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अष्टाङ्गहृदयम् Final 3 !
अष्टाङ्गहृदयम् Final 3 !
अष्टाङ्गहृदयम्, आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचयिता वाग्भट हैं। इसका रचनाकाल ५०० ईसापूर्व से लेकर २५० ईसापूर्व तक अनुमानित
है। इस ग्रन्थ में औषधि (मेडिसिन) और शल्यचिकित्सा दोनो का समावेश है। यह एक संग्रह ग्रन्थ है, जिसमें चरक, सुश्रुत, अष्टांगसंग्रह तथा
अन्य अनेक प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों से उद्धरण लिये गये हैं। वाग्भट ने अपने विवेक से अनेक प्रसंगोचित विषयों का प्रस्तुत ग्रन्थ में समावेश
किया है। चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टाङ्गहृदयम् को सम्मिलित रूप से वृहत्त्रयी कहते हैं।अष्टांगहृदय में आयुर्वेद के सम्पूर्ण विषय-
कायचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, आदि आठों अंगों का वर्णन है। उन्होंने अपने ग्रन्थ के विषय में स्वयं ही कहा है कि, यह ग्रन्थ शरीर रूपी
आयुर्वेद के हृदय के समान है। जैसे- शरीर में हृदय की प्रधानता है, उसी प्रकार आयुर्वेद वाङ्मय में अष्टांगहृदय, हृदय के समान है। अपनी
विशेषताओं के कारण यह ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ।
संरचना
अष्टांगहृदय में 6 खण्ड, 120 अध्याय एवं कु ल 7120 श्लोक हैं। अष्टांगहृदय के छः खण्डों के नाम निम्नलिखित हैं-
टीकाकार-
कठिन पदों या वाक्यों आदि की सरल भाषा में व्याख्या लिखने वाला व्यक्ति।
विशेषताएँ
1. सूत्रस्थान में 30 अध्याय है। दिनचर्या, ऋतुचर्या, द्रव्यगुणविज्ञान, का विस्तृत वर्णन है।
2. शल्यविधि, शल्य आहरण (शरीर में चुभे धातु के टुकड़े को शस्त्र से निकालना), शिरा वेध (रक्त को वहन करने वाली शिरा का वेध करना) आदि का वर्णन है।
3. अष्टांगहृदय पद्यमय है जबकि अष्टांगसंग्रह गद्य एवं पद्य दोनों रूप में है।
6. वाग्भट्ट संहिता के निदानस्थान, शारीरस्थान, चिकित्सास्थान,कल्पस्थान तथा उत्तरस्थान में सम्पूर्ण रोगों का निदान (कारण), लक्षणों, रोग के भेद, गर्भ एवं शरीर सम्बधित
विषयों का विस्तृत वर्णन है।
7. अरिष्ट वर्ग या रोगों का वह लक्षण जिससे रोग की साध्य-असाध्यता एवं मृत्यु का ज्ञान होता है, इसका विस्तृत वर्णन है।
8. समस्त रोगों की चिकित्सा, पंचकर्म के लिए औषधि द्रव्यों का वर्णन, पंचकर्म विधि, हानियों, उपचार आदि का वर्णन है।
9. बाल रोग, बालकों में ग्रह विकार, भूत विद्या एवं मानसिक रोगों का वर्णन है।
10. उर्ध जत्रुगत रोगों (सिर, आंख, नाक, कान के रोग) के लक्षण, गुप्त रोगों (स्त्री एवं पुरूषों के जननागों में होने वाले रोग) के कारण, लक्षण एवं चिकित्सा का व्यापक रूप से
वर्णन दिया है।
11. अपने समकक्ष आचार्यो के आयुर्वेद से सम्बन्धित सिद्धान्तों को सरलता से समझाना इस संहिता की विशिष्टता है।
12 . अष्टांगहृदय की जितनी टीकाएँ हुई हैं उतनी अन्य किसी ग्रंथ की नहीं |
अष्टांगहृदय का स्वरुप
व्याख्या :
उन आयुर्वेदिक पाठ्य पुस्तकों से, जो बहुत विस्तृत हैं और इसलिए अध्ययन करना बहुत कठिन है, अष्टांग हृदय में के वल सार एकत्र और प्रस्तुत किया जाता है, जो न तो
बहुत छोटा है और न ही बहुत विस्तृत है।
आयुर्वेद के आठ अंग
1. काय चिकित्सा
2. बाल चिकित्सा
3. ग्रह चिकित्सा
4. ऊर्धवांग चिकित्सा
5. शल्य चिकित्सा
6. दंष्ट्रा चिकित्सा
7. जरा चिकित्सा
8. वृष् चिकित्सा
आयुर्वेद में वाग्भट का योगदान