You are on page 1of 133

आचाय िव णुगु (चाण य) ारा णीत चाण य नीित का मु य िवषय मानव

मा को जीवन के येक पहलू क यावहा रक िश ा देना ह। इसम मु य


प से धम, सं कृित, याय, शांित, सुिश ा एवं सवतोमुखी मानव-जीवन
क गित क झांिकयां तुत क गई ह। आचाय चाण य
के नीितपरक इस मह वपूण ंथ म जीवन- स ा त और
जीवन यवहार तथा आदश यथाथ का बड़ा सु दर
सम वय देखने को िमलता है। जीवन क रीित-नीित
स ब धी बात का जैसा अ ुत और
यावहा रक िच ण यहां िमलता है
अ य दल
ु भ है। इसी लए
यह थ पुरे
िव व म समा त है।
आचाय चाण य णीत

चाण य नीित
“जो कोई भी यि इस नीित शा का मन से अ ययन करे गा
वह जीवन म कभी धोखा नह खाएगा,
सफलता सदा उसके कदम चूमेगी।”

e B : 978-81-2881-956-8

काशकाधीन
काशक : डायमंड पॉकेट बु स ा. ल.

-30, ओखला इंड टयल ए रया,

फेस- नई िद ी-110020
फोन 011-40712200

ईमेल : eboo s@dpb.in


वेबसाइड : .diamondboo .in

सं करण : 2015

Chana a eeti

B - Ash ani rashar


चाण य : एक संि प रचय

ाचीन भारतीय सं कृत वांङ मय के इितहास म आचाय िव णुगु चाण य


अपने गुण से मंिडत, राजनीित िवशारद, आचार-िवचार के मम , कू टनीित म
स ह त एवं वीण प म यातनाम ह। उ ह ने नंद वंश को समूल न कर
उसके थान पर अपने सुयो य एवं मेधावी वीर िश य च गु मौय को
शासक पद पर संहासना ढ़ करके अपनी जस िवल ण ितभा का प रचय
िदया उससे सम त िव व प रिचत है। मौय वंश क थापना आचाय चाण य
क एक महती उपल ध है।

यह वह समय था जब मौय काल के थम संहासना ढ़ चं गु मौय


शासक थे। उस समय चाण य राजनीित गु थे। आज भी कु शल राजनीित
िवशारद को चाण य क सं ा दी जाती है। चाण य ने संगिठत, संपूण
आयावत का व न देखा था, तदनु प उ ह ने सफल यास िकया था।

चाण य अनोखे, अ ुत, िनराले, ऐसे कु शल राजनीित थे ज ह ने मगध


देश के नंद राजाओं क राजस ा का सवनाश करके ‘मौय रा य’ क थापना
क थी।

चाण य का ज म का नाम िव णुगु था और चणक नामक आचाय के पु


होने के कारण वह ‘चाण य’ कहलाए। कु छ लोग का मत है िक अ यंत
कु शा बुि होने के कारण उनका नाम ‘चाण य’ पड़ा। कु िटल राजनीित
िवशारद होने के कारण इ ह ‘कौिट य’ नाम से भी संबो धत िकया गया। पर
संभवतः यह इनके गो का नाम रहा हो, िक तु अनेक िव ान के मतानुसार
कु िटल नीित के िनमाता होने के कारण इनका नाम कौिट य पड़ा। म.म.
गणपित शा ी ने ‘कु िटल’ गो ो प पुमान् कौिट य : इस यु प के अनुसार
इ ह कौिट य गो का मानने पर बल िदया है। आप चं गु मौय के महामं ी,
गु , िहतैषी तथा रा य के सं थापक थे। चं गु मौय को राजा के पद पर
िति त करने का काय इ ह के बुि -कौशल का प रणाम था।
चाण य के ज म- थान के बारे म इितहास मौन है। परं तु उनक िश ा-
दी ा त िशला िव विव ालय म हई थी। वह वभाव से अिभमानी, चा रि क
एवं िवषय-दोष से रिहत व प से कु प, बुि से ती ण, इरादे प के, ितभा
धनी, युग ा एवं युग ा थे। ज म से पाट लपु के रहनेवाले चाण य के
बुि -बल का पूरा िवकास त िशला के आचाय ं के संर ण म हआ। अपने
ौढ़ ान के भाव से वहां के िव ान को स कर चाण य राजनीित का
ा यापक बना। देश क द ु यव था को देखकर उसका दय िवत हो उठा।
इसके लए उसने िव तृत काय म बनाकर देश को एक सू म बांधने का
संक प िकया और इसम उसे सफलता भी िमली।

चाण य के जीवन का उ े य केवल ‘बुि य य बलं त य’ ही था। इस लए


चाण य को अपनी बुि एवं पु षाथ पर पूरा भरोसा था। वह ‘दैवाधीन
जग सव’ स ा त को म मानता था।

चाण य और चं गु मौय का समय एक ही है‒325 ई.पू. मौय स ाट


चं गु का समय था, यही समय चाण य का भी है। चाण य का िनवास
थान शहर से बाहर एक पणकु टी थी जसे देखकर चीन के ऐितहा सक या ी
फा ान ने कहा था‒”इतने िवशाल देश का धानमं ी ऐसी कु िटया म रहता
है!” तब उ र था चाण य का‒”जहां का धानमं ी साधारण कु िटया म रहता
है वहां के िनवासी भ य भवन म िनवास िकया करते ह और जस देश का
धानमं ी राज ासाद म रहता है वहां क सामा य जनता झ पिड़य म रहती
है।”

चाण य क झोपड़ी म एक ओर गोबर के उपल को तोड़ने के लए एक


प थर पड़ा रहता था, दसरी
ू ओर िश य ारा लायी हई कु शा का ढेर लगा
रहता था। छत पर सिमधाएं सूखने के लए डाली हई थ , जसके भार से छत
नीचे झुक गयी थी। ऐसी जीण-शीण कु िटया चाण य क िनवास थली थी।

आह! वह देश महान य न होगा जसका धानमं ी इतना ईमानदार,


जाग क, च र का धनी व कत यपरायण हो।
इन भाव को देखकर लोग दंग रह जाते ह। हमारे मन पी वीणा के
सम त संवेदनशील तार इस य को देखकर एक साथ झंकृत हो उठते ह।
उन तार से ऐसी क णा क रािगनी फूटती है िक चाण य क स पूण राजनीित
क उ छृंखलता उसी म धीरे -धीरे िवलीन हो जाती है। उसके योित च के
सामने आंख म चकर चाण य को यागी एवं तप वी के प म देखकर सर
झुक जाता है।

2500 वष ई.पू. चणक के पु िव णुगु ने भारतीय राजनियक को


राजनीित क िश ा देने के लए अथशा , लघु चाण य, वृ चाण य,
चाण य-नीित शा आिद ंथ के साथ या यायमान सू का िनमाण िकया
था।

सं कृत सािह य म नीितपरक थ क कोिट म चाण य नीित का


मह वपूण थान है। इसम सू ा मक शैली म जीवन को सुखमय एवं सफल-
सप बनाने के लए उपयोगी अनेक िवषय पर काश डाला गया है।
चाण य के अनुसार आदश रा य सं था वही है जसक योजनाएं जा को
उसके भूिम, धन-धा यािद पाते रहने के मूला धकार से वंिचत कर देनेवाली न
ह , उसे ल बी-चौड़ी योजनाओं के नाम से कर-भार से आ ांत न कर डाल।
रा ो ारक योजनाएं राजक य यय म से बचत करके ही चलाई जानी
चािहए। राजा का ा भाग देकर बचे जा के टु कड़ के भरोसे पर लंबी-
चौड़ी योजना छे ड़ बैठना जा का उ पीड़न है।

चाण य का सािह य समाज म शांित, याय, सुिश ा, सवतो मुखी गित


सखानेवाला ान भंडार है। राजनीितक िश ा का यह दािय व है िक वह
मानव समाज को रा य सं थापन, संचालन, रा संर ण-तीन काम सखाए।

दभु ा य है भारत का िक चाण य के ान क उपे ा करके देशी-िवदेशी


श ुओं को आ मण करने का िनमं ण देकर अपने को श ुओं का िन पाय
आखेट बनाने वाली आसुरी िश ा को अपना लया है। नैितक िश ा, धम
िश ा का लोप हो गया है। च र िनमाण को बिह कृत कर िदया है। मा
लिपक ( लक) पैदा करनेवाली, स ांतहीन, पेट-पालन क िश ा रह गई है।
समाज धीरे -धीरे आसुरी प लेता जा रहा है। अथ-दास स मान या आ मगौरव
क उपे ा करता है। वािभमान का जनाजा िनकाला जा रहा है।

आज के वाथपू रत, अ ानांधकार म डू बे शु वाथ राजनीितक प र य


म मा चाण य का ानामृत ही भारत का पथ दशक बनने क मता रखता
है। वही हम राजनीितक, सामा जक, आ या मक मुि माग िदखा सकता है।
आज क सदोष रा ीय प र थित इस वतमान कु िश ा के कारण है। रा ीय
भावना, रा िहत तथा मनु के आदश आज लोप हो चुके ह। अहंकारी िव ा का
ही बोलबाला है। सां कृितक व प वंस हो चुका है। िन काम सेवा भाव का
िदवाला िनकल गया है। भुता लोभी नेतापन क मिदरा ने बौरा िदया है।
चाण य क राजनीितक िचंता-धारा को समािव करके ही भारत का उ ार हो
सकता है। सदाचारी, यवहार कु शल एवं धमिन और कमशील मानव के
समुिचत िवकास क पया संभावनाएं ह। इस लए यह नीित पाठ आज भी
ासंिगक है।

34 – काद बरी
19/9 रोहाणी,
नई िद ी - 110085

— अ वनी पाराशर
अनु मिणका

चाण य नीित
पहला अ याय
दसरा
ू अ याय
तीसरा अ याय
चौथा अ याय
पाँचवां अ याय
छठा अ याय
सातवां अ याय
आठवां अ याय
नौवां अ याय
दसवां अ याय
यारहवां अ याय
बारहवां अ याय
तेरहवां अ याय
चौदहवां अ याय
पं हवां अ याय
सोलहवां अ याय
स हवां अ याय
चाण य सू
सू
साधु य ते िनवत ते पु ा िम ािण बा धवाः।
ये च तैः सह ग ता ग तार त मात् सुकृतं कु लम।।

चा.नी.4/2

कामधेनु गुणा िव ा काले फलदाियनी।


वासे मातृ स शी िव ा गु ं धनं मृ म्।।

चा.नी.4/2
चाण य नीित
चाण य नीित
थम अ याय

ई वर ाथना
ण य िशरसा िव णुं ैलो या धपितं भुम्।
नाना शा ो तृ ं व ये राजनीित समु चयम्।।1।।

तीन लोक ( वग, पृ वी, पाताल) के वामी भगवान िव णु के चरण म शीश नवाकर णाम करके अनेक शा से
उ तृ राजनीित के संकलन का वणन करता हं।

चाण य यहां राजनीित स ब धी िवचार के ितपादन के समय काय के िनिव न समाि के भाव से कहते ह िक‒म
कौिट य सबसे पहले तीन लोक के वामी भगवान िव णु को सर नवाकर णाम करता हं। इस पु तक म मने अनेक शा
से चुन-चुनकर राजनीित क बात एकि त क ह। यहां म इ ह का वणन करता हं।

चाण य (िव णुगु ) के लए कौिट य का स बोधन इनके कू टनीित म वीण होने के कारण योग िकया है। यह एक
त य है िक चाण य क नीित राजा एवं जा, दोन के लए ही योग िकए जाने के लए थी। राजा के ारा िनवाह िकए
जानेवाला जा के ित धम ही राज धम कहा गया है और जा ारा राजा अथवा रा के ित िनवाह िकया धम ही जा धम
कहा गया। इस धम का उपदेश ही नीितवचन के प म िनिव न पूण हो, इसी आशय से ार भ म मंगलाचरण के पम
िव णु क आराधना से कायार भ िकया गया है।

अ छा मनु य कौन
अधी येदं यथाशा ं नरो जानाित स मः।
धम पदेशिव यातं कायाऽकायाशुभाशुभम्।।2।।

धम का उपदेश देने वाले, काय-अकाय, शुभ-अशुभ को बताने वाले इस नीितशा को पढ़कर जो सही प म इसे
जानता है, वही े मनु य है।

इस नीितशा म धम क या या करते हए या करना चािहए, या नह करना चािहए; या अ छा है, या बुरा है


इ यािद ान का वणन िकया गया है। इसका अ ययन करके इसे अपने जीवन म उतारनेवाला मनु य ही े मनु य है।

आचाय िव णुगु (चाण य) का यहां कहना है िक ानी यि नीितशा को पढ़कर जान लेता है िक उसके लए
करणीय या है और न करने यो य या है। साथ ही उसे कम के भले-बुरे के बारे म भी ान हो जाता है। कत य के ित
यि ारा ान से अ जत यह ि ही धम पदेश का मु य सरोकार और योजन है। काय के ित यि का धम ही यि
धम (मानव धम) कहलाता है अथात मनु य अथवा िकसी व तु का गुण और वभाव जैसे अि का धम जलाना और पानी
का धम बुझाना है उसी कार राजनीित म भी कु छ कम धमानुकूल होते ह और बहत कु छ धम के िव होते ह।

गीता म कृ ण ने यु म अजुन को ि य का धम इसी अथ म बताया था िक रणभूिम म स मुख श ु को सामने पाकर


यु ही ि य का एकमा धम होता है। यु से पलायन या िवमुख होना कायरता कहलाती है। इसी अथ म आचाय चाण य
धम को ानस मत मानते ह।

राजनीित : जग लयाण के लए
तदहं स व यािम लोकानां िहतका यया।
येन िव ान मा ेण सव वं प ते।।3।।

म (चाण य) लोग क भलाई क इ छा से अथात् लोकिहताथ राजनीित के उस रह य वाले प को तुत क ं गा, जसे
केवल जान लेने मा से ही यि वयं को सव समझ सकता है।

प है िक राजनीित के स ा त अपनाना उतना मह वपूण नह जतना िक उनको समझना-जानना िक वे या ह, और


उनका भाव या हो सकता है। इस लए उनके नीितशा का पारायण करनेवाला यि राजनीित का पंिडत हो सकता है,
इस लए आ मक याण ही नह जगक याण के लए राजनीित को जानना बहत ज री है।

िश ा : सुपा क
मूखिश योपदेशेन द ु ा ीभरणेन च।
दःु खतैः स योगेण प डतोऽ यवसीदित।।4।।

मूख िश य को पढ़ाने से, उपदेश देने से, द ु ी का भरण-पोषण करने से तथा दःु खी लोग का साथ करने से िव ान
यि भी दःु खी होता है यानी कह सकते ह िक चाहे कोई भी िकतना ही समझदार य न हो िक तु मूख िश य को पढ़ाने पर,
दु ी के साथ जीवन िबताने पर तथा दःु खय -रोिगय के बीच म रहने पर िव ान यि भी दःु खी हो ही जाता ह, साधारण
आदमी क तो बात ही या। अतः नीित यही कहती है िक मूख िश य को िश ा नह देनी चािहए। द ु ी से स ब ध नह
रखना चािहए, ब क उससे द ूर ही रहना चािहए और दःु खी यि य के बीच म नह रहना चािहए।

हो सकता है, ये बात िकसी भी यि को साधारण या सामा य लग सकती ह, लेिकन यिद इन पर गंभीरता से िवचार
िकया जाए तो यह प है िक िश ा या सीख उसी यि को देनी चािहए जो उसका सुपा हो या जसके मन म इन
िश ा द बात को हण करने क इ छा हो।

आप जानते ह िक एक बार वषा से भीगते ब दर को बया (िचिड़या) ने घ सला बनाने क िश ा दी, लेिकन ब दर उसक
इस सीख के यो य नह था। झुझ
ं लाए हए ब दर ने बया का ही घ सला उजाड़ डाला। इस लए कहा गया है िक जस यि को
िकसी बात का ान न हो उसे कोई भी बात आसानी से समझाई जा सकती है, पर जो अधूरा ानी है उसे तो ा भी नह
समझा सकता। इसी संदभ म चाण य ने आगे कहा है िक मूख के समान ही द ु ी का संग करना या उसका पालन-पोषण
करना भी यि के लए दःु ख का कारण बन सकता है। य िक जो ी अपने पित के ित आ थावान न हो सक , वह
िकसी द ूसरे के लए या िव वसनीय हो सकती है? नह । इसी तरह दःु खी यि जो आ मबल से हीन हो चुका है, िनराशा
म डू ब चुका है उसे कौन उबार सकता है। इस लए बुि मान को चािहए िक वह मूख, द ु ी या दःु खी यि (तीन से)
बचकर आचरण करे । पंचतं म भी कहा गया है‒

‘माता य य गृहे ना त भाया चाि यवािदनी।


अर यं तेन ग त यं यथार यं तथा गृहम्।।’पंच. 4/53

अथात् जसके घर म माता न हो और ी यिभचा रणी हो, उसे वन मे चले जाना चािहए, य िक उसके लए घर और
वन दोन समान ही ह।

दःु खी का पालन भी स तापकारक ही होता है। वै ‘परदःु खेन त यते’ द ूसरे के दःु ख से दःु खी होता है। अंतः दःु खय के
साथ यवहार करने से प डत भी दःु खी होगा।

मृ यु के कारण से बच
द ु ा भाया शठं िम ं भृ य चो रदायकः।
ससप गृहे वासो मृ युरेव न संशयः।।5।।

द ु प नी, शठ िम , उ र देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर म रहना, ये मृ यु के कारण ह। इसम संदेह नह करना
चािहए।

आचाय चाण य कहते ह िक ये चार चीज िकसी भी यि के लए जीत-जागती मृ यु के समान ह‒द ु च र प नी, द ु
िम , जवाब देनेवाला अथात् मुंहलगा नौकर‒इन सबका याग कर देना चािहए। घर म रहनेवाले सांप को कैसे भी, मार देना
चािहए। ऐसा न करने पर यि के जीवन को हर समय खतरा बना रहता है। य िक िकसी भी स गृह थ के लए उसक
प नी का द ु होना मृ यु के समान है। वह यि आ मह या करने पर िववश हो सकता है। वह ी सदैव यि के लए
दःु ख का कारण बनी रहती है। इसी कार नीच यि , धूत अगर िम के प म आपके पास आकर बैठता है तो वह आपके
लए अिहतकारी ही होगा। सेवक या नौकर भी घर के गु भेद जानता है, वह भी यिद वामी क आ ा का पालन
करनेवाला नह है तो मुसीबत का कारण हो सकता है। उससे भी हर समय सावधानी बरतनी पड़ती है, तो द ु ी, छली िम
व मुंहलगा नौकर कभी भी समय पड़ने पर धोखा दे सकते ह, अतः ऐसे म प नी को आ ाका रणी व पित ता होना, िम को
समझदार व िव वसनीय होना और नौकर को वामी के ित ावान होना चािहए। इसके िवपरीत होने पर क ही क है।
इनसे यि को बचना चािहए, वरना ऐसा यि कभी भी मृ यु का ास हो सकता है।

िवप म या कर
आपदथ धनं र ेद ् दारान् र ेद ् धनैरिप।
आ मानं सततं र ेद ् दारै रिप धनैरिप।।6।।

िवप के समय के लए धन क र ा करनी चािहए। धन से अ धक र ा प नी क करनी चािहए। िक तु अपनी र ा का


न स मुख आने पर धन और प नी का ब लदान भी करना पड़े तो भी नह चूकना चािहए।

संकट, दःु ख म धन ही मनु य के काम आता है। अतः ऐसे संकट के समय म संिचत धन ही काम आता है, इस लए
मनु य को धन क र ा करनी चािहए। प नी धन से भी बढ़कर है, अतः उसक र ा धन से भी पहले करनी चािहए। िक तु
धन एवं प नी से पहले तथा इन दोन से बढ़कर अपनी र ा करनी चािहए। अपनी र ा होने पर इनक तथा अ य सबक भी
र ा क जा सकती है।

आचाय चाण य धन के मह व को कम नह करते य िक धन से यि के अनेक काय सधते ह िक तु प रवार क भ


मिहला, ी अथवा प नी के जीवन-स मान का न स मुख आ जाने पर धन क परवाह नह करनी चािहए। प रवार क
मान-मयादा से ही यि क अपनी मान-मयादा है। वही चली गई तो जीवन िकस काम का और वह धन िकसी काम का?
पर जब यि क वयं क जान पर बन आये तो या धन, या ी, सभी क िच ता छोड़ यि को अपने जीवन क र ा
करनी चािहए। वह रहेगा तो ही प नी अथवा धन का उपभोग कर सकेगा वरना सब यथ रह जाएगा। राजपूत य ने जब
यह अनुभव िकया िक रा य क र ा कर पाना या उसे बचा पाना असंभव हो गया तो उ ह ने जौहर त का पालन िकया और
अपने ाण क आहित दे दी। यही जीवन का धम है।

आपदथ धनं र े छीमतांकुतः िकमापदः।


कदािच च लता ल मी संिचताऽिप िवन यित।।7।।

आप काल के लए धन क र ा करनी चािहए। लेिकन धनवान को आप या करे गी अथात् धनवान पर आप


आती ही कहां है? तो न उठा िक ल मी तो चंचल होती है, पता नह कब न हो जाए तो िफर यिद ऐसा है तो कदािचत्
संिचत धन भी न हो सकता है।

बुरा समय आने पर यि का सब कु छ न हो सकता है। ल मी वभाव से ही चंचल होती है। इसका कोई भरोसा नह
िक कब साथ छोड़ जाऐ। इस लए धनवान यि को भी यह नह समझना चािहए िक उस पर िवप आएगी ही नह । दःु ख
के समय के लए कु छ धन अव य बचाकर रखना चािहए।

व तुतः यह लोक ‘भोज ब ध’ म भी उ तृ है। वहां राजा भोज और कोषा य क बातचीत का संग है। राजा भोज
अ य धक दानी थे। उनक इतनी दानशीलता को देखकर खजांची एक चरण लख देता है तो राजा द ूसरे चरण म उसका उ र
दे देते ह, अ त म खजांची राजा के म त य और दान के मह व को समझकर अपनी भूल वीकार कर लेता है।

यहां अिभ ाय यह है िक धन का योग अनुिचत काय ं म िकया जाए तो उसके न होने पर यि िवप ता को ा
होता है, िक तु स काय ं म यय िकया गया धन यि को मान, ित ा और समाज म आदर का पा बनाता है य िक धन-
सप अ थायी होती है। इन पर या गुमान करना। यि इ ह अ जत करता है। वा तिवक शि तो भु ारा द है वही
थायी है। जबतक उसक कृपा है तब तक ही सब कु छ है, लेिकन यह िन चय है िक धन-स प यि के प र म,
बुि मता और काय मता से ा होती है और इसके चलते वह कभी न नह होती। म, बुि और काय मता के अभाव
म वह हमेशा साथ छोड़ देती है, तो मूल बात म, बुि क काय मता का बने रहना है तभी ल मी भी थर रह सकती है।

इन थान पर न रह
य मन् देशे न स मानो न वृ न च बा धवाः।
न च िव ागमोऽ य त वास त न कारयेत्।।8।।
जस देश म स मान न हो, जहां कोई आजीिवका न िमले, जहां अपना कोई भाई-ब धु न रहता हो और जहां िव ा
अ ययन संभव न हो, ऐसे थान पर नह रहना चािहए।

अथात् जस देश अथवा शहर म िन न ल खत सुिवधाएं न ह , उस थान को अपना िनवास नह बनाना चािहए‒

जहां िकसी भी यि का स मान न हो।


जहां यि को कोई काम न िमल सके।
जहां अपना कोई सगा-संबध
ं ी या प रिचत यि न रहता हो।
जहां िव ा ा करने के साधन न ह , अथात् जहां कू ल-कॉलेज या पु तकालय आिद न ह ।

ऐसे थान पर रहने से कोई लाभ नह होता। अतः इन थान को छोड़ देना ही उिचत होता है।

अतः मनु य को चािहए िक वह आजीिवका के लए उपयु थान चुने। वहां का समाज ही उसका सही समाज होगा
य िक मनु य सांसा रक ाणी है, वह केवल आजीिवका के भरोसे जीिवत नह रह सकता। जहां उसके िम -ब धु ह वहां
आजीिवका भी हो तो यह उपयु थान होगा। िवचारशि को बनाये रखने के लए, ान ाि के साधन भी वहां सुलभ ह ,
इसके िबना भी मनु य का िनवाह नह । इस लए आचाय चाण य यहां नीित वचन के प म कहते ह िक यि को ऐसे देश
म िनवास नह करना चािहए जहां उसे न स मान ा हो, न आजीिवका का साधन हो, न बंधु-बा धव ह , न ही िव ा ाि
का कोई साधन हो ब क जहां ये संसाधन उपल ध हो वहां वास करना चािहए।

धिनकः ोि यो राजा नदी वै तु प मः।


प य न िव ते न त िदवसे वसेत।।9।।

जहां कोई सेठ, वेदपाठी िव ान, राजा और वै न ह , जहां कोई नदी न हो, इन पांच थान पर एक िदन भी नह रहना
चािहए।

अथात् इन थान पर एक िदन भी नह रहना चािहए‒

जस शहर म कोई भी धनवान यि न हो।


जस देश म वेद को जानने वाले िव ान न ह ।
जस देश म कोई राजा या सरकार न हो।
जस शहर या गांव म कोई वै (डॉ टर) न हो।
जस थान के पास कोई भी नदी न बहती हो।

य िक आचाय चाण य मानते ह िक जीवन क सम याओं म इन पांच व तुओं का अ य धक मह व है। आप के समय


धन क आव यकता होती है जसक पूित धनी यि य से ही हो पाती है। कमका ड के लए पारं गत पुरोिहत क
आव यकता होती है। रा य शासन के लए राज मुख या राजा क आव यकता होती है। जल आपूित के लए नदी और
रोग िनवारण के लए अ छे िचिक सक क आव यकता होती है। इस लए आचाय चाण य पूव पांच सुिवधाएं जीवन के
लए अपेि त सुिवधा के प म मानते हए इनक आव यकता पर बल देते ह और इन सुिवधाओं से स प थान को ही
रहने यो य थान के प म समझते ह।

लोकया ा भयं ल जा दाि यं यागशीलता।


प य न िव ते न कु या संगितम्।।10।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस थान पर आजीिवका न िमले, लोग म भय, ल जा, उदारता तथा दान देने क वृ
न हो, ऐसी पांच जगह को भी मनु य को अपने िनवास के लए नह चुनना चािहए। इन पांच चीज को िव तार से बताते हए
वे कहते ह िक जहां िन न ल खत पांच चीज न ह , उस थान से कोई सरोकार नह रखना चािहए।

जहां रोजी-रोटी का कोई साधन अथवा आजीिवका या यापार क थित न हो।


जहां लोग म लोकलाज अथवा िकसी कार का भय न हो।
जस थान पर परोपकारी लोग न ह और जनम याग क भावना न पाई जाती हो।
जहां लोग को समाज या कानून का कोई भय न हो।
जहां के लोग दान देना जानते ही न ह ।

ऐसे थान पर यि का कोई स मान नह होता और वहां रहना भी किठन ही होता है। अतः यि को अपने आवास के
लए सब कार से साधन स प और यावहा रक थान चुनना चािहए तािक वह एक व थ वातावरण म अपने प रवार के
साथ सुरि त एवं सुखपूवक रह सके। य िक जहां के लोग म ई वर, लोक व परलोक म आ था होगी वह सामा जक
आदर का भाव होगा, अकरणीय काय करने म भय, संकोच व ल जा का भाव रहेगा। लोग म पर पर याग भावना होगी
और वे यि वाथ म लीन कानून तोड़ने म वृ नह ह गे, ब क द ूसर के िहताथ दानशील ह गे।

परख समय पर होती है‒


जानीया ेषणेभृ यान् बा धवान् यसनाऽऽगमे।
िम ं याऽऽप कालेषु भाया च िवभव ये।।11।।

आचाय चाण य समय आने पर स ब धय क परी ा के संदभ म कहते ह‒िकसी मह वपूण काय पर भेजते समय
सेवक क पहचान होती है। दःु ख के समय म बंधु-बांधव क , िवप के समय िम क तथा धन न हो जाने पर प नी क
परी ा होती है।

यिद िकसी िवशेष अवसर पर सेवक को कह िकसी िवशेष काय से भेजा जाए तभी उसक ईमानदारी आिद क परी ा
होती है। रोग या िवप म ही सगे-स ब धय तथा िम क पहचान होती है और गरीबी म, धनाभाव म प नी क परी ा होती
है।

सभी जानते ह िक मनु य सामा जक ाणी है। वह अकेला नह रह सकता। उसे अपने हर काम को करने म सहायक,
िम , ब धु, सखा और प रजन क आव यकता होती है िक तु िकसी भी कारणवश उसके ये सहायक उसक जीवन-या ा म
समय पर सहायक नह होते तो उस यि का जीवन िन फल हो जाता है। अतः सही सेवक वही जो असमय आने पर
सहायक हो। िम , सखा व ब धु वही भला जो आप के समय सहायक हो, यसन से मुि िदलाने वाला हो और प नी वही
सहाियका और असली जीवनसंिगनी है जो धनाभाव म भी पित का सदैव साथ दे। ऐसा न होने पर इनका होना बेकार है।

आतुरे यसने ा े दिु भ े श ुसक


ं टे।
राज ारे मशाने च या ित स बा धवः।।12।।

यहां आचाय चाण य बंधु-बांधव , िम और प रवारजन क पहचान बताते हए कहते ह िक रोग क दशा म‒जब कोई
बीमार होने पर, असमय श ु से िघर जाने पर, राजकाय म सहायक प म तथा मृ यु पर मशान भूिम म ले जाने वाला
यि स चा िम और बंधु है।

देखा जाए तो सामा जक ाणी होने के कारण मनु य के स पक म अनेक लोग आ जाते ह और अपने लाभ के कारण वह
यि से जुड़े होने का भाव भी जताते ह, िक तु वे िकतने स चे और सही िम ह और िकतने मौकापर त, इसका अनुभव तो
समय आने पर ही हो पाता है।

ऊपर विणत थितयां ऐसे ही अवसर का उदाहरण ह। जब कोई यि रोग त हो जाता है तो उसे सहायक क
आव यकता पड़ती है, ऐसे म प रवारजन और िम ब धु जो सहायक बनते ह वा तव म वही सही िम कहे जाते ह। शेष सब
तो मुंहदेखी बात ह। इसी कार जब कोई यि श ु से िघर जाए, उसके ाण संकट म पड़ जाएं तो जो कोई िम , सगा-
स ब धी श ुओं से मुि िदलाता है, ाण र ा म सहायक बनता है वह उसका िम व िहतैषी है। शेष सब वाथ के नाते ही
जुड़े ह।

ऐसे ही राजा और सरकार क ओर से यि पर याियक मामले म अिभयोग लग जाता है या िकसी राजक य कम म


उसके सम बड़ी सम या आ जाती है तो िम -ब धु (यिद वे स चे ह तो) ही सहयोग करते ह और मृ युपरा त तो हम सभी
जानते ह िक यि चार यि य के क ध पर सवार होकर ही मशान पहंचता है। ऐसे म िम -स ब धय क ही अपे ा
होती है। ऐसे समय म ही स चे और सही ईमानदार िम क वा तिवक पहचान होती है।

हाथ आई चीज न गवाएं


यो ुवािण प र य य ुवं प रसेवते।
ुवािण त य न य त चा ुवं न मेव तत्।।13।।

आचाय चाण य कहते ह िक जो िन चत को छोड़कर अिन चत का सहारा लेता है, उसका िन चत भी न हो जाता
है। अिन चत तो वयं न होता ही है। अिभ ाय यह है िक जस चीज का िमलना प का िन चत है, उसी को पहले ा
करना चािहए या उसी काम को पहले कर लेना चािहए। ऐसा न करके जो यि अिन चत यानी जसका होना या िमलना
प का न हो, उसक ओर पहले दौड़ता है, उसका िन चत भी न हो जाता है अथात् िमलनेवाली व तु भी नह िमलती।
अिन चत का तो िव वास करना ही मूखता है, इसे तो न ही समझना चािहए। अथात् ऐसा आदमी अ सर ‘आधी तज पूरी
को धावे, आधी िमले न पूरी पावे’ क थित का िशकार हो जाता है।

इस संदभ म अनेक उदाहरण िदए जा सकते ह। कु छ यि केवल मनोरथ से ही कम क ाि मान लेते ह, वह जो कु छ


पाने यो य हाथ म है, उसक परवाह िकए बगैर जो हाथ म नह है उसके च कर म पड़ जाते ह और होता यह है िक जो पा
सकते थे, उसे भी गंवा बैठते ह। ऐसे यि केवल ड ग मारते ह, कम म िश थलता बरतते ह और शेखिच ी होकर रह
जाते ह। इस लए यि को चािहए िक वह अपने साधन के अनु प काय-योजना बनाकर चले तभी वह इस जीवन- पी
सागर को शरीर- पी नौका के सहारे पार जा सकता है वरना नाव मझधार म कह भी मनोरथ के भंवर म फंसकर रह
जाएगी। अतः मनु य को अपनी मता को पहचानकर काय करना चािहए य िक काम करने से ही होता है, केवल मनोरथ
से नह ।

िववाह समान म ही शोभा देता है


वरये कु लजां ा ो िन पामिप क यकाम्।
पवत न नीच य िववाहः स शे कु ले।।14।।

आचाय चाण य िववाह के संदभ म प और कु ल म े ता कु ल को देते हए कहते ह िक बुि मान मनु य को चािहए
िक वह पवती न होने पर भी कु लीन क या से िववाह कर ले, िक तु नीच कु ल क क या यिद पवती तथा सुशील भी हो,
तो उससे िववाह न करे । य िक िववाह समान कु ल म ही करना चािहए।

(िववाह के लए वर और वधू, दोन का घराना समान तर का होना चािहए। बुि मान मनु य को अपने समान कु ल क
क या से ही िववाह करना चािहए। चाहे क या साधारण प-रं ग क ही य न हो, िन न कु ल क क या यिद सु दर और
सुशील भी हो, तो उससे िववाह नह करना चािहए।)

ग ड़ पुराण म भी यह लोक िकंिचत् पाठभेद से िमलता है। उसम भी कहा गया है िक ‘समान कु ल यसने च स यम्’
अथात् िम ता एवं िववाह समान म ही शोभा देता है। िवजातीय अथवा असमान (बेमेल िववाह) म अनेक क आते ह।
अनेक सम याएं पैदा हो जाती ह। य िप मनु मृित म ितकू ल िववाह का भी िवधान है, लेिकन देखने म यही आता है िक
असमान िववाह अनेक कारण से असफल ही हो जाते ह या उनका प रणाम सुखद नह रह पाता। इस लए जीवन के स दभ
म िववाह जैसे मह वपूण न को भावुकता का िशकार बनने से रोकना ही नीितसंगत है।

देख-परख कर भरोसा कर
नखीनां च नदीनां च ंगीणां श पािणनाम्।
िव वासो नैव क यः ीषु राजकु लेषु च।।15।।

आचाय चाण य यहां िव वसनीयता के ल ण क चचा करते हए कहते ह िक लंबे नाखून वाले िहंसक पशुओं, निदय ,
बड़े-बड़े स ग वाले पशुओं, श धा रय , य और राज-प रवार का कभी िव वास नह करना चािहए य िक ये कब घात
कर द, चोट पहंचा द कोई भरोसा नह । जैसे ल बे नाखून वाले संह, भालू अथवा बाघ आिद पर भी भरोसा नह िकया जा
सकता, य िक उनके स ब ध म आप इस बात के लए आ व त नह हो सकते ह, इस लए उन पर िव वास करनेवाला
यि सदा धोखा खाता है। ऐसे ही यिद आप कोई नदी पार करना चाहते ह तो आपको िकसी यि के यह कहने पर भरोसा
नह करना चािहए िक नदी का वाह अथवा गहराई िकतनी है, य िक नदी के वाह और उसक गहराई के स ब ध म कोई
िन चत धारणा कभी नह बताई जा सकती। इस लए आप यिद नदी म उतरते ह तो आपका सावधान रहना आव यक है और
वयं के िववेक का योग करना चािहए।
इसी कार आचाय चाण य का कहना है िक स ग वाले पशुओं तथा श धारी यि का भी िव वास नह िकया जा
सकता। य िक न जाने वे कब वाथवश आपका अिहत कर बैठ या अपने जुनून म आ मण कर द।

इसी कार य का भी आंख म चकर िव वास नह िकया जा सकता, य िक या पता उनके मन म या है और वे


अपने संक ण सोच, ित ई या- ेष से त आपको कब गलत सलाह दे बैठ या आपको गलत, अपने मनोनुकूल काय के
लए े रत कर द। आचाय चाण य का प मत है िक बहत-सी यां कहती कु छ है और करती कु छ और ह। वे ेम
िकसी अ य से करती ह तथा ेम का दशन िकसी अ य से करती ह। इस लए उनक वािमभि व पित ता होने पर
िव वास नह िकया जा सकता। इसम सावधानी बरतनी चािहए।

इसी कार आचाय चाण य राजकु ल क भी चचा करते ह। उनके िवचार से राजनीित सदा ही प रवतनशील होती है।
राजप रवार के लोग स ा प से जुड़े होने के कारण या स ा म आने (स ा पाने) के लोभ म कू ट चाल म त रहते ह,
उसी के िशकार भी होते ह। उनके िम व श ु सामियक हािन-लाभ पर िनभर करते ह। इस प से ऐितहा सक पृ भूिम म
देख तो यह त य प है िक रा य- ाि के लए पु िपता क ह या करवा देता है। उसे कारागार म डलवा देता है। कंस ने
लोभ म िपता उ सेन को कारागार म डाल िदया था और अपने ाण को सुरि त रखने के भाव से बहन देवक को पित
वासुदेव सिहत जेल म डाल िदया था। कृ ण का ज म कंस क कारावास म ही हआ था।

अतः चाण य के अनुसार इन 6 स ब ध -शि य पर अ धिव वास नह करना चािहए, य िक इनक िच वृ यां ण-
ित ण बदलती रहती ह। यही नीित कहती है।

सार को हण कर
िवषाद यमृतं ा ममे यादिप कांचनम्।
नीचाद यु मां िव ां ीर नं द ु कु लादिप।।16।।

आचाय चाण य यहां सा य क मह ा दशाते हए साधन को गौण मानते हए कहते ह िक िवष म से भी अमृत तथा गंदगी
म से भी सोना ले लेना चािहए। नीच यि से भी उ म िव ा ले लेनी चािहए और द ु कु ल से भी ी-र न को ले लेना
चािहए।

अमृत अमृत है, जीवनदायी है, अतः िवष म पड़े हए अमृत को ले लेना ही उिचत होता है। सोना यिद कह पर गंदगी म
भी पड़ा हो तो उसे उठा लेना चािहए। अ छा ान या िव ा िकसी नीच कु ल वाले यि से भी िमले तो उसे खुशी से हण
कर लेना चािहए। इसी तरह यिद द ु के कु ल म भी कोई गुणवान, सुशील े क या हो, तो उसे वीकार कर लेना चािहए।

कहने का ता पय यह है िक यि को अमृत, वण, िव ा तथा गुण और ी-र न को हण करने से कभी भी


िहचिकचाना नह चािहए। वह इनके हण म गुण को मह ा दे, ोत को नह अथात् बुरे ोत से कोई उ म पदाथ ा होता
हो तो उसे ा करने म यि को संकोच नह करना चािहए, य िक उपल य तो सा य है साधन नह । चाण य ने एक
थान पर यह भी कहा है िक नीच कु ल क सु दर क या से िववाह आिद नह करना चािहए, पर तु यहां उनका संकेत इस
ओर है िक भले ही क या छोटे कु ल म उ प हई हो, पर वह गुणवती हो तो उसे हण करने म चाण य आप नह समझते।
यहां उ ह ने उसके गुण क ओर संकेत िकया है, केवल मा र सक क भांित उसके प क ओर नह । िववाह के स ब ध म
तो चाण य क यह प धारणा है िक वह तो समान तर के प रवार म ही होना चािहए। ऐसा तीत होता है िक चाण य
िववाह के बाद होने वाले प रणाम से पूणतया प रिचत थे। जैसािक आज हम देखते ह िक समान तर और समान िवचारवाले
प रवार म िववाह न होने के कारण यि को अनेक संकट से गुजरना पड़ता है, िक तु इसके बाद भी गुण का मह व
सव प र है उसे परखने म भूल नह करनी चािहए।

ी पु ष से आगे होती है
ीणां ि गुण अहारो ल जा चािप चतुगुणा।
साहसं ष गुणं चैव काम चा गुणः मृतः।।17।।

आचाय चाण य यहां पु ष क अपे ा य क ि यावृ क तुलना करते हए कहते ह िक य म आहार दगु ुना,
ल जा चौगुनी, साहस छह गुना तथा कामो ेजना (संभोग क इ छा) आठ गुनी होती है।
यहां व तुतः नारी के बारे म जो कहा गया है, उसक िन दा नह ब क गुण क ि से शंसा है िक य का आहार
पु ष से दगु ुना होता है। ल जा चौगुनी होती है, िकसी भी बुरे काम को करने क िह मत ी म पु ष से छः गुना अ धक होती
है तथा कामो ेजना‒स भोग क इ छा पु ष से ी म आठ गुना अ धक होती है। और यह गुणव ा उनके शारी रक दािय व‒
जसका वे िववाहोपरा त वहन करती ह, के कारण होती है। य को गभधारण करना होता है, स तानो प के बाद उसका
पालन-पोषण करना पड़ता है, इस पूरी ि या म उ ह िकतना क उठाना पड़ता है, इसक क पना ी के अलावा द ूसरा
अ य कोई कैसे कर सकता है। ‘बांझ या जाने सव पीड़ा’ सव पीड़ा झेलना या होने के गौरव के सामने एक सामा य
ि या होकर रह जाती है।

जहां तक काम भावना का न है, पु ष क अपे ा काम भावना य म अ धक होती है य िक मैथुन के बाद
वीय खनल के साथ काम शांित और काम वैरा य भी उ प होता है। य म भी काम शांित होती है, साथ ही अतृ ताव था
म वाभािवक ि या न होने पर अ य पु ष से स ब ध कायम करने क बल भावना उसम वे यापन (परपु षगामी) ला देती
है। लेिकन पु ष म त काल ऐसी ि याएं नह देखी जात । अतः काम भावना का पु ष क अपे ा य म अ धक होना
अनुमािनत िकया गया है।
ि तीय अ याय

य के वाभािवक दोष
अमृतं साहसं माया मूख वमितलोिभता।
अशौच वं िनदय वं ीणां दोषाः वभावजाः।।1।।

यहां आचाय चाण य य के वभाव पर िट पणी करते हए यह कह रहे ह िक झूठ बोलना, साहस, छल-कपट, मूखता,
अ य त लोभ, अपिव ता और िनदयता‒ये य के वाभािवक दोष ह, अथात् य म यह वृ ज म से ही होती है। वे
अपने दःु साहस म कोई भी ऐसा काम कर सकती ह, जस पर भरोसा नह िकया जा सकता।

आचाय चाण य ने यहां नारी के वभाव का वणन िकया है और मानते ह िक सृि क रचना म नारी का अ ु ण
योगदान है। लेिकन जहां वभाव का न है वहां ये दोष भी पाये जाते ह, इसका अथ यह नह िक नारी बुि मान् नह होती।
आ शंकराचाय ने नो री म उि खत िकया है िक ‘ ारं िकमेकं नरक य नारी’ अथात् नरक का धान ार या एकमा
ार के प म नारी को उ तृ िकया है। तुलसीदास ने कहा है िक ‘ना र वभाव स य किव कह , अवगुण आठ सदा उर
रह ।।’ इन आठ अवगुण म इसी लोक म िगनाये नाम का अनुवाद िकया है। साथ ही सामा य िनयम को िवशेष िनयम
भािवत करते रहते ह, य िक नारी ममता, दया, मा आिद का एकमा थान है। इसके िबना सृि ही अधूरी है। अतः
सीता, राधा, जीजाबाई, ल मीबाई आिद म अवगुण ढू ढ़ं ना अपनी अिववेिकता है। ये तो नारी के आदश ह और आचाय
चाण य ने य के जन दोष क ऊपर चचा क है वे वाभािवक वृ यां ह। आव यक नह िक ये सभी य म पाई
जाएं।

जीवन के सुख भा यशाली को िमलते ह


भो यं भोजनशि च रितशि र वरांगना।
िवभवो दानशि च नाऽ प य तपसः फलम्।।2।।

यहां आचाय चाण य का कथन है िक भो य पदाथ, भोजन शि , रितशि , सु दर ी, वैभव तथा दान शि , ये सब
सुख िकसी अ प तप या का फल नह होते। अथात् सु दर खाने-पीने क व तुएं िमल और जीवन के अंत तक खाने-पचाने
क शि बनी रहे। ी से संभोग क इ छा बनी रहे तथा सुंदर ी िमले, धन-स प हो और दान देने क आदत भी हो। ये
सारे सुख िकसी भा यशाली को ही िमलते ह, पूवज म म अखंड तप या से ही ऐसा सौभा य िमलता है।

अ सर देखने म यह आता है िक जन यि य के पास खाने क कोई कमी नह , उनके पास उ ह खाकर पचाने क
साम य नह होती। आप इसे यूं भी कह सकते ह िक जसके पास चने ह, उसके पास उनका आन द उठाने के लए दांत नह
और जसके पास दांत ह, उसके पास चने नह । अिभ ाय यह है िक अ य त धनवान् यि भी ऐसे रोग से त रहते ह,
ज ह साधारण या सादी चीज भी नह पचती, परं तु जो यि खूब -पु ह, तगड़े ह, तथा जनक पाचनशि भी तेज है,
उनके पास अभाव के कारण खाने को ही कु छ नह होता। इसी कार बहत-से यि य के पास धन-दौलत और वैभव क
कोई कमी नह होती, पर तु उनम उसके उपभोग करने और दान देने क वृ नह होती। जन यि य म ये बात समान
प से िमलती ह, चाण य उसे उनके पूवज म के तप का फल मानते ह। अथात् उनका यह कहना है िक खाने-पीने क
व तुओं के साथ उ ह पचाने क शि , सु दर ी के रहने पर मनु य म स भोग क शि और धन के रहने पर उसका
सदपु योग और दान क वृ जस यि म होती है, वह बहत भा यशाली होता है। इसे िपछले ज म का सुफल ही मानना
चािहए।

जीवन सुख म ही वग है
य य पु ो वशीभूतो भाया छ दानुगािमनी।
िवभवे य य स तुि त य वग इहैव िह।।3।।
आचाय चाण य का कथन है िक जसका पु वशीभूत हो, प नी वेद के माग पर चलने वाली हो और जो अपने वैभव से
संतु हो, उसके लए यह वग है।

अिभ ाय यह है िक जस मनु य का पु आ ाकारी होता है, सब कार से कहने म होता है, प नी धािमक और उ म
चाल-चलन वाली होती है, स गृिहणी होती है तथा जो अपने पास जतनी भी धन-स प है, उसी म खुश रहता है, संतु
रहता है, ऐसे यि को इसी संसार म वग का सुख ा होता है। उसके लए पृ वी म ही वग हो जाता है।

य िक पु का आ ापालक होना, ी का पित ता होना और मनु य का धन के ित लोभ-लालच न रखना अथवा मन


म संतोष बनाए रखना ही वग के िमलनेवाले सुख के समान है। ऐसा िव वास िकया जाता है िक वग अनेक शुभ अथवा
पु य काय ं के अ जत करने से ही ा होते ह, जस यि को ये तीन सुख ा ह , उसे बहत भा यशाली समझना
चािहए।

साथकता म ही स ब ध का सुख
ते पु ा ये िपतुभ ाः सः िपता य तु पोषकः।
त म म् य िव वासः सा भाया या िनवृित।।4।।

आचाय चाण य का कथन है िक पु वही है, जो िपता का भ है। िपता वही है, जो पोषक है, िम वही है, जो
िव वासपा हो। प नी वही है, जो दय को आन दत करे ।

अथात् िपता क आ ा को माननेवाला और सेवा करनेवाला ही पु कहा जाता है। अपने ब च का सही पालन-पोषण,
देखरे ख करनेवाला और उ ह उिचत िश ा देकर यो य बनानेवाला यि ही स चे अथ म िपता है। जस पर िव वास हो, जो
िव वासघात न करे , वही स चा िम होता है। पित को कभी दःु खी न करनेवाली तथा सदा उसके सुख का यान रखनेवाली
ही प नी कही जाती है।

अिभ ाय यह है िक इस संसार म स ब ध तो अनेक कार के ह, पर तु िनकट के स ब ध के प म िपता, पु , माता


और प नी ही माने जाते ह। इस लए कहा जा सकता है िक स तान वही जो माता-िपता क सेवा करे वरना वह स तान यथ
है। इसी कार अपनी स तान और अपने प रवार का भरण-पोषण करनेवाला यि ही िपता कहला सकता है और िम भी
ऐसे यि को ही माना जा सकता है जस पर कभी भी िकसी कार से अिव वास न िकया जा सके। जो सदा िव वासी रहे,
अपने अनुकूल आचरण से पित को सुख देनेवाली ी ही स चे अथ ं म प नी कहला सकती है। इसका अथ यह है िक नाम
और स ब ध के बहाने एक-द ूसरे से जुड़े रहने म कोई सार नह , स ब ध क वा तिवकता तो तभी तक है जब सब अपने
कत य का पालन करते हए एक-द ूसरे को सुखी बनाने का य न कर और स ब ध क वा तिवकता का सदा िनवाह कर।

छली िम को याग द
परो े कायह तारं य े ि यवािदनम्।
वजये ा शं िम ं िवषकु भं पयोमुखम्।।5।।

आचाय चाण य का कथन है िक पीठ पीछे काम िबगाड़ने वाले तथा सामने ि य बोलने वाले ऐसे िम को मुंह पर द ूध
रखे हए िवष के घड़े के समान याग देना चािहए।

अिभ ाय यह है िक एक िवष भरे घड़े के ऊपर यिद थोड़ा-सा द ूध डाल िदया जाए तो िफर भी वह िवष का ही घड़ा कहा
जाता है। इसी कार मुंह के सामने िचकनी-चुपड़ी बात करनेवाला और पीठ पीछे काम िबगाड़ने वाला िम भी इस िवष भरे
घड़े के समान होता है। िवष के घडे़ को कोई भी यि नह अपना सकता। इस लए इस कार के िम को याग देना ही
उिचत है। सच तो यह है िक ऐसे यि िम कहे ही नह जा सकते। इ ह श ु ही समझना चािहए।

न िव वसे कु िम े च िम े चािप न िव वसेत्।


कदािच कु िपतं िम ं सव गु ं काशयेत्।।6।।

आचाय चाण य का कथन है िक कु िम पर कभी िव वास नह करना चािहए और पूरी तरह िम पर भी िव वास नह
करना चािहए। कभी कु िपत होने पर िम भी आपक गु बात सबको बता सकता है।
अिभ ाय यह है िक द ु -चुगलखोर िम का भूलकर िव वास नह करना चािहए। साथ ही िकतना ही लंगोिटया यार य
न हो, उसे भी अपनी राज क बात नह बतानी चािहए। हो सकता है वह आपसे नाराज हो जाए और आपका क चा िच ा
सबके सामने खोल दे। इस पर आपको पछताना पड़ सकता है य िक आपका भेद जानकर वह िम वाथ म आपका भेद
खोल देने क धमक देकर आपको अनुिचत काय करने के लए िववश कर सकता है। अतः आचाय चाण य का िव वास है
िक जसे आप अ छा िम समझते ह उसे भी अपने रह य का भेद न द। कु छ बात का पदा रखना आव यक है।

मन का भाव गु ही रख
मनसा िच ततं काय वाचा नैव काशयेत्।
म ेण र येद ् गूढं काय चाऽिप िनयोजयेत्।।7।।

आचाय चाण य का कथन है िक मन म सोचे हए काय को मुंह से बाहर नह िनकालना चािहए। मं के समान गु
रखकर उसक र ा करनी चािहए। गु रखकर ही उस काम को करना भी चािहए।

अिभ ाय यह है िक मन म जो भी काम करने का िवचार हो, उसे मन म ही रखना चािहए; िकसी को बताना नह चािहए।
म के समान गोपनीय रखकर चुपचाप काम शु कर देना चािहए। जब काम चल रहा हो, उस समय ही उसका िढंढोरा नह
पीटना चािहए। बता देने पर यिद काम पूरा न हआ तो हंसी होती है। कोई श ु काम िबगाड़ सकता है। काम पूरा होने पर िफर
सबको मालूम हो ही जाता है, य िक मनोिव ान का िनयम है िक आप जस काय के लए अ धक िच तन-मनन करगे और
चुपचाप उसे काय प म प रणत करगे उसम सि ा करने के अवसर िन चत िमलगे, इस लए आचाय का कथन है िक
मन म सोची हई बात या काय-योजना काय प म लाने से पहले कट नह करनी चािहए। इसी म स जन क भलाई है।

पराधीनता
क ं च खलु मूख वं क ं च खलु यौवनम्।
क ा क तरं चैव परगेहिनवासनम्।।8।।

आचाय का कहना है िक मूखता क है, यौवन भी क है, िक तु द ूसर के घर म रहना क का भी क है।

व तुतः मूखता अपने-आप म एक क है और जवानी भी यि को दःु खी करती है। इ छाएं पूरी न होने पर भी दःु ख
तथा कोई भला-बुरा काम हो जाए, तो भी दःु ख। इन दःु ख से भी बड़ा दःु ख है‒पराए घर म रहने का दःु ख। परघर म न तो
यि वािभमान के साथ रह सकता है और न अपनी इ छा से कोई काम ही कर सकता है। य िक मूख यि को उिचत-
अनुिचत का ान न होने के कारण हमेशा क उठाना पड़ता है। इस लए कहा गया है िक मूख होना अपने-आप म एक बड़ा
अिभशाप है। कौन-सी बात उिचत है और कौन-सी अनुिचत है, यह जानना जीवन के लए आव यक होता है। इसी भांित
जवानी बुराईय क जड़ है। कहा तो यहां तक गया है िक जवानी अ धी और दीवानी होती है। जवानी म यि काम के
आवेग म िववेक खो बैठता है, उसे अपनी शि पर गुमान हो जाता है। उसम इतना अहं भर जाता है िक वह अपने सामने
िकसी द ूसरे यि को कु छ समझता ही नह । जवानी मनु य को िववेकहीन ही नह , िनल ज भी बना देती है, जसके कारण
यि को अनेक क उठाने पड़ते ह। ऐसे म यि को यिद द ूसरे के घर म रहना पड़े तो उसे द ूसरे क कृपा पर उसके घर
क यव था का अनुसरण करते हए रहना पड़ेगा। इस तरह वह अपनी वतं ता गंवा देगा। तभी तो कहा गया‒‘पराधीन
सपनेह सुख नाह ’। इस लए इन पर िवचार करना चािहए।

साधु पु ष
शैले शैले न मािण यं मौि कं न गजे गजे।
साधवो न िह सव च दनं न वने वने।।9।।

आचाय चाण य ने कहा है िक न येक पवत पर मिण-मािण य ही ा होते ह, न येक हाथी के म तक से मु ा-


मिण ा होती है। संसार म मनु य क कमी न होने पर भी साधु पु ष सब जगह नह िमलते। इसी कार सभी वन म चंदन
के वृ उपल ध नह होते।

यहां अिभ ाय यह है िक अनेक पवत पर मिण-मिण य िमलते ह, पर तु सभी पवत पर नह । ऐसा िव वास िकया जाता
है िक कु छ हाथी ऐसे होते ह जनके म तक म मिण िव मान रहती है, पर तु ऐसा सभी हा थय म नह होता। इसी कार इस
पृ वी पर पवत और जंगल अथवा वन क कमी नह , पर तु सभी वन म च दन नह िमलता। इसी कार सभी जगह साधु
यि नह िदखाई देते।

साधु श द से आचाय चाण य का अिभ ाय यहां स जन यि से है। अथात् ऐसा यि जो द ूसर के िबगड़े हए काम
को बनाता हो, जो अपने मन को िनवृ क ओर ले जाता हो और िनः वाथ भाव से समाज-क याण क इ छा करता हो।
साधु का अथ यहां केवल भगवे कपड़े पहनने वाले िदखावटी सं यासी यि से नह है। यहां इसका भाव आदश समाजसेवी
यि से है, पर तु ऐसे आदश यि सब जगह कहां िमलते ह! वे तो दल
ु भ ही ह। जहां भी िमल उनका यथावत् आदर-
स मान ही करना चािहए।

पु के ित क य
पुन च िविवधैः शीलैिनयो या सततं बुधःै ।
नीित ा शीलस प ाः भव त कु लपू जताः।।10।।

आचाय चाण य यहां पु के स ब ध म उपदेश करते हए कहते ह िक बुि मान लोग का क य है िक पु को सदा
अनेक कार से सदाचार क िश ा द। नीित सदाचारी पु ही कु ल म पूजे जाते ह। अथात् िपता का सबसे बड़ा क य है
िक पु को अ छी िश ा दे। िश ा केवल िव ालय म ही नह होती। अ छे आचरण क , यवहार क िश ा देना िपता का
पावन क य है। अ छे आचरण वाले पु ही अपने कु ल का नाम ऊंचा करते ह। नीित और शीलस प पु ही कु ल म
स मान पाते ह।

नेतागण कहा करते ह िक आज के युवा ही कल के नाग रक ह। वही देश के भिव य ह तो उनक सही भिव य बनाने क
िदशा म सही कदम उठाना माता-िपता और समाज का परम क य है।

माता श ुः िपता वैरी येनवालो न पािठतः।


न शोभते सभाम ये हंसम ये वको यथा।।11।।

यहां आचाय चाण य क िश ा के बारे म माता-िपता के क य का उपदेश करते हए कहते ह िक ब चे को न पढ़ाने


वाली माता श ु तथा िपता वैरी के समान होते ह। िबना पढ़ा यि पढ़े लोग के बीच म हंस म कौए के समान शोभा नह
पाता।

अिभ ाय यह है िक जो हालत हंस के बीच म आ जाने पर कौए क हो जाती है, ठीक वही दशा पढ़े- लखे, सुिशि त
लोग के बीच म जाने पर अनपढ़ यि क हो जाती है। इस लए ब चे को न पढ़ाने वाले मां-बाप ही उसके श ु होते ह। इस
स ब ध म आचाय चाण य मानते ह िक धन ही नह िश ा भी यि को आदर यो य बनाती है और िश ाहीन यि िबना
पूछ
ं और स ग वाले पशु के समान है।

लालनाद् बहवो दोषा ताडनाद् बहवो गुणाः।


त मा पु ं च िश यं च ताडये तु लालयेत्।।12।।

आचाय चाण य बालक के लालन-पालन म, लाड़- यार के संदभ म उसके अनुपात और सार के बारे म उपदेश करते
हए कहते ह िक अ धक लाड़ से अनेक दोष तथा ताड़न से गुण आते ह। इस लए पु को और िश य को लालन क नह
ताड़न क आव यकता होती है।

अिभ ाय यह है िक अ धक लाड़- यार करने से ब चे िबगड़ जाते ह। उसके साथ स ती करने से ही वे सुधरते ह।
इस लए ब च और िश य को अ धक लाड़- यार नह देना चािहए। उनके साथ स ती ही करनी चािहए।

इस लए चाण य का परामश है िक माता-िपता अथवा गु को अपने पु अथवा िश य का इस बात के लए यान रखना


चािहए िक उसम कोई बुरी आदत घर न कर जाय। उनसे बचाने के लए उनक ताड़ना आव यक है, तािक ब चा गुण क
ओर आकिषत हो और दोष हण से बचे।

वा याय
लोकेन वा तद न तद ाऽ ा रे ण वा।
अब यं िदवसं कु याद् दाना ययनकमिभ।।13।।
यहां आचाय वा याय क मह ा ितपािदत करते हए कह रहे ह िक यि को चािहए िक वह िकसी एक लोक का या
आधे या उसके भी आधे अथवा एक अ र का ही सही मनन करे । मनन, अ ययन, दान आिद काय करते हए िदन को
साथक करना चािहए।

अिभ ाय यह है िक कम से कम जतना भी हो सके, मनु य को अपने क याण के लए मनन अव य करना चािहए।


मनन करना, अ ययन करना तथा लोग क सहायता करना‒ये मनु य जीवन के अिनवाय कत य ह। ऐसा करने पर ही
जीवन साथक होता है। य िक मानव जीवन अमू य है। उसका एक-एक िदन, एक-एक ण अमू य है, उसे सफल बनाने
के लए वा याय, िचंतन-मनन एवं दान आिद स कम करते रहना चािहए। यह जीवन का िनयम ही बना लया जाए तो
सव म है।

आसि िवष है
का तािवयोग वजनापमानो ऋण य शेषः कु नृप य सेवा।
द र भावो िवषया सभा च िवनाि मेते दह त कायम्।।14।।

यहां आचाय जीवन म या य थितय पर िवचार करते हए यि को उपदेश करते हए कहते ह िक ि यतमा व प नी से
िवयोग, वजन से अपमान होना, ऋण का न चुका पाना, द ु राजा क सेवा, द र ता और धूत लोग क सभा, ये बात िबना
अि के ही शरीर को जला देते ह।

अिभ ाय यह है िक एक आग सबको िदखाई देती है, यह बाहरी अि है, िक तु एक आग अ दर ही अ दर से यि को


जलाती रहती है, उसे कोई देख भी नह सकता। प नी से अ य धक ेम हो, िक तु उससे िबछु ड़ना पड़ जाए। प रवारवाल क
कह पर बेइ जती हो जाए, कज को चुकाना मु कल हो जाए, द ु राजा क नौकरी करनी पड़े, गरीबी छू टे नह , द ु लोग
िमलकर कोई सभा कर रहे ह ! ऐसी मजबूरी म बेचारा आदमी अ दर ही अ दर जलता रहता है। उसक तड़पन को कोई देख
भी नह सकता। यह ऐसी ही न दीखने वाली आग है।

िवनाश का कारण
नदीतीरे च ये वृ ाः परगेहषे ु कािमनी।
म हीना च राजनः शी ं न य यसंशयम्।।15।।

आचाय चाण य नीित के वचन के म म यहां उपदेश कर रहे ह िक तेज बहाव वाली नदी के िकनारे लगने वाले वृ ,
द ूसरे के घर म रहने वाली ी, म य के िबना राजा लोग‒ये सभी शी ही न हो जाते ह।

भाव यह है िक नदी क धारा अिन चत रहने के कारण उसके िकनारे उगनेवाले वृ शी ही न हो जाते ह। य िक
उनक जमीन पेड़ के बोझ को सह नह पाती और जड़ उखड़ने लगती ह। उसी कार द ूसरे के घर गयी हई ी भी च र क
ि से सुरि त नह रह पाती उसका सती व शंका के दायरे म आ जाता है। इस स दभ म िकसी नीितकार ने ही कहा है‒

लेखनी पु तका दाराः परह ते गता गताः।


आगता दैवयोगेन न ा ा च मिदता।।

अथात् लेखनी (कलम), पु तक और ी द ूसरे के हाथ म चली गय तो गंवाई गयी ही समझ। यिद दैवयोग से वापस लौट
भी आई ं तो उनक दशा न , और मिदत प म ही होती है।

इसी कार राजा का बल म ी होता है। म ी राजा को स माग म वृ एवं कु माग से हटाता है। उसका न होना राजा के
लए घातक है। इस लए राजा के पास म ी भी होना चािहए।

यि का बल
बलं िव ा च िव ाणां रा ः सै यं बलं तथा।
बलं िव ं च वै यानां शू ाणां च किन ता।।16।।

आचाय चाण य का यहां कथन है िक िव ा ही ा ण का बल है। राजा का बल सेना है। वै य का बल धन है तथा


सेवा करना शू का बल है।
अिभ ाय यह है िक ान-िव ा ही ा ण का बल माना गया है। अ ययन- वा याय ही उसका मु य कम े है उसी म
उसे िनपुण होना चािहए तभी वह आदरणीय होगा। राजाओं का बल उनक सेना होती है। य िक सै य शि के बल पर ही
वह अपने रा य क सीमाएं सुरि त रख सकता है। इसी कार धन वै य का बल तथा सेवा करना शू का बल है। यही
उनके काय े का वैिश है।

दिु नया क रीित


िनधनं पु षं वे यां जा भ ं नृपं यजेत्।
खगाः वीतफलं वृ ं भु वा चा यागतो गृहम्।।17।।

आचाय चाण य यहां ाि के बाद व तु के ित उपयोिगता ास के िनयम को लगाते हए कहते ह िक यह कृित का


िनयम है िक पु ष के िनधन हो जाने पर वे या उस पु ष को याग देती है। जा शि हीन राजा को और प ी फलहीन वृ
को याग देते ह। इसी कार भोजन कर लेने पर अित थ घर को छोड़ देता है।

अिभ ाय यह है िक वे या अपने पुराने ाहक को भी उसके गरीब पड़ जाने पर छोड़ देती है। राजा जब बुरे समय म
शि हीन हो जाता है, तो उसक जा भी उसका साथ छोड़ देती है। वृ के फल समा हो जाने पर प ी उस वृ को याग
देते ह। घर म भोजन क इ छा से आया हआ कोई राहगीर भोजन कर लेने के बाद घर को छोड़कर चला जाता है। अपना
उ ू सीधा होने तक ही लोग मतलब रखते ह। यह कृित क उपयोिगता समा हो जाने के बाद व तु के ित बदले
ि कोण का संकेत है।

इस संदभ म यहां आचाय चाण य ने कु छ उदाहरण से यि के क य पालन पर बल िदया है। धन के कारण वे या


जसे अपना ेमी कहती है, िनधन होने पर उससे मुंह मोड़ लेती है। इसी कार अपमािनत राजा को जा याग देती है और
सूखे ठू ं ठ वृ से प ी उड़ जाते ह। इसी कार अित थ को चािहए िक वह भोजन करने के उपरा त गृह थ का साधुवाद करके
घर को याग दे। वहां डेरा डालने क न सोचे, नह तो ऐसा हो सकता है िक स मान क र ा इसी म है िक वह भोजन करने
के प चात् वयं जाने के लए आ ा मांग ले। यही उिचत भी है।

गृही वा दि णां िव ा यज त यजमानकम्।


ा िव ा गु ं िश याः द धार यं मृगा तथा।।18।।

यहां आचाय चाण य जग क रीित पर चचा करते हए कहते ह िक दि णा ले लेने पर ा ण यजमान को छोड़ देते ह,
िव ा ा कर लेने पर िश य गु को छोड़ देते ह और वन म आग लग जाने पर वन के पशु उस वन को याग देते ह।

अिभ ाय यह है िक ा ण दि णा लेने तक ही यजमान के पास रहता है। दि णा िमल जाने पर वह यजमान को छोड़
देता है और अ य क सोचने लगता है। िश य अ ययन करने तक ही गु के पास रहते ह। िव ाएं ा कर लेने पर वे गु
को छोड़कर चले जाते ह और जीवन काय के ित िवचार करते हए अगली योजना म लग जाते ह। इसी कार िहरण आिद
वन के पशु वन म तभी तक रहते ह, जब तक वह हरा-भरा रहता है। यिद वन म आग लग जाए, तो प ी वहां रहने क
संभावनाएं समा जानकर अ य डेरा जमाने के िवचार से उड़ जाते ह या दौड़ लगा जाते ह। अथात् यि िकसी आ य या
उपल ध ोत पर तभी तक िनभर करता है जब तक उसे वहां अपना ल य पूण होता िदखलाई पड़ता है। ल य पूण होने पर
उपयोिगता- ास का िनयम लागू हो जाता है।

द ु कम ं से सचेत रह
दरु ाचारी च द ु ि दराऽऽवासी
ु च दज
ु नः।
य मै ी ि यते पु भनरः शी िवन यित।।19।।

यहां आचाय चाण य द ु कम के प रणाम के ित सचेत करते हए कह रहे ह िक दरु ाचारी, द ु वभाव वाला, िबना िकसी
कारण द ूसर को हािन पहंचाने वाला तथा द ु यि से िम ता रखने वाला े पु ष भी शी ही न हो जाता है य िक
संगित का भाव िबना पड़े नह रहता है।

यह उि तो स है ही िक खरबूजे को देखकर खरबूजा रं ग बदलता है। इसी कार यिद कोई यि दु यि य के


साथ रहता है तो उनक संगित का भाव उस पर अव य पड़ेगा। दज
ु न के संग म रहनेवाला यि अव य दःु खी होगा। इसी
बात को यान म रखकर तुलसीदासजी ने भी कहा है‒ “दज
ु न संग न देह िवधाता। इससे भलो नरक का वासा।।” इस लए
यि को चािहए िक वह कु संगित से बचे।

िम ता बराबर क
समाने शोभते ीती रा सेवा च शोभते।
वािण यं यवहारे षु ी िद या शोभते गृह।े ।20।।

यहां आचाय िम ता व यवहार म समानता के तर पर शोभा का मह व ितपािदत करते हए कह रहे ह िक समान तर


वाल से ही िम ता शोभा देती है। सेवा राजा क शोभा देती है। वै य का यापार करना शोभा देता है। शुभ ी घर क शोभा
है।

अिभ ाय यह है िक िम ता बराबर वाल से ही करनी चािहए। सेवा राजा क ही करनी चािहए। ऐसा करना ही इन काय ं
क शोभा है। वै य क शोभा यापार करना है तथा घर क शोभा शुभ ल ण वाली प नी है, य िक कहा गया है िक ‘जाही
का काम वाही को साजे, और करे तो ड डा बाजे’ यानी जसका जो काय है वही करे तो ठीक वरना प रणाम सही नह
रहता।
तीसरा अ याय

दोष कहां नह है?


क य दोषः कु ले ना त या धना को न पीिड़तः।
यसनं केन न ा ं क य सौ यं िनर तरम्।।1।।

यहां आचाय चाण य का कथन है िक दोष कहां नह है? इसी आशय से उनका कहना है िक िकसके कु ल म दोष नह
होता? रोग िकसे दःु खी नह करते? दःु ख िकसे नह िमलता और िनरं तर सुखी कौन रहता है अथात् कु छ न कु छ कमी तो
सब जगह है और यह एक कड़वी स चाई है। दिु नया म कोई भी ऐसा यि नह है, जो कभी बीमार न पड़ा हो और जसे
कभी कोई दःु ख न हआ हो या जो सदा सुखी हो रहा हो तो िफर संकोच या दःु ख िकस बात का?

इस लए यि को अपनी किमय को लेकर अ धक िच ता नह करनी चािहए ब क किमय के रहते भी आचरण पर


यान देते हए उसे अ य मानवीय गुण से स प करना चािहए तािक यि व को पूणता ा हो सके। य िक िनर तर सुख
तो संसार म िकसी को भी ा नह होता। आज दःु ख तो कल सुख भी होगा। आज सुख है तो कल दःु ख भी होगा। यही जग
क रीित है।

ल ण से आचरण का पता लगता है


आचारः कु लमा याित देशमा याित भाषणम्।
स मः नेहमा याित वपुरा याित भोजनम्।।2।।

आचाय चाण य ल ण से ा संकेत क चचा करते हए कहते ह िक आचरण से यि के कु ल का प रचय िमलता


है। बोली से देश का पता लगता है। आदर-स कार से ेम का तथा शरीर को देखकर यि के भोजन का पता चलता है।

अिभ ाय यह है उ च वंश का यि शालीन, शा त और अ छे वभाव का होगा, यह माना जाएगा और नीच वंश का


आदमी उ त, बातूनी और मान-मयादा का याल न रखने वाला होगा। इस बात से तो ायः सभी प रिचत ह िक यि
अपनी बोली और उ चारण से पहचाना जाता है िक वह िकस देश का रहनेवाला है। य तो बोली थोड़ी-थोड़ी द ूरी पर थोड़ा
बदल जाती है, पर तु काफ बड़े े म मु य वर (लहजा) एक ही रहता है, बोलचाल क मूल भाषा एक जैसी रहती है।
इस लए यह पहचानने म िद कत नह होती िक यि कहां का रहनेवाला है। इसी कार यि के हाव-भाव और ि याओं
से उसके मन के िवचार का पता चल जाता है िक उसका नेह-आचरण वा तिवक है या बनावटी, य िक मन क भावनाओं
के अनु प ही यि काय करता है। मन क भावनाओं को िछपाये नह रख सकता। आचाय चाण य का यह कथन सही है
िक यि क देह से उसक खुराक का अनुमान लगाया जा सकता है। चाण य ने यहां सामा यतया लागू होनेवाली बात ही
कही ह और ये संकेत यि क सामा य झलक से ही िमल जाते ह।

यवहार कु शल बन
सकु ले योजये क या पु ं िव ासु योजयेत्।
यसने योजये छ ुं िम ं धम िनयोजयेत्।।3।।

यहां आचाय चाण य यावहा रकता क चचा करते हए कहते ह िक क या का िववाह िकसी अ छे घर म करना चािहए,
पु को पढ़ाई- लखाई म लगा देना चािहए, िम को अ छे काय ं म तथा श ु को बुराईय म लगा देना चािहए। यही
यावहा रकता है और समय क मांग भी।

आशय यह है िक कु शल यि वही है, जो बेटी के िववाह यो य होते ही उसका िववाह देखभाल कर िकसी अ छे
खानदान म कर दे और बेटे को अ धक से अ धक िश ा दे तािक वह अपने जीवन म आजीिवका क ि से आ मिनभर बन
सके। िम को मेहनत-प र म, ईमानदारी क सीख दे तािक स परामश से वह अपना जीवन सुधार सके और िकसी अ छे
काम म लग जाए, िक तु द ु मन को बुरी आदत का िशकार बना दे तािक वह उसम उलझकर आपको अनाव यक प से
तंग न करे ।

द ु से बच
दज
ु नेषु च सपषु वरं सप न दज
ु नः।
सप दंशित कालेन दज
ु न तु पदे-पदे।।4।।

आचाय चाण य यहां द ु ता क ि से तुलना करते हए उस प को रख रहे ह, जहां द ु ता का द ु भाव कम-से-कम


पड़े। उनका मानना है िक द ु और सांप, इन दोन म सांप अ छा है, न िक द ु । सांप तो एक ही बार डसता है, िक तु द ु
तो पग-पग पर डसता रहता है। इस लए द ु से बचकर रहना चािहए।

अिभ ाय यह है िक यिद यह पूछा जाय िक द ु और सांप म कौन अ छा है? तो इसका उ र है‒सांप द ु से हजार गुना
अ छा है, य िक सांप तो कभी-कभार िकसी िवशेष कारण पर ही मनु य को डसता है, िक तु द ु तो पग-पग पर डसता
रहता है। द ु का कोई भरोसा नह िक कब या कर बैठे और यह भी त य है िक सांप तभी काटता है जब उस पर पांव पड़
जाए या वह िकसी कारण भयभीत हो जाए, लेिकन दज
ु न (द ु ) तो अकारण ही दःु ख पहंचाने का य न करता है।

संगित कु लीन क कर
एतदथ कु लीनानां नृपाः कु व त सं हम्।
आिदम यावसानेषु न यज त च ते नृपम्।।5।।

आचाय चाण य यहां कु लीनता का वैिश बताते हए कहते ह िक कु लीन लोग आरं भ से अंत तक साथ नह छोड़ते। वे
वा तव म संगित का धम िनभाते ह। इस लए राजा लोग कु लीन का सं ह करते ह तािक समय-समय पर स परामश िमल
सके।

अिभ ाय यह है िक अ छे खानदानी यि जसके साथ िम ता करते ह, उसे जीवन भर िनभाते ह। वे शु से अ त तक


सुख और दःु ख दोन दशाओं म कभी साथ नह छोड़ते। इस लए राजा लोग ऐसे कु लीन को अपने पास रखते ह। इस लए
राजा लोग और राजपु ष मह वपूण एवं िविश राजक य सेवाओं म कु लीन पु ष क िनयुि उनके उ च सं कार और
पर परागत िश ा-दी ा के कारण ही करते ह। वे कभी नीच अथवा ओछे हथक डे अपनाकर अपने वामी के साथ छल या
धोखा नह करते।

स जन का स मान कर
लये िभ मयादा भव त िकल सागराः।
सागरा भेदिम छ त लयेऽिप न साधवः।।6।।

यहां आचाय चाण य प र थितवश आचार म आने वाले प रवतन के तर और थित को इंिगत करते हए धीर-गंभीर
यि क े ता ितपािदत करते हए कहते ह िक सागर क तुलना म धीर-गंभीर पु ष को े तर माना जाना चािहए
य िक जस सागर को लोग इतना गंभीर समझते ह, लय आने पर वह भी अपनी मयादा भूल जाता है और िकनार को
तोड़कर जल-थल एक कर देता है; पर तु साधु अथवा े यि संकट का पहाड़ टू टने पर भी मयादाओं का उ ंघन नह
करता। अतः साधु पु ष सागर से भी महान् होता है। यूं तो मयादा पालन के लए सागर आदश माना जाता है, वषा म
उफनती निदय को अपने म समेटता हआ भी सागर अपनी सीमा नह तोड़ता, पर तु लय आने पर उसी सागर का जल
िकनार को तोड़ता हआ सारी धरती को ही जलमय कर देता है। सागर लयकाल म अपनी मयादा को सुरि त नह रख
पाता; िक तु इसके िवपरीत साधु पु ष ाण का संकट उप थत होने पर भी अपने च र क उदा ता का प र याग नह
करते। वे येक अव था म अपनी मयादा क र ा करते ह। इस लए स त पु ष समु से भी अ धक ग भीर माने जाते ह और
उनका स मान करना ही चािहए।

मूख ं का याग कर
मूख तु प रहत यः य ो ि पदः पशुः।
िभन वा यशूलेन अ यं क टकं यथा।।7।।

आचाय चाण य यहां नरपशु क चचा करते हए कहते ह िक मूख यि को दो पैर वाला पशु समझकर याग देना
चािहए, य िक वह अपने श द से शूल के समान उसी तरह भेदता रहता है, जैसे अ य कांटा चुभ जाता है।
आशय यह है िक मूख यि मनु य होते हए भी पशु ही है। जैसे पांव म चुभा हआ कांटा िदखाई तो नह पड़ता पर
उसका दद सहन नह िकया जा सकता है। इसी कार मूख यि के श द िदखाई नह देते, िक तु दय म शूल क तरह चुभ
जाते ह। मूख को याग देना ही उिचत रहता है।

िव ा का मह व पहचान
पयौवनस प ा िवशालकु लसंभवाः।
िव ाहीना न शोभ ते िनग धा इव िकंशुकाः।।8।।

आचाय चाण य िव ा का मह व ितपािदत करते हए कहते ह िक प और यौवन से स प , उ च कु ल म उ प होकर


ं हीन फूल के समान होते ह और शोभा नह देते।
भी िव ाहीन मनु य सुगध

आशय यह है िक मनु य चाहे िकतना ही सु दर हो, जवान हो और धनी घराने म पैदा हआ हो, िक तु यिद वह िव ाहीन
है, मूख है तो उसे स मान नह िमलता। िव ा मनु य क सुग ध के समान है। जैसे सुग ध न होने पर िकंशुक पु प को कोई
पस द नह करता, इसी तरह अिशि त यि क भी समाज म कोई इ जत नह होती। अतः िव ा यि को वा तव म गुणी
मनु य बनाती है।

सूरत से सीरत भली


कोिकलानां वरो पं नारी पं पित तम्।
िव ा पं कु पाणां मा पं तप वनाम्।।9।।

आचाय चाण य प-चचा करते हए सूरत क अपे ा सीरत को मह व देते ह और कहते ह िक कोयल का प उनका
वर है। पित ता होना ही य क सुंदरता है। कु प लोग का ान ही उनका प है तथा तप वय का मा भाव ही
उनका प है।

आशय है िक कोयल क सुरीली आवाज ही उनक सु दरता है। इसी से वे अपने ित आकषण पैदा करती ह। य क
स ची सु दरता उनका पित त धम है। इसी म ी धम क साथकता िनिहत है। कु प यि क सु दरता उसक िव ा है,
य िक ान से ही वह वयं का आ म प र कार करके जग को कािशत कर सकता है। तप वय क सु दरता सबको मा
करना है, य िक तप से ोध पर िवजय ा क जाती है। शालीनता आने पर सहज ही मा भाव जागृत होने लगता है।

े ता को बचाएं
यजेदेकं कु ल याथ ाम याथ ं कु लं यजेत्।
ामं जनपद याथ आ माथ पृ थव यजेत्।।10।।

आचाय चाण य यहां म से े ता को ितपािदत करते हए कहते ह िक यि को चािहए िक कु ल के लए एक यि


को याग दे। ाम के लए कु ल को याग देना चािहए। रा य क र ा के लए ाम को तथा आ मर ा के लए संसार को भी
याग देना चािहए।

आशय यह है िक यिद िकसी एक यि को याग देने से पूरे कु ल-खानदान का भला हो रहा हो, तो उस यि को याग
देने म कोई बुराई नह है। यिद कु ल को यागने से गांव भर का भला होता हो, तो कु ल को भी याग देना चािहए। इसी कार
यिद गांव को यागने पर देश का भला हो तो गांव को भी याग देना चािहए। िक तु अपना जीवन सबसे बड़ा है। यिद अपनी
र ा के लए सारे संसार का भी याग करना पड़े, तो संसार का याग कर देना चािहए। जान है तो जहान है। यही उ म
क य है।

प र म से ही फल िमलता है
उ ोगे ना त दा र यं जपतो ना त पातकम्।
मौनेन कलहो ना त जा त य च न भयम्।।11।।

यहां आचाय चाण य आचरण क चचा करते हए कहते ह िक उ म से द र ता तथा जप से पाप द ूर होता है। मौन रहने
से कलह और जागते रहने से भय नह होता।
आशय है िक प र म-उ म करने से गरीबी न होती है। अतः यि को म करना चािहए तािक जीवन स प हो
सके। भगवान का नाम जपने से पाप द ूर होते ह, मन और आ मा शु होती है, शु कम क ेरणा िमलती है, यि द ु कम
से द ूर होता है। चुप रहने से झगड़ा नह बढ़ता और अि य थितयां टल जाती ह तथा जागते रहने से िकसी चीज का डर नह
रहता, य िक सजगता से यि चीज को खतरे से पूव ही संभाल सकता है।

अित का याग कर
अित पेण वै सीता चाितगवण रावणः।
अितदानाद् ब लब ो ित सव वजयेत्।।12।।

यहां आचाय चाण य ‘अित सव वजयेत’ के स ांत का ितपादन करते हए कहते ह िक अ धक सुुंदरता के कारण ही
सीता का हरण हआ था, अित घमंडी हो जाने पर रावण मारा गया तथा अ य त दानी होने से राजा ब ल को छला गया।
इस लए अित सभी जगह व जत है।

आशय यह है िक सीताजी अ य त सुंदरी थ , इस लए रावण उ ह उठा ले गया। रावण को अ य धक घम ड हो गया था


अतः उसका नाश हो गया और राजा ब ल अित दानी थे, इसी कारण भगवान के हाथ ठगे गए। भलाई म भी और बुराई म
भी, अित दोन म ही बुरी है।

वाणी म मधुरता लाएं


को िह भारः समथानां िकं द ूर यवसाियनाम्।
को िवदेश सुिव ानां को परः ि यवािदनाम्।।13।।

आचाय चाण य यहां मधुरभािषता को यि व का मह वपूण गुण बताते हए कहते ह िक साम यवान यि को कोई
व तु भारी नह होती। यापा रय के लए कोई जगह द ूर नह होती। िव ान के लए कह िवदेश नह होता। मधुर बोलने वाले
का कोई पराया नह होता।

अिभ ाय यह है िक समथ यि के लए कौन-सी व तु भी भारी होती है। वह अपनी साम य के बल पर कु छ भी िवचार


कर सकता है। यापा रय के लए द ूरी या? वह व तु- यापार के लए कह भी जा सकता है। िव ान के लए कोई-सा
देश-िवदेश नह , य िक अपने ान से वह सभी जगह अपने लए वातावरण बना लेगा। मधुर बोलने वाले यि के लए
कोई पराया नह य िक मधुरभािषता से वह सबको अपना बना लेता है।

गुणवान एक भी पया है
एकेनािप सुवण पु पतेन सुग धना।
व सतं त नं सव सुपु ेण कु लं यथा।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक गुणवान अपने एक भी गुण का िव तार करके नाम कमा लेता है। उनका कहना है िक वन
म सुंदर खले हए फूल वाला एक ही वृ अपनी सुगध
ं से सारे वन को सुग ं धत कर देता है। इसी कार एक ही सुपु सारे
कु ल का नाम ऊंचा कर देता है।

आशय यह है िक यिद वन म कह पर एक ही वृ म भी सु दर फूल खले ह , तो उसक सुग ध से सारा वन महक


उठता है। इसी तरह एक ही सपूत सारे वंश का नाम अपने गुण से उ जवल कर देता है। य िक कोई भी वंश गुणी पु से
ही ऊंचा उठता है, इस लए अनेक गुणहीन पु क अपे ा एक गुणवान पु ही पया है। आज के प रवार िनयोजन के स दभ
म अनेक ब चे क जगह एक ही अ छे ब चे का होना अ धक सुखकर माना जाता है।

एकेन शु कवृ ेण द मानेन वि ना।


द ते त नं सव कु पु ेण कु लं यथा।।15।।

आचाय चाण य गुणव ा को ितपािदत करते हए कहते ह िक एक ही सूखे वृ म आग लगने पर सारा वन जल जाता
है। इसी कार एक ही कु पु सारे कु ल को बदनाम कर देता है।

आशय यह है िक वन म यिद एक भी वृ सूखा हआ है, तो उसम शी आग लग जाती है, और उस वृ क आग से वह


सारा वन जलकर राख हो जाता है। ठीक इसी तरह यिद कु ल म एक भी कपूत पैदा हो जाता है तो वह सारे कु ल को बदनाम
कर देता है। अतः स गृह थ को चािहए िक स तान को मयादा म रखे और उनम स गुण पैदा करने का यास करे ।

एकेनािप सुपु ेण िव ायु े च साधुना।


आ ािदतं कु लं सव यथा च ेण शवरी।।16।।

यहां भी आचाय चाण य गुणवान के अकेले होने पर भी बहसं य क अपे ा कमतर क साथकता ितपािदत करते हए
कहते ह िक जस कार अकेला च मा रात क शोभा बढ़ा देता है, ठीक उसी कार एक ही िव ान‒स जन पु कु ल को
आ ािदत करता है।

अिभ ाय यह है िक एक अकेला च मा रात के सारे अंधरे े को द ूर करके सारी दिु नया को अपने काश से जगमगा देता
है। इसी तरह पु एक ही हो, िक तु गुणवान हो तो सारे कु ल के नाम को रोशन कर देता है। इस लए अ छे वभाव का एक
पु सारे वंश का नाम रोशन कर देता है और प रवार के सद य को आनंिदत कर देता है, य िक उसके कारण वे अपने
वंश पर गव और गौरव अनुभव करने लगते ह। अं धयारी रात िकसी को नह सुहाती, इसी कार कु पु भी कु ल को नह
सुहाता। वह कु ल का नाम डु बोने वाला होता है।

िकं जातैबहिभः पु ैः शोकस तापकारकैः।


वरमेकः कु लावल बो य िव ा यते कु लम्।।17।।

यहां भी आचाय चाण य गुणवान एक ही पु क पया ता ितपािदत करते हए कहते ह िक शोक और संताप उ प
करने वाले अनेक पु के पैदा होने से या लाभ! कु ल को सहारा देने वाला एक ही पु े है, जसके सहारे सारा कु ल
िव ाम करता है।

आशय है िक अनेक अवगुणी पु के होने से कोई लाभ नह । उनके पैदा होने से सबको दःु ख ही होता है, िक तु कु ल को
सहारा देने वाला, उसका नाम ऊंचा करने वाला एक ही पु अ छा है। ऐसे पु से कु ल अपने को ध य समझता है।

माता-िपता भी दािय व समझ


लालयेत् पंचवषािण दशवषािण ताडयेत्।
ा े तु षोडशे वष पु ं िम वदाचरे त्।।18।।

यहां आचाय चाण य पु -पालन म माता-िपता के दािय व को ितपािदत करते हए कहते ह िक पु का पांच वष तक
लालन कर। दस वष तक ताड़न कर। सोलहवां वष लग जाने पर उसके साथ िम के समान यवहार करना चािहए।

आशय यह है िक पांच वष क अव था तक ही पु के साथ लाड़- यार करना चािहए। इसके बाद दस वष ं तक, अथात्
प ह वष क अव था तक उसे कठोर अनुशासन म रखना चािहए। िक तु जब पु प ह वष क अव था पूरी करके सोलहव
म वेश कर जाए, तो वह वय क हो जाता है। िफर उसके साथ एक िम क तरह स मान का यवहार करना चािहए।

समय क सूझ
उपसगऽ यच े च दिु भ े च भयावहे।
असाधुजनस पक पलायित स जीवित।।19।।

आचाय चाण य यहां समय क सूझ क चचा करते हए कहते ह‒ उप व या लड़ाई हो जाने पर, भयंकर अकाल पड़
जाने पर और द ु का साथ िमलने पर भाग जाने वाला यि ही जीता है।

आशय यह है िक कह पर भी अ य लोग के बीच म लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फसाद हो जाने पर, भयंकर अकाल पड़ जाने
पर और द ु लोग के संपक म आ जाने पर उस थान को छोड़कर भाग खड़ा होने वाला यि अपने को बचा लेता है।
ऐसी जगह से भाग जाना ही सबसे बड़ी समझदारी है।

जीवन क िन फलता
धमाथकाममो ेषु य यैकोऽिप न िव ते।
ज म ज मािन म यषु मरणं त य केवलम्।।20।।
यहां आचाय जीवन क िनरथकता क चचा करते हए कहते ह िक जस मनु य को धम, धन, काम (भोग), मो म एक
भी व तु नह िमल पाती, उसका ज म केवल मरने के लए ही होता है।

आशय यह है िक धम, धन, काम (भोग) तथा मो पाना मनु य जीवन के चार काय ह। जो यि न तो अ छे काम करे
धम का संचय करता है, न धन ही कमाता है, न काम-भोग आिद इ छाओं को ही पूरा कर पाता है और न ही मो ही ा
करता है, उसका जीना या मरना एक समान है। वह जैसा इस दिु नया म आता है, वैसा ही यहां से चला जाता है। उसका
जीवन िनरथक है।

ल मी का वास
मूखाः य न पू य ते धा यं य सुसिं चतम्।
दा प योः कलहो ना त त ी वयमागता।।21।।

आचाय चाण य यहां िव ान एवं ी के स मान म खुशहाली एवं शांित क थित का ितपादन करते हए कहते ह िक
जहां मूख ं का स मान नह होता, अ का भंडार भरा रहता है और जहां पित-प नी म कलह नह हो, वहां ल मी वयं आती
है।

आशय यह है िक जन घर म कोई भी यि मूख नह होता, अनाज-खा पदाथ आिद के भ डार भरे रहते ह तथा जन
पित-प नी म आपस म कभी लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव नह रहता, उनके घर म सुख-शांित, धन-स प आिद सदा बनी रहती
है। इस लए यह कहा जा सकता है िक यिद देश क समृि और देशवा सय क संतुि अभी है तो मूख ं के थान पर
गुणवान यि य को आदर देना चािहए। बुरे िदन के लए अ का भ डारण करना चािहए तथा घर-गृह थ म वाद-िववाद
का वातावरण नह बनने देना चािहए। जब िव ान का आदर और मूख ं का ितर कार होगा, अ क चुरता होगी तथा पित-
प नी म स ाव होगा तो गृह थ के घर अथवा देश म स प उ रो र बढ़ती ही जाएगी - इसम संदेह नह हो सकता और
यही आचरण यि और देश को समु त करने म सहायक होगा।
चौथा अ याय

कु छ चीज भा य से िमलती ह
आयुः कम िव िव ा िनधनमेव च।
प ैतािन िह सृ य ते गभ थ यैव देिहनः।।1।।

आचाय चाण य यहां भा य को ल य करके मानव जीवन के ारं भ म उसके लेखन को ितपािदत करते हए कहते ह िक
आयु, कम, िव , िव ा, िनधन‒ये पांच चीज ाणी के भा य म तभी लख दी जाती ह, जब वह गभ म ही होता है।

अिभ ाय यह है िक ाणी जब मां के गभ म ही होता है, तभी पांच चीज उसके भा य म लख दी जाती है - आयु, कम,
धन-स प , िव ा और मृ यु।

इनम बाद म कोई भी प रवतन नह हो सकता। उसक जतनी उ होती है उससे एक पल भी पहले उसे कोई नह मार
सकता। वह जो भी कम करता है, उसे जो भी धन-स पदा और िव ा िमलती है, वह सब पहले से ही तय होता है। जब
उसक मृ यु का समय आ जाता है तो एक ण के लए भी िफर उसे कोई नह बचा सकता।

संत क सेवा से फल िमलता है


साधु य ते िनवत ते पु ः िम ािण बा धवाः।
ये च तैः सह ग तार त मा सुकृतं कु लम्।।2।।

आचाय चाण य यहां संत क सेवा को मह व देते हए कहते ह िक संसार के अ धकतर पु , िम , भाई, साधु-महा माओं,
िव ान आिद क संगित से द ूर रहते ह। जो लोग स संगित करते ह, वे अपने कु ल को पिव कर देते ह।

आशय यह है िक लगभग सभी लोग स संग से द ूर रहते ह, िक तु जो यि स चे ानी-महा माओं का साथ करते ह, वे
अपने कु ल को पिव करके उसका तारण करते ह।

वे इस सदाचरण से अपने पूरे प रवार को उ वल बना देते ह। उनके इस काय पर प रवार को गव करना चािहए। उसे
अपना आदश मानना चािहए और उससे ेरणा लेनी चािहए। मनु य जानता है िक शरीर न वर है, पर तु वह यह यथाथ जानते
हए भी सांसा रक कम ं म ल रहता है जबिक उसे िन ल रहकर काय करना चािहए।

दशन यानसं पशम यी कू म च पि णी।


िशशु पालयते िन यं तथा स जनसंगितः।।3।।

आचाय चाण य यहां स संगित क चचा करते हए कहते ह िक जैसे मछली, मादा कछु आ और िचिड़या अपने ब च का
पालन मशः देखकर, यान देकर तथा पश से करती है, उसी कार स संगित भी हर थित म मनु य का पालन करती
है।

आशय यह है िक मछली अपने ब च का पालन उ ह बार-बार देखकर करती है, मादा कछु आ यान लगाकर ब च को
देखती है और मादा प ी ब च को पंख से ढककर उनका पालन करते ह। स जन का साथ भी मनु य क इसी तरह
देखरे ख करता है।

जहां तक हो पु य कम कर
याव व थो यं देहः ताव मृ यु च द ूरतः।
तावदा मिहतं कु यात् णा ते िकं क र यित।।4।।

आचाय चाण य यहां इन पंि य म आ मक याण का माग श त करते हए बो धत कर रहे ह िक जब तक शरीर


व थ है, तभी तक मृ यु भी द ूर रहती है। अतः तभी आ मा का क याण कर लेना चािहए। ाण का अंत हो जाने पर या
करे गा? केवल प चाताप ही शेष रहेगा।
यहां आशय यह है िक जब तक शरीर व थ रहता है, तब तक मृ यु का भी भय नह रहता। अतः इसी समय म आ मा
और परमा मा को पहचानकर आ मक याण कर लेना चािहए। मृ यु हो जाने पर कु छ भी नह िकया जा सकता।

आचाय चाण य का कहना है िक समय गुजरता रहता है, और न जाने कब यि को रोग घेर ले और कब मृ यु का
संदेश ले यमराज के द ूत ार पर आ खड़े ह , इस लए मानव को चािहए िक वह जीवन म अ धक से अ धक पु य कम करे ।
य िक समय का या भरोसा? जो कु छ करना है समय पर ही कर लेना चािहए।

िव ा कामधेनु के समान होती है


कामधेनुगुणा िव ा यकाले फलदाियनी।
वासे मातृस शा िव ा गु ं धनं मृतम्।।5।।

आचाय चाण य यहां िव ा के मह व को ितपािदत करते हए उसके योजन और उपयोग क चचा कर रहे ह। उनका
कहना है िक िव ा कामधेनु के समान गुण वाली है, बुरे समय म भी फल देने वाली है, वास काल म मां के समान है तथा
गु धन है।

आशय यह है िक िव ा कामधेनु के समान सभी इ छाओं को पूरा करने वाली है। बुरे से बुरे समय म भी यह साथ नह
छोड़ती। घर से कह बाहर चले जाने पर भी यह मां के समान र ा करती है। यह एक गु धन है, इस धन को कोई नह देख
सकता।

आचाय चाण य मानते ह िक िव ा एक गु धन है अथात् एक ऐसा धन है जो िदखाई नह देता पर वह है और अनुभव


क व तु है। जसका हरण तथा िवभाजन नह हो सकता, अतः वह सब कार से सुरि त और िव वसनीय भी है। वही समय
पड़ने पर आदमी के काम आता है।

इस कार िव ा संकट म कामधेनु के समान और परदेश म मां के समान है। सबसे बड़ी बात यह है िक यह छ और
सुरि त धन है। सोने के आभूषण के समान इसे न कोई छीन सकता है, न चुरा सकता है।

गुणवान पु एक ही पया है
एकोऽिप गुणवान पु ो िनगुणै च शतैवरः।
एक च तमो ह त न ताराः सह शः।।6।।

आचाय चाण य यहां उपादेयता, गुण तथा यो यता के आधार पर पु के मह व को ितपािदत करते हए कहते ह िक
केवल एक गुणवान् और िव ान पु सैकड़ गुणहीन, िनक मे पु से अ छा होता है। जस कार एक चांद ही राि के
अंधकार को द ूर करता है, असं य तारे िमलकर भी राि के गहन अंधकार को द ूर नह कर सकते, उसी कार एक गुणी पु
ही अपने कु ल का नाम रोशन करता है, उसे ऊंचा उठाता है; याित िदलाता है। सैकड़ िनक मे पु िमलकर भी कु ल क
ित ा को ऊंचा नह उठा सके। िनक मे गुणहीन पु उलटे अपने बुरे काम से कु ल को कलंिकत करते ह उनका होना भी
िकसी काम का नह । वे तो अनथकारी ही होते ह।

मूख पु िकस काम का


मूख चरायुजातोऽिप त मा जातमृतो वरः।
मृतः स चा पदःु खाय याव जीवं जडो दहेत्।।7।।

आचाय यहां इस लोक म मूख पु क िनरथकता पर िट पणी करते हए कहते ह िक मूख पु का िचरायु होने से मर
जाना अ छा है, य िक ऐसे पु के मरने पर एक ही बार दःु ख होता है, ज दा रहने पर वह जीवन भर जलाता रहता है।

यहां आशय यह है िक मूख पु को ल बी उ िमलने से उसका शी मर जाना अ छा है। य िक मूख के मर जाने पर


एक बार कु छ समय के लए दःु ख होता है, िक तु जीिवत रहने पर वह जीवन भर मां-बाप को दःु खी करता रहता है।

और संसार म ऐसे अनेक उदाहरण ह िक मूख पु ने िवरासत म पाए िवशाल सा ा य को धूल म िमला िदया। िपता क
अतुल स प को न - कर िदया। मानव तो वभावतः अपनी संतान से ेम करता है पर तु उसके साथ ही वह यिद
वा तिवकता से भी आंख मूंद ले तो िफर या हो सकता है? आचाय चाण य यहां इसी वृ के ित सचेत कर रहे ह।


इनसे सदा बच
कु ामवासः कु लहीन सेवा कु भोजनं ोधमुखी च भाया।
पु च मूख ं िवधवा च क या िवनाि मेते दह त कायम्।।8।।

आचाय चाण य यहां उन चीज के बारे म उ ेख कर रहे ह जनसे यि को सदैव हािन ही होती है। उनका कहना है
िक द ु के गांव म रहना, कु लहीन क सेवा, कु भोजन, ककशा प नी, मूख पु तथा िवधवा पु ी, ये सब यि को िबना
आग के जला डालते ह।

आशय यह है िक ये सब बात यि को भारी दःु ख देती ह - यिद द ु (ल पट ) के बीच म रहना पड़े, नीच खानदान
वाले क सेवा करनी पड़े, घर म झगड़ालू-ककशा प नी हो, पु मूख हो, पढ़े- लखे नह , बेटी िवधवा हो जाए - ये सारे दःु ख
िबना आग के ही यि को अ दर ही अ दर जला डालते ह।

जनका उपयोग नह उनका होना या


िकं तया ि यते धे वा या न दो ो न गिभणी।
कोऽथः पु ेण जातेन यो न िव ा भि मान्।।9।।

यहां आचाय चाण य इस लोक म व तु क उपयोिगता क चचा करते हए कहते ह िक उस गाय से या करना, जो न
तो द ूध देती है और न गािभन होती है। इसी तरह उस पु के ज म लेने से या लाभ, जो न िव ान हो और न ई वर का भ
हो।

आशय यह है िक जो गाय न तो द ूध देती है और न गािभन ही होती है। ऐसी गाय का होना या न होना बराबर ही है। ऐसी
गाय को पालना बेकार ही होता है। इसी तरह जो पु न तो िव ान हो और न भ हो, उस पु का होना या न होना बराबर है।

इनसे सुख िमलता है


संसारातपद धानां यो िव ा तहेतवः।
अप यं च कल ं च सतां संगितरे व च।।10।।

यहां आचाय चाण य यि को दःु ख म शांितदायी व तुओं क चचा करते हए कहते ह िक सांसा रक ताप से जलते हए
लोग को तीन ही चीज आराम दे सकती ह‒स तान, प नी तथा स जन क संगित।

आशय यह है िक अपने ब चे, प नी तथा अ छे लोग का साथ, ये तीन चीज बड़े काम क ह। यि जब कामकाज से
थककर िनढ़ाल हो जाता है, तब ये ही तीन चीज उसे शा त देती ह। य िक ायः देखा जाता है िक आदमी बाहर के संघष ं
से जूझता हआ, िदन भर के प र म से थका-मांदा जब शाम को घर लौटता है तो अपनी संतान को देखते ही सारी थकावट,
पीड़ा और मान सक यथा को भूलकर व थ, शा त और संतु लत हो जाता है। इसी कार पित के घर आने पर जब
मु कु राती हई प नी उसका वागत करती है, अपनी सुमधुर वाणी से उनका हाल पूछती है, जलपान से उसको तृ एवं संतु
करती है तो आदमी अपनी सारी परे शानी भूल जाता है। और इसी तरह जब कोई महापु ष िकसी अस दःु ख से स त
यि को ानोपदेश देता है तो उसके भाव से वह भी शांत और संयत हो जाता है। इस कार आ ाकारी स तान, पित ता
ी और साधु संग मनु य को सुख देने वाले साधन ह। यि के जीवन म इनका बड़ा मह व है।

ये बात एक बार ही होती ह


सकृ ज प त राजनः सकृ ज प त पंिडताः।
सकृ क याः दीय ते ी येतािन सकृ सकृत्।।11।।

आचाय चाण य यहां संयत और एक ही बार काय करने के संदभ म कहते ह िक राजा लोग एक ही बार बोलते ह;
पंिडत भी एक ही बार बोलते ह तथा क यादान भी एक ही बार होता है। ये तीन काय एक-एक बार ही होते ह।

आशय यह है िक राजा का आदेश एक ही बार होता है।


ान लोग भी एक बात को एक ही बार कहते ह।
क यादान भी जीवन म एक ही बार िकया जाता है।
इस कार चाहे राजा हो या िव ान या िफर क याओं के िववाह स ब ध आिद के लए माता-िपता का वचन अटल होता
है। तीन -राजा, प डत तथा माता-िपता ारा बोले वचन लौटाए नह जाते, अिपतु िनभाए जाते ह। उनके िनभाने या पूरा करने
म ही उनक महानता होती है। अथात् जसे जो अ छा काम करना होता है, वह करता है, उसे बार-बार कहने क
आव यकता नह होती। यही बड़े यि य का आदश प है।

कब अकेले कब साथ रह
एकािकना तपो ा यां पठनं गायनं ि िभः।
चतुिभगमनं े ं प िभबहिभः रणम्।।12।।

आचाय चाण य यहां एका त म मन के एका िच होने के प को ितपािदत करते हए कहते ह िक तप अकेले म
करना उिचत होता है, पढ़ने म दो, गाने म तीन, जाते समय चार, खेत म पांच यि तथा यु म अनेक यि होने चािहए।

आशय यह है िक तप या करने म यि को अकेला रहना चािहए। पढ़ते समय दो लोग का एक साथ पढ़ना उिचत है।
गाना गाते समय तीन का साथ अ छा रहता है। कह जाते समय यिद पैदल जा रहे ह , तो चार लोग अ छे रहते ह। खेत म
काम करते समय पांच लोग अ छी तरह करते ह। िक तु यु म जतने अ धक लोग (सेना) ह , उतना ही अ छा है।

पित ता ही प नी है
सा भाया या शुिचद ा सा भाया या पित ता।
सा भाया या पित ीता सा भाया स यवािदनी।।13।।

यहां आचाय चाण य प नी के व प क चचा करते हए कहते ह िक वही प नी है, जो पिव और कु शल हो। वही प नी
है, जो पित ता हो। वही प नी है, जसे अपने पित से ीित हो। वही प नी है, जो पित से स य बोले।

आशय यही है िक जसका आचरण पिव हो, कु शल गृिहणी हो, जो पित ता हो, जो अपने पित से स चा ेम करे और
उससे कभी झूठ न बोले, वही ी प नी कहलाने यो य है। जस ी म ये गुण नह होते, उसे प नी नह कहा जा सकता।

अथात आदश प नी वही है जो मन, वचन तथा कम से पिव हो, उसके गुण का गहन िववेचन करते हए बताया गया है
िक शरीर और अ तःकरण से शु , आचार-िवचार व छ, गृहकाय ं यथा भोजन, पीसना, कातना, धोना, सीना-िपरोना और
साज-स जा आिद म िनपुण, मन, वचन और शरीर से पित म अनुर और पित को स करना ही अपना कत य-कम
माननेवाली, िनरं तर स य बोलनेवाली; कभी हंसी-मजाक म भी ऐसी कोई बात नह करने वाली जससे थोड़ा भी संदेह पैदा
होता है, वही घर वग होगा वरना सम झए िक वह इन गुण के अभाव म घर नह नरक है।

िनधनता अिभशाप है
अपु य गृहं शू यं िदशः शू या वबा धवाः।।
मूख य दयं शू यं सवशू यं द र ता।।14।।

िनधनता को अिभशाप मानते हए आचाय चाण य यहां इस लोक के मा यम से कहते ह िक पु हीन के लए घर सूना हो
जाता है, जसके भाई न ह उसके लए िदशाएं सूनी हो जाती ह, मूख का दय सूना होता है और िनधन का तो सब कु छ सूना
हो जाता है। अथात् जस यि का एक भी पु न हो, उसे अपना घर एकदम सूना लगता है। जसका कोई भाई न हो उसे
सारी िदशाएं सूनी लगती ह। मूख यि को भले-बुरे का कोई ान नह होता, उसके पास दय नाम क कोई चीज नह
होती। िक तु एक गरीब के लए तो घर, िदशाएं, दय, संसार ही सूना हो जाता है। गरीबी एक अिभशाप है।

ान का अ यास भी कर
अन यासे िवषं शा मजीण भोजनं िवषम्।
द र य िवषं गो ी वृ य त णी िवषम्।।15।।

आचाय चाण य अपने ान को िचर थायी व उपयोगी बनाए रखने के लए अ यास पर जोर देते हए कहते ह िक जस
कार बिढ़या से बिढ़या भोजन बदहजमी म लाभ करने के थान पर हािन पहंचाता है और िवष का काम करता है, उसी
कार िनरं तर अ यास न रखने से शा ान भी मनु य के लए घातक िवष के समान हो जाता है। जो यि िनधन व द र
है, उसके लए िकसी भी कार क सभाएं, उ सव िवष के समान ह। य कहने को तो वह प डत होता है, पर तु अ यास न
होने के कारण वह शा का भली कार िव लेषण-िववेचन नह कर पाता तथा उपहास और अपमान का पा बनता है। ऐसी
थित म स मािनत यि को अपना अपमान मृ यु से भी अ धक दःु ख देता है। जो यि िनधन व द र है उसके लए
िकसी भी कार क सभाएं, उ सव िवष के समान ह। इन गोि य , उ ास के आयोजन म तो केवल धनवान् यि ही जा
सकते ह। यिद कोई द र भूल से अथवा मूखतावश इस कार के आयोजन म जाने क धृ ता करता भी है तो उसे वहां से
अपमािनत होकर िनकलना पड़ता है, अतः िनधन यि के लए सभाओं, गोि य , खेल व मेल -ठे ल म जाना ित ा के
भाव से अपमािनत करने वाला ही स होता है। उसे वहां नह जाना चािहए।

इनको याग देना ही अ छा


यजे म दयाहीनं िव ाहीनं गु ं यजेत्।
यजे ोधमुखी भाया िनः नेहा बा धवां यजेत्।।16।।

आचाय चाण य यहां यागने यो य धम का उ ेख करते हए कहते ह िक धम म यिद दया न हो तो उसे याग देना
चािहए। िव ाहीन गु को, ोधी प नी को तथा नेहहीन बा धव को भी याग देना चािहए। अथात् जस धम म दया न हो,
उस धम को छोड़ देना चािहए। जो गु िव ान न हो, उसे याग देना चािहए। गु सैल प नी का भी याग कर देना चािहए। जो
भाई-ब धु, सगे-संबध
ं ी ेम न रखते ह , उनसे स ब ध नह रखना चािहए। अथात् दयाहीन धम को, िव ाहीन गु को, गु सैल
प नी को और नेहहीन भाई-ब धुओं को याग देना ही अ छा है।

बुढ़ापे के ल ण
अ वाजरं मनु याणां वा जनां ब धनं जरा।
अमैथुनं जरा ीणां व ाणामातपं जरा।।17।।

यहां इन पंि य म आचाय चाण य वृ ाव था पर िट पणी करते हए कहते ह िक रा ता मनु य का, बांधा जाना घोड़े का,
मैथुन न करना ी का तथा धूप म सूखना व का बुढ़ापा है। अथात् राह म चलते रहने से थककर मनु य अपने को बूढ़ा
अनुभव करने लगता है। घोड़ा बंधा रहने पर बूढ़ा हो जाता है। स भोग के अभाव म ी अपने को बुिढ़या अनुभव करने
लगती है। धूप म सुखाए जाने पर कपड़े शी फट जाते ह तथा उनका रं ग फ का पड़ जाता है।

काम से पहले िवचार कर ल


कः कालः कािन िम ािण को देशः को ययागमोः।
क याहं का च मे शि रित िच यं मुहमुहः।।18।।

आचाय चाण य जीवन म यवहार करने यो य व तु क पूरी पहचान कर ही उ ह बरतने क बात ितपािदत करते हए
कहते ह िक कैसा समय है? कौन िम है? कैसा थान है? आय- यय या है? म िकसक और मेरी या शि है? इसे
बार-बार सोचना चािहए।

अथात् यि को िकसी भी काय को शु करते समय इन बात पर अ छी तरह से िवचार कर लेना चािहए - या यह
समय इस काम को करने के लए उिचत रहेगा? मेरे स चे साथी कौन-कौन ह, जो मेरी मदद करगे? या इस थान पर इस
काम को करने से लाभ होगा? इस काम म िकतना खच होगा और इससे िकतनी आय होगी? मने िकसक मदद क है?
तथा मेरे पास िकतनी शि है?

इन न पर िवचार करते हए मनु य को अपना जीवन िबताना चािहए तथा आ मक याण के लए सदा यनशील रहना
चािहए। जो यि इन बात पर िवचार नह करता, वह प थर के समान िनज व होता है और सदा लोग के पांव म पड़ा
ठोकर खाता रहता है। मनु य को समझदारी से काम लेकर जीवन िबताना चािहए।

माता-िपता के िभ प (िपता)
जिनता चोपनेता च य तु िव ां य छित।
अ दाता भय ाता प ैता िपतरः मृताः।।19।।

यहां इस लोक म आचाय चाण य सं कार क ि से पांच कार के िपता को िगनाते हए कहते ह‒ज म देने वाला,
उपनयन सं कार करने वाला, िव ा देने वाला, अ दाता तथा भय से र ा करने वाला, ये पांच कार के िपता होते ह।
अथात् वयं अपना िपता जो ज म देता है, उपनयन (य ोपवीत) सं कार करने वाला गु , अ -भोजन देने वाला तथा
िकसी किठन समय म ाणी क र ा करने वाला इन पांच यि य को िपता माना गया है। िक तु यवहार म िपता का अथ
ज म देने वाला ही लया जाता है।

माता
राजप नी गुरोः प नी िम प नी तथैव च।
प नीमाता वमाता च प ैताः मातरः मृताः।।20।।

यहां इस लोक म आचाय चाण य मां के बारे म चचा करते हए कहते ह िक राजा क प नी, गु क प नी, िम क
प नी, प नी क मां तथा अपनी मां‒ये पांच कार का मांएं होती ह।

अथात् अपने देश के राजा क प नी, गु क प नी, िम क प नी, अपनी प नी क मां अथात्, सास और ज म देने वाली
अपनी मां इन पांच को मां माना जाता है।

व तुतः देखा जाए तो माता ममता और क णा क ितमूित होती है। जहां से ममता और क णा का वाह पु के लए
होता है, उसे माता मान लया गया है। अतः इन पांच थान से भावनामयी, क णामयी दय से भावमय वाह वािहत होता
है। इस लए इन पांच को माता माना जाता है। इस लए इनका यि के जीवन म मां के समान ही मह व है।
पांचवां अ याय

अित थ े होता है
गु रि ि जातीनां वणानां ा णो गु ः।
पितरे व गु ः ीणां सव या यगतो गु ः।।1।।

आचाय चाण य यहां गु क या या-िववेचना एवं व प क या या करते हए कह रहे ह िक ा ण, ि य और


वै य, इन तीन वण ं का गु अि है। ा ण अपने अित र सभी वण ं का गु है। य का गु पित है। घर म आया हआ
अित थ सभी का गु होता है।

उनका कथन है िक अि को ा ण , ि य एवं वै य का गु माना जाता है। ा ण को ि य, वै य और शू का


गु समझना चािहए। य का गु उनका पित होता है। घर म आया अित थ सारे घर का गु माना गया है अथात् अ यागत
वह होता है जो अित थ प म गृह थ के यहां अक मात् आ जाता है। उसका कोई वाथ नह होता। वह तो अपने आितथेय
का ही क याण चाहता है। इस लए आचाय चाण य ने अित थ को े यि माना है।

पु ष क परख गुण से होती है


यथा चतुिभः कनकं परी यते िनघषण छे दन तापताडनैः।
तथा चतुिभः पु षः परी यते यागेन शीलेन गुणन
े कमणा।।2।।

आचाय चाण य यहां गुण कम ं से पु ष क परी ा क चचा करते हए कहते ह िक िघसने, काटने, तपाने और पीटने, इन
चार कार से जैसे सोने का परी ण होता है, इसी कार याग, शील, गुण एवं कम ं से पु ष क परी ा होती है।

अथात् सोना खरा है या खोटा, यह जानने के लए पहले उसे कसौटी पर िघसा जाता है, िफर काटा जाता है, िफर आग म
गलाया जाता है तथा अ त म उसे पीटा जाता है। इसी कार कु लीन यि क परी ा भी उसके याग से, वभाव से, गुण से
तथा काय ं से ली जाती है। कु लीन यि याग करने वाला सुशील, िव ा आिद गुण वाला तथा सदा अ छे काय करने वाला
होता है।

संकट का स मान कर
तावद् भयेषु भेत यं याव७यमनागतम्।
आगतं तु भयं ा हत यमशंकया।।3।।

आचाय चाण य यहां सर पर आए संकट से िनपटने के संदभ म कहते ह िक आप य और संकट से तभी तक डरना
चािहए जब तक वे द ूर ह, परं तु वे संकट सर पर आ जाएं तो उस पर िबना शंका िकए मुकाबला करना चािहए, उ ह द ूर
करने का उपाय करना चािहए।

अथात् जब तक भय द ूर है तभी तक यि को उससे डरना चािहए अथात् िकसी कार का ऐसा काय नह करना चािहए
जससे भय आ जाये, लेिकन भय आ जाने पर डरने से भी काय नह चलेगा। उस समय उसका िनदान ढू ढं ना चािहए, उसका
डटकर मुकाबला करना चािहए। अ यथा संसार म भय से पलायन करने के लए कोई थान इस कार का नह िमलेगा जहां
भय न हो और भयभीत यि कोई काय कह भी नह कर सकता है। भय से जीवन भी नह चलता। इस लए भय से मुि
पाने के लए उसका हल ढू ढं ना ही य
े कर माग है। वीर एवं साहसी पु ष का यही धम है।

दो लोग का वभाव एक-सा नह होता


एकोदरसमु७ूता एक न जातका।
न भव त समा शीले यथा बद रक टका।।4।।

यहां आचाय चाण य कहते ह िक एक ही कोख से, एक ही ह-न म ज म लेने पर भी दो लोग का वभाव एक
समान नह होता। उदाहरण के लए बेर और कांट को देखा जा सकता है।
अथात् जैसे बेर और कांटे एक ही वृ म एक साथ उ प होते ह, िक तु उनका वभाव अलग-अलग होता है। इसी
कार एक ही मां से एक ही न म ज मे दो जुड़वां ब च का भी वभाव एवं आचरण समान नह होता।

प वादी बन
िन पृहो ना धकारी या कामी भ डनि या।
नो िवद धः ि यं ूयात् प व ा न वंचकः।।5।।

आचाय चाण य प व ा के गुण क चचा करते हए कहते ह िक िवर यि िकसी िवषय का अ धकारी नह होता,
जो यि कामी नह होता, उसे बनाव- ंगार क आव यकता नह होती। िव ान यि ि य नह बोलता तथा प बोलने
वाला ठग नह होता।

अथात् जस यि को दिु नयादारी से वैरा य हो जाता है, उसे कोई काय नह स पना चािहए। बनने-संवरने वाला यि
कामी होता है। य िक द ूसर का यान आक करने के लए ही ृग
ं ार िकया जाता है। अतः जो यि कामी नह होता उसे
ृग
ं ार से ेम नह होता। का ड िव ान यि सदा स य बात कहता है। वह ि य नह बोलता। साफ-साफ बात करने वाला
यि कपटी नह होता।

इनम ेष भावना होती है


मूखाणां प डता े या अधनानां महाधना।
वारांगना कु लीनानां सुभगानां च दभु गा।।6।।

आचाय चाण य यहां ेष करने वाल क चचा करते हए कहते ह िक मूख-पंिडत से; िनधन-धिनय से; वे याएं-
कु लवधुओं से तथा िवधवाएं- सुहािगन से ेष करती ह।

अथात् मूख यि प डत से तथा िव ान यि य से ेष करता है। िनधन-गरीब यि सेठ से ेष रखता है य िक


उनक स प ता उसे खलती है। वे याएं अ छे घर क बह-बेिटय से जलती ह, य िक वे याओं को कु लीन वधुओं के
समान भावना मक नेह नह िमल पाता, केवल शरीर का शोषण ही होता है तथा िवधवा यां सुहािगन को देखकर मन ही
मन अपने भा य पर रोती ह िक उनका सौभा य-सुख दैव ने उससे छीन लया। पितिवहीना होना उनके लए अिभशाप ही तो
है।

इनसे ये चीज न हो जाती ह


आल योपहता िव ा परह तं गतं धनम्।
अ पबीजहतं े ं हतं सै यमनायकम्।।7।।

यहां आचाय चाण य कौन िकससे न होता है‒क चचा करते हए कहते ह िक आल य से िव ा न हो जाती है। द ूसरे
के हाथ म जाने से धन न हो जाता है। कम बीज से खेत तथा िबना सेनापित के सेना न हो जाती है।

अिभ ाय यह है िक आलसी यि िव ा क र ा नह कर सकता, वह वा याय मनन से द ूर होता है। द ूसरे के हाथ म


गया धन आव यकता के समय िमल नह पाता, य िक द ूसरा यि समय पर उसे लौटा नह पाता। खेत म थोड़ा बीज
डालने से फसल भरपूर नह होती य िक जतना बीज डाला जायेगा उसी अनुपात म तो फसल होगी। और सेनापित के िबना
सेना रणनीित िनधा रत नह कर पाती। प है िक िव ा के लए प र म अपेि त है, धन वही है जो अपने अ धकार म हो,
अपने पास हो। फसल तभी अ छी होगी जब बीज उ म और पया मा ा म डाला जाएगा और सेना वही जीतेगी, जसका
संचालन कु शल सेनापित के हाथ म होगा। ये बात यान देने यो य ह।

इनसे गुण क पहचान होती है


अ यासा ायते िव ा कु लं शीलेन धायते।
गुणन
े ायते वाय कोपो ने ेण ग यते।।8।।

आचाय चाण य यहां िव ा, कु ल- े ता और ोध क पहचान कराने वाले त व क चचा करते हए कहते ह िक


अ यास से िव ा का, शील वभाव से कु ल का, गुण से े ता का तथा आंख से ोध का पता लग जाता है।
अथात् यि के साथ रहने पर उसके प र म, बोलने के ढंग आिद से उसक िव ा का तथा उसके आचरण से उसके
कु ल-खानदान का पता लग जाता है। यि के अ छे गुण ही बता देते ह िक वह एक े मनु य है। यि चाहे मुंह से कु छ
न कहे, िक तु उसक आंख ही उसक नाराजगी को बता देती ह।

कौन िकसक र ा करता है


िव ेन र यते धम ं िव ा योगेन र यते।
मृदनु ा र यते भूपः स या र यते गृहम्।।9।।

आचाय चाण य धम, िव ा, राजा और घर के र ाकारक त व से प रिचत कराते हए कहते ह िक धन से धम क , योग


से िव ा क , मृदतु ा से राजा क तथा अ छी ी से घर क र ा होती है।

अथात् धन से ही मनु य अपने धम-कत य का सही पालन कर सकता है। सदाचार-संयम आिद से िव ा क र ा होती है।
राजा का मधुर वभाव ही उसक र ा करता है तथा अ छे आचरणवाली ी से ही घर क र ा होती है।

प है िक धम पालन के लए धन क , िव ा के गौरव क र ा के लए कम-कु शलता क , राजा क लोकि यता बनाए


रखने के लए कोमल यवहार क तथा प रवार के स मान को सुरि त रखने के लए ी क स च र ता क आव यकता
होती है।

मूख का याग कर
अ यथा वेदपांिड यं शा माचारम यथा।
अ यथा वदतः शा तं लोकाः ल य त चा यथा।।10।।

आचाय चाण य मह वपूण थािपत थितय को िनरथक और बेकार कहने वाल के ित िवचार य करते हए कहते ह
िक जो लोग वेद को, पांिड य को, शा को, सदाचार को तथा शांत मनु य को बदनाम करते ह, वे बेकार क करते ह।

अथात् यिद कोई वेद , शा , बुि मान, सदाचारी तथा शांत यि क बुराई करता है, तो वह मूख है। ऐसा करने से
इनका मह व कम नह होता। य िक अनेक ऋिष-मुिनय ने वष ं क साधना के प म िकया तथा जनसाधारण के क याण
के लए जन िनयम का िवधान िकया, उस त व ान तथा आचार-पर परा का िवरोध करना एवं उन महान तपोधमा,
परोपकारी धमा मा महा माओं के ित अव ा का भाव िदखाना जहां यि क मूखता क पराका ा है, वहां पर परागत एवं
लोक िति त धमाचरण क उपे ा कर समाज को अधम के गहरे गत म धकेलना भी है। इसे कभी लोकिहत क भावना से
े रत कम नह माना जा सकता। अतः वेद-शा एवं महा मािवरोधी यि या य व िन दनीय ह। समाज के यापक िहत
क ि से ऐसे यि हर कार से दःु खदायी ही होते ह, अतः इनका याग करने म समाज का िहत है।

दा र यनाशनं दानं शीलं दगु ितनाशनम्।


अ ानतानािशनी ा भावना भयनािशनी।।11।।

आचाय चाण य उस आचरण के संदभ म िवचार य कर रहे ह, जसके योग से यि बड़ी उपल ध पाता है। उनका
कहना है िक दान द र ता को न कर देता है। शील वभाव से दःु ख का नाश हो जाता है। बुि अ ान को न कर देती है
तथा भावना से भय का नाश हो जाता है।

अथात् साम य के अनुसार दान देना चािहए, इससे अपनी ही द र ता द ूर हो जाती है। सदाचार से यि के दःु ख न हो
जाते ह। भले-बुरे क पहचान करने वाली बुि यि के अ ान को द ूर कर देती है तथा साहस करके ढ़ भावना करने से
भी सभी कार के भय द ूर हो जाते ह।

आ मा को पहचान
ना त कामसमो या धना त मोहसमो रपुः।
ना त कोप समो वि ना त ाना परं सुखम्।।12।।

यहां आचाय परम सुख का मह व ितपािदत करते हए सुख का ही बखान करते हए कहते ह िक ‘काम’ के समान
या ध नह है, मोह-अ ान के समान कोई श ु नह है, ोध के समान कोई आग नह है तथा ान के समान कोई सुख नह
है।
अथात् काम-वासना मनु य का सबसे बड़ा रोग है, मोहमाया या अ ान सबसे बड़ा श ु है, ोध के समान कोई आग नह
है तथा ान के समान कोई सुख नह है।

यहां मोह और ान वेदा त दशन के पा रभािषक श द ह, माया के म म जीवन आ मा को भूल जाता है, इसी को मोह,
अ ान या माया कहा जाता है। आ मा को जानना ही ान कहा जाता है।

मनु य अकेला होता है


ज ममृ युिनय येको भुन येकः शुभाशुभम्।
नरकेषु पत येकः एको याित परां गितम्।।13।।

यहां आचाय चाण य एकाक भाव को प करते हए कहते ह िक यि संसार म अकेला ही ज म लेता है, अकेला ही
मृ यु को ा करता है, अकेला ही शुभ-अशुभ कम ं का भोग करता है, अकेला ही नरक म पड़ता है तथा अकेला ही
परमगित को भी ा करता है। अथात्‒

मनु य अकेला ही ज म लेता है।


अकेला ही भा य के शुभ-अशुभ कम ं को भोगता है।
अकेला ही नरक म िगरता है और अकेला ही परमपद (मो ) भी ा करता है। इन सभी काय ं म उसके साथ िकसी
क साझेदारी नह होती।

संसार को ितनका समझ


तृणं िवद् वग तृणं शूर य जीवनम्।
जमा य तृणं नारी िनः पृह य तृणं जगत्।।14।।

यहां आचाय चाण य सांसा रकता को ितनके के समान बताते हए कहते ह िक ानी को वग, वीर को अपना जीवन,
संयमी को ी तथा यागी को सारा संसार ितनके समान लगता है।

आशय यह है िक जो यि ा को जान लेता है, उसे वग क कोई इ छा नह रहती, य िक वग के सुख को भोगने


के बाद िफर ज म लेना पड़ता है। ानी ा म िमल जाता है। अतः उसके लए वग का कोई मह व ही नह रह जाता।
यु भूिम म वीरता िदखानेवाला यो ा अपने जीवन क परवाह नह करता। जो यि अपनी इ य को जीत लेता है, उसके
लए ी ितनके के समान मामूली व तु हो जाती है। जस योगी क सभी इ छाएं समा हो जाती ह, वह सारे संसार को
ितनके के समान समझने लगता है।

िम के िभ प
िव ा िम ं वासेषु भाया िम ं गृहषे ु च।
या धत यौषधं िम ं धम ं िम ं मृत य च।।15।।

यहां आचाय चाण य िम क चचा करते हए कहते ह िक घर से बाहर िवदेश म रहने पर िव ा िम होती है, घर म प नी
िम होती है, रोगी के लए दवा िम होती है तथा मृ यु के बाद यि का धम ही उसका िम होता है। इस कार हर कार
से िम क परवाह करनी चािहए और समयानुसार िम -िवचार करना ही य
े कर है।

कौन कब बेकार है
वृथा वृि ः समु ेषु वृथा तृ ेषु भोजनम्।
वृथा दानं धना ेषु वृथा दीपो िदवािप च।।16।।

आचाय चाण य वृथा पर िवचार करते हए कहते ह िक समु म वषा यथ है। तृ को भोजन कराना यथ है। धनी को
दान देना यथ है और िदन म दीपक जलाना यथ है।

अथात् समु म वषा से या लाभ! जसका पेट भरा हो उसे भोजन कराना, धनी यि को दान देना या िदन म दीपक
जलाना यथ है। कोई भी काम थान, यि तथा समय देखकर ही करना उिचत होता है।

ि य व तुएं
ना त मेघसमं तोयं ना त चा मसमं बलम्।
ना त च ुसमं तेजो ना त चा समं ि यम्।।17।।

यहां आचाय सबसे ि य व तु क चचा करते हए कहते ह िक बादल के समान कोई जल नह होता। अपने बल के समान
कोई बल नह होता। आंख के समान कोई योित नह होती और अ के समान कोई ि य व तु नह होती।

अथात् बादल का जल ही सबसे अ धक उपयोगी होता है। अपना बल ही सबसे बड़ा बल होता है; इसके बराबर अ य
िकसी भी बल का भरोसा नह िकया जा सकता। आंख क रोशनी ही सबसे बड़ी रोशनी है तथा भोजन येक ाणी क
सबसे अ धक ि य व तु है।

जो सामने न हो उससे या लगाव


अधना धनिम छ त वाचं चैव चतु पदाः।
मानवाः वगिम छ त मो िम छ त देवताः।।18।।

यहां आचाय चाण य अ ा व तु के ित यि मा क आसि क वृ पर िट पणी करते हए कहते ह िक िनधन


यि धन क कामना करते ह और चौपाये अथात् पशु बोलने क शि चाहते ह। मनु य वग क इ छा करता है और वग
म रहने वाले देवता मो ाि क इ छा करते ह और इस कार जो ा है, सभी उससे आगे क कामना करते ह।

व तुतः देखा जाए तो इस संसार म यह एक सरल-सा स य है िक जस यि के पास जस व तु का अभाव होता है,


वह उसे ही ा करना चाहता है, उसी क लालसा करता है, उसी को अ धक मह व देता है। जैसे िनधन यि सबसे
अ धक मह व धन को देखता है। वह उसक ाि के लए हमेशा याकु ल रहता है। पशुओं के लए सबसे बड़ा अभाव वाणी
है। वे उसे पाने क लालसा रखते ह। मनु य इस लोक क अपे ा वग के व न क कामना करता है और वग म रहने
वाले देवता मो ाि क इ छा करते ह।

आचाय चाण य के इस लोक का मूल भाव यही है िक इस संसार म सभी ाणी िकसी न िकसी कार के अभाव से
पीिड़त ह। जो कु छ उ ह ा है वे उसको मह व न देकर सदा अ ा व तु क कामना करते रहते ह।

स येन धायते पृ वी स येन तपते रिवः।


स येन वाित वायु च सव स ये िति तम्।।19।।

यहां आचाय चाण य स य क ित ा कराते हए कहते ह िक स य ही पृ वी को धारण करता है। स य से ही सूय तपता
है। स य से ही वायु बहती है। सब कु छ स य म ही िति त है।

अथात् परमा मा को ही स य कहा जाता है। स य से ही पृ वी िटक हई है। स य के कारण ही सूय और वायु अपना काय
करते ह और यह सारा संसार स य के कारण ही काम करता है। स य ही इसका आधार है।

धम ही अटल है
चला ल मी चलाः ाणा चले जीिवतम दरे ।
चलाचले च संसारे धम एको िह िन चलः।।20।।

यहां आचाय चाण य धम चचा करते हए कहते ह िक ल मी चंचल है, ाण, जीवन, शरीर सब कु छ चंचल और
नाशवान है। संसार म केवल धम ही िन चल है।

अिभ ाय यह है िक ल मी, धन-स प सब चंचल ह, ये कभी एक के पास रहती ह, तो कभी द ूसरे के पास चली जाती
ह। इनका िव वास नह करना चािहए और न ही इन पर घम ड करना चािहए। ाण, जीवन, शरीर और यह सारा सारा संसार
भी सदा नह रहता। ये सब एक न एक िदन अव य न हो जाते ह। संसार म केवल अकेला धम ही ऐसी चीज है, जो कभी
न नह होता। यही यि का स चा साथी है, सबसे बड़ी स प है, जो जीवन म भी काम आता है तथा जीवन के बाद भी।
अतः इसका सदा संचय करना चािहए। धन-संप , ाण, शरीर आिद का मोह अ धक नह करना चािहए।

इ ह धूत मान
नराणां नािपतो धूतः पि णां चैव वायसः।
चतु पदां ंगाल तु ीणां धूता च मा लनी।।21।।

यहां आचाय चाण य धूत ं क चचा करते हए कहते ह िक पु ष म नाई, पि य म कौआ, चौपाय म सयार तथा य
म मा लन धूत होती है।

आशय यह है िक पु ष म नाई धूत होता है। पि य म कौआ धूत माना जाता है। चौपाये पशुओं म सयार को तथा य
म मा लन को धूत समझा जाता है।
छठा अ याय

सुनना भी चािहए
ु वा धम िवजानाित ु वा यजित दमु ितम्।
ु वा ानमवा नोित ु वा मो मवा नुयात्।।1।।

आचाय चाण य यहां सुनकाकर ान ा करने क ि या प करते हए कहते ह िक सुनकर ही मनु य को अपने
धम का ान होता है, सुनकर ही वह दबु ुि का याग करता है। सुनकर ही उसे ान ा होता है और सुनकर ही मो
िमलता है।

अिभ ाय यह है िक अपने पू य लोग या महापु ष के मुंह से सुनकर ही मनु य को अपने धम, अथात् क य का ान
होता है, जससे वह पतन के माग पर ले जानेवाले काय को याग देता है। सुनकर ही ान तथा मो भी िमलता है। अतः
प है िक बात को पढ़कर समझने क अपे ा उसे िकसी ानी गु के मुख से सुनकर अ धक ा माना जाता है। ऐसे
अनेक महापु ष हए ह ज ह ने वण मा से बहत कु छ जाना। अतः मनु य का क य है िक यिद वह वयं शा न पढ़
सके तो धम पदेश को सुनकर हण करे तो भी उसे पूरा लाभ िमलेगा।

चंडाल कृित
प ीणां काक चा डाल पशूनां चैव कु कु रः।
मुनीनां पाप चा डालः सवषु िन दकः।।2।।

यहां आचाय चाण य चांडाल के बारे म बताते हए कह रहे ह िक पि य म कौआ, पशुओं म कु ा, मुिनय म पापी तथा
िन दक सभी ािणय म चा डाल होता है।

भाव यह है िक पि य म कौए को चा डाल समझना चािहए। पशुओं म कु े को तथा मुिनय म पापी को चा डाल मानना
चािहए। द ूसर क बुराई करनेवाला यि पि य , पशुओं तथा मनु य म भी सबसे बड़ा चा डाल माना जाता है। अथात्
िन दक चा डाल का भी चा डाल होता है य िक जस यि क परो प म िन दा क जाती है उसक अनुप थित म
िन दक को ही उसका पाप भुगतना पड़ता है। अतः अ छा है िक िनंदा क वृ से बच। मनु य क यह सबसे बड़ी कमजोरी
है िक वह िन दा म अ धक रस लेता है। इसम समय न होने के अित र कु छ हाथ नह आता।

इनसे शुि होती है


भ मना शु यते कां यं ता म लेन शु यित।
रजसा शु यते नारी नदी वेगन
े शु यित।।3।।

यहां आचाय शुि क चचा करते हए कहते ह िक कांसा भ म से शु होता है, तांबा अ ल से, नारी रज वला होने से
तथा नदी अपने वेग से शु होती है।

मण आव यक है
म स पू यते राजा म स पू यते ि जः।
म स पू यते योगी ी मती िवन यित।।4।।

यहां आचाय चाण य मण के मह व को ितपािदत करते हए कहते ह िक मण करता हआ राजा पूजा जाता है, मण
करता हआ ा ण पूजा जाता है, मण करता हआ योगी पूजा जाता है और मण करती हई ीन हो जाती है।

भाव यह है िक एक थान से द ूसरे थान पर सदा घूमते रहनेवाले राजा, िव ान तथा योगी तो पूजे जाते ह, िक तु ऐसा
करनेवाली ीन हो जाती है। मण करना राजा, िव ान तथा योगी, इन तीन को ही शोभा देता है, ी को नह ।

धन का भाव
य याथा त य िम ािण य याथा त य बा धवाः।
य याथाः स पुमां ोके य याथाः स च प डतः।।5।।

यहां आचाय चाण य धनवान होने से उपजी गुणव ा क चचा करते हए कहते ह िक जस यि के पास पैसा है, लोग
वतः ही उसके िम बन जाते ह। बंधु-बांधव भी उसे आ घेरते ह। जो धनवान है उसी को आज के युग म िव ान और
स मािनत यि माना जाता है। धनवान यि को ही िव ान और ानवान भी समझा जाता है।

व तुतः सैकड़ वष पूव आचाय चाण य ारा कही गई यह बात आज के युग म पूरी तरह स य स हो रही है। यह देखा
गया है िक जसके पास धन नह होता, िम -ब धुगण उससे मुंह मोड़ लेते ह, ब धु-बा धव और प रवारवाले उसका प र याग
कर देते ह। यहां तक िक िनधन यि को इनसान समझने म भी किठनाई अनुभव क जाती है। ऐसे यि को कोई आदमी
ही नह समझता। अनेक गुण वाला िनधन यि आज के युग म उपेि त रहता है। यही धन क मह ा का लौिकक भाव है।

बुि भा य क अनुगामी होती है


ता शी जायते बुि यवसायोऽिप ता शः।
सहाया ता शा एव या शी भिवत यता।।6।।

आचाय चाण य यहां भा य को मह व देते हए बुि के भा य के अनुगामी होने को ितपािदत करते हए कहते ह िक
मनु य जैसा भा य लेकर आता है उसक बुि भी उसी के समान बन जाती है, काय- यापार भी उसी के अनु प िमलता है।
उसके सहयोगी, संगी-साथी भी उसके भा य के अनु प ही होते ह। सारा ि याकलाप भा यानुसार ही संचा लत होता है।

कहने का अिभ ाय यह है िक मनु य क होनी बल है। जो होना है वह होकर रहेगा। इस लए कई बार मनु य ारा सोची
हई बात, उसक कु शलता और उसके यास सब बेकार हो जाते ह। शा म यह लखा भी है िक िवप के आने पर मनु य
क िनमल बुि भी मलीन हो जाती है यानी िवनाश काले िवपरीत बुि हो जाती है। इितहास म भी ऐसे अनेक उदाहरण
िमलगे िक अनेक महापु ष ने भावी के इस च म पड़कर भयंकर भूल क । उदाहरण के लए ीराम को ही देख, मयादा
पु षो म होकर भी वे मायावी वण मृग के पीछे भाग पड़े और सीताहरण क महान् घटना घटी। इससे सब अ छी तरह
प रिचत ह। िक तु इसका यह अिभ ाय भी नह िक मनु य होनहार के भरोसे अपने उ म का प र याग कर द। उसे कमफल
क इ छा न रखकर कम करते रहना चािहए। कम भा य को भी बदलने क मता रखता है।

समय बलवान होता है


कालः पचित भूतािन कालः संहरते जाः।
कालः सु ेषु जागित कालो िह दरु ित मः।।7।।

आचाय चाण य यहां काल के भाव क चचा करते हए कहते ह िक काल ही ािणय को िनगल जाता है। काल सृि
का िवनाश कर देता है। यह ािणय के सो जाने पर भी उनम िव मान रहता है। इसका कोई भी अित मण नह कर सकता।

भाव यह है िक काल या समय सबसे बलवान है। समय धीरे -धीरे सभी ािणय और सारे संसार को भी िनगल जाता है।
ािणय के सो जाने पर भी समय चलता रहता है। ितपल उनक उ कम होती रहती है। इसे कोई नह टाल सकता, य िक
काल के भाव से बचना यि के लए संभव नह है। चाहे योग-साधन िकए जाएं अथवा वै ािनक उपाय का सहारा लया
जाए तो भी काल के भाव को हटाया नह जा सकता। समय का भाव तो हर व तु पर पड़ता ही है। शरीर िनबल हो जाता
है, व तुएं जीण और रत हो जाती ह। सभी देखते ह और जानते ह िक यि यौवन म जस कार साहसपूण काय कर
सकता थावृ ाव था म ऐसा कु छ नह कर पाता। बुढ़ापे के िच यि के शरीर पर काल के पग-िच ही तो ह। काल को
मोड़कर पीछे नह घुमाया जा सकता, यानी गया समय कभी नह लौटता। यह बात िबलकु ल स य है िक काल क गित को
रोकना देवताओं के लए भी संभव नह । अनेक किवय ने भी काल क मिहमा का वणन िकया है। भतृह र ने भी कहा है िक
काल समा नह होता वरन् मनु य का शरीर ही काल का ास बन जाता है। यही कृित का िनयम है। अतः समय के
मह व को जानकर आचरण करना चािहए।

जब कु छ िदखाई नह देता
नैव प यित ज मा धः कामा धो नैव प यित।
मदो म ा न प य त अथ दोषं न प यित।।8।।
आचाय चाण य यहां यि क ि मता के बारे म िवचार कट करते ह िक ज मांध कु छ नह देख सकता। ऐसे ही
कामांध और नशे म पागल बना यि भी कु छ नह देखता। वाथ यि भी िकसी म कोई दोष नह देखता।

भाव यह है िक ज म से अ धा यि दिु नया क कोई भी चीज नह देख सकता।

काम-वासना का भूत सवार होने पर कामी यि भी लोक-लाज, समाज- यवहार क कोई िच ता नह करता। इस कार
प है िक काम से पीिड़त, मिदरा और नशीली व तुओं से भािवत और अपनी आव यकता को पूरा करने के लोभ म पड़ा
हआ यि अ धा अथात् िववेकहीन हो जाता है।

कम का भाव
वयं कम को या मा वयं त फलम नुते।
वयं मित संसारे वयं त माि मु यते।।9।।

आचाय चाण य यहां कम-फल के भाव को प करते हए कहते ह िक ाणी वयं कम करता है और वयं उसका
फल भोगता है। वयं संसार म भटकता है और वयं इससे मु हो जाता है।

भाव यह है िक मनु य वयं कम करता है। कम ं के ही आधार पर उसे अ छा या बुरा फल िमलता है। इन फल के
आधार पर ही संसार म उसका बार-बार ज म होता है और बार-बार मृ यु होती है। अ छे कम होने पर द ूसरे ज म म सुख
तथा बुरे कम होने पर दःु ख िमलते ह। बार-बार ज म-मृ यु का यह च कर ही संसार म भटकना है। इन सबका सामना ाणी
को वयं करना पड़ता है। जब कभी जाकर उसे ान होता है तो वह वयं ही इस च कर से मु होकर मो ा करता है।

राजा रा कृतं पापं रा ः पापं पुरोिहतः।


भता च ीकृतं पापं िश य पाप गु तथा।।10।।

आचाय चाण य यहां कम के द ूरगामी भाव क चचा करते हए कहते ह िक रा ारा िकए गए पाप को राजा भोगता है।
राजा के पाप को उसका पुरोिहत, प नी के पाप को पित तथा िश य के पाप को गु भोगता है।

भाव यह है िक जा का पाप राजा को, राजा का पाप उसके पुरोिहत को, ी का पाप उसके पित को तथा िश य का पाप
उसके गु को भुगतना पड़ता है। य िक देखा जाये तो इसका सीधा स ब ध राजा ारा अपने क यपालन न करने से है।
राजा यिद अपने रा य म क यपालन नह करता और उदासीन रहता है तो वहां पाप-वृ यां बढ़ती ह, अराजकता आ जाती
है, उसका दोष राजा को िनयंि त रखने का दािय व उ ह का है। इसी कार पित का क य है िक प नी को पापकम क
ओर े रत न होने दे, उसे अपने िनय ण म रखे। प नी यिद कोई गलत काम करती है तो उसका फल अथवा प रणाम पित
को ही भोगना पड़ता है। इसी कार गु का क य है िक िश य का सही मागदशन करे , उसे स कम ं क ओर े रत करे ।
यिद वह अपने इस क य के ित सावधान नह रहता और िश य पापकम म वृ होता है तो उसका दोष गु के सर पर
मढ़ा जाता है। राजा, पुरोिहत और पित का क य है िक वे जा, राजा, प नी व िश य को स माग क ओर े रत कर।

श ु कौन
ऋणकता िपता श ुमाता च यिभचा रणी।
भाया पवती श ुः पु श ुन प डतः।।11।।

आचाय चाण य यहां श ु के व प क चचा करते हए कहते ह िक ऋण करने वाला िपता श ु होता है। यिभचा रणी मां
भी श ु होती है। पवती प नी श ु होती है तथा मूख पु श ु होता है।

भाव यह है िक पु के लए कजा छोड़ जाने वाला िपता श ु के समान होता है। बुरे चाल-चलनवाली मां भी स तान के
लए श ु के समान होती है। अ धक सु दर प नी को भी श ु के समान समझना चािहए तथा मूख पु भी मां-बाप के लए श ु
के ही समान होता है।

व तुतः कजा लेकर घर का खच चलानेवाला िपता श ु होता है, य िक उसके मर जाने पर उस कज क अदायगी
स तान को करनी पड़ेगी। यिभचा रणी मां भी श ु के प म िन दनीय और या य है, य िक वह धम से िगरकर िपता और
पित के कु ल को कलंिकत करती है। ऐसी मां के पु को सामा जक अपमान सहना पड़ता है। इसी कार जो ी अपने
सौ दय का अिभमान करके पित क उपे ा करती है, उसे भी श ु ही मानना चािहए। य िक वह कत यिवमुख हो जाती है।
मूख पु भी कु ल का कलंक होता है। वह भी या य है। इस लए अपने उ म से प रवार का िनवाह करनेवाला िपता, पित ता
माता और अपने प और सौ दय के ित अहंकार न रखनेवाली ी और िव ान पु ही िहतकारी होते ह।

इ ह वश म कर
लु धमथन गृ ीया त धमंज लकमणा।
मूख छ दानुरोधेन यथाथवादेन प डतम्।।12।।

यहां आचाय चाण य वशीकरण के स ब ध म बताते ह िक लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मूख को
उपदेश देकर तथा पंिडत को यथाथ बात बताकर वश म करना चािहए।

भाव यह है िक लालची यि को धन देकर कोई काम कराना हो तो उसके सामने हाथ जोड़कर, झुककर चलना चािहए।
मूख यि को केवल समझा-बुझाकर ही वश म िकया जा सकता है। िव ान यि से स य बात कहनी चािहए, उ ह प
बोलकर ही वश म िकया जा सकता है।

दु से बच
कु राजरा येन कु तः जासुखं कु िम िम ेण कु तोऽिभिनवृ ः।
कु दारदारै च कु तो गृहे रितः कृिश यम यापयतः कु तो यशः।।13।।

यहां आचाय चाण य द ु के भाव को ितपािदत करते हए कहते ह िक द ु राजा के रा य म जा सुखी कैसे रह
सकती है। द ु िम से आनंद कैसे िमल सकता है। द ु प नी से घर म सुख कैसे हो सकता है, तथा द ु -मूख िश य को
पढ़ाने से यश कैसे िमल सकता है!

भाव यह है िक द ु -िनक मे राजा के रा य म जा सदा दःु खी रहती है। द ु िम सदा दःु खी ही करता है। द ु प नी घर
क सुख-शांित को समा कर देती है तथा द ु िश य को पढ़ाने से कोई यश नह िमलता। अतः द ु राजा, द ु िम ,द ु
प नी तथा द ु िश य के होने से इनका न होना ही बेहतर है। इस लए सुखी रहने के लए अ छे राजा के रा य म रहना
चािहए, संकट से बचाव के लए अ छे यि को िम बनाना चािहए, रितभोग के सुख के लए कु लीन क या से िववाह
करना चािहए तथा यश व क ितलाभ के लए यो य पु ष को िश य बनाना चािहए।

सीख िकसी से भी ले ल
संहादेकं बकादेकं िश े च वा र कु कु टात्।
वायसा पंच िश े च षट् शुन ीिण गदभात्।।14।।

यहां आचाय चाण य सीखने क बात िकसी भी पा से सीखने का प रखते हए कहते ह िक संह से एक, बगुले से
एक, मुग से चार, कौए से पांच, कु े से छः तथा गधे से सात बात सीखनी चािहए।

चाण य ने बताया है िक सीखने को तो िकसी से भी मनु य कु छ भी सीख सकता है, पर इसम भी मनु य जनसे कु छ गुण
सीख सकता है उनम उसे शेर और बगुले से एक-एक, गधे से तीन, मुग से चार, कौए से पांच और कु े से छः गुण सीखने
चािहए।

इसका मूल भाव यह है िक यि को जहां से भी कोई अ छी बात िमले, सीखने म संकोच नह करना चािहए। यिद नीच
यि के पास भी कोई गुण है तो उसे भी हण करने का य न करना चािहए।

अगले चार लोक म इन गुण का वणन िव तार से िकया गया है।

शेर से
भूतं कायमिप वा त परः कतुिम छित।
सवार भेण त काय संहादेकं च ते।।15।।

यहां आचाय चाण य शेर से ली जाने वाली सीख के बारे म बता रहे ह िक छोटा हो या बड़ा, जो भी काम करना चाह,
उसे अपनी पूरी शि लगाकर कर? यह गुण हम शेर से सीखना चािहए।
भाव यह है िक शेर जो भी काम करता है, उसम अपनी पूरी शि लगा देता है। अतः जो भी काम करना हो उसम पूरे
जी-जान से जुट जाना चािहए।

बगुले से
इ यािण च संय य बकव प डतो नरः।
देशकाल बलं ा वा सवकायािण साधयेत्।।16।।

यहां आचाय बगुले से सीख के बारे म बता रहे ह। बगुले के समान इ य को वश म करके देश, काल एवं बल को
जानकर िव ान अपना काय सफल कर।

भाव यह है िक बगुला सब कु छ भूलकर एकटक मछली को ही देखता रहता है और मौका लगते ही उसे झपट लेता है।
मनु य को भी काम करते समय अ य सब बात को भूलकर केवल देश, काल और बल का िवचार करना चािहए।

देश-इस थान पर इस काम को करने से या लाभ होगा? यहां इस व तु क िकतनी मांग है? इ यािद पर िवचार करना
देश- थान पर िवचार करना है। काल-समय, कौन-सा समय िकस काम के लए अनुकूल होगा? तथा बल-मेरी शि
िकतनी है, मेरे पास िकतना पैसा या अ य साधन िकतने ह? इन सब बात पर काम आर भ करने से पहले िवचार कर लेना
चािहए।

गधे से
सु ा तोऽिप बृहद् भारं शीतो णं न प यित।
स तु चरतो िन यं ीिण िश े च गदभात्।।17।।

यहां आचाय चाण य गधे से सीखे जाने वाले गुण क चचा करते हए कहते ह िक े और िव ान यि य को चािहए
िक वे गधे से तीन गुण सीख। जस कार अ य धक थका होने पर भी वह बोझ ढोता रहता है, उसी कार बुि मान यि
को भी आल य न करके अपने ल य क ाि और सि के लए सदैव य न करते रहना चािहए, क यपथ से कभी
िवमुख नह होना चािहए। काय सि म ऋतुओं के सद और गम होने क भी िच ता नह करनी चािहए। जस कार गधा
स तु होकर जहां-तहां चर लेता है, उसी कार बुि मान यि को भी सदा संतोष रखकर, फल क िच ता िकए िबना,
यथावत् कम म वृ रहना चािहए।

मुग से
यु थानं च यु ं च संिवभाग च ब धुषु।
वयमा य भो ं च िश े च वा र कु कु टा च।।18।।

यहां आचाय चाण य मुग से सीखने यो य चार मह वपूण बात क चचा करते हए कह रहे ह िक समय पर जागना,
लड़ना, भाईय को भगा देना और उनका िह सा वयं झपटकर खा जाना, ये चार बात मुग से सीख।

उनका कहना है िक मुग क चार िवशेषताएं ह‒तड़के उठ जाना, अ य मुग ं से लड़ना, उ ह झपटकर भगा देना तथा
उनका िह सा वयं खा जाना। मुग से यही चार बात सीखनी चािहए और यि के जीवन म इनका मह व मानवीय ि से
मू यवान है।

काग से
गूढ़ मैथुनका र वं काले काले च सं हम्।
अ म वचनमिव वासं पंच िश े च वायसात्।।19।।

कौए से सीखाने यो य बात क चचा करते हए आचाय कहते ह िक िछपकर मैथुन करना, समय-समय पर सं ह करना,
सावधान रहना, िकसी पर िव वास न करना और आवाज देकर और को भी इक ा कर लेना, ये पांच गुण कौए से सीख।

आशय यह है िक यि को भी कु छ काय कौए के समान करने चािहए। जैसे कौआ सदा िछपकर मैथुन करता है य िक
यह ि या िनता त यि गत होती है, छोटी-मोटी चीज अपने घ सले म एकि त करता रहता है तािक समय पर द ूसरे का मुंह
न ताकना पड़े। सदा चौक ा रहता है। कांव-कांव करता हआ अपने अ य सा थय को भी आव यकता पड़ने पर बुला लेता
है। कभी िकसी पर िव वास नह करता, य िक जांच-परखकर िव वास से छल क संभावना नह रहती। इन गुण को कौए
से सीखना चािहए।

कु े से
व शी व पस तु ः सुिन ो लघुचेतनः।
वािमभ च शूर च षडेते वानतो गुणाः।।20।।

आचाय चाण य यहां संतोष, सतकता और वािमभि क चचा करते हए कु े के संदभ म इन गुण का बखान करते
हए इनक आव यकता क ि से कहते ह िक अ धक भूखा होने पर भी थोड़े म ही संतोष कर लेना, गहरी न द म होने पर
भी सतक रहना, वािमभ होना और वीरता‒ये छः गुण कु े से सीखने चािहए।

आशय यह है िक कु ा िकतना ही भूखा य न हो, उसे जतना िमल जाए, उसी म स तोष कर लेता है। साथ ही उसे
जतना खला दो, वह सब खा जाता है। थोड़ी ही देर म उसे गहरी न द आ जाती है। िक तु गहरी न द म भी वह थोड़ी-सी
आहट पाते ही जाग जाता है। मा लक के साथ वफादारी और बहादरु ी से िकसी पर झपट पड़ना भी कु े क आदत ह। कु े से
इ ह छः गुण को सीखना चािहए।

िश ा संबल बनाती है
य एतान् िवंशितगुणानाच र यित मानवः।
कायाऽव थासु सवासु अजेयः स भिव यित।।21।।

यहां आचाय चाण य पूव साधन से ा गुण से यु यि के सफल काम होने क चचा करते हए कहते ह िक जो
मनु य इन बीस गुण को अपने जीवन म धारण करे गा, वह सब काय ं और सब अव थाओं म िवजयी होगा।

भाव यह है िक इन बीस गुण को उन-उन पशुओं से सीखने का अिभ ाय मनु य को साहसी, अिभमान रिहत और
ढ़िन चयी बनाता है। साथ ही जीवन म अ छे गुण का आदान करता है तथा दगु ुण को छोड़कर स संक प और स समाज
के िनमाण म योगदान देता है। अतः इसम पशु-प ी भी हमारे लए ा त ह। इस लए पं. िव णु शमा ने पंचत म सभी
पशु-पि य को कथानक का पा बनाकर मानव के ल य सि म सहायक कथाओं का िनमाण िकया है। जसका उ े य
राज के मूख चार पु भी छः महीने के अ दर ही राजनीित म कु शल और िव ान बनाना था।

इस कार जो यि इन ऊपर बताये गए गुण को धारण करने का य न करता है, उ ह अपना लेता है, वह जीवन म
कभी भी िकसी भी, थित म परा जत नह होता। उसे जीवन म सव िवजय ा होती है। ऐसे यि म वािभमान जागृत
होता है और वह अपने येक काय को िन ा और लगन से पूरा करके उ ित को ा करता है। वही सफल यि
कहलाता है।
सातवां अ याय

मन क बात मन म रख
अथनाश मन तापं गृिह या च रतािन च।
नीचं वा यं चापमानं मितमा काशयेत।।1।।

आचाय चाण य कु छ यवहार म गोपनीयता बरतने के स ब ध म चचा करते हए बताते ह िक धन का नाश हो जाने पर,
मन म दःु ख होने पर, प नी के चाल-चलन का पता लगने पर, नीच यि से कु छ घिटया बात सुन लेने पर तथा वयं कह
से अपमािनत होने पर अपने मन क बात को िकसी को नह बताना चािहए। यही समझदारी है।

भाव यह है िक धनहािन, गृिहणी के च र , नीच के श द तथा अपने िनरादर के िवषय म िकसी को भी बताने से अपनी ही
हंसी होती है। अतः इन सब बात पर चुप रहना ही अ छा है। य िक यह वाभािवक है िक यि को धन नाश पर मान सक
पीड़ा होती हे। वह िवप ता का अनुभव करता है। यिद प नी द ु च र हो, तो इस दशा म भी उसे मान सक यथा सहन करनी
पड़ती है। यिद कोई द ु उसे ठग लेता है अथवा कोई यि उसका अपमान कर देता है तो भी उसे दःु ख होता है। पर तु
बुि म ा इसी म है िक मनु य इन सब बात को चुपचाप िबना िकसी द ूसरे पर कट िकए सहन कर ले, य िक जो इन बात
को द ूसर पर कट करता है, अपमान के साथ-साथ लोग उसक हंसी भी उड़ाते ह, इस लए उिचत यही है िक इस कार के
अपमान को िवष समझकर चुपचाप पी जाए।

लाज-संकोच देखकर कर
धनधा य योगेषु िव ा सं हेषु च।
आहारे यवहारे च य ल जः सुखी भवेत्।।2।।

यहां आचाय चाण य यि को लाज-संकोच करने के संदभ म बता रहे ह िक धन और अनाज के लेन-देन, िव ा ा
करते समय, भोजन तथा आपसी यवहार म ल जा न करने वाला सुखी रहता है।

भाव यह है िक िन न ल खत बात म ल जा न करना ही लाभदायक है‒िकसी को धन उधार देते समय, िकसी से लेते
समय या िकसी से अपना पैसा वापस लेते समय या अनाज आिद के लेन-देन म िकसी कार का ल जा-संकोच नह करना
चािहए। इसी कार िव ा हण करते समय यिद कोई बात समझ म न आए या िकसी कार का संदेह हो या भोजन करते
समय अथवा िकसी भी कार के बात- यवहार म ल जा नह करनी चािहए।

व तुतः मनु य के लए उिचत है िक वह लेन-देन म, लखा-पढ़ी कर ले। िव ा के सं ह म और खाने-पीने के मामले म


भी यिद संकोच करे गा तो भी स ब ध थर नह रह पायगे। स ब धय से यवहार म भी मधुर, स य एवं प रहना चािहए।
अतः आव यक है िक यि को संकोच छोड़कर सदा स ची बात करनी चािहए और यावहा रक माग अपनाना चािहए। पैसे
के लेन-देन म िहसाब-िकताब ज री है।

संतोष बड़ी चीज है


स तोषामृततृ ानां य सुखं शा तरे व च।
न च त नलु धानािमत चेत च धावताम।।3।।

आचाय चाण य यहां संतोष के मह व को ितपािदत करते हए कहते ह िक संतोष के अमृत से तृ यि य को जो


सुख और शांित िमलती है, वह सुख-शांित धन के पीछे इधर-उधर भागने वाल को नह िमलती।

भाव यह है िक स तोष सबसे बड़ा सुख है। जो यि स तोषी होता है उसे परम सुख और शा त ा होती है, धन क
चाह म इधर-उधर दौड़-भाग करने वाल को ऐसी सुख-शा त कभी नह िमलती।

व तुतः चाण य का मत है िक मनु य क तृ णाओं का कोई अ त नह । यि क कामनाएं व इ छाएं िनर तर बढ़ती


रहती ह। इस तरह इ छाओं के बढ़ने से यि के जीवन म एक कार का भटकाव बना रहता है। जो यि , जतना ा हो
जाए उसम स तोष कर लेता है, उसे ही सुख क ाि होती है य िक स तोष का बड़ा मह व होता है।

स तोष षु क यः वदारे भोजने धने।


ि षु चैव न क योऽ ययने जपदानयोः।।4।।

यहां आचाय चाण य संतोष के मह व को ितपािदत करते हए कहते ह िक यि को अपनी ही ी से संतोष करना
चािहए चाहे वह पवती हो अथवा साधारण, वह सुिशि त हो अथवा िनर र‒उसक प नी है यही बड़ी बात है। इसी कार
यि को जो भोजन ा हो जाए उसी से संतोष करना चािहए, अपनी खी भी भली होती है। आजीिवका से ा धन के
स ब ध म भी चाण य के िवचार ह िक यि को असंतोष म खेद या दःु ख नह करना चािहए। इससे उसक मान सक शांित
न नह होती। यिद ऐसा नह करता तो वह अपने आपको िनरं तर दःु खी पाता है। इसके िवपरीत चाण य का यह भी कहना
है िक शा के अ ययन, भु के नाम का मरण और दान काय म कभी संतोष नह करना चािहए। ये तीन बात अ धक से
अ धक करने क इ छा करनी चािहए। इनसे मान सक शांित व आ मक सुख िमलता है।

व तुतः ायः ऐसा समझा जाता है िक जो कु छ यि अपने भा य म लखाकर आया है, उसे य न करने पर भी नह
बदला जा सकता। इस लए यिद वह इन बात के स ब ध म स तोषपूवक जीवन िबताएगा तो उसे हािन नह होगी। य िक
मनु य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है। जो आज है, हो सकता है वह कल न रहे। अतः चाण य कहते ह िक मनु य
को चािहए िक वह सदैव शुभ काय ं म ही लगा रहे।

इनसे बच
िव योिव वहे च द प योः वािमभृ ययोः।
अ तरे ण न ग त यं हल य वृषभ य च।।5।।

आचाय चाण य यहां माग म अपनाई जाने वाली वजना क चचा करते हए कहते ह िक दो ा ण के बीच से, ा ण
और आग के बीच से, मा लक और नौकर के बीच से, पित और प नी के बीच से तथा हल और बैल के बीच से नह
गुजरना चािहए।

य िक ऐसा माना जाता है िक जहां दो यि खड़े ह अथवा बैठे हए बात कर रहे ह , वहां िकसी को उनके बीच म से न
िनकलकर एक ओर से िनकलना चािहए। यिद दो ा ण खड़े ह तो उनके बीच म से न गुजरने का भाव यह है िक हो
सकता है िक वे िकसी शा -चचा म लगे ह । इसी तरह आग के बीच से नह गुजरना चािहए। पित और प नी, वामी और
सेवक जब कोई बात कर रहे ह तो उनके पास नह जाना चािहए और न ही उनके म य म से गुजरना चािहए। इसी कार
हल और बैल के बीच म से गुजरने क भी मनाही है, य िक इससे चोट लगने क संभावना रहती है। और इस तरह देख तो
यि को गुजरते समय आसपास का माहौल देखकर गुजरना चािहए।

पादा यां न पृशेदि ं गु ं ा णमेव च।


नैव गावं कु मार च न वृ ं न िशशुं तथा।।6।।

आचाय चाण य कहते ह िक आग, गु , ा ण, गाय, कुं आरी क या, बूढ़े लोग तथा ब च को पांव से नह छू ना चािहए।
ऐसा करना अस यता है। ऐसा करने से उनका अनादर तो है ही, उपे ा भाव भी कट करता है। इनको पैर से छू ना अपनी
मूखता कट करना है, य िक ये सभी आदरणीय, पू य और ि य होते ह।

शकटं प ह तेन दशह तेन वा जनम्।


ह तनं शतह तेन देश यागेन दज
ु नम्।।7।।

आचाय चाण य कहते ह िक बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ द ूर रहना चािहए, िक तु द ु
यि से बचने के लए थोड़ा-बहत अंतर पया नह । उससे बचने के लए तो आव यकता पड़ने पर देश भी छोड़ा जा
सकता है।

इन व तुओं से द ूर रहने का ता पय यह है िक गाड़ी म जुते हए बैल आिद से चोट लग सकती है, घोड़ से दल
ु ी आिद
का भय रहता है, इसी कार हाथी से भी द ूर रहना उिचत है, पर तु द ु यि से तो इस कार बचना चािहए िक उसक
सूरत भी देखने को न िमले। इस लए चाण य के मत के अनुसार उससे बचने के लए जहां वह रहता है उस थान को भी
याग देना चािहए।

ह ती वंकुशमा ेण बाजो ह तेन तापते।


ंगीलकु टह तेन ख गह तेन दज
ु नः।।8।।

यहां आचाय चाण य द ु के साथ द ु ता का पाठ पढ़ाते हए भी सावधानी का मह व ितपािदत करते हए कहते ह िक
हाथी को अंकुश से, घोड़े को हाथ से, स ग वाले पशुओं को हाथ या लकड़ी से तथा द ु को ख ग हाथ म लेकर पीटा जाता
है।

आशय यह है िक हाथी को अंकुश से पीटकर वश म िकया जाता है। घोड़े को हाथ से पीटा जाता है। गाय, भस आिद
स ग वाले पशुओं को हाथ से या लाठी से पीटा जाता है, िकंतु द ु को पीटते समय हाथ म ख ग या कोई अ य ह थयार
अव य होना चािहए। द ु को हाथ म ह थयार लेकर ही सीधा करना चािहए। अ छाई क भाषा उसक समझ म नह आती।
यानी लात के भूत बात से नह मानते।

तु य त भोजने िव ा मयूरा धनग जते।


साधवः परस प ौ खलाः पर िवप षु।।9।।

आचाय चाण य द ु क द ूसरे के दःु ख म सुख अनुभव करने क द ु वृ का बखान करते हए कहते ह िक ा ण तो
भोजन से स होते ह। मोर बादल के गरजने पर आनंिदत हो उठता है। स जन द ूसर क स प ता से सुखी होते ह, िक तु
द ु तो द ूसरे क िवप को देखकर खुश होते ह। यह िकतनी िविच बात है।

आशय यह है िक ा ण भोजन िमलने पर, मोर बादल क आवाज सुनकर तथा स जन द ूसर के सुख-आन द, धन-
स पदा आिद को देखकर स होते ह, िक तु द ु को द ूसर क खुशी देखकर दःु ख होता है। वह द ूसर को दःु खी देखकर
ही स होता है।

अनुलोमेन ब लनं ितलोमेन दज


ु नम्।
आ मतु यबलं श ुं िवनयेन बलेन वा।।10।।

आचाय चाण य यवहारधिमता समझाते हए बता रहे ह िक बलवान श ु को उसके अनुकूल चलकर, द ु को उसके
ितकू ल चलकर तथा समान बल वाले श ु को िवनय से या बल से वश म करना चािहए।

आशय यह है िक यिद श ु अपने से अ धक बलवान हो, तो उसी क इ छा के अनुसार चलना चािहए। यिद अपने समान
ही बलवान हो, तब या तो उसके साथ िवन ता से रहना चािहए या उसका मुकाबला बल से ही करना चािहए, िक तु द ु के
साथ द ु ता ही करनी चािहए।

यौवन ही य का बल है
बाहवीय बलं राजा ा णो िवद् बली।
पयौवनमाधुय ीणां बलमु मम्।।11।।

आचाय चाण य य के गुण क चचा करते हए कहते ह िक बाजुओं क शि वाले राजा बलवान होते ह। ा को
जानने वाला ा ण ही बलवान माना जाता है। सुंदरता, यौवन और मधुरता ही य का े बल है।

आशय यह है िक जस राजा क बाजुओं म शि होती है वही राजा बलवान माना जाता है। ा को जाननेवाला ा ण
ही बलवान है। को जानना ही ा ण का बल है। सु दरता, जवानी तथा वाणी क मधुरता ही य का सबसे बड़ा बल
है।

ना य तं सरलेन भा यं ग वा प य वन थलीम्।
िछ ते सरला त कु जा त त पादपाः।।12।।

जीवन का स ांत है िक अित सव व जत होती है िफर चाहे वह जीवन के संदभ म सादगी या सीधेपन के तर पर ही
य न हो। अतः आचाय चाण य कहते ह िक अ धक सीधा नह होना चािहए। जंगल म जाकर देखने से पता लगता है िक
सीधे वृ काट लए जाते ह, जबिक टेढ़े-मेढ़े पेड़ छोड़ िदए जाते ह। अथात् यि को अ धक सीधा, भोला-भाला नह होना
चािहए। अ धक सीधे यि को सभी मूख बनाने क कोिशश करते ह। उसका जीना द ूभर हो जाता है। जबिक अ य गु सैल
तथा टेढ़े िक म के लोग से कोई कु छ नह कहता। यह कृित का ही िनयम है। वन म जो पेड़ सीधा होता है, उसे काट लया
जाता है, जबिक टेढ़े-मेढ़े पेड़ खड़े रहते है।

हंस के समान न बरत


य ोदकं त वस त हंसाः, तयैव शु कं प रवजय त।
न हंसतु येन नरे णभा यम, पुन यज ते पुनरा य ते।।13।।

आचाय चाण य यहां हंस के यवहार को आदश मानकर उपदेश दे रहे ह िक जस तालाब म पानी यादा होता है हंस
वह िनवास करते ह। यिद वहां का पानी सूख जाता है तो वे उसे छोड़कर द ूसरे थान पर चले जाते ह। जब कभी वषा अथवा
नदी से उसम पुनः जल भर जाता है तो वे िफर वहां लौट आते ह। इस कार हंस अपनी आव यकता के अनु प िकसी
जलाशय को छोड़ने अथवा उसका आ य लेते रहते ह।

आचाय चाण य का यहां आशय यह है िक मनु य को हंस के समान यवहार नह करना चािहए। उसे चािहए िक वह
जसका आ य एक बार ले उसे कभी न छोड़े। और यिद िकसी कारणवश छोड़ना भी पड़े तो िफर लौटकर वहां नह आना
चािहए। अपने आ यदाता को बार-बार छोड़ना और उसके पास लौटकर आना मानवता का ल ण नह है। अतः नीित यही
कहती है िक मै ी या स ब ध थािपत करने के बाद उसे अकारण ही भंग करना उिचत नह ।

अ जत धन का याग करते रह
उपा जतानां िव ानां याग एव िह र णम्।
तड़ागोदरसं थानां प रदाह इद मससाम्।।14।।

यहां आचाय चाण य अ जत धन को सदपु योग म यय करने के बारे म बताते हए कहते ह िक तालाब के जल को
व छ रखने के लए उसका बहते रहना आव यक है। इसी कार अ जत धन का याग करते रहना ही उसक र ा है।

आशय यह है िक िकसी तालाब के पानी को साफ रखने के लए उसका बहते रहना ठीक है। क जाने पर वह ग दा हो
जाता है। इसी कार धन का भी याग करते रहना चािहए। ऐसा न करने पर यि म अनेक बुराईयां आ जाती ह। धन को
अ छे काम म खच करते रहना चािहए। यही धन क सबसे बड़ी र ा है।

स कम म ही महानता है
वग थतानािमह जीवलोके
च वा र िच ािन वस त देह।े
दान संगो मधुरा च वाणी
देवाचनं ा णतपणं च।।15।।

स कम का आचरण करने वाले यि को महा मा पम य करते हए आचाय चाण य कहते ह िक दान देने म िच,
मधुर वाणी, देवताओं क पूजा तथा ा ण को संतु रखना, इन चार ल ण वाला यि इस लोक म कोई वग क आ मा
होता है।

आशय यह है िक दान देने क आदतवाला, सबसे ि य बोलने वाले देवताओं क पूजा करने वाला तथा िव ान - ा ण
का स मान करने वाला यि िद य आ मा होता है। जस यि म ये सभी गुण पाये जाते ह, वह महान पु ष होता है। ऐसे
यि को िकसी वग क आ मा का अवतार समझना चािहए।

द ु कम नरक भोगते ह
अ य तलेपः कटु ता च वाणी द र ता च वजनेषु वैरम्।
नीच संगः कु लहीनसेवा िच ािन देहे नरक थतानाम्।।16।

आचाय चाण य द ु या नीच कम करने वाले यि को नरक का अ धकारी होने के संदभ म कहते ह िक अ य त
ोध, कटु वाणी, द र ता, वजन से वैर, नीच लोग का साथ, कु लहीन क सेवा‒नरक क आ माओं के यही ल ण होते
ह।

आशय यह है िक द ु यि अयत ोधी वभाव का होता है। उसक वाणी कड़वी होती है, उसके मुंह से मीठे बोल
िनकल ही नह सकते। वह सदा द र -गरीब ही रहता है। और क बात ही छोिड़ए, उसक अपने प रवार वाल से भी श ुता
ही रहती है। नीच लोग का साथ और ऐसे ही लोग क सेवा करना ही उसका काम होता है। जस यि म ये सब अवगुण
िदखाई द उसे िकसी नरक क आ मा का अवतार समझना चािहए।

ग यते यिद मुगे म वरे ल यते क रकपोलमौि कम्।


ज बुका यगतं च ा यते व सपु छखरचमखंडम्।।17।।

संगित के भाव को दशाते हए आचाय चाण य कहते ह िक यिद कोई संह क गुफा म जाए, तो उसे वहां हाथी के
कपोल का मोती ा होता है। यिद वही यि गीदड़ क मांद म जाए, तो उसे बछड़े क पूछ
ं तथा गधे के चमड़े का टु कड़ा
ही िमलेगा।

आशय यह है िक शेर क गुफा म जाने पर यि को हाथी क खोपड़ी का मोती िमलता है, जबिक वही यि गीदड़ क
मांद म जाता है, तो वहां उसे केवल बछड़े क पूछ
ं या गधे के चमड़े का टु कड़ा ही िमल सकता है। कहने का आशय यह है
िक यिद यि महान लोग का साथ करता है, तो उसे ान क बात सीखने को िमलती ह, जबिक नीच-द ु लोग क संगित
करने पर केवल द ु ता ही सीखी जा सकती है। अतः स जन का ही साथ करना चािहए।

िव ा िबना जीवन बेकार है


शुनः पु छिमव यथ जीिवतं िव या िवना।
न गु गोपने श ं न च दंशिनवारणे।।18।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस कार कु े क पूछ


ं से न तो उसके गु अंग िछपते ह और न ही वह पूछ
ं म छर को
काटने से रोक सकती है, इसी कार िव ा से रिहत जीवन भी यथ है। य िक िव ािवहीन मनु य मूख होने के कारण न
अपनी र ा कर सकता है न अपना भरण-पोषण।

वह न अपने प रवार क द र ता को द ूर कर सकता है और न श ुओं के आ मण को ही रोकने म समथ हो सकता है।


अतः िव ा का मह व यि के जीवन म अपे णीय है।

सबसे बड़ी शु ता है
वाचा मनसः शौचं शौचिम यिन हः।
सवभूतदया शौचमेत छौचं परमा थनाम्।।19।।

आचाय चाण य कहते ह िक मन, वाणी को पिव रखना, इ य का िन ह, सभी ािणय पर दया करना और द ूसर का
उपकार करना सबसे बड़ी शु ता है।

आशय यह है िक मन म बुरे िवचार न आने देना, मुंह से कोई गलत बात न कहना, अपनी सभी इ य को वश म
रखना, सभी ािणय पर दया करना तथा सबक भलाई करना यही मनु य के लए सबसे बड़ी पिव ता है।

देह म आ मा देख
पु पे ग धं ितले तैलं का े वि ः पयोघृतम्।
इ ौ गुडं तथा देहे प या मानं िववेकतः।।20।।

आचाय चाण य आ मा के संदभ म कहते ह िक पु प म गंध, ितल म तेल, का म अि , द ूध म घी तथा ग े म गुड़


क तरह िववेक से देह म आ मा को देखो।

आशय यह है िक जैसे फूल म सुगध


ं िकसी एक थान पर नह होती ब क सारे ही फूल म फैली हई होती है, ितल म
तेल होता है, लकड़ी म आग, द ूध म म खन तथा ग े म िमठास, ये सारे गुण पूरी व तु म होते ह, न िक िकसी एक जगह
पर। इसी कार परमा मा भी मनु य के सारे शरीर म रहता है। आव यकता केवल इसे पहचानने क है। इसे हर कोई नह
पहचान सकता; केवल ानी पु ष ही पहचान सकते ह।
आठवां अ याय

स मान ही महापु ष का धन है
अधमा धनिम छ त धनं मानं च म यमाः।
उ मा मानिम छ त मानो िह महतां धनम्।।1।।

महापु ष के धन क चचा करते हए आचाय चाण य कहते ह िक अधम धन क इ छा करते ह, म यम धन और मान


चाहते ह, िक तु उ म केवल मान ही चाहते ह। महापु ष का धन मान ही है।

नीच लोग के लए धन ही सबकु छ होता है। इसे ा करने के लए वे गलत-सही हर तरीका अपना सकते ह। औसत
आदमी धन तो चाहता है, िक तु अपमान के साथ नह , ब क स मान के साथ। अथात् वह धन और स मान दोन चाहता है।
िक तु महापु ष धन क िब कु ल भी चाहना नह करते। वे मान-स मान को ही मह व देते ह। मान-स मान ही उनका धन होता
है।

दान का कोई समय नह


इ ुरापः पयोमूलं ता बूलं फलमौषधम्।
भ िय वािप क या नानदानािदकाः ि या।।2।।

यहां आचाय चाण य नान, दान के लए िकसी वजना या समय क बा यता न मानते हए कहते ह िक ◌इंख, जल,
द ूध, मूल, पान, फल और औष ध को खा लेने के बाद भी नान, दान आिद काय िकए जा सकते ह।

आशय यह है िक ग ा चूसने के बाद, पानी या द ूध पी लेने के बाद, पान चबा लेने के बाद कोई क द मूल, फल या दवा
खा लेने के बाद भी नान, पूजा, दान आिद काय िकए जा सकते ह। जबिक अ य चीज खा-पी लेने पर ये काय नह िकये
जाते।

यथा अ तथा संतान


दीपो भ यते वा तं क लं च सूयते।
यद ं भ यते िन यं जायते ता शी जा।।3।।

यथा अ तथा मन क चचा करते हए आचाय कहते ह िक दीपक अंधकार को खाता है और काजल पैदा करता है।
अतः जो िन य जैसे अ खाता है, वह वैसी ही संतान को ज म देता है।

यि का भोजन जैसा होता है, वैसी ही उसक स तान भी पैदा होती है। सा वक भोजन करने से स तान भी यो य और
बुि मान होगी तथा तामसी भोजन से मूख स तान ही पैदा होगी। दीपक अ धकार को खाता है, तो का लमा ही पैदा करता है।

सबसे बड़ा नीच


चा डालानां सह ै च सू रिभ त वदिशिभः।
एको िह यवनः ो ो न नीचो यवना परः।।4।।

यवन को िन नतम कोिट का मानते हए आचाय चाण य कहते ह िक त वदश िव ान ने कहा है िक हजार पा डाल के
बराबर एक यवन होता है। यवन से नीच कोई नह होता।

आशय यह है िक िव ान महापु ष के अनुसार एक हजार चा डाल के बराबर बुराईयां एक यवन म होती है। इस लए
यवन सबसे नीच मनु य माना जाता है। यवन से नीच कोई नह होता है।

धन के सदपु योग
िव ं देिह गुणा वतेषु मितमा ा य देिह विचत्,
ा ं वा रिनधेजलं धनयुतां माधुययु ं सदा।
जीवाः थावर जंगमा च सकला संजी य भूम डलम्
भूयं प य तदैव कोिटगुिणतं ग छ य भोिन धम्।।5।।

धन क पा ता बताते हए आचाय चाण य कहते ह‒हे बुि मान! गुणी लोग को ही धन दो, अगुणी लोग को कभी नह ।
बादल सागर से पानी लेकर मधुर जल क वषा करता है। इससे पृ वी के चराचर ाणी जीिवत रहते ह। िफर यही जल
करोड़ गुना अ धक होकर समु म ही चला जाता है।

आशय यह है िक बादल समु से ही जल लेता है और पृ वी पर वषा करता है। इसी वषा से पृ वी के मनु य, पशु-प ी,
वृ आिद जीिवत रहते ह। िफर यही जल कई गुना अ धक होकर निदय से बहता हआ समु म चला जाता है। धनी लोग
को भी िकसी यो य यि को ही कोई कारोबार करने के लए धन से सहायता करनी चािहए। इससे वह यि कई लोग का
भला करता है और सहायता करनेवाले यि को भी लाभ होता है।

नान से शु ता
तैला यंगे िचताधूमे मैथुने ौर कमिण।
ताव त चांडालो याव नानं न समाचरे त्।।6।।

नान करके ही यि पिव होता है वरना शू है। इसी को प करते हए आचाय चाण य कहते ह‒तेल लगाने पर,
िचता का धुआं लगने पर, मैथुन करने पर तथा बाल कटाने पर जब तक मनु य नान नह कर लेता तब तक वह चा डाल
होता है।

आशय यह है िक शरीर म तेल क मा लश करने के बाद, िचता का धुआं लग जाने पर, संभोग करने के बाद तथा दाढ़ी-
नाखून या बाल कटाने के बाद नहाना आव यक है। इन काम को करने के बाद यि जब तक नहा नह लेता, तब तक
चा डाल माना जाता है।

पानी एक औष ध है
अजीण भेषजं वा र जीण तद् बल दम्।
भोजने चामृतं वा र भोजना ते िवष दम्।।7।।

जल क गुणव ा बताते हए आचाय कहते ह िक भोजन न पचने पर जल औष ध के समान होता है। भोजन करते समय
जल अमृत है तथा भोजन के बाद िवष का काम करता है।

आशय यह है िक अपच क िशकायत होने पर जी भरकर, जतना िपया जा सके, पानी पीना चािहए। यह दवा का काम
करता है। खाना पच जाने पर पानी पीने से शरीर क शि बढ़ती है। भोजन करते समय बीच-बीच म पानी पीते रहने से यह
अमृत का काम करता है और यही पानी यिद भोजन के बाद िपया जाए तो यह िवष का काम करता है। अतः भोजन के
बीच-बीच म पानी पीते रहना चािहए, तुरंत बाद नह ।

ान को यवहार म लाएं
हतं ानं ि याहीनं हत चा ानता नरः।
हतं िनणायकं सै यं यो न ा भतृका।।8।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस ान पर आचरण न िकया जाए, वह ान न हो जाता है। अ ान से मनु य का नाश
हो जाता है। सेनापित के िबना सेना तथा िबना पित के ीन हो जाती है।

आशय यह है िक ान को यवहार म लाना चािहए। ऐसा न करने पर वह ान न हो जाता है। अ ानी मनु य, िबना
सेनापित क सेना तथा पित के िबना ीन हो जाती है।

इसे िवड बना ही समझ


वृ काले मृता भाया ब धुह तगतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं ित पुस
ं ां िवड बना।।9।।
आचाय चाण य कहते ह िक बुढ़ापे म प नी क मृ यु, धन का भाईय के हाथ म चले जाना, भोजन के लए भी
पराधीनता, इसे पु ष के लए दःु ख का पहाड़ टू ट पड़ना ही समझे।

आशय यह है िक यि के बुढ़ापे म प नी का मरना बड़े दभु ा य क बात है। बुढ़ापे म प नी ही यि क साथी होती है।
धन पर भाईय का क जा हो जाने पर यि केवल कसमसाकर रह जाता है। इस कार क बेब सयां तो सही जा सकती है,
िकंतु भोजन के लए िववश होना, द ूसरे का मुंह ताकना - इस मजबूरी को आप या कहगे? इन तीन दःु ख म यि का
जीना भी द ूभर हो जाता है।

शुभ कम कर
नाि हो ं िवना वेदा न च दानं िवना ि या।
न भावेन िवना सि त माद् भावो िह कारणम्।।10।।

आचाय चाण य का कथन है िक अि हो , य -य ािद के िबना वेद का अ ययन िनरथक है तथा दान के िबना य -
य ािद शुभ कम स प नह होते, जसके िबना य पूण ही नह माना जाता, िक तु यिद दान िबना ा-भाव के केवल
िदखलावे के लए हो तो उससे कभी अभी काय क सि नह होती। अथात् मनु य क भावना ही धान होती है। शु
भावना से िकये गए य -य ािद से ही मनु य को िन चत प से अभी लाभ होता है, अतः ा-भाव से ही शुभकम ं का
स पादन करना चािहए।

आचाय चाण य यहां े मानव क मह ा का ितपादन करते हए कहते ह िक देवता का वास न लकड़ी म है और न
ही प थर म। व तुतः देवता का िनवास तो मनु य क भावना म होता है, उसके दय म होता है। यिद भावना है तो देवमूित
सा ात् देव है, वरना तो साधारण लकड़ी-प थर के अित र उसम कु छ नह । इस कार िन चत है िक मूित म देवता क
ित ा का आधार भावना ही है। भावना ही ितमा म देवबुि उ प करती है, वही उसका मूल त व है।

भावना म ही भगवान है
का पाषाण धातूनां कृ वा भावेन सेवनम्।
या च तथा सि त य िव णोः सादतः।।11।।

आचाय चाण य यहां भी भावना को भगवान ाि का महत् साधन बताते हए कहते ह िक का , पाषाण या धातु क
मूितय क भी भावना और ा से उपासना करने पर भगवान क कृपा से सि िमल जाती है।

आशय यह है िक य िप मूित ई वर नह है, िफर भी यिद कोई स ची भावना और ा से लकड़ी, प थर या िकसी धातु
क मूित क ई वर के प म पूजा करता है, तो भगवान उस पर अव य स होते ह। उसे अव य सफलता िमलती है।

न देवो िव ते का े न पाषाणे न मृ मये।


भावे िह िव ते देव त माद् भावो िह कारणम्।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक ई वर न का म है, न िम ी म, न मूित म। वह केवल भावना म रहता है। अतः भावना ही
मु य है।

अथात् ई वर वा तव म लकड़ी, िम ी आिद क मूितय म नह है। वह यि क भावना म रहता है। यि क जैसी


भावना होती है, वह ई वर को उसी प म देखता है। अतः यह भावना ही सारे संसार का आधार है।

शांित ही तप है
शांिततु यं तपो ना त न स तोषा परं सुखम्।
न तृ णया परो या धन च धम ं दयापरः।।13।।

मह वपूण संसाधन क चचा करते हए आचाय चाण य कहते ह िक शांित के समान कोई तप या नह है, संतोष से
बढ़कर कोई सुख नह है, तृ णा से बढ़कर कोई या ध नह है और दया से बढ़कर कोई धम नह है।

अथात् अपने मन और इ य को शांत रखना ही सबसे बड़ी तप या है। स तोष ही सबसे बड़ा सुख है, मनु य क इ छाएं
सबसे बड़ा रोग ह, जनका कोई इलाज नह हो सकता और सब पर दया करना ही सबसे बड़ा धम है।

ो ी ी ै
संतोष बड़ी चीज है
ोधो वैव वतो राजा तृ णा वैतरणी नदी।
िव ा कामदधु ा धेनुः संतोषो न दनं वनम्।।14।।

आचाय चाण य यहां ोध, तृ णा के सापे िव ा व संतोष क तीका मक मह ा ितपािदत करते हए कहते ह िक ोध
यमराज है, तृ णा वैतरणी नदी है, िव ा कामधेनु है और संतोष न दन वन है।

आशय यह है िक ोध मनु य का सबसे बड़ा श ु है, इसे यमराज के समान भयंकर समझना चािहए। तृ णा अथात्
इ छाएं वैतरणी नदी के समान है, इनसे छू ट पाना बड़ा किठन काम है। िव ा कामधेनु के समान सभी इ छाओं को पूरा करने
वाली है। स तोष परम सुख देने वाले न दन वन के समान है।

इनसे शोभा बढ़ती है


गुणो भूषयते पं शीलं भूषयते कु लम्।
सि भूषयते िव ां भोगो भूषयते धनम्।।15।।

यहां आचाय चाण य शोभाकारक त व क चचा करते हए कहते ह िक गुण प क शोभा बढ़ाते ह, शील वभाव कु ल
क शोभा बढ़ाता है, सि िव ा क शोभा बढ़ाती है और भोग करना धन क शोभा बढ़ाता है।

अथात् गुणवान यि के गुण ही उसक सु दरता होते ह। अ छा आचरण कु ल का नाम ऊंचा करके उसक सु दरता
बढ़ाता है। िकसी भी िवषय-िव ा म िनपुणता ा करने पर ही िव ा साथक होती है। यही िव ा क शोभा है। धन का भोग
करना ही धन क शोभा है।

दगु ुण स गुण को खा जाते ह


िनगुण य हतं पं दःु शील य हतं कु लम्।
अ स य हता िव ा अभोग य हतं धनम्।।16।।

आचाय चाण य दगु ुण के कारण स गुण के नाश क चचा करते हए कहते ह िक गुणहीन का प, दरु ाचारी का कु ल
तथा अयो य यि क िव ा न हो जाती है। धन का भोग न करने से धन न हो जाता है।

आशय यह है िक यि िकतना ही सु दर प वाला हो - यिद गुणवान न हो, तो उसे सु दर नह कहा जाता। बुरे चाल-
चलन वाला यि अपने खानदान को बदनाम कर देता है। अयो य यि िव ा का सदपु योग नह कर पाता। जो यि
अपने धन का कोई भी भोग नह करता उस धन को न ही समझना चािहए। इस लए कहा गया है िक दरु ाचारी का कु ल मूख
का प, अयो य क िव ा तथा भोग न करने वाले का धन न हो जाता है।

ये शु ह
शु ं भूिमगतं तोयं शु ा नारी पित ता।
शुिचः ेमकरो राजा स तोषी ा ण शुिचः।।17।।

आचाय चाण य यहां शु ता क चचा करते हए कहते ह िक भूिमगत जल शु होता है, पित ता ी शु होती है, जा
का क याण करने वाला राजा शु होता है तथा संतोषी ा ण शु होता है।

आशय यह है िक भूिम के नीचे रहने वाला पानी, पित ता ी, जा के सुख-दःु ख का यान रखने वाला राजा तथा
स तोष करने वाला ा ण वयं शु माने जाते ह।

दगु ुण का द ु भाव
अस तु ा ि जा न ाः स तु ा च महीभूतः।
सल ा गिणका न ािनल जा च कु लांगनाः।।18।।

आचाय चाण य यहां उन दगु ुण क चचा कर रहे ह जो द ु भावी होते ह। इस तरह देख तो असंतु ा ण तथा संतु
राजा न हो जाते ह। ल जा करने वाली वे या तथा िनल ज कु लीन घर क बह न हो जाती है।
आशय यह है िक ा ण को स तोषी होना चािहए, जो ा ण स तोषी नह होता उसका नाश हो जाता है। राजा को धन
एवं रा य से स तोष नह करना चािहए। इनसे स तु होने वाला राजा न हो जाता है। वे या का पेशा ही िनल जता का है,
अतः ल जा करने वाली वे या न हो जाती है। गृिहिणय -कु लवधुओं या िकसी भी घर क बह-बेिटय म ल जा होना
आव यक है। ल जा उनका सबसे बड़ा आभूषण (गहना) माना गया है। िनल ज गृिहणयां न हो जाती ह।

िव ान सब जगह पूजे जाते ह


िकं कु लेन िवशालेन िव ाहीने व देिहनाम्।
द ु कु लं चािप िवदषु ी देवरै िप िह पू यते।।19।।

िव ान क मह ा बताते हए आचाय कहते ह िक िव ाहीन होने पर िवशाल कु ल का या करना? िव ान नीच कु ल का


भी हो तो देवताओं ारा भी पूजा जाता है।

आशय यह है िक िव ान का ही स मान होता है, खानदान का नह । नीच खानदान म ज म लेने वाला यि यिद िव ान
हो, तो उसका सभी स मान करते ह।

िव ान् श यते लोके िव ान् सव गौरवम्।


िव या लभते सव िव ा सव पू यते।।20।।

आचाय चाण य िव ान क शंसा करते हए कहते ह िक िव ान क लोक म शंसा होती है, िव ान को सव गौरव
िमलता है, िव ा से सब कु छ ा होता है और िव ा क सव पूजा होती है।

आशय यह है िक िव ा के कारण ही मनु य को समाज म आदर, शंसा, मान-स मान तथा जो कु छ भी वह चाहे, सब
िमल जाता है, य िक िव ा का सभी स मान करते ह।

मांसभ यैः सुरापानैमूख छा व जतैः।


पशुिभः पु षाकारै ांताऽ त च मेिदनी।।21।।

मनु य के दगु ुण म ल होने पर उसक थित का ितपादन करते हए आचाय कहते ह िक मांसाहारी, शराबी तथा मूख
पु ष के प म पशु है। इनके भार से पृ वी दबी जा रही है।

आशय यह है िक मांस खाने वाले, शराबी तथा मूख, इन तीन को पशु समझना चािहए। भले ही इनका शरीर मनु य का
होता है। मनु य के आकार वाले ये पशु पृ वी के लए भार जैसे ह।

इनसे हािन ही होती है


अ हीनो दहे ा ं म हीन च ऋ वजः।
यजमानं दानहीनो ना त य समो रपुः।।22।।

आचाय चाण य हािन द कारण क चचा करते हए कहते ह िक अ हीन राजा रा को न कर देता है। मं हीन
ऋ वज तथा दान न देने वाला यजमान भी रा को न करते ह। इस कार के ऋ वज से य कराना और ऐसे यजमान
का होना िफर इनका य करना रा के साथ श ुता है।

अथात् जस राजा के रा य म अ क कमी हो, तो ऋ वज (य के ा ण य के म न जानते ह तथा जो यजमान


य म दान न देता हो, ऐसा राजा ऋ वज तथा यजमान तीन ही रा को न कर देते ह। इनका य करना रा के साथ
श ुता िदखाना है।

अनाज न होने पर य िकया जाता है। य के ा ण िव ान होने चािहए, उ ह य के म का पूरा ान हो। य के


बाद यजमान ा ण को दि णा देता है। यिद म हीन ा ण और दि णा न देने वाला यजमान य कराए तो यह रा का
सबसे बड़ा श ु कहा गया है।
नौवां अ याय

मो
मुि िम छ स चेतात िवषयान् िवषवत् यज।
माऽऽजवदयाशौचं स यं पीयूषवत् िपब।।1।।

आचाय चाण य यहां मो के लए अपेि त थितय क चचा करते हए कहते ह िक हे ि य! यिद तुम मुि चाहते हो
तो िवषय को िवष समझकर इनका याग कर दो। मा, आजव, दया, पिव ता, स य आिद गुण का अमृत के समान पान
करो।

आशय यह है िक यिद कोई मनु य मो चाहता है, तो सबसे पहले उसे अपनी इ य के िवषय को िवष मानकर इनका
याग कर देना चािहए। अथात् उसे अपनी सारी इ छाओं-बुराईय को याग देना चािहए। िफर मा, दया आिद गुण को
अपनाना चािहए तथा स चाई क राह पर चलते हए अपनी आ मा को पिव करना चािहए। तभी मो िमल सकता है।

पर पर य ममािण ये भाष ते नराधमाः।


ते एव िवलयं या त व मीकोदरसपवत्।।2।।

आचाय कहते ह िक जो यि पर पर एक-द ूसरे क बात को अ य लोग को बता देते ह वे बांबी के अंदर के सांप के
समान न हो जाते ह।

अथात् जो द ु पहले तो एक-द ूसरे को अपने भेद बता देते ह और िफर उन भेद को अ य लोग को बता देते ह, ऐसे
लोग उस सांप के समान न हो जाते ह, जो अपने िबल के अ दर ही मारा जाता है जसे बचने का कोई अवसर ही नह
िमलता।

िवडंबना
ग धं सुवण फलिम ुद डे नाका रपु पं खलु च दन य।
िव ान धनी भूपितद घजीवी धातुः पुरा कोऽिप न बुि दोऽभूत।।3।।

महत् गुणी व तु म दशन का गुण नह होता। इसक चचा करते हए आचाय कहते ह िक सोने म सुगध
ं , ग े म फल,
चंदन म फूल नह होते। िव ान धनी नह होता और राजा दीघजीवी नह होते। या ा को पहले िकसी ने यह बुि नह
दी?

आशय यह है िक सोना क मती धातु है, िक तु इसम सुग ध नह होती। ग े म िमठास होती है, पर इसम फल नह लगते।
च दन म सुग ध है, पर फूल नह आते। िव ान यि िनधन होते ह और राजाओं क ल बी उ नह होती। या सृि बनाने
वाले ा को इन सब बात क सलाह पहले िकसी ने न दी होगी?

सबसे बड़ा सुख


सव षधीनामममृतं धानं सवषु सौ ये वशनं धानम्।
सव याणां नयनं धानं सवषु गा ेषु िशरः धानम्।।4।।

आचाय चाण य यहां व तु क सामा य म मह ा ितपािदत करते हए कहते ह िक सभी औष धय म अमृत (िगलोय)
धान है। सभी सुख म भोजन धान है। सभी इ य म आंख मु य ह। सभी अंग म सर मह वपूण है।

आशय यह है िक औष धय म िगलाय मह वपूण है। भोजन करने और उसे पचाने क शि सदा बनी रहे, यही सबसे
बड़ा सुख है। हाथ, कान, नाक आिद सभी इ य म आंख सबसे आव यक है। सर शरीर का सबसे मह व वाला अंग है।

िव ा का स मान
द ूतो न स रत े न चले च वाता
पूव न ज पतिमदं न च संगमोऽ त।
यो न मं रिवशिश हणं श तं
जानाित यो ि जवरः स कथं न िव ान्।।5।।

आचाय का कहना है िक आकाश म न तो कोई द ूत ही जा सकता है, और न उससे कोई वाता ही हो सकती है, न तो
पहले से िकसी ने बताया है, और न ही वहां िकसी से िमल ही सकते ह। िफर भी िव ान लोग सूय और च हण के िवषय
म पहले ही बता देते ह। ऐसे लोग को कौन िव ान नह कहेगा।

आशय यह है िक िव ान लोग पहले ही गिणत िव ा से सूय और च मा के हण के बारे म बता देते ह। न तो आकाश


म कोई आदमी भेजा जा सकता है, न वहां िकसी के साथ बात क जा सकती है, न कोई सूय या च मा से िमल सकता है
और न िकसी ने पहले से यह बताया ही है िक ये हण कब पड़गे। इस कार के ानी िव ान का कौन स मान नह करे गा।

इ ह सोने न द
िव ाथ सेवकः पा थः ुधात भयकातरः।
भा डारी च ितहारी स सु ान् बोधयेत।।6।।

आचाय चाण य सोते से जगाने वाले पा क चचा करते हए कहते ह िक िव ाथ , सेवक, प थक, भूख से दःु खी,
भयभीत, भंडारी, ारपाल‒इन सात को सोते हए से जगा देना चािहए।

आशय यह है िक िव ाथ को, नौकर को, रा ते म सोये हए राहगीर को, भूखे यि को, िकसी बात से अ य त डरे हए
को, िकसी गोदाम आिद के र क-चौक दार को तथा ारपाल (गेटक पर) को सोने नह देना चािहए। यिद ये सोये हए ह तो
इ ह जगा देना चािहए।

इ ह जगाएं नह
अिहं नृपं च शादलं
ू वराटं बालकं तथा।
पर वानं च मूख च स सु ा बोधयेत्।।7।।

यहां आचाय चाण य का कहना है िक सांप, राजा, शेर, बर, ब चा, द ूसरे का कु ा तथा मूख इनको सोए से नह जगाना
चािहए।

आशय यह है िक यिद सांप, राजा, शेर, बर (ततैया), ब चा, िकसी द ूसरे यि का कु ा और मूख - ये सात सोए हए
ह , तो इ ह सोए रहने द। इ ह उठाना अ छा नह रहता।

इनसे कोई हािन नह


अथाधीता च यैवदा तथा शू ा भो जनः।
ते ि जाः िकं क र य त िनिवषा इव प गाः।।8।।

आचाय का कहना है िक धन के लए वेद का अ ययन करने वाला, शू का अ खाने वाला ा ण िवषहीन सांप के
समान है, ऐसे ा ण का या करगे।

आशय यह है िक वेद का अ ययन ान ा करने के लए िकया जाता है, िक तु जो ा ण धन कमाने के लए वेद


पढ़ता है तथा शू का अ खाता है, वह ा ण िवषहीन सांप के समान होता है। ऐसे ा ण अपने जीवन म कोई अ छा
काम नह कर सकता।

इनसे न डर
य मन् े भयं ना त तु े नैव धनागमः।
िन होऽनु हो ना त स ः िकं क र यित।।9।।

आचाय यहां कहते ह िक जसके नाराज होने पर कोई भय नह होता और न स होने पर धन ही िमलता है, जो िकसी
को दंड नह दे सकता तथा न िकसी पर कृपा कर सकता है, ऐसा यि नाराज होने पर या लेगा?
आशय यह है िक जो यि िकसी ऊंचे पद पर न हो और धनवान भी न हो, ऐसा यि ठ जाने पर िकसी का या
िबगाड़ लेगा और स हो जाने पर िकसी को या देगा? ऐसे यि का ठना या खुश हो जाना कोई माने नह रखता।

आड बर भी आव यक है
िनिवषेणािप सपण कत या महती फणा।
िवषम तु न वा य तु घटाटोपो भयंकरः।।10।।

आचाय यहां आड बर क चचा करते हए कहते ह िक िवषहीन सांप को भी अपने फन को फैलाना ही चािहए। िवष हो या
न हो, इससे लोग को भय तो होता ही है।

आशय यह है िक चाहे सांप म िवष हो या न हो; इसे कौन जानता है, िक तु उठाये हए सांप को देखकर लोग डर अव य
जाते ह। िवषहीन सांप को भी अपनी र ा के लए फन फैलाना ही पड़ता है। समाज म जीिवत रहने के लए यि को कु छ
िदखावा या ोध भी करना ही पड़ता है।

महापु ष का जीवन
ा ूत संगन
े म या े ी संगतः।
रा ौ चौर संगन
े कालो ग छित धीमताम्।।11।।

महापु ष क जीवन चचा बताते हए आचाय कहते ह िक िव ान का ातःकाल का समय जुए के संग (महाभारत क
कथा) म बीतता है, दोपहर का समय ी संग (रामायण क कथा) म बीतता है, राि म उनका समय चोर संग (कृ ण
कथा) म बीतता है। यही महान् पु ष क जीवनचया होती है।

आशय यह है िक िव ान महापु ष ातःकाल जुए क कथा (महाभारत) का अ ययन करते ह। इस कथा से जुआ, छल-
कपट आिद क बुराइय का ान होता है। दोपहर म वे ी कथा, अथात् रामायण का अ ययन करते ह। रामायण म रावण
का ी के ित आसि का वणन है। यही आसि रावण के िवनाश का कारण बनी। इस कथा से िश ा िमलती है िक
यि को इ य का दास नह बनना चािहए। इ य का दास बनकर परायी ी पर बुरी नजर डालने से ही रावण का नाश
हआ था। राि म महापु ष भगवान कृ ण क कथा का अ ययन करते ह।

ता पय यह है िक महापु ष क िदनचया एक िनयिमत समय सा रणी के अनुसार चलती है। वे सदा ान ा करने म
लगे रहते ह।

स दय ास
वह त थता माला वह तघृ च दनम्।
वह त ल खत तो ं श यािप यं हरे त्।।12।।

आचाय चाण य का कहना है िक अपने हाथ से गुथ


ं ी माला, अपने हाथ से िघसा च दन तथा वयं अपने हाथ से लखा
तो इ क शोभा को भी जीत लेते ह।

आशय यह है िक अपने हाथ से बनायी माला नह पहननी चािहए और वयं िघसा हआ च दन अपने शरीर म नह लगाना
चािहए। ऐसा करने पर िकसी भी यि क सु दरता घट जाती है। अपने हाथ से लखे म या पु तक से पूजा नह करनी
चािहए। ऐसा करने से पूजा का फल नह िमलता और हािन भी होती है।

मदन
इ ुद डा तलाः शू ा का ताका नमेिदनी।
च दनं द ध ता बूलं मदनं गुणवधमनम्।।13।।

आचाय चाण य यहां दबाए जाने क गुणव ा ितपािदत करते हए कहते ह िक ◌इंख, ितल, शू , प नी, सोना, पृ वी,
च दन, दही तथा ता बूल (पान) इनके मदन से ही गुण बढ़ते ह।

आशय यह है िक ग े को और ितल को पेरे जाने से , शू से सेवा करने से, ी से संभोग करने से, सोने को पीटे जाने
से, पृ वी म प र म करने से, च दन को िघसे जाने से, दही को मथे जाने से और पान को चबाने से ही इन सबके गुण बढ़ते
ह।

उपचार गुण
द र ता धीरतया िवराजते, कु व ता व छतया िवराजते।
कद ता चो णतया िवराजते कु पता शीलतया िवराजते।।14।।

आचाय चाण य यहां सापे गुण भाव क चचा करते हए कहते ह िक धीरज से िनधनता भी सुंदर लगती है, साफ रहने
पर मामूली व भी अ छे लगते ह, गम िकए जाने पर बासी भोजन भी सुंदर जान पड़ता है और शील वभाव से कु पता भी
सुंदर लगती है।

आशय यह है िक धीर-गंभीर रहने पर यि अपनी गरीबी म भी सुख से रह लेता है। व छता से पहने जाने पर साधारण
कपड़े भी अ छे लगते ह। बासी भोजन गम िकए जाने पर वािद लगता है। यिद कु प यि अ छे आचरण एवं वभाव
वाला हो, तो सभी उससे ेम करते ह। गुण से, किमय म भी िनखार आ जाता है।
चाण य सू
दसवां अ याय

िव ा अथ से बड़ा धन
धनहीनो न च हीन च धिनक स सुिन चयः।
िव ा र नेन हीनो यः स हीनः सवव तुषु।।1।।

आचाय चाण य यहां िव ा को अथ से बड़ा धन ितपािदत करते हए कहते ह िक धनहीन यि हीन नह कहा जाता।
उसे धनी ही समझना चािहए। जो िव ार न से हीन है, व तुतः वह सभी व तुओं म हीन है।

आशय यह है िक िव ान यि यिद िनधन है, तो उसे हीन नह माना जाता, ब क वह े ही माना जाता है। िव ाहीन
मनु य सभी गुण से हीन ही कहा जाता है। चाहे वह धनी ही य न हो, य िक िव ा से गुण अथवा हनर से यि अथ पाजन
कर सकता है। इस लए यि को चािहए िक वह िव ा का उपाजन करे , कोई हनर सीखे जससे उसे धन क ाि हो और
वह अपने जीवन को आव यकतानुसार चला सके।

सोच िवचार कर कम कर
ि पूतं यसेत् पादं व पूतं जलं िपवेत्।
शा पूतं वदेद ् वा यं मनःपूतं समाचरे त्।।2।।

यहां आचाय कम के ितपादन क चचा करते हए कहते ह िक आंख से अ छी तरह देख कर पांव रखना चािहए, जल
व से छानकर पीना चािहए। शा के अनुसार ही बात कहनी चािहए तथा जस काम को करने के लए मन आ ा दे, वही
करना चािहए।

आशय यह है िक अ छी तरह देखकर ही कह पर पांव रखना चािहए, कपड़े से छना हआ ही पानी पीना चािहए, मुंह से
कोई गलत बात नह िनकालनी चािहए और पिव मन जस काम म गवाही दे वही करना चािहए। देखने क बात यह है िक
यानपूवक (कम से पूव िवचारकर) आचरण करने से सावधानीपूवक कम क ि या पूरी होती है। इसम स देह के लए
अवकाश ही नह रहता।

सुखाथ चेत् यजेि ां यजेि ां चेत् यजे सुखम्।


सुखा थनः कु तो िव ा कु तो िव ा थनः सुखम्।।3।।

आचाय कहते ह िक यिद सुख क इ छा है तो िव ा याग दो और यिद िव ा क इ छा है तो सुख का याग कर दो।


सुख चाहने वाले को िव ा कहां तथा िव ा चाहने वाले को सुख कहां।

आशय यह है िक िव ा बड़ी मेहनत से ा होती है। िव ा ा करना तथा सुख ा करना, दोन बात एक साथ नह
हो सकत । जो सुख-आराम चाहता है, उसे िव ा को छोड़ना पड़ता है और जो िव ा ा करना चाहता है, उसे सुख-आराम
को छोड़ना पड़ता है।

कवयः िकं न प य त िकं न कु व त योिषतः।


म पा िकं न ज प त िकं न खाद त वायसाः।।4।।

आचाय चाण य यि क अपे ा (सीमा) से अ धक क पना व कम क चचा करते हए कहते ह िक किव या नह


देखते? यां या नह करत ? शराबी या नह बकते? कौए या नह खाते?

आशय यह है िक अपनी क पना से किव लोग सूय से भी आगे पहंच जाते ह। वे जो न सोच, वही कम है। यां हर
अ छा-बुरा काम कर सकती ह। शराबी नशे म जो न बके वही कम है, वह कु छ भी बक सकता है। कौए हर अ छी-ग दी
व तु खा जाते ह।

भा य
रं कं करोित राजानं राजानं रं कमेव च।
धिननं िनधनं चैव िनधनं धिननं िव धः।।5।।
आचाय चाण य यहां भा य क चचा करते हए कहते ह िक भा य रं क को राजा तथा राजा को रं क बना देता है। धनी को
िनधन तथा िनधन को धनी बना देता है।

आशय यह है िक भा य बड़ा बलवान होता है। यह एक िभखारी को पल भर म राजा बना देता है तथा एक ही पल म
राजा को िभखारी बना देता है। भा य के िवपरीत हो जाने पर एक स प यि को िनधन बनने म कभी देरी नह लगती और
भा य अ छा होने पर मामूली-सा इ सान भी पलक झपकते ही ध ा सेठ बन जाता है और यह सब भा य का खेल है। कम के
बाद फल काफ कु छ भ य पर िनभर करता है।

लोभी से कु छ न मांग
लु धानां याचकः श ुमूखाणां बोधकः रपुः।
जार ीणां पितः श ु चौराणां च मा रपुः।।6।।

आचाय चाण य कहते ह िक लोभी यि य के लए भीख, च दा तथा दान मांगने वाले यि श ु प होते ह, य िक
मांगने वाले को देने के लए उ ह अपनी गांठ के धन को छोड़ना पड़ता है। इसी कार मूख ं को भी समझाने-बुझाने वाला
यि अपना द ु मन लगता है, य िक वह उनक मूखता का समथन नह करता। दरु ाचा रणी य के लए पित ही उनका
श ु होता है, य िक उसके कारण उनक आजादी और व छं दता म बाधा पड़ती है। चोर च मा को अपना श ु समझते ह,
य िक उनके लए अंधरे े म िछपना सरल होता है, चांद क चांदनी म नह ।

ब दर और बया क कहानी भी मूख ं को सीख देने का प रणाम बताती है िक मूख ं से हािन ही होती है लाभ नह । इस लए
मूख सीख देने और लोभी से कु छ मांगने क भूल कभी नह करनी चािहए वरना दःु ख एवं िनराशा ही हाथ लगेगी।

गुणहीन नर पशु समान


येषां न िव ा न तपो न दानं ानं न शीलं न गुणो न धमः।
ते म यलोके भुिवः भारभूता मनु य पेण मृगा चर त।।7।।

आचाय चाण य यहां िव ा, दान, शील आिद गुण से हीन यि क िनरथकता क चचा करते हए कहते ह िक जनम
िव ा, तप या, दान देना, शील, गुण तथा धम म से कु छ भी नह है, वे मनु य पृ वी पर भार ह। वे मनु य के प म पशु ह,
जो मनु य के बीच म घूमते रहते ह।

आशय यह है िक जो मनु य िव ा का अ ययन नह करता अथात् जो मूख ह, जो तप या नह करता; जो िकसी को


कभी कु छ नह देता, जसका आचरण और वभाव अ छा नह है, जसम कोई भी स गुण नह है तथा जो पु य-धम नह
करता- जसम इनम से एक भी अ छाई नह हो, ऐसे लोग बेकार ही पृ वी का भार बढ़ाते ह। ऐसे लोग को मनु य के पम
घूमने वाला पशु ही समझना चािहए।

उपदेश सुपा को ही द
अ तःसार िवहीनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसगात् न वेण ु च दनायते।।8।।

आचाय चाण य यहां उपदेश देने के लए सुपा क मह ा क चचा करते हए कहते ह िक जो यि अंदर से खोखले ह
और उनके भीतर समझने क शि नह है, ऐसे यि य को उपदेश देने का कोई लाभ नह , य िक वे बेचारे समझने क
शि के अभाव के कारण शायद चाहते हए भी कु छ समझ नह पाते। जैसे मलयाचल पर उगने पर भी तथा च दन का साथ
रहने पर भी बांस सुग धत नह हो जाते, ऐसे ही िववेकहीन यि य पर भी स जन के संग का कोई भाव नह पड़ता।

व तुतः भाव तो उन लोग पर पड़ता है जनम कु छ सोचने-समझने या हण करने क शि होती है। जसके पास वयं
सोचने-समझने क बुि नह , वह िकसी द ूसरे के गुण को या हण करे गा,

य य ना त वयं ा शा ं त य करोित िकम्।


लोचना यां िवहीन य दपणः िकं क र यित।।9।।

आचाय चाण य कहते ह िक जो लोग शा को समझने क बुि नह रखते, शा उनका कैसे और या क याण कर
सकता है? जैसे जसके दोन ने म योित ही नह है, जो ज म से अंधा है, वह दपण म अपना मुख िकस कार देख सकता
है? अतः जस कार दपण अंधे यि के लए िकसी काम का नह तो इसम दपण का कोई दोष नह िदया जा सकता।

इसी कार बुि हीन यि के लए शा है। शा बुि हीन यि का िकसी भी कार उ ार नह कर सकता। शा
अथवा िश ा भी उसी को लाभ पहंचा सकती है जो अपनी बुि के योग से उ ह समझ सके।

दज
ु नं स जनं कतुमुपायो न िह भूतले।
अपानं शतधा धौतं न े िम यं भवेत्।।10।।

आचाय चाण य कहते ह िक मल का याग करने वाली इ य को चाहे जतनी बार भी व छ िकया जाए, साबुन-पानी
से सैकड़ बार धोया जाए िफर भी वह पश करने यो य नह बन पाती, उसी कार दज
ु न को समझाया-बुझाया जाए, वह
स जन नह बन सकता।

आशय यह है िक इस संसार म दज
ु न को सुधारने का यास िनरथक ही है, य िक ऐसा कोई साधन नह , जससे उसे
सुधारा जा सके। यह बात िब कु ल ऐसी ही तीत होती है िक कु े के पूछ
ं को िकतने ही िदन कांच क नली म दबाकर रखा
जाए, पर तु बाहर िनकलने पर वह टेढ़ी ही रहेगी। मूख को िकतना ही समझाया जाए, वह मूख ही रहेगा।

आ ेषाद् भवे मृ युः पर ेषा ु धन यः।


राज ेषाद् भवे ाशो ेषा कु ल यः।।11।।

आचाय चाण य कहते ह िक साधुओं-महा माओं से श ुता करने पर मृ यु होती है। श ु से ेष करने पर धन का नाश
होता है। राजा से ेष-श ुता करने पर सवनाश हो जाता है और ा ण से ेष करने पर कु ल का नाश होता है।

आशय यह है िक साधुओं - महा माओं, ऋिषय , मुिनय , पू य लोग से ेष भावना-श ुता रखने से यि क मृ यु हो
जाती है। श ु से ेष करने पर लड़ाई-झगड़े बढ़ते ह और इससे धन का नाश होता है। राजा से श ुता करने पर यि का
सब कु छ नाश हो जाता है तथा ा ानी यि से ेष करना अपने कु ल पर कलंक लगाने के समान है।

िनधनता अिभशाप है
वरं वनं या गजे सेिवतं, ुमालयः प फला बु सेवनम्।
तृणषे ु श या शतजीणव कलं, न ब धुम ये धनहीनजीवनम्।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक मनु य िहंसक जीव ‒बाघ, हाथी और संह जैसे भयंकर जीव से िघरे हए वन म रह ले, वृ
पर घर बनाकर, फल-प े खाकर और पानी पीकर िनवाह कर ले, धरती पर घास-फूस िबछाकर सो ले और वृ क छाल
को ओढ़कर शरीर को ढक ले, परं तु धनहीन होने पर अपने स ब धय के साथ कभी न रहे, य िक इससे उसे अपमान और
उपे ा का जो कड़वा घूटं पीना पड़ता है, वह सवथा अस होता है।

आशय यह है िक िनधन होना बड़ा पाप है। ऐसे म िनधन यि को अपने सगे स ब धय से जो अपमान सहना पड़ता है
बड़ा अस होता है।

ा ण धम
िव ो वृ त य मूलं स या, वेदाः प म शा ा धमकमािण
त मा मूलं य नतो र णीयं, िछ े मूले नैव शाखा न प म्।।13।।

आचाय चाण य कहते ह िक िव वृ है, स या उसक जड़ है, वेद उसक शाखाएं ह, और धम-कम उसके प े ह,
इस लए जड़ क हरसंभव र ा करनी चािहए। जड़ के टू ट जाने पर न तो शाखाएं रहती ह और न प े ।

आशय यह है िक स या-पूजा ा ण का मु य काय है। ऐसा न करने वाला ा ण िफर ा ण नह कहा जा सकता।
स या-पूजा करके ही ा ण के वेद का स चा ान होता है। तभी वह धम-कम भी कर सकता है। अतः उसे स या-पूजा
अव य करनी चािहए।

घर म ैलो य सुख
माता च कमला देवी िपता देवो जनादनः।
बा धवा िव णुभ ा च वदेशो भुवन यम्।।14।।
यहां आचाय तीन लोक के सुख क चचा करते हए कहते ह िक जस मनु य क माँ ल मी के समान है, िपता िव णु के
समान है और भाई-बंधु िव णु के भ ह, उसके लए अपना घर तीन लोक के समान है।

आशय यह है िक जस मनु य क मां गुण क ल मी के समान तथा िपता भगवान िव णु क तरह सबका क याण करने
वाले ह और नाते- र तेदार, भाई-ब धु भगवान के भ ह , उस मनु य को तीन लोक के सुख इसी संसार म िमल जाते ह।

भावुकता से बच
एक वृ े समा ढा नानावणिवहंगमाः।
भाते िद ु ग छ त त का प रवेदना।।15।।

आचाय चाण य यहां िव ाम के लए अपने घोसल म आकर सबके िमलने और सवेरा होकर अपने-अपने भोजन क
िफराक म अलग-अलग चल पड़ने क पि य क वृ को बताते हए कहते ह िक एक ही वृ पर बैठे हए अनेक रं ग के
प ी ातःकाल अलग-अलग िदशाओं को चले जाते ह। इसम कोई नई बात नह है। उसी कार प रवार के सभी सद य
प रवार- पी वृ पर आ बैठते ह और समय आने पर चल देते ह। इसम दःु ख या िनराशा य ? आवागमन या संयोग-
िवयोग तो कृित का िनयम है। जो आया है वह एक िदन जाएगा ही। इस लए इस भावुकता से बचना चािहए।

बुि ही बल है
बुि य य बलं त य िनबु े तु कु तो बलम्।
वने संहो मदो म ः शशकेन िनपािततः।।16।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस यि के पास बुि होती है, बल भी उसी के पास होता है। बुि हीन का तो बल भी
िनरथक है, य िक बुि के बल पर ही वह उसका योग कर सकता है अ यथा नह । बुि के बल पर ही एक बुि मान
खरगोश ने अहंकारी संह को वन के कु एं म िगराकर मार डाला था।

यह कथा- संग इस कार है िक एक बार संह के साथ पशुओं ारा िकये गए समझौते के अनुसार ितिदन बारी-बारी से
वन का एक पशु संह के भोजन के लए जाता था। एक िदन जब एक खरगोश क बारी आई तो वह जान-बूझकर देर से
गया और देरी का कारण बताते हए संह से कहा िक उसे द ूसरा संह अपना भोजन बनाना चाहता था। वह उसे सूिचत करके
लौटने क ित ा करके आया है। शेर ने जब खरगोश को द ूसरा शेर िदखाने को कहा तो उसने कु एं म संह को उसी क
परछाई िदखा दी। मूख संह ने अपने श ु को पछाड़ने के लए कुं ए म छलांग लगा दी और वह मर गया।

इस कथा का अिभ ाय यह है िक बुि मान ही बल का सही उपयोग कर सकता है, बुि हीन का बल भी उसके काम नह
आता। एक छोटे-से बुि मान खरगोश ने अपने से भी अ धक शि शाली संह को मार िगराया। अ ल बड़ी या भस वाली
कहावत यहां पूणतः च रताथ होती है।

सब ई वर क माया है
का िच ता मम जीवने यिद ह रिव व भरो गीयते,
नो चेदभकजीवनाय जननी त यं कघं िनमयेत्।
इ यालो य मुहमुहयदपु ते ल मीपते केवलं,
वा पादा बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।।17।।

आचाय चाण य कहते ह िक मुझे जीवन म या िच ता, यिद ह र को िव व भर कहा जाए। यिद ऐसा नह होता तो ब चे
के जीवन के लए मां के तन म द ूध कैसे हो जाता। यही समझकर हे यदपु ित! ल मीपित! म आपके चरण का यान करता
हआ समय यतीत करता हं।

आशय यह है िक मुझे अपने जीवन क कोई िच ता नह है। य िक भगवान को िव व का पालन-पोषण करने वाला कहा
जाता है। स य ही है, य िक ब चे के ज म से पहले ही मां के तन म द ूध आ जाता है। यह ई वर क ही माया है। इस सब
का िवचार करते हए हे भगवान िव णु, म रात-िदन आपका ही यान करता हआ समय िबताता हं।

गीवाणवाणीषु िविश बुि तथाऽिप भाषा तर लोलुपोऽहम्।


यथा सुरगणे वमृते च सेिवते वगागनानामधरासवे िचः।।18।।
आचाय चाण य कहते ह िक सं कृत भाषा का िवशेष ान होने पर भी म अ य भाषाओं को सीखना चाहता हं। वग म
देवताओं के पास पीने को अमृत होता है, िफर भी वे अ सराओं के अधर का रस पीना चाहते ह।

घी सबसे बड़ी शि
अ ाद् दशगुणं िप ं िप ाद् दशगुणं पयः।
पयसोऽ गुणं मांसं मांसाद् दशगुणं घृतम्।।19।।

यहां आचाय चाण य शि क चचा करते हए बताते ह िक साधारण भोजन से आटे म दस गुनी शि है। आटे से दस
गुनी शि द ूध म है। द ूध से भी दस गुनी अ धक शि मांस म तथा मांस से दस गुनी शि घी म है।

आशय यह है िक साधारण भोजन से आटे म दस गुनी अ धक शि होती है। आटे से द ूध म दस गुनी अ धक शि है।
द ूध से भी दस गुनी अ धक शि मांस म है तथा मांस से भी दस गुनी अ धक शि घी म होती है। इस कार वा य के
लए घी सबसे अ धक लाभदायक है।

िच ता िचता समान
शोकेन रोगाः वध ते पयसा वधते तनुः।
घृतेन वधते वीय मांसा मांसं वघते।।20।।

आचाय चाण य यहां काय-कारण क चचा करते हए कहते ह िक शोक से रोग बढ़ते ह। द ूध से शरीर बढ़ता है। घी से
वीय बढ़ता है। मांस से मांस बढ़ता है।

आशय यह है िक िच तत रहने से या दःु खी रहने से मनु य को अनेक रोग घेर लेते ह। द ूध पीने से मनु य का शरीर
बढ़ता है। घी खाने से बल-वीय बढ़ता है। मांस खाने से केवल मांस ही बढ़ता है।
यारहवां अ याय

सं कार का भाव
दातृ वं ि यव ृ वं धीर वमुिचत ता।
अ यासेन न ल य ते च वारः सहजा गुणाः।।1।।

आचाय चाण य यि के ज मजात गुण क चचा करते हए कहते ह िक दान देने क आदत, ि य बोलना, धीरज तथा
उिचत ान‒ये चार यि के सहज गुण ह, जो अ यास म नह आते।

आशय यह है िक दान देने का वभाव, सबके साथ मधुरता से बात करना, धीरज तथा सही चीज क पहचान करना ये
यि के सहज गुण है; अथात् ये गुण यि के साथ ही पैदा होते ह। इन गुण को िकसी को सखाया नह जा सकता। यि
चाहे वयं इनका िकतना ही अ यास य न कर, इ ह ा नह कर सकता।

अपना वग
आ मवग प र य य परवग समा येत्।
वयमेव लयं याित यथा रा यमधमतः।।2।।

आचाय चाण य जाित या वग से हटकर सहायता लेने क वृ का िनषेध करते हए कहते ह िक अपने वग को छोड़कर
द ूसरे वग का सहारा लेने वाला यि उसी कार न हो जाता है, जैसे अधम से एक रा य न हो जाता है।

आशय यह है िक जस देश म धम अथात् याय-कानून क यव था चौपट हो जाती है, वह देश धीरे -धीरे न हो जाता
है। इसी कार अपने समाज या देश के साथ ोह करके द ूसरे समाज या देश से िमल जाने वाला यि भी न हो जाता है।

सूरत से सीख बड़ी


ह ती थूलतनुः स चांकुश वशः िकं ह तमा ऽकु शः।
दीपे व लते ण यित तमः िकं दीपमा ं तमः।
व ेणिभहताः पत त िगरयः िकं व मा ं नगाः
तेजो य य िवराजते स बलवान् थूलेषु कः ययः।।3।।

आचाय चाण य यहां व तु या यि के आकार क अपे ा गुणव ा पर बल देते हए कहते ह िक थूल शरीर वाला होने
पर भी हाथी अंकुश से वश म िकया जाता है। तो या अंकुश हाथी के बराबर होता है? दीपक जलने पर घने अंधकार को
द ूर कर देता है, तो या अंधकार दीपक के ही बराबर होता है। व के आघात से पहाड़ टू टकर िगर पड़ते ह, तो या पहाड़
व के ही बराबर होते ह? नह ‒ जसम तेज होता है वही बलवान होता है। मोटा-ताजा होने से कोई लाभ नह होता।

आशय यह है िक छोटा-सा अंकुश मोटे-तगड़े िवशाल हाथी को वश म कर लेता है। न हा-सा दीपक घने और फैले हए
अंधरे े को द ूर कर देता है। छोटा-सा होने पर भी व बड़े-बड़े पहाड़ को िगराकर चूर-चूर कर देता है। मोटा-ताजा होने से
कोई लाभ नह । जसम िह मत हो, तेज हो, वही बलवान माना जाता है। य िक वह बड़े-बड़े मोटे-ताज को धूल चटा देता है।

कलौ दशसह ािण ह र यजित मेिदनीम्।


तद जा वी तोयं तद ामदेवता।।4।।

आचाय चाण य कहते ह िक क लयुग के दस वष बीत जाने पर भगवान पृ वी को छोड़ देते ह। इसके आधे समय म गंगा
अपने जल को छोड़ देती है। इसके भी आधे समय म ाम देवता पृ वी को छोड़ देते ह।

आशय यह है िक क लयुग के दस हजार वष पूरे हो जाने पर भगवान िव णु पृ वी को छोड़कर अपने लोक चले जाते ह।
पांच हजार वष का समय पूरा होने पर गंगा नदी का जल सूख जाता है तथा केवल ढ़ाई हजार वष समय पूरा होते ही
ामदेवता (लोक देवता) इस पृ वी को छोड़ देते ह।

यथा गुण तथा वृ


गृहास य नो िव ा न दया मांसभो जनः।
य लु ध य नो स यं न ैण य पिव ता।।5।।

आचाय चाण य असंभव पर चचा करते हए कहते ह िक गृहास को िव ा ा नह होती। मांस खाने वाले म दया नह
होती। धन के लोभी म स य तथा ैण म पिव ता का होना असंभव है।

आशय यह है िक जसे घर से अ य धक ेम होता है, वह िव ा ा नह कर सकता। मांस खाने वाले से दया क आशा
करना यथ है। धन के लोभ से स चाई द ूर रहती है। य के पीछे भागने वाले कामुक यि म पिव ता नह होती।

आदत नह बदलती
न दज
ु नः साधुदशामुपिै त बह कारै रिप िश यमाणः।
आमूल स ं पयसा घृतेन न िन बवृ़ ोः मधुर वमेित।।6।।

आचाय चाण य यहां द ु वभाव क चचा करते हए कहते ह िक द ु को स जन नह बनाया जा सकता। द ूध और घी


से नीम को जड़ से चोटी तक स चे जाने पर भी नीम का वृ मीठा नह बनता।

आशय यह है िक द ु को चाहे िकतना ही सखाओ-पढ़ाओ, उसे स जन नह बनाया जा सकता। य िक नीम के पेड़ को


चाहे जड़ से चोटी तक द ूध और घी से स च दो, तब भी उसम िमठास नह आ सकती। अथात् नीम न होय मीठो, चाहे स चो
गुड़-घी से।

अ तगतमलो द ु तीथ नानशतैरिप।


न शु यितयथाभा डं सुरया दािहतं च तत्।।7।।

आचाय चाण य यहां पापी के सुरापा के समान सं ा देते हए कहते ह िक जैसे सुरापा अि म जलाने पर भी शु नह
होता। इसी कार जसके मन म मैल हो, वह द ु चाहे सैकड़ तीथ नान कर ले, कभी शु नह होता।

आशय यह है िक सुरा-शराब का बतन चाहे आग म जला िदया जाए, पर उसे शु नह समझा जाता। इसी तरह जस
यि का मन मैला हो उसे तीथ नान का कोई फल नह िमलता। तीथ नान से शरीर क सफाई हो सकती है, मन क नह ।
पापी चाहे सैकड़ तीथ ं म नान कर ले, वह पापी ही रहता है।

न वे यो य य गुण कष स तु सदा िन दित ना िच म्।


यथा िकराती क रकु भल धां मु ां प र य य िवभित गु ाम्।।8।।

आचाय चाण य व तु क गुण ाहकता क चचा करते हए कहते ह िक जो जसके गुण को जानता ही नह , वह यिद
उसक िन दा करे तो इसम आ चय ही या है! जैसे िकराती (भीलनी) हाथी के म तक क मोती को छोड़कर गुज
ं ा क माला
पहनती है।

आशय यह है िक एक भीलनी भला हाथी के सर से उ प मोती क क मत या जानती है। इस मोती के िमलने पर भी


वह गुज
ं ा (घुघ
ं ची) क ही माला पहनना पसंद करती है। इसी कार एक मूख यि यिद िकसी िव ान के गुण को नह
समझता और उसक बुराई करता है, तो इसम कोई ता जुब नह करना चािहए।

मौन
य तु संव सरं पूण िन यं मौनेन भु ते।
युगकोिटसह तु वगलोक महीयते।।9।।

आचाय चाण य यहां मौन का मह व ितपािदत करते हए कहते ह िक मौन रहना एक कार क तप या है। जो यि
केवल एक साल तक मौन रहता हआ भोजन करता है, उसे करोड़ युग तक वगलोक के सुख ा होते ह।

िव ाथ के लए न करने यो य बात
कामं ोधं तथा लोभं वाद ंगारकौतुकम्।
अितिन ाऽितसेवा व िव ाथ वजयेत्।।10।।
आचाय चाण य यहां िव ाथ के लए व जत वृ य क चचा करते हए कहते ह िक काम, ोध, वाद, ंगार,
कौतुक, अ धक सोना, अ धक सेवा करना, इन आठ काम को िव ाथ छोड़ दे।

आशय यह है िक ी सहवास, ोध करना, लोभ करना, जीभ का चटोरापन, बनाव- ृग


ं ार, मेले-तमाशे देखना, अ धक
सोना तथा िकसी क भी अ धक सेवा करना, िव ा ा करने के लए िव ाथ को ये आठ काम छोड़ देने चािहए।

ऋिष
अकृ फलमूलािन वनवासरतः सदा।
कु तेऽहरहः ा मृिषिव ः स उ यते।।11।।

आचाय चाण य ऋिष के प क चचा करते हए कहते ह िक जो ा ण िबना जोती भूिम से फल-मूल आिद का भोजन
करता है, सदा वन म रहता है तथा िन य ा करता है, उसे ऋिष कहा जाता है।

आशय यह है िक उस ा ण को ऋिष कहते ह, जो घर को छोड़कर वन म रहने लगता है, िबना जोती हई भूिम म उपजे
फल तथा क द-मूल का भोजन करता है। सदा िपतर का ा करता है।

ि ज
एकाहारे ण स तु ः ष कमिनरतः सदा।
ऋतुकालेऽिभगामी च स िव ो ि ज उ यते।।12।।

यहां आचाय ि ज के गुण के बारे म चचा करते हए कहते ह िक िदन म एक बार ही भोजन करने वाला, अ ययन, तप
आिद छः काय ं म लगा रहने वाला तथा ऋतुकाल म ही प नी से संभोग करने वाला ा ण ि ज कहा जाता है।

आशय यह है िक जो ा ण िदन म केवल एक बार भोजन करता है और उसी से संतु रहता है, जो पढ़ने-पढ़ाने, तप
करने आिद काय ं म लगा रहता है तथा जो केवल मा सक धम के बाद ऋतुकाल म ही अपनी प नी से संभोग करता है, वही
ा ण ि ज कहा जाता है।

वै य
लौिकके कमिण रतः पशूनां प रपालकः।
वािण यकृिषकमा यः स िव ो वै य उ यते।।13।।

यहां आचाय चाण य ा ण ारा िकए उन कम ं क चचा कर रहे ह जनके भाव से वह वै य कोिट म आ जाता है।
आचाय का कहना है िक जो ा ण सांसा रक काय ं म लगा रहता है, पशु पालता है, यापार तथा खेती करता है, उसे वै य
कहा जाता है।

आशय यह है िक सभी सांसा रक (दिु नयादारी के) काम करने वाला, पशु पालने वाला, यापार करनेवाला, खेती
करनेवाला ा ण भी वै य ही कहलाएगा। वैसे इन काम को करनेवाला यि , चाहे कोई भी हो, उसे वै य कहा जात है।

िबलौटा
परकायिवह ता च दा भकः वाथसाधकः।
छली ेषी मधु ू रो माजार उ यते।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक द ूसरे का काम िबगाड़ने वाले, द भी, वाथ , छली-कपटी, ेषी, मुंह से मीठा, िक तु दय से
ू र ा ण िबलौटा (िब ा) कहा जाता है।

आशय यह है िक जस ा ण म िन न ल खत दगु ुण ह उसे िब ा-िबलौटा कहा जाता है। द ूसरे का काम िबगाड़नेवाला,
घम डी वभाव वाला, अपना ही वाथ देखने वाला, द ूसर से जलने वाला, छल-कपट, झूठ-फरे ब का सहारा लेने वाला, मुंह
के सामने बड़ा ही मीठा बोलने वाला िक तु मन म मैल रखने वाला।

ले छ
वापीकू पतड़ागानामारामसुख वनाम्।
उ छे दने िनराशंक स िव ो ले छ उ यते।।15।।
आचाय चाण य कहते ह िक बावड़ी, कु एं, तालाब, देवमंिदर आिद को िनडर होकर न करने वाला ा ण ले छ कहा
जाता है।

आशय यह है िक जो ा ण बावड़ी, कु एं, तालाब, उपवन, बाग-बगीचे, मंिदर आिद को न करता है, जसे समाज या
लोक-लाज का कोई भय नह रहता, उसे ले छ समझना चािहए।

चा डाल
देव यं गु यं परदारािभमषणम्।
िनवाहः सवभूतेषु िव चा डाल उ यते।।16।।

आचाय चाण य कहते ह िक जो ा ण देवताओं क या गु ओं क व तुओं को चोरी करता है, द ूसरे क ी से संभोग
करता है और सभी ािणय के बीच म िनवाह कर लेता है, उसे चा डाल कहा जाता है।

आशय यह है िक देवताओं के म दर से व तुएं, धन आिद चुराने वाला, पराई य से कु कम करने वाला तथा सभी
कार के अ छे -बुरे लोग के बीच म रहकर खान-पान, आचार- यवहार आिद का पालन न करने वाला ा ण चा डाल
कहा जाता है। इन काम को करने वाला यि ा ण नह कहा जा सकता।

दान क मिहमा
देयं भो यधनं सुकृितिभन संचय त य वै,
ीकण य बले च िव मपतेर ािप क ित थता।
अ माकं मधुदानयोगरिहतं न ं िचरा संिचत
िनवाणािदित न पादयुगलं घष यमी मि काः।।17।।

दान क चचा करते हए आचाय चाण य कहते ह िक महापु ष भो य पदाथ ं तथा धन का दान कर। इसका संचय करना
उिचत नह है। कण, ब ल आिद क क ित आज तक बनी हई है। हमारा ल बे समय से संिचत शहद, जसका हमने दान या
भोग नह िकया, न हो गया है, यही सोचकर दःु ख से ये मधु-म खयां अपने दोन पांव को िघसती ह।

आशय यह है िक महान पु ष को अ -धन आिद का दान करते रहना चािहए। महादानी कण और ब ल का नाम आज
तक दान देने के कारण ही अमर है। मधुम खयां अपने शहद को न तो वयं खाती ह, न िकसी को देती ह। तब कोई यि
उस एकि त शहद को िनकाल देता है और वे दःु खी होकर पांव को भूिम पर घसीटने लगती ह।
बारहवां अ याय

गृह थ धम
सान दं सदनं सुता च सुधयः का ता ि यालािपनी,
इ छापूितधनं वयोिषित रितः वा ापरः सेवकाः।
आित यं िशवपूजनं ितिदनं िम ा पानं गृह,े
साधोः संगमुपासते च सततं ध यो गृह था मः।।1।।

आचाय चाण य यहां गृह थ क चचा करते हए कहते ह िक जस गृह थ के घर म िनरं तर उ सव-य , पाठ और क तन
आिद होता रहता है, संतान सुिशि त होती है, ी मधुरभािषणी, मीठा बोलने वाली होती है, आव यकताओं क पूित के लए
पया धन होता है, पित-प नी एक द ूसरे म अनुर ह, सेवक वािमभ और आ ापालक होते ह, अित थ का भोजन आिद
से स कार और िशव का पूजन होता रहता है, घर म भोज आिद से िम का वागत होता रहता है तथा महा मा पु ष का
आना-जाना भी लगा रहता है, ऐसे पु ष का गृह था म सचमुच ही शंसनीय है। ऐसा यि अ यंत सौभा यशाली एवं ध य
होता है।

आतषु िव ेषु दया वत चे छ ेन यः व पमुपिै त दानम्।


अन तपारं समुपिै त दानं य ीयते त लभेद ् ि जे यः।।2।।

आचाय चाण य कहते ह िक दःु खय और िव ान को जो थोड़ा-सा भी दान देता है, उसे उसका अन त गुना वयं िमल
जाता है।

आशय यह है िक जो यि दःु खय , गरीब , िव ान महापु ष आिद को थोड़ा-सा भी दान देता है, उसे भले ही उन
यि य से कट म कु छ भी नह िमलता, िक तु इससे उसे बहत बड़ा पु य िमलता है। इसी पु य से उसे िदये गये दान से
लाख हजार गुना अ धक ा होता है।

दाि यं वजने दया परजने शा ं सदा दज


ु ने।
ीितः साधुजने मय खलजने िव जने चाजवम्।
शौय श ुजने मा गु जने नारीजने धूतताः
इ थं ये पु षा कलासु कु शला ते वेव लोक थितः।।3।।

आचाय चाण य यहां उन कु छ भले लोग क चचा करते हए कहते ह िक जो अपने लोग से ेम, पराय पर दया, द ु
के साथ स ती, स जन से सरलता, मूख ं से परहेज, िव ान का आदर, श ुओं के साथ बहादरु ी और गु जन का स मान
करते ह, ज ह य से लगाव नह होता, ऐसे लोग महापु ष कहे जाते ह। ऐसे ही लोग के कारण दिु नया िटक हई है।

आशय यह है िक जो यवहार कु शल लोग अपने भाई-ब धुओं से ेम करते ह, अ य लोग पर दया करते ह, द ु के
साथ द ु ता का कठोर यवहार करते ह, साधुओं, िव ान , माता-िपता तथा गु के साथ आदर का यवहार करते ह, मूख
लोग से द ूर ही रहते ह, श ु का बहादरु ी से सामना करते ह तथा य के पीछे नह भागते। ऐसे ही लोग समाज के यवहार
को जानते ह। इ ह के भाव से समाज चल पाता है।

ह तौ दानव जतौ ुितपुटौ सार वत ोिहणी


ने े साधुिवलोकरिहते पादौ न तीथ गतौ।
अ याया जतिव पूणमुदरं गवण तुंग ं िशरौ
रे रे ज बुक मु -मु सहसा नीचं सुिन ं वपुः।।4।।

आचाय चाण य कहते ह िक हाथ से दान नह िदया, कान से कोई ान नह सुना, ने से िकसी साधु के दशन नह
िकए, पांव से कभी िकसी तीथ म नह गए, अ याय से कमाए गए धन से पेट भरते हो और घमंड से सर को तना हआ रखते
हो। अरे गीदड़! इस शरीर को शी छोड़ दो।
आशय यह है िक जस मनु य म इस कार के दगु ुण ह , उसे सयार समझना चािहए, जैसे - जसने कभी िकसी चीज का
दान नह िकया, जसके कान ने भी कोई ान क बात नह सुनी, जसने आंख से कभी स जन -महा माओं के दशन नह
िकए, जो कभी िकसी तीथ म नह गया, जो गलत तरीक से धन कमाता है और घम डी होता है, ऐसे मनु य पी गीदड़ का
शी मर जाना अ छा है।

येषां ीम शोदासुत-पद-कमले ना त भि नराणाम्


येषामाभीरक या ि यगुणकथने नानुर ा रस ा।
तेषां ीकृ णलीला ल लतरसकथा सादरौ नैव कण ,ं
ध ान् ध ान् धगेतान्, क यित सततं क तनर था मृदग
ं ।।5।।

यहां भु गुणगान का मह व बताते हए आचाय चाण य कहते ह िक मृदग


ं वा क विन बहत अ छी होती है। मृदग
ं से
आवाज िनकलती है‒ ध ान् जसका अथ है उ ह ध कार है। इसके आगे किव क पना करता है िक जन लोग का भगवान्
ीकृ ण के चरणकमल म अनुराग नह , जनक ज ा को ी राधाजी और गोिपय के गुणगान म आनंद नह आता, जनके
कान ीकृ ण क सुंदर कथा सुनने के लए सदा उ सुक नह रहते, मृदग
ं भी उ ह “ ध कार है, ध कार है” कहता है।
व तुतः जो यि जीवन म भु का गुणगान नह करता, उसे ध कार है, उसका जीवन यथ है।

प ं नैव यदा करीरिवटपे दोषो वस त य िकं


नोलूकोऽ यवलोकयते यिद िदवा सूय य िकं द ूषणम्?
वषा नैव पतित चातकमुखे मेघ य िकं द ूषणम्
य पूव िव धना ललाट ल खतं त मा जतुं कः मः।।6।।

आचाय चाण य कहते ह िक यिद करील म प े नह आते तो बसंत का या दोष? यिद उ ू िदन म नह देखता तो सूय
का या दोष? वषा चातक के मुंह म न पड़े तो बादल का या अपराध? भा य ने जो पहले ही ललाट म लख िदया, उसे
कौन िमटा सकता है?

आशय यह है िक करील म प े नह आते, उ ू िदन म देख नह सकता और चातक के मुंह म वषा क बूदं नह पड़त ।
इन सबके लए बस त, सूय और बादल को दोषी नह कहा जा सकता। यह तो इनके भा य का दोष है, जसे कोई नह िमटा
सकता।

स संगित मिहमा
स संगतेभवित िह साधुता खलानां
साधूनां न िह खलसंगतेः खल वम्।
आमोदं कु सुमभवं मृदेव ध े
मृ ग धं न िह कु सुमािन धारय त।।7।।

आचाय चाण य स संग का मह व ितपािदत करते हए कहते ह िक स संगित से द ु म भी साधुता आ जाती है, िक तु
दु क संगित से साधुओं म द ु ता नह आती। िम ी ही फूल क सुगध
ं को धारण कर लेती है, िक तु फूल िम ी क गंध
को नह अपनाते।

आशय यह है िक फूल क सुगध


ं से िम ी तो सुग धत हो जाती है, िक तु िम ी क ग ध का फूल पर कोई भाव नह
पड़ता। इसी कार साधुओं और स जन के स पक म आने पर द ु म भी अ छे गुण आ जाते ह। पर तु द ु क द ु ता का
स जन पर कोई भी असर नह पड़ता और ऐसा च र क ढ़ता के कारण ही संभव हो पाता है। जैसे कहा गया है -

च दन िवष या नह , लपटे रहत भुजग


ं ।

अथात् सांप के लपटे रहने के बाद भी च दन म िवष का संचार नह होता। वह अपनी शीतलता बनाए रखता है।

साधु दशन का पु य
साधूनां दशनं पु यं तीथभूताः िह साधवः।
कालेन फलते तीथः स ः साधु समागमः।।8।।
आचाय चाण य कहते ह िक साधुओं के दशन से पु य िमलता है। साधु तीथ ं के समान होते ह। तीथ ं का फल कु छ समय
बाद िमलता है, िक तु साधु समागम तुर त फल देता है।

आशय यह है िक साधुओं के दशन करने से मनु य पाप से द ूर होता है और उसे पु य िमलता है। साधु तीथ ं के समान
होते ह, अथात् उनक कृपा होने पर मनु य क सब इ छाएं पूरी हो जाती ह। तीथ ं म जाने का फल देरी से िमलता है, िक तु
साधुओं क संगित का फल शी ही िमल जाता है। तीथ- जससे मनु य क इ छाएं पूरी हो जाती ह, उसे तीथ कहते ह।

तु छता म बड़ पन कहां
िव ा म गरे महान् कथय क ताल ुमाणां गणः
को दाता रजको ददाित वसनं ातगृही वा िनिश।
को द ः प रिव दारहरणं सवऽिप द ाः जनाः
क मा जीवित हे सखे! िवषकृिम यायेन जीवा यहम्।।9।।

आचाय चाण य कहते ह िक अरे िम ! इस नगर म बड़ा कौन है? ताड़ के वृ बड़े ह। दानी कौन है? धोबी ही यहां
दानी है, जो सुबह कपड़े ले जाता है तथा शाम को दे जाता है। चतुर यि कौन है? द ूसरे का धन तथा ी हरने म सभी
चतुर ह। तब तुम इस नगर म जीिवत कैसे रहते हो? बस गंदगी के क ड़े समान जीिवत रहता हं।

आशय यह है िक जस शहर म िव ान, बुि मान, ानी पु ष नह रहते; जहां के लोग दान नह जानते; जहां अ छे काम
करने म कोई चतुर न हो, िक तु लूट-खसोट, बुरे चाल-चलन म सभी एक से बढ़कर एक ह , ऐसी जगह को ग दगी का ढेर
ही समझना चािहए और वहां के लोग को ग दगी के क ड़े। और खेद का िवषय है िक आज संसार इ ह बात पर चल रहा है।

न िव पादोदक पंिकलािन न वेदशा विनग जतािन।


वाहा वधाकार विनव जतािन मशानतु यािन गृहािणतािन।।10।।

आचाय चाण य घर के व प क चचा करते हए कहते ह िक जो घर िव के पैर के धूल क क चड़ से नह सनते,


जनमे वेद-शा क विन नह सुनाई देती एवं य क ‘ वाहा’ ‘ वधा’ आिद विनय का अभाव रहता है, ऐसे घर मशान
के समान होते ह।

आशय यह है िक जन घर म िव ान, ा ण का आदर नह होता, वेद , शा आिद का अ ययन, पाठ या कथा नह


होती तथा य नह िकये जाते, ऐसे घर को मशान के समान समझना चािहए।

र तेदार के छः गुण
स यं माता-िपता ानं धम ं ाता दया सखा।
शा तः प नी मा पु ः षडेते मम बा धवाः।।11।।

आचाय चाण य यि के गुण को उसका परम िहतैषी बताते हए कहते ह िक स य मेरी माता है, ान िपता है, धम भाई
है, दया िम है, शांित प नी है तथा मा पु है, ये छः ही मेरे सगे-स ब धी ह।

आशय यह है िक स चाई यि क मां के समान, ान िपता के समान, धम भाई के समान, दया करना िम के समान,
शा त प नी के समान और मा करना पु के समान है। ये छः गुण ही उसके स चे र तेदार होते ह।

द ु तो द ु ही है
वयसः प रणामे िह यः खलाः खल एव सः।
सुप वमिप माधुय नोपायती वा णम्।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक चौथी अव था म भी जो द ु होता है, द ु ही रहता है। अ छी तरह पक जाने पर भी
इ वा ण (एक कार का ख ा फल) का फल मीठा नह होता।

आशय यह है िक उ का भी द ु ता पर कोई भाव नह पड़ता। द ु चाहे बूढ़ा हो जाए, रहता सदा द ु ही है। इ वा ण
का फल चाहे क चा हो या अ छी तरह पक जाए, उसम मीठापन नह आता, सदा कड़वा ही रहता है। अतः बूढ़ा हो जाने पर
भी द ु का िव वास नह करना चािहए।

ी ी ै
अनुराग ही जीवन है
िनम णो सवा िव ा गावो नवतृणो सवाः।
प यु साहयुता नायाः अहं कृ ण-रणो सवः।।13।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस कार यजमान से िनमं ण पाना ही ा ण के लए स ता का अवसर होता है अथात्
िनमं ण पाकर ा ण को वािद भोजन तथा दान-दि णािद सुलभ होते ह, और हरी घास िमल जाना गौओं के लए उ सव
अथवा स तादायक बात होती है, इसी कार पित क स ता य के लए उ सव के समान होती है, परं तु मेरे लए तो
भीषण रण म अनुराग ही जीवन क साथकता अथात् उ सव है।

मातृवत् परदारे षु पर यािण लो वत्।


आ मवत् सवभूतािन यः प यित सः पंिडतः।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक यि को चािहए िक अ य यि य क य को माता के समान समझे, द ूसर के धन पर


नजर न रखे, उसे पराया समझे और सभी लोग को अपनी तरह ही समझे। आचाय चाण य मानते ह िक द ूसर क य को
माता के समान, पराए धन को िम ी के ढेले के समान और सभी ािणय को अपने समान देखनेवाला ही स चे अथ ं म ऋिष
और िववेकशील प डत कहलाता है।

राम क मिहमा
धम त परता मुखे मधुरता दाने समु साहता
िम ेऽव कता गुरौ िवनयता िच ेऽिप ग भीरता।
आचारे शुिचता गुणे र सकता शा ेषु िव ातृता
पे सु दरता िशवे भजनता व य त भो राघव।।15।।

आचाय चाण य कहते ह िक धम म त परता, मुख म मधुरता, दान म उ साह, िम के साथ िन कपटता, गु के ित
िवन ता, िच म गंभीरता, आचरण म पिव ता, गुण के ित आदर, शा का िवशेष ान, प म सुंदरता तथा िशव म
भि ‒ये सब गुण एक साथ हे राघव! आप म ही है।

आशय यह है िक हे भगवान राम, आप धम क बड़ी त परता से पालन करते ह। आपके मुख म एक अनूठी मधुरता है।
आपक दान म अ य धक िच है। आप िम के लए िन कपट ह। गु जन के लए िवन ह। आपका दय अ यंत ग भीर
है। आपका आचरण पिव है। आप गुण का आदर करते ह तथा सभी शा -िव ाओं का आपको िवशेष ान है। आपक
सु दरता का वणन नह िकया जा सकता। िशव म आपक भि है। ये सब गुण एक साथ केवल आप म ही पाये जाते ह।

का ं क पत ः सुमे रचल च तामिणः तरः


सूय ती करः शिशः यकरः ारोिह िनरवा र धः।
कामो न तनुब लिदितसुतो िन य पशुः कामगोः
नैता ते तुलयािम भो रघुपते क योपमा दीयते।।16।।

आचाय चाण य कहते ह िक क पवृ का है। सुमे पहाड़ है। पारस केवल एक प थर है। सूय क िकरण ती ह।
च मा घटता रहता है। समु खारा है। कामदेव का शरीर नह है। ब ल दै य है। कामधेनु पशु है। हे राम! म आपक तुलना
िकसी से नह कर पा रहा हं। आपक उपमा िकससे दी जाए।

आशय यह है िक हे भगवान राम, लोग आपको क पवृ तथा कामदेव के समान सबक इ छा पूरी करने वाला कहते ह।
आप सबक इ छाएं पूरी करते ह, यह बात स य है। िक तु क पवृ लकड़ी है तथा कामधेनु पशु है। आपको सोने के पहाड़
सुमे के समान कहा जाता है। यह सही है िक आपक स प का कोई पार नह है। िक तु सुमे है तो एक पहाड़ ही। आपको
िच तामिण (पारस प थर) के समान कहा जाता है। पारस लोहे को सोना बना देता है। आपके पास आने वाला भी हर अ छा-
बुरा यि गुणवान हो जाता है। पर पारस है तो एक प थर ही। आपको सूय के समान तेज वाला कहा जाता है। िक तु सूय
क तेज िकरण दःु खी भी करती ह। जबिक आपको देखकर सब सुखी ही होते ह। आपको च मा के समान सुख देने वाला
कहा जाता है। िक तु च मा क िकरण घटती-बढ़ती रहती ह, आप सदा समान रहते ह। आपको समु के समान गंभीर माना
जाता है, िक तु कहां समु और कहां आप। समु का पानी खारा होता है। आपको कामदेव के समान सु दर कहना भी ठीक
नह । कामदेव का तो शरीर ही नह है, अतः वह सु दर कैसे हआ? आपको ब ल के समान दानी कहा जाता है। आप सबसे
बड़े दानी ह, यह सच है, और ब ल भी महान दानी था, िक तु ब ल दै य था। आप सा ात् भगवान ह। इस लए इनके साथ
आपक तुलना नह क जा सकती। आपक उपमा िकससे दी जाए?

सीख कह से भी ले ल
िवनयं राजपु े यः प डते यः सुभािषतम्।
अनृतं ूतकारे यः ी यः िश ेत् कैतवम्।।17।।

आचाय चाण य का कथन है िक यि सभी से कु छ न कु छ सीख सकता है। उसे राजपु से िवनयशीलता और न ता
क , पंिडत से बोलने के उ म ढंग क , जुआ रय से अस य-भाषण के प-भेद क तथा य से छल-कपट क िश ा
लेनी चािहए।

अिभ ाय यह है िक राजपु िवन , प डत िम भाषी, ूतकार िम यावादी तथा यां छल-कपट म िनपुण होती ह।
अथात् यिद मनु य म कु छ सीखने या हण करने क चाह हो तो वह छोटे से छोटे यि से भी कु छ न कु छ सीख सकता है।

िवनयं राजपु े यः प डते यः सुभा तम्।


अनृतं ूतकारे यः ी यः िशि त कैतवम्।। 18।।

आचाय चाण य का कथन है िक राजपु से िवन ता सीखनी चािहए। प डत से सु दर भाषण सीखना चािहए। जुआ रय
से झूठ तथा य से छल सीखना चािहए।

आशय यह है िक राजकु मार अ य त िवन तथा शालीन होते ह। अतः उनसे िवन ता और शालीनता सीखनी चािहए।
िव ान् लोग का बोलने का ढंग स य एवं सु दर होता है। इस लए उनसे सु दर बोलने क कला सीखनी चािहए। यिद कभी
एकदम सफेद झूठ बोलने क आव यकता पड़े तो यह गुण जुआ रय से सीखना चािहए। छल- पंच, कपट ी से सीखना
चािहए।

सोचकर काम कर
अनालो य ययं कता चानाथः कलहि यः।
आतः ीहसव े ेषु नरः शी ं िवन यित।।19।।

आचाय चाण य सोच-समझकर कम करने का परामश देते हए कहते ह िक िबना सोचे-समझे यय करने वाला अनाथ,
झगड़ालू तथा सभी जाितय क य के लए याकु ल रहने वाला यि शी न हो जाता है।

आशय यह है िक धन क अनाप-शनाप खच करने वाला, जसका कोई भी अपना न हो, जो झगड़ालू वभाव का हो
तथा जो य के ही पीछे भागता रहता हो, ऐसा यि शी ही बबाद हो जाता है।

जलिब दिु नपातेन मशः पूयते घटः।


स हेतु सविव ानां धम य च धन य च।।20।।

आचाय चाण य यहां अ प बचत का मह व बताते हए कहते ह िक एक-एक बूदं डालने से मशः घड़ा भर जाता है।
इसी तरह िव ा, धम और धन का भी संचय करना चािहए।

आशय यह है िक एक-एक बूदं डालते रहने से धीरे -धीरे बड़ा भर जाता है। इसी कार धीरे -धीरे ान, धम तथा धन को
भी संचय करते रहने से ये बढ़ते ह। छोटी-छोटी बचत बढ़कर एक बड़ी रािश बन जाती ह।
तेरहवां अ याय

कम क धानता
मुहतमिप जीवे च नरः शु लेन कमणा।
न क पमिप क ेन लोक य िवरो धना।।1।।

आचाय चाण य यहां कम क धानता और उपयोिगता क चचा करते हए कहते ह िक उ वल कम करने वाला मनु य
ण भर भी जए तो अ छा है, िक तु दोन लोग के िव काम करने वाले मनु य का एक क प तक जीना भी यथ है।

आशय यह है िक अ छे काय करने वाला मनु य यिद थोड़ी-सी उ भी पाये तो अ छा है। वह अपने छोटे से जीवन म ही
समाज का तथा अपना भी क याण कर जाता है। िक तु जो मनु य न तो वयं सुखी रहता है और न द ूसर को सुख पहंचाता
है, ऐसा यि अपना परलोक भी नह सुधार सकता। अतः इस लोक तथा परलोक दोन को न करने वाला मनु य पृ वी
का भार है। उसका मर जाना ही अ छा है।

बीती तािह िबसार दे


गतं शोको न कत य भिव यतो नैव िच तयेत्।
वतमानेन कालेन वत ते िवच णाः।।2।।

आचाय चाण य यहां बीती बात भुलाकर आगे क सुध लेने पर बल देते हए कहते ह िक बीती बात पर दःु ख नह करना
चािहए। भिव य के िवषय म भी नह सोचना चािहए। बुि मान लोग वतमान समय के अनुसार ही चलते ह। बीती बात पर
दःु ख करने से कोई लाभ नह होता। भिव य के लए भी अभी से दःु खी नह होना चािहए। वतमान को ही सु दर करना
चािहए। इसी से भिव य भी सु दर बनता है। यही बुि मानी है। और कहा भी गया है - बीती तािह िबसार दे, आगे क सु ध
लेह। यानी जो बीत गया उसे भूलकर आगे क सोचनी चािहए।

मीठे बोल
वभावेन िह तु य त देवाः स पु षाः िपताः।
ातयः नानपाना यां वा यदानेन प डताः।।3।।

आचाय चाण य यहां स ता के संबध


ं म चचा करते हए कहते ह िक देवता, स जन और िपता वभाव से, भाई-बंधु
नान-पान से तथा िव ान मधुर वाणी से स होते ह।

आशय यह है देवता िक स जन तथा िपता वभाव से स होते ह, िव ान यि मीठी बोली से स होते ह तथा भाई-
िबरादरीवाले खलाने-िपलाने अथात् वागत-स कार से स होते ह। इस तरह स ता अनुभव करने के यि दर यि
अलग मापद ड होते ह।

अहो वत् िविच ािण च रतािन महा मनाम्।


ल म तृणाय म य ते त रे ण नम त च।।4।।

महापु ष क िवन ता क चचा करते हए आचाय चाण य कहते ह िक महापु ष का च र भी िविच होता है। ल मी को
मानते तो वे ितनके के समान ह, िक तु उसके भार से दब जाते ह।

आशय यह है िक महापु ष धन को कोई मह व नह देते। उसे ितनके के समान एक मामूली-सी चीज समझते ह। य -
य उनके पास धन बढ़ता है, वे और अ धक िवन हो जाते ह। धन के आने पर उनम घम ड नह आता।

अित नेह ही दःु ख का मूल है


य य नेहो भयं त य नेहो दःु ख य भाजनम्।
नेहमूलािन दःु खािन तािन य वा वसे सुखम्।।5।।
आचाय चाण य का कथन है िक िकसी के ित ेम होता है, उसे उसी से भय भी होता है, ीित दःु ख का आधार है। नेह
ही सारे दःु ख का मूल है, अतः नेह-ब धन को तोड़कर सुखपूवक रहना चािहए।

भाव यह है िक संसार म वतन नेह के कारण होता है। ायः सांसा रक लोग इसी म फंसते ह। ीमदभगवत म जड़
भरत क कथा भी इसी ांत है। य िक उसे राजपाट, घर-बार, माता-िपता को छोड़ने के बाद भी नेहा ध य के कारण
मृगयोिन म ज म लेना पड़ा। इस लए कहा गया है िक संसार म अनेक कार के ब धन ह, लेिकन नेह का ब धन अपूव है।
लकड़ी का भेदन करने म िनपुण मर ेमपाश के कारण कमलकोश म िन य हो जाता है।

भिव य के ित जाग क रह
अनागत िवधाता च यु प मित तथा।
ै े य िव यो िवन यित।।6।।
ावेतौ सुखमेवत

आचाय चाण य का कथन है िक जो यि भिव य म आने वाली िवप के ित जाग क रहता है और जसक बुि
तेज होती है, ऐसा ही यि सुखी रहता है। इसके िवपरीत भा य के भरोसे बैठा रहने वाला यि न हो जाता है। आशय
यह है िक जो यि िकसी भी आने वाली िवप का डटकर मुकाबला करता है और जसक बुि ऐसे समय म तेजी से
काम करने लगती है, ऐसा यि िवप को भी हरा देता है तथा सुखी रहता है, िक तु जो यि ‘जो भा य म लखा है वह
तो होगा ही’ यही सोचकर हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहता है, वह बबाद हो जाता है। अतः दःु ख का वीरता से सामना करना
चािहए।

यथा राजा तथा जा


रा ेधमिण धिम ाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवत ते यथा राजा तथा जाः।।7।।

आचाय चाण य यहां यथा राजा तथा जा क उि को प करते हए कहते ह िक राजा के पापी होने पर जा भी पापी,
धािमक होने पर धािमक तथा सम होने पर जा भी सम हो जाती है। जा राजा के समान ही बन जाती है।

आशय यह है िक जैसा राजा होता है, वैसी जा भी बन जाती है। राजा धािमक हो तो जा भी धािमक तथा राजा पापी हो
तो जा भी पापी बन जाती है। य िक जा राजा का ही अनुसरण करती है।

धमहीन मरे हए के समान है


जीव तं मृतव म ये देिहनं धमव जतम्।
मृतो धमण संय ु ो दीघजीवी न संशयः।।8।।

आचाय चाण य का कथन है िक धम से हीन ाणी को म जीते जी मृत समझता हं। धमपरायण यि मृत भी दीघजीवी
है। इसम कोई संदेह नह है।

आशय यह है िक दो कार के मनु य होते ह - पहला जीते जी भी मरा हआ मनु य। द ूसरा मरकर भी ल बे समय तक
जीिवत रहने वाला। जो मनु य अपने जीवन म कोई भी अ छा काम नह करता; अथात् जसक धम क झोली ही खाली रह
जाती है, ऐसा धमहीन मनु य ज दा रहते हए भी मरे के समान है। जो मनु य अपने जीवन म लोग क भलाई करता है और
धम संचय करके मर जाता है, उसे लोग उसक मृ यु के बाद भी याद करते रहते ह। ऐसा ही यि मृ यु के बाद भी यश से
ल बे समय तक जीिवत रहता है।

धमाथकाममो ाणां य यैकोऽिप न िव ते।


अजागल तन येव त य ज म िनरथकम्।।9।।

आचाय चाण य यहां यि क साथकता क चचा करते हए कहते ह िक धम, अथ, काम तथा मो म से जस यि
को एक भी नह िमल पाता, उसका जीवन बकरी के गले के तन के समान यथ है।

आशय यह है िक जो मनु य अपने जीवन म न तो कोई धम के काय करता है, न धनवान बन पाता है, न भोग कर पाता
है और न मो ा करने का य न करता है, उस यि का जीवन बकरी के गले म िनकले तन के समान है जो िकसी
भी काम का नह होता।
द मानां सुती ेण नीचाः परयशोऽि ना।
अश ा त पदं ग तुं ततो िन दां कु वते।।10।।

आचाय चाण य द ूसरे क उ ित के ित संकुिचत भाव रखने वाले द ु क चचा करते हए कहते ह िक द ु यि द ूसरे
क उ ित को देखकर जलता रहता है। वह वयं उ ित नह कर सकता। इस लए वह िन दा करने लगता है।

आशय यह है िक द ूसरे लोग क उ ित को देखकर द ु यि को अ यंत दःु ख होता है, वह इसे देखकर जल उठता है।
वयं उ ित कर नह सकता, अतः वह उ ित करने वाले आदमी क बुराई करने लगता है। अथात् लोमड़ी अंगूर तक नह
पहंच सक तो कह िदया िक अंगूर ख े ह।

मो माग
ब ध य िवषयासंगः मु यै िनिवषयं मनः।
मन एव मनु याणां कारणं ब धमो योः।।11।।

आचाय चाण य का कथन है िक बुराईय म मन को लगाना ही बंधन है और इनसे मन को हटा लेना ही मो का माग
िदखाता है। इस कार यह मन ही बंधन या मो देने वाला है।

आशय यह है िक मन ही मनु य के लए ब धन और मो का कारण है, य िक इसका व प ही संक प-िवक प प


है। यह कभी भी थर नह रहता, िनर तर ऊहापोह, तक-िवतक और गुण-दोष के िववेचन म लगा रहता है। इस लए इससे
स ांत का ज म तो होता नह , सदा िवक प लगा रहता है। लेिकन मन भी अ यास एवं वैरा य के ारा वश म करके मो
ा िकया जा सकता है। इन दोन के अित र मन ब धन का कारण तो बनता ही है।

देहािभमानग लते ानेन परमा मनः।


य -त मनो याित त -त समाधयः।।12।।

आचाय चाण य समा ध अव था क चचा करते हए कहते ह िक परमा मा का ान हो जाने पर देह का अिभमान गल
जाता है। तब मन जहां भी जाता है, उसे वह समा ध लग जाती है।

आशय यह है िक साधक जब परमा मा को जान जाता है, तो उसे संसार क येक व तु माया जान पड़ती है, अतः वह
अपने शरीर को भी अपना नह समझता। ऐसा ान होने पर यि का मन चाहे कह रहे, उसे समा ध लग जाती है।

सुख-दःु ख
ई सतं मनसः सव क य स प ते सुखम्।
दैवाय ं यतः सव त मात् स तोषमा येत्।।13।।

आचाय चाण य का कथन है िक मन के चाहे सारे सुख िकसे िमले ह! य िक सब कु छ भा य के अधीन है। अतः संतोष
करना चािहए।

आशय यह है िक दिु नया म कोई भी ऐसा यि नह होगा, जसक सारी इ छाएं पूरी हो गयी ह गी; जसे उसके मनचाहे
सारे सुख िमल गए ह गे। सुख या दःु ख का िमलना भा य के अधीन है। यि के अधीन नह । अतः जो चीज अपने वश म
न हो उसके लए दःु खी नह होना चािहए; संतोष करना चािहए।

यथा धेनु सह ेषु व सो ग छित मातरम्।


तथा य च कृतं कम कतारमनुग छित।।14।।

आचाय चाण य का कथन है िक जैसे हजार गाय म भी बछड़ा अपनी ही मां के पास जाता है, उसी तरह िकया हआ
कम कता के पीछे -पीछे जाता है। आशय यह है िक हजार गाय चर रही हो और बछड़े को छोड़ िदया जाए, तो वह मूक पशु
अपनी ही मां के पास जाता है। िकसी अ य गाय के पास नह । इसी कार यि जो भी अ छा या बुरा कम करता है, उसका
फल उसी के पीछे -पीछे लगा रहता है। उस फल को यि को भोगना ही पड़ता है। इस लए मनु य को सदा अ छे ही कम
करने चािहए।
अनव थतकाय य न जने न वने सुखम्।
जनो दहित संसगाद् वनं संगिववजनात।।15।।

आचाय चाण य चंचलता के दःु ख क चचा करते हए कहते ह जसका िच थर नह होता, उस यि को न तो लोग
के बीच म सुख िमलता है और न वन म ही। लोग के बीच म रहने पर उनका साथ जलाता है तथा वन म अकेलापन जलाता
है।

आशय यह है िक िकसी भी काम को करते समय मन को थर रखना चािहए। मन के चंचल होने पर यि न तो कोई
काम ही ठीक से कर सकता है, न उसे कह पर भी सुख ही िमल सकता है। ऐसा यि समाज म रहता है, तो अपने
िनक मेपन और द ूसरे लोग को फलता-फूलता देखकर इसे सहन नह कर सकता, यिद वह वन म भी चला जाए तो वहां
अकेलापन उसे काटने दौड़ता है। इस कार वह कह भी सुखी नह रह सकता। िचत क चंचलता दःु ख देती है।

सेवा भाव
यथा खिन वा खिन ेण भूतले वा र िव दित।
तथा गु गतां िव ां शु ूषुर धग छित।।16।।

आचाय चाण य का कथन है िक जैसे फावड़े से खोदकर भूिम से जल िनकाला जाता है, इसी कार सेवा करने वाला
िव ाथ गु से िव ा ा करता है।

आशय यह है िक भूिम से पानी िनकालने के लए जमीन को खोदा जाता है। इसम यि को प र म करना पड़ता है।
इसी कार गु से िव ा ा करने म भी प र म और सेवा करनी पड़ती है।

पूवज म
कमाय ं फलं पुस
ं ां बुि ः कमानुसा रणी।
तथािप सु धयाचायः सुिवचायव कु वते।।17।।

आचाय चाण य िवचार का मह व ितपािदत करते हए कहते ह िक य िप मनु य को फल कम के अनुसार िमलता है


और बुि भी कम के अधीन है। तथािप बुि मान यि िवचार करके ही काम करता है।

आशय यह है िक सुख-दःु ख, बुि आिद सभी पूवज म के कम ं के अनुसार ही िमलते ह। िफर भी बुि मानी इसी म है
िक सभी काय अ छी तरह सोच-समझकर िकये जाएं।

गु मिहमा
एका रं दातारं यो गु ं नािभव दते।
वानयोिन शतं भु वा चा डाले विभजायते।।18।।

आचाय चाण य यहां कृत न िश य क चचा करते हए कहते ह िक जो एका र का ान देने वाले गु क वंदना नह
करता, वह सौ बार कु े क योिन म ज म लेकर िफर चा डाल बनता है।

आशय यह है िक परमा मा का नाम ॐ है, जसे एका र ा कहा जाता है- जो परमा मा का दशन कराने वाले गु
का आदर नह करता, उस िश य को सौ बार ज म लेकर कु ा बनना पड़ता है और िफर उसे चा डाल के घर ज म लेना
पड़ता है।

युगा ते चले मे ः क पा ते स सागराः।


साधवः ितप ाथा चल त कदाचन।।19।।

आचाय चाण य महापु ष के वभाव क चचा करते हए कहते ह िक युग का अंत होने पर भले ही सुमे पवत अपने
थान से हट जाए और क प का अंत होने पर भले ही सात समु िवच लत हो जाएं, स जन अपने माग से कभी िवच लत
नह होते।

अिभ ाय यह है िक महापु ष अपने आचरण-िवचार म सदैव ढ़ रहते ह जबिक युग के अ त म सुमे पवत भी अपने
थान को छोड़ देता है। क प समा होने पर समु भी अपनी सीमा लांघ जाते ह और पृ वी को जल म डु बा देते ह। िक तु
स जन अपनी स चाई और परोपकार के माग को कभी नह छोड़ते।
चौदहवां अ याय

पृ वी र न
पृ थ यां ीिण र नािन अ मापः सुभािषतम्।
मूढःै पाषाणखंडेषु र नसं ा िवधीयते।।1।।

आचाय चाण य पृ वी के मुख तीन र न क चचा करते हए कहते ह िक अ , जल तथा सुंदर श द, पृ वी के ये ही


तीन र न ह। मूख ं ने प थर के टु कड़ को र न का नाम िदया है।

आशय यह है िक अनाज, पानी और सबके साथ मधुर बोलना - ये तीन चीज ही पृ वी के स चे र न ह। हीरे -जवाहरात
आिद प थर के टु कड़े ही तो ह। इ ह र न कहना केवल मूखता है। रहीम ने भी कहा है -

रिहमन पानी रा खये, िबन पानी सब सून।


पानी गए न उबर, मोती, मानुष चून।।

इसी कार अ और साधु वचन का मह व है। शेष सभी चीज इनके सामने अथहीन िदखलाई पड़ती ह। इस लए इ ह क
क करनी चािहए।

जैसा बोना वैसा पाना


आ मापराधवृ य फला येतािन देिहनाम्।
दा र यरोग दःु खािन ब धन यसनािनच।।2।।

आचाय चाण य कहते ह िक द र ता, रोग, दःु ख, बंधन और यसन सभी मनु य के अपराध पी वृ के फल ह।

आशय यह है िक िनधनता, रोग, दःु ख, ब धन और बुरी आदत सब कु छ मनु य के कम ं के ही फल होते ह। जो जैसा


बोता है, उसे वैसा ही फल भी िमलता है, इस लए सदा अ छे कम करने चािहए।

शरीर का मह व
पुनिव ं पुनिम ं पुनभाया पुनमही।
एत सव पुनल यं न शरीरं पुनः पुनः।।3।।

आचाय चाण य मानव शरीर क मह ा ितपािदत करते हए कह रहे ह िक यि को जीवन म धन, िम , प नी, पृ वी,
ये सब िफर-िफर िमल सकते ह, िक तु एक बार जाने पर जीवन-शरीर पुनः नह िमल सकता।

आशय यह है िक धन न हो जाए तो पुनः कमाया जा सकता है, िम ठ जाए तो उसे मनाया जा सकता है, एक िम
साथ छोड़ दे तो द ूसरा बनाया जा सकता है। यही बात प नी पर भी लागू हो सकती है। यिद कोई जमीन हाथ से िनकल जाए
तो उसे पुनः ा िकया जा सकता है, िक तु शरीर एक बार साथ छोड़ दे तो यह दबु ारा नह िमलता।

एकता
बहनां चैव स वानां रपु यः।
वषा धाराधरो मेघ तृणरै िप िनवायते।।4।।

आचाय चाण य यहां एकता क शि ितपािदत करते हए कहते ह िक बहत-से छोटे ाणी भी िमलकर श ु को जीत
लेते ह। मूसलाधार वषा को भी ितनके िमलकर रोक देते ह।

आशय यह है िक श ु चाहे िकतना बलवान हो; यिद अनेक छोटे-छोटे यि भी िमलकर उसका सामना कर तो उसे हरा
देते ह। छोटे-छोटे ितनक से बना हआ छ पर मूसलाधार बरसती हई वषा को भी रोक देता है। वा तव म एकता म बड़ी शि
होती है।

थोड़ी भी अ धक है
जले तैलं खले गु ं पा े दानं मनागिप।
ा े शा ं वयं याित िव तारे व तुशि तः।।5।।

आचाय चाण य यहां थोड़े म भी अ धक िव तार पाने वाली चीज के बारे म बताते हए कहते ह िक जल म तेल, द ु से
कही गई गु बात, यो य यि को िदया गया दान तथा बुि मान को िदया गया ान थोड़ा-सा होने पर भी अपने आप
िव तार ा कर लेते ह।

आशय यह है िक पानी म थोड़ा भी तेल डाल िदया जाए, तो वह शी ही पूरे पानी म फैल जाता है। द ु -चुगलखोर को
भेद भरी कोई बात यिद थोड़ी-सी भी बता दी जाए तो वह उस बात को फैला देता है। यो य यि क धन से यिद थोड़ी भी
सहायता क जाए, तो वह उस धन को कई गुना बढ़ा लेता है। िव ान को यिद िव ा थोड़ी-सी भी दे दी जाए तो वह उस िव ा
का िव तार वयं कर लेता है।

वैरा य मिहमा
धमाऽऽ याने मशाने च रोिगणां या मितभवेत्।
सा सवदैव ित े चेत् को न मु येत ब धनात्।।6।।

आचाय चाण य यहां वैरा य क मह ा ितपािदत करते हए कहते ह िक धािमक कथाओं को सुनने पर, मशान म तथा
रोिगय को देखकर यि क बुि को जो वैरा य हो जाता है, यिद ऐसा वैरा य सदा बना रहे, तो भला कौन बंधन से मु
नह होगा?

आशय यह है िक िकसी व तु या पदाथ के देखने से उ प ान ण भर के लए होता है, उसम थािय व नह होता।


धमा यान, मशान और रोगयु शरीर म भी वभाव प रवतन, िवराग तथा ई वर भि क भावना भी इसी तरह से िणक
होती है। इसम यिद थािय व आ जाए तो जीव का क याण हो जाता है।

करने के बाद या सोचना


उ प प चा ाप य बुि भवित या शी।
ता शी यिद पूवा या क य या महोदयः।।7।।

आचाय चाण य यहां कम के बाद प चाताप क िनरथकता क चचा करते हए कहते ह िक गलती हो जाने पर जो
पछतावा होता है, यिद ऐसी मित गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उ ित नह करे गा और िकसे पछताना
पड़ेगा?

अिभ ाय यह है िक बुरा काम करने पर पछतावा होता है और बुि िठकाने पर आ जाती है। यिद ऐसी बुि पहले ही आ
जाए, तो पछताना ही नह पड़े। अतः कोई भी काम सोच-समझ कर ही करना चािहए।

अहंकार
दाने तप स शौय च िव ाने िवनये नये।
िव मयो न िह कत यो बहर ना वसु धरा।।8।।

आचाय चाण य कहते ह िक मानव मा म कभी भी अहंकार क भावना नह रहनी चािहए, ब क मानव को दान, तप,
शूरता, िव ता, सुशीलता और नीितिनपुणता का कभी अहंकार नह करना चािहए, य िक इस धरती पर एक से बढ़कर एक
दानी, तप वी, शूरवीर, िव ान व नीितिनपुण आिद ह। कहा भी जाता है िक सेर को सवा सेर बहत िमल जाते ह। अतः िकसी
भी काय े म अपने को अित िविश मानना मूखता है। यह अहंकार ही मानव मा के दःु ख का कारण बनता है और उसे
ले डू बता है।

द ूरी मन क
द ूर थोऽिप न द ूर थो यो य य मन स थतः।
यो य य दये ना त समीप थोऽिप द ूरतः।।9।।
आचाय चाण य यहां समीपता के थान क अपे ा दय से मापते हए कहते ह िक जो यि दय म रहता है, वह द ूर
होने पर भी द ूर नह है। जो दय म नह रहता वह समीप रहने पर भी द ूर है।

आशय यह है िक जस यि के लए िदल म जगह होती है, वह कह द ूर भी रहे, तो वह द ूर नह कहा जा सकता।


य िक वह हर पल िदल म समाया रहता है। जस यि के मन म कोई जगह नह होती, वह चाहे िकतना ही पास य न
रहे, उसे पास नह कहा जा सकता।

मीठी वाणी
य मा च ि यिम छे त् त य ूया सदा ि यम्।
या ो मृगवधं ग तुं गीतं गायित सु वरम्।।10।।

आचाय चाण य यहां वाणी क मधुरता ितपािदत करते हए कहते ह िक जससे अपना कोई क याण करना हो, उसके
सामने सदा मीठा बोलना चािहए, य िक बहे लया िहरन को मारते समय सुंदर वर म गीत गाता है।

आशय यह है िक जससे अपना कोई मतलब िनकालना हो, उस यि के सामने खूब िचकनी-चुपड़ी बात करनी चािहए।
िकसी को चार खाने िचत करने के लए म खनबाजी सबसे अ छा उपाय है। मीठे बोल से मारा हआ यि पानी भी नह
मांगता। एक बहे लये को दे खए, िहरन को बुलाने के लए िकतनी सुरीली तान छे ड़ता है। िहरन बेचारा मीठी धुन से खंचा
चला आता है। पास आते ही बहे लया उसका काम तमाम कर देता है। कहा भी गया है ‘वचन िकम द र ता’ अथात् वाणी म
संकोच य ? इसम तो माधुय ही कट होना चािहए।

इनके पास न रह
अ यास िवनाशाय द ूर था न फल दा।
से यतां म यभागेन राजवि गु यः।।11।।

आचाय चाण य यहां कु छ िवशेष लोग से द ूरी क चचा करते हए कहते ह िक राजा, आग, गु और ी, इनके अ धक
समीप रहने पर िवनाश होता है तथा द ूर रहने पर कोई फल नह िमलता। इस लए म यम द ूरी से इनका सेवन करना चािहए।

आशय यह है िक राजा, गु , अि और ी- इन चार चीज से अ धक द ूरी भी नह रखनी चािहए तथा हर समय इनके
एकदम पास भी नह रहना चािहए। इनके अ धक पास रहने पर भी हािन होती है और अ धक द ूर रहने पर भी काम नह
बनता। इस लए न तो इनसे अ धक द ूरी रखनी चािहए और न ही अ धक नजदीक ।

ई वर सव यापी है
अि दवो ि जातीनां मनीषीणां िद दैवतम्।
ितमा व पबु ीनां सव समदिशनः।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक ि जाितय का देवता अि है। मनीषी लोग अपने दय म ही ई वर को देखते ह। अ पबुि
वाले ितमा को ई वर समझते ह। समदश सव ई वर को ही देखते ह।

आशय यह है िक य आिद करने म ा ण आिद अि को ही ई वर का प समझते ह। बुि मान लोग अपने दय म


ही ई वर के दशन करते ह। कम बुि वाले यि मूित को ही ई वर मानते ह। समदश ानी पु ष संसार के येक ाणी,
व तु या थान म परमा मा को देखते ह। उनके अनुसार ई वर घट-घट यापी या कण-कण म िवराजमान है।

गुणहीन का या जीवन
स जीवित गुणा य य य य धम स जीवित।
गुण धम िवहीन य जीिवतं िन योजनम्।।13।।

आचाय चाण य कहते ह िक जसम गुण है, वही मनु य जीिवत है, जसम धम है, वही जीिवत है। गुण और धम से हीन
मनु य का जीवन यथ है।

आशय यह है िक जो मनु य गुणवान है और जो धम-पु य के काम करता है, उसी मनु य को जीिवत समझना चािहए। जो
न गुणवान है, न अ छे धम-पु य के काम ही करता है, उसके जीिवत रहने से कोई लाभ नह । ऐसे यि को मरा हआ ही
समझना चािहए।

यदी छ स वशीकतु जगदेकेन कमणा।


परापवादशा े यो गां चर त िनवारय।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक यिद एक ही कम से सारे जगत् को वश म करना चाहते हो, तो द ूसर क बुराई करने म
लगी हई वाणी को रोक लो।

आशय यह है िक सारे संसार को वश म करने का एक ही उपाय है, अपनी जबान से िकसी क बुराई मत करो। जब भी
जीभ ऐसा करे उसे रोक लो। वशीकरण का इससे बढ़कर द ूसरा उपाय नह है।

तावस शं वा यं भावस शं ि यम्।


आ मशि समं कोपं यो जानाित स प डतः।।15।।

आचाय चाण य यहां पंिडत के बारे म बताते हए कहते ह िक जो संग के अनुसार बात करना, भाव डालने वाला ेम
करना तथा अपनी शि के अनुसार ोध करना जानता है, उसे पंिडत कहते ह।

आशय यह है िक िकसी सभा म कब या बोलना चािहए, िकससे ेम करना चािहए तथा कहां पर िकतना ोध करना
चािहए, जो इन सब बात को जानता है, उसे प डत अथात् ानी यि कहा जाता है।

चीज एक बात अनेक


एक एव पदाथ तु ि धा भवित वी ित।
कु पणं कािमनी मांसं योिगिभः कािमिभः विभः।।16।।

आचाय चाण य अपने-अपने ि कोण क चचा करते हए कहते ह िक एक ही व तु‒ ी के शरीर को कामी लोग
कािमनी के प म, योगी बदबूदार शव के प म तथा कु े मांस के प म देखते ह।

आशय यह है िक व तु एक ही होती है, िक तु नज रया अपना-अपना होता है। इसी नज रये से एक ही ी के शरीर को
योगी, र सक तथा कु े अलग-अलग प म देखते ह। योगी उसे एक बदबूदार मुदा समझता है और उससे घृणा करता है।
र सक (कामी) उसे ललचायी नजर से देखता है, उसे भोग क व तु समझता है। पर तु एक कु ा उसे केवल एक मांस का
लोथड़ा समझता है और खाना चाहता है।

गोपनीय
सु स मौषधं धम गृहिछ ं व मैथुनम्।
कु भु ं कु ुतं चैव मितमा काशयेत्।।17।।

आचाय चाण य गोपनीयता पर बल देते हए कहते ह िक बुि मान यि स औष ध, धम, अपने घर क किमयां,
मैथुन, खाया हआ खराब भोजन तथा सुनी हई बुरी बात को गु रखते ह।

आशय यह है िक इन चीज के बारे म िकसी को कु छ नह बताना चािहए। स औष ध, धम, घर क किमयां, संभोग,


कु भोजन एवं सुनी हई बुरी बात। कु छ दवाएं िकसी यि को स हो जाती ह, इस लए लोग उससे द ूसर का भला तो करते
ह, िक तु उसके बारे म िकसी को कु छ नह बताते। िव वास िकया जाता है िक ऐसी दवा के बारे म द ूसर को बताने पर
उसका भाव समा हो जाता है। अपने धम या कत य के बारे म भी लोग को कु छ नह बताना चािहए। केवल इसका
पालन करते जाना चािहए। अपने घर क कमी को बाहर बताने से अपनी ही बदनामी होती है। किमयां तो सभी घर म होती
ह। अतः इ ह बताना मूखता ही है। मैथुन कम या संभोग के िवषय म िकसी को कु छ बताना भी अस यता और अ लीलता है।
ये काम एकांत म गु प से करने के ह। यिद भूल से भी कोई ऐसी चीज खा ली हो जसक धम या समाज इजाजत नह
देता, तो इसे िकसी को न बताएं। यिद िकसी ने आपसे कोई बात कह दी या आपने कह कोई गलत बात सुन ली हो, तो इस
बात को हजम कर जाना चािहए, िकसी को कु छ बताना नह चािहए।

वाणी से गुण झलक जाते ह


ताव मौनेन नीय ते कोिकल चैव वासराः।
याव सव जनान ददाियनी वाङ् न वतते।।18।।

आचाय चाण य कहते ह िक कोयल तब तक मौन रहकर िदन को िबताती है, जब तक िक उसक मधुर वाणी नह फूट
पड़ती। यह वाणी सभी लोग को आनंद देती है।

आशय यह है िक कोयल बस त आने तक चुप ही रहती है। बस त आने पर उसक वाणी फूट पड़ती है। यह वाणी सभी
ािणय को आनंद देने वाली होती है।

अतः जब भी बोलो, मधुर बोलो। कड़वा बोलने से चुप रहना ही बेहतर है।

इनका सं ह कर
धम धनं च धा यं गुरोवचनमौषधम्।
संगृहीतं च कत यम यथा न तु जीवित।।19।।

आचाय चाण य कहते ह िक धम, धन, धा य, गु क सीख तथा औष ध इनका सं ह करना चािहए अ यथा यि
जीिवत नह रह सकता।

आशय यह है िक मनु य को अपने जीवन म अ धक से अ धक धम के काम करने चािहए, धन कमाना चािहए, गु जन


से अ छी सीख लेनी चािहए और दवाईयां आिद भी इक ी करनी चािहए। तभी वह सुख से ज दगी जी सकता है। दःु खी
ज दगी वाले यि का जीना या मरना बराबर है।

मानव धम
यज दज
ु नसंसग भज साधुसमागमम्।
कु पु यमहोरा ं मर िन यमिन यतः।।20।।

आचाय चाण य कहते ह िक द ु का साथ छोड़ दो, स जन का साथ करो, रात-िदन अ छे काम करो तथा सदा ई वर
को याद करो। यही मानव का धम है।

आशय यह है िक सदैव ही स जन का संग करना चािहए और दज


ु न का साथ छोड़ देना चािहए। स जन का िवकार भी
लाभदायक होता है और दज
ु न से होने वाला लाभ भी दःु खदायक ही होता है, य िक ‘िकराताजुनयम्’ म भारिव ने भी कहा
है िक -

‘समु यन् भूितनायसंगमात् वरं िवरोधोऽिप समं महा मिभः’।

अथात् द ु के साथ रहने पर उ ित िमलना भी अ छा नह , िक तु स जन के साथ िवरोध रखना भी अ छा है।

यह िवचार कर िक धम सदा सुखदायक है और अहिनश करणीय है। धम के माग पर चलकर अनेक ने अपनी याित
अ जत क है। ऋिषजन, स जन और नेतागण इसके उदाहरण ह।

भय से सब काय होते ह। भय से मनु य अपने माग पर चलकर य


े और ेय दोन ा करते ह। शरीर नाशवान है,
इसका एक िदन तो नाश होना ही है। इसके भय से लोभ-मोह म वृ मनु य भी एक बार सोचता है िक मुझे बुरा काय नह
करना चािहए। गलत माग से बचने का यही सव े उपाय है। स संगित म ही जीवन का वा तिवक सुख है।
पं हवां अ याय

दयावान बन
य य िच ं वीभूतं कृपया सवज तुषु।
त य ानेन मो ेण िकं जटा भ मलेपनैः।।1।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस मनु य का दय सभी ािणय के लए दया से वीभूत हो जाता है, उसे ान, मो ,
जटा, भ म-लेपन आिद से या लेना।

आशय यह है िक जस मनु य के दय म सभी मनु य , पशु-पि य , जीव-ज तुओं आिद के लए अथाह दया होती है वही
स चा मनु य होता है। उसे आ मा के ान क , मो क , जटाएं बढ़ाने क या भ म, ितलक, च दन आिद लगाने क कोई
आव यकता नह होती।

गु ा है
एकमेवा रं य तु गु ः िश यं बोधयेत्।
पृ थ यां ना त त यं यद् द वा चाऽनृपी भवेत्।।2।।

आचाय चाण य यहां गु क मिहमा और मह व ितपािदत करते हए कहते ह िक जो गु एक अ र का भी ान कराता


है, उसके ऋण से मु होने के लए, उसे देने यो य पृ वी म कोई पदाथ नह है। आशय यह है िक गु श द का अथ है‒
अ ान को हटाकर ान- काश करने वाला। ऐसा गु ा, िव णु और सा ात् पर ा के समान है। एका र ओम् को पर
ा माना गया है। यिद उसी एका र ओंकार का ान जस गु ने करा िदया तो उसके अित र बचा ही या? वेद म तो
यहां तक कहा गया है िक एक श द के उिचत योग और ान से वगलोक और इस लोक म सारी इ छाओं क पूित हो
जाती है।

दु का उपचार
खलानां क टकानां च ि िवधैव िति या।
उपानामुखभंगो वा द ूरतैव िवसजनम्।।3।।

आचाय चाण य द ु के उपचार के बारे म चचा करते हए कहते ह िक द ु तथा कांट का दो ही कार का उपचार है।
जूत से कु चल देना या द ूर से ही छोड़ देना।

आशय यह है िक द ु और कांटे दोन समान होते ह। इस लए इनसे दो ही तरह से बचा जा सकता है। या तो इ ह जूत से
कु चल दो या िफर इनके सामने से द ूर से ही हट जाओ। या तो द ु से िकसी कार कोई मतलब ही नह रखना चािहए, उससे
सदा द ूर ही रहना चािहए, या िफर उसे सबक सखाना चािहए िक वह दबु ारा आपका अिहत करने क िह मत न कर सके।
प र थित के अनुसार जो भी उपाय ठीक लगे, उसी को अपनाना चािहए।

ल मी कहां नह ठहरती
कु चै लनं द तमलोपधा रणं ब ािशनं िन ु रभािषतं च।
सूय दये चा तिमते शयानं िवमु ते ीयिद च ािणः।।4।।

यहां आचाय चाण य ल मी क चंचलता क कृित के बारे म बताते हए कहते ह िक गंदे व पहनने वाले, गंदे दांत
वाले, अ धक भोजन करने वाले, कठोर श द बोलने वाले, सूय दय से सूया त होने तक सोये रहने वाले यि को ल मी
याग देती है। चाहे वह यि सा ात् च पािण भगवान िव णु ही य न हो।

आशय यह है िक जस यि म िन न ल खत दगु ुण ह , उसे ल मी

‘धन-स प ’ याग देती है, जैसे‒


जो यि मैले-कु चैले कपड़े पहनता है।
जसके दांत गंदे रहते ह और उनम मैल भरा रहता है।
जो बहत अ धक भोजन करता है, अथात् भु खड़ यि ।
जो पूरे िदन भर सूय िनकलने से उसके िछपने तक सोया रहता है।

ऐसा यि चाहे िकतना ही बड़ा आदमी य न हो, ल मी उसके पास जाना पसंद नह करती। ग दगी और आल य से
ल मी को बैर रहता है। अतः गरीबी को द ूर करने तथा जीवन म उ ित करने के लए साफ-सुथरा रहना और आल य को
याग देना अ यंत आव यक है।

धन ही स चा बंधु
यज त िम ािण धनैिवहीनं, दारा च भृ या च सु जना च।
तंचाथव तं पुनरा य ते, थ िह लोके पु ष य ब धुः।।5।।

आचाय चाण य कहते ह िक संसार क यह रीित है िक यहां सारा कारोबार- यापार पैसे यानी धन से चलता है।

मनु य जब कभी धनहीन हो जाता है तो उसके िम , सेवक और स ब धी, यहां तक िक ी आिद भी उसे छोड़ देते ह।
जब कभी संयोग से वही यि िफर धनवान हो जाता है तो उसे छोड़ जाने वाले वही स ब धी, सेवक आिद िफर उसके पास
लौट आते ह। इससे यह स होता है िक धन ही मनु य का स चा ब धु है, जसके होने पर संसार के सभी ाणी अनुराग
करते ह और न होने पर आंख फेर लेते ह।

अ यायोपा जतं िव ं दशवषािण ित ित।


ा े चैकादशे वष समूलं तद् िवन यित।।6।।

आचाय चाण य कहते ह िक ल मी वैसे ही चंचल होती है परं तु चोरी, जुआ, अ याय और धोखा देकर कमाया हआ धन
भी थर नह रहता, वह बहत शी ही न हो जाता है। इसके लए आचाय चाण य ने सीमा िनधारण कर दी है। वे कहते ह
िक अ याय, धूतता अथवा बेईमानी से जोड़ा-कमाया धन अ धक से अ धक दस वष ं तक रहता है। यारहव वष म वह बढ़ा
हआ धन मूल के साथ ही न हो जाता है।

अतः यि को कभी अ याय से धन के अजन म वृ नह होना चािहए।

स संगित
अयु वािमनो यु ं यु ं नीच य द ूषणम्।
अमृतं राहवे मृ युिवषं शंकरभूषणम्।।7।।

आचाय चाण य कहते ह िक यो य वामी के पास आकर अयो य व तु भी सुंदरता बढ़ाने वाली हो जाती है, िक तु
अयो य के पास जाने पर यो य काम क व तु भी हािनकारक हो जाती है। शंकर के पास आने पर िवष भी गले का भूषण
बन गया, िक तु राह को अमृत िमलने पर भी मृ यु को गले लगाना पड़ा।

आशय यह है िक कोई यथ क या हािनकारक व तु भी यिद िकसी महापु ष के हाथ म पड़ जाती है, तो वह उपयोगी
बन जाती है तथा कोई अनमोल व तु भी यिद द ु के हाथ म चली जाती है, तो वह उससे कोई फायदा नह उठा सकता,
ब क उससे अपनी हािन ही करता है। भगवान िशव को िवष िदया गया, वह उसे पी गये। इससे उनके गले क सु दरता ही
बढ़ी, वह नीलकंठ बन गए। राह को अमृत िमला, िक तु िफर भी उसे अपना गला कटाना पड़ा। सचमुच महापु ष का भाव
अनोखा ही होता है।

आचरण
तद् भोजनं यद् ि ज भु शेषं त सौ दं य यते पर मन्।
सा ा ता या न करोित पापं द भं िवना यः ि यते स धमः।।8।।

आचाय चाण य कहते ह िक भोजन वही है, जो ा ण को खला लेने के बाद बच जाए। ेम वही है जो द ूसर पर िकया
जाए। बुि वही है, जो पाप न करे । धम वही है, जसे करने म घमंड न हो।
आशय यह है िक िव ान को खलाकर ही भोजन करना चािहए। अपन से तो सभी ेम करते ह, िक तु स चा ेम वही
है, जो पराये लोग के साथ हो। बुि कोई पाप क बात सोचे भी नह , ऐसी ही बुि े है। द ूसर का भला करते समय मन
म िकसी कार का घम ड न हो। ऐसे पु य काम ही धम कहे जाते ह।

मिणलु ठित पादा े कांचः िशर स धायते।


य-िव यवेलायां कायः कांचो मिणणिणः।।9।।

आचाय चाण य कहते ह िक भले ही मिण पांव के आगे लोटती हो और कांच सर पर रखा हो, िक तु य-िव य के
समय कांच-कांच ही होता है और मिण मिण ही होती है।

आशय यह है िक प र थितय के कारण भले ही कभी मिण जमीन म पैर के पास पड़ी हो और कांच सर म पहंच जाए,
पर इससे या फक पड़ता है। आ खर मिण तो मिण ही है। कभी न कभी तो कोई पारखी-जौहरी आयेगा ही जो मिण का ही
मू य लगाएगा, न िक कांच का। कहने का ता पय यह है िक हालात के च कर म कभी यो य और िव ान यि को भी
आदर नह िमल पाता। जबिक एक मूख और िनक मा यि एक ऊंची जगह पर पहंच जाता है। पर तु जब कभी िकसी
यो य यि क ज रत पड़ती है, तब यो यता क क मत का पता लगता है।

त व हण
अन तशा ं बहला च िव ा अ पं च कालो बहिव नता च।
असारभूतं तदपु ासनीयं हंसो यथा ीरिमवा बुम यात्।।10।।

आचाय चाण य कहते ह िक शा अनंत है, िव ाएं अनेक ह, िक तु मनु य का जीवन बहत छोटा है, उसम भी अनेक
िव न ह। इस लए जैसे हंस िमले हए द ूध और पानी म से द ूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है, उसी तरह काम क
बात हण कर लो तथा बेकार क बात छोड़ दो।

आशय यह है िक शा एवं िव ाएं अनेक ह। मनु य का जीवन इतना छोटा है िक वह इन सबका अ ययन नह कर
सकता। इस छोटे से जीवन म उसे अनेक काय करने होते ह। साथ ही जीवन म मुसीबत का भी सामना करना पड़ता है।
इस लए इन शा एवं िव ाओं से मोटी-मोटी काम क बात को अव य सीख लेना चािहए।

चा डाल कम
द ूरादागतं प थ ा तं वृथा च गृहमागतम्।
अनचिय वा यो भुं े स वै चा डाल उ यते।।11।।

आचाय चाण य चांडाल क चचा करते हए कहते ह िक जो द ूर से थककर घर म आए यि को या िबना उ े य भी आ


गया हो तो उसे भी उिचत स मान िदए िबना, वयं भोजन कर लेता है, उस यि को चांडाल कहा जाता है।

आशय यह है िक घर म कोई यि द ूर से पैदल चलकर, थककर आ जाए, चाहे वह िबना िकसी के काम के ही य न
आया हो, उसका आदर-स कार करना चािहए। जो यि उसे भोजन कराए िबना वयं भोजन कर लेता है, उसे चा डाल
कहना चािहए।

मूख कौन
पठ त चतुरो वेदान् धमशा ा यनेकशः।
आ मानं नैव जान त दव पाकर सं यथा।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक मूख यि चार वेद तथा अनेक धमशा को पढ़ते ह। िफर भी जैसे भोजन के रस को
करछी नह जानती वैसे ही मूख अपनी आ मा को नह जानते ह।

आशय यह है िक एक करछी पूरी तरह से स जी म डू बी होने पर भी, उसका वाद नह जान सकती। इसी कार एक
मूख भी, चाहे वह सभी वेद और धमशा को पढ़ ले, िक तु रहता अ त तक मूख ही है।

ा ण को मान द
ध या ि जमय नौका िवपरीता भवाणवे।
तर यधोगता सव उप थता पत येव िह।।13।।

आचाय चाण य कहते ह िक भवसागर म यह िवपरीत चलने वाली ा ण पी नौका ध य है। इसके नीचे रहने वाले तो
तर जाते ह, िक तु ऊपर बैठे हए नीचे िगर जाते ह।

आशय यह है िक ा ण नाव के समान है, जो यि य को संसार सागर से पार लगाता है। िक तु इस नाव म ऊपर नह
बैठना पड़ता; ब क इसके नीचे रहना पड़ता है। यह एक उलटी नाव है। इसके नीचे रहने से , अथात् ा ण से दबकर रहने
से यि इस सागर से पार हो जाता है। उसे वग िमलता है। इसके ऊपर बैठने से ; अथात् इसका अपमान करने से यि
डू ब जाता है। उसका भला नह होता।

पराधीनता म सुख कहां


अयममृतणिनधानं नायको औषधीनां
अमृतमयशरीरः का तयु ोऽिप च ः।
भवित िवगतर मम डले ा य भानोः
परसदनिनिव ः को न लघु वं याित।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक यह अमृत का कोश, औष धय का पित, अमृत से बने शरीर वाला चं मा सुंदर का त
वाला होने पर भी सूयमंडल म आने पर तेजहीन हो जाता है। द ूसरे के घर म आने पर कौन छोटा नह होता।

आशय यह है िक चं मा का शरीर अमृत से बना है, वह अमृत का भंडार है और उसे औष धय का वामी माना जाता है।
उसक सुंदरता अनूठी है। इतना सब होने पर भी सूय के उग आने पर वह फ का हो जाता है। उसका अमृत भी उसक र ा
नह कर पाता। िदन सूय का घर है। द ूसरे के घर म जाने पर िकसी को आदर नह िमलता। पराये घर म सभी छोटे हो जाते
ह। पराये घर म रहना दःु ख ही देता है।

अ लरयं न लिनदलम यमः कम लनीमकर दमदालसः।


िव धवशा देशमुपागतः कु रजपु परसं बह म यते।।15।।

आचाय चाण य कहते ह िक यह भंवरा कमलदल के बीच म रहता था और कमलदल का ही रस पीकर अलसाया
रहता था। िकसी कारण परदेश आना पड़ा और अब यह कौरया फूल के रस को ही बहत समझता है।

आशय यह है िक कमल के तालाब म रहने वाला भंवरा उनके रस को भी मामूली चीज समझता है। जब कमल सूख
जाते ह या वह द ूसरी जगह चला जाता है, तब वहां उसे िकसी साधारण फूल का रस भी पीने को िमल जाए, तो वह उसे
बहत बड़ी चीज समझता है। अथात् एक स प प रवार का यि , जसे घर म येक सुिवधा िमली है, कभी बाहर जाता है,
तो वहां उसे वे सुिवधाएं नह िमल पाती। वहां उसे जो कु छ भी िमल जाए, मजबूरी म उसी म संतोष करना पड़ता है।

ा ण और लड़क
पीतः ु ेन तात चरणतलहतो व भोऽयेन रोषा
अबा याि वयः ववदनिववरे धायते वै रणी मे।
गेहं मे छे दय त ितिदवसममाका त पूजािनिम ात्
त मात् ख ा सदाऽहं ि ज कु लिनलयं नाथ यु ं यजािम।।16।।

आचाय चाण य ा ण व ल मी के वैर क चचा करते हए कहते ह िक जसने ु होकर मेरे िपता समु को पी लया,
जसने गु से म मेरे पित को लात मारी, जो बचपन से ही अपने मुंह म मेरी वै रणी सर वती को धारण करते ह और जो िशव
क पूजा के लए ितिदन मेरे घर कमल को तोड़ते ह, इन ा ण ने ही मेरा सवनाश िकया है, अतः म इनके घर को छोड़े
रहंगी।

आशय यह है िक ल मी जी कहती ह िक अग य भी ा ण थे, उ ह ने मेरे िपता समु को पी डाला था। भृगु ऋिष ने मेरे
पित के सीने म लात मारी थी। भृगु भी ा ण थे। सर वती से मेरा ज मजात वैर है। इन ा ण के ब चे बचपन से ही
सर वती क व दना करने लगते ह। िशव क पूजा के लए सदा कमल को तोड़ डालते ह। कमल मेरे घर के समान है।
इ ह ने मुझे अनेक कार से हािन पहंचाई है। इस लए म इनके घर म कभी नह जाऊंगी।

ेम बंधन
ब धनािन खलु स त बहिन ेमर जुकृतब धनम यत्।
दा भेदिनपुणोऽिप षडंि -िन यो भवित पंकजकोशे।।17।।

आचाय चाण य ेम बंधन क चचा करते हए कहते ह िक बंधन तो अनेक ह, िक तु ेम क डोर का बंधन अ य ही है।
लकड़ी म छे द करने म भी िनपुण भंवरा कमल के कोश म िन य हो जाता है।

आशय यह है िक ब धन तो दिु नया म बहत सारे ह, िक तु ेम क डोर का ब धन कु छ िनराला ही है। जो बहत ही नाजुक
होते हए भी बड़े-बड़े चतुर क चतुराई को बेकार कर देता है। एक भंवरे को ही दे खए न, जो लकड़ी को कटकर उसम
सूराख कर देता है, यही भंवरा शाम को सूय के अ त होने पर कमल क पंखिु ड़य के अ दर ब द हो जाता है। िक तु कमल
से उसे बेपनाह यार होता है, इस लए वह उसे कैसे काटेगा। बेचारा सारी रात कमल म ब द होकर यार क कैद भुगतता
रहत है। है न ेम ब धन का कमाल!

ढ़ता
िछ ोऽिप च दनत न जहाित ग धं
वृ ोऽिप वारणपितन जहाित लीलानम्।
य ािपतो मधुरतां न जहाित चे ु
णोऽिप न यजित शीलगुणा कु कु लीनः।।18।।

आचाय चाण य कहते ह िक कट जाने पर भी चंदन का वृ सुगध


ं नह छोड़ता। बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी अपनी
लीलाओं को नह यागता। को ह म पेरी जाने पर भी ◌इंख िमठास को नह छोडती। इसी कार गरीब हो जाने पर भी
कु लीन अपने शील गुण को नह छोड़ता।

आशय यह है िक च दन का वृ चाहे कट जाए, पर तु अपनी सुग ध को नह छोड़ता। हा थय के दल का राजा बूढ़ा हो


जाने पर भी अपनी आदत को नह छोड़ पाता। ईख-ग े को चाहे को ह म पेर िदया जाए, िक तु उसक िमठास नह जाती।
कु लीन यि य पर चाहे िकतना ही दःु ख आ जाए, वे अपने गुण को नह छोड़ते।

पु य से यश
उ या कोऽिप महीधरो लघुतरो दो या धृतौ लीलया
तेन वं िदिव भूतले च सततं गोवधनो गीयसे।
वां ैलो यधरं वहािय कु चयोर ेण नो ग यते
िकं वा केशव भाषणेन बहना पु यं यशसा ल यते।।19।।

आचाय चाण य यश क ाि भी पु य से होने क बात बताते हए कहते ह िक एक छोटे-से पवत को आपने हाथ से
आसानी से उठा लया। केवल इसी से आपको वग तथा पृ वी म गोवधन कहा जाता है। आप तीन लोक को धारण करने
वाले ह और म आपको अपने तन के अगले िह से म धारण करती हं, िक तु इसक कोई िगनती ही नह है। अ धक कहने
से या लाभ! तो या हे कृ ण! यश भी पु य से ही िमलता है?

आशय यह है िक भगवान कृ ण ने अपने दोन हाथ से एक छोटे से गोवधन पवत को उठाया था। इससे उनका इतना नाम
हआ िक वह तीन लोक म गोवधन िगरधर कहलाने लगे। तीन लोक के वामी उ ह भगवान कृ ण को गोपी अपने तन के
अगले भाग म उठा लेती ह। िक तु उनके इस काम क कह कोई िगनती नह है। कोई उनका नाम भी नह जानता। सच ही
कहा है िक यि को यश भी उसके पु य या अ छे कम ं से ही िमलता है।
सोलहवां अ याय

संतान
न यातं पदमी वर य िव धव संसारिव छ ये
वग ारकृपाटपाटनपटु ः धमाऽिप नोपा जतः।
नारीपीनपयोधरयुगलं व नेऽिप ना लिगतं
मातुः केवलमेव यौवन छे दकु ठारो वयम्।।1।।

आचाय चाण य का कथन है िक संसार से मुि पाने के लए न तो हमने परमा मा के चरण का यान िकया, न वग-
ार को पाने के लए धम का संचय िकया और न कभी व न म भी ी के कठोर तन का आ लंगन िकया। इस कार
हमने ज म लेकर मां के यौवन को न करने के लए कु हाड़े का ही काम िकया।

आशय यह है िक जो न तो मो पाने के लए परमा मा का यान करता है, न वग ा करने के लए धम करता है


और न ी के तन का आ लंगन संभोग करता है, ऐसे मनु य का जीवन यथ है। स तान को ज म देकर मां का यौवन न
तो होता ही है, िक तु गुणवान स तान को ज म देकर मां अपने को ध य समझती है। इस कार क स तान जो न तो मो
पाने क कोिशश करती है, न धम-कम करती है और न काम-भोग करती है, मां के यौवन को न करने वाला कु हाड़ा ही
है। ऐसी स तान को ज म देकर मां सुखी नह होती।

ी चर
ज प त साधम येन प य य यं सिव माः।
दये िच तय य यं न ीणामेकतो रितः।।2।।

आचाय चाण य यहां य क वृ क चचा करते हए कहते ह िक यां बात एक से करती ह, कटा से द ूसरे को
देखती ह और मन से िकसी तीसरे को चाहती ह। उनका ेम िकसी एक से नह होता।

आशय यह है िक वाराङ ा के पम ी अनेक पा होती है। वह पैसे के बल पर िन ा बदल लेती है। उसे िकसी से
ेम नह होता। उसक वृ केवल अथमूला होती है। अतः उ म पु ष वे याओं से स पक न रखकर स माग से अपना
जीवन जीते ह।

यो मोहय म यते मूढो र ेयं मिय कािमनी।


स त य वशगो भू वा नृ येत डा शकु तवत्।।3।।

आचाय चाण य यहां ी के प च र के वशीभूत मूख यि क आसि पर िट पणी करते हए कहते ह िक जो मूख
पु ष मोहवश यह समझता है िक यह कािमनी मुझ पर अनुर हो गई है, वह उसी के वश म होकर खलौने क िचिड़या के
समान नाचने लगता है।

आशय यह है िक यिद िकसी ी के बारे म कोई पु ष यह सोचता है िक वह उस पर रीझ गयी है, तो वह महामूख है, वह
कु छ नह जानता। इसी म म वह उस ी के वश म हो जाता है और वह उसके इशार पर खलौन क तरह नाचने लगता
है। ी से आसि क आशा करना मूखता है।

कोऽथा ा य न गिवतो िवषियणः क यापदोऽ तंगताः।


ीिभः क य न ख डतं भुिव मनः को नाम रा ि यः।।
कः काल य न गोचर वमगमत् कोऽथ गतो गौरवम्।
ु नदगु ुणेषु पिततः ेमेण यातः प थः।।4।।
को वा दज

आचाय चाण य यहां कु संगित या धन, ी अथवा राजा के स पक से न बच पाने क थित को प करते हए कहते ह
िक कौन ऐसा यि है, जसे धन पाने पर गव न हआ हो? िकस िवषयी यि के दःु ख समा हए? य ने िकसके मन
को खंिडत नह िकया? कौन यि राजा का ि य बन सका? काल क ि िकस पर नह पड़ी? िकस िभखारी को स मान
िमला? कौन ऐसा यि है जो द ु क द ु ता म फंसकर सकु शल लौटकर वापस आ सका?

आशय यह है िक धन पाने पर सभी म घम ड आ जाता है। िवषय-बुराईय म फंसकर िकसी के दःु ख का िफर अ त नह
होता। य सभी पु ष के मन को िडगा देती ह। कोई यि राजा को ि य नह हो सकता। मौत क आंख से कोई नह
बचता। भीख मांगने पर िकसी को आदर नह िमलता। द ु के साथ रहकर सकु शल नह रह सकता।

िवनाश काले िवपरीत बुि


न िनिमता केन न पूवा न ूयते हेममयी कु रं गी।।
तथाऽिप तृ णा रघुन दन य िवनाशकाले िवपरीतबुि ः।।5।।

आचाय चाण य यहां िवनाश आने पर बुि साथ छोड़ जाती है, क उि को प करते हए कहते ह िक सोने क िहरनी
न तो िकसी ने बनाई, न िकसी ने इसे देखा और न यह सुनने म ही आता है िक िहरनी सोने क भी होती है। िफर भी रघुन दन
क तृ णा दे खए! वा तव म िवनाश का समय आने पर बुि िवपरीत हो जाती है।

आशय यह है िक न तो िवधाता ने सोने का िहरन बनाया है, न िकसी ने ऐसा िहरण देखा है और न सुना है। िफर भी
भगवान राम को या सूझी! सोने के िहरन को देखकर मन ललचा गया और उसे मारने चल िदए। एक अनहोनी बात पर
िव वास कर लया। इस ओर सोचने क भी ज रत न समझी िक कह सोने का भी िहरन होता है। उनका भी या दोष!
परे शािनय म जो पड़ना था। परे शािनय का समय आने पर यि क अ ल ही मारी जाती है।

महानता
गुणै मतां या त नौ चैरासनसं थतैः।
सादिशखर थोऽिप िकं काको ग डायते।।6।।

आचाय चाण य गुण क मह ा बताते हए कहते ह िक गुण से ही मनु य बड़ा बनता है, न िक िकसी ऊंचे थान पर बैठ
जाने से। राजमहल के िशखर पर बैठ जाने पर भी कौआ ग ड़ नह बनता।

आशय यह है िक यि गुण से ही बड़ा बनता है। गुणहीनता उसे अ थायी लाभ दे सकती है थायी नह ।

गुणाः सव पू य ते न मह योऽिप स पदः।


पूण द ु िकं तथा व ो िन कलंको यथा कु शः।।7।।

आचाय चाण य गुण के ित पूजा क ि से कहते ह िक गुण ही सव पूजे जाते ह, धन अ य धक होने पर भी सब


जगह नह पूजा जाता। या पूण च क संसार म वही व दना होती है, जैसी ीण चं मा क होती है।

आशय यह है िक यि के पास चाहे िकतनी ही धन-स प य न हो, िक तु उसका सब जगह स मान नह होता।
गुणवान यि का सभी जगह आदर िकया जाता है। पूिणमा का च मा चाहे िकतना भी बड़ा य न हो, उसम दाग होने के
कारण यि उसक पूजा नह करते, जबिक द ूज के चांद को सभी सर झुकाते ह, य िक उसम दाग नह होता, गुण होते ह।

परमो गुणो य तु िनगुणोऽिप गुणी भवेत्।


इ ोऽिप लघुतां याित वयं यािपतैगुणैः।।8।।

अपनी शंसा वयं करने क वृ पर िट पणी करते हए आचाय चाण य कहते ह िक द ूसरे यि यिद गुणहीन यि
क शंसा कर, तो वह बड़ा हो जाता है। अपनी शंसा वयं करने पर इ भी छोटा हो जाता है।

आशय यह है िक यि अपनी शंसा वयं नह करते। अपने मुंह िमय िम ू बनने पर इ क भी इ जत घट जाती है,
और का तो कहना ही या। स चा गुणी यि वही है, जसक शंसा और लोग करते ह।

िववेिकमनु ा ो गुणो याित मनो ताम्।


सुतरां र नमाभाित चामीकरिनयो जतम्।।9।।

आचाय चाण य गुण और थान के संदभ म चचा करते हए कहते ह िक गुण भी यो य िववेकशील यि के पास जाकर
ही सुंदर लगता है, य िक सोने म जड़े जाने पर ही र न भी सुंदर लगता है।
आशय यह है िक कोई गुण िकसी समझदार यि म होने पर ही लाभदायक होता है। वही गुण यिद िकसी द ु म होता
है, तो बदनाम हो जाता है। र न को सोने म जड़ने पर उसक सु दरता और भी बढ़ जाती है। यिद इसी र न को लोहे म जड़
िदया जाए तो उसक सु दरता घट जाती है।

गुणं सव तु योऽिप सीद येको िनरा यः।


अन यमिप मािण यं हे मा यमपे ते।।10।।

आचाय चाण य कहते ह िक गुणी यि भी उिचत आ य नह िमलने पर दःु खी हो जाता है, य िक िनद ष मिण को भी
आ य क आव यकता होती है।

आशय यह है िक यि यिद गुणी होता है, तो उसे उसके यो य थान या पद क आव यकता होती है। यो य थान
िमलने पर वह दःु खी हो जाता है, य िक अमू य और िनद ष मिण को भी अपने लए सोने के आधार क आव यकता होती
है, जसम उसे जड़ा जा सके।

अनुिचत धन
अित लेशेन ये चाथाः धम याित मेण तु।
श ुणां िणपातेन ते थाः न भव तु मे।।11।।

आचाय चाण य यहां अनुिचत धन का ितर कार करते हए कहते ह िक द ूसरे को दःु खी करके, अधम से या श ुओं क
शरण से िमला धन मुझे ा न हो।

आशय यह है िक जो धन िकसी को दःु खी करके ा हो, जो चोरी, त करी, काला बाजारी आिद अवैध तरीक से
कमाया जाता हो या देश के श ुओं से अथात् देश ोही तरीक से िमलता हो ऐसा धन लेने क इ छा नह करनी चािहए।

िकं तया ि यते ल या या वधू रव केवला।


या तु वे यैव सामा यप थकैरिप भु यते।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक वधू के समान घर के अंदर बंद रहने वाली ल मी या काम आती है। और जस ल मी का
वे या के समान सभी भोग करते ह, ऐसी ल मी भी िकस काम क ?

आशय यह है िक कंजूस का धन ितजो रय म ब द रहता है। ऐसा धन समाज के िकसी काम नह आता। मूख यि भी
धन का सही उपयोग करना नह जानता। उसका धन वे या के समान हो जाता है, जसका द ु -उच के लोग ही योग करते
ह। यह धन िकसी अ छे काम म नह आता। धन का समाज क याण, परोपकार तथा ज रतमंद क सहायता करने म ही
उपयोग होना चािहए।

धनेषु जीिवत येषु ीषु चाहारकमषु।


अतृ ा ािणनः सव याता या य त या त च।।13।।

आचाय चाण य कहते ह सभी ाणी, धन, जीवन, ी तथा भोजन से सदा अतृ रहकर संसार से चले गए, जा रहे ह
और चले जाएंग।े

आशय यह है िक धन, जीवन, ी, तथा भोजन क इ छा कभी पूरी नह होती। इनक चाह सदा बनी रहती है। इसी चाह
को लेकर दिु नया के लोग मरते आए ह, मर रहे ह तथा आने वाले समय म भी ऐसा ही होता रहेगा।

साथक दान
ीय ते सवदानािन य होमब ल ि याः।
न ीयते पा दानं भयं सवदेिहनाम्।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक सभी य , दान, ब ल आिद न हो जाते ह, िक तु पा को िदया गया दान तथा अभयदान
का फल न नह होता।

आशय यह है िक यो य तथा ज रतमंद को ही दान देना चािहए। अ य दान, य आिद न हो जाते ह। िक तु यो य


ज रतमंद को िदया गया दान तथा िकसी के जीवन क र ा के लए िदये गये अभयदान का फल कभी न नह होता।
याचकता
तृणं लघु तृणा ूलं तूलादिप च याचकः।
वायुना िकं न जीतोऽसौ मामयं याचिय यित।।15।।

आचाय चाण य मांगने को मरने के समान मानते हए कहते ह िक ितनका हलका होता है, ितनके से हलक ई होती है
और याचक ई से भी हलका होता है। तब इसे वायु उड़ाकर य नह ले जाती? इस लए िक वायु सोचती है िक कह यह
मुझसे भी कु छ मांग न बैठे।

आशय यह है िक सबसे हलका एक ितनका होता है। ई का रे शा ितनके से भी हलका होता है, िक तु िभखारी ई के
रे शे से भी हलका होता है। तब सवाल यह उठ खड़ा होता है िक इसे हवा य नह उड़ा कर ले जाती? इसका उ र है - हवा
को भी इससे डर रहता है िक यिद म इसे उड़ाकर ले जाऊंगी, तो यह मुझसे भी कु छ मांग बैठेगा। इस लए हवा इसे नह
उड़ाती। भीख मांगना सबसे घिटया काम है। िभखारी क कोई इ जत नह होती।

िनधनता
वरं वनं या जे सेिवतं, ुमालयं प वाफला बुसेवनं।
तृणषे ु श या शतजीणव कलं, न ब धुम ये धनहीन जीवनम्।।16।।

आचाय चाण य िनधनता को जीवन का अिभशाप मानते हए कहते ह िक शेर-हा थय वाले वन म रहना, पेड़ के नीचे
घर, वन के फल को खाना और पानी पीना, ितनक का िब तर तथा सैकड़ पेड़ के छाल के छोटे टु कड़ के कपड़े पहनना
अ छा नह है।

आशय यह है िक समाज म भाई-ब धुओं के बीच गरीबी म जीना अ छा नह है। इससे अ छा है िक यि भयंकर शेर ,
बाघ , हा थय वाले वन म चला जाए और वहां िकसी वृ के नीचे घास-फूस पर सोये, जंगली फल खाये, वह का पानी िपये
और पेड़ क छाल के कपड़े पहने। िनधन होकर समाज म जीने से वनवास अ छा है।

मीठे बोल
ि यवा य दानेन सव तु य त मानवाः।
त मात् तदेव व यं वचने का द र ता।।17।।

आचाय चाण य कहते ह िक ि य मधुर वाणी बोलने से सभी मनु य संतु हो जाते ह। अतः मधुर ही बोलना चािहए।
वचन का गरीब कोई नह होता।

आशय यह है िक मधुर वचन बोलना, दान के समान है। इससे सभी मनु य को आनंद िमलता है। अतः मधुर ही बोलना
चािहए। बोलने म कैसी गरीबी ।

संसार कटु वृ य े फले मृतोपमे।


सुभािषतं च सु वादःु संगित स जने जने।।18।।

आचाय चाण य कहते ह िक इस संसार पी वृ के अमृत के समान दो फल ह‒सुंदर बोलना तथा स जन क संगित
करना।

आशय यह है िक सबके साथ मधुरता से बोलना और महापु ष क संगित करना इस संसार म यि के हाथ ये ही दो
चीज लगती ह। अतः सबके साथ मधुरता से बोलना चािहए और स जन क संगित करनी चािहए।

ज मज मिन चा य तं दानम ययनं तपः।


तेनव
ै ा यासयोगेन देही वाऽ य यते।।19।।

आचाय चाण य कहते ह िक ज म-ज म तक अ यास करने पर ही मनु य को दान, अ ययन और तप ा होते ह। इसी
अ यास से ाणी बार-बार इ ह करता है।

आशय यह है िक कई ज म तक दान, अ ययन तथा तप या करने पर ही मनु य दानी बनता है, अ ययन करता है और
तप वी बनता है। ये गुण िकसी एक ज म म नह आते; कई ज म के अ यास से ही इनक ाि होती है।

औ े
िव ा और धन समय के
पु तकेषु च या िव ा परह तेषु च य नम्।
उ प ेषु च कायषु न सा िव ा न त नम्।।20।।

आचाय चाण य समय पर काम न आने वाल के बारे म बताते हए कहते ह िक जो िव ा पु तक म ही है, और जो धन
द ूसरे के हाथ म चला गया है, ये दोन चीज समय पर काम नह आत ।

आशय यह है िक अपनी को याद िव ा तथा अपने हाथ का धन ही समय पर काम आते ह। कज िदया हआ धन और
पु तक म लखी िव ा एकाएक काम पड़ जाने पर साथ नह देते।
स हवां अ याय

ान गु कृपा का
पु तकं याधीतं नाधीतं गु सि धौ।
सभाम ये न शोभ ते जारगभा इव यः।।1।।

आचाय चाण य िव ा ययन के लए गु के मह व को ितपािदत करते हए कहते ह िक जो यि केवल पु तक को


पढ़कर िव ा ा करता है, िकसी गु से नह , उस यि का िकसी सभा म अवैध स ब ध से गभवती हई ी के समान
कोई आदर नह होता।

आशय यह है िक कोई भी िव ा िकसी यो य गु से ही सीखी जा सकती है। यिद कोई यि केवल पु तक को पढ़कर
ही अपने को िव ान समझता है, तो यह उसका म है। ऐसा ान ‘नीम हक म खतरे जान’ ही होता है। जैसे िकसी गैर यि
से गभवती बनी ी को कोई स मान से नह देखता, उसी कार वयं पु तक से िव ा ा करने वाले यि को िव ान
क सभाओं म कोई इ जत नह िमलती।

शठ के साथ शठता
कृते ितकृितं कु यात् िहंसेन ितिहंसनम्।
त दोषो न पतित द ु े दौ ं समाचरे त।।2।।

आचाय चाण य जैसे को तैसा के यवहार क प धरता रखते हए कहते ह िक उपकारी के साथ उपकार, िहंसक के साथ
ितिहंसा करनी चािहए तथा द ु के साथ द ु ता का ही यवहार करना चािहए। इसम कोई दोष नह है।

आशय यह है िक जो यि आपके साथ उपकार करे , उसके साथ आपको भी उपकार करना चािहए। जो मार-पीट पर
उता हो जाए, उसके साथ मार-पीट ही करनी चािहए। उसके साथ ऐसा न करना, कायरता न भी हो, मूखता अव य है। द ु
के साथ द ु ता का ही यवहार करना चािहए। उसके साथ भलाई करना महामूखता है। उपकारी से उपकार, िहंसक से िहंसा
तथा द ु ता करना ही बुि मानी है। ऐसा करने म कोई बुराई नह है।

तप क मिहमा
यद् द ूरं यद् दरु ारा यं य च द ूरे यव थतम्।
त सव तपसा सा यं तपो िह दरु ित मम्।।3।।

आचाय चाण य तप क चचा करते हए कहते ह िक जो व तु द ूर है, दरु ारा य है, द ूर थत है, वह सब तप से सा य है।
तप सबसे बल व तु है।

आशय यह है िक कोई व तु चाहे िकतनी ही द ूर य न हो, उसका िमलना िकतनी ही किठन य न हो, और वह पहंच
से बाहर ही य न हो, किठन तप या अथात् प र म से उसे भी ा िकया जा सकता है। तप या सबसे शि शाली व तु है।

लोभ चेदगुणन
े िकं िपशुनता य त िकं पताकैः
स यं य पसा च िकं शुिचमनो य त तीथन िकम्।
सौज यं यिद िकं गुणःै सुमिहमा य त िकं म डनैः।
सि ा यिद िकं धनैरपयशो य त िकं मृ युना।।4।।

आचाय चाण य यहां यि क स ब ता क चचा करते हए कहते ह िक लोभी को द ूसरे के अवगुण से या लेना?
चुगलखोर को पाप से या? स चे यि को तप या से या? मन शु है, तो तीथ ं से या? याित होने पर बनने-संवरने
से या। सि ा होने पर धन से या? बदनामी होने पर मृ यु से या?

आशय यह है िक लोभी यि गुणी या अवगुणी यि को नह देखता। उसका मतलब यिद िकसी द ु यि से भी


िनकलता है तो वह उसके तलवे चाटने को भी तैयार हो जाता है। वह अपने वाथ को ही देखता है, अवगुणी यि को नह ।
चुगलखोर यि पाप से नह डरता। वह चुगली करके कोई भी पाप कर सकता है। स चे यि को तप या करने क
आव यकता नह होती। स चाई सबसे बड़ी तप या है। मन शु होने पर यि को तीथ ं म जाने या न जाने से कोई मतलब
नह रहता अथात् मन चंगा तो कठौती म गंगा। जो यि वयं ही स जन हो, उसे गुण का उपदेश देने से या लाभ? यिद
कोई यि समाज म अपने अ छे काय ं से स हो चुका है, तो उसे सजने-संवरने क कोई आव यकता नह होती। यि
के पास िव ा होने पर उसे धन से या मतलब? य िक िव ा सबसे बड़ा धन है। बदनाम यि को मृ यु से या लेना-
देना? बदनामी तो अपने आप म मौत से भी बढ़कर है।

िवडंबना
िपता र नाकरो य य ल मीय य सहोदरी।
शंखो िभ ाटनं कु या द मुपित ित।।5।।

आचाय चाण य कहते ह िक जसका िपता र न क खान समु है, और सगी बहन ल मी है, ऐसा शंख िभ ा मांगता है।
इससे बड़ी िवड बना या हो सकती है?

आशय यह है िक शंख समु म पैदा होता है, समु के अ दर अनेक र न ह। र न क खान यह समु ही उसका िपता
है। धन क देवी ल मी उसक सगी बहन है। इतन सब होने पर भी यिद शंख भीग मांगता है, तो इसे या कहा जाएगा?
केवल उसके भा य क िवड बना ही।

लाचारी
अशवत तुभवे साधु चारी च िनधनः।
या ध ो देवभ च वृ ा नारी पित ता।।6।।

आचाय चाण य मजबूरी क दशा म यि के प को रखते हए कहते ह िक शि हीन यि साधु बन जाता है, िनधन
चारी हो जाता है, रोगी भ कहलाने लगता है और वृ ा ी पित ता बन जाती है।

आशय यह है िक दिु नया म अ धकतर कमजोर-दबु ल यि ही साधु बनते ह, गरीब बेचारा मजबूरी से चारी बन
जाता है, रोगी यि भगवान क पूजा करने लगता है और भ बन जाता है तथा हर बूढ़ी ी पित ता बन जाती है अथात्
ये सब लाचारी के काम ह।

मां से बढ़कर कौन


ना ोदकसमं दानं न ित थ ादशी समा।
न गाय याः परो म ो न मातुदवतं परम्।।7।।

आचाय चाण य मां के थान को सव प र मानते हए कहते ह िक अ और जल के दान के समान कोई दान नह है।
ादशी के समान कोई ित थ नह है। गाय ी से बढ़कर कोई मं नह है। मां से बढ़कर कोई देवता नह है।

आशय यह है िक अ और जल का दान सबसे बड़ा दान है। ादशी सबसे पिव ित थ है। गाय ी सबसे बड़ा मं है। मां
सबसे बड़ी देवता है।

द ु ता
त क य िवषं द ते मि काया मुखे िवषम्।
वृ चक य िवषं पु छे सवागे दज
ु ने िवषम्।।8।।

आचाय चाण य द ु ता को सबसे बड़ी कमजोरी बताते हए कहते ह िक सप के दांत म िवष होता है, म खी के सर म,
िब छू क पूछ
ं म तथा द ु के पूरे शरीर म िवष होता है।

आशय यह है िक सांप के केवल दांत म िवष होता है, म खी के सर म ही िवष होता है, िब छू का िवष उसक पूछ
ं म
होता है। िक तु द ु इन सबसे अ धक िवषैला होता है। उसके सारे शरीर म िवष होता है। अतः द ु से सदा बचकर रहना
चािहए।

कु प नी
प युरा ां िवना नारी उपो य तचा रणी।
आयु य हरते भतुः सा नारी नरकं जेत्।।9।।

आचाय यहां कु प नी क चचा करते हए कहते ह िक अपने पित क आ ा के िबना उपवास या त करने वाली प नी
पित क आयु को हर लेती है। ऐसी ी अंत म नरक म जाती है।

आशय यह है िक पित क आ ा के िबना प नी को त-उपवास नह करना चािहए। िबना पित क आ ा के ऐसा करने
वाली ी अपने पित क आयु को कम कर देती है। अथात् ऐसा करने से उसे जो पाप लगता है, उससे उसके पित क भी
मृ यु हो जाती है। ऐसी ी अपनी मृ यु के बाद वयं भी नरक म जाती है।

पित परमे वर
न दानैः शु यते नारी नोपवासशतैरिप।
न तीथसेवया त द् भतुः पदोदकैयथा।।10।।

आचाय चाण य कहते ह िक ी न दान से, न सैकड़ त से और न तीथ ं क या ा करने से उस कार शु होती है,
जस कार अपने पित के चरण को धोकर ा जल के सेवन से शु होती है। आशय यह है िक प नी के लए पित ही सब
कु छ है, अतः उ ह क आ ाओं का पूरी पालन करना चािहए। उनक इ छा के िव िकसी कार का त, तप और
अनु ान नह करना चािहए।

ा ण के गु अि , वण ं के गु ा ण, य का एकमा गु पित होता है, लेिकन अित थ सभी के गु होते ह।


इस लए ‘अित थ देवो भव’ का उपदेश ुित करती है।

भारतीय सं कृित का यह आदश है िक ी का मह व सव प र िदया जाता है िक ‘य नाय तु पु य ते रम ते त देवताः’।

जहां नारी क पूजा होती है वहां देवता िनवास करते ह।

पर तु ी के लए उसका पित ही देवता है। इस लए पितपरायणा भारतीय ना रय के लए पित-देवता से बढ़कर द ूसरा


कोई देवता नह है। अतः सािव ी ने अपने पित सेवा के बल पर ही यम से अपने पित स यवान को बचा लया। भगवती सीता
ने अपने पित के साथ राजमहल के भोग-िवलास को छोड़कर चौदह वष ं तक वन म िनवास िकया तथा अनेक कार क
अपहरण ज य पीड़ाओं का भोग िकया। उन सबका उ े य मा पित सेवा ही था।

सुंदरता
दानेन पािणन तु कंकणेन नानेन शुि न तु च दनेन।
मानेन तृि न तु भोजनेन ानेन मुि न तु मंडनेन।।11।।

आचाय चाण य यहां स ची सुंदरता क चचा करते हए कहते ह िक दान से ही हाथ क सुंदरता है न िक कंकण पहनने
से, शरीर नान से शु होता है न िक चंदन लगाने से, तृि मान से होती है न िक भोजन से, मो ान से िमलता है न िक
ंगार से।

आशय यह है िक हाथ क स ची सु दरता दान देने म है, सोने-चांदी के कड़े-कंगन पहनने से हाथ सु दर नह कहे जा
सकते। शरीर नहाने से व छ-साफ होता है, च दन, तेल, फुलेल आिद लगाने से नह । स जन स मान से संतु होते ह,
खाने-पीने से नह । आ मा का ान होने पर ही मो िमलता है, सज-संवरकर रहने या बनाव- ृग
ं ार करने से नह ।

शोभा
नािपत य गृहे ौरं पाषाणे ग धलेपनम्।
आ म पं जले प यन् श यािप यं हरे त्।।12।।

आचाय चाण य कहते ह िक नाई के घर म केश कटवाने और दाढ़ी बनवाने से, प थर म िघसे चंदन आिद लगाने से तथा
जल म अपना प देखने से इ क भी शोभा न हो जाती है।

आशय यह है िक नाई के घर जाकर दाढ़ी, बाल आिद नह कटाने चािहए। प थर म िघसा हआ चंदन या कोई भी
सुग धत चीज शरीर म नह लगानी चािहए। अपना मुंह पानी म नह देखना चािहए। ऐसा करने पर सभी क सुंदरता न हो
जाती है।

नािपत य गृहे ौरं पाषाणे ग धलेपनम्।


आ म पं जले प यन् श यािप यं हरे त्।।13।।

आचाय चाण य यहां कु छ िनषेध क चचा करते हए कहते ह िक नाई के घर म जाकर बाल बनवाना, प थर म सुग धत
ग ध लगाना और जल म अपने व प क परछाई देखना - ये काय करने वाले क स प तथा ल मी न हो जाती है।

आशय यह है िक नीितकार ने इस लोक का बहत ही मनोवै ािनक िव लेषण के आधार पर उ ेख िकया है। ौर कम
समयानुसार आव यक होता है, अतः उसके घर जाने पर िवल ब हो सकता है; नािपत भी कायास हो सकता है। यथ
समय िबताने क अपे ा िन चत समय और थान पर ौर कम कराना चािहए।

मूित पूजा म मूितय म ाण- ित ा के बाद देवबुि और भावना पुर सर ग धा त डाला जाता है। केवल प थर म
ग धा त लगाने का कोई औिच य नह है। जल म अपना प व प नह िदखने के कारण म हो सकता है, इस लए जल
म देखा गया व प मािणक नह होता है। अतः इन तीन काय ं को करने वाले अ ामािणकता के कारण न हो जाते ह।

स ः ाहरा तु डी स ः ाकरी वचा।


स ः शि हरा नारी स ः शि करं पयः।।14।।

आचाय चाण य कहते ह िक तुंडी के सेवन से बुि त काल न हो जाती है, वच के सेवन से बुि का शी िवकास
होता है। ी के साथ संभोग करने से शि त काल न हो जाती है तथा द ूध के योग से खोई हई ताकत िफर वापस लौट
आती है। अतः प है िक तुंिड बुि नाशक है तो वच बुि वधक है। ी बलनाशक है तो द ूध बलवधक। अतः ी व तुंडी
से होने वाली ितपूित वच और द ूध के सेवन से करनी चािहए।

सुगृिहणी क मिहमा
यिद रामा यिद च रमा यिद तनयो िवनयगुणोपेतः।
तनयो तनयो प ः सुखररनगरे िकमा ध यम्।।15।।

आचाय चाण य कहते ह िक जस घर म शुभ ल ण वाली ी हो, धन-स प हो, िवन गुणवान पु हो और पु का
भी पु हो, तो वगलोक का सुख ऐसे घर से बढ़कर नह होता।

आशय यह है िक जस घर म सुशील, सु दर और शुभ ल ण वाली प नी हो, धन क कमी न हो, पु माता-िपता का


आ ाकारी हो और पु का भी पु ; अथात पोता भी हो गया हो, ऐसा घर पृ वी म ही वग के समान है। वग के सुख भी
इससे अ धक नह होते।

गुणहीन पशु
आहारिन ा भय मैथुरािन समािन चैतािन नृणां पशूनाम्।
ाने नराणाम धको िवशेषो ानेन हीना पशुिभः समानाः।।16।।

आचाय चाण य कहते ह िक भोजन, न द, भय तथा मैथुन करना, ये सब बात मनु य एवं पशुओं म समान प से पायी
जाती ह, िक तु ान मनु य म ही पाया जाता है। अतः ान रिहत मनु य को पशुओं के समान समझना चािहए।

आशय यह है िक भोजन करना, न द लगने पर सो जाना, िकसी भयंकर व तु से डर जाना, तथा मैथुन करके स तान पैदा
करना - ये सब बात मनु य म भी पायी जाती ह और पशुओं म भी। िक तु अ छे -बुरे का ान, िव ा का ान आिद केवल
मनु य ही ा कर सकता है, पशु नह । इस लए जस मनु य म ान न हो, उसे पशु ही समझना चािहए।

दाना थनो मधुकरा यिद कणतालै


द ूरीकृता क रवरे ण मदा धबु या।
त यैव गंडयुगमंडनहािनरे व
भृग
ं ाः पुनिवकचप वने वस त।।17।।
आचाय चाण य कहते ह िक मद से अंधे बने मूख हाथी ने अपने कान के पास मंडराने वाले भंवर को कान से उड़ा
िदया। भला इससे भंवर का या घटा, हाथी के ही गंड थल क शोभा कम हो गयी। भंवरे तो िफर कमल के वन म चले
जाते ह।

आशय यह है िक जवान हाथी के कान से मीठा मल बहने लगता है, जस पर भंवरे मंडराने लगते ह। ये भंवरे हाथी क
सु दरता म चार चांद लगा देते ह । मूख हाथी कान फड़फड़ाकर उ ह उड़ा देता है। इससे हाथी क ही सु दरता घटती है, भंवर
का कु छ नह िबगड़ता। वे िकसी कमल वाले सरोवर म चले जाते ह। यिद मूख यि गुणी लोग का आदर नह करते, तो
इससे गुणी का कोई नुकसान नह होता। उ ह आदर देने वाले अ य लोग िमल जाते ह। िकंतु मूख को गुणी लोग नह िमलते।

परदःु ख कातरता
राजा वे या यम चाि ः चौराः बालक याचकाः।
परदःु खं न जान त अ मो ामक टकाः।।18।।

आचाय चाण य कहते ह िक राजा, वे या, यजमान, अि , चोर, बालक, याचक और ामकंटक ये आठ लोग यि के
दःु ख को नह समझते।

आशय यह है िक राजा, वे या, यमराज, आग, चोर, ब चे, िभखारी तथा लोग को आपस म लड़ाकर तमाशा देखने
वाला यि , ये आठ द ूसरे के दःु ख को नह समझ सकते। राजा पहले तो दःु ख या होता है, इसे जानता ही नह । य िक
‘जाके पैर न पड़ी िबवाई, सो या जाने पीर पराई’ यह कहावत सोलहो आने सही है। जसने दःु ख देखे ही न ह , वह द ूसरे के
दःु ख को या समझ सकता है। इसके साथ ही राज-काज चलाने म राजा को कठोर भी होना ही पड़ता है। भला एक वे या
को द ूसरे के दःु ख-दद से या मतलब! उसक तरफ से कोई मरे या जए, िकसी का घर फंू के या बरबाद हो, उसे तो पैसा
चािहए। यमराज भी द ूसरे के दःु ख को नह देखता। िकसी का प रवार रोये या िबलखे, उसे तो अपना काम करना ही होता है।
चोर का तो पेशा ही चोरी करना है। चोर कोई महापु ष तो होता नह , जो द ूसरे क पीड़ा को समझे। छोटा बालक भला अपने
माता-िपता या िकसी क भी परे शानी या दःु ख को या समझ सकता है। उसका तो काम ही है ज करना या शरारत करना।
िभखारी भी सबके सामने हाथ फैला देता है। उसे या पता िक सामने वाले के पास कु छ है या नह है। और कु छ लोग को
द ूसर को आपस म लड़ाने म ही आनंद आता है। ऐसे लोग क तो आ मा या इंसािनयत ही मर जाती है। द ूसर को दःु खी
करने म ही ये खुश होते ह।

अधः प य स िकं बाले पिततं तव िकं भुिव।


रे रे मूख न जाना स गतं ता यमौि कम्।।19।।

आचाय चाण य कहते ह िक बा लके! नीचे भूिम म या देख रही हो? मूख! या नह जानते हो िक मेरे यौवन का मोती
खो गया है।

आशय यह है िक िकसी युवती ने िकसी पु ष को देखकर ल जा से सर झुका लया; िक तु वह ढीठ बोला, ‘तुम नीचे
जमीन म या देख रही हो, या तु हारा कु छ खो गया है?’ तब वह युवती बोली, ‘मूख यह मेरी जवानी का मोती िगर गया
है। या तुम नह जानते?’

पितपरायणता
न दानात् शु यते नारी नोपवोसैः शतैरिप।
न तीथसेवया त द् भतुः पादोदकैयथा।।20।।

आचाय चाण य कहते ह िक दान करने से, सैकड़ उपवास करने से या तीथया ा करने से ी उतनी शु नह होती,
जतनी पित के पैर के जल से होती है।

आशय यह है िक पित के पांव धोने का जल ही ी को सबसे अ धक पिव बनाता है। इस जल से जो शु ता उसे


िमलती है, ऐसी शु ता दान, तीथया ा और सैकड़ उपवास से भी नह िमल सकती।

गुण बड़ा दोष छोटे


याला यािप िवफलािप सक टकािप
व ािप पंकसिहतािप दरु ासदािप।
ग धेन ब धुर स केतिक सवज तो-
रे को गुणः खलु िनह त सम तदोषान्।।21।।

आचाय चाण य कहते ह िक हे केतक ! भले ही तू सांप का घर है, फलहीन है, कांट वाली है, व (टेढ़ी) है, क चड़ म
उगी हई और तुझ तक किठनाई से पहंचा जाता है, िफर भी सुगध
ं के कारण तू सबक ि य है। िन चय ही एक ही गुण सारे
दोष को न कर देता है।

आशय यह है िक केवड़े के वृ म सांप रहते ह, फल भी नह लगते, वह टेढ़ा-मेढ़ा भी होता है, उसम कांटे भी होते ह,
वह उगता भी क चड़ म है और उस तक पहंचना भी आसान नह होता। इतनी किमयां होने पर भी अपने एक ही गुण-सु दर
ग ध के कारण केवड़ा सभी को ि य होता है। ठीक ही कहा है िक एक ही गुण सारी किमय को िछपा देता है।

यौवनं धनस प ः भु वमिववेकता।


एकैकम यनथाय िकमु य चतु यम्।।22।।

आचाय चाण य कहते ह िक जवानी, धन-स प क अ धकता, अ धकार और िववेकहीनता‒इन चार म से येक बात
अकेली ही मनु य को न करने के लए पया है। िक तु यिद कह ये चार इक े ह अथात् मनु य युवा भी हो, उसके पास
पैसा भी हो और वह अपनी इ छानुसार काम करने वाला भी हो अथात् उसके काम म उसे टोकने वाला भी कोई न हो और
िफर दभु ा यवश उसम िवचार-बुि भी न हो तो मनु य के िवनाश होने म एक पल भी नह लगता।

अतः स प होने पर मनु य को िववेकशील भी बने रहना चािहए, तािक िकसी कार के िवनाश का सामना न करना
पड़े। जीवन गत म चला जाता है।

परोपकरणं येषां जागित दये सताम्।


न य त िवपद तेषां स पदः यु पदे-पदे।।23।।

आचाय चाण य कहते ह िक जनके दय म परोपकार क भावना होती है; उनक िवप यां न हो जाती ह तथा पग-
पग पर स प यां ा होती ह।
सू

1. सुख य मूलं धमः।


धम ही सुख देने वाला है।
2. धम य मूलमथः।
धन से ही धम संभव है।
3. अथ य मूलं रा यम्।
रा य का वैभव धन से संभव है।
4. रा यमूलिम यजमः।
रा य क उ ित इंि य पर िवजय ा करने से है।
5. इंि यजय य मूलं िवनयः।
इंि य पर िवजय तभी संभव है जब िवनय पी संपदा हो।
6. िवनय य मूलं वृ ोपसेवा।
वृ क सेवा से ही िवनय भाव जा त होता है।
7. वृ सेवया िव ानत्।
वृ -सेवा से स य ान ा होता है।
8. िव ानेना मानं स पादयेत्।
िव ान (स य ान) से राजा अपने को यो य बनाए।
9. स पािदता मा जता मा भवित।
अपने कत य को जानने वाला राजा ही इंि य को जीतने वाला होता है।
10. जता मा सवाथ संय ु येत।
इंि य को वश म रखने वाला मनु य सभी स प य को ा करता है।
11. अथस पत् कृितस पदं करोित।
राजा के स प होने पर जा भी स प हो जाती है।
12. कृितस पदा नायकमिप रा यं नीयते।
जा के स प होने पर राजा के िबना भी रा य चलता है।
13. कृितकोपः सवकोपे यो गरीयान्।
जा का ोध (नाराजगी) सभी ोध से भयंकर होता है।
14. अिवनीत वािमलाभाद वािमलाभः य
े ान्।
नीच (दरु ाचारी) राजा के होने से राजा न होना अ छा है।
15. स प ा मानमिव छे त् सहायवान्।
राजा वयं यो य बनकर यो य सहायक क सहायता से शासन चलाए।
16. न सहाय य म िन चयः।
सहायक के िबना राजा कोई िनणय नह कर पाता।
17. नैकं च ं प र मयित।
केवल एक पिहया रथ को नह चला पाता।
18. सहायः समसुखदःु खः।
जो सुख और दःु ख म बराबर साथ देने वाला होता है स चा सहायक होता है।
19. मानी ितमानीनामा मिन ि तीयं म मु पादयेत्।
अिभमानी राजा जिटल सम याओं म अिभमान याग कर िन प िवचार ारा िन कष पर पहंचे।
20. अिवनीतं नेहमा ेण न मं े कु व त।
दरु ाचारी को नेह मा से मं णा म न रखे।
21. ुतव तमुपधाशु ं म णं कु व त।
बात सुनने वाले तथा उ च िवचार करने वाले मनु य को ही राजा अपना मं ी बनाए।
22. म मूलाः सवार भाः।
सभी काय िवचार-िवमश व सलाह से ही आरं भ होते ह।
23. म र णे काय सि भवित।
उिचत सलाह के पालन से काय म सफलता शी िमलती है।
24. म िव ावी काय नाशयित।
िहतकारी व गोपनीय बात का चार कर देने से इ छत काय शी न हो जाता है।
25. मादाद् ि िषतां वशमुपया यित।
घमंडी होने से गोपनीय रह य श ु को ात हो जाता है।
26. सव ारे यो म ो र ियत यः।
सभी कार से गोपनीय िवचार / सलाह क र ा क जानी चािहए।
27. म स पदा रा यं वधते।
योजना पी स पदा रा य क वृि करती है।
28. (i) े तमं म गुि माहः।
अि म योजनाओं क गोपनीयता े तम कही गई है।
(ii) काय ध य दीपो म ः।
अ धकार पी काय के लए सलाह ही दीपक है।
29. म च ुषा परिछ ा यव लोकय तः।
उिचत सलाह पी आँख से राजा श ु क दबु लताओं को देखता है।
30. म काले न म सरः कत यः।
सलाह-मशवरा के समय कोई जद नह करनी चािहए।
31. याणामेकवा ये स ययः।
तीन (राजा, मं ी, और िव ान) का एक मत होना सबसे अ छी सफलता है।
32. कायकायत वाथदिशनो म णः।
काय-अकाय के रह य को ठीक-ठीक जानने वाले ही मं ी होने चािहए।
33. ष कणाद् िभ ते म ः।
छह कान से सलाह-मशवरा का खुलासा हो जाता है।
34. आप सु नेहसंय ु ं िम म्।
िवप के समय भी नेह रखने वाला ही िम है।
35. िम सं हेण बलं स प ते।
अ छे और यो य िम क अ धकता से बल ा होता है।
36. बलवान् अल धलाभ यतते।
बलवान राजा जो ा न क जा सके उसको ा करने का य न करता है।
37. अल धलाभो नालस य।
आलसी को कु छ भी ा नह होता।
38. आलस य ल धमिप रि तुं न श यते।
आलसी ा व तु क भी र ा नह कर सकता।
39. न आलस य रि तं िववधते।
आलसी के बचाए हए िकसी भी व तु क बढ़ो री नह होती।
40. न भृ यान् ेषयित।
आलसी राजा सेवक से भी काम नह लेते।
41. अल धलाभािदचतु यं रा यत म्।
न ा होने वाले को ा करना, उसक र ा करना, उसक वृि करना तथा उसका उिचत उपयोग करना, ये चार
काय रा य के लए आव यक ह।
42. रा यत ाय ं नीितशा म्।
नीित शा रा य यव था के अधीन है।
43. रा यत े वाय ौ त ावापौ।
वरा नीित तथा िवदेश नीित रा य- यव था के अंग ह।
44. त विवषयकृ ये वाय म्।
तं ( वरा नीित) केवल रा के आंत रक मामल से स ब है।
45. अवापो म डलिनिव ः।
पररा नीित सभी रा से स ब होनी चािहए।
46. स धिव हयोिनम डलः।
अ य देश से स ध या िव छे द चलते रहते ह।
47. नीितशा ानुगो राजा।
नीित शा का पालन करना राजा क यो यता है।
48. अन तर कृितः श ुः।
हर समय सीमा-संघष होने वाले देश श ु बन जाते ह।
49. एका त रतं िम िम यते।
एक जैसे ही देश िम बन जाते ह।
50. हेतुतः श ुिम े भिव यतः।
िकसी कारण से ही श ु या िम बनते ह।
51. हीयमानः स धं कु व त।
कमजोर राजा शी स ध कर ले।
52. तेजो िह स धानहेतु तदथानाम्।
सं ध करने वाल का उ े य ही सं ध करना रहता है।
53. नात लौहो लौहेन स धीयते।
िबना गम िकए लोहा लोहे से नह जुड़ता।
54. बलवान हीनेन िव ीयात्।
बलवान कमजोर पर ही आ मण करे ।
55. न यायसा समेन वा।
अ धक बलवान या बराबर बल वाले से यु न कर।
56. गजपादयु िमव बलवि हः।
बलवान से यु करना हा थय क सेना से पैदल का लड़ना है।
57. आमपा मामेन सह िवन यित।
क चा पा क चे पा से टकराकर फूट जाता है।
58. अ र य नमिभसमी ेत।
श ु के यास पर यान देते रह।
59. स धायैकतो वा।
पड़ोसी देश के साथ स ध भी हो तो उसक गितिव ध क उपे ा न कर।
60. अिम िवरोधा मर ामावसेत।
श ु देश के गु चर पर सदैव यान रखना चािहए।
61. शि हीनो बलव तमा येत्।
शि हीन राजा बलवान राजा का आ य ल।
62. दबु ला यो दःु खमावहित।
दबु ल का आ य दःु ख देता है।
63. अि व ाजानमा येत्।
जैसे अि का आ य लया जाता है, वैसे ही राजा का भी आ य ल।
64. रा ः ितकू लं नाचरे त्।
राजा के िवपरीत आचरण न कर।
65. उ तवेशधरो न भवेत्।
मनु य क वेश-भूषा उटपटांग नह होनी चािहए।
66. न देवच रतं चरे त्।
देव के च र का अनुकरण नह करना चािहए।
67. योरपी यतो ैधीभावं कु व त।
अपने से ई या करने वाले दो यि य म कू टनीित से फूट डाल देनी चािहए।
68. न यसनपर य कायावाि ः।
बुरी आदत म लगे हए मनु य को काय क ाि नह होती।
69. इ यवशवत चतुरंगवानिप िवन यित।
इंि य के अधीन रहने वाला राजा चतुरंिगनी सेना होने पर भी शी ही न हो जाता है।
70. ना त काय ूत वत य।
जुए म लगे हए का कोई काय नह होता।
71. मृगयापर य धमाथ िवन यतः।
िशकार म लगे हए का धम और अथ दोन न हो जाते ह।
72. अथषणा न यसनेषु ग यते।
धन क अिभलाषा रखना कोई बुराई नह मानी जाती।
73. न कामास य कायनु ानम्।
िवषय-वासनाओं से िघरा हआ मनु य कोई काय नह कर सकता।
74. अि दाहादिप िविश ं वा पा यम्।
वाणी क कठोरता अि दाह से भी बढ़कर है।
75. द डपा णात् सवजन े यो भवित।
िनरपराधी को कठोर दंड देने पर उसे बदला लेने वाला श ु बना देता है।
76. अथतोिषणं ीः प र यजित।
धन से संतु राजा को ल मी याग देती है।
77. अिम ो द डनी यामाय ः।
द ु मन दंड नीित का भागी होता है।
78. द डनीितम धित न् जाः संर ित।
दंडनीित के उिचत योग से जा क र ा होती है।
79. द डस पदा योजयित।
याय- यव था राजा को स प वाला बनाता है।
80. द डाभावे म वगाभावः।
दंडनीित न लगाने पर मंि य म भी किमयां आ जाती ह।
81. न द डादकायािण कु व त।
दंड िवधान न लगाने पर बुरे काय बढ़ जाते ह।
82. द डनी यामाय मा मर णम्।
आ मर ा दंडनीित पर ही िनभर है।
83. आ मिन रि ते सव रि तं भवित।
आ मर ा होने पर ही सबक र ा होती है।
84. आ माय ौ वृि िवनाशौ।
वृि और िवनाश अपने हाथ म है।
85. द डो िह िव ाने णीयते।
दंड का योग िववेक से करना चािहए।
86. दबु लोऽिप राजा नावम त यः।
दबु ल राजा का भी अपमान नह करना चािहए।
87. ना य ेद ब यम्।
अि म दबु लता नह होती।
88. द डे तीयते वृ ः।
राजा क आय दंडनीित से ा होती है।
89. वृ मूलमथलाभः।
आय ाि का मतलब लाभ पाना है।
90. अथमूलौ धमकामौ।
धम और काम का मूल धन है।
91. अथमूलं कायम्।
धन ही सभी काय ं का मूल है।
92. यद प य नात् काय सि भवित।
धन होने से कम यास से ही काय स हो जाते ह।
93. उपायपूव न द ु करं यात्।
उपाय से काय किठन नह होता।
94. अनुपायपूव काय कृतमिपिवन यित।
अनुपायपूवक िकया हआ काय भी न हो जाता है।
95. काया थनामुपाय एव सहायः।
उ िमय के लए उपाय ही सहायक है।
96. काय पु षकारे ण ल यं स प ते।
िन चय कर लेने पर काय पूण हो जाता है।
97. पु षकारमनुवतते दैवम्।
भा य पु षाथ के पीछे -पीछे चलता है।
98. दैवं िवनाऽित य नं करोित य ि फलम्।
भा य पु षाथ का ही साथ देता है।
99. असमािहत य वृितन िव ते।
भा य के भरोसे बैठे रहने पर कु छ भी ा नह होता।
100. पूव िन च य प चात् कायमारभेत्।
पहले िन चय कर, िफर काय आरं भ कर।
101. काया तरे दीघसू ता न कत या।
काय के बीच म आल य न कर।
102. न चलिच य कायावाि ः।
चंचल िच वाले को काय सि नह होती।
103. ह तगतावमानात् काय यित मो भवित।
अपने हाथ म साधन नह रहने पर काय ठीक नह होता।
104. दोषव जतािन कायािण दल
ु भािन।
िबना कमी रहे काय होना बहत दल
ु भ है।
105. दरु नुब धं काय नारभेत्।
जो काय हो न सके उस काय को ारं भ ही न कर।
106. कालिवत् काय साधयेत्।
समय के मह व को समझने वाला िन चय ही अपना काय सि कर पाता है।
107. कालाित मात् काल एव फलं िपबित।
समय से पहले काय करने से समय ही काय-फल को पी जाता है।
108. ण ित कालिव ेपं न कु यात् सव कृ येषु।
सभी कार के काय ं म एक ण क भी उपे ा न कर।
109. देशफलिवभागौ ा वा कायमारभेत्।
थान एवं प रणाम के अंतर को जानकर काय आरं भ कर।
110. दैवहीनं काय सुसा यमिप दःु सा यं भवित।
भा यहीन वाले के सभी काय होने वाला भी बहत किठन हो जाता है।
111. नीित ो देशकालौ परी ेत।
नीित जानने वाले देश-काल क परी ा कर।
112. परी यका रणी ी चरं ित ित।
परी ण करके काय करने से ल मी दीघकाल तक रहती है।
113. सवा च स पतः सव पायेन प र हेत्।
सभी स प य का सभी उपाय से सं ह करना चािहए।
114. भा यव तमपरी यका रणं ीः प र यजित।
िबना िवचारे काय करने वाले भा यशाली को भी ल मी याग देती है।
115. ानानुमानै च परी ा कत या।
ान और अनुमान से परी ा करनी चािहए।
116. यो य मन् कमिण कु शल तं त म ैव योजयेत्।
जो मनु य जस काय म िनपुण हो, उसे वही काय स पना चािहए।
117. दःु सा यमिप सुसा यं करो युपाय ः।
उपाय का ाता किठन को भी आसान बना देता है।
118. अ ािनना कृतमिप न बह म त यम्।
अ ािनय ारा िकए काय को मह व नह देना चािहए।
119. या छक वात् कृिमरिप पा तरािण करोित।
संयोग से क ट भी लकड़ी को कतरते-कतरते िच नुमा बना देता है। इसका मतलब यह नह िक वह िच कार है।
120. स यैव काय य काशनं कत यम्।
काय स होने पर ही कह कहना चािहए।
121. ानवतामिप दैवमानुषदोषात् कायािण द ु य त।
ानवान लोग के काय भी भा य से या मनु य ारा द ूिषत हो जाते ह।
122. दैवं शा तकमणा ितषेध यम्।
ाकृितक िवप को शांितकम से टालने का यास करना चािहए।
123. मानुष कायिवप कौशलेन िविनवारयेत्।
मनु य ारा पैदा क गई काय-िवप का कु शलता से िनवारण करना चािहए।
124. कायिवप ौ दोषान् वणय त बा लशाः।
मूख लोग काय-िवप पर दोष देखने लगते ह।
125. काया थना दाि यं न कत यम्।
हािन पहंचाने वाल के ित उदारता न कर।
126. ीराथ व सो मातु धः ितह त।
द ूध के लए बछड़ा माँ के थन पर हार करता है।
127. अ य नात् कायिवप भवित।
यास न करने से काय का नाश होता है।
128. न दैव माणानां काय सि ः।
भा य भरोसे रहने वाल को काय सि नह होती।
129. कायबा ो न पोषय या तान्।
कत य से भागने वाला आ त का पोषण नह कर सकता।
130. यः काय न प यित सोऽ धः।
जो काय को नह देखता वह अंधा है।
131. य परो ानुमानैः कायािण परी ेत्।
य , परो साधन तथा अनुमान से काय ं क परी ा कर।
132. अपरी यका रणं ीः प र यजित।
िबना िवचारे काय करने वाले को ल मी याग देती ह।
133. परी य ताया िवप ः।
काय-िवप का परी ा से िनराकरण कर।
134. वशि ं ा वा कायमारं भत
े ्।
अपनी शि को जानकर ही काय आरं भ कर।
135. वजनं तपिय वा यः शेषभोजी सोऽमृतभोजी।
वजन को तृ करके शेष भोजी अमृत भोजी होता है।
136. सवानु ानादायमुखािन वध ते।
सभी अनु ान से आय के साधन बढ़ते ह।
137. ना त भीरोः कायिच ता।
कायर को काय क िच ता नह होती।
138. वािमनः शीलं ा वा कायाथ काय साधयेत्।
वामी के शील को जानकर काम करने वाले काय-साधना करते ह।
139. धेनोः शील ः ीरं भु े।
गाय के सीधेपन जानने वाला द ूध का उपभोग करता है।
140. ु े गु काशनमा मवान् न कु यात्।
नीच यि से अपनी गोपनीय बात कभी नह करनी चािहए।
141. आ तैर यवमनसते मृद ु वभावः।
मृद ु वभाव वाला यि आ त से भी अपमािनत होता है।
142. ती णद डः सव ेदनीयो भवित।
कठोर दंड देने वाले राजा से जा घृणा करती है।
143. यथाह द डकारी यात्।
राजा यथोिचत दंड का उपयोग करे ।
144. अ पसारं ुतव तमिप न बहम यते लोकः।
गंभीर न रहने वाले िव ान को समाज स मान नह देता।
145. अितभारः पु षमवसादयित।
अ धक दबाव पु ष को दःु खी करता है।
146. यः संसिद परदोषं शंसित स वदोषं यापयित।
जो भरी सभा म द ूसरे का दोष िदखाता है, वह अपने ही दोष को उजागर करता है।
147. आ मनमेव नाशय यना मवातां कोपः।
मूख ं का ोध उ ह का नाश करता है।
148. ना य ा यं स यवताम्।
स य-स प लोग के लए कु छ भी दल
ु भ नह है।
149. साहसेन न काय सि भवित।
केवल साहस से काय- सि नह होती।
150. यसानात िवरम य वेशेन।
बुरी आदत म लगा हआ यि ल य तक पहंचे िबना क जाता है।
151. ना यन तरायः कालिव ेपे।
समय क उपे ा करने से काय म बाधा आ जाती है।
152. असंशयिवनाशात् संशयिवनाशः य
े ान्।
भिव य म होने वाला िवनाश से हो रहा िवनाश े है।
153. परधनािन िन े ुः केवलं वाथम्।
द ूसरे क धरोहर के ित भेदभाव वाथ है।
154. दानं धमः।
दान करना धम है।
155. नायागतोऽथवत् िवपरीतोऽनथभावः।
सं कारहीन समाज म च लत धन का उपयोग मानव जीवन नाशक होता है।
156. यो धमाथ न िववधयित स कामः।
जो धम और अथ क वृि नह करता वह वासना है।
157. ति परीतोऽथाभासः।
धम के िवपरीत कार से आया हआ धन मा महसूस करा सकता है।
158. ऋजु वभावपरो जनेषु दल
ु भः।
िन कपट यवहार वाला यि बहत दल
ु भ होता है।
159. अवमानेनागतमै वयमवम यते साधुः।
अ याय से आया हआ धन को उपेि त कर देने वाला ही साधु है।
160. बहनिप गुणानेक दोषो सित।
बहत से गुण को भी एक दोष चौपट कर देता है।
161. महा मना परे ण साहसं न कत यम्।
महा मा लोग द ूसर के साहस पर भरोसा न कर।
162. कदािचदिप च र ं न लंघत
े ्।
च र का उ ंघन कभी नह करना चािहए।
163. ुधात न तृणं चरित संहः।
भूखा हआ शेर कभी घास नह खाता।
164. ाणदिप ययो रि त यः।
ाण से भी अ धक िव वास क र ा करनी चािहए।
165. िपशुनः ोता पु दारै रिप य यते।
चुगलखोर क बात सुनने वाले को पु -प नी भी याग देते ह।
166. बालाद यथजातं णुयात्।
बालक को भी अ यंत उपयोगी बात सुननी चािहए।
167. स यम य ेयं न वदेत्।
स य भी यिद ि य न हो, तो भी उसे नह कहना चािहए।
168. ना पदोषाद् बहगुण य य ते।
अ प दोष से अ धक गुण नह यागे जाते।
169. िवप च विप सुलभा दोषः।
ानी पु ष म भी दोष हो सकता है।
170. ना त र नमख डतम्।
िबना दोषयु र न (हीरा-जवाहरात) भी नह िमलता।
171. मयादातीतं न कदािचदिप िव वसेत्।
च र हीन का कभी िव वास नह करना चािहए।
172. अि येण कृतं ि यमिप े यं भवित।
श ु ारा िकया जा रहा उपकार भी घातक होता है।
173. नम यिप तुलाकोिटः कू पोदक यं करोित।
नम कार करने पर ही ढेकुली कु एं से पानी िनकालता है।
174. सतां मतं नाित मेत्।
स जन के िवचार का उ ंघन नह करना चािहए।
175. गुणवदा यि गुणोऽिप गुणी भवित।
गुणवान के सहारे िबना गुण वाला भी गुणी हो जाता है।
176. ीरा तं जलं ीरमेव भवित।
द ूध म िमला हआ जल द ूध ही हो जाता है।
177. मृ प डोऽिप पाट लग धमु पादयित।
िम ी भी फूल के संपक म रहने पर सुगध
ं पैदा करती है।
178. रजतं कनकसंगात कनकं भवित।
चांदी सोने के संपक म आकर सोना ही बन जाती है।
179. उपकतयपकतुिम-छ यबुधः।
मूख यि भलाई के बदले बुराई करता है।
180. न पापकमणामा ोशभयम्।
पाप करने वाले को िन दा का भय नह होता।
181. उ साहवतां श वोऽिप वशीभव त।
िह मत वाल के श ु भी वश म हो जाते ह।
182. िव मधना राजानः।
राजा परा म (वीरता) से धनी होते ह।
183. ना यलस यैिहकामु मकम्।
आलसी यि का वतमान और भिव य नह होता।
184. िन साहाद् दैवं पतित।
उ साह के अभाव म भा य भी न हो जाता है।
185. म याथ व जलमुपयु याथ गृ ीयात्।
मछु आरे के समान जल म डू बकर लाभ ले ल।
186. अिव व तेषु िव वासो न कत यः।
जनका िव वास न हो, उन पर कभी िव वास नह करना चािहए।
187. िवषं िवषमेव सवकालम्।
जहर कभी भी जहर ही है।
188. अथ समादाने वै रणां संग एव न कत यः।
धन बचाना हो तो द ु मन का साथ छोड़ द।
189. अथ स ौ वै रणं न िव वसेत्।
उ े य ाि के लए भी श ुओं पर िव वास न कर।
190. अथाधीन एव िनयतस ब धः।
कोई भी स ब ध उ े य से जुड़ा रहता है।
191. श ोरिप सुतः सखा रि त यः।
श ु का पु यिद िम हो, तो उसक र ा कर।
192. याव छ ो छ ं तावद् ब ह तेन वा क धेन वा बा ः।
श ु क कमजोरी जानने तक उसे बनावटी आडंबर म रख।
193. श ुिछ े हरे त्।
श ु के कमजोरी पर ही चोट पहंचानी चािहए।
194. आ मिछ ं न काशयेत।
अपनी कमजोरी िकसी से न बताएं।
195. िछ हा रणः श वः।
श ु कमजोरी पर ही अ सर चोट पहंचाते ह।
196. ह तगतमिप श ुं न िव वसेद।्
हाथ म आए हए श ु पर भी भूलकर िव वास न कर।
197. वजन य दवु ृ ं िनवारयेत।
अपने िहतैिषय क किमय (दोष ) को द ूर करना चािहए।
198. वजनावमानोऽिप मन वनां दःु खमावहित।
मन वय को अपने लोग का अपमान दःु ख देता है।
199. एकांगदोषः पु षमवसादयित।
एक अंग का दोष भी यि को दःु खी करता है।
200. श ुं जयित सुवृ ता।
अ छी आदत ही श ुओं को जीतती है।
201. िनकृिति या नीचाः।
नीच यि स जन के लए दख
ु दायी होता है।
202. नीच य मितन दात या।
दु यि को उपदेश नह देना चािहए।
203. तेषु िव वासो न कत यः।
दु यि पर कभी िव वास नह करना चािहए।
204. सुपू जतोऽिप दज
ु नः पीडय येव।
स मान पाया हआ दज
ु न दःु ख ही देता है।
205. च दनानिप दावोऽि दह येव।
च दन आिद को भी दावानल (जंगल म लगने वाली आग) जलाता ही है।
206. कदाऽिप पु षं नावम येत्।
कभी भी पु ष का अपमान न कर।
207. त यिमित पु षं न बाधेत्।
मा करने यो य पु ष को दःु खी न कर।
208. भ ा धकं रह ययु ं व ु िम छ यबु यः।
मा लक ारा कहे गए गोपनीय बात को भी मूख यि कह देना चाहते ह।
209. अनुराग तु फलेन सू यते।
स चा ेम कहने से नह अिपतु काय प म िदखने लगता है।
210. आ ाफलमै वयम्।
ऐ वय का प रणाम आ ा है।
211. दात यमिप ब लशः लेशेन दा यित।
देने यो य यि य (दािनय ) को भी मूख यि क (पीड़ा) देता है।
212. महदै वय ा या यधृितमान् िवन यित।
धैयहीन यि अ धक सुख-सुिवधा पाकर न हो जाता है।
213. ना यघृतेरैिहकाममु मकम्।
धैयहीन यि का वतमान और भिव य नह होता।
214. न दज
ु नैः सह संसगः कत यः।
दु क संतित से सदा द ूर ही रहना चािहए।
215. शौ डह तगतं पयोऽ यवम यते।
शराबी के हाथ का द ूध भी याग देना चािहए।
216. कायसंकटे वथ यवसाियनी बुि ः।
किठन समय म बुि ही राह िदखाती है।
217. िमतभोजनं वा यम्।
थोड़ा भोजन करना ही वा य लाभ है।
218. प यमप यं वाऽजीण ना नीयात्।
नह पचने वाली व तु से क ज हो जाए तो पचने वाली व तु भी नह खानी चािहए।
219. जीणभो जनं या धन िप सिपतः।
पच जाने पर भोजन करने वाले को बीमारी नह होती।
220. जीणशरीरे वधमानं या धं नोपे येत्।
बुढ़ापे म बढ़ रहे छोटे रोग को भी अनदेखा न कर।
221. अजीण भोजनं दःु खम्।
बदहजमी होने पर भोजन क पहंचाता है।
222. श ोरिप िविश यते या धः।
श ु से भी रोग बड़ा है।
223. दानं िनधानमनुगािम।
दान अपनी है सयत के अनुसार देना चािहए।
224. पदतु रे तृ णापरे सुलभमितस धानम्।
चालाक और लोभी यि बेकार ही वाथवश घिन ता बढ़ाता है।
225. तृ णया मित छा ते।
लोभ बुि को ढंक लेता है।
226. कायबह वे बहफलमायितकं कु यात्।
बहत-से काय ं म अ धक फल देने वाला काय पहले कर।
227. वयमेवाव क ं काय िनरी ेत्।
वयं िबगाड़े या अ य के िबगाड़े काय ं का वयं िनरी ण कर।
228. मूखषु साहसं िनयतम्।
मूख ं म साहस होता ही है।
229. मूखषु िववादो न कत यः।
मूख ं से िववाद नह करना चािहए।
230. मूखषु मूखवत् क येत्।
मूख से मूख क ही भाषा म बोल।
231. आयसैरावसं छे म्।
लोहे से लोहा काटना चािहए।
232. ना यधीमतः सखा।
मूख का िम नह होता।
233. धमण धायते लोकः।
धम ही मानव को धारण करता है।
234. ेतमिप धमाधमावनुग छतः।
धम और अधम ेत योिन म भी साथ नह छोड़ते।
235. दया धम य ज मभूिमः।
दया धम क ज मभूिम है।
236. धममूले स यदाने।
धम ही स य और दान का मूल है।
237. धमण जयित लोकान्।
यि धम से ही लोक को जीतता है।
238. मृ युरिप धिम ं र ित।
धािमक यि मृ यु के बाद भी अमर रहता है।
239. ति परीतं पापं य स यते त
धमावमितमहती स यते।
जहां पाप फैल जाता है, वहां धम का घोर अपमान होने लगता है।
240. उप थतिवनाशानां कृ याकारे ण ल यते।
उप थत िवनाश कृित के यवहार से सूिचत होते ह।
241. आ मिवनाशं सूचय यधमबुि ः।
अधम बुि खुद का िवनाश कर देती है।
242. िपशुनवािदनो न रह यम्।
चुगलखोर को गोपनीय बात कभी न बताएं।
243. पर रह यं नैव ोत यम्।
द ूसर क गोपनीय बात न सुन।
244. व भ य कारक वधम यु म्।
मा लक अपने सेवक को मुंह न लगाए, ऐसा करने से वे उ ंड हो जाते ह और जा को दःु खी करते ह।
245. वजने वित मो न कत यः।
अपने प रजन का अपमान नह करना चािहए।
246. माताऽिप द ु ा या या।
माता भी द ु हो, तो याग कर देने यो य है।
247. वह तोऽिप िवषद ध छे ः।
िवषैले हाथ को काट देना चािहए।
248. परोऽिप च िहतो ब धुः।
अनजान यि यिद शुभ िच तक हो तो उसे अपना भाई समझना चािहए।
249. क ाद यौबधं गृ ते।
सूखे जंगल से भी औष ध लाई जा सकती है।
250. ना ते चौरे षु िव वासः।
चोर पर कभी िव वास न कर।
251. अ तीकारे वनादरो न कत यः।
श ु को दःु खी देखकर कभी उपहास न कर।
252. यसनं मनागिप बाधते।
छोटी बुराई भी दख
ु देने वाली होती है।
253. अमरवदथजातमजयेत्।
अपने को अमर मानकर धन-संचय करना चािहए।
254. अथवानम् सवलोक य बहमतः।
धनी को सारा लोक इ जत करता है।
255. महे य यथहीनं न बह म यते लोकः।
महान राजा यिद धनहीन हो तब भी लोक-स मान नह ा कर पाता।
256. दा र यं खलु पु ष य जीिवतं मरणम्।
गरीबी तो जीते-जी मरने के समान है।
257. िव पोऽथवान् सु पः।
कु प यि के पास यिद धन हो तो वह सुंदर प वाला हो जाता है।
258. अदातारम यथव त थनो न यज त।
मांगने वाले तो कंजूस धनवान को भी नह छोड़ते।
259. अकु लीनोऽिप धनी कु ली कु लीनाि िश ः।
जसका कु ल कलंिकत हो और भरपूर धन-संपदा हो वह कु लीन से भी े है।
260. ना यवमानभयमनाय य।
नीच को अपमान का भय नह होता।
261. न चेतनवतां वृ भयम्।
कु शल लोग को रोजी-रोटी का भय नह रहता।
262. न जते याणां िवषयभयम्।
जनक इं यां वश म होती ह, उनको िवषय-वासना का भय नह रहता।
263. न कृताथानां मरणभयम्।
भला करने वाल को मृ यु का भय नह रहता।
264. क यिचदथ विमव म यते साधुः।
िकसी के भी धन को स जन अपनी व तु जैसा याल रखता है।
265. परिवभवे वादरो न कत यः।
द ूसर क सुख-सुिवधाओं का लोभ नह करना चािहए।
266. परिवभवे वादरोऽिप नाशमूलम्।
द ूसर के धन का लोभ नाश का कारण है।
267. अ पमिप पर यं न हत यम्।
द ूसर क छोटी-से-छोटी व तु भी कभी चुरानी नह चािहए।
268. पर यापहरणमा म यनाशहेतुः।
द ूसर के धन क चोरी करना अपने धन का नाश करना है।
269. न चौया परं मृ युपाशः।
चोरी करने से तो मर जाना अ छा है।
270. यवागूरिप ाणधारणं करोित लोके।
स ू से भी लोक म ाण क र ा होती है।
271. न मृत यौषधं योजनम्।
मरे हए यि को औष ध से या लेना।
272. समकाले वयमिप भु व य योजनं भिवत।
येक समय जाग क रहना ही उ े य ाि का कारण बन जाता है।
273. नीच य िव ाः पापकमिण योजय त।
दरु ाचारी क िव ाएं पाप कम ं को बढ़ाने वाली होती ह।
274. पयःपानमिप िवषवधन भुजग ं य नामृतं यात्।
सांप को द ूध िपलाना भी उसका िवष बढ़ाना है, न िक अमृत।
275. न िह धा यसमो थः।
अ के समान द ूसरा कोई धन नह है।
276. न ुधासमः श ुः।
भूख के समान द ूसरा कोई श ु नह है।
277. अकृतेिनयता ुत्।
आल सय का भूख मरना भा य म है।
278. ना यभ यं ु धत य।
भूखे के लए कु छ भी अभ य नह है।
279. इ यािण जरावशं कु व त।
इ यां बुढ़ापे के अधीन म कर देती ह।
280. सानु ोशं भतारमाजीवेत्।
जो सेवक के दख
ु -दद को समझता हो वही सेवा यो य है।
281. लु धसेवी पावके छया ख ोतं धमित।
कठोर यवहार वाले मा लक के सेवक आग के लए जुगनू को फंू कते ह।
282. िवशेष वािमनमा येत्।
यो य वामी का ही सहारा लेना चािहए।
283. पु ष य मैथुनं जारा।
अ धक मैथुन करने से पु ष शी ही वृ हो जाता है।
284. ीणां अमैथुनं जरा।
यां मैथुन न करने से शी वृ हो जाती ह।
285. न नीचो मयोिववाहः।
द ु और अ छे का िववाह नह होना चािहए।
286. अग यागमनादायुयश च पु यािन ीय ते।
न भोगी जाने वाली ी या बा लका के साथ सहवास करने से आयु, यश व पु य ीण हो जाते ह।
287. ना यहंकार समः श ुः।
अहंकार से बड़ा द ूसरा कोई श ु नह ।
288. संसिद श ु न प र ोशेत्।
सभा म श ु पर ोध नह करना चािहए।
289. श ु यसनं वणसुखम्।
श ु यसन सुनने से सुख िमलता है।
290. अधन य बुि न िव ते।
िनधन को बुि नह होती।
291. िहतम यधन य वा य न णोित।
िनधन का िहतकारक वा य भी नह सुना जाता।
292. अधनः वभायया यवम यते।
िनधन अपनी भाया से भी अपमािनत होता है।
293. पु पहीनं सहकारमिप नोपासते मराः।
पु पहीन छोटे आम को भी भंवरे याग देते ह।
294. िव ा धनमधनानाम्।
िव ा गरीब का धन है।
295. िव ा चौरै रिप न ा ा।
िव ा को चोर भी नह चुरा सकते।
296. िव ा यािपता याितः।
िव ा याित को फैलाती है।
297. यशः शरीरं न िवन यित।
यश पी शरीर का कभी नाश नह होता।
298. यः पराथमुपसपित स स पु षः।
जो परोपकार आगे बढ़ाता है, वही स पु ष है।
299. इ याणां शम शा म्।
इ य को शांत रखना ही बुि मानी है।
300. अशा कायवृ ौ शा ाकु शं िनवारयित।
बुराइय को हावी होने पर शा का अंकुश उसे रोकता है।
301. नीच य िव ा नोपेत या।
द ु क िव ा नह लेनी चािहए।
302. ले छभाषण न िश ेत्।
ले छ क भाषा न सीख।
303. ले छानामिप सुवृ ं ा म्।
ले छ क भी अ छी बात हण यो य होती ह।
304. गुणे न म सरः कायः।
गुण सीखने म आलस नह करना चािहए।
305. श ोरिप सुगुणो ा ः।
श ु के भी स गुण ले लेने चािहए।
306. िवषाद यमृतं ा म्।
िवष से भी अमृत ले लेना चािहए।
307. अव थया पु षः स मा यते।
यो यता से ही पु ष स मान पाता है।
308. थान एव नरा पू य ते।
अपने गुण से ही पु ष पू जत होते ह।
309. आयवृ मनुित ेत।
े वभाव को बनाए रख।
310. कदािप मयादां नाितमेत्।
मयादा का कदािप उ ंघन न कर।
311. ना यध पु ष र न य।
पु ष पी र न का कोई मू य नह आंका जा सकता।
312. न ीर नसमं र नम्।
ी र न के समान अ य र न नह है।
313. सुदल
ु भं र नम्।
रन ा करना बहत किठन होता है।
314. अयशो भयं भयेषु।
बदनामी सभी भय से बड़ा भय है।
315. ना यलस य शा गमः।
आलसी शा का अ ययन कभी नह कर सकता।
316. न ैण य वगाि धमकृ यं च।
ैण (वह पु ष जो य के जैसा यवहार करता है) से सुख चाहने वाले से वग ाि और धम-कम क अपे ा
रखना बेकार है।
317. योऽिप ैणमवम यते।
ी भी ऐसे ैण पु ष का अपमान करती है।
318. न पु पाथ स ित शु कत म्।
फूल को चाहने वाला मनु य सूखे वृ को नह स चता।
319. अ य य नो बालुका वथानादन यः।
िबना धन का काय मतलब बालू से तेल िनकालना है।
320. न महाजनहासः कत यः।
महान लोग का अनादर नह करना चािहए।
321. कायस पदं िनिम ािन सूचय त।
िकसी काय के ल ण ही उसक सि -अ सि क सूचना देते ह।
322. न ादिप िनिम ािन िवशेषय त।
न से भी भावी सि या अ सि क सूचना िमलती है।
323. न व रत य न परी ा।
अपने काय क सि चाहने वाला न से भा य क परी ा नह करता।
324. प रचये दोषा न छा ते।
प रचय म दोष िछपे नह रहते।
325. वयमशु ः परानाश ते।
वयं अशु यि द ूसर क शु ता पर संदेह करता है।
326. वभावो दरु ित मः।
वभाव को बदला नह जा सकता।
327. अपराधानु पो द डः।
अपराध के अनु प ही दंड देना चािहए।
328. कथानु पं ितवचनम्।
जैसा पूछा जाए, उसी के अनु प ही उ र होना चािहए।
329. िवभवानु पमाभरणम्।
वैभव के अनु प ही आभूषण होने चािहए।
330. कु लानु पं वृ म्।
कु ल के अनु प ही च र होना चािहए।
331. कायानु पः य नः।
काय के अनु प ही यास करना चािहए।
332. पा ानु पं दानम्।
यि व के अनु प ही दान देना चािहए।
333. वयोऽनु पः वेषः।
उ के अनु प ही वेश होना चािहए।
334. वा यनुकूलो भृ यः।
सेवक को वामी के अनुकूल ही चलना चािहए।
335. गु वशानुवत िश यः।
िश य को गु के अनुकूल आचरण होना चािहए।
336. भतृशानुवितनी भाया।
प नी को पित के अनुकूल आचरण ( यवहार) होना चािहए।
337. िपतृवशानुवत पु ः।
पु को िपता के अनुकूल आचरण होना चािहए।
338. अ युपचारः शंिकत यः।
अ धक औपचा रकता म शंका करनी चािहए।
339. वािमनमेवानुवतत।
सेवक सदा वामी क आ ाओं का पालन करे ।
340. मातृतािडतो व सो मातरमेवानुरोिदित।
माँ ारा पीटा गया ब चा माँ के आगे रोता है।
341. नेहवत व पो िह रोषः।
गु जन का गु सा भी नेहवत होता है।
342. आ मिछ ं न प यित प रिछ मेव प यित बा लशः।
मूख यि द ूसर के ही दोष देखता है, कभी अपने नह ।
343. सोपचारः कैतवः।
धूत द ूसर के कपटी सेवक बनते ह।
344. का यैिवशेषै पचरणमुपचारः।
वामी को िवशेष चाहने वाली व तु क भट देना ही धूत ं क सेवा है।
345. िचरप रिचतानाम युपचारः शंिकत यः।
पुराने प रिचत ारा अ धक स मान देना शंका यो य होता है।
346. गौद ु करा वसह ादेकािकनी य
े सी।
िबगड़ैल गाय भी हजार कु से े है।
347. वो मयूराद कपोतो वरः।
कल के मोर से आज का कबूतर भला।
348. अितसंगो दोषमु पादयित।
अ धक लगाव दोष उ प करता है।
349. सव जय य ोधः।
िबना ोध करने वाला सबको जीत लेता है।
350. य पका रिण कोपः कोपे कोप एवं कत यः।
दु यि के ोध करने पर ही अपना ोध कट कर।
351. मितम सु मूखिम गु व भेषु िववादो न कत यः।
बुि मान, मूख, िम , गु तथा वामी से िववाद न कर।
352. न यिपशाचमै वयम्।
ऐ वय िबना बुराइय का नह होता।
353. ना त धनवतां शुभकमसु मः।
धनवान का प र म शुभ काय ं म नह होता। होता है तो समझो कोई न कोई वाथ है।
354. ना त गित मो यानवताम्।
वाहन पर िनभर रहने वाले पैदल चलने का क नह करते।
355. अलौहमयं िनगडं कल म्।
प नी िबना लोहे क बेड़ी है।
356. यो च र कु शलः सत मन् यो यः।
जो यि जस काय म िनपुण है, उसे उसी काय म लगाना चािहए।
357. द ु कल ं मन वनां शरीरकशनम्।
िव ान क नजर म द ु प नी दःु ख का कारण है।
358. अ म ो दाराि री ेत्।
सावधानी से प नी का िनरी ण कर।
359. ीषु िक दिप न िव वसेत्।
य पर िबलकु ल भी िव वास नह करना चािहए।
360. न समा ध ीषु लोक ता च।
य म िववेक एवं लोक- यवहार का ान नह होता।
361. गु णां माता गरीयसी।
गु ओं म माता े है।
362. सवाव थासु माता भत या।
सभी प र थितय म माता का भरण-पोषण कर।
363. वैद ु यमलंकारे णा छा ते।
अ धक यो यता अलंकार से ढक जाती है।
364. ीणां भूषणं ल जा।
य का आभूषण ही ल जा है।
365. िव ाणां भूषणं वेदः।
वेद ही िव के आभूषण ह।
366. सवषां भूषणं धमः।
धम सभी का अलंकार है।
367. अनुप वं देशभावसेत।
जहां आतंकवादी न ह , उसी देश म रहना चािहए।
368. साधु जल बहलो देशः।
जहां स जन क अ धकता हो वही अ छा देश है।
369. रा ो भेत यं सावकालम्।
राजा से सदा डरना चािहए।
370. न रा ः परं दैवतम्।
राजा से बढ़कर परम देवता नह है।
371. सुद ूरमिप दहित राजवि ।
राजा के ोध क आग बड़ी तेज होती है और द ूर तक क बुराइय को जला देती है।
372. र ह तो न राजानमिभग छे त्।
राजा के पास खाली हाथ नह जाना चािहए।
373. गु ं च दैवं च।
म दर तथा गु के पास कभी खाली हाथ नह जाना चािहए।
374. कु टु बनो भेत यम्।
राज प रवार से कभी ई या नह करनी चािहए।
375. ग त यं च सदा राजकु लम्।
राजकु ल म बराबर जाते रहना चािहए।
376. राजपु षैः स ब धं कु यात्।
राज पु ष से अ छे स ब ध रखना चािहए।
377. राजदासी न सेिवत या।
राजमहल म रहने वाली से मेल-जोल कभी न बढ़ाएं।
378. न च ुषाऽिप राजातं िनरी ेत्।
राजा से आँख से आँख िमलाकर कभी बात नह करनी चािहए।
379. पु े गुणवित कु टु बनः वगः।
पु के गुणी होने पर प रवार वाल को हमेशा सुख ही सुख है।
380. पु ाः िव ानां पारं गमियत या।
पु को सभी िव ाओं म पारं गत बनाना चािहए।
381. जनपदाथ ामं यजेत्।
जनपद के लए गांव का याग कर देना चािहए।
382. ामाथ कु टु बं यजेत्।
गांव के लए प रवार का याग कर देना चािहए।
383. अितलाभः पु लाभः।
पु र न क ाि सभी सुख से बढ़कर है।
384. दगु तेः िपतरौ रि त स पु ः।
माता-िपता क परे शािनयां द ूर करने वाला ही पु है।
385. कु लं यापयित पु ः।
उ म पु कु ल गौरव होता है।
386. नानप य य वगः।
पु हीन यि को वग नह िमलता है।
387. या सूते सा भाया।
सु दर स तान को ज म देने वाली ही प नी है।
388. तीथसमवाये पु वतीमनुग छे त्।
कई रािनय के एक साथ रज वला होने के बाद राजा थम पु वती रानी के पास जाए।
389. सतीथगमनाद् चय न यित।
मा सक धम काल म सहवास करने पर चय का नाश होता है।
390. न पर े े बीजं िविनि पेत।
द ूसरे ी के साथ कभी सहवास न कर।
391. पु ाथा िह यः।
यां पु र न देने वाली होती ह।
392. वदासी प र हो िह दासभावः।
अपनी दासी से सहवास करना उसी का दास बनने के बराबर है।
393. उप थतिवनाशः प यवा यं न णोित।
जसका िवनाश होने वाला हो उसे अ छी बात नह सूझती।
394. ना त देिहनां सुखदःु खभावः।
ािणय को सुख-दःु ख तो लगा रहता है।
395. मातरिमव व साः सुखदःु खािन कतारमेवानुग छ त।
माँ के पीछे चलते ब चे के समान सुख-दःु ख मनु य के पीछे चलते ह।
396. ितलमा युकारं शैलष म यते साधुः।
स जन ितलवत उपकार को भी पवत के समान मानता है।
397. उपकारोऽनाय वकत यः।
द ु का कभी भला नह करना चािहए।
398. युपकारभयादनायः श ुभवित।
द ु के साथ उपकार करने पर वह उपकार न मानकर श ु बन जाता है।
399. व पम युपकारकृते युपकार कतुमाय विपित।
छोटे उपकार के बदले उपकार करने के लए स जन हमेशा जाग क रहता है।
400. न कदाऽिप देवताऽवम त या।
देवताओं का कभी अपमान नह करना चािहए।
401. न च ुषः समं योितर त।
आँख के समान योित नह है।
402. च ुिह शरी रणां नेता।
आँख ही ािणय के मागदशक ह।
403. अपच ुः िकं शरीरे ण।
िबना आँख वाले शरीर से या करना।
404. ना सु मू ं कु यात्।
जल म पेशाब न कर।
405. न न ो जलं िवशेत्।
न होकर जल म वेश नह करना चािहए।
406. यथा शरीरं तथा ानम्।
जैसा शरीर होता है, वैसा ही ान होता है।
407. यथा बुि तथा िवभवः।
जैसी बुि होती है, वैसा ही वैभव भी होता है।
408. अ वाि ं न िनि पेत।
आग म आग न डाल।
409. तप वनः पूजनीया।
तप वी पूजनीय होते ह।
410. परदारान् न ग छे त।
पराई ी के साथ संभोग नह करना चािहए।
411. अ दानं ूणह यामिप माि ।
अ दान करना ूणह या जैसे पाप से मु करा देता है।
412. न वेदबा ो धमः।
धम वेद से अलग नह है।
413. कदािचदिप धम िनषेवेत।
कभी-न-कभी तो धम का पालन करना ही चािहए।
414. वग नयित सुनृतम्।
स य आचरण से वग िमलता है।
415. ना त स या परं तपः।
स य से बढ़कर तप नह है।
416. स यं वग य साधनम्।
स य ही वग का साधन है।
417. स येन धायते लोकः।
स य ारा ही समाज म रहा जा सकता है।
418. स याद् देवो वषित।
स य से ही देवता स होते ह।
419. नानृता पातकं परम्।
झूठ से बढ़कर पाप नह है।
420. न मीमांसयः गुरवः।
गु जन क आलोचना नह करनी चािहए।
421. खल वं नोपेयात्।
बुरे िवचार कभी न अपनाएं।
422. ना त खल य िम म्।
द ु का कोई िम नह होता।
423. लोकया ा द र ं बाधते।
सामा जक यवहार म कमी द र मनु य को दःु खी करती है।
424. अितशूरो दानशूरः।
दानवीर ही स चा वीर है।
425. गु देव ा णेषु भि भूषणम्।
गु , देवता तथा ा ण के ित भि ही भूषण है।
426. सव य भूषणं िवनयः।
िवनय सबका भूषण है।
427. अकु लीनोऽिप िवनीतः कु लीनाि िश ः।
िवनीत अकु लीन भी कु लीन से े है।
428. आचारादायुवधते क ित च।
अ छे आचरण से आयु और क ित बढ़ती है।
429. ि यम यिहतं न व यम्।
ि य होते हए भी िहतकारी न हो उसे नह बोलना चािहए।
430. बहजनिव मेकं नानुवतत्।
बहत लोग को छोड़कर एक के पीछे न जाएं।
431. न दज
ु नेषु भा धेयः कत यः।
दज
ु न के साथ कभी साझेदारी नह करनी चािहए।
432. न कृताथषु नीचेषु स ब धः।
भा यशाली होने पर भी नीच से स ब ध न रख।
433. ऋणश ु या धिनिवशेषः कत यः।
ऋण, श ु तथा या ध को जड़ से न कर देना चािहए।
434. भू यादतु नं पु ष य रसायनम्।
स प जीवन िबताना ही यि के लए लाभदायक है।
435. ना थ व ा काया।
मांगने वाल का कभी अपमान नह करना चािहए।
436. द ु करं कम कारिय वा कतारवमवम यते नीचः।
किठन काय कराके भी नीच यि काम करने वाले को अपमािनत करता है।
437. नाकृत य नरकाि वतनम्।
पापी पु ष के लए नरक के सवाय कोई जगह नह ।
438. ज ाऽऽय तौ वृि िवनाशौ।
वृि और िवनाश ज ा के अधीन है।
439. िवषामृतयोराकरो ज ा।
जीभ िवष और अमृत क खान है।
440. ि यवािदनो न श ुः।
ि य बोलने वाले का कोई श ु नह होता।
441. तुता अिप देवता तु य त।
तुित िकए जाने पर देवता भी संतु होते ह।
442. अनृतमिप दवु चनं िचरं ित ित।
िनराधार दवु चन भी ल बे समय तक भूलते नह ह।
443. राजि ंनचव यम्।
राजा पर आरोप भरे श द नह बोलने चािहए।
444. ुितसुखात् कोिकलालापातु य त।
सुनने का तो सुख कोयल क कू ह-कू ह से िमलता है।
445. वधमहेतुः स पु षः।
स पु ष वधम हेतु होते ह।
446. ना य थनो गौरवम्।
धन से अ धक मोह होने पर स मान नह िमलता।
447. ीणां भूषणं सौभा यम्।
सौभा य य का भूषण है।
448. श ोरिप न पातनीया वृ ः।
श ु क भी जीिवका न नह करनी चािहए।
449. अ य नोदकं े म्।
िबना यास के जलीय ोत िमल जाए उसे ही अपना े समझ। अथात् जहां सव सुलभ व तुएं उपल ध हो जाएं।
450. एर डमवल य कु रं न कोपयेत।
कमजोर का सहारा लेकर बलशाली से न िभड़। एर ड का सहारा लेकर हाथी को कु िपत न कर।
451. अित वृ ा शा मली वारण त भो न भवित।
अित पुराना शाल वृ हाथी का ख भा नह होता।
452. अितदीघ िप किणकारी न मुसली।
कनेर का वृ बहत बड़ा भी हो तो भी मूसल बनाने के काम नह आता।
453. अित दी ोऽिप ख ोतो न पावकः।
अ य धक चमकने पर भी जुगनू आग नह होता।
454. न वृ व गुणहेतुः।
िनपुणता कोई ज री नह िक अ छे गुण का कारण है।
455. सुजीण ऽिप िपचमु दो न शकु लायते।
अित पुराना भी नीम सरोता नह बन सकता।
456. यथाबीजं तथा िन प ः।
जैसा बीज वैसा ही काय।
457. यथा णुतं तथा बुि ः।
जैसा सुना जाता है वैसी ही बुि हो जाती है।
458. यथा कु लं तथाऽऽचारः।
जैसा कु ल होता है, वैसा ही च र होता है।
459. सं कृत िपचम दो सहकारनवित।
पका हआ नीम आग नह बनता।
460. न चागतं सुखं यजेत्।
आए हए सुख का प र याग नह करना चािहए।
461. वयमेव दःु खम धग छित।
मनु य वयं ही दःु ख को बुलाता है।
462. राि चारणं न कु यित।
रात के समय यथ न घूम।
463. न चाध रा ं वपेत।
आधी राि को न सोएं।
464. ति िदम परी ेत।
िव ान के सम क चचा कर।
465. पर गृहं कारण न िवशेत्।
द ूसरे के घर म अकारण न जाएं।
466. ा वािप दोषमेव करोित लोकः।
लोग जानबूझकर अपराध करते ह।
467. शा धाना लोकवृ ः।
लोक- यवहार शा धान है।
468. शा ाभावे िश ाचारमनुग छे त्।
शा के अभाव म िश ाचार का पालन करना चािहए।
469. ना च रता छा ां गरीयः।
िश ाचार से शा बड़े नह ह।
470. द ूर थमिप चारच ुः प यित राजा।
अपने िववेक तथा गु चर ारा राजा द ूर क व तु को भी देखता है।
471. गतानुगितको लोको।
एक द ूसरे क देखा-देखी लोग अपना यवहार करते ह।
472. यमनुजीवे ं नापवदेत्।
जस पर आ त हो, उसक िन दा नह करनी चािहए।
473. तपः सारः इ यिन हः।
इंि य को वश म रखना ही तप का सार है।
474. दल
ु भः ीब धना मो ः।
य के मोह म लगे रहने से मो नह िमलता।
475. ीनामं सवाशुभानां े म्।
यां सभी बुराइय क जड़ ह।
476. न च ीणां पु ष परी ा।
ी पु ष के गुण क परी ा नह कर सकती।
477. ीणां मनः िणकम्।
य का मन बहत चंचल होता है।
478. अशुभ ेिषणः ीषु न स ा।
बुरे कम ं से द ूर रहने वाले पु ष य के च कर म नह पड़ते।
479. यशफल ा वेदिवदः।
तीन वेद को जानने वाले ही य के मह व व प रणाम को जानते ह।
480. वग थानं न शा वततं याव पु य फलम्।
वग- थान सदैव नह है।
481. न च वग पतना परं दःु खम्।
वग से पतन होने पर असाधारण दःु ख होता है।
482. देही देहं य वा ऐ पदं न वा छित।
ाणी शरीर को छोड़कर इ पद भी नह चाहता।
483. दःु खानामौषधं िनवाणम्।
दःु ख क औष ध िनवाण (मो ) है।
484. अनायस ब धाद् वरमायश ुता।
बुरे िम से तो समझदार श ु ही ठीक है।
485. िनह त दवु चनं कु लम्।
अि य बात कु ल का नाश करती ह।
486. न पु सं पशात् परं सुखम्।
पु पश से बड़ा कोई सुख नह है।
487. िववादे धममनु मरे त्।
िववाद म धम का मरण करना चािहए।
488. िनशा ते काय िच तयेत्।
राि के अंत म यानी ातःकाल म िदन भर काय ं पर िवचार करना चािहए।
489. दोषे न संयोगः कत यः।
ातःकाल सहवास नह करना चािहए।
490. उप थत िवनाशो दनु यं म यते।
जसका िवनाश होता है, वह अ याय पर उतर आता है।
491. ीरा थनः िकं क र यः।
द ूध का इ छु क ह थनी से या करे गा?
492. न दानसमं व यं व यम।
दान के समान कोई उपकार नह है।
493. पराय तेषू क ठा न कु यात्।
द ूसरे के हाथ म चली गई व तु को पाने के लए उतावले मत बनो।
494. अस समृि रसि रे व भु येत।
बुरे तरीके से कमाया हआ धन बुरे लोग ारा ही भोगी जाती है।
495. िन बफलं काकैरे व भु यते।
नीम का फल कौओं ारा खाया जाता है।
496. ना भो ध तृ णामपोहित।
समु यास नह बुझाता।
497. बालुका अिप वगुणमा य ते।
बालू भी अपने गुण का अनुसरण करती है।
498. स तोऽस सु न रम ते।
स त को अस त के बीच म आन द नह आता।
499. न हंसः ेतवने रम ते।
हंस को मशान म अ छा नह लगता।
500. अथाथ वतते लोकः।
मनु य धन के लए बदल जाता है।
501. आशया ब यते लोकः।
संसार आशा ारा बांधा जाता है।
502. न चाशापरे ः ी सह ित ित।
केवल आशा रखने वाले के साथ ल मी नह ठहरती।
503. आशापरे न धैयम्।
अ धक उ मीद वाला होने मा से धैयशील नह हो सकते।
504. दै या भरणमु मम्।
गरीबी से मृ यु अ छी है।
505. आशा ल जां यपोहित।
आशा ल जा को द ूर कर देती है।
506. न मा ा सह वासः कत यः।
एका त म माता के साथ भी न रह।
507. आ मा न तो वयः।
अपनी शंसा नह करनी चािहए।
508. न िदवा व नं कु यात्।
िदन म नह सोना चािहए।
509. न चास मिप प ये यै वया ध न ऋणोती ं वा यम्।
धन से अंधा यि ािनय क बात नह सुनता।
510. ीणां न भतुः परं दैवतम्।
पित ही य का परम देवता है।
511. तदनुवतनमुभयसुखम्।
पित के अनुकूल यवहार करना दोन को सुखी बनाता है।
512. अित थम यागतं पूजये यथािव धः।
घर आए हए अित थ को जतना हो सके उतना स मान देना चािहए।
513. ना त ह य य याघातः।
य म दी गई हवन साम ी कभी बेकार नह होती।
514. श ुिम वत् ितभाित।
बुि होने पर श ु िम जैसा िदखाई देने लगता है।
515. मृगतृ णा जलवत् भाित।
लालची बुि होने पर रे िग तान भी जल जैसा िदखाई देने लगता है।
516. दमु धसामस छा ं मोहयित।
बुि हीन को िनक मेपन क िश ा देने वाली पु तक अ छी लगती ह।
517. स संगः वगवासः।
स संग वग म रहने के समान है।
518. आयः विमव परं म यते।
आय लोग द ूसर को भी अपने ही समान मानते ह।
519. पानुवत गुणः।
गुण प के ही अनुसार होते ह।
520. य सुखेन वतते देव थानम्।
जहां सुख िमले वही अ छा थान है।
521. िव वासघाितनो न िन कृितः।
िव वासघाती क मुि कभी नह होती।
522. दैवाय ं न शोचयेत।
दभु ा य पर दःु ख नह करना चािहए।
523. आ त दःु खमा मन इव म यते साधुः।
स जन द ूसर के दःु ख को अपना ही जैसा मानते ह।
524. गतमा छा ा यद् वद यनायः।
दु यि दय क बात को िछपाकर कु छ और ही बोलता है।
525. बुि हीनः िपशाच तु यः।
बुि हीन यि िपशाच के समान होता है।
526. असहायः प थ न ग छे त्।
माग म अकेले नह जाना चािहए।
527. पु ो न तोत यः।
पु क तुित नह करनी चािहए।
528. वामी तोत योऽनुजीिविभः।
सेवक को वामी क शंसा करनी चािहए।
529. धमकृ ये विप वािमन एवं घोषयेत्।
धािमक काय ं म भी वामी को ही य
े देना चािहए।
530. राजा ां नाितलंघत
े ्।
राजा क आ ा का उ ंघन नह करना चािहए।
531. यथाऽऽ ं तथा कु यात्।
जैसी आ ा हो वैसा ही करना चािहए।
532. ना त बुि मतां श ुः।
बुि मान का कोई श ु नह होता।
533. आ मिछ ं न काशयेत्।
अपनी कोई गु बात कभी कट न कर।
534. मानेव सव साधयित।
माशील यि अपनी शंसा ा कर लेता है।
535. आपदथ धनं र ेत्।
आप से बचने के लए धन क र ा कर।
536. साहसवतां ि यं कत यम्।
साहसी पु ष को काय ि य होता है।
537. व कायम कु व त्।
कल का काय आज ही कर लेना चािहए।
538. आपराि कं पूवाहत एवं कत यम्।
दोपहर के काय को ातःकाल ही कर ल।
539. यवहारानुलोभो धमः।
यवहार के अनुसार ही धम है।
540. सव ता लोक ता।
जो सांसा रकता का अनुभवीय ात होता है, वही सव होता है।
541. शा ोऽिप लोक ो मूख तु यः।
शा जानने वाला यिद लोक- यवहार नह जानता तो वह मूख के समान होता है।
542. शा योजनं त व दशनम्।
सम त व तुओं का यथाथ ान कराना ही शा का उ े य होता है।
543. त व ानं कायमेव काशयित।
काय ही त व ान माग कािशत करते ह।
544. यवहारे प पाते न कायः।
यवहार म प पात नह करना चािहए।
545. धमादिप यवहारो गरीयान्।
धम से भी यवहार बड़ा है।
546. आ मा िह यवहार य सा ी।
आ मा यवहार क सा ी है।
547. सवसा ी ा मा।
आ मा सवसा ी है।
548. न यात् कू टसा ी।
झूठी सा ी (गवाह) नह होना चािहए।
549. कू टसाि णो नरके पत त।
झूठी गवाही देने वाले नरक म िगरते ह।
550. छ पापानां साि णो महाभूतािन।
िछपकर िकए गए पाप के पंच महाभूत ह।
551. आ मनः पापमा मैव काशयित।
अपने िकए हए पाप को यि क आ मा बता देती है।
552. यवहारे ऽ तगतमाचारः सूचयित।
यवहार से ही आचरण जाना जाता है।
553. आकारसंवरणं देवानामश यम्।
आचरण के अनुसार ही मुखमंडल हो जाता है।
554. चोर राजपु षेे यो िद ं र ते।
चोर एवं राज पु ष से अपने धन क र ा करो।
555. ददु शना िह राजानः जाः नाशय त।
अपनी जा क खोज-खबर न लेने वाला राजा उस जा को न कर देता है।
556. सुदशना िह राजानः जाः र य त।
खोज-खबर लेने वाले राजा जा को स रखते ह।
557. याययु ं राजानं मातरं म यते जाः।
यायी राजा को जा माँ समझती है।
558. ता शः स राजा इह सुखं ततः वगमा नोित।
जा का याल रखने वाले राजा इस लोक म सुख भोगकर वग ा करता है।
559. अिहंसा ल णो धमः।
अिहंसा ही धम का ल ण है।
560. शरीराणाम् एव पर शरीरं म यते साधुः।
साधु पु ष अपने शरीर को द ूसर क भलाई म लगा देते ह।
561. मांसभ णमयु ं सवषाम्।
मांस-भ ण सभी के लए बुरा है।
562. न संसार भयं ानवताम्।
ािनय को संसार का भय नह होता।
563. िव ान दीपेन संसार भयं िनवतते।
िव ान के दीप से संसार का भय भाग जाता है।
564. सवमिन यं भवित।
सब कु छ न वर है।
565. कृिमशकृ मू भाजनं शरीरं पु यपपज महेतुः।
पाप पु य का हेतु शरीर कृिम मल-मू का पा है।
566. ज ममरणािदषु दःु खमेव।
ज म-मरण आिद म दःु ख ही है।
567. सते य तुतु यतेत।
अतः ज म-मृ यु से पार होने का य न करना चािहए।
568. तपसा वगमा नोित।
तप से वग ा होता है।
569. मायु य तपो िववधते।
मा करने वाले का तप बढ़ता है।
570. स मात् सवषां काय सि भवित।
मा करने से सभी काय ं म सफलता िमलती है।

You might also like