You are on page 1of 1

लोक :

* वणानामथसंघानां रसानां छ दसामिप।


मंगलानां च क ारौ व दे वाणीिवनायकौ॥1॥

भावाथ:-अ र , अथ समूह , रस , छ द और मंगल को करने वाली सर वतीजी और गणेशजी क म वंदना


करता हँ॥1॥

* भवानीशंकरौ व दे ािव ास िपणौ।


या यां िवना न प य त स ाः वा तः थमी रम्॥2॥

भावाथ:- ा और िव ास के व प ी पावतीजी और ी शंकरजी क म वंदना करता हँ, जनके िबना


स जन अपने अ तःकरण म थत ई र को नह देख सकते ॥2॥

* व दे बोधमयं िन यं गु ं शंकर िपणम्।


यमा तो िह व ोऽिप च ः सव व ते ॥3॥

भावाथ:- ानमय, िन य, शंकर पी गु क म व दना करता हँ, जनके आ त होने से ही टे ढ़ा च मा भी सव


व दत होता है॥3॥

* सीतारामगुण ामपु यार यिवहा रणौ।


व दे िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥4॥

भावाथ:- ी सीतारामजी के गुणसमूह पी पिव वन म िवहार करने वाले , िवशु िव ान स प कवी र ी


वा मीिकजी और कपी र ी हनुमानजी क म व दना करता हँ॥4॥

* उ व थितसंहारका रण ले शहा रणीम्।


सव ेय कर सीतां नतोऽहं रामव भाम्॥5॥

भावाथ:-उ प , थित (पालन) और संहार करने वाली, ले श को हरने वाली तथा स पूण क याण को
करने वाली ी रामच जी क ि यतमा ी सीताजी को म नम कार करता हँ॥5॥

* य मायावशवित िव म खलं ािददेवासुरा


य स वादमृषैव भाित सकलं र जौ यथाहे मः।
य पाद लवमेकमेव िह भवा भोधे ततीषावतां

व देऽहं तमशे षकारणपरं रामा यमीशं ह रम्॥6॥

भावाथ:- जनक माया के वशीभूत स पूण िव , ािद देवता और असुर ह, जनक स ा से र सी म सप के म


क भाँित यह सारा य जगत् स य ही तीत होता है और जनके केवल चरण ही भवसागर से तरने क इ छा
वाल के लए एकमा नौका ह, उन सम त कारण से पर (सब कारण के कारण और सबसे े ) राम कहलाने
वाले भगवान ह र क म वंदना करता हँ॥6॥

* नानापुराणिनगमागमस मतं यद्


रामायणे िनगिदतं विचद यतोऽिप।
वा तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषािनब धमितमंजुलमातनोित॥7॥

भावाथ:-अनेक पुराण, वेद और (तं ) शा से स मत तथा जो रामायण म विणत है और कुछ अ य से भी


उपल ध ी रघुनाथजी क कथा को तुलसीदास अपने अ तःकरण के सुख के लए अ य त मनोहर भाषा
रचना म िव तृत करता है॥7॥

सोरठा :

* जो सुिमरत स ध होइ गन नायक क रबर बदन।


करउ अनु ह सोइ बुि रा स सुभ गुन सदन॥1॥

भावाथ:- ज ह मरण करने से सब काय स होते ह, जो गण के वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले ह, वे ही
बुि के रािश और शुभ गुण के धाम ( ी गणेशजी) मुझ पर कृपा कर॥1॥

* मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ िग रबर गहन।


जासु कृपाँ सो दयाल वउ सकल क लमल दहन॥2॥

भावाथ:- जनक कृपा से गूँगा बहत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँ गड़ा-लूला दुगम पहाड़ पर चढ़ जाता है,
वे क लयुग के सब पाप को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर िवत ह (दया कर)॥2॥

* नील सरो ह याम त न अ न बा रज नयन।


करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥

भावाथ:-जो नीलकमल के समान यामवण ह, पूण खले हए लाल कमल के समान जनके ने ह और जो सदा
ीरसागर पर शयन करते ह, वे भगवान् (नारायण) मेरे दय म िनवास कर॥3॥

* कुंद इंदु सम देह उमा रमन क ना अयन।


जािह दीन पर नेह करउ कृपा मदन मयन॥4॥

भावाथ:- जनका कुंद के पु प और च मा के समान (गौर) शरीर है, जो पावतीजी के ि यतम और दया के धाम ह
और जनका दीन पर नेह है, वे कामदेव का मदन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा कर॥4॥

गु वंदना

* बंदउँ गु पद कंज कृपा संधु नर प ह र।


महामोह तम पुंज जासु बचन रिब कर िनकर॥5॥

भावाथ:-म उन गु महाराज के चरणकमल क वंदना करता हँ, जो कृपा के समु और नर प म ी ह र ही ह


और जनके वचन महामोह पी घने अ धकार का नाश करने के लए सूय िकरण के समूह ह॥5॥

चौपाई :

* बंदऊँ गु पद पदुम परागा। सु िच सुबास सरस अनुरागा॥


अिमअ मू रमय चूरन चा । समन सकल भव ज प रवा ॥1॥

भावाथ:-म गु महाराज के चरण कमल क रज क व दना करता हँ, जो सु िच (सुंदर वाद), सुगंध तथा
अनुराग पी रस से पूण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूण है, जो स पूण भव रोग के प रवार को
नाश करने वाला है॥1॥

* सुकृित संभु तन िबमल िबभूत ी। मंजुल मंगल मोद सूत ी॥


जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। िकएँ ितलक गुन गन बस करनी॥2॥

भावाथ:-वह रज सुकृित (पु यवान् पु ष) पी िशवजी के शरीर पर सुशोिभत िनमल िवभूित है और सुंदर
क याण और आन द क जननी है, भ के मन पी सुंदर दपण के मैल को दूर करने वाली और ितलक करने
से गुण के समूह को वश म करने वाली है॥2॥

* ी गुर पद नख मिन गन जोती। सुिमरत िद य ि िहयँ होती॥


दलन मोह तम सो स कासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

भावाथ:- ी गु महाराज के चरण-नख क योित मिणय के काश के समान है, जसके मरण करते ही दय
म िद य ि उ प हो जाती है। वह काश अ ान पी अ धकार का नाश करने वाला है, वह जसके दय म
आ जाता है, उसके बड़े भा य ह॥3॥

* उघरिहं िबमल िबलोचन ही के। िमटिहं दोष दुख भव रजनी के॥


सूझिहं राम च रत मिन मािनक। गुपुत गट जहँ जो जेिह खािनक॥4॥

भावाथ:-उसके दय म आते ही दय के िनमल ने खुल जाते ह और संसार पी राि के दोष-दुःख िमट जाते
ह एवं ी रामच र पी मिण और मािण य, गु और कट जहाँ जो जस खान म है, सब िदखाई पड़ने लगते
ह-॥4॥

दोहा :

* जथा सुअंजन अं ज ग साधक स सुजान।


कौतुक देखत सैल बन भूत ल भू र िनधान॥1॥

भावाथ:-जैसे स ांजन को ने म लगाकर साधक, स और सुजान पवत , वन और पृ वी के अंदर कौतुक से


ही बहत सी खान देखते ह॥1॥

चौपाई :

* गु पद रज मृद ु मंजुल अंजन। नयन अिमअ ग दोष िबभंजन॥


ते िहं क र िबमल िबबेक िबलोचन। बरनउँ राम च रत भव मोचन॥1॥

भावाथ:- ी गु महाराज के चरण क रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो ने के दोष का नाश करने
वाला है। उस अंजन से िववेक पी ने को िनमल करके म संसार पी बंधन से छुड़ाने वाले ी रामच र का
वणन करता हँ॥1॥

* बंदउँ थम महीसुर चरना। मोह जिनत संसय सब हरना॥


सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ नाम स ेम सुबानी॥2॥

भावाथ:-पहले पृ वी के देवता ा ण के चरण क व दना करता हँ, जो अ ान से उ प सब संदेह को हरने


वाले ह। िफर सब गुण क खान संत समाज को ेम सिहत सुंदर वाणी से णाम करता हँ॥2॥

* साधु च रत सुभ च रत कपासू। िनरस िबसद गुनमय फल जासू॥


जो सिह दुख परिछ दुरावा। बंदनीय जेिहं जग जस पावा॥3॥

भावाथ:-संत का च र कपास के च र (जीवन) के समान शुभ है, जसका फल नीरस, िवशद और गुणमय होता
है। (कपास क डोडी नीरस होती है, संत च र म भी िवषयासि नह है, इससे वह भी नीरस है, कपास उ वल
होता है, संत का दय भी अ ान और पाप पी अ धकार से रिहत होता है, इस लए वह िवशद है और कपास म
गुण (तंत )ु होते ह, इसी कार संत का च र भी स गुण का भंडार होता है, इस लए वह गुणमय है।) (जैसे
कपास का धागा सुई के िकए हए छे द को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने
और बुने जाने का क सहकर भी व के प म प रणत होकर दूसर के गोपनीय थान को ढँकता है, उसी
कार) संत वयं दुःख सहकर दूसर के िछ (दोष ) को ढँकता है, जसके कारण उसने जगत म वंदनीय यश
ा िकया है॥3॥

* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥


राम भि जहँ सुरस र धारा। सरसइ िबचार चारा॥4॥

भावाथ:-संत का समाज आनंद और क याणमय है, जो जगत म चलता-िफरता तीथराज ( याग) है। जहाँ (उस
संत समाज पी यागराज म) राम भि पी गंगाजी क धारा है और िवचार का चार सर वतीजी ह॥4॥

* िब ध िनषेधमय क लमल हरनी। करम कथा रिबनंदिन बरनी॥


ह र हर कथा िबराजित बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥

भावाथ:-िव ध और िनषेध (यह करो और यह न करो) पी कम ं क कथा क लयुग के पाप को हरने वाली
सूयतनया यमुनाजी ह और भगवान िव णु और शंकरजी क कथाएँ ि वेणी प से सुशोिभत ह, जो सुनते ही सब
आनंद और क याण को देने वाली ह॥5॥

* बटु िब वास अचल िनज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥


सबिह सुलभ सब िदन सब देसा। सेवत सादर समन कले सा॥6॥

भावाथ:-(उस संत समाज पी याग म) अपने धम म जो अटल िव ास है, वह अ यवट है और शुभ कम ही


उस तीथराज का समाज (प रकर) है। वह (संत समाज पी यागराज) सब देश म, सब समय सभी को सहज
ही म ा हो सकता है और आदरपूवक सेवन करने से ले श को न करने वाला है॥6॥

* अकथ अलौिकक तीरथराऊ। देह स फल गट भाऊ॥7॥

भावाथ:-वह तीथराज अलौिकक और अकथनीय है एवं त काल फल देने वाला है, उसका भाव य है॥7॥

दोहा :

* सुिन समुझिहं जन मुिदत मन म जिहं अित अनुराग।


लहिहं चा र फल अछत तनु साधु समाज याग॥2॥

भावाथ:-जो मनु य इस संत समाज पी तीथराज का भाव स मन से सुनते और समझते ह और िफर


अ य त ेमपूवक इसम गोते लगाते ह, वे इस शरीर के रहते ही धम, अथ, काम, मो - चार फल पा जाते ह॥2॥

चौपाई :

* म जन फल पे खअ ततकाला। काक होिहं िपक बकउ मराला॥


सुिन आचरज करै जिन कोई। सतसंगित मिहमा निहं गोई॥1॥

भावाथ:-इस तीथराज म नान का फल त काल ऐसा देखने म आता है िक कौए कोयल बन जाते ह और बगुले
हंस। यह सुनकर कोई आ य न करे, य िक स संग क मिहमा िछपी नह है॥1॥

* बालमीक नारद घटजोनी। िनज िनज मुखिन कही िनज होनी॥


जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥

भावाथ:-वा मीिकजी, नारदजी और अग यजी ने अपने-अपने मुख से अपनी होनी (जीवन का वृ ांत) कही है।
जल म रहने वाले , जमीन पर चलने वाले और आकाश म िवचरने वाले नाना कार के जड़-चेत न जतने जीव
इस जगत म ह॥2॥

* मित क रित गित भूित भलाई। जब जेिहं जतन जहाँ जेिहं पाई॥
सो जानब सतसंग भाऊ। लोकहँ बेद न आन उपाऊ॥3॥

भावाथ:-उनम से जसने जस समय जहाँ कह भी जस िकसी य न से बुि , क ित, स गित, िवभूित (ऐ य) और


भलाई पाई है, सो सब स संग का ही भाव समझना चािहए। वेद म और लोक म इनक ाि का दूसरा कोई
उपाय नह है॥3॥

* िबनु सतसंग िबबेक न होई। राम कृपा िबनु सुलभ न सोई॥


सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल स ध सब साधन फूला॥4॥

भावाथ:-स संग के िबना िववेक नह होता और ी रामजी क कृपा के िबना वह स संग सहज म िमलता नह ।
स संगित आनंद और क याण क जड़ है। स संग क सि ( ाि ) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

* सठ सुधरिहं सतसंगित पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥


िब ध बस सुजन कुसंगत परह । फिन मिन सम िनज गुन अनुसरह ॥5॥

भावाथ:-दु भी स संगित पाकर सुधर जाते ह, जैसे पारस के पश से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन
जाता है), िक तु दैवयोग से यिद कभी स जन कुसंगित म पड़ जाते ह, तो वे वहाँ भी साँप क मिण के समान
अपने गुण का ही अनुसरण करते ह। (अथात् जस कार साँप का संसग पाकर भी मिण उसके िवष को हण
नह करती तथा अपने सहज गुण काश को नह छोड़ती, उसी कार साधु पु ष दु के संग म रहकर भी दूसर
को काश ही देते ह, दु का उन पर कोई भाव नह पड़ता।)॥5॥

* िब ध ह र हर किब कोिबद बानी। कहत साधु मिहमा सकुचानी॥


सो मो सन किह जात न कैस। साक बिनक मिन गुन गन जैस॥6॥

भावाथ:- ा, िव णु, िशव, किव और प डत क वाणी भी संत मिहमा का वणन करने म सकुचाती है, वह मुझसे
िकस कार नह कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मिणय के गुण समूह नह कहे जा सकते ॥6॥

दोहा :

* बंदउँ संत समान िचत िहत अनिहत निहं कोइ।


अंज ल गत सुभ सुमन जिम सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥

भावाथ:-म संत को णाम करता हँ, जनके िच म समता है, जनका न कोई िम है और न श !ु जैसे अंज ल
म रखे हए सुंदर फूल ( जस हाथ ने फूल को तोड़ा और जसने उनको रखा उन) दोन ही हाथ को समान प
से सुगं धत करते ह (वैसे ही संत श ु और िम दोन का ही समान प से क याण करते ह।)॥3 (क)॥

* संत सरल िचत जगत िहत जािन सुभाउ सनेह।


बालिबनय सुिन क र कृपा राम चरन रित देह॥ 3 (ख)

भावाथ:-संत सरल दय और जगत के िहतकारी होते ह, उनके ऐसे वभाव और नेह को जानकर म िवनय
करता हँ, मेरी इस बाल-िवनय को सुनकर कृपा करके ी रामजी के चरण म मुझे ीित द॥ 3 (ख)॥

चौपाई :

* बह र बंिद खल गन सितभाएँ । जे िबनु काज दािहनेह बाएँ ॥


पर िहत हािन लाभ ज ह केर। उजर हरष िबषाद बसेर॥1॥

भावाथ:-अब म स चे भाव से दु को णाम करता हँ, जो िबना ही योजन, अपना िहत करने वाले के भी
ितकूल आचरण करते ह। दूसर के िहत क हािन ही जनक ि म लाभ है, जनको दूसर के उजड़ने म हष
और बसने म िवषाद होता है॥1॥

* ह र हर जस राकेस राह से। पर अकाज भट सहसबाह से॥


जे पर दोष लखिहं सहसाखी। पर िहत घृत ज ह के मन माखी॥2॥

भावाथ:-जो ह र और हर के यश पी पूिणमा के च मा के लए राह के समान ह (अथात जहाँ कह भगवान


िव णु या शंकर के यश का वणन होता है, उसी म वे बाधा देते ह) और दूसर क बुराई करने म सह बाह के
समान वीर ह। जो दूसर के दोष को हजार आँ ख से देखते ह और दूसर के िहत पी घी के लए जनका मन
म खी के समान है (अथात् जस कार म खी घी म िगरकर उसे खराब कर देत ी है और वयं भी मर जाती है,
उसी कार दु लोग दूसर के बने-बनाए काम को अपनी हािन करके भी िबगाड़ देते ह)॥2॥

*ते ज कृसानु रोष मिहषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥


उदय केत सम िहत सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥

भावाथ:-जो ते ज (दूसर को जलाने वाले ताप) म अि और ोध म यमराज के समान ह, पाप और अवगुण पी


धन म कुबेर के समान धनी ह, जनक बढ़ती सभी के िहत का नाश करने के लए केतु (पु छल तारे) के समान
है और जनके कु भकण क तरह सोते रहने म ही भलाई है॥3॥

* पर अकाजु लिग तनु प रहरह । जिम िहम उपल कृषी द ल गरह ॥


बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥

भावाथ:-जैसे ओले खेत ी का नाश करके आप भी गल जाते ह, वैसे ही वे दूसर का काम िबगाड़ने के लए अपना
शरीर तक छोड़ देते ह। म दु को (हजार मुख वाले ) शे षजी के समान समझकर णाम करता हँ, जो पराए दोष
का हजार मुख से बड़े रोष के साथ वणन करते ह॥4॥

* पुिन नवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥


बह र स सम िबनवउँ ते ही। संत त सुरानीक िहत जेही॥5॥

भावाथ:-पुनः उनको राजा पृथु ( ज ह ने भगवान का यश सुनने के लए दस हजार कान माँगे थे) के समान
जानकर णाम करता हँ, जो दस हजार कान से दूसर के पाप को सुनते ह। िफर इ के समान मानकर उनक
िवनय करता हँ, जनको सुरा (मिदरा) नीक और िहतकारी मालूम देती है (इ के लए भी सुरानीक अथात्
देवताओं क सेना िहतकारी है)॥5॥

* बचन ब जेिह सदा िपआरा। सहस नयन पर दोष िनहारा॥6॥

भावाथ:- जनको कठोर वचन पी व सदा यारा लगता है और जो हजार आँ ख से दूसर के दोष को देखते
ह॥6॥

दोहा :

* उदासीन अ र मीत िहत सुनत जरिहं खल रीित।


जािन पािन जुग जो र जन िबनती करइ स ीित॥4॥

भावाथ:-दु क यह रीित है िक वे उदासीन, श ु अथवा िम , िकसी का भी िहत सुनकर जलते ह। यह जानकर


दोन हाथ जोड़कर यह जन ेमपूवक उनसे िवनय करता है॥4॥

चौपाई :

* म अपनी िद स क ह िनहोरा। ित ह िनज ओर न लाउब भोरा॥


बायस प लअिहं अित अनुरागा। होिहं िनरािमष कबहँ िक कागा॥1॥

भावाथ:-मने अपनी ओर से िवनती क है, पर तु वे अपनी ओर से कभी नह चूकगे। कौओं को बड़े ेम से पा लए,
पर तु वे या कभी मांस के यागी हो सकते ह?॥1॥

* बंदउँ संत अस जन चरना। दुःख द उभय बीच कछु बरना॥


िबछुरत एक ान ह र ले ह । िमलत एक दुख दा न देह ॥2॥

भावाथ:-अब म संत और असंत दोन के चरण क व दना करता हँ, दोन ही दुःख देने वाले ह, पर तु उनम कुछ
अ तर कहा गया है। वह अंत र यह है िक एक (संत) तो िबछुड़ते समय ाण हर ले ते ह और दूसरे (असंत) िमलते
ह, तब दा ण दुःख देते ह। (अथात् संत का िबछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंत का
िमलना।)॥2॥

* उपजिहं एक संग जग माह । जलज ज क जिम गुन िबलगाह ॥


सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जल ध अगाधू॥3॥

भावाथ:-दोन (संत और असंत) जगत म एक साथ पैदा होते ह, पर (एक साथ पैदा होने वाले ) कमल और ज क
क तरह उनके गुण अलग-अलग होते ह। (कमल दशन और पश से सुख देत ा है, िक तु ज क शरीर का पश
पाते ही र चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृ यु पी संसार से उबारने वाला) और असाधु मिदरा के
समान (मोह, माद और जड़ता उ प करने वाला) है, दोन को उ प करने वाला जगत पी अगाध समु एक
ही है। (शा म समु म थन से ही अमृत और मिदरा दोन क उ प बताई गई है।)॥3॥

*भल अनभल िनज िनज करतूत ी। लहत सुजस अपलोक िबभूत ी॥


सुधा सुधाकर सुरस र साधू। गरल अनल क लमल स र याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेिह भाव नीक ते िह सोई॥5॥

भावाथ:-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश क स प पाते ह। अमृत,


च मा, गंगाजी और साधु एवं िवष, अि , क लयुग के पाप क नदी अथात् कमनाशा और िहंसा करने वाला
याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते ह, िक तु जसे जो भाता है, उसे वही अ छा लगता है॥4-5॥

दोहा :

* भलो भलाइिह पै लहइ लहइ िनचाइिह नीचु।


सुधा सरािहअ अमरताँ गरल सरािहअ मीचु॥5॥

भावाथ:-भला भलाई ही हण करता है और नीच नीचता को ही हण िकए रहता है। अमृत क सराहना अमर
करने म होती है और िवष क मारने म॥5॥

चौपाई :

* खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उद ध अवगाहा॥


ते िह त कछु गुन दोष बखाने। सं ह याग न िबनु पिहचाने॥1॥

भावाथ:-दु के पाप और अवगुण क और साधुओं के गुण क कथाएँ - दोन ही अपार और अथाह समु ह।
इसी से कुछ गुण और दोष का वणन िकया गया है, य िक िबना पहचाने उनका हण या याग नह हो सकता॥
1॥

* भले उ पोच सब िब ध उपजाए। गिन गुन दोष बेद िबलगाए॥


कहिहं बेद इितहास पुराना। िब ध पंचु गुन अवगुन साना॥2॥

भावाथ:-भले -बुरे सभी ा के पैदा िकए हए ह, पर गुण और दोष को िवचार कर वेद ने उनको अलग-अलग
कर िदया है। वेद, इितहास और पुराण कहते ह िक ा क यह सृि गुण-अवगुण से सनी हई है॥2॥

* दुख सुख पाप पु य िदन राती। साधु असाधु सुजाित कुजाती॥


दानव देव ऊँच अ नीचू। अिमअ सुजीवनु माह मीचू॥3॥
माया जीव जगदीसा। ल छ अल छ रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरस र मनासा। म मारव मिहदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग िबरागा। िनगमागम गुन दोष िबभागा॥5॥

भावाथ:-दुःख-सुख, पाप-पु य, िदन-रात, साधु-असाधु, सुजाित-कुजाित, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत -िवष,


सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृ यु, माया- , जीव-ई र, स प -द र ता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कमनाशा,
मारवाड़-मालवा, ा ण-कसाई, वग-नरक, अनुराग-वैरा य (ये सभी पदाथ ा क सृि म ह।) वेद-शा ने
उनके गुण-दोष का िवभाग कर िदया है॥3-5॥

दोहा :

* जड़ चेत न गुन दोषमय िब व क ह करतार।


संत हंस गुन गहिहं पय प रह र बा र िबकार॥6॥

भावाथ:-िवधाता ने इस जड़-चेतन िव को गुण-दोषमय रचा है, िक तु संत पी हंस दोष पी जल को छोड़कर


गुण पी दूध को ही हण करते ह॥6॥

चौपाई :

* अस िबबेक जब देइ िबधाता। तब त ज दोष गुनिहं मनु राता॥


काल सुभाउ करम ब रआईं। भले उ कृित बस चुकइ भलाईं॥1॥

भावाथ:-िवधाता जब इस कार का (हंस का सा) िववेक देते ह, तब दोष को छोड़कर मन गुण म अनुर होता
है। काल वभाव और कम क बलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश म होकर कभी-कभी भलाई से चूक
जाते ह॥1॥

* सो सुधा र ह रजन जिम ले ह । द ल दुख दोष िबमल जसु देह ॥


खलउ करिहं भल पाइ सुसंगू। िमटइ न म लन सुभाउ अभंगू॥2॥

भावाथ:-भगवान के भ जैसे उस चूक को सुधार ले ते ह और दुःख-दोष को िमटाकर िनमल यश देते ह, वैसे ही


दु भी कभी-कभी उ म संग पाकर भलाई करते ह, पर तु उनका कभी भंग न होने वाला म लन वभाव नह
िमटता॥2॥

* ल ख सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष ताप पू जअिहं ते ऊ॥


उघरिहं अंत न होइ िनबाह। कालनेिम जिम रावन राह॥3॥

भावाथ:-जो (वेषधारी) ठग ह, उ ह भी अ छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के ताप से जगत पूजता है,
पर तु एक न एक िदन वे चौड़े आ ही जाते ह, अंत तक उनका कपट नह िनभता, जैसे कालनेिम, रावण और राह
का हाल हआ ॥3॥

* िकएहँ कुबेषु साधु सनमानू। जिम जग जामवंत हनुमानू॥


हािन कुसंग सुसंगित लाह। लोकहँ बेद िबिदत सब काह॥4॥

भावाथ:-बुरा वेष बना ले ने पर भी साधु का स मान ही होता है, जैसे जगत म जा बवान् और हनुमान्जी का हआ।
बुरे संग से हािन और अ छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद म है और सभी लोग इसको जानते ह॥
4॥

* गगन चढ़इ रज पवन संगा। क चिहं िमलइ नीच जल संगा॥


साधु असाधु सदन सुक सार । सुिमरिहं राम देिहं गिन गार ॥5॥

भावाथ:-पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे क ओर बहने वाले ) जल के संग से
क चड़ म िमल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुिमरते ह और असाधु के घर के तोता-मैना िगन-
िगनकर गा लयाँ देते ह॥5॥

* धूम कुसंगित का रख होई। ल खअ पुरान मंजु म स सोई॥


सोइ जल अनल अिनल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥

भावाथ:-कुसंग के कारण धुआँ का लख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर याही होकर पुराण लखने के
काम म आता है और वही धुआँ जल, अि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन
जाता है॥6॥

दोहा :

* ह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।


होिहं कुब तु सुब तु जग लखिहं सुल छन लोग॥7 (क)॥

भावाथ:- ह, औष ध, जल, वायु और व - ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार म बुरे और भले पदाथ हो
जाते ह। चतुर एवं िवचारशील पु ष ही इस बात को जान पाते ह॥7 (क)॥

* सम कास तम पाख दुहँ नाम भेद िब ध क ह।


स स सोषक पोषक समु झ जग जस अपजस दी ह॥7 (ख)॥

भावाथ:-महीने के दोन पखवाड़ म उ जयाला और अँधेरा समान ही रहता है, पर तु िवधाता ने इनके नाम म भेद
कर िदया है (एक का नाम शु ल और दूसरे का नाम कृ ण रख िदया)। एक को च मा का बढ़ाने वाला और
दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे िदया॥7 (ख)॥

* जड़ चेत न जग जीव जत सकल राममय जािन।


बंदउँ सब के पद कमल सदा जो र जुग पािन॥7(ग)॥

भावाथ:-जगत म जतने जड़ और चेतन जीव ह, सबको राममय जानकर म उन सबके चरणकमल क सदा दोन
हाथ जोड़कर व दना करता हँ॥7 (ग)॥

* देव दनुज नर नाग खग ेत िपतर गंधब।


बंदउँ िकंनर रजिनचर कृपा करह अब सब॥7 (घ)

भावाथ:-देवता, दै य, मनु य, नाग, प ी, ेत, िपतर, गंधव, िक र और िनशाचर सबको म णाम करता हँ। अब
सब मुझ पर कृपा क जए॥7 (घ)॥

चौपाई :

* आकर चा र लाख चौरासी। जाित जीव जल थल नभ बासी॥


सीय राममय सब जग जानी। करउँ नाम जो र जुग पानी॥1॥

भावाथ:-चौरासी लाख योिनय म चार कार के ( वेदज, अ डज, उि ज, जरायुज) जीव जल, पृ वी और
आकाश म रहते ह, उन सबसे भरे हए इस सारे जगत को ी सीताराममय जानकर म दोन हाथ जोड़कर णाम
करता हँ॥1॥

* जािन कृपाकर िकंकर मोह। सब िम ल करह छािड़ छल छोह॥


िनज बु ध बल भरोस मोिह नाह । तात िबनय करउँ सब पाह ॥2॥

भावाथ:-मुझको अपना दास जानकर कृपा क खान आप सब लोग िमलकर छल छोड़कर कृपा क जए। मुझे
अपने बुि -बल का भरोसा नह है, इसी लए म सबसे िवनती करता हँ॥2॥

* करन चहउँ रघुपित गुन गाहा। लघु मित मो र च रत अवगाहा॥


सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मित रंक मनोरथ राउ॥3॥

भावाथ:-म ी रघुनाथजी के गुण का वणन करना चाहता हँ, पर तु मेरी बुि छोटी है और ी रामजी का च र
अथाह है। इसके लए मुझे उपाय का एक भी अंग अथात् कुछ (ले शमा ) भी उपाय नह सूझता। मेरे मन और
बुि कंगाल ह, िक तु मनोरथ राजा है॥3॥

* मित अित नीच ऊँिच िच आछी। चिहअ अिमअ जग जुरइ न छाछी॥


छिमहिहं स जन मो र िढठाई। सुिनहिहं बालबचन मन लाई॥4॥

भावाथ:-मेरी बुि तो अ य त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने क है, पर जगत म जुड़ती
छाछ भी नह । स जन मेरी िढठाई को मा करगे और मेरे बाल वचन को मन लगाकर ( ेमपूवक) सुनगे॥4॥

* ज बालक कह तोत र बाता। सुनिहं मुिदत मन िपतु अ माता॥


हँ सहिहं कूर कुिटल कुिबचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥5॥

भावाथ:-जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-िपता उ ह स मन से सुनते ह, िक तु ू र,


कुिटल और बुरे िवचार वाले लोग जो दूसर के दोष को ही भूषण प से धारण िकए रहते ह (अथात् ज ह पराए
दोष ही यारे लगते ह), हँसगे॥5॥

* िनज किब केिह लाग न नीका। सरस होउ अथवा अित फ का॥
जे पर भिनित सुनत हरषाह । ते बर पु ष बहत जग नाह ॥6॥

भावाथ:-रसीली हो या अ य त फ क , अपनी किवता िकसे अ छी नह लगती? िक तु जो दूसरे क रचना को


सुनकर हिषत होते ह, ऐसे उ म पु ष जगत म बहत नह ह॥6॥

* जग बह नर सर स र सम भाई। जे िनज बािढ़ बढ़िह जल पाई॥


स जन सकृत संधु सम कोई। दे ख पूर िबधु बाढ़इ जोई॥7॥

भावाथ:-हे भाई! जगत म तालाब और निदय के समान मनु य ही अ धक ह, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से
बढ़ते ह (अथात् अपनी ही उ ित से स होते ह)। समु सा तो कोई एक िबरला ही स जन होता है, जो
च मा को पूण देखकर (दूसर का उ कष देखकर) उमड़ पड़ता है॥7॥

दोहा :

* भाग छोट अिभलाषु बड़ करउँ एक िब वास।


पैहिहं सुख सुिन सुजन सब खल क रहिहं उपहास॥8॥

भावाथ:-मेरा भा य छोटा है और इ छा बहत बड़ी है, पर तु मुझे एक िव ास है िक इसे सुनकर स जन सभी सुख
पावगे और दु हँसी उड़ावगे॥8॥

चौपाई :

* खल प रहास होइ िहत मोरा। काक कहिहं कलकंठ कठोरा॥


हंसिह बक दादुर चातकही। हँसिहं म लन खल िबमल बतकही॥1॥

भावाथ:-िक तु दु के हँसने से मेरा िहत ही होगा। मधुर क ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते ह।
जैसे बगुले हंस को और मढक पपीहे को हँसते ह, वैसे ही म लन मन वाले दु िनमल वाणी को हँसते ह॥1॥

* किबत र सक न राम पद नेह। ित ह कहँ सुखद हास रस एह॥


भाषा भिनित भो र मित मोरी। हँ सबे जो हँस निहं खोरी॥2॥

भावाथ:-जो न तो किवता के र सक ह और न जनका ी रामच जी के चरण म ेम है, उनके लए भी यह


किवता सुखद हा यरस का काम देगी। थम तो यह भाषा क रचना है, दूसरे मेरी बुि भोली है, इससे यह हँसने
के यो य ही है, हँसने म उ ह कोई दोष नह ॥2॥

* भु पद ीित न सामु झ नीक । ित हिह कथा सुिन लािगिह फ क ॥


ह र हर पद रित मित न कुतर क । ित ह कहँ मधुर कथा रघुबर क ॥3॥

भावाथ:- ज ह न तो भु के चरण म ेम है और न अ छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने म फ क लगेगी।


जनक ी ह र (भगवान िव णु) और ी हर (भगवान िशव) के चरण म ीित है और जनक बुि कुतक करने
वाली नह है (जो ी ह र-हर म भेद क या ऊँच-नीच क क पना नह करते ), उ ह ी रघुनाथजी क यह कथा
मीठी लगेगी॥3॥

* राम भगित भूिषत जयँ जानी। सुिनहिहं सुजन सरािह सुबानी॥


किब न होउँ निहं बचन बीनू। सकल कला सब िब ा हीनू॥4॥

भावाथ:-स जनगण इस कथा को अपने जी म ी रामजी क भि से भूिषत जानकर सुंदर वाणी से सराहना
करते हए सुनगे। म न तो किव हँ, न वा य रचना म ही कुशल हँ, म तो सब कलाओं तथा सब िव ाओं से रिहत
हँ॥4॥

* आखर अरथ अलं कृित नाना। छं द बंध अनेक िबधाना॥


भाव भेद रस भेद अपारा। किबत दोष गुन िबिबध कारा॥5॥

भावाथ:-नाना कार के अ र, अथ और अलं कार, अनेक कार क छं द रचना, भाव और रस के अपार भेद
और किवता के भाँित-भाँित के गुण-दोष होते ह॥5॥

* किबत िबबेक एक निहं मोर। स य कहउँ ल ख कागद कोर॥6॥

भावाथ:-इनम से का य स ब धी एक भी बात का ान मुझम नह है, यह म कोरे कागज पर लखकर


(शपथपूवक) स य-स य कहता हँ॥6॥

दोहा :

* भिनित मो र सब गुन रिहत िब व िबिदत गुन एक।


सो िबचा र सुिनहिहं सुमित ज ह क िबमल िबबेक॥9॥

भावाथ:-मेरी रचना सब गुण से रिहत है, इसम बस, जग स एक गुण है। उसे िवचारकर अ छी बुि वाले
पु ष, जनके िनमल ान है, इसको सुनगे॥9॥

चौपाई :

* एिह महँ रघुपित नाम उदारा। अित पावन पुरान ुित सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सिहत जेिह जपत पुरारी॥1॥

भावाथ:-इसम ी रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अ य त पिव है, वेद-पुराण का सार है, क याण का भवन है
और अमंगल को हरने वाला है, जसे पावतीजी सिहत भगवान िशवजी सदा जपा करते ह॥1॥

* भिनित िबिच सुकिब कृत जोऊ। राम नाम िबनु सोह न सोउ॥
िबधुबदनी सब भाँित सँवारी। सोह न बसन िबना बर नारी॥2॥

भावाथ:-जो अ छे किव के ारा रची हई बड़ी अनूठी किवता है, वह भी राम नाम के िबना शोभा नह पाती। जैसे
च मा के समान मुख वाली सुंदर ी सब कार से सुस जत होने पर भी व के िबना शोभा नह देत ी॥2॥

*सब गुन रिहत कुकिब कृत बानी। राम नाम जस अंिकत जानी॥
सादर कहिहं सुनिहं बुध ताही। मधुकर स रस संत गुन ाही॥3॥

भावाथ:-इसके िवपरीत, कुकिव क रची हई सब गुण से रिहत किवता को भी, राम के नाम एवं यश से अंिकत
जानकर, बुि मान लोग आदरपूवक कहते और सुनते ह, य िक संत जन भ रे क भाँित गुण ही को हण करने
वाले होते ह॥3॥

*जदिप किबत रस एकउ नाह । राम ताप गट एिह माह ॥


सोइ भरोस मोर मन आवा। केिहं न सुसंग बड़ पनु पावा॥4॥

भावाथ:-य िप मेरी इस रचना म किवता का एक भी रस नह है, तथािप इसम ी रामजी का ताप कट है। मेरे
मन म यही एक भरोसा है। भले संग से भला, िकसने बड़ पन नह पाया?॥4॥

*धूमउ तजइ सहज क आई। अग संग सुगंध बसाई॥


भिनित भदेस ब तु भ ल बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥5॥

भावाथ:-धुआँ भी अगर के संग से सुगं धत होकर अपने वाभािवक कड़ु वेपन को छोड़ देत ा है। मेरी किवता
अव य भ ी है, पर तु इसम जगत का क याण करने वाली रामकथा पी उ म व तु का वणन िकया गया है।
(इससे यह भी अ छी ही समझी जाएगी।)॥5॥

छं द :

*मंगल करिन क लमल हरिन तुलसी कथा रघुनाथ क ।


गित कूर किबता स रत क य स रत पावन पाथ क ॥
भु सुजस संगित भिनित भ ल होइिह सुजन मन भावनी
भव अंग भूित मसान क सुिमरत सुहाविन पावनी॥

भावाथ:-तुलसीदासजी कहते ह िक ी रघुनाथजी क कथा क याण करने वाली और क लयुग के पाप को हरने
वाली है। मेरी इस भ ी किवता पी नदी क चाल पिव जल वाली नदी (गंगाजी) क चाल क भाँित टे ढ़ी है।
भु ी रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह किवता सुंदर तथा स जन के मन को भाने वाली हो जाएगी।
मशान क अपिव राख भी ी महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और मरण करते ही पिव करने
वाली होती है।

दोहाः

*ि य लािगिह अित सबिह मम भिनित राम जस संग।


दा िबचा िक करइ कोउ बंिदअ मलय संग॥10 क॥

भावाथ:- ी रामजी के यश के संग से मेरी किवता सभी को अ य त ि य लगेगी। जैसे मलय पवत के संग से
का मा (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, िफर या कोई काठ (क तु छता) का िवचार करता है?॥10 (क)॥

* याम सुरिभ पय िबसद अित गुनद करिहं सब पान।


िगरा ा य सय राम जस गाविहं सुनिहं सुजान ॥10 ख॥

भावाथ:- यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उ वल और बहत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग
उसे पीते ह। इसी तरह गँवा भाषा म होने पर भी ी सीतारामजी के यश को बुि मान लोग बड़े चाव से गाते
और सुनते ह॥10 (ख)॥

चौपाई :

*मिन मािनक मुकुता छिब जैसी। अिह िग र गज सर सोह न तैसी॥


नृप िकरीट त नी तनु पाई। लहिहं सकल सोभा अ धकाई॥1॥

भावाथ:-मिण, मािणक और मोती क जैसी सुंदर छिब है, वह साँप, पवत और हाथी के म तक पर वैसी शोभा नह
पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती ी के शरीर को पाकर ही ये सब अ धक शोभा को ा होते ह॥1॥

*तैसेिहं सुकिब किबत बुध कहह । उपजिहं अनत अनत छिब लहह ॥
भगित हेत ु िब ध भवन िबहाई। सुिमरत सारद आवित धाई॥2॥

भावाथ:-इसी तरह, बुि मान लोग कहते ह िक सुकिव क किवता भी उ प और कह होती है और शोभा अ य
कह पाती है (अथात किव क वाणी से उ प हई किवता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका िवचार, चार तथा
उसम क थत आदश का हण और अनुसरण होता है)। किव के मरण करते ही उसक भि के कारण
सर वतीजी लोक को छोड़कर दौड़ी आती ह॥2॥

*राम च रत सर िबनु अ हवाएँ । सो म जाइ न कोिट उपाएँ ॥


किब कोिबद अस दयँ िबचारी। गाविहं ह र जस क ल मल हारी॥3॥

भावाथ:-सर वतीजी क दौड़ी आने क वह थकावट रामच रत पी सरोवर म उ ह नहलाए िबना दूसरे करोड़
उपाय से भी दूर नह होती। किव और प डत अपने दय म ऐसा िवचारकर क लयुग के पाप को हरने वाले ी
ह र के यश का ही गान करते ह॥3॥

*क ह ाकृत जन गुन गाना। सर धुिन िगरा लगत पिछताना॥


दय संधु मित सीप समाना। वाित सारदा कहिहं सुजाना॥4॥

भावाथ:-संसारी मनु य का गुणगान करने से सर वतीजी सर धुनकर पछताने लगती ह (िक म य इसके
बुलाने पर आई)। बुि मान लोग दय को समु , बुि को सीप और सर वती को वाित न के समान कहते
ह॥4॥

*ज बरषइ बर बा र िबचा । हो िहं किबत मुकुतामिन चा ॥5॥

भावाथ:-इसम यिद े िवचार पी जल बरसता है तो मु ा मिण के समान सुंदर किवता होती है॥5॥

दोहा :

*जुगुित बे ध पुिन पोिहअिहं रामच रत बर ताग।


पिहरिहं स जन िबमल उर सोभा अित अनुराग॥11॥

भावाथ:-उन किवता पी मु ामिणय को युि से बेधकर िफर रामच र पी सुंदर तागे म िपरोकर स जन
लोग अपने िनमल दय म धारण करते ह, जससे अ य त अनुराग पी शोभा होती है (वे आ य तक ेम को
ा होते ह)॥11॥

चौपाई :

*जे जनमे क लकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥


चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कले वर क ल मल भाँड़े॥1॥

भावाथ:-जो कराल क लयुग म ज मे ह, जनक करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमाग को
छोड़कर कुमाग पर चलते ह, जो कपट क मूित और क लयुग के पाप के भाँड़ ह॥1॥

*बंचक भगत कहाइ राम के। िकंकर कंचन कोह काम के॥
ित ह महँ थम रेख जग मोरी। ध ग धरम वज धंधक धोरी॥2॥

भावाथ:-जो ी रामजी के भ कहलाकर लोग को ठगते ह, जो धन (लोभ), ोध और काम के गुलाम ह और


जो ध गाध गी करने वाले , धम वजी (धम क झूठी वजा फहराने वाले द भी) और कपट के ध ध का बोझ ढोने
वाले ह, संसार के ऐसे लोग म सबसे पहले मेरी िगनती है॥2॥

*ज अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार निहं लहऊँ ॥


ताते म अित अलप बखाने। थोरे महँ जािनहिहं सयाने ॥3॥

भावाथ:-यिद म अपने सब अवगुण को कहने लगूँ तो कथा बहत बढ़ जाएगी और म पार नह पाऊँगा। इससे मने
बहत कम अवगुण का वणन िकया है। बुि मान लोग थोड़े ही म समझ लगे॥3॥

*समु झ िबिब ध िब ध िबनती मोरी। कोउ न कथा सुिन देइिह खोरी॥


एते ह पर क रहिहं जे असंका। मोिह ते अ धक ते जड़ मित रंका॥4॥

भावाथ:-मेरी अनेक कार क िवनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नह देगा। इतने पर भी
जो शंका करगे, वे तो मुझसे भी अ धक मूख और बुि के कंगाल ह॥4॥

*किब न होउँ निहं चतुर कहावउँ । मित अनु प राम गुन गावउँ ॥
कहँ रघुपित के च रत अपारा। कहँ मित मो र िनरत संसारा॥5॥

भावाथ:-म न तो किव हँ, न चतुर कहलाता हँ, अपनी बुि के अनुसार ी रामजी के गुण गाता हँ। कहाँ तो ी
रघुनाथजी के अपार च र , कहाँ संसार म आस मेरी बुि !॥5॥।

*जेिहं मा त िग र मे उड़ाह । कहह तूल केिह ले खे माह ॥


समुझत अिमत राम भुताई। करत कथा मन अित कदराई॥6॥

भावाथ:- जस हवा से सुमे जैसे पहाड़ उड़ जाते ह, किहए तो, उसके सामने ई िकस िगनती म है। ी रामजी
क असीम भुता को समझकर कथा रचने म मेरा मन बहत िहचकता है-॥6॥

दोहा :

*सारद सेस महेस िब ध आगम िनगम पुरान।


नेित नेित किह जासु गुन करिहं िनरंत र गान॥12॥

भावाथ:-सर वतीजी, शे षजी, िशवजी, ाजी, शा , वेद और पुराण- ये सब ‘नेित-नेित’ कहकर (पार नह पाकर
‘ऐसा नह ’, ऐसा नह कहते हए) सदा जनका गुणगान िकया करते ह॥12॥

चौपाई :

*सब जानत भु भुत ा सोई। तदिप कह िबनु रहा न कोई॥


तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन भाउ भाँित बह भाषा॥1॥

भावाथ:-य िप भु ी रामच जी क भुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते ह, तथािप कहे िबना कोई नह
रहा। इसम वेद ने ऐसा कारण बताया है िक भजन का भाव बहत तरह से कहा गया है। (अथात भगवान क
मिहमा का पूरा वणन तो कोई कर नह सकता, पर तु जससे जतना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना
चािहए, य िक भगवान के गुणगान पी भजन का भाव बहत ही अनोखा है, उसका नाना कार से शा म
वणन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनु य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥1॥

*एक अनीह अ प अनामा। अज स चदानंद पर धामा॥


यापक िब व प भगवाना। ते िहं ध र देह च रत कृत नाना॥2॥

भावाथ:-जो परमे र एक है, जनके कोई इ छा नह है, जनका कोई प और नाम नह है, जो अज मा,
स चदान द और परमधाम है और जो सबम यापक एवं िव प ह, उ ह भगवान ने िद य शरीर धारण करके
नाना कार क लीला क है॥2॥

*सो केवल भगतन िहत लागी। परम कृपाल नत अनुरागी॥


जेिह जन पर ममता अित छोह। जेिहं क ना क र क ह न कोह॥3॥

भावाथ:-वह लीला केवल भ के िहत के लए ही है, य िक भगवान परम कृपालु ह और शरणागत के बड़े ेमी
ह। जनक भ पर बड़ी ममता और कृपा है, ज ह ने एक बार जस पर कृपा कर दी, उस पर िफर कभी ोध
नह िकया॥3॥

*गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल सािहब रघुराजू॥


बुध बरनिहं ह र जस अस जानी। करिहं पुनीत सुफल िनज बानी॥4॥

भावाथ:-वे भु ी रघुनाथजी गई हई व तु को िफर ा कराने वाले , गरीब नवाज (दीनब धु), सरल वभाव,
सवशि मान और सबके वामी ह। यही समझकर बुि मान लोग उन ी ह र का यश वणन करके अपनी वाणी
को पिव और उ म फल (मो और दुलभ भगव ेम) देने वाली बनाते ह॥4॥

*ते िहं बल म रघुपित गुन गाथा। किहहउँ नाइ राम पद माथा॥


मुिन ह थम ह र क रित गाई। ते िहं मग चलत सुगम मोिह भाई॥5॥

भावाथ:-उसी बल से (मिहमा का यथाथ वणन नह , पर तु महान फल देने वाला भजन समझकर भगव कृपा के
बल पर ही) म ी रामच जी के चरण म सर नवाकर ी रघुनाथजी के गुण क कथा कहँगा। इसी िवचार से
(वा मीिक, यास आिद) मुिनय ने पहले ह र क क ित गाई है। भाई! उसी माग पर चलना मेरे लए सुगम होगा॥
5॥

दोहा :

*अित अपार जे स रत बर ज नृप सेत ु करािहं।


चिढ़ िपपी लकउ परम लघु िबनु म पारिह जािहं॥13॥

भावाथ:-जो अ य त बड़ी े निदयाँ ह, यिद राजा उन पर पुल बँधा देत ा है, तो अ य त छोटी च िटयाँ भी उन
पर चढ़कर िबना ही प र म के पार चली जाती ह। (इसी कार मुिनय के वणन के सहारे म भी ी रामच र का
वणन सहज ही कर सकूँगा)॥13॥

चौपाई :

*एिह कार बल मनिह देखाई। क रहउँ रघुपित कथा सुहाई॥


यास आिद किब पुंगव नाना। ज ह सादर ह र सुजस बखाना॥1॥

भावाथ:-इस कार मन को बल िदखलाकर म ी रघुनाथजी क सुहावनी कथा क रचना क ँ गा। यास आिद
जो अनेक े किव हो गए ह, ज ह ने बड़े आदर से ी ह र का सुयश वणन िकया है॥1॥

* चरन कमल बंदउँ ित ह केरे। पुरवहँ सकल मनोरथ मेरे॥


क ल के किब ह करउँ परनामा। ज ह बरने रघुपित गुन ामा॥2॥

भावाथ:-म उन सब ( े किवय ) के चरणकमल म णाम करता हँ, वे मेरे सब मनोरथ को पूरा कर। क लयुग
के भी उन किवय को म णाम करता हँ, ज ह ने ी रघुनाथजी के गुण समूह का वणन िकया है॥2॥

* जे ाकृत किब परम सयाने। भाषाँ ज ह ह र च रत बखाने॥


भए जे अहिहं जे होइहिहं आग। नवउँ सबिह कपट सब याग॥3॥

भावाथ:-जो बड़े बुि मान ाकृत किव ह, ज ह ने भाषा म ह र च र का वणन िकया है, जो ऐसे किव पहले हो
चुके ह, जो इस समय वतमान ह और जो आगे ह गे, उन सबको म सारा कपट यागकर णाम करता हँ॥3॥

* होह स देह बरदानू। साधु समाज भिनित सनमानू॥


जो बंध बुध निहं आदरह । सो म बािद बाल किब करह ॥4॥

भावाथ:-आप सब स होकर यह वरदान दी जए िक साधु समाज म मेरी किवता का स मान हो, य िक


बुि मान लोग जस किवता का आदर नह करते , मूख किव ही उसक रचना का यथ प र म करते ह॥4॥

* क रित भिनित भूित भ ल सोई। सुरस र सम सब कहँ िहत होई॥


राम सुक रित भिनित भदेसा। असमंजस अस मोिह अँदेसा॥5॥

भावाथ:-क ित, किवता और स प वही उ म है, जो गंगाजी क तरह सबका िहत करने वाली हो। ी
रामच जी क क ित तो बड़ी सुंदर (सबका अन त क याण करने वाली ही) है, पर तु मेरी किवता भ ी है। यह
असामंज य है (अथात इन दोन का मेल नह िमलता), इसी क मुझे िच ता है॥5॥

* तु हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सअिन सुहाविन टाट पटोरे॥6॥

भावाथ:-पर तु हे किवय ! आपक कृपा से यह बात भी मेरे लए सुलभ हो सकती है। रेशम क सलाई टाट पर
भी सुहावनी लगती है॥6॥

दोहा :

* सरल किबत क रित िबमल सोइ आदरिहं सुजान।


सहज बयर िबसराइ रपु जो सुिन करिहं बखान॥14 क॥

भावाथ:-चतुर पु ष उसी किवता का आदर करते ह, जो सरल हो और जसम िनमल च र का वणन हो तथा
जसे सुनकर श ु भी वाभािवक बैर को भूलकर सराहना करने लग॥14 (क)॥

सो न होई िबनु िबमल मित मोिह मित बल अित थोर।


करह कृपा ह र जस कहउँ पुिन पुिन करउँ िनहोर॥14 ख॥

भावाथ:-ऐसी किवता िबना िनमल बुि के होती नह और मेरी बुि का बल बहत ही थोड़ा है, इस लए बार-बार
िनहोरा करता हँ िक हे किवय ! आप कृपा कर, जससे म ह र यश का वणन कर सकूँ॥14 (ख)॥

* किब कोिबद रघुबर च रत मानस मंजु मराल।


बालिबनय सुिन सु िच ल ख मो पर होह कृपाल॥14 ग॥

भावाथ:-किव और प डतगण! आप जो रामच र पी मानसरोवर के सुंदर हंस ह, मुझ बालक क िवनती


सुनकर और सुंदर िच देखकर मुझ पर कृपा कर॥14 (ग)॥

सोरठा :

* बंदउँ मुिन पद कंजु रामायन जेिहं िनरमयउ।


सखर सुकोमल मंजु दोष रिहत दूषन सिहत॥14 घ॥

भावाथ:-म उन वा मीिक मुिन के चरण कमल क वंदना करता हँ, ज ह ने रामायण क रचना क है, जो खर
(रा स) सिहत होने पर भी (खर (कठोर) से िवपरीत) बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण (रा स) सिहत
होने पर भी दूषण अथात् दोष से रिहत है॥14 (घ)॥

* बंदउँ चा रउ बेद भव बा र ध बोिहत स रस।


ज हिह न सपनेहँ खेद बरनत रघुबर िबसद जसु॥14 ङ॥

भावाथ:-म चार वेद क व दना करता हँ, जो संसार समु के पार होने के लए जहाज के समान ह तथा ज ह
ी रघुनाथजी का िनमल यश वणन करते व न म भी खेद (थकावट) नह होता॥14 (ङ)॥

* बंदउँ िब ध पद रेनु भव सागर जेिहं क ह जहँ।


संत सुधा स स धेनु गटे खल िबष बा नी॥14च॥

भावाथ:-म ाजी के चरण रज क व दना करता हँ, ज ह ने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संत पी
अमृत, च मा और कामधेनु िनकले और दूसरी ओर दु मनु य पी िवष और मिदरा उ प हए॥14 (च)॥

दोहा :

* िबबुध िब बुध ह चरन बंिद कहउँ कर जो र।


होइ स पुरवह सकल मंजु मनोरथ मो र॥14 छ॥

भावाथ:-देवता, ा ण, पंिडत, ह- इन सबके चरण क वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हँ िक आप स


होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथ को पूरा कर॥14 (छ)॥

चौपाई :

* पुिन बंदउँ सारद सुरस रता। जुगल पुनीत मनोहर च रता॥


म जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अिबबेका॥1॥

भावाथ:-िफर म सर वती और देवनदी गंगाजी क वंदना करता हँ। दोन पिव और मनोहर च र वाली ह। एक
(गंगाजी) नान करने और जल पीने से पाप को हरती है और दूसरी (सर वतीजी) गुण और यश कहने और
सुनने से अ ान का नाश कर देती है॥1॥

* गुर िपतु मातु महेस भवानी। नवउँ दीनबंधु िदन दानी॥


सेवक वािम सखा सय पी के। िहत िन प ध सब िब ध तुलसी के॥2॥

भावाथ:- ी महेश और पावती को म णाम करता हँ, जो मेरे गु और माता-िपता ह, जो दीनब धु और िन य दान
करने वाले ह, जो सीतापित ी रामच जी के सेवक, वामी और सखा ह तथा मुझ तुलसीदास का सब कार
से कपटरिहत (स चा) िहत करने वाले ह॥2॥

* क ल िबलोिक जग िहत हर िग रजा। साबर मं जाल ज ह स रजा॥


अनिमल आखर अरथ न जापू। गट भाउ महेस तापू॥3॥

भावाथ:- जन िशव-पावती ने क लयुग को देखकर, जगत के िहत के लए, शाबर म समूह क रचना क , जन
मं के अ र बेमेल ह, जनका न कोई ठीक अथ होता है और न जप ही होता है, तथािप ी िशवजी के ताप से
जनका भाव य है॥3॥

* सो उमेस मोिह पर अनुकूला। क रिहं कथा मुद मंगल मूला॥


सुिम र सवा सव पाइ पसाऊ। ब नउँ रामच रत िचत चाऊ॥4॥

भावाथ:-वे उमापित िशवजी मुझ पर स होकर ( ी रामजी क ) इस कथा को आन द और मंगल क मूल


(उ प करने वाली) बनाएँ गे। इस कार पावतीजी और िशवजी दोन का मरण करके और उनका साद पाकर
म चाव भरे िच से ी रामच र का वणन करता हँ॥4॥

* भिनित मो र सव कृपाँ िबभाती। स स समाज िम ल मनहँ सुराती॥


जे एिह कथिह सनेह समेत ा। किहहिहं सुिनहिहं समु झ सचेत ा॥5॥
होइहिहं राम चरन अनुरागी। क ल मल रिहत सुमंगल भागी॥6॥

भावाथ:-मेरी किवता ी िशवजी क कृपा से ऐसी सुशोिभत होगी, जैसी तारागण के सिहत च मा के साथ राि
शोिभत होती है, जो इस कथा को ेम सिहत एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कह-सुनगे, वे क लयुग के
पाप से रिहत और सुंदर क याण के भागी होकर ी रामच जी के चरण के ेमी बन जाएँ गे॥5-6॥

दोहा :

* सपनेहँ साचेहँ मोिह पर ज हर गौ र पसाउ।


तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भिनित भाउ॥15॥

भावाथ:-यिद मु्झ पर ी िशवजी और पावतीजी क व न म भी सचमुच स ता हो, तो मने इस भाषा किवता


का जो भाव कहा है, वह सब सच हो॥15॥

चौपाई :

* बंदउँ अवध पुरी अित पाविन। सरजू स र क ल कलुष नसाविन॥


नवउँ पुर नर ना र बहोरी। ममता ज ह पर भुिह न थोरी॥1॥

भावाथ:-म अित पिव ी अयो यापुरी और क लयुग के पाप का नाश करने वाली ी सरयू नदी क व दना
करता हँ। िफर अवधपुरी के उन नर-ना रय को णाम करता हँ, जन पर भु ी रामच जी क ममता थोड़ी
नह है (अथात् बहत है)॥1॥

* सय िनंदक अघ ओघ नसाए। लोक िबसोक बनाइ बसाए॥


बंदउँ कौस या िद स ाची। क रित जासु सकल जग माची॥2॥

भावाथ:-उ ह ने (अपनी पुरी म रहने वाले ) सीताजी क िनंदा करने वाले (धोबी और उसके समथक पुर-नर-
ना रय ) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरिहत बनाकर अपने लोक (धाम) म बसा िदया। म कौश या पी
पूव िदशा क व दना करता हँ, जसक क ित सम त संसार म फैल रही है॥2॥

* गटे उ जहँ रघुपित स स चा । िब व सुखद खल कमल तुसा ॥


दसरथ राउ सिहत सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरित मानी॥3॥
करउँ नाम करम मन बानी। करह कृपा सुत सेवक जानी॥
ज हिह िबरिच बड़ भयउ िबधाता। मिहमा अव ध राम िपतु माता॥4॥

भावाथ:-जहाँ (कौश या पी पूव िदशा) से िव को सुख देने वाले और दु पी कमल के लए पाले के समान
ी रामच जी पी सुंदर चं मा कट हए। सब रािनय सिहत राजा दशरथजी को पु य और सुंदर क याण क
मूित मानकर म मन, वचन और कम से णाम करता हँ। अपने पु का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा कर,
जनको रचकर ाजी ने भी बड़ाई पाई तथा जो ी रामजी के माता और िपता होने के कारण मिहमा क सीमा
ह॥3-4॥

सोरठा :

* बंदउँ अवध भुआल स य ेम जेिह राम पद।


िबछुरत दीनदयाल ि य तनु तृन इव प रहरेउ॥16॥

भावाथ:-म अवध के राजा ी दशरथजी क व दना करता हँ, जनका ी रामजी के चरण म स चा ेम था,
ज ह ने दीनदयालु भु के िबछुड़ते ही अपने यारे शरीर को मामूली ितनके क तरह याग िदया॥16॥

चौपाई :

* नवउँ प रजन सिहत िबदेह। जािह राम पद गूढ़ सनेह॥


जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम िबलोकत गटे उ सोई॥1॥

भावाथ:-म प रवार सिहत राजा जनकजी को णाम करता हँ, जनका ी रामजी के चरण म गूढ़ ेम था,
जसको उ ह ने योग और भोग म िछपा रखा था, पर तु ी रामच जी को देखते ही वह कट हो गया॥1॥

* नवउँ थम भरत के चरना। जासु नेम त जाइ न बरना॥


राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

भावाथ:-(भाइय म) सबसे पहले म ी भरतजी के चरण को णाम करता हँ, जनका िनयम और त वणन नह
िकया जा सकता तथा जनका मन ी रामजी के चरणकमल म भ रे क तरह लुभाया हआ है, कभी उनका पास
नह छोड़ता॥2॥

* बंदउँ लिछमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥


रघुपित क रित िबमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥3॥

भावाथ:-म ी ल मणजी के चरण कमल को णाम करता हँ, जो शीतल सुंदर और भ को सुख देने वाले ह।
ी रघुनाथजी क क ित पी िवमल पताका म जनका (ल मणजी का) यश (पताका को ऊँचा करके फहराने
वाले ) दंड के समान हआ॥3॥

* सेष सह सीस जग कारन। जो अवतरेउ भूिम भय टारन॥


सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपा स धु सौिमि गुनाकर॥4॥

भावाथ:-जो हजार सर वाले और जगत के कारण (हजार सर पर जगत को धारण कर रखने वाले ) शे षजी ह,
ज ह ने पृ वी का भय दूर करने के लए अवतार लया, वे गुण क खान कृपा स धु सुिम ानंदन ी ल मणजी
मुझ पर सदा स रह॥4॥

* रपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥


महाबीर िबनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥5॥

भावाथ:-म ी श ु नजी के चरणकमल को णाम करता हँ, जो बड़े वीर, सुशील और ी भरतजी के पीछे
चलने वाले ह। म महावीर ी हनुमानजी क िवनती करता हँ, जनके यश का ी रामच जी ने वयं (अपने
ीमुख से) वणन िकया है॥5॥

सोरठा :

* नवउँ पवनकुमार खल बन पावक यान घन।


जासु दय आगार बसिहं राम सर चाप धर॥17॥

भावाथ:-म पवनकुमार ी हनुमान्जी को णाम करता हँ, जो दु पी वन को भ म करने के लए अि प ह,


जो ान क घनमूित ह और जनके दय पी भवन म धनुष-बाण धारण िकए ी रामजी िनवास करते ह॥17॥

चौपाई :

* किपपित रीछ िनसाचर राजा। अंगदािद जे क स समाजा॥


बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम ज ह पाए॥1॥

भावाथ:-वानर के राजा सु ीवजी, रीछ के राजा जा बवानजी, रा स के राजा िवभीषणजी और अंगदजी आिद
जतना वानर का समाज है, सबके सुंदर चरण क म वदना करता हँ, ज ह ने अधम (पशु और रा स आिद)
शरीर म भी ी रामच जी को ा कर लया॥1॥

* रघुपित चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते ॥


बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे िबनु काम राम के चेरे॥2॥

भावाथ:-पशु, प ी, देवता, मनु य, असुर समेत जतने ी रामजी के चरण के उपासक ह, म उन सबके
चरणकमल क वंदना करता हँ, जो ी रामजी के िन काम सेवक ह॥2॥

* सुक सनकािद भगत मुिन नारद। जे मुिनबर िब यान िबसारद॥


नवउँ सबिह धरिन ध र सीसा। करह कृपा जन जािन मुनीसा॥3॥

भावाथ:-शुकदेवजी, सनकािद, नारदमुिन आिद जतने भ और परम ानी े मुिन ह, म धरती पर सर


टे ककर उन सबको णाम करता हँ, हे मुनी र ! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा क जए॥3॥

* जनकसुत ा जग जनिन जानक । अितसय ि य क नािनधान क ॥


ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ िनरमल मित पावउँ ॥4॥

भावाथ:-राजा जनक क पु ी, जगत क माता और क णा िनधान ी रामच जी क ि यतमा ी जानक जी के


दोन चरण कमल को म मनाता हँ, जनक कृपा से िनमल बुि पाऊँ॥4॥

* पुिन मन बचन कम रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥


राजीवनयन धर धनु सायक। भगत िबपित भंजन सुखदायक॥5॥

भावाथ:-िफर म मन, वचन और कम से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भ क िवप का नाश करने और उ ह


सुख देने वाले भगवान् ी रघुनाथजी के सव समथ चरण कमल क व दना करता हँ॥5॥

दोहा :

* िगरा अरथ जल बीिच सम किहअत िभ न िभ ।


बंदउँ सीता राम पद ज हिह परम ि य ख ॥18॥

भावाथ:-जो वाणी और उसके अथ तथा जल और जल क लहर के समान कहने म अलग-अलग ह, पर तु


वा तव म अिभ (एक) ह, उन ी सीतारामजी के चरण क म वंदना करता हँ, ज ह दीन-दुःखी बहत ही ि य
ह॥18॥

चौपाई :

* बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेत ु कृसानु भानु िहमकर को॥
िब ध ह र हरमय बेद ान सो। अगुन अनूपम गुन िनधान सो॥1॥

भावाथ:-म ी रघुनाथजी के नाम ‘राम’ क वंदना करता हँ, जो कृशानु (अि ), भानु (सूय) और िहमकर (च मा)
का हेतु अथात् ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ प से बीज है। वह ‘राम’ नाम ा, िव णु और िशव प है। वह वेद का ाण है,
िनगुण, उपमारिहत और गुण का भंडार है॥1॥

*महामं जोइ जपत महेसू। कास मुकुित हेत ु उपदेसू॥


मिहमा जासु जान गनराऊ। थम पू जअत नाम भाऊ॥2॥

भावाथ:-जो महामं है, जसे महे र ी िशवजी जपते ह और उनके ारा जसका उपदेश काशी म मुि का
कारण है तथा जसक मिहमा को गणेशजी जानते ह, जो इस ‘राम’ नाम के भाव से ही सबसे पहले पूजे जाते ह॥
2॥

* जान आिदकिब नाम तापू। भयउ सु क र उलटा जापू॥


सहस नाम सम सुिन सव बानी। जिप जेई ं िपय संग भवानी॥3॥

भावाथ:-आिदकिव ी वा मीिकजी रामनाम के ताप को जानते ह, जो उ टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पिव हो
गए। ी िशवजी के इस वचन को सुनकर िक एक राम-नाम सह नाम के समान है, पावतीजी सदा अपने पित
( ी िशवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती ह॥3॥

* हरषे हेतु हे र हर ही को। िकय भूषन ितय भूषन ती को॥


नाम भाउ जान सव नीको। कालकूट फलु दी ह अमी को॥4॥

भावाथ:-नाम के ित पावतीजी के दय क ऐसी ीित देखकर ी िशवजी हिषत हो गए और उ ह ने य म


भूषण प (पित ताओं म िशरोमिण) पावतीजी को अपना भूषण बना लया। (अथात् उ ह अपने अंग म धारण
करके अधािगनी बना लया)। नाम के भाव को ी िशवजी भलीभाँित जानते ह, जस ( भाव) के कारण
कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल िदया॥4॥

दोहा :

* बरषा रतु रघुपित भगित तुलसी सा ल सुदास।


राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

भावाथ:- ी रघुनाथजी क भि वषा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते ह िक उ म सेवकगण धान ह और ‘राम’ नाम
के दो सुंदर अ र सावन-भादो के महीने ह॥19॥

चौपाई :

* आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन िबलोचन जन जय जोऊ॥


ससुिमरत सुलभ सुखद सब काह। लोक लाह परलोक िनबाह॥1॥

भावाथ:-दोन अ र मधुर और मनोहर ह, जो वणमाला पी शरीर के ने ह, भ के जीवन ह तथा मरण करने


म सबके लए सुलभ और सुख देने वाले ह और जो इस लोक म लाभ और परलोक म िनवाह करते ह (अथात्
भगवान के िद य धाम म िद य देह से सदा भगव सेवा म िनयु रखते ह।)॥1॥

* कहत सुनत सुिमरत सुिठ नीके। राम लखन सम ि य तुलसी के॥


बरनत बरन ीित िबलगाती। जीव सम सहज सँघाती॥2॥

भावाथ:-ये कहने, सुनने और मरण करने म बहत ही अ छे (सुंदर और मधुर) ह, तुलसीदास को तो ी राम-
ल मण के समान यारे ह। इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वणन करने म ीित िबलगाती है (अथात बीज
मं क ि से इनके उ चारण, अथ और फल म िभ ता िदख पड़ती है), पर तु ह ये जीव और के समान
वभाव से ही साथ रहने वाले (सदा एक प और एक रस),॥2॥

* नर नारायन स रस सु ाता। जग पालक िबसेिष जन ाता॥


भगित सुितय कल करन िबभूषन। जग िहत हेत ु िबमल िबधु पूषन॥3॥

भावाथ:-ये दोन अ र नर-नारायण के समान सुंदर भाई ह, ये जगत का पालन और िवशे ष प से भ क र ा


करने वाले ह। ये भि िपणी सुंदर ी के कान के सुंदर आभूषण (कणफूल) ह और जगत के िहत के लए
िनमल च मा और सूय ह॥3॥

* वाद तोष सम सुगित सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥


जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमित ह र हलधर से॥4॥

भावाथ:-ये सुंदर गित (मो ) पी अमृत के वाद और तृि के समान ह, क छप और शे षजी के समान पृ वी के
धारण करने वाले ह, भ के मन पी सुंदर कमल म िवहार करने वाले भ रे के समान ह और जीभ पी
यशोदाजी के लए ी कृ ण और बलरामजी के समान (आनंद देने वाले ) ह॥4॥

दोहा :

* एकु छ ु एकु मुकुटमिन सब बरनिन पर जोउ।


तुलसी रघुबर नाम के बरन िबराजत दोउ॥20॥

भावाथ:-तुलसीदासजी कहते ह- ी रघुनाथजी के नाम के दोन अ र बड़ी शोभा देते ह, जनम से एक (रकार)
छ प (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमिण (अनु वार) प से सब अ र के ऊपर है॥20॥

चौपाई :

* समुझत स रस नाम अ नामी। ीित परसपर भु अनुगामी॥


नाम प दुइ ईस उपाधी। अकथ अनािद सुसामु झ साधी॥1॥

भावाथ:-समझने म नाम और नामी दोन एक से ह, िक तु दोन म पर पर वामी और सेवक के समान ीित है


(अथात् नाम और नामी म पूण एकता होने पर भी जैसे वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी कार नाम के पीछे
नामी चलते ह। भु ी रामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते ह (नाम ले ते ही वहाँ आ जाते ह)। नाम
और प दोन ई र क उपा ध ह, ये (भगवान के नाम और प) दोन अिनवचनीय ह, अनािद ह और सुंदर (शु
भि यु ) बुि से ही इनका (िद य अिवनाशी) व प जानने म आता है॥1॥

* को बड़ छोट कहत अपराधू। सुिन गुन भेदु समु झहिहं साधू॥


दे खअिहं प नाम आधीना। प यान निहं नाम िबहीना॥2॥

भावाथ:-इन (नाम और प) म कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुण का तारत य
(कमी-बेशी) सुनकर साधु पु ष वयं ही समझ लगे। प नाम के अधीन देखे जाते ह, नाम के िबना प का ान
नह हो सकता॥2॥

* प िबसेष नाम िबनु जान। करतल गत न परिहं पिहचान॥


सुिम रअ नाम प िबनु देख। आवत दयँ सनेह िबसेष॥3॥

भावाथ:-कोई सा िवशे ष प िबना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हआ भी पहचाना नह जा सकता और प
के िबना देखे भी नाम का मरण िकया जाए तो िवशे ष ेम के साथ वह प दय म आ जाता है॥3॥

* नाम प गित अकथ कहानी। समुझत सुखद न परित बखानी॥


अगुन सगुन िबच नाम सुसाखी। उभय बोधक चतुर दुभाषी॥4॥

भावाथ:-नाम और प क गित क कहानी (िवशे षता क कथा) अकथनीय है। वह समझने म सुखदायक है,
पर तु उसका वणन नह िकया जा सकता। िनगुण और सगुण के बीच म नाम सुंदर सा ी है और दोन का यथाथ
ान कराने वाला चतुर दुभािषया है॥4॥

दोहा :

* राम नाम मिनदीप ध जीह देहर ार।


तुलसी भीतर बाहेरहँ ज चाह स उ जआर॥21॥

भावाथ:-तुलसीदासजी कहते ह, यिद तू भीतर और बाहर दोन ओर उजाला चाहता है, तो मुख पी ार क
जीभ पी देहली पर रामनाम पी मिण-दीपक को रख॥21॥

चौपाई :

* नाम जीहँ जिप जागिहं जोगी। िबरित िबरंिच पंच िबयोगी॥


सुखिह अनुभविहं अनूपा। अकथ अनामय नाम न पा॥1॥

भावाथ:- ा के बनाए हए इस पंच ( य जगत) से भलीभाँित छूटे हए वैरा यवान् मु योगी पु ष इस नाम को
ही जीभ से जपते हए (त व ान पी िदन म) जागते ह और नाम तथा प से रिहत अनुपम, अिनवचनीय,
अनामय सुख का अनुभव करते ह॥1॥

* जाना चहिहं गूढ़ गित जेऊ। नाम जीहँ जिप जानिहं ते ऊ॥


साधक नाम जपिहं लय लाएँ । होिहं स अिनमािदक पाएँ ॥2॥

भावाथ:-जो परमा मा के गूढ़ रह य को (यथाथ मिहमा को) जानना चाहते ह, वे ( ज ासु) भी नाम को जीभ से
जपकर उसे जान ले ते ह। (लौिकक सि य के चाहने वाले अथाथ ) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते ह
और अिणमािद (आठ ) सि य को पाकर स हो जाते ह॥2॥

* जपिहं नामु जन आरत भारी। िमटिहं कुसंकट होिहं सुखारी॥


राम भगत जग चा र कारा। सुकृती चा रउ अनघ उदारा॥3॥

भावाथ:-(संकट से घबड़ाए हए) आत भ नाम जप करते ह, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट िमट जाते ह और
वे सुखी हो जाते ह। जगत म चार कार के (1- अथाथ -धनािद क चाह से भजने वाले , 2-आत संकट क
िनवृ के लए भजने वाले , 3- ज ासु-भगवान को जानने क इ छा से भजने वाले , 4- ानी-भगवान को त व से
जानकर वाभािवक ही ेम से भजने वाले ) रामभ ह और चार ही पु या मा, पापरिहत और उदार ह॥3॥

* चह चतुर कहँ नाम अधारा। यानी भुिह िबसेिष िपआरा॥


चहँ जुग चहँ ुित नाम भाऊ। क ल िबसेिष निहं आन उपाऊ॥4॥

भावाथ:-चार ही चतुर भ को नाम का ही आधार है, इनम ानी भ भु को िवशे ष प से ि य ह। य तो


चार युग म और चार ही वेद म नाम का भाव है, पर तु क लयुग म िवशे ष प से है। इसम तो (नाम को
छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नह है॥4॥

दोहा :

* सकल कामना हीन जे राम भगित रस लीन।


नाम सु ेम िपयूष द ित हहँ िकए मन मीन॥22॥

भावाथ:-जो सब कार क (भोग और मो क भी) कामनाओं से रिहत और ी रामभि के रस म लीन ह,


उ ह ने भी नाम के सुंदर ेम पी अमृत के सरोवर म अपने मन को मछली बना रखा है (अथात् वे नाम पी
सुधा का िनरंतर आ वादन करते रहते ह, णभर भी उससे अलग होना नह चाहते )॥22॥

चौपाई :

* अगुन सगुन दुइ स पा। अकथ अगाध अनािद अनूपा॥


मोर मत बड़ नामु दुह त। िकए जेिहं जुग ि◌नज बस िनज बूत॥1॥

भावाथ:-िनगुण और सगुण के दो व प ह। ये दोन ही अकथनीय, अथाह, अनािद और अनुपम ह। मेरी


स मित म नाम इन दोन से बड़ा है, जसने अपने बल से दोन को अपने वश म कर रखा है॥1॥

* ौिढ़ सुजन जिन जानिहं जन क । कहउँ तीित ीित िच मन क ॥


एकु दा गत दे खअ एकू। पावक सम जुग िबबेकू॥2॥
उभय अगम जुग सुगम नाम त। कहेउँ नामु बड़ राम त॥
यापकु एकु अिबनासी। सत चेत न घन आनँद रासी॥3॥

भावाथ:-स जनगण इस बात को मुझ दास क िढठाई या केवल का योि न समझ। म अपने मन के िव ास, ेम
और िच क बात कहता हँ। (ि◌नगुण और सगुण) दोन कार के का ान अि के समान है। िनगुण उस
अ कट अि के समान है, जो काठ के अंदर है, पर तु िदखती नह और सगुण उस कट अि के समान है, जो
य िदखती है।
(त वतः दोन एक ही ह, केवल कट-अ कट के भेद से िभ मालूम होती ह। इसी कार िनगुण और सगुण
त वतः एक ही ह। इतना होने पर भी) दोन ही जानने म बड़े किठन ह, पर तु नाम से दोन सुगम हो जाते ह। इसी
से मने नाम को (िनगुण) से और (सगुण) राम से बड़ा कहा है, यापक है, एक है, अिवनाशी है, स ा,
चैत य और आन द क घन रािश है॥2-3॥

* अस भु दयँ अछत अिबकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥


नाम िन पन नाम जतन त। सोउ गटत जिम मोल रतन त॥4॥

भावाथ:-ऐसे िवकाररिहत भु के दय म रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी ह। नाम का िन पण करके


(नाम के यथाथ व प, मिहमा, रह य और भाव को जानकर) नाम का जतन करने से ( ापूवक नाम जप
पी साधन करने से) वही ऐसे कट हो जाता है, जैसे र न के जानने से उसका मू य॥4॥

दोहा :

* िनरगुन त एिह भाँित बड़ नाम भाउ अपार।


कहउँ नामु बड़ राम त िनज िबचार अनुसार॥23॥

भावाथ:-इस कार िनगुण से नाम का भाव अ यंत बड़ा है। अब अपने िवचार के अनुसार कहता हँ, िक नाम
(सगुण) राम से भी बड़ा है॥23॥

चौपाई :

* राम भगत िहत नर तनु धारी। सिह संकट िकए साधु सुखारी॥
नामु स ेम जपत अनयासा। भगत होिहं मुद मंगल बासा॥1॥

भावाथ:- ी रामच जी ने भ के िहत के लए मनु य शरीर धारण करके वयं क सहकर साधुओं को सुखी
िकया, पर तु भ गण ेम के साथ नाम का जप करते हए सहज ही म आन द और क याण के घर हो जाते ह॥
1॥।

* राम एक तापस ितय तारी। नाम कोिट खल कुमित सुधारी॥


रिष िहत राम सुकेतुसुत ा क । सिहत सेन सुत क ह िबबाक ॥2॥
सिहत दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिम रिब िन स नासा॥
भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम तापू॥3॥

भावाथ:- ी रामजी ने एक तप वी क ी (अिह या) को ही तारा, पर तु नाम ने करोड़ दु क िबगड़ी बुि को


सुधार िदया। ी रामजी ने ऋिष िव ािम के िहत के लए एक सुकेतु य क क या ताड़का क सेना और पु
(सुबाह) सिहत समाि क , पर तु नाम अपने भ के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देत ा है
जैसे सूय राि का। ी रामजी ने तो वयं िशवजी के धनुष को तोड़ा, पर तु नाम का ताप ही संसार के सब भय
का नाश करने वाला है॥2-3॥

* दंडक बन भु क ह सुहावन। जन मन अिमत नाम िकए पावन॥


िन सचर िनकर दले रघुनंदन।

   

You might also like