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अनुकररम

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हम धनवान होगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नही इसमे शंका हो सकती है परतं ु भैया ! हम मरेंगे
या नहीं, इसमे कोई शंका है? िवमान
श उड़ने का समय िन ि रि,तहोताहै
बस चलन क े ा ,
स मयिनिितहोताहै
शश
गाड़ी छूटने का समय िन ि र ि त ह ो त ा ह ै परंतुइसजीवनकीगाड़ीछूट
समय है?
आज तक आपने जगत में जो कुछ जाना है, जो कुछ पापत िकया है .... आज के बाद जो
जानोगे और पापत करोगे, पयारे भैया ! वह सब मृतरयु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो
जायेगा, पािपत अपािपत मे बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अनरतमुररख होकर अपने अिविल आतरमा को, िनजसरवरूप के
अगाध आननरद को, शाशत शाित को पापत कर लो। ििर तो आप ही अिवनाशी आतमा हो।
जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए िन शर ियबल को जगाओ। सवररदे,शसववकाल मे सवोतम
आतरमबल को अिजररत करो। आतरमा में अथाह सामथरयरर है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो
िव शर व में ऐसी कोई सतरता नहीं जो तुमरहें ऊपर उठा सके। अपने आतरमसरवरूप में
पितिित हो गये तो ििलोकी मे ऐसी कोई हसती नही जो तुमहे दबा सके।
सदा समरण रहे िक इधर-उधर भटकती वृितरतयों के साथ तुमरहारी शिकरत भी िबखरती रहती है। अतः
वृितरतयों को बहकाओ नहीं। तमाम वृितरतयों को एकितररत करके साधना-काल में आतरमििनरतन
में लगाओ और वरयवहार-काल में जो कायरर करते हो उसमें लगाओ। दतरतिितरत होकर हर
कोई कायरर करो। सदा शानरत वृितरत धारण करने का अभरयास करो। िविारवनरत एवं पररसनरन रहो।
जीवमाि को अपना सवरप समझो। सबसे सनहे रखो। िदल को वयापक रखो। आतमिनि मे जगे हएु महापुरषो केसतसंग
एवं सतरसािहतरय से जीवन को भिकरत एवं वेदानरत से पुषरट एवं पुलिकत करो। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
इस पुसतक मे साधना मे आरढ साधक केिलए आवशयक सूचनाए ए ँ व म ं ा ग व दशवनिदयागयाहै।गीताकेशल
पर पूजयशी की अनुभव-संपन सरल वाणी केसहज पवचन िलिपबद िकए गये है। हतोतसाह अथवा िबखरी हईु साधनावाला
साधक भी मागवदशवन पाकर नया उतसाह, नयी पररेरणा और सहज सुलभ साधन और ििनरतन-पणािलका पाकर
अपने परमातरमदेव का अनुभव कर सकता है और जनसाधारण भी इस पुसरतक से अपनी
आधरयाितरमक परयास जगाकर परमातरम-पािपत केमागव पर चल पडे ऐसी सरल भाषा मे संतो केपवचन और मागवदशवन
पसतुत िकये गये है।
िवघरनों और संघषोररं से भरा हुआ अलरप जीवन शीघरर ही जीवनदाता को पा सके ऐसे
मागररदररशनवाली पुसरतक जनता जनादररन के करकमलों तक पहुँिाने के सेवा का सुअवसर
पाकर सिमित धनयता महसूस करती है।
साधको से और जनता-जनादवन से िवनिंत है िक अनुभव-संपन इस पावन पसाद को अपन अ े नयसाधकबनधुओं
औ र िमि ो तक प हँ च ु ाक र पु ण य क े भ ा ग ी ब न े ।
यह पररकाशन पढ़कर सूकरषरम मनन करने वाले साधक अपने सुझाव सिमित को भेजने
की कृपा कर सकते हैं। अनुकररम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पूजय बापू का पावन संदेश


िनवेदन
साधना मे सिलता
साधना की नीवः शदा
जैसी भावना वैसी िसिद
कमरर और जरञान
खोजो अपने आपको
गीताजरञान-सिरता
सचची कृपा
घोर करलेश में भी सतरपथ पर अिडगता
करुणािसनरधु की करूणा
सचची लगन जगाओ
आतरमा-पशंसा से पुणयनाश
मसरतक-िवकररय
शरणागितयोग
दीकरषाः जीवन का आव शर यक अंग
सब रोगो की औषिधः गुरभिित
गुरु में ई शर -वर बुिद होन क े ाउपाय
आजरञापालन की मिहमा
िशवाजी महाराज की गुरभिित
धमरर में दृढ़ता कैसे हो?
आतरम-पूजन
िचनता व ईषया से बचो
शीलवान नारी
िपटारे मे िबलार
.....तो िदलली दरू नही
धरयान के करषणों में.....
िचनतन-किणका
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िवषय सुख की लोलुपता आतरमसुख पररकट नहीं होने देती। सुख की लालि और दुःख के
भय न अ े न त ः -वैरागरय हो, अनरिववे
क रणकोमिलनकरिदया।तीवर तःकरण
क के साथ का तादातरमरय
तोडन क े ा सा मथयव,हमु करत, शुे नतय
ोतोअपनि द, बुद, वरयापक िैतनरय सरवरूप का बोध हो जाय। वासरतव
में हम बोध सरवरूप हैं लेिकन शरीर और अनरतःकरण के साथ जुड़े हैं। उस भूल को
िमटाने के िलए, सुख की लालच को िमटान क े ेिलए , दुःिखयों के दुःख से हृदय हराभरा होना
चािहए। जो योग मे आरढ होना चाहता है उसे िनषकाम कमव करना चािहए। िनषकाम कमव करन प े र ििरिनतानतएकानत
की आव शर यकता है।

।।
'योग में आरूढ़ होने की इिरछावाले मननशील पुरुष के िलए योग की पररािपरत में
िनषरकाम भाव से कमरर करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़
पुरष का जो सवव संकलपो का अभाव है, वही कलरयाण में हेतु कहा जाता है।'
( 6.3)
एकानरत में शुभ-अ शु भ सब संकलरपों का तरयाग करके अपने सििरिदानंद
परमातमसवरप मे िसथर होना चािहए। घोडे केरकाब मे पैर डाल िदया तो दस ू रा पैर भी जमीन से उठा लेना पडता है। ऐसे
ही सुख की लालि िमटाने के िलए यथायोगरय िनषरकाम कमरर करने के बाद िनषरकाम कमोररं से
भी समय बचाकर एकानतवास, लघु भोजन, देखना, सुनना आिद इिनियो केअलप आहार करते हएु साधक को कठोर
साधना मे उतसाहपूववक संलगन हो जाना चािहए। कुछ महीन ब े दं क म र े म े ए े ेधारणातथ
काकीरहनस
जाती है। आनतर आराम, आनरतर सुख, आनरतिरक पररकट होने लगता है। धारणा धरयान में पिरणत
होती है।
जब तक परम पद की पािपत न हो तब तक हे साधक ! खूब सावधान रहना। एक पररकार से आपके
माने हुए िमतरर, भगत आपकेगहरे शिु है। िकसी न िकसी पकार आपको संसार मे , नाम-रूप की सतरयता में
घसीट लाते हैं। तुमरहारी सूकरषरम वृितरत उनके पिरिय में आने से ििर सरथूल होने लगती
है और तुमरहें जरञात भी नहीं होता।
सावधान ! ये िमतरर और भगत भी गहरे शतररु हैं। इन सांसािरक वरयिकरतयों के िमलने
जुलन क े े क ा र ण आ प क े न य -कभी अपने
ेआधयाितमकसं सकारऔरधयानकीएकागतालु
मन की पतहोज
बेवकूिी साधन -भजन केसमय मे लापरवाही करान ल े ग े गी।संस -जुारीलोगोसे
लना साधनाकाल
िमलना मे बहत
ु ही
अनथररकारी है। दोनों िक िविारधाराएँ उतरतर दिकरषण हैं। संसारी वरयिकरत बातिीत करने
का शौकीन होता है। न शर वर भोग-पािपत उसका लकय होता है। साधक का लकय शाशत परमातमा होता है। संसारी
वरयिकरत की बातिीत का िल िकसी के पररित राग या दरवेष होता है। संसािरयों के साथ बातें
करने से राग, दरवेष और जगत की सतरयता दृढ़ होने लगती है। संसारी वरयिकरत िजहरवा के
अितसार से पीिड़त होता है। गपशप, वरयथरर की बातें, बे-िसरपैर की बाते, लमबी बाते, बडी बाते ये सब
उसे सुखद लगती हैं। जबिक साधक िमतभाषी, आधरयाितरमक िवषय पर ही पररसंग के अनुसार
बोलनवेाला होता है। उसे संसारी बातो मे रिच नही और साधना-काल में सांसािरक बातों में उसे पीड़ा
भी होती है लेिकन निैतक भावो से पभािवत होकर अपनी आनतर पुकार केिवपरीत भी वह संसार की हा मे हा करन ल े गे
अथवा उनके संपकरर में आकर बलातर संसार में िखंि जाये तो उसकी महीनों की कठोर
साधना केदारा पापत योगारढता कीण होन ल -िविध भी परसरपर िभनरन होती है।
े ग त ीहै।दोनोकीिचनतन
संसारी वयिित की िचनतनधारा का िवषय पती, संतान, धन संिित करने का उपाय, िमतरर और शतररु, राग-
दरवेष होता है। उसका लकरषरय ऐिनरदररक सुखों का साधन होता है। उसका ििनरतन बहुत ही तुिरछ
होता है। साधक का ििनरतन िदवरय होता है। 'संकलप-िवकलरप मन में उठते हैं उससे परे
उसके साकरषी बररहरमसरवरूप परमातरमा में िसरथित कैसे हो?' आिद का अथाररतर परमातरम-
िवशररािनरत िवषयक उसका ििनरतन होता है। संसारी वरयिकरत सदा सरवाथररपूणरर उदरदे शर य से
कायरर करता है, अहंकार सजाने के िलए कायरर करता है जबिक साधक समगरर संसार को
अपना सरवरूप समझकर िनःसरवाथरर भाव से, अहंकार िवसिजररत करते हुए कायरर करता है।
संसारी वयिित केपास जो भाग -सामगी है उसे वह बढाना चाहता है और भिवषय मे भी ऐिनिक सुखो की सुवयवसथा रखता
है। साधक सारे ऐिनरदररक िवषय वरयथरर समझकर इिनरदररयातीत, देशातीत, कालातीत, गुणातीत,
आतरमसुख, परमातम-िसथित चाहता है। संसारी वयिित जिटलता, बहल ु ता, रोगों के घर देह और करषणभंगुर
भोग और सुख की तुचछ लालच मे मँडराता है जबिक साधक सरल वयिित होता है। देह से और तुचछ भोगो से पार
आतरमसुख का अिभलाषी होता है। संसारी वरयिकरत संगित खोजता है, साधक सववथा एकानत पसंद
करता है।
हे साधक ! तथा किथत िमिो से, सासािरक वयिितयो से अपन क े ो ब च ा करसदाएकाकीरहना।यहत
साधना की परम माग है।
सवामी रामतीथव पाथवना िकया करते थेः
"हे पररभु ! मुझे सुखों से और िमतररों से बिाओ। दुःखों से और शतररुओं से मैं
िनपट लूँगा। सुख और िमतरर मेरा समय व शिकरत बरबाद कर देते हैं और आसिकरत पैदा
करते हैं। दुःखों में और शतररुओं में कभी आसिकरत नहीं होती।
जब-जब साधक िगरे है तो तुचछ सुखो और िमिो केदारा ही िगरे है।
भैया ! सावधान ! एकानरतवास िनतानरत आव शर यक है। सूकरषरमाितसूकरषरम परबररहरम परमातरमा
को पाने के िलए एकानरतवास साधना की एक महानर माँग है, अिनवायरर आव शर यकता है। आप
एक बार एकानरत का सुख भली पररकार पररापरत कर लें तो ििर आप उस पावन एकानरत के िबना
नहीं रह सकते।
िजनहोन अ े प न ज े ीवनकामू , िजनमे
लयनहीजाना ं ुश बनदर की तरह
िवषय वासना की पबलता होती है वे ही िनरक
एक डाल से दूसरी डाल, कभी काशी कभी मथुरा, कभी डाकोर तो कभी रामे शर , वर कभी गुपरतकाशी
तो कभी गंगोिी, इधर से उधर घूमते रहते है। उनहे पता ही नही चलता िक बिहरगं दौड-धूप में शिकरत और
एकागररता करषीण होती है। अनुकररम
उतरतरकाशी, वाराणसी, रामे शर वर और गंगा , यमुना, नमररदा, तापी केतट पर पिवि सथानो के
इदविगदव पकृित केसुरमय वातावरण मे , अरणरय में, नदी, सरोवर, सागरतट अथवा पहाडो मे, जहा पूववकाल मे ऋिष,
मुिन या संत िनवास कर िुके हैं ऐसे पिवतरर सरथानों की मिहमा का पता सूकरषरम साधना करने
वाले साधकों को ही िल सकता है। महापुरुषों के आधरयाितरमक सरपनरदनवाले सरथान साधक को
बहतु सहाय करते है। िहमालय और गंगातट जैसे पावन सथानो मे कुछ महीन र े ह क रअथवाअपनअ े नूकूलिकसी
एकानरत कमरे में लोकसंपकरररिहत होकर अपनी धारणा तथा धरयानशिकरत बढ़ायें और बड़ी
सावधानीपूववक उस एकागता का संरकण करे। यिद आप अपनी रका करनी नही जानते तो आपका मूलयवाण पाण,
चुमबकीय शिित, आपकी मानिसक शिकरत और परराणशिकरत आपसे िमलनेवाले लोगों के पररित
चली जायेगी। आपको एक शिित-कवि बना लेना िािहए। जो उनरनत साधक हों, जान-वैरागरय-भिित से
भरे िदलवाले हो, उनके साथ पररितिदन एक घणरटा िमलना-जुलना, िविार िवमररश करना हािनकारक
नहीं है। आपके हृदय में पता िलेगा िक िकन वरयिकरतयों से िमलने जुलने में वैरागरय
बढता है, पसनता, शािनत बढती है और िकन लोगो से िमलन म े े आ पक े आ धयाितमकसंसकारवशािनतकीणह
संसारी आकाकाओंवाले लोगो केबीच अगर आना ही पडे तो मौन का अवलमबन लेना , अपनी साधना का पररभाव
छुपाना और उनके बीि जब हो तो िजहरवा तालू में लगाये रखना। इससे तुमरहारी शिकरत करषीण
होने से बि जायेगी। उनकी बातें कम से कम सुनना, युिकरतपूवररक उनसे अपने को बिा
लेना।
कभी-कभी अपना मन भी मनोराज करके हवाई िकले बाँधने लगता है। साधनाकाल
में बड़े पररिार-पसार का और पिसद होन क े ा, लोक-कलरयाण करने आिद का तूिान मिाया करता
है। यह िनतानरत हािनकतारर है। उस समय परमातरमा को सिरिे हृदय से परयार करें, पाथवना करे
िकः "हे पररभो ! अहंकार बढ़ाने की िमथरया नाम रूप की पररिसिदरध िवषयक तुिरछ वासनाएँ
मुझे तुमसे िमलने में बाधा कर रहीं हैं। हे नाथ ! हे सवररिनयनरता ! हे जगदी शर !वर हे
अनरतयाररमी ! मेरी इस िनमरन पररकृित को तू अपने आपमें पावन कर दे। मैं तेरे साथ
अिभनरन हो जाऊँ। कहीं ये तुिरछ संकलरप-िवकलरप पूरे करने में नया पररारबरध न बन जाये,
नयी मुसीबतें खड़ी न हो जाय।"
इस पकार शुद भाव करकेिनःसंकलप , श िन ि र ि न र तमनाहोकरसमािधसरथ
िवसरतार नहीं, संकलप की पूितव नही लेिकन संकलप की िनवृित हमारा लकय होना चािहए। वह दशा आन स े ेवासतवमे
सुधार-कायरर आपके दरवारा होने लगेंगे और आपको कोई हािन नहीं होगी।
िनःसंकलरप बररहरम है। संकलरप के पीछे भागना तुिरछ जीव होना है। जो-जो भगीरथ कायव
हुए हैं वे िनःसंकलरप अवसरथा में पहुँिे हुए महापुरष ु ों के दरवारा ही हुए हैं। परमातरमा की
इस िवराट सृिि मे हमारा मन अपनी कलपना से सुधारना आिद करन क े ा ज ा ल ब ुनकरहमे'हिरः
िँसाताहै।उससमय
ॐ ततरसतर और सब गपशप...। आननदोऽहम्.... सवोऽहम्.... िशवरपोऽहम्.... कलरयाण-सवरपोऽहम्....
मायातीतो-गुणातीतो शश ानरत िवसरवरूपोऽहमर....' इस पकार अपन ि , शानत
ेश वसवरपमे
सवरप मे मसत हो जाना
चािहए।
हताशा, िनराशा के िविारों को महतरतरव नहीं देना िािहए। हजार बार मनोराज होने
की, पीछे हटन क े ी स ं भ ा वनाहैल , सवव
ेिकनहरसमयनयाउतसाह
शिितदायी पणव का जाप, आतरमबल और
परमातम-पेम बढाते रहना चािहए।
बनद कमरे मे शुद भाव से अपन अ , इि से, सगुे रु से परयार करके पररेरणा पाते रहना
े नतयामीपभु
चािहए। बहवेता सतपुरषो केजीवन -चिरि और अनुभव-विनवाले गररनरथों का बार-बार अवलोकन करना
चािहए। वासतव मे देखा जाये तो परमातम-पािपत किठन नही है लेिकन जब मन और मन की बुनी हईु जालो मे िँसते है तो
किठन हो जाता है। मन-बुिद से परे अपन स े ूकम, शुद, 'मैं' को देखो तो िनतानरत सरल और सहज
सदैव-पापत परमातमा िमलेगा। तुमही तो वह परबह परमातमा हो, िजससे सारा जाना जाता है।
हे जरञान सरवरूप देव ! तू अपनी मिहमा मे जाग। कब तक ििसलाहट की खेल-कूद मिा रखेगा? तू
जहा है, जैसा है, अपने आपमें पूणरर परम शररेषरठ है। अपने शुदरध, शानत, शेि सवरप मे तनमय रह।
छोटे-मोटे वरयिकरतयों से, पिरिसथितयो से, पितकूलताओं से पभािवत मत हो। बार -बार ॐकार का गुंजन कर
औ र आ त म ा न दं को छ लक न द े ....ॐ.....ॐ.....
े ॐ
। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

संसार से वैरागय होना दल


ु वभ है। वैरागय हआ
ु तो कमवकाणड से मन उठना दल
ु वभ है। कमवकाणड से मन उठ गया तो
उपासना में मन लगना दुलररभ है। मन उपासना में लग गया तो ततरतरवजरञानी गुरु िमलना
दुलररभ है। ततरतरवजरञानी गुरु िमल भी गये तो उनमें शररदरधा होना और सदा के िलए िटकना
दुलररभ है। गुरु में शररदरधा हो गई तो भी ततरतरवजरञान में पररीित होना दुलररभ है। ततरतरवजरञान
में पररीित हो जाये लेिकन उसमें िसरथित करना दुलररभ है। एक बार िसरथित हो गई तो जीवन
में दुःखी होना और ििर से माता के गभरर में उलरटा होकर लटकना और िौरासी के िकरकर
में भटकना सदा के िलए समापरत हो जाता है।
तततवजान केदारा बहाकार वृित बनाकर आवरण भगं करकेजीवनमुित पद मे पहँच ु ना ही परम पुरषाथव है। इस
पुरषाथव-भवन का पथम सोपान है शदा।
तामसी शदावाला साधक कदम-कदम पर ििरयाद करता है। ऐसे साधक में समपररण नहीं
होता। हाँ, समपवण की भाित हो सकती है। वह िवरोध करेगा। राजसी शदावाला साधक िहलता रहता है , भाग जाता है,
िकनारे लग जाता है। साितरवक शररदरधावाला साधक िनराला होता है। परमातरमा और गुरु की
ओर से िाहे जैसे कसौटी हो, वह धनरयवाद से, अहोभाव से भरकर उनके हर िवधान को
मंगलमय समझकर हृदय से सरवीकृित देता है।
पायः राजसी और तामसी शदावाले लोग अिधक होते है। तामसी शदावाला कदम-कदम पर इनरकार
करेगा, िवरोध करेगा, अपना अहं नहीं छोड़ेगा। वह अपने शररदरधेय के साथ, अपने इषरट
के साथ, सदगुर केसाथ िवचारो से टकरायगा। राजसी शदावाला जरा -सी परीका हईु, थोड़ीसी कुछडाँटपड़ीतो वह
िकनारे हो जायगा, भाग जाएगा। सािततवक शदावाला िकसी भी पिरिसथित मे िडगेगा नही, पितििया नही करेगा।
साधक मे सािततवक शदा जग गई तो उसका मन तततव-िचनतन मे, आतरम-िविार में लग जाता है।
अनरयथा तो ततरतरवेतरता सदगुरु िमलने के बाद भी ततरतरवजरञान में मन लगना किठन है।
िकसी को आतरम-साकातकारी गुर िमल जाये और उनमे शदा भी हो जाये तो यह जररी नही की सब लोग आतमजान के
तरि चल ही पडेगे। राजसी-तामसी शदावाले लोग आतमजान केतरि नही चल सकते। वे तो अपनी इचछा केअनुसार
तततवजानी सदगुर से लाभ लेना चाहेगे। इचछा-िनवृितरत की ओर से पररवृतरत नहीं हो सकते। जो
वासरतिवक लाभ ततरतरवजरञानी सदगुरु उनरहें देना िाहते हैं उससे वे वंिित रह जाते
हैं।
सािततवक शदावाले साधक को ही तततवजान का अिधकारी माना गया है और केवल यही तततवजान होन पेयवनत
सदगुर मे अचल शदा रख सकता है। वह पितकूलता से भागता नही और पलोभनो मे िँसता नही। संदीपक न ऐ े सीशदा
रखी थी। सदगुरु ने कड़ी कसौिटयाँ की, उसे दूर करना िाहा लेिकन वह गुरुसेवा से िवमुख
नहीं हुआ। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण िकया, सेवा केदौरान कई बार संदीपक को पीटते थे ििर भी कोई
िशकायत नही। कोढी शरीर से िनकलन व े , पीव, मवाद,
ालागनदाखू न बदबू आिद केबावजूद भी गुरदेव केशरीर की
सेवा-सुशुषा से संदीपक कभी ऊबता नही था। भगवान िवषणु और भगवान शंकर आये, उसे वरदान देना िाहा
लेिकन अननय िनिावाले संदीपक न व े रदाननहीिलया।
िववेकाननरद होकर िव शर विवखरयात बनने वाले नरेनरदरर को जब साितरवक शररदरधा रहती
तब रामकृषणदेव केपित अहोभाव बना रहता है। जब राजसी शदा होती तब वे भी िहल जाते। उनकेजीवन मे छः बार ऐसे
पसंग आये थे।
पहले तो आतमजानी सदगुर िमलना अित दल ु वभ है। वे िमल भी जाये तो उनकेपित हमारी सािततवक शदा िनरनतर
बनी रहना किठन है। हमारी शदा रजो-तमोगुण से पभािवत होती रहती है। इसिलए साधक कभी िहल जाता है और कभी
िवरोध भी करने लगता है। अतः जीवन में सतरतरवगुण बढ़ाना िािहए।
आहार की शुिदरध से, िचनतन की शुिद से सततवगुण की रका की जाती है। अशुद आहार, अ शु दरध
िविारे वाले वरयिकरतयों के संग से बिना िािहए।
अपने जीवन के पररित लापरवाही रखने से शररदरधा का घटना, बढना, टूटना-िूटना होता
रहता है। िलतः साधक को साधरय तक पहुँिने में वषोररं लग जाते हैं। जीवन पूरा हो जाता
है ििर भी आतरमसाकरषातरकार नहीं होता। साधक अगर पूरी सावधानी के साथ छः महीना ठीक
पकार से साधना करे तो संसार और संसार की वसतुए आ ँ क ि ष व त ह ो नल े गतीहै।सूकमजगतकीकु ंिज
जाती है। िनरनतर साितवक शदायुित साधना से साधक बहत ु ऊपर उठ जाता है। रजो-तमोगुण से बचकर, सततवगुण के
पाधानय से साधक तततवजानी सदगुर केजान मे पवेश पा लेता है। ििर तततवजान का अभयास करन म े ेपिरशमनही
पडता। अभयास सततवगुण बढान क ेिलए े , शदा को साितवक शदा िसथर हो गई तो तततविवचार अपन आ े पउतपनहोता
है। ऐसी िसरथित पररापरत करने के िलए साधक को साधना में ततरपर रहना िािहए, सािततवक शदा
की सुरकरषा में सतकरर रहना िािहए। इषरट में, भगवान मे, सदगुर मे सािततवक शदा बनी रहे। अनुकररम
तततवजान तो कइयो को िमल जाता है लेिकन वे तततवजान मे िसथित नही करते। िसथित करना चाहते है तो
बहाकारवृित उतपन करन क े ी ख ब र न ह ी र ख त े । ब िढयाउपासनािकएिबनाभीिकसीक
तततवजान हो जाये तो भी िवकेप रहेगा। मनोराज हो जान क े ी स ं भा वनाहै-।
साकातकार
उचचकोिटक केेस
बाद
ाधकआतम
भी बहाभयास मे सावधानी से लगे रहते है। साकातकार केबाद बहाननद मे लगे रहना यह साकातकार की शोभा है। िजन
महापुरुषों को परमातरमा का साकरषातरकार हो जाता है, वे भी धरयान-भजन, शुिद-सािततवकता का खयाल
रखते हैं। हम लोग अगर लापरवाही कर दें तो अपने पुणरय और साधना के पररभाव का नाश
ही करते हैं।
जीवन मे िजतना उतसाह होगा, साधना मे िजतनी सतकवता होगी, संयम मे िजतनी ततपरता होगी, जीवनदाता का
मूलरय िजतना अिधक समझेंगे उतनी हमारी आंतरयातररा उिरि कोिट की होगी।
बहाकारवृित उतपन होना भी ईशर की परम कृपा है। सािततवक शदा होगी , ईमानदारी से अपना अह प ं रमातमामेसमिपवत
हो सकेगा तभी यह कायरर संपनरन हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं-
......।
बहजानरपी िल साधन से पकट न होगा। साधन करते-करते साितरतरवक शररदरधा तैयार होती है।
सािततवक शदा ही अपन इ े ,िमे तततव मे अपन आ े प क ो अि प व त क रनक े ोतैयारहोजातीहै।जैसेल
पशंसा तो करे, अिगरन को नमसरकार तो करे लेिकन जब तक वह अिगरन में पररवेश नहीं करता,
अपने आपको अिगरन में समिपररत नहीं कर देता तब तक अिगरनमय नहीं हो सकता। लोहा
अिगरन में पररिवषरट हो जाता है तो सरवयं अिगरन बन जाता है। उसकी रग-रग में अिगरन
वरयापरत हो जाती है। ऐसे ही साधक जब तक बररहरमसरवरूप में अपने आपको अिपररत नहीं
करता तब तक भले बररहरम परमातरमा के गुणानुवाद करता रहे, बहवेता सदगुर क गीत गाता रहे, इससे
लाभ तो होगा, लेिकन बहसवरप, गुरुमय, भगवदमय ईशर नही बन पाता। जब अपन आ े , बह मे, सदगुर मे
पकोईशरमे
अिपररत कर देता है तो पूणरर बररहरमसरवरूप हो जाता है।
'ईशर' औ र 'गुर'ु ये शबरद ही हैं लेिकन ततरतरव एक ही है।

आकृितयाँ दो िदखती हैं लेिकन वासरतव में ततरतरव एक ही है। गुरु के हृदय में जो
चैतनय पकट हआ ु है वह ईशर मे चमक रहा है । ईशर भी यिद भित का कलयाण करना चाहे तो सदगुर केरप मे आकर
परम तततव का उपदेश देगे। ईशर संसार का आशीवाद ऐसे ही देगे लेिकन भित को परम कलयाण रप आतम-साकातकार
करना होगा तो ई शर वर को भी आिायरर की गदरदी पर आना पड़ेगा। जैसे शररीकृषरण ने अजुररन
को उपदेश िदया शररीरामजी ने हनुमानजी को उपेदेश िदया।
साधक धयान-भजन-साधना करते है। भजन की तीवरता से भाव मजबूत हो जाता है। भाव केबल से भाव के
अनुसार संसार में िमतरकार भी कर लेते हैं लेिकन भाव साधना की पराकाषरठा नहीं है,
करयोंिक भाव बदलते रहते हैं। साधना की पराकाषरठा है बररहरमाकारवृितरत उतरपनरन करके
आतरमसाकरषातरकार करना। अनुकररम
साधन-भजन-धरयान में उतरसाह, जगत मे नशरबुिद और उचचतम लकय की हमेशा समृित, ये तीन
बाते साधक को महान् बना देती है। ऊँचे लकय का पता नही तो िवकास कैसे होगा ? बहाकारवृित उतपन करकेआवरण
भगं करना, आतरम-साकातकार करकेजीवनमुित होना , यह लकरषरय यिद जीवन में नहीं होगा तो साधना
की छोटी-मोटी पदरधितयों में, छोटे-मोटे साधना के िुटकुले में रुका रह जायेगा। कोलरहू
के बैल की तरह वहीं घूमते-घूमते जीवन पूरा कर देगा।
अगर सावधानी से छः महीने तक ठीक ढंग से उपासना करे, तततवजानी सदगुर केजान को
िविारे तो उससे अदभुत लाभ होने लगता है। लाबयान ऊँिाई के सामथरयरर का अनुभव
करने लगता है। संसार का आकषररण टूटने लगता है। उसके िितरत में िवशररािनरत आने
लगती है। संसार केपदाथव उससे आकिषवत होन ल -रोटीरके
े ग त ेहै।ििरउसे ोजी िलए, सगे-समबनधी, पिरवार-
समाज को िरझान क े े ि ल ए ना क र ग ड न ा न ह ी पडता।वेलोगऐसेहीरीझनक े ोतैय
सावधानी पूववक साधना..... सारी िजनदगी की मजदरूी से जो नही पाया वह छः महीन म े े प ा ल ेगा।लेिकनसचचेसाधक
िलए तो वह भी तुचछ हो जाता है। उसका लकय है ऊँचे से ऊँचा साधय पा लेना , आतरम-साकातकार कर लेना।
पहाद केिपता न प े ह ा द क ो भ ज न करनस -े भित
ेरोकाथा।ले
भगवान िमेकनपहादकीपीित
दढृ हो चुकी थी।
पारमभ से ही उसन स े त स ं ग स ु न ा थ ा । ज बव हम ा क याधूकेगभवमेथातबकयाधूना
सतसंग सुनते झपिकया ले लेती थी लेिकन गभवसथ िशशु केमानस पर सतसंग केसंसकार ठीक से अंिकत होते थे।
पहाद गयारह वषव का हआ ु तो उसकेिपता िहरणयकिशपु न उ े सक ो ि सप ािहयोकेसाथगशतकरनक े े रख
रात को पररहरलाद ने देखा िक दूर कहीं आग की जरवालाएँ िनकल रही हैं, धुआँ उठ रहा है।
नजदीक जाकर देखा तो कुमरहार के मटके पकाने के िनभाड़े में आग लगाई थी। कुमरहार
वहाँ खड़ा हाथ जोड़ कर परराथररना कर रहा थाः
"हे पररभो ! अब मेरे हाथ की बात नहीं रही और तू िाहे तो तेरे िलए कुछ किठन
नहीं। हे भगवान ! तू दया कर। मै तो नादान हूँ लेिकन तू उदार है। हे कृपािसधो ! तू मेरी भूल सुधार दे। मै जैसा
तैसा हूँ लेिकन तेरा हूँ। तू रहम कर। तेरी दया से सब कुछ हो सकता है। तू उन िनदोष बचचो को बचा ले नाथ !"
कुमरहार बार-बार पणाम कर रहा है। आँखो मे आँसू सरक रहे है। वही पाथवना केशबद दहुराये जा रहा है और
िनभाड़े की आग जोर पकड़ रही है। पररहरलाद उसके पास गया और पूछाः
पशः िया बाता है? करया बोल रहा है? अनुकररम
कु. "कुमार ! हमने मटके बनाये और आग में पकाने के िलए जमाकर रखे थे। उन
किरिे मटकों में िबलरली ने बिरिे दे रखे थे। हमने सोिा था िक आग लगाने के पहले
उनरहें िनकाल लेंगे। लेिकन भूल गये। िनभाड़े के बीि में बिरिे रह गये और आग
लग चुकी है। अब याद आया िक अरे ! ननरहें-मुनरने मासूम बिरिे जल-भुनकर मर जायेगे। अब हमारे हाथ की
बात नही रही। चारो और आग लपटे ले रही है। पभु अगर चाहे तो हमारी गलती सुधार सकता है। बचचो को बचा सकता
है।"
पशः "यह करया पागलपन की बात है? ऐसी आग के बीि बिरिे बि सकते हैं?"
कु.- "हाँ युवराज ! परमातमा सब कुछ कर सकता है। वह कतुव अ ं क त ु व अ ं नयथाकतुवस ं मथवःहै।वहीत
छोटे-से बीज मे से िवशाल वृक बना देता है। पानी की बूँद मे से राजा-महाराजा खड़ा कर देता है। वही
पानी की बूँद मनुषय बनकर रोती है, अिरछा-बुरा, अपना-पराया बनाती है। जीवनभर मेरा-तेरा करती है और आिखर मे
मुटरठीभर राख का ढेर छोड़कर भाग जाती है। यह करया ई शर वर की लीला का पिरिय नहीं है ?
समुि मे बडवानल जलती है वह पानी से बुझती नही और पेट मे जठरािगन रहती है वह शरीर को जलाती नही। गाय रखा-
सूखा घास खाती है और सिेद मीठा दध ू पीता है तो जहर बनाता है। मा रोटी खाती है तो दधू बनाती है। बचचा बडा हो
जाता है तो दधू अपन आ े प ब न द ह ो ज ा त ा है । प र मातमाकीलीलाअपरपंारहै।वहिब
है।"
प.- "िबलली केबचचे कैसे बचते है यह मुझे देखना है। मटकेपक जाये और तुम िनभाडा जब खोलो तब मुझे
बुलाना।"
कु.- "हाँ महाराज ! आप सुबह में आना। आप आयेंगे बाद में मैं िनभाड़ा
खोलूँगा।"
सुबह मे पहाद पहँच
ु गया। कुमहार न थ े ो ड ा स ा अ न त म ु व खहोकरभगवानकासमरण -
गरम मटके हटाये तो बीि के िार मटके किरिे रह गये थे। उनको िहलाया तो िबलरली के
बचचे 'मरयाऊँ मरयाऊँ' करते छलांग मारकर बाहर िनकल आये।
पहाद केिचत मे सतसंग केसंसकार सुषुपत पडे थे वे जग आये , भगवान की समृित हो आयी और लगा िक सार
वही है। संसार से वैरागरय हो गया और भजन में मन लग गया।
पहाद भगवान केरासते चल पडा तो घोर िवरोध हआ ु । एक असुर बालक िवषणुजी की भिित करे , देवों के
शिु िहरणयकिशपु यह कैसे सह सकता है ? ििर भी पहाद दढ ृ ता से भजन करता रहा। िपता न उ े सेड,ाटा िटकारा,
जललादो से डराया, पववतो से िगरवाया, सागर मे डुबवाया लेिकन पहाद की शदा नही टूटी।
पहले तो ईशर मे सचची शदा होना किठन है। शदा को जाय लेिकन िटकना किठन है। शदा िटक भी जाये ििर
भी तततवजान होना किठन है।

िहरणरयक ि प ु न े प र र ह र 'िजस
ल ादकोमारनेकेिलएकई
हिर ने िबलरली के बिरिों को बिाया तो करया मैं उसका बिरिा नहीं हूँ? वह मुझे भी
बचाएगा।' पहाद भगवान केशरण हो गया। िपता न प े व व त ोसेि,गरवायातोमरानही
सागर मे ििंकवाया तो डू बा नही।
आिखर लोहे के सरतंभ को तपवाकर िपता बोलाः
"तू कहता है िक मेरा भगवान सववि है, सवव समथव है। अगर ऐसा है तो वह इस सतभ ं मे भी है , तो तू उसका
आिलंगन कर। वह सवरर समथरर है तो यहाँ भी पररकट हो सकता है।" अनुकररम
पहाद न त े ी व र भ ा व न ा क र क े ल ो हेकेतपेहएुसतभ ं कोआिलंगनिकया
हुआ।
जब भोगो का बाहलुय हो जाता है, जब दि ु ो केजोर जुलम बढ जाते है तब भगवान केचाहे कही से िकसी भी रप मे
पकट होन क े ोसमथवहै।

नृिसंह के रूप में भगवान पररकट हुए। िहरणरयक ि प ु क ावधकरकेसर, पहादवधामपहुँिाया
को राजरय िदया और भगवान अनरतधरयाररन हो गये।
पहाद न भ े ग व ा न क े द श व न त ो िकएलेिकनभगवततवकासाकातकार
सवरप जानना किठन है।
कुछ समय बीता। असुरों के आिायरर ने पररहरलाद को भरमाया। बोलेः
"पहाद ! िवषरणु ने तुमरहारे िपता को मार डाला। तुमने उनकी शरण माँगी थी, रकरषण की
पाथवना की थी लेिकन ऐसा कहा था िक मेरे िपता को मार डालो?"
"नहीं, मैंने िपता को मारने को तो नहीं कहा था।"
"तुमन क े ह ा नहीििरियोमारा ? तुम पर िवषणु की पीित थी तो िपता की बुिद सुधार देते। उनकी हतया ियो
की?"
िवषरणु भगवान में पररहरलाद की दृढ़ शररदरधा तो थी लेिकन शररदरधा को िहलानेवाले लोग
िमल जाते हैं तो शररदरधा 'छू....' हो जाती है। ऐसी शररदरधा िहलाने वाले कई लोग साधक के
जीवन मे आते रहते है। ऐसी शदा िहलान व े ा ल े क ईल ो ग स , गुरेजुमीवनमे
ाधकक नरतररआमें,
तेरहतेहै।साधनामे
ईशर मे, सदगुर मे, सतसंग मे शदा िहलानवेाला कोई न कोई तो िमल ही जायेगा। बाहर से कोई नही िमलेगा तो हमारा मन
ही तकरर-िवतकरर करके िवरोध करेगा, शदा को िहलायेगा। इसीिलए शदा सदा िटकनी किठन है।
असुरगुरु शुकररािायरर ने पररहरलाद की शररदरधा को िहला िदया। शुकररािायरर ततरतरवजरञानी
नहीं हैं, संजीवनी िवदा जानते है। असुरो पर उनका पूरा पभाव है। लेिकन बहजान केिसवाय का पभाव िकस काम
का? वह पररभाव तो िौरासी लाख योिनयों की यातनाओं के पररित ही खींि ले जायगा।
शुिाचायव पहाद को कहते है- िवषरणु ने तुमरहारे बाप को मार डाला ििर भी तुम उनको पूजते
हो? कैसे मूखरर हो ! इतनी अनधशदा? अनुकररम
िकसी शररदरधालु को कोई बोले िक 'ऐसी तुमरहारी अनरधशररदरधा !' तो वह बचाव तो करेगा िक मेरी
अनरधशररदरधा नहीं है, सचची शदा है लेिकन िवरोधी का कथन उसकी शदा को झकझोर देगा। शबद देर-सबेर िचत
पर असर करते ही है इसीिलए 'गुरुगीता' में भगवान शंकर ने रकरषा का कवि िरमाया िकः

।।
'गुरु की िननरदा करने वाले देखकर यिद उसकी िजहरवा काट डालने में समथरर न हो तो
उसे अपने सरथान से भगा देना िािहए। यिद वह ठहरे तो सरवयं उस सरथान का तरयाग कर
देना िािहए।'
शुिाचायव न प े ह ा दम े भग व ा न ि व ष ण ु केपितवैरभावकेसंसकारभरिदय
लगाः "आप कहो तो िवषरणु से बदला लूँ।"
भगवान िवषणु का िवरोध करता हआ ु पहाद सेना को सुसजजा कर केआिद नारायण का आवाहन कर रहा हैः "आ
जाओ। तुमहारी खबर लेगे।"
भगवान भित का अहक ं ार और पतन नही सह सकते। दयालु शीहिर न ब े ू ढ े ब ाहणकारपधारणिकया।
में लकड़ी, झुकी कमर, कृश काय, शेत वसिािद से युित बाहण केरप मे पहलाद केराजदरबार मे जान ल े गे।
दरवार पर पहुँिे तो दरबान ने कहाः
"हे बरराहरमण ! पहाद युद की तैयारी मे है। युद केसमय साधु -बाहण का दशवन ठीक नही माना जाता।"
बाहण वेशधारी पभु न क े हाः"मैंने सुना है िक पररहरलाद साधु बरराहरमण का खूब आदर करते
हैं और तू मुझे जाने से रोक रहा है?"
दरबान के कहाः "पहाद पहले जैसे नही है। अब सावधान हो गये है। शुिाचायव न उ े न कोसमझािदयाहै।
अब तो भगवान िवषरणु से बदला लेने की तैयारी में हैं। साधु-बाहण का आदर करन व े ालेपहादवे
नहीं रहे। हे बरराहरमण ! तुम चले जाओ।"
"भाई ! कुछ भी हो, मैं अब पररहरलाद से िमलकर ही जाऊँगा। तू नहीं जाने देगा तो
मैं यहीं परराण तरयाग दूँगा। तुमको बररहरमहतरया लगेगी।"
इस पकार दारपाल को समझा-बुझाकर भगवान पहाद केसमक पहँच ु े। अिभवादन करते हएु बाहण वेशधारी पभु
ने कहाः
"पहाद ! तेरा कलयाण हो। सुना है अपन ि े प त ृ ह न त ा ि व षणुसेतुमबदलालेनाचाहतेहो।
लेना। मुझ बूढे बाहण का भी सववनाश हो गया।" बाहण वेशधारी भगवान न ि े व ष ण ु िवरोधीकुछबातेकही।पहादन
उनको नजदीक िबठाया। बातों का िसलिसला िला।
बाहण न पेूछाः"तुम िवषणु से बदला लेना चाहते हो? िवषरणु कहाँ रहते हैं?"
प.- "वे तो सवररतरर हैं। सवरर हृदयों में बैठे हैं।"
बा.- "हे मूखरर पररहरलाद ! जो सववि है, सवव हृदयो मे है, उसका िवनाश तू कैसे करेगा? मालूम
होता है, जैसा मै मूखव हँू, वैसा ही तू मनरदमित है। शुकरर के बहकावे में आकर दुषरट िन शर ियी
हुआ है। मैं यह छड़ी गाड़ता हूँ जमीन में, उसको तू िनकालकर िदखा तो मानूँगा िक तू िवषरणु
से युद कर सकता है।" अनुकररम
बाहण वेशधारी भगवान न ज े म ी न म े अ प न ी ,
छ ड ी ग ाडदी।पहादउठािसं हास
ििर दोनो हाथ से। पूरा बल लगाया। छडी खीचन म े े झ ु क न ा प ड ा।बललगा।पाणापानकीगितसम
कुछ कम हुआ। पररहरलाद की बुिदरध में पररकाश हुआ िक यह बरराहरमण वेशधारी कोई साधारण
वरयिकरत नहीं हो सकता है। भिकरत के पुराने संसरकार थे ही। ऊपर से कुसंसरकार जो पड़े
थेवेहटतेही पररहर
लादउस बरराहरमणवेशधारी को नमररतापूवररकआदर भरेविनोंसेकहनेलगाः
"हे िवपररवर ! आप कौन हैं?"
भगवान बोलेः "जो अपन क े ो न ह ी जा नत ा व ह म े र े कोभीठीकसेनहीजानता।ज
जानता वह माया केसंसकारो मे सूखे ितनकेकी नाई िहलता -डुलता रहता है। हे पररहरलाद ! तू समित को तयाग
कुमित के आधीन हुआ है। तबसे तू अशानरत और दुःखी हुआ है। कुिन शर िय करने वाला
वरयिकरत हमेशा दुःख का भागी होता है।"
करूणािनधान के कृपापूणरर विन सुनकर पररहरलाद समझ गया िक ये तो मेरे शररीहिर
हैं। िरणों पर िगर पड़ा। करषमा माँगने लगा। तब भकरतवतरसल भगवान पररहरलाद को कहने
लगेः
"करषमा तो तू कर। मेरे को मारने के िलए इतनी सेना तैयार की है ! तू कमा कर मेरे
को!"
कहाँ तो िपता की इतनी शासना-पववत से िगराना, पानी मे िेकना आिद ! ये शासना करने पर भी
पहाद िवषणु की भिित मे लगे रहे। शुिाचायव न अ े -धीरे कुसंसरकार भर िदये तो वही पररहरलाद
पनाहोकरधीरे
िवषरणजु ी युदरध करने को ततरपर हुआ।
जब तक सवव वयापक शीहिरतव का साकातकार नही होता, अनरतःकरण से समरबनरध-िविरछेद नहीं
होता, पिरिचछनता नही िमटती तब तक जीव की शदा और िसथित चढती उतरती रहती है।
वैकुंठ में भगवान के पाषररद जय-िवजय पररितिदन शररीहिर का दररशन करते हैं
लेिकन हिरतततव का साकातकार न होन क े कारण उनको भी तीन जनम लेन प े ड े ।प ह ादकोशीहिरकेशीिवगहकादश
हुआ, हिर सवररतरर है ऐसा वृितरतजरञान तो था लेिकन वृितरतजरञान सुसंग कुसंग से बदल जाता
है। पूणरर बोध अबदल है।
पहाद जैसो की भी शदा कुसंग केकारण िहल सकती है तो हे साधक ! भैया ! तू ऐसे वातावरण से, ऐसे
वरयिकरतयों से, ऐसे संसरकारों के बिना जो तुझे साधना के मागरर से, ईशर केरासते से ििसलाते
हैं। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवान सवववयापक और शाशत है। वे सबको िमल सकते है। आप िजस रप मे भगवान को पाना चाहते है उस
रूप में आपको िमलते हैं। शररीकृषरण गीता में भी विन देते हैं िकः

'हे अजुररन ! जो भित मुझे िजस पकार भजते है , मैं भी उनको उसी पररकार भजता हूँ।'
( 4.11)
आप कुशलता से पिरशररम करते हैं, पुरषाथव करते है तो भगवान पदाथों केरप मे िमलेगे। आलसी
औ र प म ा द ी र ह त े ह ै त ो भ ग व ा न र ो ग औ र त म ो गु ण क े रप म े िम ल े ग े । दरु ा च ा र ी र ह त े
हैं तो भगवान नरक में िमलेंगे। सदािारी और संयमी रहते हैं तो भगवान सरवगरर के रूप
में िमलेंगे। सूयोररदय के पहले सरनानिद से शुदरध होकर पररणव का जाप करते हैं तो
भगवान आननद केरप मे िमलते है। सूयोदय केबाद भी सोते रहते है तो भगवान आलसय केरप मे िमलेगे। भगवान की
बनाई अनक े लीलाओं को, इिदेव को, आतरमवेतरता सदगुरु को परयार की िनगाहों से देखते हैं, शदा-
भाव से, अहोभाव से िदल को भरते हैं तो भगवान पररेम के रूप में िमलेंगे। वेदानरत का
िविार करते हैं, आतरम-िचनतन करते है तो भगवान तततव केरप मे िमलेगे। घृणा और िशकायत केरप मे देखते
हैं तो भगवान शतररु के रूप में िमलेंगे। धनरयवाद की दृिषरट रखते हैं तो भगवान िमतरर
के रूप में िमलते है। अपने िितरत में सनरदेह है, ििरयाद है, चोर डाकू केिवचार है तो भगवान उसी
रूप में िमलते हैं। अपनी दृिषरट में सवरर बररहरम की भावना है, सववि बह ही बह दिृि आता है तो
दूसरों की नजरों में जो कररूर हैं, हतरयारे हैं, डाकू हैं, वे तुमरहारे िलए कररूर हतरयारे
नहीं रहेंगे।
आप िनणररय करो िक भगवान को िकस रूप में देखना िाहते हैं। जब सब भगवान हैं,
सववि भगवान है तो आपको जो िमलेगा वह भगवान ही है। समग रप उसी केहै। यह सवीकार कर लो तो सब रपो मे
भगवान िमल जायेगे। आननद ही आननद चाहो, पेम ही पेम चाहो तो भगवान उसी रप मे िमलेगे।
िकसी को लगेगा िक जब सवररतरर भगवान हैं तो पाप-पुणय ियो? ििर पाप करन म े े हजव ? ियाहै
हाँ, कोई हजरर नहीं। डटकर पाप करो। ििर भगवान नरक के रूप में पररापरत होंगे।
'सब बह है तो जो आवे सो खाओ, जो आवे सो िपयो, जो िमले सो भोगो, चाहे सो करो िया हजव है?'
तो भगवान सववि है। वे रोग केरप मे पकट होगे। संयम से रहोगे तो भगवान सवासथय केरप मे पकट होगे।
भगवान हमारे समक अपन स े मग रप म े 'मैं'
प क टहोजाये को खोजो। 'मैं' खो
ऐसीइचछाहोतोअपने
जाएगा ििर लगेगा िक भगवान समग रपो मे है और भी भगवततव था।
महायोगी शररी अरिवनरद गीता के महानर उपासक थे। वे गीता के सतरयों को अपने
जीवनरपी साचे मे ढालन क े ो प ू ण व र प े णक ृ त संकलपथे।वेदोऔरउपिनष
पितजाए क ँ ी थी । र ा ष ट क े ि ल ए अ प न ासववसवनयोछावरकरभारतमाताक
करना एवं आतरमसाकरषातरकार करना। अनुकररम
अिलपुर बम-कांड में उनकी धरपकड़ हुई और कारावास में डाल िदये गये। वहाँ पर
भी उनकी योग साधना सतत चालू थी। रात-रात भर परमातरमा के धरयान में मगरन रहते थे। शररी
अरिवनरद के बिाव पकरष के बैरीसरटर शररी िितरतरंजनदास थे िजनरहोंने िीस में एक पाई
भी न ली थी (बाद मे वे देशबनधु दास केनाम से पिसद हएु )। सरकार की ओर से सैकडो पमाण और साकी खडे िकये गये
थेिजनका खंडन करनेकेिलए उनरहेंिदन रात शररमकरना पड़ता था । सालभर मुकदरदमािला। एकिदन अंगररेज
नरयायाधीश के पास कड़े पुिलस बंदोबसरत तले शररी अरिवंद को जेल में से अदालत लाया
गया। देशभिकरत से िकिूर जनता ने नरयायालय को खिाखि भर िदया था। सरकारी वकीलों
के समकरष बेरीसरटर िितरतरंजनदास उपिसरथत हुए। उस समय िवदरयुत-पख ं े नही थे। िवशाल चँवर से
नरयायाधीश पर पवन डाला जा रहा था। िँवर डुलाने के िलए कैिदयों का उपयोग िकया जाता
था ।
सरकार कृतसंकलप थी िक शी अरिवनद को मुजिरम सािबत कर िासी पर लटका दे और शी अरिवनद शातभाव
से शीकृषण का िचनतन िकये जा रहे थे। उस समय उनहे जो अनुभूित हईु वह अतयत ं रसीली एव अ ं द भुतथी।भगवानके
समग सवरप का गीता वचन पतयक हआ ु । शी अरिवनदजी केही शबदो मे इस पकार हैः
"मैंने नरयायाधीश की ओर देखा तो मुझे उनमें शररीकृषरण ही मुसरकराते दीखे। मुझे
आ शर ियरर हुआ। मैंने वकीलों की ओर देखा तो मुझे वकील िदखाई ही नहीं िदये , सब शीकृषण
का रूप िदखाई िदये। वहाँ उपिसरथत कैिदयों की ओर िनहारा तो सब कृषरणरूप धारण कर बैठे
हुए िदखे। जगह-जगह मुझे शीकृषण का हूबहू दशवन हआ ु । शीकृषण मेरे सामन द 'तू बराबर
े ेखकरबोले ः देख। मै
सवववयापी हूँ, ििर डर िकस बात का?' उनके िदवरय दररशन से, अभयदान पररदान करती हुई उनकी वाणी
से मै संपूणव िनभवय हो गया। िचनता माि पलायन हो गई।" वषररभर अदालत में मुकदरदमा िला। केस के
अनरत में गोरे नरयायाधीश ने िुकादा िदयाः 'िनदोररष'। लोगो केआनदं का पार न रहा। उनहोन श े ी
अरिवनरद को कनरधे पर िबठाकर आनंदोतरसव मनाते हुए पररिणरड जयघोष िकयाः
"जय शीकृषण , जय शी अरिवनद।"
समय की धारा मे वह पसंग भी सरक गया, सवप की नाई।

, ।।
यह सपने जैसे संसार में सब समय की धारा में सरवपरनवतर हो जाता है। अतः जगत
सब सवप है। 'मैं आतरमरूप से सबका आधार सििरिदानंद सरवरूप हूँ... सोऽहम्.... िशवोऽहम्.....' ऐसा
िचनतन करोगे तो भगवान बह केरप मे पकट हो जाएगँे। अनुकररम
भोगी और िवलासी को रोग होते है। िवकारी जीवन मे पिाताप, भय और िचनता होती है। भय, िचनता होवे तभी
'भगवान भय और िचनता केरप मे पकट हएु है ' – ऐसा करके भय और ििनरता से बाहर िनकल जाओ।
भगवदबुिद से भय को देखोगे तो भय दःुख नही देगा। भगवदबुिद से रोग और शिु को देखोगे तो रोग और शिु दःुख नही
देंगे। भगवदबुिदरध से सुख और सरवगरर को देखोगे तो वह सुख और सरवगरर िवषयासिकरत नहीं
कराएँगे। िकतने सुनरदर समािार हैं!
आप भगवान को िकसी रूप में पररकट करना नहीं िाहते लेिकन भगवान जैसे हैं
वैसा जमाना िाहते हैं, जैसे है वैसे ही देखना चाहते है।
जैसे है वैसे देखना चाहते है तो वे सब कुछ है। उनको सब कुछ जान लो , देख लो। नरक भी वे ही हैं,
सवगव भी वे ही है। रोग भी वे ही है और जो सवासथय भी वे ही है। धनयवाद भी वे ही है , िशकायत भी वे ही है।
'हमको भगवान पूरे िदखने िािहए।'
पूरा देखनवेाला कौन है, उसको पूरा खोजो। जो पूरा देखने वाले को पूरा खोज लेता है
उसके अपने भीतर भगवान पूरे पररकट हो जाते हैं।
खोजने में पिरशररम पड़े तो वे सब कुछ हैं ही ऐसा संतों का अनुभव मान लो न !
अपने को पूरा खोजोगे तो करया होगा?

खोजते-खोजते खोजनेवाला खो जायेगा। 'मैं..... मैं....' करने वाला िमथरया हो
जायेगा। शेष बह ही बह रह जायेगा। नमक की पुतली गई समुि की थाह लेन। े पुतली तो खो गई, हो गई सागर।
ऐसे ही देह और अहंकार खो गया और रह गया केवल बररहरम। िमटी बूँद हो गई सागर। बूँद भी
पानी है, सागर भी पानी है।
शीमद आ ् दश ं क र ा च ायवनक े रोडोगनथोकासारबतातेहएुकहाः

।।

।।
िजसको मूल हम जीवातमा बोलते है वह बह अलग से नही है। िजसे हम तरगं बोलते है वह सागर से अलग नही।
िजसे घटाकाश बोलते है वह महाकाश से अलग नही। िजसको हम जेवर बोलते है वह सोन स े े अ ल गनही।िजसेहमदो
गज जमीन बोलते हैं वह पूरी पृथव र ी से अलग नहीं। दीवाल बाँध कर सीमा खड़ी कर सकते
हो लेिकन अलग नहीं कर सकते हो लेिकन जमीन अलग नहीं कर सकते। 'हमारी जमीन.....
तुमहारी जमीन' ये मन की रेखाएँ खड़ी कर सकते हो लेिकन जमीन अलग नहीं कर सकते। ऐसे
ही 'हमारा शरीर.... तुमहारा शरीर....' अलग मान सकते हो लेिकन दोनों की जो वासरतिवक 'मैं' है
उसे अलग नहीं कर सकते। घड़ों का अलगाव हो सकता है लेिकन घड़ों के आकाश का
अलगाव नहीं हो सकता। िितरत के अलगाव हो सकते हैं लेिकन िितरत िजसके आधार से
िुरते है उल िचदाकाश का अलगाव नही हो सकता। 'वह ििदाकाश आतरमा मैं हूँ'.... ऐसा जरञान कराने
का भगीरथ कायरर वेदानरत का है। 'वासरतव मे तुम आतरमा हो, िव शर वातरमहो ा, परबह परमातमा हो।
मरने और जनरमने वाले पुतले नहीं हो' – ऐसा वेदानरत दररशन िरमाता है। ॐ.... ॐ.....ॐ....
अनुकररम
ऐसा जरञान पिाने वाला िसदरध पुरष ु शूली पर िढ़ते हुए भी िनभीररक होता है, रोते हुए
भी नही रोता, हँसते हुए भी नहीं हँसता।

।।
'जानी पुरष लोक दिृि से संतोषवान होते हएु भी संतुि नही है और खेद को पाये हएु भी खेद को नही पापत होता
है। उसकी उस-उस आ शर ियरर दशा को वैसे ही जरञानी जानते हैं। '
( 56)

।।
करोड़ों वषरर की समािध करो लेिकन आतरमजरञान तो कुछ िनराला ही है। धरयान भजन
करना िािहए, समािध करनी चािहए लेिकन समािधवालो को भी ििर इस आतमजान मे आना चािहए। सेवा अवशय करना
चािहए और ििर वेदानत मे आना चािहए। नही तो, सेवा का सूकम अहक ं ार आयेगा। कतृवतव की गाठ बध ँ जाएगी तो सवगव मे
घसीटे जाओगे। सरवगरर का सुख भोगने के बाद ििर पतन होगा।
वेदानरत का िजजरञासु समझता है िक कमोररं का िल शा शर वत नहीं होता। पुणरय का िल
भी शाशत नही और पाप का िल भी शाशत नही। पुणय सुख देकर नि हो जाएगा और पाप दःुख देकर नि हो जाएगा।
सुख और दःुख मन को िमलेगा। मन केसुख -दुःख को जो जानता है उसको पाकर पार हो जाओ। यही है
वेदानरत। िकतना सरल।
िजसको अपना िबछुडा हआ ु पयारा सवजन िमल जाये , उसको िकतना आननरद होता है ! मेले में
ु पित िमल जाये , िमतरर को िबछुड़ा हुआ िमतरर िमल जाये तो
िबछुडे बचचे को मा िमल जाये पती को िबछुडा हआ
िकतना आननरद होता है !
जब अपना सवजन कही िमल जाय तो इतना आननद होता है तो िजसको वेदानत का जान हो जाता है उसको तो
सववि अपना िपय पेमासपद, अपना आपा िमलता है..... उसको िकतना आननरद िमलता होगा।
ॐ....ॐ.....ॐ... अनुकररम
ॐ आननरद ! ॐ आननरद !! ॐ आननरद !!!
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

एक लंगड़ा आदमी बैठा था बदररीनाथ के रासरते पर। कहे जा रहा थाः "लोग बिीनाथ की
यातररा को जा रहे हैं। हमारे पास पैर होते तो हम भी भगवान के दररशन करते।" पास मे साथी
बैठा था। वह सूरदास था। सुन रहा था उसकी बात। वह भी कहन ल े गाः"यार ! मैं भी िाहता था िक ई शर वर
के दररशन करूँ लेिकन मेरे पास आँखों की जरयोित नहीं है। कम से कम ई शर वर के धाम
में तो जाने की रूिि है।"
एक महातरमा ने कहाः "एक की आँखें और दूसरे के पैर, दोनों का सहयोग हो
जायेगा तो तुम लोग बिीनाथ पहँचु जाओगे।"
ऐसे ही जीवन के ततरतरव का जो जरञान है वह आँख है। वह जरञान अगर कमरर में
नहीं आता तो वह लंगड़ा रह जाता है। कमरर करने की शिकरत जीवन में है लेिकन जरञान
के िबना है तो ऐसी अनरधी शिकरतयों का दुरुपयोग हो जाता है। जीवन बरबाद हो जाता है। यही
कारण िक िजनके जीवन में जप-तप-जान-धरयान और सदगुरुओं का सािनरनधरय नहीं है ऐसे
वरयिकरतयों की िकररयाशिकरत राग, दरवेष और अिभमान को जनरम देकर िहंसा आिद का पररादुभाररव
कर देती है। कमरर करने की शिकरत भररषरटािार के तरि, दूसरों का शोषण करने के तरि,
अहंकार को बढ़ाने के तरि नषरट हो जाती है।
िकररयाशिकरत और जरञानशिकरत का समनरवय होना अतरयंत आव शर यक है। आज तक ऐसा
कोई मनुषरय, पाणी पैदा ही नही हआ ु जो िबना ििया के, िबना कमव केरह सके। कमव करना ही है तो जान संयुित कमव
करें। शासरतरर में तो यहाँ तक कहा है िक जरञानी महापुरुष, जगत की नशरता जानन व े ालेमहापुरषभी
सतकमव करते है। ियोिक उनको देखकर दस ू रे करेगे। िबना कमव केनही रह सकेगे तो अचछे कमव करे। अगर कमव करने
की शिकरत है तो जरञान, भिित और योग केदारा उसे ऐसा सुसिजजत कर दे िक जान संयुित कमव जीवनदाता तक
पहँच
ु ा दे।
कमोररं से कमोररं को काटा जाता है। उन कमोररं में जरञान की सुवास होगी तो कमोररं
को काटेंगे और अहंकार की गनरध होगी तो कमरर बनरधन की जाल बुनेंगे। इसीिलए कमोररं
के जगत में जरञान का समनरवय होना िािहए।
जान मे सुख भी है और समझ भी। जैसे मेरे मुँह मे रसगुलला रख िदया जाये और मै पगाढ िनिा मे हँू तो िमठास
नहीं आयेगी। जब जागूँ तब वृितरत िजहरवा से जुड़ेगी तो रसगुलरले की िमठास का जरञान
होते ही सुख आयेगा। िबना जरञान के सुख नहीं। जरञान में समझ भी है, सुख भी है। तमाम पकार
के सुख, शिित एव ज ं ा न ज हा स े प क ट ह ो त े हैवहउदगमसथानआतमाहै।उ
आतरमजरञान है। उस जरञान के िबना मनुषरय िाहे िकतनी सारी िकररयाएँ कर ले लेिकन
िकररयाओं का िल उसकी परेशािनयों का कारण बन जाता है। वही िकररयाएँ अगर जरञान
संयुित होती है तो उनका िल अकतृवतव पद की पािपत कराता है। उपिनषदो का जान, वेदानरत का जरञान एक ऐसी
कला है, कमोररं में ऐसी योगरयता ले आता है िक आदमी का जीवन न शर वर जगत में होते
हुए भी शा शर वत के अनुभव संयुकरत हो जाता है। मरनेवाले देह में रहते हुए अमर आतरमा
का दीदार होने लगता है। िमटने वाले समरबनरधों में अिमट का समरबनरध हो जाता है।
गुरुभाइयों का समरबनरध िमटनेवाला है, गुरु का समरबनरध भी िमटने वाला है लेिकन वह
समबनध अिमट की पािपत करा देता है, अगर जरञान है तो। जरञान नहीं है तो िमटने वाले समरबनरधों
में ऐसा मोह पैदा होता है िक िौरासी-चौरासी लाख जनमो तक आदमी भटकता रहता है।
। जान केसंयुित तप हो। जानसिहत ििया हो। शीकृषण केजीवन मे देखो तो िकतनी
सारी िियाए ह ँ ै ल े ि क नज ा न सं य ु ि त ि ियाएहँै।जनककेजीवनमेििय
में कमरर हैं लेिकन जरञान संयुकरत हैं।

।।
यह जरञान की मिहमा है।
.....
गुरु िव शर वािमतरर जागें उसके पहले रामजी जग जाते थे। जरञानदाता गुरुओं का
आदर करते थे।
जीवन मे जान की आवशयकता है।
यित गोरखनाथ पसार हो रहे थे तो िकसी िकसान ने कहाः "बाबाजी ! दोपहर हुई है।
अभी-अभी घर से खाना आयेगा। आप भोजन पाना, थोड़ीदेरिवशररामकरना और शाम को जहाँआपकी मौज
हो, िविरण करना।"
िकसान की आँखों ने तो एक साधु देखा लेिकन भीतर एक समझ थी िक थोड़ी सेवा कर
लूँ। उसन ग े ो र ख न ा थ ज ी क ो ि र झाकररोकिलया।भोजनक
रमते भये तब िकसान ने पररणाम करते कहाः
"महाराज ! खेती करते-करते ढोरों जैसा जीवन िबता रहे हैं। कभी आप जैसे
संत पधारते है। कुछ न कुछ मुझे थोडा -सा उपदेश दे जाइये।"
गोरखनाथ
श ने देखा िक है तो पातरर। पैर से िखातक िनहारा। बोलेः
"औ र उपद े श ि य ा दँू ? जो मन मे आवे वह मत करना।"
ये विन गोरखनाथ को गुरु मिरछनरदरनाथ ने कहे थे। वे ही विन गोरखनाथ ने
िकसान को कहे और जोगी रमते भये।
संधया हईु। िकसान न ह े ल क न ध े प र र ख क र 'मन
प ावउठाये ।घरकीओरचला।याद
में आये वह मत करना।' महाराज ! वह रुक गया ! ऐसा रुका िक उसका मन भी रुक गया ! जो भी मन
में आता वह नहीं करता। मन से पार हो गया। िौरासी िसदरधों मं वह एक िसदरध हो गया –
हालीपाँव। मतलब, हल उठाया पाँव रखा और गुरुविन में िटक गया। नाम पड़ गया हालीपाँव
िसद।
कहाँ तो साधारण िकसान और कहाँ हालीपाँव िसदरध !
शबरी न ग े ु र क े व च न ि स र प रर खे औ ररामजीदारपरपधारे।िकस
माने। मन हो गया अिडग। िकसान में से हालीपाँव िसदरध।
कमरर तो उसके पास थे लेिकन कमोररं को जब जरञान-िनषरठा का दीया िमल गया तो वह
िसद हो गया।
संत सुनदरदास हो गये। अचछे , उिरि कोिट के संत थे। उनसे िकसी ने पूछाः
"सवामीजी ! भगवान की भिित मे मन कैसे लगे ?"
वे बोलेः "भगवान केदशवन करन स े े भ ग व ा न म े स द ेहहोसकताहैलेिकनभगवानकीक
भगवान मे शदा बढती है। भगवान की कथा की अपेका भगवान केपयारे भित हो गये है , संत हो गये है उनका जीवन-
चिरि पढन स े ु न न स े े भ ग व ा न की भ ि ि त बढतीहै।भगवानकीकथ
पाकटय शीघ हो जाता है।"
नारे शर वर में रंग अवधूत जी महाराज हो गये। अिरछे संत थे। उनसे िकसी ने
पूछाः
"आप तो बाबाजी ! जातजेय हो गये है। अभी आपको िया रचता है?"
वे बोलेः "संतो केजीवन चिरि पढन म े े म े र ी अ भी भ ीरिचरहतीहै।नमवदाकेिकनारेपिरि
कोई संत आ जायें तो भोजन पकाकर उनरहें िखलाऊँ ऐसे भाव आ जाते हैं। मुझे बड़ा
आनंद आता है।"
संत का मतलब यह िह िक िजनकेदारा अपन ज े न म ो क ा अंतकरनक , िकररे याजानिमलजाय
ाओं का अंत
करने का जरञान िमल जाय।
अकेला जरञान लंगड़ा हो जायेगा, शुषक हो जायेगा। अकेली ििया अनधी हो जायेगी। हम लोग
िकररयाएँ जीवनभर िकए जा रहे हैं और अनरत में देखो तो पिरणाम कुछ नहीं, हताशा.....
िनराशा।
पेम मे से जान िनकाल दो तो वह काम हो जायगा। जान मे से पेम मे िनकाल दो तो वह शुषक हो जायेगा। जान मे
से योग िनकाल दो तो वह सामथयवहीन हो जायेगा। योग मे से जान और पेम िनकाल दो तो वह जड हो जायगा।
इसिलए भाई मेरे ! पेम मे योग और जान िमला दो तो पेम पूणव हो जायगा, पूणव पुरषोतम का साकातकार करा देगा।
जान मे पेम और योग िमला दे तो जान ईशर से अिभन कर देगा। योग मे जान और पेम िमला दो तो सवव समथव सवरप अपने
आपा का अनुभव हो जायगा।
मतलब, पेमा भिित कर केअपन प े ि र िचछनअहक , योग कर
ं ोिमटादो
के अपनी दुबररलता िमटा दो
औ र ज ा न प ा कर अ प न ा अ ज ा न िम ट ा द ो। ज ा न ऐसा ह ो िक द े ह ा ध य ास ग ल ज ा य। अनुकररम
िकररया के साथ जरञान हो और जरञान के साथ कमरर हो। दोनों का समनरवय हो। जरञान
में सुख भी होता है और समझ भी होती है। बररहरमियरर रखना अिरछा है। शारीिरक, मानिसक,
बौिदक िवकास होता है और लमबे समय तक िचत की पसनता बनी रहती है। यह समझ तो है लेिकन जब सुख की
लोलुपता आ जाती है तो बहचयव से िगरकर आदमी िवकारी सुख कणभर केिलए लेता है और ििर पछताता है। पापी आदमी
को िवकारी सुख में रुिि होती है। आपको जरञान के साथ सुख की भी जरुरत है।
माना है िक झूठ बोलना ठीक नहीं है, िकसी का अिहत करना िायदे में नहीं है।
सतय बोलना चािहए। हम सतय बोलते है लेिकन जब दःुख पडता है तब सतय को छोडकर असतय बोले देते है। ियो?
सुख केिलए। झूठ िकसिलए बोलते है ? सुख केिलय। बहचयव खंिडत ियो करते है ? तुचछ सुख केिलए।
माँग तुमरहारी सुख की है।
गंगाजी गंगोतररी से िली। लहराती गुनगुनाती गंगा सागर को िमलने भाग रही है।
गंगा जहाँ से पररकट हुई है वहीं जा रही है। ऐसे ही तुमरहारा वासरतिवक सरवरूप पररापरत करने
के िलए ही तुमरहारे जीवन की आकांकरषा है। तुम आननरदकनरद, सिचचदाननद परमातमा से पकट हएु हो,
सिुिरत हएु हो। तुम िजसे 'मैं... मैं.... मैं.....' बोल रहे हो वह 'मैं' आननरद-सवरप परमातमा से सिुिरत हईु
है। वह मैं आननरद-सवरप परमातमा तक पहँच ु नक े े ि ल ए ह ी स ा र ीिियाएक ँ ररहीहै।जैसेगग
ं ाज
सागर तक पहँच ु नक े े ि ल ए ह ी स ा र ी च े ि ाकरतीहै।लेिकनहमनसेवाथवप
बना िदया, उसको थाम िदया तो वह पानी गंगासागर तक नहीं पहुँिता। ऐसे ही सुख की पररािपरत की
इचछा है और हमारी सुबह से शाम तक की दौड सुख तक पहँच ु नक े ी ह ै , िबना समझ के, सवाथी,
ल ेिकनजहािबनाजानक े
ऐिनरदररक सुख की िेषरटा करते हैं तो गंगाजल को रासरते में खडरडों में बाँध देते हैं।
ऐसे ही हमारी िितरत की धारा को अजरञानवश मानरयता में हम उंडेल देते हैं तो हमारा
जीवन रासते मे रक जाता है। हालािक हमारा पयत तो सुख केिलए है लेिकन हमारा आतमा सुख सवरप है , इस पकार का
जान न होन क े े क ा र ण हम ब ी चम े भ ट क ज ा तेहैऔरजीवनपूराहोजाता
समझ पाता।
हम जो-जो िनयम शासिो से सुनते है, सवीकार करते है वे िनयम तब खिणडत करतेहै जब हमे भय हो जाता है
अथवा सुख की लोलुपता हमें घेर लेती है। हम नीिे आ जाते हैं। तब करया करना िािहए?
सुख की लोलुपता और दःुख केभय को िमटाना हो तो जान की जररत पडेगी। वह जान तततवजान हो अथवा
तततवजान का सुख पान क े ी त र क ी ब र प य ो ग युिितयाहो।योगयुिितयाऔरत
लगेगा तो िनभवयता आन ल े ग े गी । ि ि रहमारीसमझकेिखलािहमििसलेगेनही।
संत सुंदरदासजी महाराज उचच कोिट केसाकातकारी पुरष थे। नवाब न उ े नक े "बाबाजी
चरणोमे िसररखािकः
! िजस आननद मे आप आनिनदत होते हो, िजस परमातमा को पाकर आप तृपत हएु हो, िजस ईशर केसाकातकार से आप
आतरमारामी हुए हो वह हमें भी उपलबरध करा दो।"
सुना है िक जब सात जनमो केपुणय जोर करते है तब आतम -साकातकारी संत महापुरष केदशवन करन क े ीइचछा
होती है। दूसरे सात जनरम के पुणरय जब सहयोग करते हैं तब उनके दरवार तक ही पहुँि
पायेगे। तीसरे सात जनम केपुणय उनमे नही िमलेगे तो हम उनकेदार से िबना दशवन ही लौट जायेगे। या तो बाबा जी कही
बाहर चले गये होगे ििर पहँच ु ेगे अथवा बाबाजी आनवेाले होगे उससे पहले रवाना हो जायेगे, बाद मे बाबाजी लौटेगे। जब
तक पूरे इकीस जनमो केपुणय जोर नही मारेगे तब तक आतम -साकातकारी महापुरषो केदशवन नही होगे , उनके विनों
में िव शर वास नहीं होगा।

अलरप पुणरयवालों को तो आतरमवेतरता संत पुरुषों के दररशन और विन में िव शर वास ही
नहीं हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं-

नवाब कहता हैः "महाराज ! मुझे आपका दररशन करने का सौभागरय िमला है अब िाहता
हूँ िक आप िजस आतरमरस से, िजस आतमजान से कृतकायव हएु है वह आतमा कैसा है उसका अनुभव मुझे
कराइये।"
सुनदरदासजी न स े व च छ ज ल स े भ र ा ह आ ु कासेकाएककटोरामँगवाय
कहाः
"नवाब ! इस जल मे अपना मुख देखो।"
"भगवन् ! इसमे नही िदख पायगा। यह तो कीचड जैसा हो गया।"
"अिरछा।" ििर सवचछ जल का दस ू रा कटोरा मँगवाया और उसको थोडा धका देकर पानी िहला िदया और
कहाः
"अब इसमें अपना मुँह देखो।"
"सवामीजी ! अब मुँह तो िदख रहा है लेिकन िविितरर-सा िदख रहा है, खणरड-खणरड होकर िदख
रहा है। साि नहीं िदखता।"
पानी को िसथर होन ि े "अब इसमें देखो।"
द याििरकहाः
"महाराज ! अब ठीक िदख रहा है।" महाराजजी ने पानी डाल िदया और िुप होकर बैठे
गये। नवाब ने ििर परराथररना की िकः "महाराज ! हम लोग आतरमा का अनुभव कैसे करें?
कैसे उस परमातरमा को पाएँ? कैसे हमें आननरद-सवरप की अनुभूित हो? कृपा करके बताइये।"
सुनदरदासजी न क े हाः"मागरर मैंने 'पेिटीकल बता िदया। केवल सैदािनतक ही नही , वरयावहािरक
सुझाव दे िदया।" अनुकररम
"महाराज ! हम समझे नहीं। जरा िवसरतार से किहए नाथ।"
तब संतशी न क , नहीं देख पाये करयोंिक पानी
े हाः"पहले राखवाले पानी मे मुँह देखन क े ोकहा
मैला था। ऐसे ही िितरत जब मैला होता है, िवषय-वासनायुकरत िेषरटाएँ होती हैं, जान िबना
की िकररयाएँ होती हैं उससे िितरत मिलन हो जाता है। मिलन िितरत में तुमरहारे आतरमा-
परमातमा का मुखडा नही िदख सकता। िचत शुद होन ल े ग त ा ह ै तो समझबढतीहै।आदमीमेआधयाितमक
पनपन ल " ।
े गतीहै
कोई आदमी अिरछे पद पर है। वह िाहे तो लाखों-करोड़ों रुपये इकटरठे कर सकता
है लेिकन उसे भररषरटािार अिरछा नहीं लगता। तो समझो, भगवान की उस पर कृपा है। लोग चाहे कुछ
भी सोच ले, मूखरर लोग िाहे कुछ भी कह दें िक साहब भोले भाले हैं, लेिकन वासतव मे साहब
समझदार है।
भिाचार करन क े , कपट करके धनवान होने का मौका है ििर भी
ा म ौ क ाहैििरभीनहीिकया
कपट नहीं िकया तो हमारे िदलरूपी कटोरे में जो राख है वह िली जायगी, मल िला जायगा।
पानी सवचछ हो जायगा। अनतःकरण शुद हो जायगा।
अनरतःकरण सरविरछ तो हो जायगा लेिकन अब भी उसमें अपना मुखड़ा नहीं िदखेगा।
आतरम-साकातकार नही होगा। ियो? करयोंिक िितरत शुदरध तो हुआ है लेिकन आतरम-साकातकार केिलए
केवल िितरत शुदरध होना ही पयाररपरत नहीं है। हम अिरछा वरयवहार करते हैं, सािततवक है, िकसी
का शोषण नहीं करते हैं, भिाचार नही करते, बचपन से संतो केपास जाते है यह ईशर की बहत ु कृपा है ,
धनरयवाद है, लेिकन साकातकार केिलए एक कदम और आगे रखना होगा भैया !
िचत शुद है इसिलए बैठते ही भगवान की भिित समरण हो आती है , धनरयवाद है। लेिकन भगवतरततरव
का बोध तब तक नहीं होगा, आतरम-साकातकार तब तक नही होगा जब तक िचत की अिवदा िनवृत न हो।
िचत केतीन दोष है - िचत का मैलापन, िचत की चंचलता और िचत को अपन च े ै ,
तनयकाअभान।मल
िवकरषेप और आवरण।
समझ से युित िियाए क ँ र न स े े ि चत श ु द ह ो ताहै।शुदवयवहारसेिचतशुद
अभरयास करने से भी िितरत शुदरध होता है।
शुद िचत को धयान से एकाग िकया जाता है। एकाग िचत मे अगर तततवजान केिवचार ठीक ढंग से बैठ गये तो
साकातकार हो जाये।
महाराजा भतृररहिर अपना िवशाल सामरराजरय छोड़कर जोगी बन गये। सहज सरवभाव
िविरण करते-करते िकसी गाँव से गुजरे तो दुकान पर हलवाई हलवा बना रहा था। हलवे की
खु शर बू ने उनके िितरत को आकिषररत कर िलया। समरराट होकर तो खूब भोग भोगे थे। पुराने
संसकार जग आये। हलवा खान क े ी इ च छ ाहोगई।हलवाईकोकहाः
"भाई ! हलवा दे दे।"
"पैसे है तुमहारे पास?" जोगी को घूरते हएु हलवाई बोला।
"पैसे तो नही है। "
"िबना पैसे हलवा कैसे िमलेगा ? पैसे लाओ।"
"पैसे कहा िमलेगे?" भतृवहिर न पेूछा।
हलवाई बोलाः "गाँव की दिकरषण िदशा में दुषरकाल राहत कायरर िल रहा है, तालाब खुद रहा
है। वहाँ जाओ। मजदूरी करो। शाम को पैसे िमल जाएँगे।"
एक समय का समरराट वहाँ गया। कुदाली-िावडा चलाया। िमटी केटोकरे उठाए। िदनभर मजदरूी
की। शाम को पैसे िमले और आ गये हलवाई की दुकान पर। हलवा िलया और पूछते-पूछते गाव
की उतरतर िदशा में तालाब की ओर िले।
भतृवहिर अपन म े न कोकहनल "अरे े गेःमनीराम ! तून र , पिरवार छोडा, घरबार छोड़ा, समाट
े ाजयछोडा
पद छोडा और हलवे मे अटक गया? हलवा नहीं िमला इसिलए िदन भर गुलामी करवाई?
बदमाश ! जरा सी लूली केलाड लडान क े े ि ?"
ल एइतनापरे शानिकया
मन को अगर थोड़ी सी छूट देंगे तो वह और जरयादा छूट ले लेगा। पास में भैंस
का गोबर पड़ा था। भतृररहिर ने वह उठाया और तालाब के िकनारे पहुँिे। एक हाथ से हलवे
का कौर उठाकर मुँह तक लाते और ििर तालाब में डाल देते जो मछिलयाँ खा जाती। दूसरे
हाथ से गोबर का कौर उठाते और मुँह में ठूँसते, अपने आपको कहतेः 'ले, खा यह हलवा।'
ऐसे करते-करते करीब पूरा हलवा पानी में िला गया। गोबर का कािी िहसरसा िला गया पेट
में। हलवे का आिखरी गररास हाथ में बिा तब मन मूितररमंत होकर पररकट हो गया और बोलाः
"हे नाथ ! अब तो कृपा कीिजए। इतना तो जरा-सा खान देीिजए!"
लेिकन िनिा इतनी पिरपिव थी, दृढ़ता थी िक वे अपने िन शर िय में अिल थे। मन को
कहाः
"तून प े ू र े िदनभरमु , मजदू
झेधूपर करवाई और अभी हलवा खाना है? सिदयो से तून मेुझे
मेीनचाया
गुलाम बनाया है और अब भी मैं तेरे कहने में िलूँ?"
भतृवहिर न व े ह आि खर ी क ौ र भ ी त ा ला ब मेिेकिदया।मननदेेखािकमैिकसीवी
एक बार मन आपके आगे हार जाता है तो आपमें सौ गुनी ताकत आ जाती है। आप
मन के आगे हार जाते हो तो मन को सौ गुनी ताकत आ जाती है आपक निाने के िलए।
िजतना धयान और जान का अभयास बढेगा, उनका हम पर पररभाव रहेगा उतना हम मन पर िवजय
पायेगे। िजतना जान और धयान से विंचत रहकर िियाए क ँ र े ग े उ त न ाहीमनपरहमपरिवजेताहोजायेगा।
एक सेठ को मुनीम ने कहाः "सेठजी ! सात सौ मे मेरे पिरवार का पूरा नही होता। मुझे महीन क े ापिंह
सौ चािहए।" अनुकररम
सेठ न के हाः"जा चला जा.... गेट आउट।"
मुनीम ने कहाः "कोई हरकत नहीं। मैं तो गेट आउट हो जाऊँगा लेिकन आप सदा के
िलए गेट आउट हो जायेगे।"
"करया बात है?"
"मुझे पता है। आपने मुझसे जो बिहयाँ िलखवाई हैं और इनरकमटैकरस के िामरर
भरवाये है... तुमन म े ु झ स ेज, ोगलतकामकरवाये
अलग िहसाब रखवाये
है हैं उसकी सब जानकारी मेरे
पास है। अगर आप पनिह सौ तनखवाह नही देते तो कोई हरकत नही। मै चला जाऊँगा इनकमटैिस ऑििसरो केपाश "
सेठजी न क े हाः"तुम भले सौलह सौ ले लो लेिकन रहो यहा।"
मुनीम जानता था सेठ की कमजोरी। ऐसे ही हमारे जीवन में अगर जरञान और धरयान
नहीं है तो मन हमारी कमजोिरयाँ जानता है। हाँ, सेठ को अगर इनकमटैिस किमशर केसाथ सीधा व
गहरा समरबनरध होता, तो वह सेठ मुनीम को लात मार देता। ऐसे ही सब िमिनसटरो केभी िमिनसटर परमातमा केसाथ
सीधा समबनध हो जाय तो मनरपी मुनीम का जयादा पभाव न रहे। जब तक परमातमा केसाथ समबनध न हआ ु हो तब तक तो
मन को िरझाते रहो।, उससे दबे-दबे रहो।
अपनी योगरयता को ऐसी िवकिसत कर लो िक मनरूपी मुनीम जब जैसा िाहे वैसा हमें न
निाए लेिकन हम जैसा िाहें वैसा मुनीम करने लगे।
हम अपने मनरूपी मुनीम के आगे सदा से हारते आए हैं। इसने हम पर ऐसा पररभाव
डाल िदया िक हमें जैसा कहता है वैसा हम करते हैं। करयोंिक पररारमरभ में जरञान था
नहीं।
धरयान और जरञान का पररभाव नहीं है तो हम दुबररल हो जाते हैं, हमारा गुलाम मन-
मुनीम बलवान हो जाता है। िदखते तो हैं बड़े-बडे सेठ, बडे-बडे साहब, बडे-बडे अिधकारी लेिकन
गहराई में गोता मार कर देखें तो हम गुलाम के िसवाय और कुछ नहीं हैं। करयोंिक मनरूपी
गुलाम के कहने में िल रहे हैं।
मन की गुलामी िजतने अंश में मौजूद है उतने अंश में दुःख मौजूद है, पराधीनता
मौजूद है, परतनिता मौजूद है। यह गुलामी कैसे दरू हो ?
गुलामी दूर होती है समझ से और सामथरयरर से। जरञान समझ देता है और धरयान
सामथयव देता है। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

रमण महिषरर के पास कुछ भकरत पहुँिे। िजनकी दृिषरट मातरर से जीव आननरद को पररापरत
होता है, िजसकी मिहमा गाते शासि थकते नही, युदरध के मैदान में
ऐसा कहकर भगवान शररीकृषरण िजस जरञान की शररेषरठता व
पिविता बताते है उस जान को पापत िकये हएु आतमवेता जीवनमुित महापुरष केदशवन करन क े ी क ई िदनोकीइचछापूणव
हुई। सुना था िक बररहरमिनषरठ महापुरुष शररी रमण महिषरर के सािनरनधरय में बैठने मातरर से
हृदय शािनरत व आननरद का अनुभव करता है। आज वह सुअवसर पररापरत हो गया।
भित-मणरडल महिषरर को पररणाम करके बैठा। िकसी ने शररीकृषरण की आराधना की थी तो
िकसी ने अमरबाजी की, िकसी ने रामजी को िरझाने के पररयास िकये थे तो िकसी ने
सूयवनारायण को अघयव िदये थे िकसी न व े र त ि कय े थ े त ो ि कस ी नि े लाहारसेवषविबताएथे।
िकसी ने तीन, चार या पाच देव बदले थे।
जब तक जानवान, आतरमारामी, पबुद महापुरष केचरणो मे जाकर साधना का मागव सुिनिित नही होता तब
तक मनमानी साधना जमती नही। हृदय की गहराई मे आशंका बनी रहती है िक साधना पूणव होगी िक नही, िलदायी बनगेी
िक नहीं। गहराई में यह संदेह िवदरयमान हो तो ऊपर-ऊपर से िकतने ही वररत िनयम करो,
िकतनी ही साधना करो, शरीर को कि दो लेिकन पूणवरपेण लाभ नही होता। अचेतन मन मे सदेह बना ही रहता है।
यही हम लोगों के िलए बड़े में बड़ा िवघरन है।
योगवा ि ष र ठ म शह ा र ा म ा यणमेंआयाहैिक म
जाते है, उसके िितरत में शोक के पररसंग में शोक नहीं होता, हषरर के पररसंग में हषरर नहीं
होता, भय केपसंग मे भयभीत िदखता हआ ु भी भयभीत नही होता , रूदन के पररसंग में रोता हुआ िदखता है
ििर भी नही रोता है, सुख केपसंग मे सुखी िदखता है ििर भी सुखी नही होता।
जो सुखी होता है वह दःुखी भी होता है। िजतना अिधक सुखी होता है उतना अिधक दःुख केआघात सहता है।
मान के दो शबरदों से िजतना अिधक खुश होता है उतना अिधक अपमान के पररसंग में वरयगरर
होता है। धन की पररािपरत से िजतना अिधक हषरर होता है, धन िले जाने से उतना अिधक
शोक होता है। िचत िजतना तुचछ, हलरका और अजरञान से आकररानरत होता है उतना ही छोटी-छोटी
बातो से कोिभत होता है। िचत जब बािधत हो जाता है तब कोिभत होता हआ ु िदखे उसको कोभ सपशव नही कर सकता।
अषरटावकरर मुिन ने राजा जनक को कहाः

।।
"हषरर और दरवेष से रिहत जरञानी संसार के पररित न दरवेष करता है और न आतरमा को
देखने की इिरछा करता है। वह न मरा हुआ है और न जीता है।" अनुकररम
( 83)
जो धीर पुरष है, शम को पापत हएु है, िजनहोन ज , परमातम-दररशन कर
े ी व न क े परमलकयकोिसदकरिलया
िलया, बहा-िवषरण-ु महेश समिनरवत िव शर व के तमाम देवों की मुलाकात कर ली , जो अपन स े वरपमे
पिरिनिित हो गये वे ही कृतकृतय है। शासिो मे उनही को धीर कहा है।
जो कुधा-तृषा, सदी-गमीरर सहन करते हैं उनमें तो धैयरर तो है लेिकन वे तपसरवी
हैं। वे वरयावहािरक धैयररवान हैं। शासरतरर िकनको धैयररवान कहते हैं? अषरटावकरर मुिन
कहते हैं- .... संसार की िकसी भी पिरिसथित मे उिदगन नही होता, उसे
दरवेष नहीं होता। । आतरमा-परमातमा का दशवन करन क े ी, उसे पररापरत करने
की इिरछा नहीं है। संसार की पररािपरत तो नहीं िाहता, इतना ही नही पभु को पापत करन क े ी भीइचछानही
रही। करयोंिक अपना आतरमा ही पररभु के रूप में पररतरयकरष हो गया है। ििर पररापरत करना कहाँ
बाकी रहा? जैसे, मेरे को आसारामजी महाराज के दररशन करने की इिरछा नहीं। अगर मैं
इचछा करँतो मेरी इचछा िलेगी िया ? मैं जानता हूँ िक आसारामजी महाराज कौन हैं।
िजसन अ े पने -आतरमसरवरूप को जान िलया, परमातम-सवरप को जान िलया उसको परमातम-पािपत की इचछा
नहीं रहती।

हषरर और शोक, सुख और दःुख – इन दनदो से ठीक पकार से मुित हो जाता है। वह जीता भी नही और मरता
भी नही। साधारण मनुषय हो जाता है। वह जीता भी नही और मरता भी नही। साधारण मनुषय िदन मे कई बार जीता मरता
रहता है। धीर पुरुष िकसी भी पररसंग से जीता-मरता नहीं और देह के िवसजररन से भी मरता
नहीं।
ऐसे धीर पुरुष के समकरष बैठने से िितरत में उलरलास, शािनत, आननरद का परराकटरय
होता है। महादुरािारी, पापी आदमी पर भी महापुरष की दिृि पडे तो कुछ न कुछ लाभ अवशय होता है। जीवन मे
कुछ पुणरय िकये हों, उपासना आराधना की हो, िकसी के आँसू पोंछे हों, माता-िपता का िदल
शीतल िकया हो तो अिधक लाभ िमलता है।
उन भकरतों के जनरमों के पुणरय ििलत हुए तो वे सतरपुरुष के सािनरनधरय में पहुँि
सके। उनहोन र े म ण महिषवसेपशिकयाः
"सवामी जी ! हमें कैसी साधना करनी िािहए? रामायण सुनते हैं तो भगवान शररीराम
सवेसवा लगते है। भागवत की कथा सुनते है तो 'शीकृषण गोिवनद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव ' यह मंतरर भाता
है।
श िवपुराणसुनते हैं तो'नमः श िवाय' मंतरर परयारा लगता है। कभी कुछ करते हैं कभी
कुछ। अब हम करया करें?"
सब भितो न इ े -अपने परर शर न
सपकारअपने महिषरर के समकरष पररसरतुत िकये। ये परर शर न
केवल उन लोगों का ही नहीं था, हम सबका भी यही परर शर न है। जब तक आतरमबोध नहीं होता
तब तक छोटी-छोटी बातों में िितरत उिदरवगरन हो जाता है। उपासना करने से िितरत थोड़ा शुदरध
होता है, िसथर होता है और आतमबोध से िचत बािधत होता है। शुद बना हआ ु िचत ििर अशुद हो सकता है लेिकन
बािधत िचत शुिद-अ शु िदरध के पार पहुँि जाता है।
रमण महिषरर ऐसी बात बताते हैं जहाँ देव बदलने और िितरत के पतन व उतरथान को
सथान ही न िमले। महिषव न स े ब क े पश स ु े कणभरिनजाननदमेगोतालगाया।ििरबोलेः
न।
"भाई ! तुम िजस देव की उपासना आराधना करते हो वह सब ठीक है। बार-बार अपन क े ो पशकरोिक
उपासना आराधना करने वाला मैं कौन हूँ? सतत अपन आ े प स े य ह प श करो।तुमहाराजोकोईदेवहोग
वह पररसनरन िमलेगा। । देव होकर देव की पूजा करो।"
तुम कौन हो? तुम यिद हाड-मांस के अनथाभाई, छनाभाई होकर पूजा करोगे तो िवशेष लाभ
नहीं होगा। तुम अपने को खोजो तो पता िलेगा िक तुम कैसे िदवरय देह हो। तुमरहारी आतरमा
िकतनी महान है। 'मैं कौन हूँ' यह परर शर न अपने को पूछो और अपने आपको खोजो तो तमाम
पशो केजवाब तुमहे िमलते जायेगे। भीतर से अपन आ े प की स ह -तप ििलत हो
ी पहचानहोगईतोतु महारे
गयेस,बजप
सब
े गेगे।
दान-पुणय साथवक हो गये। ििर तो तुमहारी मीठी िनगाहे िजन पर पडेगी वे भी लाभािनवत होन ल
बात छोटी-सी लगती है लेिकन पचचीस-पचास साल से अलग-अलग उपासना करने से जो
आधरयाितरमक िवकास नहीं होता वह िवकास 'मैं कौन हूँ' की खोज से हो सकता है।अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-

।।
'िनषरकाम भाव से शररेषरठ कमोररं का आिरण करने वाले िजन पुरुषों का पाप नषरट हो
गया है वे राग-दरवेष जिनत दरवनरदव र रूप मोह से मुकरत दृढ़िन शर ियी भकरत मुझको सब पररकार
से भजते है।'
( 7.28)
दरवनरदरव कई पररकार के होते हैं- गृहसरथ जीवन के दरवनरदव र , बहचारी जीवन केदनद ,
वानपररसरथ जीवन के दरवनरदरव, संनयास जीवन केदनद , सवगव मे जाओ तो भी दनद और उपासना मागव मे जाओ तो भी
दरवनरदरव। कोई साधना करने लगेगा तो परर शर न होगा िक ये देव बड़े िक वो देव बड़े ? ये
भगवान बडे? यह साधना बड़ी िक वह साधना बड़ी? ये संत बड़े िक वे संत बड़े?
तमाम पकार केदनद हमारे िचत की शिितयो को िबखेर देते है। लेिकन िजनकेपापो का अनत हो गया है ऐसे भित
िचत की तमाम शिितयो को केिनित करकेभगवान केभजन मे दढ ृ तापूववक लग जाते है। दढ ृ ता से भगवान का भजन करने
वाला भगवनरमय हो जाता है।
भजन मे जब तक दढ ृ ता नही आती तब तक भजन का रस नही आता जब तक भजन का रस नही आता तब तक
भव केरस का आकषवण नही जाता।
मनुषरय की अपेकरषा जीव शा शर वत है। मनुषरय साठ , सतर, असरसी साल तक जीता है जबिक
जीव अननत शरीर बदलता हआ ु जीता है। मनुषय को संसकार देन प े ड ते , िशवसवरप
ह ैिकतू ं मे
जीवनहीहैहै। पारभ
दीकरषा दी जाती है और कहा जाता है िक अब तू बररहरमिारी है, बहचयाशम केधमों का पालन कर।
ििर दसू रे आशम मे पवेश होता है तब अधयारोप िकया जाता है िक तू गृहसथी है। ििर वानपसथी है और आिखर मे परम
पद पान क े ेिलएसंनयास।
पारमभ मे वयावहािरक दिृि से अधयारोप हआ ु िक 'मैं बररहरमिारी हूँ, मैं गृहसरथी हूँ, मैं
वानपररसरथी हूँ।' इन अधयारोपो को हटान क े े ि ल ए संनयसतकाअधयारोपिकयागया।
संनयास मान िेया? सवव संकलपो का तयाग। पैर मे काटा चुभ जाय तो उसे िनकालन क े े िलएदस(सु ई)
ू राकाटा
जान-बूझकर चुभाया जाता है। पैर मे रखन क े े ि ल ए न ह ी अ ि प त ुपहलेकाटेकोिनकालनक े ेिल
पहला िनकल गया तो दस ू रा भी िनकाल िदया जाता है।
ऐसे ही जनरम-जनमातरो केसंसकार -कुसंसरकार धोने के िलए बररहरमियाररशररम के िनयम-
धमरर, गृहसरथ और वानपररसरथ के िनयम धमरर को सरवीकार कराया जाता है। 'मैं बररहरमिारी हूँ।
बहचयव का पालन, साधना, िवदरयाभरयास, वेदशासरतररों का अभरयास और गुरुसेवा करना मेरा पिवतरर
कतरतररवरय है।' ििर, 'मैं गृहसरथी हूँ। धमरर के मुतािबक धनोपाजररन करना, पिविता से जीवन जीना
औ र ज ी न दे े न ा, इतर तीन आशमो का यथाशिित पोषण करना मेरा कतववय है।' ििर, 'मैं वानपररसरथी हूँ।
इिनिय-संयम करकेअब मुझे तपसवी जीवन िबताना चािहए। ' लेिकन 'मैं कौन हूँ?' इसका जान पापत करना हो तो
पहले अधयारोिपत संसकारो को िनमूवल करन क े े ि ल ए स ं नयासधमवकोसवीकारिकयाजाताहै।
संनयास का अथव है तमाम इचछाओं का तयाग। हृदय मे जब मोक की तीवर इचछा जगे तब दस ू री छोटी-मोटी
तमाम इचछाए उ ँ स म ु म ु क ा क ी अि ग नम े स व ाहाहोजातीहै।दस ू रीइचछाओंस
जाती है। जब दस ू री इचछाए भ ँ ल ी प क ा र ह ट ग ई 'मेरा मोकरष हो,
त ो मोककीइचछाकाभीबाधिकयाजाताहै ।तब
परमातमा का दीदार हो' – ऐसी भावना भी आव शर यक नहीं रहती। मोकरषेिरछा िमटते ही पररभु का
साकातकार हो जाता है, बेडा पार हो जाता है।
साधक को यह मागव समझ मे आ जाये, िकसी सिरिे सदगुरु का मागररदररशन िमल जाय तो कायरर
सरल बन जाता है। अनयथा तो बाहर केमंिदर -मिसरजदों में जाते-जाते, बाहर केदेवी -देवताओं को
पूजते-पूजते, संसार-वरयवहार िलाते-चलाते, इिनियो केिवषयो मे भटकते -भटकते, िविवध पररकार के
दरवनरदरवों में उलझते-उलझते एक ही आयुषरय नहीं बिलरक युग के युग बीत गये।
एक शाम को भोजू सोने की सुई से कपड़ा सीने की िेषरटा कर रहा था। नयी-नयी शादी
हुई थी और सोने की सुई दहेज में िमली होगी। सुई की नोक हाथ में िुभी और झटका तो सुई
िगर पड़ी ,खो गई। घर में अनरधेरा हो रहा था। भोजू भागा बाजार में नगरपािलका के िानूस
की रोशनी में धूल के छोटे-छोटे ढेर बनाकर सुई खोजने लगा। रात के आठ बजे.... नौ...
दस र गरयारह बजे। भोजू अपने कायरर में बड़ा वरयसरत था। खाना-पीना भी याद नही। सोन क े ीसुई
जो खोई थी ! रातररी के बारह बजे नाटक देखकर लौटते हुए िमतररों ने देखा तो पूछाः
अनुकररम
"अरे भाई भोजू ! यह सब करया कर रहा है?"
"माि करो। मैं बहुत काम में हूँ।" भोजू न ि े स र ऊ ँ च ािकएिबनाअपनाकामचालूरखा।
"अरे दोसरत ! बता तो सही ! हम कुछ सहाय करें।" िमतरर-मणरडल भोजू के इदरर-िगदरर जमा
हो गया।
"सहाय करना हो तो करो लेिकन मेरे पास समय नही है बाते करन क े ा । बह त "
ु जररीकाममे लगाहँ।

"कौन सा जरूरी काम?" िमतररों की उतरसुकता बढ़ी।
"सोन क े ी स ुईखोगईहै " आिखर। भोजू ने बता ही िदया।
"कहाँ खोई?"
"खोई तो घर में है..."
"तो यहा ियो खोज रहा है?" िमतररों को आ शर ियरर हुआ।
"घर में अनरधेरा है। वहाँ दीया कौन जलाये? यहाँ जलता हुआ िानूस तैयार है।"
भोजू न अ (अ) जान पकािशत िकया।
े पनापगाढ
"अरे पगला ! इस पकार यहा खोजते-खोजते एक रातररी नहीं, पूरा आयुषय िबता देगा तो भी सुई यहा
नहीं िमलेगी। घर में जा, दीया जला और सुई जहाँ खोई है वहीं खोज।"
इस पकार जीव सुबह से शाम तक, जीवन से मौत तक, मृतरयु के बाद नये जनरम में.... इस पकार
युग-युगानरतर तक 'सुखो को पकडे रखना और दःुखो को दरू करना' – इसी दौड मे लगा है।
सुबह से शाम तक हम िया करते है? दुःख को दूर हटाना और सुख को समरभालना। हरेक परराणी
ं यही पवृित करता है। आिखर मे उसे िया हाथ लगता है? सभी भोजू केसाथी ....। सुख कहा है यह
जीवन से मृतयु पयवत
पता नही। सुख खोया है यह तो थोडा-थोड़ापता लगता हैलेिकन कहाँखोजना िािहएइसकी सूझ नहीं। खोया हैघर में
औ र खोजत ा ह ै ब ा ज ा र म े ।
कबीरजी कहते हैं-

।।
सुख को खोजते-खोजते, शािनत को खोजते-खोजते, अमरता को खोजते-खोजते युग बीत
गये ििर भी जीव बेिारा अभागा ही रह गया। हरेक जनरम में बाप िकये, माँ की, पित िकये,
पती की, घरबार बनाये, पिरवारो को िनभाये, करया-करया नहीं िकया बेिारे ने? लेिकन मृतयु का एक ही
झटका और सब िकया कराया िौपट। ििर दूसरे गभरर में उलरटा होकर लटकना, नारकीय
यातनाओं के साथ जनरमना, दुःख भोगते-भोगते जीना। जैसा-जैसा वातावरण िमला वैसे संसकार िचत मे जम
गये। जीव सोिता है िक इतना कर लूँ तो आराम.... बाबाजी हो जाऊँ, ििर आराम....। यह कर लूँ ििर
आराम.... वह कर लूँ ििर आराम...। ऐसा करते-करते जीवन पूरा हो गया। आिखर पूछो िक "पशा
काका ! करया हाल है?"
"अरे काका ! मरने में भी आराम नहीं है।"
िबलकुल सच बात है। मरन म े े भ ी आ रा म न ह ी औ रकरनम? े ेभीआरामनही।तोआरामकहाहै

।।
िजनकेपापो का अनत हआ ु हो , पुणय कमों का उदय हआ ु हो, मोह िविनमुररकरत हुआ हो वह दृढ़ता से
भगवान का भजन कर सकता है। जान केिबना भजन नही हो सकता , जान केिबना पुणय नही हो सकता , साकात् भगवान
भी तुमहारे कनधे से टकराकर चले जाये तो जान केिबना पता नही चलता।
शीमद भ ् ा ग वत म े प स ं ग आत ा है ि क वसुदेवजीनय े जिकया।
औ र कहन ल े ग ेः
"भगवान ! हमारे अहोभागरय िक आप जैसे पररभु पधारे। हे देविषरर ! अब मुझ पर कृपा
करो िक मुझे भगवान के दररशन हो जायें। मेरा कलरयाण हो जाय।"
यह सुनकर नारदजी सिसरमत-वदन होकर कहने लगेः "अरे वसुदेवजी ! ये सब साधू-
संत महातमा लोग आपकेयज केधूए च ँ ा टनआ े ?येहम
हैियालोग यहाँ करयों आये हैं?"
"महाराज ! आपने पधार कर हमें दररशन िदये लेिकन..."
"अरे हम भी भगवान के दररशन करने ही तो यहाँ आये हैं।"
"अिरछा ! कहाँ हैं भगवान?" वसुदेवजी िवसरिुिरत नेतररों से देखने लगे।
"वहाँ देखो..... वह नटखट नागर संतो की जूठी पतरतल उठा रहे हैं।"
"अरे वह तो मेरा कनरहैया है। आप मुझे भगवान के दररशन कराइये।"
भगवान िजनकी गोद मे खेलते है ऐसे वसुदेवजी भी भगवततव का भान न होन स े े य जकराकरनारदजीसे
आशीवाररद माँगते हैं और भगवान को खोजने की, पान क े ी त ैयािरयाकररहेहै।
एक बार मुंबई का कोई सजरजन अमदावाद के आशररम में दररशनाथरर आया। पुसरतकें
पढी होगी, लोगो से सुना होगा तो दशवन करन क े ी इ च छ ा ज ग ी । ह म कहीबाहरगयेथे।वहवापस
हो सके।
कुछ िदन बाद उसे वरयवसाय के िनिमतरत लुिधयाना जाना हुआ। लौटते वकरत सोिा िक
अमदावाद होकर ििर मुंबई जायँगे। वह िदलरली में 'िरजवेररशन कोि' में बैठा।
संयोगवशात् हम भी उसी गाडी से अमदावाद लौट रहे थे। उसी कमपाटवमैनट मे पवेश िकया। उसे पता नही था िक िजन
महाराज के दररशनाथरर अमदावाद आशररम में गया था वे ही महाराज हैं। वह बोलाः अनुकररम
"बाबाजी ! आगे जाओ।"
"हमारी िरजवेररशन िटकट का नंबर 19 है। आपका कौन-सा है?" हमने पूछा।
"अठारह।" वह बोला।
"आप अपनी जगह बैठो, हम हमारी जगह बैठते हैं। आपको कोई हरकत नहीं है न? "
हमने थोड़ा िवनोद िकया।
"अिरछा, बैठो।" मुँह िबगाड़ते हुए वह बोला।
गाड़ी िली। छोटे-मोटे सरटेशन आये और गये। जयपुर आया। अब भी उस सजरजन को
बाबाजी केदशवन नही हएु। िजनकेदशवन करन म े ु ं ब ईसे अ मद ा व ा दगयेथेवेहीउसीकमपाटवम
थेििर भी दररशन नहींहो रहेहैं। करयोंिक जरञाननहींिक यही वेसंतहैं।
गाड़ी अजमेर पहुँिी। वहाँ के भकरतों को हमारे पररवास की खबर िमल िुकी थी। िल-
िूल लेकर भितो का टोला अजमेर केपलेटिामव पर जमा हो गया था। गाडी न स े ट े 'आसारामजी
शनमे पवेशिकयातो
महाराज की जय..... आसारामजी महाराज की जय......' के नाद से सरटेशन गुँजा िदया।
ये सजरजन िखड़की से बाहर झाँकने लगे। 'िजनकेदशवन करन अ े म द ा वादगयाथािकवेही
आसारामजी महाराज अजमेर में पधारे हैं करया? इतन म े े भ ि तो - ू लहारोकेसाथखोजता
काटोलाि
खोजता हमारे कोि के पास आ पहुँिा। दररशन होते ही ििर से जय-जयकार हआ ु । भीतर आकर
लोग पणाम करन ल े गे, िूलहार चढान ल
े गे , बाहरवाले दरू से ही पुषपवृिि करन ल े गे । स भ ीकेचेहरेआननदसेमहकरहे
थे। परलेटिामररपर आननरद-उतरसव होने लगा।
ये सजरजन यह दृ शर य देखकर दंग रह गये। िकसी भकरत से पूछाः
"करया ये ही अमदावादवाले आसारामजी महाराज हैं?"
"हाँ हाँ.... ये ही मोटेरावाले साँईं है।" भित बडे उतसाह से बोला।
सुनकर तुरनत वह सजजन चरणो मे िलपट पडा। गदगद क ् ण ठसेबोलउठाः
"बापू...! बापू....!! मैंने पहिाना नहीं। आपके दररशन के िलए तो मैं आशररम में गया
था । आपकेदररशन नहींहुए। िदलरली सेआपसाथ मेंहैंलेिकन ...."
उस सजरजन को मुलाकात तो िदलरली में हो गई लेिकन दररशन अजमेर में हुए।
यह तो किलरपत पररसंग आपको समझाने के िलए कहा। सतरय बात यह है िक बापूओं के
बापू परबह परमातमा हमारी सीट केऊपर ही बैठे है लेिकन आज तक हमारा अजमेर नही आया। युगो से उनसे हमारी
मुलाकात है, कभी िवयोग समरभव ही नहीं ििर भी आज तक उनके दररशन नहीं हुए। करया
आ शर ियरर है!
अभी पापों का अनरत नहीं हुआ। पूरे पुणरयों का उदय नहीं हुआ। भगवान की भिकरत में
हमारी दृढ़ता नहीं आयी। अनुकररम

।।
वृतररासुर और इनरदरर का युदरध हुआ। वृतररासुर कहता हैः "हे इनरदरर ! अब देर न करो।
मेरा शीघरर हनन करो। करयोंिक जो आया है सो जायगा। अभी मेरा मन शररीहिर के सरनेह में
लगा है। इस समय मुझे मार दोगे तो मै शीहिर को पापत हो जाऊँगा। जब संसार केदनदो मे मेरा मन रहे और उसी अवसथा
में मृतरयु हो जाये तो अवगित होगी। अभी मेरे िलए यह सुअवसर है। मुझे शररीहिर की
दृढ़भिकरत पररापरत हो जायेगी। मेरे इस न शर वर देह को िगरा दो। "
धन-वैभव, साधन-संपदा अजान से सुखद लगते है लेिकन उनमे दनद रहते है। राग-दरवेष, इचछा-वासना
के पीछे जीव का जीवन समापरत हो जाता है। दरवनरदव र ों से मुकरत हुए िबना भगवान की दृढ़
भिित पापत नही होती।
िनदरवररनरदव
र तो वह हो सकती है जो जगत को सरवपरन तुलरय समझता है। िनदरवररनरदरव तो
वह हो सकता है जो बररहरमवेतरता सदगुरु के जरञान को पिा लेता है। िनदरवररनरदरव तो वह हो
सकता है िजसको िशवजी का अनुभव अपना अनुभव बनान क े ी त ी व र ल ग न - ।िशवजीभगवतीपा
लगीहै

।।
वृतररासुर और इनरदरर का युदरध हुआ होगा तब िकतना घमासान मिा होगा, ठोस सतरय भासता
होगा। अब देखो तो सब सरवपरन। रामायणकाल और महाभारतकाल सब सरवपरन। मंथरा का कपट,
कैकेयी का कररूर िन शर ,िय दशरथ का िवरह, अयोधरयावािसयों की करुण िसरथित, सुमनि केआँसू ,
रामजी का वनगमन, शूपवनखा की कामवृित, लकमण की अथक सेवा और आिखर मे राम-रावण का भीषण युदरध।
यह सब िजस समय हुआ होगा तब िकतना ठोस सतरय भासता होगा। अब देखो तो देख सरवपरन।
ऐसे-ऐसे अवतारों की िेषरटाएँ और लीलाएँ काल के अनरतराल में सरवपरन की तरह
सरक गई तो तुमहारी-हमारी िेषरटाओं का मूलरय ही करया है? समय की धारा मे सब कुछ पवािहत हो रहा है।
गंगा के जल में दो बार कोई नहा नहीं सकता।
'मैं दस बार नहा सकता हूँ।' कोई कहे।
नहीं भैया ! िजस पानी मे आपन ग े ो त ा ल ग ा य ा -जब नया गोता
वहपानीतोकहीकाकहीबहगया।जब
लगाओगे तब नया पानी आ जायेगा। इसी पकार समय की धारा है। वैसे का वैसा समय आ सकता है वही का वही समय
वापस नहीं आता। दीपक की लौ जलती है। वही की वही िदखती है लेिकन वही है नहीं। वैसी
की वैसी है िकनरतु हर पल नयी नयी हो रही है।
ऐसे ही हम वही के वही लगते हैं वासरतव में वही के वही हैं नहीं। हमारे शरीर
के कोष हरदम बदल रहे हैं। हमारे िविार बदल रहे हैं, बुिद बदल रही है। हा, हमारा
वासरतिवक ताितरवक सरवरूप वही का वही अपिरवतररनशील है।
तुम िजसको 'मैं' मानते हो उस देह के कोष बदल रहे हैं, मन की वृितरतयाँ बदल रही
हैं, बुिद केिनणवय बदल रहे है , िविार बदल रहे हैं िकनरतु िजसको तुम 'मैं' नहीं मानते वह
आतरमा ही सिमुि तुम हो। उस सिरिी 'मैं' को तुम वासरतव में जान लो तो तुमरहारा बेड़ा पार
हो जाय। ििर तो िजस पर तुमरहारी करुणामय दृिषरट पड़े वह
के मागरर पर िल पड़े।
राग-दरवेष से पररेिरत होकर जो कायरर िकये जाते हैं वे दरवनरदरव और मोह को
बढाते है। ईशर-पीतयथे कायव िकये जाये तो दनदमोह िनमूवल होन ल े ग त े है,।िकसके
तुमियाबोलते
साथहो बोलते
हो उसकी गहराई में तुमरहारा ही अनरतयाररमी आतरमदेव है इस भाव बोलो तो तुमरहारे दरवनरदरव-
मोह कम हो जायेंगे। िालू वरयवहार में भिकरत हो जायेगी, चालू वयवहार मे योग और जान का अभयास
हो जायेगा। अनरतःकरण पिवतरर होने लगेगा। तुमरहारा पररभाव बढ़ने लगेगा ििर भी उसका
अहंकार नहीं आयेगा।
जान का मागव ऐसा है िक अहक ं ार को उतपन ही नही होन द े े । अ ह क ं ारदस ू रेकोदेखकरहोताहै।भय
को देखकर होता है। घृणा दूसरे को देखकर होती है। आसिकरत दूसरे पर होती। जब सबमें
आतरमसरवरूप शररीहिर को िनहारा तो भय िकससे? आसिकरत िकससे? अहंकार िकससे? नरिसंह
मेहता ने िकतना सुंदर गाया हैः

।।
दो संनरयासी युवक यातररा करते-करते िकसी गाँव में पहुँिे। लोगों से पूछाः
"हमें एक राितरर यहाँ रहना है। िकसी पिवतरर पिरवार का घर िदखाओ।" लोगो न ब "वह
े तायािकः
एक िािा का घर है। साधू-महातरमाओं का आदर-सतकार करते है।
पाठ उनका पका हो गया है। वहा आपको ठीक रहेगा।" उनरहोंने उन
सजजन चाचा का पता बताया।
दोनों संनरयासी वहाँ गये। िािा ने पररेम से सतरकार िकया, भोजन कराया और रािि-
िवशरराम के िलए िबछौना िबछा िदया। राितरर को कथा-वातारर के दौरान एक संनरयासी ने
पश िकयाः
"आपने िकतने तीथोररं में सरनान िकया है? िकतनी तीथररयातररा की है? हमने तो
चारो धाम की तीन-तीन बार यािा की है।"
चाचा न के हाः"मैंने एक भी तीथरर का दररशन या सरनान नहीं िकया है। यहीं रहकर
भगवान का भजन करता हँू और आप जैसे भगवद स ् व रप अ ि त ि थ प ध ारतेहैतोसेवाकरनक े ामौक
कहीं भी गया नहीं हूँ।" अनुकररम
दोनों संनरयासी आपस में सोिने लगेः 'ऐसे वरयिकरत का अनरन खाया ! अब यहाँ से
चले जाये तो रािि कहा िबताएँ ? यकायक िले जायें तो उसको दुःख होगा। िलो, कैसे भी करके इस
िविितरर वृदरध के यहाँ राितरर िबता दें। िजसने एक भी तीथरर नहीं िकया उसका अनरन खा िलया
! हाय! ' आिद आिद। इस पररकार िविारते सोने लगे लेिकन नींद कैसे आवे? करवटें
बदलते-बदलते मधयरािि हईु। इतन म े े द ा र से ब ा ह र द े ख ा त ोगौकेग....
ोबरसेलीपेहएुबरामदेमेएक
ििर दसू री आयी..... तीसरी.... चौथी.... पाचवी..... ऐसा करते - करते असंखर य गायें आईं। हरेक गाय
वहाँ आती, बरामदे मे लोटपोट होती और सिेद हो जाती तब अदशृय हो जाती। ऐसी िकतनी ही काली गाये आयी और
सिेद होकर िवदा हो गई। दोनो संनयासी िटी आँखो से देखते ही रहे। दगं रह गये िक यह िया कौतुक हो रहा है !
आिखरी गाय जाने की तैयारी में थी तो उनरहोंने उसे वनरदन करके पूछाः
"हे गौ माता! आप कौन हो और यहाँ कैसे आना हुआ? यहाँ आकर आप शरवेतवणरर हो
जाती हो इसमे िया रहसय है? कृपा करके अपना पिरिय दें।"
गाय बोलने लगीः "हम गायों के रूप में सब तीथरर हैं। लोग हममें 'गंगे हर..
यमुने हर... नमररदे हर....' आिद बोलकर गोता लगाते हैं, हममें अपना पाप धोकर पुणरयातरमा
होकर जाते हैं और हम उनके पापों की कािलमा िमटाने के िलए दरवनरदरवमोह से
िविनमुररकरत आतरमजरञानी, आतरमा-परमातमा मे िवशािनत पाये हएु ऐसे सतपुरष केआँगन मे आकर पिवि हो जाते है।
हमारा काला बदन पुनः शश व
र ेत हो जाता है। तुम लोग िजनको अ ि ि करष तगँवारबूढ़ासमझते
हो वे बुजुगरर तो जहाँ से तमाम िवदरयाएँ िनकलती हैं उस आतरमदेव में िवशररािनरत पाये
हुए आतरमवेतरता संत हैं।"
पढना अचछा है लेिकन पढाई का अह अ ं च छ ा न ह ी । स ं नयासीहोनाअचछालेिकनसंन
सेठ होना ठीक है लेिकन सेठ का अह ठ ं ी क न ही । अ म ल दारहोनाठीकहैलेिकनअमलदारीकाअ
कुछ भी बनो लेिकन सदा याद रखो िक आिखर तब तक? यह सरमरण रहे तो दरवनरदव र और
मोह िपघल जायगा। ििर आतरमरस पररकट होने में सुगमता रहेगी। छोटे बालक को देखा?
लेटा हआ ु आकाश केसाथ कुशती करता है। तोतले शबद भी मधुर लगते है। ियोिक उसकेभीतर केदनद , उसके
अहंकार अभी ठोस नहीं बने। उसके िितरत में अभी 'मैं' औ र 'मेरा' का दरवनरदरव पनपा नहीं।
वह बड़ा होगा, उसके िितरत में जब दरवनरदव र जगेंगे तब उसकी िनदोररषता दूर हो जायेगी,
दोष आ जायेंगे, अहंकार पुषरट होगा। ऋिष कहते हैं-

'िजसका राग, भय और िोध वयतीत हो गया है वह मुिन मोकपरायण है।'
बालयावसथा मे राग, भय और िोध सुषुपत रहते है। उम बढती है तो राग-भय-कररोध भी पुषरट हो जाते
हैं। धरयान, भजन, साधना केदारा जब िववेक जगाया जाता है तब िवकार वयतीत हो जाते है। तब मनुषय मुिन बन जाता
है, मननशील बन जाता है। मनरतररदृषरटा को ऋिष कहा जाता है और आतरमजरञान का मनन
करके सरवरूप में िवशररांित पाते हैं उनको मुिन कहा जाता है। नारदजी ऋिष भी थे और

मुिन भी थे। व ि ष र ठ ज ी म ह ा र ाजऋिषयोंमेंभीिगनेज
िगने जाते हैं। शुकदेवजी महाराज मुिन कहे जाते हैं।
जब तक जीव अपन आ े तमा-परमातमा मे जगता नही तब तक उसका दभ ु ागय चालू ही रहता है। चालू दभ
ु ागय मे
जीव अपन क े 'आहा ! मुतझ
ो भ ा गयवानमानले ाहैिेकनौकरी िमल गई। बड़ा भागरयवान हूँ।' अरे भैया !
तुझे अपन आ ?"
े त म ाकाजानिमलाहै
"नहीं।"
तो पूरा भागयवान नही।
"मुझे अिरछा पिरवार िमला। मैं भागरयवान.....। मुझे अचछा धनधा िमला, अिरछे िमतरर
िमले, अिरछा माहौल िमला.... मैं बहुत भागरयवान हूँ....।"
वासरतव में ये सब अतरयंत तुिरछ िीजें हैं। साथ रहने वाली नहीं है। अिपतु
गुमराह करने वाली संसार की िवपादायें हैं। ऐसा तो हर जनरम में कुछ न कुछ िमलता है
ििर भी जीव अभागे केअभागे ही रहते है।
वासरतव में भागरयवान तो तब जब 'मैं कौन हूँ' इसका भान हो जाये। ििर उस पर नजर डाल दे
वह िमकने लग जाय। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

एक बार एक दिरदरर बरराहरमण के मन में धन पाने की तीवरर कामना हुई। वह सकाम


यजरञों की िविध जानता था िकनरतु धन ही नहीं तो यजरञ कैसे हो? वह धन की पररािपरत के िलए
देवताओं की पूजा और वररत करने लगा। कुछ समय एक देवता की पूजा करता, परनतु उससे कुछ
लाभ नही पडता तो दस ू रे देवता की पूजा करन ल े ग त ा औ र प ह ल े क ोछोडदेता।इसपकारउसेबहत ु
अनरत में उसने सोिाः "िजस देवता की आराधना मनुषय न क े भ ीनकीहो , मैं अब उसी की उपासना
करूँगा। वह देवता अव शर य मुझ पर शीघरर पररसनरन होगा। "
बाहण यह सोच ही रहा था िक उसे आकाश मे कुणडधार नामक मेघ केदेवता का पतयक दशवन हआ
ु । बाहण ने
समझ िलया िक, 'मनुषरय ने कभी इनकी पूजा न की होगी। ये बृहदाकार मेघदेवता देवलोक के
समीप रहते है। वे मुझे अवशय धन देगे। ' बस बडी शदा-भिित से बाहण न उ े स क ु ण ड धारमेघकीपूजापारमभकरद
बाहण की पूजा से पसन होकर कुणडधार देवताओं की सतुित की , करयोंिक वह सरवयं तो जल के
अितिरकरत िकसी को कुछ दे नहीं सकता था। देवताओं की पररेरणा से यकरष-शेि मिणभि उसके
पास आकर बोलेः "कुणरडधार तुम करया िाहते हो?"
कुणरडधारः "यकरषराज ! देवता यिद मुझ पर पररसनरन हैं तो मेरे उपासक इस बरराहरमण
को वे सुखी करें।"
मिणभदररः "तुमहारा भित यह बाहण यिद धन चाहता है तो इसकी इचछा पूणव कर दो। यह िजतना धन मागेगा
वह मैं इसे दे दूँगा।"
कुणरडधारः "यकरषराज ! मैं इस बरराहरमण के िलए धन की परराथररना नहीं करता। मैं
चाहता हँू िक देवताओं की कृपा से यह धमवपरायण हो जाये। इसकी बुिद धमव मे लगे। "
मिणभदररः "अिरछी बात ! अब बरराहरमण की बुिदरध धमरर में ही िसरथत रहेगी।"
उसी समय बरराहरमण ने सरवपरन में देखा िक उसके िारों ओर किन पड़ा हुआ है। यह
देखकर उसके हृदय में वैरागरय उतरपनरन हुआ। वह सोिने लगाः "मैंने इतने देवताओं
की और अनरत में कुणरडधार मेघ की भी धन के िलए आराधना की, िकनरतु इनमें कोई उदार
नहीं िदखता। इस पररकार धन की आशा में ही लगे हुए जीवन वरयतीत करने से करया लाभ? अब
मुझे परलोक की ििनरता करनी िािहए।"
बाहण वहा से वन मे चला गया। उसन अ े ब त प स य ा क रनापारमभिकया।दीघवकालत
के कारण उसे अदभुत िसिदरध पररापरत हुई। वह सरवयं आ शर ियरर करने लगाः'कहाँ तो मैं धन
के िलए देवताओं की पूजा करता था और उसका कोई पिरणाम नहीं होता था और अब मैं
सवय ऐ ं स ा ह ो ग य ा ि कि क स ी !' े ाआशीवाददेदँत
क ो धनीहोनक ू ोवहिनःसदेहधनीहोजायेगा
बाहण का उतसाह बढ गया। तपसया मे उसकी शदा बढ गयी। वह ततपरतापूववक तपसया मे लगा रहा। एक िदन
उसके पास वही कुणरडधार मेघ आया। उसने कहाः
"बाहण ! तपसया केपभाव से आपको िदवय दिृि पापत हो गई है। अब आप धनी पुरषो तथा राजाओं की गित को
देख सकते हैं।"
बाहण न द े े खा ि कध न क े का र णग व व मे आकरलोगनानापकारकेपापक
कुणरडधार बोलाः "भिितपूववक मेरी पूजा करकेआप यिद धन पाते और अनत मे नकव की यातना भोगते तो
मुझसे आपको करया लाभ होता? जीव का लाभ तो कामनाओं का तयाग करकेधमाचरण करन म े े ह ी है।उनहेधमवमे
लगान व े ा ल ा "
हीउनकासचचािहतै षीहै।
बाहण न म े े घ क े प ि त क ृ त ज तापकटकी।कामनाओंकातयागकरकेवहमुितहोगय
जो आपकी कामना बढावे वह आपका िमि व िहतैषी नही। अनत मे नकव मे सडता गलता जीवन िबताना पडे , तुचछ
योिनयों में छटपटाना पड़े ऐसे कामनापूितरर के मागरर में आपको लगानेवाला िमतरर
आपका सिरिा िहतैषी नहीं हो सकता। कुणरडधार की तरह जरञान, वैरागरय, तपसया बढाकर परम पद मे
िसथत करना चाहते है वे ही आपकेसचचे िहतैषी है। अतः ऐसे िहतैषी ऋिषयो की , शासिो की बात को आदर से अपने
जीवन मे उतारकर धनय हो जाओ। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

महाभारत की कथा सुनी मैंनेः


जब भगवान िवषणु न व े ा म न र प स े ब ि ल से प ृ थ वीतथासवगवकाराजयछीनक
में राजरयलकरषरमी के सरवाभािवक दुगुररण गवरर से इनरदरर पुनः उनरमतरत हो उठे। एक िदन वे
बहाजी केपास पहँच ु े और हाथ जोडकर बोलेः
"िपतामह ! अब अपार दानी राजा बिल का कुछ पता नहीं लग रहा है। मैं सवररतरर खोजता
हूँ, पर उनका पता नही िमलता। आप कृपाकर मुझे उनका पता बताइये। "
बहाजी न क े हाः"तुमहारा यह कायव उिचत नही। तथािप िकसी केपूछन प े र झ ू ठाउतरनहीदे , अतएव नाचािहए
मैं तुमरहें बिल का पता बतला देता हूँ। राजा बिल इस समय ऊँट, बैल, गधा या घोड़ा बनकर
िकसी शूनरय, उजाड़ जगह में रहते हैं।"
इनि न इ े सपरपू "यिद
छाः मैं िकसी सरथान पर बिल को पाऊँ तो उनरहें अपने वजरर से मार
डालूँ या नहीं?"
बहाजी न क े हाः"राजा बिल ! अरे... वे कदािप मारने योगरय नहीं हैं। तुमरहें उनके पास
जाकर कुछ िशका गहण करनी चािहए। "
तदननतर इनि बिल की खोज मे िनकल पडे। अनत मे एक खाली घर मे उनहोन ए े क ग ध ादेखाऔरकईलकणो
से उनहोन अ े न ु म ा न ि कयािकयेराजाबिलहै।इनिनक े हाः
"दानवराज ! इस समय तुमन ब े ड ा ि व ि च ि व े श ब नारिखाहै।ियातुमहेअपनीइस
नहीं होता? इस समय, तुमहारे छि, चामर और वैजयनती माला कहा गई? कहाँ गया वह तुमरहारा अपररितहत
दान का महावररत और कहाँ गया तुमरहारा सूयरर, वरुण, कुबेर, अिगरन और जल का रूप?"
े हाः"देवेनरदरर ! इस समय तुम छि, चामर, िसंहासनािद उपकरणो को नही देख सकोगे। पर ििर
बिल न क
कभी मेरे िदन लौटेंगे और तब तुम उनरहें देख सकोगे। तुम जो इस समय अपने ऐशव र यरर
के मद में आकर मेरा उपहास कर रहे हो, यह केवल तुमरहारी तुिरछ बुिदरध का ही पिरिायक
है। मालूम होता है, तुम अपन प े ू व व के ि ! तुमहेथसमझ
द नोकोसवव ाहीभूललेगये परसुरेतु
ना ।चािहए, शमहारे वे
िदन पुनः लौटेंगे।
देवराज ! इस िवश मे कोई वसतु सुिनिित और सुिसथर नही है। काल सबको नि कर डालता है। इस काल
के अदभुत रहसरय को जानकर मैं िकसी के िलए भी शोक नहीं करता। यह काल धनी-िनधररन,
बली-िनबररल, पिणडत-मूखरर, रूपवान-कुरूप, भागयवान-भागयहीन, बालक-युवा-वृदरध, योगी तपसरवी
धमाररतरमा, शूर और बडे से बडे अहक ं ािरयो मे से िकसी को भी नही छोडता। सभी को एक समान गसत कर लेता है।
सबका कलेवा कर जाता है। अनुकररम
ऐसी दशा में महेनरदरर ! मैं करयों सोिूँ? काल के ही कारण मनुषरय को लाभ-हािन और
सुख-दुःख की पररािपरत होती है। काल ही सबको देता है और पुनः छीन भी लेता है। काल के ही
पभाव से सभी कायव िसद होते है। इसिलए वासव ! तुमहारा अहक ं ार, मद तथा पुरुषाथरर का गवरर केवल मोह
मातरर है। ऐशव र योररं की पररािपरत तथा िवनाश िकसी मनुषरय के अधीन नहीं है। मनुषरय की कभी
उनरनित होती है और कभी अवनित। यह संसार का िनयम है। इसमें हषरर-िवषाद नहीं करना
चािहए। न तो सदा-सदा िकसी की उनित ही होती है और न सदा अवनित या पतन ही। समय से ही ऊँचा पद िमलता है
औ र स म य ह ी िग र ा द े त ा ह ै । इस े तु म अ च छ ी त र ह ज ा न त े ह ो िक ए क िद न द े व त ा , िपतृ, गनरधवरर,
मनुषरय, नाग, राकरषस सब मेरे अधीन थे। अिधक करया, "
। " – िजस िदशा मे राजा बिल हो उस िदशा को भी नमसकार !
यों कहकर, मैं िजस िदशा में रहता था उस िदशा को भी लोग नमसरकार करते थे। पर जब मुझ
पर भी काल का आिमण हआ ु , मेरा भी िदन पलटा खा गया और मैं इस दशा में पहुँि गया तब िकस
गरजते और तपते हुए पर काल का िकरर न ििरेगा?
मैं अकेला बारह सूयोररं का तेज रखता था। मैं ही पानी का आकषररण करता और
बरसाता था। मै ही तीनो लोको को पकािशत करता और तपाता था। सब लोको का पालन, संहार, दान, गररहण, बनधन
औ र म ो च न म ै ह ी करत ा था। म ै त ी न ो ल ोको का स व ा म ी था, िकनरतु काल के िेर से इस
समय मेरा वह पभुतव समापत हो गया। िवदानो न क े ा ल क ो द र ु ि त ि मऔरपरमेशरकहाहै।बडेव
कोई मनुषरय काल को लाँघ नहीं सकता। उसी काल के आधीन हम, तुम, सब कोई है।
इनि ! तुमहारी बुिद सचमुच बालको जैसी है। शायद तुमहे पता नही िक अब तक तुमहारे जैसे हजारो इनि हएु और
नषरट हो िुके। यह राजरय, लकमी, सौभागयशी, जो आज तुमहारे पास है, तुमहारी बपौती या खरीदी हईु दासी नही है।
वह तो तुम जैसे हजारों इनरदररों के पास रह िुकी है। वह इसके पूवरर मेरे पास थी। अब
मुझे छोड़कर तुमरहारे पास आयी है और शीघरर ही तुमको भी छोड़कर दूसरे के पास िली
जायेगी। मै इस रहसय को जानकर रतीभर भी दःुखी नही होता। बहत ु -से-कुलीन धमाररतरमा गुणवान राजा
अपने योगरय मिनरतररयों के साथ भी घोर करलेश पाते हुए देखे जाते हैं। साथ ही इसके
िवपरीत मैं नीि कुल में उतरपनरन मूखरर मनुषरयों को िबना िकसी की सहायता से राजा बनते
देखता हूँ। अिरछे लकरषणोंवाली परम सुनरदरी तो अभािगनी और दुःखसागर में डूबती दीख
पडती है और कुलकणा , कुरूपा भागरयवती देखी जाती है। मैं पूछता हूँ, इनि ! इसमे भिवतवयता-काल
यिद कारण नहीं है तो और करया है?
काल के दरवारा होने वाले अनथरर बुिदरध या बल से हटाये नहीं जा सकते। िवदरया,
तपसया, दान और बनरधु-बानधव कोई भी कालगत मनुषय की रका नही कर सकता।
आज तुम मेरे सामने वजरर उठाये खड़े हो। अभी िाहूँ तो एक घूँसा मारकर वजरर
समेत तुमको िगरा दँ।
ू चाहूँ तो इसी समय अनक े भयक ं र रप धारण कर लूँ, िजनको देखते ही तुम डरकर भाग खडे हो
जाओ। परनतु करँिया ? यह समय सह लेने का है, परािम िदखलान क े ा न ह ी ।इसिलएयथेचछगधेकाही
रूप बना कर मैं अधरयातरम-िनरत हो रहा हूँ। शोक करने से दुःख िमटता नहीं, वह तो और
बढता है। इसी से बेखटकेहँू , बहतु िनििनत, इस दरुवसथा मे भी।"
बिल केिवशाल धैयव को देखकर इनि न उ े न क ी बडीपशंसाकीऔरकहाः
"िनःसंदेह तुम बड़े धैयररवान हो जो इस अवसरथा में भी मुझ वजररधारी को देखकर
तिनक भी िवचिलत नही होते। िनिय ही तुम राग-दरवेष से शूनरय और िजतेिनरदररय हो। तुमरहारी
शातिचतता, सववभूतसुहृदता तथा िनवैरता देखकर मै तुम पर पसन हूँ। तुम महापुरष हो। अब मेरा तुमसे कोई देष नही
रहा। तुमरहारा कलरयाण हो। अब तुम मेरी ओर से बेखटके रहो, श िन ि र िनरतऔरिनरोगहोकर
समय की पतीका करो।
यों कहकर देवराज इनरदरर ऐरावत हाथी पर िढ़कर िले गये और बिल पुनः अपने
सवरप-िचनतन मे िसथर हो गये। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ईशर केमागव पर एक बार कदम रख ही िदये है तो चल ही पडना। पीछे न मुडना। िजजासु केहृदय की पुकार
होती है, पके मदों केिदल की आवाज होती है िक जो करना है सो करना है , पाना है सो पाना है। कणठगत पाण आ जाय
तो भी वापस नही मुडना है।
ईशर केमागव पर कदम रखनवेाले वे ही लोग पहँच ु ते है जो दढृ िनियी होते है। परमातमा केमागव पर वे ही वीर चल
पाते है िजनकेअनदर अथाह उतसाह , महानर सहनशिकरत, िविितरर िविारबल होता है। वे ही इस मागरर
के पिथक हो पाते हैं।

।।
ऐसे िनहाल कर देने वाले सदगुरु का सहारा िजन िजजरञासु साधकों को िमल जाता है
वे सिमुि धनरय हैं। सदगुरु की मिहमा अपार है। योगी शर वर देवािधदेव भगवान शंकर
मैया पावररती से कहते हैं-

।।
'अजरञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जनरमों के कमोररं को िनवारनेवाले,
जान और वैरागय को िसद करन व े ा ले श ी ग ुरदेवकेच'रणामृतकापानकरनाचािहए।
( )
देह में अहंता-ममता अजरञान का मूल है। जगत में सतरयबुिदरध करना अजरञान का
मूल है। वृितरतयों की सतरयता मानना अजरञान का मूल है। सुख और दुःख में सतरयबुिदरध करना
अजरञान का मूल है। जीवन और मौत में सतरयबुिदरध करना अजरञान का मूल है। पद और
पितिा मे रस आना अजान का मूल है। जगत की िकसी भी पिरिसथित मे सुख से बध ँ जाना यह अजान की ही मिहमा है।
जनम-जनमानतर तक भटकान व े ा ले, ज बाहर ै िदखान व े ा ले, ज
ोकमवसुहख बाहर
ोकमवसतयता
है िदखानवेाली जो
बुिद है उस बुिद को बदलकर ऋतभ ं रा पजा पैदा कर दे , रागवाली बुिदरध को हटाकर आतरमरितवाली बुिदरध
पैदा कर दे, सरकते हएु संसार से िचत हटाकर शाशत परमातमा केतरि ले चले ऐसे कोई सदगुर िमल जाय तो वे अजान
को हरण कर के, जनम-मरण के बनरधनों को काटकर तुमरहें सरवरूप में सरथािपत कर देते हैं।
अजरञान का मूल करया है? अजरञान का मूल वासना है। जैसे नािवक नाव को ले जाता
है और नाव नािवक को ले जाती है ऐसे अजरञान से वासना पैदा होती है और वासना से
अजरञान बढ़ता है। न शर वर में पररीित बढ़ती रहती है यह अजरञान का लकरषण है। जरञान की
केवल बातों से काम न िलेगा, यंतररवत माला घुमाने से काम न िलेगा, सेठो को राजी रखने
से काम न चलेगा। तुम चाहे िकतन ह े ी म ं ि क र त े र ह ो ल ेिकनबेवकूिीकमहईुयाबढीउसपर
अजरञान घटता है या नहीं यह देखना पड़ेगा। यिद तुम अजरञान में ही मंतरर करते
जाओगे तो मंि का िल तुमहारी वासनापूितव होगा और वासनापूितव हईु तो तुम भोग भोगोगे। भोग से भोग की इचछा नयी हो
जायगी।
तप करन स े े ि ? जप पकरन
यािकव डताहैस े े ि ? िकवपतो
यािकव डताहै
तब पडता है जब कोई सदगुर िमल
जाय। िकव तो तब पडता है जब सदगुर की सीख िदल मे उतर जाय... जनम-मरण के िकरर में डालनेवाले
जो कमव है उन कमों का िनवारण करनवेाला कोई सदगुर िमल जाय... सतय केझलके देनवेाला , सतय केगीत सुनानवेाला
सदगुर िमल जाय.... िजनकेसािनधय से तुमहारे जीवन मे जान और वैरागय िनखर आये , िजनकेउपदेश से तुमहारी बुिद की
मिलनता दूर होकर िववेक-वैरागरय जग जाय !
काश ! वे िदन िकतने सौभागरयशाली रहे होंगे िक जब भतृररहिर पूरा राजरय छोड़कर
चले गये। गोरखनाथ केचरणो मे जा पडे। गोरखनाथ केचरणो मे िगरते समय राजा भतृवहिर को संकोच नही हआ ु ,
लजजा नही आयी, कोई पद और पररितषरठा याद नहीं आये। वे समझते थेः
.... जनम-जनमातर केजो कमव है उनका िनवारण करन क े ासामथयव
यिद िकसी में है तो सदगुरु की करुणाकृपा में है। जनरम-जनमातर की बेवकूिी को दरू करन क े ीयिद
कुंिजयाँ हैं तो संतों के दरवार पर हैं। अनुकररम
रहुगण राजा राजरय से उपराम होकर शांित पाने के िलए जा रहा है। होगी बुिदरध कुछ
पिवि। कई राजा तो मरते दम तक आसिित नही छोडते। रहगुण ऐसा हतभागी नही था। वह भीतर की शािनत खोजने
जा रहा है पालकी मे बैठकर। पालकी उठानवेालो मे से रासते मे एक आदमी बीमार पडा तो जडभरतजी उसकी जगह पर
पालकी ढोन म े े ल ग ा ि द य -चीटा
ेगये। सबमेआिद
अपनआदेे खपकोिनहारनव
ते तब उनको े ालेबचान े े
जडभरतजीचीटी

िलए थोडा सा कूद पडते। राजा का िसर पालकी मे टकराता। इससे राजा उनको डाटता -िटकारता।
बहिनि जडभरतजी को उस अजानी राजा पर करणा हईु। बुद पुरष करणा केभड ं ार होते है। सचची करणा
औ र स च च ी उदा र त ा , सचची समझ और सचचा जान तो जडभरतजी जैसो केपास ही हआ ु करता है। मूखों की नजर मे
वे जड़ जैसे थे लेिकन वासरतव में वे ही िैतनरय पुरुष होते हैं। संसािरयों ने उनका
नाम जड़ रख िदया था, लेिकन वे ऐसे ही जड थे िक हजारो जड लोगो की जडता का नाश करन क े ीकु ंिजया
उनके पास थीं। करया दुभाररगरय रहा होगा लोगों का िक ऐसे भरतजी का सािनरनधरय-लाभ न पा सके।
उन वरयास मुिन को हृदयपूवररक नमसरकार हो िक उनरहोंने जड़भरतजी के जीवन पर थोड़ा-सा
पकाश डाल िदया। वह पकाश आज भी काम आ रहा है।
अजरञान के मूल को हरने वाले, जनमो केकमों को हटानवेाले जडभरत राजा रहगुण को कहते है -
"हे राजनर ! जब तक तू आतमजािनयो केचरणो मे अपन अ े ह , जब तक गजानवानो
कं ोनयोछावरनकरे ा की
चरणरज मे सनान करकसौभागयशाली न बनगा तब तक तेर दःुख न िमटेगे , तेरा शोक न िमटेगा।
े े े

।।
सचची सेवा तो संत पुरष ही करते है। सचचे माता-िपता तो वे संत महातमा गुर लोग ही होते है। हाड-मांस
के माता-िपता तो तुमको कई बार िमले है। तुमन ल े ाखो-लाखो बाप बदले होगे, लाखो-लाखो माए बदली होगी। लाखो-
लाखो कणठी बाधनवेाले गुर बदले होगे, लेिकन जब कोई सदगुर िमलते है तो तुमहे ही बदल देते है।
अजरञान के मूल को हटानेवाले, जनम-मरण के कारणों को और पातकों को भसरमीभूत
करने वाले, जान और वैरागय केअमृत को तुमहारे िदल मे भरन व े ा ल े स त प ुरषोकासतसंगऔरसािन
िकतना अहोभागरय ! ऐसे पुरष ु ों की डाँट भी िमल जाय तो िकतनी सुहावनी होगी ! वे डणरडा
लेकर िपटाई करन ल े ग ज ा ! वेे धुतमािा
ए त ँ ोिकतनम रहोगेवेडमार
णडे दें तो भी उसमें िकतनी करुणा
होगी !
मेरे गुरुदेव ने एक बार मुझे ऐसी जोरों की डाँट िढ़ायी िक सुननेवाले भयभीत हो
गये। मैंने अपने आपको धनरयवाद िदया िक िजन हाथों से हजार-हजार मीठे िल िमले
हैं उनरहीं हाथों से यह खटरटा-मीठा िल िकतना सुंदर है ! िकतनी उदारता के साथ वे
डाँटते हैं ! उस िदन की बात याद आती है तो भाव से तन-मन रोमांिित हो जाते हैं। उस
डाँट में िकतनी करुणा छुपी थी ! िकतना अपनतरव छुपा था !
िकसी संनरयासी जी ने मुझे कहा था िकः " युवक ! तू मेरे पास से िरिद-िसिद सीख ले। मै तुझे
अनुषरठान बताता हूँ। इससे तुझे जो िािहए वे िीजें िमलने लगेगी।" इस पकार केपलोभन देकर
वह अपना कुछ किरा मुझे दे रहा था। गुरुदेव को पता िला। मुझे बुलवाया। िरणों में
िबठाया और पूछाः
"करया बात सुन रहा था?"
मैंने जो कुछ सुना था वह शररीिरणों में सुना िदया। सदगुरु के आगे यिद ईमानदारी
से िदल खोलकर बात न करोगे तो हदृ य मिलन होगा। भीतर ही भीतर बोझा बढाना पडेगा, जाओगे कहा? मैंने पूरा
िदल खोलकर सदगुरु के कदमों में रख िदया। संनरयासी के साथ जो बातिीत हुई थी वह जरयों
की तरयों दुहरा दी। ििर मैं करषणभर मौन हो गया, जाचा िक कोई शबद रह तो नही गया। गुर केसाथ
िव शर वासघात करने का पाप तो नहीं लग रहा ? गुरु से बात छुपाने का दुभाररगरय तो नहीं िमल
रहा? मैंने ठीक से जाँिा। जो कुछ सरमरण आया वह सब कह िदया। ईमानदारी से सारी की
सारी बात कह देन क े े ब ा द भ ी ऐ स ी , बाकी उतसाह,राहाटव
जोरोकीडाटपडीिकमे शदा,िेलिवनहआ
ुशर वास , पेम और
सचचाई सब िेल हो रहा था। सदगुर न ऐ े स ी ड ा ट च ढानक े ेबादसनहेपूणवसवरसेकहाः
"बेटा ! देख।"
आहा ! डाँट भी इतनी तेज और 'बेटा' कहने में परयार भी इतना पूणरर।

शदा, िव शर वास , पेम आिद सब िेल होन क े ा प ू र ा म ौ क ा थ ालेिकनिजनहोनमेायाकीजज ं
है, िजनहोन अ े ज ा न को ि े ल क र ि द य ा ह ै उ नक ? ेचअपनी
रणोमेयिदअपनाअहकं ारिेल
अकरल और ितुराई उनके िरणों में िेल हो जाय तो घाटा करया पड़ा? मेरी सारी बुिदरधमतरता,
सारी वयापारी िवदा, सारी साधना की अकड िेल हो गई। िसर नीचे हो गया , आँखें झुक गईं। उनरहोंने कहाः
"बेटा ! सुन। साधक-िजजासु बाज पकी है। जैसे बाज पकी आकाश को उडान लेता है और िशकारी तीर
चढाकर ताकता रहता है उसे िगरान क े े ि ल ए ।ऐ स े ह ी , अजरञानी
साधकईशरक ेतरिचलताहै
लोग तोभेदवादीलोग
ताकते रहते है तुमहे िगरान क े े ि ल ए। प ि रि सथ ि त याताकतीरहतीहैििरतुमह
बाते भर देते है िक साधक का पतन हो जाये। अजािनयो की बातो को महतव न दो। अनुकररम
बेटा ! मैं तुझे डाँटता हूँ लेिकन भीतर तेरे िलए पररेम के िसवा और कुछ नहीं।
मैंने तेरे को कंिपत कर िदया लेिकन तेरे िलए करुणा के िसवा और कुछ नहीं।"
जनमो की धारणा और मानयताओं को तोडनवेाले, अजरञान के मूल सरवरूप इिरछाओं को हटाने
वाले, बेवकूिी को छीनन वेाले , जान और वैरागय को हृदय मे भरन वेाले, िववेक और शांित की छाया में
रखने वाले उन गुरुजनों के िरणों में कोिट-कोिट पररणाम !
इस जीव की हालत तो ऐसी है जैसे बाढ मे बहता हआ ु कोई कीडा एक भवँर से दस ू रे भवँर मे भटकता जा रहा है।
दयालु पुरुष की नजर पड़े और उसको उठाकर वृकरष की छाया में रख दे। इसी पररकार
बहवेताओं का काम होता है। सिदयो से भटकते हएु जीव संसार की सिरता मे बहे जा रहे है , उनको वे पररेम का
पसाद देकर, पुचकार का सहारा देकर, साधना का इशारा देकर उनहे संसार-सिरता केिकनारे लगा देते है। जनम -मरण
के भँवर से बाहर िनकालने के िलए सहारा दे देते हैं। ये कृपािसनरधु गुरु लोग इस पृथरवी
पर न होते तो लोग संसार मे िबना आग जलते। यिद वे महापुरष इस वसुनधरा पर न होते तो लोग िबना पानी केडू बे रहते
िचनता मे। यिद वे दयालु जानीजन न होते तो मानव मानव का भकण िकये िबना न रहता। यिद जानवानो की अनुकमपा
बार-बार इस पृथवी पर न बरसती तो मनुषय पशु से जयादा भयक ं र कृतय करता।
ये सब उनरहीं सतरपुरुषों की देन है िक आज हजारों-हजारों िदल पररभु के पररेम में
िपघल सकते है। हजारो िदल पाप-ताप का िनवारण करकेपरमातमा केपयार मे बह सकते है। पयारे केदीदार मे वे िबक
सकते है। उनक मुलाकात मे वे िबखर सकते है। चाहे वे जानवान समाज मे पिसद हएु हो चाहे अपिसद रहे हो , लोगो के
बीच रहे हो चाहे न रहे हो, लेिकन उन सदगुरओं की बडी भारी कृपा है जो सत् मे िवचरण करते -कराते हैं, औ र
सदा-सदा कराते ही रहेगे। उन सतपुरषो की तो कृपा है हम लोगो पर। वे ही लोग हम पर अनुकमपा करते है। बाकी के
लोग तो भगवान केनाम पर दक ु ानदारी चलाते है , मत-पथ ं -वाड़े बनाते हैं। सतरपुरुष ही ऐसे होते हैं,
सचचे संत महातमा ही ऐसे होते है जो वासतव मे भगवान केनाम का रस िपला सकते है। वे वासतिवक मे अजान को हटाकर
आतरमजरञान का पररकाश दे सकते हैं। बाकी तो पंथ-वाड़े किबररसरतान हो जाते हैं। जीवन
जीवन नही रहता। जीवन मौत केतरि सरकता जाता है। जानवान पुरषो की कृपा होती है तब जीवन जीवनदाता केरासते
पर चलना शुर करता है।
िजनहोन ज े ा न व ा न पु,रिजनहोन ज े वनिकयाहै
षोकीबातकासे ा नी क े क द मोमे , अपनअ
े हक
ं ारकोिब
िजनहोन ज े ा नी , मानर
क ीबातोमे अय पनअे हक
ताओंं ो को कुबाररन कर िदया है उनको इहलोक और परलोक
में दुःख नहीं रहता। वे सिमुि धनभागी हैं। धनवान धनी नहीं है, सतावान धनी नही है, इचछावान
धनी नहीं है, जो संत और परमातमा का पयारा होता है वही सचचा धनी है।

।।
मौत के समय तुमरहारे रुपये-पैसे िया रका करेगे? मौत के समय तुमरहारे बेटे और बहुएँ
करया रकरषा करेंगी भैया? मौत के समय तुमरहारे बड़े महल करया साथ िलेंगे? मौत के
समय भी सदगुर की दी हईु पसादी तुमहारा साथ करेगी, मौत के समय भी गुरु का जरञान तुमरहारे िदल में
भरेगा तो तुम मौत की भी मौत करकेमोक केतरि चल पडोगे। ये संसकार वयथव नही जाते। सतसंग केये वचन मौकेपर
काम कर जाते हैं। दीया जलता है, औ र ो क े िल ए प क ाश कर ज ात ा ह ै । न िद य ा ब ह त ी ह ै ,
औ र ो क े िल ए प ा न ी द े ज ात ी ह ै । म े घ ब र स त ा ह ै , औ र ो क े िल ए। इस ी प क ा र म ह ा पुर ष
दुिनयाँ में बरस जाते हैं िार िदनों के िलए, उनकी याद रह जाती है, उनके गीत रह
जाते है, उनका जरञान रहा जाता है। उनका शरीर तो िला जाता है लेिकन उनकी सरमृित नहीं
जाती, उनके िलए आदर-पेम नही जाता। उनकेिलए शदा केिूल बरसते ही रहते है।
वे आँखे धनरय हैं िक उनकी याद में बरस पड़े। वे होंठ धनरय हैं िक उनकी याद
में कुछ गुनगुनाये। वह िजहरवा धनरय है िक उनकी याद में कुछ कह पाये। वह शरीर धनरय है
िक उनकी याद में रोमांिित हो पाये। वे िनगाहें धनरय हैं िक उनकी तसरवीरों के तरि
िनहार पायें।
ऐसे पुरष ु ों को हम करया दे सकते हैं िजनको सारी पृथरवी का ऐशरवयरर तुिरछ लगा है,
िजनकी सारी इचछाए औ ँ ? उनँ िहोगईहै
र क ा मनाएन महापुरुषों को हम करया दे सकते हैं? हमारे पास
उनको देने के िलए है ही करया? शरीर रोगी और मरन वेाला, मन कपटी, चीजे िबखरन व े ा ल ी।हमदेभीिया
सकते है? हमारे तो उनके कदमों में हजार-हजार पररणाम हों ! लाखो-लाखो पणाम हो ! करोड़ों-
करोड़ों पररणाम हों ! िजनहोन ह े म ा र ेपीछेअ , िजनहोन े
पनासववसहवलुटािदया म ा र े पीछेअपनीसमािधकातया
िदया, िजनहोन ह े म ा र े प ीछेअ,पनएउने कानतकोनयोछावरकरिदया
पुरुषों को हम दे भी करया सकते हैं?
हम वरयावहािरक बुिदरध के आदमी ! हम सरवाथीरर पुतले ! हम इिनरदररयों के गुलाम ! हम
िवषय-लमपटता की जाल मे घूमन व े ालेम!कडे हम उनको करया दे सकते हैं?
हम उनको परराथररना कर सकते हैं.... हम उनको आँखों के पुषरप दे सकते हैं.... दो
आँसू दे सकते हैं- लो गुरदेव ! ले लो.... ये आँसू ले लो... हमारी पुकार ले लो.... हमें िुप
कराने की िजमरमेदारी भी तुम ही समरभालो ! हे सदगुरु....

पूत कपूत हो सकता है लेिकन माता कब कुमाता हईु ? िपता कब कुिपता हएु ? जब बेविाई की तो बेटे न क े ीहै ,
माँ ने कब ही है?
वे परयारे शूली को सेज बनाकर गये, वे परयारे जहर को अमृत बनाकर गये, वे
पयारे िवरोध को गहन ब , वे परयारे जहर को अमृत बनाकर गये, वे परयारे िवरोध को
े नाकरगये
गहने बनाकर गये, वे परयारे अपमान को िसंगार बनाकर गये, केवल, िजजासुओं की इनतजार मे
िक कोई साधक िमल जाय, श हमें लूटनेवाला कोई िषरय िमल जाय। वे बेवकूिों के आगे भी
अपने आपको लुटाते रहे, कहीं एक परयारा िमल जाय, कहीं एक िजजरञासु िमल जाय, हमें
झेलनेवाला कहीं एक मुमुकरषु िमल जाय। इसी आशा आशा में हजारों पर बरसते रहे, लाखो-
लाखो पर बरसते रहे। िकतन ध े ी र प ुरषरहेह!ोगेअनु
वेसतपु
कर ररम

हमारे सदगुरु हों या और िकसी के सदगुरु हों, वे तो सारे िव शर व के सदगुरु हैं।
लोग उनहे नही जानते तो लोग अनधे है। लोग उनहे नही मानते तो लोग पागल है। वे महापुरष तो सारे बहाणड केहोते है।
ऐसे सदगुरुओं के कदमों में अवतारों के भी िसर झुक जाते हैं, तुमहारे हमारे झुक जाये तो िया
बडी बात है? ॐ.....ॐ....ॐ....
....
गुरु एक दीया है। दीया जल जाता है औरों के िलए, गुरु भी जीवन को खपा लेते हैं
औ र ो क े िल ए।

।।
जो गुर वाणी से दरू है वे खाक धनवान है? जो गुर केवचनो से दरू है वे खाक सतावान है ? जो गुर की सेवा से
िवमुख हैं वे खाक देवता हैं? वे तो भोगों के गुलाम हैं। जो गुरु के विनों से दूर हैं
वे करया खाक अमृत पीते हैं? उनको तो पद-पद पर राग-दरवेष का जहर पीना पड़ता है।
.....
अजरञान के मूल को हरण करने वाले, जनम कमव को िनवारन वेाले, सिदयो केपापो को भसम करने
वाले, अननरत पकड़ों और मानरयताओं को तोड़कर परमातरमा से जोड़ने वाले सदगुरुओं के
िलए वेदवयास कहते है -

।।
गुरु के िरणों का जल, चरणामृत िपये। उनकेआदेश केअनुसार अपन ज े ी व न कोढाले।उनकीचाहमे
अपनी िाह िमला दें। उनकी िनषरठा में अपनी िनषरठा िमला दें। उनकी मसरती में अपनी
हसरती िमटा दें, कलरयाण हो जायगा।
तू िया हसती रखता है भैया? िजनका बडा राजवैभव लहलहा रहा था वे महाराजा भतृवहिर गोरखनाथ केचरणो मे
जा पडेः "हे नाथ !"
गुरु के कदमों में समरराट आज अशररुपात करके, िसर मे खाक डालते हएु, रूखे-सूखे टुकडे
चबाकर भी रहना पसंद करता है, जबिक आज का कहलान व , अहंकारी 'रॉक एणरड रोल' में
े ालाबुिदमान
नािना पसंद करता है, करलबों में जाना पसंद करता है, िसनमेा मे धके खाना पसंद करता है लेिकन
गुरुओं का दरवार उसे भाता नहीं।
हे समझदारों के वेश में नासमझ नादानों ! दुिनयाँ की िीजें तुमरहें करया सुख
देंगी? िसनमेा की पिटया तुमहारा बल और बुिद, तुमहारा तेज और ओज नि कर देगी। यिद जीवन मे बल और बुिद,
तेज और ओज बढाना है तो ऋिष कहते है -
गुरुदेव की कृपा का जल तुम पीते रहो। उसी से नहाते रहो। उसी की समझ में तुम
डूबे रहो। उनके सतरसंग में ही तुम खोये रहो। उनरहीं के गीतों में तुम गुलतान रहो।
अनुकररम
जगत मे तुस सदा से खोते आये हो, सिदयो से तुम नशर चीजो केिलए िमटते आये हो। अब उस परमातमा केिलए
अपने अहं को िमटाकर देखो। यिद िमट भी गये और कुछ नहीं िमला, ठगे भी गये तो घाटा
ही करया है? वैसे भी तुम ठगाते आये हो। कोई पतरनी से ठगा गया, कोई पित से ठगा गया,
कोई बहू से ठगा गया, कोई बेटे से ठगा गया, कोई सतरता से ठगा गया, कोई िोरों से ठगा
गया। आिखर में तो सब मौत से ठगे जानेवाले हैं।
मौत ठगे ले उसके पहले तू गुरु से ठगा जा घाटा भी करया पड़ेगा? अब ठगवाने को
तुमहारे पास बचा भी िया है? युगों से तुम ठगाते आये हो, युगों से तुम हारते आये हो। एक बार
औ र ह ा र स ह ी। ए क ब ा र औ र दा व स ह ी।
,

' .....
ऋिष का सदेश िकतना सुनदर रहा होगा ! िकतनी उदार और करुणापूणरर वाणी पररकट हुई होगी !
शलोक िकसी पामर वयिित का बनाया हआ ं ारी केवचन नही है। ये तो है िकसी पूरे अनुभवी के
ु नही है। ये िकसी अहक
विन। पूरा स ि त र ष र य ह ी शस द ग ु र ु काअमृतपीसकताहै।यह
में ही रह सकता है। छोटे-मोटे पातरर को तो वह िीरकर िला जाता है। ये गुरु के विन
अभागे को शोभा नहीं देते।
शश
योगवा ि ष र ठ म -
हारामायणमेंमहिषरर व िषरठकहतेहैं
"हे रामजी ! जैसे खीर सुवणव केपाि मे शोभा पाती है और शान की खाल मे पिवि खीर भी अपिवि हो जाती
है ऐसे ही मतलबी और सरवाथीरर िषरयोंके आगे बररहरमजरञान शोभा नहीं पाता लेिकन
अहंकार रिहत सतरपातरर िषरयोंके हृदय में गुरु के विन शोभा देते हैं , पिवि िशषयो केिदल मे
ये विन उगते हैं। उगे हुए विनों को जब सींिा जाता है तब उनमें मोकरषरूपी िल लगता
है। उससे वह सरवयं भी तृपरत होता है और दूसरों को भी तृिपरत देता है।"
गुरु के उपदेश का जो सेवन करते हैं, गुरु के कृपाकटाकरष को जो िदल की परयािलयों
से पीते है उनको यहा भी दःुख सपशव नही करता और वहा भी सपशव नही करता। वे यहा भी सुख की घिडया जी लेते है।
उन सौभागरयशश ाली िषरयोंको दुःख से सुख बनाना आता है, सुख मे सुिवधा बनाना आता है और सुिवधा से
सतय केदीदार पाना आता है। ऐसे सितशषय बोलते है िक एक बार कदम रख ही िलया तो ििर िया रकना ? ईशर केरासते
चल िदया तो मुडकर िया आना?

।।
जो सितशषय है, जो सदगुर केकदमो िबखर गया है , िजसन अ े प न ि े दल क ीपयालीसीधीरखीहैऔर
अमृत को पी िलया है वह साधना के मागरर से, भगवान केमागव से लौटकर नही आता। संसारी तूिानो से वह
डरता नहीं। ऐसा कौन सा साधक िसदरध बना है िजसने तूिान और आँधी का मुकाबला न िकया
हो? ऐसे कौन से महापुरुष हैं िजनरहें कुिलने के िलए लोगों ने पररयास न िकये हों? ऐसे
कौन-से संत पुरष है िजनहोन ल े ो ग ोकीबातोकोकु , पैरचतले
लकर दबाकर परमातम-पािपत की यािा न कर िदखायी हो?
वे ही पहुँिे हैं जो रुके नहीं। अनूकूलता में िँसे नहीं और पररितकूलता से डरे
नहीं वे ही तो पहुँिे हैं। बगभगत तो रह गये, थोड़ी-सी उलझन मे उलझ गये लेिकन सतपाि साधक तो
मंिजल तय करके ही रहता है।
औ र कोई मु स ा िि र ह ो त े ह ै त ो पथ स े ल ौटत े र ह त े ह ै ल े िक न सद गुर क े र ा स त े
चला और पथ से लौटा तो सितशषय िकस बात का? अगर लौट भी गया तो जो हजारों यजरञ करने से भी
िमलना किठन है वह सरवगरर और बररहरमलोक का सुख उसे अनायास िमलता है।
शुि अपन ब े ह व े त ा ि प त ा भ ृ गु ऋ ि ष कीसेवामेरहकरसाधनाकररहेथ
में लग जाते, धरयान करते। साधना करते-करते उनकी वृितरत सूकरषरम हुई तो सूकरषरम जगत
में गित होने लगी। अभी परमपद पाया न था। न अजरञानी थे न जरञानी थे। बीि में झूले
खा रहे थे। एक िदन आकाश मागरर से जाती हुई िव शर वािी नामक अपरसरा देखी तो मोिहत हो
गये। अनरतवाहक शरीर से उसके पीछे सरवगरर में गये।
इनि न उ े न ह े द े ख ा त ो ि स ं ह ासनछोडकरसामनआ े ये।स
लगे।
"आज हमारा सरवगरर पिवतरर हुआ िक महिषरर भृगु के पुतरर और सेवक तुम सरवगरर में
आये हो।"
हालाँिक वे गये तो थे िव शर वािी अपरसरा के मोह में ििर भी उनकी की हुई साधना
वरयथरर नहीं गई। इनरदरर भी अघरयररपादरय से उनकी पूजा करते हैं। बररहरमजरञान की इतनी
मिहमा है िक बररहरमजरञानी योगभररषरट सेवक भी सुरपित से पूजा जा रहा है।
आप लोग तीन-चार िदन की धयान योग िशिवरो मे जो आधयाितमक धन कमा लेते हो इतना मूलयवान खजाना
आपने पूरे जीवन में नहीं कमाया होगा। इससे हमारे पूवररजों का भी कलरयाण होता है।
तुमहारी बुिद सवीकार करे या न करे , तुमहे अभी वह पुणय-संचय िदखे या न िदखे लेिकन बात सौ पितशत सतय है। साधक
यिद सब ििनरताओं से मुकरत होकर परमातरमा के जरञान में लग जाये तो वह सरवयं अनपढ़
होते हुए भी पढ़े हुए लोगों को जरञान दे सकता है, िनधररन होते हुए भी धनवानों को दान दे
सकता है, अनजान होते हुए भी जानकारों को नयी जानकारी दे सकता है। उसके पास सारे
जान का खजाना पकट होन ल े ग त े ह ै । ि ब ना प ढ े ह ए ु शासिोकेरहसयउसकेह
चीजे उनकेदारा पकािशत होन ल े ग तीहै।, िविभनिवदा
शाखाए औ ँ र ि व ज ा नकीजानकािरयाउसकेआगेछो
जाती है। जब गुरभित केहदृ य का दार खुल जाता है तो उसकेआगे सारा जहा छोटा हो जाता है। सवगव और ििरशते भी
छोटे हो जाते हैं। अनुकररम
शादी केबाद छः महीन म े े ह ी ए क म ि -सी हो गई। भागयवशात् उसे सचचे
ह लाकापितचलाबसा।मिहलापागल
संत का सतसंग िमल गया। सतसंग मे जान ल े ग ीऔरसं -परमातमा
तगुर केआदेशानुसार घर मे साधन -भजन करन ल े गी।
उसने गुरुकृपा पाकर धरयानयोग में पररगित की। सूकरषरम जगत के परदे हटने लगे।
रहसरयमय लोक में उसकी वृितरत गित करने लगी। धरयान में कई देवी-देवताओं के दररशन
होने लगे। एक बार इनरदररदेव िवमान लेकर पररकट हुए और सरवगरर में िलने के िलए
आमंतररण िदया। गुरुदेव ने मिहला से कह रखा था िक िकसी पररलोभन में मत िँसना। उसने
गुरुजी का सरमरण करते हुए इनरदरर को इनरकार कर िदया।
े हाः"गुरु की बात गुरु के पास रही। तुझे मौका िमला है तो सरवगरर की सैर करके
इनि न क
तो देख !"
दस-पनिह िमनट वातालाप चला होगा। वह मिहला गुर की आजा मे दढ ृ रही।
ये सारे देव-देिवयाँ हैं। उनको देखने के िलए तुमरहारे पास आँखें िािहए।
जैसे, वातावरण में रेिडयो और टी.वी. के 'वेवरज़' हैं ििर भी तुमरहें वे िदखते नहीं, सुनाई
नहीं पड़ते करयोंिक तुमरहारे पास उसको पररकट करने का साधन नहीं है। इसी पररकार देवी
औ र द े व त ा , िकनरनर और गनरधवरर ये सब हैं। उनके साथ तुमरहारा संवाद हो सकता है ऐसे
तुम भी हो। लेिकन इसकेिलए एक सूकम , भावपधान, एकागररवृितरत िािहए, कुछ ऊँिी यातररा िािहए। वह
यातररा अगर हो जाय तो तुम यकरष-गनरधवरर-िकनरनर और देवी देवता के दररशन कर सकते हो,
उनसे वाताररलाप कर सकते हो, उनसे सहाय ले सकते हो, भिवषय की जानकारी पा सकते हो।
लेिकन सदगुर का सितशषय इन चीजो मे उलझाता नही, इनकी इचछा भी नही करता। उनका रासता तो और
िनराला होता है।
अमदावाद से िदलरली जाने के िलए लोकल टररेन में बैठो तो छोटे-मोटे कई
सटेशनो केदशवन होगे। िबना सटेशन केभी गाडी कही -कहीं रुक जायेगी करयोंिक लोकल जो है ! कई
जगंल, नदी, नाले के दृ शर य देखने को िमलेंगे। मेल से जायें तो छोटे -छोटे सरटेशन
देख न पाओगे। गाड़ी धड़ाधड़ आगे बढ़ती जायगी। अगर तुम हवाई जहाज में बैठो तो
बीच केरासते केसटेशनो का अिसततव ही तुमहारे िलए नही है।
चौथा रासता है नादानो का, िजनहोन य े ा ि ा क ी "पालनपु
हीनही।वे र नही है, आबू
लोगिचललाये गेिकःरोड
नहीं है, अजमेर जयपुर नहीं है, िदलरली भी नहीं है। अगर होते तो मुझे िदखते।"
अरे नादान ! न तू लोकल में लटका, न मेल में बैठा, न हवाई जहाज की यातररा की। तू
तो देह मे और नशर भोगो मे उलझा है। मोह माया मे िँसा है। तेरे को बोलन क े ा ह क न ह ी।वयथवपलापकरकेपापबढा
लेता है। अनुकररम
इस पृथवी पर कई नािसतक हएु, कई िकीर हुए, कई संत महापुरुष हुए। िकीरों ने तो संशय की
िाकी कर दी लेिकन नािसतको न स े ा ध न ा की ह ी िा की कर द ी।नधयानक , न ेगावमेगयेनकीतवनकेगावम
सतपुरषो कचरणो मे िमट पाये और अपना जजमैनट देत गये िक कुछ नही है , कुछ नहीं है.... कुछ नहीं है।
े े
ऐसे लोगों को महापुरुष आवाहन देते हैं, अनुभविनषरठ संतपुरुष नािसरतकों को
ललकारते है िकः "तुम बोलते हो 'कुछ नहीं है।' कुछ नहीं है। यह कहने वाला कौन है यह तो बताओ
! 'नहीं' बोलता है तो िकसकी सता से, िकसकी शिकरत से बोलता है रे? "कुछ नहीं है का पररमाण
तेरे पास िया है ?"
'मुझे िदखता नहीं इसिलए कहता हूँ िक कुछ नहीं है। मैं अपनी आँखों से देखूँ तब
मानूँ।"
तािततवक अनुभव आँखो से देखे नही जाते, कानों से सुने नहीं जाते, नाक से सूँघे नहीं
जाते, िजहा से चखे नही जाते, हाथ से छुए नहीं जाते। ििर भी हैं।
नािसरतक कहता हैः

िकीर कहते है- "ऐसे ही तेरे को वह ततरतरव बता दूँ? मेरे पररभु को देखने के िलए
तेरे पास नमता नही है , सरलता नही है, समय नही है तो मेरे पास भी ईशरीय मसती छोडकर तेरे जैसे भूत केपीछे लगन क े ा
समय नही है। बार-बार जनमो और मरो, संसार केभवँरो मे भटको। "
ऐसा मानव-जनम, ऐसी देह, ऐसी बुिदरध.... औ र इस े प त थ र प रख न क े े ि ल ?ए ग ँ व ा र ह े ह ो

श ि षरठ-जीकहतेहैं
'हे रामिनरदररजी ! संसारी लोगो को देखकर मुझे बडा दःुख होता है िक नाहक वे
अपने िदन वरयतीत कर रहे हैं, अपना समय गँवा रहे हैं, न शर वर िीजों के पीछे , न शर वर
भोगो केपीछे। िजसका नाश हो जायेगा उसकेपीछे जीवन दे रहे है और िजसका कभी नाश नही होगा ऐसे शाशत आतमदेव से
िमलने के िलए उनके पास समय नहीं है। िकतने अभागे हैं ! हे रामजी ! ऐसे लोगों को
िधकरकार है। लौिकक िवदरयाएँ तो वे जानते हैं लेिकन आतरमिवदरया से वे वंिित हैं।
गनरधवरर लोग गीतनृतरय तो जानते हैं लेिकन आतरम-मसरती में नािने से वंिित हैं। उन
देवताओं को भी िधकरकार है िक वे सरवगरर का अमृत पीकर अपना पुणरय नषरट कर रहे हैं।
संतो का अमृत पीकर अपन प े ा प ो क ा ?'
नाशकरते तोियाघाटाथा
पाच ही तो इिनिया है तुमहारे पास। इससे पाच िवषय ही जान पाते होः शबद, सपशव, रूप, रस, गनरध। इसके
अलावा जानने का तुमरहारे पास कोई साधन नहीं। हो सकता है िक तुमरहारे पास छठी इिनरदररय
होती तो जगत के छठे िवषय का भी जरञान हो जाता। नाक खराब है तो तुमरहारे िलए सुगनरध
नहीं है। जनरम से आँख नहीं है तो रूप गायब हो गया। कान खराब है तो शबरद गायब है।
जगत मे कुछ जीव ऐसे है िजनकी चार इिनिया होती है , तीन इिनिया होती है। उनकेिलए जगत भी चार िहससे का , तीन
िहसरसे का रह जाता है। तुमरहारे िलए जगत पाँि िहसरसे का है। योगी जब छठी इिनरदररय
जागत कर लेते है तो उनकेिलए जगत छः िहससे मे। इससे भी आगे चलकर कोई अपनी वृित बहाकार कर लेता है तो
उसके िलए जगत अननरत-अननरत िहसरसों में होते हुए भी सब एक से िनकलते हैं और एक
ही एक को देखता, एक ही एक को सुनता है, एक ही एक को िखता है, आिद आिद। ऐसे कोई
अनुभविनषरठ महापुरुष, संत, िकीर िमल जाये। नािसतक भी यिद उनकेपास पहँच ु जाय तो उसको आिसतक बनाने
की कुंिजयाँ वे रखते हैं। हाँ... यिद उनको रहमत आ जाय...!
उस नािसरतक को संत ने कहाः "ऐ मरने वाले ! भगवान केअिसततव पर तुमहे िवशास नही ? तो हमे
भी तेरी बात पर िवशास नही।"
"महाराज ! मेरी बात तो सुनो।''
"तेरी बात सुनन क े ा स मय न ह ी ह ै ।म ै त ो उ निशषयोकीबातसुनताहँूजोिसरझ
समझना चाहते है। तून ि े स , पणाम
रतोझु तो िकये नही। ठूँठ होकर आ गया और बडी बाते बनान ल े गगया।
कायानही "
"महाराज ! यिद पररणाम करने से कुछ हो सकता है तो लो, मैं दणरडवतर पररणाम करता
हूँ।"
उसने िकया दणरडवतर। बाबाजी ने कसकर जोर से एक घूँसा मार िदया।
"बाप रे... मर गया... मर गया...."
"करया हुआ... करया हुआ?"
"बहतु ददव होता है।"
"कहाँ है ददरर? देखूँ जरा।"
"बाबाजी ! आँखों से िदखता नहीं।"
"जरा चख लूँ।"
"बाबाजी ! तुम अजीब आदमी हो ! जीभ से ददव चखा न जायेगा।"
"अिरछा ! मैं कान लगाकर सुन लूँ।"
"महाराज ! यह ददरर आँखों से िदखता नहीं, कान से सुना नहीं जाता, जीभ से चखा नही
जाता, नाक से सूँघा नहीं जाता।"
"तो सपशव करकेजान लूँ , िकतना ददरर है।"
"बाबाजी ! घायल की गित घायल जाने। यह िकसी इिनरदररय का िवषय नहीं है। यह तो
महसूस होता है।"
"अरे भैया ! ऐसे ही बाबा की गित बाबा जाने, अहंकारी करया पहिाने?"
संत की गित तो परमातमा जानते है, थोड़ी-थोड़ीसंतकेसाधक जानतेहोंगे।िजसकेि शम र ेअपनेढंग केहोतेहैं
वे संतों की परीकरषा तो भले करें लेिकन संतों के अनुभव को नहीं समझ पाते। वे
कहेंगेः 'उन संत को देखा, सुना। उनका लेिचर अचछा था' – आिद आिद।
संत कभी लेिचर नही करते। लेिचर तो लेिचरर करते है। संत तो ईशर केसाथ एक होकर बेत हैष संत की
वाणी सतरसंग होती है।संत की वाणी सुनने से िजतने पाप कटते हैं उतने तो िानरदररायण
वररत से भी नहीं कटते। गंगासरनान से िजतना िल होता है उससे कई गुना िल तो संत के
दररशन से होता है। ऐसे कोई संत िमल जाय ! अनुकररम
जडभरत राजा रहगुण को कह रहे है- "हे राजनर ! तुमको शाित तब िमलेगी जब जानवानो की चरणरज मे
सनान करोगे।" गोरखनाथ कह रहे हैं राजा भतृररहिर को, अषरटावकरर कह रहे हैं राजा जनक को,
व ि ष र शठ ज ी क ह र ह े हैं ररीरामको।ऋिषकहरहेहैंहमलोगोंको
,

,
।।
िजनहोन ग े ु र ओ ं स े ज ा न क ी क ु ं ज ी प ा ल ीवेसमझतेहैिकसंसारसारास
रहते हैं और सुख को भी देखते रहते हैं, सवगव और नकव को भी देखते रहते है। वे दि ृ ा, साकी होकर
आतरमा में मसरत रहते हैं ििर 'मैं' औ र 'तू' की कलरपना वहाँ जोर नहीं मारती। अहंता और
ममता वहाँ परेशानी पैदा नहीं करती। वे िनमररल पद में जीते हैं। बाजार से गुजरते
हैं लेिकन खरीददार नहीं होते। सुख-दुःख के बाजार से िनकल तो जाते हैं लेिकन वे
कोई िनराली मसरती में होते हैं। जरञानी भी तुमरहें बाजार में िमल सकता है, युदरध में
िमल सकता है, राजरय में िमल सकता है, लेिकन वह बाजार मे है नही, युदरध में है नहीं, राजरय
में है नहीं। जरञानी तुमरहें घर में िमल सकता है। लेिकन वह घर में है नहीं। तुमरहारी
सभा केबीच िमल सकता है लेिकन वह केवल सभा मे ही नही , अननरत-अननरत बररहरमाणरडों में िैला हुआ
चैतनय है।
जानी की चेतना का बयान, जानी की गिरमा का बयान तो वेद भी नही कर सकते। 'नेित.... नेित....
नेित....।' पृथवी, जल, तेज इन तीन भूतो िजतनी वयापकता? नहीं। वायु और आकाश िजतनी वरयापकता?
नहीं, उससे भी परे। उससे भी परे जो िैतनरय होता है वही तो जरञानी का अपना आपा होता
है।
'हे रामजी ! जब जानवान होता है तब सुख से जीता है, सुख से लेता है, सुख से देता है, सुख से खाता है,
सुख से पीता है। सब चेिा करता हआ ु िदख पडता है लेिकन हदृ य से कुछ नही करता। जब वह शरीर का तयाग कर देता
तो बहा होकर सृिि करता है, िवषरणु होकर पालन करता है, रूदरर होकर संहार करता है, सूयव होकर
तपता है और चाद होकर औषिध पुि करता है। ऐसा जानी का वपु होता है। सच पूछो तो अजानी का भी वही वपु है
लेिकन अजानी अपन क े ो -दुःख के
देहमानकरसु ख पीछे भटकता है। जरञानी अपने को सरवरूप में
डूबा हुआ रखकर कमरर करते हुए भी सुख-दुःख से िनराला रहता है। अखा भगत कहते हैं-

सचची जो शीतलता है, सचची जो शािनत है, सदगुरओं केसंग मे है। अखा भगत मसत आतमजानी संत हो गये। वे
भी िनकले थे सतय को पान क े ेिलए , मागरर में आँधी और तूिान बहुत आये ििर भी वे कहीं रुके
नहीं। सुना है िक वे कई मठ-मंिदरों में गये, महंत-मंडले शर वरों के पास गये। घूमते -
घामते जगनरनाथपुरी में पहुँिे। जगनरनाथजी के दररशन िकये। वहाँ िकसी मठ में गये तो
महंत ने आँख उठाकर देखा तक नहीं। बड़े-बडे सेठो से ही बात करते रहे।
दूसरे िदन अखा भगत िकराये पर कोट, पगडी, मोजड़ी, छड़ी, आिद धारण करके शरीर
को सजाकर महंत के पास गये और पररणाम करके जेब से सुवणरर-मुदररा िनकालकर रख दी।
महंत ने िेले को आवाज लगायी। िेले ने आजरञानुसार मेवा-िमठाई, िलािद लाकर रख िदये।
अखा नये कपड़े लाये थे िकराये पर, उन कोट, पगडी, आिद को कहने लगेः
'खा...खा... खा...।' छड़ी को लडरडू में ठूँसकर बोल रहे हैं- 'ले... खा... खा...।' मठाधीश कहने
लगाः "सेठजी ! यह करया कर रहे हो?"
"महाराजजी ! मैं ठीक कर रहा हूँ। िजसको तुमने िदया उसको िखला रहा हूँ।"
"तुम पागल तो नही हएु हो?"
"पागल तो मै हआ
ु हँू लेिकन परमातमा केिलए , रुपयों के िलए नहीं, मठ-मंिदरों के िलए नहीं।
मैं पागल हुआ हूँ तो अपने परयारे के िलए हुआ हूँ।"
साधना-काल में हम भी घूमते-घामते, भटकते-टकराते हुए कई बार घर लौटे आये।
ििर गये। जब लीलाशाह बापू िमल गये तब िबक गये उनकेचरणो मे। ऐसे पुरष होते है अजान को हरण करन वेाले।
अनरय लोग तो अजरञान को बढ़ानेवाले होते हैं। अखा भगत कह रहे हैं-

।।
औ र ल ो ग ह ै व े सं स ा र का र गं द े त े ह ै , सासािरक रगं मे हमे गहरा डालते है। वैसे ही हम अनधे
हैं और वे हमें कूप में डालते हैं। 'इतना करो तो तुमहे यह िमलेगा... वह िमलेगा। तुमरहारा यश
होगा, कुल की पररितषरठा होगी.... सवगव िमलेगा।' पहले से ही हमारा मन चंचल बनदर, ििर शराब िपला दी, ऊपर
से काटे िबचछू , ििर कहना ही िया? अजुररन गीता में कहते हैं-

।।
'हे शररीकृषरण ! यह मन बड़ा िंिल, पमथन सवभाव वाला, बडा दढ ृ और बलवान है। उसको वश मे
करना मैं वायु को रोकने की भाँित अतरयनरत दुषरकर मानता हूँ।'
( 6.34)
िकसी की धन-दौलत, सुख-वैभव आिद सांसािरक पररलोभन, नषरट हो जाने वाले पदाथरर
देखकर उनकी ओर लालाियत नहीं होना िािहए। अिवनाशी आतरमा को पाने के िलए इिरछाएँ
िमटानी िािहए, न िक भोगों को पाने की इिरछाएँ करनी िािहए। 'ऐसे िदन कब आयेंगे िक
अकृितररम आननरद को पाऊँगा?... न शर वर भोगों की लालसा िमटाकर शा शर वत आतरमा में िसरथर
होऊँगा?.. देह होते हुए भी िवदेही ततरतरव में पररितिषरठत हो जाऊँगा?' इस पकार की परमातम-
पािपत की इचछा जोर पकडेगी तो तुचछ इचछाएँ, न शर वर िीजों की इिरछाएँ , िमटनेवाले संयोगों की
इचछाए ह ँ ट कर अ म ....ॐ....ॐ.....
रआतमामे िसथितहोनल े गेगक
अनु ी।ॐ
ररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

वीरिसंह नामक एक बड़ा तेजसरवी राजा हो गया। वह पररजापालक, नरयायिनषरठ, दीन-


दुःिखयों की सहाय करने वाला और िनरिभमानी था। उसको संसार के और सब सुख थे लेिकन
कोई संतान नहीं थी। संतान-पािपत केिलए इि -उपासनािद कई उपाय िकये मगर आशा पूरी नहीं
हुई।
एक बार सरवपरन में उसने सुना िक महातरमा मधुसूदन सरसरवती नामक संत की सेवा
करेगा तो पुतरर-पािपत होगी। ठीक ही कहा हैः

।।

।।
िजसको जनम-मृतरयु के भय से पलरला छुड़ाना हो उसे संतों के शरण में जाना िािहए।
जो सचमुच अपन द े ः ु ख ो क ो ि म ट ानाचाहेउसेसत ं ोकीसेवापापतकरलेनीचािहए।
राजा वीरिसंह अपने राजरय-कारबार की वरयवसरथा करके राजमहल और राजधानी
छोड़कर कुछ सेवकों-अनुिरों के साथ सिरता के तीर पर तमरबू लगाकर रहने लगा। सरवपरन
के आदेशानुसार महातरमा मधुसूदनदासजी की खोज करने के िलए िारों ओर लोग दौड़ाये।
कई िदनों के पिरशररम के बाद एक मंतररी खुशखबरी लाया िकः
"महाराज ! बधाई हो। हमारा कायव सिल हो गया। िजन महापुरष को खोजन क े े िलएआपनअ े रणयवास
िकया और खोज करवाई उन महातरमा शररी मधुसूदन सरसरवती जी महाराज का पता लग गया है।"
राजा के आननरद का िठकाना न रहा। मंतररी, सैिनको आिद केसाथ संत शी केदशवनाथव िनकल पडे।
उन िदनों में मधुसूदनजी महाराज एक झोपड़ी बनाकर मौन धारण करके, बनद आँख से, आसनसरथ
होकर तपसरया कर रहे थे। अपने शव र ासों को िनहारते हुए आतरम-चैतनय का अनुसंधान कर रहे थे।
अपने बररहरमसरवरूप में िवशररािनरत पाने के िलए कृतिन शर िय थे। िौदह साल तक
अधोररिनरमिलत नयन और मौन।
राजा झोंपड़ी पर पहुँिा। साषरटाँग दंडवतर पररणाम करके बोलाः
"सवामीजी ! मेरे अहोभागरय िक आपके पावन दररशन हुए। अब मुझे सेवा करने का मौका
दीिजए।" राजा ने अपने सरवपरन की पूरी बात बता दी।
मधुसूदन जी ने कुछ जवाब नहीं िदया। आँख उठाकर देखा तक नहीं। करयोंिक साधना
चालू थी। कैसे िनषपाप होगे वे !

भजन मे िकतनी दढ ृ ता है !
राजा ने अपने मंितररयों को आदेश िदया िक, "बाबाजी की कुिटया केइदविगदव एक बहत ु बडा
भवय, िदवरय आलीशान मंिदर खड़ा कर दो। बाबाजी को अपने आसन पर तप शर ियारर में कोई
िदकरकत न होने पावे।"
आदेश देकर राजा िला गया। कुछ ही समय में वहाँ संगमरमर का भवरय मंिदर खड़ा
हो गया। भगवान के िवगररह की परराणपररितषरठा की गईष सेवा-पूजा, आरती-उपासना के िलए
पुजारी रखा गया। अनय तमाम पकार की आवशयक सामिगया लायी गयी। तीन वषव और बीत गये। सिह वषव केबाद
मधुसूदन जी ने आँख खोली तो सामने भगवान की मूितरर के दररशन हुए। आसपास देखा तो भवरय
मंिदर ! पास मे पुजारी हाथ जोडकर खडा है ! पुरानी झोपडी का कोई पता नही। पुजारी से पूछाः
"भाई ! यह सब करया है? मेरी झोंपड़ी कहाँ गई?"
"महाराज ! आज से तीन वषरर पूवरर राजा साहब आये थे। आपके दररशन िकये और
उनके आदेश के अनुसार यह मंिदर बनवाया है।"
"तीन साल पहले....?" सवामी जी को आियव हआु ।
"हाँ महाराज!"
थोड़ीदेरमधुसूदनजी शांतहो गये। आँखबनरद करकेमौन मेंडूब गये। ििर खडे ़ होकर िुपिाप वहाँसेिलिदये
कभी वापस न लौटे।

ऐसे महापुरुष अपने जीवन का मूलरय समझते हैं, अपने एक-एक शरवास की कीमत
जानते है। भवय मंिदर िमल जाये तो िया और भवय महल िमल जाये तो िया? भवय गाडी िमल जाय तो िया और सुंदर लाडी
िमल जाय तो करया? आिखर करया? करषण-भगंुर भोग और रोगो का घर तन। उनकेसंयोग से िमलकर िया िमलेगा ?
घाटा ही घाटा है, अपने साथ धोखा है।
िव शर वािमतरर को मेनका िमली तो करया हुआ ?
लेिकन िजनकेपुणयकमव जोर नही मारते ऐसे हम लोगो केमन छोटी -छोटी िीजों से पररभािवत हो
जाते है। हम सोचते है िक पहले इतना कर ले ििर सतसंग करेगे , धरयान करेंगे। ऐसा करते-करते जीवन
समापत हो जाता है लेिकन काम पूरे नही होते।
अतः अपना मूलरयवान समय तुिरछ वसरतु अथवा िमतररािारी के नैितक भावों से
पभािवत होकर नि न होन प े ा य । प र म ा त म ा क ोपायेिबनाजीवनकहीनिनहोजायइसमे
अनुकररम सा
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
महाराज ययाित ने दीघररकाल तक राजरय िकया था। अनरत में सांसािरक भोगों से
िवरकरत होकर अपने छोटे पुतरर को उनरहोंने राजरय दे िदया और वे सरवयं वन में िले
गये। वन में कनरदमूल खाकर, कररोध को जीत कर, वानपररसरथाशररम की िविध का पालन करते
हुए िपतरों एवं देवताओं को सनरतुषरट करने के िलए तपसरया करने लगे। वे िनतरय
िविधपूवररक अिगरनहोतरर करते थे। जो अितिथ अभरयागत आते उनका आदरपूवररक कनरदमूल िल
से सतकार करते और सवय क ं ट े ह ए ु खे त म े ि ग र े ह - ेदानच
एुअनक े ुनकरतथासवतःवृक
िनवाररह करते थे। इस पररकार पूरे एक सहसरर वषरर तप करने के बाद महाराज ययाित ने
केवल जल पीकर तीस वषरर वरयतीत कर िदये। ििर एक वषरर तक केवल वायु पीकर रहे। उसके
पिात एक वषव तक वे पञचािगन तापते रहे। अनत केछः महीन त े ो व ा य ु के आ ह ारपररहकरएकपैरसेखडेहो
तपसया करते रहे।
इस कठोर तपसया केिल से राजा ययाित सवगव पहँच ु े। वहा देवताओं न उ े न क ा बडाआदरिकया।वेकभी
देवताओं के साथ सरवगरर में रहते और कभी बररहरमलोक िले जाते थे। उनका यह महतरतरव
देवताओं की ईषरयारर का कारण हो गया। ययाित जब कभी देवराज के भवन में पहुँिते, तब
इनि क साथ उनकेिसंहासन पर बैठते थे। देवराज इनि उन परम पुणयातमा को अपन स े े न ी च ाआसननहीदेसकतेथे।
परनतु इनि को बुरा लगता था। इसमे वे अपना अपमान अनुभव करते थे। देवता भी चाहते थे िक िकसी पकार ययाित को
सवगव-भि कर िदया जाय। इनि को भी देवताओं का भाव भी जात हो गया।
एक िदन ययाित इनरदरर-भवन मे देवराज इनि केसाथ एक िसंहासन पर बैठे थे। नाना पकार की बडाई करते
हुए इनरदरर ने कहाः
आप तो महान पुणरयातरमा हैं। आपकी समानता भला, कौन कर सकता है? मेरी यह
जानन क े ी बह त -सा िऐसा
ु इचछाहै कआपनक ौन है, िजसकेपभाव से बहलोक मे जाकर वहा इचछानुसार रह
तप े िकया
लेते है?"
ययाित बड़ाई सुनकर िूल गये और वे इनरदरर की मीठी वाणी के जाल में आ गये। वे
अपनी तपसरया की पररशंसा करने लगे। अनरत में उनरहोंने कहाः "इनि ! देवता, मनुषरय,
गनरधवरर और ऋिष आिद में कोई भी तपसरया में मुझे अपने समान िदखाई नहीं पड़ता।"
बात समापत होते ही देवराज का भाव बदल गया। कठोर सवर मे वे बोलेः "ययाित ! मेरे आसन से उठ
जाओ। तुमन अ े प न म े ,ुखइससे
सेअपनीपशं
तुमहारेससब पुणय नि हो गये, िजनकी तुमन च े च ाकीहै,।देवता
ाकीहै
मनुषरय, गनरधवरर, ऋिष आिद मे िकसन ि े क ,तनातपिकयाहै
यह िबना जाने ही तुमने उनक ितरसरकार
िकया है, इससे अब तुम सवगव से िगरोगे।"
आतरम-पशंसा न य े य ा ि त क े त ी वर तप क े ि लकोनिकरिदया।वेसवगवस
देवराज ने कृपा करके यह सुिवधा उनरहें दे दी थी िक वे सतरपुरुषों की मणरडली में ही
िगरें। अतः वे अषरटक, पतदवन, वसु श मान और ििबनामक िार ऋिषयों के बीि िगरे।
राजा ययाित ने उन महापुरुषों से परराथररना कीः "मुझे पुनः ऐसे न शर वर सरवगाररिद का
सुख नही भोगना है िक जहा से अपन प े ु ण यो क ा व ण व न क र नसे ेहीिगरािदयाजाय।अबमुझ
करनी है जहाँ पहुँिने के बाद िगरने की समरभावना नहीं। अननरत बररहरमाणरडों में अपना
सवरप वयाप रहा है उस अनतयामी परमातमा का मुझे साकातकार हो जाय। हे कृपालु ! मुझे ऐसे बररहरमजरञान का
उपदेश करें, िजसको पाकर ििर कभी पतन नही होता, ऐसे अपिरवतररनशील आतरमदेव का, सतय शीहिर
का बोध हो जाय।"
वे आतरमवेतरता संत पररसनरन हुए और ययाित को भी अिरयु के जरञान का लाभ कराया जो
िक हर परराणी का अपना आपा है और सदा साथ में है। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
कोसल के राजा का नाम िदग-िदगनरत में िैल रहा था। वे दीनों के रकरषक और
िनराधार के आधार थे। जब काशीपित ने उनकी कीितरर सुनी, तब वे जल-भुन गये। उनहोन ब े डीसेनाली
औ र कोस ल प र चढ आ य े । युद म े कोसल न र े श ह ा र ग य े औ र व न म े भ ा ग ग य े । न ग र म े
िकसी ने काशीराज का सरवागत नहीं िकया।
कोसलनरेश की पराजय से वहाँ की पररजा रात-िदन रोने लगी। काशीराज ने देखा िक
पजा उनका सहयोग कर कही पुनः िविोह न कर बैठे, इसिलए शिु केिनःशेष करन क े े ि ल एउनहोनघ े ोषणाकरदीः
"जो कोसलपित को ढूढँ लायगा उसे 100 मोहरें दी जायेंगी।"
िजसन भ े ी , आँख-नकान
यहघोषणासु ी बनरद कर जीभ दबा ली।
इधर कोसलनरेश िटे चीथडो मे जगंलो मे भटक रहे थे। एक िदन एक पिथक उनकेसामन आ े याऔरपूछने
लगाः
"वनवासी ! इस वन का कहा जाकर अनत होता है और कोसलपुर का मागव कौन सा है?"
राजा ने पूछाः "तुमहारे वहा जान क े ?"
ा कारणियाहै
"मैं वरयापारी हूँ। मेरी नौका डूब गई है। अब दरवार-दरवार कहाँ भीख माँगता ििरूँ?
सुना था िक कोसल केराजा बडे उदार है अतएव उनही केदरवाजे जा रहा हूँ। " पिथक बोला।
थोड़ीदेरतक कुछसोिकर राजा नेकहाः "चलो, तुमहे वहा तक पहँचु ा ही आऊँ। तुम बहत
ु दरू से हैरान होकर
आये हो।"
काशीराज की सभा में एक जटाधारी वरयिकरत आया। काशीनरेश ने पूछाः "किहये,
िकसिलए पधारे?"
े हाः"मैं कोसलराज हूँ। तुमने मुझे पकड़कर लाने वाले को सौ
जटाधारी न क
सुवणवमुिाए द ँ े न , मेरे इस।साथी
क े ीघोषणाकरायीहै बस को वह धन दे दो। इसने मुझे पकड़कर
तुमहारे पास उपिसथत िकया है।"
सारी सभा सन रह गयी। पहरी की आँखो मे भी आँसू आ गये। काशीपित सारी बाते जान-सुनकर सतबध रह
गये।
तयाग, धैयरर और परिहत में परायण कोसलनरेश जगत को, भोगपदाथों को तुचछ समझते थे।
बाह केराजय की अपेका भीतर केराजय की उनको जयादा कि थी। बाह शरीर सजान क े ी अ प ेकाउनहोनहेृदयकोतयाग
से, पेम से, िनभररयता से सजा रखा था। उस सुहावने हृदय में परमातरमा अपने पूरे पररभाव से
आसीन थे।
ऐसे पिवतरर हृदयवाले कोसलनरेश का काशीनरेश पर अदभुत पररभाव पड़ा। कुिटलता
औ र ब ाह ब ल की अ प े क ा आ न त िरक ब ल ब हत ु प िव ि , िदवरय होता है। उस िदवरय आधरयाितरमक
पभाव से काशीनरेश का हृदय िपघल गया। भरे कणठ कहाः
"अब मैं बाहरय राजरय नहीं जीतूँगा। महाराज ! जो अहक ं , ायुदरध,
ं ार का िवसतार करान म े ेिहस
छीना-झपटी कराके, दूसरों को नीिा िदखाकर अपने को िकररवतीरर राजा बनाने की दुवाररसना
थी उस दुवाररसनानेमेरेसेअनरयाय करवाया। अब मैंदुवाररसना को जीतनेकेिलएएकानरत अरणरय की शरण लूँगा। आप
मुझे करषमा करें। अहंकार और ईषरयाररवश जो कुछ मेरे से अनुिित हो गया उसमें वह
वासना ही तो कारण है महाराज ! यह वासना िनवृतरत करना ही तो मनुषरय जनरम का लकरषरय है,
यह तुमरहारे पररभाव से अब समझ रहा हूँ। िनवाररसिनक पुरुष को पररारबरध वेग से सब भोग
आकर पररापरत होते हैं ििर भी वह िनलेररप रहता है। ऐसा जीवन पाने की मैं िेषरटा
करूँगा।"
कोसलनरेश का हृदय परयार से, उदारता से, अहोभाव से छलक आया। दोनों की आँखों
से पेमाशु की सिरताए ब ँ , दोनों िदलों में एक ही अलख पुरुष की, एक ही परमे शर वर
हचली।मानो की
परम रसमयी धारा उमडी। धनय घिडया... धनरय करषणें हो गईं।
काशीनरेश ने कोसलनरेश का हाथ पकड़कर िसंहासन पर िबठा िदया और उनके
मसरतक पर मुकुट पहना िदया। सारी सभा धनरय-धनरय बोल उठी। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ


।।
'यह अलौिकक, अित अदभुत ितररगुणमयी मेरी माया बड़ी दुसरतर है, परनतु जो पुरष केवल
मुझको ही िनरनरतर भजते हैं, वे इस माया का उलरलंघन कर जाते हैं, अथाररतर संसार से
तर जाते है।'

।।
'माया के दरवारा िजनका जरञान हरा जा िुका है ऐसे असुर-सवभाव को धारण िकये हएु मनुषयो मे
नीि, दूिषत कमरर करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।'
( 7.14.15)
ये दोनों शरलोक साधक के जीवन में सरपषरटता, सहज सवाभािवक, सुगम और शाशत मागव का
िनदेररश करते हैं।
तीन गुणवाली माया दैवी है। इस माया का तरना पडा दसुतर है। इस माया िक सिरता मे कोई अपन प े ुरषाथवका
तुमबा बाधकर पार होना चाहे और साथ मे पतथर भी बाध ले तो पार नही हो सकता। िेन सागर का नाप लेना चाहे तो वह
संभव नही। वह तरगंो की झपटो मे िछन-िभन हो जाता है। उसको अपना ही पता नही रहता। ऐसे ही अननत-अननरत
बहाणडो मे िैले हएु परबह परमातमा केआगे मनुषय का बाहबुल , मनुषरय की अकरल, मनुषरय का पुरुषाथरर, मनुषरय
का उपाजररन, मनुषरय को जो कुछ सजररन आयोजन है वह शूनरयवत है। जैसे िेन और बुदबुदे
का अपना सरवतनरतरर अिसरततरव न होते हुए भी सरवतंतरर अिसरततरव मानकर वे कुछ बनना िाहे,
कुछ पाना िाहे, सागर को नापना चाहे तो असमभव है। लेिकन वे िेन और बुदबुदे अगर िमट जाये , अपने
आधार, अपने अिधषरठान उस सागर को जाने ले, समिपवत हो जाय तो उनकेिलए सागर को पाना सरल भी
है। सागर के सहारे वे ही नाि रहे हैं। सागर से ही वे उतरपनरन हुए, सागर मे ही जी रहे है और
सागर मे ही िमल जायेगे। लेिकन उस सागर से अपनी अलग सता मानकर कुछ बनना चाहता है , कुछ पाना िाहता,
कुछ जानना िाहता और अपनी अकरल-श हो ि य ा , अपने बाहूिदर
रीपरअपनीबु बध
लपरपर वह
बुलबुला अगर सागर को पाना चाहे, मापना िाहे तो असमरभव है। हाँ, बुलबुला माप नही सकता, सागर को पा
नहीं सकता लेिकन सागर में िमट सकता है, िमटकर सागर हो सकता है। सि पूछो तो उसे
िमटने की भी आव शर यकता , वह अभी भी िमटा हुआ है। करयोंिक उसकी अपनी सरवतंतरर
नहीं
सता नही, सागर की सता ही उसकी सता है, सागर का होना ही उसका होना है। पानी का होना ही बुदबुदे का होना है।
ऐसा जो समझ लेता है िक मेरे अनरतःकरण रूपी बुदबुदे का होना है। ऐसा जो समझ लेता है
िक मेरे अनरतःकरणरूपी बुदबुदे में तमाम िविार उठते हैं, िजस समय जैसे-जैसे गुण आते है वैसे -
वैसे संकलरप-िवकलरप होते हैं लेिकन अनरतःकरण को सतरता-सिूितव देन व े ा ल ामेरापरमातमाहै।मै
उसी की शरण हूँ। मेरा वही आधार है। इस पररकार जो अनरतयाररमी परमातरमा की शरण सरवीकार
कर लेता है, अननरत की सरमृित कर लेता है उसके िलए संसार-सागर तरना इतना आसान है िजतना
गोपद लाँघ जाना आसान होता है। मगर जो अपनी मानरयता, अपने मन-बुिद-अनरतःकरण के बल
से संसार-सागर तरना चाहे तो उसकेिलए संसार -सागर अित िवकट हो जाता है। चोर को अगर तीनो काल का जान हो
सकता हो, िहरन
श यिद िकारीकी गरदन मरोड़ सकता हो, अपराधी व पापी आदमी यिद सतरय-संकलप
बन सकता हो, मछली अगर बँसी को िनगल सकती हो तो ऐसा आदमी संसार-सागर तर सकता है। अथात्
ऐसे आदमी के िलए संसार-सागर तरना दसुतर है।

कई लोग आसुरी भाव के आ ि र र त ह ो क रभगवानकासरमरणनहींकरत
समरण करते है लेिकन उनमे वासनाए भ ँ र ी है।कईलोगसमरण -धरयान-भजन करते है तो अपन क े ो कतामानकरकुछ
िवशेष बनने की आकांकरषा में लगे हैं। ये सब करने वाले भी परमातरमा को नहीं पा
सकते और न करनवेाले भी नही पा सकते। ियोिक माया का ऐसा जाल है िक करन व े ा ले ि क सकीसतासेिकयाजा
है उसको नहीं समझ रहा है। जो सारभूत है, जो सबको सता-सिूितव देकर नाच नचा रहा है उसको नही
जानता और अपनी वजूदी, अपनी हसरती बीि में अड़ा देता है।
वासरतव में देखा जाये तो पुणरय करने वाले हम कौन होते हैं? परमातमा पुणय करवा रहा
है। दान करने वाले हम कौन होते हैं? वह करवा रहा है। हम सेवा, जप करन व े ा ले?कौनहोतेहै
हमारा तो अपना कुछ है ही नहीं।
एक लड़के ने माँ को कहाः "माँ ! तेरा ऋण चुकान क े -मन-धन से सेवा करूँ।
ेिलएतन
मेरे हृदय में तो आता है िक माँ, मेरी िमड़ी से तेरे िरणों की मोजड़ी बनवा दूँ।"
सुनकर मा हस ँ पडीः "बेटा ! ठीक है। तेरी भावना है, मेरी सेवा हो गई। बस मैं संतुषरट
हूँ।"
"माँ तू हँसी करयों?"
"बेटा ! तू कहता है िक मेरी चमडी से तेरी मोजडी बनवा दँ।
ू लेिकन यह चमडा तू कहा से लाया? यह िमड़ा
भी तो मा का िदया हआ ु है।"
ऐसे ही यिद हम कहें िकः 'हे पररभु ! तेरे िलए मै पाणो का तयाग कर सकता हूँ , तेरे िलए घर-बार छोड
सकता हूँ, तेरे िलए पती-पिरवार छोड सकता हूँ, तेरे िलए संसार छोड सकता हूँ ....।' लेिकन घर-बार, संसार-पिरवार लाये
कहाँ से? उसी पररभु का ही तो था। तुमने छोड़ा करया? तुमन क े े व ल उसकोआदरदेतेहएुअपना
अनरतःकरण पिवतरर िकया, वरना तुमरहारा तो कुछ था ही नहीं। जैसे बेटे का अपना िमड़ा है
ही नहीं, माँ का िदया हुआ है वैसे ही जीव का अपना कुछ है ही नहीं। सब कुछ ई शर वर का ही
है। लेिकन जीव मान लेता है िक, 'यह मेरा है... भगवान ! तुझे देता हँू। मैन इ , उतना
े तनािकया
िकया... अब तू कृपा कर।'
कुछ न करने वालों की अपेकरषा ऐसे भकरत भी ठीक हैं लेिकन शररीकृषरण कहते हैं
िक वे भी माया में ही हैं। । यह गुणों वाली माया
बडी दसुतर है। इसको तरना किठन है। अनुकररम
'माया दुसरतर है, किठन है...' ऐसा कहने से कोई साधक उतरसाहहीन न हो जाये इसिलए
भगवान न आ े ग े त ु रनतरासताभीबतािदयािकः । जो मेरी शरण आता है
वह माया को तर जाता है।' भगवान केशरणागत भित केिलए माया तर जाना आसान भी है।
भगवान केशरण होन क े ? करया हम 'कृषरण.... कृषरण करें? करलीं कृषरणाय नमः...
ा मतलबियाहै
करलीं कृषरणाय नमः....' करें? नहीं। भगवान ऐसा नहीं कह रहे हैं। वे कहते हैं िक 'मेरे
शरण।' कई लोग 'कृषरण... कृषरण....' जप करते है। लेिकन जररी नही िक वे शीकृषण केशरण है ही। कई लोग िशवजी
का जप करते हैं िकनरतु जरूरी नहीं िक वे िवजीके शरण हैं ही।
भगवान का जप करते है लेिकन िल िया पाना चाहते है ? संसार। तो वे संसार केशरण है। माला घुमा रहे है
नौकरी के िलए, जप कर रहे है शादी केिलए , धरयान-भजन-समरण कर रहे है नशर चीजो केिलए , न शर वर
कीितरर के िलए। तो हम भगवान के शरण नहीं हैं, न शर वर के शरण हैं। अगर हमारा जप -
धरयान-अनुषरठान पद-पितिा पान क े , वरयिकरततरव के शृंगार के िलए है तो हम भगवान के
ेिलएहै
शरण नही है, शरीर केशरण है। 'हमें कोई महंत कह दे, हम ऐसा िजयें िक हमारे महंतपद का
पभाव पडे, हम संत होकर िजयें, साई होकर िजये, लोगो पर पभाव छोड जाये, हम सेठ होकर िजयें,
साहूकार होकर िजये' – इस पकार की वासना भीतर है और हम भगवान की सेवा-पूजा-उपासना-आराधना करते
हैं तो हम भगवान के शरण नहीं हैं। भगवान को अपनी इिरछापूितरर का साधन बना िदया। हम
शरण है माया के।
हम अनुषरठान कर रहे हैं तो जाँिो िक िकसिलए कर रहे हैं? तनदरसती केिलए कर रहे है ?
यश के िलए कर रहे हैं? सवगव-पािपत केिलए कर रहे है ? अथवा ई शर -वर पािपत केिलए कर रहे है ? अगर
हमारे कमोररं में ई शर -वर पािपत मुखय है तो हम परमातमा केशरण है। लकय अगर ईशर -पािपत नही है तो हम मंिदर
में होते हुए भी रुपयों के शरण हैं, पती केशरण है , बचचो केशरण है , सता केशरण है , सुख केशरण है।
भगवान कहते है िक जो मेरी शरण आ जाता है वह माया को तर जाता है। भगवान केशरण जान व े ालावयिित
इतना महान् हो जाता है, ऐसा शा शर वत आननरद पररापरत कर लेता है िक ििर उसको न शर वर पदाथोररं
की आसिकरतयों के शरण होने का दुभाररगरय नहीं िमलता है।
ईशर केशरण होन स े े ई श र ह म े प र ा ध ी न न ह ी बनारहेहै।ईशरहमेईशरब
जगा रहे है।
ईशर का समरण बडा िहतावह है। समृित एक ऐसी चीज है , समरण एक ऐसा अदभुत खजाना है िक वह परम
कलरयाण के दरवार खोल देता है। नदी बह रही है सागर की ओर। उसमें से नहर िनकालो तो
उसके दरवारा नदी का पानी जहाँ िाहो वहाँ ले जा सकते हो। ऐसे ही अनरतःकरण से अननरत-
अननरत वृितरतयाँ उठ रही हैं। इन वृितरतयोंरूपी सिरताओं में बहकर हम संसाररूपी सागर
में िगर रहे हैं। ई शर वर का सरमरण करने का मतलब यह है िक हमने ई शर वर की ओर
वृितरतरूपी जल को ले जाने के िलए एक नहर खोल ली। एक आयोजन कर िलया िक नदी का पानी
खारे सागर में न जाय बिलरक खेतों में जाय। ऐसे ही वृितरतयाँ जनरम-मरण के संसार-सागर
में नषरट न हो, जीवन बरबाद न हो और आतमजान केउदान मे उसका ठीक उपयोग हो। ईशर -समरण का मतलब है
िक हमारा मन इधर-उधर की कलरपनाओं में न जाय, संसार की वासनाओं मे न जाय, अनेक पररकार
के खरयालों में हमारा मन न िबखरे, िभन-िभन पकार की आवशयकताओं मे न उलझे। लेिकन हमारा मन
जहा से पकट हआ ु है उसी परमातमा मे पहँच ु े।
जो ईशर का समरण नही करते है वे िया िबना समरण बैठे है ? काषरठ मौन में या समािध में िटक
हैं? नहीं। उनको संसार का सरमरण आता है। जो हिर का सरमरण नहीं करते, परमातमा का समरण
नहीं करते वे संसार सागर में बुरी तरह डूबते-उतरते रहते हैं, बडी-बडी तरगंो की थपपडे
खाते रहते हैं।
परमातमा का बिढया समरण वह है िक िजस चीज पर मन जाय, िजस कमव मे हम हो, िजस बात मे लगे हो, िजस
देश में हों, िजस रगं मे हो, िजस रप मे हो, िजस जात मे हो, िजस नात मे हो, िजस वयवहार मे हो, उस समय उन
सबका जो आधार है उस परमातमा की समृित बनी रहे। नजर िूल पर गई तोः 'आहा ! िकतना सुहावना सुगिनरधत
गुलाब का िूल है ! उसका पररागटरय सरथान परमातरमा है। िूलों में सतरता परमातरमा की है।'
नजर पड़ी िकसी िमतरर पर, िमतरर की नजर मुझ पर पड़ी तोः 'दोनों िमतररों की आँखों में
बैठकर एक ही मेरा पभु झाक रहा है। वही सब िमिो का िमि है। वाह वाह पभु !'
नज़र पड़ी िकसी मोटरगाड़ी परः 'हाय ! मुझे ऐसी गाड़ी िमल जाय !' ना, ना। सरमृित आ
जाय िकः 'वाह पररभु ! करया तेरी लीला है ! गाड़ी बनाने वालों में तेरी सतरता, गाड़ी घुमाने
वालों में तेरी सतरता, गाड़ी देखने में इस अनरतःकरण को भी तेरी ही सतरता िला रही है।
वाह पररभु !'
यह परमातरमा का सरमरण अदभुत होगा। कभी माला नहीं घुमायी और ऐसे ही सरमरण हो
जाय िकः 'तू सवव है..... सबमे है.... मु
श झमें भी तू ही है। िवोऽहमर.... सिचचदाननदोऽहम्... अजरोऽहमर....
साधकोऽहम्.... िशषयोऽहम्... धनी अहं... िनधनोररऽहमर.. मूखोररऽहमर... िवदरवानोऽहमर....।' अनुकररम
'जो कोई िदखे वह मै ही अथवा उसमे मेरा ही परमातमा बैठा है। मूखवता और िवदता उसकेअनतःकरण केभाव है ,
अनरतःकरण की योगरयता अयोगरयता है लेिकन सतरता तो मेरे परमातरमा की है।' ऐसा जो
समरण है वह अननय समरण है। िजसको ऐसा अननय समरण आ जाय उसकेिलए संसार तरना बाये हाथ का खेल है। अगर
अननरय सरमरण नहीं आता तो िकसी मंतरर का सरमरण ठीक है। मंतरर का सरमरण करते-करते
देखे िक हमारी वृितरतयों की गहराई में लकरषरय परमातरमा है िक संसार है। िजतना-िजतना
समृित मे संसार पडा है उतना उसको िनकालते जाये। अगर नही िनकल पाता है तो पाथवना करे िकः 'हे पररभु ! सब तेरी
माया है। मैं सतरतरवगुण में न उलझ जाऊँ, रजोगुण-तमोगुण मे न उलझ जाऊँमेरे नाथ ! मैं कमाने
औ र खा न म े े अ प न ा ज ी व न न ि न क रदँ। ू रपय ो कीर ा िशब
कर दूँ। मेरी सरमृित सिरता आपकी ओर िनरनरतर बहती रहे।'
कई लोग भगवान का सरमरण करते हैं लेिकन रुपये कमाने के िलए। रूपये कमाते
हैं वह तो ठीक है लेिकन संगररह करने में लगे हैं, संगह की रािश बढान म े े ल गेहै।यहपरमातमा
का सरमरण नहीं है, रूपयों का सरमरण है। ऐसे लोग माया में मोिहत हो गये हैं, संसार मे
भटकते है, जनमते और मरते है।
कई लोग भगवान का भजन करते हैं शारीिरक सुिवधा-अनुकूलता पाने के िलए।
एक घुड़सवार जा रहा था। रहा होगा वेदानरती, रहा श होगा सदगुरु का िषरय।रासरते हाथ
से चाबुकर िगर पडा। कई यािी पैदल चल रहे थे। िकसी को न बोलकर सवय र ं का, घोड़े से नीिे उतरा।
िगरा हुआ िाबुक उठाया। िकसी सजरजन ने पूछाः "भाई ! तुमन प े ि र श म िकया।हमकोिकसीकोब
कोई न कोई िाबुक उठा देता। थोड़ी सेवा कर लेता।"
सवार कहता है िकः "जगत मे आकर मनुषय को िकसी की सेवा करनी चािहए। सेवा लेनी नही चािहए। दस ू रो की
सेवा ले तब जब बदले मे अिधक सेवा करन क े "
ीकमताहो।
सेवा लेन क े ी र ि च ,भिितमागव
साधना से गरादेदेततीहैी है। छोटी-छोटी सेवा लेते-लेते बडी
सेििगरा
सेवा लेन क े ी आ द त ब न ज ा त ीहै।-मेपूरजेबादले करकले , मेरे बदले वकोई
ोईनौकरभगवानकीसे ा पिणरडत-
बाहण जपानुिान कर ले ऐसी वृित बन जाती है। जीवन मे आलसय आ जाता है।
घुड़सवार कहता हैः "भैया ! मैं तुमरहारी सेवा अभी तो ले लूँ लेिकन ििर कौन जाने
िमलें न िमलें। आपका पररतरयुपकार करने का मौका िमले न िमले। ििर कब ऋण िुका सकूँ?
जनम हआ ु है सेवा करन क े ेिलए , शरीर का सदपुयोग करन क े े ि ल ए । ज ै सेदीयातेलऔरबातीजलाकर
िलए रोशनी करता है ऐसे ही आदमी को चािहए िक वह अपनी शिित और समय का सदपुयोग करकेिवश मे उजाला करे।
ऐसा नहीं िक दूसरे के दीये पर ताकता रहे। आप मेरी सेवा तो कर लेते लेिकन मेरे को
आपकी सेवा का मौका कब िमलता? मेरे पर आपका ऋण करया?" अनुकररम
"इतनी जरा-सी सेवा मे ऋण िया?"
"जरा-जरा से आदमी बडी सेवा पर आ जाता है। छोटी-छोटी गलितयों से आदमी बड़ी गलती पर
चला जाता है।"
गाििल साधक मन ही मन समाधान कर लेता है िक िकसी वरयिकरत से थोड़ी बातिीत कर
ली तो िया हआु ? थोड़ीसी गपशप लगा ली तो करया हुआ? ऐसे करते-करते वह पूरा जीवन बरबाद कर देता
है। माया में ही उलझा रह जाता है। माया बड़ी दुसरतर है।
माया को तर जाना अगर आदमी के हाथ की बात होती तो शासरतरर आजरञा नहीं देते िक
संतो का संग करो। सचचे संत और गुरजनो का सवभाव होता है िक कैसे भी करकेसाधको को माया से पार होन म े ेसहाय
करना। इसिलए तो आव शर यकता आने पर कररोध भी िदखा देते हैं , डाँटते-िटकारते भी है। वे
िकसी के दु शर मन थोड़े ही हैं ? वे जब डाँटते हैं तो तुम तकरर करके अपना बिाव मत करो।
अपनी गलती खोजो, अपनी बेवकूिी को ढूँढो। साधक-सािधका बन जाना किठन नही है लेिकन अपनी िनम
आदतें बदल देना, बनधनो को काटकर मुित हो जाना, ििगुणमयी माया को तर जाना बडे पुरषाथव का काम है।
सबसे बडा पुरषाथव यह है िक हम समपूणवतया परमातमा केशरण हो जाये। उनकी समृित इतनी बनी रहे िक संसार की
आसिकरत छूट जाय। संसार का मोह न रहे, आकषररण न रहे।

।।
कहीं ऐसा न हो जाय इसिलए सावधान रहना। जीवन का अिनरतम शरवास आ जाय, जीवन की
हड़ताल होने लगे तब कहीं प शर िाताप हाथ न लगे। इसिलए अभी से ही मोकरष का सौदा कर
लो। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जैसे डॉिटरी पास करन क े े ब ा द भ ीबडेड,ॉिटरक सीखना जररी होता है, वकालत
ेसाथरहना
देखना,
पास करन प े र भ ी वकीलक-सीखना जररी होता है, वैसे ही ई शर वर
ेपासरहना से िमलने के िलए ,
अनजाने रासरते पर िलने के िलए िकसी जानकार की सहायता लेना आव शर यक है।
ईशर एक ऐसी वसतु है, सतय एक ऐसी वसतु है िजसको आप आँख से देख भी सकते है , नाक से सूँघ भी
सकते है और िजसे जीभ से चखकर भी जान सकते है। परत ं ु जो इिनियो का िवषय भी नही है , जो आपकी सभी इिनियो
को संिािलत करने वाला है, वह अनरतयाररमी आपका आतरमा ही है। िकसी भी इिनरदररय की ऐसी
गित नहीं है िक वह उलरटा होकर आपको देखे। उसके िलए पररमाण होता है वाकरय। गुरु जो
हैं वे-

।।
गुरु हमारी छठी इनरदररी का दरवाजा खोल देते हैं, हमें बाहर की िीजों को देखने
वाली आँख की जगह भीतर देखने वाली आँख, आतरमा-परमातमा को देखन व े ा ल ीशिितकादानकरते
हैं। माने, गुरु ई शश र वर का दान करते हैं और िषरय उसको गररहण करता है , पचा लेता है। ईशर का
दान करने को 'दी' बोलते है और पचान क े 'करषा' बोलते है। इस तरह बनता है 'दीकरषा'। दीका माने ,
ीशिितको
देना
श और पिाना। गुरु का देना और िषरय का पिाना।
िजसका कोई गुर नही है उसका कोई सचचा िहतैषी भी नही है। िया आप ऐसे है िक आपका लोक-परलोक मे,
सवाथव-परमाथव मे कोई मागव िदखान व ? ििर तो आप बहत
े ालानहीहै ु असहाय है। िया आप इतन ब े ु िदमानहैऔरअपनी
बुिद का आपको इतना अिभमान है िक आप आपन स े े ब ड ा ? यह तो अिभमान
ज ानीिकसीकोसमझते हीनही की
पराकािा है भाई !
दीकरषा कई तरह से होती हैः आँख से देखकर, संकलप से, हाथ से छूकर और मंतरर-दान
करके। अब, जैसी िशषय की योगयता होगी, उसके अनुसार ही दीकरषा होगी। योगरयता करया है? िशषय की
योगरयता है शररदरधा और गुरु की योगरयता है अनुगररह। जैसे वर-वधु का समागम होने से पुतरर
उतरपनरन होता है, वैसे ही शररदरधा और अनुगररह का समागम होने से जीवन में एक िवशेष
पकार केआतमबल का उदय होता है और िशषय केिलए इि का , मंतरर का और साधना का िन शर िय होता है
तािक आप उसको बदल न दे। नही तो कभी िकसी से कुछ सुनेगे , कभी िकसी से कुछ, औ र ज ो िजसकी त ा र ीि
करने में कुशल होगा, अपने इषरट व मंतरर की खूबखूब मिहमा सुनायेगा वही करने का मन हो
जायगा। ििर कभी 'योगा' करेंगे तो कभी िवप शर यना ' करेंगे, कभी वेदानरत पढ़ने लगेंगे तो
कभी राम-कृषरण की उपासना करने लगेंगे, कभी िनराकार तो कभी साकार।
आपके सामने जो सुनरदर लड़का या लड़की आवेगी उसी से बरयाह करने का अथरर
होता है िक एक ही पुरुष या एक ही सरतररी हमारे जीवन में रहे, वैसे ही, मंतरर लेने का
अथरर होता है िक एक ही िनषरठा हमारे जीवन में हो जाय, एक ही हमारा मंतरर रहे और एक
ही हमारा इषरट रहे।
एक बात आप और धरयान में रखें। िनषरठा ही आतरमबल देती है। यही भकरत बनाती
है। यही िसरथतपररजरञ बनाती है। परमातरमा एक अिल वसरतु है। उसके िलए जब हमारा मन
अिल हो जाता है तब अिल और अिल दोनों िमलकर एक हो जाते हैं।
इसिलए, गुरु हमको अपने इषरट में, अपने धरयान में, अपनी पूजा में, अपने मंतरर
में अिलता, िनषरठा देते हैं और आप जो िाहते हैं सो आपको देते हैं। देने में
औ र िद ल ा न म े े व े स म थ व ह ो त े ह ै ।ह म त ो कहत े ह ै िकव े ल ो
अभागे हैं, िजनको गुर नही है।
देखो, यह बात भी तो है िक यिद कोई वे शर या के घर में भी जाना िाहे तो उस
मागररदररशक िािहए, जुआ खेलना चाहे तो भी कोई बतान व , िकसी की हतरया करना िाहे तो भी
े ालाचािहए
कोई बतानेवाला िािहए, ििर यह जो ईशर पािपत का मागव है, भिित है, साधना है उसको आप िकसी बतानवेाले के
िबना, गुरु के िबना कैसे तय कर लेते हैं, यह एक आ शर ियरर की बात है।
गुरु आपको मंतरर भी देते हैं, साधना भी बताते है, इि का िनिय भी कराते है और गलती होन पेर
उसको सुधार भी देते हैं। आप बुरा न मानें, एक बात मैं आपको कहता हूँ। ई शर वर सब है,
इसिलए उसकी पािपत का साधन भी सब है।
सब देश मे, सब काल मे, सब वसतु मे, सब वयिित मे, सब ििया मे ईशर की पािपत हो सकती है। केवल आपको
अभी तक पहिान करानेवाला िमला नहीं है इसी से आप ई शर वर को पररापरत नहीं कर पात
हैं। अतः दीकरषा तो साधना का, साधना का ही नही जीवन का आवशयक अंग है। दीका केिबना तो जीवन पशु -
जीवन है। अनुकररम
( )
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हम लोगों के जीवन में दो तरह के रोग होते हैं- बिहरगं और अनतरगं। बिहरगं रोगो की
िचिकतसा तो डॉिटर लोग करते है और वे इतन द े ः ु खद ा य ी भीनहीहोतेहैिजतनिेकअनतरोगहोतेहै।
हमारे अनरतरंग रोग हैं काम, कररोध, लोभ और मोह.
भागवत मे इस एक-एक रोग की िनवृितरत के िलए एक-एक औषिध बतायी है। जैसे काम के
िलए असंकलप, कररोध के िलए िनषरकामता, लोभ केिलए अथानथव का दशवन , भय केिलए तततवादशवन आिद।

जो दोष को जला दे और गुणो का आधान कर दे उसका नाम है औषिध। ििर, अलग-अलग रोग की
अलग-अलग औषिध न बताकर एक औषिध बतायी और वह है अपने गुरु के पररित भिकरत।

यिद अपने गुरु के पररित भिकरत हो तो वे बतायेंगे िक, बेटा ! तुम गलत रासते से जा रहे हो।
इस रासते से मत जाओ। उसको जयादा मत देखो, उससे जरयादा बात मत करो, उसके पास जरयादा मत
बैठो, उससे मत ििपको, अपनी 'कमरपनी' अिरछी रखो, आिद।
ू रो से पेम नही होगा। भिित मे ईमानदारी चिहए , बेईमानी
जब गुर केचरणो मे तुमहारा पेम हो जायगा तब दस
नहीं। बेईमानी समरपूणरर दोषों की व दुःखों की जड़ है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर
िवजय पररापरत करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सचचाई केसाथ , शदा केसाथ और िहत केसाथ गुर
की सेवा करना।
शदा और पूणव नही होगी और यिद तुम कही भोग करन ल े ग ो गे,यपूाकहीयशमे
जा मे, पितिा मे िँसन ल
े गोगे
औ र गुर जी तु म ह े म न ा कर े ग े त ो ब ो ल ो ग े िक, गुरुजी हमसे ईषरयारर करते हैं, हमारी
उनरनित उनसे देखी नहीं जाती, इनसे देखा नही जाता है िक लोग हमसे पेम करे। गुरजी केमन अब ईषया आ
गयी और ये अब हमको आगे नहीं बढ़ने देना िाहते हैं।
साकात् भगवान तुमहारे कलयाण केिलए गुर केरप मे पधारे हएु है और जान की मशाल जलाकर तुमको िदखा रहे
हैं, िदखा ही नहीं रहे हैं, तुमहारे हाथ मे दे रहे है। तुम देखते हएु चले जाओ आगे .... आगे... आगे...।
परतं ु उनको कोई साधारण मनुषय समझ लेता है, िकसी के मन में ऐसी असदर बुिदरध, ऐसी दुबुररिदरध आ जाती
है तो उसकी सारी पिवतररता गजसरनान के समान हो जाती है। जैसे हाथी सरोवर में सरनान
करके बाहर िनकले और ििर सूँड से धूल उठा-उठा कर अपने ऊपर डालने लगे तो उसकी
िसथित वापस पहले जैसी ही हो जाती है। वैसे ही गुर को साधारण मनुषय समझन व े ा ले क ी िसथितभीपहलेजैसीहीहो
जाती है।
ईशर सृिि बनाता है अचछी-बुरी दोनो, सुख-दुःख दोनों, चर अचर दोनो, मृतरयु-अमरता दोनों। परंतु
संत महातमा, सदगुर मृतयु नही बनाते है, केवल अमरता बनाते हैं। वे जड़ता नहीं बनाते हैं,
केवल िेतनता बनाते हैं। वे दुःख नहीं बनाते, केवल सुख बनाते हैं। तो संत महातरमा
माने केवल अिरछी-अिरछी सृिषरट बनाने वाले, लोगो केजीवन मे साधन डालन वेाले , उनको िसदरध
बनान वेाले, उनको परमातरमा से एक कराने वाले।
लोग कहते है िक परमातमा भितो पर कृपा करते है , तो करते होगे, पर
औ र भ ि त ह ी ज ब न ह ी ह ो ग ा त ो प र म ा त म ा िकस ी प र कृ प ा भ ी क ै स े
करेंगे? इसिलए परमातमा िसद पदाथव है और महातमा पतयक है। परमातमा या तो परोक है , - सृििकता कारण केरप
में और या तो अपरोकरष हैं – आतरमा के रूप में। परोकरष हैं तो उन पर िव शर वास करो और
अपरोकरष हैं तो 'िनगुररणं, िनषरकररयं, शानतं' हैं। महातरमा का यिद कोई पररतरयकरष सरवरूप है तो
वह साकरषातर महातरमा ही है। महातरमा ही आपको जरञान देते हैं। ,
, । अनुकररम
जो लोग आसमान मे ढेला िेककर िनशाना लगाना चाहते है उनकी बात दस ू री है। पर, असल बात यह है
िक िबना महातरमा के न परमातरमा के सरवरूप का पता िल सकता है न उसके मागरर का पता िल
सकता है। हम परमातमा की ओर चल सकते है िक नही इसका पता भी महातमा केिबना नही चल सकता है। इसिलए ,
भागवत केपथम सकंध मे ही भगवान केगुणो से भी अिधक गुण महातमा मे बताये गये है , तो वह कोई बडी बात नही है।
गरयारहवें सरकंध में तो भगवान ने यहाँ तक कह िदया है िकः

'मेरी पूजा से बड़ी है महातरमा की पूजा'।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
जानन औ े र च ा हन प े र भ ी ?गुरवह मेपकैसे
ूणवईशरबुिदियोनहीहोतीहै
हो सकती है? गुरु जहाँ
बैठते है वहा अपन म े न क ो लेजाकरक ? ैसेबैठाये
जब तुम गुर केबारे मे िवचार करोगे िक इनका शरीर िदवय है , िचनमय है तो उनकी िदवयता व िचनमयता का
िचनतन करते-करते तुमरहारा मन भी िदवरय और ििनरमय हो जायगा और तुम भी अपने शरीर को भूल
जाओगे और तुमहारी 'धरयेयाकार समापितरत' हो जायगी।
तब तुम देखोगे िक गुर तो साकात् परमातमा केसवरप मे बैठे है और उसी समय तुमहे अपन पेरमातमा , अपने
गुरु के सूकरषरम सरवरूप का उतना-उतना जरञान हो जायगा, िजतना-िजतना जान तुमहे अपन स े ू कमसवरपका
होगा। जब तक तुम अपने को हडरड़ी-मांस-चाम समझ रहे हो तब तक गुर मे भी हडडी-मांस-चाम की बुिद
होना समरभव है। परंतु भाव से जैसे आप जयपुर की बनी राम, कृषरण, िशव की मूितव को साकात्
भगवान मानते हो और गणडकी िशला को शालगाम मानते हो, वैसे ही अपने भाव से, अपनी शररदरधा से
मनुषरय के रूप में िदखते हुए गुरु को भी आप पहले िदवरय रूप में देखो और उनकी जो िकररया
है, उनको कमरर के रूप में नहीं, लीला केरप मे देखो। इस तरह िजतनी -िजतनी सूकमता आपकेआतमा मे
बढेगी, उतना-ही-उतना गुरु का सूकरषरम रूप आपको िदखायी पड़ेगा।
- ,
- ,
- ।
'जो हद बेहद केपार है , हमारे बैठने की जगह वह है।'
उपासना के गररनरथों में इस तरह का वणररन आता है िक पररसाद को भोजन समझना
अपराध है, मूितरर को जड़ समझना अपारध है, गुरु को मनुषरय समझना अपराध है।
जैसे-जैसे आपकी शदा बढेगी, समझ बढेगी, आपकी िसरथित ऊँिी होती जायेगी, वैसे-ही-वैसे
आप अपने सदगुरु के आसन के पास पहुँिते जायेंगे और वह आपकी उपासना हो जायगी।
अनुकररम
( )
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गुरु के पररित शररदरधा रखने की अपेकरषा उनकी आजरञाओं का पालन करना शररेषरठतर
है। आजरञाकािरता एक मूलरयवान सदगुण है, करयोंिक यिद आप आजरञाकािरता के गुण का
िवकास करने का पररयास करेंगे तो आतरम-साकातकार केपथ केकटर शिु अह क ं ाधीरे-धीरे
उनरमूलन हो जायगा।
जो िशषय अपन ग े ु र क ी आज ा ओ ं क ा प ा ल नकरताहैकेवलवहीअपन
आजरञाकािरता अतरयनरत वरयावहािरक, अननरय तथा सिकररय अधरवयवसायी होनी िािहए। गुरु की
आजर
श ञाकािरता न तो टाल मटोल करती है और न सनरदेह ही पररकट करती है। दमरभी िषरय
अपने गुरु की आजरञाओं का पालन भयवशशकरता है। सिरिा िषरय अपने गुरु की आजरञाओं का
पालन पेम केिलए , पेम केकारण करता है।
आजरञा-पालन की िविध सीिखए। उस िसथित मे ही आप आदेश दे सकते है। िशषय बनना सीिखये , तभी आप
गुरु बन सकेंगे।
इस भामक धारणा को तयाग दीिजए िक गुर की अधीनता सवीकार करना, उनका आजरञानुवतीरर होना तथा
उनकी
श िकरषाओंको कायाररिनरवत करना दासता की मनोवृितरत है। अजरञानी वरयिकरत समझता है
िक 'िकसी अनरय वरयिकरत की अधीनता सरवीकार करना अपनी गिरमा एवं सरवाधीनता के िवपरीत
है। यह एक गमरभीर और भारी भूल है। यिद आप धरयानपूवररक ििनरतन करें तो आप देखेंगे
िक आपकी वैयिकरतक सरवतनरतररता वासरतव में आपके अपने ही अहं तथा िमथरयािभमान की
िनतानरत घृिणत दासता है, यह िवषयी मन की तरंग है। जो अपने अहं तथा मन पर िवजय
पापत कर लेता है, वासरतव में वही सरवतनरतरर वरयिकरत है। वह शूरवीर है। इस िवजय को पररापरत
करने के िलए ही वरयिकरत गुरु के उिरितर अधरयातरमीकृत वरयिकरततरव की अधीनता सरवीकार
करता है। वह इस अधीनता-सवीकरण दारा अपन ि े न म अ ह क ं ो प रािजतकरताथाअसीमचेत
पापत करता है।
आधरयाितरमक पथ कला की सरनातकोतरतर उपािध के िलए शोध-पबनध िलखन ज े ै सानहीहै।यह
सववथा िभन पणाली है। इसमे गुर की सहायता की आवशयकता पितकण रहती है। इन िदनो साधक आतमिनभवर , उदरधत
तथा सवागही बन गये है। वे गुर की आजाओं को कायािनवत करन क े ी ि चन त ा न ह ीकरते।वेगुरबनानानह
पारमभ से ही सवतिं ता चाहते है। वे समझते है िक वे तुरीय अवसथा मे है जबिक उनहे आधयाितमक अथवा सत् का
पारिमभक जान भी नही होता है। वे सवेचछाचािरता अथवा अपनी बात मनवान औ े र स वेचछानुसारचलनक े ोसवतनिता
समझन क े ी भ ू ल क र त े ह ै । य ह ग म भी र शोचनीयभूलहै।यहीकारण
तथा ईशर केअिसततव मे िवशास खो बैठते है। ऐसे िनगुरे लोग आतमशािनत से , आतरम-सामथयव से, आतरम-पेम से विंचत
रह जाते हैं। हो जाते हैं। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा हैः
अनुकररम

।।
( )
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

छतरर
श पित िवाजीमहाराज समथरर गुरु रामदास सरवामी के एकिनषरठ भकरत थे। समथरर भी
सभी िशषयो से अिधक उनहे पयार करते। िशषयो को भावना हईु की िशवाजी केराजा होन क े े क ारणसमथवजीउनसे
अिधक पररेम रखते हैं। समथरर जी ने ततरकाल उनका सनरदेह दूर करने का सोिा। वे
िशषयमणडली केसाथ जगंल मे गये। सभी रासता भूल गये और समथवजी एक गुिा मे जाकर उदर -शूल का बहाना करके
लेट गये। िशषय आये। देखा, पीिडत हो रहे है गुरजी। शूल-िनवारण का उपाय समथररजी से पूछा और एक-
दूसरे के मुँह ताकने लगे। दुबररल मन के लोग और तक भगत की जैसी िहलिाल होती है
वैसा वातावरण बन गया।
इधर िशवाजी महाराज समथव केदशवनाथव िनकले। उनहे पता चला िक वे इस जगंल मे कही है। खोजते -
खोजते एक गुिा के पास आये। गुिा में पीड़ा से िवहरवल शबरद सुनाई पड़ा। भीतर जाकर
देखा
श तो साकरषातर गुरुदेव ही िवकलता से करवटें बदल रहे हैं। िवाजीने हाथ जोड़कर
उनकी वेदना का कारण पूछा।
समथव जी न क े हाः"िशवा ! भीषण उदर-पीडा से िवकल हूँ।"
"महाराज ! इसकी दवा?"
"िशवा ! इसकी कोई दवा नही। रोग असाधय है। हा, एक ही दवा काम कर सकती है, पर जान देो..."
"नहीं गुरद ु ेव ! िनःसंकोि
श बताएँ। िवागुरुदेव को सरवसरथ िकये िबना िैन नहीं ले
सकता।"
"िसंिहनी का दधू और वह भी ताजा िनकला हआ ु , पर िशवा ! वह सवररथा दुषपर ररापरय है।"
पास मे पडा गुरदेव का तुमबा उठाया और समथव जी को पणाम करकेिशवाजी ततकाल िसंिहनी की खोज मे िनकल
पडे।
कुछ दूर जाने पर एक जगह दो िसंह-शावक िदखाई पडे। िशवाजी न स े ोचाः'िन शर िय
ही यहाँ
इनकी माता आयगी।' संयोग से वह आ भी गई। अपन ब े च च ो क े प ा स अ न जानमेनुषयकोदेखवहिशव
अपने जबड़े में उनकी गरदन पकड़ ली।
िशवा िकतन ह े ीशू, रपर
वीरहो ू जो िनकालना था ! उनरहोंने धीरज धारण
यहा तो उनहे िसंहिन का दध
िकया और हाथ जोड़कर िसंिहनी से िवनय करने लगे।
"माँ ! मैं यहाँ तुमरहें मारने या तुमरहारे बिरिों को उठा ले जाने को नहीं आया।
गुरुदेव को सरवसरथ करने के िलए तुमरहारा दूध िािहए, उसे िनकाल लेने दो। गुरुदेव को दे
आऊँ, ििर भले ही तुम मुझे खा जाना।" िशवाजी न म े म ता भ र े ह ा थ सेउसकीपीठसहलाई।मूक
अधीन हो जाते हैं। िसंिहनी का कररोध शश ानरत हो गया। उसने िवाजीका गला छोड़ा और
े गी।
िबलली की तरह उनहे चाटन ल
मौका
श देख िवाजीने उसी कोख में हाथ डाल दूध िनिोड़कर तुमरबा भर िलया और उसे
नमसरकार कर बड़े आननरद के साथ िनकल पड़े।
गु
श िा में पहुँि कर गुरुदेव के समकरष दूध से भरा हुआ तुमरबा रखते हुए िवाजीने
गुरुदेव को पररणाम िकया।
"आिखर तुम िसंिहनी का दूध भी ले आये ! धनर श य हो िवा! तुमहारे जैसे एकिनि िशषय केरहते गुर
को पीड़ा ही करया रह सकती है !" समथवजी न ि े श व ा क े ि स र प र हाथरखतेहएुअनयिशषयोक
अब िषरयोंको पता िला िक बररहरमवेतरता गुरु अगर िकसी को परयार करते हैं तो उसकी

अपनी िवशेष योगरयताएँ होती हैं, िवशेष कृपा का वह अिधकारी होता। ऐसे िवशेष कृपा के
अिधकारी गुरुभाइयों को देखकर ईषरयारर करने के बजाय अपनी दुबररलताएँ, अयोगरयताएँ दूर
करने में लगना िािहए। ईषरयारर करने से अपनी दुबररलताएँ और अयोगरयताएँ बढ़ती हैं।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
?
शीरामिमशजी महातमा पुणडरीकाकजी की सेवा मे गये। बोलेः "भगवन् ! मेरे मन में िसरथरता नहीं
है। इसका कारण मैंने यह िन शर िय िकया है िक मेरी िनज धमरर में दृढ़ता नहीं है।
इसिलए आप कृपापूववक यह बताए ि ँ कध म व म ेदढ ृ "तािकसपकारहोतीहै।
े हाः"िजस उपाय से दढ
संत शी न क ृ ता होती है , उसे आप नहीं कर सकते, इसिलए उसका बताना वयथव
है।"
िमशररजी ने ििर कहाः "आप उसे बताएँ, मैं अव शर य करूँगा। िजस िकसी ने जो उपाय
मुझे बताया है उसे मैंने अव शर य िकया है। आप संकोि न करें। इसके िलए मैं
सववसव तयाग करन क े ो भीतै"यारहँू।
शीपुणडरीकाकः "आपने अभी तक अनरधों से ही यह बात पूछी है, आँखों वालों से नहीं।
अनरधों की लकड़ी पकड़कर भला, आज तक कोई गनरतवरय सरथान पर पहुँिा है?"
िमशररजीः "हाँ, ऐसा ही हुआ है। मैंने ठोकर खाकर इसका अनुभव िकया है। तभी तो
आँखवालों के पास आया हूँ।"
शीपुणडरीकाकः "आपके उस अनुभव में एक बात की कसर रह गई है। आपमें आँखवालों
की पहिान नहीं है, नहीं तो मेरे पास करयों आते?
िमशररजी ने बहुत अनुनय-िवनय करने पर आिायरर पुणरडरीकाकरष ने उनरहें महीने
पीछे बतान क े ो क ह ा । ज ब अ व ि ध बीतनपेरिमशजीििरआयेतबसंतशीनक े हाः
"दूसरों का पाप िछपाने और अपना पाप कहने से धमरर में दृढ़ता पररापरत होती है।"
इस सुनदर उपदेश को सुनकर िमशजी न ग े "भगवन्
द गदसवरसे ! कृपा के िलए धनरयवाद ! मुझे
कहाः
अपने सदािारीपन को बड़ा गवरर था और दूसरों की बुराइयाँ सुनकर उनरहें मुँह पर िटकारना
औ र भ र ी सभ ा म े उ न ह े ब द न ा म कर न ा अ प न ा कतव व य स म झ त ा। उसी अ न ध े की लकड ी को
पकडकर मै भवसागर को पार करना चाहता था। कैसी उलटी समझ थी !"
अपनी भूल समझकर प शर िाताप करने से जीवन की घटनाओं पर िविार करने का
दृिषरटकोण ही बदल जाता है। तब मनुषरय अपनी अलरपजरञता से सधे हुए दृिषरट कोण को छोड़कर
भगवदीय दिृिकोण से देखन औ े र ि व चारकरनले गताहै।
अपना गुण पररकट करना और दूसरों का दोष पररकट करना, इससे आदमी धमव से चयुत हो जाता है।
जो दसू रो का दोष छुपाता है और अपना दोष पकट करता है उसको धमव मे दढ ृ ता होती है। िजसको धमव मे दढ
ृ ता होती है
वह इहलोक और परलोक में सुख-शािनत का भागी होता है।
दूसरों को टोटे िबाने की अपेकरषा उनरहें खीर खांड िखलाने का सोिो तो धमरर में
दृढ़ता होती है, शाित और पेम बढन ल े ग त ा है,।कायरता
हृदयकीउदारताहो
नहीं। वीरों को उदारता और
करषमा शोभा देती है, कायरों को नहीं। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
देवािधदेव महादेव जी ने शश ररी व 'हे मुनी शर !वर
ि षरठजीसेकहाः इस जगत मे बहा, िवषरणु
औ र रि ज ो ब ड े द े व त ा ह ै व े स ब स वव सत ा रप ए क ह ी आ त म द े व स े प क ट हएु ह ै ।
सबका मूल बीज वही देव है। जैसे अिगन से िचनगारी और समुि से तरगंे उपजते है वैसे ही बहा से लेकर कीट पयवनत सभी
उसी आतरमदेव से उपजते हैं और पुनः उसी में लीन होते हैं। सब पररकाशों का पररकाश
औ र त त त व व े त ा ओं का पू ज य व ह ी ह ै ।
हे मुिनशादूररल ! जरा, मृतरयु, शोक और भय को िमटान व े ा ल ा आ त मदेवहीसबकासारऔरसबक
रूप है। उसका जो िवराट रूप है वह कहता हूँ, सुनो। वह अननत है। परमाकाश उसकी गीवा है। अनक े
पाताल उसकेचरण है। अनक े िदशाए उ ँ स क ी भ ु , िवषरणु, रूदररेशाासिहै
ज ाहै।सबपकाशउसक िद देवता
।बहा
औ र ज ी व उसकी र ो म ा व ल ी ह ै । ज ग ज ज ा ल उसका िव वृ त ह ै । काल उसका द ा र प ा ल ह ै । अ न न त
बहाणड उसकी देह केिकसी कोण मे िसथित है। वही आतमदेव िशवरप सववदा और सबका कता है , सब संकलपो केअथव
का िलदाता है। आतरमा सबके हृदय में िसरथत है।
हे ऋिषवयरर ! अब मैं वह आतरम-पूजन कहता हूँ जो सववि पिवि करन व े ा ल े कोभीपिविकरताहै
औ र स ब त म औ र अ ज ा न का न ाश करत ा ह ै । आ त म पू ज न स ब प क ा र स े स वव द ा ह ो त ा ह ै औ र
वरयवधान कभी नहीं पड़ता। उस सवाररतरमा शानरतरूप आतरमदेव का पूजन धरयान है और धरयान ही
पूजन है। जहा-जहा मन जाय वहा-वहाँ लकरषरय रूप आतरमा का धरयान करो। सबका पररकाशक आतरमा ही
है। उसका पूजन दीपक से नहीं होता, न धूप, पुषप, चनदनलेप और केसर से होता है। अघयव पादािदक पूजा की
सामिगयो से भी उस देव का पूजन नही होता।
हे बररहरमवेतरताओं में शररेषरठ ! एक अमृतरूपी जो बोध है, उससे उस देव का
सजातीय पतयय धयान करना ही उसका परम पूजन है। शुद िचनमाि आतमदेव अनुभव रप है। सववदा और सब पकार
उसका पूजन करो अथाररतर देखना, सपशव करना सूँघना, सुनना, बोलना, देना, लेना, चलना, बैठना इतयािद जो
कुछ िकररयाएँ हैं, सब चैतनय साकी मे अपवण करो और उसी केपरायण बनो। आतमदेव का धयान करना ही धूप -
दीप और पूजन की सामगररी है। औ र उसस े प र म ा न न द
पापत होता है। अनय िकसी पकार स वह देव पापत नही होता।
हे मुनी शर !वर मूढ़ भी इस पररकार धरयान से उस ई शर वर की पूजा करे तो तररयोदश
िनमेष में जगत-दान के िल को पाता है। सतररह िनमेष के धरयान से पररभु को पूजे ते
अ शर वमेध यजरञ के िल को पाता है। केवल धरयान से आतरमा का एक घड़ी पयररनरत पूजन
करे तो राजसूय यजरञ के िल को पाता है और जो िदनभर धरयान करे तो असंखरय अिमत िल
पाता है। हे महषे ! यह परम योग है, यही परम िकररया है और यही परम पररयोजन है।
यथा पररािपरत के समभाव में सरनान करके शुदरध होकर जरञान सरवरूप आतरमदेव का पूजन
करो। जो कुछ पररापरत हो उसमें राग-दरवेष से रिहत होना और सवररदा साकरषी का रूप अनुभव
में िसरथत रहना ही उसका पूजन हो। जो िनतरय, शुद, बोधरप और अदैत है उसको देखना और िकसी मे वृित
न लगाना ही उस देव का पूजन है। परराण अपानरूपी रथ पर आरूढ़ जो हृदय में िसरथत है उसका
जान ही पूजन है।
आतरमदेव सब देहों में िसरथत है तो भी आकाश-सा िनिलवपत िनमवल है। सववदा सब पदाथों का
पकाशक, पतयक् चैतनय जो आतमतततव अपन ह े ृ द य ि स थ तह ै व ह ी अपनि े ुरनस
े ेशीघहीदैतकीत
जो कुछ साकाररप जगत देख पडता है , सो सब िवराट आतमा है। इससे अपन म े े इ स प क ारिवराटकीभावनाकरोिक
यह समरपूणरर बररहरमाणरड मेरी देह है, हाथ, पाव, नख, केश है। मैं ही पररकाश रूप एक देव हूँ।
नीित इिरछािदक मेरी शिकरत है। सब मेरी ही उपासना करते हैं। जैसे सरतररी शररेषरठ भतारर
की सेवा करती है, वैसे ही शिकरत मेरी उपासना करती है। मन मेरा दरवारपाल है जो
ििलोकी का िनवेदन करन व े ा ल ाहै।-िचनतनमे े
जान व राआने ा ल ा प ि त ह ा र ीहै।नानापकारकेजानमेरेअ
कमेररिनरदररयाँ मेरे दास, जानिेनिया मेरे गण है ऐसा मै एक अननत आतमा, अखणरडरूप, भेद से रिहत अपने
आप में िसरथत पिरपूणरर हूँ।
इसी भावना से जो पूजा करता है वह परमातमदेव को पापत होता है। दीनता आिद उसकेसब िलेश नि हो जाते
हैं। उसे इषरट की पररािपरत में हषरर और अिनषरट की पररािपरत में शोक नहीं उपजता। न तोष
होता है न कोप होता है। वह िवषय की पररािपरत से तृिपरत नहीं मानता और न इसके िवयोग से
खेद मानता है। न अपररापरत की वाञरछा करता है न पररापरत के तरयाग की इिरछा करता है। सब
पदाथों मे उसका समभाव रहता है।
हे मुनी शर !वर भीतर से आकाश-सा असंग रहना और बाहर से पकृित -आिार में रहना, िकसी के
संग का हृदय मे सपशव न होन द े े न ा और स द ा स म भ ा व िवजानसेपूणवरहनाहीउसदेवकीउप
आकाश से अजरञानरूपी मेघ नषरट हो गया है उसको सरवपरन में भी िवकार नहीं होता।
हे महषेरर ! यह परम योग है। यही परम िकररया है और यही परम पररयोजन है। जो
परम पूजा करता है वह परम पद को पाता है। उसको सब देव नमसकार करते है और वह पुरष सबका पूजनीय होता है। "
अनुकररम
( )
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िचनता, ईषया और जलन आदमी को आतमाननद से दरू कर देती है, सहजता-सरलता-सवाभािकता से दरू कर देती
है। आतरमाननरद से तो दूर कर ही देती है, तन मन का सवासथय भी खराब कर देती है। िचनता और ईषया ियो
होती है? करयोंिक आँखों से जो िदखता है उसको दूसरा मानते हैं और देह को 'मैं'
मानते हैं।
'वह आदमी मौज कर रहा है....'
'अरे उसमें भी मैं हूँ' – यह जरञान नहीं है इसिलए ईषरयारर होती है। अपने जीवन
की ििनरता होती है। अपने अििनरतय पद का खरयाल नहीं है। इसिलए संसार की छोटी-छोटी
बातो मे िचनता होती है, दूसरों के सुख की ईषरयारर होती है। ििनरता और ईषरयारर आतरमाननरद लेने
में रूकावट है। परमातरमा की िदवरय सुधा िनशिदन बरस रही है, आतरम-अमृत बरस रहा है
लेिकन िचत की मिलनता केकारण उसका अनुभव नही होता। संसार की िचनता मिसतषक मे रखते है इससे परमातमा का
सुख जो िबलकुल नजदीक है , सवाभािवक है ििर भी िदखता नही। िचत मे िचि-िविितरर इिरछाएँ-आकांकरषाएँ
मँडरा रही हैं। मुिनशश ादूररल व ि षरठ-जीकहतेहैं
"हे रामजी ! इचछावानो से वृक भी भय पाते है।"
बिढया सतसंग होता है, तततवजान को ऊँची बात होती है , िचत आतम-िवशररािनरत की गहराइयों को छूकर
तृपत होता है, बडा आननद आता है लेिकन सासािरक बाते खडी करकेसब िबखेर देते है। बिढया तततवजान की बात होती
है, शवण मनन चलता है लेिकन ईषया तततवजान को अनतःकरण मे बैठन न े ह ी दे त ी।मेहमानघरमेआयेउसकोआ
नहीं दो, उसको बैठाओ नहीं तो वह करया बात करेगा? तततवजान का अवकार नही, आदर नहीं
इसिलए वह अनतःकरण मे ठहरता नही। तततवजान ठहर जाय तो बेडा पार हो जाय। दिुनया केराजे -महाराजे वह
सुख नही भोगते जो आतमजानी आतमसुख भोगते है। बुढापा और मौत सबको पकडते है लेिकन आतमजानी पर उसका
पभाव नही पडता है। बुढापा तो आयेगा, मौत तो होगी लेिकन जरञानी शरीर के बुढ़ापे को अपना
बुढापा नही समझते, शरीर की मौत को अपनी मौत नही समझते। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सब धमों का मूल कारण शील है। शील आन स े े अ न य स ब ग ु ण आ ि म लतेहै।पितवरतासिीकेजोध


सब धमव शील मे आ जाते है और िजतन द े ो ष ककव श ा न ा र ी केहैवेसबअशीलकहलातेहै।श
इस पकार होता हैः
एक घर से दूसरे घर िबना कारण भटकना, श िन ि र , पर पुरष के
ि न र ततासेघरमेंनबैठना
साथ बातचीत करन म े , काम कहीं करना और मन कहीं रखना, सवय द
ेआननदसमझना ं ग ु ुवणोकाभणडारहोने
ू रो केदगुुवण कथन करन म े
पर भी दस े ब ृ ह सपितक,ेसपैमानविताबनबै
र केऊपर पैर ठचढाकर
ना बैठन म े ेबडोके
आदर-मान का खरयाल न रखना, दूसरों की पंिायत करना, बाते करते दि ु शबदो का उचचारण करना,
असतरय बोलना, झूठी सौगंध खाना, पित को नौकर केसमान समझ कर हक ु ुम चलाना , वहम की बातें
करना, बहम मे लगे रहना, मंतरर-ति ं जादू-टूणों-िूणो को अतयनत वहम केसाथ मानना , मोहन वशीकरण, पुि-
रकरषा आिद के िनिमतरत धूतोररं के पास जाना, यिद पित इन बातों को झूठी कहे तो कररुषरट
(शािपत) कहना, मिलन रहना, घर को मिलन रखना, रसोई िकस पररकार होती है यह ठीक न जानना,
रसोई में बार-बार कंकड, बाल या कोयले आते रहना, बालको को कैसे सुधारना -कैसे उनकी रकरषा करना
यह न जानना, जानती हो तो भी लापरवाही से वैसा न करना, कुल की पररितषरठा िबगड़ने की परवाह न
होना, आसपास के पड़ौिसयों से टंटा करना, पित से लडना, झूठ बोलना, उसको डाँटना, ताना देना,
लडको को िबना कारण मारना, िचललाना आिद। ये सब शील रिहत नारी केलकण है। उसमे छल , पपच ं , परमैिी,
दुसरसाहस, अपिवतररता, कटुता, िनलररजरजता, िनठुरपना आिद अवगुण होते हैं। ऐसी नारी दूसरों
को दुःख देती है और आप भी अनेक योिनयों में पड़कर दुःख भोगती है।
अपना इहलोक-परलोक का कलयाण चाहन व े ा ल ी म ि ह ल ाओंकोऐसीनािरयोकीसंगतसेबच
शीलवान है, पिवि है, सहनशील है, तयागशील है, शुद पेम से युित है अथात् िजसमे पितवरता सिी केसदगुण है ऐसी
गुणवान नारी का आदर का करना िािहए और कुलटा नारी से नौ गज दूर रहना िािहए। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

एक िकसान िपटारे में घी, गुड़, िमठाई, रोिटयाँ आिद रखकर खेत में जा रहा था।
बचचो को कहता गया िकः "तुमहारी मा बाहरगाव गई है। सकूल से आ जाओ तो िपटारे से भोजन लेकर खा लेना। मै शाम
को घर लौटूँगा।"
िकसान खेत में िला गया। बिरिे भी सरकूल में पढ़ने गये। इधर एक िबलार
िपटारे मे घुस गया। मजे से घी, गुड़, िमठाई, रोिटयों का भणरडारा करके आराम से वहीं बैठ गया।
दोपहर को सरकूल से भूखे-पयासे बचचे आये। भोजन लेन क े े ि ल ए ज य ोिहिपटारेमेहाथडालातोिबलार
गुराररयाः 'हूँऽऽऽ....!'
बचचे बेचारे डर गये। अब िया करे ? िबना खाये ही मन मसोस कर रह गये। खेल मे जी लगाये परत
ं ु भूखे
पेट.....। कब तक खेले ? ििर िपटारे की तरि िनहारे, साहस बटोरकर पास जाये और हाथ लमबा करे तो वह िबलार
गुराररयेः 'हूँऽऽऽ....! हूँऽऽऽ...!' बचचे डर कर ििर वापस।
िदन बीत गया। सनरधरया हुई। िकसान खेत से लौटा। देखा तो बिरिों के मुख मरलान हैं।
भूख और पयास केमारे लोथपोथ हो रहे है। पूछन प े र बचचोनबेतायाः
"िपताजी ! िपटारे मे िबलार घुस गया है। पूरा कबजा जमा िलया है। हम कैसे खाये ?"
िकसान भी िपटारे के पास गया, देखा तो िबलार गुराररने लगाः 'हूँऽऽऽ....! हूँऽऽऽ...!'
िकसान ने उठाया खरिपया। िकसान के खरिपया उठाते ही िबलार छू हो गया।
ऐसे ही यह जीव मोह-ममता रूपी घी, गुड़ खाकर, अहंता रूपी िमठाइयाँ खाकर, 'तेरा-मेरा'
रूपी रोिटयाँ िबाकर इस देह रूपी िपटारे में बैठ जाता है। 'हूँऽऽऽ....! हूँऽऽऽ....!' गुराररता
है। 'मैं सेठ.... मैं साहब.... मैं अमथाभाई..... मैं छनाभाई.... मैं िपता..... मैं पित.....'
ऐसे में मैं-मैं करता है।
गुरुदेवरूपी िकसान आता है। साधकरूपी बिरिों से पूछता हैः "दुःखी करयों हो भैया ?"
साधकरपी बचचे बताते है- "आतरमाननरद की भूख लगी है। संसार की थकान ने मथ डाला है, थकािदया
है। करया करें ?"
गुरुदेव उठाते हैं बररहरमजरञान का डणरडा और आतरमदृिषरट की िोट मारते हैं तब
देहरूपी िपटारे से 'हूँऽऽऽ...! हूँऽऽऽ....!' करने वाला अहंरूपी िबलार कूदकर भाग जाता है।
तब साधक आतमाननद का रसपान करकेतृिपत का अनुभव करते है। इसी अवसथा केिलए शंकराचायवजी कहते है -
- ।
।।
जब देहाधयास गल जाता है, परमातमा का जान हो जाता है, तब जहा-जहा मन जाता है वहा-वहाँ िितरत में
समािध का ही एहसास होता है। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
.......
एक आदमी भागा-भागा जा रहा था। उसे जाना था िदलली लेिकन िदलली का पता नही था। एक बूढा बैठा था
उससे पूछाः "अरे जनाब ! िदलरली िकतनी दूर है ?"
"करया मतलब ?" बूढे आियव वयित िकया।
"मैं िदलरली जाना िाहता हूँ। यहाँ से िदलरली िकतनी दूर है?"
बुजुगव जमान क े , बुिदमान
ा खायाहआ ु थाथा। वह बोलाः "िदलरली िकतनी दूर है यह मैं बता सकता
हूँ लेिकन मेरे दो शतेरर हैं।"
"िदलरली िकतनी दूर है यह बताने में दो शतोररं की करया आव शर यकता है?"
"हाँ, दो शतोररं पर ही बताऊँगा।" बूढा दढ ृ रहा। आसपास मे कोई था नही इसिलए इस आदमी को
मानना पड़ा। उसने िसर िहलाकर सरवीकृित दी।
बूढे न क
े हाः"मेरे दो परर शर नों का उतरतर दो तब बताऊँगा िक िदलरली िकतनी दूर है। "
"पूिछये।"
"मेरा पहला परर शर न यह है िक आप िदलरली में जाना कहाँ िाहते हो? करयोंिक आठ
मील पीछे िदलरली को छोड़कर आर रहे हो। दूसरा परर शर न यह है िक िकतनी गित से जाना
चाहते हो ? तुम एक घणटे मे भी पहँच
ु सकते हो और चार कदम चलकर पचास कदम चल सको उतनी देर बैठ जाओ तो
पाच-दस घणरटे लग जायेंगे। िलकर वापस ही आते रहो तो कभी नहीं पहुँिोगे। पहले
चलकर, दौड़कर अपनी गित िदखा दो और जहाँ जाना िाहते हो उस सरथान का नाम बता दो तो कह
सकता हूँ िक तुमहारे िलए िदलली का रासता िकतन घ े णटेक " ाहै।
शुििया अदा करते हएु वह आदमी बोलाः "हाँ, आपकी शतरर िबलकुल ठीक है। अब तक मैं समझ
रहा था िक आप बात को वरयथरर में मिल रहे हो।"
"तुम िदलली को पीठ िदये खाडी हो। आगे ही आगे चलकर िदलली जाना चाहते हो तो नाक की सीध मे चलते ही
जाओ... चलते ही जाओ। जरा भी टेढे मेढे न होना। पूरी पृथवी का चकर काटकर िदलली पहँच ु जाओगे। ऐसे भी िदलली
जा सकते हो और वापस लौटना सवीकार है तो मै वह रासता भी बता दँ। ू वापस लौट जाओगे तो िदलली जलदी पहँचु
जाओगे।"
ऐसे ही हमारी िेतना सुख के िलए कौन सी िदलरली जाना िाहती है ? िकस पररकार जाना
चाहती है ? कौन-सा सुख लेना चाहती है ? शाशत या नशर ? न शर वर सखु में यह जीवन हजारों जनरम नषरट
करता आया है। पदाथोररं की आकांकरषा का कोई अनरत नहीं। पृथव र ी की तो सीमा है लेिकन
पदाथों की तृषणा की कोई सीमा नही। पदाथव यहा भी है, परलोक मे भी है। पृथवी लोक केअलावा अतल , िवतल,
तलातल, रसातल, पाताल, भुर, भुवः, सवः, जन, तप, महरर, सवगव आिद अनक े लोक है। िकतन ल े ो कोकेपदाथोंकी
आकांकरषा करोगे सुख के िलए ?
अगर तुम पीछे लौटना सरवीकार करते हो तो िदलरली नजदीक हो जाती है। आगे ही
बढते जाओगे तो पृथवी का चकर काटकर वहा आओगे। िवषय-वासना-िवकारों में आगे बढ़ते हो तो
चौरासी लाख योिनयो का चकर काटकर ििर मनुषय देह मे आओगे। अगर वापस मुडकर अभी 'िदले तसरवीरे है
यार....' करके भीतर गोता लगाना िाहते हो तो िदलरली दूर नहीं है, आतरमसुख पाना किठन नहीं
है। ॐ...ॐ....ॐ..... अनुकररम
ॐ शािनरत ! ॐ शािनरत !! ॐ शािनरत !!!
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
......
हमारा सूकरषरम िवकास हो रहा है। हमारा िितरत ॐकार की धरविन से परम शािनरत में,
परमातमा केआहादक सवरप मे शानत हो रहा है। हम महसूस कर रहे है िक हम शानत आतमा है। संकलप -िवकलरप िमट
रहे हैं। िितरत की िंिलता ििथलहो रही है। भररम दूर हो रहे हैं। सनरदेह िनवृतरत हो रहे

हैं।
हमें पता भी नहीं िलता इस पररकार गुरुदेव हमारी सूकरषरमाितसूकरषरम यातररा करा रहे
हैं... हमें पता भी नहीं िलता। अनरतवाहक शरीर पर िढ़े हुए कई जनरमों के संसरकार
िनवृतरत होते जा रहे हैं। वाणी के उपदेश से भी मौन उपदेश, मौन रहकर संकलरप से
गुरुदेव की कृपा हमारे भीतर काम करती है। हमें पता भी नहीं होता िक मौन से िकतना लाभ
हो रहा है ! सदगुर की कृपा कैसे कायव करती है इसका पता हमे पारमभ मे नही चलता। गुरकृपा हमारी नजदीक होकर
भी काम करती है और हजारो मील दरू होकर भी काम करती है। गुरदेव केबोलन प े र त ो उ न कीकृपाकामकरतीहीहै
लेिकन मौन होन प े र ि व श े ष रप स े क ा म क र तीहै।मौनकेसंकलपकीअपेक
है। मौन में आतरम-िवशररािनरत की अपेकरषा बाहर के िकररया-कलाप छोटे हो जाते हैं।
सूकम पते उ ं त ा र न क े े ि ल ए ,सूशािनत मे घटती है। िशषय जब।आगे
कमसाधनोकीजररतपडतीहै यहघटनामौनमे
बढता है तब खयाल आता है िक जीवन मे िकतना सारा पिरवतवन हआ ु ।
शासिो मे िशका गुर, दीकरषा गुर,ु सूचक गुर, वािक गुरु, बोधक गुर, िनिषदरध गुरु, िविहत गुर,ु
कारणाखरय गुर,ु परम गुर (सदगुर) आिद अनेक पररकार के गुरु बताये गये हैं। इन सबमें परम
गुरु अथवा सदगुरु सवररशररेषरठ हैं। भगवान शंकर 'शी गुरगीता' में कहते हैं-

।।
'हे पावररती ! िजस पकार सब जलाशयो मे सागर राजा है उसी पकार सब गुरओं मे ये परम गुर राजा है। '
िजनहे सतय सवरप परमातमा का बोध है, जो शोििय बहिनि है, सव-सवरप मे जगे है, परिहतपरायण है ऐसे
सदगुरओं की पािपत अित किठन है। ऐसे सदगुर िमलते है तो हमारा आमूल पिरवतवन हो जाता है। देहाधयास गलन ल े गता
है। िितरत सतरपद में िवशररािनरत पाने लगता है।
जैसे मा बालक को कभी पुचकारती है, कभी डाँटती है, कभी दुलार करती है। कभी िकसी ढंग
से कभी िकसी ढंग से बचचे का लालन-पालन करती है। वह मा की अपनी पकृित है। गुर , जो सदा जागृत सवरप मे
सजाग है ऐसे परम गुर कभी िकसी ढंग से कभी िकसी ढंग से हमारा भीतरी आधयाितमक लालन-पालन करते है। उनका
पूवव आयोिजत कोई कायविम नही होता साधक केलालन -पालन का िक यह करना है, वह करना है। िजस समय
िजस पकार से, िजस कारण, िकररया-कलाप से हमारा उतरथान होता होगा उस समय उस पररकार का
वरयवहार करेंगे और उस ढंग से हम पर बरसते हैं।
जैसे चतुर वैद अपन म े र ी जक ो अ प न ीिनगाहोमे -सी औषिध
रखताहैकी
औरिकससमयकौन
आवशयकता है
यह ठीक से समझकर उसका इलाज करता है, ऐसे ही हमारे आनरतिरक सरवासरथरय के िलए
सिदयो पुरानी लडखडाती तदंरसती केिलए , युगों पुरानी रूगरणता का िनवारण करने के िलए परम गुरु
िभन-िभन पकार की औषिध, उपिार, संयम-िनयम का उपयोग करते हैं।
साधक की िजस समय जैसी पकृित होती है उस समय उसे गुर उसी पकार केभासते है। हरेक साधक केअपने
संसकार होते है, योगरयता-अयोगरयता होती है, अपनी मानरयताएँ और पकड़े होती हैं। सबकी
अपनी-अपनी देखने-सोचन क े ी द ि ृ ि ह ै । पा र ,
म भ मेहरसाधककोअपनस े दगुरकेप
मूलरय अथवा लड़खड़ाती शररदरधा आिद होते हैं।
साधक जब पारमभ मे सदगुर केशीचरणो मे आता है उस समय उनको अपन ढ े ं . उनकी
गसे देखताहै
योगरयता मापता है वह दृिषरट छोटी-सी होती है। साधक जयो-जयो संततव केनजदीक जाता है , जयो-जयो उस पर
बहवेता सदगुर की कृपा बरसती है , सूकम पिरवतवन होते है साधक की बुिद शुद होती है , साधक का अनतःकरण शानत
होता है, तन और मन केिवकार कीण होते है तयो -तयो वह साधक सदगुर का महतव समझता जाता है। जब साधक मे
रजोतमोगुण आ जाता है तो उसके जीवन में सदगुरु के सािनरनधरय का और उपदेश का पररभाव
थोड़ासा ििथलहो जाता है। जब सतरतरवगुण पुनः बढ़ता हैतब उसकेिितरतमेंसदगुरु ततरतरव का शुदधर -िव शु दरध
संचार िनखरन ल े गताहै।
चतुर साधक रजो-तमोगुण बढे नही उसकी सावधानी रखता है। अगर रजो-तमोगुण आ जाता है तो गुर-
िनिदररषरट मागरर से उस रजो-तमोगुण को दबाता है, करषीण करता है।
गुरुकृपा अिनवायरर है साथ-साथ मे साधक का पुरषाथव भी अिनवायव है। सूयवनारायण की कृपा अिनवायव है
खेती के िलए उतनी ही िकसान की सजगता भी अिनवायरर है। िकसान का पिरशररम और
सावधानी अिनवायव है, तभी खेती िलती है। ऐसे ही गुर की कृपा आवशयक है और साधक का साधन -भजन मे उतसाह भी
आव शर यक है, पिरशम भी आवशयक है तथा िकया हआ ु साधन-भजन, िकया हुआ पुरुषाथरर, लायी हईु सािततवकता,
की हुई आधरयाितरमक यातररा कहीं िबखर न जाय इसकी सजगता भी साधक के िलए अिनवायरर है।
सावधानी नही होगी तो गाय, बकरे आिद पशु उसे कुचल देगे , नषरट कर देंगे। अथवा, साधक िसंचाई नही करेगा,
खाद
श नहीं डालेगा तो खेत का लहलहाना मु ि रकलहोजायेगा।
ऐ साधक ! तू अपन ि े द लक े ख े त म े ब ह ि व दाकीिसंचाईकरतेरहना
िसंचाई तब तक करते रहना, सावधानी से बाड बनाते रहना, िनगरानी करते रहना जब तक तुझे अमृतपद की
पािपत न हो जाय। अनुकररम
यह संसार कटीला मागरर है। जैसे खेत हरा-भरा होते ही पशु आ जाते है , छोटे-मोटे
जीवाणु भी लग जाते है तो िकसान उसका इलाज करता है , बाड मजबूत करता है वैसे साधना केखेत को िबगाडन वेाले
पसंग भी आते है।
चार पैसे का अनाज पापत करन क े े ि ल ए ि !
क सा न सबपकारकीसावधानीरखताहै तोहेसाधक
िव शर विनयनरतको ा पाने के िलए तू भी सावधान रहना भैया! तू भी अपनी संयम की बाड करना। साधना
के िभनरन-िभन पकारो की िसंचाई करते रहना। साथ मे देखना िक कही मान बडाई, सुख-दुःख के थपेड़े
आकर तेरे साधनारूपी खेत को तो उजाड़ नहीं रहे हैं ! जब मौका िमले तब तू एकानत मे जाना।
एकानरतवास करना, अलरप देखना, अलरप बोलना, अलरप सुनना। बाकी का समय अपनी साधनारूपी
खेती की िसंिाई करना।
िकसान घर छोड़कर खेत में ही खाट डाल देता है। जरयों-जयो खेत उभरता है, दाने
लगते है तयो-तयो िकसान अपनी िजममेदारी अिधक महसूस करता है। ऐसे ही पारिंभक साधक भले ही िजममेदारी अिधक
महसूस करता है। ऐसे ही पररारंिभक साधक भले ही िजमरमेदारी महसूस न करे, साधय को पान क े े
िलए सुरका की बाड न करे मगर जो साधक कुछ चार कदम चल पडे है , िजनहे आतमजान का लगा हआ ु िल महसूस हो
रहा, िजनहे शाित, पेम और आननद का एहसास हो रहा है, िजनका सूकम जगत मे, सूकम साधना मे पवेश हो रहा है, जो
केवल बाहर के उपदेशों से ही नहीं लेिकन आनरतर मन से, आनरतर यातररा से पिवतरर हुए
हैं ऐसे साधक घर से खिटया हटाकर खेत में खिटया डाल देते हैं। बाहर के
लोकाचाररपी घर से खिटया हटाकर बहिचनतनरपी खेत मे अपनी खिटया रख देना। आतम-िचनतन केखेत मे , आतरम-
पीित केखेत मे खिटया धर देना। उठना भी खेत मे , बैठना भी खेत मे, चलना भी खेत मे हो जाता है। खेत जयो लहलहाता
है, िसल देन क े ो तत प र ह ो त ा ह ै त य ो ि क स ा न घरपरजानक े ासमयकमकर
है।
ऐसे ही हे साधक ! तू भी अपना खान-पान, रहन-सहन साधनामय बना दे। िकसान चार पैसे केधानय के
िलए इतनी कुरबानी करता है तो ऐ मेरे पयारे वतस ! तू भी अननत-अननरत बररहरमाणरडनायक रूपी आतरमजरञान
के िल को पाने के िलए सजग रहना। करयोंिक ते री संपितरत िकसान की संपितरत से बहुत
ऊँिी है। तेरा लकरषरय िकसान के लकरषरय से अननरत गुना ऊँिा है। इसिलए तू सावधान
रहना। तू हजारों मील गुरु से दूर होगा तभी भी याद रखना, तेरे गुर की कृपा तेरी सहाय रहेगी।
साधक का िदल पुकार उठाः
"हे गुरुदेव ! जब जब मै िनराश हआ ु हँू, थका हूँ, हताश हुआ हूँ तब-तब कणभर केिलए ही आपकी समृित
लाकर थोडा सा ही भीतर से आपकी ओर आया हूँ तो तुरनत मुझे आशनासन िमला है, मागरर िमला है, पेम िमला है,
पुचकार िमली है। गुरदेव ! जब मै ििसला हूँ, मनमानी की है, तब-तब तुमहारी डाट िमली है, तुमहारी कडी नजर
िदखी है। जब-जब मै तुमहारी करणा कृपा केअनुकूल चला हूँ तब वही कडी नजर मीठी नजर हईु है।
आपकी कड़ी नज़र भी हमारी गढ़ाई के िलए है और आपकी मीठी िनगाहें भी हमारी
गढ़ाई के िलए है। आपका बोलना भी हमारे कलरयाण के िलए है और मौन होकर सूकरषरम
सहाय करना भी हमारे कलयाण केिलए है। अब इस पकार की अनुभूितया हो रही है।
हे बररहरमवेतरता गुरुदेव ! हे आतरमारामी मेरे गुरुदेव ! आप न जाने िकस-िकस
पकार से हमारा लालन-पालन करते है। आपका कोई पूवव आयोजन नही लेिकन आपकी हर अदा, हर िेषरटा, हर
अँगड़ाई, हर िहलिाल, चाहे ििर हाथ की चेिा हो चाहे नयनो की छटाए हँो, चाहे बोलना हो, चाहे चुप होना हो,
हम लोगों को न जाने िकस-िकस रूप में वह रहसरयमयी अँगड़ाईयाँ िमलती हैं ! नृतरय करता
बह हमारे जीवन मे बहभाव, अपनी बरराहरमी अनुभूित का िसंिन करता है। उन बररहरमवेतरताओं को

एक करषण बाद का भी कोई िन ि र ि त क ा य र र कररमनहींहोताहै।सहजरूप
करते हैं करयोंिक वे सहज सरवरूप में िसरथत होते हैं। िजसने उनकी करीबी का एहसास
िकया है, िजसन अ े प न आे प क ,ोउसपरमातमामे
अपने आपकोपितिितकरिदयाहै
उनमें िमला िदया है
ऐसे बररहरमवेतरताओं की हर िेषरटा बड़ी रहसरयमयी होती है, पारमभ मे हम समझे चाहे न समझे, हम
पा सके, हजम कर सकें िाहे न कर सकें लेिकन उनकी हर िेषरटा बड़ी रहसरयमयी होती है।
उनके िलने, ििरने , खाने, पीने , बोलने , बैठन क े े ढ ं ग क ी छ ो टीसेछोटीचेिाभीहमारेिलएिनतानत
कलरयाणकारी होती है। ऐसे जो परम गुरुलोग हैं, बहवेता सतपुरष है उनका बयान करन क े ीताकतहमारी
िजहा मे नही है।" अनुकररम
िशलपी तो पतथर से भगवान की मूितव बनाता है लेिकन बहगुर सदगुर तो िवरोध करन वेाले, पितििया करनवेाले
मनरद बुिदरध के मनुषरय को बररहरम बनाते हैं। पतरथर में से मूितरर बनाना आसान है करयोंिक
पतथर शंका नही करेगा, िशकायत नही करेगा, िवरोध नहीं करेगा, घर नहीं भागेगा। परंतु साधक तो
घर भी भागेगा, दुकान की तरि भी भागेगा। थोड़ा सुकमरर में िलेगा तो कुकमरर में भी
भागेगा, िचनता मे भी िगरेगा, अहंकार की ओर भी दौड़ेगा। कभी-कभी अपने गुरु के िवषय में उसके
िचत मे कैसे -कैसे िविार उठेंगे। न जाने कैसे-कैसे िखसकने के तरीके खोजेगा,
कैसे-कैसे बिाव के तरीके खोजेगा। पतरथर की मूितरर बनाना आसान है लेिकन इस
किलयुग के िलते पुजेरर, चंचल िचत रखन व े ा ल े म ा न व क ोमहेशरकेअनुभवमेपितिितक
है ! वह अित किठन कायरर सहज में, सवाभािवक, सविनिमवत मनोरज ं न केभाव से परम गुरओं केदारा संपन होता
है।
ऐसे गुरुओं को समझने के िलए हे मेरे साधक! हे मेरे मन ! तू अथाह िवशास, अथाह
साधन-सामगी, अथाह पुरुषाथरर, अथाह पररेम से अथाह ई शर वर को पाने का दृढ़ िन शर िय रखेगा
तभी तू अथाह अनुभव केदाताओं को पहचान पायेगा , उनको समझ पायगा। िजतना तू परमातरमा के िलए
लालाियत रहेगा उतना ही परमातमा केपयारो को पहचान पायगा , उनके िनकट हो पायगा।
हे वतरस ! जो िवकारो केपयारे है , पिरवितवत पदाथों केपयारे है उनकेपभाव से तू बचना। जो परमातमा केपयारे है
औ र तुझ े प र म ा त म ा म े प ित िि त ब न ाक र ह ी च ै न की न ी द ल े न ा च ा ह त े ह ै , तुझे परमातम-पद
में िवशरराम कराने के िलए ततरपर है उनको तू सहयोग करना। आनाकानी मत करना, इनकार मत
करना, िशकायत मत करना, छटकने के उपाय मत करना। तू ििसलने की अपनी पुरानी आदत को
मत पकड़ना।
हे मेरे साधक ! हे भैया ! तेरा जीवन िकतना कीमती है यह वे बहवेता जानते है और तू िकतना तुचछ
चीजो मे िगर रहा है यह भी वे जानते है। ननहा-मुनरना बालक अपनी िवषरटा में खेलता है और सुख मानता
है, अंगारों को पकड़ने के िलए लालाियत होता है, िबचछु और साप से खेलन क े ो लालाियतहोताहै।
उस अबोध बिरिे को पता ही नहीं िक अभी उनके िवषैले डंक तुझे तररािहमाम करा देंगे।
हे साधक ! िवषय-िवकाररूपी िजस मल-मूतरर-िवषरटा में खेलने को ततरपर है वे तुझे बीमार
कर देंगे ! तेरी तनदर ु सती को िबगाड देगे। तू अंगारो से खेलन क े ो जारहाहै! तू तो मिखन-िमशररी खाने को
आया है लाला ! िमटरटी में, गोबर में खेलने को नहीं आया। िौरासी-चौरासी लाख जनमो मे तू इन
गोबरों में, कंकड़-पतथरो मे खेला है, पित पती केतुचछ िवकारी समबनधो मे तू खेला है , तू बकरा बना है, कई बार
तुचछ बकिरयो केपीछे घूमा है। तून न े जान िेकतने -िकतने जनरमों में तुिरछ खेल खेले हैं। अब तू
लाला केसाथ खेल , राम के साथ खेल, अब श तो तू िवजीकी नाईं समािध लगाकर सरव के साथ
खेल।
हे परयारे साधक ! अगर तू अपने सदगुरु को खुश करना िाहता है तो उनकी आजरञा मान
औ र उनकी आ ज ा य ह ी ह ै िक व े ज ह ा ख े ल त े ह ै उस प र म ा त म ा म े तू भ ी ख े ल। गुर ज ह ा
गोता मारते हैं उसी में तू गोता मार भैया ! गुरुओं की जो समझ है वहाँ अपनी वृितरत को
ु ान क े
पहँच ा प य ा स क ? कब तक अंगारों की ओर
र । इ ननशरिखलौनोकोपकडकरकबतकसु खमनायगा
तू
भागेगा ? करुणामयी माँ बिरिे को समझाती है, बचचा रक जाता है। मा इधर-उधर जाती है बिरिा
ििर अंगारो की ओर जाता है, चमकते अंगारो को िखलौना समझकर तू छू लेता है और िचलला उठता है। तब उसकी मा
को िकतना दुःख होता है ! उस समय बालक को माँ की करुण िसरथित का पता नहीं। माँ उसे
थपरपड़मारदेतीहैउस थपरपड़मेंभी वातरसलरय भरा होता है, करुणा होती है। बिरिे का कान पकड़ना भी करुणा
से भरा है। बचचे का हाथ-पैर बाधकर सजा देना भी पयार और करणा से पेिरत होता है।
ऐ साधक ! तू जब गलत रासते जाता है, कंटकों और अंगारों में कदम रखता है तो
सदगुररपी माता-िपता कडी आँख िदखाते है, तू उसे महसूस भी करता होगा। 'गुरु रूठ गये हैं.... नाराज हो
गये हैं.... पहले जैसे नही है....' ऐसा तुझे लगेगा लेिकन गौर से जाँि करेगा तो पता िलेगा
िक तू पहले जैसा नहीं रहा। तू अंगारों की ओर गया, तू िबचछू की ओर गया , तू सपों की ओर गया इसिलए
वे पहले जैसे नहीं भासते। तू शंका-कुशंका में गया, अपनी अलरप मित से बररहरमवेतरता
गुरुओं को तौलने का दुसरसाहस करने को गया इसिलये उनरहोंने कड़ी आँख िदखायी है। वह
भी तेरे कलयाण केिलए है। कडी आँख भी करणा से भरी है , कृपा से भरी है, पेम से भरी है। कडी आँख भी पुकार
से भरी है िक तू चल... चल....। तू रक मत। आगे चल। िगर मत। सावधान हो। ििसल मत। साहस कर। गदार मत
बन, सतकव हो। कृतघ मत बन , कृतजरञ हो।
इस पकार की उन आँखो से झलकती हईु जयोित को तू समझा कर। 'गुरु नाराज हैं' ऐसा करके तू
िशकायत मत कर, दुःखी होकर तू संसार के किरे में अिधक मत कूदना। गुरु नाराज हैं तो
उनरहें िरझाने का एक ही तरीका है िक तू ििर जहाँ भी हो, घर में हो, मिनरदर में हो, अरणरय
में हो, तू ििर धयान करना शुर कर दे, ििर से परमातमा को पयार करना शुर कर दे। तू ििर गुरओं केअनुभव मे
डूबना शुरु कर दे। गुरु की कड़ी आँख, गरम आँख उसी समय तुझे शीतल िमलेगी। गुरु उसी
करषण तुझ पर पररसनरन िदखेंगे। दूसरे करषण में तुझ पर बरसते हुए िदखेंगे। तू उनके
अनुभव में िमटता जा। तू भी अपनी खिटया खेत में रखता जा। तू भी अपना समय साधनारूपी
खेत में िबताता जा। तेरे खेत में गुरु की बुआई हुई है, िसंचाई हईु है। उनहे तेरा खेत लहलहाता
िदखता है। अनुकररम
िकसान का बेटा खेत की रखवाली न करे, खेत में गधे घुस जाएँ तो बाप नाराज
होता है। ऐसे ही हे साधक ! तेरे साधनरपी खेत मे तू अहक ं ार और वासनारपी गधे -गिधयों को मत घुसने
देना। जड़ भोगवादी भैंसों को मत घुसने देना। मीठी-मीठी बात बोलकर तेरे अपने होकर
तेरा समय खराब करन व े ाले-िमि समबनधी रपी गायो को भी मत घुसन द े े न ा ।उ न ट ोलोकोदरूसेआतेदेखताहैतो
चतुर िकसान पहले से ही डड ं ा उठाता है, टािरर उठाता है, आवाज लगाता है। ऐसे ही जब तेरे खेत
में कोई पररवेश करने लगे तो ॐ की गजररना करना। 'नारायण.... नारायण...' रूपी टािरर का
पकाश कर देना। गुरमंि की छडी खटका देना। वे ढोर दरू से ही भाग जाये , पकी उडान ले ले। तेरा खेत चुगन आ े ये
उससे पहले ही तू तैयारी रखना।... तो तेरा खेत बच जायगा।
िकसान िार पैसे के धानरय की इतनी रखवाली करते हैं। उन िकसानों को भी तू गुरु
मान िलया कर इस समय।
ऐ वतरस ! तुझे पता नही लेिकन तेरे गुर को पता है िक तू िया हो सकता है। तुझमे िकतना सारा भरा वह तेरे
परम िहतैषी जानते है। तेरे दोसत तो तेरी ितजोिरया जाचेगे , तेरे िरशते -नाते तेरी तनरदुरुसरती और रूप लावणरय
िनहारेंगे। लेिकन गुरुदेव जो तू है उसको िनहारेंगे। जो तू है वह उनरहें िदखता है।
उनरहें तुझमें जैसा िदखता है वैसा तू एक िदन अपने में खोज ले, वे खुश हो जायेंगे।
वे तुमरहें पहुँिाना िाहते हैं वहाँ तू पहुँिने का साहस कर। तू कहीं थकेगा तो वे तुझे
सहाय करेगे।यह सहाय वे िदखायेगे भी नही, अनरयथा तू लािार हो जायेगा। ििर हर कदम में उनकी
सहाय चाहेगा। चलता रह। तू जहा थकेगा वहा सूकम रप से सहयोग करते रहेगे। तुझे पता तक नही चलन देेगे , वे
इतन उ े दारहै।
बस, टररेन या हवाई-जहाजवाले तो िटकट लेकर ििर तेरी मुसाििरी कराते है। चालू गाडी मे भी िटकट
वसूल करते हैं लेिकन गुरुदेव तो पहुँिने के बाद भी िटकट नहीं माँगेगे।
भगवान सदािशव कहते है िक ऐसे बहवेता सदगुर सब गुरओं मे राजा है। अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
जब तक िचत चंचल है और िवषयो मे सुखबुिदया रमणीयता बुिद बनी हईु है तब तक जान नही हो सकता। मल
औ र िव क े प की िन वृ ित हएु िब न ा तथा िचत शुद हएु िब न ा ज ा न का अ िधक ा र न ह ी ह ो त ा।
सबसे पहले वैरागय होता है, ििर िजजासा होती है। उसकेपिात जान और पेम होता है। जब आतमा का
साकातकार होता है तो उसे जान कहते है और आतमाकार वृित का िसथर रहना ही पेम है।
िचनतन-समरण से सब कुछ हो जायेगा। िचनतन का अभयास िजतना बढेगा , उतनी ही संसार से िवरिकरत
औ र भ ग व त प े म की प ा िपत ह ो ग ी।
'मैं समरपूणरर पररपंि से िभनरन हूँ'-ऐसी भावना करने से िितरत की सामरयावसरथा हो
जाती है। यही िचत की िनिववशेष िसथित है। इसका काल अिधक बढन प े र ि च तिवलीनहोजाताहै।
आसन और वृितरत इन दोनों को ही िसरथर रखकर अभरयास करना िािहए।
– इस सूि केअनुसार िसथर आसन रखकर धयान करना चािहए। चेतनतव की
भावनापूववक इि का धयान दस िमनट पितिदन करन स े े ि ल प ती तह ोगा।तीसिमनटकेअभयाससेिवशेषअ
पतीत होगी और एक घणटा पैतीस िमनट केअटूट धयान से देहानुसधान की िनवृित यािन समािध हो जायेगी।
संकलप-तयाग करन क े ा अ भ या स क र–न से े िनियहीभगवानिमलजातेहैइसकामैठ
सुषुिपत मे जीवातमा पकृित केअधीन रहता है और समािध मे जीवातमा केअधीन पकृित रहती है। जब अिसर िौज
के अधीन रहता है तो िौज उसे मार डालती है और जब अिसर के अधीन िौज रहती है तो
अिसर िाहे जो कर सकता है।
इचछा, िकररया और जरञान इन तीनों का परसरपर समरबनरध है। िकररया रोक देने से आसन
औ र प ा ण ा य ा म ह ो ज ा त े ह ै । इ च छ ा की िन वृ ित ह ो न प े र ध ा र ण ाऔ र ध य ा नहोजात े ह
इचछापूववक ििया न करन प े र ि ि य ा क ीशािनतअथात्समािधहोजातीहै।
जान तो मानो एक अिसर है, जो सबका साकीमाि है। करन ध े र नव े ा लीइचछाहैऔरउसकावयापारह
धरयान से जरञान होता है। धरयान के िबना जरञान रह ही नहीं सकता।
धरयान का अभरयास पिरपकरव हो जाने पर िनदररा कम हो जाती है, धरयानाभरयासी पुरुष एक
डेढ़ घणरटा सोकर भी रह सकता है। इसी से धरयान सरवाभािवक हो जाता है तो ििर आराम की
इचछा नही रहती। जब िचत से िवकेप िनकल जाये तभी धयान पूरा हआ ु समझो।
कुछ भी हो, िबना संयम ककुछ भी नही हो सकता। संयम केदारा ही िदवय दिृि की पािपत होती है। संयमरिहत

जीवन वयथव है। दढ ृ अभयास की िनरनतर आवशयकता है। िशिथल अभयास से कुछ नही होता। सावधान िचत से िनरनतर
अभरयास में लगे रहे। यह पुसरतकी िवदरया नहीं, अनुभव का पथ है।
दृिषरट से सृिषरट बनाना वेदानरत है और सृिषरट से दृिषरट हटाना योग या उपासना है।
तततवजान केिलए कुछ बनाना -िबगाडना नही होता। दैत जयो का तयो बना रहता है और अदैत का बोध हो जाता
है। जैसे सोने के आभूषण बने रहते हैं और उनमें सोने की अखणरडैकरसता का बोध
हो जाता है। इसके िलए सोने को तोड़ना-िोडना नही पडता।
तुमहारा िचत िजतना भगवान मे लगेगा उतनी ही तुमहारी शिित बढेगी। संसार-िचनतन से तुम िजतन ह े ीउपराम
होंगे, संसार तुमसे उतना ही अिधक पेम करेगा। जब भगवान से पूणव पेम होगा तो संसार तुमहारे अधीन होगा।
अनुकररम
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