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चतुर्थ ऄध्याय

संस्कृ त वाङ्मय में वर्णित िचककत्सकीय मन्त्र

संस्कृ त सािहत्य की मूल प्रवृित :

किव और लेखक ऄपने चतुर्दिक् फै ली हुइ िस्र्ित से ऄवश्य प्रभािवत होता

है। यही कारि है कक ईसका सािहत्य तत्कालीन पररिस्र्ितयों को , िजस ककसी रूप

में िचिरत करता है , आसिलए यह कर्न प्रिसद्ध है कक- ‘सािहत्य समाज का िपथिा

है।’ समाज का रूप जैसा होगा वह ईसी प्रकार सािहत्य में प्रितिबिबबत रहता है।

समाज के िविभन्न रङ्ग ईसके ईत्र्ान एवं पतन , िवस्तार और संकोच के

यर्ार्थ ज्ञान का साधन सािहत्य ही हुअ करता है। आसी प्रकार सािहत्य को संस्कृ ित

का वाहन कहा जाता है। ककसी भी संस्कृ ित के प्रचार और प्रसार का मुख साधन

सािहत्य ही है। यकि ककसी िेश और जाित की संस्कृ ित पूिथरूप से भौितकवािी है तो

वहााँ का सािहत्य ही है। यकि ककसी िेश और जाित की संस्कृ ित पूिथरूप से

भौितवाकि है तो वहााँ का सािहत्य कभी भी अध्याित्मकता की मन्त्िाककनी का स्पशथ

नहीं कर सकता। आसके िवपरीत यकि संस्कृ ित के भीतर अध्याित्मकता की सुधा

लहररयों में प्रवािहत होती रहती है तो वहााँ का सािहत्य भी अध्याित्मकता से

ऄनुप्रािित तर्ा सशक्त रहता है। सामािजक भावना एवं सामािजक िवचारधारा की

यर्ार्थ ऄिभव्यिक्त करने के कारि सािहत्य यकि समाज का िपथि है तो सांस्कृ ित

अचार-िवचार का िेश और िविेश के कोने -कोने तक प्रचारक तर्ा प्रसारक होने के

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कारि, संस्कृ ित के संिश
े को जन-जन के हृिय तक पहुाँचाने के नाते, वह संस्कृ ित का

वाहन है।

ईपयुथक्त सांस्कृ ित झांकी का िशथन करना हो तो ईसके िलए संस्कृ त सािहत्य

की प्रधान ऄवलबबन है। आसिलए संस्कृ त सािहत्य जीवन की िवषम पररिस्र्ितयों में

भी अनन्त्ि के ऄन्त्वेषि में तत्पर किखलाइ पड़ता है। भारत के तत्त्विचन्त्तकों ने ब्रह्म

को सत् िचत् एवं अनन्त्िमय बतलाया है। अनन्त्ि भगवान् का स्वरूप कहा गया है।

ईपिनषिों ने ‘रसो वै सः ’ कहरक भगवान् को रसस्वरूप बतलाया है। आसीिलए

संस्कृ त काव्य की अत्म रस है।

हृिय में अनन्त्ि की मन्त्िाकीनी को प्रवािहत करना- ही काव्य का प्रधान

प्रयोजन है।

भारत का समाज प्रधानतया चार भागों में िवभक्त र्ा। 1. ब्रह्मचाथश्रम, 2.

गृहस्र्ाश्रम, 3. वानप्रस्र्ाश्रम और, 4. संन्त्यासाश्रम। आनमें गृहस्र्ाश्रम की प्रधानता

िनर्णववाि रूप से सवथश्रेष्ठ र्ी।

सािहत्य और संस्कृ ित :

संस्कृ त भारत ही नहीं ऄिपतु िवश्व की प्राचीनतम भाषा है। संस्कृ त सािहत्य

की परबपरा भी सवाथिधक प्राचीन है। यही कारि है कक संस्कृ त सािहत्य आस िेश की

संस्कृ ित का प्रधान वाहन रहा है। संस्कृ त के काव्य एवं नाटक भारतीय-संस्कृ त की

क्रीड़स्र्ली हैं। याि सत्य कहा जाय तो कह सकते हैं कक संस्कृ त सािहत्य सकल

िवधाएाँ संस्कृ ित की ऄनुपम मनोरम शैली की झााँकी प्रस्तुत करती है।

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अध्याित्मक भावना आस िेश की संस्कृ ित का प्राि है। त्याग की ईिात्त

सौन्त्ियथ संस्कृ त सािहत्य ऄपनी अभा-प्रभी िबखेरता हुअ सहृियों के हृिय को हठात्

ऄपनी ओर अकृ ष्ट करता है।

अकिकिव महर्णष वाल्मीकक, ऄद्भुत नैसर्णगक प्रितभा के धनी मुिनवर व्यास,

महाकिव एवं भवभूित गद्यकला के िनकष बाि और िण्डी ऄपनी किवताकला के

कारि िजतने िवख्यात है ईतने ही वे ऄपने काव्यों में भारतीय संस्कृ ित की मनोरम

झााँकी प्रस्तुत करने के कारि िवद्वानों के अिर के पार हैं।

भारतीय तत्वज्ञान का सािहत्य पर प्रभाव :

संस्कृ त सािहत्य के स्वरूप िनमाथि तर्ा िवकास के उपर भारतीय तत्व

िचन्त्तन का गहरा प्रभाव पड़ा है। आस िेश का िशथन सवथिा से अशावािी रहा है।

नैराश्य की कािलमा ईसे मिलन बनाने में कभी भी सक्षम न हुइ। संस्कृ त नाटक

प्रायः सुखान्त्त ही है। भारतीय तत्वज्ञान की यह ऄवधारिा रही है कक िनराशा के

भीतर से अश का , िवपित के गभथ से सबपित्त का और िुःख के ऄन्त्तराल सुख का

प्रस्फु टन ऄवश्यबभावी है। संसार का पयथवसान िुःख में नहीं है।

सािहत्य और धमथ :

भारतवषथ को ऊिषयों का िेश होने का गौरव प्राप्त है यह धमथ -प्राि िेश है।

धमथ भारतीय संस्कृ ित का जीवनिायक तत्व है। भारतीय धमथ की अधारिशला है

ऄिस्तकता। इश्वर के प्रित ऄिड़ग िवश्वास और अत्म समपथि की िृढ़ भावना

भारतीय धमथ की धमनी है।

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वाङ्मय में कर्ा -सािहत्य का महत्व :

िवस्मय और कौतुक मानव-हृिय को सवथिा से ही ऄपनी ओर अकृ ष्ट करते

अये हैं। िवधाता का िवधान ही ऐसा है कक हमारा भारतिेश िविभन्नताओं ,

िविवधताओं एवं अश्चयों का अकार है। भारत के ईत्तर में स्वगथस्पधी ईतुङ्ग

िहमिगरर की रजताभ श्रृंखलाओं को िेखकर ककस सहृिय का हृिय श्रद्धा तर्ा

िवस्मय के वशीभूत नहीं हो जाता?

मानव मन एवं मिस्तष्क को अवर्णजत करने वाली कौतुकपूिथ प्रकृ ित की

चररतार्थता के िनिमत भारतीय सािहत्य में एक नवीन काव्य-परबपरा प्रचिलत हुइ

िजसे काव्य के नाम से जाना जाता है।

ब्राह्मिों जैिनयों एवं बौद्धों ने ऄपने-ऄपने मतों , िसद्धान्त्तों के प्रचार के िलए

कर्ा सािहत्य का न्त्याय पयथन्त्त ईपबृंहता ककया है।

संस्कृ त सािहत्य का महत्व :

‘सािहत्य’ यह पि शब्ि एवं ऄर्थ के मनोरम सामंजस्य का ऄिभव्यंजक है।

‘सािहत्य’ पि की व्युत्पित्त है- ‘सािहतयोः भावः सािहत्यम् ’ ऄर्ाथत् सहचररत शब्ि

और ऄर्थ का भाव ही सािहत्य है। आसी ऄर्थ सािहत्य शब्ि का प्रयोग काव्य एवं

ऄलंकार ग्रन्त्र्ों में बहुधा िेखा जाता है।

शास्त्र और सािहत्य में भेि यह है कक शास्त्र में शब्िों का प्रयोग के वल ऄर्थ

प्रतीित के िलए ही होता है और सािहत्य में , काव्य में शब्ि और ऄर्थ िोनों ही समान

स्तर के होते हैं।

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सािहत्य के आसी वैिशष्टय को ध्यान में रखते हुए राजशेखर ने आसे पंचमी

िवधा कहा है। यह पंचमी िवधा मुख्य चार िवधाओं- पुराि, न्त्यास (िशथन), मीमांसा

और धमथशास्त्र का सारभूत है।

संस्कृ त सािहत्य की प्राचीनता :

संस्कृ त सािहत्य की महत्ता कितपय कारिों से प्रिर्णशत की जा सकती है।

सवथप्रर्म आसकी प्राचीनता को ही ले िलिजए। िवश्व में ही कहीं भी आतना प्राचीन

सािहत्य ईपलब्ध नहीं होता। पाश्चात् जगत् के िवद्वान् िमश्र िेश के सािहत्य को

सवाथिधक प्राचीन मानते हैं। ककन्त्तु वह भी ककतना प्राचीन है ? िवक्रम से कु ल चार

हजार वषथ पूवथ हमारे यहााँ ऊग्वेि सबसे पुराना माना जाता है।

आसके काल के िवषय में ऄनेक मत प्रचिलत है। आनमें सवाथिधक िवश्वसनीय

बालगङ्गाधर ितलक का मत है।

श्री ितलक का ही यह मत अजकल प्रामाििक माना जाता है। आस प्रकार

संस्कृ त सािहत्य के सवथप्रर्म ग्रन्त्र् ऊग्वेि का प्रियन अज से अठ सहस्र वषथ पूवथ

ऄवश्य ही हो चुका र्ा। िवश्व का कोइ भी सािहत्य आतना प्राचीन नहीं है।

वैकिक एवं लौककक सािहत्य का पार्थक्य :

ऊग्वेि से लेकर ईपिनषि् सािहत्य तक वैकिक सािहत्य कहा जाता है।

ईपिनषिों के बाि वाल्मीकक रामायि से प्रारबभ कर अज तक सािहत्य लौककक

सािहत्य के नाम से िवख्यात् है। वैकिक सािहत्य लौककक संस्कृ त में रचा गया

सािहत्य नैितक सािहत्य की तुलना में भाषा , भाव एवं शैली अकि की िृिष्ट से

िनतान्त्त िभन्न है।

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संस्कृ त वाङ्मय के स्वरूप का वगीकरि

संस्कृ त वाङ्मय में िचककत्सकीय मंरः

मंर िचककत्सा का तात्पयथ हैए मंर द्वारा ककसी रोग का ईपचार। मंर

ऊिषयोंए िसद्धों ऄर्वा अप्त पुरूषों द्वारा िेखे या प्राप्त ककए गये सुपरीिक्षत ऐसे

ऄक्षरोंए शब्िों ककवा क्रमबद्ध शब्ि समूहों ऄर्वा वाक्यों या ऐसी किव्य प्रार्थनाओं

को कहते हैं िजनके िचन्त्तनए मननए साधनए जप.पाठ या ऄिभमंरि अकि प्रयोगों

द्वारा साधक सभी प्रकार के ऄभीष्ट िसद्ध कर सकता है। यह िचककत्सा वैकिक

अयुर्णवज्ञान की एक ऐसी ईपचार िविध है िजससे िविवध रोगों िवशेष कर कष्ट

साध्य व अगन्त्तुक रोगों की सफलता पूवथक िचककत्सा की जा सकती है। चरक ने भी

कइ रोगों िवशेष कर अगन्त्तुक ईन्त्माि एवं ऄपस्मार की िचककत्सा में मंर को सवथ

प्रमुख माना है। संस्कृ त वाङ्मय में ऄनेक स्र्ल मंर िचककत्सा के ईल्लेखों से भरे पड़े

100
हैं। आस ऄध्याय में संस्कृ त वाङ्मय में वर्णित मंरों का विथन ककया गया हैए जो

िनम्नवत है-

सवथरोग नाशक मंर :

‘उाँ’ (प्रिव) प्रिव एक ऐसी ध्विन है जो सृिष्ट के ईत्पित्त से पहले और प्रलय

के बाि भी िवद्यमान रहेगा। यह ध्विन नािरूप है और प्रेरक प्रकाशक है।

प्रिव के पााँच भाग हैं , वे हैं- ऄकार , ईकार, मकार, िबन्त्ि ु और नाि! उाँ

पंचाक्षरी मंरों में से एक है। ‘उाँ’ परम मंर है, जो भगवान िशव का नािरूप है। ‘उाँ’

मन्त्र बहुत सारे मंरों का भाग है जैसे- नमः िशवाय (पंचाक्षरी) , नमो नारायिाय

(ऄष्टाक्षरी), गायरी मंर आत्याकि और यह सभी प्रजामंरों का भाग है। यौिगक

कक्रयाओं में योिगयों द्वारा िन राकार इश्वर के रूप में ध्यान ककया है। ‘उाँ’ अयों का

सबसे पिवर मंर है।

प्रयोग :

प्रितकिन ओम (उाँ) का जप करने से सभी िबमाररयााँ समाप्त हो जाती हैं और

स्वास््य भी ऄच्छा रहता है।

प्रिव का जप तीन प्लुप मंरों के सार् ककया जाए तो आससे पूवथ जन्त्मकृ त

पापों तर्ा बुराआयों का नाश होता है।

एक ऄध्ययन से ज्ञात होता है कक ओम मंर जप क्रिमक रूप से पेट , रीढ़ की

हड्डी, गले, नाक और मिस्तष्क क्षेरों को सकक्रय करता है। उजाथ पेट से मिस्तष्क तक

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जाती है, िजससे उजाथ का प्रवाह होता है और रीढ़ की हड्डी और मिस्तष्क को सकक्रय

करता है।

कल्यािकारक मंर :

ऄगिित स्तुितयों के योग्य और सवथज्ञ पूषा िेव हमारा कल्याि करें । िजने

रर् के पिहयों को कोइ हािन नहीं पहुाँचा सकता, ऐसे गरूड़ एवं बृहस्पितिेव हमारा

कल्याि करें ।

स्विस्त न आन्त्रो वृद्धश्र


वा स्वित न पूषा िवश्ववेिाः।

स्विस्त नस्ताक्ष्र्यो ऄररष्टने


िम स्विस्त नो वृहस्पितिथधातु।1।

अयु प्रािप्त मंर :

समस्त िेवों से प्रार्थना करते हैं कक हे िेवों! हम अजीवन ऄपने कानों से

कल्यािकारक वचन सुनें। हम सिैव अाँखों से शोभन िेखें सुिढ़ृ ऄङ्गों वाले शरीर से

अपकी स्तुित करते हुए प्रजापित द्वारा स्र्ािपत अयु को प्राप्त करें ।

भरं किेिभः शृिुयाम िेवा भरं पश्येमाक्षिभयथजराः।

िस्र्रै रङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूिभव्यशेम िेविहतं यिायुः2।

िीघाथयु प्रािप्त मंर :

आस मंर में जल िेवता से प्रार्थना की गयी है कक हे जल! अप सभी रोगों को

नष्ट करने वाली औषिधय गुिों से युक्त हैं। अप हमारे शरीर में ईत्पन्न ऄपने

1 ऊ0 1/89/06
2 ऊ0 89/08

102
औषधीय जलों से समस्त रोगों को नष्ट कीिजए , िजससे मैं बहुत समय तक स्वस्र्

रहकर सूयथ के िशथन कर सकूं ।

अपः पृिीत भेषजं वरुर्ं तन्त्3मम


वे ज्योक् च सूयं िृश3े।।

मानिसक शिक्त :

मानिसक कष्ट की शािन्त्त हेतु साधक धरती और अकाश से स्तुित करता है

कक अप हमारे आस कष्ट को नष्ट करें । अप ही आस कष्ट को नष्ट करने में समर्थ हैं।

ऄहं सो ऄिस्म यः पुरा सुते विािम कािन िचत्।

तं मा व्यन्त्त्याध्यो वृको न तृजं


ष्िमृगं िवत्तं में ऄस्य रोिसी।।
4

यक्ष्मा या राजयक्ष्मा :

ऊग्वेि के 10वें मण्डल के िो सूक्त 1 में यक्ष्मा जैसे रोगों से मुिक्त किलाने

वाले मन्त्र हैं। आन मंरों से ऄिभमिन्त्रत जल को रोगी के उपर मन्त्रोचार पूवथक

िछड़कने से एवं जप से रोगी शीघ्र रोग मुक्त हो जाता है। 163वें सूक्त में यक्ष्मा के

नाशन के ईपाय तर्ा शरीर के नाना ऄवयवों का वैज्ञािनक िववरि िमलता है।5

सवाथङ्ग रोग नाशक मंर :

आस सूक्त में मनुष्य के िसर से लेकर पैर तक होने वाले ककसी भी प्रकार के

रोग का िवनाशक कहा गया है। आन मंरों में रोग िनवारक शिक्त िवद्यमान है।

3 ऊ0 1/23/21
4 ऊ0 1/105/7
5 ऊ0 10.161 तर्ा 163 के समस्त मंर

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ऄभीभयां ते नािसकाभयां विथभयां छु बुकाििध।

यस्मं शीषथण्यं मिस्तकाििह्वाया िव वृहािमते।

ऄङ्गािङ्गाल्लोम्नोलोम्नो जातं पवथििपवाथिि।

यक्ष्मं सवथस्मािात्मनस्तिमिं िव वृहािम ते6।।

कु ष्ठ रोग :

आस मंर से ऄिभमंिरत औषिध का लेप करने से कु ष्ठ रोग से पीिड़त व्यिक्त

रोग मुक्त हो जाता है।

युवं नरा स्तुवते कृ िष्ियाय िवष्िात्वं ििर्ुर्णवश्वकाय।

घोषायै िचित्पतृपिे िुरोिे पित जूयथन्त्त्या ऄिश्वनाित्तम्


7 ।।

िवषहर :

ऊग्वेि के प्रर्म मण्डल में मधु िवद्या के नाम से प्रिसद्ध सूक्त के मन्त्रों का

प्रयोग सपथ या ककसी कीड़े के द्वारा काटने पर शरीर में व्याप्त िवष को ईतारने के

िलए ककया जाता है। आस मंरों से ऄिभमंिरत जल को मन्त्रोच्चारपूवथक रोगी के उपर

िछड़कने से शरीर से व्याप्त िवष ईतर जाता है। आस पद्धित का प्रयोग वतथमान में

यर-तर िेखने को िमलता है।

6 ऊ0 10/163/1-6
7 ऊ0 1/117/7

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जीवनरक्षि मंर :

आन मंरों का ईच्चारि करते हुए ऄिि में अहुित िेते हुए ककसी रोगी व्यिक्त के

स्वास््य की कामना की जाए तो रोगी व्यिक्त शीघ्र ही स्वास््य लाभ को प्राप्त कर

लेगा तर्ा वह िीघथजीवी होता है। 8

वन्त्ध्या रोग िनवारिार्थ :

आस मंर के जप द्वारा बन्त्ध्या स्त्री के भी पुर प्रािप्त की बात कही गइ है।9

स्मरिशिक्तवृिद्ध :

िजसकी वाक् स्मरि शिक्त क्षीि हो गयी हो , वह ऊग्वेि के आन मंरों का िो

मास तक जप करने का िवधान है। आन मंरों के जप से स्मरिशिक्त तीक्ष्ि होती है।10

यक्ष्मा िनवारिार्थ :

राजयक्ष्मा के िनवारि के िलए ऊग्वेि में आस मंर का विथन प्राप्त होता है।

यर्ा युगं वररया नह्यिन्त्त धरूिायकम्।

एवा िाधार ते मनो जीवातवे न मृत्यवेऽर्ो ऄररष्टातातये


1 1 ।।

िजस तरह रर् जोतने के िलए सारिर् जुए को चमड़े के पट्टे से बांध िेता है ,

ईसी तरह मैंने तुबहारे प्रािों को बांध किया है ताकक तुम जीिवत रहो , तुबहारे शरीर

का ऄवसान न हो और तुम सिा स्वस्र् एवं सुिढ़ृ रहो।

8 ऊ0 10.50, 60/7-12
9 ऊ0 1/23/3
10 ऊ0 22/3/1-2, 3/3/15-16
11 ऊ 10/60/1

105
‘‘न्त्यश्ग्वातोऽव वाित न्त्यक्तपित सूयथः।

नीचीनमध्नया िुहे न्त्यग्भवतु ते रपः।।


’’1 2

ऄर्ाथत् िजस तरह से वायु द्युलोक से नीचे की ओर बहती है , सूयथ ऄपनी

ककरिें नीचे की ओर िवकीिथ करता है, ईसी तरह यह व्यािध नीचे िगरती जाए।

अयुष्यसूक्त :

यो ब्रह्मा ब्रह्मि ईिहार प्रािेः िशरः कृ ित्तवासाः िपनाकी।

इशानो िेवः स न अयुिध


थ ातु तस्मै जुहोिम हिवषा धृ1त3 ेन।।

सवथरोगनाशक मंर:

प्रत्येक अिस्तक िहन्त्ि ू संध्यावन्त्िन में िजस मन्त्र का जप करते हैं वह प्रिसद्ध

सािवरी या गायरी छन्त्ि हीन है। जो सिवता या सिवतृ िेव की स्तुित में रिचत है।

यह हमारी बुिद्ध को प्रेररत करते हैं।

उाँ भूभुथवः स्वः तत्सिवतुवथरेण्यं भगो िेवस्य धीमिह।

िधयो यो नः प्रचोियात्1।।4

यह मन्त्र अराध्य िेव सिवता के नाम ‘सिवरी’ ककन्त्तु छन्त्ि रूप में ‘गायरी’

कहा जाता है। वेिों में सूयथ को स्र्ावर जंगम सभी जगत की अत्मा कहा गया है।

12 ऊ0 10/61/11
13 ऊ0 10/81/1
14 ऊ0 3/62/10

106
‘‘सूयथ अत्मा जगतस्यस्र्ुषश्व
’’ 15

पीिलया रोग नाशक मंर :

सूयथ का प्रकाश पीिलया रोग तर्ा हृिय के रोगों में िवशेष लाभप्रि माना

जाता है। प्रस्कण्व ऊिष ने सूयथ िेवता से प्रार्थना की है-

ऄद्यरद्य िममह अरोहन्नुत्तरां किवम्।

हृिरोगं मम सूयथ हररमािं च नाशय।


16

यहााँ नेर प्रािियों के नेरों तक ही सीिमत नहीं हैं , क्योंकक वेि तो भगवान्

सूयथ को िमर वरूि तर्ा ऄिििेव के भी नेर बताते हैं।

िचरं िेवानामुिगािनीकं चक्षु


र्णमरस्य वरूिस्यािे।1 7

सूयथिव
े ता िूसरों को ही िृिष्ट-िान नहीं करते हैं। स्वयं िूर रहते हुए भी प्रत्येक

पिार्थ पर पूरी िृिष्ट डालते हैं। ऊिजश्वा ऊिष के िवचार आस िवषय में आस

प्रकार हैं-

वेि यस्त्रीिि िवियान्त्येषां िेवानां जन्त्म सनुतरा च िवप्रः।

ऊजु मतेषु िृिजना च पश्यन्निभ चष्टे सूरो ऄयथ एवान्


1 8 ।।

15 यजु56
16 ऊ0वे0 1/50/11
17 ऊ0वे0 1/115/1
18 ऊ0 6/51/02

107
कल्याि कारक मंरः

िमर िेव , वरूि, ऄयथमा िेव हमारे िलए कल्यािकारी हों , आन्त्रिेव व

बृहस्पितिेव व जगत्पित िवष्िु हमारे िलए कल्यािकारी हों।

शंनो िमर शं नो वरुिः शं नो भवत्व


यथमा।

शं नऽआन्त्रो बृहस्पितः शं नो िवष्िुरूरूक्रमः।।


19

हे जलिेव! हम क्षय रोग से मुिक्त हेतु अप तक गमन ककये हैं। ऄतः अप

समस्त जनों का कल्याि करने की कृ पा कीिजए।

तस्माऽऄरं गमाम वो यस्य क्षयाय िजन्त्,वअपो


र् जनयर्ा च नः।।2 0

शािन्त्त मंरः

द्यौः शािन्त्तरन्त्तररक्षः शािन्त्तः पृिर्वी शािन्त्तरापः शिक्तरोधयः शािन्त्तः।

वनस्पत्यः शािन्त्तर्णवश्वेिव
े ाः शािन्त्तब्ररह्म शािन्त्तः सवं शािन्त्
, शािन्त्
तः िव
े शािन्त्तः सा

वा शािन्त्तरे िधः।2 1

िीघाथयुष्य प्रािप्तः

सूयथ िेव जगत के नेर हैं। वे िहतकारक हैं , वे जगत में सवथर िवचरते हैं। हम

सौ वषों तक ईनकी कृ पा से िेखें , सौ वषों तक श्रवि करें । हम सौ वषों तक बोलें ,

हम सौ वषों तक िीनता रिहत जीवनयापन करें और हम सौ वषों से ऄिधक समय

19 यजु0 36/09
20 यजु0 36/6
21 यजु0 36/17

108
अपकी कृ पा से सुखी रहें।

तच्चक्षुिव
े िहतं पुरस्ताच्छु क्रमुच्चरत।

पश्येम शरिः शतं जीवेम शरिः शतं शृिुयामः शरिः शतं प्र ब्रवाम

शरिः शतमिीनाः स्याम शरिः शतं भूयश्च शरिः शतात्


2 2 ।।

कु वेन्नेवेह कमाथिि िजजीिवषेच्छत समाः।

एवं त्विय नान्त्यर्ेतोिस्त न कमथ िलप्यते नरः।।


23

यह शरीर वायु , ऄमृत अकि से बना हुअ है। यह शरीर नाशवान है। ऄतः हे

यजमान! अप ओम् (उाँ) तर्ा ऄपनी क्षमता और ककये गये कमो को स्मरि कीिजए।

वायुरिनलममृतमर्ेिं भस्मान्त्तं शरीरम्।

ओ3म् क्रतो स्मर िक्लबे स्मर।

कृ तं स्मर।।2 4

सवथव्यािध िवनाशकः

हे रुर िेव! अप तीन िृिष्टयों वाले हैं। हम अप की ईपासना करते हैं। अप

जीवन में सुगंध फै लाने व पौिष्टकता बढ़ाने वाले है। हमे संरक्षि प्रिान करते हैं। अप

रोग िनवारक ओषिध का भांित िनवारक हैं। हमें अप सांसाररक बंधनों से मुक्त कर

ऄमरता प्रिान कीिजए।

22 यजु0 36/24
23 यजु0 40/02
24 यजु0 40/15

109
त्र्यबबकं यजामहे सुगन्न्त्ध पुिष्टवधथन, म्

ईवाथरूकिमव बन्त्धानात्मृत्योमुथक्षीय मामृतात्


2 5।।

मृत्युञ्जयमंर

एकाक्षरी मृत्युञ्जयमंर : ‘उाँ’

त्र्यक्षरी मृत्युञ्जय मंर : उाँ जूं सः

यह मंर रोग, ऄशांित, मृत्यु, िुघथटना तर्ा वायव्य िोषों को शान्त्त करता है।

चतुक्षरी मृत्युञ्जयमंर : उाँ हौं जूं सः

आसका जप करने से ज्वर अकि के कारि शरीर में बढ़े हुए ताप की शीघ्र

शांित होती है।

िशाक्षरी मृत्युञ्जय मंर : उाँ जूं सः मां पालय पालय

यह मंर सभी प्रकार के रोगों से रक्षा करता है।

पञ्चाक्षरी मृत्युञ्जय : उाँ जूं सः मां पालय पालय सः जूं उाँ जूं सः

आस मंर के जप से सभी प्रकार के मानिसक , शारीररक और भौितक कष्ट िूर

हो जाते हैं।

त्र्यबबक वैकिक मंर :

त्र्यबबकं यजामहे सुगन्न्त्ध पुष्टवधथनम्।

ईवाथरूकिमव बन्त्धान्त्मृत्योमुथक्षीय माऽमृतात्।।

25 यजु0 3/60

110
ऄकालमृत्यु, ऄल्पायु, शरुभय, रोगभय, िुघथटना, अक्रमि अकि संकटों के

िनवारि हेतु आस मंर का जप परम कल्यािकारी िसद्ध होता है। जप के पूवथ

प्रितकिन िशव प्रितमा की पूजा करना अवश्यक है।

त्र्यबबक मंरों का स्वरूप :

ब्रह्मा जी द्वारा शास्त्रोक्त िवधान के ऄनुसार त्र्यबबक मंर तीन प्रकार का

होता है- मृत्युञ्जय, मृतसंजीवनी और महामृत्युञ्जय।

मृत्युञ्जय मंर : उाँ भूः उाँ भुवः उाँ स्वः उाँ त्र्यबबकं यजामहे सुगिन्त्ध पुिष्टवधथनम्।

उवाथरूकिमव बंधनान्त्मृत्योमुथक्षीय महाऽमृतात्। उाँ स्वभुथवः भूं उाँ सः जूं हौं उाँ।

मृतसंजीवनी मंर :

उाँ हौं जूं सः उाँ भूभुथवः उाँ त्र्यबबकं यजामहे सुगिन्त्धत पुिष्टवधथनम्।

ईवाथरूकिमव बन्त्धान्त्मृत्योमुथक्षीय माऽमृतात्। उाँ स्वः उाँ भुवः भूः उाँ जूं = उाँ।।

महामृत्युञ्जय मंर :

िेव और िानवों में संग्राम होने पर शुक्राचायथ ने आस मंर को भगवान शंकर

से प्राप्त कर मरे हुए िैत्यों को िजलाया र्ा। यह मंर जीवनिायक समाप्त कष्ट

िनवारक, पाप िनवारक है। उाँ हौं उाँ सः उाँ भूः उाँ भुवः उाँ स्वः उाँ त्र्यबबकं यजामहे

सुगिन्त्ध पुिष्टवधथनम्। ईवाथरूकिमव बन्त्धान्त्मृत्योभुथक्षीय माऽमृतात्। उाँ स्वः उाँ भु0 उाँ

सः उाँ हौं उाँ।।26

26 म0पुष्पा0 पे0 320-22

111
पञ्चाक्षरी मंर :

‘उाँ नमः िशवाय ’ यह ऄत्यन्त्त महत्वपूिथ एवं शिक्तशाली मंर है। आसमें पंच

ऄक्षर समािहत हैं- ‘न-मः-िश-वा-य।’ यह यजुवेि के शतरूरीय या रूर शक्तम्

ऄध्याय में वर्णित है। ये पााँच ऄक्षर पंच तत्वों का प्रितिनिधत्व करते हैं - पृ्वी , जल,

तेज, वायु, अकाश।

प्रयोग :

आस मंर से शािन्त्त और ज्ञान होता है, िजससे अत्म साक्षात्कार होता है।

 यह िोनों शारीररक और मनोवैज्ञािनक शिक्त प्रिान करता है और स्वास््य

को बढ़ावा िेता है।

 आस मंर के जप से मृत्युभय समाप्त हो जाता है और ििथ रिहत मृत्यु की प्रािप्त

होती है।

यक्ष्मा रोग नाशार्थ :

आस मंर में ऄिि िेव से प्रार्थना की गयी है कक अप सवथिवि् हैं। सब कल्याि

करने वाले हैं, हमारे शरीर में व्याप्त यक्ष्मा रोग के नाश के िलए हम अप का स्मरि

करते हैं।

िमरः सं सृज्य पृिर्वीं भून्म च ज्योितषा, सह

सुजातं जातवेिसमयक्ष्माय त्वा स 28 सृजािम प्रजाभयः।


27

27 यजु0 11/53

112
ऄित िवश्वाः पररष्ठा स्तेनऽआव व्रजमक्रमुः।

ओषधीः प्राचुच्यवुयथन्त्क च तन्त्वो रपः।।


28

आसमें औषिध से प्रार्थना की गयी है। ओषिधयों पुष्पवती होती हैं आनमें

बीमाररयों को नष्ट करने की समस्त गुि िछपे होते हैं। ये शरीर के समस्त रोगों और

िवकारों को नष्ट करती हैं।

साकं यक्ष्म प्र पत चाषेि ककककिीिवना।

साकं वातस्य ध्राज्या साकं नश्य िनहाकया।।


29

औषिध शरीर के ऄंग-प्रत्यंग में फै लकर यक्ष्मा अकि भयंकर रोगों को नष्ट कर

िेती है। औषिध लेने के सार् ही यक्ष्मा रोग िूर हो जाता है। प्रािवायु की तरह

ओषिध के शरीर में ही समस्त व्याप्त होने के सार् रोग भी नष्ट हो जाते हैं।

सवाथङ्गरोग नाशकः

हे ऄिि िेव! अप हमारी अयु की रक्षा कीिजए , अप हमारे प्राि की रक्षा

कीिजए, ऄपान वायु की रक्षा कीिजए, व्यान की रक्षा कीिजए। अप हमारे नेरों की

रक्षा कीिजए , अप हमारे किथ की रक्षा कीिजए , अप वािी को मधुर बनाआए ,

हमारे मन को जीताआये, अत्मा का योग्य कीिजये, ज्योित प्रिान कीिजए।

अयुमेपािह प्रािं मे पाह्यपानं मे पािह व्यानं मे पािह चक्षुमे पािह श्रोरं मे

पािह वाचं मे िवन्त्व मनो मे िजन्त्वात्मानं मे पािह ज्योितमे 3मच्छ।।


0

28 यजु0 12/84
29 यजु0 12/87
30 यजु0 14/17

113
िशवेन वचसा त्वा िगररशच्छाविामिस।

यर्ा नः सवथिमिगियक्ष्म सुमना ऄसत्


3 1।।

आसमें मंर से रुर िेव से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कक हे रुर िेव ! हम

अप के प्रित कल्यािकारी वचन बोलते हैं। अप आस समस्त जगत् को यक्ष्मा रोग से

िूर रखने की कृ पा कीिजए तर्ा हम अप की कृ पा से स्वस्र् और ऄच्छे मन वाले हो

जाएं। रुर िेव को प्रर्म िेव किव्य िभषक् माना जाता है। यह समस्त पापों के भी

नाशक हैं।

मेधावृिद्ध मंरः

आस मंर में सिवता िेव की प्रार्थना की गयी है। सिवतृ िेव वरे ण्य ,

सौभाग्यशाली और िेवों को धारि करते हैं। वे बुिद्ध को श्रेष्ठ मागथ पर चलने हेतु

ईन्त्मुख करते हैं। हे सिवतृ िेव हमारे मिस्तष्क में व्याप्त समस्त िवकारों को समाप्त

को बुिद्ध को सन्त्मागथ पर चलने के िलए प्रेररत करने की कृ पा करें ।

तत्सिवतुवथरेण्यं भगोिेवस्य धीमिह। िधयो यो नः प्रचोियात्


3 2 ।।

ऄिि िेव सभी िेवों में श्रेष्ठ िेव हैं। ये समस्त िेवों को हिव प्रिान करते हैं।

ऄिि िेव समस्त गृहवािसयों के घर में िनवास करते हैं। ऄिि िेव से प्रार्थना करते

हुए कहते हैं कक हे ऄिि िेव! िजस श्रेष्ठ बुिद्ध को िेवतागि और िपतृगि ईपासना

करते हैं, ईस बुिद्ध से अप हमें बुिद्धमान बनाने की कृ पा कीिजए।

31 यजु0 16/4
32 यजु0 22/09

114
या मेधा िेवगिाः िपतरश्चोपासते।

तर्ा मामद्य मेधयािे मेधािवनं कु रू स्वाहा।।


33

वरुििेव, ऄिि एवं प्रजापित हमें बुिद्ध प्रिान करें । आन्त्रिेव बुिद्ध धारि करते

है।, वे हमें बुिद्ध प्रिान करने की कृ पा करें ।

मेधां मे वरूिो ििातु मेधमिि प्रजापितः।

मेधािमन्त्रश्च वायुश्च मेधां धाता ििातु मे स्वाहा।।


34

मानिसक शािन्त्तः

आन्त्रवायु सुसन्त्िश
ृ ा सुहवेह हवामहे।

यर्ा नः सवथऽआिनोनमीव सङ्गमे सुमनाऽसत्


3 5।।

आस मंर में आन्त्र और वायु िेव से प्रार्थना की गयी है कक हे आन्त्रिेव! हे वायु!

हम स्वच्छ मन से एवं पूिथ श्रद्धा के सार् अप का अह्वान करते हैं , िजससे हमारे

सभी अत्मीय जन रोग रिहत व श्रेष्ठ मन वाले हो जाएं।

‘‘यिाग्रतो िूरमुििै त िैवं तिु सुपतस्य तपैवैित।

िूरङ्गमं ज्योितषां ज्योितरे कं तन्त्मे मनः िशवसंकल्पमस्तु


36 ।

आस सबपूिथ सूक्त में मानिसक शािन्त्त हेतु प्रार्थना की गयी है।

33 यजु0 32/14
34 यजु0 32/15
35 यजु0 33/66
36 यजु0 34/1

115
पापनाशक एवं अयुवधथकः

ऄिश्वनी कु मार नागरिहत (ऄिवनाशी) हैं। अप समस्त बाधाओं से रक्षा

कीिजए, हमारे पापों का नाश कीिजए तर्ा हमारी अयु को बढ़ाआए।

अ नासत्या िरिभरे कािशैररह िैविभयाथतः मधुपेयमिश्वना।

प्रायुस्ताररष्टं नी रपा िस मृक्षत सेधतं द्वेषां भवत सचाभु3 7वा।।

हे बृहस्पित िेव! अप हमारे चक्षुओं के िोषों को िूर करने की कृ पा कीिजए।

अप हमारे हृिय और मन के िवकारों को िूर कीिजए तर्ा हमारे िलए सिैव

कल्यािकारी होने की कृ पा कीिजए।

यन्त्मे िछरं चक्षुिे हृिस्य मनसो वािततृष्िं बृहस्पितमे तद्दधातु।

शं नो भवतु भुवनस्य यस्पित।


38

पाप नाश हेतु िेवों की स्तुित :

समस्त रोगों का ईन्त्मूलन पाप कमों के कारि होता है। ऄतः ईन पाप कमों

से मुिक्त के िलए बारह अकित्यगुि , एकािश रुरगि, अठ वसुगि , किव्यलोक के

वतथमान िेव , ऊिष ऄर्वाथ, ऄंिगरा और मनीिषगि हमसे स्तुत होकर हमें पापों से

मुक्त करें ।

अकित्य रुरा वसवो कििव िेवा ऄर्वाथिः।

ऄिङ्गरसो मनीिषिस्ते नोञ्चन्त्


मु त्वंहसः।।

37 यजु0 3/47
38 यजु0 36/2

116
अयुवधथक मन्त्र :

रोगों से बचाव एवं ईनके ईपचार से भी अयुवृिद्ध होती है कफर भी वेिों में

ऐसे मन्त्र िवद्यमान हैं, िजनमें िीघाथयु का विथन प्राप्त होता है। यर्ा-

तच्चक्षुिव
े िहतं पुरस्ताच्छु क्रमुच्चरत।

पश्येम शरिः शतं जीवेम शरिः शतम्।।

िेवताओं द्वारा स्र्ािपत तेजस्वी सूयथ िेव पूवथ किशा में ईकित हो रहे हैं। ईनके

ऄनुग्रह से हम सौ वषों तक िेखें और जीिवत रहें।

हे िहतकारी तेजवाले सूय!थ अप अज ईकित तर्ा उाँचे अकाश में जाते समय

मेरे हृिय के रोग तर्ा पाण्डु रोग को नष्ट ककिजयों। आस मन्त्र के ‘ईद्यन’ तर्ा

‘अरोहान’ शब्िों से सूिचत होता है कक िोपहर से पू वथ सूयथ का प्रकाश ईक्त रोगों का

िवशेषतः नाश करता है।

सूयथश्चक्षुषामिधपितः स भावतु3।9।

चक्षुिनवारि मंर :

ऄर्वथवेि में सूयथ को चक्षुओं का पित बताया गया है और ईनसे ऄपनी रक्षा

की कामना की गयी है-

सूयथश्चक्षुषामिधपितः स मावतु40।

39 ऄर्वथवेि 5/24/9
40 ऄर्वथ0 5/24/9

117
ऄपिचतः प्राय पतत सूपिो वसतेररव।

सूयथः कृ िोतु चन्त्रमा वोऽपेच्छतु4।1।

अकित्य हृिय स्रोत यह


: िनत्य ऄक्षय और परम कल्यािमय स्रोत है।

अकित्यहृियं पुण्यं सवथशरुिवनाशनम्।

जयावहं जप िनत्यभक्षयं परमं िशवम्।।

यह स्रोत सबपूिथ मङ्गलों का भी मङ्गल है। आससे समस्त पापों का नाश

होता है। यह िचन्त्ता और शोक को िमटाने तर्ा अयु को बढ़ाने का ईत्तम साधन है।

ऄन्त्तिाथवे जुहुता स्वे


3ति् यातुधानक्षयिंघृतेन।

अराि् रक्षांिस प्रित िह त्वमिे न नो गृहािामुप तीतपािस।।


42

हे ऊित्वजो! यातुधानों (स्वास््य के िलए हािनकारक रोगािु) को नष्ट करने

हेतु प्रज्विलत ऄिि में घृतसिहत हिव की अहुितयााँ प्रिान करो। हे ऄिििेव ! अप

आस ईपरवी राक्षसों (रोगािु अकि) को भस्म करके हमारे गृहों को संतप्त होने से

बचाएाँ।

रुरो वो ग्रीवा ऄशरै त् िपशाचाः पृष्टीवोऽिप


श्रृिात् यातुधानाः।

वीरूि् वो िवश्रृतोवीयाथ यमेन समजीगमत्।

हे िपशाचो! रुरिेव ने तुबहारी गिथनें तोड़ िीं , वे तुबहारी पसिलयााँ भी तोड़

डालें। हे यातुधानो! ऄनन्त्त वीयथमयी ओषिध ने तुबहें यमलोक पहुाँचा किया।43

41 ऄर्वथ0 06/86/1
42 ऄर्वथ0 6/32/1

118
ऄभयं िमरावरूिािवहास्तु नोऽर्णचषाित्रिो नुितं प्रतीचः।

मा ज्ञातारं मा प्रितष्ठां िविन्त्त घो


िमिवघनाना ईप यन्त्तु मृत्युम्।

हे िमरावरुि! हम िनभथयातापूवथक आस िेश में िनवास करें । अप ऄपने तेज से

मांस-भक्षक राक्षसों को हम िूर भगाएाँ। आन्त्हें कोइ भूिम तर्ा अश्रय िेने वाला न

िमले और परस्पर लड़कर नष्ट हो जाएाँ।

िीघाथयुप्रािप्त सूक्त

आस सूक्त में यज्ञीय प्रयोगों द्वारा रोग िनवारि तर्ा जीवनशिक्त के संवद्धथन

का स्पष्ट ईल्लेख ककया गया है।

मुञ्चािम त्वा हिवषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मािुत राजयक्ष्मात्।

ग्रािहजथग्राह यद्येतिेंन तस्या आन्त्रािी प्र मुमुक्तमेन44म्।।

हे रोिगन! तुबहारे शरीर में प्रिवष्ट यक्ष्मा (रोग) , राज्यक्ष्मा (राज रोग) से मैं

हिवयों के द्वारा तुबहें मुक्त करता हाँ। हे आन्त्रिेव और ऄिििेव! पीड़ा से जकड़ लेने

वाली आस व्यािध से रोगी को मुक्त कराएाँ।।

यकि िक्षतायुयथकि वा परे तो यकि मृत्योरिन्त्तकं नीत एव।

तमा हरािम िनऊथतेरूपस्र्ािस्पाशथमेनं शतशारिाय।।


45

43 ऄर्वथ0 6/32/2
44 ऄर्वथ0 3/11/1
45 ऄर्वथ0 3/11/02

119
यह रोग्रतु पुरुष यकि मृत्यु को प्राप्त होने वाला हो या ईसकी अयु क्षीि हो

गइ हो, तो मैं िवनाश के समीप से वापस लाता हाँ आसे सौ वषथ की पूिथ अयु तक के

िलए सुरिक्षत करता हाँ।

तप्तो वां धमो नक्षतु स्वहोता प्र वामिश्वना भग अगतम्।

माध्वी धताथरा िविधस्य सत्पती तप्तं धमथ िपबंत रोचते 4किवः।


6

हे िोनों ऄिश्वनीकु मारो! वह घृतयुक्त गोिुग्ध पारों में भर किया है। यह

अपका भाग है , ऄतः अप िोनों अएाँ! हे माधुयथयुक्त यज्ञस्वरूप , पालनकताथ िेवो!

अप अकर आस तपे हुए धमथ (पररपक्व रस) का पान करें ।।

त्वु वीरूधां श्रेष्ठतमािभश्रुतास्योषधे।

आमं मे ऄध पुरुषं क्लीबमोपिशनं कृ िध।।


47

वाजीकरि सूक्त :

आस सूक्त में बल-वीयथवद्धथक ओषिध का ईल्लेख है। अचायथ सायि ने आसे

किपत्र् से जोड़ा है। खोिकर िनकालने के कारि आसे किपत्र् (कै र्) की जड़ भी

माना जाता है।

ईच्छु ष्मौषधीनां सार ऊषभािाम्।

सं पुंसािमन्त्र वृष्ण्यमिस्मन धेिह तनूविशन्


4 8।।

46 ऄर्वथ07/77/05
47 ऄर्वथ0 6/138/1

120
ऄन्त्य वीयथवद्धथक ओषिधयों में यह ओषिध ऄत्यिधक श्रेष्ठ िसद्ध हो। काया को

वश में करने वाले हे आन्त्रिेव! अप पौरुषयुक्त शिक्त आस (ओषिध) में स्र्ािपत करें ।

गभथिोषिनवारि सूक्तः

सूक्त के ऊिष ‘मातृनामा’ है (मातृ नामवाली या मातृ गुिवाली नारी)। आस

सूक्त में गभथ की सुरक्षा एवं पोषि के सूर किये गये हैं। ऄनेक प्रकार के रोग, कृ िमयों-

िवषिुओं एवं ईनके िनवारक ओषिधप्रयोगों का विथन आस सूक्त में ककया गया है-

य अत्मानमितमारमंस अघाय िवभ्रित।

स्त्रीिां श्रोिितव्रतोकिनः आन्त्र रक्षांिस नाशय।।


49

जो (सूयथ या आन्त्र) अत्मतत्व को कं धे पर धारि करके िवचरते हैं , वे िस्त्रयों

के करटभाग को पीिड़त करने वाले रोग-कृ िमयों को िवनष्ट कर डालें।।

रोग िनवारि सूक्त :

हे स्तोताओ! अपके िलए सुख-शािन्त्त प्रिायक और ऄन्हसक संरक्षि साधनों

के सार् हमारा अगमन हुअ है। अपके िलए मंगलमय शिक्तयों को भी हमने धारि

ककया है। ऄस्तु, आस समय तुबहारे सबपूिथ रोगों का िनवारि करता हाँ।

अ त्वागमं शान्त्ताितिभरर्ों ऄररष्टताितिभः।

िक्षं त ईग्रभाररषं परा यक्ष्मं सुवािम 5तै0।।

48 ऄर्वथ0 4/04/04
49 ऄर्वथ0 8/6/13
50 ऄर्वथ0 4/13/05

121
यह हमारा हार् सौभाग्ययुक्त है , ऄित सौभाग्यशाली यह हार् सबके िलए

सभी रोगों को िनवारि-कताथ है। यह हार् शुभ और कल्यािकारी है।

ऄयं में हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः।

ऄयं में िवश्वभष


े जऽयं िशवािभमशथनः।।5 1

तक्मन् (ज्वर )नाशक :

ज्वर को ऄर्वथवेि में कइ स्र्ानों पर तक्मन् कहा गया है। आसके ऄवसरिार्थ

ऄर्वथवेि के आस सूक्त के सबपूिथ मंरों द्वारा ऄिििेव , सोमिेव, ग्रावा, मेघ के िेवता

आन्त्रिेव, पिवर बल सबपन्न वरुििेव, कु शा तर्ा प्रज्विलत सिमधाएाँ, ज्वर रोगों को

िूर करें और ज्वर के कारि शरु हमसे िूर चले जाएाँ।

ऄििस्तक्मानमप बाधतािमतः सोमो ग्रावा वरुिः पूतिक्षाः।

वेकिबथिहः सिमधः शोशुचाना ऄप द्वेषांस्यमुया भवन्त्


’’5त2 ु।।

िजस प्रकार भेजे जाने वाले खजाने की सुरक्षा करने वाले मनुष्य गान्त्धार ,

मूाँजवान, ऄंग तर्ा मगध िेशों में भेजे जाते हैं , ईसी प्रकार आस कष्टिायक रोग को

हम िूर भेजते हैं।

गन्त्धाररभयो मूजवद्भ्योऽङ्गेभयो मगधेभयः।

प्रैष्पन् जनिमव शेवन्ध क्मानं


त परर िध्मिस।।5 3

51 ऄर्वथ0 4/13/6
52 ऄर्वथ0 5/22/1
53 ऄर्वथ0 5/22/14

122
िीघाथयुष्य सूक्तः

आस मंर में िप्रयजनों के ऄन्त्िर प्रािशिक्त की क्षीिता से , पूवथकृत पापकमों के

प्रभाव से होने वाले अयुक्षयकारी रोगों को नष्ट करने के िलए मंर शिक्त का प्रयोग

ककया गया है। आसमें िीघाथपुष्य िेवता से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कक अपने

ऄंगों की पीड़ा, ऄंगों का ज्वर, हृिय का रोग तर्ा यक्ष्मा रोग हमारी मंर शिक्त से

परािजत होकर बाज पक्षी के समान िूर चला जाए।

ऄङ्गभेिों ऄङ्गज्वरो यश्च ते हृियामयः।

यक्ष्मः श्येन आव प्राप


प्ति् वाचा साढ़ः परस्तराम्5।।4

कास (खांसी ):

िजस प्रकार शीघ्रगामी मन जानने योग्य िूर िस्र्त पिार्ों तक शीघ्रता से

पहुाँचता है , ईसी प्रकार हे कास (खांसी रोग)! तुम मन के वेग से आस रोगी को

छोड़कर िूर भाग जाओ।

यर्ा मनोमनस्के तैः परापतत्याशुभत्।

एवा त्वं कासे प्रपत मनसोऽनु प्रवाप्यम्


5 5।।

िजस प्रकार सूयथ की ककरिें शीघ्रता से िूर पहुाँच जाती हैं , वैसे ही हे कास!

तुम आस रोगी को छोड़कर समुर के िविभन्न प्रवाहों वाले प्रिेशों में प्रस्र्ान करो।

54 ऄर्वथ0 5/30/9
55 ऄर्वथ0 6/105/1

123
यर्ा सूयथस्य रश्मयः परापतन्त्त्याशुमत्।

एवां त्वं कासे प्र पत समुरस्यानु िवक्षरम्


5 6।।

क्षय रोग एवं ज्वर हे


: कु ष्ठ औषिध! अपका और अपके िपता िहमालय िोनों का ही

नाम ईत्तम है। अप समस्त क्षय रोगों को िूर करें और कष्टिायी ज्वर को िनवीय

करें । भाव प्रकाश में कु ष्ठ ओषिध का कइ रोगों की िचककत्सा में विथन प्राप्त होता है।

ईत्तमो नाम कु ष्ठास्युत्तमो नाम ते िपता।

यक्ष्मंच सवं नाशयतक्मानं चारसं कृ िध।।5 7

िसररोग, चक्षुरोग एवं शारीररक िोष :

िसर की व्यािध , अाँखों की िुबथलता और शारीररक िोष , आन सब रोगों को

‘कु ष्ठ’ ओषिध ने किव्य बल को प्राप्त करके िूर कर किया।58

वात, िपत्त, कफ, िशरःशुल एवं कास :

हे अरोग्यिायक सूयथिव
े । अप हमें िसरििथ एवं कास की पीड़ा से मुक्त करें ।

सिन्त्धयों में घुसे रोगािुओं को नष्ट करें । वषाथ , शीत एवं ग्रीष्म ऊतुओं के प्रभाव से

ईत्पन्न होने वाले वात , िपत्त, कफ जिनत रोगों को िूर करें । सूयथ का ओज-प्रकाश ,

56 ऄर्वथ0 6/105/03
57 ऄर्वथ0 5/4/09
58 ऄर्वथ0 5/4/10

124
ताप तर्ा चेष्टा के रूप में या शरीर में िरधातुओं को पुष्ट करने के रूप में सकक्रय

होता है।

मुञ्च शीषथक्तया ईत कास एमं परुष्यरुरािववेशा यो ऄस्य

यो ऄभ्रजा वातजा यश्च शुष्मो वनस्पतीन्त्त्सचतां पवथत5ाश्च।।


9

समस्त शरीर अरोग्य लाभ :

हमारे िसर अकि श्रेष्ठ ऄंगों का कल्याि हो। हमारे ईिर अकि साधारि ऄंगों

का कल्याि हो। हमारे चारों ऄंगो (िो हार्ों- िो पैरों) का कल्याि हो। हमारे

समस्त शरीर को अरोग्य लाभ प्राप्त हो।

शं मे परस्मै गाराय शमस्त्ववराय मे।

श मे चतुयो्थर ऄङ्गेभयः शमस्तु तन्त्वे मम।।


60

गण्डमाला :

गले में उपरी िहस्से की नसों ंंमें जो पचपन प्रकार की गण्डमालाओं की

फुं िसयााँ हैं वे मंर शिक्त प्रयोग से नष्ट हो जाएाँ , जैसे पितव्रता स्त्री के सामने िोषपूिथ

वचन नष्ट हो जाते हैं।

पञ्च च याः पञ्चाशच्च संयिन्त्त मन्त्या ऄिभ।

आतस्ताः सवाथ नश्यन्त्तु वाका ऄपिचतािमव।।


61

59 ऄर्वथ0 1/12/03
60 ऄर्वथ0 1/12/04
61 ऄर्वथ0 6/25/01

125
जो सतहत्तर प्रकार की पीड़ायें गले मे होती हैं

वे मन्त्र शिक्त से नष्ट हो जाएं, जैसे पितव्रता स्त्री के सामने पापमय वचन नष्ट

हो जातो हैं।

सप्त च याः सप्तितश्च संयिन्त्त ग्रैव्या ऄिभ।

आतस्ताः सवाथ नश्यन्त्तु वाका ऄपिचतािमव।।


62

हे गण्डमाला रोग! तुम शरीर को छोड़कर घोंसले से िनकलने वाले गरुड़ की

तरह तीव्र गित से िनकल जाओ। सूयथिव


े रोग की ओषिध बनाएं और चन्त्रमा रोग

को िूर करें ।

ऄपिचतः प्र पतत सुपिो वसतेररव।

सूयथ कृ िोतु भेषजं चन्त्रमा वोऽपोच्छतु।6।3

हे गण्डमालाओं! तुम (वात , िपत, कफ भेि से) िचतकबरी, श्वेत, काली तर्ा

रक्तविथ वाली हो। तुम वीरपुरुष की न्हसा न करो और यहााँ से चली जाओ।

एन्त्येका श्येन्त्येका कृ ष्िैका रोिहिी द्वे।

सवाथसामग्रभं नामावीरघ्नीरपेतन।।
64

कृ िम नाश :अाँखों से किखाइ िेने वाले तर्ा न किखाइ िेने वाले कीटों को हम िवनष्ट

करते हैं। जमीन पर चलने वाले, िबस्तर अकि में िनवास करने वाले तर्ा रुतगित से

62 ऄर्वथ0 6/25/02
63 ऄर्वथ0 66/83/01
64 ऄर्वथ0 6/83/02

126
घूमने वाले समस्त कीटों को हम वाचा (वािी/मन्त्र शिक्त) के द्वारा िवनष्ट
करते हैं।65

सूयथिव
े से रोगनाशक कीटािुओं को मारने के िलए प्रार्थना करते हैं , आससे

ज्ञात होता है कक सूयथ ककरिों में कीटािु क्षमता व्याप्त है। िविवध रूप वाले , चार

चक्षु वाले , रें गने वाले तर्ा सफे ि रं ग वाले कीटािुओं की हिड्डयों तर्ा िसर को हम

तोड़ते हैं

‘‘िवश्वरूपं चक्षुरक्षं कक्रन्म सारङ्गमजुथनम्।

शृिाबयस्य पृष्टीरिप वृश्चािम यिच्छरः।।


’’6 6

हे कृ िमयों! हम ऄिर , कण्व और जमििि ऊिष के सिृश मंर शिक्त से तुबहें

पीस डालते हैं।

ऄिरवि् वः कक्रमयो हिन्त्म कण्वविमिििवत्।

ऄगस्त्यस्य ब्रह्मिा से िपनष्बयहं कक्रमीन्


6 7।।

हे धनपित आन्त्रिेव! अप आस शरुरूप कृ िमयों का िनवारि करें । हमारे ईग्र


मंरों द्वारा समस्त कृ िमयों का िवनाश करें ।

ऄस्येन्त्र कु मारस्य कक्रमीन् धनपतेिह।


हता िवश्व ऄरातम ईग्रेि वचसा मम।।


68

65 ऄर्वथ0 2/31/02
66 ऄर्वथ0 2/32/02
67 ऄर्वथ0 2/32/03
68 ऄर्वथ0 5/23/02

127
जो कीड़े नोरों में भ्रमि करते हैं , जो नाकों में भ्रमि करते हैं , तर्ा जो िााँतों

के बीच में चलते हैं ईन कीड़ों को हम िवनष्ट करते हैं।

यो ऄक्ष्यौ पररसपथित यो नासे पररसपथित।

ितां यो मध्य गच्छित तं कक्रन्म जबभयामिस।


69

ईन्त्माि :

हे ऄिि िेव! यह पुरुष पापों से ईत्पन्न रोगरूप बंधन से बंधा हुअ ईन्त्माि

रोग के कारि प्रलाप कर रहा है। कृ पा कर अप आसे रोग और कारि रूप पापों से

मुक्त करें ।

आमं मे ऄिे पुरुषं मुमुग्ध्ययं यो बद्धः सुयतो लालपीित।

ऄतोऽिध ते कृ िवि् भागधेयं पिानुन्त्मकितोऽसित।।


70

पूवथजन्त्म में ककये गये िैवी तर्ा राक्षसी पापों के फलस्वरूप ईत्पन्न ईन्त्माि

को शान्त्त करने की ओषिध को हम जानते हैं। हम ईन्त्हीं ओषिधयों का प्रयोग करते

हैं िजससे तुबहारा िचत्त भ्रमरिहत हो जाए। हे पुरुष ऄप्सराओं ने तुबहें रोग मुक्त कर

किया। सभी िेवताओं ने तुबहें रोगमुक्त कर किया।

िेवैनसािुन्त्मकितमुनमत्तं रक्षसस्परर।

कृ िोिम िवद्वान् भेषजं यिानुन्त्मकितोऽसित।।


71

69 ऄर्वथ0 5/23/3
70 ऄर्वथ0 6/111/01
71 ऄर्वथ0 6/111/03

128
मेधावृिद्ध :

आस सबपूिथ सूक्त में मेधा िेवी भगवान् सूयथ तर्ा ऊिषयों में मेधा वृिद्ध हेतु

प्रार्थना की गयी है , िजससे पुरुष की मेधा का तीक्ष्ि िवकास हो। हम प्रातः काल ,

मध्यान्त्हकाल एवं सायंकाल में मेधा िेवी की सेवा करते हैं। सूयथ रिश्मयों के सार्

स्तुितयों द्वारा हमारे मेधाशिक्त का िवकास करें और हम मेधाशिक्त को धारि करते

हैं। सिवता की सूक्ष्मशिक्त मेधावद्धथक होती है।

मेधां सामं मेधां प्रातमेधा मध्यिन्त्िनं परर।

मेधां सूयथस्य रिश्मिभवथचसा वेशयामहे7 2।।

पाप जिनत ईन्त्माि


, यक्ष्मा :

ऊिष रोगों की ईत्पित्त का कारि पापों को मानते हैं। प्रकृ ित के िनयमों का

ईल्लंघन ऐसे पाप हैं ‚ जो ऄनेक रोगों को पैिा करते हैं। मानवीय चेतना के प्रितकू ल

स्वार्थपूिथ कमों से मानिसक ग्रिन्त्र्यााँ बनती हैं तर्ा मनोकाियक रोग ईत्पन्न होते हैं।

ऄतः अरोग्य के िलए पापों से िनवृित्त अवश्यक है। वैद्यक शास्त्र के िविशष्ट प्रयोगों

के िलए ओषिधयों को पहले मंराकि से ऄिभमंिरत करने का िवधान है। औषिधयों

को मन्त्र तंरगें भी प्रभािवत करती है।

आस सूक्त में ओषिध से प्रार्थना की गयी है। हे रोगी पुरुष। सामने ईपिस्र्त

जल और किव्य ओषिधयााँ, अपके िुष्कमों के पाप से ईत्पन्न यक्ष्मा को ऄङ्ग-प्रत्यङ्ग

से िनष्कािसत करें ।

72 ऄर्वथ0 6/108/5

129
अपो ऄग्रं किव्या ओषधयः।

तास्ते यक्ष्ममेनस्यमङ्गािङ्गािीनशन्।7।3

रोग िनवारि करने वाली , जलोिर अकि रोगों की िनवारक प्रचण्ड क्षमता

से सबपन्न िवषनाशक, कफनाशक जो ओषिधयााँ हैं, वो यहााँ अएाँ।

ईन्त्मञ्च
ु न्त्तीर्णववरूिा ईग्रा या िवषिूषिीः।

ऄर्ो बलासनाशनीः कृ त्यािूषिीश्च यास्ता आहा यन्त्


षधीः।।
त्वो 7 4

ऄश्मरी या मूराघात :

मूर रोग िनवारिा र्थ सूयथ िेव से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कक हम सभी

जानते हैं कक िवशेष शिक्त सबपन्न पिवरतािायक सूयथ ‘शर’ के पालक हैं, वे तुबहारा

कल्याि करें । ईनमें तुबहें िविशष्ट पोषि प्राप्त हो तर्ा िवकार बाहर िनकल जाएाँ।

स्र्ूल िृिष्ट से ‘शर’ शलाका प्रयोग से मूल िनकालने की प्रकक्रया पुराने समय

से ऄब तक के ईपचार क्रम में मान्त्य हैं।

शरीरस्र् जीवनी शिक्त ही पोषि िेने तर्ा िवकारों से मुिक्त किलाने में प्रमुख

भूिमका िनभाती है। आस मत को सभी ईपचार पद्धितयााँ स्वीकार करती है।

‘‘िवद्या शरस्र् िपतरं सूयं शतवृष्ण्यम्।

तेना ते तन्त्वे शं करं पृिर्व्या ते िनषेचनं बिहष्टे ऄस्तु बािलित।


’’7 5

73 ऄर्वथ0 8/07/03
74 ऄर्वथ0 8/07/10
75 ऄर्वथ0 1/03/05

130
मूरवािहनी नािड़यों, मूराशय एवं अतों में िस्र्ित िूिषत जल (मूर) आस

िचककत्सा से वेग के सार् शब्ि करता हुअ शरीर से बाहर िनकल जाए।

पिान्त्रेषु गवीन्त्योयथद्वस्ताविध संश्रुतम्।

एवां ते मूरं मुच्यतां बिहबाथिलित सवथक7म्6 ।।

आस सबपूिथ सूक्त में पयथजन्त्य , िमर, वरूि, चन्त्र अकि िेवताओं से मूराघात्

िनवारिार्थ मन्त्रपरक स्तुित की गयी हैं। ये ‘शर’ से मूलमागथ को खोल िेते हैं। बन्त्ध

टू ट जाने से जलाशय का जल शीघ्रता से बाहर िनकलता है , ईसी प्रकार रोगी के

ईिरस्र् समस्त िवकार वेगपूवथक बाहर िनकलें।

कु ष्ठ रोग िनवारिार्थ :-

हे रामा-कृ ष्िा तर्ा ऄिसक्नी ओषिधयों। अप सब रािर में पैिा हुइ हैं। रं ग

प्रिान करने वाली है ओषिधयो! अप गितल कु ष्ठ तर्ा श्वेत कु ष्ठग्रस्त व्यिक्त को रं ग

प्रिान करें ।

धन्त्वन्त्तरर के ऄनुसार रामा से रामा तुलसी , अरामशीलता, घृतकु मारी,

कृ ष्िा से पुननथवा, िपप्पली तर्ा ऄिसक्नी से ऄिसकनी का बोध होता है।

नक्तं जातास्योषधे रामे कृ ष्िे ऄिसक्नी च।

आिं रजिन रजय ककलासं पिलतं च यत्।।7 7

76 ऄर्वथ0 1/3/6
77 ऄर्वथ0 1/23/01

131
श्वेत कु ष्ठ :

हे औषिध! सवथप्रर्म अप सुपिथ (सूय)थ के िपत्त रूप में र्ीं। असुरी सुपिथ के

सार् संग्राम जीतकर ईस िपत्त को औषध स्वरूप प्रिान ककया।

‘‘सुपिो जातं ......................................वनस्पतीन्


7 8 ।।

हे नील ओषिध! अप आस कु ष्ठ रोग से िूिषत रं ग को ऄपने समान रं ग-रूप

वाला करें ।

सरूपा नाम ते माता सरूपा नाम ते िपता।

सरूपकृ त् त्वमोषधे सा सरूपिमिं कृ न्ध।।


79

प्रसव हेतु :

आस सबपूिथ सूक्त में प्रसव हेतु िेवताओं से प्रार्थना की गयी है। द्युलोक एवं

भूिम को चारों किशाएाँ घेरे हैं। किव्य पंचभूतों ने आस गभथ को धारि ककया हुअ है , वे

ही आसे अवरि से मुक्त कर गभथ से बाहर िनकालें।

चतस्त्रो किवः प्रकिशश्चतवो भूबया ईत।

िेवा गभं समैरयन् तं व्यूिुथवन्त्तु सूतवे8 0।।

हे िेव! िजस प्रकार वायु वेगपूवथक प्रवािहत होती है। पक्षी अकाश में ईड़ते हैं

एवं मन िजस तीव्रगित से िवषयों में िलप्त होता है , ईसी प्रकार िसवें माह गभथस्र्

िशशु जेरी के सार् मुक्त होकर बाहर अए।

78 ऄर्वथ01/24/01
79 ऄर्वथ0 1/24/03
80 ऄर्वथ0 1/11/02

132
सबपूिथ रोगनाश :

यह सूक्त ‘रोकनाशक सूक्त’ के नाम से प्रिसद्ध है। आसमें िेवताओं से शरीर के

समस्त रोगों के िनवारिार्थ प्रार्थना ककया गया है।

हे िेवगि! हम पिततो के बार-बार उपर ईठाएाँ। हे िेवो! हमें ऄपराध मुक्त

करें । हमारा संरक्षि करते हुए अप हमें िीघाथयु करें ।

‘‘ईत िेवा ऄविहतं िेवा ईन्नयर्ा पुनः।

ईतागश्चक्रुषं िेवा िेवा जीवयर्ा पुन’’ः।।


81

हे िेव! अपका यह हार् सौभाग्ययुक्त है। ऄित सौभाग्यशाली यह हार् सबके

िलए रोगों का िनवारि कताथ है। यह हार् शुभ और कल्यािकारी है-

ऄयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः।

ऄयं मे िवश्वभेषजोऽयं िशवािभमशथनः।।


82

मन्त्रोच्चारि करते हुए जैसे वािी वैसे ही अपके िोनों हार् हमें रोगों से मुक्त

कराते हैं।

हस्ताभयां ...................................मृशामिस।।
83

81 ऄर्वथ0 4/13/01
82 ऄर्वथ0 1/14/06
83 अ0 1/14/07

133
यक्ष्मारोग िनवारिार्थः

आस सूक्त के मंरों के जप से शरीर के ककसी ऄङ्ग में होने वाले यक्ष्मा रोग के
िनवारिार्थ प्रयोजनीय है। आस मंर से जल पार को धोकर रोगी की गाठों में
बांधकर पुनः ईन मंरों से जप पूवथक रोगी को ऄवषेचन करने से यक्ष्मा रोग िूर हो
जाता है।

ऄक्षीभयां ते नािसकाभयां किाथभयां छु बुकाििध।

यक्ष्मं शीषथण्य मिस्तकष्काििह्वायाः िव वृहािम 8ते4 ।।

नेर -ज्योित की वृिद्धः

वेिों में िविभन्न िेवताओं से पृर्क् -पृर्क् पिार्ों का ऄिधपित एवं ऄिधष्ठाता
कहा गया है। ईिाहरिार्थ ऄर्थववेि (5/24) में ऄर्वाथ ऊिष हमें बताते हैं कक जैसे
ऄिि वनस्पितयों के ‚ सोम लताओं के ‚ वायु ऄन्त्तररक्ष के तर्ा वरूि जा लों के
ऄिधपित हैं वैसे ही सूयथ िेवता नेरों के ऄिधपित हैं। वे मेरी नेरों की रक्षा करें ।

मघवञ्छिग्ध तव तन्न उतये िव िद्वषो िव मृधो जिह।।


85

रोगोत्पािकं राक्षसो के नाश हेतु :

आस मंर में प्रार्थना की गइ है कक हे ऄिि! अप ऄपने तेज के प्रभाव से यातना


िेने वाले रोगात्पिक राक्षसों को सब प्रकार से नष्ट कर िीिजए।

‘‘प्रत्यिे हरसा हरः शृिािह िवश्वतस्परर।

यातुधानस्य रक्षसो बलं न्त्युब्जवीयथम''्।8।6

84 ऄर्वथ0 2/33/1-2
85 सा0पू0 3/05/2
86 साम0पू0 1/10/5

134
बुरे िवचारों एवं रोगों के िनवारिार्थः

हे सोम! अपके प्रभाव से सारे रोगों के ईत्पािक राक्षस अपसे िूर चले जाएं।

‘‘आन्त्राय सोम सुषुतः परर स्रवापामीवा भवतु रक्षसा’’8 7सह

नेर रोग नाशक मंर :

उाँ चक्षुः चक्षुः चक्षुः तेज िस्र्रो भव। मां पािह पािह। त्वररतं चक्षुरोगान्

शमय शमय ............. य आमां चाक्षुष्मती िवद्यां ब्राह्मिो िनत्यमधीते न

तस्यािक्षरोगो भवित। न तस्य कु ले ऄन्त्धो भवित। उाँ नमो भगवते अकित्याय

ऄहोवािहनी ऄहोवािहनी स्वाहा।


88

आस चाक्षुषी िवद्या के श्रद्धा-िवश्वास पूवथक पाठ करने से नेर संबंिध समस्त

रोग िूर हो जाते हैं। पाठ करने से होते हैं। अाँख की ज्योित िस्र्र रहती है। आसका

िनत्य प्रित पाठ करने से कु ल में कोइ ऄंधा नहीं होता है तर्ा पाठ के पश्चात् भगवान्

सूयथ को ऄय्थ प्रिान करें ।

िचत्तशोधन मंर :

‘‘तारः पाशपरास्वाहा ञ्चािथ


प िश्चत्तशोधने।’’8 9

तार (उाँ), पाशं (अं) , परा (हीं) ईसके ऄन्त्त में स्वाहा लगाने से प ञ्च ऄक्षरों

का िचत्तशोधन मंर िनष्पन्न होता है-

87 सा0पू0 5/9/8
88 कृ ष्ि यजु0 चाक्षुषो0
89 मं. महो0च0त0 67

135
‘‘उाँ अं हीं स्वाहा’’ आस मंर का प्रितकिन पाठ करने में िचत्त की शुिद्ध होती है

तर्ा मानिसक िबमारीयों में भी लाभ प्राप्त होता है।

प्लीहाईिर रोग नाशक मंर :

आस मंर का प्रयोग करते हुए प्लीहा रोग से पीिड़त रोग के पेट पर पान रखें

तर्ा भगवान् हनुमान् का ध्यान करते हुए बेर की लकिड़यों से जलायी हुइ ऄिि में

मूलमंर का जप करते हुए 7 बार यिष्ट को तपाना चािहए। ऐसा करने से प्लीहा रोग

शीघ्र िूर हो जाता है।

‘‘उाँ यो यो हनूमन्त्तं फलफिलत धग धिगतायु -राषपरुडाह


’’9 0

सन्त्तान गोपाल मंर :

पुर प्रािप्त हेतु प्रस्तुत मंर का जप करने का िवधान बताया गया है -

‘‘िेवकीसुत गोिवन्त्ि वासुिव


े जगत्पते।

िेिह मे तनयं कृ ष्ि त्वामहं शरिं गतः।


91

िवषनाशक मंर :

गरूड़ िेव को िवषनाशक िेव कहा जाता है आस मंर के द्वारा गरुड िेव से

िवषनाशार्थ प्रार्थना ककया जाता है।

‘‘िक्षप उाँ स्वाहा’’9 2

90 मं0महो0 रयो0त0 99-104


91 म0महो0चै0त0 14/110-113
92 म0हो0चै0त0- 116

136
पापनाशक :

आस मंर में िूवाथ से समस्त पापों के नाश के िलए प्रार्थना की गयी है।

सहस्रपरमा िेवी शतमूला शताङ्कु रा।

सवंग् हरतु मे पापं िूवाथ िुस्स्वप्ननाशनी।

काण्डात्काण्डात् प्ररोहन्त्ती परुष परुषः 9परर।


3

कु ष्ठ रोग िनवारि :

सूयोपासना करने से कु ष्ठ रोग से ग्रिसत रोगी को कु ष्ठ रोग से मुिक्त िमल

जाती है।

ततस्तु नारिेनैव साबबशापिवनाशकः।

अकिष्टो िह महान धमथ अकित्या


राधनं प्रित।

.................................................

त्वयार्णचतो रिवः भूत्वा तुन्ष्ट यास्यित नान्त्य9र्ा।।


4

अकित्य हृिय स्रोत

अकित्य = भगवान सूयथ, हृियम्ः वह जो हृिय को पोषि करे और िचककत्सा

करें । यह िनत्य ऄक्षय और परम कल्यािमय स्रोत है।

93 महा0ईप0, ऄनु0 1
94 वाराह पु0ऄ0 177/32-34

137
अकित्यहृियं पुण्यं सवथशरुिवनाशनम्।

जयावहं जप िनत्यभक्षयं परमं िशवम्


9 5।।

यह स्रोत सबपूिथ मङ्गलों का भी मङ्गल है। आससे समस्त पापों का नाश

होता है। यह िचन्त्ता और शोक को िमटाने तर्ा अयु को बढ़ाने का ईत्तम साधन है।

यह सकारात्मक रूप से ईस व्यिक्त को िनयंिरत करता है जो आसे प्रभािवत

करके जप करता है जैसे-

 िचन्त्ता प्रशमनार्थ

 शोक प्रशमनार्थ

 अयुवृथिद्ध

 सवथशरु िवनाशक

 जयावहम्

 ऄक्षय (हमेशा जीवन में खुशी)

 शरुओं से मुिक्त

सूयथ में िनिहत शिक्त :

अत्मकारक -िृिष्टकारक, ऄििकारक, प्रािकताथ,

अत्मकारक -ज्ञान को बढ़ाते हैं, शिक्तवद्धथक, रोगप्रितरोधक क्षमता का िवकास।

िृिष्टकारक -अखों की रोशनी और खूबसूरती को बढ़ाते हैं।

95 अ0हृ0 4

138
प्रािकताथ -सभी पुराने और गबभीर शारीररक िवकारों को समाप्त करते हैं , जैस-े

क्रोिनक रीनल फे ल्योर , ईच्च रक्तचाप , शुगर, हृियरोग, नस संबंिध समस्याएाँ ,

एच0अइ0वी0 और कार्णसनोमा।

कालस्वरूप -िचन्त्ता पर िनयंरि, ऄिनरा और मनोवैज्ञािनक समस्याएाँ।

ऊतुकताथ और प्रजा कताथप्रजनन


: क्षमता को बढ़ाता है , मािसक धमथ की समस्याओं

में सहायक हैं।

सूयथ की लाल ककरिें ल्यूकोडमाथ और हृिय रोग में सहायक होती हैं।

नीले रं ग की ककरिों से बुखार , पेिचश, मधुमेह, रक्तगित, ब्रोंकाआरटस,

िसरििथ, मूरिवकार, चेचक, फाआलेररया का ईपचार ककया जाता है।

आन ककरिों में नारं गी रं ग की लाआन हैं , िजनमें ऄल्रा वायलेट ककरिों

सुरिक्षत हैं। जब यह ककरिें शरीर पर िवककरि करती हैं तो त्वचा में िवटािमन ‘डी’

का ईत्पािन होगा।

लालरं ग से सभी बीमारीयााँ ठीक होती हैं , पीले रं ग से पेट संबंिधत बीमारी,

हरे रं ग से किल तर्ा त्वचा संबंिधत रोग ठीक हो जाते हैं। 96

96 वा0रा0यु0का0

139
िवष्िु सहस्रनाम :

िवष्िु सहस्रनाम स्रोत संस्कृ त का ऄत्यन्त्त शिक्तशाली स्रोत पाठ है। आसमें

भगवान् िवष्िु के 1000 नाम का ईल्लेख ककया गया है। भीष्म द्वारा युिधिष्ठर को

मृत्यु/शर शैय्या पर लेटे हुए िवष्िु के हजार नाम का विथन ककया है। यह

मोक्षप्रिायक है।97

िवष्िुसहस्रनाम जप से फलश्रुित :

मातृत्व लाभ

शारीररक लाभ- रं ग, सुन्त्िरता, सौन्त्ियथ, शिक्त की प्रािप्त।

मनोवैज्ञािनक - झगड़े और िवपित्त से मुिक्त , क्रोध, मात्सयथ, लोभ, ऄशुभ मित से

मुिक्त।

िबमारी - जो जप करता है ईसे कोइ बीमारी कभी पीिड़त नहीं करती है।

मोक्षप्रिायक - व्यिक्त जन्त्म, मृत्यु, पतन और बीमाररयों के भय से मुक्त हो जाता है।

अयुवेिीय ग्रन्त्र् चरक संिहता में अचायथ चरक ने ज्वर िचककत्सा के

िनवारिार्थ िवष्िुसहस्रनाम जप का िनिेश किया है।

ऄिि पुराि के कइ ऄध्यायों में ऐसे मन्त्रों का विथन िमलता है कक जो

िचककत्सकीय प्रभाव रखते हैं। आस मंरों का जप करने से कइ प्रकार की व्यािधयों िूर

हो जाती है। िवषं व्यािध में ये मंर िवशेष रूप से लाभिायक होते हैं , ईिाहरि

97 मा0भा0ऄनु0पवथ 0

140
स्वरूप रैलौक्य मोहन नामक मंर से िवष व्यािध का िवनाश हो जाता है। यह मंर

हैं ‘‘आं क्षी ह्ये ह् रूं रैलोभयमोहनाय िवष्ण्वे नमः। ’’ आसके ऄितररक्त बारह व अठ

ऄक्षरों वाले िवष्िु के मंर सूयथ िवनायक व रूि के मंर अरोग्यवधथक व िवषापहारक

बताए गए हैं।

आसी प्रकार से िवष नाशक मंरों का प्रयोग ऄिि पुराि के 295, 296, 297,

298 व 317 ऄध्यायों में प्राप्त होता है।

िवष के ऄितररक्त ऄन्त्य व्यािधयों के िलए मन्त्र िचककत्सा भी ऄिि पुराि में

वर्णित है। जैसे ‘‘उाँ नमो भगवित वज्रशृङ्खले हन हन...... ह्रीमशेषेभयो रक्ष रक्ष ’’

नामक ऄपरािजता मंर का विथन है। आस मंर का िविनयोग ग्रहज्वराकि सभी कमों

में करना चािहए।

िुगाथसप्तसती में वर्णित मंर :

सवथिवध मंगल प्रािप्त मंर :

सवथमंगलमांगल्ये िशवे सवाथर्थसािधके ।

शरण्ये त्र्यबबके गौरी नारायिी नमोऽस्तु ते।।

िवपित्तनाश हेत:ु

शरिागत िीनातथ परररािपरायिे।

सवथस्यर्णतहरे िेिव, नारायिि नमोऽस्तु ते।।

141
भयनाशार्थ:

सवथस्वरूपे सवेशे सवथशिक्त समिन्त्वते।

भयेध्यस्त्रािह नो िेिव ! िुगे िेिव नमोऽस्तु ते।।

महामारी िवनाश:

जयन्त्ती मङ्गला काली


, भर काली कपािलनी।

िुगाथ क्षमा िशवा धारी स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।।

अरोग्य प्रािप्त:

िेिह सौभाग्यं अरोग्यं िेिह मे परमं सुखम्।

रूपं िेिह जयं िेि,हयशो िेिह िद्वषो जिह।।

हरोगे कामलारोगे िवष्टबभे श्वासकासमोः।

एतिप्तं जलं प्रातः िपबेत्तरोगशान्त्तये।।

हरोग, पाण्डु रोग, गरठया तर्ा श्वस, कास आन सभी रोगों की शािन्त्त के िलए

नृन्सह बीज (क्षौं) सिहत आस मन्त्र से ऄिभमिन्त्रत ककया हुअ जल प्रातः काल िपए

तो रोग शान्त्त हो जाता है।

क्षेरपाल मन्त्र

मन्त्र : ‘उाँ क्षौं क्षेरपालाय नमः’

पररहार क्षेर :कािन्त्त, मेघा बल, अरोग्य, यश एवं महाश्री प्रिायक।

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विाथन्त्त्यमौिबन्त्िय
ु ुक्तं क्षेरपालाय हन्त्मनुः।

ताराद्यो वसुविोऽयं क्षेरपालस्य र्णततः।।


की

ऄब क्षेरपाल का मन्त्रविथ
: का ऄन्त्त्य (क्ष) ईस और की मारा तर्ा ऄनुस्वार ईसके

बाि ‘क्षेरपालाय नमः यह पि , पुनः मन्त्र के अकि ‘प्रिव’ यह क्षेरपाल मन्त्र का

ईद्वार कहा गया है।

आस प्रकार ‘उाँ क्षौं क्षेरपालाय नमः यह प्रिव को छोड़कर अठ ऄक्षर का मंर

कहा गया है।

षड़िीघथभाषा बीजेज षडङ्गान्त्यस्य योजयेत्।

ऊिषब्रह्मा भवेिस्य गायरं छन्त्ि इररतम्

क्षेरपालो िेवता पालयेित शिक्तरीररता।।

षड़िीघथ (अ इ ऄ ए औ ऄः) युक्त बीज (क्षकार) से युक्त षडंशन्त्यास करना

चािहए। ‘क्षां क्षीं , क्षू,ाँ क्षः’ आनसे यर्ाक्रम ष ङ्गन्त्यास करना चािहए। आस मन्त्र के

ब्रह्मा ऊिष हैं। गायरी छन्त्ि है। क्षेरपाल िेवता हैं और ‘पालय’ यह शिक्त है।

बटुक मन्त्र प्रयोग :

मन्त्र : ही बटुकाय अपिुद्धारिाय कु रू कु रू बटुकाय ह्रीं

जप संख्या :आक्कीस लाख

हवन संख्या :िो लाख िस हजार (पय मधु तर् शक्ररायुक्त हव्य से)

पररहार क्षेर :भूतबाधा, ग्रहबाधा, धमथ, ऄर्थ, काम, अयु एवं अरोग्य प्रिांयक

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रोगनाश और अयुवृथिद्ध के िलए :

रिववार के किन ब्राह्मिों को यर्ाशिक्त िेकर ईनके सहस्र संख्या में

शतरूरीय का पाठ करवाने से व्यािध का नाश होता है और वह यजमान शतायु

होता है। महारुरपाठ के ईपरान्त्त ‘अराते गोहनं’ आत्याकि मंर से षोडशोपचार पूजन

करके तत्पश्चात् ईसी मंर का सहस्र जप करने से अयुवृथिद्ध होती है-

‘मा नो महानतभुत’ आत्याकि मंर से ऄयुत संख्या में ितलों की अहुितयों के

चढ़ाने से बालक से लेकर वृद्धों तक पूरे पररवार का स्वास््य ठीक होता है।

आस मंर में आन्त्र िेव से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कक हे आन्त्र िेव! िजससे हम

डरें अप ईससे हमें िनडर बनाआए। हमें ऄभय िान िीिजए , हमारे रोग नाशक

शरुओं को और हमें मारने वालों को अप नष्ट कीिजए।

ईत आन्त्र भयामहे ततो नो ऄभयं कृ िध।

शािन्त्त मंर -

हे भगवान्! अप हमें ऄसत् से सत् की ओर और तम (ऄन्त्धकार) से ज्योित

(प्रकाश) की ओर तर्ा मृत्यु से ऄमरता की ओर ले चलें।

‘‘उाँ ऄसतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योितगथमय।

मृत्योमाथऽमृतं गमय।
’’9 8

98 शतपर् ब्रा0 14/04/130

144
हषथचररतम् :

हषथचररतम् में विथन प्राप्त होता है कक राजा प्रकाभरवधथन िीघाथयुष्य प्रािप्त ,

पुर प्रािप्त हेतु प्रातः ‚ मध्यान्त्ह और सायंकाल शुद्ध मन से जपनीय अकित्य हृिय
नामक मन्त्र का जप करते र्े।

‘‘िनसगथत एव च स नृपितराकित्यभक्तो बभूव। प्रितकिनमुिपे किनकृ तः स्नातः

िसतिुक्लधारी धवलकपथट प्रावृतिशराः प्राङ्मुखः िक्षतौ जानुभयां िस्र्त्वा


कु ङ्कु मपङ्कानुिलप्ते मण्डलके पिवरप द्मरागपारी िनिहतेन

...................................... प्रयतेन मनसा


ञ्जपूक
जो मन्त्रमाकित्यहृियम्’’।9 9

सूयथशतक (कु ष्ठ रोग िनवारिार्थ ):

मयूर भट्ट को कु ष्ठ रोग हो गया तो आससे मुिक्त पाने के िलए ईन्त्होंने भगवान

सूयथ की स्तुित में सौ श्लोंको की रचना की , िजससे प्रसन्न होकर भगवान् सूयथ प्रकट

हुए तर्ा मयूर को िनरोग होने का वर किया। आस बात की पुिष्ट काव्यप्रकाश के आस

पंिक्त से भी होती है- ‘‘अकित्यिेमथयूरािीनािमवानर्थिनवारिम्।’ ’

यह तो वतथमान युग के वैज्ञािनक भी मानते हैं कक सूयथ ककरिों का सेवन


करने से समस्त चमथ रोग तर्ा कु ष्ट अकि का भी ईपचार हो जाता है। ऄतएव
सबभवतः सूयंशतक की रचना का एकमार ईद्देश्य सूयथभिक्त ही रहा है।

तन्त्र मंर

महेश्वर तंर की ऄघोर मंर साधना से क्षुर व्यािध जैसे कु ष्ठरोग , तपेकिक,

कैं सर, एड्स पक्षाघात अकि से िनवृित्त होती है। ग्रहपीडा का शमन होता है।

99 हषथ 0 पृ0 22, चैखबभा प्रकाशन

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प्रेतपीड़ा लुप्त हो जाती है तर्ा जीवन में ऄकस्मात् ईत्पन्न होने वाले ऄवरोध स्वतः
ही िवलुप्त हो जाते हैं तर्ा सवाथभीष्ट िसिद्ध का मागथ प्रशस्त होता है।

‘ही स्फु र प्रस्फु र घोरघोरतर तनुरूप चट चट प्रचर प्रचर।

कह कह वम वम बन्त्ध बन्त्ध घातय घातय हुाँ पट्।।

िशव के ही एक ऄन्त्य स्वरूप को ऄघोर के नाम से नामांककत ककया गया है।


ऄघोर िेवता का मंर 51 ऄक्षरों का है िजसका ईपयोग ग्रह शािन्त्त तर्ा मारि हेतु
प्रचिलत है। आस 51 ऄक्षरों के ऄघोर मंर काजप 1 लाख बार करने का िवधान है।
िशांश हवन ऄर्ाथत् 10 हजार मंरों का हवन घी िमिश्रत ितल द्वारा संपाकित करने
से यह मंर िसद्ध हो जाता है।

ऄघोर िेवता के यंर िनमाथि का भी िवधान है िजसे धारि करने से क्षुर

रोग- चोर ग्रह पीड़ा बाधा, ऄपर-मारजन्त्य, भूत, बाधाओं का िवनाश होता है।

तािन्त्रक मन्त्रोपचार1 0 0

ग्रह तांिरक मन्त्र जप

सूयथ ॎ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूयाथय नमः, ॎ घृिि सूयाथय नमः २८०००

चंर ॎ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्त्रमसे नमः, ॎ चं चन्त्रमसे नमः ४४०००

शिन ॎ प्रा न्प्र प्रौं सः शनये नमः, ॎ शं शनैश्चराय नमः ९२०००

राहु ॎ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः, ॎ रं राहवे नमः ७२०००

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100 म० महो० तरं ग १५

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