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ऋत और सत्य

वै�दक सािहत्य म� 'ऋत' शब्द का �योग सृि� के सवर्मान्य िनयम के िलए �आ है। संसार के सभी पदाथर्
प�रवतर्नशील ह� �कं तु प�रवतर्न का िनयम अप�रवतर्नीय िनयम के कारण सूयर्-चं� गितशील ह�। संसार
म� जो कु छ भी है वह सब ऋत के िनयम से बँधा �आ है। ऋत को सबका मूल कारण माना गया है।
अतएव ऋग्वेद म� म�त् को ऋत से उद्भूत माना है। (४.२१.३)। िवष्णु को 'ऋत का गभर्' माना गया
है। �ौ और पृथ्वी ऋत पर िस्थत ह� (१०.१२१.१)। संभव ह�, ऋत शब्द का �योग पहले भौितक
िनयम� के िलए �कया गया हो ले�कन बाद म� ऋत के अथर् म� आचरण संबंधी िनयम� का भी समावेश
हो गया। उषा और सूयर् को ऋत का पालन करनेवाला कहा गया है। इस ऋत के िनयम का उल्लंघन
करना असंभव है। व�ण, जो पहले भौितक िनयम� के रक्षक कहे जाते थे, बाद म� 'ऋत के रक्षक'
(ऋतस्य गोपा) के �प म� ऋग्वेद म� �शंिसत ह�। देवता� से �ाथर्ना क� जाती थी �क वे हम लोग� को
ऋत के मागर् पर ले चल� तथा अनृत के मागर् से दूर रख� (१०.१३३.६)। ऋत को वेद म� सत्य से पृथक्
माना गया है। ऋत वस्तुत: 'सत्य का िनयम' है। अत: ऋत के माध्यम से सत्य क� �ाि� स्वीकृ त क�
गई है। यह ऋत तत्व वेद� क� दाशर्िनक भावना का मूल �प है। परवत� सािहत्य म� ऋत का स्थान
संभवत: धमर् ने ले िलया।

पारसी धमर् म� भी इसी से िमलता-जुलता 'अतार्' का िस�ांत िमलता है।

ऋत वै�दक धमर् म� सही सनातन �ाकृ ितक �वस्था और संतुलन के िस�ांत को कहते ह�, यािन वह
तत्व जो पूरे संसार और ��ाण्ड को धा�मर्क िस्थित म� रखे या लाए। वै�दक संस्कृ त म� इसका अथर्
'ठीक से जुड़ा �आ, सत्य, सही या सु�विस्थत' होता है। यह िहन्दू धमर् का एक मूल िस�ान्त है ।
ऋत ऋग्वेद के सबसे अहम धा�मर्क िस�ांत� म� से एक है' और 'िहन्दू धमर् क� शु�आत इसी िस�ांत
क� शु�आत के साथ जुड़ी �ई है'। इसका िज़� आधुिनक िहन्दू समाज म� पहले क� तुलना म� कम होता
है ले�कन इसका धमर् और कमर् के िस�ांत� से गहरा सम्बन्ध है।
सत्यम् - रा� के अिधवािसय� को सत्यि�य होना चािहये। उन्ह� असत्य से �ेष होना चािहये । सत्य
क्या है यह जानने के िलये उन्ह� सदा तत्पर रहना चािहये। सत्य तक प�ँचने के िलये िजस शान्त,
गम्भीर, अध्यवसायी,सहानुभूितपूणर् और सिहष्णु वृि� और घटना� क� तह तक जाने वाली सू�म
बुि� क� आवश्यकता होती है वह उनम� होनी चािहये। और जय सत्य क्या है यह उन्ह� पता लग जाये
तो उसके अनुसार मन, वचन और कमर् से उन्ह� आचरण करने वाला होना चािहये। मन्� म� सत्य के
साथ ''यह िवशेषण �दया गया है। बृहत का अथर् होता है-महान इस िवशेषण का भाव यह है �क रा�
के वािसय� म� महान सत्य रहना चािहये। उनके जीवन म� अिधवािसय� कोई भी क्षण ऐसा नह� रहना
चािहये िजसम� वे सत्य से परे हो जाय�। सत्य का आचरण उनके जीवन का अंग हो जाना चािहये।
(ख) ऋतम्-त का अथर् होता है-सत्य ज्ञान । अपने सामान्य �योग म� सत्य और ऋत ये दोन� शब्द
पयार्य के �प म� �यु� होते ह�। परन्तु इन म� भेद है। जैसा मेरा ज्ञान है उसके अनुसार आचरण करने
को सत्य कहते ह� । परन्तु यह आवश्यक नह� �क मेरा आचरण सत्य होगा तो मेरा ज्ञान भो अवश्य
सत्य होगा । �कसी बात का मेरा ज्ञान अशु� हो सकता है । परन्तु म� अपने अशु� ज्ञान को ठीक
समझता �आ उसके अनुसार आचरण कर सकता �ँ। इस आचरण म� जहां तक मेरी वृि� का सम्बन्ध
है वहां तक म� सत्य पर �ँ। परन्तु मेरा वह ज्ञान वास्तव म� ठीक नह� है। इसिलये वह ऋत नह� है।
और इसीिलये उस गलत ज्ञान पर आि�त मेरा आचरण भी नह� है। मेरा ज्ञान अमृत है और अनुत
ज्ञान पर �टका होने के कारण मेरा आचरण भी अनृत ही है। सत्य यह बताता है �क �कसी बात को
म�ने ठीक समझा है और जैसा म�ने समझा है वैसा ही म�ने आचरण भी �कया है। परन्तु मेरे ठीक समझने
से ही तो कोई बात ठीक नह� हो सकती। ऋत यह बताता है �क म�ने �कसी चीज को जैसा समझा है
वह वास्तव म� है भी वैसी ही । ऋत इस �कार ज्ञान क� सत्यता को �ोितत करता है। वेद म� यह शब्द
सत्य ज्ञान का बोधक होता �आ जगत के सत्य िनयम� का बोधक भी हो जाता है। क्य��क जगत् म� न
रहे साथ िनयम� के सही बोध पर ही हमारे ज्ञान क� सत्यता अवलिम्बत होती है। फलतः इत िव� म�
चल रहे सत्य िनयम� का, उनके सत्य- ज्ञान का और तदनुसार सत्य आचरण का �ोतक हो जाता है।
रा� के लोग� म� ऋत होना चािहये इस कथन का भाव यह है �क उन्ह� िव� म� काम कर रहे भौितक
और आित्मक िनयम� का स�ा ज्ञान होना चािहये। उन्ह� भौितक और आित्मक िव�ा� का प�रडत
होना चािहये। और इस ज्ञान एवं इन िव�ा� के अनुकूल उनके आचरण होने चािहय�।
मन्� म� �यु� 'बृहत्' िवशेषण िजस �कार 'सत्य' के साथ सम्ब� होता है उसी �कार वह 'त' के साथ
भी सम्ब� हो सकता है। क्य��क वह मन्� म� सत्य और ऋत शब्द� के मध्य म� �यु� �आ है। उसका
सम्बन्ध सत्य से भी जोड़ा जा सकता है और ऋत से भी। ऋत के साथ 'बृहत्' को जोड़ने पर भाव यह
होगा �क रा�िनवािसय� म� 'महान ऋत' रहना चािहये। उन्ह� भौितक और आित्मक िव�ा� का
आिवष्कार और ज्ञान �ा� करने म� ब�त �य�शील होना चािहये तथा इस ज्ञान के अनुसार आचरण
करने म� भी उन्ह� पूणर् तत्पर रहना चािहये।
आधुिनक िवज्ञान क� सभी गवेषणा� का ल�य सृि� के तत्व� के मूल तक प�ंचना है। िवज्ञान समस्त
दृि� म� क्या, क्य� और कै से क� खोज करता है। सभी पदाथ� म� कोई मूल तत्व, अप�रव�तर्त गुण क�
खेज करके िवज्ञान यथाथर् क� गहराई तक उ�र कर सू�मेिक्षका �ारा मूल सू� को ढू ँढता है। एक ओर
इससे जहां नये तथ्य उ�ा�टत होते ह�, वह� उस सू� को मानवता के उपकार म� लगाया जा सकता है।
वेद के अनुसार सृि� का मूल सू� ही ऋत और सत्य है जो सब ओर सिम� तप या उष्णता से उत्प�
होते ह�। उन्ह� से �� संसार से पहले अ�� �कृ ित�प राि� उत्प� होती है (िव�मान रहती है)
और गितशील सू�म कण� के �प म� �ापक जल बनता है।
ऋत वह मूलभूत तत्व है जो िनरन्तर अपने स्वाभािवक �प म� गितशील रहता है। वह गित �त्येक
पदाथर् क� गित, सापेक्ष गित भी हो सकती है, वह काल अबाध गित भी हो सकती है और वही �त्येक
पदाथर् या तत्व के के न्� म� िव�मान परमाणु� क� गित भी हो सकती है। सार यह �क इस गित के
िबना सृि� क� कल्पना भी नह� क� जा सकती। उस समय क� िस्थित म� सत् असत् का िव�ेषण हो ही
नह� सकता।
जसे उप�रिन�दर्� मन्� म� समु� अणर्व कहा गया है उसके मूल म� भी गित (ऋक्षत) तत्व िव�मान है।
इसे ही एक अन्य स्थल पर सब देव� (तत्व�) का िमलना अथवा गित करना कहा गया है।
उपयु�र् ऋत के साथ-साथ सत्य भी सृि� के आधार म� स्थायी तत्व है। ऋत गितशील या गित �दान
करने वाला तत्व है तो सत्य वास्तिवकता है, अिस्तत्व है। (सन्तमथर्माययित)। सम्भवतः दोन� तत्व�
के इस मौिलक तथा सभी पदाथ� के आधार म� समान महत्व के कारण ब�त स्थान� पर वेद म� ही इन
दोन� का �योग पयार्यवाची �प म� भी �आ है।
अथवर्वेद (१२.१.१) के अनुसार पृथ्वी को धारण करने वाले ये दो �मुख तत्व ह�। सम्य जहाँ बृहत्
महान् या �ापक ह�, वह� ऋत् उ�, कठोर, शा�वत है। 'एक अन्य 'मन्�' म� कहा गया है �क पृथ्वी
सत्य के �ारा थामी गई है.. �ुलोक भी सत्य के �ारा थामा गया है, ऋत अथार्त् िनरन्तर गित से
आ�दत्य अपने स्थान पर िस्थर है। इसी �कार ऋत से ही सोम (चन्�मा) �ुलोक म� िस्थत है।

ऋत गित है क्य��क सभी आ�दत्या�द ज्योितः िपण्ड अपने-अपने मागर् म� िनि�त गित करते ह�। इस
गित के �तीक �प म� ऋत क� �ाख्या िन�� म� जल के �प म� सब ओर प�ंचने वाला बताकर दी
गई है। ऋत के मूल म� गत्यथर्क ऋ धातु है। सदा एक ही िस्थित म� िन�वर्कार रहने वाले परमे�र क�
तुलना म� समस्त �� सृि� म� गित मूल तत्व है। साम्यावस्था म� सृि� हो ही नह� सकती। जब तत्व,
रजस्, तमस् तीन� गुण� क� साम्यावस्था म� िवक्षोभ होता है, तभी सृि� का आरम्भ होता है। िवक्षोभी
अथवा हलचल गित का ही दूसरा नाम है। यह गित �त्येक तत्व के एक-एक कण म� िव�मान है िजसके
नािभक अथवा के न्� म� िनरन्तर �ोटोन, न्यू�ॉन और इलेक्�ॉन गित करते रहते ह�। वैज्ञािनक� ने इनसे
भी सू�म परमाणु� का पता लगाया है िजन्ह� न्यू�ॉन नाम �दया गया है। इन न्यू�ॉन का �ितकण भी
होता है। इन दोन� म� से एक अपने कक्ष पर दिक्षणावतर् घूमना है तो उसका �ितकण वामावतर् घूमता
है। यह अत्यिधक ऊजार् का कण है। इसक� गित �काश क� गित के समान होती है।
एक मन्� म� न�दय� (धारा�) क� गित के बताने के िलए ऋत शब्द �यु� है। और सूयर् को सत्य का
िवस्तार करने वाला कहा गया है। क्या यहाँ न�दय� से सू�म कण� क� धारा� क� गित अिभ�ेत नह�
है? अन्यथा भी ऋत गित का �ोतक तो है ही ।
जैसा �क ऊपर बताया गया है, ये ऋत और सत्य दोन� ही नाम वेद� म� ही अनेक स्थान� पर समानाथर्क
हो गये ह�। एक मन्� म� सत्य के साथ असत्य के अथर् म� अनृत के �योग से इस तथ्य क� पुि� होती है।
वह मन्� आपः (�ापक सृि�-जल) के सम्बन्ध म� बताता है �क सू�म वाष्प कण� के �प म� यह जल
सम्पदा मध्यमस्थान (अन्त�रक्ष) म� �ास (आप) रहता है और वह� अपनी �ाि� के �ारा व�ण
(�ापक परमे�र) सबका राजा होकर प�ँचा रहता है और वह� से समस्त जन� के सत्य और असत्य
आचरण� को देखता रहता है।

वै�दक दृि� से सत्याचरण के साथ-साथ सत्य वास्तिवक तत्व भी है। तभी तो अन्य� कहा गया है �क
�जापित ने सत्य और असत्य (अवास्तिवक) दोन� को अलग �कया और के वल सत्य (वास्तिवकता) म�
��ा (िव�ास) का आधान �कया, अनृत (अवास्तिवक, िमथ्या) म� नह�।

पदाथ� क� ऊपरी बा� �प-रचना देख्कार िजसे हम वास्तिवक समझ बैठते ह�, वास्तिवक तत्व वह
नह� है। उस वास्तिवक तत्व को जानने पर पहचानने के िलए ऊपरी अवारनण हटाकर उसके पीछे
देखना पड़ता है। तब वास्तिवक सत्य तत्व ज्ञान होता है। वही तत्व सृि� के सभी पदाथ� के मूल म� है।
अि� भी अपने स्व�प से और अपने दाहक तथा दान और आदान (� दानादानयोः) - अि� सभी कु छ
लेकर भस्म करके वायुमण्डल म� उसका �भाव और दग्ध पदाथ� का भस्म देता है करने वाले तत्व� से
यु� है और �ान्त (स्थूल दृि� से न देखे जाने योग्य) कायर् करता है। इसिलए वह सत्य है और अद्भुत
क��तर् वाला है। िवज्ञान उसके इस स्व�प को समझ उसके िविवध �योग करता है। अिगन का स्व�प
सत्य इसिलए भी है क्य��क िव�ुत् और सूयर् म� भी यही �प होने के कारण उन्ह� भी अि� ही कहा
गया है।
वेद सभी पदाथ�, या मौिलक भौितक तत्व� म� एक ऋत, सदास्थायी सू� कहाँ है और अनृत िमथ्या
तत्व कोन सा है, इसक� खोज करता है। वहां �ेरणा दी गई है �क पृथ्वी और आकाश को �त्यक्ष जानने
वाले िव�ान् इस तथ्य का अन्वेषण कर� क्य��क िवज्ञान का रहस्य इस अन्वेषण म� िछपा �आ है।

इससे अगले मन्� म� �फर ऋत क� खोज कर स्वर मुखर �आ है क्य��क वहाँ �फर �� है �क हे देवो
अथवा मूल तत्व�, तुम्हारे ऋत (शा�वत िनयम) का स्थान क्या हे और सवर्�ापक व�ण (आवरक
तत्व) क� दृि� कहाँ है? हम महान् अयर्मा (श�ु� के िनयामक सूयर्) के �कस सत्य मागर् से दु�ह
�िन्थय� का उत्�मण कर� । िन�य ही हम शा�वत िनयम का मागर् है।

ऋत ही ऐसा तत्व है जो पदाथ� को उनके मूल �प म� िस्थर रखता है। इस मूलभूत िस्थरता,
शा�वत�पता का नाम ऋत है। इसके िवपरीत पदाथ� का प�रवतर्नशील �प अनृत है। यह �प आयु
से सीिमत है। वा. सं. ७.४० के मन्� "एष ते योिनऋर्तायुभ्यां त्वा" क� �ाख्या करते �ए शतपथ म�
कहा गया है �क �� ही ऋत है. �� ही िम� है, �� ही ऋत है। व�ण ही आयु है, व�ण संवत्सर हे
(क्य��क वह प�रवतर्नशील है), व�ण ही संवत्सर है, आयु है ।

बृहस्पित, परमे�र (बृहतां पाता वा पालियता वा) भी ऋत�जात (ऋ. २.२३.१५) है क्य��क उससे
ही ऋत, शा�वत िनयम का जन्म होता है। अि� को भी ऋत�जात कहा गया है क्य��क वह ऋत का
वाहक है (ऋ. १.६५.५) उसके मूल म� शा�वत िनयम िनरन्तर रहता है, जल से सम्ब� िव�ुत् �प
अि� म� भी वही शा�वत तत्व िव�मान रहता है । ऋ. १०.६७.१ म� भी बुि� को ऋत�जाता कहा
गया है क्य��क वही उ�म िस्थित म� ऋत को उत्प� करती है। उत्कृ � �प मे बुि�, अध्याम अथवा •
िवज्ञान के माध्यम से ऋत का ही अन्वेषण करती है।

इसी �म म� उषा को भी ऋतपा और ऋतेजा कहा गया है क्य��क वह शा�वत िनयम का पालन करती
�ई चलती है।

ऋत को सभी पदाथ� क� आ� शि� के �प म� देखा गया है। यह शि� िवनाशकारक भी है। वैज्ञािनक
इस िवषय म� िनि�त ज्ञान रखते ह� �क ऋत�प परमाणु� के िवखण्डन म� �कतनी शि� िनिहत है
जो िवनाशक भी हो सकती है। यही नह�, ऋत के , अथार्त् �त्येक पदाथर् के मूल सू�म तत्व के
धारणस्थान सुदढ़ृ और सुिनि�त होते ह�। एक-एक पदाथर् शरीर के िलए वे ही ब�त आह्लादक अथार्त्
उसे उसके �प म� धारणा कर महत्व �दान करने वाले होते ह�। अ� भी उस ऋत का फल है और ऋत
से ही गौएं (सूयर् �करण�) ऋत म� (शा�वत िनयम म�) �िव� होती ह�। सार यह �क वेद के अनुसार �त्येक
पदाथर्, और उसक� गित म� मूल तत्व के �प म� ऋत िव�मान है। िवस्तार के कारण ब�त �प� वाले
पृथ्वी और अनत�रक्ष को पृथ्वी बताकर उन्ह� गम्भीर कहा गया है क्य��क उनम� िव�मान �त्येक तत्व
का अभी तक पूणर् ज्ञान नह� हो सका है। ये दोन� ही परम गोए कही जाती है जो ऋत अथार्त् शा�वत
तत्व के िलए (उसके िनयमानुसार) दोहन करती ह� अथार्त् असंख्य पदाथ� को उत्प� करती रहती ह�
(�कट करती ह�)।
एक मन्� म� अि� (परमे�र) को सम्बोिधत करके कहा गया है �क अिवनािशनी, अखण्ड �प म� बहने
वाली, मधुर जल� वाली �द� न�दयाँ (अथार्त् सवर्� �ा� जलकण) ऋत या शा�वत िनयम से �े�रत
होकर सदैव बहने के िलए धारण क� गई है, िनरन्तर गित करती है।
िजन न�दय� का वणर्न ऊपर �कया गया है, ये सामान्य जल क� न�दयाँ नह� ह�। ये अमर ह� और
अबािधत ह�। इससे संकेत िमलता है �क ये सृि� के आरम्भ से ��ाण्ड म� �ा� सू�म जलकण� (आप)
क� धाराय� ह� जो ऋत (शा�वत िनयम, िनरन्तर गित) से �े�रत ह�। यह गित ऐसी है जैसी यु� के िलए
सदैव तैयार घोड़े क� होती है. अथार्त् िनरन्तर गित है। ऋत िनरन्तर गित का ही नाम है।
सूयर्�पी पौ�षयु� बिल� अि� वृषभ अथार्त् वषार् के �प म� कामना� का वषर्क है। वह भी ऋत से
अथार्त् िनरन्तर गित�पी शा�वत िनयम से िलपटा �आ अथार्त् यु� है। वह स्पिन्दत न होता �आ
अथवा िस्तिमत गित से िवचरण करता है। सबक� आयु को धारण करने वाला वह वषर्क पृि�
अन्त�रक्ष�पी ऊध का दोहन करता है और शु� अथार्त् बिल� जल क� वृि� करता है।
इससे अगले ही मन्� म� ऋत (िनयिमत गित) के साथ अंिगरस� (वायु सिहत िव�ुत�), गो� (�करण�),
ऊषा, सूयर् और अि� का सम्बन्ध स्प� करते �ए कहा गया है �क इस ऋत के �ारा ही अंिगरस िव�ुत्
मेघ का भेदन करते �ए उसे (खाली करके ) दूर फ� क देते ह� और (गितशील) �करण� के साथ संयु�
होकर �शंिसत होते ह�. वे नेतृत्वगुणयु� (ऋतपालक) उषा के पास रहते ह� और जब (उषा का ती�
�काश �प) अि� �कट होता है तो सूयर् �दखाई देता है। अि�. सूयर्, उषा तीन� अि��प होने के कारण
ऋत (शा�वत गितमय िनयम) से ही सम्ब� ह�। सब �ािणय� के सुख के िलए उनक� यह ��या-���या
िनरन्तर चलती रहती है। मन्� से मेघस्थ िवदयुत वायु और अि� का गितयु� स्थायी सम्बन्ध स्प�
होता है।
ब�त का�ात्मक शब्द� म� एक मन्� म� �� �कया गया है। �क पहले वाला (पुराना ऋत कहाँ गया और
नया कोन उसे धारणा करता है? �ुलोक और पृथ्वी- ये दोन� ही मेरे िलए उस तत्व को जानती ह�
(और बताती ह�) ।
म�त् (िविभ� स्तर� पर िविभ� �कार से चलने वाली वायएँ) ऋतसाप ह� अथार्त् ऋत से संयु� ह�।
वे ऋत अथार्त् शा�वत िनयम के अनुसार चलती ह�। इस ऋत के �ारा ही वे सत्य को �ा� होती ह�।
मेघ, वषार्, िव�ुत, आ�द के माध्यम से उनका सत्य स्व�प �कट होता है, उनके वास्तिवक कायर् उनके
दीघर्कािलक िहत से �कट होते ह�। कारण यह है �क वे शुिचज मा ह�, उनका जन्म ही पिव�ता से
पिव�ता के िलए �आ है। वे पिव� ह�। अथवा वे ज्वलनशील तत्व� से यु� ह�।
उषा� को ऋत (शा�वत िनयम) से यु� घोड़� अथार्त् �करण� के �ारा सब लोक� पर फै ल जाने वाली
कहा गया है। �करण� क� यह गित ही ऋत है यह ऐसा ऋत है िजससे िवज्ञान ज्योितः िपण्ड� क� दूरी
मापता है। िवज्ञान के शा�वत िनयम के •अनुसार सदा से ये उषाय� एक सी ह�; अतः इसके िलए यह
कहना असम्भव है �क इनम� से कौन सी पुरानी है और वह कहां है? वे सब एक जैसी चमक वाली
चलती ह� ओर जीणर् न होने वाली वे नये पुराने के भेद से नह� जानी जात�। िवज्ञान भी इन्ह� शा�वत
�प� और िनयम� क� खोज करता है। उषा� के पीछे एक ही तत्व क� समानता है िजसे ऋत कहा
जाता है। उसके �काश म�, गित म�, काल म�, स्व�प म� वही एक समान तत्व िव�मान रहता है। उसे
ही सत्य कहा जाता है।
इस �संग म� उषा का 'ऋतावरी' िवशेषण ध्यान देने योग्य है िजससे स्प� होता है �क उषा ऋत अथवा
शा�वत िनयम अथावा सत्य को धारण करने वाली है और उससे ही �कािशत होने वाली या उसको
अपने �वहार से �कािशत करने वाली है। यह ऋत अथवा सत्य उषा के मूल �प सूयर् से ही अनु�े�रत
है। अनेक वेदमन्�� म� उषा / उषा� के �संग म� ऋतावरी िवशेषण का �योग �आ है। इसी �कार
िव�ुत और अन्त�रक्ष ऋतावरी है, �ुलोक और पृथ्वी भी ऋतावरी है क्य��क सबके पीछे ऋत अथवा
सत्य िनयम कायर् कर रहा है। ये दोन� बिल� ह�, देव� िविभ� दाना�दगुणयु� पदाथ� को उत्प� करने
वाली (ओर इस �कार ) ये यज्ञ को आगे ले जाने वाली बढ़ाने वाली है।
इसी �कार सूयर् ओर पवन अथवा रस और ज्योित�प अि�तनी भी ऋत अथवा शा�त िनयम से
बढ़ने वाले बताये गये ह�। िम�ाव�णो अथार्त् सूयर् और वायु भी सत्यिनयम से बढ़ने वाले ह�।
सूयर् के िविभ� �प तथा व�ण (�ापक �काश वाला और अन्धकाररोधक). िम� (िम� के समान
िहतकारी और सुखकरग) तथा अथर्मा (श�ु� को िनयिन्�त करने वाला) ऋत से यु� है, अपनी
��या� और गित म� ऋत का स्पशर् करने वाले, गितशील जन� को आगे ले जाने वाले, शोभनदानी
और शोभन नेतृत्व करने वाले ह�।
इस �कार वेद म� ऋत और सत्य देव� अथवा दाना�दगुणयु� �ाकृ ितक पदाथ� के मूल म� बताये गये
ह�। उनके पीछे शा�वत िनयम और सतत गित क� �च्छ� ���या िनरन्तर चलती रहती है।

पाद-�टप्पणी
१. �तं च सत्यं चाभी�ातपसोऽध्यजायत। रान्यजायत ततः समु�ो अणर्वः।। �.१०.१९०.१
२. नासदासीनो सदासी�दानीम् । ऋ. १०.१२९.१
३. तिभ�भर् �थमं दघ आपो य� देवाः समगच्छन्त िव�े �. १०.६३.६
४. सत्यं बृहद ऋतमुख..... पृिथव� धारयिन्त ।
५. सत्येनो�िभता भूिमः सत्येनो�िभता �ौः तेना�दत्यािस्त�िन्त �दिव सोमो अिधि�तः ।। ऋ.
१०८५१
६. कतिभत्युदकनाम �त्यृतं भवित । िन. २.२५
6. Every particle is accompanied by another particle called neutrino. It is high
energy particle. Its speed is eqyal to hight speed. % Atomic energy-Macmillon
and Co. Ltd., London»
८. ऋतमषर्िन्त िसन्धवः सत्यं तातान सूयर्ः ऋ. १.१०५.१२
९. यासी राजा वषी याित सत्यानृते अवश्य जनानाम् । . ९.४९.३
१०. रा� �पे �ाकरोत् �जापितः। अ��ामनुतेऽद�ाच्छा सत्ये �जापितः ।। वा. स. १९.७७
११. िहरण्यमवेन पा�ेण सत्यस्यािपिहतं मुखम्।। वा.सं. ४०.१७
१२. अि�ह�ता किव�तुः सत्यि���वस्तमः ऋ. १.१.५
१३. अप्येते उ�रे ज्योितषी अनी उच्येते िन��] ७.१६
१४. अभी ये देवाः स्थन ि�ष्वा रोचने �दवः ।
क� ऋतं कदनृतक �नाव आ�ित�वर्� मे अस्य रोदसी ऋ. १.१०५.५
१५. क ऋतस्य धण�िस क�णस्य चक्षणम्। कदयर्ग्णो महस्पथाित महस्पथाित कामेम दृ�ः ।। ऋ.
१.१०५६
१६. �� वा ऋतं �� िह िम�ो ��ो घृतं व�ण एवायुः संवत्सरो िह
व�णः संवत्सर आयुः श. �ा. ४.१.४.१०
१७. �. १.११३.१२
१८. ऋतस्य िह शु�धः सिन्त पूव� । ऋ. ४.२३.८
१९. ऋतस्य दृव्हा ध�णािन सिन्त पु�िण चन्�ा वपुषे वपूंिष
ऋतेन दीघर् िमषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा िववेशुः ।। ऋ. ४.२३.९
२० �ताय पृथ्वी ब�ले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते ।। ऋ. ४.२३.१०.
२१. ऋतेन देवीरमृता अमृ�ा अण�िभरापो मधुमि�र�े ।
बजी न सग�षु �स्तुभानः � सदिमत्�िवतवे दधन्युः ।। �. ४.३.१२
२२. ऋताव�र - ऋ. २.१.१, ऋतावरी - ऋ. ६.६१.९, ऋ. ३.५४.४, ३.६१.६, ऋ. ४.५२.२.
ऋतावरीम् - ऋ. ५.८०.१, ऋतावरी: - ३.५६.५
२३. ऋ. १.१६०.१
२४. �. ४.५६.२ देवी देवेिभयर्जते यज�ेरिमनती तस्थतु�क्षमाणे ।
ऋतावरी अ�ुहा देवपु�े यज्ञस्य ने�ी शुचयि�रके ः।।
२५. ऋ. १.४७.१ (ऋतावृधा) तुं अि�नौ य��ुवाते सव� रसेनान्यो ज्योितषान्यः ।
(�र� १२१)
२६. ऋ. १.२.८ (ऋतावधी)
२७. ते िह सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जने जने ।
सुनीथासः सुदानव�ऽ होि�दु�च�यः ।। �. ५.३७.४सत्यम् - रा� के अिधसत्यम् - रा� के
अिधवािसय� को सत्यि�य होना चािहये। उन्ह� असत्य से �ेष होना चािहये । सत्य क्या है यह जानने
के िलये उन्ह� सदा तत्पर रहना चािहये। सत्य तक प�ँचने के िलये िजस शान्त, गम्भीर,
अध्यवसायी,सहानुभूितपूणर् और सिहष्णु वृि� और घटना� क� तह तक जाने वाली सू�म बुि� क�
आवश्यकता होती है वह उनम� होनी चािहये। और जय सत्य क्या है यह उन्ह� पता लग जाये तो उसके
अनुसार मन, वचन और कमर् से उन्ह� आचरण करने वाला होना चािहये। मन्� म� सत्य के साथ ''यह
िवशेषण �दया गया है। बृहत का अथर् होता है-महान इस िवशेषण का भाव यह है �क रा� के वािसय�
म� महान सत्य रहना चािहये। उनके जीवन म� अिधवािसय� कोई भी क्षण ऐसा नह� रहना चािहये
िजसम� वे सत्य से परे हो जाय�। सत्य का आचरण उनके जीवन का अंग हो जाना चािहये।
(ख) ऋतम्-त का अथर् होता है-सत्य ज्ञान । अपने सामान्य �योग म� सत्य और ऋत ये दोन� शब्द
पयार्य के �प म� �यु� होते ह�। परन्तु इन म� भेद है। जैसा मेरा ज्ञान है उसके अनुसार आचरण करने
को सत्य कहते ह� । परन्तु यह आवश्यक नह� �क मेरा आचरण सत्य होगा तो मेरा ज्ञान भो अवश्य
सत्य होगा । �कसी बात का मेरा ज्ञान अशु� हो सकता है । परन्तु म� अपने अशु� ज्ञान को ठीक
समझता �आ उसके अनुसार आचरण कर सकता �ँ। इस आचरण म� जहां तक मेरी वृि� का सम्बन्ध
है वहां तक म� सत्य पर �ँ। परन्तु मेरा वह ज्ञान वास्तव म� ठीक नह� है। इसिलये वह ऋत नह� है।
और इसीिलये उस गलत ज्ञान पर आि�त मेरा आचरण भी नह� है। मेरा ज्ञान अमृत है और अनुत
ज्ञान पर �टका होने के कारण मेरा आचरण भी अनृत ही है। सत्य यह बताता है �क �कसी बात को
म�ने ठीक समझा है और जैसा म�ने समझा है वैसा ही म�ने आचरण भी �कया है। परन्तु मेरे ठीक समझने
से ही तो कोई बात ठीक नह� हो सकती। ऋत यह बताता है �क म�ने �कसी चीज को जैसा समझा है
वह वास्तव म� है भी वैसी ही । ऋत इस �कार ज्ञान क� सत्यता को �ोितत करता है। वेद म� यह शब्द
सत्य ज्ञान का बोधक होता �आ जगत के सत्य िनयम� का बोधक भी हो जाता है। क्य��क जगत् म� न
रहे साथ िनयम� के सही बोध पर ही हमारे ज्ञान क� सत्यता अवलिम्बत होती है। फलतः इत िव� म�
चल रहे सत्य िनयम� का, उनके सत्य- ज्ञान का और तदनुसार सत्य आचरण का �ोतक हो जाता है।
रा� के लोग� म� ऋत होना चािहये इस कथन का भाव यह है �क उन्ह� िव� म� काम कर रहे भौितक
और आित्मक िनयम� का स�ा ज्ञान होना चािहये। उन्ह� भौितक और आित्मक िव�ा� का प�रडत
होना चािहये। और इस ज्ञान एवं इन िव�ा� के अनुकूल उनके आचरण होने चािहय�।

मन्� म� �यु� 'बृहत्' िवशेषण िजस �कार 'सत्य' के साथ सम्ब� होता है उसी �कार वह 'त' के साथ
भी सम्ब� हो सकता है। क्य��क वह मन्� म� सत्य और ऋत शब्द� के मध्य म� �यु� �आ है। उसका
सम्बन्ध सत्य से भी जोड़ा जा सकता है और ऋत से भी। ऋत के साथ 'बृहत्' को जोड़ने पर भाव यह
होगा �क रा�िनवािसय� म� 'महान ऋत' रहना चािहये। उन्ह� भौितक और आित्मक िव�ा� का
आिवष्कार और ज्ञान �ा� करने म� ब�त �य�शील होना चािहये तथा इस ज्ञान के अनुसार आचरण
करने म� भी उन्ह� पूणर् तत्पर रहना चािहये।वािसय� को सत्यि�य होना चािहये। उन्ह� असत्य से �ेष
होना चािहये । सत्य क्या है यह जानने के िलये उन्ह� सदा तत्पर रहना चािहये। सत्य तक प�ँचने के
िलये िजस शान्त, गम्भीर, अध्यवसायी,सहानुभूितपूणर् और सिहष्णु वृि� और घटना� क� तह तक
जाने वाली सू�म बुि� क� आवश्यकता होती है वह उनम� होनी चािहये। और जय सत्य क्या है यह
उन्ह� पता लग जाये तो उसके अनुसार मन, वचन और कमर् से उन्ह� आचरण करने वाला होना चािहये।
मन्� म� सत्य के साथ ''यह िवशेषण �दया गया है। बृहत का अथर् होता है-महान इस िवशेषण का भाव
यह है �क रा� के वािसय� म� महान सत्य रहना चािहये। उनके जीवन म� अिधवािसय� कोई भी क्षण
ऐसा नह� रहना चािहये िजसम� वे सत्य से परे हो जाय�। सत्य का आचरण उनके जीवन का अंग हो
जाना चािहये।
(ख) ऋतम्-त का अथर् होता है-सत्य ज्ञान । अपने सामान्य �योग म� सत्य और ऋत ये दोन� शब्द
पयार्य के �प म� �यु� होते ह�। परन्तु इन म� भेद है। जैसा मेरा ज्ञान है उसके अनुसार आचरण करने
को सत्य कहते ह� । परन्तु यह आवश्यक नह� �क मेरा आचरण सत्य होगा तो मेरा ज्ञान भो अवश्य
सत्य होगा । �कसी बात का मेरा ज्ञान अशु� हो सकता है । परन्तु म� अपने अशु� ज्ञान को ठीक
समझता �आ उसके अनुसार आचरण कर सकता �ँ। इस आचरण म� जहां तक मेरी वृि� का सम्बन्ध
है वहां तक म� सत्य पर �ँ। परन्तु मेरा वह ज्ञान वास्तव म� ठीक नह� है। इसिलये वह ऋत नह� है।
और इसीिलये उस गलत ज्ञान पर आि�त मेरा आचरण भी नह� है। मेरा ज्ञान अमृत है और अनुत
ज्ञान पर �टका होने के कारण मेरा आचरण भी अनृत ही है। सत्य यह बताता है �क �कसी बात को
म�ने ठीक समझा है और जैसा म�ने समझा है वैसा ही म�ने आचरण भी �कया है। परन्तु मेरे ठीक समझने
से ही तो कोई बात ठीक नह� हो सकती। ऋत यह बताता है �क म�ने �कसी चीज को जैसा समझा है
वह वास्तव म� है भी वैसी ही । ऋत इस �कार ज्ञान क� सत्यता को �ोितत करता है। वेद म� यह शब्द
सत्य ज्ञान का बोधक होता �आ जगत के सत्य िनयम� का बोधक भी हो जाता है। क्य��क जगत् म� न
रहे साथ िनयम� के सही बोध पर ही हमारे ज्ञान क� सत्यता अवलिम्बत होती है। फलतः इत िव� म�
चल रहे सत्य िनयम� का, उनके सत्य- ज्ञान का और तदनुसार सत्य आचरण का �ोतक हो जाता है।
रा� के लोग� म� ऋत होना चािहये इस कथन का भाव यह है �क उन्ह� िव� म� काम कर रहे भौितक
और आित्मक िनयम� का स�ा ज्ञान होना चािहये। उन्ह� भौितक और आित्मक िव�ा� का प�रडत
होना चािहये। और इस ज्ञान एवं इन िव�ा� के अनुकूल उनके आचरण होने चािहय�।

मन्� म� �यु� 'बृहत्' िवशेषण िजस �कार 'सत्य' के साथ सम्ब� होता है उसी �कार वह 'त' के साथ
भी सम्ब� हो सकता है। क्य��क वह मन्� म� सत्य और ऋत शब्द� के मध्य म� �यु� �आ है। उसका
सम्बन्ध सत्य से भी जोड़ा जा सकता है और ऋत से भी। ऋत के साथ 'बृहत्' को जोड़ने पर भाव यह
होगा �क रा�िनवािसय� म� 'महान ऋत' रहना चािहये। उन्ह� भौितक और आित्मक िव�ा� का
आिवष्कार और ज्ञान �ा� करने म� ब�त �य�शील होना चािहये तथा इस ज्ञान के अनुसार आचरण
करने म� भी उन्ह� पूणर् तत्पर रहना चािहये।

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