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संस्कृत वाङ्मय में वर्णित चिकित्सकीय मन्त्र chapter 4
संस्कृत वाङ्मय में वर्णित चिकित्सकीय मन्त्र chapter 4
है। यही कारि है कक ईसका सािहत्य तत्कालीन पररिस्र्ितयों को , िजस ककसी रूप
में िचिरत करता है , आसिलए यह कर्न प्रिसद्ध है कक- ‘सािहत्य समाज का िपथिा
है।’ समाज का रूप जैसा होगा वह ईसी प्रकार सािहत्य में प्रितिबिबबत रहता है।
यर्ार्थ ज्ञान का साधन सािहत्य ही हुअ करता है। आसी प्रकार सािहत्य को संस्कृ ित
का वाहन कहा जाता है। ककसी भी संस्कृ ित के प्रचार और प्रसार का मुख साधन
ऄनुप्रािित तर्ा सशक्त रहता है। सामािजक भावना एवं सामािजक िवचारधारा की
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कारि, संस्कृ ित के संिश
े को जन-जन के हृिय तक पहुाँचाने के नाते, वह संस्कृ ित का
वाहन है।
की प्रधान ऄवलबबन है। आसिलए संस्कृ त सािहत्य जीवन की िवषम पररिस्र्ितयों में
भी अनन्त्ि के ऄन्त्वेषि में तत्पर किखलाइ पड़ता है। भारत के तत्त्विचन्त्तकों ने ब्रह्म
को सत् िचत् एवं अनन्त्िमय बतलाया है। अनन्त्ि भगवान् का स्वरूप कहा गया है।
प्रयोजन है।
सािहत्य और संस्कृ ित :
संस्कृ त भारत ही नहीं ऄिपतु िवश्व की प्राचीनतम भाषा है। संस्कृ त सािहत्य
संस्कृ ित का प्रधान वाहन रहा है। संस्कृ त के काव्य एवं नाटक भारतीय-संस्कृ त की
क्रीड़स्र्ली हैं। याि सत्य कहा जाय तो कह सकते हैं कक संस्कृ त सािहत्य सकल
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अध्याित्मक भावना आस िेश की संस्कृ ित का प्राि है। त्याग की ईिात्त
सौन्त्ियथ संस्कृ त सािहत्य ऄपनी अभा-प्रभी िबखेरता हुअ सहृियों के हृिय को हठात्
कारि िजतने िवख्यात है ईतने ही वे ऄपने काव्यों में भारतीय संस्कृ ित की मनोरम
िचन्त्तन का गहरा प्रभाव पड़ा है। आस िेश का िशथन सवथिा से अशावािी रहा है।
नैराश्य की कािलमा ईसे मिलन बनाने में कभी भी सक्षम न हुइ। संस्कृ त नाटक
सािहत्य और धमथ :
भारतवषथ को ऊिषयों का िेश होने का गौरव प्राप्त है यह धमथ -प्राि िेश है।
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वाङ्मय में कर्ा -सािहत्य का महत्व :
िविवधताओं एवं अश्चयों का अकार है। भारत के ईत्तर में स्वगथस्पधी ईतुङ्ग
और ऄर्थ का भाव ही सािहत्य है। आसी ऄर्थ सािहत्य शब्ि का प्रयोग काव्य एवं
प्रतीित के िलए ही होता है और सािहत्य में , काव्य में शब्ि और ऄर्थ िोनों ही समान
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सािहत्य के आसी वैिशष्टय को ध्यान में रखते हुए राजशेखर ने आसे पंचमी
िवधा कहा है। यह पंचमी िवधा मुख्य चार िवधाओं- पुराि, न्त्यास (िशथन), मीमांसा
सािहत्य ईपलब्ध नहीं होता। पाश्चात् जगत् के िवद्वान् िमश्र िेश के सािहत्य को
हजार वषथ पूवथ हमारे यहााँ ऊग्वेि सबसे पुराना माना जाता है।
आसके काल के िवषय में ऄनेक मत प्रचिलत है। आनमें सवाथिधक िवश्वसनीय
ऄवश्य ही हो चुका र्ा। िवश्व का कोइ भी सािहत्य आतना प्राचीन नहीं है।
सािहत्य के नाम से िवख्यात् है। वैकिक सािहत्य लौककक संस्कृ त में रचा गया
सािहत्य नैितक सािहत्य की तुलना में भाषा , भाव एवं शैली अकि की िृिष्ट से
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संस्कृ त वाङ्मय के स्वरूप का वगीकरि
मंर िचककत्सा का तात्पयथ हैए मंर द्वारा ककसी रोग का ईपचार। मंर
ऊिषयोंए िसद्धों ऄर्वा अप्त पुरूषों द्वारा िेखे या प्राप्त ककए गये सुपरीिक्षत ऐसे
ऄक्षरोंए शब्िों ककवा क्रमबद्ध शब्ि समूहों ऄर्वा वाक्यों या ऐसी किव्य प्रार्थनाओं
को कहते हैं िजनके िचन्त्तनए मननए साधनए जप.पाठ या ऄिभमंरि अकि प्रयोगों
द्वारा साधक सभी प्रकार के ऄभीष्ट िसद्ध कर सकता है। यह िचककत्सा वैकिक
कइ रोगों िवशेष कर अगन्त्तुक ईन्त्माि एवं ऄपस्मार की िचककत्सा में मंर को सवथ
प्रमुख माना है। संस्कृ त वाङ्मय में ऄनेक स्र्ल मंर िचककत्सा के ईल्लेखों से भरे पड़े
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हैं। आस ऄध्याय में संस्कृ त वाङ्मय में वर्णित मंरों का विथन ककया गया हैए जो
िनम्नवत है-
प्रिव के पााँच भाग हैं , वे हैं- ऄकार , ईकार, मकार, िबन्त्ि ु और नाि! उाँ
पंचाक्षरी मंरों में से एक है। ‘उाँ’ परम मंर है, जो भगवान िशव का नािरूप है। ‘उाँ’
मन्त्र बहुत सारे मंरों का भाग है जैसे- नमः िशवाय (पंचाक्षरी) , नमो नारायिाय
कक्रयाओं में योिगयों द्वारा िन राकार इश्वर के रूप में ध्यान ककया है। ‘उाँ’ अयों का
प्रयोग :
प्रिव का जप तीन प्लुप मंरों के सार् ककया जाए तो आससे पूवथ जन्त्मकृ त
हड्डी, गले, नाक और मिस्तष्क क्षेरों को सकक्रय करता है। उजाथ पेट से मिस्तष्क तक
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जाती है, िजससे उजाथ का प्रवाह होता है और रीढ़ की हड्डी और मिस्तष्क को सकक्रय
करता है।
कल्यािकारक मंर :
ऄगिित स्तुितयों के योग्य और सवथज्ञ पूषा िेव हमारा कल्याि करें । िजने
रर् के पिहयों को कोइ हािन नहीं पहुाँचा सकता, ऐसे गरूड़ एवं बृहस्पितिेव हमारा
कल्याि करें ।
कल्यािकारक वचन सुनें। हम सिैव अाँखों से शोभन िेखें सुिढ़ृ ऄङ्गों वाले शरीर से
अपकी स्तुित करते हुए प्रजापित द्वारा स्र्ािपत अयु को प्राप्त करें ।
नष्ट करने वाली औषिधय गुिों से युक्त हैं। अप हमारे शरीर में ईत्पन्न ऄपने
1 ऊ0 1/89/06
2 ऊ0 89/08
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औषधीय जलों से समस्त रोगों को नष्ट कीिजए , िजससे मैं बहुत समय तक स्वस्र्
मानिसक शिक्त :
कक अप हमारे आस कष्ट को नष्ट करें । अप ही आस कष्ट को नष्ट करने में समर्थ हैं।
यक्ष्मा या राजयक्ष्मा :
ऊग्वेि के 10वें मण्डल के िो सूक्त 1 में यक्ष्मा जैसे रोगों से मुिक्त किलाने
िछड़कने से एवं जप से रोगी शीघ्र रोग मुक्त हो जाता है। 163वें सूक्त में यक्ष्मा के
नाशन के ईपाय तर्ा शरीर के नाना ऄवयवों का वैज्ञािनक िववरि िमलता है।5
आस सूक्त में मनुष्य के िसर से लेकर पैर तक होने वाले ककसी भी प्रकार के
रोग का िवनाशक कहा गया है। आन मंरों में रोग िनवारक शिक्त िवद्यमान है।
3 ऊ0 1/23/21
4 ऊ0 1/105/7
5 ऊ0 10.161 तर्ा 163 के समस्त मंर
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ऄभीभयां ते नािसकाभयां विथभयां छु बुकाििध।
कु ष्ठ रोग :
िवषहर :
ऊग्वेि के प्रर्म मण्डल में मधु िवद्या के नाम से प्रिसद्ध सूक्त के मन्त्रों का
प्रयोग सपथ या ककसी कीड़े के द्वारा काटने पर शरीर में व्याप्त िवष को ईतारने के
िछड़कने से शरीर से व्याप्त िवष ईतर जाता है। आस पद्धित का प्रयोग वतथमान में
6 ऊ0 10/163/1-6
7 ऊ0 1/117/7
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जीवनरक्षि मंर :
आन मंरों का ईच्चारि करते हुए ऄिि में अहुित िेते हुए ककसी रोगी व्यिक्त के
स्मरिशिक्तवृिद्ध :
यक्ष्मा िनवारिार्थ :
राजयक्ष्मा के िनवारि के िलए ऊग्वेि में आस मंर का विथन प्राप्त होता है।
िजस तरह रर् जोतने के िलए सारिर् जुए को चमड़े के पट्टे से बांध िेता है ,
ईसी तरह मैंने तुबहारे प्रािों को बांध किया है ताकक तुम जीिवत रहो , तुबहारे शरीर
8 ऊ0 10.50, 60/7-12
9 ऊ0 1/23/3
10 ऊ0 22/3/1-2, 3/3/15-16
11 ऊ 10/60/1
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‘‘न्त्यश्ग्वातोऽव वाित न्त्यक्तपित सूयथः।
ककरिें नीचे की ओर िवकीिथ करता है, ईसी तरह यह व्यािध नीचे िगरती जाए।
अयुष्यसूक्त :
सवथरोगनाशक मंर:
प्रत्येक अिस्तक िहन्त्ि ू संध्यावन्त्िन में िजस मन्त्र का जप करते हैं वह प्रिसद्ध
सािवरी या गायरी छन्त्ि हीन है। जो सिवता या सिवतृ िेव की स्तुित में रिचत है।
िधयो यो नः प्रचोियात्1।।4
यह मन्त्र अराध्य िेव सिवता के नाम ‘सिवरी’ ककन्त्तु छन्त्ि रूप में ‘गायरी’
कहा जाता है। वेिों में सूयथ को स्र्ावर जंगम सभी जगत की अत्मा कहा गया है।
12 ऊ0 10/61/11
13 ऊ0 10/81/1
14 ऊ0 3/62/10
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‘‘सूयथ अत्मा जगतस्यस्र्ुषश्व
’’ 15
सूयथ का प्रकाश पीिलया रोग तर्ा हृिय के रोगों में िवशेष लाभप्रि माना
यहााँ नेर प्रािियों के नेरों तक ही सीिमत नहीं हैं , क्योंकक वेि तो भगवान्
सूयथिव
े ता िूसरों को ही िृिष्ट-िान नहीं करते हैं। स्वयं िूर रहते हुए भी प्रत्येक
पिार्थ पर पूरी िृिष्ट डालते हैं। ऊिजश्वा ऊिष के िवचार आस िवषय में आस
प्रकार हैं-
15 यजु56
16 ऊ0वे0 1/50/11
17 ऊ0वे0 1/115/1
18 ऊ0 6/51/02
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कल्याि कारक मंरः
िमर िेव , वरूि, ऄयथमा िेव हमारे िलए कल्यािकारी हों , आन्त्रिेव व
शािन्त्त मंरः
वनस्पत्यः शािन्त्तर्णवश्वेिव
े ाः शािन्त्तब्ररह्म शािन्त्तः सवं शािन्त्
, शािन्त्
तः िव
े शािन्त्तः सा
वा शािन्त्तरे िधः।2 1
िीघाथयुष्य प्रािप्तः
सूयथ िेव जगत के नेर हैं। वे िहतकारक हैं , वे जगत में सवथर िवचरते हैं। हम
19 यजु0 36/09
20 यजु0 36/6
21 यजु0 36/17
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अपकी कृ पा से सुखी रहें।
तच्चक्षुिव
े िहतं पुरस्ताच्छु क्रमुच्चरत।
पश्येम शरिः शतं जीवेम शरिः शतं शृिुयामः शरिः शतं प्र ब्रवाम
यह शरीर वायु , ऄमृत अकि से बना हुअ है। यह शरीर नाशवान है। ऄतः हे
यजमान! अप ओम् (उाँ) तर्ा ऄपनी क्षमता और ककये गये कमो को स्मरि कीिजए।
कृ तं स्मर।।2 4
सवथव्यािध िवनाशकः
जीवन में सुगंध फै लाने व पौिष्टकता बढ़ाने वाले है। हमे संरक्षि प्रिान करते हैं। अप
रोग िनवारक ओषिध का भांित िनवारक हैं। हमें अप सांसाररक बंधनों से मुक्त कर
22 यजु0 36/24
23 यजु0 40/02
24 यजु0 40/15
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त्र्यबबकं यजामहे सुगन्न्त्ध पुिष्टवधथन, म्
मृत्युञ्जयमंर
यह मंर रोग, ऄशांित, मृत्यु, िुघथटना तर्ा वायव्य िोषों को शान्त्त करता है।
आसका जप करने से ज्वर अकि के कारि शरीर में बढ़े हुए ताप की शीघ्र
पञ्चाक्षरी मृत्युञ्जय : उाँ जूं सः मां पालय पालय सः जूं उाँ जूं सः
हो जाते हैं।
25 यजु0 3/60
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ऄकालमृत्यु, ऄल्पायु, शरुभय, रोगभय, िुघथटना, अक्रमि अकि संकटों के
मृत्युञ्जय मंर : उाँ भूः उाँ भुवः उाँ स्वः उाँ त्र्यबबकं यजामहे सुगिन्त्ध पुिष्टवधथनम्।
उवाथरूकिमव बंधनान्त्मृत्योमुथक्षीय महाऽमृतात्। उाँ स्वभुथवः भूं उाँ सः जूं हौं उाँ।
मृतसंजीवनी मंर :
उाँ हौं जूं सः उाँ भूभुथवः उाँ त्र्यबबकं यजामहे सुगिन्त्धत पुिष्टवधथनम्।
ईवाथरूकिमव बन्त्धान्त्मृत्योमुथक्षीय माऽमृतात्। उाँ स्वः उाँ भुवः भूः उाँ जूं = उाँ।।
महामृत्युञ्जय मंर :
से प्राप्त कर मरे हुए िैत्यों को िजलाया र्ा। यह मंर जीवनिायक समाप्त कष्ट
िनवारक, पाप िनवारक है। उाँ हौं उाँ सः उाँ भूः उाँ भुवः उाँ स्वः उाँ त्र्यबबकं यजामहे
सुगिन्त्ध पुिष्टवधथनम्। ईवाथरूकिमव बन्त्धान्त्मृत्योभुथक्षीय माऽमृतात्। उाँ स्वः उाँ भु0 उाँ
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पञ्चाक्षरी मंर :
‘उाँ नमः िशवाय ’ यह ऄत्यन्त्त महत्वपूिथ एवं शिक्तशाली मंर है। आसमें पंच
ऄध्याय में वर्णित है। ये पााँच ऄक्षर पंच तत्वों का प्रितिनिधत्व करते हैं - पृ्वी , जल,
प्रयोग :
आस मंर से शािन्त्त और ज्ञान होता है, िजससे अत्म साक्षात्कार होता है।
होती है।
करने वाले हैं, हमारे शरीर में व्याप्त यक्ष्मा रोग के नाश के िलए हम अप का स्मरि
करते हैं।
27 यजु0 11/53
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ऄित िवश्वाः पररष्ठा स्तेनऽआव व्रजमक्रमुः।
आसमें औषिध से प्रार्थना की गयी है। ओषिधयों पुष्पवती होती हैं आनमें
बीमाररयों को नष्ट करने की समस्त गुि िछपे होते हैं। ये शरीर के समस्त रोगों और
औषिध शरीर के ऄंग-प्रत्यंग में फै लकर यक्ष्मा अकि भयंकर रोगों को नष्ट कर
िेती है। औषिध लेने के सार् ही यक्ष्मा रोग िूर हो जाता है। प्रािवायु की तरह
ओषिध के शरीर में ही समस्त व्याप्त होने के सार् रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
सवाथङ्गरोग नाशकः
कीिजए, ऄपान वायु की रक्षा कीिजए, व्यान की रक्षा कीिजए। अप हमारे नेरों की
28 यजु0 12/84
29 यजु0 12/87
30 यजु0 14/17
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िशवेन वचसा त्वा िगररशच्छाविामिस।
आसमें मंर से रुर िेव से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कक हे रुर िेव ! हम
जाएं। रुर िेव को प्रर्म िेव किव्य िभषक् माना जाता है। यह समस्त पापों के भी
नाशक हैं।
मेधावृिद्ध मंरः
आस मंर में सिवता िेव की प्रार्थना की गयी है। सिवतृ िेव वरे ण्य ,
सौभाग्यशाली और िेवों को धारि करते हैं। वे बुिद्ध को श्रेष्ठ मागथ पर चलने हेतु
ईन्त्मुख करते हैं। हे सिवतृ िेव हमारे मिस्तष्क में व्याप्त समस्त िवकारों को समाप्त
ऄिि िेव सभी िेवों में श्रेष्ठ िेव हैं। ये समस्त िेवों को हिव प्रिान करते हैं।
ऄिि िेव समस्त गृहवािसयों के घर में िनवास करते हैं। ऄिि िेव से प्रार्थना करते
हुए कहते हैं कक हे ऄिि िेव! िजस श्रेष्ठ बुिद्ध को िेवतागि और िपतृगि ईपासना
31 यजु0 16/4
32 यजु0 22/09
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या मेधा िेवगिाः िपतरश्चोपासते।
वरुििेव, ऄिि एवं प्रजापित हमें बुिद्ध प्रिान करें । आन्त्रिेव बुिद्ध धारि करते
मानिसक शािन्त्तः
आन्त्रवायु सुसन्त्िश
ृ ा सुहवेह हवामहे।
हम स्वच्छ मन से एवं पूिथ श्रद्धा के सार् अप का अह्वान करते हैं , िजससे हमारे
33 यजु0 32/14
34 यजु0 32/15
35 यजु0 33/66
36 यजु0 34/1
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पापनाशक एवं अयुवधथकः
समस्त रोगों का ईन्त्मूलन पाप कमों के कारि होता है। ऄतः ईन पाप कमों
वतथमान िेव , ऊिष ऄर्वाथ, ऄंिगरा और मनीिषगि हमसे स्तुत होकर हमें पापों से
मुक्त करें ।
37 यजु0 3/47
38 यजु0 36/2
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अयुवधथक मन्त्र :
रोगों से बचाव एवं ईनके ईपचार से भी अयुवृिद्ध होती है कफर भी वेिों में
ऐसे मन्त्र िवद्यमान हैं, िजनमें िीघाथयु का विथन प्राप्त होता है। यर्ा-
तच्चक्षुिव
े िहतं पुरस्ताच्छु क्रमुच्चरत।
िेवताओं द्वारा स्र्ािपत तेजस्वी सूयथ िेव पूवथ किशा में ईकित हो रहे हैं। ईनके
हे िहतकारी तेजवाले सूय!थ अप अज ईकित तर्ा उाँचे अकाश में जाते समय
मेरे हृिय के रोग तर्ा पाण्डु रोग को नष्ट ककिजयों। आस मन्त्र के ‘ईद्यन’ तर्ा
सूयथश्चक्षुषामिधपितः स भावतु3।9।
चक्षुिनवारि मंर :
ऄर्वथवेि में सूयथ को चक्षुओं का पित बताया गया है और ईनसे ऄपनी रक्षा
सूयथश्चक्षुषामिधपितः स मावतु40।
39 ऄर्वथवेि 5/24/9
40 ऄर्वथ0 5/24/9
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ऄपिचतः प्राय पतत सूपिो वसतेररव।
होता है। यह िचन्त्ता और शोक को िमटाने तर्ा अयु को बढ़ाने का ईत्तम साधन है।
हेतु प्रज्विलत ऄिि में घृतसिहत हिव की अहुितयााँ प्रिान करो। हे ऄिििेव ! अप
आस ईपरवी राक्षसों (रोगािु अकि) को भस्म करके हमारे गृहों को संतप्त होने से
बचाएाँ।
41 ऄर्वथ0 06/86/1
42 ऄर्वथ0 6/32/1
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ऄभयं िमरावरूिािवहास्तु नोऽर्णचषाित्रिो नुितं प्रतीचः।
मांस-भक्षक राक्षसों को हम िूर भगाएाँ। आन्त्हें कोइ भूिम तर्ा अश्रय िेने वाला न
िीघाथयुप्रािप्त सूक्त
आस सूक्त में यज्ञीय प्रयोगों द्वारा रोग िनवारि तर्ा जीवनशिक्त के संवद्धथन
हे रोिगन! तुबहारे शरीर में प्रिवष्ट यक्ष्मा (रोग) , राज्यक्ष्मा (राज रोग) से मैं
हिवयों के द्वारा तुबहें मुक्त करता हाँ। हे आन्त्रिेव और ऄिििेव! पीड़ा से जकड़ लेने
43 ऄर्वथ0 6/32/2
44 ऄर्वथ0 3/11/1
45 ऄर्वथ0 3/11/02
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यह रोग्रतु पुरुष यकि मृत्यु को प्राप्त होने वाला हो या ईसकी अयु क्षीि हो
गइ हो, तो मैं िवनाश के समीप से वापस लाता हाँ आसे सौ वषथ की पूिथ अयु तक के
वाजीकरि सूक्त :
किपत्र् से जोड़ा है। खोिकर िनकालने के कारि आसे किपत्र् (कै र्) की जड़ भी
46 ऄर्वथ07/77/05
47 ऄर्वथ0 6/138/1
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ऄन्त्य वीयथवद्धथक ओषिधयों में यह ओषिध ऄत्यिधक श्रेष्ठ िसद्ध हो। काया को
वश में करने वाले हे आन्त्रिेव! अप पौरुषयुक्त शिक्त आस (ओषिध) में स्र्ािपत करें ।
गभथिोषिनवारि सूक्तः
सूक्त में गभथ की सुरक्षा एवं पोषि के सूर किये गये हैं। ऄनेक प्रकार के रोग, कृ िमयों-
िवषिुओं एवं ईनके िनवारक ओषिधप्रयोगों का विथन आस सूक्त में ककया गया है-
के सार् हमारा अगमन हुअ है। अपके िलए मंगलमय शिक्तयों को भी हमने धारि
ककया है। ऄस्तु, आस समय तुबहारे सबपूिथ रोगों का िनवारि करता हाँ।
48 ऄर्वथ0 4/04/04
49 ऄर्वथ0 8/6/13
50 ऄर्वथ0 4/13/05
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यह हमारा हार् सौभाग्ययुक्त है , ऄित सौभाग्यशाली यह हार् सबके िलए
ज्वर को ऄर्वथवेि में कइ स्र्ानों पर तक्मन् कहा गया है। आसके ऄवसरिार्थ
ऄर्वथवेि के आस सूक्त के सबपूिथ मंरों द्वारा ऄिििेव , सोमिेव, ग्रावा, मेघ के िेवता
िजस प्रकार भेजे जाने वाले खजाने की सुरक्षा करने वाले मनुष्य गान्त्धार ,
मूाँजवान, ऄंग तर्ा मगध िेशों में भेजे जाते हैं , ईसी प्रकार आस कष्टिायक रोग को
51 ऄर्वथ0 4/13/6
52 ऄर्वथ0 5/22/1
53 ऄर्वथ0 5/22/14
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िीघाथयुष्य सूक्तः
प्रभाव से होने वाले अयुक्षयकारी रोगों को नष्ट करने के िलए मंर शिक्त का प्रयोग
ककया गया है। आसमें िीघाथपुष्य िेवता से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कक अपने
ऄंगों की पीड़ा, ऄंगों का ज्वर, हृिय का रोग तर्ा यक्ष्मा रोग हमारी मंर शिक्त से
कास (खांसी ):
िजस प्रकार सूयथ की ककरिें शीघ्रता से िूर पहुाँच जाती हैं , वैसे ही हे कास!
तुम आस रोगी को छोड़कर समुर के िविभन्न प्रवाहों वाले प्रिेशों में प्रस्र्ान करो।
54 ऄर्वथ0 5/30/9
55 ऄर्वथ0 6/105/1
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यर्ा सूयथस्य रश्मयः परापतन्त्त्याशुमत्।
नाम ईत्तम है। अप समस्त क्षय रोगों को िूर करें और कष्टिायी ज्वर को िनवीय
करें । भाव प्रकाश में कु ष्ठ ओषिध का कइ रोगों की िचककत्सा में विथन प्राप्त होता है।
हे अरोग्यिायक सूयथिव
े । अप हमें िसरििथ एवं कास की पीड़ा से मुक्त करें ।
सिन्त्धयों में घुसे रोगािुओं को नष्ट करें । वषाथ , शीत एवं ग्रीष्म ऊतुओं के प्रभाव से
ईत्पन्न होने वाले वात , िपत्त, कफ जिनत रोगों को िूर करें । सूयथ का ओज-प्रकाश ,
56 ऄर्वथ0 6/105/03
57 ऄर्वथ0 5/4/09
58 ऄर्वथ0 5/4/10
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ताप तर्ा चेष्टा के रूप में या शरीर में िरधातुओं को पुष्ट करने के रूप में सकक्रय
होता है।
हमारे िसर अकि श्रेष्ठ ऄंगों का कल्याि हो। हमारे ईिर अकि साधारि ऄंगों
का कल्याि हो। हमारे चारों ऄंगो (िो हार्ों- िो पैरों) का कल्याि हो। हमारे
गण्डमाला :
फुं िसयााँ हैं वे मंर शिक्त प्रयोग से नष्ट हो जाएाँ , जैसे पितव्रता स्त्री के सामने िोषपूिथ
59 ऄर्वथ0 1/12/03
60 ऄर्वथ0 1/12/04
61 ऄर्वथ0 6/25/01
125
जो सतहत्तर प्रकार की पीड़ायें गले मे होती हैं
वे मन्त्र शिक्त से नष्ट हो जाएं, जैसे पितव्रता स्त्री के सामने पापमय वचन नष्ट
हो जातो हैं।
को िूर करें ।
हे गण्डमालाओं! तुम (वात , िपत, कफ भेि से) िचतकबरी, श्वेत, काली तर्ा
रक्तविथ वाली हो। तुम वीरपुरुष की न्हसा न करो और यहााँ से चली जाओ।
सवाथसामग्रभं नामावीरघ्नीरपेतन।।
64
कृ िम नाश :अाँखों से किखाइ िेने वाले तर्ा न किखाइ िेने वाले कीटों को हम िवनष्ट
करते हैं। जमीन पर चलने वाले, िबस्तर अकि में िनवास करने वाले तर्ा रुतगित से
62 ऄर्वथ0 6/25/02
63 ऄर्वथ0 66/83/01
64 ऄर्वथ0 6/83/02
126
घूमने वाले समस्त कीटों को हम वाचा (वािी/मन्त्र शिक्त) के द्वारा िवनष्ट
करते हैं।65
सूयथिव
े से रोगनाशक कीटािुओं को मारने के िलए प्रार्थना करते हैं , आससे
ज्ञात होता है कक सूयथ ककरिों में कीटािु क्षमता व्याप्त है। िविवध रूप वाले , चार
चक्षु वाले , रें गने वाले तर्ा सफे ि रं ग वाले कीटािुओं की हिड्डयों तर्ा िसर को हम
तोड़ते हैं
65 ऄर्वथ0 2/31/02
66 ऄर्वथ0 2/32/02
67 ऄर्वथ0 2/32/03
68 ऄर्वथ0 5/23/02
127
जो कीड़े नोरों में भ्रमि करते हैं , जो नाकों में भ्रमि करते हैं , तर्ा जो िााँतों
ईन्त्माि :
हे ऄिि िेव! यह पुरुष पापों से ईत्पन्न रोगरूप बंधन से बंधा हुअ ईन्त्माि
रोग के कारि प्रलाप कर रहा है। कृ पा कर अप आसे रोग और कारि रूप पापों से
मुक्त करें ।
पूवथजन्त्म में ककये गये िैवी तर्ा राक्षसी पापों के फलस्वरूप ईत्पन्न ईन्त्माि
हैं िजससे तुबहारा िचत्त भ्रमरिहत हो जाए। हे पुरुष ऄप्सराओं ने तुबहें रोग मुक्त कर
िेवैनसािुन्त्मकितमुनमत्तं रक्षसस्परर।
69 ऄर्वथ0 5/23/3
70 ऄर्वथ0 6/111/01
71 ऄर्वथ0 6/111/03
128
मेधावृिद्ध :
आस सबपूिथ सूक्त में मेधा िेवी भगवान् सूयथ तर्ा ऊिषयों में मेधा वृिद्ध हेतु
प्रार्थना की गयी है , िजससे पुरुष की मेधा का तीक्ष्ि िवकास हो। हम प्रातः काल ,
मध्यान्त्हकाल एवं सायंकाल में मेधा िेवी की सेवा करते हैं। सूयथ रिश्मयों के सार्
ईल्लंघन ऐसे पाप हैं ‚ जो ऄनेक रोगों को पैिा करते हैं। मानवीय चेतना के प्रितकू ल
स्वार्थपूिथ कमों से मानिसक ग्रिन्त्र्यााँ बनती हैं तर्ा मनोकाियक रोग ईत्पन्न होते हैं।
ऄतः अरोग्य के िलए पापों से िनवृित्त अवश्यक है। वैद्यक शास्त्र के िविशष्ट प्रयोगों
आस सूक्त में ओषिध से प्रार्थना की गयी है। हे रोगी पुरुष। सामने ईपिस्र्त
से िनष्कािसत करें ।
72 ऄर्वथ0 6/108/5
129
अपो ऄग्रं किव्या ओषधयः।
तास्ते यक्ष्ममेनस्यमङ्गािङ्गािीनशन्।7।3
रोग िनवारि करने वाली , जलोिर अकि रोगों की िनवारक प्रचण्ड क्षमता
ईन्त्मञ्च
ु न्त्तीर्णववरूिा ईग्रा या िवषिूषिीः।
ऄश्मरी या मूराघात :
मूर रोग िनवारिा र्थ सूयथ िेव से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कक हम सभी
जानते हैं कक िवशेष शिक्त सबपन्न पिवरतािायक सूयथ ‘शर’ के पालक हैं, वे तुबहारा
कल्याि करें । ईनमें तुबहें िविशष्ट पोषि प्राप्त हो तर्ा िवकार बाहर िनकल जाएाँ।
स्र्ूल िृिष्ट से ‘शर’ शलाका प्रयोग से मूल िनकालने की प्रकक्रया पुराने समय
शरीरस्र् जीवनी शिक्त ही पोषि िेने तर्ा िवकारों से मुिक्त किलाने में प्रमुख
73 ऄर्वथ0 8/07/03
74 ऄर्वथ0 8/07/10
75 ऄर्वथ0 1/03/05
130
मूरवािहनी नािड़यों, मूराशय एवं अतों में िस्र्ित िूिषत जल (मूर) आस
िचककत्सा से वेग के सार् शब्ि करता हुअ शरीर से बाहर िनकल जाए।
आस सबपूिथ सूक्त में पयथजन्त्य , िमर, वरूि, चन्त्र अकि िेवताओं से मूराघात्
िनवारिार्थ मन्त्रपरक स्तुित की गयी हैं। ये ‘शर’ से मूलमागथ को खोल िेते हैं। बन्त्ध
हे रामा-कृ ष्िा तर्ा ऄिसक्नी ओषिधयों। अप सब रािर में पैिा हुइ हैं। रं ग
प्रिान करने वाली है ओषिधयो! अप गितल कु ष्ठ तर्ा श्वेत कु ष्ठग्रस्त व्यिक्त को रं ग
प्रिान करें ।
76 ऄर्वथ0 1/3/6
77 ऄर्वथ0 1/23/01
131
श्वेत कु ष्ठ :
हे औषिध! सवथप्रर्म अप सुपिथ (सूय)थ के िपत्त रूप में र्ीं। असुरी सुपिथ के
वाला करें ।
प्रसव हेतु :
आस सबपूिथ सूक्त में प्रसव हेतु िेवताओं से प्रार्थना की गयी है। द्युलोक एवं
भूिम को चारों किशाएाँ घेरे हैं। किव्य पंचभूतों ने आस गभथ को धारि ककया हुअ है , वे
हे िेव! िजस प्रकार वायु वेगपूवथक प्रवािहत होती है। पक्षी अकाश में ईड़ते हैं
एवं मन िजस तीव्रगित से िवषयों में िलप्त होता है , ईसी प्रकार िसवें माह गभथस्र्
78 ऄर्वथ01/24/01
79 ऄर्वथ0 1/24/03
80 ऄर्वथ0 1/11/02
132
सबपूिथ रोगनाश :
मन्त्रोच्चारि करते हुए जैसे वािी वैसे ही अपके िोनों हार् हमें रोगों से मुक्त
कराते हैं।
हस्ताभयां ...................................मृशामिस।।
83
81 ऄर्वथ0 4/13/01
82 ऄर्वथ0 1/14/06
83 अ0 1/14/07
133
यक्ष्मारोग िनवारिार्थः
आस सूक्त के मंरों के जप से शरीर के ककसी ऄङ्ग में होने वाले यक्ष्मा रोग के
िनवारिार्थ प्रयोजनीय है। आस मंर से जल पार को धोकर रोगी की गाठों में
बांधकर पुनः ईन मंरों से जप पूवथक रोगी को ऄवषेचन करने से यक्ष्मा रोग िूर हो
जाता है।
वेिों में िविभन्न िेवताओं से पृर्क् -पृर्क् पिार्ों का ऄिधपित एवं ऄिधष्ठाता
कहा गया है। ईिाहरिार्थ ऄर्थववेि (5/24) में ऄर्वाथ ऊिष हमें बताते हैं कक जैसे
ऄिि वनस्पितयों के ‚ सोम लताओं के ‚ वायु ऄन्त्तररक्ष के तर्ा वरूि जा लों के
ऄिधपित हैं वैसे ही सूयथ िेवता नेरों के ऄिधपित हैं। वे मेरी नेरों की रक्षा करें ।
84 ऄर्वथ0 2/33/1-2
85 सा0पू0 3/05/2
86 साम0पू0 1/10/5
134
बुरे िवचारों एवं रोगों के िनवारिार्थः
हे सोम! अपके प्रभाव से सारे रोगों के ईत्पािक राक्षस अपसे िूर चले जाएं।
उाँ चक्षुः चक्षुः चक्षुः तेज िस्र्रो भव। मां पािह पािह। त्वररतं चक्षुरोगान्
रोग िूर हो जाते हैं। पाठ करने से होते हैं। अाँख की ज्योित िस्र्र रहती है। आसका
िनत्य प्रित पाठ करने से कु ल में कोइ ऄंधा नहीं होता है तर्ा पाठ के पश्चात् भगवान्
िचत्तशोधन मंर :
तार (उाँ), पाशं (अं) , परा (हीं) ईसके ऄन्त्त में स्वाहा लगाने से प ञ्च ऄक्षरों
87 सा0पू0 5/9/8
88 कृ ष्ि यजु0 चाक्षुषो0
89 मं. महो0च0त0 67
135
‘‘उाँ अं हीं स्वाहा’’ आस मंर का प्रितकिन पाठ करने में िचत्त की शुिद्ध होती है
आस मंर का प्रयोग करते हुए प्लीहा रोग से पीिड़त रोग के पेट पर पान रखें
तर्ा भगवान् हनुमान् का ध्यान करते हुए बेर की लकिड़यों से जलायी हुइ ऄिि में
मूलमंर का जप करते हुए 7 बार यिष्ट को तपाना चािहए। ऐसा करने से प्लीहा रोग
िवषनाशक मंर :
गरूड़ िेव को िवषनाशक िेव कहा जाता है आस मंर के द्वारा गरुड िेव से
136
पापनाशक :
आस मंर में िूवाथ से समस्त पापों के नाश के िलए प्रार्थना की गयी है।
सूयोपासना करने से कु ष्ठ रोग से ग्रिसत रोगी को कु ष्ठ रोग से मुिक्त िमल
जाती है।
.................................................
93 महा0ईप0, ऄनु0 1
94 वाराह पु0ऄ0 177/32-34
137
अकित्यहृियं पुण्यं सवथशरुिवनाशनम्।
होता है। यह िचन्त्ता और शोक को िमटाने तर्ा अयु को बढ़ाने का ईत्तम साधन है।
िचन्त्ता प्रशमनार्थ
शोक प्रशमनार्थ
अयुवृथिद्ध
सवथशरु िवनाशक
जयावहम्
शरुओं से मुिक्त
95 अ0हृ0 4
138
प्रािकताथ -सभी पुराने और गबभीर शारीररक िवकारों को समाप्त करते हैं , जैस-े
एच0अइ0वी0 और कार्णसनोमा।
सूयथ की लाल ककरिें ल्यूकोडमाथ और हृिय रोग में सहायक होती हैं।
सुरिक्षत हैं। जब यह ककरिें शरीर पर िवककरि करती हैं तो त्वचा में िवटािमन ‘डी’
का ईत्पािन होगा।
लालरं ग से सभी बीमारीयााँ ठीक होती हैं , पीले रं ग से पेट संबंिधत बीमारी,
96 वा0रा0यु0का0
139
िवष्िु सहस्रनाम :
िवष्िु सहस्रनाम स्रोत संस्कृ त का ऄत्यन्त्त शिक्तशाली स्रोत पाठ है। आसमें
भगवान् िवष्िु के 1000 नाम का ईल्लेख ककया गया है। भीष्म द्वारा युिधिष्ठर को
मृत्यु/शर शैय्या पर लेटे हुए िवष्िु के हजार नाम का विथन ककया है। यह
मोक्षप्रिायक है।97
िवष्िुसहस्रनाम जप से फलश्रुित :
मातृत्व लाभ
मुिक्त।
िबमारी - जो जप करता है ईसे कोइ बीमारी कभी पीिड़त नहीं करती है।
हो जाती है। िवषं व्यािध में ये मंर िवशेष रूप से लाभिायक होते हैं , ईिाहरि
97 मा0भा0ऄनु0पवथ 0
140
स्वरूप रैलौक्य मोहन नामक मंर से िवष व्यािध का िवनाश हो जाता है। यह मंर
हैं ‘‘आं क्षी ह्ये ह् रूं रैलोभयमोहनाय िवष्ण्वे नमः। ’’ आसके ऄितररक्त बारह व अठ
ऄक्षरों वाले िवष्िु के मंर सूयथ िवनायक व रूि के मंर अरोग्यवधथक व िवषापहारक
बताए गए हैं।
आसी प्रकार से िवष नाशक मंरों का प्रयोग ऄिि पुराि के 295, 296, 297,
िवष के ऄितररक्त ऄन्त्य व्यािधयों के िलए मन्त्र िचककत्सा भी ऄिि पुराि में
वर्णित है। जैसे ‘‘उाँ नमो भगवित वज्रशृङ्खले हन हन...... ह्रीमशेषेभयो रक्ष रक्ष ’’
नामक ऄपरािजता मंर का विथन है। आस मंर का िविनयोग ग्रहज्वराकि सभी कमों
िवपित्तनाश हेत:ु
141
भयनाशार्थ:
महामारी िवनाश:
अरोग्य प्रािप्त:
हरोग, पाण्डु रोग, गरठया तर्ा श्वस, कास आन सभी रोगों की शािन्त्त के िलए
नृन्सह बीज (क्षौं) सिहत आस मन्त्र से ऄिभमिन्त्रत ककया हुअ जल प्रातः काल िपए
क्षेरपाल मन्त्र
142
विाथन्त्त्यमौिबन्त्िय
ु ुक्तं क्षेरपालाय हन्त्मनुः।
ऄब क्षेरपाल का मन्त्रविथ
: का ऄन्त्त्य (क्ष) ईस और की मारा तर्ा ऄनुस्वार ईसके
चािहए। ‘क्षां क्षीं , क्षू,ाँ क्षः’ आनसे यर्ाक्रम ष ङ्गन्त्यास करना चािहए। आस मन्त्र के
ब्रह्मा ऊिष हैं। गायरी छन्त्ि है। क्षेरपाल िेवता हैं और ‘पालय’ यह शिक्त है।
हवन संख्या :िो लाख िस हजार (पय मधु तर् शक्ररायुक्त हव्य से)
पररहार क्षेर :भूतबाधा, ग्रहबाधा, धमथ, ऄर्थ, काम, अयु एवं अरोग्य प्रिांयक
143
रोगनाश और अयुवृथिद्ध के िलए :
होता है। महारुरपाठ के ईपरान्त्त ‘अराते गोहनं’ आत्याकि मंर से षोडशोपचार पूजन
चढ़ाने से बालक से लेकर वृद्धों तक पूरे पररवार का स्वास््य ठीक होता है।
आस मंर में आन्त्र िेव से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कक हे आन्त्र िेव! िजससे हम
डरें अप ईससे हमें िनडर बनाआए। हमें ऄभय िान िीिजए , हमारे रोग नाशक
शािन्त्त मंर -
मृत्योमाथऽमृतं गमय।
’’9 8
144
हषथचररतम् :
पुर प्रािप्त हेतु प्रातः ‚ मध्यान्त्ह और सायंकाल शुद्ध मन से जपनीय अकित्य हृिय
नामक मन्त्र का जप करते र्े।
मयूर भट्ट को कु ष्ठ रोग हो गया तो आससे मुिक्त पाने के िलए ईन्त्होंने भगवान
सूयथ की स्तुित में सौ श्लोंको की रचना की , िजससे प्रसन्न होकर भगवान् सूयथ प्रकट
तन्त्र मंर
महेश्वर तंर की ऄघोर मंर साधना से क्षुर व्यािध जैसे कु ष्ठरोग , तपेकिक,
कैं सर, एड्स पक्षाघात अकि से िनवृित्त होती है। ग्रहपीडा का शमन होता है।
145
प्रेतपीड़ा लुप्त हो जाती है तर्ा जीवन में ऄकस्मात् ईत्पन्न होने वाले ऄवरोध स्वतः
ही िवलुप्त हो जाते हैं तर्ा सवाथभीष्ट िसिद्ध का मागथ प्रशस्त होता है।
रोग- चोर ग्रह पीड़ा बाधा, ऄपर-मारजन्त्य, भूत, बाधाओं का िवनाश होता है।
तािन्त्रक मन्त्रोपचार1 0 0
सूयथ ॎ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूयाथय नमः, ॎ घृिि सूयाथय नमः २८०००
******
146