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हैं, [मालर ए' जैल-छान-ल

है 811810111- ०२/४काय१
य 81110.112
जिक्र-हि-प्राकार-प्रवेशिका
4 प्र-रि: पु८गा१प१ह जि- 8216.:::

मूल-लेखक
डरी, आर्थर एल मैंकडानल

अनुवादक
भी कपिलदेव द्विवेदी आचार्य,
एम० ए० (संस्कृत, हिन्दी), बी० फिलू०, पी० ई० एस०, विद्याभास्कर,
व्याकरणाचार्य, अध्यक्ष अकृत-विभाग, गवर्नमेंट कालेज, ज्ञानपुर (वाराणसी)

मो ती ला ल ब ना र सी दा स
दिल्ली : : वाराणसी : : पटना
(ट मो ती ला ल ब ना र भी दा स
प्रधान कार्यालय : बंगलों रोड, जवाहर नगर, किल्ली-भी
आखाएँ : (:) चौक, वाराणसी (उ० प्र०)
(२) अशोक राजपथ, पटना (बिहार)

तृतीय संस्करण (अग्रेजी) : ९२७ का हिन्दी रूपान्तर


प्रथम संस्करण : १९७३
मूल्य : रु० : २-००

सुन्दरलाल जैव मोतीलाल बनारसीदास, बाते रोड, जवाहर नगर, दितली-७


द्वारा प्रकाशित तथा शानिश्रील जन, जैनेन्द्र प्रेस, बंगलों रोड,
जवाहर नगर, दितली-७ द्वारा मुदित ।

तो ख्यातिजा-केरे अर्थ
तृतीय संस्करण का आमुख
संस्कृत व्याकरण के इस नये संस्करण का सम्पादन करते हुए मुझे पूर्व
संस्करणों में जो कतिपय मुद्रण दोष मिले उन्हें मैंने यहां नहीं आने दिया है
और पुस्तक को छस्वीपयोगी बनाने के लिये आवश्यक परिवर्तन भी कर दिये
है, जैसे कि प्रत्येक पृष्ट के शिखर-कोण में अध्याय और अनुच्छेद के सांकेतिक
अंक भी दे दिये हैं ।
इस कृति के अनुच्छेदों में संस्कृत व्याकरण के प्राय: सभी नियम आजाते
हैं । इनमें से कई अनुच्छेद प्रारंभिक शिक्षा के लिये अनुपयुक्त होने के कारण
वउर्य हैं; वे उत्तरकालीन अध्ययन के लिये ही उपादेय हो सकते हैं । प्रारम्भिक
पालम के लिये निम्न सूची में दिये गये अनुच्छेद ही उपयोगी हैं । इन अनु
च्छेदों के संकलन से संस्कृत व्याकरण की प्रारम्भिक पाम पुस्तक का निर्माण
हो जाता है ।
(: १-७, ८-१२, १३० २ : १६-२२, २७, ३०-३४, ३६ अ. आ-, ३७, ३८,
४०, ४र-४४, ४५, (:), जि), ५२, ५५, ६५, ६७. ३:७०, ७१, ७३, ७४,
७७, ८५, ८७, ९०, (:), ९७, १००, १०१, (ई) (प" ६०), १०३, (:),
(त्) १०९-१११, १२०. ४ : १२१-१२८, १३१, १३२ (केवल वर्त० पररमै०
पृ० ८६, ८८), १३५, १३६, १३८, (:) (केवलपतुदू, परसे), १४१
(का (केवल परसे), १४३ (१) (केवल परअं०) १४७ (केवल परसे),
१४८ (केवल अदल), १५१ (केवल पखर्म०), १५४ (केवल वर्त० कामा),
१५६, १६०, (:), (२), १६२, १६३, १६७, १६८, १६९, १७२, १७५
जब छात्र इन अनु-छेदों को पल लेगा तब उसे संस्कृत पाठमाला के पाठ
समझने की योग्यता हो जायेगी । इन पाटों में कुछ नये व्याकरण रूप भी
मिलेंगे जिनकी व्यायाम उन अनुच्छेदों में की गई है जो उसने छोड़ रखे थे ।
अब वह उन अनुच्छेदों का भी अध्ययन करेगा । इस प्रकार तथा शब्द कोष
( ४ )
की सहायता से वह एक ही महीने में, नलीपास्थान, प्रथम सर्ग के प्रत्येक शब्द
को समझ सकेगा और उसे किसी भी सरल संस्कृत रचना को समझने के लिये
पर्याप्त जानकारी हो जायेगी ।
सत् १८१ : में इस कृति का द्वितीय संस्करण प्रकाशित होने के उपरान्त
सत १९१६ में मेरी अन्य कृति "छाजोपयोगी वैदिक व्यायाकरण" (साब:
निप्रा१1य१र सिर 5111.101115) का प्रकाशन हुआ । तब मेरीप्रस्तुत कृति में तृतीय
परिशिष्ट (वैदिक व्याकरण की मुख्य विशेषताएँ) अनावश्यक-सा प्रतीत होने
लगा । तो भी मैंने उसे हटाया नहीं, क्योंकिवह वैदिक व्याकरण का एक सक्षेप
है और प्रारम्भिक छात्रों के लिये उस विषय को सरलता से समझने में परम
उपयोगी है ।
आर्थर ए० मैंकडानल
२० बार्वर्वल रोड,
आसल.
नवंबर, १९२६
वितीय संस्करण का आमुख
लिसमूलर का संस्कृत व्याकरण (द्वि० सं०, सत १८७०), जिसका मैंने
(सत् १८८६ में) संक्षेपणकिया था, मेरी प्रस्तुत कृति का मूल रूप था । छावा
वस्था में तथा शिक्षक पद के कार्यकाल में मुझे प्रारंभिक व्यायाकरण शास्त्र के
अनावश्यक एवं अनुपादेय तत्वों का अनुभव हो गया था । अतएव मैंने मैल
मूलर के संस्कृत व्याकरण का संक्षेपण किया था । वह संक्षेपण, अय:, मेरी
इस धारणा का भी परिणाम था कि संस्कृत व्याकरण की उपलब्ध रचनायें
पाणिनि की पद्धति से प्रभावित होने के कारण अनावश्यक ही संस्कृत भाषा
को दुरूह कर देती है । संस्कृत व्याकरण शास्त्र के संक्षिप्त इतिहास से, जोकि
प्रस्तुत कृति के आरंभमें दिया गया है, पर्याप्त रूप से पतग चलेगा कि भारतीय
व्याकरण शिक्षा-पद्धति पाश्चात्य शिक्षा की व्यावहारिक पद्धति के अनुरूप नहीं
बैठती ।
सत् १९०१ में प्रस्तुत व्याकरण का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ जो
कि मेरे प्रारंभिक (अर्थात : ८८६ के संक्षिप्त) व्याकरण का सर्वथा नया रूप
थम । यद्यपि यह संस्करण पूर्णरूपेण परिवर्तित था तो भी इसमें कई त्रुटियाँ
आ गई थी क्योंकि इस संस्करण में मैंने सिद्ध.: उन सभी नियमों को
छोड़ दिया था जो वैदिक साहित्य की भाषा में चरितार्थ होते थे और जिनका
समावेश हिन्दू व्याकरण पत्रों में हुआ था । मेरा उद्देश्य था कि संस्कृत व्या
करण में उन्हीं व्याकरण रूपों की व्याख्या की जाय जो वैदिक-कालीन
संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त हुए है । मेराविचार था कि इस प्रकार, संस्कृत व्या
करण शास्त्र के छात्र अनुपयोगी विषयवस्तु के बोझ से बच जायेगे । इसलिये
मैंने वैदिक शठदों का प्रतीक रूप में भी प्रयोग नहीं किया, यद्यपि प्रस्तुत "व्या
करण की पूर्णता के लिये मैंने ऐसे कई श०-दों के सुबन्त रूप भी दिये जो वैदिक
शब्दों से मिलते-जुलते थे । इस कृति का उद्देश्य प्रयोग-समूह एवं नियमावली
मात्र प्रस्तुत करना अथवा परीक्षा प्रश्नोत्तरी तयार करना नहीं यता किन्तु
( ६ )
छात्रों के लिये पूर्ण व्याकरण सामग्री जुटाना था ताकि वे किसी भी संस्कृत
रचना को सही रूप में, सरलता से समझ सकें ।
प्रस्तुत कृति प्रथम संस्करण का पूर्णरूपेण संशोधित सस्करण है जो मेरे
दशवर्षर्थि अध्यापन का फल है, तथा जो मेरे उन छात्रों के सुझावों का भी
परिणाम जिन्होंने मेरे प्रथम संस्करण का प्रयोग किया था । जो सुधार इसमें
हुए हैं वे मुख्यतया परिवर्धन हैं जिन्होंने चौबीस पृथ्वी से पुस्तक के आकार को
बढा दिया है ।
प्रस्तुत संस्करण में मैंने तीन नये खंड जोड़ दिये हैं (पृ० १४२-१ ५२) ।
पहना खण्ड (अनुच्छेद १८२ ) कृदन्त और तडित रूपों का है जिसमें कृत और
यत प्रत्ययों का विवरण दिया है जिससे छात्र को संस्कृत शब्दों की रचना
का पूर्ण ज्ञान हो सकता है जो कि प्रथम संस्करण से सम्भव नहीं था । दूसरे
खण्ड में इन प्रत्ययों से संस्कृत संज्ञाशब्दों के लिंग निर्धारक नियमों का सर्वेक्षण
किया गया है (अनु० १ ८३ ) । तीसरे खण्ड में समाज समास की रचना का
विवरण किया गया है (अनु० : ८४) । परिवर्धन के विशेष उल्लेखनीय स्वल है
सन्धिप्रकरण में दन्त्य नासिका के नियम । इन नियमों के अन्तर्गत तू के परि
बर्तनों का पूर्ण विवरण दिया है है शब्दरूपों में कतिपय नये सुबन्नों का परिचय
भी है जैसे ग्रावन् (अनु० ९०, ४) । कुछ अन्य कठिन प्रयोग भी दिये हैं जैसे
कि उदर के सू तुत् में रूप (अनु० १४४, ५) । यद्यपिइस वातु के रूप आ-हमने
पद में नही मिलते तो भी इसके आत्मनेपद-रूप उन आत्मनेपदी धातुओं के
प्रतीक रूप में दे दिये हैं जो तदनुरूप स्वरसंहति-वैषम्य को प्रकट करती हैं ।
अन्य सुधारों का प्रयोजन है व्याकरण शास्त्र की प्रयोगविधि का सरलीकरण,
जैसे कि धातुसूची (परिशिष्ट ( ) में विविध रूपों के परिचायक संकेत-चिह्न
जोड़ दिये हैं जिनके बिना प्रारंभिक छात्रों के लिये उन रूपों को समझना
कठिन हो जाता । इसके अतिरिक्त, संस्कृत शब्दसूची को अधिकतर पूर्ण और
व्याख्यात्मक कर दिया है (दे० उदाहरणार्थ प्राकृत शब्द) : निश्चित ही अन्य
उपयोगी सुधार हैं-आरंभ में विस्तृत विषयसूची के स्थान पर विषयवस्तु का
संक्षिप्त सारांश और अन्त में सामान्य शब्दसूची । मेरी यह निश्चित धारणा है
कि ये सभी विषय-था एवं आकारसंवंधी परिवर्धन और परिवर्तन प्रस्तुत
व्याकरण के प्रयोगात्मक महत्व को विशेषरूप से बढायेंगे ।
( ७ )
प्रस्तुत संस्करण में, जैसे कि प्रथम संस्करण में, सर्वत्र लिप्यान्तरण-पद्धति
का प्रयोग किया गया है । इसके अपवाद हैं धातुसूची (परिशिष्ट : ) औरवाक्य
रचना के उदाहरण (अनु० १८० ; १ ९०-२ १ ८) । सम्पूर्ण पुस्तक में लिप्यान्तरण
पद्धति का समरूप प्रयोग हुआ है और यही पद्धतिप्राय: पश्चिम में प्रचलित है ।
इस पद्धति में ऋ का उचारण भी शब्द तीय.: में र व्यंजन के समान है
जो यर अथवा र वर्ण की स्वराधातहींन अपश्रुति को द्योतित करता है ।
प्रस्तुत संस्करण में जो सुधार हुए है उनका श्रेय मेरे पुराने शिशयों अथवा
मेरे मित्रों को है जि-कक इस दिशा में अपने महत्वपूर्ण सुझाव दिये । वे हैं
प्रोफेसर ई. जे. रमन, डा० जेम्स ममरिसन, श्रीएमा एल पुरी बी. ए. (एक्लटेर
कालेज), भी होरस हाई, एम. ए. कान्दालर यूनीवर्सिटी प्रेस, और विशेषतया
टी. ई. गोइर, अई सी. एस, बाधम कालेज, एफ. ड-आयू. अमल लायग्रेरियन
इंडिया आफिस । यूनीवर्सिटी प्रेस के ओरियंटल रीडर श्री जे. सी. पेम्वे आन
देरी एम. ए- ने अपने सहम अवधान से इस संस्करण के मूकों का संशोधन
किया है जैसे कि चौसठ वर्ष पूर्व, : ८४७ में उन्होंने, अपने पिता के सहयोग से,
प्रो० एचु- एत विल्सन की कृति असंस्कृत व्याकरण' के मूफी का संशोधन किया
था । सत् : ९० ० से लेकर आजतक जो मेरी पुस्तकें प्रकाशित हुई उनके तथा
प्रस्तुत कृति के मूक पड़ने के लिये मैं डा० ए. बी. कीथ का आभारी हूँ । इस
प्रसंग में मैं उन्हें वैदिक व्याकरण के पूफ पड़ने के लिये, और जब मैं सितम्बर
१९०७ से अप्रेल १८०८ तक भारत में रहा मेरी अनुपस्थिति में मेरे वैधिक
व्याकरण के मुद्रण का पर्यवेक्षण करते हेतु भी धन्यवाद देता हूँ ।
: ०७, बनस्वरी रोड, आर्थर ए, मैंकडानल
जुलाई, १९१ :

रहैत-स दृन्द्रदृ१मल

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भूमिका
संस्कृत व्यायाकरण-ज्ञास्त्र का संक्षिप्त इतिहास
पवित्र वैदिक संहिताओं को पूर्णतया सुरक्षित रखनेकी धार्मिक भावना ने
ही भारत वर्ष में व्याकरण पढने की सर्वप्रथम प्रेरणा की थी । उस समय यह
मान्यता थी कि वैदिक संहिताओं के प्रत्येक वर्ण के शुद्ध उच्चारण से ही पूर्ण
इष्टसिद्धि होगी । इस प्रकार संस्कृत भाषा की बडीपरिस्कृतता से प्रभावित होकर
प्राचीन भारतीय वैयाकरणपहचानेशताब्दी ई० पू० में ऐसे वैज्ञानिक परिणामों
पर पहूँचे, जिसकी समानता प्राचीन जगत् का कोई देश नहीं कर सका । उदा
हरणरूप में यह उनकी प्रमुख देन है कि उन्होंने सर्वप्रथम यह पता लगाया
कि शब्द अधिकांश: एक ओर धातु पर निर्भर हैं और दूसरी ओर प्रत्यय पर ।
जब प्रत्यय धातु से समस्त होते हैं तो धातु का अर्थ अनेक प्रकार से परिवर्तित
हो जाता है 1
आजकल जो सबसे प्राचीन व्याकरण सुरक्षित है, वह है पाणिनि का
व्याकरण । यह व्याकरण के पूर्णतया विकसित रूप को प्रकट करता है ।
पाणिनि इस व्याकरण-परम्परा के अन्तिम लेखक है । इस लम्बी प्राचीन
परम्परा के कम से कम ६४ वैयाकरणों का नाम उहिलखित है । पाणिनि के
'व्याकरण की सर्वोत्कृष्टता और व्यापकता के कारण सभी प्राचीन व्याकरण
पूर्णतया नष्ट हो गए है ।
पाणिनि-मास्क (संभवत: ५०० ई० पू० के लगभग) से काफी बाद में
हुए हैं । पाणिनि ने यास्क का उल्लेख किया है । पाणिनि और यास्क केबीच
में भी कई बडे वैयाकरण हो चुके हैं । दूसरी ओर पाणिनि अपने भाष्यकार
पतंजलि से बहुत प्राचीन हैं, जिसका समय संभवत: ई० पू० द्वितीय शताब्दी
का उत्तरार्ध है । इन दोनों वैयाकरणों के बीच में एक मह-वैयाकरण कात्या
यन भी हैं । पाणिनि ने स्वयं 'बनानी' शब्द का प्रयोग किया है, जिसकी
व्याख्या कात्यायन ने 'यवनों की लिपि' की है, अर्थात् यूनानियों या 11-2
( ९ )
की लिपि । यह सर्वथा संभव प्रतीत नहीं होता है कि ३२७ ई० पू० में हुए
सिकन्दर के अस्कमण से पहले भारतीय यूनानियों की लिपि से परिचित थे ।
किन्तु इस आक्रमण के तुरन्त बाद भारतकी पश्चिमोत्तर सीमा (सीमान्त प्रदेश)
के निवासियों को इस भाषा का ज्ञान हुआ होगा और पाणिनि भी सीमान्त
के निवासी होने के कारण उससे परिचित हुए होंगे । यवन (यूनानी) शब्द
से उनकी लिपि का अर्थ बताने के लिए प्रत्ययान्त शब्द यवनानी (यवनों की
लिपि) बनाने से पूर्व यह आवश्यक है कि सीमान्त प्रदेश के लोगों का उनसे
संपर्क स्थापित हो चुका हो । अल पाणिनि का समय ३०० ई० पू० से पहले
रखना अत्यन्त कठिन है ।
पाणिनि के व्याकरण 'अ-जि' में लगभग ४ हजार सूत्र हैं, जो आठ
अध्यायों में विभक्त हैं । यह व्याकरण अत्यन्त सूक्ष्म शैली अर्थात् सूत्ररूप में
बनाया गया है, अता प्रत्येक सूत्र में २ या ३ पद मिलते हैं । यदि सारा व्या
करण देवनागरी लिपि में मध्यमश्रेणी के मोटे टाइप में लगातार छापना जाए
वह इस प्रकार के लगभग ३५ पृथ्वी में पूरा छप जाएगा । फिर भी यह व्या
करण संस्कृत भाषा का सर्वागपूर्ण व्याकरण उपस्थित करता है । ऐसा पूर्ण
व्याकरण विश्व में कहीं भी उपलब्ध नहीं है । यह विश्व का सबसे छोटा और
सबसे पूर्ण व्याकरण है ।
पाणिनि ने लौकिक संस्कृत के परिष्कार को ध्यान में रखकर सर्वागीण
अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । साथ ही पाणिनि ने यह भी प्रयत्न
किया है कि लौकिक संस्कृत-व्याकरण के साथ ही वैदिक व्याकरण को भी
उसमें संगृहीत किया जाए । वैदिक ग्रन्थों की भाषा पाणिनि के समय तक
दुर्बल हो चुकी थी । यद्यपि पाणिनि ने वैदिक व्याकरण के सैकडों सूत्र दिए
हैं, परन्तु वह व्याकरण अपूर्ण है । समहिरूप से विचार करने पर यह ज्ञात
होता है कि पाणिनि ने वैदिक व्याकरण का जो अंश दिया है, उसमें बहुत
कभी रह गई है, कयोंकि उसमें बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातें छूट गई है और
छोटी-छोटी बातें उहिलखित की गई है । वैदिक व्याकरण वाले अंश में पाणिनि
निश्चितरूप से अपने विषय पर पूण-धिकार करने में असमर्थ रहे हैं । वेद में
व्याकरण-संबन्धी असीम एट है, विशेषरूप से तिहुन्त और सुबन्त रूपों में
तिर और सुर प्रत्ययों का परसपर परिवर्तन या उनका लोप होना ।
( १० )
पाणिनि का व्याकरण 'मदानु-न' (अर्थात शब्द विषयक प्रबन्ध ग्रंथ)
है । इसका मौलिक सिद्धान्त है कि सभी संज्ञा शब्द धातुज है । शब्दों को किस
प्रकार छोटे से छोटे रूप में विभक्त किया जा सकता है, इसके छिए पाणिनि
ने वातु, प्रत्यय तथा सुर और तिल में विभाजन प्रस्तुत किया है, साथ ही
पाणिनि ने यह भी बताया है कि किस प्रकार कृदन्त शब्द और धातृज शब्द
धातुओं से प्रत्यय लगा कर बनाए जाते है और यत शब्द प्रातिपदिकेंत् (बने
हुए सार्थक शब्द) से यत प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं । पाणिनि ने यह
भी बताया है कि प्रत्ययों के लगने से और समास होने से शब्दों के अर्थ और
प्रयोग में क्या अन्तर हो जाता है । पाणिनि की यह विशेषता है कि वह
प्रत्ययों के द्वारा ही शब्दों की रचना मानता है । इस प्रकार यदि किसी धातु
का संज्ञा शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है, जैसे जिद (काटना) धातु का
संज्ञा शब्द जिद (काटने वाना), तो पाणिनि ने इसके लिए एक अत्यंत
कृत्रिम प्रत्यय विवर (०) प्रस्तुत किया है, जिसका कुछ भी शेष नहीं रहता
है । इस प्रकार विवर एक काल्पनिक प्रत्यय है ।
यास्क ने उल्लेख किया है कि आकटायन ने यह मत प्रस्तुत किया था कि
'सभी शब्द धातुज है' । किन्तु गाल ने इस मत के औचित्य पर आपति की
है कि जो शब्द इस नियम के आधार पर सरलता से नहाने बन सकते है,
उनके विषय में वह नियम लागू नहीं होना चाहिए है बलात् इस प्रकार
शब्द-निर्माण उचित नहीं है । गाया का कथन है कि जैसे अश्व (घोडा) शब्द
अन (चलना) धातु से बना है । यदि अश्व शब्द को यशु धातु से बना (हुआ
मानेंगे तो जो कोई भी सड़कपर चलता है, उसे 'अश्व' कहा जाएगा । इतना
ही नहीं अपि तु सड़क पर चलने वाले हर एक पदार्थ का नाम 'अश्व' पड़ना
चाहिए, कयोंकि अपने कार्य के आधार पर प्रत्येक वस्तु का नाम पडेगा । पहले
भाव (क्रिया) होता है, बाद में वस्तु, अता क्रियामूलक नाम पड़ने चाहिएँ ।
गायों की आपत्तियों को दूर करने के लिए पाणिनि ने ऐसे शब्दों को,
जिनके निर्माण में रूप की दृष्टि से या अर्थ की (हि से कुछ विशेष कठिनाई
पड़ती थी, पृथकू कर दिया । जैसे-ई-अश्व (घोडा), गो (गाय) और पुरुष
(राय) । पाणिनि के समय से पहले ऐसे कृदन्त शब्दों की एक विशेष सूची
बन चुकी थी, जिनमें धातु के बाद कुछ विशेष कृत प्रत्यय लगाकर ये शब्द
( ११ )

बलात् बनाए जाते थे । इन प्रत्ययों को उणादि प्रत्यय कहते थे, क्योंकि इनका
पहला प्रत्यय उ (उप) था । यह उ ही मूलरूप में उप प्रत्यय है । इस प्रकार
से बने हुए शब्दों को उणादि कहते हैं (उष प्रत्यय से प्रारम्भ होने वाला) ।
पाणिनि ऐसे शब्दों को रूढ शब्द मानते हैं और इनकी रचना परउन्होंने ध्यान
नहीं दिया ।
पाणिनि के समय में जो उणादि-सूची थी, वह कुछ संशोधित रूप में
आज भी विद्यमान है । उउज्यलबत्त (समय लगभग : ३ वी शताब्दी ई०) की
टीका से युक्त उणादि सूत्र इस समय उपलब्ध हैं । उणादिसूत्र जो वर्तमान
रूप में हैं, इनमें कुछ बाद के शब्द भी आगम हैं, जैसे-दीनार (लेटिन
1प्र11य15) शब्द । यह शब्द भारतवर्ष में : ००ई० से अधिक पन किसी भी
स्थिति में प्रचलित नहीं हो सकता था ।
पाणिनि के व्यायाकरण का मुख्य उद्देश्य शब्द रा-पति है, अता उन्होंने
ध्वनि-विज्ञान का विशद विवेचन नहर किया है, अल तु शब्द-रचना या समस्त
पदों में जितने ध्वनि-नियमों की आवश्यकता बी, उतना ही अश दिया है ।
अतएव पाणिनि ने ध्वनि-परिवर्तन के सामान्य नियम नहीं दिए हैं, अति तु
उनका विवेचन उणादि सूत्रों के तुल्य वास्तविकता पर निर्भर न होकर, संभा
वनाओं पर निर्भर है और ये प्राय: ठीक है । अधिकांश स्थान पर ये नियम
तुलनात्मक भाषा-विज्ञान से पुष्ट होते है । पाणिनि ने वस्तुत: कई ध्वनि-नियमों
का आविष्कार किया था । इनमें से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण नियम गुण और
वृहिदा के है, जिनके द्वारा निर्जल अंग वाले स्वर सबल अग वाले स्वरों में परि
वर्तित होते हैं (नि० १७), जिसको तम (..1111) ने अपधुमि (111111)
कहा है और जिसको तुलनात्मक भाषाविज्ञान ने सिद्ध किया है कि वह मूल
भारोपीय (सा1०-शि"०प"1) भाषाओं में प्रचलित था । अन्य महत्वपूर्ण
ध्वनि-नियमन का अविष्कार वेदों की विभिन्न शाखाओंसे संबद्ध मौलिक प्राति
शाम-ग्रंथों के लेखकों ने, जो पाणिनि से पूर्ववर्ती हैं, किया है ।
पाणिनि ने प्रकृति-प्रत्ययों में और वाक्यों में स्वर-संचार का वर्णन किया
है, परन्तु हम लोगों के अनुसार वाक्य-विचार (8711.) नहीं दिया है ।
इसका कारण संभवत: यह है कि संस्कृत में वाक्यरचना अत्यन्त सरल है ।
पाणिनि की 'अ-मबी' का सामान्य विषय-क्रम निम्नलिखित है :
( १२ )
अध्याय १ में व्याकरण के परिमाषिक शब्द और व्याख्या के नियम है ;
अध्याय २ में समास और कारक के नियम हैं ; अध्य-य ३ में कृत्य और कृत
प्रत्ययों का वर्णन है कि धातु से किस प्रकार कृत प्रत्यय लगते है; अध्याय
४ और ५ में तद्धित प्रत्ययों का वर्णन है कि किस प्रकार तद्धित-प्रत्ययान्त
शब्द बनते है ; अध्याय ६ और ७ में स्वर-नियम तथा शब्द-रचना से संबद्ध
सन्धि-नियम हैं ; अध्याय ८ में वाक्य-रचना से सबद्ध नियम है । इस
सामान्य-क्रम में बार-बार एकाकी नियमों या अनेक नियमों के द्वारा क्रम-भग
हुआ है । ये नियम संभवत: लेखक ने अपने बाद के विस्तृत अध्ययन के
आधार पर जोड़े हैं, अथवा ये नियम मूलरूप में दूसरे मथान पर थे, जिन्हें
अक्षरलाघव की दृष्टि सेमूल स्थान से हदाकर वर्तमान स्थान पर रखा गया है ।
सूत्र-निर्माण में पाणिनि ने अपना यह लक्ष्य रखा है कि सूत्रों को जितना
कार्य-बोधक और सामान्य बनाया जा सके उतना बनाया जाए । इस कार्य में
कही-कहीं वे इतना आगे बढ़ गए है कि केवल एक उदाहरण के लिए एक
सामान्य नियम बनाया गया है और दूसरी ओर एक प्रकरण से संबद्ध कितनी
ही बातें जो उस शीर्षक के अन्दर देनी चाहिएँ थी, उनका संग्रह छोड़ दिया
गया है ।
पाणिनि के व्याकरण की मुख्य विशेषता अत्यधिक शब्दलाधव है, इसके
लिए पाणिनि ने कतिपय उपाय अपनाए हैं, जैसे-वि-द को लुप्त रखना,
कारकों का विशेष पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग, अधिकार सूत्रों की रचना, जो
बाद में आने वाले सबद्ध सभी नियमों के साथ जुड़ेगे । इन उपायों का फल
यह हुआ है कि कभी कभी केवल एक शब्द के द्वारा ही पूरे नियम का वर्णन
हुआ है । इस प्रकार 'धत शब्द के पंचमी के रूप 'वातो:' का केवल इतना
ही अर्थ नहीं है कि 'धातु से ये प्रत्यय होते है', अपि तु अधिकार-सूत्र होने के
कारण बाद के लगभग ५४० सूत्रों में इसकी अनुकृति (प्रभाव) होती है ।
अक्षर-जाधव का सिद्धान्त पारिभाषिक शब्दों के निर्माण में और अधिक
विशेष रूप से द्रष्टव्य है । पाणिनि के वे पारिभाषिक शब्द जो वस्तुत: शब्द है,
चाहे वे किसी विशेष कार्य को सूचित करते हों, जैसे-समास (द-आस,
समस्त पद), या वे किसी उदाहरण रूप वर्ग को सूचित करते हों, जैसे-ज
(समास का एक भेद, संख्यापूर्वक कर्मधारयसमास, शब्दार्थ-दो गाया,
( :३ )
प्राचीन आचार्यों से ही प्राय: लिए गए हैं । किन्तु पाणिनि के अधिकांश पारि
भाषिक शब्द बीजगणित के संकेतों के तुल्य ऐतिछक रूप से अपनाए गए कुछ
वर्ण या वर्ण-समूह हैं । इनमें से बहुत थोडे ऐसे हैं जो वास्तविक शब्द के
संक्षिप्त रूप है, जैसे----.' से इत (इत्-संज्ञा वाले वर्ण, संकेत सूचक अनुबन्ध
शब्द) । इनमें से अधिकांश पारिभाषिक शब्द ऐसे हैं, जो विशेष चिन्तन के
बाद बनाए गए हैं और ऐसे वणों को लेकर बनाए गए हैं, जिनका प्रयोग
भाषा में बहुत कम होता है । इस प्रकारकाल-बोधनार्थ 'ल' वर्ण लिया गया ।
इसके साथ मूर्धन्य टू लगाने से लद, का अर्थ वर्तमान काल हो जाता है और
व लगने से लत् का अर्थ भूतकाल हो जाता है । इस प्रकार लटू, लिक लुइ,
लेद और लोह का क्रमश: अर्थ होता है-वर्तमान, परोक्षभूत, भविष्यत,
संभावना अर्थ और आज्ञा अर्थ तथा लइ, लुत्, लिडर का अर्थ होता है
अनद्यतन भूल भूत और आज्ञा या चाहिए अर्थ ।
पाणिनि का व्यायाकरण वैज्ञानिक सिद्धांतो पर संकलित वर्णमाला (अर्थात
अमर आदि १४ माहेश्वर.) से प्रारम्भ होता है । कुछ वणों के बाद इन्
या अनुबन्ध वर्ण लगाए गए हैं । इन इह वल की सहायता से अनेक प्रत्या
हार (संक्षिप्त शब्द) बनाए जाते हैं, जो संक्षेप में अनेक वणों के सूचक होते
हैं । आइ-उ-लू, ऋ-लूक, ए-ओ-त्, ऐ-औ-चु, इन चार माहेश्वर सूत्रों में अत
(स्वर) संगृहीत हैं । चारों सूत्रों के अन्त में इत् वर्ण हैं, इनकी सहायता से
अकू के द्वारा सामान्य स्वर कहे जा सकते हैं तथा अन के द्वारा सामान्य और
मिश्रित दोनों प्रकार के स्वर कहे जा सकते हैं । संस्कृत का अविराम वर्ण हच है,
इसे ह-लू सूत्र से बताया गया है, अत: अलू (अ से लेकर ह तक) के द्वारा पूरी
संस्कृत वर्णमाला बताई जाती है (जैसे अंग्रेजी के हिसाब से इसे यल कहा
जाए) । प्रत्ययों धातुओं और शठदों के बाद भी इद वर्ण लगाए जाते हैं, जो
यह सूचित करते हैं कि इनमें कुछ विशेष नियम लगेंगे । साथ ही ऐसा करने
से शब्द-लाय होता है और प्रत्याहार आदि याद करने में सुविधा होती है ।
पाणिनि की अहाव्यायी के साथ दो परिशिष्ट हैं, जिनका उसने उल्लेख
किया है । एक 'धातुपाठ' है, इसमें स्वादिगण आदि के क्रम से धातुएँ संगृहीत
हैं । किस धातु के रूप किस पद में चलेंगे, इसका संकेत उदास आदि स्वरों
और ड:, जा, आदि अनुबन्ध वरन के द्वारा सूचित किया जाता है । धाबपाठ के
( १४ )
विषय में विशेष उल्लेखनीय तथा यह है कि इस धातुपाठ में लगभग २० ० ०
धातुएँ हैं (इसमें कुछ धातुएँ एक ही धातु के रूपान्तर हैं), किंतु अभीतक
उपलब्ध साहित्य में लगभग ८० ० धातुएँ ही प्राप्त हुई हैं । साथ ही इसमें
वेदों में प्राप्त होने वाली लगभग ५० धातुओं का उल्लेख नहीं है है दूसरा
परिशिष्ट 'मपाठ' (अर्थात एक प्रकार के संतों का संग्रह) है । पाणिनि ने
एक प्रकार के शब्दों में लगने वाले नियमों के लिए उस गण का प्रथम शब्द
देकर 'आदि' (इत्यादि) शब्द लगा दिया है । इस गणपाठ में कुछ शब्द ऐसे
हैं, जो केवल वेदों में ही आए हैं । पप; की अपेक्षा गणपाठ घटिया ढंग
से सुरक्षित मिलता है । : १४० ई० के लेखक वर्धमान द्वारा विरचित 'गण
रत्न-ममधि' (गण रूपी रत्नों का महासमुद्र) में ये गण पलोक-बद्ध रूप में
संकलित हैं ।
बहुत प्राचीन समय से ही पाणिनि का ग्रन्थ 'आ/मायी' एक प्रामाणिक
ग्रन्थ माना जाने लगा । यह ग्रन्थ कम से कम २ हजार वर्ष तक संम्कृतभाषा
का आदर्श ग्रन्थ और संस्कृत-व्याकरण का आधार माना जाता रहा है । इस
ग्रन्थ में शब्द-जाधव के लिए सभी अन्य बानों की बलि दी गईहै और स्थान
स्थान पर अस्पष्टता के कारण इसकी व्याख्याता के लिए अन्य व्याख्या-ग्रंथों की
आवश्यकता पडी । साथ ही व्याकरण संबन्धी प्रगति के कारण यह भी आव
श्यकता हुई कि इन नियमों को शुद्ध किया जाए और नियमों में परिवर्धन भी
किया जाए है इस प्रकार केजो कार्य हुए उनमें सबसे प्राचीन कार्य परिभाषाओं
(व्याख्या के नियमों) की रचना है । इनके लेखक अज्ञात हैं । इन परिभाषाओं
के विषय में माना जाता है कि पाणिनि इन परिभाषाओं को मानते थे और
पाणिनि के परवर्ती वैयाकरण कात्यायन ने इन पारिभाषाओं का उल्लेख
किया है । नागोजिभट्ट ने : ८वीं शती में अपने ग्रन्थ 'परिमाप-खर' में इस
प्रकार की परिभाषाओं का संकलन किया है ।
इसके पश्चात कात्यायन ने पाणिनि के १ २४५ सूत्रों (अर्थात् लगभग है
अष्टपदी के सूमों) पर अपने क्रांतिक (टिप्पणी, वृति अर्थात व्याख्या से
वार्तिक शब्द है) लिखे हैं । कात्यायन दक्षिण के निवासी थे और वे संभवत:,
तृतीय शताब्दी ई० पू० में हुए थे । कात्यायन ने जहाँ पाणिनि की आलोचना
में उससे मत्भिद प्रकट किया है, वहाँ पाणिनि की भूप-चुक समझनी चाहिए,
( १( )
किन्तु ऐसी भूल-पूको के लिए यह तथा भी नहीं भूलना चाहिए कि कात्यायन
परवर्ती हैं और वे पाणिनि के निवास स्थान से भारत के सुदूरवर्ती स्थान के
वासी हैं । कात्यायन के पहले और बाद में अनेक वैयाकरण हुए हैं, जिन्होंने
अहाध्यायी पर इस प्रकार के क्रांतिक बनाए हैं । कात्यायन के बाद अनेक
वैयाकरणों ने कारिका-ग्रन्थ पक बद्ध टिप्पणी) बनाए हैं ।
पतंजलि ने अपने विशाल भाष्य 'ममलय' में इन सब आलोचनात्मक
वार्तिकों और कारिकाओं आदि का संग्रह किया है । साथ ही उन्होंने अपनी
भी व्यायाम-या दी है । पतंजलि की व्याख्या प्रश्नोत्तर के रूप में है और यह अहा
स्थायी के १ ७१ ३ सूत्रों पर है । पहले कहा जा चुका है कि पतंजलि के महा
भाष्य का समय द्वितीय शताब्दी ई० पू० का उत्तरार्ध है । सातवी-शताब्दी ई०
में महाभाष्य की टीका भरे ने अपने ग्रन्थ बाश्यपदीय' (वाक्यगत पदों
का विश्लेषणात्मक प्रबन्ध) में की है और इसका संबन्ध व्याकरण-दर्शन
(व्याकरण का दार्शनिक पक्ष) से है । दूसरी टीका कैयट ने लिखी है, जो
संभवत १ ३ बी शताठदी ई० में हुआ था ।
अप्राध्यायी पर ६५० ई० के लगभग दूसरी टीका 'काशिका वृति (बना
रसी टीका) लिखी गई । इसके प्रथम पाँच अध्यायों की टीका जयादित्य
ने की है और अन्तिम तीन अध्यायों की टीका वामन ने की है । इसमें
पाणिनि के सूत्रों का कुछ विकृत रूप है और कुछ त्रुटियाँ भी हैं, किन्तु इसकी
विशेषता यह है कि इसमें लाथव, प्रवाह और सरलता है । यद्यपि यह टीका
महाभाष्य से बहु-छोटी है, फिर भी इस अर्थ में बहुमूल्य है कि यह आप्रयाजी
के सभी सूत्रों की व्याख्या वाली सबसे प्राचीन टीका है । इसमें जो उदाहरण
दिए गए हैं, वे प्राय: सभी प्राचीन टीकाकारों के ग्रंथों से लिए गए है । इस
प्रकार का उद्धरण सामान्य-क्रम रहा है । यहाँ तक कि पतंजलि ने भी ऐसे
उदाहरणों को मूर्धाभिषिक्त (दीक्षित) कमरा है ।
१५ वीं शताब्दी ई० में रामचन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'प्र-कौमुदी' (विधियों
की चन्तिका)में पाणिनीय व्याकरण को अधिक सुबोध और अधिक व्यावहारिक
बनाने के लिए विषयानुसार नवीन ढंग से विभक्त किया । इसी प्रकार के
उद्देश्य से १७ वीं शताब्दी ई० में भट्टल ने 'सिद्धान्त-कौमुदी' (निज
सिद्धांतों की चन्दिका) की रचनता की । इसमें पाणिनि के सूत्रों को अधिक
( :६ )
सुसंगत और व्यवस्थित रूप में रखा गया है, इसका ही संक्षिप्त संस्करण
वरदान ने 'लधु- (सिद्धान्त) कौमुदी' नाम से बनाया है, जो संस्कृत व्या
करण के प्रारम्भिक छात्रों के लिए भारत में प्रयुक्त होता है । अभीतक भार
तीय पण्डितों में यह विश्वास बद्धमूल है हुक पाणिनि के व्यायाकरण में पुटि
नहीं हो सकती है, अत: पतंजलि से लेकर बाद के सभी उपर्युक्त लेखकों ने
पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या में कतिपय असंगत (व्याख्याएँ भी प्रस्तुत की हैं ।
परकालीन वैयाकरण, जो पाणिनीय परम्परा से संबद्ध नहीं हैं, विशेष
महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । इनमें नई बाते प्राय: नहीं के बराबर है और पाणिनि
की अपेक्षा बहुत अपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें वैदिक-प्रक्रिया, स्वर-प्रक्रिया आदि
पूरे अंश छोड़ दिए गए हैं । इनमें नई बातें नहीं हैं, परन्तु इनका उद्देश्य है नई
पद्धति को अपना कर विषय को अधिक सरल और सुबोधरूप में प्रस्तुत करना ।
इन अ-पाणिनीय वैयाकरणों में विशेष उल्लेखनीय ये हैं इ-चन्द्र, स इसका
समय ६५० ई० के लगभग माना जाता है ।२ (२) आकटायन (नकली), जो
काशिका वृत्ति के बाद का है, (३ ) हेमचन्द्र ( १२ थीं शताब्दी ई० ) । यह
तीनों में सबसे महत्त्वपूर्ण है । शर्ववर्मन् (अनिश्चित समय) के 'कालय' में
प्राचीन पारिभाषिक शब्दावली, विशेषरूप में प्रातिशाख्या ग्रंथों की शब्दावली,
से बहुत मिलती-जुलती है । यह परकालीन व्याकरणों से सबसे अधिक प्रभाव
शाली व्याकरणप्रतीत होता है । यह कात्यायन के प्रामाणिक पालि-व्याकरण,
द्राविड़ और तिब्बती व्याकरणों का आधार-ग्रन्थ रहा है । बोपदेव का मुग्ध
बोध (अबोध"' के लिए प्रकाशक) एक बहुत दुसाध ग्रन्थ है । इसका समय : ३
बी शताब्दए ई० के वाद का है । यह बंगाल में आजतक प्रमुख संस्कृत-व्यय
करण के रूप में उपयोग में आ रहा है । अंत में एक अज्ञात लेखक द्वारा
लिखित सरस्वतीसूत्र (सारस्वत-व्याकरण के सूती उल्लेखनीय है । यह शब्द
लमव और सरलता के लिए प्रसिद्ध है है

१, इसके ग्रन्थ 'चान्द-व्याकरण' का सम्पादन प्रभू, 1प्र"1० 1;:6111 (.1.19,


१९०२) ने किया है ।
२. इसके लिएदेखो-प-वि (3):.1 ..1(१ले'ले ०८-१(); (पता.
111), (..:111211.: 1) 10118011211 अर्श.:"-: (भाग २, पर २५रा.
( :७ )
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थ हैं, जिनका सबन्ध व्याकरण के किसी
विशेष विषय से है । ये ग्रन्थ संस्कृत-व्याकरण के ज्ञान की वृद्धि में कुछ मह-त्व
पूर्ण योग देते है । इनमें ज्ञान्तनव के फिर सूत्र है : ये महाभाष्य के बाद बने
हैं, किन्तु उस समय तक बन चुके थे, जब तक प्राचीन स्वर-संचार की प्रक्रिया
सजीवरूप में ज्ञात थी । इसमें पाणिनि के तुल्य प्रकृति और प्रत्यय में अलग
अलग स्वर संचार के नियम नहीं दिए हैं, अपितु बने हुए शब्दरूपों और सजा
शब्दों में स्वर के नियम दिए हैं कि कहाँ पर अन्तिम स्वर उदात्त होगा और
कहाँ पर प्रथम स्वर उदात्त होगा । पाणिनि ने यद्यपि स्वीलिग प्रत्ययों का
उल्लेख किया है और लिग-विषयक सामान्य नियमों की उपेक्षा नहीं की है,
तथापि उन्होंने प्रत्येक शब्द के लिग-निर्धारण का प्रयत्न नहीं किया है, इस
दृष्टि से लिगानुशासन वाले ग्रंथों का कुछ मूल्य 'हो सकता है । विशेषरूप से
हेमचन्द्र के लिङ्ग-वसन में लिग-विषयक बातों का सामान्यरूप से सामूहिक
विवेचन हुआ है ।
यूरोपीय विद्वानों में सर्वप्रथम जर्मन मिशनरी 11013.:1: 1.11 ने संस्कृत
व्याकरण लिखा था : यह 41181(8 का निवासी था और 12811.1: (21
1082 आगरा में 11(10 था । आगरा में ही १ ६६८ई० में इसकी मृत्यु हुई
थी है इसका ग्रन्थ आजतक प्रकाशित नहीं हुआ है, परन्तु अभी तक इसकी
पांडुलिपि रोम में सुरक्षित है । 1.:11- के (:11111, 11111.1, (41118.
1211, १६६७, पृ० १६२-६३) में रवि का एक लेख है । इसमें देवनागरी लिपि
में संस्कृत वर्णमाला के ५ चार्ट हैं (यह वच: देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम
नमूना है, जो यूरोप में छपी किसी भी पुस्तक में उपलब्ध है) :
यूरोप में छपी सर्वप्रथम संस्कृत-व्याकरण की पुष्ट्रक 1प्र11०७ 11
लिय१० 1.1110100., द्वारा लिखित थी । यह लेटिन भाषा में लिखी गई
थी और १७९० में रोम में छपी थी । यह ग्रन्थ कुछ अंशों में जर्मन ईसाई
मिबनरी 11.1)0, जिसकी मृत्यु १७३२ में हुई थी, की छोडी हुई पाई
लिपि पर निर्भर था : संस्कृत का पहन वैज्ञानिक व्याकरण जो पूर्ण माना
जा सकता है, कोसल (जिय'""") द्वारा रचित था और १८०५ में
प्रकाशित हुआ था : इसके बाद १८०६ में कारे (जिप) (द्वारा लिखित
व्याकरण छपा है कोलर/का का व्याकरण पाणिनि पर निर्भर था और कारे
( :८ )
का व्याकरण बोपदेव पर आश्रित था । संस्कृत का प्रथम व्याकरण जो
यूरोपीय सिद्धांतों पर निर्भर था, वह विहिकन्म (आपाजी") ( : ८०८) का
था, जिसने गत शता-की के प्रारम्भ में यूरोप में संस्कृत के अध्ययन पर
सबसे अधिक प्रभाव डाला था । उसके परवर्ती लेखकों में विशेष उल्लेखनीय
हैं-----" (1.1) बे-फि (1.:) और छिटक (भा"..) है बल का
संस्कृत व्यायाकरण सरलता के साथ ही साथ भाषावैज्ञानिक पद्धति अपनाने
के कारण महत्वपूर्ण था । बे-नी प्रथम व्यक्ति था, जिसने पाणिनीय व्याकरण
के माय ही वैदिक तथा रामायण और महाभारत की विशेषताओं का भी
एकत्र समन्वय किया था । उसने संस्कृत रूपों की व्यायुत्पत्ति के लिए तुलनात्मक
भाषाविज्ञान का उपयोगी किया था । अमेरिकन विद्वान हिष्ट्रने प्रथम व्यक्ति
था, जिसने वैदिक 'व्याकरण का अधिक विस्तृत विवेचन करके संस्कृत का
ऐतिहासिक व्याकरण प्रस्तुत किया और यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार
वैदिक भाषा से संस्कृत भाषा विकसित हुई है है संस्कृत का प्रथम व्याकरण,
जो शुद्ध रूप से तुलनात्मक भाषाविज्ञान पर निर्भर हो, प्रो० जे० वाकरनागल
(प. आ'":"""") द्वारा रचित प्रशंसनीय कृति है । इसके प्रथम भाग,
( १८९६) में ध्वनि-विचार (11.11)87) है और दूसरे भाग के प्रथम अंश
(१९०५) में समास-विचार है । इस ग्रंथ का इतना ही अंश अभी तक
प्रकाशित हुआ है ।
हमारे देश में १ ९ की शता-०ची ई० के उत्तरार्ध में जो संस्कृत-व्याकरण
सबसे अधिक प्रचलित रहे हैं, वे मोनियर विलियम्स (मसाग-शा'"'")
और यर मूलर (थेय "यहि) के हैं । इन दोनों के व्याकरणों में बहुत
सी सामल भारतीय पद्धति से ली गई है, जिसका कोई व्यावहारिक उपयोग
नहीं है, अपितु साहित्यक संस्कृत सीखने वालों के लिए यह विल रूप में
है । इस प्रकार की सारी सामग्री इस ग्रन्थ से निकाल दी गई है । इसका
अभिप्राय यह नहीं है कि हमें भारतीय वैयाकरणों से कोई चिट है, अधि तु
हमारा उद्देश्य है कि व्याकरण की वहीं सामग्री प्रस्तुत की जाए जो आजतक
के विद्वानों द्वारा वच: भाषा में प्रयुक्त हुई है और जिसके द्वारा व्यायाकरण
को सरल और सुबोध बननी जा सके । इसमें से वैदिक रूपों को भी निकाल
दिया गया है, किन्तु यूरोपीय और भारतीय विद्यार्थी प्राचीन भाषा से कुल
( (९ )
परिचित हो सकें, इसके लिए परिशिष्ट ३ में वैदिक (व्याकरण की संक्षिप्त रूप
रेखा प्रस्तुत की गई है । इसके द्वारा वे वैदिक भाषा का अध्ययन प्रारम्भ कर
सकते हैं । मेरा नवीन प्रकाशित ग्रन्थ जाम": नि-छाय (वैदिक व्याकरण)
प्रारम्भिक छात्रों के लिए बहुत विस्तृत ग्रन्थ है । मैं चाहता हूँ कि इस 'संस्कृत
व्याकरण-प्रवेशिका' के तुल्य ही एक सरल वैदिक व्याकरण प्रस्तुत करू,
जिसमें वाक्य-विचार भी हो । जिस प्रकार यह संस्कृत-व्याकरण प्रारम्भिक
छात्रों के लिए लौकिक संस्कृत की सामान्य शिक्षा देता है, उसी प्रकार वह
ग्रन्थ वैदिक भाषा के विषय में संक्षिप्त रूपरेखा देकर सहायक सिद्ध होगा ।
यद्यपि लौकिक संस्कृत में स्वर-चिह्न नहीं लगाए जाते हैं, फिर भी मैंने
भाषावैज्ञानिक महत्त्व के कारण वैदिक भाषा के आधार पर जहर तक स्वय
निर्णय संभव हुआ है, वहाँ तक इरिलशच में रूपान्तरित रूपों पर स्वरचित देने
का प्रयत्न किया है । परिशिष्ट ३ में वैदिक स्वरोंके विषय में संक्षिप्त विवरण
भी दिया गया है ।
विषय-सूची
भूमिका-संस्कृत व्याकरण का संक्षिप्त इतिहास । (८)
अध्याय----: (वर्णमाला)
संस्कृत का वैदिक और भारतीय भाषाओं से संबन्ध, भारतीय लेखन
कला का उदगम, बला का क्रम, स्वर, व्यंजन, अक, उच्चारण । (
अध्याय-र (संधि-नियम)
बहिरंग साँय-स्वर-सन्धि, व्यंजन-सन्धि; अन्तर सन्धि-वर-सन्धि,
व्यंजन-सका-ध । :३
अध्याय-ये (शब्द रूप)
संज्ञा शब्द : हलन्त शब्द-अपरिवर्तनशील, परिवर्तनशील-दो अंग वाले,
-तीन अंग वाले, धातुज अंग, तुलनात्मक प्रत्ययान्त शब्द, संदेय शब्द, संख्या
शब्द, संख्यावाचक क्रिया-विशेषण, सर्वनाम शब्द-व्यक्तिव-चक-सके..,
बी-प्रश्नवाचक-सम्-वाचक-आत्-मवाचक-स्वामित्व-क म समस्तपद
सर्वनाम-परिमाण-क-अस्पष्ट-क-सर्वनाम, विशेषण । ३५
अध्याय-ल (धातुरूप)
भूमिका, वर्तमानकालिक प्रथम भेद, द्वितीय भेद, अलाम, द्वि-त्व, तिर
प्रत्यय, धातुरूपावलि, अपवाद-नियम, लिक अरि-प्रथम भेद, द्वितीय भेद,
आशीलित्, लुक पब:, कर्म-व्य, कालर्थिक कृत्मत्यय, कत्वा, ल्यपू, तुमुन्,
प्रत्ययान्त धातुएँ-वाज, सता यजा, नामक । ७७
अध्याय-ज (अव्यय)
उपसर्ग, उपसगाँत्मक क्रिय-विशेषण, उपसगरिमक संज्ञाशब्द, उपसर्मात्मक
कत्वार्थक शब्द, संयोजक और क्रियाविशेषण निपात, विस्मयसूचक शब्द । : २८
( २१ )
अध्याय-प (कृदन्त, तज, समास)
कृत प्रत्यय, तद्धित प्रत्यय, लिग, तिर-समान सुर-समास, दृष्टि समास,
तत्., कर्मधारय, बहुबीहि : १४३
अध्याय--: (वाक्य-विचार)
भूमिका, शब्द-क्रम, सख्या, वाक्या-वयन, सर्वनाम, कारक सप्तमी, वानी,
भावे षइठी और सप्तमी, काजल कृत प्रत्यय, तुर प्रत्यय, लक-र-प्रयोग,
लय १६२
परिशिष्ट १--धातुकोश ०.० ... १९६
परिशिष्ट य-लौकिक संस्कृत के छन्द ... २१ ८
परिशिष्ट ३ --वैदिक व्याकरण कराना मुख्य विशेषताएँ २२३
शब्द-सूची २३३
(अ) संस्कृत-शब्द-सूची
(ब) सामान्य सूची
:
[


अध्याय है
वर्णमाला
१--संस्कृत (समृ-मकृत, परिस्कृत) प्राचीन भारत की साहित्यक भाषा
का परवर्ती रूप है, जिसका वर्णन पाणिनि ने अपने व्याकरण में किया है ।
ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती वैदिक भाषा से प्राय: मिलती-जुलती
है । शनै:शनै: यह वैदिक बोली से भिन्न हो गई । यह विकास प्रगतिशील न
होकर हपनोन्मुख था । इसमें वैदिक भाषा के बहुत से प्राचीन रूप (शब्द
रूप और यल पूर्णतया लुप्त हो गए हैं, जैसे-पूरा लोद लकार (8.1
111110:1): आय) तथा केवल तुमुत (तुम्) प्रत्यय को छोड़कर शेष सभी
तुमुन् अर्थ वाले प्रत्यय । मुयय परिवर्तन शब्दावली में हुआ है । यद्यपि इसमें
बहुत से प्राचीन शब्द और धातु सुप्त हो गए हैं, किन्तु उनके स्थान पर नए
शब्दों और नए अर्थों की उपलब्धि से संस्कृत-शब्दकोश में पय" वजीद्ध हुई
है । वच: वैदिक और संस्कृत भाषा में बहुत-कुछ अंशों में उतना ही
अन्तर है जितना होमरिक (निवल") और पीक ( सी१प्र) ग्रीक में ।
२---वैदिक संस्कृत से प्रचलित प्राकृत बोलियाँ उत्पन्न हुई है । प्राकृत
शब्द प्रकृति (मूल भाषा, अर्थात्-संस्कृत भाषा) शब्द से बना है जिसका अर्थ
है-संस्कृत से उत्पन्न भाषा, परन्तु बाद में इसका अर्थ जनसाधारण की
भाया या असभ्य जन की भाषा हो गया । प्राकृत का अर्थ असभ्य, अशिक्षिले
है । प्राकृत भाषाओं के प्राचीनतम रूप तृतीय शताब्दी ई० पू० (6. जा के
महाराज अशोक के शिलालेखों में सुरक्षित मिलते हैं । एक शिलालेख में इस
प्राकृत का पालि नाम मिलता है । यही पालि भाषा दाक्षिणात्य बौद्धों की
पवित्र साहित्यक भाषा बनी है । शिलालेखों, स्तम्भ-लेखों, समस्त साहित्यिक
२ संस्कृत-व्य-रण-प्रवेशिका [नियम :.२
ग्रन्थों और कुछ अंशों में संस्कृत नाटकों में सुरक्षित इन प्राचीन प्राकृत
भाषाओं से ही वर्तमान भारत की अधिकांश भाषाएं (बोलिया), जैसे-
पंजाबी, सिन्धी, गुजरती मराठी, हिदी, बिहारी और बंगला-निकली हैं :
हियदी भाषा में ही जब अरबी और फारसी शब्द विशेषरूप से मिल जाते हैं,
तो उसे उर्दू या हिन्दुस्तानी कहते हैं । दक्षिण भारत की द्रविड परिवार की
भाषाएँ तेलगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालमू यद्यपि आये-परिवार कीभाषाएँ
नहीं है, तथापि इनमें संस्कृत शब्द भरे हुए हैं और इनके साहित्य में संस्कृत
भाषाक, रचना-शैली की ही सर्वत्र प्रधानतता है ।
ले--- मेसोपोटामिया (पप-साझा) से इधर फैलते हुए, गवन:
७०० ई० पू० के लगभग, सेमिटिक (821111)) भाषा की वर्णमाला का एक
रूप भारत के उत्तर-पलिया में प्रारम्भ हुआ । इस लिपि को भारत में सबसे
पहले जो अपनाया गया, उसका ज्ञान हमें तृतीय शताब्दी ई० पू० के जिनको
और अभिलेखों से होता है । इनमें इस लिपि को गाते (अर्थात ब्रह्मा की
लिपि) कहा गया है । यद्यपि यह बाएँ से दाएँ लिखी जाती है, तथापि इसमें
स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि यह किसी समय में दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी ।
इस गयी लिपि से ही भारत की सभी परकालीन लिभियाँ निकली है । इनमें
सबसे महत्वपूर्ण नागरी या देवनागरी लिपि है । नागरी का अभिप्राय है
'नगर-निवासियों की लिपि' या संभवत: गुजरात के 'नागर ब्राह्मणों की
लिपि' । देवनागरी शब्द बाद में प्रयोग में आया है, इसका अर्थ है-देवताओं
के नगरों की लिपि', किन्तु इस शब्द की उत्पति का अभी तक निन्दित ज्ञान
नहीं है । इस देवनागरी लिपि की वर्णमाला का यह विशेष रूप आठवीं
शता-ईदी ईसबीय (4]2) के मध्य के लगभग हुआ है । उत्तर भारत में
संस्कृत भाषा प्राय: देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है, परन्तु बंगाल और
उडीसा आदि प्रान्तों में अपनी प्रान्तीय लिपियों-बंगला और उडिया आदि
----में भी लिखी जाती है । दक्षिण भारत उब संस्कृत के लिए नियमित रूप से
द्रविड़ परिवार की लिपियों का ही उपयोग किया जाता है ।
उ-देवनागरी वर्णमाला में ४८ अक्षर होते हैं---: ३ स्वर और ३५
व्यजन ( इन ३५ व्यंजनों में अनुस्वार (रा और विसर्ग (:) की भी गणना
नि० ()] वर्णमाला ये

है । ये अक्षर सतत भाषा की सभी ध्वनियों को प्रस्तुत करते हैं । प्राचीन


भारतीय वैयाकरणोंने निम्नलिखित सारणी के रूप में दिए गए इस वर्णमाला
के अक्षर-विन्यास को अपनाया है । इसका क्रम पूर्णतया वैज्ञानिक है, अतएव
यूरोपीय विद्वानों ने अपने संस्कृत-कोश-यों में इसी कम को अपनाया है । त

देवनागरी वर्णमाला
नबर स्वर
शुद्धरूप पावा समय शुद्धरूप भावा समय
अ उ-ब- अहे ऋ ध
या ((1)
आ [ 5 तू ष

1.
बक
इ ' 1 ए को

ई प 1 ऐ तो
उ 11 ओ ) ०

ऊ : (1 औ है अहे11

ऋ ० ( ((1)
१, संस्कृत के प्रारम्भिक छाओ को शब्दकोष में अनुस्वार और विसर्ग के कारण शब्द
ढूँढने में बहुत अधिक कठिनाई अनुभव होती है अत: निम्नलिखित टिप्पणी वना के कम
सबसे शमन के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । अन्त-थ, जम और हा से पूर्ववर्ती अपरिवर्तनीय
अनुस्वार (देखो नियम-सख्या ४२ ख-१) अन्य सभी व्यंजनों से पहले आता है, अत: शब्द
कोष में सवर, सग, ये सक शब्द से पहले आयेंगे । परिवर्तनशील अनुस्वार (देखी नियम
सख्या १० और ४२ ख-२) जिस नासिका वर्ण (मचम वर्ण) के रूप में परिवर्तित हो सकता
है, उस नासिक्य वर्ण के साथ रहेगा । अत: सग शब्द सत्य के साथ कोप-ग्रन्थ में आएगा ।
इसी प्रकार कठोर कय और पवन (क, ख, प, का से पूर्व अपरिवर्तनशील विसर्ग अन्य
सभी व्यजनों से पहले आत' है । अतएव अन्त-करण और अन्त-पुर शब्द अन्त शब्द के
पश्चात् आयेंगे और अलक शब्द से पहले । किन्तु हम से पहले परिवर्तनशील विसर्ग जिस
ऊष्ण वर्ण के रूप में परिवर्तित हो सकता है, उस ऊष्यवर्ण के साथ रहेगा है अत: अन्त-सथ
और अन्तम्स्य दोनों एक स्थान पर एक-साथ आयेगें है
४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि ० ११४
व्यंजन पवन (बम) समर
कवन स समय प 1,
इ ० 1: फ 19-11
ख 1:-11 ब 1,
ग 8 भ भी
ध 8-11 म 51
ड: 11 : (विसर्ग) 1,
चरों (सा-की (अनुस्वार 111 या हत
च (: व्यंजन
छ 2-11 अनमने समय
ज ] व हैं
झ ]-11 र र
ब भी ल 1
व के
उन जन्य) मम
ट ( श हैं
ठ 1-11 ष 5
ड (1 स :
ड व-11 11
ण से ह

बर्ग (बनय)
त :
ध 1-11
द (1
ध 6-11
न 11
नि० १-५] वर्णमाला ५

पू-मर शब्द के प्रारम्भ में और व्यंजन के अन्त में विभिन्न प्रकार से


लिखे जाते हैं । स्वर ये हैं:--

(क) सामान्य स्वर (81.12 प०७तां8) :


अ ( रार )१ 11, इ (त्) ल, उ . 11, ऋ (ह) (, तू प्र) 1.
आ रा) :1, ई ती) 1, ऊ (रा 11, ऋ (हाँ रे
(ख) मिश्रित स्वर (1,11.1.188):
ए (क) 2,8 ऐ (ब) 11.1,- ओ (.) ०, औ (.) 1111,2

१० अव (अ) की कोई पृथकू मावा नही है, क्योंकि यह माना जाता है कि अव अ


सभी व्यंजनों में स्वयसिद्ध रूप से रहता है । जैसे-क-वा. है
२. शब्दों के बीच में या अन्त में आने वाली (इ) की माता (, ) जिस शब्द के बाद
बोली जाती है, उससे पहले लगती है : जैसे-कि 15 है मूलरूप में इ और ई की माताएँ
क्रमश: व्यजन के बाई ओर और दाई और ऊपर कोण के रूप में लिखी जाती थी, किन्तु कुछ
समय बाद स्पष्टता के लिए इ की माता बाई ओर सीसी लकीर के रूप में हो गई और ई
की मावा दाई और सीसी लकीर के रूप में है
३. ए और ओ प्राय: सभी स्थानों पर मूल ध्वनि अइ असं और अउ बहे पर निर्भर हैं,
तथापि ये दोनों स्वर कम से कम ३०० ई० पू० से लेकर अबतक अधिकार यूरोपीय भाषाओं
में सामान्य दीर्घ स्वर ए और ओ (ट टाल ता के रूप में उच्चरित होते हैं ।
४, यद्यपि ऐ और औ निर्वचन की दृष्टि से आई और आऊ (5; अज 'जा) को
प्रस्तुत करते हैं, परन्तु कम से कम ३०० ई० पू० से लेकर अबतक इनका उच्चारण अई और
अल (.1; 1016 1111 ) के रूप में होता है ।
५ उपर्युक्त मावा-चिह्न व्यजनो के बाद लगते हैं । जैसे-कू कि) माताओं के साथ
इस प्रकार लिखा जाएगा :
क व का व कि 15, की श्री कु 1., कू 1., कृ 14, कु 15, बलु मा, के 1.,
पं: 1.1., को ।दू०, को 1.0, : र के बाद उ और ऊ नीचे न लगाकर बगल में लगाते हैं-
रु प्र", रू अभी है
मिश्रित
स्वर

2.




डग


कपाय

ा. औ
ओप "हैक्षरतत
:५






ओय
फ तयदि
के
वणों
हहैं
से
वना
निकली
्ोमें
व-बाद
तकप
मनमूल
कस
स्वर
।िारत-१,
मलाथूल
-वोलंय्-वोकय्ींरयत से समय्त्य कोई
स्वरों
के
आदि)
किन्तु
है
नहीं
है,
(इ,
तुल्य
आस
मृदु
सअ
दय
कउ
अन्य
स्वर
अये
माह
है
नकम्ातान:्रषुयथ के
्ंसक'पसन्कनृत आगे
मुर्धन्
जो
है
में
शिरोंआग
मूर्धन्य
है,
अर्थ
प्राचीन
देशज
उबना
अनुवाद
शब्द
।का
इ२.
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अल्पप्राण
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मूर्धन्य
यदि
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दन्त्य
रया
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सारणी

घोष)
और
सभी
हैं
वर्ण
(नाद
मृदु

कि
नि० ((] वर्णमाला ७

६---उपरिलिखित सारणी में वल के उच्चारण-स्थान के अनुसार


देवनागरी वर्णमाला की ध्वनियों का पूरा वर्गीकरण (जो कि पाणिनि के
समय से प्रचलित था) दिया गया है :
७-पवार (स्वर के पग लगने वाला) स्वर के बाद लगने वाली
नासिका ध्वनि है और यह वर्ग के (विम बणों से भिन्न है । यह उस स्वर के
ऊपर बिन्दु (ना के रूप में लिखा जाता है, जिसके बाद इसका उ-चारण
होता है । जैसे-कं । तू से पहले यह अनुसार कभी-कभी मैं अनुनासिक
के रूप में लिखा जाता है । जैसे-की । मूलरूप में इसका वास्तविक स्थान
उम और रहा ध्वनियों से पहले था, वहां से इसका विस्तार हुआ है । अनुस्वार
जि, और अनुनासिक (::4) ध्वनियों में भी कभी-कभी अन्तर किया जाता है ।
अनुनाभिक का अभिप्राय है-व-नासिका ध्वनि-युक्त स्वर ।
८-देवनागरीवर्णमाला लिखने में वर्ण का विशिष्ट अंश सर्वप्रथम लिखा
जाता है । तत्पर एक सीधी लकीर (खडी पाई) खींची जाती है और
अंत में वर्ण के ऊपर एक पडी पाई (समानान्तर रेखा) लगाई जाती है । (
जैसे-सारे रा है त 1
९-हलू व्यंजनों के नीचे एक छोटी लकीर बाई से दाई ओर लगाई
जाती है । इसको हर कहते है । जैसे-य के बाद कू-स-अकू लिखा जाएगा ।
सख्या में दो विराम-चित है-एक सीधी लकीर (. ), २---दो
सीधी लकीर (।। ) । वलय के आधे भाग के बाद और वाक्य के अन्त में एक
लकीर लगाई जाती है । पूरे वलय के अन्त में तथा अनुब-छेद (पैराग्राफ) के
मत में दो लकीरें लगाई जाती है ।
यूरोपीय संस्करणों में शब्द के आदि में आने वाले लुप्त अ का अवग्रह
चिह्न (6) से संकेत किया जाता है । जैसे-ते औप के स्थान पर तेपुषि लिखा
जाता है ।

१० ममरूप में यह वर्ण का अनिवार्य अग नहीं था, किन्तु यह रेखा का एक अंश है,
जिसके नीचे वर्ण लिखा जाता है ।
८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० : शह

संक्षेप के लिए ० (शुन्य) का चिह्न दिया जमाना है : इसका अभिप्राय


है कि शुन्य वाले स्थान पर पूर्वोक्त कुछ अंश लुप्त है । जैसे----., जन
(अर्थात गतेन) ।
१ 'शि-किसी एक पद में जब वर्ग के पंचम वर्ण आते है और उनके बाद
उसी वर्ग का कोई वण रहता है तो उसे परवर्ती वर्ण का समकक्ष पंचम वर्ण
लिखना चाहिए । परन्तु लेख-यब के लिए अशुद्ध होने पर भी पंचम वर्ण
के स्थान पर अनुस्वार (८) का प्रयोग किया जाता है । जैसे-अहित के
स्थान पर अंकित, कमियाँ के स्थान कंपित । इसी प्रकार वाक्य के अन्त में
अन्तिम यर को अशुद्ध होने पर भी अनुस्वार के रूप में लिखा जाता है । जैसे
अहम् के स्थान पर अहं है दोनों स्थानों पर उच्चारण में कोई अन्तर नहीं है ।
( १---यदि एक व्यंजन के बाद एक या अनेक व्यंजन आते हैं तो उनको
सयुक्त वर्ण के रूप में लिखा जाता है है जैसे-आक, कात्म्न्र्य । इन
संयुक्त वरना के विषय में सामान्य नियम यह है कि वर्ण के वाद की सीधी
और पडी दोनों लकीरें हटा दी जाती हैं । केवल अन्तिम वर्ण के बाद ये
लकीरें रहेंगी । ये संयुक्त वर्ण सामान्यतया सरलता से पहचाने जा सकते हैं :
जो संयुक्त वर्ण कुछ कठिनाई से पहचाने जा सकते हैं उनका विवरण अलम
संयुक्त वर्ण-सूची में दिया गया है ।
१२---निम्नलिखित सयुक्त वर्ण विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं-
( १ ) ज्ञ और क्ष में संबद्ध अवयव पहचाने नहीं जा सकते हैं । जैसे
जू के अ८च ज्ञा, कू-मष-व्य-क्ष ।
(२ ) कुछ परों पर त के मुख्य अंश और कू के गोल अंश के लिए
संयुक्त वहा में पडी लकीर का प्रयोग किया जाता है । जैसे-त
पत त, कू-मत-चका ।
( ३) श, के बाद कोई व्यंजन, उ ऊ या ऋ ऋ स्वर हो तो शु को हर लिखा
जाता है है जैसे-प चवा-- अ, शु-प-यशु, शू-मऋ------शु ।
(४) व्यंजन के बाद र आता है तो उसका वर्ण के नीचे दाई से बाई
और जाने वाली एक छोटी लकीर के द्वारा निर्देश किया
जाता है । जैसे-कू-म रा-चक्र, दू-म् रहु-चद्र, पू-मद-भरम-पा,
त । आ र-मय-च-तोय । व्यंजन या ऋ स्वर के पहले यदि र
होता है तो वह परवर्ती वर्ण के ऊपर 2 के रूप में प्रयोग में आता
निष्ठ १०( ३] वर्णमाला ९
है । जैसे अरला-काय-पक । वर-पय-से । निर-पति-च
नित्ईति । यदि उस वर्ण के ऊपर कोई स्वर-चिह्न है तो यह र
उस स्वर-चिह्न के बाद लगेगा । जैसे-अरला-केइ-य-यन ।
संयुक्त वर्ण-सूची (जि'" ल (.001110-1 6011500.5)
१३--कू।कव्य-स्क, न्रेख==क्ख, कू-मचह-वाच, कू-मण-च-क्या,
कू-प-द्वा-क, कूप अर्ष-य-च-क्या, कू-नि-तूम-रा-चम, कूप-त्-सरकरा-यज्ञा--
नव्य, कू । सूझ-वक्र-द्या-काव, कूप-ना-उ-वन, कू-मनु-मय-पय, कू-ममव्य-बम,
कुझ-यज्ञाय-मक्य, कू-तिर-चक्र, कूल-रकम-य दा-लप-त्-तिल-उ-काकू-सव-चण्ड,
र-यु-जू-मय-----', कला-प-यक्ष, कू-मष-जि-य-पम; कू-मजू-प-च-क्षय, र
बर्ष-जून-यज्ञा-चय, कूच-प-मव-वाव, खुप-य-च-स्य, खुन-रस-पगु".-
ग्य, म्-मयज्ञा-य ग-वै-र-मयव-जीय-, ध-मज्ञा-यत-य-त्-भय-च-अय, धुम
मवा-हुम, घुम-य-यच-शय; घ-मनेत्र, दृ८प-कव८त्क, इम-कू-स्था-च-वक्त,
इ:, सर स-दम-य-च-मय, इम-कूप-यद-चब, इजा-कू-नि-ष-च-डल, रप
कू-नि-जून-व-च-शव, पत्-नि-ख-----"., भी प-त्-तिया-य-इदि, इपूरेग=८८ङ्ग, इ
है-रि-सय-व्य-जाय, त्-नि-घ-वाघ, इस-घूम-यज्ञाय-मय, इ-मधु-मरक्ष-चहु.,
इआ-ब-व-वड, डू] न-नेथन, इ-ममव्य-स, इन-यव-धय ।
चूर्ण-चने-यच, चूर्ण-पय-यछ, चूर्ण-छला-रा-चच', चु-मतिचा
चु-नि-मअरा-औ-ध्यान-यन-च-बलूत य८=छूय, यम-र-च-छ, जू-मद-यन्त्र,
जूझ-झ-चम, जूम-अने-ज्ञ, जू प-जूस य-य-म्य,- जूम-मनेजा, जूझ-य-च
ज्या, लप-र-च-ज, जूम-च-यव, ब-मचने-यच, रि-मचु-जि-च-अल्म, ब-स
चूर्ण-यश-दउ-जय, जूझ-छ-यच, जून-ज-------, अचि-मजू-तिय-च-उ-यय ।
द म ट-च-टूट, अप-याच-व्य-ब, टू-मय-चब, अप-रव-चट, डू-तिग-प्रा---?,
डूम-गुम-यद्वा-पय, डू-मघ-व्य-दध, डू-मघुस-राबी-अ-बम, द-स्था-च-दम, द
उ-य--------"-, लेम-च-ढ-य, ढ-मरमि-च, यत-ट-य-सय, ण-नि-ठ-चच.
ए-नि-ड-चयक, प-मडूम-यद्वा-दब, एम-डू-र-च-स, लूम-दत-रच-य
व-च-क्षय, सू-मढब-आ-श्व, ण मयम-चरा, यत्-मयव-माय, ए-मवा-च-यब ।
त-मकह-दरक, चु-मकूप-दा-आदत-मत-चबा, नू-मत-मय-वलय, तम
उ-त-मर-च-अत्र, तम-सू-मव-य-त्व, तम-थम-त्व, त-मन-च-ल, तम-त्-म
(० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० (. ( ३
ब-चर-य, सू-मप-च-ता, सू-मपरे-र-व्य-ता, तम-मद्वा--., जि-मू-प-च-मय, तू
वै-य-चप्रा-पय, तृन-र-च-भी, त्-ना-र-यस-उ-व्य, सू-ना-वदय-त्व, त-प-स-त्-'-----., तू
उ-रि-पय-प्रा-लन, त-स्वर्ण-नू-जि-च-अय, वृ-प-यय, दून-ग-वरा, दू
रेप-मर-च-दय, दू-प-च-दध, दू-नि-घुम-र-जण, दू-मदब-दा-प, दू-मदू-म
य-यदद्य, दून-ध-ब-अ, दून-ध-य-च-दू-य, दून-न-चदन, दू-प-औत-दब, दू
सं-भ., दू-मभूम-य-व्य-दू-य, दू-ममअ-दुम, हुम-च-द्य, दू-मर-स्था, दू
स-र-मय----", दू-पय-ऋ, दू-मदम-यद्वा-", धु-प-द धा, वृ-मब-म
य उ-जिय, दृ-ममव-जिम, पम-य-रे-य, द-मरा-तो-पय, धू-मव-यज्ञा-मव, नू-.
त-सहमत, नू-स्था-ना-प-मचम., नू-मकां-र---., नू-मत-जिब, नू-रिव-सर----
न्द्र, त सधवा------, नून-रि-प-चका, तन-न-इ-----?, बर्ष-प-य-रना, ब-मपरे
र-च-श्र, सू-ममज्ञा-ज्ञा-प, ब-मय-र-न्या, बस-र-स-चय, न-मस-दा-ईना ।
पुर्ण-त-व्य-पा, पू-मतम-उ-पय, पू-मन-च-म पूस-प-च-पा, पूर्ण-म
इच-राम, पू-प-च-य, पृ-मने-प्र, पूज-लड-चयन, प-व-च-पव, पच-मस-यस,
पृ-रसु-ना-वा-स-मस्व, बु-स्था-च-से, वृ-मजा-यज, इ-ती-द-----., बरे-बहर-
अन्ध, मरप-न-उ-त-टन, वृ-मबने-व्य, वृ-के-भ--------, वृ-मभूम-य-य-कय, बरे-य
=८व्य, र-मर-य-ब, बु-मप्रा-र-व्य, भू-मद्वा-सभा, भूम-य-यय, भूम-र--
भ्र, भूम-व-च-स्व, बम-च-मा, मूस-प-उ- मप, मू-मपुन्य-र-च-कां, बम-ब
वय-ग्रब, बम र प्रभ, य-चम, मृ-मयस-पय, मू-मर-व-अ, मू-पय-
म्ल, मूरा-ब-च-ग्रब । हैं
यच-मय-च-या, मरे-व-चव, रि-मकवा-ब, लूम-पह-दला, जू-प---:
स्म लू-मय-च-व्य, लू-मल-चल, लूम-वा-मस्व, त-मह-य-शह, दम-च
टन, द-मव्य-व्य, वर्ता-र-, वच-मवरा-स-पव ।
श-मच-चवा, शम-चूम-च-स्था, शू-पय-चवन, शू-मय-च-पाय, ए-म
र-वयश्र, शती-रजी-यसेर (, एसमलव-थल, शु।व=द्धिका रउ-त(य-च-हुवा,
शूरा-श-यच-वश, यम-ट-द-राष्ट, जू-पप-चम-द्य, प-टू-मरद-राह, घूमते
उ-र-सय------:..-.-.----., पूर्ण-ठ-यय प-ण--., वृ-मति
य-य-बताय, जूम-प-सेप, जू-मपू-मरा-वजा, पूर्ण-मब-औम, दम-यय-राज, म
रा७व==व स-मक चरक, सुम-ख-चख, सूना-त-च-स्व, सजी-त-मय-च-टा
नि० १-१५] वर्णमाला ११

सय, रम-नू-मर-य-दाम, सू-मरिम-वय-मत्व, स-थ-यस, इमन------.,


सुन-त्-मय-य-सय, सु-मप-च-स्प, सू-प-फ, सू-प-चम, सरे-मून
य-ई-दावा, सुआ-य---., सन-र के ल, सु-रेव-चमच, सून-सद्र-वास ।,
हा-मय.---., हा-मनसे-हृ, हा-ममयहा, हा-मया-च-ड़, ह-र
हृ, हरेन-उ-ध, दून-व-श ।
१४, सहित में अंक ये हैं:
(, २, ३, ( (, ६, ७, ८, ९, ० ।
ये अक अरब वालों ने भारतीयों से लिए और उन्होंने इन्हें यूरोप में
प्रचलित किया ।

उच्चारण-सम्बन्धी निर्देश (.0.11111.110)


[ ए-दस विषय में निम्नलिखित नियमों पर ध्यान दें-
( है ) स्वरों का उच्चारण उसी प्रकार किया जाता है जिस प्रकार
इटालियन भाषा में । अव अ का उच्चारण अंग्रेजी के
आल्पधुत अ के तुल्य होगा । जैसा 1..1: (बटा में (1 का
उच्चारण है । इसको संस्कृत में संवृत (मुखद्वार बन्दा कहा
जाता है । यह उच्चारण कम से कम ३०० ई० पू० तक
प्रचलित था ।
(२) व्यंजन वल में महाच-ध्वनि ममतप से सुनाई पडतेहै ।
जैसे-ख-यय-प, य-च",
फ अ- अस्ति, य---",
यद्वा-यद", भवा----",
( ३) कस डा. का उच्चारण उसी प्रकार होता है जैसे-- 1..118 में
118 का ।
(४) तालव्य च और ज का उच्चारण उसी प्रकार होता है,
जैसे-यायला में (:11 का और ]01-1 में ] का ।
(५) मूर्धन्य ट, ड, ण का उच्चारण अंग्रेजी के 1, (1, 11 के तुन
संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका कि [नि० :क :५

होता है । इनके उच्चारण में जिद तालु की ओर अधिक


झुकी हुई होगी ।
(६) संस्कृत के दन्त्य वर्ण आजकल इष्टर होप (शिया 1:11
131) के तुल्य उच्चरित होते है । इनके उच्चारण में जिद
का अग्र भाग सातों के अग्र-भाग को स्पर्श करता है ।
प्राचीन भारतीय शिक्षा-ग्रंथों के समय में इनका उच्चारण
पोस्ट तेष्ट्रल (1.1:11)1) के तुल्य होता था और इनका
उच्चारण दोनों के ऊपरी भाग के स्पर्श से होता था ।
७) दन्त्य सू का उच्चारण कील के 8 के तुल्य होता है, मूर्धन्य ष
का उच्चारण 511.111 के 811 के तुला होता है और तालव्य
शू का उच्चारण दोनों के मध्य भाग से होता है और इस
ऊष्ण ध्वनि का उच्चारण जैसे जर्मन भाषा के 10, (इशा
में (1 का ।
(८) भारतवर्ष में विसर्ग (:) का प्राय: कठोर हा के तुल्य उच्चा
रण होता है और इसके साथ ही पूर्ववर्ती स्वर की ध्वनि
संलग्न रहती है ।
(९ । अनुस्वार पूर्णतया नासिक्य ध्वनि है । इसमें विराम केकारण
कोई अन्तर नहीं आता है । इसका उच्च-रण फेंच भाषा के
19.11 (बी) में 11 के तुल्य है ।
( : ० ) ईसवीय सब के प्रारम्भ से संस्कृत का उच्चारण बलाधतयुक्त
उदात्त (8.88 फि८८(:ता) केसाथ होता आ रहा है, जैसा
कि लेटिन भाषा में । प्राचीन काल में यह उदात्त सगीतात्मक
(.18.1 4.111) था । इसप्रकारयह बलाघात उपाय
दीर्घ स्वर पर होता है । जैसे-मकालिय), जब उमा
मय अव 'होता है तब उससे पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर पर बला
घात होता है । जैसे-हिम/लय । यदि अंत्य की ओर से
तीन अव होते हैं तो उनसे पूर्ववर्ती चतुर्थ दीर्घ स्वर पर
बलाघात होता है । जैसे-कारियति ।
अध्याय २

साँ-धि-नियम (1.:8 ता 88118111,


१६-संस्कृत भाषा में प्रत्येक वाक्य एक अल-चदन श्रृंखला माना
जाता है । सराय का अर्थ है-जोड़ना । इसके द्वारा शब्दों के अंतिम और
प्रारम्भिक वाल का एकीकरण किया जाता है । स-धि-नियमों के दो आधार
हैं :----प्रकृतिमाव का अभाव य-समीकरण का प्रयोग है
सन्धि के अभाव के द्वारा ही कतिपय स्थानों पर विराम का बोध होता
है, जबकि अन्य भाषाओं में इसके लिए विराम-चिन्हों का प्रयोग किया जाता
है ।
यद्यपि पदान्त सन्धि और पदा-सगीर सन्धि दोनों में हीसत्-ध-नियम समान
रूप से लगते हैं, तथापि भ्रम-निवारणार्थ दोनों का अन्तर समझ लेना उचित
है । पदान्त सन्धि में पद के अन्तिम वर्ण और दूसरे पद के प्रारम्भिक वर्ण में
संधि होती है । पदा-ख्याति-सन्धि में धातु और शब्द के बाद कृत, तद्धित या
अन्य सुर और तिर प्रत्यय लगने पर जो सन्धि-नियम लगते हैं, उन्हें पदान्त
जत सन्धि कहते हैं ।
(क) पदक संधि के नियम, कुछ अपवादों को छोड़कर, समस्त पदों में
और भाप भिसू, भालू, सु तथा य से प्रारम्भ होने-वाले यत प्रत्ययों को
छोड़कर अन्य वहा से प्रारम्भ होने वाले तद्धित प्रत्ययों से पूर्व शब्द के अंतिम
वर्ण से लगते हैं ।
क-पदम सन्धि (1.2- लिय-सा)
स्वरों का वर्गीकरण (..111.1)1 " ध०ना1९)
१७पवर निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त हैं-
आ-१. सामान्य स्वर : अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋ ऋ, लू
२. गुण स्वर : अ ए ओ अर अत
३० वृद्धि स्वर : आ ऐ औ आदत

(.- जू का-धि-टर-शल, होगा, किन्तु इसका प्रयोग नहीं मिलता है ।


१४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० २, १७

(क) गुण स्वरों में सामान्य स्वरों के साथ पहले अ की ध्वनि आती है
(यह अ ध्वनि परिवर्तित नहीं होती है), वृद्धि स्वरों में यह अ स्वर दन आ
का रूप धारण करता है, इस प्रकार गुण स्वर में वृद्धि अर्थात् अ का आ हो
जाता है ।१
आ-ना १ ) निम्नलिखित स्वर अन्न:म्थ के रूप में परिवर्तित होते है-
व्या, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, तथा मिश्रित स्वर (जिनका उत्तरार्द्ध इ या
उ हैं) ।
(२) जो अन्याय के रूप में परिवर्तित नहीं होते हैं :--अ, आ ।
स्वर-संधि (.1111211211 (), 111121 प्राय 111111-11 प०भा०15)
१८-(अक: सवर्ण दीर्ध:) सवर्ण दीर्ध-सन्धि-यदि पद के अन्त में
डाव या दीर्घ सामान्य स्वर होते है और बाद में भी समान स्वर होगा तो
दोनों के स्थान पर दीख स्वर हो जाएगा । जैसे-सा-पप-पक्ष"
सापीक्षते, किब-उदेति------.., कतृपऋजु=--कर्युजु ।
: दृ-अ और आ-
(क) (आदम:) गुण-सन्धि---' और आ के बाद सामान्य स्वर 'नेल तो
दोनों के स्थान पर गुण स्वर हो जाएगा । जैसे-तवसं-इन्द्र:-------, सा
औ-उब-ब------"-, सा-मऋद्धि::---"]-: ।
(ख) (वृद्धिरेचि) वृद्धि-सन्धि-य और आ के बाद ए या ओ होगा तो
क्रमश: वृद्धि-स्वर ऐ, अंत होंगे । जैसे-जथा-एव-च-तथैव, सा-मतजि:--
औषधि: ।
(ग) अ और आ के बाद ऐ या औ स्वर होगा तो ऐ औ ही रहेंगे । जैसे
न-बसाऔ-अनय-ती-व्य-सतत्-पती ।

१० तुलनात्मक भाषाविज्ञान प्रकट करता है कि इस मश्रुति में गुबवर सामान्य


स्थिति का बोध कराते हैं, यदि इनमें उदात्त स्वर का अमाव होता है तो वे सामान्य स्वर
का रूप धारण करते हैं है वृद्धि-स्वर गुण स्वरों का ही परिवर्तित रूप है है य, ब, र (ये
गुण-स्वरों के समकक्ष हैं) को ही सप्रसारण होकर क्रमश: इ, उ, ऋ हो जाते हैं 1
नि० २-२३] सन्धि-नियम १५
२०-(इको यणचि) अव और दीर्घ इ, ई, उ, ऊ, और ऋ के बाद
असवर्ण (असमान) स्वर होगा तो उनको (ममश: यू जू, र हो जाएँगे । जैसे
दधि-मअवा-य-यम, कर्णम-उत-वा-पसंत, मधु-प-वा-मदा-चव, नबी-म
अर्थम्-च-नदय ।
२१-गुण स्वर ए और ओ के साथ निम्नलिखित संधियाँ होती है--
(क) यदि बाद में अ हल तो ए और ओ पूर्ववत रहेंगे तथा बाद
के अ का लोप होकर अवग्रह (5) चिह्न लगेगा । जैसे-
ते-पप----., सोम-अपि-रवा-सोजी ।
(ख) ए और ओ के बाद अन्य कोई भी सामान्य या मिश्रित स्वर
होगा तो ए और ओ का अ शेष रहेगा । ए के स्थान
पर अबू और ओ के स्थान पर अव करके यू जू का लोप
होने पर अ शेष रहता है । ऐसे स्थानों पर कोई सधिकार्य
नहीं होगा । जैसे-शल-इह-च-सख इह, प्रभो-पती.---
प्रभ एहि ।
२२----वृद्धि स्वर ऐ के स्थान पर आयु होकर यू-लीप होने से आ शेष
रहता है और औ के स्थान पर आद शेष रहता है, बाद में कोई भी स्वर हो
तो । आबू के जू का लोप नहीं होता है । जैसे-नीकी-मअर्थ:------."
अर्थ:, तौ-ना-इति-च-सवति ।
(क) पूर्वोक्त तीन स्थानों पर (२१ ख और २२) में यु और द
का लोप होने से (गौण) प्रकृति-भाव होता है ।
स्वर-संधि के अपवाद नियम (1.811111, ४०६मसु1 प्र1आ) इ
२३ते-निम्नलिखित स्थानों पर गुण के स्थान पर वृद्धि एकाकी होगा
(का उपसर्ग के अन्तिम अ या आ के बाद धातु का ऋ हो तो ।
जैसे-उप-मपति-उपजि, अम-बलको-द-पकते ।
(ख) प्र उपसर्ग के बाद कत-प्रत्यय" म (वह-क्त) हो तो ।
प्र-मढ:--: (उठाया हुआ, उन्नत किया हुआ) ।
(ग) अ चि) के बाद धातु का प्रारम्भिक स्वर हो तो ।
जैसे-अ-पनपी-चरन, (उसने गीला किया) : (गीला
करना अर्थवाली उद धातु का यह रूप है) ।
(६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० २-२४
स्वर-संधि के अभाव वाले स्थल (प्रकृति-भाव)
(46821102 ल ध०प्र३1 दुज1111")
२४--विस्मयसूचक निपात (111.].111131 1)10128) में यदि
स्वर हो या उनका अन्तिम अक्षर स्वर हो तो । जैसे-आ, इ, उ, हे, अहो के
साथ संधि नहीं होती है । जैसे-इ इन्द्र (हे इन्द्र), आ एवज (क्या यह ऐसा ही
है 1), अहो अपेहि (अरे दूर हो) ।
२५-धातु-रूप और शब्द-रूपों के द्वि-वचन के ई, ऊ, ए के बाद कोई
स्वर हो तो । (द्वि-वचन के एकेबाद अ का लोप नहीं होता है) । ऐसे सालों
को प्रगृह्य (पृथक) कहते हैं । इसी प्रकार अव शब्द के प्र० बहु० अभी के
साथ भी संधि नहीं होती है । जैसे-कवी इम, (ये दो कवि), साधु इसी (ये
दो साधु), विखे इसे (ये दो विद्याएँ), गोते अर्थर (ये दो धन मांगते है)
अभी अन्या: (ये घोडे) है
२६-रामायण और महा., स्मृति ग्रन्थ और अन्य ग्रन्थ जो माहि
लिक संस्कृत के ग्रन्थ नहीं माने जाते (., उनमें शरीक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध
में प्रथम और द्वितीय चरण (पाद) में इन संधि-नियमों का प्रयोग नहीं हुआ है ।
हए (व्यंजन) संधि
(.111:)0 14 11091 व"११1 1हुर्श०१1 जिगा9०य1क्रि)
२७--किसी भी शब्द के अन्तिम वर्ण जब निम्नलिखित आठ संधि-योग्य
वर्ण के रूप में होते हैं, तब हरि-संधि के नियम लगते हैं । ये वर्ण हैं-कू,
टू, त, पच, इ, नू, सू और : (विसर्ग) । सारणी (नियम ६) में जो ३४ व्यजन
दिये हुए जिन्हें वे निम्नलिखित रूप से आठ वल के रूप में शेष रहते है
अन्तिम-वर्ण घोष और अल्पप्राण रहेगा ताल-य-प्राण (श-सहित) और
हक के स्थान पर कू या टू नि को त्) होते हैं, जूको टू, सू और रफ को विसर्ग,
यर यच लु, और बल्कि ये शब्द के अन्त में नही मिलते हैं । उपर्युक्त विवरण से ज्ञात
होता है कि वर्ग के द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ तथा पूरा चवर्ग पूर्णतया लुप्त
रहता है अंह उनके स्थान पर चार घोष वर्ण कू, टू, सू, भी तथा नासिका--
वर्ण डा:, त, ष और षष्ठ तथा सप्तम कोष्ठ में से केवल विसर्ग शेष रहता है ।
नि. २८] ल-धि-नियम १७

२८--शब्द के अन्त में एक से अधिक व्यंजन नहीं रह सकते है । केवल


शब्द या धातु के र के बाद कू, टू, सू, पृ शेष रह सकते हैं, यदि प्रत्यय के
कू, तू आदि होगे तो उनका लोप हो जाएगा है आय अन्तिम संयुक्त वहा में
से उपर्युक्त आठ वल के रूप में ही केवल एक वर्ण अन्त में शेष रहेगा । अत:
भवन्तु का भवन (होता हुआ) शेष रहता है, अधिभार का अनि: (उसने
ढोया) शेष रहे-गा (प्रत्यय होने से तू का लोप हुआ हैऔर र को विसर्ग हुआ
है), किंतु ऊन (बल)(यहाँ पर जू के स्थानपर कू हैगाअमद (उसने-)
में मृन् धातु के जू के स्थान पर टू है) ।
व्यजिनों का वर्गीकरण (.69111.1011 (भी (.0115011.2)
२९-----व्यजिनों के उच्चारण-स्थान । (यय: ()1: ().11 ता 1.16118
11.11
) ( : ) काव तालु, मूर्धा, दन्त, अस औरनासिका ये वहा केउउचा
रण-स्थान कहे जाते हैं ।
(२) उपर/कत चार स्थानों अर्थात कष्ट, तालु, मूर्धा और दन्त के
साथ जिद का संयोग होने से काव, तालव्य, मूर्धन्य और
दन्त्य वर्ण उत्पन्न होते हैं । दोनों ओठों के संयोग से ओष्टय
वर्ण उत्पन्न होते हैं ।
(३) पांचों वर्गों के नासिका वरन के उच्चारण में कुछ कास
नासिका के मार्ग से निकलता है और जिद तथा ओष्ठ
अपने वर्गों के अनुसार उच्चारण-स्थानों को स्पर्श करते हैं है
वास्तविक अनुस्वार केवल नायिका के द्वारा बोला जाता
है, किन्तु अनुस्वार से पूर्व जो स्वर होता है, उसके लिए
हैं जिद अपने विशिष्ट स्थान को स्पर्श करती है ।
जि) अन्त:स्य य, र, ल, व क्रमश: तालब, मूर्धन्य, दमत्य और
ओष्टय हैं । प्राचीन भारतीय वैयाकरणों के अनुसार इनका
उच्चारण अपने विभिन्न स्थानों के साथ जिया के अपूर्ण
संयोग के द्वारा होता है । र और ल प्राय: एक-दूसरे से
बदले जाते हैं और ल र से निकला है 1
संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. २९

( ५ ) ऊष्ण श, य, स ये कठोर बर्ष वर्ण हैं । इनका उच्चारण


क्रमश: तालु, मूर्धा और दन्त के साथजिडा के अपूर्ण संयोग
के द्वारा होता है । संस्कृत में कोमल उम वर्ण ज (अग्रेजी 2
और भी में का समकक्ष कोई वर्ण प्राप्त नहीं होता है ।
(६) ह और विसर्ग (:) ये क्रमश: कोमलअ१र कठोरघर्षवर्ण हैं ।
इनका उच्चारण जिद का विभिन्न स्थानों से साक्षात
संयोग हुए बिना होता है और उनके उच्चारण में पूर्ववर्ती
या परवर्ती स्वर के अनुसार जिद विभिन्न स्थानों का
स्पर्श करती है । ह यह घ (84), झ (]41), ध (641), भ
(.11) के उत्तर भाग के समकक्ष है और यह वच: उत्तर
भाग से ही निकली हुई ध्वनि है । यहकोमलवणों से पूर्वही
प्राप्त होती है । विसर्ग घोष महाप्राणवर्ण ख (1.11) आदि
के उत्तरार्द्ध के समकक्ष है । यह स्वरों के बाद तथा कतिपय
कठोर व्यंजनों के पूर्व प्राप्त होता है । भारतवर्ष में विसर्ग
का उच्चारण प्राय: कठोर हक के तुल्य होताहै और साथ ही
इसके बाद पूर्ववर्ती स्वर की कुछ ध्वनि सुनाई पड़ती है ।
जैसे-क: में हा के बाद अव अ की ध्वनि रहती है । इसी
प्रकार कवि: में दू के बाद इ और ऋतु: में हक के बाद उ
की ध्वनि रहती है ।
३ व्यजिनों की निजेषताएँ (..1.1. ल जिय-जा)
व्यंजनों के निम्नलिखित भेद हैं :
( : ) कठोर (., अय) ये वर्ण नियम ६ पर दी गई सारिणी
में : हैं २ और ७ कोष्ठक में दिये गये हैं । अथवा कोमल वर्ण
(नाद, घोष) । शेष सभी वर्ण जो कोष्ठक के ३, ४, ५, ६,
में हैं तथा अनुस्वार (साथ ही सभी सामान्य और मिश्रित
स्वर);
(२) महाप्राण वर्ण, ये २, ४, ७ कोष्ठक में हैं तथा ह, वर्ण,
अथवा अल्पप्राण वर्ण, शेष सभी वर्ण अल्पप्राण हैं । अता चू
का कू में परिवर्तन स्थान-परिवर्तन कहा जाएगा (तालव्य
से कनि), और चू का जू में परिवर्तन यह गुण-परिवर्तन है
नि. ३०] सन्धि-नियम १९

(कठोर से कोमल), किन्तु चू को गु (कठोर तालव्य से


कोमल कच्छा) और तू जो जू (कठोर दन्त्य से कोमल
तालव्य) में दोनों बातें हैं । स्थान और गुण दोनों का परि
वर्तन है ।
३ १-यह स्मरण रखना चाहिए कि नियम २७ में वर्णित ८ वल के
रूप में जब अन्तिम व्यंजन परिवर्तित हो जाएँगे, तभी हरि-संधि के नियम
लगेंगे, अन्याय, नहीं । तत्पर इन वरन में जो परिवर्तन होगा उसमें निर्व
चन को आधार नहीं माना जाएगा (विसर्ग में कुछ स्थानों पर निर्वचन को
आधार माना जाता है) । इन अनिष्ट अक्षरों में प्राय: निम्नलिखित ६ वर्ण
ही प्राप्त होते हैं-कू, सू, पू, ब, ब और विसर्ग । अन्तिम वरन के स्थान
पर जो परिवर्तन होते हैं उनको संक्षेप में दो प्रकार का कहा जा सकता है :
१--गुण-परिवर्तन, र-स्थान-परिवर्तन ।
१----व्यंजनों में गुण-परिवर्तन (राय-टा' ल ए०'गा)
३२--यदि अन्तिम वर्ण के बाद आगामी पद का प्रथम वर्ण कोमल वर्ण
होगा तो अन्तिम वर्ण को कोमल वर्ण हो जायगा और कठोर वर्ण से पूर्ववर्ती
अन्तिम वर्ण को कठोर वर्ण होगा ।
(क) यह नियम अन्तिम पांच कठोर वल (कू, टू, त, पू और विसर्ग) में
ही लगता है । नियम ६ और ३ ६ में वणित नासिक्य वल में गुण-परिवर्तन
नहीं होता है, किन्तु उनमें से दो त और मच में कठोर ध्वनि तू और विसर्ग
(३७) के तुल्य वधान-परिवर्तन होता है ।
(ख) अत: अन्तिम कू, टू, त, भी के स्थानपर नादवर्णगु,डू, दू, र क्रमश:
हो जाते हैं । जैसे-सम्यक-पत्रा-यत्र (ठीक कहा); विद-मगज:
प्रा-जलज: (दिग्गज); परिवार अप-द-परिवार (यह एक संन्यासी है),
परिवाद स-गच्छति-च-चपर-छत्ते (संन्यासी जाता है); सरित-मअत्.--
सरिदत्र (नदी यहाँ है); महत्।धनु:व्यं=महद्धनु: (बडा धनुष, ककुपू" अव
ज-च-रोब' (यहां दिशा), अप"ज:==अठज: (कमल, जल में होने वाला) ।
३३-कू, टू, सू, पृ के बाद त और मू से प्रारम्भ होने वाला करों शब्द
होगा तो इनको क्रमश: इ, ए, भू, ब ये नासिक्य वर्ण हो जाएँगे । यद्यपि यह
२० संस्कृत-व्य-रण-प्रवेशिका [नि. ३३

नियम वैकहिपक है, परन्तु व्यवहार में यह अनिवार्य रूप से लगता है ।


जैसे-जीय-पग:------?:, दित्नाग: (दिग्गज): जगल-नाथा-इ-च-जगत्
नाथ-, जगनाथ: (संसार के स्वामी); षद-पा-मास:-----'.: (छ: महीना,
प्राकूजिमुखा-च-प्रात्मुख: (पूर्व की ओर मुंह वाला) ।
३४--अस्तिम त को लू हो जाता है बाद में तू हो तो । त् को दू होकर
यह लू होता है । जैसे-----'..------.'.'" (व-या) ।
३५-नासिक्य वश का समकक्ष कोई कठोर वर्ण नही है, अत: बाद में
कठोर वण होने पर उनमें कोई गुण-परिवर्तन नहीं होता है, किन्तु कतिपय
स्थानों पर त के बाद एक जम वर्ण तथा तू या त् के बाद कोई कठोर वर्ण
दोनों के बीच में जोड़ दिया जाता है । मौलिक र और रह अन्तिम वर्ण के
रूप में कभी प्राप्त नहीं होते है (नियम २७) ( कय उई का प्रयोग अन्त में
बहुत कम मिलता है । उसमें परिवर्तन नहीं होता है, किन्तु उसके बाद शू,
इ, त बम वर्ण होंगे तो बीच में कू और जोड़ दिया जाता है । जैसे-प्रात
सं-शेते-य-आइ/ल्यासे (वह पूर्व की ओर सोता है) । सभी व्यंजनों से पूर्व
अत्-तम ध को अनुस्वार हो जाता है (नियम ४२) । अधिकता वहा से पूर्व तू
में कोई परिवर्तन नहीं होता है, किन्तु बाद में कोई भी चवगी मूर्धन्य (ष, को
छोड़कर), कठोर बनाय त्, यू और अन्त-थ लू होगा तो न् मे-परिवर्तन होगा ।
तू के परिवर्तनों की विस्तृत व्य-रया अपेक्षित है ।
३६--पअ) निम्नलिखित स्थानों पर तू (दन्त्य नासिका) में कोई परि
वर्तन नहीं होता है:
- (१) स्वरों से पूर्व (देखे नियम ५२) । जैसे-तात उवाच (उसने
उनसे कहा) ।
(२) सभी य, कू, खू, गु, कई तथा ह-, से पूर्व । जैसे-बुद्धिमान
कोपुपि (एक अमाना, तान हत्वा (उनको मार कर) ।
(३) सभी पवई पू, फू, बया भू, सू से पूर्व । जैसे-वत पाशान्
(इन वेडियों को), बान्धवान् मम (मेरे सम्बन्धियों को) ।
(४) कोमल दन्त्य वर्ण दू, धु, त से पहले । जैसे-मस्थान धन
नि. ३६] सन्धि-नियम २१
(मलियों को रखो;, राजपुर नयति (वह राजकुमारों को
ले जाता है) ।
(जा अन्त:. यु, रच, र से पूर्व । जैसे-ससान रक्षति (वह हंसों
की रक्षा करता है) ।
(६) मूर्धन्य पके और दमत्य सु से पूर्व । त से पूर्व त का विकल्प से
आगम होता है । जैसे-तात षद, (उन ६ को), तान् सहते
या ता-सहते (वह उनको सहन करता है) ।
(आ) निम्नलिखित स्थानों पर तू में परिवर्तन होता है ।
( () कठोर तालव्य चू, लि, मूर्धन्य टू, व, और दन्त्य सू, धू से
पूर्व ब के स्थान पर अनुस्वार के साथ क्रमश: तालव्य शू,
मूर्धन्य यू औरदनयसू, हो जाते है ।१जैसे----हबन्स-चकार=:
हसंअकार (उसने हँसते हुए यह किया); पाशा-झा,
व्य-य-पाश-जप्त (बन्धनोंको काटने के लिए); चलतउ-डि-ति:
==चलेंहिहिभ: (चलती हुई टिटिहरी); पता-रु: उ-
पतस्तिरु: (गिरता हुआ वृक्ष) ।
(२) कोमल तालव्य जू भू और शु से पूर्ववर्ती तू को तई होता है
(नियम ४० देखे") ।
(३) :.:::, डू और ढ, से पहले त को यह होता है (नियम ४१
ख ।
(४) अनाथ नई पहले न को लू होता है । जैसे-महारि-म
लाभ:ब८महास्थाभ: ।
ए-स्थान-परिवर्तन ((1.29 ल "य)
३७-निम्नलिखित ४ अन्तिम व्यंजनों में ही परिवर्तन होता है-त, त्,
मू, और विसर्ग ।
१श्व यह आगम प्रतीत होने वाला ऊष्ण वर्ण वच: भारत-यूरोपीय सू का 'हीं अवशिष्ट
रूप है, जोकि पूहिं१लग द्वितीया बहुवचन (.) और प्रथमा एकवचन में (., नियम ८८,
है ८९ देखा मिलता है । प्राचीनतम वैधिक काल में यह ऊ-मवर्ण वही पाया जाता है, जहाँ पर
ऐतिहासिक दृष्टि से युक्तिसंगत है, किन्तु संस्कृत में कठोर तालव्य, मूर्धन्य और दना वना से
पूर्ववर्ती नू के साथ प्रत्येक स्थान पर यह ऊष्ण वर्ण संधि-स्थलों पर प्रचलित है ।
२२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ३७
(का दन्त्य के बाद चवग "होगा तो दन्त्य को चवर्ग होगा और
वाद में मूर्धन्य होगा तो दन्त्य को मूर्धन्य होगा ।
(खा विसर्ग और कुछ अंश तक यर परवर्ती व्यजिन के स्थानों के
अनुकूल हो जाते है ।
१-अन्तिम त (11..1 त्)
३८--आँनीम तू को चू यान हो जाता है, बाद में ताम-वर्ण (चु, यई,
जू, भू, शू) हो तो । जैसे-तत्-मच------' (और वह), ताम-छिन.:---,
तक्तिनति (वह उस वस्तु को काटता है), तत्-ना-जायते-वा-आउ-ते (वह
उत्पन्न होता है), तत औ-जति-वा-बरार., किन्तु व्यवहारमेंतउछूणीतिकि
(वह उसको सुनता है) रूप होता है ।
३९--अत्न्तिम तू को मूर्धन्य वर्ण र या र हो जाते है बाद में टू, टू,
द, र हों तो । बाद में बू हो तो नहीं । जैसे-य-एतत्-मथर"----.:
(उसकी वह मूर्ति), तप-डयते-जयते (वह उड़ता है), तत्-मकीते----
तडूतौकते (वह पहुँचता) है ।
र-अन्तिम व (ति"" ब)
४० तो-अन्तिम नू के बाद जू, भूरे और शु, होगे तोनुको जू हो जाता है ।
जैसे-तासू-मजयति-------' (वह उनको जीतता है), तात-मशाद-लात
प्रा=ताहशदलान्, ताउच्छार्दूलात जिन चीतों को) ।
४१--अन्तिम तू को यह हो जाता है बादमें द यर होती । बाद में इ
होगा तो नाहीं । जैसे-महात-तोमर: महापर: (बडा मरा) ।
३ ने-अन्तिम मू (1.1 रि)
४२ (अति-बाद में कोई स्वर होगा तो अन्तिम ब में कोई परिवर्तन नहीं
होगा । जैसे-किप-अत्.--". (यहां क्या है ?) ।
(आ) हैदर म को पवार हो जाता है बाद में कोई व्यंजन हो

: : बाद में अन्तस, ममऔर हक होगे तो र को अनुस्वार अवश्य
होगा । जैसे-तब-नि-वेद-च-तकी (मैं उसको जानता हूँ), करु
१, यहाँ पर प्रारम्भिक शक को छू हो जाता है (देखो नियम ५३) :
२. बाद में जू, छू हो तो नू के स्थान-परिवर्तन के लिए देखो नियम ३६ आ १ है
३ ल टू, टू और पके से पहले त के परिवर्तन के लिए देखो नियम ३ ६ अ ६; आ १ :
नि. ४२ सन्धि-नियम २३
रब-रो-ज्ञा-इ-करुण रो-देवि-प- (वह करुण रोदन करता है),
मोक्षत्म-सेवेत७---गोक्ष सेकी (मोक्ष की सेवा करनी चाहिए),
मधुर-लत से-मधुर" लत (वह मधुर ढंग में हँसता है) ।
क से मत तक कोई वर्ण बाद में हो तो न को विकल्प से अनु
स्वार होता है और उस अनुस्वार को आगामी वर्ण के अनुसार
उसी वर्ग का अन्तिम अक्षर-पंचम वर्ण)२ हो जाता है :-(यह
परसवर्ण का कार्य यूरोपीय संस्करलामेंप्राय: नहीं किया गया
है): जैसे-किमू-मकरोमि रे-राइ-किं-ष (कित्करोषि) (क्या कर
रहेहो?)हैं प्यारऔ-जहिउईशरंजहि(शत्रुऊजहि)(शत्रु कोमारो)हैं
किन औ-फलम्-----' फलन (किम्फलसा (वया लाभ 1), अब
(मजि-च-गुह नमति (गुरुन्नमति) (गुरु को नमस्कार करता
है), शाथ मीमांसते-ल---शई मीमासते (या शास्वम्मीमसिंते)
(वह शास्त्र पड़ता है), (का सू के स्थान पर परसवर्ण से जो
रूप बनता है, वह निम्नलिखित स्थानों पर निविष्ट कार्य करने
पर भी वहीं रूप बनेगा, अन्तिम चू के बाद जू, भू हों (नियम
४०); द और व हों (४१ ) और न हो, तथा अन्तिम तू के
बाद नू हो (३३) । इस प्रकार 'कालर-न' (व्या-कान्त..,
कानात-मन, कान्त-म्-स्था) में कायतान् पतील्लेग द्वितीया बल
वचन हो सकता है (३६ अ ४), कान्त का पहुँहिंलग पंचमी एक
बचन कानात ( ३३) और स्वीनिग द्वितीया एकवचन कान्तान
(४२ आ पा हो सकता है । इन तीनों अवस्थाओं में 'कानान्न'
ही बनेगा है
४३--पदान्त में कठोर सू और उसके स्थानीय कोमल र को विसर्ग हो
जाता है
: में यदि कठोर तालव्य, मूर्धन्य या दन्त्य (जू, छू, टू, टू, त्, था
वर्ण वाद में हों तो विसर्ग के स्थान पर परवर्ती वर्ण के
१. प्रारम्भिक इ, (, लिए नही मिलते हैं ।
२. वैदिक भाषा में यह परसवर्ण सामान्यतया प्राप्त होता है है
२४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४३
अनुसार ऊष्ण वर्ण (शु, इ सा होगा । जैसे-पूर्ण:-.-.
-चपूर्णश्चन्द्र: (पूर्ण चन्द्रमा), नदय-परम-वाय-नद्या-तीरम्
(नदी का किनारा) ।
२. विसर्ग के बाद कठोर काव या ओष्टय (कू, खू, पति फू) वर्ण
होगा तो विसर्ग को विसर्ग ही रहेगा ।१ जैसे-.: काम:
(तब कामदेव), नद्या: पाल (नदी के पार ।
३. विसर्ग के बाद उम वर्ण होगा तो विसर्ग को विसर्ग ही रहेगा
या उसको परसवर्ण हो जाएगा ।२ जैसे-सुप्त: शिशु:, सुप्त
मिशशु: (बालक सोया है), प्रथम: य:, प्रथम-: (पहला
सर्ग या अध्याय) ।
४४--- अ या आ को छोड़कर किसी स्वर के वाद विसर्ग होगाऔर उसके
बाद कोई कोमल वर्ण (व्यंजन या स्वर) होगा तो विसर्ग को र हो जाएगा ।
जैसे-कवि-अयम्------.., (यह कवि), गौ:-मगच्छति ट गौग२छति
आय जाती है), वायु-मवाति-च-वायु-ति (हवा चलती है) ।
४५-ना : ) अन्तिम वर्ण आ: के विसर्ग का लोप हो जात, है, यदि बाद
में कोई स्वर या कोमल व्यंजन हो तो । जैसे-अश्वनि-जिमी-द-रवा अमी
(वे घोडे), आनाता:प-ऋषय:=८आगता ऋषय: (ऋषि आये), हता-मगजा:
उ-उ-हता गजा: (हाथों मरे) । मा:म-भि: अ-मानि:, मासु (उन्द्रमा) शब्द का
तृतीया बहुवचन में यह रूप है ।
(२) (का --अन्दिम वर्ण अ: के विसर्ग का लोप हो जाता है बाद में अ
के अतिरिक्त कोई स्वर हो तो । जैसे-कुता-पत:--- कुत आगत: (कहाँ
से आये 1), का-ती-एषा-टा-टा-क एषा (यहकोन है ?)शिक:ऋषि:---कऋषि: (कौन
ऋषि है ?) (
(ख) अन्तिम अ: के बाद कोमल व्यंजन और अ होगा तो अ: कोओं
१, देखने नियम ३६ मा२, ३, आ १ में कठोर स्पर्श यह से पूर्व नू को होने वाले
कार्य ।
२. यह परसवर्ण का कार्य प: मूल सधि के रूप में था और प्राचीन वैदिक
शिक्षाकार इसको आवर्ययक मानते हैं ।
नि. बोरा सन्धि-नियम २५
हो जाला' और उस ओ के बाद अ का लोप हो जायेगा (देखो
नियम २ : का । जैसे-आनह-पप:-------" दीप:
(दीपक लाया गया) । मनाम-भि:-----.:, मनन (मना
शब्द का तृतीया बहुवचन में यह रूपया । नरम-अयम्-च-नरो
प्यार (यह आदमी) ।
४६-कुछ स्थानों पर जहाँ उत्पत्ति के आधार पर केस्थानपर विसर्ग
है, ऐसे अन्तिम अ: और आ: के विसर्ग का गोप नियम ४५ के अनुसार नही
होता है । अपितु सामान्य नियम ४४ के अनुसार अ: का अर और आ: का
आर शेष रहेगा । २ जैसे-पुना-अपि पुनरपि (फिर भी), आतम-देहि-च
भ्रतर्देहि (हे भाई, दो), द्वा:-२-एपा-नेद्वारेषा (यह द्वार) ।
४७ उर के बाद र होगा तो पहले र का लोप हो जाएगा और उससे
पूर्ववर्ती अव स्वर को दीर्घ हो जाएगा । जैसे--- विधु:-.-------. राजते
(चन्द्रमा शोभित होता है), पुनम-रोगी-व-पुना रोगी जिर बीमार ।
४८-म: (वह) और एष: (यह) (नियम ११० का के विसर्ग काय-र
लोप हो जाता है, केवल वाक्य के अन्त में यह विसर्ग शेष रहेगा । यदि बाद
में अ होगा तो स: को सो और एष: को एवो हो जायेगा (नियम ४५ का २
खा । जैसे-सम-ददाति के स ददाति (वह देता है), स:-र्ष-इन्द्र:==स इन्द्र:
(वह इन्द्र), किन्तु स: औ-अभवत्-य-टा-भवन (वह था) । मृत:-]- स: (वह मरा)
में विसर्ग का लोप नहीं होता है ।
४९----भी: के विसर्ग का लोप हो जाता है, बाद में कोई स्वर या कोमल
व्यजन हो तो । यह भी: अव्यय भवन (आप) शब्द का सम्बोधन में एक
अनियमित संक्षिप्त रूप है, यह भवन के भव: सेभी: बना है । दृमका विस्मय
सूचक के रूप में प्रयोग होता था । जैसे-अंजि-ईशान'----., ईशान (हे
ईश्वर), भोस-देवा:----" देवा: (हे देवी), किन्तु वल-नि-ढेला:-----:
(हे काटने वाले) में विसर्ग का लोप नहीं होगा ।
१, ऐसे शब्द हैं-पुनर (फिर), प्रस्तर (प्रात:-, अन्तर (अन्दर), स्वर (स्वय)
अल (दिन), द्वार (द्वार), वार (जल) । ऋकारान्त शब्दों का सम्बोधन में एका
वचन रूप, जैसे पितर (पिता) (नियम १ ०१), और ऋ असली धातुओं
के कुछ रूप, जैसे-मजागर (जागा) जाग धातु का लद प्र० और म० एक० ।
२६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४९
(क) भगवत शब्द के सम्बोधन भगवा का संक्षिप्त रूप भगो: (हे आदर
णीय) है । उसके साथ भी उपर्युक्त नियम लगेगा ।
५०-जिन शठदों के अन्त में मूल रूप में र है, उनके र को र ही रहता
है, बाद में सप्तमी बहु० का सु ह) तो । जैसे-वार-मब- वा-वाव: (जल
में) । (का अहम् (नियम ९१ का २ देखें) और स्वर (स्वर्गवाचक अव्यय) के
र को र ही रहता है, समास न उत्तरपद में पति शब्द हो तो । जैसे-अह
बता (दिन का स्वामी), स्वाजि: (स्वाई का स्वामी) ।
व्यंजनों का द्वित्य होना (1101111118 05 60119011.9)
५१ उ-स्वरों के बाद शब्द का प्रथम वर्ण छू होगा तो उसको द्वित्व हो
जाता है । अव स्वर और आ तथा मा निपात के बाद यह द्वित्व अवश्य
होता है, अन्यत्र विकल्प से । जैसे-तव प-छाया-च-राव-छाया (तेरी छाया),
आम-छा-सत-व्य-आ-छादन (वह उकता है), मा-प-छिप-परिकर
(वह न काटे), कित. बदरी-या, बदरी-या (बेर की छाया) में विकल्प
से द्वित्व होता है ।
(क) एक शब्द के अन्दर प्रत्येक स्वर के बाद छू को द्वित्व होता है ।
जैसे-इच्छति (वह चाहता है), म्ले२धुछ: (म्लेच्छ) ।
५२---त् और ब से पहले कोई अव स्वर हो और बाद में कोई भी
स्वर हो तो त् और तू को द्वित्व हो जाता है । जैसे-मयत्-पल्ले---,
प्रत्यवृ7द्वाम्ते(वह पश्चिम की ओर मुँह करके बैठता है); धावत-पव:-----:
धावन्नश्य: (दौड़ता हुआ घोडा) । किं-तु, कबीरा-आब-व (कवियों को
बुलाया में दीर्घ स्वर पहले होने से त को जिव नहीं होगा ।
प्रथम वर्ण का महाप्राण होना (साय हैबजि०"१)
५३रे (नियम ३८) और अ, (नियम ४०) के बाद शब्द का प्रारंभिक
शु हो तो उसे अ हो जाता है, यदि उस शु के बाद कोई कठोर व्यंजन न हो
तो । यह नियम वैज्ञाल्पक है, परन्तु व्यवहार में नियमित रूप से लगता है ।
जैसे----: प-तेते-य-रेप-न (उस य-नोक के द्वारा), धावत-म शक:--
धाव.: (दौड़ता हुआ खरगोश) ।
नि. ५३] सान-नियम २७

(क) कू, टू, त, पति के बाद भी यह नियम लगता है, परन्तु साधारणतया
इस नियम का प्रयोग नहीं होता । वाकूशषा का वामन (सौ बासा हो
सकता है ।
५४--कू, टू, त, पू के बाद शब्द के प्रारम्भिक ह, को पूर्ववर्ण के अनु
सार महाप्राण वर्ण हो जाता है । अर्थात्-प : ) कू को ग, होगा और हच को
धु, (२) टू को डू और हाथ को प, (३ ) तू को दू और हा, को धु, (पू को इ
और हा को भू । जैसे-वाक. हि-च-वाति (क्योंकि वाणी), तरि-पह----
बद्ध (कयोंकि वह) ।
५५-यदि धातु के प्रारम्भ में गु, दू बू है और उनका अन्तिम वर्ण द,
ध, भू या हा है, यदि ऐसी धातुओं में से अहिंतम वर्ण में महाप्राण या हर
ध्वनि लुप्त होती है तो प्रारम्भिक वर्ण में महाप्राण ध्वनि आ जाएगी । यह
एक प्रकार से क्षतिपूर्ति समझनी चाहिए । इस प्रकार गति को घू, दू को धर
और बू को भू हो जायेगा । जैसे----.: शब्द (दुहनेवाला) का धुकू और बुर
(विद्वान) का भूत हो जाता है ।
अन्तरंग-संधि (प्र""" लिय.)
ए-अन्तरंग सनिय के नियम शठदों और धातुओं के अनिष्ट वणों पर
लागू होते हैं, बाद में कोई भी सुर (नियम ७३ क में डाल व्यंजन से प्रारंभ
होने वाले सुर प्रत्ययों कोछोड़कर), तित्, कृत, प्रत्यय (देखें नियम १८२, १ )
और स्वर या यस से प्रारम्भ होने वना कोई तद्धित प्रत्यय (: ८२, २ ) हो तो ।
ये नियम शब्दों और धातुओं के उदाहरणों को ठीक स्मरण करने से ही जाने
१ ग्रीक और संस्कृत भाया में कुछ मूल धातुएँऐसी थी, जिनका प्रथम वर्ण महाप्राण
वर्ण था । ऐसी धातुओं के लिए कुछ अनि-नियम थे, जिनके अनुसार यह आव
तो था कि प्रारम्भ और अन्त दोनों स्थानों पर महाप्राण वर्ण नहीं रह सकते
थे । इस नियम का परिणाम यह यया कि यदि प्रथम वर्ण महाप्राण है तो अन्तिम
वर्ण से महाप्राण ध्वनि हट जाती बी; यदि प्रथम वर्ण में महाप्राण ध्वनि नहीं रहती
थी तो अन्तिम वर्ण में महाप्राण ध्वनि सुनाई पड़ती थी । यह नियम उसी प्राचीन
ऐतिहासिक नियम का अवशेष है । फलस्वरूप यदि अन्तिम वर्ण से महाप्राण
ध्वनि हटेगी तो प्रथम वर्ण में वह पुन सुनाई पडेगी ।
२८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ५६
जा सकते हैं । इनमें से कुछ नियम बहिरंग सन्धि के समान ही हैं । बहिरंग
सन्धि से जो नियम विशेष उल्लेखनीय है, उनका ही यहाँ पर उल्लेख किया
गया है । अन्तिम स्वर (11.1 इं०भा1')

५७--कतिपय स्थानों पर स्वर (और सवर्ण स्वर) बाद में हो तो इ


और ई को इम, उ और ऊ को उत्, ऋ को इह हगे जाते है (नियम : ८
और २०) । जैसे-धी-स्व---., स० : (बुद्धि में-भून-इ-नाव (पृ/वी
पर), बुधु-मउ:---- युयुवृ: (वे मिले), गुन-अति----'". (वह निगलता है) ।
५८---अन्तिम ऋ को हैर होता है, बाद में व्यंजन से प्रारम्भ होनेवाला
कोई सुर यता तित् प्रत्यय हो तो । यदि ऋ से पूर्व अमिय वर्ण होगा तो ऋ
को उर होगा । यदि एक व्यंजन पहले होगा तो इको रि हो जायेगा, बाद में
यू हो तो (देखें १५४, ३) जैसे-गु का कर्मवाच्य लद प्र०१ गीर्यते (निगला
जाता है), गोर्ण: (निगला गया), गु का क्त-प्रत्ययान्त रूप । पृ का काय
लद, प्र० १ पूर्यते (पूरा किया जाता है), क्त-प्रत्ययान्त रूप पूर्ण: (पूरा किया)
कु- कर्म०लद प्र० है-क्रियते (किया जाता है) :
५९-ए को यम्, ऐ कोआयू, ओ को अबू और औ को आबू होते
है, बाद में अजादि (स्वर से प्रारम्भ होने वाला) प्रत्यय या य, हो तो (२१,
२२) । जैसे य-अनद-वा-नयनार (नेत्र), रैम-ए-च-दये (धन के लिए),
गो-ना-ए-चन (गाय के लिए), औम-अ: उ-उनम: (नौकाएँ), गौ-सय:-----".:
(गाय का) ।
अन्तिम व्यंजन (1.11 (.011500.5)
६०---बहिरंग सन्धि से विशेष उल्लेखनीय अन्तर यह है कि इसमें धातु
और शठदों के अन्तिम व्यंजनों में कोई परिवर्तन नहीं आता है । (देखो नियम
३२), बाद में स्वर, अनाम और नासिक्य से प्रारम्भ होनेवाला कोई प्रत्यय
हो तो । ज यदि अन्य वर्ण बाद में होंगे तो उनमें बहिरंग सत्रा-ध के नियम
ते---------
१. कृत प्रत्यय का न बाद में होगा तो दू को भी तनी हो जाएगा । जैसे-अन्न (अन्न)
में अदम-न है । यदि यत प्रत्यय मत और मय बाद में होगे तो शब्द के त और
इ को तू हो जाएगा । जैसे-विधुर-ममत्-व्य-विम-र (बिजली से युक्त), मृत
।मय==मून्मय (मिट्टी से बना हुआ) ।
नि. ६ ० ] सन्धि-नियम २९

लब । जैसे-प्र.: (पूर्वी), बचपन (मैं बोलूँ) वाक्य (बोलने योग्य),


गोम (मैं बोलता हूँ); किन्तु वक्ति (वह बोलता है) में व्यंजन-सन्धि होगी ।
६१-शब्द यया धातु के अन्त में दोव्यंजन नहीं रह सकते हैं (नियम २८
देखें), अत: जिन शब्दों या धातुओं के अंत में व्यंजन होते हैं, उनके बाद अपृक्त
(स्वर-रहिन केवल एक व्यंजनवर्ण) सुर या तिर प्रत्यय का लोप हो जाता
है । अन्न में जो व्यंजन बच जाता है, उसको बहिरंग सन्धि के नियमन
दुसर रखा जाता है जैसे-प्रा-त-स-सर-य-प्राह (पूर्वो), प्र० एक० का रूप
है । यहाँ पर पहले प्रत्यय के सच का लोप होगा और त तथा चू को भी और
कूहींगे (नियम २७), बाद में अन्तिम कू (नियम २८) का लोप हो जाएगा :
इसी प्रकार अदोहा नी त-व्य-अधीर (:) (उसने छा), दुहरे-लद प्र० १ ।
६२-महाप्राण वल ( 45.1.:5) के बाद स्वर, अन्त:स्य और नासिक्य
(६ ० ) के अतिरिक्त अन्य कोई वर्ण होगा तो महाप्राण ध्वनि का लोप हो
जायगा, अर्थात वर्ग के चतुर्थ वर्ण को तृतीय वर्ण और द्वितीय वर्ण को प्रथम
वर्ण हो जाएगा । जैसे-रुल-प-च-रु-दवे (तुम रोकते हो), लब-म्ये
प्रा-य-लाम, (मैं पाऊँगा) । किन्तु कुंआ (युद्ध मा, लोभा: (चाहने योग्य) में
महाव-ध्वनि रहेगी ।
(का चुन हुई महाप्राण ध्वनि धातु या शब्द के पूर्ववत् में पुन: आ
जाती है, यदि बाद में शव-- (धि के साथ नह.), भू, सू होंगे तो (५५यें
नियम के अनुसार) । जैसे-पर (तुमने जाना), भूदभि: (तृ०३), भूत्सु
(स"३) है किन्तु दुन्धि (दुल्ला-दुहरे-लीद म०( में दू को जू नहीं होगा ।
यदि महाप्राणध्वनि का लोप हुआहै और बाद मेंत और थ-हैं तो त और
दुर को म हो जाता है, अर्थात महाप्राण ध्वनि अगले वर्ण पर चली जाती है ।२

१. संस्कृत व्याकरण के अनुसार एक शब्द के प्रारम्भ और अन्त दोनों स्थानों पर


महाप्राण ध्वनि नही रह सकती है : इसी प्रकार एक शब्द के संत में और
आगामी शब्द के प्रारम्भ में दोनों स्थानों पर महाप्राण ध्वनि नहीं रहेगी ।
२० धा (रखना) धातु इसका अपवाद है । तू और यच बाद में होने पर (६२ क के
सादृश्य पर) धा को धत हो जाता है: (देखी आगे नियम १३४, जुहोत्यादिगण १)
३० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका नि. ६२]
जैसे-भू-मयद्वा-मध: (पाया), रु-मधुम-ब:---"'.: (तुम दोनों रोकते
हो), बन्धु-नावा-च-बचत (बाँधने को) ।
६३-तालज्य भी (111.1..) चू के वाद कोई व्यंजन होगा
तो चु को कू या र अवश्य हो जाता है (देखो नियम ६ :, २७, ६ कोष्ठक
१ ), जू को अधिकांश स्थानों पर कखा या २१९ हो जाता है, अन्य स्थानों पर
मूर्धन्य वर्ण टू, डच याप-होता है । जैसेउ-उक्त (कहा), वजू-मक्त, युक्त (जोडा)
यूज-क्त, रुकी (टूटा हुआ) रुज-क्त (देखो नियम ६५) । किन्तु निम्न
लिखित स्थानों पर जू को मूर्धन्य वर्ण टू, डू या र हुआ है-राद (राजा),
राजू-मरि, प्र०१, मृइति (धोबी) मृत-मगोद म०१, राह (देश) राजू-मत्र
नि० ६४) ।
(ख) बाद में यम पदसंज्ञक सुर (भ्यार आदि), (नि० ७३ को और
प्र० : का सू होगा तो र को टू या डू, कभी-कभी कू या गम होते हैं । तू
या यू बाद में होंगे तो न को जू होता है (नि० ६४) । बाद में भविष्यत
काल का या धानुरूप से सम्बद्ध कोई सू होगा तो श, को कसा हो जाएगा । ऐसे
स्थानों पर करे-सूल-द-क्ष- होगा । जैसे-विशु का स०३ में विटूसु (प्रजाओं
में) होगा, विश-क्त-ईच-विष्ट (प्रविष्ट हुआ), विश-पह उ०१=न्द्रवेल्यामि
(नि० ६७) (मैं प्रविष्ट होऊँगा) ।
(ग) चू और जू के बाद त को र होता है, किन्तु शु के बाद नहीं ।
जैसे-याच-मना-याच (मगिना), यब-न: = यज्ञा (यजा, किन्तु प्राण-म
नत-च-प्रश्न: (प्रश्न) ही होगा ।
(य) प्रक (पूछना) धातु के छल को शक के तुत्य ही कार्य होते हैं । जैम
प्र-बम-क्त-जि-पृष्ट (पूछा), प्र-ल-मपह उ० : हु------) (पूछला), प्रद
।न८=मन (प्रश्न) (बहिरंग सन्धि में अर्थात अन्तिम की को तथा पद-सज
(, ध्यान आदि से पूर्व छल को टू या द हो जाता है) ।
६४---भूर्वन्य (.1.18) के वाद आनेवाले दन्त्य को भी मूर्धन्य वर्ण
ब-------------
१. धातु-पन में सू से पहले जू को कते अवश्य हो जाता है । (नि० चु४४, भा ।
[नि. ६४ सन्धि-नियम ३(
हो जाता है (नि० ३९) । जैसे-इष-मप-इष्ट (चाहा), द्विप-धि:-
द्विबडि (देष करो), वद-टप-य-ष-मताब (छ: का) (नि० ३३) ।
(क) शब्द-रूपों में सर्वत्र तथा धातु-रूपों में धू से पहले पकी को नियमित
रूप से मूर्धन्य ( टू या दृ) हो जाते है (नि० ८०) । धातु-रूपों में सक से पहले
नियमित रूप से भी को कू हो जाता है (नि० ६३ ख और ६७) जैसे-पार
का देभि (तुम देष करते हो) ।

६५-न् को व होना (.082 " हैक्षि1०1 व 10 (:.1.1 ए)

ऋ, ऋ, अ, प, के बाद तू को रह हो जाता है, बाद में कोई स्वर या नू,


मू, यु, द हों तो । ऋ आदि के बाद कोई स्वर, कवर्ग, पवन यु, वृ, दू, बीच में
होगा तब भी तू को यर हो जाएगा । जैसे-य-प्र-नामू-व्य-वृथा (मलयों का),
करम-ना"--- कर्ण: (काना, दूषआदोष) यहाँ बीच में स्वर का व्यवधान है,
वृधिणार (पोषक) (अनुस्वार, हा और स्वर का व्यवधान है), अकेंण (सूई के
द्वारा) (कवर्ग और स्वर का व्यवधान), क्षिरलु: (फेंकना) (स्वर और पवर्ग
का व्यवधान), प्रेम्णा (प्रेम से) (स्वर और पवन का व्यवधान), ब्रह्मण्य:
(ब्राह्मण) के लिए हितकारी) (स्वर, हा पवन और स्वर का व्यवधान तथा त
के बाद यू है), निषष्ण: (बैठा) (त् के बाद नू है और दोनों को यर हो जाता
है), प्रायेण (प्राय:) (स्वर, यू और स्वर का व्यवधान ।
किन्तु निम्नलिखित स्थानों पर पूर्वोक्त कारणवश ब को यम नहीं 'होता
है :-अचंनए (पूजा करना) (चवन का व्यवधान है), अर्णवेन (समुद्र के
द्वारा) (टवर्ग का व्यवधान), अधन (आधे के द्वारा) (दन्त्य का व्यवधान),
कुर्वहिंत (वे करते है), (त् के बाद त है), रामा-राम द्वि० ३ (रागों को)
(यहाँ तू अन्तिम वर्ण है)
सूचना-उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बीच में आनेवाले वहा की
संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है । एक से अधिक भी वर्ण बीच में होंगे तो भी
तू को यदि हो जाता है । जैसे-रामायण शब्द में रच और तू के बीच में पांच
वर्ण हैं (तीन स्वर, एक पकी और एक अन्त-थ) ।
३र संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ६५
ब को रह करने की सारिणी
(011: 5110-18 य1टा० न् सां१ज्ञा३य७ है० व
वर्ण के बाद व्यवधान हो तो व को ए व के बाद वर्ण
हो तो
ऋ, ऋ, ( स्वर, कवन (हच सहित, त को यर 'स्वर, ब, बता
र, हैर पवन (द सहित, यच र यू, वल्कि र
और अनुस्वार । होता है । है रा
६६---(य) व को होने वाले कार्य
२ पर और वल बाद में होंगे तो त वैसा ही रहेगा । जैसे--- हन्यते (मारा
जाता है), तन्वन् (फैलाता हुआ) ।
य-धानु के अन्तिम तू के स्थान पर अनुस्वार हो जाना है, बाद में सु
हो तो है जैसे-वाज-जि (हनु-प-इच-क सब प्रत्यय, वह मारना चाहता
है), मय (मकां-लूट:, वह सोचेगा) । यदि नपूमकांलेग बल में होने बाना
न या पार का आगम होगा तो भी उससे पहले त को अनुस्वार हो जाएगा
(नि० ७१ ग, ८३) । जैसे-मखासे (यशन्म०३, यश), हमले (हत्वा
।प्र०त्, हवि) ।
(आ)---' सू को होनेवाले कार्य
हैं-निम्नलिखित स्थानों पर धातु या शब्द के अन्तिम सू को त हो
जाता है-
(का वसु (रहना) और वसू (खाना) धातुओं के न को त हो जाता है,
बाद में विकरण (भविष्यत, जूड. और सब प्रत्यय) का सू होगा तो । जैसे--,
वत्म्यनि (वसू-मलट-ह रहेगा) (नि० १५१ ख ३)मवात्सीत (वसू-मलुइ,
वह रहा) ( १४४, : ),जिधत्सति (धन्या-सब, वह खाना चाहता है) ( १७१ '
५) ।
(ख) लिद के स्थान पर होनेवाले ववसु (वसा प्रत्ययान्त शब्दों के सच को
तू हो जाना है, बाद में भू या सू (तथा नप. प्र० हिरं० : ) हो तो (८९) ।
जैसे-च-भि: (कृ-पल-पू-चच-मभि:), चकृवत्सु (स०३) चलत
(नप, प्र० द्वि०१) ।
य-निम्नलिखित स्थानों पर त का लोप हो जाता है---
(का दो स्पर्श (क से म तक) वरना के मध्यवर्ती सू का लोप होता है ।
जैसे-अभक्त (प्र-भक-जित, भबन-लुइ-प, १ है बाँटा), चपटे
नि० २जी६] सन्धि-नियम ३३

(चक्षु-मलटू-प, ( हैं कहता है) (मूलरूप में चन धातु वश-सू है अत: चक्षु
औ-ते में सू का लोप है) । उद उपसर्ग के बाद स्था (रुकना) और स्तन
(सहारा देना) धातु के सू का लोप हो जाता है । जैसे-उत्थाय (उठकर,
उद-समाय), उत्बम्भत (उठा हुआ, उद-पण्डित) ।
(ख) सू का लोप हो जाता है, बाद में कोमल यय वर्ण हो तो । जैसे--
शाधि (शाब-लोट, म०१ जासू-मधि, आज्ञा दो) । जहाँ पर त को ष, हो
जाता है, वहाँ लोप होने पर अगले यत्र वर्ण को मूर्धन्य वर्ण हो जायेगा ।
जैसे-मतरवर (अ-मस्वीप-ध्वज, व-लुइ-पब, तुमने स्तुति की) ।
६७-सू को म होना-पप" 0, 110.111:1 सू है० ९:टा७1शार्धा था
अ, आ के अतिरिक्त (अनुस्वार और विसर्ग बीच में होंगे तो भी) अन्य
कोई स्वर पूर्व में होगाअथवा कूया र पहले होंगे तो दन्त्य सु को इ हो जाता
है, बाद में स्वर, सू, यू, ब, सू, ( वृ, हों तो । जैसे-मपर (धी) के रूप
होगे-सर्थिषा (धी से), सपीषि (प्र०३) सर्थि:षु (स०३) (नि० ४३, ३) ।
वात का रूप होगा-खाश (स०ये, वाणियों मा । गिर (वाणी) का गौर
(स०३) (नि० ८२) । स्था (रुकना) धातु का तिष्ठति (लट, प्र०१, रुकता
है) । भू (होना) का भविष्यति (होगा) । स्वर (सोना) का सुष्णप (सोया) ।
चरित का चक्कर (अखिवाला) । किन्तु उपर्युक्त कारणों से इन स्थानों पर
सू को इ नहीं हुआ-सवि: (सू अन्तिम वर्ण है), मनसा (मन से, यहाँ पहले
अ है), तमिल (अंधेरा, बाद में र है) ।
सू की वृ, परिवर्त-सारिणी (1012 5110.1318 (71121, सू (:11[29 10 प,
वर्ण पहने होंतो होता है बाद मेंवर्ण हों तो
अ, आ (बीच में अनुस्वार और सु को स्वर, त्, वृ, त्,
विसर्ग हो तो भी) के अतिरिक्त (र सू, यु, द
कोई भी स्वर, कू या र
सूचना-ब को यर और सच को जू के नियम पूरी सावधानी से स्मरण
कर लेने चाहिएँ, क्योंकि शब्दरूप और धातु-रूपों में ये नियम नियमित रूप से
लगते हैं ।
३४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० २-६८

६८रे, (, लू (नि० ६० और ४२ आ () बाद में हैंल तो म् में


कोई परिवर्तन नहीं होता है । यदि बाद में वृ से प्रारम्भ होने वाला कोई
प्रत्यय होगा तो ब को ब हो जाएगा । जैसे-काव्य: (चाहने योग्य), ताका:
(लाल रंग), अम्ल: (च); किन्तु जगन्याब (गम्-पसु, गया हुआ) में न
को त होगा ।
६९-(क) सव बाद में हो तो हा को धु के तुल्य माना जाता है तथा द
से प्रारम्भ होनेवाली धातुओं के भी हा को द मानना जाता है, बाद में त, वृ,
कर और त हो तो । जैसे-लेहान-सिने-लेली (तुम चाटते हो) (:), दहा
पं-यति-ल-चलाते (वह जखायेगा) ( ५५यदू-प-चदयध (जला-हुआ) (६२
ख), दिहा-मध्ये-चधिबवि (तुम तेल आदि सेचिकनाकरो) (६२ का । इसी
प्रकार फिर (स्नेह करना) और मुर (किकर्तव्यविमूब होना) धातुओं को
क्त-प्रत्यय होने पर ह, को बच के तुल्य कार्य होता है । जैसे-सिय (चिकना,
सिप-त), मुग्ध (भूखे, मुह-जि) ।
(ख) अन्य धातुओं में हच को र हो जाना है और वाद के सू, य, और धु
को व, होगा तथा व से पूर्ववर्ती (मव स्वर को दीर्ध हो जाएगा । और पहले
व का लोप हो जाएगा । जैसे-लिह-ता-रवा-लीड (चाटा), मुहाम=७=मूब
(सूखे) । इसी प्रकार वहा और सह- धातुओं के हक को भी ढ, होताहै और इन
धातुओं के स्वर में कुछ परिवर्तन 'होता है । जैसे-लढत (वहा-मत) (कोया),
बोरर (वह-तुम्, दोने को), संहिता (सहा-मतुम्, सहने को) ।
नहा धातु ६९ ख का अपच है । इसमें हच को र होता है । जैसे-यय
(नह-स्था, बाँधा) । रहा धातु नियम ६९ क और ख दोनों का अपवाद है ।
इसमें हा को व होता है और पूर्ववर्ती ऋ को दीर्घ नहीं होता । (हिरा-मतय-
दृढ (दृढ)
१. व को सम्प्रसारण होकर उ हो जाता है (नियम १७ की पाद-टिप्पणी), वाद में
उस उ को दीर्घ ऊ हो जानना है ।
२. यह ओ भारत-ईरानी 1९कृ11 का प्रतिनिधित्व करता है । यह बाद के दयय को
मूर्धन्य महाप्राण त करके ओ हो जाना है, जैसा कि असू संत वाले शब्दों में अप को (अय
होकर ओ हो जाता है । जैसे-मनवा-भि:---: (नि० ४५ ख; ।
अध्याय ३

शब्द. (1)0(:12.191-00)

७ ०---शब्दरूप या तुज शधदों के रूप सुर प्रत्यय लगाकर बनाये जाते


हैं । इनको सरलता से ३ शीर्षक. में विभक्त किया जा सकता है-१---संज्ञा
शरद (विशेषण शब्द-सहित), २---संस्थावाचक, ३-सर्वनाम ।
संस्कृत में तीन लिए तीन वचन और आठ विभक्तियों (कारक) होती
है । इनके नाम आदि निम्नलिखित हैं :
(क) तीन अलग-पु-वाता")--.'" ( प्ररि8दा11० ), स्वीलिग
(172111.11112), नप-कलिंग (जप) ।
(ख) तीन वचन (९1ताक्रिप्रि5)-एकवचन, (81118)1.), (द्विवचन)
(1.1), बहुवचन (प्राप्रखा) ।
(ग) आठ विभक्तियां (.508).... (९गा11प्र१न्या), संबोधन
(पपप), द्वितीया (प-भागल), तृतीया (1118.1811)1), चतुर्थी
(121.:), पंचमी (4111.:), य८ठी (.11.), सप्तमी१(जि"सेइं) ।
७१ मसाधारणतया शठदों के अन्त में ये सुर (शबरों के अन्त में लगने
वाले कारक-चिह्न) लगते है उ-च
एकवचन द्विवचन बहुवचन
प, स्वी० नप, पतित स्वी० नयु० पूँ० स्वी० नपु०
प्र० सू ----२ : अप ई: अब इ३
सं०- : (कि-ई है औ ई है असू, इ
द्वि० अब ब-स-य ] औ ई रा असू इ
१, भारतीय वैयाकरणों के अनुसार यह क्रम है । वे सबसे को पृथक विभक्ति नही
मानते है । सुविधा के लिए एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में जिन विभक्तियों में समानता
है, उनको एक वर्ग में रखा गया है ।
३६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका नि० ३"१]
एकवचन द्विवचन बहुवचन
तृ० प, स्वी०
आरा नप, यु" म्यार
स्वी० नप, प, जित
स्वी० नपं०
के
च० ए रा ध्यान [ भार
पं० अपरा म्यान ] भ्यसूरा
ष० अब [ और : आब
सप्त इ रा ओए ) सु
१-प्रथमा और संबोधन के रूपों में कोई अन्तर नहीं होता है, केवल
स्वर में अन्तर होता है । संबोधन एकवचन में निम्नलिखित स्थानों पर शब्द
रूपों में अन्तर होता है-अजात (स्वर अन्त वाले) परा-लग और स्वीलिग
शब्दों में तथा अता अत्, इत्, आई (नि० ७६का, यत्, बसु अन्तवाले हलन्त
प-लिंग शब्दों में ।
२---नयुसकलिंग प्रथमा और द्वितीया एकवचन में केवल शब्द ही शेष
रहता है, केवल अ अन्तवाले शब्दों में ध और जुड़ जाता है ।
३--नयु० में प्र०, सं० और द्वि० बल में अनंत शठदों के बाद इ से
पहले तू और जुड़ जाता है । जिन शब्दों के अन्त में स्पर्श या ऊष्यवर्ण (हा को
छोड़कर कोई भी व्यंजन) होते हैं, उनको भी प्र०, सं०, द्वि०, बहु० में अंतिम
व्यजन से पहले तू जुड़ जाता है और बाद में अगले वर्ण के अनुसार त को
कार्य होते हैं ।
आ-चु, त्, ब, सू और ऋ अन्तवाले संदों के शब्द-रूपों में पदस्थानों
और भस्थानों में महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि यदि शब्द के दो अंग होते है
तो वहाँ पर सर्वनामस्थान (वंचस्थाना (6)0118) और असर्वनामस्थान
(अप-थान) ((1) का अन्तर रहेगा । यदि शब्द के तीन अंग होते है
तो पचपन (5.118), पदस्थान (यय) और मस्थान (य-य) ये
तीन अन्तर होंगे । (क) उदात्त स्वर का स्थान-परिवर्तन ही डस अन्तर का
कारण है । पंचस्थानों में जहर शब्द पर उदात्त स्वर है, वह: शब्द अपने पूर्ण
रूप में रहता है । अपंचद्वाथानों में उदात्त स्वर प्रत्यय पर रहता है, अता शब्द
अपने संक्षिप्त रूप में रहता है । ऐसे ही कारण से दीर्ध-स्वगत स्वीलिंग
शब्दों को संबोधन एकवचन में अव हो जाता है क्योंकि उदात्त अन्तिम स्वर
नि० ३-७२] शब्द-रूप ३७

पर न होकर प्रथम स्वर पर आ जाता है ।


७३-निम्न स्थानों पर सर्वनामस्थान (पचपन) वाले रूप होते हैं--
(का पहुँ० शब्दक-प्रथमा और संबोधन (, २, ३; द्वितीया----:, २ ।
(खा नए हैं, मप्रथमा, सं० और द्वितीया-केवल बहुवचन ।
(क) जिन शब्दों में तीन अग होते है, उनमें हलका (व्यंजनों से प्रारम्भ
होने वाली) विभक्ति (., भि:, भा:, सु) से पहले पद-स्थान वाला अंग
रहेगा । शेष अजादि भस्थान वाले प्रत्ययोंसे पहले मथान वाला अग रहेगा ।
जैसे-प्रत्यय (प्र०२), प्रत्र्याभि: (तृ०३), प्रतीची: (प०२) (९३) ।
(ख) तीन अंगों वाले नप-कलिंग शब्दों" से प्र० हैं सं० और द्वि० एकवचन
में पदस्थान वाला अंग रहेगा तथा प्र०, सं० और द्वि० के द्विवचन में भस्थान
वाला अंग रहेगा । जैसे-पयक (एक० ), प्रतीची (द्वि.), प्रत्यजिश्व (बल)
(९३ ) । शेष विभक्तियों में दूलिग के तुल्य रूप बनते हैं ।
हलन्त शब्द
संज्ञा शब्द (धिय")
७४. सुविधा के लिए शब्दरूप दो भागों में विभक्त किये जा सकते है:--
(. व्यंजनान्त शल---.) अपरिवर्तनशील (आ) परिवर्तनशील ।
२. अजात शब्द-प) अ और आ अन्त वाले, (आ) इ और उ अन्त
वाले, (इ) ई और ऊ अन्त वाले, (ई) ऋ अन्त वाले, (उ) ऐ, ओ, ओ अन्त
वाले शब्द ।
(.) अपरिवर्तनशील शरद (यक""'"" प्र"'")
७५. ऐसे शठदों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि कवर्ग, मूर्धन्य,
य-----------'
१. ऋ (१०१; अन्त वाले शब्दों को छोड़कर प्राय: सभी परिवर्तनशील शब्दों के
स्वीनिग रूप ई प्रत्यय ( १ ००) लगाकर बनते हैं ।
२. परिवर्तनशील शब्दों में पदस्थान मानना इसलिए अधिक सुविधाजनक है, क्योंकि
समास में पूर्वपद में इनका पदस्थान वाला रूप प्राप्त होता है ।
ले, कतिपय वैयाकरण अजन्त शब्दों के रूप अकाल ( २ अ) शब्दों से प्रारम्भ करते
हैं, क्योंकि सहित के अधिकांश शब्दों के रूप अकाल के तुल्य चलते हैं । किन्तु व्यावहारिक
दृष्टि से हलन्त शब्दों से शब्दरूप प्रारम्भ करना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि इन शब्दों में सुर
प्रत्यय (जा ) बिना किसी परिवर्तन के सीधे लगते हैं । अकारान्त शब्दों के रूपी में सुर में
बहुत परिवर्तन होते हैं, अत: प्रारम्भिक छाओ को समझने में असुविधा होती है है
३८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३ -७५
नासिक्य या अन्त-थ (र को मछोड़कर) अन्तवाले शब्द है ही नहीं । हलादि
प्रत्यय बाद में होने पर १-न्नमें केवल सवि-ब-नियम ही लगते है ( : ६ का, अन्य
कोई परिवर्तन नाही 'होता है । प्रत्येक हलन्त (व्यंजन.) शब्द के रूप प-लिंग
और स्वीलिग में सवंथा वहीं रहते है और नप-मकलिंग में प्र० है सं० और द्वि०
के द्विव० तथ, बल में ही अन्तर होता है ।
७६-अजादि (स्वर से प्रारम्भ होने वाला) प्रत्यय बाद में हरने पर हलन्त
शहरों का अपना अन्तिम व्यंजन सुरक्षित रहता है (७ : ); किन्तु पदान्त में
प, और स्वी० में प्र० : के ष का लोप हो जाता है और स०३ सु से पूर्व
उन्हें निम्नलिखित वल में से कोई एक वर्ण हो जाता है-कू, टू, त, पृ या
विसर्ग (:) (२७); इनको भू से प्रारम्भ होने वना प्रत्यय बाद में होने पर
क्रमश: गया डू, (, बू या र हो जाता है ।
(का अब प्रत्यय अन्त वाले (८३) शब्दन को छोड़कर शेष पूरे और
स्वया शठदों के सं० : में वहीं रूप होते है, जो प्र० १ में हठ है. है
(ख) इस प्रक-र के शठदों के नस प्र०, सं० और द्वि० बहु० के रूप
बहुत कम प्राप्त होते है । जैसे स-स-दबू (युक्त, वाला के रूप-प्र" १
०भाकू का बहुवचन ०भाधि-ज ।
(स्वर्ग अन्तवाले शब्द (लि९पा३5 10 1)..5)
अय-सुहृद (ति, शाविदक अर्थ-अछे हृदय वाला)
एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रल स० सुहृत् (२७) सुहाती सुहृद:
द्वि० सुहृदन् हैं है

तू ० सुहृदा सुधि-याम् सुहुँदूभि:


च० सुहृदे सुहृद-लय:
पं० सुहृद:
षदूत सुहृदो: सुहृद',
स०
सुहृहि हैंहै सुहृत्सु
(क) नियमिसे रूप से चलनेवाले अपरिवर्तनशील शठदों के लिए निम्न
लिखित विभक्तियों के रूप प्यारा करने से काम चल जाएगा-प" ( और
नि० ३"७] शब्द-रूप ३९

प्र०, वृत तथा स० बहुत । जैसे-जित (जीतने वाला) के ०जिश, "जित:,


०जिदभि:, ०जित्सु । ०मन् (मारने.) के ०मत्, ०मथा, ०मदभि:, ०मत्सु।
०वृधु (बढने वाता) के थाना, बुध:, "वृ-दधि:, ०वृत्सु ।
पवन अन्तवाले शब्द (क्रिरिप्रा15 1० 1.61115)
अति-पच और वर अन्तवाले थोडे ही शब्द प्राप्त होते है । उनके रूप
सुहृद के [मिय ही चलते है ।
शब्द प्र० ( प्र० ३ तृ० रे स० ३
धर्मगुपू (धर्म-, पू० ) "गुर "गुप: "गुले: ०गु९सु
ककुभू (दिशा, स्वी० ) पर ककुभ: ककुटिभ: ककुन्तु
तालव्य संतवाले शब्द (6.13 10 यद्वा))
७९-जालव्य (चु, जू, शु) अन्नवाले शठदों में निम्नलिखित स्थानों पर
स्थान-परिवर्तन होता है-शब्द का अन्तिम वर्ण हरे या बाद में व्यंजन से
प्रारम्भ (होनेवाला कोई प्रत्यय हो तो (नि० ६ ये ) । चू कत सदरकद वर्ण (कू
या गु) होता है । जू तथा शु को अधिकता स्थानों पर काव वर्ण (कू या गु)
होता है, किमत- कुछ स्थानों पर मूर्धन्य वर्ण (द, द) भी होता है ।
शब्द प्र० : प्र० ३ तू०३ स० मैं
वाचु४ (वाणी) मत्री, वाद वाच: वय: वाश( ६७ )
अश्व (रक्त; नपू० असुर अशीम-ज अशीम: असृक्षु
रुजू (रोया मत्री० रुम रुज: य: रुप
सत्कार (समाया पर समर सन्न-ज: सतो/भे: सरेस
दिए (दिशा) द्वात्री७ दिल दिश: नित्य दिए
विशु (प्रजा) पर विद विश: विजूभि: विद-सु
(क) वना के तुल्य इन शठदों के रूप चलेगे-त्वत् (मस्का, त्वचा),
यत् (स्वम्, कान्ति), सजी (मकीमा अगुवा), जलमुन् (प-, बादल, शब्दार्थ---
जल बरसाने वाला) ।
(ख) रुत के तुल्य चलनेवाले शब्द-मत्वत् (परं, पुरोहित, शब्दार्थ--
(]. अमर धातु से बन अन् अन्त वाले शब्द परिवर्तनशील हैं (नि० ९३) ।
४० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३"९
(ऋतुओं में यज्ञ करनेवाला), वणिजू (यु०, वैश्य), भिषन् (पु-, वैद्य), सन
(स्वी०, माला), ऊजा (वना, बला (प्र०१ में ऊन य) ।
(ग) सम्रान् के तुल्य चलने वाले शब्द-परिवाद (पल संन्यासी) ।
(घ) दिए के तुल्य चलने वाले शब्द ०दृश (देखनेवाला), रमृशु (छूनेवाला)
(समास का अन्तिम शब्द होने पर इनके रूप दिन के तुल्य चलेगे) ।
मूर्धन्य अन्तवाले शब्द (5.15 1० जिय-सामु)
८०--मूर्धन्य अन्तवाले शब्दन में केवल प अन्तवाले शब्द ही आरत होते
है । प, को पदस्थानों में टू या डू होता है :
शब्द प्र० ( प्र० ब तृ० ३ स० ३
द्विप, (शब) प, द्विद दिषा विदभि: द्विदसु
आहार (वर्षों ऋतु) स्वी० प्रावृह प्रावृष: प्रावृतृभि: प्रावृदसु
हकारान्त शब्द (5.119 1० हा)
८१---अधिकांश हचरान्त शब्दों के दू को काव (कू या ग-; हो जाता
है, यदि हा अन्तिम वर्ण हो या बाद में व्यंजन प्रारम्भ होने वाला प्रत्यय हो ।
किन्तु ०लिहा (चाटना) के हा को मूर्धन्य (द या द) होता है (नि० ६९ ख)
और उपाय (म्की० व, शब्दार्थ-च-जो बांधा जाता है) के हक को दन्त्य
(त या दू) होता है, उपर्युक्त स्थानों में ।
शब्द प्र०१ प्र०३ तृ०३ स०३
०दुहा (दु-वाला) ०धुकू "दुह: ०धुन्धि: ':धुक्षु(६२)
०मह (द्रीहकूरनेवाला) ०श्रुद पह: ०धुन्धि: ०धुशु
उष्टि३ (स्वम्, वैदिक छन्द) उरिणकू उष्टिह: उणिगाभि: उन्दिणक्षु
मधुलिह(लशहद की मवाद ०लिद सालेह: ०लिडूभि: ०लिदसु
उपाव/त्री-ता) उपाय आह: ०नदभि: ०नत्सु
रकारान्त शब्द१ (91.15 111 रा
८२-प्रथमा एक० में जब र अन्तिम वर्ण होता है तो उसको विसर्ग
हो जाता है, सप्तमी बल सु बाद में हो तो र रहेगा (नि० ५० ) । र से पूर्ववर्ती

१ अन्त:स्य यु, वृ, त अन्तवाले कोई शब्द नहीं हैं :


नि० ३-८२] शम्दरूप ४(

इ या उ को दीर्ध हो जाता है, जब र अन्तिम वर्ण हो या उसके बाद कोई


व्यंजन हो तो ।
शब्द प्र : प्र०३ तृ०३ स० ३
द्वार (स्वीपर) द्वा: द्वार द्वाभि: द्वार (६७)
गिर (स्वी०लवाणी) गी: गिर गीभि: गीर्ष
पुर (स्वी०नगर) पू: पुर पूभि:. पूर्ण
सकारान्त शब्द (5.115 13: सृ)
८३--प्राय: सारे सकारान्त शब्द कृत-प्रत्यय असु, इब, उस, से बनते
हैं और प्राय: नय होते हैं । नप, प्र०, सं०, द्वि० के बहु" में नू का आगम
होने से पहले अन्तिम स्वर कोदीर्ष हो जाता है । प, और स्वी० मे-आनेवाले
प्राय: सभी सकारान्त शब्द समस्त होते हैं और विशेषण के रूप में आते हैं ।
सकारान्त शब्द उनका अन्तिम शब्द होता है । इन स्थानों पर प्र० : में अन के
अ को दीर्घ हो जाता है ।
यथा-द (नप, यश), हविसू (नप, हवि); आयुत (नप, आया ।
एकवचन
प्र०सं०द्वि० यश: हवि: आयु:
तू ० यशसा हविषा (:) आयुधा (६७)
च० यशसे अर्ष आयुध
प० ष० यशस: हविषा आयुष:
स० यशसि हविषि आते
द्विवचन
प्र० सं० द्वि० यशसी हविधी आख्या
तृ० च० पं यशोदा हविभ्यखा४४) आणण
(४५, २)
ष० स० यशसो: हविधो: आयुष.:
बहुवचन
प्र० सं० द्वि० यशा/से(६६हैं २) हवींषि आयल
तू ० यशोभि: हविभि: आयुभि:
४२ संस्कृत-व्याकरण-यय [नि० ३.८ ३
च० प० य-शोभा: अभी: आति:
ष० यशसाब अयन आहत
स० यश:सु हरि-पु (६७) आयु:पु (६७)
कस-स-सुमन.. (प्रसन्नचित शब्द का पू० प्र०१ में सुमना: (सं० सुमन:)
रूप बनता है, नथ प्र०१ मेंसुमन:वव । बीर्धायुत् का सभी लिंगों में प्र० १
में दीधहि: रूप ही बनता है । इसी प्रकार य-गिरत (पट ऋषि का नामा '
जाल (पूल, ऋषि का नासा और उप प०, ऊषा) के प्र० : में अहि.:,
उशना: (उशना भी) और उषा: रूप बनते हैं ।
ख--आश्चि२ पत है आशीवदि) शम के इ को दीर्घ ई हो जाती है
(जैसे-ए असले शामत में) प्र० : में तथा व्यंजन से प्रारम्भ होने वाले
(हना) प्रत्यय बाद में होंगे तो । प्र० १--आशी:, प्र० ३---आशिष:, तृ० ३
---आशीभि:है स० ३ व्य-आश-पु, ।
ग-दोसर-तिरा है बाहु) शब्द के रूप नियमित ढंग से चलते हैं 1 प्र० १
न-दो:, प्र०२--दोपी, तृ०३-दोभि:, स०३ -दो:१] ।
( (आ) परिवर्तन-शकर शब्द पु1धा१ह्मबनि1० प्र"")
अप-त्, नू, सु और त अपने शहरों में नियमित रूप से परिवर्तन
होता है । तू अन्तकाले शब्द है-अत (मर और वरा प्रत्ययान्त शब्द । तू
अनातोले-अत (मत् और वजू) प्रत्यय., इन (मित और विना प्रत्ययान्त ।
सू अन्त-वाले-यस, (आर्थिक प्रत्यय) हैं वसु (लिटर के स्थान पर 'होनेवाला
कासु प्रत्यय) । चु-वाले न-पर (यह वन्या: आधर धातु है, जिसका अर्थ है
झुकना) ।
आर्य (८५-८६), इत (८७), यस, (८८) अपने शब्दों में दो भेद होते
हैं-सर्वनाम-थान (8.18), पदस्थान (पया । अन् (९०-९२), वसू
(८९) और अन् (९३) अन्तवाले शाआरों के तीन भेद होते हैं-सव-स्थान
(8.18), पदस्थान (1111)112), भाव-न (प".) (७३) ।

१ह आशिसते शब्द इन् प्रत्यय लगाकर नहीं बनता है, अपितु आ उपसर्ग के अहम आत
धातु का रूप है । इसमें शाब के आ को इ हो जाता है ।
नि(: ३ कि८५ ] शब्दरूप ४३

दो अ-मवाले संज्ञा-शब्द (प"" (1111 1(0 (019)


८५---१ ( ) अन अन्तकाले शब्द वर्तमान काल के शत और भविष्यत
काल के मय-स्था (१५६) से बने हुए पल और नस शब्द हैंले है ।१ सर्व
नामस्थान में आर का अन्त रहेगा, अन्यत्र अन रहेगा ।२ जैसे-अदम-अत
(शतृ) (खाता हुआ) के दो अंग है-अद-यर और अदन ।
अदत्-प-लिग
एक० द्वि० बहु०
प्र० सं० अदन अदर अदन
द्वि० अदर ' हैं अवा:
तू० अदता अदम-ममू अदद"
च० अदने अलभ्य:
है ' :

पं० अदत: है है है है

य० है, अबतो: अदब


स० अति हैं, अदत्त
नप-जिग
प्र०, द्वि० अदना अदती अदद
क-महत (महात, मूलरूप में यह शतृ-प्रत्ययान्न रूप था2 ) के सर्वनाम
स्थान (पंच-थान) में अत को आयन हो जाता है ।
प्र० : महान प्र० ३ पू" महान्त: प्र०३ नपु० महान्ति
द्वि० १ महता महता
तू ० महता महथ:
स० : मल स० ३ महत्ता
८६--मत्वर्थक (रखने वाला, वाला अर्थ) मत और वन प्रत्यय ते बने
विशेषण-परों के रूपों में शव (प-प्रत्यय-त रूपों से केवल एक स्थान
१ह स्वी-प्रत्ययान्त रूप बनाने के लिए देखे नियम ९५ :
२, लेटिन और ग्रीक में सर्वत्र नू रहने से यह भेद प्रमत नहीं होता है : जैसे-लेटिन
में अ1०हू1९९5 :
३. महत शब्द मह, (मूलरूप में मती धातु से बना है है तुलना करी-लेटिन
है-कि-गध है
४४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका नि० ३अ६]

पर पूजिगमें अन्तर (होता है, वह है-ष्णु० प्र० १ में अत का आत् हो जाएगा :


शेष रूप शतृ-प्रत्ययान्त के तुल्य चलेंगे । जैसे-मनमत (प, नप., यल
अग्नि को धारण करने वाना) प ।
प्र० : यु० अन्दिमात प्र०३ ०मन्त: नए ०मन्दि
द्वि० अन्दिमन्तए ०मत:
सं० अन्दिमत् स०३ ०मत्सु

२.नवव (प, और नप., ज्ञानवान्)२


प्र० : प, ज्ञानवान प्र०३ ज्ञानवन्त: नप, ०वप्ति
द्वि० २ ज्ञानवन्तत् द्वि० ३ ज्ञानदत:
(का मवद शब्द जब शतृ-प्रत्ययान्त भू धातु से बना हुआ होगा तो उसके
रूप अप के तुल्य चलेगे । इसमें सारे रूपों में प्रथम स्वर पर उदात्त स्वर
रहेगा । इसका अर्थ होगा-चीता हुआ । किन्तु 'आप' अर्थ वाले भवन शब्द
के रूप ज्ञानदत के तुल च-मगे । यह मत अन्तवाले शब्दों के तुल्य माना
जाएगा । प्र०१ भवान, द्वि०१ अन्तर । सं०१ में अत के अतिरिक्त एक
अनियमित रूप भो: (नि० ४९) (आप) भी बनता है । यह प्राचीन भए का
ही संक्षिप्त रूप है ।
(ख) किया (कितना)है इयत् (इतना) के रूप ज्ञानमत्के ही तुल्य चलते हैं ।
प्र० : कियान् प्र०३ कियन्त: नप, कियप्ति
द्वि० १ कियन्तन् द्वि० ३ किक:
८७--(२) प.० और नप, में मत्वर्थक (रखनेवाला) इन् प्रत्यय से बने
हुए विशेषण-शब्द बहुत अधिक हैं । ये शब्द अकारान्त शब्दों से इब प्रत्यय
लगाकर बनते हैं । जैसे-जल (शक्ति) से (बलवाना । निम्नलिखित स्थानों
पर ऐसे शब्दों के अन्तिम त का लोप हो जात, है-मस्थान (भान आदि),
नपूसकलिग में प्र० १ और द्वि० १ पू० । प्र० १ में इ को दीर्घ ई हो जाती है

१. स्वी-प्रत्ययान्त रूप बनाने के लिए देखे नियम ९५ ।


२० स्वी-प्रत्ययान्त रूप बनाने के लिए देखे नियम ९५ ।
नि० ३ .८ ७ ] शब्दरूप ४५

और अन्तिम त का लोप होता है । नप, प्र०, सं० और द्वि० के बल में इ


को दीर्घ ई होता है । जैसे-धनिये (धनवान)--
प-लिग
एकवचन बहुवचन
प्र० धनी धनिन:
द्वि० धनिनब है है

तृ० धनिया अभि:


सं० धनित
नयुसकलिग
एकवचन बहुवचन
प्र० द्वि० बनि धनीनि
सं० धनि, यत्
(क) मित और वित प्रत्यय भी मत्वर्थ में होते हैं । इनके रूप भी इत्
प्रत्ययान्त के तुल्य चलेंगे । जैसे-मशास्वत (मनरवी),." (वाच-मित,
उत्तम वक्ता) । स्वामिन् (प, स्वामी, शठदार्थ--धन का स्वामी) के रूप
संज्ञाशब्द के तुल्य चलते है ।
८८-(३) तुलनार्थक ईयर (प, और नप:)'----'..--.-"
में ईयसू हो जाता है । जैसे-मरीच-पाल-ईयन, गुरुतर)
प-लिग
एकवचन बहुवचन
प्र० गलत गरीषांस:
सं० शरीयत
द्वि० गरीयसित् गरीयस:
प्र गरीयसा गरीयोभि:
नहुंसकलिग
प्र० वि० गरीय: गरीयसी गरीकासे
४६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३ .८ ९

तीन अंगों वाले संज्ञा शब्द (प्रय० (1111 111., 'यमि)


८९--( : ) लिद के स्थान पर होनेवाले क्यसु (वसु) १ प्रत्यय से बने हुए
पू० नपू० शब्दों के तीन अग होते है-- पचपन में वात पदस्थान में वहा
और भस्थान में उप (नि० ६७ और १५७) । जैसे-लस, (कृ-वसू,
जिसने काम कर लिया है)--
चकृवन् पप-लग
प्र० चकृवान् चकृवासे चकृवसिं:
सं० चकृवन् है'
द्वि० चकृवासब चकृवासी चप:
तू० चगुपा चकृवत्म्याब चकृवदभि:
स० चरम चब/आ: चकृवत्सु
नप:सकलिग
प्र० चकृवन् चरती चकृवांसि
(क) वसू-प्रत्यय-त कुछ शठदों में बीच में इ का आए भी होता है ।
जहाँ पर वसु को उसने होता है कर्ण पर इ का लोप हो जाता है । जैसे-.
तस्थिवस, का प्र० १ में तस्थिवात्, किन्तु तृ० १ में तब ।
(ख) इस प्रकार के कुछ उपयुक्त अहीं के रूप नीचे दिए जा रहे हैं ।
( : ५७)
धातु अर्थ शब्द प्र० : प्र८त ३ द्वि० ३ तृ० ३
स्था रुकना तस्थिवक्ष, तस्थिवान तस्थिवत्स: तरे: तस्थिवदूभि:
नी ले जाना निनीवसू निनीवाब निनीवसिं: निक-चुप: निनीवदूभि:
१. स्वी-प्रत्ययान्त रूप बनाने के लिए देखे नियम ९५ ।
२. वैदिक काल में भू से पूर्व सु को त होना प्रारम्भ हो गया था । बाद में वहीं स०३
में तथा नपु१० प्र० और द्वि० १ में भी होने लगा । बसु ही अनुदान वाले स्थानों पर उब
होता है (नि० १३७, र ग) ।
३. व्याकरण के प्रारोंत्भक प्राय वस-प्रत्यय-त रूपों में तथा तवत्-प्रत्ययान्त रूपो में
कुछ स्थानो पर भ्रम करते हैं, क्योंकि दोनों का प्र०१ में वात अन्त में रहता है । जैसे--
कृती-बत के रूप होगे-पूजी प्र०१ कृतवान् (किय) द्वि०१ कृतवन्तम् (नि० १६१) है
नि० ३-८९] ज्ञा०दरूप ४७
धातु अर्थ शब्द प्र० : प्र० ३ द्वि० ३ तृ० ३
भू होना बभूवसू बभूवात् बभूव.: बभूपुष: बभूवृदभि:
तत फैलते सेनिक, तेनिवान् तेनिवांस: तेनुषा तेनिवदभि:
हत मारना जहिनवसू जजिवान् जडिनवसिं: जरे: जश्चिवदूभि:
गए जाना जगमगाती जगमवान् जस-वीस: जरे: जगन्वदूभि:
गए जाना जलद जन्दिवान् जरिमर्वास: हैं हैं जन्दिवदभि:
विद जानना विद्वसू२ विद्वान विदाई: विदुष: विद्वदभि:
९०---प२) अन (मन तथा वर भी) अन्तवाले प-लिंग तथाना१०3 शाब्दों
में पंचस्थान में अब का आव भ-रवाना में अन् का तू और पदस्थान में अन्
का अ रहेगा । पू, प्र० : में अब का आ शेष रहेगा, अन्तिम त का लोप हो
जाता है । स०१ तथा न११सक० प्र० सं० और द्वि० के द्विवचन में अत के
अ का लोप विकल्प से होता है । यदि मत और वक्ष से पूर्ववर्ती कोई व्यजन
होगा तो संस्थानों में अब ने अ का लोप नहीं होगा, अर्थात् अब ही रहेगा ।
सामान्यतया एक साथ तीन (व्यंजनों का होना निषिद्ध हैं । तथापि जिन
शरद में साधारण अब लगा हुआ है, उनमें तीन व्यय भी पाये जाते हैं ।
जैसे---- आत्मना में दो व्यंजन हैं, किन्तु तना और मूर में तीन व्यंजन हैं ।
अब अन्तवाले शरद के उदाहरण
प्र-स-स-राजद (राजा) प,
एकवचन बहुवचन
प्र० राजा राजान:
सं० राजन हैं है

द्वि० राजानम् राज्ञा


तू ० राजा राजनि:
स० राति, राजनि राजसु
२-नामन् (नामा, नपू० (लेटिन गप०स111211)
प्र०है द्वि०, नाम नाम्नी, नामनी नामानि
सं० नाम, नाता हैं,
१. मच के स्थान पर नू के लिए देखे नियम ६८ ।
२. विमा में धातु को जिव नहीं होता । ग्रीक में भी ऐसा ही है ।
३. स्वी-प्रत्ययान्त रूप बनाने के लिए देखे नियम ९५ ।
४८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३-९०

तृ० नाम्ना नामध्यान् नामभि:


व० नाहिन, नामनि नाम्नो: नारा
३--वह्यन् (ब्रह्मा) प,
(इसमें अब के अ का लोप नहीं होगा ।)
प्र० ब्रह्मा वपण:
सं० ब्रह्मन् है,
द्वि० ब्रह्मण (६ ५ ) ब्रह्मण:
तू० ब्रह्मणा वहा"
उ-ग्रब (पत्थर) पूय
प्र० पावा ग्रावाण:
द्वि० ग्रावाणार ग्राष्ण:
तू० प्रथम ग्रावभि:
२---(का---अन् अ-सवाले अपवाद (पब'" 1.15 1० अनु)
९१---( १ ) पन्यन् (मार्ग) प. का पचपन में (मथानु, पदस्थान में पथि,
भस्थान में पद रूप रहता है । प्र० : में अनियमित रूप से स, लगता है--
प्र० पप: पन्यान:
द्वि० पमयानर पथ.
तु० पथा पधिभि:
(२) यहा (दिना नप, (पद-थान में अहम् होगा)
प्र०,सं०खि० अह:२ अल अहनी अहानि
तृ० अन अहोभाग्य अहोभि:
स० अधि, अहनि अछा: अल
उ---------'
१. इस सू का कारण यह है कि प्राचीन भाषा में इस शब्द के रूप दो प्रकार से चलते
थे--(१) पन्था शब्द-प्र०१ कथा:, द्वि०१ प-मयाम् । (२) उथल शब्द-प्र०१ पखा,
द्वि० पन्थ-नम् [
२. प्र०, सं०, द्वि० के एक० में द का विसर्ग रहता है और समास में जब अहन् पहना
शब्द होगा तो इसे अम माना जाता है (४६) : अत अलह: (प्रतिदिन), असल: (दिनों
का समर । अहोरात्र (प., नप.) (दिन और रार में द को र नही होता ।
नि० ३-९१ ] ज्ञाब्दरूप ४९
(३) यत् (कुता) प, भाखानों में स्वाद का शुन्२ रहेगा । द को सम्मति
रण होकर उ हो जाता है । शेष स्थानों पर राजन के तुल्य रूप होंगे ।
प्र० दबा स्वान:
सं० पवन हैहै

द्वि० स्वानमू शुन:


तृ० गुना श्वभि:
(४) युवन् (युवा) पतित (लेटिन-यमि-सो) का भस्थानों में पूत रूप
हो जाता है । इसको सम्प्रसारण और सवर्ण दन होकर (यु-प) पूत
बनता है । (तुलना करो लेटिन-प्र-प्र) :--
प्र० युवा युवान:
सं० युवन् है'

द्वि० युवानब यून:


तृ० पूना युवभि: अ
(५) मधम (इन्द्र, शब्दार्थ-मनियुक्त", का भस्थानों में सम्प्रसारण
और एकाकी होकर मचीना रूप रहता है:-
एकवचन बहुवचन
प्र० मधवा मयवान:
सं० मधवन 'है

द्वि० मघवानत् मघोन:


तृ० मधोना मघवभि:
९२--हन् (मारना) धातु जब समस्त पद के अन्त में संज्ञा शब्द के तुल्य
होती है, तब अधिकांश में इसके रूप अत अन्तवाले शब्दों के तुला चलते हैं है
पंचस्थानों में हब (प्र० : में हब का हा), पदस्थानों में ह और भस्थानों में
शत रहेगा ।

१ ग्रीक में भी इसी प्रकार प्रय1, रूप बनता है है


२. इसके मथवत् वाले रूप भी मिलते हैं । जैसे-प्र० १ मपत्, प० १ मवात. :
५० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका नि० ३.९२]
बहाल (ब्राह्मण को मनिवाला) पं०
प्र० ब्रह्महा ब्रह्महण:
सं० वहन हैहै

द्वि० वह्यहणए (६५) प्यान:'


तू० पना ब्रह्महभि:
स० ब्रह्म., ब्रह्महणि ब्रह्महसु
३--अबू अन्तवाले विशेषण शब्द (4.11..25 10 अपरा
९३---इन शब्दों का अर्थर प्राय: 'छोर" शब्द के द्वारा प्रकट किया
जाता है । अत अन्तवाले शब्दों का पचपन में अत, पदस्थानों में अबू
और संस्थानों में यू पहले होगा तो अत को ईत् और त पहले होगा तो अन
को ऊच, होगा । उ
प्रत्यषापीछे की ओर, पश्चिम की ओर) पूँ०, नयु०४
पूँमिग
प्र०, सं० प्रत्यक्ष (६ () प्रत्यय प्रत्यधच:
द्वि० प्रत्यधचमू है हैं प्रतीच:
तू० प्रतीचा प्रत्यख्यामू प्रत्यय
स० प्रतीचि प्रतीची: प्रत्ययों ०जी७)
नयुसकलिग
प्र०, द्वि० प्रत्यकू प्रतीची प्रत्यधिच
उम----------
१, यहाँ पर नू को रात (६५) संभवत: इसलिए नहीं होता है, क्योंकि त से पहले
कब वर्ण घु है 1
२. ये शब्द वस्तुत: अउर (झुकना) धातु से बने हुए समस्त पद हैं, किन्तु यह अहम
धातु प्रयोग में प्रत्यय का स्थान धारण किए हुए है ।
३० यत और वन को मप्रसारण होने पर इन और उन होगा । यह' पर अनियमित
रूप से जो दीर्ध ई या ऊ दिखाई पड़ता है, उसका कारण यह प्रतीत होता है कि
यहाँ पर मप्रसारण अन्तरंग न होकर बहिरग है और वह समास के संधिस्थल
पर है । यदि सम्प्रसारण होकर स्वर अव इ या उ होता तो ऐसा प्रतीत होता
कि यह अलग अयन धातु न होकर कोई चू प्रत्यय लगा है जैसे-----., अनुज ।
अतएव शब्द के अन्तिम स्वर को दीर्ध किया गया है ।
४. स्वी-प्रत्ययान्त रूप बनाने के लिए देखो नियम (९५) ।
नि० ३-९३] शनाप ५१

(क) इसी प्रकार चलने वाले अन्य शब्द


पंचस्थान पदस्थान भस्थान
न्यस्त (नीचे की ओर) मयद नय
मम्य-बर (ठीक) सम्यक समीर
प्रवर (तिरछा) तिय-ए तिरशचुप
उदर (ऊपर की ओर) उदर उतिर
अन्दर (पीछे की ओर) अन्यक अनून्
निवल (चारों ओर 'व्याप्त) विध्वकू विपून्
(ख) परात (हटाया हुआ), पर (आगे पूर्वी) और अवाम (नीचे
की ओर, दक्षिणी) शब्दों के दो अंग होते है । पंचस्थानों में क्रमश: परा-बर,
प्रदत और अवाऊन् तथा पदस्थानों में परत प्रात और अवाम होते हैं ।
प्राचर-प-लिग
प्र०, सं० प्रात् (६ १ ) प्रा-ऊच:
द्वि० प्रवर प्राच:
तू० प्राचा प्रान्धि:
स० प्राधि प्रद
जि-परिवर्तनशील शब्दन के विषय में प्रारोंभिक छात्रों के लिए निम्न
लिखित संकेत विशेष उपयोगी होंगे :
१----ध्या और अह अन्तवाले शब्दों को छोड़कर शेष प्रत्यय-त श-ज्यों के
पल्प प्र० १ में स्वर को दीर्ध हो जाता है । जैसे-अग्निम.-----.,
ज्ञानवरेज्ञानवान्, गरीयसू-गरीयान्, चकृवसु-चकृवान्, राजय-राजा,
ब्रह्म-ब्रह्मा, युत-युवा, धनिन्---धनी, गोमद- वन्या, मनप-
मनरवी । किन्तु अदत् का अदर और प्रत्यन् का प्रत्यह बनेगा ।
२-परिवर्तनशील शब्दों का पूँजी प्र० : में अन्त में नासिक्य वर्ण (पंचम
प------------
१० तिरसू (तुलना करो लेटिन-प-गु-अन आर जाना, तिरछा जाना) से
एतय-र बनता है है इसका दू० और नपू० सता शब्द होने पर पशु अर्थ होता है :
२० यहाँ पर अथ से पहले यु नही है, फिर भी सादृर्यय के आधार पर ई हो जाती है :
५२ संस्कृत-त्-रण-प्रवेशिका [नि० ३.९४

वर्ण) रहेगा, किन्तु र अन्तवाले (अत्, मद वर, इत्, मिर, विना शब्दों में
अन्तिम स्वर को दीर्घ हो जाएगा और तू का लोप होगा ।
३-सभी परिवर्तनशील शब्द जिनके पूँजी प्र० : में स्वर को दीर्घ होता
है, उनके संबोधन एक० में अव स्वर रहेगा और अन्तिम तू का लोप नहीं
होगा । जैसे-अग्निम-सोत : अन्दिमन् । इसी प्रकार ज्ञान", गरीयन्,
चना, राजत, बस्त, युवक धनिक वाल, मनडिवन् ।
(क) परिवर्तनशील अन्य शब्दों में प्र० १ और सं० १ में केवल अन्तर यह
रहता है कि सं० ( में प्रथम स्वर पर ही उदार स्वर रहेगा और प्र० १ में
अन्तिम स्वर पर उदार रहता है । जैसे-अदब., : लि-अदर (प्र० १ ),
प्रत्यय (सं०१), प्रत्यत् (प्र०१) ।
९५-स्वीप्रत्ययान्त रूप बनाना (1.0...100 0, य, 1101.1012
अब') परिवर्तनशील शब्दों को स्वीप्रत्ययान्त स्वीलिग शब्द बनाने के लिए
उनके अन्त में ई लगाया जाता है और इनके रूप नदी ( : ००) के तुल्य चलते
हैं । दो अंग वाले शब्दन में अपंचस्थान वाले अंग में ई लगेगा तथा तीन अंग
वाले शशि" में भस्थानवाले अंग में ई लगेगा । जैसे-पता-पती, अन्दिमत्
--अरिनमती, ज्ञानवत्--ज्ञानवती, घनिन्-धनिनी, वाग्निन्-वान्दिनी,
मनस्तिन्-मनस्तिनी, गरीब-गरीयसी, चकृवसू-चकुधी, राजद-राजी
(रानी), ०नामन्-०नाम्नी (नामवाली, विशेषण), श्वन्-शुनी (कुतिया),
०हन्--०उनी (मारनेवाली), प्रत्यचु-प्रतीची, प्राचर-प्राची ।
(का शतृ-(अन्)-प्रत्ययान्त संयों के स्वीलिग शब्द इस प्रकारबनते
हैं उ-स्वादिगण, दिवादि०, तुदादि०, चुरादि० (१२५) वाली धातुओं में
पंचस्थानवाले पूँ० के रूप अन्द ( : ५६) में ई लगेगा, अर्थात अत का यती
रूप होगा । शेष गणों की धातुओं में केवल ई लगेगा, अर्थात् अत काअतीरूप
होगा जैसे-भवतु-जयंती (होती हुई) १, तुदत्----तुदन्ती८ (दुख देती
हुई), दीव्यान्--दीव्यन्ती (खेलती हुई), कोरम-चीप-ती (चुराती हुई) ।
१. किन्तु भवन (आप) शब्द का स्वीलिग में भवती बनेगा (८६ का ।
२. यदि धातु का अग उदात्त अ से समाप्त होता है तो विकल्प से अती वना भी
रूप बनेगा और अन्तिम ई पर उदात्त स्वर रहेगा । जैसे-तुम-ती,
भविष्यत्-भविष्यती भी रूप बनेगा ।
र र

नि० ३-९५] शब्दरूप ५३


किन्तु निम्नलिखित धातुओं में केवल अती लगेगा-राम-जुड़ती (हबन
करती हुई), यु-रूप-यु-अती (जोड़ती हुई), सुन्वत्---सुन्वन्ती (रस निची
ड़ती हुई), कुकी-कुंती (करती हुई), कीणत्--कीणती (खरीदती हुई) ।
(ख) भविष्यत स्य से शतृ-प्रत्ययान्त शब्दोंका स्वीलिंग भी शतृ-प्रत्ययान्त
के तुल्य ही बनता है । जैसे-भविष्यत-मविध्या-तीये (होनेवाली), करि-यत्
---करिष्यन्ती (करने-वाली) ।
(ग) वन् अन्तवाले कुछ जिशेषण शठदों का स्वीलिग शब्द ०वरी अन्त
वाला रूप बनता है । जैसे-पीरा (मोटा)--" (मोटी) । युवन्हिवका
(९१,४) के दोस्वीप्रत्ययान्त रूप बनते हैं-सवति, युवती ।
परिवर्तनशील शब्दन के अपवाद संज्ञा शब्द
(1.81111, 190009 ना, (:1.18.610 (016)
९६-(१ ) अर (स्वी०, जला शब्द सदा स्वीलिग है । प्र० और सं० में
अ को आ हो जाता है तथा भू बाद में होने पर भी को तू (दू) होता है । प्र० ३
आपसे द्वि०३ अप:, तृ० ३ अदूभि:, स० ये अस्तु ।
(२) अनकहा (हुत, बैल, शब्दार्थ-- अनल-वहा, गाडी दोनेवाला) के
तीन अंग होते हैं मना : ) पंचस्थानों में अन्तिम स्वर को दीर्घ होने से अनद
वाल (२) पदस्थानों में अन्दर (अनल को असल करने से, नि०२७),
( ३) संस्थानों में रम-प्रसारण करने से जू को उ होकर अनदुहा होगा । प्रण
और सम्बोधन अनियमित रूप से बनते हैं, अर्थात वात अन्तवाले शठदों के तुल्य
रूप होंगे ।
प्रती अनडूवान् अपवाह:
स० अनवर अ,
द्वि० अनडूवाहब अण्डा:
तृ० अनदुहा अन.:
स० अनबह अनडुत्सु
(३) पुमंसू२ (पू., आदमी) शब्द के तीन अंग होते हैं-- पंचस्थानों में
१० दे० पादटिप्पणी सख्या २, पृ० ५२ :
२. यह संभवत: पुल-मसू का प्राचीन समस्त रूप है । लेटिन में भी पुरुष अर्थ ने
मद शब्द मिलता है 1 उसका ही समकक्ष मत शब्द होगा :
५४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३.९६

पुमांसृ, भस्थान में वर्ण-लीप होकर पुर और पद रथ/न में पुस (अन्तिम त का
लोप हो जाता है, नियम २८ और १६ का :
प्र० पुमान् (नि० ८९, १) पुमांस:
सं ०
पुर ' है

द्वि० पुमासब पूस:


तू० पल प-भि:
स० परस मुंह
२-अजन्त शब्द (6)019 (:11018 10 उप
९७प) अकाल (प, और नप.) और आकारान्त१ (स्वी०)
शब्द:---जैसे-कान्त५ (प्रिय, कब धातु का क्त-प्रत्यय-यत रूपा उब
एकवचन
प-लिग नप]० सत्रों०
प्र ० कान्त: कार कामता
सं० कान्त कान्त कानीतो
द्वि० कार कार काल
तू० कचिन का-लेन कान्तया४
च० कान्ताय कान्ताय कान्तार्य५
पं ० कालेतातूध कानात कारिया:

१आ यह अ ग्रीक असू, अन् (य, नाप लेटिन् असू (प) अम् (नाग) का
समकक्ष है । अता ग्रीक आ और लेटिन आ का समकक्ष है है
२ कुछ अ:, आ, अम् अन्त वाले विशेषण शब्द, के रूप सर्वनाम शब्दों के तुल्य चलते
हैं (१पृ ०) ।
३ अम्बा (माता) का सज अम्ब होता है :
४ . ये सुर (अन्तिम यश) मूलरूप में सर्वनाम शब्दों के रूपों से आए हैं । (११ (प

स्वीलिग शब्दों के ये अथ अवयव ईकारान्त (मूलरूप में या अन्त वाले) स्वीलिग
शब्दों के प्रभाव से आए हैं है जैसे-नलै, नद्या:, नद्याम् (नि० १ ००) के अनुकरण
पर इन शब्द. में मैं (या-प, या: (या-जसा और पर लगे हैं ।
अन्तिम अवयव आत् लेटिन और ग्रीक में भी प्राप्त होता है ।

नि० ३-९७ ] शब्दरूप ५५

ष० कान्तस्य कान्तस्य कानाया:


स० कानी कानी कान्तायाब
द्विवचन
पुत० नप:० स्वी०
प्र०सं०द्वि० काको कानी काले
तू०च०पं " कपन्ताम्यामू कान्ताभ्याब कान्तजियात्
ष० स० कान्तयो: कान्तयो: कान्तयो:
बहुवचन
प्र० सं० कान्ता: कानानिज काना:
द्वि० कनारा कान्तानि हैं,
तृ० : कश:उ कानों: कान्याभि:
च० प० कालेभ्य: काल्लेभ्य: काम.:
ष० कान्तानाब कान्तानाब कमतानाब
समा कालेषु कल कान्तासु
य----.) इकारान्त और उकारान्त (पूँ०, स्वी०, नयु०) शब्द :

शुद्धि (पवित्रा एकवचन मृदु (कोमल)


प:० स्वन नप:० हूँ० स्वीकी नप:०
प्र० शुचि: शुचि: शुचि मृदु: मृदु: मृदु
सं० शुचे शुचे शुचि मृदो मृदो मृदु
द्वि० शुचिन् शुचिष शुचि अब आर मृदु
तृ० शुचिना शुभया शुचिना मृदुना मृदा मृदुता
चल शुवये शुउर्य४ शुचिने अवे मृदै मृदुते
१- अन् आत वाले शव्यादों के प्रभाव के कारण आनि और नाम अन्त में लगते हैं है
जैसे-नाल कया नामानि और आत्मन् का आत्मना-र ।
र, मूलरूप में यह अन्तिम अन आए था (नि० ३६ आ पाद-टिप्पणी १) : गतिक
और ग्रीक में आर पद ही मिलत' है ।
३, यह अन्तिम अवयव ऐ: कुछ ग्रीक शब्दों की चतुर्थी में प्राप्त होता है :
४. देखो नियम ९७ पाद-टिप्पणी ५ है
'
५६ संस्कृत-व्य-करण-प्रवेशिका [नि० ३.९८

पं० ष० शुचे: शुध्या: शुचिन: मृदो: मृदा: मृदुन:


स० शुन शुध्यामू शुचिनि मृद) मृद्वाब मृदुनि
द्विवचन
प-लिग स्वी० नदु० पूँ० स्वी० नधु०
प्र०सं०द्वि० शुची शुची शुचिनी मृदू मृदू मृदुनी
तृ०च०पं० शुचिध्यान् शुचि-यन शुचिम्यान् मृदु-यावर मृदुध्याब मृदुध्याब
व० सं० अयो: अयो: शुचिनो: मृद्रो: छो: मृदुनो:
बहुवचन
प्र० सं० शुचय: शुचय: शुचीनि अव: अव: मृदूनि
द्वि० शुचीन शुची: है, मृदून् मृदू: अनि
तृ० शुचिभि: शुचिभि: शुचिभि: अभि: अभि: मृदुल
च० पं० शुचिभ्य: शुचिभ्य: शुचिभ्य: अभ्य: मृदुभ्य: मृदुभ्य:
य० शुचीनात् शुचीनाए शुचीनान मृदूनाब मृदूनान् मृदूनाब
स० शुचिपु शुचिपु शुचिषु अपु मृदुगु मृदुधु
(का सभी नपुंसक विशेषण शब्द-मसंज्ञा शब्द नहीं) के रूप(प्र० सं० द्वि०
सभी वचन के अतिरिक्त) सर्वत्र पुलिंग शब्दों के तुल्य भी चलते हैं तथा स्वी
लिग विशेषण और संज्ञा शब्दों के रूप च०, पं०, उ० और स० के एकवचन
में प-लिंग की तरह भी चलते हैं । जैसे-मति (बुद्धि, स्वी०) के स० : में
मत्र और मती रूप होंगे, किन्तु वारि (नप, जला का स० १ में वारिणि
ही रूप बनेगा ।
(खा नपुंसक शाब्दों का सं० १ में यु० के तुल्य भी रूप बनता है । जैसे---
वारि का वारि, वारे, मधु का मधु, मधी । -
(ग) उ अन्तवाले स्वीलिग विशेषण शब्दों के अन्त में ई लगाकर भी
विशेषण शब्द बनते हैं । जैसे-तनु, उबी (सीरी", पतली), लधु, लम्बी
(स्वी० हलकी) पृथु (स्वी० चौडी), पृप्र-ची (चौडी अर्थात विशाल पृथ्वी) ।
प-----------'
१. यह अन्तिम अवयव वच: उकारान्त शब्दों के उ के स्थान पर होने वाला वृद्धि
स्वर भी है, नकी इ का औ है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि उकारान्त
श-व्ययों का प्रचलन अधिक थत, इकारान्त शब्द भी प्रकाय. उकारान्त की तरह चलते
थे, अत उकारान्त के प्रभाव के कारण स०१ में औ संत में लगने लगा ।
नि० ३-९९] शब्दरूय ५७

अपवाद-शब्द (1.:11.125)
९९-प : ) पति (यु०, पति) शब्द एकवचन भस्थानों पर अनियमित है ।
जैसे-हैं, : पत्या, च०१ प-शये, पं० और प०१ पत्र हैं स०१ पत्यौ । जब
इसका अर्थ स्वामी होता है या समास के अन्त में होता है तो इसके रूप निया
मित रूप से (शुचि के तुल्य) चलते हैं । पति का स्वी० शब्द पत्नी है ।
(२) साहिर (प., मिनी के कुछ अनियमित रूप बनते हैं । इसके अनि
रिक्त पंचस्थानों पर वृद्धि वाला सखाम, अग रहता है ।
प्र० : सखा सखायो सखाय:
सं० ससे है, 'है
द्वि० सखायब सखायो सबवीत
तृ० सख्या सखिध्यात् सखिभि:
न० सखी है है सखिभ्य:
प० सत्य हैहै हैं,
ष० है, मयो: समीर
स० समयों हैं, सक्ति
पंचस्थान में सखान् रहेगा तथा अपंचस्थान में सखि के रूप नियमितरूप
से चलेंगे । सखि का स्वीलिग शब्द सखी है । सखि शब्द समास का अन्तिम
शब्द होगा तो उसे बर (या प्रत्यय होकर-सख हो जाएगा ।
( ३ ) नयुसकलिग शब्द अक्षि (आंख), अस्थि (लती), दधि (दही),
सविथ (जार को मस्थान में इ के स्थान पर अत् हो जाता है । जैसे-अक्षि
का अक्षत, दधि का दान । इनके रूप नाना के तुल्य चलेंगे ।
प्र०, स०, द्विश० अभि अधिणी असीणि
तु० अरूणा अक्षिध्याध अक्षिभि:
षअत अक्षत आगी: अव्यय
(४) प, (स्वी०, आकाश) (मूलरूप में यह दिउ 1:1 था जो कि डले
1य० का भस्थान का रूप था, १ ०२ का हणादि (व्यजन से प्रारम्भ होनेवाला
सु११ बाद में होने पर शु रूप रहना है । प्र०, सं० के एकवचन मेंवृहिज्ञा होकर
१- यह अन्तिम अवयव सम्पत: सम्बन्धवाचक पितृ आदि शब्दों के पं० और (आनी
एक० के प्रभाव के कारण हैं (नि० १०१) । जैसे-पितृ का पितृ: हैं ।
५८ : ही (., आर जका
है
[नि० ३.९९

औ: रूप होता है । अजादि (स्वर से प्रारम्भ होनेवाले) सुर बाद में होने पर
विद रूप रहता है ।
(, शब्द
एक० बहु ०
प्र० औ: दिव:
स० औ: ये दिवा
द्वि० दिवार दिवा
तू० दिवा पम:
च० दिवे पाय:
पं० दिव: हैं,
ष० ,हैं दिवार
सरा दिवि शुधु
१ ००. (इ) ईकारान्त और ऊकारान्त स्वीलिग शब्द है ये शब्द एकान्
(एक स्वर वाले) या अनेकान् (अनेक स्वर वाले) हैं, तदनुसार इनके रूपों में
अन्तर होता है :
(१) यदि इंकारनिरत और ऊकारान्त शब्द एकाच, हैं तो अजादि विभक्ति
बाद में होने पर उन्हें क्रमश: इन् और उद होंगे । यदि शब्द अनेकान् होंगे
तो उनके ई को प, और ऊ को द होंगे ।
( २) एकाच, शब्दन में सुपू विभक्तियों सामान्य रूप से सर्वत्र लगेगी
(७१) । इनके स्वीलिग में ऐ, आ: और अद अन्तवाले रूप भी बनते है ।
अनेकाचुशठदों में ऐ, आ: और आर वाले रूप नियमितरूप से लगते हैं ।
(३) पुकार शब्दों के प्र० और सं० : में सू (:) वाले रूप बनते हैं है
अनेकात् शाखों में सं० : में ई को इ और ऊ को उ हो जाता है है
रस-सत्, र-रे
संस्कृत में प्र० और सं०१ में वही रूप रहता है, केवल स्वर में अन्तर होता है 1
ग्रीक में सं० १ का स्वतन्त्र रूप बनता है ।
२. ये विभक्ति-चित अनेकान् ईकारान्त (मूलरूप में या अन्त वाले) शब्दों से प्रारम्भ
हुए । इनके अन्त में विभक्ति-चिह्न ए, अ: आदि लगे । जैसे-स्था-प्र-ज, यान
आ-चवा:, या-नि-अत्-वा-याम् है स०१ में अम् का उदगम अज्ञात है ।
नि० ३११००] शब्दरूप ५९

(४) अनेकदा शब्दों में प्र० : में ई के बाद सू (:) नहीं रहता है, केवल
लामा: (लस्सी), तंत्री: (वीणा) और बद्री: (सुस्त) में विसर्ग रहता है ।
तन्द्री में सू लोप भी होता है ।
(जा अनेकात शब्दों के द्वि० : में ईब और ऊब रहता है तथा द्वि०३
में ई: और ऊ: है
धी (बुद्धि) स्वी० भू (.) स्वी०
प्र० धी: धिय, धिय: भू: भूल गुव:
सं० हैहै इ, हैं,
द्वि० धियन् है, अब
तु"
च०
धिया
दिये
धीर
इ,
धीसे:
धीभ्य:
भुवा
भूवे
भू", भू/भी
भूभ्य:
प० धिय: है, हैं, एत
ष० है, धियो: धिर मुवी: भुवन
स० धियि हैं है धन हैंव हैहै भूप
नबी (नदी) स्वी० वधु (बहू) स्वी०
प्र० नदी नल नद्या वधु: वध्वत वध्व:
स० नदि है, हैं, वधु है,हैं,
द्वि० नय यो, नदी: वपूमू वधु:
है हैं

तृ० बटा नदीपयान् नदीभि: वध्या वधुध्यामू वधुभि:


च० नलै है, नदीम वाटबै ( वधुलिय:

पं० नद्या: हैं, है, वधवा: 3 है' हैहैं

य० ज, नद्यो: नदीनाम् ' है


वनो वधुनाब
स० नर 'ने नय वर ( हैहै वरी
(का (त्री (स्वी०, औरत) शब्द यद्यपि एकान् है, फिर भी अधिकांश
रूप में ईकाई अनेकाचु शब्दों की विशेषताएँ इसमें रहती हैं (१००,
१ स्वी० के विशेष विभक्ति-चिह्न ऐ, आ: और आन यहाँ पर अनेकान् ईकारान्त
शब्द, के प्रभाव के कारण ही है, जैसा कि आकारान्त शब्दों के रूपों में होते है
(नि० ९७) ।
६० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३.१ ० ०

२-५) । इसमें स्वी० वाले विशेष विभक्ति-चिह्न लगते हैं । सं० ( में ई को
अव इ होती है, प्र० १ में सू (:) नहीं रहना है तथा द्वि०१ में म और
द्वि० ३ में ई : वाले रूप भी विकल्प से होते हैं । यह शब्द मूलरूप में पत:
दो अबू वाला था ।
प्र० सत्रों टित्रयौ स्थिय:
सं० मित्र है, रज
द्वि० स्थियब, स्वय है, 'स्वय: स्वी:
तृ० सिया स्वीध्याब स्वीभि:
च० डित्रर्य हैं, स्वीभ्य:
पं० जिया: हैं, हैं,
य० हैं, श्चियो: स्वीणाब
स० (मेत्रयाब हैं, यत्न
१ ० (. (ई) ऋकारान्त (प. और स्वी०) शब्द । मूलरूप में ये शब्द अह
अन्तवाले हलन्त शब्द थे : इनके रूप प्राय: अन् अन्तवाले ( ९०) शब्दों के
तुल्य चलते हैं । ये शब्द अधिकारो: तृ-प्रत्ययान्त (अर्थात् तर प्रत्ययान्त,
ग्रीक-तर लेटिन-रि") हैं । पंचस्थान में तू को तर या तार होता है,
पदस्थान में तू और अस्थान में त । पति और स्वी० के शब्द रूपों में केवल
द्वि० ३ में हीम-तर होता है [
सम्बन्धवाचक शब्दों में पचपन में गुणवता रूप (अर) रहता है तथा
अन्य तृ-अन्तवाले शा०दों में वृहिमला रूप (आर) रहता है । य० १ में उ,
स०१ में अरि, सं०१ में अ:, यु० द्वि०३ में ऋत और स्वी०, द्वि०३ में ऋ:,
य०३ में ऋणाब होता है ।

प्र० दाता दाव (देनेवाला)


दातारीपहुँ० दातार:

सं० दात: '' हैहैं


द्वि० दातारब है, दातृन्
नि० ३-१०१] शब्दरूप ६१
तृ० दावा दातृध्याब दातृभि:
च० दावे अ, दातृभ्य:
पं ० वात: हैहैं

ष० हैंहैं वाकी दातृणाब


स० गोरे हैं, दाह
पितृ (पिता) प-लिग मातृ (माता) स्वी०
प्र० पिता पितरों पितर: माता मार मातर:
सं० ( पिता है, हैं, मात: है, है,
द्वि० पितरम् हैं, पितृन् मातरम् 7, मातृ:
तृ० पित्रा पितृभ्यन निभि: मावा मममयाम् मातृभि:
च० पित्रे 7, निभा: मावे हैं, मपय:
पं० नि: 1, हैं, मातु: अ, है,
ष० हैं, पिको: पितृणाब है, मना मातृणाब
स० पितरि अ, पितृषु मारे अ, माह
(क) नातु (दु०, नाती), भरें (पुरि, पति) और स्वसू (स्वी०, बहिन)
शब्द यद्यपि सम्यंधवाचक हैं, तथापि इनके रूप पंचस्थान में दाब के तुल्य
चलेंगे और इनमें वृद्धिवाला आर रूप लगेगा । जैसे-नातु-व : नपा.,
भतृजि--द्वि० १ भतरिय-स्वसृ-द्वि० : स्वसारब । द्वि०३ में अवसु: बनताहै:
(ख) नू (पट मलय) शब्द का पंचस्थान मेंगुणवाला रूप नर होता है :
ष० ३ में दो रूप होते हैं-वृ., वृणामू । संस्कृत साहित्य में इसके प्र,
च०, पव य० एकवचन के रूप प्राप्त नहीं होते हैं (ऋग्वेद में च० : नरे
और य० १ नर: रूप मिलते हैं ) । जैसे---.: ना, प्र०३ नर:, द्वि०१
नरम्, द्वि०३ नह तृ० १ सा, तृ०३ नृभि:, स०१ बरि, स०३ पतों ।
(ग) ओष्ट८ (प, गीदड़, शव्यार्थ-चित्लानेवाला) शब्द को पदस्थानमें
वयक्ति हो जाता है । जैसे-प्र०३ वसे:, तृ०३ वगेष्ट्रभि: ।
(घ) तृ-अन्तवाले शाब्दों के रूप नप-सक लिंग में शुचि के तुल्य चलते
हैं । जैसे-प, धाब, धातृणी, धातृणि, तृ० : धाम, तु०३ धातृभि: ।
जि) तृ-प्रत्ययान्त के रूप स्वरि० में अन्त में ई लगाकर बनाए जाते हैं ।
६२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३को : ० १

जैसे-दाब-ल" दात्री (देनेवाली) । इनके रूप नादी के तुल्य चलते हैं ।


(उ) एजात (ऐ, ओ, औ अन्त-ले) शब्द
१०२---निम्नलिखित एजन्त शब्द ही प्राप्त होते हैं-रै (पट धन),
गो (प, बैल, स्वी० गाय), सो (स्वी०, आकाश) और नन (स्वी० नाव) है
स्वर बाद में होने पर रै के ऐ को आम होता है तथा व्यंजन बाद में होने पर
ऐ को आ हो जाता है । गो शब्द को पंच८थान में वृत्द्ध होकर गया हो जाता है
तथा द्वि० १ और द्वि० ३ में औ को आ होता है । पं० है और ष० १ में पूर्वख्या
होकर गो: (यव: को ओ:) रूप बनता है ।
ये शब्द अंजना और हलन्त शब्दन की मध्यगत अवस्था को प्रकट करते
हैं । हलन्त शब्दों से इनकी समानता यह है कि इनके अन्त में सुर प्रत्यय
सामान्यरूप से लते हैं और अजात शब्दों से समानता यह है कि प्र० १ में
अन्त में सू (:) लगता है और पदस्थान मे"इन शब्दोंके अन्त में स्वर रहता है ।
रै (धन)
प्र० रा: रायौ राय: च० राये रावण राभा:
सं० हैं, हैं, अल पं० राय: 7, जज
द्वि० रायद हैं, इह प० इज रायो: रार
तृ० राया रामन राभि: स० राधि हैं, रहा
गो (प, जैल, स्वय गाया नौ, (स्वी० व
प्र० गौ: गावों गाव: नौ: नावों नाव:
सं० हैं, बै, हैं, हैं, हैं, है,
द्वि० गाए हैं, गा: नायब है, नाव:
तृ० गवना गोरे गोभि: नावा नसा-याम् कौभि:
च० गवे नि, सोभा: नावे है, नौध्य:
पं० गो: हैं, हैं ज नाव: है, हैं,
य० गो: गो: गण नाव: नस नार
स० गवि है, गोषु नावि हैं, नन
(का शो (आकाश) के रूप गो शब्दके तुल्य चलते हैं । प्र० १में शु (९९,
भा के तुत्य औ: रूप बनेगा । द्विवचन और बहुवचन में केवल पंचर के
नि० ३-१०२] शाब्दरूप ६३

रूप ही प्राप्त होते हैं । जैसे-. प्र० औ:, द्याची, द्याव: । द्वि० आब, यवन :
च० १-द्यवे । पं०, य०१--शो: । स०१-द्यवि ।
तुलनार्थक प्रत्यय (02..25 0, ०गा1प२०'1)
: ०३. ( : ) विशेषण शब्दन (तथा संज्ञा शब्दों) से दो की तुलना में पद्धत
प्रत्यय तर और बहुतों की तुलना में तम प्रत्यय लगते हैं । ये प्रत्यय पदस्थान
या भस्थानवाले अंग में लगते है । जैसे-शुचि-शुचि., शुचितम । प्राचर
प्राकार, प्राक्तम । धनित्-धनितर, धनितम । विद्वारि--विद्धत्तर, विक्रम ।
प्रत्यचु, प्रत्यक्तर, प्रत्यक्तम ।
(क) तर और तम का स्वीलिग आ लगाकर बनता है, किन्तु जब तम
प्रत्ययान्त शब्द संखोय शब्द होगा तो उसका स्वीलिग ई लगाकर ( १०७)
बनेगा ।
(२) तुलनार्थक तद्धित प्रत्यय ईयर (दो की तुलना मा और इष्ट (बहुतों
की तुलना में) मूल शब्द से लगते है और इनको प्राय: गुण होता है और इन
पर उदात्त स्वर होता है । ईयर और इष्ट प्रत्यय लगने पर शब्द के अन्तिम
स्वर का लोप होकर एकाच, शब्द हो जाता है : जैसे-अणु (सूक्ष्म) का अलू
होकर अणीयसू, अशिष्ट । गुहा (भारी) (गरम-गरी?, गरिष्ठ । लधु
(हलका) लधु-लबत, लधिष्ट । दूर (दूर) (दवा-दबी, दविष्ट । वर
(अच्छा) (वरा-वरीय (अधिक आका), वरिष्ट (उत्तम) । क्षुद्र (नीच)
(क्षीदू)-क्षीबीयर । युग (युवा, आयु में छोटा) (यद)-----, । अव
(छोटा) (ह्नसू)-ह्नसीयसू । कुछ अनियमित रूप ये हैं प्र-दीर्ध (लम्बा)
(द्राधु)-खाचीयसु, । बहुल (अधिक) (बदा-बही-सू ।
(का कुछ शब्दन के साथ ईयर के स्थान पर यत् ही लगाया जाता
है । जैसे-ज्या-ज्याम (प्रशन), उयेष्ट (प्रशस्यतम) । भू (बहुत)-
भूयसू (अपेक्षाकृत अधिक), भूयिष्ट (बहुत अधिक) । प्री (प्रिया-प्रेत
(प्रियतमा, प्रेष्ठ (प्रियतम) । श्र (अरवा-श्रेयस, (अपेक्षाकृत अच्छा), श्रेष्ट
(उत्तम) । स्थिर.) (स्था-सोप (खतर) ।
इ---------
पृ- मूल शब्द गज था । ग्रीक और लेटिन में भी ऐसा ही है । समीकरण से गुरु
होता है ।
६४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३-१ ० ३

(ख) ईयर और इष्ट प्रत्यय करने पर-कुछ शठदों के रूपों में अन्तर हो
जाता है । जैसे-अन्तिक (समीप) को नेदू--नेदीयसू, गोष्ठ (अत्यन्त समीप)
अप (थोडा) को कत-कनी, (कुछ कम), कनिष्ठ (बहुत कसा । वृद्ध
(वृद्ध) को वरी-वष-यर (अधिक वृद्ध), वषिष्ट (सबसे अधिक वृद्धा ।
स-सया-वाचक शब्द (९गाय७1दु)
संस्थाएँ (.1131))
: मैं एक १ ५. पधचदश
के द्व१ १६. पोडश४
३. इत्र (लेटिन-नामी १७. सप्तक
४. चतुर (पप.") १८. अवश
(. पहुच : ९. नववा, ऊनविशति
६. षद (528) २०. विशति
७. सप्त २ (. एकविशति
८. अष्ट २२. द्वाविशति
९- नव (..1) २३. त्रयोविशति
१ ०: दश २८. अढाविशति
: १. एकादश २ ९. नवविशति, ऊनत्रिशत्
:२हैं द्वादश२ ३ ०. विशद
१ ३. त्रयोदश9 ३९. नव-शत्, ऊनचत्वारिशत
१४. चतुर्दश ४० . चत्वारिशतृ५

१ख समास में प्रथम पद में यह द्वि शब्द रहता है ।


२न यहाँ पर द्वा पुराना द्विवचन का रूप है । द्वादश-दो और दस ।
३. वि का प्रथमा बहुत ब: (१०५, ४५, २) के स्थान पर क्यों है ।
उ, वधु-ना-दश का वजू-मदश होकर षोडश रूप बनता है (देखी ६९ ख, पादटिपाणी
२) ।
५- चत्वारि (१ ०५; का चत्वारि रूप है, जैसे-या से जि-शत् ।
नि० ३मैं( ०४] शब्दरूप ६५

४९. नबचत्वा,रिरश्री ऊनपहन्दाशत : ०२. द्विशतमू, औ-धके शतम्


५ ०ब पधचाशन् १ ० ३. जिप, व्यधिकं शतब
६० . कर १ : ०. दशशतमू, दशाधिकंशतम्
७ ० . सवाल है शते, द्विशतमू
२ ० ० मैं

८ ० : अतल ज ० ० . त्रीणि शतानि, त्रिशतन्

८२ . दृधशीति १ ०० ० मैं दश शतानि, सबर


है० ज नवति १ ० ०,० ० ० लक्ष (11111)
९६. षष्णवति १,०००,००० नियुक्त
१ ० ०. शतम् १०,००० ००० कोटि (दा-)
: ० : . एकरा, एकाधिक शषा
(क) ऊपर २० से १०० तक जो संस्थाएँ नहीं दीगयी हैं, उनके लिए
निम्नलिखित बातें ध्यान रखें-ना:) २० (निति), और ३० (त्रि.) से
पहले द्वि" को द्वा, होर को त्रय: और अष्ट को अहा होता है । जैसे-ममद
(३२), त्रयश्चिशत (३३), यहा-शत (३८), (२) ८० (अरजित) से पहले
२, ३, ८ के लिए क्रमश: दि, लि, अष्ट रहेंगे । (३) ४०, ५०, ६०, ७०
और ९० से पहले ये दोनों रूप रहेंगे, अर्थात्-द्वा-द्वि, त्रय:-त्रि और
अब-अष्ट ।
(ख) : ९, २९ आदि के लिए एक अन्य रूप प्राचीन क्त-प्रत्यय-मत ऊन
आना शब्द लगाकर भी बनता है । जैसे-१९ के लिए लनविशति (अर्थात्
एक कम बल । अन्य संष्ट्रयाओं से पहले भी ऊन शब्द लगाकर इस प्रकार के
अन्य शब्द बनाए जा सकते हैं । जैसे-वारा-विशद (तीन कम तीस, अर्थात
२७) ।
(ग) इसीप्रकार : ० (, १०२, आदि के लिए 'अधिक' विशेषण लगाकर
अन्य शब्द बनाए जाते हैं । जैसे-ति-द्वय.: शतम् (दो अधिक सौ, अर्थात
१०२) ।
(घ) द्विप, त्रिशतर आदि के दो अर्थ हैं-प १) १०२ और २००,
(२) : ० ३ और ३ ० ० । इनका यह अन्तर स्वर के आधार पर जाना जासकता
६६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३-१ ०४

है । यदि शतम् के श पर उदात्त-स्वर 'होगा तो इनका अर्थ होगा-: ०२,


१ ० ३ आदि । यदि शतम् के त पर उदात्त स्वर होगा तो इनका अर्थ होगा
२० ., ३ ० ० आदि :

संख्या-शब्दन के रूप (0221.100 ल (प्र-शिया)


( ०५. केवल प्रथम चार संख्या-शब्दन के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं ।
( : ) एक शब्द के रूप तीनों लिंगों में सर्वनाम विशेषणामिदो के अस
करण पर सर्व ( १२० ख) के तुल्य तीनों लिंगों में चलेगे । जैसे-पुरे-एक:,
स्वी०-एका, नप१०-एकन् ।
(२) द्व (दो) के रूप कान्त शब्द के द्विवचन के तुल्यचलेगे । प्र०, द्वि०
यु० औ, उ० 1, नप. दे; तृ०, च०, पं०-द्वाध्यामू; ष०, साज-यो: ।
(३) त्रि (तीन) के रूप प, और नयु० में शुचि के बल के तुल्य चलते
हैं, केवल मंठी बहु० में त्रयाणाब बनता है, जो कि वय शब्द से बना हुआ
है । (ऋग्वेद में त्रि शब्द का ष० उ का नियमित रूप वीर मिलता है) ।
स्वीलिग में त्रि के स्थान पर तिमृ शब्द के रूप चलते हैं । साधारण ऋका
रान्त शब्दों से प्र०, द्वि०, और ष० में अन्तर होता है ।
.) चतुर (चार) शब्द पूँ० और नदु० में सर्वनामस्थान में चत्वार शब्द
रहता है (तु० करो-लेटिन-मताय) यद्यपि यह शब्द हलन्त है, तथापि
ष० ३ में विभक्ति से पहले त जुड़ जाता है । जैसे-षद को (परान मा ।
इसको स्वीलिंग में चरा हो जाता है और इसके रूप तिसु के तुल्य चलते है" ।
की शब्द चतुर शब्द
पतित नप, स्वी० पुर० नयु" स्वी०
प्र०, सं० अय: त्रीणि तिस: चा-खार: चत्वारि चच:
द्वि० जीत त्रीणि तिख: चतुर: चत्वारि चाप
तु० विधि: सभा मि": चतुभि: चतुभि: चतमृभि:
च०, पं०, त्रिभ्य: विम: तिमृभ्य: चल: चतुभी: चतर:
ष० त्रयाणामूत्रयाणामू, तिमृणाब चतुरता चलब चपल
(नि० १०१ख)
स० वि.. विषु लिये चतुर, चतुर चनसृपु
नि० ३-१ ०६] शब्दरूप ६७
१०६---(का था (छा) के रूप-प्र., द्वि० वह (२आतृ० जड":, च०
र :० पड.:, य० (ममगाब, स० षदसु ।
(ख) पहला (पांच) शब्द के रूप अन अन्तवाले नप-सक-लग शब्द (९०,
२ ) के तुल्य चलते हैं, केवल यही में कान्त के तुत्य रूप होगा । प्र०, द्वि०
पच, तृ० पचभि:, च० पं० (पय:, य० पच्छानामू, स० पचसु ।
सप्त (सात) से दश (दस) तक के रूप पच के तुत्य ही चलते हैं । अष्ट
निम्नलिखित अन्य (प्राचीन) रूप भी मिलते है-प्र० द्वि० आयी तु०
अष्ट-भि:, च० पं० अवय:, स० आल ।१
(ग) ३ से ( ९ तक के संख्या-शब्दों का बहुवचनान्त विशेषण के रूप में
प्रयोग होता है । इनके वचन और विभक्ति विलय के तुल्य होंगे । ( ३ और ४
संख्याशब्दप में लिंग की एकरूपता भी होती है) । २० से ९९ तक संख्याशब्द
स्वीलिग हैं । ये तथा शतम् और सहक्षत्शब्द एकवचन में ही प्रयुक्त होते हैं ।
इनका विजय शब्द उसी विभक्ति में होता है या वाठी विभक्ति में । जैसे---
शतेन दासीभि: या शतेन दासीनत ।स दासियों ने या सौ दासियों के साथ)

संदयेय शब्द (०य1भी)


१ ०७. 'प्रथम' से 'दशम' तक संखोय शब्द विभिन्न प्रत्यय लगाकर बनाए
जाते हैं:--थ (मूलरूप में त), म, य, ईय अथवा प्रथम को द्वितीय और चतुर्थ
के साथ मिलाकर । जैसे---- यम८---थम- श, तीय-चप-ईश । 'एकादश' से 'नव
दल तक संष्ट्रयेय शब्द संख्या-वाचक शब्दों के तुल्य ही होते हैं, अन्तर केवल
इतना होता है कि ये अकाल शब्द हो जाते हैं और इनके रूप कान्त शब्द
के तुल्य चलते हैं तथा इनके स्वर में अन्तर होता है । 'विश' या 'विशतितम'
(२० बाँ) से लेकर आगे के संरूयेय शब्द या तो सख्या-शब्दों के संक्षिप्त रूप
हो जाते हैं या उनके अन्त में तम प्रत्यय लग जाता है । जैसे-विशष्टि का
सा-----'

१ अच्छी और अच्छा (लेटिन-पप, गाधि-मिय) प्राचीन द्विवचन के रूप


हैं । इनका सम्भव अर्थ था-दो यही (संभवत: दोनों हायों कते चार-चार
अगम" को लक्ष्य करके यह प्रयोग है) ।
६८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३-१ ०७
विश या विशतितम । प्रथम से तुरीय (४ था तक शब्दों को छोड़कर शेष
शब्दों के आलम शटद ई प्रत्यय लगाकर बनते है । प्रथम आदि के आ प्रत्यय
लगाकर । जैसे-प्रथम से प्रथमा, मचम से परुचमी ।
( मउ-प्रथम:, स्वी० प्रथमा : : बाँ---एकादश:
२ य-द्वितीय:, स्वी० द्वितीया १९ बाँ--नवदश:
(प्राचीन हित शब्द से ईया मविश:
३ य-बय:, स्वी० तृतीया २० वर- विशा, विशतितम:
(लेटिन-ज-प्र;) ३० बत-- निश:, त्रिशत्तम:
४ थ-चतुर्थ:, स्वी० चतुर्थी ४० बो--- च-परेश:, चत्वारि-.
(ले० तो-मप्र"-.), ५० उत्-पत्-खाश:, परुचाशत्तम:
तुरीय:, स्वी० तुरीया ६० श-- षष्ठ:, यहि-तम:

(कूतुरीय के स्थान पर), ६१ व.-- एकम, एकषहितम:


तूर्य:, स्वी० तुल ७० वां--- समात:, संतति.:
७१ वइ--णासात्श्री, एकसप्ततितम:
(कूतुर्य के स्थान पर)
५ मच-पप:, स्वी० पयचमी ८० वत-अशील:, अशीतितम:
८ ( बाँटा-एकाकी-:, एकाणीतितम:
६ व-षष्ठ:, (ले० 528.18)
९० बो-मवत:, नवतितम:
७ ममतम:, (ले० 8ज्या1111118)
८ मच-अष्टम: ९१ वत-एरावत:, एकनवतितम:
१ ० ० वत उत्तम:
९ मा-नवम:
१० ममशम:, (ले० 16111.15)
संख्यावाचक क्रियाधिशेषण तथा उनके अन्य रूप
(51101.1 411-69 1)1 ०1०र 1प्रसाप्रक्रि)
१०८मक) 'बार' अर्यवाले क्रियाविलेबण (.11..117:1., (1
यय-मकृत (एक वार, शब्दार्थ-तो-एक बार करना), द्वि: (दो बार) (ले०
य-क्रि-लि), वि: (तीन बार ले-न्या, चनु: (चार बार, चतुर-म सू केस्थान
पर), पधचकृत्व: (पांच वार, शब्दार्थ-पांच बार करना), यर कृत्व: (छ:
बार) हैं इत्यादि ।
[नि० के: जिद अदब ६९
(ख) 'प्रकार' अर्थ वाले कियाविशेषण (बना" " 1111:11.) एकधा
(एक प्रकार से), द्विधा या हैधा (दो प्रकार से), वेधा (तीन प्रकार से), चतुर्धा
(चार प्रकार से), प-मममपांच प्रकार से) हैं थोडा (छ: प्रकार से), (देखो नि०
: ०४ पादटिपाणी ३), सप्तधा (सात प्रकार से), अप-धा (आठ प्रकार से),
इत्यादि ।
(ग) विभाजक क्रियाविशेषण (01)11..: 4.68)...:
(एक एक करके), द्विश: (दी दो करके), निश: । (तीन तीन करके), पप:
(पाँच पाँच करके), इत्यादि ।
(घ) सपूहार्थक संज्ञाशब्द (488..: "यय-द्वय-ल-विशेषण
(दुहरा), (ममर (दोनों, जोडा); त्रय-य-विशेषण (तिहरा), अयम्-त्रयी---
वितयन् (तीनो); चतुष्टय विशेषण-रे-पहरा), चतुर (चारों); पहचतय
विशे. (पंप); व्यातय---विशे० (महरा), अदब (आसो); दशतय
विशेष (दसहरा, दसगुना), दशतयब (दसों, दशक), इत्यादि ।
सर्वनाम शब्द ("००००य)
-१०९. (अ) व्यक्तिवाचक सर्वनाम (1.-1 "०"य०)
अमर शब्द
(समास में एक० में मर और बहु० में अस्मद)
अहम (मैं) आवत हिम दोनों) वयम. हिम सब) प्र०
मामू (मुझ क्या आवाज (हमदोनों को) अस्थात (हम सब को) द्वि०
मया (मैने) आवजियाब (हम दोनों ने) अस्थाभि: (हम सब ने) तु०
मल (मुभा आवाभ्य१हम दोनों को) अस्मभ्यध (हमा च०
मद (मुझसे) आवाभ्यन (हम दोनों सा अस्मद (हमसे) पं०
मम (मेरा) आवयों: हिम दोनों का) अस्थाई (हमारा) ष०
१. वयम् के प्रभाव के कारण मूल यूषम् का परिवर्तित रूप यूयम् है ।
२. अस्माकम् और युव्याकन् ये वस्तुत: (फी बल के रूपए हैं, अपितु सम्बधबंधिक
विशेषण अस्थाक (हमारा) और यु१माक (तुम्हारा) के नपू० एक० के रूप हैं । इनका ही
उठी बहु" के रूप में प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार जर्मन भाषा में सम्बन्धबीधक सर्वनाम
1)12;-1 (मेरा), 13212 (तेरा), 80111 (उसका) का व्यक्तिवाचक सर्वनाम के अनी के
रूप में प्रयोग होने लगा ।
७आत संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३. : ० ९

मवि (मुझ मा आवयो: (हम दोनों में) अस्थाई (हममें) समा


यु-मर शब्द
(समास में एक० में स्वर और बल में यु.)
त्वम् (तू) युवान (तुम दोनों) य/यर (तुम सब) प्र०
त्वान (तुझ को) युवाए (तुम दोनों को) युशुमात् (तु-को) द्वि०
त्वया (तूती युवाभ्यन (तुमदोनोंने) अभि: (तुम सवने) तृ०
तुर (तुझे) युवाना (तुम दोनों को) युष्णभ्यत् (तुम्हें) च०
त्वदू (तुझ से) युवाना (तुम दोनों से) "द (तुम सा पं०
तव (तेरा) युवयो: (तुम दोनों का) युव्याकषेआ (तुम्हारा) य०
त्वयि-तुझ में) उ: (तुम दोनों में) युध्यासु (तुम में) स०
(का इन शब्दन के निम्नलिखित अनुदात्त रूप भी प्रयुक्त होते है । इनका
वाक्य के प्रारम्भ में प्रयोग निषिद्ध है । द्वि० एक" मा, (मुझको), त्वा (तुझ
को); च० ष० एकल में (मुदे, मेरा), ते (छो, तेरा); द्वि० च० प० द्विवचन
न-नत (हम दोनों को, हम दोनों का) वन (तुम दोनों को, तुम दोनों का);
द्वि० च० ष० यहु" न: (हमें, हमारा), (लेटिन-चाय) व: (तुम्हें, तुम्हारा)
(लेटिन-य) ।
(आ) संकेनात्मक सर्वनाम (1)0010115..., "गाय"")
( १०. तद (ता शब्द (वह) (समास में तवा । सर्वनाम शब्दों के रूप
चलाने के लिए इसे आदर्श शब्द के रूप में लिया जा सकता है ।
(पप. नमुं० बजी०
प्र० स:"- तो ते तत् ते तानि सा ते ता:
द्वि० तब है है तात हैं है हैं' 1, ताब 'है है,
प्र तेन ताना तो तेन (मयाम् तै: तया ताना ताभि:
च० तरमैं हैं, तेभ्य: तम 7, तेभ्य: तल अ, ताम:
पं० तस्मात् अ, ज, तस्मात् हैं हैं, तस्या: हैं, बैज
व० तस्य तयो: तेषाम्-य क्यों: तेजाब हैं, य: तासामू४
१. देखी पृष्ट ६९ पर पादटिप्पणी संख्या पृ ।
२. देखो नि० ४८ । स:, सता, तद-पथिक (गा, प्रा, (11., इ.--"
. (1 है
लेटिन-वा-धि
३. लेटिन-डि-जसे.
र, लेटिन-वा-जिए
नि० ३-१ १०] शब्दरूप ७:

स० तडिमन् क्यों: तेषु तस्थिन् क्यों: तेषु तस्याम् क्यों: तासु


(क) त (वह) का ही एक समस्त शब्द एत (यह) है । इसके सारे रूप
पूर्णतया त के तुल्य चलते हैं । जैसे
दु० एप', स्वी० एक० नप:० एक ०
प्र० एषा (य, व एषा एतदू,
द्वि० एतनी एर एतद, इत्यादि ।
१ १ ( . इदम् शब्द-न्यायम् (यह) के रूप चलाने में दोनों मूल सर्वनाश
शब्द 'ओं और 'इ' कता प्रयोग किया गया है । यहाँ कुछ स्थानों पर इनका
दुहरा रूप चला है ।
पूं० नदु० स्वी०
प्र ० अयन इभी इसे इदर इसे इमानि इयर इसे इमा:
द्वि० इब अ, इमाद है हैं हैहै है है इमाम अम हैं,
तृ० अनेन आम्याबएभि: शेष यु० के तुल्य । अनया आम्यामूआभि:
च० अल 1, एभा: असी हैं, आभा:
पं० अस्थात है, अल अस्या: हैं, है,
षमा यय अनयो:
एल प्र, अनय.: आसार
स० अस्थिर अ, एपु यर हैं, आसु
( १ य-अदत् शब्द-अदक्ष, (वह) का दु० स्वी० प्रथमा एक० में विचित्र
रूप असत् बनता है, न११० प्र० : में अदर (अदा) । अन्य स्थानों में इसका
'अमु' शब्द बनकर रूप चलत: है । स्वी० बहु० में अमु के स्थान पर 'अमू'
रहता है । स्तरी० में द्वि० एक० तथा कुछ स्थलों पर द्विवचन में भी अबू
रहता है । प, बम में द्वितीया को छोड़कर अन्यत्र 'अमी' रहता है ।
पूँ० नहुं० बची०
प्र० असी अमू अभी अद: अमू सन असमी अब अमू:
द्वि०अमुन् 1, अमूत् अ, 77 1, ज अह हैं, अज
तृ० यमुना अमूम्यामृ अमीभि: शेष प, के तुल्य अमुया वनेमूभ्यनअमूभि:
च० अमुक है, आनि: अम 7, पय:
७२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३. : : र

पं० अमु-त् पवार आनि: अमुप्या: अमूम्याब अमूभि:


य० यय अमुयो: अमीपन हैं, अमुयो: अमूमन
स० अमुक हैं, अव अमुध्यामू है, यर
(का एक अनुदान अपूर्ण सर्जनामशब्द 'एन' (वह) है । इसके रूप निम्न
लिखित विभक्तियों में चलते हैं-ल-द्वितीया (सभी वचन), तृतीया (एक"), य०
स० द्विव० । जैसे-
प]० सजी ० नप:०
द्विम० एनए एनी एनान् एनाम् एने एना: एच एने एनानि
तृ० एनेन उ-ब म एनया उब-ति म एम उस स-तो-ते
ष० उस एनयो: म म एनयो: उस म एनयो: सच-
स० ते-हि- एनयो: ब--, सर पयो: आ--: संब-हि-हबन एगो: :
(इ) प्रानवाचक सर्वनाम (111..1.1. "गाय")
( १३, प्रश्नवाचक सर्वनाम शब्द 'क' (कौन, क्या ?) के रूप पूर्णतया
'त' शब्द के तुल्य चलते हैं, केवल नयु० प्र० और द्वि० एक० में किन रूप
होता है । जैसे
पं ० स्वी नाते ज
की
प्र० का की के का के का: किए के कानि
सप्त करिए कयों: केषु कस्थाब कयों: कासु ब कत्ल कब वेस
(का तद्धित में 'कों शब्द का कि, कु या क रूप रहता है । जैसे-किय,
(कितना 1), कुत्र (कहाँ 3), कदा (कब 1) । समास में प्रथम पद होने पर
इसका प्राय: 'किब' शब्द के रूप में प्रयोग होता है, कभी-कभी थ भी । जैसे
-किरूप (विशेषण-किस रूप वाला 3), कुकर्मत (नप, कैसा कार्य ?
अर्थात कुरिसत कार्य) ।
(ई) संबन्धवाचक सर्वनाम (101.: "गाय")
( १४-संबन्धवाचक य (जो) शब्द के रूप ठीक त शब्द के तुल्य चलते
हैं । जैसे-
हूँ० स्व",० नयु०
प्र० य: यौ ये या ये या: यदू ये यानि
द्वि० यत्- है, यार था है, बहे अज " हैं, कि 1,

च० यस्नेयानायेभ्य: यस्य यपब याभ्य: यम यपमूयभ्य:


नि० ३-१ १५] शहुँदरूप ७३
(उ) आत्मवाचक सर्वनाम (1१श्रीटाता० 1001101.5)
१ १५, (क) स्वय (स्वयं) यह अव्यय है । (मूलरूप में यह अपके तुल्य
(प्रथमा एकल का रूप है) । यह किसी भी व्यक्ति या संस्था का बोध करा
सकता है । जैसे-स्वयम्-च-मैं स्वयं, वह स्वय, तुम स्वयं । इसका सामान्यतया
प्रथमा विभक्ति का अर्थ रहता है । किन्तु यह प्राय: तृतीया और कभी-कभी
षरुठीका भी अर्थ बताता है। यह प्राय: अपने मन से' अर्थ भी बताता है ।
(खा आत्मन् (आत्मा) युलिंग शब्द 'हे । इसके रूप वहार (९०, ३) के
तुल्य चलते है । यह सभी व्यक्ति और सभी लिंगों का बोधक सर्वनाम है ।
इसका प्रयोग एकवचन में होता है ।
(ग) स्व अब-स्व:, स्था, स्वर (लेटिन-प्रा-) (अपना) यह आत्म
वाचक विशेषण है । इसके रूप सर्व : २० ख के तुल्य चलते हैं । यह तीनों
पुरुषों और तीनों वचनों का बोधक है (मेरा, तेरा, उसका, हमारा, तुम्हारा,
उनका) । इसक, (आत्म, शब्द के तुल्य) कतिपय विभक्तियों में आत्म
वाचक सर्वनाम के तुल्य भी प्रयोग होता है । जैसे-जा निन्दन्ति (वे अपने
आपकी निन्दा करते हैं) ।
(घ) निज शब्द-निज शब्द वर: एक विशेषण है और इसका अर्थ
है-य-निजी, स्वाभाविक, जन्मजात । इसका स्व शब्द के तुल्य प्राय आत्म
वाचक सर्वनाम विशेषण के रूप में प्रयोग होता है ।
(की स्थामित्बबोधक सर्वनाम (1188288.2 100110.1118)
१ १ ६, व्यक्तिवाचक सर्वनाम मद, त्वत् आदि से ईव प्रत्यय लग-कर स्था
मि-शव-बोधक सर्वनाम बनते है । जैसे-मजीय (मेरा), त्वदीय (तेरा), अम
दीव (हमारा), युष्यदीय (तुम्हारा), तटीय (उसका, उनपर ।
(क) मंठी-विभक्तपत रूप मम और तव से क प्रत्यय लगाकर भी स्था
मि-दव-बोधक सर्वनाम बनते हैं । जैसे-मापक (मेरा), तनिक (तेरा) । (देखो
नि० : ०९, पादटिपाणी २) । अत (आप) से भावत्क (आपका) ।
(ऋ) समस्त सर्वनाम शब्द (.1.1111-1 1)1011113)
( १७. कतिपय सर्वनाम शब्दन के अन्त में आ, दृश और दृक्ष शब्द जोड़
कर निम्नलिखित समझा सर्वनाम शब्द बनाए जाते हैं :.., ताप,
७४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३-१ १७
ताब (वैसा) (शब्दार्थ-वैसा दीखने वाला); याते-यम्, यार-शु, यादृश (जैसा);
ईल-शु, ईव, ईद-क्ष (ऐसा); की-शि, कीया (कैसा 3); मादृश (मुझ जैसा),
त्वा-दश (तुझ जैसा) ।
(का स्वीप्रत्ययान्त रूप-प-शु अन्त वाले समस्त शब्दन के स्वीमूलग शब्द
भी प, और नप, के तुल" ही रहते हैं, अर्थात यह शकल शब्द ही रहता
है और पृ. और नयु० के तुल्य रूप चलेंगे । तीनों लिंगों में तादृशु का प्र० :
में ताब-कू होगा । दृश अगले शब्दों में स्वीलिग में अत में ई लगेगा ।
जैसे-ता-छाप-शी । दृक्ष अन्त वाले शब्दों में आ लगेगा । जैसे-तारा-अक्ष,
ता२३क्षा ।
: १८. परिमाण-बोधक शब्द-कतिपय सर्वनाम शब्दों के अन्त में वह
और यत् जोड़कर निम्नलिखित परिमाणबोधक शब्द बनाए जाते हैं प्र-तावत
(उतना), एतावत् (इतना), यावत् (जितना), इया (इतना), कियत
(कितना ?) । इनके रूप वत अन्त वाले शब्दों ( ८६) के तुल्य चलेंगे और स्वी
लिंग में संत में ई लगाकर ०ती अन्त वाले शब्द बनेंगे । जैसे-तावत,
तावती, इय.यनी ।
(का ज्ञात (कितने ?) (लेटिन-मगा, तति (उतने) लेटिन-पति
1.1), यति (जितने) के प्र० और द्वि० में रूप नहीं चलते हैं । अन्य विभा
क्तियों में केवल बहुवचन में शुचि (.) के तुल' रूप चलेंगे ।
: १९ह प्रश्नवाचक शब्द के अन्त में चित्, चन या अपि लगा देने से
अनिश्चय बोधक सर्वनाम शब्द बन जाता है और उसका अर्थ होता है--
कोई । जैसे-कप, काल किंचित्; कश्चन, काचन, किंचन; को-पि,
गोप, किमपि (कोई) । क शब्द के अन्य विभक्ति वाले रूपों के बाद भी चित
आदि लगते हैं । ममैचित, कहिंमश्चित्, कस्यचन, कस्थापि है
(क) उसीप्रकार चित्, चन या अधि लगाकर अनिश्चय बोधक क्रिया
विशेषण शब्द भी बनाए जाते हैं । जैसे-कदा (कब 1), कदाचित्, कदाचन
(कभी), कब (कहाँ 7.), न क्यापि (कहीं नहीं) ।
(खा प्र३नवाचक सर्वनाम से पहले संबन्धवाचक सर्वनाम आ जाता है तो
वह प्रश्नवाचक का अनि-बोधक अर्थ कर देता है । जैसे-य: का (जो
नि० ३-१ १९] शब्दरूप ७५
कोई), यस्य कस्य (जिस किसी का) । इसीप्रकार य: कश्चित्, य: यच, य:
कश्चन (जो कोई) ।
(ग) संबन्धवाचक सर्वनाम को यदि दो बार पढ़ दिया जाता है तोउसका
विभाजक अर्थ हो जाता है । जैसे-यों य: (जो जो व्यक्ति), (इसके बाद
द्विरुक्त संबन्धसूचक शब्द आता है, जैसे-स स: ब-वह वह व्यक्ति) ।

(ए) सर्वनाम विशेषरपद (1.10.111.11 4.1.:.6)


:२० . कतिपय विशेषण शब्द ऐसे हैं, जो सर्वनामों से या तत्समकक्ष शब्दों
से बने हैं । इनके रूप पूर्णतया या आंशिक रूप से सर्वनाम-शब्द (जैसे-त
(शब्द) के तुल्य चलते हैं ।
(क) अन्य (दूसरा), अन्यत्र (दो में से एका, इतर (दूसरा), कतर (दो
में से कौन 3), कलम (बहुतों में से कौन 1), एकात्म (बहुतों में से एका शब्द
पूर्णरूप से सर्वनाम-श-को के तुल्य चलते हैं । इनमें नप, में प्र० सं० द्वि० के
एक० में अन्न में दू लग जाता है । जैसे-अन्या, अन्या, अब (लेटिन-
111:1); चतुर्थी-यु", नप, अन्यामै, स्वी० अन्यार्य; स० अन्यरिमन,
इत्यादि ।
(ख) सर्व (प्रत्येक, सभी), उभयदोनों, एक० और बहु० में रूप चलेंगे) कि हैं
एक (एका ( : ०५), एकरे में से एका शब्दन में नप, प्र०, द्वि० में अन्तमें
दू न लगकर यर लगेगा । जैसे-सर्व:, सर्वा, सर्वर, च० सव-मैं, पं० सर्वतो,
ष० सर्वस्य, स० सर्वहिमन् । प्र० बहु-प, सर्व, स्वी० सर्वा:, नाल सर्वाणि ।
(ग) पूर्व (पूर्व दिशा, पहले), अवर (पश्चिम दिशा, वाद का), अधर
(पश्चिम, घटिया), उत्तरश्चिर दिशा, बाद का), दक्षिण (दक्षिण दिशा), पर
(दूसरा, बच का), अपर (दूसरा, घटिया), अन्तर (बाहरी), अव (अपना) में
नपू० प्र० द्वि० एक० में अन्त में मू लगता है । पूँजी और नयु० में पं०, स०
एक० में तथा पुर प्र०३ में साधारण अकाल शब्द के तुल्य भी रूप चलेंगे :
जैसे-पूर्व के रूप

१. किन्तु उम जीनो) शब्द के रूम केवल द्विवचन में (कान्त के तुल चलेगे ।
७६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ३.१ २०

प. न११०
है: सं: क्या पूर्वे, पूर्वा: पूर्वम् पूर्व पूर्वाणि
पूवए हैं, पूर्वान् है, हैं, हैं हैं
पं० पूर्वस्थातृपूर्वान् उस चम-ते पूव-मपु, पूर्वा.- सं--
स० पूर्व., पूर्व उ-स उ-स पूर्व-, पूर्व तो उमस
(ध) अर्थ (आधा), अल्प (कमा, कतिपय (कुछ), प्रथम (प्रथम), चरम
(अन्तिम), द्वय (दुहरा), जिय (दुहरा) (इसीप्रकार य और तय अन्त वाले
अन्य शब्द) के रूप सामान्य विशेषण शब्दों के तुल-चलते हैं । इनके प, प्र० ३
में सर्वनाम शब्दों के तुल्य भी रूप बनते हैं । जैसे-चरम का प, प्र० ३-
चले, चरमरा ।
(जा द्वितीय (दूसरा) और तृतीय (तीसरा) शब्दों के विना विभक्तियों
(अर्थात च० पं० ष० स० के एक०) में सर्वनामशकदों के तुल्य भी रूप चलेंगे ।
जैसे-प, न११० च० १-तृतीयाय, तृतीय-मैं, स० १--तृतीयायामू, तृतीय
स्थान । पूँजी प्र०३-तृतीया: ।
(च) यदि ये सर्वनाम शब्द बहुतीहि समास ( : ८९) के अन्त में (होंगे
तो इनके रूप साधारण विशेषण शब्दों के तुल्य चलेंगे ।
अध्याय ४
धातुरूप (.111.100)
१२ (. संस्कृत की धातुओं में दो प्रकार के प्र:, प्रत्यय लगते हैं-ममैं
पदी और आत्मनेपदी । परम-मद (मबक, शब्दार्थ-दूसरे के लिए क्रियापद)
को आता-पत्: ४०1रा३ कहते हैं : आत्मनेपद (स्वकाकि, शब्दार्थ-य-अपने लिए
कियापद) को जा11ता11० प०1२:० कहते हैं । कर्मवारय में आत्मनेपद वाले तिर
प्रत्यय लगते हैं । कर्मवाकय में मुख्य अन्तर यह है कि सार्वधाषा लकारों
(लद, कोद, (, विधिलिला में धातु में य और लग जाता है । आर्घधातुक
लकारों (शेष लकारों) में आत्मनेपदी रूप चलेंगे और खुद प्र० : में 'इ' अन्त
वाला रूप बनेगा ।
(का संस्कृत धातुओं के सभी लकारों के तीन वचन और तीन पुरुष में
रूप चलते हैं । तीन वचन हैं-एकवचन, (811811.), द्विवचन (1.1),
बहुवचन, (111)) । तीन पुरुष हैं-प्रथम पुरुष या अन्य पुरुष (11111(1
"द्वा-गा), मध्यमपुरुष (8.11(1 1:;811), उत्-मपुरुष (6118: 1).11),
१२२. संस्कृत में ५ काल (लिय") हैं । इनमें धातुओं के रूप चलते
है । ये हैं है----: . वर्तमान काल (1.5211:) लद (साथ ही लोह और विधि
लिव लकार भी), २. अपूर्णभूत या अनबन भूत (011...).., ३.
पूर्ण भून या परोक्ष भूत (मआव-जलवा, ४. भूत काल (सेप-लुम
(साथ ही एक प्रकार का लिखु, जिसे आशी-लेड:: कहते हैं), ५. भविष्य
(सासे:)---.-, लुट, (साथ ही लुइ: लकार, जो हेतुहेतुमद भविष्यत् या
एक प्रकार से भूत-भविष्यत है ।
वर्तमान, भूत और भविष्यत कालों से संबद्ध कुछकृदन्त रूप (1)12131:5)
भी हैं । इनके अतिरिक्त एक अ-प्रत्यय (1116111.) (१६७) तथा किसी
काल से असंबद्ध धातुज संज्ञा शब्द हैं ।
(का ग्रीक की अपेक्षा वेदोत्तरकालिक संस्कृत में धातुरूपों की संख्या बहुत
कम है । श्रेण्यपुप्रप्राबि८)संस्कृतमें३1ह्मल००९ 121150) 8.111111011,
७८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० उ. १ २२

प्र००(1 नहीं है (लर उ० पु० में इसके अवशेष मिलते है) । इसी प्रकार
वर्तमानकाल को छोड़कर अन्य कानों के आज्ञा या विधि-सूचक लकार प्राप्य
नहीं है ।
सार्वधातुक अकार (1112 1..:.1: 1..111)
१२३. लिटू, लुत्, खुद बह और पत् में तिल प्रत्यय धातु से साक्षात्'
(या बीच में ऊष्ण वर्ण लगाकर लगते हैं, किंतु सार्वधातुर लकारों (लटू,
लोट, लइ, विधिलित्) में एक विशेष अग (8.11) बन जाता है । यह : ०
गणों के अनुसार १ ० प्रकार का होता है । अत: भारतीय वैयाकरण. ने सभी
धातुओं की १ ० गणों में विभक्त किया है । दशम गण (..) वस्तुत:
प्रक्रियान्त गण है । चुरादिगण में प से जो शिर (प) प्रत्यय महोता है,
वह सभी स्थानों पर अपने शिर को सुरक्षित रखता है, जिस प्रकार अन्य
प्रकियान्त धातुएँ (णिजन्त, सन्नन्त, यह-ना, नामधातु) अपने प्रत्ययान्त रूप को
सुरक्षित रखती हैं ।
दस गण (1112 1हुगु३ रायसे)
१२४. दस गण दो प्रकार के धातुरूपों में विभक्त है । प्रथम वर्ग में--.
ध्यादि, दिवार तुषादि और चुरादि गण हैं । इनका सार्वधातुक लकारों में
अंग 'अ' अन्त वाला होता है और इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है है
द्वितीय वर्ग में शेष सभी गण हैं । इनमें तित् प्रत्यय धातु से साक्षात
लगते हैं यता उ, नु, ना, (नी, ना विकराल के बाद लगते हैं । इनमें सार्व
धावक लकारों वाना अंग परिवर्तनशील होता है, कहीं पिव (6)118) और
कहीं वित ((1) ।
(अ) गणों का प्रथम वर्ग (1(31 (.011]11..1.011)
१२५. (१) प्रथम गण या भवाधिगाप्र--इसमें धातु के अन्तिम वर्ण के
बाद (अ' विकरण लगता है । इसमें धातु, पर उदात्त स्वर रहता है, अता धातु
के अनित्य स्वर (अव या दीर्ध) को तथा उपधा (उपांत्य, अन्तिम व्यंजन से
पूर्ववर्ती स्वर) के अव स्वर को गुण होता है । भू (होना) का सार्वधातुक
लकारों में अंग 'भव' होता है । बुधु (जानना) का बोध ।
(२) बल गण या तुदादिगण-इसमें धातु के अन्त में उदात्त अ विकरण
लगता है । धातु अनुदात्त रहती है, अत: उसे गुण नहीं होता है । इस अ
नि० ४-१२५] धातुरूप ७९

विकरण से पूर्ववर्ती ऋ को इर हो जाता है । इस प्रकार तुर (दुध देना) का


तुद और कु (वना) का किर अग होता है ।
(३) चतुर्थ गण या दिवादिगण-इसमें धातु के अन्त में य विकरण
लगता है । इसमें धातु पर उदात्त स्वर रहता है (किंतु कुछ धातुओं में गुण
रहित रूप रहता है, इससे प्रतीत होता है, कि मूलरूप में य विकरण उदात्त
रहा होगा) । जैसे----, (ब-धना) से नह्य, दिन (खेलना) से दीव्य ( : ३ स्था) ।
(8) दशम गण या चुरादिगण-इसमें धातु के अन्त में अब विकरण
जुड़ता है । इससे पूर्ववर्ती धातु के अन्तिम स्वर को वृद्धि होती है और उपधा
के अव स्वर को गुण होता है । जैसे-भी (पुराना) से चल । उपधा के
अ को अधिकांश धातुओं में आ हो जाता है । जैसे--- कब (चाहना) से काम ।
(आ) गणों का द्वितीय वर्ग (लिय"'') (.0111311.1011)
१ २६. ये निम्नलिखित स्थानों पर मिव (ज्ञाप) होते हैं-
(. पर-पद में लटू, लद और लद में एकवचन ।
२. परयपद और आत्मनेपद में लोह का उत्तम पुरुष ।
३. पर-पद लोह प्रथम पुरुष एकवचन ।
इन स्थानों पर धातु यता प्रत्यय का स्वर उदात्त होता है, अत उसे गुण
या वृद्धि होती है । शेष वित स्थानों पर तिर: प्रत्यय पर उदात्त स्वर रहता
है, अत: धातु को गुण या वृद्धि नहीं होती ।
(क) नवम, गण अर्थात व्रपदिगण में विकरण ना लगता है । यह
उदात्त होने पर ना रहता है और अनुदार होने पर की या तू । सप्तम गण या
रुधादिगण में इसी प्रकार क्रमश न या त रहता है ।
पी २७ ( : ) द्वितीय गण या अदादिगण-इसमें धातु से तिर प्रत्यय
साक्षात् लगते (, । मित (8.8) वाले स्थानों पर यदि संभव होता तो धातु
को गुण होता (२२५, १) । जैसे-च-अर (खाना)---. (मति, म० १--
अस्थि, उ० १-अकी । इ (जाना) एति, एधि, एल । लिह, (चाटना)
लेति (६९ खा लेक्षि (६९ का, लेहामि ।
(का धातुरूप चलाने की दृष्टि से द्वितीय (अदादि) और सप्तम (रगद)
गण सबसे अधिक कठिन हैं, क्योंकि इन गणों में विविध व्यंजनों से प्रारम्भ
८० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४०(२७

होने वाले निडर प्रत्यय सीधे धातु से लगते हैं, आ: पदा-ति-संधि के नियम
इन स्थानों पर लगते है ।
(२)तुतीय गण या जुहोत्यादिगण-इसमें धातु को द्वित्व होता हैं और
शिव वाले अग से तिर प्रत्यय सीसे लगते हैं । यदि संभव हो तो धातु को
अपना प्रत्ययों से पूर्व गुण होया । जैसे-हु (हवन करना-होति (वह हमन
करता है), जुहुत: (वे दो हवन करते है), उ० १ जुहोमि, उ०३ जुहुम: ।
(का यत् तुगन्त ( : ७२) धातुओं के रूप इस गण के तुल्य चलते हैं ।
( ३ ) सप्तमगण या रुधादिगण-य-इस गण में तित् प्रत्यय धातु से साक्षात्
लगते हैं । मित प्रत्ययों वाले स्थानों पर ण के अत्-राम व्यंजन से पूर्व न
लगेगा और ला स्थानों पर तू । जैसे-युत (जोड़ना)--' युनक्ति, युत्क्त:,
युध-जनित । उ० १-युनडिम, उ०३-युमम: ।
(४) पंचमगण या स्वादिगण-इसमें धातु के बाद 'नु' विकरण लगता
है और पित प्रत्ययों से पूर्व नु को गुण 'होकर तो होता है । जैसे-सु (निधी
वना)---'" सुनीति, सुनुत: । उ० सुनोमि, सुनुव:, सुनुम: ।
(() अष्टम-गण या तनादिगण-इसमें धातु के बाद 'उ' विकरण लगता
है, उसे वित प्रत्ययों से पूर्व गुण होकर ओ होता है । जैसे-तब (फैलाना)---
प्र० तनय, पं: । उ० तनोमि, तनुव: ।
(क) कृ (करना) धातु को छोड़कर इस गण की शेष सभी सात धातुएँ
नकारते हैं । कृ धातु का सार्वधातुक लकारों में अंग अनियमित है । जैसे--
प्र----: करोति, उ०१ करोमि (१३४ उ)
(६) नवमगण यर क्रआदिगण----इसमें पिर स्थानों पर धातु के बाद 'ना'
विकरण लगत, है । डि-द स्थानों पर बाद में व्यय होगा तो 'नी' लगेगा
और स्वर बाद में होनेपर 'नू' लगेगा जैसे-की (खरीदना)---' -कीणजि,
कीज:, बरीणन्दित । उ० कीणामि, जीणीवा, जीणीम: ।
अगम (मि, पयसा)
१ २८. उत्, खुर और पत् लकारों में धातु से पहले उदात्त 'अ' काआगम
होता है । इस अ को धातु के प्रारम्भिक स्वर के साथ वृद्धि हो जाती है (२३)
जैसे वृक्ष (जानना)-लर प्र० : अबोध, । उपर (गीला करना)---' प्र० :
नि. ४.१२८] धातुरूप ८१
उनकी (गीलाकरता है), लद प्र० १--औनतू जिसने गीला किया), ऋ
राग/य)".)--""'"-'" (वह जाता है), लद प्र०१--आचल (वह
गया ।
(का निषेधार्थक मा (मत) अट-यय केहवाद लत् और अ: लकारों में धातु
से पूर्ववर्ती अ का लोप हो जाता है । तब धातु का प्रयोग आज्ञा अर्थ में होता
है । जैसा-या कल्ला, मा करीत (वह ऐसा न करे) ।
द्वित्व कार्य (1.10911)1)1)
१२९. संस्कृत में पांच स्थानों पर धातुरूपों में द्वित्व होता है:--. : )
जुहोत्यादि(तृतीय) गण में सावधादुक लकारों के अंग में, (२ ) लिव, लकार में,
(३) अरी लकार के एक भेद औ, (भा सत प्रत्ययान्त में और (५) यऊँन्त
तथा यत् लुगात में । इन पांचों में प्रत्येक में कुछ विशेष नियम लगते हैं,
इनका 'द्वित्व के कुछ विशेष नियम' प्रकरण में पृथक वर्णन किया जाएगा
(नि० १३०, १३५, १४९, १७०, १७३) । द्वित्व के सामान्य नियम निम्न
लिखित हैं :- द्वित्व के सामान्य नियम

(.1-1 1111129 (4 1य०अथे1००)


१. धातु के प्रथम एकत्र (अर्थात वह अंश जो प्रथम स्वर के साथ समाप्त
होता है) को द्वित्व होता है । जैसे----?, रानिबुबुप, ।
२. अभ्यास जिव हुए भाग का प्रथम अंश) के महाप्राण वर्ण के स्थान
पर उसी वर्ग का अल्पप्राण वर्ण हो जाता है । जैसे-जिद (काटना) प्र
बिभिद;
३. धु
कवन(हिलाना)
के स्थानप्रदुधु ।
पर समकक्ष व है और हच के स्थान पर जू
चवर्ग होता

होता है । गौरे-कम् (प्रेम करना) राप्रचकमू; खत (खोदना) जियचखत्; गर


(जाना) प्रजगब; हस, (हसिना) जिनेजहर ।
४. यदि धातु के प्रारम्भ में अनेक व्यंजन हैं तो केवल प्रथम व्यंजन को
द्वित्व होगा । जैसे-शुर (चिल्लाना) यत्रुकूशु; क्षिपू (केय) जि-चिकी-र ।
५. यदि धातु का प्रथम वर्ण हम (शु, प, साई और बाद में कठोर
व्यंजन (, वर्ग के प्रथम और द्वितीय 'व्यंजना हैं तो कठोर व्यंजन को ही
द्वित्व होगा । जैसे-मतु (स्तुति करना) जियतुष्ट्र (नि० ६७); स्था (रुकना) राय
८२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि- ४. १२९
तस्या; वहुत (चुना) उत्रुष्णुत्; स्कन्द (उछलना) उचस्कन्दू । किन्तु स्मृ (याद
करना) का सरुमृ होता है । इसमें ब कोमल वर्ण है है
६. यदि धातु का अन्तिम या उपधा (उपाय) का स्वर दीर्ध होगा तो
उसे अभ्यास में अव स्वर हो जाएगा । जैसे-गाहा (प्रवेश करना) राज
जगाइ, की (खरीदना) है चिकी; कूजू (पूजना) उत्रुनून् ।
७. यदि धातु में ए है तो उसे अभ्यास में इ होगा और ओ तथा औ को
उ होगा, यदि ए आदि अन्तिम वर्ण होगे तो नहीं । जैसे-सेत (पूजा करना,
सेवा करना)प्रलन् (नि० ६७); तौर (पहुँचना) प्रटुतौकू ।
अ. भारतीय वैयाकरणों ने ए, ऐ और ओ अन्तवाली धातुओं को सुविधा
के लिए आकारान्त माना है और आकारान्त को ही द्वित्व किया जाता है ।
जैसे-गे (गाना) जि-जगी (लिह प्र० (, नि० १३६, ४) ।
जुहोत्यादि (.) गण के लिए द्वित्व के विशेष नियम
१३०. ऋ और ऋ को अभ्यास में इ हो जाता है । जैसे-भू (धारण
करना) रारा-बिभर्ति; पृ (पूरा करना) प्रमिपर्ति ।
सिर प्रत्यय (आसा-य")
१ ३ १ की निम्नलिखित सारणी में तित् प्रत्यय दिए गए हैं । ये सामान्यतया
सभी धातुओं से सार्वधाषा लकारों (लद, लोक लद विधिलिद) में लगते हैं है
मुख्य अन्तर केवल विधिलिद में होता है । इसमें स्वादिगण में ए लगता है
औरअदादिगण में 'या' या ई लगता है : यदि निम्नलिखित बात स्मरण
रखी जाए तो भ्रमनिवारण हो जाएगा-लद में ति, सि, मि आदि मुख्य
नि: प्रत्यय होते हैं तथा लोद (कुछ अन्तर के साथा, विधिलित् और लद में
त, सू, मू आदि गौण तिह प्रत्यय लगते हैं । शेष लकारों में से लुक पद में
मुख्य तिइ: प्रत्यय लगते हैं तथा लुक आशीलित् और तत् में गौण तिइ:
प्रत्यय लगते हैं । लिव लकार में पररुमैपद में (कुछ परिवर्तनों के साथ) गौण
तिज- प्रत्यय लगते हैं और आत्मनेपद में मुयय तित् प्रत्यय लगते हैं ।
दोनों प्रकार के धातुरूयों में अन्तर समझने के लिए यह आवश्यक है कि
निम्नलिखित बातों को स्पष्टरूप से समझ लिया जाए : प्रथम या आयुक्त
आधुरूष में (जैसा कि अकाल शब्द रूपों में होता है) उदात्त स्वर कभी
नि. ४-१ ३१] थातुरूप ८३
भी तिल प्रत्ययों पर नहीं होताहै, अपितु अंग (धातु या विकरण युक्त धातु)
पर रहता है, अतएव अंग में कोई परिवर्तन नहीं होता है । इनमें उदात्तस्वर
का प्रकार यह है :--ध्यादि (प्रथम) गण और दिवादि (चतुर्थ) गण में
उदात्त स्वर धातु पर होता है---और तुदादि (षष्ठ) गण तथा चुरादि (दशम)
गण में विकरण पर उदात्त स्वर होता है । द्वितीय या अ-रहित तुरूप में
(जैसा कि परिवर्तन शील अंग वाले शब्द रूपों में होता है) पित्त प्रत्ययों वाले
(सबल) स्थानों पर धातु पर उदात्त स्वर रहना है और अमित प्रत्ययों वाले
(निर्वल)स्थानों पर तित् प्रत्ययों पर उदात्त स्वर रहता है, इसलिए धातु अपने
निर्बल रूप में रहतीहै । अत: द्वितीय या अ रहित आतुरूप में सार्वधातुक लकारों
के मित (सबल) रूपों ( १२६) को छोड़कर शेष स्थानों पर निर प्रत्ययों पर
ही उदात्त स्वर रहना है है यदि धातु से पूर्व अ (नि० १२८) नहीं होगा तो
लद लकार में भी यही नियम लगेगा :
पर-पद
लद लहु.जाए विधिलिर लीद
प्रथमधातु० द्वितीया,
प्र० १ ति तू एस यात तु
२ तब ताब एतामू यर ताब
३. अस्ति ( अब एयुर पुर अनदुन
ममा : सि सू एत यान व्य----.: )अहित२)
२ यत् तब उब यार तब
३ थ त एत यात त
उ० १ मिके अमू४ एयर यार आनि
२ वनहैं व९ एव
र याव आव
३ मसू९ म९ एम याम आम
आत्मनेपद
लद लद विधिलिर लोर
प्र० : ते त एत४ ईते ताब
२. एते एतान् एयानाम् ईयर उब
८४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि- ४- ( ३ १

आते आर आताम्
३. अति अन्त एल हैरत अन्ताब
अते अत अतल
म०१. से थाप एथान् ईथासू स्व
२. एसे एर एयर ईयाथान् एर
आये अस्थाई आर
३. हुवे प्यार एर ईध्वन जीवन
उ०१. ए ए, इ एय ईय ऐ
२ वहाँ वहि एवहि ईवहि आन
३. महेमखा मषा एमहि ईमहि आन
१- जुहोत्यादिगण तथा कुछ अन्य द्वित्व वाली धातुओं में (देखो नि०
१३४अ४; १७२) पर८मैपदमें लदऔरलोदप्र० ३ मेंन्नहींरहता:
द्वितीय (अ-रहित) धाय में सर्वत्र आत्मनेपद में लटू, लद और लहर
प्र० ३ मेन नहीं रहता ।
२. जुहोत्यादिगण तथा कुछ अन्य द्वित्व वाली धातुओं में (देखो नि०
: ३४ अ ४; १७२) परम्मैंपद लहु: के प्र० ३ में अब के स्थान पर उर (उ:)
लगता है । अदादिगण की आ-प-पली तथा विद (जानना) और द्विम्
(वेष करना)धातुओं में भी प्र० ३ में उर (उ:) लगता है । उ: से पूर्ववर्ती आ
का लोप हो जाता है । यदि उ: से पूर्ववर्ती ई, उ और ऋ होंगे तो उन्हें गुण
हो जाएगा : जैसे-भी (डरना) हैअबिभयु:, हुप्रअजुहहु:; यारा-अयाद
अयु: 1 अवेस्ता के समकक्ष रूपों की तुलना से स्पष्ट होता है कि इस उसूप्रत्यय
का अनिल वर्ण सू न होकर ठयुत्पति की दृष्टि से र है । यह उ: परसौपद में
विधिलित् प्र० ३ और लिह, प्र०३ में दृष्टिगोचर होता है ।
३. प्रथम (अ-युक्त) धातुरूपों में पररमैपद में लद म० : में अन्त में
कोई निह नाहीं लगता है । (जैसा कि अकाल शमन के संबोधन एकवचन
में होता है) । अदादि (द्वितीय) गण में पूर्ववर्ती स्वर होगा तो 'हि' लगेगा
और यदि पहिले-दमन होगा तो 'धि' लगेगा । किन्तु-
नि० ४-१३१] धातुपाठ ८५

(क) भूयादि (नवम) गण में धि के स्थान पर आन लगता है । जैसे--


मरि." मथान । 2 किन्तु की का श्रीणीहि बनता है ।
(ख) स्वादि (पंचम) गण और आदि (अष्टम) गण में यदि उ से पूर्ववर्ती
एक व्यंजन होगा तो 'हि' का लोप हो जाएगा । जैसे-सु-भानु । किंन्तु आप
राय अपुहि होगा ।
(ग) जुन्होंत्यादि (तृतीया गण में हु धातु में म० ( में हि के स्थान पर धि
लगता है । हुप्रजुहुधि ।
४. प्रथम (अ-युक्त) धातुरूप की सारणी मेंजो एत आदि में ए है, वह
अन्तिम अ-मई-व्य-र है । टयावहारिक दृष्टि से यह माना जा सकता है कि ये-वाटा
तिल ए से प्रारम्भ होते हैं ।
५. प्रथम (अ-युक्त) धातु रूपों में स्वर से प्रारम्भ होने वाले तिल प्रत्यय
अन्तिम अ को हटाकर लगाने चाहिएँ । जैसे-अभवद मवेह ।
६. प्रथम (अ-युक्त) धातुरूपों में वल और यर से पूर्ववर्ती अ को दीर्ध हो
जाता है । जैसे-----., भवाव: ।

धातुरूपावली
१३२. प्रथम (अ-युक्त) धातुरूप के अनुसार ही चार गणों (ध्यादि०,
दिवजि०, तुदादि० चुरादि० ) के रूप चलते हैं, अता उनके लिए एक धातु के
रूप ही पयप्ति होंगे । स्वादि (पंचम) गण और आदि (अष्टम) गण के रूप
भी इसी प्रकार चलते हैं । अदादि (द्वितीया गण में अद धातु, की अपेक्षा द्विन्
धातु अन्तर्गत संधि तथा सबल (पितृ) और निर्बल (अनि) रूपों को अधिक
स्पष्ट करती है, अत: उदाहरण के रूप में उसे ही अपनाया गया है ।
ते----------------

१. लीद उधार के इस 'आन' की उत्पत्ति सन्दिग्ध है । यह संभवत: 'नान' के स्थान


पर है 1 आन का आ संभवत: चदिगण के विकरण ना का संक्षिप्त रूप है तथा
वेद में लद म० ३ में त के स्थान पर लगने वाले तन का न यहाँ पर भी लगा
है । अत: आम-न-च-आन हो जाता है । वेद में भी का इतन (लीद मर रूप
बनता है ।
८६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४० ( ३२

'मतुरूप-य-मी (11.: (:01111.1011)

कवादिगण (ईसा: (:1:) भू (होना)(विकरण-सहित रूप-मवृ--अ-य-भीवा


लद (वर्तमान काल)
पर-पद आत्मनेपद
एकवचन द्विवचन बहुवचन पुरुष एकवचन द्विवचन बहुवचन
भवति भवता भवन्ति प्र०पु० भवते भवेते भवन्ति
भय अथ: मवय म०पु० मवसे भवेथे मवारे
भवामि मवाव: अवाम: उ०पु० भवे भवावहे भवान
(: (भूतकाल, अनमना
अभवत् अभवताब अभवद प्र०पु० अभय अभवेताब अभवन्त
अभव: अभवतब अभवद म०पु० अभवथा: अभवेथात् अभवध्यब
अभवत् अभवाव अभवाम उ०पु० अभी अभ-ह अभवामहि
लोद (आज्ञा अर्थ)
भय भवेताब (विधु: प्र०पु० कविता भवेयातान् भवेरन्
भवे: भवेतत् भवेत मद भवेथा: भवेयाथान् भवेध्वब
भय भवेव आम उ०पु० भई भवावहै भवानी
विधिलिड़: (आजा या चाहिए अर्थ)
भय कविताए भवेधु: प्र०पु० भवेत भवेयातान् (विरत
भवे: भल भवेत म०पु० भवेथा: भवेयाथामूभवेध्वन्
भवेयत् भवेव भवेम उ०पु० भवेय भवेवहि भवेमहि

धातुरूप-२ (6..11.1 20111..1.011)


अदादिगण (5..1-1 (:1532) हिम (हेय करना) (सवि-अरूप-द्वेष, विधु)
देहि (६४) विष्ट: द्विषन्ति प्र०पु० द्विष्टि द्विषाते द्विषते
देक्षि (.) विष्ठा विष्ट म०पु० द्विक्षे द्विषधि द्विड़हैखा६४)
किम द्विज: अलम: उ०पु० हिये द्विष्यहे द्विष्कहे
नि- जा १३२] धातुरूप ८७

लद (अनबन, भूतकाल)
असर (य) अद्विष्टगा अद्विष्ट प्र०पु० अद्विष्ट अद्विषाताम् अजित
अहेर (य) अद्विष्टत् अद्विष्ट म०पु० अद्विष्ठा: अद्विषाथामूअद्विइस्था
अढेषत् आम अद्विन्म उ०पु० अविधि अद्विध्वहि अद्विन्महि
ओर (आज्ञा अर्थ)
परसेद आत्मनेपद
देन दिल द्विषन्तु प्र०पु० दिल द्विषाताध द्विषताए
द्विडूणि६४) द्वित्व दिष्ट म०पु० द्विस्वा६४का द्विपाथाए द्विडप्रवब
( ६४)
देषारिगा६५) देषाव देकर उ०पु० देर्ष देपावहै देषामई
विधिलिद (आज्ञा या चाहिए अर्थ)
द्विग्यात द्विप्याताए विष्णु: प्र०पु० विषम द्विधीयाताबद्विधीरन्
द्विप. द्विध्यातन् द्वि८यात म०पु० द्विधीथा: द्विधीयाथामूद्विपीध्वन्
द्विव्यार द्विव्याव द्विज्याम उ०पु० द्विधीय द्विदीवहि द्विधीमहि
जुहोत्यादिगण (111-1 21-7 हु (यज्ञ करना) (सवि-अरूप-जुते जुहू)
लद (वर्तमान काल)
जुहोति जुहुत: जुबति प्र०पु० जुड़ते जुलते जाते
जुहोषि जुहुथ: अथ म०पु० जुहुषे जुड़ल अवि
जुहोमि जुहुव: जुहुम: उ०पु० जुई शुहुवहे जुहुमहे
(: (भूतकाल, अनद्यतना
अहित अजुहुताब अग्य: प्र०पु० अजुहुत अजुखातामू अजात
अधि: अजुहुतए अजुहुत मद अजुहुथा: अजुलथन अजुहुध्यए
अजुहवए अजुहुव अजुहुम उ०पु० अशुद्धि अजुहुवहि अजुहुमहि
लर (आज्ञा अर्थ)
जागी जुहुताब जुधतु प्र०पु० जुहुताब द्वापर जुह्नताब
जुहुधि जुहुत्न जुहुत म०पु० जुहुश्व जुहाथाए जुहुध्यब
जुहवानि जुहवाव अवाम उ०पु० जुहर्व जुहवावहै जु-महै
८८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४. १३२

विधिलिर (आज्ञा या चाहिए अर्थ)


जुहुयात् जुहुयाताब जुहुयु: प्र०पु० चुहल जुर्वयाताब ज८हचेरन्
जुहुया: जुहुयातत् जुहुयात्' म०पु० हैत्छोथा: जहयाथाए आपही-वत
जुहुयात् जूहुयाव जुहुयाम उ०पु० जु-राय वृपद्रीवहि जुहरीमहि
स्वादिगण (1101, (1155) सु (रस निकालना) (मविकरण रूप-बरो, सुनु)
लद (वर्तमान काला
सुनते सुनुता सुन्वन्ति प्र०पु० सुनुते सुखाते सुनते
सुनोषि सुल: सुनु: म०पु० सुनुये सुखाये सुनु-वि
सुनोमि सुनुव: सुनुम: उ०पु० सु-अवे सुनुवहे सुनु-महे
सह (भूतकाल, अपन)
असुनोन् असुनुताब असुर प्र०पु० संस्तुत असुन्याताम् अमृन्यत
अशो: असुर असुनुन म०पु० असुनुथा: असुन्दावाब यसुनुध्वन्
यसुनवमू असुनुव असुनुम उ०पु० असु" असुनुवहि असुनुमहि
लोद (आज्ञा अर्थ)
सुनोतु सुनुताब सुन्वन्तु प्र०पु० सुनुतात् सुन्याताब सुन्वताब
सुनु सुनुतब सता म ०पु० (जिव सुन्वाथाब सुनुध्वत्
सुनवानि सुनवाव सुनवाम उ०पु० सुनते सुनवावहै सुनवामहै
विधिलिइ: (आज्ञा या चाहिए अथ)
सुनुयात सुनुयाताब सुनुयु: प्र०पु० सु-रीत सुन्बीयाताब सुस्वीरन्
सुनुया: सुनुयातब सुनुयात मद सुन्बीथा: सुस्वीयाथाब सु-अधी-वार
सुनुयन सुनुयाव सुनुयाम उ०पु० सुन्बीय सुन्बीवहि सुन्बीमहि
रुधादिगण (5.11 2156)., (रोकना) (सविकरणरूप-रुणधु, उम)
लद (वर्तमान)
रुणद्धिज्ञा बद्ध: रु-वत प्र०पु० रु-अं: मयाते शन्धते
रुतात्स रुन्द्ध: रुन्द्ध म०पु० रुन्त्से रुस्थाते शन्दूवि
रुणडिम रुन्ध्व: रु-मटम: उ०पु० रु-मये रुन्रूवहे मयजामहे
लद (भूतकाल, अनय)
अरुणन् अरुन्द्धाब अरुन्त्रन् प्र०पु० अरुन्द्ध अरुन्यातामू अन्यत्र
नि. ४. १३२] धातुरूप ८९
अरुण अरुन्द्धए अरुन्द्ध म०पु० अयं-डा: यरुन्धाथाब अपर
अरुणधब अब-व अरुप उ०पु० अरुन्धि अरु-वहि अरुन्ध्यहि
यम (आज्ञा अर्थ)
रुप रुन्द्धाब रुन्दन्तु प्र०पु० उद्धार रुन्धातान् मबनाए
रु६-द्ध उद्धार रुन्द्ध म०पु० उत्सव रुन्याथाब शन्दध्यब
रुणधानि रुणधाव बरुणधामउ०पु० रुस रुणधावहै कराधान
विधि-लेइ: (आज्ञा या चाहिए अर्थ)
रुन्ध्यात रुन्ध्यातामूरुन्शयु: प्र०पु० उ-बीत रुन्धीयाताब मपरत
रुप: रुन्ध्यातब रुन्ध्यात म०पु० रुन्धीथा: रुन्धीयाथन रुन्पीध्वत्
ब८९याब अन्याय रुस्थामउ०पु० रु-स्वीय रुन्धीवहि श-धीमहि
पनिगर, (5111, (:1:) वने (खरीदना)
(सविकरणरूप-कीणा, कीर", कीव)
ल र (वर्तमान काल)
वगेणाति औरस जीणन्ति प्र"पु० जीणीते औणाते अ-पीसते
जीसस क्रोणीथ: कीणीथम०पु० जीणीये जीणाये जीणीवि
कीणामि जीणीव: :कीणीम: उ०पु आगे सरीणीवहे औणीमहे
लर (भूतकाल, अन-ज्ञान)
अकीखात्अजीश्यातामूअयगुत् प्र०पु० अजीज अकीणाताब अश्रीणत
अकीरा: यकीणीतत् अजीस्काम०पु० अजीणीथा: अकीणाण यकीणीध्वब
अजीणाए आरीरतीव आगीणीमउ०पु० अभीणि अकीणीवहि अष्ट्र"णीमहि
और (आज्ञा अर्थ)
औणातु जीणीताए कीणान्तु प्र०पु० औणीनन कीणाताब औणताब
जीणीहि जीणीतत् औरस म०पु० अ१णीरव (रीणाथात् जीणीध्वत्
औणानि कील :कीणाम उ०पु० जीर्ण औणावहै औणामहै
विधिलिहु: (आज्ञा या चाहिए अर्थ)
कीणीयान् जीणीयानात्जीणीयु: प्र०पु० कीणीत तौणीयाताब जीणीयन
औणीया: औणीयातए औणीयात य०पु० औणीथा: औणीयस्थास श्रीणीध्वब
जीर्ण-यन औणीयाव औणीयाम उ०पु० औणीय जीणीवहि औणीमहि
९० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. जा १३३

सार्वधातुक अंग के कुछ अपवाद


(1..1.1.21, " 1112 "अता आसामी
प्रथम (अ-युक्त) (मतुरूप
(11-1 (:00111.100)
१३३. (अ) प्रथम या स्वादिगण--:. कब (चप), आ-चब (आच
मन करना), गुहा (छिपाना), एवा (थुकना) में धातु के स्वर को दीर्घ हो
जाता है । जैसे-कमू-पम, आचपूर्मि आवाम, गुहा-नारा-गुह, जिव-रारा-सीव,
मृजू (साफ करना) के ऋ को वृद्धि होकर मार होता है । सत् (बैठना) के
अ को ई होकर सीद हो जाता है । सद-प्रसीद (सि-सद के स्थान पर है,
लेटिन-पता) ।
२. गए (जाना) और यब (रोकना) को सार्वधता लकारों में मू को
की होने से गलने और यच- रूप होते है । (देखो नीचे इ २)
३. आ (स-घना), पा (पीना), और स्था (रुकना) को द्वित्व होता है और
अभ्यास (जिव के प्रथम अंश) में इ हो जाता है । जैसे-ज्ञा जिने जिप, पथराव
पिब, (लेटिन-पनि), स्था प्रतिष्ट्र (लेटिन-पय) । ये धातुएँ मूलरूप में
जुहोत्यादि (तृतीय) गण में थी । (य : में पूर्वोक्त सद धातु से इसकी तुलना
की जा सकती है) ।
भा दर (काटना), मंद (मना) और सजा (लगना, चिप-) के
नासिका का लोप हो जाता है । वंशुप्रदशु, मर राजी मरि, सजा-राध सब ।
५. दृशु (देखना) को पश्य, ममा (प-कना) को धन और म्ना (पढना)
को मत आदेश होते है ।
(आ; चतुर्थ या दिवादि गण--:. तब (थकना) भ्रम (घुमना), शन्
(रुकना), अब (थकना), मद (प्रसन्न होना) अनार दित (खेलना) के स्वर को
दीर्घ हो जाता है । तब पराय ताम्र मद है माल विद राज दीव्य ।
२. भ्रम (गिरना) के त का लोप हो जाता है । भ्रन जिय भ्रश्य । प्यार
(बीधना) में संवरण होता है । व्यन्चधिध्य । जब (पैदा होना) को जा
हो जाता है । जत-मजाय । (देखो १५४ क () ।
(द) बल या तुदादिगण-:. कृत (काटना), मुच, (छोड़ना), पार
नि. ४. १३३] 'मतुरूप ९१
(तोड़ना), लिए (लीप, विद (पाना), सिर (सींचना) में त का आगम
होता है । कृतहै कृत, मुन जिने मुझे तुर है छाप, लिए राव लिम, विद व विना
सिर प्र सिउ-च ।
२. इद (चाहना) धातु के प को की होता है और ऋ (जाना) धातु में
की का आगम होता है । इम्प्रबछ, ऋप्रऋतीछ (देखो नि० () ।
३ . प्रछति (पूछना) है आर (भूप) और यर (काटना) में संप्रसारण
होता है । प्रब्द५३पृउछ, फ.१जियभूज्ज, वआप्रवृटम ।
द्वितीय (अ-रहित) धातुरूप
(6):0.16 (.0.1111.1.011)
१ ३४. (अ) द्वितीय या अदादिगण
१. निम्नलिखित क्रियाओं में धातु को अनियमित रूप से गुण या वृद्धि
होती है--
(क) यु (जोड़ना) तथा अन्य सभी उ अंत वाली धातुओं को हलादि
(व्यंजन से प्रारम्भ होने वाले) मित (सबल) तिर से पूर्व गुण के स्थान पर
वृद्धि होती है । यु हैज यौमि । किन्तु लद उ० १ में अवध होगा ।
(खा मृत (साफ करना) को गुण के स्थान पर वृद्धि होती है है मूर उ
मार्पिट (लटू प्र० १) (देखो नि० ६३) । किन्तु प्र० ३ में मृजन्ति होगा ।
(ग) जी (सोना) आ० को अजित (निर्बल) स्थानों पर गुण होता है
और लद, लद लद में प्र० ३ में बीच में र का आगम होता है । शेते (प्र०
(), शेरते (लद प्र० ३), शेरतात् (लंम प्र० ३), अशेरत (लड:: प्र०३)
२. निम्नलिखित क्रियाओं में अनियमित रूप से धातुनिर्बल हो जाती है-
(क) वन (चाहना) धातु को अज स्थानों पर संवरण हो जाता है ।
वष्टि (लटू प्र० १) नि० ६३ खा, उशन्दित (लद, प्र० ३) ।
(ख) असू (होना) धातु के प्रारम्भिक अ का विधिलित् तथा लद और
लीद, के सभी अमित स्थानों पर लोप हो जाता है । जैसे-स्वात (वि० लिव:
प्र० (), सहित (लटू प्र० ३) । इसका लय म० १ में एधि रूप होता है ।
(यह हैदृ-र्श111 के स्थान पर है । अवेस्ता में कृता है ।) लद लकार में प्र०
और म० एक" में तिल से पहले ई और लग जाता है । आसीत, आसी: ।
९२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४० १३४

(ग) हब (मारना) पर० के त का लोप हो जाता है, बाद में अर्पित त या


थ हों तो । हस्ति (लद प्र०१), किन्तु ख (प्र०२), हथ (म०३) । लदा लद
और लद प्र० ३ में धात के अ का लोप हैं, जाता है और हा को सथ हो जाता
है । ध्वनित । (लर प्र०३), उनन्तु (नोट, प्र०३), अच्छा (लइ, य३) । इसका
लीद म० : में जहि रूप बनता हैन (घ-हि को ताल-य करने पर झ-हि रूप
हैं/गा । उसके स्थान पर यह रूप है) ।
३. निम्नलिखित क्रियाओं में अनियमित रूप से किसी: स्वर या अन्तस्य
का आगम होता है :
(का अब (सांस लेना), जन (खाना), रुद (रीना), शवसकि (सांस लेना)
और स्वार (सोना) धातुओं में यक को छोड़ कर अन्य हलादि तिल प्रत्यय बाद
में होने पर बीच में इ का आगम होता है । किन्तु पर० बम:, के प्र० और म०
उ० तू और सू से पहले ई यता अ लगेगा रोरिति, रोदिमि । किन्तु शदन्ति,
रुद्याब, लद प्र० : में अरोदीश या अरोदत बनेगा ।
(ख) ईद (आ०, स्तुति करना) और ईशु (आजि, स्वामी होना) धातुओं
में सु और ध से प्रारम्भ होने वाले तिज प्रत्यय (अर्थात लद और लोद म० १ '
३) बाद में होने पर बीच में इ का आगम 'होता है । ईशिषे, ईशिवि, ईशिध्व,
ईशिध्वत् ।
(ग) शु (कहना) धातु में पित (मबल) हलाल तित् बाद में होने पर
बीच में ई का आगम होता है । ब्रवीमि (किन्तु ए:), अजीत ।
(घ) अधि-ती (आत्मनि, पढना) में अजादि तिर प्रत्यय बाद में होने
पर लद में ई को ईयर और लद में ऐ (अडागम का आ-मइ) को ऐर हो जाता
है । अधीये (लटू उ० (), किन्तु अधम । अजय (लड: उ० है ), किंतु मयेथ,
(म० १ ) ।
४. निम्नलिखित द्वित्व वाली धातुएँ यद्यपि अदादिगण में उहिलखित हैं,
तथापि जुहोत्यादि (तृतीय) गण के तुल' उनमें लद और लोट, प्र ० ३ में क्रमश:
अति और अतु लगते हैं तथा लद प्र० ३ में अत के स्थान पर उर (उ:) लगता
है:-चकासू (चमकना), जाए (घन धातु के जय रूप से) (खाना), जाए
(जागना, मृ धातु का यत् जुगल रूपा, दरिया (निर्धन होना) (दौड़ना अर्थ
नि. ४. ( ३४] धातुरूप ९३

वाली दा धातु का यत् लुगन्त रूप) । दरिदाति (लद प्र० ( ), दरिद्रति (लर
प्र०३), अक: (लड. प्र०३) : है
(का शासक (शासन करना) धातु में भी उपर्युक्त कार्य होते है । इसको
हलाल अमित (निकी) तित् बाद में होने पर शिप हो जाता है, शास्ति (लद
प्र० (), शिष्ट: (लद प्र०२), शासति (लटू प्र०३) ।
(आ)- है-गुह-यानि (तृतीय) गण
१. दा (देना) और धा (रखना) धातुओं का अक्ति(निर्वल) तिर प्रत्ययों
से पूर्व 'क्रमश: ददू और दम रूप हरे जाता है । तू और थक बाद में होंगे तो दम
को (नि० ६२ ख के विरुद्ध) यत् हो जाता है । दधामि (लर उ० : ), वि-तु,
दध्व: (उ०२), धत्थ: (म०२) । इनके पर० लगे म०१ में देहि (6.1111
के स्थान पर) और थेहि ((1111.1111.) के स्थान पर) रूप बनते हैं ।
२० मा (आ०, नापना) और हा (आ०, जाना) का सार्वचातुक लकारों
में क्रमश: मिमी और जिही रूप रहता है । बाद में कोई अजादि तिल होगा तो
अन्तिम ई का लोप हो जाएगा जिहते (लद प्र०३), जिह" सत (), जिसे
(उ०१) । अजिहत (लइ: प्र० ३), अजिहीथा: (म०१), अजिहि (उ०१) ।
३- हा (पय, छोड़ना) का अमित तिल बाद में होने पर 'जही' रूप
रहता है । वाद में अजादि तिल या यु, होगा तो ई का लोप हो जाएगा ।
जहाति (लद प्र० : ), किन्तु जहीर (प्र०२), जमी (प्रा, ३) । लोह म० :
में जहीहि रूप होता है है विधिलिद प्र० ( जपता उ० १ जहाज ।
(द) स्थाधि (पंचम) गण
१ . अनंत धातुओं के वाद तु के उ का विकल्प से लोप होता है, वाद में
द या२.यर हलन्त
हो तो धातुओं
। सुनोमिके (लट,
बाद नुउ०केहै उ
है को
किन्तुउद
औ:,
हो जाता
सुनुव:है,(उ०२)
बाद में: अजादि

तित् हो तो । शयनुवन्ति (लद प्र० ३) ।


३. धु (सुनना) और धु (हिलाना) का सार्वधातुक लकारों में पगु, और
पुनु रूप रहता है । ]
(ई) ख्याति (सप्तम) गण :
अजा (लीप), मजा (तोड़ना), और हिंसक (हिंसा करना/धातुओं में
९४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४. ( ३४

बीच में न विकरण लगता है और धातु के त का लोप हो जाता है, अनल-म


(लद उ० : ), भवा-औम (उ०१), हिबरिमाउ० () :
(उ) तनादि (अष्टम) गण
कृ (करना) धातु पित्त सार्वधातुक तिर प्रत्ययों से पूर्व 'करी' हो जाती
है और अर्पित (निर्बल) स्थानों पर 'कुरु' होती है । मू, यू और वल्कि बाद में होंगे
तो कुरु के उ का लोप हो जाता है है करोमि, कुरुथ: । किन्तु कुर्व:, कुर्म:,
कुर्यात् । इस गण की अन्य धातुओं में भी उ का लोप विकल्प से होता है,
बाद में वल्कि और मू हों तो, परि और सब उपसर्गों के साथ कृ का समास होने
पर कृ से पहले सू का आगम हो जाता है । परिस्कृत (अलंकृत), संस्कृत
(एकत्रित) । यह सू मौलिक नहीं है :
(की इयादि (नवम) गण
(. धु (हिलना), पू (पवित्र करना) और लू (काटना) को अव हो
जाता है है धुनामि, पुनामि, लुनामि ।
२. ज्ञा (जानना) को जा और यहा (पकड़ना) को यहा हो जाता है :
जानामि (लद उ०१), गृहाणामि (लद उ० १ ) (नि० ६५) ।
३. बन्धु (बाँधना) और मन्न् (मथका) के नू का लोप हो जाता है ।
बध्यामि, मआमि ।
सिर लकार (1112 11):1 10090)
( ३५. लिटर लकार धातु को द्वित्व करके या धातु के बाद आब लगाकर
बनाया जाता है है सामान्यतया धातुएँ प्रथम विधि को अपनाती हैं । णिन्
आदि प्रन्ययान्त धातुएँ द्वितीय विधि को अपनानी है । चार धातुएँ ऐसी हैं,
जिनके प्रथम स्वर दीर्ध हैं (१४० क, : ), इनके लिद के रूप आब प्रत्यय
लगाकर बनते हैं है
लिव के विशेष नियम
(जाय:" 101125 ल 1.101:1.1..1)
१. अभ्यास (द्वित्व का प्रथम अंश) के ऋ, ऋ और लु को अ हो जाता
है : जैसे-कृ करना) राप्रचकार; तु (पार करना) राज ततार, कहीं (समर्थ
होना) उचक-पे :
नि- ४- १३५] धातुरूप ९५

२- धातु के प्रारम्भिक अ और आ को आ होता है । जैसे-अद (खाना)


है-आद; आर (पाना) रारा-आप (देखो नि० : ०४ क, ()
३. यदि धातु का प्रथम स्वर इ है, तो उसे इ-टप-ई सवर्णदीर्ष होकर
ई हो जाएगा । यदि धातु के इ को गुण या वृद्धि होगी तो अभ्यास और धातु के
बीच में यू का आगम हो जाएगा । जैसे-इष, (चाहता) आपु: (लिह प्रद
(यह इ ]- इम-उ: के स्थान पर है) । किन्तु लिद प्र० १ में इयेष बनेगा ।
४. जिन धातुओं के प्रारम्भ में या मध्य में य या व है और जिनमें
संवरण होता है(देखो नि० १ ३७, स्था, ऐसी धातुओं में इ और उ के साथ
ही धातु को द्वित्व होता है । जैसे-यन (यज्ञ करना) उनेइयाज; वर (कहना)
रारा-उवाच ।
१३६. लिह लकार पररुमैपद का एकवचन पिर (सबल) होता है, जैसा
कि लद और लद परसीपद में एकवचन वित रहता है इसमें धातु पर उदात्त
स्वर रहता है, लिदर के शेष प्रत्यय अमित (निकी) हैं और इनमें तिल प्रत्ययों
पर उदात्त स्वर रहता है ।
पर-पद
एका' द्वि० बहु०
प्र० अ अतुपू१ उपू(१३१जी)
म० (इ) थ अयुर२ अ
उ० अ (इ) व (इ) म
आत्मनेपद
प्र० ए आते अरे
म० (इ) थे आये (इ) वि
उ० ए (इ) वहि (इ) महे
(का र (दौड़ना), धु (सुनना) अतु (स्तुति करना), खुश (बहता), कृ
(करना), भू (धारण करना), वृ (चुनना) और सू (जाना) इन आठ धातुओं
में हणादि तित् प्रत्ययों से पहले इ नहीं लगता है । आत्मनेपद प्र० ३ में इन
उ----------,
१. अपर और अय-र में तुर और धुर लद के तत् और थसृति० २, म०शुके समकक्ष
(जिनमें प्र०३ के उर के सादृश्य पर उर लगा है है अत: तब-तुर, चरा-धुर, है ।
९६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ४हाँ १३६

धातुओं में भी ई रहता है । शेष धातुओं में हलाल प्रत्ययों से पहले इ लगता
है ।२ परसीपद म० है में अन्य बहुत सी धातुओं स इ नहीं लगता है है आ
अन्तवाली धातुओं में थ से पहले इ विकल्प से लगता है । इ, ई और उ अन्त
वाली बहुत सी धातुओं से थ से पहले इ विकल्प से लगता है ।
पिव (सबल) अंग (मि, प्र००छ प्रज्ञा
१. नहम्व स्वर के वाद यदि एक व्यंजन होगा तो उसे एकवचन में सर्वत्र
गुण होगा । जैसे---: (चाहना) हैइयेष८, बुध, (जागना) रायदुबोधु । किन्तु
जीव, (जीना) का जिजीन् होगा ।
२- अत्-तम स्वरों को प्र० १ में वृद्धि होती है, म० : में गुण और उ०१
में वृत्त और गुण दोनों होते है । जैसे-द (जाना) रायइयाय । (प्र० (),
इयेथ (म० (), आय, इयय (उ० () : कृ (करना).-.' (प्र० (),
चकथ (म० १), चकार, चकर (उत () । 'ना ब
३. उपधा के अ को प्र० १ में नित्य और उ०१ में विकल्प से वृद्धि
होती है । जैसे-ल (मारना) है-जवान (प्र० (), जघान, जधन (उ० ():
४. आ अंत वाली धातुओं (तथा ए ऐ ओ औ अन्तवाली धातुएँ, जिनको
आ हो जाता है, नि० १२९द में प्र० १ और उ० १ में सन्त में औ लगता
है । म० : में अथ और इम दोनोंलगेगे (देखो नि० १३६ल का । जैसे---
धा (रखना)र्मिदधी
किन्तु का या तं
(प्र०१,
(पुकारना)
उ० १),दधिथ,
के रूप दधाथ
हू धात(म०मानकर
() । चलते है :

जूहाव (प्र०१) (देखो नि० १५४ क, ३)


अमित (निर्बल) अंग (1112 (य लिज') मैं चाई

: ३७. (१) इ, ई, उ, ऊ, और ऋ से युक्त धातुओं मेंसत्धि-नियमों के


अतिरिक्त अन्य कोई परिवर्तन धातु में नहीं होता है । जैसे-वृ-जि-बुबु-;
कृप्रचकृम; (तुरा::-' । जा
१. यह है (मवत: दा (देना) आदि धातुओं के अन्तिम आ के स्थान पर होत वाले
इसे आरम्भ हुआ है और वाद में अन्य धातुओं में यह प्रयोजन स्वर केरूप में
प्रयुक्तहोने लगता: है
नि० ४० १३७] धातुरूप ९७

(क) यदि अन्तिम इ, ई और ऋ से पहले एक व्यंजन हो और बाद


में कोई अजादि तिइ: हो तो इ ई को यति और ऋ को र होगा । यदि एक
से अधिक व्यंजन पहले होगा तो इ ई को इस और ऋ को य९ होगा तथा
उ ऊ को उद और ऋ को अर होगा : जैसे-नी (ले जाना) साने-नयु:; धि
(आश्रय लेना) --१शधियु:, कृ (करना) उत्: ; रह (फैलाना) रा-तब:,
यु (जोड़ना) प्रयुयुहु:, कु (बरना) जि-चकर: ।
(२ ) उपधा में अ वाली तथा अस्थात वाली धातुओं के अ और अता
निर्बल होते हैं 1
(क) जिन धातुओं में अ से पहले और बाद में एक व्यय होता है (जैसे
पत धातु) और जिनमें द्वित्व करने पर अभ्यास वाले अंश में कोई परिवर्तन
नहीं होता है (महाप्राण वर्ण, कवन और वल्कि से प्रपम्भ होने वाली धातुओं
को छोड़कर), उनमें दोनों वणों को एक वर्ण हो जाता है और उनमें ए की
मात्रा लग जाती है (लेटिन-हु-य टि८-1) २ । मल : में अथ बाद में
होने पर भी यह नियम लगता है । (जब विन, इ के थ का प्रयोग होता है,
तब सबल अग का प्रयोग होता है) । जैसे-य-पत् (पकाना) उपेचतु: (प्र० २),
पेत्रु: (य ३), पे-चय, पपवथ (म० () ; तत (फैलाना) लिनतृ:, तेगु:,
तेनिथ ।
(ख) जब (उत्पन्न होना) ( १ ३९, २) तथा अ उपधा वाली एवं कय
वर्ण से प्रारम्भ होने वाली खाता (खोदना), गए (जाना), प (खाना) और
हत (मारना), इन चार धातुओं में धातु के अ का लोप हो जाता है । जैसे---
जन्३जझे (आत्मने० प्र०१); जगाम (परा, प्र०१), किन्तु जब (प्र०३);
जघास (प्र० ( ), किंतु जरि: (प्र०३); जघान (प्र०१ ), किन्तु जानु: (प्र० ३)
(देखो १३४, २ गा ।
(गा व से प्रारम्भ होने वाली वर (कहता), वद (कहना), वर (बोना),
वन (रहना), वहा (ले जाना), इन पांच धातुओं में तथा यर (यज्ञ-गां,
१ यह ए स्वर सर (बैठना) आदि के लिद के निर्जल अम को-पलता 11.1)
आदि के सादृश्य पर होता है । इन स्थानों पर 112 को ए हो जाता है । (देखी
१३४, २ ख और १३३ अ १)
९८ संस्कृत-व्याकरण-निवेशिका [नि० उ. १ ३७

यम (बीधना), स्वर (सोना) और यहा (पकड़ना), इन धातुओं में संवरण


होता है । प्रथम पाँच धातुओं में उन-उटा: ऊ (नि० १३५, ४) एकक होता
है तथा पष्ट यत् में इन- इ-द-- ई एकादेश होता है । जैसे-उवाच (प्र० (),
किन्तु उदु: (प्र० त्, उ-मर.: के स्थान पर); दयाव (प्र०१), किन्तु
ईत्: (प्र०३, इ-ती-इबु: के स्थति पर); सुप्याप (प्र०१, नि० ६७), किन्तु
सुपुपु: (प्र०ये): जग्राह (प्र० (), किन्तु जय-हु: (प्र०३):
(घ) पकाई धातुओं के आ का लोप अपितु (निकी) तिकों में नित्य
होता है और परमा म० है में दिक-रीप से (देखो नि० १३६ क और (१३८,
३) ।
मिलर बलकार के द्वित्य वाले यन्तुरूप
(12..1...13 " 1110 1१लण्डक्रि:" 1यारिप्रा१)
१३८. (: ) तुम (दुर देना), वित अंग-धुनो-त्, अल अग- तुतृद :
पर-सेन
प्र ० तुतोद तुतुदतु: तुतुदु:
म० तुतोदिय तुतुदयु: तुतुद
उ० तुतोद तुतुदिव तुतुदिर
आत्मनेपद
प्र० तुतुदे तुतुदाते तुतुदिरे
म० २सदषे तुतुदाये तुतुदिवि
उ० द्वार तुतुदिवहे तुतुदिमहे
२, कृ (करना), वित अंग-चकर, चकार; अधि., चर
पर-पद
प्र ० चक[र चप: चर:
म० चकर्थ चक्र?: चक्र
उ० चकार, चकर चकृव चकृम

१ लेटिनबम:(1-111-14 11,()5ज
इब-है(1-:प्र1-1.
नि० ४. १३८] (मतुरूप

आत्मनेपब
प्र ० चके चकाते चक्रिरे
म० चकृषे बकाये कवि
उ० चके चकृवहे चकृमहे
३. धता (रखवा), पित-दवा, अमित-दद ।
परम-पद
प्र० दधी दधत: दधु:
म० दधिथ; दधाथ दधयु: दब
उ० दधत दधिव दधिम
आत्मनेपद
प्र० दधे दबते दधिरे
म० दधिषे दबाये दधि-वे
उ० दये दधिवहे दधिमहे
४. नी (ले जाना), अपर निभा निनी अपितु-निकी ।
परस्नेपद
प्र० निनाय निन्यतु: निस:
म० निनयिथ, निनेथ निन्ययु: निन्य
उ० निनाय, निनय निन्दिव निन्दिम
आत्मनेपद
प्र० लिये निन्याते निन्दिरे
म० निन्दित निन्याये निन्दिवि
उ० निन्ये निन्दिवहे निन्दिमहे
५. स्तु (स्तुति करना), पितृ-तपो, तुही; अपिइप्रटु ।
पर-पद
प्र० तुष्ट-व तुष्ट्रवतु: तुम्ह
म० तुष्ट" तुष्ट्रवयु: तु-हुव
उ० तुम, तुम तुष्ट्रव तुष्ट
: मा ० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४. की

आत्मनेपद
प्र० तुष्ट्रवे तुष्ट्रवाते तुष्ट्रविरे
म० तुष्ट्रषे तुन्दुवाथे तुष्ट्रध्ये
उ० तुष्ट्रवे तुष्ट्रवहे "महे
६. तब (फैलाना), पित-त्., तण; अमित-तेत ।
परमपद
प्र० ततान तेनतु: लेनु:
म० यथ, ततन्थ तेन?: तेन
उ० तताना बन तेनिव यम
आत्मनेपद
प्र० तेने तेनाते तेनिरे
म० तेनिषे तेनाथे तेनिच्चे
उ० तेने तेनिवहे तेनिमहे
७. गए (जाना), पित-जपु, जगत अजित-जल ।
पर-मद
प्र० जगाम जप: जानु:
म० जगन्थ जन्मयु: जाम
उ० जगाम, जंगम जसे जसे
आत्मनेपद
प्र० जाये जमते जरिमरे
म० जरिमषे जामाये जरिमशर्व
उ० जबसे जरिमवहे जरिममह
८. वर (कहता), पित-वजू, उ.; अस्ति-ऊन ।
परसेद
प्र० उवाच ऊचतु: ऊत्रु:
म० उवचिथ, उवक्य ऊचयु: ऊच
उ० उवाच, उवाच ऊचिव ऊचिम
आत्मनेपद
प्र० ऊचे ऊचाते ऊचिरे
नि० ४. १३८] धातुरूप १०१

म० ऊचिषे ऊचाथे ऊचिशवे


उ० ऊचे ऊचिवहे ऊचिमहे
अपवाद-नियम ("धिय"""")
: ३९. ( १) भन् (बीटिना) धातु यद्यपि महाप्रारावर्ण से प्रारम्भ होती है,
तथापि नियम १३७ (२, का के तुल्य इसमें भी अभ्यास (द्वि-पव के प्रथम
अंश) का लोप और भ के अ को ए होता है, जैसे-प्र, : में बभाज, किंग
प्र०३ में भेजू: । इसी प्रकार राज-चमकना)(उपधा में आ है) धाब, को नित्य
तथा त्रसू (डरना, प्रारम्भ में २ व्यंजन हैं) और भ्रम (घुमना, प्रारम्भ में
महाप्राण और दो द-अंजन है) को विकल्प से ए होता है और संयास-लोप
होता है । जैसे-प्र०१ आत्मने० राधा-रा-रेने; ए उत्.:, वेसु: (प्र०३);
भ्रमूप्रबभ्रमु:, कोमु: (प्र०३) ।
(२) यर (पहुँचना) और वन (कै करना) धातुएँ यद्यपि य और व से
प्रारम्भ होती हैं, तथापि इनमें संप्रसारण नहीं होता है और नि० : ३७ (२,
का के तुल्य अनास-लोप और ए होता है । यब प्रययाम (प्र० (), किन्तु
येये (आ०, प्र०१); वन प्रववाम (प्र०१), किंतु वेमु: (प्र०३) । वसू
(आ०, पहनना) धातु में न सप्रसारण होता है और न ए ही होता है । वसु
यववसे ।
(३ ) विद (जानना) में बिना द्वित्व के जिद, का रूप बनता है और लटक
के तुल्य अर्थ होता है । वेद (उ०१, मैं जानता हूँ) (जर्मन--.)), वेत्थ
(म०१), वेद (प०१), विदम (उ० ३, जर्मन-जाय), विद ( म० ३ ),
विदुर (प्र० ३) ।
(४) चि (इकटूठा करना), जि (जीतना), हि (भेजना) और हत
(मारना) में धातु को मूल कवन वर्ण हो जाता है । चि प्रचिकाय, जि राड
जिगर हि जि-जिव, हर जि-जघान (देखो नि० : ३७, २ खा ।
(५) अल (कहता) अपूर्ण धार है और इसके रूप प्रथम पु० १, २, ३
और म० (, २ में ही चलते है । प्र०--आह, आहत:, आहु:, म० रे-आप-थ,
आहयु: ।
(६) अंश, (पहुँचना) में अभ्यास में आब रहता है और धातु के अनुस्वार
: ०२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४. १ ३९
सहित स्वर अं को द्वित्व होता है, किन्तु अमित स्थानों पर धातु के अनुस्वार
का लोप हते जाता है । जैसे-पर, प्र० : आनन आ० प्र०३--आनशिरे ।
अचर (पूजा करना) में भी इसी के अनुकरण पर अभ्यास में आत रहता है ।
अबू प्रआनर्च (प्र०१) ।
(७, भू (होना) में दो अनियमितताएं है-ना : ) अभ्यास में ऊ के स्थान
पर अ रहता है, (२) धातु में सर्वत्र ऊ बना रहता है :
प्र ० बभूब बभूवृतृ: बभूहु:
म० बभूविथ, बभूथ बभूवृयु: बभूव
उ० बभूव बभूविव बभूविम
आब-प्रत्यय" जिद (12.1.-12 "श्रीश्री)
: ४० . जिन धातुओं में द्वित्व नही होता है, उनमें भाववाचक स्वीलिग
शब्द का द्वितीया एक० का सुर आब लग जाता है और उसके बाद कृ
(करना), अप (होना) और भू (होना) के लिटू के रूप लग जाते हैं । यह
रूप सकर्मक कृ (करना) धातु के संयोग से प्रारम्भ हुआ । जैसे-गमयचिकार
(उसने जाने का काम किया, अर्थात वह गया) । किन्तु श्रेण्य संस्कृत में आत्
प्रत्ययान्त के बाद अब धात के जिद का प्रयोग अधिक मिलता है, अन के
बाद कृ और भू का प्रयोग कम मिलता है, आत्-प्रत्यय' जिद का प्रयोग
अधिक): चुरादिगणी णिचू, प्रेरणार्थक शिर और नामआतृ-णिचाअय) के
बाद मिलता है । जैसे-बोधयामास (उसने जगाया) । सब और यत् प्रत्ययान्त
के बाद आब वाले रूप बहुत ही कम मिलते हैं ।
(का निम्नलिखित कुछ धातुओं से आबयत्ययान्त लिद बनते हैं :
(: ) दीर्घ स्वर से प्रारम्भ होने वाली आए (बैठना), ईयर (देखना),
उभर (छोड़ना) और एन् (समृद्ध होना), इन चार धातुओं से । जैसे-आसू
जि-आसी चखने (वह बैठा)
(२) द्वित्व हुई धातु चकार (चमकना) और जाए (जागना) (यह वस्तृल
यत्लुगन्त धन है, नि० १ ३४ अ ४ ) धातु से । जैसे-चकार प्रचकासई
चकार, जाए प्रजागरामास ।
(३) भू (धारण करना) तथा रामायण और महाभारत में नी (ले जाना)
नि० उ. १४०] धातृरूप १०३

एवं इं (पुकारना) से विकल्प से आत्-प्रत्यय लगता है । भू है-रिभर: बभूव,


बभार; (जनि धारण किया); (अप) नी प्र (आ) नय., निकाय (वह
लाया); की प्रन्द्रहुयामाम, बहाव (उपने पुकारा) ।

आरि-प्रत्यय" धानुरूप
(1प्रिजिताहे१० 0, 1112 1.19111..12 मटा-रि'")

पर-पद
प्र० गोधयामास बन्दियामासतृ: बोधयामासु:
म० बोध-सिथ बोधयामासयु: बोधयामास
उ० बोधयामास बोवयामासिव बोधयामासिम
(: (पय)
१४१, ग्रीक के तुल्य संस्कृत में भी दो प्रकार के लुइ: है । एक वर्ग में
धातु और तिद प्रत्ययों के बीच में स, (ऊजा वर्ण) लगाय, जाता है और दूसरे
वर्ग में धन और सिर प्रत्ययों के बीच में संयोजक अ लगाया जाता है
या संयोजक अ के बिना ही रूप बनत, है । दोनों वर्ग के लुत् में धातु से पहले
अ लगता है और इस अ पर उदात्त स्वर रहता है । इनसे गौण तिर प्रत्यय
लगते हैं । प्रथम वर्ग के लुत् के चार भेद है और द्वितीय वर्ग के तीन । इस
प्रकार लुत् के सात भेदतुरहोते
का हैंप्रथम
। वर्ग (आ 401.1;)

(क) प्रथम भेद में धार से पहले अ लगेगा और धात तथा तिर के
बीच में स प्रत्यय लगेगा । इसके रूप ध्यादिगणी धत्त के लद लकीर
(अभवत्) के तुल्य चलेंगे । आत्मनेपद में प्र०२, म०२ और उ० : में द्विप के
लड़:, के तुल्य रूप चले-गे, अन्यत्र स्वादिगण के तुल्य । यह स प्रत्यय श, और ह,
अन्त वाली) इस हठ को कू होकर कुआ-स-च-क्ष होता है, देखो नि० ६ ३ ख;
६९ का कुछ थोडी ही धातुओं से होता है, जिनकी उपधा में इ, उ या ऋ
होता है । इस इ उ यता ऋ में कोई परिवर्तन न-हीं होता है । जैसे-मंदर
(बताना) हैअदिक्षत (प० :) । च का यह भेद ग्रीक के लुट के प्रथम भेद
से मिलता है [ (लेटिन-जोय) ।
हैं ०४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० (. १४१

परमपद
प्र० अदिक्षत अदिक्षतन अदिक्षत
म० अदिस: अदिक्षतत् अदिक्षत
उ० अदिक्षार अदिक्षाव अधिक्षाम
आत्मनेपद
प्र० अदिक्षत अतिक्षातात् अविक्षन्त
म० अदिक्षथा: अदिक्षाथान् अदिक्षध्वन्
उ० असल अदिक्षावहि अदिक्षामहि
(ख) इसी प्रकार दुह, (.) धात के रूप चलते हैं । इसका अंग अ९युक्ष
(नि० ५५) होता है । जैसे-अमर (पर० उ०१), अभिहित (आ० उ० : ) ।
१४२. प्रथम वर्ग के अन्य तीन भेदों में धातृसे पहले, लगता है और बाद
में सू, इन् और असर प्रत्यय क्रमश: लगते हैं । इनके रूप अदादिगण, धातु के
प: के तुल्य (जैसे-शिर उअढेषत्) चलते हैं । कुछ आकारान्त धातुओं से
पर० में ही सिर प्रत्यय लगता है, धातु में कोई परिवर्तन नहीं होता है । सु
और इन् प्रत्यय आ-भिन्न अजन्त और हलन्त धातुओं से होते हैं । दोनों
प्रकार के रूपों में पर० में सर्वत्र धातुओं को वृद्धि- होती है । (इम-प्रत्यय वाले
रूपों में उपधा के स्वर को वृद्धि न होकर गुण होगा) । आत्मनेपद में सर्वत्र
गुण होगा (सू-प्रत्यय-ले रूपों में उपधा के रुम और अवि-नम ऋ में कोई
परिवर्तन नहीं होता है) । इन तीनों भेदों में पर० प्र० : में ईद और म० १ में
ईसू लगता है । प्र० ३ में इनमें उर लगता है ।
द्वितीय (या सा भेद (9.11 निभा दु-सिमि')
१४३, (:) नी (लेजर, अजन्त धात, काउदाहरण :
पर-पद
प्र० अनैषर अखर अनैधु:
म० अनैषा: अनीता अनैष्ट
उ० अनषब अनाथ अनाम
नि० ४- १४३] परे १ ०५

अ(त्मनेपद
प्र० अनेष्ट अनेषातान् अतीत
म० अनेका: अनेषाथात् अनेस्था
(६६ आ २)
उ० अनेषि अने-हि अनेष्महि
(२) हिर (काटना), हलन्त धात का उदाहरण :
पर-पद
प्र० अचाबत्सीत आचमन (६६ आ २) अउछैत्सु:
म० अयर्षत्सी: अउर्शत्तए (६६ आ २) अकल( ६६आ में)
उ० अउछैत्सए अ-रा-लै-लव अव-दै-म
आत्मनेपद
प्र० अति-सरना (६६ आ २) अरि२छत्साताए अधिछत्सत
म० अकिछत्था: (६६ आ २) अरिछत्साथाए अधिछदूध्वत्
(६६ आ २)
उ० अन्दिकीस अडिछत्स्वहि अलिछत्स्महि
(का ऋ पन्तवाली कृ (करना) धातु के रूप भी इसी प्रकार चलते हैं:
पर० अकबर (प्र० : ), अकल: (म० : ), अगम (उ० १ ) आदि ।
आत्मने० अकृत (प्र०१), अकृथा: (म०१), अकृषि (उ० १) । अकृत और
अकृथासे ये दोनों रूप वस्तुए सू-भेद के उदाहरण नहीं हैं । ये सू-रहित वर्ग
(प" 4..18:, १४८) के द्वितीय भेद से गृहीत है । इनमें आत्मनेपद में गुण
नहीं होता है ।
सू-मेद के अपवाद-नियम
(1..11.11115 " 1112 आग")
१४४. (१) (का सू प्रत्यय से पूर्ववर्ती धातु के अन्तिम त और मू को
अनुस्वारहोजाता है (देखो नि० ६६ अ २) । जैसे-मत (सोचना) जि-पत
(प्र० १) । रब प्रसन्न होना) रारा-अरसे (प्र० १, नि० ४२ आ : ) । (खा वसु
(रहना) के सू को तू हो जाता है । वसु जि-अवा-दसर (प्र० (, नि० ६६ आ : ) ।
(२) ध्वज प्रत्यय को ढब हो जाता है, यदि उससे पूर्ववर्ती सु का लोप
१०६ संस्कृत-रखा-मप्रवेशिका [नि० ४. १४३

हुआ हो । यह सू यदि रहता तो ष, होकर रहता (नि० ६६ आ २) । जैसे-


नीप्रअनेढ़र (अ-ने-पू-र के स्थान पर) । कृ राहैअकृढ़र । अ-कृ-प-पर
के स्थान पर ।
( ३) (उ०) दा (देना), था (रखना) और स्था (रुकना) के आ को इ हो
जाता है, आत्मनेपदी निडर बाद में हो तो (देखो नि० : ३६ अ, टिप्पणी २) ।
परयपद में इनमें द्वितीय वर्ग के तित् प्रत्यय लगते हैं । (नि० १४८) । जैसे
मदा राना-अदिल (प्र०१), अदिथा: (म०१) (नि० १४३ का, अविधि (उ० (),
अक्रिवहि (उ०२) आदि ।
(४) दृशु (देखना), सून (बनाना) और स्मृशच (छूना) धातुओं में ऋ को
वृद्धि और वर्ण-विपर्यय से परसीपद में 'रा' हो जताता है । जैसे-षा प्र
अखाक्षीत् (प्र०१) (नि० ६३ क, टिप्पणी २), अखवार (प्र० २, नि० ६३
क, ६६ आ २), अमरा: (प्र०३) । आत्मने० अह (प्र०१), राष्ट': (म०
(), असृक्षि (उ० () आदि ।
(५) दहा (जलाना) और रुप (रोकना) धातुओं में कुछ सन्धि नियम
(नि० ६९ क; ६२ खा लगते हैं, अत: इनके तुल के रूप कुछ कठिन हैं ।
जैसे-- बहा धातु (परा, )
प्र० अधाक्षीश अदाश्चात् अधार:
म० अधाक्षी: अदाग्धब अदाग्य
उ० अधाक्षब अधाक्ष्य अपर

आत्मनेपद
प्र० अदम्य अधक्षातात् आवत
ममा अदम: अधक्षाथाब अधर-ए (६२ का
उ० अधजि अधक्ष्यहि अधक्ष्महि
रुप धातु --पर०
प्र० अरीत्सीत् अरीद्धत अरी-चु:
म० अरोंत्सी: अरम अरीद्ध
उ० अर-सब अरी-रव अरी-लम
नि० ४. १४४] धातृरूप : ०१9

आत्मनेपद
प्र० अरुद्ध अरुत्साताब अरुत्सत
म० अरु-द्वा: अरुत्साथामू अरुदूध्यत्
उ० अहाता अरु-वहि. अरुत्स्मन्दिह
तृतीय या इम-भेद (111.1 ०र 1:.01)
१४५. इस भेद में और सू-भेद में अन्तर केवल यह है कि इसमें सू से
पहले संयोजक 'इ' लग जाता है । इस 'इ' के कारण सु को ष, होकर इष, हो
जाता है (नि० ६७) । प्र०१ और म०१ के अत्यत्वयव क्रमश: ईत् और ईत्
(इफ-त और इम-मसच के स्थान पर, देखो नि० २८; २५०) । श्रेण्य संस्कृत
में इद-भेद वाली पररमैपदी अजल धातु संभवत: कोई नहीं है, जिसका प्रयोग
मिलता हो । प्राचीन संस्कृत में केवल एक र (पवित्र करना) धातु है, जिसके
दोनों पदों में ऋ-भेद वाले रूप प्रमत (नाते है । अत: दोमरों पदों के धातुरूप के
उदाहरणार्थ उसे ही अपनाया गया है ।
पू-धातु-परस्नेपद
प्र० अपावन अप/विल अपाधिधु:
म० अपाबी: अपावित्व अपार
उ० अपाविषब अपाविष्य अलबम
आत्मनेपद
प्र० अपना अपविषातान् अपविषत
म० अपविष्ठा: अपविषाथावर यपविषे१वए
(१४४, २)
उ० अपविषि अपविध्वहि अपविष्यहि
(क) बुधु (जानना), हलन्त धातु का एक उदाहरण है । इसमें पर० में
वृद्धि नहीं होती है (नि० १४२) ।
बुधु धातु-पर-पद
प्र० अबोधीत् अबोधिश्यर अबोधिधु:
म० अबोधी: अबोधिष्टए अबोधिष्ट
उ० अबोधिषध अबोधिष्य अबोधिष्ण
१०८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४. १४५

आत्मनेपद
प्र० अबीधिष्ट अबोधिषावाए अबोधिषत
स० यधिष्ठा: अबोधिजाथान् अबोधिढ़र
(: व्य४, २)
उ० अबोधिषि अबोधिष्यहि अयोधिशमहि
(खा मद (प्रसन्न होना) और वद (बोलना) धातुओं को पररुमैपद में
वृद्धि होती है । जैसे-अम?: (प्र० ले), अवादीत (प्र०१ ) ।
चतुर्थ या सिम-भेद (पल ०हीं उ"-०मि१)
१४६. इद-भेद से इसमें अन्तर यह है कि इसमें इत्र से पहले एक सू और
लग जाता है । इसके परमपद में ही रूप चलते हैं । आ अन्न वाली धातुओं
में ही यह भेद लगता है । ऐनी धातुएँ संख्या में ६ से अधिक नहीं हैं । उदा
हरणके रूप में 'या' (जाना) धातु ली जा सकती है ।
या धातु- पर-पद
प्र० अयासीत् अयासिहात् अयासिधु:
म० अयासी: अयामिष्टर अयासिष्ट
उ० अयाभिषध अयासिशव अयामिशम
प्र, कर द्वितीय वर्ग (बि"" 40.)
१४७. यह भेद धातु से साक्षात बने हुए लड:, लकार के तुल्य है । इसमें
धातु और तित् प्रत्ययों के बीच में संयोजक स्वर 'अ' लगता भी है और नही
भी ।
प्रथम भेद (थ वाला भेद) है यह भेद तुदादिगण. धातु के लार लकीर के
तुल्य होता है : इसमें धातु और प्र, के बीच में 'अ' लगता है और धातु में
कोई अन्तर नहीं होता । यह ग्रीक भाषा के तुत् के द्वितीय भेद के समकक्ष है ।
सिर (सींचना) धातु के अ-भेद के रूप:
सिर आत-पर-मद
प्र० असिचत असिचतामू असिचत्
म० अमिच: असिचतब असिचत
उ० अनिल असिचाव असिचाम
नि० ४. १४७] धातृरूप १०९

आत्मनेपद
प्र० असिचत असिचेताए असिचन्त
म० असिचथा: असिचेथान् असिचध्वए
उ० असिचे असिचावहि अमिचामहि
अपवाद-नियम (साय'""-)
(क) (: ) रखा (कहता) में आ के स्थान पर अ हो जाता है : क्या जिय
अयन । (२) दृशु (देखना) में गुण होता है । द्वार प्रअदर्शव । (३) अन
(फेंकना) में धातु और तिड:: के बीच में थ, और लग जाता है है असू राय
आस्था' । (४) पत् (गिरना) और वन (कहना) में द्वित्व होकर संक्षिप्त
रूप रहता है : पत रायअपप्तत्, अपरे; वचुहैअबोचतृ, अवर (पर्ण-वर्ण
उत्-मअब के स्थान परा ।
द्वितीय भेद (5220-1 सिमि३)
१४८. इस भेद में अ-रहित धातुरूयों में लगने वाले लद उतार के तित्
प्रत्यय धातुओं से-लगते हैं । यह भेद ग्रीक भाषा के अ-रहित धातुरूपों के पर
के द्वितीय भेद से मिलता हुआ है । जैसे-धा प्रख्यात (रखा), स्था उ-अस्थात
(वह रुका), गा जि-अगाह (वह गया), भू उ-अभूत (वह हुआ) । अता अन्तवारी
कुछ धातुओं और भू (होना) धातु में यह भेद लगता है । प्र० ३ में उर से
पहले आ नहीं रहता है, अन्यत्र धात्का आ शेष रहेगा । यह भेद आत्मनेपद में
नहीं होता है (देखो निष्ठ १४३ क; १४(३)
१- दा (देना)-."
प्र० ख्यात अदाताब यदु:
म० अदा: अदब अदात
उ० आर अदद अवाम
२. भू (होना)----"
प्र० अभूत अभूतामू यभूवन्
म० अभू: अभूत्, अभूत
उ० अभूदब अभूव अभूम
बस-मबब-मममम
१. आम में संभवत: मथा (रुकना) धातु है और इसमें अख्यात् के तुल्य आ को अ
हो गया है
१ :० संस्कृत-ठाम-ण-प्रवेशिका [नि० ४- १४९

तृतीय या द्वित्ववाला भेद


(1111-1 गुर 1.111911..1 यशा)
१४९. मूल धातु दू (पीना) और की (जाना) को छोड़कर यह भेद
अय-प्रत्यय. (वृरादिगण और णिजन्त) धातु से होता है । धातु का द्वित्व
वाला अग विचित्र प्रकार से बनता है और अन्त में 'अ' लगता है । अ-युक्त
धातुओं के लद लकार के तुल्य इसके रूप चलते है । श्रेण्य संस्कृत में ४० से
अधिक धातुओं में यह भेद लगता है ।
द्वित्व के कुछ विशेष नियम
(. अभ्यास (द्वि-त्व का प्रथम अश) में अ, आ, ऋ, 'तर और लू के स्थान
पर इ हो जाता है ।
२. यदि अनाम का स्वर दीर्ध नहीं है तो उसे दीर्घ हो जाता है ।
धातुरूप के प्रथम तीन वणों में जगण (लधु, गुरु, लघु, ।प्रा) का क्रम
रहता है । जैसे-जत जि-अजीज?, ग्रह, २यअजीग्रहन्, कि उअशिधियत्,
विशु जिनअबीविशगुदृशु राज अबी-पत्, दृ उअदीदरत्, दू रार अदुदृवत्, मुर प्र
अदत्, पंप, रायअचीवलुपत् ।
मुच, (छोड़ना) अंग-अशाच

पर-पद
प्र० अमूमुचन् अमूमुचताब अमूमुचन्
म० अमूमुच: अमूमुचए अमूर
उ० अमूमुचब अमूमुचाव अमूमुचाम
आत्मनेपद
प्र० अमूमुचत अमूमुचेतान् अमूमुचन्त
म० अमूमुचथा: यमुमुचेथापू अमूमुचध्वए
उ० अमूमुचे अमूमुचावहि अमूमुचामहि
अपवाद नियम (1.811.11125)
(का ( १ ) रार (सफल होना) और व्यन् (बी-धना) में धातु के स्वर को
डाव हो जता है, जिससे उनकी स्वर-गति संतुलित हो जाती है । रस राज
अरी., प्यार उअबीविधत (देखो नि० १ ३३ आ २) ।
नि० ४. १४९] धातुरूप : :१

(२) दीपू (चमकना) और मील (कांख बन्द करना) में धातु के दीर्ध
स्वर को हम्व नहीं होता और अभ्यास का अव स्वर अस्त्र ही रहता है ।
इस प्रकार दोनों स्वरों का परिमाण अभेद से सामान्य परिमाण के बराबर
ही रहता है, अर्थात हम और दीर्घ । बीर राज अदिदीपतृ, मीत राज अमिमीलत् ।
आयद पम":' ०र 10.1.2)
: ५०. श्रेष्य संस्कृत में इनके पररर्मपद का प्रयोग बहुत कम मिलता है
और आत्मनेपद का प्रयोग सर्वथा नजरों मिलता । यह वच: वितियर्थक तुष्ट
है और धातु के "बाद उ: प्रत्यय साक्षात मिलाकर बनायाजाता है । अ-रहित
धातुरूपों के विधिलित् में लगने वाले निडर प्रत्यय आने इसमें भी लगते हैं ।
अन्तर केवल इतना है कि या और नि: प्रत्ययों के बीच में सू और लग जाता
है । प्र० : और म०१ के अन्त्यावयव यार (या-रि-ता-य-न्यास, के स्थान पर,
देखो नि० २८; १हुँ५) और यार (या-सम के स्थान पर) हैं और ये दोनों
अन्त्यावयव विधिलिह के अन्तिम अवयव से यथा मिलते हैं (नि० १ ३ : ) ।
बुधु (जागना) के पर० आणीलिइ: के रूप ये ह-गे त--
बुधु-धातु --शआलर
प्र० बु-यात बुध्यारतात् बुध्यासु:
म० बुवा: बुध्याम्तत् बुध्यास्त
उ० ब-यासर बुध्यारुव बुध्यारुम
खुर सकार (91111: जिप)
: ५१ : पद अकार के रूप धातु के बाद मय लगाकर या दृष्य लगाकर
बनाए जाते है और इसके रूप भाजिगण के लद के तुल्य (भवति) चलते हैं ।
ऋ अन्तवानी धातुओं को छोड़कर अधिकांश अजमत धातुओं के बाद क्रिय'
लगता है । बल धातुओं में आये से अधिक धातुओं में 'जय' लगता है ।
शिर आमद प्रत्ययान्त धातुओं में 'दृष्य' हरे लगता है ।
(का धातु के अन्तिम स्वरों को तथा उपधा के अव स्वर को गुण होता
है । जैसे-इ (जाना) हो-एष्यति; बुधु (जागना) उभी-लगो, (नि० ५५);
रुम (रोकना) उरोत्स्वति; कृ (करना) रारा-करिष्यति; भू (होना) प्रभवि
आत ।
: १२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४ : ५१

( : ) बहुत सी धातुओं में स्य और इष्य दोनों लगते है । जैसे-दहा


(जलाना) जि-धक्ष्यति (५५) और दहिष्यति ।
(२) अय-प्रत्यय" धातुओं में आर शेष रहेगा और अन्तिम अ का लोप
हो जाएगा । जैसे-चल (चुराना) प्रचीरयिध्यति ।
दा (देग-पर-पव
प्र० दास्यति दास्का: दास्यन्ति
म० दायर वामम: दाम्यथ
उ० दास्यामि दास्थाव: दास्थाम:
आत्मनेपद
प्र० दास्यते दर दास्याते
म० दारयसे दाय दमकते
उ० दासी दास्थावहे दास्यामहे
अपवाद-नियम (1.:.1.122)
(ख) ( : ) स्य से पहले बहुत सी धातुओं में यर के स्थान पर 'र' शेष
रहता है (नि० १४९४) । ये धातुएँहैं---हुन् (देखना), सुन (छोड़ना, निकट
लन) सूर (रेंगना) और स्मृशु (अना) । दृन्प्रद्रक्ष्यति (६३ ख), मृन् अ-
(यति, (६३ क), सृपू.प्रत्मयति, स्मृशु प्रम्प्रम्यति ।
(२) कुछ धातुओं में मय से पहले त का आगम हो जाता है । नए (नष्ट
होना) जि-नइ-यति और नशिष्यति; मजाक (मना) जि-मइहि-यति ।
( ३ ) वसु (रहना) के सू को तू हो जाता है, बाद में स्य हो तो । वन् प्र
वत्स्यनि (६६ आ () ।
( ४) यहा (पकड़ना) धातु में रथ से पहले इ के स्थान पर ई लगता है :
ग्रहाप्रग्रहीष्यति (देखो नि० १६०, ३का ।
खुद लकीर (1.111-62 1जब०)
१५२. यह अकार धातु से कथ-बोधक तु-प्रत्यय ( १०१) प, प्रथमा
एक० 'ता' के बाद अब (होना) धातु के लद लकार के रूप लगाने से बनता
है । प्र० २ और ३ को छोड़कर शेष सभी स्थानों पर 'ता' ही लगता है :
प्र०२ और ३ में तू का द्वि० और बल अर्थात तारी, तार लगते हैं । परते
नि० ४-१५२] धातृरूप : १३
पद में ही तुटू का प्रयोग मिलता है । लगभग ४० धातुओं से, मुख्यतया रामा
यस और महाभारत में, लुट, लकार के रूप मिलते है ।
(क) धातु को गुण होता है और बाद में इ-सहित या इ रहित 'ता'
लगता है । इ का आगम बहुत कुछ खुद लवर (स्य से पूर्व) के तुल्य होता
है । ऋ अ-सवाली धातुओं में तथा-गए (जाना) और हर (मारना) में तर
से पहले इ नहींलगता है । जैसे-कृ है कर्तारिम (किन्तु पद में करि-यामि);
गए अगा-ताई (किन्तु लूटते में गमिध्यामि) ।
भू (होना) सुदर-परम-द
प्र० भविता भवितारौ भवितार
म० भवितासि भविता-थ: भवितास्य
उ० भवितारिम भवितास्व: भवितास्म.
इ (जाना) लुट-रसेन
प्र० एता एकांत एतद
मल एतासि एतारथ: एतना
उ० एतय एत-व: एतास्म:
लुक लकार निभा-मिय)
: ५३. यह भविष्यत का भूतकालिक प्रयोग है । अर्थ होगा-ऐसा हुआ
होता' । लहर लकीर को ही भूतकाल बना देने पर इस अकार के रूप बनेंगे
और स्वादिगण लद के तुल्य (अभवद आदि) इसके रूप चलेंगे है इसके परमा
में भी बहुत कम रूप मिलते हैं तथा आत्मनेपद में तो और कम रूप मिलते
हैं । इसका मुख्यतया प्रयोग रामायण, महाभारत और नाटकों में ही मिलता
है । इसके उदाहरण हैं :--भू (होना) ।
(पद-भविष्यति) लहु-मभविष्यत (प्र० (), अभविष्य: (म० (),
अभविर (उ० () आदि । (लड आत्मने०)---अभविष्यत (प्र० (), अभविवि
(उ० () आदि । इ (जाना) (लइ-एष्यति, एध्यामि) लुत्--ऐष्यव (प्र०
(), ऐष्य: (म० (), ऐपन (उ०१) आदि । आत्मनेपद----ऐष्यत (प्र० ११
ऐल (उ० () आदि :
१ १४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४.(५४

कर्मवाक्य (.55.-2)
१५४ख कर्मवाव्य में आत्मनेपदी तिर प्रत्यय लगते है । सार्वधातृक लकारों
में और तुष्ट प्र० : में इसका अंग भिन्न होता है । दिवादिगण की आत्मनेपदी
धातुओं से केवल स्वर में अन्तर होता है । जैसे-नहा (भि-पते (वह अंधिता
है), नहाते (वह बाँधा जाता है) ।
धातु में 'य' लगता है । य से पहले धातुओं में ये परिवर्तन होते हैं :
( : ) धातु का अन्तिम अना (या एर अर्थात ए ओ ऐ औ के स्थान
पर होने वाला आ, नि० १२९, ८) आ ही रहता है या उसे ई हो जाता है ।
जैसे-ज्ञा (जानना) प्रज्ञायते; पा (पीना) प्रपीयते; गा (गाना) (या गा प्र
गोते ।
(२) धातु के अन्तिम इ और उको दीर्घ हो जाता है । जैसे-इ (जाना)
जि-ईयते; चि (इका-ठा करना) 1प्रचीयते; स (सुनना) उश्रुयते :
(३ ) धातु के अन्तिम ऋ से पहले एक व्यंजन होगा तो ऋ को रि होगा
और दो व्यंजन पहले होंगे तो ऋ को यर होगा । जैसे-कृ (करना) प्र
क्रियते; किन्तु यब (स्मरण करना) प्रस्मर्यते 1
(४) धातु के अन्तिम ऋ को ईद होता है, यदि पवन पहले होगा तो लर
होगा । जैसे----, (बना) रा-जय; स्त० (फैलाना) प्रस्वीर्यते; किन्तु पृ
(पूरा करना) रारा-पूति ।
( ५) हलन्त धातुओं की उपधा में न् होगा तो उसका लोप हो जाएगा ।
जैसे-- भर (तोड़ना) प्रभ-जयते ।
(६) जिन धातुओं में संप्रसारण हो सकता है, (नि० १ ३७, श्या, उनमें
संवरण होगा । जैसे-यर प्रइज्यते; वह रा-उच्यते; यहाउ-गृह्यते; स्वर जिने
सुनते ।
(७) अय (णिचू)--प्रत्ययान्त धातुओं में से अय' का लोप हो जाता है
और धातु अपने पित (सबल) रूप में विद्यमान रहती है । जैसे-वीरय राज
चोकी; कृ-मरित-च-मय प्रकाश :
नि० ४.प्र ५४] धातुरूप ११५

भू (होना), कर्मवास्य
लद
प्र० भूयते भूयेते भूयन्ते
म० भूयसे भूय भूयच्चे
उ० भूये भूयावहे भूयामहे
लइ:
प्र० अभूयत अभूयेताम् अत्यन्त
म० अभूयथा: अभूयेथाब अभूयध्यब
उ० अभूये अभूयावहि अभू/हि
लोद
प्र० भूयतान् भूमेताब भूयंताब
म० भूयस्व भूयेथाम् भूयध्वब

उ० भूय भूयावहै भूयामहै
विधिलिर
प्र० भूल भूयेयातन भूयेरन्
म० भूयेथा: भूयेयाथया भूयेशवए
उ० भूयेय भूयेवहि. भूयेमहि
अपवाद-नियम (1..11.122)
(का (:) खत (खोदना) और तत (फैलाना) के दो रूप होते हैं है खार
प्रखन्यते, खाए तब अन्यते, तायते । जव (पैदा होना) का जायते (पैदा
होता है) रूप बनता है । (वच: यह दिवादिगण. आत्मनेपदी था है, देखो
नि० (२)
१३३जातआ २)(आज्ञा
। देना) के दो रूप होते हैं । शासक राप्रशास्यते, शिध्यते

(देखो नि० १३४, ४क) :


(३) अ (पुकारना) (या वं धातु) का हूयते रूप बनता है (देखो नि०
१३६, था और वा (या वे) (बुनना) का मते रूप होता है ।
कर्मवाक्य तुष्ट (है०य "जीम)
१ ५५. लुत् आत्मनेपद के रूपकर्मवालय तुल का काम देते हैं, केवल प्र० :
१ :६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४.( ५५

में कर्मवाव्य का विशेष रूप बनता है, खुर प्र० : में था से पहले अ लगता
है और अन्त में इ प्रत्यय लगता है । इस 'इ' से पहले धातु के अन्तिम स्वर को
वृद्धि होती है और धातु की उपधा के अव स्वर को गुण होता है । उपधा
के अ को आ हो जाता है । धातु के अन्तिम अ, के बाद य, का आगम होता
है । जैसे-धु (सुनना) उअआवि; कृ (करना) राम अकारि; पद (चलना) प्र
अपादि; विशु (प्रवेश करना) व अवेशि; मुन् (छोड़ना) राज अमोचि; ज्ञा
(जानना) प्र अज्ञात ।
( १ ) निम्नलिखित धातुएँ उपर्युक्त नियम की अपवाद हैं :
( () रत (आरम्भ करना) धातु में तू लग जाता है, अररिभ ।
(२) भी (पूरा करना) प्र अपार (देखो नि० १५४, सा । (३) गम
(जाना), रन (बनाना) और वधू (मारना) में अ को आ नहीं होता । गए जिने
अगमि, रन् राय अरचि, वह जिने अवधि । (४) 'अद-प्रत्यय. धातुओं के
अय का लौप हो जाता है (देखो नि, १५४, ७) । जैसे-रुको (चढना) से
प्रेरणार्थक रोपय प्रअरोपि ।

यल-प्रत्यय: शत्, आनद कत्वा, पर और तुमुन्


(1....1., जैप्र००41ड़ 1111.1 1०शिभीश्चि)
( () कत/वा-कय कृत प्रत्यय (शब, कासु)
(सेर "यय"')

१५६. लटू (वर्तमान) और लुट, (भविष्यत) परमपद के प्याप्रत्ययान्त


रूप बनाने के लिए धातु के बाद अत लगाया जाता है (नि० ८५) । लटू और
खुद के प्र० पु० बहुवचन के रूप में से अनि-तम इ हटा देने से सबल अंग प्राप्त
हो जाता है । अतएव जुहोत्यादि (तृतीया गण की तथा अन्य द्वित्व होने वाली
धातुओं ( १ ३४ अ ४) में लटू के स्थान पर शह (अत्) प्रत्यय करने पर अंग में
र नहीं मिलता है, परन्तु लूटते के स्थान पर अत प्रत्यय करने पर त अवश्य
मिलता है, अत: बह के स्थान पर होने वाला अबू पन्त रहता है । निम्न
लिखित प्रकार से रूप बनेंगे :
नि० ४.१५६] (मतुरूप १ १७
धातु लद प्र०३ शत का अंग खुद प्र०३ शव का अंग
(सबल) (सबल)
भू ( १ ) भवन्ति भवना भविष्यन्ति भविष्यत
की ( ९) औणन्ति जीरम-त वयक्ति वैसे-त्
(हु) (३) जलती जम होष्यन्ति होध्यल
(का अब (होना) का वर्तमानकालिक शतृ-प्रत्ययान्त अंग प्र०३ सन्ति के
आधार पर सन्तु होता है और हर (मारना) का आति (प्र० ३) त के आधार
पर न्नन्द होता है ।
१५७. लिह-स्थानीय कृत-प्रत्यय (1112 1.1.19113:(1 य.::
1.1.:..12) (नि० ८९) बनाने का सरल उपाय यह है कि पर० जिद प्र०३
का रूप लेने पर मस्थान वाला अंग तुरन्त बन जाता है । (केवल प्रत्यय के
अन्तिम र, को सू करना होगा और पूर्ववर्ती उ स्वर के कारण सू को र हो
जाएगा) । पंचस्थानीय और पदस्थानीय अग बनाने के लिए यदि लिय प्र० ३
वाले रूप में उब के कारण धातु में यया हो तो उसे अपने पुराने स्वर के रूप
में रखना होगा और यदि उसू के हटाने पर धातु एकाच, (एक स्वर वाली) हो
जाती हो तो वसू से पहले 'इ' का आगम हो जाएगा ।
था जिद प्र० उ भस्थान अंग पचपन अंग पदस्थान अंग
(.1.6: य:०३)प०ण्ड 5.1) ("श्री३ष्टि (01)
कृ चर: चशुषा चकृवांसत् चकृवदूभि:
भू बभूहु: बभूवृषा बभूव-सब बभूवदभि:
तत् तेनु: तेनुषा तेनिवसिब तेनिवदूभि:
यर ईशु: ईजुषा ईजिवांसब ईजिवदूभि:
(का विद (जानना) धातु से वसू प्रत्यय करने पर (ल-: प्र० ३ विधु:)
बीच में इ नहीं लगता है । विद राज विद्या, तृ० : विदुर, द्वि० १ विद्वान तृ०
३ विमभि: :
१. अत्-प्रत्यय-त शब्दों के रूप के लिए देखो नियम ८५ । इनके स्वीलिग शब्द बनाने
के लिए देखना नियम ९५ क है
२. देखते नि० १३१शि६ है
: १८ संस्कृत-व्य-रण प्रवेशिका [नि० ४-१ ५८

(२) पात्मनेपद और कर्मवास्य कृत-प्रत्यय


(4101..1: प्रा1छे 1198.16, 1न्द्ररतिपेभा७)
: ५८- आत्मनेपद और कर्मवाफय में लद तथा पद के स्थान पर कृपी
प्रत्यय 'मान' लगाया जाता है । यह प्र० ३ के करते के स्थान पर लगता है ।
जैसे-भू (आत्मने० लद प्र० ३) प्रभवति का अमान; लुट-श्व प्र०३ भविष्यति
का भविष्यमाण; कर्मवाव्य लद, प्र० ३ भूयंते का भूयमान ।
(का अ-रहित धातुरूयों में लद आत्मने० में आन लगता है । जु राव
बटन (किन्तु बह में होष्यमाण और कर्म में हूयमान बनता है) । आए
(बैठना) में एक विशेष प्रत्यय ईन लगता है । आब रा-आसीन (बैठा हुआ) ।
: ५९. लिह आत्मनेपद से कृत-प्रत्यय' रूप 'आन' प्रत्यय लगाकर बनाए
जाते हैं । यह लिह प्र० ३ वाले रूप में से परे हटाकर 'आन' लगाने सेबनता
है । जैसे-स-भू लिटू प्र० ३ प्रबभूविरे से बभूवान । ऐसे प्रयोग अप्राय हो
गए है । थोड़े से आन-प्रत्यय-त प्रयोग शेष हैं और ये संज्ञा-शब्द या विशेषण
शब्द के रूप में प्रयुक्त होते है । जैसे-पनु-पर (दुहराना) प्रअनूचान
(विद्वान्) ।
: ६०. क्त-प्रत्यय (हुया.:' 1.5.2 अत्-जा:."') । यहयधिक प्रचलित
'त' प्रत्यय या 'न' प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है ।
( १ ) 'न' प्रत्यय । यह मूल वात से ही होता है और धातु के तुरन्त बाद
लगता है । यह आ, ई, ऊ, ऋ (जिसे ईर या ऊर हो जाता है) और विशेष
तया दू अन्त वाली धातुओं से होता है । जैसे-पला (मुरझाना) प्रम्त्तान; ली
(चिकना) प्रलीन; तू (काटना) प्रलून; यत् (बिछाना) उस्वीर्ण; पृ (पूरा
करना) प्रपूर्ण (नि० : ५४, सा; जिद (तोड़ना) अभिन्न ।
(का नुद (प्रेरणा देना) और विद (पाना) धातुओं से विकल्प से त भी
ल राज प्रन, नुत्त; विद जि-यकिन, विल ।
(खा जू अन्तवाली कुछ धातुओं से 'न' होता है और जू को मूलध्वनि
कवन अर्थात ग, हो जाता है । जैसे-भरुन (तोड़ना) उभर भूत (झुकना)
मुन; मव, (डूबना) उ-मयब; विर (घबड़ाना) उविग्न ।
(२) त्र प्रत्यय है धातुओं से इ के साथ या बिना इ के त प्रत्यय लगता
नि० डा१६०] धातृरूप १ १९

है है जैसे-जि अजित (जीता); पत ::- पतित (गिरा) । जहाँ पर धातु से


साक्षात त प्रत्यय जम है, वहाँ पर धातु स्वभाव अपने निबल अंग में
होती है । जिन धातुओं में संप्रसारण (१३७, २ ग) हो सकता है, उनमें
सम्प्रसारण होता है । कुछ धातुओं में अन्तिम आ को ई होता है और कुछ में
इ । बहुत-सी वातुओंमेंअनि. नासिका वर्ण (नू, सा का लोप हो जाता है । २
जैसे-य-यन (यज्ञ करना) प्रष्ट, (६३क; ६४): वन (कहना) प्रवक्त; स्वर
(सोना) रा-सुप्त; पा(पीना) "पीत; स्था (रुकना) जि-स्थित (लेटिन-मि-शा-हा;
गए (जाना) प्रगत; हर (मारना) रा-हत है
(क) धा (रखना) धात में दुहरी निर्बलता होती है । धा रा-हित (वित
के स्थान पर) है
(ख) दा (देना) को सार्वधातृक निर्बल अम ददू हो जता है । दा है
दत्त । कुछ उपसगों के बाद दत्त का संक्षिप्त रूप त्त शेष रहता है । जैसे-आ
झ-दा प्रआत्त (लिया) (आदत के स्थान पर) ।
(ग) अब असली बहुत सी धातुओं में ज का लोप नहीं होना और सू
से पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ हो जाता है । जैसे मकब (प्रेम करना) उ-कान्त :
(थ) संवत (शब्द करना) में कब आदि के तुल्य उपधा के अ को आ
होता है । ध्वन् प्रपत्र । कुछ अत मंद वाली धातुएँ आकारान्त हो जाती
हैं, अर्थात अत् को आ हो जाता है । जैसे-खर (खोदना).-, जब
(पैदा होना) उजास ।
( ३) इल प्रत्यय : एक या को व्यंजन अन्त वाली बहुत सी धातुओं से
'इत' प्रन्यय होता है । यह ऐसे स्थानों पर होता है, जहाँ मूलक का त के
साथ सरलता से संयोग नहीं हो सकता है । सभी णिच- आदि प्रत्ययान्त
धातुओं से इत लगता है और अन्तिम अ या अय का लोप होता है । जैसे--
शहर (शंका करना) उशदकित; लिखते (लिखना) "ललित; आर (पाना)
।स८---ईप्त "जित; कृ (कब-पश्च-य-अकारथ प्रकाशित ।
(क) 'इत' से पहले साधारणतया धातु का पूर्ण रूप रहता है, किन्तु इत
से पहले वद (कहता) और वसु (रहना) धातुओं में संवरण हो जाता है ।
१. हच संत वाली धातुओं में दू-नि-त में बध नियम के लिए देखें नि० ६९ ।
:२० संस्कृत-व्य-करण-प्रवेशिका [नि० ४-१६०
वद रा-उदित; वसू प्रउषित । ग्रह, (पकड़ना) में सदा संप्रसारण होता है और
इ के स्थान पर ई संयोजक-स्वर लगता । प हच-ने गृहीत (देखो नि० : ५१
ख ४) ।
१६१. तप प्रत्यय-त प्रत्ययान्त कृदन्त रूप में मत्वर्थक वत प्रत्यय
लगाकर एक बहुत प्रचलित नवीन तवद प्रत्यय बनाया जाता है । यह कहु
वालय भूतकालिक प्रत्यय का काम देता है । जैसे-कृत: (किया), कृतवत
(किया है) । यह प्राय: निश्चित क्रिया (ति1रि० मरे ) के रूप में प्रयुक्त होती
है और इसमें संयोजक पद लुप्त रहता है । जैसे-स तत् कृतवार (उसने वह
काम किया है); सा तह कृतवती (उस रुकी ने वह काम किया है) ।(देखो नि०
८९, पादष्टिपाणी ३) ।
१६२. योग्य अर्थ वाले कृत्य प्रत्यय (1112 यय: यहि", "साल
य) । य, तव्य और अनीय प्रत्यय लगाकर ये कृत्य प्रत्यय बनते हैं । ये अर्थ
की दृष्टि से लेटिन मेप1ता18 पन्त वाले जि३प1डि० के समकक्ष हैं ।
१, य प्रत्यय बाद में होने पर
(का धातु के अन्तिम आ को ए हो जाता है । दारा-देय (देने योग्य) ।
(ख) धातु के अन्तिम इ और ई को गुण होता है, उ और ऊ को गुण
या वृद्धि होती है, ऋ और ऋ को वृद्धि होती है । जैसे-जिप्रजेय (जीतने
योग्य); नीराज नेय (ले जाने योग्य), रार व्य (आहुति देने योग्य); भूने
भाव्य (होने योग्य); कृ प्रकार्य (करने योग्य) ।
(गा उपधा के इ और उ को प्राय: गुण होता ( उपधा के अ को कभी
कभी दीर्घ हो जता है-और ऋ में कोई परिवर्तन नहीं होता है । जैसे--
जिद राजभेद्यातोड़ने योग्य); युजू हैयोज्य (जोड़ने योग्य); शम जिने शध्यासभव);
किंतु वर उवाच (कहने केय-य) दृशु राज दृश्य (देखने योग्य) ।
(२) यय प्रत्यय है तव्य प्रत्यय से पहले धातु में गुण होता है और जिस
प्रकार खुद लकार ( १ ५२) के ता से पहले कार्य होता है, उसी प्रकार इसमें
भी कार्य होंगे । जैसे-जि जि-जेते-य (जीतने योग्य); भू जि-मविलय (होन
हार); गए प्रगन्तव्य (जाने योग्य); दा जि-दातव्य (देने योग्य); जिद राप्रभेत्तव्य
(तोड़ने योग्य) ।
निष्ठ ४.१६२] धातृरूप १ २१
(३) अनीय प्रत्यय है अनीय प्रत्यय से पहले धातु में गुण होता है ।
जैसे-चि राप्रचयनीय (एकत्र करने योग्य); भू प्रेप्रभवनीय (होनहार); कृ राज
करणीय (करने योग्य); लुभू रात्त्वलीभनीय (चाहते योग्य) ।
(का प्रेरणार्थक 'अय' प्रत्यय का लोप हो जाता है । भू-निश-व्य
भ-वय प्रभावनीय (संभावित) ।
(३) बत्वार्थक प्रत्यय
(.-1 म 1.1021)112 1न्द्रश्री०गो1०)
१६३. कत्वा प्रत्यय है कत्वार्थक रूप बनाने के लिए सामान्य धातु से 'त्वा'
प्रत्यय होता है (यह 'तु' शब्द का तृतीया एक० का प्रतीन रूप है) त्वा
प्रत्ययान्त रूप बनाने का सरल उपाय यह है कि भूतकालिक त-प्रत्यय-न रूप
में त के स्थान पर त्वा कर दें । जैसे-कृ-मति-कृत (किया) प्रकृत्या
(करके); वर प्रउल (कहा) प्रउबत्वा (कहकर); गत्-प्रगत (गया)कुगत्वा
(जाकर) ।
(का त्वा-प्रत्यय करने पर प्रेरणार्थक अय' प्रत्यय का लोप नहीं होता
है है जैसे-खुर-पण-प्र-त उचीरित (चुराया), वि-तु त्वा में चोरयित्वा
(चुराकर) 1
१६४. लन प्रत्यय है यदि धातु से पहले उपसर्ग होगा और धातु का उप
सर्ग के साथ समास होगा तो त्वा के स्थान पर 'य' लगेगा । जैसे-भू (हें-ना)
रा-भूत्वा, किन्तु सत्-नि-भू-स-भूय; वर (कहना) प्रउवत्वा, प्रोव्य; तू (पार
करना) जिजअवतीयं; पृ (पूरा करना)::":; ।
(का यदि धात में अव स्वर है तो य से पहले प्रेरणार्थक अय शेष
रहेगा, केवल अब के अन्तिम अ का ही लोप होगा । २ जैसे-सब-मर 1
णिचुत्८सगमय (एकत्र करना) जि-संगम-य, किन्तु विचारय (सोचना) का
विचार्य रूप बनेगा, अर्थात अय का लन होगा ।
१६५. वय प्रत्यय है उपसर्गयुक्त धातु यदि अव स्वरान्त है तो य के
स्थान पर त्य प्रत्यय लगेगा । जिल्द जित्वा, किन्तु विजित्य ।
(का इन धातुओं के सादृश्य पर ही 'अ' उपधा वाली और त या त् अन्त
उ---------------
१. अन्यथा सामान्य आर प्रेरणार्थक धातु से य प्रत्यय करने पर एक ही रूप बनता ।
१२२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४.: ६५

वाली धातुओं से विकल्प से "दय' प्रत्यय लगता है । यदि भूबकालिक त-प्रत्यय


करने पर नू या ब का लोप होता है ( १६०, २ ) तो यहाँ पर भी तू या र
का लोप होगा । जैसे-गध (जाना) है-आगम्य, आगत्य (त में गत); नए
(झुकना) जि-प्रणम्य (६५), प्रणत्य (त में नत); मत (सोचना)वावमन्य,
अवाम (त में मत); हनामारना) है संसय, सहाय (त में हत) ; तत् (फैलाना)
राप्रविताय (नि० १५४ क १ ), विताय (त में तत) । किन्तु वन (चलना) का
संकाय ही होता है (त में कान्त) और खत (खोदना) कर निखर (त में
खात, नि० १५४ क () ।
१ ६६. अध प्रत्यय : त्वा के अर्थ में ही बहुत कम प्रयुक्त एक अब प्रत्यय
है । यह अव्यय होता है इसका रूप बनाने का सरल उपाय यह है कि धात का
कर्मवाव्य लुइ: प्र० : में इ से पहले जो रूप बनता है (नि० १ ५५) उसमें ही
अब जोड़ दिया जाए । जैसे-धु (सुनना) ३अश्रावि (कर्म० प्र प्र० १, ऐसा
सुना गया) रारा-आए (सुनकर) ।
(४) तुम प्रत्यय (0111..)
१६७. तुम प्रत्यय है तुर लकार (१ ५२) के 'ता' या कृत्य प्रत्यय 'तध्य'
( १ ६०, २) से पहले आलु का जो रूप होता है, उससे ही पत प्रत्यय लगाया
जाता है । (यह तब प्रत्यय मूलरूप में तू शब्द का द्वि० १ का रूप है; : तुम्
प्रत्ययान्त रूप बनाने कप सरल उपाय यह है कि ता या बय के स्थान पर पत
लगा दें जैसे-स्था (रुकना)."' (लेटिन-प्र-प); बुधु-बोधि
तुम् (जागने को); भू जि-भविह (होने को); कृराज कर्तम (करने को); य-प"
द्ररुदुब (१५१ ख :) (देखने को); वहाप्रबोबून् (६९ख) (द्रोनेको); सहाय
सोए (६९ ख) (सहने को); चुरप्रचीरयिषा (चुराने को) ।
प्रक्रियाएँ (प्रति'"" भा"")
( १) णिजन्त प्रक्रिया (०ययप्र७)

१६८० णिन् (अया प्रत्यय : प्रक्रियाओं में यह सबसे अधिक प्रचलित


है । यह चुरादिगणी धातुओं ( १ २५, ४) के तुल्य धातु से 'अय' प्रत्यय लगाकर
नि० ४-१६८] आतृरूप १२३
बनाया जाता है और चुरादिगणी धातुओं के तुल्य ही इसके रूप चलते हैं है
जैसे-नी (ले जाना) मैं नायब (लिवा जाना)हैं कृ (कराना) राज कारय (करना);
विद (जानना) प्रवेदय (बताना), सद (बैठना) उसादय (बैठाना) ।
(का आ अन्त वाली बहुत सी धातुओं में अप से पहले पच और लग जाता
है । जैसे-दा (देना) राप्रदापय८=(दिलाना); स्था (रुकना) प्रस्थापय (स्था
वित करना) ।
(खा यह प्रेरणार्थक 'अय' प्रत्यय (त्रुरादिगण के तुल्य) द्वित्व वाले लुत्
को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह शेष रहता है । (द्वित्व वाला जुए केवल अर्थ
की दृष्टि से ही प्रेरणार्थक से सम्बद्ध है, देखी नि० १४९) ।
अपवादलियम (1लअ०1य1:125)
( : ) निम्नलिखित धातुओं में 'पय" से पहले धातु के आ को विकल्प से अ
हो जाता है :-ज्ञा (जानना), बला (खिन्न होना), म्ला (मुरझाना), रना
(नहाना) । जैसे-जारा-ज्ञाप ज्ञापय आदि ।
(२) निम्नलिखित कुछ आकारान्त से भिन्न धातुओं में भी 'पय' लगता
है उ-जि (जीतना) राज जापय (जिताना); अधि-म (पढ़ना) हैयध्यापय
(पढाना); ऋ (जाना) जिप्रअर्षय (देना, रखना); सहा (उगना) यरोपय, रोहय
(उगाना, उठाना) ।
( ३ ) निम्नलिखित धातुओं के अय प्रत्यय करने पर ये रूप होते है :
धु (हिलाना); रार घूनय (हिलाना) प्री (प्रेम करना) प्रप्रीणय (प्रसन्न करना):
भी (डरना) रायभीषय, भाया (डराना) ।
(४) लत (पाना) में अय से पहले तू का आगम होता है । लभूत्र
लम्भय । दर (काटना) कथा तू शेष रहता है । वंन्धदंशय (नि० १३३ अ
सा ।
( () हत (मारना) को यय करने पर नश्यधातृरूप 'धाब' (वय कराना) :
हो जाता है ।
(२) सन्नन्त प्रक्रिया (प्र-मिय.'")
( ६९. सब प्रत्यय है सत्-प्रत्यय' रूप बनाने के लिए धातु से स प्रत्यय
१२४ संस्कृत-व्य-रण-प्रवेशिका [नि० ४ : ६९
लगाया जाता है और धार को एक विचित्र प्रकार से द्वित्व किया जाता है :
लगभग ७० धातुओं में धात से साक्षात 'स' लगता है और लगभग ३० धातुओं
में इष (संयोजक इ-मस) लगता है । अल भू (होना)न्तिभूम (होने की
बच्छा); किंतु जीत (जीना) का जिजीविष होता है । ध्यादिगणी धातुओं
( : य) के तुल्य सत्-प्रत्यय" के रूप चलते हैं ।
अभ्यास (द्वित्व का प्रथम अंश) पर ही उदात्त स्वर रहता है और सामा
न्यतया धात में कोई परिवर्तन नहीं होता है । निम्नलिखित इसके अपवाद
हैं :
( : ) स सेपूर्ववर्ती इ को ई, उ को ऊ, ऋ और ऋ को ईर या ओ८ठधवर्ण
पहले होने पर ऊर होता है । जैसे-चि (इकट्ठा करना) प्र चिचीष; रत (प्रशंसा
करना) राज तुष्ट्रष; तू (पार करना) रा"ततीर्ष; मृ (मरना) मुमूर्व :
(२) 'इष'प्याद में होने पर धातु के अन्तिम ई, उ और ऋ को गुणहोता
है । उपधा के ऋ को भी गुण होता है । उपधा के उ को एक धातु में गुण
होता है और उपधा के इ को कहीं गुण नहीं होता । जैसे-शी (सोना) प्र
शिशयिषा, शु (नष्ट होना) राध शिशरिष; वृत (नाचना) प्रनिनर्तिषा, शुन
(शोभित होना) व शुशोभिष; विद (जानना) राख विधिदिष, विवित्स ।
द्वित्व के मुख्य नियम
(51.131 1111125 0, 1.1.111.1011)
१७०० (:) अभ्यास (द्वित्व का प्रथम अंश) में अ, आ और ऋ को इ
होता है । किन्तु जहाँ पर ओष्टय के बाद ऋ को उर होता है, वहाँ अभ्यास में
उ रहता है): जैसे-दह, (जलाना) -प्रेदिधक्ष (५५;६९ का; स्था (रुकना) प्र
तिष्ठास; सूजू (उत्पन्न करना) राप्रसिसृक्ष (६३ का; भु (धारण करनाल
बुभूष ।
(का जिन धातुओं में उपधा में इ और उ हैं उन्हें सामान्य रूप से द्वित्व
होता है । जैसे-विशु (प्रवेश करना) है विविक्ष (६३ खा; बुधु, (जानना) राख
आस (:), दुह- (दुआ) राप्रदुधुक्ष (., ६९ का; रुह, (उगना) प्ररुरुक्ष
इस प्रकार उ और ऊ से युक्त धातुओं को छोड़कर शेष सभी में अभ्यास में इ
रहता है ।
नि, जा१७०] 'मतुरूप १२५

( २) अजादि दो या तीन धातुएँ ऐसी हैं, जिनमें सन्नन्त रूप धातु में इ
लगाकर अभ्यास बनाया जाता है । जैसे-थन (खाना) राप्रआशिशिष; ईन्
(देखना) रायईचिक्षिष । आपति (पाना) में एकादश होकर ईष्ट अंग होता है :
अपवाद-नियम (1.1)11125)
१७१० (१) गए (जाना) और हत (मारना) में धातु के अ को आ होता
है । मन् (सोचना) में धातु के अ को आ होता है और अभ्यास के इ को ई
होता है । जैसे-पव-गीस (जिगमिष भीहोता है); हनू०यजिषांस (६६
अ २); मन्प्रमीमांस (६६ अ २) (सोचना) ।
(२) यहा (पकड़ना), प्रतीक (पूछना) और स्वर (सोना) में संप्रसारण
होता है । यहा :यजिवृक्ष (५५; ६९ का; प्रद-राय पिपृलिछष; स्वम्टासुधु९स ।
( ३) निम्नलिखित धातुओं में प्रथम दो वरना को इस प्रकारएकादेश होता
है कि अभ्यास शेष रहता है और धातु का एक व्यंजन :---दा (देना), धा
(रखना), मा (तोलना), पद (जाना), रत (आरम्भ करना), लभु (पाना),
शकू (सकना) । दाप्रदित्स; 'यायला-स (दिवास के स्थान पर, नि०५भा;
मा है मित्र पद म पिता; रत वरिम, लद राय लिपा; शर राज शिक्ष ।
(भा चि (चुनना), जि (जीतना) और हर (मारना) (नि० १७१, ()
धातुओं में उनकी मूल कवन ध्वनि आ जाती है । चि राज चिकीष (चिचीष भी);
जि जिम जिगीष; हर रायजिद्यास ।
(() घसु (खाना) में सच को तू हो जाता है । घसहैजिघत्स (भूखा
होना) ।
(ये ) यडधत और जुगल प्रक्रिया)
(10.1.25 ०र प्रअ०टा1०१1सगु)
१७२० सामान्य धातु से जो अर्य बताया जाता है, उसके अतिशय या गौना
पुन्य (वार बार होना) को बनाने के लिए यत् प्रत्यय होता है । हलाल और
एक स्वर वालीधातुओं से ही यत्प्रत्यय होता है । अतएव चुरादिगणी धातुओं
से तथा आर आदि अनादि धातुओं से यत् प्रत्यय नहीं होता है । लगभग ६०
धातुओं (वैदिक साहित्य में प्राप्त होने वाली धातुओं के आधे से कमा से
संस्कृत में-यत् प्रत्यय 'होता है, किन्तु ये प्रयोग बहुत कम मिलते हैं ।
१ २६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ४० १७२

इसमें धात के दो अंग होते है और एक विशेष प्रकार का सबल अभ्यास


होता है । इनमें से एतेन में द्वित्व हुए अंग के तुरन्त बाद लिव प्रत्यय लगते है
(सबल अग में अभ्यास के प्रथम स्वर पर उदात्त स्वर होता है) । इसके रूप
जुहोत्यादि (तृतीय) गण की धातुओं के तुल्य केवल पर-पद में चलते है ।
जैसे-भू (होना) जि-बो-ते । दूसरे में धात, को द्वित्व होता है और बाद में
कर्मवाव्य ( है ५४) के तु-तय उदात्त स्वर युक्त 'य' लगाता है । इसके रूप कर्म
वाच्य के तुल्य केवल आत्मनेपद में चलते है । जैसे-भू (होना)प्रेबोभूयते ।
(क) प्रथम भेद (यत् लुगन्त) में वित स्थानों पर हलाल व्यंजन से पहले
विकल्प से ई लगता है । हलन्त धातुओं में इस ई से पहले या अनादि प्रत्यय
बाद में होने पर गुण नहीं होता है । जैसे-विद (जानना) है वेवेजि, वेवि
लम, वेति: (उ० ३); नीयर-बजने (उमा (); किन्तु हू (पुकारना) का
जेन्होंमि, जोहवीमि (उ० ( )-जोहहानि ।
द्वित्व के विशेष नियम
(9.:11 1.29 0, 1.1..11.1011)
१७३. अभ्यास में स्वर को गुण होता है और अ को आ होता है । जैसे
---निन् (स्व-छ करना) राय नेनेक्ति; नी (ले जाना) राय नेनीयते; बुन (जानना)
( यबोबुधीति; यदु (ऊपर बहना, तैरना) प्रपोष्णुयते ; तप (तपना)वैतात
पाते ।
(क) अत्-मत वाली धातुओं में अभ्यास में अ को दीर्ध न 'होकर
नासिका ध्वनि (ब, सा का आगम होता है । जैसे-र (चलना) राय चह
क्रमीति, चदक्रम्यते ।
(ख) ऋ-युक्त धातुओं में अभ्यास और धातु के बीच में ई का आगम
हो जाता है । जैसे-मृ (मरना)र्मिमरीमर्ति ; द्वार (देखना) राप्रदरीदृश्यते ;
वृत (नाचना] उनरीनुत्यते ।
अपवाद-नियम (1..11..5)
१७४- भी (जागना) को द्वित्व करने पर अभ्यास में आ होकर 'जागृ' अंग
बनता है । 'जागृ' ने प्राय: एक प, का स्वरूप ले लिया है ( १ ३४ अ ४)
नि० ४. १७४] धातृरूप १२७
और सार्वधातुक लकारों में इसका यही अग रहता है । जैसे-जगति (लइ
प्र०१), जाग्रति (प्र० ३) ।
(क) दर (जलना) और जई (मपटना) धातृओं के अभ्यास में त लग
जाता है और चर (चलना) धातु में अभ्यास में त तथा धातु के अ को ऊ हो
जाता है । जैसे-दह-प्रद-कजि, दन्दह्यते; जन है जधजभ्यते; चरचा"
च-ते ।
(ख) पद (जाना) में अभ्यास में सू लगता है और उसके वाद ई लगता
है, अर्थात् आयाम में 'नी' लगता है । पदूकुपनीपद्यते । द्रा (दौड़ना) धातु में
ऋ-युक्त धातुओं के तुल' ( १७३ ख) कार्य होता है और इसके अभ्यास में रि
(र-इ) लगता है । (यह र के बाद इ अपनी स्थिति के अनुसार अर्थात्
संयुक्त वर्ण वाद में होने से दम के तुल्य ही है) । द्राप्रदरिद्राति (नि०
: ३४ अ ४)
(भा नामधातु प्रक्रिया (1.10111.111.25)
१७५. शब्दन के अन्त में या प्रत्यय लगाकर बहुत से नामक बनाएजाते
है । इनके रूप अ-युक्त धातुओं (भू आदि) के तुल्य चलते हैं । यह य प्रत्यय
'होना' या तदनुकूल आचरण करना' 'तद्वत् मानना' 'बनाना' या 'चाहना'
आदि अर्थों में होता है । य प्रत्यय से पहले अन्तिम इ और उ को दीर्घ हो
जाता है । अन्तिम अ को भी आ होता है, पर कभी-कभी उसे ई हो जाता है
(नि० १५४, () । जैसे-नच-नमम (नमस्कार करना); स्वामिबराय
स्थामीय (स्वामी के तुल्य मानना); गोपन्त्रगोपाय (गोप या प्याले के तुल्य
होना) (रक्षा करना); राजद-रा-र-जाय (राजा के तुल्य कार्य करना); हुम."
दूमाय (वृक्ष के तुल्य होना; पुत्जिपुत्रीय (पुत्र की इवैछा करना) ।
(क) जिन नामधातुओं में प्रेरखार्थक के तुल्य (अ-य) अ पर उदात्तस्वर
होता है, उन्हें भारतीय वैयाकरणों ने चुरादिगणी धातुओं में समिलित किया
है । जैसे-मंत्र (मंत्रणा) कुमन्त्रय (मंत्रणा करना); कीर्ति (यश) प्रकीर्तय
(यश फैलाना) ; वर्ण (रंग) वर्णन (चित्रित करना, वर्णन करना), कथन
(कैसे ?) राप्रकथय (कहो कैसे ?, कहना) ।
अध्याय ५
अव्यय (1..1111.112 भाय)
उपसर्ग (1.1105.10119)
१७६- अन्य आर्य-भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत ।त्विभक्तियों के अर्थ अधिक
स्वतन्त्र हो गए है है अत: उपसर्गों की सख्या कम हो गई है और इनका प्रयोग
भी बहुत सीमित है । ये सभी उपसर्ग प्राय: परसन (1281.81.15 : ) हैं
और ये कारक का काम नहीं करते है, अपितु जिस विभक्ति के साथ सम्बद्ध
होते हैं, उसके सामान्य अर्थ को परिजन करते हैं । वेद में लगभग एक दर्जन
परसर्ग थे । इनका किया के उपसर्ग या पूर्वक के तुल्य भी प्रयोग होता था),
किन्तु संस्कृत में केवल तीन का ही सामान्यतया प्रयोग होता है ;.
( () अनु (बाद मा और प्रति (ओर) का द्वितीया के बाद ।
(२)
(का निम्नलिखित
आ (से या तक)उपसर्ग
का पंचमी
भी कभी-कभी
से पहले । मिलते हैं । इनका प्रयोग

प्राय: विभक्ति के बाद होता हैम-अभि (ओंर, द्वि० ): पुरसू (सामने, उ);
अपर, सप्तमी), अन्तर (अन्दर, बीच में, सप्तमी, कभी शठी भी) (लेटिन
म-1ताया इंगलिश 11111::) ।

उपल-दमक क्रियाविशेधण
(1.09111-1 य.)
१७७. वास्तविक वैदिक उपसर्गों का जो लोप याअप्रयोग हुआ है, उसकी
क्षतिपूर्ति संस्कृत में नए और अवास्तविक उपसर्गों की वृद्धि से की गई है ।
इसका अभिप्राय यह है कि ये क्रिया के साथ संबद्ध नहीं किए जा सकते है और
विभक्ति की दृष्टि से इनकी उत्पति अधिक.: स्पष्ट है । ये चतुर्थी औरसप्तमी
विभक्तियों को छोड़कर शेष सभी विभक्तिर्यत् के साथ प्रयुक्त हवाले हैं है संस्कृत
में चतुर्थी विभक्ति के साथ कोई भी उपज-दमक शब्द कभी भी संबद्ध नहीं
रहा है ये उपल-दमक किया विशेषण निम्नलिखित सूची में दिए गए हैं और
इनके साथ जो विभक्ति होती है, उसके साथ इनका वर्गीकरण है :
नि० (. १७७] आवा-उपसर्ग १२९
(क) द्वितीया-अन्तरा पच में, बिना), अन्तरा (बीच में, बिना, बारे
में), निया (समीप), यया (समीप), अजित: (दोनों ओर), परित: (चारों
ओरा, सकी: (चारों ओर), समन्तत: (चारों ओर), उभय (दोनों ओर),
परेण (खा
(परे),
तृतीया-सह
यावत् (तबतक,
(साथ),
तक,समर
इसके(साथ),
साथ साकार
पंचमी (साथ),
भी) । सव (साथ),

विना (विना, सिवाय, इसके साथ द्वि० और कभी-कभी पं० भी) 1


(ग) पंचमी-पंचमी में आने वाले सभी क्रिय।विशेषण शब्द किसी न
किसी रूप में पंचमी के मूल अर्थ विश्लेष (पृथक होना) को प्रकट करते है त---
( १ ) अवधि पुरा, पूर्वज, प्रक (समय की दृष्टि से पहले), (२) अन
न्तरब, ऊधर्वमू, परब, परत:, परेण, प्रवृति (यह मूलरूप में 'प्रारम्भ' अर्थ
सूचक द्वात्रीलिंभी शब्द है) (समय की दृष्टि से बाद में) । (३) बहि: (बाहर),
(४) अन्यत्र (अतिरिक्त), ऋते (बिना, दि० भी) ।
(घ) अती-षय के साथ प्रयुक्त होने वाले प्राय: सभी क्रिय-विशेषण
शब्द स्थान-विषयक सम्बन्ध को सूचित करते हैं:-----, : ) अग्रे, अग्रता, फुरत:,
पुरस्तात्, प्रत्यक्षत्, समक्ष, (आगे, सामने) । (२) पश्चात (बाद में), (३)
परत:, परस्तात् (परे) (४) उपरि (द्वि० भी), उपरि. (ऊपर, बारे मा ।
(५) अध., अधरुतात (नीचे) ( षषठी के साथ कृते (लिए) का भी प्रयोग
होता है ।
१७८. द्वितीय (को, ओर, किधर), पंचमी (से, स्थान से, कहाँ से), और
सप्तमी (में, कहत) विभक्तियों के भव प्राय: 'निकट' अर्थ के सूचक-नास्तिक,
उपकाठ, निकट, सकदा, संनिधि, समीप और पार्श्व (बगल) आदि श-खों से
प्रकट किये जाते हैं । द्वितीया में ये शब्द 'सोर' 'को' 'समीप' अर्थ बताते हैं ।
पंचमी में 'से' अर्थ और सप्तमी में 'समीप' 'सामने' अर्थ बताते हैं । प्रत्येक
स्थान पर इनके साथ मंठी होगी । जैसे-रा-रिकी गला (राजा के पास
जाओ), रजा सकता अपासरत (वह रघु के पास से हट गया), मम पाशर्वे
(मेरे पास), तस्या: समीपे नम प्रशशंसु: (उन्होंने उसके सामने नल की प्यासा
की) ।
१३० सहित-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ५. १७९

उपसगाँत्मक कत्वर्थिक प्रत्यय


(.09131-1 प्रलय)
१७९, कतिपय कत्वा (त्वा) और लेयर (य) प्रत्ययान्त अव्यय उपसर्ग के
तुत्य प्रयुक्त होते हैं :
(१) द्वितीया विमवित के साथ-थाय (लक्ष्य में रखकर, ओर बारे
में, पर, वास्ते), आदाय (लेकर), गृहीत्वा (लेकर), नीत्वा (लेकर, से); अधि
ष्ठाय, अवलम्ब आश्रित्य, आस्थाय (ग्रहण कर, लेकर द्वारा); मुप, परि-,
त्याज्य, वर्जयित्वा (छोड़कर, सिवाय); अधिकृत्य (मुख्य स्थान पर रखकर
अर्थात विषय में, बारे मा ।
(२) पंचमी के साथ-अप (आरम्भ करके, तब से लेकर) ।
संयोजक और क्रियाविशेषण निपात
(601113111-2 1:11.1 हैयसानि1ष्टि1 1न्द्रश्री1७)
१८०. अज (हे श्रीमत्, प्रार्थनासूचक) । अङ्ग कुरु (श्रीमत् यहकीजिए),
किमङ्ग (:. श्रीमत्, ऐसा करों ? २. और (कितना ?) ।
अथ-प () वाक्य का प्रारम्भ-सूचक-आब, अब, बाद में । (२) पुस्तक,
अध्याय, परि-लेद आदि के शीर्षक के प्रारम्भ में, अर्थात भी या 'यहाँ से
प्रारम्भ होता है' । यह 'इति' (यहां समाप्त होता है) का विलोम शब्द है ।
(३) वाक्य का संयोजक शब्द, अर्थात् और या भी । (भा 'यक्षि-अथ
तान्यानुगच्छामि गमिध्यामि यमक्षयसू (यदि मैं उनके पीछे नहीं जाता हूँ तो मैं
यमलोक को जाऊँगा) । अथकिमू----और क्या ? अर्थात ऐसा ही है 'हां' । अथवा
---प १ ) अथवा, या । (२) पूर्व वक्तव्य में संशोधन उपस्थित कर-अर्थात
'किन्तु' 'अपितु' । (३) कथन की पुष्टि में कोई वक्तव्य प्रस्तुत करना, अर्थात
'जैसा कि' 'यथा' 'इस प्रकार अथवा साश्चिदमुचाते (इस प्रकार यह ठीक ही
कहा जाता है) ।
अयो-तब, बाद में (देखो उ भी) ।
अ-तोच-और भी, इसके अतिरिक्त ।
अपरम्-और, आगे, इसके अतिरिक्त, और भी ।
अपि-प : ) 'च' केतुल्य वाक्य के दो अंगों को मिलाता है, अर्थात्-रे-इसी
नि० ५-१द्र०] अव्यय-उपसर्ग १३१

प्रकार, और भी, और (अपि-ल-रि-दोनों ही, वह भी और वह भी, और) :


(२) भी, स्वयं । दमन-पि निर्जगाम-- (दमनक भी चला गया) । (३) यद्यपि,
भले ही । बालसे----भले ही बालक हो । एकाक्यपि---यद्यपि वह अकेला
था । (४) सिर्फ, केवल, किन्तु (समयवाचक के साया । मुहूर्त-प (किन्तु एक
क्षण) । (५) 'सब' अर्थ, संख्यावाचक शठदों के साथ । चतुणमिपि वण-नीयर
(चारों ही वल का) । उपर्युक्त पांचों अर्थों में 'अपि' का जिस शब्द के साथ
संबन्ध है, उसके बाद में आता है । प्रश्नवाचक निपात के रूप में इसका वाक्य
के प्रारम्भ में प्रयोग होता है । विधिलिद के साथ भी इसका वाक्य के प्रारम्भ
में प्रयोग होता है और इसका अर्थ होता है-ज चाहता हूँ कि, भले ही--
किन्तु । अधि तपो वर्धते-क्या आपका तप बढ़ रहा है ? अपि स काला स्यात्
-ब चाहता हूँ कि वह समय हो । अधि प्राणानहं उब न त्र (मैं भले
ही प्राणों को छोड़ दृ, किन्तु तुम्हें नहीं छोरंगा) । अपि नाम-संभवत: (देखो
'नाम' भी) ।
अलम्-काफी, बस, मत । इसका प्रयोग तृतीयान्त, कत्वा-प्र-म्यान
और तुमुन्-प्रत्ययान्त के साथ होता है । यह निषेधार्थक निपात है । अलं
भयेन (भय से बस, अर्थात मत डरो) । अजब उपलभ्य (ताना मत दो) ।
अलं प्रबोधयितुब (मत जगाओ ।
इति-ऐसा । ( :) यह किसी निश्चित उद्धरण के बाद समाजिसूचक के
रूप में प्रयुक्त होता है । यह कहना' अर्थ वाली क्रियाओं के बाद उद्धरणचिह्न
उई हैं, के रूप मेंआता हैं और अंग्रेजी के अप्रत्यक्ष-रचना (11111.:: 201181.
1111) के उद्धरणचित्र्व का काम करता है । तवालां करिध्याभीति स मामुवाच
(उसने मुझसे कहा-मैं तुम्हारी आज्ञा ममंगा' या उसने मुझसे कहा कि वह
मेरी आज्ञा मानेगा) ।
इसी प्रकार यह विचार, भाव, ज्ञान आदि को उस करने के लिए
प्रयुक्त होता है, भले ही वहाँ पर 'विचार कर आदि शब्द न कहे गए हों ।
बानोपुपि नावमन्कुयों मलय इति भूप: (राजा भले ही बालक हो, पर यह
सोचकर कि यह मनुष्य है, उसका अपमान न करे) । दाताव्यमिति यद दाम
बीयते(दान देना चाहिए, यह सोचकर जो दान दिया जाता है) । न धर्मशास्त्र.
: ३२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ५.:द०
पठनीति कारण (यह जानते हुए अरे वह धर्मशास्त्र पढ़ता है, कोई कारण
नहीं कि उस पर विश्वास किया जाए) ।
(२) इति-च-यहाँ समाप्त होता है । यह पुस्तक, अध्याय, सर्ग, अंक आदि
के बाद समाप्तिसूचक निपात के रूप मेंप्रयुक्त होता है : इति तृतीय-ड़: (यहाँ
तीसरा अंक समाप्त हुआ) ।
(३) इति-वा-इस रूप में, जहाँ तक यह बात है, जहाँ तक । शंघ्रमिति
सुकर निभूतमिति चिन्तनीयं भवेत् (जहाँ तक र्शघ्र करने की बात है, यह
सुकर है और जहाँ तक गुप्त रूप से करने की बात है, यह विचारणीय है) ।
(किब और तथा को भी देखें) है
इव-यह अनुदान निपात है और इसका जिस शब्द के साथ संबन्ध होता
है, उसके वाद आता है । ( : ) 'जैसे' 'सा' 'तुल्य'----" चीर इवाभाति (यह
आदमी बोर सा प्रतीत होता है) । (२) 'मानो' 'जैसे-साक्षात पबयामीव
पिनाकिनब (मानों साक्षात शिव को देख रहा हां । ( ३)'कुछ५--सरोषमिव--
कुछ क्रोध से । (४) 'लगभग-मुहू-मिव (लगभग एक घंट) (() 'बिल्कुल'
---अकिचिदिव----(थोड़ा सा शी, नचिरादिव । (अविलम्ब, बिल्कुल अभी) ।
(६) 'वच: हैं'वाकमिव हि मधुराणी मण्डनं नाकृनीनाब (वच: क्या चीज
है, जो मधुर आकृति वालों के लिए आभूषण नहीं होती 1) ।
उ-यह एक प्राचीन निपात है । इसका वेद में बहुत प्रयोग हुआ है :
इसका अर्थ 'और' है । यह संस्कृत में किमु (किब., क्या 3), अयो (अथ
औ-उ, और भी, तवा और तो (न [उ, और नहरें अर्थात नहीं) संदों में
समस्त होकर शेष है ।
उत-यह वेद में बहुत प्रचलित निपात है । इसका अर्थ है---'-,
'भी' 'या' । यह अब निम्नरूप से शेष है अम : ) प्रति और किए के साथ
संयुक्त हय-प्रत्युत (अपि तु); किमुत (कितना अधिक कितना कम) ।
२: किसी दुहरे प्रशन में द्वितीय अशमें किब-उसास."या). यह रामायण
और महाभारत में पाद के अन्त में पाद-पूत्र्यर्थक के रूप में भीप्राय: मिलता है ।
एप-यह एक निपात है और जिस शब्द पर बल देना होता है, उसके
बाद इसका अनुवाद 'ही' 'केवल' 'वच:' तथा अन्य कई प्रकार से होता है है
नि० ५-१८०] अव्यय-उपसर्ग १३३
कहीं पर केवल बल देने के लिए ही प्रयुक्त होता है । एक एव (अकेला हो),
दर्शनमेव (दर्शन., अहमेव (मैं अकेला ही), तदेव (वही), मृत्युरेव (वस्तु-:
मृत्यु, मृत्यु ही), वसुधैव-मसारी पृथ्वी), जैव (च-मएव, और भी); उर्थध
(उसी प्रकार), नैव (सर्वथा नहीं, किसी प्रकार से नर्व') है
एष-रिस, वैप-एवमस्तु, (ऐसा हो), औप-मऐसा नहीं) ।
कश्चित् (कदु-मचिना-यह वैदिक प्रश्नवाचक किए के नपुंसक लिंग
शब्द कदम-चित से बना है) । इसका प्रश्नवाचक के रूप में प्रयोग होता है
और आशा की जाती है कि 'हाँ' का उत्तर मिलेगा, अर्थात-मुझे आशा है
कि । वजीर दृष्ट त्वया राजन दमयंती (हे राजत मुझे आशा है कि
ऐल दमयन्ती देखी है ?) । न कते का अर्थ होगा: मुझे आशा नहीं है ।
कश्चित्. नापने ते कृत्तवानटिम (मुने आशा है कि मैंने आपक: कोई अप
राब नहीं किया है 1) ।
कामम्-काम 'इच्छा' शब्द का द्वि० : ) इसका मुख्य रूप से 'भले ही'
प्रसन्नता से' अर्थों में क्रिया-विशेषण के रूप में प्रयोग होता है । किन्तु संबद्ध
निपात के रूप में भी इसका बहुत से स्थानों पर प्रयोग मिलता है । ( १ )
'अवश्य' निश्चित रूप से' उपत:', (२) 'माना कि' 'संभवत:' जिसके साथ
प्राय: लोह लकार आता है), इसके बाद प्रतित-शमीक कियाविशेषण होता
है उ-अकाल--- तु, किन्तु, तथाविया पुन:' (था सत्य है कि-किन्तु', 'यद्यपि
ब-आफर भी'; काल न तु (वच-किन्तु नहीं, अच्छा हो-अपेक्षाकृत
इसके कि) (जैसे-वरम्-न कया प्रयोग होता है 1)
किमू---) १) क्या 1, (२) क्यों ? (३) केवल प्रश्नवाचकनिपात, जिसका
अनुवाद नहरों किया जाता और आशा की जाती है कि 'नहीं' उत्तर मिलेगा
(लेटिन-यद्वा) । (४) 'बया यह है या 'अथवा' अर्थ के सूचक उत, वा
अन्होंस्तित शब्दों का प्रयोग होता है ।
वित का निम्नलिखित निपातों के साथ संयुक्त रूप से प्रयोग होता है:-
कि च (और भी); किन्तु (किंतु, परन्तु); किभिति, किमिय (करों ? किस
लिए 1); किप (क्या ? क्या भला रा, किमपि--. १ ) बहुत, जोर से ।
किमपि (जती-जोर से रोती हुई । (२) और अधिक । किमु, किमुत कि
: ३४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ५-१८०
पुन: ।(कितना अधिक, कितना कमा-एकै: आयनर्थाय किमु यत्र चतुष्टय,
(इनमें से एक एक चीज भी अनर्थ के लिए है, जहाँ पर चारों चीज होंगी
वहाँ कितना अधिक अनर्थ होगा ?) ।
किल-हाँ () वच:, अवश्य, निश्चित रूप से । यह जिस शब्द पर बल
देता है, उसके बाद आता है : अति किल कितव उपर (दुष्ट वस्तुत:
विनाश चाहता है) । 'किल' का कभी-कभी केवल बल देने के लिए प्रयोग
होता है, एकस्थिन् दिने व्याध आजगाम किल (एक दिन एक ठगा आया) ।
(२) 'कहा जाता है कि' 'मानते हैं किं-बभूव योगी किल कार्तबीर्य: (कहा
जाता है कि कार्ववीर्य नाम के एक योगी हुए था ।
कृप-पवन प्रत्ययान्त का नप, : ) 'किया' है इसका अलम् के तुल्य
'बस' 'मत' अर्थ में तृतीयान्त के साथ प्रयोग होता है : कृतं संदेस-सन्देह
मत करों :
केवलब----किवल' । केवलं स्वपिति (वह केवल सोता है) है न केस-
अपि (न केवल-अपि तुम क्य स-कहाँ ? यदि यह दुहराया जाता है तो इसका
अभिप्राय होता है कि दोनों बातों में बहुत अन्तर है, या दोनों बातों में कोई
मेल नहीं है । का सूर्यप्रभवो वंश: पव चाल्पविषया मतिय-कहाँ तो सूर्य से
उत्पन्न होने वाला महान् वंश और कहाँ मेरी रास बुद्धि ? अर्थात् सूर्य-वंश
का वैभव इतना अधिक है कि मेरी तुच्छ बुद्धि के लिए संभव नहीं है कि
उसका वर्णन कर सह ।
खलु-ना () वच:, अवश्य । यह प्राय पूर्ववर्ती शब्द पर केवल बल देने
के लिए प्रयुक्त होता है । (२) 'कृपया' 'प्रार्थना है कि' निवेदन अर्थ वाले
स्थानों पर : देहि खलु में प्रतिवचनब (कृपया मुझे उत्तर दें) (जर्मन-पाय-) ।
( ३) कत्वा-प्रत्यय' के साथ-बस, मतों । अलत् के तुल्य ही खलु निषेधार्थक
है । अलं गो-त्वा-मत रोओं । न खलु-नहीं' 'मुझे' आशा है कि आप
नहीं' ।
च-अनुदात्त निपात (लेटिन-प:) 'और' 'भी' । गोविन्दी रामबन
(गोविल और रामा । कविता में इस 'च' का प्रयोग कभी-कभी प्रथम शब्द के
बाद भी किया जाता है । जैल-थारे च' के स्थान पर 'इह चप' प्रयोग
नि० ५.: ८ ०] अव्यय-उपसर्ग १३५

(इस लोक में और परलोक मा । जहाँ पर दो से अधिक शब्दों को 'च' के द्वारा


जोड़ना होता है, वहाँ पर 'च' अन्तिम शब्द के बाद लगता है, जैसाकि अंग्रेजी
में भी होता है । च-पह (: ) 'दोनों-और', (२) 'एक ओर-बरी ओर',
'यद्यपि-तथापि', (३) सुयोंही-त्योंही' ।
चेर-मच-मइद) (यदि) यह कभी भी वाक्य या पाद के प्रारम्भ में
नही आता (परन्तु 'यदि' प्रारम्भ में आता है) । अथ चेत (परन्तु यदि) ।
'न चेर या 'नो चेर' (यदि नहीं-यच-अन्यथा)--" विमृश्य कर्तव्यं तो चेत
पश्चाताप व्रजिष्यसि (ठीक विचार करके ही सब काम करना चाहिए, अन्यथा
पश्चाताप करना पडेगा) । 'चेले-मदि नाहीं)----" चेन्न तदन्यथा (यदि
ऐसा होनहार है, तो इसके विपरीत नहीं 'होगा) । इति चेन्न--यदि आपकी
यह आपति है तो यह ठीक नहीं है ।
जातु-(१ ) सर्वथा, कभी । (२) संभवत:, शायद, (३) एक बार एक
दिन । 'न जातु' (कभी नहीं, सर्वथा नहीं, किसी प्रकार नहीं) ।
तत:---":) वहाँ से, (२) तब, उसके बाद । 'त्-त:'---. बाद,
कहते रहिए (जो आप कह रहे थे, उसे कहते रहिए) ।
तथा-प : ) वैसे इस प्रकार, तदनुसार । (२) इसी प्रकार, भी, और भी,
और (यच, और अर्थ) । (३) (ऐसी ही बात है, हाँ ऐसा हो जाएगा है
'तथा च-और भी, इसी प्रकार । 'परि-तथापि, फिर भी । 'तथा हि'
उ-क्योंकि, उदाहरण के रूप में, यदि नमत: । 'तथेति-हाँ ।
तर-जिद शब्द का नप, प्र० ( )--तब, उस अवस्था में, (२) इसलिए,
तदनुसार है राजपुत्रा वय, तद विग्रह ओत न: कुतूहल-सति-हम राजकुमार
है, अत: हमारी उत्सुकता है कि हम युद्ध का वर्णन सुने ।
तावत्-प () तब तक (याप-जब तक, का यह संबद्ध शब्द है); (२)
तब तक, इस बीच में; (३) पहले, 'ममत:; (४) त्योंही, ठीक इसी समय
तुरन्त (इसके साथ लोद नकार का प्रयोग होता है, अर्थ होता है-सबसे
पहले, सब काम छोड़कर) : दृतम्तावदागम्यनामू---कृपया तुरन्त इधर
आइए । (५) अभी, तो (यह 'कभी' का विलोम शब्द है) । (६) केवल;
: ३६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ५-१८०

(७) तो, कम से कम, सर्वथा-न तायंमानुनि (वह मानव मत्री तो सर्वथा


नहीं है) । (य) (पादपूत्येर्थका वच:, अवश्य, यह सत्य है कि, (इसके बाद
चु' लगता है-किन्तु' आदि) । (९) किसी विचार को पुष्ट करता है
(जैसे-एव' करता है)----) तक, जहाँ तक इसका संबन्ध है, केवल,
अभी, या अर्थ पर जोर देने का ही काम करता है ।
तावत्-च (कठिनाई से-तब), न ताप (अभी नहीं) ।
तुर-निह वाक्य के प्रारम्भ में नहीं आता) । किन्तु, तथापि । यह कब
कभी 'च, या 'वा' के अर्थ में आता है याकेवल पादपूत्र्यर्थ होता है । यह कभी
कभी 'च' के साथ भी आता है और कभी कभी उसी वाक्य में दो वार भी
आता है । अपि तु-अपि तु, गोक; न तु-सन कि-, न 'श-वेब तु-यथा
नहीं, परन्तु-किन्तु, फिर भी; तु-त्रि-व.: स-किंतु; च-- न तु
यद्यपि-मशाप नहीं ।
न-नहीं । अनि-मसूचक सर्वनाम के साथ इसका अर्थ 'नाहीं' होता है ।
जैसे-न कोय-कोई नहीं, अर्थात् कोई आदमी नहीं । न किंचित्-कुछ
नहीं । न मजित-कहीं नहीं । न कदाचित्-कभी नहीं : दो पर आने मार
(न-न) बलपूर्वक 'हाँ' का अर्थ होता है । जैसे-न तत्र यमन बभूव
तर्पित:---वहाँ कोईऐसा व्यक्ति नहीं था, जो सन्तुष्ट न हुआ हो, अर्थात्-
वहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति सर्वथा सन्तुष्ट हो गया था । नापि-न तो । नैव-
सर्वथा नहीं ।
ननु-पन-मनु) ( : ) नहीं ? ऐसे प्रश्नवाचक वावयों में जिनके उतर की
'हाँ' में आशा की जाती हो (लेटिन 11.1110).- अवश्य, वच: । नाक ते
प्रिया-क्या मैं वस्तुत: आपका प्रिय हूँ ? (२) ननु का प्रश्नवाचक सर्वनामों
और लीद, लकार के साथ अर्थ होता है-कृपया बताइए । ननु को भवा.
कृपया बताइए आप कौन हैं ? ननु उध्यतामू-कृपया बताइए । (३) तर्क या
युक्ति में इसका अर्थ है-----'--., ऐसा नहीं है कि' अर्थात्-इस पर यह
आपति है कि' इसके बाद अत्श्चियते' का प्रयोग होगा, जिसका अर्थ है-
आपकी बात का उत्तर है ।
नि० ५-१८०] अव्यय-उपसर्ग १ ३७
२ नाम-सका कियो-विशेषण के रूप में अर्थ होता है-नाम बाला' ।
जैसे-नलों नम-नल नाम वाला । इसके अतिरिक्त निपात के रूप में इसके
निम्नलिखित अर्थ होते हैं :---( १ ) वस्तुएँ, अवश्य, निश्चित रूपसे । जैसे
मया नम जिप-मैंने वच: जीता है । (२) संभवत । दृष्टरत्वया वाजिद
धर्मज्ञों नाम-तुमने संभवत कोई धर्मात्मा व्यक्ति देखा है । ( ३) व्यग्य के
रूप में, प्रश्नवाचक शब्दों के माथ-च-भला कौन । को नाम राजी प्रिया -भलर
कौन राजाओं का प्रिय है ? (भा लोद अकार के साथ-ने-माना कि, भले ही,
इतना अधिक । स धनी भवतु नम मह भले 'ही धनी हो है
अल नाम-प : ) वाक्य के प्रारम्भ में विधि.: के साथ-च 'संभवत:' ।
(२) अकेला 'अपि' शब्द जितना बल दे सकता है, उससे अधिक यह पूर्ववर्ती
शब्द पर बल देता है । ननु नाम-अवश्य, वस्तुता । ननु नामाहमिहां किल
तव-मैं वच: तुम्हारी प्रिया हूँ ।
नु-पब' प्रश्नवाचक शब्दन के साथ-द्या-र भला कौन ? को नु-मला
कौन ? नु-नु-च-जहाँ पर यह दुहरा प्रश्नवाचक के रूप में प्रयुक्त होना है,
वहाँ इसका अर्थ होता है, था अथवा वहाँ । अयं भीमो नु, धर्मों नु- क्या यह
भीम है अथवा धर्म है ?
नूनम्-य-यह प्राय: वाक्य के प्रारम्भ में आता है-च-अवश्य, निश्चित रूप
से असंदिग्ध रूप से है नूनं मल न दोषहित नैषधस्य-मैं यह निश्चितरूप से
मानता हूँ कि इसमें निषध के राजा (नल) का कोई दोष नहीं ।
नए (न ) उ) दुमका वेद में अर्थ था-जार नहीं', अथवा न-रि", ।
किन्तु संस्कृत में इसका अर्थ केवल 'नहीं" । (देखो.) ।
परब-प : ) बहुत अधिक बहुत, पूर्णतया । परमनुगृहीतोय-- मैं बहुत
अत्-श्व, कृतज्ञ हूँ । (२) अधिक से अधिक । आयुस्तत्र मत्र्यानां परं पवार
भवति-वहाँ पर मलयों की आयु अधिक से अधिक ३ ० (वर्ष की) होनी है है
( ३) केवल, सिर्फ । विषयों (त: परं न ते-तुम्हारे केवल सील ही नहीं हैं ।
(भा किन्तु, परन्तु, तथापि । सर्वशास्वपारगा: परं बुद्धि-हिता:--- वे सभी
शलत्रों में पारंगत हो गए हैं, किन्तु बुद्धि से रहित है ।
पुन:--":) फिर, दुबारा, (२) दूसरी और, इसके अतिरिक्त, इसके
विपरीत, किन्तु । पुन: पुन: या केवल पुना-व्य-बार बार, कई बार ।
१ ३८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० (. १ ८०

प्राय:, 'मयश:, प्रायेर.१) प्राय:, अधिकांश.", सामान्यतया । (२)


अधिक संभव है ।
बाप-ना () अवश्य, निश्चित रूप से, वच: । (२) स्वीकृति-सूचक
'बहुत अच्छा' । (३) अनुमतिसूचक---" 'हाँ' यह ऐसा ही है' ।
मा-यह निषेध-क निपात है और सामान्यतया इसका प्रयोग लद
लकार तथा अ-रहित अई लकार के रूप के साथ होता है । जैसे-मा गच्छ
या मा गम:--. जाओं । मा स्म-पूर्वोक्त अर्थ में ही उक्त प्रकार से
प्रयुक्त होता है । मा और मैक (मा एवम्) दोनों अनुदात्त रूप में प्रयुक्त
होते है, अर्थात् ऐसा नही, मत : इसी प्रकार मा तावत्-रसा न हो कि,
'परमात्मा न करे कि'; मा नामं-इसका विधि-: के साथ प्रयोग होता है--
ऐसा न हो कि, कहीं ऐसा न हो है मा नाम रधिया-कही ऐसा न हो कि
वहां सिपाही हों ।
मुहु:-(१ ) प्रतिपल, निरन्तर, बार-वार (यह प्राय: द्विरुक्त 'मुहुर्त-हु:'
प्रयुक्त होता है) । (२) इसकेविपरीत । मुहु:-मुहु:पब ऐसा-अब ऐसा,
कभी ऐसा-कभी ऐसा ।
यहि-पद शब्द का पंचमी एक० का रूप है) । (१) जहाँ से (इसका
अर्थ प्राय-कहाँ' और 'किधर' भी होता है) । (२) किसलिए, करों । (३)
क्योंकि, चूकि (पूर्व वक्तव्य की पुष्टि के लिए कोई श्लोक उस करते समय
इसका प्राय: प्रयोग होता है) । (४) 'कि' क्योंकि' प्रश्न के बाद या तध्य
कथन से पहले । कि नु दु:खमत: परब, इच्छासंपदू यतो नास्ति-इससे
अधिक और क्या दुध हो सकता है कि इच्छा की पूति नहीं हुई ?
यत्र- ( : ) जहाँ, (२) यदि (३) जब, (भा जहाँ से लेकर ।
यथा-प () 'जैसे' यथाज्ञापयति देवा-जैसी महाराज की आज्ञा । (२)
तुल्य, सदृश ( व्य-च-इवा-राजने जैसी औवामिनी यथा-राजा भीम की पुत्री
(दमयंती) ऐसी शोभित होती थी, जैसे बिजली । ( ३) जैसे, उदाहरण के रूप
में । (४) जिस प्रकार कि, कयोंकि-यथा त्वदन्यं पुरुवं न मंस्वति---(योंकि
वह तेरे अतिरिक्त अन्य पुरुष को नहीं सोचेगी । (५) जैसे, जिस प्रकार-महि
तथा करिये यया स वध करिष्यति-या वैसा प्रकार करूँगा, जिस प्रकार
उसक: वध कर देगा । (६) कि-यह वाक्य के अन्त में आता है । इसके
नि० ५-१८०] अप-उपसर्ग १३९

साथ में 'इति' आना भी है और नहीं भी । यह (यत के तुक स्वीकृति


सूचक वाक्य का संयोजक होता है । जैसे---त्वयोवतं से यथा-तुमने मुझ से
कहा किया यथा यथा-म्-तथा तथा-मजैसे जैसे-वैसे वैसे) । स्थाथा-
जैसे कि, जैसे उदाहरणार्थ ।
यद-सा:) 'कि' यह असिम वक्तव्य को प्रस्तुत करता है । इसके साथ
अन्त में 'इति' आता भी है और नहीं भी । जैसे-वक्तव्य. यदिह मया हता
प्रियेति (कह देना कि मैंने अपनी प्रिया का यहां वध किया है) : (२) जिससे
कि' 'कि, । कि यल बता त्वत् (क्या कारण है कि तुम नही जानते हो ? ) ।
(३ ) जिससे कि' । कि शकों कहीं यल रायते नृप: (क्या किया जा सकता
है, जिससे कि राजा क्या न हो ?) । (भा 'क्योंकि' 'चूकि' :
यदिन्या१) यदि (देखो.), यदि वा-पवार 'या-अजार
यदि वा ज्ञानात् (जानते हुए अथवा अनजाने) 1 (२) 'फिर भी' । यद्यपि---
यदि-परि, 'यद्यपि' ।
यावत्---":) (संबद्ध शब्द तावत् के साथा । 'जबतक' 'तक' ।ज्य"न्हों' ।
(त्) 'इस बीच' 'अभी' अभिप्रेत कार्य को प्रकट करते हुए :----यावदिमां
छायामाधित्य प्रतिपालयामि ताब (इस छाया का आश्रय लेकर मैं अभी उसकी
प्रतीक्षा करता है । यास-यावत्-स्था, (:) 'जब तक नहीं-च-तिक' । (२)
'यदि नहीं' : न यावत्-तावत् चब तक नहर-तब तक' 'ज्योंही-तभी' :
थेन-नाती) 'जिससे' "जैसे' (इसका संबद्ध शब्द 'तेन' है) है (२) 'जिस
कारण से' 'जिस लिए' 'जिससे' है प्रश्य7० येन न दृश्यनी महीक्षित: (सुनो, जिस
कारण से राजा लोग दिखाई नहीं पड़ते हैं) । (३) 'क्योंकि' 'चूकि' (सामा
न्यतया यह संबद्ध शब्द तेन के साथ आता है): दूरस्थामपि येन पश्यसि कच्ची
तं गोरों मम चशुययुपदिश(क्योंकि तुम मेरी दूर स्थित पत्नी को देख रहे हो,
अत: मेरी दृष्टि को भी उस योग का उपदेश दो) । (भा 'जिससे कि' । उपायों
दृहो येन दोषी न भविता (एक उपाय सोच लिया गया है, जिससे कोई बुराई
नही होगी) । (५) 'जिस कारण से' 'जिससे' । तस्य उच्छात्रनां वजामि येन
विश्वस्त. भवति (मैं उसका छात्र बनजाऊंगा, जिससे वह विश्वस्त हो जाए) है
है४भी संस्कृत-वैयाकरण-प्रवेशिका [नि० पू.१ ८ ०
वत-तुल्य' । यह समस्त पद के अन्त में लगता है और इसका 'इव' के
अर्थ में प्रयोग होता है । मृतवत् (मृत-व्यक्ति के तुल्य) ।
वर".-----'.---, अच्छा है-यन नि----.' अपेक्षा-मामल
है' । सामान्यतया 'न' के बाद च, तु या पुन: का प्रयोग होता है) । वरं
प्राण-त्यागी न पुनरधमानाब उपागम: (नीची से समागम की अपेक्षा मर
जानावा-अनुदात्त
अच्छा है) । निपात (लेटिन--) । यह संबद्ध शब्द के बाद आता है

(छन्द की आवश्यकता के अनुसार यह संबद्ध शब्द से पहले भी आता-है) ( ()


'अथवा' (२) 'विकल्प से' 'या' । जातदन्तस्य वा कुस-: (बच्चे के डाल निकलने
पर ऐरिक रूप से हवि देने का कार्य करें) । (३) सु-य' 'सदृश' (व्य-च-इव)
जानां मंये शिशिरमधितां पजिनी वापुन्यरूषाब (ने समझता हूँ कि वह पाले
से मारी हुई कमलिनी के तुल्य दूसरी ही आकृति की हो गई होगी) । (2)
प्रश्नवाचक शब्द के साथ, 'क्या लाभ' । काणेन चक्षुषा कि वा (कानी आँख
से क्या लाभ ?) । वा-वाराह-या यहाँ ।
वै-प्राचीन संस्कृत में इसका प्रयोग पूर्ववर्ती शब्द पर बल देने के लिए
होता था । यह अब संस्कृत-काव्यों में केवल पकते के लिए प्राय: प्रयुक्त
होता है । )
सत्यम्-सा:) वस्तुत-अवश्य, निश्चय से । (२) ठीक ढंग से, वस्तुतत्,
उचित रूप से । (३) सत्य है, यह ऐसा ही है । (४) आपका कहता ठीक है ।
(उतर के रूप में) । (था यह ठीक है-किन्तु (तु, कि तु, तथापि के साथ) ।
ह-यह अनुदात्त निपात है । प्राचीन संस्कृत में यह पूर्ववर्ती शब्द पर कुछ
बल देता था, किन्तु परकालीन संस्कृत में यह केबल परत के लिए प्रयुक्त
होता है और अधिक.: पद्य के अन्त में रहता है ।
हि-यह वाक्य के प्रारम्भ में कभी नहीं आता, किन्तु प्रथम शब्द के बाद
प्राय: प्रयुक्त होता है (१ ) क्योंकि । (२) वच:, अवश्य । त्व हि तस्य
प्रियवयस्य: (तुम वस्तुत: उसके प्रियमित्र हो): ( ३ ) प्रश्नवाचक शब्दों या लोट
उबर के साथ-भला' । कवं हि देवाज्ञानीयात् (मैं भला देवताओं को कैसे
जान सकता है 1) तद्धि दर्शय (भला, उसकी दिखाओ) । (४) इसका प्रयोग
प्राय: पकते के लिए होता है, विशेषरूप से प्रकृतिभाव को दूर करने के लिए
कि (.१ ८०] अव्यय-उपसर्ग :४:

या पद्य में पूर्ववर्ती वर्ण को गुरु वर्ण करने के लिए । कभी कभी एक ही
वाक्य में दो बार 'हि' का प्रयोग ;होता है ।
विस्मय-क अव्यय (निजि"""')
१८ (. अपि-अह संबोधन के साथ प्रयुक्त होता है या संबोधन का स्थान
ग्रहण करता है । अरि-वा-हे, अरे, अजी, हे मित्र । अधि मकरोद्यानं गत्त्छाव:
(हे मित्र, हम दोनों प्रेमवाटिका में जाते हैं) ।
आये----) : ) यह आश्चर्य-चक निपात है । मुख्यतया यह नाटकों में आता
है । भी वसन्तसेना प्रा८ता (आह, वसन्तसेना आ गई है 1) । (२) कभी कभी
इसका प्रयोग अधि के तुल्य स-बोधक-सूचक निपात के रूप में होता है
अरे-यह संबोधन-सूचक निपात है । अरे-तोरे, ओ, हे ।
अहह-त्:) यह आनन्दसूचक अव्यय है । (त्) दु:ख या हाय का अर्थ
प्रकट करता है । अहह महापत्के पतितोपुडिम (हाय, मैं गहरे कीचड़ में फँस
गया है) ।
अहो-यह आशचर्य, प्रसन्नता, ., क्रोध, प्रशंसा या आक्षेप-सूचक
अव्यय है । यह साध-तया प्रथमान्त के साथ प्रयुक्त होता है । को गीतस्य
माधुर्यए (ओह, गीत की मधुरता ) यहीं हिरण्यक इला-कास (ओह, है हि
ययक, तुम प्रशंसनीय हो !) ।
आ-मदेखो नि० २४) सहसा स्मरण को सूचित करने के लिए मुरुयतया
इसका प्रयोग होता है । अया एवं किल तत (ओह, वस्तुत: यह ऐसा था 1) ।
आ:--- (देखो नि० २४) यह अ।नन्द यथा रोष को सूचित करता है । आ:
अतिधिपरिभाविनि (आह, ओ अतिथि का तिरस्कार करने वाली ! ) ।
कदे-खेद है, दुध है । यह प्राय: धिर या हा धिर के साथ मिला
हुआ प्रयुक्त हल है ।
दिष्ट-जा-हि, भाग्य से) सौभाग्य से । इसका प्राय: बुधु, धातु (बढ़ना)
के साथ प्रयोग होता है । 'तुम समृद्ध हो रहे हो' अर्थात् "प्रसन्नता की बात है'
बधाई व्याह' । दिल महाराजो विजयेन वर्धते (विजय के लिए महाराज को
बधाई (.) । हैं
धिकू---यह अस-मतोष, घृणा और खेदसूचक अव्यय है । प्रकार है ।
(४२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ५. ( ८ १

इसके साथ नियमितरूप से द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । प्रथमा,


संबोधन और अभी भी इसके साथ मिलती हैं । धिर त्वामस्तु, तुझे धिक्कार
है !) ।
बत-यह आश्चर्य और खेद को सूचित करता है । इसी अर्थ में अन्य
विस्मयमूबक अव्यय भी इसके सम सख्या हो जाते हैं । बता रे, अहो बल अधि
बत ।
भो:-, १ ) सामान्यतया किमी व्यक्ति को संबोधन करने का सूचक अव्यय
है, 'हे' 'अरे' । यह भवन शब्द पा-लग गोधन एकवचन (भग) का संक्षिप्त
रूप है । यह पुरुष और यत्न दोनों को संबोधन करने में प्रयुक्त होता है है मके
साथ बहुवचन कन प्रयोग होता है । यह प्राय: दो बार पता जाता है उ-भी
भो: पण्डिता: (ओं पण्डितों 1) । (२) इसका कभी-कभी आप-मभाषण में भी
'हाय' अर्थ में प्रयोग होता है ।
साधु--, () बहुत यच्छा, शाबाश । (२) लर केमाथ---'आअंर । बमय
नया: पण: साधु वतय (आओं, दमयन्ती को बाजी पर लगाओ) । (३)
अच्छा, इसके साथ लद उ० पु० का प्रयोग होता है । साधु यामि (प-छा, मैं
अभी जा रहा हूँ) । (४) अवश्य, निश्चित रूप से । यदि जीवामि सामन
पबयेयब (यदि मैं जीवित रहा तो उसे अवश्य देखूगा) (
स्वस्ति-प:) कल्याण हो, शुभ हो । (२) जय हो ।
हात-प : ) उपदेशादि सुनने के लिए आब संस 'आयो' 'देखो' 'प्रार्थना
करता हूँ' । हन्त ते कथयिध्यामि (आओं, मैं तुम्हें बताऊंगा), 'मगु, सत (मेरी
प्रार्थना है, सुनो) । (२) यह खेदसूचक है-हाय । ये. यह प्रसन्नता, आश्चर्य
और शीधता को सूचित करता है : ओह, आह ।
हा----: . यह आश्चर्य या संतोष को प्रकट करता है प-आह !'(२ ) यह
दु:खसूचक है उ-हाय । हा हत-रिम (हाय, मैं मर गया) । यह प्राय: संबोधन
के साथ आता है । कभी कभी इसका प्रयोग द्वितीया-ल के साथ होता है
अफसोस है । इसके साथ कक्ष, धिकू, या हल का भी प्राय: प्रयोग होता है ।
अध्याय-६
कृदन्त और तडित रूप तथा समास
(1..11-1 प्र११३ सिरहुं१1"१०० धागा 600190.6)
(अ) कृदन्त और तद्धितरूप (5001.1 प्रजा)

१८२. यद्यपि कुछ कृदन्त शब्द केवल शुद्ध धातु ही होते हैं, तथापि कृदन्त
और तद्धित शब्द मुख्यतया धातु कैबादप्रत्ययलगाकर बनाए जाते है । येप्रत्यय
दो प्रकार के हैं उ-प : ) कृत प्रत्यय (पगा": 8111828), ये धातु के बाद
तुरन्त लगते है (धातु से पूर्व उपसर्ग भी हो सकते हैं) । (२) यत प्रत्यय
8.111-7 8.16.0, ये प्रत्ययान्त शब्दों से होते हैं ।
(() कृदन्त रूप-कृदन्त रूपों में धातु प्र-य: अपने सबल (.118) रूप
में रहती है । जैसे-विद (जानना) जि-वेद (ज्ञान) । अर्थ की दृष्टि से इन्हें दो
भागों में विभक्त किया जा सकता है--(१) भाववाचक संज्ञा शब्द, (२)
कवंवाचक संज्ञा शब्द । इनका कर्ता और कर्म के रूप में प्रयोग होता है ।
जैसे-मत (सोचना) रारा-मति (स्वीलिग, बुद्धि) । युधु (लडना) प्रयत्न (दूमा,
योद्धा, लड़ने वाला) । अन्य आय इनके ही परिवर्तित रूप हैं । अत: कुछ भाव
वाचक संज्ञा शब्द मूर्त अर्थ के द्योतक हो जाते हैं । जैसे-नी (ले जाना) राज
नयन (नप., ले जाना) का अर्थ नयन (नेम, ले जाने वाला अग) हो जाता

(क) जब केवल शुद्ध धातु ही प्रातिपदिक (संज्ञा शब्द) के रूप में प्रयुक्त
होती है, तब प्राय: इसमेंकोई अन्तर नहीं होता है । जैसे-विष", देय करने
वाला, शब) (८०) । भी (स्वी० युद्ध, प, योद्धा) । इस प्रकार के बहुत से
शब्द समस्त शब्द के अन्त में प्रयुक्त होते हैं । जैसे---०दुहादुहने वाला) (नि०
८१ ) । आ अन्त वाली धातुओं के आ को अव होकरय हो जाता है नथाइ,
उ और ऋ अन्त वाली धातुओं के वाद तू लग जाता है । ये शब्द समास के
१४४ पन्त-व्य-ण-प्रवेशिका नि० ६-१८२]
अन्तिम पद के रूप में होर रहते हैं । जै-सुकृत्त (अच्छा कार्य, सत्कर्म,
प्र) (देख नि० १८७ ख) है
(ख) धातु बीती होने वाले बहुत से कृत प्रत्ययों का पर्याप्त विस्तार के साथ
वर्णन हो चुका हैं । जैसे-वर्धमान और भविष्यत्अर्य में होने वाले कूद प्रत्यय
:-91 (नि-, ८री, १ ५६), आन और मान ( १ :.); जिर के स्थान में होने
वाला वात (८९, : ५७), कर्मवाव्य भूतकाल में जिन्होंने वाले त और न ( १ ६०);
कृत्य प्रत्यय-मय, तव्य (,- और य ( १६२) । जिन शब्दों से तुलना-क
ईयर और इष्ट कृत प्रत्यय लगाकर कृदन्त शब्द बनाए जाते हैं, उनका वर्णन
पहले किया जा चुका है (८८; १ ० ३, २) । शेष में से निम्नलिखित कृत-प्रत्यय
आवश्यक है और अधिक प्रयुक्त होते है । ये अकारादि-क्रम ते नीचे दिए जा
रहे है :
अ-इससे प्रातिपदिक और विशेषणशब्द बनतेहैं । जैसे-तृन (बनाना)
उ-सर्ग । जि, सृष्टि); मिल परत होना) है मेघ (यु०, बादल, शब्दार्थ---
बरसने वाल"; भन् (बांटना) प्रभाग (पू०, हिसा); प्री (प्रसन्न करना) है
प्रिय (प्रसन्न करने वाला, प्यारा) । ये यप्रत्ययान्त प्राय: सभी शब्द नियमित
रूप से पूलिग है, किन्तु युग(नपू०, जुआ) शब्द नप" है (लेटिन-.--) ।
अब-पर कर्ता-बोधक संज्ञा शब्द । कुछ अपूर्ण न११० शब्द भी है । जैसे
उ-राजद जि, शासन करने वाला, राजा) (९०, () । अहमद (नस, दिना
(९१, २) है
अन-उ-नारि, भाववाचक संज्ञाशब्द । जैसे-पशु- (देखना) प्रदर्शन (नपु०,
दृष्टि); धुन (खाना) उ-भोजन (प, भोजन) । ये कहूँ-बोधक संज्ञाशब्द भी
होते है । जैसे-पहन (नस ले जाने वाला, सवारी) । बहुत कम अवस्थाओं
में इसमें गुण का अभाव रहता है । जैसे-कृपण (रोसा, दयनीय) :
था आ, उस-नग्र, भाववाचक संज्ञा शब्द, प्राय: मूर्त अर्थ वाले ।
(नि० ८३) । जैसे-मप (वाणी), (ज्यत्तिन् (प्रकाश), धनुन् (धनुष) ।
१ह इन दो कूत्य प्रत्ययों का उत्तरभाग ईय और य यत प्रत्यय है (१८२चिं, किन्तु
ये पूरे प्रत्यय कूद प्रेत्यय के तुल्य प्रयुक्त होते हैं (१ ६वा३) है
२. बय का पूवेभाग संभवत: प्राचीन तुमर्थक प्रत्यय तवे से लिया गया है : (परिशिष्ट
ले, १३ ब है
नि० लि१८२] बता सहित तथा समास १४५

इ-मस्का, भाववाचक संज्ञाशब्द, कर्युवाचक संज्ञान भी । विशेषण


और संज्ञा-प-च, तथा कुछ अज्ञात उत्पति वाले नप-मलिग भी । जैसे-कृषि
(मरीमा, जोतना); शुचि (चमकने वाला); पाणि (पूव हाथ), अक्षि (नयु",
आँख), अस्थि (नयु", हडूस्का, दधि (नयु", दही) (देखो नि० ९९यो३) ।
उ-सावचुक संज्ञाशब्द, विशेषण और संज्ञाशब्द । संज्ञान अधि
कोशला प-लिग होते हैं, किन्तु इनमें बहुत से स्वी० और नप, शब्द भी होते
है । जैसे-तनु (पतला) (लेटिन-पप; बाहु (पल हाथ); हनु
(स्वी०, तोती); जानु (नपूँ०, घुटना) ।
उन-विशेषण शब्द और दु० तथा नयु० संज्ञाशब्द । जैसे-तरुण
(युवक); मिथुन (प.) (नप, जोडा), शकुन (प., पक्षी) है
ऊ-अभि, अधिकांश शब्द युलिग और उ अन्त वाले स्वीलिग शब्दों से
मिलते- जुलते हैं । जैसे---, (शरीर, स्वतंत्ररूप से बना हुआ शब्द); चमू
(सेना), वधु (बहू) ।
त-यह सामान्यतया कम-य भूतकालिक प्रत्यय है, साथ ही यह व्या
मरूप से, विशेषण और संज्ञायंदों में प्रत्यय का काम करता है । जैसे--
शीत (ब, असित (काला), दूत (यु, दूत), हस्त (पू., हाथा ।
ति--स्वीलिग, भाववाचक संसद । जैसे-भूति (कुशलता; कल्याण);
जाति (जन्म); ज्ञाति (संबन्धी) । यह कभी-कभी मूर्त वस्तु पुरुष को द्योतित
करता है, अत: पृमिग भी माना जाता है ।
तु-यह मुख्यरूप से तुमू-प्रत्ययान्त शब्दों का आधार है । जैसे-गय
(जाने क्या । तु-प्रत्यय-त कुछ पूँजी और नप, संज्ञा शब्द भी होते है ।
जैसे-तंतु, (पल धागा), हेतु (धि", कारण), (प्रेरणा देना अर्थ वाली हि
धातु से यह शब्द बना है); वास्तु (नथ, निवास स्थान) ।
तु-पूल कर्युवाचक संज्ञा शब्द । जैसे-कहूँ (करने वाला) । संबन्ध
बोधक नामों वाले आलय और प-लिंग शब्द भी तृ-प्रत्ययान्त हैं । जैसे-
मातृ (स्वी०, माता), पितृ (पट पिता) :
वा-मपृ., नयु०), वा (स्वम्), साधन या हेतुवाचक शब्द । जैसे
पा (पीना) धातु से पात्र (नहिं, (), दर (काटना) से देह (पू., काटने
१४६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६.:८२
वाला, दाव), मत (सोचना) से मंत्र (यु०, प्रार्थना); मा (नापना) से मात्रा
(स्वी०, मावा, परिमाण) ।
थ-पप., नदु०), था (मवं")---" (प, अर्थ, लक्ष्य,); तीर्थ (नयु",
वाट); गाथा हिंत्री०, गीत, गान) ।
न-पम, नप.), ना (स्त्रम्)-ये कम-य अकाली कृदन्त रूप
बनाते हैं ( : ६०, : ), साथ ही विशेषण और संज्ञा शब्द भी होते हैं । जैसे--
कृष्ण (काला); वर्ण (पट रंग); पर्ण (नप., पंख); अम (स्वी०, प्यासा ।
नि-जमा, स्वी०)-र्जसे-तीन (पट अलि) (लेटिन-मनि);
श्रेणि (स्वया, पंक्ति) ।
नु-साप, स्वी०) जैसे-भानु (पट प्रकाश), सूत (युमा, पुजा, बेनु
प०, गाय) ।
मा-विशेषण, प, संज्ञाशब्द । जैसे-भीम (भयंकर), घूम (पल धुआँ) ।
मब-मप-, नप.) मुख्यतया नप, भखवाचक संज्ञाशब्द । जैसे-
कर्मन निपट कर्म); वहाब निपट प्रार्थना); अश्यन् (पट पत्थर); वहन
(पू., प्रार्थना करने वाला, स्वीता) ( ९फ३) ।
मि-न्याय, स्वम्), भी (स्वी०) जैसे-रयिम (पट किरण); भूमि
(स्वम्, पृथ्वी); भूमी (स्वी०, भूमि); लम्भी (लता, समृद्धि) । मैं
यु-पप.) जैसे-मन्ह (कोव); मृत्यु (मृत्यु) ।
र-(विशेषण), (पृ-नप, संज्ञाशब्द) जैसे-नायक; रुद्र (पूव)
शिव (एक देवता का नामा; अभ्र निपट बादल) ।
रु-मविशेषण), (नयु", संज्ञा शब्द) जैसे-भीरु (डरपोक); अश्रु
(नप., आँसू) :
व-पपप:': संज्ञा शब्द) जैसे-सर्व (सब) (लेटिन-साप-)
अश्व (पट घोडा) (लेटिन-पय-मु) ।
यब--(विशेषण), (प., नदु०, संज्ञा शब्द) जैसे-पल (मोटा) ;
ग्रावत (पल पत्थर (९०, जा; पर्वत (नमुं०, गांव जोड़) है
नि० ६-१८२] कृदन्त, तद्धित तथा समास १४७

२- तद्धित प्रत्यय (लिप्रा०जि1गा प्र०0भी1र्धा [यज)


अ-मविशेषण); (यु०, नधि० सज्ञाशब्द) इससे विशेषण शब्द बनते हैं ।
इनमें प्रथम स्वर को वृद्धि होगी । ये शब्द मूल शब्द से संबन्ध या पुत्रादि
संबन्ध को सूचित करते हैं । जैसे मनु (मनु व्यक्ति या आय) से मानव (मलय
संबन्धी) । इनमें से बहुत से शब्दधि० सज्ञावाचक शब्द हो जाते हैं । और ये जब
भाववाचक होते हैं तोनयु० होते हैं । जैसे-मनव (यु०, मलय); वैस्वामित्र
(: विश्वामित्र का वंशज); पौरुष (पुरुष-संबधी; नदु० पुरुषार्थ) । इन
शाब्दों में जब प्रथम स्वर को वृद्धि होती है तो स्वीलिग में इनके रूपों में अन्त
में ई अवश्य लगती है ।
आ-अकल प, और नप, शब्दों को स्वीलिग विशेषण शब्द बनाने
के लिए आ लगाया जाता है । जैसे-कान्त (प्रिय) से कान्ता (प्रिया).) है
आनी-अकल देवतावाचक शब्दयों से स्वीलिग शब्द बनाने के लिए
अन्त में 'आनी' लगता है । जैसे-इंद्राणी (इन्द्र की पत्नी) ।
आयन-नाप, ) इससे अपत्यार्थक (सन्तान-क) शब्द बनते हैं और
प्रथम स्वर को वृद्धि होती है । जैसे-मआ-यन आवल का पुती ।
रू---]', अपत्यार्थक शब्द, प्रथम स्वर को वृद्धि । मारुति (मरुतों का
पुर । इसी प्रकार सरथ (एक रथ पर घुमने वाला) शब्द से सारथि (सारथि,
रथवाहका ।
इब-युक्त या रखने वाला अर्थ में अकारान्त शब्दों से इब होकर विशे
क्षण शब्द बनते हैं । जैसे-बल (पट शक्ति) से बलिन् (बनवाना (निष्ठ ८७)।
ई-ति-यह स्वीलिग प्रत्यय है : हलन्त (व्यंजन अन्त वाले) प्रत्ययों से बने
हुए पूरे शब्द (.), तु-प्रत्यय" (: ० : उ०), उ-अन्तवाले अधिकांश
शब्द (९८ ग) और अ-अन्तवाले शब्दों (यदि शब्द में वृडिज्ञा हुई है तो
अवश्य) स्वीलिग में ई लगता है । जैसे-देव (देवता) से देवी (देवी) (देखो
नि० : ०७) ।
लि-इससे विशेषण शब्द बनते हैं, मुख्यतया अधर धातु से बने हुए
शब्दन से दिशावाचक शब्द । जैसे-प्रा-मर (पूर्व कीओ-र) से प्राचीन (प्राचीन,
पूर्वी) ।
१४८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६. १८२

ईसे-इससे सामान्य विशेषण शब्द बनते हैं । जैसे-पर्वत-पर्वतीय


(पहाडी), तदु-मंचीय (उसका) ।
का-इससे विशेषण और अतपार्थक शब्द बनते हैं । जैसे-अन्त मैं अन्तक
(समाप्ति) । वृद्धि के साथ बना शब्द प्र-वर्धा-वार्षिक (वर्था-संब-ची) है
राजन् ]प्रराजक (पट छोटा रागा; पुत्ररायपुत्रक (छोटा पुर । अ-क अन्त
वाले शब्दों का स्वीलिग प्राय: 'इका' होता है । पुत्रकत्त्वपुविका (छोटी औ) ।
तन-इससे समयबोधक विशेषण शब्द बनते हैं । जैसे-नूतन (वर्तमान,
नया), पुरातन (स्वीय-नी) (प्राचीन) ।
तम-इससे अतिशय बोधक (8.1.11)1.) तथ, संम्येय (.111319)
शब्द बनते हैं । जैसे-उत्तम (सबसे ऊंचा, उत्कृष्ट), शलभ ( १० ० वरा ।
तर-इससे तुलना-क शब्द बनते हैं । जैसे-उत्तर (अधिक ऊंचा) ।
ता-(स्वी० ), त्व (नमुं० )---भाववाचक शब्दों से 'पन' अर्थ में ता और
त्व लगते हैं । जैसे-देवता (देवत्व, देवाना, अमृतत्व (अमरता), मस्वत्व
(पांचपना, अर्थात पांच तत्वों में परिवर्तित होना, मृत्यु) ।
सं-विशेषण; पहुँ०, नयु० । उपसर्ग और किय-विशेषण शब्दों से संज्ञा
शब्द बनते हैं । जैसे-नित्य (सदा रहने वाला), अपत्य (नत", सन्तान),
अमात्य (पु, साची) (अमा-च-साथा ।
थ-विशेषण । इससे कुछ संख्या शहरों से सन्दयेय शब्द बनते हैं । जैसे
चतुर्थ (चौथा) ।
(ति-पु.': । इससे पशुओं के नाम बनते हैं । जैसे-लभ (गधा), वृषभ
(बैल) :
मा-विशेषण । इससे कुछ अतिशयबोबक शब्द बनते हैं, कुछ उपसगों
से । कुछ संखोय शब्द भी इससे बनते हैं । जैसे-जम (सबसे नीचा), मध्यम
(मशय का), पत्-मचम (पांचवां) ।
मत्-प, अ-अन्त वाले शब्दों को छोड़कर अन्य शब्दन से 'युक्त' या
रखने वाला' अर्थ में मत लगता है : जसे-सोनम, (यज्ञ की अग्नि रखने
वाला, अग्निहोत्री) ।
नि० लि१८२] कृदन्त, यत तथा समरस १४९

मय-विप्रा, (स्वी०, में ई लगेगा) 'युक्त' 'सहित' । जैसे-मनोव (मन


युक्त, आध्यात्मिक) ।
य---वि०, (पु., नप., संज्ञाशब्द । इससे 'संबद्ध' अर्थ में विशेषण
शब्द बनते हैं । प, में अपत्य अर्थ और नप, में वृद्धि-सहित भावात्मक शब्द
तथा बिना वृद्धि के सामन विशेषण शब्द होगे । जैसे-ग्रीवा (गर्दन),
मैया (ग्रीवा-संबन्धी); आदित्य (प., अदिति का पुत); सुभग (सुन्दर भाग्य
से युक्त) रा-सौभाग्य (नकुं०, सौभाग्य); पितृ (पिता) जि-पि-व्य (पैतृक) ।
र-उपसगों से र लगकर तुलनार्थक शब्द बनते है तथा अन्य शब्दों से
विशेषण शब्द । जैसे-अबर (अपेक्षाकृत नीचा), धूम (तर) रारा-धुम (भूरा,
मटर्म.) ।
ल-विशा; पूँजी संज्ञा शल:: । इससे कुछ विशेषण तथा कुछ अत्पार्थक
शब्द बनते हैं । जैसे--ष्कपिल (बन्दर के रंग का, भूरा), बहुल (अधिक); वृषल
(प, छोटा आदमी, नीच जाति का व्यक्ति, शुद्र) ।
बत्-वि०, 'युक्त' अर्य । जैसो-प्रबल (सन्तप्त?), नभस्वत् (मेघ
युक्त; प,हैं वायु) ।
यत्-इससे 'युक्त' अर्थ में विशेषण शब्द तथा कुं० संज्ञा शब्द होते हैं ।
जैसे-मधक, (पु"., धनबाद यह इन्द्र का विशेषण है), अथर्वन् । (पु.,
पुरोहित) । जा
विद-इससे 'युक्त' अर्थ वाले विशेषण शब्द बनते हैं । जैसे-यश'
(की-ला, यशस्वी) ।
१८३. उपकर प्रत्यय-सूचियों से संस्कूत-संज्ञा शरद के लिग-निर्धारण
के कतिपय नियम प्राप्त होते हैं । उनको संक्षेप में निम्नलिखित रूप में रख
सकते हैं :
सामान्यतया कहा जा सकता है कि दीर्घ स्वर आ, ई और ऊ अन्त वाले
सभी शब्द स्वीलिग होते हैं । अ, तू और तू अन्त वाले शब्द दुलिंग और नाथ
सकते होते हैं । इ और उ अन्त वाले शब्द सभी लिंगों में होते है ।
(का आ ई, ऊ, ता, वा और ति प्रत्यय अन्त वाले सभी शब्द स्वीलिग
होते है है
( ५मा संस्कृत-व्य-रण-प्रवेशिका [नि० ६.(८३

(ख) त्व, रु, इसु, उब और (प्राणी केनाम कोछोड़कर) अत तथा (कर्ता


अर्थ वाले शब्दों को छोड़कर अन प्रत्ययान्त सभी शब्द नप-कलिंग होते है ।
(ग) त, व, यु, आयन, इ (अपत्यार्थक), क, भ और ल प्रत्ययों से बने
सभी शब्द प-लिग होते है (यदि ये विशेषण के रूप में प्रयुक्त न हों तो) है
(थ) प-लिग और स्वीलिग :--नि, नु, मि, तू प्रत्ययों से बने सभी शब्द
और केवल शुद्ध धातुरूप वाले शब्द (यदि विशेषण होंगे तो नप, भी) दु०
और स्वी० होते है ।.
(डा प-लिग और नप-सक-लग प्र-अ, थ, न, उन, म, य, र, त्य, अ, तु,
अनु, मब, वद, तथा इद, विन्, ईन, ईय तन, तम, तर, मय, मत और वत
प्रत्ययों से बने विशेषण शब्द पहुँ० और नयु० होते हैं ।
(च) पल स्वी० और नप. उ-इ और उ प्रत्ययों से बने सभी शब्द
तीनों लिंगों में से किसी में भी आ सकते है ।
(आ) समास (जि-माय""')
१८९ ( १) सधातुक समास (पसारा जिगा1प"11)-ये समस्त पद
लगभग २० उपल तथा कुछ निपात के समय धातु को मिलाकर बनाए जाते
है । समासयुक्त धातुओं के रूप सामान्य धातुओं के तुल्य चलते है । इस प्रकार
गए (जाना) धातु सब (साथ) उपसर्ग के साथ मिलकर संगम (साथ जाना
परस्पर मिलना) धातु होती है और इसका लद प्र० पु० १ में सगर-छनि रूप
बनता है । समस्त धातु से पूर्वोक्त ( १ ८२, १ ) कृत प्रत्यय लगाकर सजा शब्द
बनाए जा सकते हैं है जैसे-सग: यम (पट संघ, मिलना ।
(क) धातुओं के साथ समस्त होने वाले उपसर्ग निम्नलिखित है उ-अति
(अतिक्रमण करके, परे), अधि (पर), अनु (पीछे), अन्तर (बीचमे), अप (दूर,
परे), अधि (पर), अभि अभिमुख, विरुद्ध), अव (नीचे), आ२ (समीप), उद
(ऊपर), उप (समीप, तका, नि (नीचे-निर (बाहर), परा (दूर), परि (चारों
और), प्र (आगे), प्रति (ओर), वि (पृथक, भिन्न), सब (साथ) ।
१ जाना और देना अर्थ वाली धातुओं के साथ आ उपसर्ग उनका अर्थ उलट देता
है । जैसे-गम् (जाना), आगत (आना), दा (देना), आवा (लेना) है
नि० लि१८४] कृदन्त, यत तथा समास १५१

(खा इनके अतिरिक्त कुछ निपात हैं, जो कुछ विशेष धातुओं के साथ ही
समस्त होते हैं । जैसे-तिरप-पार, एक ओर) का कृ (बनाना), था (रखना)
और भू (होना) धातुओं के साथ समास होता है । जैसे-तिर-कुर्वन्ति (वे
तिरस्कार करते हैं); तिरोधा (एक ओर रखना, छिपाना); तिरेंडिभवन् (वे
छिप गए); पुए का कु और धा धातु के साथ (सामने रखना, आदर करना) ।
जैसे-पुर-जिताए (उनका आदर करो); आवित (प्रकट) का कु धातु के
साथ । आजिज (प्रकट करना), अत और भू के साथ (प्रकट होना) अर्थ है ।
जसे-मडिक' (वह प्रकट करता है), आविरासीन् (वह प्रकट हुआ) :
अलर (बस) का कू के साथ । अलक (सजाना) । 'प्रद यह एक प्राचीन शब्द
है, इसका अर्थ है-चय (लेटिन----'.), यह कियाविशेषण के रूप में
प्रयुक्त होने लगा है । इसका धा (रखना) धातु के साथ समास हल है ।
इसी प्रकार नमन (नमस्कार), अस्तर (गृह वाचक अस्त शब्द का द्वितीया
उमा का रूपा का क्रमश: कु, (करना) और इ (जाना) धातु के कृदन्त रूपों
के साथ समास होता हैं । जैसे-श्र-मि (मैं श्रद्धा करता हूं) । (लेटिन
अरि) नमस्कूत्य (नमस्कार करके); अस्तभित (सूर्य अस्त हुआ) ।
विशेष-मज्ञा शरब्दों और विशेषण शठदों का कु और भू धातु के साथ
समास होता है । समास होने पर इन धातुओं से पूर्ववर्ती अन्तिम अ, आ और
इ को ई हो जाता है तथा अन्तिम उ को ऊ होता है । जैसे-य-वश (यु०, वश
में होना) से वशीकृ (वश में करना), वलीभू (वशीभूत होना); परिश्रीकूत
(रेखा अर्थात खाई के रूप में परिवर्तित) : इन धातु-निर्मित समस्त पदों के
अर्थ में परिवर्तन का भाव आ जाता है, अर्थात जो वस्तु जैसी नहीं थी, वैसी
हो जाती है । अत: रत्नीभूत का अर्थ होगा-रत्न: में परिवर्तित । किन्तु
रत्नभूत का अर्थ होगा-रत्न-स्वरूप । रत्नभूत में सामान्यरूप से कर्मधारय
समास हैश, । (नि० १८८, ( गा ।

२- सुबन्त समास (5001-1 जिध्याय"य)

१८५. दो या अधिक शब्दों को एक पद में समस्त करने की शक्ति सभी


भारोपीय (1118.1..11) भाषाओं में थी, किन्तु यह शक्ति अन्य भाषाओं
१ ५२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६. १८५

की अपेक्षा संस्कृत में अधिक विकसित हुई है । संस्कृत में लम्बे और दिलष्ट
समास ही निरन्तर प्रयुक्त नहीं होते हैं, अपितु वे अन्य समकक्ष भाषाओं में
प्रचलित विग्रहात्मक (विवरणात्मक) भावाभिव्यक्ति का भी स्थान ले लेते हैं ।
कालिदास ने निविन्ध्या नदी का वर्णन करते हुए कहा है-जीरी-अस्त
नितविहगश्रेणिकाधचीगुणाया: (मेघदूत १-२९) लहर-शोभ-शब्द करते हुए
पक्षी-पंक्ति-मेखला-रस्सी से युक्त । इसकोसामान्य रूप से कहा जाए तो प्रयोग
होगा-लहरों के चलने से शब्द करते हुए पक्षिसभूह ही उसकी मेखला थे ।
अतएव संस्कृत में वाक्यरचना की दृ१र से समास महत्त्वपूर्ण हैं । संस्तुत के
वाक्य का स्पष्ट अर्थ जानने के लिए समानों का वर्गीकरण और अन्तर सम
भरे आवश्यक है । समानों का अत्यन्त सरल वर्गीकरण निम्नलिखित ३
प्रकार से होता है-म द्वान्द्र समास (मि-व्या-जाल), २० तत्पुरुष समास
(प-जनि"), ३. बहुल समास (1195.)29): तत्पुरुष समास को
130.1.1111.: इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसका प्रथमपद उत्स का
अर्थ-निर्णय करता है या उसका विशेषण होता है, तत्पुरुष समास २ प्रकार
का है----:- तत्र (15..1211, 1).:..11.2), २. कर्मधारय (प्र
((.1.2) । बहुबीहि समास गौण (8.111.) समास है, इसमें तत्पुरुष
समास वाले पद ही विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं ।
(क) समास होने वाले शब्दों में अन्तिम शब्द को छोड़कर सामान्यतया
सभी शब्द अपने मूलरूप में रहते हैं, अर्थात दो अंग वाले शठदों में अपचस्थान
वाला (पया रूप रहना है और तीन अंग वाले शब्दों में पदस्थान वाला
(.1111112) रूप (७३ का रहना है । द्वान्द्र और तत्र सभाओं में अन्तिम
शब्द सामान्यतया अपने साधारण रूप और विभक्ति से युक्त हल है, यदि वह
संज्ञा शब्द है तो उसमें मूल शब्द का लिंग भी रहता है । बहुबीहि समास में
अन्तिम शब्द का लिंग और विभक्ति आदि विलय के तुल्य होगी । जैसे
देवदास: (युमा, देव का दास या देवों का दास) । स्वामिशेवा (स्वी०, स्वामी
को सेवा); राजकाज (नपूँ०, राजा का कार्य); सलामत (पय-ची), प्र०१,
यु० सनामा, स्वी०, सनाम्नी, नदु०-सनाम ।
नि० ६-१८६९] कृदन्त, तद्धित तथा समास १५३

(. द्वन्द समास (डि-मताय" "भाय-यय)


१८६. द्वन्द समास में दो या अधिक शब्दों" का समास होता है, जो 'च'
(और) शब्द के द्वारा जुड़े हल हैं । ये शब्द अधिका-शन: संज्ञा शब्द होते हैं ।
कुछ विशेषण शब्दों और बहुत थोडे किया विशेषण शब्दों का भी अत समास
होता है है भारतीय वैयाकरणों ने द्वान्द्र (जोड़, युगल) के आधार पर डस
समास का नाम द्वन्द समास रखा है ।
( : ) समास होने वाले शटदों के द्वारा यदि दो का बोध होगा तो द्विवचन
होगा, यदि दो से अधिक का बोध हल तो बहुवचन होगा । उब समास में
अन्तिम शब्द का जो लिग होता है, वही लिग समस्त पद में होता है । जैसे--
अस्ताबबौ (एक हाथी और एक घोडा), हम्त्ययवा: प (द्वाथी और घोडे) । यदि
समास होने वाले शब्द व्यक्ति का बोध न कराकर जाति या वर्ग का बोध
कराते हैं तो समस्त पद में समूह-सूचक नदुसकलिग एकवचन अनागत । जैसे-
गवाश्यब (गाय और घोडा है विरुद्ध गुण वाली दो चीजों का प्राय: द्वन्द
समास होता है जैमे---र्मिहगजा: (शेर और हाथ.) सारभेय माजरा: (कुले
और विभव) । य-परिपत्र (प, और नदु०) (दिन और रात) । द्वन्द
समास में समस्त होने वाले शधदों की कोई सीमा नहीं है, वे दो या उससे
बहुत अधिक भी हो सकते हैं । जैसे-देव-नानु-योर-ना: (देवता,
गन्धर्व, मनुध्य, सर्प और राक्षस) ।
(२) विशेषण शब्द (क्त-प्रत्यय-त शब्दों को लेते हुए) अपेक्षाकृत बहुत
कम समस्त होते हैं । जैसे-उतर-मलर और दक्षिण); सीसंत्ष्ण (ठ-डा
और गर्म); सितासित (सफेद और काना): घनायत (घना और विस्तृत, वन);
कुताकुत (किया और न किया हुआ), मृतक (मृत और अनुस्पन्न) ।
(क) कभी-कभी दो क्त-प्रत्ययान्त शब्दों का भी समास होता है । ऐसे
शब्दों में तुरन्त बाद में होने वाली घटना का भाव व्यक्त किया जाता है ।
प्रथम और द्वितीय पदों का संबन्ध 'जागा-त्यों ही' शब्दों के द्वारा अनुवाद
में प्रकट किया जाता है । जैसे-हाता (दिखाई दिया और छिप गया, अर्थात
उयोही दिखाई दिया, ज्योंही छिप गया) । जास्तीत (ज्योंही उत्पन्न हुआ,
१० देखोलेटिन-म8"-०४०-१टाकाय.
(

: ५४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६.१८६

त्योंही मर गया) । उत्खातप्रनिरोपित (उखाड-ते ही उसे तुरन्त लगाया गया) है


सुप्तारिथत (सोया और जागा, अर्थात सोकर अभी उठा है) :
३. क्रिया-विशेषण शदा-यों के लिन्द्र समास बहुत कम मिलते हैं । ऐसे समस्त
पद हैं उ-साय-मातर (सायंकाल और प्रात-काल); दिवानत्तत (दिन-रत) ।
(का विभिन्न सभाओं से युक्त पदों का भी द्वाद्ध समास कही-कहीं मिलता
है । जैसे-व्या-सिं-राल." (व्याकीर्णकेसथास्करालमुख, बिखरे हुए
बाल और भयंकर मुंह वाला) । इसमें दो बहुग्रीहि समास वाले पद हैं है ( : ८९)
(खा वेदों में अनेक देवता-द्वा-ह समास मिलते हैं । इनमें प्रत्येक पद द्विवचन
होता है और उसपर पृथक पृथक दो उदात्त स्वर होते हैं । संस्तुत में इनमें से
बहुत कम शेष बचे हैं । जैसे ---मिवावरुणी९ (मिव और वरुण), छावापूधि-८यों
(पलोक और पृथिवी)" । प्रथमा, सं० औरद्वितीया को (छोडकर यन्यविभक्तियों
में अन्तिम शब्द के अरी रूप चलते हैं । जैसेवामवावरुणयो:, द्यावापूधिठयो: ।
(गा मातृ (माता) और पितृ (पिता) शब्द जब संबन्धमूचक द्वन्द-समास
के प्रथम पद होते हैं तो ये माता और पिता (प्रथमा एक० ) शेष रहते हैं ।
जैसे-माता-त (माता और पिता), पितापुयौ (पिता और पुती ।
सबन्यावाचक युगल का द्वाद्ध समास करके प-लिंग के द्विवचन का प्रयोग
करने पर स्वीलिग का भी अर्थ उसमें आ जाता है । जैसे-सरी (माता
पिता), श्वशुरी (सास-ससुर), पुत्री (पुत्र और पुत्री या दो पुत्रा, आबरी२
(भाई और बहिन) ।
२. (का तत्पुरुष समास (112.1.1: 1डिहिय०म"टा)

१८७. तत्पुरुष समास में प्रथमपद अन्तिम पद पर निर्भर होता है । वाक्य


१. मिटा और द्यावा वैदिक अंह है । इस प्रकार के समास संभवत एकशेष समास
वाले द्विवचन रूपों के प्रतिरूप हैं । जैसे-मिटा (दो मित अर्थात् मित्र और
वरुण) । द्वादश (दो और दश) सख्यावाचक द्वान्द्र है । इसमें प्रथम पद द्वा प्राचीन
द्विवचन है ।
२, तुलना करो-लेटिन-मटाप-त्सेता. ०१-5०८हा1मु.
. ज, अ, विध".---'..)" अमित 515..
नि० ६-१८७] कृदन्त, यत तथा समास १५५

विन्यास की दृष्टि से प्रथम पद का अरि-तम पद के साथ वही संबन्ध होता है,


जो विशेषण (संज्ञा या सर्वनाम) का तृतीया आदि कारकों में होता है । समस्त
पद का अन्तिम शब्द संज्ञा या विशेषण जैसा होगा, उसी प्रकार समस्त पद
सता या विशेषण होगा ।
जैसे-तत्र (पू०, उसका आदमी) । (भारतीय वैयाकरणों ने इस
समास को सूचित करने के लिए तत्र नथ दिया है, जो तत्र समास का
उदाहरण भी है) । शुरमानिन् (विशेषण, अपने आपको शूर मानने वाला) :
'ईरना:;' (वि०, गुणों से युक्त) (जीता-पप-ज, इ धातु का क्त-प्रत्ययान्त
रूप ) ।
तत्पुरुष समास में [ममपद द्वितीया आदि किसी भी विभक्ति से युक्त हो
सकता हैं, परन्तु शठी-तत्पुरुष समास अत्यधिक प्रचलित है ।
१ द्वितीया-मसमें अन्तिम पद धातु से बना हुआ विशेषण शब्द होता
है ।२ जयप्रेष्णु (वि०, जय का इडा) । (जसु----'--------.-.,
(साम-उ, नि० १७प) । वर्षभोग्य (वि०, वर्ष भर भोगने जिय) (भोग्य
भविष्यत अर्थ वाले कृत्य प्रत्यय पद से युक्त है) । अत (वि० घर आया
हुआ) आगत क्त-प्रत्ययान्त है) । य-मप्राप्त (गांव में अदा हुआ)९ बहु
बीहि समास में क्त-प्रत्यय" रूप प्राय: प्रारम्भ में प्रयुक्त होता है । जैसे--
प्राप्तग्राम (प्राप्त हो गया है ग्राम जिसको) ।
२- तृतीया-ममपूर्व: (एक मास पहला । स्वामि-सदृश (अपने मालिक
के तुल्य) नि० १९९, तो हु) । मयोन (थोडा कम अर्थात लगभग समाप्त) ।
अहिहत (साँप का काटा हुआ) । देवदत्त (देयों के द्वारा प्रदत), यह शुभ अर्थ
का सूचक है और साधारणतया एक व्यक्ति बोधक शब्द के तुल्य प्रयुक्त होता
है । यह प्राय: अनिश्चित व्यक्ति (अमुक) का बोधक होता है ।
:4. चतुर्थी-यू' (नप., यजिय स्तम्भ के लिए लकडी) । विष्णुबलि
(प्र, विच-ते के लिए प्रदत वस्तु) । सहत (विमा, राजा के लिए हितकर) ।
१. तुलना करो-लेटिन-मल ( न्याय का सकेत करने वाला, अर्थात्
न्यायाधीश) ।
२. क्तयप्रत्ययान्त 'गत' (गया) शब्द का प्रयोग प्राय: तत्र समास के अन्त में आवा
'आया हुआ' 'मबद्ध' अर्थ में होता है । जैसे-हस्तगत (हाथ से आया हुआ):
है ५६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६.१ ८७

४. पंचमी स्वर्गपतित (वि०, स्वर्ग से गिरा हुआ) । भवदन्य (वि० आप


से भिन्न) ।
५, षष्ठ.----.. (7., राजा का व्यक्ति, राजकर्मचारी) । व्याश्रबुद्धि
(स्वय ठयात्र की बुद्धि अर्थात उसे व्यय मानना) ।
६. सप्तमी-उरोज (ता, छातीपर उत्पन्न, अर्थात स्तन) । अश्वकोविद
(वि०, अश्वविद्या में निपुण) । यहजात (विमा, घर में उत्पन्न) । पूवहिदुकूत
(विमा, पूर्वाह्न में किया गया) ।
(क) कुछ तत्पुरुष समास वाले पदों में पूर्वपद में विभक्ति शेष रहती है
(असुर समास) । जैसे-धनंजय (विधा धन जीतने वाला); (दु० व्यक्ति
वाचक शब्द) । परस्नेपद (नप, है दूसरे के लिए पद या शब्द) । वाचस्पति (पट
वाणी का स्वामी) । युधिष्ठिर (विमा युद्ध में स्थिर; प, व्यक्तिवाचक शब्द; (
(ख) यदि तत्र समास का अरि-तम पद एक धातु होनी है तो उसमें
कोई अन्तर नहीं होते है, केवल धातु के आ को अ हो जाता है और धातु के
इ, ऋ के बाद तू जुड़ जाता है (नि० : ८२, : का । जैसे-वरद (विमा, वर
देने वाला) (दा 'देना' धातु) । विश्वजिन (वि०, सबको जीतने वाला) ।
कर्मकूत (वि०, काम करने वाला, परिश्रमी) ।
(ग) तत्पुरुष समास के अन्त में प्रयुक्त 'विले-, ) शब्द का अर्थ है
विशेष प्रकार का, अर्थात विशिष्ट, असाधारण, उत्कृष्ट । इसी प्रकार 'अन्तर'
(नदु०) काव है'भिन्न' । इसका साधारणतया अर्थ होता है 'दूसरा' । कभी
कभी इसका अर्थ होता है-विशेष, प्रमुख' । जैसे-तेज-वशेष । (युमा, असा
धारण तेजा । देशान्तर (नप., दूसरा देश) । उपन्यास (नसा विशेष
उप । भाव्यान्तर (नप, दूसरा भाष्य, विशेष प्रकार का वार्तालाप) ।
(घ) 'अर्थ' (प, वस्तु, प्रयोजन का तत्-पुरुष समास में अस्तिक पद के
रूप में क्रिय-विशेषण के ढंग से प्रयोग होता है । इसका द्वितीया विभक्ति में
भी प्रयोग होता है । कुछ स्थानों पर चल और सप्तमी विभक्ति में भी
प्रयोग होता है जैसे-ममयम-न (दमयंती के लिए) ।
२. (ख) कर्मधारय समास (प्र-लआय 19.011-25
१८८. कर्मधारय समास में प्रथम पद अन्तिम पद की विशेषता बताता है
नि० ६-१ ८८] कृदन्त, यत्र तथा समास १५७

या उसका गुण-वर्णन करता है, वाय-विन्यास की दृष्टि से प्रथम और अन्तिम


पद का संबन्ध विधेय का है । यह सम्बन्ध तीन प्रकार से प्रकट किया जा
सकना है :
१० संज्ञा शब्द के द्वारा (पूर्वपद में) । जीय-राजर्षि । (पट राजा
ऋषि अर्थात राजा होते हुए ऋषि) । स्वीजन (पू., स्वीगण) ।
(क) कभी-कभी उपाधिवाचक शब्द का व्यक्तिवाचक शब्द के साथ समास
होता है । जैसे-अमात्य-स (मन राक्षस) । कभीकभी व्यक्तिवाचक शब्द
पहले आता है । जंसे--शाण्डिलीमाब (माता शाष्टिली) ।
(ख) प्रथम-पद प्राय: तुलना अर्थ को प्रकट करता है है जैसे-जलद:.
(विप्रा, बादल के तुल्य (साँवला) । हिमशिशिर (वि०, बर्फ के तुल्य छोडा) ।
जलान्तश्चान्द्रचपल (वि०, जल में प्रतिबिरिबत चन्द्रमा के तुल्य चचज) । जब
दोनों पद प्रातिपदिक होते हैं, तब जिस वस्तु से तुलनाकी जाती है वह समास
में पहले न रखकर अन्त में रखी जाती है । जैसे-पुरुषा' (पु., पुरुष
बल अर्थात् ठयाश्रसटाश बलवान् मप्र) । वात्मधु (नयु०, वाणी-मधु-अर्थात्
यर वाणी) । पादपछ (न११०, चरण-कमल, अर्थात कमल सदृश चरण) ।
(ग) क्त-प्रत्ययान्त 'भूत' हुया, रहा) शब्द 'होना, स्वरूप या विद्यमान'
अर्थ में सज्ञा शधदों के बाद जुड़ जाता है । इस प्रकार यह संज्ञाशब्द विशेषण
हो जाता है । जैसे-तादात (अन्धकार-स्वरूप), रत्नभूत (रत्नरूप) (देखो
१८४ खा ।
२. विशेषण के द्वारा-प-जैसे-कूपर (पूस) काला साँप); नीलोत्पल
(नप., नीला कमला; मशयाल (7., दोपहर); अर्वमार्ग (पू., आधा रास्त)
वर्तमान-व (यु०, जीवित कवि) ।
(का जिन समस्त पदों में विशेषण शब्द संख्यावाचक होता है, उसे भार
तीय वैयाकरणों ने एक पृथकू समास मानकर 'द्विगु' (दो-गाय) नाम दिया
है । ये शब्द प्राय: नपुंसक लिंग या ईकारान्त स्वनिम होते हैं और समाहार
(समूह) अर्थ के बोधक होते हैं । जैसे-आलोक (नयु०) या त्रिलोकी (स्वी० )
(तीन लोक) । ये शब्द बहुबीहि समास करने पर विशेषण भी हो जाते हैं
(१८९) । जैसे-वारियर (नयु", द्विगु०, तीन गुण); त्रिगुण (विधा बल
तीन गुणों वाला) ।
१ ५द्ध संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६. : ८८

(ख) 'पूर्व' (पहने) शब्द कियाविशेषण के रूप में प्रारम्भ में प्रयुक्त न
होकर क्त-प्रत्यय' के बाद अन्त में प्रयुक्त होता है और इसका अर्थ होता है
तो-स-पहला । जैसे-पूर्व (वि०, पहलेदेखा हुआ) ।
(ग) कर्मधारय समास के प्रारम्भ में 'महत' शब्द को 'महा' हो जाता
है । और अन्तिम शब्द राजत को राज (पृ.), अहा को अह (:), सखि को
सख (प, ) और रात्रि को रात्र (दु०, नप]) हो जाता है । जैसे-महाल:
(बडा राजा), पुष्य-हब (शुभ दिन), प्रियसखा (प्रिय मित्रा, अर्थरात्र (प.,
आधी रात) ।
(ध) अयोग्य (परस्पर) और परस्पर (परस्पर) शब्द एक प्रकार के
अनियमित समास हैं, इनमें पूँ० प्रथमा एक० का रूप, जो कि प्राय: वाक्य
विन्यास में अधिकतर प्रयुक्त होता था, सामान्यीकरण के द्वारा सर्वत्र प्रथम
पद में प्रयुक्त होने लगा । जैसे-अन्यत्र (स्वय द्वितीया : )द्वा७=यन्या-म
आयाम (एक दूसरे को) है ।
३ . क्रिया-विशेषण के द्वारा-इसमें नारों और निपल का भी संग्रह
है) उ-जैसे-सुजन (पु-वजन); अधिलीक (प., सर्वोच्च लोका; अज्ञात
(वि०, अपरिचित); यथोक्त (वि० पूर्वोक्त); एकांत (वि०, ऐसा होने पर) ।
(का इस प्रकार के समस्त पद जब नप. द्वितीया एक० में कियाविशे
षण के रूप में प्रयुक्त होते हैं, तब उन्हें भारतीय वैयाकरणों ने एक विशेष
समास अर्थात् अव्यबीभाव समास (मअय की अवस्था) नाम दिया है । जैसे
उ-अनुरूप (अनुसार, अनुकूल); यथाशक्ति (शक्ति के अनुकूल); सविनय
(सविनय); यावउजीवए (जीवन भर) ।
३- बहुवीहि समास (ममय-प्र:
१८९. ये समस्त पद वस्तुत: विशेषण पद हैं, जो उक्त या अनुक्त विलेय
पद के अनुसार प्रयुक्त होते हैं । ये तत्पुरुष समास हैं (सामान्यतया विशेषण
रूप में प्रयुक्त कर्मधारय समास), जिनके अन्त में संज्ञा शब्द होते हैं और
विशेष्य के अनुसार इनके लिग, विभक्ति और वचन होते हैं । भारतीय बैंया
करणी ने इनके लिए 'बहुबीहि' समास नाम दिया है, जो स्वयं इसका एक
उदाहरण है । बहुग्रीहि (प.) का अर्थ है 'बहुत चावल', यही विशेषण के रूप
नि. लि१८९] कृदन्त, तद्धित तथा समास १५९
में प्रयुक्त होगा तो इसका अर्थ होगा-यर चावल वास । पहला कर्मधारय
है और दूसरा बहुग्रीहि ।
प्रत्येक तत्र बहुबीहि में बदला जा सकता है प-जैसे-इन्दर (दु०,
तत्पु० इन्द्र का शत बल इन्द्र है शत्रु जिसका); भीमपराक्रम (यु०, तत्पु०
भयंकर पराक्रम, बहु० भयंकर पराक्रम वाला); विपद (वि० तीन पैरों वाला)
लेटिन-प्र-मता); अधोमुख (वि० नीचे मुंह किए हुए) (मुख, न११० का
अर्थ है मुंह); अपुत्र (वि० पुत्रहीन); समाये (वि० भार्या अर्थात् पत्नी से
युक्त); तथाविध (वि०, वैसी अवस्था वाला) (विधि पूँजी से बना है);
दुर्मनासू (वि-त, प्रथमा दु०, स्वी०, (खिन्न चित्त वाला) ।
(क) वेद में उदात्त स्वर के अन्तर से तत्र और बहुबीहि का अन्तर
होता था । जैसे-राजपुत्र (तत्पु० राजा का पुती (अन्तोदात्त अर्थात अन्तिम
स्वर उदात्त है), रीजपुत्र (वि०, राजा है पुत्र जिसका (आपदात्त प्रथम स्वर
उदात्तता ।
(खा बहुग्रीहि समास वाले पद प्राय: संज्ञाशब्द या व्यक्ति-नाम के रूप में
प्रयुक्त होते हैं । जैसे-सुहृद (अच्छे हृदय वाला) यही पूँजी 'मित्र' हो जाता
है । सत्यश्रवासू (वि० प्रथमा (, वास्तविक कीर्ति वाला) यह एक व्यक्ति का
नाम हो गया है ।
(ग) बहुग्रीहि समास वाले पद प्राय: बहुत विलष्ट औरउलझे हुए होते हैं,
इनमें अन्य समानों वाले पद भी संबद्ध होते है । जैसे-पचि-शोभा-मानित
(विहग-ओंर-मकवची-गुण) में बहुल समास कर्मधारय पर निर्भर है
और इसमें दो मुख्य भाग हैं । द्वितीय भाग ।काप्रचीगुण' (पु"० ) (मेखला की
रस्सी) में तत्पुरुष समास है । प्रथमपद कर्मधारय समास है । इसमें 'विहग
श्रेणि' (पक्षियों की पंक्ति) तत्पुरुष समास है और इसका विशेषण 'बीचि
शोभ-आनत' (तरंगों की चंचलता से शब्द करती हुई) है । इसमें दो बत्पुरुष
समास हैं । इसमें 'सनत' का विशेषण है-वाचि-शोभ (तत्पु०, तरंगों की
चंचलता), जो एक तत्पुरुष समास-युक्त पद है । शीतोष्ण-करणी (चन्द्रमा और
सूर्य), इसमें द्वन्द्व समास-युक्त बहुग्रीहि समास है । यह वच: एकल-समास
युक्त द्वन्द है । इसका वास्तविक अर्थ है-शीतल और उष्ण किरणों वाले",
१ ६० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ६- १८९

यह 'शीतल-किरणों वाला और उष्ण किरणों वाला' के स्थान पर प्रयुक्त


हुआ है ।
(घ) बहुग्रीहि समास का प्रथमपद यदि क्त-प्रत्यय' है तो वाक्य-विचार
की जाय से वह प्राय: नत्वा-प्रत्यय-भत या भावे सप्तमी का समकक्ष है । जैसे-
त्यक्तनगर (जिसने नगर है-ने छोड़ता है) उ-टा-बरं त्यकत्वा (नगर को छोड़ कर
या नगरे त्यकी (नगर छोड़ने पर) ।
(ड-) समानाधिकरण कर्मधारय पदों पर निर्भर बहुबीहि-पद प्राय: 'तुल्य'
का अर्थ बताते हैं । जैसे---चन्दानन (चन्द्रवात मुख वाला), पव (स्व'
ई) (कमलवत नेत्र वाला) । कर्मधारय समास में (देखो १८८, : ख) पदों का
विपर्यय (बदलना) होता है, किन्तु इसमें पदों का स्वाभाविक क्रमबना रहता है ।
(च) कल्प (दु०, ढंग) और प्राय: (प., मुद-य अश) शब्दन का बहुबीहि
समास के अन्त में क्रमश: 'तुल्य' और 'प्राय:' अर्थ में प्रयोग होता है । जैसे--
अमृतकल्प (अमृत., प्रभातप्राय (वि०, प्राय: प्रभातकाल) । इसीप्रकार
बहुबीहि समास के अन्त में 'पर' और 'परम' (वि० सयम, मुख्य) शब्दन का
'तत्पर' 'लीन' अर्थों में संज्ञाशब्द के तुल्य प्रयोग होता है (शब्दार्थ-प्रमुख था
मानते हुए) । जैसे-चि-यर (चिंतामन ।
(छ) मावा (स्वय परिमाण) शब्द का बहुल समास के अन्त में
'केवल' अर्थ में प्रयोग होताहै । जैसे-मममावा नरा: (नाममात्र के मनुष्य) है
क्त-प्रत्ययान्त के अन्त में इसका अर्थ होता है-वा-ज्योंही' । जैसे-जाता.:
शत्: (शर उयोंही उत्पन्न होता है) : इसका इसीप्रकार न११सकलिग शब्द के
रूप में सामान्यतया प्रयोग होता है । जैसे--जलमात्रए (केवल जला (शब्दार्थ
जल है मात्रा या परिमाण जिसका ।
(ज) आदि (प., प्रारम्भ), प्रभृति (स्वाम्, प्रारम्भ) और आद्य (प्रथम)
(संज्ञा शब्द के रूप में प्रयुक्त) शब्द बहुबीहि समास के अन्त में 'इत्यादि' अर्थ
में प्रयुक्त होते है । मुख्य रूप से ये विशेषण शब्द हैं और गौण रूप से संज्ञान
शब्द । जैसे----.) इन्दादय:, (देवता, इन्द्र तथा अन्य या इन्द्र इत्यादि)
(शाब्दिक अर्थ----' जिनमें प्रथम है) । इत्यादि (नयु०, इसे लेकर, अर्थात्
स-इन शब्दों को लेकर)अ-दयाल, यह और अन्य ।
कि ६.१८९] कृदन्त, यत तथा समास १६१
इमीप्रकार पुरोगम, पूर्व, पुर-सर (पूर्ववर्ती' ते-------".) शठदों कया बहुबीहि
समास के अन्त में 'पुरस्कृत, अग्रणी या साथ' अर्थ में प्रयोग होता है ।
जैसे-पय इन्द्रपुरोगमा: (इन्द्र जिनका अग्रणी हैं ऐसे देवता). पूर्व और पुर:
सर का बहुग्रीहि समास के अन्त में कियावियशेषण के तुल्य प्रयोग होता है ।
जैसे-नेमत-र (मुस्कराहट के साथ, मुस्कराते हुए), बहुमानपुर:सरन् ।
(आदर के साथ, सादर) ।
(झ) 'हाथ' अथ वाले शब्द, का प्रयोग बहुग्रीहि समास में अन्त में होता
है । जैसे-शस्त्र-ताण (शस्त्र हाथ में लिए हुए), कुशल (कुशा हाथ में
लिए हुए) ।
(अ) बहुबीहि समास में समासान्त 'इत प्रत्यय निम्नलिखित शब्दन के
बाद लगता है-धर्म (कर्तव्य, शील (चरित्र), माता (पुष्पमाला), शाला
(..), शोभा (सौन्दर्य., वर्ण (रग) । जैसे-वलसान (सुन्दर रंग वाला) है
इसी प्रकार कुछ शब्दन के अन्त में 'क' प्रत्यय लगता है, मुख्यतया कम प्रयोग
में आने वाले अन्तिम वहा से युक्त शब्दों के बाद, जैसे-त्-रात शब्द,
ईकारान्त (नदी आदि) शठद और था अन्त वाले स्वीलिंग शब्द । जैसे
मृतभहुका (जिसका पति मर गया है), सपत्नीक (पत्नी के सहिता ।
अध्याय-ए
वाक्य-विन्यास को रूपरेखा ()111125 ल आ1जिजा
१९०. लेटिन और ग्रीक भाषाओं की तुलना में संस्तुत वाकयों की वाक्य
विन्यास-संबन्धी व्यवस्था अपूर्ण और अविकसित है, कयोंकि संस्तुत का अधि
कोश साहित्य पद्यात्मक है । संस्कृत वाक्य-विन्यास की प्रमुख विशेषता है-
समन्वय की प्रमुखता, लम्बे समास तथा कत्वा (या व्यप)प्रत्यवातों के द्वारा
संबद्ध तथा अन्य गौण वावयान्दरों का स्थान लेना । संस्तुत में प९१1० (111.
प९1ध सर्वथा अप्राप्य है है संस्कृत-गायों की अन्य विशेषता है--विधेय निन्त
किया पदों का अपेक्षाकृत कम प्रयोग (वैदिक भाषा में इनका प्रयोग अधिक
प्रचलित था), इनके स्थान पर क्त-प्रत्ययान्त शब्द या धातृज संज्ञा शब्द प्राय:
प्रयुक्त होते हैं । कर्मवाव्य प्रयोगों की ओर अधिक प्रवृत्ति दिखाई देती है :
संस्कृत-वाक्य-विन्यास की एक मुख्य विशेषता है-मावे सप्तमी का प्रयोग ।
वाक्य में पद-जम (1112 आए ल आम)
१९१. संस्तुत-वाक्यों में सामान्यतया पद-कम निम्नलिखित रूप से होता
है-प १) कर्ता और कर्ता के विशेषण या कर्ता की विशेषता बताने वाले गुण
वाचक शब्द (मममत से पहले षष्टशन्त प्रयोग रहता है), (२) कर्म और कर्म
के विशेषण (ये कर्म से पहले रहते हैं), ( ३) किया-पद ।
जिया-विशेषण या विधेय से संबद्ध शब्द प्राय: प्रारम्भिक पदों के समीप
ही रहते हैं और गौण संयोजक निपात प्रथम पद के बाद रखे जाते हैं । जैसे---,
जनकस्तु सत्रों स्वीयं नगर जगाम (किन्तु जनक र्शघ्र ही अपने नगर को
गए) ।
जहाँ पर संबोधन पद होता है, वह प्राय: सर्वप्रथम रखा जाता है : यदि
नि. ७-१९१] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १६३

किसी विशेष शब्द पर बल देना होता है तो वह कर्ता के स्थान पर सर्वप्रथम


प्रयुक्त होगा । जैसे-पत्की त्वयता मठमधी न प्रवेष्टव्यब (राहिर में तुम मठ में
न घुसना) ।
(क) कर्ता यदि व्यक्ति-वाचक सर्वनाम है और उसपर बल नहीं देना
है तो उसका प्रयोग नहीं होता है, क्योंकि नियत क्रियापद से ही उसका अर्थ
प्रकट हो जाता मैं । यहां तक कि कर्ता 'वह' या वे का अर्थ केवल किया के
द्वारा ही प्राय: प्रकट किया जाता है । जैसे-रेयात (वह कहे), आड़: (वे
कहते है-टार-ऐसा कहा जाता है) ।
( ख) यदि काल का बोध विशेष रूप से नहीं कराना हल है तो 'अस्ति'
पद का प्राय: लोप रहता है । ऐसे स्थानों पर विधेय कर्ता (उद्देश्य) से पहले
आता है । जैसे-शीतला राचि: (राल होती है) । यदि विधेय पर बल देना
होता है तो 'अस्ति' का प्रयोग न करके 'भवति' का प्रयोग होता है । जैसे--
यो विद्यया तपसा जन्मना वा वृद्धा स पूउयों अति द्विजानाए (जो विद्या,
तपस्या या जन्म से वृद्ध होता है, वह द्विजों के लिए पू(ज्य होता है) ।
(ग) जिस प्रकार गुणवान शब्द संज्ञा श-शि" से पहले आते हैं और
समानों में विशेषण शब्द फले आते हैं, उसी प्रकार संबद्ध या अन्य गौण
वायदा मुख्य वाध्याश से पहले आते हैं और ये वाकपांश सापेक्ष (यत) शब्द
से प्रारम्भ होते हैं । जैसे-यस्य धनं तस्य बर (शात्:ब्दक अर्थ-जिसका धन,
उसका बल, अर्थात जिसके पास धन है, उसके पास बल है) । इसी प्रकार
सापेक्ष शब्द हैं-यदा-पदा, यावत्-व्य-तावत आदि ।

संज्ञा-ग्राहक शब्द (1112 हैयप्र)


१९२. संस्कृत में इंडिया के तुल्य अनिश्चयबन्दिक हिं) और निश्चय
बोधक (1112) संज्ञाग्राहक शब्द नहीं है । किन्तुएक (एका औरकांशिचद (कोई)
( १ : ए) शब्द 'कोई या एक' अर्थ प्रकट करने के लिए प्राय: प्रयुक्त होते हैं,
इसका अनुवाद 'कोई या एम किया जा सकता है । इसी प्रकार स: (वह)
( ( १०) शब्द जब पूर्वो-त किसी व्यक्ति या वस्तु का संकेत करता है तो
१६ हूँ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ७. (९२
उसका अनुवाद अंग्रेजी के 1१० से किया जा सकता है : जैसे-स राजा (वह
राजा, 162 1.18.) (जिसका हम वर्णन कर रहे हैं) ।
संख्या (१र्षसे1लर)

१ ९३- ( : ) समूह-वाचक शब्द कभी-कभी समास के अन्त में एकवचन में


प्रयुक्त होते हैं और वे बहुल का अर्थ प्रकट करते है है जैसे-मजिन: (पट
मरी लोग-प-य-गी । इसप्रकार के समूहवाचक शब्द कभी-कभी स्वयं बहुवचन
में प्रयुक्त होने हैं है जैसे-नोक:' या 'लोका:' (ससार, लोग) ।
(२) द्विवचन का नियमित रूप से प्रयोग होता है और द्विवचन में इसका
प्रयोग अनिवार्य है । दो वस्तुओं के लिए बहुवचन का प्रयोग (हीं होता है :
अता जो वस्तुएँ दो या युगल (जोडा) हैं, जैसे शरीर के अवयव उनमें अनि
बार्यनया द्विवचन ही लगता है । जैसे-हवय-पदेन (2 हाथ और २ पैर) ।
कभी-कभी पृ-लिग के द्विवचन के द्वारा उनी.जाति के : पुरुष और १ ममी
का बोध कराया जाता है 1 जैसे-जगत: उरी (संसार केमन-पिता) (देखो
नि० है ८६, ३ ग) ।
(३ ) (का कभी-कभी विशेष आदर प्रकट करने के लिए वक्ता या लेखक
के द्वारा एक व्यक्ति के लिए भी बहुवचन का प्रयोग किया जाता जि-त्वम् के
स्थान पर यूयम्, और भवन के स्थान पर भवन । जैसे-श्रुतं भवद्धि: (क्या
आपने सुना रा : इसी अर्थ में द्वि-वचन पादों के स्थान पर बहुवचन पादा:
(पैर) का प्रयोग होता है (नि० १९३, २) । जैसे-एष देवस्थान अधिक्षिपति
(वह आपके पैरों) की निन्दा करता है । उसीप्रकार व्यक्तिवाचक शब्द भी
कभी-कभी बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं । जैसे-इति श्रीशंकराचार्या: (श्री
शंकराचार्य जी ऐसा कहते हैं) ।
(खा कभी-कभी वक्ता महत्वबोधनार्थ (जैसे-सम्पादकीय स्तम्भों में उब
के स्थान पर 'हम' का प्र-योग) मैं के स्थान पर 'हम' (उ० पु० ३ ) का प्रयोग
करते है (देखो १९३, २) । जैसे-वयम-प किंचित् पृतीच्छाम: (हम भी कुछ
पूछने है-य-य-की भी कुछ पूछता हूँ) । कि कुर्म: सांप्रतमू हिम क्या करें ?==तुम
और मैं अब क्या करे 1)
नि० ज१९३] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १६५

(ग) देशों के नाम बहुवचन में आते हैं, ये वच: जन-बोधक नाम हैं
(जैसे-इंजिन में '8भई३1:11' और जर्मन में 'प्रप्रदुता1' । जैसे-विदर्भ,
(विदर्भ अर्थात बरार में) 1 जनबोधक नाम यदि (तक-वचन में हैं तो वे प्राय:
उस देश के राजा के बोधक होते हैं ।
(घ) कुछ शब्द केवल बहुवचन में ही आते ई:-.: (स्वम्, जल),
( ९६. : ), प्राणा: (प., प्राण), वर्धा: (स्वी०, वर्धा-रावल ऋतु), दारा:
(यु० पत्नी) ।

उद्देश्य और विधेय का समन्वय (२०":०य)


: ९४. विभक्ति, पुरुष, लिंग और वचन के सामंजस्य के नियम प्राय: वे
ही हैं, जो विभक्ति-प्रधान भाषाओं में होते हैं, निम्नलिखित कुछ मुख्य बातें
उल्लेखनीय हैं :
( ( ) प्रथमान्त के बाद में यदि 'वृति' लगा हुआ है तोवह सताना, सोचना
और जानना आदि अर्थों वारी धातुओं के कर्म का स्थान ले लेता है । जैसे--.
ब्राह्मण इति मा विद्धि' (मुझे ब्राह्मण जानना । यह अब्राह्मण मां विद्धि' के
स्थान पर प्रयुक्त हुआ है ।
(२) यदि क्रियापद द्विवचन या बहुवचन है और वहदो या अधिक कर्ताओं
का बोध कराता है तथा उसमें उत्तम पुरुष कर्ता भी है तो प्रथम और माध्यम
पुरुष की किया न होकर उ० पु० की किया रहेगी । प्र० पु० और म० पु० के
कर्ता हैं तो म० पु० की किया शेष रहेगी 1 जैसे-त्-मह च गच्छाव: (बू और
मैं जाते हैं) ।
( ३ ) (क) खुलेग और स्वीलिग शब्दों के साथ यदि विशेषण सामूहिक रूप
से आता है तो वह प-लिंग का द्विवचन या बहुवचन होता है, किन्तु यदि उसमें
नप, पद भी यया जाता है तो विशेषण नप, का द्विवचन या बहु० होता है
(कभी-कभी यह विशेषण पद एकवचन भी होता है) । जैसे---मृगयाक्षास्तथा
पाने गहिंतानि महीधुजाब (शिकार खेलना, जुआ खेलना और मदिवान, ये
राजाओं के लिए निन्दित कर्म हैं) । पक्षविकलश्च पली शुष्कपच तरु: सम्बल
जलहीनं सर्पबचीद्धप्रदंष्ट्रस्कृदयं लोके दरिद्रश्च (पंख-कटा पक्षी, सूखा पेड़, जल
१६६ संस्कृत-रण-प्रवेशिका [नि. ७. १ ९४

हीन तालाब, दलजीत सांप और निर्धन व्यक्ति, संसार में समान हैं) । यहां
पर विशेयणपद तुलन नदु० एकवचन है ।
(ख) कभी-कभी गुणबन्दिक या विधेयपद व्याकरणीचित लिंग न अपना
वार स्वाभाविक लिंग को अपनाते हैं । जैसे-त्वां चिन्तयति, निराहार.: कृता:
प्रजा: [तेरा चिन्तन करती हुई (प, ) प्रजा (.) ने (भोजन का त्याग कर
दिया है] ।
(ग) ग्रीक और लेटिन के तुल संस्कृत में भी संकेतवाचक सर्वनाम शब्दों
का लिग अपने विधेय के लिंग के अनुसार ही होता है । जैसे-असौ परमो
मंत्र: [यह (प.) सर्वोत्तम मात्र (पल मचल है] ।
तिडन्त किया के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले कृदन्त पद का लिंग कर्ता के
अनुसार होना चाहिए, परन्तु यदि उसके समीप कोई विधेय संज्ञा शब्द होता है
तो उसका लिग विधेय पद के अनुसार हो जाता है । जैसे-त्वं में मित्र
जाए [तू (दु०) मेरा मित्र (नार.) हो गया है (ना.")] ।
जि) सभूहबोधक एकवचन संज्ञा शब्द के साथ किया भी एकवचन होती
है । एकवचन वाले दो कर्ताओं के साथ विधेय पद द्वि-वचन होना चाहिए तथा
तीन और अधिक कर्ताओं के साथ विधेय बहु० होना चाहिए । किन्तु कभी
कभी विधेय पद में समीपस्थ कर्ता के अनुसार वचन रहता है और वह बौद्धिक
रूप से अन्य कर्ताओं के साथ संबद्ध कर दिया जाता है है जैसे -कान्तिमती
राज्यमिवं मम च जीवित्मपि त्वदधीनब [कान्दिमती, यह राज्य और मेरा
जीवन भी तेरे अधीन है (एक०)] ।
(क) इसी प्राकर अकेले बहुवचन कर्ता के साथ क्रिया बहुवचन 'होनी
चाहिए, किन्तु कभी कभी समीपस्थ विधेय संज्ञा शब्द के वचन के अनुसार
उसमें वचन होता है । जैसे-मप्रलय बता: समज राज्यमुचाते [ये सात
अंग मिलकर राज्य कहे जाते है (एकवचन) ] ।
सर्वनाम ("०७०००ड़ा

१९५- ( : ) व्यडिलवाचक सर्वनाम-क) संस्कृत भाषा अत्यधिक प्रत्यय


प्रधान है, अत: आधुनिक यूरोपीय भाषाओं की अपेक्षा इसमें व्यक्तिवाचक
नि० ७, १९५ वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १६७
सर्वनाश के प्रथमान्तपद बहुत कम प्रयुक्त होते हैं (देखो नि० : ९१ क) ।
(ख) अहम् और त्वत् ( १ ० है का के स्थान पर होने वाले अनुदार न
वाक्य के प्रारम्भ में, न पाद (शलोक का एक चरखा के प्रपम्भ में, न सव
धन के बाद और न च, वा, एव, ह इन निपातों से पहले प्रयुक्त अगे सकते हैं ।
जैसे-मम मित्रब (मेरा मित्र) (में मित्रब, नहीं) । देवास पाहि (हे देव,
हमारी रक्षा करो) (अस्मन के स्थान पर न: का प्रयोग नहीं) । तस्य मम वा
गृहम् (उसका या मेरा धर) ।
(ग) 'भवान्' (आप), स्वीलिग 'भवती' यह बध (तू) का आदरसूचक
शब्द है (एक ही वाक्य में ये दोनों शब्द अदल-बदलकर भी प्रयुक्त होते हैं),
इसके साथ किया 'ममपुरुष होती है । जैसे-किर भवान (आपने क्या
कहा ?) । इसी प्रकार बहुवचन 'ममत:' (स्वी० भव-य) के साथ भी प्र० पु०
किया लगती है; इसका प्राय: एकवचन अभिप्राय होता है (१९३, ३ का ।
नाटकों में 'भ.' के दो समस्तपद प्राय: प्रयुक्त होते हैं :-प () अत्रभवान्
(पूजनीय आप), यह वर्तमान एक व्यक्ति को संकेत करता है, वह सामने
संबोधित व्यक्ति हो या अपर कोई व्यक्ति । (२) तत्रभवाब (पूजनीय वे), यह
(भामंच से बाहर किसी व्यक्ति को संकेत करता है और अन्य पुरुष के रूप में
ही प्रयुक्त होता है । इन दोनों के सथ किया प्रथम पुरुष ही लगती है ।
(२) सकेतवाचक सर्वनाम-साक) एष: और अयन (यह) ये समीपस्थ या
वर्तमान को संकेत करते हैं । इन दोनों में से भी प्रथम (एष:) अधिक प्रबल
है । इन दोनों का प्रयोग 'यातं" अर्थ में प्र० पु० और उ० पु० एकवचन किया
के साथ प्रद होता है । जैसे-एष तपस्वी तिष्ठति (यह: तपस्वी खडा है) ।
अयमरिम (मैं यह: हूँ) । अमर आगतस्तव पुत्र: (तुम्हारा पुत्र यहाँ आया) है
अयं जन: (यह व्यक्ति) का प्रयोग प्राय: 'मैं' के अर्थ में होता है ।
(ख) स: और असत् (वह) का प्रयोग दूरस्थ या अनुपस्थित के लिए होता
है । इन दोनों में से 'स:' अधिक स्प-रूप से संकेतवाचक है, क्योंकि यह सापेक्ष
सर्वनाम का संबद्ध उत्तररूप है । इसके निम्नलिखित मुख्य प्रयोग होते है ।
इसकाप्राय: (लेटिन 'हि' के हुय) 'प्रसिद्ध' 'सुविख्यात' अर्थ होता है । जैसे-
सा रम्या नगरी वह प्रसिद्ध मनोहर नगरी) । इसका प्राय: 'पूर्वोक्त' अर्थ भी
: ६८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० (0. ( ९५

होता है । जैसे-सय (पूर्वोक्त वह मा । इस अर्थ में प्राय: इसका अंग्रेजी में


अनुवाद निश्चयवाचक '१ए के द्वारा करना चाहिए (नि० १ ९२) । जहाँ पर
वाक्य में सज्ञाशब्द नहीहोता है, वहाँ पर 'स:' अन्यपुरुष व्यक्तिवाचक सर्वनाम
का कायकरता है औरइसका अर्थ होता है-वह (प.), वह (स्वम्), वह
(नप.) वे, किन्तु यदि प्रथमा एकल में इसका प्रयोग होता है तो अर्थ से कुछ
बल अधिक बहता है । (इसी प्रकार 'अयम्' और 'असौ' प्रथम पुरुष व्यक्ति
वाचक सर्वनाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं) । यदि से शब्द का दो बार प्रयोग
होता है तो इसका अर्थ होता है-अनेक, विविध, सभी प्रकार के । जैसे--,
तानि तानि शारत्राशयशर्यत (उसने विविध शास्त्र पर :
(३) स्वामित्ववाचक सर्वनाम-इन सर्वनाम. ( : १६) का अपेक्षाकृत
बहुत कम प्रयोग होता है, क्योंकि ऐ-जिस अर्थ में व्यक्तिवाचक सर्वनाम-श-औरों के
वशठी के रूप अधिक प्रयोग में आते हैं । अत (: ९५, ( ग) के अर्थ के अनु
सार ही इससे बने हुए तद्धिताशब्द 'भवदीय' और 'भावक' आदरसूचक
मध्यम पुरुष के अर्थ में स्वामित्ववाचक सर्वनाम के रूप में प्रयुक्त अतल हैं ।

कथक
(111० (:कहेजोछु)

प्रथमत
([ध0111111:::हैरहु:)
१९६. अन्य भारीपन भाषाओं (निता-साप:'". 1-धा18प-४ल की
की तुलना में संस्कृत में वाक्य के कर्ता के रूप में प्रथमा का प्रयोग बहुत कम
मात्रा में प्रचलित है । इसके स्थान पर प्राय: कर्मवाष्य प्रयोग होने से कर्ता में
तृतीया वाले प्रयोग अधिक मिलते हैं । जैसे-मवि सस्यरक्षकेर्णकाले स्थितम्
(कोई खेत कम रक्षक एकान्त में खडा था, शाब्दिक अर्थ- किमी खेत-रक्षक
के द्वारा एकान्त में खडा हुआ गया) ।
(क) 'होना, प्रतीत होना, दिखाई पड़ना' अर्थ वाली धातुओं के समय तथा
'पुकारना, जानना, भेजना, नियुक्त करना, बनाना' आदि अर्थ वाली धातुओं
नि० इ१९६] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा : ६९

के कर्मवाव्य रूप के साथ प्रथमा का प्रयोग विधेय के रूप में होता है । जैसे--
तेन मुनिना आरी व्यय: कृत: (उस मुनि ने कुत्तो को व्याध बना निया) :
(ख) कुछ परिस्थितियों में प्रथमान्त के बाद उत' का प्रयोग होने पर
वह कर्म का स्थान ले लेता है (देखो १९४, : ) ।

द्वितीया
( भी(:211गुर1.पहु,)
: ९७० द्वितीया विभक्ति मुख्य रूप से सकाम धातुओं के कर्म को प्रकट
करती है । इसके अतिरिक्त निम्नलिखित भावों को प्रकट करने के लिए भी
द्वितीया का प्रयोग होता है:---
(१) गति (चलना, जाना) अर्थ की धातुओं के साथ गन्तव्य स्थान में
द्वितीया होती है उ-जैसे-स विदर्भान् असमय (वह विदर्भ देश वने गया) ।
(क) गति अर्थ वाली धातुएँ, जैसे गए और या, प्राय: भाववाचक संज्ञा
शब्दन के साथ प्रयुक्त होती हैं । इरिलशु में तुनका अनुवाद विशेषण के बाद
'१० 6.:112, (होता है) या केवल अकर्मक किया द्वारा किया जा सकता है ।
जैसे-स: कीर्ति-याति (वह प्रसिद्ध होते है, शाब्दिक अर्थ-वह कीर्ति को
जाता है) । परुचत्वं गच-बनि (वह मरना है, शाल अर्थ-वह मृत्यु को जाना
है) ।
२. समय की अवधि और स्थान की दूरी में द्वितीया होती है :----जैसे
मममचीते (वह महीने भर प्यार है) । योजन ग-कात (वह तक योजन अर्थात्
९ मील जाता है) ।
३. सर प्रत्यय से बने हुए 'सु' अन्त वाले (नि० : ६९) विशेषण श-०दोके
कर्म उपसर्गों से प्रारम्भ होने वाले कुछ समासयुक्त विशेषण शब्दों में
द्वितीया होती है । जैसे-तिय:' सारा (मैं समुद्र को पार करना चाहता
हूँ) । दमयन्तीन् अत्: (दमयंती का भक्त) ।
४. अकर्मक धातुओं के साथ संज्ञा शब्द यदि संबद्ध कर्म के रूप में होत या
विशेषण शब्द किया पीवशेषण के रूप में हो तो उसमें द्वितीया होनी है । जैसे
उकामात सर्वान् वर्षतु (वह सारी कामनाओं को बरसे अर्थात पूर्ण करे) ।
१७० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७. : ९७

शीष गचीछाम: (हमें शीघ्रतापूर्वक चलना चाहिए, मूलत: इसका अर्थ था-
र्शघ्र चाल से चलते हैं) ।

द्विकर्मक प्रयोग
(1101112 हैव-जनि:)
: ९८. निम्नलिखित धातुओं के साथ दो कर्म होते है :
( () बुलाना, जानना, समझना, बनाना, नियुक्त करना और छटिना अर्थ
की धातुओं के साथ-जैसे-जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषत् (मैं तुझ मुख्य व्यक्ति
मममतत हूं) है
(२) कहना (शू, वच. अह) पूछना (प्रक) मांगना (यार, प्रार्थया,
आज्ञा देना (अनु-शास) दण्ड देना (दई), जीतना (जि), दुहना (दुहरा
अर्थ की धातुओं के साथ उ-जैसे-अन्तरिक्ष-ते वाच व्याज-हार नलमू (पक्षी
ने नल से बात कहना । साल पृच्छेद ऋतंविवात् (वह ब्राह्मणों सेसकची दृष्ट
घटना पूछे) । बल याचते वसुधाम् (वह बलि से भूमि माँगता है) । यस्तु
शक्ति मामू (वह मुझे जो आदेश देता है) । तन सहस" दण्डक (वह उन
पर एक हजार पण दंड लगावे) । जित्वा राज्य नलन् (नल का राज्य जीता
कर) । रत्नानि दुदुहुर्थरिय जिन्होंने पृशवी से रत्न दुहे अर्थात प्राप्त किए) ।
(क) कथय (कहना), वेदय (बताना) और आ-दिर (आज्ञा देना) के
साथ व्यक्ति में कभी भी द्वितीया नहीं होती, अधि तु चतुर्थी (या षष्ठ.) होती
है ।
-३. लेना, पहुँचाना, भेजना, अर्थ की धातुओं के साथा-जैसे-ग्रामर
अजी अत (वह बकरी को गाँव में ले जाता है) । शकुन्तलां पतिकुलं विसृज्य
(शकुन्तला को पति के घर भेजकर) ।
४. णिजन्त धातुओं के साथ-जैसे-रामं वेदमध्यापयति (राम को वेद
पलता है) । यदि मुख्य कर्म पर बल दिया जाएगा तो उसमें तृतीया भी
होगी । तो श्वभि: खादयेत (वह उस सत्रों को कुलों से खिलता दे) ।
(क) यदि धातु में णिचू का अर्थ लुप्त हो गया है तो व्यक्ति में द्वितीया न
होकर चतुर्थी या ष८ठी होगी । ऐसा प्राय: इन धातुओं के साथ होता है :
नि० ७-१ ९८] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १७ :

दर्शय (दिखाना) हिं-शु-यय) और आय (सुनाना) (धुन-शिबू) है वेदय


(बताना) (विद यणिचा के साथ सदर ऐसा होता है ।
(ख) णिजन्त के कर्मवाच में प्रधान कर्म (व्यक्ति या कर्ता) में प्रथमा
होती है और गौण (अप्रधान) कर्म (वस्तु) में द्वितीया ही रहती है । जैसे
रामी वेदर अध्याय (राम को वेद पढाया जाता है) । तो स्वान: खाय
(उस अभी को कुतों से खिलवाया जाप है) । बलिर्याव्यते वसुधा, (बलि से
पृ५ची माँगी जाती है) ।
तृतीया
(1०दु१प१टा१सा)
: ९९. तृतीया विभक्ति मूल रूप में कर्ता और साधन सहयोगी वस्तु को
प्रकट करती है, जिसके द्वारा कोई कार्य किया जपता है । 'से' (श) या 'द्वारा'
()1) के द्वारा द्वारका अनुवाद किया जाता है । जैसे-तेनी. जिसके
द्वारा क" गया, अर्थात उसने कहा) । स खल व्यतपादित: (वह तलवार से
मारा गया) । यम मिशेल संलाप-नो नस्तिहिं पुण्यवान जिसका मित्र से
वार्तालाप है, उससे अधिक इस संसार में और कोई भाग्यशाली नहर है) (नि०
२०१, २ क) ।
( : ) तृतीया के द्वारा निम्नलिखित अर्थ भी प्रकट किए जाने हैं :
(क) कारण या हेतु-पासे, द्वारा, कारण से, क्योंकि, इसलिए कि):-
जसे--भवतोपुनुग्रहेण (आपके अनुग्रह से): तेनापरादेन त्वां दण्डयामि (उस
अपराध के कारण तुझे दण्ड देता हूँ); व्याप" (व्याल समझने के कारण,
अर्थात उसने उसे प समझा अत एवा (नि० १८७, (); सुखआन्त्या
(सुख-प्राप्ति के भ्रम से) ।
(ख) अनुरूपता या स्वभाव-बोधन त्----., स्वभावानुसार):-जैसे-प्रकृत्या
(स्वभाव सा, जरिया (जाति से या जन्म से); स मम मतेन वर्तते (वह मेरे
विचार के अनुसार चलता है) ।
(ग) वस्तु का मूल्य- (द्वारा, इतने मूल्य माप-जैसे-य-रूप-तेन
विजीयमार्ण पुस्तक (लौ रुपए में बेची जाती हुई पुस्तक को); आत्मानं
१७२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७. १९९

सततं रब दारैरपि घनैरपि (पत्नी और धन को खोकर भी मनुष्य कोचाहिए


कि वह सदर अपनी रक्षा करे) ।
(घ) समय-सा-जितने में कोई कार्य पूरा किया जाता है (इतने समय मा
:---जैसे--द्वादशभिर्वर्वेव्यकिरण श्रुयते (१ थे वर्ष में व्याकरण पता जाता है) ।
(हु) मार्ग, यात्रा का साधन या शरीर का अंग न-जिसके द्वारा किया
पर प्रभाव पड़ताहै : स-जैसे-कय मागे-ण प्रण-गी: काका: (कौए किस ओर
से भाग गए 1); वाजिना चरति (वह घोड़े पर चढ़कर जाता है, शद-दाय
धोते के द्वारा जाता मा; स ववानं स्कन्धेनोवाह (वह कुले को कानी पर रखकर
ले गया) ।
(च) इस बारे में या इस बात में-मप्रमुखता, हीनता या अग विकार
बोधक शब्दन के साथ):------." शोर्वेण हैनान: (पराक्रम में इन दोनों
से हीन); पूर्वान् महाभाग तयातिशेये (हे महा प्रभावशाली, तुम भक्ति के द्वारा
अपने पूर्वजों से बढकर हो); अना काण: परदों से काया) ।
(छ) कारण या प्रयोजन बताना [आवश्यकता या उपयोगिनाबोधक
अर्थ:, प्रयोजन, (प्रश्नवाचक के रूप में प्रयुक्त या निषेधार्थक के माई प्रयुक्त)
या किए (क्या ? कृ धातु के साथ या उसके बिना) के माथा उ-जसे-को
में जीवितेनार्थ: (मेरे जीवित रहने से क्या लाभ ?) : देवपादानां सेवकैने
प्रयोजन, (आपको सेवकों की आवश्यकता नहीं हा; कि तया क्रियते अवा
जिस गाय से क्या लाभ ?) ; कि न एतेन (हमें इससे क्या करना है ?) । इसी
प्रकार 'कृप' (बसा और 'अलम (बस, मना के साथ तृतीया होती है (नि०
१८०) । कृतमवयुत्थानेन (आप मत उडिए) ।
(जा 'से' या 'इतने मात्र से९--(प्रपन्न 'होना, हँसना, आनन्दित होना,
सन्तुष्ट 'होना, आश्चर्ययुक्त होना, लत्ज्जत होना और खिन्न होना अर्थ वाली
धातुओं के साथ) उ-जैसे-कापुरुष: स्वा१पेनापि अति (नीच व्यक्ति थोडे से
भी प्रसन्न हो जाता है) । जब तेन (इस बात पर वह 'हँसा) ।
(झा 'की' और 'द्वार-आत्मना' या शपथ लेना अर्थ की यन्तुओं
मि० ७-१ ९९] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १७३

के साथ):---'---.., चाहं शये (मैं भरत की और अपनी कसम


खाता हूँ) ।
(जा यर धातु के कर्म (वस्य पशु) मौ-जैसै-पशु-वं यजते (रुद्र को
पशु बलिरूप में देता है) । इस प्रयोग में तृतीया का मौलिक अर्थ प्राप्त होता
है, क्योंकि 'ममें यब (किमी देवता की, किसी था से, पूजा करना) धातु का
मूल अर्थ अवशिष्ट है ।
कै- सह (साथ) अर्थ-यह अर्थ किय-विशेषण श-मसह, साक-मधीर और
समर के द्वारा प्रकट किया जाता है । ये शब्द सम्बद्ध शब्द के साथ या पृथक
भी रखे जाते हैं । उनके द्वारा 'साथ रहना' 'पृथकता' और "शत्"' अर्थ भी
व्यक्त किया जाता है । जैसे-पुत्रेण सह पिता गत: (गिता पुत्र के साथ गया);
मित्रेण सह चित्यलेष: (मित्र के साथ मगेद) ; स तेन विधि समें युद्धम्
(उसने उसके साथ युद्ध किया) । यह अर्थ निम्नलिखित स्थानों पर भी लागू
होता है है---
(क) साथ रहने वानी परिस्थितियाँ यया ढंग जिस प्रकार कोई कार्य
किया जाता है, इस अर्थ को प्रकट करने के लिए :--जैसे---ती दम्पती महता
स्नेहेन वक: (वे पति-पत्नी बडे प्रेम से रहते है); महता सुखेन (बडे सुख से):
(ख) साथ रहना, मिलना, युक्त 'होना, रखना और इनके विपरीत अर्थ
वाली कर्मवालय क्रियाओं के साथ है--- जैसे-त्वया सहित: (तेरे साथ), धनेन
संपन्न. वि८हीनो वा (धन से युक्त या धन से रहित), प्रार्णवियुक्त: (प्राणों से
रहित) ।
(ग) समानता, सादृश्य या तुल्यता अर्थ वाले विशेषण शब्दों के साथ,
जैसे--- सम, समान, सा-श और तुल्य शब्द-जैसे, शर्वणि सम: (इन्द्र के
समाना, अनेन सा-चा: (इसके सब, अयं न में पादरजसाधि तुल्य: (वह मेरे
पैर की पूल के बराबर भी नहं) है । इन विशेषण शब्दन के साथ षाफी
भीहोती है । (नि० २०२, २ घ) ।
२७४ संस्कृत-व्य-रण-प्रवेशिका [नि. ७० २० ०

चतुर्थी
(यय)
२० ०० चतुर्थी विभक्ति गौण कर्म को, सामान्यतया व्यक्ति को, या किया
के उद्देश्य को प्रकट करती है ।
(अ) निम्नलिखित स्थानों पर गौण कर्म में चतुर्थी होती है :
( : ) सकाम धातुओं के साथ, इनके साथ मुख्य कर्म हो या न हो :
(का इन अर्थों वाली धातुओं के साथा-देना (दा, अप, कहना (चक्षु,
शत कथय, ख्यापय, निरे), प्रतिज्ञा करना या वचन देना (प्रति-भु, आ-धु,
प्रति-ज्ञा), दिखाना (दर्शय:)---.' गां ददाति (वह ब्राह्मण को
गाय देता है) । कथयामि ते भूपति (मैं तुमसे सच कहता हूँ) ।
(खा भेजना और फेंकना अर्थ की धातुओं के साथा-जैसे-यन दूतो
रघवे विश्व: (भोज ने रघु के पास दूत भेजा), शुला०विचक्षिपू रामाय (उन्होंने
राम पर बाण केके) (४७) ।
(२) निम्नलिखित अर्थों वाली अकर्मक धातुओं के साथ उ-अच्छा लगना
(ब), चाहना (शुभ, स्मृहष्ट्र), शुद्ध होना (अस, कुप, कला, दोह करना
(दुगु):----"---, महान् (यह मुझे अच्छा लगता है); न राज्याय स्प८हये
(मुझे राज्य की इच्छा नहीं है); किकराय कुपाति (वह नौकर पर कोश
करत: है) है (शुधु और बुल धातुएँ जब उपसर्ग के साथ समस्त होंगी तो उन
के साथ द्वितीया होगी) ।
(३) नमस्कार अर्थ वाले शब्दों के साथा-जैसे-गणेशाय नम: (गणेश
को नमस्कार), कुशलं ते (तुम्हारा कल्याण हो), रामाय स्वस्ति (राम को
आशीर्वाद), स्वागतं देखी (देवी का स्वागत है) ।
(आ) उद्देश्य अर्थ वाली चतुर्थी यह प्रकट करती है कि वह कार्य किस
उद्देश्य से किया गया है और यह चतुवन्त पद प्राय: तुमुनू-प्रत्ययान्त का
समानार्थक होता है । जैसे-मुक्तये हरि भजति-वह मुक्ति के लिए (मुक्ति
प्राप्त करने के लिए) हरि को भजता है; फलेज्यों याति-वह फल के लिए
(फल प्राप्त करने के लिए) जाता है; अस्मत्पुत्राणा नीनिशारत्रोंपदेशाय
नि० ७. २० मा] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १७५

अन्त: प्रमाणम्-मेरे पुत्रों को नीति-शास्त्र के उपदेश के लिए (नीतिशास्त्र


का उपदेश देने के लिए) आप ही प्रमाण (पूर्ण अधिकारी) हैं । युद्धाय प्रस्थित:
उ-वह पद्ध के लिए (युद्ध करने के लिए) चल पडा । पुनर्वर्शनाय-पुन:
दर्शन के लिए ।
है यह चतुर्थी निम्नलिखित अर्थों वाली धातुओं के साथ मुख्यतया होती

(१) 'योग्य होना' 'समर्थ होना' (कब-पू, सं-पद, प्र-भू) :---भक्तिज्ञत्नाय


कल्पते (भक्ति ज्ञान के लिए होती है) ।
(क) इसी प्रकार अत् और भू धातुओं का प्रयोग होता है, किन्तु ये धातुएँ
प्राय: लुप्त रहती हैं :---जैसे-लधुनामषि संश्रयोरक्षार्य भवति (छोटी वस्तुओं
का भी समूह रक्षा के लिये होता है); आर्तवाणाय व: शस्त्रब (आपका शस्त्र
पीडितों की रक्षा के लिए है) ।
(२) 'योग्य होना, 'प्रारम्भ करना, प्रयत्न करना', अनिश्चय करना,
'आज्ञा देना', नियुक्त करना', अर्थ की धातुओं के साथ उ-जैसे--- इयं कथा
क्षत्रियस्याकर्षणायाशकत (यह कथा क्षत्रियों को आकृष्ट करने में समर्थ हुई);
प्रावर्तत शपथाय (वह कसम खाने लगा); तदविषणाय यतिच्चे (उसका पता
लगाने का यत्न करूंगा); तेन जीबोत्सर्मायं व्यवसित्त (उसने जीवन-त्याग
का निश्चयकिया); दुहितलअतिधिसत्कारायादिश्य (अपनी पुत्री को अतिधि
सत्कार करने का आदेश देकर); रावणीरिकात्तये देवैनियोजित: (वह रावण
का नाश करने के लिये देवताओं के द्वारा नियुक्त किया गया) ।
(का किया-विशेषण 'अलप (समर्थ) का प्रयोग 'पयष्टि होना' 'बराबरी
करने में समर्थ होना' अर्थ में होता है : जैसे-दै-नियो हरिरलम् (हरि दैत्यों
के लिए पय. है) ।
पंचमी
( है11..2)
२० : . पंचमी मुख्यरूप से निश्चित स्थान या आधार को सूचित करती
है, जहाँ से कोई कार्य प्रारम्भ होता है । इस प्रकार यह 'कहाँ से' इस प्रशन
का उत्तर प्रस्तुत करती है और सामान्यतया से (.1) के द्वारा इसका
१ ७६ सस-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ७. २ ० १
अनुब-द किया जया सकता है । जैसे-च-अहम् अमन वना. गन्तुमिउछामि । (मैं
इस वन से जाना चाहता हूं); पाप-नाश उदुभवति आप से नाश होता है);
निश्चयान्न चचाल स (वह अपने निश्चय से विचलित नहीं हुआ); स्वजनेभ्य:
सुननाहाँ शुधाव (उसने अपने संबन्धियों से अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार
सुना); ता बमपनाद 'वगु-य (उसको उसके बन्धन से औप); विम
कर्मणीप्रमान् (इस काम से रुको); पाहि या नरकान् (मुझे नरक से बचते
(क) भय अर्थ वाली धातुओं (भी, उद-विजा के साथ भय के कारण में
पंचमी हसा, है । जैसे-जिधर बिभेधि (तुम बहेलिए से डरते हो); संमा
नाद आपना नित्यमुदविजेत (ब्राह्मण को नाए कि वह संमान से सवा
बचे) ।
(पव) 'पृथक, होना' अर्थ वाली धातुओं के साथ स्वभावत: पंचमी होती है ।
जैसे-भव-षय. वियोंजित: (आपसे छोडा हुआ) ; सा पतिनोकाच्च हीयते
(वह अपने पति के स्थान से कसता हो जाती है) (ऐसे शलरों के साथ तृतीया
भी द्रहोनी है, देखो नियम : ९९, २ खा । इससे मिलता-जुलता 'वदय'
(ठगना, किसी वस्तु से उसको वंचित या वियुक्त करना) का प्रयोग है । जैसे
--वाप्रचधित्, ब्राह्मण छागलान् (ब्राह्मण से बछड़ा ठगने के लिए) ।
(ग) पचास पृथक होने में निश्चित स्थान (सव मथान) को सूचित करती
हैं, अत: याद 'दूर अर्थ वाले तथा 'दिशावाचक' सभी शाखों के साथ होती है ।
जैसो-दूरे प्रमाद (गांव से दूर); ग्रामान् क्या गिरि: (गल के पूर्व की ओर
पहाड़ है) ।
(घ) इसी प्रकार पंचमी 'समय' को बताती है, जिसके बाद कोई कार्य
होता है । जैसे-बहर' काला-बू (बहुत समय के बाद दिखाई पडा); सप्तम
हात पंचमी विभक्तिकेअपने
(एक सप्ताह बाद)मूल
। अर्थ से संबद्ध निम्नलिखित अर्थों को भी प्रकट

करती है :
( : ) कारण, लक्ष्य या अदृश्य (वा-तोलिए, इम कारण से, इसके द्वारा,
से) उ-जैसे-लत-स्वार, सांसे मयति (लालच के कारण माँस खातर है, ।
इस प्रकार की पंचमी का प्रयोग "त्व५प्रत्ययान्त भाववाचक शाखों के साथ,
नि० ७.२० १] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १७७

विशेषकर टीका-ग्रंथों में, मुख्यतया दिखाई पड़ता है । जैसे-पर्व-नमन


धुमवत्वात (पहाड़ अन्दियुक्त है, क्योंकि इसमें धुआ है) । इस अर्थ में तृतीया
भीहोती९नि० १९९, : का ।
((२) तुलना अर्थ :
(क) दो की तुलना में (तर-मयवान या तुलना अथ वाले शब्दों के
साथ । जैसे-गोविन्द-द रामी विद्धत्तर: (राम गोविन्द से अधिक विद्वान है);
कमर ज्ञानमतिरिध्यते (ज्ञान कर्म से बढ़कर है) । तुलना अर्थ होने पर तर
प्रत्यय न होने पर भी पंचमी होती है । जैसे-भार्या सर्वलोकादपि वल्लभा
अति (पत्नी सारे संसार से अधिक प्रिय होती हैगा वजादपि कठोराणि अनि
कुसुमसप लोकंक्षिरारह चेतांसि (असाधारण लोगों के चित वाज से भी
अधिक कठोर और फूल से भी अधिक कोमल होते हैं) ।
(ख) अन्य या भिन्न अव वाले शब्दों (अन्य, कर, अपर, भिन्न) के
साथ है जैसे-कृष्ण-यों गोविन्द: (गोविन्द कृष्ण से भिन्न है) है
(ग) तुलनार्थक शब्दों से मिलते-जुलते 'गुना' अर्थ वाले दुगुना, तिगुना
आदि शब्दों के साथ । जैसे-मू-स्यात् प-८श्वगुणी दण्ड: (मूल्य की अपेक्षा पाच
गुना दण्ड है) 1
यरुठी (मसाम)
४००२. अच्छी का मुयय अर्थ अर्थ-विशेषण-मक है, क्योंकि इसके द्वारा
एक संज्ञाशब्द का दूसरे संज्ञाशब्द के साथ 'सम्बन्ध' बताया जाता है । महीं
इसका अर्थ होता है-सिवा' या 'उसका सम्बन्धी' । सामान्यतया इंर्णलश
में ल (का) के द्वारा अनुवाद किया जाता है । सज्ञाशब्दत् में षानी का प्रयोग
इन अर्थों में होता है----स्वस्वामिभाव, कहु-पव, कर्म-त्व, और निर्धारण (बहुतों
में से एक को छांटना) । जैसे-राज्ञा पुरुष: (राजाका पुरुष); राक्षसकलत्र
प्रा-छादन. भक: (आपका अर्थात आपके द्वारा राक्षस की पत्नी का 'छपना);
शजूया तस्या: (उसकी शंका से अर्थात उसको वह स्तरों समझ कर), धुल
धनवतात् (धनवानों में अग्रगण्य) ।
(१ ) बहुत सी क्रियाओं के साथ षशठी का प्रयोग होता है:
(का स्वामित्व अर्थ में ईशु (स्वामी होना) और प्र-मभू (स्वामी होना,
: ७८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७. २०२
दूसरे पर प्रभुत्व रखना) धातुओं के साथ तथा अप (होना), भू (होना) और
विद्यते हिं, विद्यमान है) के साथ । जैसे-यदि आत्मना: प्रभविध्यामि (यदि मैं
अपनी स्वामिनी होऊंगी, अर्थात यदि मेरा अपने ऊपर अधिकार रहा तो);
मम पुस्तकं विद्यते (मेरी पुस्तक है, मेरे पास पुस्तक है) ।
(ख) दम (दया करना), स्मृ (याद करना) और अनु-कृ (अनुकरण-रना)
धातुओं के साथ इनके कर्म में पत्की होती है (साथ ही द्वितीया भी होती है) :
जैसे-एते तव दयंतान् (ये तुम पर दया करें); स्मरति ते प्रसादानाब (वह
तुम्हारी कृपा को स्मरण करता है); भीमस्थानुवारिप्यामि (मैं भीम का अनु
करण करूँगा) ।
(ग) निम्नलिखित अर्थों वाली धातुओं के साथ इनके कर्म में अभी होती
है (इन अर्थों में सप्तमी भी होती है) :-उपकार करना, या हानि पहुंचना
(उप-कृ, प्र-सद, अप-कृ, अप-राधू), विश्वास करना (वि-शवसा, क्षमा करना
(क्षार) । जैसे-मवावा उपकुवणि: (मित्रों का उपकार करता हुबा); कि
मया तस्या अपना (मैंने उसका क्या अपकार किया है 3); क्षमस्व में (मुझे
क्षमा करो) ।
(घ) 'दूसरे के बारे में कहना या संभावना करना' अर्थ वाली धातुओं के
साथ । जैसे------'.." वदति (मुझ निदोंष के बारे में भी यह इस
प्रकार कह रहा है) । सर्वमस्य मूखेस्य संभाव्यते (इस मूर्ख के लिए सब कुछ
करना सभव है) ।
(डा निम्नलिखित अर्थों वाली धातुओं के साथ (गौण कर्म में चतुर्थी की
स्थान पर) प्राय: षशुठी होती है उ-देना, कहना, प्रतिज्ञा करना, दिखाना,
भेजना, झुकना, प्रसन्न करन, शुद्ध होना । जैसे-मया तस्थाभयं प्रदत्त
(मैने उसे अभयदान दिया है) । कि तब रोचत एषा (क्या वह तुम्हें अच्छा
लगता है 7) । ममानतिशुछा मुनि: (वह मुनि मुझसे अधिक शुद्ध नहीं है) ।
(च) कभी कभी, 'पूर्ण होना या तृप्त होना' अर्थ की धातुओं के साथ
(तृतीया के स्थान पर अभी होगी है । जैसे-नारि-यति काष्ठानाब
(अग्नि लकडी से तृप्त नहीं होती है) । इसी प्रकार क्त-प्रत्ययान्त 'पूर्ण' शब्द
नि० ७- २०२] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १७९

के साथ 'पूरा भरा' में गोते और अमुक से भरा हुआ' अर्थ में तृतीया
होती है ।
भी
(२) विशेषण शब्दों के साथ प्राय: ष-ठी होती है :
(क) सकर्मक धातुओं के समकक्ष विशेषणों के साथ । जैसे-जरा विनय
शिनी रूपस्य (वृद्ध-वस्था औन्दर्य की नाशक है) ।
(ख) इन अर्थों वाले शब्दों के साथ उ-निर्भर, संबद्ध प्रिय । जैसे
तवायत्त: स प्रापर: (वह प्रतीकार तुम्हारे अधीन है ) । यत् त्वयाम्य सम
किंचित् गृहीत' तत समर्पय (इसका जो कुछ भी तुमने लिया है, वह इसे
लौटा दो) । को नाम रखा प्रिया (भला कौन राजाओं का प्रिय है ?) ।
(ग) पृ-तन अर्थों वाले संतों के साथ (इनके साथ सप्तमी भी होती है, नि०
२०३ चा उ-परिचित, दक्ष, अभ्यस्त है जैसे-अभिज्ञ: ख८वसि लोकव्यव
हाराणाब (आप वच: लोक-व्यवहारों से परिचित है); संग्रामाणात् अकल
विदा (युद्ध में अरार) । उचिती जन: कलेशानान् (दु:खासहन के अभ्यस्त
व्यक्ति) ।
(घ) तुल्य या सदृश अर्थ वाले शब्दों के साथ (इनके साथ तृतीया भी
होती है, नि० १९९, र ग) । जैसे-राम: कृष्णस्य तुल्य: (राम कृष्ण के
तुल्य है) ।
( ३ ) क्त-प्रत्ययान्त शमन के साथ कर्ता में षरुठी होती है :
(वा) सोचना, जानना और पूजा करना अर्थ वाली धातुओं से वर्तमान
अर्थ में औ-प्रत्यय होने पर :---र्जसे----राओं मत: (राजाओं के द्वारा माना
गया-दा-द्वा-राजाओं के द्वारा आल) । विदिती भवान आश्रमसदाब इह-थ: (आप
यतिन पर है, यल आश्रमवासियों को ज्ञात हो गया है) ।
(ख) कृत्य प्रत्ययों के साथ (इनके साथ तृतीया भी होती है नि० १ ९९):
'---मम (मया) से-यो हरि: (हरि मेरे द्वारा सेवनीय है) ।
(भा दिशाबोधक तर (त:) प्रत्ययान्त क्रिया विशेषण शब्दन के साथ
अठी हैं२ती है ( १७७ घ):---'-. दधि.: (गांव के दक्षिण की
ओर) । कभी-कभी 'एन' प्रत्ययान्त शब्दों के साथ भी शठी होती है (इनके
: ८० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७. २ ०२

साथ द्वितीया भी होती है) उ-जैसे -उत्तरेणास्य (इस स्थान के उत्तर की


ओर) ।
(पू) काल-वाचक शब्दों के साथ पत्नी निम्नलिखित स्थानों पर होती
है :ब-तोम
(क) निर्धारित समय में कोई कार्य कितनी बार किया गया है, दृस अर्थ
में संख्या-बोधक शब्दन से या 'इतनी बार अर्थ वाले शब्दों से ( : ०८) वाठी
होती है । जैसे-आह विर-वाय निर्वपेत (वर्ष में तीन बार आद्ध करे) ।
संवत्सर-ममपि चरों कृष्ण द्विजोत्तम: (ब्राह्मण को चाहिए कि वह वर्ष
में कम से कम एक कठिन व्रत करे) ।
(ख) 'इतने समय बस अर्थ में काल-वाचक शब्दन से (मठी होती है
(पंचमी भी) । जैसे-कतिपय-हाय (कुछ दिन बाद) । इस अर्थ में केवल
'चिराय' का भी प्रयोग होता है ।
(ग) यदि समय-बोधक शब्द के साथ संज्ञा शब्द और का-प्रत्ययान्त रूप
अच्छी विभक्ति से युक्त होता है, तो वह 'समय की अवधि' बताता है । जैसे---
अद्य दशमी मासस्तातस्वीपरतंय (मेरे पिता को मरे हुए आज दसवां महीना
है) । इस प्रकार का प्रयोग भावे मंठी के तुल्य है (२० ५, २ ) ।
(६) दो वस्तुओं में विकल्प या अन्तर प्रकट करने के लिए दोनों शब्दों
में ष-ठी का प्रयोग होता है । जैसे-व्य-य मृत्योशच व्यसनं कष्टमुव्यते
(दुर्ग" और मृत्यु में दुर्युण अधिक कष्टदायी है) । एतावानेवपामत: शत
कतीबच विशेष: (आपमें और चिरंजीवी इन्द्र में इतना ही अन्तर है) :

सप्तमी (यब.":)

२० ३० सप्तमी विभक्ति स्थानअर्थ बताती है, जहाँ पर वह कार्य हुआ


है, या गति-अर्थ वाली धातुओं के साथ गन्तव्य स्थान को बताती है । प्रथम
अर्थ में सप्तमी का अनुवाद में, पर, समीप आदि के द्वारा किया जाता है और
दूसरे अर्थ में मैं यता 'पर' के द्वारा ।
नि० ७. २०३] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १८१

कहते ? अर्थ में सामान्य सप्तमी के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है :


पलिणस्तरिमन् वृक्षे नियति (पक्षी उस पेड़ पर रहते हैं) । विदभेंधु
(विदर्भ मा ( १९३, ३ गा । आत्मज तव द्वारि व्यापादयिप्यामि (मैं तुम्हारे
दरवाजे पर अपनी हत्या करूँगा) । कायल (काशी में) । केलं दृष्ट दून
(पेडों पर फल दिखाई पडा) । आसेदुर्गनिस्थान् (वे गंगा के किनारे रुके) । न
देवेन्द्र न यहीं ता-थ रूपवती आय मानुषेजपि चान्येयु अपूर्वा (न देयों में,
न यक्षों में और न अन्य पथों में ही इस प्रकार की सुन्दरी आज तक
देखी गई है) । मम पल (मेरे पास):
(क) जब निर्धारण (बहुतों में से एक को छांटना) अर्थ में सप्तमी होती
है, तो उसका अर्थ ष-भी के समकक्ष होता है (२०२) । जैसे-सर्वेषु पुन
रामी मम प्रियतम: (सारे पुत्रों में राम मेरा सबसे आँबक प्रिय है) ।
(ख) जिसके साथ कोई व्यय, रहता है या रुकता है, उसमें सप्तमी होती
है । जैसे ब-गुरौ वसति (वह गुरु के पास रहता है) ।
(ग) तिष्ठति (रुकता है) और वर्तते सता है) के साथ सप्तमी होने पर
इनका अर्थ हो जाता है-मानता है, तदनुसार कार्य करता है । जैसे-यत में
आसने तिष्टसि (तुम मेरा कहता नहीं मानते हो) । मातुर्मते वय (याँ की
इच्छा के अनुसार काम करो) ।
(ध) किसी कारण का परिणाम (फान) प्रकट करने यब में सप्तमी होती
है । वैवमेव नर वृद्ध-त अये कारण (मनु-यों की समृद्धि और अवनति का
कारण भाग्य ही है) ।
(ड:) निम्नलिखित अर्थों वाली धातुओं के साथ सप्तमी संबध (संपर्क)
अर्थ को प्रकट करती है : उ-पकड़ता (झा), बांधना (बन्धु), लेटना या चिप
क्या (लप, शि?, सबब), निर्मर होदा, विवश करब, अक करता । जैसे
--केशेयु गृहीत्वा (बाल पकड़कर), पाणी संगृह्य (हाथ पकड़कर), वृक्षे पर
बबन्ध (वृक्ष में बेडी बाँबी), 'व्यसने-ल: शुर: (व्यसनों में न फँसना हुआ
शुर), हुक्षमूलेषु संधिता: (हुओं की जडों पर लेटे हुए), विश्वसिति शधुधु (वह
१ ८२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७० २ ० ३

शत्रुओं पर विकास करता है), आशय सुरा अस्याधिजी धनुषि विजया


(देवता इसके डोरी-थ धनुष पर विजय की आशा करते हैं) ।
(च) निपुण या कुशल अर्थ वाले विशेषण शब्दों के साथ सप्तमी होती
है । (इनके साथ शठी भी होती है, २०२, २ ग) उ-राम-यथा निपुण:
(राम जुआ खेलने में निपुण है) । नाटक दक्षा वयन हिम लोग अभिनय में
निपुण(छ)
है) किसी
। व्यक्ति या वस्तु में कोई गुण यया विशेषता प्राप्त होती है तो

उसको प्रकट करने के लिए सप्तमी का आलंकारिक प्रयोग होता है । जैसे--


सर्व संभावयाम्यरिमन् (मैं इसमें सभी गुणों की अदा करता है) । (२०२, १
घ) । दृष्टदोषा मृगया स्वामिनि (शिकार खेलना राजा के लिए दुर्युण है) ।
आर्तानामुपदेशे न दोष: (विदायत को उपदेश देने में कोई दोष नहीं है) ।
इसी प्रकार शब्द का अर्थ स्पष्ट करने में सप्तमी विभक्ति का अर्थ होता है--
'अमुक अर्थ मे" । जैसे-कलापों बहे (कलाप शब्द का प्रयोग मोर के पंख अर्थ
में होता है) ।
(जा सप्तमी विभक्ति विशेष परिस्थिति को प्रकट करती है, जिन परि
स्थितियों में वह कार्य हुआ है । जैसे-आय (आपति के समय में) । भार
(बद्धि के समय में) । छिदैध्वनर्थाबहुलीभवनित (विपक्षियों के समय में अनर्थ
बढ जाते हैं) । अन्तिम उदाहरणमें सप्तमी कारण-बोधक है । यदि इसके साथ
शतृ-प्रत्ययान्त विधेय होता तो इसमें पाति सप्तमी' होती । (२०५, १ का :
(झ) 'कालार्थक सप्तमी' प्रकट करती है कि किस समय वह कार्य हुआ
है । यह पूर्वोक्त नियम का ही विशिष्ट प्रयोग है । जैसे-वरी (वर्धा ऋतु
मा, निशायाब (रात्रि मा, दिने-दिने (प्रतिदिन) ।
नि) सप्तमी स्थान की दूरी को प्रकट करती है कि कितनी दूर पर वह
कार्य हुआ है । जैसे-इतो वसति-ख-अध्य-जिने महषि: (महवि यहाँ से डेढ़
योजन पर रहते हैं) ।
२०४. सप्तमी 'किधर' और कहाँ इन प्रशरों का उत्तर देती है । इस
अर्थ में यह निम्नलिखित धातुओं के साथ प्रयुक्त होती है :.) गिरनाऔर
रखना अर्थ की धातुओं के साथ अनिवार्य रूप से; (ख) फेंकना और भेजना
अर्थ वाली धातुओं के साथ । इन अर्थों में चतुर्थी भी होती है (२००, अ १खा;
नि० ७. २०४] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १८३

(ग) जाना, घुसना, चढ़ना, चोट मारना, लाना, भेजना अर्थ की धातुओं
के साथ । इन अर्थों में द्वितीया भी होती है । जैसे-भूमौ पपात (वह पृथ्वी
पर गिरा) ' तत्त्व भिक्षापावे व्यय (उसी भिक्षा-पात्र में रखकर) । हस्त
मुरली कृत्वा (अपना हाथ छाती पर रखकर) (कृ धातु रखना अर्थ में भी
प्रयुक्त होती है) । अरी बारात क्षिपति (वह अपने शत पर बाण फेंकता है) ।
मलयों नल प्रविवेश (मछली नदी में घुसी) । समीपवर्तिनि नगरे प्ररिथत:
(वह समीपवर्ती नगर के लिए चल पडा) । तं शिरभ्यताडयत (उसने उसके
सिर पर चोट मारी) ।
(क) सप्तमी उस व्यक्ति या वस्तु का बोध कराती है जिसके विषय में
कुछ कार्य हुआ है, या जिसका उस कार्य से संबन्ध है । जैसे--- प्राणिधु दल
कुर्वन्ति साधक (सज्जन लेगा प्राणियों पर दया करते है) । भव दक्षिणा परि
जने (सेवकों पर दयालु होना) । लेवे पति (वे वित के बारे में झगडा कर
रहेहैं) ।
(खा निम्नलिखित अर्थों वाली धातुओं के साथ चतुर्थी पर वाठी) के
साथ ही गौण कर्म में सप्तमी भी होती है पना, कहना, प्रतिज्ञा करना,
खरीदना और पचना । (२०० अ : क; २००, ( जा ।जैसे--सहखाक्षे प्रति
आय (इन्द्र से यह प्रतिज्ञा करके) । शरीर विनय धनवति (धनवार को
अपना शरीर बेचकर) । वितरीत गुरु: प्राने विष (गुरु बुद्धिमान शिष्य का
विद्या देता है) ।
(ग) निम्नलिखित आयन वाले शब्दों और धातुओं के साथ कार्य के लक्ष्य
को बताने अर्थ में चतुर्थी (२० ० आ (, २) के साथ सप्तमी भी होती है :
प्रवृत्त अपेन, लग-रहना, निम्म करना, (मकुक होना, नियुक्त करना, चुनना,
आज्ञा देना, स्वीकृति देना, योग्य होना या उस कार्य के उपयुक्त होना ।
जैसे-सव-णे युक्त: पा: (सर्वस्य हरने में लगा हुआ जात्रा । कर्मणि
न्ययुत्क्त (उसने उसे काम में नियुक्त किया) । पति-वि वरयामास तब उसने
उसे पति के रूप में चुना) । असमथोंपुयमुदरपूरर्णप्रमाकए (यह 'हमारी
उदर-कते करने में असमर्थ है) । वैलोवयस्थाषि प्रभुत्वं तस्थित युज्यते
(तीनों लोकों का भी प्रभुत्व उसके योग्य है) । विधेय में सप्तमी के द्वारा ही
१८८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि- ७० २०४

जाय होना' अर्थ प्रकट होता है । जैसे-मत्याग-बने पुरुषे राज्यम्


(नीनि, त्याग और शौर्य से सपना मनुष्य में ही राज्य रहता है) । कभी-कभी
सप्तमी का प्रयोग ऐसी धातुओं के साथ भी होता है, जिनका अथ कोई लक्ष्य
नहीं होता है । ऐसे स्थानों पर सप्तमी का अर्थ होता है कि कार्य के फलस्वरूप
अमुक वस्तु प्राप्त हुई । जैसे-चर्मणि दीपिनं हन्ति (वह चमड़े के लिए
अर्थात चमडा प्राप्त करने केलिए व्यय को मारता है) है
(घ) इच्छा, भक्ति, आदर, मित्रता, विन्यास, दया, परम और उपेक्षा
अयों के बोधक शब्दों के साथ जिनके प्रति ये भाव प्रकट किए जाते हैं, उनमें
प्राय: सप्तमी होती है । जैसे-न खलु शकुन्तला" ममाभिलाष: (वस्तुता
शकुन्तला के प्रति मेरी अभिलाषा नहीं है) [ न में त्वयि विज: (मेरा
तुम्हारे ऊपर विन्यास नहीं है) । न लघुध्वषि कतीयवनादर: कार्य: (छोटे से
छोटे कर्त-यों के प्रति उपेक्षा नही करनी चाहिए) ।
(हु) निम्नलिखित अर्थों वाले विशेषण शब्दों या कत-प्रत्यय' शब्दों के
साथ सप्तमी होती है :.यस्त, रव प्रवृत्ति अनुरक्त या संलग्न तथा इनके
विलोम (विरुद्ध-क) शब्द । जैसे-नाय": केवल स्वसुखे रता: परतें केवल
अपने सुख में ही मदन रहती हैं) ।

भावे यठठी और सप्तमी


(जिय'" प्रातों निजाम 46501.)
२०५. ( : ) सहित में भावे सप्तमी सामान्यतया प्रचलित है । यह ग्रीक
के आवे शफी' और लेटिन के चराते पंचमी' केबल कुछ समकक्ष है । जैसे-
गरष्टत्सु दिन (जैसे-जेसे दिन बीतते गए) । गोषु दुन्यासु स गत: (गायों के
दुहे जाने पर वह गया) । कर्ण ददाति मधि भाषमार्ण (मेरे बोलने पर वह
अपने कान मेरी और लगाती थी) ।
(क) भावे सप्तमीका विधेय प्राय: सदा ही शत या आनन प्रत्ययान्त शब्द
होता है । इसका अपवाद केवल शत-प्रत्यय-त भर शब्द है जो प्राय: लुप्त
रहता है । जैसे-मयं धर्मक्रियाविकन: सती रक्षितरि सय (सज्जनों के रक्षक
तुम्हारे रहतेहुए, उनके धर्म-कार्यों में विल कैसे हो सकता है ?) ।
नि० ७-२०५] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १८५
(ख) शतृ-प्रत्ययान्त 'सत्' (होता हुआ) शब्द (या इसके समानार्थक
'वर्तमान' और 'स्थित' शब्द) प्राय: दूसरे भावार्थक-प्रत्ययान्त शब्द के बाद
जोड़ दिया जाता है । जैसे--सूयोंदयेपुन्धापां प्रारतेपूलूल सासु (सूर्योदय
होने पर उलुओं के अंधे हो जाने पर) ।
(ग) जब क्त प्रत्यय का प्रयोग भाव अर्थ में होता है तो कर्ता प्राय: लुप्त
रहता है । यदि क्त-प्रत्यय-अत के साथ एवम्, तथा, इत्र इति आदि अव्यय
होते है, तब भी कर्ता लुप्त रहता है । जसे-तेना-धुप-सके द्वारा स्वयति
दिए जाने पर) । एवं गते (ऐसा होने पर, शब्दार्थ-इसप्रकार जाने पर) हूँ
'तथा कृते सति' या 'तथानुष्टिते' (ऐसा करने परा ।
(घ) 'उयोंहीं.--त्योंवृ'र अर्थ को प्रकट करने के लिए भावार्थक क्त
प्रत्ययान्त के बाद (समस्तपद के द्वितीय पद के रूप में) 'एव' अव्यय और
'मनि' शब्द का प्रयोग होता है । जैसे प्रभातायमिव रजन्यात् (ज्य"न्होंसवेरा
हुआ त्यो-हीं) । प्रविष्ठमात्र एव त-ति (उगोही आप प्रविष्ट हुए त्योंहीं) ।
२. 'भावे सप्तमी' की अपेक्षा 'भावे वाठी' का प्रयोग बहुत कम मिलता
है और इसका उपयोग बहुत कम स्थानों पर होता है । यह समकालीन के लिए
प्रयुक्त होता है । इसका कर्ता कोई व्यक्ति होता है और विकी शब-प्रत्यय.'
रूप या इसी भाव वाला शब्द होता है । इसका अनुवाद 'जबकि' 'यद्यपि'
'कयोंकि' के द्वारा किया जा सकता है । जैसे ब-पश्यतो में परिभ्रमण (यद्यपि मैं
देख रहा थम, फिर भी घूमते हुए) । एव वदतस्तस्य स लुब्धको निभूत: स्थित:
(जबकि वह इस प्रकार कह रहा थ, तब वह बहेलिया छिपकर खडा रहा) ।
एवं चिं-तय-पय तत्र तोयार्थमाययु: जिय: (जब वह इस प्रकार सोच रहा
था, तभी जल लेने के लिए नियत अप ।

कालार्थक कृत प्रत्यय (क्त, वतवतु, शव, आनन


(1)1..125)
२०६- संस्कृत में कालार्थक कृत प्रत्ययान्तों का प्रयोग मुख्य क्रिया के
विशेषण के रूप में होता है और वे आश्रित उपवास का करों करते है ।
लेटिन और ग्रीक के तुल्य ही ये शब्द निम्नलिखित अर्थों कोप्रकट करते है :
१८६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ७. २ ० ६

सख्या-बोधक लौकिक कारण, स्वीकृति और काल्पनिक । भविष्यत अर्थ वाले


कृत प्रत्यय समाप्ति-सूचक अर्थ भी प्रकट करते हैं । उपर्युक्त अर्थ प्रत्ययों में
स्वभाव-सिद्ध हैं और इसके लिए कोई निपात जोड़ने की आवश्यकता नहीं
होती, केवल स्वीकृति-सूचक कृत प्रत्ययान्तों में अन्त में 'अपि' साधारणतया
जोडा जाता है ।
जैसे-पल: कोपाविष्टस्तन् उवाच (जोध से भरा हुआ गीदड़ उसने
बोला) । निषिद्धम्त्व मयायशों न श्रणीषि (यद्यपि मैंने तुम्हें अनेक बारमना
किया है, परन्तु तुमने मेरी बात नहीं सुनी) । अजल्पतो जा-ते शिरो
याम्यति खण्डश: (जानते हुए भी यदि तुम नहीं बताते हो तो तुम्हारा शिर
टुकडे-टुकडे कर दिया जाएगा) : ताडनियन् भीमें पुनरभ्यद्रवत (बह फिर
भीम को बोट मारने के लिए उसकी ओर दगा) ।
(का कालाय कृत्प्रत्ययान्त शब्दों के अर्थ में बहुबीहिसमास वाले शब्दों
का प्राय: प्रयोग होता है और 'सत्' शब्द लुप्त रहता है । जैसे-य-अथ श.
मना व्यचिन्तयत (शंकित-चित होकर उसने सोचा) ।
२०७. वतमानार्थक मप्रत्यय (प"" 1न्द्र"ष्टिगो1०) । किया की निर
करता (रहा अर्थ) को सूचित करने के लिए (वर्तमान-क मप्रत्ययों तथा)
वर्तमान अर्थ वाले क्त-प्रत्यय-त रूपो) के साथ अस्ति या अति (हा, आस्ते
(बैठता है), निष्टति (रुकता है), वर्तते (है) का प्रयोग होता है । इंगलिश में
(18 (1.1.118, (कर रहा है) के तुल्य ये शब्द 'रहा' अर्थ को प्रकट करते हैं ।
जैसे-एरे वन यस्थिन्नभूम चिरमेव पुरा वसन्त: (यह वाही वन है, जिसमें
हम लोग पहले बहुत दिनो तक रहे थे) । भक्षयन्नाम्ते (वह खा रहा है) । सा
यत्नेन रक्ष-माणा तिष्ठति (वह यत्नपूर्वक सुरक्षित चरबी जा रही है) । परि
पूणोंहुयं घट: सस्तुभिर्वर्तते (यह धड़ा सप से भरना हुआ है) ।
(क) इसी प्रकार 'शान्त होना' 'रुकना' अर्थ वाली क्रिया-निषेध-क
धातुओं का प्रयोग वर्तमानार्थक कृत प्रत्ययों के साथ होता है । जैसे-सिंहो
मृगया व्यापादय८सोपरराम (सिंह मृगों को मारने से नाहीं रुका) ।
(ख) 'बद्ध-जत होना' 'सहन करना' आदि भावावेश-बोधक धातुओं के
बाद भावावेश का कारण बताने के लिए शब या मानद प्रत्ययान्त रूपों का
नि० ७. २०७] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १८७
प्रयोग होता है । जैसे-पक न लज्जस एवं (वाण: (क्या ऐसा कहते हुए तुम्हे
लज्जा नहीं आती ?)
(ग) देखना, सुनना, जानना, सोचना, चाहना अर्थ वाली धातुओं ( : ९८,
१ ) के साथ विधेयरूप में प्रयुक्त शत, आनन (या क्त) प्रत्ययान्त रूपों में
कतृयवा२य में द्वितीया और कर्मवाव्य में प्रथमा होती है । जैसे-प्रविश-शत न
मा कश्चिदपश्यत (मुझ को प्रविष्ट होते हुए किसी ने नहीं देखा) । स भूपति
रेकदा केनापि पठचमानं वलोकद्वयं शुश्राव (उस राजा ने एक बार किसी के
द्वारा पते जाते हुए दो शलोक सुनी । गान्धकेंण विवाहेन बहात्यों राजर्षि
कन्यका: भूयंते परिणीता: (राजर्षियों की बहुत सी कन्याएँ गान्धर्वविधि से
विवाहित
२०८-हुईभूतार्थक
सुनी जाती
कृत्प्रत्यय
हैं) ।(यशा 1न्द्रसाणी1७) कर्मकार का (त) प्रत्यय
और कतृशवाव्य तवन प्रत्यय वाले रूप ( १६१; ८९ पादटिप्पणी ३) (लिवा
के स्थान में होने वाला 'वसू' प्रत्ययान्त रूप, बहुत कम नि० ८९) प्राय: मुख्य
किया के रूप में प्रयुक्त होते हैं (संयोजक शटल लुप्त रहता है) । जैसे-तेल
उक्तब (उसने यह कहा) । स इदमुक्तवान् (उसने यह कहा) ।
(का अकर्मक धातुओं से कर्मकार में क्त नि) प्रत्यय होने पर उनका
प्रयोग भाववाव्य में होता है । अन्यत्र कत-प्रत्यय-त का कर्णवाल-जय प्रयोग
होता है । जैसे-मयम चिरं सिर (मैं यह, देर तक रहा था) ( स गढा
गत: (वह गंगा नदी पर गया) । स पथि मृत: (वह रास्ते में मर गया) ।
(ख) कुछ कत-प्रत्यय" रूपों का प्रयोग दोनो प्रकार से होता है-कर्म
वालय से और समय कतृ०वाच में । जैसे-प्राप्त (थामा' और 'पहुँच कर
या 'पाकर) प्रविष्ट (थाविष्ट' और 'प्रवेश करके'), पीत (अधिया हुआ' और
'पीकर) विस्मृत (भूला हुआ' और 'भूलकर), विभक्त (रचे-टा हुआ' और
बाँटकर), प्रसूत ('उत्पन्न और 'उत्पन्न होकर') आरूढ (चढा हुआ' आदि और
'चढ़ कर आदि) ।
(ग) अन' अन्त वाले क्त-प्रत्यय-नेत रूपों का प्रयोग सकाम कहूँ-वालय के
रूप में कभी नहीं होता है ।
२०९. कृत्य प्रत्यय (1.11.: 1न्द्रसा०गो1टा 1155:.) है कृत्य प्रत्यय
( १६२) आवश्यकता, अवश्य-कर्त-यता, योग्यता और संभावना अर्थों को प्रकट
( ८८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७. २०९

करते हैं । कृत्य-मपन्त के साथ भी वालय-रचना का-प्रत्यय-त के स-ताश ही


होती है । जैसे-मशय देशान्तर" गन्तव्यध (मुझे अवश्य दूसरे देश जाना
चाहिए) । हन्तव्यहिम न ते राजन् (हे राजत, मुझे मत मारिया । बस्ते
नापि शब्द: कर्तव्य: (तब वह भी बोलेगा) ।
(का कभी-कभी कृत्य प्रत्यय केवल भविष्य काल का अर्थ बताते हैं ।
जैसे--.: पक्षबलेन मज्ञाप सुखेन गबन (तुम्हारे पंखों के बल पर मैं
भी सुखपूर्वक जाऊंगा) ।
(ख) भू (होना) धातु से बने रूप भविबयन् और भाव्यत् का भाववालय
के रूप में प्रयोग होता है और ये आवश्यकता और उच्च संभावना को प्रकट
करते हैं । वियेय का विशेषण या अन्य संज्ञा-शब्द तृतीयान्त कर्ता के अनुकूल
ही हरा जाते हैं । जैसे-तया संनिहित्या भवित-यब (वह समीप में ही होगी) में
तस्य प्राणियों बलेन सुमत भविता-यम् (उस प्राणी का बल बहुत अधिक
होगया ।
र : ०. कत्वा (त्वा) और लए (या (.1.:11211, 1१ब०:हिष्टि,
निगल ।:--ये प्रत्यय प्राय: सदा एक कार्य के प्रारम्भ होने से पूर्व दूसरे कार्य
की समाप्ति को सूचित करते हैं (बहुत कम स्थानों पर दोनों कार्यों का एक
साथ होना सूचित किया जाता है) । यह मुख्य कार्य के 'व्याकरण-सम्बन्धी या
वास्तविक कर्ता को बताता है और सामान्यतया प्रथमा से संबद्ध रहता है, या
कर्मवालय में तृतीया से, किन्तु कभी कभी अन्य कारकों से भी संबद्ध रहता है ।
जैसे-तं प्रणम्य स गत (उसको प्रणाम करके, वह गया) । अथ तेनात्मानं
तस्वीरे प्रक्षिप्त प्राणा: परित्यक्ता: (इसके बाद उसने अपने आपको उसके
ऊपर फेंककर अपने प्राण छोड दिए) । (इसमें प्रक्षिष्य का तेन से संबन्ध है) ।
तस्य दृष्ट्रर्चव ववृये कामस्तरे चारुहासिनीब (सुन्दर हास्य वाली उस कन्या को
देखते हरे उसकी काम-भावना बढ गई) (यहाँ दृष्ट्रवा का तस्य से संबन्ध है) ।
(का वाह संज्ञा-शब्द के बाद 'कर' यया 'करके' के द्वारा प्राय: इसका
अनुवाद किया जा सकता है । जैसे-या निर्धन हत्या कि य-वध (मुझ
गरीब को मारकर क्या जाओगे 1) । इस प्रकार का प्रयोग यह बताता है कि
मूलरूप में यह यब संसद का तृतीयान्त प्रयोग था ।
नियत ७० २ ( ०] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १८९

(ख) इसमें रूप चलने वाले कृत प्रत्ययों की सभीविशेषताएँ है और तद


चर यह अन्य कृत प्रत्ययों के तुत्य विभिन्न संबधित को प्रकट कर सकता
है-तथा इसके बाद क्रिया की निरन्तरता को सूचित करनेवाले आस्ते,
तिष्ठति, वर्तते आदि क्रियापद भी लग सकते हैं । जैसे-सर्वपौरान् अतीत्य
वर्तते (वह सारे नागरिकों से बढ़कर है, अर्थात सारे नागरिकों का प्रमुख है) ।
(ग) कतिपय कत्वा और स्वर प्रत्ययान्त रूप अर्थ की दृष्टि से उपसर्गों के
समकक्ष है ( १७९) ।
(घ) 'त्-वर का मौलिक तृतीयान्त स्वरूप किए और अलम् के साथ
प्रयोगों में तथा भाववाध्य प्रयोगों में अभीष्ट सामान्य कर्ता के साथ अभी तक
सुरक्षित है । जैसे-वाके तव गोपाल-त्वा (छिपाने से तुम्हेंक्या लाभहोगा 1) है
अलं ते वनं गत्वा (वन जाने से बस करो, अर्थात वन में मत जावा । पशुन्
हत्वा यदि स्वनों गम्यते (यदि पशु-को मारने से कोई स्वर्ग को जाता है तो) ।

तुम प्रत्यय (.6.1..)

तो: १ : यह अतिप्रचलित प्रत्यय कार्य के लक्षण को प्रकट करता है और


प्रयोजन अर्थ में जहाँ पर चतुर्थी विभक्ति होती है, उन स्थानों पर दृसका
प्रयोग हो सकता है (२०० आ) । सामान्य चतुर्थी विभक्ति से इसका अन्तर
यह है कि तुमू-प्रत्ययान्त के साथ कर्म में द्वितीया होती है और चतु८र्यन्न के
साथ कर्म में उठी होती है । जैसे-तं जेर यतते-द तस्य जयाय यतते (वह
उसको जीतने का प्रयत्न करता है) । यह अपने मूल द्वितीयान्त अर्थ को
सुरक्षित रखे हुए है और यह जिया के मुख्य कर्म के रूप में रात होता है ।
(जैसे-मनात लभते-स्नान को प्राप्त करता है) तथा वाक्य के कर्ता के
रूप में इसका प्रयोग नहीं हो सकता है । सामान्यतया धातुज संज्ञाशब्द कर्ता
के रूप में इसके स्थान पर प्रयुक्त होते हैं । जैसे-वरं दाम न तु प्रतिग्रह:
(देना अच्छा है, न कि लेना) । बानर और प्रतिग्रह: दल और प्रतिग्रह-दत्त
के स्थान पर हैं ।
(समय, अवसर आदि के बोधक) संज्ञाशठदों, (योग्य, समर्थ आदि) विशे
यणशब्दों और (समर्थ होना, चाहना, प्रारम्भ करना आदि) क्रियाओं के साथ
१ ९० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि. ७-२ : (

तुत् का प्रयोग हो सकता है । जैसे-नायं कानो विलरिबतुब (यह विलम्ब


करने कासमय नहीं है) । अवसरो-यत् आत्मज प्रकाशयिनुत् (यह अपनेआपको
प्रकट करने का अवसर है) । लिखितमपि ललाटे प्रगोभद का समर्थ: (माथे पर
यत भाग्य में लिखे हुए को कौन मिटा सकता है) । अह त्वा प्रष्ट्रब आगता
(मैं तुमसे पूछने के लिए आया हूँ) । कथयित शगोति (वह कह सकता है) ।
इयेष सा कत्न् (वह करना चाहती थी) ।
(क) सादर प्रशन करने अर्थ में ( =७कृपया आदि) अह, (योग्य होना)
धातु के तर प्रत ( और म० : के साथ तुन् प्रत्यय का प्रयोग होता है । जैसे
भवान मां श्रीतुमर्मति (कृपया आप मेरी बात सुनिए) है
(ख) तुम के र का (गोप हो जाता है, यदि बाद में काम (चाहना) या
मनत (मना शब्द होता है । इसके साथ बहुग्रीहि समास ( १८९) होता है और
प्रयुक्त किया को करने की इच्छा प्रकट की जाती है । जैसे-प्यास: (देखने
का डार-हैंक) । कि वरना भवन (आप क्या कहना चाहते हैं 1) ।
(ग) संस्कृत में तब का कर्मव.य प्रयोग नहीं होता है, अता तुमको कर्म
वाच्य बनाने के लिए मुख्य किया के कर्मवाव्य का रूप प्रयुक्त किया जाता
है । जैसे-कद" न युज्यते (यह करने योग्य नहीं है) । मया नीति ग्राहयि१,
शक्यनों (ये मेरे द्वारा नीतिशास्त्र पढाए जा सकते हैं) । तेन मंडप: कार
विल आम-व: (उसने एक मण्डप बनवाना शुरू किया) :
(य) कृत्य-प्रत्यय' 'शक्य' का प्रयोग दो प्रकार से होता है-प : ) कहाँ
के अनुसार लिग, विभक्ति आदि (२) नप. एक० । जैसे-न शभास्ते
(दोषा:) समाधाषा (वे दोष दूर नहीं किए जा सकते हैं) । सा न शक्यम्
उपेक्षित कुपिता (उस शुद्ध हुई की उपेक्षा नाहीं की जा सकती है) । इसी
प्रकार युवक (योग्य) और ब-पाया (न्यायसंगत) शब्दों का भी प्रयोग होता है ।
जैसे-सीय न्याया मया मनार भवता. (यह उचित है कि मैं उसको तुमसे
सुड़क ।
साकार
(हु-यय म":1 1(10०(1मु

वर्तमान काल
(हुय०मक्रि")

२ ( २. संस्कृत में लद (वर्तमान काला का प्रयोग प्राय: वैसा ही है, जैसा


इंन्दिलशखा में है । तथापि निम्नलिखित अन्तर उल्लेखनीय हैं :
( १ ) वर्णनों में ऐतिहासिक वर्तमान का प्रयोग अग्रेजी की अपेक्षा संस्कृत
में अधिक होता है, विशेषरूप से समय की अवधि बताने अय में (यह कार्य
संस्कृत में उड. लकार नहीं कर पाता है) । जैसे-दमनक: सत कथयेतत्
(दमनक ने पूछामह कैसी ), हिरण्यको भोजनं कृत्वा विले स्वपिति (हिरण्यक
भय(क) कभी कभी विल
कभीमें सोता
लद केथा)
साथ। पुरा (पहले) का प्रयोग होता है । जैसे

कडिमंश्चिद वृक्षे पुरम" वसामि (मैं एक पेड़ पर पहले रहता था) : 'स्म'
निपात भी इसी प्रकार बहुत प्रयुक्त होता था (यह प्राचीन सस्कृत में प्राय:
'पुरा' के साथ रहता था, अत: अकेले होने पर भी इसमें 'पुरा' का अयन शेष
रह गया है । जैसे-कनि-चर अधिष्टनि सोमिलको नाम कोलिको वसति मम
(एक स्थान पर गोमिलक नाम का एक जुलाहा रहता था) ।
.) वर्तमान के समीपवर्ती भूतकाल को प्रकट करने के लिए भी लद
लकार का प्रयोग होता है । जैसे-यर आगवैछामि (मैं आता हैं, अर्थात मैं
अभी आया है) ।
(र) लते लकार वर्तमान के समीपवर्ती भविष्यत काल को भी प्रकट
करता है । इस आब में इसके साथ कभीकभी चुरा' (अभी) और यावत्.
(अभी) का भी प्रयोग अकता है । जैसे-आहे मुवत्वा धनुगीच्छामि (तो मैं
अपना धनुष छोड़कर जाऊंगा । तद यावउछपुष्टनं प्रेषयामि (तो मैं अभी शरम
को भेजूगा) ।
१९२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० ७० २ १२

(का प्रश्नवाचक शब्दों के साथ लद भावना कार्य के विषय में सन्देह प्रकट
करता है । जैसे-वाके करोमि (मैं क्या कह ?) ।
(ख) यह तुरन्त करने योग्य 'सलाह' का अभिप्राय भी प्रकट करता है ।
जैसे-तोहे गृहमेव प्रविशाम: (तो हम लोग घर में ही प्रवेश करें) ।

भूतार्थक लकीर (मय 1टियछु)


२ १३- भूतार्थक कृत-प्रत्यय त और तक (तथा ऐतिहासिक-बर्तमान) के
अतिरिक्त तीन लकार लइ, लिय और खुद ऐतिहासिक या परोक्ष भूत अर्थ
को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होते हैं । ये लकार एक बार घटित, अनेक बार
पतित और निरन्तर चालू, सभी प्रकार की यत्झाओं को समान रूप से प्रकट
करते हैं । इन लकारों का बिना भेद-भाव के प्रयोग मिलता है ।
(का लिव लकार का प्रयोग मुख्यतया परोक्ष तशयों के लिए होता है,
जिनका अनुभव वक्ता को नहीं है । अत:म० पु० १ औरउ, पु० १ के प्रयोग
बहुत कम मिलते हैं । जा
(ख) लहु: लकार--ऐविहासिक भूत के वर्णन के अतिरिक्त स्वयं दृष्ट या
अनुभूत भूप-लिक तक का भी वर्णन करता है ।
(ग) लहु: सकार-मतथा त और तम कृत प्रत्यय) की विशेषता यह है
कि यह पूर्ण भूत के साथ ही वर्तमान काल में उसकी समाप्ति बताता है, अत:
संवादों के लिए अधिक उपयुक्त है । जैसे-अभूतसम्पादित-फली में मनो
रथ: (मेरे मनोरथ को स्वादिष्ट फल मिल गया है) । तुष्ट माया रार अदावी
(मैंने तुम्हें राज्य दे दिया है) । तं :-पुवानडिम (मैंने उसे देवा है) ।
(घ) 'मा' के साथ सुर (लहु, का बहुत कमा का अगम (अ) के बिना
लोद लकार के अर्थ में प्रयोग होता है । (नि० २१५ 1. और १८०) :
(की संस्कृत में 111..:: लकीर नहीं है, अता इसका अभिप्राय (जो
कि प्रसंगानुसार लेय होता है) अन्य भूतकालिक लकारों से, कत्वा प्रत्यय से
या कभी-कभी सहायक किया-रहित त या तवतप्रत्ययान्त रूपों से प्रकट किया
जाता है ।
नि० ७-२१ था वाक्य-विन्यास को रूपरेखा : ९३

भविष्य ("हैसे:)
२१४. पद सामान्य भविष्यत के लिए प्रयुक्त होता है । यह किसी भी
भविष्यत कालिक कार्य के लिए प्रयुक्त हां सकता है । लुट, लकार, जो कि
अपेक्षाकृत बहुत कम प्रयुक्त होता है, सुदूर भविष्यत के लिए प्रयुक्त होता है :
अत: ये दोनों लकीर किसी भी वर्णन में एक साथ आ सकते हैं और एक दूसरे
से बदल कर प्रयुक्त हो सकते हैं ।
(क) यदि खुद के साथ लीद का प्रयोग भी है तो पद कभी-कभी आज्ञा
अर्थ को सूचित करता है । जैसे-भरै यास्यसि मम ताम अर्थित्वं भूयताए
(प्रिये जानी हो जाओ, परन्तु मेरी प्रार्थना सुनती जावा ।

आजम अर्थ (हुँ--")


२ है ५. सामान्य आज्ञा या उपदेश अर्य के अतिरिक्त इस पर के कुछ
विशेष प्रयोग भी हैं ।
(क) उत्तम पुरुष का अनुवाद 'चाहिए' यता 'गा' के द्वारा करना चाहिए है
यह प्राचीन लेव, पर कया अवशेष है । जैसे-य-दी-अवि-न्याय आता (उसके
भाई ने कहा-हमें जुआ खेलना चाहिए) । अह करवानी (मैं-गा) ।
(ख) कहूँवालय म० पु" के स्थान पर कर्मवाच प्र० पुत : का प्रयोग
सामान्यतया सादर अनुरोध में होता है । जैसे-देव श्रुयताम् (श्रीमत्, आप
सुनिए !) (निमा २११ क) ।
(ग) विधिलित् और आशीलित् के स्थान पर आशीर्वाद या शुभकामना
प्रकट करने में लोह लकार भी होता है । जैसे-ति-चिरं जीव (चिरकाल तक
जीवित रहते , । शिवातिते प-खान: सन्तु (आपके माग प्रशस्त हों) 1
(घ) लोट, लकार संभावना यया सन्देह अर्थ को प्रकट करता है, विशेषरूप
से प्रश्नवाचक शमन के साथ । जैसे-विथ भवतु मा वाल फठानोपो भास्कर
(विष हो या न हो, सर्प का फन फैलाना भयंकर होता है) । प्रत्येतु कब
भी (पृशबी पर कौन इस बात पर विना करेगा .7) । किमधुना करवाम
(हमें अब वयन करना चाहिए ?)
(डा) निषेधार्थक- 'मर के साथ गोद का प्रयोग दुर्लभ है । सामान्यतया
( ९४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका [नि० य :५

इसके स्थान पर अवाम (आ-रहित तुर लकार हो जाता है (२१३ घ),


या न के साथ विधिलिइ: हो जाता है, या अलम् और कुतर के समय तृतीया
विभक्ति हो जाती है (१८०) ।
विधिलिइ, (०ह्मजिति० म यशाय)
२ : ६. विधिलित् अपने निर्धारित अर्थों के अतिरिक्त कुछ अन्य अर्थों को
भी प्रकट करता है, जो लेद लकार (जो अब संस्कृत में लुप्त है) के द्वारा प्रकट
किए जाते थे ।
( () मुख्य वाकयों में-यह निम्नलिखित अर्थों को प्रकट करता है :
(क) इच्छा (प्राय: 'अधि' निपातकेसाथ प्रयुक्त) पल्ले-अधि पबयेय
मिह राघवम् (क्या मैं राम को यह: देख सकता हूँ 1) ।
(खा संभावना या सन्देह उ-जैसे-कदाचित् गोशम्देन बुध्येत (संभव है
कि वह गायों की आवाज से जाग जाए) । पशोयु: लितिपतयवचाराष्टचा
(राजा लोग दूतों की दृष्टि से देख सकते है) । एक हन्यान्न वा हन्यादिपुमतितो
धनुव्यता (धनुर्धारी के द्वारा छोडा गया बाण एक व्यक्ति को मार भी सकता
है, नहीं भी) ।
(ग) संभावना । इस अर्थ में यह भविष्यत के समकक्ष होता है । जैसे---
इयं कन्या नाव तिशठेत् (संभव है कि यह कन्या यहाँ न रुका ।
(घ) उपदेश या शिक्षा । जैसे-त्वमेव: कुर्था: (तुम्हें ऐसा करना चाहिए) :
आपदर्थ धन खेत (आपति के समय के लिए धन बचाकर रखना चाहिए) ।
(२) बाधित उपवास में---विधिलिन् का प्रयोग निम्नलिखित रूप से
होता है :- . जा
(का सामान्य संबद्ध उपवास के रूप में । जैसे-काल-महाँ वृत्तियों
न कुर्वीत भूपत: (जो राजा वेतन देने में समय का उलंघन नहीं करता है) ।
(खा अन्तिम उपवावयों में ("इसलिए कि') । जैसे-आदिक से देशं यत्र
वसेयन (मुझे वह स्थान बताइए, जहाँ मैं रह सकुं) ।
(ग) परिणामात्मक उपवाक्य ('जिससे कि') जैसे-स भारों भर्तज्यों यो
नरं नावसादयेत् (आदमी को उतना ही बोझ उठाना चाहिए, जितना उसे नष्ट
न करदे) ।
नि० ७-२१६] वाक्य-विन्यास की रूपरेखा १९५
(घ) हेतु-हेय भाव-बोधक उपवाक्य । जैसे-यदि न स्थान्नरपतिविप्न
देत सरव प्रजा (यदि राजा न हो तो राज्य जहाज के तुत्य दूब जाएगा) ।
आश-यथ (यय":" ०ह 1प्रथे०७)
२ १७. यह लकार बहुत कम मिलता है ( १ ५०) । यह तुक का ही एक
भेद मानना चाहिए । यह आशीर्वाद अर्थ में ही प्रयुक्त होता है । उत्-मपुरुष में
यह वक्ता की इच्छा को प्रकट करता है । जैसे-बीर-मवा भूया: (तुम बीर
सन्तान को जन्म देने वाली होओ) । कृतार्थता भूयासब (री सफल होऊँ) । इस
अर्थ में लर लकार का भी प्रयोग होता है (२ : ५ गा । थोड़े से स्थानों पर
अर्थ की हि से आशीलित् और लोट या विधिलित् में स्पष्ट अन्तर प्रतीतनहीं
होता है । जैसे-इदं वचन ९यास्त (तुम लोग यह वचन कहो) । नहि प्रति
श्यामि ममापनुद्यादू यउछोकत् (मैं ऐसी कोई चीज नहीं देखता हूँ जो मेरे शोक
को दूर कर सके) ।
पद:, (..1.11.1)
२१८. यह लकार हेतु (कारण) और हेतुमत् (कार्य) अर्थ को बताता है ।
हेतु-हेतु-छाव अर्थ में यह लकार होता है । प्रथम में कोई अतीत (भूत
कालिका कारण बताया जाता है-और द्वितीय पद में उसका कार्य बताया
जाता है । दोनों पदों का कार्यकाल सबंध होता है । दोनों ही पदों में पड़
लकार का प्रयोग होता है । यह लेटिन और इपीलशु के 111.15:0: (2011
(11:.211.1) आ1शं१"1०नि० और ग्रीक के है०1र्श१८ 11161)1): के समकक्ष है ।
जैसे-सुवृहिशचेदभविष्यद दुनाभदी नाभविष्यत (यदि अलसी वर्षों होती तो
दुभिक्ष न होता) । यदि प्रथम हेतु-वाक्य में विधिलित् हो और द्वितीय हेतुमत्
वाक्य में लय हो तो संभावन-मूलक भूतकाल अर्थ होगा । जैसे-यदि न
प्रणयेद राजा दण्डक शुले मत्स्यानिवापक्ष्यन् दुर्वलान् बल.: (यदि राजा
दण्डविधान ठीक से न करे तो बलवान् दुर्वलों को इसी प्रकार भून देगे,
जैसे मछली को कांटे पर भूना जाता है) ।
परिशिष्ट १
धातुसूची
जहाँ पर धातुओं के सभी लकारों आदि के रूप दिए गए हैं, वहाँ पर
उनका क्रम निम्नलिखित है उ-लटू (प.), लीद (1.11.1.0),
विधिलिड, (०प"प्र:), लिव (मतिसा), लुइ: (.181), खुद (17111.);
कर्मवाव्य या भाववारय (.551.2).: (1.5.:111), खुद (सीप-गां,
क्त (तप""..); कत्वा (त्वा) यर लत (य) (जि"-), तुमुन् हिंसा
(.111.:); णिन् (८टा1बि१श्चि), लुइ: (.1); सत् (पमिडि
ने); यत् यया यलुकू (1.1)151))
धातुओं के बाद दिए गए अक गण-सूचक हैं, अर्थात स्वादिगण आदि
: ० गणों में से धातु किस गण की है । प० का अभिप्राय है कि धातु के रूप
परसेद में ही चलते हैं । आ० का अभिप्राय है कि था के रूप आत्मनेपद
में ही चलते हैं । उ०=---उभयपबी, दोनों पदों में रूप चलते हैं ।
अधम (झुकना)--: प०, लटू-ममति, कर्म० अव-अते, क्त-आय,
णिचरेयति ।
अस्त (लेप करना)---' प०, लटू-अनय, लद-आप, लोट---
अनाथ विधि० अह-याद, कर्म० अ-जयते, कत-अक्ल, मिर-पश्यति ।
अद (खाना) उ२प०, लटू-अति, अय, अबत्स, अभि । लहरि-आदत,
आले-नू; आद:, आदर । लोट, पलु, अदब अहि, अदानि । विधि०---अद्यात् ।
ल०ढ़रेत्स्यति । कर्म०--अद्यते । क्त-जग्य (अन्न---, अन्न) है कत्वा
अव (ससि
य----' लेना)---,। णिचु-आदयति
। तुम्-पत्र प०, लद-पति । । लाद-आनी-आख्या,

आनी:-आन:, आए । ले-पू-पल, अनिहि, अनानि है विधि०-


अन्यार । णिचु-आनयति ।
धानुसूची १९७

अम् (प्राप्त करना)---' उ०, लटू-मनीति, अच्छी । लद-आ"


आरे, अनाथा:, अष्णुवि । लद-मनुत-मू, अरम, अश्वर्व । विधि०
अस्तुबीत । लिवा-आब, आनशे ।
यशु (खाना. प०, लटू-अशांति है लीद-मनातु, अज्ञानहैं
वनानि । विधि०---मनीयात । लिटर-आश । प्र-आसीत । खुद
अशिष्यति । कर्म०-पश्यते । क्त-अहित । कत्वा-मजित्वा । तुम-
अशितुब । णिचु-आशयति ।सन्-अशिशिषति ।
असू (होना)----, प०, लद-अस्ति, सा:, सन्ति; असि-मकिसम, अक्रम,
स्व:, स्म: । उत्-आसीत, आस्वाद आसनु: आमी:, आब, आस्त:
आर आम्ब, आम । लोदस-ब--अस्तुहैं स्तन संनु; एधि, स्तब, ले, अमानि,
असम असाम । विधि०- स्यात्है स्वातात्, (यु:, स्था:, ममतत्, स्वाद
स्यात्, स्थाव, स्याम । लिदउ-आस, आसनु:, आसु:; आसिथ, आम, आस;
आस, आमिव, आसिम ।
असल (फे-कना)---- प०, लटू संयति । लिटर-आस, आसिथ आदि
असू (होना) के तुल्य । खुब-य-आस्था । खुप-मसिध्यति । कर्म०-पयते,
लुप-आति । कन-मत । णिचु---आसयति है
आप (पाना)----' प०, उ-उ-आपा-ते । उत्-मयल है लोप--
आ-नोत, आसह, आ-नवानि । विधि० आस्तुयात । लिटर-आप । लुइ
आपा । लुटू-आपयति । कर्म०--आष्यते । क्त-आप्त । कत्वा-स-ध्यात्वा,
०आ९य । तुष-आरे 1 णिश-आपयति । सत्-पति ।
खाए (बैठना)--": आ०,लद--आम्ने । लइ-पस्त लोद----आम्ताब,
विधि० आसीत । लिटर-असली । ल८ट्य--आसिष्यते । कर्म०-- अमले :
अ-आसिन । शबर-आसीन । तुब-आसिषा ।
इ (जानाति-र प०, लटू-एति, यन्ति, एधि, एमि, इव: । लइ-त,
आयन्, ऐ:, आप ऐब । लीटर-एतु, यन्तु-, इहि, अयानि-अयाव । विधि०
(मयात । लिट्य-इयाय, वि:, य, इयाय, ईयिव । पद-एष्यति । लुटू
एता । कर्म० ईयते । वत-इत । नत्वा-इ-त्वा, ०इत्य । तुम्-खर ।
णिचरेययति ।
१ ९८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
अधी (अधि-तो) (पढ़ना)-२ आ०, लटू-अय । लद-मजैत,
अजय., अऔयत । लोप-अधीर, अधीयातामू, अधीयताब; अधीर
अधीयाथामू, अधी.; अध्यर्य, अध्ययावहै, अध्ययामहै । विधि०---अधीबीत :
लुइ-अन्न, अशर्यषातात्, मर्यषत । लुटू-अययते । कर्म०---अधीयते ।
क्त-अधीत । णिचु--अध्यापयति ।
इस, इन्धु (जलाना)- आ०, लद-अर्द्ध, इन्धते । लइ-ऐम-ध । लोटने
उपरि, इन्त्स्व, इनकी । विधि०---इन्धीत । तृटू--इन्धिध्यते । कर्म०
इध्यते । कप ।
इम (चाहना)-' प०, लद-इच्छति । लइ-य-ऐब-छत । लिटर-इब '

हिं:, इयेषिथ, य, ईषिव । तुकू--पेधीत् : बद एषिध्यति । कर्म० अते ।


क्त-इष्ट । तुय.एष्ट्रए । णिचु-एषयति ।
ईक्षु (देखना)-: आ०, लप-ईको । लत्--ऐक्षत । लिवा-ईल
चझे । तुत्--ऐक्षिष्ट । लहु-पक्षि-ते । कर्म० ईक्ष्यते, प्र-पक्षि । तम
ईक्षित । तुम्-य-दक्षिणा । णिचु--ईमति ।
उप (जलाना)-: प०, लटू-जति । लद-अमित । लुइ-अमीत ।
कर्म० उष्यते । वत-बर ।
ऋ (जाना)-' प०, लटू-स्व-ति । लइ-आरति । लिवा-आर;
आरिथ; आर, आरिव । क्त-ऋत । णिचु--पर्पयति ।
एम (बढना)--: आ०, लटू-एधते । लइ-ऐक । लम-एसर ।
विधि० शीत । लिटू----एधामास । एधित । एधितुध । अति । सत्-एदि
धिषते ।
करि (चाहना, प्रेम करना)---', लटू-प्रयोग नहीं होता । लिवा--
चकने, कामयाँचशे । लब-काम-अते । त-कान्त । शिबू-कामयते :
कार (चमकना)---: आ०, काशते । चकाशे । कय । काशयति ।
कृ (करना)- उ०, लद-करोति, कुरुत:, कुर्वन्ति; करोषि, कुरुथ:,
कुरुथ; करोमि, कुर्द:, कुर्म: । लइ-अकरोत्, अकुर्वन्; बकरों:; अक.,
अकुर्व । लोइ-करोड़, कुर्वन्तु; कुरु; करवाए करवाद । विधि० कुर्यात् :
लिय-चकार ( १३८) । लुइ-अकाशि, अकाल अकाम.:; अकल:,
धातुसूची १ ९९

अकाय-ब, अकाज; अकार्षमू, अकाल अकाल । लुट-करिष्यति । लुट-


कर्ता । आत्मने० लटू-कुरुते, कुकी; कुलं, कुर्वे, कुर्वहे । उत्-पम,
अकुर्वत; अकुरुथा:, रवि, अकुर्वहि । लोइ-कुरुप, कुर्वतामू; कुरुक; करने
करवावहै । विधि० कुर्वीत । लिटू----चके (१ ३८) । लुइ-अकृत, अकृषत;
अकृथा:, अकृषि, अ-हि । बरं-करिय' । कर्म०-क्रियते, तुत् अकारि ।
तम-कृत । कत्वा-कृत्वा, ० कृत्य । तुब---कर्युब । णिचु-कारयति, लुत्
अचीकरन् । सनु-चिकी-त ।
कृत (काटना. प०, लटू-सन्तति । लिटर-चक; । लुइ-कति
वात । कर्मा० कृत्यते । तम-कृत । णिन्--कर्तयति । त-चिक-ते ।
कृप (खींचना)-: प० कर्षति । (जोतना)--' प०, कृषति । लिह
कसे, चकर्थिथ; चकर्ष१चकर्थिव । बटर-सन्ति । कर्म० कृष्यते । क्त-कृष्ट है
कत्वा व-कृ-प', कृष्य । तुमू-क्रष्ट्रब । णिचु-स्कर्षयति ।
र (फैलाना)--' प०, किरति । लिवा-चकार । पइ-करिष्यति है
कर्म० कीर्यते । क्त--कीर्ण । ल्यपू-०कीर्य ।
वलू१र (समय: होना)--: आ०, कल्पते । (लेदर-चवन । लप-कांति-प
व्यते । क्त-मतृप्त । णिचु-कल्पयति, लुत्--अचीवलुपन् ।
वन (चलना)-: उ०, कामति, नाते । लिवा-चक्रम, चले । खुर
अक्रमीत् । लुटू--क्रमिष्यति०, ०ते । कर्म० क्रम्यते । "क्त-कान्त । कत्वा-
बान्त्वा, विक्रम्य । णिचु---क्रमयति, कामयति । सत्--चिक्रमिषति । यत्
चत्कम्यते, चत्झमीति ।
की (खरीदना)-: उ०, औणाति, व्रनेणीते ( १ ०२ में की धातु) । लिह
----चिकाय । लट-केस.--" । कर्म०-जीयते । जीत । कीत्वा० जीय :
तुब--केतुन् । सत्-चिल्लाते ।
अब (हिंसा करना)- उ०, क्षणीति, क्षलुते । क्त-क्षत ।
अक्ष (नष्ट करना)--: प० वाक्षणीति । कर्म० क्षीयते । क्त-क्षित ।
णिचु-क्षययति, आयति ।
लिए (फेंकना)----'----.", को । लोटूवाक्षपतु, क्षिपाणि; क्षिति
ताब, लिय । लिटर-चिक्षेप, चिक्षिपे । लुइ-क्षे-यति, ०ते । कर्म० लिप्यते है
२० ० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

क्त----क्षिप्त । कत्वा-वाज-न्या-----"' । औ-प-मदुध । णिचु---क्षेपयति है


सत्-स-नेत ।
सुर (क्षुब्ध होना)-४ उ०, लटू-य-सभ्य." को लिवा-त्/य,
चुक्षुभे । का-"-., क्षुभित । णिचु-क्षेभियरि----ते ।
खाद (खोदना)-: उ०, लद-खल-ते । लिवा-मवाना, चव-: ।
ल८टू--खनिव्यति । कर्म, खन्यते, खायते, क्त-खात । कत्वा-खान्या,
खनित्वा, ०खाय । तुमू---खनितुत् । णिचु--खानयति ।
ववाद (खाना)----: प०, लटू-खादति । लिटु-चखाद । लड़-वा-पय
अति है कर्म० स्वय: कत-मरास । खिच-------' । य-बिल-पनि है
क्या (कब-र प०, लद-ख्याति : लो-पू-यातु, र-याहि । लिव-
ययौ, चद्धयु: । प्र-मयत । पद-स्थास्यति है कर्म० व्यय 1 हयात :
०म-याय । स्थाषा । णिचु---ख्यापयरि---ते । सत्-जपै-सति ।
यर (कहना)-: प०, गति । लिटर-जगात : गदिष्यनि । गद्वाते 1
गदित । गदितुब । णिचु-गादयति : सब----.." । यत्-जपते ।
गला (जाना)----: प०, गच्छति । जगाम ( १३८, ७) । प्र-मगमत ।
लहु-गमिष्यति । लुट-पता । कर्म० गम्यते । अ-गत है त्वा-गत्वा है

"गम्य, ०गत्य । तुम्-मदाए । णिचू--गमयति । सत्-जिग-त । यत्


जत्गम्यते, जदगन्ति ।
गए (घुसना)---: आ०, गाहते । लिटर-जगाने । बदर-माहि-ते :
कर्म० गाह्यते है तप-गाब, गाहित । लम.-" गाह्य । णिचु--गामति है
गुहा (छिपाना)---: उ०, प्रतित-ते । लिटर-ग्रह । तुम आम" :
::.: गुह्यते है क्त-गूढ । ल्यपरे०गुह्य । तुम्-मखर । लिचु-गूह
य ।
मैं (गाना)--., गायकी ०ते । लिटर-जभी, जगे ।लुहु:-अगासीत :
ल०द-गाम्यति । कर्म० गीयते । क्त-गीत । कत्वा-गी-दवा, ०गाय । गाषा 1
णिवृ-गापयति ।
ग्रस, यल (बधिना)---ए प०, यध्याति । कर्म० यध्यते । क्त---लथत ।
लम- ०ग्रथ्य । णिचु---ग्रथयति, ग्रन्थयति ।
यहा (लेना)-., गृहाति, साहीते । लर-ममतु, गृहाण । लिटर
धातुसूची र० :

जग्राह, जह । लुइ:-----.", अग्रहींष्ट । लुटू--ग्रहीष्यति, ०ते । दु-रि-


ग्रहीता । कर्म० गृह्यते । गृहीत । नत्वा-गृहीत्वा, ०गृह्य । तुमू---ग्रहींषा ।
णिचु---ग्राहमरि० ते; अ-मयदा । सद-जियत, ०ते ।
आँत (खिन्न होना)---: प०, बलायति । क्त-मकान । णिचु----नापयति,
बलपयति ।
दुम (शब्द करना)---: उ०, घोषरि० ते । कर्म० धुध्यते । क्त-पुष्ट ।
न्यापद--०घुष्य । णिचु----धोषयति ।
भी (सु-घना)-- : प०, जियति । लिटू-जधी । कर्म० आयते । क्त---
आत । णिचु---ख्यापयति ।
चक्षु (कहना)----. आ०, लटू-टे, चक्षते; चले, चप-वा, चले,
चक्ष्महे । लिटर-चच, । बटर-जायते । ल्यपृ-०चज्य । तुम्-यर ।
णिचु----चक्षयति ।
चर (चलना)--: प०, चरति । लिटर-चचार, प्र०३ चेरु:; चचर्थ । पह
-चरिष्यति । कब० चर्यते । चरित्र है क्त-चरित । कत्वा-मवारि-ल्या,
लर-प्र" । णिचु-चारयति, तुत्--अचीचरत्
चलते (चलना)---: प०, चलति । लिटर-चाल, प्र० ३ था । लब
चलि-यति । क्त-चलित । तुमू---चलिषा । णिचु-चलयति, चालयनि ।सन्
-चिचलिषति ।
चिकोताब। लुट-र-जयति,
(इकदठा करना,०तेचुनना).,
। तुअ-चेता । चिनोति, चिनुते। त-चित
कमन, चीयते । लिद-वाचकाय,
। नत्वा
अत्-वा' ०चित्य । तुमू---चेषा । णिचु--चाययते । सत्-वायस, चिची
षत।
जिद (सोचना)----:', प०, चिन्तयति । लिअ-चिन्तयामास । कर्म०
चिंत्यते । क्त-चिन्तित । कत्वा-वा-य-ल्या, ०चिन्त्य ।
दुर (चुराना)---:" प०, चोरयति । लिवा-चीर-चकार । लुइ---
अत्रुचुरन् । कर्म० चोर्यते । अ-नात है
धिर (काटना)--. उ०, छिनना छिन्दन्ति । लिटर-चिच्छेद, चिरिछदे ।
लुइ-र-अत्-दत, आ-नौ-शमीर । बदर-छे-यति, की । कम-श्व, छिद्यते । त-
छिन्न । कत्वा-हित्वा, ०छिद्य । तुब--छेचुन् । णिचु---छेदयति ।
२०२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
जब (पैदा होना)--४ आ०, जायते । लिटर-जले । तुन्---वाजनिष्ट ।
पद-मनि-ते । अ-मनिता । क्त-जात : णिवृ--जनयति, ०ते; तुर
--अजीजनन् । सन्-वाजेजनिषते ।
जाए (जागना)----, प० ( १३४ अ ४) लटू-जागर्ति, जागृत:, जागृति ।
प-अजग:, अजायतान्, अजागरु:, अजग:; अजागरब । लर-जागत:,
जागृति जागने । लिटू-जजागार, जठारामास । लुटू-जागरिष्यति ।
क्त-परित । णिचु-जागरयति ।
जि (जीतना)-: प० (वि और परा के साथ आ०) जयति । लिटर
जिगाय, जिस:; जिरियव । प्र-मशत् । खुटू----जेष्यति । कर्म० जगाते ।
क्त-जित । कत्वा-जित्वा-, ०जित्य । तुत्--ल्लेतुन् । णिचू--जापयति ।
सत-आजमी"' ।
जीव (जीवित होना)---: प०, जीवति । लिटर-जिब, जिजीवृ: ।
लुइ-मजीवन । ल८टू---जीविष्यति । कर्म० जीव्यते । क्त---जीवित । पर
--०जीव्य । तुम्-पतिर । णिचु-जीवयति । सनु-जिनी-त ।
जु (वृद्ध होना)--) प०, जीर्यति । लिवा-मजार । कर्म० जीर्यते । क्त
ने-जीर्ण । णिचू-जरयति ।
ज्ञा (जानना)-: उ०, जानाति, जानीते । लिटर-हिं, जते । प्र
अज्ञासीत । लुटू-ज्ञास्यति । लुट-ज्ञाता । कर्म० ज्ञायते; लुत्-अज्ञाद्धि :
क्त-पत । स्था-ज्ञात्वा, ०ज्ञाय । तुम्-जाए । णिचु--ज्ञापयति, "ते;
ज्ञपयति, ०ते । क्त-ज्ञापित, ज्ञात । सब --जिज्ञासते ।
तब (फैलाना)--८ उ०, तनोति, तनुते । लिप्त-तताना, तेने । कर्म०
तन्यते, आते । क्त-तत । कत्वा-मत्वा, ०त्य, ०ताय । णिचु---तानयति ।
तप (आना)-: उ०, तपति०, ०ते; तपति, ०ते । लिटू---तताप,
तेपे । लुटू---तष्कयति । कर्म० तपते । क्त-तात । कत्वा-ममवा, ०ताय ।
बताए । णिचु--तापयति ।
तुर (चोट मारना)--. उ०, तुदति, ०ते । लिटू-तुतोद । कर्म०
तुद्यते । तम-तुल । णिन्---तोदयति ।
तुज (तृप्त होना)-----' प०, तृप्पति । लिटर-बर्ष, ततृपिव । क्त
कृत । णिचु--तर्पयति । लुत्---अतीतृपत् ।
धातुसूची २०३

तु (तैरना, पार करना)---: प० या ६ आ० तरति, तिरते । लिटर


ततार, तेरु: । तुत्--अतार्थीत्, अतारीत । तृटु--तरिष्यति०, ते । क्त-पर्ण है
कत्वा-तीर, ०तीयं । तुम्-तत्र, तरीतुमू, तरिषा । णिचु-तारयति,
०ते । सनु-ति-लते :
त्यज, (छोड़ना)--: उ०, त्यजति, ०ते । लिटर-ता., तत्यजे । लुत्
--अत्याधीत । लुटू-त्यक्ष्यति, ०ते,--त्यजिष्यति, ०ते । कर्म० त्यज्यते । क्त
उ-त्यक्त । त्वा-मकत्वा, ०त्यज्य । णिचू-त्याजयति । सन्-तित्यक्षति :
अत् (कांपना)---: प०, ४ उ०, कति, त्रस्यनि, ०ते । लि-वास,
तप:, वेसु: । पटु-मसिध्यति । क्त-त्रस्त । णिचरेसयति ।
स्वर (र्शघ्रता करना)-.., त्वरते । लिन्-तत्वरे । क्त-त्वरित है
णिवृ-त्वरयति है
देन (काटना)-: प०, दशति । लिटू--ददश । लप्र--दशिशयति है
कर्म०--दश्यते : ल-दह । त्वा-वंश, ०दश्य । णिचु---दंशयति ।
यहा (जलाना)--: प०, दहति । लिटर-दण, देहि९थ--ददबध । म० १,
तुति-अधा' । तद----." । कर्म०-दह्यते । क्त-दग्ध । त्वा--
द., ०दह्य । तुम्-दब । णिन् ---दाहमति । सन्---दिधक्षति है
दा (देना)--: उ०, ददाति, दले । लिह-ददौ, ददे । लुइ-अदा.,
आदित, प्र० ३ अदिक । तृप्त-जयति, ०ते । लुप्त-दाता । दीयते । दत्त ।
त्वा-मवा, ०दाय । णिचु--दापयति । सनु-दि-ज ।
विन (खेलना, जुआ खेलना)--- प०, बीव्यति । अर-अदेय 1 इंच
-देविध्यति । क्त-एत । तुम्-देवि/या है णित्---देवयति ।
विशु (बताना, कहना)-' उमा, दिय, ०ते । लिटर-विदेश,
दिदिशे । लुत्---अदिक्षत । लुटू-देक्ष्यति, ०ते । कर्म०-दिश्यते । ल
दिष्ट । व्यपू---०दिश्य । तुम्-देय । णिचु--देशयति । सन्--दिदिक्षति है
दि९ (लीपना)--२ उ०, लद---., दिख:, दिहन्ति । लक्ष, दिया
दिव्य । देहि, दिश, दिहा: । आ० दिने दिहाते, दिहले : धिक्षे, दिहाथे,
धि-वे है दिखा दिह्नहे, दिह्यहे । लइ-अम, अदिस, अदिहन् । अयेकू,
अदिक अदिग्य । अदेहब, अदिश, अदिहा । आ० अदिग्ध, अदिहातामू,
२०४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

अजित । अदि-धा:, अदिहाथामू, अधिप-र । अदिहि, अदिह्नहि, अदिहाहि ।


लम-र-देखु, दिवा, दिहन्तु । विविध, दिग्धत्, दिया । देहानि, देहाव, देशम ।
आ० दि., दिहाताब, दिहतात् । यव, दिहाथाब, धिपर । देशे, देहावहै,
देहाती । विधि० दिह्यमा, आ० दिस । लिटर-विदेह, आ० दिदिहे । कर्म०
विह्यते । क्त--दिग्ध । ल्यपू-०दिह्य । णित्--देहमति ।
दुर (दुहना)--य उ०, दिल के तुल्य । लद-दय । लइ-अधीर ।
लोइ---' । विधि. दुह्यमा । लिद---दुदोह, दुदुहे । लुत्पधुक्षत, अयु
क्षत । लदे-जयते : कर्म-लते । क्त-दुध । त्वा-चवा । तुम्
दोयधुष । णित --दोहयति, अर-अमित । सत्-प्रति ।
शहर (देखना)---: प०, पश्यति । लिढ़१--ददर्श, यशु: । लुइ-अबकी,
अदन है लुइ-मयति । लुइ-पर । कर्म०----दृश्यते । क्त-हार । त्वत्--
ब, "दृश्य । द्रष्ट्रब । णिचरेर्शयति । लुत्---अदीदृशत् । सरि-दिक्कते ।
छूत (चमन)---: आ० शोतते । लिट्य-दिधुते । अर-अद्य. ।
णिचु----द्योतयति है
दू (दौड़ना)---: प०, द्रवति । लिह-चव, दुदोथ, दे, उ०२ ।
लुइ-अभवत् । अ-दूत । ०दूत्य । तुब-द्रोतुन् । णिचु--द्रावयति ।
श्री (दोह करना)--- प०, द्रुह्यति । लिन-:--., दुदोहिथ, दुदूहिव,
उ० २ । (दुइ:---'.... । ल-दूध ।
द्विप राल करना)---, उ०, देहि (४-१३२, द्विप, के रूप) । क्त-वाकी ।
देय । ।१षयति ।
था (रखना)---: उ०, दधाति, यत, अति । आ० जि, दधाते, दधते ।
लइ-पदधारी, अध., अदा.: । आ०, अप अदधातामू, अव्यत । लद--
दधातु, बलात्, यहु, बह । दधानि । आ० बलात्, दधातामू, दधत., धाब,
दधे । विधि० (पद, दधीत । लिइ---दधी, दधे । लुइ-य-धात, अधित ।
पटु (--धास्यति, ०ते । कर्म० धीयते, लुइ-मधायि । क्त-हित । ल्यपू
०धाय । तुमू.षा । णिचु-धापयति । सन्-धित्सति ।
थाह (दौड़ना, योना)---: उ०, धावति, ०ते । लिटर-दबाव । कता,
आव्यते । क्त--ध्यावित (दौडता, क्त-----) (धोया) । कर्म० धावयनि ।
धातुसूची २०५
धू (हिलाना)--; उ०, ९ जाधुनोति, धुनुते ; तुति, धुनीते । लिटर
दुधाव । पटती-मविधान । कर्म० पूयते । क्त-धुत । णिचु--पूनयति ' यत्
उधियते, यत्लुकू-दोधबीति ।
धु (धारण करना)----". वाले रूप नही होते) । लिटू--दधार,
दई । यरिष्यति, ०ते । धियते । धुत । धुत्वा । धत्त । खिचवा-धावति,
०ते, तुर-अद-यत् ।
उमर (फूलना, साँस से परिकर बजाना) : प०, धरे । लिटर-दशम, :
प्र अध्यानीन् । कर्म० धम्यते, ध्यायते । ल-ममात । ल्य१.०ध्याय ।
णिचु---ध्यापयति ।
नर (शब्द करना, अस्पष्ट ध्वनि करना)--: प० नदति : लिटर-सनाद,
यदु:, नेदु:, नेविथ । तम-नविन । णिवृ---नदयति, नादयति । यश-नान
छाते ।
नए (झुकना)---: प०, नमति । लिवा-नन., नेमत:, नेगु: । तुज--
आयात है नयति । कर्म० नम्यते । क्त-नत । त्वा-नत्वा, ०नम्य । तुम्
नमितुशिनन्तुमू । णिचु---नमयति, नामयनि, प्र-पनी-मत । सबअन्न निनंसति :
नम (नष्ट होना)- प०, नश्यनि । लिटर-न-, नेशु: । तुल---
अनशन । लइ-काश-ति, नत्क्ष्यति । तम-नष्ट । णिचर-नाशयति, प्र
अनीनशत 1
नहा (बजा-औम----, उ", नह्यति, ०ते । कर्म० नमी । ल-पम । व्याप
उ-०नह्य । सित ज-नाह-जि । च
भी (ले जाना)-: उ०, नयति, की । लिट----निनाय ।४ह१ ३८) । खुब:
स---अनैषन । खुद-यत । सुदर-नेता । कर्म० नीयते । क्त-नीत । त्वा
-नीत्वा, ०नीय । नेतुम् । णिचु-नाययति । सनु-निकी., ०ते । यब--.
नेनीयते । ह कि
वृत (नाचना)---" प९१, वृत्यनि । लिटर-गर्त, नम्: । पद----'
सत । कर्म० वृत्यते । क्त उ-वृत्त । णिजू-नर्तयति । सनु-वालय-त ।
यत्-नर-हि-दयते । यदलुकू-नरीनर्ति ।
पर (पकाना)-: उ०, पचति, आते । जिर-मपाच, पेचे । पद---
र०६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
पक्ष्यति । कर्म० पचाते । क्त-मक्य (विशेषण) । त्वा-मत्वा । (रेख--
पाचयति । यत्-पाप-ते ।
पत (गिरना)-: प०, पतति । लिटर-पपात, पेड़: । तुदूपअपप्ततू ।
लुटू----पतिष्यति । क्त-पतित । तुम्-पतितम् । त्वा-पतित्व, ०पत्य ।
णिचु---पातयति । सन्--पित्सति ।
पर (जाना)- आ०, पद्यते । लिटू-पेदे । लुइ-अपने । चुद
पलते । क्त-पन्त । ल्यपर-०पद्य । तुम्-पत्, । शिबु-पश्यते । सत्
पि-लते । यश-मनीरे ।
वा (पीना)-: प०, निति । लिटर-पारी, मपु:, पल-पाथ । (नुह
पपात । मयति । कर्म०-पीयते, दुरी----' । क्त-पीत । त्वा-पीत्वा,
०पाय । तुम्-पातुर । णिचु---पाययति । सत-पियास-ते । यत्-पेपर, ।
पा (रक्षा करना)--', पाति । अ-अपकी । तुम्-पाए ।
पुए (पुष्ट होना)-४ प०, ९प०, पुष्यति, पुपति । लिटर-पु-पोष ।
कर्म० पुष्यते । तम-पुष्ट । णिचु--पोषयति ।
ज अपवित्र करना)- उ०, पुनाति, पुनीते । लिद-पुपाव, पुपुले ।
कर्म० पूयते । क्त-पूत । वयम्-जय । णिचु--पावयति :
प- (पूरा (भरना)-३ प०, पिपर्ति, पिप्रति । लिह-मपव, पुपूरे ।
कर्म० अति । क्त-पूर्त, पूर्ण । ल्यपर-०पूर्य । णिचु-पूरयति ।
प्रक (पूछना)', पृच्छति । लिह-पप्रच्छ, पप्रक्ष: । लुइ-र-अप्राप्ति,
अष्ट है लय-प्रश्रय । कर्म०--पृच्छत्यते । तम-पृष्ट । त्वा-झा, ०पृच्छय ।
तुरिमटुब । सत-जय-छय ।
पी (प्रसन्न करना)-९ उ०, प्रीणाति, प्रीलते । लुइ-ममैरीन ।क्त
पीत । णिचु----ग्रीणयति ।
फलू (फलना)-:
णिचु---फालयति । प०, फलति । लिह-मपाल । क्त-फलित, फलन
प है

बन्धु निधिना)--९प०, बध्याति । लिद-बबन्ध, बबन्धिथ--बबन्द्ध,


बबन्ध । बद-ममअति । कर्म० बध्यते । क्त-बद्ध । त्वा-बम.-' ।
तुम्-मबता । णिचु--बन्धयति ।
आतुसूची २०७

बुद (जानना)-: उ०, ४ आ०, बोधति, ०ते, दुध्यते है लिद-धुबुधे ।


तुष्ट-अम, अम, अकुंत्स; अबोजा, अबोधिषत् (१४५ का । पद
भीत्स्यते । कर्म० बुध्यते । क्त-बुद्ध । त्वा-चवा, ०बुध्य । तुम्-बोस ।
णिचु-बोधयति । सत्-आसते ।
( (कहता)---, उ०, वबीति, एत:, अवन्ति । ब्रबीषि, रथ:, रथ ।
ब्रवीमि, जाव: ९म: । आ० जाते, वर । लय-अब्रवीत्, अदब, अ९वब;
अवर अवर । (गोद-मबीनु-, एप, ९वन्तु । (हि, (तरि, गोल
ब्रवाव, ज्याम । विधि०--९यात । अन्य स्थानों पर 'वर के रूप चलते हैं ।
मथ (खाना)- : प०, भक्षति । कर्म० भम्यते, लुजा--अभक्षि । क्त
भक्षित । तुमू--भक्षितुब : णिचु-भक्षयति ।
मल (बाँटना)-: उ०, भजति, ०ते । लिका----., भेजु:, बमय;
भेजे । लुत्--अभास्का, अभक्त । चर-भविष्यति, ०ते । कर्म० भजाते :
भक्त । त्वा-मकत्वा, ०भज्य । तुम्-मवषा । णिचु-भाजयति, ०ते । सत
----भिक्षति,०ते ।
भई (तोड़ना)- प०, भनक्ति । अभनकू । अस्तु । भ८कउयात ।
लिटर- बभहज । प्र---अभात्क्षीत् । लहु-भइ/यति । तुटू-भशता ।
कर्म० भज्यते । तुत्--अभाजि । क्त-भान । त्वा-मत्वा, ०भज्य ।
भा (चमकना)---- प०, भाति, भान्ति । लद-मभात, अभास-अनु: ।
लिह-जभी । लइ-स्थास्यति । क्त-पत ।
भाए (कहना)-: आ०, भाषते है जिद-बभाषे । अ-अभास ।
सुद----." । कर्म० भाष्यते । क्त-भाषित । त्वा-भाषिक,
०भाध्य । तुमू---भाषितुन् । णिवृ-भाषयति, ०ते ।
भिर (तोड़ना, फाड़ना)--७ उ०, भिनत्ति, जिते । लिद---गीभिद,
बिभिदे, लहै-नियति, ०ते । कर्म० भिद्यते । क्त-वाय । कत्वा-जित्वा,
०भिद्य । तुब---भेपध णिचु---भेदयति ।
भी (डरना)--: प०, बिभेति, विभाति । लव-अहित, अबिभयु: :
लिटू-बिभाय । लुत्---अजैवीत् । कर्म० भीयते । भीत । भेज । णिचु-
भाययति, भीषयते । यत्-यजते ।
२०व संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

भूजल (भीगना, उपभोग करना)--" उमा, अस्ति, प्रको । लि.


बुभूजे । बदर-जयति, ०ते । कर्म० भूज्यते । वत-भुक्त । त्वा-जित्वा :
तुम्----"., । णिचु----भोजयति,०ते । सत्-फलते । यत्-बम-अते है
यत्लुकू-बोभुजीति ।
भू (होना)---: उ०, भवति, छाते (डा१क्रि२) । बभूव (१३९, ७) है
अभूत ( १४९२) । भविष्यति । भविता ( : ५२) । भूयते ( : ५४) : कर्म० तुष्ट
---अभावि । अ-भूत । त्वा-भूत्वा, "भूय । तुमू-भवितुन् । णिचु-
भावयति, ०ते । सय-लबत, ०ते । यसूतुकू-बोभबीति ।
भू (ले जाना)---: पतित (: उ० भी भरत ०ते) बिभर्ति, बिभ्रति ।
लीटर-मबक., बिभूहि, बिभराणि । लिटर-भार, बभर्थ, बभूव, बिभरां
बभूव । लुटू-भरिष्यति । कर्म० चियते । क्त-भूत । ल्यपर-०भूत्य । उर
ब-भत्ता । णिचु--भारयति । सन्--बुभूर्षति । यजालुकू-बरीभर्ति ।
अजर (भूनना)---' प०, भूर-जति । कर्म-, भूउज्यते । क्त-चार । त्वा
तो-धि" । णिचु---झार्जयति ।
भ्रमू (घूमना)--' प-, १ उ० है आयति, भ्रमति, ०ते । लिटर बध.,
बभ्रमु:---संमु: (१ ३९) । बइ-मनियति । क्त-पन्त । त्वा-मत्वा,
०भ्रम्य, ०आम्य । तुत्---भ्रमितुपू, आदाब । णिचु---सामयति, भ्रमयति,
यत्-ब-ते, बभ्रमीति ।
मजल (डूबना)----: प०, मज्जति । लिटर-ममजैब । चर------.. है
लुप-मदा-यति । कम-तेन । ०मज्जय । तुमू---स्मडिजतुत् । मपु-जयति है
सन-वामम-रक्षति ।
मद (प्रसन्न होना)-- प०, माद्यति । शुड::----. । क्त-मल )
णिचु-मादयति, मदयति ।
मन (सोचना)---- आ०, ८ आ है, मंयते, नाते । लिअ-मेने । लुत्
आदत । बदर-मसती । कर्म, मन्यारे । कत-मत । त्वा-मत्वा, ०मन्य,
०मत्य । तुम्-मखर । खिच-मसते । सब-मयसले ।
मनीर (मयन)--: प०, ९ प०, मथति (ममयति), मवाति । लिटर
ममथ, ममकीम । लहैं-पनि-ति । कर्म० मशयते । बब-वाजिद । लम---
०मध्य । णिचु--मन्थयति ।
धातुसूची २०९
मना (माप-र प०, ३ आ०, मजि, मिमीते । लिटर-ममौ, ममें ।
कर्म, बीय९लुत्-अमायि । क्त-मित: क्त-मित । त्वा-मिल्या, ०माय :
रार ।तुए । णिचु-मापयति है सनु-नि-मिलत ।
मुद (छोड़ना)---. उ०, अति, ०ते । लिटर-मुमोच, मुमुचे । प्र--
यमुच1, पत । लटू-वयसि, ०ते । कर्म० मुव्यते । मुक्त है मुकत्वा,
०मुज्य । मोर । णिजू---मोचयति, ते, अरि-लचर । सन्-मुमुक्षति,
मोक्षते ।
तह (किकर्तव्यविभूढ़ हल)-- प०, मुह्यति । लि-रि-छोह, मुगोहिथ
मुमोग्ध---मुमोढ । वत-मुग्ध-मूढ । णिचु-मोहयति । यत्-मोम.:
मृ (मरग-परमा, (वर्तमान के रूप नए । लि३२--ममार, ममभी
मसिव । तृत्वा--मरिष्यति । कर्म० सियते । वत-मृत । त्वा-ईवा ; तुम
वि-मतत् । शिर उ-मपति, तुत्---अभीमरत् । सत-अति । यत् लुकू
मरीमर्ति ।
मृत, (प-छ करना). प०, मारि मृ-प्र:, मुजन्ति । च-अमर,
अमूल, यमूजत । लोप-मारि, अप मृजन्तु, ममढ, माना । विधि०
अयान है निष-ममजि, ममजु: । अर-अमा', अमाना, अमृक्षद है लुट-
मयति । कर्म० मुज्यते । का-मृ] । (पर -०माम्र्य, ०मुज्य । तुम्-मशट-ब,
माष्ट:मू, माजिषा । णिचू-माजेयति । यत्-ममजाते ।
द्वारा (वर्णन करना) --१ प०, मय । तुत्----अम्नासर है कर्म० प्या
यते । कत-मनात ।
य (मुरझाना)--: प०, मना नि । जिद-मलौ । लुइ-श्व-मनासी) :
कब-म्लान । णिवृ-म्लापयति, म्लपयति ।
यर (पूजा करना) स---: उ०, यजति, ०ते । लिटर-ज्याज, ईजे । प्र--
अयाभीत्, अय-र । लुप-प्यासे । कर्म० इज्यते । क्त-इष्ट । त्वा-इहाँ ।
तुम्-मपत । णिचु-याजयति । सत-धिय-त ।
यब (रोकना)---: प०, यचाबति । लिटर-याम, येसु:, ययन्थ । लय
यमिश्वनि । कर्म० यम्यते । का-यत । त्वा-मत्वा, यम्य० । तुम मरब,
यमितुत् । रिपु.--- यमयनि, यामयति ।
र१ ० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

या (जाना)-, प०,याति । लइ-अयातु, अया-यु: । नोवा-- यातु है


विधि० यायान् । लिवा-ययौ । अर-बसीत । ल८ट्य-यास्यति । लुटू
याता । काह यस । कम-पात । त्वा-यात्व, ०याय । तुरि-याषा ।णिचु
--यापयति । सन्-यियासति ।
यु (मिलाना)-. प०, यौति, युवन्ति । लड:---.., अयुवन् । लोह
तो-वनी, युवन्तु । विधि० युयातृ । कति-युत ।
(ह (मिलाना)- उ०, युनक्ति, मते । लिद-युयोज, युयुजे । लुइ:
मअ., अयुक्त । लुटू-योक्ष्यति, ०ते । कर्म० युज्यते । युक्त । युमवा,
०युज्य । योर : लिचु-योजयति, ०ते; खुद-अहित । सनु-गुप' ।
रक्षक (रक्षा करना)-: उ० है रक्षति, लते : लिटू-ररक्ष है पत्-
अरलीन । रक्षिष्यति, रक्षिता : कर्म० रमते । अति-रक्षित । ल्यपरा०रव्य ।
तुमू--रलितुए : णिचु--रक्षयति ।
रब (रेंगना)--- प०, रज्यति । कर्म० राय । क्त-रक्त । मयम्
०रज्य । णिचु--रहजयति ।
रम् (पाना) (आ-मभू-आरम्भ करना)--.-: आ०, रमते : लिटर-
रेभे । लइ-जयते । कर्म० रभाते, जुइ-परल । वत-रसे । लम-र
०रभ्य । तुम्-रकीब । णिचु-रम्भयति । सत्-रि-सते है
रब (कीडा करना)--: आ० (सकर्मक होने पर परसौपदी है), रमते :
लिटर-रेगे । लुत्--अरंसीत । लुप-जयते । तुम्-रब: वत-मत ।
त्व-त्वा, ०रम्य । कर्म, रम्यते । णिचु---रमयति । सभू--रिरंसते ।
रार (चमकना)-: उ०, राजति, ०ते । रराज, रेने । राजयति :
रु (चिस्तानाम-२ प०, रीति, रुत:, रुवन्ति । लिह-मराव, रुला ।
कत-रुत । तुत्---रोतुन् । णिधि---रावयति, तु.रूरुवत् । यजा-रोब
यती, रोरबीति ।
कर (रोना)-., रोदिति, रुदन्ति । लजा-अरीय-अरेंज, अरुण,
अरोबी:--अरोद:, आरोप अरुदिव । लोटकि--रोदितु, रुदन्तु, रुदिहि, रोदानि,
रोदाव । विधि० ख्यात । लिवा-रुरोद । अर-रुदन । लइ-- रोदि
धातुसूची २:१
ष्यति । कर्म० रुद्यते । ल-य-सवित । त्वा-जित्वा, ०रुद्य । तुष-रोहित-र ।
णित्----सोदयति । सय-रुरु-त । रोरुद्यते :
रुप (रोकना)--. उ०, रुणद्धि, रुन्हें (१३२, रुपा " लिवा-मरोध,
रुरुधे । अवा-अरुप-चरी-ज, अथ । अर-यय । कर्म, रुध्यते ।
क्त-बद्ध । त्वा-रेवा, ०रुध्य स-रो
रुरुत्सति । । तुम बध । लिचु---रोधयति । सत्
रुहा (उगना, उत्पन्न होना)--: प०, रोहति । चिं-शि----: । लुइ-
अरुक्षतृ--स्काहत : अर-रोय/त । कर्म० रुह्यते । कत-रूढ । लई
०रुह्य : तुम्-रोया । णिचु--रोहयति, रोपयति । सत्-रुरु-त ।
लई (पाना)----: आ०, लभते । लिवर-लेने । परि-----" । कमीत
लभ्यते । क्त-लब्ध । त्वा-मवा, ०लम्य । णिचुश्व--वादम्भयति । सर
लि-सते ।
लिए (लिखना)----' प०, लिखने । लिटर-लिकी : कर्म० लिद्धयर्त :
कइ-मखेत । त्वा-लिखि-ल्या, ०लिख्या । शिचु---लेखयति :
लू (काटना)-. उ०, [लत, लुनीते । लिटर-खव, लुलुवे । क्त--
सून ।
वर (कहना)---, प०, वक्ति, वक्त:, (वदन्ति) । वक्षि, वस:, ववाथ ।
गोम, वच:, बम: । लद-अवद, अवकाश (पत्) । अकू, अवकाश
अवयव । अवचर, अवयव, अवश्य । लोइ-वस्तु, वस्ति, वनानि, बचाव ।
विधि, वध्यान् : लिटर-उवाच, लत: । अ-लि-----' । लदे-वक्ष" ।
लुप-बता । कमं० उच्यते, अर-अव-धि । उक्त । उ-वा, ०उकय :
वस्तुए । णिइ--वाचयति । सत्-नियति ।
बद (कहना)---: प०, वदति । लिके उवाद, ऊदु: । [दुजा-अव-बीत ।
लहु-वारे-यति । कर्म० उशते । क्त-उदित । उषित्वा, ०उद्य । तुति-
वदितुध । णिचु---वादयति । सब-यव/अंते ।
बस (बोना)----: प०, वय । लिटर-उगा, ऊपु:, उवपिथ-उवष्य ।
अर-अवा-सीत । पट-बसत, वधिष्यति । कर्म० उपले । क्त-स्वत ।
छिचु---वापयति :
वश (चाहता)---, प०, वष्टि, उशन्ति, वक्षि, वदिम, उद्या:: लर
२१तो संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
अप, अवद, अवशमू, औयव । लर-टु, उबडि, वशानि । विधि०
उश्चात । णिचु-वशयति ।
वक्ष, (रहना)-: प०, बसते । लिज-उवास, ऊधु: । चवा-अवा-औत है
प-सू----" । कर्म० उयते । क्त--उषित । त्वा-उषित्वा, ०उध्य है
तुम्-वस्तुए । णिचु-खासयति ।
यत् (पहनना)----, आ०, बस्ते । लिटर-वय । क्त-मसित । त्वा,
वसित्वा, ०वस्य । तुत्-वसितुर । णिन्-वासयति ।
बहा (ढोना)--: उमा, वहति, ०ते । लिटर-उग, ऊहु: । प्र-अवा
औत । लुट-----' । कर्म, उड़ते, तुजा---अवाहि । कां-ऊह । ल्यपर
०उह्य । तुमू---वं९र । णिचु--वाहयति । य:कू---वावहीति ।
विद (जानना)--. प०, बल, वित्त:, विदत्न्त । बद-स, वितथ:, वित्थ ।
वेजि, विद्या विद्या । लजा-अवे.., अधि., अधिप-अवि-दु: । अवे:
अकी, अवित्तमू, अविल । अय, अविद्ध, अविद्या । लोप-वेलु, वि.,
विदन्तु । विडिरं, वित्त, वित । वेदानि, वेदाव, वेदाम । विधि-विवाद ।
लिटर-विवेद, विद-चकार । अ-मविदर । पइ-बय-यति है कर्म०
विद्यते । क्त-विदित । त्वा-विदित्वा । तुमू--वेदितुन् । वेदयति । विधिदि
बत । लद अर्थ में लिवा-वेद, [वस्तु:, विदु: । वेत्थ, विष्णु:, विद । वेद विद्व,
विदा ( १३९-३) ।
विद (पाना)---' उ०, विन्दति, ०ते । विवेद, विविदे । चवा-अकीदत,
अविद्या । वेत्स्यति, ०ते । कर्म० विद्यते हिं) । कता-वित्त-जिन्न । त्वा--
विश्वा, औवेद्य । तुन्-वेतुए । णिचु-वेदयति । सय-विवि-मत ।
विम (प्रवेश करना)---' प०, विशति । लिवा----'. । अवा-अवि
क्षत । लुप-मयति । कर्म० विश्यते, चव-पवेल । क्त-विष्ट । ०विवय ।
तुम्----. । णिचु-वेशयति, अ-मवदेश-र । सद-विवि' ।
तू (ढकना)---: उ०, वृणीति, वृणुते । लिवा-मवार, वला:, वरों
व", वार । कर्म० वियते । क्त-वृत: त्वा-कृत्वा, ०वृत्य ।तुन्-वरितुमू
वरीतुत् । णित्---वारयति ।
धु (चुनना)-: आमा, वृणीते । लिवा-वध । तु-भू-अदल । कर्म०
वियते । क्त-वृत । त्वा-चवा । तुम्-----: । णिचु-वरयति ।
धातुसूची २१ ३
वृत (होना)--: आ० (लुइ, बह च: में पर० भी), वर्तते । लिटर-
ववृते । लुत्-अवृतत् । लुसू-वर्तिष्यते, व-मति । कता-वृत्त । ल्यपवा०वृत्य ।
तुध-वर्तितुध । शिर सति' वर्तयति ।
वृधु (बढना)---: आए । (लुखू, लहु, चर में पर० भी), वर्धते । लिव
---ववृये । लुत्मवृधानू, अर्वाधेष्ट । लुप-पत्यते । क्त-वृद्ध । तुमू-वर्थि
तुम । णिवृ-वर्थयति, माते, तुसू---अबीवृधत ।
व्यधु [बीधना)--४ प०, विनीत । लिटर-वि-व्याध, विविधु: । कर्म०
विध्यते । क्त-वाकी । त्वा-य-वि., ०विध्य । णिचर व्यबयति ।
वजू (जाना)--: प०, आत । लिटर-वाम, ववजिथ । लुप
अवाजीन् । लुट-र-वाजिनो' । कर्म० वज्यते । वत-स्ववित्त । त्वा
व्रजित्वा, ०व्रज्य । तुन्--वजिषा । खिच-मजयति ।
वन (काटना)---' प०, वृस्वति । कर्म० वृबययते । क्त-लवण । त्वा
न-ब-वृ-रा, ०वृश्यय ।
अंत (प्रशंसा करना)--:'., शसति । प्यास । लुसू-अशंसीश । शगल
सत । कर्म० शस्यते । शरत । अत्वा, ०शस्य । शंसितुए । णिन्--शंसयति है
शर (सकना, समर्थ होना)--५ प०, त्श्वनोति । लिटर शशक शेकु: ।
पत्-मशकर । लप-श-यति । कर्म० शक्यते है क्त-शक्त, शकील । सन्
---शिक्षति ।
शहर (शाप देना)---: उ०, संपति, ०ते । लिटर-शा., शेषे । बदर
शषिष्यते । कभी शायते । कत----., । णिचू-शापयति ।
अब (शान्त होर प०, शाम्यति । लिटर-पम, शेमु: । का
शान्त । णिच---शमयति, शामयति, तुत्--अणीशमत ।
आए (आज्ञा देन' प०, शास्ति, प्र० ३ शासति, उ० २शिध्व: । लद
उ-अजात, अशासु:, अशा:---'.; अशासत्, अशिष्य । लोइ-शक,
'शहाब, शासतु । शाधि, शिष्टता शिष्ट । शासानि, शासाव, शासाम । विधि०
शिर । लिटर-मशास । तुत्--अशिषत् । बदर-शासिक । कर्म०
शस्यते, शिकायते । क्त-शासित, शिष्ट । त्वा---शासित्वा । तुमू-शास्तुब ।
लिए (छोड़ना)--) प०, शिनष्टि, शिषन्ति, शिव । लगा-शिरो,
शिजूति, शिनषाणि है कर्म० शिध्यते । क्त-शिष्ट । त्वा-शिष्ट", ०शिष्य ।
णिचु--शेषयति ।
२:४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

औ (सोना)-. आ०, शेते, शयाते शेरते, । शेषे, शयाथे, शेवि । शये'


शेवहे, शेमहे । लजा-अदेस, अशयाताब, अशेरत । अशेथा: अशयाथन ।
अशेध्वन् । अशयि, अशेवहि, अशेमहि । लोप-शेतान, शय., शेरताए ।
लव, शय., शेर । शर्य, शयावहै, स्थान । विधि० शय :
लिवा-शिवि । लुका-अशर । लुट-न्यायिक: । क्त---शयित । शिर
-शाययति । सत्-वारिश-ते ।
शुजू (शोक करना)---: प०, शोचति । लिसू--शुशोच । तुव-अमु
चना । ल८द---शोचिष्यति । त्वा-सोचि-दवा । दुध-शोचिषा । णिचु
शोचयति ।
भि (जाना)-: उ०, श्रयति, ०ते है लिटर-पय, शिधिये । अरे
अशिधियत । लहु-भविष्यति, ०ते । कर्म० श्रीयते । क्त-भित । त्वा--
अयि-ल्या, ०धित्य । तुमू-श्रयिषा ।
भु (सुनना)---' प०, प्रदुणीति, 'मगुल:, बवन्ति । लिटर-शुश्राव,
शुश्रुहु:; शुश्रीथ; शुश्राव, शुश्रुव । चर-----", । श्रीष्यति । श्रोता ।
कर्म० (ते, लुसू-अआवि । क्त-श्रुत । त्वा-श्रुत्वा, श्रुत्य । तुम्
श्रीषा । णित्--आवयति । सत्-शु-पते ।
बबन (साँस लेना)--, प०, स्वसिनि । लिट न-शश्वत । लट- श्वसि
सत । कत-मवसा, इवसित । ल्यपर-०ववस्य कोतुन्---श्वसितुन्र णिचु-
स्वासयति ।
मल (लगना)--., सजति । लिटर-ससस । लुइ:---.:"' ।
कर्म० सजाते । क्त-सक्त । लए.- ०सज्य । तुम्-सर । णिचु---सअयति :
सर (बैठना)----: प०, सीदति : लिटर-ससाद, सेदु:, सेदिथ--ससत्थ ।
तु:-असदतू । चर-सत्-वात । कर्म० सद्यते । कम-सन्न । लए.
०सद्य । तुम्-सत्ता । णिचु--सादयति ।
सहा (सहन करना)---:-, र-हते । लुटू-सहियते । सोता । कर्म०
सह्यते । क्त-सीड । व्यपरपसह्य । तुम्-सोबत । णिचु--साहयति ।
सिप (सींचना)---' उ०, सिखति, ०ते । लिवा-सिब, सिषिचे ।
सुजा-मसिचव, मात । लय-सीसल, ०ते : कर्म० सिलयते । बत-जससे ।
त्वा-सि-त्वा, "सि-चय । णिचु--सेचयति, ०ते ।
आतुसूची २१५
सिस (रोकना, पीछे हटाना)---: प", सेधति । लिटर-सिध । प्र-
असेधीत । लहु-च-सिधि-यति, सेत्स्यति । कर्म, सिध्यते । सिद्ध । तुम्-सेलेब:
णिवृ---सेवलत ।
सु (निचीड़ना, रस निकालना)---' उ०, सुनीति, सुनुते (: ३२, सु
धातु) । लिटर-सुषम सुधुवे । लहु-सो-यति । कर्म० सूयते । क्त-सुत ।
ल्यपर--०सुत्य । शिचु---सावयति ।
सू (जन्म देना)---. आ०, सूते । उत्-मसूत । लोट-चब, सूप,
सुर्य । विधि० सुबीत । लिटर-सुक है पचि----.., सोष्यते । कर्म०
सूयते । सूत ।
सू (जाना)-: प०, सरल । लिटर-मसार, सप:; ससर्थ; संसार,
सबद । (हु-पू-बरसत । कत-सूत । ल्यप---०सृत्य । तुम्-सतन है शिर
--सारयति ।
सृजक (बनाना, निकालना)----' प०, अति । लिवा-ससर्ज । अर-
अखाधीत । पदा-मपति । कर्म०इंयते । त्वा----", ०सृज्य । य-
महुए । णिचु-सर्जयति । सन्वासृक्षति ।
सूर (रेंगना)-----: प०, सर्पति । लिवा-सब, समृपिव । लुट--
ख८स्यति । कर्म० सृष्यते । बत-सूत : णिवृ--सर्पयति । सब-सिञ्चति ।
स्तम्भ, (अवलम्ब देना)--९ प०, स्तकनाति । लीटर-पनपा, स्तभान,
स्तम्भन । लिटर-स्तम्भ । कर्म०-स्तम्यते, तुसू---अस्तरिभ । का--
स्तब्ध । त्व-मवा, ०स्तभ्य । तुम्-उ-स्तर । णिन्-स्तम्भयति ।
स्तु (स्तुति करना)-: प०, स्वीति, साबीति । लजा-मसौत, अस्त
वय । मरी, मतथा । सुनी, स्तुबीत । लिटर-तु-राव । लुहार उ-अस्ताचल
---अम्नीषन्दि, अन्तीष्ट । लर-मनिति । कर्म-सूयते । कन-स्तुत । त्वा
स्तुत्वा, ०स्तुत्य । तुब----स्वीषा । लिचरेतावयति । सन्-तुष्ट्रषति ।
(तु (ढकना)-: उ०, ९ उ०, स्तुणीति, (ख्याति । लिवा-तय्यार,
तस्तरे । दृ-पू-मतरि-यति । कर्म० स्वीर्यते । सा, धातु मानकर यह रूप है,
५८) । का-स्तुत । त्वा-स्तुत्वा, "स्तुत्य ।भणिचुर-स्तारयति ।
स्था (रुकना)-: प०, तिष्ठति । लिवा-मथत । चवा-अस्थात । पटक
स्थास्यति । कर्म० स्वीयते, अर-अस्थात । क्त-स्थित । त्वा-स्थित्वा,
०स्थाय । तुमू-स्थाषा । णिजू--स्थापयति । सन्--तिप्रसति ।
२(६ संस्कृत-व्याकरण प्रवेशिका
स्मृशु (छूना)-' प०, स्मृशति । लिटरेस्पर्श, प.: । अर-मप्रा
अन । ल८सू---म्प्रक्ष्मयति । कर्म० दयते । कप-पृष्ट । त्वा-रुआ", च:
तुमू.टुत् । णिचु-स्पर्शयति । सन-गिबन है
रिम (मुस्कराना)--: आ०, स्मयते । लिटर-सिधि" । लुइ-यम
[7, । का-स्थित । त्वा-स्थित्वा, ०स्थित्य । णिचुर-स्थापयति, कय
यत ।
स्मृ (स्मरण करना)-- : प०, स्मरति । लिटर-साभार । लत-मरि
सत । कर्म० स्मर्यते । क्त-मृत । हैव-महत्वा, ०स्कूत्य । तु-ब----", ।
णिचरेमारयति ।
स्वाद (टपकना)-: आ०, बदले है जिद-मयस्ते है कर्म० प्राय-नी-से ।
क्त-स्थान । णिचु-मयन्दयति ।
इ (बहना)-: प०, सवति । 'लटू-सुखाय । लु-दर-सवि-ति है
क्त-मयुत ।
सबल (आलिंगन करना)--: आइ, स्वजते । सस्वजे । क्त-वल ।
स्वर ।
स्वर (सोना)---, प०, स्वपिति । लिटर-रेप, सुधुपु: । प्र-
अस्वापार । लइ-ममयति । कर्म० सुनते । प्र-मवापि । क्त-सुप्त ।
त्वा-सु/त्वा । तुम्-स्वर । णिचरेवापयति । सत्-चलते ।
हब (मारना, हिंसा करना)--. प०, हस्ति, हत है उनने । लहु:-.",
अच्छा । लोद-हन्तु, ध्वन्तु; जहि, हमन । विधि० हन्याश । लिह-जवान ।
य-अवधी, लय-ह-ति । कर्म० हन्यते । अ-हत । त्वा-हत्वा,
"हत्य । तुम्-हन्तुम् । णिवृ--वातयति । सन्-जिघसिंनि ।
हा (छोड़ना): प०, जहाति, जमी । लोइ-महाड़, जाह जहीहि;
जहानि । लिद--जह१, जहि-हाथ : प्र-अहल., अल । लुट-
हास्यति । कर्म० हीयते । क्त-हीन । त्वा-हित्वा, ०हाय । ब-हाये ।
णिचु-हापयति । सन-जिह-जि ।
हित (हिसा करना, चोट मारना)-. प०, हिमाल । लइ-अहिना.,
अहित । लोदर-हिनस्तु, हिन्दि, हिलने । विधि०---हिंस्थात । लिटर
जिहिंस । अर-अहिं-रित । ल०टू-हिसिष्यति । कर्म-हिज । हिल ।
णिचु---हिसयति ।
धातुसूची २ :७

हु (हवन करना)--: प०, जुहोति (१३२, हु धातु) । लिटर-जुल,


जुहषांचकार । तुत्--अहौधीत । बइ----..". । कर्म० हूयते । क्त-हुत :
त्वा-हुत्वा । तुम्-हई । णिचु-हावयति : सत-लय । पनुकू
जेहिवीति ।
ह (लेना, हरनाम उ०, हरति, ०ते । लिह-जहार, जहा:, जहर्थ ।
सुबर-अहा., अदन । हरिव्यति । हर्ता । कर्म० सिइयते, लुत्---अहारि ।
तम-हृत । त्वा-हत्वा, ०हृत्य । णिचु-हारयति । सन्-जिहीर्षति, की है
यत्लुकू---जरीहति ।
सौ (लषिजत होना)---: प०, जिन्होंति, जिय:, जिभियनि । लहु:-
अजिन्होंत । लोइ-जिमी । विधि० जिन्होंयात । लिवा-जिम, जिहियु: ।
क्त-पण, भी । णिचु--४पयति । यत्-जाप ।
म (पुकारना)--: उमा, यति, ०ते । लिह-जुहार जुल: । लब-
शस्यते । कर्म, हूयते । अ-हुत : त्वा-हत्वा, ०हुय । तत्-चतुरता ।
णिजू-चययति । यइलुकू----जोदृवीति ।
परिशिष्ट-की
लौकिक संस्तुत में प्रयुक्त छन्द
(512.- 111 (11511:1:1 लियम")

श्रेण्य संस्कृत का पद्य-बध वैदिकमंत्रों के पद्य-बन्ध से बहुत अधिक भिन्न


है । लौकिक छन्द अधिक कृधिम, अधिक नियमाधीन और संख्या में बहुत
अधिक हरे गए हैं ।
लौकिक छन्द दो भागों में विभक्त हैं
१. वर्णवृत्त (इनमें वल की संख्या गिनी जाती है) ।
२. मात्रिक छन्द (इनमें प्रत्येक चरण में मात्राएँ गिनी जाती हैं) ।
लगभग सारा संस्कृत-काव्य पलों में लिखा गया है । इनमें प्रत्येक पद्य में
चार पाद या चरण (पादा-वा-और--] भागा होते हैं । प्रत्येक वलय दो भागों
में विभक्त हल है-पूर्वार्ध और उत्तरार्ध (२ यत्नोकार्थ) ।
लेटिन और ग्रीक के तुल्य ही पलों का परिमाण गिना जाता है । स्वर
स्वभावानुसार या स्थान की दृषिठ से दीर्ध (गुरु) गिना जाता है । संयुक्त वर्ण,
अनुस्वार और विसर्ग बाद में होने पर पूर्ववर्ती लधु (शस्य) स्वर गुरु माना
जाता है । यह स्थान की दृष्टि से लधु का गुरुत्व है । अनुस्वार और विसर्ग
को पूर्ण व्यंजन का स्थान दिया जाता है । लघु स्वर की एक मात्रा गिनी
जाती है और गुरु स्वर की (स्वाभाविक या स्थान की दृष्टि सा दो मात्रा ।
० १ . अक्षर-बद या बर्णधुत्त
(110-5 111.5.1 1: 6.11:5)
इसमें दो प्रकार के वृत्त (छन्द) होते हैं
(थ) जिनको पूर्वार्ध और उत्तरार्ध रचना की दृष्टि से समान होता है ।
इनमें है और ३ पाद, २ और ४ पाद से कुछ भिन्न होता है ।
(द्या) जिनके चारों पाद समान होते है ।
लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त छन्द २१ ९

(अ) हुज्योंक
पलोक (शीत', शु-सुनना-धातु से बना हुआ) छन्द वेद के प्यादुभु' छन्द
का ही विकसित रूप है । यह रामायण और महाभारत का प्रिय छन्द है ।
इसको भारतीय पद्य का सर्वोत्तम छन्द मानना चाहिए, क्योंकि संस्कृत के
कर्मियों में अन्य छन्दों की अपेक्षा यह सबसे अधिक प्रयुक्त हुआ है । इसमें : ६
वणों वाले दो स्वीकार्य (पूर्वार्ध और उत्तरार्ध; होते हैं तथा ८ वहा वाले ४
पाद होते हैं ।
यदि एक स्वीकाधे को उ, ४ वल वाले ४ भागों में बाँटा जाए, तो ज्ञात
होता है कि केवल दूसरे और चतुर्थ भाग में ही मात्राओं का विचार होता है ।
इनमें से चतुर्थ भाग नियमित रूप से 1.1.1 (लधु, गुरु, लधु, गुरु, लेन ति " ही
है और द्वितीय भाग के चार विभिन्न रूप हैं । प्रथम और तृतीय भाग में गुरु
लघु का विचार नहीं होता है, केवल ४ चब च (ड का कम सर्वथा वर्णित है । द्वितीय
भाग का सबसे प्रसिद्ध क्रम है : च तो ति ७ (लधु, गुरु, गुरु, गुरु 7/ लधु) ।
(नलोपारन्यान के १ ७३२ शलोकाथों में १४४२ में यह क्रम है) ।
अत: शनोक का निम्नलिखित रूप बनता है :
. : . . । च तो तो 1, । . . . . । बज तो किन ८ ।है

जैसे-आ और रा जा न सो ना म । बी र से न सु तो ब ली ।
उ प प जैनी गु र्ण रि शर्ट । रू प वा न बय को वि कहीं ।१
जब द्वितीय अंश का स्वरूप (, उब स ४ होता है, तब प्रथम अंश का स्वरूप
कुछ भी हो मकतना है । जब द्वितीय अंश का स्वरूप अन्य तीन प्रकार के रूपों
में से कोई भी होता है तो प्रथम अंश भी पूर्ण स्वतन्त्र नहीं रहता है, जैसा कि
नीचे की सारणी में दिखाया गया है :
१ २ ३ ४
( है . : . । " . ।।:
२ब . । य प . ।। ।
। क-थ ' . . . . । भा " . ।(
है ज पहिर चुन . । । ।
४: . । . (। )
२२० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

इनमें से प्रथम (सन्ति () को 'पथ्या' बद कहते हैं और शेष तीन (सं०


२ से डा को 'विपुल' कहते हैं । उपर्युक्त सारणी में जो क्रम अधिक प्रयुक्त
हुअ", वह पहले है और जो उससे कम प्रयुक्त 'हुआ है, वह क्रमश: २, ३ या
४ स्थान पर है । उदाहरण के लिए कालिदास (रघुवंश और कुमार-संभव),
माघ, भराव और बि-जण के २५७९ यलीकाथों में गणना करने पर उपर्युक्त
चार वल को कम: निम्नलिखित अंक प्राप्त हुए हैं उ--(१ ) २२८९, (२)
११६, (३) ८९, (भा ८५--वा-२५७९ ।
उपर्युक्त सारणी में बिन्दु यह सूचित करता है कि उस स्थान का वर्ण
अनिश्चित है, अर्थात बह लधु या गुरु कोई भी हो सकता है है अर्थ विराम का
अर्थ है कि वहाँ पर यति (अल्पविराम, दृष्टि०8प्र७) होती है ।
पाद के अन्त के साथ ही शब्द का अन्त भी होता है (कभी-कभी पाद का
अन्तिम शब्द समस्त पद का अंश भी होता है) और पूरा शलोक एक पूर्ण
वाक्य होता है । एक वलीकार्थ की रचना दूसरे स्वीकार्य में अविन्दिमन नहीं
जाती है । कुछ स्थानों पर तीन बनोकार्भ मिल कर वाक्य को पूर्ण करते हैं ।

(आ) समवृत्त
(411 को 1.1.:9 141.13:111 1 '०मि३)
(१ ) वेद के विष्ट्रभू (प्रत्येक पाद में : : वर्ण) छन्द से जो अनेक छन्द
विकसित हुए है उनमें से अधिक प्रचलित छन्द निम्नलिखित है :
(काइ-मबा कि".- "शि" "हेस- 1.
(ख) उपेन्द्र' भा उस था (, च भ उस

है है । 1:
(ग) उपजाति उपर्युक्त
१०
दोनों
"
का मिश्रण)
म च कि० म " "ते
ब है है । 1:
(ध) शालिनी तो । है च : च है ।:
(हु) रयोद्धता " है किह था च है था है पल 1.
(२) जगती (१२ वर्ण प्रत्येक पाद मा के अधिक प्रचलित रूप ये हैं :
स जो भा च बने- प च

(का यथ । तो : : है ।
(ख) दुतविलहिबत " कहीं " है ( यह है सभा है " है:
लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त छन्द २२१
(३) अवरी ( १४ वर्ण प्रत्येक पाद में) का अधिक प्रचलित रूप यह
है : यस-मतलक, किन । चकिया ।" च ।" च है (4::
(४) अनि-री (१५ वर्ण प्रत्येक पाद में) का अधिक प्रचलित रूप
यहहै:-- भा-ब
मालिनी "प".""": हैं ।" । 2.:
(५) अत्यष्टि ( १७ वर्ण प्रत्येक पाद मा के अधिक प्रचलित रूप ये है :
(काशिखरिणी" । 'शि"""."" ।म""।" भी
(ख)हरिररिय""।पय अ: सस: 'य है""-." भी
(ग)मन्दाकानभी है हैं"".""": हैं (य: ((, (4::
है (६) अतिधुति (१९ वर्ण प्रत्येक पाद में) काअधिक प्रचलित रूप यह

शार्दूलविकीडित --रे
'सरे.""." "शि"" अरे "ई "शि:'.:
है जि) प्रकृति (२१ वर्ण प्रत्येक पाद मा का अधिक प्रचलित रूप यह
सरधना सम
तो स ति है ति प ति । उसे प जान : " प " : कब । " । जैल 1:
हैं हैं उसे

२- मावा-छन्द या जाति
.1-5 ब३य१शाटा३ 1: आय)
(अ) मात्रा-छा-द जिनमें केवल मात्राओं की संख्या निर्धारित है पू--
वैतालीय--इसमें एक३ल्लीकार्ध में ३ ० मात्राएँ होती हैं, प्रथमपाद में १४
और द्वितीयपाद में : ६ । प्रत्येक पाद को तीन भागों में बधिर सकते है । द्वितीय
भाग का कम (:11.1)116(1 5. प्र" " ) होगा, तृतीय भाग में दो 1111112 अर्थात
य उबरने " रा होगे प्रथम पाद के प्रथम भरा में 1.111, (य ही होगा और
द्वितीय पम के प्रथम भाग में धा1वाप5: (थ प ) होगा । इस प्रकार एक
लेलोकाधे में २१ वर्ण अल । शत्-रीका-य का रूप यह होगा :
(4 " प कब उब य (, 2 " (, सर्व प (, यहीं प 2
है सब । तो ।। हैच । संस । बम है।
२२२ संस्कृत-व्य-गु-प्रवेशिका

(आ) गण-बद-----.: प्रत्येक गण (अंश) में मात्राएं निर्धारित होतीहैं ।


आयी या गाथा-में स्वीकार्य में अई गण होते है और प्रत्येक गण में ४
मावा होती है, अत: कुल ३० मात्राएँ होती हैं । ४ मात्राएं निम्नलिखित
रूप से किसी भी प्रकार 'हो सकती हैं :.- " " भा है तो स, ति च है प जाय ति । दूसरे
और चौथे अंश में वे प्याज संख्या भा इस रूप में भी रह सकती है ; षष्ठ अंश में वे
च प " " या च स भा इस रूप में मिलती हैं । आठवत गण एक वर्ण का होता है ।
उत्तरार्ध के षष्ठ अंश में केवल एक अव वर्ण होता है । अत: उत्तरार्ध में
केवल २७ मात्राएँ होती है ।
परिशिष्ट-----है
वैदिक व्याकरण की मुख्य विशेषताएँ
(राय' 1यप्रा11.ब1१०ष्ट 0, (मईब: प्र""-)

:. वैदिक भाषा के विकास के कई स्वर देखने को मिलते हैं, परन्तु नीचे


जो कुछ वर्णन किया गया है, उसका साक्षात् संबन्ध ऋग्वेद से है, कयोंकि
वहीं वैदिक साहित्य का सब से प्राचीन और सबसे महत्वपूर्ण भाग है ।

वर्णमाला
२. संस्कृत के तुल ही वैदिक ध्वनियाँ भी हैं । वैदिक भाषा में दो वर्ण
अधिक हैं । दो स्वरों के मध्यगत मूर्धन्य डू औरद अनिवार्य रूप से क्रमश:
मूर्धन्य ल, और बहा हो जाते हैं । जैसे-ईले शह ईशे) (ने स्तुति करना हूँ) ।
मील-हुये-च-ज, (दानी के लिए) ।

-न्ध
३० (आ-स्वर-सन्धि-एक एक शब्द में, समस्त (समापत) पदों के
विभिन्न शब्दों में और वालय के विभिन्न शब्दों में प्रगृह्य (संधि का अभाव,
1..18) निषिद्ध नहीं है, अर्थात इन स्थानों पर संधि नहीं भी की जा
सकती है । विशेषता ए और ओ(२ ( का के बाद अ को पूर्वरूप (अ का अभाव
या लोप) बहुत कम स्थानों पर होता है । जैसे-सूर्यस्य का सूरि अस्य (सूर्य
का), स्वीशिवयन् का सु-अलम (अश्व-संबन्धी समृद्धि), वरुणस्य आवै:
(वरुण और अग्नि का), मयेति का अभि एति (उस ओर जाता है), विप्रो
अक्षय (पुरोहित ने डाला) ।
(क) स्वर बाद में होने पर निम्नलिखित सर्वनामों के ए (चतुर्थी, सप्तमी)
में सन्धि-कार्य नहीं होता है-मवे (तुझको, तुम मा, अल (हमें, हममें), युमि
२२४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
(तुम्हें, तुममा । इसी प्रकार शब्द के अन्तिम अ और निपात उ की
सधि से जो ओ होता है, उसमें भी संधि-कार्य नहीं होता है । जैसे-इनकी
साथ संधि-कार्य नहीं होगा-स-अथ) (अथ.), मो (माम-उ), को (नस-उ) (
(आ) व्य-जन-सन्धि-पद के अन्तिम आत् को अत् होता है (लेद प्र० पु०
३ के आर को छोड़कर, कयोंकि वह मूलत: आना माना जाता है) और ईद
को ईपू, ऊब को छोर और ऋन् को ऋत होता है । जैसे-महाँ असि (तुम
महान हो), किंतु आ ग२3छात् उत्तरा युग-नि-मबाद के युग आएंगे) में लेद
के कारण आं नहीं हुआ । रवमररिव (लगामों के तु-व्य) ।
(क) संस्कृत में कुछ नियम जो एक पद के अन्दर ही लगते है, वे अन्य
शठदों के प्रथम वर्ण में पैरों लगते हैं । जैसे-सहो धु ण: (नि० ६७) ।

शब्द-रूप (पष्टियरिगा)

४- (अ) अनितम अवयव एकवचन । (क) तृतीया :


अकारान्त शठदों में तृतीया एक० में कुछ स्थानों पर 'आ' लगता है, स्तरी
लिंग आकारान्त शठदों में भी कुछ स्थानों पर 'आ' लगता है । जैसे--- यज्ञा
(पु०, यज्ञ) का तृ० १-----जिन, यज्ञा । मनीषा (स्वी०, बुद्धि) का तृ० १
मनीषया, मनीषा । 'एम' के म को भी प्राय: दीर्ध हो जाता है ।
'मनू' अन्त वाले श-खों में कभी-कभी भ-स्थानों पर मन् के अ का लोप
नहीं होता और जब अ का लोप होता है तो कभी कभी म या तू का भी लोप
हो जाता है । जैसे----: का तृ० १ भूप, भूना (भूम्ना के स्थान पर) ।
द्राशमा (दा-मना के स्थान पर) ।
(ख) सप्तमी-पन्त शब्दों के स० ( में 'औ' की अपेक्षा कुछ कम
स्थानों पर 'आ' भी लगता है । जैसे ---अन्दिन (यु०, आगा प्रस० : रे-प्यानो,
अपना ।
अनु-अंन वाले शठदों में स० ( अनि-नम तई का प्रथ: लोप होता है ।
जैसे-ब्रह्मणा राप्रस० : ब्रह्मणि, वन । इनमें उपधा (अन्तिम से पूर्व वर्ण) के
अ का लोप नहर होता जैसे-राजत जि-राजनि ही रूप होगा (देखो नि० ९० ) ।
वैदिक व्याकरण की विशेषताएँ २२५
(गा संबोधन-मत, वत, वत, यस, अन्त वाले शब्दों को सं० १ में असू
(अ:) हो जाता है । जैसे-भानुना-प्रत : भानुमान्, सं० १ भानु"" ।
हरिवत् जियप्र० : हरिण, सं० ( यव: । चकृवबप्रप्र० : चकृवान्, सं०
: चकृव: । कनीयसूकुप्र० १ कनीयान्, सं ० १ कनीया ।
द्विवचन है (का प्रथमा, द्वितीया और गोधन के द्विवचन में 'औ' की
अपेक्षा 'आ' अधिक लगता है । जैसे-अजिना (दो अश्चिनीकुमामा, द्वारा
(स्वम्, दो दरवाजा नद्या (दो नदियाँ) । ई-प्रत्यय-त स्वीलिंग शब्दों की ई
में परिवर्तन नहीं होता । जैसे-देबी (दो देवियाँ) ।
(ख) युशमदू और अमन सर्वनाश में ५ स्थानों पर अन्तर होताहै त---
जैसे, प्र० २ युवक द्वि० २ युवाध, तृ० २-युवाध्यामू, युवध्यामू, पं० २-
युग, स० उ-युवी: ।
बहुवचन है प्रथमा है (का अकारान्त पल्प शब्दन के प्रथमा बहु० में (आका
रान्त स्वी० में बहुत कमा 'आ:' के साथहीं 'आस:' वाले रूप भी बनते है ।
जैसे-मकासी, मत्यों: (पय) ।
(ख) ई-प्रत्रान्त स्वीलिंग शाब्दों में केवल विसर्ग और जुड़ता है ।
जैसे-देबी: (देवियाँ) ।
(ग) नपुसकलिंग में आनि, ईनि, ऊनि के साथ ही आ, हैं, ऊ (कभी-कभी
अ, इ, उ भी) वाले रूप भी बनते हैं । जैसे-पन, युगा (जुए) (लेटिन---
].1811) ।
तृतीया-अकार-त शब्दों में तृ० ३ में जितने स्थानों पर ऐ' लगता है,
प्राय: उतने ही स्थानों पर 'एधि:' भी लगता है । जैसे-देवै:, देवेभि: ।
(आ) प्रत्ययान्त शब्द (01.101181 1.)
इस प्रकार के शब्दों में मुख्य अन्तर अनेकान् (अनेक स्वर वाना ईक.
रान्त और आकारान्त शब्दों के रूपों में है (जो कि अधिकांश: स्वीनिग है
और कुछ दुलिग भी है) । इनमें से अधिकांश के रूप एकाचु (एक स्वर वाले)
धी और भू ( १ ० ०) शब्दों के तुल्य चलते हैं, केवल यत्-ठी बहु० में इनमेंनाम्
लगता है । (अन्यत्र ई-प्रत्ययान्त शब्दन के रूप प्राय: नदी के तुल्य चने हैं
और ऊकारान्त के रूप वधु के तुल्य, १ ० ०) । जैसे---
२२६ सहित-व्याकरण-प्रवेशिका
रचीलि(यु०, सारथी) नबी (स्वी० )
रथी:'-." रम्या : स्था: प्र० नदी: नद्या नद्य:
रम्यम् :. है हैं हैहै द्वि० नहाए ' हैं

यया रथीध्याब रथीभि: तु० नशा नदीध्यान् न'ईभि:


रम्ये है, रथीभ्य: च० नई नदीभ्य: 'हैं

स्था: हैं, हैं, पं० नद्य: हैहैं


बै, का र-यो: रबीन, नद्यो:
ष० हैहैं नदी-र
ब-म हैं, रथीषु स० हैंहै नदय
रवि ल रवा रथा: सं० उस नद्या नद्य:

तनु (स्वी०है शरीर)


2. तनु: बन्दा ताव: प्र ०


हैकह जा
तब हैं' हैं' द्वि०
ताया तनूम्यान् तनय: तू ०

. .:: ज (
त-वि तनूभ्य: च०
.
तब.. 'है हैंहैं
पं ०
हैहै तन्बो: तनूनाब ष०
जा तत्व तरा स०
न हैहै

' ' 'तनु उवा तन्य: स०


जा'..-" है. बर धातुरूप (.111..011)

(. अडागम (4.11.) (क) यह यर (य) कुछ स्थानों पर स्थायी


रूप से दीर्घ आहै, और कुछ स्थानो पर छन्द की दृष्टि से दीर्ध है । जैसे---,
(मषे-य: प्र० १ आव: (उसने ढका) । रिन (छोड़ना) औ-लूम प्र०
: आलिम
औ-खा-सह(उसने-छोडा),
'ष' सर्वत्र ।हटाया जा सकता है और इससे अर्थ में अन्तर नहीं

होता है-रि: रहित-पों को प्राय: 1.1).1.:11., (अगम-रहित रूप) के


रूपपाबभहिष्टिजादाहै । संस्कृत में ऐसा प्रयोग निषेध-क निपात अब
के साथ अभी तक शेष है औ१२८ का 1 ० म : जा:
वैदिक व्याकरण की विशेषताएँ २२७

६. उपसर्ग (पसारा 1..:5) है उपसर्ग साधरगुतयापहगे लगते हैं,


किन्तु कुछ स्थानों पर धातु के बाद भी आते हैं । धातु और उपसर्ग केय
में निपात या अन्य शब्द भी आ सकते हैं । जैसे-य-या त्वा विशन्तु (वे तुम्हारे
यहाँ आवे)
७. अन्तमवयव
। गमद वजिभिरा
(1.189) स न:(क)(वह
कतृ०वाव्य
हमारे पास
उ०३धनमूलके प्रत्यय.
साथ आवे) (मा)
है

की अपेक्षा 'मसि' अधिक प्रचलित है । जैसे-इ (जाना)प्रइम:, इमली हिम


जाते (ख)
है) । म० पु० ३ में थ और त के स्थान पर 'थन' और 'तन'है प्रयोगभी

प्राय: मिलते हैं । जैसे-या (जला) ययाथ, यमन (तुम जातेहोह यात,
पालन(ग)
(तुमलर
जाओ)
म० पुष्ट
। : में सार अन्त वाले प्रयोग भी प्राय:ब मिलते
इ जा हैं

(यह निर्बल अंग के साथ लगता है) । यह भविष्यत में करने योग्य आदेश को
प्रकट करता है । जैसे--रक्षताश (रक्षा करना); ९तात (कहना).'
(रखना) (तु० करो-लेटिन-ब-ज) । यह कभी-कभी प्र० : और उ०
१ तथा म०पु० २, ३ के लिए भी प्रयुक्त होता है ।
म (घ) आत्मनेपद लद प्र० पु० : में भी (आत्मनेपद लिव के तुज्या१३६)
प्राय: उ० पु० : वाला रूप बनता है । जैसे-शी (सोना)-., प्र० ( शये
(व्य-शेते,
८. द्वित्व
वह सोता
कार्य है)(1.1..11..100)..
। सी धातुओं में लिह बरकार

में द्वित्व होने पर अभ्यास (द्वित्व का पूर्व अंश) में दीर्घ स्वर रहताहै । जैसे
उई (धारण करना) रा-दाधार; वसू (वस्त्र पहनना) प्रवाय, तु (हिलना,
फूलना) रा"तूताव । :
९० लकार (सेब)---.) वेद 111..:: के भी कुछ रूप/मलते
हैं । इनकी संख्या कम है : यह लिह लकार वाले अंग में आदि में 'अ' नगर
तथा अन्त में गौण तिल प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं । जैसे-चित् (प्रकट
होना)(ख)प्रप्र०
लुट,पु०
लकार
१ अचिकेसू;
का प्रयोगउ०
नहींपु०मिलता
१ अचिकेतर
है । ऋग्वेद
। में आर नए लिह

(जैसे-ममयाचक-र आदि) का सर्वथा अभाव है । आ न


र२८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
१०. लकार ("००कि)-ति) वेद में लेह लकार (11.1111.2) का
प्रयोग है । यह विधिलिद की अपेक्षा बहुत अधिक प्रयुक्त हुआ है । इसका
आज्ञा वा कार्य-समाप्ति अर्थ है । इसका प्राय: भविष्यत अर्थ भी होता है ।
धातु के बाद 'अ' लगाकर इसका अंग (धाब जिससे तित् प्रत्यय होता है)
बनाया जाता है । अतएव अ-विकरण वाली धातुओं में यह 'आ' हो जाता
है । जैसे-भू प्रभवा । अ-भिन्न विकरण वाली धातुओं में सबल अंग के बाद
यह अत लगता है, धातु को गुण होता है और यह अयुक्त अग सर्वत्र बना
रहता है है जैसे-कृ (करना) प्रकृणव । इसमें तिल प्रत्यय कुछ मूलरूप में
और कुछ गोरा रूप में लगते है है इस प्रकार भू (होना) और सु (निचीड़ना)
धातुओं के लेसू के रूप निम्नलिखित होंगे-
भू-लेद-परस्नेपद
भवाति, भवान भवात: भवन प्र० पु०
भवासि, भवा: भवाथ: भवाथ
भवानि मवाव अवाम
आत्मनेपद
भवति भवैते (भव-अत)
भवासे भर्वथे भवावि
भली भवान भवानी
सु-लेटर-परम-पद
सुनवत् सुनवा: सुर
सुनवा सुनवथ: सुनवथ
सुनवानि सुनवाव सुनवाम
आत्मनेपद
सुतवते सुनवैते सुनवन्त
सुरासे सुनवैथे सुपवे
सुनवा सुलह सुनवामहै
(खा लद लक-र ही नहीं, अपि तु जिर और तुम के भी तीनों लकार
लेद, विधिलिदू: और लोप-होते हैं । जैसे-रतु (प्रशंसा करना) का लिट लेट
वैदिक व्याकरण की विशेषताएँ २२९

तुष्टवत् । वृत (चकर लगाना) का जिद-विधि-लिह वतृत्यात है मुन्


(छोड़ना) का निर-लीद मुमुन्धि । भू (होना) का लिह-लर बभूतु । वृत का
लिटू-लीटू आत्मने० म० २-ववृत्तिव ।
तुर-लेद के रूप-नी (ले जाना) 1प्रप्र० ( नेषति, नेव, यर (जागना)
प्रबोधिषत्; विद (पाना)"., कृ (करना) जि-करति, करत है प्र
विधिवत् के रूप-विद जि-विदे., अन (पहुँचना) उमवाद; भल (बांटना)
राप्रभक्षीष्ट । प्र-लीद के रूप-अद (रक्ष-करना) प्रम० १ अर-डि, म० २
अविष्टमू, म०३ अविष्टन : प्र० : अविधि । सर (बैठना)-:, पु० सदतु,
सदताम्, सबब । श्रु (सुनना) प्रम० पु० श्रुधि, श्र., श्रुत; प्र० पु० ओड़,
श्रुतात्, श्रुवन्तु ।
११. कालार्थक कृत-प्रत्यय ("य:गोष्टि)--संस्कृत में जो कालार्थक
कृत-प्रत्यय शेषहैं, उनके अतिरिक्त वेद में तुर के भी कृत प्रत्यय पर-पद और
आत्मनेपद में मिलते हैं । जैसे-कृ (करना) पर० उप्रक्रन्द ; गए (जाना) राय
(मल ; स्था (रुकना) प्रस्थान्ना । आत्मने० कृ रा-काण; सर राप्रधुधान ।
(क) ऋग्वेद में तग-प्रत्यय का सर्वथा अभाव है :
: २- (त्वा, र१यप, प्रत्यय (८ब१य1७)--वेद में त्वा के अतिरिक्त रिबी'
प्रत्यय भी बहुत प्रचलित है । एक 'त्वाय' प्रत्यय भी है, परन्तु यह बहुत कम
प्रयुक्त हुआ है । गोल धातुओं के साथ जो 'य' या "दय' लगता है, वह प्राय:
दीर्घ होकर 'या' यया 'त्या हो जाता है ।
१ ये. सुध प्रत्यय (0111.1.0)...- : दर्जन तुब अर्थ वाले प्रत्यय
हैं । ये द्विअतीया, चतुर्थी, पंचमी, यरुठी और सप्तमी विभक्ति वाले हैं । संत की
तीन विभक्तियों वाले तुमर्थक प्रत्यय बहुत कम हैं । अधिकांश तुमर्थक प्रत्यय
चतृर्थी विभक्ति वाले है और ये द्वितीयक (अमू, तुम्) से लगभग १२ गुना
अधिक हैं ।
(का द्विनीयान्त तुमर्थक रूप-पह शुद्ध धातु से (असा प्रत्यय लगाकर
बनाया जाता है या आज शब्द 'तु' से बने 'तुधु' प्रत्यय को लगाकर बनता
है (ऋग्वेद में तुमू-प्रत्ययान्त रूप बहुत कम है) अ-जैसे-सोल (अत्
प्रत्यय, जलने को), प्रतिकर (अब प्रत्यय, रखने को), प्रतिरक्षा (र प्रत्यय,
फैलाने को), करिए (तुम्, करने को), दव (तब, देने को) ।
(ख) चतु८र्य८त तुमर्थक रूप-ये रूप शुद्ध था से या असू, मद वना तु,
धि अन्तवाले ध्वज शब्दों से चतुर्थी विभक्ति वाले प्रत्यय लगाकर बनने है ।
२ ३० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

जैसे-सी (ए प्रत्यय देखने को), को (ए प्रा-यय, विश्वास करने को), जीवसे


(असू-मए, जीने को), विमाने (व-ए, जानने को), दावने (वत-मए, देने
को), दाती (तवे, देने को), 'कत्ल' (तबै, दो उद-युक्त, करने को),
गम्य प, जाने को) ।
(ग) अन्य विभक्ति वाले तुमर्थक प्रत्ययों के रूप हैं जि-अवाद: (असू,
पंचमी, गिरने को), वातो: (तो:, यमो, देने को), नेषणि (रम, सप्तमी,
ले जाने को), धातरि (इ, सप्तमी, रखने क्या ।
उपसर्ग निपात (1.1051.110115)
१४. वास्तविक उपसर्गों के साथ द्वितीया सप्तमी या पंचमी होती है
(कुछ के साथ तृतीया भी होती है) ।
(का द्वितीया विभक्ति वाले-अति (परे, दूर), अधि (की ओर), अनु
(पश्चात), अन्तर (बीच मा-अच्छ, अभि, आ, उप, प्रति (ओर), परि (चारों
ओर), निरत (पार), पुए (सामना ।
(खा सप्तमी विभक्ति वाले-अधि (पर), अन्तर (अन्दर), अपि, आ,
उप (समीप), पुए (सामना ।
(ग) पंचमी विभक्ति वाले-अधि (ऊपर से), अन्त: (अन्दर से), आ
(दूर, तका, परि (चारों ओर से), पुर: (सामने) ।
स्वर (4.01)
(५० चारोंवेदों की सभी संहिताओं में तथा दो ब्राह्मण-ग्रंथों में स्वर-चिह्न
लगाए गए हैं । स्वर-चिह्न चार प्रकार से लगाए गए हैं । इनमें से ऋग्वेद
में जो पद्धति अपनाई गई है वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । इसमें मुख्य
स्वर-चिह्न अर्थात उदात्त (उन्नत या उन्नतिशील) पर कोई चिह्न नहीं लगाया
जाता है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि यह अनुदात्त (निम्न ध्वनि) जो
उससे पहले आता है, और स्वरित (उतरती हुई ध्वनि) जो इसके बाद आती
है, उन दोनों के बीच की ध्वनि है तथा उन्नत ध्वनि से अवनत (या ध्वनि
रहित) ध्वनिकी ओर संक्रमण को बताता है । उदात्त से पहले वर्ण पर अनुदान
का चिह्न लगाया जाता है । यह वर्ण के नीचे सीधी पडी लकीर (जैसे-का के
रूप में होता है । उदात्त के बाद स्वरित का चित्रलगाया जाता है । यह वर्ण के
वैदिक व्याकरण की विशेषताएँ २३ :

ऊपर सीधीखहीं लकीर के रूप में होता है (जैसे-की है ९तीननों । स्वतन्त्रस्वरित


पर भी अनुदान के स्थान पर होने वाले स्वरित के तुल्य ही चिह्न लगता है ।
जैसे--- (अर्ष है") (..) । इससे पूर्ववर्ती स्वर पर अनुदार चिह्न लगाया
जाता है । जैसे-बीके (कृप------""-) । मूलरूप में स्वतंत्र स्वरित से
पूर्ववर्ती स्वर पर उदात्त चिह्न था और वहाँ संधि काअभाव था, किन्तु लिखित
संहिता में उस प्रगृह्य को हटाकर सन्धि करने से उदात्त-स्वर लुप्त हो गया
है । प्राय: उच्चारण करते समय उस प्रगृह्य को पुना अपनानना पडता है । यदि
स्वतंत्र स्वरित से पहले कोई उदात्त होता है और वह अव स्वर है तो
स्वतंत्र स्वरित का संकेत : अंक से किया जाता है और यदि पूर्ववर्ती स्वर
दीव है तो ३ अंक से संकेत किया जाता है । उदात्त के बाद स्वतन्त्र स्वरित
का अक लिखा जाएगा । उसके ऊपर स्वरित का चिह्न होगा और नीचे
अनुदान का । इस प्रकार उस अक पर ऊपर नीचे दोनों ओर चिह्न होते है ।
जैसे--पुख है ननों (पप 5.1):-10 अजा".); र-मते पु/ति वनि:
(सप 'आकाश----""", आसी-गी) । पक्ति के प्रारभ में यदि कोई उदात्त वर्ण
होगा तो उस पर कोई चिह्न नहीं लगेगा । वर के प्रारम्भ में उदात्त वर्ण
से पहले जितने अनुदात्त वर्ण होगे, उनके नीचे अनुदात्त का चिह्न अवश्य
लगेगा । उदात्त के बाद वाले अनुदात्त पर स्वरित का चिह्न लगेगा । उसके
बाद वाले अनुदान वरों पर कोई चिह्न नहीं लगता है, परन्तु आगे यदि कोई
उदात्तया स्वतन्त्र स्वरित आने वाला होगा तो उससे पूर्ववर्ती अनुदात्त पर अनु
दाल का चित्र लगेगा । जैब-नमो' युन्द१रानन् ; कु-रिदम ।
१६. अनुदान निपात (1.:1.1:1)):..., सदा अनुदान है :
(का निपात उ, चिद, यदू, इव, घ, ह, च, स्म, वा । (ख) व्यक्तिवाचक
सर्वनाश के एकाक्षर संकेत-पद में, ते आदि ( : ०९ का । (ख) सर्वनाम 'एन'
शब्द और ईत्, सम । (घ) अनि-वाचक सर्वनाम त्व (अन्य) और सम
(कोई) ।
१७. अनुदान पद (माय:':-"" 170.15).) अन के स्थान
पर होने वाला 'अ' जब बलपूर्वक प्रयुक्त नहीं होता है और किसी सज्ञावाचक
के स्थान पर होता है । जैसे-यस्य जनिमानि-उस अग्नि के अनेक
२३२ संस्कृत-व्य-करण-प्रवेशिका
जन्म)(ख)
। किंतु (अया
संबोधन पद उमस:, (उस भी
चाहे जितने उषाहों,का यदि
।१ वे वाक्य के प्रारम्भ में नहीं

हैं तो अनुदात्त होंगे । जैसे-ओं राजाना मह ऋतस्य गोपा (विशाल नियम


के रक्षक हे दोनों राजाओं इधर आओ) ।
१८. शब्दरूपों और आतुरूयों के वाक्य-प्रयोग में स्वर के विषय में कुछ
विशेष नियम नीचे दिए जा रहे हैं ।
(का संबोधन के प्रथम स्वर पर ही उदात्त स्वर रहता है, शेष सभी
संबोधन पद अनुदान रहते हैं 1 जैसे-च-हो-विष्ट सुनते (हे अतियुवा
विद्वान होता) । उसी नपात सहसा" (प्रथमा-कीन नय सीरप) :
(ख) प्रधान किया (मसा" रोगु)---.. उपवाका की प्रधान किया
यदि वह वाक्य के प्रारम्भ में नहीं है तो अनुदात्त होती है । जैसे-अचि
ईले (मैं अग्नि की स्तुति करता हां : वाक्य में संबोधन की गणना नहीं होती
है, अता सम्बोधन के बाद वाली क्रिया में उदात्त होगा । जैसे-असकर,
वमुर्मा हैवपू (हे सुनने वाले, मेरी पुकार सुनो) है यह माना जाता है कि एक
वाक्य में एक ही क्रिया होती है, अत: एक कर्ता से संबद्ध जहाँ अनेक किया
होंगी, वहाँ पर सभी क्रियाओं को वाक्य की प्रथम क्रिया मानकर उन पर
उदात्त स्वर लगेगा । जैसे-भीका-जयति, धय पु-यति (सफल वह
विजयी होता है, शासन करता है और पुष्ट होता है) ।
(ग) गौण उपवास में क्रिया पर सदा उदात्त होता है, (यदि उसके
प्रारम्भ में संबन्धवाचक सर्वनाम या उससे बना हुआ कोई शब्द या निपात हि
(क्योंकि), च, वेद (यदि), नेत (नहीं तो), कुविद (क्या) हो तो । जैसे-ए
यदि: परिभू१रले (जिस यज्ञ की तुम रक्षा करते हो) । जहर पर दो प्रधान
उपवाक्य परस्पर वैषम्य-बोधक रूप में एकत्र हैंगि, वहाँ पर प्रथम उपवास
को आश्रित उपवास माना जाता है और उसकी किया उदात्त होती है ।
(घ) प्रधान उपर में उपसर्ग को क्रिया से पृथक किया जाता है और
वह उदात्त होता है । आश्रित उपवास में उपसर्ग क्रिया के साथ समस्त हो
जाता है और :अनुद१त् हो जाता है । जैसे-ओं ग-च-शति (वह आता है),
किन्तु पर आग-जति' (जो आता है) ।
-म्ब--स सूचना-इम पृष्ट में चिन्ह (से उदात्त स्वर का सूचक है है
संस्कृतपदानुक्रमणी
इस अनुक्रमणी में संस्कृतव्याकरणप्रवेशिका के सभी व्याकरणसम्बन्दी
शब्द और प्रत्यय दिए गए है । केवल नियम : ०४- १ ०८ के अन्तर्गत संख्या
शब्दों को नहीं जोडा गया किन्तु अभय नियमन के अन्तर्गत उन्हें भी जोड़ दिया
है । प्रथम परिशिष्ट के धातुरूपों को यहां दुहराया नहीं और सन्धि एवं वाक्य
विन्यास के उदाहरणों में प्रयुक्त तथा तृतीय परिशिष्ट में व्यवहृत औपचारिक
पद भी नहीं जोड़े गए ।
इस अनुक्रमणी में पृष्टसंख्यान्हीं से अतिरिक्त संख्याब अनुच्छेद-, को
बोधित करते हैं ।
सहु-सारणी
अति० अतिशय बोधक यमन अथवता जुगल अभ्यस्त रूप; उप० उप
सर्ग, उपाय-मक; कि० क्रिया, क्रियात्मक; कि० वि० किय-विशेषण, किया
विशेषणात्मका, टि० टिप्पणी ; तत्पु० तत्पुरुष समास; तुल० तुलना-क;
नस नपुंसक लिङ्ग ; नि० निपात : निषे० निषेधार्थक : पा० टि० पाद
टिप्पणी; प्रेरणा० प्रेरणार्थक; वि० विशेषण; सम्बो० सम्बोधन ।
अ-स्वर, उसका उच्चारण, १५, : अग्र-तरि, क्रि० वि० 'आगे, सामने'है

अ, मूल सर्वनाम शब्द, : ( : १७७, घ


आ, आगम, १२८ अग्रे, 'आगे, सामने', उप० कि० वि०,
मअ, प्रथम गण का विकरण, १२४; १७७ ध
कृत्प्रत्यय, १८२, : ख;--तद्धित अंग, निपात, हि श्रीमत्, प्रार्थना
प्रत्यय पृ०१५७;----संज्ञाशब्दों सूचक', १८०
का प्रत्यय, ९७ अंनिरशिपू० व्यक्तिव-नाम, ८३क
य, 'पहुचना, लिक १३९, ६ (अत्, 'अगा-पत वाले विशेषण
अक्षि, नप, 'आंख,' ९९, ३ शब्द, ९३
अग्नि-मसू, वि० (यजिय) अग्नि को अधर, 'लीपस, १३४ ई, पृ० ९३
धारण करने वाला', ८६ ९४
२३४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

अप, वि० 'अ', तुलनार्थक अणी 'बारे', १७९


यक १०३, २ अधिष्ठाय, उपज अवार्थक प्रत्यय,
अदा-य-प्रत्यय-त शब्द, ८५, १५६, 'ग्रहण कर, लेकर, १७९
१८२, : ख अव 'सीस लेना', १३४ अ ३क,
अति-रिच, 'तुलना में बढना', पं० के पल ९२
साथ, २०१, २ (का (अनू, कृत्प्रत्यय, १८२, १ख;-अन्त
अत्र-भवता यु०"पूजनीय आप, १ ९५, वाले शब्द, ९०; अपवाद, ९१
१ग अनहत. दू० 'वैल', ९६, २,
यथ, निपात, 'तब', 'अब', १८० पृ३० ५३
अथो, निपात, 'तब', ( ८ ० अत्-अन्तरम्, उप० कि० वि०, 'बाद
यदू, 'खाना' लटू, १२७, (; लिह, में' १७७ ग
१३५, २ अत्-आदर, दु० 'उपेक्षा', २०४ ध
अदब, 'खाता हुआ' शत्रन्त (वर्त० अरीय, योग्य अर्थ वाले कृत्यप्रत्यय,
कृ० ), ८५ १६२, ३; १८२, १ख
अदर, संकेतात्मक सर्वनाम, 'वह', अनु, उप० 'बाद मे", १७६,१
१ १ तो अनु-कृ, 'अनुकरण करना', षच्छी के
अधर, सार्व० वि० 'घटिया', १२०ग साथ २०२, १ख
अधन, उप० क्रि० वि० 'नीचे', अत उदात्त, पू० 'निम्नध्वनि', पृ०
: ७७ध २३ ०
अधस्तातृ, उप० क्रिया वि० 'नीचे', अनु-नासिक, पूँजी 'नासिर ७
१७७ध अनु-व्रत, वि० 'भक्त', द्वि० के साथ,
अधि, उप० 'पर', १७६ २क १ ९७, ३
अधि इ, 'पढना', : ३४ अ ३ध पृ० अनुशासू 'आज्ञा देना', दो कारों के
१०६; णिजन्त, १६८, २; साथ, पृ० १९८, २
द्विकर्मक, १९८, ४ अनुस्वार, प., ४, पता० टि० १;
अधिक, वि० 'अधिक', १०४ग ७; १०,१५,९; २९, ३; ३६,२;
अधिकृत्य, उप० कत्वार्थक प्रत्यय, ४२आ; ६५; ६श्य २; १४४,१
संस्कृतपदानुक्रमणी २३५
अनुवाद जिद आत्मज से कृत्प्रत्य अपर, सर्व० वि०, 'दूसरा' १२० ग;
यम, 'विल, १५९ प० के साथ, २०१, २ ख
अन्तर, उपसर्ग 'अन्दर, बीच से", अपरम्, कि० वि०, 'अतिरिक्त', १८०
४६, पा० टि० (; १७६, २ क अप-राधू, पन पहुँचाना', षच्छी के
अन्तर, सार्व० वि० 'बाहरी', १२० ग साथ, २०२, ( ग
अन्तर, न० 'भिन्न' १८७ ग, पृ० अपि, निपात, 'भी', १८०; कृत्प्रत्यय
:५६ के साथ २०६; विधिलित् के
अन्तरा, उप० कि० वि० 'बीच में, साथ, २१६ क
बिता १७७ क अभि, उप० और', १७६, २ क
अन्तरेण, उपज कि० वि० 'बीच में, अभि-ज्ञ,वि०'परिचित, दक्ष, अभ्यस्त',
विना, बारे से", १७७ क पाती के साथ २०२, २ग
अहिल्या, न० "निकट', १७८; वि० अधिप उपज कि० वि० "दोनों ओर,
२ ख १७७ क
अन्न, न० 'शव, पृ०२८, पा० टि० ( अभिलाष, पृ. 'इ-लच्छा', सप्तमी के
अन्य, सर्व० वि० (दूसरा), १२०, साथ, २०४ थ
क; पं० केसाथ, २०१, २ ख प्यार, कत्वार्थ, १६६
आ-यच्च, कि० वि० 'और भी, इसके अमी, सर्व० प्रथमा बल, २५; : १२
अतिरिक्त', १८० अम्बा, स्वी० 'माता', पु० ५४, पा०
अन्य-तर, सबी, वि०, 'दो में से एक', टि० ३
१त्० क (अय, स्वार्थ अथवा प्रे० प्रत्यय,
अन्य-ना सर्व०वि० 'अतिरिक्त' १७७ग १२५, ४; १५१ क, २; १५४,
अन्योपुन्य, सर्व० 'परस्पर' १८८, २ध ७; १६८
अन्यान्द्रचु, वि० 'पीछे की ओर अयम, सवे० 'यह', ( १ (; १९५, २अ
९३ क अधि, विस्मय बो० अव्यय, 'अजी,
अता स्तरी. बहु०, 'जल, ९६, : १८ १
अप-कृ, 'हानि पहुँचाता ष१फी के से वि० बो० अ० अथवा स० सू०
साथ २ (,२, ( ग नि०, १८१
२३६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
अरे, वि० बो० अज अथवा सं० सु० अवसर प, 'समय, मौका' तुमुन्नख
शब्द के साथ, २११, पृ० १९०
नि० 'अरे, ओ, हो १८१
अरि, चूजा करना", लिवा १ ३९, ६
अवाचु, वि० 'नीचे की और', ९३ ख
अब, पति 'प्रयोजन-क', तु० के अव्ययीभाव, पुर अ०स०, १८८, ३क
साथ, १९९, (, छ, कि० वि० यशु, 'खाना', सनात, १७०, २
अन्तिम पद के रूप में 'के लिये', अशोक, भारत नरेश, २
अष्ट, संख्यावाचक, 'आठ', १०६ ख
१८७व
अस-, 'होना', १३४ (अ) र ख; वसं०
अर्थ, सर्वनाम वि०, 'आवा',
शह प्रत्ययान्त १५६क; आब, प्र
१२० ध
अर्व-रात्र, प-आधी रात्री १८८, २ग त्ययान्त लिटूके साथ, १४०; लूटते
अधम प्रे० 'देना' चल के साथ, लकार के साथ १५२; चतुर्थी
२०० अ १
के साथ २०० आ १ क; अभी
अर्वाकू, उप०क्रि०वि० 'पहले, १७७ग के साथ, २०२, १ क
अरी, 'योग्य होना', 'तुर प्रत्यय के यक 'फेंकना', शुर १४७ क
मअसू, कृत्प्रत्यय ८३; १८२, १ ख
साथ, २११ अ
अलम्, कि० वि० 'काफी', १८०; असूयु, 'शुद्ध होना', चतुर्थी के साथ,
२०० अ २
१८४ ख; तृतीयाकेसाथ, १९९, असूजू, न० 'रक्त, ७९
छ २१५ अ, चतुर्थी के साथ
असौ, सर्व० पल स्वी०, 'वह', ११२;
२०० आ, २ क; कत्वा के साथ
१९५, २ ख
२१० ध मतब, कि० वि० 'गृह', १८४ ख
अल्प, सा० वि० 'थोड़.', १०३, २खा,
अस्ति, है अ, १९१ ख, वर्त
१२० ध मार्थक कृत्प्रत्यय के साथ, २०७
अव-यह, दू० तत 'ब' का चिह्न',

अस्थि, नस 'हमी', ९९, ३
अवर, सा० वि० 'बाद कारा १२० ग ममदू, व्यरिक० सर्व०, उ० पु० की
अवलम्बउप० कत्वा० प्रत्यय-लेकर, क्रिया के साथ, १०९
है७९ अस्मद/य, स्वा०सर्व०, हमारा १ १६
संस्कृशपबानुक्रमणी २३७
अहा, 'कहना', लिव १३९, (; दो के अर्थ भी १८१, पृ० १४१
कर्मों के साथ, १९८, २ आर 'पीना, १३३ अ है
(अहम साँ-नी में भी हो जाता है, ६९ आ-व अति-दाम-क्त जिया हु-,
ख, पा० टि० २ १६०, २ ग
अहद नप, 'दिन१९१,२; १८८,२ग आत्मन्, पूँजी 'आत्मा', ९०; ११५ ख
अहम्, सर्व० मैं, १०९ आत्मनो-पद, नप., १२१
अहम्, नप, 'दिन' ४६, पा०टि० १, आ-दाय, उपज बत्वा० प्र० 'नि,
५० क, ९१, २, पा० टि० २ आदि,१७९
पृ, 'प्रारम्भ' १८९ ज
ध्यार्गण, प"दनों का समूह' [दैवज्ञ]
पृ० ४८, पा० टि० २ आ-दिन, "आज्ञा देना, चल के
अहवाल:, पूँजी 'दिन का स्वामी', साथ; १९८, २ का २०० आर
५० क आद्य, वि० 'प्रथम, १८९ ज
अहह, वि० बो० अ०, आनन्द या प्यान, कृत्प्रत्यय, १५८ क १८२ ब,
दुम के अर्थ में, १८१ लीद प्रत्यय के रूप में, १३१, व
अहो, वि० बो० अ०, १८१ क, पा० टि० (, पृ० अ५
अहो-रत, यु०, नदु० 'दिन-रात' पृ० -आ नी, तद्धित प्र०, १८२, २, पृ०
९१ पा० टि० २; १८६, : १४७)
आ १ वि० बो० अ० 'ओह', १८१, आर, थाना' लिव, १३५, २; स.,
दे० नि० २४ १७०, र
आ तो उप०, 'से, तक' पंचमी के आप:, स्वी० बहु० 'जल', १९३,
साथ, १७६, २; गए और दा के ३ घ
साथ समस्त, १८४ पा० टि० १ आ-यस नतान्त 'अधीन', व४ठी के
-आ तद्धित प्र० १८२, में पृ० १४७; साथ, २०२, २ ख
आकारान्त शब्द ९७ क, आका आयन, तद्धित प्रत्यय १८२, २, पृ०
रान्त धातु लिटूमें १३६, ४; १४७
१३७, २; १३७, २ घ आच, नप, 'क, ८३
आ:, वि० बो० हिल आनन्द या रोष आ-रम्य, उप० कत्वा० प्रत्यय 'आरंभ
२३८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
करके', पंचमी के साथ, १७९, २ इत्र क्रि०वि० उ, २०५, (१)ग
आम-रूढ, कमल 'चढा हुआ, 'चढ़ इदर, संकेतात्मक सर्व० 'यह', १ : (
कर', २०८ ख (इन, यत प्रत्यय, १८२, २; १८९,
आर्या, स्वी० मात्रिक छन्द, पृ० २२२ अ; इन्नन्त शब्द ८७
आवाम, सर्व० 'हम दोनो", ( ०९ इन्द्रववस्वी० 'सप, पु० २२०
आविसु, कि० वि०, 'प्रकट' १८४ ख इम, विमा 'इतना' ८६ ख, १ १८
आ-शीश, 'आशा करना, सप्तमी के इव, अनुदात्त निपात, 'सा', 'तुल्य,
साथ, २०३ ड १८०, पृ० १३२
आ-शिप, स्वय 'आशीर्वाद', ८३ ख इद, 'चाहना' प्रथम (अ-युक्त) धातु
आ-यय, उपमानत्वा०"आश्रय लेकर, रूप, लटू, १३३, २ इ; लिटू में
१७९ (१) १३५, ३; १३६, (; 'तुर
आ-धु, प्रतिज्ञा करना, २०० अ १क प्रत्यय के साथ, २ १ :
आता 'बैठना'लिटू, १४०, ( इद, तुत् प्रत्यय १४२; १४५
आ-स्काय, उप० कत्वार्थक 'ग्रहण कर, इष्ट, तुलनार्थक प्रत्यय, 'बहुतों की
१७९, (१) तुलना मे", १०३, २; १८२,
इ 'जाना', लटू, १२७, (; लिटल -इसू, :कवं०
ख कृत्प्रत्यप३; १८२,१ख
१३६, २; बह १५१ क ; लुई
: यक, १५३ कर्मवाउय, : ५४,२ ई, स्वीलिङ्ग प्रत्यय, १८२, २; स्तरी
इ, मूल सर्वनाम 'यह', १ : : प्रत्ययान्त रूप, ९५; : ००;
इ, कृत्प्रत्यय १८२, : ख; तद्धि० प्र० १०३, १का, १०७; १८८, २ क
१८२, २; इकारान्द्र शब्द, ९८ ईन, 'देखना' आब-प्रत्यय' बिद
इतर, सर्वनाम विशे० 'दूसरा' १४०, १; सन्नन्त, १७०, २
१२०का, प-अ-चम. के साथ,२० (, ईद, आ० 'स्तुति करना', १३४, अ
२ख ३ ख, पृ० ९२
इति, निपात, 'ऐसा' १८० पृ० १३१ हैं
ई-हा-शू., सर्व० 'ऐसा, १ १७
१९४, (; १९६ख; २०५,१ ग (ईन, तद्धित प्रत्यय पृ० १४७
२१ १ ईभूयआपू, 'पाना' सन्नन्त रूप,
संस्कृतपचमणी २३है
१७०, २; क्त प्रत्ययान्त, १६०, उद्विन्, डरना, बचना, पधचमी के
३ साथ, २०१ क
--ईय, स्वामित्वबोधक प्रत्यय, उन, कृत्प्रत्यय, १८२, १ख
सकल शब्द के साथ : ०७; सर्व उद, 'गीला करना' लद और च,
नाम के साथ, : १६ १२८
ई?, तुलनार्थक प्रत्यय, ८८; १०३,
उपकष्ट, पू-, 'मवं, समीप', १७८
२; १८२, १ ख
ईशु, आ० 'स्वामी होना', लटू, १३४ उप-कृ, उपकार करना, षथठी के
अ ३ ख; पूजी के साथ, २०२,
साथ, २०२, ( ग
: क
उप-जाति, स्वी० एक मिश्रित वृत्त,
पृ० २२०
उ निपात 'और, १८० पृ० १३२
ज, मप्रत्यय, १८२, : क; उ उप-स्थानीय, ६, पा० टि० ४
प्रत्ययान्त शब्द, ९८ उ., 'रुकना', २०७ क
उचित संत, 'अभ्यस्त', उठी के आर, उपसगत्त्मक कि० वि० 'ऊपर',
साथ, २०२, २ ग १७७ घ

ऊजा), (छोड़ना) आब प्रत्ययान्तलिद, उपरिष्ठात्, उपसगाँत्मक क्रि० वि०


१४०. १ 'ऊपर, १७७ घ
उत, निपात, और', १८०, पृ" आ-नहा, स्वी० 'बता', ८१
१३२ उपेन्द्र-वाजा, स्वी० 'एक सरे',
उत्तर, सावी, वि० 'वाद का', १२०ग २२०
उत्तरेण, कि० वि०, (उतर की ओर, उम, सर्व० 'दोनो", पृ० ७५, पा० टि०
ष0ठी के साथ, २०२, ४ उभय, सर्वनाम वि० 'दोनो",
उदधन्, वि० 'ऊपर की ओर', ९३ क १२० ख
उदात्त, (स्वर) 'उन्नत ध्वनि', पृ० उभयतरि, उपसर्मा० विष वि० 'दोनों
२३०-२३१ ओए १७७, क
उहिश्य, उपल-मक कत्वार्थक प्रत्यय चा, अली एकल का प्रत्यय, ९९,
'लक्षय मेंरखकर, १७९, : (, २; १०१; क्रिया के प्र० पु०
२४० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
बहुत में, १३१,६, १३६, १४२, एतद, संकेतात्मक सर्व० 'यह', : : ०क,
१४८ एतावत्, परिमाण बो० सर्व० 'इतना,
उशनसू पल व्यक्ति-संज्ञा, ८३ क १ :८
उप स्वी० 'उषा", ८३ क
एक 'समृद्ध होना', आब प्रत्ययान्त
उधिगुहा, स्वी० 'एक सस, ८१
लिह, १४०. :
(उब, कृदन्त, ८३; १८२, १ ख
अ, कृत्प्रत्यय, १८२, १ ख,ऊकारान्त
एधि, अपके लोदप्र० एक० में, १३४
अ२ ख
शब्द, १ ० ०

ऊन, क्त प्रत्ययान्त, 'न्यून' १०४ ख एन, सर्व० पल गोल नप, ११२ क
एव, निपात, १८०, पृ० १३२-१३३;
पृ" ६५
ऊषा, स्वी० 'बल', ७९ ख भावार्थक अत शब्द के बाद,
२०५, १ घ
मवया, उपज कि० वि० 'ऊपर',
१७७ ग एवम्, निपात, 'ऐसे', (८०; लानतशब्द
ऋ, 'जाना, (, लद, १२८; षष्ठ के साथ, १०५, : ग
गण, आयुक्त धातु, १३३, इ२, एष, संकेतात्मक सर्व० 'यह' ४८; उ-द
एन, ११२ क; १९५, २ क
प्रे० १६८, २
-ऋ, ऋकारान्त शब्द, १ ० १ ऐ, औ, औ, एजन्त शब्द, : ०२
ऋते, उपसर्मा० कि० वि० 'बिना, औ, लिवा प्रथम और उत्तम पु० के
१७७ ग एक० में, १३६, ४
को-वन पूँ० 'पुरोहित' ऋतुओं में क, प्रशन वा० सर्व० 'कौन र : १३;
यज्ञ करने वाला', ७९ ख अधि, चन, चिद के साथ, ११९
र ऐ, ओ, य-तवा-नी धातुएँ, १२९, ८ ककुभू, स्वी० 'दिशा', ७८
रक संख्या० पूँजी 'एक', १०५, :; कश्चित्, प्रश्न, निपात 'मुझे आशा है',
१२० ख; १९२ १८०
रकतम, सर्वनाम वि० 'बहुतों में से क-तम, सर्व० वि० 'बहुतों मेंसेकौन,
एक', १२० क १२० क
मकतर, सर्वनाम वि० 'दो में से क-तर, सर्व० वि० 'दो में से कौन,
एक', १२० ख १२० क
संब-नु-मल २४१
क-ति, सर्व० 'कितने', १ १८ (क) काल, पूँजी "समय', तुन् प्रत्ययान्त के
कति-पय, सर्व० वि० 'कुछ', १२० घ साथ, २११, पृ० १८९
कथय, नाप, कहीं कैसे ?, कालिदास, कवि' १८५, पृ० १५२
कहना ।' १७५ क; १९८, उ; किब, प्रश्न वा० सर्व० 'क्या', : १३;
२०० (अ) : क १८०; १९९, १छ; २१० ध
कदा, प्रश्नवाचक सर्व० 'कब', ११३ किय. सर्व, 'कितना र, ८६ ख; ( :३
का 'चित्' और 'चन' के साथ, क, : १८
(१९ क किल, निपात, 'वच:, 'अय,
कनिष्ठ, तुलनार्थक प्रत्यय 'बहुत कम', निश्चित रूप से', १८०, पृ०
: ३४
१ ०वल
की-द्वारि., सर्व० 'कैसा, ११७
कनीयभू, तुलनार्थक प्रत्यय 'कुछ कम',
कीर्तय, 'यश फैलाना', १७५ क
१०३, २ ख
कु, सर्व० समासमेंप्रथमपद, ११३क
कमू, "चाहना', १२५, ४, अत : ६०, कुप-, 'शुद्ध होना', चतुर्थी के साथ,
२ग २०० अ २

कर्म-धारय 'समास', १८८ कुशल, नप. 'कल्याण', २०० अ ३


कल्प, पूँ० 'ढंग', १८९ च कृ, "करना', लटू, १२७, ५ च १३९
कश्चित्, अनिश्चयबोधक सर्व० 'कोई, (उ), पृ० ९४; जिद १३५, (;
( १९; १९त् १३६ क; १३६, २; १३७, (;
स, विस्मयबोधक अव्यय, 'खेद है' १ ३ ८,२;१४० ;लिटू-स्थानीय कब
१८१, पृ० १४१ प्रत्यय, १५७; तुल द्वितीय (त)
कान्त, तई 'प्रिय, प्रेम किया हुआ' भेद, १४३ (का; १४४, २; बह
९७; १६०, २ ग १५१, (; लुइ १५२ क; कर्म
अलम, 'तुम्' प्रत्ययान्त के साथ; समस्त, वाच, १५४, ३; १५४, ७;
२१ ( ख १५५; इप्रत्ययान्त, १६०, ३;
कामता निपात, 'अवश्य', 'संभवत:', कृत्यप्रत्ययान्त, १६२, : खा,
१८० १६२, ३; बर प्रत्ययान्त, १ ६३;
२४२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
तुम प्रत्ययान्त, १६७, णिजन्त, कल प, 'गीदड़', १ ०१ ग
१६८; तृतीया के साथ, १९९ : कव, प्रश्नवाचक 'कहाँ', १८०, पृ०
छ; सप्तमी के साथ, २०४ १३४; अपि केसाथ, ११९ क
कृत, 'काटना', लटू, १३३ इ१ अमू, 'क्षमा करना', वाठी के साथ,
कृतम्, कि० वि०, १८०; १९९ १ २०२, ( ग
छ; २ १ ५ हु. लिज, 'फेंकना', २०प्रा, अ, १ख; सप्तमी
कृतवत्, कतु-यय तब प्रत्ययान्त के साथ, २०४
'किया, ८९, पा० टि० ३; १६१ शुद्र, वि० 'नीच', तुलनार्थक, १०३,२
कृते, कि० वि० 'लिए', १७७ घ खन्, 'खोदना', जिद १३७, २ खा,
कृत्यम्, बार अर्थ वाले कि० वि०, कर्मवाव्य १ ५४ क; कान्त : ६०,
१०८क २ घ; कत्वार्थक, १६५ क
कु, "बना', जिद १३७ (१) क; खलु, निपात, 'अवश्य, १८०, पृ०
कर्मवाव्य, (५४, ४ : ३४
कलह 'समर्थ होना', लिटल १३५, (; सया, 'कहता', लुइ: में रूप, १४७,
चतुथींके साथ, २०० आ १ क, णिजन्त चतुर्थी के साथ,
२००, अ : क
केव?, कि० वि०, १८०, पृ० १३४
गत, काप्रत्ययान्त, "गया', समास में
कोपुडि, 'कोई भी', अनि-बोधक
द्वितीया के साथ १८७, पा०
सवेरा : १९ टि० २
कोविद, वि० 'दक्ष, वशठी के साथ,
गत्, 'जाना, ८९ ग: लद १३३ अ
१ ० २है ग
२; जिद १३७,२ उ, १३८, ७;
कमू, 'पाव रखना, 'चलना, लद आब प्रत्ययान्त जिद १४०; लुटू
१३३ अ (; कत्वार्थक १६५ क; १५२ का, कर्मवाव्य लुत् १५५
:७३ क क; क्तप्रत्ययान्त, १ ६०, २; योग्य
की, 'खरीदना', लद १२७, ६; घातु अर्थ वाले कृत्प्रत्ययके सराय १ ६२,
रूप, पृ० ८९; शत्रन्त, :५६ २; बत्वार्थक, १६३; १६४ का,
शुधु, 'शुद्ध होना' य८ठी के माथ,२०२, १६५ क; पन्नन्त, १७१,१, द्वि०
अ, चतुर्थी के साथ, २ ० ०, के साथ, १९७, १ क
संस्कृतपदानुक्रमाती २४३
गरीयब, तुलनार्थक, 'गुरुतर', ८८ : ५ ( ख, ४; कर्मवाव्य : ५४,
गवाश्य, नप, द्वन्द समास, १८६ ६; अत १६०, ३ का सन्नन्त,
गा, 'गाना', लिद प्र० एक०, १२९, १७१, २; २०३, ५
८; कर्मवाध्य, १५४, १ ग्रामप्राप्त, झान्त, तत्पु० समास,
गा, 'जाना', शुड., १४८ :८७,:
गाथा, तो 'एक वृत', पृ० २२२ यावत्, पूँ० 'पत्थर', ९०, ४
गि., स्वर 'वाणी,' ८२ ना, अखिल होना', णिजन्त, १६८,
गुण, 'सबल करना', १७ का : ए; अनियमित :
२१; १०१; १२५, १, ४; १२७, प 'खाना' लिव १३७, य, सन्नन्त
(, २, ४, पू; १३४ अ : ग; १७१, ५
१३५, ३; १३६, १-२; १४ २; धात, शत्रन्त, 'मारता हुआ', १५६ क
१४७ क, २; १५१ क; आ, 'सुमना', लद, १३३ अ ३
१५५; १६२, १, ख, ग, २-३; हु:, अन्त्य दू: का द्वि-स्वीकरण, ५२
:७३ च अनुदात्त निपात, 'और, १८०,
गुरु, वि० 'भारी', गुरु का तुलनार्थक पृ० १३५
गरीयसी ८८, ३; १०३, २ चकासू, 'चमकना', लद १३४ अ ४
प्र, 'छिपाना, प्रथम (अ-युक्त) वातु पृ० ९२; आए प्रत्ययान्त (लेद,
रूप, १३३, अ : १४०, २
गृ, 'जागना, अभ्यास में, १७४ चकृवरि, शिर के स्थान में होने वाला
गृहीत्वा, उपसगाँत्मक कत्वार्थक प्रत्यय, वसू प्रत्ययान्त शब्द जिसने काम
'लेकर', १७९, : कर लिया है', ८९
गो, पूँजी स्वी०, गाय, वैल, १०२ चक्षु, 'कहना', चतुर्थी के साथ, २० ०
गोपाय, नामक 'रक्ष-करना', १७५ अ : क
गै, 'गाना', लिटू १२९. ८, कर्मवाव्य, चतुर सं० पृ:" 'चार, १०५, ४
१५४० : चत्वारि. सं० पु८ 'चालीस', पृ०
ग्रह.-, 'पकड़ना', लद १३४, ऊ २, पृ० ६४, पा० टि० ५
९४, लिटू १३७, २ ग; खुर चरम 'चलना', णिजन्त कत्वार्थक,
२४४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
१६४क; यति-त, १७४ क १५४ का बत, १६०, २ व
चरम, सार्व० वि०, 'अन्तिम', १२०ध जन, प:० 'लगो-चबल, १९३, :
चि, चुनना', लिटू, १३९३४; कभी जभू, 'मपटना' यश्यत, यमन्त,
वाचा, १५४, २; कृत्यप्रत्ययान्त, १७४ क
१६२, ३; सन्नन्त, १६९, 1; जल-माना नस 'केवल जल १८९
१७१ , ४ छ
चिराय, ष० कि० वि० 'बाद मे" जल-मुश पु"० 'जल बरसाने बाजा,
२०२, ५ख बादल', ७९ बर
(, 'चुराना, लद १२५, ४; पद, जहि, २ हत के लद म० पु० एक०
१५१ क, २; कर्मकार १५४, में, १३४ अ २ ग
७; कत्वा-अत, १६३ क; तुमुन्नन्त, जागृ, 'जागना', ४६ पा० टि० (;
१ ६७ लद १३४अ ४ पृ० ९२;
चेदु, निपात, 'यदि', १८०, पृ०१३५; आब प्रत्ययान्त लिक १४०, २;
२ :८ द्वि-स्वीकृत गृ-राय-जागृ, १७४
य, प्रथम छ का द्वि-स्वीकरण, ५१ जातु, निपात, 'कभी' १८०'पृ० १३५
लिदच 'काटना', लुक, १४३, २ जरिया, जन्म से', १९९, १ ख
जरि, 'खाना', लद १३४ अ ३ क, ४ जि, "जीतना', जिद १३९, ४; अत,
पृ० ९२ १६०, २; योग्य अर्थ वाले कृत्य
जगन्यरि, सिर के स्थान में वल प्रत्यय प्रत्यय के साथ १६२, : ख, २;
वात 'जाकर, ८९ ख त्य अथवा य प्रत्ययान्त १६५;
एकी-मवसू, लिह के स्थान में वसु प्रत्यय णिजन्त १६८, अनियमित, २;
यान्त 'जाकर', ८९ ख सन्नन्त, १७१, ४; द्विकर्मक
बा-नवम्, लिव के स्थान में वसु १९८, २
प्रत्ययान्त हनु का रूप 'मार --जित्, वि० 'जीतता हुआ', ७७का,
कर', ८९ ख १८७ ख
नव, 'पैदा होना' लद १३३ आ २; जिबलीय, 'जीभ के मूल से उत्पन्न',
लिटू १३७, २ ख; कर्म., ६ सारणी० पा० टि० ४
संब-नु-माही २४र
लीद 'जीना-लिव, १३६, (; सन्नन्त, स्वीय, स्वामित्ववाचक सर्व०, 'उस
:६९ का', ११६
अधि, हु के लय म० पु० एक" में तक 'फैलाना' लटू, १२७, ५;
: ३ (, ४ ग लिटू, १३७, २ क; १३८, ६;
ज्ञा 'जानना, लटक १३४, ऊ २; कर्म अत ८९ ख; १५७; कर्म.,
बाध्य में, १५४, १; १५५; १५४ का, ल्यबन्त राय' अन्त)
णिजन्त, १६८, अनियमित (; १६५ क
द्वि-मबक, १९८, :
सान, : अत प्रत्यय, १४८
ज्ञान-वत, वि० 'ज्ञान रखने वाला', ८६ भान, २ वैदिक लद म० बल में, की
उयायसु, तुलनार्थक 'प्रशस्काम', ( ० ३, धातु० ७ ख, पृ० २२७
२क तनु, वि० 'पतला'; स्वीलिङ्ग रूप
प्र-सेठ, 'प्र-तम' १०३, २ क ९८ ग
तु, अंत्य, तू से पूर्व, ३४; चवन और तनू, स्वी० 'शरीर' वै०, पु० २२६
स्वर्ग से पूर्व, ३८; ३९ तंत्री, स्वी० 'वीणा', १००, ४
ना, कृत्प्रत्यय, १८२, : का १८७ ख तन्द्री, स्वी० 'आलस्य, १००, ४
सा, कृत्प्रत्यय १६०, २; १८२ १ खा तर 'बना', यर-त, १७३
२०५ ग
तत्, 'थकना, लटू, १३३, आ, (
तक्षद, पूँ० कटने वाला, बढई, ९० औम, तद्धितप्र०, पृ० १४८; अति
बा-तरि, कि० वि० लिब', जिसके बाद,' शयबोथकप्र०, १०३ (: ) संरूयेय
१८०'पृ० १३५
प्र० १०७
य, सर्वनाम 'उतने', १ १८ क
तत्पुरुष, प:० आश्रित समास, १८७ तमोभूत, कान्त, 'अन्धक-रूप'
तन्न-भवता दृ० 'पूजनीय वे', १९५, १८८, १ ग
: ग कतर, तुलनार्थक यत प्र०, १०३,
तथा, 'वैसे' 'इस प्रकार', तदनुसार पृ० ६३
१८०, पृ० १३५; २०५, ( ग (तवद, भूतार्थक कब-मय किया के
नदू, सर्व० "वह', ११०; कि० वि० रूप में, २०८, २१३ ग, पृ०
१८० २२९, ११ क
२४६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
वय, योग्य अर्थवालेकृत्य प्र० १६२, १९९, २ ग; वाकी के साथ,
२; १८२, : ख २०२, २ घ
तस्थिवसृ, लिटू के स्थान में होने वाला -तृ, कृत्प्रत्यय, १८२, : ख, तू प्रत्य
कासु (वसू), 'खड़ा होकर ८९, यान्त, १०१; १५२
क, ख तृतीया, सरिया वि० 'तीसरा', १२० ड:
ना, तद्धित प्र०, पृ० १४८ तृपू अत होना', उठी के साथ,
ताड, 'बोट मारना, सप्तमी के साथ २०२, १ च
२ ०४ तु, 'पार करना', लिय १३५, १;
नात, वैदिक, पृ० २२७, ७ ग ल्यबन्त १६४; सन्नन्त, १६९, १
तादृभू-दृश.श, सर्व० 'वैसा', १ १७ ते, चतु० प० एक० में युन्मद का
तावक, स्वामित्व बो० सर्व० 'तेरा', अनुदात्तरूप १०९ क, १९५,
१ १६ क ( ख
तावत्, सर्व०, जितना', ( १८; कि० तेनिवसू, कवसु (वसु) प्रत्यय-त तर
वि० १८०, पृ० १३५ धातु के रूप, ८९ ख
आ, कृत्प्र०, १८३, : ख
त्य, उप-युक्त धातु के कत्वा के
तितीर्ण, सन्नन्त विष्णु द्वितीया के स्थान पर कृत्प्र० १६५; तद्धित
साथ, १९७, ३ प्रत्यय, पृ० १४८
तिरप, तिरछा, 'पार', पृष्ठ ५१, पा० त्र, कृत्य० १८२, : ख
टि० ३, १८४ ख प, कांपना, लिह १३९, :
तिर्यहन्, वि० 'तिरछा जाना', ९३क जि, सरिया पनि, १०५,३
तिष्ठति, 'रुकता है'; 'रहा' अर्थ में लिक कि० वि०, 'तीनबार : ०८ क;
२०७; २१० ख
ष० के साथ, २०२, ५ क
तु, निपात, 'किन्तु' १८०, पृ० १८६ त्व, तद्धित प्र०, भाववाचक शहुदों से
संतु, कृत्पत्यय, १८२, : ख, पृ० 'पन' के अर्थ जा पृ० १४८
१४५; तुम प्रत्यय का मूल रूप, त्वत्, स्वी० 'त्वचा', ७९ क
१६७ यदू, समास में उ० में युशमदू को
तुल्य, वि० 'सदृश' तृतीया के साथ, आदेश, १०९
संस्कृतपदानुक्रमणी २४७
स्वबीय, स्वामित्व, सर्व०, तेरा', दल क्तान्त, 'दिया हुआ', १६०,
( १६ २ख
त्वत्, सर्व० द, १०९ दधि, नप, लेन ९९, ३
त्वा, युशमदू का द्वि० एक० अनुदात्त दम-, 'दया रखना', षम्ठी के साथ,
रूप,१०९ क;१९५,१ ख २०२, : ख
बी-मय-त्वा, कत्वार्थकप्र०, १६३ दरिद्र, निर्धन होना' लटू, : ३४ अ
त्वा-छा, सर्व० 'तुझ जैसा', १ १७ ४; द्वित्बीभूत, १७४ ख
-त्वाय वैदिक नत्वार्थक प्र०, पृ० दर्शय, णिजन्त, 'दिखाना, १९८,
२२९, १२ ४ का २०० अ १ अ
-त्बी, वैदिक कत्वार्थक प्र०, पृ० २२९, दबीयसू, दूर का तुत्खार्थक, 'दूर,
:२ १०३, तो
नथ, मप्रत्यय १८२, १ खा, तडित दहा 'जलाना, ६९ क, लुत्, १४४,
प्र", पृ० १४६; सरठयेय प्र०, (; खुद १५१ का १; सरित
: ०७ १७०, (; यउत, १७४
जापन, वैदिक, ममा बहु" में अंत्य. दा, 'देब, लटू, १३४, आ १; खुश
वयव, पृ० २२७ १४९३;१४९१;पटू१५१;
मथम, संत्येय प्र०, १०७ अव १६०, २ ख; कृत्यप्रत्य
दर, 'काटना', लटू, १३३ अ ४; यान्त १६२, : क; १६२, २;
णिजन्त, १६८, अनियमित, ४ णिजन्त, १६८ क; सन्नन्त,
प, वि० 'निपुण, २०२, में ग; १७१, ३; २०० ष (
२०३ च दाब, पृ:० 'देने वाला', १०१
दक्षिण, साबो, वि०, 'दक्षिण दिशा', वाजी, स्वी० 'देनेवाली', ( ०२ दृ:
१२० ग दारा:, पु, बल 'सजी', १९३, ३ घ
दक्षिणा-सृ, कि० वि० "दक्षिण की विना : स्वी० 'आकाश, ९९, ४
ओर से', (सी के साथ, २ ०२,४ दिक २ 'खेलना', लाया १२५, ३;
दण्ड", चुरादि गण की धातु, 'दण्ड १३३ आ १
देना', द्विकर्मक, १९८, २ दिवा-नप, कि० वि० पदेन और
२४८ संबत-व्याकरण-प्रवेशिका
राल, १८६, ३ दोसु, नधि० "बार, ८३ न
विर, (:) अभी 'दिशा', ७९ द्यावामृष्टिव्यत, स्वी० द्वि० (., समान
विर (२) 'बताना', १४१ अ १८६, ३ ख
दिल तृ० 'भाग्य से' 'सौभाग्य से', चु, स्वी० 'आकाश', ९९, ४
:८: शो, स्वी, 'आकाश', १०२ क
दिश 'चिकना करना', ६९ पर औ:, विद और प काप्रथमा-स, ८९,
बीर, 'चमकना', तुर १४९ क, २ ४; १०२ क
बीजा वि० 'लम्बा.-., तुलनार्थक,
द्वा, 'दहिना', अभ्यस्त रूप, १७४ रश
: ज ३ है २
दू, 'दौड़ना' लिक १३६ का, प्र,
बीर्धायुसू, वि० 'चिरजीविन्', ८३ वा १४९
दुर-, 'दुह", लुहुचा १४१ ख, समय
१७०, १ क, दो कर्मों के साथ हुत-विलम्ब, नदु० 'सरे' (र्शघ्र
१९८, २, वि० 'दुहने वाला', और मंद), पृ० २२०
५५; ८१ बय, नामधातु, 'वृक्ष के तुत्य होना',
दूर, वि०, 'दूर, १०३. २; २०१ ग :७५
च, 'देखना', लट १३३ अ की तुल दूरी, 'द्रोह करना, चतुर्थी के साथ,
१४४, ४; १४७ क; लुइ, १५१ २०० अ २
ख, (; लुक १६२, १ ग; तुम मधुल, वि० 'द्रोह करने वाला', ८ :
१६७; द्वि-स्वीकृत (अभ्यस्त), द्वा, सख्या 'दो', १०५, २
१७३, ख द्वाद्ध, नपु० 'दो या अधिक शब्दों का
हच, वि० दिखने वाला, ७९ थ समास', १८६
दृष्ट-पुर्व, वि० 'पहले देखा हुआ', द्वय, सार्व० वि० 'दोहरा', १०८ व,
१८८, २ ख १२० ध
दृष्ट था होब, ६९ ख द्वा-दश, सख्या, 'बारह', पृ० ६४,
देव-दत्तआ० तत्पु० समास, १८७, २ पा० टि० २; दो और दस, पृ०
देव-नागरी, लिपि, ३; की ६; ८, १५४ पा० टि० १
देहि, लोह म० एका', १३४ आ १ द्वार, स्वी० 'द्वार', ४६ पा० टि० १
संस्कृतपदाप्रमणी २४९
द्वि-गु, पू० संक्यार्थक समास, १८८, ऊ (; णिजन्त १६८, ३
२क धेहि, पप, लोक मए एक० १३४
द्वि-य, सार्व, वि०, 'दुहरा', १२० घ आ१
द्वितीय, संख्यार्थक, 'दूसरा', १२० घ व्या, 'फु-कना', लद, १३३ अ ५
द्वि-शत, नयु० ' १०२' और '२००८ ध्वन्, 'शब्द करना' १६०, २ घ
१ ०४ब ममू, मध्यम० बहुल प्रत्यय, १४री२;
द्विशु, [केय, वि० 'दो दो करके', (कना 'ढब' में परिवर्तन, वही
१०८ क था अभय की सन्धि, ३५; ३६, ४०,
द्विप, (१)'देष करब, १३१, ६; ४१; ५२; ताबबीकृत ६३ग;
परसौ० १३तिपृ० ८६ मू-वीकृत ६५; अमूर्थन्बीकृत
द्विप, (२) पृ, 'शर, ८० ९२, पना० टि० १; पवार में
घनधजय, विमा 'धन जीतने वाला', परिवर्तित ६६न्न २; नप, बहु०
१८७ क में प्रयुक्त ७१ ग
धनिक वि० 'धनवार, ८७ न, 'नही', निषेघात्मकनिपाता' १८०
धर्मगुपृ, पल्प 'धर्मरक्षक', ७८ पृ० १३६
आ, 'रखना', पृ० २९, पा० टि० २; औ, कृत्प्रत्यय, १८२, (ख, भूत
लद १३४ अ, १; लिक १३६, कालिक कृत्प्रत्श्य, : ६०
४; १३८, ३ (परसे); प्र: नदी, स्वी० 'नदी', १०० पृ० ५९,
१४४, ३; १४८; अन्त, १६०, नदी शब्द के वैदिक रूप, पृ०
२ का सन्नन्त, १७१, ३ २२६
धा, प्रकारार्थक विकि, वि० : ०८ ख ननु, प्रान वाकयों में प्रयुक्त निपात,
---धि, लय मध्यम० एक० प्रत्यय, १८०'पृ० १३६
१३१,४ बहु, दु० 'नाती' १०१ क
धिकू, असन्तोषसूचक अव्यय, १८१ नम्, 'झुकना', कत्वार्थक १६५ क
पृ०१४१-१४२ नमक नप:: १८४ ख, चतुर्थी के
थी, स्वी० 'बुद्धि', १०० पृ० ५९ साथ २०० अ ३
पृ, 'हिलाना' लटू, १३४इ ३; १३४ मस्य, नामक 'नमस्कार करना '
है था2 : "मैं
२५० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
नर, 'नष्ट होना', जूट, १५१ ख, २ २; खुद १६२, १खा, णिजन्त,
नत, सर्व० अस्मद का द्वि० च०, व० १६८; अभ्यस्त रूप १७३;
बहु" में अनुदात्त रूप, १०९ क; द्विकर्मक १९८, ३
१९५, १ख नी-त्वा, 'लेकर, उपसर्मात्मक कत्वा
नहा, 'बाँधना', ६९ ख, कर्म० १५४ औक प्रत्यय-चपल, १७९
नागरी संस्कृत लिपि, ३ नु, निपात, 'अब, १८०, पृ० १३७
नाम, कि० वि० निपात, १८०, पृ० बनु, कृत्प्रत्यय, १८२, : ख
: ३७ नुदू, 'धकेलना', बत, १६०, : क
नामत, नथ 'नय, ९०, २ नूनम्, निपात, अवश्य', १८०,
नि-कट, नप, 'समीप', १७८ पृ० १३७
नि-कवा, उपयत्मक कि० वि० वृ, प, 'पय', १०१ ख
'समीप', १७७ क जूता 'नाचना', सन्नन्त, १६९, २;
निब, 'मरब करना', अभ्यस्त रूप, अभ्यस्त रूप, १७३ ख
१७३ गोष्ट, अनिल का 'अत्यन्त गोप'
नि-ज, वि० अपनाई : १ ५ ध अर्थ बोधक यल रूप, १ ० ३,२ ख
नि-धा, 'रखना', सप्तमी के साथ, नेदीयरि, अन्दिक का तुलनात्मक
२०४ समीप अर्थ बोधक तद्धित रूप,
निनीवन्, कहूँ० क्लसुप्रत्ययान्त ८९ १ ० ३, २ ख
ख गो, निषेधात्मक-त, 'नहर १८०,
निपुण, वि० 'दक्ष', 'चतुर, य७ठी पृ० १३७
और सप्तमी के सत्य २०३ च कौ, ( () स्वी० 'नाव', १०२
नि-युन, 'लगाना', चल और सप्तमी कौ, (२) सर्व, अस्मद काद्विवचन में
के सथ, २०० आ २; २०४ ग अनुदात्तरूप १०९ क; १९५, १ख
नि-वेख्या, णिजन्त, 'कहना', चतुर्थी के पहर वि० 'नीचे की ओर ९३ क
साथ, २०० अ : क न्याय, वि० 'उचित', तुमुन्नन्त के
नी, 'लेजा", ८९ ख; लिटू, १३७,१ माथ, २११ य
क,: ३८,४, आब प्रत्ययान्त लिड़, पत्, 'पकाना, लिक १३७, २ क
१४०, दे; तुक १४३, १; १४४, पधच, संख्या० 'कांच', १०६ ख
संस्कृतपदानुक्रमणी २५१
महच-गुण, वि० 'पांव गुना', २०१, परिवार पचीस 'मशु', ७९ ग
२ग परेण, सार्व० कि० वि० 'परे', १७७
पत्, 'गिरना', लिटू, १३७,२क; खुद:, का ग
१४७ क, नाता १६०, २,
२०४ पश्चात्, सार्व० कि० वि० 'बाद से",
पति, : 'पति', ९९, १ १७७ ध

पत्नी, स्वी० 'पत्नी', ९९,१ पश्य, प्रथम (अ-युक्त) धातु रूप,


पया, स्वी० 'वर्ण वृत्त शलोक का १३३ अ ५; पूर्ववर्ती द्वितीया-स
एक रूप', पृ० २२० पद के साथ २०७ ग, पृ० १८७
पदु, 'जाना, खुर कर्म०, १५५;
सन्नन्त, १७१, ३; अभ्यस्तरूप, (दे० धातु रूपों में दृशु)
१७४ ख पा, 'पीना', लद १३३ अ ३; कर्म०,
पद, अन्त्यावयव, १६ क; ५६; ७३क १५४, १; कनि, १६०, २
पन्थन्, पल्प 'मागी, ९१,१ पाणि, पृ, 'हाथ", १८९झ, पृ० १६१
"पय, प्रेरखार्थक प्रत्यय, १६८ क पाणिनि, 'वैयाकरण', (; ६
पर, वि० 'दूसर-बाद-, १२० ग; पाद, पूँ० 'वृत्त में एक चरण', २६;
'सर्वोत्कृष्ट, मुख्य, १८९, च
परतसृ, सार्व०क्रि०न्दि० 'परे', १७७गम १९५ ख
परब, उपज कि० वि० 'बाद मे", पादा:, ११० बहु०, 'पांव', १९३, ३ क
१७७ ग; 'अत्यन्त', १८० पार्श्व, न० 'पास' १७८
परम, वित 'मुख्य', १८९ च पितरों प, द्वि०, 'माता-वि",
परस्तात्, सा० कि० वि० 'परे', १७७थ १८६, ३ ग
परस्पर, 'परस्पर, अन्यत्र १८८, पितृ०, पूँजी 'पिता', ४६, पा० टि०
२घ (; १०१; १८६, ३ ग
पररुमैंपद, १२१; १८७ क, पृष्ठ १५६पीता कान्त, कतु-मय और कर्म
परम., वि० 'हदाया हुआ', ९३ ख वाक्य अर्थों में २०८ ख
परि, उपसर्ग, कृ से पूर्व, १३४ ऊ पी-प, वि० 'स्कूल, मोटा, स्वर
परि-तरि, सर्व० कि० वि० 'चारों आवरी, ९५ ग
ओर', १७७ क
परि-यजा, सर्व० अवान्त 'बिना', पुत्री-य, नामधातु, 'पुशेच्छा करन
१७९ : ७५
२५२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
चुकी पूँ० द्वि०, १८६, ३ग पु, 'भरना', कर्मवाव्य १५४, ४;
पुनर, कि० वि० 'फिर' ४६, पा० १५५ क; कान्त १६०, (;
टि० (; १८०
कत्वान्त १६४
प्रकृत्या, तृतीया 'स्वभाव से', १९९
पुमंसृ, पूजी 'मत्', ९६, ३
१ख
पुर, स्वी० 'नगर, ८२
प्र-व, वि० 'प्रकृतिभाव' वाले स्वर,
पुर-तरि, सार्व० कि० वि० 'आये', २५
१७७ घ प, 'पूछना', ६३ घ; लद १३३ इ
पुर-सर, वि० 'पूर्ववर्ती' १८९ ज ३ सरित १७१, २; द्विकर्मक
पुरम्, सर्व० 'आगे' १७६, २ का : ९८, २
१८४ ख प्रति, उप० 'ओर, १७६, १
पुरस्तात, सार्व० कि० वि० 'आगे, प्रति-ज्ञा, 'प्रतिज्ञा, चबा, मंठी के
सामने' १७७ ध साथ, २०० अ ( क; २०४ ख
पुरा, सर्व० वि० 'पहले', १७७ ग प्रति-धु, 'वचन देना', चतुर्थी के
'प्राचीन काल में', २१२, : क; साथ, २००य १क
शिघ्र' २१२, र प्रत्यक्षमू, सार्व० जि० वि० 'सामने'
पुरुष-व्याज, पूँजी 'व्याअसम पुरुष', १७७ ध

१८८, १ ख
प्रत्यक्षा., वि० पीछे की ओर ७३
पुरो-गम, वि० 'पुरो., १८९ ज क; ९३
प्रथम, सन्दया 'पहला', १२० घ
पू, 'पविम करना', लय १३४ ऊ;
प्र-दा, 'प्रदान करना', चतुर्थी, उठी
खुद १४५ के साथ, २०२, : ड:
पूर्ण, क्तान्त, 'भरा हुआ', २०२, १च प्र-भू, 'समर्थ होना', चतुर्थी के साथ,
पूर्व, सार्व० वि० 'पूर्व, पहली १२० ग; २० ० आ का 'स्वामी होना',
१८८, २ ख; १८९ ज; 'पूर्व उठी के साथ, २०२, : का
दिशा' २०१ ग प्र-भूति, स्वी०, 'लेकर, १८९ ज;
पूर्वम्, सार्व, कि० वि० 'पहले', १७७ग उपज कि० वि०, समय दृष्टि से
पृथु, वि० 'चीड़:--' स्वीलिङ्ग 'बाद मे" १७७ ग
प्रयोजन, नप, 'आवश्यकता, उप
९८ ग
संस्कृतपबानुक्रमणी २५३
योगिता' १९९, १६ हो गया है ग्राम जिसकी
प्र-विशु, 'प्रवेश करना', सप्तमी के १ ८७, :
साथ, २०४ प्राय, पूँ० 'मुख्य अंश' १८९ च
प्र-विष्ट, कन्त, द्वितीया के साथ, प्रायर, प्राय., प्रायेण, कि० बि०
और कर्मवायय में २०८ ख 'सामान्यतया-अधिकांश-:, प्राय:'
प्र-वृत-, 'शुरू करना', चतुर्थी के साथ, १द्वा० पृ० १३८
२ ० ० आर प्राय 'मगिना', दो कारों के साथ
प्र-सद, 'प्रसन्न होना', 'प्रसन्नता १९८, २
करना', प्याठी के साथ २०२, १ क प्राकृत, स्वी० 'वर्धा ऋतु', ८०
प्र-सूत, वतान्त, कतृय० और कर्म० प्रिय, वि० 'प्रिय', अली के साथ
२०२, २ख
अर्थ में २०८ ख
प्र-स्थित, है-के लिए चल पडा', चतुर्थी प्री, 'प्रसन्न करना, प्रेरणार्थक १६८,
के साथ २०० आ; सप्तमी के ३
साथ २०४ प्रेप, तुलनार्थक 'प्रेयतर' : ० ३, २थ
प्राग सार्व० कि० वि० 'पहले', प्रेष्ट, वि० अतिशय-बोधक, 'प्रियतम'
१७७ ग १०३, २ क
प्राकृत, असंस्कृत से उत्पन्न भाल, प्र", बताना 'उठाना हुआ', 'उन्नत
(प्रकृति अर्थात संस्कृत), जन किया हुआ' २३ ख
साधारण की भाषा का नाम, २ च, 'ऊपर बहना, तैरना', अभ्यस्त
प्राचु, वि० 'आगे की ओर', ९३ ख रूप, १७३
प्राणा:, पृ:० बहु" 'प्राण' १९३, ३ घ बणिब, पू० 'बनिया, ७९ ख
प्रात., कि० वि० 'प्रात:-', ४६, बत, खेदसूचक अव्यय, 'खेद है अब
पा० टि० १ १८१ पृ० १४२
प्राप्त, बत, कतृय० कर्म० के अर्थ में बन्धु, 'बांधना', लद, १३४ ऊ ३;
२०३ डा.
२०८ ख
प्राप्तग्राम, बसह समास, 'प्राप्त बभूवसू, क्यसु (वसू) प्रत्यवान्तजीमरों
२५४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
८९ ख भजु, 'बाँटना', जिद १३९, :
बलिन्, वि० 'बलदार ८७ भाल, 'तोड़ना', लद १३४ ई; कर्म
बहिसु, उपसर्मात्मक कि० वि० वाच्य, १५४, ५; कतान्त १६०,
'बाहर', १७७ ग १ ख
बहुल, वि० 'अधिक, तुलनार्थक, भट्ठी पूँजी 'पति' १०१ क
१०३, र भवता १ दु० 'पूज्य आप' ४९; ८६
बहु-सह, प. 'स्वामित्व-कसम", क, ९५क, पा० टि० (; १९३,
१८९=कृत्प्रत्ययान्त शठदों के ३ का १९५, १ ग
अर्थ में, २०४, क भग, २ शत्रन्त खाता.' ८६ क;
बाप कि० वि० 'अवश्य, निश्चित ( ५६
रूप से, पृ० १३८ भवति, 'है' विधेय पर बल देना
बुधु, : 'जागना', 'लटू, १३६, (; हो तो, १९१ ख; शत्रन्त के
१३७,१; १४०; तुत्, १४५ का, साथ, २०७
आशीनित् १५०; पति १५१ का भवदीय, स्वामित्वबोधक सर्व०
तुमुन्नन्त १६७; सन्नन्त १७०, 'आपका, १९५, ३
: क, अभ्यस्त, १७३ अरि, अत से सम्बोधन में रूप ४९;
बुना २ वि० 'विद्वान्' ५५ ८६ क
ब्रह्मनू, पूँजी 'ब्रह्मा', ९०, ३ भवितव्य, आवश्यकता योग्यता का
ब्रह्म-हत, पूँ० 'ब्राह्मण को मारने अर्थसूचक कृत्य प्रत्यय पाने के
वस ९२ योग्य' अथवा 'होने को आवश्यक',
बाधा, 'प्राचीन भारत की लिपि', ३ २०९ ख
दू, 'बोलना', लद, १३४ अ ३ ग; (भालू, वि० 'युक्त, वाले', ७६ ख
द्विकर्मक १९८ २ भावक, सकी 'आप का' ११६ क;
स्म, तद्धित प्रत्यय, पृ० १४८ १९५, ३
भगवत वि० 'आदरणीय' ४९ क भाव्य, आवश्यकता योग्यता का
भगो:, भगवत का सम्बोधन, ४५ क अर्थसूचक कृत्य प्रत्यय, 'होने के
(सन्धि) योग्य' अथवा 'होने कोआवश्यक,
संस्कृतपदानुक्रमणी २५५
२०९ ख २०९; परल, पृ० ८६; कर्म
भिदू, 'तोड़ना', अन्त १६०, १; वाच पृ० ११५
कृत्य प्रत्यय-त, १६२, : ग; भू, २ स्वम्, 'पृथ्वी', १००, पृ० ५९
१६२, २ (भूत, कान्त, 'हुआ, रहा', १८८,
भिन्न, कान्त, 'पृथक-, अलग' २०१, १ ग
२ख भूयसू, 'तुलना-लि, 'अधिकतर' १ ० ३,
भिषजू, पूँजी 'वैद्य', ७९ख २क
भी, 'डरना, प्रेरणार्थक १६४, ३; भूयिष्ट, अतिशयार्थक, 'अधिकतम',
पत्प्रचसी के साथ, २०१ अ १०३, २ क
प्र, 'झुकना', क्त प्रत्यय., १६०, भू, 'धारण कारना, लिवा : ३६ का,
: ख है १४०, ३; सन्नन्त, १७०, १
भू, : 'होम, लद, १२५, (; १३२; भो:, अह का सम्बोधन, ४९; ८६का,
लिवा १३९, ७; आब प्रत्ययान्त पृ० ४४

लिव में, : ।०; लुम, १४८, २; अंशु, 'गिरना', लद १३३ आ २


राष्ट्र में, १ ५१ ; खुद : ५२क ( ५३ ; अजब, 'भूनना', लद, १३३ इ ३
कर्मवान्य १५४; लद और भ्रम, 'घूमना', लटू, १३३, आ १;
लिव शत्रन्त १५६; १५८ लिव लिवा १३९, :
स्थानीय कृदन्त ८९ ख; १५७; अखरी, पूँजी द्वि० 'भाई और बहिनों
१५९; योग्य अयं वाले कृत्य १८६, ३ ग
प्रत्यय केप, १६२ : ख; मू, अन्त्य ब की सन्धि ४२; मध्य
१६२, २; १६२, ३; १६२, ३ 'मू' की सन्धि, ६८
का स्थाप्रत्ययान्त, १ ६४; सम, कृत्प्रत्यय, १८२, १ ख; तद्धित
तुमुन्नन्त, १६७; सन्नन्त, १६९; प्रत्यय, पृ० १४८; सन्दयेय प्रत्यय
यमंत (अभ्यस्त) रूप, १७२; १ ०७
चतुर्थी के साथ २०० आ १ का मधवन्, पुर 'इन्द्र', ९१, रे
शठी केसाथ; २०२, १ का, मत-जू, 'डूबना', पह, १५१ ख, २;
कृत्य प्रत्ययान्त, तृतीया के साथ, क्तान्त, १६०, १ ख
२५६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
जा-मत्, तद्धित प्र० है पृ० १४८, मदय एक सरे, पृ० २२१
यान्त अद, ८६ ममय, वि० तद्धित प्रत्यय, पृ० १४९
मत, शान्त 'स्वीकृत', यच्छी के साथ, जास, लटू, उत्तम० बहु० में वैदिक
२०२, है क प्र०, पृ" २२७
मति, स्वी० 'बुद्धि, विचार ९८ क महता वि० 'महस, ८५; १८८, २ग
(मथक, वि० 'मारने वाला', ७७ क महाराज, पृ:० 'बड़ा राजा',
मदू, हैं 'प्रसन्न (होना', दिवादि० १८८, २ ग
सार्वधातुक अग १ ३३ आ (; मा, ( 'मापना', लटू, १३४ आ २;
अ:" १४५ ख सन्नन्त, १७१, ३
मद, २ सर्वनाम, युन्मदू को आदेश, मा, निषेधार्थक निपात, १ २८; १८०;
: ०९ २१३ घ २१५ ड:
मतीय, स्वामित्वबन्दिकसर्व० 'मेरा', मा ३ अस्मद का द्वितीया में अनु
१ :६ दात्तरूप, १०९ का, १९५, १ख
मधु, नप, 'शहद' ९८ ख माता-पितरो, प. द्विव० 'पिता और
मधु-लिहा, प, 'शहद की मकवी' ८१ माता', १८६, ३ ग
मद 'विचार करना', लुइ: १४४, १; मातृ, स्वर 'माता' १०१, १८६,३ग
कत्वार्थक, : ६५ क; सन्नन्त, (मति, नधि० भावार्थकक्त प्रत्ययान्त
१ ७१, १ के साथ, २०५, १ध
ममब, मन्नन्त शब्द ९० मावा, स्वी० 'परिमाण', २८९ छ
मप, नप. तुमुन्नन्त के सथ समस्त, मा-टर, सर्व० 'मुझ जैसा', ११७
२११ ख प्यान, कृत्प्रत्यय, १५८;१८२, १ख
मनडिवन्, वि० 'मनस, ८७ क माम, स्वामित्वबोधक सर्व० 'मेरा',
मयम, नामधातु, 'मंत्रणा करना', : १ ६क
१७५ क मालिनी, स्वी० 'माला"', एक
ममयू, 'मथका', लद, १३३ अ ४.हैं सरे, पृ० २२१
१३४ ऊ ३ -मि, कृत्प्रत्यय, १८२, १खलपृ० १४६
मन्दाकान्ता, स्वी० 'मन्दगतिमान्', भिवा-वरसी, यु० द्वि०, १८३, ३ ख
संस्कृतपडानुक्रमण, २५७

-मिन्, मित प्रत्ययान्त शब्द, ८७ क जाला, 'मुरझाना', कान्त, १६०, (;


वष्टि, 'आँख बन्दकरना', शुक, १४९ प्रेरणार्थक १६८, :
य सम्बन्ध वाचक सर्वनाम 'जो' १ १४;
क, २
बवा, वत्वार्थक प्रत्यय 'छोड़कर', क के साथ, ११९ खा, 'जो-जर
'सिवाय', १७९ ::९ ग
प्र, 'छोड़ना', क्या गण, सार्वधातुक नय, कर्मवाव्य प्रत्यय १२१; १५४;
अंग १३३ ठ १: तुर १४९, २; योग्य अर्थ वाला कृत्य प्रत्यय
१६२, १; १८२, १ ख; नत्वा
कर्मणि लुइ:- १५५
सुहा, किकर्तव्यविमूढ होना', ६९ ख, की प्रत्यय १६४; यम और
सत रूप ६९ ख अन्त प्रत्यय : ७२; नामक
सुहु:, कि० वि० 'बार-बार', १८०, प्रत्यय, १७५; दे० कहूँवाचक
प्रत्यय, पृष्ठ १४९; ससयेय प्रत्यय,
पृ० १३८
१ ०७
मूर्वन्, पहुँ" 'सिर, ६; ९० यत्, 'यज्ञ करना, जिद १३५, ४;
मूर्धन्य, वि० 'शिरोभाग में उत्पन्न १३७, र ग; कर्मकार १५४,
होने वाला', ६ ६; आत्मनेपद में लिटूस्थानीय
मृ, 'मरना', सनात १६९, १;अभ्य ववसु प्रत्ययान्त, १५७; अत,
स्त रूप १७३ ग १६०, २; १९९, (; १९९अ,
मृजू, 'साफ करना, सार्व० अंग, पृ० १७३
: ३३ अ (; १३४ अ : ख यम्, 'प्रयत्न करना, चतुर्थी के साथ,
मृतभतृबका, वि० जिसका पति मर २०० आ २; सप्तमीके साथ
गया है', १८९ प्र २०४ ग
मृदु, वि० 'कोमल', ९८ "यत्, परिमाणबोधक प्रत्यय, १ १८
मे, सर्वनाम, आमद का चतुर्थी, धम्ठी य-प, कि० वि० 'जहाँ से' १८०,
का अनुदात्त रूप, १०९ क; पृ० १३८

१९५, : ख यति, सर्व० 'जितने', ११८ क


जाना, 'पढ़ना', सार्वधातुक अंग १३३ य-त्र, क्रि० वि० 'जहाँ', १८०, पृ०
अ ५ : ३८
२५८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
य-था, क्रि० वि० 'जैसे' १८०, पृ० युधि-जिर, तत्पु० समास : ८७, ६ क,
( ३८ पर १५६
यदू, संयोजन 'कि' १८०, पृ० १३९ युवती, स्वी० ९५ ग
यदि, संयोजन 'यदि' १८०, पृ० २१८ युवक पहुँ० 'युवा, ९१, ४
यत्, 'रोकना', प्रथम (याद) गण युवात्, सर्व० 'तुम दोनो", १०९
१३३ अ २, लिद १३९, २ यु-मदू, सर्व० : ०९
यबीम, तुलनार्थक, 'आयु में छोटा', यु6मतीय, स्वामित्वबोधक सर्व०
: ० ३,२ 'तुम्हारा' ११६
यशसू, नयु० चल ८३ यूयम्, सर्व० 'तुम', १०९; १९३,३ क
(यत्, तुलनार्थक प्रत्यय, १० ३, २ क येन, संयोजक, जिससे कि', 'जिस
या, 'जाना', १३१, ६; तुम, १४६; कारण से' १८०, पृ० १३९
द्विकर्मक, १९७, १ क योजन, नप. 'नी मील', १९७, २;
(, (मगिना', द्विकर्मक, १९८, र २०३ अ
य., यदा, सर्व० 'जैसा', १ १७ र, मूलत: पद का अन्त्य वर्ण ४६,
पा० टि० (; ४७; ५०; रकम
यावत् 'सर्व०' : १८, कि० वि० 'अभी'
२१२, व्य; संयोजक १८० प० राहत शब्द ८२
: ३९, उपसगाँत्मक कि० की स्व, कृत्प्रत्यय, पृ० १४६; तद्धित
१७७ क प्रत्यय, पृ० १४९
यु, 'जोड़ना' लद, १३४, अ १ क; रचु, 'बनाना', कर्मवाव्य प्र, १५५ क
लिव १३७, १क रत, अत, 'मबन रहना' है 'संलग्न
यु, कृत्प्रत्यय १८२, १ख रहना', २०४ हु.
युक्त, कमल 'लगा हुआ' आदि है
रत्न-भूत, कान्त, 'भूत-नी-हुआ, रहा',
सप्तमी के साथ, २०४ ग:हैं 'रत्न रूप', १८८, १ ग; १८४,
: ख, विशेष, पृ० १५१
तुमुन्नन्त के साथ, २११ध
रत्ती-भूत, अता 'रत्न-रूप में परि
युन, 'जोड़ना', योग्य अर्थ वाले कृत्य वर्तित' १८४, १ ख, विशेष,
प्रत्यय के साथ १६२, १ ग; पृ० १५१
कर्म., सप्तमी के साथ २०४ रबी, दू० 'सारथि', वैदिक रूप, पृ०
ग; तुमुन्नन्त के साथ २११ ग २२६
संस्कृतपबानु७मणी २५९
रयोद्धता, स्वी० एक सरे, पृ० 'उगाना' १६८, २; कर्मवाव्य
२२ ० लुक १५५ का ४; सन्नन्त १७०,
रश 'आरम्भ करब, कर्मवाव्य इ: :क
१५५ क; सन्नन्त १७१, ३. रै, पूँ० 'धन', १०२
रब, 'प्रसन्न होना', अ, १४४, १ नत, तद्धित प्रत्यय २- १८२, पृ०
राजू, 'चमकना, लिड़, १३९, : १४९
राजत, यु० 'राजा, ९०, १; १८९, लक्षमी, स्वी० 'लक्षमी', : ००, ४
२ग लए, 'चिपकाना', सप्तमी के साथ,
राज-पुत्र, पृ:० 'राजा का पुत्रों, १८९क २०३ ड:
राजर्षि, पूँ० राजा ऋषि, राजा लधीयसु, तुलनार्थक, 'हलका',
होते हुए ऋषि, १८९, १ १ ० ३अरे
राजय, नामधातु 'राजा के तुल्य लघु, वि० 'हलका' स्वी०, उबी
कार्य करना', १७५ ९८ग
रात्रि, स्वी० 'रात', १८८, २ ग लब, 'पाना', प्रेरणार्थक १६८, ४
राक 'सफल होना', इ: १४९ क १ सन्नन्त १७१, ३
बरु, उ-प्रत्यय, पृ० १४६ लिखु, 'लिखना', कान्त १६०, ६
रुक ( स्वी० 'कान्ति', ७९ क लिपू, 'लीपस, लद १ ३३ इ १
रुम, २ 'बच्छा लगना, चल के लिहा, 'चाटना', ६९, लद १२७, १;
साथ, २०० अ २; ष-ठी के कतृबवाचक ८१
साथ, २०२, : ड: ली, 'चिपक, अन्त १६० :
रुजू, स्वी० 'रोग', ७९ लुप, 'तोडना', लद १३३ इ १
रुद, 'रोना-लटू, १३४ अ ३ क, पृ० खुब, 'चाहना', योग्य अर्थ वाले कृत्य
९२ प्रत्यय के साथ १६२, ३; चतुर्थी
रुधु, 'रोकना', लटू, १२७, ३; लुत् के साथ २०० अ २
१४४, ५; खुद १५१ क, परार्म०, लु, 'काटना', लद, १३४ ऊ १, पृ०
पृ० ८८-८९ (जि; कान्त, १६०, : ब
रुहा, 'चढना', प्रेरणार्थक रोपय लोक, पूँजी एक०, बहु" 'संसार, जोय,
२६ ० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

: है३' : वर, 'वमन करना', जिद १३९, २


स्व, कृप-प्रत्यय, पृ० १४६ वयम्, अस्मद का बल 'हम', १०९
वदेम, सरे, पृ० २२० वरण नदृ० 'अपेक्षा कृत अच्छा'
वच, 'कहना', लिय १३५, ४; १३७, १८०जपृ० १४०; २११
तो ग; १३८, ८; दुई १४७ क; वरावणिन्, वि० 'सुन्दर रग वाना'
कर्मवारय १५४, ६; लानत १८९ अ
१६०, २; योग्य अर्थ वाले कृत्य
वरीयता वर का तुलनार्थक, 'अपेक्षा
प्रत्ययके साथ १६२, : ग; मशरद', १०३, २
वत्वार्थक १६३; १६४; द्विकमंक वर्जयित्वा, 'छोड़कर, सिवाय', १७९
१९८, २
व८न्द्रचय, 'ठगना', ममवामी के साथ वर्णय, नामधातु 'वर्णन करना',१७५क
२०१ ख वर्तते, है वर्तमानार्थक कृत्प्रत्यय के
स्वत, १ बब प्रत्यय पृ० १४९; साथ २०७; ११० ख

वत्प्रत्ययान्त शब्द ८६; ८९, पा० वर्तमान, वर्तमानार्थक कृत्प्रत्यय


टि० भे; ११८; कनवा-जय भूत (शान्त) २०५ ख
कालिक (स्का) प्रत्यय के रूप क्यों:, स्वी० बल 'वर्षा ऋतु' १९३,
में १६१; २०८ ३ ध
स्वाद, र निपात 'तुल्य' १८० पृ० गोष्ट, अतिशयार्थक 'सब से अधिक
१४० वृद्ध, १०३, २ख
वद, 'बोलना', लिक १३७, २ग; अ, वर्षन, तुलनार्थक 'अधिकतर वृद्ध',
१४५ खा, बतान्त, १६०, ३क;
: ०३, २ ख
यमाठी के माथ, २०२, : ध
(, 'मारना', कर्मवाष्य खुर १५५ क वण 'चाहता', १३४ अ र क
वधु, स्वी० 'बहू', १००, पृ० ५९ वसू, १, "रहना', लिटू १३७, २ ग;
आवत कृत्प्रत्यय, पृ० १४६; तद्धित लुक १४४, (; लम, १५१ ख,
३; सत १६०, ३ का, २०३ ख
प्रत्यय, पृ० १४९: वर प्रत्ययान्त
शब्द, ९० वन्कास्वीलिच९५ ग प, २, 'पहनना', लिटू, १३९, २
वर, 'बीना', जिद १३७, २ ग वक ३हैं सर्व० अनुपात रूप : ० ९ का,
सं-दानु-महाँ २६१

१९५, १ ख २; यल (अभ्यस्त) रूप १७२


प्यारा लिह स्थानीय कृत्प्रत्यय ८९; क
१५७; १८२, १ ख विद, २ 'पाना', लटू, १३३ इ १;
वसन्ततिलका, स्वी० सरे, पृ० कान्त १६०, १ क
२२ : विदित, विद 'जानना' से क्त प्रत्य
वहा, 'ढोना' ६९ ख; लिव १३७, २ यान्त 'ज्ञात', मंठी के साथ
ग, तुमुन्नन्त १३७ २०२, ३ क
वा (वे), 'बुनना' कर्मवालय १५४, विद्यते, है विद्यमान है/ षहठी के
अनियमित ३, पृ० ११५
साथ २०२, १ क
वा, अनुदात्त निपात, संयोजन 'या',
विमा, वसु प्रत्ययान्त 'जानता हुआ',
१८०, पृ० १४०
८९ ख
गोमद, वि० 'उत्तम वर ८७ क
आत्, तद्धित प्रत्यय, पृ० १५०; वित
वाच, स्वी० 'वाणी' ७९
वाचस्पति, हुत 'वाणी का स्वामी' प्रत्ययान्त शब्द ८७ क
विना, उपसर्वात्मककि० वि० 'विना',
१ ८७ क
वारि, अनुदात्त सर्वनाम १०९ क १७७ ख
वार, नप, 'जल, ४६, पा० टि० १ विनाशिनी, वि० स्वी० 'नाशक/
वारि, न१त्० 'जल, ९८ क, ख आते के साथ २०२, २क
वि-की, 'बेचना', चतुर्थी, षा-ठी, विपुल स्वी० शलोक वृत्त का प्रकार,
सप्तमी के साथ, २०४ ख पृ० २२०
विजू, 'पनि, कान्त १६०, १ख वि-भक्त, कान्त, कम-य और
वि-वृ, 'देना', सप्तमी के साथ कर्मवाष्य में, २०८ ख
१ ०४ख वि-युन, 'पृथकू होना', प-अमी के
विद, १ 'जानना-लड-प्रथम'' बहु०, साथ, २० : ख
१३१जी; लिटू, १३९, ३; लिटर वि-राम, पूँजी 'सीधी लकीर, ९
स्थानीय कृत्प्रत्यय १५७ क विशु, १ पु:० 'प्रजा, ७९
प्रेरणार्थक १६८; सन्नन्त, १६९, विशु, २ 'प्रवेश करना', कर्मवाध्य
२६२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

लुत् १५५; सन्नन्त, १७०, ( ग, वर्तमानार्थक कृत्प्रत्यय के


वि-शेष, दु० 'विशेष प्रक-र का', साथ २ ०७
तत्पु० के अन्त में १८७ ग; वृद्ध, 'प-का तुलनार्थक : ० ३, २ ख
षरुठी के साथ, २०२, ६ वृद्धि स्वय सबल स्वर कम, १७क;
विश्व-जिता वि० 'सब को जीतने १९; २२; २३; ९९, ४; १०१;
वाला' १८७ ख १२५, ४; १२८; १३४ अ :
वि-., 'विशवास करना', षष्ठ, के क, ख; १३५, ३; १३६,२, ३;
सनाथ २०र, १ ग; सप्तमी के १४२; १४४, उ; १४५; १५५;
साथ, २०३ हु. १६२, ( ख
विस्वास, पूँजी 'विस्वास', सप्तमी के वृत, 'बढना', दिष्टधा के साथ १८१,
साथ, २०४ घ पृ० १४१
विश्वहचु, वि० 'चारों ओर व्याप्त', औ, 'बढाने वाला' ७७ क
९३ क वेद, वर्तमानार्थक लिवा 'जानता है',
वि-सर्ग, पतित 'कठोर स्वास, ४, पा० १ ३९, ३
टि० १; ६, पा० टि० ४; १५, वेदय, प्रेरणार्थक 'बताना', चतुर्थी
८; २७; २९, ६; ३१; ३२ या षा-ठी के साथ १९८, २ क,
क; ३७; ४३; ४४; ४५; ४६; ४क
४८; ४९; ८२; पा० टि० २ वै, पादपूति के लिए प्रयुक्त निपात,
पृ० ४८ १८०, पृ० १४०

वि-श्व, 'भेजना', द्वि-क, १९८, वैतालीय, नयु० मामा-बद, पृ"


३; चतुर्थी के साथ २०० अ : २२ १
ख व्यम्, 'बाँधना, लटू, १३३ आ २;
विरत कान्त, कतृ:वाव्य और कमी लिड़, ( ३७,२ग; दुई १४९ क :
वालय में २०८ ख व्यवसिता कान्त, 'निश्चित', चतुर्थी
वृ, 'गुना', लिए १३६ क; सप्तमी के साथ २०० आ २
के साथ २०४ ग व्यवद्धि, स्वी० 'व्यय की बुद्धि
वृत (वर्तते), सप्तमी के साथ, २०३ अर्थात उसे व्यय मानना' :८७,
'४द्रि१रिवि११षेबणी
- २६३
५; १९९, ( क आन, 'शासन करना', लद १३४ अ
वस्तु, 'काटना', लटू, १३३ इ ३ ४क, कमरे-य, १५२ कर
(, प्रथम वर्ण शु का महाप्राण छू में शिखरिणी, स्वी०, 'सरे', पृ०
परिवर्तन २२ :
शर, 'कहना, चल के साथ, २० ० शी, 'सोना', द्वितीय गण, लद, : ३४
अ१क : अ ग; सन्नन्त, १६९, २
शत् 'समर्थ होना, लद १३४ इ २; शीतोष्ण-किरणों, पु-, द्वि० चन्द्रमा
योग्य अर्थ वाले कृत्य प्रत्यय के और सून १८९ ग
साथ, : ६२, ( ग; सन्नन्त, शुचि, वि० 'पवित्र', ९८
१७१, ३; चतुर्थी केसाथ, २०० शुनी, स्वी० 'कुतिया', ९५
आ२; तुमुन्नन्त के साथ, २ : १ग ए, 'शोभित होना', सन्नन्त १६९,२
शक्य, योग्य अर्थ वाले कृत्य प्रत्यय के शु, 'नष्ट होना', सन्नन्त, १६९, २
साथ, 'सम्भव', तुमुन्यात के अद, 'हृदय-धा 'रखना' के साथ
साथ २१ ( घ समस्त १८४ ख
शत्कू, 'शका करना', नत प्रत्ययान्त अब, 'थकना', दिवादि० जैद, : ३३
१६०, ३
आ :
शद.चार्या:, परा, विशेष आदर आवयु, प्रेरणा-, 'सुनाना', चतुर्थी
प्रकट करने के लिये बहु० का या षसुठी के साथ १९८, ४ क
प्रयोग भि, 'आश्रय गो, लिह १ ३७, (क;
शतम्, नपु० 'सर, १०६ ग जि-वीकृत अ: १४९
शब, 'रुकना', दिवादि गण की धातु भु, 'सुनना', सार्वधातुक लकारों में
१३३ आ १ १३४ इ ३; लिव- १३६ क,
ब-शत्, विभाजक कि० विज प्रत्यय, कर्मवा२ग्य १५४; लुक १५५;
१०८ ग पत्वार्थक १६६; कृत्प्रत्ययान्त
शाद:लाविकीडित, नधि० 'सल, शब्दों केसाथ २०७ ग
पृ० २२१ श्रेयसू, तुलनार्थक 'अपेक्षाकृत अछा'
शालिनी, स्वी० 'सरे', पृ० २३४ १ ०३, २ क
२६४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
शियर, 'चिप-, सप्तमी के साथ, सं-धि, 'लेटना', सप्तमी के साथ,
२०३ हु. २०३ हु.
रपरिपत्रहैहै (तु०
शलोक, ११० 'वर्ण", पृ० २१९ संस्कृत, कान्त,
र२० लैटिन संवा-जिय) १
ववरि, प, 'कुता' ९१, ३ सकदा, पति 'समीप', १७८
प्यारी, दु० द्वि० 'सास-ससुर' १८६, सक्त, बत, 'संबद्ध', (फी और
३ग सप्तमी के साथ, २०२, र ख;
पवन 'साँस लेना', द्वितीय गण लद २०३ दृ.
१३४ अ ३ का पृ० ९२ सक्ति, नस 'ज", ९९, ३
प, अन्तरङ्ग सन्धि, ६४ क, सखि, पति 'मिव', ९९, २; १८८,
वधु, संख्या० 'छा' १०६ क २ग
षोडश, संख्या० 'सोलह', पृ० ६४, सची, स्वी० 'सखीं, ९९, २
पा० टि० ४ सधजू, "लगना', 'चिपकाना', प्रथम
फिर वाठीवृ, अना', प्रथम गण, गण, १३३ अ४; सप्तमी के
१३३ प १ साथ २०३ हु
सुको बहीं जाताहै, ६६ अता (; य, असल "होना' का शमन १५६
८९, पा० टि, २; १५१ ख ३; क;२०५ज१ भूख
१७१, (; वल्कि हो जाता है, ६७; सत्यम्, कि० वि० 'कत:, अवश्य,
लोप हो जाता है, ६६ अता २; सु निश्चय से', १८०, पृ० १४०
अन्त वाले शब्द, ८३ सद, बैठना, प्रथम गण, : ३३, अ १,
बरि, दुर विकरण, १४३;१४४ प्रेरणार्थक १६८
स, सर्वनाम 'वर, ४८;११०;१९२; सदृश, वि० 'तुला', तृतीया और पठन
१९५,२ख के साथ १९९, २ ग
बस, जूत् विकरण, १४१ का सन्नन्त सं-धि, पूँ० ।शठदो के अन्तिम और
प्रकिया का प्रत्यय १६९ प्रारम्भिक वरना का एकीकरण'
संवृत, बत, 'बन्द', संवृत 'अ' का १६; १४४, ५
उच्चारण, १५ सं-निधि, दु० 'समीप, १७८
संस्कृतपवानुक्रमणी २६५

स-पत्नीम् वि० 'पत्नी से युक्त', २, इ ३; १३४ अ २ क; लिह,


: ८९ अ १३५, ४; १३७, २ ग; कर्म
सत्, उपसर्ग, कृ 'करना' से पूवे, : ३४ वाक्य १५४, ६; कान्त १६०,
हूँ २, ३ क; सन्नन्त, १७१, २
सम, वि० 'तुल्य', तृतीया या शती के सत्-भावा, प्रेरणार्थक, 'अता करना',
साथ, १९९, र ग; २०२, २ घ ष०ठी या सप्तमी के साथ, २०२,
सब अक्षम्, उपसगाँत्मक क्रि० वि०, १ घ; २०३ छ
'सामने', १७७ ध सम्यक, वि० 'ठीक, ९३ क
समना-तरि, कि० विष्णु 'चारों ओर', सम्राजू, १(० 'सब', ७९
: ७ उई क सर्व, सर्वनाम, वि० 'सभी, १२० ख
समता उपजाति-मक कि० वि० 'साथ', सर्व-प, उपसगाँत्मक कि० वि०
तृतीया के साथ १७७ ख; १९९ 'चारों ओर', १७७ क
२ख सहम 'सहन करना', बता ६९ ख;
समया, उपसमंत्मक कि० वि० तुमुन्नन्त १६७
'समीप', द्विकर्मक १७७ क सह, उपसगाँत्मक कि० वि० 'साथ',
समर्थ, वि० 'योग्य', सप्तमी के साथ, तृतीयाके साथ, १७७ खा, १९९,
२०४ ग; तुमुन्नन्त के साथ, २ १ : २, पृ० :७३
समान, वि० 'तुल्य, तृतीया के साथ, सहल, नप, 'एक हजारों १०६ ग
१९९, २ग साकमू, उपल-दमक क्रि०वि० 'साथ',
समीप, नप, 'समीप, १७८ तृतीया केसाथ, १७७ख; १९९,
सब-पदु, 'समर्थ होना', चतुर्थी के २
साथ, २०० आ : साधु, कि० वि० 'बहुत-छा', १८१',
सब-प्रसारण, यु, वृ, रच का इ, उ, ऋ पृ० १४२ :
में परिवर्तन, पृ० : था पा० टि० सायं-मातर, कि० वि० समास, 'साय
(; पृ० ३४, पा० टि० १; पृ० और प्रात:', १८६, ३
५०, पा० टि० ३; ९१, ३, ४, साकी, उपसर्मात्मक कि० वि०,
पू; ९६, २; लटूमें १३३ आ 'साथ' तृतीया के साथ, १ ७७ खा,
२६६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

: ९९' २ सन्नन्त १७०, (; सप्तमी के


मिच, 'समना,' लटू, १३३ इ (; साथ, २०३ ग
लुइ: १४७ स्थित, क्यान्त 'रुका हुआ', २०५,
जीअ, अ: विकरण, १४२; १४६ १ ख
सु, 'निर्चडिना', लटू, १२७, ४;१ ३४ स्थिर, जि० 'निश्चल', रथ का
इ (; पृ० ८८ तुलनार्थक, १०३, तो क
सु-मनक वि० 'प्रसन्नचित्त', ८३ क स्था, 'स्नान करना', प्रेरणार्थक : ६८,
पृ० ४२ अनियमित (
सु-हृद, 'मित्रों, ७७; १८९ ख लिहा, 'चिकना होना', कान्त६९ क
सृ, जाना, लिक १३६ क स्मृशु, 'स्पर्श करना', लुक १४४, ४;
सृजू, 'पैदा करना, लुक १४४, ४, इ, १५१ ख, १
लय १५१ ख, (; सन्नन्त -पृशु, वि० 'प-नेवा-, ७९ घ
१ ७०,: स्मृहा, 'चाहना', चतुर्थी के साथ,
सृपृ, "सरकना', लुइ, १५१ ख, : २०० अ २
स्तु, 'प्रशंसा करना', जिद १३६ क; स्म, निपात, लद के साथ प्रयुक्त,
१३७, (; १३८, ५; सन्नन्त २१ २, १क
१६९, (; स्मृ, 'याद करब, कर्म० १५४, ३;
स्तु, 'बिखेरना', लि-इ, १३७, (का, षच्छी के साथ, २०२, १ ख
कर्मकार १५४, ४; कान्त स्व, लुट प्रत्यय १५१
१६०. : अवरा, स्वी० 'सरे', पृ० २२१
स्वी, स्वी० प्यारी, औरत", १ ०० क, अजू, स्वी० 'माला,' ७९ ख
पृ० ५९ अश्व,, 'बहना', लिक १३६ क
नथ[है 'रुकना', लिटूस्थानीय क्यसु (., स्वी० 'चमचा, ७९ क
प्रत्ययान्त, ८९ खा लटू, १३३य स्व, आत्मबल सर्वनाम, 'अपना',
३; प्र, १४४, ३; १४८; : १५ ग; १२० ग
कामत १६०, २; तुमुन्नन्त स्वम्, 'सोना', लटू, १३४ अ ३ क;
१६७; प्रेरणार्थक १६८ क लिक १३७, २ ग; कर्पवाध्य,
संस्कृतपदानुक्रमणी २६७
१५४, ६; क्यान्त, १६०, २;
१६५ क; प्रेरणार्थक १६८, ५;
सन्नन्त, १७१, २ सन्नन्त १७१, (, ४
स्वयम्, सर्व० 'स्वय" : १५ क हन्त, अव्यय, 'प्रार्थना करता हूँ',
स्वर, 'स्वर्ग', ४६, पा० टि० : १८१, पृ० १८२
स्वस्ति, 'उतरती हुई ध्वनि, पृ० हरिणी, स्वी० समत्व पृ० २२१
२३ : असू, नप, 'हवि', ८३
स्वर-पति, दु० 'स्वर्ग का स्वामी', हस्त, प, 'हाथ', बहुबीहि समास में
५० क अरीय, १८९ झ
स्वसृ, स्वी० 'बहिन', १०१ क हस्त-गत, क्तप्रत्ययान्त 'हाथ में आया
स्वस्ति, आशीर्वादांत्मक अव्यय, हुआ', पृ० १५५, पा० टि० तो
'कल्याण", १८१ पृ० १४२ लत्यववत, पूँजी द्वि०, द्वन्द्र समय
स्वागतम, क्रि० वि० 'स्वागत है,' 'हाथी और घोडा', १८६, (
चतुर्थी केसाथ २०० अ ३ हा, :, 'जाना', लद : ३४ आ २
स्वामियों पु, 'स्वामी', ८७ अ हा, २ 'छोड़ना', लद १३४ आ, २
स्वामीय, नामधातु 'स्वामी के तुल्य का कर्म० २०१ ख
मानना' १७५ हा, ३ 'लेदसूचक अव्यय' 'हाय',
दू, ६ पता० टि० ३; २२, ६; प्राय १८१न्पृ० १४२
रिभक हा का महाप्राण होना, हि १ निजता, जिद, १३९, ४
५४; हा की अन्तरङ्ग बन्ध,
हि २, संयोजन 'कयोंकि, व.:,
६९; हकारान्त शब्द, ८१ भला', अर्थों में, १८०, पृ०
ह, अनुदात्त निपात १८०, पृ० १४० : ४०
हनु, 'मारना, लिटूस्थानीय बवसु "हि, लोट म० उ० का प्रत्यय,
प्रत्ययान्त ८९ ख; ९२; लद १३१, ४
१३४ अ २ ग; जिद १३६, ३; हिंसु, 'हिंसा करना', लटक : ३४ ई
१३७, २ख; १३९,४; लुटू, हु, 'हवन करना', जप १२७, २;
१५२ क, शत्रन्त १५६ का शत्रन्त १५६; १५८ क; योग्य
कान्त १६०, २; कत्वार्थक, अर्थ वाले कृत्य प्रत्यय के साथ,
२६८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
१६२, (ख; धातुरूप, पूछ ८७, उब, १ ०३, २
८८ हु' (इं), 'पुकारना, लिय १३६,
हू, 'बुलाना-वा-का, यतिशयार्थ में ४; अन प्रत्ययान्त लिटर १४०,
अभ्यस्त रूप, १७२ क ३; कम-अ, १५४ क ३; यत्
हृसीयरि, तुलना-, 'अपेक्षाकृत लुगात, १७२ क
सामान्य अनुक्रमणी
इस अनुक्रमणी में प्रयुक्त संकेतों की व्याख्या के लिए दे० प्रथम परिशिष्ट
और संस्कृत अनुलमणी का आरम्भ । निर्दिष्ट पदकों से भिन्न अंक अनु
उछेदीकों को बोधित करते हैं ।
अजन्त श०ब्दों के रूप, ९७-१ ०२; अ, य:); १४९ क (द्वि-स्वीकृत
आ अन्तवाले शब्द, ९७; इ, उ अ); १५१ ख (लम); १६८
अन्तवाले शब्द, ९८; ई, ऊ (णिजन्त); १७१ (स-त);
अन्तवाले शब्द, १० ०; ऋ अन्त १७४ (यत् जुगत
वाले शब्द, १ ० १; ऐ, ओ, औ अनि-बोधक सर्वनाम, : १ ९
अन्तवाले शब्द, १०२ अनुकरण, ईकाई स्वीलिङ्ग श-खी
अयम, १२८; अप के साथ समय के अन्त्यावयव का आकारान्त
२३ ग; १२८; वैदिक, पल स्वीलिङ्ग शठदों पर प्रभाव, पृ०
२२६ (नियम ५) ५४, पा० टि० ५; अनू-पन्त
अतिशयार्थक प्रत्यय., : भी ३ह१; वाले शाखों कति-पृष्ठ-री, पा०
शठ, १ ० ३हैं २ . टि० (; उकारान्त शब्दों का,
अनियमताएँ, स्वरसन्धि की, २३; प० ५६, पा० टि० (; बका
व्यऊजन सन्धि की, ४८; ४९; र-त शब्द-त् का, पृ० ५७, पा०
शरद रूपों में, ९१ (अत अन्त टि० (
वाले शब्द); धातुरूपों में; १३३, अनुदात्त रूप, १०९ क; ११२ क;
१३४(लद); १ ३९(लिट) १४४ पृ (त ७२
(सृ-लुइ), १४७ क (द्वितीय अनुदात्त-नाम, १०९क; ११२ए
संस्कृतपदानुयणी २६९
१९५ खा वैदिक प्रयोग २३ १ १५० (आशी-लेद); नासिका
२३२ १५१ ख २ (लट; १६८, ४
अनुरूपता यथा स्वभाव बोधन, तृतीया (णिजन्त)
द्वारा प्रकल्प, १९९, : ख आब प्रत्ययान्त रूप : लिवा १४०;
अन्त्य व्यहजन शेष, २७; य; ६१ लुट, १५२; वाक्य-रचना में
अपरिवर्तनशील हलन्त शब्द, ७५ २१४; ऋग्वेद में अभाव पृ०
८३ २२७, ९ ख
अध-वर, १७ आ (; २०; २९, ४ आवश्यकता या उपयोगिता बोधक
अवेस्ता, १३१, ६; १३४, २ ख; शब्द, तृतीया के साथ प्रयुक्त
१३७, २ क,पा० टि० : १९९, : छ
अधिकरण, ९६, २; ६६ आ १ क आकीलित्, १५०, २१७
अव्यय, १७६-८१; कत्वार्यक, १६३ दस बारे में,' तृतीया से अभिहित
६ ;२ : ० अर्थ, १९९, : च
आगम, स्वरों का : अ, इ, ई, : ३४ उच्चारण-सम्बन्धी निर्देश, १५
अ ३, (लटू मा; ई, १३४ अ उच्चारण-स्थान, संदे-करों के, २९
२ ख (लीद में): १७२ क; उपसर्ग, १७६; धातुओं के तय
१७३ खा १७४ ख (यत् समस्त, १८४ क-वैदिक, २२७,
लुगात); व्यऊजनों कर : कू ३५ २३ ०
(सन्धि मा; द, ६६ अ २ (प्र० उपसगाँत्मक क्रिथाविशेपण, १७७;
बहुत न०); १०५, ४; १०६ क संज्ञाएँ, १७८; कत्वार्थक, १७९
(ष० बल); १६८, ३ (धर ऊष्ण, २९, ५
णार्थका; १७४ ख (यत् ऐतिहासिक वर्तमान, २१२-१; २१३
अन्त); त यता न, १२७, ३ कठोर वर्ण, ६, पा० टि० ५; पृ०
लटू;., १६८ या (णिजन्त); इ; ३१.१; ३२; ३३
यु १५५ (तुर कर्म०); रखा, कर्ता, तृतीया से उक्त, १९९; आएँ,
१३४ अ : ग (लद); शुधु, १०१; १५२; १८२, :
सच ५६ आ १ (सन्धिमा; सू कतृ२वबीधक अठी, २०२
२७० संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
कतृशवाव्य (पर-पद), १२१; भूतल कालार्थक श-०दों के साथ-मठी,
बैक क प्रत्यय का कतु-य में २०२, (; सप्तमी, २०३ झ,
प्रयोग, २०८ का ख कालावधि, ( ९७, २(द्विनीया);
कर्मधारय समास, समानाधिकरण काल के भीतर १९९, १ ध
में संज्ञा शब्द द्वारा, १८८, (; (तृ०)-के बाद, २०२ व
विशेषण द्वारा, १८९२; किया (पत्-जमी)
विशेषण द्वारा, १८८,३ कृत्प्रत्यय, १२२; १५६-६२; १८२,
कर्मवाव्य, १२१; १५४ (पम); (; १८२, : ख;अर्थ २०६;
तुत् १५५; रचना, १९०; १९६; भावे शती के साथ, २०५, २;
१९८, ४ खा, १९९, २ख;२१० भावे सप्तमी के साथ, २०५, (
कारक-चिह्न-ने-सुक साधारण, ७ : ; खा लद, ८५; १५६; १५८;
कभी-कभी समानों में विभक्ति २०७ (वाक्या-चना मा; लट
का लगाना ( अराअसुर समास, ४५; १५६; १५८, लिव ८१२;
१८७ का १५७; १५९, लिह कर्म.,
कारण अर्थ में पहचमी, २०१, : १६०; २०८; २१३; २१३ ग
कारण, तृतीया द्वारा अभिहित, (वा-चना) में; य१२ठी के साथ
१९९, ( क; पञ्चमी द्वारा, २०२, ३ क; ल८टूकर्म० १६२;
२० (, ( २०२, ३ ख; अर्थ और रचना,
कारण या प्रयोजन, तृतीया द्वारा २०९; लद-स्थानीय और
अभिहित, १९९, : छ लिदस्थानीय कृप-प्रत्ययों के
कार्य का उद्देश्य, चतुर्थी द्वारा स्वीलिङ्ग; ९५ क, खा लिङ्ग
अभिहित, २००, आ (, २; में विधेय के साय संबन्ध, १९४,
सप्तमी द्वरा अभिहित, २०४ ३ ग; वैदिक, पृ० २२९-२३०
ग; २११ कृत्प्रत्ययान्त संज्ञाएँ, १८२, :
कार्य का लक्ष्य, द्वितीया से अभिहित, कृदन्त और तद्धित रूप, १८२
१९७, १;चतृथों से, २०० अ वत्वार्थक प्रत्यय और उपसयों में
ख, सप्तमी से, २०४ सादृश्य, १७९; २१ ० ग
संस्कृतपडानुख्याती २७१
कत्वार्थक प्रत्यय, १६३-६; वाक्या वर्ष
चतुर्थी,
वर्ण,२००;
२९, २०२,
६ (अ, णिजन्त
विन्यास में २१ ०; वैदिक, पृ०
२२९ धातुओं के साथ, १९८, ४ क
किया का कारक के साथ समन्वय, णिबन्त, १२७, २ क; १७२-४
१९४, २, ४; क्रिया स्वर, पृ० तद्धित प्रत्यय, १६ क;१८२; १८२, २
२३२ 'रि, पऊचमी सेअभिहिता २०१, २
क्रियाएँ, गत्यकि, (मवाचक संज्ञा क
शब्दन के साथ, १९७, : क; तनय, उद्धव, ६; पा० टि० १;
भयार्थक पउश्वभी के साथ, २० : १ (४, ७; तालव्य अन्त वाले
क; पृथगर्थक पत्-जमी के साथ शब्द ७९; अभ्यास (द्वि-दबी
२०१ ख; १९९, २ ख तृतीयाके करण) में कंठय वहा के स्थान
साथ; शठी के साथ, २०२, १ पर, १२९, ३
तुमुन्नन्त, (तुर प्रत्ययान्त शब्द),
क्रिय-विशेषण, 'बार' अर्थ वाले,
१२२; १६७; वाक्यविन्यास में
१०८ का चुना' अर्श वाले,
पञ्चमी के साथ, २०१, २ ग; २१ (; कमेंवाउय में अभाव,
षशठी के साथ, २०२, ५ क २११ ग; वैधिक तुमर्षक रूप,
पृ० २२९-२३०
कियाविशेषण, : ८०; सख्यावाचक,
तुलनार्थक, ईयर प्रत्ययान्त, ८८;
१ ०८, का ख, ग; अनिश्चय १०३, २; तर प्रत्ययान्त, १०३,
बोधक, ११९ क; उपसगाँत्मक,
१; १८२, २; तुलना अर्थ होने
१७७; (मफी के साथ, २०२,४
पर पअचमी, २०१, २ क
शियाविशेषण समास, १८६, ३; तुलनार्थक प्रत्यय, : मा३; समयों में,
१८८, ३, निपात, १८० १८८, १ख: १८९ हु; तुलना
गौणकर्म, चतुर्थी से अभिहित २ ० ० होने पर तर प्रत्यय का अभाव
अ, २०२, १ उ, सप्तमी से १९९; परूवमी के साथ, है०२,
अभिहित, २ ०४ ख २क
गौण तिज: प्रत्यय, : ३ : तृतीया, उपसगरिमक कि० वि० के
२७२ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
साथ, १७७ख; वाक्य-विन्यास ख, वैदिक, पृ० २२७
में १९९; २०२, : च; वैदिक द्वि-स्वीकरण, छ, को ५१; र और व
पर २२४ को, ५२
यय, १५, ६, ७; ३४-४१; द्विवचन, वाक्य में, १९३, २; वैदिक,
तालज्योंभूत, ३८; ४०; ६३ ग; पृ० २२५
मूर्षन्धीभूत, ३९; ४१; ६४; धातु कृदन्त रूपों में, १८२, : क
बर्ग अन्त बाले शब्द, ७७ धातु-गण, दस, १२४-७
देवनागरी वर्णमावा४; (; पृ० ६; धातुरूप, १२१-७५; दो प्रकार,
वैदिक वर्णमाला, पृ० २२३ १२४, १३१; प्रथमवर्ग: १२५;
देशों के नाम, १९३, ३ ग १३३; द्वितीय वर्ग : १२६;
द्रविड़ परिवार की भाषाएँ, २ १२७; १३४; प्रथम धातुरूप के
प्रन्द्रसमास, १८६,१; १८८, २ क; अनुसार चार गणों के रूप,
एकशेष सम-सयुक्त, १८९ ग; : ३२
सम्बन्ध., १८६, ३ ग धातु का वालय, १२१
द्वितीया, वाक्यविन्यास में, १९९; ध्वनि-रोप, प्राथमिक अ का, २१
द्विकर्मक धातुथोंके साथ, १९८; का ४५, २ ख; १३४ अ २ ख;
तुमुन्नन्त के साथ, २११; मध्य अ का (दे० वण-तोप),
उपसर्गों के साथ, १७६, १; मव्य उ का, १३४ प १; १३४
१७७ क, ख, ग, घ; १७९, : कु; अन्त्य तू का, ९०; ९४; २
द्वित्वकार्य, सामान्य नियम, १२९; (प्रथमा); बजिथ अनुनासिक,
विशेष नियम, १३० (लटू); १३९, ६ (.); १३३ अ ४
१३५, १-४ (लिहा; १४९ (लद); १६प्रा, ४ (खिजाना;
(तुरा; १७० (मस); १७३ १६०, हैं (कास); १६५ क
(यहु-लुगात); अपके साथ, (कत्वा-स्का; प्र० पु" बहु०
१३९, ६; अब अन्नवाली अन्त्यावयवन् का, १३१, पू;
धातुओं में, १७३ क (मयास १५६ (लटू); विसर्गका, ४५;
मा; अभ्यास में नी, १७४ क, ४८, ४९ (सन्धिनी; सूका
संस्कृतपदानुक्रमणी २७३

(प्रथमा में), १००, ४ (ईका अन्त वाले, ९०, ९२, ९६; अन


रान्त शब्दों में) अन्त वाले ९३; हलन्त स्वी०
नप-सक, ७३ खा, विशेषण शब्दों के हैपू
इ और उ में रूप, ९८का, १०१ परिस्थितियाँ या ढंग, तृतीया से
घ, प्रत्यय १८३ ख, वाक्य अभिहित १९९, २ क
विन्यास में, १९४, ३ क पगी-मपले शब्द, ७८
नाटक, १५३ पालिभाषा, २
नामधातु, १७५ पहुँहिलङ्ग के प्रत्यय, १८३
नासिका २९, ३; बय, ३५ पौनापुव्यं, दे० यन्लुगन्त
निर्धारण (मठी, २०२ प्रकृतिभाव, १६; २१ ख; २२; ४५;
निर्बल अंग, शब्द रूपों में, ७२; ८४; ४८; ४९
धातुओं में, १३४ अ २; १३७ प्रक्रियाएँ, १६८-७५
(लिसा; वतान्त रूपों में १६०, प्रत्यय दे० अन्त्याबयव
२; समासोंमें, १द्वा५क प्रथमा, वाश्यरचना में प्रयोग, १ ९६;
पञ्चमी, दिशावाचक शा०दों के माथ, कभी-कभी 'इति' के साथ
२०१ ग; वाक्यविन्यास में, कर्म के स्थान में, १९४, १;
२०१; उपसगों के साथ, १७६, १९६ ख
२; १७७ क, ख, ग; १७९, २ प्रथमा, विधेय रूप में, १९६ का
पदक्रम, वाक्य में, १९१ २०७ ग
पद, पद-क प्रत्यय, १६ क; ७३; प्रयोजन, चतुर्थी द्वारा अभिहित, २० ०
७५; ७६ प्राकृत बोलियाँ, २
परसर्ग, १७६ प्रेरणार्थक--णिजन्त प्रक्रिया १६८:
परिवर्तनशील हलन्त शब्द, ८४-९६ ; अय (णिचु) प्रत्ययान्त धातुओं
अत अन्त वाले ८५; ममता यत् में से 'अय' का लोप, १५४, ७;
अन्त बाले ८६; इब अन्त वाले, १५५ क ४; १६०, दे; १६२,
८७; ईयर अन्त वाले ८८; वसू ३ क; प्रेरणार्थक 'अय' प्रत्यय
अन्तवाले ८९; अन (., स्वना का लोपाभाव, १६३ क; १६४
२७४ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका

का, १६८ख; प्रत्यय-पय, १६८ स्थान पर २०८; भूतार्थक


क; १५५ क, ४; वाक्य में लकार, २ : ३
णिजन्त का प्रयोग, : ९८, ४ महाप्राण, २९, ६; ३०, २; प्रथम
बहिरङ्ग सन्ति, १७-५५ वर्ण कोमा, प्रा० ४० नि),
बहु-भूतार्थक जिद (111..), ५३ (शु) ५५ शि); म० प्रा०
संस्कृत में अप्रयुक्त २१३ ड:: है ध्वनि का लोप, ६६; म० प्रा०
गोक, पृ० २२७, ९ ध्वनि के लोप की क्षति-पूर्ति,
बहुवचन, वाक्य में, १९३, ३ क-ग; ५५; ६२ क, ख
बहुवचन शब्द, १९३, ३ घ; मात्राछन्द, पृ० २२१
एकवचन के लिए प्रयुक्त, १९५, मार्ग, 'जिससे', तृतीया से अभिहित
: ग; वैदिक, पृ० २२५ १९९, १ड
बहुग्रीहि समास, कृत्प्रत्ययान्त शब्दन मिश्रित स्वर, ५, ३, ४; ६
के साथ, २०६ क; आद्य तुमु मुख्य तिल प्रत्यय : ३ १
जैनन्त शब्द के साथ, २ : : ख मूर्धन्य, ६, पा० टि० २; १५, ५, ७;
भावार्थक क्त प्रत्ययान्त के बाद 'एव' अन्तरङ्ग सन्धि, ६४; ६५; ६७;
या 'मात्र शब्द का प्रयोग २०की मूर्धन्य अन्त वाले शब्द, ८ ०;
१घ वैदिक छू और लहु, पृ० २२३
भावार्थक रचना, २०५, : ग, २०८ मूर्थन्बीकरण, दन्त्यों का ६४; ६५
क; २०९ ख; २१० य; २१५ ख (ना १४४, २ (धु); ६७ (सू);
भावेषाशी ले० ५, २; उपसगोंके साथ, १४५ (सा
१७६, २ का १७७ घ; १७८; अवर्ण, इ, पा० टि० ५; ३०, :
वाक्य में २०२; णिजन्त धातुओं यात्रा का सावन, तृतीया द्वारा
के साथ, १९८, ४ न दो अभिहित १९९, : ड:
यष्टियों का प्रयोग, २०२, ६ योग्य अर्थ बताने में सप्तमी का प्रयोग,
भावेसप्तमी, २०५ २ ०४ ग
भाषायें, वर्तमान भारतकी प्रचलित-र रामायण, महाभारत २६; ( ५३;
भूतार्थक कृत्प्रत्यय, धातुरूयों के : ८० (उत)
संस्कृतपदानुजमणी २७५
लकमधातु, १२२; २१२-१८ (वाक्य आय की सूचना में, २ १४ क
में); वैदिकपृ०२२६-२२८ लेट के अवशेष, २२२ क; २१५ क;
लक्ष्य, उइ-य, पधचमी से अभिहित, लेट के अर्थ विधिलित् से अभि
२०१, : हित २१६; वैदिक २२८
लजा वाक्य में प्रयोग, २१ ३ ख लीद म० एक०, रचना, १३१, ४;
लिङ्ग-मवय, १९४, ३ ग वाक्य में प्रयोग, २ १५ लोप, ९०
लिङ्ग, ७० क; १८६, (; लिङ्ग (अनू अन्त वाले शब्द), १३४
नियम, १८३; १९४, ३ ग; अया २ ग (लटू); १३४ अ ४
वाक्यविन्यास में, १९४; व्या (धातुमा;१य२ख(लिटू);
करणीचित लिंग के स्थान पर १७१, ३ (सनात); वैदिक पृ०
स्वाभाविक लिङ्ग, १९४, ३ ख २२ ४
लिवा १३५-९;लिटू प्रत्यय १३६; लौकिक सहित में प्रयुक्त छन्द, २१८
धाब-रूप १३८; अपवाद-नियम २२२
१३९; वाक्य में, २१३ वचन, ७०व, १२१ का १९६
लिपि, भारतीय-का उड़ता ३; (वाक्य मा
स्वर-५; व्यहजन-८; ११; १२ वचन-समन्वय, १९४, र क
तुजा१४१-९;स-प्र, १४१का, वर्ण-विपर्यय, १०३, २ (तुबनार्थका;
सू-लूम, १४३; १४४; इन् लुइ, १४४, ४ (सूप); १५१ ख,
१४५; सिष-तुर १४६; द्वितीय ( (लदे, १६७ (तुमुन्नन्त)
वर्ग, प्रथम 'अ' वाल, भेद, वस्तु का मूल्य, तृतीया द्वारा अभिहित
१४७; द्वितीय 'अ-हित भेद, १९९, : ग
१४८; तृतीय द्वित्व वाला भेद वाक्य-विन्यास, १९०-२१८; संस्कृत
१४९; कर्मवाकय लुत् १५५; वाक्य-विन्यास की प्रमुख विशे
वाक्यविन्यास में प्र का जता, १८०
प्रयाग, २१३ ग विधिलित् (वाक्य मा २१६, हेतु
लुटू, १५१; २१४ (वाक्य मा तु-द, हेतुमद्धपबोधक उपवाबयों में,
१५२; २१४ (वाय में); २१६, २ ध; २१८
२७६ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
विभतियां ७ ग; १७६; सबल, ७३; व्यहजनों के उच्चारण-स्थान, २९;
वाक्य में कारकों का प्रयोग ३१; ३७
( ९६-२ ०४ शब्द के आदि में आने वाले 'अ' का
विभाजक कियाविशेषण, १०८ ग लोप, ऐ; २१ अ; ४५, २ ख
विराम-चिल ९ अदन के रूप, ७०-१२०; संज्ञाओं
विशेषण, ८६; ८७; ८८; ९३; ९५ के, ७४-१०२; संख्याओं के,
ग; सर्वनाम १२०; समानता, १०४-८; सर्वनामों के १०९
सादृश्य, तुल्यता अर्थ वाले वि० १२०;वैदिक, पु० २२६
तृतीया के साथ ( ९९,२ग; मंठी शब्दरूपों का विभाजन, ७४; हलन्त
के साथ, २०२, २ घ; तुमुन्नन्त शब्द, ७४-८६; दो अंग वाले
शरद के साथ, २१ : संज्ञा शब्द ८५-८; तीन अंग
विस्मयबोधक अव्यय, १८१ वाले, ८९-९३; अजन्त शब्द,
वैदिक, १;-व्याकरण की मुख्य ९७-: ०२
विशेषताएँ, २२३-२३२ शिलालेख, २
व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ, १८८, : क; षसुठी, कर्म में, २०२
१८९ ख; १९३, ३ क संयोजक निपात, : ८०
उयधजन वर्ण, ६-१३; व्यधजनों के संयोजक स्वर 'अज, १४७; १४९;-इ,
गुण परिवर्तन, ३२, ३७; व्य ८९ का १३६ क; १५२ क;
हजारों का वर्गीकरण, २९-३०; १५७; १६०, ३; १६९
प्याज्जनों का द्वित्व होना, ५१ संस्कृत और वैदिक, :
(:, ५२ (त्, नू), अरीय पल कतृबवाउय में क्त प्रत्य
२७,२८, ३१, ३२, ३३; ७६; वात रूपों का प्रयोग, २०८ ख
अन्त्य व्यायत्म्जन का लोप, २८; सका-चिह्न, ९
६१; संयुक्त---::,::.; संयुक्त संकेतवाचक सर्वनाम का लिङ्ग
वर्ण-सूची, १३; व्यधजनों की विधेय के लिङ्ग के अनुसार,
विशेषताएँ ३०; वैदिक सन्धि, १९४, ३ ग
पृ० २२४ सखिया-अंक, १४
संस्कृत-नु-मण":: २७७

संस्थाएँ १०४; संख्या शठदों के रूप १५४, ४; संयु-वरों की, ५९;


१०५; १०६; वाक्य में संइया व्यधजनों की, ६०; व्यजिजनों
शाखों का प्रयोग, १०६ ग से पूर्व तालव्यायोंकी, ६३; मूधीयों
संख्यात्मक क्रियाविशेषण, १०८; के बाद दन्त्यों की ६४; दन्त्य
समास, १८८, र क सू की, ६७; भी र, जू, वृ, से
संख्यावाचक शब्द, १०४-८; २०२ पूर्व ज की ६८; सू, ता यू, धु से
५क पूर्व हा की; वैदिक, पृ० २२३
संज्ञा, शब्द रूप, ७४-१ ०२ सन्नना, १६९; १७०; १७१;
संरूयेयशब्द, ( ०७ विशेषण, १९७, ३;
संज्ञा-महक शब्द, १९२; १९५ ख
समय (९४
स१न्ध, स्वरूप, १६; 1, बहिरङ्ग : समय और स्थान की अवधि, द्वितीया
स्वर-१८; १९; संयुक्त स्वरों से अभिव्यक्त १९७, २; सप्तमी
की, २१; २२; अनियमित, २३; से अभिव्यक्त, २०३ अ
का अभाव, २४-२६; व्यऊजनों समास, सध-तुक, :६४, १६५ हित्वा-
की, २७-५५; अन्त्य कू, टू, त्, र्थका; १८४-९; सधातुक, १८४,
पूकी-त या ध से पूर्व, ३३; लू सुरत, १८५; आ, १८६;
से पूर्व, अन्त्य त की, ३४;
तत्पु० १८७; कर्मधारय १८८;
तालव्य से पूर्व, ३८; मूर्धन्य से
बहुतीहि, १८९; इब प्रत्ययान्त
पूर्व, ३९; अन्त्य नासिकयों की,
और-क-अन्त बहुग्रीहि १८९ जो
३५; अन्तिम तू की, ३६; ४०;
४१;अन्तिम ब की, ४२;अहितम समीकरण, १६, पृ० ६३, पा० टि०
विसर्ग की, ४३; ४४; ४९; १; अन्त्य तू का-३४; ३७; ३८;
अन्तिम विसर्ग की, ४५, २; ३९; अरीय तू का-३६, २-४;
ठ६; ४८; अन्तिम र की, ४६; ३७; ४०; अन्त्य सू, ४२ आ;
४७; ५०; 11 अन्तरङ्ग ५६; वण-नीका, १३७, २ क, पृ० ९७,
स्वरोंकी,५७ना५८; ऋ की, ५८; पा० टि० 1; १४७ क ४;
१५४, ३; ऋ की, ४८; १७० २; १७१, ३
२७८ संस्कृत-व्याकरण-प्रवेशिका
ममूहवाचक शब्द, बहुवचन में प्रयुक्त ७३; धातुरूरों में १२४; १२६
१९३, : (च); १३४ (लद) १३६
समूहार्थक संज्ञा शब्द, १०८, घ ' (लिया १४२ (प्र)
सम्बद्ध कर्म, १९७,४ सहयोगी वस्तु को प्रकट करने के
सम्बोधन, ७१का, ७२ क; ७६क;९४, लिए तृतीया का प्रयोग १९९
३;९८ खा, वैदिक-यति २२५; सार्वधातुक लकार, १२३-१३४;
उ-का स्वर, पृ० २३२ लकार, २१२ (वाक्य मा; वाक्य
सम्भावना/लक उपवास २१६ में लकारस्थानीय कृत्प्रत्यय,
य; २१८ र०७
सर्वनाम, १०९-२०; व्यक्तिव., सुर प्रत्यय, ७०; तित् प्रत्यय, १३१
१०९; १९५, : (वाक्य मा; (तालिका); अ: प्रत्यय, १३९;
संकेतवाचक ११०-११२; १९५, वैदिक, २२४, २२६
२ (वाक्य मा; प्रशन-वाचक
स्थान की दूरी, द्वितीया से अभिहित,
: १३; सम्बन्धवाचक : १४,
१९७, २
१ १९ ग; आत्मबल : १५;
स्वगत, रचना ७३, पा० टि० (;
स्वामित्वबोधक : १६; १९५, ८३; ८३क; ९५; ९८ ग;
३ (वाक्य मा; समास, ११७;
९९, (, २; १००; १०१ उ,
परि-बोधक, यत, यत् आदि १०३, : का, १०५, ३;४;
में, ११८; अनि-बोधक, १०७; ११७क; ११८; स्वी०
११९;१९५ (वाक्य में); व्यक्ति
विशेष विभक्तिचिह्न (ई और
वाचक सर्वनामोंके जैविक रूप, ऊ प्रत्यय), १००, २; पृ० ५९,
२र५ पा० टि० १; १०० करे-प्रत्यय,
सर्वनाम श०-दों के रूप, १०९-१२०; १८३ क
सर्वनाम शबरों का विशेषण स्वर, १५, १०; १०४ घ; १०७;
शब्दोंपर प्रभाव, पृ० ५४, पा० १०९ क; ११२, १६९; १७५च,
टि० र, ३; १२० १७६, पा० टि०; परि० ३,
सर्वन-मस्थान, शब्दरूपों में, ७२; १५-१८; आपरिवर्तन ७२, क,
संस्कृतपवानुक्रमणी २७९
ख; ८६ क; ९४, ३ का १२६; वर्ण मा; १३१, पा० टि०, :
१३१ ; १८९ का वैदिक (प८० ८५); १८२, : अ (आ);
स्वर पृ० २३०-२३२; संबोधन १८७ ख (आ); अजन्तशब्द
स्वर, पृ० २३२; प्रबानक्रिया ९७-१०२; वैदिक स्वर सन्धि,
स्वर, पृ० २३२
२२ ३
स्वर वर्ण, ५; वर्गीकरण, १७; स्वर स्वर-ति-सन्तुलन, द्वित्ववाले तुर में,
सन्धि, १८; १९; दीचीकृत, ८२ १४९, २; १४९ का :
(इ, उ), ८३ (प्रथमा: बल स्वामित्वबोधकषशठी, २०२
नप.), ८५अ (महरा; ८६ हक को कायम होना, ८ (; ९२; १ ३४
(मश्री-वत अन्त वाले शम), अ २ ग; १६०, ( ख १७१, ४
८७ जिद अन्त वाले शब्द), ९२ हलन्त शब्द, ७५-९६
(हना, ९४, : (प, प्र० () हलन्त शब्दन का अनिष्ट व्यऊजन
१५४, र (इ, उ क-मव-य मा सुरक्षित ७६
१५५ (कर्मणि (), १६०, २ हलादिप्रत्यय, १६ का ७६
ग (कान्त), १६२, : ग (योग्य आदि विभक्ति, ७२, ७३ (शब्दरूप) ;
अर्थ वाले कृत्य प्रत्यय), १६९, आत्मनेपद १२१; आत्मनेपद
१ (सन्न-स्का, १७१, : (सनात), प्रत्यय, पृ० ८३-८४; आत्मनेपद
१७३ (द्वित्बीभूत), १७५(नाम धातु-वली, पृ० ८६-८९
धातु), १८४ वि० (अ, आ, इ हेतुवाक्य, २१६, : घ; २१८
के स्थान पर ई); अन्त:तिथ के हेतुहेतुमद्धख-रा=तृत्, १५३; वाक्य
रूप में परिवर्तित १७ आ १; में पत्, २ :८
२०; देयता ९४, ३ हेतुहेतुमद्धाव---विधिलित्, २ १६,
(संज्ञा); १२९६ (द्वि-स्वीकृत २घ
है ' त को है
न है।०

: से
:
है
वं

यह कृति प्रो० आर्थर ए० मैंकडानल की [)81.1:


प्र"द्या11प 16: [.11:.115 का आचार्य कपिलदेव कृत हिन्दी
रूपान्तर है । पश्चिमी देशों में अग्रेजी संस्करण का व्यापक प्रचार
रहा है और वहा के छात्र उससे लाभान्वित हुए हैं है अग्रेजी
संस्करण के हिन्दी रूपान्तर का उद्देश्य है कि भारतीय छात्र भी
। इसके सरलनियमों से अवगत होकर संस्कृत भाषा का सुगमतापूर्वक
तिब
2 ज्ञान प्राप्त कर सक ।

इस पुस्तक के सात अध्याय और तीन परिशिष्ट हैं । प्रथम


अध्याय में भारतीय लेखन कला कर उद्धव, स्वर एवं व्यसन वणों
का क्रम; द्वितीय में बहिरग और अन्तरङ्ग सन्धियों के नियम, तृतीय
में संज्ञा, संख्या, सर्वनाम शब्दों के रूप, चतुर्थ में धातुओं के अकार,
वाक्य और प्रत्यय; मचम में अव्यय और उपसर्ग; यष्ट में कृदन्त,
तद्धित और समास और सप्तम में वावयविन्यास की रूपरेखा वर्णित
हैं । परिशिष्ट में प्रथम में धातुसूची, द्वितीय में छन्द और तृतीय
में वैदिक व्याकरण की मुख्य विशेषताओं का निरूपण है ।
(

[ पुस्तक की अन्य विशेषताओं में भूमिका जिसमें संस्कृत व्याकरण


का संक्षिप्त इतिहास भी समिलित है, देवनागरी वर्णमाला की तालिका,
संस्कृत पदानुक्रमणी और सामान्य शब्द कोश भी गणनीय हैं ।

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