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अ ै त वेदा दशन

श राचाय के पूव का अ ै तवे दा दशन

इस दे श की ाणभूत आ ा क िच न-पर रा म दी मुकुटमिण की अ ै त वे दा की मा ता


सावजनीन है । मु त: वेद का अ म भाग ही दे ता कहलाता है । वे द मु त: दो भागों म िवभ है -
म और ा ण (म ा णा क वेदः ) । िकसी दे वता को स ोिधत करने वाला वैिदक सू या
दे वतािवशेष के ाथनापाक अथ ारक वा को म कहा जाता है । ा ण वेद का वह भाग है , जो
िविवध यजों के िवषय म म ों के िविनयोग तथा िविधयों का ितपादन करता है , साथ ही उनके मल तथा
िववरणा क ा ा को त ी िनदशनों के साथ, जो उपा ानों के प म िव मान ह, ुत
करता है । यह ा णभाग वे द के म भाग से िब ु ल पृ थक है । दाशिनक वृ ि यों तथा तािकक िवचारों
का चूड़ा उ ष तो वेदा म ही उपल है । इसे वे दा इसीिलए कहा जाता है िक यह वे द के अ म
ेय और काय े की िश ा दे ता है अथवा इसिलए िक यह उन उपिनषदों पर आधा रत है , जो वे द का
अ म भाग है । दशन की इस प ित को उ रमीमां सा भी कहा जाता है । जैिमिन की पू वमीमां सा का
यही उ रा भी है अथात् उसका यह अ म भाग है ; पर ु वहारत: यह एक त शा है । यह
िह दु ओं के सव रवाद (सव ख दं ) का तीक है । इस वेदा के अनु सार सम िव एक ही
अनािद श अथात् या ई र का सं प है । मु त: वै िदक उपिनषदों के रह मय िस ा ों
के ितपादक होने के कारण इसके िलए 'वे दा ' श का योग सवथा उपयु है ।

िन षत: वेदों का अ म भाग उपिनषद् कहलाता है और इसी अ म भाग को वेदा भी कहते ह ।


अ ा िवषयक ग ीर िववे चन ही उपिनषदों का ितपा िवषय है । ुितयों का चरम िस ा भी लोग
इसे ही मानते ह । िवषयव ु की ि से ऋक्, यजु ः , साम और अथव तीन ख ों म िवभ ह— कम,
उपासना और ान । इनके प रचायक ह मश: सं िहता, ा ण और आर क । आर क सािह म
ही उपिनषदों की गणना होती है । इससे यह मािणत होता है िक उपिनषद् ही वे दा है । उपिनषद्
अनेक ह । उपिनषदों का ितपा िवषय तो एक ही है ; िक ु ितपा िवषय की ा ा क शै ली
िभ -िभ है । िवषय की ि से उपिनषदों म ानका की धानता है ।
भारत की दाशिनक िच न-पर रा का म यु ग एक िवल ण युग है । इस यु ग के कुछ आदशवादी
दाशिनकों ने उपिनषदों की वेदा क िवचारधारा का पु नमू ा न िकया है । इ ोंने आ ा क पृ भू िम
पर युगानु प नवीन मा ताएँ थािपत की है । उपिनषदॊ ं की उ ी ं अ ा िव ापरक िवचारधारा का
संगिठत प वेदा दशन के मा म से ात आ। उपिनषदों म िबखरा आ ा िव ापरक िच नों
की िव पता िमटा कर उनम एक पता लाने का यास िकया। इस यास के अ ग महिष बादरायण
सू ॊ ं का िनमाण िकया। इसी सू को वे दा सू , शारीरकसू , शारीरकमीमां सा या उ रमीमां सा
कहा जाता है । भारतीय पर रा के अनुसार बादरायण और ास एक ही माने जाते ह। सू
म कुल 550 सू ों का सं कलन है । िभ ुओं और सं ािसयों िलये उपादे य होने के कारण इन सू ों को
िभ ुसू भी कहा जाता है । पािणिन ने िजन पराशरपू (महिष बादरायण ास) का नाम िनिद िकया
है , ये वही बादरायण ह। (पाराशयिशलािल ां िभ ुनटसू योः -4.3.103) । सू के रचनाकाल के
स म िन यपूवक कुछ भी कहना स व नही ं है । गीता म एक उ रण आया है — सू पशव
हे तम ः िविनि तैः (13.4)। इसम सू का िनदश िमलता है । इससे यह ात होता है िक सू
गीता की पूवरचना है । गीता महाभारत का एक अं श है । महाभारत का रचनाकाल ई0पू 0 500 ई0 है तो
इससे ात होता है िक सू का रचनाकाल िन य ही 500 ई0पू 0 है । सू ों पर भा , टीकाय और
उपटीकाय िलखी गई ह।

सू के िस भा कार

1. ीश राचाय- शा रभा - िनिवशे षा ै तवाद (788-820 ई.)

2. ीभा राचाय- भा रभा - भेदाभेदवाद(1000 ई.)

3. ीरामानुजाचाय- ीभा - िविश ा ै तवाद (1140 ई.)

4. ीम ाचाय- पूण भा - ै तवाद (1238 ई.)

5. ीिन ाकाचाय- सौरभभा - वेदा पा रजात (1250 ई.)

6. ीक ाचाय- शैवभा - शैविविश ा ै तवाद (1270 ई.)

7. ी ीपित- ीकरभा - वीरशैविविश ा ै तवाद (1400 ई.)

8. ीव भाचाय- अणुभा - शु ा ै तवाद (1479-1544 ई.)

9. ीिव ानिभ ु- िव ानामृत- अिवभागा ै तवाद (1600 ई.)

10. ीबलदे वाचाय गोिव भा अिच भे दाभेदवाद (1725 ई.)


इन आचाय के ारा ितपािदत भा ों म िवषयगत भेद के साथ सू ों की सं ा म भी भेद है । श राचाय
के अनुसार सू ों और अिधकरणों की सं ा मश: 555 और 199 है । इसके अित र रामानु ज मत म
545 और 160, मा मत म 564 एवं 233, िन ाकमत म 549 और 161, ीक मत म 544 और 182
तथा व भमत म 554 और 171 इनकी सं ा है ।

अ ै त वेदा के कुछ मुख आचाय

महिष बादरायण ने वेदा सू या सू की रचना की है ; िक ु वे दा सू की रचना के पू व भी कुछ


आचाय ने वेदा के व िवषयों का अपने ढं ग से िववे चन िकया है , िजनकी चचा इन ों म आई है ।
आचाय जैिमिन ने पूवमीमां सासू की रचना की है , जो वेदों और ा णों की मीमां सा है । वै िदक सािह
के सबसे अ उपिनषदों के दशन को उ रमीमां सा या अ ै त वे दा दशन के नाम से व त िकया
जाता है । बादरायण के सू ों का मूल आधार वेद और उपिनषद् ह। इनम वेद और उपिनषदों के
उपदे शों का मब सारां श दाशिनक पृ भू िम पर सू प से ुत िकया गया है । इस सू के
अ यन से पता चलता है िक बादरायण से भी पूव कुछ आचाय ने वे दा त की मीमां सा की है ; िक ु
इनकी कोई कृित आज उपल नही ं है । िफर भी सू म इनका नामो े ख है । वे ह

1. बाद र- सू म आचाय बाद र का चार बार उ े ख आया है । . सू 1.2.30, 3.1.11, 4.3.7, 4.4.
10) । साथ ही पूवमीमां सासू ों म भी इनकी चचा उपल होती है । हम अनु मान करते ह िक पूव और
उ र दोनों मीमां साओं पर इनकी रचना अव रही होगी, जो आज उपल नही ं है । इनके मत का सं ेप
िन िल खत है

(क) वैिदक कमानु ान म ेक वग के ारा समान प से कम करने के अिधकार के वे प धर


थे। यह इनके मत की िवल णता थी। जैिमिन ने इसका ख न कर शू ों के िलए इस अिधकार का िनषेध
िकया। ये अ ै तवाद के पोषक थे।

(ख) ई र के स म भी इनकी ा ा िविच है । ई र को इ ोंने ादे शमा मािणत िकया है ।


इनका तक है , जगत् म रहने के कारण मन को ादे शमा कहा गया है । मन से ही ई र का रण
होता है । अत: ई र भी ादे शमा है ।
(ग) छा ो ोपिनषद् म रमणीयचरणा: म चरण श का योग कम के िलए यु आ है । अत: यह
अनु ानसूचक श है ।

(घ) छा ो ोपिनषद् (4.15.5) के य एनान् गमयित म श काय का वाचक है । जैिमिन ने


इसे पर का सू चक माना है । पर यह उिचत नही ं तीत होता; ोंिक जो सव ापक है , वह ग
नही ं हो सकता।

(ङ) छा ो ोपिनषद् (8.2.1) के अनुसार ई रभावाप पु ष के संक से िपतृ गण उठ जाते ह। मु


पु ष के शरीर और इ यों की स ा के स म बाद र ने स ा नही ं मानी है । तभी तो मन से
कायावलोकन का वणन यहाँ िमलता है ।

2. का ािजन- इनका उ ेख सू (3.4.44) तथा मीमां सासू (4.3.17) म ा होता है । सू


के 'रमणीयचरणा:' पर इनका िविश मत िनिद है ।

3. आ ेय-इनका नामो ेख सू (3.4.44) म है । य म अ ाि त उपासना यजमान और ऋ ज


अथात् य करने वाले और य कराने वाले दोनों के ारा स होती है । अब है , इस उपासना का
पदािधकारी कौन है ? य कता, य कराने वाला

या दोनों? इस पर आ ेय का म है िक फलािधकारी केवल यजमान ही है , ऋ ज नही।ं

4. आ र -इनका उ ेख सू (1.2.29 तथा 1.4.20) म ा होता का दनके अनुसार परमे र


ापक और अन है । िफर भी इसकी उपल ादे शमा म ही यह उपासकों के िलए परम कृपालु
है । इनके मत म िव ाना ा तथा परमा ा म

का स है । ुित कािशका के कता सुदशनाचाय ने िलखा है िक परवत काल यादव काश ने भी इसे
स ु िकया है । मीमां सादशन 6.5.16 म भी इनका नामो े ख िमलता है ।

5. औडु लोमी-इनका उ ेख सू (1.4.44) म िमलता है । इनके अनसार मोट और अभेद दोनों ही


स है । संसारच म जीव और म त: भे द तीत होता सिक म ाव था म तो अभे द स
ही स है । अत: औलोमी भेदाभेद स के ा ाता है ।

6. काशकृ -इनका उ ेख सू (1.4.22) म िमलता है । इनके अनसार संसार म जीव प म


अव थत परमा ा ही रहता है । जीव परमे र का िवकार नही ं है ।

7. का प-इनका भी कोई सू था; िक ु सू म इसका उ ेख कही ं नही ं है । शा ने


भ सू म तमै यपरां का पः पर ात् (सू -29) कहकर इनका उ े ख िकया है । इनका मत महिष
बादरायण के अभेदवाद से िभ भेदवाद था।
8. जैिमिन- आचाय जैिमिन मीमां सासू के रचियता ह। सू म इनका उ ेख ारह बार आ है ।
कुछ लोगों की ि म ये आचाय बादरायण के िश थे । कममीमां सादशन' इनकी मुख रचना मानी
जाती है ।

श रपूव वेदा ाचाय

श राचाय के पूववत वेदा ाचाय का नामो ेख इनके ों म ही िमलता है । बाद र भित अ ै त


वेदा के मुख आचाय म अ ै त के बीज तो अव उपल होते ह; िक ु कोई व थत िस ा
उपल नही ं होते ह। िफर भी आचाय श र ने िजन अपने पू ववत आचाय का ासंिगक वणन िकया है ,
उनका मब प रचय िन कारे ण है -

1. भतृ प -भतृ प अपने समय के एक मुख मीमां सक थे। इ ोंने दाशिनक पृ भू िम म अपने
' ै ता ै त' िस ा की थापना की है । श राचाय ने अपने बृहदार कभा म जगह-जगह पर इ
'औपिनष ' कह कर इनका प रहास िकया है । इ ोंने कठोपिनषद् और बृहदार क पर अपने
िविश भा की रचना की है । सुरे राचाय और आन िग र ने भी इनकी उपल कृित की चचा की
है । इनके िस ा को लोग ' ानकमसमु यवाद' के नाम से जानते ह।

2. भतृिम -ये एक िविश कमका - वतक थे। इनके मीमां सा ों िववेचन िकया जा चुका है । इनकी
अ कृितयों के स भ म ायम री और यामनाचा के िस यमउ े ख िमलता है । वे दा िवचारक
भतृ िम एक ात वेदा ी थे।

3. भतृह र-इ ाय: सभी िव ान् तो जानते ही ह। भारतीय जन-सामा म भी ये राजा भरथरी के नाम
से िव ात ह। इनकी मुख रचना 'वा पदीय' है , िजसम शल वाद का ितपादन िकया गया है ।
इनके अनुसार श ही है , जो अ ै त प है ।

4. उपवष-उपवष ने सू पर एक वृि िलखी है । इसका उ े ख शारभार (3.3.53) म िमलता है ।


इ ोंने मीमां सासू पर भी वृ ि िलखी है ।

5. बोधायन-बोधायन ने सू पर वृि िलखी है । आचाय रामानुज ने अपने भा म इसका उ ेख


िकया है । स वतः इनकी वे दा वृि का नाम ‘कृतकोिट' है ।
6. न ी 7. टं क 8. भा िच-वेदा ाचाय के पम न ी, टं क और भा िच-इन तीनों के नाम
का उ ेख वै व स दाय के ों म य -त िमलता

9. िवड़ाचाय- ाचीन काल म िवड़ाचाय एक मूध कोिट के वेदा िवशे ष के पम ात थे ।


इ ोंने छा ो ोपिनषद् पर एक वृहद् भा िलखा था। मा ू ोपिनषद् भा म श राचाय ने इनका
उ ेख 'आगमिवत्' के प म िकया है ।

10.सु रपा -सु रपा ने एक का रकािनब वृ ि की रचना की थी। आचाय श र ने इनके


वाि क से तीन ोक उद् धृत िकये ह ( - .भा. 1.1.4)। ये शै व वे दा ी थे। त वाि क म इनके
ोकों को उद् धृत िकया गया है । इन उ रणों को दे ख कर लगता है िक इ ोंने पू व और उ रमीमां सा
पर भी वाि क िलखी थी।

11. गृहदे व कपद –इनका उ ेख 'यती मतदीिपका' म है ।

12. द -आचाय श र के पूववत द एक िस वेदा ी थे । ये सू के भा कार ह। इनके


मत म जीव अिन है । एकमा ही िन पदाथ है । इनके मत म जीव और जगत् दोनों ही से
उ होकर म ही िवलीन हो जाते ह। इनकी ि म उपिनषदों का यथाथ ता य 'त मिस' इ ािद
महावा ों म नही ं; अिपतु 'आ ा वा अरे ः ' इ ािद िनयोगवा ों म है । ये अ ै तवादी ह।

आचाय गौडपाद

अ ै तवाद के ित ापक के प म वेदा दशन म इनका मह पू ण थान है । जगद् गु श राचाय


इनकी िश ोपिश -पर रा म बतलाये जाते ह। श र के गु का नाम गोिव पादाचाय था और उनके
गु का नाम गौड़पादाचाय था। इसीिलए इनके िलए 'पू ािभपू परमगु ' जै से परमादरणीय श का
योग िकया गया है । ‘मायावाद' का योग सव थम गौडपाद ने ही िकया है । इनका औपिनषिदक
एकलवादी तल का अ ै तवाद म प रवतन एक कीित है । मा ू ोपिनषद् पर गौडपादाचाय ने
का रका िलखी है । यह मा ू का रका तथा आगमशास के नाम से ात है । यह अ ै त वे दा का
सव थम उपल दाशिनक है । इन का रकाओ म औपिनषिदक सारभू त अ ै त त का िव े षण
िकया गया है । का रकाओं म व ु ितपादन की शैली मािमक तथा भाषा पाजल एवं ीत है । इसे लोग
मुमु ुओ का सव कहते है । उ रगीता का भा भी इनकी ही रचना है । 'गौडपादका रका' के अनु सार
िव तैजस और ा भृित आ ा के अनेक प नही ं, ु त िविभ अिभ याँ है । आ ा का प
तो अ ै त है । मननिच न से अ ान के छूटते ही आ बोध त: हो जाता है । अ शे तना के जाग क
होने पर ानोदय होता है । ानोदय होने पर उस की ि म स ू ण जगत् िम ा तीत होता है ।
ै तभाव िवन हो जाता है । अजाितवाद इनका मुख िस ा है । इनका समय छठी सदी ाय: सवमा
है । समासत: हम कह सकते है िक गौड़पादका रका म आचाय ने अ ै त दशन के स ू ण मुख िस ा ों
का ितपादन िकया है । जै से—यथाथ स ा के अनु म, माया, और आ ा का एक , िनरपे स ा
पर काय-कारणभाव की अ मता, मु का मुख साधन ान या िव ा का होना तथा िनरपे शू का
अिच होना भृित ह।

योगवािस

योगवािस नामक िस अ ै तवादी महिष विस की अमर कृित है । कुछ िव ानों का मत है िक


उ 'गौडपादका रका' से पूव की रचना है ; िक ु यह मत सवमा नही ं है । अिधकतर समालोचकों
और इितहासिवदों के अनु सार अिधक स ावना बनती है िक यह रचना गौडपाद के उ रकालीन है ।
इस मक नावाद, अजाितवाद तथा यवाद गौड़पादका रका एवं शं कराचाय के भा कथन से
िमलते ह, िफर भी यह िकसी स दायिवशे ष की ओर संकेत नही ं करता। गौडपादका रका की तरह
इसने िकसी के मत का ख न नही ं िकया है । इसम विस मुिन का त िच न है । इसका यवाद
श र के यवाद की अपे ा बौ िव ानवािदयों के िस ा से अिधक सा रखता है ; ोंिक
योगवािस के अनुसार यों का ही सव अ झलकता है । इनके अित र िकसी भौितक या
बा जगत् के अ को ये ीकार नही ं करते ह। ‘सृि ि है '- यह योगवािस का मौिलक िस ा
है । श र ने इस िस ा का ढ़तापूवक ख न िकया है । इन सारे त ों पर िच न करते ए
समालोचकों ने योगवािस का रचनाकाल सातवी ं शती माना है ।

योगवािस के दाशिनक िस ा ों के अनुसार यह सारा जगत् अिन , असार, णभङ्गुर और मायामय


है । सं सार की हर जगह म दोष ही दोष है -

का ा शो यासु न स दोषाः का ा िदशो यासु न दु ः खदाहः । का ाः जा यासु न भङ्गुर ं का ा:


ि या यासु न नाम माया ।। (1.27.30)
संसार के सारे पदाथ जलबुद्बुद की तरह ह। मानवभोग के पदाथ महारोग की तरह ह-

भोगाभवमहारोगा ृ ा मृगतृ काः (1.26.10) । मनु की िववशता है , उसका मोह। मुिन विस ने

हमारे सामने जो दशन का यथाथ आदश ु त िकया है , वह अिधकतर ानपरक न होकर िववेकबु परक

है । तािकक िवधापरक न होकर आ ा क ात से यु है। विस मुिन की ि म आ ा ही आ ा का ि य

िम है । आ ा ही आ ा का श ु है । यिद आ ा ही आ ा की र ा नही ं करती तो कोई अ उपाय नही ं


है । आ ान से ही स ूण शा ा होती है । ेक को आ ान के िलए सचे होना चािहए।
आ ानुभव से दु ः ख य होता है । पु षाथ ही दु ः खों को िमटाता है । जीवन म सब कुछ पु षाथ से ही
िमलता है । विस जी का इस स भ म म है

आ ै व आ नो ब ुरा ैव रपुरा नः ।

आ ा ना न चे ात दु पायोऽ नेतरः ।।

इसी तरह जगत्, जीव, मन, पर , ब न और मो , जीवनमु और मो ोपायजै से ग ीर दाशिनक


त ों पर इनका आ ा क िव ेषण अिव रणीय है । इस धरोहर को भारतीय दशन म भुलाया नही ं
जा सकता है ।

शा र अ ै त वे दा

अ ितम ितभास ,आ ा क यथाथस ा-िवशेष भगवान् ी श राचाय एक अवतारी महापु ष


थे। इनकी िवल ण िव ा एवं असाधारण तकपटु ता सवाितशायी है । इनकी ीत, िक ु सू दाशिनक
ि म शा त स का गूढ़ िनरी ण है । इनकी आ ा कता का आधार रह वाद है । इनकी उ ृ
और सजीव का ितभा मनु जीवन की तु और ु क नाओं एवं िच नों से मु तथा
अ ा परक होने के कारण िद है । इनका तेज ी इनकी धािमक पिव ता से पग-पग पर
ो ािसत है । इनकी कत िन ा त:िस पू ण इकाई है । अपने िनधा रत ल ारा आप शािसत है ।
इनका िववेक और वैरा बु परक होने के कारण यं म प रपूण है । अपने सम घटक अवयवों को
एक थायी तथा यु यु सा ाव था म धारण िकए ए है । इनकी किवता म सू आ ीि की िव ा
के भीतर से एक िवशद् तथा भावुक वृि की तरलिप ल आभा की पू ण झलक िमलती है । श र मानव
नही,ं महामानव थे। आज भी लोग इ िशव का अवतार ही मानते ह।
श र का ज काल और जीवन-श र के ज काल के स म अपने पौवा और पा ा प तों
ने माणपुर र ितिथ-िनधारण का यास िकया है । सव थम तै ल महोदय ने इनका समय ईसा के
प ात् छठी शता ी का म या अ म चरण माना है । इनका तक है िक श राचाय ने अपने
सू भा म पू णवमन नामक िकसी राजा का उ े ख िकया है । यह मगध का एक बौ धमावल ी
त ालीन राजा था। अत: समसामियक होने के कारण इनका भी समय ष शतक ही होना चािहए। इसी
तरह Report on The Search for Sanskrit Manuscript1882 के आधार पर भ ारकर महोदय ने
श राचाय का ज 780 ई. म माना है । इससे कुछ समय पू व भी वे मानने को ु त ह। मै मूलर और
ोफेसर मैकडोनल का मत है िक श र का ज 788 ई. म आ था। मा 32 साल की उ म अथात्
820 ई. म िहमालय के आ िलक े केदारनाथ म उनका दे हा आ। Indian Logic and Actmism
के आधार पर ोफसर कीथ ने भी नवी ं शता ी के पू वा म इनका ादु भाव माना है ।

श राचाय एक िनः स तप ी, िववेकशील िवचारक, ि या क योगी तथा ग ीर ानी एवं ानी थे ।


इनके कुछ िश ों ने इनके जीवनवृ -स ी घटनाओं का सं ह िकया है । उनम मुख ह—माधवकृत
'श रिद जय' तथा आन िग रकृत 'श रिवजय' । तदनुसार इनका ज मालावार े के आधुिनक
केरल ा के कालड़ी नामक ाम म सरल भाव, िक ु िव ान् तथा प र मी न ूदरी ा ण के घर
म आ था। पर रा के अनु सार इनके कुलदे वता िशव थे । पर, कुछ लोगों के मत म ये ज जात शा
थे। अपने शै शव के ार क काल म ये गौड़पाद के िश गोिव ारा स ािलत वैिदक पाठशाला म
िव ए थे। अपने ों म श र ने गोिव को गु के पम ीकार िकया है । इनके ित इनकी
ा और स ावना है -य ं पू ािभपू ं परमगु ममुं पादपातैनतोऽ (मा ू का रकाभा )
वेदा स दायिव राचायः (शारीरकभा 2.1.9) तथा एवं गौडै ािवडै नः पू ै रथै ः भािसतः
(नै िस ः 4.44) तथा स दायिवदो वद (शारीरकभा 1.4.14)।

आचाय श र ने अपना सम जीवन लोकसं हाथ िन ाम कम को समिपत कर िदया। उ ोंने स ूण


भारत का प र मण कर िह दू समाज को, िह दू धम को एक सू म बाँ धने के िलए उ र के बदरीनाथ म,
दि ण के े री म, पूव की पुरी म तथा पि म की ा रका म चार पीठों की थापना की।

कहा जाता है िक अपनी बा ाव था म ही जब इनकी उ केवल 8 साल की थी, अपनी उ ट अिभलाषा


और अ : स ता के साथ वेद की सम ऋचाओं को इ ोंने क थ कर िलया था। वे कट पम
वैिदक िव ा तथा त ास एक असामा ितभा के तेज ी बालक थे। जीवन के गूढ़ रह
तथा उस असीम को; अन को, उससे ऊपर उठ कर उसे जानने की ि या म वीणता जीवन के
ार क काल म ही इ ोंने ा कर ली थी। सं ासी होकर भी श र वीतराग प र ाजक नही ं थे ।
इनके हदय म िवशु स की ाला धधकती रहती थी। भारतीय आदशवादी दशन के ये ा कारी
िच क थे। श रिद जय के अनुसार इनके िपता का नाम िशवगु और माता का नाम िविश ा दे वी
था। पर रागत कथा के अनुसार िशव की उपासना से ही िविश ा दे वी ने यह पु ा िकया था. इसीिलए
इनका नाम 'श र' रखा गया था। अपनी शैशवाव था म हो स ा ेषी श र ने जीवन म उपल व ुओ
के तीयमान पों के ित अ ः थ एक कठोर एवं िनय त अनास की भावना पाल र ी थी।
फलत. सं जीवन के ित इनकी आस बल हो उठी थी। पर इनकी उ दे ख कर इनकी माता
ने इ सं ास हण करने की अनुमित नही ं दी। िफर, एक िदन श र अपनी माता के साथ नदी- ान
करने गये। माता जब ान कर चु कीं तब यं नदी म ान करने म िलए उतरे । वहाँ जल म वे श करते
ही पूव से घात लगाये एक ाह ने अपने जबडे इ जकड़ िलया। इ ोंने िच ा कर कहा-माँ , म िवना
सं ास हण िकए संसार से िवदा हो रहा है । कृपया अभी भी तु म मुझे सं ास हण करने की अनु मित
दे दो। िन पाय माता की अनु मित पाकर वही ं इ ोंने मानिसक सं जीवन की ित ा की। सहसा
एक चम ार हआ। वहाँ से कुछ दू री पर मछे रे मछली पकड़ने के िलए जाल फैला रहे थे । उस जाल म
श र के सिहत वह ाह भी फंस गया। मछे रों ने उस ाह को मार कर श र को जीवनदान िदया। इसी
तरह सवमा पर रा के कथनानुसार बड़े ही नाटकीय ढं ग से सं ासी-जीवन का िनयम भं ग कर माता
के अ ि कम म स िलत ए। यह एक मािमक एवं का िणक घटना है । माता ने कहा था-श र, तू
मेरा इकलौता बेटा है , त सं ासी होगा तो मेरी अ ि कौन करे गा? बात आई और गई। िहमालय के
बद रका म म आचाय श र को आभास िमला िक माँ बु ला रही है । बद रका म से श र केरल प ँ च
गए। माँ अ म साँ स ले रही थी। श र का हदय िकस कार मानवीय संवेदना, क णा और माता-िपता
की भ से भरा था, इसका यह एक ल िनदशन है । सं ासा म के सारे िनयमों, उसकी सारी
पर राओं और व थाओं को कट पमभ कर शडर ने अपनी माँ को अ ि ि या पूण पेण
अपने दरवाजे पर स की। िकसी ने इनकी माता की शवया ा म भाग नही ं िलया। प रजन, पुरजन
और िव ान् दायादों के िवकट िवरोध का इ सामना करना पड़ा। पर रा से ही हम यह भी पता चलता
है िक 32 वष की आयु म िहमालय के अंचल म केदारनाथ म उनका दे हा आ था। अम क के मृत
शरीर म वेश की श र की कथा इस बात को मािणत करती है िक श र योगस ी ि याओं म भी
पूण िनपुण थे। उ तर कोिट के जीवन का अवल न करने वाले महापु षों की थित कुछ ऐसी ही होती
है ।
श राचाय की रचनाएँ -आचाय श र ने िकन-िकन ों की रचना की है , यह आज भी िववादा द
है । िफर भी ब ीस वष की ायु म अपने सु िस सू भा के अित र छा ो , बृहदार क,
तैि रीय, ऐतरे य, ेता तर, केन, कठ, ईश, , मु क, मा ू , अथविशखा, अथविशरस् और
नृिसंहतापनीय उपिनषदों के भी भा िलखे ह। गीता पर भी उनकी भा रचना है । िव ुसह नामभा
भी इसी कोिट का है । अ ों के साथ अनु पम ो सािह का िनमाण भी इ ोंने िकया है ।
आचाय श र की रचनाएँ भी उनके ितपा हा की तरह ही पूवापर कोिटव और पूण है । श राचाय
का थान िव के सव दाशिनक लेखकों म है ।
उपदे शसाह ी और िववेकचूडामिण-जैसे ों से उनकी असामा थित हमारे सामने आ जाती है ।
ई र की िविभ आकृितयों, तीका क उनके अने क पों को ल कर िनमाण िकए गए ो , परा-
अपरा श के ित समिपत भाषण ो सािह के मु कुटमिण ह। इन ो ों म उनके जीवन म उनकी
आ था कहाँ तक थी, इसे वे भलीभाँ ित कट करते ह। इनके ो सािह म इनका िववे कज ाितम ान
सव झलकता है । आरा ै कधन प म इनके ो सािह म िव का सा ा ार होता है । ु ितकाल
म ोता को उसी ण भीतर-बाहर आरा के दशन होते ह। ोता के िलए हे य या उपादे य कुछ भी
शेष नही ं रह जाता। वह आरा के साथ त य हो जाता है । ऐसे ो ों म दि णामूित ो , ह रमीडे
ो , िशवश वन, आन लहरी और सौ यलहरी िवशेष प से उ ेखनीय ह। जीवन के ित
श र की आ था ा थी? इसका औिच भी इन ो ों म ही कट होता है ।

भारतीय दशन के शीष थ मनीषी आचाय ी श र की कुछ अ कृितयाँ इनके वै दु और ितभा के


कारण य भ ह। िन िल खत कृितयाँ यं पु ोक आचाय ी की ानग रमा का उ ी अिभ ान
ह। इन कृितयों म या भा ों म आचाय ितपािदत साधना और िस ा ों का वै ािनक प ित से यु पू ण
यथाथ िववेचन ुत िकया गया है । ये अमर कृितयाँ ह-आ व सू ची, आ बोध, महामु र, दश ोकी,
अपरो ानुभूित, िव ुसह नाम और सन ुजातीयभा । इन ों के भीतर अिभ सापे उनका
लेखकीय जिटल के िनमाता अनेक सू य -त सा ह। अ ै त के उपासक श र अ र
की उपासना म भी उतने ही त ीन ह; ोंिक अ र भी पर की तरह अनािद और अन
है । अपनी अने क रचनाओं के मा म से श र ने अ र अथात् श को ही अपनी कृितयों म
अथािभ दी है । साधना क ि से जहाँ तक म समझता ँ —यही ं से जागितक ि या आर
होती है ; ोंिक हर तरह की जागितक ि या के मू ल म अथ पी श का ही िवव है । अपनी रचनाओं
म श र ने इसी िवव म सम सां सा रक गितिविधयों को समेटने की सफल चे ा की है । उनकी
रचनाओं म उनके म की अिभ सरल, सहज और बोधग है । उनकी रचना-शैली के िवषय
म िवशेष बात जो ल करने की है , वह यह िक इनकी रचनाओं म िकस कार श र के मानिसक गुणों
को, व ु एवं चयन की श को, उनके तक और मनोभावों को एवं उनकी िवनोदि यता को संजोया
गया है ।

आचाय श र की सम रचनासृि को हम तीन ख ों म िवभ कर सकते ह। ये ख ह-

1. भा ,
2. ो और
3. कीण समूह।

यह कहना अ ु न होगी िक इ ी ं रचनाओं के कारण संसार के सव दाशिनक के प म


श राचाय की मा ता है । इनके भा ों म थान यी की तरह उपिनषद् , सू और गीता पर
इनके भाव जैसे-केन, कठ, तैि रीय- भृित उपिनषदों पर भा िलखा है ।

ो सािह की रचना म दे वी-दे वताओं की ु ितयाँ है । जै से—िववेकचूड़ामिण, आ बोध, त ोपदे श,


अपरो ानमित उपेदसाह ी भुित है । इन ो ो म अ ै तमत का ितपादन िकया गया है । वे दा के
ाय: सभी स दाय यं को उपिनषद् पर आधा रत बतलाते ह तथा उपिनषद को लेकर का मूल थान
मानते ह; िक ु श राचाय का अ ै त वेदा ही यथाथत: औपिनषित दशन है ; ोंिक श र के परवत
लेखकों ने भी अ ै त वेदा पर कलम उठाई है । ये एक से एक माण और ग ीर शैली के रचनाकार
ह, िफर भी िनरपे आदशवाद की साथकता की ि से श र की रचना के गा ीय तथा अगाधता तक
ये लेखकगण नही ं प ँ च पाये ह। अपनी रचना के ित इनकी गाढ़ आ िन ा है । सू भा के ित
इनकी हािदक िन ा दशनीय है । वेदा वा पी फूलों को गूंथ कर महिष बादरायण ने सव ाल
सू पी मनोहर माला का िनमाण िकया है -वे दा वा कुसु म थनाथ ात् सू ान् ।

कहना न होगा िक श र की रचनाओं म वै िदक और औपिनषिदक धारा के िवकास म म अवा र धारा


का उ व और िवकास घिटत आ है । इसीिलए अपनी रचना गीताभा म यं श र ने िलखा है -
य ा ा नेह भूयो अ ात म ।

श र अितमानव (Super human) थे। अत: उनकी रचना को उ ेष म म बाँ धा नही ं जा सकता। काल
के मिवकास से यह बाहर है । यह केवल है । गीता की एक सू है -

त काय निव ते (गीता-3.16)।


श र का -आचाय श र का ितभा- सू त िवल ण था। भारतीय धािमक म यु ग
(Indian religious medeaval age) िह दू धम के िलए एक सं कटकाल था। िह दू जाित अनेक स दायों
म िवभ हो चुकी थी। सभी स दाय अपनी डफली आप बजा रहे थे । ऐसे अ कारा धािमक
आकाश म एक दी न की तरह आचाय श र का उदय आ। ये एक अितजीव (Survival) अथात्
The state of continuing to live or exist, often inspite of difficulty or dauger की तरह
सम वातावरण पर छा गए। उस समय िह दू िवचारधारा ि या क प से बौ मत पर िवजय ा
कर चुकी थी। िफर भी जनमानस म अ : िव आस को हटाना किठन ही नही ं, एक दु ह काय
था। िह दू धम पर र वाक् कलह से िघरा था। ऐसे संकटकाल को एक ऐसे खर , सबल और
सश ितभास पु ष की आव कता थी, जो इस िवप आकाश म िवभा का िवतान तान दे । श र
के म इन सारे गुणों का समाहार था। उनका धािमक ितभास था। अतीत म जड़
जमा कर वतमान को िवकिसत करने की उनम मता थी। वे एक यु ग ा और भिव ा थे । िवपरीत
प र थित और िवरोधी वातावरण को अनुकूल बनाने की कला म इनका िस ह था। इ ोंने
िकसी का िवरोध करने की अपे ा उनके मन म अपनी मा ता की थापना करना ही सदा े य र
माना। स ूण भारत का मण कर दे श-िवदे श के एक छोर से दू सरे छोर तक वै िदक धम और दशन का
चार- सार और ित ापन िकया। ितपि यों को शा ाथ म परािजत कर अपनी मा ता का ितपादन
और थापन िकया। भारत के चारो िदशाओं म चार पीठों की इ ोंने थापना की। ये अलौिकक और
अि तीय कम इनके िविश के सहज प रचायक है । इनके की सबसे बड़ा िवशे षता,
महान् िस या उपल अ ै त दशन है । ाचीन सू ों पर अिभनव भा ों की रचना इनकी सम या क
ि और क नाशील का प रचायक है । इ ोंने ान के त ालीन मानद ों तथा समकालीन
जनसामा के िव ास को ाचीन सू ों आर पर रा के साथ जोड़ कर सम यक का मह पू ण काय
स िकया। इनके सश के कारण ही पतनो ुख िह दू धम का पु न ापन स व आ।

िवरोधी त ों का आकलन और समार ण इनके का मूत प था। यिद एक ओर ये सबल


तािकक एवं बल दाशिनक थे तो दू सरी ओर स दय एवं सुखद भावनापू ण, संवेदनशील भावू क किव भी
थे। यिद एक ओर ानी और ािभमानी प त थे तो दू सरी ओर अनास सं ासी और वै रागी भी थे ।
िच न की ि से यिद एक आर श र वेद-वे दा की सरिण म पर रावादी थे तो धािमक ि से
सुधारवादी भी थे। इनम अनेक कार के िद गुणों का समाहार था। इनके का रण आते ही
हमारे सामने एक भिव ु अवदातों की ितमूित खड़ी हो जाती है । इनका ता बौ क
मह ाकां ाओं का तीक था। इनका खर पा आवे शपूण, अद और िनभाक शा ाथ-महारथी
था। िदशा-िविदशाओं म अपनी कीित-पताका फहराने वाले ये एक िविश यायावर थे। घर-घर घू म कर
इस मणशील यायावर ने िह दू धम और सामािजक एकता का शंखनाद िकया। धािमक ि से िह दू
समाज उस समय अ िवप था। दि ण भारत म बौ धम का पतन ार था। जै न धम अपने
उ ष पर था। शैव, शा और वै व मतावल ी भ अपने-अपने आरा के चार म जी-जान से
िभड़े थे। पौरािणक िह दू धम के आधार पर म रों की मह ा बढ़ गई थी। बौ ों के ागपरक वृ ि के
िति या प ई रवाद की भ परक वृ ि के िव मीमां सक लोग वैिदक ि याकलापों को
समुिचत प दे ने म असफल हो रहे थे । मीमां सकों ारा कम के ऊपर बल दे ने के कारण एक
आ िवहीन ि याकलाप का िवकास आ। समाज की इन धािमक िवसंगितयों को श र ने अपनी
ज भूिम मालावार से लेकर उ र िहमालय की घािटयों तक फैले दे खा, परखा और इनम एक पता
लाने का अथक और सफल यास िकया। ऐसे िद िमत समाज को स पथ पर थर करने के िलए
श र-जैसे सबल का इस धरती पर ादु भाव आ। पर र िवरोधी धािमक स दायों के भीतर
िनिहत स के रह का इ ोंने उ े दन िकया है । इ ोंने अपने सारे ों का िनमाण एक ही उ े से
िकया है । उनकी ि म अ ै त दशन ही धािमक एकता का मूल म है । भारत की मिहमामयी इस पिव
धरती पर श र-जैसे अि तीय का ादु भाव कभी-कभी होता है । इनका चतु थ पर
खड़ी आकषक ढं ग से तराशी गई उस र- ितमा की तरह है , जो िकसी भी कोण से दे खने पर भ
और िद ही तीत होती है । कुछ समी कों की ि म ई. पू व 496 ई. म केवल ब ीस वष की उ म
ही अपनी िवशाल िश म ली के सश क ों पर अपना दािय -भार सौप कर, बद रका म से
कैलाश पवत की ओर ये अकेले ही बढ़ चले और पता नही ं िशव की यह परम ोित कब और कैसे 'िशव'
म समािहत हो गई । इनके स म एक िस लोको है -
अ वष चतुवदा ादशे सवशा िवत् ।

षोडशे कृतवान् भा ं ाि ंशे मुिनर गात् ।।

अ ै त वेदा और श र के कुछ मह पू ण काय-श र के अ ै त वे दा का िस ा आमूल


प रवितत स ा ेषी आदशवाद पर िटका है । तकिस स िकसी अ ि याओं पर आि त नही ं होते;
ोंिक इनकी ि म भी पा ा प त Bradley की तरह िनता स या िनता ा नाम की
कोई व ु होती ही नही ं है । ( Truth and Reality)। श र िवषयिन आदशवाद से िभ अपनी
आनुभिवक थित नही ं मानते -
नैवं जाग रतोपल व ुं ािदकं क ां िचदिप अव थायां बा ते (शां करभा -2.2.29) ।

यही कारण है िक किपल, कणाद और गौतम को ये वै िदक आ थास महिष तो मानते ह, पर इनकी
कृितयों मश:–सां , वैशेिषक और ायशा को वैिदक दशन नही ं मानते । इ ोंने श ों म
कहा है िक हो सकता है िक ार क अव था म सां ई रवादी हो, उपिनषद् पर आधा रत हो; पर
आगे चल कर इसके िच न का प कुछ और हो गया। इस प का ख न महिष बादरायण ने
अपने ' सू ' म तथा श र ने अपने भा म जम कर िकया। श र ने सां को वे दा का ‘ धानम '
अथात् मुख ित ी कहा है । यं म इ ोंने उसे ुित ितकूल िस िकया है । य िप वे दा ने सां
के ब त सारे त ों को या तो उसी प म या पा रत कर आ सात् कर िलया है ; िफर भी शं कर ने
उसका िवरोध कर अपने अ ै त वेदा का ित ापन िकया है ।

श राचाय ने पूवमीमां साकृत वेद की कमपरक ा ा का ख न िकया है । पू वमीमां सा के अनुसार


वेद मनु ों को कमस ी िनि त िविधयों की ओर े रत करते ह। कम ही मनु ों को क ाणकारी
उपकारी प रणामों तक प ँ चाता है । वेदों म कमका का ि याकलाप ही सब कुछ है । जैिमिन ने तो
यहाँ तक कह डाला है िक वेदों के वे भाग, जो कट प म इससे अस ह, िनरथक ह। श र ने इस
तरह कमपरक ा ा का ख न करते ए यह िस िकया है िक वेद का मु ख ल परमत को
कािशत करना है । अत: वेद का ानपरक म भाग और उपिनषद् भाग तथा िव स ी चरम
सम ाओं के िवषय ितपादन वाला भाग ही मु है । वेद के कम और उपासनापरक भाग तो गौण है ;
ोंिक इनका योजन तो मा िच शु ही है ; न िक वेदों का पिव वा य क कम का ितपादक
है ।

आचाय श र ने प रणामवाद अथवा भे दाभेदवाद के पोषक भतृ प भृ ित ाचीन ा ाकारों का


जम कर िवरोध िकया है । उपिनषदों और सू की ा ा म म इ ोंने जो अपने मत की थापना
की थी, उनका यु पूवक श र ने ख न िकया है । इ ोंने प रणामवाद की जगह -िववतवाद
और भेदाभेद की जगह अ ै तवाद का ितपादन िकया है । वेदा िविधपरक म ों के अित र शा त
स , यथाथवादी आदश िच न के िलए िव ात ही नही,ं ित ापक भी है । आचाय श र इसके सश
पुरोधा है ।
श र ने ' ' के िवषय म अपने कई तािकक माण उपल कराये ह। उनकी ि म एक िनरपे ,
िक ु यथाथ स ा है । इसकी थापना की ि यािविध म श र ने आपात मौिलकता और िच न की
ता दिशत की है । इ ोंने श ों म घोषणा की है िक शू का अथ यिद सविनषे ध हो तो
िनिवशेष या िनगुण शू नही ं है । तो ेक के िलए सदा िव मान है और जीवन का
सावभौम ापक त है । यिद इसके िलए िकसी तकसं गत माण की आव कता है तो श र िनदश
करते ह िक 'नेित नेित' तो िवषयक िनवचनों का िनषे ध करता है ; यं ' ' का नही;ं ोंिक िकसी
का मन सापे स ा म िव ाम नही ं पा सकता है । अत: िनिवशेष वाद ही िनरपे अ ै तवाद है ।

आचाय श र ने बौ िव ानवाद का मािमक ख न िकया है । मािमक इसिलए िक िवषयी तथा िवषय


के बीच जो सापे ता स है और जो सम आदशवाद का के ीय स है , उसे तो इ ोंने ीकार
कर िलया; पर बौ ों के मनोवाद तथा यथाथवाद का िनराकरण कर िदया; ोंिक ये दोनों ही उनकी ि
म आनुभिवक त ों को उिचत ा ा करने म अपया या असफल रहे ह। अत: इनसे अलग िन एवं
औपिनषिदक आ चैत वाद का ित ापन िकया।

आचाय श र ने स माण यह िस कर िदया है िक माया या अिव ा की अिनवचनीय श है ।


िवचारा क दशनशा ने स ा क जगत् की उ ि एक िनरपे स ा के प म की है । इसम
आनुषि क कुछ भी नही ं है । िवषयिन ता अथात् कृित की आ ािभ अथात् मायास ी िकसी
न िकसी व ु को ीकार करने के िलए लोगों की िववशता है । यह एक औपिनषिदक िच न है ।
उपिनषद् म ता क भेद, ै त या प रणाम के िलए कोई थान नही ं है । इसीिलए श र ने माया को ई र
की अिनवचनीय श के पम ीकार िकया है ।

अ ै त वेदा के मह पूण िस ा (वेदा सार, सू तथा गौडपादका रका के आधार पर यं


िलख)-
1.
2. माया एवं अ ान
3. ई र
4. जीव
5. अ ास

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