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॥ॐ॥

॥ॐ श्री परमात्मने नम:॥


॥श्री गणेशाय नमः॥

महर्षि वेदव्यास
कृत
लघु चण्डी

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विषय-सूची

आराध्य दे ि स्मरण के लाभ ............................................................................. 3


पाठ की विवध............................................................................................... 4
पूिव-पीवठका ................................................................................................ 7
प्रथम-चररतम् : मधु-कैटभ-िधः ........................................................................ 8
मध्यम-चररतम् मवहषासुर-िधः....................................................................... 22
उत्तम-चररतम् शु म्भ-वनशु म्भ- िधः .................................................................. 30
अथ दे व्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् ........................................................................ 43
श्री मवहषासुरमवदव वन स्तोत्रम् ........................................................................... 49

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आराध्य दे व स्मरण के लाभ

अपने दे िता के पुनीत स्तोत्रोों का वनत्य पाठ करना एक सिव-कल्याणकारी


धावमवक कतव व्य है ॰ इसीवलये प्रत्येक आस्तस्तक वहन्दू अपने इष्ट-दे िता के
स्तोत्रोों का वनत्य पाठ करते हैं ॰

आराध्य दे िता का वनत्य यशो-गान करने से अपनी आत्मा की शु स्ति


होती है ॰

आराध्य दे िता की मवहमा को वनत्य स्मरण करने से अपने में अपूिव


शस्ति का सञ्चार होता है ॰

अपने से महान् आदशों का गुण-गान करने, उनके वदव्य चररत का


श्रिण करने से अपने में भी महान् गुणोों का समािेश होता है और
वनत्य अभ्यास से उनका स्वतः विकास भी होता जाता है ॰

वनत्य स्ति-पाठ द्वारा स्तुवत करनेिाला एक ओर अपने इष्ट-दे िता


की कृपा-दृवष्ट का पात्र बनता है, तो दू सरी ओर अपनी आत्मा को
िह रेमशः वनमवल बनाता है , वजससे धीरे -धीरे उसकी सम्पूणव पाप-
रावश भस्म हो जाती है और िह वदव्य-स्वरूप प्राप्त कर ले ता है ॰

इस प्रकार आत्म-विकास के वलये अपने दे िता के स्तोत्रोों का वनत्य


पाठ करना, एक अत्यन्त ही सहज एिों सरल उपाय है ॰ इसके वलये
न तो विशेष पररश्रम करना पड़ता है , न ही धन आवद की व्यिस्था
करनी पड़ती है ॰ इसके वलये तो केिल अपने दे िता का ध्यान
रॄदयङ्गम करने के वलये ध्यानानुरूप वचत्र और विशुि पाठ-पुस्तक
की आिश्यकता होती है ॰

‘लघु चण्डी' के वनत्य पाठ द्वारा सभी शस्ति बन्धु लाभ उठाये ॰

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पाठ की र्वर्ध

‘श्रीदु गाव सप्तशती' के समान ही महवषव िेदव्यास कृत ‘लघु चण्डी’ के पाठ
की अपनी विशे ष मवहमा है ॰ इसका पाठ करने में वनम्न वनयमोों को ध्यान
में रखना चावहये:

‘लघु-चण्डी' के प्रत्येक श्लोक का भािाथव समझते रॅये उसका पाठ इस


प्रकार करे वक अपने कानोों को उसका प्रत्येक शब्द स्पष्ट सुनाई पड़े ॰

पाठ करने के पूिव स्थान, आसनावद-शोधन-वरेयायें कर ले और


भगिती श्री दु गाव की प्रवतमा, वचत्र या पूजनयन्त्र, जै सी सुविधा हो,
विवधित् अपने सामने स्थावपत कर उसके सम्मुख धूप-दीप की
व्यिस्था कर ले॰

यथा-विवध सोंकल्प करके ही पाठ करना चावहये॰ सोंकल्प के अन्त में


वनम्न िाक्य की योजना कर ले

‘श्रीमहा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वती-प्रीवत-पूिवक
अमुककामना-वसियथं महवष-िेदव्यास-कृत-श्रीमद् -दे िी-
भागितान्तगवत लघु-चण्डी-पाठस्य अमुक-सोंख्यकािृवत्तमहों
कररष्यावम ॰

प्रस्तुत ‘लघु चण्डी' के पाठ में विवनयोगावद का प्रािधान नहीों है वकन्तु


यवद पाठ-कताव की इच्छा हो, तो िह वनम्न प्रकार विवनयोगावद कर
सकता है

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र्वर्नयोग

ॐ अस्य श्रीमद् -दे िी-भागितान्तगवत-लघ-चण्डीपाठस्य श्रीिेदव्यास


ऋवषः
अनुष्टु प् छन्दः,
श्रीमहा-काली-महालक्ष्मी-महा-सरस्वती दे िताः,
ऐों िीजों, ह्ीों शस्तिः, क्ीों कीलकों,
श्रीमहा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वती - प्रीवत - पूिवक अमुक-
कामनावसियथं श्रीलघु-चण्डी-पाठे विवनयोगः

ऋष्यार्द-न्यास

श्रीिेदव्यास-ऋषये नमः वशरवस,


अनुष्टु प्छन्दसे नमः मुखे,
श्रीमहा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वती-दे िताभ्यः नमः रॄवद,
ऐों िीजाय नमः गुह्ये, ह्ीों शिये नमः पादयोः, क्ीों कीलकाय नमः
नाभौ,
श्रीमहा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वती-प्रीवतपिवकों अमुक-कामना-
वसियथं श्रीलघु-चण्डी-पाठे विवनयोगाय नमः

सिाव ङ्ग. ध्यान विद् युद्-दाम-सम-प्रभाों मृग-पवत-स्कन्ध-स्तस्थताों


भीषणाम्,
कन्यावभः करिाल - खेट - विलसिस्तावभरासेविताम्॰
हस्तैश्चरे-गदाऽवस-खेट-विवशखाों श्चापों गुणों तजवनीम् ,
विभ्राणामनलास्तत्मकाों शवश-धराों दु गाव वत्रनेत्राों भजे ॱ

मानस-पू जा

ॐ लों पृथ्वी-तत्त्वात्मकों गन्धों समपवयावम नमः ॰

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ॐ हों आकाश-तत्त्वात्मकों पुष्पों समपवयावम नमः ॰
ॐ यों िायु-तत्त्वात्मकों धूपों ब्रापयावम नमः ॰
ॐ रों अवि-तत्त्वात्मकों दीपों दशव यावम नमः॰
ॐ िों जल-तत्त्वात्मकों नैिेद्यों वनिेदयावम नमः ॰
ॐ सों सिव-तत्त्वात्मकों ताम्बूलों समपवयावम नमः ॰ \

मानस पूजन करने के बाद ‘लघु-चण्डी’ का पाठ करे ॰ पाठ के पूणव होने
पर क्षमा-प्राथव ना करे ॰

यथा ॐ यदक्षरों पद-भ्रष्टों मात्रा-हीनों तु यद् भिेत् ॰


तत् सिं क्षम्यताों दे वि ! प्रसीद परमेश्वरर ॱ

अन्त में आसन का गन्ध-पुष्प से पूजन कर उसे लपेट कर सुरवक्षत स्थान


पर रखकर साों साररक कतव व्योों के पालन में तत्पर हो ॰

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पू वि-पीर्ठका

श्री नारद उिाच:

नारायण धराधार सिव-पालन-कारण !


भितोदीररतों दे िी-चररतों पाप-नाशनम् ॱ
मन्रन्तरे षु सिेषु सा दे िी यत् -स्वरूवपणी॰
यदाकारे ण कुरुते प्रादु भाव ि महे श्वरी ॰॰
तान् नः सिाव न् समाख्यावह दे िी-माहात्म्य-
वमवश्रतान्॰
यथा च येन येनेह पूवजता सोंस्तुताऽवप वह ॰॰
मनोरथान् पूरयवत भिानाों भि-ित्सला॰
तन्नः शुश्रुषमाणानाों दे िी-चररतमुत्तमम् ॰॰
िणव यस्व कृपा-वसन्धो येनाप्नोवत सुखों महत् ॰॰

श्रीनारद बोले :

हे पृथ्वी के आधार-स्वरूप, समस्त सृवष्ट के पालन और कारण-रूप,


नारायण ! आपके द्वारा कवथत दे िी-चररत पापोों का नाश करनेिाला है ॰
सभी मन्रन्तरोों में िे दे िी महे श्वरी वजस स्वरूप और आकार से प्रादु भूवत
होती हैं , उन सभी दे िी-मवहमा से युि आख्यान को कवहए ॰ वजस प्रकार
और वजन-वजनके द्वारा पूवजत और प्रावथव त होकर िे भिोों पर स्ने ह
करनेिाली भिोों की मनोकामनाओों को पूणव करती हैं , िह उत्तम दे िी-
चररत हम सब सुनना चाहते हैं ॰ हे कृपा-सागर ! िणव न करें , वजससे महान्
सुख वमलता है ॰॰

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प्रथम-चररतम्: मधु-कैटभ-वधः

प्रथम चररत: मधु और कैटभ का वध

श्रीनारायण उिाच:

आकणव य महषे ! त्वों चररतों पाप-नाशनम,


सप्तमो मनुराख्यातो मनुिैिस्वतः प्रभुः॰
श्राि-दे िः परानन्द-भोिा मान्यस्तु भू-भुजाम्
ॱ१ॱ

स च िैिस्वत-मनुः पर-दे व्याः प्रसादतः॰


तथा तत् -तपसा चैि जातो मन्रन्तरावधपःॱ२

अष्टमो मनुराख्यातः सािवणव ः प्रवथतः वक्षतौ॰


स जन्मान्तर आराध्य दे िोों तद् -िर-लाभतः ॱ३ॱ

जातो मन्रन्तर-पवतः सिव-राजन्य-पूवजतः॰


महा-परारेमो धीरो दे िी-भस्ति-परायणः ॰॰४॰॰

श्रीनारायण बोले :

हे महान् ऋवष ! पापोों को नष्ट करनेिाले चररत को तु म सुनो ॰ सातिें मनु


परम आनन्द के भोग करनेिाले और भूपवतयोों के आदरणीय श्राि-दे ि
िैिस्वत भगिान् कहे गये हैं ॰॰१॰॰

और िे िैिस्वत मनु परा दे िी की प्रसन्नता और उनकी ही तपस्या से


मन्रन्तर के अवधपवत रॅए हैं ॰॰२॰॰

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आठिें मनु पृथ्वी पर ‘सािवणव ' नाम से प्रवसि हैं ॰ िे पूिव जन्म में दे िी की
पूजा कर उनसे िर पाकर, सब राजाओों के पूज्य बड़े शस्तिशाली, धैयविान्
और दे िी की भस्ति में तत्पर मन्रन्तर-पवत रॅए ॰॰३-४॰॰

श्रीनारद उिाच:

कथों जन्मान्तरे ते न मनुनाईराधनों कृतम् ॰


दे व्याः पृवथव्युद्भिायास्तन्ममाख्यातु महव वस ॱ५ॱ

श्री नारद बोले :

उन मनु ने पूिव-जन्म में पृथ्वी से उत्पन्न दे िी की आराधना कैसे की, यह


मुझे बताइए ॰॰५॰॰

श्री नारायण उिाच:

चैत्र-िोंश-समुद्भूतो राजा स्वारोवचषेऽन्तरे ॰


सुरथो नाम विख्यातो महा-बल-परारेमः ॱ६ॱ

गुण-ग्राही धुनधाव री मान्यः श्रेष्ठः कविः कृती ॰


धन-सोंग्रह-कताव च दाता याचक-मण्डले ॱ७ॱ

अरीणाों मदव नो मानी सिाव स्त्र-कुशलो बली ॰॰


तस्य कदा बभूिुस्ते कोला-विध्वोंवसनो नृपाः
ॱ८ॱ

शत्रिः सैन्य-सवहताः पररिायैनमूवजवताः ॰


रुरुधुनवगरीों तस्य राज्ञो मान-धनस्य वह ॱ६ॱ

तदा स सुरथो नाम राजा सैन्य-समािृतः॰

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वनयवयौ नगरात् स्वीयात् सिव -शत्रु-वनबहव णः
ॱ१०ॱ

तदा स समरे राजा सुरथः शत्रुवभवजव तः॰


अमात्यैमवस्तन्त्रवभश्चैि तस्य कोश-गतों धनम् ॱ११ॱ

रॄतों सिवमशे षेण ततोऽतप्यत भूवमपः॰


वनष्कावसतश्च नगरात् स राजा परम-द् युवतः
ॱ१२ॱ

जगामाश्वमथारुह्य मृगया-वमषतो िनम्॰


एकाकी विजनेशरण्ये बभ्रामोद् भ्रान्त-मानसः
ॱ१३ॱ

मुनेः कस्यवचदागत्य स्वाश्रमों शान्त-मानसः॰


प्रशान्त-जन्तु-सोंयुिों मुवन-वशष्य-गणै युवतम्
ॱ१४ॱ

उिास कवञ्चत् कालों स राजा परम-शोभने॰


आश्रमे मुवन-ियवस्य दीघव-दृष्टेः सुमेधसः ॱ१५ॱ

एकदा स मही-पालो मुवनों पूजािसानके॰


काले गत्वा प्रणम्याशु पप्रच्छ विनयास्तन्रतः
ॱ१६ॱ

श्रीनारायण बोले :

दू सरे मनु स्वारोवचष के समय चैत्र िोंश में सुरथ नाम के एक बड़े शस्ति-
शाली प्रवसि राजा रॅए ॰॰६॰॰

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िे गुवणयोों का आदर करनेिाले , धनुविवद्या के ज्ञाता, पूज्य, श्रेष्ठ कवि, कमवठ,
धन का सोंग्रह करनेिाले और प्रावथव योों के समूह को दान दे नेिाले थे ॰॰७॰॰

शत्रुओों को नष्ट करनेिाले, स्वावभमानी, सभी अस्त्रोों में वनपुण और बलिान


थे ॰ वकसी समय उनकी कोला राजधानी को नष्ट करनेिाले राजा प्रकट
रॅए ॰॰८॰॰

सेना के सवहत शत्रुओों ने बल-गविवत होकर, उस स्वावभमानी राजा की


नगरी को घेर वलया ॰॰ ६॰॰

तब सभी शत्रुओों के नाश-कताव सुरथ नामक राजा सेना-सवहत अपने नगर


से बाहर वनकले ॰॰१०॰॰

तब युि में िे राजा सुरथ शत्रुओों से हार गए ॰ अमात्य और मस्तन्त्रयोों ने ही


कोष के धन को पूणवतया हरण कर वलया और अवत ते जस्वी िे राजा नगर
से बाहर वनकाल वदए गए ॰ इससे भूपवत बड़े दु खी रॅए ॱ११-१२॰॰

अब िे घोड़े पर चढ़कर वशकार के बहाने िन को चले गए और अकेले


वनजव न जोंगल में व्याकुल-मन से घूमने लगे ॰॰१३॰॰

वकसी मुवन के वनजी आश्रम में परॅुँ चकर, जो शान्त जीिोों से और मुवन के
वशष्योों से युि था, शान्त-मन होकर उन राजा ने दू रदशी श्रेष्ठ मुवन सुमेधा
के अवत सुन्दर आश्रम में कुछ समय तक वनिास वकया ॱ१४-१५॰॰

राजा सुरथ उिाच:

मुने ! मम मनो-दु ःखों बाधते चावध-सम्भिम् ॰


ज्ञात-तत्त्वस्य भू-दे ि ! वनष्प्रज्ञस्य च सन्ततम्
ॱ१७ॱ

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शत्रुवभवनववजवतस्यावप रॄत-राज्यस्य सिवशः ॰॰
तथावप ते षु मनवस ममत्वों जायते स्फुटम् ॱ१८ॱ

वकों करोवम ? क्व गच्छावम ? कथों शमव लभे मुने !


त्वदनुग्रहमाशासे िद िेद-विदाों िर ॱ१६ॱ

एक वदन पूजा-समास्तप्त के समय मुवन के पास जाकर उन भूपाल ने प्रणाम


कर विनय-पूिवक पूछा-

हे मुने ! उत्पन्न मानवसक दु ःख तत्व को जाननेिाले मुझको आवध से बराबर


इस प्रकार पीवड़त कर रहा है , मानो हे भूसुर ! मैं अज्ञानी ही रॆुँ ॰॰१६-
१७॰॰

शत्रुओों से परावजत रॆुँ , सब प्रकार से राज्य वछन गया है , विर भी उनके


प्रवत मन में ममत्व उत्पन्न हो रहा है ॱ१८ॱ हे िेदज्ञोों में श्रेष्ठ ॰ बताइए, क्या
करू ुँ ? कहाुँ जाऊुँ ? कैसे शास्तन्त पाऊुँ ? आप ही की दया की आशा है
॰॰१६॰॰

सुमेधा-मुवनरुिाच :

आकणव य मही-पाल ! महाश्चयव-करों परम् ॰॰


दे िी-माहात्म्यमतुलों सिव-काम-प्रदों परम् ॱ२०ॱ

जगन्मयी महा-माया विष्णु-ब्रह्म-हरोद्भिा ॰


सा बलादपरॄत्य जन्तूनाों मानसावन वह ॱ२१ॱ
मोहाय प्रवत-सोंयच्छे वदवत जानीवह भूवमप !
सा सृजत्यस्तखलों विश्वों सा पालयवत सिवदा ॱ२२ॱ

सोंहारे हर-रूपेण सोंहरत्येि भूवमप !

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काम-दात्री महा-माया काल-रावत्रदुव रत्यया
ॱ२३ॱ

विश्व-सोंहाररणी काली कमला कमलालया,


तस्याों सिं जगज्जातों तस्याों विश्वों प्रवतवष्ठतम्॰
लयमेष्यवत तस्याों च तस्मात् सैि परात्परा
ॱ२४ॱ

तस्या दे व्याः प्रसादश्च यस्योपरर भिेन्नृप !


स एि मोहमत्येवत नान्यथा धरणी-पते ! ॱ२५ॱ

मुवन बोले-हे भूपवत ! अत्यन्त आश्चयव-जनक, श्रेष्ठ, अनुपम, सभी कामनाओों


को दे नेिाले दे िी-माहात्म्य' को सुवनए ॰२०॰॰

ब्रह्मा, विष्णु, महे श को उत्पन्न करनेिाली महा-माया विश्व-मयी हैं ॰ िे


प्रावणयोों के रॄदयोों का बल-पूिवक अपहरण कर मोह में डाल दे ती हैं ॰ हे
भूपाल ! जान लीवजए वक िे ही सारे विश्व को उत्पन्न करती हैं , सदै ि िे ही
उसका पालन करती हैं और सोंहार के समय हर के रूप द्वारा िे ही सोंहार
करती हैं ॰ हे भूपाल ! सभी कामनाओों को पूरा करनेिाली महा-माया घोर
काल-रूपी हैं ॱ२१-२२-२३॰॰

विश्व का सोंहार करनेिाली काली ही कमल में वनिास करनेिाली महा-


लक्ष्मी हैं ॰ उन्ीों से सारा सोंसार उत्पन्न रॅआ है , उन्ीों में विश्व स्तस्थत है और
उन्ीों में यह लय हो जायगा ॰ अतएि िे ही श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ हैं ॰ उन दे िी
की प्रसन्नता, हे नृपवत ! वजस पर होती है , िही मोह से पार पाता है ॰ हे ॰
पृथ्वी-पवत ! दू सरा कोई उपाय नहीों है ॱ२४-२५॰॰

राजा सुरथ उिाच :

का सा दे िी त्वया प्रोिा ब्रूवह काल-विदाों िर !

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का मोहयवत सत्त्वावन कारणों वकों भिेद् वद्वज ?
ॱ२६ॱ

कस्मादु त्पद्यते दे िी ? वकों रूपा सा ?


वकमास्तत्मका ?
सिवमाख्यावह भू-दे ि ! कृपया मम सिवतः ॱ२७ॱ

राजा बोले-काल के जाननेिालोों में श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! आपके द्वारा बताई गई िे


दे िी कौन हैं ? प्रावणयोों को कौन मुग्ध करती हैं ? क्या कारण होता है ?
बताइये ॰॰२६॰॰

दे िी वकनसे उत्पन्न होती हैं ? कैसे रूपिाली हैं ? हे भूसुर ! कृपा-पूिवक


मुझे विस्तार-पूिवक सब कुछ बताइए ॰॰२७ॱ

सुमेधा मुवनरुिाच

राजन् ! दे व्याः स्वरूपों ते िणव यावम वनशामय ॰


यथा चोत्पवतता दे िी येन िा सा जगन्मयी ॱ२८ॱ

यदा नारायणो दे िो विश्वों सोंरॄत्य योग-राट् ॰


आस्तीयव शेषों भगिान् समुद्रे वनवद्रतोऽभित्
ॱ२६ॱ

तदा प्रस्वाप-िशगो दे ि-दे िो जनादव नः॰


तत्-कणव -मल-सञ्जातौ दानिौ मधु-कैटभौ
ॱ३०ॱ

ब्रह्माणों हन्तुमुद्युिौ दानिौ घोर-रूवपणौ॰


तदा कमलजो दे िो दृष्वा तौ मधु-कैटभौ ॱ३१ॱ

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वनवद्रतों दे ि-दे िेशों वचन्तामाप दु रत्ययाम् ॰
वनवद्रतो भगिानीशो दानिौ च दु न्तसदौ ॱ३२ॱ

वकों करोवम ? क्व गच्छावम ? कथों शमव लभे


ह्यहम् ?
एिों वचन्तयतस्तस्य पद्म-योनेमवहात्मनः ॱ३३ॱ

बुस्तिः प्रादु रभूत् तात ! तदा कायव-प्रसावधनी॰


यस्या िशों गतो दे िो वनवद्रतो भगिान् हररः
ॱ३४ॱ

ताों दे िीों शरणों यावम वनद्राों सिव -प्रसूवतकाम् ॰

सुमेधा मुवन बोले-


हे राजन् ! िे विश्व-मयी दे िी वजस प्रकार अथिा वजनसे उत्पन्न रॅई और
दे िी का स्वरूप आपसे कहता रॆुँ , सुवनये ॰॰२८॰

योवगराज भगिान् नारायण जब सोंसार का सोंहार कर समुद्र में शे ष-शैय्या


पर सो गये, तब दे िेश्वर जनादव न वनद्रा के िश में हो गये ॰ उनके कानोों के
मैल से मधु और कैटभ- दो राक्षस उत्पन्न रॅए ॰॰२६-३०॰॰

भयङ्कर रूपिाले िे दोनोों दानि ब्रह्मा को मारने को उद्यत रॅए ॰ तब कमल


से उत्पन्न दे ि ब्रह्मा उन मधू और कैटभ को दे खकर तथा दे ि-दे िेश्वर को
सोया रॅआ दे खकर अवत वचस्तन्तत रॅए वक ‘भगिान् ईश्वर सोये रॅए हैं और
दोनोों राक्षसे मारने को तै यार हैं ! क्या करू
ुँ ? कहाुँ जाऊुँ ? मैं कैसे शास्तन्त
पाऊुँ ?' इस प्रकार कमल से उत्पन्न होनेिाले महात्मा ब्रह्मा सोच ही रहे थे
वक हे पुत्र ! कायव वसि करनेिाली यह बुस्ति उनमें उत्पन्न रॅई वक ‘वजसके
िश में होकर भगिान् विष्णु दे ि सो गये हैं , सबको जन्म दे नेिाली उस दे िी
वनद्रा की शरण में जाता रॆुँ ॰॰३१-३४॰॰॰

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ब्रह्मोिाच:

दे ि-दे वि ! जगिावत्र ! भिाभीष्ट-िल-प्रदे


ॱ३५ॱ

जगन्माये ! महा-माये ! समुद्र-शयने ! वशिे !


त्वदाज्ञा-िशगाः सिे स्व-स्व-कायव-विधावयनः
ॱ३६ॱ

काल-रावत्रमवहा-रावत्रमोह-रावत्रमवदोत्कटा॰
व्यावपनी िशगा मान्या महानन्दै क-शे िवधः
ॱ३७ॱ

महनीया महाराध्या माया मधु-मती मही ॰


परा-पराणाों सिेषाों परमा त्वों प्रकीवतव ता ॱ३८ॱ

लज्जा पुवष्टः क्षमा कीवतव ः कास्तन्त-कारुण्य-


विग्रहा॰
कमनीया जगद् -िन्द्या जाग्रदावद-स्वरूवपणी
ॱ३६ॱ

ब्रह्माजी बोले:

भिोों के मनोिास्तित िल दे नेिाली हे दे ि-दे वि ! हे जगन्मातः ! हे


जगन्माये ! हे महा-माये ! हे सागर में सोनेिाली ! हे कल्यावण ! आपकी
आज्ञा के िश में होकर सभी अपना-अपना काम करते हैं ॰॰३५-३६॰॰

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भयङ्कर काल-रावत्र, महा-रावत्र और मोह-रावत्र आप ही हैं ॰ आप सिवत्र
व्याप्त हैं ॰ भिोों के िश में रहती हैं , माननीया हैं और परमानन्द-मयी हैं
॰॰३७॰॰

‘आप महान् हैं , अवत पूज्या हैं , माया-मधुमती-पृथ्वी आप ही हैं ॰ पर से भी


परे और सभी से श्रेष्ठ आप मानी गई हैं ॰॰३८॰॰

आप लज्जा, पूवष्ट, क्षमा, कीवतव , कास्तन्त और करुणा-स्वरूपिाली हैं ॰ आप


सुन्दरी, विश्व-पूज्या और जाग्रत्-स्वप्न-सुषुस्तप्त-तुरीया रूपिाली हैं ॰॰३६॰॰

परमा परमेशानी परानन्द-परायणा ॰


एकाप्येक-स्वरूपा च स-वद्वतीया द्वयास्तत्मका
ॱ४०ॱ

त्रयी वत्र-िगव-वनलया तुयाव तु यव-पदास्तत्मका ॰


पञ्चमी पञ्च-भूतेशी षष्ठी षष्ठे श्वरीवत च ॱ४१ॱ

सप्तमी सप्त-िारे शी सप्त-सप्त िर-प्रदा ॰


अष्टमी िसु-नाथा च नि-ग्रह-मयीश्वरी ॱ४२ॱ

नि-राग-कला रम्या नि सोंख्या निेश्वरी ॰


दशमी दश-वदक्-पूज्या दशाशा-व्यावपनी
रमाॱ४३ॱ

एकादशास्तत्मका चैकादश-रुद्र-वनषेविता ॰
एकादशी-वतवथ-प्रीता एकादश-गणावधपा
ॱ४४ॱ

द्वादशी द्वादश-भुजा द्वादशावदत्य-जन्म-भूः॰


त्रयोदशास्तत्मका दे िी त्रयोदश-गण-वप्रया ॱ४५ॱ

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त्रयोदशावभधा वभन्ना विश्वेदेिावधदे िता॰
चतु दवशेन्द्र-िरदा चतु दवश-मनु-प्रसूः ॱ४६ॱ

पञ्चावधक-दशी-िेद्या पञ्चावधक-दशी वतवथः॰


षोडशी षोडश-भुजा षोडशेन्दु -कला-मयी
ॱ४७ॱ

षोडशात्मक-चन्द्राों शु-व्याप्त-वदव्य-कले िरा॰


एिों रूपाऽवस दे िेवश ! वनगुवणे तामसोदये ॱ४८ॱ

त्वया गृहीतो भगिान् दे ि-दे िो रमा-पवतः॰


एतौ दु रासदौ दै त्यौ विरेान्तौ मधु -कैटभौ
ॱ४६ॱ

एतयोश्च बधाथाव य दे िेशों प्रवतबोधय ॱ५०ॱ

आप परमा, परमेश्वरी और परमानन्द-मयी हैं ॰ अकेली होती हई भी आप


एक-सोंख्या-रूपिाली हैं और वद्वतीया माया से युि होती रॅई भी दो
सोंख्या-रूपिाली हैं ॱ४०ॱ

आप ऋग्-यजु-सामावद िेद-त्रयी या सत्व-रज-तमावद वत्रगुणास्तत्मका हैं ॰


आप धमव-अथव-कामावद तीनोों िगों की धाम हैं ॰ आप चतु थव तु रीयािस्था-
रूवपणी हैं ॰ पोंचमी-रूप में आप वक्षवत-जलपािक-गगन-समीरावद महा-
भूतोों की ईश्वरी हैं ॰ षष्ठी-रूप में आप काम-रेोध-मद-मोह-लोभ-मत्सर
की स्वावमनी हैं ॰॰४१॰॰

सप्तमी-रूप में आप रवि-सोम-भौम बुध-गुरु-शु रे-शवन सात िारोों की


ईश्वरी हैं और सात-सात (अवि) को िर दे नेिाली हैं ॰ अष्टमी-रूप में आप
धर-ध्रुि-सोम-अह-अवनल-अनल-प्रत्यूषप्रभास आवद आठ िसुओों की

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स्वावमनी और रविचन्द्र-मोंगल-बुध-गुरु-शु रे-शवन-रारॅ-केतु नौ ग्रहोों से
युि ईश्वरी हैं ॰॰४२ॱ

नौ रागोों और नौ कलाओों से रमणीया आप नौ-सोंख्यास्तत्मका तथा नि की


ईश्वरी हैं ॰ दशमी-रूप में आप दसोों वदशाओों में पूजनीया हैं और दसोों
वदशाओों में व्याप्त लक्ष्मी-स्वरूपा हैं ॱ४३॰॰॰

एकादश-रूप में ग्यारह रुद्रोों द्वारा आपकी सेिा की जाती है ॰ एकादशी


वतवथ आपको वप्रय है और ग्यारह गणोों की आप स्वावमनी हैं ॰॰४४॰॰

बारह सूयों को जन्म दे नेिाली आप बारह भुजाओों से युि द्वादशी हैं ॰


त्रयोदशी-रूप में आप ते रह गणोों की वप्रय दे िी हैं ॰ विश्वेदेि की अवधष्ठात्री
दे िता होकर आप त्रयोदशी हैं ॰ चौदह इन्द्रोों को आप िर-दावयनी हैं और
चौदह मनुओों की जननी हैं ॰॰४५-४६॰॰

‘पञ्चदशी नाम से प्रवसि आप पञ्चदशी-वतवथ-स्वरूपा हैं ॰ चन्द्र की


सोलहिीों कला से युि एिों सोलह भुजािाली आप षोडशी हैं ॰॰४७॰॰

हे दे िवषव ! चन्द्रमा की सोलह कलाओों से शोवभत आपकी दे ह अलौवकक है


॰ आप ऐसे रूपिाली हो, साथ ही वनगुवण और तामस-स्वरूपा भी हो
॰॰४८॰॰

लक्ष्मी के स्वामी दे िावधदे ि भगिान् विष्णु आपके िश में हैं ॰ मधु और


कैटभ-ये दोनोों राक्षस बड़े भयङ्कर आरेामक हैं ॰ इन दोनोों के सोंहार के
वलए आप दे िेश्वर विष्णु को जगा दें ॱ४६-५० ॰॰

एिों स्तुता भगिती तामसी भगित्-वप्रया॰


दे ि-दे िों तदा त्यक्त्वा मोहयामास दानिौ ॱ५१ॱ

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तदै ि भगिान् विष्णु ः परमात्मा जगत्-पवतः ॰
प्रबोधमाप दे िेशो ददृशे दानिोत्तमौ ॱ५२ॱ

मुवन सुमेधा ने कहा:

ऐसी प्राथव ना वकए जाने पर भगिान् की वप्रयतमा तामसी भगिती ने


दे िावधदे ि विष्णु को छोड़कर दोनोों राक्षसोों को मोह में डाल वदया ॰॰५१ॱ

तभी जगदीश्वर परमात्मा भगिान् विष्णु जाग गए और उन दे िेश्वर ने दोनोों


श्रेष्ठ राक्षसोों को दे खा ॰॰५२॰॰

तदा तौ दानिौ घोरौ दृष्वा तों मधु-सूदनम् ॰


युिाय कृत-सङ्कल्पौ जग्मतु ः सवन्नवधों हरे ः ॱ५३ॱ

युयुधे च ततस्ताभ्याों भगिान् मधु-सूदनः ॰ पञ्च-


िषव-सहस्रावण बारॅ-प्रहरणो विभुः ॱ५४ॱ

युि के वलए वनश्चय वकए रॅए िे दोनोों भयङ्कर दानि तब उन विष्णु भगिान्
को दे खकर उनके समीप गये ॰ भगिान् विष्णु ने तब उन दोनोों से पाुँ च
हजार िषों तक युि वकया ॰॰५३-५४॰॰

तौ तदाऽवत-बलोन्मत्तौ जगन्माया-विमोवहतौ॰
वत्रयताों िर इत्येिमूचतु ः परमेश्वरम् ॱ५५ॱ
एिों तस्य िचः श्रुत्वा भगिानावद-पूरुषः॰
ित्रे बध्यािुभौ मेऽद्य भिेतावमवत वनवश्चतम्
ॱ५६ॱ

तदनन्तर बल से उन्मत्त उन दोनोों ने जगन्माया के द्वारा विमुग्ध होकर


परमेश्वर विष्णु से यह कहा वक 'िर माुँ गो ॰' आवद पुरुष भगिान् विष्णु ने

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उन दोनोों की यह बात सुनकर कहा वक 'तु म दोनोों आज मेरे द्वारा अिश्य
मारे जाओ ॰॰५५-५६॰॰

तौ तदाऽवत-बलौ दे िों पुनरे िोचतु हवररम्॰


आिाों जवह न यत्रोिी पयसा च पररप्लुता ॱ५७ॱ

तथेत्युक्त्वा भगिता गदा-श-भृता नृप !


कृत्वा चरेेण िै वछन्ने जघने वशरसी तयोः ॱ५८ॱ

एिों दे िी समुत्पन्ना ब्रह्मणा सोंस्तुता नृप !


नहा-काली महाराज ! सिव-योगेश्वरे श्वरी ॱ५६ॱ

महा-लक्ष्म्म्यास्तथोत्पवत्तों वनशामय मही-पते !


ॱ६०ॱ

अत्यन्त बलशाली उन दोनोों ने ति विष्णु भगिान् से विर यह कहा वक


जहाुँ पृथ्वी जल से डूबी रॅई न हो, िहाुँ हम दोनोों को मारो ॰' 'िैसा ही
सही'-यह कहकर गदा और शङ्-धारी भगिान् ने , हे राजन् ! उन दोनोों के
वसर जाुँ घ पर रखकर चरे में काट डाले ॰॰५७-६०॰॰

॰॰ श्रीमद्दे िी-भागिते महा-पुराणे दशम-स्कन्धे लघु-चण्डी-पाठे प्रथमों


चररतों सम्पूणवम् ॰॰

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मध्यम-चररतम् मर्हषासुर-वधः

मध्यम चररत :मर्हषासुर का वध

सुमेधा-मुवनरुिाच:

मवहषी-गभव-सम्भू तो महा-बल-परारेमः
दे िान् सिाव न् परावजत्य मवहषोऽभूज्जगत् -प्रभुः
ॱ१ॱ

सिेषाों लोक-पालानामवधकारान् महासुरः॰


बलावन्नवजव त्य बुभुजे त्रैलोक्यैश्वयवमद् भुतम् ॱ२ॱ

तत-परावजताः सिे दे िाः स्वगव-पररच्युताः॰


ब्रह्माणों च पुरस्कृत्य ते जग्मुलोकमुत्तमम् ॱ३ॱ

यत्रोत्तमौ दे ि-दे िौ सोंस्तस्थतौ शङ्कराच्युतौ॰


िृत्तान्तों कथयामासुमववहषस्य दु रात्मनः ॱ४ॱ

मुवन सुमेधा बोले:

मवहषी के गभव से उत्पन्न अत्यन्त बलिान् और घोर आरेमणकारी मवहष


सभी दे िताओों को हराकर सोंसार का स्वामी बन बैठा ॰॰१॰॰

सभी लोक-पालोों के अवधकारोों को बल-पूिवक छीनकर िह महान् असुर


तीनोों लोकोों के विलक्षण िैभि का भोग करने लगा ॰॰२॰॰

तब सभी हारे रॅए दे िता स्वगव से बवहष्कृत होकर और ब्रह्मा को आगे कर


उत्तम लोक (कैलास और िैकुण्ठ) में परॅुँ चे, जहाुँ श्रेष्ठ दो दे िेश्वर शङ्कर

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और विष्णु विराजमान रहते हैं तथा दु ष्ट मवहष का िृत्तान्त कह सुनाया ॱ३-
४॰॰

दे िानाों चैि सिेषाों स्थानावन तरसाऽसुरः॰


विवनवजव त्य स्वयों भुिे बल-िीयव-मदोितः ॱ५ॱ

मवहषासुर-नामाऽसौ दु ष्ट-दै त्योऽमरे श्वरौ॰


बधोपायश्च तस्याशु वचन्त्यतामसुरादव नौ ॱ६ॱ

'हे दे िताओों के दोनोों ईश्वर ! मवहषासुर नामक दु ष्ट दै त्य सभी दे िोों के
स्थानोों को हठात् छीनकर बल-परारेम के गिव से धृष्ट होकर स्वयों उनको
उपभोग कर रहा है ॰ हे असुरोों को नाश करनेिाले ! शीघ्र ही उसके बोंधे
का उपाय सोचें ॱ५-६॰॰

एिों श्रुत्वा स भगिान् दे िानामावतव -युग-िचः॰


चरेतु ः परमों कोपों तदा शङ्कर-पद्मजौ ॱ७ॱ

एिों कोप-युतस्यास्य हरे रास्यान् मही-पते !


ते जः प्रादु रभूद् वदव्यों सहस्राकव-सम-द् युवतः
ॱ८ॱ

अथानुरेमतस्तेजः सिेषाों वत्र-वदिौकसाम्॰


शरीरादु द्भिों प्राप हषवयद् विबुधावधपान् ॱ६ॱ

दे िोों के दु ःख से सोंयुि इस प्रकार के िचन सुन कर उन भगिान् विष्णु ने


अत्यन्त रेोध वकया, शङ्कर और ब्रह्मा ने भी रेोध वकया ॰॰७॰॰

इस प्रकार रेोध-युि विष्णु के मुख से, हे राजन् ! हजारोों सूयव-जै सी


चमकिाला वदव्य तेज प्रगट रॅआ ॰॰८॰॰

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इसके बाद रेमशः सभी दे िोों के शरीर से ते ज वनकली, वजससे दे िेश्वर
प्रसन्न रॅए ॰॰६॰॰

यदभूच्छम्भु जों तेजो मुखमस्योदपद्यत॰


केशा बभूिुयाव म्येन िैष्णिेन च बाहिः ॱ१०ॱ

सौम्येन च स्तनौ जातौ माहे न्द्रेण च मध्यमः॰


िारुणे न ततो भूप ! जङ्खोरू सम्बभूितु ः
ॱ११ॱ

शम्भु से जो ते ज वनकला, उससे मुख बना ॰ यमराज के ते ज से केश बने


और विष्णु-ते ज से भुजाएुँ बनीों ॰॰१०॰॰
हे राजन् ! चन्द्र-तेज से दो स्तन उत्पन्न रॅए और इन्द्र-ते ज से कमर बनी ॰
तबों िरुण-ते ज से जों घा और उरु बनीों ॰॰११॰॰

वनतम्बौ तेजसा भूमेः पादौ ब्राह्मण तेजसा॰


पादाों गुल्यो भानिेन िासिेन कराों गुली ॱ१२ॱ

कौबेरेण तथा नासा दन्ताः सोंजवज्ञरे तदा॰


प्राजापत्येनोत्तमेन ते जसा िसुधावधप ! ॱ१३ॱ

पृथ्वी-ते ज से वनतम्ब, ब्रह्मा के तेज से दो पैर, सूयव-तेज से पैरोों की


अुँगुवलयाुँ, िसुओों के तेज से हाथोों की अुँगुवलयाुँ बनीों ॰॰१२॰॰

हे राजन् ! कुिेर के तेज से नाक और प्रजापवत के श्रेष्ठ तेज से दाुँ त उत्पन्न


रॅए॰॰१३॰॰॰

पािकेन च सञ्जातों लोचन-वत्रतयों शु भम्॰

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सान्ध्येन ते जसा जाते भृकुट्यौ ते जसा वनधी
ॱ१४ॱ

कणी िायव्यतो जातौ तेजसो मनुजावधप !


सिेषाों तेजसा दे िी जाता मवहष-मवदव नी ॱ१५ॱ

अवि - ते ज से सुन्दर तीन नेत्र उत्पन्न रॅए और सन्ध्या के ते ज से कास्तन्तपूणव


दो भौोंहें प्रकट रॅई ॰॰१४॰॰

िायु के तेज से दो कान उत्पन्न हए ॰ हे राजन् ! सभी के ते ज से इस प्रकार


मवहष-मवदव नी दे िी प्रकट रॅई ॰॰१५॰॰॰

शू लों ददौ वशिो विष्णु श्चरेों शङ्ख च पाश-भृत्॰


रॅताशनो ददौ शस्तिों मारुतश्चाप-सायकौ ॱ१६ॱ

िज्र महे न्द्रः प्रददौ घण्ाों चैरािताद् गजात् ॰


काल-दण्डों यमो ब्रह्मा चाक्ष-माला-कमण्डलू
ॱ१७ॱ

वदिाकरो रस्ति-मालाों रोम-कूपेषु सन्ददौ॰


कालः खड् गों तथा चमव वनमवलों िसुधावधप !
ॱ१८ॱ
समुद्रो वनमवलों हारमजरे चाम्बरे नृपः॰
चूडा-मवणों कुण्डले च कटकावन तथाऽङ्गदे
ॱ१६ॱ

अधव-चन्द्र वनमवलों च नूपुरावण तथा ददौ॰


ग्रेिेयकों भूषणों च तस्यै दे व्यै मुदास्तन्रतः ॱ२०ॱ

विश्व-कमाव चोवमवकाश्च ददौ तस्यै धरा-पते !

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वहम-िान् िाहनों वसोंह रत्नावन विविधावन च
ॱ२१ॱ

वशि ने शूल, विष्णु ने चरे और िरुण ने शङ्ख वदया॰ अवि ने शस्ति और


िायु ने धनुष-िाण वदये ॰॰१६॰॰

इन्द्र ने िज्र और ऐराित हाथी ने घण्ा वदया ॰ यम ने काल-दण्ड, ब्रह्मा ने


अक्ष-माला और कमण्डलु वदये ॰॰१७॰॰

सूयव ने रोम-वछद्रोों में वकरणोों का ते ज भर वदया ॰ हे राजन् ! काल ने खड् ग


और चमकती रॅई ढाल दी ॰॰१८॰॰

हे राजन् ! समुद्र ने स्वच्छ हार, सदा निीन रहनेिाले िस्त्र, चूड़ामवण,


कुण्डल, कटक, अङ्गद, वनमवल अधव-चन्द्र, नूपुर, गले के आभूषण उन दे िी
को प्रसन्न होकर वदये ॰॰१६-२०॰॰

हे राजन् ! विश्वकमाव ने उन्ें अुँगूवठयाुँ दीों॰ वहमालय ने विविध रत्नोों के साथ


सिारी के वलए वसोंह वदया ॰॰२१॰॰॰

पान-पानों सुरा-पूणव ददौ तस्यै धनावधपः॰


शे षश्च भगिान् दे िो नाग-हारों ददौ विभुः ॱ२२ॱ

अन्यै रशे ष-विबुधैमाव वनता सा जगन्मयी॰


ताों तु ष्टु िुमवहा-दे िी दे िा मवहष-पीवडताः ॱ२३ॱ

नाना-स्तोत्रैमवहेशानीों जगदु द्भि-काररणीम्॰


ते षाों वनशम्य दे िेशी स्तोत्रों वबिुध-पूवजता ॱ२४ॱ

धनाध्यक्ष कुबेर ने सुरा से भरा रॅआ पान-पात्र वदया ॰ . भगिान् अनन्त दे ि


शे षनाग ने नाग-हार वदया॰ ॰॰२२॰॰

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अन्य सभी दे िताओों ने उन जगन्मयी का सम्मान वकया ॰ मवहषासुर से
सताये रॅए दे िोों ने सोंसार को उत्पन्न करनेिाली उन महा-दे िी महे श्वरी की
विविध स्तोत्रोों के द्वारा स्तुवत की ॰ उनकी स्तुवत को सुनकर दे ि-पूवजता
दे िेश्वरी ने मवहषासुर के बध के वलए उच्च स्वर से गजव ना की॰ हे राजन् !
उस गजव न से मवहषासुर चौोंक पड़ा ॰॰२३-२५॰॰

मवहषस्य िधाथाव य महा-नादों चकार ह॰


ते न नादे न मवहषश्चवकतोऽभूद् धरा-पते ! ॱ२५ॱ

आससाद जगिात्रीों सिव-सैन्य-समािृतः॰


ततः स युयुधे दे व्या मवहषाख्यो महाऽसुरः
ॱ२६ॱ

तब सभी सेनाओों से वघरा रॅआ मवहष नामक


महान् असुर जगिात्री के पास आ परॅुँ चा और
िह दे िी के साथ युि करने लगा ॰॰२६॰॰

शस्त्रास्त्रैबवरॅधा वक्षप्तैः पूरयन्नम्बरान्तरम्॰


वचक्षुरो ग्रामणीः सेना-पवतदु धवर-दु मुवखौ ॱ२७ॱ

िाष्कलस्ताम्रकश्चैि विडाल-िदनोऽपरः॰
एतै श्चान्यै रसोंख्यातै ः सोंग्रामान्तक-सवन्नभैः ॱ२८ॱ

योधैः पररिृतो िीरो मवहषो दानिोत्तमः॰


ततः सा कोप-ताम्राक्षी दे िी लोक-विमोवहनी
ॱ२६ॱ

जघान योधान् समरे दे िी मवहषमावश्रतान् ॰


ततस्तेषु हते ष्वेि स दै त्यो रोष-मूवछव तः ॱ३०ॱ

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आससाद तदा दे िी तू णं माया-विशारदः॰
रूपान्तरावण सम्भे जे मायया दानिेश्वरः ॱ३१ॱ

बरॅत प्रकार के िेंके गए शस्त्र- अस्त्रोों से पृथ्वी से आकाश तक को


आच्छावदत करते रॅए सेनापवत वचक्षुर, ग्रामणी, दु धवर-दु मुवख, िाष्कल,
ताम्रक, विडाल-िदन और अन्य असोंख्य यमराज के समान भयङ्कर
योिाओों से दानि-श्रेष्ठ िीर मवहषासुर वघरा रॅआ था ॰ तब रेोध से लाल
आुँ खोोंिाली भुिन-मोवहनी दे िी ने मवहष के अधीनस्थ सभी योिाओों को
युि में मार डाला॰ उन सबके मारे जाने पर माया में अत्यन्त वनपुण िह
दै त्य मवहष रेोध से बेसुध होकर दे िी के पास परॅुँ चा ॰ दै त्य-राज ने माया
के द्वारा अनेक रूप धारण वकये ॰॰२७-३१॰॰

तावन तान्यस्य रूपावण नाशयामास सा तदा ॰


ततोऽन्ते मावहषों रूपों वबभ्राणममरादव नम् ॱ३२ॱ

पाशे न बद् ध्वा सु-दृढों वछत्वा खड् गेन तस्तच्छरः॰


पातयामास मवहषों दे िी दे ि-गणान्तकम् ॱ३३ॱ

हाहा-कृतों ततः शे षों सैन्यों भिों वदशो दश॰


तु ष्टु िुदेि-दे िेशीों सिे दे िाः प्रमोवदताः ॱ३४ॱ

उसके उन सभी रूपोों को उन दे िी ने नष्ट कर वदया॰ तब अन्त में दे ि-


पीड़क दै त्य ने मवहष का रूप धारण वकया ॰॰३२॰॰

दे िी ने दे िताओों के वलए यम के समान भयङ्कर मवहष को पाश द्वारा दृढ़ता


से बाुँ ध कर और उसके वसर को खड् ग से काटकर उसे वगरा वदया
॰॰३३॰॰

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तब बची रॅई सेना वछन्न-वभन्न हो हाहाकार करती रॅई दस वदशाओों में भाग
खड़ी रॅई॰ इस पर सभी दे िता प्रसन्न होकर दे ि-दे िेश्वरी की स्तुवत करने
लगे ॰॰३४॰॰

एिों लक्ष्मी समुत्पन्ना मवहषासुरमवदव नी॰


राजन् ! श्रृणु सरस्वत्याः प्रादु भाव िो यथाऽभित्
ॱ३५ॱ

हे राजन् ! इस प्रकार मवहषासुरमवदव नी महा-लक्ष्मी का आविभाव ि रॅआ ॰


अब वजस प्रकार महा-सरस्वती का प्रादु भाव ि रॅआ, उसे सुनो ॰॰३५॰॰॰

॰॰ श्रीमद्दे िी-भागिते महा-पुराणे दे शम-स्कन्धे लघु-चण्डी-पाठे मध्यम-


चररतों सम्पूणवम् ॰॰

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उत्तम-चररतम् शुम्भ-र्नशुम्भ- वधः

उत्तम चररत : शुम्भ-र्नशुम्भ-वध

सुमेधा-मुवनरुिाच:

एकदा शु म्भ-नामाऽसीद् दै त्यो मद-बलोत्कटः॰


वनशु म्भश्चावप तद् -भ्राता महा-बल-परारेमः
ॱ१ॱ

ते न सम्पीवडता दे िाः सिे भ्रष्ट-वधयो नृप !


वहमिन्तमथासाद्य दे िीों तु ष्टु िुरादरात् ॱ२ॱ

सुमेधा मुवन बोले:

हे राजन् ! एक समय शु म्भ नाम का दै त्य अपने बल के अहङ्कार से बड़ा


उग्र हो गया और उसका भाई वनशु म्भ भी अत्यन्त शस्तिशाली था॰ उसके
द्वारा परावजत हो सभी दे िता श्री-हीन होकर वहमालय पर परॅुँ चकर
श्रिापूिवक दे िी की स्तुवत करने लगे ॰॰१-२॰॰॰

दे िा ऊचुः

जय दे िेवश ! भिानामावत्तव -नाशन-कोविदे !


दानिान्तक-रूपे ! त्वमजराऽमरणेऽनघे ! ॱ३ॱ

दे िेवश ! भस्ति-सुलभे. ! महा-बल-परारेमे !


विष्णु-शङ्कर-ब्रह्मावद-स्वरूपेऽनन्त-विरेमे !
ॱ४ॱ

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सृवष्ट-स्तस्थवत-करे ! नाश-काररके ! कास्तन्त-
दावयवन !
महा-ताण्डि-सु-प्रीते ! मोद-दावयवन ! माधवि !
ॱ५ॱ

प्रसीद दे ि-दे िेवश ! प्रसीद करुणा-वनधे !


वनशु म्भ-शु म्भ-सम्भूत-भयापाराम्बु-िाररधे॰
उिरास्मान् प्रपन्नावतव -नावशके ! शरणागतान्
ॱ६ॱ

दे िता बोले:

हे दे िेश्वरर ! हे भिोों के दु ःखोों को नष्ट करने में वनपुण दे वि ! हे दानिोों के


वलए यम-स्वरूपे ! हे वनष्पापे ! आप अजर-अमर हैं ॰॰ ३॰॰

हे सुरेवश ! हे भस्ति से सहज ही वमलनेिाली दे वि ! हे अत्यन्त शस्ति-


शावलवन ! हे ब्रह्माविष्णु -वशिावद-स्वरूपे ! हे अपार-परारेमे ! हे सृवष्ट-
स्तस्थवतकाररवण ! हे सोंहार-काररवण ! हे ते ज-प्रदे ! हे प्रलय-नृत्य से अवत
प्रसन्न होनेिाली दे वि ! हे आनन्द-दावयवन ! हे िैष्णवि ! हे दे ि-दे िेश्वरर !
प्रसन्न हो जाओ ॰ हे दया- सागरे ! प्रसन्न हो जाओ ॰ हे शरणागत के दु ःख
नष्ट करनेिाली दे वि ! शु म्भ और वनशुम्भ से उत्पन्न अपार समुद्र के समान
भय से हम शरणागत दे िोों का उिार करो ॰॰४-६॰॰

सुमेधा मुवनरुिाच:

एिों सोंस्तुिताों ते षाों वत्र-दशानाों धरा-पते !


प्रसन्ना वगररजा प्राह ब्रूत स्तिन-कारणम् ॱ७ॱ

एतस्तस्मन्नन्तरे तस्याः कोश-रूपात् समुस्तिता॰

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कौवशकी सा जगत्-पूज्या दे िान् प्रीत्येदमब्रिीत्
ॱ८ॱ

प्रसन्नाऽहों सुर-श्रेष्ठाः स्तिेनोत्तम-रूवपणी॰


वियताों िर इत्युिे दे िाः सोंिवत्ररे िरम् ॱ६ॱ

शु म्भ-नामाऽिरो भ्राता वनशुम्भस्तस्य वबश्रुतः॰


त्रैलोक्यमोजसाऽऽरेान्तों दै त्येन बल-शावलना
ॱ१०ॱ

तद् -बधवश्चन्त्यताों दे वि ! दु रात्मा दानिेश्वरः ॰


बाधते सततों दे वि ! वतरस्कृत्य वनजौजसा ॱ११ॱ

सुमेधा मुवन बोले:

हे पृथ्वी-पवत ! इस प्रकार स्तुवत करनेिाले उन दे िोों पर प्रसन्न होकर


पािवती बोली वक 'स्तुवत का प्रयोजन बताओ ॰॰७॰॰

इसी बीच दे िी के शरीर से उत्पन्न रॅई विश्व-पूजनीया कौवशकी दे िी ने बड़े


प्रेम से दे िोों से कहा वक 'हे श्रेष्ठ दे िताओों ! मैं आपकी इस श्रेष्ठ-रूपा स्तुवत
से प्रसन्न रॆुँ ॰ िर माुँ वगये ॰' ऐसा कहे जाने पर दे िोों ने िर माुँ गा ॰॰८-६॰॰

‘शुम्भ और उसके भाई वनशु म्भ प्रख्यात हैं, अपनी शस्ति से उसने तीनोों
लोकोों पर अवधकार कर वलया है ॰ हे दे वि ! उसके बध का विचार कररये॰
हे दे वि ! िह दु ष्टात्मा दै त्यराज अपनी शस्ति से हमें अपमावनत कर वनरन्तर
सताता रहता है ' ॰॰१०-११॰॰

श्रीदे व्युिाच:

दे ि-शत्रु पातवयष्ये वनशुम्भों शुम्भमेि च॰

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स्वस्थास्तस्तष्ठन्तु भद्रों िः कण्कों नाशयावम िः
ॱ१२ॱ

इत्युक्त्वा दे ि-दे िेशी दे िान् सेन्द्रान् दया-मयी॰


जगामादशव नों सद्यो वमषताों वत्र-वदिौकसाम्
ॱ१३ॱ

दे िाः समागता रॄष्टाः सुिणाव वद्र-गुहाों शु भाम्॰


चण्ड-मुण्डौ पश्यतः स्म भृत्यौ शुम्भ-वनशुम्भयोः
ॱ१४ॱ

दृष्वा ताों चारु-सिाव ङ्गीों दे िीों लोक-विमोवहनीम्॰


कथयामासतू राज्ञे भृत्यौ तौ चण्ड-मुण्डकौ
ॱ१५ॱ

दे ि ! सिाव सुर-श्रेष्ठ ! रत्न-भोगाहव ! मानद !


अपूिाव कावमनी दृष्टा चािाभ्याों ररपु -मदव न !
ॱ१६ॱ

तस्याः सम्भोग-योग्य त्वमस्त्येि ति साम्प्रतम्॰


ताों समानय चािवङ्गीों झुक्ष्व सौख्य-समस्तन्रतः
ॱ१७ॱ

तादृशी नासुरी नारी न गन्धिी न दानिी॰


न मानिी नावप दे िी यादृशी सा मनोहरा ॱ१८ॱ
श्रीदे िी बोलीों:

दे िोों के शत्रु वनशुम्भ और शु म्भ को मैं वनश्चय ही मारू


ों गी॰ आप वनवश्चन्त
रहें , आपका कल्याण होगा, आपके काुँ टे को मैं नष्ट करू ों गी' ॰॰१२॰॰

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इन्द्र आवद दे िोों से ऐसा कहकर कृपा-मयी दे ि-दे िेश्वरी दे िताओों के
दे खते-दे खते तु रन्त ही अन्तध्र्यान हो गई ॰॰१३॰॰

दे ि-गण प्रसन्न होकर सुमेरु पिवत की सुन्दर गुिा में चले आये॰ शुम्भ-
वनशु म्भ के दो सेिकोों-चण्ड और मुण्ड ने सिाव ङ्ग-सुन्दरी भुिन-मोवहनी
दे िी को दे खा और उन्ें दे खकर उन दोनोों सेिकोों ने राजा शुम्भ से जाकर
कहा ॰॰१४-१५॰॰

हे सभी असुरोों में श्रेष्ठ राजन् ! हे सभी श्रेष्ठ िस्तुओों के भोगने के अवधकारी
! हे सम्मान-दाता ! हे शत्रुनाशक हम दोनोों ने एक अपूिव सुन्दरी दे खी है
॰॰१६॰॰

उसके साथ रमण करने की योग्यता इस समय आपकी ही है ॰ उस


सिाव ङ्ग-सुन्दरी को ले आइये और सुख-पूिवक भोग कररये ॰॰१७॰॰

वजस प्रकार की मनोरमा िह है , उस प्रकार की न कोई आसुरी स्त्री है , न


गान्धिी, न दानिी, न मानिी और न दे िी ॰१८॰॰

एिों भृत्य-िचः श्रुत्वा शुम्भः पर-बलादव नः॰


दू तों सम्प्रेषयामास सुग्रीिों नाम दानिम् ॱ१६ॱ

स दू तस्त्ऱररतों गत्वा दे व्याः स-विधमादरात् ॰


िृत्तान्तों कथायामास दे व्यै शु म्भस्य यद् -िचः
ॱ२०ॱ

सेिक की यह बात सुनकर शत्रु-शस्ति-नाशक शुम्भ ने सुग्रीि नामक


दै त्य-दू त को भेजा ॰॰१६॰॰

उस दू त ने शीघ्र दे िी के पास जाकर विवधपूिवक आदर के साथ शुम्भ का


जो कथन था, िह सब दे िी से कह सुनाया

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दू त उिाच:

दे वि ! शुम्भासुरो नाम त्रैलोक्य-विजयी प्रभुः॰


सिेषाों रत्न-िस्तूनाों भोिा मान्यो वदिौकसाम्
॰॰२१॰॰

तदु िों रृणु मे दे वि ! रत्न-भोिाऽहमव्ययः॰


त्वों चावप रत्न-भूताऽवस भज माों चारु-लोचने !
ॱ२२ॱ

सिेषु यावन रत्नावन दे िासुर-नरे षु च॰


तावन मय्येि सुभगे ! भज माों कामजै रसैः ॱ२३ॱ

दू त ने कहा:

हे दे वि ! शु म्भ नामक असुर तीनोों लोकोों को जीतनेिाले स्वामी हैं , सभी श्रेष्ठ
िस्तुओों के उपभोिा हैं , दे िताओों के सम्मान्य हैं ॰॰२१॰॰

उनके कथन को सुवनये-'हे ॰ दे वि ! मैं अविनाशी श्रेष्ठ िस्तुओों का


उपभोिा रॆुँ ॰ तु म भी श्रेष्ठ स्त्री-रूपा हो ॰ अतः हे सुनयने ! मुझे िरण
करो॰ दे ि, असुर और मनुष्य सभी लोकोों में जो श्रेष्ठ िस्तुयें हैं , िे सभी मेरे
ही अवधकार में हैं ॰ हे सुन्दरर ! श्रृङ्गार-रस से युि होकर मेरी सेिा करो'
ॱ२२-२३॰॰

श्रीदे व्युिाच:

सत्यों िदवस हे दू त ! दै त्य-राज़-वप्रयोंकरम् ॰


प्रवतज्ञा या मया पूिं कृता साऽप्यनृता कथम्
ॱ२४ॱ

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भिेत् ताों रृणु मे दू त ! या प्रवतज्ञा यथा कृता
ॱ२५ॱ

यो मे दपव विधुनुते यो मे बलमपोहवत॰


यो मे प्रवत-बलो भूयात् स एि मम भोग-भाक्
ॱ२६ॱ

तत एनाों प्रवतज्ञाों मे सत्याों कृत्वाऽसुरेश्वरः॰


गृह्णातु पावणों तरसा तस्याशक्यों वकमत्र वह
ॱ२७ॱ

तस्माद् गच्छ महा-दू त ! स्वावमनों ब्रूवह चादृतः ॰


प्रवतज्ञाों चावप ने सत्याों विधास्यवत बलावधकः
ॱ२८ॱ

श्रीदे िी बोलीों:

हे दू त ! दै त्य-राज को वप्रय लगनेिाला सत्य तुम कहते हो वकन्तु जो प्रवतज्ञा


मैंने पहले की है , िह भी असत्य कैसे हो ? हे दू त ! जो प्रवतज्ञा जै सी मैंने की
है , उसे सुनो॰ जो मेरे गिव को चूणव करे , जो मेरी शस्ति को वतरस्कृत करे ,
जो मेरे परारेम का प्रवतद्वन्द्वी हो, िही मेरे भोग-विलास के योग्य हो
सकता है ॰ अतः दै त्यराज मेरी इस प्रवतज्ञा को सत्य कर शीघ्र मेरे हाथ को
ग्रहण करे ॰ उसके वलए इसमें असमथवता क्या है ? इसवलये हे राज-दू त !
जाओ और स्वामी से सब कुछ कहो ॰ अवधक शस्तििाला है , तो मेरी
प्रवतज्ञा को सत्य करे गा ॰॰२४-२८॰॰

सुमेधा-मुवनरुिाच:

एिों िाक्यों महा-दे व्याः समाकत्यव से दानिः॰

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कथयामास शुम्भाय दे व्या िृत्तान्तमावदतः ॱ२६ॱ

तदाऽवप्रयों दू त-िाक्यों शुम्भः श्रुत्वा महा-बलः॰


कोपमाहारयामास महान्तों दनुजावधपः ॱ३०ॱ

ततो धूम्राक्ष-नामानों दै त्यों दै त्य-पवतः प्रभुः॰


आवददे श श्रृणु िचो धूम्राक्ष ! मम चादृतः ॱ३१ॱ

ताों दु ष्टाों केश-पाशे षु धृत्वाऽप्यानीयताों मम॰


समीपमविलम्बेन शीघ्रों गच्छस्व मे पुरः ॱ३२ॱ

इस प्रकार का आदे श पाकर दै त्य-स्वामी अवत बली धूम-लोचन साठ


हजार असुरोों के साथ वहमालय पर दे िी के पास जा परॅुँ चा और दे िी से
उसने वचल्लाकर कहा वक हे कल्यावण ! शीघ्र ही शुम्भ नामक अवत
परारेमी दै त्य-राज का िरण करो और सभी सु खोों को प्राप्त करो, नहीों तो
बालोों को पकड़कर तुम्हें दै त्य-राज के पास ले जाऊुँगा' ॰॰३३-३५॰॰

सुमेधा मुवन बोले:

िह दै त्य महा-दे िी के इस प्रकार के िचन सुनकर शु म्भ के पास गया और


उससे दे िी का सारा कथन कह सुनाया॰ दू त की कट बातोों को सुनकर
अवत बली दै त्य-राज शुम्भ ने बड़ा रेोध वकया॰ तब दै त्य-राज ने धूम्राक्ष
नामक दै त्य को आदे श वदया वक वह धूम्राक्ष ! सािधानी से मेरी बात सुनो॰
उस दु ष्टा को बालोों से पकड़कर मेरे पास अविलम्ब ले आओ॰ मेरे सामने
से शीघ्र जाओ ॰॰२६-३२॰॰॰

इत्यादे शों समासाद्य दै त्येशो धूम्र-लोचनः॰


षष्ट्याऽसुराणाों सवहतः सहस्राणाों महा-बलः
ॱ३३ॱ

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तु वहनाचलमासाद्य दे व्याः स-विधमेि सः॰
उच्चैदेिीों जगादाशु भज दै त्य-पवतों शु भे ! ॱ३४ॱ

शु म्भों नाम महा-िीयं सिव-भोगानिाप्नुवह॰


नोचेत् केशान् गृहीत्वा त्वाों नेष्ये दै त्य-पवतों प्रवत
ॱ३५ॱ

इत्युिा सा ततो दे िी दै त्येन वत्रदशाररणा॰


उिाच दै त्य ! यद् ब्रूषे तत् सत्यों ते महा-बल !
ॱ३६ॱ

राजा शु म्भासुरस्त्ऱों च वकों कररष्यवस तद् िद॰


इत्युिो दै त्यपो धाित् तूणं शस्त्र-समस्तन्रतः
ॱ३७ॱ

भस्म-सात् तों चकाराशु रॅों कारे ण महे श्वरीॱ३८ॱ

ततः सैन्यों िाहनेन दे व्या भिों मही-पते !


वदशो दशाभजच्छीघ्रों हा-हा-भूतमचेतनम्
ॱ३६ॱ

तद् िृत्तान्तों समाश्रुत्य स शु म्भो दै त्य-राड् विभुः॰


चुकोप च महा-कोपाद् भुकुटी-कुवटलाननः
ॱ४०ॱ

दे ि-शत्रु दै त्य के द्वारा इस प्रकार कही गयी उन दे िी ने तब कहा वक 'हे


अवत बली दै त्य ! जो कहते हो, िह तु म्हारा सत्य है ॰ राजा शुम्भासुर और
तु म क्या करोगे, यह बताओ ॰' ऐसा कहने पर शस्त्र-धारी दै त्य-सेनापवत
ते जी से झपटा॰ महे श्वरी ने रॅकार से तु रन्त ही उसे भस्म कर डाला ॰ तब
हे राजन् ! दे िी का िाहन वसोंह सेना को नष्ट करने लगा, वजससे िह

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हाहाकार करती बेहाल होकर दसोों वदशाओों में भाग गई॰ यह हाल
सुनकर िह दै त्य-राज शु म्भ अवत रेोध से कुवपत हो उठा, उसकी भौोंहें॰
टे ढ़ी हो गईों और उसने रेमशः चण्ड, मुण्ड और रि-बीज को भेजा ॰॰

ततः कोप-परीतात्मा दै त्य-राजः प्रताप-िान्॰


चण्डों मुण्डे रि-बीजों रेमशः प्रेषयद् विभुः
ॱ४१ॱ

ते च गत्वा त्रयो दै त्या विरेान्ता बरॅ-विरेमाः॰


दे िीों ग्रहीतु मारब्ध-यत्नास्ते ह्यभिन् बलात्
ॱ४२ॱ

तानपतत एिासौ जगिात्री मदोत्कटा॰


शू लों गृहीत्वा िेगेन पातयामास भू-तले ॱ४३ॱ

स-सैन्यान् वनवहतािु त्वा दै त्याों स्त्रीन् दानिेश्वरौ



शु म्भश्च वनशुम्भश्च द्रुतों समाजग्तु रोजसा ॱ४४ॱ

वनशु म्भश्चैि शु म्भश्च कृत्वा युिों महोत्कटम्॰


दे व्याश्च िशगौ जातौ वनहतौ च तयाऽसुरौ
ॱ४५ॱ

इवत दै त्य-िरों शु म्भों घातवयत्वा जगन्मयी॰


विबुधैः सोंस्तुता तद् -ित् साक्षाद् िागीश्वरी परा
ॱ४६ॱ

उन तीनोों अवत परारेमी दै त्योों ने जाकर दे िी को बल-पूिवक पकड़ने का


प्रयत्न वकया॰ उनके आरेमण करते ही उन गिोन्मत्ता जगिात्री ने शू ल
ले कर ते जी से उन्ें मारकर पृथ्वी पर वगरा वदया॰ सेना-सवहत तीनोों दै त्योों

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के मारे जाने की बात सुनकर दोनोों दै त्य-राजाओों शु म्भ और वनशु म्भ ने
अवत उग्र युि वकया और दे िी के िशीभूत होकर दे िी के द्वारा दोनोों असुर
मारे गये ॰

इस प्रकार श्रेष्ठ दै त्य शु म्भ को मारनेिाली जगन्मयी की दे िोों ने साक्षात्


परमा िागीश्वरी के रूप में स्तुवत की॰ हे राजन् ! इस अत्यन्त सुन्दर
प्रादु भाव ि का िणव न मैंने आपसे वकया ॰॰ ३६-४६॰॰॰

एिों ते िवणवतो राजन् ! प्रादु भाव िोऽवत-रम्यकः॰


काल्याश्चैि महा-लक्ष्म्म्याः सरस्वत्या रेमेण च
ॱ४७ॱ

परा परे श्वरी दे िी जगत्-सगव करोवत च ॰॰


पालनों चैि सोंहारों सैि दे िी दधावत वह ॱ४८ॱ

ताों समाश्रय दे िेशी जगन्मोह-वनिाररणीम् ॰


महा-मायाों पूज्य-तमाों सा ते कायं विधास्यवत
ॱ४६ॱ

महा-काली, महालक्ष्मी और महा-सरस्वती के रूप में रेमशः परमेश्वरी


परा दे िी जगत् की सृवष्ट करती हैं ॰ पालन और सोंहार भी िही दे िी करती
हैं ॰ सोंसार के मोह को दू र करनेिाली श्रेष्ठ पूज्या उन्ीों दे िेश्वरी महा-माया
का आश्रय ग्रहण करो॰ िे तु म्हारे कायव को वसि करें गी ॰॰४७-४६॰॰

नारायण उिाच:

इवत राजा िचः श्रुत्वा मुनेः परम-शोभनम्॰


दे िीों जगाम शरणों सिव-काम-िल-प्रदाम्
ॱ५०ॱ

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वनराहारो यतात्मा च तन्मनाश्च समावहतः॰
दे िी-मूवतं मृन्मयीों च पूजयामास भस्तितः ॱ५१ॱ

पूजनान्ते बवलों तस्यै वनज-गात्रासृजों ददत् ॱ५२ॱ

तदा प्रसन्ना दे िेशी जगद् -योवनः कृपा-िती॰


प्रादु बवभूि पुरतो िरों ब्रूहीवत भावषणी ॱ५३ॱ

स राजा वनज-मोहस्य नाशनों ज्ञानमुत्तमम्॰


राजे वनष्कण्कों चैि याचवत स्म महे श्वरीम्
ॱ५४ॱ

नारायण बोले:

मुवन की इस प्रकार अवत कल्याणकारी बात को सुनकर राजा सुरथ सभी


कामनाओों के िल दे नेिाली दे िी की शरण में गये और वनराहार ररॆकर,
अपने को सोंयवमत कर और एक वचत्त से भगिती में तन्मय होकर वमट्टी
की प्रवतमा में दे िी की भस्ति-पूिवक पूजा की॰ पूजन के अन्त में अपने
शरीर का रि दे िी को बवल-रूप में अवपवत करते थे॰ तब जगत् की
कारण-भूता, दया-मयी, दे िेश्वरी प्रसन्न होकर उनके सामने यह कहती रॅई
प्रगट रॅईों वक िर माुँ गो ॰' उन राजा ने महे श्वरी से अपने मोह का नाश, श्रेष्ठ
ज्ञान और बाधा-रवहत राज्य का िर माुँ गा ॰ ॰॰५०-५४ॱ

श्री दे व्युिाच:

राजन् ! वनष्कण्कों राज्यों ज्ञानों िै मोह-नाशनम्



भविष्यवत मया दत्तमस्तस्मन्नेि भिे ति ॱ५५ॱ

अन्यच्च रृणु भूपाल ! जन्मान्तर-विचेवष्टतम्॰

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भानोजव न्म समासाद्य सािवणव भवविता भिान्
ॱ५६ॱ

तत्र मन्रन्तरस्यावप पवतत्वों बरॅ-विऺमम्॰


सन्तवतों बरॅलाों चावप प्राप्स्यते मद् -िराद् भिान्
ॱ५७ॱ

एिों दत्वा िरों दे िी जगामादशव नों तदा॰


सोऽवप दे व्याः प्रसादे न जातो मन्रन्तरावधपः
ॱ५६ॱ

एिों ते िवणवतों साधो ! सािजव न्म कमव च॰


एतत् पठस्तथा रृण्वन् दे व्यनुग्रहमाप्नुयात्
ॱ५६ॱ

श्रीदे िी बोलीों:

हे राजन् ! बाधा-रवहत राज्य, मोह का नाश और ज्ञान इसी जन्म में मेरे िर
से तु म्हें प्राप्त होगा॰ हे भूपवत ! और भी सुनो, अगले जन्म का िल॰ सूयव से
जन्म पाकर तु म सािवणव होगे॰ तब उस मन्रन्तर का स्वावमत्व, अवत
परारेम और बरॅसोंख्यक सन्तान भी मेरे िर से तु म प्राप्त करोगे ॰५५-
५७॰॰

इस प्रकार िर दे कर दे िी तब अन्तध्र्यान हो गईों॰ िे राजा भी दे िी की


प्रसन्नता से मन्रन्तर के स्वामी बने॰ इस प्रकार है ॰ साधु ! मैंने सािवणव के
जन्म और कमव का िणवन वकया॰ इसे पढ़ने और सुनने से दे िी का अनुग्रह
वमलता है ॰॰५८-५६॰

॰॰श्रीदे िी-भागिते महा-पुराणे दशम-स्कन्धे लघु-चण्डी-पाठे


उत्तम-चररतों सम्पूणवम् ॰॰

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अथ दे व्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्

न मन्त्रों नो यन्त्रों तदवप च न जाने स्तुवतमहो


न चाह्वानों ध्यानों तदवप च न जाने स्तुवतकथाः॰
न जाने मुद्रास्ते तदवप च न जाने विलपनों
परों जाने मातस्त्ऱदनुसरणों क्ेशहरणम्ॱ१ॱ

माुँ ! मैं न मन्त्र जानता रॆुँ , न यन्त्र; अहो! मुझे स्तुवत का भी ज्ञान नहीों है ॰
न आिाहन का पता है , न ध्यान का॰ स्तोत्र और कथा की भी जानकारी
नहीों है ॰ न तो तु म्हारी मुद्राएुँ जानता रॆुँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप
करना ही आता है ; परों तु एक बात जानता रॆुँ , केिल तु म्हारा अनुसरण-
तु म्हारे पीछे चलना ॰ जो वक सब क्ेशोोंको-समस्त दु ःख-विपवत्तयोोंको हर
ले नेिाला है ॱ१ॱ

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहे णालसतया


विधेयाशक्यत्वात्ति चरणयोयाव च्युवतरभूत्॰
तदे तत् क्षन्तव्यों जनवन सकलोिाररवण वशिे ॰
कुपुत्रो जायेत क्ववचदवप कुमाता न भिवतॱ२ॱ

सबका उिार करनेिाली कल्याणमयी माता! मैं पूजा की विवध नहीों


जानता, मेरे पास धन का भी अभाि है , मैं स्वभाि से भी आलसी रॆुँ तथा
मुझसे ठीक ठीक पूजा का सम्पादन हो भी नहीों सकता; इन सब कारणोों
से तु म्हारे चरणोों की सेिा में जो त्रुवट हो गयी है , उसे क्षमा करना; क्योोंवक
कुपुत्रका होना सम्भि है , वकोंतु कहीों भी कुमाता नहीों होती ॱ२ॱ

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पृवथव्याों पुत्रास्ते जनवन बहिः सस्तन्त सरलाः ॰
परों ते षाों मध्ये विरलतरलोऽहों ति सुतः॰
मदीयोऽयों त्यागः समुवचतवमदों नो ति वशिे
कुपुत्रो जायेत क्ववचदवप कुमाता न भिवत ॱ ३ॱ

माुँ ! इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे -सादे पुत्र, तो बरॅत-से हैं , वकोंतु उन


सबमें मैं ही अत्यन्त चपल तु म्हारा बालक रॆुँ ; मेरे-जै सा चोंचल कोई विरला
ही होगा॰ वशिे! मेरा जो यह त्याग रॅआ है , यह तु म्हारे वलये कदावप उवचत
नहीों है ; क्योोंवक सोंसारमें कुपुत्रका होना, सम्भि है , वकोंतु कहीों भी कुमाता
नहीों होती ॱ३ॱ

जगन्मातमाव तस्ति चरणसेिा न रवचता ॰


न िा दत्तों दे वि द्रविणमवप भूयस्ति मया॰
तथावप त्वों स्ने हों मवय वनरुपमों यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्ववचदवप कुमाता न भिवतॱ४ॱ

जगदम्ब! मातः! मैंने तुम्हारे चरणोोंकी सेिा कभी नहीों की, दे वि! तु म्हें
अवधक धन भी. समवपवत नहीों वकया; तथावप, मुझ-जै से अधमपर जो तु म
अनुपम स्ने ह करती हो, इसका कारण यही है वक सोंसारमें कुपुत्र पैदा हो
सकता है , वकोंतु कहीों भी कुमाता नहीों होती ॱ४ॱ

पररत्यिा दे िा विविधविधसेिाकुलतया ॰
मया पञ्चाशीते रवधकमपनीते तु ियवस॰
इदानीों चेन्मातस्ति यवद कृपा नावप भविता
वनरालम्बो लम्बोदरजनवन कों यावम शरणम्ॱ५ॱ
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गणेशजीको जन्म दे नेिाली माता पािवती! *अन्य दे िताओोंकी आराधना
करते समय+ मुझे नाना प्रकारकी सेिाओों में व्यग्र रहना पड़ता था, इसवलये
पचासी िषवसे अवधक अिस्था बीत जानेपर मैंने दे िताओोंको छोड़ वदया है ,
अब उनकी सेिा-पूजा मुझसे नहीों हो पाती; अतएि उनसे कुछ भी
सहायता वमलनेकी आशा नहीों है ॰ इस समय यवद तु म्हारी कृपा नहीों होगी,
तो मैं अिलम्बरवहत होकर वकसकी शरणमें जाऊुँगा ॱ५ॱ

श्वपाको जल्पाको भिवत मधुपाकोपमवगरा


वनरातङ्को रङ्को विहरवत वचरों कोवटकनकैः॰
तिापणे कणे विशवत मनुिणे िलवमदों |
जनः को जानीते जनवन जपनीयों जपविधौॱ ६ॱ

माता अपणाव ! तु म्हारे मन्त्रका एक अक्षर भी कानमें पड़ जाय तो


उसका िल यह होता है वक मूखव चाण्डाल भी, मधुपाकके समान मधुर
िाणीका उच्चारण करनेिाला उत्तम ििा हो जाता है , दीन मनुष्य भी
करोड़ोों स्वणव-मुद्राओोंसे सम्पन्न हो वचरकालतक वनभवय विहार करता रहता
है ॰ जब मन्त्रके एक अक्षरके श्रिणका ऐसा िल है तो, जो लोग विवधपूिवक
जपमें लगे रहते हैं , उनके जपसे प्राप्त होनेिाला उत्तम िल कैसा होगा?
इसको कौन मनुष्य जान सकता है ॱ ६ॱ

वचताभस्माले पो गरलमशनों वदक्पटधरो


जटाधारी कण्ठे भुजगपवतहारी पशु पवतः॰
कपाली भूतेशो भजवत जगदीशै कपदिीों
भिावन त्वत्पावणग्रहणपररपाटीिलवमदम्ॱ७ॱ

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भिानी ! जो अपने अोंगोोंमें वचताकी राख-भभूत लपेटे रहते हैं , वजनका
विष ही भोजन है, जो वदगम्बरधारी (नि रहनेिाले ) हैं , मस्तकपर जटा और
कण्ठमें नागराज िासुवकको हारके रूपमें धारण करते हैं तथा वजनके
हाथमें कपाल (वभक्षापात्र) शोभा पाता है , ऐसे भूतनाथ पशु पवत भी जो
एकमात्र ‘जगदीश की पदिी धारण करते हैं , इसका क्या कारण है ? यह
महत्त्व उन्ें कैसे वमला; यह केिल तु म्हारे पावणग्रहणकी पररपाटी का िल
है ; तु म्हारे साथ वििाह होनेसे ही उनका महत्त्व बढ़ गया ॱ७ॱ

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भिविभििािावप च न मे
न विज्ञानापेक्षा शवशमुस्तख सुखेच्छावप न पुनः॰
अतस्त्ऱाों सोंयाचे जनवन जननों यातु मम िै
मृडानी रुद्राणी वशि वशि भिानीवत जपतः
ॱ८ॱ

मुखमें चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेिाली माुँ ! मुझे मोक्षकी इच्छा नहीों
है , सोंसारके िैभिकी भी अवभलाषा नहीों है ; न विज्ञानकी अपेक्षा है , न
सुखकी आकाों क्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है वक मेरा जन्म ‘मृडानी,
रुद्राणी, वशि, वशि, भिानी'-इन नामोोंका जप करते रॅए बीते ॱ ८ॱ

नारावधतावस विवधना विविधोपचारै ः


वकों रुक्षवचन्तनपरै नव कृतों िचोवभः॰
श्यामे त्वमेि यवद वकञ्चन मय्यनाथे॰
धत्से कृपामुवचतमम्ब परों तिैि ॱ९ॱ

माुँ श्यामा! नाना प्रकारकी, पूजन-सामवग्रयोोंसे कभी. विवधपूिवक


तु म्हारी आराधना मुझसे न हो सकी॰ सदा कठोर भािका वचन्तन

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करनेिाली मेरी िाणीने कौन-सा अपराध नहीों वकया है ॰ विर भी तु म स्वयों
ही प्रयत्न करके मुझ अनाथपर जो, वकोंवचत् कृपादृवष्ट रखती हो, माुँ ! यह
तु म्हारे ही योग्य है ॰ तुम्हारी-जै सी दयामयी माता ही मेरे-जै से कुपुत्रको भी
आश्रय दे सकती है ॱ९ॱ

मम आपत्सु मिः स्मरणों त्वदीयों करोवम दु गे


करुणाणव िेवश॰
नैतच्छठत्वों भाियेथाः क्षुधातृ षाताव जननीों
स्मरस्तन्त ॱ१०ॱ

माता दु गे! करुणावसन्धु महे श्वरी! मैं विपवत्तयोोंमें िुँसकर आज जो


तु म्हारा स्मरण करता रॆुँ *पहले कभी नहीों करता रहा+ इसे मेरी शठता न
मान लेना; क्योोंवक भूख-प्याससे पीवड़त बालक माताका ही स्मरण करते
हैं ॱ१०ॱ

जगदम्ब विवचत्रमत्र वकों पररपूणाव करुणास्तस्त


चेन्मवय॰
अपराधपरम्परापरों न वह माता समुपेक्षते
सुतम् ॱ११ॱ

जगदम्ब ! मुझपर जो तु म्हारी पूणव कृपा बनी रॅई है , इसमें आश्चयवकी


कौनसी बात है , पुत्र अपराध-पर-अपराध क्योों न करता जाता हो, विर भी
माता उसकी उपेक्षा नहीों करती ॱ ११ॱ |

मत्समः पातकी नास्तस्त पापघ्नी त्वत्समा न वह॰

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एिों ज्ञात्वा महादे वि यथायोग्यों तथा कुरुॱ१२ॱ

महादे वि! मेरे समान कोई पातकी नहीों है और तु म्हारे समान दू सरी
कोई पापहाररणी नहीों है ; ऐसा जानकर जो उवचत जान पड़े , िह करो ॱ
१२ ॱ

॰॰ इवत श्रीशङ्कराचायवविरवचतों दे व्यपराधक्षमापनस्तोत्रों सम्पूणवम् ॰॰

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श्री मर्हषासुरमर्दि र्न स्तोत्रम्

अवय वगररनोंवदवन नोंवदतमेवदवन विश्वविनोवदवन नोंदनुते


वगररिर विोंध्य वशरोवधवनिावसवन विष्णु विलावसवन वजष्णु नुते ॰
भगिवत हे वशवतकण्ठकुटुों वबवन भूरर कुटुों वबवन भूरर कृते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१ॱ

सुरिरिवषववण दु धवरधवषववण दु मुवखमवषववण हषवरते


वत्रभुिनपोवषवण शों करतोवषवण वकस्तिषमोवषवण घोषरते ॰
दनुज वनरोवषवण वदवतसुत रोवषवण दु मवद शोवषवण वसन्धुसुते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ२ॱ

अवय जगदों ब मदों ब कदों ब िनवप्रय िावसवन हासरते


वशखरर वशरोमवण तु ङ्ग वहमालय रृोंग वनजालय मध्यगते ॰
मधु मधुरे मधु कैटभ गोंवजवन कैटभ भोंवजवन रासरते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ३ॱ

अवय शतखण्ड विखस्तण्डत रुण्ड वितु स्तण्डत शुण्ड गजावधपते


ररपु गज गण्ड विदारण चण्ड परारेम शु ण्ड मृगावधपते ॰
वनज भुज दण्ड वनपावतत खण्ड विपावतत मुण्ड भटावधपते

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जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ४ॱ

अवय रण दु मवद शत्रु िधोवदत दु धवर वनजव र शस्तिभृते


चतु र विचार धुरीण महावशि दू तकृत प्रमथावधपते ॰
दु ररत दु रीह दु राशय दु मववत दानिदू त कृताोंतमते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ५ॱ

अवय शरणागत िैरर िधूिर िीर िराभय दायकरे


वत्रभुिन मस्तक शू ल विरोवध वशरोवध कृतामल शू लकरे ॰
दु वमदु वम तामर दुों दुवभनाद महो मुखरीकृत वतग्मकरे
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ६ॱ

अवय वनज रॅुँ कृवत मात्र वनराकृत धूम्र विलोचन धूम्र शते
समर विशोवषत शोवणत बीज समुद्भि शोवणत बीज लते ॰
वशि वशि शुोंभ वनशुोंभ महाहि तवपवत भूत वपशाचरते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ७ॱ

धनुरनु सोंग रणक्षणसोंग पररस्फुर दों ग नटत्कटके


कनक वपशों ग पृषत्क वनषोंग रसद्भट रृोंग हतािटु के ॰

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कृत चतु रङ्ग बलवक्षवत रङ्ग घटद्बरॅरङ्ग रटद्बटु के
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ८ॱ

जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुवत तत्पर विश्वनुते


झण झण वझवञ्जवम वझों कृत नूपुर वसोंवजत मोवहत भूतपते ॰
नवटत नटाधव नटीनट नायक नावटत नाट्य सुगानरते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ९ॱ

अवय सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर काों वतयुते


वश्रत रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर िक्त्रिृते ॰
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमरावधपते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१०ॱ

सवहत महाहि मल्लम तस्तल्लक मस्तल्लत रल्लक मल्लरते


विरवचत िस्तल्लक पस्तल्लक मस्तल्लक वझस्तल्लक वभस्तल्लक िगव
िृते ॰
वसतकृत पुस्तल्लसमुल्ल वसतारुण तल्लज पल्लि सल्लवलते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ११ॱ

अविरल गण्ड गलन्मद मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते

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वत्रभुिन भूषण भूत कलावनवध रूप पयोवनवध राजसुते ॰
अवय सुद तीजन लालसमानस मोहन मन्मथ राजसुते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१२ॱ

कमल दलामल कोमल काों वत कलाकवलतामल भाललते


सकल विलास कलावनलयरेम केवल चलत्कल हों स कुले ॰
अवलकुल सङ्कुल कुिलय मण्डल मौवलवमलद्भकुलावल कुले
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१३ॱ

कर मुरली रि िीवजत कूवजत लस्तज्जत कोवकल मञ्जुमते


वमवलत पुवलन्द मनोहर गुवञ्जत रों वजतशैल वनकुञ्जगते ॰
वनजगुण भूत महाशबरीगण सद् गुण सोंभृत केवलतले
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१४ॱ

कवटतट पीत दु कूल विवचत्र मयूखवतरस्कृत चों द्र रुचे


प्रणत सुरासुर मौवलमवणस्फुर दों शुल सन्नख चोंद्र रुचे ॰
वजत कनकाचल मौवलपदोवजव त वनभवर कुोंजर कुोंभकुचे
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१५ॱ

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विवजत सहस्रकरै क सहस्रकरै क सहस्रकरै कनुते
कृत सुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ॰
सुरथ समावध समानसमावध समावधसमावध सुजातरते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१६ॱ

पदकमलों करुणावनलये िररिस्यवत योऽनुवदनों स वशिे


अवय कमले कमलावनलये कमलावनलयः स कथों न भिेत् ॰
ति पदमेि परों पदवमत्यनुशीलयतो मम वकों न वशिे
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१७ॱ

कनकलसत्कल वसन्धु जलै रनु वसवञ्चनुते गुण रङ्गभुिों


भजवत स वकों न शचीकुच कुोंभ तटी परररों भ सुखानुभिम् ॰
ति चरणों शरणों करिावण नतामरिावण वनिावस वशिों
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१८ॱ

ति विमलेन्दु कुलों िदनेन्दु मलों सकलों ननु कूलयते


वकमु पुरुरॆत पुरीन्दु मुखी सुमुखीवभरसौ विमुखीवरेयते ॰
मम तु मतों वशिनामधने भिती कृपया वकमुत वरेयते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ१९ॱ

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अवय मवय दीनदयालुतया कृपयैि त्वया भवितव्यमुमे
अवय जगतो जननी कृपयावस यथावस तथाऽनुवमतावसरते ॰
यदु वचतमत्र भित्युररर कुरुतादु रुतापमपाकुरुते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ२०ॱ

॥इर्त श्रीमर्हषासुरमर्दि र्न स्तोत्रं संपूणिम् ॥

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सोंकलनकताव :
श्री मनीष त्यागी
सोंस्थापक एिों अध्यक्ष
श्री वहों दू धमव िैवदक एजुकेशन िाउों डेशन

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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

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