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शिक्षा, वे द के छ: अं गों में से एक है । इसका रचनाकाल विभिन्न विद्वानों ने ३००० ईसापूर्व से १००० ईसापूर्व बताया
है । भाषावै ज्ञानिकों की दृष्टि में शिक्षा का उद्दे श्य सामान्य स्वनविज्ञान (फोने टिक्स) एवं स्वनिमविज्ञान (फोनोलॉजी)
माना जा सकता है । शिक्षा ने सभी प्राप्त ध्वनियों का विश्ले षण किया है । इसका उद्दे श्य वे द की ऋचाओं का ठीक
प्रकार से पाठ करना है ।
पु राकाल में माता पिता और आचार्य सभी वर्णोच्चारण का ज्ञान अपने पु तर् ों और शिष्यों को बताया करते थे । धीरे -
धीरे पु स्तकें लिखी गई और सूतर् रचना भी हो गई । वे दमन्त्रों के उच्चारण की शिक्षा ही वर्णोच्चारण शिक्षा के रूप
में प्रसिद्ध हो गई। इस विषय में अने क ऋषियोंने ग्रन्थ लिखें है , जिन्हें प्रातिशख्य और शिक्षा कहा जाता है ।
महर्षि पाणिनि की शिक्षा विशे ष प्रसिद्ध है ।
इस शिक्षा के चार सोपान थे ।
श्रवण शिक्षा
उच्चारण शिक्षा
पठन शिक्षा
ले खन शिक्षा
अन्य शिक्षा-ग्रन्थ
शिक्षाग्रन्थों की सं ख्या बहुत है । इनमें से अधिकां श छन्दबद्ध हैं किन्तु कुछ सूतर् रूप में भी हैं । नीचे कुछ शिक्षा
ग्रन्थों के नाम दिए हैं जो अब भी प्राप्य हैं :
अमोघनन्दिनी शिक्षा
अपिशाली शिक्षा (सूतर ् रूप में )
अरण्य शिक्षा
आत्रेय शिक्षा
भारद्वाज शिक्षा
चन्द्रशिक्षा (सूतर ् रूप में , चन्द्रगोमिन द्वारा रचित)
कालनिर्णय शिक्षा
कात्यायनी शिक्षा
केशवी शिक्षा
लघु मोघनन्दिनी शिक्षा
लक्ष्मीकान्त शिक्षा
नारदीय शिक्षा
पाराशरी शिक्षा
प्रतिशाख्यप्रदीप शिक्षा
सर्वसम्मत शिक्षा
शम्भु शिक्षा
षोडशश्लोकी शिक्षा
शिक्षासं गर ् ह
सिद्धान्त शिक्षा
स्वराष्टक शिक्षा
स्वरव्यञजन शिक्षा
वशिष्ठ शिक्षा
वर्णरत्नप्रदीप शिक्षा
व्यास शिक्षा
याज्ञवल्क्य शिक्षा
गौतमीशिक्षा
लोमशी शिक्षा (सामवे द)
माण्डू की शिक्षा (अथर्ववे द)
निरुक्त
निरुक्त में पर्यायवाची शब्दों की सूची - इस भाग को निघण्टु कहते हैं । इसके अन्य अध्यायों में अने कार्थी शब्द, शब्द
उद्गम और शब्दमूलों का समास आदि लिखा है
निरुक्त वै दिक साहित्य के शब्द-व्यु त्पत्ति (etymology) का विवे चन है । यह हिन्द ू धर्म के छः वे दां गों में से एक है -
इसका अर्थ: व्याख्या, व्यु त्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मु ख्यतः वे दों में आये हुए शब्दों की पु रानी व्यु त्पत्ति का
विवे चन है । निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे -छोटे सूतर् दिये हुए हैं । इसके साथ ही इसमें कठिन एवं
कम प्रयु क्त वै दिक शब्दों का सं कलन (glossary) भी है । परम्परागत रूप से सं स्कृत के
प्राचीन वै याकरण(grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है ।
वै दिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है । ऋग्वे दभाष्य भूमिका में सायण ने कहा
है अर्थावबोधे निरपे क्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतं तर् रूप से
जहाँ पदों का सं गर् ह किया जाता है वही निरुक्त है । शिक्षाप्रभृ त्ति छह वे दां गों में निरुक्त की गणना
है । पाणिनि शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमु चयते " इस वाक्य से निरुक्त को वे द का कान बतलाया है । यद्यपि इस शिक्षा
में निरुक्त का क् रमप्राप्त चतु र्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं अभ्यं तर तथा बाह्य विशे षताओं के कारण
वे दों में यह प्रथम स्थान रखता है । निरुक्त की जानकारी के बिना भे द वे द के दुर्गम अर्थ का ज्ञान सं भव नहीं है ।
काशिकावृ त्ति के अनु सार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है — वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे
पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब
करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मु नियों के शब्द-व्यु त्पत्ति के मतों-विचारों का उल्ले ख
किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं ।
निरुक्त की टीकाएँ
वर्तमान उपलब्ध निरुक्त, निघं टु की व्याख्या (commentary) है और वह यास्क रचित है । यास्क का योगदान इतना
महान है कि उन्हें निरुक्तकार या निरुक्तकृत ("Maker of Nirukta") एवं निरुक्तवत ("Author of Nirukta") भी
कहा जाता है । यास्क ने अपने निरुक्त में पूर्ववर्ती निरुक्तकार के रूप में औपमन्यव, औटु ं बरायण, वाष्र्यामणि; गार्ग्य,
आग्रायण, शाकपूणि, और्णनाभ, ते टीकि, गालव, स्थौलाष्ठीवि, कौंष्टु कि और कात्थक्य के नाम उद्धत
ृ किए हैं (
तथापि उनके ग्रंथ अब प्राप्त नहीं है )। इससे सिद्ध है कि 12 निरुक्तकारों को यास्क जानते थे । 13 वें निरुक्तकार
स्वयं यास्क हैं । 14 वाँ निरुक्तकार अथर्वपरिशिष्टों में से 48 वें परिशिष्ट का रचयिता है । यह परिशिष्ट निरुक्त
निघं टु स्वरूप है ।
इसकी विशे षताओं से आकृष्ट होकर अने क विद्वानों ने इस पर टीका लिखी है । इस समय उपलब्ध टीकाओं में
स्कंदस्वामी की टीका सबसे प्राचीन है । शु क्लयजु र्वेदीय शतपथ ब्राह्मण के भाष्य में हरिस्वामी ने स्कंदस्वामी को
अपना गु रु कहा है । दे वराज यज्वा द्वारा रचित एक व्याख्या का प्रकाशन गु रुमं डल ग्रंथमाला, कलकत्ता से 1952 में
हुआ है । ग्रंथ के प्रारं भ में इन्होंने एक विस्तृ त भूमिका लिखी है । निरुक्त पर व्याख्या रूप एक वृ त्ति दुर्गाचार्य रचित
उपलब्ध है । इन्होंने अपनी वृ त्ति में निरुक्त के प्राय: सभी शब्दों का विवचन किया है । इसका प्रकाशन आनं दाश्रम
सं स्कृत ग्रंथमाला, पूना से 1926 में और खे मराज श्रीकृष्णदास, बं बई से 1982 वै ., में हुआ है ।
सत्यव्रत सामश्रमी ने इस विषय पर ले खनकार्य किया है । इसका प्रकाशन बिब्लओथिका, कलकत्ता से 1911 में
हुआ है । प्रो॰ राजवाड़े का इस विषय पर महत्वपूर्ण कार्य निरुक्त का मराठी अनु वाद है जो 1935 में प्रकाशित है ।
डॉ॰ सिद्धे श्वर वर्मा का यास्क निर्वचन नामक ग्रंथ विश्वे श्वरानं द वै दिक शोध सं स्थान, होशयारपु र से 1953 में
प्रकाशित है । इसपर कुकुंद झा बख्शी की सं स्कृत टीका निर्णयसागर प्रेस, बं बई से 1930 में प्रकाशित है । इसपर
मिहिरचं दर् पु ष्करणा ने एक टीका लिखी है जो पु रुषार्थ पु स्तकमाला कार्यालय, अमृ तसर से 1945 में प्रकाशित है ।
निरुक्त की सं रचना
इस ग्रंथ के समस्त अध्यायों की सं ख्या 12 है जो तीन कांडों में विभक्त हैं ।
1. नै घंटुक कांड,
2. नै गम कांड, और
3. दै वत कांड
इसके सिवाय परिशिष्ट के रूप में अं तिम दो अध्याय और भी साथ में सं लग्न हैं । इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं ।
इन अध्यायों में प्रारं भ से द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद पर्यं त उपोद्घात वर्णित है । इसमें निघं टु का लक्षण, पद
का प्रकार, भाव का विकार, शब्दों का धातु ज सिद्धांत, निरुक्त का प्रयोजन और एतत्सं बंधी अन्य आवश्यक नियमों
के आधार परि विस्तार के साथ विवे चन किया गया है । इस समस्त भाग का नै घंटुक कांड कहते हैं । इसी का
'पूर्वषट् क' नामांतर है । चौथे अध्याय में एकपदी आख्यान का सुं दर विवे चन किया गया है । इसे नै गमकांड कहते हैं ।
अं तिम छह अध्यायों में दे वताओं का वर्णन किया गया है । इसे दै वत कांड बतलाया है । इसके अनं तर दे वस्तु ति के
आधार पर आत्मतत्वों का उपदे श किया गया है ।
निरुक्त के बारह अध्याय है । प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सूक्ष्म विचार हैं । इतने प्राचीन काल में
शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं दे खा जाता। शब्दशास्त्र पर अने क मत प्रचलित थे इसका पता
यास्क के निरूक्त से लगता है । कुछ लोगों का मत था कि सभी शब्द धातु मल
ू क हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं
जिनमें प्रत्यय आदि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैँ । इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातु रुप
क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अशं ' से अश्व माना जाय तो प्रत्य़े क चलने या आगे बढ़ने वाला
पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क ने इसी विरोधी मत का खं डन किया है । यास्क मु नि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब
एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करने वाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता।
ू रे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने -जितने गु ण हों
दस
उतने ही उसका नाम भी होने चाहिए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गु ण या कर्म से एक नाम को
ू रे और तीसरे अध्याय में तीन निधं टुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः
धारण करता है । इसी प्रकार और भी समझिए। दस
व्यख्या सहित है । चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघं टु की व्याख्या है । सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघं टु के वै दिक
दे वताओं की व्याख्या है ।
निरुक्त का महत्त्व
निरुक्त की उपादे यता को दे खकर अने क पाश्चात्य विद्वान इस पर मु ग्ध हुए हैं । उन्होंने भी इसपर ले खनकार्य किया
है । सर्वप्रथम रॉथ ने जर्मन भाषा में निरुक्त की भूमिका का अनु वाद प्रकाशित किया है । जर्मन भाषा में लिखित
इस अनु वाद का प्रो॰ मै कीशान ने आं ग्ल अनु वाद किया है । यह बं बई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित है । स्कोल्ड ने
जर्मन दे श में रहकर इस विषय पर अध्ययन किया है और इसी विषय पर प्रबं ध लिखकर प्रकाशित किया है ।
स्वामी दयानं द सरस्वती ने अपने वै दिक भाष्यों और सत्यार्थ प्रकाश में वै दिक मं तर् ों के अर्थ करने के लिए इस ग्रंथ
का बहुत सहारा लिया है । महर्षि औरोबिन्दो ने भी वे दों को समझने में निरूक्त की महत्वपूर्ण भूमिका का ज़िक् र
किया है ।
निरूक्त और व्याकरण में अन्तर
वै दिक सं स्कृत की भाषा समझने के लिए व्याकरण का भी पाठन होता है और अष्टाध्यायी को इसका महत्तम ग्रंथ
माना जाता है । निरूक्त में शब्दों के मूल का वर्णन है , यानि किस भावना के कारण घोड़े को अश्व कहा जाता है (आशु
यानि ते ज गति से जाने के कारण) इसका वर्णन है । जबकि व्याकरण में अश्वारूढ़ (अश्व पर आरोहित, घोड़े पर
सवार) के मूल शब्दों से उत्पन्न भावना का वर्णन है । निरूक्त में चूँकि मूलों का वर्णन है , अतः जिन शब्दों का वर्णन है
वह छोटे (२-३ वर्ण) हैं , जबकि व्याकरण में लम्बे शब्दों और वाक्यों का भी वर्णन है , क्योंकि व्याकरण सन्धि-समास-
अलं कार आदि का विवे चन करता है ।
भाषणकला में निरुक्त का उपयोग
निरुक्त से ही सम्बन्धित सं ज्ञा निरुक्ति: है जिसका अर्थ व्यु त्पादन (derivation) है । भाषण कला में इसे किसी शब्द
का कृत्रिम व्याख्या मान सकते है ।
छं द
सं स्कृत वाङ्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये छन्द शब्द का प्रयोग किया गया है ।[1] विशिष्ट अर्थों या
गीत में वर्णों की सं ख्या और स्थान से सम्बं धित नियमों को छ्न्द कहते हैं जिनसे काव्य में लय और रं जकता आती है ।
छोटी-बड़ी ध्वनियां , लघु -गु रु उच्चारणों के क् रमों में , मात्रा बताती हैं और जब किसी काव्य रचना में ये एक
व्यवस्था के साथ सामं जस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है और लघु -गु रु मात्राओं के
अनु सार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है , जै से चौपाई, दोहा, आर्या,
इन्द्र्वज्रा, गायत्री छन्द इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की सं ख्या, विराम, गति, लय
ू रे अर्थ में
तथा तु क आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है । इस दस
यह अं गर् े जी के 'मीटर'[2] अथवा उर्दू-फ़ारसी के 'रुक़न' (अराकान) के समकक्ष है । हिन्दी साहित्य में भी छन्द के इन
नियमों का पालन करते हुए काव्यरचना की जाती थी, यानि किसी न किसी छन्द में होती थीं। विश्व की अन्य
भाषाओ ँ में भी परम्परागत रूप से कविता के लिये छन्द के नियम होते हैं ।
छन्दों की रचना और गु ण-अवगु ण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं । चूँकि, आचार्य पिं गल द्वारा रचित
'छन्दःशास्त्र' सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे 'पिं गलशास्त्र' भी कहा जाता है ।[3] यदि गद्य की कसौटी
‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्द’ है । पद्यरचना का समु चित ज्ञान छन्दशास्त्र की जानकारी के बिना नहीं
होता। काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशु भ गण’ नहीं आना चाहिए।
इतिहास
प्राचीन काल के ग्रंथों में सं स्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वै दिक काल के जितने प्राचीन हैं । वे द के
सूक्त भी छन्दबद्ध हैं । पिं गल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है । छन्द पर चर्चा
सर्वप्रथम ऋग्वे द में हुई है ।
शब्दार्थ
वाक्य में प्रयु क्त अक्षरों की सं ख्या एवं क् रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित
पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है । छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है । इसका धातु गत व्यु त्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो
अपनी इच्छा से चलता है '। इसी मूल से स्वच्छं द जै से शब्द आए हैं । अत: छं द शब्द के मूल में गति का भाव है ।
किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है । सं सार में जितना साहित्य मिलता है ’ ऋग्वे द ’ उनमें
प्राचीनतम है । ऋग्वे द की रचना छं दोबद्ध ही है । यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशे ष कथन
हे तु छं दो का प्रयोग होता था।छं द को पद्य रचना का मापदं ड कहा जा सकता है । बिना कठिन साधना के कविता में
छं द योजना को साकार नहीं किया जा सकता।
छं द के अं ग
छं द के निम्नलिखित अं ग होते हैं -
गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं ।
यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं ।
तु क - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तु क कहा जाता है । पद्य प्रायः तु कान्त होते हैं ।
मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं । मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गु रु।
ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रालघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गु रु होती है ।
लघु मात्रा का मान १ होता है और उसे । चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है । इसी प्रकार गु रु मात्रा का मान मान २
होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है ।
गण - मात्राओं और वर्णों की सं ख्या और क् रम की सु विधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता
है । गणों की सं ख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण
(।।।) और सगण (।।ऽ)।
गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूतर् बना लिया गया है - यमाताराजभानसलगा। सूतर् के पहले आठ
वर्णों में आठ गणों के नाम हैं । अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गु रू मात्राओं के सूचक हैं । जिस गण की
मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूतर् से ले लें जै से ‘मगण’ का स्वरूप जानने के
लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृ त्त में होता है मात्रिक छन्द इस बं धन से मु क्त होते हैं ।
। ऽ ऽ can ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
चि प्रभा
गण उदाहरण
ह्न व
मगण
ऽऽऽ आजादी शु भ
(मा)
भगण
ऽ।। बादल शु भ
(भा)
चारो वे दों के पृ थक् पृ थक् ज्योतिषशास्त्र थे । उनमें से सामवे द का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है , शे ष तीन वे दों के
ज्यौतिष शास्त्र प्राप्त होते हैं ।
वे दां गज्याे तिष सिद्धान्त ज्याे तिष है , जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है । वे दां गज्योतिष में गणित के
महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है -
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
सोमाकर शे षनाग विरचित प्राचीन भाष्य (सम्पादन : Albrecht Weber, Über den Vedakalender Namens
Jyotisham, Berlin 1862 ; सु धाकर द्विवे दी द्वारा सन् १९०८ में तथा शिवराज आचार्य काै ण्डिन्न्यायन द्वारा सन्
२००५ में प्रकाशित) ,
Yajus recension, non-Yajus verses of Rk recension, edited: G. Thibaut, "Contributions to the
Explanation of the Jyotisha-Vedánga", Journal of the Asiatic Society Bengal Vol 46 (1877), p. 411-
437
सु धाकर द्विवे दी द्वारा रचित नवीन भाष्य (प्रकाशन समय सन् १९०८),
सामशास्त्री द्वारा रचित दीपिका व्याख्या (समय १९४०),
वे दाङ्गज्योतिषम् : यजु र्वे दिनाम् परम्परयागतम् विस्तृ तसंस्कृतभूमिकया -- शिवराज आचार्य
काै ण्डिन्न्यायन द्वारा रचित काै ण्डिन्न्यायन-व्याख्यान (हिन्दी और सं स्कृत टीका, परिशिष्ट में लगध द्वारा अपने
समय का पं चां ग भी है ; प्रकाशन समय सन् २००५)।
गिरिजाशं कर शास्त्री द्वारा हिन्दी अनु वाद, ज्योतिष कर्मकाण्ड एवं आध्यात्म शोध सं स्थान दारागं ज इलाहाबाद
से प्रकाशित
वे दां गज्याे तिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शं कर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य,
लाे . बालगं गाधर तिलक का भी याे गदान है ।
त्रैराशिक नियम
वे दां ग ज्योतिष में त्रैराशिक नियम (Rule of three) दे खिये -
इत्य् उपायसमु द्देशो भूयोऽप्य् अह्नः प्रकल्पये त।्
(“known result is to be multiplied by the quantity for which the result is wanted, and divided by
the quantity for which the known result is given”)[2]
यहाँ , ज्ञानराशि (या, ज्ञातराशि) = “वह राशि जो ज्ञात है ”