अपने इन्सपेक्शन प्वॉयन्ट पर पहुँचने के लिए भी कम से कम आध घंटे का वक्त चाहिए । गायत्री को होटल
तक पहुँचाना भी होगा- ये सब सोचते हुये गायत्री को आश्वस्त किया- ‘ चलो ठीक है , मान लिया तुम्हारी बात को।
कामनाओं के वगैर ही किसी धर्मस्थल में जाने की आदत डालनी चाहिए,और यह आदत तुम्हें पहले ही लग चुकी है , तो
बड़े सौभाग्य की बात है । ऐसा करते हैं कि अभी तो तुम्हें होटल छोड दे ते हैं। भूख भी लग रही है । कुछ खा-पी लेना भी
जरुरी है । दो-ढाई घंटे से ज्यादा का काम नहीं है मेरा। उधर से निबट कर मनकामेश्वर दर्शन किया जायेगा,और फिर
ट्रे न का इन्तज़ार करने से बेहतर है कि बस से ही निकल चला जाय । सत्तर मील की सड़क-यात्रा का भी

लुत्फ ले लिया जाय।’

गतांश से आगे...तेरहवां भाग

ठीक सवातीन बजे मैं अपना सारा काम निपटाकर,होटल पहुंच गया। दरवाजे पर दस्तक दो-तीन बार दे ना पड़ा।
प्रफ्फुल्लित गायत्री ने किवाड़ खोला- ‘ बड़ी जल्दी निपट लिये सारा काम । घम
ू ने की ललक में कहीं फांकीमार कर तो
नहीं निकल गये? ’

गायत्री के इस परु ाने ज़म


ु ले से मैं वाकिफ़ था,अतः बिना कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त किये विस्तर पर धब्ब से लेट गया।
बड़ी थकान लग रही थी। जी चाहता था- सो लूं घंटे भर, किन्तु गायत्री की कामना- मनकामेश्वर दर्शन,और पुनः
अगली यात्रा...। सिर टिकाने के लिए तकिया खींचा,जिसके नीचे पड़ी औंधी-खुली डायरी दे ख चौंका।

‘ डायरी लिख रही थी क्या? शायद इसी कारण दरवाजा खोलने में दे र हुयी।’-कहते हुये विस्तर पर पड़ी खुली डायरी
उठा लिया । सादे पन्ने खुले हुए थे, उनके बीच में एक बड़ा सा सीट मोड़ कर रखा हुआ था। डायरी गायत्री के हाथों में
दे ते हुए, मुड़े हुए पन्ने को खोला। कोई विचित्र सा चित्र बनाया हुआ था- अंग्रेजी के आठ को बड़ी आकृति में लिखकर,
लगातार कुछ कड़ियों के रुप में जोड़ने का प्रयास किया जाय,वैसी ही कुछ आकृति बन रही थी । आठ के दोनों वत

इतने बड़े थे कि उनके अन्दर भी कुछ छोटी आकृति दर्शाने का प्रयास किया गया था,जो स्पष्ट तो नहीं थे, किन्तु
अपने अस्तित्व का संकेत अवश्य कर रहे थे । आड़ी-तिरछी रे खाओं के माध्यम से उन्हें एकरं गे होने के दोष से भी
मुक्त करने का प्रयास किया गया था । कुछ दे र तक मैं उसे गौर से दे खते रहा, किन्तु कुछ खास समझ न आया।
फलतः पूछना पड़ा- ‘ ये क्या है ,कैसा चित्र बना रही थी?’

‘ये क्या है ,क्यों है ,कहां है - आदि बातों का जवाब तो उपेन्दर भैया ही ठीक से दे सकते हैं। मैंने तो जल्दबाजी में इस
रे खाचित्र को खींच भर दी हूँ । पता नहीं फिर ज़ेहन में रहे ,या कि गायब हो जाये। मैं बहुत बार अनुभव की हूँ, कुछ ऐसे
आश्चर्यजनक विम्ब बनते हैं- मानस पटल पर क्षण भर के लिए, और लुप्त हो जाते हैं । बाद में ठीक से स्मरण भी
नहीं रहते कि उसके बारे में किसी से पूछ-जान सकँू । हाँ, इतना जरुर लगता है ,कि किसी रहस्यमय बात का इशारा है ।
आज भारद्वाजेश्वर के सामने ज्यूं ही आसन लगायी,बिना किसी प्रयास के ही ये बिम्ब सामने,वो भी बहुत ही
प्रकाशमय होकर दीखने लगा । लगता था,शीशे की बनी घम
ु ावदार नालियों के बीच से सतरं गी प्रकाश-किरणें गज
ु र
रहीं हों,काफी तेजी से, और उनकी गत्यमान स्थिति में कुछ और नये विम्बों का सज
ृ न भी हो रहा हो,बीच-बीच में -
त्रिभुजाकार,वत्ृ ताकार,पद्माकार,शंक्वाकार आदि-आदि । तुम यदि बीच में ही मुझे छे ड़ते नहीं,तो शायद मैं घंटो
निहारती रहती इसे । क्या है ,ये तो पता नहीं, किन्तु अजीब सा सम्मोहन प्रतीत हुआ इस बिम्ब में । आंखें खोलने की
जरा भी इच्छा न हो रही थी हमें ।’

गायत्री के कहने पर मुझे भी ध्यान आया। उसके बनाये हुए रे खाचित्र पर फिर से गौर किया- आड़ा-तिरछा-उलटा-सीधा
करके दे खने-बझ
ू ने का प्रयत्न किया। तभी चौंक उठा- अरे ,मैं भी तो कुछ ऐसा ही विम्ब-दर्शन किया उस वक्त। वस
अन्तर इतना ही है कि तुम्हारे इस रे खाचित्र को उल्टा करके रख दे ने की आवश्यकता है । और हां,ये जो गति और
प्रकाशपुंज की बात कर रही हो,ये तो मेरे विम्ब में भी कुछ ऐसे ही,किन्तु चमक बहुत ही धूमिल-सी थी,जैसे गंदले शीशे
की नाली को बाहर से झांक कर दे खा जा रहा हो, या कहो अन्दर का प्रकाश ही अपेक्षाकृत कम हो। आखिर क्या रहस्य
हो सकता है - हमदोनों एक ही समय में ,एक ही स्थान पर एक ही विम्ब को दे ख रहे हैं,सीधे और उल्टे क्रम में ?

‘ इस रहस्य पर से पर्दा तो अब भैया ही उठा सकते हैं। इतना तो तय है कि चलते समय भारद्वाज आश्रम अवश्य जाने
का भैया का इशारा कुछ अन्य बातों का संकेत दे ता है ,साथ ही दोनों को एक ही विम्ब का दर्शन !’

चलो,जो भी हो,ईश्वर-कृपा कुछ शुभ का ही संकेत कहें इसे ।अब उनसे मिलकर ही शंका-समाधान होगा, फिलहाल तो
मनकामेश्वर मन्दिर के दर्शन के लिए चलना है न । चलो जल्दी से तैयार हो जाओ।

‘ तैयार क्या होना है ,मैं हमेशा तैयार ही रहती हूँ । वस छोटा बैग उठाओ और चल पड़ो। उधर से घूम कर फिर इधर
आना है न, या कि सीधे निकल जाना होगा?’

सामान ढोने का बोझ सहन कर सकें हमलोग,तो समय की कुछ बचत होगी,और अधिक समय दे सकेंगे मन्दिर में ।
वस यही समझो कि करीब चालीस-पचास किलोमीटर जाना-आना है —मिंटोपार्क के पास यमन
ु ा नदी के किनारे ही
किले के पश्चिमी भाग में । ऐसा करते हैं कि टै क्सी ले लेते हैं। समय की बचत होगी, और थकान भी कम झेलना
पड़ेगा। उधर से ही सीधे वसस्टैंड निकल जायेंगे।

‘ क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उसी टै क्सी से फिर हमलोग विन्ध्याचल तक निकल जायें,कितनी दरू ी होगी- साठ-
सत्तर कि.मी. से अधिक दरू ी तो नहीं होना चाहिए।’ –गायत्री ने सुझाव दिया।

ठीक है ,तुम्हारी राय है तो यही करता हूँ- कहते हुए बैग,और अटै ची दोनों

उठा लिया। छोटा बैग गायत्री ने लिया,और होटल से बाहर आ गये । रास्ता,और सवि
ु धा की जानकारी लेने के क्रम में
होटल-मैनेजर ने ही एक टै क्सी तय कर दी, जिससे काफी सुविधा हो गयी हमलोगों को।

लगभग पाँच बजे हमलोग मनकामेश्वर मन्दिर के प्रांगण में थे । मन्दिर बड़ा ही सुरम्य वातावरण में अवस्थित है ।
सरस्वती घाट के पास यमन
ु ा नदी के तट पर स्थित, इलाहाबाद के प्रसिद्ध शिव-मंदिरों में एक है यह। चारों ओर से १२०
डिग्री के मेहराबी द्वार,अष्टकोणीय आकृति में बने हुये । यानी गोलम्बर सीधे वत्ृ ताकर न होकर, कोणीय बने हुए
हैं,जिसके कारण बहुत ही आकर्षक लगता है । औंधे गोलम्बर को भी विविध चित्रकारियों से सजाया गया था। मुख्य
मन्दिर के साथ ही और भी कई मन्दिर हैं,किन्तु वे इतने आकर्षक न लगे। प्रशस्त प्रांगण को पार करके, प्रकाश-
स्तम्भ के समीप खड़े होकर अगल-बगल का दृश्य निहारने लगे हमलोग । काफी दे र तक वास्तुकला और सौन्दर्य का
आनन्द लेते रहे । फिर मन्दिर के भीतर प्रवेश किये । विशाल काले पत्थर को तराश कर अर्घ्यसहित शिवलिंग बना
हुआ था- हाथ भर की ऊँचाई पर। पास ही नन्दी और गणेश की भी सन्
ु दर प्रतिमा थी । संयोग से उस समय आगन्तक
ु ों
की संख्या न के बराबर थी। शिवलिंग से बिलकुल सट कर ही हम दोनों ने आसन लगाया। आदतन मैं वज्रासन में
बैठकर,दोनों हाथ आगे बढ़ा, शिवलिंग का स्पर्श करने ही वाला था कि गायत्री ने टोका- ‘ ऐसे क्यों,आराम से बैठिए न -
पद्मासन में ।’

मुझे बैठने का सुझावादे श दे कर गायत्री स्तोत्र पाठ करने लगी। रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्र का गायन वह बड़े ही
भावमय होकर करती है । पहले भी कई बार उसका गायन सुन चुका हूँ । बिलकुल लगता है कि नाभिमंडल से स्वर फूट
रहें हैं । परू ा स्तोत्र मुझे कण्ठस्थ तो नहीं है ,किन्तु गायत्री के स्वर में किं चित स्वर मिलाने का मैं भी प्रयास करता रहा।

करीब बीस मिनट बाद जब स्तोत्रपाठ समाप्त कर,पीछे ध्यान गया तो दे खता हूँ- गर्भगह
ृ के बाहर बीसियों लोग-
पुरुष-स्त्री खड़े हैं । लगता है गायत्री के गायन ने सबको सम्मोहित कर लिया था । एक महिला ने तो आगे बढ़कर
गायत्री के चरण-स्पर्श करने का भी प्रयास किया,जिसे गायत्री ने सहज ही रोक लिया अपने हाथ बढ़ाकर- ‘ये क्या रही
हो बहन ! दे व-प्रतिमा के सामने वैसे भी किसी को प्रणाम नहीं करना चाहिए,और मैं कोई विशेष औरत तो हूँ नहीं।’

अब तक गर्भगह
ृ बिलकुल खाली था। हमदोनों के सिवा भीतर कोई था ही नहीं, किन्तु इस अनजानी महिला के प्रवेश
करने के साथ ही बाकी सभी लोग भी भीतर घुस आये,और प्रतिमा के चारों ओर से घेर कर बैठ गये।

हमलोग अभी कुछ दे र और ठहरना चाहते थे,किन्तु आसन्न भीड़ ने इसकी इज़ाज़त न दी। चलने को उठ खड़ा हुआ,
तो वे लोग भी उठ खड़े हुए,मानों मेरे ही वास्ते बैठे हों। एक ने साहस करके परिचय पूछा- ‘ कहां से आये हैं आपलोग?’

‘ जी, हूँ तो मैं बिहार की,किन्तु फिलहाल आयी हूँ दिल्ली से।’- गायत्री ने संक्षिप्त परिचय दे कर,बात समाप्त करनी
चाही,किन्तु बात बनी नहीं।

‘ वहीं रहती हैं,या कि...? ’- एक और महिला ने सवाल किया।

‘ जी हां,वहीं हूँ काफी समय से। पति नौकरी में हैं।’-गायत्री का संक्षिप्त उत्तर था।

मैं तबतक बाहर निकल आया था,सभामंडप में । किनारे पर खड़े होकर पीछे वाले मन्दिर के बारे में उन्हीं में से एक से
पूछा । जवाब समवेत स्वर में मिला- जी हाँ,बोत बढ़िया है ,दे खने माफिक... जोरुर दे खो...।
आगे बढ़कर गायत्री का हाथ थाम ली उस महिला ने,अपने दोनों हाथों से- ‘ तोम बोउत अच्छा गान किया,जी
करता...ओर सुनना मांगता...।’ फिर आपस में ही बातें करने लगी,अपने लोगों से। टोली बंगालियों की थी,कुछ उड़िया
लोग भी थे । सबने हाथ जोड़कर अभिवादन किया । प्रत्युत्तर में हमने भी हाथ जोड़े ।

अब चलना चाहिए-कहते हुए मैं सभामंडप से बाहर निकलने लगा; किन्तु गायत्री ने इशारा किया,अभी रुकने के लिए।
अतः वहीं एक ओर कोने में बैठ गया। थोड़ी दे र में पूरी जमात वापस चली गयी- पास वाली तीसरी मन्दिर में । भीड़
विदा होने पर गायत्री पन
ु ः उठकर गर्भगह
ृ में जा घुसी,और मुझे भी आने को कही।

पुनः एकान्त पा, आसन जमाया हमदोनों ने । ‘ तुम्हें तो अटपटा लग रहा होगा कि फिर क्यों अन्दर आयी, किन्तु
जान लो कि ये सारा संकेत भैया का था। उन्होंने ही कहा था- प्रयाग जाना तो मनकामेश्वर में कुछ लम्बा आसन जरुर
मारना । स्तोत्रपाठ के बाद ज्यों ही थिर होना चाही कि ये मंडली आ जट
ु ी। चलो अब इत्मिनान है ।’

आसन लगा सो लग ही गया। आँखें खुलना नहीं चाह रही थी। एकाग्रता की ऐसी अद्भत
ु अनुभूति आज से पहले कभी
लब्ध नहीं हुयी थी,जब कि प्रयास हमेशा कुछ न कुछ अवश्य किया करता था। स्थान का भी ऐसा प्रभाव होता है - सोच
भी न सका था। गायत्री भी ध्यानस्थ थी।

काफी दे र बाद घंटे की जोरदार टनटनाहट से एकाग्रता भंग हुयी । बिलकुल समीप से सट कर किसी भक्त ने मन्दिर
का घंटा हिलाया था,और मुझे लगा, भीतर का तार-तार मानों झंकृत हो उठा हो। घंटे की आवाज बड़ी तेज थी। बोझिल
पलकें खल
ु ने को विवश हो गयी । आँखें खल
ु ी तो किसी स्वप्नलोक में तैरने लगा । जागत
ृ और स्वप्न के बीच की दरू ी
स्पष्ट न हो पा रही थी। अरे ये क्या !

आत्मविश्वास को बलवान करने के लिए आँखें मल कर दे खा— बगल में बाबा खड़े हैं,और जोरजोर से घंटा अभी भी
हिलाये जा रहे हैं । मेरे मुंह से कोई आवाज निकल न पा रही थी । गायत्री ने झकझोरा,तब कहीं तन्द्रा टूटी- ‘ क्यों क्या
बात है ,किसे ढूढ़ रहे हो ? क्या दे ख रहे हो इतने सशंकित भाव से ?’

मैंने गायत्री की ओर दे खा,प्रश्नात्मक दृष्टि से। वह मुझे अभी भी पकड़े हुए, कंधे हिला रही थी। गर्भगह
ृ पूर्णतः रिक्त
था। उपस्थिति थी,तो वस मेरी और गायत्री की। दिव्यरश्मि के आलोक में अर्घ्यासीन शिवलिंग,था तो बिलकुल काला,
किन्तु ज्योतित,प्रफ्फुलित सा। सिर झक
ु ा,दोनों हाथ को पीछे बांध,अर्द्धदण्डवत प्रणाम किया,और गायत्री का हाथ
थामे, गर्भगह
ृ से बाहर आगया।

लम्बे इन्तजार से थका सा टै क्सी-ड्राईवर वहीं लाइटपोस्ट के पास चबूतरे पर बैठा,ऊँघ रहा था। आहट पा उठ खड़ा
हुआ- ‘ तब सा’ब ! चला जाय न ? साढ़े छः बजने को हैं।’
लगभग पौने नौ बजे हमलोग विन्ध्याचल पहुँच गये, तारामन्दिर के पास। सत्तर किलोमीटर का परू ा सफर मौन-
मौन ही व्यतीत हुआ। लगता था कि पति-पत्नी में कुछ अनबन हो गयी हो,या कि शब्द-पेटिका में डाका पड़ गया हो।
किसी के पास कुछ था ही नहीं शायद कुछ कहने-सुनने को। या कि इतना था कि कहां से शुरु की जाय बात—सोचने में
ही दो घंटे गुजर गये,और गन्तव्य आगया।

टै क्सी फर्लांग भर पहले ही छोड़ दे नी पड़ी । आसपास रौशनी की निहायत कमी थी। घरों खिड़कियों से छन कर आने
वाली किरणें ही गली में सहायक थी। रास्ते की सही जानकारी न होने के कारण आगे बढ़ते हुए सीधे गंगा की धार तक
पहुँच गए। बायीं ओर चिताभूमि थी, स्वर्गारोहण का सग
ु न्ध चारों ओर व्याप्त था। एक मस
ु ाफिर से पछ
ू ना पड़ा-
मन्दिर तक जाने का रास्ता।

पीछे मड़
ु कर दस कदम के बाद दायीं ओर पतली सी गली थी,जंगली कलमी-लता से घिरा हुआ,जिससे टकराये वगैर
आगे बढ़ना असम्भव । गायत्री अपने वैग से टॉर्च निकाली,तब कहीं रास्ता साफ दीखा । आगे दस-पन्द्रह कदम जाने
के बाद ही तेज रौशनी मिली-एक लाइट पोस्ट की,जो तारा-मन्दिर के छोटे से प्रवेशद्वार पर लगी थी। निःशंक भीतर
प्रवेश किया,मानों बिलकुल जानी-पहचानी जगह हो । तगड़-में हदी की टट्टी और कुछ जंगली झाड़ियों के घेराबन्दी में
करीब दो-तीन बीघे क्षेत्र के ठीक बीचोबीच साधारण सा मन्दिर बना हुआ था। बिजली की रौशनी थी तो चारो
ओर,किन्तु एकदम मद्धिम-सी। सामने ही, क्षेत्र के पर्वी
ू भाग में विशाल काय वरगद के नीचे चौकीनुमा आठ-दस
शिलाखंड पड़े थे,थोड़ी-थोड़ी दरू ी पर। उन्हीं में एक पर आसन जमाये,बाबा बिराज रहे थे, पास की दस
ू री शिला पर एक
वयोवद्ध
ृ भी,जिनके रोयें-रोयें धवल थे। आपस में कुछ गहन बातें चल रही थी,फलतः हमलोगों के आगमन की भनक
जरा दे र से मिली,जब बिलकुल समीप आगये।

अपना सामान नीचे रखकर,आगे बढ़,बाबाओं का चरण-स्पर्श किया। बुजर्ग


ु बाबा के चरण छूने के बाद,गायत्री
जब इनकी ओर बढ़ी,तो लपक कर बाबा ने हाथ थाम लिया- ‘ हैं,ये क्या कर रही है गायत्री !’-फिर उन बाबा को
सम्बोधित करते हुए बोले- ‘ ये मेरी मंह
ु बोली बहन गायत्री है ,और साथ में इसके पति। इन्हीं लोगों के आने की प्रतीक्षा
थी।’

बढ़
ू े बाबा ने आवाज लगायी । थोड़ी दे र में एक सेवक उपस्थित हुआ,जिसे निर्देश दिया उन्होंने कि दक्षिणी हाते
में परू ब तरफ वाली कोठरी खोल दो इनलोगों के लिए।

‘ तुमलोग पहले मुंह-हाथ धोकर,इत्मिनान हो लो,फिर साथ में ही भोजन किया जायेगा। माँतारा की कृपा से
यहाँ किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है ।’-बाबा ने वहां की व्यवस्था की जानकारी दी।

माँ तारामन्दिर बाहर से दे खने में भले ही उपेक्षित और साधारण लग रहा हो, किन्तु आन्तरिक साज-सज्जा
और व्यवस्था सुरुचिपूर्ण लगी। अहाते में दक्षिण की ओर, पूरब से पश्चिम कतारबद्ध छोटे -छोटे आठ-दस कमरे बने
हुए थे- काफी साफ-सुथरे ,और व्यवस्थित भी। कमरों के आगे गोल-गोल खंभों पर टिका छः फुटी बरामदा, जिसके
प्रत्येक पाये के पास कोई न कोई फूल के पौधे लगे हुए थे। कुछ हट कर चौड़ी क्यारियाँ भी बनी थी। वहाँ भी तरह-तरह
के फूल लगे हुए थे। पश्चिम की ओर झाड़ीदार घेरेबन्दी के भीतर आम,अमरुद,अनार,केला,नीम्बू,आदि उपयोगी फलों
के पौधे लगे थे। अहाते के ईशान कोण में एक बड़ा- सा ऊंची जगत वाला कंु आ था,जिससे पानी निकालने के लिए लोहे
की जंजीर और घड़ारी,पत्थर के खंभों पर टिकी थी। उत्तर के शेष भाग में कुछ बड़ी-बड़ी क्यारियाँ थी। मद्धिम प्रकाश
में भी प्रतीत हुआ कि उनमें साग-सब्जियाँ लगी हुई हैं। परू े अहाते में विजली के आठ-दस खंभे थे,जिन पर बल्ब
टिमटिमा रहे थे। पूर्वाभिमुख, मात्र दस-बारह हाथ का मन्दिर,परिक्रमा-पथ और छोटे से सभामंडप से जरा
हटकर,यज्ञस्थल भी बना हुआ था। उसके बाद,अग्नि कोण पर खपरै ल की छावनी वाला बड़ा सा कमरा और बरामदा
भी नजर आया,जिसमें जरुरत पड़े तो सौ-दो सौ लोगों का आसानी से गज
ु ारा हो जाय। सेवक ने बतलाया कि वही
मन्दिर का रसोई घर और भोजनालय है । उधर पश्चिम में थोड़ा हटकर,दो शौचालय भी बना हुआ है ,जहाँ तक जाने के
लिए ईंट का खड़ौंझा लगाया हुआ है । हालाँकि ज्यादातर लोग अगल-बगल की झाड़ियों का ही प्रयोग करते हैं।
आमतौर पर यहां आगन्तक
ु ों का आना-जाना न के बराबर ही है । बंगाली बाबा के कुछ खास शिष्य ही कभी-कभी आया
करते हैं।

मेरे पछ
ू ने पर कि क्या बाबा बंगाली हैं,उम्रदराज सेवक ने जानकारी दी- ‘ इस आश्रम के असली संस्थापक
इनके गुरु महाराज थे,जो करीब बीस साल पहले समाधि ले चुके हैं।’- मन्दिर से दक्षिण-पश्चिम की ओर हाथ का
इशारा करते हुए उसने कहा- ‘ उधर जावाकुसुम की जो झाड़ी नजर आ रही है ,वहीं उनकी समाधि है । जीवन काल में वे
वहीं एक शिलाखण्ड पर व्याघ्रचर्म का आसन लगाये विराजते रहते थे। जाड़ा-गर्मी-बरसात,कुछ भी हो,उनका स्थान
वहीं रहता था—ऊपर से साधारण सी छावनी,चार बांसों के सहारे टिकी हुई,चारों ओर से बिलकुल खुला हुआ। दे र रात
वहाँ से उठकर नीचे गंगा किनारे श्मशान में चले जाते,और मँह
ु अन्धेरे ही,सूर्योदय से पहले,उधर से वापस आकर यहीं
विराज जाते। सन
ु ते हैं कि वे पंचमंड
ु ी साधना और शवसाधना के सिद्धहस्त थे। करीब सवा सौ साल की अवस्था में , अब
से बीस साल पहले उन्होंने समाधि ली। उनके मूल स्थान के बारे में किसी को अता पता नहीं है । पता बस इतना ही है
कि किशोरावस्था में ही वाराणसी के किसी कापालिक से दीक्षित हो गये थे। जन्म स्थान पश्चिमबंगाल का बांकुड़ा
जिला है , गांव पता नहीं। समाधि लेने के महीने भर पहले बांकुड़ा से ही अपने शिष्य को बल
ु ाकर यहां का कार्यभार
सौंपे। वर्तमान में ये वही बाबा हैं- उनके शिष्य। इनकी अवस्था भी नब्बे के करीब हो ही गयी है । मैं भी इनके साथ ही
आया था,इनकी सेवा के लिए। तब से यहीं हूँ।’- फिर जरा रुक कर सेवक ने कहा- ‘ अरे , मैं भी अजीब हूँ,मन्दिर का
इतिहास-भूगोल पढ़ाने लगा आपलोगों को। आपलोग थके हुए होंगे। मँह
ु -हाथ धोकर जरा इत्मिनान हो लें। मेरा नाम
बाजू गोस्वामी है । कोई काम हो तो बुलालेंगे। वस आपके बगल वाले कमरे में ही रहता हूँ। आपके दाहिने वाले कमरे में
बंगालीबाबा रहते हैं,परन्तु उनका कोई ठिकाना नहीं रहता,कब कमरे में रहें गे,कब कहीं फुर्र हो जायेंगे- आजतक मुझे
पता नहीं चला,तो आप क्या जान पायेंगे।’
कमरा खोल कर बाजू गोस्वामी चले गये। कमरे में प्रवेश करती हुई गायत्री ने कहा- ‘ बड़ा ही बातूनी और
दिलचश्प आदमी लगता है । बिना पूछे ही सबकुछ बतला गया।’

कमरे में रौशनी अच्छी थी। मोटा- सा गद्दा प्रवेश की ओर से दो-तीन फुट छोड़ कर पूरे कमरे में बिछाया हुआ था। आले
पर एक छोटी बाल्टी के साथ लोटा और गिलास भी रखा हुआ था,साथ ही मोड-चमोड़ कर दो कम्बल और चादर भी।
कमरा बड़ा ही हवादार था,क्यों कि दोनों ओर से खिड़कियाँ थी। पीछे वाली खिड़की से झाँक कर दे खा- थोड़ा तिरछा
दे खने पर गंगा की लहरों पर कृष्ण पंचमी का चाँद अठखेलियाँ करता नजर आया। दृश्य बड़ा ही मनोरम लगा। दिन
भर का थका न होता,तो गंगा की मद
ृ ल
ु रे ती का आनन्द लेने अवश्य निकल पड़ता। अभी उधर झाँक ही रहा था कि
बाजू की आवाज पन
ु ः सुनाई पडी। पीछे मुड़ा तो एक दोना लिए कमरे के द्वार पर खड़ा पाया- ‘ दादा ! ये रहा तारामाँ
का प्रोऽसाद। इसे खाकर जऽलखाओ। थोड़ा आराम कोरें ,तोब तक गिरधारी भोजोन का बोलावा लेकर आ जावेगा। ’

दोने में आठ बड़े-बड़े पेड़े थे,साथ ही कुछ चिरौंजी के दाने भी। ‘इतना कष्ट करने का क्या काम था दादा ?’- उसके हाथ
से प्रसाद वाला दोना लेती हुई गायत्री ने कहा।

‘कष्टऽ बोलता इसको? ये तो मेरा कोरतब है ऽ।’- कहते हुए आले पर से बाल्टी उठाकर बाहर निकल गया।

थोड़ी दे र में उधर से आकर पानी रख गया,और पिछली बात का टे प बजा गया- ‘ इसे खाकर जऽलखाओ। थोड़ा आराम
कोरें ,तोब तक गिरधारी भोजोन का बोलावा लेकर आ जावेगा। कोई बात हो तो आवाज दे ना ना भूलना। मेरा नाम बाजू
गोस्वामी होऽ।’

‘हां,हां ठीक है दाद ू ! तब तक आप भी आराम करें ।’

बाजू चला गया। बाल्टी के पानी से हमलोगों ने हाथ-पैर धोये,तारामाँ का प्रसाद ग्रहण करके,जलपान किये। आराम
क्या करना था,बाहर निकल कर बरामदे में ही टहलने लगे। अचानक गायत्री ने सवाल किया - ‘ उस समय
मनकामेश्वर मन्दिर में ध्यान के समय तुम इतनी बेचैनी से क्या ढूंढ़ रहे थे? ’

गायत्री के सवाल के बदले मैंने भी सवाल कर दिया- ‘ ज्यादा चतरु ाई न दिखाओ। पहले तम
ु बताओ तम
ु ने क्या
अनुभव किया? कैसा लगा मनकामेश्वर का स्थान ? मुझे तो लगता है कि तुम इतना ध्यानस्थ हुई कि सत्तर
किलोमीटर के सफर में एक शब्द भी न निकला मुंह से।’

‘ हां,सच में शब्दहीन होगयी थी,शब्द-निरुद्ध कहना ज्यादा सटीक होगा। अनुभूति कोई विशेष नहीं,पर गहन अवश्य
कह सकती हूँ। भारद्वाज आश्रम वाला दृश्य ही जरा और साफ होकर सामने आया । कड़ियों के बीच की कड़ियाँ और
स्पष्ट हुई। दृश्य को दृश्य नहीं प्रत्यक्ष दर्शन कहना अधिक उपयक्
ु त होगा । इस विषय पर भैया से जमकर बातें कहने-
पूछने की हैं। भोजन के बाद अगर मौका मिला तो आज की वार्ता का विषय यही रखग
ूँ ी। अब कहो,तुमने क्या अनुभव
किया?’

‘ मेरी अनुभूति भी कुछ-कुछ तुम्हारी जैसी ही थी- पुराने दृश्य का परिमार्जन कह सकता हूँ। किन्तु सबसे
आश्चर्यजनक रहा –घंटे की आवाज से आन्तरिक झंकृति,और बाबा का प्रत्यक्ष दर्शन । सन
ु ते हैं कि कायव्यह
ू साधक
की ऐसी स्थिति होती है । चाहने पर वो स्वयं को कई स्थानों पर एकत्र प्रदर्शित कर सकता है । मुझे तो लगता है बाबा
इस कला में सिद्धहस्त हैं ।’

‘ तो इसमें संदेह ही क्या है ? उपेन्दर भैया कोई साधारण मनष्ु य नहीं लग

रहे हैं, जैसा कि इन थोड़े ही दिनों में हमलोगों ने दे खा-अनुभव किया।’

‘ ये बड़ा ही अच्छा हुआ कि हमलोगों को बाबा को साथ रखने का सौभाग्य मिल गया,और तम्
ु हारी विनती उन्होंने
स्वीकार कर ली।’

‘ स्वीकारते क्यों नहीं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि मैं कितनी जिद्दी हूँ । मेरे जिद्द से उन्हें कई बार वास्ता पड़ चुका है
बचपन में ही । अब मौका दे खकर उनके जीवन की रहस्यमय कथा कुछ सुनँ-ू जानँ,ू इसी की तलाश है ।’

‘ अब मौके की क्या बात है ,मौका ही मौका है । मेरा सारा दिन तो दफ्तर में या कि दफ्तरी काम से इधर-उधर बीतता
है ,और बीतेगा भी। मेरे पास तो दे र रात वाला समय ही है ,और ये भी उचित नहीं कि रोज रात को एक बजे के बाद
बैठकी लगायी जाए।’

बातें हो ही रही थी कि एक युवक आता हुआ दिखायी पड़ा। समीप आकर,हाथ जोड़, अभिवादन किया- ‘ जी मैं
गिरिधारी...आश्रम का रसोईया। दोनों बाबा आपलोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं,भोजनालय में ।’

गिरधारी के साथ हमलोग भोजनकक्ष में उपस्थित हुए। पूर्वाभिमुख बैठने के लिए आठ-दस पट्टे बिछे हुए थे जमीन
पर,जिनमें दो पट्टों पर दोनों बाबा बिराज रहे थे। प्रत्येक पट्टे के सामने की जमीन थोड़ी ऊँची- दो-ढ़ाई ईंच बनायी हुई
थी। बगल में जलपात्र और गिलास भी रखा हुआ था। बाबा के इशारे पर हमदोनों भी उनके बगल वाले पट्टे पर बैठ गये।
थोड़ी दे र में चार आदमी और प्रवेश किये कक्ष में और उसी भाँति अपना आसन ग्रहण किये,जिनमें एक तो बाजू
गोस्वामी थे,बाकी अनजान। उनलोगों ने भी हमदोनों का अभिवादन किया हाथ जोड़कर। बाजू ने ही बताया- ‘ ये तीन
जोन भी इधर में ही रहता...आश्रम और बारी का काम-धाम दे खने वास्ते।’

सबके सामने पत्तल और दोना लगाया गया।भोजन परोसने में गोस्वामी भी मदद करने लगा गिरधारी को। कुल नौ
पत्तल लगाये गये थे। सब पर यथेष्ठ मात्रा में भोजन परोस कर,अन्त में बाजू और गिरधारी भी साथ में ही बैठ गये।
हाथ में जल लेकर दोनों बाबाओं ने भोजन पात्र का दक्षिणावर्त घेरा लगाया,और प्रार्थना किये- ऊँ अस्माकं नित्य
मस्त्वेतत ्। पुनः ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामि- कहते हुए जल प्रोक्षण किये। इसके बाद पात्र से थोड़ा हटकर दाहिनी
ओर जमीन पर थोड़ा जल गिराकर, थोड़ा-थोड़ा अन्नादि ग्रास तीन जगहों पर रखे- ऊँ भूपतये स्वाहा,ऊँ भुवनपतये
स्वाहा,ऊँ भूतानां पतये स्वाहा। तत्पश्चात ् पन
ु ः जल लेकर आचमन किये- ऊँ अमत
ृ ोपस्तरणमसि स्वाहा। फिर भोजन
मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किये- ऊँ अन्नपतेऽन्नस्य नो दे ह्यनमीवस्य शुष्मिणः। प्र प्रदातारं तारिषं ऊर्जं नो धेहि द्विपदे
चुतुष्पदे ।। (यजुर्वेद११−८३) इसके बाद बहुत छोटे -छोटे पांच ग्रास क्रमशः ले-लेकर ऊँ प्राणाय स्वाहा,ऊँ अपानाय
स्वाहा,ऊँ व्यानाय स्वाहा, ऊँ उदानाय स्वाहा ऊँ समानाय स्वाहा मन्त्रों के उच्चारण सहित ग्रहण किये।

तत्पश्चात ् ही वद्ध
ृ बाबा के संकेत पर सबने भोजन प्रारम्भ किया- मौन भोजन...परिवेष्ठन रहित भोजन,असामहि
ू क
तुल्य सामूहिक भोजन....।

अतिशय सस्
ु वाद ु भोजन करके चित्त प्रसन्न हो गया। मन गदगद हो गया। अबतक के जीवन में हजारों बार भोजन
का अवसर आया था- घर से बाहर तक, होटल से लेकर आश्रमों और मन्दिरों तक; किन्तु आज के इस आश्रम-भोजन
में जो आनन्द और परितप्ति
ृ मिली इसे अद्वितीय कहने में जरा भी हिचक नहीं। कोई अनुकूल शब्द नहीं मिल रहा है ,
जिससे व्याख्या करुँ इस भोजन व्यवस्था की। दब
ु ारा परोसन लेने की भी बात नहीं,एक बार में जो मिल गया यथेष्ठ
... मनोनुकूल...सन्तोषप्रद। शास्त्रों में कहीं-कहीं सामूहिक भोजन का निषेध भी किया गया है - कुछ खास अर्थों में ,कुछ
खास कारण से। कहते हैं- भोजन-शयन,सम्भाषण आदि लोकव्यवहार हम जिनके साथ करते हैं,उनके दो-प्रतिशत
गण
ु -दोषों का हकदार हम भी बन जाते हैं। यानी सामहि
ू क भोजनादि से गण
ु -दोषों का सद्यः आदान-प्रदान होता है ।
समस्या ये है कि सहभोजी के व्यक्तित्त्व और कृतित्व पर समाज में रहते हुए कितना विचार कर पायेगा कोई
गह
ृ स्थ? करना चाहिए या नहीं- यह भी विचारणीय है । सामाजिक नियम बहुत ही सोच-समझ से बनाये गये होते हैं।
इनमें शास्त्र-सम्मति के साथ लोकरीति-परिवेशरीति भी समायी होती है । ध्यान दे ने की बात है कि लौकिक-
सामाजिक-कृत्य—शादी-विवाह,श्राद्ध,भोज, यज्ञादि जनित उत्सव-आयोजन में सामूहिक भोजन की व्यवस्था का
विधान है , परिपाटी है । इन सबके अपने खास महत्त्व हैं। कितना सुव्यवस्थित नियम बनाया है हमारे मनीषियों ने
शास्त्र–रचना करके- जागने,सोने, खाने,पीने,जीने,मरने...सबके नियम निर्धारित किये गये हैं। किन्तु हम इनके बनाये
नियमों में समयानस
ु ार अपने अ-विवेक और स्वार्थ का छौंका लगा दिये हैं,जिसके कारण सारा ज़ायका गडमड हो गया
है । आज सामूहिक भोजन की रुपरे खा बिलकुल पाश्चात्य हो गयी है - सामूहिक भोजन का सीधा अर्थ हो गया है -
बिलकुल जूठा खाना। एक अज्ञात कवि की उक्तियाँ याद आरही हैं- वानरा इव कुर्वन्ति सर्वे वफे डीनरः...आजकल
लोग सामहि
ू क भोजन करते हैं- ‘ वफेडिनर ’ वन्दरों की भांति उछल-उछलकर- न यहाँ धर्म है और न विज्ञान। इन
दोनों में किसी एक का भी पूर्णतया आश्रयी हो जाते, तो कल्याण हो जाता। आधुनिकों को कम्प्यूटर केबिन में जूता
उतार कर जाने की बात समझ आती है ,किन्तु रसोईघर में भी यह लागू होना चाहिए- इसे समझने में कठिनाई होती
है ।
भोजन के बाद सबने अपना-अपना पत्तल उठाकर बाहर पड़े कूड़ेदान में डाला। गिरधारी और दो अन्य सेवकों ने
मिलकर कक्ष और पाकपात्रों की सफाई की। गोस्वामी बाबा से आदे श लेकर अपने कक्ष की ओर चला गया। दोनों
बाबाओं के साथ हमदोनों वहीं बाहर वरगद के नीचे शिलाखंड पर बैठ गये।

बाबा ने पछ
ू ा- ‘ तब कहो,कैसी रही तम
ु लोगों की यात्रा? और आगे का क्या कार्यक्रम है ?’

‘ आपके आशीर्वाद से यात्रा बहुत ही अच्छी रही। कई नयी जिज्ञासाएँ और प्रश्नों का कौतूहल मथित किये हुए है । मौका
मिले तो इन पर आपसे चर्चा करुँ । रही बात आगे प्रोग्राम की,तो वो सब आपके आदे शानस
ु ार ही सम्पन्न होगा।
गायत्री का मन्नत था- यहाँ तक आकर,विन्ध्यवासिनी-दर्शन करने का,सो तो कल गंगा स्नान के बाद कर लिया
जायेगा,फिर आगे आपकी इच्छा और आदे श...।’

‘ तुम्हारी छुट्टी कब तक है ? यानी लौटना कब तय है ? ’

‘ नियमतः मैं दो दिनों के ऑफिसीयल टूर पर हूँ। दो दिन अपनी छुट्टी से भी ले लिया हूँ,जिसका उपयोग यहाँ रहकर
किया जा सकता है ,या फिर जैसा आप कहें ।’

‘ ईश्वर की कृपा से जो होता है ,अच्छा ही होता है । तुम्हारी बहुत सी जिज्ञासाओं का समाधान यहाँ मिल जायेगा। ये
अच्छा संयोग रहा कि इसी बीच मुझे बाबा का बुलावा आ गया।’- बाबा ने वद्ध
ृ बाबा की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘ और
तम्
ु हें इलाहाबाद का टूर मिल गया। नवमी की रात तक मझ
ु े भी यहां रहना है ,आज पंचमी हो ही गया। ’

‘ मतलब कि हमलोग साथ वापस नहीं चल सकेंगे? ’

‘ साथ की क्या बात करते हो,न साथ आये हैं,और न जाना हो सकता है ।’-

बाबा का कथन द्वयर्थक था, जिसे वद्ध


ृ बाबा ने स्पष्ट कर ही दिया- ‘ इस संसार में सच पूछो तो कोई किसी का साथी
नहीं है । हुआ भी नहीं जा सकता। सबकी यात्रा अकेले की है । भले ही गन्तव्य एक हो सबका। जिसे तुम साथी समझने
की भूल कर बैठते हो,वह भी असली साथी नहीं है । कौन कब किस दिशा में अपनी यात्रा प्रारम्भ करे गा,कहना मुश्किल
है । सब अपने-अपने कर्म और संस्कारों की डोर से बन्धे हैं।’

मैंने हाथ जोड़ कर वद्ध


ृ बाबा से निवेदन किया- ‘ महाराज ! ये संस्कार है क्या चीज, और कैसे बनता-बिगड़ता है ,तथा
बाँधता कैसे है हमें ? ’

वद्ध
ृ बाबा ने कहा- ‘ संस्कार हमारा परिधान है । इसे वास्तविक पहचान भी कह सकते हो। मनुष्य के मनष्ु यता की
व्यापकता उसके संस्कार में आवत्ृ त है । संस्कार समग्र जीवन-दर्शन है ।यह न जातिबोध है ,न धर्म-तत्त्व,न दे श-काल
का विखंडन । संस्कार लिंग-विच्छे द से परे संज्ञाहीन शिखर परु
ु ष है । संस्कार घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश की
अनश्वर दीपशिखा है । यही हमारी जीवनी-शक्ति है । इसे समझने के लिए सच्ची भक्ति की शक्ति चाहिए । उस
भक्ति की जो सदा सर्वदा निर्बन्ध है ,जिसे कतई अवरुद्ध और आवद्ध नहीं किया जा सकता । भक्ति अद्वैत है , परे है
यह वेदान्त से भी । भक्ति ही आत्मा के स्वरुप का संधान है । भक्ति का सम्पूर्ण समर्पण शोषक यन्त्र, जिसे तुमलोग
आजकल ‘वैक्यूमक्लीनर’ कहते हो,की तरह सब कुछ सोख लेता है अपने आप में ,फिर कुछ शेष नहीं रह जाता। न कोई
प्रश्न,न कोई उत्तर। भक्ति- मैं को ढहा दे ती है ,विसर्जित कर दे ती है । और जब मैं ही न रहा,फिर क्या ! यह संस्कार न
एक दिन में बनने की चीज है ,और न हठात ् बिगड़ जाने वाली। संस्कार को बनाने और बिगाड़ने वाले ‘दायरे ’ सदियों से,
परम्पराओं से, जातियों से,जातिगत धर्माचारों से और नियन्ता-सष्टि
ृ के प्रवेश में आते ही आवत
ृ करनेवाले अवयवों से
संचालित होते हैं। ये संस्कार ही काम,क्रोध,लोभ,मोहादि को जन्म दे ते हैं; और ठीक इसके विपरीत यह संस्कार ही
मक्ति
ु का अभयद्वार भी है ,जो रोग,शोक,मोह,माया,ममतादि से परे है । एक बात और जान लो कि असत्य ही संस्कार
का परम द्रोही है ,परम शत्रु है । और सत्य ? सत्य तो सिर्फ और सिर्फ एक है - पष्ु प के भीतर छिपे पराग की तरह । और
इसे पाना होगा- नहीं,पाये हुए हो । वस समझ जाने भर की बात है । सुगन्ध मिल रही है तुम्हारे नथन
ु ों को,किन्तु इसे
कहीं और ढूढने में परे शान हो । यह किसी मन्दिर,मस्जिद,गरु
ु द्वारे ,या कि गिरजाघरों में नहीं मिलता। यह तम्
ु हारे ही
भीतर छिपा बैठा है - कस्तूरी कुण्डली बसै, मग
ृ ढूँढै वन माही। ऐसे घटि-घटि राम बसै दनि
ु या दे खै नाहीं।। भूले तुम हो,
और ढूँढ रहे हो भगवान को । बेटा खो जाये,और टोला-महल्ला बाप को ढूँढ़ने निकल पड़े- ऐसा भी कहीं होता है क्या ?
हमारी आँखों पर मोतियाविन्द का पर्दा पड़ा है , चिकित्सक के पास जाना होगा,जो अपनी शल्य-क्रिया से उसे हटा दे ।
आँखों की दृष्टि को कुछ खास हुआ नहीं है ।’

वद्ध
ृ बाबा की बातें ज्ञानाञ्जनशलाका की तरह प्रभावित कर गयी । मोतियाविन्द का ऑपरे शन मानों हो गया- प्रकाश
की किरणें फूट पड़ी। लपक कर उनके श्रीचरणों में नत हो गया। उनके मद
ृ ल
ु कर-स्पर्श से स्नात हो गया
वाह्याभ्यन्तर।

गायत्री को सम्बोधित करते हुए बाबा ने कहा- ‘ अब तुमलोग जाओ,आराम करो। कल सुबह गंगा स्नान के बाद
मिलना। मैं भी चलूंगा,साथ में मां विन्ध्यवासिनी के दरवार में ।’

इच्छा न रहते हुए भी उठ ही जाना पड़ा। केवल बाबा रहते तो उनके साथ थोड़ा हठ भी कर लेता,किन्तु वद्ध
ृ महाराज के
सामने यह अभद्रता होगी– सोचकर,उठ खड़ा हुआ। हमलोगों के उठते ही,वे दोनों भी उठ खड़े हुए। हमलोग अपने
निर्धारित कमरे की ओर बढे ,किन्तु वे दोनों अहाते से बाहर निकलकर गंगा की ओर प्रस्थान किये। गायत्री ने धीरे से
कहा- ‘ बाजू कह रहा था न...लगता है वे दोनों श्मशान की ओर ही जा रहे हैं।’

सर्यो
ू दय से काफी पहले ही नींद स्वतः खुल गयी। मुंह अन्धेरे ही स्नानादि नित्य क्रिया से निवत्ृ त होकर माँ तारा
का दर्शन किया । कल बाहर से ही प्रणाम भर कर लिया था। आज भीतर गर्भगह
ृ में प्रवेश किया। जमीन से कोई हाथ
भर ऊँचे चबत
ू रे पर काले पत्थर की बनी आदमकद, शिवारुढा माँ की मर्ति
ू बड़ी ही आकर्षक थी। कोई खास ज्ञान-
अनुभव तो नहीं है ,फिर भी न जाने क्यों स्थान बहुत ही जागत
ृ प्रतीत हुआ। ज्योतित आँखें लग रही थी- मुझे ही निहार
रही हों। क्षण भर के लिए,अज्ञात भय से रोंगटे खड़े हो गये । हवन कंु ड में सद्यः प्रज्वलित अगर, गुगुल की मदिर
सुगन्ध से भीतर का वातावरण आप्लावित था। साष्टांग दण्डवत करने के बाद बैठ गया वहीं। पास ही गायत्री भी थी।
चित्त की एकाग्रता का प्रयास करने लगा। थोड़ी ही दे र में लगा कि किसी ने कान में धीरे से कहा - ‘ व्यर्थ भटकना
छोड़ो, ‘क्रीँ’ के प्रति समर्पित हो जाओ , यहीं से ‘क्लीँ’ का द्वार खुलेगा।’

आवाज बहुत ही धीमी थी,फिर भी थी बिलकुल स्पष्ट । स्वर पुरुष का था या नारी का- कह नहीं सकता। लगा दरू कहीं
घाटियों से टकराकर आवाज कानों तक आयी हो। आँखें खल
ु गयी। कहीं कुछ दिखा नहीं- कोई स्रोत नहीं । गायत्री अभी
आँखें मून्दे बैठी ही थी। मैं उसका इन्तजार करने लगा,और सोचने लगा- कि क्या इशारा है । क्लीं से तो बाबा ने
परिचय करा दिया था,ये क्रीं क्या है ,और ये संकेत दे ने वाला/वाली कौन है ?

‘ किस उधेड़बुन में जकड़े हो- वाला/वाली के ? इतना समझाने के बाद भी वाला/वाली के जंजाल से निकलने का मन
नहीं कर रहा है ? ’- अचानक वद्ध
ृ बाबा की आवाज कानों में पड़ी- ‘ जो आदे श हुआ है ,उसका पालन करो। संशयात्मा
विनश्यति....।’

आँखें तो पहले ही खुल चुकी थी,उस सूक्ष्म ध्वनि से। इस नये आवाज पर पीछे मुड़कर दे खा- आसपास कहीं कोई
नहीं,किन्तु आवाज तो स्पष्ट रुप से मैंने सन
ु ी, पहचान में भी संशय नहीं- वद्ध
ृ बाबा की ही आवाज थी,किन्तु....।

गायत्री का ध्यान परू ा हो चक


ु ा था। मझ
ु े पीछे झांकते हुए दे खकर उसने पछ
ू ा- ‘ क्या बात है ,ध्यान में मन नहीं लगा? ’

अभी कुछ कहना ही चाहा था कि सभामंडप में खड़ा गोस्वामी नजर आया- ‘ कहां हो दीदी ! बाबालोग आपलोग को
बल
ु ा रहे हैं।’

हमदोनों मन्दिर से बाहर निकलकर गोस्वामी के साथ हो लिए। ईंट की बनी पगडंडी,अहाते में पीछे की ओर चली गयी
थी,जहाँ मौलश्री का एक बड़ा सा वक्ष
ृ था, जिसके नीचे पन्द्रह-वीस हांथ के घेरे के अन्दर एक छोटी सी खूबसूरत
समाधि बनी हुयी थी। समाधि को चारों ओर से विविध प्रजातियों के जवाकुसुम के पौधे घेरे हुए थे,जिनमें अधिक
संख्या लाल रं गों वाले बड़े आकार के फूलों की थी। ये फूल दे वी को अतिशय प्रिय हैं। चारों कोनों पर बाँस की चचरी
बनाकर, अपराजिता-पष्ु प की तीनों प्रजातियों- ब्रह्मक्रान्ता,विष्णक्र
ु ान्ता,शिवक्रान्ता को बड़े करीने से सजाया गया
था। तन्त्रशास्त्र कहते हैं कि तन्त्र-साधकों के लिय जपा और अपराजिता यानी कि क्रान्तात्रय- ये दोनों पष्ु प अत्यधिक
महत्त्वपूर्ण हैं। अपराजिता को तन्त्र में योनिपुष्प कहा जाता है ,क्यों कि इसकी आकृति योनि की आन्तरिक संरचना
जैसी ही होती है । अतः दे वी को यह पष्ु प अति प्रिय है । अपराजितात्रय योनि है ,तो कनेरपष्ु प लिंग का प्रतीक है । योनि
और लिंग ही तो सष्टि
ृ का उपोद्घात है ।
गोस्वामी ने बतलाया- ‘ वद्ध
ृ बाबा के गुरु महाकापालिक बाबा की यही समाधि है । इसे रोज अपराजिता-पष्ु प और जवा-
कुसुम से सजाया जाता है ,जैसा कि आप दे ख रहे हैं-इतनी बड़ी समाधि पटी पड़ी है -इन्हीं फूलों से। इसे सजाने का काम
यहाँ के बाबा खुद अपने हाथों करते हैं। प्रातः गंगा-स्नान के बाद सीधे यहीं आ जाते हैं, और दे र,दोपहर तक उनका
समय यहीं गुजरता है । दिन के भोजन के समय ही यहाँ से उधर भोजनालय की ओर जाते हैं। अभी दोनों बाबालोग यहीं
बैठे आपलोग का इन्तजार कर रहे हैं।’

समाधि के प्रवेशद्वार का स्पर्श करते हुए नमन किया,और परिसर में भीतर घुसा। संगमरमरी चट्टान पर आमने-
सामने दोनों बाबा बिराज रहे थे- भव्य गरु
ु -मर्ति
ू के श्रीचरणों में । हम पर नजर पड़ते ही बोले- ‘ बड़ी दे र लगा दी
तुमलोगों ने तैयार होने में । हम कब से प्रतीक्षा कर रहे हैं। विन्ध्यवासिनी का दर्शन करना है कि नहीं ?’

गरु
ु मर्ति
ू को प्रणाम करने के पश्चात ् दोनों बाबाओं का चरण-स्पर्श करते हुए मैंने कहा- ‘ चलना क्यों नहीं है । इसी लिए
तो आया हूं।’

‘ तो चलो,क्यों कि वैसे ही दे र बहुत हो गयी है । विन्ध्यवासिनी दर्शन के बाद त्रिकोण यात्रा भी तो करनी है । हालाँकि,
लोग भोजन के बाद भी सुविधानुसार भ्रमण की तरह त्रिकोण करते हैं,किन्तु उचित यही है कि इसे पर्वा
ू ह्न में ही किया
जाय,तत्पश्चात ् भोजन किया जाय।’

‘ तो ऐसा करते हैं भैया कि विन्ध्यवासिनी दर्शन के बाद कुछ फल वगैरह ले लिया जाय,फिर इत्मिनान से त्रिकोण-
यात्रा की जायेगी।’-बाबा की बात पर गायत्री ने कहा। मैंने भी गायत्री की बातों का समर्थन किया।

समाधि-परिसर से बाहर निकलते हुए,बाबा से पूछा- ‘ ये त्रिकोण-यात्रा का क्या मतलब है ,और वस्तुतः यह है क्या?
क्या इसकी कोई खास विधि भी है ,या कि यँू ही तीनों स्थानों के एकत्र दर्शन को त्रिकोण कहते हैं ? बहुत पहले मैं एक
बार और आया था यहाँ। कुछ खास पता तो था नहीं। लोगों को दे खा,और मैं भी साथ हो लिया। भगवती विन्ध्यवासिनी
के मन्दिर से आगे सड़क पर निकलते ही तांगेवाले आवाज लगाते रहते हैं-त्रिकोणयात्रा के लिए। यात्रियों की एक टोली
में मैं

भी शामिल हो गया था।’

जल्दवाजी के लिए हमलोग सड़क की ओर न जाकर सीधे,गंगाकिनारे वाला खश्ु की रास्ता ही पकड़े, जिससे पन्द्रह-
बीस मिनट में ही मन्दिर पहुँच गये।

रास्ते में बाबा ने बतलाया- ‘ विन्ध्यवासिनी के बारे में जानने से पहले इस विन्ध्यगिरि को ही जानो-समझो। तुम्हें
यह सन
ु कर आश्चर्य होगा कि यह विन्ध्यगिरि पर्वतराज हिमालय का भी पितामह-प्रपितामह जैसा है । सष्टि
ृ के
आरम्भ में एक ऐसी स्थिति थी कि जब आज का यह बूढ़ा पर्वत अपनी युवावस्था में था। युवाओं का गौरव भी अहं कार
का रुप ले बैठता है । विन्ध्य के साथ भी यही हुआ। उसे लगा कि सभी ग्रह-नक्षत्र सुमेरुपर्वत की परिक्रमा क्यों करते
हैं,क्या मैं उनके समान नहीं हूँ ? प्रसंग है कि विन्ध्य इतनी तेजी से बढ़ने लगा कि सूर्य का परिक्रमा-पथ वाधित होने
लगा। त्रिलोक में हाहाकार मच गया। तब दे वता लोग महर्षि अगस्त्य से याचना किये- इस समस्या के निदान हे तु।
महर्षि अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ विन्ध्य के पास गये । उस समय वह उन्हें प्रणाम करने हे तु चरणों में झुका।
महर्षि ने आशीष दे ते हुए कहा कि हे वत्स ! तुम तबतक इसी भांति झुके रहो जबतक मैं वापस न आऊँ। विन्ध्य ने वैसा
ही किया- आज भी वह गरु
ु की प्रतीक्षा में ही नत है …। इसे ही भग
ू ोल वाले कहते हैं कि पहाड़ अन्दर दब रहा है ।”

बाबा की बात पर मझ
ु े ध्यान आया- विज्ञान कहता है कि पथ्
ृ वी पर सदा उलट-फेर होते रहता है । आज जो ऊँचा है ,कल
नीचा हो जायेगा। आज जो खाई है , कल पर्वत हो जा सकता है ,और इसके विपरीत पर्वत खाई में बदल सकता है । पथ्
ृ वी
का सर्वाधिक गहरा प्रशान्त महासागर वही खाई है ,जहां से विखण्डित होकर एक पिण्ड निकला,जिसे हम चन्द्रमा के
नाम से जानते हैं। यानी इसे मानने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि किसी जमाने में विन्ध्य ऊँचा रहा होगा
हिमालय से भी।

बाबा का कथन जारी था- “...इसी विन्ध्य को गौरवान्वित किया महामाया भगवती ने। श्री मार्क ण्डेय परु ाणान्तर्गत
श्रीदर्गा
ु सप्तशति ग्यारहवें अध्याय (४१,४२) में महामाया के वचन हैं- वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ । नन्दगोपगह
ृ े जाता यशोदागर्भसम्भवा । ततस्तौ नाशयिष्यामि
विन्ध्याचलनिवासिनी ।। यहां महामाया कह रही हैं- ‘ वैवस्वत मनु के शासन काल में अठाइसवें चतर्यु
ु गी के
द्वापर में नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से प्रकट होकर,मैं विन्ध्यगिरि पर वास करुँ गी।’ इसी क्रम में आगे, यानी
सप्तशती के मूल पाठ के पश्चात ् जो मूर्तिरहस्य है , उसके प्रारम्भ में ही ऋषि कहते हैं- नन्दा भगवती नाम या
भविष्यति नन्दजा । स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम ् ।। अर्थात ् नन्दा नाम की दे वी,जो नन्दगह
ृ में
उत्पन्न(होंगी) हुयी हैं, उनकी भक्तिपूर्वक आराधना करने से त्रिलोकी को वशीभूत करने की क्षमता साधक में आ
जाती है । इससे श्रेष्ठ वशीकरण का और कौन सा उपाय हो सकता है ! यहाँ एक बात और ध्यान दे ने की है ,कि दे वी की
अंगभूता छः दे वियाँ हैं क्रमशः – नन्दा,रक्तदन्तिका, शाकम्भरी, दर्गा
ु ,भीमा,और भ्रामरी । ये दे वी के साक्षात ् विग्रह हैं।
इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने के कारण ही इस प्रसंग को मर्ति
ू रहस्य के नाम से सम्बोधित किया गया है । ऋषि ने
लोककल्याण की भावना से सारा रहस्य उढे ल कर रख दिया है यहां,और रहस्य के अन्त में कहते हैं- सर्वरुपमयी दे वी
सर्वं दे वीमयं जगत ् । अतोऽहं विश्वरुपां तां नमामि परमेश्वरीम ् ।। इस रहस्य को ठीक से हृदयंगम करो, ये जो सारा
जगत-प्रपंच तम
ु दे ख रहे हो,वो और कुछ नहीं,एक और एक मात्र उस महामाया की विभति
ू या कहो विकृति ही है ।’

‘विकृति’ शब्द पर मुझे जरा आपत्ति हुयी,अतः टोकना चाहा; किन्तु तब तक गायत्री ने ही मेरा काम कर दिया- ‘ ये
क्या कह रहे हो भैया ? विकृति और विभूति दोनों एक कैसे हो सकता है ?’
बाबा मुस्कुराये- ‘ यही तो मुश्किल है ,तुमलोगों के साथ- अंग्रेजी पैटर्न से पढ़ोगे तो ऐसे बेहूदे सवाल तो उठें गे ही।
विकृति का अर्थ यहाँ खराबी नहीं, विस्तार समझो, तो ज्यादा अच्छा होगा- प्रकृति और विकृति ये दो शब्द हैं। एक है
मूल अवस्था और दस
ू रा है उसका विस्तार। ये सारा दृश्यमान जगत प्रकृति की विकृति ही तो है । अभी-अभी मैंने जो
भगवति की छः विशेष विभूतियों का नाम लिया, उन्हीं में कुछ महत्त्वपूर्ण कही-मानी जाने वाली विकृतियां हैं ये। और
एक बात जान लो कि पूर्ण का अंश भी पूर्ण ही हुआ करता है ,सारी की सारी विभूतियां भी अपने आप में पूर्णत्त्व का ही
बोधक है । इसमें जरा भी संशय न करो। बस इसी रहस्य को तो समझना है । अब इसे ज्ञानमार्ग से समझो,भक्ति मार्ग
से समझो या कि कर्ममार्ग से।’

जरा ठहर कर बाबा पन


ु ः बोले- ‘ हां,तो कह रहा था- नन्दजा भगवती की बात, इनकी आराधना-साधना से त्रिलोकी को
वशीभूत कर सकते हो,और वशीभूत भी क्या करना है ,बस रहस्य को समझ भर लेना है ,हो गया खेल खतम। अभी जहां
हमलोग चल रहे हैं,वह एक अद्भत
ु स्थान है । आज तुमलोगों को उन नन्दजा का दर्शन करा ही दे ता हूँ। यही वह
विन्ध्यवासिनी हैं,जो अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रकट हुई हैं। किन्तु एक बात और जान लो- ये गंगा किनारे वाली नहीं,और
न उस खोहवाली अष्टभुजी रुपा महामाया ही असली बहन हैं श्रीकृष्ण की। कुछ लोग इनको,तो कुछ लोग उनको
नन्दजा भगवती या यशोदानन्दिनी माने बैठे हैं,किन्तु असली तो फिर असली होता है - असली नन्दजा यहां से थोड़ी
दरू पर घनघोर जंगल में पहाड़ी पर स्थित हैं। परु ाने लोग उन्हें नन्दजा कहते है ,किन्तु सामान्य जन वहां तक पहुँचते
नहीं हैं। वर्तमान में भी वहां की स्थिति बड़ी खतरनाक है ,जंगली जानवर अभी भी वहाँ बहुत अधिक हैं। कालीखोह के
पास पहुँच कर वहां के पुराने निवासियों (जंगलीलोगों)से पूछने पर सही जानकारी हो सकती है ,किन्तु वे भी वहां जाने
से मना करें गे। नन्दजा के इस रहस्य को बहुत कम लोग ही जानते हैं। और कलियग
ु में न जाने, तो ही अच्छा है ।
कलिकाल की ही कृपा है कि ज्यादातर लोग बस आते हैं, गंगा स्नान करके,समीप के इस मन्दिर में दर्शन करके वापस
चले जाते हैं। लोगों को ये पता भी नहीं है कि यह समूचा विन्ध्यगिरि साधकों का गढ़ है । एक से बढ़कर एक रहस्यमय
स्थान यहां फैले हुए हैं पर्वत-श्रंख
ृ ला में ,जिनमें प्रमख
ु हैं त्रिकोण स्थिति में अवस्थित— विन्ध्यवासिनी,कालीखोह और
अष्टभुजी। ये तीनों विन्ध्यगिरि के लगभग तीन कोणों पर स्थित हैं। किसी एक से प्रारम्भ कर,बाकी दो का क्रम से
दर्शन त्रिकोण-यात्रा कहा जाता है । क्यों कि इस यात्रा-क्रम में त्रिकोण बनता है । इस परू े त्रिकोण में लगभग नौ मील का
सफर तय करना पड़ता है । यह त्रिकोणयात्रा- ‘ त्रिलोकयात्रा ’ के तल्
ु य फलदायी है । प्रायः लोग विन्ध्यवासिनी मख्
ु य
मन्दिर से कालीखोह, और फिर उधर से ही अष्टभुजी होते हुए पुनः विन्ध्यवासिनी पर आकर यात्रा समाप्त करते हैं।
इस प्रकार काली को मध्य में रखकर त्रिकोण रचित होता है । दस
ू रा तरीका ये भी हो सकता है कि यात्रा काली से ही
आरम्भ की जाय, और अष्टभुजी होते हुए विन्ध्यवासिनी, और फिर अन्त में काली पर आकर यात्रा समाप्त की जाय।
इसमें अष्टभुजी मध्य हो जायेंगी। और तीसरा तरीका होगा अष्टभुजी से यात्रा प्रारम्भ करके,विन्ध्यवासिनी होते
हुए,काली,और पुनः अष्टभुजी पर यात्रा की समाप्ति। दर्गा
ु सप्तशती के पाठ-क्रम से तो लोग यही उचित कहें गे कि
काली से ही यात्रा प्रारम्भ हो। गंगा किनारे जो मुख्य विन्ध्यवासिनी भगवती हैं, वे महालक्ष्मी के प्रतीक हैं, कालीखोह
की काली तो महाकाली है ही,और त्रिकोण के तीसरे विन्द ु पर अवस्थित अष्टभज
ु ी महासरस्वती के प्रतीक में हैं। अब
तुम यहां इस शंका में मत पड़ जाना कि अभी तो मैंने कहा यशोदा वाली भगवती,और अभी कह रहा हूँ महा सरस्वती,
और फिर ये भी कह रहा हूँ कि यशोदा वाली भगवती तो कहीं और छिपी हैं- इन तीनों से भिन्न स्वरुप में । और यही
सत्य भी है । अरे , इन भेदों और अभेदों को ही तो हृदयंगम करना है । ठीक से समझना है । पहले इस त्रिकोण को समझ
लो,फिर उसके मध्य-विन्द ु को भी समझने का प्रयास करना। विन्द ु के वगैर त्रिकोण टिकेगा कहाँ ? विन्द ु का विस्तार
ही तो त्रिकोण है ,और त्रिकोण का सिकुड़ाव ही विन्द ु बनता है । या सीधे कहो कि बिन्द ु का विस्तार ही संसार है ।
ज्यामिति और त्रिकोणमिति पढ़े हो कि नहीं ?”- बाबा ने मेरी ओर दे खते हुए पछ
ू ा,और फिर बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा
किये, बोलने भी लगे- “ इसी त्रिकोण के बीच महात्रिपुरसुन्दरी का प्रतीक श्रीयन्त्र भी स्थापित है । यह श्रीयन्त्र ही
अखिल ब्रह्माण्ड की संरचना को उजागर करता है । श्रीयन्त्र की महिमा और साधना अपने आप में अति गहन और
गह्
ु यतम है । संसार की सर्वाधिक गह्
ु यतम साधनाओं में है श्रीयन्त्र-साधना। त्रिकोण यात्रियों को इसका दर्शन भी
अवश्य कर लेना चाहिए। तन्त्र-साधना की विविध विधियों के हिसाब से ये बातें तय होती हैं कि यात्रा कहां से प्रारम्भ
की जाय। वस्तुतः ये बाहरी यात्रा भर ही नहीं है । आमजन तो इन तीनों अलग-अलग स्थानों पर बने मन्दिरों की यात्रा
करके ही सन्तष्ु ट हो जाते हैं; किन्तु साधना के विचार से यह बाहरी त्रिकोण किसी आन्तरिक त्रिकोण-यात्रा का संकेत
है । इस एक त्रिकोण से ही आगे नौ त्रिकोण बनते हैं- पांच उर्ध्व और चार अधो- यही तो हमारे शरीर की स्थिति है ,और
ऐसा ही ब्रह्माण्ड की भी। इन नौ त्रिकोणों के सामरस्य को ही तो श्रीयन्त्र कहते हैं। हमारा शरीर एक चलता-फिरता
जागत
ृ श्रीयन्त्र ही तो है - परमात्मा का बनाया हुआ,जिसे हम काम और भोग का साधन भर माने बैठे हैं। ‘ कंचन और
कामिनी ’ से आगे कुछ सोच-समझ भी नहीं पाते। मजे की बात ये है कि आम आदमी सोचे भी तो कैसे! और ये जो
दे खने में आता है - कामिनी के प्रति आकर्षण- ये भी कोई आश्चर्य की बात थोड़े जो है । अभी-अभी मैंने कहा कि बिन्द ु
और त्रिकोण के अतिरिक्त है ही क्या। इसका ही प्रतीक या कहो प्रतिनिधत्व करता है नारीभग,जिसके पीछे दीवाना है
इन्सान। इस छायात्मक त्रिकोण से बाहर निकलने पर ही असली त्रिकोण की बात हो सकती है । चन्द्र तो ऊपर आकाश
में है ,और सरोवर के जल में उसकी परछाई पकड़े बैठे हैं हम,या कहो प्रतिलिपि को ही मूल माने बैठे हैं हम। त्रिकोण
और त्रिकोणों का महाजाल...यही तो विषय है तन्त्र का- समझे कि बस, मुक्त हो गये। किन्तु बड़े-बड़े साधक भी इन
विविध त्रिकोणों में अटक-भटक कर रह जाते हैं। आमजन के लिये तो भ्रम की काफी गंज
ु ायश है । अब जरा सोचो न
आजकल प्रायः घर घर में तांबे का बना श्रीयन्त्र लटका मिल जायेगा- इस ख्याल से कि लक्ष्मी की प्राप्ति होगी,जब कि
लक्ष्मी को इस श्रीयन्त्र से ‘कोईखास’ वास्ता नहीं है । यहां ‘श्री’ पद लक्ष्मी का बोधक नहीं,प्रत्युत राधा-यानी
त्रिपरु सन्
ु दरी का बोधक है । खैर, पहले बाहरी त्रिकोण की यात्रा करो , फिर भीतरी त्रिकोण को समझने का प्रयास
करना। और जब एक त्रिकोण को समझ जाओगे तो नौ त्रिकोणों को समझने में भी अधिक कठिनाई नहीं होगी। बच्चों
को पहले वर्णमाला का ज्ञान करना होता है ,फिर उसे वर्णों की व्यवस्था सिखायी जाती है - व्याकरण पढ़ाकर,और तब
कहीं जाकर वह मोटी-मोटी पोथियां पढ़कर समझने के काबिल बनता है । यहां भी बात कुछ वैसी ही है । ’- बाबा ने
गायत्री की ओर दे खते हुए कहा- ‘ तुम तो शाक्त साधक कुल की रही हो। क्या कभी इस पर चर्चा हुयी घर में पिता या
दादाजी द्वारा?’
‘ मैं जब से होश सम्हाली,दादाजी को हर महीने विन्ध्याचल की यात्रा करते दे खती थी। उनका शुक्लपक्ष प्रायः यहीं
गुजरता था- नवमी तक। दशमी या एकादशी को घर वापस आते थे; और पन
ु ः कृष्ण त्रयोदशी को ही निकल जाते थे-
यहाँ के लिए। क्या करते थे,कैसे करते थे- इस विषय पर कभी कुछ जानकारी न मिली। हां,बस इतना सुनती थी कि
त्रिकोणयात्रा जरुर करनी चाहिए। यह अपने आप में बहुत बड़ी तीर्थयात्रा है ।’- गायत्री का जवाब सुन बाबा जरा
मुस्कुराये।

‘ यही तो तरीका होता है बीज बोने का- उन्होंने घर-परिवार में बारम्बार चर्चा की। समय-असमय तुमने सुना-जाना।
यानी कि मिट्टी में बीज डाल दिया गया। परिवेश,और काल के संयोग से उसका प्रस्फुटन हो जायेगा। कहने-सोचने-
बोलने का यही तरीका था हमारे वुजुर्गों का। बच्चों में होश सम्भालने से पहले ही सारा कुछ डाल दे ते थे। डालने का
अंदाज(तरीका)भी अनोखा होता था- पिता, माता,दादा,दादी की गोद में बच्चा बैठता था, नियमित रुप से, सहज भाव
से। सामान्य तौर पर तो यही लगेगा कि बुजर्गों
ु का स्नेह है बच्चों के प्रति; किन्तु प्रबुद्ध रहस्यमय बुजुर्ग इसी अन्दाज
में कुछ के कुछ कर गुजरते थे। पुराणों में रानीसती मदालसा का प्रसंग प्रसिद्ध है । गन्धर्वराज विश्वावसु की कन्या का
विवाह राजा शत्रजि
ु त-पुत्र ऋतध्वज से हुया था। इनसे उत्पन्न तीन पुत्र- विक्रान्त,सुबाहु और शत्रम
ु र्दन को रानी
मदालसा ने विरक्त बना दिया था- सिर्फ लोरी सुना-सुना कर, और अन्त में सांसारिक जंजाल में जकड़े पिता ऋतध्वज
ने चौथे पत्र
ु को आग्रह पर्व
ू क सांसारिक बनाने का अनरु ोध किया,ताकि उनकी वंश-शाखा का उच्छे दन न होजाय।
दे खने में तो कुछ समझ नहीं आता किसी को कि वह कर क्या रही है ,किन्तु उसका एक खास अन्दाज था लोरी सुनाने
का नियमित तेल मालिस करने का, बालक को स्तनपान कराने का।’- कहते हुए बाबा अचानक रुक गये।

थोड़ी दे र गायत्री के चेहरे पर गौर किये। फिर उससे ही सवाल कर दिये- ‘ क्यों गायत्री ! तुम तो एक स्त्री हो,वो भी
साधक कुल-जन्मा। मेरी बातों को शायद आसानी से समझ पाओ। तुम्हें तुम्हारी माँ कैसे तेल मालिस की होगी यह तो
याद रहने का सवाल नहीं है ,किन्तु घर में मां,दादी,चाची,नानी किसी महिला को, किसी बच्चे को तेल मालिश करते
दे खी तो जरुर होवोगी,और फिर यह भी ध्यान होगा कि मालिश के बाद माँ उन्हें स्तनपान जरुर करा दे ती है ,यह कहते
हुए कि तेल भूल जायेगा। दध
ू पिला दे ने से याद रहे गा।’

बाबा की बात पर गायत्री बिहँसती हुयी बोली- ‘ हां उपेन्दरभैया ! खूब याद है । मैं प्रायः हर माँओं को ऐसा करते दे खती
हूँ,किन्तु इसका कोई खास कारण-रहस्य तो पता नहीं,और न इसे रहस्यमय जान, कभी प्रश्न ही उठा मन में ।’

सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ यही तो बात है - हमारे मन में प्रश्न उठते ही नहीं,फिर उत्तर की तलाश क्योंकर होगी?
आधनि
ु कायें तो इन सब बातों को और भी विसार चक
ु ी हैं,दकियानस
ू ी कहकर। डॉक्टर भी उन्हीं के मन मत
ु ाबिक राय
दे दें गे- बच्चों को तेल मत लगाओ,काजल मत लगाओ। और स्तनपान के प्रति तो ऐसी मूढ़ी अज्ञानता फैल गयी है कि
स्तनपान कराने से स्तन जल्दी ढीले हो जायेंगे। अब इन मूर्खाओं को फिर से जागरुक करने का काम करना पड़ रहा
है - जब विदे शी वैज्ञानिकों ने स्तनपान के रहस्य और महत्त्व पर प्रकाश डाला। हमारी तो आदत है न अपनी चीज को
विसार कर, परमुखापेक्षी बनने की।

गायत्री ने सवाल किये- ‘ आंखिर क्या रहस्य है भैया ! तेल मालिश और स्तनपान का क्या सम्बन्ध है ? ’

बाबा ने गायत्री को समझाया- ‘ तेल मालिश के समय माँयें अपने दोनों पैर सामने की ओर पसार दे ती हैं, और घुटने के
सहारे बच्चे के शिरोभाग को रखकर,यानी शेष शरीर मां की जांघों के इर्दगिर्द पड़ा होता है । उसी मात-ृ जघन-शैय्या पर
बालक का मर्दन होता है - नियमित- सब
ु ह-दोपहर,शाम,रात्रि...। मालिश के बाद माँ गोद में उठा लेती है ,बच्चे को और
प्रायः दे खती होगी कि पहले बायाँ स्तन दे ती है बच्चे के मुंह में ,और फिर दायाँ। बायें स्तनपान के समय माँ का बायाँ
हाथ बच्चे की गर्दन से गुजरते हुए उसके गुदामार्ग तक जाता है ,यानी की गुदामार्ग से कटि प्रदे श तक का भाग माता
की हथेली पर होता है । इधर मां का दाहिना हाथ बालक के सिर,ललाट, मख
ु ,छाती आदि पर बारम्बार अवरोह क्रम में
सरकते हुए नीचे बच्चे के शिश्न-प्रान्त तक आता है । थोड़ी दे र तक इस क्रिया के उपरान्त स्थिति बदल जाती है - बच्चा
दाहिने स्तन का पान करने लगता है ,और इस प्रकार माता का दाहिना हाथ बालक के कटि से पष्ृ ट-प्रदे शों तक गुजरता
है । किन्तु ध्यान रहे इस स्थिति में मां बच्चे को सिर्फ दल
ु ारती पच
ु कारती है ,बायाँ हाथ पर्व
ू की तरह ऊपर से नीचे
सरकाती नहीं है । चतुर और जानकार मातायें यही करती हैं।’

गायत्री ने पन
ु ः टोका- ‘ सो तो ठीक है । इसे मैं सैकड़ों बार दे ख चक
ु ी हूँ, रहस्य और कारण भले न ज्ञात हो। किन्तु इस
स्थिति से मदालसा की लोरी का क्या सम्बन्ध है ?’

‘ है ; सम्बन्ध है ,और बहुत ही गहरा सम्बनध है ।’- बाबा दृढ़ता पूर्वक अपनी तर्जनी हिलाते हुए बोले- ‘ यौगिककाय-
रहस्य को समझोगी तो सब भेद खुल जायेगा। मदालसा नित्य स्तनपान के समय कुछ विशेष वर्ण-योजनाओं का
प्रयोग करती थी- शुद्धोसि, बुद्धोसि....अध्यात्म की सारी गुत्थियां,और जीवन का रहस्य खोल दे ती थी शिशु- स्तनपान
के क्रम में । अभी-अभी जो मैंने ध्यान दिलाया तुम्हें माता ही हस्त-मुद्रा और भंगिमाओं का,वह एक विशिष्ट विधि है
जीवात्मा तक संदेश पहुँचाने की। सीधी भाषा में कहूँ तो कह सकता हूँ कि अचेतन मन तक संदेश पहुँचाने की इससे
अच्छी कोई और विधि हो ही नहीं सकती। कोई दक्ष गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रख कर,या कि ललाट पर अंगठ
ू ा रख
कर,उसे उपदे शित करता है न ? माता से बढ़िया और महान गरु
ु , और कौन हो सकता है जगत में ? अन्य गरु
ु को तो
शिष्य के कैशोर्य और युवत्व की प्रतीक्षा करनी पड़ती है ,पर माता,उसे तो ‘नाल’ से सम्बन्ध होता है ,और एक औरत
होने के नाते तुम अच्छी तरह जानती होवोगी कि माता,गर्भस्थ शिशु और नाल का क्या रिस्ता है । आजकल वैज्ञानिकों
को इसके रहस्य का कुछ संकेत मिल गया है । तम
ु ने सन
ु ा होगा- जन्म के बाद बच्चे के नाल का छे दन करके फेंक
दिया जाता था, पुरईन (प्लेसेन्टा)के साथ। किन्तु अब उसका संरक्षण किया जा रहा है - लाखों खर्च करके– ‘प्लेसेन्टा-
बैंकों’ में । इस रहस्य पर बातें और भी लम्बी हो जायेगी। इस पर फिर कभी चर्चा करें गे। अभी तो तुम मदालसा-रहस्य
को ही समझो। बच्चे के गद
ु ामार्ग से लेकर सिर पर्यन्त माता की सरकती हथेली,और उच्चरित विशिष्ट स्वर-
लहरी(rethmic sound web) सीधे शिशु में सूचना का संचार ही नहीं, स्थापन कर दे ता है , जिसके परिणाम स्वरुप
बालक होश सम्भालते ही सांसारिक जंजालों में अनुरक्त हुये बिना ही सीधे साधना-लोक में पदार्पण कर दे ता है । फिर
उसे किसी बाहरी गुरु की खास आवश्यकता भी नहीं रह जाती- ठीक वैसे ही जैसे जेनरे टर स्टार्ट हो जाने के बाद,
निर्बाध चलते रहता है ,जब तक उसकी क्षमता होती है ,या कि पुनः सायास बन्द न किया जाय। मदालसा ने यही किया
अपने सभी पुत्रों के साथ,और इस व्याज से उसने संसार की अन्य माताओं को भी संदेश दे दिया। वस्तुतः यह स्तोत्र
नहीं है , फिर भी इसे स्तोत्र कहने में कोई आपत्ति भी नहीं है मझ
ु ।े मदालसा का यह दिव्य संदेश भी बहुत ही गन
ु ने
योग्य है । मार्क ण्डेय पुराण २६/११ से ४१ तक इस प्रसंग का विशद वर्णन है । प्रारम्भ के श्लोकों में निवत्ति
ृ मार्ग का
दिशानिर्देश है , और अन्त में प्रवत्ति
ृ मार्ग का भी संकेत है । प्रवत्ति
ृ और निवत्ति
ृ के बीच के भी, किं चित उपचार सुझाये
गये हैं। पति के आग्रह से प्रवत्ति
ृ -मार्ग-गामी पत्र
ु के लिए भी भैषज्यात्मक(औषधि निमित्त)सत्र
ू है । पहले इसी की
बानगी दे खो- संगः सर्वात्मना त्याज्यः सचेत्यक्तुं न शक्यते । ससद्भिः सकर्त्तव्यः सतां संगो हि भेषजम ् ।। कामः
सर्वात्माना हे यो हातुं चेच्छक्यते न सः। मुमुक्षां प्रति तत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम ् ।। - माता मदालसा कहती है - हे
पत्र
ु ! सर्वविध संग का परित्याग करना। और यदि इसमें शक्य न होवो,तो सत का संग(सत्संग) करना,यही इसका
औषध है । पन
ु ः कहती है - सर्वविध काम का त्याग करना,और यदि इसमें शक्य न होवो,तो मुमुक्षु (मोक्षार्थी) होने की
कामना करना। यही इसकी औषधि है । ’

मैंने संशयात्मक स्वर में कहा- ये तो बड़ा ही अजीब है ,रानी मदालसा का उपदे श- संग और कामना के त्याग की बात
करके,फिर सत्संग और मोक्षाकांक्षा की कामना को ग्रहण करने को कहा जा रहा है ।

बाबा ने स्वीकारात्मक सिर हिलाते हुए कहा- ‘ हां,अजीब तो जरुर है । हर प्रकार के संग को त्यागने की बात की जारही
है ,किन्तु ध्यान दे ने की बात है कि न त्यागा जा सके,वैसी स्थिति में सत का संग यानी सत्संग करे । कामना का
परिणाम होता है बन्धन,अतः इसका भी परित्याग करना चाहिए। यदि न सम्भव हो तो, यानी कामना किये वगैर हम
रह ही नहीं सकते,तो ध्यान रहे कि मोक्ष की कामना करे । वस्तुतः संतों ने तो इसकी भी कामना नहीं की है - स्वर्ग और
मोक्ष का भी परित्याग करने वाले एक से एक संत हुए हैं। आद्यशंकर ने तो भगवती की प्रार्थना में कहा ही है - न
मोक्षस्याकांक्षा भवविवांछापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमखि
ु सख
ु ेच्छापि न पन
ु ः...। चँकि
ू शंकराचार्य यहां
भक्तिमार्गी की भूमिका में हैं,अतः दे वीमुखारविन्द की लालसा कर रहे हैं। इसके सामने मोक्ष को भी तुच्छ कह रहे हैं।
भक्त हमेशा द्वैत में ही रहना पसन्द करता है - आराध्य और आराधक का द्वैत। उसे मोक्ष वाली शून्यता की कामना
भी नहीं रहती। खैर, अभी यहां मदालसा द्वारा गायी जाने वाली लोरी के मल
ू श्लोकों को हृदयंगम करो,फिर इस पर
विशेष चिन्तन करना । निवत्ति
ृ मार्ग पर लेजाने हे तु,मदालसा मात्र छः श्लोकों को लोरी के रुप में अपने बालकों को
सुनाती थी। शर्त ये रहता था कि बालक का अन्नप्राशन न हुआ हो, यानी कि उसकी अवस्था अधिकतम छः माह की ही
रहती थी। इस बीच ही वह निवत्ति
ृ मार्ग का बीजारोपण कर दिया करती थी। मल
ू श्लोक के पद-लालित्य पर जरा गौर
करो- शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव । पञ्चात्मकं दे हमिदं न तेऽस्ति नैवास्य तं रोदिषि
कस्य हे तोः।।१।। न वा भवान ् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोऽयमासद्य महीशसूनुम ्। विकल्प्यमाना विविधा
गुणास्तेऽगुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु।।२।। भूतानि भूतैः परिदर्ब
ु लानि वद्धि
ृ ं समायान्ति यथेह पुंसः। अन्नाम्बु
दानादिभिरे व कस्य न तेऽस्ति वद्धि
ृ र्न च तेऽस्ति हानिः।।३।। त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेऽस्मिंस्तास्मिंश्च दे हे मूढतां
मा व्रजेथाः । शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेतन्मदादिमूढैः कञ्चुकस्ते पिनद्धः।।४।। तातेति किञ्चित ् तनयेति
किञ्चिदम्बेति किञ्चिद्दयितेति किञ्चित ् । ममेति किञ्चिन्न ममेति किञ्चित ् त्वं भूतसङ्घम ् बहु मानयेथाः।।५।।
दःु खानि दःु खोपगमाय भोगान ् सख
ु ाय जानाति विमढ
ू चेताः । तान्येव दःु खानि पन
ु ः सख
ु ानि जानाति विद्वान ्
विमूढचेताः।।६।। ’’

गायत्री सिर हिलाते हुए हामी भरी-‘ हाँ भैया ! सती मदालसा ने तो संदेश दे दिया, सारे गुर सिखा दिये; किन्तु आज
तो बच्चे का लालन-पालन ‘आयाएँ’ करती हैं, ‘माय’ की जगह ‘धाय’ ले ली है । अब मात-ृ गुरु-गरिमा का लाभ कहां से,
कैसे मिल पायेगा? न बच्चे की मालिश हो रही है ,और न लोरी और थपकी,और न पिता,दादा,दादी का गोद ही मयस्सर
है । आज का अभागा वच्चा होश सम्हालता है वोर्डिंग और प्लेस्कूलों में ।’

बाबा ने स्वीकृति मद्र


ु ा में सिर हिलाते हुए कहा- ‘ हाँ बिलकुल सही समझा तम
ु ने। माता की मद
ृ ल
ु हथेली का स्पर्श,तथा
पिता दादा आदि के द्वारा भी उसी भांति उसके शरीर के प्रधान स्थानों का निरं तर स्पर्श होते रहता था। उस बीच में जो
आपसी संवाद होते थे,वो बहुत ही गहरे अर्थ रखते थे- चाहे वो कथाओं के माध्यम से हो या किसी और तरीके से।
गोद,संगति और सानिध्य का भी बड़ा महत्त्व है । मगर दर्भा
ु ग्य ये है कि आज के बच्चों को माता-पिता का ही गोद
भरपूर नहीं मिल पाता,फिर दादा-दादी तो दरू की चीज हैं। आज तो उनका स्थान वद्ध
ृ ाश्रम में होता है ,और बच्चों का
स्थान आवासीय विद्यालयों में । आज की पीढी ‘कॉन्वेन्टी’ होकर गौरवान्वित हो रही है ,और पैरेन्ट्स भी फूले नहीं
समाते - समझते हैं कि हमने अपने बच्चे को उचित शिक्षा दी है - अंग्रेजी स्कूल में भेज कर विज्ञान और तकनीक
सिखाया है । पर खाक दिये हैं शिक्षा ! जड़ का पता नहीं, पत्तियां और तने सींचे जा रहे हैं,पौधा तो सूखेगा ही । योग-
साधना की ‘एनाटोमी’ पढ़ोगे, मानव शरीर का ‘ज्योग्राफी’ जानोगे, तभी ये रहस्यमय बातें समझ में आयेंगी,अन्यथा
व्यर्थ बकवास सी लगें गी। भारत की शिक्षा-पद्धति, ज्ञान के स्थानान्तरण का विज्ञान बड़ा ही अद्भत
ु रहा है । बीज बोया
कैसे जाता है ,यह भी पता नहीं होता आज के जाहिल किसान को। हम सब किसान ही तो हैं। हर बीज में वक्ष
ृ बनने की
संभावना बनी हुयी है ,बस बोने का तरीका,और परिवेश और काल (समय)का सही ज्ञान होना चाहिए। ’

किन्तु अधिकांश बीज नष्ट भी तो हो जाते हैं महाराज, यदि सही ढं ग से बोया नहीं गया,और आगे उसकी निगरानी
नहीं की गयी?

‘तुम तो अंग्रेजी खां हो।’- मेरी ओर हाथ का इशारा करते हुए बाबा ने कहा- ‘ अंग्रेजी में एक कहानी है न- ‘ द पैरेबल
ऑफ सोअर ’ क्या सच में यह किसी किसान की कहानी है ? कथाकार ने इस कहानी के जरिये मानव जीवन के बहुत
बड़े रहस्य की ओर इशारा किया है । गौर करने की बात है - यह स्टोरी नहीं, ‘ पैरेबल ’ है । पैरेबल और स्टोरी का फर्क तो
पता है न, या ये भी हमें ही बतलाना पड़ेगा? ”- बाबा ने मेरी ओर दे खकर सवाल किया।

राष्ट्र की वर्तमान स्थिति और सोच पर गौर करते हुए,मैं जरा शर्मिन्दगी महसूस करते हुये कहा – जी पता है ,पैरेबल
और स्टोरी का अन्तर,और ये भी पता है कि कहानीकार ने क्या कहना चाहा है इस छोटी-सी कहानी में ।

बातों की धुन में ,विन्ध्यवासिनी मन्दिर के सभामण्डप के बाहर पहुँच,सीढियों के पास ही ठहर गये थे हमलोग । बाबा
का यह प्रसंग परू ा हुआ तो गायत्री ने टोका- ‘ अब अन्दर भी चलोगे भैया या कि यहीं खड़े पैरेबल सन
ु ाते रहोगे ? तम
ु से
करने के लिए मेरे पास भी बहुत से सवाल हैं,किन्तु समय के इन्तजार में हूँ। इधर से घूम-घाम कर स्थिर बैठूँ, फिर
बातें छे ड़ूँ। ’

गायत्री के कहने पर,मैं पास की दक


ु ान से प्रसाद वगैरह ले आया एक छोटी-सी डलिया में , और दर्शनार्थियों की
कतार में लग गया। काफी लम्बी लाईन लगी थी,लगता है दनि
ु या में सिर्फ भक्त ही भक्त हैं। कई पुजारी भी इधर-इधर
मटक-भटक रहे थे। पुजारियों में एक, मेरे पास आकर धीरे से फुसफुसाया- ‘ शाम तक लाईन में खड़े रह जाओगे। कुछ
जेब ढीला करो,मैं मिन्टों में दर्शन कराता हूँ।’ मैं उसकी बात सुन अवाक् रह गया। दे वी का दर्शन करने के लिए भी जेब
ढीला करने की बात हो रही है ।

बाबा तो यहाँ के परिस्थिति से परू े वाकिफ थे। उस पुजारी को इशारे से बुलाकर बोले- ‘ जानते हो,किसे जेब ढीला करने
बोल रहे हो ? कल के अखवार में तम्
ु हारे फोटो के साथ छपेगा कि तम
ु ने रिश्वत मांगी एक अखवारी बाबू से।’

बाबा की बात सुनते ही पुजारी सख्ते में आ गया। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। गायत्री ने कहा- ‘ क्या जरुरत थी
भैया, यहां परिचय दे ने की, दे खती, अभी कुछ दे र और यहां का तमाशा। ऐसे लोग ही पवित्र स्थानों को बदनाम करते हैं
। सिपाही तो है ही बदनाम घुसखोरी के लिए,ये पुजारी बन कर लोगों को ठग रहा है । वही सोच रही थी कि इतनी दे र से
लाइन जरा भी आगे क्यों नहीं बढ़ी है । ’

डरे हुए उस पुजारी ने विनम्रता पूर्वक मुझे और गायत्री को लेकर बगल के रास्ते में प्रवेश किया। सभामंडप से सटे ही
एक संकरी गली जैसी थी,जिससे होकर गुप्त रास्ते से सीधे अन्दर गर्भगह
ृ में पहुँचा दिया हमदोनों को। गायत्री ने
माथा टे का, और फूलमाला-प्रसाद वाली डलिया मुख्य पुजारी को दे ते हुए,सौ का एक नोट भी दक्षिणा स्वरुप अर्पित
किया। थोड़ी ही दे र में हमलोग आराम से दर्शन करके बाहर आगये,उसी रास्ते से। सोच रखा था- यह नौकरी पाने के
बाद,पहली बार यहाँ आया हूँ। कुछ विशेष दान-दक्षिणा अर्पित करुँ गा दे वी के निमित्त; किन्तु ‘‘प्रथम चम्
ु बने नासिका
भंगम ् ’ वाली बात हो गयी,मन भिन्ना गया। अश्रद्धा हो आयी तीर्थस्थल की दर्ग
ु ति दे खकर। यह कार्य भी पुरोधाओं
द्वारा ही हो रहा है ,जो कि और भी चिन्ताजनक है ।
गतांश से आगे...भाग चौदह

अभी तक,बाबा बाहर ही एक स्तम्भ के पास खड़े, कुछ मन्त्र बुदबुदा रहे थे। मैंने गौर किया- उनकी अंगुलियों की मुद्रा
कुछ अजीब सी थी- न प्रणाम की न आशीष की,न वरद,न अभय। मैंने धीरे से इशारा किया गायत्री को भी दे खने के
लिए। उसने बताया- ‘ ये योनिमुद्रा है ,प्रार्थना की एक विशिष्ट मुद्रा। ’ पता नहीं उसे कैसे ज्ञात है - साधना की ऐसी
मुद्राओं के वारे में । अनुकूल अवसर न दे ख,इस पर कोई सवाल करना उचित न लगा मुझे।

हमलोगों के पहुँचने के थोड़ी दे र बाद बाबा ने आँखें खोली- ‘ कर लिए दर्शन? चला जाय अब ?’

‘जी।’- संक्षिप्त- सा उत्तर दिया मैंने,और चल पड़े वापस,पन


ु ः सीढियाँ उतर कर।

बाहर आकर,मन्दिर से पश्चिम का रास्ता पकड़े,जो सीधे कालीखोह की ओर जाती थी। रास्ते में जगह-जगह
छोटे -बड़े कई मन्दिर मिले। जाना चाहें या नहीं,बाहर में ही पंडा-पंडित-टीकाधारी खड़े आहूत कर रहे थे, चिल्ला
चिल्लाकर- ‘ आओ जी इधर भी दर्शन करो....दक्षिणा चढ़ाओ।’ मेरा मन इन सबको दे खकर और भी खिन्न होने लगा।
धर्म की सजी-धजी दक
ु ानें...ढोंगी पंडा-परु ोहित...जिनका संस्कार हीन चेहरा... ब्रह्मणत्त्व का नामोंनिशान नहीं...क्या
यही हमारी तीर्थ-स्थली है ? तीर्थों में तो प्रेम,सद्भाव,शान्ति का वातावरण होना चाहिए,जहाँ आकर खिन्न चित्त भी
प्रसन्न हो जाय; किन्तु यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है - प्रसन्न चित्त भी खिन्न हो गया। शान्ति नाम की कोई चीज
नहीं,चारों ओर मार-काट जैसा कोलाहल है - श्रद्धालओ
ु ं का पॉकेट काटने का होड़ मचा है ,ठगी की प्रतिद्वन्द्विता हो रही
है । चाह कर भी किसी कोने में बैठकर एकान्त ध्यान लगाना मश्किल है । चारों ओर सड़े-गले फूल-मालाओं का अम्बार
लगा है - नगरनिगम के ‘डम्पिंगप्वॉयन्ट’ की तरह । दर्ग
ु न्ध का भभाका नथन
ु ों को बेचैन किये है । सुबह स्नान करते
समय भी ऐसी ही परे शानी हुयी थी- गंगा के घाटों की दर्ग
ु ति दे ख कर- गंगा की पवित्र रे ती पर केवल मल ही मल नजर
आ रहे थे,कहीं ईंच भर भी स्थान नहीं,जहाँ कायदे से खड़ा हुआ जा सके। कहीं कोई ढं ग की व्यवस्था नहीं। लाचार या
कहें आदतन लोग- पुरुष तो पुरुष, स्त्रियां भी धड़ल्ले से यहाँ-वहाँ सिकुड़ी, उकड़ू बैठी नजर आरही थी। यदि आप में
थोड़ी लाजोहया है ,तो खुद की नज़रें नीची कर लें ,या बेश़र्मों की तरह नज़र मिलाते निकल जायें। गायत्री के हाथ में
कपड़े थमा,उतरना पड़ा जल में ,और किसी तरह दो डुबकी लगाकर,जल्दी ही बाहर आ गया था। फिर यही करना पड़ा
गायत्री को भी। महिलाओं के लिए तो और भी समस्या- न सुरक्षित घाट,न कोई व्यवस्था। चारों ओर घूरती आँखें-
मानों जीवन में पहली बार कोई औरत पर नज़र पड़ी हो...।

बाबा की टोक पर विचार-तन्तु टूटा- ‘ क्या सोच रहे हो अखबारी बाबू? तुम बकर-बकर करने वाले ठहरे ,इतनी चुप्पी
क्यों साध लिए अचानक?’
‘ जी,यूं ही...कभी-कभी मौन सध जाता है ,कुछ सोचने पर विवश हो जाता हूँ।’- मेरी बात काटते हुए बाबा ने कहा- ‘ इसे
मौन नहीं कहते,यह तो चुप्पी है । मौन और चुप्पी में बहुत अन्तर होता है । मौन भीतर से उपजता है ,प्रस्फुटित होता
है ,खिलता है - फूलों की तरह,आभ्यन्तर आनन्द विखेरता है । चुप्पी बाहर से ओढ़ी और लपेटी जाती है । मौन में नीरव
शान्ति होती है ,चुप्पी में विचारों का बवन्डर होता है ।’

‘ आज सुबह से ही थोड़ी खिन्नता चल रही है ,गंगा की दर्दु शा पर सोच रहा था। यहाँ मन्दिर में आकर तो और भी
अशान्त हो गया। ’- मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

बाबा मुस्कुराये- ‘ गंगा के बारे में क्यों चिन्ता करते हो ? कितने दिन और रोक रखोगे गंगा को यहाँ ? ’

‘ मतलब? ’- बाबा की पहे ली बझ


ू न पाया।

‘ जो गंगा हैं तम्


ु हारी आस्था,कल्पना और जानकारी में , वो तो कब की जा चक
ु ी हैं पथ्
ृ वी त्याग कर। अब तो पानी की
धार भर रह गयी है ,वो भी शनैः-शनैः लुप्त होती जा रही है । कुछ दिनों में पाओगे कि ये धारा भी गायब हो जायेगी।गंगा
भी अन्तःसलिला सरस्वती और फल्गु बन जायेगी।’

‘मैं कुछ समझा नहीं। क्या ये गंगा नहीं हैं ? ’

‘नहीं, गंगा नहीं है ...गंगा की निस्प्राण काया है ये । प्राण निकल जाने के बाद शरीर की जो स्थिति होती है ,वही स्थिति
आज इस गंगा की है । तुम्हें पता होना चाहिए कि यह कलियुग का काल है ,जिसका ५११६ वर्ष व्यतीत हो चुका है इस
विक्रमी संवत ् २०७२ यानी २०१५ ई.सन ् तक। ब्रह्मवैवर्तपरु ाण प्रकृतिखंड के छठे और सातवें अध्याय में कलिवर्णन
का विस्तत
ृ प्रसंग है । ये प्रसंग अन्यान्य पुराणों में भी किं चित भेद सहित मिल जाता है । भगवान विष्णु ने प्रतिज्ञा
पूर्वक वचन दिया है अपनी प्रियाओं- तुलसी,लक्ष्मी,सरस्वती,और गंगा को कि कलिकाल के पांच हजार वर्ष व्यतीत
होते ही मैं तुम सबको वापस अपने धाम बुला लँ ग
ू ा- कलेः पञ्चसहस्रे च गते वर्षे च मोक्षणम ् । युष्माकं सरितां भूयो
मद् गह
ृ े चागमिष्यथ ।। इसी प्रसंग में पन
ु ः कहा गया है - कलेः पञ्चसहस्रं च वर्षं स्थित्वा च भारते । जग्मुस्ताश्च
सरिद्रप
ू ं विहाय श्रीहरिः पदम ् ।। यानि सर्वाणि तीर्थानि काशी वन्ृ दावनं विना । यास्यन्ति सार्द्धं तामिश्च
हरे र्वैकुण्ठमाज्ञया ।। शालग्रामो हरे र्मूर्तिर्जगन्नाथश्च भारतम ् । कलेर्द शसहस्रान्ते ययौ तक्त्वा हरे ः पदम ् ।।
वैष्णवाश्च परु ाणानि शंखाश्च श्राद्धतर्पणम ् । वेदोक्तानि च कर्माणि यय
ु स्
ु तैः सार्द्धमेव च ।। भगवान विष्णु कहते हैं कि
कलियुग में पांच हजार वर्षों तक हरि को छोड़कर,सरिता रुप में रहने के पश्चात ् पन
ु ः हरिपद को प्राप्त करोगी,यानी
वापस वैकुण्ठ-धाम को चली जाओगी। काशी और वन्ृ दावन के अतिरिक्त अन्य सारे तीर्थ भी श्रीहीन हो जायेंगे।
शालग्राम-शिला, जगन्नाथ-मर्ति
ू ,शंख,श्राद्धादि कर्म भी कलि के दश हजार वर्ष व्यतीत होते-होते त्याग दें गे इस पथ्
ृ वी
को क्यों कि कलि का घोर शासन आ जायेगा।
‘...कथा-प्रसंग है कि एक बार लक्ष्मी, सरस्वती,गंगा,तुलसी आदि परस्पर विवाद कर बैठी,और एक-दस
ू रे को शाप दे
दी- सरिता बनने का। दयावान प्रभु को उनके शाप की मर्यादा भी रखनी थी,और लोककल्याण भी करना था, सो किया
उन्होंने, क्यों कि प्रभु की प्रत्येक लीला का मूल उद्देश्य ही होता है लोककल्याण। इसी कल्याणकारी उद्देश्य से भागीरथी
गंगा का अवतरण हुआ पथ्
ृ वी पर। राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के साथ-साथ अन्यान्य प्राणियों का भी
उद्धार हुआ। ये सुविधा पथ्
ृ वी-वासियों को मात्र पांच हजार वर्षों के लिए ही मिली थी,जो कि अब समाप्त हो चुकी है ।
परस्पर के शाप से मक्
ु त होकर ये सभी जा चक
ु ी हैं अपने दिव्य धाम को । आज न असली तल
ु सी है ,न गंगा,न पद्मा,न
सरस्वती। दे खते हो तुलसी में कीड़े लग रहे हैं। महाकिटाणुनाशक तुलसी और स्वयं कीट-युक्त- कुछ बेतुका नहीं लग
रहा है दे ख कर? कलि-प्रभाव ने हमारी बुद्धि को मलिन और भ्रष्ट कर दिया है । धर्म,लोक-लाज सब छोड़कर,सारी
गंदगी गंगा,और अन्य नदियों में प्रवाहित किये जा रहे हैं। पतित-पावनी पवित्र गंगा अपवित्र हो चक
ु ी हैं पापियों के
पाप धोते-धोते । शाप से दखि
ु त गंगा जब भावी दःु ख की बात की थी कि पापियों का पाप धोना पड़ेगा,तब कृपासिन्धु
विष्णु ने कहा था कि उनके भक्त भी रहते हैं पथ्
ृ वी पर। वे भी तो स्नान करें गे गंगा में । किसी एक भक्त के स्नान से
जो पण्
ु य मिलेगा,उससे हजार पापियों के पाप का प्रभाव धल
ु जायेगा।किन्तु सच पछ
ू ो तो अब वैसे पण्
ु यात्मा रहे ही
कितने हैं ! पुण्यात्माओं की तुलना में पापियों की संख्या कई गुना अधिक हो गयी है - कलौ तु पाप बाहुल्यं....फलतः
सारा गणित गडमड हो गया है । विज्ञान भी मानता है ,जल में मल या किसी अन्य वस्तु की घुलनशीलता की एक खास
सीमा होती है ,वो अब पार कर चक
ु ी है । पार करनी ही है । एक गिलास पानी में बोरी भर शक्कर घोल पाओगे– सोचो
जरा! आज,अपने ग्रन्थों को त्याग कर,विसार कर म्लेच्छों का शास्त्र पढ़ने में रुचि अधिक हो गयी है – म्लेच्छशास्त्रं
पठिष्यन्ति स्वशास्त्राणि विहाय ते...(प्रकृतिखंड ७-२५)। यीशु का अनुयायी अंग्रेजी जानता है ,पैगम्बर का अनुयायी
भी अरबी-उर्दु-फ़ारसी जानता है , पर क्या तुम संस्कृत जानते हो ? नहीं न। पढ़ना तो दरू रहे ,कितने हिन्द ु हैं जो वेद दे खे
हैं, पुराण दे खे हैं,अपना धर्मशास्त्र और उपनिषद का ज्ञान रखते हैं ? अंगुलियों पर भी गिनने चलोगे तो फेरे में पड़
जाओगे । खैर चलो,अभी तो कालीखोह चल रहे हो न । वो दे खो कालीवाड़ी का कलश दीख रहा है ।अब हमलोग पहुँचने
ही वाले हैं ।’

मैंने धीरे से कहा- ‘ जी। ’

मेरी आवाज की दर्ब


ु लता पर बाबा ताड़ गये- ‘ लगता है तुमलोग थक गये हो। अच्छा चलो,अब ज्यादा दरू नहीं है । वहीं
चल कर थोड़ा विश्राम कर लेना । मन हो तो कुछ फलाहार भी ले लेना । मीठा-नमकीन हर तरह का फलाहारी सामान
वहां उपलब्ध है । और जगहों की तरह यहां तेल-वेल का प्रयोग नहीं होता, शद्ध
ु घी के सारे सामान मिल जायेंगे।’

कहने को तो कलश दीख गया,पर वहाँ पहुँचने में काफी दे र लगा। गायत्री वाकयी थक चुकी थी। थक तो मैं भी गया
था। आज तो सुबह वाली चाय भी नहीं मिली है । किन्तु बाबा बमबम थे। उन्हें क्या परवाह- न चाय की,न कुछ और
खाने-पीने की।
बाबा का संकेतात्मक आदे श मिल ही चुका था। मन्दिर के पास पहुँचते ही, मैंने गायत्री को इशारा किया,किन्तु बाबा
की दल
ु ारी मेरा पोल खोलने पर तुली थी।

‘ मैं जानती हूँ कि तुम्हें चाय के लिए बैचैनी हो रही है ,तो पीते क्यों नहीं, यहाँ रोक कौन रहा है ? ’-कहती हुयी
गायत्री पास के एक दक
ु ान की ओर मड़
ु ी,और मेरे हां-ना के जवाब के पहले ही ऑडर कर दी दो चाय के लिए।

मैंने बाबा की ओर दे खते हुए कहा- ‘ दे खा न महाराज आपने,अपनी लाडली बहन का करिश्मा ? चाय की तलब इसे हो
रही थी,और बदनामी का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ डाली।’

‘ कोई बात नहीं,क्या फर्क पड़ता है ,ठीकरा तम्


ु हारे सिर फूटे या कि गायत्री के । अच्छा, तो तम
ु लोग चाय-वाय पीओ,तब
तक मैं अपना एक काम निपटा लँ ू ।’-कहते हुए बाबा मन्दिर के पास ही एक ढोंके की आड़ में मुड़ गये। उन्हें जाते
हुए,मैंने गौर किया- कुछ चट्टाने अजीब ढं ग से आपस में जुड़ कर छोटी सी गुफा का सज
ृ न कर रही थी,जिसे गुफा
कम,सुरंग का मुहाना कहना अधिक सही होगा। पास ही अप्रत्याशित, कदम्ब का एक वक्ष
ृ भी था, काफी परु ाना सा।
आम तौर पर कदम्ब का वक्ष
ृ ऐसी जगहों पर पाया नहीं जाता। उसके लिए यहाँ की भूमि कदापि अनुकूल नहीं है ,किन्तु
प्रकृति की लीला,प्रभु की लीला का ही तो प्राक्कटन है ।

चायवाले ने दो गिलासों में पानी रखते हुए पूछा,साथ में कुछ और लेने की बात और बिना कुछ कहे ही रटे -रटाये तोते
की तरह सामानों का फ़ेहरिस्त सुना गया। लम्बी सूची में उसने क्या-क्या बतलाया ये तो कहना मुश्किल है , पर उसका
अन्तिम शब्द याद रहा- ‘ सिंघाड़े की पकौड़ी-खालिस घी में ,सेन्धा नमक वाला...।’ सिंघाड़े की पकौड़ी मझ
ु े अति प्रिय है
। अतः उसके अन्तिम बात पर हामी भर दिया। गायत्री जब कभी व्रत करती है ,सिंघाड़े का प्रयोग जरूर करती है ,और
उसके व्रत के बहाने हमें भी सुस्वाद ु फलाहार का लाभ तो हो ही जाता है । व्रत-उपवास मुझसे कभी होता नहीं,और न
इसमें हमारी विशेष आस्था ही है । हां,गायत्री को व्रत करने से मना भी नहीं करता। हँसी-हँसी में वह अकसर कहा
करती है - ‘ मेरे व्रत का चवन्नी भर फल तो तुम्हें मुफ्त में ही मिल जाता है ,फिर क्या जरूरत..।’ सुनते हैं कि पति के
पुण्य का आधा फल पत्नी को स्वतः ही मिल जाता है ,और पाप का कुछ भी हिस्सा उसे नहीं मिलता। ठीक इसके
विपरीत पत्नी के पुण्य का चतुर्थांश पति को स्वतः मिल जाता है ,और पाप का दशमांश भी भोगना पड़ता है । किन्तु
मझ
ु े आज तक ये न्याय व्यवस्था समझ नहीं आयी ।

ताजे पतों से बने, बड़े से दो दोनों में सिंघाड़े की गरमागरम पकौड़ियां सामने हाजिर हो गयी। हमदोनों वहीं पत्थर की
बनी लम्बी सी बेंचनुमा चट्टान पर बैठ कर पकौड़ियों का आनन्द लेने लगे। दोना का आकार पर्याप्त था,और सामग्री
भी तदनुसार ही। पकौड़ियां खाकर पूरी तप्ति
ृ मिली । चाय भी वैसी ही- शुद्ध दध
ू की, पानी का नामोनिशान
नहीं,इलाइची,अदरख वाली। महानगरीय फाइवस्टार होटलों में भी ऐसी कड़क चाय कहां नसीब होती है ,पर वहाँ तो
लोग पैसा पीने जाते हैं,चाय तो अन्यत्र भी मिल जाती है ।
जलपानादि से निवत
ृ होकर,बाबा का इन्तजार करने लगे, और घंटे भर

गुजर गये। अन्त में लाचार होकर उधर दे खने जाना पड़ा,क्या बात है ,अभी तक

लौटे क्यों नहीं।

कदम्ब के मोटे तने से सरु ं ग का अधिकांश ढका हुआ था। रही सही कसर आसपास उगी झाड़ियाँ परू ा कर रही थी।
बिलकुल समीप जाने पर भी कुछ पता नहीं चल पाता था। वक्ष
ृ के पास जाकर टोह लेने लगा- भीतर की आहटों
का,किन्तु कुछ ज्ञात न हो पाया। लाचार होकर,कटीली झाड़ियों को टे ढ़ाकर,भीतर झाँकने का प्रयास किया। अनुमान
था कि अन्दर अन्धेरा होगा,या रौशनी की कमी तो अवश्य होगी,किन्तु ये दोनों अन्दाज गलत निकले ।

गुफा का सिर्फ मँुह ही छोटा था,इतना छोटा कि सहज ही कोई आदमी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता। दब
ु ला-पतला
आदमी भी बहुत प्रयास करने पर दे ह सिकोड़ कर घस
ु सकता था,बशर्तें कि फँसने का डर उसे न हो। झाड़ियों को एक
ओर हटा कर,मुहाने में सिर डाल कर भीतर झाँका- हल्की,किन्तु प्रखर, नीली रौशनी से एक छोटा सा कक्षनुमा स्थान
आप्लावित था,जिसमें एक साथ चार-छः लोग आसानी से बैठ सकते थे । प्रकाश के स्रोत की ओर मँह
ु किये,पद्मासन
लगाये बाबा बैठे नजर आये । उनकी पीठ से प्रकाश का स्रोत बिलकुल ढका हुआ था, फलतः जान न पाया कि प्रकाश
कहाँ से,कैसे निकल रहा है । किन्तु इतना तो तय है कि ये बिजली की रौशनी नहीं हो सकती,दिए की तो है ही नहीं ।
अवश्य ही कुछ चमत्कारी तत्व है यहाँ। कुछ दे र यूँ ही गर्दन लगाये,दे खता रहा। गायत्री पीछे , झाड़ियाँ चांपे खड़ी पूछ
रही थी- ‘ क्या है अन्दर ? ’ किन्तु उसकी बातों का जवाब, बाहर सिर निकाले वगैर असम्भव था,फलतः हाथों से ही
इशारा किया,चुप रहने के लिए।

कुछ दे र भीतर का निरीक्षण करने के बाद,सिर बाहर निकाला,और झाड़ियों को पकड़ कर,गायत्री को अन्दर झाँकने का
इशारा किया । मेरे कहने पर गायत्री ने वैसे ही अपना सिर डाला मुहाने के भीतर,किन्तु तभी बाबा की धीमी- सी
आवाज सुनाई पड़ी- ‘ अच्छा ! तो, तुमलोग यहाँ तक आ ही पहुँचे, मुझे तलाशते ? आ गये ,तो आ ही जाओ भीतर।
बाहर क्यों खड़ी हो ?’

गायत्री ने बाहर गर्दन निकाल कर,मुझझे कहा अन्दर आने को,जब कि बाबा की बातें मैं सुन चुका था,और व्याकुल हो
रहा था,उनके आदे श के लिए; किन्तु भय भी लग रहा था,कि कहीं फँस न जाऊँ । कैसे घस
ु ँग
ू ा इस छोटे से दरबे में ।

मेरी हिचकिचाहट दे ख,गायत्री बोली- ‘ क्यों, डर लग रहा है ,अन्दर चलने

में ? तो ठहरो,मैं पहले घुसती हूँ। ऐसी कितनी ही सुरंगों में घूम चुकी हूँ बचपन में अपने दादाजी के साथ।’

डर अन्दर घुसने में नहीं लग रहा है । लग रहा है - कहीं बीच में ही फँस न जाँऊ, तुम्हारी तरह मुलायम शरीर तो मेरा है
नहीं,जो बिल्ली-सी सिकोड़ लँ ू । – मैं कह ही रहा था,तब तक गायत्री सच में बिल्ली सी छपक कर, घुस ही गयी अन्दर।
अन्दर से बाबा की आवाज आयी- ‘ डरने की कोई बात नहीं। ऐसा करो कि पैर को पहले भीतर डालो,फिर धड़ को हल्का
भांजते हुये अन्दर कर लो।’

बाबा के निर्देशात्मक संकेत का पालन करते हुए,अगले ही क्षण मैं भी अन्दर आ पहुँचा। बाबा की बतायी विधि वाकयी
काम आयी।

ऊपर सिर उठाकर दे खा,मुश्किल से खड़ा होने भर ऊँचाई थी । तन कर खड़ा होना चाहूँ तो सिर ऊपर वाली चट्टान से
टकराने लगे । सामने एक ताख बना हुआ था– सतह के लगभग बराबर में ही, कोई दो हाथ भर लम्बा-चौड़ा,और इतना
ही गहरा भी। उसमें कुछ मूर्तियाँ रखी हुयी थी- बालिस्त भर की। उन्हीं में ,एक मूर्ति में से ये अद्भत
ु रौशनी निकल रही
थी। प्रकाश की किरणें इतनी तेज थी कि मूर्ति को सही रुप से पहचानना कठिन हो रहा था कि किस दे वी-दे वता की है ।
हाँ, अगल-बगल की दो मर्ति
ू यों को आसानी से पहचाना जा सकता था,जो काले पत्थर की बनी किसी दे वी की मर्ति
ू थी।
सीधी किरणों से बचते हुए,थोड़ा तिरछा होकर, दे खने पर,स्पष्ट पहचान लिया कि चमकदार मूर्ति की बायीं ओर वाली
मूर्ति लक्ष्मी की है , जो पद्मासना हैं,पद्मधारिणी भी,और दायीं ओर वाली भी किसी दे वी की ही है , दोनों हाथ किसी खास
मद्र
ु ा में चेहरे पर भंगिमा दिखाती हुयी-हाथों में कुछ दीख नहीं रहा था,किन्तु अंगलि
ु यों की मद्र
ु ा,कुछ संकेतात्मक
प्रतीत हुयी। मूर्ति किसकी है – कुछ समझ न पाया। ताख के बगल में दोनों ओर करीब बित्ते भर गोलाई वाला मोका
बना हुआ था,जिससे छन-छनकर ताजी हवा आ रही थी- बिलकुल स्वच्छ-सुगन्धित, मानों सीधे मलयसिन्धु में
डुबकी लगाकर चली आरही हो । मर्ति
ू के समीप ही छोटा सा त्रिभज
ु ाकार त्रिवलीय हवन-कुण्ड बना हुआ था, जिससे
निकलता गुगुल-अगरु का मदिर सुगन्ध नथुनों को तप्ृ त कर रहा था। दायीं ओर की चट्टान में बीचो-बीच एक वैसा ही
मुहाना नजर आया,जो किसी दस
ू री ओर निकलने का रास्ता प्रतीत हुआ।

बाबा के कहने पर हमदोनों वहीं बैठ गये,पास में ही।बाबा ने अपनी

झोली से एक मुठ्ठी गुगुल निकाल कर कोई वाचिक मन्त्रोच्चारण करते हुए सामने के हवन कुण्ड में झोंक दिये। थोड़ी
ही दे र में हमने अनुभव किया कि गर्भगह
ृ में व्याप्त प्रखर नीली रौशनी धीरे -धीरे मन्द पड़ने लगी,और कुछ ही दे र में
स्थिति ऐसी हो गयी कि मूर्ति से आसानी से आँखें मिलायी जा सकती थी। मैंने दे खा- यह मूर्ति स्फटिक की बनी हुयी
थी,आकार में उन दोनों मर्ति
ू यों से थोड़ी बड़ी थी। बाबा ने पहले मेरी ओर दे खा,फिर गायत्री की ओर दे खते हुए सवाल
किया- ‘ दे खो,पहचानों तो जरा,ये मूर्ति किसकी है ? ’

अपने स्थान पर बैठी-बैठी ही,जरा आगे झुककर गायत्री ने मूर्ति को पहचानने का प्रयास किया। मैं भी लपका- शायद
पहचान जाऊँ,किन्तु कुछ पल्ले न पड़ा, न मुझे और न गायत्री को ही। दे खने में तो मूर्ति बहुत ही आकर्षक,और
बिलकुल जागत
ृ -सी लगी। किन्तु आकृति,आयुध,तथा मुद्राओं से कुछ समझना मुश्किल था।
बाबा ने कहा- ‘ मैं जानता था,तुमलोग पहचान नहीं पाओगे । दरअसल पहचाने का जो चिन्तन स्रोत है ,वही नहीं है
तुमलोगों के पास। तुम क्या,कोई और भी सामान्य व्यक्ति यह कयास नहीं लगा सकता कि यहाँ,इस तरह की मूर्ति भी
हो सकती है । राधा के बारे में तो हर कोई जानता है । अदना -सा आदमी भी राधा-कृष्ण के बारे में कुछ न कुछ जरूर
बता दे गा,किन्तु ये वह राधा है जिनसे राधा की उत्पत्ति हुयी है ।’

राधा की उत्पत्ति हुयी- यानी की वष


ृ भानु की पत्नी की यह मूर्ति है ? - मैंने चौंकते हुए पूछा। मेरी बात पर बाबा
मुस्कुराये। ‘ कहां वष
ृ भानु-पत्नी,और कहाँ ये मूलप्रकृति। वस्तुतःये मूलप्रकृति श्रीराधा की मूर्ति है । संसार की सारी
दे वियां इन्हीं की विभति
ू हैं । लक्ष्मी,काली,सरस्वती,दर्गा
ु सबके सब इन्हीं से निकली हैं । ब्रह्मवैवर्तपरु ाण के
प्रकृतिखंड में इसका विशद वर्णन मिलेगा । सष्टि
ृ के प्रारम्भ में इन्हीं से त्रिदे वियाँ आविर्भूत हुई हैं। ये जो दायीं ओर
दे ख रहे हो- यही महालक्ष्मी हैं- पद्मासना,और ये जो बायीं ओर की मूर्ति है ,जिसके हाथों की भंगिमा आयुध-रहित होकर
भी कुछ ईंगित कर रही हैं- ये ही राधा है ,जो कृष्णप्रिया बनी हैं,और ये ही मूलप्रकृति,महात्रिपुरसुन्दरी हैं । इन्हीं का
लीलाविलास है यह समस्त जगत-प्रपंच । ये वो राधा हैं,जिनसे अनन्त राधाओं,अनन्त कृष्ण की व्यूह-रचना होती है ।
जगदाधार भगवती यही हैं मुख्यतः।’

बाबा बड़े ही आनन्द-मुद्रा में थे । आज से पहले इतना दर्पित मुखमंडल

नहीं दे खा था मैंने इनका । लगता था मल


ू प्रकृति की सारी विभति
ू याँ इन्हीं में उतर आयी हैं । मद्धिम रौशनी में भी चेहरा
चमक रहा था,मानों नीलमणि हो।

बाबा ने आगे बताया- ‘ मैंने कहा न ये विन्ध्यगिरि हिमवान से भी प्राचीन है । जो वहाँ भी नहीं है ,वो यहां मौज़ूद है । यूँ
तो शक्ति के अनेक पीठ हैं परू े आर्यावर्त में ,जिनकी गणना अलग-अलग प्रसंगों और रुपों में कहीं इक्यावन तो कहीं
एकाशी,तो कहीं चौरासी की जाती है ; किन्तु विन्ध्यगिरि का यह त्रिकोण-क्षेत्र यूँ ही नहीं महत्त्वपूर्ण माना गया है । ये
सभी पीठ यहाँ प्रतिनिधित्व करते हैं- क्या वाम,क्या दक्षिण । एक बहुत ही रहस्यमय बात बतला दँ ू तुम्हें ,
विन्ध्यगिरि आमतौर पर बस उत्तरप्रान्त के इस खास भूभाग को ही समझा जाता है ; किन्तु सच पूछो तो पूर्व में
विष्णुनगरी गयाजी से लेकर उत्तर में हिमालय तक अन्दर-बाहर दृष्टिगोचर और भूगर्भगमन करते हुए ये सारा
सिलसिला विन्ध्यगिरि का ही है । काशी आदि सभी इसी के अंश हैं । और सबसे बडा रहस्य ये है कि ऊपर जो दीख रहा
है ,उससे कहीं हजार गुना रहस्य भीतर छिपा है । कलि के प्रभाव वश ये सारी वातें लुप्त-गुप्त होती जा रही हैं ।’- बगल
के मुहाने की ओर इशारा करते हुए बाबा ने कहा- ‘ इस मुहाने में साहस करके प्रवेश करोगे तो ठीक इसके नीचे ही,जहाँ
हमलोग बैठे हैं एक और कक्ष मिलेगा,जहां से सरु ं गपथ प्रयाग,काशी,गया,आदि तक गया हुआ है । उस मार्ग में जैसे-
जैसे आगे बढ़ोगे, इसी तरह के हजारों-हजार ताखे मिलेंगे- इससे भी बड़े-बड़े,जिसमें एक आदमी सहजता पूर्वक आसन
लगा सकता है । उन सभी ताखों में कोई न कोई दिव्य मूर्ति विराजमान मिलेगी। यहाँ मैं एक और रहस्योद्घाटन कर दँ ू
कि सामान्य दृष्टि में पत्थर की मर्ति
ू नजर आने वाली वे सारी पीठासीन मर्ति
ू यां मर्ति
ू याँ है ही नहीं, वे सीधे जीवित-
जागत
ृ साधक हैं,जो अनेकानेक वर्षों से समाधिस्थ हैं । किन्तु इसे सौभाग्य कहो या कि दर्भा
ु ग्य, सामान्यजन का वहां
तक प्रवेश कदापि नहीं है । प्रवेश तो यहां इस गुफा तक भी नहीं है किसी का। मेरे बदौलत तुमलोग आ गये यहाँ तक,
इससे ये न समझ लेना कि मेरे पीछे में भी आकर घूम-फिर लोगे ।’ – बातें करते हुए बाबा अपने आसन से उठे , और
दायीं ओर मुहाने के पास,नीचे चट्टान पर प्रणाम करने के बाद कोई मन्त्र बुदबुदाते हुये ठोंकने लगे । थोड़ी ही दे र में
हमने दे खा- वह विशाल चट्टान लोहे में चिपके चुम्बक की तरह उनके हाथों में चिपक सा गया, जिसे फूल की तरह
सहज रुप से सरका कर,बाबा ने एक ओर कर दिया। बगल में हाथ भर का मह
ु ाना खल
ु गया, जिससे आसानी से अन्दर
झाँककर दे खा जा सकता था । मैंने,और गायत्री ने भी उसमें झाँक कर दे खा- भीतर वैसी ही नीली रौशनी थी,जैसी की
अब से कुछ दे र पहले इस कक्ष में थी । रौशनी की प्रखरता के कारण हमलोग कुछ और दे ख न पाये। बाबा ने कहा- ‘
बहुत हो गया,अब अधिक जिज्ञासु न बनो । गर्दन बाहर निकालो। अब इसे पर्व
ू वत बन्द करता हूँ।’

हमलोगों के गर्दन निकालने के बाद,क्षणभर में उसी सहजता से बाबा ने उसे यथावत बन्द भी कर दिया। मेरी खोजी
बुद्धि,और तीव्र जिज्ञासा इतनी बलवती हो गयी कि बेचैन हो उठा- जैसे किसी शराबी को शराब की बोतल दिखा कर,
कोई दरू भागने लगे। मैंने बाबा के चरण पकड़ लिये,जैसे कि उस दिन बंगले में रोकने के लिए गायत्री ने पकड़ा था- ‘
अब नहीं छोड़ सकता ये युगलपादपंकज। मिठाई खिलानी ही नहीं थी तो बच्चे के मुंह में सटाया ही क्यों आपने ?’ बाबा
की आत्मीयता और स्नेह ने कुछ-कुछ मँह
ु लगा बना दिया था मझ
ु े भी,गायत्री तो उनकी मँह
ु लगी चहे ती थी ही।

हँसते हुये बाबा ने मेरा पीठ ठोंका- ‘ तम


ु भी अब गायत्री की तरह जिद्द करने लगे हो। ’

मगर पीठ पर उनके हाथ का स्पर्श कोई सामान्य स्पर्श नहीं था। क्षण भर के लिए मुझे लगा मानों ग्यारह सौ वोल्ट
वाला बिजली का तार छू गया हो, अनजाने में । सारा शरीर सन्
ु न सा हो गया। आवाज बन्द हो गयी । जमीन पर झक
ु ा
सिर, और बन्द आँखें- एकदम बेवश हो गयीं । न सिर उठा पा रहा था,और न आँखें ही खुल पा रही थी। बस इतना ही
अनुभव हो रहा था कि बाबा के हाथों का छुअन है पीठ पर,और शरीर बेसुध और बेसुध होता जा रहा है । किन्तु इसके
साथ ही अनभ
ु व किया कि शरीर से कुछ निकला जा रहा है - बाहर की ओर,और कुछ अद्भत
ु दृश्य दीख भी रहे हैं । एक
साथ कई चीजें- जैसे प्रायः सपने में कुछ का कुछ दिखायी पड़ जाता है । मैंने दे खा- एक प्रज्ज्वलित त्रिकोण है ,जिसके
आकार का कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता । जिसमें ज्वाला है ,पर उष्मा नहीं । क्षितिज पर चुम्बन करते
आकाश और भमि
ू की एकात्मकता जैसे समीप भी लगती है ,और दरू भी, ऊपर विस्तत
ृ नीलाम्बर कितना नजदीक
लगता है ,और कितना दरू ,टिमटिमाते तारे , चाँद सितारे ,कितने मोहक लगते हैं...उन सबको बहुत ही समीप से दे खा
जाए तो कैसा लगेगा-बिलकुल हाथ भरकी दरू ी से ! कुछ वैसा ही दीख रहा था,सारा गगन,सारी धरती। उस प्रज्ज्वलित
त्रिकोण के ठीक मध्य में स्वयं को खड़ा दे खा,और फिर तीनों भुजाओं पर गमन करते हुए भी, जिसकी गति का
अन्दाजा लगाना भी मुश्किल...ये सारी क्रियाएँ एक साथ चल रही थी, न कोई आगे न कोई पीछे । लगता था- दृश्य
अनेक हैं,तो द्रष्टा भी अनेक ही है । सैलून में दाढ़ी बनाते समय आमने-सामने के आदमकद आइने में अपना ही बिम्ब
अनेक होकर भाषित होने लगता है ,कुछ वैसी ही स्थिति लग रही थी; किन्तु वहाँ सिर्फ खुद का ही बिम्ब होता है , कभी-
कभी हजाम का सिर या हाथ भी दीख जाता है ; परन्तु यहां स्वयं के अतिरिक्त भी अनेकानेक दृश्य...कोई शब्द नहीं
मिल रहे हैं,जो पूरी की पूरी अभिव्यक्ति दे सकँू - उन दृश्यों का।

कुछ दे र में बाबा ने अपना हाथ हटा लिया पीठ से,और लगा मानों डिस का कनेक्सन अचानक कट गया हो,और
टीवी स्क्रीन सादा हो गया हो। झक
ु ा हुआ सिर,और खल
ु ी हुई आँखें । आँखों ने सिर्फ चट्टान को दे खा- काली चट्टानी
जमीन को। अब पूरे होशोहवाश में था।

मैं बाबा के चरणों में सीधे लोट गया- ‘ बाबा ! आप मेरा मार्गदर्शक बनें...बहुत भटका मझधार में ...अब आपका ये
श्रीचरण छोड़ना नहीं चाहता ... आपने इन स्वप्नलोकों का दर्शन कराकर,मेरी प्यास और बढ़ा दी...अब बर्दास्त नहीं
होता...इन रहस्यमय लोकों की मैं यात्रा करना चाहता हूँ...इसके वगैर अब चैन नहीं..आज मौका आया है , तो सबकुछ
खल
ु कर कह दे ना उचित है - ये जो कुछ आपने दिखाया,और अब से पहले,इस यात्रा क्रम में प्रयाग आदि जगहों में जो
कुछ भी मैंने अनुभव किया- ये सारी चीजें स्वप्न में बीसियों बार दे ख चुका हूँ- टुकडे-टुकड़े में ,जिन्हें आज एकत्र कर
दिया आपने,जोड़ दिया सिलसिलेवार,फिर भी कुछ समझ नहीं पाया कि ये है क्या है ...क्या दे खा मैंने पहले टुकड़ों
में ,और क्या दे खा आज एकत्र?’

बाबा इत्मीनान से बैठ गये बगल में ,पहले की भांति पद्मासन मुद्रा में । हमदोनों भी पास ही बैठे रहे । थोड़ी दे र तक
मौन,मेरे चेहरे को निहारने के बाद,मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखा उन्होंने और बांया हाथ मेरे हृदय पर रखते हुए
उपांसु भाव में कुछ मन्त्र बुदबुदाने लगे । उनकी इस क्रिया के दौरान मेरे शरीर में अजीब- सी झुरझुरी होने लगी-
बिजली के हल्के झटके की तरह,जो सुखद अनुभूति पूर्ण थी। कोई पाँच मिनट के बाद बाबा ने वाचिक रुप से मेरे कान
में एक मन्त्र बद
ु बद
ु ाया,और फिर कहा- ‘ इसे ठीक से हृदयंगम कर लो। आज से तम्
ु हारा ये गरु
ु मन्त्र हुआ,और मैं
तुम्हारा दीक्षागुरु। इस मन्त्र का नित्य जप और इसके अनुकूल ध्यान का सतत ् अभ्यास करते रहना है । आगे
समयानुसार दिशानिर्देश स्वतः मिलता रहे गा। मैं सामने रहूँ न रहूँ,कोई बात नहीं,मन्त्र की साधना से ही तुम्हारा
मार्गदर्शन होता रहे गा। वैसे जब तक मैं हूँ,तब तक तो प्रत्यक्ष संवाद होते ही रहें गे । बाद में यदि संवाद करना
आवश्यक प्रतीत हो तो आगे का ‘ प्रणव ’ और ’ व्याहृतियों ’ को हटाकर बीच के मन्त्र-स्वर का उच्चारण
करोगे। तत्क्षण ही मुझसे संवाद होने लगेगा; किन्तु ध्यान रहे , इसका प्रयोग खिलवाड़ के लिए नहीं होना चाहिए।
साधना-पथ में विशेष अड़चन आये तभी प्रयोग करना। भल
ू से भी दरु
ु पयोग करने की चेष्टा करोगे तो तत्क्षण ही मन्त्र
का प्रभाव तुम पर से समाप्त हो जायेगा।’

इतना कह कर बाबा ने अपना दोनों हाथ हटा लिया मेरे सिर और छाती परसे। फिर कहने लगे- ‘ मेरी बातों को जरा
ध्यान से सुनो, और काय-संरचना को हृदयंगम करो। इन बातों की जानकारी अति आवश्यक है – साधना में आगे बढ़ने
के लिए। वैसे बिना कुछ जाने समझे भी साधना की जा सकती है । साधक के लिए वेद-उपनिषद् का ज्ञाता होना अति
आवश्यक नहीं है । ऐसा नहीं कि जो पतञ्जलि का योगसत्र
ू नहीं पढ़ा है ,वो साधना कर ही नहीं सकता,किन्तु कुछ
बुनियादी बातें जान लेना अच्छा होता है । मनुष्य का शरीर और ब्रह्माण्ड दोनों की संरचना एक ही तरह की है ।
भूः,भुवः,स्वः,महःजनः,तपः,सत्म ् ये सात लोक ऊपर की ओर हैं, और ठीक इसी भांति सात लोक नीचे की ओर भी हैं-
तल,तलातल,सूतल,वितल,रसातल, महातल और पाताल। ये सात और सात मिलकर चौदह हुए- ये ही चौदह भुवन
कहे जाते हैं। ये जिस भाँति ब्रह्माण्ड में व्यवस्थित हैं,तद्भांति ही मानव शरीर में भी। यही कारण है कि मानव-शरीर को
विधाता की सर्वोत्कृत रचना कही जाती है । चौरासी लाख योनियों में यहाँ-वहाँ भटकते हुए मानव-शरीर में हमें एक
महान अवसर दे कर भेजा जाता है कि साधना करो,और मक्
ु त हो जाओ इस भव-जंजाल से। किन्तु साथ ही परीक्षा के
तौर पर कुछ अन्य चीजें भी साथ लगी रहती हैं। आहार,निद्रा,मैथुनादि तो प्रत्येक प्राणी का सहज कर्म है , उसके बिना
वह रह ही नहीं सकता,किन्तु मनष्ु य में बुद्धि और विवेक नामक दो अतिरिक्त चीजें दे कर ईश्वर ने सावधान भी किया
है । हमें इनका उपयोग करना चाहिए,अन्यथा हममें और अन्य प्राणी में फ़र्क ही क्या रह जायेगा।’

बाबा की क्रियाकलापों को दे खती,सुनती गायत्री बड़ी दे र से चुप्पी साधे थी, अब उसने जिज्ञासा की- ‘ भैया ! ये जो सात
और सात चौदह भुवनों की बातें कर रहे हो,इनके बारे में कुछ विस्तार से बतलाओ,ताकि मैं भी समझ सकँू । और दस
ू री
बात ये कि अभी-अभी तुमने कहा कि इनकी गुरुदीक्षा हो गयी। क्या साधना करने का अधिकार सिर्फ इन्हें ही है ? स्त्री
साधिका नहीं हो सकती,उसे मन्त्रदीक्षा की जरुरत नहीं है क्या?’

गायत्री की बात पर बाबा मुस्कुराये । क्षणभर चुप्पी के बाद कहने लगे- ‘ मैं पहले तुम्हारे दस
ू रे प्रश्न का ही उत्तर दे
दँ ,ू फिर पहले पर बात करुँ गा । तम
ु कौन हो ? क्या केवल गायत्री हो ? तम्
ु हारी जन्मजात उपाधि तो ‘पाण्डेय’ थी,अब ‘
पाठक ’ क्यों कहती हो खुद को?’

‘ ये तो नियम है समाज का उपेन्दर भैया। शादी के बाद स्त्री का कुलगोत्र, उपाधि सबकुछ पति वाला हो जाता है ।’-
गायत्री ने कहा,जिसपर सिर हिलाते हुए मैंने भी हामी भरी- ‘ ये तो पित ृ सत्तात्मक या कहें पुरुष सतात्मक व्यवस्था
का गुण-दोष-परिणाम है ।’

नकारात्मक सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ नहीं,सिर्फ इतनी सी ही बात नहीं है । आजकल तो कान फूँक कर चेला-
चेलिन बनाना रोजगार हो गया है । सच्चे गुरु दर्ल
ु भ हैं संसार है ,बड़े भाग्य से ही मिलते हैं। मन्त्र दे ने की जो बात है ,
परु
ु ष के कान में एक खास विधि से दी जाती है । ऐसा नहीं कि कान में फूँ कर दिये, या कि भ्रम
ू ध्य में अंगठ
ू ा सटा
दिये,और हो गयी दीक्षा। ये दीक्षा भी दक
ु ानदारी बन गयी है । बड़ी-बड़ी दक
ु ानें और मॉल खुले हुए हैं दीक्षा दे ने वाले।
भीड़ भी खब
ू है वहाँ। अरे बाबू ! हाईटे न्सनवायर में टोका फँसाने पर बत्ती तभी जलेगी न जब तार में बिजली होगी।
और तार में भी अपनी बिजली तो होती नहीं,वह आती है ट्रान्सफर्मर से,और ट्रान्सफर्मर भी केवल ट्रन्सफर्मर ही
है ,उसके पास भी अपना कुछ नहीं है ,दे ने को। उसे ऊर्जा(शक्ति) दे रहा है पावरहाउस। ये बल्व में जो प्रकाश है न, वह न
तार का है ,और न ट्रान्सफर्मर का। यह है पावरहाउस के उस जेनरे टर का जिसने बिजली को पैदा किया- ऊर्जा सारा उसी
का है । क्या फ़ायदा- एक नहीं दस टोके फंसा लो। पावरहाउस ही बन्द है ,फिर सप्लाई कहाँ से होगी? मन्त्र-दाता मन्त्र
दे ने के लिए अपनी व्यक्तिगत ऊर्जा का प्रयोग करता है ,जो सच पूछो तो उसका अपना नहीं है । वह उसी मूल ऊर्जा-
स्रोत से लिया गया है । गुरु एक श्रेष्ट स्थानान्तरक-संयत्र की भूमिका निभाता है । सिर या ललाट मुख्य रास्ता है कुछ
स्थानान्तरण करने के लिए।

‘...अब इसके दस
ू रे पक्ष को समझो- पति को विधिवत दीक्षा दे दी गयी यदि तो पत्नी को अलग से दीक्षा दे ने का कोई
प्रयोजन नहीं रह जाता। साधना का दक्षिणपथ यही कहता है ,और वाम पथ में तो स्त्री ही मूलतः गुरु की भूमिका में
होती है - पुरुष के लिए। असली दीक्षा वहां स्त्री की ही होनी चाहिए। शक्ति का मूल स्रोत वही है । वह पुरुष की अर्धांगिनी
कही जाती है । उसके बिना परु
ु ष अधरू ा ही नहीं,शन्
ू य सा है ,व्यर्थ सा है । ऊर्जा की भाषा में समझने की चेष्टा करो तो
कह सकते हो कि बिजली का धन और ऋण पक्ष है । इन दोनों छोरों को अलग-अलग विन्दओ
ु ं से लाकर विद्युत
उपकरण से जोड़ने पर ही सक्रियता आती है । पत्नी पति के प्रत्येक कार्य की सहायिका होती है । वस्तुतः शक्ति का
प्रतिनिधित्व वही करती है । शक्ति के सानिध्य(संयोग) में ही शक्तिमान की सार्थकता सिद्ध होती है । शक्ति के बिना
तो शिव भी शव है । मनष्ु य का जीवन सूर्य के रथ की तरह नहीं है ,जिसमें केवल एक ही चक्का लगा है । पति और पत्नी
जीवन-रथ के दो चक्के हैं- बैलगाड़ी के दो चक्के की भाँति। गह
ृ स्थ जीवन में रहते हुए,गह
ृ स्थाश्रम की नियम-
मर्यादाओं का पालन करते हुए, साथ-साथ साधना-पथ पर बढ़ा जा सकता है । बढ़ना चाहिए भी। अब तुम यहां ये
सवाल भी उठा सकती हो कि जिस परु
ु ष ने शादी नहीं की,या शादी करके संन्यास ले लिया,या स्त्री की शादी नहीं हुई या
विधवा-परित्यक्ता हो गयी- उसका क्या होगा? सच पूछो तो संन्यास बिलकुल अलग चीज है ,बहुत दरू की चीज है ।
स्वयं में न्यस्त हो जाना ही संन्यास का असली प्रयोजन है । आज के जमाने में किसी के बस की बात भी नहीं है । यही
कारण है कि शास्त्रों में जैसे बहुत से कर्म का निषेध किया गया है ,वैसे ही कलिकाल में संन्यास लेने की घोर मनाही है ।
आज का परिवेश संन्यास के योग्य कदापि नहीं है ,और इस तथ्य की अवहे लना करके जो भी संन्यासी हुए हैं,हो रहे हैं-
उनकी स्थिति बड़ी दयनीय होती है । धोबी के गदहे की तरह न वो घर के होते हैं, और न घाट के। आज का संन्यास
पलायन वाद है - सांसारिक जिम्मेवारियों से पलायन करना। या फिर आतरु वैराग्य है - माँ-वाप,पत्नी किसी से झगड़ा
हुआ,और चट चोला बदल लिए,घर से भाग खड़े हुए। संन्यासी बन गये। मन के कमजोर लोग ही संन्यास का रास्ता
चुनते हैं। अतः किसी संशय में न रहो। गह
ृ स्थ धर्म का सम्यक् पालन करते हुए साधन पथ पर अग्रसर होओ। एक धुरी
से जड़
ु े दो चक्के,और उनसे जड़
ु ा जआ
ु ,जो बैलों के कंधे पर रखा होता है ,उबड़-खाबड़-प्रशस्त पथ पर सरकता जाता है
शनैः-शनैः। हमारे शास्त्रों में यत्र-तत्र प्रचुर मात्रा में वर्णन है इन विषयों का। एक ओर गह
ृ स्थ-धर्म की महत्ता दर्शायी
गयी है तो दस
ू री ओर पत्नी-परित्याग का दष्ु परिणाम भी बतलाया गया है । ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखंड
अध्याय ११३ के श्लोकसंख्या ६,७,८ में कहा गया है - अनपत्यां च युवतीं कुलजां च पतिव्रताम ् । त्यक्त्वा भवेद्यः
संन्यासी ब्रह्मचारी यतीति वा ।। वाणिज्ये वा प्रवासे वा चिरं दरू ं प्रयाति यः । तीर्थे वा तपसे वापि मोक्षार्थं जन्म
खण्डितुम ् ।। न मोक्षस्तस्य भवति धर्मस्य स्खलनं ध्रुवम ् । अभिशापेन भार्याया नरकं च परत्र च ।। जरा ध्यान दो
शास्त्र के इस वचन पर। तब से लेकर अब तक की सामाजिक,पारिवारिक स्थितियों को ध्यान में रख कर जरा
विचारो,किस प्रकार संकेत किया गया है - ऋषि के वचन हैं कि कुलीन,पतिव्रता, यव
ु ती,पत्नी को सन्तान रहित
त्यागकर संन्यासी,ब्रह्मचारी, यति, मोक्षार्थी बन जाना, तीर्थाटन वा तप के लिए निकल जाना,तथा व्यापार-नौकरी
आदि के उद्देश्य से दीर्घकालिक प्रवास पर चले जाना- इन सभी स्थितियों में पत्नी के (प्रत्यक्ष-परोक्ष) शाप का भाजन
बनना पड़ता है , जिसके परिणाम स्वरुप मोक्ष की प्राप्ति तो होती ही नहीं, उलटे धर्मच्युत(पतित) होकर,नरकगामी भी
बनना पड़ता है । ’

गायत्री को अच्छा सा उदाहरण मिल गया। अतः बीच में ही टोक दी- ‘ भैया ! ये तो बड़े मार्के की बात कह रहे हो- साधु-
संन्यासी,भगोड़ू होना तो और बात है ,आजकल नौकरी के बहाने या लाचारी में पति लोग गाँव में बेवश पत्नी को छोड़
कर लम्बें समय के लिए महानगरों, या कि विदे शों में निकल पड़ते हैं। यहाँ तक कि प्रायः लोग वहीं की मौज-मस्ती
भरी दनि
ु यां में खोकर,विवाहिता साध्वी पत्नियों को विसार दे ते हैं,यह कितना अन्याय है । ’

बाबा ने सिर हिलाते हुये कहा- ‘ अन्याय ही नहीं घोर अन्याय कहो इसे। विवाह समय लिए गये संकल्प और शपथ को
भी भुला दे ते हैं। शास्त्रकार तो यहाँ सन्तान-रहित होने की ही बात पर जोर दे रहे हैं,इसका भी पुरुष गलत अर्थ लगा
लेते हैं। सन्तान हो जाने के बाद क्या उसकी मनोदै हिक आवश्यकतायें समाप्त हो जाती हैं ? फिर सन्तान होने की ही
सीमा-रे खा क्यों ? सन्तान पालन कौन करे गा, क्या उस परु
ु ष का धर्म नहीं है यह ? इसीलिए मैं कहता हूँ कि यथोचित
गह
ृ स्थ धर्म का निर्वाह करो। यहां भी तो आश्रम विभाजन बतलाया ही गया है । संन्यासी होने न होने में पत्नी कहाँ
बाधक बन रही है ? पत्नी को साथ रखे वानप्रस्थी हो जाओ, फिर संन्यास तो स्वयं ही उतर जायेगा धीरे -धीरे । ‘
त्यागना ’ और ‘ त्यगाजाना ’, छोड़ना और छूटजाना में बहुत बड़ा अन्तर है – आसमान और जमीन का सा फर्क है ।
पतंजलि ने वत्ति
ृ यों को रोकने नहीं कहा है - वत्ति
ृ यों को निरुद्ध होने की बात कही गयी है - इस विन्द ु पर गौर करो।’

यहाँ बाबा की बातें मझ


ु े भी आंशिक रुप से आपत्तिजनक लगी,अतः बोला- कलयग
ु में भी तो एक से एक संन्यासी हुए
हैं- महान शंकराचार्य से लेकर रामकृष्ण और विवेकानन्द जैसे महान पुरुष। क्या इनका निर्णय गलत था?

‘ ये कुछ अपवाद हैं-अंगुलियों पर गिने जाने योग्य,और अपवाद नियम की सार्थकता सिद्ध करता है । तुमने ये जो तीन
नाम लिए,जरा इनके बारे में कुछ और जान लो- रामकृष्ण तो अन्त-अन्त तक माँ शारदादे वी के साथ रहे ,जो उनकी
अर्द्धांगिनी थी। असली अर्द्धांगिनी उसे ही कहा जा सकता है । आद्यशंकर तो अपने आप में अभूतपूर्व उदाहरण हैं, बहुत
से कार्य उन्होंने ऐसे किए जो संन्यास धर्म के बिलकुल विपरीत है । जानते हो- उन्होंने अपनी माँ को वचन दिया
था,जिसे निभाने के लिए अन्तिम अवस्था में उपस्थित हुए,और सामाजिक विरोध का खंडन करते हुए माँ का दाह-
संस्कार भी किये, जब कि संन्यासी के लिए अग्नि-स्पर्श भी मना है । संन्यास-आश्रम में रहते हुए गह
ृ स्थों के लिए
उन्होंने जो मार्ग दर्शाया, अद्वितीय है । पंचदे वोपासना का सत्र
ू दे कर,दे श के चार दिशाओं में चारों धाम की स्थापना
करके,राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जो श्लाघ्य कर्म उन्होंने किया है , उसके लिए आर्यावर्त चिर ऋणि रहे गा।
आद्यशंकराचार्य न होते तो आज सनातन धर्म भी शायद न होता। आपस में ही लड़कर मर मिट जाते कृष्ण के वंशजों
की तरह। आर्यावर्त की रूपरे खा सम्भवतः और भी बिकृत होगयी रहती,यदि ये न होते। वैष्णव,शाक्त,
शैव,सौर्य,गाणपत्य पराम्पराओं ने साधना कम ,शास्त्रार्थ और झगड़ा अधिक किया है । एक दस
ू रे को नीचा दिखाने के
लिए। आज भी आपसी विसंगतियाँ बहुत है ,फिर भी शंकर के पंचदे वोपासना ने इसे काफी हद तक एकसूत्र में पिरोने में
सफलता पायी है । मैं ये कभी सलाह नहीं दँ ग
ू ा कि सर्वोत्कृष्ट गह
ृ स्थ-जीवन को त्याग कर जंगलों में भाग
जाओ,कन्दराएँ पकड़ लो। संसार में रोकने, बाँधने,और छुड़ाने का जो काम करता है , वह है तुम्हारा मन। और ये चंचल
मन कन्दराओं में भी तुम्हारे साथ ही रहे गा। सच पूछो तो तुम भागे कहाँ? भाग भी कैसे सकते हो? मन एव
मनष्ु याणाम ् कारणं बन्धमोक्षयोः इस चतरु मन की गति को नियंत्रित करो- यहीं रह कर,पत्नी-पत्र
ु ादि बन्ध-ु बान्धवों
सहित। हमारे शास्त्रों में कितनी अच्छी व्यवस्था सुझायी गयी है - वर्णाश्रम धर्म की। व्रह्मचर्य,गह
ृ स्थ,वानप्रस्थ,और
अन्त में संन्यास। इन चारों आश्रम-धर्मों का सम्यक् पालन करते हुए पुरुषार्थचतुष्टय – धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष
की सिद्धि करनी है । यही अभीष्ट है मानव-जीवन का। ’

मैंने कहा- मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण कहा आपने,और इस पर नियन्त्रण की बात भी कह रहे हैं,किन्तु
इसकी चंचलता तो जग-ज़ाहिर है । साधा कैसे जाय इस अड़ियल टट्टू को?

मेरी बात पर बाबा ने कहा- ‘ ये समस्या तम्


ु हारी अकेली नहीं है । कृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने भी यही कहा था कि हे
कृष्ण,ये मन बड़ा ही चंचल है । इसपर नियन्त्रण करना बहुत कठिन है । दरअसल बात वैसी ही है - जैसे परम्परा से चली
आ रही है कि काम मनुष्य का प्रबल शत्रु है ,और इस पर मैंने काफी कुछ समझा चुका हूं तुमलोगों को। ठीक वैसे ही
बारबार कहा गया है - मन को नियन्त्रित करने की बात। किन्तु मैं कहता हूँ, नहीं...नहीं...मैं क्या कहूंगा शास्त्र कहते
हैं,जिसे लोगों ने गलत रुप से समझ लिया है – काम शत्रु नहीं है ,वो एक सहज वत्ति
ृ है । उसी तरह मन पर काबू करने
की चिन्ता ही फिज़ूल है । मन को दौड़ लगाने दो नटखट बालक की तरह। कुलांचे भरने दो मग
ृ की तरह। तुम बस एक
ही काम करो- उस मन को उछलने के लिए जो शक्ति दे रहा है - भोजन दे रहा है - उस प्राण का ध्यान रखो। उसे भी
रोकने की बात नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ और सिर्फ निरीक्षण करो कि शरीर की जो प्राणऊर्जा है - कैसे क्या हो रहा है उसके
साथ। बिना किसी रोक-टोक के, बिना छे ड़छाड़ के, सिर्फ दे खो और दे खते जाओ। थोड़े ही दिनों के अभ्यास से पाओगे
कि यह चंचलातिचंचल प्रमाथी मन थक गया है दौड़ लगाकर। ’

मन की चर्चा करते हुए बाबा अचानक बाबा रुक गये । जरा ठहर कर बोले- ‘ अरे हां ! तुमलोगों को त्रिकोणयात्रा भी
करनी है न?’

जी करनी तो है ,पर ये क्या उससे कम पुण्य-कार्य हो रहा है ?

‘ इन जानकारियों को ज्ञान में बदलो। सिर्फ जानकारियाँ तो उधार जैसी होती हैं, ज्ञान अपना। ’-कहते हुए बाबा उठ
खड़े हुए- ‘ आओ,चलो तुम्हें पहले कालीगोह ले चलता हूँ।’
गतांश से आगे...पन्द्रहवां भाग

हमदोनों उठकर,गुफा के मुहाने की ओर मुड़े,जिधर से आये थे। किन्तु तभी, बाबा ने टोका- ‘ कोई जरुरत नहीं है बाहर
निकलने की,सीधे यहाँ से भी हमलोग वहाँ पहुँच सकते है ।’- कहते हुये बाबा खोह के पीछे वाली चट्टान पर हाथ रखते
हुए,फिर उसी तरह कुछ मन्त्रोच्चारण करने लगे,जैसा कि अबसे पहले नीचे के दृश्य को दिखाते वक्त किया था। ऐसा
करते ही, हमने दे खा कि एक साथ दो कार्य सम्पन्न हो गये- एक छोटी सी शिला सरक कर इस मुहाने के मँह
ु पर आ
लगी, जिससे वह अब वैसा भी न रहा कि कोई प्रयास करके प्रवेश कर जाये अन्दर मर्ति
ू यों तक,और दस
ू री ओर एक
रास्ता भी बन गया,जिससे होकर आसानी से यहां से बाहर निकला जा सकता था। हमने झाँक कर दे खा,सूर्य का धीमा
प्रकाश कुछ छिद्रों से आरहा था। नीचे की ओर उतरने के लिए सीढियाँ तो नहीं बनी थी,किन्तु छोटी चट्टानें इस कदर थी
कि सहज ही उन पर पाँव धर कर नीचे जाया जा सकता था।

बाबा आगे बढ़कर खोह में उतर गये। उनके पीछे गायत्री,और उसके पीछे मैं । चार-पाँच पायदान नीचे उतरने पर
पतला-लम्बा सा सरु ं ग दीखा,जो सीधे दाहिनी ओर कुछ दरू तक गया हुआ था। सरु ं ग की ऊँचाई अधिक न थी, और न
चौड़ाई ही। एक साथ दो मोटे आदमियों को चलना मुश्किल होता। हमलोग एक दस
ू रे के पीछे -पीछे चलने लगे। करीब
पचास कदम चलने के बाद बाबा रुक गये, और हाथ के इशारे से बतलाये- ‘ अब दे खो,यहां आकर ये तिमुहानी बन
रही है ,यहां से दायें जाने पर कोई दो घड़ी लागातर पैदल चलोगे,तो असली नन्दजा के प्रांगण में पहुंचोगे। और बायीं
ओर जाने पर सौ कदम के बाद ही कालीखोह आ जायेगा। ’

गायत्री ने कहा- ‘ भैया ! तम


ु ने तो अभी कहा था कि नन्दजा, जो असली यशोदा-नन्दिनी हैं, वहाँ तक जाने का रास्ता
बड़ा बीहड़ है और खतरनाक भी। फिर वहाँ तक कैसे चल कर दर्शन किया जाय ?’

‘ बस,इसी कारण तो तुमलोगों को इस गुप्त साधक-मार्ग से ले आया हूँ। इधर से वहाँ पहुँचना बिलकुल निरापद है । इस
रास्ते से चल कर हमलोग सीधे यशोदानन्दिनी के गर्भगह
ृ में पहुँचेंगे,और दर्शन करके पुनः इसी रास्ते वापस इस
तिमुहानी तक आयेंगे। वैसे भी वह जगह बिलकुल सुनसान सा रहता है । ज्यादातर लोग उस स्थान को जानते ही
नहीं,फिर भीड़-भाड़ होने का सवाल कहाँ है ।’– कहते हुए बाबा हमलोगों के साथ ही उसी ओर बढ़ चले। तिमुहानी से
आगे बढ़ने के बाद रास्ता और भी संकीर्ण हो गया था। किन्तु अजीब बनावट था,सुरंग में भी अन्धकार का
नामोनिशान न था। रौशनी किधर से आ रही थी,यह तो पता नहीं चल पा रहा था, किन्तु सूर्योदय से कुछ पूर्व जैसा
उजाला सरु ं ग में सर्वत्र था। ताजी हवा भी मिल रही थी,बिलकुल ठं ढ़ी-ठं ढी,जबकि घड़ी के मत
ु ाबिक वक्त दोपहर का हो
चला था।

कोई पौन घंटे लगातार चलने के बाद हमलोग रुके। सुरंग में ही अपेक्षाकृत थोड़ी चौड़ी जगह थी,जहाँ दायें-बायें दोनों
ओर एक-एक चँआ
ु ड़ बना हुआ था। बाबा ने कहा- ‘ यदि प्यास लगी हो तो,उस दाहिने वाले चँए
ु ं से जल निकाल कर पी
सकते हो। बिलकुल ही स्वच्छ और शीतल है । वायीं ओर के चँए
ु में ठीक विपरीत गरम पानी मिलेगा। प्रकृति की अद्भत

लीला है - चार कदम के अन्तराल पर दो चुंए- एक शीतल एक उष्ण। किसी भी मौसम में यहां आओगे,जल इसी भांति
भरा मिलेगा।’

बाबा के कहने पर हमदोनों ने जल पीया। मैंने दे खा- बाबा अपने दाहिने हाथ की अनामिका अंगल
ु ी से शीतल चंए
ु के
जल का स्पर्श किया,और होठों से स्पर्श कर आगे बढ़ गये,यह कहते हुए कि चलो अब चला जाय। अब हमलोग
बिलकुल करीब आ चुके हैं।

बाबा का हर काम रहस्यमय ही हुआ करता है । उनका यह जल-पान भी प्रश्न खड़ा कर दिया,किन्तु हर बात में टोक-
टाक करना भी अच्छा नहीं लगता। अतः संकोचवश चुप ही रहा।

कोई दस मिनट बाद,हमलोग एक कक्षनुमा स्थान पर पहुँच गये। सामने की चट्टान पर बाबा ने हाथ
फेरकर,मन्त्रोच्चारण करते हुए,उसी भाँति एक छोटे टुकड़े को खिसका दिया,जहाँ से होकर सीधे गर्भगह
ृ में हमलोग
पहुँच गये। घुटने भर की ऊँचाई वाले छोटे से चबूतरे पर कोई हाथ भर की मूर्ति बिराज रही थी- बिलकुल मोहक
अन्दाज में - ऐसा लग रहा था मानों भयभीत बालिका आ दब
ु की हो इस चट्टान की ओट में ,और गर्दन टे ड़ी करके,टोह ले
रही हो अपने शत्रु का।स्थान बिलकुल ही संकीर्ण था,किन्तु नीरव, शान्तिपूर्ण। हमतीनों बैठ गये आसन मारकर। बाबा
ने बताया- ‘ कृष्ण की साधना के लिए इससे बढ़िया और कोई स्थान क्या होगा? ये तो साक्षात ् कृष्ण प्रेरित महामाया
हैं। चलो एक काम करो तुमदोनों – करमाला की जानकारी है कि नहीं?’

गायत्री ने कहा- ‘ जानकारी तो है भैया,किन्तु अभ्यास नहीं रहने के कारण प्रायः भूल जाती हूँ कि पुरुष और स्त्री मन्त्रों
के लिए भेद कैसे करुं । ’

गायत्री की बात से मैं जरा चौंका- पुरुष और स्त्री मन्त्र या कि पुरुष और स्त्री के लिए माला की भिन्नता- क्या कहना
चाहती हो?

गायत्री मुस्कुरायी- ‘ लो भैया,अब इन्हें समझाओ जरा। इनको लग रहा है कि मैं कहना कुछ चाह रही हूँ, और कह कुछ
और रही हूँ। ठीक कहते हो तुम- ये अखबार वाले बाल की खाल खींचते रहते हैं। इनको ये भी नहीं पता कि करमाला में
किं चित स्थान भेद होता है - दे वताओं के लिए और दे वियों के लिए मन्त्र-जप करने हे त।ु ’

‘ गायत्री ठीक कह रही है - ये भी सही है कि मन्त्रों का भी लिंग होता है ; किन्तु यहाँ उसकी बात नहीं हो रही है । वो तो
और भी गहन विषय है । यहाँ बात हो रही है ,सिर्फ दे व-दे वी मन्त्रों के जप की। मनकों वाली माला में जिस तरह सुमेरु की
मर्यादा है ,जिसका उलंघन सर्वथा वर्जित है ; उसी भाँति यहाँ करमाला में भी तो सुमेरु का विचार होगा ही न। माला है तो
सुमेरु भी होना ही है । गणना का प्रारम्भ तो दे व या दे वी किसी भी मन्त्र में दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली के मध्य
पोरुए से ही करें गे- यही १ हुआ,अनामिका का ही निचला पोर २,तथा अब कनिष्ठा के निचले को ३,मध्य को ४,अग्र को
५ गिनेंगे। पन
ु ः अनामिका के अग्र पर आ जायेंगे ६ गिनकर,और अब मध्यमा के अग्र पर ७,मध्य ८,निम्न ९,और
तर्जनी का निम्न १० के रुप में गणित होगा। इस प्रकार दे खते हो कि तर्जनी का मध्य और अग्र अनछुआ ही रहा गया।
इसका स्पर्श कदापि नहीं होना चाहिए जप के बीच। दस तक की गणना के बाद अंगठ
ू े को अंगुलियों के जड़ों से सटाये
हुए सरकाकर पन
ु ः अनामिका के मध्य यानि निर्दिष्ट संख्या १ पर लायेंगे,और फिर उसी भांति २,३,४ गिनते हुए १०
तक पहुँचेंगे। यहाँ इस बात का भी ध्यान रखना है कि अंगुलियों के पोरुओं का उलंघन कदापि नहीं होना चाहिए वापसी
क्रम में । इस प्रकार १० की १० आवत्ति
ृ हो जाने के बाद,शेष आठ के लिए दोनों ओर से एक-एक स्थान छोड़कर ही ८ की
गणना करें गे। इस प्रकार १०८ की करमाला परू ी हो गयी। इस करमाला का प्रयोग समस्त शक्ति (दे वी) मन्त्रों के लिए
किया जा सकता है । दे वमन्त्रों के लिए प्रयुक्त करमाला में किं चित भेद है - गणना प्रारम्भ तो वहीं से करें गे, फर्क सिर्फ
सम
ु ेरु का है । क्रमांक ७(मध्यमा का अग्र पोर)के बाद तर्जनी के अग्र पोरुये पर चले जायेंगे- ये ८ हुआ,९ के लिए तर्जनी
का मध्य, और क्रमांक १० पूर्ववत ही रहे गा- तर्जनी का अन्तिम पोरुआ। इस प्रकार दे वमन्त्रों की कर माला में मध्यमा
का मध्य और अन्तिम पोरुआ सुमेरु होता है ।’

मैंने प्रसन्न होते हुए कहा- ये तो बड़ी ही महत्त्वपूर्ण जानकारी दी आपने।

‘ महत्त्वपूर्ण तो है ही,अभी इसका कुछ और भी रहस्य जानो।’- बाबा ने कहा- ‘ वाम-दक्षिण दोनों साधना विधियों में
इसका बहुत ही महत्त्व है । आमतौर पर अलग-अलग मन्त्रों के लिए अलग-अलग मालाओं की बात कही जाती है ,जैसे-
लक्ष्मी के लिए कमलगट्टा का माला,चन्द्रमा के लिए मोती,बगला के लिए हल्दी, दर्गा
ु -काली के लिए रक्त
चन्दन,विष्णु के लिए तुलसी या मलयगिरि चन्दन। क्रूरकर्मों के लिए घोड़े के दांतों की माला का प्रयोग होता है ,सौम्य
कर्मों के लिए मोती या शंख की माला का प्रयोग बतलाया गया है । और ये सब कह करके भी, रुद्राक्ष को सर्वग्राहिता का
स्थान भी दे दिया गया है । किन्तु करमाला का महत्त्व तो अवर्णननीय है - दक्षिण-वाम दोनों के लिए अत्यन्त जागत

माला है - यह तो सीधे नरास्थिमाला है न ! इसके महत्त्व और रहस्य का कितना हूँ बखान किया जाय कम ही है ।
अन्यान्य मालाओं पर हजार जपकरो,और करमाला को सिद्ध करके,एक माला जप करो,दोनों का फल समान है । ठीक
उधर,जैसे कि वाचिक,उपांशु, और मानसिक जप का उत्तरोत्तर महत्त्व है । योग और तन्त्र में एक और भी रहस्यमय
माला का प्रयोग होता है - मातक
ृ ामाला का। खैर उसकी चर्चा कभी बाद में की जायेगी। अभी तो तम
ु लोग इस करमाले
का ही प्रयोग करो। कृष्ण-भगिनी के दरवार में आये हो, तो ध्यान और न्यासान्तर से नवार्ण के तीसरे बीज- क्लीँकार
का स्मरण तो करना ही चाहिए न। इस महामन्त्र की महिमा तो पहले ही काफी कुछ बता चुका हूँ तुमलोगों को।’

‘ हाँ भैया ! कामदे वबीज की तो काफी चर्चा हुई है । तो क्या कृष्ण-न्यास-ध्यान सहित दे व करमाला पर इसे कर लँ ू?
और फिर इसे ही न्यास-ध्यान भेद से दे वी करमाला पर भी, ताकि कृष्ण के साथ-साथ माँ भारती या कहें
यशोदानन्दिनी का भी स्मरण हो जाये ? ’- गायत्री ने सवाल किया।
बगल में बैठी गायत्री की पीठ ठोंकते हुए बाबा ने मेरी ओर दे खते हुए कहा- ‘ दे खा,मेरी बहना कितनी बुद्धिमती हो गयी
है ? ’

मैंने मजाक में ताड़ते हुए कहा- अब आप पीठ ठोंक कर इसे इतना न बुद्धिमती बना दें कि हमें कुछ गदाने ही नहीं। वैसे
भी धर्म-कर्म के मामले में हमें कमअक्ल ही समझती है ।

‘ चलो कोई बात नहीं,बुद्धि की पिटारी मेरे पास रही कि तुम्हारे पास, क्या फ़र्क पड़ना है ! फिलहाल तो इस पर बहस
बेकार है । अभी तो ध्यान-जप में लग जाओ।’

स्थान का प्रभाव,बाबा का सानिध्य,जगदम्बा की कृपा- कारण चाहे जो भी हो, ध्यान और जप में अद्भत
ु आनन्द
आया। जिस न्यास का संकेत बाबा ने किया था,सच में न्यस्त हो गया मन-प्राणों में । अब से पहले भी कई बार न्यासों
का प्रयोग किया था, किन्तु आज का न्यास झंकृत कर गया सम्पूर्ण कायसौष्ठव को। इस प्रकार करीब घंटे भर से
अधिक गुजर गये वहीं,नन्दजा के दरबार में ही। गायत्री की इच्छा जरा भी न हो रही थी,यहाँ से चलने को। किन्तु अभी
कालीखोह,और अष्टभुजी दर्शन बाकी ही है । अतः मन मसोस कर उठ खड़ा हुआ- तो अब चला ही जाय।

बाबा भी उद्दत हुए चलने को। पर्व


ू रास्ते से ही वापस चलते हुए उसी तिमह
ु ानी पर पहुँचे,जहाँ से एक रास्ता मल
ू प्रकृति
राधा-स्थान को जाती थी,और दस
ू री ओर जाने पर कालीखोह।

यहाँ से कालीखोह बहुत करीब ही था। यहीं पर संकटमोचन स्थान भी है । कालीखोह कहने को तो खोह है ,पर इससे
अधिक खोहों से तो हमलोग अभी-अभी गुजर कर आये हैं। उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं। मां काली के स्थान में
भीड़-भाड़ भी अपेक्षाकृत कम ही थी उस दिन। यहीं पास में ही एक गोस्वामी परिवार रहता था,जो बाबा का परु ाना
सम्पर्की जान पड़ा। दे खते ही आगे बढ़कर बाबा को दण्ड-प्रणाम किया,और आदर सहित भीतर ले गया।

कुछ दे र वहां गुजारने के बाद हमलोग कालीमन्दिर में आ गये दर्शन हे तु। माँकाली की दिव्य प्रतिमा बड़ी ही तेजपूर्ण
प्रतीत हुयी। बाबा ने कहा- ‘ यहाँ भी थोड़ी दे र आसन मार लो,और सप्तशती के प्रथम बीज का कम से कम एक माला
जप कर लो। तत
ृ ीय बीज तक पहुँचाने में यह प्रथम बीज ही मार्गदर्शक बनता है । इस सम्बन्ध में एक बड़ा ही रोचक
प्रसंग है - नारद-ब्रह्मा संवाद में । एक बार नारदजी अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे और साधना के गूढ़तम मन्त्र की
दीक्षा हे तु निवेदन किये। प्रसन्नचित ब्रह्मा ने नारद की भक्ति से प्रमदि
ु त होकर उन्हें सीधे वह अमोघ कल्याणकारी
बीज मन्त्र प्रदान किया,जिससे रासेश्वरी के दिव्यधाम में सीधे प्रवेश मिलता है । प्रफ्फुलित नारद वहां से चल
दिये,पिता प्रदत्त मन्त्र का मानस जप करते हुए।

‘दे वर्षि नारद तो बहुधन्धी ठहरे । संसार के कल्याण हे तु,दे वताओं के अटके काम बनाने हे तु प्रायः उनका ही सहयोग
लिया जाता रहा है । ब्रह्माजी से विदा होने के थोड़े ही क्षण बाद नारद दे व-कार्यों में व्यस्त हो गये,परिणामतः पिता
द्वारा दिया गया बीज मंत्र विस्मत
ृ हो गया। दे वों का कार्य सम्पन्न करने के पश्चात ् जब उन्हें ध्यान आया अपने
उद्देश्य का तो बहुत ही व्याकुल हुए। पन
ु ः पिता के पास निवेदन करने पहुँचे।

‘ इस बार ब्रह्माजी ने सप्तशती का प्रथम बीज उन्हें प्रदान किया,और साथ ही हिदायत किया कि लापरवाही में इसे भी
भल
ू न जाना। पिता को प्रणाम कर नारद प्रसन्न चित्त वहाँ से प्रस्थान किये। पर्व
ू की भांति ही प्राप्त मन्त्र का
मानसिक जप करते हुए। अभी वे ब्रह्मलोक की सीमा में ही थे कि उन्हें ज्ञान हो आया- अरे ! इस बार तो पिताजी ने
कोई और ही मन्त्र दे डाला। या तो उन्हें दे ने में भूल हुई या कि...। ऐसा इसलिए हुआ कि इस बीच ब्रह्माजी द्वारा दिया
गया परु ाना मन्त्र- क्लीँबीज का स्मरण हो आया था। अतः तरु त पलट पड़े,पिता के श्रीचरणों में निवेदन करने।

’ इतनी जल्दी वापस आने का कारण पूछा ब्रह्मा ने। नारद ने कहा- “ पिताजी ! आज जो मन्त्र आपने दिया मुझे, वह
तो वह मन्त्र नहीं है ,जो पहले दिया था, क्यों कि थोड़ी ही दरू जाने पर मझ
ु े स्मरण हो आया उस परु ाने मन्त्र का। क्या
आपने भूल से ये नया मन्त्र दे दिया था ?”

‘ नारद की जिज्ञासा पर पितामह ब्रह्मा ने कहा- “ नहीं मैं भूला नहीं हूँ। मैंने जानबूझ कर ये नया मन्त्र तुम्हें दिया हूँ।
भूल तो मुझसे पहली बार हुई थी कि पुत्र-मोह में मैं वह महामन्त्र दे दिया था,जिसके तुम अभी अधिकारी ही नहीं हो।
यही कारण है कि वह मन्त्र स्वयं ही भूल गये तुम।”

‘ नारद ने नम्रता पूर्वक कहा- “ आपके दिये इस नये मन्त्र का निरं तर जप

करते हुए मैं मार्ग में चला जा रहा था,तभी अचानक मुझे भान हुआ कि पिछली बार तो आपने कुछ और ही मन्त्र दिया
था, और फिर थोड़ा और एकाग्र होने पर उस महामन्त्र का स्वतः स्मरण भी हो आया। ”

‘ नारद की बात पर मुस्कुराते हुए पितामह ने कहा- “ यही तो विशेषता है इस ऐंकार बीज की। साधक को अभिज्ञानित
कर दे ता है - अपने कर्तव्य का,और आगे का मार्गदर्शन भी करा दे ता है । ”

बाबा की बातों का रहस्य और संकेत मैं समझ गया। उनके कथन का अभिप्राय था कि हठात ् क्लींकार की साधना
करने से विचलन भी हो सकता है । ध्यान दे ने की बात है कि सप्तशती क्रम में भी इसके पहले दो और बीज आ चक
ु े हैं।
अति उच्चकोटि के साधक ही सिर्फ सीधे इस तीसरे बीज से साधना प्रारम्भ कर सकते हैं।

मैं गायत्री के साथ माँकाली के समीप आसन लगा लिया। बाबा पन


ु ः बाहर निकल गये यह कहते हुए कि जप-ध्यान के
बाद वहीं गोस्वामी के निवास पर आ जाना,फिर अष्टभुजी चला जायेगा।

कहने को तो बाबा ने कम से कम एक माला जप का ही आदे श दिया था,जो चन्द मिनटों का काम था,किन्तु जप के
बाद ध्यान में तन्मयता ऐसी बनी कि घंटा भर समय गुजर गया,फलतः आशा दे खकर,बाबा को ही वापस आना पड़ा।
‘ जागिये प्रभु !’– पीठ पर बाबा के मद
ृ ल
ु हथेली का स्पर्श पाकर आँखें खुली। बाबा पूछ रहे थे- “ कैसा रहा जप और
ध्यान ? ”

अवर्णननीय । कोई शब्द नहीं मेरे पास– मैंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।

‘ बस,अब और कुछ नहीं। सांसारिक जंजालों से थोड़ा समय चुराकर,लग जाना है इसी धुन में । मौका मिला तो और भी
कुछ मार्गदर्शन कर दँ ग
ू ा इसी यात्रा में । साधना प्रारम्भ करने का विन्ध्याचल से अच्छा और कौन स्थान हो सकता है ?
सौभाग्य से यहाँ पहुँच गये हो,और मातेश्वरी की कृपा से मैं पहले ही आ गया था यहाँ।’

‘हाँ भैया ! कुछ रास्ता दिखाओ इन्हें । इनका मार्ग अवरुद्ध है ,जिसके कारण मेरे विकास में भी बाधा आती है । सीधे तौर
पर कुछ करने से रोकते तो नहीं, किन्तु अज्ञानवश अनास्था है ,और इस कारण साधना का उपहास करने में चूकते
नहीं। इनका उपहास बहुत खल जाता है मुझे। मैं निराश हो जाती हूँ,कभी-कभी हताश हो जाती हूँ। ’- गायत्री ने
शिकायत की।

‘ कोई बात नहीं। अब धीरे -धीरे सब दरु


ु स्त हो जायेगा। पहले अच्छे ‘काम’ की चिन्ता थी- सांसारिक निर्वहण के लिए।
वह तो रासेश्वरी की कृपा से परू ी हो गयी। अतः अब ‘ धाम ’ की चिन्ता करो। कछुए की तरह समेटो संसार को,और चल
पड़ो मूलधाम की यात्रा में ।’

मैंने बाबा के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर निवेदन किया- जी ! आपकी कृपा बनी रहनी चाहिए,रासेश्वरी तक पहुँचाने का
मार्ग तो स्वतः ही प्रशस्त हो जायेगा।

बाबा ने आँखें तरे र कर हाथ हिलाते हुए कहा- ‘ चतुराई न दिखाओ। केवल मेरी कृपा से कुछ होना-जाना नहीं है । मैं
सिर्फ कदम बढ़ाने को प्रेरित कर सकता हूँ,गलत कदम न पड़ जायें- इसके लिए सावधान कर सकता हूँ; किन्तु जीवन-
पथ पर चलना तो तुम्हें ही होगा न ? वो भी दृढ़ संकल्प पूर्वक,अन्यथा कोई दस
ू रा उपाय नहीं है ।’

दिन ढलने लगा था,जब हमलोग कालीखोह से बाहर निकले। थोड़ी चढ़ाई के बाद ज्यादा उतार ही उतार था उसके
आगे। अष्टभुजी पहँचते-पहुँचते अपराह्न के तीन बजने लगे। भीड़-भाड़ कोई विशेष नहीं था,इस कारण यहाँ भी शान्त
और एकान्त मिल गया। छोटे से मोके जैसे स्थान में दे वी की सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित थी। वातावरण कालीखोह से भी
अधिक सह
ु ावना और आनन्ददायक प्रतीत हुआ। बाबा ने कहा- यहाँ भी थोड़ी बैठकी लगा लो,और सप्तशती के दस
ू रे
बीज का जप कर लो।

हम तीनों बैठ गये। आधे घंटे बाद ध्यान-जप से निवत


ृ हुए तो, गायत्री ने अपनी अनभ
ु ति
ू की चर्चा छे ड दी- ‘ भैया
! यूँ तो सभी स्थान एक से बढ़कर एक हैं, किन्तु न जाने क्यों यहाँ मुझे कुछ खास प्रतीत नहीं हुआ। सबसे आकर्षक
और आनन्ददायक लगा था तुम्हारे उस गुप्तखोह वाली रासेश्वरी मूर्ति के पास। लगा कि एकदम रासेश्वरी की गोद में
ही बैठी हूँ- दिव्य अनुभूतियों से आप्लावित होकर। उसके बाद कालीखोह का ध्यान-जप भी बहुत ही सुखद अनुभूति
वाला रहा,किन्तु यहाँ वस वैसा ही जितना कि आमतौर पर घर में बैठने पर कभी-कभी एकाग्रता स्वतः बन जाती है ।
परन्तु एक बात मैं कहना चाहूँगी कि जो अनुभूति प्रयाग के भारद्वाज आश्रम में मिली,वो और कहीं नहीं,उसका स्वाद
ही कुछ और था। मैं तब से ही आपसे वार्ता के लिए लालायित हूँ। आखिर क्या दे खा-अनुभव किया मैंने ?’

गायत्री की बातों को मनोयोग पूर्वक सुनते हुए बाबा ने कहा- ‘ क्रिया में तन्मयता का तो महत्त्व है ही,किन्तु स्थान का
भी अपना योगदान होता है - प्रभाव होता है । ये सब स्थान अपेक्षाकृत अधिक सार्वजनिक हो गये हैं। यहां का
आभामंडल कई तरह से प्रभावित है ,किन्तु वो जो दो स्थानों पर मैं ले गया, अपेक्षाकृत बहुत अधिक चैतन्य है ।
मूलप्रकृति का स्थान तो अतिशय दिव्य है ही। वैसे भी वहाँ आमजन का प्रवेश असम्भव है । साधकों में भी बहुत कम
ही हैं,जो वहाँ तक जाते हैं,या कहें जा पाते हैं। वो तो मेरे गुरुमहाराज की कृपा है कि सभी दिव्य स्थानों का भ्रमण करा
दिया है उन्होंने। उनके साथ विध्याचल के अन्तः त्रिकोण,जो कि अन्दर झांक कर मैंने तुमलोंगों को दिखलाया,की कई
बार यात्रायें परू ी की है , मैंने उनके मार्गदर्शन में । आज भी तुमलोंगो के साथ होने के बजह से बाहर-बाहर चल रहा हूँ
ज्यादातर,अन्यथा इधर बाहरी मार्ग से कभी आता भी नहीं हूँ। भीतरी गुप्त मार्ग से पूरे त्रिकोण की यात्रा के योग्य
अभी तम
ु लोगों का शरीर नहीं हुआ है । फिर भी जहां तक सम्भव था,तम
ु लोगों को दिखा दिया। अकेले उन मार्गों में
जाने का कभी प्रयास भी न करना,वरना बहुत परे शानी में पड़ जाओगे,जान भी जा सकती है । ’

थोड़ी दे र और,अष्टभुजी के पास रुकने के बाद,चल पड़े त्रिकोण-यात्रा के अन्तिम पड़ाव- पुनः गंगा किनारे वाली
विन्ध्यवासिनी मन्दिर की ओर। रास्ते में गायत्री ने पुनः अपनी बात छे ड़ी। उसके मन में कई तरह के सवाल चल रहे
थे,रात सोते समय भी उन्हीं खयालों में वह डूबी रही थी। जब तक जगी रही मुझसे घुमा-फिरा कर भारद्वाज आश्रम
की अनुभूतियों की ही चर्चा करती रही थी। प्रयाग का प्रसंग अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़ा था- सारे प्रश्न एक साथ
बाबा के समक्ष रख कर उसका उत्तर चाह रही थी। सवाल तो मेरे पास भी थे,जिसमें सर्वाधिक उत्सुकता पैदा किये हुए
था- ध्यान में बाबा का दर्शन और घंटे की तीव्र ध्वनि।

अष्टभुजी से बाहर निकलते ही मैंने पूछ दिया बाबा से- ‘ महाराज ! भारद्वाज आश्रम में मैं एक अद्भत
ु दृश्य
दे खा,उसके विषय में कुछ सवाल घम
ु ड़ रहे हैं मेरे मस्तिष्क में ।’

मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा- ‘ तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा,किन्तु साधना जगत के लिए यह बहुत ही सामान्य सी बात
है । क्षणिक रुप से कहीं व्यह
ू रचना कर दे ना,स्वयं को आभाशित कर दे ना,कोई बहुत बड़ी बात नहीं। धारणा की गहराई
में थोड़ा उतरते ही ये सब होना सम्भव है । अब उस बार जैसे तुम्हारे नये दफ्तर में मैं अचानक पहुँच गया था,और तुम्हें
आश्चर्य हुआ था- इस विषय पर तो मैं काफी कुछ समझा गया था तुमलोगों को,बस उसी का थोड़ा विकसित रुप
समझो। हाँ,इस तरह से व्यह
ू -रचना करके अधिक दे र तक कहीं रुके रहना,या रोकना साधकों के लिए उचित नहीं है ।
अन्ततः मैं भी तो अभी साधक ही हूँ न,कोई सिद्ध तो हुआ नहीं। जिस प्रकार दो दिनों से निरं तर तुम्हारी चेतना मुझे
याद कर रही थी,और तुम्हें साधना का कुछ भी अभ्यास न होने के बावजूद, तुम्हारा संदेश मुझ तक पहुँच गया,उसी
भांति अपनी चेतना को थोड़ा गहरे में ले जाकर,मैंने भी वह दृश्य दिखाया। भारतीय साधना पद्धति में एक से एक
अद्भत
ु चीजें है ऐसी। इस सम्बन्ध में झ़ेनसाधकों के बारे में थोड़ी चर्चा अप्रासंगिक न होगी। जापान में साधकों का एक
वर्ग है ,जो अद्भत
ु साधनायें करता है । गुरु अभ्यास कराता है - आँखें बन्द करके हरियाली,रौशनी,अन्धकार आदि का
अनभ
ु व करना तो बहुत आसान है , किन्तु सर्दी-गर्मी का भी,भय,आनन्द, हास्य, लज्जा आदि मनोंभावों का भी
अभ्यास कराया जाता है । कल्पना करो कि तुम्हें सर्दी लग रही है ,कल्पना करो कि तुम्हें गर्मी लग रही है । और यह
कल्पना एकदम घनीभूत हो जाती है । एकान्त निर्जन स्थान में भूत-प्रेत हों या नहीं,उसकी याद मात्र ही रूह कंपा दे ती
है ,दर्ब
ु ल इन्सान की। आनन्द का स्रोत समीप हो या नहीं,कल्पना मात्र से ही हम आनन्दित हो उठते हैं। उसी भांति
सर्दी-गर्मी की गहन अनुभूति भी करनी होती है साधकों को। साधक कितनी गहराई में उतरने में सक्षम है - यह उसकी
दै हिक स्थिति से कोई अन्य भी भांप सकता है । सर्दी लग रही है ,तो शरीर कांपने लगेगा,गर्मी लग रही है तो शरीर
पसीने से लथपथ हो जायेगा। तम्
ु हें सन
ु कर यकीन नहीं होगा- जापानी झेन साधकों में अन्तिम परीक्षा की घड़ी आती
है ,तो ऊष्मा की ऐसी गहन अनुभूति करनी होती है कि सिर्फ पसीना ही नहीं निकलता,बल्कि शरीर पर फफोले भी
निकल आते हैं। और तब जाकर गुरु का आशीष मिलता है । तब उसे आगे की साधना सिखलायी जाती है । मन्त्र जपते-
जपते,ध्यान करते-करते साधक स्वरुपवान होने लगता है - उसे वही कुछ दीखने लगता है - जो वह दे खने का प्रयास
करता है । प्रारम्भ में तो बहुत सी अवांछित, अपरिचित चीजें भी दिखलायी पड़ती हैं। कभी-कभी साधक भयभीत भी हो
उठता है । विचलन भी होने लगता है । इसलिए पग-पग पर योग्य गुरु की आवश्यकता प्रतीत होती है । ठीक है कि कोई
परे शानी न हो, किन्तु यदि होगी,तो फिर उसे सम्हालेगा कौन- यदि गुरु का सानिध्य न हुआ। यही कारण है कि विशेष
साधना में चाहे वह तन्त्र की हो या कि योग की गुरु दीक्षा,और गुरु सानिध्य आवश्यक है । हाँ,सानिध्य की अपनी सीमा
और स्थिति भी है । कोई जरुरी नहीं कि हमेशा गुरु बगल में बैठा ही रहे ,किन्तु जरुरत पड़ने पर आसानी से प्रत्यक्ष या
परोक्ष सम्पर्क साधा जा सके- इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए। साधना जगत में प्रायः ऐसा भी होता है कि गुरु स्थूल
शरीर में हो,ना हो,शिष्य को उसका सानिध्य मिला करता है , वशर्ते कि उसकी शारीरिक,मानसिक क्षमता उस योग्य
हो।’

जरा दम लेकर बाबा कहने लगे- ‘ ये बड़े सौभाग्य की बात है कि हमलोग बिहारी हैं । ये बिहार नामकरण तो
बौद्धकालीन संस्कृति के प्रभाव से हुआ है । किन्तु मगध, चेदि, कुण्डिनपुर,राजगह
ृ आदि और भी प्राचीन नाम हैं, जो
इसी क्षेत्र में हैं। कृष्ण-पुत्र शाम्ब ने शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को अपने राज्य का यही हिस्सा विशेष कर प्रदान किया था।
सच पूछो तो समूचा प्रान्त ही साधना स्थली है । साधना से यहां सिर्फ तन्त्र-योग ही मत समझ लेना,महान ज्योतिर्विद
आर्यभट्ट का खगोलशाला (वेधशाला) पाटलीपुत्र के समीप खगौल ही रहा है ,जो वर्तमान में दानापरु खगौल के नाम से
ख्यात है । खासकर इसका मगध क्षेत्र एक से एक साधकों का गढ़ रहा है । मगध के ही वर्तमान औरं गाबाद जिले के एक
साधक की घटना तुम्हें सुना रहा हूँ। औरं गाबाद के पास भैरवपुर की पहाड़ियों में भी कई गुफाएँ हैं,जो साधकों के लिए
बड़े उपयोगी है । वहीं महाभैरव के एक साधक साधना रत थे।’

अचानक गायत्री पूछ बैठी - ‘ भैया ! ये ‘भैरव’ भैरवी साधना वाले या कि कोई और हैं?’

बाबा ने स्पष्ट किया- ‘ शक्ति के कई स्वरुप हैं। शक्ति हैं तो उनके भैरव भी होंगे ही। वहां भैरवी साधना में साधक-
साधिकायें स्वयं को उस रुप में स्थापित कर, कामजयी होकर,साधना करते हैं। वह साधना हमेशा भैरवीचक्र में की
जाती है , जहाँ साधकों का समह
ू होता है ; किन्तु ये भैरव-साधना की बात कर रहा हूँ,न कि भैरवी साधना की। यहाँ
साधक एक साधक के रुप में अकेले,एकान्त में होता है , और भैरवमन्त्र की साधना करता है । ये साधना तीन,सात, नौ,
अठारह, इक्कीस,या तैंतीस दिनों की होती है । साधना सम्पन्न हो जाने पर,परीक्षा-काल में महाभैरव अपने रौद्ररुप
में ,अति भयंकर आकृति में साधक को दर्शन दे कर मनोवांछित वर प्रदान करते हैं। ये भैरव भी मख्
ु यतः आठ प्रकार के
होते हैं- कालभैरव, बटुकभैरव, महाभैरव आदि। भैरवपुर नामक स्थान खास कर इस साधना के लिए किसी जमाने में
बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। इन्हीं की साधना में वे बिहारी द्विज महाशय संलग्न थे। सत्रह दिनों की क्रिया परू ी हो चुकी
थी। बस अब अन्तिम चरण का जप परू ा करना था। एकान्त गफ
ु ा में सतत साधना-लीन विप्र ने अचानक दे खा कि
विशाल गुफा के बाहर पीपल का एक दरख्त है । गर्मी की दोपहर ,चारों ओर सुनसान,भांय-भांय करती लू चल रही है ।
वैसे भी बिहार प्रान्त गर्मी की जानलेवा लहरों के लिए प्रसिद्ध है । पहाड़ियाँ गरम होकर और भी कष्टप्रद हो जाती हैं।
वैसी ही भीषण गर्मी से बचने के लिए नटों का एक परिवार वहाँ आकर दोपहरी में टिक गया। पंडित जी की आँखें खल
ु ी
उनकी आहटों से, तो मन ही मन भुनभुनाये- हूँ, इन चांडालों को भी आज ही आना था,और यही जगह मिली थी खेमा
गाड़ने को। किन्तु कर ही क्या सकते थे। साधना से उठ कर उन्हें मना भी तो नहीं किया जा सकता,और क्या जरूरी है
कि वे मान ही जाए...।

‘...खैर,पंडितजी को इतना ही संतोष था कि वे एकान्त गुफा में थे,और गुफा भी अन्धेरी थी। बाहर पीपल के पास चहल-
पहल करते नटों को इनके बारे में कुछ पता चलना नामम
ु किन है । सो वे अपने काम में लगे रहे । किन्तु ध्यान तो
किं चित विचलित हो ही चुका था। जप करते हुए ही,उनकी गतिविधियों पर भी ध्यान बना हुआ था। सबसे पहले
उनलोगों ने खूंटा गाड़ कर अपने दो-तीन भैंसों को बांधा, उन्हें कुछ चारा डाल दिया,और वे अपने लिए खेमा गाड़ने
लगे। फिर बड़ी सी खंती से मिट्टी खोद कर,छोटा गड्ढा बनाया,चल्
ू हे के लिए। चल्
ू हा जल गया,हाड़ी चढा दी गयी। बस
थोड़ी ही दे र में भोजन भी तैयार हो जाना था। इसी बीच उनके साथ का एक आठ-नौ साल का बच्चा अचानक रोने-
चीखने लगा। माँ ने रोने का कारण पूछा,तो उस बच्चे ने कहा कि जोरों की भूख लगी है ,बहुत दिन हो गये कुछ खाया-
पीया नहीं हूँ। खाना पकने में अभी बहुत दे र है ,पेट में कलछुल फिर रहा है ,बहुत जोर का दर्द है ...।

‘...माँ ने कहा कि ज्यादा तकलीफ है ,तो तब तक भैंस के बच्चे को ही खाले, कुछ राहत मिल जायेगी। माँ के आदे श का
पालन करते हुए बच्चे ने चमचमाता हुआ बलआ
ु (लोहे की गड़ासी) उठाया,और एक ही बार में भैंस के पाड़े का काम
तमाम कर दिया। और फिर उसे नमक-मिर्च की भी जरुरत न महसूस हुई,कच्चे ही चबा गया, थोड़ी दे र में । पाड़ा
खाकर,कुछ दे र तो शान्त रहा बच्चा,पर फिर शोर मचाना शुरु किया। इस बार माँ ने कहा कि पाड़े से पेट नहीं भरा तो
एक भैंसा ही खाले। बच्चे ने वही किया,जो माँ ने सुझाया,किन्तु इससे न बच्चे की क्षुधा तप्ृ त हुई,और न माँ का अगला
आदे श ही रुका। परिणाम ये हुआ कि घड़ी-दो घड़ी में ही तीनों भैंसे हजम कर गया,और अब बारी थी
बाप(नट)की,क्योंकि माँ ने उसे ही खाने का आदे श दे दिया था। थोड़ी ही दे र में बाप भी उसकी जठराग्नि की आहुति चढ़
गया, पर छटपटाहट जारी ही रही। माँ ने झल्ला कर कहा- “ अब क्या मझ
ु े खायेगा? ” बच्चे ने कहा- “ नहीं माँ तझ
ु े
कैसे खा सकता हूँ,तुम तो मेरी माँ हो,परन्तु मुझे आश्चर्य होता है कि इतना कुछ खिला दी तुम,और वो गुफा में दब
ु का
बैठा पंडित तुम्हें नजर नहीं आया? उसे पहले ही खा लिया होता तो मेरी ये दर्दु शा न होती। पाड़ा,भैंस,भैंसा,बाप सब बच
गये होते। ” बच्चे की बात पर माँ बहुत खश
ु हुई, और बोली- “ अरे हाँ,मझ
ु े ध्यान ही नहीं आया कि वहाँ एक पंडित बैठा
है । वह तो तुम्हारा सबसे प्रिय भोजन हो सकता है । ” - माँ का आदे श मिलना था कि बच्चा दौड़ पड़ा बलुआ चमकाते
गुफा की ओर। पंडितजी के तो होशोहवाश उड़ गये। कहाँ माला,कहाँ आसन...फेंक-फाँक कर दौड़ पड़े बाहर,और फिर
दौड़ते ही रहे काफी दे र तक,जब तक कि एक ग्रामीण ने जबरन उन्हें दबोच न लिया। दरअसल पिछले कई दिनों से
घर-परिवार उनकी खोज में वेचैन था।’

‘तो क्या पंडितजी सच में डर गये उस नट से?’-गायत्री ने पछ


ू ा।

‘क्यों नहीं डरते। डरना स्वाभाविक था,किसी के पीछे कोई बलआ


ु लेकर दौड़ेगा तो भय तो होना ही है न, और वो भी
ऐसा व्यक्ति जो तीन भैंस और अपने बाप को भी खा चुका हो।’- गायत्री के संशय को दरू करते हुए मैंने कहा। किन्तु
बाबा मुस्कुराये मेरी बातों पर,और बोले- ‘ क्या समझते हो सच में ऐसा कुछ था, या हो रहा था? नहीं, ऐसा प्रत्यक्ष कुछ
भी नहीं था। ये सब साधना की परीक्षा थी। महानट तो भोलेनाथ हैं- महाभैरव,और महाभैरवी हैं उनकी सहधर्मिणी
भगवती। सारा प्रपंच उन्हीं का है । ये जो वटुकभैरव हैं उन्हीं की विभूति हैं। साधक की परीक्षा हो रही थी,जिसमें वह
अनुतीर्ण रहा। भैरव की साधना करने वाले को मत्ृ यु का भय सता ही दिया तो फिर सिद्धि की कल्पना ही क्यों? सिद्धि
तो मिली नहीं, ऊपर से मिला आजीवन पागलपन। लम्बे समय तक वह साधक विक्षिप्त सा जीवन गुजार कर
इहलीला समाप्त किये।’

भैरवसाधक की करुण कथा सन


ु कर,बड़ा अजीब लगा। इस घटना से यह भी ज़ाहिर होता है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
रुप से,स्थूल न भी हो,तो सूक्ष्म रुप से गुरु अनिवार्य है । गुरुपरम्परा नामक प्राचीन ग्रन्थ में गुरुओं की महिमा और
परम्परा का विशद वर्णन मिलता है । संयोग से एक बार इस पुस्तक को गायत्री के मैके में ,यानी कि अपने ससुराल में
पढ़ने का अवसर मिला था,जिसमें बहुत सी रहस्यमय बातें थी साधना सम्बन्धी,किन्तु किसी योग्य व्याख्याता के
अभाव में अधिक कुछ जान समझ न सका।
बाबा ने गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए आगे कहा- ‘ योग्य गुरु का सच में अभाव सा हो गया है ,और दस
ू री
ओर ये भी कह सकते हो कि योग्य शिष्य का भी उतना ही अभाव है ,या कहो, और अधिक। आजकल तो ये गुरुपरम्परा
विशुद्ध बाजारवादी हो गया है । मठों,आश्रमों का बाजार है ,जहाँ भावनाओं से खिड़वाड़ हो रहा है । आप जितने भावुक
हैं,ठगे जाने की उतनी ही गुंजाइश है । आस्था और धर्म के नाम पर ठगी का धंधा चल रहा है । ये न समझना कि सिर्फ
शिक्षा के स्तर में ही गिरावट आयी है ,साधना का स्तर उससे भी अधिक नीचे गिरा है । साधना की प्रथम भूमि का भी
जो अधिकारी नहीं है ,उसे भी तीसरी क्या सीधे पांचवीं भमि
ू में घोषित कर दिया जा रहा है । पहले ज्ञान की श्रति

परम्परा थी, साधना भी इसी परम्परा से चलती थी। आजकल पुस्तकें हो गयी हैं,और उससे भी खतरनाक हो गया है
इन्टरनेट। ज्ञान बरसाती मेढक सा उछल रहा है चारो ओर; किन्तु समझ रखो कि ये ज्ञान नहीं है , ये सिर्फ फिजूल की
जानकारियाँ हैं- जानकारियों का गट्ठर...। टॉनिक की किताब पढ़ कर कोई तन्दरु
ु स्त नहीं हो सकता। उसके लिए
अच्छी कम्पनी की बनी दवा का सेवन करना होगा...।’

बाबा की बात पर बीच में ही टोकते हुए मैंने कहा- पिछले कई मर्तबा मन में उबाल आया,गायत्री भी हमेशा प्रेरित
करती रही- कहीं चल कर दीक्षा लेने के लिए, किन्तु सन्तोष जनक कोई मिला नहीं। बारीकी से छानबीन करने पर
सबके सब ढाक के तीन पात ही नजर आये। अब भला सैकड़ों दर्गु
ु णों का पिटारा, गुरु के प्रति आजीवन श्रद्धा कैसे बनी
रह सकती है !

बाबा ने कहा- ‘ ठीक कह रहे हो। अच्छा किये कि कहीं फंसे नहीं। साधना-क्षेत्र का नियम है कि शिष्य बनाने से पर्व

छःमाह परीक्षा करनी चाहिए, और गुरु बनाने के लिए कम से कम एक साल तो परीक्षा करनी ही चाहिए। परन्तु आज
इसके लिए न गुरु के पास वक्त है ,और न चेले के पास। और सबसे बड़ी बात है कि परख की दृष्टि का सर्वथा अभाव है ।
और जब परख की कला ही नहीं तो, परखेगा क्या खाक ! आजकल तो एक और नया ट्रे न्ड चल पड़ा है - संयम-परहे ज के
नाम पर कुछ नहीं। गुरुजी चेलों की भीड़ बटोरने के चक्कर में सीधे कह दे ते हैं- ये लो मन्त्र और शुरु हो जाओ....धीरे -
धीरे सब ठीक हो जायेगा। क्या खाते हो,क्या करते हो...इससे कोई खास मतलब नहीं। क्यों कि गुरुजी को पता है कि
नियम-संयम चेलों से सधना नहीं है ,और न उसे साधना की सच्ची प्यास ही है । दरअसल गुरुजी को चेला चाहिए,और
चेला को एक नया चोला..। सम्प्रदायों की रे वटियां गड़ी हैं। असंख्य सम्प्रदाय पैदा हो गये हैं। एक ही विषय को तोड़-
मरोड़ कर नये सम्प्रदाय की स्थापना कर ली गयी है ,नया साइनवोर्ड- तिलक,दं ड,विभूति आदि अपना लिए गये हैं।
अब भला इन दक
ु ानदारों को कौन समझाये कि अध्यात्म को इन साइनवोर्डों से कोई मतलब नहीं है । हम कौन सा
तिलक लगा रहे हैं,किस माला पर जप कर रहे हैं,आसन क्या है - इससे असली अध्यात्म को कुछ भी लेना-दे ना नहीं है ।
ईश्वर एक है ,रास्ते अनेक ,राही भी अनेक। कालान्तर में ये अनेक पगडंडियां ही थोड़ी चौड़ी हो गयी हैं,और स्वतन्त्र
पथ (पंथ)की घोषणा कर बैठी है - अपनी-अपनी मर्जी से।’
बातें करते हमलोग गंगाकिनारे वाले विन्ध्यवासिनी मन्दिर पहुंच गये। इस समय संयोग से भीड बहुत कम थी, अतः
लम्बी लाइन में लगना न पड़ा। बगल में एक खिड़की बनी है । वहीं से आसानी से दर्शन हो गया।उस समय इसके बारे
में जानकारी ही नहीं थी,और न बाबा ने ही बतलाया।

दर्शन करने के बाद गायत्री ने पछ


ू ा - ‘ अब तो त्रिकोण का नियम परू ा हो गया न भैया? अब आगे क्या करना है ? ’

बाबा ने कहा- ‘ करना क्या है ,सूर्यदे व भी अस्ताचल को उत्सुक हैं। अतः हमलोग भी वापस चलें अपने स्थान
पर।’

तारा मन्दिर पहुँचते-पहुंचते अन्धेरा हो गया था। हमलोग को अपने कमरे में विश्राम के लिए कहकर,बाबा सीधे
चले गये वद्ध
ृ बाबा की कुटिया की ओर,यह कहते हुए कि घंटे भर बाद भोजन-कक्ष में तो मिलना होगा ही।

मुंह-हाथ धोकर अभी बैठा ही था कि बाल्टी में ताजा पानी,और दो दोने में प्रसाद लेकर वाजू आया।

‘ आपलोग आज सारा दिन घूमते रहे । थकान हो गयी होगी,और भूख भी लगी होगी। तबतक प्रसाद पायें।
भोजन भी जल्दी ही तैयार हो जायेगा।’

प्रसाद की मात्रा कल से भी अधिक ही थी। कहने को तो सारा दिन घूमना हुआ, किन्तु थकान लेशमात्र भी न
थी, और न भूख की ही खास तलब थी।

गायत्री रासेश्वरीस्थान की चर्चा छे ड़ दी- ‘ आज के भ्रमण में रासेश्वरीस्थान और नन्दजा की अनुभूति अद्भत

रही। ऐसा अनुभव तो भारद्वाज आश्रम में भी नहीं हुआ था। भैया ने जो नीचे का सुरंग दिखलाया,उधर जाने को मन
ललच कर रह गया। वहाँ से कालीखोह जाने में जो सरु ं ग मिला,कुछ इसी तरह का सरु ं ग कैमरू जिले के गप्ु ताधाम में
भी है । लम्बाई बहुत अधिक तो नहीं है वहाँ की, किन्तु बनावट हू-ब-हू वैसी ही लगी मुझ।े बहुत पहले एक बार पिताजी
के साथ गयी थी वहाँ। अब तो सुनते हैं, भक्तों ने काफी कुछ इन्तजाम कर दिया है । फाल्गुन शिवरात्रि मेले के समय
जेनरे टर से बिजली भी दी जाती है ,बाकी समय तो भच्
ु च अन्धेरा रहता है । पहाड़ की चढ़ाई भी बहुत ही बीहड़ है । जरा
भी चूक हुई कि

सैकड़ों फीट नीचे खाई में गिर कर जान गँवानी पड़ेगी।’

ये वही स्थान है न जहाँ भस्मासरु को वरदान दे ने के बाद,उसके डर से भोलेनाथ भागने लगे थे?

‘ हाँ,वही स्थान है । दनि


ु या के लोगों पर विपत्ति आती है तब आशुतोष शिव उसका त्राण करते हैं,किन्तु उनका पीछा,
उनका ही वरदान विपत्ति का दै त्य बनकर करने लगा, तो उससे रक्षा करने हे तु मोहिनीरुपधारी विष्णु को आना पड़ा।
बड़ा ही निराला खेल है - इन लोगों का- शिव और विष्णु की एकरुपता और बहुरुपता अच्छे -अच्छों को उलझन में डाल
दे ती है । तुलसी बाबा ने तो यहाँ तक कह दिया है - शिव द्रोही मम दास कहावा,सो नर मोहि सपनेहुं नहीं भावा - शिव से
द्रोह करे ,और राम से प्रीति-ये कदापि सम्भव नहीं। न शिव खुश होगें और न विष्णु। सच पूछो तो इन दोनों में जरा भी
भेद कहाँ है ! आमजन यूं ही पचरे में पडे रहते हैं,और भ्रमित होते हैं।’-गायत्री ने गुप्तेश्वरशिव की महिमा का बखान
करते हुए कहा- ‘ तुम तो कभी उधर गये भी नहीं हो,किन्तु बहुत पहले मेरा एक बार जाना हुआ है । सासाराम के
दक्षिण-पश्चिम कोण पर स्थित चेनारी के पास की पनारी पहाड़ी से लगभग आठ मील की परू ी चढ़ाई है । बीच में
सुगिया पहाड़ी तो और भी खतरनाक है । वहाँ से भी डेढ मील करीब और जाना होता है ,जहाँ विष्णु के मोहिनी माया के
वशीभूत भस्मासुर अपने ही सिर पर हाथ रख कर भस्म हो गया था, और इस प्रकार भोलेनाथ का वरदान फलित हुआ
था। ’

मैंने गायत्री को बीच में ही टोका- ‘ कह ही रही हो तो विस्तार से कहो, क्या है पूरा प्रसंग। भस्मासुर का नाम तो सुना हूँ।
गुप्तेश्वर महादे व की भी चर्चा अकसर यहाँ सुनता हूँ। खास कर फाल्गुन महीने की महाशिवरात्रि को बड़ा मेला लगता
है वहाँ, किन्तु कभी जाने, दे खने का सौभाग्य नहीं हुआ है । सुनते हैं आजकल उस परू े क्षेत्र पर अपराधियों का कब्जा है ।
और अपराधी भी उच्च तबके के,जिनपर दोनों राज्य- बिहार और उत्तरप्रदे श की सरकार को भी घुटने टे कना पड़ता है ।
आमजन के लिए जरा भी निरापद नहीं रह गया है ।’

‘ तम
ु भी यही बात बोलते हो? सरकारें घट
ु ने नहीं टे कती,वो तो अपराधियों को कंधे पर बिठाकर घम
ु ाती हैं। उन्हीं के
बूते तो इनकी गद्दी आबाद रहती है । खैर, फिलहाल छोड़ो इस राजनैतिक पचरे को। पता नहीं आजकल क्या स्थिति है
वहाँ की, किन्तु मैं जिस समय गयी थी, ऐसा कुछ नहीं था। बहुत ही अमन-चैन था। रास्ते में ही कुसुमा नामक एक
गाँव है - पहाड़ी पर ही। वहीं किसी परिचित के यहाँ पिताजी ठहरे थे। रात भर विश्राम करने के बाद अगले दिन वहाँ गये
थे हमलोग। पिताजी ही भस्मासुर की कहानी सुनाये थे- पौराणिक प्रसंग है कि एक असुर ने शिव की घोर तपस्या
करके उन्हें प्रसन्न किया। दर्शन -लाभ कराकर शिव ने वर मांगने को कहा, जिसके उत्तर में उसने कहा कि जिसके
सिर पर हाथ रख,ूँ वह तत्काल ही भस्म हो जाय। आशुतोष भोलेनाथ तो भोलाभाला हैं ही। बिना कुछ मीन-मेष के
तथास्थु कह डाले।भस्मासरु तो आसरि
ु प्रवति
ृ का था ही, छल-कपट,प्रपंच की प्रतिमर्ति
ू । शिव की बात पर उसे सहज
ही भरोसा क्यों कर होता ? इस कारण वह शिव के माथे पर ही हाथ रखने के लिए आगे बढ़ा,ताकि वरदान की सार्थकता
प्रमाणित हो सके। उसकी इस हरकत से शिव घबरा उठे ,और पीछे सरककर भागने लगे। उस मूर्ख को शिव की इस
स्थिति पर भी भरोसा नहीं हुआ,कि बात सच है ,इसलिए शिव भाग रहे हैं। उसे लगा कि वरदान गलत प्रमाणित
होगा,इस कारण शिव भाग रहे हैं। अतः वह भी दौड़ने लगा उनके पीछे -पीछे ।

‘ इधर शिव की परे शानी दे ख सारा दे वलोक घबरा उठा। प्राणीमात्र का कल्याण करने वाले शिव का कल्याण कौन करे !
आखिरकार, भगवान विष्णु के शरण में जाकर सभी दे वता निवेदन किये। विष्णु ने तत्काल प्रस्थान किया, जहाँ
भस्मासुर शिव का पीछा कर रहा था। उन्होंने अचानक अतिसुन्दर नारी का मोहिनी रुप धारण किया,और भस्मासुर
से पूछा- “ क्या बात है ,कहाँ भागे जा रहे हो? बड़े चिन्तित लग रहे हो? ” उसने अपनी चिन्ता का कारण बताया,क्यों
कि उसे शिव के आश्वासन पर भरोसा नहीं था।’

गायत्री की बात पर मैंने हं सते हुए कहा -‘ मुझे तो लगता है कि उसे किसी लोकतान्त्रिक नेता ने धोखा दिया होगा,वोट
लेने के लिए कुछ का कुछ वादा किया होगा, और फिर उधर झाँकने भी न आया होगा। तभी से उसे किसी पर भी भरोसा
नहीं हो रहा होगा। आखिर इतना खन
ू -पसीना जलाकर,तपस्या किया,और वरदान भी न जाँचे- यह तो उसका
संवैधानिक अधिकार बनता है ।’

गायत्री ने जरा तुनक कर कहा- ‘ उपेन्दर भैया ठीक कहते हैं कि तुम अखवारी लोग बाल की खाल खींचते रहते हो।
क्या तुम्हें इतना भी आइडिया नहीं है कि जिस काल में भस्मासुर हुआ था,उस काल में लोकतन्त्र था ही नहीं। कहने को
तो राजतन्त्र था,किन्तु लोकतन्त्र हजारगन
ु ा गण
ु कारी होकर भी उसका मक
ु ाबला नहीं कर सकता। खैर,अभी हमलोग
राजनैतिक चर्चा के लिए नहीं बैठे हैं। बात चल रही है - वरदान और उसकी परीक्षा की।

‘...हाँ तो मैं कह रही थी कि मोहिनीरुपधारी विष्णु ने भस्मासुर को अपने रुप-लावण्य से मोहित कर लिया। तुम मर्दों
की तो वैसे भी आदत होती है ,जहाँ कोई सुन्दर औरत दिखी कि बस लोट-पोट होने लगे। भस्मासुर की भी यही दशा
हुई। मोहिनी की बातों में आगयी। मोहिनी ने बड़ा ही आसान उपाय सुझाया था- “ वरदान की परीक्षा के लिए व्यर्थ ही
शिव का पीछा कर रहे हो,अरे सिर तो तम्
ु हारे पास भी है ,उसी पर अपना हाथ रखकर परीक्षा क्यों नहीं कर लेते। ” काम
के वशीभूत पुरुष सम्मोहित हो जाता है । अच्छे -बरु े का ज्ञान तिरोहित हो जाता है । मोहिनी के रुप-लावण्य पर मोहित
असुर ने वही किया,जो मोहिनी ने कहा; और तत्क्षण भस्म हो गया। गुप्ताधाम गुफा के बाहर ही,ठीक प्रवेश-द्वार पर
उसका स्थान बना हुआ है । उधर शिव अपने अमोघ त्रिशल
ू से पहाड़ को काटते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। विष्णु की पक
ु ार
जब तक पहुँची,तबतक करीब आधे मील की गुफा बन चुकी थी। यहीं विष्णु और शिव का मिलन हुआ। यही गुप्तेश्वर
दिव्य धाम कहलाता है । ’

गायत्री ने जरा रुक कर कहा- ‘ बहुत ज्ञान-अनुभव तो नहीं था उन दिनों, किन्तु पता नहीं क्यों वह दिव्य मिलन-धाम
मुझे बहुत ही आकर्षित किया। वहाँ से वापस आने की जरा भी इच्छा न हो रही थी। लौटते वक्त पिताजी ने गुफा के
बीच दौर में ही दायें-बायें जाती कई सरु ं गों के बारे में बतलाया था कि इनमें अन्दर जाकर, कहीं का कहीं जाया जा
सकता है । यहाँ से विन्ध्याचल, प्रयाग, यहाँ तक की, हिमाचल तक की गुप्त यात्रा की जा सकती है । एक रास्ता सीधे
कामरुप कामाख्या तक भी गया हुआ है । सुनते हैं कि दरभंगा नरे श के प्राचीन किले में एक रानी सरोवर है ,वहां भी
सरु ं ग का एक मह
ु ाना खल
ु ता है । उस राजकुल में भी एक से एक दिग्गज तान्त्रिक हुए हैं। आज भी श्री कामेश्वर सिंह
दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकागार में तन्त्र की बहुत सी दर्ल
ु भ कृतियाँ संग्रहित हैं। स्वयं राजा
साहब इसके बहुत प्रेमी और अद्भत
ु जानकार व्यक्ति थे। अपने जीवन काल में कई विद्वानों को अन्वेषण-कार्य हे तु
नियक्
ु त किये थे।’
मैंने उत्सुकता जतायी- तो क्या इन गुप्त रास्तों से कोई भी आ-जा सकता है ?

‘ नहीं, कदापि नहीं। ’- गायत्री नकारात्मक सिर हिलाती हुई बोली- ‘ यदि ऐसा होता तब तो तमाशा बन जाता। ये सब
रास्ते आमजनों के लिए बिलकुल बन्द हैं; और बन्द भी ऐसा कि कोई गुमान भी नहीं कर सकता कि बन्द है , या कि
कोई रास्ता भी है । कोई दस्
ु साहस करके किं चित दीख रहे रास्तों में आगे बढ़े भी तो भयंकर कष्ट झेले,या फिर आगे
जाकर बरु ी तरह फँस जाये। कई लोगों ने जान भी गँवाये हैं। यही कारण है कि कुछ रास्तों को शुरु में ही बन्द कर दिया
गया। तुमने तिलिस्म की बहुत सी कहानियां सुनी होगी। आज के आधुनिक विचारों वाली पीढ़ी इन सबको कपोल
कल्पना माने बैठी है ; किन्तु तिलिस्म कल्पना बिल्कुल नहीं है । हाँ, ये भले कह सकते हो कि इन्हें औपन्यासिक जामा
पहना दिया गया है । ताकि आम आदमी व्यर्थ परे शान न हो,और जान जोखिम में न डाले। ये सारे के सारे इलाके ऐसे
ही रहस्यमय हैं। सासाराम जिला मुख्यालय है ,जिले का नाम रोहतास है ,जो सतयुग के महाराज हरिश्चन्द्र के पुत्र
रोहित के नाम पर रोहतासगढ़ के कारण प्रसिद्ध है । कलियुग में विक्रमादित्य के बाद भी बहुत लम्बें समय तक यहां
ब्राह्मण राजा राज्य करते रहे हैं। बीच में मुगलकाल में यहाँ काफी उथल-पुथल हुआ। फिर अंग्रेजों ने अपने अन्दाज में
कहर ढाये। तिलस्मी खजाने के लिए कई बार प्रयास किये,राजा,मन्त्री,पुरोहित आदि को डराये, धमकाये, सताये। एक
बहुत ही गोपनीय बात की चर्चा अकसरहां मेरे मैके में होती थी कि रोहतासगढ़ के खजाने की चाभी चन्द्रगढ़(नवीनगर
प्रखंड) के राजपरु ोहित के पास है । राजा ने सरु क्षा के ख्याल से उन्हें गप्ु त भेदों को समझाते हुए सप
ु र्द
ु कर दिया था।
पिताजी के एक चचेरे भाई थे,जो इन सबके अच्छे जानकार थे। वे एक उच्च कोटि के साधक भी थे, और तिलिस्मी
मामलों के अच्छे जानकार भी। उनके साथ एक बार जाने का मौका मिला था मुझे भी। दादाजी,और पिताजी को भी ले
गये थे रोहतासगढ़ का सैर कराने। मैं दे खकर दं ग रह गयी- बिलकुल खल
ु ा दरवाजा,परन्तु समीप जाकर,अन्दर घस
ु ने
के लिए कदम बढ़ाते ही दरवाजे के बगल से दोनों ओर से तलवारें निकल कर, यूँ चलने लगी,मानों हाथ में लिए दो
सिपाही उसे भांज रहे हों। चाचा जी कहते थे कि एक गोरा साहब उसकी ताकत की परीक्षा के लिए लोहे की मोटी
सलाका बीच में डाला,और खट से दो टुकड़े हो गये। अब भला किसी आदमी की क्या गत होगी- सोच सकते हो। पता
नहीं अब चाचा जी कहाँ हैं, किस स्थिति में , क्यों कि एक बार गाँव की टोली गयी थी गुप्ताधाम,और उनके दे खते-
दे खते ही चाचा जी समा गये थे एक सुरंग में , यह कहते हुए कि अब कोई मेरा पीछा न करे । अब मुझे वापस गाँव नहीं
जाना है । यहीं गह
ु ा-वास करते, हुए शेष साधना परू ी करनी है ।’

चन्द्रगढ़ की बात पर मुझे याद आयी एक रहस्यमय घटना,जो इसी सदी के सातवें दशक की है । वहीं के
परु ोहित परिवार की बेटी रोहतास के पास रामडिहरा गांव में व्याही गयी थी। एक दिन अचानक वह बकझक करने
लगी। दे हाती माहौल ठहरा। लोगों ने भूत-प्रेत के भ्रम में ओझा-गुनी के द्वार खटखटाने शुरु किए; किन्तु कोई लाभ न
हुआ। लड़की ने स्पष्ट कहा कि किसी ओझा-गुनी से कुछ होना-जाना नहीं है । मेरे पिता ने जो अपराध किया है ,उसका
दण्ड मझ
ु े भग
ु तना पड़ रहा है । पछ
ू ने पर उसने एक रोचक,और रहस्यमयी कहानी सन
ु ायी।
उसने बतलाया– “ मेरे जन्म से कुछ पहले की बात है - परिवार में ही रोहतासगढ़ खजाने की गुप्त ताली थी। पुरोहित
का आवास चन्द्रगढ़ राजमहल का ही एक हिस्सा था। प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के अवसर पर राजा स्वयं एक गुप्त
रास्ते से, जो महल के भीतर ही कुलदे वी के स्थान से होकर जाता था, रोहतासगढ किले के अन्दर जाकर साफ-सफाई
का काम करता था। कुलदे वी के कक्ष में ही एक गहरा रहस्यमय कुआँ था,जो बड़े से कड़ाह से ढका रहता था,और उसके
ऊपर एक तलवार और ढाल रखा रहता था। सामान्य तौर पर उसे ही दे वी का प्रतीक मानकर पूजा-अर्चना की जाती
थी। महानिशा में बकरे की बलि भी दी जाती थी,उसी तलवार से,उसी स्थान पर। बलि के पश्चात ् ही कोई उस कड़ाह को
हटाकर, अन्दर प्रवेश कर सकता था। परु ोहित ने सुन रखा था कि बकरे के स्थान पर किसी विप्र बालक की बलि दी
जाये यदि तो चन्द्रगढ़ की कुलदे वी उस साधक पर प्रसन्न होकर रोहतासगढ़ खजाने की अकूत सम्पदा का स्वामी
बना दें उसे।

“ …मेरे पिता को धन का लोभ सता रहा था। वे ताक में लगे रहे किसी ब्राह्मण बालक की। संयोग से उनके पड़ोस में ही
चचेरी बहन का शिशु दिख गया, जो हाल में ही मैंके आयी थी,बालक का ‘सुदिन’ सधाने। लोभ, मनष्ु य को कहाँ तक
खड्ड में घसीट ले जाता है ,इसके जीते-जागते उदाहरण हैं मेरे पिता। दौलत की लालच में भागिनेय की बलि
दे कर,आश्वस्त हो पिताजी लाश खपाने के लिए आधी रात को पास की नदी की ओर जा रहे थे,स्वयं को निरापद
समझते हुए। संयोग से रात की गाड़ी पकड़ने के लिए नवीनगर रे लवे स्टे शन की ओर जाता,छुट्टी पर घर आया एक
सैनिक मिल गया,किन्तु गाड़ी पकड़ने की जल्दवाजी में राम-सलाम के बाद अपनी रफ्तार में आगे बढ़ गया,बिना
किसी मीन-मेष के। कश्मीर घाटी में अपनी ड्यूटी ज्वॉयन करने के दस
ू रे ही दिन वह गम्भीर रुप से बीमार हुआ।
मिलिटरी हॉस्पीटल में दाखिले के बाद वह अनाप-सनाप बकने लगा। फौजी भला भत
ू -प्रेत पर विश्वास क्या
करते,किन्तु वह सैनिक बारम्बार बके जा रहा था- ‘ मुझे मार कर दफनाने जा रहे पंडित को तुमने पकड़ा क्यों नहीं...।’
सैनिक अस्पताल के डॉक्टरों के पूछताछ करने पर उसने पूरी कहानी सुना दी- एक चश्मदीद गवाह की तरह; और
अन्त में उनलोगों ने भी तय किया कि क्यों न घटना की तहकीकात की जाय। सप्ताह भर बाद परू ी टीम पहुँच गयी
गाँव में । इधर गायब बालक की खोज जारी थी गांव में । छानबीन के बाद पिताजी पकड़े गये। समय पर उन्हें समुचित
सजा हुयी। घटना के एक साल के बाद,यानी कानन
ू ी कारवाई के बीच में ही उनके घर एक बच्ची ने जन्म लिया,वही मैं
हूँ। मैं अपने पिता से बदला लिये बिना नहीं मानंग
ू ी,क्यों कि मैं कोई और नहीं,बल्कि वही बालक हूँ,जिसका उन्होंने
बध किया था। ”

प्रसंग चल ही रहा था कि गिरधारी आ पहुंचा - ‘ अब चला जाय,भोजन के लिए।’

भूख मुझे बहुत जोरों की लग रही थी,अतः गिरधारी के कहते ही चल दिया गायत्री के साथ।
गत रात्रि की तरह ही आज भी वैसी ही व्यवस्था थी। भोजन उसी तरीके से हम सबने लिये। भोजन के बाद अपने कमरे
की ओर जाने लगा तो,वद्ध
ृ बाबा ने रोक कर कहा- “ विन्ध्याचल आये हो तो एक और रहस्यमय स्थान का दर्शन
अवश्य कर लेना। यहां से कोई तीन मील पश्चिम रे लवे लाइन के किनारे ही विरोही नामक गांव में एक स्थान है -
कंकालकाली का। प्रायः लोग उसे जानते भी नहीं हैं। अतः आमलोगों की ओर से बिलकुल उपेक्षित है ।”

वद्ध
ृ बाबा के कहने पर बाबा ने कहा- “ स्थान तो बहुत ही जागत
ृ और दर्शनीय है ; किन्तु वहां का असली रहस्य दे खना-
जानना है ,तो आधी रात के समय ही जाना अनुकूल होगा।”

बाबा की बात पर गायत्री बच्चों सी मचलती हुयी बोली- ‘ तो दिक्कत क्या है , मेरे उपेन्दर भैया साथ हैं,फिर क्या रात
क्या दिन ! ’

“ यानी कि तुम मुझे भी घसीटना ही चाहती हो वहां तक ? ” - बाबा ने हँसते हुए कहा- “ तो ठीक है ,भोजन हो ही गया।
थोडा विश्राम कर लो। फिर चला जायेगा। अभी तो समय भी बहुत है । रात ग्यारह के करीब निकलेंगे यहां से। विरोही
रे लवे स्टे शन तक ऑटोरिक्सा मिल जाता है । वहां से बिलकुल समीप ही है भगवती का स्थान। ”

आराम-विश्राम तो रोज दिन करना ही होता है । ऐसा सौभाग्य हर दिन

थोड़े जो मिलता है - एक साथ दो-दो बाबाओं का सानिध्य मिला है । इस सुअवसर का अधिक से अधिक लाभ उठाना
चाहिए– मैंने कहा तो बाबा फिर हँस पड़े।

वद्ध
ृ बाबा मस्
ु कुराते हुए बोले- “ यानी कि तम
ु दोनों को आराम करने का विचार नहीं है अभी। कुछ सत्संग करना चाहते
हो।”

गायत्री ने सिर हिलाया- “ जी महाराज ! विचार तो ऐसा ही है ,यदि आपलोगों को कोई कष्ट न हो।”

“ तो फिर आओ बैठा जाय,वटवक्ष


ृ तले। ‘शिवचैत्य’ से अधिक उत्तम स्थान और क्या हो सकता है सत्संग के लिए ? ”
- कहा वद्ध
ृ बाबा ने,और आगे बढ गये वटवक्ष
ृ की ओर। हम तीनों भी साथ हो लिए।

मेरे मन में भारद्वाज आश्रम की घटना घम


ू रही थी। मौके की तलाश में था कि कब बाबा से पछ
ू ा-जाना जाय। अभी
संयोग से दोनों मिल गये हैं। जिज्ञासा-पूर्ति का समय अनुकूल है । अतः शिला पर बैठते के साथ ही पूछ बैठा –
भारद्वाज आश्रम के बारे में कुछ बताएँ महाराज। जब से दर्शन किया हूँ,कई सवाल उठ रहे हैं। वहाँ की वास्तु-कला भी
बहुत ही आकर्षक लगी, और स्थान की चैतन्यता तो अकथनीय है । मेरे जैसा साधारण सा आदमी, जब इतनी शान्ति
क्षण भर में ही लब्ध कर ले सकता है ,फिर साधकों का क्या कहना। अब से पहले भी कई बार प्रयास किया था ध्यान
लगाने का, किन्तु लम्बें समय के प्रयास के बाद भी कुछ हो नहीं पाता,सिर्फ व्यर्थ के विचार ही घुमड़ते रह जाते हैं घंटों
बैठने पर भी। जब कि उस दिन, वहाँ क्षणभर में घटित हो गया। अजीब शान्ति मिली,आनन्द भी।
वद्ध
ृ बाबा ने सिर हिलाते हुए कहा- “ सच पूछो तो अष्टांगयोग के विषय में बहुत सी बातें जानने-समझने जैसी
हैं,किन्तु आमजन इसकी क्रिया-वैविध्य पर किं चित विचार भी नहीं करते। उनके पास कोई खास जिज्ञासा भी नहीं
होती,फिर विचार और प्रश्न का सवाल ही कहां रह जाता है । प्रसंगवश सबसे पहले तो मैं ये स्पष्ट कर दँ ू कि तुम जिसे
ध्यान कहते हो,वह वस्तुतः धारणा है । किसी विशिष्ट केन्द्र पर चित्त को एकाग्र करने का प्रयास ही आमजन में
ध्यान कहा जाता है । एकाग्रता को ही लोग ध्यान समझ लेते हैं; जबकि ध्यान प्रयास और अभ्यास का चीज नहीं है ।
वह तो स्वतः हो जाने वाली स्थिति है । अंग्रेजी में भी Consentretion and Meditation दो बिलकुल भिन्न शब्द हैं।
अष्टांगयोग में यम से लेकर प्रत्याहार तक का पञ्च-पादान साधन पथ के वाह्य क्रिया-कलाप हैं, धारणा अन्तः-वाह्य
का चौखट-तुल्य है ,और उसके बाद के दो पादान(ध्यान और समाधि) अन्तःक्रियायें हैं। सत्संग और स्वाध्याय से इन
वाह्य क्रियाओं का निरन्तर विकास करते हुए साधक चौखट तक आता है ,और फिर अन्तःक्रियाओं में छलांग लगा
जाता है ।”

वद्ध
ृ बाबा जरा ठहर कर फिर बोले- “ अभी तुम प्रयाग के भारद्वाज आश्रम की बात कर रहे थे। वहां हुयी अनुभूतियों पर
कुछ सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं तुम्हारे मन में । प्रसंगवश पहले उन दिव्य महानुभाव भारद्वाज के बारे में ही कुछ जान
लो। फिर अवसर पर कभी अष्टांगयोग पर बातें होंगी,क्यों कि अभी ये तुम्हारी जिज्ञासा में भी नहीं है ,और प्रश्न जब
तक अपना नहीं होता,तब तक दिया गया उत्तर भी व्यर्थ हो जाता है । इसका बड़ा ही अद्भत
ु प्रयोग किया है श्रीकृष्ण ने
अपने सखा अर्जुन के जिज्ञासाओं के शमन में । इस रहस्य को समझे बिना ही लोग आक्षेप लगा दे ते हैं कि यद्ध
ु जैसे
विकट अवसर पर गीता जैसे दिव्य ज्ञान का क्या औचित्य! अरे भाई दवा तो बीमार को ही खिलायी जायेगी न ! अर्जन
का दर्ब
ु ल चित्त बीमार हुआ कुरुक्षेत्र में ,तो फिर उसे उसका उपचार हस्तिनापुर में कैसे किया जाता? ” -प्रश्नात्मक सिर
हिलाते हुए बद्ध
ृ महाराज ने कहा,और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये पुनः कहने लगे- “ हमारे आर्यावर्त में एक से एक
विभति
ू हुए हैं,जिनका चिर ऋणि रहे गा समस्त मानव समाज; जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया मानव-
कल्याण हे तु। ऋषि भारद्वाज के जन्म और लालन-पालन के विषय में भी बड़ा ही रोचक और विडम्बना पूर्ण प्रसंग है ।
ये उतथ्य ऋषि के क्षेत्रज सन्तान कहे गये हैं, जब कि दे वगुरु बह
ृ स्पति के औरस पुत्र हैं। ”

वद्ध
ृ बाबा की बातों पर बीच में ही टोकती हुयी, गायत्री ने जिज्ञासा व्यक्त की- ‘ ये औरस,क्षेत्रज क्या होता है
महाराज?’

उन्होंने स्पष्ट किया- “ सन्तान के कई प्रकार कहे गये हैं। अपनी विवाहिता पत्नी से उत्पन्न सन्तान सर्वोत्तम
कोटि की होती है । सन्तानोत्पत्ति हे तु जिस परु
ु ष का वीर्य उपयोग होता है ,उस परु
ु ष के लिए उसका औरस पत्र

कहलायेगा। किन्तु निज विवाहिता स्त्री के गर्भ में कोई अन्य पुरुष अपना वीर्य स्थापित कर दे , तो इस प्रकार उत्पन्न
सन्तान उसके लिए क्षेत्रज कही जायेगी। यानी की क्षेत्र तो अपना ही हुआ, पर बीज किसी और का। क्षेत्र और बीज दोनों
ही किसी अन्य के ही हों,और लालन-पालन हे तु किसी और ने ग्रहण कर लिया हो,तो वह सन्तान उस ग्रहीता दम्पति
के लिए दत्तक पुत्र कहलायेगा। महर्षि भारद्वाज की माता (जननी) ममता थी, जो ऋषि उतथ्य की पत्नी थी, और
गर्भ में वीर्य स्थापित हुआ बह
ृ स्पति का। परिणामतः लोकभय या जो भी कारण रहा हो,ममता ने उसका परित्याग कर
दिया। उधर वपनकर्ता बह
ृ स्पति भी ग्रहण करने से अस्वीकर कर दिये। पालन-कार्य हुआ किसी और के द्वारा। माता
ममता और पिता बह
ृ स्पति दोनों द्वारा परित्याग कर दिए जाने पर मरुद्गणों ने इनका पालन किया,और तब इनका
एक नाम पड़ा-वितथ। सौभाग्य कहो या कि दर्भा
ु ग्य,कालान्तर में ,जब राजा दष्ु यन्त और शकुन्तला के पुत्र सम्राट
भरत का वंश डूबने लगा, तो उन्होंने पत्र
ु -प्राप्ति हे तु ‘मरुत्सोम’ नामक यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर मरुद्गणों ने
अपने द्वारा पालित पुत्र वितथ को उपहार स्वरूप, शकुन्तलानन्दन भरत को समर्पित कर दिया। भरत का दत्तक-पुत्र
बनने पर ये ब्राह्मण से क्षत्रिय हो गए,और नाम पड़ गया भरद्वाज। मूलतः ब्राह्मण होने के कारण आचार-विचार-
व्यवहार तो वही रहे गा न ! राजकीय परिवेश इन्हें रास न आया,फलतः हस्तिनापरु का लगभग परित्याग कर,व्रज-क्षेत्र
स्थित गोवर्द्धन पर्वत को अपना निवास बनाया, जहां इन्होंने काफी संख्या में वक्ष
ृ लगाए। ध्यान दे ने की बात है कि ये
उस जमाने का प्रसंग है ,जब ‘ब्रज’ ब्रज के रुप में प्रतिष्ठित नहीं हुआ था,और न गोवर्द्धन ही गोवर्द्धित था। ”

ये सब तो सत्युग का प्रसंग है न महाराज?- मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।

सिर हिलाते हुए वद्ध


ृ बाबा ने कहा- “ हाँ। उसी समय का प्रसंग है । महर्षि भारद्वाज आंगिरस की पन्द्रह शाखाओं
में से एक शाखा के प्रवर्तक तथा मंत्रदृष्टा ऋषि भी हैं। इन्हें आयुर्वेद शास्त्र का प्रवर्तक भी कहा गया है । इन्होंने
आयर्वे
ु द को आठ भागों में विभाजित और व्यवस्थित किया,जिसे अष्टांग आयर्वे
ु द के नाम से जाना जाता है । प्राय:
सभी आयुर्वेदज्ञ सुपरिचित हैं इस बात से। महर्षि ने इस अष्टांग आयुर्वेद का ज्ञान अपने शिष्यों को प्रदान किया।
स्वयं,आयुर्वेद की शिक्षा इन्होंने इन्द्र से ली थी। वायुपुराण,हरिवंश,भावप्रकाश आदि के अध्ययन से इन बातों की
जानकारी मिलती है । काशिराज दिवोदास और धनवन्तरि इन्हीं के शिष्य थे। भारद्वाज ऋषि काशीराज दिवोदास के
पुरोहित भी रह चुके हैं। इतना ही नहीं, महर्षि भारद्वाज ने सामगान को दे वताओं से प्राप्त किया था। ऋग्वेद के दसवें
मण्डल में कहा गया है - यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफा में गुप्त था,उसे
जाना,परन्तु भारद्वाज ऋषि ने स्वर्गलोक के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि दे वता से ही बह
ृ त्साम का ज्ञान प्राप्त
किया था। राष्ट्र को समद्ध
ृ और दृढ़ बनाने के लिए भारद्वाज ने राजा प्रतर्दन से यज्ञानष्ु ठान कराया था, जिससे प्रतर्दन
का खोया राष्ट्र उन्हें मिला था। इन्हें उत्तम कोटि का वैज्ञानिक कहने में भी जरा भी संकोच नहीं। रत्नप्रदीपिकाम ्
नामक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में वर्णन है – भारद्वाज ने प्राकृतिक हीरे और कृत्रिम हीरे के संघटन को विस्तार से बताया
है । ध्यातव्य है कि पचास के दशक के अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी द्वारा पहले कृत्रिम हीरे के निर्माण से भी
लाखों वर्ष पूर्व मुनिवर भारद्वाज ने कृत्रिम हीरा के निर्माण की विधि बतलाई थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि वे रत्नों के
पारखी ही नहीं, प्रत्युत, रत्नों की निर्माण-विधि के पूर्ण ज्ञाता भी थे। तुम नयी पीढी वालों को तो यह सुन कर आश्चर्य
होगा कि ऋषि भारद्वाज एक अद्भत
ु विलक्षण प्रतिभा-संपन्न विमान-शास्त्री भी थे। सच पछ
ू ो तो विमानन तकनीक
का इन्हें अन्वेषक कहना चाहिए। इनके द्वारा वर्णित,प्रायोगित विमान-सिद्धान्त अद्भत
ु हैं।”
मैं चौंका- क्या कहा आपने,दनि
ु या तो जानती और मानती है कि विमान के आविष्कारक राइटबन्धु थे?

“ नहीं,बिलकुल नहीं।”-एक साथ दोनों बाबाओं ने नकारात्मक सिर हिलाया। बद्ध


ृ बाबा ने आगे बतलाया - “ आर्यावर्त
की बहुत सी चीजें यहाँ से बाहर जाकर,या ले जायी जाकर प्रसिद्ध हुई हैं। किन्तु दःु ख इस बात का है कि उनके
अन्वेषकों का नाम भी वहीं वालों का हो गया है । विमानन,विद्यत
ु आदि भी इसी में एक है । आज बैट्रीसेल के विविध
रुपों को दनि
ु या अपनाये हुए है ,जो भारतीय मनीषी अगस्त का आविष्कार है । महर्षि भारद्वाज ने ही अगस्त्य के
समय के विद्युत ज्ञान को विकसित किया था। इस सम्बन्ध में एक रोचक जानकारी दे रहा हूँ- महर्षि भारद्वाज
द्वारा वर्णित विमानों में से एक है - मरुत्सखा विमान सिद्धान्त, जिसके आधार पर १८९५ ई. में मम्
ु बई स्कूल ऑफ
आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे,ने अपनी पत्नी,जो स्वयं भी संस्कृत
की विदष
ु ी थीं, की सहायता से विमान का एक नमन
ू ा तैयार किया था। दर्भा
ु ग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदष
ु ी
जीवनसंगिनी का दे हावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर १९१७ ई. को उनका
स्वर्गवास हो जाने के बाद उस मॉडल विमान तथा अन्य सामग्रियों को उनके उत्तराधिकारियों ने एक ब्रिटिश फर्म-
राइटब्रदर्स के हाथों बेच दिया था। आगे चलकर उन बन्धुओं ने ही विमानन-विद्या पर अपना ठप्पा लगा दिया।
महाराष्ट्र के सरकारी संग्रहालय में इस

सम्बन्ध में काफी सूचनाएँ हैं...।

“…ऋग्वेद के मंत्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषि समूहों द्वारा हुई है , उनमें भी भारद्वाज का स्थान है । ये छठे मण्डल
के ऋषि के रूप में ख्यात हैं। इनके नाम से भारद्वाज गोत्र भी प्रचलित है । अन्तरराष्ट्रीय संस्कृत शोध मंडल ने प्राचीन
पाण्डुलिपियों की खोज का विशेष प्रयास किया,जिसके परिणाम स्वरूप जो ग्रंथ मिले, उनके आधार पर भारद्वाज का
विमान-प्रकरण प्रकाश में आया। महर्षि भारद्वाज रचित यंत्रसर्वस्वम ् के विमान-प्रकरण की यती बोधायनकृत वत्ति

(व्याख्या) सहित पाण्डुलिपि मिली है , जिसमें प्राचीन विमान-विद्या सम्बन्धी अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा चमत्कारिक
तथ्य उद्घाटित हुए हैं। सार्वदे शिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली द्वारा इस विमान-प्रकरण का स्वामी ब्रह्ममनि

परिव्राजक की हिन्दी टीका सहित सम्पादित संस्करण वह
ृ त विमान शास्त्र के नाम से १९५८ ई. में प्रकाशित हुआ है ,जो
दो अंशों में प्राप्त है । इसके कुछ अंश बड़ौदा,गुजरात के राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों में मिले,जिसे वैदिक
शोध-छात्र प्रियरत्नआर्य ने विमान-शास्त्रम ् नाम से वेदानस
ु ंधान सदन, हरिद्वार से प्रकाशित कराया। बाद में कुछ
और महत्वपूर्ण अंश मैसूर राजकीय पुस्तकालय की पाण्डुलिपियों से प्राप्त हुए। इस ग्रंथ के प्रकाशन से भारत की
प्राचीन विमान-विद्या सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यजनक तथ्यों का पता चला। भारद्वाज प्रणीत
यंत्रसर्वस्वम ् ग्रंथ तत्कालीन प्रचलित सूत्र शैली में लिखा गया है । इसके वत्ति
ृ कार यतिबोधायन ने अपनी व्याख्या में
स्पष्ट लिखा है कि- महर्षि भारद्वाज ने वेदरूपी समुद्र-मन्थन करके, मनष्ु यों को अभीष्ट फलप्रद यंत्रसर्वस्वम ्
ग्रंथरूप नवनीत (मक्खन) प्रदान किया। 'यंत्रसर्वस्वम ्’ में स्पष्ट है विमान बनाने और उड़ाने की कला– यानी सम्पूर्ण
वैमानिकी-प्रकरण की रचना वेदमंत्रों के आधार पर ही की गई है । विमान की तत्कालीन प्रचलित परिभाषाओं का
उल्लेख करते हुए महर्षि भारद्वाज कहते हैं कि वेगसाम्याद् विमानोण्डजजानामितिं अर्थात ् आकाश में पक्षियों के
वेग सी जिसकी क्षमता हो, वह विमान कहलाता है । वैमानिक प्रकरण में आठ अध्याय हैं, जो एक सौ अधिकरणों में
विभक्त और पांच सौ सूत्रों में निबद्ध हैं। इस प्रकरण में बतलाया गया है कि विमान के रहस्यों का ज्ञाता ही उसे चलाने
का

अधिकारी है । इन रहस्यों की संख्या बत्तीस है । यथा- विमान बनाना,उसे आकाश में

ले जाना,आगे बढ़ाना, टे ढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना,वेग को कम या अधिक करना,


लंघन(लांघना),सर्पगमन, चपल, परशब्दग्राहक, रूपाकर्षण,क्रिया- रहस्य-ग्रहण, शब्दप्रसारण, दिक्प्रदर्शन इत्यादि ।
रहस्यलहरी नामक ग्रंथ में विमानों के इन रहस्यों का विस्तत
ृ वर्णन है ।”

वद्ध
ृ बाबा की बातें अति रहस्यपूर्ण और ज्ञानवर्धक थी। हमदोनों तन्मयता पूर्वक सुन रहे थे। मैंने करवद्ध आग्रह किया
कि बाबा इसे और भी विस्तार से बतलावें ।

वद्ध
ृ बाबा ने कहा - “ विस्तार से ही तो बता रहा हूँ। ये विमान मुख्य रुप से तीन प्रकार के होते हैं – १) मान्त्रिक यानि
मंत्र-चालित, जिसे दिव्य विमान भी कहा जाता है । २) तांत्रिक यानि विविध औषधियों तथा शक्तिमय वस्तओ
ु ं से
संचालित तथा ३) कृतक यानी यन्त्र-चालित...

“…यन्त्रसर्वस्वम ् में ही अन्य प्रसंग में उक्त तीन के ही उपप्रकारों की भी चर्चा है । मान्त्रिक विमान का चलन त्रेतायग

तक रहा है । धनाध्यक्ष कुबेर का पुष्पक नामक विमान, जिसे लंकापति रावण ने हर लिया था,एक मान्त्रिक विमान ही
था। इसकी कई विशेषताओं में एक यह भी था कि कितने हूं लोग बैठ जायें,एक स्थान रिक्त ही रह जाता था। यानी
स्थान-विस्तार-गण
ु -यक्
ु त था। लंका-विजयोपरान्त श्रीराम जानकी सहित उसी विमान से अयोध्या लौटे थे। रास्ते में
उन्होनें महर्षि भारद्वाज का दर्शन भी किया था। अयोध्या पहुंचने के पश्चात ् उस मन्त्र-चालित पष्ु पक विमान को
आदे श दे कर मूल स्वामी कुबेर के पास भेज दिया था। इससे प्रमाणित होता है कि विमान को बिना चालक के भी
संचालित किया जा सकता है । आजकल दरू स्थ नियन्त्रण-व्यवस्था(रिमोट-कन्ट्रोल) से विविध यानों को संचालित
किया जा रहा है ,यह कोई नयी खोज नहीं है ,बल्कि हमारे महर्षि की ही दे न है । वाल्मीकि रामायण में भी इसकी विशद
चर्चा है । दस
ू रे शब्दों में कहें कि तान्त्रिक विमानों का उपप्रकार छप्पन कहा गया है । इस प्रकार के विमानों का चलन
श्रीकृष्ण के द्वापर यग
ु तक रहा है । तत
ृ ीय श्रेणी का कृतक विमान भी पच्चीस उपप्रकारों वाला होता है । जिन
सिद्धान्तों का वर्णन महर्षि ने किया है ,उनमें अभी भी बहुत से ऐसे हैं,जिनकी मानसिक कल्पना भी आधुनिक
वैज्ञानिकों के लिए कठिन सा है । वर्तमान समय के जेट,हे लिकॉप्टर,रडार और सुडार के पकड़ से बाहर के विविध
आकाशीय और जलीययानों की चर्चा मिलती है उनके ग्रन्थों में । भूतयान का प्रसंग मिलता है ,जिसे अल्पज्ञ लोग भूतों
द्वारा चालित समझ लेते हैं,जब कि यहां भूत शब्द का अर्थ ही भिन्न है - वस्तुतः ये आकाशादि पंचमहाभूत हैं, न कि
भूत-प्रेत। यानी कि जल से,वायु से,धुए से,आग्नेय ऊर्जा आदि से वे चालित होते थे। एक विशेष प्रकार के यान की भी
चर्चा है जो जल,स्थल और वायु में समान रुप से गतिशील हो सकता है । आधुनिक आविष्कार का ‘होवरक्राफ्ट’ भी
उसी सोच पर आधारित प्रतीत होता है । महर्षि के सूत्रों की व्याख्या करते हुए यति बोधायन ने आठ प्रकार के विमान
बतलाए हैं-१. शक्तियुद्गम - बिजली से चलने वाला, २.भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला,३.धूमयान -
गैस से चलने वाला, ४.शिखोद्गम - तेल से चलने वाला,५.अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला, ६.तारामुख यानी
चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला,७.मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणियों की शक्ति से चलने वाला,तथा
८.मरुत्सखा यानी वायु से चलने वाला। महर्षि रचित एक अन्य पस्
ु तक- अंशब
ु ोधिनी भी है ,जिसमें अन्य विविध
विद्याओं की चर्चा है । इस प्रकार हम पाते हैं कि महर्षि भारद्वाज का अद्भत
ु योगदान रहा है प्राचीन विज्ञान में । ”

बातें अभी और भी होती,क्योंकि बद्ध


ृ बाबा भावमय होकर महर्षि चरित

का गण
ु गान कर रहे थे, किन्तु उपेन्द्र बाबा ने बीच में ही टोका- “ तब, अभी और

भारद्वाज चरित ही सुनने का विचार है या कि कंकालकाली का दर्शन भी करोगे? ”

बाबा के टोकने पर,मेरा ध्यान घड़ी पर गया- रात के ग्यारह बजने ही वाले थे। ज्ञानवर्धक विषयवस्तु से तप्ति
ृ तो नहीं
हुई थी,किन्तु कंकालकाली के आकर्षण को भी नकारा नहीं जा सकता। काश छुट्टी थोड़ी लम्बी ली होती... – बद
ु बद
ु ाते
हुए उठ खड़ा हुआ।

तारा मन्दिर से बाहर आते ही ऑटो मिल गया। उपेन्द्र बाबा ने उसे हितायत दे दी कि विरोही में घंटे भर करीब रुकना है
हमलोगों को। इस बीच या तो वह वहीं रुका रहे ,या पन
ु ः घंटे भर बाद आ जाये लेने के लिए। क्यों कि उन्हें पता था कि
विरत रात में उधर से वापस आने के लिए कोई साधन मिलना कठिन है ।

कोई आधे घंटे बाद हमलोग विरोही पहुंच गये। संयोग से टे म्पो वाला वहीं

पास का ही रहने वाला था,अतः कोई परे शानी की बात नहीं थी,न उसके लिए और न हमलोगों के लिए। स्टे शन पर
हमलोगों को छोडकर वह अपने आवास पर चला गया, और हमलोग कालीमन्दिर की ओर रुख किये।

विरोही गांव के लगभग बीच में एक विशाल वटवक्ष


ृ के नीचे ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ छोटा सा मन्दिर- आसपास की
स्थिति से ही लग रहा था कि यह स्थान उपेक्षित सा है । कोई आता-जाता भी बहुत कम ही है । मन्दिर के दायीं ओर
यानी दक्षिण की ओर एक विशाल कुआँ भी है ,जिसमें जल तो है ,पर बिलकुल अनप
ु योगी- कुछ कूड़े-कचरे भी पड़े हुए।
कुएँ का जगत टूटा-फूटा,गन्दा-सन्दा। आसपास कुछ खट
ूँ े गड़े हुए- मवेशियों को बाँधने हे तु,किन्तु शायद रात का
वक्त होने के कारण कोई मवेशी वहाँ वँधा हुआ नहीं दिखा। गाँव के आवारा कुत्ते भों-भों करते हुए, ग्रामवासियों को
हमारे प्रवेश की सच
ू ना दे कर,अपना कर्त्तव्य परू ा कर रहे थे। एक बढ
ू ा-सा श्वान ऊँचे चबत
ू रे पर विराज रहा था,आवारा
कुत्तों के मुखिया की तरह। ज्यों ही हमलोग चबूतरे पर चढ़ने के लिए आगे बढ़े ,वह जोरों से गर्रा
ु या। बाबा ने हाथ से
संकेत करते हुए उसे शान्त रहने को कहा। मानों उनकी भाषा और भाव को भाँप गया हो, स्वामीभक्त सेवक-सा आकर
पैरों में लोटकर,दम
ु हिलाने लगा। बाबा ने अपनी झोली से निकाल कर कुछ खाद्य-पदार्थ उसे अर्पित करते हुए बोले- “
ये महाभैरव के साक्षात ् वाहन हैं। इनकी सेवा किये वगैर किसी की मजाल नहीं जो इस मन्दिर में प्रवेश पा जाये।”

मन्दिर का आकार बिलकुल ही छोटा था - न सभामंडप,न परिक्रमा-पथ। या तो ये बनाये ही नहीं गये होंगे, या
कालान्तर में नष्ट हो गये होंगे; किन्तु कुछ भी अवशेष दिख न रहा था। आधुनिक शैली का लोहे का ग्रील लगा
था,जिसमें कंु डे की भी सही व्यवस्था न थी। बगल में एक जीर्ण-शीर्ण कोठरी नजर आयी। शायद किसी जमाने में
पज
ु ारी या किसी साधक का स्थल रहा हो।

ग्रील खोल कर बाबा अन्दर घुसे। उनके साथ ही हमदोनों भी प्रवेश किये। भक्तों ने इतनी कृपा अवश्य की थी कि
मन्दिर के भीतर बिजली का एक बल्व लटका दिया था। उधर कुएँ के पास लकड़ी के परु ाने खम्भे पर भी एक लट्टू
टिमटिमाता हुआ अपने अस्तित्व की गुहार लगा रहा था,जिसकी वजह से कुएँ के पास हल्की रौशनी हो रही थी।
मन्दिर के भीतर बिलकुल साफ-सुथरा था। लगता है किसी भक्त ने रात्रि काल में ही आरती-वन्दना की थी, कारण की
दे वदार-अगरु-गग
ु ल
ु -धन
ू े का परिमल मन्दिर के भीतरी वातावरण में अभी भी व्याप्त था।

कोई चार-साढ़े चार फीट की, शवारुढ़ा मूर्ति काले पत्थर की बनी हुई-

हाथ भर ऊँचे चबूतरे पर विराज रही थी। जीवन में अनेक मूर्तियाँ दे खी है मैंने, किन्तु इस तरह का मूर्ति-दर्शन-
सौभाग्य नहीं मिला था। आकृति पर विशेष ध्यान दे ने पर ही,खास कर मण्
ु डमाला धारिणी,और शवारुढा होने के
कारण ही दावे के साथ कहा जा सकता था कि मूर्ति निश्चय ही काली की है ,जो कंकाल मात्र हैं- एक-एक हड्डियां
सहजता से गिनी जा सकती थी। गले में पड़ी आपादकण्ठ मुण्डमाल भी कंकालवत ् ही था। कोटरनुमा आँखें बड़ी
भयावह लग रही थी,जो आकार में भी अपेक्षाकृत काफी बड़ी प्रतीत हुई।

बाबा के इशारे पर हम तीनों वहीं बैठ गये। बाबा ने हमें सावधान करते हुए कहा- “ अन्य मन्दिरों की भाँति यहाँ
तम
ु लोगों को ध्यानस्थ होने नहीं कहूँगा,किन्तु सजग-चैतन्य अवश्य रहना। मैं अभी कुछ क्रिया सम्पन्न कर रहा हूँ।
इसके पश्चात ् जो कुछ दृश्य दिखे,उससे जरा भी घबराना नहीं।”

उक्त निर्देश दे कर,बाबा वीरासन-मद्र


ु ा में बैठ गये,और किसी स्तोत्र का पाठ करने लगे। स्तोत्र की वाणी तो वैखरी ही
थी,किन्तु कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़ रहा था।

थोड़ी दे र बाद स्तोत्र पाठ समाप्त हो गया। बाबा ने अपनी झोली से काले खड़े उड़द के कुछ दाने निकाले,साथ ही सरसों
के आकार का कुछ और भी अनजान दाना - बिलकुल सफेद-सा। क्या यह ‘श्वेत सर्सप’ है - मेरे मन में प्रश्न उठा,और
स्वयं ही उत्तर भी मिला- हाँ,निश्चित ही। इस प्रजाति के बारे में सिर्फ तन्त्र की किताबों में पढ़ा था,दे खने का मौका
आज ही मिला। उन्हें वहीं सामने जमीन पर रखने के बाद, घघ
ुं ची के लाल और श्वेत दाने भी निकालकर आसपास रख
दिये,और चामुण्डा मन्त्र का सस्वर पाठ करने लगे।

कुछ पल बीते होंगे कि पीछे से जोरों की खड़खड़ाहट सुनायी पड़ी- ठीक वैसे ही जैसे कि कुएँ में ‘रहट’ चलने की होती
है ।। बैठते वक्त ही बाबा ने हिदायत कर दिया था कि मर्ति
ू के ठीक सामने से जरा हट कर ही बैठना चाहिए यहाँ- बायीं
या दायीं ओर। हमदोनों बायीं ओर बैठे थे,और बाबा दायीं ओर। बीच में - द्वार के सीध वाला स्थान रिक्त था।

खड़खडाहट की आवाज पर,गर्दन हठात ् पीछे घम


ू गया- आवाज की वजह जानने को; किन्तु जो भी नजर आया उसे
दे खते ही रोंगटे खड़े हो गये। बाबा का संरक्षण,और न घबराने का आश्वासन न रहता यदि, तो शायद चीख उठता। मैंने
दे खा - ताजे लहू से लथपथ एक नरमुण्ड स्वतः सरकते हुए मन्दिर का चौखट लाँघ रहा है ,और अकेला नहीं,उसके पीछे
और भी नरमण्
ु ड, उसी अवस्था में सरकते चले

आ रहे हैं।

चौखट लाँघकर, नरमुण्ड सीधे मूर्ति के ग्रीवा तक सरकते हुए पहुँच कर थिर हो गया। उसके ठीक नीचे दस
ू रा नरमुंड
भी स्थित हो गया,और दे खते ही दे खते नरमण्
ु डों की माला तैयार हो गयी काली के गले में । इतना ही नहीं, काली की
मूर्ति भी अन्य मूर्तियों की भाँति परिपष्ु ट- मांसल प्रतीत होने लगी। आँखों से अद्भत
ु तेज निकलने लगा, जिह्वा
लपलपा रही थी। कटार भी गतिशील था। ऐसा प्रतीत हो रहा था,मानों मूर्ति नहीं साक्षात ् काली विराज रही हों।

मेरा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। लाख सम्भालने पर भी जूड़ीताप के मरीज की तरह वदन काँप रहा था।
गायत्री की भी लगभग यही दशा थी।

बाबा ने कठोरता पूर्वक कहा – “ डरो नहीं। घबराओ नहीं जरा भी। कालीकर्पूरस्तोत्र का पाठ प्रारम्भ करो। एक मात्र यही
उपाय है - इस स्थान पर। भय-मुक्त होकर, मातेश्वरी की कृपा प्राप्त करो। इस अवस्था का दिव्यदर्शन बहुत ही
सौभाग्य से प्राप्त होता है । तुमलोगों पर वद्ध
ृ बाबा की महती कृपा है ,जो यहाँ तक आने को प्रेरित किये हैं, अन्यथा यहाँ
आता कौन है ,और आता भी है यदि, तो पाता कहाँ कुछ है ! स्थान की वीरानगी दे ख वापस चला जाता है ।”

संयोग से मुझे कालीकर्पूरस्तोत्र याद है । किसी जमाने में एक शुभेच्छु विप्र ने यह कह कर इसका नियमित पाठ करने
का सुझाव दिया था कि इससे जीवन की अति अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कदापि बाधित नहीं होगी-
अतिअनिवार्य; और तब से लगभग साधे हुए था,मगर सिर्फ तोतारट। इसके गढ़
ू रहस्यों पर न ध्यान गया था और न
जिज्ञासा ही उठी थी ; किन्तु आज इस महाभैरवी के समक्ष बाबा ने ज्यों ही आदे श दिया पाठ का,त्यों ही एक अजीब
झटका- सा लगा, और पूरा शरीर जो पहले ही कम्पायमान था,और भी कांप उठा, साथ ही अभिज्ञानित हो उठा –
कालीकर्पूर के तार-तार खुलने लगे। जिन क्लिष्ट और दरु
ु ह शब्दों का गूढ़ार्थ किसी कोष में भी न मिला था,
स्वतःस्पष्ट होने लगा। अब भला ‘तल्प’ का अर्थ आसन,‘पलल’ का अर्थ मांस-कौन बताता ? सच्चे गुरु-मार्गदर्शक
बहुत ही भाग्यवानों को लब्ध होते हैं।

क्षण भर में ही काय-कम्प थमने लगा । गायत्री मेरे साथ स्वर में स्वर मिलाने लगी– कर्पूरं मध्यमान्त्यस्वरपररहितं
सेन्द ु वामाक्षियक्
ु तं, बीजं ते मातरे तत ् त्रिपरु हरवधु त्रिः कृतं ये जपन्ति । तेषां गद्यानि पद्यानि च
मुखकुहरादल्
ु लसन्त्येव वाचः,स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधररुचिरुचिरे सर्वसिद्धिं गतानाम ् ।।१।।ईशानः
सेन्दव
ु ामश्रवणपरिगतो बीजमन्यन्महे शि, द्वन्द्वंते मन्दचेता यदि जपति जनो वारमेकं कदाचित ् । जित्वा
वाचामधीशं धनदमपि चिरं मोहयन्नम्बज
ु ाक्षी वन्ृ दं चन्द्रार्धचड
ू े प्रभवति स महाघोरशावावतंसे ।।२।। ईशौ
वैश्वानरस्थः शशधरविलसद्वामनेत्रण
े युक्तो, बीजं ते द्वन्द्वमन्यद्विगलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति । द्वेष्टारं
घ्नन्ति ते च त्रिभुवनमभितो वश्यभावं नयन्ति,सक्
ृ कद्वन्द्वास्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे कालिकेति ।।३।। ऊर्ध्वं
वामे कृपाणं करकमलतले छिन्नमुण्डं ततोऽधः,सव्येऽभीतिं वरं च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिके च । जप्त्वैतन्नाम ये
वा तव विमलतनुं भावयन्त्येतदम्ब,तेषामष्टौ करस्थाः प्रकटितरदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य ।।४।। वर्गाद्यं वह्निसंस्थं
विधुररतिवलितं तत्त्र्ययं कूर्चयुग्मं,लज्जा द्वन्द्वं च पश्चात ् स्मितमुखि तदधष्ठद्वयं योजयित्वा । मातर्ये वा
जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्तः स्वरुपं, ते लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरुपा भवन्ति ।।५।। प्रत्येकं वा
द्वयं वा त्रयमपि च परं बीजमत्यन्तगह्
ु यं ,त्वन्नाम्ना योजतित्वा सकलमपि सदा भावयन्तो जपन्ति । तेषां
नेत्रारविन्दे विहरति कमलावक्त्रशुभ्रांशुविम्बे,वाग्दे वी दे वि मुण्डस्रगतिशयलसत्कण्ठपीनस्तनाढ्ये ।।६।। गतासूनां
वाहुप्रकरकृतकाञ्चीपरलसन्नितम्बां दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिनयनाम ् ।

श्मशानस्थे तल्पे शवहृदि महाकालसुरत प्रसक्तां त्वां ध्यायन ् जननि जडचेता अपि कविः ।।७।। शिवाभिर्घोराभिः
शवनिवहमुण्डास्थिनिकरै ः परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम ् । प्रविष्टां सन्तुष्टामुपरि सुरतेनातियुवतीं सदा
त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः ।।८।। वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो न धाता नापीशो न
हरिरपिन ते वेत्ति परमम ् । तथाऽपि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माननमिते तदे तत ् क्षन्तव्यं न खलु पशुरोषः
समुचितः।।९।।

समन्तादापीनस्तनजघनदृग्यौवनवती रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम ् ।

विवासास्त्वां ध्यायन ् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः समस्ताः सिद्धौघा भुवि चिरतरं जीवति कविः।।१०।। समाः
स्वस्थीभूतां जपति विपरीतां यदि सदा,विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम ् । तदा तस्य
क्षोणीतलविहरमाणस्य विदष
ु ः कराम्भोजे वश्या हरवधु महासिद्धिनिवहाः ।।११।। प्रसत
ू े संसारं जननि जगतीं
पालयति वा समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च । अतस्त्वां धाताऽपि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिःरतिरपि महे शोऽपि
प्रायः सकमपि किं स्तौति भवतीम ् ।।१२।। अनेके सेवन्ते भवदधिकगीर्वाणनिवहान ् विमूढास्ते मातः किमपि न हि
जानन्ति परमम ् । समाराध्यामाद्यां हरिहरविरञ्च्यादिविबध
ु ै प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरसमहानन्दनिरताम ् ।।१३।।
धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम ् । स्तुतिः का ते मातस्तव
करुणया मामगतिकं प्रसन्ना त्वं भूया भवमननुभूयान्मम जनुः ।।१४।। श्मशानस्थः स्वस्थो गलितचिकुरो
दिक्पटधरः सहस्रं त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम ् । जपंस्तत ् प्रत्येकं मनुमपि तव ध्याननिरतो महाकालि स्वैरं
स भवति धरित्रीपरिवढ
ृ ः ।।१५।।

गह
ृ े सम्मार्जन्या परिगलितवीर्यं हि चिकुरं समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने । समुच्चार्य प्रेम्णा मनुमपि
सकृत ् कालि सततं गजारुढो याति क्षितिपरिवढ
ृ ः सत्कविवरः ।।१६।। सुपुष्पैराकीर्णं कुसुमधनुषो मन्दिरमहो पुरो
ध्यायन ् ध्यायन ् जपति यदि भक्तस्तव मनम
ु ् । स गन्धर्वश्रेणीपतिरिव कवित्वामत
ृ नदी नदीनः पर्यन्ते
परमपदलीनः प्रभवति ।।१७।। त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम ् ।
समासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो जनो यो ध्यायेत्त्वामपि जननि स स्यात ् स्मरहरः ।।१८।। सलोमास्थि
स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं मैषं वौष्ट्रं नरमहिषयोश्छागमपि वा । वलिं ते पूजायामपि वितरतां मर्त्त्यवसतां
सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ।।१९।।

वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो दिवा मातर्युष्मच्चरणकमलध्याननिरतः ।

परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदे न च मनुं जपेल्लक्षं सम्यक् स्मरहरसमानः क्षितितले ।।२०।। इदं स्तोत्रं मातस्तव
मनस
ु मद्ध
ु ारणमनु स्वरुपाख्यं पादाम्बज
ु यग
ु ल- पज
ू ाविधियत
ु म ् । निशार्धे वा पज
ू ा समयमधि वा यस्तु पठति
प्रलापस्तस्यापि प्रसरति कवित्वामत
ृ रसः ।।२१।। कुरङ्गाक्षीवन्ृ दं तमनुसरति प्रेमतरलं वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि
कुबेरप्रतिनिधिः । रिपुःकारागारं कलयति परं केलिकलया चिरं जीवन ् मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनु ।।२२।।

।। ऊँ श्री कालीकर्पूरस्तोत्रंदेव्यार्पणमस्तु।।

स्तुति समाप्त होते-होते शरीर में अद्भत


ु स्फूर्ति का समावेश हो गया। शरीर इतना हल्का प्रतीत होने लगा,मानों हवा में
उड़ चलँ ।ू माँ के वरद हस्त का स्पष्ट स्पर्श सिर पर अनुभव कर रहा था। साथ ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ऊँचे
आकाश में कहीं प्रें खादोला पर दोलायमान हो रहा हूँ। चारो ओर दिव्य परिमल सव
ु ासित है । आँखें खोलने की इच्छा न
हो रही थी, भय लग रहा था कि कहीं ये अनुभूति खो न जाये।

बाबा ने पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- “ चलो, अब तो आँखें खोलो। स्तति

परू ी हो गयी,और माँ ने स्वीकार भी कर लिया,तम


ु दोनों की प्रार्थना को। आज तम

दोनों सच में धन्य हो गये,मेरे गुरुमहाराज का अतिशय अहै तुकी कृपा वर्षण होगया

तुमलोगों पर। ”
आँखें खोलती हुई गायत्री ने कहा- ‘ धन्य तो अवश्य हो गयी,मातेश्वरी की कृपा से, किन्तु इसमें आपके
गुरुमहाराज की कृपा... ? ’

बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा- “ तो क्या समझती हो, मुस्कुराते हुये बाबा ने कहा- “ ये सब दृश्य तुम मेरी वजह
से दे खने में सक्षम हुई ? कदापि नहीं । वद्ध
ृ महाराज ने ही प्रेरित किया यहाँ आने को, और आगे की व्यवस्था भी सब
उन्हीं की कृपा का परिणाम है । विन्ध्याचल तो हजारों-लाखों लोग आते हैं, किन्तु बहुत कम ही लोग ऐसे हैं,जो यहाँ के
बारे में जानते हैं या यहाँ तक आ पाते हैं। और उन दर्शन-लब्ध व्यक्तियों को भी क्या इस दिव्यलीला का दर्शन-लाभ
मिल पाता है ! कदापि नहीं। यह तो कहो कि उन्होंने ही तम्
ु हें प्रेरित किया आने को,और मझ
ु े इशारा किया कि तम
ु लोगों
को मातेश्वरी के असली रुप का दर्शन कराने में सहयोगी बनँ।ू सो मैंने उनके आदे श का पालन किया— मात्र निमित्त
बनकर। सच पूछो तो यदि उनकी कृपा न हुई होती तो मुझमें भी इतनी क्षमता न थी,जो तुम्हें ये रुप दिखा सकता। ये
कोई बाजीगरी थोड़े जो है ।”

मैं अभी भी अभिभूत था,कालिका के दिव्य रुप का दर्शन करके। ऐसा लग रहा था,मानों नशा तो उतर गया,पर
‘खम
ु ारी’ अभी गयी न हो। बाबा उठ खड़े हुए, और इशारा किये- यहाँ से बाहर चलने को। मैंने गौर किया- मन्दिर से
बाहर निकलते समय वे मूर्ति की ओर मँह
ु किये,पीछे की ओर सरकते हुए निकल रहे थे, साथ ही इस बात का ध्यान भी
रख रहे थे कि मार्ग में गिरे ताजे लहु पर कदाचित पाँव न पड़ जाएँ। आसपास की अधिकांश भूमि रक्त-रं जित थी।
उनके दे खादे खी, हमदोनों ने भी ऐसा ही किया।

बाहर आकर बाबा पन


ु ः रुक गये,और कोई मन्त्रोच्चारण करने लगे। इस बार का मन्त्र भी कुछ वैसा ही
था,जिसके शब्द तो स्पष्ट सन
ु ायी पड़ रहे थे,किन्तु अर्थ और भाव कुछ समझ न पा रहा था।

मन्त्र पाठ समाप्त करके उन्होंने कहा- “ अब जरा इधर आ जाओ,कुएँ के समीप, और ध्यान उधर मन्दिर की
ओर भी लगाये रखो।”

मैंने दे खा- मन्दिर का चौखट लाँघता एक नरमण्


ु ड वापस आ रहा है ,उसी

भाँति सरकता हुआ,और कुएँ के समीप आकर छलांग लगा गया,जैसे कोई आदमी आत्महत्या करने के लिए कुएँ में
कूद रहा हो। कोई घड़ी भर लगे होंगे,सारा का सारा नरमण्
ु ड पर्व
ू की भाँति सरकता हुआ कुएँ के पास आया,और छलांग
लगाता गया। कुएँ में गिरने से पहले प्रत्येक मुण्ड उछाले गये कन्दक
ु की तरह कोई दो हाथ भर ऊपर उठ रहा था, और
झपाक से अन्दर जा पहुँचता था। दृश्य अत्यन्त कौतूहल पूर्ण रहा। मैं मन ही मन गिनती भी गिने जा रहा था- मुण्डों
की संख्या परू े एक माला के बराबर- एक सौ आठ थी। संख्या परू ी हो गयी,तब बाबा ने साष्टांग दण्डवत ् किया भमि
ू पर
लोट कर। हम दोनों ने भी उनका अनुपालन किया। आसपास की पूरी भूमि तो साफ थी,किन्तु कुएँ के जगत पर एक
जगह थोड़ा का ताजा रक्त अभी भी नजर आ रहा था। आगे बढ़ कर बाबा ने उसे अपने अंगठ
ू े में लगाया, और सीधे मेरे
भ्रूमध्य में तिलक लगा दिया। फिर शेष बचे रक्त से अपनी मध्यमा को रं जित कर गायत्री के कण्ठ दे श में लगा दिया।
पुनः मध्यमा द्वारा ही स्वयं भी तिलक किया,और कहा- “ अब यहाँ से चलना चाहिए।”

मेरे मन में कुछ सवाल घुमड़ रहे थे,किन्तु मेरे कुछ पूछने से पहले गायत्री ने ही सवाल कर दिया- ‘ भैया ! ये
कर्पूरस्तोत्र के बारे में कुछ कहो न । इनको बहुत पहले औरं गावाद,पंणरिया के शिवशंकर पंडितजी ने बतलाया था
नियमित पाठ करने के लिए विशेष कर रात्रि में सोने से पहले। और यह भी कहा था कि इसे साध लो, बहुत ही उपयोगी
चीज है । किन्तु जानते ही हो कि इनको इन सब चीजों में बहुत आस्था तो है नहीं। हर चीज को भ्रम और अविश्वास से
मापते हैं। नतीजा ये हुआ कि कभी भी नियमितता बनी नहीं। उन्होंने लगातार,अवाधित रुप से परू े एक वर्ष अवश्य
साधने को कहा था। इनकी अनास्था दे खकर,मैं ही साध ली। मेरा क्रम कभी टूटा नहीं,कुछखास पाँच दिनों को छोड़
कर। और इसी का सुफल मानती हूँ कि लाख परे शानी झेलते हुए भी ऐसा कभी नहीं हुआ कि नित्य के अत्यावश्यक
खर्च में कोई दिक्कत हुई हो। किसी न किसी तरह गह
ृ स्थी की गाड़ी चलती ही गयी; और अब तो तुम्हारी कृपा से...। ’

बाबा ने बीच में ही टोका- “ मेरी कृपा-वप


ृ ा की बात न करो। मातेश्वरी की ही कृपा सर्वोपरि है । वही सष्टि
ृ का
सज
ृ न करती है ,वही संहार भी। उन्हीं की प्रेरणा से मैं मिला तम
ु लोगों को। उन्हीं की प्रेरणा से यहाँ तक आये भी
तुमलोग; और आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आगे भी उनकी अहै तुकी कृपा मिलती रहे गी; वशर्ते कि मेरे बताये हुए
मार्ग का अनुशरण करते रहो। विन्ध्याचल की इस यात्रा में बहुत कुछ दे ने-दिखाने, जताने का प्रयास किया है मैंने।
आगे तम
ु लोग जानो और तम्
ु हारा काम जाने।”

बातें करते हुए हमलोग सड़क पर आ पहुँचे। लाइट-पोस्ट के नीचे ऑटो

वाला हमलोगों का इन्तजार कर रहा था।

तारा-मन्दिर पहुँचते-पहुँचते रात काफी बीत चुकी थी। करीब पौने दो बजने वाले थे। प्रवेश द्वार से भीतर आते ही
वद्ध
ृ बाबा पर नजर पड़ी,वहीं वटवक्ष
ृ तले, शिलापर विराज रहे थे,अकेले ही,मानों हमलोगों की प्रतीक्षा में ही हों। समीप
आते ही बोले- “ आ गये तम
ु लोग,बड़ी दे र लगा दी।”

“ अभी और भी दे र लग सकती थी,यदि इनलोगों के साथ प्रश्नोत्तर में उलझता।”-मेरे कुछ कहने के पूर्व ही बाबा ने
उत्तर दिया।

“प्रश्नोत्तर स्वाभाविक है ,किन्तु यह तो यहाँ बैठ कर भी हो सकता है । अभी तम


ु लोगों के पास परू े एक दिन का समय
है । कल का व्यक्तिगत कार्यक्रम यथासम्भव समेट कर,बैठ जाना गुरुमहाराज की समाधि पर,जितनी दे र बैठकी लगा
सको। अधिकांश प्रश्नों का उत्तर स्वयंमेव मिल जायेगा। कुछ शेष रह जायेंगे,उनके लिए तो तुम्हारे उपेन्द्र बाबा ही
पर्याप्त हैं।”—वद्ध
ृ बाबा ने कहा।
“अब जाओ,विश्राम करो तुमलोग। कल सुबह वहीं गुरुमहाराज की समाधि पर मिलँ ग
ू ा। व्यर्थ के सवालों से मस्तिष्क
को बोझिल न बनाया करो। प्रायः उत्तर समय पर स्वतः मिल जाया करते हैं। कर्पूरस्तव के विषय में मैं स्वयं ही कुछ
प्रकाश डालँ ग
ू ा। इतने दिनों से निर्जीव सा उसे ढोते रही है गायत्री,अब सजीव होने का अवसर आ गया है ।”-हमलोगों को
निर्देश दे कर,उपेन्द्र बाबा ने वद्ध
ृ बाबा से कहा- “ तो अब चलें हमलोग भी अपने कार्य में ।”

दोनों बाबा चल दिये मन्दिर परिसर से बाहर की ओर। सम्भवतः उनके श्मशान-साधना का समय हो गया था। गायत्री
के साथ मैं भी अपने कमरे में विश्राम के लिए चल दिया।

कमरे में आकर,विस्तर पर गिरते ही नींद के आगोश में डूब गया। और डूबा तो डूबा ही रहा गया। आदतन, रात में भी
दो बार लघुशंका के लिये उठने की प्रवति
ृ भी आज परे शान न की। सीधे सर्यो
ू दय के कोई घड़ी भर बाद ही नींद खुली।

हड़बड़ा कर उठा। गायत्री अभी नींद में ही थी। उसे जगाया,और यथाशीघ्र नित्य क्रियादि से निवत्ृ त होने को कहा। कल
की स्थिति दे ख कर,आज गंगातट पर जाने की इच्छा न हुई। सोचा तो था कि मँह
ु अन्धेर ही गायत्री के साथ जाकर
डुबकी मार लँ ग
ू ा, पर शायद गंगा को भी मंजूर न था । अतः मन्दिर-परिसर में ही कूप-

जल-स्नान करने को विवश हुआ।

कोई घंटे भर बाद तैयार हो कर गुरुबाबा की समाधि पर पहुँचा,तो दोनों बाबाओं को पहले से ही वहाँ उपस्थित पाया।

“ आ जाओ। तुमलोगों की ही प्रतीक्षा कर रहा था। ” - एकसाथ दोनों बाबाओं ने आहूत किया।

समाधि-परिसर के चौखटे को प्रणाम कर हमदोनों अन्दर आये। बाबा ने इशारा किया एक ओर बैठ जाने को। बैठ कर
क्या करना है - इसका संकेत रात सोने से पहले ही मिल चुका था,अतः पुनः पूछने-कहने की गुंजाइश न थी।

घंटों बैठा रहा। गायत्री भी बैठी ही रही। उधर दोनों बाबा भी बैठे रहे । सब कुछ शान्त...शून्य...निःशब्द सा...। मैंने गौर
किया- लम्बी बैठकी के बावजूद मन का उड़ान थमता नहीं था,साँसों पर चित्त को एकाग्र करने के लिए
विज्ञानभैरवतन्त्रम ् का पहला सूत्र जो संकेत दे ता है ,उसका भी अभ्यास कोई काम नहीं आया कभी। उब सी हो आती,
और आँखें खोल,उठने को विवश हो जाता था –– अब से पूर्व; किन्तु आज ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। विन्ध्याचल आने के
बाद से ही महसूस कर रहा हूँ कि इस महाविघ्न में निरन्तर सुधार होता प्रतीत हो रहा है । इसे बाबाओं का सानिध्य
कहूँ, स्थान का प्रभाव कहूँ, क्षेत्रश
े ी की कृपा कहूँ या कि सबका मिला-जल
ु ा प्रभाव !

कोई दो घंटे व्यतीत हो गये- ये तो तब पता चला,जब उपेन्द्रबाबा ने आवाज लगायी। इस दीर्घकालान्तराल में क्या
कुछ दे खा-दिखा- कुछ भी कह नहीं सकता। साक्षी में कलाई घड़ी न होती तो कह सकता था कि कुछ मिनट ही तो गुजरे
हैं। गायत्री की भी यही दशा थी,क्योंकि आँखें खुलने के बाद वह भी बार-बार घड़ी ही दे ख रही थी,साथ ही खुले आसमान
को भी,जहाँ सूरज काफी ऊपर चढ आया था।
उपेन्द्र बाबा थोड़ा समीप आ जाने का संकेत करते हुए बोले- “ कर्पूरस्तव का पाठ तो तुमलोग बहुत ही सुन्दर कर लेते
हो। स्वरों के आरोह-अवरोह पर अच्छी पकड़ हो गयी है । इस उतार-चढ़ाव को समझने में तो अभ्यासियों को वर्षों लग
जाते हैं। आज तुम्हें इसके कुछ रहस्यों का संकेत कर रहा हूँ। जैसा कि कल गायत्री ने कहा कि लम्बें समय से पाठ
करती आ रही है ,पड़रिया के पंडितजी के आदे शानुसार- एक खास उद्देश्य को लेकर; किन्तु जान रखो- ये वही हुआ,
जैसा कि कहा जाता है - पारस पड़ा चमार घर,नित उठ कूटे चाम..। अब भला किसी चमार को पारस पत्थर मिल ही
जाय तो वह मढ़
ू क्या उपयोग करे गा? चाम ही तो कंू टे गा? आमजन भी यही करते हैं। सांसारिक लोगों को तो संसार ही
चाहिए न- धन,सुख,समद्धि
ृ ...। पता नहीं उन्हें इसके सेवन से कितना क्या मिलता है ...।”

गायत्री ने बीच में ही टोका- ‘ नहीं भैया ! पाठ करने से नहीं कुछ मिलता है - ये मैं नहीं मान सकती,मुझे परू ी आस्था
है ,इस स्तोत्र पर। और आस्था भी निराधार नहीं है - बार-बार तो कहा गया है ,स्तोत्र में ही- लक्ष्मी,सरस्वती, रुप,
लावण्य...सबकुछ मिलेगा। सभी पुरुषार्थों की सिद्धि होगी।’

बाबा मुस्कुराये- “ ये तो प्रायः हर स्तोत्र के महात्म्य में कहा जाता है , क्योंकि सांसारिकों को संसार की वस्तुओं का
प्रलोभन न दिया जाय,तो वे संसार से पार जाने की किसी बात को सन
ु ने को भी राजी न हों। यही कारण है कि लाभ की
बात पहले बता दी जाती है । किन्तु ,बात बनती नहीं। लोग यहीं के यहीं रुके रह जाते हैं। बच्चाक्लास में स्लेट-पेन्सिल
पकड़ा दिया जाता है , इसका ये मतलब तो नहीं कि एम. ए. तक इसे ही ढोते रहो।”

तो फिर क्या मतलब है ?— मैंने पूछा।

“ मतलब है ,और बहुत खास है । ”— इस बार वद्ध


ृ बाबा ने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा— “ मात्र बाइस श्लोकों के
कालीकर्पूरस्तोत्र में अद्भत
ु रहस्य अवगुंठित है । तन्त्र के इस गोपन रहस्य को स्वयं महाकाल ने, स्वविमर्श रुपिणी
महाकाली की स्तुति के व्याज से लोक-कल्याणार्थ प्रणीत किया है । इसके प्रथम श्लोक को ही जरा ध्यान से दे खो-
इसमें महाकाली के प्रियतम बीजाक्षर ‘क्रीं’कार का मन्त्रोद्धार है ,साथ ही क्रिया-विधि,और परिणाम का भी निस्पादन
किया गया है । महासाधक श्रीरङ्गनाथजी की कर्पूरदीपिका की टीका करते हुए पंडित नारायणशास्त्री,जो कि योगीन्द्र
विशुद्धानन्द जी के परम भक्त थे,विक्रम सम्बत ् १९८५(ई.सन ् १९२८) में ही अपनी ‘परिमल’ टीका का प्रणयन किया
है । आमजन के लिए यह सरलातिसरल टीका भी अति कठिन ही है । अब सोचो जरा कि टीका का भी टीकान्तरण
कठिन है ,तो मूल की क्या स्थिति होगी ! पंडितजी कहते हैं -- ‘‘ प्रणम्य शक्तित्रितयं पितरौ च गुरुत्रयम ्।
कर्पूरस्तवसम्भूतं कुर्वे परिमलं नवम ्।।’’ पंडितजी आगे कहते हैं- ‘‘भगवान ् परप्रकाशात्मको महाकालः
स्वविमर्शरुपिणीं परदे वतां महाकालीं प्रीणयिष्यन ् संसारतापतप्तानां जीवानां चोद्धारं करिष्यन ् चतर्वि
ु ध
पुरुषार्थसाधनं कालीकर्पूरस्तवं प्रकटयति । मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दव
ु ामाक्षियुक्तं ते बीजमिति योजना...एतेन
क्रीं इति महाबीजम ् उद्धृतं...। ’’

‘‘....इसी भाँति आगे श्लोक में कूर्चबीज- ‘हूँ‘ , पुनः लज्जा बीज ‘ह्रीं’ का भी
प्रकटन हुआ है । करालवदना,विगलितचिकुरा,मुक्तकेशी,दिगम्बरा,मुण्डमालिनी महाकाली के दिव्य ध्यान का स्वरुप
और विधि भी बतलायी गयी है । जैसा कि कालीतन्त्रम ् में कहा गया है - कामत्रयं वह्निसंस्थं रतिविन्दवि
ु भूषितम ् ।
कूर्चयुग्मं तथा लज्जायुग्मं च तदनन्तरम ् ।। दक्षिणे कालिके चेति पूर्वबीजानि चोच्चरे त ् । अन्ते वह्निवधूं
दद्याद्विद्याराज्ञी प्रकीर्तिता ।। महानुभाव ने तन्त्र के गुत्थियों को तोड़-तोड़ कर समझाने का प्रयास किया है । इन
मन्त्रोद्धारों से जो प्रकट होता है ,वह मन्त्र है - क्रीं ह्रूं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा । क्रीं क्रीं ह्रूँ ह्रूँ दक्षिणे कालिके स्वाहा । क्रीं
क्रीं क्रीं हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके स्वाहा । - इन मन्त्रों को स्पष्ट करने के पश्चात ् कहते हैं- तेषां
भावनापूर्वकजपपराणां नेत्रारविन्दे नयन पद्मे कमला लक्ष्मी र्विहरति- विलासं करोति इति । तत ् साधक दृष्टिपातेन
प्राकृतोऽपि सकलैश्वर्यभाजनं भवतीति भावः । पुनर्वक्त्रशुभ्रांशुबिम्बं वक्त्रं मुखं शुभ्रांशुबिम्बमिव चन्द्रमण्डलमिव
तस्मिन ् वाग्दे वी विहरतीत्यत्रान्वेति । इन संकेतों में कितना स्पष्ट है । योग की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि
इनकी साधना से हठात ् षष्टम ् चक्र (आज्ञाचक्र) का उद्भे दन हो जाता है ,और जब यह सिद्ध हो जायेगा तो साधक को
स्वयमेव बहुत कुछ लब्ध हो जायेगा। किन्तु वैसे ही जैसे तक्था (पटरी) बनाने के लिए लकड़ी चीरते समय कुन्नी
बनाने की कोई विधि नहीं बरती जाती,विधि तो सिर्फ बरती जाती है तक्था बनाने की। कुन्नी तो स्वतः प्राप्त हो जाता
है ,होना ही है । अंग्रेजी में इसे बाईप्रोडक्ड कहते हैं। एक के प्राप्ति के प्रयास में दस
ू रे की स्वतः प्राप्ति...।’’

वद्ध
ृ बाबा की बातों से मैं आश्चर्चचकित होते हुए पछ
ू बैठा- यानि कि महाराज संसार की सारी अलभ्य वस्तए
ु ँ साधकों
को यूँ ही सहज ही प्राप्त हो जाती हैं ?

‘‘ इसमें कोई दो राय नहीं। किन्तु विडम्बना भी यही है कि साधक इन्हीं प्रलोभनों में फँस कर,मुख्य साधन-पथ से
भटक भी जाता है । जरा सोचो, वो बढ़ई कितना मूर्ख होगा,जो चीरे गये पटरियों को सहजने के वजाय धूलमय
कुन्नियों (कुनाई) को सहजने और उनके प्रयोग में अपना जीवन गँवा दे ता है । आह ! मन मुग्ध हो जाता है - ऋषियों
की निर्देशन-कला पर । अर्थ-काम का प्रलोभन दे कर, स्तोत्रपाठ का खड़िया-पट्टिका पकड़ा दिया,ताकि कभी होश में
आवे तो सारा भेद खुल जाय, और कामार्थ की आड़ में मोक्ष लब्ध हो जाय। और धर्म की चिन्ता भी न करनी पड़े। वो तो
यूँ ही साथ-साथ सधता ही रहता है । जरा सजावट तो दे खो- धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष––– धर्म और मोक्ष के बीच में अर्थ और
काम को रख दिया गया है । वस्तत
ु ः होता ये है कि जब हम किसी स्तोत्र का तन्मयता पर्व
ू क पाठ करते हैं, और दीर्घ
काल तक क्रिया चलती है , तो रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान –– वाली बात सिद्ध हो जाती है । तुमने डीजल
ईंजन वाले जनरे टर को दे खा होगा- चालक उसमें एक हैंडिल जोड़ कर दो-चार बार गोल-गोल घुमाता है ,और फिर छोड़
दे ता है । उस अल्पकालिक घर्ण
ु नक्रिया से ईंजन के भीतर का विद्यत
ु चम्
ु बकीय क्षेत्र सक्रिय हो जाता है । और फिर
मोटर स्वतः चलने लगता है । इन समस्त स्तोत्रों की जो वर्णयोजना है ,अद्भत
ु है । हर स्तोत्र हमारे अन्दर के किसी न
किसी ईंजन को चालित करता है ,और फिर शनैःशनैः कायगत समस्त यन्त्र स्वचालित हो उठते हैं- सष्टि
ृ का रहस्य
उद्घाटित हो जाता है । अहम ् ब्रह्माऽस्मि का सद्यः भान हो जाता है ।’’
मैंने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की – तो क्या हमारे शरीर के अन्दर भी बहुत सारे यन्त्र सच में हैं,या सिर्फ किताबों की
कल्पना है ? क्योंकि शल्यक्रिया द्वारा परीक्षण करने पर कुछ यन्त्र– यकृत,प्लीहा,अवटुका,वक
ृ ,हृदय,फेफडा,मस्तिष्क
आदि तो नजर आतें हैं,किन्तु इसके अलावे और कुछ खास दिखता नहीं ।

वद्ध
ृ बाबा ने सिर हिलाते हुए कहा – “ वैसे अब तम
ु विषयान्तर हो रहे हो। बात कालीकर्पूर की चल रही थी, और खींच ले
जा रहे हो- शरीरक्रियाविज्ञान,और प्रत्यक्षशरीरम ् पर। साथ ही योग-दर्शन की भी बात समझाने की आवश्यकता
प्रतीत हो रही है । इन सब बातों पर फिर कभी अवसर मिला तो चर्चा की जा सकती है ,या समझो कि तुम्हारे उपेन्द्र
भैया ही काफी है वर्णन के लिए। फिलहाल मैं कालीतन्त्र के कुछ खास रहस्यों पर प्रकाश डाल कर अभी की ये सभा
समाप्त करना चाहता हूँ,कारण कि तुमलोगों के जलपानादि का भी समय निकला जा रहा है ।’’

नहीं महाराज,आहारनिद्राभयमैथन
ु म ् च...जैसा कुछ सक्ति
ू है न–– ये सब तो नित्य, और कहीं भी,होते ही रहता है ;
किन्तु आप महानुभावों का सानिध्य-लाभ तो बड़े भाग्य से ही मिलता है । खैर,कहने की कृपा करे । पहले कालीतन्त्र पर
ही बातें हो जाए। हम अल्पज्ञों के पास बचकाने सवालों का तो ढे र रहता है ।

मुस्कुराते हुए वद्ध


ृ बाबा ने कहा- ‘‘ कालीतन्त्रम ् में इस क्रिया विधि को और भी स्पष्ट किया गया है - निजबीजं तथा
कूर्चं लज्जाबीजं ततः परम ् । दक्षिणे कालिके चेति तदन्ते बह्निसुन्दरी ।। एकादशाक्षरी विद्या चतुर्वर्गफलप्रदा ।
मल
ू बीजंद्वयं ब्रय
ू ात ् ततः कूर्चंद्वयं वदे त ् ।। लज्जायग्ु मं समद्ध
ु ृत्य सम्बोधनपदद्वयम ् । स्वाहान्ता कथिता विद्या
चतुर्वर्गफलप्रदा ।। मूलत्रयं ततः कूर्चत्रयं मायात्रयं तथा । सम्बोधनपदै द्वन्द्वमन्ते च वह्निसुन्दरी । एषा विद्या
महादे वी कालीसानिध्यकारिणी ।। इन्हीं भावों को कुमारीतन्त्रम ् में भी व्यक्त किया गया है – कामाक्षरं वह्निसंस्थं
रतिविन्दवि
ु भूषितम ् । मन्त्रराजमिदं ख्यातं दर्ल
ु भं पापकर्मणाम ् । भोगमोक्षैकनिलयं कालिकाबीजमत्ु तमम ् । एकं
द्वयं त्रयं वाऽपि निजबीजवदत्ु तमम ् । दक्षिके कालिके नाम पुटितं वा यथोदितम ् । निजबीजं तथा कूर्चं
लज्जाबीजमिति त्रयम ् । एकद्वित्र्यादिपूर्वं स्यात ् सम्बोधनपदद्वयम ् । पुटितं वा तथा पूर्वबीजैरेकादिकैरिति। नाम
ठद्वय मित्याद्या भेदाः स्यर्द
ु क्षिणागताः ।।’’

वद्ध
ृ बाबा द्वारा उक्त संकेतों की स्पष्टी सुनकर,पन
ु ः उत्सुकता जगी,जिसे संवरित न कर पाया –- महाराज,वैसे तो
संस्कृत का विशेष ज्ञान नहीं है ,किन्तु स्तोत्र में कहे गये- श्मशानस्थः स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः । सहस्रं
त्वर्काणां निज गलित वीर्येण कुसुमम ्.....इत्यादि जो पद हैं,जिसमें श्मशान भूमि में सूर्यपष्ु प और निज वीर्य से हवन
करने की बात कही गयी है ,इतना ही नहीं, तन्त्र की पुस्तकों में निकृष्ट से निकृष्ट वस्तुओं के पूजन-प्रयोग की बात
कही जाती है - आखिर ये सब क्या रहस्य है ?

बहुत दे र से चुप बैठे,सुनते आ रहे , उपेन्द्रबाबा ने इस बार चुप्पी तोड़ी- ‘‘ बहुत पहले मैंने किसी प्रसंग में तुमसे
कर्पूरस्तोत्र के एक श्लोक की चर्चा की थी - सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परं मैषं वौष्ट्रं
नरमहिषयोश्छागमपि वा । वलिं ते पूजायामपि वितरतां मर्त्त्यवसतां सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति—
जिसमें इन प्रसंगों में प्रयुक्त गूढ़ार्थों की भी खुल कर चर्चा हुई थी। क्या इन्हीं अर्थो के आलोक में अन्यान्य तान्त्रिक
शब्दों का गूढ़ार्थ नहीं ढूँढा जा सकता?’’

जी हां,बिलकुल ढूढ़ा जा सकता है ,और स्मरण भी हैं आपकी वे बातें -- मैं थोड़ा लज्जित होते हुए बोला।

उपेन्द्रबाबा ने ही आगे कहा- ‘‘ कुलचूणामणितन्त्रम ् में कहा ही गया है - नखं केशं स्ववीर्यं च यद्यत ्
सम्मार्जनीगतम ् । मुक्तकेशो दिगावासो मूलमन्त्रपुरःसरम ् । कुजवारे मध्यरात्रौ जुहुयाद्वै श्मशानके... तथा
उत्तरतन्त्र में कहा गया है -- मांसं रक्तं तिलं केशं नखं भक्तं च पायसम ् । आज्यं चैव विशेषेण जह
ु ु यात ् सर्वसिद्धये ।।
किन्तु उसी प्रसंग में आगे यह भी स्पष्ट किया गया है - श्मशान क्या है ,वीर्य किसे कहते हैं, आहुति से क्या तात्पर्य
है ,स्रुवा क्या है ,क्रिया क्या है ,मैथुन क्या है ,रति और विपरीत रति में क्या अन्तर है ..आदि-आदि—मूलाधारगते दे वि
दे वताग्नि समज्
ु ज्वले । धर्माधर्मान्विते त्र्यस्रैर्मूलमन्त्रपरु ःसरम ् । अहं जह
ु ोमि स्वाहे ति प्रत्येकं जह
ु ु यात ् सध
ु ीः ।
अहन्तासत्यपैशून्य- कामक्रोधादिकं हविः । मन एव स्रुवः प्रोक्तः उन्मनी स्रुगुदीरिता ।। अतः तन्त्र के इन गूढ़ शब्दों
पर कदापि शंका न करो,और न इन्हें निकृष्ट भाव से दे खो ही।

इतना कह कर उपेन्द्रबाबा ने वद्ध


ृ बाबा की ओर दे खा । उन्होंने भी सिर हिलाते हुए उनकी बातों का समर्थन किया

आशा दे खते -दे खते वाजूगोस्वामी को आना ही पड़ा। उसे आता दे ख उपे न्द्रबाबा उठ खड़े हुए,साथ ही
वृ द्धमहाराज भी। हमलोगों को भी उठना ही पड़ा। आज की ये प्रातः कालीन सभा विसर्जित करनी पड़ी। सूर्य भी
मध्याह्नगामी होने को आतु र हो रहे थे । मन की प्यास को तन की भूख के सामने किंचित झुकना पड़ा। न भी झुकता
यदि, तो बाबाओं की अवज्ञा होती ।

गतांश से आगे...सत्रहवां भाग

विलम्बित जलपान के वजाय,अग्रिम भोजन सम्पन्न करके,घड़ी भर विश्राम किया। भोजन कक्ष में ही उपेन्द्रबाबा ने
अगाह कर दिया था- ‘‘ थोड़ा विश्राम कर लो,फिर बैठकी लगायी जायेगी। रात की गाड़ी से तो तुमलोगों की वापसी भी
है न ! मैं तो सदा तुम्हारे साथ हूँ ही,किन्तु विन्ध्यवासी बाबा का सानिध्य जितना लिया जा सके ले लो। कौन जाने
फिर कब मिलना हो ! ’’

पुनः वटवक्ष
ृ तले शिवचैत्य पर बैठकी लग गयी,अपराह्न दोबजे करीब। मेरे कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर
वद्ध
ृ महाराज ने स्वयं चर्चा छे ड़ दी -- ‘‘ तम्
ु हारी जिज्ञासा या कहो आशंका थी न कि शरीर में विविध यन्त्र दिखते तो हैं
नहीं कहीं, तथा ये विभिन्न स्तोत्रों और मन्त्रों की वर्ण योजना जिसका तोतारट लगाते जीवन चुक जाता है ,पर कुछ
होता-जाता नहीं- आखिर क्या रहस्य है इसमें । तुम्हारे अन्दर ये कुलबुलाहट भी निरन्तर चलते रहा है कि
‘धीमहि...धीमहि’ का रट लगाने से क्या सच में ‘धी’ - बुद्धि मिल जायेगी?—ये सारे सवाल बिलकुल बचकाने हैं-
अज्ञानता पूर्ण हैं। ऐसा इसलिए क्यों कि जानकारी नहीं है । वर्णों के रहस्य का ज्ञान नहीं है । वर्णों की क्षमता का कुछ
पता नहीं है । दे वनागरी के ये वर्ण तुम्हारे अंग्रेजी के अल्फावेट नहीं हैं। इन्हें निर्जीव और निर्बीज समझने की भूल न
करो। ये जो भी हैं परमजागत
ृ ,परमचैतन्य और स्वरुपवान हैं। इसे पर्ण
ू रुप से समझने के लिए वर्णों और मात्रिकाओं
का रहस्य जानना अत्यावश्यक है । मानव कायस्थ, इन्हीं मात्रिकाओं को स्तोत्रपाठ वा जप के क्रम में चैतन्य(जागत
ृ )
करते हैं। वैसे परमचैतन्य को जागत
ृ करने का कोई तुक नहीं। जगे हुए को क्या जगाना ! दस
ू रे शब्दों में कह सकते हो
कि परमचेतना की चेतनता की अनभ
ु ति
ू करते हैं हम, वस और कुछ नहीं। जो है सदा-सर्वत्र,हम उसे ही समझते-
दे खते,अनुभव करते हैं। तुमने मन्त्रों के द्रष्टा,उपदे ष्टा,छन्द,ऋषि,दे वता,शक्ति,कीलन,उत्कीलन आदि के बारे में सुना
या पढ़ा होगा। इतना ही नहीं प्रत्येक वर्णों के निज तत्त्व,वर्ग, ग्रह, राशि, नक्षत्र, स्थान,स्वरुप,ध्यान,न्यास आदि भी
निश्चित हैं। ये सब कोई कोरे बकवास थोड़े जो हैं। दीर्घ साधना के पश्चात ् हमारे महर्षियों ने इनका साक्षात ् दर्शन
किया है । तज्जनित परू ी बातों का ज्ञान प्राप्त किया,न कि महज जानकारी। प्रायः तुम नये लोग तो जानकारी को ही
ज्ञान समझने की भूल कर बैठते हो। हां, ये बात अलग है कि सद्गुरुमुख से कर्णगुहा में प्रवेश के पश्चात ् प्राप्त
जानकारी को आधार बना कर साधक को ज्ञान-दर्शन के शिखर तक पहुँचना होता है । सैद्धान्तिक रुप में बहुत सी बातें
हैं। उन सबका विश्लेषण,और प्रस्तुति यहां आवश्यक भी नहीं है । समयानुसार स्वयं भी जान जाओगे,यदि अभिरुचि
होगी इन विषयों में । अल्प समय में मैं इनसे सम्बन्धित कुछ खास बातों का संकेत किये दे ता हूँ। ’’

इतना कह कह वद्ध
ृ बाबा जरा रुके,और मेरे चेहरे पर गौर करने लगे। वे कुछ कहना ही चाहते थे कि उसके पूर्व
गायत्री करवद्ध प्रार्थना पूर्वक कहने लगी–– ‘ नहीं महाराज ! समय तो हमेशा कम ही होता है ,ज्यादा हुआ कहां है किसी
के पास। मैं सिर्फ इतना ही आग्रह करुं गी कि यदि हमें इन विषयों का अधिकारी समझते हों तो यथासम्भव अधिक से
अधिक जानकारी दे ने का कष्ट करें ,साथ ही समुचित मार्गदर्शन भी करें ,ताकि....।’

गायत्री की इच्छा की अनश


ु ंसा करते हुये उपेन्द्र बाबा बीच में ही बोल पड़े- “ समझ गया...समझ गया, तम्
ु हारी
वांछा क्या है । बाबा जाने या नहीं जाने, मैं तो तुम्हारे रग-रग से वाकिफ़ हूँ। नीम्बू से रस की अन्तिम बूंद तक निचोड़
लेना चाहती हो। अतः चिन्ता न करो,मैं भी महाराज से यही प्रार्थना करूंगा कि जहां तक कथ्य हो कह ही डालें। इतना
तो तय है कि घी किसी उपले पर नहीं उढे ला जा रहा है ...। ”

उनकी इस बात पर बद्ध


ृ बाबा हँसने लगे। गायत्री अपने पुराने अंदाज में ठुनकती-तुनकती हुयी बोली- ‘ तुम तो
उपेन्दर भैया मेरी कलई ही खोलते रहते हो। ये भी जान रखो कि जहां भी गाड़ी फंसेगी,तुम्हारा ही सिर चाटूंगी।’

इस बार दोनों बाबा हठाकर हँस पडें। उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘‘ ठीक है


चाटती रहना। परन्तु पहले ‘ ककहरा-मनतरा ’ तो सुनाओ। दे खूं तो जरा,ठीक से याद भी है या नहीं।’’

तुनकती हुयी गायत्री,एक ही सांस में सब सुना गयी,फिर बोली- ‘ तुम्हें क्या लगता है , दिल्ली वाली होकर,ये भी
भूल गयी हूँ? अभी भी पूरे औरं गावादी ही हूँ। ’

‘‘कौन कहता है कि भूल गयी हो,भूलने की बात तो तब आती है ,जब कभी याद की गयी हो। सच पूछो तो सही
ढं ग से इन अद्भत
ु वर्ण-मात्रिकाओं का ज्ञान ही नहीं कराया जाता। पहले के समय में कम से कम लधुसिद्धान्त कौमुदी
पढ़ाई जाती थी। पाणिनीशिक्षा का ज्ञान कराया जाता था। पतञ्जलि के महाभाष्य का मन्थन भी होता था। फिर भी
बहुत कसर रह जाता था। पर अब तो सही ढं ग से अक्षरों का ज्ञान भी नहीं कराया जाता।’’- नकारात्मक सिर हिलाते
हुए बद्ध
ृ बाबा ने कहा- ‘‘ मात्रिकाओं के रहस्य को समझने के लिए बहुत कुछ जानने-समझने की आवश्यकता है ।
भाषा और व्याकरण की दृष्टि से सामान्य स्वर-व्यंजनों की जानकारी,और उच्चारण भर से प्रायः काम चल जाता है
दनि
ु या का,किन्तु साधक को इसके रहस्य में डूबना होता है । अतः तन्निहित गूढ़ बातों का ज्ञान अति आवश्यक है ।
पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड आदि में तुमने मात्रिका पूजन अवश्य सुना होगा। किया भी होगा। क्या कभी जानने का प्रयत्न
किया कि ये सप्तमात्रिकायें, षोडशमात्रिकायें, चतःु षष्ठीमात्रिकायें क्या हैं?’’

जी महाराज ! पूजा-पद्धतियों में इन सबके नाम और आवाहन मन्त्र जो दिये रहते हैं,उनकी तो जानकारी
है ,थोडा-बहुत। विशेष न कभी प्रश्न उठा मन में , और न जानकारी ही हुयी – बाबा की बातों का मैंने उत्तर दिया।

सिर हिलाते हुए बद्ध


ृ बाबा ने कहा- ‘‘ समझ रहा हूँ। अधिक से अधिक इतने तक ही आम आदमी की पहुंच रहती
है । विशेष के लिए तो विशेष ही होता है । तुम्हें यह स्पष्ट कर दं ू कि विविध तन्त्र-ग्रन्थों में इनकी विशद चर्चा है ।
ललितासहस्रनाम के १६७ वें श्लोक में मात्रिका वर्णरुपिणी कह कर इसकी गरिमा सिद्ध की गयी है । सामान्य रूप से
वर्णों को अलग-अलग,तथा वर्णमाला को एकत्र रूप से मातक
ृ ा के नाम से जाना जाता है । ये चार प्रकार से प्रयुक्त होती
हैं- १) केवल, २) विन्दय
ु ुक्त,३) विसर्गयुक्त,४) उभयरुप । महाभाष्य में केवलमातक
ृ ा को साक्षात ् ब्रह्मराशि कहा गया
है - सोऽयं वाक्समाम्नायो वर्णसमाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः ।। तो,
स्वच्छन्दतन्त्रम ् में न विद्या मातक
ृ ापरा कह कर प्रतिष्ठित किया गया है । यह जान लो कि सम्पूर्ण वर्णमाला रूप
मातक
ृ ा की उत्पत्ति प्रणव से हुयी है । यही कारण है कि ओंकार का एक नाम मातक
ृ ासःू भी है । तथा इस पर भी ध्यान
दो कि सामान्य तौर पर लोग अक्षमाला का अर्थ रूद्राक्ष की माला समझ लेते हैं,किन्तु इसका तान्त्रिक अर्थ कुछ और
ही है । महायोगी शिव जिस अक्षमाला का निरन्तर जप करते रहते हैं वह है - अकार से क्षकार पर्यन्त विन्दय
ु ुक्त
मातक
ृ ा , न कि कुछ और। जैसा कि कहा गया है - कथयामि वरारोहे यन्मया जप्यते सदा । अकादिक्षकारान्ता मातक
ृ ा
वर्णरूपिणी । चतुर्द शस्वरोपेता बिन्दत्र
ु य विभूषिता ...।। ध्यातव्य है कि वैष्णव व्याकरण(हरिनामामत
ृ ) में
जीवगोस्वामी ने जिस वर्णमाला की चर्चा की है ,और पाणिनी प्रणीत माहे श्वर वर्णमाला में किं चित मातक
ृ ा-क्रम-भेद
है । वर्णमाला को स्थल
ू मातक
ृ ा भी कहते हैं। यही वैखरी वाक् है - विशेषेण न खरः कठिनस्तस्येयं वैखरी सैव रूपं यस्याः
...वै निश्चयेन खं कर्णविवरं राति गच्छतीति व्युत्पत्तिः ...विखरे शरीरे भवत्वात ् वैखरीपदाभिधेया...प्राणेन
विखराख्येन प्रेरिता पुनरिति योगशास्त्रवचनाद्विखरवायुनुन्नेति वा... इन वचनों से तन्त्रालोकविवेक,
सौभाग्यभास्कर आदि ग्रन्थों में इसे स्पष्ट किया गया है । कथन का अभिप्राय ये है कि कठिन या घनीभूत है ,निश्चित
रूप से कर्णविवर यानी ‘ख’ में पैठती है , विखर नामक प्राण से प्रेरित होती है - इन कारणों/लक्षणों से इसका वैखरित्व
सिद्ध होता है । वर्णों से बने शब्दों का जो प्रत्यक्ष उच्चारण करते हो,जिसके माध्यम से संवाद करते हो–– वक्ता के
मख
ु विवर से स्रोता के कर्णविवर तक की वर्णयात्रा जो होती है , वह वाणी वस्तत
ु ः वैखरीवाणी कही जाती है । इसके बाद
की उत्तरोत्तर स्थितियां क्रमशः मध्यमा,पश्यन्ती,और परा कही जाती है । परा और पश्यन्ती को सूक्ष्मतर या कि
सुसूक्ष्म मातक
ृ ा कहते हैं। सच पूछो तो ये भगवती मातक
ृ ा ही समस्त वाच्यवाचकात्मक चराचर जगत के अभेद का
भोगानन्द प्रदान करने वाली शब्दराशि की विमर्शिनी हैं । अरणिकाष्ठ में जिस भांति अग्नि छिपी होती है ,वा उसके
मन्थन से प्रकट होती है ,तद्भांति ही सभी मन्त्र इसी से उत्पन्न होते हैं। बुद्धि से संयुक्त होकर,उसके सम्पर्क में आकर
यही मध्यमा वाणी का रूप ग्रहण करती है । यह मातक
ृ ा ही परमदे वी है ,परम शक्तिस्परूपा है ।
घोष,राव,स्वन,शब्द,स्फोट, ध्वनि,झंकार,ध्वंकृति आदि अष्टविध शब्दों में व्याप्त होने के कारण इसे ही
अक्रमामातक
ृ ा भी कहते हैं। सूतसंहिता यज्ञवैभव खंड में कहा गया है - मन्त्राणां मातभ
ृ ूता च, मातक
ृ ा परमेश्वरी ।
बुद्धिस्था मध्यमा भूत्वा विभक्ता बहुधा भवेत ् ।। सा पन
ु ः क्रमभेदेन महामन्त्रात्मना तथा ।। मन्त्रात्मना च
वेदादिशब्दाकारे ण च स्वतः । सत्येतरे ण शब्दे नाप्याविर्भवति सव्र
ु ताः ।। मातक
ृ ा परमादे वी स्वपदाकारभेदिता ।
वैखरीरुपतामेति करणैर्विशदा स्वयम ् ।। इस संहिता के टीकाकार श्रीमाधवाचार्यजी तो यहां तक कहते हैं कि मातक
ृ ा
का पररूप परा और पश्यन्ति से भी परे है - बिन्दन
ु ादात्मक है – परापश्यन्त्याद्यवस्थातः प्राक् बिन्दन
ु ादाद्यात्मकं
यन्मातक
ृ ायाः सूक्ष्मं रूपम ् । इसका विशद वर्णन करने में वाणी सर्वथा अक्षम है । साधकगण ध्यानावस्था में ही
इसकी सही अनुभूति कर सकते हैं, जिसका आंशिकरुप ही शब्दरुप में प्रकट हो सकता है ,या कहो किया जा सकता है ।

जरा ठहर कर बद्ध


ृ महाराज फिर कहने लगे–– “ इस सम्बन्ध में किं चित मतान्तर, और स्थिति भेद से सप्त,अष्ट और
नव वर्गों की चर्चा भी मिलती है । किन्तु इन सब पर चर्चा करने से पूर्व सभी वर्णों की बात करता हूँ। सबसे पहले कम से
कम इनकी सही संख्या और स्थिति तो जान-समझ लो-

१.अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,ल,ृ ॡ,ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः- ये १६ स्वर वर्ण हैं,चौदह नहीं, जैसा कि अभी तुम सुनायी।
२.क,ख,ग,घ,ङ ३.च,छ,ज,झ,ञ ४.ट,ठ,ड,ढ,ण ५.त,थ,द,ध,न. ६.प,फ,ब,भ,म. ७.य,र,ल,व. ८.श,स,ष,ह,क्ष- ये चौंतीश
व्यंजन कहे गये हैं। व्यंजन अर्थात ् मिले हुए। इस प्रकार कुल पचास वर्ण कहे गये हैं। यहां प्रसंगवश एक और बात
जान लो कि मात्रिकाचक्रविवेक और भास्कर राय के मत से ‘ळ’ इस विशिष्ट वर्ण की भी गणना की गयी है –– श्लिष्टं
परु ः स्फुरितसद्वय कोटिळक्ष- रुपं परस्परगतं च समं च कूटम ्।। ये स्वर और व्यंजन तन्त्रशास्त्रों में पन
ु ः दो नामों से
जाने जाते हैं। स्वरों को बीज,और व्यंजनों को योनि जानो। योनि और बीज से ही सारा जगत प्रपंच रचा-बसा है ।
वामकेश्वरीमतम ् में कहा गया है –– यदक्षरै कमात्रेऽपि संसिद्धे स्पर्द्धते नरः । रवितार्क्षेन्दक
ु न्दर्पशङ्करानलविष्णुभिः ।।
यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं भुवन त्रयम ् । वन्दे सर्वेश्वरीं दे वीं महाश्रीसिद्धमातक
ृ ाम ् ।।
यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेततज्जग- त्त्रयम ् । ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं जगदद्यापि दृश्यते ।। अर्थात ् उक्त वर्णों में किसी
एक की भी सिद्धि हो जाये तो मनष्ु य सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र,कंदर्प, अग्नि,यहां तक कि ब्रह्मा,विष्णु,महे श से भी स्पर्द्धा
करने लगता है । कथन का अभिप्राय ये है कि इतना महान हो जाता है वह साधक। सर्वेश्वरी महासिद्धिमातक
ृ ा दे वी के
एक अक्षररुप चन्द्रमा की ज्योत्सना से ये त्रिभव
ु न प्रकाशित हो रहा है । समस्त ब्रह्माण्ड उस सिद्धमातक
ृ ा के वर्णमय
महासूत्र में अनुस्यूत हैं। इसमें जरा भी अतिशयोक्ति न समझो। ये ‘अ’ वर्ग ही भैरव है - स्वतः प्रकाशित, ‘शब्दन’
स्वभावशील,भेदरुप उपताप तथा विश्व का आक्षेप करने के कारण भैरव- स्वर वाच्य है । इसे ही मूल बीज जानो। इस
प्रकार भैरव को ही स्वरों का अधिष्ठाता कहा गया है । और उधर ‘क’ आदि योनिवर्ण हैं,उन्हें ही भैरवी जानो। दस
ू रे
शब्दों में इसे ही महे श्वर और उमा कह सकते हो । उमा शरीरार्द्ध हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि शक्तिवर्गों के
अधिष्ठातद
ृ े वता भैरव और अधिष्ठातद
ृ े वी उमा (भैरवी) हैं। स्वच्छन्दतन्त्रम ् में कहा गया है - अवर्गे तु महालक्ष्मीः
कवर्गे कमलोद्भवा,चवर्गे तु महे शानी टवर्गे तु कुमारिका । नारायणी तवर्गे तु वाराही तु पवर्गिका ।। ऐन्द्री चैव
यवर्गस्था चामुण्डा तु शवर्गिका । एताः सप्तमहामा- तःृ सप्तलोक व्यवस्थिताः ।। यानी अवर्ग की महालक्ष्मी,कवर्ग
की ब्राह्मी,चवर्ग की माहे श्वरी,टवर्ग की कौमारी, तवर्ग की वैष्णवी,पवर्ग की वाराही,यवर्ग की ऐन्द्री,और शवर्ग की
अधिष्ठात ृ चामण्
ु डा हैं। अब यहां तम
ु संशय में पड़ सकते हो कि अ वर्ग की अधिष्ठात ृ महालक्ष्मी का अधिष्ठाता भैरव
से क्या वास्ता?’’

मैंने सिर हिलाते हुए कहा- जी महाराज ! अभी मैं यही सवाल करने ही वाला था। एक ओर महालक्ष्मी हैं,तो
उधर भैरव कैसे,विष्णु होना चाहिये न?

नकारात्मक सिर हिलाते हुए,बद्ध


ृ बाबा ने आगे बतलाया- ‘‘ ज्ञानदीप्तमयी उमा ही वस्तुतः महालक्ष्मी हैं। वे
उमापति भैरव-दे ह से अभिन्न हैं। अतः महे श्वर ही सप्तमातक
ृ ाओं से परिवारित परालक्ष्मी के साथ विद्यमान रहते
हैं। ये गिनायी गयी सात विभिन्न शक्तियाँ कोई और नहीं उमा ही हैं,बल्कि आठों कहो। उमा और लक्ष्मी में अभेद
जानो। वहीं, स्वच्छन्दतन्त्रम ् के ही दशवें पटल में कहा गया है - उमैव सप्तधा भत्ू वा नामरुपविपर्ययैः । एवं स
भगवान ् दे वो मातभि
ृ ः परिवारितः । आस्ते परमया लक्ष्म्या तत्रस्थो द्योतयञ्जगत ् ।। यहां विस्तार से इन सभी
मातक
ृ ाओं का स्वरुप वर्णन भी किया गया है । कभी अवसर मिले तो इन गूढ ग्रन्थों का अवलोकन अवश्य करना।
आद्यशंकराचार्य ने अपने गढ़
ू ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में मातक
ृ ाओं के रहस्य को विशद रुप से उद्घाटित किया है । यह
ग्रन्थ भी तन्त्र-प्रेमियों के लिए अवश्य सेवनीय है । वामकेश्वर तन्त्रम ् में उक्त शक्तियों के अतिरिक्त- वशिनी,
कामेश्वरी,मोदिनी,विमला,अरुणा, जयिनी,सर्वेश्वरी,कौलिनी आदि आठ दे वों की पुनः चर्चा की गयी है ,जिनकी
साधना भेदाभासात्मक,तथा अभेदाभासात्मक फलदायी है । यानी पर और अपर दोनों सिद्ध होते हैं इन दे वों की साधना
से। इन प्रत्येक वर्ग की शक्तियां पन
ु ः त्रिधा विभक्त हैं- घोर,घोरतर और अघोर। कामक्रोधादि का विस्तार करती हुयी
ये भोगापवर्गात्मक मिश्रित कर्मों में व्यक्ति को आसक्त करती हैं,तो इनका लक्षण ‘घोर’होता है । विषयासक्त चित्त
वालों को नीच से भी नीच दशा में डालने का कारण बनती है ,तब इन्हें ‘घोरतर’ कहते हैं,और ये शक्तियां ही ‘ज्ञात’ होने
पर जब साधक को शिवत्व प्रदान करती हैं तब ‘अघोर’ रुप में जानी जाती हैं। पर,परापर और अपर भी ये ही तीन हैं।
उक्त शक्तियों को ही योगिनीहृदय में योगिनी नाम से सम्बोधित किया गया है ,इसमें किसी तरह का संशय न
करना।’’

इतना कह कर बाबा जरा ठहर गये। हमदोनों के चेहरे पर सघन दृष्टिपात करते हुए,मनोभावों को पढ़ने का
प्रयत्न करने लगे। फिर किं चित आस्वस्त हो,कुछ दे र बाद कहने लगे–– ‘‘ सामान्य रुप से जिन वर्णमातक
ृ ाओं का
चलन - क्रम है ,उन्हें मातक
ृ ा,सिद्धा अथवा ‘पूर्वमालिनी’ के नाम से जाना जाता है । इससे भी विलक्षण है
‘उत्तरमालिनी’ का क्रम,जिसकी अधिष्ठात्री मालिनीशक्ति है । मातक
ृ ा को अभिन्नयोनि और मालनी को भिन्नयोनि
कहते हैं। कथन का अभिप्राय यह है कि योनि अर्थात ् व्यञ्जन यानि ‘कादि’ जहाँ बीज यानि स्वरों से परस्पर मिल गये
हों,वही भिन्नयोनि मालिनीशक्ति है । यथा- मातक
ृ ाशब्दराशिसंघट्टात ् शक्तिमदै क्यात्मलक्षणात ्
लवणारनालवत्परस्परमेलनात ् ––– भिन्ना बीजैर्भे दिता योनयो व्यञ्जनानि यस्याः सा तथाविधा सती
(तन्त्रालोकविमर्श) तथा च- शब्दराशिः स एवोक्तो मातक
ृ ा सा च कीर्तिता । क्षोभ्यक्षोभकतावेशान्मालिनीं तां
प्रचक्ष्महे ।। (उक्त २३२) वस्तत
ु ः भैरवात्मक शब्द-राशि को मातक
ृ ा और मालिनी इन दो रुपों में स्मरण करते हैं।
मातक
ृ ा ही क्षोभ्य और क्षोभकतावेश से मालिनी बन जाती है । क्षोभ्य योनियों का क्षोभक-बीजों से परस्पर
सङ्घट्टात्मक आवेश ही मूल कारण है ,जैसा कि अभी कहे गये श्लोक से स्पष्ट है । वहीं तन्त्रालोक के अगले(२३३वें )
श्लोक में कहा गया है - बीजयोनिसमापत्तिर्विसर्गोदय सन्
ु दरा । मालिनी हि पराशक्तिनिर्णीता विश्वरुपिणी ।। यानि
यही शक्ति सम्पूर्ण विश्व को अपने रुप में धारण करती है ,अथवा कहें कि समग्र को अपने में अन्तर्भूत कर लेती है ।
यही कारण है कि मालिनी कहलाती है । यथा- मलते विश्वं स्वरुपे धत्ते, मालयति अन्तःकरोति कृत्स्नमिति च
मालिनीति व्यपदिश्यते । इसकी वर्णयोजना सच में विलक्षण है । इसका प्रारम्भ ‘न’ से ,और समापन ‘फ’ से होता है ।
इसे भी क्रमवार दे खो- न,ऋ,ॠ,ल,ृ ॡ,थ,च,ध,ई,ण,उ,ऊ,ब,क,ख,ग,घ,ङ,इ,अ,व,भ,य, ड,ढ,
ठ,झ,ञ,ज,र,ट,प,छ,ल,आ,स,अः,ह,ष,क्ष,म, श,अं,त,ए, ऐ,ओ, औ, द, एवं फ। यहां एक और बात जान लो कि भगवती
मालिनी मख्
ु यरुप से शाक्तरुप धारिणी हैं। बीज और योनि के संघट्ट जनित यह शक्ति सम्पर्ण
ू कामनाओं की प्रदात ृ
हैं। रुद्र और शक्तियों की माला से युक्त होने के कारण ही इसका मालिनी नाम सार्थक होता है । इस विषय की गहन
जानकारी करने के लिए मालिनीविजयोत्तरतन्त्रम ् का अवलोकन करना चाहिए।

“...प्रपञ्चसारतन्त्रम ् के अनुसार समस्त वर्ण अग्निसोमात्मक हैं। वर्णों में व्याप्त आकारांश ही आग्नेय अथवा
पुरुषात्मक है ,तदीत्तर अंश सौम्य वा प्रकृत्यात्मक है । इसे ही वर्णों के प्रमुख दो भेद कहे गये हैं- स्वर और व्यञ्जन ।
व्यंजन यानि कादि योनियाँ स्वरों से प्रकाशित हो पाती हैं। शब्द द्वारा चित्तवत्ति
ृ को अनभ
ु ावित करने के कारण,या
कहो कि ‘स्व ’अर्थात ् आत्मरुप का बोध कराने के कारण ,या कहो कादि योनियों को विकसित करने के कारण ही इन्हें
स्वर कहा गया है । पन
ु ः इनका स्पर्श और व्यापक- दो भेद करते हैं। पन
ु ः व्यापक भी दो भागों में बंट जाता है - अन्तस्थ
और ऊष्म। पन
ु ः सभी वर्णों के तीन प्रकार भी कहे गये हैं- सोलह स्वर को सौम्य,पच्चीस स्पर्शवर्णों को सौर, और दस
व्यापक वर्णों को आग्नेय कहते हैं। पुनः स्वरों में भी ह्रस्व और दीर्घ दो भेद करते हैं,तथा इनका उपप्रकार भी है -
अ,इ,उ,ए और विन्द ु को पुरुषस्वर,तथा आ,ई,ऊ,ऐ,औ और विसर्ग को स्त्रीस्वरवर्ण एवं शेष- ऋ,ॠ,ल,ृ ॡ- इन चार को
नपुंसक स्वरवर्ण कहते हैं। ये समस्त ह्रस्व स्वर शिवमय हैं, और दीर्घस्वर शक्तिमयी कही गयी हैं। यहां एक और बात
का ध्यान रखना चाहिए कि ऋ,ल ृ को शिव में और ॠ,ॡ को शक्ति वर्ग में अन्तर्भावित किया गया है । प्रपञ्चसार तन्त्र
में इस पर व्यापक रुप से प्रकाश डाला गया है । ’’

इतना कहकर बद्ध


ृ बाबा फिर चुप्पी साध लिए,और हमारे चेहरे पर गौर करने लगे। वर्णों की अद्भत
ु संरचना और
विभाग,अनुविभागों को सुन-जान कर हम चकित हो रहे थे। ऐसा लग रहा था,मानों आज तक कुछ सीखा-समझा ही
नहीं हूँ, अभी-अभी अक्षर-ज्ञान कराया जा रहा हो। सच कहें तो सामान्य जानकारी भर थी इन अक्षरों (अल्फावेट्स) के
बारे में । ये अल्फावेट नहीं हैं,मूलतः अक्षर हैं, यानि इनका कदापि ‘क्षर’ नहीं होता,स्वरुपवान हैं,परम चैतन्य हैं- इस
बारे में आज ही आँखें खुल रही हैं। हालाकि अभी आँखें खुलना नहीं कह सकते,क्यों कि अज्ञान-निद्रा वाला प्रभाव अभी
गया कहां है ! हां,ये भले कह सकता हूँ कि जानकारियां थोड़ी चमकदार हुयी हैं- पॉलिस चढ़ गया बाबाओं की कृपा का।

वद्ध
ृ बाबा ने पुनः कहना प्रारम्भ किया- ‘‘ मन्त्रशास्त्रों में विलोममातक
ृ ा, वहिर्मातक
ृ ा,अन्तर्मातक
ृ ा आदि की
चर्चा मिलती है । प्रचलित मातक
ृ ा का बिन्द ु सहित उलटारूप ही विलोममातक
ृ ा है । लिपीमयी दे वी के रूप को ही
वहिर्मातक
ृ ा कहते हैं,या कह सकते हो कि वाग्दे वता के अंग वर्णमय हैं(इसलिए उन्हें वर्णतनु भी कहते हैं), ये वर्णमयी
मातक
ृ ादे वी ही बहिर्मातक
ृ ा के नाम से जानी जाती है । विभिन्न अंगविन्यास इन वर्णों का ही प्रसार मात्र है ।
अकादिवर्णों द्वारा ही दे वी के अंगों का निर्माण होता है । साधकगण इन्हीं निगूढ़ शक्तियों को निज अंगों में न्यासित
करते हैं साधना-क्रम में ।”

जरा ठहर कर वद्ध


ृ बाबा ने फिर कहना शरु
ु किया- “ पता नहीं तम्
ु हारे उपेन्द्रभैया ने अन्तः शरीर-संरचना के बारे में कुछ
बताया है या नहीं, किन्तु संक्षेप में इतना जान लो कि शरीर में बहुत से स्थान हैं,जिनका उपयोग,या कहो जिन पर
प्रयोग करते हैं साधक गण। उन्हीं मूलाधार,स्वाधिष्ठानादि चक्रों में साधक जब इन्हीं मातक
ृ ावर्णों का विधिवत न्यास
करते हैं,तब इसका ही नाम अन्तर्मातक
ृ ा न्यास होता है । यह कहां,कैसे,कब किया जाय बहुत ही गढ़
ू और गरू
ु -सानिध्य
वाली बातें हैं। यानी कि यह सब बिलकुल ही व्यावहारिक साधना-जगत की बातें हैं,अतः अभी विशेष कुछ कह भी नहीं
सकता। क्या कहते हो तुमलोग इसे- ‘प्रैक्टिकल’ यही न? अब तैराकी का प्रैक्टिकल मैदान में खड़े होकर तो नहीं किया
जा सकता न ! उसके लिए तो नदी की धार में उतरना होगा–– डूबने-उतराने का भय-संकोच छोड़कर। वैसे, तुम तो
ब्राह्मण हो। सुने होवोगे बहुत कुछ,दे खे-पढ़े भी होवोगे- मार्क ण्डेयपुराणान्तर्गत वर्णित श्रीदर्गा
ु सप्तशति का पाठ तो
जरुर किये होगे? वहां विविध न्यासों की चर्चा है । तान्त्रिक विधि से पाठ करने के लिए ग्यारह प्रकार के न्यासों की
व्यवस्था कही गयी है । कर्मकाण्डी ब्राह्मणों के बीच बहुश्रुत और प्रसिद्ध ‘दर्गा
ु र्चनसति
ृ ’ नामक पुस्तक में भी इसकी
थोड़ी चर्चा मिल जाती है ,किन्तु इशारा मात्र ही है वहां,और संख्या भी परू ी नहीं है । पूर्ण जानकारी के लिए तो तन्त्र के
विविध मूलग्रन्थों में ही झांकना होगा,या किसी गुरु के सामने प्रणिपात करना होगा, तभी पराम्बा की कृपा प्राप्त हो
सकती है । अज्ञान रुपी अन्धकार से ज्ञानरुपी प्रकाश में जो पहुँचा दे ने की क्षमता रखता हो,वही तो सच्चा गुरु है । शेष
तो कामाऊखाऊ गुरुघंटाल भर हैं। उनपर भरोसा करने से कहीं अच्छा है - ‘निगुरा’ ही रहे ।’’

‘ निगुरा ’ शब्द पर मैं जरा चौंका। क्यों कि इस शब्द का तात्त्विक अर्थ तो कुछ और ही होता है ;परन्तु मैंने कुछ
कहा नहीं । कुछ कहने को सोच ही रहा था कि बाबा के उपदे शात्मक ज्ञानामत
ृ का एकाग्रचित्त से रसपान करती
गायत्री बोल उठी- ‘ महाराज ! दो-तीन प्रकार के न्यासों के बारे में तो पिताजी ने मझ
ु े बतलाया है । करती भी हूँ पाठ के
समय; किन्तु अन्तर्मातक
ृ ा, बहिर्मातक
ृ ा आदि सिर्फ नाम भर ही सुनी हूँ। इसके गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर आज
आपने हमलोगों पर महती कृपा कर दी।’

सिर हिलाते हुए वद्ध


ृ बाबा ने कहा- ‘‘चलो,इतना क्या कम है ,तुम जैसी समान्य स्त्री इनका नाम जानती है ,
यानी कि वैसे कुल की हो,जहां साधना की किं चित परम्परा सुप्त पड़ी है । दःु ख और चिन्ता की बात तो ये है कि आम
ब्राह्मण सिर्फ दशहरे में दर्गा
ु पाठ कर थोड़ी आमदनी करके ही सन्तष्ु ट हो जाते हैं। इसकी उपयोगिता उनके लिए बस
इतना ही है । उससे आगे भी कुछ है ,हो सकता है - प्रश्न ही नहीं उठता कभी उनके मन में । खैर,छोडो,जाने दो ।कौन क्या
करता है - इसकी आलोचना में समय क्यों गंवाना ! मैं तुमलोगों को इन मातक
ृ ाओं के अंगादि से सैद्धान्तिक परिचय
कराये दे ता हूँ। व्यावहारिक परिचय तो तम
ु स्वयं करोगे।’’

इतना कह कर वद्ध
ृ बाबा ने आंखें मूंद ली। तीन-चार बार बड़े गहराई से ऊँकार का सुमधुर उच्चारण किये,और
फिर सभी वर्णों का उच्चारण करते हुए,अपने अंगों का स्पर्श करने लगे। उपेन्द्र बाबा ने इशारा किया- ठीक से उन्हें
दे खने के लिए। और हमदोनों दे खने लगे,बाबा के अंगों को,स्वरों से समायोजित होते हुए––
अन्तिम ५१वें वर्ण ळ के उच्चारण के साथ वद्ध
ृ ाबाबा ने अपनी आंखें खोलते हुए कहा-- ‘‘न्यासक्रम में इसे समाहित
नहीं किया गया है । इसकी वहां आवश्यकता भी नहीं है । साधना के क्रम में साधक को इन सभी वर्णों को परम चैतन्य
और दिव्य भाव से स्वीकारते हुए अपने विविध अंगों में न्यस्त करना चाहिए,जैसा कि सामान्य न्यास-प्रक्रिया में भी
कहा जाता है । ये ठीक वैसा ही है ,जैसे कि तुम्हें दर्गा
ु की उपासना करनी है , तो सर्वप्रथम उनकी एक प्रतिमा वा चित्र की
व्यवस्था करोगे। उसे सामने रखकर, यथोपलब्धोपचार पूजन करोगे। तन्त्र साधना में साधक भी कुछ ऐसा ही करता
है , किन्तु काफी गहरे अर्थ में । जैसा कि हमने कहा, सभी वर्ण परम चैतन्य, स्वरुपवान हैं। उनके इन्हीं स्वरुपों को
बाहर के वजाय भीतर स्थापित करना है ,और सच पूछो तो स्थापित क्या करना है ,स्थापित तो है ही,क्यों कि ब्रह्माण्ड
की प्रतिकृति ही तो हमारा यह पिण्डात्मक शरीर है । वे हैं कहां, किस अवस्था में यही तो समझना,जानना,दे खना,
अनुभव करना है - साधक को। और इसके लिए सर्वप्रथम उनकी सही जानकारी चाहिए,सो मैं दिये दे ता हूँ। वर्ण हैं तो
उनके ऋषि होंगे ही,छन्द भी होगा,स्वरुप भी होगा। दे वता होंगे,तो उनके साथ उनकी शक्ति भी होगी ही। यहां एक
और बात को समझ लो कि संहारक और पालक भेद से दे वता की स्थिति ,जिसे हम रुद्र और विष्णु नाम से यहां कह रहे
हैं–सीधे शब्दों में यूं कहो कि अमुक वर्ण के अमुक रुद्र हैं,और अमुक विष्णु भी हैं। ये दोनों तो दे वता ही हैं। ध्यान ये
रखना है कि रुद्र के साथ कौन सी शक्ति है ,और विष्णु के साथ कौन सी शक्ति कार्यरत है । वैसे इन सब बातों में , बहुत
पचरे में मत उलझना। मान लो तुम और गायत्री किसी कार्य के लिए निकले। तुम दोनों एक दस
ू रे के पूरक हो,
सहयोगी हो,एक शक्ति और दस
ू रा है शक्ति का आधार। तुम दोनों मिलकर,एक दस
ू रे के सहयोगी बन कर कभी घर
का काम करते हो,कभी बाजार का भी,कभी नौकर की भूमिका में होते हो,कभी मालिक की भूमिका में । एक ही व्यक्ति
पिता भी होता है ,पुत्र भी,सेवक भी,मालिक भी,ब्राह्मण भी,शूद्र भी...इन बातों की गहराई को समझो, बझ
ू ो...सष्टि
ृ का
सारा रहस्य परत-दरपरत खुलता जायेगा। महामाया अपना आंचल पसारे बैठी हैं,उनकी भंगिमाओं का ही तो सारा
खेल है यह स्थावर-जांगम,दृश्यादृश्य जगत-प्रपंच। एक और बात का ध्यान दे ना, आगे जो सारणी सुना-बता रहा हूँ
उसमें पाओगे कि किसी एक ही ऋषि के अधीन एकाधिक वर्ण भी हैं,और ऋषि यदि एक है ,तो छन्द भी एक ही होना
स्वाभाविक है । किन्तु अपवाद स्वरुप ज और झ के छन्द तो वही है ,पर ऋषि अलग हैं। इस प्रकार अजऋषि के जिम्मे
ख,ग,घ,ङ और झ वर्ण हो गये। इसी भांति माण्डव्य के जिम्मे अः के अलावे ढ ,ण,क्ष,और ळ भी है । आगे व से क्ष
पर्यन्त छन्द साम्य है - सभी वर्णों का दण्डक ही है ,जबकि ऋषि बदलते गये हैं। एक और जगह भ्रान्ति होती है प्रायः- य
और र के ऋषि में तो संशय नहीं है ,पर छन्द या कहो छन्दोच्चारण में किं चित भेद है । वत्ृ तरत्नाकर में अतिकृति छन्द
कहा गया है ,किन्तु पिंगल, ऋकप्रातिशाख्य यहां तक कि भरतनाट्यम ् में भी अभिकृति छन्द की चर्चा है । ये बात मैं
तुम्हें इसलिए बतला दिया ताकि कहीं और से सुनो-जानो तो संशय में न पड़ो। जहां तक व्यावहारिक और साधना-क्षेत्र
की बात है ,वहां छन्द-भेद से कोई अन्तर नहीं होने वाला है । हां, छन्दों का सम्यक् ज्ञान करने के लिए पिंगलसत्र
ू को भी
टटोल सकते हो। और फिर कौन मना करता है कि भरतनाट्यम ् को न दे खना, उसे भी दे ख ही डालो। परन्तु फिर एक
बार ये भी कहना चाहूँगा कि साधक को अधिक जानकारियों के बोझ से भी बचना चाहिए। क्यों कि प्रायः ये बोझिल
कर दे ती हैं। नदी के किनारे खड़े होकर नावों की गिनती और किराये का मोल-तोल करने में ही समय चक
ू जाता है ।
यात्रा प्रारम्भ ही नहीं हो पाती। अतः उचित है कि सद्गुरु के आश्रय में प्रणिपात पूर्वक साधना प्रारम्भ की जाये। अस्तु।
यहां अभी सभी वर्णों के ऋषि,छन्द,रुद्र,विष्णु एवं शक्ति को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इसे जरा ध्यान से
सुनो,या कागज-कलम हो तो लिख सकते हो; किन्तु लिखने लगोगे तो मेरे कथन-प्रवाह में बाधा पहुंचेगी, अतः
हृदयंगम करने की आदत डालो। लिखी हुयी तो बहुत सी वातें हैं। ”

मझ
ु े भी सन
ु ना ही उचित लगा, लिखने का साधन भी तत्काल उपलब्ध नहीं था। बाबा कहने लगे–
इतना बतला कर वद्ध
ृ बाबा ने थोड़ी लम्बी सांस ली,और फिर कहने लगे- ‘‘ इस प्रकार इक्यावन मातक
ृ ायें न्यस्त हैं
हमारे शरीर में । दस
ू रे शब्दों में कह सकते हो कि इक्यावन शक्तिपीठ हैं हमारे शरीर में ,उन्हीं का ध्यान-चिन्तन करना
है साधक को। ये जो वह
ृ त ् सारणी बतलायी गयी तुम्हें ,इन्हें सही ढं ग से स्मरण रखना तो अति दरु
ु ह होगा। बिना
लेखनी के यह सम्भव नहीं,किन्तु अब इसका भी सरल उपाय कहे दे ता हूँ। शारदातिलकतन्त्रम ् में थोड़े ही शब्दों में
इन्हें व्यक्त किया गया है , जिन्हें सहज ही स्मरण में उतार सकते हो। यथा- अर्जुन्यायनमध्ये द्वौ भार्गवस्तौ
प्रतिष्ठिका । अग्निवेश्यः सुप्रतिष्ठा त्रिषु चाब्धिषु गौतमः ।। गायत्री च भरद्वाज उष्णिगेकारके परे ।
लोहित्यायनकोऽनुष्टुप ् वशिष्ठो वह
ृ ती द्वयोः ।। माण्डव्यो

दण्डकश्चापि स्वराणां मुनिछन्दसी । मौद्गायनश्च पङ्क्तिः केऽजस्त्रिष्टुप ् द्वितये घङों

।। योग्यायनश्चजगती गोपाल्यायनको मुनिः । छन्दोऽतिजगती चे छे न्नषकः शक्वरी ह्यजः ।। शक्वरी


काश्यपश्चातिशक्वरी झञयोष्टठोः । शुनकोऽष्टिः सौमनस्योऽत्य ष्टिडे कारणो धति
ृ ः ।। ढणोर्माण्डव्यातिधति

साङ्कृत्यायनकः कृतिः । त्रिषु कात्यायनस्तु स्यात ् प्रकृतिर्नपफेषु बे ।। दाक्षायणाकृति व्याघ्रायणो भे विकृतिर्मता ।
शाण्डिल्यसङ्कृती मेऽथ काण्डल्याति-कृति यरोः ।। दाण्ड्यायनोत्कृती लेऽथ वे जात्यायनदण्डकौ । लाट्यायनो
दण्डकः शे षसहे जयदण्डकौ । माण्डव्यदण्डकौ ळक्षे कादीनामषि
ृ छन्दसी ।। - इस प्रकार वर्णों के ऋषि और छन्दों का
ज्ञान सहज ही कर सकते हो इन श्लोकों को स्मरण में रखकर। वहीं आगे-पीछे , इसी प्रसंग में कुछ और भी महत्त्वपर्ण

संकेत तुम्हें मिल जायेंगे- वर्णों का स्वरुप,कला वगैरह,जिसके सहयोग से ध्यान करने में सुविधा होगी। कुछ अन्य
तन्त्र-ग्रन्थों का भी यत्किंचित सहयोग लेना पडता है , ताकि स्वरुप,वाहनादि को अधिक स्पष्ट किया जा सके। विविध
ग्रन्थों का सार-संक्षेप थोड़े शब्दों में अभी मैं तम्
ु हें बताये दे रहा हूँ,क्यों कि समय को भी ध्यान में रखना है । काफी दे र से
हमलोग यहां बैठे हुए हैं। फिर कभी संयोग हुआ तो और बातें हो सकेगी,या फिर तुम्हारे उपेन्द्र भैया भी कोई कम थोड़े
जो हैं। मेरे पास जो भी था, पिछले कई वर्षों में सबकुछ उढे ल दिया हूँ इनकी गागरी में । ’’- कहते हुए बाबा ने पहले तो
ऊपर आकाश की ओर दे खकर,समय का अनुमान किया,और फिर उपेन्द्रबाबा की ओर दे खते हुए बोले- ‘‘ क्या विचार
है , सभा-विसर्जित किया जाय अब ?’’

उपेन्द्रबाबा ने पहले गायत्री की ओर दे खा,क्यों कि उसकी तप्ति


ृ -सहमति के बिना उठ जाने का मतलब
है ,अपना सिर चटवाना,भले ही यहां,सुधनीगाय बनी बैठी है ।

उनका मनोभाव समझती गायत्री ने कहा- ‘समय तो पंख लगाये उड़ा जा रहा है ,अब बताओ न- इतनी जल्दी
भला चार बज जाना चाहिए ?’
उपेन्द्रबाबा ने हँसते हुए कहा- ‘चार तो ठीक चार बजे ही बजता है गायत्री ! ना क्षणभर पहले और ना क्षणभर बाद।
वैसे तुम्हारी तप्ति
ृ अभी नहीं हुयी हो, तो तुम्हारी ओर से महाराजजी से निवेदन करता हूँ कि कम से कम वर्णों के वर्ण
(रं ग),स्वरुप और वाहनादि पर थोड़ा और प्रकाश डाल दें ,जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा भी - संक्षेप में ही सही। ’

‘‘ ठीक है । ठीक है ,सबकी राय है तो बता ही दे ता हूँ।’’- कहते हुए,वद्ध


ृ महाराज ने कुछ दे र के लिए अपनी आँखें
मूंदी,मानों वर्ण-स्वरुपों का साक्षात्कार कर रहे हों,और फिर कहना शुरु किये- ‘‘ तन्त्रशास्त्र का मत है कि अकारादि
सभी वर्ण अमत
ृ मय होने के कारण अतिनिर्मल हैं। ललाटदे श में आज्ञाचक्र से जरा ऊपर स्थित अर्द्धचन्द्र से जो
अमत
ृ विन्द ु क्षरित होता है , वही नीचे मल
ू ाधारादि कमलदलों में आकर वर्णरुप में परिलक्षित होता है ।
सनत्कुमारसंहिता में इस विषय में विस्तत
ृ वर्णन मिलता है । जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ,पुनः स्मरण दिला दं ू
कि पञ्चभूतात्मक,पञ्चप्राणात्मक त्रिदे वादि विभूषित होने के कारण इन मातक
ृ ाओं का नील-पीतादि त्रिवर्णीय होना
तो स्वतः सिद्ध है , फिर भी किं चित मतान्तर भी है । वस्तुतः ये कोई विशेष शंका वाली बात नहीं है । साधनाक्रम में
जिस साधक को यत्किंचित अन्तर प्रतीत हुआ,या कहो, उसने जो जैसा अनुभव किया,लोककल्यार्थ उसे प्रकट करने
का, व्यक्त करने का प्रयास किया। स्थूल रुप से कहा जाय तो कह सकते हैं कि अकारादि स्वरों का वर्ण (रं ग) धूम्र है ।
‘क’ से लेकर ‘ट’ पर्यन्त सभी वर्ण सिन्दरू ी आभावाले हैं। यहां यह ध्यान रखना कि आजकल तरह-तरह के सिन्दरू
उपलब्ध हैं बाजार में - लाल,पीले,काले,हरे ,नीले...,जो सिर्फ श्रंग
ृ ार-प्रसाधन मात्र हैं, जिसे जो रुचिकर लगे; किन्तु
असली सिन्दरू जो हिन्गुल नामक खनिज-द्रव्य से तैयार होता है ,उसका अपना विशिष्ट सौन्दर्य है । पारद के
उर्ध्वपातन के पश्चात ् जो अवशिष्ट रह जाता है , वही असली सिन्दरू है । हिंगुल से पारद निकाल लेने के बाद, अवशिष्ट
द्रव्य को विधिवत अतिपिष्ट कर लो,बस शद्ध
ु असली सिन्दरू तैयार हो गया। इसी सिन्दरू का उपयोग समस्त
तान्त्रिक क्रियाओं में फलद होता है ,न कि बाजार का रं ग-रोगन। अब जरा सोचो- पारद यानी शिववीर्य के अलग हो
जाने के पश्चात ् पार्वती का शोणितांश ही तो शेष रह गया सिन्दरू नाम-ख्यात होकर ।”

सिन्दरू -निर्माण की चर्चा सुन गायत्री मेरी ओर दे खी। मैं भी उसका भाव समझ गया। उपेन्द्रभैया ने
सियारसिंगी के पूजन में इसी असली सिन्दरू के प्रयोग के बारे में कहा था,किन्तु बनाने की विधि की चर्चा उस समय न
हो सकी थी। अभी बद्ध
ृ बाबा के श्रीमख
ु से उस विधि को जान कर अतिशय प्रसन्नता हुयी गायत्री को, क्यों कि उसका
मुखमंडल ही गवाही दे रहा था- इस बात के लिए।

बद्ध
ृ बाबा ने कह रहे थे–– ‘ड’ से लेकर ‘फ’ तक वर्णों का रं ग गौर है । ब, भ, म,य और र का रं ग अरुण है ।
ल,व,श,ष,स - ये पांच, स्वरों की भांति स्वर्णवर्णी ही हैं। ‘ह ’ और ‘ क्ष ’ सौदामिनी(विजली) के समान आभायुक्त हैं।
इस सम्बन्ध में सूतसंहिता के वचन हैं–– अकारादिक्षरान्तैर्वर्णैरत्यन्तनिर्मलैः । अशेषशब्दै र्या भाति तामानन्दप्रदां
नुमः ।। वर्णों के वर्ण(रं ग) को सनत्कुमारसंहिता के इस वचन से तुम सहज ही स्मरण में रख सकते हो- अकाराद्याः
स्वरा धूम्राः सिन्दरू ाभास्तु कादयः। डादिफान्ता गौरवर्णा अरुणाः पञ्च वादयः । लकाराद्याः काञ्चनाभाः
हकारान्त्यौ तडिन्निभौ ।। किं चित तन्त्र-ग्रन्थों में स्वरों को स्फटिक सदृश,स्पर्श वर्णों को विद्रम
ु सदृश,यकारादि नव
वर्णों को पीत, और क्षकार को अरुण भी कहा गया है । सौभाग्यभास्कर भी विविध वर्ण भेदों को स्वीकारता है ।
कामधेनुतन्त्रम ् में भी कुछ ऐसी ही चर्चा है । कहा जाता है कि ये मातक
ृ ावर्ण ही पचास युवतियां हैं,जो विश्वब्रह्माण्ड में
सर्वव्याप्त हैं। गीतवाद्यादि में निपुण और रत, ये सब के सब किशोरवयसा, शिवप्रियायें हैं। पष्ु प-कलिका के गर्भ में
जिस भांति गन्धादि संनिहित होता है , तद् भांति ही त्रिधा विभक्त शक्तियां- इच्छा, ज्ञान और क्रिया, साथ ही
पंचतत्त्व,पंचदे व और पंचप्राण सहित आत्म-तत्त्व, विद्या-तत्त्व एवं शिव-तत्त्व आदि निहित हैं। इन मातक
ृ ा
अभिरूपों का विवरण वर्णोद्धार तन्त्रम ् में भी विशद रुप से मिलता है ,साथ ही वर्णमातक
ृ ाओं के लिपिमय संकेत भी
उल्लिखित हैं वहां। यह प्रसंग अवश्य सेवनीय है । अतः भले ही समय कम है ,फिर भी इसका विस्तार से वर्णन करने
का लोभ-संवरण मैं नहीं कर सकता। ’’

मैंने अनुभव किया- वद्ध


ृ महाराज भी आज अति प्रमुदित हैं। उनकी मुख-भंगिमा निहारते हुए उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘ जी
महाराज ! समय को किसने पकड़ पाया है ,ये तो अपनी गति से चलता ही रहे गा; किन्तु सुअवसर तो सौभाग्य से ही
मिलता है न। अतः इसका अधिकाधिक लाभ ले लिया जाना चाहिए। कौन जाने जीवन सरिता के किस घाट पर
किसकी,किससे और कब मुलाकात हो ! ’

उपेन्द्रबाबा की इस बात पर वद्ध


ृ महाराज थोडे गम्भीर हो गये। उनके मुखमंडल का प्रमोद अचानक कहीं खो सा
गया। आँखें मुंद गयी। कुछ पल मौन साधे रहे ,फिर उच्चरित होने लगे। उनका कंठ-स्वर अद्भत
ु ओजपूर्ण प्रतीत हुआ।
लग रहा था साक्षात ् शिव ही वाचन कर रहे हों, शिवा के समक्ष,तन्त्र का गोपन रहस्य—(अ) - श्रण
ृ ु तत्त्वमकारस्य
अतिगोप्यं वरानने । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चकोणमयं सदा ।। पञ्चदे वमयं वर्णं शक्तित्रयसमन्वितम ्। निर्गुणं
त्रिगुणोपेतं स्वयं कैवल्यमूर्तिमान ् ।। विन्दत
ु त्त्वमयं वर्णं स्वयं प्रकृतिरुपिणी ।

(आ)- आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये । ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं प्रिये ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं
परमकुण्डली ।

(इ)- इकारं परमानन्दसुगन्धकुसुमच्छविम ् । हरिब्रह्ममयं वर्णं सदा रुद्रयुतं प्रिये ।। सदाशक्तिमयं दे वि गुरुब्रह्ममयं
तथा । ( ग्रन्थान्तर से- सदाशिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम ् । हरिब्रह्मात्मकं वर्णं गुणत्रयसमन्वितम ् ।। इकारं
परमेशानि स्वयं कुण्डली मर्ति
ू मान ् ।।)

(इ)- ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । ब्रह्मविष्णम


ु यं वर्णं तथा रुद्रमयं सदा ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पीतविद्युल्लताकृतिम ् । चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।।

(उ)- उकारं परमेशानि अधःकुण्डलिनी स्वयम ् । पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राण मयं दे वि
चतुर्वर्गप्रदायकम ् ।
(ऊ)- शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदे वमयं सदा ।। धर्मार्थकाममोक्षं च
सदासुखप्रदायकम ् ।।

(ऋ)- ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान ् स्वयम ् । अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने । सदाशिवंयुतं वर्णं सदा
ईश्वरसंयत
ु म ् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं चतर्ज्ञा
ु नमयं तथा ।। रक्तविद्यत
ु ल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम ् ।।

(ॠ)-ॠकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डलम ् । पीतविद्युतल्लताकारं पञ्चदे वमयं सदा । चतुर्ज्ञानमयं वर्णं
पञ्चप्राणयत
ु ं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं प्रणमामि सदा प्रिये ।।

(ल)ृ - लक
ृ ारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली परदे वता । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति ससतं प्रिये ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
चतुर्ज्ञानमयं सदा । पञ्चप्राणयुतं वर्ण तथा गुणत्रयात्मकम ् ।। विन्दत्र
ु यात्मकं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा ।

(ए)- एकारं परमेशानि ब्रह्मविष्णशि


ु वात्मकम ् । रञ्जनीकुसम
ु प्रख्यं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्ण तथा
विन्दत्र
ु यात्मकम ् । चतुर्वर्गप्रदं दे वि स्वयं परमकुण्डली ।।

(ऐ)- ऐकारं परमंदिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम ् । कोटिचन्द्रप्रतीकाशं पञ्चप्राणमयं सदा ।। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं
विन्दत्र
ु यसमन्वितम ् ।

(ओ)-ओकारं चञ्चलापाङ्गि पञ्चदे वमयं सदा । रक्तविद्युल्लताकारं त्रिगुणात्मानमीश्वरीम ् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं


नमामि दे वमातरम ् । एतद्वर्णं महे शानि स्वयं परमकुण्डली ।।

(औ)- रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम ् । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं
तथा शिवमयं सदा ।।

(अं)- सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम ् । अङ्कारं विन्दस


ु ंयुक्तं

पीतविद्युतसमप्रभम ् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं ब्रह्मादिदे वतामयम ् ।

(अः)- सर्वज्ञानमयं वर्णं विन्दत्र


ु यसमन्वितम ् । अः कारं परमेशानि

विसर्गसहितं सदा ।। पञ्चदे वमयं वर्णं पञ्चप्राणमयः सदा । सर्वज्ञानमयोवर्णः आत्मादि तत्त्वसंयत
ु ः।।

(क)- जपायावकसिन्दरू मदृशीं कामिनीं पराम ् । चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च बाहुबल्लीविराजिताम ् ।।


कदम्बकोरकाकारस्तनद्वयविभषि
ू तम ् । रत्नकंकणकेयरू ै रङ्गदै रुपशोभिताम ् । रत्नहारै ः पष्ु पहारै ः शोभितां
परमेश्वरीम ् । एवं हि कामिनीं व्यात्वा ककारं दशधा जपेत ् ।।
(ख)- खकारं परमेशानि कुण्डलीत्रयसंयुतम ् । खकारं परमाश्चर्यं शङ्खकुन्दसमप्रभम ् ।। कोणत्रययुतं रम्यं
विन्दत्र
ु यसमन्वितम ् । गुणत्रययुतं दे वि पञ्चदे वमयं सदा ।। त्रिशक्तिसंयुतं वर्णं सर्व शक्त्यात्मकं प्रिये ।

(ग)- गकारं परमेशानि पञ्चदे वात्मकं सदा । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं निरीहं निर्मलं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं गकारं
प्रणमाम्यहम ् ।।

(घ)- अरुणादित्यसङ्काशं कुण्डलीं प्रणमाम्यहम ् । घकारं चञ्चलापाङ्गि चतुष्कोणात्मकं सदा । पञ्चदे वमयं वर्णं
तरुणादित्यसन्निभम ् । निर्गुणं त्रिगण
ु ोपेतं सदा त्रिगण
ु संयत
ु म ् । सर्वगं सर्वदं शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम ् ।।

(ङ)- ङकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । सर्वदे वमयं वर्णं त्रिगण


ु ं लोललोचने ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं ङकारं
प्रणमाम्यहम ् ।।

(च)-चवर्णं श्रण
ृ ु सश्र
ु ोणि चतर्व
ु र्गप्रदायकम ् । कुण्डलीसहितं दे वि स्वयं परमकुण्डली ।। रक्त विद्यत
ु ल्लताकारं सदा
त्रिगुणसंयुतम ् । पञ्चदे वमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।

(छ)- छकारं परमाश्चर्यं स्वयं परमकुण्डली । सततं कुण्डलीयुक्तं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा । त्रिविन्दस
ु हितं वर्णं सदा ईश्वरसंयुतम ् ।। पीतविद्युल्लताकारं छकारं प्रणमाम्यहम ् ।

(ज)- जकारं परमेशानि या स्वयं मध्य कुण्डली । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं सदा त्रिगुणसंयुतम ्।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणात्मकं सदा । त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं प्रिये ।।

(झ)- झकारं परमेशानि कुण्डलीमोक्षरुपिणी । रक्तविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम ् ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणात्मकमं सदा । त्रिविन्दस
ु हितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।।

(ञ)- सदा ईश्वरसंयक्


ु तं ञकारं श्रण
ृ ु पार्वति । रक्तविद्युल्लताकारं स्वयं परमकुण्डली ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणात्मकमं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।।

(ट)- टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । पञ्चदे वमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकमं सदा ।। त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।।

(ठ)- ठकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरुपिणी । पीतविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम ् ।। पञ्चदे वात्मकं वर्णं
पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिविन्दस
ु हितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।।

(ड)- डकारं चञ्चलापाङ्गि सदा त्रिगण


ु संयत
ु म ् । पञ्चदे वमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं तथा ।। त्रिशक्तिसहितं वर्णं
त्रिविन्दस
ु हितं सदा । चतुर्ज्ञानमयं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम ् ।। पीतविद्युल्लताकारं डकारं प्रणमाम्यहम ् ।।
(ढ)- ढकारं परमाराध्यं या स्वयं कुण्डली परा । पञ्चदे वात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयंसदा।।
सदात्रिगुणसंयुक्तंआत्मादितत्त्वसंयुतम ्। रक्तविद्युल्लताकारं ढकारं प्रणमाम्यहम ् ।।

(ण)- णकारं परमेशानि या स्वयं परमकुण्डली । पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं दे वि सदा
त्रिगण
ु संयत
ु म ् । आत्मादितत्त्वसंयक्
ु तं महासौख्यप्रदायकम ् ।

(त)- तकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । पञ्चदे वात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयं तथा ।। त्रिशक्ति सहितं
वर्णमात्मादितत्त्वसंयत
ु म ् । त्रिविन्दस
ु हितं वर्णं पीतविद्यत्ु समप्रभम ् ।।

(थ)- थकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरुपिणी । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दस


ु हितं सदा ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणात्मकं प्रिये । तरुणादित्यसङ्काशं थकारं प्रणमाम्यहम ् ।।

(द)- दकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि चतर्व
ु र्गप्रदायकम ् । पञ्चदे वमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। सदा ईश्वरसंयक्
ु तं
त्रिविन्दस
ु हितं सदा । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं स्वयं परमकुण्डली ।। रक्तविद्युल्लताकारं दकारं हृदि भावय ।।

(ध)- धकारं परमेशानि कुण्डली मोक्षरुपिणी । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं दे वि
त्रिशक्तिसहितं सदा । त्रिविन्दस
ु हितं वर्णं धकारं हृदि भावय ।। पीतविद्युल्लताकारं चतुर्वर्गप्रदायकम ् ।।

(न)- नकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लताकृतिम ् । पञ्चदे वमयं वर्णं स्वयं

परमकुण्डली ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिविन्दस


ु हितं सदा । त्रिशक्तिसहितं

वर्णमात्मादितत्त्वसंयत
ु म ् । चतर्व
ु र्गप्रदं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।

(प)- अतः परं प्रवक्ष्यामि पकारं मोक्षमव्ययम ् । चतुर्वर्गप्रदं वर्णं शरच्चन्द्रसमप्रभम ् ।। पञ्चदे वमयं वर्णं स्वयं
परमकुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिविन्दस
ु हितं वर्णंमात्मादितत्त्वसंयत
ु म ् । महामोक्षप्रदं
वर्णं

हृदि भावय पार्वति ।।

(फ)- फकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि रक्तविद्यल्
ु लतोपमम ् । चतर्व
ु र्गमयं वर्णं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं सदा
त्रिगुणसंयुतम ् । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।।

(ब)- बकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि चतर्व
ु र्गप्रदायकम ् । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं
त्रिविन्दस
ु हितं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं निविडाऽमत
ृ निर्मलम ्।।स्वयं कुण्डलिनी साक्षात ् सततं प्रणमाम्यहम ् ।।
(भ)- भकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । महामोक्षप्रदं वर्णं पञ्चदे वमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णं
त्रिविन्दस
ु हितं प्रिये ।

(म)- मकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली । महामोक्षप्रदं वर्णं पञ्चदे वमयं सदा ।। तरुणादित्यसङ्काशं
चतर्व
ु र्गप्रदायकम ् । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयक्
ु तं हृदिस्थं प्रणमाम्यहम ् ।।

(य)- यकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि चतुष्कोमयं सदा । पलालधूमसङ्काशं स्वयं परमकुण्डली ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणात्मकं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं तथा ।। प्रणमामि सदा वर्णं मर्ति
ू मान ् मोक्षमव्ययम ् ।।

(र)- रकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वयसंयत


ु म ् । रक्तविद्यल्
ु लताकारं पञ्चदे वात्मकं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं
त्रिविन्दस
ु हितं सदा । त्रिशक्तिसहितं दे वि आत्मादितत्त्वसंयुतम ् ।।

(ल)- लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वयसंयत


ु म ् । पीतविद्यल्
ु लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम ् ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणमं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदि भावय पार्वति ।।

(व)- वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम ् । पलालधूमसंकाशं पञ्चदे वमयं सदा । पञ्चप्राणमयं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिविन्दस
ु हितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम ् ।।

(श)- शकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीतत्त्वसंयुतम ् । पीतविद्युल्लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम ् ।। पञ्चदे वमयं वर्णं


पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदि भावय पार्वति ।।

(ष)- षकारं श्रण


ृ ुचार्वङ्गि अष्टकोणमयं सदा । रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं परमकुण्डली ।। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं
सुधानिर्मितविग्रहम ् । पञ्चदे वमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।। रजःसत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्ति सहितं सदा ।
त्रिविन्दस
ु हितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयत
ु म ् । सर्वदे वमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।

(स)- सकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि शक्तिबीजं परात्परम ् । कोटिविद्युल्लताकारं कुण्डलीत्रयसंयुतम ् ।। पञ्चदे वमयं वर्णं
पञ्चप्राणमयं सदा । रजःसत्त्वतमोयुक्तं त्रिविन्दस
ु हितं सदा ।। प्रणम्य सततं दे वि हृदि भावय पार्वति ।।

(ह)- हकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि चतर्व
ु र्गप्रदायकम ् । कुण्डलीत्रयसंयक्
ु तं रक्तविद्यल्
ु लतोपमम ् ।। रजःसत्त्वतमोवायु
पञ्चदे वमयं सदा । पञ्चप्राणमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।

(क्ष)- क्षकारं श्रण


ृ ु चार्वङ्गि कुण्डलीत्रयसंयत
ु म ् । चतर्व
ु र्गमयं वर्णं पञ्चदे वमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं
त्रिशक्तिसहितं सदा। त्रिविन्दस
ु हितं वर्णांत्मादितत्त्वसंयुतम ् । रक्तचन्द्रप्रतीकाशं हृदि भावय पार्वति ।।

क्षकार महिमा-मण्डन के पश्चात ् वद्ध


ृ महाराज जरा रुके। मेरे होठ शकंु त-चंचु सदृश खुले हुए थे,शायद अभी कुछ और
कहें । इस क्रम में मैंने गौर किया कि स्वर-व्यंजन सहित सभी वर्णों का स्वरुप तो मिल गया,परन्तु ॡ और ळ इसमें
नहीं आया। आशंका या कहें जिज्ञाशा तो हुयी,पर कुछ कह-पूछ न पाया। अभी कुछ कहने को सोच ही रहा था कि वे
पुनः कहने लगे- ‘‘ वर्णों के विषय में काफी कुछ जान चुके। ये गूढ़ विषय महाशक्ति ‘अनन्ता’ की तरह ही अनन्त हैं;
किन्तु सांसारिक जीव की अपनी सीमा है - क्यों कि वह कालवद्ध है । वह अनन्त नहीं हो सकता कदापि। अतः एक
अन्तिम जानकारी दे कर आज की गोष्ठी समाप्त करता हूँ। सौन्दर्यलहरी में अकारादि वर्णमातक
ृ ाओं का
महिमामण्डल स्पष्ट किया गया है । यथा- अकार ८० लाख, आकार १६० लाख, इकार ९० लाख,ईकार १८० लाख, उकार
१ करोड़, ऊकार २ करोड़,ऋकार ५० लाख,१५० लाख,ल ृ और ॡ क्रमश एक-एक करोड़ ; ए,ऐ,औ डेढ़ करोड़; विन्द ु और
विसर्ग अकार से दग
ु ना यानी १६०लाख,तथा सभी व्यञ्जन शक्तियां अकारमंडल से आधी यानी ४०-४० लाख योजन
विस्तार वाली कही गयी हैं। मातक
ृ ाओं के वाहन,और आयुध भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
शारदातिलक,कामधेनत
ु न्त्रम ् जैसे ग्रन्थ भी इसमें अधरू ी पहे ली बझ
ु ा कर छोड़ दिये हैं। ध्यान के क्रम में इस जानकारी
के अभाव में थोडी कठिनाई हो सकती है । इस विषय में तुम अपने उपेन्द्रभैया से सामयिक जानकारी कर लेना। इसके
अतिरिक्त कुछ और भी जानकारियां शेष हैं, जिसके लिए इनसे सहयोग लेना अपरिहार्य होगा।’’

इतना कह कर वद्ध
ृ महाराज बगल में बैठे उपेन्द्रबाबा की ओर आंशिक दृष्टिपात किये,जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप वे
मुस्कुरा भर दिये,और दोनों बाबा उठ खड़े हुए। मुझे भी गायत्री सहित उठ ही जाना पड़ा। वटवक्ष
ृ -तल की गोष्ठी
समाप्त हो गयी,या कहें रहस्यमय विन्ध्याचल यात्रा ही समाप्त होगयी। रात की गाड़ी से, वापस अपने सांसारिक खेमें
में चले जाना है । किन्तु, बाबा के आदे शानुसार अब महायात्रा पूर्व पर्यन्त, दिव्ययात्रा हे तु कुछ विशेष तैयारियां भी तो
करनी है ...महामाया के अंचल तले–– विचारता हुआ,अपने कमरे की ओर चल दिया। थोड़ा आगे जाने के बाद,पीछे
मड़
ु कर दे खा- दोनों बाबा गरु
ु महाराज की सामाधि की ओर जा रहे थे।

दिन भर चमकने वाले मार्तण्ड महाराज भी अस्ताचल की ओर पहुंचने ही वाले थे। उन्हें भी किसी और लोक में जाने
की बेताबी थी। बाबाओं के सानिध्य में आज बहुत कुछ गुत्थियां सुलझी थी। कई अनकहे प्रश्नों का भी उत्तर स्वतः
मिल गया था। फिर भी अभी कुछ प्रश्न कौंध रहे थे मस्तिष्क में सौदामिनी की तरह,जिन्हें लगता है अब उपेन्द्रबाबा
ही हल कर सकेंगे।

कमरे में आते ही,गायत्री ने अपनी डायरी निकाली,और परू ी गोष्ठी का सारसंक्षेप लिपिवद्ध करने लगी। मैं भी उसमें
यत्किंचित सहयोग करने लगा। कोई डेढ़ घंटे के सतत प्रयास के पश्चात ् वार्ता की मुख्य बातों के अतिरिक्त एक
सारणी भी बनकर तैयार हो गयी,जो इस प्रकार की थी-
सारणी तैयार हो गयी- दे खकर अतिशय प्रसन्नता हुयी। गायत्री की पीठ ठोंकते हुए मैंने कहा- अरे वाह ! ये तो कमाल
हो गया। तुम्हें तो विक्रमादित्य के नवरत्नों में होना चाहिए था। ये तो हू-ब-हू उतार दी तुमने- श्लोकों का शब्दचित्र,वो
भी एकदम सरल रुप में । इसे दे खकर तो साधारण आदमी भी वर्णों का स्वरुप आदि बडे आसानी से समझ जायेगा।

मेरी बात पर गायत्री हँसती हुयी बोली- ‘क्यों नहीं कहोगे, एक साधारण से अखवार के दफ्तर में किरानी का काम
मिलना मोहाल है ,और बात कर रहे हो विक्रमादित्य के नवरत्नों में शामिल करने की।’

फिर से गायत्री की पीठ थपथपाते हुए मैंने कहा- चलो कोई बात नहीं, विक्रमादित्य तो अब इतिहास के पन्नों में चले
गये हैं, फिलहाल तुम मेरे नवरत्नों में ही रहो। मान गया तुम्हारी भी याददास्त को।

गतांश से आगे...अठारहवां भाग

मेरी बात पर,गायत्री कुछ कहना ही चाहती थी,कि तभी वाजूगोस्वामी की हांक सुनाई पड़ी- ‘ बाबा ने कहा था-
आपलोग के लिए जलपान तैयार कर दे ने को, क्योंकि जल्दी निकलना है , सो सब तैयार हो गया है । अतः वहीं
भोजनालय में

चलें आपलोग। मैं तबतक कुछ और काम निपटाकर आता हूँ।’


सूचना दे कर गोस्वामी चला गया। उसके जाने के बाद,हमलोगों ने अपना सामान पैक किया,और चल दिये भोजनालय
की ओर। रास्ते में ही वाजू मिल गया। उसने पन
ु ः सूचना दी- ‘ जलपान के बाद बाबा ने अपने कमरे में बुलाया है । जाने
से पहले वहीं भेट कर लेंगे,दोनों लोग वहीं हैं ।’

कोई आध घंटे बाद हमलोग अपना सामान लिए बद्ध


ृ बाबा के कक्ष में उपस्थित हुए । किवाड़ यूं ही भिड़काया हुआ था।
आज्ञा लेकर प्रवेश किए। दोनों बाबा वहीं मौजूद थे, किसी विशेष चर्चा में मशगूल । सामने कुछ पुस्तकें विखरी थी,जो
दे खने से ही काफी परु ानी प्रतीत हो रही थी। एक छोटी सी चौकी पर कुछ भोजपत्र और तालपत्र भी रखे हुए थे। हमें
अन्दर प्रवेश करते ही बद्ध
ृ बाबा ने कहा- ‘ आओ बैठ जाओ। अब ज्यादा समय तो नहीं है तुमलोगों के पास कि कोई
विशेष बातें की जा सकें; किन्तु कुछ खास चीजें हैं मेरे पास,जिसका योग्य अधिकारी समझते हुए तुम्हें सुपुर्द करना
चाहता हूँ। ये सब मेरे गरु
ु महाराज के धरोहर हैं- कुछ हस्तलिखित पस्
ु तकें। दिल्ली जाकर तम्
ु हें अपने मल
ू कर्तव्य में
संलग्न हो जाना है । आज पौष शुक्ल सप्तमी है । अगले महीने वागीश्वरी दिवस,जिसे तुमलोग वसंत-पञ्चमी कहते
हो, से साधना का विधिवत श्रीगणेश कर दे ना है । सैद्धान्तिक आधार भूमि बनायी जा चुकी है – इन दो दिनों में । अब
सीधे क्रियात्मक रुप से तैयारी करनी है , अभ्यास करना है । संरक्षण हे तु तुम्हारे उपेन्द्र भैया सदा साथ हैं ही । इन
पुस्तकों का समय-समय पर अवलोकन करते रहना। बहुत सी बातें - जिन पर चर्चा नहीं हो सकी है ; किन्तु मैं जानता हूँ
तुम्हारे मन में अनेक सवाल उठ रहे हैं, उनमें प्रायः सभी प्रश्नों का उत्तर,एवं आने वाले समय में सामयिक रुप से
उपस्थित होने वाली समस्याओं का हल भी तुम्हें इन्हीं पुस्तकों से मिला करे गा। आम तौर पर बाजार में साधना
सम्बन्धी असली पस्
ु तकें मिलती ही नहीं हैं। जो मिलती हैं,सो सिर्फ सैद्धान्तिक पक्ष की मात्र भमि
ू का होती है , या इसे
यूं समझो कि खूब होगा तो बाजार में दध
ू मिल जायेगा,जिसे घर लाकर दही,मही,मक्खन और फिर घी प्राप्ति तक की
प्रक्रिया तो स्वयं करनी ही होगी। ज्यादातर लोगों को तो गाय भी पालनी पड़ती है ,तब ही शुद्ध दध
ू मिल पाता है । तुम
बहुत भाग्यवान हो कि मेरे गरु
ु बाबा

का संकेत हुआ, अन्यथा....’

बद्ध
ृ बाबा अचानक रूक गये कहते-कहते। जरा ठहर कर फिर बोले– ‘ गुरुमहारज ने अपनी अनुभूतियों को लगभग
उढे ल दिया है इन पस्ति
ु काओं में , जहां तक शब्दों में सामर्थ्य है प्रकटन का। बहुत सी बातों को चित्रों के माध्यम से भी
व्यक्त किया है उन्होंने,ताकि समझने में सुविधा हो। उससे आगे,निशब्दजगत की बातें कोई क्या करे गा ! साधना की
विधि कोई भी हो,गुरु चौखट तक पहुंचाने भर का काम कर सकता है ,कक्ष-प्रवेश में कोई क्या सहयोगी होगा ! लो
अपना धरोहर सम्भालो, और मझ
ु े भारमक्
ु त करो।’– कहते हुये बद्ध
ृ बाबा सामने पड़ी सारी पस्
ु तकों को, वहीं पड़े पीले
बंधने में पन
ु ः बांधकर, मुझे सौंपते हुए,सिर का स्पर्श करते हुए बोले- ‘ मेरे गुरुमहाराज की अहै तुकीकृपा इसी भांति
सदा तुमपर बनी रहे - इस आशीष और मंगलकामना सहित, वापस जाने की अनुमति दे ता हूँ। प्रयास करना, वर्ष में
एक बार यहां आकर गुरुमहारज की समाधि का दर्शन कर लिया करना। ’
मैं अनुग्रिहत होकर,उनके चरणों में अपना माथा टे क दिया। उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘ अब तुमलोगों को निकलना चाहिए।
बाजू को बोल दिया हूँ,गेट पर ऑटो लेकर इन्तजार कर रहा होगा। मुझे तो अभी कुछ दिन और रुकना है यहां। और
वैसे भी मेरी प्रतीक्षा अधिक करने की आवश्यकता नहीं है ,अपने कर्तव्य में जुट जाना है ।’

हमदोनों बारी-बारी से दोनों बाबाओं का चरण-स्पर्श किये,और अपना बैग उठाये कमरे से बाहर निकल पड़े। परिसर से
बाहर बाजू खड़ा था,एक छोटा सा झोला लिए हुए,जिसमें रास्ते का कलेवा था- कुछ प्रसाद वगैरह। झोला गायत्री के
हाथ में दे कर बाजू ने झुक कर प्रणाम करना चाहा,किन्तु मैंने लपक कर उसे थाम लिया- ये क्या करते हो बाजूभाई !
गायत्री ने हाथ जोड़कर उसे नमस्ते कहा और बैठ गये ऑटो में ।

दिल्ली पहुँचते के साथ ही सांसारिक कर्तव्यों में उलझ गया। ड्यट


ू ी की गल
ु ामी शरु
ु हो गयी। सप्ताह भर से
अधिक,कुछ ऐसे भागमभाग में गुजर गये कि विन्ध्ययात्रा की उपलब्धियों और भावी कर्तव्य पर विचार भी न कर
सका। दे र रात आवास पर पहुंचता,जल्दी-जल्दी निवाला गटकता,इस बीच ही गायत्री से कुछ जरुरी बातें होजाती,और
फिर थकामादा विस्तर पर ढह जाता- कटे वक्ष
ृ की भांति।

कहने को तो उपेन्द्रबाबा को दो दिन बाद ही आना था,किन्तु उनका दो दिन कितने दिन में आयेगा वे ही जाने। हालाकि
गायत्री रोज दिन गिना करती थी- आज आठ दिन हो गये...आज बारहवां दिन भी गुजर गया। इस बीच गायत्री को
काफी समय मिल गया- वद्ध
ृ बाबा की दी हुयी पुस्तकों का अध्ययन करने का। पुस्तकों का शौक तो उसे बचपन से ही
रहा है - कोई भी विषय हो,सामने आया कि चाट मारे गी। मेरी सारी किताबें वह कई बार पढ़ चुकी है । दर्भा
ु ग्य ऐसा कि
सही प्लेटफॉर्म नहीं मिल सका उसे। इस नये बंगले में और भी सवि
ु धायें थी,साथ ही समय का बाहुल्य भी। आखिर
करती भी क्या- पुस्तकों के अध्ययन-मनन से बढ़कर और कौन सा बढ़िया काम हो सकता है समय काटने का,वो भी
उसे,जिसे पुस्तकों से लगाव हो ! इन दिनों भी उसका सारा समय अध्ययन-मनन में ही व्यतीत हुआ । मेरी कार्य-
व्यस्तता वश मझ
ु से विशेष बातें करने का अवसर भी नहीं मिल पा रहा था उसे।

एक दिन गायत्री ने कहा- ‘ बाबाओं के आदे श का कुछ स्मरण भी है , या कि ...? ’

मैंने उत्साह पूर्वक कहा- क्यों नहीं,सभी आदे श और संकेत याद है ,किन्तु काम का जंजाल थोड़ा छं टे तब न।

पास बैठती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ काम का जंजाल तो जीवन भर लगा ही रहता है । आजतक किसी के पास न धन
ज्यादा हुआ है ,और न समय । कमाल की बात तो ये है कि समय का रोना वे लोग ही ज्यादा रोते हैं,जिनके पास समय
का कोई मोल नहीं होता,या कहें समय की सबसे अधिक बरबादी करते हैं। ये कह कर मैं तम्
ु हारी व्यस्तता को
लापरवाही नहीं साबित कर रही हूँ,बल्कि मूल उद्देश्य के प्रति अगाह कर रही हूँ। जीवन की आपाधापी में प्रायः लोग
भूल ही जाते हैं- जीवन जीने की कला। इस बार बाबाओं का सानिध्य और उनकी महती कृपा,और भी उद्वेलित कर
दिया मुझे। कबीर की पंक्तियां – हीरा जनम गंवायो... हर पल ठोंकर मार रहा है । सोचते-विचारते इतना वक्त गुजर
गया, कुछ किया नहीं गया। सौभाग्य से,अब तो मार्ग भी स्पष्ट है ,कदम बढ़ाना है केवल..। ’

गायत्री का संकेत मैं समझ रहा था,किन्तु....।

मुझे निरुत्तर और शान्त दे ख गायत्री उठी,और आलमीरे पर से एक पुस्तक उठा लायी,जो बाबा की दी हुयी पुस्तकों में
एक थी। मेज पर रखती हुयी बोली- ‘ आज सप्ताह भर से इसे ही पढ़ रही हूँ। लिखावट कुछ दरु
ु ह है ,इस कारण
कठिनाई भी बहुत हो रही है ,किन्तु भाषा और शैली बहुत ही सरल है । तन्त्र की बनि
ु यादी बातों की विशद चर्चा है ,वो भी
इतने सरल ढं ग से कि समझने में जरा भी कठिनाई नहीं हो रही है । ’

गायत्री के हाथ से पुस्तक लेकर,मैं दे खने लगा। बड़े ही सुरुचिपूर्ण लिखावट थे- काली स्याही से। बीच-बीच में कुछ
सुनहरे लिखावट भी थे,जिन्हें ‘कोट’ करने के उद्देस्य से लिखा गया था,काफी चमकदार सुन्दर,एक-एक अक्षर
मोतियों-से सजे थे। गायत्री ने ही बताया- ‘ ये जो काली स्याही है ,वो कपरू -कज्जली,घोड़े की लीद और ग्वारपाठे के
स्वरस से तैयार की जाती है ,तथा ये जो सुनहरी लिखावट है , वो मनःसिला ग्वारपाठे के स्वरस में घोल कर बनायी
जाती है । इस तरह के और भी विभिन्न पदार्थों– वनस्पतिस्वरस से अलग-अलग रं गों की स्याही बनायी जाती थी।
थूहर के दध
ू से एक प्रकार की जादई
ु स्याही भी बनायी जाती थी,जिससे सफेद कागज पर लिख भी दो तो कुछ
दिखलायी न दे ,और उसे गोपनीय विधि से पढ़ी जाती थी। उस सादे दिख रहे कागज पर जब असली सिन्दरू का लेप
किया जाता है तब सभी अक्षर उभर आते हैं। राजाओं के गोपनीय संदेश इसी प्रकार की किसी न किसी जादई
ु स्याही से
लिख कर ही भेजे जाते थे। स्याही बनाने की सैंकड़ो विधि मेरे दादाजी जानते थे। सरकंडे या अनार की कलम या फिर
मोरपंख की डंडी से लिखते थे। तालपत्र या भोजपत्र पर इस तरह की लिखावट सैंकड़ो वर्षों तक यथावत बनी रहती है ।
आजकल चाइनीज-ईंक का प्रयोग किया जाता है ,किन्तु उस समय के इस भारतीय स्याही से उसकी कोई तुलना क्या
हो सकेगी ! ’

मूलतः लिपि तो दे वनागरी ही थी,किन्तु बंगीय लिपि का छाप था,फलतः पढ़ने में थोड़ी कठिनाई अवश्य हो रही
थी,फिर भी पढ़ने की चेष्टा करने लगा।

सदाशिव और पराशक्ति की वन्दना के बाद,पुस्तक के प्रारम्भ में ही कुछ सारणियां दी हुयी थी,जिनमें तन्त्र को मूल
रूप से तीन विभागों में रखकर,चौंसठ की त्रिकुटी बनी थी– विष्णक्र
ु ान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्ता के नाम से।
पहली त्रिकुटी थी विष्णुक्रान्ता जिसके अन्तर्गत निम्न ग्रन्थों को रखा गया था-

(क) विष्णक्र
ु ान्ता वर्गीय तन्त्र-ग्रन्थः-

१. सिद्धीश्वरतन्त्रम ्
२. कालीतन्त्रम ्

३. कुलार्णवतन्त्रम ्

४. ज्ञानार्णवतन्त्रम ्

५. नीलतन्त्रम ्

६. फेत्कारीतन्त्रम ्

७. दे व्यागमतन्त्रम ्

८. उत्तरतन्त्रम ्

९. श्रीक्रमतन्त्रम ्

१०. सिद्धियामलतन्त्रम ्

११. मत्स्यसूक्ततन्त्रम ्

१२. सिद्धसारतन्त्रम ्

१३. सिद्धिसारस्वततन्त्रम ्

१४. वाराहीतन्त्रम ्

१५. योगिनीतन्त्रम ्

१६. गणेशविमर्शिनीतन्त्रम ्

१७. नित्यातन्त्रम ्

१८. शिवागमतन्त्रम ्

१९. चामुण्डातन्त्रम ्

२०. मुण्डमालातन्त्रम ्

२१. हं समहे श्वरतन्त्रम ्

२२. निरुत्तरतन्त्रम ्
२३. कुलप्रकाशतन्त्रम ्

२४. दे वीकल्पतन्त्रम ्

२५. गन्धर्वतन्त्रम ्

२६. क्रियासारतन्त्रम ्

२७. निबन्धतन्त्रम ्

२८. स्वतन्त्रतन्त्रम ्

२९. सम्मोहनतन्त्रम ्

३०. तन्त्रराजतन्त्रम ्

३१. ललितातन्त्रम ्

३२. राधातन्त्रम ्

३३. मालिनीतन्त्रम ्

३४. रुद्रयामलतन्त्रम ्

३५. वह
ृ द्श्रीक्रमतन्त्रम ्

३६. गवाक्षतन्त्रम ्

३७. सक
ु ु मदि
ु नीतन्त्रम ्

३८. विशुद्धेश्वरतन्त्रम ्

३९. मालिनीविजयतन्त्रम ्

४०. समयाचारतन्त्रम ्

४१. भैरवीतन्त्रम ्

४२. योगिनीहृदयतन्त्रम ्

४३. भैरवतन्त्रम ्
४४. सनत्कुमारतन्त्रम ्

४५. योनितन्त्रम ्

४६. तन्त्रसारतन्त्रम ्

४७. नवरत्नेश्वर तन्त्रम ्

४८. कुलचूड़ामणि तन्त्रम ्

४९. भावचूड़ामणितन्त्रम ्

५०. दै वप्रकाशतन्त्रम ्

५१. कामाख्यातन्त्रम ्

५२. कामधेनत
ु न्त्रम ्

५३. कुमारीतन्त्रम ्

५४. भूतडामरतन्त्रम ्

५५. यामलतन्त्रम ्

५६. ब्रह्मयामलतन्त्रम ्

५७. विश्वसारतन्त्रम ्

५८. महाकालतन्त्रम ्

५९. कुलोड्डीशतन्त्रम ्

६०. कुलामत
ृ तन्त्रम ्

६१. कुब्जिकातन्त्रम ्

६२. यन्त्रचिन्तामणितन्त्रम ्

६३. कालीविलासतन्त्रम ्

६४. मायातन्त्रम ्
(ख) रथक् रान्ता वर्गीय तन्त्र-ग्रन्थः-

१. चिन्मयतन्त्रम ्

२. मस्त्यसूक्ततन्त्रम ्

३. महिषमर्दिनीतन्त्रम ्

४. मातक
ृ ोदयतन्त्रम ्

५. हं समहे श्वरतन्त्रम ्

६. मेरुतन्त्रम ्

७. महानीलतन्त्रम ्

८. महानिर्वाणतन्त्रम ्

९. भूतडामरतन्त्रम ्

१०. दे वडामरतन्त्रम ्

११. बीजचिन्तामणितन्त्रम ्

१२. एकजटातन्त्रम ्

१३. वासद
ु े वरहस्य

१४. वह
ृ द्गौतमीयतन्त्रम ्

१५. वर्णोद्धृतितन्त्रम ्

१६. छायानीलतन्त्रम ्

१७. वह
ृ द्योनितन्त्रम ्
१८. ब्रह्मज्ञानतन्त्रम ्

१९. गरुड़तन्त्रम ्

२०. वर्णविलासतन्त्रम ्

२१. बालाविलासतन्त्रम ्

२२. पुरश्चरणचन्द्रिकातन्त्रम ्

२३. पुरश्चरणसोल्लासतन्त्रम ्

२४. पञ्चदशीतन्त्रम ्

२५. पिच्छिलातन्त्रम ्

२६. प्रपञ्चसारतन्त्रम ्

२७. परमेश्वरतन्त्रम ्

२८. नवरत्नेश्वरतन्त्रम ्

२९. नारदीयतन्त्रम ्

३०. नागार्जुनतन्त्रम ्

३१. योगसारतन्त्रम ्

३२. दक्षिणामर्ति
ू तन्त्रम ्

३३. योगस्वरोदयतन्त्रम ्

३४. यक्षिणीतन्त्रम ्

३५. स्वरोदयतन्त्रम ्

३६. ज्ञानभैरवतन्त्रम ्

३७. आकाशभैरवतन्त्रम ्

३८. राजराजेश्वरतन्त्रम ्
३९. रे वतीतन्त्रम ्

४०. सारसतन्त्रम ्

४१. इन्द्रजालतन्त्रम ्(क)

४२. इन्द्रजालतन्त्रम ्(ख)

४३. कृकलासदीपिकातन्त्रम ्

४४. कङ्कालमालिनीतन्त्रम ्

४५. कालोत्तमतन्त्रम ्

४६. यक्षडामरतन्त्रम ्

४७. सरस्वतीतन्त्रम ्

४८. शारदातन्त्रम ्

४९. शक्तिसङ्गमतन्त्रम ्

५०. शक्तिकागमसर्वस्वतन्त्रम ्

५१. सम्मोहिनीतन्त्रम ्

५२. चीनाचारतन्त्रम ्

५३. षडाम्नायतन्त्रम ्

५४. करालभैरवतन्त्रम ्

५५. षोढ़ातन्त्रम ्

५६. महालक्ष्मीतन्त्रम ्

५७. कैवल्यतन्त्रम ्

५८. कुलसद्भवतन्त्रम ्
५९. सिद्धितद्धरितन्त्रम ्

६०. कृतिसारतन्त्रम ्

६१. कालभैरवतन्त्रम ्

६२. उड्डामहे श्वरतन्त्रम ्

६३. महाकालतन्त्रम ्

६४. भूतभैरवतन्त्रम ्

(ग)अश्वक् रान्ता वर्गीय तन्त्र-ग्रन्थः-

१. भूतशुद्धितन्त्रम ्

२. गुप्तदीक्षातन्त्रम ्

३. बह
ृ त्सारतन्त्रम ्

४. तत्त्वसारतन्त्रम ्

५. वर्णसारतन्त्रम ्

६. क्रियासारतन्त्रम ्

७. गुप्ततन्त्रम ्

८. गुप्तसारतन्त्रम ्

९. वह
ृ त्तोडलतन्त्रम ्

१०. बह
ृ त्निर्माणतन्त्रम ्

११. वह
ृ त्कङ्कालिनीतन्त्रम ्
१२. सिद्धातन्त्रम ्

१३. कालतन्त्रम ्

१४. शिवतन्त्र्म ्

१५. सारात्सारतन्त्रम ्

१६. गौरीतन्त्रम ्

१७. योगतन्त्रम ्

१८. धर्मकतन्त्रम ्

१९. तत्त्वचिन्तामणितन्त्रम ्

२०. विन्दत
ु त्त्वतन्त्रम ्

२१. महायोगिनीतन्त्रम ्

२२. वह
ृ द्योगिनीतन्त्रम ्

२३. शिवार्चनतन्त्रम ्

२४. शम्बरतन्त्रम ्

२५. शलि
ू नीतन्त्रम ्

२६. महामालिनीतन्त्रम ्

२७. वह
ृ द्मालिनीतन्त्रम ्

२८. मोक्षतन्त्रम ्

२९. महामोक्षतन्त्रम ्

३०. वह
ृ न्मोक्षतन्त्रम ्

३१. गोपितन्त्रम ्

३२. भूतलिपितन्त्रम ्
३३. कामिनीतन्त्रम ्

३४. मोहिनीतन्त्रम ्

३५. मोहनतन्त्रम ्

३६. समीरणतन्त्रम ्

३७. कामकेशरतन्त्रम ्

३८. महावीरतन्त्रम ्

३९. चूडामणितन्त्रम ्

४०. गुर्वचनतन्त्रम ्

४१. गोप्यतन्त्रम ्

४२. तीक्ष्णतन्त्रम ्

४३. मङ्गलातन्त्रम ्

४४. कामरत्नतन्त्रम ्

४५. गोपलीलामत
ृ तन्त्रम ्

४६. ब्रह्माण्डतन्त्रम ्

४७. चीनतन्त्रम ्

४८. वह
ृ च्चीनतन्त्रम ्

४९. महानिरूत्तरतन्त्रम ्

५०. भूतश्े वरीतन्त्रम ्

५१. गायत्रीतन्त्रम ्

५२. विशद्ध
ु ेश्वरतन्त्रम ्

५३. योगार्णवतन्त्रम ्
५४. भेरूण्डातन्त्रम ्

५५. मन्त्रचिन्तामणितन्त्रम ्

५६. यन्त्रचूड़ामणितन्त्रम ्

५७. विद्यल्
ु लतातन्त्रम ्

५८. भुवनेश्वरीतन्त्रम ्

५९. लीलावतीतन्त्रम ्

६०. कुरञ्जतन्त्रम ्

६१. जयराधामाधवतन्त्रम ्

६२. उज्जासकतन्त्रम ्

६३. धूमावतीतन्त्रम ्

६४. शिवतन्त्रम ्

उक्त तन्त्र त्रिकुटी के बाद आद्यशंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी का एक श्लोक दिया हुआ था-

चतःु षष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसन्धाय भव


ु नं,

स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रो पशुपतिः ।

पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्थैकघटना,

स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम ् ।।

जो सुनहरे मनःशिलालेख्य से उद्धृत था। तन्त्रशास्त्र में यह चौंसठ की संख्या भी रहस्यमय ही प्रतीत हुयी। प्रसंगवश
बाबा ने कहा था कभी- ये इक्यावन वर्ण ही विशेष स्थितियों में किं चित उच्चारण भेद और उपध्मानीयादि
अयोगवाहरुप-संयोग से तिरसठ हो जाते हैं,और फिर चौसठ का भी औचित्य सिद्ध हो जाता है । चौंसठ की उक्त त्रिकुटी
में हमने गौर किया कि कुछ नाम एकाधिक कूट में भी हैं,तो कुछ समान नाम की पन
ु रावत्ति
ृ समान कूट में ही हुयी है ।
इसका कारण तो कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया,सही समाधान बाबा ही कर सकते हैं। हां,आगे वामकेश्वर तन्त्रम ् के अनुसार
एक और कूट भी चर्चित

मिला। यथा-

१. महामायातन्त्रम ्

२. शम्बरतन्त्रम ्

३. योगिनीतन्त्रम ्

४. जालशम्बरतन्त्रम ्

५. तत्त्वशम्बरतन्त्रम ्

६. भैरवाष्टकतन्त्रम ्

७. बहुरुपाष्टकतन्त्रम ्

८. माहे श्वरीतन्त्रम ्

९. कौमारीतन्त्रम ्

१०. वैष्णवीतन्त्रम ्

११. वाराहीतन्त्रम ्

१२. माहे न्द्रीतन्त्रम ्

१३. चामुण्डातन्त्रम ्

१४. शिवदत
ू ीतन्त्रम ्

१५. ब्रह्मयामलतन्त्रम ्

१६. रुद्रयामलतन्त्रम ्

१७. विष्णुयामलतन्त्रम ्
१८. लक्ष्मीयामलतन्त्रम ्

१९. उमायामलतन्त्रम ्

२०. स्कन्दयामलतन्त्रम ्

२१. गणेशयामलतन्त्रम ्

२२. जयद्रथयामलतन्त्रम ्

२३. चन्द्रज्ञानतन्त्रम ्

२४. वासुकितन्त्रम ्

२५. महासम्मोहनतन्त्रम ्

२६. महोच्छुष्मतन्त्रम ्

२७. वातुलतन्त्रम ्

२८. वातुलोत्तरतन्त्रम ्

२९. हृद्भे दतन्त्रम ्

३०. तन्त्रभेदतन्त्रम ्

३१. गह्
ु यतन्त्रम ्

३२. कामिकतन्त्रम ्

३३. कलावादतन्त्रम ्

३४. कलासारतन्त्रम ्

३५. कुब्जकामततन्त्रम ्

३६. तन्त्रोत्तरतन्त्रम ्

३७. वीणातन्त्रम ्

३८. त्रोतलतन्त्रम ्
३९. त्रोतलोत्तरतन्त्रम ्

४०. पञ्चामत
ृ तन्त्रम ्

४१. रुपभेदतन्त्रम ्

४२. भत
ू डामरतन्त्रम ्

४३. कुलसारतन्त्रम ्

४४. कुलोड्डीशतन्त्रम ्

४५. कुलचूड़ामणितन्त्रम ्

४६. सर्वज्ञानोत्तरतन्त्रम ्

४७. महाकालीमततन्त्रम ्

४८. महालक्ष्मीमततन्त्रम ्

४९. सिद्धयोगेश्वरीमततन्त्रम ्

५०. कुरुपिकामततन्त्रम ्

५१. दे वरुपिकामततन्त्रम ्

५२. सर्ववीरमततन्त्रम ्

५३. विमलामततन्त्रम ्

५४. पूर्वाम्नायतन्त्रम ्

५५. पश्चिमाम्नायतन्त्रम ्

५६. दक्षिणाम्नायतन्त्रम ्

५७. उत्तराम्नायतन्त्रम ्

५८. निरुत्तरतन्त्रम ्

५९. वैशेषिकतन्त्रम ्
६०. ज्ञानार्णवतन्त्रम ्

६१. वीरामलतन्त्रम ्

६२. अरुणेशतन्त्रम ्

६३. मोहिनीशतन्त्रम ्

६४. विशुद्धेश्वरतन्त्रम ्

उक्त तन्त्र-ग्रन्थ-सच
ू ी के पश्चात ् एक और तालिका दी गयी थी,जिनकी कुल संख्या तो चौंसठ ही थी,किन्तु इन्हें पर्व

तालिकाओं की तरह एकत्र न रखकर,आठ अष्टकों में विभक्त करके रखी गयी थी। यथा- इन आठ वर्गों में आठ-आठ
की संख्या इस प्रकार बनती है -1)भैरवाष्टक- स्वच्छन्द , भैरव,चंड,क्रोध,उन्मत्तभैरव, असितांग,
महोच्छुष्म,कपालीश।2)यामलाष्टक–ब्रह्म,विष्ण,ु रुद्र,स्वच्छन्द,आथर्वण,रुरु,वैताक 3)मताष्टक--
रक्त,लम्पट,लक्ष्मीमत,मत,चालिका,पिंगला,उत्फुल्लक,विश्वाद्य। 4)मङ्लाष्टक-
पिचुभैरवी,तन्त्रभैरवी,ब्राह्मी,कला,विजया,चन्द्रा,मंगला,सर्वमंगला। 5)चक्राष्टक-
मन्त्रचक्र,वर्णचक्र,शक्तिचक्र,कलाचक्र,विन्दच
ु क्र,नादचक्र,गुह्यचक्र, और खचक्र। 6) बहुरुपाष्टक—
अन्धक,रुरुभेद,अज,मूल,वर्णभण्ट,विडंग,ज्वालिन, और मातरृ ोदन। 7)वागीशाष्टक-भैरवी,चिंचिका,हं सा,कदम्बिनी,
हृल्लेखा, चन्द्रलेखा,विद्युल्लेखा,और विद्युमान ्। 8)शिखाष्टक—भैरवी,वीणा, वीणामणि,
सम्मोह,डामर,अथर्वक,कबन्ध,और शिरच्छे द।

गतांश से आगे...उन्नीसवां भाग

इस प्रकार हम दे ख रहे हैं कि तन्त्रों की संख्या अनेक है ,और नामों की पन


ु रावत्ति
ृ भी खूब हुयी है ,किन्तु आन्तरिक
अन्तर को नज़रअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।

तत्पश्चात ् प्रसिद्ध तन्त्रग्रन्थ तन्त्रालोक के कुछ श्लोकों को उद्धृत किया गया था। यथा- भैरवं यामलं चैव मताख्यं
मङ्गलं तथा । चक्राष्टकं शिखाष्टकं बहुरुपं च सप्तम्म ।। वागीशं चाष्टमं प्रोक्तमित्यष्टौ वीरवन्दिते । एतत ्
सादाशिवं चक्रं कथयामि समासतः ।। स्वच्छन्दो भैरवश्चण्डः क्रोध उन्मत्तभैरवः । असिताङ्गो महोच्छुष्मः
कपालीशस्तथैव च ।। एते स्वच्छन्दरुपस्तु बहुरुपेण भाषिताः ।। ब्रह्मयामलमित्युक्तं विष्णुयामलकं तथा । ।
स्वच्छन्दश्च रुरुश्चैव षष्ठं चाथर्वणं स्मत
ृ म ् । अतःपरं महादे वि मतभेदा छृणुष्व मे । रक्ताख्यं लम्पटाख्यं च मतं
लक्ष्म्यास्तथैव च ।। पञ्चमं चालिका चैव पिङ्लाद्यं च षष्टकम ् ।। उत्फुल्लकं मतं चान्यद्विश्वाद्यं चाष्टमं
स्मत
ृ म ् ।। चण्डभेदाः स्मत
ृ ा ह्येते भैरवे वीरवन्दिते । भैरवी प्रथमा प्रोक्ता पिचुतन्त्रसमुद्भवा ।। सा द्विधा भेदतः
ख्याता तत
ृ ीया तत उच्यते । ब्राह्मी कला चतुर्थी तु विजयाख्या च पञ्चमी ।। चन्द्राख्या चैव षष्ठी तु मङ्गला
सर्वमङ्गला । एष मङ्गलभेदोऽयं क्रोघेशेन तु भाषितः ।। प्रथमं मन्त्रचक्रं तु वर्णचक्रं द्वितीयकम ् । तत
ृ ीयं शक्तिचक्रं
तु कलाचक्रं चतुर्थकम ् ।। पञ्चमंविन्दच
ु क्रं तु षष्ठं वै नादसंज्ञकम ् । सप्तमं गुह्यचक्रं च खचक्रं चाष्टमं स्मत
ृ म ् ।।
एष वै चक्रभेदोऽयमसिताङ्गेन भाषितः । अन्धकं रुरुभेदं च अजाख्यं मूलसंज्ञकम ् ।। वर्णभण्टं विडङ्गञ्च ज्वालिनं
मातरृ ोदनम ् । कीर्तिताः परमेशेन रुरुणा परमेश्वरि ।। भैरवी चित्रिका चैव हं साख्या च कदम्बिका । हृल्लेखा चन्द्रलेखा
च विद्युल्लेखा च विद्युमान ् ।। एते वागीश भेदास्तु कपालीशेन भाषिताः । भैरवी तु शिखा प्रोक्ता वीणा चैव
द्वितीयका ।। वीणामणिस्तत
ृ ीया तु सम्मोहं तु चतुर्थकम ् ।। पञ्चमं डामरं नाम षष्ठं चैवाप्यथर्वकम ् ।। कबन्धं
सप्तमं ख्यातम ् शिरच्छे दोऽष्टमः स्मत
ृ ः । एते दे वि शिखाभेदा उन्मत्तेन च भाषिताः । एतत्सदाशिवं चक्रमष्टाष्टक
विभेदतः ।। - इन श्लोकों के बाद नोट की तरह लाल रं गों से दर्शाया गया था कि सत्साधकों को तन्त्र के इस वैविध्य से
यथासम्भव बचना चाहिए,क्यों कि इनसे ऐहिक सिद्धि मात्र की प्राप्ति होती है ,यानि इन्हीं में उलझा रहकर साधक का
आध्यामिक विकास वाधित होजाता है ,भले ही लौकिक प्रतिष्ठा बहुत कुछ लब्ध कर ले,किन्तु स्थायित्व का तो अभाव
ही रहे गा। डामरादि विविध तन्त्र अल्पकालिक फलदायी भी कहे गये हैं। इन्द्रजालादि तन्त्र भी कुछ ऐसे ही हैं- सिर्फ
चमत्कार का नाटक दिखाने वाले। अतः सतत सावधानी पूर्वक साधकों को जीवन यापन करना चाहिए। तन्त्रों के
चमत्कारिक पक्ष को हमेशा हे य ही समझे। कुछ ऐसे ही मढ़
ू साधक स्वयं फंस जाते हैं,और बाद में तन्त्र शास्त्र की ही
आलोचना करते हैं- कि ये सब अवैदिक कार्य हैं,त्याज्य हैं व्यर्थ हैं...आदि आदि।

उक्त श्लोकों का अर्थ तो वहां नहीं दिया गया था,किन्तु श्लोक विलकुल सरल प्रतीत हुए,जिनका सामान्य अर्थ
मुझ जैसा संस्कृत का अल्पज्ञ भी आसानी से लगा सकता है । विद्वानों के लिए क्या कहना।

पुस्तक का प्रसंग बाबा के संवाद की तरह ही रोचक और ज्ञानवर्द्धक लगा, फलतः दिन भर का थकान भूल
कर,आसन मार,बैठ गया आद्योपान्त पढ़ने का मन बनाकर। गायत्री भी साथ में बैठी ही रही,और बीच-बीच में
टिप्पणी करती रही,क्यों कि उसने तो एक बार पढ़ ही लिया था। आगे वर्णमात्रिकाओं का प्रसंग था,जो हमलोग सुन
चक
ु े थे बद्ध
ृ बाबा के श्रीमख
ु से। अतः उनका भी विहगावलोकन करता गया। इसका परिणाम ये हुआ कि सारी बातें
चित्रपट की तरह सामने आती गयीं,साथ ही जिन बातों या प्रसंगों का सही हृदयंगम नहीं हो पाया था,याकि किं चित
भ्रम रह गया था,वो भी निवारित हो गया।

गायत्री के कहने पर ही जरा आगे वढ़कर प्रसंगों को दे खा- एक बहुत ही मार्के की बात मिली,जैसा कि आधुनिक
डार्विनवादी सोचते-कहते हैं,ठीक इसके विपरीत सत्य उद्घाटित हुआ- विश्व की रचना एक ही साथ वाच्य और वाचक
दोनों रुपों में होती है ,न कि पहले सदाशिव से पथ्
ृ वी पर्यन्त तत्त्वों एवं नाना भुवनों का विकास होता है , तत्पश्चात ्
वर्णों,पदों आदि का ... अनन्यापेक्षिता याऽस्य विश्वात्मत्वं प्रति प्रभोः । तां परां प्रतिमां दे वीं सङ्गिरन्ते ह्यनुत्तराम ्
।। (तन्त्रालोक)
इसके बाद परात्रिंशिका का उद्धरण दिया हुआ था- पथ्
ृ वी से लेकर शिव पर्यन्त छत्तीस तत्त्वों की तालिका बनाकर-

इस तालिका को दे खने के बाद एक प्रश्न


उठा कि ऊपर तत्त्वों की संख्या तो छत्तीस कही गयी,किन्तु इस तालिका
में कुल पैंतीस तत्त्व ही गणित हुए,परन्तु चेष्टा करके भी इसे स्पष्ट न कर पाया। पुनः वर्णों के अधिष्ठाता
ग्रहादि,राश्यादि एवं नक्षत्रादि की तालिका भी सुस्पष्ट की गयी थी। यथा-

उक्त तालिकायें प्रपञ्चसारतन्त्रम ् के निम्न उद्धरण के आधार पर बनायी गयी हैं- तदा स्वरे शः सूर्योऽयं कवर्गेशस्तु
लोहितः । चवर्गप्रभवः काव्यष्टवर्गाद् बुधसम्भवः ।। तवर्गोत्थः सुरगुरुः पवर्गोत्थः शनैश्चरः । यवर्गजोऽयं
शीतांशुरिति सप्तगुणा त्वियम ् ।। यथा स्वरे भ्यो नान्ये स्यर्व
ु र्णाःषड्वर्गभेदिता । तथा सवित्रनुस्यूतं ग्रहष्टकं न
संशयः ।।

तथा च-
आद्यैर्मेषाह्वयो राशिरीकारान्तैः प्रजायते । ऋकारान्तैरुकाराद्यैर्वृषो युग्मं ततस्त्रिभिः ।। एदै तोः कर्क टो
राशिरोदौतोः सिंहसम्भवः । अमः शवर्गलेभ्यश्च सञ्जाता कन्यका मता ।। षड्भ्यः कचटतेभ्यश्च पयाभ्यां च
प्रजजिरे । बणिगाद्याश्च मीनान्ता राशयः शक्तिजम्
ृ भणात ् ।। चतुर्भिर्मादिभिः सार्द्ध स्यात ् क्षकारस्तु मीनगः ।।

तथा च-

एभ्यः एव तु राशिभ्यो नक्षत्राणां च सम्भवः । स चाप्यक्षरभेदेन सप्तविंशतिधा भवेत ् ।। आभ्यामश्वयुगेर्जाता भरणी


कृत्तिका पन
ु ः । लिपित्रयाद्रोहिणी च तत्परु स्ताच्चतष्ु टगात ् ।। एदै तोमग
ृ शीर्षाद्रे तदन्त्याभ्यां पन
ु र्वसःु । अमसोः
केवलो योगो रे वत्यर्थं पथ
ृ ङ्मतः ।। कतस्तिष्यस्तथाश्लेषा खगयोर्घङ्योर्मघा । चतः पर्वा
ू थ छजयोरुत्तरा
झञयोस्तथा ।। हस्तश्चित्रा च टठयोः स्वाती डादक्षरादभूत ् । विशाखा तु ढणोद्भत
ू ा तथदे भ्योऽनरु ाधिका ।। ज्येष्ठा
धकारान्मल
ू ाख्या नपफेभ्यो वतस्तथा । पर्वा
ू षाढा भतोन्या च सञ्जाता श्रवणा मतः । श्रविष्ठाख्या च यरवोस्ततः
शतभिषा लतः । वशयोः प्रोष्ठपत्संज्ञा षसहे भ्यः परा स्मत
ृ ः।। - इन श्लोकों के आधार पर वर्णाधारित नक्षत्र-सारणी
निम्नांकित रुप से बन पा रही है -

२७ नक्षत्र

अकारादि वर्ण

अश्विनी

अ,आ

भरणी

कृत्तिका

ई,उ,ऊ
रोहिणी

ऋ,ॠ,ल,ृ ॡ

मग
ृ शिरा

आर्द्रा

पुनर्वसु

ओ, औ

पुष्य

आश्लेषा

ख,ग

मघा

घ,ङ

पूर्वा

उत्तरा

छ,ज

हस्ता

झ,ञ

चित्रा

ट,ठ

स्वाती

विशाखा

ढ,ण

अनुराधा

त,थ,द

ज्येष्ठा

मूल

न,प,फ

पूर्वाषाढ

उत्तराषाढ

श्रवण

धनिष्ठा

य,र

शतभिष

प्रोष्ठपदा(पू.भा.)

व,श
उत्तरभाद्रपद

ष,स,ह,क्ष

रे वती

अं,अः,ळ

तदुपरान्त एक और सारणी-सं केत मिला,जिसमें उक्त सभी वर्णों को पु नः पञ्च महाभूतों के अधीन बतलाया गया है ।
इसका आधार भी उक्त प्रपञ्चसारतन्त्र तन्त्रम् ही है । यथा-

पञ्महाभत

अकादिवर्ण

शत्रभ
ु ूत

मित्रभूत

वायु

अ,आ,ए,क,च,ट,त,प,य,ष

जल

अग्नि
अग्नि

इ,ई,ऐ,ख,छ,ठ,थ,फ,र,क्ष

जल

वायु

पथ्
ृ वी

उ,ऊ,ओ,ग,ज,ड,द,ब,ल,ळ

अग्नि

जल

जल

ऋ, ॠ,औ,घ,झ,ढ,ध,भ,व,स

अग्नि

पथ्
ृ वी

आकाश
ल,ृ ॡ,क्ष,ङ,ञ,ण,न,म,श,ह

इस सारणी में कुछ गौर करने लायक बातें मिली,जिसके विषय में गुरुजी ने लिखा था कि समस्त वर्ण विसर्गात्मक ही
हैं,अतः सारणी में अलग से विसर्ग को शामिल नहीं किया गया है ,तथा हम दे ख रहे हैं कि ‘क्ष’ क्रमशः अग्नि और
आकाश दोनों भूतों में उपस्थित है । इन पाञ्चभौतिक वर्णों का प्रयोग स्तम्भन,परिवर्षण आदि कार्यों में किया जाता
है । मन्त्र-साधना में साधक के हिताहित का विचार करने के लिए इन वर्गीकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
जिस प्रकार भूतों में परस्पर मित्र-शत्रु भाव होता है ,उसी भांति साधक के नामाक्षर से भी भूतादि सम्बन्ध विचार
आवश्यक है , अन्यथा लाभ के बदले हानि ही होगी। परस्पर विरोधी तत्त्वों का मेल कैसे सम्भव है – सोचने वाली बात
है । जैसे- जल तत्त्व साधक को अग्नितत्त्व वाले मन्त्र कैसे लाभ दे पायेंगे ! इसी भांति अन्य तत्त्वों का भी विचार
करना चाहिए। उक्त तत्त्व सारणी में स्पष्ट है कि आकाश वस्तुतः निर्लिप्त है ,उसे किसी से शत्रत
ु ा या मैत्री नहीं
है ,यानी सभी तत्त्वों के साथ उसका समान व्यवहार है । पञ्चीकरण-सिद्धान्त से भी स्पष्ट है कि आकाश में सभी
तत्त्वों का प्रतिनिधित्व है । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है -

तत्त्व

मित्र

शत्रु

पथ्
ृ वीतत्त्व

जलतत्त्व
अग्नितत्त्व

जलतत्त्व

पथ्
ृ वीतत्त्व

वायत
ु त्त्व

अग्नितत्त्व

वायत
ु त्त्व

जलतत्त्व

वायत
ु त्त्व

अग्नितत्त्व

जलतत्त्व

पथ्
ृ वीतत्त्व और जलतत्त्व परस्पर मित्र हैं,

तथा पथ्
ृ वीतत्त्व और अग्नितत्त्व परस्पर शत्रु हैं। अग्नितत्त्व और वायत
ु त्त्व परस्पर मित्र हैं,तथा जलतत्त्व और
अग्नितत्त्व परस्पर शत्रु हैं। जलतत्त्व और वायुतत्त्व परस्पर शत्रु हैं। ध्यातव्य है कि आकाश तत्त्व इस मित्रामित्र
बन्धन से सर्वदा मुक्त है । इसे उक्त सारणी से भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।

आगे, शारदातिलक ,द्वितीयपटल के श्लोकों को उद्धृत करके उपयोगिता और सावधानी की भी बात कही गयी है ।
इसके व्याख्याकार कहते हैं कि मन्त्र–साधकों के लिए वर्णों का पञ्चभूतात्मक वर्गीकरण अति आवश्यक है । जिस
प्रकार भूतों में परस्पर मित्र-शत्रभ
ु ाव है ,उसी प्रकार मन्त्र–वर्णों और साधक के नाम-वर्ण(पुकारनाम,न कि राशिनाम) के
वर्णों के बीच मित्रामित्र सम्बन्ध-विचार अवश्य किया जाना चाहिए। ताकि किसी प्रकार अनिष्टकर प्रभाव न पड़े
साधक पर। इसे समझने के लिए ऊपर दिये गये सारिणियों पर ध्यान दे ना चाहिए।

मल
ू श्र्लोक इस प्रकार हैं- मन्त्रसाधकयोराद्यो वर्णः स्यात ् पार्थिवो यदि । तत्कुलं तस्य तत्प्रोक्तमेव-मन्येषु
लक्षयेत ् । पार्थिवं वारुणं मित्रमाग्नेये मारुतं तथा ।। ऐन्द्रवारुणयोः शत्रर्मा
ु रुतः परिकीर्तितः । आग्नेये वारुणं
शत्रर्वा
ु रुणे तैजसं तथा ।। सर्वेषामेव तत्त्वानां सामान्यं व्योमसम्भवम ् । परस्परविरुद्धानां वर्णानां यत्र सङ्गतिः ।
समन्त्रः साधकं हन्ति किं वा नास्य प्रसीदति ।।

उक्त सारिणी और नियमों के अतिरिक्त,आगे एक और सारणी उपलब्ध हुयी,जिसमें पांचों मूलतत्त्वों को नौ वर्गों में
रखा गया है ।इस विचार से बनी सारिणी में एक खास बात ये लक्षित होती है कि पथ्
ृ वीतत्व के हिस्से में दस
ू रे और नवें
वर्ग में स्थान रिक्त है ,तथा नौवें वर्ग में जलतत्त्व का स्थान भी रिक्त है । वर्णों का विशेष विचार करने हे तु इन बातों
पर भी ध्यान दे ना चाहिए।सारणी के आधार-श्र्लोक निम्नांकित हैं––

अथ भूतलिपिं वक्ष्ये सुगोप्यामतिदर्ल


ु भम ् । यां प्राप्य शम्भोर्मुनयः सर्वान ् कामान ् प्रपेदिरे ।। पञ्चह्रस्वा सन्धिवर्णा
व्योमेराग्निजलं धरा । अन्त्यमाद्यं द्वितीयं च चतुर्थं मध्यमं क्रमात ् ।। पञ्चवर्गाक्षराणि स्यर्वा
ु न्तं श्वेतेन्दभि
ु ः सह
। एषा भत
ू लिपिः प्रोक्ता द्विच- त्वारिंशदक्षरै ः ।। आयम्बराणामं वर्गाणां पञ्चमाः शार्णसंयत
ु ाः । वर्गाद्या इति
विज्ञेया नव वर्गाः स्मत
ृ ा अमी।। (शारदातिलक सप्तमपटल)

वर्ग

पञ्चमहाभूत

क्रम

आ.

वा.
अ.

ज.

प.ृ

१.

लृ

२.


३.

४.


५.

६.


७.

८.


९.

इन सभी वर्गों का स्वामित्व भी स्पष्ट किया गया है ,आगे के श्लोकों में - व्योमेराग्निजलक्षोणी वर्गवर्णान ् पथ
ृ ग्विदःु ।
द्वितीयवर्गे भूर्नस्यात ् नवमे न जलं धरा ।। विरिञ्चिविष्णुरुद्राश्वि- प्रजापतिदिगीश्वराः । क्रियादिशक्तिसहिताः
क्रमात्स्युः वर्गदे वताः ।। ऋषिः स्याद्दक्षिणामूर्तिः गायत्रं छन्द ईरितम ् । दे वता कथिता सद्भिः साक्षाद्वर्णेश्वरी परा ।।
अर्थात ् इन सभी वर्णों के दे वता,ऋषि और छन्द भी स्पष्ट हैं। क्रिया ज्ञान और इच्छा आदि इन वर्णों की शक्तियां कही
गयी हैं। विरिञ्चि, विष्णु, रुद्र, अश्विनी, प्रजापति तथा चारो दिगीश्वर इनके स्वामी कहे गये हैं। इन सारी बातों से
स्पष्ट है कि ये वर्ण (अक्षर) अपने पद को सार्थक करते हैं। ये केवल सांकेतिक ध्वनियां नहीं है , प्रत्युत परम चैतन्य
महाशक्तियां हैं। ये सारा जगत प्रपञ्च– वाच्यात्मक विश्व, इन्हीं वाचक वर्णों के अधीन है – ऐसा कहना जरा भी
अतिशयोक्ति नहीं होगी। सष्टि
ृ के आदि क्षण से शब्द और अर्थ अविनाभूत हैं। सूक्ष्म को आत्मसात कर लेने पर
समस्त स्थूल का भी अधिग्रहण हो जाता है - इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। ये समस्त मातक
ृ ा-वर्ण ही
विविध मन्त्रों और विद्याओं के जनक हैं,अतः इनकी महत्ता और उपादे यता को स्वीकारने में जरा भी आपत्ति नहीं
होनी चाहिए।

परात्रिंशिका का वक्तव्य है - अमल


ू ा तत्क्रमाज्ज्ञेया क्षान्ता सष्टि
ृ रुदाहृता । सर्वेषामेव मन्त्राणां विद्यानां च यशस्थिनि
।। इयं योनिः समाख्याता सर्वतन्त्रेषु सर्वदा ।। अस्तु ।।
गुरुमहाराज की उस विशिष्ट पुस्तिका में तन्त्रों का सम्यक् विवरण बहुत ही कायदे से सम्पादित किया गया था,जिसे
समझने में मुझ सरीखे सामान्य ज्ञान वाले को जरा भी कठिनाई नहीं हुयी। अतः सिलसिलेवार दे खता गया सभी
प्रसंगों को। ज्यादातर बातें तो वे ही थी,जिन पर उपद्रवीबाबा और विन्ध्याचल वाले वद्ध
ृ बाबा काफी कुछ प्रकाश डाल
चुके थे। प्रायः सम्पादन ऐसा था जैसे कोई विद्यार्थी अपना नोट्स तैयार करता हो परीक्षा की तैयारी हे तु। इस पर
गायत्री ने हँसते हुए कहा- ‘ वद्ध
ृ बाबा ने तो अपना ‘गेसपेपर’ ही दे डाला हमलोगों को । अब परीक्षा की तैयारी में जरा भी
कठिनाई नहीं होनी चाहिए।’

मझ
ु े भी कुछ ऐसा ही लग रहा है । वर्णमातक
ृ ाओं से काफी कुछ परिचय मिल चक
ु ा था। उसके आधार पर आगे की बातों
को समझने में सुविधा हो रही थी। लम्बे समय से चला आ रहा एक बड़ा संशय भी निर्मूल हो गया। जैसा कि पहले
लगता था- ये क्या करते हैं लोग- किसी स्तोत्र का निरन्तर पाठ करते जाते हैं। स्तोत्रों में रहता क्या है - तत्दे वों का
स्तुतिगान, प्रसस्ति, चरित-गाथा...वस यही तो- तोते की भांति रटे जा रहे हैं आजीवन एक ही शब्द या शब्दजाल को।
क्या इससे स्वयं का सम्मोहन या मूढत्व उत्पन्न नहीं होता? और इसे ही लोग पूजा-आराधना-उपासना कह कर तुष्ट
हो जाते हैं। इससे आखिर होता क्या होगा ? तात्कालिक शान्ति, सुकून, कुछ ऐसा भान कि मैंने कुछ अच्छा कर
लिया,या कहें कुछ बरु े से बचे...किन्तु वर्णमात्रिकाओं का रहस्य जान कर सारा संशय तिरोहित हो गया।

गुरुमहाराज ने एक स्थान पर टिप्पणी स्वरुप अंकित किया था- मन्त्र और प्रार्थना में साम्य भी है ,और वैषम्य भी। यह
जरा समझ लेने जैसी चीज है । इसमें जरा भी संदेह नहीं कि मन्त्रों में वर्णों और पदों की आनप
ु र्वी
ू नियत रहती है , और
प्रार्थना में आनुपूर्वी का होना अपरिहार्य नहीं है । हो भी सकती है ,और नहीं भी। प्रार्थना और मन्त्र में यह वैषम्य आधार
भूत कहा जा सकता है । यहां यह सवाल उठ सकता है कि यदि आनुपर्वी
ू नियत हो तो क्या प्रार्थना भी मन्त्र की मर्यादा
को प्राप्त हो सकती है ? या कहें प्रार्थना मन्त्र बन जायेगा,यानी मन्त्र की तरह शक्तिशाली हो जायेगा? वर्णमातक
ृ ाओं
के सम्यक् ज्ञान के बाद यह सवाल बचकाना सा लगता है । क्यों कि सत्य तो यह है कि समस्त वर्ण ही मन्त्रस्वरुप हैं,
ऐसी स्थिति में उनसे निर्मित पद मन्त्र नहीं होंगे- ऐसा कैसे हो सकता है ! इससे स्पष्ट है कि नियत आनुपर्वी
ू -सम्पन्न
प्रार्थना भी कालान्तर में मन्त्र पदवी से अभिषिक्त हो ही जायेगा। ध्यातव्य है कि नाना साधकों की प्रबुद्ध चेतना,
अथवा एक ही साधक की प्रबल तपश्चर्या घनीभत
ू होकर प्रार्थना को मन्त्र पद पर अभिषिक्त कर दे ती है । प्रार्थना
जीवन्त हो जाती है - मन्त्रों की भांति ही। परिणामतः किसी सिद्ध वा साधक द्वारा की गयी प्रार्थना का यह रुपान्तरण
अगले के लिए मन्त्र की तरह कार्य करने लगता है । पौराणिक, वैदिक, औपनिषदिक विविध प्रार्थनाओं को हम मन्त्रों
की तरह चैतन्य पाते हैं,क्यों कि उनका सद्यः रुपान्तरण हो गया होता है । जल,वर्फ ,और वाष्प में एक ही जलतत्त्व
की विद्यमानता की भांति, दे श-काल-पात्रादि प्रभाव से विविध वर्ण-योजनायें कारगर होती हैं,सिद्धि दायक होती हैं।
सामान्य जन के लिए सन्तवाणियों का नियमित पाठ का यही औचित्य और महत्त्व है ।

वर्णमातक
ृ ाओं से परिचय कराकर,गुरुमहाराज आगे,उनसे निर्मित,और समायोजित मन्त्रों के रहस्य पर प्रकाश
डालते हुये लिखते हैं कि उपायात्मक मन्त्रों के रुप में परमेश्वर ही स्फुरित होते हैं। वस्तुतः सामान्यतया उच्चारण
किये जाने वाले मन्त्र, मन्त्र नहीं हैं। मन्त्रों की जीवभूत अव्यय शक्ति ही वास्तव में मन्त्र-पद-वाच्य है ।
शिवसूत्रविमर्शिनी में कहा गया है - उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्रांश्चापि तद्विदःु ...मन्त्राणां जीवभूता तु या स्मत
ृ ा
शक्तिरव्यया । तया हीना वरारोहे निष्फला शरदभ्रवत ्।।- यानी शरदकालिक मेघ की भांति वे निष्फल हैं। वर्णात्मक
और वदनात्मक तक ही भावना बनाये रखना- सर्वदा मूढता ही कही जायेगी। यथा- वर्णात्मको न मन्त्रो दशभुजदे हो न
पञ्चवदनौऽपि । संकल्पपूर्वकोटौ नादोल्लासो भवेन्मत्रः।। सच पूछा जाय तो विश्व-विकल्प की पूर्वकोटि में
उल्लसित नाद ही मन्त्र है । महार्थमञ्जरी में संकेत है कि ‘मननत्राणधर्माणो मन्त्राः’– अर्थात ् मनन और त्राण- ये ही
धर्म हैं मन्त्र के। परस्फुरणा का परामर्श ही वस्तुतः मनन है ,परशक्ति के महान वैभव की अनुभूति ही मनन है । तथा
अपूर्णता अथवा संकोचमय भेदात्मक संसार के प्रशमन को त्राण कहा गया है । इसे और भी स्पष्ट किया जाय तो कहा
जा सकता है कि शक्ति के वैभव या विकास-दशा में मनन यक्
ु त तथा संकोच वा सांसारिक अवस्था में त्राणमयी
अनुभूति ही मन्त्र है । यथा-मननमयी निज विभवे निजसङ्कोचमये त्राणमयी । कवलितविश्वविकल्पा अनुभूतिः
कापि मन्त्रशब्दार्थः।। या कह सकते हैं कि परावागात्मक अनुभूति ही मन्त्र है । यह अनुभूति निरन्तर विधिवत
मनन(अनस
ु न्धि) से उत्पन्न होती है ,यही कारण है कि संसार को क्षीण करने वाला- त्राणकारक बन पाता है । इस
सम्बन्ध में सौभाग्यभास्कर एवं नेत्रतन्त्रम ् के वचन हैं- पूर्णाहन्तानु- सन्ध्यात्मा स्फूर्जन ् मननधर्मतः ।
संसारक्षयकृत्त्राणाधर्मतो मन्त्र उच्यते ।। तथा च मोचयन्ति च संसाराद्योजयन्ति परे शिवे । मनन
त्राणधर्मित्वात्तेन मन्त्र इति स्मत
ृ ाः।।

मन्त्र के सम्बन्ध में आगे वर्णित बातें और भी गूढ प्रतीत हुयी। गुरुजी लिखते हैं कि शिवसूत्रविमर्शिनी में तो
चित्त को ही मन्त्र कहा गया है । सत्र
ू है - चित्तंमन्त्रः ।। अब इस ‘चित्त’ को समझने के लिए प्रत्यभिज्ञा हृदय के संकेत
को समझना होगा-चितिरे व चेतनपदादवरुढा चेत्थसङ्कोचिनी चित्तम ् – स्वातन्त्र्यात्मक स्वरुप की संकोचदशा ही
चित्त है और विकास अवस्था ही चिति कही गयी है । इस प्रकार निरन्तर सम्यक् चिन्तन से साधक का चित्त ही मन्त्र
हो जाता है । अर्थात ् केवल वर्ण संघट्टना ही मन्त्र नहीं है । ‘चिति’- ‘शब्द ’ की चरमावस्था है , यानी इसके आगे अब शब्द
का सामर्थ कहां ! शब्दब्रह्मस्वरुपेयं शब्दातीतं तु जप्यते...। शब्द ब्रह्मरुप अपर ब्रह्म का अतिक्रमण करने पर
शब्दातीत परब्रह्म की पदवी प्राप्त की जा सकती है ।

गायत्री ने याद दिलाया- ‘ उपेन्दर भैया ने कहा था न एक बार- जपात ् सिद्धि जपात ् सिद्धि जपात ् सिद्धि
वरानने...ध्यान है आगे की उनकी बात ? जपेन ् सिद्धि कदापि नहीं, जपते-जपते सिद्धि स्वतः लब्ध होजाती है हठात ्
मानो पेड़ से टूट कर कोई पीला पत्ता भमि
ू ष्ठ हो जाता है - जपात ्- यही तो इशारा है ,जो आम लोग प्रायः समझ नहीं
पाते।’

मैंने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुये कहा- ज्यादा काबिल मत बनो,ये उपेन्द्रबाबा की ही कृपा है कि आज
इतने अधिकार पूर्वक हमलोग बातें कर रहे हैं ऐसे गूढ़ विषय पर।
तुनकती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ बात तो तुम सोलह आने सही कह रहे हो, किन्तु पहली बात तो ये कि अन्ततः
वो मेरे भैया हैं,और दस
ू री बात ये कि उन तक पहुंचाने का असली श्रेय मुझे ही मिलना चाहिए। उस दिन पूष की ठं ढी
रात में तुम्हारे ऊपर पानी न छिड़कती और मॉर्निंगवाक के लिए न भेजती तो क्या यह सब सम्भव था ? न मेरे भैया
मिलते और तुम इतने काबिल बनते। बस घोंघाबसन्त ही रह जाते।’

गायत्री की बातों पर मैं मुस्कुरा कर रह गया- चलो,श्रेय दिया तुम्हें ही।

मन्त्र-शक्ति को समझने के लिए नारी-शक्ति का समादर तो जरुरी ही है । ये दे खो,आगे क्या कहते हैं गरु
ु महाराज-
तदाक्रम्य बलं मन्त्राः सर्वज्ञबलशालिनः । प्रवर्तन्तेऽधिकाराय करणानीव दे हिनाम ् ।। तत्रैव सम्प्रलीयन्ते शान्तरुपा
निरञ्जनाः । सहाराधकचित्तेन तेन ते शिवधर्मिणः।। स्पन्दकारिका का कथन है कि मन्त्र चित्तशक्ति का आधार
लेकर सर्वज्ञत्व आदि बल से समन्वित होकर अनग्र
ु हरुप स्वाधिकार में प्रवत
ृ होते हैं। उनका कोई आकार विशेष नहीं
होता। वे प्राणियों के इन्द्रियों के समान हैं। जब आराधक का चित्त आराध्य में लीन हो जाता तब वे शिवात्मक माया
कालुष्य से रहित मन्त्र भी वहीं चित्तशक्ति में समाविष्ट हो जाते हैं। शिव,शक्ति और आत्मा- ये तीन ही श्रेष्ठ तत्त्व
हैं। पर्ण
ू काम शिव अपनी स्वातन्त्र्यात्मक शक्ति द्वारा चराचर जगत की रचना करते हैं,इस प्रकार शक्ति ही सबका
उपादान कारक सिद्ध है ।’

इसके आगे के प्रसंग में मन्त्र की कुछ परिभाषाओं का जिक्र था- मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात ् । यतः
करोति संसिद्धिं मन्त्र इत्युच्यते ततः ।।

(पिंगलामत), मनन-त्राणाच्चैव मद्रप


ु स्यावबोधनात ् ,मन्त्र इत्युच्यते सम्यग ् मदधिष्ठानतः प्रिये ।। (रुद्रयामल),
पूर्णाहन्तानुसंध्यात्म-स्फूर्जन ् मननधर्मतः । संसारक्षयकृत ् त्राणधर्मतो मन्त्र उच्यते ।। (ललितासहस्रनाम भाष्य-
भास्करराय-वचन) अर्थात ् जो मनन-धर्म से पूर्ण अहन्ता के साथ अनुसन्धान करके आत्मा में स्फुरण उत्पन्न करता
है , तथा संसार का क्षय करने वाले त्राणगुणों से युक्त हो, वही मन्त्र है । मन्त्रोदे वाधिष्ठितोऽसावक्षररचनाविशेषः -
दे वता से अधिष्ठित यह एक अक्षर-रचना विशेष है । कहते हैं- सर्वप्रथम बीजमन्त्रों की उत्पत्ति हुयी। वह भी एक खास
वजह,और विशेष अवस्था में । ईश्वरे च्छा से समष्टि के प्रथम स्पन्दन से ऊँकार की उत्पत्ति हुयी। तदप
ु रान्त प्रकृति
की व्यष्टि स्पन्दन से क्रमशः पथ्वि
ृ व्यादि पंचतत्त्व सहित मन,बद्धि
ु और अहं कार- ये आठ बीजों की उत्पत्ति हुयी।
अ+उ+म ् = ऊँ ,अ+ए+म ्= ऐँ -गुरुबीज, ह+र+ई+म ् =ह्रीँ-शक्तिबीज ,श+र+ई+म ्= श्रीँ- रमाबीज , क+ल+ई+म ् =क्लीँ -
कामबीज, क+र+ई+म = क्रीँ- योगबीज , ट+र+ई+म ् = ट्रीँ – तेजोबीज, स+त+र+ई+म ् = स्त्रीँ- शान्तिबीज, ह+ल+र+ई+म ्
= ह्ल्रीँ- रक्षाबीज। - शब्दब्रह्म की ये ही आठ प्रकृतियां हैं। इस सम्बन्ध में कहा गया है - बीजमन्त्रास्त्रयः पर्वं
ू ततोऽष्टौ
परिकीर्तिताः । गुरुबीजं शक्तिबीजं रमाबीजं ततो भवेत ् ।। कामबीजं योगबीजं तेजोबीजमथापरम ् । शान्तिबीजं च
रक्षा च प्रोक्ता चैषां प्रधानता ।। इसी प्रसंग में आगे लिखा गया था- परम शिव ने भगवती उमा के प्रति कहा है कि मेरे
प्रणव में अ,उ,म अवस्थित है ,और तम्
ु हारे प्रणव में उ,म और अ- इस प्रकार ‘उमा’ पद की उपादे यता सिद्ध होती है । ये
उमा ही ओंकार-सार-शक्ति रुपा हैं। प्राणिमात्र की बुद्धि जब सुप्त हो जाती है ,या कहें अबद्ध
ु दशा की स्थिति में हृत्कमल
के अन्तर्गत दहराकाशरुपी शिव के सिर में अकारादिमात्रादित्रय शून्य (अमात्र) प्रणवनादभागी शब्दब्रह्मात्मक (अन-
आहतनाद) रुप में जो इन्दक
ु ला वर्तमान रहती है , वही उमा है – अर्द्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः त्वमेव
संध्या सावित्री त्वमं दे विजननि परा...(रात्रिसूक्त) आदि सम्बोधनों से महर्षि मार्क ण्डेय ने इसी उमा का निदर्शन किया
है । तुरीय तत्वात्मक ये हे मवती उमा ही अति तूर्यतत्व का दिङ्गनिर्देश करती हैं। अकार,उकार,मकार,विन्द,ु नाद- इन
कलाओं का स्वच्छन्दतन्त्रम ् में एकप्रणव नाम से भी उल्लेख किया गया है । ब्रह्मा,विष्ण,ु रुद्र,ईश्वर,सदाशिवादि
क्रमशः इनके दे वता कहे गये हैं। उक्त पांचो को क्रमशः ह्रस्व,दीर्घ,प्लुत,सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म के नाम से भी जाना
जाता है । नेत्रतन्त्रम ् में बड़ा ही गूढ़ संकेत है - प्रणवः प्राणिनां प्राणो जीवनं सम्प्रतिष्ठितम ्....। ये प्रणव ही प्राणिमात्र
का प्राण है ।अकार,उकार,मकार, विन्द,ु अर्द्धचन्द्र, रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी,समना और उन्मना– इन
बारह कलाओं से ओंकार, पथ्
ृ वी से शिव पर्यन्त समस्त तत्त्वों और भुवनों को आकर्षित करता है - अकारश्च उकारश्च
मकारो विन्दरु े व च । अर्द्धचन्द्रो निरोधी च नादो नादान्त एव च ।। कौण्डिलो व्यपिनी शक्तिः समनैकादशी स्मत
ृ ा।
उन्मना च ततोऽतीता तदतीतं निरामयम ् ।। (स्वच्छन्दतन्त्र) इसमें समना पर्यन्त भवपाशजाल से मक्ति
ु नहीं है ।
वस्तुतः वह तो उन्मना की अवस्था है – समनान्तं वरारोहे पाशजालमनन्तकम ्। इसी क्रम में आगे लिखा है ––
ओंकारगत अणुतर ध्वनियाँ उपर्युक्त विन्द्वादि ही हैं। इस सम्बन्ध में भास्कराय जी कहते हैं- विन्द्वादि नव कलाएँ
सक्ष्
ू म,सक्ष्
ू मतर,सक्ष्
ू मतम कालोच्चरित ध्वनि विशेष वा वर्णविशेष ही हैं,जो ककारादि सदृश स्पष्ट उच्चरित न होने
पर भी,जिस भांति अनुस्वारादि को वर्ण माना गया है ,इन्हें भी मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

आगे, इसी क्रम में गरु


ु महाराजजी ने वर्णोच्चारण की मात्राओं का बड़ा ही सन्
ु दर क्रम दर्शाया है - काल का
परमअणु(परणाणु) लव कहलाता है । इसे ऐसे समझा जा सकता है कि एकत्रित,कमल के अनेक पत्तों को सूई की नोक
से भेदने में भले ही काल-भेद-शून्य प्रतीत होता है ,किन्तु बात ऐसी होती नहीं। एक पत्ते को भेदने के पश्चात ् ही दस
ू रा
पत्र भेदित होता है ,फिर तीसरा...चौथा...। इस अल्प कालावधि की ही लव संज्ञा है । इसे ही शास्त्रीलोग
शतोत्पलपत्रन्याय कहते हैं। ऐसे ही २५६ लव की एक(पूर्ण) मात्रा कही गयी है । इससे आधे यानी १२८ लव विन्द ु का
उच्चारण काल होता है ,आगे क्रमशः तदर्ध होते जाता है ,यानी ६४लव अर्द्धचन्द्र का, ३२लव रोधिनी का, १६लव नाद का,
८लव नादान्त का, ४लव शक्ति का, २लव व्यापिका का,और १लव समना का। इससे आगे उन्मना तो सर्वथा कालहीन
है । कालशून्य कहना अधिक अच्छा है । यही परमशिव-प्राप्ति-द्वार है । ऊर्ध्वमुन्मनसो यत्र तत्र कालो न विद्यते,
अथवा उन्मन्यन्ते परे योज्यो न कालस्तत्र विद्यते । स कालः साम्संज्ञश्च जन्ममत्ृ युभयापहः । शब्दब्रह्म इस काल
की शक्ति का आधार लेकर ही नाना जन्मादि विकारों का जनक बनता है । भोक्ता, भोग्य,और भोगरुप में प्रसत
ृ होता
है । यह कालशक्ति ही स्वातन्त्र्यशक्ति है । तन्त्रालोक का कथन है - क्रमाक्रमात्मा कालश्च पराःसंविदि वर्तते । काली
नाम पराशक्तिः सैव दे वस्य गीयते ।। क्रमदीपिकाकार ने काल के भी दो भेद किये हैं- पर और अपर। यह अपरकाल ही
उन्मनी है । कुण्डलिनी रुप उन्मनीशक्ति उसकी अपनी उपाधि है । यूं तो यह समस्त पिण्ड में व्याप्त है ,फिर भी
हृदयदे श में विशेष रुप से ध्वनित होते रहता है । यही पिण्डमन्त्र भी है - पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थल
ू वर्णक्रमेण तु ।
अर्द्धेन्दवि
ु न्दन
ु ादान्तः शून्योच्चाराद्भवेच्छिवः ।। (विज्ञानभैरवतन्त्रम ्) परावाक रुप प्रणवात्मक कुण्डलिनीशक्ति ही
प्रकृति है ,पश्यन्ति आदि इसकी ही विकृतियां हैं। पैर के अंगूठे से लेकर हृदय पर्यन्त अकार यानी ब्रह्मांश है । इसमें ही
समस्त भुवनात्मक प्रपञ्च विद्यमान हैं। उससे आगे कण्ठदे श तक उकार यानी वैष्णवांश का क्षेत्र है । तदर्ध्व
ु तालु
पर्यन्त मकार यानी रुद्रांश क्षेत्र है । नेत्रतन्त्रम ् के २१वे अधिकार में इस कुण्डलिनीशक्ति के सम्बन्ध में अति व्यापक
वर्णन है ,जो सर्वथा गुरुगम्य है । किस भांति यह शक्ति हमारे शरीर में अवगुण्ठित है ,कैसे इसके कार्य हैं,कैसी इसकी
क्रिया-साधना है - स्वरुप सहित विशद वर्णन वहां दे खा जा सकता है । योग्य गरु
ु के संरक्षण में ही इसका अभ्यास होना
चाहिए,किन्तु ध्यान रहे - योग्य शिष्य की महत्ता और उपादे यता को भी कदापि नकारा नहीं जा सकता। भूमि और
बीज दोनों ही उत्तम होने चाहिए। इस आद्य मन्त्र- महामन्त्र ओंकार की महत्ता जितनी भी कही जाय कम ही है ।
अस्त।ु

मन्त्र के विषय में और भी बहुत सी बातें दी हुयी थी उस पुस्तिका में , किन्तु गायत्री के कहने पर मैं सीधे मन्त्रों के
प्रकार और भेदों वाले प्रसंग पर आ गया, क्यों कि उसकी अभिरुचि उसमें विशेष प्रतीत हुयी,और कुछ बातें शायद
समझ न पायी थी,इस कारण उसपर चर्चा करना चाह रही थी मुझसे।

मैंने आगे पढ़ा- मन्त्र का एक अर्थ लोग आमन्त्रण भी लगाते हैं- यानी धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष का सम्यक्
आमन्त्रण कराये जो,यानि लब्ध कराने की क्षमता रखता हो जो,उसे मन्त्र कहा जाता है । सच्चाई ये है कि मन्त्र में
पुरूषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की क्षमता तो है ही,किन्तु उसका सम्यक् प्रबोधन अत्यावश्यक है , अन्यथा फिर वही
शरदकालीन मेघ वाली बात होगी- जो जल-रुपी परिणामहीन है । ये ठीक है कि सभी मन्त्र परम चैतन्य हैं,किन्तु फिर
भी साधक को उसका प्रबोधन तो करना ही होता है । यानी चैतन्य को भी स्वयं के लिए चैतन्य करना, या कहें चैतन्य
का बोध...। साधक की अपनी शक्ति प्रबुद्ध होकर मन्त्र की शक्ति को प्रबद्ध
ु करती है । जीवशक्ति जब दै वीशक्ति से
एकाकार होजाती है ,तभी मन्त्र कार्यशील होता है ।

मन्त्रों के प्रकार विभिन्न हैं। उनकी नाना जातियां हैं। नाना भेद हैं। मूलमन्त्र अथवा महामन्त्र के गर्भ से ही
सभी मन्त्र जनित होते हैं। इसके मुख्य भेद निम्नांकित हैं,जो पांच वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं। यथा-
1.पंम
ु न्त्र,स्त्रीमन्त्र,नपंस
ु कमन्त्र। 2.सिद्धमन्त्र,साध्यमन्त्र,ससि
ु द्धमन्त्र, और अरिमन्त्र। 3.पिण्डमन्त्र, कर्तरीमन्त्र,
बीजमन्त्र और मालामन्त्र 4.सात्त्विकमन्त्र, राजसमन्त्र,तामसमन्त्र एवं 5.साबरमन्त्र और डामरमन्त्र। आगे इन पर
संक्षिप्त चर्चा करते हुए गुरुमहाराज लिखते हैं- जिन मन्त्रों का दे वता पुरुष होता है उन्हें पुं मन्त्र कहते हैं,इसी भांति
स्त्रीदे वता के अधीन मन्त्र स्त्रीमन्त्र कहे जाते हैं। एक खास बात है कि जिन मन्त्रों का दे वता स्त्री होता है ,उसे ‘विद्या’
नाम से भी जाना जाता है । यथा- सौराः पुं दे वता मन्त्रास्ते च मन्त्राः प्रकीर्तिताः । सौम्याः स्त्रीदे वतास्तद्वद्विद्यास्ते
इति विश्रुताः ।। तथा च पुंस्त्रीनपुंसकात्माना मन्त्राः सर्वे समीरिताः । मन्त्राः पुंदेवता ज्ञेया विद्याः स्त्रीदे वताः
स्मत
ृ ाः ।। किं चित साम्प्रदायिक मत से ऐसा भी कहा जाता है कि जिन मन्त्रों के अन्त में ‘हुँ ’- ‘फट् ’ लगा होता उन्हें पुं
मन्त्र,और ‘ठःठः’ का प्रयोग हो तो स्त्रीमन्त्र जाने,तथा ‘नमः’ से समाप्त होने वाले मन्त्र नपुंसक श्रेणी में आते हैं-
पुंमन्त्रा हुम्फडन्ताः स्युर्द्विठान्ताश्च स्त्रियो मताः । नपुंसका नमोऽताः स्युरित्युक्ता मनवस्त्रिधा ।। (शारदातिलक),
किन्तु प्रयोगसार में कुछ और लक्षण कहे गये हैं- ‘वषट् ’,‘फट् ’ से समाप्त होने वाले मन्त्र पुंमन्त्र, ‘वौषट् ’ , ‘स्वाहा ’
से समाप्त होने वाले स्त्री मन्त्र, तथा ‘हुँनमः’ से समाप्त होने वाले मन्त्रों को नपुंसक जाने। यथा- वषट्फडन्ताः
पुंलिङ्गा वौषट्स्वाहान्तगाः स्त्रियः । नपुंसका हुंनमोऽता इति मन्त्रास्त्रिधा स्मत
ृ ाः ।। पन
ु ः आगे शारदातिलक का ही
उदाहरण दिया हुआ मिला- सिद्धार्णा बान्धवाः प्रोक्ताः साध्यास्ते सेवकाः स्मत
ृ ाः । ससि
ु द्धाः पोषका ज्ञेयाः शत्रवो
घातका मताः ।। अर्थात ् सिद्धश्रेणी के मन्त्र बान्धव की तरह कल्याणकारी होते हैं,साध्य मन्त्र सेवक की तरह कार्य
करते हैं,यानी इन्हें सिद्ध करके यथा शीघ्र लाभान्वित हुआ जा सकता है । सुसिद्ध मन्त्र तो और भी अच्छे हैं,जो
सन्तलि
ु त आहार के साथ फल और दध
ू की तरह पोषण-कार्य करते हैं,किन्तु अरिमन्त्र अपने नामानस
ु ार गण
ु वाले
होते हैं,जो प्राण भी ले सकते हैं,रोग भी दे सकते हैं, कुछ भी अनिष्ट कर सकते हैं। – इसे ही दे ख कर गायत्री चिन्तित
हो उठी थी,और यही कारण था कि मुझे शीघ्र ही गुरुबाबा की पुस्तिका का मनन करने को प्रेरित कर रही थी।

‘अनजाने में न जाने कितने स्तोत्र और मन्त्रों का रट्टा मार चुकी हूँ। अब भला विजली क्या यह सोच कर झटका दे गी
कि अनजाने में छूआ गया है ? अनजाने में खाया गया जहर क्या जहर नहीं होगा? ’- गायत्री ने चिन्तित स्वर में कहा।

उसे सान्त्वना दे ते हुए मैंने कहा- आंखिर क्यों कहा गया है कि ये सब विषय गुरुगम्य हैं। अनधिकृत रुप से
सिर्फ किताबों को पढ़कर,या किसी से सन
ु -जान कर मन्त्रों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। किन्तु अब तक जो
हुआ सो हुआ, इसके लिए चिन्तित होने से क्या लाभ? आगे से ध्यान रखा करो,और अब तो सौभाग्य से एक योग्य
मार्गदर्शक भी मिल गये हैं हमलोगों को।

गायत्री को समझाने के बाद मैं पन


ु ः पढ़ना शुरु किया। प्रसंग मन्त्रों के प्रकार का ही चल रहा था।
सौभाग्यभास्कर का उद्धरण था- मन्त्रा एकाक्षराः पिण्डाः कर्तर्यो द्व्यक्षरा मताः । वर्णत्रयं समारभ्य नववर्णावधि
बीजकाः ।। ततो दशार्णमारभ्य यावद्विंशतिमन्त्रकाः । तत ऊर्ध्वं गता मालास्तासु भेदो न विद्यते ।। अर्थात ् सिर्फ
एक अक्षर वाले मन्त्र को पिण्ड कहते हैं,दो अक्षरों वाले को कर्तरी, तीन से नौ पर्यन्त वर्णों वाले मन्त्र को बीज मन्त्र
कहा गया है ,दश से बीस वर्ण तक के मन्त्र को मन्त्र नाम से ही जाना जाता है ,और इससे आगे की वर्णसंख्या वाला
मन्त्र मालामन्त्र की श्रेणी में आता है ,जो अपरिमित है । प्रयोगसार तन्त्र में मन्त्रों का भेद इस प्रकार कहा गया है -
बहुवर्णास्तु ये मन्त्रा मालामन्त्रास्तु ते स्मत
ृ ाः । नवाक्षरान्ता ये मन्त्रा बीजमन्त्राः प्रकीर्तिताः ।। पुनर्विंशतिवर्णान्ता
मन्त्रा मन्त्रास्तथोदिताः । ततोऽधिकाक्षरा मन्त्रा मालामन्त्रा इतिस्मत
ृ ा ।।- इन श्लोकों का अर्थ भी लगभग वही है ।

अब,आगे गुणों के आधार पर मन्त्रों का विभाजन दिखलाया गया है - सात्त्विक, राजस, तामस मन्त्र। जैसा कि गीता
में भगवान ने स्वयं को त्रिगुणातीत,और संसार को त्रिगुणमय कहा है । सबकुछ त्रिगुणमय है ,तो ये मन्त्र क्यों अछूते
रहें गे ! मन्त्रों में साबर(शाबर) और डामर भी काफी प्रचलित हैं। डामर मन्त्र तात्कालिक सिद्धिदायक और चमत्कारिक
तो होते हैं; किन्तु अपना कार्य सम्पन्न कर शीघ्र ही व्यर्थ भी हो जाने का अवगुण या कहें गुण हैं इनमें । ये प्रायः
लौकिक कार्य-सिद्धि हे तु प्रयोग किये जाते हैं,जिनसे तन्त्र-साधकों को यथासम्भव परहे ज करना चाहिए। ये
आध्यात्मिक लक्ष्य को बाधित करने वाले हैं। इससे बिलकुल भिन्न हैं साबर (शाबर) मन्त्र,जिनका शास्त्रीय आधार
कुछ खास उपलब्ध नहीं है । फिर भी लोकमान्य हैं। भक्त कवि तुलसी ने अपने महाकाव्य रामचरित मानस में कहा है -
कलि विलोकि जग हित हरगिरिजा,साबर मन्त्र जाल जिन सिरजा । अनमिल आखर अरथ न जापू,प्रकट प्रभाव महे श
प्रतापू ।।

किं चित मत से यह भी मान्य है कि दिव्यास्त्र हे तु तपश्चर्या रत अर्जुन की परीक्षा क्रम में भोलेनाथ शिव ने किरातवेष
धारण किया था, उसी समय उमा ने उनसे कुछ संवाद भी किये थे- भावी कलियुग के आगमन से चिंतित होकर।
भील(शबर) भेषधारी होने के कारण वे ही शाबरमन्त्र कहलाये,जो सर्वथा निष्कीलित हैं,यानी किसी तरह का विशेष
बन्धन नहीं है उन पर। ऐसे भी प्रसंग मिलते हैं कि मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य और गोरखनाथ के गुरुभाई शाबरनाथ जी
हुए हैं। कुछ लोग इसकी प्राचीनता सिद्ध करते हुए शाबरमन्त्र सिद्धि हे तु निम्नाकित आचार्यों का स्मरण भी करते हैं-
नागार्जुनो जड़भरतो हरिश्चन्द्रस्तत
ृ ीयकः । सत्यनाथो भीमनाथो गरक्षश्चर्पटस्तथा ।। अवघटश्च वैरागी
कन्थाधारिजलंधरौ । मार्गप्रवर्तका एते तद्वच्च मलयार्जुनः । एते प्रोक्ताः शाबरणां मन्त्राणां सिद्धिदायकाः।।( किन्तु
इस श्लोक का मल
ू स्रोत अज्ञात है ।) कुछ लोग तो साबरमन्त्रों को व्यर्थ शब्द-जाल कहकर ठुकरा दे ते हैं; किन्तु ध्यान
दे ने की बात है कि इनके वेमेल,बेतुके,बेअर्थ पद- शब्द-विन्यास कुछ अजीब होते हुए भी बहुत ही प्रभावशाली हैं। ये सब
निष्कीलित मन्त्र–श्रेणी में हैं,जिसके लिए साधक (प्रयोगकर्ता) को बहुत फ़ज़ीहत नहीं उठाना पड़ता। हां,इतना अवश्य
कहा जा सकता है कि मल
ू साबर मन्त्रों के साथ बहुत ही उठा-पटक भी हुआ है ,अनाड़ी ओझा-गन
ु ी,ढोंगीबाबा,ठग-
उच्चके भी इसके साथ काफी छे ड़-छाड़ किये हैं। परिणामतः इन मन्त्रों के मौलिक स्वरुप काफी भ्रष्ट हो गये हैं। और
जब मौलिकता ही नष्ट हो गयी- कलिकाल-ग्रस्त होकर,फिर इनकी सफलता भी तो संदिग्ध हो ही जायेगी न ! अतः
साधकों को इससे भी यथासम्भव बचना चाहिए। व्यर्थ अपनी ऊर्जा गंवाना बद्धि
ु मानी नहीं है ।

उक्त प्रसंग के बाद व्यापक रुप से शारदातिलक के मूलश्लोकों को उद्धृत किया गया था,जिनमें मन्त्र के अन्याय
प्रकारों की चर्चा की गयी थी। ये संख्या करीब सन्तावन बतायी गयी है ,साथ ही और भी मन्त्र-प्रकार,या कहें लक्षण कहे
गये हैं। यथा- छिन्नो रुद्धः शक्तिहीनः पराङ्मुख उदीरितः । बधिरो नेत्रहीनश्च कीलितः स्तम्भिनस्तथा ।।
दग्धस्रस्तश्च भीतश्च मलिनश्च तिरस्कृतः ।। भेदितश्च सुषुप्तश्च मदोन्मत्तश्च मूर्च्छि तः । हृतवीर्यश्च हीनश्च
प्रध्वस्तो बालकः पन
ु ः ।। कुमारस्तु यव
ु ा प्रौढ़ो वद्ध
ृ ो निस्त्रिंशकस्तथा । निर्वीजः सिद्धिहीनश्च मन्दः कूटस्तथा पन
ु ः ।।
निरं शः सत्त्वहीनश्च केकरो बीजहीनकः । धूमितालिङ्गितौ स्यातां मोहितश्च क्षुधातुरः । अतिदृप्तोऽङ्गहीनश्च
अतिक्रुद्धः समीरितः । अतिक्रूरश्च सव्रीडः शान्तमानस एव च ।। स्थानभ्रष्टश्च विकलः सोऽतिवद्ध
ृ ः प्रकीर्तितः ।
निस्नेहः पीडितश्चापि मन्त्राणि पथ
ृ क पथ
ृ क ।। इन्हें क्रमशः निम्न तालिका में दर्शाया गया है -
१. छिन्न

२. रुद्र

३. शक्तिहीन

४. पराङ्गमख

५. उदीरित

६. बधिर

७. नेत्रहीन

८. कीलित

९. स्तम्भित

१०. दग्ध

११. भीत

१२. मलिन

१३. तिरस्कृत

१४. भेदित

१५. सष
ु प्ु त

१६. मदोन्मत्त

१७. मूर्च्छि त

१८. हृतवीर्य

१९. हीन

२०. प्रध्वस्त

२१. बालक
२२. कुमार

२३. युवा

२४. प्रौढ़

२५. निस्त्रिंशक

२६. निर्वीज

२७. सिद्धिहीन

२८. मन्द

२९. कूट

३०. निरांश

३१. सत्त्वहीन

३२. केकर

३३. बीजहीन

३४. धूमित

३५. आलिंगित

३६. मोहित

३७. क्षुधातुर

३८. अतिदृप्त

३९. अंगहीन

४०. अतिक्रुद्ध

४१. समीरित

४२. अतिक्रूर
४३. सव्रीड

४४. शान्तमानस

४५. स्थानभ्रष्ट

४६. विकल

४७. अतिवद्ध

४८. निःस्नेह

४९. पीड़ित

५०. मीलित

५१. विपक्षस्थ

५२. दारित

५३. मूल

५४. नग्न

५५. भुजंगम

५६. शन्
ू य

५७. हत

शारदातिलक के विभिन्न पटलों में मन्त्रों के सम्बन्ध में और भी बहुत सी उपयोगी बातों की चर्चा है ,जिनकी जानकारी
साधकों को रखनी चाहिए। किं चित अन्य विचार से मन्त्रों के और भी प्रकार कहे गये हैं। यथा- वैदिकमन्त्र,
तान्त्रिकमन्त्र,पौराणिकमन्त्र आदि,तथा किं चित व्यवस्था-भेद से मन्त्रों के पांच प्रकार भी कहे गये हैं-
नैगमिक,आगमिक,पौराणिक,शाबर और प्रकीर्ण। शाबर मन्त्रों की चर्चा पर्व
ू में की जा चक
ु ी है । प्रकीर्ण मन्त्रों से
तात्पर्य है - बौद्ध, जैन, इस्लाम आदि मतावलम्बियों द्वारा प्रतिपादित मन्त्र।
मन्त्रों के विविध प्रकारों की चर्चा के बाद उनके विविध संस्कारों की चर्चा की गयी है पुस्तिका में । मुख्य रुप से मन्त्रों
के दश संस्कार कहे गये हैं। यथा-

१. जनन

२. जीवन

३. ताड़न

४. बोधन

५. अभिषेक

६. विमलीकरण

७. आप्यायन

८. तर्पण

९. दीपन

१०.गुप्ति

अब इन्हें संक्षिप्त रुप से व्याख्यायित किया जा रहा है - पूर्व में कहे गये मातक
ृ ावर्ण-समूह में से अभीष्ट मन्त्र का
उद्धार(निरुपण) ही मन्त्र का जनन संस्कार है । इसकी विशिष्ट विधि है । किसी शुभ पीठिका पर रोचना द्वारा
मातक
ृ ापद्म की रचना करके, अभीष्ट मन्त्र के प्रत्येक वर्णों को बारी-बारी से मातक
ृ ाब्ज से उद्धार किया जाता है । इसके
बाद मन्त्र के वर्णों को प्रणव से अन्तरित करके,जप करना ही उसका जीवन संस्कार है । कम से कम सौबार ऐसा करना
चाहिए। पिङ्गलामत से इसे जीवन न कह कर बीजन कहते हैं। अब,मन्त्र के सभी वर्णों को भोजपत्र पर चन्दनादि से
लेखन करके,वायु बीज- यँ का उच्चारण करते हुए सौ बार ताड़न संस्कार करना चाहिए। उक्त लिखित मन्त्र को
कनेर(शिवपुष्प)से सौ बार ताड़ित किया जाना ही बोधन संस्कार कहलाता है । इस क्रिया में अग्नि का बीज- रँ प्रयुक्त
होना चाहिए। भुर्जपत्र पर लिखे उक्त अभीष्ट मन्त्र को ‘पीपल-लाई’ से अभिषिक्त करना अभिषेक-संस्कार कहलाता
है । विद्वानों का मत है कि अभिषेक की संख्या मन्त्र-वर्ण के अनरु
ु प होनी चाहिए। अब,प्रणव के प्रयोग से मानसिक
चिन्तना करते हुए सहज,आगन्तुक और मायीय मलों को दग्ध करना चाहिए। इसे ही मन्त्र का विमलीकरण संस्कार
कहा गया है । अभीष्ट मन्त्र का जल द्वारा एक सौ आठ बार तर्पण-क्रिया तर्पण-संस्कार कहा जाता है । अब,तार,
माया, और रमाबीज से मन्त्र को युक्त करके,दीपन संस्कार किया जाता है । अभीष्ट मन्त्र की गोपनीयता(मर्यादा
रक्षण) ही गोपन संस्कार कहा जाता है । इन सभी संस्कारों के बाद ही मन्त्र-साधना करनी चाहिए। दषि
ू त मन्त्रों का
शोधन अत्यन्त आवश्यक है - विशेष कर काम्य कर्मों में । किन्तु मोक्ष की कामना वाले,वा कुछ भी न चाहने वाले
साधक के लिए ये सब झंझट ही फिजूल है । वह तो एकोऽहं द्वितीयोनास्ति की सोच वाला है ,उसके लिए क्या...!
गुरुमुख से निःसत
ृ ,शिष्य की कर्णगुहा में प्रविष्ट मन्त्र सर्वदोषों से स्वमेव मुक्त हो जाता है । यह सारी जिम्मेवारी गुरु
की होती है । सौभाग्य से जिसे योग्य गरु
ु मिल जाय, समझो कि उसका आधा काम तो हो गया। गाड़ी पटरी पर रख दी
गयी,ईंजन भी चला दिया गया,अब बाकी का काम केवल ‘करना’ रह गया है । कभी-कभी पूर्वजन्म के प्रभाव से,साधक
को ‘स्वप्नमन्त्र’ की प्राप्ति हो जाती है । इसे सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में रखा जाना चाहिए । ऐसे मन्त्र को सिर्फ अश्वत्थपत्र पर
अष्टगन्ध से लिखकर, षोडशोपचार पजि
ू त कर स्वयमेव ग्रहण कर लेना ही पर्याप्त है ।’

उक्त प्रसंग के पश्चात ् गुरुमहाराज ने वर्णोद्धारतन्त्रोक्त मातक


ृ ा-ध्यान की चर्चा की है ,जिसके अन्तर्गत सभी
वर्णमातक
ृ ाओं के ध्यान के लिए एक-एक स्वतन्त्र श्लोक दिये गये हैं। उक्त श्लोकों में से प्रणवाक्षर के तीन
वर्णमातक
ृ ाओं के ध्यान को विशेष रुप से चिह्नित किया गया था,जो इस प्रकार हैं- (अ) केतकीपष्ु पगर्भाभां
द्विभुजां हं सलोचनाम ् । शुक्लपट्टाम्बरधरां पद्ममाल्यविभूषिताम ् ।। चतुर्वर्गप्रदां नित्यं नित्यानन्दमयीं पराम ् ।
वराभयकरां दे वीं नागपाशसमन्विताम ् । एवं ध्यात्वा अकारं तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत ् ।।

(उ) पीतवर्णां त्रिनयनां पीताम्बरधरां पराम ् । द्विभज


ु ां जटिलां भीमां सर्व सिद्धि प्रदायिनीम ् । एवं ध्यात्वा सरु श्रेष्ठां
तन्मन्त्रं दशधा जपेत ् ।।

(म) कृष्णा दशभज


ु ां भीमां, पीतलोहितलोचनाम ् । कृष्णाम्बरधरां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम ् । एवं ध्यात्वा मकारं तु
तन्मन्त्रं दशधा जपेत ् ।।

पुस्तिका का आद्योपान्त अध्ययन करते-करते सबेरा हो चला । गायत्री अपने नित्यक्रिया में लग गयी।

वैसे भी, ‘अब क्या सोना ’–– बद


ु बद
ु ाते हुए, मैं भी विस्तर से उठ गया। मेरी बद
ु बद
ु ाहट की आहट गायत्री को भी लग
गयी थी। उसने भी दह
ु राया–– ‘अब क्या सोना ’। बहुत सो लिए, अभी भी क्या सोये ही रहोगे !

सच में सोना यानी खोना...गवांना...हीरा जनम गंवायो...।

सप्ताह भर और गुजर गये। इस बीच अधिकाधिक समय दिया– शेष पुस्तिकाओं के अवलोकन-मनन में । कार्यालय के
काम से जो भी समय बचता, उसे अध्ययन में ही व्यतीत करता। गायत्री का भरपूर सहयोग रहा। दिन भर वह उन्हीं
पस्
ु तकों में डूबी रहती,और फ़ुरसत पाते ही,चर्चा छे ड़ दे ती।
ऐसे ही एक दिन,उसने कहा- ‘ ये दे खो,बार-बार जिज्ञासा होती थी न, उस दिन भारद्वाज आश्रम में भी जो अनुभूति
हुयी,हमदोनों को—ये तो उसका ही स्पष्ट खाका है ।’

बद्ध
ृ बाबा द्वारा दिए हुए पीले बन्धने में से एक पुलिन्दा निकाल कर, गायत्री मेरे सामने फैला दी। मैंने दे खा- तरह-तरह
की आकृतियां बनी हुयी थी—त्रिभज
ु ,षट्कोण,चतष्ु कोण,अष्टकोण,वत्ृ ताकार,अण्डाकार,आदि आदि। उन्हीं में एक
आकृत्ति वह भी थी,जिसे हमने दे खा था उस दिन।

गायत्री ने कहा- ‘याद है - उपेन्दर भैया ने कहा था न- शरीर का भीतरी भग


ू ोल जानना भी बहुत महत्त्वपर्ण
ू है ,जिसे
आधुनिक विज्ञान की आंखों से नहीं दे खा जा सकता ? ’

काफी दे र तक हमदोनों दे खते रहे उन आकृत्तियों को। कुछ समझ आयी, कुछ नहीं भी। समझ आने वाली बातों में
सर्वाधिक रोचक और मोहक लगा- अन्तःकायिक संरचना। विधाता ने कितनी सुन्दर व्यवस्था दे कर भेजा है मनष्ु य
को- सारे खजाने भर दिये हैं- छःफुटी काया में ,चाभी भी यहीं कहीं रख छोड़ी है खजाने की,खोलने का तरीका भी सलीके
से समझा दिया है ऋषि-मुनियों के श्रीमुख से,किन्तु इसके बावजूद, हमसब कहीं और भटकते रहते हैं। परमात्मा को
कहीं और ढूढ़ते फिरते हैं,जबकि वह सबके भीतर ही कुण्डली मारे बैठा है ।

कुण्डली की बात पर मानव-कायान्तर्गत विद्यमान कुण्डलिनी शक्ति की बात याद आयी। बाबा का इशारा बार-बार
इसी ओर था । ये चित्र भी उसी ओर संकेत कर रहा है । उक्त सारी आकृत्तियां उन्हीं स्थलों का ईंगन है । गुरुमहारज ने
एक प्रसंग में अंकित किया था-

‘महर्षि पतञ्जलि ने अपने बहुचर्चित पुस्तक ‘योगसूत्र’ के प्रारम्भ में ही कहा है - योगश्चितवत्ति
ृ निरोधः । यानी
चित्तवत्ति
ृ यों के निरोध को ही योग कहते हैं। चित्त की वत्ति
ृ यां निरुद्ध हुयी,कि योग हो गया- आत्मा और परमात्मा
के बीच की झीनी दीवार- विभेदक रे खा- समाप्त हो गयी। यह अवस्था विशेष है ,इसमें असम्प्रज्ञात के साथ-साथ
सम्प्रज्ञात समाधि को भी ग्रहण किया गया है । यानि जिस किसी विधि से हम यात्रा(साधना) प्रारम्भ करें , चित्त की
उच्छृखल वत्ति
ृ यों का निरुद्ध हुए बिना काम होने को नहीं है । जिस किसी भी रास्ते से जाओ,जाना तो वहीं है । इस
सम्बन्ध में कृष्ण ने गीता में बहुत कुछ साफ कर दिया है ,फिर भी, फिर भी लगा ही रहता है । अतः साधक को यम-
नियमादि का सम्यक् अभ्यास करते रहना चाहिए,यानि अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष,
स्वाध्याय,तप, और ईश्वरप्रणिधान के मार्ग पर सतत अग्रसर होना चाहिए। सात्त्विक आहार-विहार में संलग्न रहते
हुए,शरीर को स्वस्थ और सामर्थ्य-वान रखने हे तु विहित आसनों के अभ्यास के साथ-साथ प्राणायाम के यत्किंचित
अभ्यास भी करना चाहिए- सभी प्रारम्भिक अभ्यासियों को। सर्वप्रथम अन्तः नाडियों के सम्यक् शोधन हे तु
नाडीशोधन प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। गुरुनिर्देशन में रहते हुए,सुविधानुसार प्रातः-सायं एक चक्र से
प्रारम्भ करके चौवन चक्र तक का दीर्घ अभ्यास जरुरी है । ताकि समस्त नाडियों का सम्यक् शोधन हो जाय। इस
क्रिया में तीन से छः माह लग सकते हैं। आसन की परिभाषा तो सुस्पष्ट है - स्थिरःसुखमासनम ्- साधना हे तु दीर्घकाल
तक स्थिर रुप से बैठने की आवश्यकता होती है । जिस मुद्रा में सुखपूर्वक लम्बे समय तक बैठा जा सके, वस इतने ही
से मतलब है ,किन्तु कतिपय आसनों पर योगियों ने जोर दिया है । यथा -पश्चिमोत्तासन, शलभासन,पद्मासन,
सिद्धासन (स्त्रियों के लिए सिद्धयोनि आसन), वज्रासन,सुप्तवज्रासन,आनन्दमदिरासन,शवासन आदि। बारह आसनों
का एक समूह है - सूर्यनमस्कार,जो समन्त्र और अमन्त्र दोनों प्रकार से किया जाता है । इसके नियमित अभ्यास से
शरीर स्वस्थ रहता है । इन आसनों के साथ रहस्यमय ढं ग से विशिष्ट प्राणायाम स्वतः होते चलता है । अतः इसे
अवश्य करना चाहिए। गीता में भगवान ने कहा है - शच
ु ौ दे शे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्यच्छ्रि
ु तं
नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम ् ।।(६-१२) अतः सुरुचिकर एकान्त स्थान में पवित्र आसन पर स्थिरचित्त बैठने का
अभ्यास करना चाहिए...।

‘...अन्य समयों में भी वायें -दायें नथु नों से आते -जाते स्वांस का निरीक्षण होते रहे । इस क्रिया को स्थिर आसन पर बै ठ
कर भी किया जाना चाहिए। स्नान,स्वच्छ वस्त्रादि धारण,पूर्ण शु चिता आदि अपनी जगह पर काफी महत्त्वपूर्ण
हैं ,किन्तु ऐसा न हो कि ये सिर्फ वाह्याडम्बर बन कर रह जायें ।व्यावहारिक रुप से होता ये है कि हम बाहरी तल पर
तै यारी तो खूब करते हैं ,पर भीतरी तल पर कुछ होता नहीं,या कहें ठोस कार्य कुछ होता ही नहीं। अतः मु ख्य रुप से
अन्तः शु चिता का ध्यान रखना जरुरी है । रात सोते समय भी चित्त ले टकर इस क्रिया को की जा सकती है । भोजन
और क्रिया के बीच दोघड़ी(४८ मिनट) का अन्तराल अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार निरन्तर करते रहने से थोड़े ही
दिनों में चं चल चित्त की उच्छं ृ खलता कम होजाती है । मन्त्रों का जप,स्तोत्रों का पाठ आदि भी इसी उद्दे श्य की ओर
ले जाने वाले मार्ग हैं । अतः बहुत झमे ले में पड़े बिना,सीधे इस व्यावहारिक क्रिया का अभ्यास किया जा सकता है ।
नाड़ीशोधन का अभ्यास सिद्ध हो जाने के पश्चात् पञ्चतत्त्वों के बीजमन्त्रों का सतत अभ्यास किया जाना चाहिए।
यानि विविध केन्द्रों पर चित्त को एकाग्र करते हुए, मानसिक रुप से उन बीजों का जप करे । यह अभ्यास नियमित रुप
से थोड़े लम्बे समय तक करने की आवश्यकता है ,ताकि नाड़ियों के शु द्ध हो जाने के बाद कायिक पञ्चतत्त्व भी शु द्ध हो
जायें । ’

क्रमशः...

punyarkkriti.blogspot.com at 4/17/2016 03:58:00 am

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पुण्यार्क कृति

Tuesday, 19 April 2016

बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्रयोगसाधना

गतांश से आगे...बीसवां भाग

इतना पढ़ने के बाद,मैंने पन


ु ः उस पुलिन्दे वाली आकृति को दे खने लगा। पद्मासन में बैठे एक मानवाकृत्ति के पष्ृ ठ
प्रदे श का चित्रांकन था,साथ ही अग्रभाग को भी एक अन्य चित्र में दर्शाया गया था। चित्रों को श्रंग
ृ ारहार, मल्लिका,
मनशिलादि रं गों से बड़े ही सन्
ु दर ढं ग से चित्रित किया गया था,जिसे समझने में जरा भी कठिनाई न हो हुयी।

मेरुदण्ड के निम्न खण्ड से लेकर ऊपर मेडूला तक (जिस पर सिर टिका है ) पांच स्थलों का महीन अक्षरों में निर्देश था
क्रमशः,जिससे एक तालिका बन रही थी-

क्र.

स्थान
तत्त्व

बीज

१.

मूलाधार

पथ्
ृ वी

लं

२.

स्वाधिष्ठान

जल

वं

३.

मणिपूर

अग्नि
रं

४.

अनाहत

वायु

यं

५.

विशुद्धि

आकाश

हं

सुस्पष्ट चित्रांकन को बड़ी दे र तक दे खता रहा मैं और पूर्व अनुभूत विम्बों से मिलान भी करता रहा। गायत्री भी मेरे
साथ-साथ नजरें टिकाये हुये थी, उसी चित्र पर। बड़ी दे र तक गौर करती रही,फिर उसने कहा- ‘ बिलकुल ही सही
सारणी बन रही है । इन स्थलों(केन्द्रों) का नाम भले ही पहले मझ
ु े पता न था,किन्तु अब दे खती हूँ- इन्हीं-इन्हीं स्थलों
में मैं इन्हीं बीजों को कई बार चमचमाते हुए स्पष्ट दे ख चुकी हूँ- किन्तु स्वप्न की नाई,साथ ही एक भिन्नता और भी
दे ख रही हूँ- इस चित्र में मूलाधार और स्वाधिष्ठान का जो स्थान दिखलाया गया है ,उससे किं चित भिन्न अनुभूति हुयी
मझ
ु े। या तो ये मेरी नासमझी है ,या फिर कोई रहस्य है इसमें ,जिसे मैं समझ नहीं पा रही हूँ। एक और बात- ऊपर के
प्रसंग में साधे जाने वाले आसनों के क्रम में पुरुष और स्त्री के लिए क्रमशः सिद्धासन और सिद्धयोनिआसन की बात
कही गयी है । मुझे लगता है - रहस्य यहीं छिपा है । तुम्हें समय मिले कभी तो इन दोनों आसनों के फ़र्क को समझा
जाय- हमलोग साथ-साथ करके दे खें इन्हें । और इनके प्रभावों पर भी गौर करें । आसनों के बाद,कुछ मद्र
ु ाओं की भी
चर्चा है - एक अलग पुलिन्दे में । मुद्राओं के विषय में कुछ तो मैं पिताजी से सुनती थी- गायत्री जप के पहले,और जप के
बाद मुद्रायें की जाती है - योनिमुद्रा भी उन्हीं में एक है ; किन्तु यहां गुरुमहाराज ने बहुत सी अनजान मुद्राओं की चर्चा
की है । जैसे- महामुद्रा अश्विनी,खेचरी, योनि संकोचिनी, वज्रोली,सहजोली,अमरोली आदि । हालाकि अब बद्ध
ृ बाबा की
कृपा से बहुत कुछ रास्ता स्पष्ट हो रहा है ,फिर भी...। ’

मैंने हामी भरी- बिलकुल सही कह रही हो। क्या बद्ध


ृ बाबा ने नहीं कहा था कि इन्हें बारबार गुनना। और ये जो
आसन वाली बात कर रही हो,मैं अभी बताता हूँ,तुम्हें करके दिखाता हूँ। मुझे क्या करना है इसमें ,और तुम्हें क्या करना
है , वो भी स्पष्ट हो जायेगा।बिम्बों की अनभ
ु ति
ू में जो फ़र्क की बात करती हो,वह भी स्पष्ट है मेरे दिमाग में - तम
ु याद
करने का प्रयास करो उस क्षण को,जब कालीखोह वाली गुफा में बैठे थे हमलोग। कल जो चित्रों वाली पुस्तिका मैं दे ख
रहा था,उसमें स्पष्ट वर्णन था चक्रों के स्थान का। उस समय तो मैं सरसरी तौर पर दे खता चला गया। इस बात पर
ध्यान नहीं दिया कि एक ही तरह के दो चित्र क्यों दिये गये हैं- किं चित भिन्नता के साथ,किन्तु अब जब तुम शंका
जता रही हो, तो मेरे ज्ञानपट भी खुल रहे हैं- एक चित्र तुम्हारे शरीर का है और दस
ू रा मेरे,यानी कि स्त्री में ये स्थान
किं चित भिन्न होंगे,पुरुषों से।

इतना कह कर,मैंने गायत्री को सिद्धासन करके दिखाया,और उसे सिद्धयोनिआसन का फ़र्क समझाया–– ये
दे खो,दाहिने पैर को मोड़कर उसके तलवे को बायीं जांघ से ऐसे सटाना है ताकि एड़ी का दबाब मूत्रन्द्रि
े य और गुदा के
बीच वाले भाग(पेरिनियम)पर पड़े,और बायें पैर को मोड़ कर दाहिनी पिंडली के ऊपर ऐसे जमादे कि इस एड़ी का दबाब
मूत्रन्द्रि
े य के ठीक ऊपर बस्तिप्रदे श की हड्डी पर हो,पैर की अंगुलियों तथा पंजे के अगले भाग को दाहिनी पिण्डली और
जांघ की मांसपेशियों के बीच में फंसाना है । दाहिने पैर की अंगुलियों को पकड़कर बायीं पिण्डली व जांघ के बीच
फंसाना है । दोनों घुटने जमीन पर जमे रहें गे। मेरुदण्ड को जितना ही सीधा करें गे,हम पायेंगे कि पेरिनियम पर दबाव
बढ़ता जायेगा। वैसे इसका अभ्यास किसी भी पैर को पहले-पीछे रख कर भी किया जा सकता है । मुझे ध्यान आरहा है
कि बाबा ने कहा था एक बार कि सायटिका या लम्बर के मरीजों को इससे परहे ज करना चाहिए। और अब तुम्हारे लिये
इस मुद्रा में वस थोड़ा सा ही फ़र्क करना है - दाहिने पैर को मोड़कर तलवे को बायीं जांघ से इस प्रकार सटाना है कि एड़ी
योनिमख
ु पर जम जाये,और पैर का पंजा भगनासा (क्लिटोरिस)से सटाये रखना है ,बाकी बातें तो वैसी ही हैं।

मेरे कथनानस
ु ार गायत्री ने भी वैसा ही किया। थोड़ी दे र अभ्यास करने के बाद,बिहं सती हुयी बोली- ‘ अरे वाह ! अब तो
तुम भी गुरु बन गये। मेरा तो ध्यान ही नहीं जा रहा था,इस छोटी सी बात पर।’

चक्र-चित्रावली में दिये गये चिह्न और वर्ण इतने साफ नहीं थे, कि मैं उन महीन हरुफ़ों को दे ख कर पहचान
सकंू ,किन्तु इन चित्रों को दे खते के बाद स्पष्ट हो जा रहा है कि जो कुछ भी अस्पष्ट सा था, ये बीजाक्षर ही थे।

गायत्री ने एक दस
ू रा पुलिन्दा निकाला। ये सब के सब पुलिन्दे परु ाने ढं ग के टीपन-कुण्डली बनाने वाले कागजों पर
बने हुये थे,जिन्हें उसी भांति गोल-गोल करके रखा भी गया था। कागज बहुत ही नाजुक हालत में थे। बहुत ही
सावधानी से खोलना पड़ रहा था। चित्रों और तालिकाओं की एक से एक श्रंख
ृ ला थी, जिन्हें किसी विशेष क्रम से रखा
गया था,जिसका वजह तो मुझे समझ न आ रहा था,किन्तु इतना अवश्य समझ पा रहा था कि इनका क्रम-भंग नहीं
होना चाहिए, इन क्रमों में भी कोई रहस्य छिपा है । एक चित्र पर उं गुली रखती हुयी गायत्री ने कहा - ‘ मेरे पास कोई तर्क
और प्रमाण तो नहीं है ,किन्तु फिर भी मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ कि इस बीज-तालिका के बाद ही इस पद्म-
तालिका का स्थान होगा। हालाकि ये दोनों दो अलग-अलग पुलिन्दों में रखे गये हैं,फिर भी मुझे कुछ ऐसा ही लग रहा
है । इस विषय में तो सही जानकारी उपेन्दर भैया के आने पर ही मिल सकती है ।’

हमदोनों उसे ध्यान से दे खने लगे। एक पन्ने पर चित्र बना हुआ था,और दस
ू रे पर तालिका। दोनों में तालमेल
बिठाने का प्रयास किया गया था- रं गों के सहारे । चित्र को सामने रखते हुए तालिका से मिलान करके समझने का
प्रयास करने लगे हमदोनों। तालिका इस प्रकार थी-

क्र.

तत्त्व

रं ग

चिह्न

स्वाद

गति

परिमाण

स्वभाव
कार्य

१.

पथ्
ृ वी

पीत

चौकोर

मधुर

सामने

१२अंगुल

गरु

स्थिर

२.

जल
स्वेत

अर्द्ध चन्द्रा

कार

काषाय

नीचे

१६अंगल

शीत

चर

३.

अग्नि

रक्त

त्रिकोण

चर्पर
ऊपर

४अंगल

उष्ण

क्रूर

४.

वायु

धूम्र

षट्कोण

अम्लीय

तिर्यक

८अंगुल

चञ्चल
क्लिष्ट

५.

आकाश

मिश्र

विन्द्वा कार

कटु

मिश्र

नासान्तर

मिश्र

योग साधना

उक्त चित्र और तालिका के सहयोग से तत्त्वों के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट हो गया। गायत्री ने उसी पलि
ु न्दे से उसके
बाद वाले चित्र को निकाल कर सामने रखा,साथ ही दस
ू रे पुलिन्दे से एक सारणी । किन्तु यह चित्र बहुत ही जटिल
प्रतीत हुआ। स्पष्ट रुप से तो मानवाकृति ही बनी हुयी थी,जिसमें अनगिनत विन्द ु दर्शाये गये थे। फिर उन विन्दओ
ु ं
को आपस में किसी खास क्रम से जोड़ा भी गया था,पतली- पतली रे खाओं से,जो कई रं गों में थी। गायत्री की सूक्ष्म
निगाहें उनमें कुछ वजह ढूढ़ चुकी थी,और वह मुझे भी प्रेरित कर रही थी- चुनौती भरे लहजे में । बड़ी दे र तक मैं उन पर
गौर करता रहा,पर कुछ खास पल्ले न पड़ा। अन्त में गायत्री ने कहा- ‘ये महीन रे खायें विभिन्न नाडियों की सूचक लग
रही हैं मुझे। तुमने अभी नाड़ियों वाला अध्याय शायद पढ़ा नहीं है ,इसी कारण समझने में कठिनाई हो रही है ।
फिलहाल इसके क्रम-व्यवस्था को ही समझो,उन्हें बाद में पढ़-दे ख लेना।’

गायत्री के कहे मत
ु ाबिक मैं सारणी पर विचार करने लगा। लिखा था- पर्व
ू कथित बहत्तरहजार नाडियों में पन्द्रह
प्रधान हैं-

१. सुषुम्णा

२. इडा

३. पिंगला

४. गांधारी

५. हस्तजिह्वा

६. पूषा

७. यशश्विनी

८. शूरा

९. कुहू

१०.सरस्वती

११.वारुणी

१२.अलम्बुषा

१३.विश्वोदरी

१४.शङ्खिनि

१५.चित्रा
इन पन्द्रह में प्रथम तीन अति प्रधान हैं,और उनमें भी सर्वप्रधान है - प्रथम यानी सुषुम्णा। योग-साधना से इसका
घनिष्ट सम्बन्ध है । इसे नाडियों की रानी कहा जा सकता है । इसकी स्थिति सूक्ष्मकाय में अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म है ,जो
गुदा मार्ग के निकट से प्रारम्भ होकर,मेरुदण्ड से गुजरती हुयी,ऊपर मस्तिष्क तक गमन करती है । इसके दायें-बायें ही
क्रमशः पिंगला और इडा का पथ है ,जो नासिका-मूल पर्यन्त गमन करती हैं। भ्रूमध्य में ये तीनों नाडियां परस्पर मिल
जाती है , जिसे योग-शैली में ‘युक्तत्रिवेणी’ कहते हैं,और उधर गुदामार्ग के समीप वियुक्त होती है , इसकारण
‘मक्
ु तत्रिवेणी’ कहते हैं उस स्थान को। सामान्यतया प्राणऊर्जा वाम-दक्षिण नाडियों से ही निरन्तर गमन करती है ।
इडा को ही चन्द्र और पिंगला को सूर्यनाडी के नाम से सम्बोधित किया जाता है । इसे ही दिवा और रात्रि भी कहा जाता
है । ये दोनों क्रमशः रज और तम प्रधान हैं। साधना संकेत है - दिवा न पूजयेत दे वि,रात्रौ नैव च नैव च । सर्वदा पूजयेद्देवि
दिवारात्रौ विवर्जयेत ।।

इस संकेत पर गायत्री आकर अटक गयी- ‘क्या मतलब ! न दिन में पूजो दे वी को और न रात्रि में , दिन-रात
छोड़कर सब समय पूजते रहे - क्या कहना चाह रहे हैं गुरुमहाराज ?’

बहुत दे र तक हमदोनों मगज़पच्ची करते रहे ,पर कुछ समझ न आया। लाचार होकर पस्ति
ु का और पलि
ु न्दा
बन्द करके रखने के मूड में था,तभी अचानक चांदी की रुपल्ली सी खनखनाती हुयी आवाज आयी- “ बस,होगयी
परीक्षा तुम दोनों की बुद्धि की ? इतना साफ तो लिखा है गुरुमहाराज ने,अब क्या चाहते हो घुट्टी पिलावें ? ”

अचानक की आवाज से हमदोनों चौंक पड़े। पीछे पलट कर दे खा तो मुस्कुराते हुए उपेन्द्रबाबा दरवाजे पर खड़े
नजर आये।

‘वाह भैया! खब
ू आये दो दिन में । आज हमें पता चला कि ब्रह्मा वाली काल-गणना से तुम भी चलते हो ! मैं तो अपनी
घड़ी से समय नाप रही थी।’

अरे ! पानी-वानी पूछोगी कि पहले झगड़ा ही कर लोगी भैया से? कौन कहें कि इनका टाइम फेल आज पहली बार हुआ
है ! - मैंने उनका चरणस्पर्श करते हुए कहा।

सोफे पर विराजते हुए बाबा ने कहा- “ आज भी शायद नहीं ही आ पाता। कई काम छोड़ कर आना पड़ा है । आज कौन
सी तिथि है - याद है न ? ”

‘ हाँ,बिलकुल याद है - अभी दो दिन बाकी हैं – वसंत पञ्चमी आने में । सप्तमी को हमलोग वापस आये थे विन्ध्याचल
से,नवमी को तुम आने के लिए बोले थे,पर आ रहे हो परू े चौबीस दिनों बाद।’- गायत्री ने कहा- ‘ किन्तु, चलो अच्छा ही
हुआ। तुम आने में दे र किये- इस परू े खाली समय का उपयोग हमने कर लिया- गुरुमहाराज की करीब-करीब सारी
पुस्तिकाओं को पढ़ ली। अब तुम्हारा माथा चाटने में सुविधा होगी।’
‘सो सब नहीं होने को है । मैं पहले ही बहुत चटा चुका हूँ तुमलोगों से। सिद्धान्तों का ज्यादा पिटारा मत उठाओ,वद्ध
ृ बाबा
का जो आदे श हुआ है ,उसका पालन करो । हां,खास कोई समस्या हो तो बताओ,उस पर कुछ बातें हो जायेंगी।’- बाबा ने
कठोर लहज़े में कहा,और मुंह-हाथ धोने के लिए भीतर चले गये। गायत्री उनके लिए भोजन-व्यवस्था में लग गयी।

कोई घंटेभर बाद हमलोग पुनः आसीन हुए। इस बीच,नौकर को आवाज दे कर,गायत्री उनके लिए ऊपर का कमरा ठीक
करा दी,जिसमें पूर्व में भी उनका डेरा पड़ चुका था।

गायत्री ने चर्चा शुरु की- ‘ सबसे पहले तो ये बताओ भैया कि इतनी दे र क्यों लगा दिये आने में ?’

‘ तुम्हें ये जानकर शायद दःु ख हो कि अब वद्ध


ृ महाराज से मुलाकात नहीं हो सकती,क्यों कि वे अब समाधि ले चुके।’-
बाबा ने कहा,जिसे सुनते ही हमदोनों सन्न रहे गये।

‘ घबराओ नहीं,समाधि का जो अर्थ तुमलोग समझ रहे हो,सो बात नहीं है । प्रायः सुनते होवोगे कि फलां महात्मा ने
समाधि लेली- यानी की स्वर्ग सिधार गये । क्यों कि सन्तों की मत्ृ यु को लौकिक रुप से समाधि ही कहा जाता है ;
किन्तु वद्ध
ृ महाराज ने सच में समाधि लेली,जो योगियों की साधना पराकाष्ठा है ; और इस समाधि की कोई स्पष्ट तय
अवधि नहीं होती,कब भंग होगी,कहा भी नहीं जा सकता। हिमालय की गुप्त कन्दराओं में आज भी हजारों हजार वर्षों
से तपस्या-रत अनेक सन्त-महात्मा मिल जायेंगे,हालाकि उन तक पहुँचना आम आदमी,या कहो आधुविक विज्ञान के
लिए भी असम्भव है । उस दिन त्रिकोण के गप्ु त खोह में भी मैंने तम
ु लोगों को कुछ स्थल दिखाया था। वहां भी जीते-
जागते सन्तों की अनेक समाधियां हैं। वहीं,कालीखोह के पास,गुफा में जहां मूलप्रकृतिराधा की मूर्ति का दर्शन किया
था तुमलोगों ने- वद्ध
ृ महाराज ने समाधि ली है । वास्तव में वह बाबा की ही साधना-स्थली है । बीच-बीच में तारामन्दिर
की कार्य-व्यवस्था दे खने हे तु बाहर चले आते थे,क्यों कि अल्पकालिक (लघ)ु समाधि में होते थे,पर अब वह भी सम्भव
नहीं। इस अवस्था में वहां तक जाना-मिलना कतयी सम्भव नहीं है - यहां तक कि मेरे लिए भी मनाही है । मुझे भी अब
ज्यादातर वहीं बिताना पड़ेगा- क्यों कि तारामन्दिर का कार्यभार बाबा ने मुझे ही सौंपा है ,और जब तक आगे कोई
योग्य पात्र उस स्थान के लिए मिल नहीं जाता,उसे छोड़ कर मैं कहीं और ठौर नहीं बना सकता। और वैसे भी ठौर
बनाने का कोई औचित्य भी नहीं है ।’- बाबा ने गायत्री के सम्भावित प्रश्न का उत्तर भी साथ-साथ दे दिया,क्यों कि
निश्चित ही वह अगला सवाल करती कि आज भी नहीं आते- क्यों?

यह जानकर थोड़ी राहत मिली कि वद्ध


ृ बाबा अभी सशरीर विद्यमान हैं, किन्तु भावी भें ट-मुलाकात की असम्भावना से
जरा क्षोभ भी हुआ; और उससे भी अधिक दःु ख इस बात का हुआ कि उपेन्द्रबाबा को लेकर,जो योजना बनायी थी
गायत्री ने,वह भी फलीभत
ू नहीं हो पायेगी। किन्तु कर ही क्या सकता हूँ, हवा के झोंके और सरू ज की किरणों को कौन
कैद कर पाया है आज तक भला ! उस दिन की उनकी कुछ रहस्यमय बातों का अर्थ अब स्पष्ट हो रहा है - कौन जानता
है - फिर कब मिलना हो...लो सम्भालो अपना धरोहर....। तो क्या वद्ध
ृ बाबा अपना धरोहर मुझे सौंप गये...इतना
महत्त्वपूर्ण हो गया मैं उनकी दृष्टि में ...इतना भरोसा मुझ सरीखे इन्सान पर...गायत्री अकसरहां कहती है - पूर्व जन्म
के पुण्योदय से ही किसी सन्त का साक्षात्कार होता है ...सच में अहै तुकी कृपा हो गयी...अज्ञात पुण्यफल उदित हो
गये...अपने गुरुमहाराज का ज्ञान

साझा किया उन्होंने मेरे साथ...ओह ! कितना भाग्यवान हूं मैं...।

कमरे में छन्नाटा छाया रहा काफी दे र तक। कुछ दे र बाद गायत्री चहकी- ‘तुमने तो मेरी योजनाओं पर ही पानी फेर दी
भैया ! कितना खश
ु थी कि अब साथ रहें गे,ढे रों बातें करें गे तम
ु से...अभी तो तम्
ु हारी जीवनी भी सन
ु नी बाकी ही है मझ
ु े।

उपेन्द्रबाबा ने बीच में ही टोका-‘ मेरी जीवनी में कोई तथ्य नहीं है , कोई रस नहीं है ,कोई रहस्य भी नहीं है । उसे जानने
के लिए व्यर्थ ही तुम उत्सुक हो। काल ने कल-बल-छल का प्रयोग किया हो सदा जिसके साथ,उसके जीवन में क्या रस
हो सकता है ! और अच्छा ही हुआ कि रस नहीं है मेरे जीवन में , अन्यथा ‘महारस’ की खबर भी नहीं ले पाता,क्यों कि
यह संसार इतना रसीला है कि अपने से बाहर निकलने ही दे ता किसी प्राणी को। प्रकृतिमंडल को भेदना बड़ी कठिन
बात है । खैर,मैं जानता हूं कि थोड़ी-बहुत बातें हैं,जिनके लिए तुम्हें जिज्ञासा होगी,वो मैं अवश्य बतला दं ग
ू ा। कहो कहां
से शुरु करुँ ? ’

‘ मैं तो तुम्हारी बातों को सिलसिलेवार सुनना चाहती थी। कई बार बातें बढ़ायी भी,पर कुछ न कुछ अन्य विषय आ
टपके,और मेरी जिज्ञासा वहीं अंटकी रह गयी। शादी के मंडप से भागे थे,इतना तो सबको पता हो गया था उसी समय।
अपने स्वसुरजी की सम्पदा का रखवाला यानी कि ‘घरजमाई’ तुम नहीं बनना चाहते थे- यह वजह भी उस दिन तुमने
ही बताया। पर बातों का सिलसिला तो तुम पर्णा
ू डीह ज्ञानीजी के पास ही छोड़ आये हो,वहीं से शुरु करो, यदि सुनाना ही
चाहते हो तो। वैसे इधर कुछ और भी नये सवाल उभरे हैं मस्तिष्क में ,पुरानी बातों में भी बहुत कुछ छूटा-फटका है ,पर
इस भगोड़ू भैया से कितना पूछूं,क्या पूछूं,समझ नहीं पा रही हूँ। ’- गायत्री ने उलाहने के लहज़े में कहा,जिसपर बाबा
मुस्कुरा दिये।

‘‘ खैर, मुझे भगोड़ू कहने का तो तुम्हें अधिकार बनता ही है । तुम्हारी इच्छानुसार मैं अपनी बात वहीं से शुरु करता हूँ
जहां छोड़ा था।’’- बाबा कहने लगे - ‘‘ ज्ञानीजी की छत्रछाया में मैं बड़ी तेजी से फलने-फूलने लगा। बीच-बीच में
दादाजी आ जाया करते,घर का हालचाल मिल जाता,बस इतने तक ही मन सिमट कर रह गया था। घर जाना भी
है ,वहां कोई और भी है जो मेरे लिए आँखें बिछाये होगी- सपने की भांति कभी आते,और क्षण भर में चले भी जाते।
दादाजी ने कहा भी बड़ीमाँ से मिलने के लिए,किन्तु खास इच्छा न हुयी। दादाजी से ही यह भी मालूम चला कि पिताने
कभी सपने में भी गोहराया नहीं है । कुल मिलाकर बात ये हुयी कि करीब करीब चार वर्ष गुजर गये,पर मेरे लिए चार
महीनों जैसे। हां, कभी-कभी बड़ी माँ से मिलने की इच्छा बलवती हो जाती, और उदास हो जाता,किन्तु ज्ञानीजी ताड़
जाते,और चट कह उठते- ‘ हें ऽऽ ! ये क्या तुम उदास क्यों हो,क्या उस मां से मिलने का इरादा बदल दिया तुमने,जो
इस मां के बारे में सोच कर उदास हो रहे हो....?’ कुछ ऐसे ही समय गुजरता रहा। चौथा वर्ष अभी परू ा ही होने वाला
था,सप्ताह-दश दिन में कि अचानक एक अनहोनी हो गयी- हुयी तो होनी ही,किन्तु दनि
ु या तो इसे अनहोनी ही कहती
है न ! उमगा माँ के दरबार में ही उपासना रत थे ज्ञानीजी। शारदीय नवरात्र के बाद वाली एकादशी तिथि थी। ज्ञानीजी
ने हमें हिदायत दी कि आज तुलसी पत्र कुछ अधिक ही तोड़ना है - द्वादशी-निमित्त जो अधिक तोड़ते हैं,उससे भी
अधिक। आदे शानुसार,अभीष्ट मात्रा में तुलसी पत्र डोलची में रखकर,मैं पुनः निकल गया मन्दिर से बाहर जवाकुसुम
के लिए दस
ू री खंचिया लेकर। कोई आध घंटे भर बाद लौटा तो वहां का दृश्य बिलकुल बदला हुआ था –– पद्मासनासीन
ज्ञानी जी का ब्रह्मरन्ध्र करीब चवन्नीभर गोलाई में खुला हुआ हुया था,और बगल में बैठे जराजीर्ण एक दिव्य महात्मा
तुलसीपत्र के सहारे ,पत्रावली में पड़ा मक्खन उस खुले रन्ध्र में भर रहे थे। मेरे पहुंचते ही उन्होंने आदे शात्मक लहजे में
कहा,मानों परु ानी जान-पहचान हो - ‘ तम
ु उपेन्द्र हो न,फूल की खंचिया वहीं रख दो,और झटपट चलो मेरे साथ।’ मैं
कुछ समझता,पूछता,कि उससे पहले ही उन्होंने मेरा सिर पकड़कर जबरन ज्ञानीजी के चरणों में झुका दिया– ‘लो
अपने गुरु को अन्तिम प्रणाम निवेदन करो।’ और मेरी कलाई पकड़े मन्दिर से बाहर हो गये। इतना कुछ, पलक
झपकते ही हो गया ’’- इतना कह कर उपेन्द्रबाबा जरा रुके,और गायत्री के चेहरे पर गौर करने लगे। गायत्री कुछ
कहती-पूछती,कि उसके पहले ही वे स्वयं उचरने लगे- ‘‘ तुमलोगों की जिज्ञासा और उत्सुकता को और विकल न
करके,मैं स्पष्ट कर दं ू कि वे दिव्य विभूति कोई और नहीं,बल्कि ये विन्ध्याचल वाले बंगाली बाबा ही थे। मेरी कलाई
पर उनके हाथों की पकड़ बड़ी विलक्षण थी। मन्दिर से बाहर निकलते-निकलते मेरी चेतना कहीं खो गयी थी,और
पूर्णरुपेण वापस आयी तो गुरुमहाराज की समाधि के आगे औंधे मुंह पड़ा पाया स्वयं को। हां इस बीच समय का पहिया
लगता है बिलकुल रुका हुआ सा रह गया,क्यों कि बहुत बाद में मुझे पता चला कि बिहार के पूर्णाडीह से उत्तरप्रान्त के
विन्ध्याचल की दरू ी सैंकड़ो मील है ,जबकि बाबा ने पलक झपकते ही यह दरू ी तय कर ली थी। ’’

गायत्री ने टोका- ‘ इसका मतलब कि बद्ध


ृ महाराज को पादक
ु ा-सिद्धि भी प्राप्त है ?’

गायत्री के मुंह से पादक


ु ासिद्धि की बात सुन उपेन्द्रबाबा जरा चौंके- ‘ ये तुमने क्या सवाल कर दिया? पादक
ु ासिद्धि के
बारे में कहीं सुना-जाना है क्या?’

‘आपने ही तो एक बार बात निकाली थी,किन्तु अधूरी रह गयी थी। सुनते हैं –अंकोलकाष्ठ निर्मित पादक
ु ा पर कुछ
खास तरह की साधना करके,बड़ी सहजता से अदृश्य होकर,आकाशमार्ग से वायय
ु ान की वेग से गमन किया जा सकता
है ।’-मैंने जिज्ञासा व्यक्त की, जिस पर बाबा ने जरा आँखे तरे र कर कहा- ‘‘ क्या बच्चों जैसी बातें करते हो !
गुरुमहाराज तुमलोगों पर मेहरवान हैं, अकूत सम्पदा-गह
ृ की चाभी सौंप दिये हैं,और छोटे -मोटे खिलौने की लालसा
लगाये बैठे हो तुम ! इन फ़िज़ूल की जिज्ञासाओं से मन को हटाओ,और अपने असली काम में लग जाओ। उस बार भी
मैं अंकोल-साधना की चर्चा को जानबझ
ू कर ही टाल गया था। ये सब व्यर्थ की बाज़ीगरी है ,मुख्य साधन-पथ के रोड़े-
कंकड़,या सीधे कहो बाधक-तत्त्व हैं। कदाचित मिल भी जाये रास्ते में तो छूने की भी आवश्यकता नहीं। ज्यादातर
लोग कुछ ऐसी ही छोटी-मोटी उपलब्धियों में उलझकर जीवन गंवा दे ते हैं,और सच पूछो तो ऐसे लोग, बिलकुल प्रयास
न करने वाले लोगों से भी गये गुजरे होते हैं। प्रयास न करना तो दःु खद है ही, किन्तु बीच में फंस जाना,उलझ
जाना,मार्ग-भ्रष्ट होजाना- कहीं उससे अधिक दःु खद है । सम्हलते-सम्हलते बहुत समय बीत जाता है । एक रोचक और
भयावह जानकारी दे रहा हूँ- एकबार एक साधक को थोड़ी अनुभूति हुयी,भूत-वर्तमान के साथ भविष्य भी आभासित
होने लगा। अब वे महाशय को ये सूझी कि मेरी प्रेमिका जो हाल में ही गुजर गयी है - कहां,किस स्थिति में है - इसे जान।ूं
चेतना को केन्द्रित करते ही सामने एक प्रेत प्रकट हुआ,और भर्त्स्नापूर्वक बोला- क्यों बुलाया मुझे...। साधक महोदय
तो मानसिक रुप से इसके लिए तैयार न थे, और न उन्हें इस बात का गम
ु ान था कि ऐसा भी हो सकता है ,और न उन्हें
भरोसा ही था कि इतनी जल्दी कुछ हो जायेगा। सोच न पाये उस प्रेत को क्या उत्तर दें । जवाब में विलम्ब होता
दे ख,प्रेत ने एक ही झटके में उन्हें उठाकर पटक दिया। रीड़ की हड्डी टूट गयी,और लाखों रुपये,और काफी समय
गंवाकर भी दरु
ु स्त न हो पाये। ऐसे अनेक उदाहरण है नये अभ्यासियों के,जो मर्ख
ू तावश धोखा खाये हैं। इसी लिए
साधना-गुरु की आवश्यकता बतायी गयी हैं,कीचड़ में फंसने पर निकालने हे तु,स्वच्छ मार्ग निर्देशन हे तु।’’- इतना कह
कर बाबा जरा रुके।

बातों को सम्हालती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ खैर छोड़ो भी,अंकोल की लाठी बहुत दे ख चुकी हूँ। मेरे दादाजी के पास भी
थी। कहते थे कि इसके बहुत उपयोग हैं तन्त्र में । वैसा ही होगा खड़ाऊँ का भी। खड़ाऊँ ना भी दे खू तो कोई बात नहीं।
फ़िलहाल तम
ु अपनी ही बात कहो न। हर बार कोई न कोई बाधा आजाती है ,या कहो विषयान्तर हो जाता है । आज परू ी
कहानी सुन कर ही दम लूंगी। बताओ न,फिर क्या हुआ- बाबाजी तो तुमको पीठपर लाद कर हवाई- मार्ग से
विन्ध्याचल पहुँचा दिये,फिर आगे क्या हुआ...घर कब गये...शादी के चक्कर में कैसे फंसे...भागे तो फिर कहां
भागे...और ये दिल्ली क्यों इतनी रास आरही है तम्
ु हें ...ये कोई पावन तीर्थस्थल तो है नहीं !’

‘‘ भले ही ये राजनयिकों का महातीर्थस्थल हो,परन्तु साधकों के लिए कोई तुक नहीं है - दिल्ली-वास ; किन्तु हालात
कुछ ऐसे बने कि मेरे लिए भी महातीर्थ बन गया–– काशी-विन्ध्याचल से भी कहीं बढ़ कर। ’’- बाबा ने एक नयी
जिज्ञासा पैदा कर दी,किन्तु इस बार मैं खुद को कड़ा कर लिया था,कुछ नहीं पूछूंगा,जितना वे खुद बतायेंगे उतना ही
सुनूंगा।

बाबा ने कहा- ‘‘ विन्ध्याचल वाले बंगालीबाबा,जिनसे अभी तुमलोग मिल कर आये हो,पूर्णाडीह के ज्ञानी जी के
गरु
ु भाई हैं,हालाकि उम्र में कुछ छोटे हैं। अपने साथ मझ
ु े लाकर बड़ा ही उपकार किया मझ
ु पर। प्रसंगवश इन्होंने अन्य
बातों के साथ ये भी बताया कि उस समय ज्ञानीजी के समाधि लेने की रहस्यमय सूचनास्रोत के कारण वे हठात वहां
पहुँचे थे। उन्हीं का आदे श था कि मुझे यहां लाकर,अपने संरक्षण में रखकर आगे की मेरी क्रियायें परू ी करायें,क्यों कि
उनके भी गुरुमहाराज का ऐसा ही आदे श-संकेत था। बंगाली बाबा के संरक्षण में रह कर,मेरी साधना चलने लगी। सच
पूछो तो अभी चार-पांच वर्षों में मैं सीखा ही कितना था ...
‘‘ यहां रहते कोई तीन वर्ष गुजर गये। इसी बीच एक बार उन्हीं के साथ काशी जाने का सौभाग्य मिला,जो मेरे लिए
दर्भा
ु ग्य का द्वार खोल गया। महीने भर वहां रहकर,मणिकर्णिका पुष्करणी पर कुछ क्रियायें करनी थी उन्हें । कुछ
विशेष क्रियायें मेरे लिए भी निर्धारित कर रखा था उन्होंने। इसी बीच,एक दिन की बात है - मुझे कुण्ड की कुछ क्रियायें
समझा कर,स्वयं विश्वनाथ दर्शन हे तु चले गये। गंगा-स्नान के पश्चात ् ऊपर आकर मैं कपड़े बदल रहा था,तभी
अचानक मेरा ध्यान सामने जलती चिता पर गया। वैसे भी जलती चिता को घंटों निहारना मुझे बड़ा ही आकर्षक और
प्रीतिकर लगता है । मौका मिलते ही प्रायः वहां आकर बैठ जाया करता। बहुत बार तो बाबा भी मेरे साथ ही आसन लगा
लिया करते। एकाग्रता के लिए यह भी एक बहुत ही अच्छा साधन है । किन्तु उस दिन उस चिता ने मुझे कुछ अधिक ही
आकर्षित किया था। चिता लगभग जल चुकी थी,और परिजन भी स्नानादि में शायद लग चुके थे,वस दो आदमी
चक
ु मक
ु बैठे निहार रहे थे,जिनका पष्ृ ठभाग ही मेरे सामने था। तभी अचानक अपने कंधे पर वलिष्ट स्पर्श के साथ
चीख सुनाई पड़ा- अरे वो भट्टजी ! ये रहा आपका उपेन्दऽ र ऽ ...! और इस चीख के साथ ही मैं अचानक घिर गया
बीसियों लोगों से, जिनमें मेरे पिता,चाचा,मामा,फूफा सब मौजूद थे। पिता को दाहकर्ता के वेश में दे ख कर इतना तो
तय हो गया कि किसी अपने की महायात्रा हुयी है ; परन्तु अचानक के इस परिजनीय चक्रब्यह
ू से मैं इतना घबरा गया
कि कुछ सूझा नहीं। कुछ सोच-समझ पाता,इसके पूर्व ही फूफाजी ने कहा- ‘ जाओ,दादाजी को कम से कम तिलांजलि
तो दे दो। पहले आये रहते तो ....।’ सुन कर,क्षणभर के लिए सूना मस्तिष्क और भी निर्जीव सा हो गया–– ऐं..ऽ..ऽ तो ये
मेरे प्यारे दादाजी की चिता जल रही थी....मैं भी कैसा अभागा हूँ...! – मन ही मन बड़बड़ाते हुये आगे बढ़ गया चिता के
समीप। चिता-भूमि में दण्ड की भांति गिर कर उनसे क्षमा याचना की,फिर तिलाञ्जलि भी प्रदान किया नियमानुसार।
मेरे विषय में अनेक सवाल सबके पास थे, पर उस गमगीन माहौल में किसी ने पूछा-जाना नहीं कुछ । वैसे,
कुटुम्बीजन की जानकारी में तो मैं गया के अवस्थीजी के आश्रम का विद्यार्थी हूँ ही। फलतः अपनी ओर से कुछ कहना
कदाचित उचित न लगा। काष्ठवत खड़ा, दायें-बायें झांक रहा था कि बंगालीबाबा जल्दी आते क्यों नहीं और ....।
किन्तु काफी दे र हो गयी,वे आये नहीं। मेरा असमंजस बढ़ता रहा- क्या करना चाहिए- सोच न पा रहा था...।

‘‘...एक ही रास्ता दिखा- बिना ना-नाकूर के स्वजनों के साथ घर की ओर वापसी। वैसे, विकल्प ये भी था कि लोगों की
नज़रें बचाकर,गायब हो जाऊँ,पर न जाने क्यों मन की किस कमजोरी ने ऐसा करने न दिया, और उस मानसिक
दर्ब
ु लता की डोर थामे घर पहुँच गया...।

‘‘...कुल मिलाकर कहें तो लगभग साढ़े सात वर्षों के बाद घर की आंगन में था। भले ही घर के मुखिया,वो भी एक
महाप्रतापी व्यक्तित्त्व का वियोग हुआ था,परन्तु लगभग वियक्
ु त पत्र
ु का अचानक आगमन, वद्ध
ृ -वियोग के सारे
गम को धो-पोंछ कर एक किनारे कर दिया। माँ ही नहीं,माँयें दौड़ कर लिपट पड़ी,

और वयस्कता की चौखट पर खड़े पुत्र का मुंह चूमने का होड़ लग गया। ’’


उपेन्द्र बाबा कहे जा रहे थे,अपनी कहानी। हमदोनों योग्य श्रोता की भांति बिलकुल मौन साधे सुने जा रहे थे। बाबा ने
विस्तार से बताया कि कैसे दादाजी का श्राद्ध सम्पन्न हुआ, कितने धूमधाम से- सहस्रों विप्र-भोजन के साथ-साथ
दरिद्रनारायण-भोज भी हुआ। उस हुज़ूम को तो दे ख कर लगता था कि परू ी दनि
ु या ही दरिद्र है । बाप रे बाप ! इतने
मंगते आये कहां से होंगे....। मधुर मिष्टान्न,षडरस भोजन के पश्चात ् यथेष्ट अन्न-वस्त्रादि भी उन्हें दान में दिया
गया था। कुछ ने तो ‘बासगीत’ जमीन ही मांग दी। उसे भी तुष्ट किया गया। गांव से बाहर भूमिहीनों के लिए एक
‘बिगहा’ बसाने की घोषणा की गयी दादाजी के नाम। ईंच भर जमीन के लिए सिर कटाने वाले ग्रामीण दांतो तले
अंगुली दाबे रह गये। लोग कहते हैं न कि असली दान यही है - दरिद्रनारायण तुष्ट हो गये तो समझो प्राणी को सद्यः
मुक्ति मिल गयी। श्राद्ध की रात्रि में उन्होंने सद्यः दे खा- दादाजी को अति प्रसन्न मुद्रा में टहलते हुए घर के समीप
वाली वाटिका में ।

‘‘...श्राद्ध के तीसरे दिन ही मत्ृ यु-तिथि मिल गयी। कुटुम्बीजन अभी पूर्ववत जमे हुए थे। अगले दिन ही वार्षिकी भी
निपटा दे ना था,और इसी क्रम में गुप्त सूत्रों से ज्ञात हुआ कि मामाजी और पिताजी के साठगांठ से दादाजी को राजी
कर लिया गया था- मेरी शादी के लिए। पहले तो उन्होंने काफी विरोध जताया था, पर बाद में न जाने क्यों स्वीकृति भी
दे चुके थे। मत्ृ यु की ये आकस्मिक दर्घ
ु टना न हुयी होती तो, बीते महीने का अन्तिम लगन ही तय था। परन्तु बीस-
पसीस दिन दादाजी शैय्यासीन रहे ,और अन्त में चल बसे। उधर बेचारा लड़की वाला सारी तैयारी किये बैठा है । अतः
कुटुम्बियों की राय बनी कि त्रिरात्रि वार्षिकी सम्पन्न करके ,शीघ्र ही शादी निपटा दी जाये। परिणामतः इन सबसे
निबट कर शादी की तैयारियां भी होने लगी। किसी ने ये सोचना भी जरुरी न समझा कि घर के मुखिया का निधन हुआ
है ,और कौन कहें कि लड़का बढ़
ू ा हुआ जा रहा है ...अभी तो ठीक से बालिग भी नहीं हुआ है । किन्तु लोग ऐसे फिजल
ू की
बातों में भला क्यों कीमती वक्त ज़ाया करें !

‘‘...बड़ी माँ ने अपने अन्दाज़ में समझाया– ‘शादी कर ले उपेन्दर,नहीं तो दादाजी की आत्मा को कष्ट पहुंचेगा। उन्होंने
ने ही शादी पक्की की थी,और बड़े ही उत्सुक थे नातिनबहु का मुंह दे खने को।’ मैं सोच रहा था- काश ! काशी
मणिकर्णिका पर ही वैकल्पिक निर्णय ले लिया होता...कहां आ फंसा इस महाजाल में ! किन्तु किसी ठोस निर्णय पर
पहुँच न पाया, कोई ठोस कदम न उठा पाया,और अरिछन-परिछन कराके दल्
ू हा बन ही जाना पड़ा।’’

बड़ी दे र से चप्ु पी साधे गायत्री बोली - ‘ उस समय तो मैं भी थी ही।

बाप रे , कितना परे शान की थी तुमको पालकी में बैठते समय,और भाभी को

लेकर आने पर ‘दअ


ु रछें काई’ के वक्त और भी परे शान करने की धमकी भी दे

डाली थी। मगर कौन जानता था कि ...।’


गायत्री को बीच में टोकते हुए उपेन्द्रबाबा ने कहा- ‘‘ वैसे मैंने मन ही मन तय कर लिया था- आगे की परू ी
योजना- पुरुषार्थ चतुष्टय का किं चित अर्थ तो समझ आ ही गया था,इतने दिनों में बाबाओं के सानिध्य से; किन्तु वहां
पहुँच कर ऐन सुमंगली के समय जो कानाफूसी सुनने को मिला- उसे जान कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये। ‘ उसकी ’ एक
पड़ोसन भाभी ने बिना प्रसंग का प्रसंग छे ड़ कर मज़ाक में उलाहना दे दिया- घरजमाईराजा कह कर,और मेरे कान खड़े
हो गये। मौका पाकर तहकीकात किया,तो सारा भेद खुल गया,और फिर पिता, और होने जारहे पिता से बहसा-बहसी
कर रफ़ूचक्कर हो गया...।

‘‘...वहां से निकला तो सीधे विन्ध्याचल का रास्ता पकड़ा,मगर अफसोस कि वहां पहुंच कर बंगाली बाबा से
मुलाकात न हुयी। किसी से कोई सुराग भी न मिला कि वे कहां हैं,कब तक आयेंगे। बस इतना ही पता चला कि उनका
कोई ठिकाना नहीं रहता। कभी-कभी तो महीनों और वर्षों गायब रहते हैं। ऐसी स्थिति में मैं अपना कर्तव्य निर्धारण न
कर पा रहा था। उन दिनों यह तारामन्दिर अब की भांति व्यवस्थित भी नहीं था,जहां रुका-टिका जासके,बाबा की
अनुपस्थिति में । दो-चार दिन इधर-उधर गुजारा किया,फिर वहां से प्रयाग भागा। भागा नहीं,भाग्य ले गया- कहना
ज्यादा अच्छा होगा। गंगा किनारे चिंतित-उदास बैठा था। पेट में कलछुल नहीं, वेलचा फिर रहा था। तीन दिन हो गये
थे। जेब में अधेला भी नहीं था। स्नान से निवत्ृ त हो बाहर निकलते ,एक सेठनुमा सज्जन दीखे। मैं जहां बैठा था,वहीं
पास में खड़े होकर कपड़े बदले। फिर अपने बैग में से निकाल कर कुछ जलपान करने लगे। तभी अचानक मझ
ु से नजरें
मिली – ‘ कहां के वासिन्दे हो बाबू ? लगता है ब्राह्मणकुमार हो। ’ मैंने बिना कुछ बोले,सिर्फ सिर हिला दिया। अपनी
परख पर दर्पित होते हुए मेरे समीप खिंचे चले आये। ‘ मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तुमने...लगता है तुम्हें भूख भी
लगी है ...घर से भाग कर आये हो क्या...मेरे साथ चलोगे ? ’ उनके प्रश्नों की झड़ी में से, मझ
ु े सिर्फ एक का उत्तर
दे ना,या कहो पन
ु र्प्रश्न करना समीचीन लगा- किसलिए, कहाँ ले जाना चाहते हैं आप? ‘ ब्राह्मणकुमार को कोई और
किस काम के लिए ले जा सकता है ? मैं दिल्ली में रहता हूँ। छोटा-मोटा कारोबार है । घर के पास ही एक मन्दिर बना
दिया हूँ। कोई ढं ग का स्थायी पज
ु ारी मिल नहीं रहा है । वहां जो पंडित मिलते हैं, उन्हें मोटी तनख़्वाह चाहिए। सिर्फ
भोजन-वस्त्र–आवास पर कोई टिकता नहीं, और उससे अधिक मेरी औकाद नहीं। ’ सुनकर, मैंने तपाक से कहा–
आपकी सारी शर्तें तो मुझे मंजूर है ,किन्तु मेरी भी एक शर्त होगी- मैं मातेश्वरी के अतिरिक्त किसी और स्वरुप की
पज
ू ा में दिलचश्पी नहीं रखता।

‘‘...मेरा जवाब सुन वे उछल पड़े,मानों कारू का खज़ाना मिल गया हो। ‘धन्य हो मातेश्वरी ! तूने मेरी सारी
समस्या का समाधान दे दिया।’- दोनों हाथ जोड़ अदृश्य शक्ति को प्रणाम किया उन्होंने, और फिर मेरे पैरों पर माथा
टे क दिये– ‘आपने मेरा मान रख लिया विप्रकुमार ! और मातेश्वरी ने आपके शर्त का भी । काली मन्दिर का ही पुजारी
नियुक्त करना चाहता हूँ आपको।’

‘‘...और अगले ही पल उनके साथ हो लिया। अपने साथ लेकर वे धर्मशाला पहुँचे, और फिर शाम की गाड़ी से
दिल्ली प्रस्थान कर गये। वहां पहुँच कर मेरे रहने-खाने की सारी व्यवस्था आनन-फानन में पूरी हो गयी,और अगले
दिन से मैं कालीमन्दिर का पुजारी बन गया। उमगा भगवती से विछुड़ने के बाद मन थोड़ा उचाट सा रहता था। यहां
पहुँच कर लगा कि सच में माँ की गोद में आगया हूँ। लगन से उनकी सेवा-पूजा में लग गया...।

‘‘...सुख के समय की रफ़्तार बड़ी तेज होती है । कोई डेढ़ साल उड़ गये सुनहले पंख लगा कर। काली मन्दिर में
सोम-मंगल को विशेष भीड़ जट
ु ती थी। ऐसे ही एक दिन की बात है - एक कमसिन लड़की आयी,और नम्रता पर्व
ू क
निवेदन की कि मैं उसे मन्दिर में भीतर आकर माँ की मूर्ति की पूजा करने दँ ,ू ताकि वह अपने हाथों से मूर्ति को सिन्दरू
चढ़ा सके। जब कि नियमतः कोई भीतर प्रवेश नहीं करता था,और न करने की इच्छा ही ज़ाहिर करता था। मुझे उस
वालिका की विनती में कुछ आपत्तिजनक प्रतीत न हुआ। हो भी क्यों- मां का एक स्वरुप दस
ू रे स्वरुप से मिलना
चाहता है ,तो मैं इसमें कौन होता हूँ बाधा डालने वाला– मेरे उत्तर से उसे तुष्टि मिली। उसने कहा कि किसी पंडितजी ने
सुझाव दिया है – मनोकामना पूर्ति के लिए चौआलिस दिनों तक माँ को सिन्दरू लगाने के लिए,और समस्या ये है कि
आसपास के मन्दिरों में किसी का प्रवेश वर्जित है ।

‘‘...अगले दिन से नियम पूर्वक वह लड़की नित्य प्रातः,जरा मुंह अन्धेरे ही आने लगी। बड़ी श्रद्धा से मां को
सिन्दरू लगाती,और चरणों में किं चित मौन शब्द-पष्ु प निवेदन करके,चट वापस भी चली जाती। मैं तब तक मन्दिर
की अन्य व्यवस्थाओं में व्यस्त रहता। बाकी के भक्त काफी दे र से आया करते थे,उनके आने से पहले मुझे बहुत कुछ
साज-सजावट करना होता था।

‘‘...कोई पन्द्रह दिन गुजर गये थे उसकी उपासना के। एक दिन उसने कहा- ‘महाराज जी! दे खती हूँ,सुबह-सुबह
आपको काफी परे शानी होती है ,कम समय में अधिक तैयारियां करनी पड़ती हैं। आपकी अनुमति हो तो मैं भी कुछ
सहयोग कर दं ।ू माँ की सेवा का कुछ अवसर मझ
ु े भी मिल जायेगा। वैसे, आप चिन्ता न करें ,मैं भी ब्राह्मण-कन्या ही
हूँ। यहीं पास में रहती हूँ, अपने भैया-भाभी के साथ।’...

‘‘...उसकी विनम्र वाणी की मैं अवज्ञा न कर सका। मैंने सहज ही स्वीकृति दे दी; और वह मेरे काम में हाथ बंटाने लगी
। मन्दिर परिसर से बाहर जाकर, बाल्टी भर लाती,फ़र्श की धुलाई करती,पोछा लगाती। फूलों की चंगेरी लेकर माला
भी गूंथ दे ती। मैं तबतक गर्भगह
ृ में अन्य साज-सज्जा का काम करता। माँ की सेवा के अतिरिक्त फ़िज़ूल की बातों के
लिए न मेरे पास वक्त था,और न उसे ही अभिरुचि। वस काम से काम...। ऐसे ही एक दिन, गंथ
ू ा हुआ माला मझ
ु े
पकड़ाते समय हठात उसकी दृष्टि मेरी अंगुलियों पर गयी। माला मुझे दे ने को बढ़े उसके हाथ, अचानक कांप उठे ।
ऊपर-नीचे सरकती हुई नजरें ,मेरा आपादमस्तक निरीक्षण करने लगी। मैं भी ठिठक गया- क्या बात है ...क्या दे ख रही
हो इस तरह?

‘‘...जवाब के बदले,उसने मुझसे ही सवाल कर दिया- ‘आपका नाम क्या है महाराज ! आप रहने वाले कहां के हैं? ’
उसके इस अटपटे सवाल के लिए मैं कतई तैयार नहीं था। अचानक का सवाल- एक कठोर कुठार की तरह प्रतीत हुआ।
इतने दिन हो गये,किसी ने ये सवाल किया ही नहीं था यहां आने से। यहां तक कि नियोक्ता सेठ भी कभी ये पूछना-
जानना जरुरी न समझा। उसके लिए वस इतना ही पर्याप्त था कि मैं ब्राह्मण-कुमार हूँ,और बिहार के किसी छोटे गांव
का भगोड़ा हूँ। भागने का वजह भी बिना पूछे मैंने बता दिया था– पिताकी प्रताड़ना । किन्तु आज इस अनजानी लड़की
के इस सवाल से तिलमिलाना स्वाभाविक था मेरा। अतः जवाब के बदले मैंने भी सवाल कर दिया- आजतक मैंने
तुम्हारा नाम-धाम नहीं पूछा, फिर तुम क्यों पूछ रही हो?

‘‘...समुचित उत्तर के बदले उठे प्रश्न से वह भी तिलमिला गयी। माला उसके हाथ से छूट कर धराशायी हो गयी। बड़ी-
बड़ी आँखें...नीली झील सी आँखें, जिनके अन्तः में अथाह लहरें उठ रही थी, सीमा तोड़ स्रवित होने लगीं। जरा ठहर
कर, हिम्मत बटोर, कहा उसने- ‘ आपकी भाषा-शैली तो बिलकुल बिहारी लगती है , उसमें भी औरं गावादी। आप कहीं
गदाधर भट्ट के पौत्र उपेन्द्रनाथ भट्ट तो नहीं हैं...?’ उसकी आवाज कांप रही थी। होंठ फड़क रहे थे। आँखों में अंगारे
धधकने लगे थे।

‘‘...मैं हतप्रभ था- इतना सटीक परिचय-पत्र,वो भी बिना दिये... आंखिर कौन है ये जो मेरे बारे में इतना सही अनुमान
लगा रही है ...सोचा,और उससे फिर सवाल कर दिया- खैर,मान लिया तुम्हारी बातें सही हों,क्यों कि झूठ बोलने का कोई
औचित्य नहीं,क्यों कि झठ
ू तो अपराधी बोला करते हैं,अपने कारनामे छिपाने के लिए...।

‘‘...मैं कुछ और कहता,उससे पूर्व ही क्रोध में उबलकर कहा उसने– ‘ कुछ निडर और बेशर्म अपराधी सच भी बोलते
हैं,क्यों कि उन्हें अपने किये पर पश्चाताप या ग्लानि नहीं होती। ’

‘‘ मैं कुछ समझा नहीं, तम


ु कहना क्या चाहती हो? कौन अपराधी है यहां जिसे ग्लानि नहीं है अपने किये पर? तम

पहले अपना परिचय तो दो,फिर...

‘...मेरा परिचय जान कर कहीं तम


ु फिर भाग न जाओ भगेड़ूभट्ट !,किन्तु जान रखो, माँ के इस दरबार से तम्
ु हें कदापि
भागने न दं ग
ू ी। इसी कटार से तुम्हें टुकड़े-टुकड़े कर दं ग
ू ी- यहीं और अभी, और फिर खुद को भी मार डालूंगी। क्या तुम्हें
अब भी मेरा परिचय जानने की इच्छा है ? ’– मन्दिर के द्वार पर दोनों चौखटों को टे के, काली की चमचमाती कटार पर
आँखों से ईशारा करती हुई धष्ृ टतापर्व
ू क बोली- ‘ माँ ने मेरा नाम सावित्री रखा था। हूँ भी राजा अश्वपति की पत्र
ु ी के
समान दृढ़ निश्चयी। जो ठान लेती हूँ,कर गुजारती हूँ।’

‘‘ सावित्री ! गिरीडीह के महे श्वर भट्ट की इकलौती वेटी सावित्री? पर उनका तो कोई पत्र
ु नहीं था,और तम
ु ने कहा था उस
दिन कि भैया-भाभी के साथ रहती हो। ’’

‘हां,भैया-भाभी के साथ ही रहती हूँ। पिताजी तो शादी वाली दर्घ


ु टना के महीने भर बाद ही चल बसे। और फिर,गोतिया-
भाई की बकदृष्टि गटक गयी सारी सम्पत्ति। माँ को तो बचपन में ही खो चुकी थी। वेसहारा अनाथ को साथ दिया
फुफेरे भाई ने । मैं वही अभागन सावित्री हूँ,जिसे तुम्हारी वाग्दत्ता होने का दर्भा
ु ग्य प्राप्त है । प्रतिज्ञा संकल्प– वाग्दान
से लेकर,कन्या-दान-ग्रहण तक का रस्म तो अदा कर ही चुके थे। ऐन सिन्दरू -दान के समय भाग खड़े हुए- भगेड़ूभट्ट !
तुम मेरे गुनहगार हो,मेरे अपराधी हो। सजा तो तुम्हें मिलनी ही चाहिए। बड़े संयोग से मिल गये तुम । कहो कौन सी
सज़ा दी जाय तुम्हें ? ’

‘‘...मेरी तो घिग्घी बंध गयी थी। ज़ुबान तालु से जा लगे थे। कंठस्वर कांप रहा था। बहुत हिम्मत करके बोला– ‘हां,
ठीक कहा तम
ु ने। सच में मैं तम्
ु हारा अपराधी हूँ सावित्री । तम
ु जो भी सज़ा दे ना चाहो,दे सकती हो।’

‘‘...कुछ पल के लिए सन्नाटा छाया रहा। ऐसा लगा मानों वह मेरे लिए कोई सख्त सजा तज़बीज़ कर रही हो। किन्तु
नहीं। बात कुछ और थी। जरा ठहर कर उसने कहा- ‘ मैं कौन होती हूँ,किसी को सज़ा दे ने वाली। सज़ा तो मैं खद
ु को दे
रही हूँ। आर्यावर्त की नारी हूँ न...मर्यादाओं की डोर में बंधी...धरती की तरह हर दःु ख सहती,सूरज की तरह तू जलती
जा...सिन्दरू की लाज निभाने को....चुपचाप तू आग पे चलती जा...मर्यादापुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम ने जब
साध्वी सीता का परित्याग कर दिया,फिर और कुछ रह ही क्या जाता है नारी को आश लगाने के लिए...किस पर
भरोसा करे ? किसका सहारा ढूढ़े ? चारो ओर भूखे भेड़िये खांव-खांव करते नज़र आते हैं। जाये तो जाये कहां ये असहाय
नारी...। ’– वह सुबक-सुबक कर रोने लगी थी। किं कर्तव्यविमूढ़ खड़ा मैं, कुछ सोच न पा रहा था।

‘‘...अभी मैं कुछ और सोचता,कहने को कुछ शब्द तलाशता, कि तभी अचानक वह मुझे धक्के दे ती हुयी आगे बढ़ी,और
काली-मूर्ति के हाथों से कटार छीन कर, अपने सीने में भोंक ली। निशाना अचूक था। खून का फ़ब्बारा छूटा और मेरे
चेहरे को रं ग गया। ‘ हैं ऽ..ऽ...ये क्या कर ली तन
ू े सावित्री ! कहता हुआ मैं आगे झक
ु कर उसके सीने में धंसे कटार को
निकालने का प्रयास कर रहा था, कि तभी सेठ दम्पति का प्रवेश हुआ परिसर में ।

‘‘...और फिर...फिर क्या...भला किसे जरुरत थी पूछने की कि किसने

मारा...क्यों मारा...रक्त-रं जित प्राणहीन शिथिल शरीर सामने है ...हथियार भी सामने है ...गवाह मौजद
ू है ...फिर बाकी
ही क्या रह जाता है नेत्रविहीन न्याय-व्यवस्था के लिए...कौन सुनता है अरोपी की...आरोप लग जाना ही काफी होता
है ...ये वो धब्बा है जिसे मिटाना बड़ा मुश्किल होता है ...और मिटाने केलिये जो ‘इरे ज़र’ चाहिए वो मेरे पास था नहीं, या
कहें रहने पर भी प्रयोग करता क्या ? नहीं ऐसे काम के लिए कदापि नहीं । अपराधी तो मैं हूँ ही। सजा तो मझ
ु े मिलनी
ही चाहिए...। पिता की धनाढ्यता का दं ड पुत्री को दे ने में , मैं निमित्त बना हूँ...परिणाम तो भुगतना ही होगा न !
निर्धन बाप की बेटी प्रायः ससुराल में प्रताड़ित होती है ...पर यहां तो स-धन बाप की बेटी मैके में यातना भोग रही
है ...कंु वारी विधवा जैसी...।

‘‘...और फिर आगे, हुआ ये कि विचाराधीन और सज़ायाफ़्ता – कुल मिलाकर कोई सत्रह-अठारह वर्ष गुजर गये जेल की
चारदीवारी में - नारकीय जीवन गज
ु ारते हुए। भले ही नेताओं और रसक
ू दारों का पर्यटन-केन्द्र हो कारावास,पर आम
आदमी के लिए तो नरक से भी बदतर है ।
‘‘...और फिर जब दीर्घ कारावास के पश्चात् मु क्त आकाश मिला, तबतक स्थितियां काफी कुछ बदल चु की थी। साधन-
पथ पर बढ़ने वाले , कदम जीवन-रक्षक सं साधनों की टोह में भटकने लगे थे । यहां -वहां मारा-मारा फिरा,नै तिक-
अनै तिक का विचार छोड़, कुछ काम की तलाश में ,पर इतनी बड़ी दिल्ली महानगरी कुछ खास दे ने में विफल रही।
थक-हार कर,प्रायः यमु ना किनारे जाकर बै ठा रहता- श्मशान घाट के पास।’’

क्रमशः...

punyarkkriti.blogspot.com at 4/19/2016 07:53:00 pm

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पुण्यार्क कृति
Wednesday, 20 April 2016

बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्रयोगसाधना

गतांश से आगे....इक्कीसवां और अन्तिम भाग

बाबा की करुण कहानी सन


ु कर गायत्री सब
ु कने लगी थी। आंसू पोंछती

हुयी बोली– ‘ गलती तो सच में तुमसे हुयी उपेन्दर भैया ! एक निर्दोष को अकारण तड़पाया तूने ,और हालात ने इसकी
सजा भी तम्
ु हें दे दी। ’

मेरे मन में इस विषय पर बहुत से सवाल उठ रहे थे,किन्तु सबसे अहम सवाल का जवाब पाने की ललक अधिक
थी,अतः पूछ बैठा- बाबा,बरु ा न माने तो क्या मैं जान सकता हूँ कि दिल्ली को आपने अपना महातीर्थ क्यों कहा पिछले
प्रसंग में ?

थोथी हँसी हँसते हुए बोले- ‘‘ जिस महानगर में जीवन के अठारह वर्ष व्यतीत हुए हों,उसे तीर्थ न कहूँ तो क्या कहूँ ! इस
नगर ने मेरे जीवन में इतना बड़ा मोड़ लाया,इसे तीर्थ न कहूं तो क्या कहूं ! भले ही वो मेरी वाग्दत्ता भर थी, किन्तु
जीवन की आहुति तो दी मेरी वजह से- और इसी महानगरी में । अठारह वर्षों के कारा-प्रवास ने आभ्यन्तर मांज कर
रख दिया मेरे जीवन को। सच में , जेल को ‘सुधारगह
ृ ’ नाम दे ने के पीछे कुछ ऐसे ही भाव रहे होंगे। भले ही कुछ लोग
इसे ‘क्राइम यूनिवरसिटी’ भी कहते हैं,और पुलिसथाने को प्राथमिक पाठशाला,यानी अपराध सीखने का प्राइमरी स्कूल
; किन्तु यह तो अपनी-अपनी समझ है । जीवन गुजर जाता गीता को समझने में - तुल्य निन्दास्तुतिर्मौनी...सन्तुष्टो
येन केन चित ्...शीतोष्णसुखदःु खेषु...आदि का जो अर्थ उस प्रवास में समझ आया, वो शायद कई जनम लेने पर भी
समझना मुश्किल था। गीता को हृदयंगम करने हे तु ‘कारागार’ से अच्छी कोई और जगह हो सकती है क्या! शायद
नहीं। और सबसे बड़ी बात ये है कि उसकी चिता यमुना किनारे ही तो सजी होगी - यह निश्चित है । और बाद में मुझे
इसका प्रमाण भी मिल गया- स्वयं उसने ही सारी बातें बतलायी...। ’’

मैं चौंका- क्या कहा आपने? उसने बतलायी? मत्ृ यु के बाद?

‘‘ हाँ,सही सुना तुमने- यमुना किनारे रोज की बैठकी में एक दिन अजीब घटना घटी। जल में पांव लटकाये छपकाते
हुए कुछ उसके ही विषय में सोच रहा था। ये वही जगह थी, जहां तम
ु उस दिन मझ
ु से मिले थे। अन्धेरा लगभग घिर
आया था। थोड़ी दरू ी पर एक आकृति प्रतीत हुयी। मैने समझा कोई स्त्री आयी है ,नदी किनारे फ़ारिग होने,अतः उधर
पीठ मोड़ लिया। किन्तु थोड़ी दे र बाद ठीक पीछे किसी के होने का आभास हुआ। पलट कर दे खा तो स्पष्ट छवि दिखी।
क्षण भर के लिए चौंका,तभी आवाज मिली- ‘ मेरा उद्धार करो उपेन्द्रनाथ ! मेरे उद्धार में ही तम्
ु हारा भी उद्धार है ।
जाओ,विन्ध्याचल जाओ। गुरुमहाराज प्रतीक्षा कर रहे हैं तुम्हारी। उनके मार्गदर्शन में आगे का काम करो।’ शब्द
बिलकुल सावित्री के ही थे,पर ध्वनि-तरं गों में पर्याप्त अन्तर था। जिज्ञासा वश पूछना पड़ा- क्या तुम भटक रही हो प्रेत
बन कर? जिसके जवाब में उसकी व्यंग्यात्मक हँसी सुनायी दी- ‘ तो क्या तुम समझते थे कि आत्मघात करके मैं
मुक्त हो गयी...आत्मघाती भी कभी मुक्त होता है क्या...यह तो उस जीवन से भी वदतर स्थिति है ...काश, किसी
आत्मघाती को इसका किं चित ज्ञान होता...तो स्वयं का घात कदापि न करता। ’ और इसके साथ ही उसने और भी
बहुत सारी बातें कही...कुछ अपने बारे में ,कुछ मेरे बारे में ,कुछ संसार-यात्रा के बारे में । और अन्तिम बात ये थी कि जब
चाहें उसकी मदद ले सकते हैं, यहीं उस वक्ष
ृ पर ही उसका प्रवास है । प्रायः समय यहीं गुजारती है । ’

‘‘...उसके निर्देशानुसार मैं अगले ही दिन विन्ध्याचल के लिए निकल पड़ा- ट्रे न में भिक्षाटन करते हुए,और दस
ू रे दिन
तारा मन्दिर पहुँच गया। बाबा सच में मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहुँचते ही बोले- ‘ लगता है ,तुम्हें उस प्रेतात्मा का संदेश
मिल गया। अच्छा किये तुम आ गये। उस बार जरा सी दे र हुयी कि तुम गायब हो गये मणिकर्णिका से,और उसका ही
दष्ु परिणाम है कि इतने दिन व्यर्थ गये तुम्हारे जीवन के। जगत-प्रपंच ने अपने अंदाज में जकड़ लिया तुम्हें । किन्तु
अवश्यमेवभोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभं...होनी को कदापि टाला नहीं जा सकता। विधि का लेख अटल होता है ।
खैर,चलो जो हुआ सो अच्छा ही हुआ,जो होगा आगे, वो भी अच्छा ही होगा। भले ही दे खने-सुनने में बुरा और दःु खद
लगता है ,पर ईश्वर का विधान हमेशा मंगलकारी ही होता है । किसी एक क्रिया के पीछे अनेक क्रियायों का संयोग होता
है । अब, तुम्हारे सामने पहला कर्तव्य है सावित्री का उद्धार,और इसके साथ-साथ स्वयं के उद्धार का प्रयास। इसके लिए
तुम्हें मेरे सम्पर्क में रहना होगा,किन्तु प्रवास ज्यादातर दिल्ली में रखना होगा,वहीं यमुना के आसपास...।’ ’’

बाबा के वक्तव्य से स्पष्ट हो गया बहुत कुछ- क्यों दिल्ली को उन्होंने अपने लिए महातीर्थ कहा...क्यों यमुना से इतना
लगाव है उन्हें ...कहां गायब हो जाते है अकसरहां,और क्योंकर टपक पड़ते हैं...।

बाबा ने आगे कहा –– ‘‘ और तब से अब तक मेरा यही क्रम जारी है , कभी विन्ध्याचल,कभी दिल्ली। बीच-बीच में
यदाकदा वाराणसी भी,क्यों कि मणिकर्णिका की मेरी क्रिया भी अधरू ी ही रह गयी है अभी तक। तम
ु मझ
ु े रात में अपने
यहां रुकने का आग्रह करते हो प्रायः,पर यही विवशता है मेरी- रात तो विकी हुयी है सावित्री के हाथों। मैं उसका ऋणी
जो हूँ। वैसे,महाराज की कृपा से कार्य लगभग पूरा होने के कगार पर है - उसके उद्धार का कार्य। वस, थोड़ी सी क्रिया शेष
रह गयी है । आशा है अगली अमावस्या तक वह भी परू ी हो जायेगी। सावित्री के ऋण से मैं मक्
ु त हो जाऊँगा,अन्यथा
अम्बा शापित भीष्म की तरह मुझे जन्मान्तर में भी चैन न मिल पायेगा,और उसे भी अपनी प्रतिज्ञानुसार शिखण्डी
का रुप धरना न पड़े- मैं इस प्रयास में हूँ। महाराजजी की कृपा से ऐसा कुछ विपरीत होना तो नहीं चाहिए अब। ज्ञानीजी
चले गये, बंगालीबाबा भी पूर्ण समाधि में लीन हो गये। उनके बाद मेरा दायित्व और भी बढ़ गया है । समय बहुत कम
है मेरे पास। बाबा के आदे शानुसार,तुमलोगों का कल्याण भी करना है , और इसी रास्ते में से, अपने कल्याण का रास्ता
भी निकालना है । यह निश्चित है कि ये जीवन सावित्री को ही समर्पित होकर रह जायेगा। उसका उद्धार तो हो गया
लगभग; परन्तु मुक्ति के लिए मुझे लगता है एक और शरीर लेना ही पड़ेगा। और अगले शरीर से निश्चित रुप से कार्य
सिद्ध हो जाये, इसके लिए सुयोग्य गर्भ और वीर्य के चुनाव की व्यवस्था भी स्वयं ही कर लेनी पड़ेगी। ’’

बाबा के इस अन्तिम वाक्य ने मेरी जिज्ञासा और संयम की बांध तोड़ डाली। बाबा के डपटने के बाद,मैंने सोच रखा था
कि अब कोई जिज्ञासा प्रकट ही न करुं गा,किन्तु उनके इन शब्दों ने ऐसा होने न दिया। अब भला किसी बच्चे को कोई
टॉफी दिखाये,और खाने के लिए वर्जना भी करे - कैसे चलेगा ! मैंने तपाक से पूछा- क्षमा करें गे महाराज ! क्या यह
सम्भव है कि मनुष्य अपने अलगे जन्म की तैयारी भी इसी जन्म में कर ले? व्यावहारिक रुप से दे खा जाता है कि
मनोनक
ु ू ल नौकरी,पद,स्थान तो आसानी से मिलता नहीं,और शरीर मिल जायेगा- ये कैसे सम्भव है ?

बड़ी दे र से चल रहे गमगीन माहौल की कारी वदरी के बीच बाबा के

मन्द मुस्कान की विजली चमकी–– ‘‘ सम्भव है ,सब कुछ सम्भव है - जन्म भी मत्ृ यु भी, और मुक्ति भी। सब कुछ तो
दे ने वाले ने हमारे हाथ में दे रखा है । और इस्तेमाल करने न करने की स्वतन्त्रता भी दे रखी है । अपने अगले जन्म की
तैयारी तो हर कोई करता ही है ,पर अनजाने में ,क्यों कि वह नहीं जानता कि जो कर्म की कॉपी वह लिखे जा रहा है ,उसी
से उसका अंकपत्र निर्मित होना है । प्रारब्ध भी तो कर्म का ही हिस्सा है न,या कहो जरा बदला हुआ रुप। ’’

मैंने फिर टोका- महाराज ! मैं तो पन


ु र्जन्म और स्वर्ग-नरक के प्रति ही भ्रमित हूँ– ये हैं भी या कोरी कल्पना है ,और आप
कहते हैं कि सब कुछ अपने ही हाथ में है । स्वर्ग की अवधारणा क्या मनुष्य की अतप्ृ त लालसा के वजह से नहीं
है ...और जब काल्पनिक स्वर्ग रच लिया गया,फिर नरक की रचना तो स्वयं हो ही जायेगी न ! हम चाहते हैं- सदा यव
ु ा
बने रहना,सुन्दर दिखना, हम चाहते हैं- निरन्तर यौन-सुख-भोग, समशीतोष्ण वातावरण, दःु ख-पीड़ा से सर्वथा मुक्त
जगत....और इन सारे सुखों के कल्पनालोक को स्वर्ग का नाम दे दे ते हैं- जहां सदा षोडश वर्षीया सुन्दरी रमणियों के
भोग की परू ी सुविधा है ,सुरा से भी मादक और आनन्दकारी सोमरस की सुविधा है , न क्षुधा-तष
ृ ा की चिन्ता है ,और न
सर्दी-गर्मी का प्रकोप...और ठीक ऐसे ही लगता है कि पुनर्जन्म भी काल्पनिक धारणा ही है - जो असम्भव हुआ,जो
अबूझ हुआ उसे पूर्व जन्म का कर्मफल कह कर सन्तोष कर लिया गया। मुझे तो लगता है कि ये सब और कुछ
नहीं,बस आत्मसम्मोहन है । नशेड़ी मारजुयेना,और एलएसडी खाकर खुद को विस्मत
ृ किये रहता है ,वैसे ही हम ये सब
सोच-विचार कर सम्मोहित हुए रहते हैं, आत्मविस्मत
ृ हुए रहते हैं।

बाबा फिर मस्


ु कुराये,किन्तु उस मस्
ु कान में प्रफुल्लता नहीं,व्यंग्य का समावेश था–– ‘‘ नहीं,तम्
ु हारी यह धारणा
बिलकुल गलत है ,आधारहीन है । पन
ु र्जन्म है - यह अकाट्य सत्य है । काल की स्थिति पर पिछले प्रसंगों में काफी कुछ
तुमने जाना-समझा है । गुरुमहाराज की पुस्तिकाओं में भी इसके बारे में विशद वर्णन मिला ही होगा तुम्हें । पूर्वजन्म
और पुनर्जन्म की अवधारणा सिर्फ हिन्द ू ही नहीं, अन्य मतावलम्बियों ने भी स्वीकारा है । इस सम्बन्ध में महर्षि
पतञ्जलि कहते हैं- संस्कारसाक्षात्करणात ् पूर्वज्ञातिज्ञानम ्। (योगसूत्र ३-१८) ध्यान की एक विशेष विधि-द्वारा,विशेष
अवस्था में अवचेतन संस्कारों के प्रत्यक्षीकरण के फलस्वरुप पूर्वजन्मों का ज्ञान सहज ही प्राप्त किया जा सकता है ।
इस प्रकार के अनुस्मरण को जातिस्मर कहते हैं। बुद्ध के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उन्हें पहले के अपने सभी जन्म
याद थे। लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण इस बात को बारम्बार स्मरण दिलाते हैं- बहूनि में व्यतीतानि,जन्मानि तव चार्जुन
। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परं तप ।।(गीता४-५) हे अर्जुन, मैंने बहुत सारे जन्म बिताये हैं,और तुमने भी; किन्तु
तुम्हें वे सब ज्ञात नहीं,और मुझे ज्ञात है । गीता में ही प्रसंगवश(दस
ू रे अध्याय में विशद रुप से) कहते हैं- जातस्य हि
ध्रुवो मत्ृ युर्ध्रुवं जन्म मत
ृ स्य च...। ....नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः...दे हिनोऽस्मिन यथा दे हे कौमारं
यौवनं जरा । तथा दे हान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मह्
ु यति।। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- किसी अस्तित्व के शाश्वत होने
की धारणा के साथ ही साथ यह धारणा कि उसका आरम्भ होता है - निरर्थक है । काल में जिसका आरम्भ होता
है ,अवश्य ही काल में ही उसका विलय भी होगा। इसे परम सत्य जानो। इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ- इस काल को
समझो,काली को समझो...सभी संशय दरू हो जायेंगे। पन
ु र्जन्म की सत्यता के मौलिक प्रमाण को केवल बद्धि
ु के द्वारा
ही समझा जा सकता है । यह प्रमाण किसी भी विषय के महत्व तथा अर्थ प्रदान करने की उस धारणा-शक्ति पर निर्भर
है ,जिसके अभाव में , यह विषय इन दोनों से वंचित रह जाता है । दृश्य जगत तथा विचार-जगत – इन दोनों में
पारमार्थिक किसी भी सत्य के प्रमाण का यही एकमात्र प्रकार है । इस विश्व-ब्रह्माण्ड में एक नीतिगत व्यवस्था है - इस
प्रारम्भिक पूर्वकल्पना के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त को तर्क संगत रुप से प्रमाणित किया जा सकता है । और
खास बात ये है कि मनष्ु य के वर्तमान जीवन के सुस्पष्ट ज्ञान से ही उसके पूर्व तथा परवर्ती जीवन का ज्ञान हो सकता
है । मनष्ु य क्या है ,और कैसे जीवन व्यतीत करता है – इस ज्ञान से ही हम निश्चय कर सकते हैं कि वह कहां से आता
है ,कहां चला जाता है । इसके प्राकृत स्वरुप को समझे बिना हम उसके जन्म या मत्ृ यु का अर्थ कदापि नहीं समझ
सकते। मनष्ु य केवल एक भौतिक या जैविक या मनोदै हिक सत्ता मात्र नहीं है ,प्रत्युत यथार्थ मनुष्य सर्वज्ञ जीवात्मा
है ,मौलिक चिदात्मक तत्त्व है ,जो कि दे ह, इन्द्रियां,मन,और जगत की निरन्तर परिवर्तनशील अवस्थाओं का
अविकारी द्रष्टा है । अन्तरात्मा ही मनष्ु य के ‘व्यक्तित्व ’ में एकमात्र नित्य तत्त्व है ,जो सभी मौलिक तथा मानसिक
तत्त्वों को एक सामञ्जस्य पूर्ण एकत्व में मिलाता है ,तथा मन,इन्द्रियों एवं दे ह के भिन्न-भिन्न कार्यों का समन्वय-
साधन करता है । आभ्यन्तर विविध परिवर्तनों के बावजूद मनुष्य की विशिष्टता को बनाये रखता है । मनष्ु य मूलतः
ज्योतिर्मय,अविनाशी आत्मा है ,और वही मख्
ु यतः इस मनोदै हिक जीव के जीवित होने का कारण है । इस सम्बन्ध में
उपनिषद् वचन है - स उ प्राणस्य प्राणः (केनोपनिषद्-१-२) अपनी आत्मा के शुद्ध-चेतन स्वभाव के कारण ही हर
व्यक्ति को अपने तथा अपने जीवन से सम्बन्धित अन्य सभी वस्तुओं के अस्तित्त्व का बोध है । यह आत्मबोध ही
जड़ वस्तओ
ु ं को चेतन वस्तओ
ु ं से पथ
ृ क करता है । यह स्वयंप्रकाश है । इसे किसी प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं है ।
इस ज्योतिर्मय अविकारी,अविनाशी आत्मा का उद्भव अपने विपरीत स्वभाव के कारण दे ह,इन्द्रिय,उसकी क्रियाओं से
नहीं हो सकता, प्रत्युत मौलिक है । शरीर के जन्म के साथ न इसका जन्म होता है ,और न नाश के साथ नाश । गीता
कहती है - वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,नवानि गह्
ृ णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
संयाति नवानि दे ही ।। (२-२२) पन
ु र्जन्म और मत्ृ यु कपड़े बदलने के समान है - एक को उतार कर दस
ू रा धारण कर
लिया जाता है । हां,कपड़े पर कपड़ा नहीं पहना जा सकता- कुछ भिन्न व्यवस्था है इस मामले में । और इस बीच
किं चित अन्तराल भी स्वाभाविक है । काल की गति,स्थिति और स्वरुप को समझ जाने पर ये सभी प्रश्न निर्मूल हो
जायेंगे,ज्ञान का प्रष्फुटन जब हो जायेगा,तो प्रकाश ही प्रकाश रह जायेगा। सूर्योदय के बाद अन्धकार का अस्तित्व ही
कहां रह जाता है ! अतः सब कुछ समेट कर लग जाओ काली की आराधना में । काल की गुत्थियां खुल जायेंगी। ’’

मेरे कुतर्क और भ्रम का निवारण करते हुए,बाबा ने आगे कहा- ‘‘ तम्


ु हें इस विषय में जो आशंका है उसके मल
ू में
तुम्हारा अज्ञान ही कारण है । मनष्ु य के जन्म के सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान तो सिर्फ यही कहता है न कि पुरुष-स्त्री
के शुक्र-शोणित संयोग से ‘तत्सम’ नवीन शरीर का सज
ृ न हो जाता है । किन्तु बात सिर्फ इतनी ही नहीं है । शुक्रकीट
और डिम्ब का यह मिलन कोई आकस्मिक घटना भी कदापि नहीं है । इसके मल
ू में सष्टि
ृ का बहुत बड़ा रहस्य छिपा
है , अद्भत
ु व्यवस्था और सामंजस्य पूर्ण योजना होती है । कार्य-कारण सम्बन्ध होता है । एक व्यक्ति का जन्म कुछ
काल पूर्व में हुए किसी व्यक्ति की मत्ृ य का परिणाम होता है । क्यों कि मत्ृ यु के साथ व्यक्ति का अन्त नहीं हो
जाता,और न जन्म के साथ उसका आरम्भ ही। इतने अर्थपूर्ण मनुष्य जीवन में आकस्मिकता की कोई गुंजाइश नहीं
है । मनुष्य का जन्म कैसे होता है ,इसे जानने के लिए हमें जानना पड़ेगा कि उसकी मत्ृ यु कैसे होती है । दरअसल
मत्ृ युकाल में उसकी आत्मा,जो कि उसका मूल स्वरुप है ,उसके भौतिक शरीर को तो छोड़ जाती है , परन्तु सूक्ष्म और
कारण शरीर को नहीं छोड़ती। ‘मानव मन’ अपने अंगभूत समग्र तत्त्वों के साथ सूक्ष्म शरीर का ही अंश है । स्थूल
शरीर से प्रयाण के समय मत्ृ यक
ु ालीन कर्म-संस्कारों यानी वासनाजन्य क्रियाओं,अनभ
ु वों,विचारों के अनस
ु ार
मरणासन्न व्यक्ति के सूक्ष्म तथा कारण शरीरों के लिए एक अतिसूक्ष्म भौतिक आच्छादन निर्मित होता है ,जो कि
उसकी परवर्ती स्थूल शरीर की शक्तियों का वाहक बनता है । ऐसा सम्भव है कि उसके स्वकर्मों द्वारा प्रेरित होकर
उसकी गति उच्चतर या निम्नतर लोकों में हो; किन्तु इन कर्मों के क्षय हो जाने के बाद उसके शेष कर्मफल,उसे
मनुष्यलोक में ला उपस्थित करते हैं। यहीं उसके मुक्ति की सम्भावना भी बनती है । यहां इस बात पर गौर करो कि
जीवात्मा- जो मुक्त नहीं हो पाया है ,वही पुनर्जन्म ग्रहण करता है । मुक्त के जन्म का कोई प्रश्न नहीं है । ये मुक्ति
हमारा अधिकार है और परम कर्तव्य भी। एक वद्ध जीवात्मा जब पन
ु र्जन्म के लिए प्रस्तत
ु होता है ,तो उसके कर्म-
संस्कार उसे ऐसे माता-पिता के पास ले जाते हैं,जिनसे उसे अपने स्थूल शरीर के उपादान प्राप्त हो सके। कुम्हार को
घड़े बनाने हैं तो पहले वह मिट्टी की व्यवस्था हे तु तत्पर होता है ,फिर जल-सिंचन करता है ,उसे गूंधता है ,फिर चाक पर
डालता है , घर्ण
ू न करता है ...आदि-आदि। घड़े के सज
ृ न हे तु मिट्टी ही उसका उपादान कारण हुआ। जीवात्मा जिस सक्ष्
ू म
भौतिक आच्छादन को धारण किये रहता है , उसमें इन आवश्यक उपादानों को जुटा लेने की क्षमता होती है । अन्नमय
कोष के मूल में अन्न ही है ,इसे तुम जानते हो। अन्न के माध्यम से ही अपने उद्देश्य-सिद्धि हे तु उपयुक्त पिता के शरीर
में प्रविष्ट होता है ,और फिर शुक्राणु रुप में आकर, डिम्बाणु से संयुक्त होकर,भ्रूणाणु में परिणत हो जाता है । यौन-
प्रजनन में प्रयुक्त असंख्य शुक्राणुओं में से दो विशेष ‘स्त्री-पुरुष जननकोष’ शिशु के जन्म के कारण बनते हैं। ध्यान
दे ने योग्य बात है कि पारस्परिक साम्य के बावजूद, पुरुष-स्त्री का प्रत्येक शुक्राणु,प्रत्येक अन्य शुक्राणु से बिलकुल
भिन्न होता है । और यही बात स्त्री डिम्बाणु में भी होती है । अपने कर्म-प्रेरित दे हान्तरगामी जीवात्मा असंख्य
जननकोशों में से अपने योग्य शक्र
ु ाणु और डिम्बाणु का चयन कर ही प्रवेश करता है । स्थल
ू शरीर के निर्माण हे तु होने
वाली सारी क्रियायें कदापि आकस्मिक नहीं हो सकती। इसके गर्भ में कर्मवाद के रुप में कार्य-कारणवाद जैसा
विश्वजनीन नियम है । सभी शुक्राणु और सभी डिम्बाणु व्यक्तिविशेष नहीं है , निषिक्त डिम्बाणु ही व्यक्तिविशेष है
सिर्फ । छान्दोग्य उपनिषद् (५-८-१,२) योषा वाव गौतमाग्नि...तस्मिन्नेतस्मिन्नग्ननौ दे वा रे तो जुह्वति तस्या
आहुतेर्गर्भ सम्भवति ।। नारी ही अग्नि है । इसी अग्नि में इन्द्रियों के अधिष्ठात ृ दे वता- शुक्र की आहुति दे ते हैं,जिससे
गर्भसंचार होता है । कुछ ऐसी ही बातें वह
ृ दारण्यकोपनिषद् (६-२-१६) में भी हैं- ते पथ
ृ वीं प्राप्यान्नं भवन्ति, ते पन
ु ः
परु
ु षाग्नौहूयन्ते,ततो योषाग्नौ जायन्ते लोकान्प्रत्यत्ु थायिनः, त एवमेवानप
ु रिवर्तन्ते...। ऐसे ही, ऐतरे योपनिषद् के
भी वचन हैं- सर्वप्रथम दे हान्तर ग्रहणेच्छुक जीवात्मा पुरुष के शरीर में रे तस ् के रुप को प्राप्त होता है । यह शरीर के
सभी अंगों का सार है ,जिसे पुरुष अपनी स्त्री में सिंचन करता है , तब वह इसे जन्म दे ता है । यह इस जीवात्मा का
प्रथम जन्म है । मातग
ृ र्भ से वहिर्गत होना द्वितीय जन्म की तरह है । पन
ु र्जन्म का सिद्धान्त जीवन को सार्थक बनाता
है । यह मानव के अतीत एवं भावी जीवन के सन्दर्भ में उसके वर्तमान अस्तित्व की व्याख्या करता है । अगर जन्म
जीवन का आरम्भ है ,तो अवश्य ही मत्ृ यु इसका अन्त होगा। अतीत के अस्तित्व को स्वीकार किये बिना भविष्य
जीवन को मान लेना हमारे लिए तर्क संगत नहीं है । भविष्य जीवन की कल्पना वर्तमान जीवन को उसके पर्व
ू कालीन
अस्तित्व के रुप में स्वीकार कर लेने पर ही आधारित है । प्रत्येक शिशु एक विशेष मनोदै हिक गठन के साथ जन्म लेता
है । पुनर्जन्म के सिद्धान्त से जीवन की विषमताओं की एकमात्र सन्तोषप्रद व्याख्या होती है । व्यक्ति का सुख-
दःु ख,उत्कर्ष-अपकर्ष,ज्ञान-अज्ञान,ये सब पर्व
ू कालिक कर्म-विचार पर निर्भर हैं। कोई बाहरी शक्ति इसके लिए
उत्तरदायी नहीं कही जा सकती । यह सिद्धान्त ही अविकारी आत्मा को अपनी नित्य परिवर्तनशील मनोदै हिक
उपाधि से पथ
ृ क् करता है । साथ ही बन्धन और मोक्ष के मार्ग को भी प्रदर्शित करता है । दे ह,मन,आत्मा के पारस्परिक
सम्बन्ध का स्पष्ट ज्ञान आत्मज्ञान का उपाय है । ये तीनों परस्पर संश्लिष्ट होते हुए भी परस्पर भिन्न है । सच तो ये
है कि मानव की आध्यात्मिक सत्ता वास्तव में न जन्म लेती है ,और न मरती ही है , बल्कि प्रारब्ध कर्मानुसार कुछ
काल के लिए दे हान्तरण करती है । ’’

इतना कहने के बाद उपेन्द्रबाबा जरा रुके,और गायत्री को ईंगित करते हुये बोले- ‘‘ समय तो काफी हो गया है ,किन्तु
समय का ही अभाव भी है । अतः दे र-सबेर की चिन्ता छोड़कर,मैं चाहता हूँ कि इन दो दिनों का अधिकाधिक उपयोग
तम
ु लोग कर लो मेरे साथ। कुछ बहुत जरुरी बातें जो बतानी रह गयी हैं, उन्हें साफ कर दं ।ू मेरी जीवनी की व्यर्थ की
उत्सुकता में अपना कीमती वक्त न गंवावो। वैसे भी कोई खास बातें नहीं हैं। मूल बातें थी सो बता दिया अपने विषय
में । ’’ - फिर मेरी ओर दे खते हुये बोले- ‘‘ तुम्हारे पास भी तर्क और सवालों का ढे र रहता है ,इनसे परहे ज करो। अभी दो
दिन मैं यहां हूँ। गुरुबाबा की पुस्तिका सम्बन्धी जो शंका-समाधान हो,निपटा लो,और वसंतपंचमी से मूल कार्य में लग
जाओ तुमदोनों। फिर मैं भी वापस चला जाऊँगा अपने कार्य में । ’’

गरु
ु बाबा की पस्ति
ु का का लगभग अध्ययन कर ही चक
ु ा था पिछले दिनों में । जानकारी के तौर पर इस विषय की
शंकायें प्रायः निर्मूल थी। और, व्यावहारिक तल पर उठने वाली समस्यायें और प्रश्न के सम्बन्ध में गुरुमहाराज ने कई
जगहों पर स्पष्ट संकेत दे ही दिया था कि अमुक स्थान पर उलझन हो तो, अमुक ध्यान की विधि का सहारा लो,
अमुक स्थान पर उलझन हो तो, अमुक मन्त्र का जप करो...आदि-आदि। स्थूल गुरु की उपादे यता और अनिवार्यता तो
है ही,फिर भी सूक्ष्म गुरु का सहयोग सदा लेने की क्रिया सीखो–उनके ये दिशानिर्देश मुझे काफी सहयोगी लगे- भविष्य
के लिए,फिर भी मूल बात– चक्रों की स्थिति,अवस्था,आकृति,क्रिया आदि के विषय में कुछ संशय शेष है , जिसे अभी
बाबा से समझ लेना उचित लगा। अतः,गायत्री को कहा कि गुरुमहाराज वाला पुलिद
ं ा उठा लाये।

गायत्री आलमीरे से निकाल कर पुस्तिकायें ले आयी,और एक स्थान पर पलट कर सामने रख दी। प्रसंग वही था,जहां
हम और गायत्री बारबार अटल रहे थे। गायत्री ने कहा- ‘ भैया,बात वहीं से शरु
ु करना चाहती हूँ,जहां तम
ु अचानक टपक
पड़े थे- वो दिवा-रात्रि-वर्जना वाली बात आखिर किस ओर इशारा है ?’

मस्
ु कुराते हुये बाबा ने कहा- ‘‘ मैं तो समझ रहा था कि तम
ु लोग अबतक बहुत कुछ समझ चक
ु े होगे,और गढ़
ू साधना-
संकेतों को आसानी से समझने में दिक्कत नहीं होगी,परन्तु ऐसी छोटी-छोटी बातों पर क्यों अटक जा रहे हो? यहां बात
दिन-रात से बिलकुल नहीं है । बात नाडियों की है । इडा को चन्द्र, और पिंगला को सूर्य कहते हैं,ये तो पता है ही तुम्हें । ’’

हाँ,सो तो पता है ही।– हमदोनों ने एक स्वर से कहा।

‘‘ जब ये मालूम ही है ,फिर इतना दिमाग नहीं लगा सके कि चन्द्रमा रात का प्रतिनिधि है और सूर्य दिन
का,और इन दोनों कालों में वर्जना है ,यानी कि बात मध्य नाड़ी सुषुम्णा की हो रही है । इसे ही कुछ लोग साधना हे तु
संध्या-काल यानी कि गोधलि
ु -बेला भी कहते हैं। बात चक्र-ध्यान-साधना की हो रही है यहां। कहते हैं कि इडा-पिंगला
गत प्राणसंचार काल में क्रिया न करके,सुषुम्णा-प्राण-संचार-काल में क्रिया करे ,ताकि काम आसान हो। तुमने एक
सारणी भी दे खी होगी, गुरुमहाराज की पुस्तिका में जिसमें तत्व-साधन और उनके बीजों की चर्चा है । समस्त ध्यान
क्रियायें सुषुम्णा-संचार काल में ही प्रसस्त है । इसी से सम्बन्धित कुछ और बातों को स्पष्ट कर दँ ।ू पुस्तिका में तुमने
दे खा होगा कि शरीर में अनगिनत नाडियों में बहत्तरहजार योग नाडियों की बात आयी है ,जिनमें पन्द्रह को प्रधान
कहा गया है । उनमें भी ये तीन प्रधान हैं। और सुषुम्णा तो प्रधानतम है । इस सुषुम्णा की बनावट भी अन्य नाडियों से
काफी भिन्न है । जलस्रोत के लिए जमीन में बोरिंग किया जाता है न। उसमें दे खा होगा तुमने- छः या आठ ईंच घेरे का
एक पाइप डालते हैं,फिर उसमें पहले की अपेक्षा कुछ कम घेरे का दस
ू रा पाइप, और फिर उसमें जरुरत के मत
ु ाबिक
समरसियेबल मोटर,पाइप वगैरह डाता जाता है । करीब-करीब ऐसा ही समझो- वायें-दायें इडा-पिंगला के बीच है
सुषुम्णा नाडी,और उसके भीतर बज्रानाडी है । फिर उसके भीतर है चित्रिणी,और उसके भीतर है ब्रह्मनाडी। इस नाडी
के अन्दर ही ऊपर से नीचे की ओर अलग-अगल स्थानों में छः नाड़ीगच्
ु छ हैं,ठीक वैसे ही जैसे कल्पना करो कि मकड़ी
के महीन जालों को समेट-लपेट कर एक आकृति दे दी जाय। इन्हें प्रतीकात्मक रुप से कमल की संज्ञा दी गयी है । ये
सब के सब स्थान अतीन्द्रीय शक्तियों के महान स्रोत हैं। योग साधना द्वारा इन स्थानों को चैतन्य किया जाता
है ,जब कि सच्चाई ये है कि ये तो स्वतः ही परम चैतन्य हैं। साधना में हम इनके चैतन्यता की अनुभूति मात्र करते
हैं।’’

गायत्री ने एक दस
ू रा चित्र सामने रख दिया,जिसमें इन बातों का संकेत था। बाबा उन चित्रों पर अंगुली रख-रख
कर, एक एक कर समझाने लगे –– ‘‘ ये दे खो, मेरुदण्ड के निचले अन्तिम छोर पर,यानी गद
ु ामार्ग से करीब दो अंगल

ऊपर, और उपस्थ मूल से करीब दो अंगुल नीचे के स्थान में जो नाड़ीगुच्छ है ,उसे मूलाधारचक्र या मूलाधारपद्म कहते
हैं। इसकी आकृति रक्तिम प्रकाश से उज्ज्वलित चार पंखुड़ियों वाले कमल के सदृश है । इन पंखुडियों पर क्रमशः वं,शं,
षं,सं – ये चार वर्ण हैं। पथ्
ृ वीतत्व का ये स्थान है , जिसका आधार चौकोर सव
ु र्णमय आभा वाला है । तत्त्व बीज तो उस
तालिका में तुम जान ही चुके हो- इसका बीज लं है ,जिसकी गति ऐरावत हस्ति सदृश है । यही इसका वाहन भी है , जिस
पर इन्द्र विरामान हैं। पथ्
ृ वी की तन्मात्रा गंध है ,यानी गंध ही इसका गुण कहा जायेगा। निम्नगामी आपान वायु का
क्षेत्र है ये। इसका सीधा सम्बन्ध गंध तन्मात्रा की घ्राणेन्द्रिय(नासिका) से है । कर्मेन्द्रिय में गुदा इसके हिस्से है । भू
इसका लोक है । इसके अधिपति चतुर्भुज ब्रह्मा अपनी डाकिनी शक्ति के साथ यहां वास करते हैं। इसके यन्त्र का
आकार चतुष्कोण है ,जो स्वर्णआभा युक्त है । इस स्थान पर दीर्धकाल तक ध्यान केन्द्रित करने से
आरोग्य,आनन्द,वाक्सिद्धि,प्रबन्ध-क्षमता-विकास आदि लब्ध होते हैं। जैसा कि इसका नाम है मूलाधार- सच में मूल
है यह। यह नहीं तो और कुछ कैसे ! इस चक्र के नीचे त्रिकोण यन्त्र जैसा एक सक्ष्
ू म योनिमण्डल है , जिसके मध्य के
कोण से सुषुम्णा यानी सरस्वति नाडी, दक्षिण कोण से पिंगला यानी सूर्य,यानी यमन
ु ा नाडी,तथा वाम कोण से इडा
यानी चन्द्र यानी गंगा नाडी प्रवर्तित होती है । यही कायगत मुक्त त्रिवेणी है । तन्त्र ग्रन्थों में कहा गया है कि इसी
योनिमंडल के मध्य में तेजोमय रक्तवर्णी क्लीँ बीज रुप कन्दर्प नामक स्थिर वायु विद्यमान है ,जिसके मध्य में
यानी ऊपर कथित ब्रह्मनाडी के मुख को अवरुद्ध किये स्वयंभू लिङ्ग अवस्थित है ,जिसका साढ़े तीन फेरा मारे (लपेटे)
सर्पाकृति कुण्डलिनी महाशक्ति अपने पुच्छ भाग को मुख में दाबे निःश्चल पड़ी है । एक मूल बात और स्पष्ट कर दं ू
कि ये जो सभी स्थानिक वर्णन विविध ग्रन्थों में मिलते है ,मात्र संकेत सच
ू क है । इन्हें ही असली मत समझ लेना। और
स्थूल शरीर में ढूढ़ने की बेवकूफी भी मत करना। हां,ध्यान क्रियादि में इन वर्णनों से सहयोग अवश्य मिलता है ,इस
कारण कह दिया। असली स्वरुप की खोज तो तुम्हें स्वयं ही करना है । प्रत्येक साधक की अनुभूतियाँ भी बिलकुल
समान हों,कोई जरुरी नहीं। वो तो उसके स्वयं के संस्कार,और पर्व
ू जन्मों में की गयी(साधी गयी)क्रियाओं पर निर्भर
है । ’’

जरा ठहर कर बाबा ने आगे कहा–– ‘‘ अब इसी भांति नीचे से ऊपर की ओर मिलने वाले अन्य पद्मों की चर्चा
करता हूँ। नीचे से दस
ू रे नम्बर पर है स्वाधिष्ठान चक्र(पद्म),जो निचले चक्र से कोई दो अंगुल ऊपर,थोड़ा टे ढ़ा होकर,
लगभग पेड़ू के पास स्थित है । सिन्दरू ी आभा वाले छः पंखुड़ियों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से बं,भं,मं,यं,रं ,लं वर्ण
अंकित हैं। इस चक्र का तत्त्व जल है ,तन्मात्रा रस है ,अतः स्वाभाविक है कि बीज वं होगा। मगरमच्छ की भांति इसकी
निम्न और तीव्र गति है । शरीर में सर्वव्यापी व्यानवायु का मुख्य अधिष्ठान है यह। रस तन्मात्रा के कारण रसना
इसकी ज्ञानेन्द्रिय है ,और जलतत्व सम्बन्धि मूत्रादि त्याग-शक्ति उपस्थ इसका स्थान माना जाता है । भुवः इसका
लोक है । मकरवाहन पर वरुण विराजमान हैं। साथ ही विष्णु अपनी शक्ति राकिनी के साथ हैं। अर्द्धचन्द्राकार स्वेत
यन्त्र है ,जिस पर ध्यान सिद्ध होने से जिह्वा पर साक्षात ् सरस्वती का वास हो जाता है ,साथ ही सष्टि
ृ ,पालन,संहार की
शक्ति प्राप्त होती है । यानी कुछ भी अवंच नहीं रहता।

‘‘....नीचे से तीसरा,यानी नाभिमंडल के मूल में मणिपूर नामक तीसरा पद्म है ,जिसकी आकृति नीले रं ग के प्रकाश से
आलोकित दस पंखुड़ियों वाले कमलपुष्प सदृश है । चक्रसाधना में इसका विशेष महत्त्व है । मणि और पुर दो शब्दों से
इसका नामकरण हुआ है । दस दलों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से डं,ढं , णं,तं,थं,दं ,धं,नं,पं,फं,- ये वर्ण विराजते हैं। यानी
इन वर्णों की ध्वनियां तरं गित होते रहती है । इस पद्म पर रक्तवर्णी अधोत्रिकोणयन्त्र है ,जिसके मध्यमें अग्नितत्त्व
का बीज रँ स्थित है ,जिसका वाहन मेष यानी भेड़ है । यहीं अग्निदे व विराजते हैं। समानवायु का यह स्थान है । रुप
तन्मात्रा है इसकी,यानि कि चक्षु ज्ञानेन्द्रिय हुआ और पाद(पैर)कर्मेन्द्रिय। स्वः इसका लोक है । कायव्यूह के सम्यक्
ज्ञान हे तु इस चक्र का ध्यान किया जाता है । सच पूछो तो यहीं सारा संसार है । लोक जयार्थ इसकी साधना आवश्यक
है ,किन्तु ऐसा नहीं कि वस लौकिक चमत्कारों में उलझ कर रह जाये। साधक को इससे आगे बढ़ना है ।

‘‘....नीचे से चौथे चक्र को अनाहत कहते हैं- अन+आहत यानी बिना किसी वाह्य आघात के स्वतः ध्वनित होना।
भक्तिरसामत
ृ का परमस्रोत,परमधाम है यह स्थान। इसका क्षेत्र हृदयप्रदे श है । सिन्दरू ी रं ग से प्रकाशित
द्वादशदलीय पद्म पर क्रमशः कं,खं,गं,घं,ङं,चं,छं ,जं,झं,ञं,टं ,ठं - द्वादशवर्ण विराजते हैं। किं चित ऋषिमत से इसका
वर्णनील कहा गया है । वायुतत्त्व होने के कारण धूम्रवर्णी की भी बात कही जाती है । षट्कोणाकृति यंत्र के मध्य में
वायुबीज यँ रचित है , जिसका वाहन हिरण है । हिरण चौकन्ना(सतर्क ) रहने के अर्थ में समझना,न कि भयभीत,और
तीब्रगामी। प्राणवायु का मुख्य केन्द्र है यह चक्र। त्वचा ज्ञानेन्द्रिय है , और हाथ इसका कर्मेन्द्रिय,तथा महर्लोक ।
दिव्य ऊँकार की ध्वनि सदा गूंजती है यहां। शब्दं ब्रह्मेति तं प्राह साक्षाद्देवः सदाशिवः। अनाहतेषु चक्रेषु स शब्दः
परीकीर्त्यते।। शब्दब्रह्म का अनाहत गुंजन होते रहता है । यही साक्षात ् सदाशिव हैं।ईशानरुद्र अपनी त्रिनेत्रचतुर्भुजी
काकिनी शक्ति के साथ यहां विराजते रहते हैं।

‘‘....अब अगले यानी नीचे से पांचवें विशुद्धिचक्र की बात करते हैं। यही वह स्थान है ,जहां शिव का हलाहल ठहर
गया,और नीलकंठ विभषि
ू त हो गये। दरअसल अशद्धि
ु रह ही कहां जायेगी विशद्धि
ु पर आकर ! कण्ठस्थान इसका क्षेत्र
है । चूंकि इसका सम्बन्ध विशुद्धिकरण से है ,इस कारण एक अति चमत्कारिक केन्द्र है यह। योगीगण कहते हैं कि सदा
अमत
ृ क्षरण होते रहता है यहाँ। विष को भी अमत
ृ में बदल दे ने की क्षमता है इसकी। धूम्रवर्णी प्रकाश से उज्ज्वल
सोलह पंखुड़ियों वाले कमल पर क्रमशः सभी स्वरवर्ण - अं,आं,इं,ईं,उं .ऊं,ऋं,ॠ,ल,ृ ॡ,एं, ऐं,ओं,औ,अं,अः विराज रहे हैं।
आकाश इसका तत्त्व है और बीज हं ,जिसका वाहन हस्ति है । हाथी जिस भांति घूम-घूम कर चलता है ,उसी भांति
इसकी गति है । शब्द इसका गुण यानी तन्मात्रा है । उदानवायु का मुख्य स्थान कहा गया है इसे।
श्रवणशक्ति(श्रोत्र)ज्ञानेन्द्रिय है ,और वाक् कर्मेन्द्रिय। जनःलोक है । पञ्चमुख सदाशिव अपनी चतुर्भुजा शक्ति
शाकिनी के साथ विराजते हैं यहां। पूर्णचन्द्र सदृश गोलाकार आकाशमंडल इसका यन्त्र है । इसपर साधना करने से
कवित्वशक्ति के साथ-साथ महाज्ञानी,रोग-शोगहीन,दीर्घजीवन लब्ध होता है ।

‘‘...छठे यानी आज्ञाचक्र का स्थान भक


ृ ु टिमध्य में बताया गया है । मैं यहां फिर स्मरण दिला दं ू कि जो भी स्थान कहे
जा रहे हैं सभी चक्रों के हू ब हू इसे वहीं मत समझ लेना। ये उनके स्थल
ू स्थान के निर्देश मात्र हैं। एकाग्रता को बनाने में
सहयोग हे तु ही इनका प्रयोग करना चाहिए। सही स्थान पर तो स्वतः ही पहुंच जाओगे,जो वहीं कहीं आसपास हैं।
आज्ञाचक्र पर दो दलों वाला कमल है , जिसपर हं और क्षं विराजित हैं। तपःलोक है इसका। लिंगाकार यन्त्र है ।
गंगा,यमन
ु ा,सरस्वती का यहीं मिलन होता है ,इस कारण इसे यक्
ु तत्रिवेणी भी कहते हैं। यथा- इडा भागीरथी गंगा
पिङ्गला यमुना नदी । तयोर्मध्यगता नाडी सुषुम्णाख्या सरस्वती ।। त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते । तत्र
स्नानं प्रकुर्वीत सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। (ज्ञानसंकलिनी तन्त्र) इसका ही एक नाम शिवनेत्र भी है , या कहें तीसरा नेत्र।
आधुनिक विज्ञान इस पर काफी काम कर रहा है । कई आधुनिक प्रयोग भी इस पर किये गये हैं। यह एक अति प्रधान
प्रवेशद्वार भी है । इसके बारे में और अधिक जानकारी के लिए गुरुमहाराज की पुस्तिकाओं का ही सहयोग लेना,मुझसे
और अधिक सवाल मत करना। और इससे भी ऊपर जो महाचक्र है ,जिसे सहस्रार के नाम से जाना जाता है ,उसके बारे
में तो अभी कुछ कहना और भी बेकार है । वस इतना ही समझो कि पचास की संख्या में कहे गये सभी वर्णों की बीस
आवत्ति
ृ हुयी है - हजार दलों वालें महापद्म पर,जिसे साधना ही महासाधना है । वही सत्यलोक है ।
अमरत्व,मुक्ति,निर्वाण सब कुछ वहीं पहुचने पर है । सारी तैयारी उसी की साधना की है । हां,कुछ और भी छोटे -मोटे
नाड़ी-गुच्छ हैं,जिनका समय पर साधनाक्रम में स्वतः ही परिचय मिल जायेगा।’’

इतना कह कर बाबा बिलकुल चुप्पी साध लिए,मानों किसी गहन चिंतन में डूब गये हों। थोड़ी दे र प्रतीक्षा करने के बाद
गायत्री ने टोका- ‘ लगता है , भैया अब आज की सभा का विसर्जन करना चाहते हैं। ’

‘‘ हां,चाहता तो यही हूँ,क्यों कि समय काफी गुजर चुका है । मुझे अभी और कई काम निपटाने हैं यहां दिल्ली में ।
तम
ु लोग भी अपने-अपने काम में लगो। इस बीच समय निकाल कर एक बार और उस चित्रावली को दे ख लेना तम

दोनों, कहीं कुछ सैद्धान्तिक शंका होगी तो स्पष्ट कर दं ग
ू ा । शंका न भी हो, तो भी दे ख लेना जरुरी है । मेरे कहे शब्दों
को वहां चित्रों में दे ख लोगे,तो बातें बिलकुल बैठ जायेंगी दिमाग में । वैसे भी अभ्यास क्रम से बारबार कितावें पलटना
कोई अच्छी बात नहीं है । ये ठीक वैसे ही है जैसे हस्तरे खाविज्ञान की कितावों को पढ़ कर नवसिखय
ु े,किसी के हाथ की
रे खा का मिलान करते हैं। मैं तो ये कहूंगा कि जितना पढ़ना-गुनना हो,अभी पढ़ डालो,फिर उसे एक किनारे रख
दो,मानों तुम्हारे पास हो ही नहीं। तारामन्दिर में जो मन्त्र दर्शित हुआ था,उसका निरन्तर अभ्यास करते रहना,सारी
शंकायें स्वतः निर्मूल होती जायेंगी। क्लीं और क्रीं के भ्रम में भी मत रहना। ’’- इतना कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए।
बाहर निकलते हुए,पन
ु ः याद दिलाये- ‘‘ पंचमी के दिन, सायं काल समय पर मैं उपस्थित हो जाऊँगा। प्रयास करना कि
उस दिन तुम कार्यालय से छुट्टी ले लो,और परू े चौबीस घंटों के लिए अपने आप को कार्यमुक्त कर लेना। किसी वाहरी
व्यक्ति का प्रवेश भी न हो। दिन में यथासम्भव सात्विक,अल्पाहार लेना ही उचित होगा। रात में तो वो भी नहीं, सिर्फ
दध
ू और गुड़ का प्रबन्ध रखना- अपने लिए और मेरे लिए भी। गुरुमहाराज की पुस्तिका में निर्देशित विधि से आसन
और नाड़ीशोधन की क्रियाओं को उस दिन विशेष रुप से कर लेना तुम दोनों। ’’– फिर गायत्री की ओर दे खते हुए बोले- ‘‘
तुम्हें ध्यान है न स्त्रियों के लिए सिद्धयोनिआसन का निर्देश है ,जब कि पुरुषों के लिए सिद्धासन कहा गया है । इन दोनों
के भेद में चूक न हो जाये- इसका ध्यान रखना।’’

गायत्री ने विहस कर कहा- ‘हां भैया,खब


ू याद है । और इसमें किसी प्रकार का भ्रम भी नहीं है । वहां से आने के
बाद से ही मैं लागातार सिद्धयोनिआसन का अभ्यास कर रही हूँ,और ये भी सिद्धासन का अभ्यास कर रहे हैं। हालाकि
इनको एक बात की शंका है - इन्होंने कहीं पढ़ रखा है कि गह
ृ स्थों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। अन्यथा
दाम्पत्य जीवन प्रभावित होता है ।’

गायत्री की यह बात सन
ु कर बाबा झल्ला से गये- ‘‘ क्या बकबक करती हो, यही तो कहता हूँ कि बाजारु
किताबों को पढ़कर अपना सिद्धान्त मत गढ़ लिया करो। तुम्हें जिस पथ पर ले जाना चाहता हूँ,वो क्या सामान्य
गह
ृ स्थों का पथ दीख रहा है तुम्हें या कि गह
ृ स्थ सन्यासी का? इन बचकानी बातों में दिमाग न उलझाओ। सीधी सी
बात समझो- सिद्धासन के कठिन अभ्यास से शक्र
ु का स्तम्भन होता है ,कामविह्वलता पर भी नियन्त्रण होता
है ,उर्ध्वगमन होता है । और मैं हमेशा मर्यादित काम की बात किया हूँ,भगोड़ू कामयोद्धा की नहीं,जो जीवन ही वरबाद
कर दे ता है काम से लड़ने में । तुम गह
ृ स्थ हो,गह
ृ स्थ रहोगे। अभी तो तुम्हारी गह
ृ स्थी से मुझे बहुत बड़ा काम लेना
है ...अपने स्वार्थ का काम...और स्व-अर्थ का भी काम।’’

पहे ली बुझाते हुए बाबा बाहर निकल गये । मुंहलगी गायत्री टोकती हुयी पीछा की दरवाजे से बाहर तक
जाकर,पर अनसन
ु ा करते हुए गर्दन झक
ु ाये परिसर से बाहर निकल गये बाबा।

गायत्री भी अजीब है ,क्या जरुरत थी बाबा से इस बात की चर्चा करने की – मन ही मन बुदबुदाया,किन्तु कहा
कुछ नहीं।

पंचमी को संध्या से पर्व


ू ही बाबा उपस्थित हो गये,वो भी बड़े ही प्रसन्न मद्र
ु ा में । उनके निर्देशानस
ु ार पर्व
ू की
सारी तैयारियां हमदोनों कर चुके थे। गायत्री के मन में उस पहे ली की कुलबुलाहट अभी तक चल ही रही थी। बाबा की
मुख-मुद्रा अति प्रसन्न दे ख कर मेरा भी कुछ साहस बढ़ गया।

उनके बैठते ही गायत्री ने सवाल कर दिया- ‘ पहली बात तो ये बताओ भैया कि आज इतना प्रफुल्लित क्यों हो,और
दस
ू री बात क्या जाननी है मुझे- ये तो तुम खुद ही बताओ,क्यों कि उस दिन की पहे ली तुम्हारी,और आज की मेरी...।’

बाबा ने हँसते हुए कहा– ‘‘ तुम भी बहुत शोख हो गयी हो गायत्री। ’’


‘शोख तो मैं हूं ही,आज कोई नयी बात थोड़े है ,हां, तुम्हारे जैसा मुंहलगा भाई सामने हो तो शोखी जरा और बढ़ जाती
है ।’– गायत्री ने उसी अन्दाज में कहा।

उसकी बात का जवाब दे ते हुए बाबा ने कहा - ‘‘ प्रसन्नता इस बात की है कि सावित्री के ऋण का एक बहुत बड़ा भाग
आज चक
ु ता हो गया। समझो कि मल
ू धन परू ा हो गया,अब व्याज की कसर है सिर्फ । मातेश्वरी और गरु
ु महाराज की
कृपा से आगामी अमावश्या तक वो भी परू ा हो जायेगा। फिर मैं पूर्णतः भारमुक्त होकर,विचरण कर सकंू गा,और स्व-
कार्य-साधन में निर्विघ्नता पूर्वक आगे का मार्ग भी प्रशस्त हो जायेगा। ’’

ये बड़ी खुशी की बात है - हमदोनों ने एक ही साथ प्रतिक्रिया व्यक्त की। प्रसंग आगे बढ़ाते हुए बाबा ने आगे कहा– ‘‘
तुम्हारी जिज्ञासा क्या है ,ये मैं अच्छी तरह समझता हूँ; और इसी सम्बन्ध में कुछ विशेष बात कहना भी चाहता हूँ ।
इसी में तम्
ु हारी बात का उत्तर भी है ,और कुछ निर्देश-संकेत भी। अब दे खना ये है कि तम
ु दोनों कितने बद्धि
ु मान हो-
सही अर्थ निकालते हो या अनर्थ करते हो। ’’

इतना कह कर बाबा पल भर को बिलमे,फिर कहने लगे– ‘‘ शास्त्रों ने हर चीज की मर्यादा निश्चित की है । हर काम के
लिए नियम बनाये हैं। धर्मशास्त्र से लेकर आयुशास्त्र,तथा कामशास्त्र तक ने काम की मर्यादा सुनिश्चित की है । कृष्ण
ने तो मर्यादित काम को अपना स्वरुप ही कह दिया है । ऋतुस्नान के पश्चात ् अपनी विवाहिता पत्नी के साथ शास्त्र-
मर्यादित सम्भोग करने को भी गह
ृ स्थ-धर्म कहा गया है । पारस्करगह्
ृ यसत्र
ू म ्,तथा धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थों में इसका
विस्तार से वर्णन है । इन्हीं बातों का सार- मुहूर्तचिन्तामणि नामक ज्योतिष ग्रन्थ में सु सम्भोगकाल का निर्देश कुछ
इस प्रकार किया गया है - गण्डान्तं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं दास्त्रं पौष्णमघोपरागदिवसान ् पातं
तथा वैधति
ृ म ् । पित्रोः श्राद्धदिनं दिवा च परिघाद्यर्धं स्वपत्नीगमे भान्यत
ु पातहतानि मत्ृ यभ
ु वनं जन्मर्क्षतः पापभम ्
।। भद्राषष्ठीपर्वरिक्ताश्च सन्ध्याभौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्रः । गर्भाधानं त्र्युत्तरे न्द्वर्क
मैत्रब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुपे सत ् ।। केन्द्रत्रिकोणेषु शुभैश्च पापैस्त्रायारिगैः पुंग्रहदृष्टलग्ने । ओजांशगेऽब्जेऽपि च
यग्ु मरात्रौ चित्रादितीज्याश्विषु मध्यमं स्यात ् ।। अर्थात ् तीनों प्रकार के गण्डान्त,दम्पति का वधतारा,दम्पति का
जन्मनक्षत्र,मूल,भरणी,अश्विनी,रे वती,मघा आदि चन्द्रनक्षत्र,सूर्य-चन्द्र के ग्रहण- काल, व्यतिपात, वैधति

योग,माता-पिता के निधन दिवस,श्राद्धदिवस,किसी भी दिन का दिवाकाल, संध्या,गोधूलि,उषादि काल में ,जन्म राशि
से अष्टम लग्न,और पापयक्
ु त लग्न-नक्षत्रों में समागम न करे । भद्रा,षष्ठी,अमावश्या, पर्णि
ू मा, एकादशी,
पंचमी,चतुर्द शी आदि तिथियां,पर्व के दिन,रिक्तातिथि,रवि,मंगल,गुरु,शनिवार तथा रजोदर्शन की चार रात्रियों में
गर्भाधान त्याज्य है । तथा तीनों उत्तरा, मग
ृ शिरा,हस्ता,अनुराधा,रोहिणी,स्वाती,श्रवण,धनिष्ठा,शतभिष नक्षत्र
गर्भाधान के लिए उत्तम हैं। गर्भाधान के समय शुभग्रह केन्द्रत्रिकोण में हों तो अति उत्तम है । चित्रा,पन
ु र्वसु,पुष्य,और
अश्विनी नक्षत्र गर्भाधान के लिए मध्यम कहे गये हैं। इस प्रकार अन्य भी बहुत से नियम कहे गये हैं,जिनका यथा
सम्भव पालन करना चाहिए। ध्यान दे ने की बात है कि ऊपर कहे गये नियमों में सम्भोग के लिए अनुकूल समय,और
गर्भाधान के लिए अनुकूल समय दोनों बातों पर इशारा है । सिर्फ सन्तान कामना से ही सम्भोग करना सर्वश्रेष्ठ नियम
है ,किन्तु विडम्बना ये है कि सिर्फ सन्तान के लिए सम्भोग करते कितने लोग हैं ! लोग तो सम्भोग के लिए सम्भोग
करते हैं। सिर्फ और सिर्फ कामोन्माद में उन्मत्त होकर,सम्भोग का अवसर तलाशते हैं- दे श,काल,पात्र सारी मर्यादायों
को तिलांजलि दे कर। स्त्री सिर्फ भोग्या बन कर रह गयी है , पत्नी और अर्धांगिनी बड़े सौभाग्य से ही हो पाती है । किन्तु
उन भोगियों को भी काल-मर्यादा का किं चित ज्ञान रखना चाहिए। और जो लोग विशेष कर मनोनुकूल सन्तानेच्छु
हैं,उन्हें तो और भी नियमों का ध्यान रखना चाहिए।

‘‘ श्रीवासुदेव ने कहा है - सहयज्ञाः प्रजा सष्ृ टा परु ोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्वध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ।। यज्ञ
के साथ प्रजा की सष्टि
ृ करके प्रजापति ने पहले कहा कि इसी से तम
ु लोग बढ़ो,यह तम
ु लोगों के लिए कामधेनु हो...।
उस यज्ञरुपी कामधेनु के अनादर और त्याग के कारण ही संसार विपत्तियों घिरा हुआ है आज। जिस सन्तान के लिए
पूर्व पुरुषों ने बड़ी-बड़ी तपस्यायें की हैं,उन्हीं सन्तान-वद्धि
ृ से आज का संसार उब रहा है ,उनके आचरण से त्रस्त है ,और
कृत्रिम विधियों का पालन कर गर्भनिरोध पर बल दे रहा है । इसे ही अपना परम कर्तव्य समझ रहा है । गर्भनिरोध के
लिए अनेक उपायों का सहारा ले रहा है । यह बड़े दःु ख की बात है । भले ही सरकारें राजनीति प्रेरित होकर या पश्चिम के
नियमों का पिट्ठु बनकर गर्भनिरोध को राष्ट्रधर्म का दर्जा दे दे ,किन्तु आये दिन इसका दश्ु परिणाम मानव समाज को
भुगतना पड़ रहा है ,विशेष कर महिलायें इसका शिकार अधिक हो रही है । व्यभिचार भी बढ़ रहा है । स्त्रियों में
प्रदर,रजोरोध, यट
ु े रिनकैं सर,स्तनकैंसर,हिस्टिरीया,कामोन्माद वा कामशैथिल्य जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं। सच पछ
ू ा
जाय तो कृत्रिम साधनों से गर्भ का अवरुद्ध करना गर्भपातन के दष्ु कर्म से जरा भी कम नहीं है । आश्वलायन कहते हैं-
व्यर्थीकारे ण शुक्रस्य ब्रह्महत्यामवाप्नय
ु ात ् ...। श्रीकृष्ण कहते हैं- यज्ञार्थात ् कर्मोण्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः...।
अर्थात ् यज्ञ के लिए ही कर्म होना चाहिए। गर्भाधान भी एक कर्म ही है ,एक महान यज्ञ ही है । छान्दोग्यश्रति
ु कहती है -
पुरुषो वाव गौतमाग्निस्तस्य वागेन समित्प्राणो धूमो जिह्वार्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिंगाः ।
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ दे वा अन्नं जुह्वति तस्वा आहुते रे तः सम्भवति । योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव
समिद्यदप
ु मन्त्रयते स धम
ू ो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गाराः अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः । तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
दे वा रे तो जुह्वति तस्या आहुतर्ग
े र्भः सम्भवति ।। (हे गौतम ! पुरुष अग्नि है ,उसकी वाणी समित ् है , प्राण धूम
है ,जिह्वा ज्वाला है ,आँख अंगारे हैं,कान चिनगारियां हैं,उसी अग्नि में दे वता अन्न का होम करते हैं। उसी आहुति से
वीर्य बनता है । पन
ु ः कहते हैं- हे गौतम ! स्त्री अग्नि है । उसका उपस्थ समित ् है । उस समय जो बातें करता है वही धम

है । स्त्री की योनि ही ज्वाला है । सम्भोग अंगारा है । मुख चिनगारियां हैं। उसी अग्नि में दे वता लोग वीर्य का होम करते
हैं। उसी आहुति से गर्भ बनता है ।)

‘‘ अब जरा सोचो- कितना पवित्र कर्म है यह सम्भोग,यदि यह मर्यादित हो। किन्तु बिडम्बना ये है कि अपने उत्पन्न
सन्तान के सुख-दःु ख के लिए माता-पिता सदै व चिन्तित रहते हैं,और ज्योतिषियों के पास दौड़ लगाते रहते हैं,उनकी
ग्रहदशा जानने को,परन्तु इन सभी के मल
ू में जो बात है उस पर जरा भी ध्यान नहीं जाता। यह परम्परा ही लप्ु त हो
गयी है । यूं तो शास्त्रों में चालीस संस्कार कहे गये हैं,जिनमें वाल्य संस्कार आठ हैं,और उनमें प्रथम और प्रधान है
गर्भाधान संस्कार। उसके बाद क्रमशः पुंसवन,सीमन्त,जातकर्म,नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, और उपनयन की बारी
आती है । ये सब संस्कार माता-पिता द्वारा किये जाने वाले संस्कार हैं। अब भला इनमें बीजारोपण ही गलत तरीके
से,गलत समय में हो जायेगा तो भविष्य की बातों पर कितना नियन्त्रण रखा जा सकेगा ! गर्भाधान के कालदोष का ही
कमाल है कि कश्यप जैसे पिता से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु सरीखे राक्षस पैदा हुए। इस काल का ही बल हावी हुआ
और उच्चकुल पुलस्त्य के पुत्र विसश्रवा के घर रावण पैदा हुआ। इस काल ने ही विभीषण भी बनाया। ध्रुव और प्रह्लाद
भी इसी गर्भाधान काल के अप्रतिम उदाहरण कहे जा सकते हैं। गर्भाधान काल में माता-पिता की मनःस्थिति और
परिवेश के साथ-साथ काल भी प्रबल होता है - इसे न भूलो।

‘‘ गर्भाधान-काल के इस महत्त्व और चमत्कार के कुछ और पक्ष पर जरा गौर करो- मनुस्मति


ृ का कथन है कि
रजस्वला होने के सोलह दिन तक का काल ऋतुकाल है । इनमें पहली चाररात्रि,और बाद में ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि
गर्भधारण के अयोग्य हैं,शेष रात्रियों में समागम प्रशस्त है ।(३-४५,४७,५०) इस सम्बन्ध में ज्योतिषशास्त्र बड़ा ही सरल
तरीका सुझाता है । चतुर लोग इसी की वर्जना करके गर्भनिरोध को भी अपना सकते हैं,और वांछित गर्भाधान भी कर
सकते हैं,जो कि निरापद और स्वास्थ्यकर होगा। ज्योतिर्विद वराहमिहिर कहते हैं- गर्भाधान काल में
लग्न,पंचम,नवम में पग्र
ुं ह यानी सूर्य,मंगल,गुरु होंगे तो सुपुत्र की प्राप्ति होगी,और तत्स्थानों में चन्द्रमा वा शुक्र
(स्त्रीग्रह) होंगे तो कन्या सन्तान होगी। इसी भांति लग्न,सर्य
ू और चन्द्रमा विषम राशिस्थ वा नवांश में होंगे तो पत्र

और सम में पुत्री के सूचक होते हैं। लग्न एवं चन्द्रमा पर जिस तरह के ग्रह की दृष्टि होगी तदनुरुप ही सन्तान भी होने
की सम्भावना होती है । गर्भाधान सम्बन्धी एक और नियम(तथ्य)ध्यान रखने योग्य है कि स्त्री की कुण्डली में लग्न,
सर्य
ू , चन्द्रमा के जो-जो नक्षत्र होंगे,उससे सातवें चौदहवें और इक्कीसवें नक्षत्र पर गोचर के चन्द्रमा के आने पर ही स्त्री
गर्भधारण कर सकती है ,अन्यथा नहीं। हां,कभी-कभी उससे ठीक एक नक्षत्र आगे और पीछे भी स्थिति बन जाती है ।
इस प्रकार सूक्ष्म गणना करके दे खने पर किसी भी स्त्री के लिए किसी भी महीने में केवल तीन दिन(रात्रि)ही गर्भाधान
के योग्य हो सकते हैं।’’

बड़ी दे र से चुप्पी साधे गायत्री ने टोका- ‘ तब तो भैया ! बड़ा ही सुगम

और निरापद है - इन तीन दिनों का परहे ज व्यर्थ की गर्भनिरोधक दवाइयों,और उसके साइड एफेक्ट से रक्षा कर सकता
है । ’

बाबा ने इस बात पर सिर्फ सिर हिलाकर हामी भरी। गायत्री के चुप्पी तोड़ने पर मुझे भी कुछ बोलने का साहस हुआ-
महाराजजी ! मैंने तो सन
ु रखा है कि परु
ु ष वीर्य(शक्र
ु )में कुछ क्रोमोजोम होते हैं जो जिम्मेवार हैं नर वा मादा सन्तति के
लिए। स्त्री का डिम्ब तो न्यूट्रल होता है । X+ X,X+Y क्रोमोजोमों का ही कमाल है यह केवल,पर आप कहते हैं कि अलग-
अलग ग्रह-स्थितियां और रात्रियां इसके लिए जिम्मेवार है - यह सैद्धान्तिक भेद क्यों हो रहा है ?
बाबा मुस्कुराये,और फिर बोले- ‘‘ सिद्धान्त का भेद नहीं समझ का भेद है , नाक को सीधे छूओ या कि उल्टे । नर-मादा
सन्तान के लिए एक और सिद्धान्त बतला रहा हूँ,इस पर भी गौर करो। पवनविजयस्वरोदय स्वरसिद्धान्त से गर्भाधान
की प्रक्रिया का निर्देश करता है । पुरुष-स्त्री दोनों के दक्षिण स्वर जारी हों (या जारी कराये जायें) सम्भोग काल में तो पुत्र
की प्राप्ति होगी,और इसके विपरीत यानी वामस्वर जारी हों तो कन्या की प्राप्ति होगी। परन्तु इसके लिए स्वर
परीक्षण और मनोवांछित परिवर्तन का ज्ञान करके अभ्यास करना होगा,और भोगकाल में भी सांस पर नियन्त्रण
रखना होगा। दीर्घायु और सर्वगण
ु सम्पन्न सन्तान-प्राप्ति हे तु माता-पिता को खान-पान,रहन-सहन आदि अन्य बातों
का भी ध्यान रखना चाहिए। पुरुष को चाहिए कि सात्विक(वा सामान्य राजसिक)आहार ले, साथ ही
आवश्यकतानुसार असगन्ध,शतावरी,श्वेत-श्याम मुसली, मुलहठी, तुलसी बीज, रे वन्दचीनी,पोस्तादाना आदि का
सेवन गोदग्ु ध के साथ किया करें , ताकि ओजस्वी सन्तान प्राप्त हो। तथा स्त्री को गर्भधारण की योजना बनाते समय
तीन वा छः माह तक गर्भाशय एवं शोणित-शोधन हे तु कशीस,मुसब्बर,
हींग,सुहागा,अरिष्ठा,ऐंठा,चित्रक,इन्द्रवारुणी,लक्ष्मणा,मालकांगनी आदि द्रव्यों का सेवन करना चाहिए। विशेष
परिस्थिति में महाभैषज्य- फलघत
ृ का भी सेवन करना चाहिए। यहां मनोवांछित सन्तान-प्राप्ति हे तु एक सारणी भी
समझा रहा हूँ- इस पर अवश्य ध्यान दे ना।

‘ ध्यान दे ने योग्य बात ये है कि मासिक शरु


ु होने के तीन दिनों तक तो स्त्री अपवित्र ही कही गयी है ,उसके साथ भोग
कदापि नहीं करना चाहिए। चौथी रात्रि में स्त्री सम्भोग्य तो हो जाती है ,फिर भी स्वस्थ सन्तान की कामना वाले
व्यक्ति को इससे परहे ज ही करना चाहिए। पहले इस सारणी को दे खो-समझो,और विचार हो तो इसे नोट भी कर लो–

क्रम

रात्रि

फल

१.

चौथी रात्रि

अल्पायु / दरिद्रपत्र

२.

पांचवीं रात्रि

पत्र
ु वती,योग्य पत्र
ु ी

३.

छठी रात्रि

सामान्य आयु वाला पत्र


४.

सातवीं रात्रि

वंध्या पुत्री

५.

आठवीं रात्रि

ऐश्वर्यवान पुत्र

६.
नौवीं रात्रि

ऐश्वर्यवान पुत्री

७.

दसवीं रात्रि

बुद्धिमान पुत्र

८.

ग्यारहवीं रात्रि

दश्ु चरित्रा पत्र


ु ी

९.

बारहवीं रात्रि

उत्तम पुत्र

१०.

तेरहवीं रात्रि
कुलघातिनी पुत्री

११.

चौदहवीं रात्रि

अति उत्तम पुत्र

१२.

पन्द्रहवीं रात्रि

सौभाग्यवती,सुचरित्रा पुत्री

१३.

सोलहवीं रात्रि

सर्वगण
ु सम्पन्न पत्र

गायत्री सारणी नोट कर रही थी अपनी डायरी में । उसे पूरा होने के बाद उसने सवाल किये- ‘ भैया! यहां आपने सिर्फ
सोलहवीं रात्रि तक की ही बात कही,क्या इसके आगे गर्भ स्थापन नहीं हो सकता? और दस
ू री बात ये पूछती हूँ कि
अभी,आज के दिन को तो किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपने नियत किया था,फिर इस प्रसंग की चर्चा ? ’

जिसके जवाब में बाबा ने कहा- ‘‘ तम्


ु हारे पहले प्रश्न का उत्तर ये है कि इसके बाद यदि गर्भस्थापन करने का प्रयास
किया जाय तो मरुभूमि में बीज बोने के समान है । या तो अंकुरण ही नहीं होगा,या होगा तो विकृतिपूर्ण ही। और दस
ू री
बात ये कि शायद तुमलोगों को लग रहा होगा कि आज इस अलग विषय पर क्यों चर्चा छे ड़ दिया,किन्तु मैंने पहले ही
कहा था कि इस चर्चा में ही तुम्हारी और मेरी पहे ली का जवाब है । इतने दिनों के सम्पर्क के वावजूद तुमने अपनी
व्यक्तिगत लालसा व्यक्त नहीं की। सुव्यवस्थित नौकरी पाकर तो सन्तुष्ट हो गये, पर उससे भी कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण– पितऋ
ृ ण-मुक्ति पर कभी चर्चा नहीं की, और न स्पष्ट जानकारी ही दिये। ’’

जरा शर्मिन्दगी पूर्वक मैंने कहा- जी महाराज ! आप सही कह रहे हैं। ऐसा नहीं कि ये मेरे मन में कभी उठा ही नहीं,कई
बार उठा.परन्तु कुछ सोचकर टाल दिया, कभी आगे के लिए। अब अर्थव्यवस्था आपकी कृपा से सुव्यवस्थित हो गयी
है ,तो ध्यान जाता है । अपने स्तर से हर सम्भव प्रयास- डॉक्टरी जांच वगैरह कराकर थक-हार चक
ु ा हूँ। तन्त्र–मन्त्र पर
बहुत भरोसा नहीं है ,या कहें भरोसा है केवल सैद्धान्तिक। व्यावहारिक जगत में तो केवल ठगी ही दीखता है । अतः ऊपर
वाले की कृपा पर ही छोड़ दिया हूँ। अब आप मिल ही गये हैं,तो वो भी हो जायेगा। हालाकि उम्र के लिहाज से गायत्री के
पास अब समय बहुत ही कम रह गया है - डॉक्टर कहते हैं कि जो कम उम्र में रजस्वला हो जाती है ,उसकी रजोनिवत्ति

भी जल्दी ही हो जाती है ।

बाबा ने इस पर कुछ प्रतिक्रिया नहीं दी,बल्कि समय दे खने लगे,ऊपर नजरें उठाकर,और बोले– ‘‘ खैर,कोई बात नहीं।
अभी तो जिस काम के लिए हम विन्ध्याचल से यहां आये हैं,उसे परू ा करें ।’’

इतना कह कर बाबा ने आसन लगाने का निर्देश दिया। गायत्री छोटे कमरे की ओर गयी,जिसे हमदोनों ने साधना-कक्ष
बना रखा था,और वहां की व्यवस्था का निरीक्षण कर पुनः वापस आगयी।

हमतीनों वहां कक्ष से जाकर आसन ग्रहण किए। ठीक सामने बैठ कर बाबा ने एक साथ हमदोनों के सिर पर अपना
दायां-बायां हाथ रख दिया,और आँखें बन्द कर तीब्र श्वांस-प्रश्वांस का निर्देश दिये। थोड़ी दे र में ही मैंने अनुभव किया-
ऊपर से लेकर नीचे तक मेरुदण्ड एक स्वर्णदण्ड भी भांति आलोकित हो रहा है ,साथ ही क्षणभर के लिए सभी पद्म भी
उद्भासित हो गये,जैसा कि गुरुमहाराज की पुस्तिका में दे खा था। इतना ही नहीं,कुछ दे र के लिए ऐसा लगा मानों शरीर
का सारा प्राणवायु खिंच कर तीब्र सनसनाहट के साथ मेरुरज्जु को पार करते हुए ऊपर की ओर चढ़ रहा है ।

बाबा ने अपने हाथ हटा लिए,पर हमारी स्थिति वैसी ही बनी रही काफी दे र तक । करीब दो घड़ी बाद बाबा के आदे श से
हमलोगों ने आंखें खोली।

उन्होंने कहा – ‘‘ इस अनुभूति को आत्मसात करने का नित्य अभ्यास करो । पहले भी बहुत तरह की अनुभूतियां हुयी
हैं,उन्हें भी स्मरण में लाओ,और नित्य कम से कम तीन घंटे का अभ्यास अवश्य किया करो। हो सके तो ये अभ्यास
दोनों संध्याओं में करो,और खास तिथियों में तो निशीथ बेला में भी। तम
ु दोनों के लिए अगले कुछ महीनों का यही
अभ्यास क्रम रहे गा। उसके बाद की क्रिया गुरुमहाराज की पुस्तिका के संकेतों के सहारे आगे बढ़े गी। प्रत्येक बैठक की
शुरुआत उसी भांति होगा,जैसा कि पहले भी कह आया हूँ। महर्षि याज्ञवल्क्य तो कहते हैं कि छः महीने के सतत
अभ्यास से नाड़ियां पूर्ण शुद्ध हो जाती हैं,यानि कि फिर सामान्य झाड़न-पोछन से काम चल जाता है । सर्वांगीण
नाड़ीशुद्धि के पश्चात ् कुछ दिनों के लिए क्रमशः इडादि तीनों प्रधान नाडियों की शुद्धि का अभ्यास करना चाहिए। क्यों
कि यही वो मार्ग है ,जहां से होकर कुण्डलिनी शक्ति को गुजरना है । यदि ये मार्ग शोधित(जागत
ृ ) न हुए,और चक्र पर
काम करना शुरु कर दिये,तो इसका परिमाम गलत होगा। अतः, प्रत्येक वैठक में एक से तीन चक्र नाड़ीशोधन
आवश्यतानुसार कर लेना चाहिए। यह ठीक वैसे ही है ,जैसे बन-बनाये घर में नित्य झाड़ू-पोछा तो लगाना ही पड़ता है
न। अन्यथा गर्दगब्ु बार,मकड़ियों के जाले अपना स्थान बना लेंगे। फिर तत्वों की शद्धि
ु पर आ जाओ,ध्यान रहे प्रत्येक
पद्मों पर एक-एक तत्त्व हैं- उन बीजों से स्वांस प्रहार करो। सर्वाधिक समय दो प्रथम पर, और फिर इसी भांति आगे
बढ़ते जाओ- पंचम तक। और इसके बाद, उनके स्थानों को,जैसा कि चित्र-संकेत मिला है - अभ्यास नित्य जारी रखो।
शनैः-शनैः एक-एक पद्मों पर काम करते हुए आगे बढ़ो। तत्त्व,बीज,वाहन,आकृति, वर्ण, मात्रिका आदि सबका चिन्तन
होना चाहिए। तुम पाओगे कि धीरे -धीरे सारे वर्ण स्पष्ट हो रहे हैं, और फिर वहां की अन्य चीजें भी। क्रिया में
जल्दबाजी और उत्सुकता जरा भी न हो। बस एक द्रष्टा की भूमिका में रहना है ,भोक्ता और कर्ता बनने का प्रयास
करोगे तो परे शानी में पड़ोगे। न आनन्द में मस्त होने की बात है , और न भय से भीत होने की। ये मत भल
ू ो कि ये कोई
बैगन-टमाटर का पौधा नहीं है , जिसमें तीसरे महीने फल लग ही जायेंगे। फल कब लगें गे,कैसे लगें गे- इस विषय पर
सोचना ही व्यर्थ है ,बेमानी है । तुम्हारा काम है सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करना। रसरी आवत जात ते सिल पर परत
निशान... सन
ु ा है न?’’

इतना कह कर बाबा जाने के लिए उठ खड़े हुए। आदतन, गायत्री ने भोजन का आग्रह किया, क्यों कि समय हो
रहा था रात्रि भोजन का,किन्तु सिर्फ दध
ू के लिए उन्होंने स्वीकृति दी,और ग्रहण भी किया। हां,इतना जरुर कहा कि
हमलोग चाहें तो अब सात्त्विक अन्नाहार भी ले सकते हैं।

पुनः कब मिलना हो सकेगा- गायत्री के पूछने पर मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘ क्या बच्चों जैसी मिलने-मिलने की बात
करती हो ! अब महामिलन की तैयारी में लगो, इस सांसारिक मिलन में क्या रखा है ! और हां, जिन औषधियों की चर्चा
किया हूँ, उनकी व्यवस्था कर लो,और तुमदोनों सेवन भी शुरु कर दो। स्वयं से औषधियों का निर्माण करने में
कठिनाई हो सकती है ,अतः किसी विश्वस्त औषधि निर्माता की दवा ले सकते हो,पर खरीदने के बाद उनका संस्कार
करना न भूलना। शिवपंचाक्षर और दे वी नवार्ण से विधिवत संस्कार करना अति आवश्यक है - इस विशेष विधि को तो
आज के वैद्य भी बिलकुल विसार चुके हैं ,और सही परिणाम न मिलने पर पद्धति(शास्त्र)को दोष दे ते हैं। जगदम्बा की
कृपा से, इन विधियों के पालन से सन्तान की मनोकामना अतिशीध्र ही परू ी होगी तम्
ु हारी। और हां, गर्भधारण हो
जाने के बाद नित्य सन्तानगोपालस्तोत्र और नारायण कवच का पाठ अवश्य करना,साथ ही उक्त विधि से संस्कारित
करके गर्भपाल रसायन का भी सेवन शुरु कर दे ना, ताकि किसी प्रकार की दिक्कत न हो। प्रसव काल आने पर किसी
अस्पताल के शरण में भी जाने की जरुरत नहीं है । मातेश्वरी की कृपा से चिकित्सिका स्वयं चल कर तम्
ु हारे पास
समय पर पहुँच जायेगी। ’’
हमने आगे बढ़ कर बाबा का चरण-स्पर्श किया। गायत्री भी झुकी,किन्तु उसे बाबा ने बीच में ही थाम लिया,और पीठ
ठोंकते हुए परिसर से बाहर निकल गये।

बाबा चले गये- फिर कब मिलना होगा...की पहे ली अबझ


ू रह गयी। उनके जाने के बाद,हमलोग यथाविधि अपना
अभ्यास जारी रखे। बीच-बीच में कोई अड़चन लगती तो गुरुमहाराज की पुस्तिका और पुलिन्दे की चित्रावली से
सहयोग लेता। धीरे -धीरे मन काफी रमने लगा साधना-क्रिया में और आगे का रास्ता भी स्वतः सूझने लगा। क्यों न
सझ
ू े- बाबा जैसा पथप्रदर्शक हो,गरु
ु महाराज का वरदहस्त हो,उसके लिए तो कठिन पहाड़ भी सरपट मैदान बन जाना
स्वाभाविक है ।

तीन महीने गुजर गये। शाम का समय था। ऑफिस से अभी-अभी आकर, कपड़े उतार,इत्मिनान से बैठकर,चाय की
चुस्की ले रहा था। गायत्री भी पास ही बैठी सामान्य घरे लू बातें कर रही थी, तभी अचानक बाबा का आगमन हुआ।
उनका चेहरा पहले से भी अधिक दर्पित लग रहा था। इन तीन महीनों में लगता था- बाबा तीस साल पीछे खिसक आये
हों- बिलकुल हमारे जैसे।

आगे बढ़कर उनका स्वागत किया,किन्तु कहने पर भी वे विराजे नहीं, बल्कि हमदोनों को भी यथाशीघ्र तैयार होने को
बोले। कहां चलना है - ये भी स्पष्ट नहीं,बस तैयार हो जाओ...इतना ही आदे श मिला।

तैयार क्या होना था,चाय खतम किया,कपड़े डाले, और निकल पड़ा

गायत्री के साथ। बाहर आकर पूछा- अनुमति हो तो गाड़ी ले लूं या कि...?

‘‘ हां हां,ले लो,कोई बात नहीं,किन्तु कुछ आगे चल कर कहीं छोड़ दे ना होगा,क्यों कि जहां तक जाना है ,वहां तक गाड़ी
ले जाना उचित नहीं।’’

चल पड़े हम सब। ड्राइवर की उपस्थिति के कारण कोई चर्चा उचित नहीं लगी। मार्ग-निर्देश भी बाबा ही करते रहे ।
यमुना की ओर जाने वाली सड़क के समीप पहुँच कर बाबा ने कहा- ‘‘ उचित होगा कि अब यहीं कहीं गाड़ी लगा दी
जाय। कोई दो घंटे बाद पुनः लौटना होगा। चाहो तो गाड़ी वापस भेज दो,या यहीं रोके रखो। ’’

रोके क्या रखना है इतनी दे र। लौटते वक्त न होगा तो टै क्सी ले लूंगा – कहते हुए गाड़ी साइड कर,हमसव उतर पड़े,और
बाबा का अनुगमन करने लगे। कोई बीस मिनट पैदल चलने के बाद हमलोग उसी स्थान पर पहुँच गये जहां कभी बाबा
का प्रथम दर्शन लाभ हुआ था। थोड़ी दरू ी पर बहुत ही मोटा सा एक दरख़्त था- बिलकुल बीरान में ,यमन
ु ा तट से जरा
हट कर। रौशनी पर्याप्त न होने के कारण पता नहीं चल रहा था कि वक्ष
ृ किस चीज का है ,किन्तु बिना पूछे ही बाबा ने
कहा- ‘‘ ये त्रिसंकटवक्ष
ृ ही हमलोगों का आश्रय बनेगा अभी। जानते हो कि नहीं- वट,पीपल,प्लक्ष का एकत्र रोपण
त्रिसंकट कहलाता है । इसकी स्थापना बड़ा ही पुण्यदायी है ,और बड़े सौभाग्यवान के हाथों ही लग पाता है यह पौधा ।
अलग-अलग तो बहुत लग जायेंगे,पर एकत्र तीनों को स्थापित होना जरा मुश्किल काम है । कोई न कोई सूख ही
जायेगा। वट यानी शिव,पीपल यानी विष्णु, और पाकड़ यानी ब्रह्मा का प्रतीक है इस धरातल पर। त्रिदे वों का एकत्र
वास त्रिगुणात्मिका शक्ति का पावन साधना-स्थली होता है ,और त्रिगुण से त्राण पाने का माध्यम भी। त्रिसंकट की
छाया अपने आप में किसी महान तीर्थ से कम नहीं, वो भी कालिन्दी के तीर पर हो फिर क्या कहना। विगत लम्बे
समय से यही मेरी साधना-स्थली रही है । यहीं पास में ही सावित्री की चिता भी जली थी, इस कारण मेरे लिए और भी
महत्त्वपूर्ण हो गया है यह स्थान। सावित्री तो मुक्त हो गयी पिछले महीने ही,और इस प्रकार,मैं उसके ऋण से भी
मक्
ु त हो गया,किन्तु अब अपनी मक्ति
ु का प्रयास करना है ; और इसके लिए तम
ु दोनों का सहयोग अपेक्षित है । ’’

वहां, वक्ष
ृ के समीप पहुँचकर बाबा के चरण थम गये। हमलोग भी रुक

गये। वक्ष
ृ के पास ही वांस और कुछ लत्तरों के सहारे ,एक छोटी सी झोपड़ी बनी हुयी थी। सम्भवतः यही आश्रय या
आश्रम था- बाबा का। वहीं से बाबा ने एक आसन निकाला- फटा-चिटा कम्बल,और गायत्री की ओर बढ़ाये, बिछाने के
लिए।

उनके इशारे पर हम दोनों उस आसन पर बैठ गये। बाबा भी उसीपर पद्मासनासीन हो गये। गायत्री के साथ-साथ मैं भी
चौंक गया था बाबा के अन्तिम वाक्यांश पर,अतः बैठते के साथ ही गायत्री ने पूछ दिया - ‘ क्या कहा अभी तुमने भैया
! अपनी मुक्ति के लिए हमदोनों का सहयोग !’

‘‘हां,बिलकुल सही सुना तुमलोगों ने- अपनी मुक्ति हे तु तुमदोनों का सहयोग अपरिहार्य है । मैं अनुभव कर रहा हूँ कि
मेरा काम अभी बहुत बाकी रह गया है ,और इस शरीर को इतने समय तक रोक रखने की क्षमता भी नहीं है मुझमें ।
चुंकि इस शरीर से यात्रा पूरी नहीं हो सकती,अतः कोई नया शरीर तो लेना ही पड़ेगा न ! इस कार्य के लिए ही मुझे
तुमदोनों का सहयोग चाहिए। दोगे न ?’’

हम और भी विस्मित हुए। ‘ कैसा सहयोग ? हम समझे नहीं।’- एक साथ हमदोनों बोल पड़े।

‘‘ अनक
ु ू ल ऊर्वर भमि
ू ,और सप
ु ष्ु ट बीज का सहयोग ।’’- जरा घट
ु कते हुए बाबा ने कहा- ‘‘ मेरी आकांक्षा है ,आशा है ,और
पूर्ण विश्वास भी कि तुम दोनों के अतिरिक्त ऐसी अनुकूलता और कहीं नहीं मिल सकती,अतः मातेश्वरी से प्रार्थना की
है मैंने कि वे मेरे कार्य में सहायिका बनें। उन्होंने स्वीकृति दे दी है ,अब तुम्हारी स्वीकृति और सहयोग की अपेक्षा है ।’’

मैं कुछ कहता-पूछता,जानना-समझना चाहता कि इसके पूर्व ही बाबा कहने लगे- ‘‘ आज ही,अभी...मैं ये शरीर छोड़ने
जा रहा हूँ। तीन महीने बाद अनुकूल समय दे खकर तुम्हारे गर्भ में मैं आना चाहता हूँ गायत्री ! तुम अपने मातत्ृ व का
सौभाग्य दे कर मुझे धन्य करो...। ’’– बाबा ने गदगद कंठ से,गायत्री की ओर दे खते हुये करवद्ध निवेदन किया; फिर
उनकी दृष्टि मेरी ओर पलटी- ‘‘ और तुम ! मेरे पिता बनोगे।’’

हम अवाक थे,थोड़े क्षुब्ध भी,दःु खी भी। सद्यः कारण आसन्न था। क्या

कहूं, क्या पूछूं, क्या उत्तर दं –ू न मेरे पास कोई शब्द थे,और गायत्री के पास ही। बाबा का कथन जारी रहा– ‘‘ किसी तरह
की कोई आशंका या भ्रम में न रहो। मेरे होने न होने की चिन्ता भी व्यर्थ है । भविष्य की सारी योजना और विधि भी
तम
ु लोगों को समझा चक
ु ा हूँ। बीज और भमि
ू के शोधन में लग जाओ। आत्म कल्याण और उत्थान का कार्य भी साथ-
साथ चलता रहे गा। उसमें किसी प्रकार की बाधा आने वाली नहीं है ,और यत्किंचित वाधायें आयें भी तो उनका कर्ता-
भोक्ता मत बनना। समय पर मैं आ जाऊँगा नये शरीर में । पांच वर्ष तक तुम मेरा लालन-पालन करना। तत्पश्चात ्
उपवीति बनाकर,वहीं लेजाकर छोड़ दे ना जहां, कालीखोह जाने के मार्ग में मल
ू प्रकृति राधा की दिव्य मर्ति
ू का दर्शन
किया था तुमलोगों ने। तुम जब जाओगे,तो मार्ग खुला मिलेगा,किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। उस विन्ध्याचल
यात्रा के पूर्व ही तुमलोगों को अपना संसार भी समेट लेना होगा,फिर दिल्ली आकर नौकरी-चाकरी के जंजाल में पड़ने
की आवश्यकता नहीं है । आगे क्या,कैसे,कहां रहना-करना है - समय पर सब संकेत मिलता जायेगा, और सहयोगी भी।
हां, वादा करो कि मेरा एक और काम तुम अवश्य करोगे –– मेरे सम्पर्क क्रम में आए इन सारे संवादों को पुस्तकीय रुप
दे कर आगे बढ़ाने का प्रयास करना,ताकि तन्त्र-योग की यत्किंचित भ्रान्तियां दरू होकर, किसी जिज्ञासु और अभ्यासी
को मार्ग-दर्शन मिल सके। हां,यह भी ध्यान रखना कि शब्दातीत,अकथ्य अनभ
ु ति
ू यों को कथ्य बनाने का दष्ु प्रयास भी
मत करना। इससे न तुम्हें कोई लाभ है ,न संसार को। ’’

इतना कह कह बाबा मौन हो गये। मैं नतमस्तक हो गया। बाबा काफी दे र तक आँखें बन्द किये, ध्यानस्थ रहे । फिर
अचानक उठकर दरख़्त के पास गये। उसके मोटे तने को प्रणाम कर किसी खास स्थान पर,किसी विशेष क्रम से हाथ
फेरने लगे,जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु के शरीर पर हाथ फेर रही हो, कोई गुरु अपने शिष्य पर हाथ फेर रहा
हो,या गोद में पड़ा बच्चा मां के स्तन सहला रहा हो। हमने दे खा- तने के मध्य भाग में छोटे से कपाट की भांति एक
स्थान खुल गया, भीतर इतना स्थान रिक्त दिखा,जिसमें सहजता से एक आदमी प्रवेश कर, आसन लगा सके। बाबा
उसमें समा गये। थोड़ी दे र बाद वह कपाटनुमा भाग स्वतः यथावत हो गया। हमदोनों की आँखें नम हो आयी बाबा को
भावभीनी विदाई दे कर।

भारीमन,बोझिल कदमों से वापस लौट आये। बाबा के निर्देशानुसार सारी तैयारियां चलने लगीं- औषध और साधना
भी।

ठीक तीसरे महीने गायत्री ने गर्भधारण किया,और उसके नौ महीने बाद, समय पर एक दिव्य शिशु को जन्म दिया-
एक योगिनी के संरक्षण-सहयोग से। हर्षातिरे क से बालक का मुंख चूमती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ ये दे खिये...बाबा
अवतरित हो गये...दोनों हाथ और पैरों में अतिरिक्त अंगूठा...धन्य हो महात्रिपुरीश्वरी ! ’
(अचलासप्तमी,विक् रमाब्द२०७२) (१४ फरवरी २०१६)

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