Professional Documents
Culture Documents
भावाथ:-उ प , थित (पालन) और संहार करने वाली, ले श को हरने वाली तथा स पूण क याण को
करने वाली ी रामच जी क ि यतमा ी सीताजी को म नम कार करता हँ॥5॥
सोरठा :
भावाथ:- ज ह मरण करने से सब काय स होते ह, जो गण के वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले ह, वे ही
बुि के रािश और शुभ गुण के धाम ( ी गणेशजी) मुझ पर कृपा कर॥1॥
भावाथ:- जनक कृपा से गूँगा बहत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँ गड़ा-लूला दुगम पहाड़ पर चढ़ जाता है,
वे क लयुग के सब पाप को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर िवत ह (दया कर)॥2॥
भावाथ:-जो नीलकमल के समान यामवण ह, पूण खले हए लाल कमल के समान जनके ने ह और जो सदा
ीरसागर पर शयन करते ह, वे भगवान् (नारायण) मेरे दय म िनवास कर॥3॥
भावाथ:- जनका कुंद के पु प और च मा के समान (गौर) शरीर है, जो पावतीजी के ि यतम और दया के धाम ह
और जनका दीन पर नेह है, वे कामदेव का मदन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा कर॥4॥
गु वंदना
चौपाई :
भावाथ:-म गु महाराज के चरण कमल क रज क व दना करता हँ, जो सु िच (सुंदर वाद), सुगंध तथा
अनुराग पी रस से पूण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूण है, जो स पूण भव रोग के प रवार को
नाश करने वाला है॥1॥
भावाथ:-वह रज सुकृित (पु यवान् पु ष) पी िशवजी के शरीर पर सुशोिभत िनमल िवभूित है और सुंदर
क याण और आन द क जननी है, भ के मन पी सुंदर दपण के मैल को दूर करने वाली और ितलक करने
से गुण के समूह को वश म करने वाली है॥2॥
भावाथ:- ी गु महाराज के चरण-नख क योित मिणय के काश के समान है, जसके मरण करते ही दय
म िद य ि उ प हो जाती है। वह काश अ ान पी अ धकार का नाश करने वाला है, वह जसके दय म
आ जाता है, उसके बड़े भा य ह॥3॥
भावाथ:-उसके दय म आते ही दय के िनमल ने खुल जाते ह और संसार पी राि के दोष-दुःख िमट जाते
ह एवं ी रामच र पी मिण और मािण य, गु और कट जहाँ जो जस खान म है, सब िदखाई पड़ने लगते
ह-॥4॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:- ी गु महाराज के चरण क रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो ने के दोष का नाश करने
वाला है। उस अंजन से िववेक पी ने को िनमल करके म संसार पी बंधन से छुड़ाने वाले ी रामच र का
वणन करता हँ॥1॥
भावाथ:-संत का च र कपास के च र (जीवन) के समान शुभ है, जसका फल नीरस, िवशद और गुणमय होता
है। (कपास क डोडी नीरस होती है, संत च र म भी िवषयासि नह है, इससे वह भी नीरस है, कपास उ वल
होता है, संत का दय भी अ ान और पाप पी अ धकार से रिहत होता है, इस लए वह िवशद है और कपास म
गुण (तंत )ु होते ह, इसी कार संत का च र भी स गुण का भंडार होता है, इस लए वह गुणमय है।) (जैसे
कपास का धागा सुई के िकए हए छे द को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने
और बुने जाने का क सहकर भी व के प म प रणत होकर दूसर के गोपनीय थान को ढँकता है, उसी
कार) संत वयं दुःख सहकर दूसर के िछ (दोष ) को ढँकता है, जसके कारण उसने जगत म वंदनीय यश
ा िकया है॥3॥
भावाथ:-संत का समाज आनंद और क याणमय है, जो जगत म चलता-िफरता तीथराज ( याग) है। जहाँ (उस
संत समाज पी यागराज म) राम भि पी गंगाजी क धारा है और िवचार का चार सर वतीजी ह॥4॥
भावाथ:-िव ध और िनषेध (यह करो और यह न करो) पी कम ं क कथा क लयुग के पाप को हरने वाली
सूयतनया यमुनाजी ह और भगवान िव णु और शंकरजी क कथाएँ ि वेणी प से सुशोिभत ह, जो सुनते ही सब
आनंद और क याण को देने वाली ह॥5॥
भावाथ:-वह तीथराज अलौिकक और अकथनीय है एवं त काल फल देने वाला है, उसका भाव य है॥7॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:-इस तीथराज म नान का फल त काल ऐसा देखने म आता है िक कौए कोयल बन जाते ह और बगुले
हंस। यह सुनकर कोई आ य न करे, य िक स संग क मिहमा िछपी नह है॥1॥
भावाथ:-वा मीिकजी, नारदजी और अग यजी ने अपने-अपने मुख से अपनी होनी (जीवन का वृ ांत) कही है।
जल म रहने वाले , जमीन पर चलने वाले और आकाश म िवचरने वाले नाना कार के जड़-चेत न जतने जीव
इस जगत म ह॥2॥
* मित क रित गित भूित भलाई। जब जेिहं जतन जहाँ जेिहं पाई॥
सो जानब सतसंग भाऊ। लोकहँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावाथ:-स संग के िबना िववेक नह होता और ी रामजी क कृपा के िबना वह स संग सहज म िमलता नह ।
स संगित आनंद और क याण क जड़ है। स संग क सि ( ाि ) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥
भावाथ:-दु भी स संगित पाकर सुधर जाते ह, जैसे पारस के पश से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन
जाता है), िक तु दैवयोग से यिद कभी स जन कुसंगित म पड़ जाते ह, तो वे वहाँ भी साँप क मिण के समान
अपने गुण का ही अनुसरण करते ह। (अथात् जस कार साँप का संसग पाकर भी मिण उसके िवष को हण
नह करती तथा अपने सहज गुण काश को नह छोड़ती, उसी कार साधु पु ष दु के संग म रहकर भी दूसर
को काश ही देते ह, दु का उन पर कोई भाव नह पड़ता।)॥5॥
भावाथ:- ा, िव णु, िशव, किव और प डत क वाणी भी संत मिहमा का वणन करने म सकुचाती है, वह मुझसे
िकस कार नह कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मिणय के गुण समूह नह कहे जा सकते ॥6॥
दोहा :
भावाथ:-म संत को णाम करता हँ, जनके िच म समता है, जनका न कोई िम है और न श !ु जैसे अंज ल
म रखे हए सुंदर फूल ( जस हाथ ने फूल को तोड़ा और जसने उनको रखा उन) दोन ही हाथ को समान प
से सुगं धत करते ह (वैसे ही संत श ु और िम दोन का ही समान प से क याण करते ह।)॥3 (क)॥
भावाथ:-संत सरल दय और जगत के िहतकारी होते ह, उनके ऐसे वभाव और नेह को जानकर म िवनय
करता हँ, मेरी इस बाल-िवनय को सुनकर कृपा करके ी रामजी के चरण म मुझे ीित द॥ 3 (ख)॥
चौपाई :
भावाथ:-अब म स चे भाव से दु को णाम करता हँ, जो िबना ही योजन, अपना िहत करने वाले के भी
ितकूल आचरण करते ह। दूसर के िहत क हािन ही जनक ि म लाभ है, जनको दूसर के उजड़ने म हष
और बसने म िवषाद होता है॥1॥
भावाथ:-जैसे ओले खेत ी का नाश करके आप भी गल जाते ह, वैसे ही वे दूसर का काम िबगाड़ने के लए अपना
शरीर तक छोड़ देते ह। म दु को (हजार मुख वाले ) शे षजी के समान समझकर णाम करता हँ, जो पराए दोष
का हजार मुख से बड़े रोष के साथ वणन करते ह॥4॥
भावाथ:-पुनः उनको राजा पृथु ( ज ह ने भगवान का यश सुनने के लए दस हजार कान माँगे थे) के समान
जानकर णाम करता हँ, जो दस हजार कान से दूसर के पाप को सुनते ह। िफर इ के समान मानकर उनक
िवनय करता हँ, जनको सुरा (मिदरा) नीक और िहतकारी मालूम देती है (इ के लए भी सुरानीक अथात्
देवताओं क सेना िहतकारी है)॥5॥
भावाथ:- जनको कठोर वचन पी व सदा यारा लगता है और जो हजार आँ ख से दूसर के दोष को देखते
ह॥6॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:-मने अपनी ओर से िवनती क है, पर तु वे अपनी ओर से कभी नह चूकगे। कौओं को बड़े ेम से पा लए,
पर तु वे या कभी मांस के यागी हो सकते ह?॥1॥
भावाथ:-अब म संत और असंत दोन के चरण क व दना करता हँ, दोन ही दुःख देने वाले ह, पर तु उनम कुछ
अ तर कहा गया है। वह अंत र यह है िक एक (संत) तो िबछुड़ते समय ाण हर ले ते ह और दूसरे (असंत) िमलते
ह, तब दा ण दुःख देते ह। (अथात् संत का िबछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंत का
िमलना।)॥2॥
भावाथ:-दोन (संत और असंत) जगत म एक साथ पैदा होते ह, पर (एक साथ पैदा होने वाले ) कमल और ज क
क तरह उनके गुण अलग-अलग होते ह। (कमल दशन और पश से सुख देत ा है, िक तु ज क शरीर का पश
पाते ही र चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृ यु पी संसार से उबारने वाला) और असाधु मिदरा के
समान (मोह, माद और जड़ता उ प करने वाला) है, दोन को उ प करने वाला जगत पी अगाध समु एक
ही है। (शा म समु म थन से ही अमृत और मिदरा दोन क उ प बताई गई है।)॥3॥
दोहा :
भावाथ:-भला भलाई ही हण करता है और नीच नीचता को ही हण िकए रहता है। अमृत क सराहना अमर
करने म होती है और िवष क मारने म॥5॥
चौपाई :
भावाथ:-दु के पाप और अवगुण क और साधुओं के गुण क कथाएँ - दोन ही अपार और अथाह समु ह।
इसी से कुछ गुण और दोष का वणन िकया गया है, य िक िबना पहचाने उनका हण या याग नह हो सकता॥
1॥
भावाथ:-भले -बुरे सभी ा के पैदा िकए हए ह, पर गुण और दोष को िवचार कर वेद ने उनको अलग-अलग
कर िदया है। वेद, इितहास और पुराण कहते ह िक ा क यह सृि गुण-अवगुण से सनी हई है॥2॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:-िवधाता जब इस कार का (हंस का सा) िववेक देते ह, तब दोष को छोड़कर मन गुण म अनुर होता
है। काल वभाव और कम क बलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश म होकर कभी-कभी भलाई से चूक
जाते ह॥1॥
भावाथ:-जो (वेषधारी) ठग ह, उ ह भी अ छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के ताप से जगत पूजता है,
पर तु एक न एक िदन वे चौड़े आ ही जाते ह, अंत तक उनका कपट नह िनभता, जैसे कालनेिम, रावण और राह
का हाल हआ ॥3॥
भावाथ:-बुरा वेष बना ले ने पर भी साधु का स मान ही होता है, जैसे जगत म जा बवान् और हनुमान्जी का हआ।
बुरे संग से हािन और अ छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद म है और सभी लोग इसको जानते ह॥
4॥
भावाथ:-पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे क ओर बहने वाले ) जल के संग से
क चड़ म िमल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुिमरते ह और असाधु के घर के तोता-मैना िगन-
िगनकर गा लयाँ देते ह॥5॥
भावाथ:-कुसंग के कारण धुआँ का लख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर याही होकर पुराण लखने के
काम म आता है और वही धुआँ जल, अि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन
जाता है॥6॥
दोहा :
भावाथ:- ह, औष ध, जल, वायु और व - ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार म बुरे और भले पदाथ हो
जाते ह। चतुर एवं िवचारशील पु ष ही इस बात को जान पाते ह॥7 (क)॥
भावाथ:-महीने के दोन पखवाड़ म उ जयाला और अँधेरा समान ही रहता है, पर तु िवधाता ने इनके नाम म भेद
कर िदया है (एक का नाम शु ल और दूसरे का नाम कृ ण रख िदया)। एक को च मा का बढ़ाने वाला और
दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे िदया॥7 (ख)॥
भावाथ:-जगत म जतने जड़ और चेतन जीव ह, सबको राममय जानकर म उन सबके चरणकमल क सदा दोन
हाथ जोड़कर व दना करता हँ॥7 (ग)॥
भावाथ:-देवता, दै य, मनु य, नाग, प ी, ेत, िपतर, गंधव, िक र और िनशाचर सबको म णाम करता हँ। अब
सब मुझ पर कृपा क जए॥7 (घ)॥
चौपाई :
भावाथ:-चौरासी लाख योिनय म चार कार के ( वेदज, अ डज, उि ज, जरायुज) जीव जल, पृ वी और
आकाश म रहते ह, उन सबसे भरे हए इस सारे जगत को ी सीताराममय जानकर म दोन हाथ जोड़कर णाम
करता हँ॥1॥
भावाथ:-मुझको अपना दास जानकर कृपा क खान आप सब लोग िमलकर छल छोड़कर कृपा क जए। मुझे
अपने बुि -बल का भरोसा नह है, इसी लए म सबसे िवनती करता हँ॥2॥
भावाथ:-म ी रघुनाथजी के गुण का वणन करना चाहता हँ, पर तु मेरी बुि छोटी है और ी रामजी का च र
अथाह है। इसके लए मुझे उपाय का एक भी अंग अथात् कुछ (ले शमा ) भी उपाय नह सूझता। मेरे मन और
बुि कंगाल ह, िक तु मनोरथ राजा है॥3॥
भावाथ:-मेरी बुि तो अ य त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने क है, पर जगत म जुड़ती
छाछ भी नह । स जन मेरी िढठाई को मा करगे और मेरे बाल वचन को मन लगाकर ( ेमपूवक) सुनगे॥4॥
* िनज किब केिह लाग न नीका। सरस होउ अथवा अित फ का॥
जे पर भिनित सुनत हरषाह । ते बर पु ष बहत जग नाह ॥6॥
भावाथ:-हे भाई! जगत म तालाब और निदय के समान मनु य ही अ धक ह, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से
बढ़ते ह (अथात् अपनी ही उ ित से स होते ह)। समु सा तो कोई एक िबरला ही स जन होता है, जो
च मा को पूण देखकर (दूसर का उ कष देखकर) उमड़ पड़ता है॥7॥
दोहा :
भावाथ:-मेरा भा य छोटा है और इ छा बहत बड़ी है, पर तु मुझे एक िव ास है िक इसे सुनकर स जन सभी सुख
पावगे और दु हँसी उड़ावगे॥8॥
चौपाई :
भावाथ:-िक तु दु के हँसने से मेरा िहत ही होगा। मधुर क ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते ह।
जैसे बगुले हंस को और मढक पपीहे को हँसते ह, वैसे ही म लन मन वाले दु िनमल वाणी को हँसते ह॥1॥
भावाथ:-स जनगण इस कथा को अपने जी म ी रामजी क भि से भूिषत जानकर सुंदर वाणी से सराहना
करते हए सुनगे। म न तो किव हँ, न वा य रचना म ही कुशल हँ, म तो सब कलाओं तथा सब िव ाओं से रिहत
हँ॥4॥
भावाथ:-नाना कार के अ र, अथ और अलं कार, अनेक कार क छं द रचना, भाव और रस के अपार भेद
और किवता के भाँित-भाँित के गुण-दोष होते ह॥5॥
दोहा :
भावाथ:-मेरी रचना सब गुण से रिहत है, इसम बस, जग स एक गुण है। उसे िवचारकर अ छी बुि वाले
पु ष, जनके िनमल ान है, इसको सुनगे॥9॥
चौपाई :
* एिह महँ रघुपित नाम उदारा। अित पावन पुरान ुित सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सिहत जेिह जपत पुरारी॥1॥
भावाथ:-इसम ी रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अ य त पिव है, वेद-पुराण का सार है, क याण का भवन है
और अमंगल को हरने वाला है, जसे पावतीजी सिहत भगवान िशवजी सदा जपा करते ह॥1॥
* भिनित िबिच सुकिब कृत जोऊ। राम नाम िबनु सोह न सोउ॥
िबधुबदनी सब भाँित सँवारी। सोह न बसन िबना बर नारी॥2॥
भावाथ:-जो अ छे किव के ारा रची हई बड़ी अनूठी किवता है, वह भी राम नाम के िबना शोभा नह पाती। जैसे
च मा के समान मुख वाली सुंदर ी सब कार से सुस जत होने पर भी व के िबना शोभा नह देत ी॥2॥
*सब गुन रिहत कुकिब कृत बानी। राम नाम जस अंिकत जानी॥
सादर कहिहं सुनिहं बुध ताही। मधुकर स रस संत गुन ाही॥3॥
भावाथ:-इसके िवपरीत, कुकिव क रची हई सब गुण से रिहत किवता को भी, राम के नाम एवं यश से अंिकत
जानकर, बुि मान लोग आदरपूवक कहते और सुनते ह, य िक संत जन भ रे क भाँित गुण ही को हण करने
वाले होते ह॥3॥
भावाथ:-य िप मेरी इस रचना म किवता का एक भी रस नह है, तथािप इसम ी रामजी का ताप कट है। मेरे
मन म यही एक भरोसा है। भले संग से भला, िकसने बड़ पन नह पाया?॥4॥
भावाथ:-धुआँ भी अगर के संग से सुगं धत होकर अपने वाभािवक कड़ु वेपन को छोड़ देत ा है। मेरी किवता
अव य भ ी है, पर तु इसम जगत का क याण करने वाली रामकथा पी उ म व तु का वणन िकया गया है।
(इससे यह भी अ छी ही समझी जाएगी।)॥5॥
छं द :
भावाथ:-तुलसीदासजी कहते ह िक ी रघुनाथजी क कथा क याण करने वाली और क लयुग के पाप को हरने
वाली है। मेरी इस भ ी किवता पी नदी क चाल पिव जल वाली नदी (गंगाजी) क चाल क भाँित टे ढ़ी है।
भु ी रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह किवता सुंदर तथा स जन के मन को भाने वाली हो जाएगी।
मशान क अपिव राख भी ी महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और मरण करते ही पिव करने
वाली होती है।
दोहाः
भावाथ:- ी रामजी के यश के संग से मेरी किवता सभी को अ य त ि य लगेगी। जैसे मलय पवत के संग से
का मा (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, िफर या कोई काठ (क तु छता) का िवचार करता है?॥10 (क)॥
भावाथ:- यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उ वल और बहत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग
उसे पीते ह। इसी तरह गँवा भाषा म होने पर भी ी सीतारामजी के यश को बुि मान लोग बड़े चाव से गाते
और सुनते ह॥10 (ख)॥
चौपाई :
भावाथ:-मिण, मािणक और मोती क जैसी सुंदर छिब है, वह साँप, पवत और हाथी के म तक पर वैसी शोभा नह
पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती ी के शरीर को पाकर ही ये सब अ धक शोभा को ा होते ह॥1॥
*तैसेिहं सुकिब किबत बुध कहह । उपजिहं अनत अनत छिब लहह ॥
भगित हेत ु िब ध भवन िबहाई। सुिमरत सारद आवित धाई॥2॥
भावाथ:-इसी तरह, बुि मान लोग कहते ह िक सुकिव क किवता भी उ प और कह होती है और शोभा अ य
कह पाती है (अथात किव क वाणी से उ प हई किवता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका िवचार, चार तथा
उसम क थत आदश का हण और अनुसरण होता है)। किव के मरण करते ही उसक भि के कारण
सर वतीजी लोक को छोड़कर दौड़ी आती ह॥2॥
भावाथ:-सर वतीजी क दौड़ी आने क वह थकावट रामच रत पी सरोवर म उ ह नहलाए िबना दूसरे करोड़
उपाय से भी दूर नह होती। किव और प डत अपने दय म ऐसा िवचारकर क लयुग के पाप को हरने वाले ी
ह र के यश का ही गान करते ह॥3॥
भावाथ:-संसारी मनु य का गुणगान करने से सर वतीजी सर धुनकर पछताने लगती ह (िक म य इसके
बुलाने पर आई)। बुि मान लोग दय को समु , बुि को सीप और सर वती को वाित न के समान कहते
ह॥4॥
भावाथ:-इसम यिद े िवचार पी जल बरसता है तो मु ा मिण के समान सुंदर किवता होती है॥5॥
दोहा :
भावाथ:-उन किवता पी मु ामिणय को युि से बेधकर िफर रामच र पी सुंदर तागे म िपरोकर स जन
लोग अपने िनमल दय म धारण करते ह, जससे अ य त अनुराग पी शोभा होती है (वे आ य तक ेम को
ा होते ह)॥11॥
चौपाई :
भावाथ:-जो कराल क लयुग म ज मे ह, जनक करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमाग को
छोड़कर कुमाग पर चलते ह, जो कपट क मूित और क लयुग के पाप के भाँड़ ह॥1॥
*बंचक भगत कहाइ राम के। िकंकर कंचन कोह काम के॥
ित ह महँ थम रेख जग मोरी। ध ग धरम वज धंधक धोरी॥2॥
भावाथ:-यिद म अपने सब अवगुण को कहने लगूँ तो कथा बहत बढ़ जाएगी और म पार नह पाऊँगा। इससे मने
बहत कम अवगुण का वणन िकया है। बुि मान लोग थोड़े ही म समझ लगे॥3॥
भावाथ:-मेरी अनेक कार क िवनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नह देगा। इतने पर भी
जो शंका करगे, वे तो मुझसे भी अ धक मूख और बुि के कंगाल ह॥4॥
*किब न होउँ निहं चतुर कहावउँ । मित अनु प राम गुन गावउँ ॥
कहँ रघुपित के च रत अपारा। कहँ मित मो र िनरत संसारा॥5॥
भावाथ:-म न तो किव हँ, न चतुर कहलाता हँ, अपनी बुि के अनुसार ी रामजी के गुण गाता हँ। कहाँ तो ी
रघुनाथजी के अपार च र , कहाँ संसार म आस मेरी बुि !॥5॥।
भावाथ:- जस हवा से सुमे जैसे पहाड़ उड़ जाते ह, किहए तो, उसके सामने ई िकस िगनती म है। ी रामजी
क असीम भुता को समझकर कथा रचने म मेरा मन बहत िहचकता है-॥6॥
दोहा :
भावाथ:-सर वतीजी, शे षजी, िशवजी, ाजी, शा , वेद और पुराण- ये सब ‘नेित-नेित’ कहकर (पार नह पाकर
‘ऐसा नह ’, ऐसा नह कहते हए) सदा जनका गुणगान िकया करते ह॥12॥
चौपाई :
भावाथ:-य िप भु ी रामच जी क भुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते ह, तथािप कहे िबना कोई नह
रहा। इसम वेद ने ऐसा कारण बताया है िक भजन का भाव बहत तरह से कहा गया है। (अथात भगवान क
मिहमा का पूरा वणन तो कोई कर नह सकता, पर तु जससे जतना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना
चािहए, य िक भगवान के गुणगान पी भजन का भाव बहत ही अनोखा है, उसका नाना कार से शा म
वणन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनु य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥1॥
भावाथ:-जो परमे र एक है, जनके कोई इ छा नह है, जनका कोई प और नाम नह है, जो अज मा,
स चदान द और परमधाम है और जो सबम यापक एवं िव प ह, उ ह भगवान ने िद य शरीर धारण करके
नाना कार क लीला क है॥2॥
भावाथ:-वह लीला केवल भ के िहत के लए ही है, य िक भगवान परम कृपालु ह और शरणागत के बड़े ेमी
ह। जनक भ पर बड़ी ममता और कृपा है, ज ह ने एक बार जस पर कृपा कर दी, उस पर िफर कभी ोध
नह िकया॥3॥
भावाथ:-वे भु ी रघुनाथजी गई हई व तु को िफर ा कराने वाले , गरीब नवाज (दीनब धु), सरल वभाव,
सवशि मान और सबके वामी ह। यही समझकर बुि मान लोग उन ी ह र का यश वणन करके अपनी वाणी
को पिव और उ म फल (मो और दुलभ भगव ेम) देने वाली बनाते ह॥4॥
भावाथ:-उसी बल से (मिहमा का यथाथ वणन नह , पर तु महान फल देने वाला भजन समझकर भगव कृपा के
बल पर ही) म ी रामच जी के चरण म सर नवाकर ी रघुनाथजी के गुण क कथा कहँगा। इसी िवचार से
(वा मीिक, यास आिद) मुिनय ने पहले ह र क क ित गाई है। भाई! उसी माग पर चलना मेरे लए सुगम होगा॥
5॥
दोहा :
भावाथ:-जो अ य त बड़ी े निदयाँ ह, यिद राजा उन पर पुल बँधा देत ा है, तो अ य त छोटी च िटयाँ भी उन
पर चढ़कर िबना ही प र म के पार चली जाती ह। (इसी कार मुिनय के वणन के सहारे म भी ी रामच र का
वणन सहज ही कर सकूँगा)॥13॥
चौपाई :
भावाथ:-इस कार मन को बल िदखलाकर म ी रघुनाथजी क सुहावनी कथा क रचना क ँ गा। यास आिद
जो अनेक े किव हो गए ह, ज ह ने बड़े आदर से ी ह र का सुयश वणन िकया है॥1॥
भावाथ:-म उन सब ( े किवय ) के चरणकमल म णाम करता हँ, वे मेरे सब मनोरथ को पूरा कर। क लयुग
के भी उन किवय को म णाम करता हँ, ज ह ने ी रघुनाथजी के गुण समूह का वणन िकया है॥2॥
भावाथ:-जो बड़े बुि मान ाकृत किव ह, ज ह ने भाषा म ह र च र का वणन िकया है, जो ऐसे किव पहले हो
चुके ह, जो इस समय वतमान ह और जो आगे ह गे, उन सबको म सारा कपट यागकर णाम करता हँ॥3॥
भावाथ:-क ित, किवता और स प वही उ म है, जो गंगाजी क तरह सबका िहत करने वाली हो। ी
रामच जी क क ित तो बड़ी सुंदर (सबका अन त क याण करने वाली ही) है, पर तु मेरी किवता भ ी है। यह
असामंज य है (अथात इन दोन का मेल नह िमलता), इसी क मुझे िच ता है॥5॥
भावाथ:-पर तु हे किवय ! आपक कृपा से यह बात भी मेरे लए सुलभ हो सकती है। रेशम क सलाई टाट पर
भी सुहावनी लगती है॥6॥
दोहा :
भावाथ:-चतुर पु ष उसी किवता का आदर करते ह, जो सरल हो और जसम िनमल च र का वणन हो तथा
जसे सुनकर श ु भी वाभािवक बैर को भूलकर सराहना करने लग॥14 (क)॥
भावाथ:-ऐसी किवता िबना िनमल बुि के होती नह और मेरी बुि का बल बहत ही थोड़ा है, इस लए बार-बार
िनहोरा करता हँ िक हे किवय ! आप कृपा कर, जससे म ह र यश का वणन कर सकूँ॥14 (ख)॥
सोरठा :
भावाथ:-म उन वा मीिक मुिन के चरण कमल क वंदना करता हँ, ज ह ने रामायण क रचना क है, जो खर
(रा स) सिहत होने पर भी (खर (कठोर) से िवपरीत) बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण (रा स) सिहत
होने पर भी दूषण अथात् दोष से रिहत है॥14 (घ)॥
भावाथ:-म चार वेद क व दना करता हँ, जो संसार समु के पार होने के लए जहाज के समान ह तथा ज ह
ी रघुनाथजी का िनमल यश वणन करते व न म भी खेद (थकावट) नह होता॥14 (ङ)॥
भावाथ:-म ाजी के चरण रज क व दना करता हँ, ज ह ने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संत पी
अमृत, च मा और कामधेनु िनकले और दूसरी ओर दु मनु य पी िवष और मिदरा उ प हए॥14 (च)॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:-िफर म सर वती और देवनदी गंगाजी क वंदना करता हँ। दोन पिव और मनोहर च र वाली ह। एक
(गंगाजी) नान करने और जल पीने से पाप को हरती है और दूसरी (सर वतीजी) गुण और यश कहने और
सुनने से अ ान का नाश कर देती है॥1॥
भावाथ:- ी महेश और पावती को म णाम करता हँ, जो मेरे गु और माता-िपता ह, जो दीनब धु और िन य दान
करने वाले ह, जो सीतापित ी रामच जी के सेवक, वामी और सखा ह तथा मुझ तुलसीदास का सब कार
से कपटरिहत (स चा) िहत करने वाले ह॥2॥
भावाथ:- जन िशव-पावती ने क लयुग को देखकर, जगत के िहत के लए, शाबर म समूह क रचना क , जन
मं के अ र बेमेल ह, जनका न कोई ठीक अथ होता है और न जप ही होता है, तथािप ी िशवजी के ताप से
जनका भाव य है॥3॥
भावाथ:-मेरी किवता ी िशवजी क कृपा से ऐसी सुशोिभत होगी, जैसी तारागण के सिहत च मा के साथ राि
शोिभत होती है, जो इस कथा को ेम सिहत एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कह-सुनगे, वे क लयुग के
पाप से रिहत और सुंदर क याण के भागी होकर ी रामच जी के चरण के ेमी बन जाएँ गे॥5-6॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:-म अित पिव ी अयो यापुरी और क लयुग के पाप का नाश करने वाली ी सरयू नदी क व दना
करता हँ। िफर अवधपुरी के उन नर-ना रय को णाम करता हँ, जन पर भु ी रामच जी क ममता थोड़ी
नह है (अथात् बहत है)॥1॥
भावाथ:-उ ह ने (अपनी पुरी म रहने वाले ) सीताजी क िनंदा करने वाले (धोबी और उसके समथक पुर-नर-
ना रय ) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरिहत बनाकर अपने लोक (धाम) म बसा िदया। म कौश या पी
पूव िदशा क व दना करता हँ, जसक क ित सम त संसार म फैल रही है॥2॥
भावाथ:-जहाँ (कौश या पी पूव िदशा) से िव को सुख देने वाले और दु पी कमल के लए पाले के समान
ी रामच जी पी सुंदर चं मा कट हए। सब रािनय सिहत राजा दशरथजी को पु य और सुंदर क याण क
मूित मानकर म मन, वचन और कम से णाम करता हँ। अपने पु का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा कर,
जनको रचकर ाजी ने भी बड़ाई पाई तथा जो ी रामजी के माता और िपता होने के कारण मिहमा क सीमा
ह॥3-4॥
सोरठा :
भावाथ:-म अवध के राजा ी दशरथजी क व दना करता हँ, जनका ी रामजी के चरण म स चा ेम था,
ज ह ने दीनदयालु भु के िबछुड़ते ही अपने यारे शरीर को मामूली ितनके क तरह याग िदया॥16॥
चौपाई :
भावाथ:-म प रवार सिहत राजा जनकजी को णाम करता हँ, जनका ी रामजी के चरण म गूढ़ ेम था,
जसको उ ह ने योग और भोग म िछपा रखा था, पर तु ी रामच जी को देखते ही वह कट हो गया॥1॥
भावाथ:-(भाइय म) सबसे पहले म ी भरतजी के चरण को णाम करता हँ, जनका िनयम और त वणन नह
िकया जा सकता तथा जनका मन ी रामजी के चरणकमल म भ रे क तरह लुभाया हआ है, कभी उनका पास
नह छोड़ता॥2॥
भावाथ:-म ी ल मणजी के चरण कमल को णाम करता हँ, जो शीतल सुंदर और भ को सुख देने वाले ह।
ी रघुनाथजी क क ित पी िवमल पताका म जनका (ल मणजी का) यश (पताका को ऊँचा करके फहराने
वाले ) दंड के समान हआ॥3॥
भावाथ:-जो हजार सर वाले और जगत के कारण (हजार सर पर जगत को धारण कर रखने वाले ) शे षजी ह,
ज ह ने पृ वी का भय दूर करने के लए अवतार लया, वे गुण क खान कृपा स धु सुिम ानंदन ी ल मणजी
मुझ पर सदा स रह॥4॥
भावाथ:-म ी श ु नजी के चरणकमल को णाम करता हँ, जो बड़े वीर, सुशील और ी भरतजी के पीछे
चलने वाले ह। म महावीर ी हनुमानजी क िवनती करता हँ, जनके यश का ी रामच जी ने वयं (अपने
ीमुख से) वणन िकया है॥5॥
सोरठा :
चौपाई :
भावाथ:-वानर के राजा सु ीवजी, रीछ के राजा जा बवानजी, रा स के राजा िवभीषणजी और अंगदजी आिद
जतना वानर का समाज है, सबके सुंदर चरण क म वदना करता हँ, ज ह ने अधम (पशु और रा स आिद)
शरीर म भी ी रामच जी को ा कर लया॥1॥
भावाथ:-पशु, प ी, देवता, मनु य, असुर समेत जतने ी रामजी के चरण के उपासक ह, म उन सबके
चरणकमल क वंदना करता हँ, जो ी रामजी के िन काम सेवक ह॥2॥
दोहा :
चौपाई :
* बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेत ु कृसानु भानु िहमकर को॥
िब ध ह र हरमय बेद ान सो। अगुन अनूपम गुन िनधान सो॥1॥
भावाथ:-म ी रघुनाथजी के नाम ‘राम’ क वंदना करता हँ, जो कृशानु (अि ), भानु (सूय) और िहमकर (च मा)
का हेतु अथात् ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ प से बीज है। वह ‘राम’ नाम ा, िव णु और िशव प है। वह वेद का ाण है,
िनगुण, उपमारिहत और गुण का भंडार है॥1॥
भावाथ:-जो महामं है, जसे महे र ी िशवजी जपते ह और उनके ारा जसका उपदेश काशी म मुि का
कारण है तथा जसक मिहमा को गणेशजी जानते ह, जो इस ‘राम’ नाम के भाव से ही सबसे पहले पूजे जाते ह॥
2॥
भावाथ:-आिदकिव ी वा मीिकजी रामनाम के ताप को जानते ह, जो उ टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पिव हो
गए। ी िशवजी के इस वचन को सुनकर िक एक राम-नाम सह नाम के समान है, पावतीजी सदा अपने पित
( ी िशवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती ह॥3॥
दोहा :
भावाथ:- ी रघुनाथजी क भि वषा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते ह िक उ म सेवकगण धान ह और ‘राम’ नाम
के दो सुंदर अ र सावन-भादो के महीने ह॥19॥
चौपाई :
भावाथ:-ये कहने, सुनने और मरण करने म बहत ही अ छे (सुंदर और मधुर) ह, तुलसीदास को तो ी राम-
ल मण के समान यारे ह। इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वणन करने म ीित िबलगाती है (अथात बीज
मं क ि से इनके उ चारण, अथ और फल म िभ ता िदख पड़ती है), पर तु ह ये जीव और के समान
वभाव से ही साथ रहने वाले (सदा एक प और एक रस),॥2॥
भावाथ:-ये सुंदर गित (मो ) पी अमृत के वाद और तृि के समान ह, क छप और शे षजी के समान पृ वी के
धारण करने वाले ह, भ के मन पी सुंदर कमल म िवहार करने वाले भ रे के समान ह और जीभ पी
यशोदाजी के लए ी कृ ण और बलरामजी के समान (आनंद देने वाले ) ह॥4॥
दोहा :
भावाथ:-तुलसीदासजी कहते ह- ी रघुनाथजी के नाम के दोन अ र बड़ी शोभा देते ह, जनम से एक (रकार)
छ प (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमिण (अनु वार) प से सब अ र के ऊपर है॥20॥
चौपाई :
भावाथ:-इन (नाम और प) म कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुण का तारत य
(कमी-बेशी) सुनकर साधु पु ष वयं ही समझ लगे। प नाम के अधीन देखे जाते ह, नाम के िबना प का ान
नह हो सकता॥2॥
भावाथ:-कोई सा िवशे ष प िबना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हआ भी पहचाना नह जा सकता और प
के िबना देखे भी नाम का मरण िकया जाए तो िवशे ष ेम के साथ वह प दय म आ जाता है॥3॥
भावाथ:-नाम और प क गित क कहानी (िवशे षता क कथा) अकथनीय है। वह समझने म सुखदायक है,
पर तु उसका वणन नह िकया जा सकता। िनगुण और सगुण के बीच म नाम सुंदर सा ी है और दोन का यथाथ
ान कराने वाला चतुर दुभािषया है॥4॥
दोहा :
भावाथ:-तुलसीदासजी कहते ह, यिद तू भीतर और बाहर दोन ओर उजाला चाहता है, तो मुख पी ार क
जीभ पी देहली पर रामनाम पी मिण-दीपक को रख॥21॥
चौपाई :
भावाथ:- ा के बनाए हए इस पंच ( य जगत) से भलीभाँित छूटे हए वैरा यवान् मु योगी पु ष इस नाम को
ही जीभ से जपते हए (त व ान पी िदन म) जागते ह और नाम तथा प से रिहत अनुपम, अिनवचनीय,
अनामय सुख का अनुभव करते ह॥1॥
भावाथ:-जो परमा मा के गूढ़ रह य को (यथाथ मिहमा को) जानना चाहते ह, वे ( ज ासु) भी नाम को जीभ से
जपकर उसे जान ले ते ह। (लौिकक सि य के चाहने वाले अथाथ ) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते ह
और अिणमािद (आठ ) सि य को पाकर स हो जाते ह॥2॥
भावाथ:-(संकट से घबड़ाए हए) आत भ नाम जप करते ह, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट िमट जाते ह और
वे सुखी हो जाते ह। जगत म चार कार के (1- अथाथ -धनािद क चाह से भजने वाले , 2-आत संकट क
िनवृ के लए भजने वाले , 3- ज ासु-भगवान को जानने क इ छा से भजने वाले , 4- ानी-भगवान को त व से
जानकर वाभािवक ही ेम से भजने वाले ) रामभ ह और चार ही पु या मा, पापरिहत और उदार ह॥3॥
दोहा :
चौपाई :
भावाथ:-स जनगण इस बात को मुझ दास क िढठाई या केवल का योि न समझ। म अपने मन के िव ास, ेम
और िच क बात कहता हँ। (ि◌नगुण और सगुण) दोन कार के का ान अि के समान है। िनगुण उस
अ कट अि के समान है, जो काठ के अंदर है, पर तु िदखती नह और सगुण उस कट अि के समान है, जो
य िदखती है।
(त वतः दोन एक ही ह, केवल कट-अ कट के भेद से िभ मालूम होती ह। इसी कार िनगुण और सगुण
त वतः एक ही ह। इतना होने पर भी) दोन ही जानने म बड़े किठन ह, पर तु नाम से दोन सुगम हो जाते ह। इसी
से मने नाम को (िनगुण) से और (सगुण) राम से बड़ा कहा है, यापक है, एक है, अिवनाशी है, स ा,
चैत य और आन द क घन रािश है॥2-3॥
दोहा :
भावाथ:-इस कार िनगुण से नाम का भाव अ यंत बड़ा है। अब अपने िवचार के अनुसार कहता हँ, िक नाम
(सगुण) राम से भी बड़ा है॥23॥
चौपाई :
* राम भगत िहत नर तनु धारी। सिह संकट िकए साधु सुखारी॥
नामु स ेम जपत अनयासा। भगत होिहं मुद मंगल बासा॥1॥
भावाथ:- ी रामच जी ने भ के िहत के लए मनु य शरीर धारण करके वयं क सहकर साधुओं को सुखी
िकया, पर तु भ गण ेम के साथ नाम का जप करते हए सहज ही म आन द और क याण के घर हो जाते ह॥
1॥।