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16 कलाओं का रहस्य

- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु '|

राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवाि श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं । चंद्रमा की सोलह कलाएं
होती हैं । सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपिे सु िा होगा। आखिर ये 16 कलाएं क्या है ? उपनिषदों के अिुसार
16 कलाओं से यु क्त व्यखक्त ईश्‍वरतु ल्य होता है ।

> आपिे सु िा होगा कुमनत, सुमनत, नवनित, मूढ़, नित, मूखछि त, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आनद ऐसे शब्ों को नजिका
सं बंध हमारे मि और मखिष्क से होता है , जो व्यखक्त मि और मखिष्क से अलग रहकर बोध करिे लगता
है वही ं 16 कलाओं में गनत कर सकता है ।

*चन्द्रमा की सोलह कला : अमृत, मिदा, पुष्प, पुनि, तु नि, ध्रु नत, शाशिी, चंनद्रका, कां नत, ज्योत्सिा, श्री, प्रीनत, अंगदा,
पूर्ि और पूर्ाि मृत। इसी को प्रनतपदा, दू ज, एकादशी, पूनर्ि मा आनद भी कहा जाता है ।

उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मिुष्य के मि में भी एक प्रकाश है । मि को
चंद्रमा के समाि ही मािा गया है । नजसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है । चंद्र की इि सोलह
अवस्थाओं से 16 कला का चलि हुआ। व्यखक्त का दे ह को छोड़कर पूर्ि प्रकाश हो जािा ही प्रथम मोि
है ।

*मिुष्य (मि) की तीि अवस्थाएं : प्रत्येक व्यखक्त को अपिी तीि अवस्थाओं का ही बोध होता है :- जाग्रत,
स्वप्न और सु षुखि। क्या आप इि तीि अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जािते हैं ? जगत तीि िरों
वाला है - 1.एक स्थू ल जगत, नजसकी अिुभूनत जाग्रत अवस्था में होती है । 2.दू सरा सूक्ष्म जगत, नजसका स्वप्न
में अिुभव करते हैं और 3.तीसरा कारर् जगत, नजसकी अिुभूनत सु षुखि में होती है ।

तीि अवस्थाओं से आगे : सोलह कलाओं का अथि सं पूर्ि बोधपूर्ि ज्ञाि से है । मिुषय
्‍ िे स्वयं को तीि
अवस्थाओं से आगे कुछ िही ं जािा और ि समझा। प्रत्येक मिुष्य में ये 16 कलाएं सु ि अवस्था में होती है ।
अथाि त इसका सं बंध अिुभूत यथाथि ज्ञाि की सोलह अवस्थाओं से है । इि सोलह कलाओं के िाम अलग-
अलग ग्रं थों में नभन्न-नभन्न नमलते हैं । यथा... अलगे पन्ने पर जानिए 16 कलाओं के िाम...

इि सोलह कलाओं के िाम अलग-अलग ग्रं थों में अलगे अलग नमलते हैं ।

*1.अन्नमया, 2.प्रार्मया, 3.मिोमया, 4.नवज्ञािमया, 5.आिंदमया, 6.अनतशनयिी, 7.नवपररिानभमी, 8.सं क्रनमिी,


9.प्रभनव, 10.कुंनथिी, 11.नवकानसिी, 12.मयि नदिी, 13.सन्हालानदिी, 14.आह्लानदिी, 15.पररपूर्ि और
16.स्वरुपवखस्थत।
*अन्यत्र

1.श्री, 3.भू , 4.कीनति , 5.इला, 5.लीला, 7.कां नत, 8.नवद्या, 9.नवमला, 10.उत्कनशििी, 11.ज्ञाि, 12.नक्रया, 13.योग,
14.प्रहनव, 15.सत्य, 16.इसिा और 17.अिुग्रह।

*कही ं पर 1.प्रार्, 2.श्रधा, 3.आकाश, 4.वायु , 5.ते ज, 6.जल, 7.पृथ्वी, 8.इखन्द्रय, 9.मि, 10.अन्न, 11.वीयि ,
12.तप, 13.मन्त्र, 14.कमि, 15.लोक और 16.िाम।

16 कलाएं दरअसल बोध प्राि योगी की नभन्न-नभन्न खस्थनतयां हैं । बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के
नलए प्रनतपदा से लेकर पूनर्ि मा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं । अमावास्या अज्ञाि का
प्रतीक है तो पूनर्ि मा पूर्ि ज्ञाि का।

19 अवस्थाएं : भगवदगीता में भगवाि् श्रीकृष्ण िे आत्म तत्व प्राि योगी के बोध की उन्नीस खस्थनतयों को
प्रकाश की नभन्न-नभन्न मात्रा से बताया है । इसमें अनिज्योनतरहः बोध की 3 प्रारं नभक खस्थनत हैं और शुक्लः
षण्मासा उत्तरायर्म् की 15 कला शुक्ल पि की 01..हैं । इिमें से आत्मा की 16 कलाएं हैं ।

आत्मा की सबसे पहली कला ही नवलिर् है । इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीि खस्थनत होिे पर
भी योगी अपिा जन्म और मृत्यु का दृिा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है ।

अनिज्योनतरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायर्म् ।

तत्र प्रयाता गछखि ब्रह्म ब्रह्मनवदो जिाः ॥

अथाि त : नजस मागि में ज्योनतमिय अनि-अनभमािी दे वता हैं , नदि का अनभमािी दे वता है , शुक्ल पि का
अनभमािी दे वता है और उत्तरायर् के छः महीिों का अनभमािी दे वता है , उस मागि में मरकर गए हुए
ब्रह्मवे त्ता योगीजि उपयु क्त दे वताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राि होते हैं ।- (8-24)

भावाथि : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अनि, ज्योनत, नदि, शुक्लपि, उत्तरायर् के छह माह में दे ह त्यागते हैं
अथाि त नजि पुरुषों और योनगयों में आत्म ज्ञाि का प्रकाश हो जाता है , वह ज्ञाि के प्रकाश से अनिमय,
ज्योनति मय, नदि के सामाि, शुक्लपि की चां दिी के समाि प्रकाशमय और उत्तरायर् के छह माहों के समाि
परम प्रकाशमय हो जाते हैं । अथाि त नजन्हें आत्मज्ञाि हो जाता है । आत्मज्ञाि का अथि है स्वयं को जाििा या
दे ह से अलग स्वयं की खस्थनत को पहचाििा।

नविार से ...
1.अनि:- बु खद्ध सतोगु र्ी हो जाती है दृिा एवं सािी स्वभाव नवकनसत होिे लगता है ।

2.ज्योनत:- ज्योनत के सामाि आत्म सािात्कार की प्रबल इछा बिी रहती है । दृिा एवं सािी स्वभाव ज्योनत
के सामाि गहरा होता जाता है ।

3.अहः- दृिा एवं सािी स्वभाव नदि के प्रकाश की तरह खस्थत हो जाता है ।

16 कला - 15कला शुक्ल पि + 01 उत्तरायर् कला

= 16

1.बु खद्ध का निश्चयात्मक हो जािा।

2.अिेक जन्मों की सु नध आिे लगती है ।

3.नचत्त वृ नत्त िि हो जाती है ।

4.अहं कार िि हो जाता है ।

5.सं कल्प-नवकल्प समाि हो जाते हैं । स्वयं के स्वरुप का बोध होिे लगता है ।

6.आकाश तत्व में पूर्ि नियं त्रर् हो जाता है । कहा हुआ प्रत्येक शब् सत्य होता है ।

7.वायु तत्व में पूर्ि नियं त्रर् हो जाता है । स्पशि मात्र से रोग मुक्त कर दे ता है ।

8.अनि तत्व में पूर्ि नियं त्रर् हो जाता है । दृनि मात्र से कल्यार् करिे की शखक्त आ जाती है ।

9.जल तत्व में पूर्ि नियं त्रर् हो जाता है । जल स्थाि दे दे ता है । िदी, समुद्र आनद कोई बाधा िही ं रहती।

10.पृथ्वी तत्व में पूर्ि नियं त्रर् हो जाता है । हर समय दे ह से सु गंध आिे लगती है , िींद, भू ि प्यास िही ं
लगती।

11.जन्म, मृत्यु, खस्थनत अपिे आधीि हो जाती है ।

12.समि भू तों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियं त्रर् हो जाता है । जड़ चेति इछािुसार कायि
करते हैं ।

13.समय पर नियं त्रर् हो जाता है । दे ह वृ खद्ध रुक जाती है अथवा अपिी इछा से होती है ।

14.सवि व्यापी हो जाता है । एक साथ अिेक रूपों में प्रकट हो सकता है । पूर्िता अिुभव करता है । लोक
कल्यार् के नलए सं कल्प धारर् कर सकता है ।

15.कारर् का भी कारर् हो जाता है । यह अव्यक्त अवस्था है ।

16.उत्तरायर् कला- अपिी इछा अिुसार समि नदव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जै से राम,
कृष्ण यहां उत्तरायर् के प्रकाश की तरह उसकी नदव्यता फैलती है ।
सोलहवी ं कला पहले और पन्द्रहवी ं को बाद में स्थाि नदया है । इससे निगुि र् सगु र् खस्थनत भी सु स्पि हो जाती
है । सोलह कला यु क्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं । यही नदव्यता है ।

साभार- वे बदु निया

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