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महर्षि वेदव्यास
कृत
लघु चण्डी
‘लघु चण्डी' के वनत्य पाठ द्वारा सभी शस्ति बन्धु लाभ उठाये ॰
‘श्रीदु गाव सप्तशती' के समान ही महवषव िेदव्यास कृत ‘लघु चण्डी’ के पाठ
की अपनी विशे ष मवहमा है ॰ इसका पाठ करने में वनम्न वनयमोों को ध्यान
में रखना चावहये:
‘श्रीमहा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वती-प्रीवत-पूिवक
अमुककामना-वसियथं महवष-िेदव्यास-कृत-श्रीमद् -दे िी-
भागितान्तगवत लघु-चण्डी-पाठस्य अमुक-सोंख्यकािृवत्तमहों
कररष्यावम ॰
ऋष्यार्द-न्यास
मानस-पू जा
मानस पूजन करने के बाद ‘लघु-चण्डी’ का पाठ करे ॰ पाठ के पूणव होने
पर क्षमा-प्राथव ना करे ॰
श्रीनारद बोले :
श्रीनारायण उिाच:
श्रीनारायण बोले :
श्रीनारद उिाच:
श्रीनारायण बोले :
दू सरे मनु स्वारोवचष के समय चैत्र िोंश में सुरथ नाम के एक बड़े शस्ति-
शाली प्रवसि राजा रॅए ॰॰६॰॰
वकसी मुवन के वनजी आश्रम में परॅुँ चकर, जो शान्त जीिोों से और मुवन के
वशष्योों से युि था, शान्त-मन होकर उन राजा ने दू रदशी श्रेष्ठ मुवन सुमेधा
के अवत सुन्दर आश्रम में कुछ समय तक वनिास वकया ॱ१४-१५॰॰
सुमेधा-मुवनरुिाच :
सुमेधा मुवनरुिाच
काल-रावत्रमवहा-रावत्रमोह-रावत्रमवदोत्कटा॰
व्यावपनी िशगा मान्या महानन्दै क-शे िवधः
ॱ३७ॱ
ब्रह्माजी बोले:
एकादशास्तत्मका चैकादश-रुद्र-वनषेविता ॰
एकादशी-वतवथ-प्रीता एकादश-गणावधपा
ॱ४४ॱ
युि के वलए वनश्चय वकए रॅए िे दोनोों भयङ्कर दानि तब उन विष्णु भगिान्
को दे खकर उनके समीप गये ॰ भगिान् विष्णु ने तब उन दोनोों से पाुँ च
हजार िषों तक युि वकया ॰॰५३-५४॰॰
तौ तदाऽवत-बलोन्मत्तौ जगन्माया-विमोवहतौ॰
वत्रयताों िर इत्येिमूचतु ः परमेश्वरम् ॱ५५ॱ
एिों तस्य िचः श्रुत्वा भगिानावद-पूरुषः॰
ित्रे बध्यािुभौ मेऽद्य भिेतावमवत वनवश्चतम्
ॱ५६ॱ
सुमेधा-मुवनरुिाच:
मवहषी-गभव-सम्भू तो महा-बल-परारेमः
दे िान् सिाव न् परावजत्य मवहषोऽभूज्जगत् -प्रभुः
ॱ१ॱ
'हे दे िताओों के दोनोों ईश्वर ! मवहषासुर नामक दु ष्ट दै त्य सभी दे िोों के
स्थानोों को हठात् छीनकर बल-परारेम के गिव से धृष्ट होकर स्वयों उनको
उपभोग कर रहा है ॰ हे असुरोों को नाश करनेिाले ! शीघ्र ही उसके बोंधे
का उपाय सोचें ॱ५-६॰॰
िाष्कलस्ताम्रकश्चैि विडाल-िदनोऽपरः॰
एतै श्चान्यै रसोंख्यातै ः सोंग्रामान्तक-सवन्नभैः ॱ२८ॱ
सुमेधा-मुवनरुिाच:
दे िा ऊचुः
दे िता बोले:
सुमेधा मुवनरुिाच:
‘शुम्भ और उसके भाई वनशु म्भ प्रख्यात हैं, अपनी शस्ति से उसने तीनोों
लोकोों पर अवधकार कर वलया है ॰ हे दे वि ! उसके बध का विचार कररये॰
हे दे वि ! िह दु ष्टात्मा दै त्यराज अपनी शस्ति से हमें अपमावनत कर वनरन्तर
सताता रहता है ' ॰॰१०-११॰॰
श्रीदे व्युिाच:
दे ि-गण प्रसन्न होकर सुमेरु पिवत की सुन्दर गुिा में चले आये॰ शुम्भ-
वनशु म्भ के दो सेिकोों-चण्ड और मुण्ड ने सिाव ङ्ग-सुन्दरी भुिन-मोवहनी
दे िी को दे खा और उन्ें दे खकर उन दोनोों सेिकोों ने राजा शुम्भ से जाकर
कहा ॰॰१४-१५॰॰
हे सभी असुरोों में श्रेष्ठ राजन् ! हे सभी श्रेष्ठ िस्तुओों के भोगने के अवधकारी
! हे सम्मान-दाता ! हे शत्रुनाशक हम दोनोों ने एक अपूिव सुन्दरी दे खी है
॰॰१६॰॰
दू त ने कहा:
हे दे वि ! शु म्भ नामक असुर तीनोों लोकोों को जीतनेिाले स्वामी हैं , सभी श्रेष्ठ
िस्तुओों के उपभोिा हैं , दे िताओों के सम्मान्य हैं ॰॰२१॰॰
श्रीदे व्युिाच:
श्रीदे िी बोलीों:
सुमेधा-मुवनरुिाच:
नारायण उिाच:
नारायण बोले:
श्री दे व्युिाच:
श्रीदे िी बोलीों:
हे राजन् ! बाधा-रवहत राज्य, मोह का नाश और ज्ञान इसी जन्म में मेरे िर
से तु म्हें प्राप्त होगा॰ हे भूपवत ! और भी सुनो, अगले जन्म का िल॰ सूयव से
जन्म पाकर तु म सािवणव होगे॰ तब उस मन्रन्तर का स्वावमत्व, अवत
परारेम और बरॅसोंख्यक सन्तान भी मेरे िर से तु म प्राप्त करोगे ॰५५-
५७॰॰
माुँ ! मैं न मन्त्र जानता रॆुँ , न यन्त्र; अहो! मुझे स्तुवत का भी ज्ञान नहीों है ॰
न आिाहन का पता है , न ध्यान का॰ स्तोत्र और कथा की भी जानकारी
नहीों है ॰ न तो तु म्हारी मुद्राएुँ जानता रॆुँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप
करना ही आता है ; परों तु एक बात जानता रॆुँ , केिल तु म्हारा अनुसरण-
तु म्हारे पीछे चलना ॰ जो वक सब क्ेशोोंको-समस्त दु ःख-विपवत्तयोोंको हर
ले नेिाला है ॱ१ॱ
जगदम्ब! मातः! मैंने तुम्हारे चरणोोंकी सेिा कभी नहीों की, दे वि! तु म्हें
अवधक धन भी. समवपवत नहीों वकया; तथावप, मुझ-जै से अधमपर जो तु म
अनुपम स्ने ह करती हो, इसका कारण यही है वक सोंसारमें कुपुत्र पैदा हो
सकता है , वकोंतु कहीों भी कुमाता नहीों होती ॱ४ॱ
पररत्यिा दे िा विविधविधसेिाकुलतया ॰
मया पञ्चाशीते रवधकमपनीते तु ियवस॰
इदानीों चेन्मातस्ति यवद कृपा नावप भविता
वनरालम्बो लम्बोदरजनवन कों यावम शरणम्ॱ५ॱ
लघु चण्डी www.shdvef.com Page 44
गणेशजीको जन्म दे नेिाली माता पािवती! *अन्य दे िताओोंकी आराधना
करते समय+ मुझे नाना प्रकारकी सेिाओों में व्यग्र रहना पड़ता था, इसवलये
पचासी िषवसे अवधक अिस्था बीत जानेपर मैंने दे िताओोंको छोड़ वदया है ,
अब उनकी सेिा-पूजा मुझसे नहीों हो पाती; अतएि उनसे कुछ भी
सहायता वमलनेकी आशा नहीों है ॰ इस समय यवद तु म्हारी कृपा नहीों होगी,
तो मैं अिलम्बरवहत होकर वकसकी शरणमें जाऊुँगा ॱ५ॱ
न मोक्षस्याकाङ्क्षा भिविभििािावप च न मे
न विज्ञानापेक्षा शवशमुस्तख सुखेच्छावप न पुनः॰
अतस्त्ऱाों सोंयाचे जनवन जननों यातु मम िै
मृडानी रुद्राणी वशि वशि भिानीवत जपतः
ॱ८ॱ
मुखमें चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेिाली माुँ ! मुझे मोक्षकी इच्छा नहीों
है , सोंसारके िैभिकी भी अवभलाषा नहीों है ; न विज्ञानकी अपेक्षा है , न
सुखकी आकाों क्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है वक मेरा जन्म ‘मृडानी,
रुद्राणी, वशि, वशि, भिानी'-इन नामोोंका जप करते रॅए बीते ॱ ८ॱ
महादे वि! मेरे समान कोई पातकी नहीों है और तु म्हारे समान दू सरी
कोई पापहाररणी नहीों है ; ऐसा जानकर जो उवचत जान पड़े , िह करो ॱ
१२ ॱ
अवय वनज रॅुँ कृवत मात्र वनराकृत धूम्र विलोचन धूम्र शते
समर विशोवषत शोवणत बीज समुद्भि शोवणत बीज लते ॰
वशि वशि शुोंभ वनशुोंभ महाहि तवपवत भूत वपशाचरते
जय जय हे मवहषासुरमवदव वन रम्यकपवदव वन शैलसुते ॱ७ॱ
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।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।