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धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कु रुक्षेत्रे सर्वेता युयत्ु सवः । धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमर् कु रुक्षेत्र र्ें युद्ध की इच्छा से
र्ार्काः पाण्डवाश्चैव ककर्कु वमत सञ्जय ॥१.१ एकत्र हुए र्ेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या ककया ?

अब र्ैं अपनी कृ पण-दुबमलता के कारण अपना कतमव्य भूल गया हूँ


कापमण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामर् त्वां धर्मसम्र्ूढचेताः । और सारा धैयम खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था र्ें र्ैं आपसे पूछ रहा हूँ
यच्रेयः स्यामिमश्चतं ब्रूमह तन्र्े कक जो र्ेरे मलए श्रेयस्कर हो उसे मनमश्चत रूप से बताएूँ | अब र्ैं
मिष्यस्तेऽहं िामध र्ां त्वां प्रपिर्् ॥ २.७ आपका मिष्य हूँ और िरणागत हूँ | कृ प्या र्ुझे उपदेि दें

श्री भगवान् ने कहा – तुर् पामण्डत्यपूणम वचन कहते हुए उनके मलए
श्रीभगवानुवाच
अिोच्यानन्विोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । िोक कर रहे हो जो िोक करने योग्य नहीं है | जो मवद्वान होते हैं, वे
गतासूनगतासूंश्च नानुिोचमन्त पमण्डताः ॥२.११ न तो जीमवत के मलए, न ही र्ृत के मलए िोक करते हैं |

ऐसा कभी नहीं हुआ कक र्ैं न रहा होऊूँ या तुर् न रहे हो अथवा ये
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेर्े जनामधपाः ।
न चैव न भमवष्यार्ः सवे वयर्तः परर्् ॥२.१२ सर्स्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है कक भमवष्य र्ें हर् लोग नहीं
रहेंगे |

मजस प्रकार िरीरधारी आत्र्ा इस (वतमर्ान) िरीर र्ें बाल्यावस्था


देमहनोऽमस्र्न्यथा देहे कौर्ारं यौवनं जरा । से तरुणावस्था र्ें और किर वृद्धावस्था र्ें मनरन्तर अग्रसर होता
तथा देहान्तरप्रामिधीरस्तत्र न र्ुह्यमत ॥२.१३ रहता है, उसी प्रकार र्ृत्यु होने पर आत्र्ा दूसरे िरीर र्ें चला जाता
है | धीर व्यमि ऐसे पररवतमन से र्ोह को प्राि नहीं होता |

हे कु न्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षमणक उदय तथा कालक्रर् र्ें उनका
र्ात्रास्पिामस्तु कौन्तेय िीतोष्णसुखदुःखदाः ।
अन्तधामन होना सदी तथा गर्ी की ऋतुओं के आने जाने के सर्ान है
आगर्ापामयनोऽमनत्यास्तांमस्तमतक्षस्व भारत ॥२.१४
| हे भरतवंिी! वे इमन्ियबोध से उत्पि होते हैं और र्नुष्य को
चामहए कक अमवचल भाव से उनको सहन करना सीखे |

न जायते मियते वा कदामच- आत्र्ा के मलए ककसी भी काल र्ें न तो जन्र् है न र्ृत्यु | वह न तो
िायं भूत्वा भमवता वा न भूयः । कभी जन्र्ा है, न जन्र् लेता है और न जन्र् लेगा | वह अजन्र्ा,
अजो मनत्यः िाश्वतोऽयं पुराणो मनत्य, िाश्र्वत तथा पुरातन है | िरीर के र्ारे जाने पर वह र्ारा
न हन्यते हन्यर्ाने िरीरे ॥२.२०
नहीं जाता |
मजस प्रकार र्नुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता
वासांमस जीणाममन यथा मवहाय
नवामन गृह्णामत नरोऽपरामण । है, उसी प्रकार आत्र्ा पुराने तथा व्यथम के िरीरों को त्याग कर
तथा िरीरामण मवहाय जीणाम- नवीन भौमतक िरीर धारण करता है ।
न्यन्यामन संयामत नवामन देही ॥२.२२

यह आत्र्ा न तो कभी ककसी िस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड ककया जा सकता


नैनं मछन्दमन्त िस्त्रामण नैनं दहमत पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न िोषयमत र्ारुतः ॥२.२३ है, न अमि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा मभगोया या
वायु द्वारा सुखाया जा सकता है |

मजसने जन्र् मलया है उसकी र्ृत्यु मनमश्चत है और र्ृत्यु के पश्चात्


जातस्य मह ध्रुवो र्ृत्युध्रुमवं जन्र् र्ृतस्य च ।
तस्र्ादपररहायेऽथे न त्वं िोमचतुर्हममस ॥२.२७ पुनजमन्र् भी मनमश्चत है | अतः अपने अपररहायम कतमव्यपालन र्ें तुम्हें
िोक नहीं करना चामहए |

हे भारतवंिी! िरीर र्ें रहने वाले (देही) का कभी भी वध नहीं


देही मनत्यर्वध्योऽयं देहे सवमस्य भारत ।
ककया जा सकता । अतः तुम्हें ककसी भी जीव के मलए िोक करने की
तस्र्ात्सवाममण भूतामन न त्वं िोमचतुर्हममस ॥२.३०
आवश्यकता नहीं है ।

इस(भमि) प्रयास र्ें न तो हामन होती है न ही ह्रास अमपतु इस पथ


नेहामभक्रर्नािोऽमस्त प्रत्यवायो न मवद्यते ।
स्वल्पर्प्यस्य धर्मस्य त्रायते र्हतो भयात् ॥२.४० पर की गई अल्प प्रगमत भी र्हान भय से रक्षा कर सकती है |

जो इस र्ागम पर (चलते) हैं वे प्रयोजन र्ें दृढ़ रहते हैं और उनका


व्यवसायामत्र्का बुमद्धरे केह कु रुनन्दन ।
बहुिाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसामयनार्् ॥२.४१ लक्ष्य भी एक होता है | हे कु रुनन्दन! जो दृढ़प्रमतज्ञ नहीं है उनकी
बुमद्ध अनेक िाखाओं र्ें मवभि रहती है |

जो लोग इमन्ियभोग तथा भौमतक ऐश्र्वयम के प्रमत अत्यमधक आसि


भोगैश्वयमप्रसिानां तयापहृतचेतसार्् ।
व्यवसायामत्र्का बुमद्धः सर्ाधौ न मवधीयते ॥२.४४ होने से ऐसी वस्तुओं से र्ोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके र्नों र्ें भगवान्
के प्रमत भमि का दृढ़ मनश्चय नहीं होता |

त्रैगुण्यमवषया वेदा मनस्त्रैगुण्यो भवाजुमन । वेदों र्ें र्ुख्यतया प्रकृ मत के तीनों गुणों का वणमन हुआ है | हे अजुमन!
मनद्वमन्द्वो मनत्यसत्त्वस्थो मनयोगक्षेर् आत्र्वान् ॥२.४५ इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | सर्स्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की
सारी मचन्ताओं से र्ुि होकर आत्र्-परायण बनो |
एक छोटे से कू प का सारा कायम एक मविाल जलािय से तुरन्त पूरा
यावानथम उदपाने सवमतः संप्लुतोदके ।
तावान्सवेषु वेदष
े ु ब्राह्मणस्य मवजानतः ॥२.४६ हो जाता है | इसी प्रकार वेदों के आन्तररक तात्पयम जानने वाले को
उनके सारे प्रयोजन मसद्ध हो जाते हैं |

देहधारी जीव इमन्ियभोग से भले ही मनवृत्त हो जाय पर उसर्ें


मवषया मवमनवतमन्ते मनराहारस्य देमहनः ।
रसवजं रसोऽप्यस्य परं दृष््वा मनवतमते ॥२.५९ इमन्ियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेककन उत्तर् रस के अनुभव
होने से ऐसे कायों को बंद करने पर वह भमि र्ें मस्थर हो जाता है |

इमन्ियामवषयों का मचन्तन करते हुए र्नुष्य की उनर्ें आसमि उत्पि


ध्यायतो मवषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
हो जामत है और ऐसी आसमि से कार् उत्पि होता है और किर
सङ्गात्संजायते कार्ः कार्ात्क्रोधोऽमभजायते ॥२.६२
कार् से क्रोध प्रकट होता है |

क्रोध से पूणम र्ोह उत्पि होता है और र्ोह से स्र्रणिमि का मवभ्रर्


क्रोधाद्भवमत संर्ोहः संर्ोहात्स्र्ृमतमवभ्रर्ः ।
स्र्ृमतभ्रंिाद्बुमद्धनािो बुमद्धनािात्प्रणश्यमत ॥२.६३ हो जाता है | जब स्र्रणिमि भ्रमर्त हो जामत है, तो बुमद्ध नष्ट हो
जाती है और बुमद्ध नष्ट होने पर र्नुष्य भव-कू प र्ें पुनः मगर जाता है
|

ककन्तु सर्स्त राग तथा द्वेष से र्ुि एवं अपनी इमन्ियों को संयर्
रागद्वेषमवयुिैस्तु मवषयामनमन्ियैश्चरन् ।
द्वारा वि र्ें करने र्ें सर्थम व्यमि भगवान् की पूणम कृ पा प्राि कर
आत्र्वश्यैर्वमधेयात्र्ा प्रसादर्मधगच्छमत ॥२.६४
सकता है |

या मनिा सवमभूतानां तस्यां जागर्तम संयर्ी । जो सब जीवों के मलए रामत्र है, वह आत्र्संयर्ी के जागने का सर्य
यस्यां जाग्रमत भूतामन सा मनिा पश्यतो र्ुनेः ॥२.६९ है और जो सर्स्त जीवों के जागने का सर्य है वह आत्र्मनरीक्षक
र्ुमन के मलए रामत्र है |

यज्ञाथामत्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । श्रीमवष्णु के मलए यज्ञ रूप र्ें कर्म करना चामहए, अन्यथा कर्म के
तदथं कर्म कौन्तेय र्ुिसङ्गः सर्ाचर ॥ ३.९ द्वारा इस भौमतक जगत् र्ें बन्धन उत्पि होता है | अतः हे कु न्तीपुत्र!
उनकी प्रसिता के मलए अपने मनयत कर्म करो | इस तरह तुर् बन्धन
से सदा र्ुि रहोगे |

अिाद्भवमन्त भूतामन पजमन्यादिसम्भवः । सारे प्राणी अि पर आमश्रत हैं, जो वषाम से उत्पि होता है | वषाम यज्ञ
यज्ञाद्भवमत पजमन्यो यज्ञः कर्मसर्ुद्भवः ॥३.१४ सम्पि करने से होती है और यज्ञ मनयत कर्ों से उत्पि होता है |
यद्यदाचरमत श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । र्हापुरुष जो जो आचरण करता है, सार्ान्य व्यमि उसी का
स यत्प्रर्ाणं कु रुते लोकस्तदनुवतमते ॥३.२१ अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कायों से जो आदिम प्रस्तुत
करता है, सम्पूणम मवश्र्व उसका अनुसरण करता है |

जीवात्र्ा अहंकार के प्रभाव से र्ोहग्रस्त होकर अपने आपको सर्स्त


प्रकृ तेः कक्रयर्ाणामन गुणैः कर्ाममण सवमिः ।
अहंकारमवर्ूढात्र्ा कतामहमर्मत र्न्यते ॥३.२७ कर्ों का कताम र्ान बैठता है, जब कक वास्तव र्ें वे प्रकृ मत के तीनों
गुणों द्वारा सम्पि ककये जाते हैं |

श्रीभगवान् ने कहा – हे अजुमन! इसका कारण रजोगुण के सम्पकम से


श्रीभगवानुवाच
कार् एष क्रोध एष रजोगुणसर्ुद्भवः । उत्पि कार् है, जो बाद र्ें क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस
र्हािनो र्हापाप्र्ा मवद्ध्येनमर्ह वैररणर्् ॥३.३७ संसार का सवमभक्षी पापी ित्रु है |

भगवान् श्रीकृ ष्ण ने कहा – र्ैंने इस अर्र योगमवद्या का उपदेि


श्रीभगवानुवाच
सूयमदव
े मववस्वान् को कदया और मववस्वान् ने र्नुष्यों के मपता र्नु
इर्ं मववस्वते योगं प्रोिवानहर्व्ययर्् ।
मववस्वान्र्नवे प्राह र्नुररक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥४.१ को उपदेि कदया और र्नु ने इसका उपदेि इक्ष्वाकु को कदया |

इस प्रकार यह परर् मवज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राि ककया गया और


एवं परम्पराप्रािमर्र्ं राजषमयो मवदुः ।
स कालेनहे र्हता योगो नष्टः परन्तप ॥४.२ राजर्षमयों ने इसी मवमध से इसे सर्झा | ककन्तु कालक्रर् र्ें यह
परम्परा मछि हो गई, अतः यह मवज्ञान यथारूप र्ें लुि हो गया
लगता है |

आज र्ेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परर्ेश्र्वर के साथ अपने


स एवायं र्या तेऽद्य योगः प्रोिः पुरातनः ।
भिोऽमस र्े सखा चेमत रहस्यं ह्येतदुत्तर्र्् ॥४.३ सम्बन्ध का मवज्ञान, तुर्से कहा जा रहा है, क्योंकक तुर् र्ेरे भि
तथा मर्त्र हो, अतः तुर् इस मवज्ञान के कदव्य रहस्य को सर्झ सकते
हो |

यद्यमप र्ैं अजन्र्ा तथा अमवनािी हूँ और यद्यमप र्ैं सर्स्त जीवों का
अजोऽमप सिव्ययात्र्ा भूतानार्ीश्वरोऽमप सन् ।
प्रकृ ततं स्वार्मधष्ठाय संभवाम्यात्र्र्ायया ॥४.६ स्वार्ी हूँ, तो भी प्रत्येक युग र्ें र्ैं अपने आकद कदव्य रूप र्ें प्रकट
होता हूँ |

हे भारतवंिी! जब भी और जहाूँ भी धर्म का पतन होता है और


यदा यदा मह धर्मस्य ग्लामनभमवमत भारत ।
अभ्युत्थानर्धर्मस्य तदात्र्ानं सृजाम्यहर्् ॥४.७ अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब र्ैं अवतार लेता हूँ |
पररत्राणाय साधूनां मवनािाय च दुष्कृ तार्् । भिों का उद्धार करने, दुष्टों का मवनाि करने तथा धर्म की किर से
धर्मसंस्थापनाथामय सम्भवामर् युगे युगे ॥४.८ स्थापना करने के मलए र्ैं हर युग र्ें प्रकट होता हूँ |

जन्र् कर्म च र्े कदव्यर्ेवं यो वेमत्त तत्त्वतः । हे अजुमन! जो र्ेरे अमवभामव तथा कर्ों की कदव्य प्रकृ मत को जानता है,
त्यक्त्वा देहं पुनजमन्र् नैमत र्ार्ेमत सोऽजुमन ॥४.९ वह इस िरीर को छोड़ने पर इस भौमतक संसार र्ें पुनः जन्र् नहीं
लेता, अमपतु र्ेरे सनातन धार् को प्राि होता है |

वीतरागभयक्रोधा र्न्र्या र्ार्ुपामश्रताः । आसमि, भय तथा क्रोध से र्ुि होकर, र्ुझर्ें पूणमतया तन्र्य होकर
बहवो ज्ञानतपसा पूता र्द्भावर्ागताः ॥४.१० और र्ेरी िरण र्ें आकर बहुत से व्यमि भूत काल र्ें र्ेरे ज्ञान से
पमवत्र हो चुके हैं | इस प्रकार से उन सबों ने र्ेरे प्रमत कदव्यप्रेर् को
प्राि ककया है |

ये यथा र्ां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहर्् । मजस भाव से सारे लोग र्ेरी िरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप र्ैं
र्र् वत्र्ामनुवतमन्ते र्नुष्याः पाथम सवमिः ॥४.११ उन्हें िल देता हूँ | हे पाथम! प्रत्येक व्यमि सभी प्रकार से र्ेरे पथ का
अनुगर्न करता है |

प्रकृ मत के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार र्ेरे द्वारा


चातुवमण्यं र्या सृष्टं गुणकर्ममवभागिः ।
तस्य कतामरर्मप र्ां मवद्ध्यकतामरर्व्ययर्् ॥४.१३ र्ानव सर्ाज के चार मवभाग रचे गये | यद्यमप र्ैं इस व्यवस्था का
स्त्रष्टा हूँ, ककन्तु तुर् यह जाना लो कक र्ैं इतने पर भी अव्यय अकताम
हूँ |

तमद्वमद्ध प्रमणपातेन पररप्रश्नेन सेवया । तुर् गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे
उपदेक्ष्यमन्त ते ज्ञानं ज्ञामननस्तत्त्वदर्िमनः ॥४.३४ मवनीत होकर मजज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपमसद्ध
व्यमि तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकक उन्होंने सत्य का दिमन
ककया है |

मवनि साधुपुरुष अपने वास्तमवक ज्ञान के कारण एक मवद्वान् तथा


मवद्यामवनयसंपिे ब्राह्मणे गमव हमस्तमन ।
िुमन चैव श्वपाके च पमण्डताः सर्दर्िमनः ॥५.१८ मवनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कु त्ता तथा चाण्डाल को सर्ान दृमष्ट
(सर्भाव) से देखते हैं |

बुमद्धर्ान् र्नुष्य दुख के कारणों र्ें भाग नहीं लेता जो कक भौमतक


ये मह संस्पिमजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रर्ते बुधः ॥५.२२ इमन्ियों के संसगम से उत्पि होते हैं | हे कु न्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आकद
तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यमि उनर्ें आनन्द नहीं लेता |
भोिारं यज्ञतपसां सवमलोकर्हेश्वरर्् । र्ुझे सर्स्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परर् भोिा, सर्स्त लोकों तथा
सुहृदं सवमभूतानां ज्ञात्वा र्ां िामन्तर्ृच्छमत ॥५.२९ देवताओं का परर्ेश्र्वर एवं सर्स्त जीवों का उपकारी एवं महतैषी
जानकर र्ेरे भावनार्ृत से पूणम पुरुष भौमतक दुखों से िामन्त लाभ-
करता है |

युिाहारमवहारस्य युिचेष्टस्य कर्मसु । जो खाने, सोने, आर्ोद-प्रर्ोद तथा कार् करने की आदतों र्ें
युिस्वप्नावबोधस्य योगो भवमत दुःखहा ॥६.१७ मनयमर्त रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा सर्स्त भौमतक क्लेिों को
नष्ट कर सकता है |

असिल योगी पमवत्रात्र्ाओं के लोकों र्ें अनेकानेक वषों तक भोग


प्राप्य पुण्यकृ तां लोकानुमषत्वा िाश्वतीः सर्ाः ।
करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के पररवार र्ें या कक धनवानों
िुचीनां श्रीर्तां गेहे योगभ्रष्टोऽमभजायते ॥ ६.४१
के कु ल र्ें जन्र् लेता है |

और सर्स्त योमगयों र्ें से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूवमक र्ेरे परायण


योमगनार्मप सवेषां र्द्गतेनान्तरात्र्ना ।
श्रद्धावान् भजते यो र्ां स र्े युितर्ो र्तः ॥६.४७ है, अपने अन्तःकरण र्ें र्ेरे मवषय र्ें सोचता है और र्ेरी कदव्य
प्रेर्ाभमि करता है वह योग र्ें र्ुझसे परर् अन्तरं ग रूप र्ें युि
रहता है और सबों र्ें सवोच्च है | यही र्ेरा र्त है |

कई हजार र्नुष्यों र्ें से कोई एक मसमद्ध के मलए प्रयत्निील होता है


र्नुष्याणां सहस्त्रेषु कमश्र्चद्यतमत मसद्धये |
और इस तरह मसमद्ध प्राि करने वालों र्ें से मवरला ही कोई र्ुझे
यततार्मप मसद्धानां कमश्र्चन्र्ां वेमत्त तत्त्वतः || ७.३
वास्तव र्ें जान पाता है |

भूमर्रापोऽनलो वायुः खं र्नो बुमद्धरे व च । पृथ्वी, जल, अमि, वायु, आकाि, र्न, बुमद्ध तथा अहंकार – ये आठ
अहंकार इतीयं र्े मभिा प्रकृ मतरष्टधा ॥ ७.४ प्रकार से मवभि र्ेरी मभिा (अपर) प्रकृ मतयाूँ हैं |

हे र्हाबाहु अजुन
म ! इनके अमतररि र्ेरी एक अन्य परा िमि है जो
अपरे यमर्तस्त्वन्यां प्रकृ ततं मवमद्ध र्े परार्् ।
जीवभूतां र्हाबाहो ययेदं धायमते जगत् ॥७.५ उन जीवों से युिहै, जो इस भौमतक अपरा प्रकृ मत के साधनों का
मवदोहन कर रहे हैं |

र्त्तः परतरं नान्यतत्कं मचदमस्त धनंजय । हे धनञ्जय! र्ुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | मजस प्रकार र्ोती धागे र्ें
र्मय सवममर्दं प्रोतं सूत्रे र्मणगणा इव ॥७.७ गुूँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कु छ र्ुझ पर ही आमश्रत है |
प्रकृ मत के तीन गुणों वाली इस र्ेरी दैवी िमि को पार कर पाना
दैवी ह्येषा गुणर्यी र्र् र्ाया दुरत्यया ।
र्ार्ेव ये प्रपद्यन्ते र्ायार्ेतां तरमन्त ते ॥७.१४ करठन है | ककन्तु जो र्ेरे िरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे
पार कर जाते हैं |

न र्ां दुष्कृ मतनो र्ूढाः प्रपद्यन्ते नराधर्ाः । जो मनपट र्ुखम है, जो र्नुष्यों र्ें अधर् हैं, मजनका ज्ञान र्ाया द्वारा
र्ाययापहृतज्ञाना आसुरं भावर्ामश्रताः ॥७.१५ हर मलया गया है तथा जो असुरों की नामस्तक प्रकृ मत को धारण
करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट र्ेरी िरण ग्रहण नहीं करते |

चतुर्वमधा भजन्ते र्ां जनाः सुकृमतनोऽजुन


म । हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्र्ा र्ेरी सेवा करते हैं – आतम,
आतो मजज्ञासुरथामथी ज्ञानी च भरतषमभ ॥७.१६ मजज्ञासु, अथामथी तथा ज्ञानी |

बहनां जन्र्नार्न्ते ज्ञानवान्र्ां प्रपद्यते । अनेक जन्र्-जन्र्ान्तर के बाद मजसे सचर्ुच ज्ञान होता है, वह
वासुदव
े ः सवममर्मत स र्हात्र्ा सुदल ु मभः ॥७.१९ र्ुझको सर्स्त कारणों का कारण जानकर र्ेरी िरण र्ें आता है |
ऐसा र्हात्र्ा अत्यन्त दुलमभ होता है |

नाहं प्रकािः सवमस्य योगर्ायासर्ावृतः । र्ैं र्ूखों तथा अल्पज्ञों के मलए कभी भी प्रकट नहीं हूँ | उनके मलए तो
र्ूढोऽयं नामभजानामत लोको र्ार्जर्व्ययर्् ॥७.२५ र्ैं अपनी अन्तरं गा िमि द्वारा आच्छाकदत रहता हूँ, अतः वे यह नहीं
जान पाते कक र्ैं अजन्र्ा तथा अमवनािी हूँ |

हे अजुमन! श्रीभगवान् होने के नाते र्ैं जो कु छ भूतकाल र्ें घरटत हो


वेदाहं सर्तीतामन वतमर्ानामन चाजुन म ।
भमवष्यामण च भूतामन र्ां तु वेद न कश्चन ॥७.२६ चुका है, जो वतमर्ान र्ें घरटत हो रहा है और जो आगे होने वाला है,
वह सब कु छ जानता हूँ | र्ैं सर्स्त जीवों को भी जानता हूँ, ककन्तु
र्ुझे कोई नहीं जानता |

हे भरतवंिी! हे ित्रुमवजेता! सर्स्त जीव जन्र् लेकर इच्छा तथा


इच्छाद्वेषसर्ुत्थेन द्वन्द्वर्ोहेन भारत ।
सवमभूतामन संर्ोहं सगे यामन्त परन्तप ॥७.२७ घृणा से उत्पि द्वन्द्वों से र्ोहग्रस्त होकर र्ोह को प्राि होते हैं |

मजन र्नुष्यों ने पूवमजन्र्ों र्ें तथा इस जन्र् र्ें पुण्यकर्म ककये हैं और
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणार्् ।
ते द्वन्द्वर्ोहमनर्ुमिा भजन्ते र्ां दृढव्रताः ॥७.२८ मजनके पापकर्ों का पूणमतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे र्ोह के
द्वन्द्वों से र्ुि हो जाते हैं और वे संकल्पपूवमक र्ेरी सेवा र्ें तत्पर होते
हैं |
और जीवन के अन्त र्ें जो के वल र्ेरा स्र्रण करते हुए िरीर का
अन्तकाले च र्ार्ेव स्र्रन्र्ुक्त्वा कलेवरर्् ।
यः प्रयामत स र्द्भावं यामत नास्त्यत्र संियः ॥८.५ त्याग करता है, वह तुरन्त र्ेरे स्वभाव को प्राि करता है | इसर्ें
रं चर्ात्र भी सन्देह नहीं है |

हे कु न्तीपुत्र! िरीर त्यागते सर्य र्नुष्य मजस-मजस भाव का स्र्रण


यं यं वामप स्र्रन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरर्् ।
तं तर्ेवैमत कौन्तेय सदा तद्भावभामवतः ॥८.६ करता है, वह उस उस भाव को मनमश्चत रूप से प्राि होता है |

तस्र्ात्सवेषु कालेषु र्ार्नुस्र्र युध्य च । अतएव, हे अजुमन! तुम्हें सदैव कृ ष्ण रूप र्ें र्ेरा मचन्तन करना
र्य्यर्पमतर्नोबुमद्धर्ामर्ेवैष्यस्यसंियर्् ॥८.७ चामहए और साथ ही युद्ध करने के कतमव्य को भी पूरा करना चामहए
| अपने कर्ों को र्ुझे सर्र्पमत करके तथा अपने र्न एवं बुमद्ध को
र्ुझर्ें मस्थर करके तुर् मनमश्चत रूप से र्ुझे प्राि कर सकोगे |

हे अजुमन! जो अनन्य भाव से मनरन्तर र्ेरा स्र्रण करता है उसके


अनन्यचेताः सततं यो र्ां स्र्रमत मनत्यिः ।
तस्याहं सुलभः पाथम मनत्ययुिस्य योमगनः ॥८.१४ मलए र्ैं सुलभ हूँ, क्योंकक वह र्ेरी भमि र्ें प्रवृत्त रहता है |

र्ार्ुपेत्य पुनजमन्र् दुःखालयर्िाश्वतर्् । र्ुझे प्राि करके र्हापुरुष, जो भमियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूणम
नाप्नुवमन्त र्हात्र्ानः संमसतद्धं परर्ां गताः ॥८.१५ इस अमनत्य जगत् र्ें नहीं लौटते, क्योंकक उन्हें परर् मसमद्ध प्राि हो
चुकी होती है |

इस जगत् र्ें सवोच्च लोक से लेकर मनम्नतर् सारे लोक दुखों के घर


आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तमनोऽजुमन ।
र्ार्ुपेत्य तु कौन्तेय पुनजमन्र् न मवद्यते ॥८.१६ हैं, जहाूँ जन्र् तथा र्रण का चक्कर लगा रहता है | ककन्तु हे
कु न्तीपुत्र! जो र्ेरे धार् को प्राि कर लेता है, वह किर कभी जन्र्
नहीं लेता |

वेदषे ु यज्ञेषु तपःसु चैव जो व्यमि भमिर्ागम स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या,
दानेषु यत् पुण्यिलं प्रकदष्टर्् । दान, दािममनक तथा सकार् कर्म करने से प्राि होने वाले िलों से
अत्येमत तत्सवममर्दं मवकदत्वा वंमचत नहीं होता | वह र्ात्र भमि सम्पि करके इन सर्स्त िलों की
योगी परं स्थानर्ुपैमत चाद्यर्् ॥८.२८
प्रामि करता है और अन्त र्ें परर् मनत्यधार् को प्राि होता है |

राजमवद्या राजगुह्यं पमवत्रमर्दर्ुत्तर्र्् । यह ज्ञान सब मवद्याओं का राजा है, जो सर्स्त रहस्यों र्ें सवाममधक
प्रत्यक्षावगर्ं धम्यं सुसुखं कतुर्
म व्ययर्् ॥९.२ गोपनीय है | यह परर् िुद्ध है और चूूँकक यह आत्र्ा की प्रत्यक्ष
अनुभूमत कराने वाला है, अतः यह धर्म का मसद्धान्त है | यह
अमवनािी है और अत्यन्त सुखपूवमक सम्पि ककया जाता है |

र्या ततमर्दं सवं जगदव्यिर्ूर्तमना । यह सम्पूणम जगत् र्ेरे अव्यि रूप द्वारा व्याि है | सर्स्त जीव र्ुझर्ें
र्त्स्थामन सवमभूतामन न चाहं तेष्ववमस्थतः ॥९.४ हैं, ककन्तु र्ैं उनर्ें नहीं हूँ |

हे कु न्तीपुत्र! यह भौमतक प्रकृ मत र्ेरी िमियों र्ें से एक है और र्ेरी


र्याध्यक्षेण प्रकृ मतः सूयते सचराचरर्् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगमद्वपररवतमते ॥९.१० अध्यक्षता र्ें कायम करती है, मजससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पि
होते हैं | इसके िासन र्ें यह जगत् बारम्बार सृमजत और मवनष्ट
होता रहता है |

अवजानमन्त र्ां र्ूढा र्ानुषीं तनुर्ामश्रतर्् । जब र्ैं र्नुष्य रूप र्ें अवतररत होता हूँ, तो र्ूखम र्ेरा उपहास करते
परं भावर्जानन्तो र्र् भूतर्हेश्वरर्् ॥९.११ हैं | वे र्ुझ परर्ेश्र्वर के कदव्य स्वभाव को नहीं जानते |

र्ोघािा र्ोघकर्ामणो र्ोघज्ञाना मवचेतसः । र्ोघ-आिाः – मनष्िल आिा; र्ोघ-कर्ामणः– मनष्िल सकार् कर्म;
राक्षसीर्ासुरीं चैव प्रकृ ततं र्ोमहनीं मश्रताः ॥९.१२ र्ोघ-ज्ञानाः– मविल ज्ञान; मवचेतसः– र्ोहग्रस्त; राक्षसीर््– राक्षसी;
आसुरीर््– आसुरी; च– तथा; एव– मनश्चय ही; प्रकृ मतर््– स्वभाव
को; र्ोमहनीर््– र्ोहने वाली; मश्रताः– िरण ग्रहण ककये हुए |

र्हात्र्ानस्तु र्ां पाथम दैवीं प्रकृ मतर्ामश्रताः । हे पाथम! र्ोहर्ुि र्हात्र्ाजन दैवी प्रकृ मत के संरक्षण र्ें रहते हैं | वे
भजन्त्यनन्यर्नसो ज्ञात्वा भूताकदर्व्ययर्् ॥९.१३ पूणमतः भमि र्ें मनर्ि रहते हैं क्योंकक वे र्ुझे आकद तथा अमवनािी
भगवान् के रूप र्ें जानते हैं |

ये र्हात्र्ा र्ेरी र्महर्ा का मनत्य कीतमन करते हुए दृढसंकल्प के


सततं कीतमयन्तो र्ां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नर्स्यन्तश्च र्ां भक्त्या मनत्ययुिा उपासते ॥९.१४ साथप्रयास करते हुए, र्ुझे नर्स्कार करते हुए, भमिभाव से
मनरन्तर र्ेरी पूजा करते हैं|.

ककन्तु जो लोग अनन्यभाव से र्ेरे कदव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए


अनन्यामश्चन्तयन्तो र्ां ये जनाः पयुमपासते ।
तेषां मनत्यामभयुिानां योगक्षेर्ं वहाम्यहर्् ॥९.२२ मनरन्तर र्ेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएूँ होती हैं, उन्हें
र्ैं पूरा करता हूँ और जो कु छ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ |

यामन्त देवव्रता देवामन्पतॄन्यामन्त मपतृव्रताः । जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्र् लेंगे, जो
भूतामन यामन्त भूतेज्या यामन्त र्द्यामजनोऽमप र्ार्् मपतरों को पूजते हैं, वे मपतरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की
॥९.२५
उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्र् लेते हैं और जो र्ेरी पूजा
करते हैं वे र्ेरे साथ मनवास करते हैं |

पत्रं पुष्पं िलं तोयं यो र्े भक्त्या प्रयच्छमत । यकद कोई प्रेर् तथा भमि के साथ र्ुझे पत्र, पुष्प, िल या जल प्रदान
तदहं भक्त्युपहृतर्श्नामर् प्रयतात्र्नः ॥९.२६ करता है, तो र्ैं उसे स्वीकार करता हूँ |

यत्करोमष यदश्नामस यज्जुहोमष ददामस यत् । हे कु न्तीपुत्र! तुर् जो कु छ करते हो, जो कु छ खाते हो, जो कु छ अर्पमत
यत्तपस्यमस कौन्तेय तत्कु रुष्व र्दपमणर्् ॥९.२७ करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे र्ुझे
अर्पमत करते हुए करो |

अमप चेत्सुदरु ाचारो भजते र्ार्नन्यभाक् । यकद कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, ककन्तु यकद वह भमि र्ें
साधुरेव स र्न्तव्यः सम्यग्व्यवमसतो मह सः ॥९.३० रत रहता है तो उसे साधु र्ानना चामहए, क्योंकक वह अपने संकल्प
र्ें अमडग रहता है |

र्ां मह पाथम व्यपामश्रत्य येऽमप स्युः पापयोनयः । हे पाथम! जो लोग र्ेरी िरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही मनम्नजन्र्ा
मस्त्रयो वैश्यास्तथा िूिास्तेऽमप यामन्त परां गमतर्् ॥९.३२ स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा िुि (श्रमर्क) क्यों न हों, वे परर्धार् को
प्राि करते हैं |

र्न्र्ना भव र्द्भिो र्द्याजी र्ां नर्स्कु रु । अपने र्न को र्ेरे मनत्य मचन्तन र्ें लगाओ, र्ेरे भि बनो, र्ुझे
र्ार्ेवैष्यमस युक्त्वैवर्ात्र्ानं र्त्परायणः ॥९.३४ नर्स्कार करो और र्ेरी ही पूजा करो | इस प्रकार र्ुझर्ें पूणमतया
तल्लीन होने पर तुर् मनमश्चत रूप से र्ुझको प्राि होगे |

अहं सवमस्य प्रभवो र्त्तः सवं प्रवतमते । र्ैं सर्स्त आध्यामत्र्क तथा भौमतक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक
इमत र्त्वा भजन्ते र्ां बुधा भावसर्मन्वताः ॥१०.८ वस्तु र्ुझ ही से उद्भूत है | जो बुमद्धर्ान यह भलीभाूँमत जानते हैं, वे
र्ेरी प्रेर्ाभमि र्ें लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह र्ेरी पूजा र्ें
तत्पर होते हैं |

र्मच्चत्ता र्द्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परर्् । र्ेरे िुद्ध भिों के मवचार र्ुझर्ें वास करते हैं, उनके जीवन र्ेरी
कथयन्तश्च र्ां मनत्यं तुष्यमन्त च रर्मन्त च ॥१०.९ सेवा र्ें अर्पमत रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा
र्ेरे मवषय र्ें बातें करते हुए परर्सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव
करते हैं |
तेषां सततयुिानां भजतां प्रीमतपूवमकर्् । जो प्रेर्पूवमक र्ेरी सेवा करने र्ें मनरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें र्ैं ज्ञान
ददामर् बुमद्धयोगं तं येन र्ार्ुपयामन्त ते ॥१०.१० प्रदान करता हूँ, मजसके द्वारा वे र्ुझ तक आ सकते हैं |

र्ैं उन पर मविेष कृ पा करने के हेतु उनके हृदयों र्ें वास करते हुए
तेषार्ेवानुकम्पाथमर्हर्ज्ञानजं तर्ः ।
ज्ञान के प्रकािर्ान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर
नाियाम्यात्र्भावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥१०.११
करता हूँ |

अजुमन उवाच अजुमन ने कहा- आप परर् भगवान्, परर्धार्, परर्पमवत्र, परर्सत्य


परं ब्रह्म परं धार् पमवत्रं परर्ं भवान् । हैं | आप मनत्य, कदव्य, आकद पुरुष, अजन्र्ा तथा र्हानतर् हैं |
पुरुषं िाश्वतं कदव्यर्ाकददेवर्जं मवभुर्् ॥ नारद, अमसत, देवल तथा व्यास जैसे ऋमष आपके इस सत्य की पुमष्ट
आहुस्त्वार्ृषयः सवे देवर्षमनामरदस्तथा ।
अमसतो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीमष र्े ॥ करते हैं और अब आप स्वयं भी र्ुझसे प्रकट कह रहे हैं |
१०.१२-१३

यद्यमद्वभूमतर्त्सत्त्वं श्रीर्दूर्जमतर्ेव वा । तुर् जान लो कक सारा ऐश्र्वयम, सौन्दयम तथा तेजस्वी सृमष्टयाूँ र्ेरे तेज
तत्तदेवावगच्छ त्वं र्र् तेजोंऽिसंभवर्् ॥१०.४१ के एक स्िु तलंग र्ात्र से उद्भूत हैं |

हे अजुमन! के वल अनन्य भमि द्वारा र्ुझे उस रूप र्ें सर्झा जा सकता


भक्त्या त्वनन्यया िक्य अहर्ेवंमवधोऽजुमन ।
ज्ञातुं िष्टु ं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परं तप ॥११.५४ है, मजसरूप र्ें र्ैं तुम्हारे सर्क्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार र्ेरा साक्षात्
दिमन भीककया जा सकता है | के वल इसी मवमध से तुर् र्ेरे ज्ञान के
रहस्य को पा सकतेहो |

हे अजुमन! जो व्यमि सकार् कर्ों तथा र्नोधर्मके कल्र्ष से र्ुि


र्त्कर्मकृन्र्त्परर्ो र्द्भिः सङ्गवर्जमतः ।
मनवैरः सवमभूतेषु यः स र्ार्ेमत पाण्डव ॥११.५५ होकर, र्ेरी िुद्ध भमि र्ें तत्पर रहता है, जो र्ेरे मलएही कर्म करता
है, जो र्ुझे ही जीवन-लक्ष्य सर्झता है और जो प्रत्येक जीव
सेर्ैत्रीभाव रखता है, वह मनश्चय ही र्ुझे प्राि करता है |

क्लेिोऽमधकतरस्तेषार्व्यिासिचेतसार्् । मजनलोगों के र्न परर्ेश्र्वर के अव्यि, मनराकार स्वरूप के प्रमत


अव्यिा मह गमतदुःम खं देहवमद्भरवाप्यते ॥ १२.५ आसि हैं, उनके मलए प्रगमत कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है |
देहधाररयों के मलए उसक्षेत्र र्ें प्रगमत कर पाना सदैव दुष्कर होता है
|

र्ुझ भगवान् र्ें अपने मचत्त को मस्थर करो और अपनी सारी बुमद्ध
र्य्येव र्न आधत्स्व र्मय बुतद्धं मनवेिय ।
मनवमसष्यमस र्य्येव अत ऊध्वं न संियः ॥१२.८ र्ुझर्ें लगाओ | इस प्रकार तुर् मनस्सन्देह र्ुझर्ें सदैव वास करोगे |
अथ मचत्तं सर्ाधातुं न िक्नोमष र्मय मस्थरर्् । हे अजुमन, हे धनञ्जय! यकद तुर् अपने मचत्त को अमवचल भाव से र्ुझ
अभ्यासयोगेन ततो र्ामर्च्छािुं धनंजय ॥ १२.९ पर मस्थर नहीं कर सकते, तो तुर् भमियोग के मवमध-मवधानों का
पालन करो | इस प्रकार तुर् र्ुझे प्राि करने की चाह उत्पि करो |

यकद तुर् भमियोग के मवमध-मवधानों का भी अभ्यास नहीं कर


अभ्यासेऽप्यसर्थोऽमस र्त्कर्मपरर्ो भव ।
र्दथमर्मप कर्ाममण कु वममन्समद्धर्वाप्स्यमस ॥१२.१० सकते, तो र्ेरे मलए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकक र्ेरे मलए कर्म
करने से तुर् पूणम अवस्था (मसमद्ध) को प्राि होगे |

हे कु न्तीपुत्र! तुर् यह सर्झ लो कक सर्स्त प्रकार की जीव-योमनयाूँ


सवमयोमनषु कौन्तेय र्ूतमयः संभवमन्त याः ।
इस भौमतक प्रकृ मत र्ें जन्र् द्वारा सम्भव हैं और र्ैं उनका बीज-
तासां ब्रह्म र्हद्योमनरहं बीजप्रदः मपता ॥१४.४
प्रदाता मपता हूँ |

जो सर्स्त पररमस्थमतयों र्ें अमवचमलत भाव से पूणम भमि र्ें प्रवृत्त


र्ां च योऽव्यमभचारे ण भमियोगेन सेवते ।
स गुणान्सर्तीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥१४.२६ होता है, वह तुरन्त ही प्रकृ मत के गुणों को लाूँघ जाता है और इस
प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुूँच जाता है |

ब्रह्मणो मह प्रमतष्ठाहर्र्ृतस्याव्ययस्य च । और र्ैं ही उस मनराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अर्त्यम, अमवनािी


िाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकामन्तकस्य च ॥१४.२७ तथा िाश्र्वत है और चरर् सुख का स्वाभामवक पद है |

मनर्ामनर्ोहा मजतसङ्गदोषा जो झूठी प्रमतष्ठा, र्ोह तथा कु संगमत से र्ुि हैं, जो िाश्र्वत तत्त्व को
अध्यात्र्मनत्या मवमनवृत्तकार्ाः । सर्झते हैं, मजन्होंने भौमतक कार् को नष्ट कर कदया है, जो सुख तथा
द्वन्द्वैर्वमर्ुिाः सुखदुःखसंज्ञै- दुख के द्वन्द्व से र्ुि हैं और जो र्ोहरमहत होकर परर् पुरुष के
गमच्छन्त्यर्ूढाः पदर्व्ययं तत् ॥१५.५ िरणागत होना चाहते हैं, वे उस िाश्र्वत राज्य को प्राि होते हैं ।

वह र्ेरा परर् धार् न तो सूयम या चन्ि के द्वारा प्रकामित होता है


न तद्भासयते सूयो न ििाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न मनवतमन्ते तद्धार् परर्ं र्र् ॥१५.६ और न अमि या मबजली से । जो लोग वहाूँ पहुूँच जाते हैं, वे इस
भौमतक जगत् र्ें किर से लौट कर नहीं आते ।

इस बद्ध जगत् र्ें सारे जीव र्ेरे िाश्र्वत अंि हैं । बद्ध जीवन के
र्र्ैवांिो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
र्नःषष्ठानीमन्ियामण प्रकृ मतस्थामन कषममत ॥१५.७ कारण वे छहों इमन्ियों के घोर संघषम कर रहे हैं, मजसर्ें र्न भी
समम्र्मलत है ।

सवमस्य चाहं हृकद संमनमवष्टो र्ैं प्रत्येक जीव के हृदय र्ें आसीन हूँ और र्ुझ से ही स्र्ृमत, ज्ञान
र्त्तः स्र्ृमतज्ञामनर्पोहनं च । तथा मवस्र्ृमत होती है | र्ैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ |
वेदश्च
ै सवैरहर्ेव वेद्यो मनस्सन्देह र्ैं वेदान्त का संकलनकताम तथा सर्स्त वेदों का जानने
वेदान्तकृ द्वेदमवदेव चाहर्् ॥१५.१५ वाला हूँ |

जो कोई भी र्ुझे संियरमहत होकर पुरुषोत्तर् भगवान् के रूप र्ें


यो र्ार्ेवर्संर्ूढो जानामत पुरुषोत्तर्र्् ।
स सवममवद्भजमत र्ां सवमभावेन भारत ॥१५.१९ जानता है, वह सब कु छ जानता है । अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यमि
र्ेरी पूणम भमि र्ें रत होता है ।

िर्ो दर्स्तपः िौचं क्षामन्तराजमवर्ेव च । िामन्तमप्रयता, आत्र्संयर्, तपस्या, पमवत्रता, समहष्णुता, सत्यमनष्ठा,
ज्ञानं मवज्ञानर्ामस्तक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजर्् ॥१८.४२ ज्ञान,मवज्ञान तथा धार्र्मकता – ये सारे स्वाभामवक गुण हैं, मजनके
द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं |

ब्रह्मभूतः प्रसिात्र्ा न िोचमत न काङ्क्षमत । इस प्रकार जो कदव्य पद पर मस्थत है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव
सर्ः सवेषु भूतेषु र्द्भतिं लभते परार्् ॥१८.५४ करता है और पूणमतया प्रसि हो जाता है | वह न तो कभी िोक
करता है, न ककसी वस्तु की कार्ना करता है | वह प्रत्येक जीव पर
सर्भाव रखता है | उस अवस्था र्ें वह र्ेरी िुद्ध भमि को प्राि
करता है |

भक्त्या र्ार्मभजानामत यावान्यश्चामस्र् तत्त्वतः । के वल भमि से र्ुझ भगवान् को यथारूप र्ें जाना जा सकता है |
ततो र्ां तत्त्वतो ज्ञात्वा मविते तदनन्तरर्् ॥१८.५५ जब र्नुष्य ऐसी भमि से र्ेरे पूणम भावनार्ृत र्ें होता है, तो वह
वैकुण्ठ जगत् र्ें प्रवेि कर सकता है |

र्मच्चत्तः सवमदग
ु ाममण र्त्प्रसादात्तररष्यमस । यकद तुर् र्ुझसे भावनाभामवत होगे, तो र्ेरी कृ पा से तुर् बद्ध जीवन
अथ चेत्त्वर्हंकाराि श्रोष्यमस मवनङ्क्ष्यमस ॥१८.५८ के सारे अवरोधों को लाूँघ जाओगे | लेककन यकद तुर् मर्थ्या
अहंकारवि ऐसी चेतना र्ें कर्म नहीं करोगे और र्ेरी बात नहीं
सुनोगे, तो तुर् मवनष्ट हो जाओगे |

हे अजुमन! परर्ेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय र्ें मस्थत हैं और भौमतक


ईश्वरः सवमभूतानां हृद्देिेऽजुमन मतष्ठमत ।
िमि से मनर्र्मत यन्त्र र्ें सवार की भाूँमत बैठे सर्स्त जीवों को
भ्रार्यन्सवमभूतामन यन्त्रारूढामन र्ायया ॥१८.६१
अपनी र्ाया से घुर्ा (भरर्ा) रहे हैं |

र्न्र्ना भव र्द्भिो र्द्याजी र्ां नर्स्कु रु । सदैव र्ेरा मचन्तन करो, र्ेरे भि बनो, र्ेरी पूजा करो और र्ुझे
र्ार्ेवैष्यमस सत्यं ते प्रमतजाने मप्रयोऽमस र्े ॥१८.६५ नर्स्कार करो | इस प्रकार तुर् मनमश्चत रूप से र्ेरे पास आओगे | र्ैं
तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकक तुर् र्ेरे परर् मप्रयमर्त्र हो |
सर्स्त प्रकार के धर्ों का पररत्याग करो और र्ेरी िरण र्ें आओ ।
सवमधर्ामन्पररत्यज्य र्ार्ेकं िरणं व्रज ।
र्ैं सर्स्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूग
ूँ ा । डरो र्त ।
अहं त्वां सवमपापेभ्यो र्ोक्षमयष्यामर् र्ा िुचः ॥१८.६६

य इर्ं परर्ं गुह्यं र्द्भिे ष्वमभधास्यमत । जो व्यमि भिों को यह परर् रहस्य बताता है, वह िुद्ध भमि को
भतिं र्मय परां कृ त्वा र्ार्ेवैष्यत्यसंियः ॥१८.६८ प्राि करे गा और अन्त र्ें वह र्ेरे पास वापस आएगा |

इस संसार र्ें उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो र्ुझे अमधक मप्रय
न च तस्र्ान्र्नुष्येषु कमश्चन्र्े मप्रयकृ त्तर्ः ।
भमवता न च र्े तस्र्ादन्यः मप्रयतरो भुमव ॥१८.६९ है और न कभी होगा |

यत्र योगेश्वरः कृ ष्णो यत्र पाथो धनुधमरः । जहाूँ योगेश्र्वर कृ ष्ण है और जहाूँ परर् धनुधरम अजुमन हैं, वही ूँ ऐश्र्वयम,
तत्र श्रीर्वमजयो भूमतध्रुमवा नीमतर्ममतर्मर् ॥१८.७८ मवजय, अलौककक िमि तथा नीमत भी मनमश्चत रूप से रहती है |
ऐसा र्ेरा र्त है |

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