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भारतीय सं कृ त के संर ण म सं कृ त एवं दशन का योगदान

भारतीय सं कृ त व क सवा धक ाचीन एवं समृ सं कृ त है। अ य दे श क सं कृ तयां तो समय क धारा


के साथ-साथ न होती रही ह। कतु भारत क सं कृ त आ दकाल से ही अपने परंपरागत अ त व के साथ अजर-अमर बनी ई है।
इसक उदारता तथा सम यवाद गुण ने अ य सं कृ तय को समा हत तो कया है कतु अपने अ त व के मूल को सुर त रखा है।
मानव स यता के वकास के साथ साथ भाषा क आव यकता महसूस क गई। जसके बाद सं कृ त भाषा
अ त व म आया। यह भाषा व क ाचीनतम भाषा म से एक मानी जाती है। हमारी स यता सं कृ त को अ ु ण रखने म
सं कृ त का मह वपूण योगदान है। इसी भाषा का आसरा लेकर हम पूजा-पाठ, य -हवन आ द काय करते ह। सं कृ त म लखे गए
चतुवद म ऋ वेद ाचीनतम थ ं है, इसम क तपय संदेह नह है। मानव स यता के वकास के साथ साथ इन भाषा के आ य से
कई भाषा का ा भाव आ। कालांतर म वे वघ टत होकर अलग-अलग भाषा म टू टते चले गए। आज व म लगभग 4000
से अ धक भाषाएं बोली जाती है। सभी भाषा क जननी सं कृ त भाषा ही मानी जाती है।
व धरोहर के प म सं कृ त भाषा आज भी अपनी वशेषता के कारण ा है। नया के कई दे श म
सं कृ त म लखे थं का व षे ण कया जा रहा है। जसके आधार पर नयाँ के कई दे श म नए-नए शोध काय कए जाते ह।
वतमान समय म हमारे धा मक काय सं कृ त के आ य से ही स होते ह। ाचीन काल से ही सं कृ त समृ भाषा मानी गई है।
बोलचाल क भाषा भले ही अलग हो, कतु सा ह यक भाषा के प म सं कृ त को मा यता ाचीन काल से ही ा त है। सं कृ त का
श द भंडार अनंत है। व भ अव ा संग भाव आ द का वणन करने के लए श द एवं या के यु करने क सु वधा
एकमा सं कृ त भाषा म है। साथ ही सं कृ त के येक श द का नमाण कसी वशेष अथ को लेकर ही आ है।
ाचीन भारतीय जीवन म धम को अ धक मा यता ा त होने के कारण सं कृ त सा ह य धा मक से वशेष
मह व रखता है और वै दक सा ह य म तो आय धम का वशु प उपल होता है। साथ ही भारतीय धम एवं दशन का स यक
प रचय ा त करने के लए भी वै दक सा ह य का अ ययन आव यक है। प मी व ान ने तुलना मक पुराण शा जैसे अवाचीन
शा को ढूं ढ नकाला। इस शा से पता चलता है क ाचीन काल म दे वता के संबंध म लोग के या वचार थे तथा कन-
कन उपासना के कार से दे वता क कृ पा ा त करने म सफल होते थे। डॉ टर बाबूराम स सेना के कथनानुसार "म य ए शया
के चीन आ द दे श पर भारतीय सं कृ त और बौ धम क जो छाप है वह सव व दत है।" को रया क ल प भी भारतीय ल प पर
आ त है। ाचीनकाल से ही त बत भारतीय धम और साधना का े रहा है। अफगा न तान, ईरान आ द अपने-अपने नकटवत
प मी दे श क स यता और सं कृ त मु लम धम के चार के पूव भारतीय सं कृ त के समान ही था और आज भी खुदाई करने पर
वहां पुराता वक मं दर और मू तय के भ नावशेष ा त होते ह। पा ा य व ान ने मु कं ठ से सं कृ त सा ह य के मह व को
वीकार कया है। परंतु सं कृ त का चार- सार आधु नक युग म ही ती ग त से आ है।
आज के वै ा नक युग म हम बड़ी सतकता से आगे बढ़ना है। सं कृ त ही कसी दे श, समाज या जा त का ाण
है। वह से इ ह जीवन मलता है। कसी भी दे श क सामा जक थाएं, वहार, आचार- वचार, पव, योहार, सामुदा यक जीवन का
संपूण ढांचा ही सं कृ त क न व पर खड़ा रहता है। यह सं कृ त क अज धारा जस दन टू ट जाती है, उसी दन से उस समाज का
व प भी न हो जाता है। सं कृ त के न होते ही कसी स यता का नाश हो जाता है।
सं कृ त सा ह य भारतीय समाज के उ कृ जीवनमू य , जीवन दशन, आ या मकता, सां कृ तक एवं सामा जक
पर रा का त ब ब है। सं कृ त सा ह य भारतीय सं कृ त का संवाहक भी है। लगभग 3000 वष पहले नयाँ के धरातल पर
जब अपने वचार को अ भ दान करने का ारं भक यास चल रहा था, उस समय भारतभू म पर वा दे वी अपने स ूण एवं
उ कृ प म ऋ वेद के सू के प म अवत रत हो चुक थी। तब से अनवरत सं कृ त सा ह य स रता अ वरल एवं सहज ग त से
वाहमान है। धम, अथ, काम, एवं मो जैसे पु षाथ क प रक पना कर उसे ा या यत करने वाली, चय, गृह , वाण
एवं सं यास आ म के प म जीवन को ा ण, य, वै य एवं शू के प म समाज को व ा एवं संतुलन दान करने वाली,
सोलह सं कार , तीन ऋण , पंच महाय एवं गु कु ल श ा से जीवन को प रमा जत करने वाली तथा अपने आ या मक जीवन
दशन से आ मक याण का माग श त करने वाली भारतीय सं कृ त का स ूण दशन है सं कृ त सा ह य। सं कृ त सा ह य म जीवन
के ेय एवं ेय दोन प का सामंज य है। सं कृ त सा ह य भारतीय स यता एवं सं कृ त के उ रो र वकास क स ूण झांक
है। इसम मनु य के कत क ापक ा या क गई है। गीता जैसी अमृत वाणी सं कृ त म ही है। ‘वसुधैव कु टु बकम’ का नारा
सं कृ त सा ह य क ही दे न है। इस कार सं कृ त सा ह य म मनु य क ही नह पशु-प ी एवं पेड़ - पौध के संर ण क भी चता क
गई है। जीव ह या नह करना है। कसी का अ हत करना तो र क बात सोचने तक क मनाही है। अतः संवेदनशील समाज के
नमाण म सं कृ त सा ह य क मह वपूण भू मका है। व मान समय म भी सं कृ त के नी त ोक क ासं गकता बनी ई है :-
सव भव तु सु खनः सव स तु नरामया:।
सव भ ा ण प य तु मा क त् ःखभाग् भवेत्।।
अ वनाश कु मार पूव

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