You are on page 1of 11

सुप्रभातम ् !

सादर वंदन !

सश्र
ु ी कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पस्
ु तक" उपक्रम के अन्तर्गत मैं
डॉ. मीना ताई मोघे के निर्देश को सहर्ष स्वीकार कर आज से सात दिनों तक अपनी पसंद के संगीत
विषयक 7 ग्रंथों की संक्षिप्त जानकारी दे ने का प्रयास कर रहा हूँ !

आज सर्वप्रथम मैं भारतीय शास्त्रीय संगीत के सर्वप्रथम आधार ग्रंथ “नारदीय शिक्षा” का संक्षिप्त
परिचय दे रहा हूँ ! भारतीय शास्त्रीय संगीत का आधार “सामवेद” को माना जाता है जिसमें केवल
गढ
ू मंत्र हैं ! वेदों में निहित गढ़
ू ार्थ को वेदांग की सहायता से समझा जा सकता है ! वेदांग छ:
हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छं द और निरुक्त ! इनमें से प्रथम वेदांग ‘शिक्षा’ में
मुख्यत: वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है । शिक्षा ग्रंथों की रचना स्वर एवं वर्ण
आदि के उच्चारण-प्रकार की शिक्षा दे ने हे तु की गयी है । नारदीय शिक्षा नामक ग्रंथ में सामवेद में
दिए गए मंत्रों के उच्चारण , सामगायन के स्वरों का विस्तत
ृ विवेचन तथा संगीत शास्त्र से संबंधित
अन्य विषयों का भी उल्लेख मिलता है !

यह ग्रंथ इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें शिक्षाकार नारद ने तुंबरू, नारद, वसिष्ठ, विश्वावसु
तथा कश्यप इन पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है परं तु इसमें भरतमुनि का उल्लेख नहीं है जो इस
बात का द्योतक है कि यह ग्रंथ नाट्यशास्त्र से पर्व
ू का है । शिक्षाकार नारद ने श्रति
ु , स्वर , तीन
ग्राम, दे व, पितर तथा ऋषियों की 7-7 मूर्च्छ नाओं का और 7 ग्रामरागों का उल्लेख किया है ।

नारदीय शिक्षा में विकृत स्वरों का उल्लेख नहीं है परं तु श्रुति व साधारण स्वरों की जो कल्पना दी है
उसी का विकास नाट्यशास्त्र में श्रुति और साधारण स्वरों के विवेचन के रूप में हुआ होगा ऐसा कहा
जा सकता है । इस ग्रंथ में ऋषियों की 7 मूर्च्छ नाओं के उत्तरमन्द्रा आदि जो नाम दिए गए हैं वे
ही नाम नाट्यशास्त्र में षडज ग्राम की मूर्च्छ नाओं के हैं ।

यह ग्रंथ दो प्रकरणों में विभक्त है जिन्हें प्रपाठक कहा गया है तथा प्रत्येक प्रपाठक के आठ-आठ
भाग हैं जिन्हें कंडिका कहा गया हैं ! इसप्रकार इस ग्रंथ के कुल 16 अध्याय हैं !

इस ग्रंथ के कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं , मेरे पास श्रीपीताम्बरापीठ-संस्कृत-परिषद्, दतिया (म.प्र .)
द्वारा प्रकाशित संस्करण उपलब्ध है जिसमें मल ू ग्रंथ के साथ उसपर भट्टशोभाकरविरचित
“शिक्षाविवरणोपेता” टीका का भी समावेश है !

यह ग्रंथ दर्ल
ु भ है तथा ग्रंथ विक्रेताओं के पास मिलना मुश्किल है । मैंने मूर्च्छ ना पर अपने शोधकार्य
के दौरान आज से लगभग 17 वर्ष पर्व
ू श्रीपीताम्बरापीठ-संस्कृत-परिषद्, दतिया (म.प्र .) से मात्र रु.
6/- में प्राप्त की थी तब उनके पास भी एक-दो प्रति शेष बची थी !
कोई जिज्ञासु यदि इसे पढ़ना चाहे तो मुझसे इसकी छायाप्रति (फोटोकॉपी) प्राप्त कर सकता है !

कल इसी शंख
ृ ला में भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ भरतमुनिप्रणीत “नाट्यशास्त्रम ्” का
संक्षिप्त परिचय दं ग
ू ा !

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com
सुप्रभातम ् !

सादर वंदन !

सश्र
ु ी कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पस्
ु तक" उपक्रम के अन्तर्गत
आज भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ भरतमुनिप्रणीत “नाट्यशास्त्रम ्” की संक्षिप्त जानकारी
दे ने का प्रयास कर रहा हूँ !

‘नाट्यशास्त्र’ भारतीय विविध शास्त्रों का एक ‘बह


ृ त ् कोश’ है ! रस, छं द, भाषा, अभिनय, वास्तु
कला, स्थापत्य कला, अभिनय, रं गमंच, गीत, संगीत, नत्ृ य इत्यादि में से कोई भी विषय ऐसा
नहीं है जिसका विवेचन इस ग्रंथ में न हुआ हो ! भारतीय प्राचीन नाट्यकला के सिद्धांतों पर
प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र ग्रंथ है । 37 अध्यायों में विभक्त इस ग्रंथ में विविध कलाओं
और विषयों का विवेचन किया गया है !

नाट्य दृश्य तथा श्रव्य दोनों होने के कारण इसके प्रयोग हे तु केवल गीत, वाद्य तथा नत्ृ य की ही
नहीं अपितु अन्य तत्वों की भी आवश्यकता होती है । इसी आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए
महर्षि भरत ने ऋग्वेद से ‘पाठ्य’ , सामवेद से ‘संगीत’ , यजर्वे
ु द से ‘अभिनय’ और अथर्ववेद से
‘रस’ को लेकर उनका यथायोग्य परिमाण में मिश्रण कर पंचम वेद ‘नाट्यवेद’ या ‘नाट्यशास्त्र’ की
रचना की है । महर्षि भरत द्वारा वर्णित नाट्य भाषा, अभिनय, धर्मी, वत्ति
ृ ,प्रवत्ति
ृ , सिद्धि,
स्वर, आतोद्य , गान एवं रं ग विषयक ज्ञान का संकलन है तथा इन सभी तत्वों का यथास्थान
तथा यथायोग्य परिमाण में प्रयोग ही उसे सफल बनाता हैं !

नाट्यशास्त्रकाल में संगीत के दो प्रकार प्रचलित थे ‘गांधर्व’ तथा ‘गान’ । ‘गांधर्व’ का मुख्य
प्रयोजन ‘अदृष्ट फल प्राप्ति’ अर्थात दे वताराधन होने से नाट्य में इसका प्रयोग ‘निषिद्ध’ था व
‘गान’ का मुख्य प्रयोजन ‘जनरं जन’ या ‘चित्तरं जन’ होने के कारण नाट्य में प्रयोग की अनुमति
थी । ‘गान’ भी ‘गांधर्व’ के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित था अंत: भरतमुनि ने अध्याय क्रमांक
28 से 34 तक गांधर्व व गान का विस्तत
ृ विवेचन किया हैं ।

विद्वानों का मानना है कि इस ग्रंथ का रचनाकाल लगभग 600 से 400 ई. पू. है । इस पर


लोल्लट,उद्भट, कीर्तिधर, भट्टनायक, मातग
ृ ुप्त, हर्ष तथा अभिनवगुप्त इन पूर्वाचार्यों ने टीका की
है ऐसा उल्लेख परवर्ती ग्रंथों में मिलता है परं तु इनमें से एकमात्र अभिनवगुप्त की ही टीका आज
उपलब्ध है ।

मध्यकाल में अन्य संगीत व नाट्य विषयक ग्रंथों के निर्माण के कारण नाट्यशास्त्र लप्ु तप्राय हो
गया था । आधुनिक काल में सन ् 1827 में एच. एच. विल्सन ने ‘हिन्द ू थियेटर’ नामक पुस्तक
प्रकाशित की जिसमें नाट्यशास्त्र ग्रंथ का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि यह ग्रंथ अब
नष्ट हो चुका है । इसके पश्चात ् आधुनिक विद्वानों का ध्यान इस और आकर्षित हुआ और इस
दिशा में शोध और चिंतन पुन: प्रारं भ हुआ । सन ् 1894 में निर्णयसागर प्रेस ने सम्पूर्ण
नाट्यशास्त्र ग्रंथ का प्रकाशन किया जिसका सम्पादन पं. शिवदत्त व पं. परब ने किया था ।
इसके पश्चात ् पं. रामकृष्ण कवि व उनके सहयोगीयों के प्रयत्नों से मलाबार में अभिनवगुप्त की
अभिनवभारती इस टीका की पांडुलिपियां मिली व सन ् 1956 से 1964 के बीच अभिनवभारती
टीका सहित नाट्यशास्त्र को चार भागों में बड़ौदा से ‘गायकवाड ओरिएंटल सीरीज’ के अंतर्गत
प्रकाशन हुआ । इसके पश्चात ् डॉ. मनमोहन घोष, आचार्य विश्वेश्वर , डॉ. रघुवंश, डॉ. बाबूलाल
शुक्ल आदि विद्वानों ने मूल व अनुवाद सहित इनका प्रकाशन किया !

कुछ अन्य पांडुलिपियाँ मिलने पर उनके आधार पर पाठ भेदों का समावेश कर सन ् 2006 में
‘गायकवाड ओरिएंटल सीरीज’ के अंतर्गत अभिनवभारती टीका सहित सम्पर्ण
ू नाट्यशास्त्र का चार
भागों में पुन: प्रकाशन हुआ।

नेपाल से मिली एक अन्य पांडुलिपि के आधार पर कालिदास संस्कृत अकादमी द्वारा पं.
कमलेशदत्त त्रिपाठी, पं. बच्चूलाल अवस्थी, डॉ. प्रेमलता शर्मा, प्रो. अजिता त्रिवेदी आदि
विद्वानों के संयक्
ु त प्रयास से सम्पर्ण
ू नाट्यशास्त्र का प्रकाशन चार भागों में किया गया ।
प्रकाशनपर्व
ू संगीत विषयक पाठभेदों पर चर्चा कर पाठ निर्धारण हे तु कालिदास अकादमी द्वारा
आयोजित एक कार्यशाला में डॉ. एन. रामनाथन ्, श्रीमती हे मा रामनाथन ्, डॉ. अनिल बिहारी
ब्योहार, प्रो. अजिता त्रिवेदी आदि विद्वानों के साथ अध्ययन करने का सुअवसर मुझे भी प्राप्त
हुआ था ।

नाट्यशास्त्र में संगीत विषयक विवेचन 28 से 35 अध्यायों में आया है ।

28 वां अध्याय स्वराध्याय है जिसमें श्रुति, स्वर, संवाद, चतुर्विध वाद्य, ग्राम, मूर्छ ना, जाति
इन विषयों का विवेचन किया गया है ।
29 वां अध्याय ततातोद्यविधानाध्याय है जिसमें जातियों के अंश स्वरगत रस, तत ् अर्थात ् तंत्री
वाद्यों का विवेचन किया गया हैं ।
30 वां अध्याय सषि
ु रातोद्यविधानाध्याय है जिसमें सषि
ु र अर्थात ् फँू क से बजने वाले वाद्यों का
विवेचन किया गया हैं ।
31 वां अध्याय तालाध्याय है जिसमें प्राचीन गीतों के ताल का विवेचन किया गया है ।
32 वां अध्याय ध्रुवाध्याय है जिसमें नाट्य में प्रयुक्त होने वाले गीत प्रकार ‘ध्रुवा’ गीतों का
विवेचन किया गया हैं ।
33 वां अध्याय गण
ु दोषविचाराध्याय है जिसमें गायक व गायन के गण
ु -दोषों का विवेचन किया
गया हैं ।
34 वां अध्याय पुष्कराध्याय है जिसमें अवनद्ध वाद्य अर्थात ् चमढा मढ़े हुए पुष्कर, मद
ृ ं ग,
दरु दरु , पणव, ऊर्ध्वक आदि प्राचीन वाद्यों और उनकी वादन विधि का विवेचन किया गया हैं ।
इसके अतिरिक्त अध्याय क्रमांक 5 ‘पूर्वरङ्ग विधानाध्याय’ में नाट्य आरं भ करने से पूर्व होने
वाले कर्मकांड के अंतर्गत दे वताराधन हे तु होने वाले कार्यक्रमों में तत्कालीन शास्त्रीय प्रकार ‘गांधर्व’
के नांदी गायन, गीतक, निर्गीत ् आदि का भी संक्षिप्त विवेचन मिलता है ।

मेरे पास बड़ौदा से सन ् 2006 में ‘गायकवाड ओरिएंटल सीरीज’ के अंतर्गत अभिनवभारती
टीकासहित प्रकाशित इस ग्रंथ के चारों भाग उपलब्ध हैं जिनका कुल मूल्य 2500 रु. है । इस
ग्रंथ के प्रकाशक हैं – ओरिएंटल इंस्टीट्यूट, वडोदरा (गुजरात) है ।

कल इसी शंख
ृ ला में भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ “दततिलं” पर डॉ मक
ु ंु द लाठ की पस्
ु तक
A Study of Dattilam का संक्षिप्त परिचय दं ग
ू ा !

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com
सुप्रभातम ् !

सादर वंदन !

सश्र
ु ी कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पस्
ु तक" उपक्रम के अन्तर्गत
आज भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ दत्तिलमुनिप्रणीत “दत्तिलम ्” ग्रंथ के अध्ययन पर
आधारित पद्मश्री डॉ. मुकंु द लाठ जी की अंग्रेजी पुस्तक A Study of Dattilam – A treatise on
the Sacred Music of Ancient India का संक्षिप्त परिचय दे ने का प्रयास कर रहा हूँ !

244 श्लोकों के इस छोटे से “दत्तिलम ्” ग्रंथ में भरतमनि


ु वर्णित तत्कालीन संगीत ‘गांधर्व’ के विषय
– स्वर, श्रुति, अंश, न्यास, वादी, संवादी, विवादी, अंतर-काकली, मूर्छ ना, जाति, प्राचीन आसरित आदि
गीत प्रकारों का जो वर्णन आया है वह नाट्यशास्त्र के विवेचन का प्रतिबिंब प्रतीत होता है , तथापि
इसकी मौलिकता भी स्पष्ट होती है ।

डॉ. मक
ु ंु द लाठ जी ने इस ग्रंथ पर अपने अध्ययन को अत्यंत शोधपर्ण
ू रूप में प्रस्तत
ु किया है ।

प्रथम अध्याय में उन्होंने नाट्यशास्त्र व “दत्तिलम ्” दोनों की विषय प्रतिपादनशैली की तुलना करते
हुए इस ग्रंथ की मौलिकता को सिद्ध किया है ।

द्वितीय अध्याय में उन्होनें प्राचीन भारतीय संगीत ‘गांधर्व’ के स्वरूप, विस्तार, व्याप्ति व
मर्यादा/सीमा का विस्तत
ृ विवेचन किया है ।

तत
ृ ीय अध्याय में उन्होंने “दत्तिलम ्” ग्रंथ को स्वर तथा ताल इन दो भागों में विभक्त करते हुए
मूल पाठ व पाठ भेद दिए हैं । उन्होंने समस्त श्लोकों को अंग्रेजी लिपि में डाय-क्रिटिकल मार्क्स के
आधारपर लिप्यंतरण कर दिए हैं ।

अंतिम चतुर्थ अध्याय में उन्होंने “दत्तिलमुनि” के विषय में विस्ततृ जानकारी दे ते हुए उन्होंने किन-
किन पूर्वाचार्यों का नामोल्लेख किया है , किन-किन आचार्यों के उद्धरण दिए हैं, कौन उनके समकालीन
है , संगीत विषयक तथा अन्य विषयक किन-किन ग्रंथों में “दत्तिल” का उल्लेख मिलता है , यह
विस्तत
ृ जानकारी दी है ।

अंतिम अध्याय के बाद तीन परिशिष्ट दिए हैं जिनमें क्रमश: “दत्तिल का काल”, “नाटक शब्द के दो
अर्थ” तथा “गांधर्व में अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग” विषयों पर विस्तत
ृ विवेचन किया है ।

डॉ. मुकंु द लाठ जी ने अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से उत्तम शोध-प्रविधि के आधार पर विषय प्रतिपादन
किया है जो शोधार्थियों हे तु अत्यंत महत्वपूर्ण है । मेरे शोध कार्य में मझ
ु े इस पुस्तक की बहुत
सहायता मिली है । इस पुस्तक का प्रकाशन Impex India, नईदिल्ली द्वारा सन ् 1978 में किया
गया था तथा यह पुस्तक मैंने रु.350/- में आज से लगभग 15 वर्ष पर्व
ू दिल्ली से खरीदी थी ।

कल इसी शंख
ृ ला में भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ मतंगमुनि प्रणीत “बह
ृ द्देशी” का संक्षिप्त
परिचय प्रस्तुत करूंगा !

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com
सप्र
ु भातम ् !

सादर वंदन !

सुश्री कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पुस्तक" उपक्रम के अन्तर्गत
आज भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ मतंगमनि ृ द्देशी” ग्रंथ का संक्षिप्त परिचय
ु प्रणीत “बह
दे ने का प्रयास कर रहा हूँ !

बह
ृ द्देशी यह ग्रंथ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भरतमुनि और दत्तिलाचार्य के काल के बाद संगीत
में होने वाले परिवर्तन से उत्पन्न ‘दे शी’ संगीत का वर्णन करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है । बह
ृ द्देशी
का रचनाकाल 600 से 800 ईसा पूर्व है ! इस ग्रंथ का सर्वप्रथम संस्करण त्रिवें द्रम संस्कृत
सिरीज के अंतर्गत सन ् 1928 में छापा गया जिसे के. सांबशिवशास्त्री ने संपादित किया है ।
इस ग्रंथ में संगीत को ‘ध्वनि’ नाम दे कर दे श-दे श में प्रचलित ध्वनि को दे शी कहा है । मेरे पास
इंदिरागांधी नेशनल सेंटर ऑफ परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स द्वारा कलामूलशास्त्र ग्रंथमाला के अंतर्गत
प्रकाशित संस्करण है जिसका सम्पादन डॉ. प्रेमलता शर्मा और डॉ. अनिल बिहारी ब्योहार जी ने
किया है ।

यह संस्करण दो खंडों में विभक्त है । प्रथम खंड में दे शी , नाद, श्रति


ु , स्वर, ग्राम-मर्च्छ
ू ना ,
वर्ण-अलंकार तथा पाद-गीति विषयों का विवेचन किया गया है । द्वितीय खंड में जाति, राग,
भाषा, विभाषा दे शी राग, प्रबंध इन विषयों का विस्तत
ृ विवेचन किया गया है ।

इस ग्रंथ की विशेषता है की इसमें द्वादश स्वर मूर्छ नाएं बताई गयी है तथा रागों का प्रथम
विस्तत
ृ विवेचन इस ग्रंथ में ही मिलता है ।

कल इसी शंख
ृ ला में भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ शारं गदे वप्रणीत “संगीत रत्नाकर” का
संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करूंगा !

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com
सुप्रभातम ् !

सादर वंदन !

सश्र
ु ी कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पस्
ु तक" उपक्रम के अन्तर्गत
आज भारतीय शास्त्रीय संगीत के आधार ग्रंथ आचार्य शारं गदे वकृत “संगीत रत्नाकर” ग्रंथ का संक्षिप्त
परिचय दे ने का प्रयास कर रहा हूँ !

तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखा गया यह ग्रंथ महामुनि भरत के सिद्धांतों का प्रतिपादन
करने वाला एक उत्कृष्ट ग्रंथ है । ‘सप्ताध्यायी’ नाम से प्रसिद्ध इस ग्रंथ में प्राचीन एवं सामयिक
संगीत का विशद वर्णन मिलता है । सात अध्यायों में क्रमश: स्वर, राग, प्रकीर्ण विषय, प्रबंध-
भेद, ताल, वाद्य एवं नत्ृ य का विशद वर्णन मिलता है ।

संगीत शास्त्र के ही नहीं अपितु नाट्यशास्त्र के भी मूर्धन्य आचार्य माने जाने वाले अचार्यप्रवर
शारं गदे व ने महर्षि भरत, मतंग, याष्टिक, दर्गा
ु शक्ति, शार्दूल, कोहल, दत्तिल, विशाखिल,
विश्वावस,ु इत्यादि कई आचार्यों के ग्रंथों एवं मतों का आधार लेकर संगीत पद्धति के बिखरे हुए
मणियों को एकत्र कर उन्हें सव्ु यवस्थित ढं ग से एक सत्रू में पिरोकर ‘संगीत रत्नाकर’ की रचना
की है । इसी कारण इस ग्रंथ में विभिन्न मतों के मणी अपनी एक स्वतंत्र आभा बिखेरते हैं ।
यह ग्रंथ सही अर्थों में संगीत शास्त्र के रत्नों से भरा हुआ ‘रत्नाकर’ अर्थात ् समुद्र है ।

इस ग्रंथ पर कल्लिनाथ तथा सिंहभूपाल ने संस्कृत में टीका की हैं । संगीत रत्नाकर के कई
संस्करण प्रकाशित हुए हैं जिनमें से कुछ में इन ् टिकाओं का भी समावेश किया गया है ।
आधुनिक विद्वानों में डॉ सभु द्रा चौधरी ने इस ग्रंथ पर सरस्वती टीका हिन्दी में की है जो डॉ
खंडों में प्रकाशित हुई हैं ।

मेरे पास संगीत नाटक अकादमी द्वारा दो खंडों में प्रकाशित “Sangitratnakara of
Sarangadeva” है जिसका सम्पादन आर. के. शंग
ृ ी तथा डॉ. प्रेमलता शर्मा जी ने किया है ।

कल इसी शंख
ृ ला में महाराणा कंु भ विरचित ‘संगीतराज’ ग्रंथ का का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करूंगा !

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com
सुप्रभातम ् !

सादर वंदन !

सुश्री कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पुस्तक" उपक्रम के अन्तर्गत आज
भारतीय शास्त्रीय संगीत के ग्रंथ महाराणा कंु भकर्ण विरचित “संगीतराज” ग्रंथ का संक्षिप्त परिचय दे ने
का प्रयास कर रहा हूँ ! इस ग्रंथ को “संगीतमीमांसा” तथा “षोडशसाहस्री” भी कहा जाता है । राणा
कुम्भा बड़े कलाप्रेमी थे। वे स्वयं नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणा वादन में प्रवीण थे । उन्होंने
संस्कृत भाषा में अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविन्द आदि ग्रंथों की
व्याख्या की। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि
सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथों की रचना भी कारवाई ।

पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लिखा गया “संगीतराज” ग्रंथ संगीत , नत्ृ य, वाद्य तथा रस विषयक
सिद्धांतों का एक उत्तम कोश है जिसमें पाँच अध्यायों के अंतर्गत 16000 श्लोकों का समावेश किया
गया है । अध्यायों को रत्नकोश कहा गया हैं । पाँच अध्याय क्रमश: 1) पाठ्यरत्नकोश, 2)
गीतरत्नकोश , 3) नत्ृ यरत्नकोश, 4) वाद्यरत्नकोश तथा 5) रसरत्नकोश । बनारस हिन्द ू
विश्वविद्यालय द्वारा नेपाल के महाराजा द्वारा संस्कृत ग्रंथों के प्रकाशन हे तु सन ् 1960 में दिए
गए एक लाख रुपयों के अनुदान से स्थापित प्रकल्प “हिन्द ू विश्वविद्यालय नेपाल राज्य संस्कृत
ग्रंथमाला” प्रकल्प के अंतर्गत “संगीतराज’ ग्रंथ को दो खंडों में प्रकाशित किया गया है । इस
संस्करण का सम्पादन डॉ. प्रेमलता शर्मा जी ने किया है ।

इस ग्रंथ के प्रथम खंड में लगभग 6000 श्लोकों के दो अध्यायों को प्रकाशित किया गया हैं
जिनके नाम हैं – 1) पाठ्यरत्नकोश तथा 2) गीतरत्नकोश ।

मुझे केवल प्रथम खंड उपलब्ध हो सका है , द्वितीय खंड अब (लगभग 20 वर्ष पर्व
ू ) उपलब्ध नहीं
है ।

कल इसी शंख
ृ ला में पार्श्वदे वकृत ‘सङ्गीतसमयसार’ ग्रंथ का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करूंगा !

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com

सादर वंदन !

सुश्री कलापिनी कोमकली द्वारा प्रारं भ किए गये "सात दिन सात पुस्तक" उपक्रम के अन्तर्गत
आज भारतीय शास्त्रीय संगीत के ग्रंथ आचार्य पार्श्वनाथ (पार्श्वदे व) विरचित “संगीतसमयसार” ग्रंथ का
संक्षिप्त परिचय दे ने का प्रयास कर रहा हूँ ! आचार्य पार्श्वदे व आचार्य शारं गदे व के समकालीन थे
। इस ग्रंथ में प्राचीन व मध्यकालीन गायन, वादन व नत्ृ य का संक्षिप्त परं तु उत्तम विवेचन
मिलता है । इस ग्रंथ के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं प्रथम संस्करण त्रिवें द्रम संस्कृत सिरीज से
सन ् 1901 में श्री टी. गणपतीशास्त्री जी ने संपादित किया था तथा द्वितीय संस्करण भारतीय
ज्ञानपीठ द्वारा सन ् 2006 में आचार्य कैलाशचंद्र दे व बह
ृ स्पति ने संपादित किया था । मेरे पास
दोनों ही संस्करणों की सॉफ्ट प्रति उपलब्ध है । यह ग्रंथ 9 अधिकरणों (अध्यायों ) में विभक्त है

संगीत रत्नाकर ग्रंथ की सिहभूपालकृत टीका में आचार्य पार्शवदे व के कई उद्धरण मिलते हैं जो
प्रकाशित संस्करणों में नहीं मिलते। इस ग्रंथ पर अभी शोध की आवश्यकता हैं ।

धन्यवाद !

डॉ. अश्विन भागवत


4 विद्या नगर, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
संपर्क क्रमांक : 98260 24137 / 86024 32160
ई मेल : ashvin.bhagwat@pmprojectsindia.com

You might also like