You are on page 1of 26

शिक्षा (वे दां ग) 

 वे दसूतर् स्तु ति

शिक्षा, वे द के छ: अं गों में से एक है । इसका रचनाकाल विभिन्न विद्वानों ने ३००० ईसापूर्व से १००० ईसापूर्व बताया
है । भाषावै ज्ञानिकों की दृष्टि में शिक्षा का उद्दे श्य सामान्य स्वनविज्ञान (फोने टिक्स) एवं  स्वनिमविज्ञान (फोनोलॉजी)
माना जा सकता है । शिक्षा ने सभी प्राप्त ध्वनियों का विश्ले षण किया है । इसका उद्दे श्य वे द की ऋचाओं का ठीक
प्रकार से पाठ करना है ।
पु राकाल में माता पिता और आचार्य सभी वर्णोच्चारण का ज्ञान अपने पु तर् ों और शिष्यों को बताया करते थे । धीरे -
धीरे पु स्तकें लिखी गई और सूतर् रचना भी हो गई । वे दमन्त्रों के उच्चारण की शिक्षा ही वर्णोच्चारण शिक्षा के रूप
में प्रसिद्ध हो गई। इस विषय में अने क ऋषियोंने ग्रन्थ लिखें है , जिन्हें  प्रातिशख्य और शिक्षा कहा जाता है ।
महर्षि पाणिनि की शिक्षा विशे ष प्रसिद्ध है ।
इस शिक्षा के चार सोपान थे ।

 श्रवण शिक्षा
 उच्चारण शिक्षा
 पठन शिक्षा
 ले खन शिक्षा
अन्य शिक्षा-ग्रन्थ
शिक्षाग्रन्थों की सं ख्या बहुत है । इनमें से अधिकां श छन्दबद्ध हैं किन्तु कुछ सूतर् रूप में भी हैं । नीचे कुछ शिक्षा
ग्रन्थों के नाम दिए हैं जो अब भी प्राप्य हैं :
 अमोघनन्दिनी शिक्षा
 अपिशाली शिक्षा (सूतर ् रूप में )
 अरण्य शिक्षा
 आत्रेय शिक्षा
 भारद्वाज शिक्षा
 चन्द्रशिक्षा (सूतर ् रूप में , चन्द्रगोमिन द्वारा रचित)
 कालनिर्णय शिक्षा
 कात्यायनी शिक्षा
 केशवी शिक्षा
 लघु मोघनन्दिनी शिक्षा
 लक्ष्मीकान्त शिक्षा
 नारदीय शिक्षा
 पाराशरी शिक्षा
 प्रतिशाख्यप्रदीप शिक्षा
 सर्वसम्मत शिक्षा
 शम्भु शिक्षा
 षोडशश्लोकी शिक्षा
 शिक्षासं गर ् ह
 सिद्धान्त शिक्षा
 स्वराष्टक शिक्षा
 स्वरव्यञजन शिक्षा
 वशिष्ठ शिक्षा
 वर्णरत्नप्रदीप शिक्षा
 व्यास शिक्षा
 याज्ञवल्क्य शिक्षा
 गौतमीशिक्षा
 लोमशी शिक्षा (सामवे द)
 माण्डू की शिक्षा (अथर्ववे द)

निरुक्त 
निरुक्त में पर्यायवाची शब्दों की सूची - इस भाग को निघण्टु  कहते हैं । इसके अन्य अध्यायों में अने कार्थी शब्द, शब्द
उद्गम और शब्दमूलों का समास आदि लिखा है

निरुक्त वै दिक साहित्य के शब्द-व्यु त्पत्ति (etymology) का विवे चन है । यह हिन्द ू धर्म के छः वे दां गों में से एक है -
इसका अर्थ: व्याख्या, व्यु त्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मु ख्यतः वे दों में आये हुए शब्दों की पु रानी व्यु त्पत्ति का
विवे चन है । निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे -छोटे  सूतर्  दिये हुए हैं । इसके साथ ही इसमें कठिन एवं
कम प्रयु क्त वै दिक शब्दों का सं कलन (glossary) भी है । परम्परागत रूप से  सं स्कृत के
प्राचीन वै याकरण(grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है ।
वै दिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है । ऋग्वे दभाष्य भूमिका में  सायण ने कहा
है  अर्थावबोधे निरपे क्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतं तर् रूप से
जहाँ  पदों का सं गर् ह किया जाता है वही निरुक्त है । शिक्षाप्रभृ त्ति छह वे दां गों में निरुक्त की गणना
है । पाणिनि शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमु चयते " इस वाक्य से निरुक्त को वे द का कान बतलाया है । यद्यपि इस शिक्षा
में निरुक्त का क् रमप्राप्त चतु र्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं अभ्यं तर तथा बाह्य विशे षताओं के कारण
वे दों में यह प्रथम स्थान रखता है । निरुक्त की जानकारी के बिना भे द वे द के दुर्गम अर्थ का ज्ञान सं भव नहीं है ।
काशिकावृ त्ति के अनु सार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है — वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे
पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब
करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मु नियों के शब्द-व्यु त्पत्ति के मतों-विचारों का उल्ले ख
किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं ।
निरुक्त की टीकाएँ
वर्तमान उपलब्ध निरुक्त, निघं टु की व्याख्या (commentary) है और वह यास्क रचित है । यास्क का योगदान इतना
महान है कि उन्हें  निरुक्तकार या निरुक्तकृत ("Maker of Nirukta") एवं  निरुक्तवत ("Author of Nirukta") भी
कहा जाता है । यास्क ने अपने निरुक्त में पूर्ववर्ती निरुक्तकार के रूप में औपमन्यव, औटु ं बरायण, वाष्र्यामणि; गार्ग्य,
आग्रायण, शाकपूणि, और्णनाभ, ते टीकि, गालव, स्थौलाष्ठीवि, कौंष्टु कि और कात्थक्य के नाम उद्धत
ृ किए हैं (
तथापि उनके ग्रंथ अब प्राप्त नहीं है )। इससे सिद्ध है कि 12 निरुक्तकारों को यास्क जानते थे । 13 वें निरुक्तकार
स्वयं यास्क हैं । 14 वाँ निरुक्तकार अथर्वपरिशिष्टों में से 48 वें परिशिष्ट का रचयिता है । यह परिशिष्ट निरुक्त
निघं टु स्वरूप है ।
इसकी विशे षताओं से आकृष्ट होकर अने क विद्वानों ने इस पर टीका लिखी है । इस समय उपलब्ध टीकाओं में
स्कंदस्वामी की टीका सबसे प्राचीन है । शु क्लयजु र्वेदीय शतपथ ब्राह्मण के भाष्य में हरिस्वामी ने स्कंदस्वामी को
अपना गु रु कहा है । दे वराज यज्वा द्वारा रचित एक व्याख्या का प्रकाशन गु रुमं डल ग्रंथमाला, कलकत्ता से 1952 में
हुआ है । ग्रंथ के प्रारं भ में इन्होंने एक विस्तृ त भूमिका लिखी है । निरुक्त पर व्याख्या रूप एक वृ त्ति दुर्गाचार्य रचित
उपलब्ध है । इन्होंने अपनी वृ त्ति में निरुक्त के प्राय: सभी शब्दों का विवचन किया है । इसका प्रकाशन आनं दाश्रम
सं स्कृत ग्रंथमाला, पूना से 1926 में और खे मराज श्रीकृष्णदास, बं बई से 1982 वै ., में हुआ है ।

सत्यव्रत सामश्रमी ने इस विषय पर ले खनकार्य किया है । इसका प्रकाशन बिब्लओथिका, कलकत्ता से 1911 में
हुआ है । प्रो॰ राजवाड़े का इस विषय पर महत्वपूर्ण कार्य निरुक्त का मराठी अनु वाद है जो 1935 में प्रकाशित है ।
डॉ॰ सिद्धे श्वर वर्मा का यास्क निर्वचन नामक ग्रंथ विश्वे श्वरानं द वै दिक शोध सं स्थान, होशयारपु र से 1953 में
प्रकाशित है । इसपर कुकुंद झा बख्शी की सं स्कृत टीका निर्णयसागर प्रेस, बं बई से 1930 में प्रकाशित है । इसपर
मिहिरचं दर् पु ष्करणा ने एक टीका लिखी है जो पु रुषार्थ पु स्तकमाला कार्यालय, अमृ तसर से 1945 में प्रकाशित है ।
निरुक्त की सं रचना
इस ग्रंथ के समस्त अध्यायों की सं ख्या 12 है जो तीन कांडों में विभक्त हैं ।

1. नै घंटुक कांड,
2. नै गम कांड, और
3. दै वत कांड
इसके सिवाय परिशिष्ट के रूप में अं तिम दो अध्याय और भी साथ में सं लग्न हैं । इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं ।
इन अध्यायों में प्रारं भ से द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद पर्यं त उपोद्घात वर्णित है । इसमें निघं टु का लक्षण, पद
का प्रकार, भाव का विकार, शब्दों का धातु ज सिद्धांत, निरुक्त का प्रयोजन और एतत्सं बंधी अन्य आवश्यक नियमों
के आधार परि विस्तार के साथ विवे चन किया गया है । इस समस्त भाग का नै घंटुक कांड कहते हैं । इसी का
'पूर्वषट् क' नामांतर है । चौथे अध्याय में एकपदी आख्यान का सुं दर विवे चन किया गया है । इसे नै गमकांड कहते हैं ।
अं तिम छह अध्यायों में दे वताओं का वर्णन किया गया है । इसे दै वत कांड बतलाया है । इसके अनं तर दे वस्तु ति के
आधार पर आत्मतत्वों का उपदे श किया गया है ।

निरुक्त के बारह अध्याय है । प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सूक्ष्म विचार हैं । इतने प्राचीन काल में
शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं दे खा जाता। शब्दशास्त्र पर अने क मत प्रचलित थे इसका पता
यास्क के निरूक्त से लगता है । कुछ लोगों का मत था कि सभी शब्द धातु मल
ू क हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं
जिनमें  प्रत्यय आदि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैँ । इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातु रुप
क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अशं ' से अश्व माना जाय तो प्रत्य़े क चलने या आगे बढ़ने वाला
पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क ने इसी विरोधी मत का खं डन किया है । यास्क मु नि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब
एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करने वाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता।
ू रे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने -जितने गु ण हों
दस
उतने ही उसका नाम भी होने चाहिए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गु ण या कर्म से एक नाम को
ू रे और तीसरे अध्याय में तीन निधं टुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः
धारण करता है । इसी प्रकार और भी समझिए। दस
व्यख्या सहित है । चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघं टु की व्याख्या है । सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघं टु के वै दिक
दे वताओं की व्याख्या है ।
निरुक्त का महत्त्व
निरुक्त की उपादे यता को दे खकर अने क पाश्चात्य विद्वान इस पर मु ग्ध हुए हैं । उन्होंने भी इसपर ले खनकार्य किया
है । सर्वप्रथम रॉथ ने जर्मन भाषा में निरुक्त की भूमिका का अनु वाद प्रकाशित किया है । जर्मन भाषा में लिखित
इस अनु वाद का प्रो॰ मै कीशान ने आं ग्ल अनु वाद किया है । यह बं बई विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित है । स्कोल्ड ने
जर्मन दे श में रहकर इस विषय पर अध्ययन किया है और इसी विषय पर प्रबं ध लिखकर प्रकाशित किया है ।
स्वामी दयानं द सरस्वती ने अपने वै दिक भाष्यों और सत्यार्थ प्रकाश में वै दिक मं तर् ों के अर्थ करने के लिए इस ग्रंथ
का बहुत सहारा लिया है । महर्षि औरोबिन्दो ने भी वे दों को समझने में निरूक्त की महत्वपूर्ण भूमिका का ज़िक् र
किया है ।
निरूक्त और व्याकरण में अन्तर
वै दिक सं स्कृत की भाषा समझने के लिए व्याकरण का भी पाठन होता है और अष्टाध्यायी को इसका महत्तम ग्रंथ
माना जाता है । निरूक्त में शब्दों के मूल का वर्णन है , यानि किस भावना के कारण घोड़े को अश्व कहा जाता है (आशु
यानि ते ज गति से जाने के कारण) इसका वर्णन है । जबकि व्याकरण में  अश्वारूढ़ (अश्व पर आरोहित, घोड़े पर
सवार) के मूल शब्दों से उत्पन्न भावना का वर्णन है । निरूक्त में चूँकि मूलों का वर्णन है , अतः जिन शब्दों का वर्णन है
वह छोटे (२-३ वर्ण) हैं , जबकि व्याकरण में लम्बे शब्दों और वाक्यों का भी वर्णन है , क्योंकि व्याकरण सन्धि-समास-
अलं कार आदि का विवे चन करता है ।
भाषणकला में निरुक्त का उपयोग
निरुक्त से ही सम्बन्धित सं ज्ञा निरुक्ति: है जिसका अर्थ व्यु त्पादन (derivation) है । भाषण कला में इसे  किसी शब्द
का कृत्रिम व्याख्या मान सकते है ।

छं द 
सं स्कृत वाङ्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये  छन्द शब्द का प्रयोग किया गया है ।[1] विशिष्ट अर्थों या
गीत में वर्णों की सं ख्या और स्थान से सम्बं धित नियमों को छ्न्द कहते हैं जिनसे काव्य में लय और रं जकता आती है ।
छोटी-बड़ी ध्वनियां , लघु -गु रु उच्चारणों के क् रमों में , मात्रा बताती हैं और जब किसी काव्य रचना में ये एक
व्यवस्था के साथ सामं जस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है और लघु -गु रु मात्राओं के
अनु सार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है , जै से चौपाई, दोहा, आर्या,
इन्द्र्वज्रा, गायत्री छन्द इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की सं ख्या, विराम, गति, लय
ू रे अर्थ में
तथा तु क आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है । इस दस
यह अं गर् े जी के 'मीटर'[2] अथवा उर्दू-फ़ारसी के 'रुक़न' (अराकान) के समकक्ष है । हिन्दी साहित्य में भी छन्द के इन
नियमों का पालन करते हुए काव्यरचना की जाती थी, यानि किसी न किसी छन्द में होती थीं। विश्व की अन्य
भाषाओ ँ में भी परम्परागत रूप से कविता के लिये छन्द के नियम होते हैं ।
छन्दों की रचना और गु ण-अवगु ण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं । चूँकि, आचार्य पिं गल द्वारा रचित
'छन्दःशास्त्र' सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे 'पिं गलशास्त्र' भी कहा जाता है ।[3] यदि गद्य की कसौटी
‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्द’ है । पद्यरचना का समु चित ज्ञान छन्दशास्त्र की जानकारी के बिना नहीं
होता। काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशु भ गण’ नहीं आना चाहिए।
इतिहास
प्राचीन काल के ग्रंथों में  सं स्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वै दिक काल के जितने प्राचीन हैं । वे द के
सूक्त भी छन्दबद्ध हैं । पिं गल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है । छन्द पर चर्चा
सर्वप्रथम ऋग्वे द में हुई है ।
शब्दार्थ
वाक्य में प्रयु क्त अक्षरों की सं ख्या एवं क् रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित
पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है । छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है । इसका धातु गत व्यु त्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो
अपनी इच्छा से चलता है '। इसी मूल से  स्वच्छं द जै से शब्द आए हैं । अत: छं द शब्द के मूल में गति का भाव है ।
किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है । सं सार में जितना साहित्य मिलता है ’ ऋग्वे द ’ उनमें
प्राचीनतम है । ऋग्वे द की रचना छं दोबद्ध ही है । यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशे ष कथन
हे तु छं दो का प्रयोग होता था।छं द को पद्य रचना का मापदं ड कहा जा सकता है । बिना कठिन साधना के कविता में
छं द योजना को साकार नहीं किया जा सकता।
छं द के अं ग
छं द के निम्नलिखित अं ग होते हैं -
गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं ।
यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं ।
तु क - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तु क कहा जाता है । पद्य प्रायः तु कान्त होते हैं ।
मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं । मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गु रु।
ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रालघु  होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गु रु होती है ।
लघु  मात्रा का मान १ होता है और उसे । चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है । इसी प्रकार गु रु मात्रा का मान मान २
होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है ।
गण - मात्राओं और वर्णों की सं ख्या और क् रम की सु विधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता
है । गणों की सं ख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण
(।।।) और सगण (।।ऽ)।
गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूतर् बना लिया गया है - यमाताराजभानसलगा। सूतर् के पहले आठ
वर्णों में आठ गणों के नाम हैं । अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गु रू मात्राओं के सूचक हैं । जिस गण की
मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूतर् से ले लें जै से ‘मगण’ का स्वरूप जानने के
लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृ त्त में होता है मात्रिक छन्द इस बं धन से मु क्त होते हैं ।
। ऽ ऽ can ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
चि प्रभा
गण उदाहरण
ह्न व

यगण (य) ।ऽऽ नहाना शु भ

मगण
ऽऽऽ आजादी शु भ
(मा)

तगण (ता) ऽऽ। चालाक अशु भ

रगण (रा) ऽ।ऽ पालना अशु भ


जगण (ज) ।ऽ। करील अशु भ

भगण
ऽ।। बादल शु भ
(भा)

नगण (न) ।।। कमल शु भ

सगण (स) ।।ऽ कमला अशु भ


छं द के प्रकार
मात्रिक छं द ː जिन छं दों में मात्राओं की सं ख्या निश्चित होती है उन्हें मात्रिक छं द कहा जाता है । जै से - अहीर,
तोमर, मानव; अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई; पीयूषवर्ष, सु मेरु, राधिका, रोला, दिक्पाल, रूपमाला, गीतिका,
सरसी, सार, हरिगीतिका, तांटक, वीर या आल्हा
वर्णिक छं द ː वर्णों की गणना पर आधारित छं द वर्णिक छं द कहलाते हैं । जै से - प्रमाणिका; स्वागता, भु जंगी,
शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक; वं शस्थ, भु जंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक; वसं ततिलका; मालिनी; पं चचामर,
चं चला; मन्दाक् रान्ता, शिखरिणी, शार्दूल विक् रीडित, स्त्रग्धरा, सवै या, घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी, दे वघनाक्षरी, कवित्त
/ मनहरण। इसके दो प्रकार हैं -
१. साधारण
२. दण्डक
1. साधारण वर्णिक छं द में प्रत्ये क चरण में २६ वर्ण तक होते हैं । जै से - सवै या छं द
2. जिस छं द रचना में प्रत्ये क चरण में २६ से अधिक वर्ण होते हैं , उसे दण्डक वर्णिक छं द कहा जाता है । जै से-
घनाक्षरी छं द।
वर्णवृ त ː सम छं द को वृ त कहते हैं । इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्ये क चरण में आने
वाले  लघु  गु रु मात्राओं का क् रम निश्चित रहता है । जै से - द्रुतविलं बित, मालिनी
मु क्त छं द ː भक्तिकाल तक मु क्त छं द का अस्तित्व नहीं था, यह आधु निक यु ग की दे न है । इसके प्रणे ता सूर्यकान्त
त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं । मु क्त छं द नियमबद्ध नहीं होते , केवल स्वछं द गति और भावपूर्ण यति ही मु क्त छं द
की विशे षता हैं ।
मु क्त छं द का उदाहरण -
वह आता
दो टू क कले जे के करता, पछताता पथ पर आता।
पे ट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टे क,
मु ट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँ ह फटी-पु रानी झोली का फैलाता,
दो टू क कले जे के करता, पछताता पथ पर आता।
काव्य में छं द का महत्त्व
छं द से हृदय को सौंदर्यबोध होता है ।
छं द मानवीय भावनाओं को झं कृत करते हैं ।
छं द में स्थायित्व होता है ।
छं द सरस होने के कारण मन को भाते हैं ।
छं द के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सु गमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं ।
छं द का उदाहरण
भभूत लगावत शं कर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अं मृत बूंद गिरौ चिरि कै।
ते हि ठौर रहे मृ गराज तु चाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सु रभी-सु त वाहन भाग चले , तब गौरि हँ सीं मु ख आँ चल दै ॥
अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शं कर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत
झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँ खों में गिरा। (आँ ख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी)
फुँफकार शं कर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के
कारण उसके भीतर से ) अमृ त की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शं कर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृ त
बूँद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिं ह की गर्जना सु नकर गाय का पु त्र - बै ल,
जो शिव जी का वाहन है , भागने लगा तब गौरी जी मुँ ह में आँ चल रख कर हँ सने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास
कर रही हों कि दे खो मे रे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिं ह है ) से डर कर आपका वाहन
कैसे भाग रहा है ।
छं दों के कुछ प्रकार
दोहा
दोहा मात्रिक छं द है । इसे अर्द्ध सम मात्रिक छंं द कहते हैं । दोहे में चार चरण होते हैं । इसके विषम चरणों
(प्रथम तथा तृ तीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतु र्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती
हैं । सम चरणों के अं त में एक गु रु और एक लघु  मात्रा का होना आवश्यक होता है । दोहे के मु ख्य 23 प्रकार हैं :-
1.भ्रमर, 2.सु भर् मर, 3.शरभ, 4.श्ये न, 5.मण्डू क, 6.मर्क ट, 7.करभ, 8.नर, 9.हं स, 10.गयं द, 11.पयोधर, 12.बल,
13.पान, 14.त्रिकल 15.कच्छप, 16.मच्छ, 17.शार्दूल, 18.अहिवर, 19.व्याल, 20.विडाल, 21.उदर, 22.श्वान,
23.सर्प। दोहे में विषम एवं सम चरणों के कलों का क् रम निम्नवत होता है
विषम चरणों के कलों का क् रम 4+4+3+2 (चौकल+चौकल+त्रिकल+द्विकल) 3+3+2+3+2
(त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+द्विकल)
सम चरणों के कलों का क् रम 4+4+3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) 3+3+2+3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल)
उदाहरण -
रात-दिवस, पूनम-अमा, सु ख-दुःख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप॥
दोही
दोही दोहे का ही एक प्रकार है । इसके विषम चरणों में १५-१५ एवं सम चरणों में ११-११ मात्राऐं होती हैं ।उदाहरण-
प्रिय पतिया लिख-लिख थक चु की,मिला न उत्तर कोय।
सखि! सोचो अब में क्या करूँ,सूझे राह न कोय।।
रोला
रोला मात्रिक सम छं द होता है । इसके प्रत्ये क चरण में २४ मात्राएँ होती हैं । प्रत्ये क चरण यति पर दो पदों में
विभाजित हो जाता है l
पहले पद के कलों का क् रम निम्नवत होता है -
4+4+3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) अथवा 3+3+2+3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल)
ू रे पद के कलों का क् रम निम्नवत होता है -
दस
3+2+4+4 (त्रिकल+द्विकल+चौकल+चौकल) अथवा 3+2+3+3+2
(त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+त्रिकल+द्विकल) उदाहरण -
यही सयानो काम, राम को सु मिरन कीजै ।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै ॥
सोरठा
सोरठा अर्ध्दसम मात्रिक छं द है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है । इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ
और सम चरणों (द्वितीय तथा चतु र्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं । विषम चरणों के अं त में एक गु रु और
एक लघु  मात्रा का होना आवश्यक होता है । उदाहरण -
जो सु मिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
् रासि सु भ गु न सदन॥
करहु अनु गर् ह सोय, बु दधि
चौपाई
चौपाई मात्रिक सम छं द है । इसके प्रत्ये क चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं । सिं ह विलोकित, पद्धरि, अरिल्ल,
अड़िल्ल, पादाकुलक आदि छं द चौपाई के समान लक्षण वाले छं द हैं ।उदाहरण -
बं दउँ गु रु पद पदुम परागा।
सु रुचि सु बास सरस अनु राग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
कुण्डलिया
कुण्डलिया विषम मात्रिक छं द है । इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्ये क चरण में २४ मात्राएँ होती हैं । दोहों के
बीच एक रोला मिला कर कुण्डलियाबनती है । पहले दोहे का अं तिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा
जिस शब्द से  कुण्डलिया का आरम्भ होता है , उसी शब्द से  कुण्डलियासमाप्त भी होता है । उदाहरण -
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँ द जहँ आड़े आवै ।
बकुचा बाँ धे मोट, राति को झारि बिछावै ॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
गीतिका (छं द)
गीतिका (छं द) मात्रिक सम छं द है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं । १४ और १२ पर यति तथा अं त में लघु -गु रु
आवश्यक है । इस छं द की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ
लघु हों तथा अं त में रगण हो तो छं द निर्दोष व मधु र होता है । उदाहरण-
खोजते हैं साँ वरे को,हर गली हर गाँ व में ।
आ मिलो अब श्याम प्यारे ,आमली की छाँ व में ।।
आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
हरिगीतिका
हरिगीतिका चार चरणों वाला एक सम मात्रिक छं द है । इसके प्रत्ये क चरण में 16 व 12 के विराम से 28 मात्रायें
होती हैं तथा अं त में लघु गु रु आना अनिवार्य है । हरिगीतिका में 16 और 12 मात्राओं पर यति होती है । प्रत्ये क
चरण के अन्त में रगण आना आवश्यक है ।
विशे ष: 2212 की चार आवृ त्तियों से बना रूप हरिगीतिका छं द का सर्वाधिक व्यावहारिक रूप है
जिसे  मिश्रितगीतिका कह सकते हैं । वस्तु तः 11212 की चार आवृ त्तियों से  हरिगीतिका , 2212 की चार आवृ त्तियों
से  श्रीगीतिका तथा दोनों स्वरक स्वै च्छिक चार आवृ त्तियों से मिश्रितगीतिका छं द बनता है ।
उदाहरण-
प्रभु गोद जिसकी वह यशोमति,दे रहे हरि मान हैं ।
गोपाल बै ठे आधु निक रथ,पर सहित सम्मान हैं ॥
मु रली अधर धर श्याम सु न्दर,जब लगाते तान हैं ।
सु नकर मधु र धु न भावना में ,बह रहे रसखान हैं ॥
बरवै
बरवै अर्ध सम मात्रिक छं द है । इसमें प्रथम एवं तृ तीय चरण में १२ -१२ मात्राएँ तथा द्वितीय और चतु र्थ चरण में
७-७ मात्राएँ होती हैं । सम चरणों के अं त में जगण होता है ।उदाहरण-
चम्पक हरवा अं ग मिलि,अधिक सु हाय।
जानि परै सिय हियरे ,जब कुंभिलाय।।
छप्पय
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है । यह सं युक्त छन्द है , जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद
के योग से बनता है ।उदाहरण-
डिगति उर्वि अति गु र्वि, सर्व पब्बे समु दर् सर।
ब्याल बधिर ते हि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मु क्खभर।
सु र बिमान हिम भानु , भानु सं घटित परस्पर।
चौंकि बिरं चि शं कर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धु नि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।
उल्लाला
उल्लाला सम मात्रिक छन्द है । इसके प्रत्ये क चरण में 13-13 मात्राओं के हिसाब से 26 मात्रायें तथा 15-13 के
हिसाब से 28 मात्रायें होती हैं । इस तरह उल्लाला के दो भे द होते है । तथापि 13 मात्राओं वाले छन्द में लघु -गु रु
का कोई विशे ष नियम नहीं है ले किन 11 वीं मात्रा लघु ही होती है ।15 मात्राओं वाले उल्लाला छन्द में 13 वीं
ू रे चरण में केवल दो
मात्रा लघु होती है । 13 मात्राओं वाला उल्लाला बिल्कुल दोहे की तरह होता है ,बस दस
मात्रायें बढ़ जाती हैं । प्रथम चरण में लघु -दीर्घ से विशे ष फर्क नहीं पड़ता। उल्लाला छन्द को चन्द्रमणि भी कहा
जाता है ।उदाहरण-
यों किधर जा रहे हैं बिखर,कुछ बनता इससे कहीं।
सं गठित ऐटमी रूप धर,शक्ति पूर्ण जीतो मही ॥
सवै या
सवै या चार चरणों का समपद वर्णछं द है । वर्णिक वृ त्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक
रूप से हिन्दी में सवै या कहा जाता है ।सवै ये के मु ख्य १४ प्रकार हैं :- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सु मुखी, ४. दुर्मिल,
५. किरीट, ६. गं गोदक, ७. मु क्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सु न्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३.
महाभु जंगप्रयात, १४. सु खी। उदाहरण-
मानु स हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँ व के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मे रो,चरौं नित नं द की धे नु मँ झारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पु रंदर कारन।
जो खग हौं तो बसे रो करौं मिलि कालिं दी कू ल कदम्ब की डारन॥
से स गने स महे स दिने स,सु रेसहु जाहि निरं तर गावैं ।
जाहि अनादि अनं त अखण्ड,अछे द अभे द सु भेद बतावैं ॥
नारद से सु क व्यास रहे ,पचिहारे तौं पु नि पार न पावैं ।
ताहि अहीर की छोहरियाँ ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं ॥
कानन दै अँ गुरी रहिहौं,जबही मु रली धु नि मं द बजै हैं।
माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गै हैं पै गै हैं॥
टे रि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझै हैं।
माई री वा मु ख की मु सकान,सम्हारि न जै हैं,न जै हैं,न जै हैं॥
कवित्त
कवित्त एक वार्णिक छन्द है । इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्ये क चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं ।
प्रत्ये क चरण के अन्त में गु रू वर्ण होना चाहिये । छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति
रहना चाहिये । इसके दो प्रकार हैं :- 1.मनहरण कवित्त और घनाक्षरी। घनाक्षरी छं द के दो भे द हैं :- 1.रूप घनाक्षरी,
2.दे व घनाक्षरी। उदाहरण-
नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि,
् आब नहि,सागर अपार में ।
एक बु दधि
वीर अरि छोट नहि, सं ग एक गोट नहि,
लं का लघु कोट नहि, विदित सं सार में ।।
मधु मालती (छं द)
मधु मालती छं द में प्रत्ये क चरण में 14 मात्राएँ होती हैं , अं त में 212 वाचिक भार होता है , 5-12 वीं मात्रा पर लघु
अनिवार्य होता है ।उदाहरण -
होंगे सफल,धीरज धरो ,
कुछ हम करें ,कुछ तु म करो ।
सं ताप में , अब मत जलो ,
कुछ हम चलें , कुछ तु म चलो ।।
विजात
विजात छं द के प्रत्ये क चरण में 14 मात्राएँ होती हैं , अं त में 222 वाचिक भार होता है , 1,8 वीं मात्रा पर लघु
अनिवार्य होता है । उदाहरण -
तु म्हारे नाम की माला,
तु म्हारे नाम की हाला ।
हुआ जीवन तु म्हारा है ,
तु म्हारा ही सहारा है ।।
मनोरम
मनोरम छं द के प्रत्ये क चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अं त में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा
पर लघु 1 अनिवार्य है ।उदाहरण-
उलझनें पूजालयों में ,
शां ति है शौचालयों में ।
शान्ति के इस धाम आयें ,
उलझनों से मु क्ति पायें ।।
पु ष्पिताग्रा
ू रे और चौथे
एक अर्धसम वृ त्त जिसके पहले और तीसरे चरण में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दस
चरण में एक नगण दो जगण, एक रगण और गु रु होता है । जै से -
प्रभु सम नहिं अन्य कोइ दाता।
सु धन जु ध्यावत तीन लोक त्राता।
सकल असत कामना बिहाई।
हरि नित से वहु मित्त चित्त लाई।
शक्ति (छं द)
शक्ति छं द में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं , अं त में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु
1 अनिवार्य होता है । उदाहरण -
चलाचल चलाचल अकेले निडर,
चलें गे हजारों, चले गा जिधर।
दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
टले गी स्वयं पं थ की हर बे ला ।।
पीयूष वर्ष
पीयूष वर्ष छं द में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं ,अं त में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1
अनिवार्य है । यदि यति अनिवार्य न हो और अं त में 2 = 11 की छट
ू हो तो यही छं द 'आनं दवर्धक' कहलाता है ।
उदाहरण-
लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
नालियों में छोड़ जो मै ला रहे ।
नालियों पर शौच जिनके शिशु करें ,
रोग से मारें सभी को खु द मरें ।।
सु मेरु
सु मेरु छं द के प्रत्ये क चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं  ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है  ;
इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अं त में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है ।
उदाहरण-
लहै रवि लोक सोभा , यह सु मेरु ,
कहँ ू अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।
सगु ण (छं द)
सगु ण छं द के प्रये क चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अं त में 121 होता है ,1,6,11, 16,19 वी मात्रा
लघु 1 होती है ।उदाहरण -
सगु ण पञ्च चारौ जु गन वन्दनीय ,
अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
सु खी हो मिलै अं त में राम धाम।।
शास्त्र (छं द)
शास्त्र छं द के प्रत्ये क चरण में 20 मात्राएँ होती हैं  ; अं त में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं ।
उदाहरण -
मु नीके लोक लहिये शास्त्र आनं द ,
सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
सु लभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।
सिन्धु (छं द)
सिन्धु छं द के प्रत्ये क चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है ।उदाहरण -
लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
तऊ पु नि गर्व के कारण भयो खारी।
लहे प्रभु ता सदा जो शील को धारै ,
दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै ।।
बिहारी (छं द)
बिहारी छं द के प्रत्ये क चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं ,14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं
मात्रा लघु 1 होती है । उदाहरण -
लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ ,
हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ।
कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा ,
हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सु दामा।।
दिगपाल (छं द)
दिगपाल छं द के प्रत्ये क चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ;12,24 मात्रा पर यति होती है ,आदि में समकल होता है और
5,8,17,20 वीं मात्रा अनिवार्यतः लघु 1 होती है ।इस छं द को मृ दुगति भी कहते हैं ।उदाहरण-
सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई
् मं त प्राणी, जो राम शरण होई।
सो बु दधि
रे मान बात मे री, मायाहि त्यागि दीजै
सब काम छाँ ड़ि मीता, इक राम नाम लीजै ।।
सारस (छं द)
सारस छं द के प्रत्ये क चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ;आदि में विषम कल होता है
और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं ।उदाहरण-
भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है
राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है ।
शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ
राम भजौ राम भजौ, राम भजौ राम भजौ।।
गीता (छं द)
गीता छं द के प्रत्ये क चरण में 26 मात्राएँ होती हैं ; 14,12 पर यति होती है , आदि में सम कल होता है  ; अं त में 21
आता है और 5,12,19,26 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं ।उदहारण -
कृष्णार्जुन गीता भु वन, रवि सम प्रकट सानं द l
जाके सु ने नर पावहीं, सं तत अमित आनं द l
दुहुं लोक में कल्याण कर, यह मे ट भाव को शूल l
तातें कहौं प्यारे कवौं, उपदे श हरि ना भूल ll
शु द्ध गीता
शु द्ध गीता छं द के प्रत्ये क चरण में 27 मात्राएँ होती हैं  ; 14,13 मात्रा पर यति होती है . आदि में 21 होता है तथा
3,10,17,24,27 वीं मात्राएँ लघु होती हैं ।उदाहरण -
मत्त चौदा और ते रा, शु द्ध गीता ग्वाल धार
ध्याय श्री राधा रमण को, जन्म अपनों ले सु धार।
पाय के नर दे ह प्यारे , व्यर्थ माया में न भूल
हो रहो शरणै हरी के, तौ मिटै भव जन्म शूल।।
विधाता (छं द)
विधाता छं द के प्रत्ये क चरण में 28 मात्राएँ होती है  ; 14,14 मात्रा पर यति होती है  ; 1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ
लघु 1 होती हैं । इसे शु द्धगा भी कहते हैं । उदाहरण -
ग़ज़ल हो या भजन कीर्तन,सभी में प्राण भर दे ता ,
अमर लय ताल से गु ं जित,समूची सृ ष्टि कर दे ता।
भले हो छं द या सृ ष्टा,बड़ा प्यारा 'विधाता' है ,
सु हानी कल्पना जै सी,धरा सु न्दर सजाता है ।।
हाकलि
हाकलि एक सम मात्रिक छं द है । इसके प्रत्ये क चरण में 14 मात्रा होती हैं , तीन चौकल के बाद एक द्विकल होता
है । यदि तीन चौकल अनिवार्य न हों तो यही छं द 'मानव' कहलाता है । उदाहरण -
बने बहुत हैं पूजालय,
अब बनवाओ शौचालय।
घर की लाज बचाना है ,
शौचालय बनवाना है ।।
चौपई
चौपई एक सम मात्रिक छं द है । इसके प्रये क चरण में 15 मात्रा होती हैं , अं त में 21 अनिवार्य होता है , कुल चार
चरण होते हैं , क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । इस छं द को जयकरी भी कहते हैं । उदाहरण :
भोंपू लगा-लगा धनवान,
फोड़ रहे जनता के कान।
ध्वनि-ताण्डव का अत्याचार,
कैसा है यह धर्म-प्रचार।।
पदपादाकुलक
पदपादाकुलक एक सम मात्रिक छं द है । इसके एक चरण में 16 मात्रा होती हैं ,आदि में द्विकल अनिवार्य होता है
किन्तु त्रिकल वर्जित होता है , पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता
है ,कुल चार चरण होते हैं , क् रमागत दो-दो चरण तु कान्त होते है ।उदाहरण :
कविता में हो यदि भाव नहीं,
पढने में आता चाव नहीं।
हो शिल्प भाव का सम्मे लन,
तब काव्य बने गा मनभावन।।
श्रगृं ार (छं द)
श्रगृं ार एक सम मात्रिक छं द है । इनके प्रत्ये क चरण में 16 मात्रा होती हैं , आदि में क् रमागत त्रिकल-द्विकल
(3+2) और अं त में क् रमागत द्विकल-त्रिकल (2+3) आते हैं , कुल चार चरण होते हैं ,क् रमागत दो-दो चरण तु कांत
होते हैं । उदाहरण :
भागना लिख मनु जा के भाग्य,
भागना क्या होता वै राग्य।
दास तु लसी हों चाहे बु द्ध,
आचरण है यह न्याय विरुद्ध।।
राधिका (छं द)
राधिका एक सम मात्रिक छं द है । इसके प्रत्ये क चरण में 22 मात्रा होती हैं , 13,9 पर यति होती है , यति से पहले
और बाद में त्रिकल आता है , कुल चार चरण होते हैं , क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं ।उदाहरण :
मन में रहता है काम , राम वाणी में ,
है भारी मायाजाल, सभी प्राणी में ।
लम्पट कपटी वाचाल, पा रहे आदर,
पु जता अधर्म है ओढ़, धर्म की चादर।।
कुण्डल/उड़ियाना (छं द)
यह एक सम मात्रिक छं द है । इसके प्रत्ये क चरण में 22 मात्रा होती हैं , 12,10 पर यति होती है , यति से पहले और
बाद में त्रिकल आता है औए अं त में 22 आता है । यदि अं त में एक ही गु रु 2 आता है तो उसे  उड़ियाना छं द कहते हैं
l कुल चार चरण होते हैं , क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं ।
कुण्डल का उदाहरण :
गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पु जारी,
रचते हैं चारु छं द, रसमय सु खारी।।
दे ती है माँ प्रसाद, मु क्त हस्त ऐसा,
तु लसी रसखान सूर, पाये हैं जै सा।।
उड़ियाना का उदाहरण :
ठु मकि चालत रामचं दर् , बाजत पैं जनियाँ ,
धाय मातु गोद ले त, दशरथ की रनियाँ ।
तन-मन-धन वारि मं जु, बोलति बचनियाँ ,
कमल बदन बोल मधु र, मं द सी’ हँ सनियाँ ।।
रूपमाला
रूपमाला एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 24 मात्राएं होती हैं एवं 14,10 पर यति होती है , आदि और अं त में
वाचिक भार 21 होता है । कुल चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरणों में तु कांत होता है । इसे मदन भी कहते
हैं । उदाहरण :
दे ह दलदल में फँसे हैं , साधना के पाँ व,
दरू काफी दरू लगता, साँ वरे का गाँ व।
क्या उबारें गे कि जिनके, दलदली आधार,
इसलिए आओ चलें इस, धुं ध के उसपार।।
मु क्तामणि
मु क्तामणि एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 25 मात्राएं होतीं हैं और 13,12 पर यति होती है । यति से पहले वाचिक
भार 12 और चरणान्त में वाचिक भार 22 होता है । कुल चार चरण होते हैं ; क् रमागत दो-दो चरण तु कांत। दोहे के
क् रमागत दो चरणों के अं त में एक लघु बढ़ा दे ने से मु क्तामणि का एक चरण बनता है । उदाहरण :
विनयशील सं वाद में , भीतर बड़ा घमण्डी,
आज आदमी हो गया, बहुत बड़ा पाखण्डी।
मे रा क्या सब आपका, बोले जै से त्यागी,
जले ईर्ष्या द्वे ष में , बने बड़ा बै रागी।।
गगनां गना छं द
गगनां गना एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 25 मात्राएं होती हैं और 16,9 पर यति होती है एवं चरणान्त में 212।
इसमें कुल चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं ।उदाहरण :
कब आओगी फिर, आँ गन की, तु लसी बूझती
किस-किस को कैसे समझाऊँ, यु क्ति न सूझती।
अम्बर की बाहों में बदरी, प्रिय तु म क्यों नहीं
भारी है जीवन की गठरी, प्रिय तु म क्यों नहीं।।
विष्णु पद
विष्णु पद एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है । अं त में वाचिक भार 2
होता है । इसमें कुल चार चरण होते हैं एवं क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । उदाहरण :
अपने से नीचे की से वा, तीर-पड़ोस बु रा,
पत्नी क् रोधमु खी यों बोले , ज्यों हर शब्द छुरा।
बे टा फिरे निठल्लू बे टी, खोये लाज फिरे ,
जले आग बिन वह घरवाला, घर पर गाज गिरे ।।
शं कर (छं द)
शं कर एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है एवं चरणान्त में 21। इसमें
कुल चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरणों पर तु कांत होता है ।उदाहरण :
सु रभित फू लों से सम्मोहित, बावरे मत भूल
इन फू लों के बीच छिपे हैं , घाव करते शूल।
स्निग्ध छुअन या क् रूर चु भन हो, सभी से रख प्रीत
आँ स ू पीकर मु स्काता चल, यही जग की रीत।।
सरसी
सरसी एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 27 मात्राएं होती हैं औथ 16,11 पर यति होती है , चरणान्त में 21 लगा
अनिवार्य है । इसमें कुल चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । इस छं द को कबीर या सु मंदर
भी कहते हैं । चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l
उदाहरण :
पहले लय से गान हुआ फिर,बना गान ही छं द,
गति-यति-लय में छं द प्रवाहित,दे ता उर आनं द।
जिसके उर लय-ताल बसी हो,गाये भर-भरतान,
उसको कोई क्या समझाये ,पिं गल छं द विधान।।
रास (छं द)
यह एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 22 मात्रा होती हैं एवं 8,8,6 पर यति होती है अं त में 112। चार चरण होते हैं
एवं क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं ।उदाहरण :
व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वह, सत्य यही,
कुछ न करे जो, त्रस्त रहे वह, बात सही।
जो न समय का, मूल्य समझता, मूर्ख बड़ा,
सब जाते उस, पार मूर्ख इस, पार खड़ा।।
निश्चल (छं द)
यह एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 23 मात्रा होती हैं एवं 16,7 पर यति होती है और चरणान्त में 21। इसमें कुल
चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । उदाहरण :
बीमारी में चाहे जितना, सह लो क्ले श,
पर रिश्ते -नाते में दे ना, मत सन्दे श।
आकर बतियायें , इठलायें , निस्सं कोच,
चै न लूट रोगी का, खायें , बोटी नोच।।
सार (छं द)
सार एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 28 मात्राएं होतीं हैं और 16,12 पर यति होती है । अं त में वाचिक भार 22 होता
है । कुल चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । उदाहरण :
कितना सु न्दर कितना भोला,था वह बचपन न्यारा
पल में हँ सना पल में रोना,लगता कितना प्यारा।
अब जाने क्या हुआ हँ सी के,भीतर रो ले ते हैं
रोते -रोते भीतर-भीतर,बाहर हँ स दे ते हैं ।।
लावणी (छं द)
लावणी एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 30 मात्राएं होतीं हैं और 16,14 पर यति होती है । कुल चार चरण होते हैं
और क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटं क ,
22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छं द कहलाता है । उदाहरण :
तिनके-तिनके बीन-बीन जब,पर्ण कुटी बन पाये गी,
तो छल से कोई सूर्पणखा,आग लगाने आये गी।
काम अनल चन्दन करने का,सं यम बल रखना होगा,
सीता सी वामा चाहो तो,राम तु म्हें बनना होगा।।
वीर (छं द)
वीर एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 31 मात्राएं होतीं हैं और 16,15 पर यति होती है । चरणान्त में वाचिक भार 21
होता है । इसमें कुल चार चरण होते हैं और क् रमागत दो-दो चरणों पर तु कांत होते हैं । इसे आल्हा भी कहते हैं ।
उदाहरण :
विनयशीलता बहुत दिखाते ,ले किन मन में भरा घमण्ड,
तनिक चोट जो लगे अहम् को,पल में हो जाते उद्दण्ड l
गु रुवर कहकर टाँ ग खींचते ,दे खे कितने ही वाचाल,
इसीलिये अब नया मं तर् यह,ने की कर सीवर में डाल l
त्रिभं गी
त्रिभं गी एक सम मात्रिक छं द है । इसमें 32 मात्राएं होतीं हैं और 10,8,8,6 पर यति होती है एवं चरणान्त में 2
होता है । कुल चार चरण होते हैं और।क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं । पहली तीन या दो यति पर आतं रिक
तु कांत होने से छं द का लालित्य बढ़ जाता है । तु लसी दास ने पहली दो यति पर आतं रिक तु कान्त का अनिवार्यतः
प्रयोग किया है । उदाहरण :
तम से उर डर-डर, खोज न दिनकर, खोज न चिर पथ, ओ राही,
रच दे नव दिनकर, नव किरणें भर, बना डगर नव, मन चाही l
सद्भाव भरा मन, ओज भरा तन, फिर काहे को, डरे भला,
चल-चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला l
कुण्डलिनी (छं द)
कुण्डलिनी एक विषम मात्रिक छं द है । दोहा और अर्ध रोला को मिलाने से कुण्डलिनी छं द बनता है जबकि दोहा के
चतु र्थ चरण से अर्ध रोला का प्रारं भ होता हो (पु नरावृ त्ति)। इस छं द में यथारुचि प्रारं भिक शब्द या शब्दों से छं द
का समापन किया जा सकता है (पु नरागमन), किन्तु यह अनिवार्य नहीं है । दोहा और रोला छं दों के लक्षण अलग से
पूर्व वर्णित हैं l कुण्डलिनी छं द में कुल चार चरण होते हैं , क् रमागत दो-दो चरण तु कांत होते हैं ।
कुण्डलिनी = दोहा + अर्धरोला
उदाहरण :
जननी जनने से हुई, माँ ममता से मान,
जननी को ही माँ समझ, भूल न कर नादान।
भूल न कर नादान, दे ख जननी की करनी,
करनी से माँ बने , नहीं तो जननी जननी।।
वियोगिनी
इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं । विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और
एक लघु व एक गु रु होते हैं । जै से -
विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सु ख से सदा
करती रहती सदै व ही
करुण की मद-मय साधना।।
प्रमाणिका
इसके चार चरण होते हैं । प्रत्ये क चरण में ८-८ वर्ण होते हैं । चरण में वर्णों का क् रम लघु -गु रु-लघु -गु रु-लघु -गु रु-लघु -
गु रु (।ऽ।ऽ।ऽ।ऽ) होता है । गणों में लिखे तो जगण-रगण-लगण-गगण। उदाहरण :
नमामि भक्तवत्सलं कृपालु शीलकोमलम्।
भजामि ते पदाम्बु जम् अकामिनां स्वधामदम्॥
वं शस्थ
इसे वं शस्थविल अथवा वं शस्तनित भी कहते हैं । इसके चार चरण होते हैं । प्रत्ये क चरण में १२ वर्ण होते हैं और गणों
का क् रम होता है – जगण, तगण, जगण, रगण। प्रत्ये क चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है । जै से -
गिरिन्द्र में व्याप्त विलोकनीय थी,
वनस्थली मध्य प्रशं सनीय थी
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी
असे त जम्बालिनी कू ल जम्बु कीय।।
शिखरिणी
शिखरिणी छं द में क् रमशः यगण, मगण, नगण, सगण, भगण होने से 12 वर्ण होते हैं और लघु तथा गु रु के क् रम से
प्रत्ये क चरण में वर्ण रखे जाते हैं और 6 तथा 11 वर्णों के बाद यति होती है । उदाहरण :
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बु धजनसकाशादधिगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥
शार्दूल विक् रीडित
इसमें 19 वर्ण होते हैं । 12, 7 वर्णों पर विराम होता है । हर चरण में मगण , सगण , जगण , सगण , तगण , और बाद में
एक गु रु होता है । उदाहरण :
रे रे चातक ! सावधान-मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वे तु नै तादृशाः ।
केचिद् वृ ष्टिभिरार्द्रयन्ति वसु धां गर्जन्ति केचिद् वृ था
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पु रतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥
उपजाति (छं द)
इन्द्रवज्रा और उपे न्द्रवज्रा के चरण जब एक ही छन्द में प्रयु क्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं ।
उदाहरण :
नीलाम्बु जश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघु वंशनाथम्॥
वसं ततिलका
वसन्ततिलका छन्द सम वर्ण वृ त्त छन्द है । यह चौदह वर्णों वाला छन्द है । 'तगण', 'भगण', 'जगण', 'जगण' और दो
गु रुओं के क् रम से इसका प्रत्ये क चरण बनता है ।उदाहरण-
हे हे मकार पर दुःख-विचार-मूढ
किं माँ मु हुः क्षिपसि वार-शतानि वह्नौ।
सन्दीप्यते मयि तु सु पर् गु णातिरे को
लाभः परं तव मु खे खलु भस्मपातः॥
इन्द्रवज्रा
इन्द्रवज्रा छन्द एक सम वर्ण वृ त्त छन्द है । इसके प्रत्ये क चरण में 11-11 वर्ण होते हैं । इन्द्रवज्रा के प्रत्ये क
चरण में दो तगण, एक जगण और दो गु रु के क् रम से वर्ण रखे जाते हैं ।उदाहरण-
विद्ये व पुं सो महिमे व राज्ञः
प्रज्ञे व वै द्यस्य दये व साधोः।
लज्जे व शूरस्य मु जेव यूनो,
सम्भूषणं तस्य नृ पस्य सै व॥
उपे न्द्रवज्रा
उपे न्द्रवज्रा एक सम वर्ण वृ त्त छन्द है । इसके प्रत्ये क चरण में 11-11 वर्ण होते हैं । उपे न्द्रवज्रा छन्द के प्रत्ये क
चरण में 'जगण', 'तगण', 'जगण' और दो गु रु वर्णों के क् रम से वर्ण होते हैं । उदाहरण:
त्वमे व माता च पिता त्वमे व
त्वमे व बन्धु श्च सखा त्वमे व।
त्वमे व विद्या द्रविणं त्वमे व
त्वमे व सर्वं मम दे व-दे व॥
मालिनी छन्द
मालिनी एक सम वर्ण वृ त छन्द है । इसके प्रत्ये क चरण में "न न म य य" अर्थात दो 'नगण' एक 'मगण' और दो
'यगण' के क् रम से 15 वर्ण होते हैं । आठवें और सातवें वर्णों पर यति होती है । उदाहरण-
प्रिय पति वह मे रा, प्राण प्यारा कहाँ है ।
दुख-जलधि निमग्ना, का सहारा कहाँ है ।
अब तक जिसको मैं , दे ख के जी सकी हँ ।ू
वह हृदय हमारा, ने तर् तारा कहाँ है ।।
स्नग्धरा
एक वृ त्त जिसके प्रत्ये क चरण में (म र भ न य य य) होता है और 8, 8, 8 पर यति होती है । उदाहरण -
मोरे भौने ययू यो कहहु सु त कहाँ तें लिये आवते हो।
भा का आनं द आजी तु म फिरि फिरि कै माथ जो नावते हो।
बोले माता! विलोक्यो फिरत सह चमू वाग में स्नग्धरे ज्यों।
काढ़ी माला रू मारे विपु ल रिपु बली अश्वलो जीति केत्यों।
ध्यातव्य
वाचिक भार अर्थात लय को ध्यान में रखते हुए मापनी के किसी भी गु रु 2 के स्थान पर दो लघु 11 का प्रयोग किया
जाना।
पिं गल के अनु सार झ, ह, र, भ, और ष इन पाँचों अक्षरों को छं द के आरं भ में रखना वर्जित है , इन पाँचों
को दग्धराक्षर कहते हैं । दग्धराक्षरों की कुल सं ख्या 19 है परं तु उपर्युक्त पाँच विशे ष हैं । वे 19 इस प्रकार
हैं :- ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ, त, थ, झ, र, ल, व, ष, ह।
परिहार- कई विशे ष स्थितियों में अशु भ गणों अथवा दग्धराक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता। यदि मं गलसूचक
अथवा दे वतावाचक शब्द से किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार हो जाता है । उदाहरण :
गणे श जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज।
निष्कंटक सब मिले गा, मूल साथ में ब्याज।।
उपर्युक्त दोहे के प्रारं भ में ज-गणात्मक शब्द है जिसे अशु भ माना गया है परं तु दे व-वं दना के कारण उसका दोष-
परिहार हो गया है ।
द्विकल का अर्थ है 2 या 11 मात्राएं , त्रिकल का अर्थ है 21 या 12 या 111 मात्राएं , चौकल का अर्थ है 22 या 211
या 112 या 121 या 1111 मात्राएं
चौपाई आधारित छं द:-
16 मात्रा के चौपाई छं द में कुछ मात्राएँ घटा-बढ़ाकर अने क छं द बनते है । ऐसे चौपाई आधारित छं दों का चौपाई
छं द से आतं रिक सम्बन्ध यहाँ पर दिया जा रहा है । इससे इन छं दों को समझने और स्मरण रखने में बहुत सु विधा हो
सकती है :-
चौपाई – 1 = 15 मात्रा का चौपई छं द, अं त 21
चौपाई + 6 = 22 मात्रा का रास छं द, अं त 112
चौपाई + 7 = 23 मात्रा का निश्चल छं द, अं त 21
चौपाई + 9 = 25 मात्रा का गगनां गना छं द, अं त 212
चौपाई + 10 = 26 मात्रा का शं कर छं द, अं त 21
चौपाई + 10 = 26 मात्रा का विष्णु पद छं द, अं त 2
चौपाई + 11 = 27 मात्रा का सरसी/कबीर छं द, अं त 21
चौपाई + 12 = 28 मात्रा का सार छं द, अं त 22
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का ताटं क छं द, अं त 222
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का कुकुभ छं द, अं त 22
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का लावणी छं द, अं त स्वै च्छिक
चौपाई + 15 = 31 मात्रा का वीर/आल्हा छं द, अं त 21
दोहे  से ले कर कवित्त और हाकलि से ले कर शार्दूल विक् रीडित तक सभी छं द मापनीमु क्त हैं और मधु मालती से
ले कर विधाता तक सभी छं द मापनीयु क्त हैं ।
कुण्डलिनी छं द को लिखने के कुछ विशे ष नियम निम्न हैं :-
(क) इस छं द के प्रथम दो चरणों के मात्राभार (13,11) और नियम एक जै से हैं तथा उससे भिन्न अं तिम दो चरणों के
मात्राभार (11,13) और नियम एक जै से हैं । अस्तु यह छं द विषम मात्रिक है ।
(ख) दोहे के चतु र्थ चरण की अर्धरोला के प्रारं भ में पु नरावृ त्ति सार्थक होनी चाहिए अर्थात दुहराया गया अं श दोनों
चरणों में सार्थकता के साथ आना चाहिए।
(ग) क्योंकि कुण्डलिनी के अं त में वाचिक भार 22 आता है , इसलिए यदि पु नरागमन रखना है तो इसका प्रारं भ भी
वाचिक भार 22 या गागा से ही होना चाहिए अन्यथा पु नरागमन दुरूह या असं भव हो जाये गा l
(घ) कथ्य का मु ख्य भाग अं तिम चरणों में केन्द्रित होना चाहिए, तभी छं द अपना पूरा प्रभाव छोड़ पाता है ।
उपजाति, शार्दूल विक् रीडित, प्रमाणिका, वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, उपे न्द्रवज्रा, शिखरिणी के केवल उदाहरण
सं स्कृत के हैं , वे स्वयं सं स्कृत के छं द नहीं हैं एवं वे वै दिक छं दों की श्रेणी में भी नहीं आते ।
इन्हें भी दे खें
ज्योतिष 
 करणकुण्डलीनक्षत्रों
ज्‍योतिष या ज्यौतिष विषय वे दों जितना ही प्राचीन है । प्राचीन काल में  ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍
डों का अध्‍ययन करने के विषय को ही ज्‍योतिष कहा गया था। इसके गणित भाग के बारे में तो बहुत स्‍पष्‍टता से
कहा जा सकता है कि इसके बारे में वे दों में स्‍पष्‍ट गणनाएं दी हुई हैं । फलित भाग के बारे में बहुत बाद में जानकारी
मिलती है ।
भारतीय आचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष की पाण्डुलिपियों की सं ख्या एक लाख से भी अधिक है । [1]
प्राचीनकाल में  गणित एवं ज्यौतिष समानार्थी थे परन्तु आगे चलकर इनके तीन भाग हो गए।
(१) तन्त्र या सिद्धान्त - गणित द्वारा ग्रहों की गतियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना तथा उन्हें निश्चित
करना।
(२) होरा - जिसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से था। इसके तीन उपविभाग थे । क- जातक, ख- यात्रा, ग- विवाह ।
(३) शाखा - यह एक विस्तृ त भाग था जिसमें शकुन परीक्षण, लक्षणपरीक्षण एवं भविष्य सूचन का विवरण था।
इन तीनों स्कन्धों ( तन्त्र-होरा-शाखा ) का जो ज्ञाता होता था उसे 'सं हितापारग' कहा जाता था।
ू रे में सृ ष्टि-आरम्भ, गोल
तन्त्र या सिद्धान्त में मु ख्यतः दो भाग होते हैं , एक में ग्रह आदि की गणना और दस
विचार, यन्त्ररचना और कालगणना सम्बन्धी मान रहते हैं । तं तर् और सिद्धान्त को बिल्कुल पृ थक् नहीं रखा जा
सकता । सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृ ष्टयादि से
हो वह सिद्धान्त, जिसमें महायु गादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से (जै से कलियु ग के आरम्भ से ) हो
वह करण कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से दे खा जाय तो इन तीनों में कोई भे द नहीं है । सिद्धान्त, तन्त्र
या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता है वे क् रमशः इस प्रकार हैं -
१-मध्यमाधिकार २–स्पष्टाधिकार ३-त्रिप्रश्नाधिकार ४-चन्द्रग्रहणाधिकार ५-सूर्यग्रहणाधिकार
६-छायाधिकार ७–उदयास्ताधिकार ८-शृ ङ्गोन्नत्यधिकार ९-ग्रहयु त्यधिकार १०-याताधिकार
'ज्योतिष' से निम्नलिखित का बोध हो सकता है -
वे दाङ्ग ज्योतिष
सिद्धान्त ज्योतिष या 'गणित ज्योतिष' (Theoretical astronomy)
फलित ज्योतिष (Astrology)
अं क ज्योतिष (numerology)
खगोल शास्त्र (Astronomy)
भारतीय ज्योतिष की प्राचीनता
भारतीय आर्यो में ज्योतिष विद्या का ज्ञान अत्यन्त प्राचीन काल से था । यज्ञों की तिथि आदि निश्चित करने में इस
विद्या का प्रयोजन पड़ता था । अयन चलन के क् रम का पता बराबर वै दिक ग्रंथों में मिलता है ।
जै से, पु नर्वसु  से  मृ गशिरा (ऋगवे द), मृ गशिरा से  रोहिणी (ऐतरे य ब्राह्मण), रोहिणी से  कृत्तिका (तौत्तिरीय सं हिता)
कृत्तिका से  भरणी (वे दाङ्ग ज्योतिष) । तै त्तरिय सं हिता से पता चलता है कि प्राचीन काल में वासं त विषु वद्दिन
कृत्तिका नक्षत्र में पड़ता था । इसी वासं त विषु वद्दिन से वै दिक वर्ष का आरम्भ माना जाता था, पर अयन की
गणना माघ मास से होती थी । इसके बाद वर्ष की गणना शारद विषु वद्दिन से आरम्भ हुई । ये दोनों प्रकार की
गणनाएँ वै दिक ग्रंथों में पाई जाती हैं । वै दिक काल में कभी वासं त विषु वद्दिन मृ गशिरा नक्षत्र में भी पड़ता था ।
इसे  बाल गं गाधर तिलक ने ऋग्वे द से अने क प्रमाण दे कर सिद्ध किया है । कुछ लोगों ने निश्चित किया है कि वासं त
विषु बद्दिन की यह स्थिति ईसा से ४००० वर्ष पहले थी । अतः इसमें कोई सं देह नहीं कि ईसा से पाँच छह हजार वर्ष
पहले हिं दुओं को नक्षत्र अयन आदि का ज्ञान था और वे यज्ञों के लिये पत्रा बनाते थे । शारद वर्ष के प्रथम मास का
नाम अग्रहायण था जिसकी पूर्णिमा मृ गशिरा नक्षत्र में पड़ती थी । इसी से  कृष्ण ने  गीता में कहा है कि 'महीनों में
मैं मार्गशीर्ष हँ 'ू ।
प्राचीन हिं दुओं ने  ध्रुव का पता भी अत्यन्त प्राचीन काल में लगाया था । अयन चलन का सिद्धान्त भारतीय
ू रे दे श से नहीं लिया; क्योंकि इसके सं बंध में जब कि यु रोप में विवाद था, उसके सात आठ
ज्योतिषियों ने किसी दस
सौ वर्ष पहले ही भारतवासियों ने इसकी गति आदि का निरूपण किया था। वराहमिहिर के समय में ज्योतिष के
सम्बन्ध में पाँच प्रकार के सिद्धांत इस दे श में प्रचलित थे - सौर, पै तामह, वासिष्ठ, पौलिश ओर रोमक । सौर
सिद्धान्त सं बंधी सूर्यसिद्धान्त नामक ग्रंथ किसी और प्राचीन ग्रंथ के आधार पर प्रणीत जान पड़ता है
। वराहमिहिर और ब्रह्मगु प्त दोनों ने इस ग्रंथ से सहायता ली है । इन सिद्धांत ग्रंथों में ग्रहों के भु जां श, स्थान,
यु ति, उदय, अस्त आदि जानने की क्रियाएँ सविस्तर दी गई हैं । अक्षां श और दे शातं र का भी विचार है ।
पूर्व काल में दे शान्तर लं का या उज्जयिनी से लिया जाता था । भारतीय ज्योतिषी गणना के लिये  पृ थ्वी को ही केंद्र
मानकर चलते थे और ग्रहों की स्पष्ट स्थिति या गति ले ते थे । इससे ग्रहों की कक्षा आदि के सं बंध में उनकी और
आज की गणना में कुछ अन्तर पड़ता है । क् रां तिवृ त्त पहले २८ नक्षत्रों में ही विभक्त किया गया था । राशियों का
विभाग पीछे से हुआ है । वै दिक ग्रंथों में राशियों के नाम नहीं पाए जाते । इन राशियों का यज्ञों से भी कोई सं बंध
नहीं हैं । बहुत से विद्वानों का मत है कि राशियों और दिनों के नाम यवन (यु नानियों के) सं पर्क के पीछे के हैं । अने क
पारिभाषिक शब्द भी यूनानियों से लिए हुए हैं , जै से,— होरा, दृक्काण केंद्र, इत्यादि ।
वे दाङ्ग ज्योतिष 
आचार्य लगध मु नि का वे दांग ज्योतिष एक प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है । इसके रचना के काल के बारे में बहुत मतभे द
है । एक विचार के अनु सार इसका काल १३५० ई पू माना जाता है । अतः यह सं सार का ही सर्वप्राचीन ज्याे तिष
ग्रन्थ माना जा सकता है । यह ज्योतिष का आधार ग्रन्थ है ।
वे दां गज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है । माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये  यज्ञादि कार्य फल दे ते हैं
अन्यथा नहीं। कहा गया है कि-
वे दा हि यज्ञार्थमभिप्रवृ त्ताः कालानु पर्वा
ू विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वे द स वे द यज्ञान् ॥ (आर्चज्यौतिषम् ३६, याजु षज्याे तिषम् ३)

चारो वे दों के पृ थक् पृ थक् ज्योतिषशास्त्र थे । उनमें से सामवे द का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है , शे ष तीन वे दों के
ज्यौतिष शास्त्र प्राप्त होते हैं ।

 (१) ऋग्वे द का ज्यौतिष शास्त्र - आर्चज्याे तिषम् : इसमें ३६ पद्य हैं ।


 (२) यजु र्वे द का ज्यौतिष शास्त्र – याजु षज्याे तिषम् : इसमें ४४ पद्य हैं ।
 (३) अथर्ववे द ज्यौतिष शास्त्र - आथर्वणज्याे तिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं ।
इनमें ऋक् और यजु ः ज्याे तिषाें के प्रणे ता लगध नामक आचार्य हैं । अथर्व ज्याे तिष के प्रणे ता का पता नहीं है ।
पीछे सिद्धान्त ज्याे तिष काल मेें ज्याे तिषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसीलिये इसे
ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है । कहा गया है –

सिद्धान्तसं हिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्।

वे दस्य निर्मलं चक्षु र्ज्योतिश्शास्त्रमनु त्तमम् ॥

वे दां गज्याे तिष सिद्धान्त ज्याे तिष है , जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है । वे दां गज्योतिष में  गणित के
महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है -
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।

तद्वद् वे दां गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजु षज्याे तिषम् ४)


(अर्थ : जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है , उसी प्रकार सभी
वे दां गशास्त्रों मे गणित का स्थान सबसे उपर है ।)

इससे यह भी प्रकट होता है कि उस समय 'गणित' और 'ज्योतिष' समानार्थी शब्द थे ।[1]


वे दां गज्याे तिष में वे दाें जै सा (शु क्लयजु र्वेद २७।४५, ३०।१५) ही पाँच वर्षाें का एक यु ग माना गया है (याजु ष
वे दाङ्गज्याे योतिष ५)। वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु और माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है (याजु ष
वे .ज्याे . ६)। यु ग के पाँच वर्षाें के नाम- सं वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर हैं । अयन दाे हैं - उदगयन
और दक्षिणायन। ऋतु छः हैं - शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् और हे मन्त। महीने बारह माने गए हैं - तपः
(माघ), तपस्य (फाल्गु न), मधु (चै तर् ), माधव (वै शाख), शु क्र (ज्ये ष्ठ), शु चि (आषाढ), नभः (श्रावण), नभस्य
(भाद्र), इष (आश्विन), उर्ज (कार्तिक), सहः (मार्गशीर्ष) और सहस्य (पाै ष)। महीने शु क्लादि कृष्णान्त हैं ।
अधिकमास शु चिमास अर्थात् आषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाै ष में ही पड़ता है , अन्य मासाें में नहीं। पक्ष
दाे हैं - शु क्ल और कृष्ण। तिथि शु क्लपक्ष में १५ और कृष्णपक्ष में १५ माने गए हैं । तिथिक्षय केवल चतु र्दशी में माना
गया है । तिथिवृ दधि ् नहीं मानी गई है । १५ मु हर्ताेंू का दिन और १५ मु हर्ताें
ू का रात्रि माने गए हैं ।
सं स्करण
यजु र्वे द के ज्योतिष के चार सं स्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं :

 सोमाकर शे षनाग विरचित प्राचीन भाष्य (सम्पादन : Albrecht Weber, Über den Vedakalender Namens
Jyotisham, Berlin 1862 ; सु धाकर द्विवे दी द्वारा सन् १९०८ में तथा शिवराज आचार्य काै ण्डिन्न्यायन द्वारा सन्
२००५ में प्रकाशित) ,
 Yajus recension, non-Yajus verses of Rk recension, edited: G. Thibaut, "Contributions to the
Explanation of the Jyotisha-Vedánga", Journal of the Asiatic Society Bengal Vol 46 (1877), p. 411-
437
 सु धाकर द्विवे दी द्वारा रचित नवीन भाष्य (प्रकाशन समय सन् १९०८),
 सामशास्त्री द्वारा रचित दीपिका व्याख्या (समय १९४०),
 वे दाङ्गज्योतिषम् : यजु र्वे दिनाम् परम्परयागतम् विस्तृ तसंस्कृतभूमिकया -- शिवराज आचार्य
काै ण्डिन्न्यायन द्वारा रचित काै ण्डिन्न्यायन-व्याख्यान (हिन्दी और सं स्कृत टीका, परिशिष्ट में लगध द्वारा अपने
समय का पं चां ग भी है  ; प्रकाशन समय सन् २००५)।
 गिरिजाशं कर शास्त्री द्वारा हिन्दी अनु वाद, ज्योतिष कर्मकाण्ड एवं आध्यात्म शोध सं स्थान दारागं ज इलाहाबाद
से प्रकाशित
वे दां गज्याे तिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शं कर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य,
लाे . बालगं गाधर तिलक का भी याे गदान है ।

त्रैराशिक नियम
वे दां ग ज्योतिष में  त्रैराशिक नियम (Rule of three) दे खिये -
इत्य् उपायसमु द्देशो भूयोऽप्य् अह्नः प्रकल्पये त।्

ज्ञे यराशिगताभ्यस्तं विभजे त् ज्ञानराशिना ॥ २४

(“known result is to be multiplied by the quantity for which the result is wanted, and divided by
the quantity for which the known result is given”)[2]
यहाँ , ज्ञानराशि (या, ज्ञातराशि) = “वह राशि जो ज्ञात है ”

ज्ञे यराशि = “वह राशि जिसका मान ज्ञात करना है ”

You might also like