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Arthvigyaan
Arthvigyaan
1.1 प्रस्तािना
र्नुष्य सर्ाज व्यिस्था का असभन्न सहस्सा है । सर्ाज के साथ उसका संबंध िाणी के र्ाध्यर् से ही
बनता है। चूँकि भार्ा सर्ाज सापेक्ष है इससलए शब्द के साथ अथष स्वयं ही आकार ग्रहण करता है ।
र्नुष्य शब्दों के प्रयोग के साथ ही उसका अथष ग्रहण एिं प्रेसर्त करना आरम्भ कर िे ता है । यह
प्रसिया इतनी स्वाभासिक है सक हर्ें ज्ञात हुए सबना ही हर् शब्द और अथष के र्ध्य संबंध को जान
लेते हैं, सर्झ लेते हैं । इस इकाई र्ें हर् शब्द और अथष के संबंध की प्रसिया के साथ यह भी सीखेंगे
सक अथष को सकतने प्रकार से ग्रहण सकया जा सकता है । अथष ग्रहण करने के अनेक साधन हैं । कभी
लोक व्यिहार के र्ाध्यर् से तो कभी आत्म अनुभि से अथष ग्रहण सकया जाता है । अथष ग्रहण की पूणष
प्रसिया की हर् इस इकाई र्ें चचाष करें गे।
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कुर्ाररल भट्ट के अनुसार ‘जो अथष सजस शब्द के साथ संबंद्ध रहता है िही उसका अथष होता है।'1
र्हसर्ष पतंजसल के अनुसार ‘अथष शब्द की अंतरं ग शन्टि का नार् है , शब्द बसहभूषत होता है , जबसक
अथष अबसहभूषत या अपृथक् होता है।'2 शब्द और अथष के इसी सम्बन्ध का अध्ययन अथष सिज्ञान र्ें
सकया जाता है। शब्द और अथष को चार रूपों र्ें िे खा जा सकता है —
उत्पवििाद के अनुसार र्नुष्य के र्न के भीतर अथष सछपा रहता है , शब्द के र्ाध्यर् से उसकी
उत्पसि होती है । अविव्यक्तििाद के अनुसार शब्दों के प्रयोग से अथष की असभव्यन्टि होती है ।
प्रतीकिाि के अनुसार शब्द एक प्रकार से प्रतीक का कायष करते हैं जो अथष को व्यि करने का
र्ाध्यर् बनते है। ज्ञान्टििाि के अनुसार शब्द से अथष की ज्ञान्टि या ज्ञान होता है ।
ये चारवों ससद्धांत शब्द और अथष के सम्बन्ध को ही िशाष ते हैं परन्तु शब्द के साथ अथष का सीधा सम्बन्ध
नहीं होता। इस सम्बन्ध को सिसिध रूपों र्ें पहचानने की आिश्यकता है , सजसका अध्ययन हर् इस
पाठ र्ें करें गे।
कसि कासलिास ने सशि और पािषती र्ाँ के संबंध को शब्द और अथष के सर्ान र्ानकर सिै ि एक
िू सरे से सम्पृि रहने के सलए कहा है ‘िागथाषसिि संपृिौ िागथषप्रसतपिये’ शब्द और अथष सिै ि
सम्पृि रहें , इस भाि र्ें शब्द और अथष के सह-सम्बन्ध की पररकल्पना की गई है । कसि तुलसीिास
शब्द-अथष के बीच संबंध को ‘सगरा अरथ जल बीसच सर् कसहअत सभन्न न सभन्न’3 कहकर शब्द और
अथष के संबंध को अलग होते हुए भी संपृि र्ाना है ।
शब्द भारतीय सचन्तन परम्परा र्ें अनंत भाि का िाचक है | इसके सिसिध रूपों पर चचाष करते हुए
इसे अक्षर, परब्रह्म, अनासि और अनंत कहा गया है । प्रो. सिलीप ससंह ने भतृषहरर ऋसर् की शब्द-अथष
के संिभष र्ें भारतीय अिधारणा की संकल्पना को पसिर्ी सससर्योसटक्स के सर्ानांतर योग्यता रखने
िाला कहा है । िे भारतीय काव्यशास्त्रीय र्ान्यताओं को शब्द और अथष की र्ान्यताओं से ही जुड़ा
हुआ र्ानते हैं । भारतीय काव्यशास्त्र की इन र्ान्यताओं के चार र्ूल तत्त्वों की चचाष करते हुए िे
सलखते हैं—
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● “बोधकता शब्दाथष का र्ूल है।
● शब्दाथष संबंध शब्द की योग्यता पर सनभषर है ।
● िाक् र्ें शब्द िाच्याथष का बोधक होता है ।
● शब्द और अथष के बीच िाच्य-िाचक भाि होता है ।” (भार्ा का संसार, पृष्ठ 64, प्रो. सिलीप
ससंह)
सकसी भी भार्ा र्ें एक शब्द के सलए अनेक अथष प्रचसलत होते हैं सजसे पहचानने के सलए काव्यशास्त्रीय
पद्धसत र्ें शब्द शन्टियों की संकल्पना की गई है । तीनों शब्द शन्टियाँ िास्ति र्ें शब्द के र्ाध्यर् से
अथष ग्रहण करने की तीन सिसशष्ट शैसलयों को िशाषती हैं । असभधा शन्टि शब्द के र्ुख्याथष को िशाषती
है। शब्द को सुनकर जो पहला और सिषप्रथर् अथष प्राि होता है , िही अविधार्थ या मुख्यार्थ
कहलाता है जैसे—
सुनीता हँस रही है अथिा पुस्तक पढ़ने से ज्ञान सर्लता है , जैसे िाक् सीधे और सरल अथष को सम्प्रेसर्त
करते हैं। अविधार्थ के भी तीन भेि र्ाने जाते हैं —रूढ़, योग एिं योगरूढ़। िे शब्द जो एक सनसित
अथष को ही व्यि करते हैं और उसी रूप र्ें स्वीकार कर सलए जाते हैं , रूढ़ असभधाथष कहलाते हैं
जैसे आटा, चािल, िोजन, सोना, उठना आसि शब्द सजनके सनसित अथष हैं । योग शब्द भी असभधा
का ही रूप होते हैं पर इन्हें िो शब्दों को सर्लाकर बनाया जाता है जैसे र्ालगाड़ी, रे लयात्रा,
सड़कछाप आसि। योगरूढ़ शब्द योग द्वारा बनाए जाते हैं और एक सनसित अथष र्ें बंध जाते हैं । उन
शब्दों को योगरूढ़ कहा जाता है । सकसी भी सर्ाज र्ें असधकाँश बात के सलए सजन शब्दों का व्यिहार
सकया जाता है, िे सार्ान्य अथष ही व्यि करते हैं । प्राय: सम्प्रेर्ण र्ें शब्द और अथष इसी रूप र्ें कायष
करते हैं।
शब्द और अथष का िू सरा संबंध लक्ष्याथष से जुड़ा है । लक्ष्याथष का एक पक्ष र्ुख्य अथष से जुड़ा होता है
और िू सरा पक्ष उसके अन्याथष से जुड़ा होता है । सहन्दी भार्ा र्ें र्ुहािरों का इस्तेर्ाल इस अथष र्ें
िे खा जा सकता है। सकसी व्यन्टि को ‘शेर का बच्चा’ या ‘चीता’ कहना इसी अथष र्ें इस्तेर्ाल होने
िाले शब्द हैं । आचायष रार्चन्द्र शुक्ल ने व्यंजनाथष को सबसे र्हत्त्वपूणष र्ाना है सजससे अथष र्ें
चर्त्कार पैिा होता है । सासहत्य र्ें अक्सर शब्दों र्ें व्यंग्याथष ही प्रर्ुख होता है । कसिता र्ें शब्दों का
व्यंजनाथष ही सौन्दयष उत्पन्न करता है—
रसहर्न पानी रान्टखए, सबन पानी सब सून... अथिा ये िीप अकेला स्नेह भरा जैसी पंन्टियों र्ें पानी,
िीप, स्नेह जैसे शब्द अपना र्ुख्याथष भी नहीं त्यागते, साथ ही उनका सिसशष्ट व्यंजनाथष भी कसिता को
सर्ृद्ध िरते हैं ।
यह तो स्वाभासिक सत्य है सक अथष और शब्द के र्ध्य संबंध यादृन्टिक होते हुए भी सकसी सीर्ा तक
तय होता है । भार्ासििों द्वारा सर्ाज की पररन्टस्थसतयों और आिश्यकताओं के अनुसार शब्दों के अथष
तय सकए जाते हैं । सर्ाज इन्हें सिसिध तरीकों से ग्रहण करता है सजसे भार्ा िैज्ञासनक शब्दािली र्ें
अथष प्रतीसत कहा जाता है। िेिों र्ें अथष को प्रसतभा कहा गया है । अज्ञानी व्यन्टि िाक् को सुनता तो
है पर उसका अथष ग्रहण नहीं करता। जबसक ज्ञानी व्यन्टि प्रसतभा को ग्रहण करता है , िाक् को
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सर्झने का प्रयास करता है , प्रसतभा को अपने जीिन का अंग बनाता है । िेिों र्ें िाक् तत्त् को ब्रह्म
कहा गया है सजससे आत्म को सर्झने र्ें सहायता सर्लती है । यह आत्म ही अथष है जो ब्रह्म को जानने
से प्राि होता है । ऋग्वेि का सूत्र है—‘अहं सुिे सपतरर्स्य र्ूधषन् र्र् योसनरप्स्स्वन्तः सर्ुद्रे। ततो सि
सतष्ठे भुिनानु सिश्वोतार्ूं द्यां िर्ष्षणोप स्पृशासर्’ जहाँ र्न्टस्तष्क र्ें शब्द के महत्त् को स्वीकार सकया
गया है। यह शब्द ही है जो हर जगह व्याि है और सिसिध रूपों र्ें अथष के र्ाध्यर् से व्यि होता
है।
‘’र्ैं इस सृसष्ट के र्ूधाष (र्न्टस्तष्क) र्ें इसके सपता (शब्द तत्त्, ब्रह्म तत्त्) को प्रेररत करता हँ ।” (अथष
सिज्ञान और व्याकरण िशषन : कसपल िे ि सद्विेिी आचायष , पृष्ठ 20)
अब प्रश्न उठता है सक अथष ग्रहण सकस प्रकार होता है ? अथष प्रतीसत अनेक प्रकार से होती है —कभी
हर् संकेतों द्वारा अथष ग्रहण करते हैं तो कभी लोक सर्ाज र्ें प्रचसलत भािों के आधार पर!
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उस सचत्र की अनुपन्टस्थसत होने पर भी अथष ग्रहण स्वाभासिक रूप से हो जाता है । इसे ही
सबम्ब ग्रहण कहा जाता है। िस्तु का एक सनसित रूप हर्ारे र्ानस र्ें बन जाता है । शब्द को
सुनने पर सबना उस सचत्र के भी उस िस्तु का अथष ग्रहण हो जाता है । यह सबम्ब ग्रहण ही है
जो िस्तु और अथष के संबंध को दृढ करता है । उिाहरण के सलए एक बच्चा राजा का सचत्र
िे खकर उसके उसके र्ाथे पर सजे र्ुकुट को उसकी पहचान का सबम्ब र्ानता है और इस
रूप र्ें उसका एक सनसित स्वरूप ग्रहण करता है । आगे जाकर उस र्ुकुट को िे खे सबना
भी िह शब्द र्ात्र से अथष का सबम्ब सनसर्षत कर लेता है ।
3. लोक व्यिहार : र्नुष्य सार्ासजक सम्बन्धों र्ें व्यिहार करता है अत: सारे शब्द अपना अथष
लोक व्यिहार से ही ग्रहण करते हैं । शब्दों र्ें अथष भरने का कायष सर्ाज ही करता है । सर्ाज
के सारे संबंध यादृन्टिक ही होते हैं पर सफर भी हर् उन संबंधों को एक सनसित नार् से जानते
हैं। यह नार् हर् लोक व्यिहार र्ें ही इस्तेर्ाल करते हैं और उनसे अपने संबंधों को
पररभासर्त करते हैं । र्ाँ, सपता, ररश्ते-नाते सभी लोक व्यिहार से ही पहचाने जाते हैं ।
6. प्रवसद्ध अर्थ से समानर्ा (उपमान): अथष बोध के सलए कई बार शब्दों का सासनद्ध्य सकसी
अथष तक पहुँचने र्ें सहायता करता है । अक्सर शब्दों का अथष न जानने पर भी उसके आस-
पास के शब्दों से साम्य अथिा सकसी प्रससद्ध िस्तु से सर्ानता या सादृश्य के आधार पर शब्द
के अथष तक पहुँचना सरल हो पाता है । उिाहरण के सलए—
बा वदन सों कछु टोना सो कै रसखावन वहये मैं समाइ गयौ है।
कोऊ न काहू की कावन करै वसगरौ ब्रज िीर! वबकाइ गयौ है।
(रसखान) में टोना और सबकाई शब्द ब्रज के सासनद्ध्य के कारण प्रेर् र्ें सबकने के रूप र्ें
प्रस्तुत होते हैं। ‘गाय के सर्ान सिखने िाली नीलगाय’ या शेर जैसी ताकत’ जैसे शब्दों र्ें
सार्ीप्य और सर्ानता का ही ससद्धांत कायष करता है ।
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7. व्याकरर्: अथष बोध के साधनों र्ें व्याकरण का स्थान सबसे र्हत्त्वपूणष है । शब्द के
व्याकरसणक अथष का बहुत र्हत्त्व है । व्याकरण के अनुसार शब्दों के काल, स्थान और
सियािाची अथष होते हैं। इन अथों को पहचानने का र्ाध्यर् व्याकरण ही है । खासकर उन
भाषाओों र्ें, जहाँ संयोगात्मक शब्दों से अथष सनसर्षत होता है । संस्कृत र्ें बालक: बालकौ
और बालका: तीनों के अथष िचन के अनुसार बिलते हैं िहीं सिभन्टि के अनुसार बालकर्,
बालकेन, बालकस्य आसि के अथष बिलते हैं । जहाँ बालक: का अथष होगा—बालक ने, िहीं
बालकर् का अथष होगा—बालक को। इसी तरह अथष का सिस्तार होगा, सजसका ज्ञान
व्याकरण की सर्झ के साथ ही हो सकता है । शब्द के अथष रूप की पहचान व्याकरण के
र्ाध्यर् से हो सकती है।
8. कोश: कोश अथष सनणषय का एक और साधन है । अनेक शब्द ऐसे होते हैं सजनसे हर्ारा
पररचय कोश के र्ाध्यर् से ही होता है । उिाहरण के सलए ‘वहन्दी शब्द प्रयोग कोश’ र्ें
‘अंक’ शब्द का प्रयोग िे खें तो लगभग छह अथों र्ें इसका प्रयोग इस प्रकार सिखाई िे ता
है—
2. नाटक का अध्याय: नाटक र्ें जहाँ अंक के पात्र ही बाहर जाकर सफर लौट
आते हैं, उसे अंकाितार कहते हैं ।
इसके अवर्ररि संख्या, लेख और अक्षर के रूप र्ें भी अंक का अथष कोश से ही ज्ञात
होता है। इस तरह कोश शब्दों के अथष को असभव्यि करने र्ें सहायता करता है ।
9. अनुिाद : िो भाषाओों के बीच अथषबोध कराने का सबसे अिा साधन अनुिाि है । अनुिाि
अथष को खोलकर िो भाषाओों के बीच सेतु बनाने का कार् करता है । जब तक हर् सकसी
भार्ा को नहीं जानते, तब तक उसके शब्द हर्ारे सलए अपररसचत रहते हैं । आज के सर्य
र्ें भाषाओों के बीच आिान-प्रिान के सलए अनुिाि सबसे सशि साधन बनकर आया है ।
आज अंग्रेजी और सहन्दी भाषाओों के बीच अथषबोध अनुिाि के द्वारा ही सरल ढं ग से संभि
हुआ है । एक िू सरे से सलए गए कई शब्द सलप्यन्तररत करके भी भाषाओों र्ें स्वीकार कर
सलए गए हैं। सकसी भी व्यन्टि के सलए रोटी और ब्रेड के संबंध को सर्झना अनुिाि के द्वारा
ही संभि हो सकता है।
10. अन्य: अन्य के अंतगषत सििरण एिं व्यिहार को रखा जा सकता है । अनेक शब्दों को र्ात्र
अथष बताकर ही नहीं सर्झा जा सकता बन्टि उनका सििरण िे ना भी आिश्यक हो जाता
है, सजससे सुनने िाला उसका अथष ग्रहण कर सके। उिाहरण के सलए चातक पक्षी को ससफष
शब्द प्रयोग द्वारा अथिा पक्षी र्ात्र कहकर ही नहीं पहचाना जा सकता बन्टि उसका सििरण
िे ना असनिायष होगा। इस पक्षी की सिशेर्ता यह बताई जाती है सक यह बाररश की पहली बूंिों
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को ही पीता है । इस सििरण के द्वारा ही इसकी सिसशष्टता िव पहचाना जाता है । इसी तरह
कई शब्दों के अथष को सर्झाने और याि रखने के सलए उनका व्यािहाररक प्रयोग असनिायष
होता है।
इस पूरे वििरर् से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है सक शब्द के अथष को जानने के सलए अनेक
पद्धसतयाँ उपलब्ध हैं पर शब्दों का अथष अक्सर सिस्तृत अथिा संकुसचत होता रहता है । अथष
सर्य और सर्ाज की आिश्यकताओं के अनुसार अपना रूप बिलते रहते हैं । इसके प्रर्ुख
कारणों की चचाष इस प्रकार है—
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भौसतक अथिा भौगोसलक पररिेश अथष के बिलाि के कारणों र्ें सबसे र्हत्त्वपूणष भूसर्का
सनभाते हैं ।
● विनम्रर्ा : भारतीय सर्ाज र्ें सिनम्रता एक र्हत्त्वपूणष लक्षण है । इस सर्ाज र्ें प्राय: धनी
व्यन्टि भी अपनी िस्तुओं का प्रिशषन करते सिखाई नहीं िे ते बन्टि सिनम्रतािश अपनी धन-
सम्पसि को तुि बताने के सलए शब्दों को सिपरीत अथष र्ें प्रयोग करते हैं । इसी सिनम्रता के
कारण अथष र्ें बिलाि होता है और बाि र्ें िे शब्द उसी अथष र्ें रूढ़ होने लगते हैं । उिाहरण
के सलए िो िाक्ों को िे खें—
‘िह गरीब अपनी कुवटया के अंिर ठं ड से सठठु र कर र्ारा गया’ और ‘कभी इस गरीब की
कुवटया पर भी पधाररए’ इन िोनों िाक्ों र्ें गरीब और कुसटया के अथष को िे खें तो िोनों
सभन्न होंगे। पहले र्ें जहाँ ये अपने र्ूल अथष के िाचक होंगे िहीं िू सरे िाक् र्ें अर्ीर और
भिन (र्हल/ बड़ा घर) के िाचक होंगे। अनेक शब्द जैसे गरीबिास, कुसटया आसि सिनम्रता
के कारण अपना अथष बिल लेते हैं ।
● अमंगल की संकल्पना को बदलने की कोवशश : सर्ाज र्ें अनेक ऐसी अशुभ र्ानी जाने
िाली घटनाएँ होती हैं सजनके बारे र्ें बात करने र्ें लोगों को सिक्कत होती है । र्ृत्यु जैसी
संकल्पना को व्यि करने के सलए स्वगषिास का प्रयोग ऐसी ही अिधारणा है ।
● एक शब्द का अनेक अर्ों में इस्तेमाल र्र्ा पयाथय का प्रयोग : आप-तुर् जैसे शब्द एक
ही अथष र्ें प्रयुि होते हैं पर एक से अपनापन और िू सरे से सम्मान की भािना व्यि होती
है। िायु- र्ारुत िोनों एक ही शब्द के पयाषय हैं पर र्ारुत शब्द का प्रयोग र्ारुसत (हनुर्ान
जी) के सपता के सलए सकया जाता है िहीं िायु का प्रयोग हिा के सलए। िोनों को एक िू सरे
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की जगह नहीं रखा जा सकता। काठ-लकड़ी िोनों सर्ानांतर हैं पर ‘काठ की हांडी बार-
बार नहीं चढ़ती’ र्ें लकड़ी की हांडी का इस्तेर्ाल नहीं हो सकता। चािल-अक्षत र्ें चािल
सार्ान्य हैं पर अक्षत का इस्तेर्ाल पूजा के सलए सकया जाता है । श्रेष्ठ-सेठ र्ें से श्रेष्ठ से सेठ
बना है पर िोनों के अथष कतई सभन्न हो गए हैं ।
● अन्धविश्वास : र्ाता शब्द का इस्तेर्ाल चेचक के सलए सकया जाता है िहीं पसत का नार् न
लेकर स्वार्ी-परर्ेश्वर जैसे शब्दों का प्रयोग होता है । इससे सर्ाज के अन्धसिश्वास ही जुड़े
हुए है ।
● लक्षर्ा : शब्द शन्टियों र्ें असभधा, लक्षणा और व्यंजना का र्हत्त्वपूणष योगिान है । काव्य
र्ें सबसे असधक लक्षणा का प्रयोग होता है । उिाहरण के सलए हाय फूल सी कोर्ल बच्ची,
हुई राख की ढे री, शहर का इकट्ठा हो जाना, पेट की आग जैसे िाक्ों र्ें शब्दों का लाक्षसणक
प्रयोग है । इनके सार्ान्य अथष लेने से अथष का अनथष हो सकता है ।
● व्यंजना: व्यंजना शब्द की र्हत्त्वपूणष शन्टि है । व्यंजना शब्द को सार्ान्य अथष से सभन्न अलग
आयार् िे ती है जैसे इस पंन्टि र्ें िे न्टखए—
‘चलर्ी चाकी दे ख के, रहा कबीर रोये’ र्ें पहली पंन्टि र्ें एक अथष राधा-कृष्ण है िहीं
िू सरा अथष गाय और बैल से है िहीं चाकी का अथष जीिन के व्यथषता बोध से जुड़ा है ।
अर्ाथदेश यानी अर्थ में पररिर्थन—इसके अंतगषत अथष-उत्कर्ष और अथष-अपकर्ष िोनों ही आ जाते
हैं। सिद्वानों ने उिाहरण िे कर इन सिर्यों को स्पष्ट करने का प्रयास सकया है । आचायथ दे िेन्द्रनार्
शमाथ ने इसके अनेक उिाहरण िे कर इन पक्षों को स्पष्ट सकया है । हर् यहाँ उनकी पुस्तक से कुछ
उिाहरण लेकर इसे स्पष्ट करने का प्रयास करें गे—
अर्थ विस्तार: प्रिीर्: पहले इसका अथष था-िीणा बजाने िाला पर बाि र्ें सकसी भी कायष र्ें योग्य
और सनपुण व्यन्टि को प्रिीण र्ाना जाने लगा। इसी तरह कुशल का अथष था—कुशा लाने िाला पर
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आज इसका अथष योग्य व्यन्टि से सलया जाने लगा है । र्ेल शब्द पहले सतल के तेल के सलए इस्तेर्ाल
होता था, बाि र्ें इसे सकसी भी तेल, जैसे सरसों, जैतून के तेल के सलए भी इस्तेर्ाल सकया जाने लगा।
इसे अथष सिस्तार कहा जाएगा। र्नुष्य अपनी जरूरतों के अनुसार शब्दों के अथष सिस्तृत करता है ।
पंसडत, र्हाराज और सब्जी जैसे शब्द भी इसी तरह एक सनसित अथष र्ें जाने जाते थे, पर बाि र्ें
इनके अथष सिस्तृत हो गए—
‘र्हाराज ने बक़िया भोजन बनाया’ से लेकर ‘हरी सन्टब्जयाँ सेहत के सलए लाभिायक है ’ र्ें इसी अथष
सिस्तार को िे ख सकते हैं । यहाँ र्हाराज का अथष राजा न होकर भोजन बनाने िाला ब्राह्मण है । बाि
र्ें ब्राह्मण का अथष भी इसर्ें से सिलुि हो गया। अब इसका अथष केिल भोजन बनाने िाले व्यन्टि से
सलया जाता है ।
अर्थ संकोच: इसी तरह शब्दों र्ें अर्थ संकोच को भी िे खा जा सकता है । पंकज यानी जल र्ें उत्त्पन्न
हर िस्तु जैसे शैल, शैिाल, र्छली और र्गरर्ि को भी पंकज कहा जाना चासहए पर पंकज का
अथष कर्ल ही है, बाकी कुछ नहीं। इसी तरह सभ्य का अथष था—सभा र्ें बैठने योग्य होना पर अब
सभ्य शब्द संकुसचत अथष का द्योतक है । इसी तरह र्ृगया शब्द र्ें सकसी भी पशु का सशकार शासर्ल
था पर आज इसका अथष सहरण से ही सलया जाता है । बहुब्रीसह सर्ास र्ें प्रयुि सभी शब्द अथष संकोच
के उिाहरण के रूप र्ें िे खे जा सकते हैं —जैसे वर्रं गा—इसका अथष पहले तीन रं गों के सर्ूह के
रूप र्ें सलया जाता था पर अब इसका अथष सीसर्त होकर भारत के राष्टरध्वज के रूप र्ें सीसर्त हो
गया है। इसी तरह विगुर् का अथष तीन गुणों का सर्ूह था—पर अब यह सीसर्त होकर सिष्णु भगिान
के अथष र्ें सीसर्त हो गया है ।
सर्ास, उपसगष, प्रत्यय, नार्करण पाररभासर्कता के कारण भी अथष-संकोच की न्टस्थसत होती है ।
उपसगष-प्रत्यय के कारण शब्द अपना र्ूल अथष छोड़कर एक सनसित अथष र्ें सीसर्त हो जाता है ।
उिाहरण के सलए नत होने का अथष झुकना है पर अब उपसगष और ई प्रत्यय लगने से बने शब्द
‘अिनसत’ का अथष पतन तक ही सीसर्त हो जाता है । इसी तरह ‘हार’ शब्द र्ें उप, प्र, सं, सि आसि
उपसगष लगाने से अथष एक सनसित अथष र्ें सीसर्त हो जाते हैं ।
अर्ाथदेश: अथाषिेश यानी बिलाि। अथष सर्य के साथ बिलते रहते हैं । पहले मुग्ध का अथष र्ूखष था,
बाि र्ें आगे चलकर इसका अथष र्ोसहत हो गया। इसी तरह साहसी का अथष था—डकैती का साहसी,
अब सकसी भी कार् का साहस सिखाने िाले को साहसी कहा जाता है । आकाशिाणी कभी ईश्वर की
िाणी थी, अब रे सडयो द्वारा प्रसारण को आकाशिाणी कहा जाता है ।
अर्थ पररिर्थन सर्ाज की असनिायषता है । हर युग र्ें लोग शब्दों के एक बने-बनाए अथष से संतुष्ट नहीं
होते, इसीसलए अथष र्ें पररितषन हर्ेशा आता रहता है । शब्द कभी अपने र्ूल अथष को ग्रहण करते हैं
तो कभी अपने र्ूल अथष का त्याग करते हुए अन्य अथष ग्रहण कर लेते हैं । शब्द कभी लाक्षसणक हो
जाते हैं तो कभी व्यंजक। इन अथष पररितषनों के अनेक कारण हो सकते हैं —कभी पररिेश तो कभी
जलिायु के बिलाि के कारण, तो कभी सिनम्रता, िोध, लज्जा, उपेक्षा, अंधसिश्वास जैसे अनेक कारण
हैं सजसके कारण अथष बिल जाता है (इसकी चचाष ऊपर की जा चुकी है ) अथष का बिलाि शब्दों र्ें
सिस्तार करता है । भारतीय काव्यशास्त्र र्ें शब्द-शन्टियाँ इसी शब्द और अथष की शन्टि को व्यि
करती हैं।
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वनष्कषथ रूप में कहा जा सकर्ा है वक शब्द और अथष भार्ा की ऐसी इकाईयाँ हैं जो सार्सजक
प्रसिया के अनुसार अपना स्वरूप बिलती रहती हैं । अथष का संकोच और सिस्तार सार्ासजक
पररितषनों के साथ होता है । शब्द के अथष हर्ेशा के सलए सनसित नहीं होते बन्टि आिश्यकता के
अनुसार बिलते रहते हैं । अथष सनसित करने िाले तत्त् लगभग सर्ान होते हैं पर सर्य के अनुसार
कभी कोई तत्त् र्हत्त्वपूणष हो जाता है तो कभी कोई और! अथष का यह बिलाि हर्ें भार्ा के लचीले
स्वरूप का पररचय िे ता है। जो भार्ा इस लचीलेपन को स्वीकार करके अथष सिकससत करती है , िह
सर्ाज र्ें स्वीकृत बनी रहती है।
प्रश्ों के उिर विस्तार से दीवजए—
1. शब्द और अथष र्ें सम्बन्ध पर सिचार कीसजए। शब्द सकन र्ाध्यर्ों से अथष की प्रतीसत कराते
हैं, सिस्तार से सलन्टखए।
2. अथष प्रतीसत के पाँच साधनों पर सिचार कीसजए।
3. अथष पररितषन र्ें पररिेश की भूसर्का पर सिस्तार से सलखें।
4. अथष पररितषन की सिशाएँ कौन-कौन सी हैं ? सकसी एक पर सिस्तार से उिाहरण ससहत सिचार
कीसजए।
5. अथष पररितषन की कारणों पर सिस्तार से सिचार कीसजए।
6. शब्दों के अथष क्ों बिलते हैं? सकन्हीं िो कारणों पर सिचार कीसजए।
1.8 संदिथ
1. http://pondicherryuniversity.blogspot.com/2012/11/blog-post_4.html
2. http://pondicherryuniversity.blogspot.com/2012/11/blog-post_4.html
3. रार्चररतर्ानस: तुलसीिास
1.9 सन्दिथ-ग्रन्थ
● भार्ा सिज्ञान की भूसर्का : िे िेन्द्र नाथ शर्ाष
● भार्ा सिज्ञान : भोलानाथ सतिारी
● सहन्दी भार्ा : भोलानाथ सतिारी
● लैंग्वेज : ब्लूर्फील्ड
● सहन्दी भार्ा की आथी संरचना
● सहन्दी भार्ा सचन्तन : प्रो. सिलीप ससंह
● भार्ा का संसार : प्रो. सिलीप ससंह
● भार्ा और सर्ाज : रार्सिलास शर्ाष
● अथष सिज्ञान और व्याकरण िशषन : कसपल िे ि सद्विेिी आचायष
● सहन्दी शब्द प्रयोग कोश : डॉ. लक्ष्मी नारायण गगष
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