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संस्कृ त साहित्य का इतिहास

क्रमसंख्या -:
1. भूमिका
2. वेद एवं उपवेद
3. उपनिषद
4. वेदांग
5. पुराण
6. मीमांसा
7. स्मृतिमंत्रम्
8. संहिता एवं सूत्र
9. इतिहासपुराण(महाभारत और रामायण)
10. अन्य रचनाए
वेद
 हिन्दू धर्म व हिन्दू धर्म ग्रंथों में सबसे पुराने लेख व प्रामाणिक लेख को वेद कहते हैं।
 वेद अपौरुषेयम् हैं जिसका अर्थ है कि वेद किसी मनुष्य द्वारा नहीं लिखे या बताए गए है।
 वेदों को श्रुति भी कहा जाता है जिसका अर्थ है जो सुना जाता है या गाया जा सकता है।
 वेद चार प्रकार के हैं –:
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद
प्रत्येक वेद के चार उपखंड हैं - 
5. संहिता ( मंत्र और आशीर्वाद )
6. आरण्यक (अनुष्ठानों, समारोहों, बलिदानों और प्रतीकात्मक-बलिदानों पर पाठ)
7. ब्राह्मण (अनुष्ठानों, समारोहों और बलिदानों पर टिप्पणी)
8. उपनिषद (ध्यान, दर्शन और आध्यात्मिक ज्ञान पर चर्चा करने वाले ग्रंथ)।
उपवेद
 हर वेद का अपना एक उपवेद है।
 वेद – उपवेद क्रमश: -:
1. ऋग्वेद – इतिहासवेद
2. यजुर्वेद – धनुर्वेद
3. सामवेद – गंधर्ववेद
4. अथर्ववेद – आयुर्वेद
सभी वेद उपनिषद पुराणों के लेखक श्री कृ ष्ण द्वैपायन ऋषि हैं इन्होंने अपने शिष्यों सभी ग्रंथों का बोध कराया ।
उपनिषद
 वेदों के बाद सबसे ज्यादा पढ़ने वाले ग्रंथ उपनिषद हैं।
 उपनिषद वेदों का ही एक अंग है जिसके द्वारा हम वेदों को अच्छे से समझ व अध्ययन कर सकते हैं।
 उपनिषद कि संख्या कु ल 108 है जिसमे 13 प्रमुख रूप से पढे जाते है।
 13 प्रमुख उपनिषदों के नाम क्रमश: -:
(१) ईशावास्योपनिषद्,
(२) के नोपनिषद्
(३) कठोपनिषद्
(४) प्रश्नोपनिषद्
(५) मुण्डकोपनिषद्
(६) माण्डू क्योपनिषद्
(७) तैत्तरीयोपनिषद्
(८) ऐतरेयोपनिषद्
(९) छान्दोग्योपनिषद्
(१०) बृहदारण्यकोपनिषद्
(११) श्वेताश्वतरोपनिषद्
(१२) कौशितकी उपनिषद्
(१३) मैत्रायणी उपनिषद्
वेदांग
 वेदाङ्ग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र को ही वेदांग कहा जाता है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये
छः वेदांग है।

 शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा
कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों
के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
 कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें
हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम
दिये गये हैं।
 व्याकरण - इससे प्रकृ ति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है।
वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण
ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
 निरुक्त - वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया
गया है। इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
 ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना
जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों
का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
 छन्द - वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के
आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।
पुराण
 परु ाण हिन्द ू धर्म के इतिहास को दर्शाते हैं।
 परु ाण साहित्य विश्वकोश है ,और इसमें विविध विषय शामिल हैं जैसे
कि ब्रह्मांड विज्ञान , दे वताओं, दे वियों, राजाओं, नायकों, ऋषियों और दे वताओं की
वंशावली, लोक कथाएं, तीर्थ, मंदिर, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, व्याकरण, खनिज
विज्ञान, हास्य, प्रेम कहानियां, साथ ही धर्मशास्त्र और दर्शन। 
  पुराणों में सामग्री अत्यधिक असंगत है , और प्रत्येक पुराण कई पांडुलिपियों में
बच गया है जो स्वयं असंगत हैं।
  हिंद ू महा परु ाण पारं परिक रूप से " व्यास " के लिए जिम्मेदार हैं", लेकिन कई
विद्वानों ने उन्हें सदियों से कई लेखकों के काम की संभावना माना; इसके
विपरीत, अधिकांश जैन परु ाणों को दिनांकित किया जा सकता है और उनके
लेखकों को सौंपा जा सकता है । 
 400,000 से अधिक श्लोकों के साथ एक महापुराण ,17 मुख्य पुराण (प्रमुख पुराण)
और 18 उप पुराण (लघु पुराण),हैं। विभिन्न पुराणों के पहले संस्करणों की रचना
तीसरी और १०वीं शताब्दी के बीच होने की संभावना थी। परु ाण हिंद ू धर्म में एक
शास्त्र के अधिकार का आनंद नहीं लेते हैं,लेकिन उन्हें  स्मति
ृ के रूप में माना
जाता है  । 
 18 मुख्य पुराण क्रमश: (1 महापुराण सहित) -:
1. अग्नि पुराण
2. भागवत पुराण
3. भविष्य पुराण
4. ब्रह्मांड पुराण
5. ब्रह्म पुराण
6. ब्रह्मवैवर्त:
7. गरुड पुराण
8. कू र्म पुराण
9. लिंग पुराण
10. मार्क ण्डेय पुराण
11. मत्स्य पुराण
12. नारद पुराण
13. पद्म पुराण
14. शिव महापुराण
15. स्कन्द पुराण
16. वामन पुराण
17. वराह पुराण
18. विष्णु पुराण
मीमांसा
 मीमांसाशास्त्र कर्मकांड का प्रतिपादक है; अतः मीमांसक पौरुषेय, अपौरुषेय सभी वाक्यों को कार्यपरक मानते
हैं।
 मीमांसासूत्र को 'पूर्वमीमांसा' तथा वेदान्त को 'उत्तरमीमांसा' भी कहा जाता है। पूर्ममीमांसा में धर्म का विचार है
और उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का।
 अतः पूर्वमीमांसा को 'धर्ममीमांसा' तथा उत्तरमीमांसा को 'ब्रह्ममीमांसा' भी कहा जाता है। जैमिनि मुनि द्वारा
रचित सूत्र होने से मीमांसा को 'जैमिनीय धर्ममीमांसा' कहा जाता है।
 मीमांसा दर्शन १६ अध्यायों का है, जिसमें १२ अध्याय क्रमबद्ध हैं। शास्त्रसंगति, अध्यायसंगति, पादसंगति
और अधिकारसंगतियों से सुसंबद्ध है। इन बारह अध्यायों में जो छू ट गया है, उसका निरूपण शेष चार अध्यायों
में किया गया है जो 'संकर्षकाण्ड' के नाम से प्रसिद्ध है। उसमें देवता के अधिकार का विवेचन किया गया है,
अत: उसे 'देवता काण्ड' भी कहते हैं अथवा द्वादश अध्यायों का परिशिष्ट भी कह सकते हैं। 
 मीमांसा दर्शन के 12 अध्याय क्रमश: -:

(१) इस दर्शन के  प्रथमाध्याय में धर्मप्रमाणों का निरूपण किया गया है और विधि, अर्थवाद मंत्र, स्मृति, शिष्टाचार, नामधेय, संदिग्धार्थ निर्णायक
वाक्यशेष और सामर्थ्य का निरूपण किया गया है।
(२) द्वितीयाध्याय में शब्दांतर, अभ्यास, संख्या, संज्ञा, गुण और प्रकरणांतर, ये छह कर्म भेद के प्रमाण हैं।
(३) तृतीयाध्याय में श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या ये छ: विनियोजक (अंगता बोधक) प्रमाण हैं।
(४) चतुर्थाध्याय में, श्रुति अर्थ, पाठ, स्थान, मुख्य और प्रवृत्ति में छह बोधक प्रमाण हैं।
(५) पंचमाध्याय में अतिदेश, प्रत्यक्षवचनातिदेश, नामातिदेश, कल्पित वचनातिदेश, आश्रयातिदेश और स्थानापत्ति अतिदेश ये सात प्रकार के
अतिदेश हैं।
(६) छठे अध्याय में यज्ञों के करने और करानेवालों के अधिकार का निर्णय है।
(७) सातवें और आठवें में एक यज्ञ की विधि को दूसरे यज्ञ में करने का वर्णन है।
(८) आठवें अध्याय में एक यज्ञ की विधि को दूसरे यज्ञ में करने का वर्णन है।
(९) नवम अध्याय में तीन प्रकार के "ऊह" का निरूपण है (मंत्रोह,सामोह,संस्कारोह)।
(१०) दशमाध्याय में तीन प्रकार के 'बाध' (अर्थलोप,प्रत्याम्नाय,प्रतिषेध) का निरूपण है।
(११) एकादशाध्याय में तंत्र और आवाय का निरूपण है।
(१२) द्वादशाध्याय में "प्रसंग" का निरूपण है।
स्मृतिसूत्र
 स्मृति अर्थ स्मरण/याद करने योग्य।
 स्मृति पौरुषेयम् जिसका

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