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Article · July 2013

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Umesh Kumar Singh


University of Delhi
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Pratnakirti, vol.-1, Issue-2, 2013 ISSN 2322-0694

भारद्वाज-कृ त विमानशास्त्र–परक दुर्भ


ल ग्रन्थ - ‘रत्नप्रदीवपका’

- उमेश सिंह 
umeshvaidic@gmail.com

िंार-िंंक्षेप
भारतीय िैज्ञावनक िंावहत्य के शोध-अनुिंन्धान, अध्ययन, मनन-विन्तन तथा विश्लेषण में रुवि रखने िार्े
विद्वानों के वर्ए प्रािीन भारतीय विमान-शास्त्र विगत दो िंौ िषों िंे आकषलण का के न्र रहा है। ‘रत्नप्रदीवपका’ इिं
शास्त्र िंे िंाक्षात्-िंम्बद्ध एकमात्र ऐिंी कृ वत है जो आंवशक रूप िंे ही िंही अवततत्त्ि में है और विमानशास्त्र विषयक
ििाल या विश्लेषण के के न्रविन्दु में भी। प्रततुत शोधपत्र में इिं ग्रन्थ का िंंवक्षप्त पररिय प्रततुत ककया जा रहा है।

की-िर्डिंल - विमान-शास्त्र, रत्नप्रदीवपका, अंशुबोवधनी, भारद्वाज, िंुब्राय शास्त्री, Josyer.

भारत प्रािीन कार् िंे ही विश्व में ज्ञान एिं विज्ञान का प्रकाशक राष्ट्र रहा है। ज्ञान की कोई भी विधा हो;
िंुदरू भारत में इनका पूणल और प्रवतवित विकािं हो िुका था। बीिंिीं शताब्दी में पुनः विकविंत विमानविद्या हो
या इक्कीिंिीं शताब्दी में िर्चित नैनो-टेक्नोर्ॉजी, िंिाांगीण विकािं के िंाथ दोनों का िंमुन्नत उपयोग; प्रािीन
भारत कर िुका है। िूूँकक पररितलन िंंिंार का वनयम है, उत्थान के पश्चात् पतन और पतन के पश्चात् उत्थान
अिश्यम्भािी है इिंवर्ए भारत में भी िरम वतथवत प्राप्त करने के बाद इन िंब शास्त्रों का विवभन्न कारणों (विदेशी
आक्रमण एिं आन्तररक उपेक्षा आकद) िंे ह्रािं हो गया। अवधकांश ग्रन्थ र्ुप्त हो गए और कवतपय दुर्लभ ग्रन्थ आंवशक
रूप िंे ही प्राप्त होते हैं। तथावप वजतनी भी िंामग्री हमें प्राप्त होती है उनिंे इनके विकािं का अनुमान र्गाने में
पयालप्त िंहायता प्राप्त होती है।

वििेच्य ग्रन्थ ‘रत्नप्रदीवपका’ भी इन्हीं र्ुप्त ग्रन्थों की शृंखर्ा में िंे एक है। यह मूर् रूप िंे रत्नशास्त्र िंे
िंम्बन्ध रखती है। इिंमें कम िंे कम िंत्रह अध्याय थे ककन्तु कु र् अध्यायों की िंंख्या ककतनी थी यह पता नहीं
िर्ता है। यह विमानशास्त्र विषयक ‘यन्त्रिंिलति’ नामक ग्रन्थ के प्रणेता महर्चष भारद्वाज विरवित मानी जाती है
इिंवर्ए इिंका महत्त्ि बहुत अवधक माना जाता है। मूर् रूप िंे यह ग्रन्थ विमानशास्त्र और अंशुबोवधनी की भाूँवत
िंूत्रात्मक शैर्ी में वर्खा गया है। इन िंूत्रों के ऊपर ही विमानशास्त्रों और अंशुबोवधनी की भाूँवत ही बोधानन्द यवत
की िृवि प्राप्त होती है। इन िंूत्रों और उनकी िृवि के अवतररक्त बोधानन्द यवत ने िंूत्रों को और अवधक तपष्ट करने
के वर्ए गद्य की भी िंहायता र्ी है, जो कक शैर्ी में िैकदक-िंंवहताओं के ब्राह्मणों की कवडिकाओं जैिंे हैं।

 Project Manager; Indian Languages Corpora Initiative (Funded by DIT) Special Center for Sanskrit Studies,
Jawaharlal Nehru University (JNU), Delhi.
1. प्रािीन भारत में रत्नशास्त्र का विकािं हो िुका था। अथिलिेद में भी हमें मवणयों का उल्र्ेख वमर्ता है यद्यवप िे िंारी मवणयाूँ रत्न ,
नहीं है तथावप महहल िततुओं के प्रवत िेदकार्ीन ऋवष िंतकल थे। ितलमान िंमय में भी महर्चष अगतत्य कृ ता रत्नपरीक्षा प्राप्त है वजिंमें
बहुत िंारे रत्नों के बारे में बताया गया है। कौरटल्य के अथलशास्त्र में भी रत्नों उनके दोष और उनकी परीक्षा के बारे में बताया गया है। ,
रत्नप्रदीवपका अभी तक प्राप्त िंमतत रत्नशास्त्र विषयक िंामग्री िंे अवधक महत्त्ि दो कारणों िंे रखती है - प्रथम इिंका विमानशास्त्र िंे
िंम्बवन्धत होना तथा दूिंरे इिंमें कृ वत्रम हीरे की वनमालणविवध और उिंमें िंहायक यन्त्र का िणलन वमर्ता है।
2. दुःख की बात यह है कक इन िंूत्रों में िंे ितलमान िंमय में के िर् एक िंूत्र ही प्राप्त होता है“ -िज्राश्च।”

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इन कवडिकाओं के अवतररक्त इिं ग्रन्थ में महर्चष शौनक और शौनक िंूत्र का भी उल्र्ेख वमर्ता है वजिंिंे
इिं अनुमान को बर् वमर्ता है कक यह ग्रन्थ िैकदक ऋवषयों और उनके ग्रन्थों िंे िंम्बन्ध रखता है। महर्चष शौनक
अथिलिेद की शौनक शाखा के प्रणेता हैं। शौनक के नाम िंे अनेक िैकदक ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं। इनमें “बृहद्देिता”
और “शौनकीया ितुरध्यावयका” का नाम वर्या जा िंकता है। रत्नप्रदीवपका के अवतररक्त विमानशास्त्र और
अंशुबोवधनी में भी शौनक-िंूत्रों का उल्र्ेख ककया गया है। ये शौनक िंूत्र आज भर्े ही उपर्ब्ध न हों ककन्तु
रत्नप्रदीवपका आकद ग्रन्थों िंे इिंका अनुमान र्गाया जा िंकता है कक यह िेदों की ब्राह्मण शैर्ी में वर्खा गया
विज्ञान एिं तकनीकी िंे िंम्बवन्धत कोई अवद्वतीय ग्रन्थ रहा होगा जो कक अब र्ुप्त हो िुका है। शौनक-िंूत्र ककतना
बड़ा ग्रन्थ था यह तो नहीं पता िर्ता र्ेककन बोधानन्द यवत; रत्नप्रदीवपका के आरवम्भक भाग में ही इनका उल्र्ेख
करते हैं। अतएि बोधानन्द शौनक के इिं ग्रन्थ िंे भर्ीभाूँवत पररवित थे , ऐिंा माना जा िंकता है। शौनक-िंूत्रों की
भाषा िेदों के उपरान्त, ब्राह्मण ग्रन्थों के िंमान, िरक और िंुश्रुता आकद आिायों की शैर्ी िंे वमर्ती जुर्ती है।
वजिंिंे इनकी प्रािीनता का अनुमान र्गाया जा िंकता है। अधोवर्वखत उद्धरण यही प्रकट करता है-

तदुक्तं शौनकीये-

िंूत्र- अथ िज्रान् प्रिक्ष्यामः। खवनजाः कु र्जाः वशर्जाः कृ तकाश्चेवत। तेषां ित्िारो िणाल
ब्रह्मक्षवत्रयिैश्यशूरभेदात् पुनः प्रवतिणालत्पञ्चसिशवतः पञ्चसिशवतष्षि् सिशच्छू रतयाहृत्य पञ्चोिरशतभेदा
िज्राणावमवत॥

यहाूँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कक शौनक-िंूत्र का प्रारम्भ ‘अथ’ और िंमावप्त ‘इवत’ पर की गई है जो
कक यह द्योवतत करता है कक यह एक आषल ग्रन्थ है। िरक और िंुश्रुत आकद िंंवहताओं में भी इिं उपदेश शैर्ी को
अपनाया गया है। इिंिंे यह माना जा िंकता है कक शौनक िंूत्र की अपरिंीमा भारतीय इवतहािं के मध्यकार् के
पूिल ही है। ककन्तु पूिलिंीमा हम अथिलिेद के कार् को मान िंकते हैं जब आिायल शौनक के द्वारा अन्य ग्रन्थों की
रिना की गई होगी।

आयुिेद में ‘िज्र’ हीरे को कहा गया है। शौनक-िंूत्र में इिंके खवनज, कु र्ज, वशर्ज और कृ वत्रम नामक
िार भेद वगनाए गए हैं। पुनः इन िारों भेदों के भी ब्राह्मण, क्षवत्रय, िैश्य और शूर नामक िार भेद बतर्ाए गए हैं।
इिं प्रकार िज्रों के कु र् ६ प्रकार हो जाते हैं-

1. खवनज ब्राह्मण िज्र


2. कु र्ज ब्राह्मण िज्र
3. वशर्ज ब्राह्मण िज्र

3. अथल की दृवष्ट िंे इिं िंूत्र का कोई और शुद्ध पाठ होना िावहए क्यों कक इिंमें िज्र के एक िंौ पाूँि भेदों को कहा गया है ककन्तु ब्राह्मण ,
भेदों को वमर्ाकर ६िैश्य के पिीिं और शूर के ,क्षवत्रयकु र् ० होता है।
4. "हीरकः पुंविं िज्रोऽस्त्री िन्रो मवणमरश्च िंः। िं तु श्वेतः तमृतो विप्रो र्ोवहतः क्षवत्रयो तमृतः॥
पीतो िैश्योऽविंतः शूरश्चतुिलणालत्मकश्च िंः। रिंायने मतो विप्रः िंिलविंवद्धप्रदायकः॥
क्षवत्रयो व्यावधविध्िंिंी जरामृत्युहरः परः। िैश्यो धनप्रदः प्रोक्तततथा देहतय दार्ढ्लकृत्॥
शूरो नाशयवत व्याधीन् ियततम्भं करोवत ि। पुंस्त्रीनपुंिंकाश्चैते र्क्षणीयावन र्क्षणैः॥
िंुिृिाः फर्िंंपूणालततेजोयुक्ता बृहिराः। पुरुषातते िंमाख्याता रे खावबन्दुवििर्चजताः॥
रे खावबन्दुिंमायुक्ताः षिस्रातते वस्त्रयः तमृताः॥ वत्रकोणाश्च िंुदीहालश्च ते विज्ञेया नपुंिंकाः।
तेषु तयुः पुरुषाः श्रेिाः रिंबन्धनकाररणः। वस्त्रयः कु िलवन्त कायतय कासन्त स्त्रीणां िंुखप्रदाः॥
नपुंिंकातत्ििीयालः तयुरकामाः िंत्त्ििर्चजताः। वस्त्रयं स्त्रीभ्यः प्रदातव्याः क्र्ीिं क्र्ीिे प्रयोजयेत्।
िंिेभ्यः िंिलदा देयाः पुरुषा िीयलिद्धलनाः॥ अशुद्धं कु रुते िज्रं कु िं पाश्वलव्यथां तथा।
पाडिु तां पङ्गुरत्िञ्च ततमात् िंंशोध्य मारयेत्॥ आयुः पुसष्ट बर्ं िीर्य्यां िणां िंौख्यं करोवत ि।
िंेवितं िंिलरोगघ्नं मृतं िज्रं न िंंशयः॥ भािप्रकाशः वनहडटु ७०- ७९

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4. कृ तक ब्राह्मण िज्र
5. खवनज क्षवत्रय िज्र
6. कु र्ज क्षवत्रय िज्र
7. वशर्ज क्षवत्रय िज्र
8. कृ तक क्षवत्रय िज्र
9. खवनज िैश्य िज्र
10. कु र्ज िैश्य िज्र
11. वशर्ज िैश्य िज्र
12. कृ तक िैश्य िज्र
13. खवनज शूर िज्र
14. कु र्ज शूर िज्र
15. वशर्ज शूर िज्र
16. कृ तक शूर िज्र

रत्नों का िातुिलडयल के अनुिंार यह विभाजन भी िेदप्रेररत है। िारों िणों का िंिलप्रथम उल्र्ेख हमें ऋग्िेद
में प्राप्त होता है। पुरुषिंूक्त में इिंका तत्त्िमीमांिंीय दृवष्ट िंे बहुत िंुन्दर वनदशलन ककया गया है। िेद के देिताओं का
भी इिं िातुिलडय के अनुिंार विभाजन ककया जाता है, बृहतपवत आकद जहाूँ ब्राह्मण की श्रेणी में रखे जाते हैं, िहीं
रुर, िरुण और इन्र क्षवत्रय तथा पूषा शूर माने जाते हैं। इिं परम्परा को आयुिेद के वनहडटु भी तिीकार करते हैं
तथा विवभन्न धातुओं और पदाथों के विवभन्न रूपों को इन िारों िणों के अनुिंार विभावजत करते हैं। अध्ययन की
िंुविधा की दृवष्ट िंे िततुओं के िगीकरण की यह परम्परा प्रायः िंभी शास्त्रों में िंमान रूप िंे तिीकार की गई है।
िंम्पूणल िंृवष्ट में ऐिंा कोई भी विषय नहीं है वजनका िगीकरण इिं दृवष्ट िंे न ककया जा िंके । िणलमार्ा के तिरों एिं
व्यञ्जनों को भी इन िार श्रेवणयों में िगीकृ त कर कदया गया है। पशु -पक्षी भी इिं विभाजन के अन्तगलत िगीकृ त
ककए गए हैं। कहने का तात्पयल यह है कक िज्र का इिं प्रकार का ितुधाल विभाजन इिं ग्रन्थ की प्रािीनता को पुष्ट
करता है।

रत्नप्रदीवपका में रत्नशास्त्र विषयक कु र् आिायों का नाम प्राप्त होता है और ग्रन्थों का उद्धरण कदया
गया है-

. शौनकिंूत्रम् या शौनकीयम्- रिवयता शौनक

. मावणभरकाररका

. पार्चथि वनहडटु - रिवयता िंम्भितः िंाम्बमुवन

. वशर्ाणलि वनहडटु - रिवयता िंम्भितः िंाम्बमुवन

५. िज्रानुशािंन

६. कल्पानुशािंन- रिवयता नारायणमुवन

७. पदिंंग्रहदीवपका (कल्पानुशािंन की टीका)

८. क्षारकल्प

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९. वनयालिंकल्प

०.मृवद्वज्ञानिवन्रका

.गुणरत्नाकर

.अभ्रकाभरण

.क्षारवनणलयावधकार (ककिंी ग्रन्थ का एक अध्याय)

प्रततुत रत्नप्रदीवपका भी विमानशास्त्र के दैिीय प्राप्तकताल५ ति. पं. िंुब्राय शास्त्री जी के द्वारा तमृत है तथावप
इिंका प्रकाशन ज्योवतषी और िंंतकृ त के र्ब्धप्रवति विद्वान् G.R. Josyer के द्वारा ककया गया है। इिंकी भूवमका में
ति. Josyer इिं िंन्दभल में कोई जानकारी नहीं देते हैं कक उन्हें यह ग्रन्थ कहाूँ और कै िंे वमर्ा? और इिंका अनुिाद
उन्होंने विमानशास्त्र की भाूँवत तियं ककया है अथिा ककिंी अन्य के द्वारा कृ त है? इिं ग्रन्थ के िंाथ एक ही वजल्द में
तीन और र्हुकाय ग्रन्थ प्रकावशत हुए थे-

1. Yantras or Machanisms

2. Weapons of War

3. Patanjali’s Yoga

ये तीनों र्गभग एक मोनोग्राफ जैिंे बनाए गए हैं। इिंमें तृतीय िंंर्ग्नक जैिंा कक नाम िंे ही प्रतीत होता
है, महर्चष पतञ्जवर् का योग िंूत्र है। इिंमें योगिंूत्रों का अंग्रेजी अनुिाद भी कदया गया है। वद्वतीय में िंंतकृ त िंावहत्य
में िर्चणत युद्ध के उपकरणों का पररिय कदया गया है तथा इिंके िंाथ ही युद्ध िंम्बन्धी पाश्चात्य देशों की प्रगवत पर
िंंक्षेप में पररिय कदया गया है।

इिंमें िंबिंे अवधक महत्त्िपूणल प्रथम िंंर्ग्नक है। इिंमें महर्चष भरद्वाज के द्वारा बताए गए ६५ यन्त्रों का
नाम तथा उनका अत्यल्प िणलन कदया गया है। र्ेककन यहाूँ पर उन यन्त्रों के नाम मात्र ही िंंतकृ त में हैं और इनिंे
िंम्बवन्धत िणलन की कोई िंंतकृ त काररका नहीं है। इन ६५ यन्त्रों में िंे यन्त्रों का एक भेद मृगाकषलण यन्त्र बताया
गया है, जो कक पशुओं के शवक्त द्वारा िर्ाया जाता था। बैर्गाड़ी, रहट आकद यन्त्र इिंी श्रेणी के माने जा िंकते हैं।
शेष ६ यन्त्रों का जो िणलन यहाूँ वमर्ता है िह बहुत अद्भुत है। इिं पर िंामान्य रूप िंे विश्वािं करना करठन है
कक प्रािीन भारत में इतने िमत्कारी यन्त्र बनाने की विवध हमारे ऋवषयों के द्वारा बताई गई थी। इिंमें कु छ यन्त्र
ऐिंे भी हैं जो कक आधुवनक इञ्जन की भाूँवत जैविक या िानतपवतक तेर्ों और मकदरा आकद िंे िर्ते थे (ध्यातव्य है
कक मकदरा में भी अल्कोहर् की मात्रा के कारण पेट्रोर् आकद की भाूँवत ज्िर्नशीर्ता होती है)।

इन ६५ यन्त्रों के िणलन िंे िंम्बवन्धत िंामग्री ककिं ग्रन्थ की थी और उिंकी मातृका Josyer को कब और
कहाूँ वमर्ी? इिंकी कोई जानकारी Josyer ने इिं िणलन के िंाथ नहीं दी है। रत्नप्रदीवपका की भाूँवत इिंके बारे में
भी Josyer ने यह तपष्ट नहीं ककया कक यह अनुिाद भी इनका तियं का है अथिा नहीं।

अब प्रश्न उठता है कक इिं वििरण और उिंके अनुिादकताल के बारे में कै िंे पता र्गे? यकद Josyer तियं
इिंके अनुिाद कताल नहीं हैं तो उन्होंने इिंकी मातृका देखी है अथिा नहीं? अगर देखी है तो मूर् िंंतकृ त िंामग्री को

5. िंुब्राय शास्त्री के अनुिंार उन्हें ये िंारे विमानशास्त्रअंशुबो ,वधनी और रत्नप्रदीवपका आकद ग्रन्थ उनके िंूक्ष्मशरीर-धारी गुरु िंे दैिी
प्रकाशना )Divine revelation) के रूप में प्राप्त हुए थे।

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इिं वििरण के िंाथ क्यों नहीं कदया गया है? यकद नहीं देखी तो यह िंामग्री उन्हें कहाूँ िंे प्राप्त हुई है? इन प्रश्नों के
िंाथ यह वनष्कषल भी िंहज ही वनकार्ा जा िंकता है कक ६५ यन्त्रों िंे िंम्बवन्धत मातृका कदावित् इन्हें नहीं प्राप्त
हुई थी नहीं तो िे उन श्लोकों को रत्नप्रदीवपका की भाूँवत अिश्य उद्धृत करते।

प्रश्न शेष है कक यह अनुिाद उन्हें कहाूँ िंे प्राप्त हुआ? इिंके उिर के वर्ए हमें जो िंामग्री प्राप्त होती है उिं
िंे कु छ अनुमान अिश्य र्गाए जा िंकते हैं। इिं िंमतया के िंमाधान के वर्ए हमारे पािं दो विकल्प उपवतथत होते
हैं-

. पहर्े विकल्प में हम देखते हैं कक इन ग्रन्थों िंे िंम्बवन्धत एक महर्चष भरद्वाज द्वारा वनर्चमत और बोधानन्द
द्वारा व्याख्यात प्रमुख ग्रन्थ अंशुबोवधनी है। अंशुबोवधनी िंिलप्रथम िंन् ९ में पारिंी उद्योगपवतयों की
िंहायता िंे िेंकटािर् शमाल के अंग्रेजी अनुिाद के िंाथ मुम्बई िंे प्रकावशत हुई थी। इिं ग्रन्थ की भूवमका में
िेंकटािर् शमाल यह तपष्ट करते हैं कक अंशुबोवधनी का यह अनुिाद िंही अथों में कहा जाय तो अनुिाद नहीं
बवल्क इिंकी अंग्रेजी टीका है। यह उन्हें कन्नड़ भाषा में इिंके प्राप्तकताल पं. िंुब्रायशास्त्री द्वारा बताया गया
था वजिंका इन्होंने के िर् अंग्रेजी रूपान्तरण ककया है। इिं कारण िंे अंशुबोवधनी श्लोकों की अंग्रेजी व्याख्या
में कु छ अन्य ग्रन्थों के नाम प्राप्त होते हैं जो कक मूर् में नहीं हैं। बोधानन्द रवित इन श्लोकों की व्याख्या के
क्रम में पं. िंुब्राय शास्त्री ने जहाूँ- यह बताया कक ऐिंा फर्ाूँ ग्रन्थ में पाया जाता है तो िेंकटािर् शमाल ने
भी िही बात अपने रूपान्तरण में रख दी।

. इिंिंे िंम्बवन्धत दूिंरा विकल्प भी कम रोिक नहीं है। यह विकल्प हमें Josyer द्वारा ककए गए
विमानशास्त्र के अनुिाद की अंग्रेजी भूवमका को देखने िंे प्राप्त होता है। इिंमें उन्होंने यह बताया है कक िंन्
८८५ में श्री िंूयलनारायण राि, B.Sc., M.R.A.S जो कक एक िंम्मावनत ज्योवतषी थे तथा ‘भौवतक
कर्ावनवध’ नामक मरािं िंे वनकर्ने िार्ी पवत्रका के िंम्पादक भी थे, पं. िंुब्राय शास्त्री िंे वमर्े थे। उिं
िंमय उन्होंने पं. िंुब्राय शास्त्री िंे कु छ िंामग्री प्राप्त की थी और अपनी पवत्रका में प्रकावशत भी की थी।
Josyer यह उल्र्ेख करते हैं कक इिंके दुर्लभ ६ अंक इन्हें प्राप्त हुए थे। िंम्भि है कक इन यन्त्रों िंे िंम्बवन्धत
िणलन और िंामग्री इन्हें उक्त पवत्रका िंे प्राप्त हुए होंगे, वजिंे इन्होंने यथाित् प्रकावशत कर कदया।

Josyer ये यह भी उल्र्ेख करते हैं कक ६ जून िंन् ९५ को इनके द्वारा मैिंूर में तथावपत
‘International Academy of Sanskrit Research’ के उद्घाटन िंमारोह में ककिंी िंज्जन के द्वारा एक प्रदशलनी
र्गाई गई थी। उक्त िंज्जन पं. िंुब्राय शास्त्री के ग्रन्थों के िंंरक्षक िेंकटराम शास्त्री के यहाूँ िंे कु छ पुततकें एिं
पाडिु वर्वपयाूँ प्रदर्चशत करने के वर्ए र्ाए थे वजिंिंे Josyer को विमानशास्त्र और िंम्बवन्धत िंामग्री के बारे में
पता िर्ा। बाद में Josyer ने अपने बड़े पुत्र G.S. Josyer के द्वारा िेंकटराम शास्त्री के यहाूँ िंे इिं विमानशास्त्र
िंम्बन्धी िंामग्री का आदान-प्रदान करके विमानशास्त्र का प्रकाशन ककया। यहाूँ यह िंम्भािना प्रकट की जा िंकती
है कक इन ६५ यन्त्रों और रत्नप्रदीवपका िंे िंम्बवन्धत िंामग्री इन्हें िेंकटराम शास्त्री के िंंग्रह िंे प्राप्त हुई हो।
िेंकटराम शास्त्री के िंंग्रह में न के िर् पं. िंुब्राय शास्त्री की िंामग्री रही होगी अवपतु िह िंारा अनुिाद कायल भी रहा
होगा जो कक िंुब्राय शास्त्री के वनदेशन में िेंकटािर् शमाल ने ककए होंगे। प्रततुत रत्नप्रदीवपका एिं ६५ यन्त्रों िंे
िंम्बवन्धत िणलन भी वनश्चय ही इिं िंंग्रह का अंश रहा होगा।

उपयुलक्त दोनों विकल्पों पर वििार करने पर प्रश्न उठता है कक यहाूँ पर कौन िंा विकल्प प्रबर् है वजिंे
तिीकार ककया जाना िावहए? रत्नप्रदीवपका की अंग्रेजी व्याख्या में प्राप्त होने िार्े अन्तःिंाक्ष्य िंे हमें कु छ िंहायता
प्राप्त होती है। रत्नप्रदीवपका में हम पाते हैं कक इिंके मूर् में नारायणमुवन की ओर िंे कृ तकिज्र को बनाने के वर्ए
अपेवक्षत िंामग्री को दो काररकाओं के माध्यम िंे बताया गया है-

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नारायणोऽवप-

कृ तकिज्रोपयुक्त पदाथालनथ कीत्यलत।े

प्राणक्षारत्रयं शोणग्रािततफारटकपञ्चकम्॥

ककशोरं मृत्पञ्चकं ि िंापां रिंमतः परम्।

वर्ङ्गं शून्यद्वयं िैते पदाथाल िज्रकारकाः॥इत्याकद॥

ककन्तु यहाूँ कहीं भी नहीं बताया जा रहा है कक नारायणमुवन ने कौन िंा ग्रन्थ वर्खा था जहाूँ िंे इन
काररकाओं को उद्धृत ककया जा रहा है, ककन्तु इिंकी अंग्रेजी व्याख्या में बताया गया है कक यह कल्पानुशािंन िंे
उद्धृत है। इिंके अनन्तर ही दो काररकाएूँ पदिंंग्रहदीवपका नामक ग्रन्थ की उद्धृत की जाती हैं ककन्तु मूर् में कहीं
नहीं बताया जाता कक यह कल्पानुशािंन की टीका है। ये दोनों ही तथ्य अंग्रेजी व्याख्या में बताए जाते हैं , वजिंिंे
यह तपष्ट होता है कक रत्नप्रदीवपका की अंग्रेजी व्याख्या भी तियं िंुब्रायशास्त्री ने वर्खिाई थी, जैिंा कक अंशुबोवधनी
के िंाथ ककया है।

यह आश्चयल की ही बात है कक Josyer ने तियं इिं तथ्य का उल्र्ेख कहीं भी नहीं ककया है कक यह िंमतत
िंामग्री उन्हें कै िंे वमर्ी।

रत्नप्रदीवपका का प्रवतपाद्य-
रत्नप्रदीवपका के टीकाकार बोधानन्द की िृवि िंे ज्ञात होता है कक रत्नप्रदीवपका में कम िंे कम ७ अध्याय
थे, और मूर् ग्रन्थ के िंोर्हिें अध्याय में मोवतयों के ८५ भेदों के बारे में बताया गया था ककन्तु अब उिंिंे िंम्बवन्धत
कोई िंामग्री नहीं प्राप्त होती है। ितलमान िंमय में प्राप्त रत्नप्रदीवपका का आरं भ िंत्रहिें अध्याय िंे होता है , वजिंमें
भी के िर् एक ही िंूत्र प्राप्त होता है। िंत्रहिाूँ अध्याय भी अपूणल ही प्राप्त होता है। यह दो भागों में विभावजत है।
पहर्े भाग में प्राप्त बोधानन्दिृवि की काररकाएूँ और अन्य ग्रन्थों के उद्धरण में कहीं भी श्लोकिंंख्या नहीं दी गई है
ककन्तु जब कृ तकिज्र या कृ वत्रम हीरे को बनाने के वर्ए आिश्यक यन्त्र का िणलन आता है तो उिंका प्रारम्भ श्लोक
िंंख्या ८८ िंे ककया जाता है और यह क्रम िज्रभेदों को बताते हुए श्लोकिंंख्या ० पर िंमाप्त होता है। वद्वतीय
विभाग का नाम ‘कृ तकिज्रवििार’ है ककन्तु इिंमें भी कई ग्रन्थों के उद्धरण कदए गए हैं और कहीं भी ककिंी काररका
के वर्ए िंंख्या का उल्र्ेख नहीं ककया जाता है।

इिंके प्रथम भाग में प्राप्त विषय इिं प्रकार हैं-

. िज्रभेद वििरणम्
. प्राणक्षारत्रयं नाम
. शोणग्रािो नाम
. तफारटक पञ्चकं नाम
५. ककशोरनाम
६. मृत्पञ्चकं नाम
७. कृ तकिज्रयन्त्रवनणलयः
८. ऊषरक्षारिज्रवनणलयः
९. शोणभरवशर्ािज्रवनणलयः
०.तफारटकवशर्ािज्रवनणलयः

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.ककशोरिज्रवनणलयः
.श्वेतमृद्वज्रवनणलयः
.िंगरिंिज्रवनणलयः
.गरदिज्रवनणलयः
५.अभ्रकिज्रवनणलयः

वद्वतीय भाग में िर्चणत विषय इिं प्रकार हैं-

. रोणमृल्र्क्षणम्
. श्वेतमञ्जूषामृल्र्क्षणम्
. धिर्मृविकार्क्षणम्
. अजुलनश्वेतमृविकार्क्षणम्
५. िंापलरिंवनणलयः
६. वर्ङ्गं नाम
७. शून्यद्वयं नाम
८. िततुशोधनाविवधवनणलयः
९. प्राणक्षारशुवद्धः
०.प्राणक्षारतिरूपवनणलयः
.शोणग्रािशुवद्धः
.तफरटकशुवद्धक्रमः
.ककशोरशुवद्धक्रमः
.मृत्पञ्चकशुवद्धः
५.िंापलरिंशुवद्धः
६.वर्ङ्गशुवद्धः
७.अभ्रकशुवद्धक्रमः

इन दोनों भागों में ही िर्चणत िंामग्री अत्यन्त रोिक है। ककन्तु इिं िंबिंे अवधक रोिक प्रथम भाग में
िर्चणत ‘कृ तकिज्रयन्त्र’ है। िंम्भितः यह एक जरटर् यन्त्र था वजिंके एक अंग के रूप में ‘विद्युत् शवक्तयन्त्र’ भी था।
यह िज्रयन्त्र विद्युत् शवक्त िंे िावर्त होता था। ितलमान िंमय में हमें विद्युत् के उपयोग योग्य आविष्कार का पता
तब िर्ता है जब िंन् ८ ई. में माइकर् फरािे (Michael Faraday) ने विद्युत मोटर का आविष्कार ककया।
इिंके पूिल विद्युत के यावन्त्रक उपयोग का हमें कोई प्रमाण नहीं वमर्ता है। रत्नप्रदीवपका का यह िणलन ही इिंके
भरद्वाजविमानशास्त्र के िंाथ िंम्बन्ध को पुष्ट करता है। यह अन्य रत्नशास्त्रीय ग्रन्थों जैिंा कोई िंामान्य रत्नशास्त्रीय
ग्रन्थ नहीं है। यह विश्व ज्ञान-विज्ञान के वर्ए दुभालग्य का ही विषय है कक आज रत्नप्रदीवपका अपने िंम्पूणल रूप िंे
उपर्ब्ध नहीं है।

आज प्राप्त होने िार्ी रत्नप्रदीवपका आकार की दृवष्ट िंे कोई महनीय ग्रन्थ नहीं है। इिं िंमय इिंमें कु र्
८ पंवक्तयाूँ प्राप्त होती हैं वजिंमें र्गभग ० श्लोक माने जा िंकते हैं। इिंके अवतररक्त इिंमें दो िंूत्र हैं वजनके
बारे में पहर्े भी बताया जा िुका है। ककन्तु आज भर्े ही यह बृहद् आकार में न उपर्ब्ध हो ककन्तु यह अनुमान
अिश्य र्गाया जा िंकता है कक इिं शास्त्र का विततार ककतना अवधक रहा होगा। ये िंभी ० श्लोक वजिंमें
बोधानन्द यवत की िृवि और अन्य ग्रन्थों के उद्धरण िंवम्मवर्त हैं, रत्नप्रदीवपका के िंत्रह अध्यायों में िंे एक अध्याय
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के मात्र एक िंूत्र की व्याख्या के वर्ए हैं। इिंवर्ए यह कहा जा िंकता है कक विषय की गम्भीरता और दुरू हता की
दृवष्ट िंे यह ग्रन्थ बहुत विशार् रहा होगा।

अन्त में मैं इिं ग्रन्थ की अंग्रेजी व्याख्या के बारे में कहना िाहूँगा। यद्यवप इिं व्याख्या के कताल का पता नहीं
िर्ता है तथावप हमने यह माना है कक यह व्याख्या विमानशास्त्र के प्राप्तकताल पं . िंुब्रायशास्त्री के द्वारा करिाई गई
है इिंवर्ए हमने इिंके मूर् के िंाथ कोई छेड़छाड़ नहीं की है। इिं अंग्रेजी व्याख्या में कृ तकिज्र की वनमालणिंामग्री
में जब श्वेतमृविका आकद का िणलन ककया जाता है जब इिंे अंग्रेजी में white mud के रूप में अनूकदत ककया गया है,
जबकक इिंे clay कहा जाना िावहए था। इिंी तरह अन्य विषय भी विज्ञ पाठकों को प्राप्त हो िंकते हैं। पाठक इिंे
तियं िंमझ र्ें यद्यवप मैंने यथािंम्भि यथातथर् तपष्ट करने का प्रयािं ककया है।

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