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❝य ा ातम जग व य ेव लीयते।
येनेदं धायते चैव त ै ाना ने नमः॥

िजस से सारा जगत उ आ है , िजसम ही


वह लीन होता है और िजस के ारा वह धारण
भी िकया जाता है उस ान प परमा ा
को मेरा नम ार है❞

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जय ी राम िम ों...

यह पु क मने किठन प र म एवं अनेकों ं थों के अ यन के


बाद िलखी ं ह, इसके लेखन म मुझे लगभग एक वष का समय
लगा और ई र की कृपा से अब लगभग यह पूरी हो चुकी है
समय की कमी के कारण कुछ एक समु ासों का खंडन न
िलख सका पर ु शी अित शी उनका खंडन भी तै यार हो
जाएगा िजसे कुछ िदनों बाद इसी के साथ जोड़ िदया जएगा, पं०
ाला साद िम का म िवशेष आभारी ँ िजनके ारा िलखी ं
पु क का अ यन करक मने यह स ाथ काश का खंडन
तै यार िकया है ,

यह पु क चार खंडों म िवभ है , िजसका

थम खं ड- दयानंद की वा िवकता (इस खंड म दयानंद के


स ूण जीवन च र , स ाथ काश एवं उनके वे दभा ों की
रचनाकाल पर काश डाला गया है , इसके अत र ईसाई
िमसनरी सभा िथयोसोिफकल सोसाइटी के साथ दयानंद के
स ो और उनके काशी शा ाथ के बारे म िव ार से बताया
गया है )

ि तीय खं ड- स ाथ काश की समी ा (इसम ामी जी ारा


रिचत 'स ाथ काश' का क ा िच ा खोलकर उनके कपोल
क त मत की तबीयत से ध यां उडाई है )

तृतीया खं ड- दयानंद वे दभा खंडनम् (इसम ामी जी ारा


िकये िम भा ों की ध यां उडाते ए यह िस िकया है िक
ामी जी को सं ृ त की तिनक भी समझ न थी इसके
अित र दयानंद ारा िकये अ ील भा ों का िनषेध िकया
है )

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चतुथ खं ड- ना क आय समाजीयों को जबाव (इस खंड म
इं टरनेट जगत से ली गई साम ी ारा, ना क आय समाज
ारा लगाये गये आरोपों का खं डन कर उ उ र िदया गया है )

यहाँ मने आय समाजीयों का िवशेष ान रखा है , आय


समाजीयों की हमेशा यह िशकायत रहती है िक "िजन ं थों के
आर म 'अथ' लगा हो उ ही ऋिष कृत ं थ जानना चािहए
उससे िभ को नही"ं सो इस पु क म मने दयानंदीयों की यह
िशकायत भी दू र कर दी, इस पु क के आर म 'अथ' लगा
है , और सब माण वे दािद ं थों से ही िलख ह सो इसे भी ऋिष
कृत ही जानना।

पाठकों से िवशेष िनवे दन है िक यिद इस पु क म कोई भू ल


रह गई हो तो वह मुझे www.facebook.com/polparkash
और www.hindumantavya.blogspot.in पर कमे या
मैसेज (सं देश) के ारा अपनी िशकायत वा सु झाव दे सकते ह,
यिद आव कता ई तो इसम शोधकर इस पु क को दु बारा
तै यार कर िदया जाये गा

ध वाद

~उपे कुमार 'बागी'

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िजन िजन ं थों का इसम वणन है ।

वे द
ऋक् यजु, साम, अथव
ा ण
ऐतरे य, शतपथ, ता य, गोपथ
उपिनषद
ईश, केन, कठ, , मु , मा ू , तैि रीय,
बृ हदार क, छा ो
धमशा
या व , मनु ृित
दशन
महाभारत, रामायण, इितहास, पु राण

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िवषयानु मिणका

भू िमका ..…009
थम खंड- दयानं द की वा िवकता
१• दयानं द आ च रत (एक अधूरा सच) …..017
२• दयानं द, स ाथ काश एवं उनके वेदभा ों िक
वा िवकता …..056
३• ईसाई िमशनरी सभा िथयोसोिफकल सोसायटी से
दयानं द के स …..066
४• काशी शा ाथ …..078
ि तीय खंड- स ाथ काश की समी ा
५• स ाथ काश अ गत भू िमका की समी ा …..085
६• थम मु ास की समी ा …..091
७• ि तीय मु ास की समी ा …..111
८• तृतीया मु ास की समी ा …..130
९• चतुथ मु ास की समी ा …..187
१०• पंचम मु ास की समी ा …..267
११• ष मु ास की समी ा …..278

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१२• स म मु ास की समी ा …..289
१३• अ म मु ास की समी ा …..344
१४• नवम् मु ास की समी ा …..368
१५• दशम् मु ास की समी ा …..370
तृतीया खंड- दयानं द कृत वे दभा ों िक समी ा
१६• दयानं द का कामशा …..380
१७• न भे दी दयानं द …..400
१८• ामी दयानं द एकादश िनयोग की दे न …..408
१९• महिष या िफर महाचुितया …..428
२०• पशु िहं सक दयानं द (िजहादी दयानं द) …..434
चतुथ खंड- ना क एवं िनयोग समाजीयों (आय
समाजीयों) को जवाब
२१• आय अथात े आय संबोधन का श …..440
२२• सुधारक, िन क या सहायक …..453
२३• ा ां ितकारी आय समाज से थे? …..463
२४• ा चाण मू ितपूजा िवरोधी थे? …..467
२५• दयानं द का अद् भु त िव ान …..472

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ॐ इ ेतद रिमदं सव त ोप ा ानं भूतं भव िव िदित
सवमोंकार एव।

य ा कालातीतं तद ोंकार एव॥

भू िमका

पूव काल मे भारतवष िव ा बु और सवगुणों की खान


था, िजस समय इस भारत वष की कीितपताका भू मंडल
के चारो तरफ फहरा रही थी, उस समय कनो से सुनी
कीितयो और ने ो से दे खने िनिमत दू र दे शो से लोग यहाँ
आते थे , और अपने ने ो को सुफलकर यहाँ की अतुलनीय
कीित को अपनी भाषा के ंथो मे रचते थे, वे ंथ आज भी
इस दे श की गु ता और कीित का रण कराते है , िजस
समय यह िव अ ाना कार मे म था पृ ी के
अिधकां श भाग अस ता पूण ही रही थी उस समय यही
दे श धम आ कता और भ और स ता के पूण
काश से जगमगा रहा था, उस समय इस दे श मे ही ान
िव ान गिणत दशन ोितष का पुराण सािह धमािद
िवषयो मे पूण उ ित की थी,
क प मरीिच िव ािम आिद जहा के ऋिष, ास
बा ीिक कािलदास जहा के किव, ध र सु ु त चरक
आिद जहा, के वै , गौतम कणाद किपल जहा के
शा कार, नारद मनु बृह ित जहा के धमपदे ा, विश
आयभ पराशर आिद जहा के ोितिवद, शं कराचाय,

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रामानुज ामी, व भाचाय जहा के धम चारक,
सायणाचाय, य दे व म नाथ जहा के भा कार,
अमरिसंह, महे र जहा के कोषकार हो गए है , ऐसा एक
ही दे श है और वो भारत ही है ।
िजस समय मे यह सब साम ी िव मान थी, उस समय इस
दे श मे सनातन वैिदक धम पूण प से चिलत था, नरपित
ऋिषमुिनयो के य से पु े , प य से थयो के
घर, और अर क पाठ से कानो मे पु का वाह बह
रहा था, सनातन धम की मिहमा और भ सबके
अंतःकरण मे खल रही थी।
परं तु समय की भी ा अलौिकक मिहमा है , की
सूयमं डल को आकाश मे चढ़कर म ा समय महाती ण
होकर िफर से नीचे उतरना पड़ता है ठीक वही दशा इस
दे श की ई, जो सबका िशर मौर था वो पराधीनता के भार
से महापीिङत हो रहा है , भारत के उपरां त यह दे श
िवदे शी चढ़ाइयों से गारत होकर ऐसा आहत आ है , की
िन ार बलहीन होकर आल का भं डार हो गया है ,
इसकी िव ा बु सब िवदे शी िश ा मे लय हो गयी है ,
धम कम मे असावधानी हो गयी है , सं ृ त िव ा जो
ि जमा का आधार थी, उसके श भी अब शु नही
उ ारण होते, इस कार धम िवलु होने से अने क
मतभे द भी हो गए है , िजस पु ष को कुछ भी सहायता
िमली झट उसने अपना नवीन पंथ की कलपना कर श
की क ना कर ली, और िश ो को उपदे श दे ना

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आरं भ कर िदया, इसका फल इस दे श मे यह आ की
फूट का वृ उतप हो गया और सत् धम ने बाधा पड़ने
लगी, इन नवीन मतो से हािन तो हो ही रही थी, इसी समय
दयान सर ती ने अपना मत चलाकर कोप लीला
ार की, इसमे भ , भाव मू ितपूजा, अवतार, ा ,
पाप दोइर होना, तीथ, माहा आिद का िनषे ध करके
जप तप, आचार िवचार, जाती को मे टकर, कम से
ा णािद वण, िनयोग- चार, ी के एकादश ( ारह)
पित आिद करने की िविध आिद की आ ा दे कर वेद मे
रे ल, तार, कमे टी आिद का वणन कर सब कुछ वेदों के
नाम से ही िलख िदया है , इससे सं ृ त ना जानने वाले
सनातन धम से हीन हो उनकी ा ा सुन अपने महान
पु षो की गित ाग इस नाम मा मे मगन हो जाते है ,
इनके संगठन का नाम आय समाज है , तथाकिथत स ासी
जी के बनाये ए ंथो मे दू सरी बार का छपा
स ाथ काश ही इस मत का मू ल है , ामी जी के
अनु यायी इसको प र की लकीर समझते है , इसका पाठ
करते है और कोई कोई इसकी कथा भी कहाते है ,
समािजयों मे इसका पाठ होता है , और शा ाथ मे माण
भी उसी से दे ते है , ात रहे की वतमान म मौजू द स ाथ
काश ामी दयानं द ारा िनिमत स ाथ काश का ही
ि तीय सं रण है यह संशोिधत सं रण है , िजसे ामी
जी के ारा की गई मू खता पर पदा डालने के िलए आय

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समाजीयों ारा दौबारा ामी जी की मृ ु के बाद १८८४
म "वैिदक यं ालय" ारा मु ि त कराया गया।
पर ु समाजी नवीन समाजीयों को िमत करने के िलए
इसे ामी जी के जीते जी १८८२ म छपा बताते ह, और
संशोिधत स ाथ काश (ि तीय सं रण) की भू िमका मे
िलखते ह की-
"स ाथ काश को दू सरी बार शु कर छपवाया है ,
ोंिक िजस समय यह ंथ बनाया था, उस समय और
उसके पूव सं ृ त भाषण करना, पठन-पाठन मे सं ृ त
ही बोलने का अ ास और ज भू िम की भाषा गुजराती
थी, इ ािद कारणों से मु झ को इस भाषा का िवशे ष
प र ान नही था, अब इसको अ े कार से भाषा के
ाकरणानु सार अ ास भी कर िलया है , इसिलए इस
समय इसकी भाषा पूव से उ म है , कही कही श वा
रचना का भे द आ है , वह करना उिचत था ोंिक उसके
भे द िकये िबना भाषा की प रपाटी सुधरनी किठन थी, परं तु
अथ का भे द नही िकया गया है , ुत िवशे ष तो िलखा
गया है हा, जो थम छपने मे कही कही भू ल रह गयी थी,
वह वह िनकाल कर शोधकर ठीक ठीक कर िद गयी है "
इससे यह है की दू सरी वाली स ाथ काश पर
उनके अनु यायी अिधक ा रखते है , ले िकन नवीन
समाजी ये नहीं जानते िक ये भू िमका नवीन समाजीयों को
िमत करने के िलए तैयार की गई है , िजसका खं डन हम

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इस पु क के थम खं ड (दयानं द, स ाथ काश और
उनके वेद भा ों की वा िवकता) म कर चुके ह।
जहाँ तक मे री बु की प चँ है तो स ाथ काश वेद
शा ितकूल और पर र िव बातों से भरा आ
िदखता है , इसमे वेद के नाम से लाल बाग िदखाया गया है
और सं ृ त अनिभ ो को वशीभू त करने को श र की
माया िदखाई दे ती है , इसके अनु यािययों के अनगल बातो
को सुनकर दे खकर मु झे इसकी समी ा की आव कता
ई कारण की इसकी समी ा से दे श का उपकार होकर
सनातन धम की वृ होगी और इसको पढ़कर मनु इस
कपोल क त मत से बचगे।
अब ोिक यह मत ामी जी ारा थािपत िकया गया है
अतः उ ीं के ंथों की समालोचना करना उिचत है , सो
इस पु क मे ामी जी के कपोल क त ंथ का
ाचीन ंथों से िमलान कर स नों के सामने गट करता
ँ उससे बु मान यं स -अस का िनणय कर
सकगे, स ाथ काश दो भाग मे है पूवाध और उ राध,
पूवाध के १० स ुलासों मे ामी जी ने अपना मं त
कािशत कर नवीन धम की िनव डाली है और उ राध के
४ संमु ासों मे आयवत य मतों का खं डन िकया है , जै न,
बौ , चावाक, ईसाई तथा यवनों का भी खं डन िकया है
इनके खं डन से हमारा योजन नही है , हमको थम
उनके ारा थािपत मत की परी ा करनी है , िजसको वे
वेदानु सार बताकर मनु ों को म मे डालते है , खं डन

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करने से मे रा योजन े ष श ु ता या िकसी का जी दु खान
से नही है , िक ु इसके िलखने का योजन केवल यह है
की मनु को स अस का ान होकर ामी जी के
ंथों का वृतां त िविदत हो जाये की उनके अनु सार चलने से
हम वतमान मे धम पथ पर थत है या नही,
मने जो इस पु क मे माण िलखे है िजनको ामी जी ने
माना और अपने ंथ मे िलखा है और मं ो के अथ ाचीन
भा ानु सार िलखे है , सनातन धमावलं िवयों को इससे
महालाभ की संभावना है कारण की स ू ण धम िवषय वेद
से भा सिहत ितपािदत िकये गए है , िजससे िकसी
कार की ा नही रहती, धम की ा और पाखं ड
की िनरवृि ही इस पु क का उ े है ,आय समािजयों
से िवशे ष ाथना है की जब भी वो इस पु क को पढ़ तो
शां ित से िवचारे और यिद बकरे की तीन टां ग का ही हठ
है , तो स अस का िनणय नही हो सकेगा और िफर
िकसी के कुछ भी समझाने का कोई फल नही होगा।
अ :सुखमारा :सुखतरमारा तेिवशेष : ।
ा दु िवद दयं िपतंनरं नर यित ॥
अथात- अ ानी सुख से और ानी महासुख से समझाया
जा सकता है परं तु ान दु िव दय वाले मनु को
यम ा जी भी नही समझा सकते।
पाठक महाशयो से िनवेदन है की यिद इसमे कोई भू ल रह
गयी हो तो अव हमे सूिचत कर दे , उिचत होगी तो

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दू सरी बार बना दी जायेगी, आपको लाभ होने से मे रा
प र म सफल होगा।

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दयानंद आ च रत (एक अधू रा सच)

ामी दयानं द एक साधारण मनु थे , और उनके अंदर भी


साधारण मनु ों की ही भाँ ित सभी गुण व दोष मौजू द थे, इसीिलए
जब उ ोंने अपना आ च रत दु िनया के सामने रखा तो िनि त ही
एक साधारण मनु की भाँ ित िसफ उनकी अ ी बाते ही दु िनया
तक प ं चे ऐसी कोिशश की होगी, और यही िकया भी, ोिक जब
हम इितहास पर ि डालते है और उनका जीवन च र पढ़ते है तो
हमे केवल वही िदखता है जो वो हम िदखाना चाहते होंगे, कौन
जाने सच ा होगा?
ोिक उनके जीवन च र म काफी बात ऐसी ह जो आधे अधूरे
सच की तरफ इशारा करती है , िजनकी मािणकता इितहास के
अंधेरों म सदा सदा के िलए खो गयी है , जै से-
१• ामी दयानं द का ज -
(अ) आय समाजी गपोड़ा- ामी दयानं द का ज गुजरात ा
के कािठयावाड़ के मौरवी रा म टं कारा नामक ाम म १२
फरवरी १८२४ को आ था।
(ब) ामी दयानं द के अनु सार- दयानं द ने अपनी जीवनी सन्
१८७६ म िलखीं और १८८०, म िथयोसोिफ प म उसे छपवाया।
दयानं द अपने आ च रत के पृ सं ा १ म िलखते ह िक- मने
िजस प रवार म ज हण िकया वह एक िव ृ त स ि स

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प रवार था, हमारा कुटु इस समय १५ पृथक-पृथक प रवारों म
िवभ है और इस समय मे री अव था ४६ वा ५० वष की है ।

समी ा-- ऊपर िलखीं दोनों ही वता िजसम एक तो दयानं दीयों


ारा तैयार क त दयानं द च रत और दू सरी यं दयानं द ारा
िलखीं आ च रत है , इन दोनों म से कौन सी बात स मान और
कौन सी अस , यह तो अब हमारे दयानं दी भाई ही बता सकते ह,
अब जबिक दयानं द ने अपने आ च रत म यह िलखा है िक
इस आ च रत को िलखते समय अथात १८७६ म उनकी उ ४६
वा ५० वष की है अथात यं ामी जी को ही अपनी ठीक-ठीक
उ का पता नहीं था, उनके इस ले खानु सार उनका ज १८२२ से
१८२६ के आसपास आ था, पर ु हमारे दयानं दी भाई तो यह
कहते ह िक "दयानं द जी का ज गुजरात ा के कािठयावाड़ के
मौरवी रा म टं कारा नामक ाम म १२ फरवरी १८२४ को आ
था" दयानं दी यह बात इतने िव ास के साथ िलखते ह जै से मानों
दयानं द के ज के समय वही पर उप थत थे , सो यहाँ आय
समाजीयों से हमारा यह है िक जब दयानं द को ही अपनी
ठीक-ठीक उ का पता नहीं था, तो िफर दयानं दी िकस आधार पर
इतने िव ास के साथ यह कहते ह िक दयानं द का ज १२ फरवरी
१८२४ को आ था, दयानं दी इस बात को साफ कर िक वह इनम
से कौन सी बात स मानते ह जो यं दयानं द ने अपने
आ च रत म िलखीं ह या िफर दयानं द के अ भ िनयोगी
चमचों ारा तैयार यह क त दयानं द च रत?

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२• दयानं द के बचपन का नाम, उनके माता और िपता का
नाम आिद-
(अ) आय समाजी गपोड़ा- दयानं दीयों के अनु सार ामी दयानं द
के बचपन का नाम मू लजी दयाराम था तो कुछ कहते ह िक उनके
बचपन का नाम मू लशं कर था, इसी कार दयानं द के माता, िपता
के बारे म कुछ लोग कहते ह िक उनके िपता का नाम अ ाशं कर
और माता का नाम यशोदाबाई था, तो वही कुछ का कहना है िक
उनके िपता का नाम करशनजी लालजी ि वेदी और माता का नाम
यशोदाबाई था।
अब आइए दयानं द ा कहते ह वो भी दे ख ले ते ह।
(ब) दयानं द के अनु सार- दयानं द अपने आ च रत के पृ
सं ा १ म िलखते ह िक- अने क लोग यह िज ासा करते ह म
ा ण ँ वा नही, और वे लोग अनु रोध करते ह िक इसके माण
के िलए अपने कुटु यों का नाम बतलाओं अथवा उनम से िकसी
का िलखा आ कोई प िदखलाओं, ये कहना अनाव क है िक
गुजरातवासी लोगों के साथ म अिधकतर अनु रागसु म िनब ँ,
अपने कुटु यों के साथ यिद मे रा िकसी कार से सा ात् हो जाए,
तो िजस सां सा रक अशां ित से मने अपने आप को तं िकया ह
िफर मु झे उसी अशां ितजाल म िन य ही फसना होगा, इसी कारण
से म अपने कुटु यों के नाम बतलाना व उनम से िकसी का िलखा
प दशन करना उिचत नहीं समझता।
समी ा-- अब यह बात तो हम हमारे दयानं दी भाई समझा सकते
ह िक जब ामी दयानं द ने अपने आ च रत म अपने माता िपता

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कुल गो आिद के बारे मे कुछ भी िलखने वा बताने से साफ-साफ
मना कर िदया, तो िफर दयानंदी िकस आधार पर इतने िव ास के
साथ यह बात कहते ह िक "दयानं द की माता का नाम यशोदाबाई
और उनके दो िनयोगी िपता िजनके नाम मशः अ ाशं कर और
करशनजी लालजी ि वेदी थे , वैसे यह कोई आ य की बात भी नहीं
है ोंिक ामी जी के मतानुसार एक ी एकादश ( ारह) पित
तक कर सकती है , जब यह हाल है िक एक ी के ारह पित हो
सकते ह तो िफर ामी दयानं द जी के दो िपता ों नहीं हो
सकते? शाबाश! दयानं दीयों ऐसे ही लग रहो और म तो कहता ँ
एक बार िफर से जाँ च कर, ा पता यशोदाबाई के दो से अिधक
िनयोगी पित िस हो जाये।
ामी जी के इस ले ख से यह तो हो जाता है िक ामी जी के
ज और उनके वण का पता लग पाना लगभग असंभव है , और
ऐसे के िलए ामी जी स ाथ काश थम सं रण के
पृ ६७ म िलखते ह िक मले नाम िनं िदत नहीं है िजन पु षों के
आचरण म वण का उ ारण नहीं होता उनका नाम मले
है ,
दयानं द के ले खानु सार वे मले ठहर अब दयानं दीयों को
अिधकार है िक वह अपने गु की आ ा को ीकार कर या िफर
ितर ार,
और सुिनये इसी ले ख म आगे दयानं द जी िलखते ह िक “अपने
कुटु यों के साथ यिद मे रा िकसी कार सा ात् हो जाये तो िजस

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सां सा रक अशां ित से मने अपने आपको तं िकया ह िफर मु झे
उसी अशां ितजाल म िन य ही फसना होगा”
अब यहाँ ामी जी से हमारा यह है िक उ ोंने यह बात ा
सोचकर िलखीं ह? यह म ामी जी के मन म कैसे उ हो गया
िक उ ोंने सां सा रक अशां ित से यं को तं कर िलया, शायद
यहाँ ामी दयानं द अपने आप को अ ानवश स ासी समझ बैठे
ह, इस कारण यह बात िलख दी हो, पर ु स ासीयों वाले ल ण
ामी जी म िदखते नहीं, सुिनये कठोपिनषद म इस कार कथन है
िक—
नािवरतो दु रता ाशा ो नासमािहतः।

नाशा मानसो वाऽिप ानेनैनमा ुयात्॥

~कठोपिनषद {व ी २, मं त्र २४}

जो दु राचार से पृथक नहीं, िजसका मन शां त नहीं, िजसकी आ ा


योगी नहीं वह स ास ले कर भी परमा ा को ा नहीं कर
सकता, अथात उसका स ास ले ना थ है , जो पु ष काम, ोध,
मद, लोभ, मोह, इन पां च िवकारों से मु है वही स ासी है ।
पर ु ामी जी म तो यह इ ाएं और अवगुण कूट-कूट के भरी
ई ह, भला स ासी होकर चोंगा बूट जु ता पहनना, घड़ी बां धना,
ा िपना, कुस मे ज योग करना, पयाँ बटोरना, मां सभि यों
के हाथ से भोजन ले कर भोजन करना, ोध करना, गािलयाँ दे ना
िकस थ म िलखा है और सां सा रक अशां ित िकसे कहते ह? इसे
ही तो कहते ह, और दयानं द जी ने संसार का ाग िकया ही कब?
स ासी तो उसे कहते ह जो संसार के वहार से कुछ स

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नहीं रखता, लोक म जन िनं दा कर वा ु ित, और अ ित ा कर तो
भी िजसके िच म कुछ हष शोक न हो वही स ासी कहलाने
यो है ले िकन दयानं द जी की तो कोई िनं दा करता है तो उ
िकतना दु ख होता है तुर उसको उ र दे ने म किटब हो उस
पर गािलयों की वषा करने लगते ह, िवतैषणा का ाग भी ामी
जी के अ र नहीं पाया जाता, धन की इ ा तो ामी जी के अ र
इस हद तक है िक उसकी पूित नहीं होती, धन की ा के िलए
कैसे-कैसे य िकये, भीख माँ ग-माँ ग कर अपना िनजी यं ालय
खोला, उसके प ात भी पु कों के मु दोगुने तीनगुने रख,
तु ारी पु क कोई और न छाप सक इसिलए उसकी रिज ी
करवाईं, उपदे श म ली के नाम से एकल पयाँ एकि त
करने म यथाश य िकया गया, लोभ ने तु ारे मन म यहाँ
तक िनवास िकया था िक धनवानों पूंजीपितयों से ि ितसमे त घंटों
वता होती थी िनधनों की तो बूझ ही न थी, ित ा इतनी चाहते थे
िक हमे शा कोठी, बंगल और महलों म ही ठहरते थे, पु तो था ही
नहीं पर ु जो मु सेवकािद है उनम तुम ि ित करते हो,
कामवासना तो मन म ऐसे भरी थी िक अपने अ ील ले ख एवं
भा ों से वेदभा और यं िनिमत ंथों को भर िदया,
तो लो तुम इन सब िवकारों से मु नहीं इसिलए स ासी भी नहीं
हो, इससे तु ारे मन म उ यह म की तुमने सां सा रक अशां ित
का ाग कर िदया, िम ा िस आ।

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३• िपता से घृ णा और माता से े म का रह -
दयानं द अपने आ च रत के पृ सं ा २-५ म िलखते ह- मे रा
प रवार शै वमतवाल ी था, इसिलए अ वय से ही मु झे िशविलं ग
की पूजा करनी पड़ी म अपे या सबेरे आहार िकया करता था और
िशवपुजा म ब त से उपसवास और कठोरता सहन करनी पड़ती ह
इसिलए ा की हािन के भय से माता मु झे ितिदन िशव की
उपासना करने से रोका करती थी, पर ु िपता उसका ितवाद
िकया करते थे, इस कारण इस िवषय को ले कर माता के साथ िपता
का ायः िववाद रहा करता था, माता के बारं बार ितिदन िशवपुजा
के करने से िनषे ध करने पर भी िपता मु झको उसके करने के िलए
कठोर आदे श िकया करते थे, िशवराि के आने पर िपता ने कहा
िक आज तु ारी दी ा होगी, और मं िदर म जाकर सारी रात
जागना होगा, िपता की आ ानुसार म उस िदन राि को अ ा
लोगों के साथ स िलत होकर िशवमं िदर गया, िशवराि का
जागरण चार पहरों म िवभ होता है २ पहर बीत जाने के प ात
तीसरे पहर म मने िपता से घर लौटने की अनु मित मां गी, िपता ने
आ ा दे कर मे रे साथ एक िसपाही कर िदया और इस िवषय म िक
म भोजन करके वृतभं ग ने क बारं बार मु झसे कह िदया, पर ु
घर म आकर जब मने माता से ु धा की कथा को कािशत िकया,
तब उ ोंने जो कुछ भी मु झे आहार के िलए िदया उसको म िबना
खाएँ न रह सका, भोजन के प ात मु झे गहरी नींद आ गई दु सरे
िदन ात:काल िपता ने घर म आकर सुना िक मने त भं ग िकया ह,
यह सुनकर वह मे रे ऊपर बड़े ोिधत ए और मु झे भला बुरा

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कहने लगे इस िवषय को ले कर िफर से माता और िपता के बीच
िववाद आ।
समी ा-- इस ले ख को पढ़ने के प ात िव ान लोग आसानी से यह
बात समझ सकते ह िक मू लशंकर बचपन से इतना मू ढ़, हठी, िढ़ठ
और ना क वृि का ों रहा था?
दयानं द को यिद कलयुगी रावण कह तो यह कहना गलत न होगा,
यिद ामी जी के िपता ऋिष िव वा, तो उनकी माता रा सी
कैकसी के समान थी और उसका रज (प रणाम) धम का नाश
करने वाला ना क िशरोमिण मू लशं कर आ, मू लशं कर के िपता
जहाँ उसे धम के माग पर ले जा रहे थे, तो दू सरी ओर उसकी माता
उसे अपने भाव अनु सार रा सी िश ा से पोिषत कर रही थीं,
इसका प रणाम यह आ िक जो-जो धम कम वेदानु सार है उसकी
माता ने उससे उ िश ा कर मू लशं कर को अधम और ना क
वृि का बना िदया, और आगे चलकर वही उसके जीवन का
उ े बन गया, जै से उसकी माता उसे धम कम के माग से िवमु ख
कर भौितकवाद की तरफ ले गई, िठक उसी कार मू लशंकर
भारतवष म घुम-घुम कर धम कम करने वाले जो उनसे
िमलते उनसे सनातन कमकां डों का िनषे ध कर उनको िमत
करते, और जै सा िक इस ले ख से है ामी दयानं द बचपन से
ही पेटू थे, और इस बात को दयानं द ने अपने इस ले ख म ीकार
भी िकया है , िपता उ त आिद करने को कहते पर ु मू लशं कर
से भू ख बदा नहीं होती थी, ोिक उसकी माता अ र चोरी से
उ भोजन करवा उनका त भं ग करवा दे ती, पर जब यह बात
उनके िपता को पता चलती िक उ ोंने उनके आदे श की अवहे लना

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करते ए त भं ग कर िदया, तो वे उनपे ोिधत हो जाते और उ
इसके िलए दं िडत करते,इसी कारण मू लशं कर िक माता और िपता
का ायः िववाद रहा करता था, ऐसे म ामी जी को अपने िपता
िकसी श ु से कम नहीं लगते जो अपने िनयम धम कम से उनकी
भोगिवलास वाले जीवन म अशां ित उ कर रहे थे, यही कारण
था िक मू लशं कर अपने िपता से घृणा करने लगा, िपता उसे जो
करने को कहते मू लशं कर उससे उ ा ही करता, और इसी घृणा ने
मू लशं कर को ना क बना िदया।
४• मूित ( ितक) पु जा म अिव ास-
(अ) आय समाजी गपोड़ा- उनके जीवन म ऐसी ब त सी घटनाएं
ईं, िज ोंने उ सनातन धम की पार रक मा ताओं और ई र
के बारे म गंभीर पूछने के िलए िववश कर िदया, एक बार
िशवराि की घटना है , तब वे बालक ही थे, िशवराि के उस िदन
उनका पूरा प रवार राि जागरण के िलए एक म र म ही का
आ था, सारे प रवार के सो जाने के प ात् भी वे जागते रहे िक
भगवान िशव आयगे उसे दशन दगे और साद हण करगे,
उ ोंने दे खा िक िशवजी के िलए रखे भोग को चूहे खा रहे ह, यह
दे ख कर वे ब त आ यचिकत ए और सोचने लगे िक जो ई र
यं को चढ़ाये गये साद की र ा नहीं कर सकता वह मानवता
की र ा ा करे गा? इस बात पर उ ोंने अपने िपता से बहस की
और तक िदया िक हम ऐसे असहाय ई र की उपासना नहीं करनी
चािहए।

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(ब) ामी दयानं द के अनु सार- दयानं द अपने आ च रत के
पृ सं ा ३-४ म िलखते ह- दो पहरों के प ात जब िनिशथ काल
आया, तब पुरोिहत और अ ा लोग मं िदर के बाहर चले गए,
उसके कुछ समय प ात मने दे खा कई एक चुहे िबल म से बाहर
िनकल कर महादे व की िप ी के ऊपर इ ापूवक िवचरण और
उनके म क थत चावलआिद का भ ण करने लगे, मै जागते ए
इस को दे खता रहा, इस कारण इस को दे खते समय मे रे
सरल अ :करण म यह उठा िक जो कई कई सौ दु दमनीय
दानवों के संहार म समथ है , वे अपनी दे ह पर से थोड़े से चूहों को
दू र करने म समथ ों नहीं, इस को ब त दे र तक सोचते
सोचते मे रे म घूमने लगा, िजस कारण म िपता की िन ा भं ग
िकए िबना रह सका जब िपता जागे, तो मने इस को पूछा,
िज ािसत के उ र म िपता ने मु झे समझाते ए कहा- "तु
अ बु बालक है यह तो केवल महादे व का तीक मा है " िपता
के इस कार के उ र से म संतु न हो सका, इसिलए मने उसी
थान और उसी ण यह ित ा की िक यिद म ि शू लधारी महादे व
के दशन नहीं क ँ गा, तो म िकसी कार से भी उसकी आराधना
नहीं क ँ गा।
"इस कार की ित ा करके म घर लौट आया और माता से यह
कहकर िक म ब त भू खा ँ खाने को पदाथ मां गा"

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समी ा-- ामी जी आपके िपता ने सहीं कहा था यिद आप
अ बु नहीं होते तो इस कार की उटपटां ग बात न करते,
वेदािद ंथों म सही कहा गया है िक—
अिव ायाम रे वतमानाः यं धीराः प तं म मानाः।

ज मानाः प रय मू ढा अ ेनैव नीयमाना यथा ाः॥

ऐसे मु ढ़ िव ा शू रहकर भी बु मान बनते ह और इस माया


पी जगत् म उसी कार भटकते है िजस कार अ े के नेतृ म
अ े चलते ए भटकते है
यह उपिनषद वचन है जो ने हीन िवरजानं द के चैल दयानं द पर
िब ु ल ठीक बैठती है , यिद दयानं द के अंदर उस चूहे िजतनी भी
बु होती तो वो ऐसी मू खतापूण बात कभी न करते, ामी जी ने
यिद कभी वेदआिद ंथों का अ यन िकया होता तो शायद व इन
ु ितयों के यथाथ अथ समझ पाते दे खये वेदों म इस कार कथन है
िक—
नासदासी ो सदासी दानी ं नासी जो नो ोमा परो यत्।

िकमावरीवः कुह क शम ः िकमासी हनं गभीरम् ॥

~ऋ े द {१०/१२९/१}

(तदानीं)- महा लय काल म, (असत्)- अपरा माया, (न)- नहीं थी,


(सत्)- जीव भी, (नो)- नहीं, (आसीत्)- था, (रज:)- रजोगुण भी, (न)-
नहीं, (आसीत्) था, (यत्)- जो, ( ोम)- आकाश तमोगुण, (अपर:)-
सतोगुण, (नो)- नहीं था, (कुहक )- इ जाल प, (शमन्)-
ां ड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- त समू ह का आवरण होता

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है , (तत्) (िकं) (निकम ासीत्)- वह भी नहीं था, (गहनं गभीरं )- गहन
गंभीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा था? अथात नहीं था
न मृ ुरासीदमृ तं न तिह न रा ा अ आसी केतः।

आनीदवातं धया तदे कं त ा ा न्न परः िकं चनास॥

~ऋ े द {१०/१२९/२}

(तिह)- उस समय, (मृ ु)- मृ ु, (न) नही, (आसीत्)- थी, और


(अमृ तं)- अमृ त अथात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था,
(रा ा: अ :)- रात और िदन का, ( केत:)- ान, (न आसीत्)- नही
था, िसफ ( धया)- अपनी परा श से, (एकं)- अिभ एक,
(तत्)- ही, (आसीत्)- था, (त ात् ह)- उस सवश मान से,
(अ त्)- अ , (िकंच)- और कुछ भी, (न)- नही, (आसीत्)- था।
अब िवचारने की बात है जबिक सृि रचना के पूव एक के
अलावा कुछ भी नहीं था, और िफर सब कुछ उससे ही उ आ,
तो ा वह कण-कण मे िव मान न आ, और सुिनये,
िहर गभः सम् अवतता े भूत जातः पितर् एक ऽ आसीत्।

स दाधार पृिथवी ं ाम् उतेमां क ै दे वाय हिवषा िवधेम॥

~यजुवद {१३/४}

सृि के ार म िहर गभ पु ष ( जापित ा) स ू ण ां ड


के एक मा उ ादक और पालक रहे , वही ग अंत र और
पृ ी को धारण करने वाले ह, उस जापित के िलए हम आ ित
समिपत करते है ।

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य ऽ इमा िव ा भुवनािन जु द् ऋिषर् होता ् असीदत् िपता नः।

स ऽ आिशषा िवणम् इ मानः थम दवराँ ऽ आ िववेश॥


~यजुवद {१७/१७}

(य:)- जो, (ऋिष)- अती े य ा सव , (इमा:)- इस, (होता)- संसार


प होम का कता, (न:)-हमारा, (िपता)- जनक उ करने वाला
परमा ा, (िव ा)- सब, (भु वनािन)- लोक लोका रों को, (जु त)-
लयकाल म संहार करता आ, ( सीद)- अकेला ही थत आ,
(स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक अि तीय प म िव
होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से सृि रचना की इ ा से,
( िवणम्)- इस प जगत को, (इ मान:)-इ ा करता आ,
(अवरान्)- मायािवकार ि समि दे हों म, (आिववेश)- अ यामी
प से िव आ।
जापित रित गभऽअ रजायमानो ब धा िवजायते।

त योिनं प र प धीरा त थुभुवनािन िव ा॥


~यजुवद {३१/१९}

जापालक परमा ा की स ा स ू ण िव मान है , वह अज ा


होकर भी अने क पों म कट होता है , उसकी कारण श म
स ू ण भु वन समािहत ह, ानी जन उसके मु प को दे ख
पाते ह, और सुिनये--
एतावान् अ मिहमातो ायाँ पू षः।

पादो ऽ िव ा भूतािन ि पाद् अ ामृ तं िदिव॥

~[यजुवद : अ० ३१, मं ३]

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यह ि काला क िव उस ई र की मिहमा ही है , िक ु उसकी
मह ा इससे भी अिधक है , यह स ू ण िव जीवों सिहत जो कुछ
भी है उसकी मिहमा का एक भाग है , और शे ष तीन भाग म
काशमान मो प आप है । और ीम गव ीता म भी इस
कार िलखा है िक (बु े : परत ु स:) िक वह परमे र बु से परे
है जब वह बु से परे है तो भला दयानं द जै सा ना क उसके
प को कैसे जान सकता है ?
य जग ां जगत् ॥१॥ ~ईश० उपिनषद

अथात् उस परमा ा की स ा स ू ण िव मे यह जड़चेतन प


जो िव है , वह सव ई र से प रपूण है , अथात वह कण-कण मे
िव मान है , इसी कारण उपिनषद आिद ों मे यह कथन है िक--
“यदा ेवैष एत ु दरम रं कु ते।

अथ त भयं भवित। त ेव भयं िवदु षोऽम ान ।

तद ेष ोको भवित॥“

जब तक जीव परमा ा से िकंिचत् भी भे द रखता है , तब तक वह


अ ान पी भय से नहीं छूट पाता, वही भय अहं कारी िव ान को
भी हो जाता है ।
यिद ामी जी म इन वेद वचनों को समझने भर की थोड़ी भी
समझ होती तो शायद वह मू ख की भां ित ऐसी बात कभी न करते,
और सुिनये, ये दयानं द वही दयानं द है जो एक समय शु चैत
के नाम से जाने जाते थे और अपने आपको ही ह्म मानते थे, और
ऐसा मु ख ये कहता है िक जब तक महादे व मु झे दशन नहीं दे ते म
उनकी िकसी कार से भी आराधना नहीं क ँ गा यह दे खये इस

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ना क को ा बोल गया, इसी को अनी रवादी कहते ह, सह ों
ऋिष मु िन संसार का ाग कर, मन म िसफ परमा ा का प
जानने की इ ा िलए आर म वष किठन तप ा िकया करते थे
और आज भी करते ह, और एक यह की न ी जान जै सी वै ा के
हाथों मृ ु को ा होने वाला मन म ई र के दशन करने की
इ ा िलए हडताल पर बैठा है , िक जब तक दशन नहीं कर लू गाँ
तब तक ई र के अ को न ीका गाँ , ध हे ! तेरी बु ,
अब तो दयानं दी ही हम बताए िक ा दयानं द ने अपने मतानु सार
िनराकार के दशन कर िलए थे? या पुरे जीवन हडताल पर बैठे
रहे , ोकी िबना दशन िकए तो दयानं द ई र की ु ित करने से
साफ मना करते ह।
इसका मतलब दयानं द ने अपने जीवन म कभी भी ई र की ु ित
की ही नहीं पुरी िजं दगी ना क ही बने रहे , अब जब यह हाल है
िक समाज का सं थापक यं ना कतावाद की राह पर चल पड़ा
तो उसके चैलों का ा कहना, वह ा िकसी को धम का माग
िदखायेगा, जो यं माग से भटक चुका है ।

५• दयानं द के गृ ह ाग का रह -
(अ) आय समाजी गपोड़ा- अपनी छोटी बहन और चाचा की है जे
के कारण ई मृ ु से वे जीवन-मरण के अथ पर गहराई से सोचने
लगे और ऐसे करने लगे िजससे उनके माता िपता िच त रहने
लगे, तब उनके माता-िपता ने उनका िववाह िकशोराव था के
ार म ही करने का िनणय िकया (१९ वीं सदी के भारत म यह

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आम था थी) ले िकन बालक मू लशं कर ने िन य िकया िक िववाह
उनके िलए नहीं बना है और वे १८४६ मे स की खोज मे िनकल
पड़े ।
(ब) ामी दयानं द के अनु सार- दयानं द अपने आ च रत के
पृ सं ा ६ म िलखते ह िक- "हम पाँ च भाई बहन थे, उनम दो
मे रे भाई और दो बहन थी, जब मे री आयु १६ वष की थीं तब मे रे
छोटे भाई का ज आ,
एक बार म राि के समय एक बा व के घर म नृ उ व दे ख
रहा था िक घर से एक भृ ने आकार समाचार िदया िक मे री १४
वष की बहन ब त पीिडत हो गई है आ य है िक यथोिचत
िचिक ा के होते ए भी मे रे घर लौटने के दो घंटे प ात उसकी
मृ ु हो गई, उस भगनी के िवयोग का शोक मे रे जीवन का पहला
शोक था।
िजस समय सब मे री भगनी के चारों ओर िवलाप और रै दन कर रहे
थे, उस समय म खड़ा खड़ा यह सोच रहा था िक इस संसार म सभी
को एक ना एक िदन मृ ु के मु ख म जाना होगा, इसिलए मुझे भी
एक िदन मृ ु का ास बनना होगा, मे रे मन म मृ ु का भय बैठ
गया, म मन ही मन ये सोचने लगा िक िकस जगह जाने से म मृ ु
के य ण से बच सकूंगा।
कुछ िदन िपछे मे रे चाचा की भी मृ ु हो गई, मे रे चाचा
सद् गुणस सुिशि त थे और वह मु झको ब त ार
करते थे इस कारण म उनके िवयोग से ब त ही िथत आ,
इसके अित र इस घटना के प ात म यह िच ा भी करने लगा

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िक मु झको भी इसी कार से कालकवल बनना पडे गा, जब मश:
मृ ुिच ा ब त वल हो गई, तो मै अपने बा वों से पुछने लगा
िक िकस उपाय का अवल न कर मु झे अमर ा हो सकता
है , दे श के पंिडतों ने मु झेको योगा ास करने का परामश िदया,
इसिलए अमर की ा हे तु मने गृह ाग का संक िकया और
एक िदन सं ा के समय िबना िकसी को बताए मने गृह ाग कर
िदया, उस समय मे री आयु २० वष थी...

समी ा-- अब ोिक ामी दयानं द एक साधारण मनु थे तो


ाभािवक है िक उनके अ र भी साधारण मनु ों की ही भां ित
सब गुण वा दोष मौजू द होंगे, दयानं द ने यं अपने आ च रत म
यह ीकार िकया है िक गृह ाग का कारण उनके मन म बैठा
मृ ु का भय था, दयानं द मृ ु से इस कार भयभीत हो चुके थे िक
उससे बचने के िलए वो हर एक स व यास करने को तैयार थे,
दयानं द ने अपने आ च रत म यह यं िलखा है िक "म मन ही
मन यह सोचने लगा िक िकस जगह जाने से म मृ ु के य ण से
बच सकूंगा" उस समय ामी दयानं द की उ लगभग २० वष थी,
यिद दयानं द म थोड़ी भी बु होती तो शायद वह इस स को
समझ पाते िक चाहे वो संसार के िकसी भी कोने म ों न चल
जाय, मृ ु से बचना अस व है , िजसने ज िलया उसकी मृ ु
िनि त है , और आ भी यही ामी दयानं द िजस मृ ु के भय से,
अमर की खोज म पूरी िजं दगी इधर उधर भागते रहे पर
अफसोस की उससे बच न सक, और तो और मृ ु भी इतनी

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भयानक और ददनाक ई िजसकी ामी जी ने कभी क ना भी
नहीं की होगी,
और गपोिडये दयानं दी यह कहते ह िक दयानं द ने स की खोज
म गृह ाग िकया, अरे मू ख स की खोज म नही, जब दयानं द
की मृ ु से फटी तो उ ोंने गृह ाग िकया, जो दयानं द मृ ु जै से
स को न समझ सका, सारी उ उससे बचने को इधर उधर
भागता रहा, वो िकतना बु मान होगा यह समझना कोई बड़ी बात
नहीं,...
यह तो था ामी दयानं द के ज से ले कर उनके गृह ाग तक
का वृ ां त, अब आगे दयानं द के गृह ाग के बाद का वृ ां त ामी
जी के ही श ों म यहाँ ों का ों िलखते ह.....
६• स े योगी की खोज –
अब तक हमने पढ़ा की िकस कार ामी दयानं द ने मृ ु से बचने
व अमर की खोज म गृह ाग िकया ामी दयानं द ऐसे योगी की
खोज म िनकल पड़े जो उ अमर की ा करा सक, अब
आगे--
उ जीवन च र के पृ १७ म दयानं द का कथन ह िक शै लानगर
म, म लाला भक्त के पास ठहरा आ था लाला भ एक साधु
और सुिशि त करके िस थे, वहाँ एक चारी के साथ
मे री बातचीत ई म उससे दी ा ले कर ब चारी के आ म म िव
हो गया, और गे वे व धारण करके "शु चैत " नाम हण
कर िलया।

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पृ २० म िलखा है िक काितक के महीने म एक िदन म िस पुर
प चाँ कारण यह था िक उस समय िस पुर म एक मे ले के लगने
की चचा थी, इसके अित र यह आशा करके की मे ले के कारण
अने क योग-िव ा िवशारद योिगयों का समागम होगा और उनम से
िकसी एक के उपदे श से मु झे अमर ा होना संभव है ,
पृ २१ म िलखा है िक चलते चलते म अहमदाबाद और बडौदा
प चाँ , बडौदा के चैत मठ नामक म रम ानं द और अ ा
चारी स ासीयों से िमला,
पृ २२ पर िलखा है िक ानंद आिद स ु षों से बात करके मु झे
िव ास हो गया िक अथात ई र मु झसे िभ कोई पदाथ नहीं
है , जीव और की एकता का िन य मु झे स क् करा िदया,
पिहले भी ायः मे रे मन म ये बात आती थी पर ु आज इन महा ा
पु षों ने इस बात को मे रे मन म पुरे कार से िस करके िदखा
िदया, और मु झे पुरा पुरा िव ास हो गया िक म ही ँ
पृ २७-२८ से कट है िक दयानं द ने परमानं द परमहं स से
वेदां तसार और वेदां त प रभाषा आिद की िश ा हण की, उसके
बाद पुणानं द सर ती से स ास की दी ा ले कर स ासी के
आ म म िव हो गए, पूणानं द ने उ े स ािसयों की चौथी क ा
म थान दे कर उनका नाम दयानं द सर ती रख िदया,
पृ ४९ म िलखते ह, िक १८६० मथु रा प ँ च म िवरजानं द नामक
सुप त साधु के पास गया उस समय उनकी आयु ८१ वष की थीं
िवरजानं द ज से ही अंधे थे और उनको उदर की पीड़ा थी उनके
पास रहकर मने ाकरण के साथ वेदािद ंथों का अ यन आर

P- 35
िकया, िवरजानं द के पास पाठ समा करके दो वष तक म आगरा
म रहा,

समी ा-- पाठकगण! ान कर िक थम वे एक चारी के चेले


बने िजसने उनका नाम बदलकर "शु चैत " रखा, िफर ानं द
आिद स ािसयों की संगित से उनको पुरा पुरा िव ास हो गया िक
मै ही ँ ,
तदु परा परमानं द परमहं स अ ै तवादी अथात शं कर मत के
स ासी ने उ अपना चेला बनाया,
उसके प ात पूणानं द सर ती (अ ै तवादी) ने उ े अपना चेला
बनाया और उसी ने उनका नाम "दयानं द सर ती" रखा, िचरकाल
पय यह उसी मत म रहे और ंय को पूण समझते रहे ,
इसके प ात दयानं द ने हीन िवरजानं द के चेले बने और कुछ
समय तक उ ीं के पास ाकरण, वेदािद ंथों का अ यन िकया,
जीवन पय अपनी पु कों म उनको परम िव ान ी िवरजानं द
ामी िलखा है और अपने िलए उनका चेला होना ीकार िकया
है , वह िवरजानं द भी अ ै तवािद थे , िफर वह साधारण स ािसयों
की आकृित से ह र ार ऋिषकेश आिद के जं गलों म रहते रहे कोई
उनका नाम भी न जानता था, संवत् १९२४ के उपरां त वह गंगा जी
के िनकट गां व और नगरों म ठहर कर जो लोग उनसे िमलते थे
उनसे मू ित पूजा का िनषे ध िकया करते थे उस समय तक उनके
मन म उ मो म भोजन व ािद की इ ा ने वेश नहीं िकया था,
अब तक वे अ ै तवादी थे िफर िकसी के समझाने से उ ोंने

P- 36
अ ै तवाद को झूठा जानकर छोड िदया और ै तवादी बन गए,
िनदान अ ै तवाद अथात शं कराचाय के मत के खं डन म एक छोटी
सी पु क भी बनाई और स ाथ काश म भी इसका खं डन कर
गु दि णा प अपने गु जनों के मु हँ पर जू ता दे मारा, और
साथ ही अपने ारह िनयोग से उ होने का माण िदया।
पाठकगण! ान कर िक अब तक उ ोंने िकतने प बदल,
िकतने मत ीकार िकए, िकस-िकस के चेले बने और िकस-िकस
का ाग िकया, िजसने जीवन पय अपने आपको माना
उससे बढ़कर ना क और कौन होगा? ऐसे पु ष के कथन व
व ाव का ा भरोसा?
जीवन पय जीन िवरजानं द को अपना गु और परम िव ान
िलखते आए उ ीं के मत को िम ा और झूठा कहते रहे , एक
काल म परम िव ान और गु िलखना और उसी के मत को झूठा
ठहराना अित अ ानता और ल ा की बात है ,
और अंत म पाठकगण! जरा िवचार कर िजस उ े से दयानं द ने
गृह ाग िकया ा दयानं द उसम सफल रहे ? ाउ कभी
स ा योगी िमल सका? इसका िनणय आप लोग यं कर।
७• ामी दयानं द की बु -
अब आपको ामी जी की बु का नमू ना उ ीं के ारा िलखे
'दयानं द आ च रत' से िदखाते ह-
दयानं द आ च रत पृ ४८-४९ पर चां ड़ालगढ़ के वणन म िलखा
है िक खोटी ार से इस जगह मु झे एक बड़ा दोष लग गया
अथात मु झे भं ग पीने की ऐसी आदत हो गई िक कभी-कभी तो

P- 37
उसके कारण म सवथा बेहोश हो जाया करता था, एक बार
चां डालगढ़ िनकट थ एक गां व के िशवालय म एक िदन राि यापन
के िलए उप थत आ, भं ग से उ मादकता के वश मे मुझे वहाँ
गहरी नींद आ गई , मे रे िववाह के संबंध म पावती के साथ महादे व
की बात-चीत हो रही है , ऐसा एक दे खकर म जाग गया, ात:
काल एक ी ने मु झे दही िदया मने उसे खा िलया, दही ब त ख ा
था इसिलए भं ग का नशा उतरने को एक अ ी औषिध हो गई,

समी ा-- पाठकगण! िवचार कर, िक पिहले िदन दयानं द ने भं ग


पी और दू सरे िदन दही खाने से नशा उतरा ऐसी भं ग की बु ां त
होने म ा संदेह है ? आप कहते ह िक भं ग के नशे म, म बेहोश हो
जाया करता, तो दू सरे िदन ही होश हो पाता था, इससे भी
िस है िक उसने अपनी बु की ां ित से और े षाि के कारण
यं िनिमत वेदभा ों और स ाथ काश म जो कुछ मु ख म अंड
संड आया बक िदया, और जो चाहाँ िलख िदया,
अथात ऐसे भं ग के ले ख और कथन पर िव ास करना बु मानों का
काम नहीं,
इसी कार की घटना का वणन दे वे नाथ मु खोपा ाय ारा रिचत
"दयानं द च रत" के पृ २५१ पर िलखा है िक-- दयानं द उस समय
धू पान िकया करते थे, इसिलए अने क लोग अित उ ृ और
सुग त त ाकू य करके उ उपहार म दे ते थे , पर ु एक िदन
की घटना से ामी जी ने धू पान का अ ास छोड़ िदया, ामी
जी एक बार लाहौर म बैठे ए ा पी रहे थे , की इतने म एक

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ने आकर कहा- "आप यं को सव ागी स ासी बताते ह,
ा आपके प म इस कार ब मू त ाकू सेवन करना िवधेय
है ? आपको धू पान करते ए ल ा नहीं आती" इस बात के सुनते
ही ामी जी ने उसी ण धू पान छोड़ने का िन य िकया,
पाठकगण! िवचार कर पहले भं ग और अब धू पान ा ये
चारी, स ासी के ल ण ह?
ा इन दोषों और अवगुणों को दे खते ए दयानं द को महिष कहा
जाना चािहए? कदािप नहीं!
पृ ४७ पर िलखा है िक मने एक ंथ म नाड़ी च का िववरण
पढ़ा, वह मु झे स तीत नहीं आ, ुत उस िवषय म संशय
उ हो गया, संशयजाल को तोडने के अिभ ाय से म एक िदन
नदी के भीतर से एक शव खींच लाया, और एक तेज छूरी ारा शव
को चीरना ारं भ िकया, मने िदल को उसम से िनकाला और िफर
नािभ से पसली तक चीर िदया, इसी कार िसर और गदन से एक-
एक भाग को काटकर अपने स ुख रख िलया, उसके प ात चीर
ए शव के अने क अंगों को िमलाकर दे खने लगा, पर ु उसके
िकसी अंग म भी ंथविणत नाड़ीच का िनदशन मा भी न पाकर
उस शव के साथ ही उस ंथ को भी टु कड़े टु कड़े करके नदी म
फक िदया

समी ा-- शाबाश ा ण स ासी होकर मु दा लाश को चीरने


फाडने वाला नीच कम आप जै से मं दबु को ही शोभा दे ता
है ,

P- 39
पाठकगण! िवचार करके बताए, भला ये ि जाितयों और
स ािसयों का धम है , व नीच कम, इस कार महामु ख वाले काम
के िलए तो ामी जी को चुितयापंित का सव े पुर ार िमलना
चािहए ामी दयानं द के इस ले ख को पढ़कर इस बात म कोई
संदेह नहीं रह जाता की ामी जी उन महामु ख म से है जो मु दा
लाश म नाड़ी (Pulse) ढु ढ़ रहे है ध है आप और आपकी बु
अ ा आ आपने उसम मन, आ ा आिद नहीं ढू ढ़ा अ था न
पाकर उ भी िम ा ही बोल दे ते,
िनस े ह भं ग और धू पान से ई बु की ां ित ने आपसे यह
अनु िचत कम करवा िदया।
दयानं द आ च र पृ ३७-३८ से कट है िक उ ोने िजन पु षों
को अपनी आँ खों से पशु वध करत मां स भ ण करते दे खा, िज े
हाथों म पशु मुंड िलए बैठे दे खा, उ ी से सीधा आिद ले कर भोजन
िकया,
िफर पृ ६५ मे िलखा है िक- "म एक भयानक जं गल मे गुम गया
मशः चारों िदशाएं सं ा के अंधकार म आवृत होने लगी, उस
समय मै ने थोड़ी दू र पर ही अि का काश दे ख वही एक िवशाल
वृ के नीचे बैठ गया, वहाँ के लोग मे रे िनकट मु झे अपनी झोपडी
म बुलाने आए पर ु मने उनका भोजनािद स ार ीकार नहीं
िकया ोंिक वे सब मू ितपूजक थे ,
समी ा-- ध हे ! ामी जी आप और आपकी बु , िजसे अपनी
आँ खों से पशु वध करत और मां स खाते दे खा िजनके हाथों म कटे
ए पशु मंड दे ख उससे सीधा आिद ले कर भोजन करना तो ीकार

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िकया और मू ितपूजकों के स ार का ितर ार, ये बु की ां ित
का अंधकार है वा ै षाि की ेरणा का अंधकार यह भी ान रहे
िक ामी जी मू ितपूजक के रजिवय से ही कट ए मू ितपूजक के
अ से ही उनका शरीर बढ़ा, जब तक सब जगह समाज थािपत
नहीं ए मू ितपूजक के अित र िकसी के भोजनािद स ार से
पालन पोषण आ, ऐसा ले ख िलखते ए आपको ल ा नहीं आई।
आप आपने यजु वद भा १३/४८-४९ आिद मं ों म भी पशु िहं सा
अथात नीलगायािद पशु ओं को श ों म मारना िलखाते है
आपको वेदों म पशु िहं सा िलखते मां सभि यों के हाथों सीधा ले कर
भोजन करते ल ा नहीं आई और मू ितपूजकों के स ार का
ितर ार िसफ इस कारण कर दे ते ह ोंिक वे मू ितपूजक है यही
है आपकी बु
पाठकगण! उ ले ख म िगनवाये दयानं द के दोषों को पढ़कर यं
िवचार कर िक जीवन पय धू पान करने वाले, लाश की िचर
फाड करने वाले, मां सभ कों के हाथ से भोजन करने वाले, वेदों म
पशु िहं सा िलखने व उसका समथन करने वाले दयां नंद की बु को
दे खते ए बताए-
ा ऐसा चारी, स ासी या िफर महिष कहलाने यो
है ? कदािप नहीं!
८• समाज सुधारकर या िफर समाज को अ ान पी अंधकूप म
धकेलने वाला-

आय समाजी गपोड़ा- ामी दयान ने त ालीन समाज म


ा सामािजक कुरीितयों तथा अ िव ासों और िढयों-बुराइयों

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को दू र करने के िलए, िनभय होकर उन पर आ मण िकया, वे
'सं ासी यो ा' कहलाए, उ ोंने ज ना जाित का िवरोध िकया
तथा कम के आधार वेदानु कूल वण-िनधारण की बात कही, वे
दिलतो ार के प धर थे, उ ोंने बाल िववाह का िनषे ध िकया तथा
िवधवा िववाह का समथन िकया...

समी ा-- शायद दयानं दी लोग ामी जी को ठीक तरह से समझ


ही न पाये, ोिक सामािजक कुरीितयों और अंधिव ास को बढ़ने
वाले यं दयानं द ही थे, भं ग वे पीते थे , धू पान वे करते थे , थम
स ाथ काश और वेदभा ों म पशु िहं सा, पशु य , मां स िपंड दे ना,
आिद को धम का अंग बताया, मां सभि यों के हाथों का भोजन वे
करते थे , िनयोग के नाम पर सामू िहक िभचार का आरं भ उ ोंने
िकया, ४८ वष के बुढ़ो का २४ वष की नवयुवती से िववाह उ ोंने
आरं भ करवाया, िवधवा िववाह का िवरोध करते ए चतुथ
समु ास म िवधवा िववाह की हािनयां उ ोंने िगनवाई, सूय पर
मनु उ ोंने बसाये, एक ी के एकादश (११) पित बताकर
उनका पित त धम खं िडत करवाने वाले वे थे आिद आिद अगर
िगनवाने लग तो श कम पड़ जाएं गे,
अब आगे सुिनये आय समाजीयों के अनु सार उ ोंने ज ना जाित
का िवरोध िकया तथा कम के आधार वेदानु कूल वण-िनधारण की
बात कही, वे दिलतो ार के प धर थे,
समी ा-- कम अ भु ल ड़ दयानं दीयों को म याद िदला दू ँ िक
ामी दयानं द ंय ज ना जाित को मानने वाले थे ये रहा माण-

P- 42
ामी जी अपनी पु क ‘सं ार िविध’ म िलखते ह िक गोद के
ब ों के नाम रखते समय भी उनके ा ण, ि य, वै और शू
होने का पूरा ान रखना चािहए, वह िलखते ह--
‘‘नामकरण का काल िजस िदन ज हो, उस िदन से ले के १०
िदन छोड़ ११व व १०१ (एक सौ एक) म अथवा दू सरे वष के आरं भ
म, िजस िदन ज आ हो, नाम धरे ’’ ~(सं ार िविध, पृ ६३)
‘‘दे व अथवा जयदे व ा ण हो तो दे व शमा, ि य हो तो दे व
वमा, वै हो तो दे व गु और शू हो तो दे व दास इ ािद...बालक
का नाम धर के पुनः ‘ओं कोिस.’ ऊपर िल खत मं बोलना.’’
~(सं ार िविध, पृ ६६)
दयानं द ऋ े दािदभा भू िमका के पृ ९२ पर “प ाँ शू ो” का
अथ करते ए िलखते ह--
जै से पग सबसे नीच अंग ह, वैसे मू खता आिद नीच गुणों से शू वण
िस होता है ’
स ाथ काश, म ‘शू ों को िनबु और मू ख बताते ह
यजु वद अ ाय १४/९ म वै और शु ों की पशु से तुलना करते
ए िलखते है िक--
(ष वाट् )- पीठ से बोझ उठाने वाले ऊँट आिद के स श वै ,
(उ ा)- सींचने हारे बैल के तु शू ,
यजु वद ३०/२१ मे िलखते है िक--
(चा ालम्)- भं गी को, (खलितम् )- गंजे को, (कृ म्)- काले रं ग
वाले, (िपड़् गा म्)- िपले ने ों से यु पु ष को दू र कीिजये,

P- 43
दयानं दीयों का कहना है िक दयानं द ने कम के आधार वेदानु कूल
वण-िनधारण की बात कही
दयानं दीयों ने शायद दयानं द के वेदभा नहीं पढ़ नहीं तो जान
पाते िक दयानं द वेदानु कूल नहीं ब पशु ओं के कमानु कूल
पशु ओं से तुलना करके वण-िनधा रत करते ह जै से अपने
यजु वदभा १४/९ म वै ों के ऊँट और शु ों को गधे बैलािद के
तु बताया है
शायद यही कारण है िक दयानं द ने स ाथ काश चतुथ समु ास
म शू ों की ीयों के साथ िनयोग का समथन तो िकया है पर शू
पु षों को िनयोग के अिधकार से यह कहकर वंिचत रखा िक
याँ िसफ अपने से उ वण के पु ष के साथ िनयोग कर इस
कार दयानं द ने अपनी शू िवरोधी मां िसकता जगजािहर कर दी,
दयानं दीयों के अनु सार उ ोंने बाल िववाह का िनषे ध िकया तथा
िवधवा िववाह का समथन िकया- -
इस बात को तो म भी मानता ँ िक ामी जी ने बाल िववाह का
िनषे ध कर, अधेड उ के िववाह का समथन िकया, मी दयानं द
अधेड़ उ के समाजी रं डवों को ान मे रखते ए स ाथ काश
मे िलखते है िक सबसे उ म िववाह २४ वष की क ा और ४८ वष
के बुढ़ों का है , और जहाँ तक िवधवा िववाह का है तो मु झे
लगता ह दयानं दी अपने ंथों का ही अ यन नहीं करते अगर
करते तो जान पाते िक ामी दयानं द िवधवा िववाह के घोर
िवरोधीयों मे से थे, स ाथ काश चतुथ समु ास म दयानं द ने

P- 44
बकायदे पुनिववाह के दोषों पर ल ा चौड़ा और बचकाना सा ले ख
िलखा है
ामी दयानं द िवधवा ी को िसफ और िसफ ब ा पैदा करने की
मशीन समझते थे उनके मतानुसार िवधवा ी चाहे तो िकसी
परपु ष से िनयोग कर पु उ कर ल, पर ु पुनिववाह नही
कर, ामी दयानं द के अनु सार पुनिववाह से ी का पित त धम
खं िडत हो जाता है पर ु ारह अलग-अलग पु षों के साथ सोकर
भी उसका पित त धम खं िडत नहीं होता, यही तो ामी जी के भं ग
की तंरग है नशे म ा ा बक गए कुछ ाल है
पाठकगण! यं िवचार कर दयानं द समाज सुधारक थे या िफर
समाज को घोर अंधकार म धकेलने वाले सनकी ...

९• ामी दयानंद सनातन धम, सनातन सं ृ ित को न करने वाले


एक नीच ष ं कारी-

ामी दयानं द के िलए अं ेजी शासन िकसी ण युग से कम न था,


उनके अनु सार उ ोंने सनातन धम के िव िजतना िवष उगला
यिद अं ेजों ने उनकी र ा न की होती तो ज र कोई न कोई उ
मरवा डालता
१८८० के िथयोसोिफ प म ामी जी बताते ह िक "यिद अं ेजी
रा न होता तो म जो इतनी बार फ खाबाद आया, ा ण मु झे
कभी जीिवत न छोड़ते, िकसी से मरवा डालते,

P- 45
पाठकगण! के मन म उठ रहा होगा िक आ खर अं ेजी
सरकार दयानं द पर इतनी मे हरबान ों थी, तो इसका जबाव है --
‘िडवाइड एं ड ल’ अं ेज़ों की नीित "महान तं ता सेनानी
सुभाषच बोस ने अं ेजों की नीित का तीन श ों म खु लासा करते
ए िलखा है - िडवाइड एं ड ल अथात फूट डालो और राज करो"
ामी दयानं द यही कर रहे थे, उनके नवीन मत चार से सनातन
धम मे िबखराव की थित उ होने लगी थी और अं ेजों की तो
शु से यही नीित रही थी, िजसे ामी दयानं द ने और आसान बना
िदया, ामी दयानं द आ खर ऐसा ा कर रहे थे दे ख--
दयान सर ती के बारे म ी कॉलेज के ाचाय डॉ
होनले (Rudolf Hoernley) ने यह बात िलखी—
दयान िहं दुओं के मन म यह बात भर दे ना चाहते ह िक आज का
िहं दूधम, वैिदक िह दू धम के पूणतया िवपरीत है , और जब यह बात
िह दु ओं के मन म बैठ जायेगी तो वे तुरंत िहं दूधम का ाग कर
दगे; पर तब दयान के िलए उ वैिदक थित म वापस ले जाना
स व न होगा, ऐसी थित म िहं दुओं को एक िवक की खोज
होगी जो उ िहं दू से ईसाई धम की ओर ले जायेगी।
ोत: The Christian Intelligence, Calcutta, March 1870, p
79 and A F R H quoted in The Arya Samaj by Lajpat Rai,
1932, p 42 quoted in Western Indologists A Study in
Motives.htm, Purohit Bhagavan Dutt
अब आपको दयानं द का असली चेहरा िदखाते है - जबसे ू यॉक म
िथयोसोिफकल सोसायटी की थापना ई तभी से ामी दयानं द ने

P- 46
उनसे स क साधना आरं भ कर िदया, और १३ अ ैल १८७८ म
ामी दयानं द ने िथयोसोिफकल सोसायटी को प िलखकर
िथयोसोिफकल सोसायटी से यह िनवेदन िकया िक वह अपना
धान कायालय ू यॉक से मु ई ले आए, उसके जबाव म
िथयोसोिफकल सोसायटी की तरफ से जबाव म जो प आया वो ये
है उसम िलखा था—

P- 47
The Theosophical Society, New York, May 22nd 1878.
To the Chief of the Arya Samaj.
HONOURED SIR,
You are respectfully informed that at a meeting of the
Council of the Theosophical Society, held at New York
on the 22nd of May 1878, the President in the chair
upon motion of Vice-President A. Wilder seconded by
the corressponding Secre tary H. P. Blavatsky, it was
unanimously resolved that the society accept the
proposal of the Arya Samaj, to unite with itself, and
that the title of this Society be changed to
" The Theosophical Society of the Arya Samaj of India.
*
Resolved, that the Theosophical Society for itself and
branches in America, Europe and else-where, hereby
recognize Swami Dayanand Saraswati, Pandit, Founder of
the Arya Samaj, as its lawful Director or Chief.
Awaiting the signification of your approval and any
instructions that you may be pleased to give.
I am, honoured sir, by order of the Council,
Respectfully yours,
(Sd.) AUGUSTUS GOSTAM,
Recording Secretary

( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami


Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं दे वे बाबु रिचत
'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)

***********************************

P- 48
िजसका िह ी अनुवाद इस कार है-

िथयोसोिफकल सोसाइटी, ूयॉक मई २२, सन् १८७८ ई•

सेवा म धान आय समाज-

माननीय महोदय ! आपको िवनयपूवक सूचना दी जाती है िक


िथयोसोिफकल सोसाइटी की कौ ल के एक अिधवेशन म, जो ूयॉक म
२२ मई १८७८ को सामियक धान के सभापित म संघिटत ई आ ए•
वाइ र साहब उपसभापित के ाव और प वहार कता म ी एच•
पी• ैवाट ी के अनुमोदन पर सवस ित से िनधा रत आ है िक यह
सभा आय समाज के इस ाव को िक सभा उ समाज के साथ िमल
जावे और इस समाज का नाम प रवितत करके "भारतवष य आय समाज
की िथयोसोिफकल सोसाइटी" रखा जावे ीकार करती है,

यह भी िन य आ िक िथयोसोिफकल सोसाइटी अपनी और अपनी


शाखाओं की ओर से जो अमे रका, यूरोप और अ दे शों म ह, ामी
दयानंद सर ती पंिडत, सं थापक आय समाज को अपना िनयमानुकूल
अिधनायक मानती है,

आपकी ीकारी की सूचना और िक ी ं सुझावों की जो आप दे व


ती ा करता आ"

म ँ , माननीय महोदय, कौ ल की आ ानुसार

आपका

(ह ा र) आग मग म,

रकॉिडग से े टरी - (अनुवादक)

( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami


Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं दे वे बाबु रिचत
'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)

***********************************

P- 49
प म श ों म िलखा है िक यह सभा आय समाज के इस
ाव को िक सभा (अथात िथयोसोिफकल सोसाइटी) उ
समाज (अथात आय समाज) के साथ िमल जाव और इस सभा का
नाम प रवितत करके "Theosophical Society of the Arya
Samaj" रखा जाव ीकार करती है ,
उ प से यह साफ हो जाता है िक िकस कार ामी जी ईसाई
िमशनरीयों से िनवेदन कर रहे ह िक आओं आय समाज के जमाता
हमारे साथ िमल कर भारतीय सनातन सं ृ ित को न करने म
मे री सहायता कर और अपने मत का चार कर ना कवाद को
बढ़ाने म आय समाज का सहयोग कर,
पाठकगण! िवचार कर यिद दयानं द का काम वैिदक धम का चार
ही था तो ा दयानं द को पुरे भारतवष म कहीं वैिदक लौग नहीं
िमल, जो वे ईसाइयों के सामने िगडिगडा रहे थे , आ खर दयानं द ने
उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसे कौन से वैिदक गुण दे ख
िलए जो उ सनातनधम यों मे न िदख, दरअसल ामी जी ाथ,
अंहकार और ै षाि म इतने अंधे हो चुके थे िक अपने ाथपूित
के िलए वो िकसी भी र तक िगर सकते थ वना दयानं दी जबाव द
िक यिद दयानं द का मन साफ था तो उ ोंने सनातनधम यों के
साथ िमलकर वैिदक धम का चार सार ों नहीं िकया और उस
गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसा ा दे ख िलया जो ना तो
वैिदक धिम थे और ना ही इस भारतभू िम के, िफर ऐसा ा कारण
था जो िथयोसोिफकल सोसाइटी को भारत म बुलाने व उसका
िह ा बनने के िलए उनकी लार टपक रही थी, ऐसा करते ए
दयानं द को ल ा नहीं आई,

P- 50
पाठकगण ! यं िनणय कर दयानं द वैिदक धम के चार थे या
िफर सनातन सं ृ ित को न करने वाले एक ष ं कारी...

१०• ामी दयानं द की मृ ु, उनके अं ितम श व उनके


अं ितम सं ार का संि िववरण-
वष १८८३ म ामी जी महाराज जसवंत िसंह से भट करने जोधपुर
प ं चे, जोधपुर नरे श महाराजा जसवंत िसंह अ ंत िवलासी थे ,
अने क रािनयों के होने पर भी महाराजा न ीबाई (न ी जान)
नामक एक वे ा, के ेमजाल म फँसे थे ।
एक िदन ामी जी अचानक राजदरबार म प ँ चे, वहाँ महाराजा के
साथ न ीबाई भी उप थत थी, महाराजा की इस च रत्र हीनता
को दे खकर ामी जी ने कहा, "िसंह होकर कुितया का िशकार
करते हो?" ~(मधुर अथै या िल खत- ामी दयानं द सर ती जीवन
च र पृ ६३)
समी ा-- शाबाश एक चारी स ासी होकर ी को गािलयाँ
बकना आपको ही शोभा दे ता है इस सबका उ रदायी िभचारी
राजा को तो आपने िसंह की उपमा दे दी और न ी जान को
कुितया ये आपिक दौगलीिनित नहीं तो ा है ?
ये तो स ासी वाले ल ण नहीं है एक स ासी के िलए तो ा ी
और ा पु ष सब एक समान है िफर एक के िलए कुितया और
दू सरे को िसंह की उपमा कैसे? हो सकता है आपने िभचारी
राजा को िसंह इसिलए बोला ोिक आपकी राजा से फटती थीं,
आपके ल ण से तो यही ितत होता है ,

P- 51
िफर आगे िलखा है िक-- इस बात से न ी जान ामी जी से
अ ंत ोिधत हो उठी, न ी जान ामी जी की ह ा का ष ं
रचने लगी, उसने रसोइये जग ाथ के मा म से २९ िसतंबर १८८३
की राि को दू ध म िवष िमलाकर िपलवा िदया, िजससे उनका
ा खराब होने लगा, उ ी और द कने का नाम नहीं ले ते,
उदर शू ल और यकृत म सूजन के साथ-साथ ामी जी को
अ िधक शारी रक दु बलता अनु भव होने लगी।
और इस कार महीनों की ददनाक पीड़ा सहने के बाद ३०
अ ू बर १८८३ ई. दीपावली की शाम को ामी दयानं द की मृ ु
हो गई, मृ ु से पहले ामी दयानं द के अंितम श थे-
‘हे दयामय, हे सवश मान् ई र, तेरी यही इ ा है , तेरी यही
इ ा है , तेरी इ ा पूण हो, अहा! तूने अ ी लीला की!

समी ा-- ामी जी स ाथ काश म िलखते ह िक—


“चाहे कोई िकतनी भी चतुराई कर पर ु अ म सच-सच और
झूठ-झूठ हो जाता है ” ~(स ाथ काश, पृ.३५३)
अब ामी जी के इस िस ा के आधार पर ामी जी का अ
दे खते ह, ३० अ ू बर १८८३ ई. को शाम के समय ामी जी पलं ग
पर सीधे ले टे ए थे , उ ोंने कहा--
“हे दयामय, हे सवश मान् ई र, तेरी यही इ ा है , तेरी यही
इ ा है , तेरी इ ा पूण हो, अहा! तूने अ ी लीला की!” ~(दयान
जीवन च र )

P- 52
ामी जी ने अपने सािह म कहीं भी ई र और स ु षों के
कम को लीला नहीं कहा है लेिकन अ काल आया तो जाते जाते
वह ई र के कम को भी ‘लीला’ कह गए, इससे समझा जा सकता
है िक संसार से िवदा होते समय उनके दय म ई र के ित िकस
कार के भाव थे,
ामी जी स ाथ काश म धूत, ठग और धोखे बाज़ों को ‘पोप’ की
सं ा दे ते ए उनके बुरे कामों को ‘लीला’ कहते है , वे लीला का अथ
बताते ए िलखते है --
“अथात् राजा और जा को िव ा न पढ़ने दे ना, अ े पु षों का संग
न होने दे ना, रात िदन बहकाने के िसवाय दू सरा कुछ भी काम नही ं
करना है ” ~(स ाथ काश, एकादश समु ास)

ा यह मानना सही है िक ई र लीला करता है ?


ामी जी ई र म इ ा का होना नहीं मानते थे, वह कहते थे--
“ई र म इ ा का तो स व नही ं” ~(स ाथ काश,स म
समु ास)

इसके बावजू द उ ोंने अपने अंितम कथन म ई र म इ ा का


होना भी माना है , इस तरह हम दे खते ह िक िजन बातों को वह
ई र की मिहमा के ितकूल मानते थे , अपने अंत के एक वा म
वह ई र के िलए ऐसी दो बात कह बैठे, यही तो उनके भं ग की
तंरग है भं ग के नशे म जो कुछ मु हँ म अंड संड आया बक िदया
और जो मन म आया सो िलख िदया अब पाठकगण! िवचार कर जो
अपने मत िव ही बात कर ऐसे भं गेडी के ले खों का ा माण?

P- 53
दयानं द का अं ितम सं ार-
बताया गया है िक दो मन (८० िक ा.) च न, दस मन (४०० िक ा.)
पीपल की लकड़ी, चार मन (१६० िक ा.) घी, पां च सेर कपूर, एक
सेर केसर, दो तोला क ू री आिद साम ी ामी जी की िचता को
जलाने म ख़च की गई।
उनकी अ म सं ार के ख़च को आज जोड़ा जाए तो लगभग १०
से १२ लाख पये बैठता है । और ामी जी ‘सं ारिविध’ के पृ
१४१ पर ेक मृ तक को इतनी ही साम ी के साथ जलाना ही
वैिदक सं ार िलखा है , और िलखते ह िक जो कोई द र हो तो
ू न से ू न २० िक ा घी अव होना चािहए और जो इतना भी
घृतािद न होए तो न गाड़े , न जल म छोडे , न दाह करे , िक ु दू र
जाके जं गल म छोड आव,
समी ा-- वाह रे ! दयानं द तेरी बु , ये सं ार िविध ज र भं ग
के नशे म िलखी होगी, इतनी साम ी हो तो अंितम सं ार हो नहीं
तो शव को जं गल म फक द, िजस िदन दयानं द के पचास, सौ चेलों
की लाश जं गल म पड़ी िमले गी उस िदन गु आ ा का फल कट
होगा।
उिचत होता िक दयानं दी गु आ ा का पालन करते ए दयानं द के
अंितम सं ार म बेकार का इतना धन खच करने की बजाय
दयानं द की लाश को दू र कहीं जं गल म छोड़ आते, इस कार जो
धन और खा य साम ी बचती उससे लगभग १० प रवारों के एक
वष का भोजन का बंध हो जाता,

P- 54
दयानं द आ च रत िलखने का मे रा उ े िसफ इतना है िक
हमारे सनातनी भाई दयानं द के असली जीवन च र के बारे म
ठीक-ठीक जान सके, इससे पहले िक यह स हमे शा हमे शा के
िलए इितहास के अंधेरे म खो जाएं , ोिक हम सभी जानते ह, िक
जब भी हम िकसी आय समाजी ारा तैयार दयानं द जीवन च र
पढते है तो, हम केवल वही पढ़ और समझ पाते ह जो वो हम
िदखाना चाहता है या कह जो वो हमारे िदमाग म डालना चाहता है ,
िफर चाहे वो स हो या िफर अस ,
ले िकन उसम िकतना स और िकतना अस िलखा है वो हम
तभी जान पाते ह जब हम दयानं द ारा िल खत "दयानं द
आ च रत" पढ़ते है , और इस पु क के मा म से मने वही सत्य
लोगों के सामने रखने का यास िकया है , आशा है इस पु क से
सभी को ब त लाभ होगा,
नवीन आय समाजीयों से िवशे ष िनवेदन है िक जब भी वो इस
पु क को पढ़े तो शां त मन से िवचार कर, तभी स और अस
का िनणय हो सकेगा,
आशा करता ँ यह पु क सभी के िलए लाभकारी िस होगी,
~उपे कुमार 'बागी'

P- 55
दयानंद, स ाथ काश और उनके वेदभा ों िक
वा िवकता...

पूव काल मे भारतवष िव ा बु और सवगुणों की खान था, िजस


समय इस भारत वष की कीितपताका भू मंडल के चारो तरफ
फहरा रही थी उस समय कनो से सुनी कीितयो और ने ो से दे खने
िनिमत दू र दे शो से लोग यहाँ आते थे और अपने ने ो को सुफलकर
यहाँ की अतुलनीय कीित को अपनी भाषा के ंथो मे रचते थे, वे
ंथ आज भी इस दे श की गु ता और कीित का रण कराते है
िजस समय यह िव अ ाना कार मे म था पृ ी के अिधकां श
भाग अस ता पूण ही रही थी उस समय यही दे श धम आ कता
और भ और स ता के पू ण काश से जगमगा रहा था, परं तु
समय की भी ा अलौिकक मिहमा है की सूयमं डल को आकाश
मे चढ़कर म ा समय महाती ण होकर िफर से नीचे उतरना
पड़ता है ठीक वही दशा इस दे श की ई, जो सबका िसर मौर था
वो पराधीनता के भार से महापीिङत हो रहा है , भारत के उपरां त
यह दे श िवदे शी चढ़ाइयों से गारत होकर ऐसा आहत आ है , की
िन ार बलहीन होकर आल का भं डार हो गया है , इसकी िव ा
बु सब िवदे शी िश ा मे लय हो गयी है , धम कम मे असावधानी
हो गयी है , सं ृ त िव ा जो ि जमा का आधार थी, उसके श
भी अब शु नही उ ारण होते, इस कार धम िवलु होने से
अने क मतभे द भी हो गए है , िजस पु ष को कुछ भी सहायता िमली
झट उसने अपना नवीन पंथ की कलपना कर श की

P- 56
क ना कर ली, और िश ों को उपदे श दे ना आरं भ कर िदया,
इसका फल इस दे श मे यह आ की फूट का वृ उतप हो गया
और सत् धम म बाधा पड़ने लगी, इन नवीन मतो से हािन तो हो ही
रही थी, इसी समय दयान सर ती ने अपना मत चलाकर कोप
लीला ार की, इसमे भ भाव, मू ितपूजा, अवतार, ा , पाप
दू र होना, तीर् थ, माहा आिद का िनषे ध करके जप तप, आचार
िवचार, जाित को मे टकर, कम से ा णािद वण, िनयोग- चार, ी
के एकादश ( ारह ) पित आिद करने की िविध आिद की आ ा
दे कर वेद मे रे ल, तार, कमे टी आिद का वणन कर सब कुछ वेदों के
नाम से ही िलख िदया है ,
इससे सं ृ त ना जानने वाले सनातन धम से हीन हो उनकी
ा ाँ सुन अपने महान पु षो की गित ाग इस नाम मा मे
मगन हो जाते है , इनके संगठन का नाम आय समाज है , तथाकिथत
स ासी जी के बनाये ए ंथो मे दू सरी बार का छपा स ाथ काश
ही इस मत का मू ल है , ामी जी के अनु यायी इसको प र की
लकीर समझते है , इसका पाठ करते है और कोई कोई इसकी
कथा भी कहाते है , समािजयों मे इसका पाठ होता है और शा ाथ
मे माण भी उसी से दे ते है , समाजीयों का ऐसा मत है िक स ाथ
काश का थम सं रण १८७५ म मु ि त आ, और कुछ तो यह
भी कहते है िक १८७५ के आसपास ही ामी जी ने वेदभा भी
िलख िलया था, पर ु इस बात म कुछ स ाई नहीं, स तो यह है
िक सच को िछपाने के िलए धूत समाजीयों ारा लोगों के िदमाग म
ये बात भर दी जाती है िक स ाथ काश का थम सं रण
१८७५ म और ि तीय सं रण १८८२ म छपा पर ु ये दयानं दी

P- 57
िकसी को ये नहीं बताते िक ये सं रण कब, कैसे और िकस
मु णालय से छप? इसका एक कारण यह है िक ादातर समाजी
यं नहीं जानते की स ाथ काश का थम सं रण कब, कैसे
और कहाँ से मु ि त आ?
यह बात इसिलए भी िछपाई गईं िक यिद लोगों को ये स ात हो
जाता की स ाथ काश का थम सं रण कब कैसे और िकस
मु णालय से छपा? तो लोगों के बीच ामी दयानं द की छिव
सनातनधम िवरोधी बनकर रह जाती, और भिव म कोई
इनके इस संगठन पर थु कना भी पसंद नहीं करता।
इस बात से िचंितत आय समाज ारा यह एक झूठ गढ़ा िक 'स ाथ
काश' का थम सं रण १८७५ म मु ि त आ, पर ु स तो
यह है िक स ाथ काश के ले खन का काय राजा जयकृ दास
ारा ले खन काय के िलए िनयु पं० च शे खर की सहायता से
जू न १८७४ म आरम्भ आ, और इस कार १८७५ म ामी
दयानं द ने थम समु ास को एक छोटी सी पि का के पम
प छपवाकर १० अ ैल १८७५ म आय समाज की थापना की,
िजसम ामी जी ने अपना मत और िनयम पर काश डाला था,
यह मा कुछ पृ ों की एक छोटी सी पि का थी, पर ु दयानंदी
इसे ही स ाथ काश का थम सं रण समझते ह, यही उनकी
बड़ी भारी भू ल ह, और यहीं नहीं ि तीय सं रण के बारे म भी
अस बोला गया िक वह दयानं द के जीिवत रहते छपीं, िजससे िक
भिव म दयानं द और आय समाज पर कोई उं गली न उठे , पर
अफसोस िक झुठ बोलते बोलते यह दयानं दी स को भू ल झूठ म
ही जीने लग, पर समाजी शायद यह भू ल गये िक स को िच ाना

P- 58
नहीं पडता और झूठ को हजार बार रटने से भी वह स म वितत
नहीं हो सकता।
अब ये उठता ह िक यिद स ाथ काश का थम सं रण
१८७५ म मु ि त न आ तो िफर कब आ? और दयानं द के
वेदभा ों और स ाथ काश िक स ाई ा है ? तो इसका उ र
हम ामी जी के इितहास म ही िमले गा तो आइए एक ि आय
समाज के इितहास पर भी डाल लते ह,
सन् १८६० दयानं द लु डकते-लुडकते मथु रा िवरजानं द के आ म जा
प ँ चे, िवरजानं द जो िक पाचँ वष की उ से ही ने हीन थे , उ ोंने
दयानं द को अपना चेला बनाया, यहाँ दयानं द ने 4G की ीड से
ान ा िकया, पर आदत से मजबूर ामी जी यहाँ भी ादा
समय तक न क सक, और सन १८६३ म अपने ने हीन गु
िवरजानं द को भी छोड़कर भाग खड़े ए, िफर कुछ वष तक वह
साधारण स ािसयों की आकृित से ह र ार ऋिषकेश आिद के
जं गलों म रहते रहे , कोई उनका नाम भी न जानता था, सन १८६७
के उपरां त वह गंगा जी के िनकट गां व और नगरों म ठहर कर जो
लोग उनसे िमलते थे उनसे सनातन पर राओं जै से भ भाव,
मू ितपूजा, अवतार, ा , पाप दू र होना, तीथ, माहा आिद का
िनषे ध करते, कुछ वष प ात अचानक दयानं द जी की भट राजा
जयकृ दास ई, राजा जयकृ दास दयानं द की बातों से काफी
भािवत ए और उ उनके मतों पर एक पु क िलखने का
सुझाव िदया, इस कार राजा जयकृ दास की सहायता से
दयानं द ने ले खन का काम ारं भ िकया, (सन १८७४ मे मै मु लर
ने अपने वेदभा कािशत िकए इसके बाद दयानं द ने अपने

P- 59
वेदभा एवं स ाथ काश आिद पर ले खन का काम ारं भ
िकया) लेखन का काय राजा जयकृ दकस ारा ले खन कार् य के
िलए िनयु पं० च शे खर की सहायता से जू न १८७४ को काशी म
आरं भ आ, यह सहायता इसी प म थी िक दयानं द बोलते जाते
थे और च शे खर जी िलखते जाते थे, इसके लगभग एक वष बाद
ामी जी ने थम समु ास को एक छोटी पु क 'स ाथ काश'
के नाम से छपवाकर आय समाज की थापना की, इस पु क की
सहायता से ामी जी ने केवल अपना मत कट िकया था, यहाँ यह
साफ कर द िक १८७५ म मु ि त 'स ाथ काश' म मा पहला
समु ास था िजसके ारा ामी जी ने अपना मत कट िकया था,
यह पु क पूण 'स ाथ काश' नहीं ह जो लोग इसे पूण स ाथ
काश समझते ह वह उनकी भू ल है , आइए अब आपको यह
बताते ह िक कब, कैसे और कहाँ से स ाथ काश का थम
सं रण छपा दे खए- यह हम पहले ही साफ कर चुके ह िक
स ाथ काश का ले खन काय पं० च शे खर ारा आ ामी जी
अपने मत चार और शा ाथ के िलए महीनों शहर से बाहर जाते
रहते और जब वापस लौटते तो उसका सब हाल ले खन काय के
िलए िनयु पं० च शे खर से कहते और वह उसे ों का ों
िलख दे ते इस तरह जब ले खन की साम ी ादा हो गई तो दयानं द
को सािह काशन हे तु मु णालय की आव कता होने लगी, इस
काय मे दयानं द को आय समाज मु राबाद, आय समाज मे रठ और
राजा जरकृ दास से कुछ सहायता ा ई, इसके अलावा
िथयोसोिफकल सोसायटी ने भी इसम भारी सहायता दान की।

P- 60
इसके बाद िथयोसोिफकल सोसायटी की मदद से ि ंिटं ग मशीन
लं दन से भारत मं गवाईं गईं, और िफर इस कार १२ फरवरी १८८०
को ल ीकुंड थत िवजयनगरािधपित के उ ानगृह की छत पर
वैिदक यं ालय की थापना ई, इस कार १८८१ म वैिदक यं ालय
ारा दयानं द यजु वदभा का काशन िकया गया, उसके लगभग
एक वष बाद स ाथ काश का थम सं रण भी वैिदक यं ालय
याग ारा १८८२ के अंत तक कािशत िकया गया इसम कुल
ारह समु ास थे,
दयानं द ारा स ाथ काश पर इसके आगे के ले खन का काम
चल रहा था साथ ही दयानं द ऋ े द का भी भा कर रहे थे अभी
ले खन का काम पूरा भी नहीं आ था िक ३० अ ू बर १८८३ को
ामी जी न ीजान नाम की एक वै ा के हाथों वीरगित को ा
हो गये।
दयानं द की मृ ु तक स ाथ काश का बारहवाँ समु ास िलखा
जा रहा था और ऋ े द के ६ मं डल तक का भा पुरा हो सका था
सातव मं डल के दू सरे सु का भा आरं भ िकया था पर वो पुरा न
हो सका।
इस कार कुल िमलाकर दयानं द २ वेद का भा भी पुरा न कर
सक, दयानं द की मृ ु के बाद तो दयानं दी जै से अनाथ ही हो गये,
सनातन धिमयों के बीच दयानं द और आय समाज की छिव सनातन
धम िवरोधी बन चुकी थी, इसका सबसे मु कारण यह रहा था
िक, दयानं द ने जीिवत रहते अपने इस तथाकिथत ंथ स ाथ
काश म िसफ और िसफ सनातन धम ही की िनं दा की थी और

P- 61
यही दयानं द का उ े भी था िथयोसोिफकल सोसायटी के साथ
अ े संबंध होने के कारण दयानं द ने कभी ईसाई और मु म मत
के िव कुछ नहीं िलखा, लोगों के मन म आय समाज की छिव
सनातन धम िवरोधी बनकर न रह जाय, इस भय से दयानं दीयों ने
दयानं द की मृ ु के बाद ईसाई और मु म मत के िव २
समु ास और तैयार िकए, िजसे १८८४ के अंत म वैिदक यं ालय
ारा स ाथ काश के ि तीय सं रण म छापा गया और एक
झूठ गढ़ा गया िक ये समु ास दयानं द के जीिवत रहते ही िलखे
गए थे पर कुछ सम ाओं के कारण यह छप न सक यहाँ तक िक
ि तीय समु ास और थम समु ास के छपने के समय को
ले कर भी झूठ बोला गया तािक आय समाज और दयानं द का ये
कुकम कभी िकसी के सामने ने आ सके,
ये झूठ १३३ वष से बोला जा रहा है ये समय इतना ल ा है िक अब
तो समाजी इस झूठ को ही स मान बैठे ह यही कारण है िक इन
समाजीयों से स ाथ काश के थम सं रण के बारे म पूछने पर
इनके पास कोई जबाव नहीं होता जबिक दोनों ही सं रण और
वेदभा एक ही मु णालय से छापे गए थे िजसकी थापना सन्
१८८० म ई थी
ये आय समाजीयों की गपडचौथ है िक थम सं रण १८७५ म
और ि तीय सं रण १८८२ म छपा, जबिक इस बात म कुछ भी
स ाई नहीं है , दरअसल ये समाजी रट् टू तोते है इ िजतना रटाया
जाता है उ उतना ही पता होता है

P- 62
स ाथ काश का थम सं रण उस बदनसीब ब े िक तरह है
िजसका बाप होते ए भी १३३ वष से लावा रस की तरह पहचान
की उ ीद म बैठा इं तजार कर रहा है , पर ु अफसोस की इस
तरफ िकसी का ान ही जाता, यिद इसकी बात होती तो सब भे द
खु ल जाता,
अब आइए एक ि दयानं द के वेद भा ों पर भी डाल ले ते ह
दरअसल आय समाजी िजन वेदभा ों को आज दयानं द वेदभा ों
के नाम से जानते ह वो यही नहीं जानते िक दयानं द ने तो कभी
वेदभा िकए ही नहीं थे , ब दयानं द ने मै मु लर के भा ों
का ही िह ी अनु वाद िकया है
माण-
मै मु लर ने अपनी ित १८७४ म दिशत की इसके ७ वष प ात
दयानं द ने अपने वेद भा कािशत िकया!!!
मै मु लर और दयानं द की वेद भा करण म कुछ समानताएं ह
जो बाकी वेद ंथों से समानता नहीं रखतीं। और इसके बाद टी एच
ि थ ने भी वेद भा को िलखा जो िक उ ोंने यं ही कहा है िक
वो मै मु लर से े रत है ।
इन तीनों के भा म सभी ादातर मं सं ा और उनका अथ
एक सामान है , यह संभव है िक दयानं द ने मै मु लर का वेद
भा पढ़ा और उसको अपने अनु सार िहं दी म िलखा जो िक आज
दयानं द वेदभा नाम से चिलत है , िक ु यह मू ल वेद ित नहीं है
ब केवल अथ का अनथ है , िजसमे कई मं ों को आधा अधुरा
करके िलखा गया है , िजससे अथ का समू ल नहीं होता ब

P- 63
अलग ही कार से अथ को दशाने का यास होता है , कई मं ऐसे
िलखे गए ह जो इनके वेद भा ों म ह वो अ वेद ंथों म नहीं ह,
आप कोई मं का सं ा का अ ाय भी दयानं द वंशजों से पूछ
ल तो ये अपनी मानिसकता पर आ जाते ह िक ु सही जवाब नहीं
दे ते, ोंिक ये यं भी जानते ह िक ये जो दयानं द कृत पु क
पढ़ते ह वे वेद नहीं ह, केवल छलावा ह लोगों को वेदों के नाम पर
अपनी िश ा दे ने का और अपनी सोच को वेदों के अनु सार न
ढालकर लोगों म अपनी सोच के अनु सार वेद ान को ढाल िदया है ,
अपने अनु सार इ ोने अथ बना रखे ह अपने अनु सार उनके मं
सं ा तय कर िदए!!!
ये जानकारी है िक िकसने कब िलखा और िकसने कब ये दे खये।
मै मु लर ने १८७४ म वेदभा िकए। िजसके २६ वष प ात् मृ ु
को ा ए,
दयानं द ने १८८१ म यजु वदभा , १८८२ म स ाथ काश और
१८८३ म ऋ े दभा िलखते िलखते ही मृ ु को ा ए,
रा टी एच ि थ ने कुछ कुछ ही वष के अंतराल म सारे वेदों
को टां सले ट कर िदया! और अं ितम टां सले शन के ७ साल बाद मृ ु
को ा ए।
Hymns of the Rigveda (published 1889) इसके कुल ४ साल
म ही सामवेद का पूण अ यन और टां सले शन!!!
Hymns of the Samaveda (published 1893) इसके कुल तीन
साल म ही अथववेद का पूण टां सले शन!!!!!

P- 64
Hymns of the Atharvaveda (published 1896) इसके बाद
तीन साल म ही यजु वद का टां सले शन!!!!
The Texts of the Yajurveda (published 1899)

सबसे मह पूण बात ये है िक ये ाल सबसे पहले िलखने वाले


मै मु लर और अंत म िलखने वाले रा टी एच ि थ के भा
अपने आप म एक सबूत ह िक इनके म म िलखा गया दयानं द
का भा भी इ ीं से े रत था न िक िकसी और से, ये स ान
नहीं ब अं ेजों की वो सोच थी िजसपर अं ेज हम चलाना
चाहते थे तािक भारत से पूजा पाठ धािमक कम का बंद हों और
यही बात दयानं द की सोच म भी थी तो यहाँ दयानं द को अपने
भा िलखने के िलए अं ेजों से ेरणा िमली िजसके कारण आज
तक वेदों के अथ का अनथ होता आ रहा है ।
और ना जाने कब तक ऐसे ही मै मु लर के भा ों का िह ी
अनु वाद पढ़ पढ़कर दयानं दी लोग िव ान बनते रहगे?

P- 65
िथयोसोिफकल सोसायटी आफॅ द आय समाज
(Theosophical Society of the Arya Samaj)

इितहास सा ी है िक जब-जब इस भारतवष की अखं डता और


इसकी सनातन सं ृ ित को श ु ओं ने न करने का यास िकया है
और सफल ए तो उसके पीछे हमारे अपने जयचंद जै से ग ारों की
ब त बड़ी भू िमका रही है ऐसे ही एक थे ामी दयानंद
िजनका उ े था िकसी भी कार से सनातन धम को तोड़ एक
नये धम की थापना करना, पर ु यह काय इतना सरल न था,
ोिक उस समय तक न तो ामी जी को कोई जानता ही था और
न ही ामी जी के पास इतनी मता थी िक वह अपने इस को
पूरा कर सक, इसका सबसे बड़ा कारण यह था िक ामी जी ारा
चलाया नवीन मत सभी ाचीन मतों से िभ था, िजसम ामी जी ने
ईसाइयों की भां ित सनातन कमकां डों का िनषे ध त, पूजापाठ,
अवतारािद का िवरोध और इसके अित र ईसाइयों की भां ित
ामी जी ने एक वे ाधम चलाया िजसम एक ी पु ष के ारह
पु ष ीयों तक िनयोग करने जै सा िनं िदत कम शािमल था,
ामी जी का यह मत भारतवष म ा सभी मतों से पूणतः िभ
था िसवाय ईसाई मत के, यह दोनों ही मत भारत म नवीन थे, और
दोनों ही मत भारत म अपने पैर पसारने के िलए एक सुनहरे
अवसर की ती ा म थे, अब ोिक उस समय भारतवष पर
ईसाइयों शासकों अथात अं ेजों का राज था, और ोंिक दयानं द

P- 66
के अं ेजों के साथ अ े स थे (जो िथयोसोिफ प म छपे
कुछ ले खों से िस होता है इसकी चचा हम आगे करगे) सो ामी
जी ने अपने मत चार हे तु ईसाई िमशनरीयों की सहायता ले ने का
िन य िकया,
उस समय ामी दयानं द भारत म ईसाई िमशनरी के एकमा
सबसे बड़े ऐजट के प म सामने आये, आ यचिकत होने की
आव कता नही है , आप लोगों ने सही सुना ामी दयानं द भारत
म ईसाई िमशनरी के सबसे बड़े द ों म से एक थे , ामी दयानं द
न केवल िथयोसोिफकल सोसायटी के अहम सद थे, ब
िथयोसोिफकल सोसायटी के सं थापकों को प िलखकर उ
भारत म लाने वाले भी दयानं द ही थे , १८७८ से ले कर अपनी मृ ु
१८८३ तक ामी जी ने इस ईसाई िमशनरी सभा के साथ िमलकर
न केवल काय िकया, ब भारत म ईसाई धम के फलने फूलने
के िलए पैर जमाने के िलए अ ा खासा मं च तैयार करके िदया,
ामी दयानं द कब और कैसे िथयोसोिफकल सोसायटी के साथ
जु ड़े? अब आपको िव ार म समझाते ह,
सन् १८७५ म जब दयानं द अपने नवीन मत का चार करने काशी
प ँ चे, उ ीं िदनों, मै डम है लना पैटोवना ै वाट ी और कनल
हे नरी ील आ ाट नामक दो ईसाई िमशनरी सभा के धम
चारक भी अपने मत चार म लगे ए थे , यह बात जब ामी
दयानं द के कानों तक प ं ची, तो वह उनसे िमले िबना न रह सक
और मन म िमलने की इ ा िलए उनके स ुख प ं चे, ामी
दयानं द उनके काय की शं सा करते ए, उनके सामने साथ
िमलकर काम करने का ाव रखा और उ मु ई आने का

P- 67
िनमं ण िदया, मै डम ै वाट ी और कनल आ ाट उनका
ाव ीकार कर उनके साथ मु ई प ं चे, उसके कुछ समय
प ात ामी दयानं द ने १० अ ैल १८७५ म यहाँ आय समाज की
थापना की, िजसके बाद दोनों वापस ू यॉक के िलए िनकल गय,
ू यॉक प ँ चकर मै डम ै वाट ी और कनल आ ाट ने १७
नवंबर १८७५ म ईसाई िमशनरी सभा अथात िथयोसोिफकल
सोसाइटी की थापना की,
उसके बाद पुनः कनल और मै डम सन् १८७५ ई• की १७ वीं
िदसंबर को अमे रका के ू यॉक नगर से चलकर लं दन म २
स ाह यापन करक सन् १८७६ के फरवरी मास की १६ वीं तारीख
को मु ई म आकर उप थत ए, उसके प ात वहाँ कुछ िदन
ठहर कर सहारनपुर चले गये ,
(The Theosophist Vol 1. P 1., दे वे बाबु िल खत दयानं दच रत,
पृ २७३)
उन िदनों ामी जी पंिडत कृपाराम शा ी से भट करने के िलए
दे हरादू न आये ए थे , ले िकन जब उ यह ात आ िक मैडम
ै वाट ी और कनल आ ाट सहारनपुर आए ए ह तो उ ोंने
तुरंत दे हरादू न से सहारनपुर के िलए थान िकया, मै डम और
कनल को ले कर ामी जी सहारनपुर से मे रठ आए, मे रठ म उनके
रहने के िलए तं बंध हो गया, माई मास की पां चवी तारीख को
कनल आ ाट ने छे दीलाल की कोठी म एक व ृ ता दी, इस
कार कई एक िदन ामी जी के िकसी-िकसी िवषय म
िवगतसंशय होकर कनल और मै डम दयानं द जी की िकसी बात पर

P- 68
ोिधत होकर मे रठ छोड़कर चले गए, उनके चले जाने पर दयानं द
कुछ िदनों मे रठ म ही रहे , पर उन िदनों उ ोंने कोई ा ान या
व ृ ता नहीं दी,
उसके बाद दयानं द ने िथयोसोिफकल सोसाइटी को कई प िलखे,
और अंत म १३ अ ैल १८७८ म ामी दयानं द ने िथयोसोिफकल
सोसायटी को प िलखकर िथयोसोिफकल सोसायटी से यह
िनवेदन िकया िक वह अपना धान कायालय ू यॉक से मु ई ले
आए,
उसके जबाव म िथयोसोिफकल सोसायटी की तरफ से जबाव म
जो प आया वो आपको िदखाते है उसम िलखा था-

P- 69
The Theosophical Society, New York, May 22nd 1878.
To the Chief of the Arya Samaj.
HONOURED SIR,
You are respectfully informed that at a meeting of the
Council of the Theosophical Society, held at New York
on the 22nd of May 1878, the President in the chair
upon motion of Vice-President A. Wilder seconded by
the corressponding Secre tary H. P. Blavatsky, it was
unanimously resolved that the society accept the
proposal of the Arya Samaj, to unite with itself, and
that the title of this Society be changed to
" The Theosophical Society of the Arya Samaj of India.
*
Resolved, that the Theosophical Society for itself and
branches in America, Europe and else-where, hereby
recognize Swami Dayanand Saraswati, Pandit, Founder of
the Arya Samaj, as its lawful Director or Chief.
Awaiting the signification of your approval and any
instructions that you may be pleased to give.
I am, honoured sir, by order of the Council,
Respectfully yours,
(Sd.) AUGUSTUS GOSTAM,
Recording Secretary

( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami


Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं दे वे बाबु रिचत
'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)

***********************************

P- 70
िजसका ह द अनु वाद इस कार है -

िथयोसोिफकल सोसाइटी, ू यॉक मई २२, सन् १८७८ ई•

सेवा म धान आय समाज-

माननीय महोदय ! आपको िवनयपूवक सूचना दी जाती है िक


िथयोसोिफकल सोसाइटी की कौ ल के एक अिधवेशन म, जो
ू यॉक म २२ मई १८७८ को सामियक धान के सभापित म
संघिटत ई आ ए• वाइ र साहब उपसभापित के ाव और
प वहार कता म ी एच• पी• ैवाट ी के अनुमोदन पर
सवस ित से िनधा रत आ है िक यह सभा आय समाज के इस
ाव को िक सभा उ समाज के साथ िमल जावे और इस
समाज का नाम प रवितत करके "भारतवष य आय समाज की
िथयोसोिफकल सोसाइटी" रखा जावे ीकार करती है ,

यह भी िन य आ िक िथयोसोिफकल सोसाइटी अपनी और


अपनी शाखाओं की ओर से जो अमे रका, यूरोप और अ दे शों म
ह, ामी दयानंद सर ती पंिडत, सं थापक आय समाज को अपना
िनयमानुकूल अिधनायक मानती है ,

आपकी ीकारी की सूचना और िक ी ं सुझावों की जो आप


दे व ती ा करता आ"

म ँ , माननीय महोदय, कौ ल की आ ानुसार

आपका

(ह ा र) आग मग म,

रकॉिडग से े टरी - (अनुवादक)

P- 71
( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND:
Swami Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं
दे वे बाबु रिचत 'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)

***********************************
प म श ों म िलखा है िक यह सभा आय समाज के इस
ाव को िक सभा (अथात िथयोसोिफकल सोसाइटी) उ
समाज (अथात आय समाज) के साथ िमल जाव और इस सभा का
नाम प रवितत करके "Theosophical Society of the Arya
Samaj" रखा जाव ीकार करती है ,
उ प से यह साफ हो जाता है िक िकस कार ामी जी ईसाई
िमशनरी सभा से िनवेदन कर रहे ह िक आओं आय समाज के
जमाता हमारे साथ िमल कर भारतीय सनातन सं ृ ित को न
करने म मे री सहायता कर, और अपने मत का चार कर
ना कवाद को बढ़ाने म आय समाज का सहयोग कर,
ामी दयानं द के िनमं ण पर फरवरी १८७९ म सोसाइटी का
धान कायालय ू याक से मु ई म लाया गया, और आय समाज
कायालय का नाम बदल कर "िथयोसोिफकल सोसायटी आफॅ द
आय समाज (Theosophical Society of the Arya Samaj)"
रखा गया।
उसके बाद आरं भ आ इनका असली खे ल, आय समाज और
िथयोसोिफकल सोसाइटी दोनों ने िमलकर एक साथ सनातन धम
पर आघात िकया, इसका प रणाम यह आ िक सनातनधम यों के

P- 72
बीच मतभे द उ होने लग, िजसका सबसे ादा लाभ
िथयोसोिफकल सोसायटी को िमला, १८७९ से ले कर १८८३ तक
दयानं द की सहायता से यह सभा (िथयोसोिफकल सोसाइटी) लाखों
सनातनधम यों को ईसाई मत की ओर ले जाने म सफल रही,
दयानं द के िलए अं ेजी शासन िकसी ण युग से कम न था, उनके
अनु सार उ ोंने सनातन धम के िव िजतना िवष उगला यिद
अं ेजों ने उनकी र ा न की होती तो ज र कोई न कोई उ
मरवा डालता
१८८० के िथयोसोिफ प के एक ले ख म ामी जी बताते ह िक
"यिद अं ेजी रा न होता तो म जो इतनी बार फ खाबाद आया,
ा ण मु झे कभी जीिवत न छोड़ते, िकसी से मरवा डालते,
पाठकगण ! के मन म उठ रहा होगा िक आ खर अं ेजी
सरकार दयानं द पर इतनी मे हरबान ों थी, तो इसका जबाव है -
‘िडवाइड एं ड ल’: अं ेज़ों की नीित "महान तं ता सेनानी
सुभाषच बोस ने अं ेजों की नीित का तीन श ों म खु लासा करते
ए िलखा है - िडवाइड एं ड ल अथात फूट डालो और राज करो"
ामी दयानं द यही कर रहे थे, उनके नवीन मत चार से सनातन
धम म िबखराव की थित उ होने लगी थी, और अं ेजों की तो
शु से यही नीित रही थी, िजसे ामी दयानं द ने और आसान बना
िदया, ामी दयानं द आ खर ऐसा ा कर रहे थे दे ख-

P- 73
दयान सर ती के बारे म ी कॉलेज के ाचाय डॉ
होनले (Rudolf Hoernley) ने यह बात िलखी—
दयान िहं दुओं के मन म यह बात भर दे ना चाहते ह िक आज का
िहं दूधम, वैिदक िह दू धम के पूणतया िवपरीत है , और जब यह बात
िह दु ओं के मन म बैठ जायेगी तो वे तुरंत िहं दूधम का ाग कर
दगे; पर तब दयान के िलए उ वैिदक थित म वापस ले जाना
स व न होगा, ऐसी थित म िहं दुओं को एक िवक की खोज
होगी जो उ िहं दू से ईसाई धम की ओर ले जायेगी।
ोत: The Christian Intelligence, Calcutta, March 1870, p
79 and A F R H quoted in The Arya Samaj by Lajpat Rai,
1932, p 42 quoted in Western Indologists A Study in
Motives.htm, Purohit Bhagavan Dutt

दयानं द की बनाईं "िथयोसोिफकल सोसायटी आफॅ द आय समाज"


इसी कार काय करती, दयानंद िह दु ओं के मन मे ये बात भर दे ते
थे िक आज का िह दू धम, वैिदक िह दू धम के पूणतया िवपरीत है ,
और जब यह बात िह दु ओं के मन म बैठ जाती तो ऐसे म उनम से
कुछ तो आय समाज से जु ड़ जाते और बाकीयों को िथयोसोिफकल
सोसायटी के धम चारक ईसाई बना दे ते, अब ोिक
"िथयोसोिफकल सोसायटी आफॅ द आय समाज" एक साथ काम
करती थी इसिलए बदले म दयानं द को भी िबना िकसी रोक टोक
के भयमु होकर अपना नवीन मत फैलाने हे तु ि िटश सरकार
का पूरा सहयोग िमलता था।

P- 74
पाठकगण ! िवचार कर यिद दयानं द का काम वैिदक धम का
चार ही था तो ा दयानं द को पुरे भारतवष म कहीं वैिदक लौग
नहीं िमल, जो वे ईसाइयों के सामने िगडिगडा रहे थे , आ खर
दयानं द ने उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसे कौन से
वैिदक गुण दे ख िलए जो उ सनातनधम यों मे न िदख, दरअसल
ामी जी ाथ, अंहकार और ै षाि म इतने अंधे हो चुके थे िक
अपने ाथपूित के िलए वो िकसी भी र तक िगर सकते थ वना
दयानं दी जबाव द िक यिद दयानं द का मन साफ था तो उ ोंने
सनातनधम यों के साथ िमलकर वैिदक धम का चार सार ों
नहीं िकया? और उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसा ा
दे ख िलया? जो ना तो वैिदक धिम थे और ना ही इस भारतभू िम के,
िफर ऐसा ा कारण था जो िथयोसोिफकल सोसाइटी को भारत म
बुलाने व उसका िह ा बनने के िलए उनकी लार टपक रही थी?
ऐसा करते ए ा दयानं द को तिनक भी ल ा न आई? उ ोंने
एक बार भी यह नहीं सोचा की िव ान लोग उनके बारे म ा
सोचगे?
आय समाज िकस कार िथयोसोिफकल सोसायटी से जु ड़ा आ
था यिद यह जानना हो तो आप गूगल पर जाकर िसफ इतना टाइप
कर दीिजए "Theosophical Society of the Arya Samaj"
आपको आपकी सभी बातों का जवाब िमल जाएगा और यिद इसम
अब भी िकसी कार कोई संदेह रह गया हो िक दयानं द
िथयोसोिफकल सोसायटी के सद थे या नहीं तो वो जाकर
दयानं द की १८८२ म तैयार कराई वसीयत के बारे म पढे , दयानं द
ने अपनी वसीयत जो िक उ ोंने मे रठ म पंजीकृत कराईं थी िजसम

P- 75
कुल १८ लोग थे िज दयानं द ने अपनी अं ेि करने तथा िनजी
व , पु क, मं ालय आिद का अिधकार िदया था उसम
िथयोसोिफकल सोसायटी के सं थापक कनल आ ाट और मै डम
ै वाट ी का भी नाम है

मु झे लगता है अपनी बात को िस करने के िलए अब मु झे और


कुछ िलखने की आव कता नहीं है दयानं द की ये वसीयत ही ये
िस कर दे ती है ईसाई िमशनरीयों के साथ दयानं द के िकतने
अ े और गहरे संबंध थे जो काम ईसाई िमशनरी िपछले १५०
सालों म न कर सकी दयानं द के समथन से मा ५ वष मे ईसाई
िमशनरी के धम चारको ने लाखों सनातनीयों का धम प रवतन
कर उ ईसाई बनाया बडे आ य िक बात है िक ंय को वैिदक
कहने वाले दयानं द को ईसाई िमशनरीयों के साथ िमलकर काम
करने म तो कोई परहे ज नही था पर अपने िह दु भाई आँ खों मे
खटकते थ ऐसा शायद इसिलए ोकी ामी दयानं द और ईसाई

P- 76
िमशनरी सभा का उ े एक ही था िकसी भी कार सनातन
सं ृ ित को पुरी तरह से समा करना शायद यही कारण रहा िक
दयानं द ने अपने तथाकिथत ं थ के थम सं रण म १८७५ से
ले कर १८८३ तक केवल सनातन धम की ही आलोचना की है ईसाई
या मु म मत के िव एक श नहीं िलखा।
ये ले ख उन मू ख के मु हँ पर तमाचा है जो दयानं द को वैिदक धम
का चारक और िह दु ओं का िहतैषी बोलते ह जबिक स तो यह
है िक दयानं द जै सा ाथ , िनच , कपटी और ग ार जो
अपने दे श, धम अपने भाई बंधुओं का नहीं आ पूरे संसार म नहीं
िमले गा जीवन पय दयानं द का केवल एक ही उ े रहा
सनातन धम को तोड के एक नया धम बनाना,

P- 77
ामी दयानंद का काशी शा ाथ

जब काशी शा ाथ म काशी के मू ध पंिडतों के अ णी “ ामी


ी िवशु ान जी महाराज” ने दु रा ही ामी दयान को
शा ाथ म धूल चटाई—
ामी दयानं द ने अपना तािकक उ ू सीधा करने के िलए एक
बार काशी म शा ाथ कर के सनातन धम को समा करके
सनातन धम के थान पर आय समाज की थापना करने के िलए
काशी याण िकया, काशी के िद ज पंिडतों के समाख ामी
दयानं द का काशी शा ाथ काशी नरे श महाराज ई रीनारायण
िसंह की म थता म शा ाथ ार आ, इस शा ाथ के दश
के तौर पर काशी नरे श के भाई राजकुमार वीरे र नारायण िसंह,
तेजिसंह वमा आिद िति त भी उप थत थे , इस शा ाथ
म ा आ दे ख–
सव थम पं० ताराचरण तकर ामी जी से वाद आर करने को
ु त ए, ामी दयान ने िकया यिद आप लोगों को वेदों
का ामा ीकाय हो तो, वेदों म पाषाणािद मू ितपूजा का माण
कहाँ है ? ु त कर, पं ० ताराचरणजी ने वेदों की ामािणकता को
यथायो प से ीकारते ए भारतीय पर रा के अनु सार
वैिदक शा ों से मू ित पूजा के माणों की झिड़याँ लगाना शु
िकया, इस पर ितलिमलाते ए दयानं द ने म भाग से इतर शा ों
की वेदामू लकता पर खड़े करना शु कर िदया, इस पर सारे

P- 78
िव ान आ यचिकत हो गए िक ये अजीब नवीन मत वाला कौन
नया शा ाथ आ गया? ऐसे िव ितप मित ामी दयान की
बु िठकाने लगाने के िलए दयानन्द के अ ान दप का दलन
करने के िलए काशी के मू ध िव ान ामी िवशु ान जी ने
िकया “रचनानु प े नानु मानम् ” इस वेदा सू की वेदमू लकता
ा है ? ामी दयान जी िन र हो गए और लाज बचाने के
िलए बोले िभ करण की चचा का कोई औिचत्य नहीं है , मु झे
सारे शा उप थत नहीं
ामी िवशु ान ने कहा यिद सब शा उप थत नहीं ह तो
शा ाथ के िलए ों आये?
ामी दयान ने पूछा- ा आपको सभी शा उप थत ह?
ामी िवशु ान जी ने िस ा गजना करते ए कहाँ – हाँ , तब
ामी दयानं द ने पूछा तो धम का ल ण बताइय, िवशु ान जी ने
पूव मीमां सा दशन के सू से ामी दयानं द का पुनः दप दलन
करते ए उ र िदया–
चोदना ल णोsथ धमः (अथात् वेद के ेरक वा धम ह ),
तब ितलिमलाए ामी दयान ने अपना रटा-रटाया उ र ना
पाकर बोला, तुम गलत बोलते हो, धम के तो दस ल ण है -
धृितः मा दमोऽ ेयं शौचिम यिन हः।

धीिव ा स म ोधो दशकं धमल णम् ॥ (मनु ृित )

P- 79
इन दयानं द महाशय को ये भी ात नहीं था िक मनु ृित के धम
ल णों से पूवमीमां सा के धम ल ण का बाध नहीं होता, ामी
दयानं द की इस मू ढ़ता पर हं सते ए ामी िवशु ान जी बोले–
घटं िभ ा पटं िछ ा कृ ा रासभरोहणम् ।

येन -केन- कारे ण िस : पु षो भवेत्॥

अथात् घडा फोड़कर , कपडे फाड़कर , गधे पर चढ़कर येन-केन-


कारे ण (मू ख) िस होना चाहता है ,
तब पं० बालशा ी जी सामने आये और ामी दयान से
धमशा से धम के ल णों पर ो र करने की इ ा से चचा
शु करने को उ त ही ए थे िक ामी दयान अपनी बार-बार
डूब रही लु िटया बचाने के िलए उनसे अधम का ल ण पूछ बैठे, जो
िक सारे धम शा म कहीं भी विणत नहीं, मे धावी पंिडत
बालशा ी ने इसका भी दप दलन दु िद ज ं अधम िमित
कहकर दे िदया, तब दयानं द ा बोलते?
तब काशी के अ ा प तों ने ामी दयान से पूछा- वेद म
कहीं ितमा श नहीं है ा? ामी दयान ने कहा सामवेद के
षड् िवंश ा ण म ितमा श का उ े ख है - दे वतायतनािन
क े दै वत ितमा हस ी ादीिन।

तो पंिडतों ने बोला तो िच ाते ों हो िक ितमा श कहीं नहीं -


कहीं नहीं ?? तब ामी दयानंद ने बोला -यहाँ ितमा श के
उ े ख से परमा ा की ितमा बनाकर पूजा का िवधान नहीं है ,
प तों ारा पूछे जाने पर ामी जी ने उ करण के म ों का
अथ पर कहा िक यहाँ अद् भु त शा करण की चचा है , ामी

P- 80
दयान ने पंिडत बालशा ी जी से पूछा िक आप बताएं िक
आपके मत म यहाँ िव दशियता कौन है ? बालशा ी ने उ र
िदया इ यॉ, ामी दयानं द ने कहा िक इ यॉ दे खने वाली ह न
िक िदखाने वाली, बालशा ी जी ऐसे बड़बोले धूत मित से ा
बोलते िजसको ये भी ना मालूम हो िक इ यों से ही िव ों की
तीित की जाती है ,
ामी िवशु ान जी ने ामी दयान जी से पूछा- जै से मन और
सूय म बु करके उपासना करे , इससे तीकोपासना कही है ;
ठीक वैसे ही शािल ाम पूजन का हण ों नहीं करना चािहए,
ामी दयानं द ने कहा– जै से मनो े ुपासीत इ ािद कहा है ,
वैसे पाषाणािद े ुपासीत– ऐसा नहीं कहा है , पुनः पाषाणािद का
हण ों िकया जाय ? सारे पंिडत दयानं द की मू खता पर हं सने
लगे ोंिक एक ओर तो दयानं द मन (जड़ त ) की तीकोपासना
का िवधान यं ीकृत कर रहे ह और दू सरी ओर उसी का अपने
तक से िनषे ध भी!
तब प त माधवाचाय ने पूछा – ‘पुराण’ श कहीं वेदों म है वा
नहीं? तब ामी जी ने कहा – अने क है िक ु भू तकालवाची
िवशे षण के प म यु आ है । ‘ ा णानीितहासपुराणािन’
यहाँ भी पुराना सनातन ा ण इ ािद अथ ही अिभ ेत ह न िक
वैव आिद, जबिक अथववेद के ऋचः सामािन ां िस पुराणं
यजुषा सह० इस उ सू म पुराण श िबना िवशे षण के
योग आ है जो िक धू ामी दयानं द ने उद् धृत न िकया,
मु ा भटकाने के िलए ामी दयान ने पंिडत बालशा ी से पूछा

P- 81
ाकरण म क सं ा िकसकी है ? मे धावी पंिडत ी बालशा ी
जी ने बता िदया िक महाभा के अमु क थल पर अमु क पम
इसकी चचा है , तब माधवाचाय ने दो प े िनकाल कर प तों के
बीच फक िदये, िजस पर िलखा था– य समा पर दशम िदवस
म पुराण पाठ सुने,
प तों ने पूछा– यहाँ पुराण श का ा अथ है ? तब ामी
दयानं द ने कहा- पुराना िव ा– वेदिव ा िव ा का हण करना
चािहए– यही अिभ ाय है अ था यहाँ वैव आिद का नाम
िलखा होता, पुराण श से पुरानी िव ा अथ करने वाले
दयानं द की अ ता जगजािहर थी ोंिक िव ा तो िव ा
है , वो नयी ा और पुरानी ा? ऐसी कोई भी “पुरानी िव ा”
नहीं िजसका कमका म पाठ िकया जाता हो तथै व पौरािणक
िस ा के अनु सार एक ही “पुराण” १८ पों म महिष वेद ास
ारा संकिलत है तथा इस कार १८ पुराणों का ोतक है , िजनके
१८ उप तथा औप इस कार ५४ कार िनिद ह, उन ५४ नामों
का इतना लं बा कथन सू म िकया जाए तो सू की सू ा कता
ा रही? एक बालक भी आसानी से ये त समझ सकता है , इस
कार पुराण श के वैव ािद नाम ा ाियत ना होने पर
अ ीकार प असद् हे तु की यथाथता है | ऐसे मू ख की चले
तो सू के ृते आिद सू ों पर न जाने म ािद ृितयों का
ा हाल करगे! खै र!
इस पर िवशु ान जी आिद ने अपना अमू समय ऐसे थ
दु रा ह यु लापकारी धूत के च र म न करना थ है , ये
िस कर िलया, यहाँ िवल हो रहा है , चलते ह, ऐसा कहकर हर

P- 82
हर महादे व और सनातन धम के िवजय उद् घोषों के साथ उठना
शु कर िदया, काशी नरे श ी ई री नारायण िसंह ने भी
िनणय िदया िक– ये दयान धूत है अतः आप पंिडत गण इसके
उठाये संग पर ख न -मं डन के बनाइये, सभी प तों एवं
उनके अनु यािययों ने हर हर महादे व का िवजयी उद् घोष से ामी
दयान को धोबी पछाड़ हार का ाद चखाकर यथा थान थान
िकया, अन र शा ाथ के म थ काशी नरे श की आ ानुसार
“दयान पराभू ित’’ एवं “दु जनमु खमदन” नामक दो पु क
कािशत कर ामी दयान की यथाथता को जगजािहर िकया,
साथ ही पंिडत बालशा ी जी के ह ा र यु िव ापनों से भी
इस यथाथता को जन- सामा को स माण अवगत भी करा िदया
गया, पर ु ामी दयान तब भी ना सुधरे ! इसी पर रा के
अनु सार ामी दयानं द के चेले आय समािजयों (अनाय नमािजयों)
का भी ये इितहास है िक कु े की पूंछ भी कदािचत् सीधी हो जाए
िक ु ये नवाय िनयोगी नमाजी बार-बार मुं ह की खाकर भी नहीं
सुधरते!

P- 83
P- 84
स ाथ काश अ गत भूिमका की समी ा

(स ाथ काश) भूिमका पृ , १

❝िजस समय मने यह ‘स ाथ काश’ बनाया था, उस


समय और उस से पूव सं ृ तभाषण करने, पठन-पाठन म
सं ृ त ही बोलने और ज भू िम की भाषा गु जराती होने के
कारण से मुझ को इस भाषा का िवशेष प र ान न था, इससे
भाषा अशु बन गई थी, अब भाषा बोलने और िलखने का
अ ास हो गया है , इसिलए इस को भाषा ाकरणानुसार
शु करके दू सरी बार छपवाया है , कही-ं कही ं श , वा
रचना का भे द आ है सो करना उिचत था, ोंिक इसके भे द
िकए िवना भाषा की प रपाटी सु धरनी किठन थी, पर ु अथ का
भे द नही ं िकया गया है , ुत िवशेष तो िलखा गया है , हाँ , जो
थम छपने म कही ं-कही ं भू ल रही थी, वह िनकाल शोधकर
ठीक-ठीक कर दी गह है ❞

समी ा-- भू िमका म छपे इस ले खानुसार, जब दयानंद ने यह


स ाथ काश बनाया उस समय तक पठन-पाठन म सं ृ त
बोलने , और ज भू िम की भाषा गु जराती होने के कारण उ
िह ी भाषा की सही समझ नही ं थी, इस कारण भाषा अशु
बन गई थी,ं अब यिद भू िमका म छपे इस लेख को स मान तो,
समाजी अपने ही बनाए झूठ के जाल म फंसते चल जाते ह,
और इस कार एक के बाद एक कई खड़े हो जाते ह, जैसे-

१• भू िमका म छप इस लेखानुसार िविदत होता है िक इससे


पहले का जो स ाथ काश है , वो गु जराती भाषा िमि त है ,

P- 85
पर ु इसम कोई भी गु जराती भाषा का श िदखाई नही ं
पड़ता, ों?

२• यहाँ यह भी िवचारणीय है िक यह कौन सी बु मानी


की बात है िक कोई उस भाषा म पु क िलखता है , िजस
भाषा का उसे समुिचत ान न हो, कोई भी यिद कोई
पु क िलखता है तो उसी भाषा म िजसे वो अ ी कार से
िलख, बोल और समझ सक, और जहाँ तक 'स ाथ काश' की
बात है तो दयानंद 'स ाथ काश' गु जराती अथवा सं ृ त म
िलखकर भी उसका िह ी पां तरण करवा सकते थे, िफर
दयानंद ने ऐसा ों नही ं िकया? यह जानते ए भी िक उ
िह ी भाषा का शु ान नही ं िफर भी िह ी म ही िलखना
जारी रखा ों?

३• यहाँ यह भी िवचारणीय है िक 'स ाथ काश' िलखने


का काय दयानंद ारा नही ं ब काशी नरे श राजा
जयकृ दास ारा लेखन काय के िलए िनयु पंिडत
च शेखर ारा आ, जो िह ी और सं ृ त दोनों ही भाषाओं
के बडे अ े िव ान थे , िफर भाषा का अशु होना कैसे सं भव
है ? अथात दयानंद झूठ बोल रहे ह

४• दयानंद के लेखानुसार अब यह वाला स ाथ काश


स ूण ही शु ह, और आय समाज के मतानुसार 'स ाथ
काश' का यह सं रण १८८२ म तै यार आ, अब ोिक
इसके बनाने से पूव न तो दयानंद को शु बोलना ही आता था
और न ही शु िलखना आता था, इससे यह भी िस होता है ,
िक इस 'स ाथ काश' से पूव रिचत 'वे दभा भू िमका' और
'यजुवदभा ' आिद की भाषा भी अशु होगी, ोिक शु
भाषा का ान तो ामी जी को इस 'स ाथ काश' को िलखने

P- 86
के समय आ है , अथात इससे पू व रिचत 'वे दभा भू िमका' और
'यजुवदभा ' आिद की भाषा भी अशु होगी,

५• अ म और सबसे मह पूण , दयानंदी बताए िक


'स ाथ काश' के थम सं रण म दयानंद ने ऐसा ा िलखा
था? िजस कारण इसम सं शोधन कर 'स ाथ काश' दोबारा
छापनी पडी? ोिक दयानंद ने तो स ाथ काश दोबारा
छपवाने का कारण उसम िलखा 'मृतको का ा ' और 'पशुय '
का होना बताया है ,

दयानंद अपने वे दभा के दू सरे अंक म एक िव ापन दे कर


कारण बताते ह िक- "स ाथ काश म मृतकों का ा और
पशुय िलखने और शोधने वालों की गलती से छप गया है
इसिलए अब यह दु सरा स ाथ काश तै यार िकया जा रहा है ,
इसम जो कुछ कहा है वह ब त कुछ समझकर वे दानुसार ही
कहा है " िफर भू िमका म इन बातों का िज ों नही ं िकया
गया?

जो लोग स ाथ काश के थम सं रण की अशु का


कारण नही ं जानते , उ यह पता होना चािहए िक स ाथ
काश की अशु का कारण ा था? ों उसम सं शोधन कर
स ाथ काश दोबारा छपवाया गया, दे खये --

स ाथ काश थम सं रण पृ सं ा ४५, म ात: साय


मां सािद से होम करना िलखा है ,

पृ १४८ म गाय की गिध से तु लना करते ए िलखा है िक गाय


तो पशु है सो पशु की ा पुजा करना उिचत है ? कभी नही ं
िक ु उसकी तो यही पुजा है िक घास जल इ ािद से उसकी
र ा करना सो भी दु ािदक योजन के वा े अ था नही,ं

P- 87
पृ १४६ म िलखा है िक मां स के िप दे ने म तो कुछ पाप नही,ं

पृ सं ा १७२ म िलखा है िक य के वा े जो पशुओं की


िहं सा है सो िविधपूवक हनन है ,

पृ सं ा ३०२ म है िक कोई भी मां स न खाएँ तो जानवर, पि ,


म और जल इतने है , की उनसे शत सह गु ने हो जाएं , िफर
मनु ों को मारने लग और खेतों म धा ही न होने पावे िफर
सब मनु ों की आजीिवका न होने से सब मनु न हो जाएं ,

पृ ३०३ म िलखा है िक जहाँ जहाँ गोमेधािदक िलखे ह वहाँ वहाँ


पशुओं म नरों का मारना िलखा है और एक बै ल से हजारों गै या
गभवती होती है , इससे हािन भी नही ं होती और जो ब ा गाय
होती है उसको भी योमेघ म मारना ोिक ब ा गाय से दु
और व ािदको की उ ि होती नही,ं

पृ ३६६ म िलखा है िक पशुओं को मारने म थोड़ा सा दु :ख


होता ह पर ु यश म चराचर का अ उपकार होता है ,

िन लेख को पढ़कर िव ान लोग स क् समझ सकते ह िक


दयानंद जी धम के फैलाने वाले थे या िफर अधम के...

और उसी स ाथ काश के पृ ४२ और ४३ म मृतकों का


ा करना िलखा है

पृ ४७ और ४८ पर मृतकों के ा करने के लाभ िव ार


पूवक िलख ह,

इसके उपरां त जब दयानंद मृतकों के ा का खंडन करने लगे


तो लोगों ने उनपर आ े प िकया िक आप ही न स ाथ काश म
मृतकों का ा िलखा और अब अपने ही िव खंडन करते ह
ऐसे पु ष का ा माण?

P- 88
उसके प ात दयानंद ने वे दभा के दू सरे अंक म यह िव ापन
िदया िक स ाथ काश म मृतकों का ा और पशुय िलखने
और शोधने वालों की गलती से छप गया है इसिलए अब यह
दु सरा स ाथ काश तै यार िकया जा रहा है , इसम जो कुछ
कहा है वह ब त कुछ समझकर वे दानुसार ही कहा है

अब बु मान लोग यं िवचार कर, ा दजनों पृ का लेख


िलखने और शोधने वालों के भू ल से हो सकता है ? कदािप नही!ं

और दयानंद को ऐसा झूठा िव ापन छपवाते ल ा न आई और


ान ने आ िक िव ान लोग उ ा कहगे ?

उ माणों ारा यह बात िस होती है िक 'स ाथ काश'


ि तीय सं रण की यह भू िमका पूणतया फज है , जो केवल
मूल िवषयों से ान भटकने, दयानंद की गलितयों पर पदा
डालने एवं लोगों को िमत करने के िलए तै यार की गई है ,

झूठ बोलना, और अस का चार तो आय समाज के DNA म


है ,

पाठकगण! िवचार कर िजस स ाथ काश के आरं भ से पहले


ही अस चार आरं भ हो गया, िजसकी नीवं ही िम ा चार,
ना कता और धमिवरोध पर आधा रत है , वह स ाथ काश
लोगों के िलए िकतनी लाभकारी और िकतनी हािनकारक िस
होगी, िव ान लोग इसका अनुमान लगा सकते ह

P- 89
P- 90
य ा ातम जग व य ेव लीयते।

येनेदं धायते चैव त ै ाना ने नमः॥

स ाथ काशा गत थमसमु ास खंडनं ार ते

स ाथ काश थम समु ास पृ , ९
❝ओ३म् श ो िम ः शं व णः श ो भव मा।

श ऽइ ो बृह ितः श ो िव ु मः॥

नमो णे नम े वायो मे व ं ािस ।

ामे व ं बह् विद ािम ऋतं विद ािम स ं विद ािम


त ामवतु त ारमवतु।

अवतु माम् अवतु व ारम् । ओ३म् शा ा ा ः॥१॥

अथ-(ओ३म् ) यह ओंकार श परमे र का सव म नाम है , ोंिक


इसम जो अ, उ और म् तीन अ र िमलकर एक (ओ३म् ) समु दाय आ
है , इस एक नाम से परमे र के ब त नाम आते ह जैसे-अकार से
िवराट् , अि और िव ािद, उकार से िहर गभ, वायु और तैजसािद,
मकार से ई र, आिद और ा ािद नामों का वाचक और ाहक है ,
उसका ऐसा ही वेदािद स शा म ा ान िकया है िक
करणानु कूल ये सब नाम परमे र ही के ह❞

समी ा-- यह अथ ामी जी के घर का है जो उ ोंने भर लौटा


भं ग पीने के बाद िकया ह ामी जी ने तो ठान रखा है िक इस
पु क के मा म से उ केवल िम ा भाषण ही करना है
िकसी को कुछ ठीक ठीक नही ं बताना, वना उनका मत दू सरों
से िभ कैसे मालूम होगा, दे खये सही अथ यह है -

P- 91
ॐ शं नः िम ः शं व णः। शं नः भवतु अयमा। शं नः इ ः
बृह ितः। शं नः िव ुः उ मः। नमः णे। नमः ते वायो। म्
एव ंब अिस। ाम् एव ं विद ािम । ऋतं
विद ािम। स ं विद ािम। तत् माम् अवतु। तत् व ारम् अवतु।
अवतु माम। अवतु व ारम्। ॐ शा ः, शा ः, शा ः।
~कृ यजु वद- [तैि रीय उपिनषद् ] (िश ा ब ी, थम
अनुवाक)

अथ- ाण वृ ि का और िदवस का अिभमानी दे वता जो िम सो


हमारे िलए क ाणकारी हो, अपान वृ ि का और राि का
अिभमानी दे वता जो व ण सो हमारे िलए क ाणकारी हो,
च ु िवषये वा सू यिवषये अिभमानी जो अयमा सो हमारा क ाण
कर बलिवषये अिभमानी जो इ और वाणी और बु िवषये
अिभमानी जो वृ ह ित सो हमारा क ाण कर, उ म
विलराजा से तीन पाद की याचना से सव रा के हण अथ
िव प धार के िव ीण पाद के मवाला और पादन का
अिभमानी जो िव ु सो हमारा क ाण कर, प जो वायु है
उसके अथ नम ार है , तू ही च ु आिद की अपे ा करके
बा समीप और अ राय से रिहत है इस कारण म
तु झेही कहता ँ और जैसे शा ों मे कहा है और जैसे
करने को यो है ऐसा बु िवषे स क् िन य िकया जो अर् थ
सो ऋत कहता है सो वो ते रे आिधन है इससे तु झे ऋत कहता ँ
वाणी और शरीर से स ादन आ जो स है सो भी ते रे आिधन
ह इस कारण तु झे स कहता ँ सो सवा ा वायु नाम ई र मेरी
र ा कर, वह व ा की र ा कर, मेरी र ा कर, ॐ शा ः
शा ः शा ः , तीन बार शां ित करने से आ ा क,
अिधभौितक और आिधदै िवक प जो िव ा की ा िवषे िव
है उसकी िनवृ ि के अथ है

P- 92
यह इसका अथ है और दयानंद ने अपने स ाथ काश म
इसका अ था ा ान िकया है , इससे ही दयानंद की बु
का पता चलता है , अब आते है ॐकार करण पर

दयानंद िलखते ह िक--


❝(ओ३म्) यह ओंकार श परमे र का सव म नाम है, ोंिक
इसम जो अ, उ और म् तीन अ र िमलकर एक (ओ३म्) समुदाय
आ है , इस एक नाम से परमे र के ब त नाम आते ह जै से-
अकार से िवराट् , अि और िव ािद, उकार से िहर गर् भ, वायु
और तैजसािद, मकार से ई र, आिद और ा ािद नामों का
वाचक और ाहक है , उसका ऐसा ही वेदािद स शा म
ा ान िकया है िक करणानुकूल ये सब नाम परमे र ही के ह

समी ा-- दयानंद की वे द ता तो इस ॐकार के अथ िन पण


से ही ात हो जाती है , ान दे ने वाली बात है िक णव की
ा ा अ त कार से वे दािद शा ों म िस है पर ु
दयानंद ने अपने अथ की पुि म एक भी माण नही ं िदया,
िजससे दयानंद ारा िलख उ अथ िस होते हो, भला वह
कौन सा मं है िजसम दयानंद के िलख उ अथ िलख है
ॐकार के ऐसे अथ का ितपादक मं न वे द, न पुराण, न
ा मण और न िह उपिनषदािद िकसी एक म भी नही िमलने
का...

दे खये ऋ े द म इस कार कथन है -


ऋचो अ रे परमे ोम दे वा अिध िव े िनषेदू:।

य वेद िकमचा क र ित य इ ि दु इमे समासते॥

~ऋ ेद १/१६४/३९

P- 93
इित िवदु षः उपिदशित कतम दे तद रमोिम ेषा वािगित
शाकपूिणऋचो रे परमे वने धीय े नानादे वते षु च
म े ेत वा एतद रं य व यी ं िव ां ित तीित च ा णम्
िन १३/१०, प रिश े ० भा म् कतमत् तद रम् इित
ॐम् इ ेषा वाक् इित शाकपूणे: अिभ ाय: ॐकारमृतेन
चय त ा अ रे परमे ोमन् ोम िविवधम न्
श जातमोतिमित ोम त न् ितसृ पु मा ासु
अकारोकारमकारल णासू पशा ासु यदविश ते तद रं परमं
ोम श सामा मिभ िम िभ ाय: य े वाः
अिधिनिष ाः सव ऋगािदषु ये दे वाः ते म ारे णा रे िनष ाः
त श कारण ात् अथवा थमायां मा ायां पृिथवी आ े ः
ऋ े दः पृिथवीलोकािनवािसन इ ेवं ि तीयायां मा ायां
अ र म् वायु: यजूंिष तॡकिनवािसनी जना इित तृ तीयायां
मा ायां ौ: अि ः सामािन तॡकिनवािसनी जना इित िव ायते
ही ॐकार एवे दं सवम् इित य वे द अनया िवभू ा रम्
िकमसौ ऋचा ऋगािदिभमै ै ः क र ित य ा रा ना प ित
य इ ि दु इमे समासते इित िवदु ष उपिदशित ते िह
त र ानात् ता ा मुपगताः णविव हमा ानमनु िव
समीकृता िनवा शा ािचषं इवानला इित

भावाथ- अिवनाशी ऋचाएं परम ोम से भरी ई ह, उसम


स ूण दे व श यों का वास है , जो इस त को नही ं जानता
(उसके िलए) ऋचा ा करे गी? और जो इस त को जानते ह
वे इस ऋचा का सदु पयोग कर लेते ह, इस मं का ा ान
ॐकारपर , आिद पर तथा आ त परता उसम से थम
शाकपूिण नामक िन कार के मत से ॐकारपरता िनणय
करते ह

P- 94
( ) िजस परम ोम सं क अ र मे दे वािद थत ह वह अ र
कौन है ?

(उ र) ॐ यह वाक् नाम श परम उ ृ ( ोमन् ) नाम सव


की र ा करने वाला जो ॐकार उसम ही स ूण ऋ े दािद मं
अ यन िकये जाते ह और नाना जो दे वता ह वे सव मं ों म
थत है , और मं ों म कारण होने से यह अ र ा है , ोिक
सव वे द यी िव ा के ित ये अ र ा है ऐसे ा ण भी
ितपाद नही ं करता है , भाव यह है ओंकार के िबना ऋगािद मं ों
का उ ारण नही ं होता इससे ोम सं क जो अ र ह उसम
नानािवध श समूह थत है ,

( ) मं तथा ओंकार श प है इससे यह दोनों आकाश म


थत है यावत श समूह ओंकार म थत कैसे कहते हो?

(उ र) ओंकार नाम यहां अकारािद मा ा के शा होते जो


प रशेष रहता है श सामा ोम नामक अ र उसका है ,
इससे उस अ र श सामा नाद प ॐकार म यावत् मं
थत है , और िजसम सव दे वता थत है , ोिक मं ों म दे वता
थत ह और मं पूव नाद नामक अ र म थत है , इससे
मं ारा यावत् दे वता भी मं म थत है , अथवा थम मा ा म
पृ ीलोक, अि , ऋ े द और पृ ीलोक िनवासी जन थत है ,
और ि तीय मा ा म अ र , वायु , यजुमं और अ र लोक
िनवासी जन थत है , और तृ तीया मा ा म ौलोक, आिद ,
साम मं और गलोक िनवासी जन थत है , इस कारण
मां डू उपिनषद म (ॐकार एवेदं सव) यह कहा है , जो इस
िवभू ित सिहत अ र को नही ं जानता वो ऋगािद मं ों से ा
करे गा? अथात िबना ॐकार के जाने और उसके अथ जाने उसे
वे द मं फल नही ं दगे, और जो पु षउ प नाद िवभू ित

P- 95
सिहत अ र को जानते ह, वे मनु (समासते) णव ान से
अ र भाव को ा ए अपने आ ा को णव प िन य
करके णव म िव होकर समता को ा हो शा ाला
अि वत् (िनवा नाम िनवाणपदं मो ं ा व ) िनवाण
अथात मु होते है , आिद प म यह अथ है िक िजस
ोम प परम अ र प आिद म सब दे वता थत है , मं
ारा उस आिद को जो नही ं जानते वे ऋगािद मं ों का ा
करगे ? जो इस नाम एवं उस आिद को जानते ह वे मनु ही
िव न भू िम म सु ख पूवक रोगािद रिहत भोग स िचरकाल
जीते ह, मां डू उपिनषद म इस कार कथन है सु िनए-
ॐिम ेतद रिमदं सव त ोप ा ानभूतं भव िव िदित
सवमो ार एव।

य ा कालातीतं तद ो ार एव ॥मांडू ोपिनषत्-१॥

सोऽयमा ा रमो ारोऽिधमा ं पादा मा ा मा ा पादा अकार


उकारो मकार इित ॥मांडू ोपिनषत्- ८॥

जाग रत थानो वै ानरोऽकारः थमा मा ाऽऽ े रािदम ा ा ोित


ह वै सवा ामानािद भवित य एवं वेद ॥मांडू ोपिनषत् ९॥

थान ैजस उकारो ि तीया मा ो षादु भय ा ो षित ह


वै ानसंतितम् समान भवित ना ा िव ु ले भवित य एवं वेद
॥मांडू ोपिनषत् १०॥

सुषु थानः ा ो मकार ृतीया मा ा िमतेरपीतेवा िमनोित ह वा


इदं सवमपीित भवित य एवं वेद ॥मांडू ोपिनषत् ११॥

अमा तुथ ऽ वहायः प ोपशमः िशवोऽ ै तः एवमो ार


आ ैव संिवश ा ना ानं य एवं वेद ॥मांडू ोपिनषत् १२॥

अथ- ॐकार अिवनाशी है , उसकी मिहमा को


लि त कराने वाला यह स ूण िव है , भू त, भिव त् , वतमान

P- 96
आिद तीनों कालों वाला यह सं सार ॐकार ही है ,और तीनों
कालों से परे भी जो अ त है वह ॐकार ही है , जो वा की
धानता वाला ॐकार चारों पाद वाला आ ा है ऐसा पुव
ा ान िकया है यथा (सव ेत ायमा ा सोऽयमा ा
चतु ात्) सव (कारण और काय) ही यह है सव जो ॐकार
मा ा है ऐसा ुित ने कहा है सो यह है यह आ ा है , सो
यह आ ा ही अ र ि से ॐकार है , वह मा ाओं का िवषय
करके थत है , यह आ ा अ र है , अ र का आ य लेकर
िजसका अिभधान (वाचक) की धानता से वणन िकया जाए उसे
अ र कहते ह, यह आ ा चार पादवाला है , आ ा के जो
पाद ह वे ॐकार की मा ा है और ॐकार की जो मा ा है वे
आ ा के पद है 'अकार' 'उकार' और 'मकार' यह तीन ॐकार
की मा ा है

ॐकार की थम मा ा 'अकार' ा होने पर आिद होने के


कारण जाग रत थान प वै ानर नामक थम चरण है , िजस
कार अकार नामक अ र अिदमान् है उसी कार वै ानर भी
है , उसी समानता के कारण वै ानर की अकार पता है ,
अकार िन य ही स ूण वाणी है ुित के अनुसार अकार से
सम वाणी ा है ।

ॐकार की दू सरी मा ा 'उकार' े होने और ि भावा क होने


के कारण थान पतै जस नामक दू सरा चरण है , उ ष
के कारण िजस कार अकार से उकार उ ृ -सा है उसी
कार िव से तै जस उ ृ है , िजस कार उकार अकार और
मकार के म थत है उसी कार िव और ा के म
तै जस है , सु षु िजसका थान है वह ा मान और लय के
कारण ॐकार की तीसरी मा ा मकार है , मापक और िवलीन

P- 97
करने वाली होने से सु षु थान वाला ा नामक तृ तीया चरण
है , िजस कार ओ ार का उ ारण करने पर अकार और
उकार अ म अ र म एकीभू त हो जाते ह उसी कार सु षु
के समय िव और तै जस ा म लीन हो जाते ह।

अमा अथात मा ा रिहत ॐकार अ वहाय, पंचातीत एवं


क ाण प है यही का चतु थ चरण है , जो इस कार
जानता है वह आ ानी आ ा के ारा ही पर म लीन हो
जाता है

इस कार और भी उपिनषदों म वणन है --


उपुर ा ण िव ोरद् भुतकमणः।

रह ं िव ाया धृताि ं सं च ते॥

ओिम ेका रं यदु ं वािदिभः।

शरीरं त व ािम थानकाल यं तथा॥

त दे वा यः ो ा लोका वेदा योऽ यः।

ित ो मा ाधमा ा च िशव तत्॥

ऋ ेदो गाहप ं च पृिथवी एव च।

अकार शरीरं तु ा ातं वािदिभः॥

यजु वदोऽ र ं च दि णाि थैव च।

िव ु भगवान् दे व उकारः प रकीिततः॥

सामवेद था ौ ाहवनीय थैव च।

ई रः परमो दे वो मकारः प रकीिततः॥

सूयम लमाभाित कार म गः।

उकार संकाश म े व थतः।

P- 98
मकार ाि संकाशो िवधूमो िवद् युतोपमः।

ित ो मा ा था ेयाः सोमसूयाि तेजसः॥

िशखा च दीपसंकाशा यिम ु प रवतते।

अधमा ा तथा ेया णव ोप र थता॥

उ ुितयों से भी िस होता है िक अमा अथात मा ा रिहत


एक अ र ॐकार ही ई र का सव म नाम है ,

इसके अित र ीम गव ीता अ ाय ८/१३ मे भी ंय


भगवान ीकृष्ण कहते है िक-
ॐिम ेका रं ाहर ामनु रन्।

यः याित ज े हं स याित परमां गितम्॥

~ ीम गव ीता {८/१३}

भावाथ : जो पु ष 'ॐ' इस एक अ र प को उ ारण


करता आ और उसके अथ प मुझ का िचंतन करता
आ शरीर को ागकर जाता है , वह पु ष परम गित को ा
होता है ॥१३॥

पर ु दयानंद का यह िकया (क त) अथ िकसी भी ं थ के


अनुसार नही ं है इसिलए स ाथ काश म यह ओ ार का अथ
िम ा जानना ही बु मानों को उिचत है ।

स ाथ काश थम समु ास पृ , १०
❝स ा स िव ुः स िशव ोऽ र परमः राट् ।

सइ कालाि च माः॥७॥ ~कैव उपिनषत्

P- 99
भावथ : सब जगत् के बनाने से ‘ ा’, सव ापक होने से ‘िव ु ’,
दु ों को द दे के लाने से ‘ ’, मं गलमय और सब का क ाणक ा
होने से ‘िशव’,

जो सव ा अिवनाशी, यं काश प और लय म सब का
काल और काल का भी काल है , इसिलए परमे र का नाम ‘कालाि ’ है

िफर आगे पृ , १३ पर िलखा है िक--


❝इसिलए सब मनु ों को यो है िक परमे र ही की ुित, ाथना
और उपासना कर, उससे िभ की कभी न कर। ोंिक ा, िव ु,
महादे व नामक पूवज महाशय िव ान् , दै दानवािद िनकृ मनु और
अ साधारण मनु ों ने भी परमे र ही म िव ास करके उसी की
ुित, ाथना और उपासना करी, उससे िभ की नहीं की, वैसे हम सब
को करना योग्य है ❞

समी ा-- ध है ामी जी धू त हो तो आपके जैसा, बड़े बड़े


धू त दे ख पर ु आपके समान दू जा नही ं दे खा, कहाँ तो आप दस
ही उपिनषद मानते थे, और आज मतलब पड़ा तो ारह वाँ
कैव भी मान बै ठे और माण के साथ ा, िव ु और िशव
को ई र बताया, और अब यहाँ उ पूवज िव ान बता िदया,
आपकी बु का पता तो यही चल जाता है , इसम कोई माण
तो दे िदया होता की यह मनु थे, यिद माण नही ं िमला तो
कोई उ ी सीधी सं ृ त ही गढ़ िलए होते , आपके मंदबु
िनयोगी चेले उसे भी प र की लकीर समझ लेते, यह आपको
ही यो है िक ािदक नाम ई र के बताकर िफर उ पूवज
िव ान बता िदया और तो और यह अथ भी आपका अशु है ,
सही अथ इस कार है दे खए--

P- 100
स ा स िव ुः स िशव ोऽ र परमः राट् ।

सइ कालाि च माः॥ ~कैव उपिनषत्

अथ- वो ा प हो जगत की रचना करता, िव ु प हो


पालन करता, प हो दु ों को कमफल भु गाकर लाता
िशव ही मंगल करता है वो ही राट इ च मा है , और
कालाि प धारण कर लय करता है

यह सब दे वता उसी के प है , नही ं तो बताइये की आप यहाँ


िकन ा, िव ु और महादे व की बात कर रहे ह, यह तीनों
िव ान िकनके पु थे? जो कहो की यं उ हो गए तो
आपका सृ ि म जाता रहे गा िक िबना माता, िपता के कोई
मनु उ नही ं होता, यही तो आपके भं ग की तरं ग है जो
आ च रत म िलखा है िक मुझे भं ग पीने की ऐसी आदत थी िक
कभी-कभी तो उसके कारण म सवथा बे होश हो जाया करता
था, और िफर दू सरे िदन ही होश हो पाता था।

स ाथ काश • समु • पृ १७
❝आपो नारा इित ो ा आपो वै नरसूनवः।

ता यद ायनं पूव तेन नारायणः ृतः॥ ~मनु (१/१०)

जल और जीवों का नाम नारा है , वे अयन अथात् िनवास थान ह,


िजसका इसिलए सब जीवों म ापक परमा ा का नाम ‘नारायण’ है ❞

समी ा-- आपका यह अथ भी अशु है सही अथ इस कार


है -"अ त का एक नाम 'नार' है , ोिक वह नर अथात्
से उ आ है , की ा प म उ ि इसी 'नार' से
ई, इसिलए परमा ा का एक नाम 'नारायण' है ,

P- 101
स ाथ काश • समु • पृ , १८ म िलखते है िक-
❝(गॄ श े ) इस धातु से ‘गु ’ श बना है । ‘यो ध ान् श ान्
गृणा ुपिदशित स गु ः’ ‘स पूवषामिप गु ः काले नानव े दात्’।योग०।
जो स धम ितपादक, सकल िव ायु वेदों का उपदे श करता, सृि
की आिद म अि , वायु, आिद , अं िगरा और ािद गु ओं का भी
गु और िजसका नाश कभी नहीं होता, इसिलए उस परमे र का नाम
‘गु ’ है ❞

समी ा-- “ ािद गु ओं का भी गु ” ये पद दयानंद के घर


का है , यह ामी जी बु की गढ़ं त है इस कारण इसे िम ा
जानना ही बु मानों को उिचत है , ोिक वे दािद ं थों म ऐसा
कही ं भी नही ं िलखा, िक ु यह अव िलखा है िक उस
परमा ा का ही कृितयु नाम ' ा' है , दे ख माण--
तद मभव ै मं सह ांशुसम भम्।

त े यं ा सवलोकिपतामहः॥

~मनु ृित {१/९}

सह ों सू य के समान चमकीले अंड प काशयु ोित


िप (िहर गभ) से स ूण लोकों की सृ ि करने वाले ा जी
उ ए, इससे यह िस होता है िक आिद म ा जी सबसे
थम उ ए और सब लोकों की सृ ि ा जी ने ही की,
सु िनये अथववे द म भी श ों म िलखा है िक--

े ास ृता िवयािण ा े े ं िदवमा ततान।

भूतानां ा थमोत ज े तेनाहित णा िधतुं कः॥


~अथववेद {१९/२२/२१}

P- 102
(भू तानां ा थमोत ज े) अथात सबसे थम ा जी उ
ए, दयानंद तथा उनके कम अ िनयोगी चमचों को आखँ
दे खना चािहए यह वे द वचन ही है इसम िलखा है िक आिद
म सबसे थम ा जी उ ए, वही सब लोकों को रचने
वाले वही सबसे े है दे खये यजुवद म ा जी की उ ि के
बारे म इस कार कथन है िक--
िहर गभः सम् अवतता े भूत जातः पितर् एक ऽ आसीत्।

स दाधार पृिथवी ं ाम् उतेमां क ै दे वाय हिवषा िवधेम॥


~यजु वद {१३/४}

सृ ि के ार म िहर गभ पु ष ( जापित ा) स ूण
ां ड के एक मा उ ादक और पालक रहे , वही ग
अंत र और पृ ी को धारण करने वाले ह, उस जापित के
िलए हम आ ित समिपत करते है , और सु िनये ,
य ारणम ं िन ं सदसदा कं।

ति सृ ः स पु षो लोके ेित की ते॥

~मनु ृित {१/११}

िन तथा सत-असत की मूल कृित के मु आधार परमा ा


का ही कृितयु नाम ' ा' है , अत: कृित से जो अतीत और
िभ है उस परमा ा का नाम ' ' और जो परमा ा कृित
सिहत है उसका नाम ' ा' है , और सु िनये मुंडकोपिनषद म भी
इस कार कथन है िक--
ॐ ा दे वानां थमः स भूव िव कता भुवन गो ा।

स िव ां सविव ा ित ामथवाय े पु ाय ाह॥१॥

अथवणे यां वदे त ाऽथवा तां पुरोवाचाि रे िव ाम्।

P- 103
स भार ाजाय स वाहाय ाह भार ाजोऽि रसे परावराम्॥२॥
~मुंडकोपिनषद {१/१/१-२}

सब जगत के बनाने वाले ा जी सब दे वों म सव थम उ


ए, उ ोंने वह वे द िव ा िजसके सब िव ा आ य है अपने
े पु अथव ऋिष को पढाई, अथव ने वह िव ा अंगी
ऋिष को पढाई, अंगी ने वह वे द िव ा ऋिष भार ाजवं शीय
स वाह को पढाई और स वाह ने वह वे द िव ा अंिगरा ऋिष
को पढाई, दयानंद और िनयोगी चमचों को यह आखँ खोलकर
दे खना चािहए इन वे दािद वचनों से यही िस होता है िक आिद
म सृ ि रचना की इ ा से थम ा जी उ ए, उनसे ही
अि वायु सू य आिद दे वताओं सिहत अंिगरा आिद ऋिषयों ने
वे द िव ा ा की इससे ा जी सब ािणयों को उ करने
से सबके भु और वही थम सबको वे द िव ा िजसके सब
िव ा आ य है को उपदे श करने वाले थम गु है अथात
उनका गु कोई नही,ं सब िव ा को उ करने वाले वही है ,
नही ं तो ामी जी बताए िक वह िकस ा के िवषय म बात
कर रहे ह, यिद वो मनु थे तो िकसके पु थे?

स ाथ काश • समु • पृ , १४
❝(िव लृ ा ौ) इस धातु से ‘नु’ य होकर ‘िव ु’ श िस आ
है , ‘वेवेि ा ोित चराऽचरं जगत् स िव ुः’ चर और अचर प जगत्
म ापक होने से परमा ा का नाम ‘िव ु’ है ❞

स ाथ काश • समु • पृ , १६
❝( िदर् अ ुिवमोचने) इस धातु से ‘िणच्’ य होने से ‘ ’श
िस होता है । ‘यो रोदय ायका रणो जनान् स ः’ जो दु कम
करने हारों को लाता है , इससे परमे र का नाम ‘ ’ है ❞

P- 104
स ाथ काश • समु • पृ , १८
❝(बृह बृिह वृ ौ) इन धातुओं से ‘ ा’ श िस होता है । ‘योऽ खलं
जगि माणेन बहित व यित स ा’ जो स ूण जगत् को रच के
बढ़ाता है , इसिलए परमे र का नाम ‘ ा’ है ❞

स ाथ काश • समु • पृ , २०
❝(गण सं ाने ) इस धातु से ‘गण’ श िस होता है , इसके आगे
‘ईश’ वा ‘पित’ श रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपित श ’ िस होते ह।
‘ये कृ ादयो जडा जीवा ग े सं ाय े तेषामीशः ामी पितः
पालको वा’ जो कृ ािद जड़ और सब जीव ात पदाथ का ामी
वा पालन करने हारा है , इससे उस ई र का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपित’ है

स ाथ काश • समु • पृ , २०
❝(ि ञ् सेवायाम् ) इस धातु से ‘ ी’ शब्द िस होता है । ‘यः ीयते
से ते सवण जगता िव य िगिभ स ीरी रः’। िजस का सेवन सब
जगत्, िव ान् और योगीजन करते ह, उस परमा ा का नाम ‘ ी’ है ❞

स ाथ काश • समु • पृ , २०
❝(सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् य होने से
‘सर ती’ श िस होता है । ‘सरो िविवधं ानं िव ते य ां िचतौ सा
सर ती’ िजस को िविवध िव ान अथात् श , अथ, स योग का
ान यथावत् होवे , इससे उस परमे र का नाम ‘सर ती’ है ❞

स ाथ काश • समु • पृ , २२
❝(डु कृञ् करणे) ‘शम्’ पूवक इस धातु से ‘शंकर’ श िस आ है ।
‘यः शंक ाणं सुखं करोित स शंकरः’ जो क ाण अथात् सुख का
करने हारा है , इससे उस ई र का नाम ‘श र’ है ❞

स ाथ काश • समु • पृ , २२

P- 105
❝‘महत्’ श पूवक ‘दे व’ श से ‘महादे व’ िस होता है । ‘यो महतां
दे वः स महादे वः’ जो महान् दे वों का दे व अथात् िव ानों का भी िव ान् ,
सूयािद पदाथ का काशक है , इसिलए उस परमा ा का नाम
‘महादे व’ है ❞

स ाथ काश • समु • पृ , २२
❝(िशवु क ाणे ) इस धातु से ‘िशव’ श िस होता है ।
‘ब लमे ति दशनम्।’ इससे िशवु धातु माना जाता है , जो
क ाण प और क ाण का करने हारा है , इसिलए उस परमे र
का नाम ‘िशव’ है (इस कार दयानं द ने ई र के १०० नाम िलख और
िफर संबंध से िलखते ह)❞

स ाथ काश • समु • पृ , २२
❝( ) जैसे अ कार लोग आिद, म और अ म म लाचरण
करते ह वैसे आपने कुछ भी न िलखा, न िकया?

(उ र) ऐसा हम को करना यो नहीं, ोंिक जो आिद, म और


अ म म ल करे गा तो उसके म आिद म तथा अ के बीच म
जो कुछ ले ख होगा वह अम ल ही रहे गा, इसिलए ‘म लाचरणं
िश ाचारात् फलदशना ितत ेित’ यह सां शा का वचन है , इस
का यह अिभ ाय है िक जो ाय, प पातरिहत, स , वेदो ई र की
आ ा है , उसी का यथावत् सव और सदा आचरण करना म लाचरण
कहाता है । के आर से ले के समा पय स ाचार का करना
ही म लाचरण है , न िक कहीं म ल और कहीं अम ल िलखना❞

समी ा-- ध हे ! ामी जी की बु , आपने तो ठान रखा है


िक इस पु क के मा म से केवल िम ा भाषण ही करना है ,
आप तो म लाचरण करते भी जा रहे ह और पुछने पर मना भी
करते ह, यिद आप म लाचरण नही ं करते तो बताइये िक
स ाथ काश की भू िमका के पहले “ओम् ॥स दानंदे राय
नमो नमः॥“ “अथ स ाथ काश:” और “श ोिम ािद” स ाथ

P- 106
काश के ार मे और अ के पृ म िफर से “श ोिम ािद”
और ये परमे र के सौ नाम िकस आशय से िलख ह, तथा अपने
वे दभा के ेक अ ाय के ारं भ म “िव ािन दे व
सिवतदु रतािन परासुव, य ं त आसुव” ों िलखा है ? इससे
आपके लेखानुसार तो यही िस होता है िक आपके 'वे दभा ों'
और 'स ाथ काश' के बीच-बीच म अम लाचरण ही है ,
ऊपर टीके म स वे दो ई र की आ ा कहना म लाचरण है
और आपने जो रां ड, रां ड ेही, धू त, िनशाचर, भां ड, भडु वे , ढे ड,
चमार, चुतड, भ ी, पोप आिद न जाने कौन-कौन से ब त से
अपश और दु वचन आगे इस पु क मे िलख है , िजनके
उ ारण की आ ा वे दों मे कही नही पाई जाती, यह ा है ?
शायद इसी कारण ारं भ मे तो दयानंद म लाचरण से िहचकते
है और यं वही प रपाटी हण करते है यिद ऐसा न करते तो
इनका यह मत अ लोगों से िभ कैसे तीत होता?

स ाथ काश • समु • पृ , २३
❝इसिलए जो आधु िनक ों म ‘ ीगणेशाय नमः’, ‘सीतारामा ां
नमः’, ‘राधाकृ ा ां नमः’, ‘ ीगु चरणारिव ा ां नमः’, ‘हनु मते नमः’,
‘दु गायै नमः’, ‘वटु काय नमः’, ‘भैरवाय नमः’, ‘िशवाय नमः’, ‘सर ै
नमः’, ‘नारायणाय नमः’ इ ािद ले ख दे खने म आते ह, इन को बु मान्
लोग वेद और शा से िव होने से िम ा ही समझते ह। ोंिक वेद
और ऋिषयों के ों म कहीं ऐसा म लाचरण दे खने म नहीं आता
और आष ों म ‘ओम् ’ तथा ‘अथ’ श तो दे खने म आता है

जैसे- ‘अथ श ानु शासनम्’ , महाभ ों म ‘अथातो धमिज ासा’ ,


मीमांसा म ‘अथातो धम ा ा ामः’ वैशेिषक दशन म ‘अथ
योगानु शासनम्’ योग म, ‘अथातो िज ासा’ वेदांत म,
‘ओिम ेतद रमु ीथमु पासीत’ छ ो म यह वचन है ❞

P- 107
स ाथ काश • समु • पृ , २३
❝‘ ीगणेशाय नमः‘ इ ािद श कहीं नहीं। और जो वैिदक लोग वेद
के आर म ‘ह रः ओम् ’ िलखते और पढ़ते ह, यह पौरािणक और
ता क लोगों की िम ा क ना से सीखे ह❞

समी ा-- ामी जी का लेख पढ़कर ात होता है िक ामी


जी को परमे र के कुछ नाम तो ि य है , और कुछ अि य, इसम
जो ाचीन लोगों की प रपाटी है उसका तो मेटना मानों, दे खये
थम तो ामी जी ने गु , गणे श, सर ती, ी, नारायण, ा,
िव ु, िशव आिद नाम परमे र के िलख, और अब कहते ह िक
िव ान लोग इ िम ा ही समझते ह, ऐसे कहने वाले
तथाकिथत िव ान भी दयानंद की ही भां ित नर बकरे का दू ध घी
खाकर िव ान बने होग जैसा िक दयानंद ने अपने यजुवदभा
२१/४३ म बकरे का दू ध घी खाने को िलखा है , िव ान लोग
दयानंद की बु का अनुमान इसी से लगा ल, ोिक जो िव ान
ह वे तो इ िम ा नही ं समझते , आप उनको दोष ों दे ते ह?
साफ साफ यही कह दे ते की मै इ िम ा समझता ँ , डरते
ों है ? डरीये नही ं वै से भी आप तो रीछ(भालू) को डरा चुके ह
(आ च रत म िलखा है िक मुझसे रीछ डरकर भाग गया),

आप बताए ा यह नाम आप परमे र के नही ं मानते , जो


मानते हो तो िम ा कैसे ? और जो नही ं मानते तो परमे र के सौ
नामों म ये नाम ों िलख? इ भी वे दों से िनकाल िदया करीए,
यिद आपकी चलती तो ाचीन महा ाओं ने जो स बोलना
परम धम िलखा है आप उसका भी िनषेध करते, पर ु इसम
चल नही ं सकती, और जैसे आपने धातु ओं से परमे र के नाम
िस िकए है ा ’रम् ि डायां’ इस धातु से राम और ’हरित

P- 108
दु ःखािनितह र:’ जो सबमे रम रहा है वो राम है , और भ ों के
दु ख हरने से परमे र का नाम ह र है और
“कृिषभूवाचक: श ोण िनवृितवाचक:।

तयोरै ं पर कृ इ िभधीयते॥“

इस कार कृ के अथ भी तो ई र के ही ह, इस कार राम,


कृ और ह र नाम भी तो परमे र के िस होते ह,

या परमे र को अपना कोई नाम ि य है कोई नही,ं िजनका आप


िनषेध करते हो, आप ही किहए ई र के यह नाम लेने से
दे शो ित म कौन सी हािन हो जाती है ?

यिद िवचारा जाये तो जैसे ाचीन ों म िव ु सह नाम


िशवसह नाम है उसी कार आपने भी ई र के शत नाम
िलख ह, भला ं थ के आिद म ई र के सौ नाम िलखना यह कौन
से वे दानुकुल है ? साफ साफ यह िलख दे ते की िव ु सह नाम
के थान पर हमारे िनयोगी चैले शत नाम का पाठ कर, ऐसी
गपड़चौथ िलखने िक, इतना डामा फैलाने की ा आव कता
थी? और यह ा बात ई? अपने नामों को आप ही िम ा
बतलाते हो, शोक है आपकी बु पर, आप िलखते हो िक वे द
और ऋिष कृत ं थों म ऐसा म लाचरण दे खने म नही ं आता
इससे भी ात होता है ऐसा नही ं तो िकसी और कार का दे खने
म आता है , और आप ही िलखते ह िक अथ और ओम् दे खने म
आते ह, और आपने भी उसी कार अथ और ओम् िलख िदया
अथात आपने भी म लाचरण िकया, अब आप बताए आपके
ं थों के आिद, म और अंत म ा है ? (म ल या िफर
अम ल?) मुकरते ो हो? म लाचरण करना कोई चोरी नही
है , हाँ पर जो आपने िकया उसे दौगलापन कहते है , ंय

P- 109
म लाचरण िकए जा रहे हो, और पुछने पर मना भी कर रहे हो,
परमे र के सौ नामों मे जो नाम िलख आप ही उ े िम ा
बतलाते है , तीत होता है िक ामी जी ने अपने यजुवदभा
अनुसार (छाग ) नर बकरे का दू ध, घी कुछ ादा ही खा
िलया,

॥इित स ाथ काशा गत थम समु ास खंडनम् समा म्॥

P- 110
स ाथ काशा गत ि तीयसमु ास खं डनं ार ते

॥ िश ा करणम् ॥

स ाथ काश ि • समु • पृ , २४

❝ध वह माता है िक जो गभाधान से लेकर जब तक पूरी


िव ा न हो तब तक सु शीलता का उपदे श करे ❞

समी ा-- ामी का यह लेख पढ़कर िविदत होता है िक उनका


मानिसक सं तुलन िहल गया है जो िलखते ह िक "गभाधान से
लेकर जब तक पूरी िव ा न हो तब तक सु शीलता का उपदे श
करे " ये सब बकरे का दू ध, घी खाने का प रणाम है , भला
गभाधान म सु शीलता का उपदे श िकस कार हो सकता है ,
(दयानंद अपने यजुवदभा अ ाय २८/३२ मे िलखते है िक
जैसे बै ल गौओं को गािभन करके पशुओ को बढ़ाता है वै से ही
तु म यों को भी करों) कही ामी जी का ता य यही तो नही,
िक समाजी यां उसी कार गभधारण कर िजस कार बै ल
गौओं को गािभन करता है , ध हे ! ामी जी आपकी बु ,
और आपकी िश ा और ध हे ! वे दयानंदी जो दयानंद के इन
उपदे शों को मानते ह,

स ाथ काश ि • समु • पृ , २४

❝माता और िपता को अित उिचत है िक गभाधान के पूव, म


और प ात् मादक , म , दु ग , , बु नाशक पदाथ

P- 111
को छोड़ के जो शा , आरो , बल, बु , परा म और
सु शीलता से स ता को ा कर❞

समी ा-- िश ा तो अ ी है पर अफसोस ामी जी की ये बात


उनके चैले न मान सकगे , ोिक जब उपदे श करने वाले
दयानंद ही इन अवगु णों को ाग न सक और जीवन पय
बु नाशक पदाथ का से वन करते रहे , (जैसे िक ामी जी ने
अपने आ च रत म कहा है िक मुझे भं ग पीने की धू पान आिद
करने की ऐसी लत लगी ं िक कभी कभी तो इसके चलते म
सवथा बे होश हो जाया करता था और दू सरे िदन ही होश हो पता
था, और उसी आ च रत म मां सभि यों के घर का भोजन
लेकर खाना भी ीकार िकया है ),

तो अब ान दे ने वाली बात है िक जब उपदे श करने वाला यं


इन अवगु णों का ाग न कर सका, तो भला उनके चैले इसका
िकतना पालन करगे , बु मान लोग समझ सकते ह

स ाथ काश ि • समु • पृ , २४

❝जैसा ऋतु गमन का िविध अथात् रजोदशन के पां चव िदवस से


लेके सोलहव िदवस तक ऋतु दान दे ने का समय है उन िदनों म
से थम के चार िदन ा ह, रहे १२ िदन, उनम एकादशी
और योदशी को छोड़ के बाकी १० राि यों म गभाधान करना
उ म है ❞

िफर आगे पृ २६ पर सं बंध से िलखते ह िक-

❝( ) तो ा ोितषशा झूठा है ?

(उ र) नही,ं जो उसम अंक, बीज, रे खागिणत िव ा है वह सब


स ी, जो फल की लीला है वह सब झूठी है ❞

P- 112
समी ा-- ों साहब? आपका यह लेख जो िक मनु ृित के इन
ोकों से उ त है -
ऋतुः ाभािवकः ीणां रा यः षोडश ृताः।

चतुिभ रतरै ः साधमहोिभः सि गिहतैः॥१॥

तासामा ा त ु िन तैकादशी च या।

योदशी च शेषा ु श ा दशरा यः॥२॥

यु ासु पु ा जाय े योऽयु ासु राि षु।

त ाद् यु ासु पु ाथ संिवशेदातवे यम्॥३॥

बताये यह ोितष िव ा से स रखता है या नही?ं और


ोितष िकसकों कहते ह? और यह राि ा ा इसी कारण है ,
िक इनम गभाधान करने से आपकी भां ित सं तान उ होती है ,
और शेष राि यों म े सं तान उ होती है , यह मनु जी ने
िलखा है , ा राि यों म दु और श राि यों म े सं तान
उ होना यह फल नही ं तो ा है ? ध हे ! आपकी बु ,
आप तो फल मानते भी नही ं और यहाँ गु प से िलख भी
िदया, इस पु क के आरं भ से आपका यही डामा चालू है , पहले
तो यं ही िलखते ह और बाद म अपने ही िव खंडन भी
करते ह ऐसे ल ण तो िसफ महाधू त, मूख और गवग ों म ही
दे खने म आते ह न िक िकसी िस पु ष म,

स ाथ काश ि • समु • पृ , २५

❝ ोंिक सू ता ी के शरीर के अंश से बालक का शरीर


होता है , इसी से ी सव समय िनबल हो जाती है उस समय
उसके दू ध म भी बल कम होता है , इसिलये सू ता ी दू ध न

P- 113
िपलावे , दू ध रोकने के िलये न के िछ पर उस ओषधी का
लेप करे िजससे दू ध िवत न हो, ऐसे करने से दू सरे महीने म
पुनरिप यु वती हो जाती है ❞

समी ा-- दे ख इन गवग दयानंद िक पोप लीला यिद इनकी


चले तो यह कृित का िनयम भी बदल द, पर इसम इनकी चल
नही ं सकती, पाठकगण! ान द ामी जी िलखते ह िक “ ी
सव समय िनबल हो जाती है उस समय उसके दू ध म भी बल
कम होता है , इसिलये सू ता ी दू ध न िपलावे , दू ध रोकने के
िलये न के िछ पर उस ओषधी का लेप करे िजससे दू ध
िवत न हो”

ों न िपलावे उसका कारण नीचे िलखते है िक “ऐसे करने से


दू सरे महीने म पुनरिप यु वती हो जाती है ”

वाह रे ! मेरे ठरकी दयानंद ीयों के यौवन का बड़ा ान है


आपको, ी का िफगर खराब न हो िफर चाहे ब ा भाड म
जाए, तु म िलखते हो िक " सू ता ी दू ध म बल कम होता है ,
इसिलए दू ध न िपलावे ", यह तो बड़ी अनोखी और नई बात सु न
रहा ँ आपके ारा, जो बात सं सार म िकसी ने न कही और न
सु नी होगी वो आप अपने इस लेख म िलखते ह, इससे ही
आपकी बु का पता चलता है , म तो कहता ँ आपके अंदर
बु की ब त कमी है , सू ता ी का दू ध तो ब े के िलय
अमृत तु है , जो नाना कार के रोगािद से उसकी र ा करती
है , कृित तः ही यह अमृत िनमाण करती है , और आप कहते
है िक सू ता ी के दू ध मे बल नही होता, ऐसा कहकर ामी
जी ो अपने माता के दू ध का अपमान करते हो? आप ही
बताये यिद ब े के िलए सू ता ी का दू ध अव क न होता
तो िफर कृित तः ही यह अमृत िनमाण ों करती?

P- 114
यहाँ तक िक िचिक ा िव ान के िवशेष ों के अनुसार भी--

१• ज के आधे घंटे के अंदर सू ता ी ब े को अपना दू ध


िपलाये , माँ का पहला दू ध गाढ़ा और पीले रं ग का होता है , िजसे
' खरसा' कहते ह, यह खरसा नवजात िशशु का पहला टीका है
जो अनेक सं ामक रोगों से बचाता है , सू ता ी का दू ध ब े
के िलय अमृत तु है , कृित तः ही यह अमृत िनमाण करती
है , यिद इसे रोका जाये तो न म गां ठे पड़ जाती ह जो की
अ िधक पीड़ादायक होती ह और आगे चलकर न कसर का
भी कारण बन सकती ह
२• िसफ नपान-

पहले छः माह तक माँ के दू ध के अलावे ब े को ना तो कुछ


खलाए और ना ही िपलाए इसका अथ यह है िक ब े को पानी,
पानी िम ी, पानी ूकोज, दू सरा कोई आहार आिद कोई चीज
नही ं दे ना चािहए, यह सब ब े के िलए हािनकारक हो सकता
है , डॉ0 की सलाह पर, ज रत पडने पर, िवटािमन या दवाई
िपलाया जा सकता है ।

३• गम के मौसम म भी माँ के दू ध के अलावा पानी दे ना ज री


नही ं है , पानी िपलाने से िशशुओं म दू ध पीने की इ ा कम हो
जाती है जबिक पानी बीमारी का जड़ भी हो सकता है , दू सरा
कोई भी पेय पदाथ सफल नपान म बाधक बन जाता है , मगर
छः माह तक िसफ नपान कराते रहने से ब ों के म
का सं पूण िवकास होता रहता है िजससे ब ा ते ज बृ वाला हो
जाता है ।

इससे ब ों मे छु आछु त रोग, दमा, ए मा एवं अ एलज


रोग होने की सं भावना की कम होती है ,

P- 115
अब आप बताए कहाँ की सू ता ी के दू ध म इतनी िवशेषताएं
ह और कहाँ आप कहते ह िक " सू ता ी के दू ध म बल नही ं
होता" इसिलए उसे थ ही समझ, शोक है ऐसी बु पर,

नवजात िशशु के िलए सू ता ी का दू ध िकतना ज री है ये


केवल वही समझ सकता है िजसकी माता ने उसे दू ध िपलाया हो
और िजसकी माता ने िफगर को दे खते ए ड े का दू ध िपलाया
हो वो तो इसे आपकी भां ित थ ही समझे गा, नवजात िशशु
माता का दू ध नही ं तो ा भां ित नर बकरे का दू ध िपये ? और तो
और आपने उस औषिध का नाम भी नही ं बताया िजसके लेप से
दू ध का ाव क जाए यिद बता दे ते तो िवषयी याँ आपसे
ब त खुश होती, मैने तो ये भी सु ना है िक सू ता ी के न मे
यिद दू ध ािवत ना हो या मा ा अिधक हो जाती है तो ी को
काफी पीड़ा का सामना करना पड़ता है िफर आज के डॉ स
भी यही सलाह दे ते है िक पीड़ा दू ध के अ िधक दबाव की
वजह से है , तो ऐसे मे दयानंद का दू ध ािवत ना होने दे ने से
ा तातपय है ?

स ाथ काश ि • समु • पृ , २५

❝बालकों को माता सदा उ म िश ा करे , िजससे स ान स


हों और िकसी अंग से कुचे ा न करने पाव, ,,,,,,,, उप थे य से
श और मदन से वीय की ीणता, नपुंसकता होती और ह
म दु ग भी होता है इससे उसका श न कर❞

समी ा-- वाह रे वाह! स ाथ काश के बनाने वाले


लालभु ज ड़? ा कहना! तु झ को ऐसी-ऐसी अ ील बात
िलखने म तिनक भी ल ा और शम न आई, िनपट अ ा ही बन

P- 116
गया तू ज ते ही ों नही ं गभ ही म न हो गया? वा ज ते
समय मर ों न गया? कम से कम समाजी ीयाँ इस महापाप
से तो बच जाती,

तिनक यं िवचार कर दे ख िक माता जब इस िश ा को करे गी


तब ल ा जो ी जाित का आभू षण होता है कोने म को रख
दे वेगी, ोंिक ये धू त अ ील बु दयानंद इसी म ऊपर
िलखता है िक 'माता इस कार िश ा कर' इस धू त ने सोचा
होगा िक कहाँ तक समझता िफ गाँ अब हर िकसी को मेरी
भां ित से ी उप ास पढने व िलखने का अ ास तो है नही ं
इसिलए ये बोझ ीयों पर ही दे मारा,

हो सकता है मूलशंकर की माता ने उसे अंगों के साथ कुचे ा


करते पकड़ा हो और िफर मुलशंकर को इस कार िश ा करी
हो िक “उप थे य से श और मदन से वीय की ीणता,
नपुंसकता होती और ह म दु ग भी होती है इससे उसका
श न कर” तभी तो ामी जी यह िश ा माता को करनी
िलखते है

और दयानंद ने िजस िव ास के साथ यह लेख िलखा है उससे तो


यही िविदत होता है िक दयानंद ने इसका िकतना अ ास िकया
होगा, शोक हे ! दयानंद की बु पर, तु मने तो महापाप को भी
िश ा का अंग बना िदया, कम से कम िलखने से पहले तनीक
िवचार तो िलया होता िक माता के ारा ऐसी िश ा करने को
िलखकर कैसा महापाप, कैसा अधम फैलाया है ?

P- 117
स ाथ काश ि • समु • पृ , २६
❝गुरो: ेत िश ु िपतृमेधं समाचरन्।

ेतहारै ः समं त दशरा ेण शुद् ित॥

~मनु० [अ ाय ५ ोक ६५]

अथ-जब गु का ाणा हो तब मृ तकशरीर िजस का नाम ेत है उस


का दाह करने हारा िश ेतहार अथात् मृ तक को उठाने वालों के साथ
दशव िदन शु होता है । और जब उस शरीर का दाह हो चुका तब
उस का नाम भूत होता है अथात् वह अमु कनामा पु ष था। िजतने
उ हों, व मान म आ के न रह वे भूत थ होने से उन का नाम भूत
है । ऐसा ा से ले के आज पय के िव ानों का िस ा है पर ु
िजस को शंका, कुसंग, कुसं ार होता है उस को भय और शंका प
भूत, ेत, शािकनी, डािकनी आिद अने क मजाल दु ःखदायक होते ह

,,,,,,,,,अ ानी लोग वै क शा वा पदाथिव ा के पढ़ने , सुनने और


िवचार से रिहत होकर सि पात रािद शारी रक और उ ादािद
मानस रोगों का नाम भूत ेतािद धरते ह।

,,,,,,,पर ु जो कोई बु मान् उनकी भट ‘पांच जूता, द ा वा चपेटा,


लात मार’ तो उसके हनु मान्, दे वी आिद झट स होकर भाग जाते ह

समी ा-- ामी जी जब कोई बात बनाते ह तो कोई न कोई


ोक आिद िलखकर उसके अथ का अनथ कर दे ते ह वही ं
चुितयापंित इस ोक म भी फैलाई है दे खए (िपतृमेधं
समाचरन्) इस पद का अथ ही न िलखा, अब कह यह ामी जी
का दौगलापन नही तो ा है ? इसका अथ इस कार है
गुरो: ेत िश ु िपतृमेधं समाचरन्।

ेतहारै ः समं त दशरा ेण शुद् ित॥~मनु ० [५/६५]

P- 118
अथ- गु का गवास होने पर िश गु की अं ेि ि या,
िपंडािद िवधान करता आ शव को उठाने वाले के साथ दसव
िदन शु होता है ,

और ेतयोिन एक पृथक है िजसको जीव ाण ागने के उपरां त


कमानुसार ा होता है , िजसका माण वे दािद ं थों म भी है , ये
दे ख--
यमो नो गातुं थमो िववेद नैषा ग ूितरपभतवा उ।

य ा नः पूव िपतरः परे ता एना ज ानाः प ा अनु ाः॥१॥

ेिह ेिह पिथिभः पूयाणैयना ते पूव िपतरः परे ताः।

उभा राजानौ धया मद ौ यमं प ािस व णं च दे वम्॥२॥


~अथववेद

और दयानंद की बु दे ख िलखते ह िक—“और जो वतमान म


आकर न रहे वो भू त कहलाता है ” ामी जी का यह लेख समय
का बोधक है और इसका यहाँ कोई मतलब नही ं बनता और
यिद दयानंद इसे मनु ों पर लगाते ह तो अब दयानंद भी
मरकर भू त सं क ए, इसिलए यह िश ा दयानंदीयों को हण
करने यो है अब दयानंदीयों को चािहए िक गु आ ा का
पालन करते ए दयानंद के नाम के पीछे भू त और लगा द तो
परम हं स की शोभा बढ़ जाएगी,

दयानंद िलखते ह िक “ऐसा ा से लेके आज पय के िव ानों


का िस ा है ” जब जब दयानंद अपनी िम ा बातों को िस
करने के िलए ािद के नाम का सहारा लेते ह तो मन करता है
िक ामी जी को चार जूते भट प दे दू ँ कसम से इतना
बड़ा दौगला मने आज तक नही ं दे खा, जो िबना माण अपनी
गढ़ं त को ािद का िस ां त िलख द, अरे धू त! कोई माण तो

P- 119
िलख िदया होता की ऐसा कहाँ िलखा है , ािद ने तो ऐसा कही ं
नही ं िलखा यह तो तु ारे ही िदमाग की उपज ह तु म हर जगह
अपना मुँह ों िछपाते हो? ा यहाँ भी िपता जी का डर है जो
वो आकर पकड़ ले जायगे , अपना नाम ों नही ं िलखते िक म
ऐसा मानता ँ आप भू त, ेतािद को नही ं मानते ोिक आप
दौगले हो, दे खों मनु ृित, सु ुतसं िहता, वे दािद ं थों से आपको
इसके माण दे ते ह,--
य र ःिपशाचां ग वा रसोऽसुरान्।

नागान् सपान् सुपणा िपतॄ णां पृथ णम्॥

~[मनु ृित : १/३७]

उसके बाद परमा ा ने य , रा स, िपशाच, ग व, अ रा,


असु र, नाग, सप और िपतृ गणों की सृ ि की।
ये ग वा अ रसो ये चारायाः िकमीिदनः।

िपशाचा वा र ांिस तान् अ द् भूमे यावय॥

~[अथववेद- १२/१/५०]

अर् थ- हे भू मे! जो ग व, अ रा, िकमी िदन, मां सभि िपशाच


और रा सी वृ ि यों वाले आततायी है उ हमसे दू र कर।
ये द वः िपतृषु िव ा ाितमुखा अ ताद र ।

परापुरो िनपुरो ये भर ि ान् अ ा धमाित य ात्॥


~[अथववेद- १८/२/२८]

अर् थ- जो दु ेता ा ानवान िपतरों के समान आकृित


बनाकर िपता, िपतामह आिद िपतरों म िमल बै ठ है , और आ ित
दे ने पर छल से हिव-भषण करते ह तथा जो िपंडदान करने वाले

P- 120
पु , पौ ों को िहं िसत करते ह, हे अि दे व! आप उन
छदमवे शधारी असु रों को बाहर कर।
ये पािण ितमु माना ऽ असुराः स ः धया चर ।

परापुरो िनपुरो ये भर ् अि ाँन् लोकात् णुदा ् अ ात्॥

~[यजु वद- २/३०]

अथ- हे अि दे व! जो असु री श याँ िपतरों को समिपत अ


का से वन करने के िलए अनेक प बदलकर सु या थूल प
से आती और नीच कम करती है , उ े इस पिव थान से दू र
कर।
येऽमावा ां राि मुद थु ाजम णः।

अि ुरीयो यातुहा सो अ मिध वत्॥

~[अथववेद- १/१६/१]

अथ- अमाव ा की अंधेरी रात के समय मनु ों पर घात करने


वाले तथा उनको ित प चाने वाले , जो असु रािद िवचरण करते
ह, उन असु रों के स ं ध म असु र िवनाशक चतु थ अि दे व हम
अभय कर, र ा कर।
अपां मा पाने यतमो दद ा ातूनां शयने शयानम्।

तदा ना जया िपशाचा िव यातय ामगदोऽयम ु॥१॥

िदवा मा न ं यतमो दद ा ातूनां शयने शयानम्।

तदा ना जया िपशाचा िव यातय ामगदोऽयम ु॥२॥

ादम े िधरं िपशाचं मनोहनं जिह जातवेदः।

तिम ो वाजी व ेण ह ु िछन ु सोमः िशरो अ धृ ुः॥३॥


~[अथववेद- ५/२९/८-१०]

P- 121
अथ- जो िपशाच जलपान, या ा, शयन के समय हम पीिडत
िकया करते ह, वह अपनी जा सिहत दू र हो जाएं और वह रोगी
िनरोगी हो जाए॥१॥

जो िपशाच रात अथवा िदन म िब र पर सोते समय हम पीिडत


करते ह वे िपशाच अपनी जा सिहत हमसे दू र हो जाएं और
रोगी िनरोगी हो जाएं ॥२॥

हे अ े ! आप इन मां सभ क, र भ क और मन को क
करने वाले िपशाच को न कर, श शाली इ उ व से
मार और सोमदे व उनका शीश काट द॥३॥

इससे कट होता है िक रा स, िपशाचािद िव दायक होते ह


और मं ों के भाव से दू र होते ह, 'सु ुतसं िहता' म भी इस
कार कथन है --
य था श ं शाला ं कायिचिक ा भूतिव ा कौमारभृ म्
अगदत ं रसायनत ं वाजीकरणत िमित॥

~[सु ुतसंिहता : थमोऽ ाय:, सू थान- ७]

अथ- सु ुत के अनुसार आयु वद के आठ अंग ये ह-श ,


शाला , कायिचिक ा, भू तिव ा, कौमारभू , अगदत ,
रसायनत और वाजीकरण त , महिष सु ुत भू तिव ा को
चौथे थान पर रखते ए िलखते ह िक-
भूतिव ा नाम दे वासुरग वय र ः
िपतृिपशाचनाग हाद् युपसृ चेतसां
शा कमबिलहरणािद होपशमनाथम्॥

~[सु ुतसंिहता- थमोऽ ाय:, सू थान- ११]

अथ- महिष सु ुत ने भू त िव ा के स म प से िलखा


है िक िजस िव ा ारा दे व, दै , ग व, य , रा स, िपतर,

P- 122
िपशाच, नाग हों आिद से पीिड़त का शा कम,
बिलदान आिद कम ि याओं ारा उपरो दे वािद दे वों का
उपशमन होता है वह भू तिव ा कही जाती है ।

यहाँ भी यह योिन वणन करी है िजनको बिलदान दे ने से मनु


पर जो आ ादन होता है सो जाता रहता है

अब बोलों ा बोलते हो पोप (दयानंद) जी? ा वे द और


वै िदक ऋिषयों के इस कथन को भी िम ा बोलोग?

आप स ाथ काश पृ २६ म िलखते ह िक "अ ानी लोग


वै क शा वा पदाथिव ा के पढ़ने , सु नने और िवचार से रिहत
होकर सि पात रािद शारी रक और उ ादािद मानस रोगों
का नाम भू त ेतािद धरते ह।

,,,,,,,पर ु जो कोई बु मान् उनकी भट ‘पां च जूता, द ा वा


चपेटा, लात मार’ तो उसके हनुमान् , दे वी आिद झट स होकर
भाग जाते ह"

आप एक वै ा के हाथों ऐसे ही खच नही ं ए आपकी ऐसी


ददनाक मृ ु का कारण दे वताओं को ऐसे अपश बोलना ही
है , अ ा आ जो आपके जैसा भां ड समय रहते इस धरती से
उठ गया वना आप इन वै िदक ऋिषयों और दे वताओं को भी
इसी कार ‘पां च जूता, द ा वा चपेटा, लात मारना िलख दे ते

आप अ ानी िक कहते ह? ोिक वे दों म तो भू त, ेत, य ,


रा स, िपशाच, ग व, अ रा, असु रािद िव दायक आसु री
श यों और उनसे र ा के सै कड़ों माण िलख ह अब आप
बताए ा इन वे द ऋचाओं को कट करने वाला ई र अ ानी
है ?

P- 123
मनु सु ुत आिद ारा रिचत ं थों मे भी इसके माण िमलते है ,
ा ये भी अ ानी है ? आपके अनु सार सब अ ानी केवल आप
ही बु मान हो, और होंगे भी ो नही? आपने (छाग ) अथात
बकरा आिद नर पशुओं का दू ध घी जो खाया है (दयानंद कृत
यजुवदभा २१/४३ म िलखा है ), और आप की भां ित आपके
िनयोगी चैले भी बकरे का दू ध, घी खाकर बु मान बने िफरते
है , बड़ा आ य होता है यह दे खकर िक िजस म न तो दो
कौडी िक बु और न बोलने िक स ता ऐसे महाधु त को
महिष बनाने का यास िकया जा रहा है

स ाथ काश ि • समु • पृ , २६

❝जैसी यह पृिथवी जड़ है वै से ही सू यािद लोक ह, वे ताप और


काशािद से िभ कुछ भी नही ं कर सकते , ा ये चेतन ह जो
ोिधत होके दु ःख और शा होके सु ख दे सक?❞

समी ा-- अरे ामी भं गेडानंद जी यिद यह सु ख दु ख नही ं दे


सकते तो वे दों म इनकी शां ित ा थ की है दे खए-
शं नो हा ा मसाः शमािद रा णा॥१॥

उ ाताः पािथवा र ाः शं नो िदिवचरा हाः॥२॥

र तु ा ौ र तु।

पृिथवी सूय ा र तां च मा ।

अ र ं र तु दे वहे ाः॥३॥ ~अथववेद

ह च , आिद ,रा हमारे िलए शां ितकारक हो, पृ ी और


अंत र लोक म होने वाले उ ात और द् यु लौक म िवचरणशील
मंगल आिद ह हमारे दोषों का िनवारण करते ए हमारे िलए

P- 124
शां ितकारक िस हो, यह वे दों म शां ित करण ा थ की है
इसी से ह दु ख सु ख दे ने वाले िस होते ह॥१-२॥

सू य, च , पृ ी, आकाश, और अंत र लोक म िवचरणशील


मंगल आिद ते री र ा करे , ते रे िलए क ाणकारी िस हो।

अब कह भं गेडानंद जी यिद ये सु ख दु ख नही ं दे सकते तो वे दों


म इनकी शां ित ा वृ था की िलखी ं ह।

स ार् थ काश ि • समु • पृ , २७

❝जो हम म पढ़ के डोरा वा य बना दे व तो हमारे दे वता


उस म , य के ताप से उस को कोई िव नही ं होने दे ते’
उन को वही उ र दे ना चािहये िक ा तु म मृ ु , परमे र के
िनयम और कमफल से भी बचा सकोगे ?❞

समी ा-- वाह रे ! ामी धू तानंद ा कहने आपके? या तो आप


ब त बडे वाले धू त है या िफर आपको भू लने की बीमारी है , मं
पढ़कर डोरा बां धने से र ा नही ं होती लेिकन आप ही ने अपने
पंच महाय िविध के पृ ५ पर यह िलखा है िक “इसके अनंतर
गाय ी मं से िशखा को बां ध कर र ा करे ” अब कोई इन
धू तानंद जी से पूछ िक गाय ी मं पढ़कर ा र ा कर? और
िकससे र ा कर? ोिक मं ों के भाव को तो आप मानते नही ं
इसिलए यिद िसफ िशखा बां धने से ही र ा हो जाएं तो ये िजतने
भी बं दूक, तलवार और तमंचे है सब धरे के धरे रह जाए कोई
िकसी काम का नही,ं अब यिद दो िनयोगी दयानंदी सं ोपासन
के अनंतर कु ी लड तो उनम से न तो कोई हारे और न ही
कोई जीते , ोिक दोनों के दोनों िशखा बां धकर र ा कर चुके
ह, ध हे ! तु ारी बु ,

P- 125
वा ीिक रामायण म िलखा है िक जब रामचं वन को चल तो
कौश ा ने मं पढ़कर र ा की सु ुत सं िहता के सू थान म
रोगी की भू त ेतािद से मं पढ़कर र ा करनी िलखी ं है िजसका
माण इससे पहले दे चुके ह और भी अनेक मं है वे द के जो
भू त ेत, िपशाचों की शां ित करते ह ये दे खए वे दों से माण-
शं नो भव प ओषधयः िशवाः।

इ व ो अप ह ु र स आराि सृ ा इषवः पत ु
र साम्॥१॥ ~[अथववेद- २/३/६]

अथ- औषिध के िनिम योग िकये जाने वाले जल हमारे रोगों


का शमन करने वाले और सु खदायक हो, रोगों को उ करने
वाले (असु रों) को इ दे व का व िविश कर, असु रों ारा
सधान िकये गये ािध प बाण हमसे दू र जाकर िगर॥
य े िनयानं रजसं मृ ो अनवध म्।

पथ इमं त ा ो ा ै वम कृ िस॥२॥

आरादराितं िनरृ ितं परो ािहं ादः िपशाचान्।

र ोय व दु भूतं त म इवाप ह िस॥३॥

~[अथववेद- ८/२/१०,१२]

अथ- हे मृ ो! ते रे रजोमाग का कोई नाश नही ं कर सकता, इस


पु ष को इस माग से बच रहने का म णा प कवच धारण
कराते ह, आतं िकत करने वाले िनऋित की दु गित करते ए
मां सभ ी िपशाचों को न करते ह अ जो भी र स है उन
सब तमस् गु ण वालों का हम नाश करते ह॥
अपां मा पाने यतमो दद ा ातूनां शयने शयानम्।

तदा ना जया िपशाचा िव यातय ामगदोऽयम ु॥४॥

P- 126
िदवा मा न ं यतमो दद ा ातूनां शयने शयानम्।

तदा ना जया िपशाचा िव यातय ामगदोऽयम ु॥५॥

ादम े िधरं िपशाचं मनोहनं जिह जातवेदः।

तिम ो वाजी व ेण ह ु िछन ु सोमः िशरो अ धृ ुः॥६॥


~[अथववेद- ५/२९/८-१०]

अथ- जो िपशाच जलपान, या ा, शयन के समय हम पीिडत


िकया करते ह, वह अपनी जा सिहत दू र हो जाएं और वह रोगी
िनरोगी हो जाए ॥

जो िपशाच रात अथवा िदन म िब र पर सोते समय हम पीिडत


करते ह वे िपशाच अपनी जा सिहत हमसे दू र हो जाएं और
रोगी िनरोगी हो जाएं ॥

हे अ े ! आप इन मां सभ क, र भ क और मन को क
करने वाले िपशाच को न कर, श शाली इ उ व से
मार और सोमदे व उनका शीश काट द॥
ये ग वा अ रसो ये चारायाः िकमीिदनः।

िपशाचा वा र ांिस तान् अ द् भूमे यावय॥७॥

~[अथववेद- १२/१/५०]

अथ- हे भू मे! जो ग व, अ रा, िकमी िदन, मां सभि िपशाच


और रा सी वृ ि यों वाले आततायी है उ हमसे दू र कर।

इससे कट होता है िक रा स, िपशाचािद िव दायक होते ह


और मं ों के भाव से दू र होते ह अब कोई इन ामी धू तानंद
जी से पूछ यिद मं पढ़ने से र ा नही ं होती तो वे दों म ये मं
ा थ के िलख ह?

P- 127
ों साहब ा कहते हो यह सभी वे द मं परमे र के िनयम म
है या नही?ं

िजतने िव ों का िवधान है उन सब की शां ित मं ों ारा हो जाती


है , और मं जपने से उन मं ों के दे वता िव नही ं होने दे ते, यह
ई र का िनयम ही है , समझे ामी धू तानंद जी,

स ाथ काश ि • समु • पृ २८

❝९व वर् ष के आर म ि ज अपने स ानों का उपनयन


करके आचाय कुल म अथात् जहां पूण िव ान् और पूण िवदु षी
ी िश ा और िव ादान करने वाली हों वहां लड़के और
लड़िकयों को भे ज द और शू ािद वण उपनयन िकये िवना
िव ा ास के िलये गु कुल म भे ज द❞

समी क-- चलो कम से कम आपकी बु यहाँ िठकाने पर तो


है िक शु का उपनयन न हो जाित ही िस रखी है , और ि ज
से ा ण, ि य और वै हण िकया है , आप िलखते ह िक
"शु ािद वण उपनयन िकये िबना िव ा ास के िलए गु कुल
म भे ज द" ों यहाँ यह ित ा छूट गई िक "िजस को पढ़ने
पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह िनबु और मूख होने से शू
कहाता है , उस का पढ़ना पढ़ाना थ है " तृ तीया समु ास के
पृ ५५ पर यह आपने ही कहा है ना? याद आया, ध हे !
ामी जी आपकी नौटं की, िजसको िनबु और मूख बोलकर
उस का पढ़ना पढ़ाना थ बताते हो, और अब उसे िव ा ास
के िलए गु कुल भे जना िलखते हो, यही तो आपके भं ग की
तरं ग है इससे ही पता चलता है िक आपम बु की िकतनी
कमी थी

P- 128
✍ स ाथ काश ि • समु • पृ , २९

❝यही माता, िपता का क कम परमधम और कीित का


काम है जो अपने स ानों को उ म िश ायु करना, (पुन:)
यह बालिश ा म थोड़ा सा िलखा, इतने ही से बु मान् लोग
ब त समझ लगे ❞

समी क-- वाह बड़ी सुं दर िश ा दी है समाजीयों को, मने पढ़ा


और उसका करारा जबाव भी िदया है उसे आप पढ़, वै से इस
िश ा को त: माण माने या परत: माण िजसम
योिनसं कोचन, उप थे य का मदन, सू ता ी का ब े को
दू ध न िपलाना आिद िसखाया है माता िपता ऐसी िश ा अपने
बालकों और बािलकाओं को कर यह िश ा आपकी कौन से
वे दानुसार है ? कोई माण नही िदया आपने , और यह थोडी सी
बालिश ा नही है ब स ानाश करने को, ना क वणसं कर
बनाने को यही काफी है , बु मान लोग इसको ब त ही अ ी
कार समझते है और आपकी वे दिव िश ाओं से दू र ही
रहते है ।

॥इित स ाथ काशा गत ि तीयसमु ास खंडनम् समा म्॥

P- 129
स ाथ काशा गत तृतीयासमु ास खं डनं ार ते

✍ स ाथ काश तृ • समु • पृ ३१

❝क ानां स दानं च कुमाराणां च र णम्॥ ~मनु॰ ७/१५२

इसका अिभ ाय यह है िक इस म राजिनयम और जाितिनयम


होना चािहये िक पां चव अथवा आठव वष से आगे अपने लड़कों
और लड़िकयों को घर म न रख सक, पाठशाला म अव भे ज
दे व। जो न भे जे वह द नीय हो, थम लड़कों का य ोपवीत
घर म ही हो और दू सरा पाठशाला म आचा कुल म हो, िपता
माता वा अ ापक अपने लड़का लड़िकयों को अथसिहत
गाय ी म का उपदे श कर द❞

समी क-- वाह रे ! ामी धू तानंद अ ा चुितया बना रहे हो


भोले भाले कम अ समाजीयों का, जरा बताए िक आपका यह
इतना ल ा चौड़ा अिभ ाय िकन अ रों से िस होता है ?, इस
ोक का यह ता य तो िबलकुल भी नही ं है यह ोक
राजधम सं ग का है िजसका अथ इस कार है दे खए-

म ंिदनेऽधरा े वा िव ा ो िवगत मः।

िच ये मकामाथान् साध तैरेक एव वा॥१॥

पर रिव ानां तेषां च समुपाजनम्।

क ानां सं दानं च कुमाराणां च र णं॥२॥

~[मनु ृित- ७/१५१,१५२]

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अथ- राजा को यो है िक वह मां िसक थकावट से रिहत होकर
िदन के म या अधराि म अकेले अथवा मंि यों के साथ धम,
अथ तथा काम से स त िवषयों पर िचंतन कर, यिद मंि यों
के धम, अथ तथा काम आिद िवषयों पर अलग-अलग िवचार हो,
तो िवरोध दू र करके अजन का उपाय अपने कुल की क ाओं
के िववाह एवं राजकुमारों की सु र ा से स त िवषयों पर
िवचार कर।

इस ोक से आपका अथ िकंिचत् मा भी स नही ं रखता,


इससे ही पता चलता है िक आप िकतने बड़े वाले धू त हो, और
यह तो बड़ी अदभू त बात कही िक एक य ोपवीत घर म और
एक पाठशाला म कर इससे ही पता चलता है िक आपकी बु
िठकाने पर नही ं है , यह िश ा आपकी कौन से वे दानुसार है ,
कोई माण तो िलख िदए होते और यिद माण न िमला तो कोई
उ ी सीधी सं ृ त गढ़ कर ही उसे ोक नाम से िलख दे ते
आपके अ से पैदल िनयोगी चैले उसे भी प र की लकीर
मान लेते।

स ाथ काश तृ• समु • पृ ३१


❝ओ३म् भूभुवः :। त िवतुवरे ं भग दे व धीमिह।

िधयो यो नः चोदयात्॥

इस म म जो थम (ओ३म्) है उस का अथ थमसमु ास म
कर िदया है , वही ं से जान लेना, अब तीन महा ा ितयों के अथ
सं े प से िलखते ह-‘भू रित वै ाणः’ ‘यः ाणयित चराऽचरं जगत्
स भू ः य ू री रः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, ाण
से भी ि य और य ू है उस ाण का वाचक होके ‘भू ः’

P- 131
परमे र का नाम है , ‘भु व र पानः’ ‘यः सव दु ःखमपानयित
सोऽपानः’ जो सब दु ःखों से रिहत, िजस के सं ग से जीव सब
दु ःखों से छूट जाते ह इसिलये उस परमे र का नाम ‘भु वः’ है ,
‘ रित ानः’ ‘यो िविवधं जगद् ानयित ा ोित स ानः’,
जो नानािवध जगत् म ापक होके सब का धारण करता है
इसिलये उस परमे र का नाम ‘ ः’ है , ये तीनों वचन तै ि रीय
आर क के ह।

(सिवतु ः) ‘यः सु नो ु ादयित सव जगत् स सिवता त ’। जो


सब जगत् का उ ादक और सब ऐ य का दाता है , (दे व ) ‘यो
दी ित दी ते वा स दे वः’ जो सवसु खों का दे नेहारा और िजस
की ा की कामना सब करते ह, उस परमा ा का जो
(वरे म्) ‘व ुमहम्’ ीकार करने यो अित े (भगः)
‘शु पम् ’ शु प और पिव करने वाला चेतन
प है (तत् ) उसी परमा ा के प को हम लोग (धीमिह)
‘धरे मिह’ धारण कर। िकस योजन के िलये िक (यः) ‘जगदी रः’
जो सिवता दे व परमा ा (नः) ‘अ ाकम्’ हमारी (िधयः) ‘बु ीः’
बु यों को ( चोदयात्) ‘ ेरये त्’ ेरणा करे अथात् बु रे कामों से
छु ड़ा कर अ े कामों म वृ करे ❞

समी क-- यह जो आपने ओ३म् के ारा ॐकार का का िनक


अथ गढ़ा है उसका खंडन थम समु ास म कर आये ह
िज ासु लोग वही से जान लेना।

आपने महा ा ितयों के अथ म भी भारी गोलमाल कर तै ि रीय


आर क के नाम से क ना की है सो अब आपके ारा
महा ा ितयों के िकये गए का िनक अथ का खंडन सं े प म
िलखते ह दे खए-
भूभुवः सुव रित वा एता ो ा तयः।

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तासामु ह ैतां चतुथ म्। माहाचम ः वेदयते।

मह इित। तत् ।सआ ा। अ ा ा दे वताः।

भू रित वा अयं लोकः। भुव इ र म्।

सुव र सौ लोकः॥ ~[तैि रीय आर क : िश ा ब ी, पंचम


अनुवाक]

अथ- भू : भु व: : यह तीन ा ितयाँ है , कही ं तो : ऐसा


ा ित का आकार होता है और कही ं सु व: ऐसा आकार होता है
अथ का भे द नही ं ोिक ाितशा जो वे द का ाकरण है
उसम : के थान पर सु व: और ग के थान पर सु वग ऐसा
श योग होता है , इन तीन ा ितयों के म यह चतु थ
ा ित मह: (महलोक) है इसको महाचमस के पुत्र जो
महाचम ऋिष है सव थम उ ोंने जाना व दे खा वही (मह:)
है और वही उ तीन ा ितयों की आ ा है , और सब
दे वता उसके अंग है , अब इनकी तु ता को कथन करते ह जैसे
िक महत् है और ा ित महर् है इससे इनकी एकता बनी
है और वह महर् आ ा ( प) है ोंिक वह महर् ा
प कम वाला है , इससे जो आ ा है और अ जो ा ित प
लोक दे व, वे द और ाण है वे िजससे िक "महर् है " इस
आगे कहने के वा से कथन िकये ा ित प के दे व
लोक आिदक सव अवयव प है , और िजससे वे सू य और
अ प से ा ए ह इससे और दे वता जो है सो वे अंग
( के पाद आिदक अवयव) है और महा ा ित अंगी है भाव
यह है िक महा ा ित प जो अंगी है । िहर गभ, उसके भू :
ा ित को पाद, भु व: ा ित को बा , और : ा ित को
िशरे प से ान कर, ऐसी उपासना िविध है सो कथन करते ह

P- 133
अथात भू रािद जापित अंगों को िजस िजस प म िचंतन
करना है सो िन पण करते ह।

"पृ ीलोक जापित के पाद प भू : ा ित और अंत र लोक


जापित के बा प भु व: ा ित है और गलोक जापित
का िशरे प : ा ित है , और जो काशमान आिद है सो
जापित का म भाग प महा ा ित है

भाव यह है िक पृ ीलोक म जापित के पाद ि करना,


अंत र लोक म जापित के बा ि करना और गलोक म
जापित के िशर ि करना और आिद म जापित के शरीर
म ि करना, और म भाग से अंगों की वृ होती है इसी
कारण कहते ह िक आिद से सब लोकों की वृ होती है इसी
कार अि आिद म जापित के अंग ि जानना।
मह इ ािद ः। आिद ेन वाव सव लोक महीय े।

भू रित वा अि ः। भुव इित वायुः। सुव र ािद ः।

मह इित च म: च मसा वाव

सवािण ोितिष महीय े। भू रित वा ऋचः।

भुव इित सामािन। सुव रित यजू िष॥ ~[तैि रीय आर क : िश ा


ब ी, पंचम अनुवाक]

अथ- भू : यह िस अि है , भु व: वायु और : सू य है , और
मह: च मा है ोंिक च मा ही सब ोितयों को मिहमा त
करता है , भू : यह िस ऋचा (ऋ े द) है , भु व: सामवे द, और
: यजुवद है ।
मह इित । णा वाव सव वेदा महीय े।

भू रित वै ाणः। भुव इ पानः। सुव रित ानः।

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मह इ म्। अ ेन वाव सव ाण महीय े।

ता वा एता त तुध। चत त ो ा तयः।

ता यो वेद। स वेद । सवऽ ै दे वा बिलमावह ॥ ~[तैि रीय


आर क : िश ा ब ी, पंचम अनुवाक]

अथ- मह: यह (ॐकार) है ोंिक ॐकार से ही सब वे द


वृ को ा होते ह, भू : यह ाण है भुव: यह अपान है : यह
ान है , और मह: यह अ है ोिक अ से ही ाण म वृ
है , जो यह उपचार ा ित चार कार की है इनका फल वणन
करते ह िक एक-एक ा ित चार-चार कार की हो गई इस
कार यह सोलह ा ितयाँ ई तब करणानुसार षोडशकला
यु पु ष का ान कहा इसका वणन यजुवद अ ाय ३२ मं
५ म इस कार आया है --
य ाज् जातं न पुरा िकं चनैव य आबभूव भुवनािन िव ा।

जापितः जया सम् रराण ीिण ोती ष सचते स षोडशी॥


~[यजु वद अ ाय ३२ मं ५]

अथ- जो जापित अकेले ही सभी भु वनों म ा है , उनसे पूव


कुछ भी उ न आ, वह जा के साथ रहने वाले जापित
षोडश कलाओं से यु , तीनों ोितयों (अि , िवद् यु त, सू य) को
धारण करते ह,

वह षोडश कला कौन सी है अब उसे यहाँ सं े प म िलखते ह


दे खए- ा ित से पृ ीकला, अि कला, ऋ े दकला, ाणकला
ऐसे चतु ला तो जापित के पाद ह, और अंत र कला,
वायु कला, सामवे दकला, अपानकला ऐसे चतु ला जापित के
बा ह, गलोककला, आिद कला, यजुवदकला, ानकला
ऐसी चतु ला जापित के िशर है आिद कला, च कला,

P- 135
ॐकारकला, अ कला ऐसा जापित का आ श ितपाध
म भाग है , ऐसे षोडसकला यु पु ष को दय म ान
करने से जो फल ा होता है सो कथन करते है इन ा ितयों
को पूव कार से जो जानता है सो को जानता है ।

और आपने इस षोडशकला यु जापित की उपासना के


करण म (भू रित वै ाणः भु व र पान: रित ान:) इतने
भाग को लेकर ाण, अपान और ान को परमे रपरता वणन
िकया है पर ु बु मान िवचार की ये िकतनी धृ ता है िक
सगु णोपासना के फल के लोप करने को यह लीला रची है , िक
यह कौन करण के वा है यह भी न िलखा अब यह दे खना
चािहए िक जब ामी धू तानंद जी ने ॐकार और ा ितयों के
ही अथ म अनथ िकया है तो और मं ों के साथ ा िकया
होगा?

अब गाय ी के अथ िलखते ह िक ाचीन ों म इसका कैसा


ा ान है -

(त िवतु वरे ं भग दे व धीमिह) "त िवतुवरे िम सौ वा


आिद ः सिवता स वा एवं वरणाय
आ कामेने ा वािदनोऽथ भग दे व धीमहीित सिवता वै
तेऽव थता योऽ भगः कं सि तयामी ा वािदन:" यह जो
आिद है यही सिवता (अथात उ करने वाला) है ,
आ काम करके वणीय है अथ यह जो आ र पदाथ की
कामना रिहत है , उसको यह सिवता ही एकताबु करक
ाथनीय है , भाव यह है िक िप सार, ाणओर, ां डसार
आिद की एकता करक दोनों उपािध से उपलि त त को
आम प से भावना कर, ऐसा वे दिवद् पु ष कहते ह, अब
ि तीय पद की ा ा करते ह दे व श बो सिवता ही है ,

P- 136
उस कारण से जो सिवता का भगा प है , उसको िचंतन
करते ह,

(िधयो यो नः चोदयात् ) "अथ िधयो यो नः चोदयािदित बु यो वै


िधय ा योऽ ाकं चोदयािद ा वािदन:" अ :करण की
वृ ि यों को जो परमा ा ेरणा करता है उस आिद के 'भग'
भाग का हम ान करते ह, ोिक वह स ुख उप थत रहता
है उसका जो 'भग' है वह बु को ा होता रहता है

( ) हम िकसका िचंतन कर?

(उ र) "सिवतुदव यत् भगा ं वरे ं तत् धीमिह तत् िकम्


योऽ ाकं िधयोऽ करणवृ ी: चोदयात्" सिवता दे व का जो
'भग' तथा 'वरे ' प है हम उसका िचंतन कर, जो हमारी
बु यों को ेरणा करता है , बु को धी कहते ह " जो हमारी
बु को े रत करता है - स ाग पर चलाता है " हम उसका
िचंतन कर, ऐसा वे दिवद् पु ष कहते ह, अब 'भग श का
कथन करते है -
अथ भगा इित यो ह वा अमु ािद े

िनिहत ारकोऽि िण वैष भगा ः भािभगितर हीित भगः


भजयतीित वैष भग इित ो वािदनोऽथ भ इित
भासयतीमान् लोकान् र इित र यतीमािन भूतािन ग इित
ग ाग ािदमाः जा ा -रग- ा गः
शा त् सूयमानात् सूयः सवनात् सिवताऽदानात् आिद ः
पवना ावनोऽथापो ायनािद ेवं ाह

यह 'भग' वही है जो आिद मंडल मे थत है , आखँ की पुतली


मे भी 'भग' नाम से यही रहता है , इसकी का से ही मनु
गित कर सकता है , इसिलए 'भग' है (भजयतीितवाएष भग:) जो
सव जगत् का सं हार करता है इससे 'भग' है , (भासयतीमान्

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लोकािनितभ:) अपने मंडल अंतगत काश करक सव जगत् को
कािशत करता है इस कारण 'भग' है (रं जयतीमािन भू तािन
इित र:) अपने आन प से सव ाणी वग को आन त करता
है इसिलए 'भग' है (ग न् वा आग ात् सवा इमा:
ज जा इित ग:) और सु षु बोध मम वा महा लय उ ि
काल म सव जा परमा ा म लीन होकर िफर उ होती है
इस कारण 'भग' है और (श त् सू यमानात् सू :) िनर र उदय
और अ होकर ात: कालािद करने से सू य है , और सव ाणी
वग की वृ ि अ वीयािद ारा उ ि कता होने से सिवता है ,
(आदानात् आिद :) पृ ी का रस तथा ाणी वग की आयु को
हण करने से आिद है (पवनात् पावनो ेषएव) सबको पिव
करने से पावन नाम वायु भी यह परमे र है , और अप नाम जल
भी परमे र ही है ऐसे वािद कहते ह इस कार गाय ी मं
के दोपाद से अिध दे वत का िन य करा, अथात सू य, वायु ,
जल उपलि त यावत् दे वता प परमा ा का बोधन करा, और
यावत् जगत् उ ि , पालन, सं हार कतृ बोधन करा तथा
जगतलयधार और जगत उ ादन कारण भी 'भग' पद ा ान
से कहा,

इस कारण जड कृित जगत् का उ ादन कारण दयानंद का


यह प गाय ी िव ा िव है इसिलए उसे िम ा जानना
ही बु मानों को उिचत है

इस कार वे द, उपिनषद आिद से गाय ी अथ वणन िकया, अब


यहाँ यह भी िवचारणीय है िक दयानंद ने अपने स ाथ काश
के अंत म ( म ाम काश:) करण म यह िलखा है
िक "११२७ ( ारह सौ स ाईस) वे दों की शाखा जो िक वे दों के
ा ान प ािद महिषयों के बनाय ं थ है " इस कारण

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गाय ी जो चतु वद धान है उसका अथ िकसी एक ा ान की
रीित से तो दयानंद को िलखना अव था, और यहाँ ान दे ने
वाली बात है िक दयानंद की दयानंद ने जो ये ११२७ ( ारह सौ
स ाईस) शाखा िलखी ं है वो भी गलत िलखा है ोंिक महाभा
की रीित से ११३१ ( ारह सौ इक ीस) शाखा होती है अब यहाँ
िवचारणीय है िक इन मं ों के ा ान होने पर भी दयानंद को
एक ा ान भी गाय ी मं के अथ िन पण वा े न मिमला,
तो िफर इनके क त अथ को कौन मानेगा?

॥आचमन करणम् ॥

स ाथ काश तृ• समु • पृ ३३

❝'आचमन' से क थ कफ और िप की िनवृ ि थोड़ी सी


होती है , प ात् ‘माजन’ अथात् म मा और अनािमका अंगुली के
अ भाग से ने िद अंगों पर जल िछड़के, उस से आल दू र
होता है जो आल और जल ा न हो तो न करे ❞

समी क-- वाह रे ामी मुखानंद! आपके अनुसार 'आचमन'


कफ और िप की शां ित के िलए है अब कोई इन मुखानंद
महाशय से पूछ िक यिद 'आचमन' कफ और िप की िनवृ ि
के िलए है तो ा सं ाकाल म सभी लोग कफिप िसत होते
ह, और सबको आल और िन ा दबाये रहती है वह समय
िन ा का तो िबलकुल नही ं है और यिद 'आचमन' कफ और
िप की िनवृ ि के िलए ही है तो िफर हाथ म जल लेकर गाय ी
और तीथ ही से 'आचमन' करने की ा आव कता है ?
और ा कफ और िप ने ित ाप िलखा है िक रोज

P- 139
सं ासमय सं ार कता तथा सं ा करने वालों के कंठ म फेरा
करगे , और यिद 'माजन' का योजन आल दू र करना ही है
तो कोई अ बे हतर उपाय जैसे चाय कॉफी पी िलया करो, या
िफर सबसे अ ा उपाय है िक अमोिनया की सीसी लेकर सूं घ
िलया करों उससे तो मूिछत भी उठ खड़ा हो िफर तु ारे
आल की तो बात ही ा? और सं ा तो ात:काल ान
करने के बाद ही होता है िफर ान करते ही आल आ गया
वाह! समझ नही ं आता िक तु म मनु की औलाद हो या िफर
रा स कुंभकण की औलाद जो तु हमेशा िन ा और आल
ही घेरे रहती है , अब तु म ही बताओ यिद ान करने के बाद भी
तु ारा आल दू र नही ं होता तो भला 'माजन' से कैसे हो
सकता है ? इस कारण ामी मुखानंद जी आपका यह कथन
पुरी तरह से िम ा ही िस होता है 'आचमन' करने से आ ं तर
शु होती है दे खए मनु ृित म िकस कार िलखा है -
ा ेण िव ीथन िन कालमुप ृशेत् ।

काय ैदिशका ां वा न िप ेण कदा चन ॥१॥

अङ् गु मूल तले ा ं तीथ च ते ।

कायमङ् गुिलमूलेऽ े दे वं िप ं तयोरधः ॥२॥

ि राचामेदपः पूव ि ः मृ ा तो मुखम् ।

खािन चैव ृशेद रा ानं िशर एव च ॥३॥

अनु ािभरफेनािभर ीथन धमिवत् ।

शौचे ुः सवदाचामेदेका े ागुदङ् मुखः ॥४॥

ािभः पूयते िव ः क गािभ ु भूिमपः ।

वै ोऽ ः ािशतािभ ु शू ः ृ ािभर तः ॥५॥

P- 140
~[मनु ृित : अ ाय २, ोक ५८-६२]

ा ण सदा तीथ या जापित तीथ अथवा दे व तीथ से


'आचमन' कर, उसे कभी िपतृ तीथ से 'आचमन' नही ं करना
चािहए ॥१॥

अब अगले ोक म यह बताया गया है िक ये तीथ हाथ म कहां


होते ह।

हाथ के अंगूठे के मूल म तीथ, किन उं गली का मूल


जापित तीथ इसी उं गली के आगे वाला भाग दे व तीथ तथा
अंगूठे एवं तजनी उं गली के बीच िपतृ तीथ होता है ॥२॥

सबसे पहले तीन बार जल से 'आचमन' कर, इसके बाद दो बार


मुख को धोकर त ात ाने य को, िसर को, दय को जल
से श कर ॥३॥

पिव ता के इ ु क धमा ा ठं डे और फेन रिहत (शु )


जल से आिद तीथ से एका म पूव या उ र की ओर मुख
करके बै ठे ए 'आचमन' कर ॥४॥

'आचमन' के समय जल जब ा ण के दय तक प ँ चता है


तभी वह पिव होता है , कंठ म जल प ँ चने पर ि य तथा मुख
म जल प ँ चने पर वै पिव होता है और शु जल को छूने
मा से ही पिव हो जाता है ॥५॥

अब बोिलए ामी धू तानंद जी ा बोलते ह? मनु के इन


ोकों ने आपके क त अथ की ध यां ही उडा दी, िफर
आपने मनसा प र मा करनी िलखी ं ह सो आप बताए िक
प र मा काहे की कर आपकी या आपके इस स ार् थ काश
की? ोिक परमा ा को तो आप िनराकार मानते ह िफर
उसकी प र मा कैसी? और जल तो कफ िनवृ ि के अथ है ,

P- 141
आप (मनु ृित २/१०४) इस ोक म जल के पास बै ठकर
गाय ी जप िलखते ह, पर ु आपके जो चैले आल और
कफिप िसत रहते ह वो तो आपके मतानुसार कोट पतलून
पहनकर कोठी, बं गलों म ही जप कर िलया करगे ।

स ाथ काश तृ• समु • पृ ३४

❝‘ ाहा’ श का अथ यह है िक जैसा ान आ ा म हो वै सा
ही जीभ से बोले, िवपरीत नही❞

समी क-- ध हे ! ामी जी आपकी बु और आपका दौ


कौड़ी का ान, िम ा भाषण करना तो आपके िड.एन.ए. म ह
जरा बताए िक यह ाहा का अथ आपने िकस िनघ ु एं व
िन से िनकाला है और ऊपर जो आपने यह िलखा है िक
' ाणय ाहा' अब आपके मतानुसार तो इसका अथ यह होता
है िक ' ाण' अथात परमे र के अथ जैसा ान आ ा म होवे
वै सा ही जीभ से बोल, भला यह ा बात ई? इससे हवन की
कौन सी कला िस होती है ? आपके ारा िकया ' ाहा' का
ऐसा क त अथ न तो आज पहले िकसी न िकया और न ही
िकसी ने सु ना होगा?

सु िनए ाहा अ व है िजसके अथ हिव ाग करने के है , िजस


दे वता के उ े से अि म हिव िदया जाता है उसम ' ाहा'
श का योग होता है , जैसे " ाणाय ाहा" अथात ाणों के
अथ हिव दे ता ँ , कुछ समझ म आया मुखानंद जी या नही,ं न
जाने आप िनघ ु , िन िव नए नए अथ की क ना
करके ा िस करना चाहते हों?

P- 142
स ाथ काश तृ• समु • पृ ३४

❝सब लोग जानते ह िक दु ग यु वायु और जल से रोग, रोग


से ािणयों को दु ःख और सु ग त वायु तथा जल से आरो
और रोग के न होने से सु ख ा होता है

( ) च नािद िघस के िकसी को लगावे वा घृतािद खाने को दे वे


तो बड़ा उपकार हो। अि म डाल के थ न करना बु मानों
का काम नही।ं

(उ र) जो तु म पदाथिव ा जानते तो कभी ऐसी बात न कहते ।


ोंिक अि म डाला आ पदाथ सू हो के फैल के वायु के
साथ दू र दे श म जाकर दु ग की िनवृ ि करता है ।

िफर आगे इसी पृ पर िलखा है िक "म म वह ा ान है


िक िजससे होम करने म लाभ िविदत हो जाय और म की
आवृ ि होने से क थ रह"

और पृ ३२ पर िलखा है िक "िव ािन दे व सिवतदु रतािन


परासवु । य ं त आ सवु ॥

इस म और पूव गाय ी म से आ ित दे वे❞

समी क- वाह रे ामी धू तानंद! ा कहने आपके? आपके


िनयोगी चैले तो कहते ह िक हजारों ं थों का अ यन करने के
बाद आपने यह तथाकिथत ं थ तै यार िकया, घंटा हजारों ं थों
का अ यन िकया, आपकी वे द ता तो इसी से िस हो जाती है
िक हवन करने, मं उ ारण और घृतािद से आ ित दे ने का
फल ा है ? इस िवषय म वे दािद ं थों से एक माण तक नही ं
दे पाय, कम से कम एक दो माण तो दे िदए होते, और तो और
आपकी अि हो की िविध भी वे द िव ही है और जहाँ तक

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पदाथ िव ा की बात है , तो तु ारी पदाथ िव ा तो अ म और
नवम समु ास म ही िदख जाती है जहाँ तु मने सू य, च , तारे
आिद पर मनु ों की जा और आसमान का नीला रं ग पानी के
कारण होना िलखा है , िक ु उसका खंडन हम वही करगे,
िफलहाल आपके इस पदाथ िव ा की ध यां उडाते है

आपने जो यह अि हो का योजन जलवायु की शु होना


िस ां त िकया ह, आपका यह क त िस ां त शा और यु
दोनों के िव है यिद घृतािद से आ ित दे ना मा जलवायु की
शु िनिम है , तो इन पाँ च आ ितयों से ा होगा? इससे
अ ा तो िकसी िनयोग समाजी के घी के गोदाम म आग लगा
दे नी चािहए, जब सै कड़ों, हजारों टन घी जल तो खुब जलवायु
की शु हो अनेकानेक लोगों का उपकार हो जाएं ,

अब सु िनये पदाथ िव ा को जानने वाले िव ान यह बात


भलीभाँ ित जानते ह िक जलवायु की शु तो परमा ा के बनाये
िनयम से तः ही होती रहती है जैसे- सू य की आकषण श
जल की तरलता बादलों का बनना िफर बरसना, और वन म
अपने सु ग त पु , ओषिधयों आिद का उ होना, वायु की
सरण श सु गंिधत पु ािद के परमाणु ओं का वायु म
िमलना, ऋतु प रवतन आिद, इन सब कारणों से जलवायु की
शु होती है , और यह सब इतने बड़े र पर होता है िक
उसकी तु लना म आपका यह िस ां त कुछ भी नही,ं यह तो थी
पदाथ िव ा अब आते ह आपके दू सरे िस ां त पर,

अब दे खए यहाँ गाय ी के साथ ाहा लगाकर होम करना


िलखा है , वाह रे ! मेरे मुखानंद भला इसम कौन से हवन के लाभ
का अथ है ? (गाय ी म का अथ इससे पूव कर आए ह)
आपके मतानुसार होम म मं ों का उ ारण मं कंठ थ करने

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के िलए, घृतािद से आ ित जलवायु की शु िनिम , और अब
यह गाय ी के साथ ाहा और लगवा िदया, और तो और ाहा
का अथ भी आपका क त ही है अब आपके हवन का कोई
अथ तो रहा नही ं बस बे मतलब घी फूंक जाइए, थम तो ामी
जी ने इससे चुिटया बं धवाई, िफर र ा की,िफर जप िकया,
अविध फूंका, यहाँ तक की दयानंदी मृतकों का अंितम सं ार
भी गाय ी से करते ह दे खए एक गाय ी से िकतने लाभ िलए
आगे जब और िव ा की उ ित होगी तब इसम इं जन लगाकर
रे ल चलवायगे और पंख लगाकर हवाई जहाज उडाये ग,

और जब हवन करने से वायु की शु मा होती है तो िफर ये


ात: साय सं ा का िनयम थ ही है , िफर तो जब चाह आग म
घी उडे ल िदया उसके िलए ानािद की भी कोई आव कता
नही,ं जब जी कर चू े या भ ी म घी झोक द, िफर यह पृ ३३
पर चमचा, कटोरी, थाली, ो णीपा , णीतापा , आ थली
आिद का िवधान ों िलखा है केवल करछा भर-भर कर घी
उडे लना िलख दे ते,

िफर आप िलखते है िक होम म मं उ ारण करने से मं


कंठस् थ होते ह, जब मं कंठ थ करना ही इ है तो याद करने
वाले तो िबना हवन िकये ही प र म कर कंठ थ कर सकते ह,
और केवल होम म योग होने वाले मं ही ों कंठ थ करना?
बाकी के वे द मं ा थ के है ? और जब मं कंठ थ करने
का ही लाभ ह तो िफर ाहा लगाने की ा आव कता है ?
चाहे जहाँ के मं पढ़ िदये िफर िनयत मं से आ ित दे ना यह
ों िलखा है ?

सु िनए! ामी धू तानंद जी हवन करने से केवल जलवायु की


शु और मं ों का उ ारण मं ों को कंठ थ करने के िलए यह

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िस ां त आपका ठीक नही,ं ोिक हवन करने घृतािद से
आ ित दे ने और मं ों के उ ारण से सु ख, धै य, धन-धा , र ा
साम , पाप न होने के साथ साथ ग की ा भी होती है ,
दे खए आपको वे दािद ं थों से माण दे ते ह-

थम घृतािद से हवन करने व उसके फल का कथन करते ह


दे ख-
वीितहो ं ा कवे द् युम म् सम् इधीमिह। अ े बृह म्
अ रे ॥४॥

घृता ् अिस जु र् ना ा सेदं ि येण धा ा ि यम् सद ऽ आ सीद।


घृता ्अ ् उपभृन् ना ा सेदं ि येण धा ा ि यम् सद ऽ आ
सीद। घृता ् अिस ुवा ना ा सेदं ि येण धा ा ि यम् सदऽ आ
सीद। ि येण धा ा ि यम् सद ऽआ सीद। ुवा ऽ असद ् ऋत
योनौ ता िव ो पािह। पािह य ं। पािह य पितम्। पािह मां
य म्॥६॥ ~[यजु वद अ० २, मं ४,६]

भू त-भिव के ाता हे ा दश अि दे व! ऐ य ा की
कामना करने वाले ते ज ी, महान, याजक य म आपको
सिमधा ारा िलत करते ह॥४॥

हे जु ! आप अपने ि य घृत से पुण होकर इस य - थल म


थािपत हो, हे उपभृ त्! आप घृत से यु होकर अपने ि य य -
थल पर थािपत हो, हे ु वा! आप अपने ि य घृत ारा िसं िचत
होकर य - थल पर थािपत हो, हे य - थल पर िति त
िव ुदेव! आप य - थल पर थािपत सभी साधनों, उपकरणों,
य कताओं एं व हमारी र ा कर॥६॥
सिमधाि ं दु व त घृतैर् बोधयताितिथम्।

आ न् ह ा जु होतन॥१॥

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सुसिम ाय शोिचषे घृतं ती ं जु होतन।

अ ये जातवेदसे॥२॥

तं ा सिम र् अि रो घृतेन वधयामिस।

बृह ोचा यिव ॥३॥

उप ा े हिव तीर् घृताचीर् य ु हयत।

जु ष सिमधो मम॥४॥ ~[यजु वद अ० ३, मं १-४]

हे ऋ जो! आप घृतिस सिमधा से (य म) अि को


िलत कर, घृत की आ ित दान करक सब कुछ आ सात्
करने वाले अि दे व को दी कर, और अनेक कार के ह
पदाथ ारा य करते ए इ दी यु बनाओं॥१॥

हे ऋ जो! भली कार से िलत, जा मान, सव


(जातवे द) दे दी मान य ाि म शु घृत की आ ितयाँ दान
कर॥२॥

हे ( ालाओं से ) दी अि दे व! हम आपको घृत (और उससे


िस ) सिमधाओं से उ ी करते ह, हे िन त पा (ते ज ी)
अि दे व! (घृत आ ित ा होने के बाद) आप ऊँची उठने वाली
ालाओं के मा म से काशयु हो॥३॥

हे अि दे व! आपको हिव- और घृत-िस सिमधा की ा


िनरं तर हो, हे दी मान अि दे व! आप हमारे ारा समिपत
सिमधाओं को ीकार कर॥४॥

घृतं िमिम े घृतम् अ योिनर् घृते ि तो घृतम् व् अ धाम।


अनु धम् आ वह मादय ाहाकृतं वृ षभ वि ह म्॥
यजुवद अ० १७, मं ८८]

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यह घृत इन अि का उ ि थान है , घृत ही इ ती ण करने
वाला है , अि इस घृत के ही आि त है अतः म इन अि के मुख
म घृत सीच
ं ने की इ ा करता ँ , हे अ य ! हिव सं ार के
बाद अि का आ ान करों और जब यह तृ हो जाएं तब इनसे
हिवयों को दे वताओं तक प ँ चाने का िनवे दन करों।
अिभ व समनेव योषाः क ा ः यमानासो ऽ अि म्।

घृत धाराः सिमधो नस ता जु षाणो हयित जातवेदाः॥


~[यजु वद अ० १७, मं ९६]

घृत की धाराएं अि म िगरकर सिमधाओ को ा करती ई,


अि म सु संगत होती है , वे जातवे दा अि उन घृत धाराओं की
बार ार इ ा करते ह।
अ ् अषत सु टु ितं ग म् आिजम् अ ासु भ ा िवणािन ध ।

इमं य ं नयत दे वता नो घृत धारा मधुमत् पव े॥

~[यजु वद अ० १७, मं ९८]

हे दे वों! आप े ु ितयों और घृत वाले इस य म आओं, यह


मधु मयी घृत धाराय िगर रही है , इन अधू र आ ितयों को ग
लोक म ा कराय और हम सब कार के क ाणकारी धन-
धा ऐ य दान कर।

अब मं पढ़कर होम करने के फल का कथन करते ह दे ख-


िव ेऽअ म तो िव ऽऊती िव े भव ् अ यः सिम ाः।

िव े नो दे वाऽअवसा गम ु िव म् अ ु िवणं वाजो ऽ अ े॥


~[यजु वद अ० १८, मं ३१]

हमारे इस य म आज सभी म ण आगमन कर, सभी


गणदे वता और आिद भी आव, िव दे वा भी हमारी हिवयों

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को हण करने को आव, सभी अि याँ दी हो और हम ऐ य
व अ की ा हो ॥
आयुर् य ेन क तां ाणो य ेन क तां च ु र् य ेन क ताम्
ो ं य ेन क तां वाग् य ेन क तां मनो य ेन क ताम् आ ा
य ेन क तां ा य ेन क तां ोितर् य ेन क ताम् र्
य ेन क तां पृ ं य ेन क तां य ो य ेन क ताम् । ोमश् च
यजु श् च ऽ ऋक् च साम च बृहच् च रथ रं च। र् दे वा ऽ
अग ामृता ऽ अभूम जापतेः जा ऽ अभूम वेट् ाहा
~[यजु वद अ० १८, मं २९]

इस य के फल से आयु वृ हो, य के साद से हमारे ाण


रोग रिहत हो, य के भाव से हमारे च ु ोित वाले हो हमारे
कान और वाणी उ षता को ा कर, य के भाव से हमारा
मन थ हो, य के फल प हमारी आ ा आन त हो,
य की कृपा से हम शा ों से ि ित कर, य के भाव से हम
परम ोित प ई र की ा हो, य के कारण हम ग को
पाव, य के भाव से ही म महाय कर सकूँ ोम, यजु:, ऋक्,
साम, बृ हत् साम और थ र साम भी य के भाव से वृ
को ा हो, इस य के फल से हम दे व लाभ कर गम
प ँ चे, हम जापित परमा ा की जा म सु ख भोग कर, इसी
अिभलाषा से े रत यह िविश आ ित दी जाती है , सब
दे वतागण इसे हण कर॥
वाजश् च मे सवश् च मे यितश् च मे िसितश् च मे धीितश् च
मे तुश् च मे रश् च मे ोकश् च मे वश् च मे ुितश् च मे
ोितश् च मे श् च मे य ेन क ाम्॥१॥

ाणश् च मे ऽपानश् च मे ानश् च मे ऽसुश् च मे िच ं च म ऽ


आधीतं च मे वाक् च मे मनश् च मे च ु श् च मे ो ं च मे द श् च
मे बलं च मे य ेन क ाम्॥२॥

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ओजस् च मे सहश् च म ऽ आ ा च मे तनूश् च मे शम च मे वम च
मे ऽ ािन च मे ऽ थीिन च मे प म् िष च मे शरीरािण च म ऽ
आयुश् च मे जरा च मे य ेन क ाम्॥३॥

ै ं च मे ऽ आिधप ं च मे म ुश् च मे भामश् च मे ऽमश् च


मे ऽ श् च मे मिहमा च मे व रमा च मे िथमा च मे विषमा च मे
ािघमा च मे वृ ं च मे वृ श् च मे य ेन क ाम् ॥४॥

स ं च मे ा च मे जगच् च मे धनं च मे िव ं च मे महश् च मे


ीडा च मे मोदश् च मे जातं च मे जिन माणं च मे सू ं च मे
सुकृतं च मे य ेन क ाम् ॥५॥

ऋतं च मे ऽमृतं च मे ऽय ं च मे ऽनामयच् च मे जीवातुश् च मे


दीघायु ं च मे ऽनिम ं च मे ऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे
सूषाश् च मे सुिदनं च मे य ेन क ाम् ॥६॥

य ा च मे धता च मे ेमश् च मे धृितश् च मे िव ं च मे महश् च मे


संिवच् च मे ा ं च मे सूश् च मे सूश् च मे सीरं च मे लयश् च मे
य ेन क ाम् ॥७॥

शं च मे मयश् च मे ि यं च मे ऽनुकामश् च मे कामश् च मे


सौमनसश् च मे भगश् च मे िवणं च मे भ ं च मे ेयश् च मे
वसीयश् च मे यशश् च मे य ेन क ाम् ॥८॥

ऊक् च मे सूनृता च मे पयश् च मे रसश् च मे घृतं च मे मधु च मे


स श् च मे सपीितश् च मे कृिषश् च मे वृि श् च मे जै ं च म ऽ
औ ं च मे य ेन क ाम् ॥९॥

रियश् च मे रायश् च मे पु ं च मे पुि श् च मे िवभु च मे भु च मे


पूण च मे पूणतरं च मे कुयवं च मे ऽि तं च मे ऽ ं च मे ऽ ु च् च मे
य ेन क ाम् ॥१०॥

िव ं च मे वे ं च मे भूतं च मे भिव च् च मे सुगं च मे सुप ंचम


ऽऋ ं चमऽऋ श् च मे ृ ं च मे ृ श् च मे मितश् च
मे सुमितश् च मे य ेन क ाम् ॥११॥

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ीहयश् च मे यवाश् च मे माषाश् च मे ितलाश् च मे मु ाश् च मे
ख ाश् च मे ि य वश् च मे ऽणवश् च मे ामाकाश् च मे
नीवाराश् च मे गोधूमाश् च मे मसूराश् च मे य ेन क ाम्
॥१२॥

अ ा च मे मृि का च मे िगरयश् च मे पवताश् च मे िसकताश् च


मे वन तयश् च मे िहर ं च मे यश् च मे ामं च मे लोहं च मे
सीसं च मे पु च मे य ेन क ाम् ॥१३॥

अि श् च म ऽ आपश् च मे वी धश् च म ऽ ओषधयश् च मे


कृ प ाश् च मे ऽकृ प ाश् च मे ा ाश् च मे पशव ऽ
आर ाश् च मे िव ं च मे िवि श् च मे भूतं च मे भूितश् च मे य ेन
क ाम् ॥१४॥

वसु च मे वसितश् च मे कम च मे श श् च मे ऽथश् च म ऽ


एमश् च म ऽ इ ा च मे गितश् च मे य ेन क ाम् ॥१५॥

इस य से हमारे िलए अ -स दा ऐ य, पु षाथ, परायणता,


ब मता , बु की िनणय मता, कत श र, वण
मता , ान स दा, ते ज ता और आ श ा हो ॥१॥

हम इस य के फल से ाण, अपान, ान, मानस सं क , ,


ान, वाणी-साम , मन, च ु , ो , ाने य और बल की
ा हो ॥२॥

इस य के फल प हम ओज, बल, आ ान, शरीर-


पुि ,क ाण कवच, अंगों की ढ़ता, अ थ आिद की ढ़ता,
अंगुली आिद की ढ़ता, आरो , वृ ता और आयु की ा
हो ॥३॥

इस य के फल प हम े ता, ािम , बा कोप,


आ रककोप, अप रमेय , मधु र जल, बल, मिहमा, व र ता,

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दीघ जीवन, वं श परं परा, ऐ य और िव ािद गु ण उ ृ ता को
ा हो ॥४॥

य फल के प म हम स , ा, धन, थावर जंगमयु


जगत् , महता, ीडा, मोद, अप ािद, ऋचाएं और ऋचाओं के
पाठ ारा शुभ भिव की ा हो ॥५॥

हम य ािद े कम के फल पम ग ा , रोगाभाव,
ािधयों का अभाव, औषिध, िदघआयु , श ु ओं का अभाव,
अभय, आनंद, सु ख शै ा, े भात और य , दान आिद कम
से यु क ाणकारी िदवस दे वताओं की कृपा से ा हो
॥६॥

य फल के प मे मुझे िनयं ण- मता, जा-पालन-साम ,


धन-र ा-साम , धै य, सबकी अनुकुलता, स ार, शा - ान,
िव ान-बल, अप ािद का साम , कृिष आिद के िलए उपयु
साधन, अनावृ ि का अभाव, धन-धा ािद की ा हो ॥७॥

हमे इस लोक का सु ख ा हो परलोक का सु ख भी िमले,


स ता दे ने वाले पदाथ हमारे अनुकूल हो, हम इ यस ी
सब सु खों का भोग कर, हमारा मन थ रहे हम सौभा शाली
रहकर धन ा कर, हम े िनवास वाला घर और यश य के
फल प ा हो ॥८॥

य ािद के फल प हम अ , ानमयी वाणी, दू ध, रसयु


पेय, घृत, मधु आिद ा हो, हम अपने बं धुओं के साथ िमलकर
भोजन करने वाले हो, वृ ि हमारे िलए धा उ करने वाली
तथा हमारी कृिष सु िवकिसत और अनुकूल बन, हमारे वृ ों की
बढोतरी भली कार हो, और हम िवजय के िलए उपयु श
स होकर श ु ी बने ॥९॥

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य ािद े कम के फल से हमारी सं पदा हमारे ऐ य हर कार
से पु हो, शरीर आिद की भी सब कार से पुि हो, हमारी
ापकता, भु ता, पुणता और धन-धा की चुरता म पया
वृ होती रहे , हमारे कुवय धा , य रिहत अ , पुि कारक
अ और हमारी ु धा म भी अिभवृ होती रहे ॥१०॥

य ािद े कम के फल से हमारे धन- ािद म िनरं तर


अिभवृ हो, पूव सं िचत धन और भावी ा धन म वृ हो,
धन ा के कम सु गम और पथ अवरोधों से मु हो, य ीय
स म समृ हो, हमारे ये कम े और सत् साम
बढाने वाले हो, ये (य ीय स रणाम) हमारी मित को उ
बनाने वाले व सबके िलए िहतकारी हो ॥११॥

य ािद कम के फल प हमारे िलए ि िह धा , जौ, उरद,


ितल, मूँग, चना, कां गनी, चावल, साँ वा चावल, गे ं और मसू र
आिद धा ों म वृ हो ॥१२॥

य ािद े कम के फल से हमारे पाषाण, उ म िम ी, छोटे


बड़े पवत, रे त, वन ित, ण, लौहा, ता , रां ग आिद म
बढ़ोतरी होती रहे ॥१३॥

य के फल से दे वतागण हमारे िलए अि को और आकाशीय


जल को अनुकूल बनाये , गु , तृ ण, वन ित, औषधीयाँ पूण प
से िवकस यह य ा और जंगली पशुओं को पु कर,पूव
ा और भावी ा धन, पु ािद सु ख और ऐ य आिद म
अिधवृ हो ॥१४॥

य के फल से दे वतागण हम गवािद धन, गृ ह-स ित, िविविवध


कम और य ािद का बल, ा धन, इ त पदाथ ा

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कराव, हमारी सभी कामनाएं दे वताओं की कृपा से पूण हो
॥१५॥

और सु िनए-
अयं नो ऽ अि र् व रवस् कृणो ् अयं मृधः पुर ऽएतु िभ न्।
अयं वाजान् जयतु वाजसाताव् अयम् श ून् जयतु ज षाणः
ाहा॥ ~[यजु वद अ० ५, मं ३७]

यह अि हम लोगों को े धन दान कर यह अि श ु ओं का
िवनाश करती ई हमारे सम कट हो, यह अि अ की
कामना करने वाले यजमानों को, श ु ओं से ा धन दान
करती ई िवजयी हो, यह अि श ु ओं को स ता पूवक जीते ,
तथा हमारे ारा समिपत आ ितयों को हण कर।
सीद होतः ऽ उ लोके िचिक ान् सादया य म् सुकृत योनौ।
दे वावीर् दे वान् हिवषा यजा ् अ े बृहद् यजमाने वयो धाः ॥३५॥

सम् सीद महाम्२ ऽ अिस शोच दे ववीतमः। िव धूमम् ऽ अ े


अ षं िमये सृज श दशतम् ॥३७॥

~[यजु वद अ० ११, मं ३५,३७]

हे दे वताओं का आ ान करने वाले अि दे व सब कम के ाता,


आप अपने िति त थान को सु शोिभत कर, और े कम पी
य को स कर, दे वों की भां ित तृ करने वाले हे अ े ! आप
याजकों ारा द आ ित से दे वताओं को आन त करते ए,
याजकों को धन-धा एवं िदघायु दान कर ॥३५॥

य ीय गु णों से यु शंसनीय हे अ े ! आप दे वताओं के ेह


पापा और महान गु णों के ेरक है , यहाँ उपयु थान पर
पधार और िलत हो तथा घृत की आ ित ारा दशन-यो
एवं ते ज ी होते ए सघन धू को िवसिजत कर ॥३७॥

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इसी कार सामवे द आिद म भी अि को दे वताओं का दू त
िलखा है और घृतािद े पदाथ से आ ित दे ना िलखा है ोंिक
घृत दे वताओं को ि य है िजसका माण पूव दे आए ह अब
ीम गव ीता और मनु ृित से हवन के लाभ का कथन करते
ह सो सु िनये -
ैिव ा मां सोमपाः पूतपापाय ै र ा गितं ाथय े।

ते पु मासा सुरे लोकम िद ा िव दे वभोगान्॥


~[ ीम गव ीता- ९/२०]

अथ- तीनों वे दों (ऋक्, यजु और साम) म िवधान िकए ए


सकाम कम को करने वाले , सोम रस को पीने वाले, पापरिहत
पु ष मुझको य ों के ारा पूजकर ग की ा चाहते ह, वे
पु ष अपने पु ों के फल प गलोक को ा होकर ग
म िद दे वताओं के भोगों को भोगते ह ॥
ा ायेन तैह मै ैिव ेने या सुतैः।

महाय ै य ै ा ीयं ि यते तनुः॥

~[मनु ृित- अ० २, ोक २८]

सब उ म िव ाओं को पढन-पढाने, तों को करने, हवन करने


आिद से यह शरीर ा के यो होता है ॥
ा ाये िन यु ः ा ै वे चैवेह कमिण।

दै वकमिण यु ो िह िबभत दं चराचरम्॥७५॥

अ ौ ा ा ितः स गािद मुपित ते।

आिद ा ायते वृि वृ ेर ं ततः जाः॥७६॥

~[मनु ृित- अ० ३, ोक ७५-७६]

P- 155
िन य -हवन आिद करने से इस जगत के सम जड-चेतन
का पालन तथा िवकास होता है , ोिक यजमान ारा अि म
डाली जाने वाली आ ित सू य को प ँ चती है , सू य ही वषा का
कारण है , वषा से ही खेतों म अ होता है और इसी अ से जा
का पालन होता है ॥७५-७६॥
पूवा सं ां जपं ैशमेनो पोहित।

पि मां तु समासीनो मलं ह िदवाकृतम्॥

~[मनु ृित : अ० २, ोक १०२]

ात:काल की सं ा से राि के और सां यकाल की सं ा से िदन


के पाप न होते ह इसी कार दोनों समय की गई सं ा से
के सभी पाप न होते ह इसी कार हवन से भी पाप न
होते ह ोंिक वे द मं पाप य कारक होते ह और िजनकी
िविध है वही मं हवन म उ ारण िकए जाते ह ॥

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ३५

❝षट् ि शदा कं च गु रौ ै वैिदकं तम्।

तिदधकं पािदकं वा हणा कमेव वा ॥ -यह मनु ृित [३/१]


का ोक ह॥

अथ-आठव वष से आगे छ ीसव वष पय अथात् एक-एक


वे द के सां गोपां ग पढ़ने म बारह-बारह वष िमल के छ ीस और
आठ िमल के चवालीस अथवा अठारह वष का चय और
आठ पूव के िमल के छ ीस वा नौ वष तथा जब तक िव ा पूरी
हण न कर लेवे तब तक चय र े❞

P- 156
समी क-- यिद ामी मुखानंद जी के ारा िकया यह अथ
िकसी िव ान के समझ म आ जाए तो मुझे अव
समझाय, ोिक ामी मुखानंद जी ारा िकया गया यह
क त अथ बु मान लोगों की समझ से पर है , ामी जी ने
इसम यं ही क ना करक िम ा अथ तै यार िकया है , थम
तो कोई इनसे यह पूछे िक यह इतना ल ा चौड़ा अिभ ाय कौन
से अ रों से िस होता है , और जो यह आठ, छ ीस और
चवालीस जो अथ िकया है यह अथ िकन पदो से िस होता है ,
या िफर भं ग के नशे म उ ा िसधा जो भी मुहँ म आया सो बक
िदया और जो मन िकया सो िलख िदया, ोिक इस ोक का
तु मने जो अथ िकया है उसका यह अथ तो कतई नही ं बनता,
दे खए सही अथ इस कार है -
षट् ि शदा कं च गुरौ ैवैिदकं तम्।

तिदधकं पािदकं वा हणा कमेव वा॥

(गु रौ) गु कुल म चारी को, (षट् ि शदा कं) छ ीस वष


तक िनवास करक, ( ै वैिदकं तम्) तीनों वे दों (ऋक्, यजु और
साम) का पूण अ यन, (च ) करना चािहए। छ ीस वष तक
स व न होने पर (तद् अिधकम्) उसके आधे अथात अ ारह
वष तक, (वा) या उतना भी स व न होने पर, (पािदकं) उसके
आधे अथात नौ वष तक, (वा) या उतने काल तक िजतने म,
( हण अ कम्) वे दों म िनपुणता ा हो सके रहना चािहए॥

अब बोिलए ामी भं गेडानंद जी ा बोलते ह? इस ोक से


तो आपका अथ िकंिचत् मा भी स नही ं रखता, इससे ही
आपकी बु का पता लगता है और म तो कहता ँ िक आप म
बु ही नही ं थी यिद होती तो इस कार अपनी क ना से

P- 157
िम ा अथ कर कम अ ,अ से पैदल समाजीयों का आप
चुितया नही बनाते

ध है ऐसे दो कौड़ी के भा कार और ध है ऐसे िम ा


भा ों को मानने वाले कम अ ,अ से पैदल समाजी!

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ४२

❝जो-जो सृ ि म से अनुकूल वह-वह स और जो-जो


सृ ि म से िव है वह सब अस है । जैसे-कोई कहै ‘िवना
माता िपता के योग से लड़का उ आ’ ऐसा कथन सृ ि म
से िव होने से सवथा अस है ।

जो-जो ई र के गु ण, कम, भाव और वे दों से अनुकूल हो वह-


वह स और उससे िव अस है ❞

समी क-- ों ामी जी ा आप भी मुह द साहब की


भां ित अपने (छाग ) बकरे पर बै ठकर (िजसका आप दू ध, घी
खाते ह, अपने यजुवदभा २१/४३ म ामी जी बकरे का दू ध,
घी खाना िलखते ह, उसी की बात कर रहे ह) ई र के पास हो
आए थे? जो ई र ने आपको सारा सृ ि म उपदे श कर िदया,
िजससे तु यह बात िन ा मालूम हो गई िक ई र की सृ ि
का िवषय बस इतना ही है - पर ु वे दों म तो कुछ ऐसा िलखा है
दे खए-
एतावान् अ मिहमातो ायाँ पू षः।

पादो ऽ िव ा भूतािन ि पाद् अ ामृतं िदिव॥

~[यजु वद- अ० ३१, मं ३]

P- 158
यह ि काला क िव उस ई र की मिहमा ही है , िक ु उसकी
मह ा इससे भी अिधक है , यह स ूण िव जीवों सिहत जो
कुछ भी है उसकी मिहमा का एक भाग है , और शेष तीन भाग
म काशमान मो प आप है , और ीम गव ीता म भी
इस कार िलखा है िक (बु े : परत ु स:) िक वह परमे र बु
से परे है जब वह बु से परे है तो भला उसके काय पूणतः
कौन जान सकता है ? पर ु ामी जी तो शरीर रहते ए ही
सृ ि का म आिद सब उससे पूछ आए, अब यं िवचार कर
दे ख ा कोई भी साधारण सा मनु ई र के सृ ि म को
पूणतया जान सकता है ? िवशेषकर दयानंद जैसे, दो कौड़ी की
बु नही ं िजनम ऐसे महामूख यिद ई र के सृ ि म को जानने
का दावा कर, तो िफर ई र सव कहाँ रहा? सव सब िवषयों
का ाता तो दयानंद हो गया, िफर तो ई र अब जो कर पर
दयानंद की नजरों से न बच सक, ोिक दयानंद ने तो "ई र
का सृ ि कम ा है ? ई र के गु ण, कम और भाव कैसे ह?
ई र ा- ा कर सकता है ? और ा- ा नही ं कर सकता
सकता? उसकी सीमाएं ा है ? सब इस फटीचर सी पु कम
िलख मारा जैसे ई र ने दयानंद को नही ब दयानंद ने ई र
को उ िकया है , ध हे ामी धू तानंद जी! आपकी बु ,
इतना अिभमान अपने ान पर, की ई र को भी सीमाओं म बां ध
िदया,

अब दयानंद के इस क त िस ां त की ध यां उडाते है


दे खए--
त ाद् अ ा ऽ अजाय ये के चोभयादतः।

गावो ह जि रे त ात् त ाज् जाता ऽ अजावयः॥

~[यजु वद- अ० ३१, मं ८]

P- 159
उस परमे र से ही अ और जो कोई दू सरे पशु ऊपर नीचे के
दां त वाले ह उ ए ह उससे ही गौ, बै ल, भे ड़, बकरी आिद
उ ए,

अब ामी जी बताए िक आप तो उ ि ी पु ष के योग से


मानते ह, िफर यह घोड़े , बै ल, भेड़, बकरी आिद कैसे उ ए
और सु िनए- आप कहते ह िक उस परमा ा ने अि , वायु और
आिद को उ िकया, अब जब आप ी पु ष के योग से ही
उ ि मानते ह तो िफर तो आपने िनराकार ई र की भी लूगाई
बनाईं होगी, िजससे यह सब उ ए, ोिक आप ही ऊपर
िलखते ह िक "जो-जो ई र के गु ण, कम, भाव और वे दों से
अनुकूल हो वह-वह स और उससे िव अस है " िफर
उसी के नीचे िलखते ह िक "जैसे-कोई कहै ‘िवना माता िपता के
योग से लड़का उ आ’ ऐसा कथन (ई र के गु ण, कम,
भाव के िव है ) सृ ि म के िव होने से सवथा अस
है ,

अथात आपका मानना ह िक ी पु ष के योग से उ ि ई र


के गु ण, कम और भाव के अनु कूल है इसिलए स है , अथात
आपने ई र की भी लूगाई बना दी िजससे आिद म अि , वायु,
आिद और वो हजारों हजार मनु उ ए जो आपने
आठव समु ास म िलखा है

चलों एक बार को यह भी मान िलया पर ु जो ये घोड़े , बै ल,


गाय, भे ड़, बकरी आिद पशु ह, इनकी सृ ि समझ म नही ं आईं
जो कहो की ये भी िनराकार परमा ा ने उ िकए तो पशुओं
के गु ण, कम और भाव ई र के गु ण, कम और भाव से
िभ होने के कारण अस है , िफर वो ई र की याँ कहाँ से
आईं यह होगा,

P- 160
इससे आपका यह कपोल क त सृ ि म सब आ जाता
है शौक है आपकी बु पर,

दे खए वो ई र सब कुछ करता है पर उसे कोई जान नही ं


सकता ोंिक (परा शकश िविवधे व ूयते ) उसकी
पराश अनेक कार की सु नी जाती है , और सृ ि मत तो दू र
है आपको अपनी ही खबर नही ं है यिद खबर होती तो कही ं कुछ
और कही कुछ इस कार िव ता से भरी यह स ानाश
काश न िलखते , और आपका पहला वाला स ाथ काश भी
जो अशु हो गया उसके थान पर नयी पु क न गढनी पड़ती,
और आपने जो यहाँ सृ ि म का बहाना कर ट ी की ओलट म
िशकार खेला है वो िव ान लोग अ ी कार समझते ह िक जो
बात समझ म ने आयी ं िलखा िदया िक सृ ि म के िव है ,
अर कही ं तो वे दािद ं थों से माण दे कर िलख िदया होता िक
ई र का सृ ि म इतना ही है िफर उसी के अनुसार आपके
मुहँ पर माण दे कर मारते, िफलहाल तो इतना ही इस िवषय
पर आपसे आठव समु ास म ही बात करगे सृ ि िवषय को
लेकर आठव समु ास म भी आपने खुब रायता फैलाया है सो
उसका जबाव वही दगे ।

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ४४

❝स वित य न् स स वः’ कोई कहे िक ‘माता िपता के


िवना स ानो ि , िकसी ने मृतक िजलाये , पहाड़ उठाये , समु
म प र तराये, च मा के टु कड़े िकये, परमे र का अवतार
आ, मनु के सीग
ं दे खे और व ा के पु और पु ी का
िववाह िकया, इ ािद सब अस व ह। ोंिक ये सब बात

P- 161
सृ ि म से िव ह। जो बात सृ ि म के अनुकूल हो वही
स व है ❞

समी क-- ामी जी आप पैदाइशी धू त है यह तो म जानता था


पर ु अ से पैदल और आँ ख से अंधे भी है यह नही ं जानता
था, जहाँ तक म आपको समझता ँ आपका मत ही आपकी
बु है जो बात आपकी बु के अनुकूल वह स और जो
आपकी बु के ितकूल हो वो सृ ि म के भी ितकूल होगी,
आप ये वे दानुकूल और सृ ि मानुसार नाम ों धरते है ?
िसधा-िसधा ों नही ं कहते की मेरी बु के अनुकूल होना
चािहए, आप इन बातों को नही ं मानते कोई नही,ं दे खए अब इन
बातों का माण उ ी ं ं थों से िनकालकर आपके मुहँ पर मारते
है िजन ं थों का आपने स ाथ काश म माण िलखा है

महाभारत के अ मेध पव का ६९ वाँ अ ाय खोलकर दे ख


परीि त जो िक मृत उ आ था, ीकृ ने उसे पुनज िवत
िकया, ीकृ ने गोवधन पवत को उं गली पर उठाया, हनुमान
जी ल ण जी के िलए सं जीवन बू िट वाला पहाड़ उठा लाए, और
आपकी आँ ख है या बटन, िदमाग म भे जा है या टोटल गोबर ही
भरा है , ोिक समु पर बाधाँ आ पुल (रामसे तु) आज भी
मौजूद ह आँ ख हो तो दे ख आना 'लंकाकां ड' म िलखा है ।
(आ ोपदे श: श )श माण आप मान ही चुके ह सो
वा ीिक जी पूण आ थे और उ ोंने ही नल-नील को िलखा है
िक इ ोंने पूल बां धा,

और आपने अपने एकादश समु ास के पृ २३८ पर यं


िलखा है िक “जब रामच सीता जी को ले हनुमान् आिद के
साथ लंका से चल आकाश माग म िवमान पर बै ठ अयो ा को
आते थे तब सीता जी से कहा है िक--

P- 162
अ पूव महादे व सादमकरोि भु ।

सेतुब इित िव ातम्॥ -वा ीिक रामायण, लंका कां०


[यु का सग १२३, ोक २०-२१]

हे सीते ! ते रे िवयोग से हम ाकुल होकर घूमते थे और इसी


थान म चातु मास िकया था और परमे र की उपासना ान भी
करते थे , वही जो सव िवभु ( ापक) दे वों का दे व महादे व
परमा ा है उस की कृपा से हम को सब साम ी यहां ा ई,
और दे ख! यह से तु हम ने बां ध कर लंका म आके, उस रावण
को मार, तु झ को ले आये ।

अब बोिलए ामी धू तानंद जी ारहव समु ास म यं ही


समु पर से तु बां धा जाना ीकार करते ह और िफर यहाँ उसे
ही सृ ि म के िव िलखते ह ये आपका दौगलापन नही तो
ा है ? अब आप ही बताए ये प र समु पर नही ं तो ा
आपकी इस स ानाश काश पर तै र रहे ह? और स व िकसे
कहते ह जो कुछ भी हो जाए उसे स व कहते ह समथ पु षों
से जो स व है वही असमथ को अस व लगता है

और ई र अवतार लेता ये दे खए ीम गव ीता म ीकृ इस


कार कहते है िक--
अजोऽिप स या ा भूतानामी रोऽिप सन्।

कृितं ामिध ाय स वा ा मायया॥

यदा यदा िह धम ािनभवित भारत।

अ ु ानमधम तदा ानं सृजा हम्॥

प र ाणाय साधूनां िवनाशाय च दु ृ ताम्।

धमसं थापनाथाय स वािम युगे युगे॥

P- 163
~[ ीम गव ीता- अ० ४, ोक ६-८]

भावाथ- म अज ा और अिवनाशी प होते ए भी तथा


सम ािणयों का ई र होते ए भी अपनी कृित को अधीन
करके अपनी योगमाया से कट होता ँ ॥६॥

हे भारत! जब-जब धम की हािन और अधम की वृ होती है ,


तब-तब ही म अपने प को रचता ँ अथात साकार प से
लोगों के स ुख कट होता ँ ॥७॥

साधु पु षों का उ ार करने के िलए, पाप कम करने वालों का


िवनाश करने के िलए और धम की अ ी तरह से थापना करने
के िलए म यु ग-यु ग म कट आ करता ँ ॥८॥
अ ं माप ं म े मामबु यः ।

परं भावमजान ो ममा यमनु मम् ॥

~[ ीम गव ीता- अ० ७, ोक २४]

भावाथ- बु हीन पु ष मेरे अनु म अिवनाशी परम भाव को न


जानते ए मन-इ यों से परे मुझ स दान घन परमा ा को
मनु की भाँ ित ज कर भाव को ा आ मानते
ह॥२४॥

अवजान मां मूढा मानुषी ं तनुमाि तम्।

परं भावमजान ो मम भूतमहे रम् ॥

~[ ीम गव ीता- अ० ९, ोक ११]

भावाथ- मेरे परमभाव को (गीता अ ाय ७ ोक २४ म दे खना


चािहए) न जानने वाले मूढ़ लोग मनु का शरीर धारण करने
वाले मुझ सं पूण भू तों के महान् ई र को तु समझते ह अथात्

P- 164
अपनी योग माया से सं सार के उ ार के िलए मनु पम
िवचरते ए मुझ परमे र को साधारण मनु मानते ह ॥११॥

अब बोिलए ामी धू तानंद जी ा बोलते हो, िजन ं थों का


अपनी पु क म माण िलखा है उ ी ं को िम ा ठहराते हो,
ऐसा करते ए तु ल ा नही ं आईं।

स ाथ काश तृतीया समु • पृ ५१

❝आष ों का पढ़ना ऐसा है िक जैसा एक गोता लगाना


ब मू मोितयों का पाना अ ायी महाभा पढ़ना,,,,,
या मुिनकृत िनघ ु और िन छः वा आठ महीने म
साथक पढ़,,,,,,,, तदन र िपंगलाचायकृत छ ो ,,,,,,

त ात् मनु ृित, वा ीिक रामायण और महाभारत के


उ ोगपवा गत िवदु रनीित आिद,,,,,,,,,, छः शा को पढ़-पढ़ाव
पर ु वे दा सू के पढ़ने के पूव ईश, केन, कठ, , मु क,
मा ू , ऐतरे य, तै ि रीय, छा ो और बृ हदार क इन दश
उपिनषदों को पढ़ ,,,,,,,,,,,,,,,

िफर पृ ५३ पर िलखते ह िक" पू वमीमां सा पर ासमुिनकृत


ा ा, वै शेिषक पर गोतममुिनकृत, ायसू पर
वा ायनमुिनकृत भा , पत िलमुिनकृतसू पर ासमुिनकृत
भा , किपलमुिनकृत सां सू पर भागु रमुिनकृत भा ,
ासमुिनकृत वे दा सू पर वा ायनमुिनकृत भा अथवा
बौधायनमुिनकृत भा वृ ि सिहत पढ़ पढ़ाव। इ ािद सू को
क अंग म भी िगनना चािहये ।

P- 165
जैसे ऋ जुः साम और अथव चारों वे द ई रकृत ह वै से ऐतरे य,
शतपथ, साम और गोपथ चारों ा ण, िश ा, क , ाकरण,
िनघ ु , िन ,छ और ोितष छः वे दों के अंग, मीमां सािद
छः शा वे दों के उपां ग; आयु वद, धनुवद, गा ववे द और
अथवे द ये चार वे दों के उपवे द इ ािद सब ऋिष मुिन के िकये
ह। इनम भी जो जो वे दिव तीत हो उस-उस को छोड़
दे ना ोंिक वे द ई रकृत होने से िन ा तः माण अथात्
वे द का माण वे द ही से होता है । ा णािद सब परतः
माण अथात् इनका माण वे दाधीन है ❞

समी क-- वाह रे ामी धू तानंद! बड़ी गहरी चाल चली है


तु मने , तु ारा यह लेख पढ़ पढ़कर ही तो समाजीयों के िदमाग
म गोबर भर गया है । अब जरा आप तृ तीया समु ास के पृ
५३ पर िलखे अपने इस लेख पर िवचार कर िजसम िलखा है िक
"ऋिष णीत ं थों को इसिलए पढना चािहए िक वे बड़े िव ान,
सवशा िवत् और धमा ा थे" जबिक ऋिष णीत ं थों म भी
आप िलखते ह िक जो बात वे दानुकूल होगी वही मानी जाएगी,
तो ऐसे म उन ऋिषयों की पूणिव ा कहाँ रही, और वो धमा ा
िकस कार हो सकते ह जो वे द िव कोई बात कह, आपने
तो पूण िव ान ऋिषयों को भी नही ं छोड़ा, उनका भी अपमान
कर िदया, सो आपके इस भड़वापंित को दे खते ए मनु जी के
वा ानुसार हम आपको यह ोक भट करते ह-
योऽवम ेत ते मूले हे तुशा ा या ् िवजः।

स साधुिभबिह ाय ना को वेदिन कः॥

~[मनु ृित- अ० २, ोक ११]

P- 166
जो वे द और आ पु षों के िकए शा ों का अपमान करता है ,
उस वे दिन क ना क को जाित, पं और दे श से बाहर
िनकाल दे ना चािहए।

अब किहए आप भी इ ी ं िव ान, सवशा िवत् , धमा ाओं के


ं थों म वे द िव ता ठहराते है , तो किहए आप का ा हाल
करना चािहए? जब आपको वे दानुकूल ही माण चािहए, तो
िफर ों थ म और ं थों म भटकते हो, ोिक आपको तो
वही बात माण होगी जो वे दों म होगी, िफर ओरों के मानने की
आव कता ा है ? सच तो यह है िक ऐसा करने से आपका
काम नही ं चलने वाला, वे द तो िसफ बहाना है आप वे दानुकूल
नही ं ब अपनी बु के अनुकूल होने से सब कुछ मान लेते
हो, आप आ पु षों के ं थों म भी वे द िव ता ठहराते हो तो
बताओं भला तु ारी यह दो कौड़ी की फटीचर पु क
'स ानाश काश' कौन से वे दानु कूल है ? इसम िलख रां ड,
रां ड ेही, भं गी, चमार, भां ड, भडु वे , चूतड, गवग आिद
अपश कौन से वे दानुकूल है , अब आप बताए आपकी ये
पु क जो ाथपरता, ना कता, िनंदा, अमयािदत भाषा और
वे दिव अथ से पूण ह, यह ागने यो है या नही?ं

आपका यह पठन पाठन िश ा कौन से वे दानुकूल है , स ासी


होकर चोंगा बू ट जुता पहनना, ा िपना, कुस मेज इ े माल
करना, पया बटोरना, मां सभि यों के हाथ से भोजन लेकर
भोजन करना, ीयों को गािलयाँ दे ना आिद कौन से वे दानुकूल
है ?

और ामी धू तानंद जी हम यह बताए िक जब आप वे दों का


भा करने बै ठते ह तो उसके अथ को ा ण, िनघ ू ,
महाभा , और उपिनषदों से िस करते ह िक इस श का

P- 167
िनघ ु म यह अथ है शतपथ म इस कार िलखा है इस कारण
इसका यह अथ होता है जब यह हाल है िक िबना ा ण,
िनघ ु के आप वे द का अथ तक िस नही ं कर सकते , तो िफर
वे ा ण, िनघ ु वे द के अथ िस ककरने से तः िस और
तः माण ों नही?ं

ोिक मं वण म तो यह िलखा ही नही ं की इसका अथ इस


कार करना यह िविध तो िनघ ु , ा ण आिद म ही कथन
करी है िक इस मं का अथ यह है और यह इसके योग करने
की िविध है इससे इनका वे दवत् माण है इन ं थों म अंश मा
भी वे द िव नही ं िमल सकता इसी कारण (मं ा णयो:
वे दनामधे यम्) मं और ा ण दोनों का नाम िमलाकर वे द कहा
जाता है और तु ारे जैसा धू त इ ी ं म वे द िव ता ठहराता है
अब किहए इ ी ं ं थों से वे दों का अथ करने म तु ारी
वे दानुकूलता कहाँ गई? औऔर िजन ं थों म तु थोड़ा सा भी
ऐसा कुछ िमल जाए जो आपकी बु के अनुकूल न हो उसे
आप वे द िव बोलकर ागना िलखते हो, जैसे स ाथ काश
तृ तीया समु ास पृ ५३ पर िलखते हो िक "(िवषस ृ ा वत्
ा ा:) जैसे अ ु म अ िवष से यु होने से छोडने यो
होता है , वै से ये ं थ है " और पृ ५४ पर िलखा है िक
(अस िम ं स ं दू रत ा िमित) अस से यु स भी दू र
से छोडना चािहए ऐसे ही अस िमि त ं थ भी ागने यो है
ोंिक जो स है सो वे दािद स शा ों का और िम ा उनके
घर का है वे द के ीकार म सब स का हण हो जाता है और
इन िम ा ं थों से स का हण करना चाह तो अस भी
उसके गले म मढ जाता है

P- 168
जो यह हाल है तो आपके कथानुसार ा ण ों आिद म भी
अस है तो िवषवत् होने से उनको भी ाग दे ना चािहये िफर
आप इनको मानते ों है ? यही तो आपका दौगलापन िस हो
जाता है िक िजस थाली म खाया उसी म छे द िकया, यह और
कुछ नही ं आपकी बु म भरे गोबर का नतीजा ही है जो आप
ा णािद ं थों म अस और वे द िव ता मानते हो, यिद आप
इनम भी अस और वे द िव ता मानते ह तो िफर इ ी ं ं थों
से माण दे ते ए तु ल ा नही ं आती, आप अपने पूव िलख
लेख को बड़ी ज ी भू ल जाते हो िक िवष िमला अमृत भी िवष
ही होता है अब ोिक आपने अपने स ानाश काश,
भा भू िमका और वे दभा ों म इ ी ं ं थों का योग िकया है
इसिलए आपके कथानुसार ही आपका यह स ानाश काश
और आपके वे दभा आिद अस िमि त होने से ाग दे ना
चािहये , अथात अस िमि त ं थों को ागने का शुभारं भ
आपके ं थों से ही करना चािहए, ोिक जो-जो उनम स है
सो-सो वे दािद स शा का है और िम ा आप (दयानंद) के
घर का है , वे दािद स श के ीकार म सब स का हण
हो जाता है , और जो कोई दयानंद के िम ा ों से सत् य का
हण करना चाहै तो िम ा भी उस के गले िलपट जावे , (जैसे
को तै सा)

P- 169
॥पुराण करण॥

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ५३

❝ ा णानीितहासान् पुराणािन क ान् गाथा नाराशंसी रित।

जो ऐतरे य, शतपथािद ा ण िलख आये उ ी ं के इितहास,


पुराण; क , गाथा और नाराशंसी पां च नाम ह, ीम ागवतािद
का नाम पुराण नही❞

समी क-- ामी जी आपने तो मानों जैसे ण ले रखा है िक


जब भी मुहँ खोलूंगा अस ही बोलूँगा, धू तता की भी कोई हद
होती है अब आप पुराणों को भी उडाने की चे ा कर रहे ह
'पुराण' श ऐतरे य, शतपथािद के वाचक नही ं दे खए माण-
म ा तयो ह वा एता दे वानाम् यदनुशासनािन िव ा
वाकोवा िमितहासपुराणं गाथा नाराशं ः स य एवं
िव ाननुशासनािन िव ा वाकोवा िमितहासपुराणं

गाथा नाराशंसी र हरहः ा ायमधीते म ा ितिभरे व

त े वां पयित त एनं तृ ा पय योग ेमेण ाणेन रे ॥


~शतपथ {११/५/६/८}

अथ- शा दे वताओ के म आ ित है दे व िव ा िव ा
आिदक िव ाएँ उ र ू तर प इितहास पुराण गाथा
और नाराशंसी ये शा है जो इनका िन ित ाय करता है
वह मानो दे वताओ के िलए आ ित दे ता है ।
स यथा धा ेर ािहत पृथ ूमा िविन र ेवं वा अरे ऽ
महतो भूत िन िसतमेत ेदो यजु वदः सामवेदोऽथवाि रस

P- 170
इितहासः पुराणं िव ा उपिनषदः ोकाः सू ा नु ा ानािन
ा ाना ैवैतािन सवािण िन िसतािन॥

~शतपथ ा ण {१४/५/४/१०}

अथ-- िजस कार चारों ओर से आधान िकए ए िगले ईधन से


उ अि से धू िनकलता है उसी कार हे मै े यी! ऋ े द,
यजुवद, सामवे द, अथवाि रस, इितहास , पुराण उपिनषद सु ,
ोक, ा ान, अनु ा ान, इ (य ), त (य िकया आ)
, पाियत, इहलोक, परलोक और सम ाणी उस महान स ा
के िन: ास ही है ।

दे खए इसम इितहास पुराण आिद नाम पृथक-पृथक हण िकये


ह और भी िदखाते ह आपको-
स होवाच— ऋ ेदं भगवोऽ ेिम यजु वदं सामवेदमाथवणं
चतुथिमितहासपुराणं प मं वेदानां वेदं िप ं रािशं दै वं िनिधं
वाकोवा मेकायनं दे विव ां िव ां भूतिव ां िव ां
न िव ां सपदे वजनिव ामेत गवोऽ ेिम॥

~छा ो {७/१/२}

नारदजी बोल, हे भगवन्! म ऋ े द, यजुवद, सामवे द और


अथवण जानता ँ (ईितहासपुराणं प मं वे दानां वे दं) इितहास,
पुराण जो वे दों म पाँ चवाँ वे द ह वो भी जानता ँ , ा क ,
गिणत, उ ादिव ा, िनिधशा , तकशा , नीितशा ,
िन , स ं धी उपिनषदिव ा, भू तत , धनुवद, ोितष,
सपदे वजनिव ा, दे वजनिव ा, ग धरण, नृ , गीत, बा इन
सबको जानता ँ , दे खों छा ो के इस वा ानुसार िकतनी
िव ा िस हो गई और यहाँ भी पुराण पाँ चवे वे द के पम
पृथक ही हण िकया है

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अरे ऽ महतो'भूत' िन' िसतम्एत' ' ेदो' यजु वद'
सामवेदो'ऽथवाि र' सइितहास'पुराण'िव ा' उपिनष'दः ो'काः
सू' ा नु ा ा' नािन ा ा' निनद ' त' मािशत' पाियत'
मय'चलोक'प'र लोक' स'वािण च भूता' ै' वै'ता'िन स'वािण
िन' िसतािन ॥ ~बृह० ऊ० {४/५/११}

अथ-- उस पर नारायण के िन ास से ऋ े द, यजुवद,


सामवे द, अथवाि रस, इितहास , पुराण उपिनषद सु , ोक,
ा ान, अनु ा ान, इ (य ), त (य िकया आ) ,
पाियत, इहलोक, परलोक और सम भु त है ॥

और सु िनए अब वे दों से पुराण के माण िदखाते ह-


य ः जनयन् पुराणं वतयत्।

एकं तद ं स्य पुराणमनुसंिवदु ः॥

~अथववेद {१०/७/२६}

से उ पुराण को वितत िकया, वह का अं ग पुराण


कहा जाता है ।

तिमितहास पुराणं च गाथा नाराशंसी ानु चलन्॥ ११

इितहास च वै स पुराण च गाथानां च नाराशािसनां च ि यं


धाम भवित य एवम् वेद॥

~अथववेद {१५/६/१२}

अथ-- इितहास पुराण और गाथा नारां शंसी के िपय धाम होते है ,


एक ा िव ान, 'इितहास, पुराण, गाथा व नाराशंसी' ारा वे दों
का वधन ा ान करता आ वृ की िदशा म आगे बढ़ता है
ऋचः सामािन छ ांिस पुराणं यजुषा सह।

उ ा ि रे सव िदिव दे वा िदिवि तः॥ ~अथववेद {११/९/२४}

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ऋक् साम, छ , पुराण, यजु आिद द् यु लोक और ग थ सभी
दे वता उ य म ही उ हए, अथात् पुराणों का आिवभाव
ऋक्, साम, यजु , और छ के साथ ही आ था।

और दे खए-
एविममे सव वेदा िनिमता क ा सरह ा: स ा णा
सोपिनष ा: सेितहासा: सां ाता:सपुराणा:स रा:ससं ाराः
सिन ा: सानुशासना सानुमाजना: सवाकोवा ा॥
~गोपथ ा ण {१/२/२०}

अथ-- क रह ा ण उपिनषद इितहास पुराण


अनवा ात र सं ार िन अनुशासन और वाकोवा
सम वे द परमे र से िनिमत है ।

अब ा बोलते हो ामी दोगलानंद जी यिद ा ण ों के ही


नाम पुराण होते तो गोपथ ा ण म इस कार क , ा ण,
उपिनषद, इितहास, और पुराणािद पृथक-पृथक कैसे िलखते ?
इससे भी ा ण से अित र ही इितहास, पुराण, जाना जाता है
ोंिक से ितहासा: सपुराणा: ऐसे पृथक कहना ही इनम भे द
बताता है जब इितहास सिहत और पुराण सिहत दो ऐसे श
कहे तो िनसं देह यह दोनों पृथक ही है अब यह तो साफ हो गया
की इितहास, पुराण आिद ा ण से अित र ही कोई ं थ है
अब पुराण िकसे कहते है , उसके पढने सु नने के ा लाभ है
अब मनु ृित, वा ीिक आिद से कथन करते ह दे खए-
ा ायं ावयेत् िप े,धमशा ािण चैव िह।

आ ानिमितहासां ,पुराणा खलािन च॥

~मनु ृित {३/२३२}

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ा के उपरा िपतरों की ीित के िलये , वे द पारायण वण
कराये, धम शा आ ान ,इितहास, पुराणािद को भी सु नाये ।
एत ु ारह: सूतो राजानिमदम वीत।

ूयतां य ुरा वृतं पुराणेषु मया ुतम्॥

~वा ीिक रामायण

यह सु नकर सू त ने एकां त मे राजा से कहा सु नो महाराज, यह


ाचीन कथा है जो मने पुराणों म सु नी है इसके बाद रामज
का च र जो भिव था सब राजा को सु नाया िक ीराम आपके
यहाँ ज लगे ऋंगी ऋिष को बु लाइए और वै सा ही आ
पुराण ायमीमांसा धमशा ा िमि ताः।

वेदाः थानािन िव ानां धम च चतुदश॥

~या ० ृित० {१/३}

अथ- पुराण ाय मीमां शा धम शा और छः अ ों सिहत वे द


ये चौदह िव ा धम के थान है ।

इसी कार शतपथ ा ण (१४/३/३/१३) म तो पुराणवा ङमय


को वे द ही कहा गया है । छा ो उपिनषद् (इितहास पुराणं
प म वेदानांवेदम् (७/१/२,४) म भी पुराण को वे द कहा है ।
बृ हदार कोपिनषद् तथा महाभारत म कहा गया है िक
“इितहास पुराणा ां वेदाथ मुपबहयेत्” अथात् वे द का
अथिव ार पुराण के ारा करना चािहये , इनसे यह है िक
वै िदक काल म पुराण तथा इितहास को समान र पर रखा
गया है ।

अब पुराणों के ल ण कथन करते ह दे खए-

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सग ितसग वंशो म रािण च ।

वंशानुच रतं चैव पुराणं प ल णम् ॥

१.सगः (जगतः उगमः)

२. ितसगः (अवनितः पु ृि ः)

३.वं शः (ऋिषदे वतादीनां जीवनम्)

४.म रम् (मानवजाते ः उगमः, मनूनां रा भारः)

५.वं शानुच रतम् (सू यच वं शीयराजानां च र म्)

अथात (१) सग – पंचमहाभू त, इं ि यगण, बु आिद त ों की


उ ि का वणन,

(२) ितसग – ािद थावरां त सं पूण चराचर जगत् के िनमाण


का वणन,

(३) वं श – सू यचं ािद वं शों का वणन,

(४) म र – मनु , मनुपु , दे व, स िष, इं और भगवान् के


अवतारों का वणन,

(५) वं शानुच रत – ित वं श के िस पु षों का वणन । ये


पुराण के पाँ च ल ण ह, िजसम यह पाँ च ल ण हो वो पुराण
कहलाता है

सृ ि के रचनाकता ाजी ने सव थम िजस ाचीनतम धम ं थ


की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है । इसका
माण वे दों म भी दे खए-
ऋचः सामािन छ ांिस पुराणं यजुषा सह।

उ ा ि रे सव िदिव दे वा िदिवि तः॥ ~अथववेद {११/९/२४}

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अथात् पुराणों का आिवभाव ऋक्, साम, यजु, और छ के साथ
ही आ था।

इसिलए पुराणों को नवीन बताने वाल वे द िवरोधी, ना क


दयानंद और उसके िनयोगी चमचों को अपनी औकात म रहकर
ही बोलना चािहए वे इस बात को कदािप न भू ल की िजस पुराण
की मिहमा का गु णगान वे द, उपिनषद, ा ण, मनु ृित,
वा ीिक रामायण और महाभारत आिद ं थों म िकया गया है
िजस पुराण को हमारे ऋिष मुिनयों ने वे दों म पाँ चवाँ वे द कहा है
उसे नवीन बताकर िवरोध करने वाले दयानंद और उसके
िनयोगी चमच वे दािद ं थों का ही अपमान करते ह इसिलए
बु मानों को उिचत है िक पुराणों को नवीन बताकर उसका
िवरोध करने वाले िनयोगी दयानंदीयों की बात सु नने के बजाय
उनके कान के नीचे दो धर के मारे , बु अपने आप िठकाने पर
आ जाएगी, ोिक जो िव ान ह उनके िलए तो वे द , ा ण
और उपिनषदों से बड़ा कोई माण नही ं

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ५४,

❝( ) तु ारा मत ा है ?

(उ र) हमारा मत वे द ह, अथात् जो-जो वे द म करने और


छोड़ने की िश ा की है उस-उस का हम यथावत् करना,
छोड़ना मानते ह❞

समी क-- तु म कहते हो िक तु ारा मत वे द ह जो-जो वे द म


करने और छोड़ने की िश ा की है उस-उस का तु म यथावत्
करना, छोड़ना मानते हो, तो अब यह बताए िक जो ये तु ारी
िल खत स ानाश काश है ा उसम जो कुछ भी िलखा है वो

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सब तु मने वे द से िलख ह? जो तु ारा मत वे द ही है तो िफर ों
ा ण, उपिनषद, मनु ृित, वा ीिक, महाभारत, चरक, सु ुत
आिद म घुसे चले आते हों सब माण वे द से ही ों नही ं दे
िदए? और तु म कहते हो िक जो-जो वे द म करने और छोड़ने
की िश ा की है उस-उस का तु म यथावत् करना, छोड़ना मानते
हो तो बताओ ा तु ारे वे द म दू सरों की िनंदा करना िलखा
है ? और तु ारी इस 'स ानाश काश' म जो ये रां ड, रां ड ेही,
भं गी, चमार, भां ड, भडु वे , चूतड, गवग आिद ना जाने कैसी-
कैसी गािलयाँ बकी है तु मने, ा ये सब वे दों म करना िलखा है ?

स ासी होकर चोंगा बू ट जुता पहनना, ा िपना, कुस मेज


इ े माल करना, पया बटोरना, मां सभि यों के हाथ से भोजन
लेकर भोजन करना, ीयों को गािलयाँ दे ना आिद कौन से
वे दानुकूल है ?

इससे यह कहना िक तु ारा मत वे द ह, उसम जो-जो करने


छोडने की िश ा की ह वै से-वै से तु म करना छोडना मानते हो,
तु ारा यह कथन सवथा िम ा िस होता है

॥शू अिधकार करण॥

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ३५,

❝शू मिप कुलगु णस ं म वजमनुपनीतम ापये िद ेके।

और जो कुलीन शुभल णयु शू हो तो उस को म सं िहता


छोड़ के सब शा पढ़ावे , पर ु उस का उपनयन न करे ❞

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समी क-- थम तो उन बातों को िलखते ह जो दयानंद ने शू ों
के िवषय म मानी और िलखी ं ह दे खए—

शू कौन?

१• ,,,,,(उ ा) सीच
ं नेहारे बै ल पशु के तु शू । ~[दयानंदकृत
यजुवदभा अ ाय १४, मं ९],

२• ,,,,,(प ाय् शु :) मूखपन आिद गु णों से यु होने से


शु । ~[दयानंदकृत यजुवदभा अ ाय ३१, मं ११],

३• ,,,,,(प ाँ शू ो.) जैसे पग सबसे नीच अंग ह, वै से मूखता


आिद नीच गु णों से शू वण िस होता है । ~[दयानंदकृत
ऋ े दािदभा भूिमका, पृ ९२]

४• ,,,,,शू ािद वण उपनयन िकये िबना िव ा ास के िलए


गु कुल म भे ज द। ~[स ाथ काश ि तीय समु ास पृ २८]

५• ,,,,,िजस को पढ़ने पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह िनबु


और मूख होने से शू कहाता है । उस का पढ़ना पढ़ाना थ है ।
~[स ाथ काश तृ तीया समु ास पृ ५५]

और अब िलखते ह िक--

६• ,,,,,शू मिप कुलगु णस ं


म वजमनुपनीतम ापये िद ेके।

और जो कुलीन शुभल णयु शू हो तो उस को म सं िहता


छोड़ के सब शा पढ़ावे , पर ु उस का उपनयन न करे
~[स ाथ काश तृ तीया समु ास पृ ३५]

इतने थानों पर तो ामी जी ने यह माना िक शू को य ोपवीत


नही ं दे ना चािहए, और अब यह भी कह िदया िक उसे मं
सं िहता छोड़कर सब पढ़ावे , बस वे द न पढ़ाव ोिक "िजस को

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पढ़ने पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह िनबु और मूख होने से
शू कहाता है , उस का पढ़ना पढ़ाना सब थ है , अब यह
उठता है िक जब शू िनबु और मूख को ही कहते ह िजसे
पढने पढाने से कुछ भी न आव, तो िफर दयानंद ने कौन से भं ग
के तरं ग म शू ों को वे द पढने का अिधकार दे िदया। दे खए ा
िलखा है इस िनबु दयानंद ने—

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ५५,

❝( ) ा ी और शू भी वे द पढ़? जो ये पढ़गे तो हम िफर


ा करगे ? और इनके पढ़ने म माण भी नही ं ह, जैसा यह
िनषेध है -

ीशू ौ नाधीयातािमित ुतेः।

ी और शू न पढ़ यह ुित है ।

सब ी और पु ष अथात् मनु मा को पढ़ने का अिधकार है ,


तु म कुआ म पड़ो और यह ुित तु ारी कपोलक ना से ई है ,
िकसी ामािणक की नही,ं और सब मनु ों के वे दािद
शा पढ़ने सु नने के अिधकार का माण यजुवद के छ ीसव
अ ाय म दू सरा म है -

यथेमां वाचं क ाणीमावदािन जने ः।

राज ा ा शू ाय चायाय च ाय चारणाय॥

परमे र कहता है िक (यथा) जैसे म (जने ः) सब मनु ों के


िलये (इमाम्) इस (क ाणीम्) क ाण अथात् सं सार और
मु के सु ख दे नेहारी (वाचम्) ऋ े दािद चारों वे दों की वाणी
का (आ वदािन) उपदे श करता ं वै से तु म भी िकया करो।

P- 179
परमे र यं कहता है िक हम ने ा ण, ि य, (अ ाय)
वै , (शू ाय) शू , और ( ाय) अपने भृ वा यािद
(अरणाय) और अितशू ािद के िलये भी वे दों का काश िकया
है ; किहये ! अब तु ारी बात मान वा परमे र की? यिद वो
पढ़ाना नही ं चाहता तो इनके वाक् और ो इ य ों रचता?
वे द म क ाओं के पढ़ने का माण-

च ण क ा यु वानं िव ते पितम्॥ -अथव० अ० ३। ०


२४। कां ० ११। मं० १८

कुमारी चय से वन से वे दािद शा को पढ़ पूण िव ा और


उ म िश ा को ा यु वती होके पूण यु वाव था म अपने स श
ि य िव ान् और पूण यु वाव थायु पु ष को ा होवे❞

समी क-- थम तो दयानंद ने यं माण के साथ यह िलखा


िक "शू मं भाग (वे द) न पढ़े , और अब िलखते ह िक पढ़े ,
तीत होता है िक िकसी शू ने दयानंद को धर के ठोक िदया
इसी कारण शू ों की ऐसी तरफदारी हो रही है ोंिक इसी
दयानंद ने अपने पूव लेख म तो शू ों को वे द पढने का अिधकार
नही ं िदया और अब अिधकार दे िदया, यह दौगलापन नही तो
ा है ?

तु ारी िकताब तु म ही कता और तु म ही उ र दे ने वाले इस


िलए तु म ही कुएं म पडो और आय समाजीयों को तो सं सार पी
कुएं म िगराने के िलए तु ारा यह कपोल क त िम ा लेख ही
काफी है

जब शू िनबु और मुख को ही कहते ह िजसे पढने पढाने से


कुछ न आव उसका पढ़ना पढ़ाना सब थ है तो भला उसे वे द
पढ़ाना कैसा? और जब तु म जाित कमानुसार ही मानते हो तो भी

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वे द पढ़ा शु नही ं हो सकता वह तो उ वण हो जाएगा, िफर
भी मुख वे द पढ़ा ही शू सं क रहा इससे तु ारे वचन से भी
शू वे द पढ़ा नही ं हो सकता, मनु जी ा कहते ह अब वह
सु िनए-
न शू े पातकं िकं िच च सं ारमहित।

ना ािधकारो धमऽ न धमा ितषेधनम्॥१॥

धम व ु धम ाः सतां वृ मनुि ताः।

म व न दु शंसां ा ुव च॥२॥

~[मनु ृित- अ० १०, ोक १२६,१२७]

अथ-- शू का कोई पातक नही ं है और न ही उसके िलए िकसी


कार की शु का कोई िनयम है , और न ही वै िदक धमकाय
म शािमल होने का उसे कोई अिधकार है , इसिलए उसके िवषय
म िनषेध का कोई िनयम नही ं है ॥१॥

धम की इ ावाले तथा धम को जानने वाले शू मं से रिहत


होकर भी स ु षों का आचरण करते ए दोषों को ा नही ं
होते िक ु शंसा को ा होते ह॥२॥

अब तु ारे वे दभा की ध यां उडाते है िजसका तु मने िम ा


अथ करक शू और यों को वे द पढने के अिधकार का
िम ा कथन िकया है दयानंद का यह अथ पुरी तरह से िम ा है
पर ु यजुवद २६/२ के अथ से पहले हम यजुवद २६/१ का अथ
करते ह िजससे दयानंद का यह क त भा अपने आप
िम ा िस हो जाएगा दे खए-
अि श् च पृिथवी च संनते ते मे सं नमताम् अदः। वायुश्
चाऽ र ं च संनते ते मे सं नमताम् अदः। ऽ आिद श् च ौश् च
संनते ते मे सं नमताम् अदः। ऽ आपश् च व णश् च संनते ते मे सं

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नमताम् अदः। स सँसदो ऽ अ मी भूतसाधनी। सकामाँ२ऽ
अ नस् कु सं ानम् अ ु मे ऽमुना॥ ~[यजु वद- २६/१]

अि और पृ ी पर र अनुकूल गु ण वाले ह वे दोनों इसे ( ेह


और कामना के पा को) हमारे अनुकूल बनाये , वायु और
अ र पर र िमले ए ह वे दोनों इसे हमारे अनुकूल बनाये ,
आिद और नभ पर र अनुकूलता से रहते ह वे दोनों इसे
हमारे अनुकूल बनाये , जल और व ण पर र अनुकूलता से
रहते ह वे दोनों भी इसे हमारे अनु कूल बनाये , हे भो! पंच
ाने य, मन और बु यह सात सं सद और आठवी ं
(भू तसाधनी) अथात सब भू तों को वश म करने वाली वाणी
आपका आ य प है , हमारे माग को कामनामय करों, और
इ दे व से हमारा सं योग हो,

अब इसके बाद यह मं है दे खए-


यथेमां वाचं क ाणीम् आवदािन जने ः। राज ा ाँ शू ाय
चायाय च ाय चारणाय। ि यो दे वानां दि णायै दातुर् इह
भूयासम् अयं मे कामः सम् ऋ ताम् उप मादो नमतु॥

~[यजु वद- २६/२]

पूव मं म थत 'भू तसाधनी' वाणी का अ ाहार होता है , तब


इसका अथ यह होता है िक य के अंत म यजमान अपने भृ ों
को कहता है (दि णायै यथेमां भू तसाधनी ं क ाणी वाचं जने :
आवदािन तथा ं कु इित शेष:) भाव यह है िक (दि णायै)
दान के दे ने को जनों के अथ, (यथा) म, (इमाम्) इस, (वाचम्)
'इमां भू तसाधनी ं क ाणी ं वाचं' अथात भू तों को वश म करने
वाली क ाणी वाणी को दीयतां भु तां इ ािद प से जैसे म
कहता ँ वै से, (जने ) सब लोग करों, कौन लोग?
( राज ा ाँ ) ा ण, ि य, (अयाय) वै , (च) और,

P- 182
(शू ाय) शू , (च) और, ( ाय) अपने , (अरण) पराये के अथ,
भाव यह है िक सबको ि य वचन पूवक दान दे ना ऐसा करने से
म, (दे वानाम्) िव ानों का तथा, (दातु :) परमे र का (ि य) ि य,
(भू यासम्) होऊँ, इस सं सार म (अयम्) यह, (मे) मेरा, (काम:)
काय, (समृ ताम् ) धनािद लाभ प समृ को ा हो और,
(मा) मुझे, (अप:) परलोक सु ख, (नमतु ) ा हो।

इस मं म ऐसा कुछ भी नही ं िलखा जो दयानंद ने इसका


मतलब िनकाला है और कोई इस दयानंद से पूछ िक िनराकार
ई र बोलने कबसे लगा? अब यिद एक बार को दयानंद का अथ
ही सही माने तो िफर ई र बोलता है इसिलए उसकी वाणी भी
माननी होगी, जब वाणी है तो शरीर भी मानना होगा, इससे
दयानंद का यह िस ां त की आिद सृ ि म परमे र ने अि , वायु ,
सू य और अंिगरा के दय म वे द का काश िकया दयानंद का
यह िस ां त दयानंद के इस लेख से ही हो जाता है , दयानंद
अपने ही लेख से यं अपने िस ां त की ध यां उडा रहे ह
ोंिक जब इस मं ानुसार ई र अि ािद को उपदे श कर सकते
थे तो िफर उनके अ वद का ादु भाव होना असं गत है ,

और दयानंद का यह अथ इसिलए भी गलत है िक यिद दयानंद


इसम ा णािद को जाित लेते ह तो ये जो ( ाय- अपने भृ वा
यािद) अथ िकया है ा वे भृ वा ी चार वण से पृथक
है ?

इसी कार दयानंद ने इस मं के अथ का अनथ करके क त


अथ तै यार िकया है दे खए-

P- 183
चयण क ा युवानं िव ते पितम्।

अनड् वान् चयणा ो घासं िजगीषित॥

~[अथववेद- ११/७/१८]

( चयण) ' चय' अथात सं यम साधना ारा, ही (क ा)


क ा, (यु वानम्) यु वा, (पितं ) पित को, (िव ते) ा करती है ,
( चयण) चय से ही, (अनड् वान्) बै ल तथा, (अ :) अ
आिद पशु , भ णीय (घासं ) घास की, (िजगीषित) अिभलाषा
रखते ह भाव यह है िक चय के अभाव म उदरय शी
िवकृत हो जाता है और खाने पीने की इ ा भी जाती रहती है

न जाने दयानंद ने इस मं म कौन सा Tricks लगाकर ीयों


को वे द पढने का अिधकार दे िदया ध है ामी भं गेडानंद जी
आपकी बु

अब यह मनु वचन सु िनए-


न ित ित तु यः पूवा नोपा े य पि माम्।

स शू व िह ायः सव ा ् िवजकमणः॥

~[मनु ृित- अ० २, ोक १०३]

अथात- जो ि ज ( ा ण, ि य, वै ) ातः वा सायं सं ा नही ं


करता वह शू की भां ित सम ि ज कम से बिह ृ त िकए
जाने यो है ॥
योऽनधी ि जो वेदम कु ते मम्।

स जीव ेव शू माशु ग ित सा यः॥

~[मनु ृित- अ० २, ोक १६८]

P- 184
अथात- जो ि ज ( ा ण, ि य, वै ) वे द को छोड़ और
िव ाओं म प र म करता है वह जीते ए ही अपने वं शसिहत
शू ् को ा होता है ॥

अब जरा िवचार कर िक कहाँ तो वे द न पढने की वजह से


शू ् ा होता है और मनु जी श ों म िलखते ह जो
ि ज वे दािद ं थों को न पढकर अपने ि ज धम का पालन नही ं
करता, उसे शू की भां ित सम ि ज कम से बिह ृ त कर
दे ना चािहए, तो िफर शू वे द कैसे पढ़ सकता है ? ोिक जो
ा ण, ि य और वै भी वे द न पढ़ तो वह शू को ा
हो जाते ह तीन वण तो िबना वे द पढे शू हो जाते ह अथात
सम वै िदक कम से बिह ृ त करने यो हो जाते ह, और
आप उ ी ं अवै िदक शू ों को वे द पढ़ना िलखते ह शौक ह
तु ारी बु पर, मालूम होता है आपके पूव लेखों से ोिधत
िकसी शू ने आपको धरके धो िदया इसी कारण शू ों की इतनी
तरफदारी हो रही है नही ं तो तु म ही अपने पूव के लेखों म शू ों
को िनबु और मूख बताकर उनके वे द पढने का िनषेध करते
ह और िलखते ह िजसका पढ़ना पढना सब थ है ऐसे िनबु ,
मुख को शू कहते ह, इसिलए शू को मं भाग के अित र
सब पढावे पर मं भाग न पढ़ावे और अब पढना िलखते ह ध
है आपकी बु ,

और सु िनए शू ों को वे द म अनिधकार होने से ई र म प पात


का दोष नही ं आ सकता ोंिक उसके कम ही जब अनिधकार
और शू पने के थे इसिलए उसका क ाण उसके शरीर के धम
से ही है इससे कमानुसार सु ख, दु ख, ा ण, ि य, वै और
शू होने से अपने -अपने काय धम के सब पृथक-पृथक

P- 185
अिधकारी ह, और यिद ई र पर प पात का दोष लगाते हो तो
ई र धन-धा और सं तान भी सबको बराबर दे ता,

स ाथ काश तृतीया समु ास पृ ३९,


❝अनेन मयोगेन सं ृ ता ा ि जः शनैः।

गुरौ वसन् सि नुयाद् ािधगिमकं तपः॥ -मनु० [२/१६२]

इसी कार से कृतोपनयन ि ज चारी कुमार और


चा रणी क ा धीरे -धीरे वे दाथ के ान प उ म तप को
बढ़ाते चले जाय❞

समी क-- न जाने दयानंद ने इस ोक म चा रणी क ा


यह अथ कौन पद से उ त िकया है ? हमारी तो समझ से बाहर
है और उपनयन का स भी शायद क ा के साथ लगाया
होगा, ोिक िबना उपनयन वे द नही ं पढ़ाया जाता, दयानंद ने
तो क ा का उपनयन करना भी िलख िदया ध हे दयानंद ते री
बु , और यहाँ ि ज श से केवल चारी का ही हण होता
है क ा का नही,ं

॥इित चुितयाथ काश तृतीयासमु ास खंडनम् समा म्॥

P- 186
स ाथ काशा गत चतुथसमु ास खं डनं ार ते

॥समावतनिववाह करणम् ॥

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ५८,


❝असिप ा च या मातुरसगोत्र च या िपतुः।

सा श ा ि जातीनां दारकमिण मैथुने ॥ -मनु० [३/५]

जो क ा माता के कुल की छः पीिढ़यों म न हो और िपता के


गो की न हो तो उस क ा से िववाह करना उिचत है । इसका
यह योजन है िक-
परो ि या इव िह दे वाः ि षः॥

यह िनि त बात है िक जैसी परो पदाथ म ीित होती है वै सी


म नही।ं जैसे िकसी ने िम ी के गु ण सु ने हों और खाई न
हो तो उसका मन उसी म लगा रहता है । जैसे िकसी परो व ु
की शंसा सु नकर िमलने की उ टइ ा होती है , वै से ही
दू र थ अथात् जो अपने गो वा माता के कुल म िनकट स
की न हो उसी क ा से वर का िववाह होना चािहये ।

िनकट (म दोष) और दू र िववाह करने म गु ण ये ह-

(१) एक-जो बालक बा ाव था से िनकट रहते ह, पर र


ीडा, लड़ाई और ेम करते , एक दू सरे के गु ण, दोष, भाव,
बा ाव था के िवपरीत आचरण जानते और नंगे भी एक दू सरे
को दे खते ह उन का पर र िववाह होने से ेम कभी नही ं हो
सकता।

P- 187
(२) दू सरा-जैसे पानी म पानी िमलने से िवल ण गु ण नही ं होता,
वै से एक गो िपतृ वा मातृ कुल म िववाह होने म धातु ओं के
अदल-बदल नही ं होने से उ ित नही ं होती।

(३) तीसरा-जैसे दू ध् म िम ी वा शु यादी औषिधयो के योग


होने से उ मता होती है वै से ही िभ गो मातृ िपतृ कुल से
पृथक् वतमान ी पु षों का िववाह होना उ म है ।

(४) चौथा-जैसे एक दे श म रोगी हो वह दू सरे दे श म वायु और


खान पान के बदलने से रोग रिहत होता है वै से ही दू र दे श थों
के िववाह होने म उ मता है ।

(५) पां चवे -िनकट स ् करने म एक दू सरे के िनकट होने म


सु ख दु ःख का भान और िवरोध् होना भी स व है , दू र दे श थों
म नही ं और दू र थों के िववाह म दू र-दू र ेम की डोरी ल ी बढ़
जाती है िनकट थ िववाह म नही।ं

(६) छठे -दू र-दू र दे श के वतमान और पदाथ की ा भी दू र


स ् होने म सहजता से हो सकती है , िनकट िववाह होने म
नही।ं

(७) सातव-क ा के िपतृ कुल म दा र य होने का भी स व है


ोंिक जब-जब क ा िपतृ कुल म आवे गी तब-तब इस को
कुछ न कुछ दे ना ही होगा।

(८) आठवां -कोई िनकट होने से एक दू सरे को अपने -अपने


िपतृ कुल के सहाय का घम और जब कुछ भी दोनों म
वै मन होगा तब ी झट ही िपता कुल म चली जाये गी, एक
दू सरे की िन ा अिधक होगी और िवरोध् भी, ोंिक ायः
ायों का भाव ती ण और मृदु होता है , इ ािद कारणों से

P- 188
िपता के एकगो ा माता की छः पीढ़ी और समीप दे श म िववाह
करना अ ा नही❞

समी क-- वाह जी वाह! बड़ा अ ा ता य िनकाला, गो के


अथ तु मने पास के कर िदए, तु म कहते हो िक दू र दे श म िववाह
कर ोंिक दू र व ु म ि ित होती है , म नही,ं तो यिद दू र
हो और िपतृ कुल वा मातृ कुल की लड़की हो उससे भी िववाह
कर ल, बस पास की नही ं होनी चािहए, तो दू र होने से तु म
स ी भाई बहन के िववाह म भी अनुमित दे दोगे , ोिक तु म
ही कहते हो िक “जो अपने गो वा माता के कुल म िनकट
स की न हो”अथात दू र हो िफर चाहे िपता वा माता के
कुल की ही ों न हो िववाह कर ल, शोक हे ऐसी बु पर,

तु म िलखते हो िक दू र की व ु म ि ित होगी पास म न होगी, तो


अब यह बताओं की जब वह दू र की ी पास आवे गी, तो िफर
वह दू र कहाँ रही और ी पु ष का सं ग होते ही ि ित दू र हो
जानी चािहए पर ऐसा दे खने म नही ं आता, उ ा पास रहने म
ि ित अिधक बढ़ती नजर आती है और तो मनु के इस ोक
का तु मने जो अथ िकया है वह भी गलत ही िकया है दे खए
इसम छ: नही ं ब सात पीिढ़यों का ाग करना िलखा है
ामी जी यहाँ एक पीढ़ी खा गये, दे खए इसका अथ इस कार
है –

जो क ा माता व िपता की सात पीिढ़यों म न हो, तथा िपता के


गो म न हो, ऐसी ही क ा ि ज ( ा ण ि य वै ) के िववाह
के योग है ,

और जब तु म गो के अथ पास से ही लेते हो, और जब दू र दे श


का ही अिभ ाय है तो िफर ये छ: पीिढ़यों का ाग करना ों

P- 189
िलखते ह? इ भी खा जाते , धमशा की मयादा तो तु मने वै से
भी िमटा दी, और सु नो माता का कुल तो ननसाल होता है और
िपतृ कुल के लड़के लड़िकयों का पर र भाई बहन का स
होता है इस कारण वहाँ िववाह विजत है , और अपने गो म तो
िववाह होता ही नही ं इसिलए पास और दू र का इससे कोई
मतलब नही ं ोंिक िजसका गो एक है वह सब एक ऋिष के
सं तान वा िश होने से भाई बहन है जो अपने स ी है चाहे
वे सह कोश दू र ही ों न हो अपने ही कहलाते ह और
िजनसे कोई स ही न हो वे घर के पास होकर भी दू र होते
ह, इस कारण तु ारे इस गपडचौथ का कोई मतलब नही ं
बनता,

तु म िलखते हो िक “िनकट और दू र के यह गु ण है ”शायद यह


गलती से िलख िदया, ोिक गु ण तो तु मने केवल दू र के िलख
पास के तो केवल दोष ही िलख इस कारण दोनों म तु ारा यह
गु ण श घट नही ं सकता, अब एक नजर तु ारे िनकट और
दू र िववाह के गु णों पर डालते ह-

(१) पहला- दयानंद का यह लेख पढ़कर िविदत होता है िक


उनका िदमागी सं तुलन िहल गया है ोंिक ऐसा दे खना म नही ं
आता िक जो बालपन म एक साथ खेले हो और उनका िववाह
आ हो, ऐसा िनयोग समाज म होता होगा और ामी
भू ल डानंद जी को यह याद िदला दे िक जब तु मने पाँ च वष
के बालक और बािलकाओं को गु कुल भे ज िदया और पुरी
िश ा हो जाने तक ी न तो पु ष के दशन कर सकती है और
न पु ष ी का िफर भला उ ोंने एक दू सरे को नंगा कब दे ख
िलया, शायद आपके गु कुल म यही होता होगा िदन म लकडे
लड़कीयाँ अपने अपने गु कुल म पढते होग और राि म नंगे

P- 190
होकर एक दू सरे के साथ गभाधान-गभाधान खेलते होग वही
ामी जी यहाँ िलखते ह

(२) दू सरा- जब तु म दू र म कुल गो मानते ही नही,ं गो के


अथ पास से लेते हो तो िफर इस कार की बकचोदी ों करते
हो, और जब एक गो िपतृ वा मातृ कुल की लड़की लड़कों का
पर र भाई बहन का स होने से िववाह होता ही नही ं तो
ों बे कार म अंड सं ड बक जा रहे हो, तु म िलखते हो िक
"धातु ओं के अदल-बदल नही ं होने से उ ित नही ं होती" पर ु
यह नही ं बताया िक धातु ओं के अदल-बदल से िकस कार की
उ ित होती है , ोिक धातु ओं के अदल-बदल से तो रोग ही
उ होता है उ ित कैसी? उससे तो हािन ही होती है जो
उ ित होती तो सब कुलों म बड़ी भारी उ ित होती, पर ु ऐसा
दे खने म नही ं आता, और जो दु सरे कुल की धातु िनक ी
िनकली ं िफर तो हािन ही ई उ ित कहा?

और जो तु ारा ही कथनानुसार बात कर तो यवनों, ईसाई आिद


म तो कुल गो कुछ नही ं दे खते तो ा उनकी उ ित नही ं
होती? इस कारण तु ारा यह कथन भ मा ही है एक गो
मातृ कुल म िववाह ों नही ं होता है उसका कारण हम पहले
भी िलख आए ह

(३) तीसरा- कुल गो तो तु म पहले ही धो कर िप गए गो का


अथ तो तु मने िनकट से िलया और दू र म तु म गो मानते नही,ं
तो िफर ों थ की महनत िकये जा रहे हो, एक ही बात घुमा
िफर कर िकतनी तरह से बोल िदया पर ु एक बार भी यह
कही ं नही ं िलखा िक एक गो म िववाह ों नही ं करना चािहए?
बस आपसे तो बकचोदी करवा लो, सु नो मातृ कुल वा िपतृ कुल
के लड़के लड़िकयों का पर र भाई बहन का स होता है

P- 191
इस कारण वहाँ िववाह विजत है , और अपने गो म तो िववाह
होता ही नही ं ोंिक िजसका गो एक है वह सब एक ऋिष के
सं तान वा िश होने से भाई बहन है इस कारण एक गो मातृ
व िपतृ कुल म िववाह नही ं होता,

(४) चौथा- ध हे ामी जी आपकी बु ा अंड सं ड बके


जा रहे हो तु म यं नही ं जानते , तु ारे मतानुसार एक दे श म
रोगी हो वह दू सरे दे श म वायु और खान-पान के बदलने से रोग
मु होता है , तो सु िनये और जो रोगी उस दे श म प ँ च जाए
जहाँ की जलवायु शु न हो तो िफर तो रोगी मर ही जाएगा,
ोिक अ र दे खा जाता है िक -पु मनु भी जब कही ं
दू र जाता है तो पानी म आए बदलाव से ा म हािन रोग
आिद से िसत हो जाता है , और २०-२५ कोश तक तो वायु भी
नही ं बदलती यिद ऐसा है तो तु मको िलखना चािहए था िक इतनी
दू री पर िववाह करना चािहए और जो वहाँ न हो तो रहो पुरे
जीवन चारी ोिक तु ारे मत म िववाह वायु के अदल-
बदल के अथ ह िफर ों बे कार की बकचोदी कर समाजीयों
का मुख बनाते हो, जो िववाह शु वायु जल के अथ है तो वायु
जल की शु तो हवन से भी हो जाती है तृ तीया समु ास म
तु मने ही िलखा है ना, िफर हवन करक चाहे जहाँ िक वायु जल
शु कर लो, इसके िलए दू र दे श का रोना ों रोते हो?

(५) पां चवां- दयानंद िलखते ह िक “िनकट िववाह होने म सु ख


दु ःख का भान और िवरोध् होना भी स व है ” तो सु िनये
तु ारा यह कथन भी िम ा ही है , ा ामी जी यहाँ तार और
फोन िव ा भू ल गए, चाहे िववाह िव के िकसी भी कोने म ों
न कर दो, कुछ िमनटों म ही चाहे जहाँ सु ख दु ख की खबर प ँ च
जाता है , सु ख दु ख का भान तो चाहे सह ों कोश दू र ही ों न

P- 192
हो हो ही जाता है , पर ु िनकट िववाह होने का लाभ यह है िक
सु ख दु ख म सहायता शी हो सकती है , और दू र होने पर खच
भी पड़ता है और समय पर सहायता भी नही ं िमलती, और जहाँ
तक िवरोध की बात है तो ा दू र दे श के िववाह म िवरोध नही ं
होता है ? िब ु ल होता है , जो कुपा होगा तो पास दू र दोनों म
िवरोध करे गा, लेिकन जो दू र दे श म िववाह होता है उसम िवरोध
ादा रहता है क ा भी दू र घर होने से वष माता-िपता के
दशन से वं िचत रहती है , दू र दे श म क ा को चाहे िजतना दु ख
हो कोई पूछने वाला ही नही,ं िनकट िववाह होने से अपने
नगरवािसयों तथा लड़की के िपता आिद के सं कोच से अिधक
दु ख नही ं दे सकते ,

(६) छठवाँ - दयानंद के मतानुसार “दू र दे श म िववाह होने से


पदाथ की ा सहजता से हो जाती है ” दयानंद का यह
कथन भी िम ा ही है ा िबना मु के कोई व ु ा हो
सकती है ? िजसका िववाह आ उसे भी िबना मू िदये कोई
व ु ा नही ं हो सकती, यिद एक दो बार मु म िमल भी
गई तो बराबर कौन दे सकता है ? और क ा का िपता तो वै से
भी मु म कुछ मां ग ही नही ं सकता, इसिलए दयानंद का यह
िस ां त होता है इसका दू र पास से कुछ फक नही ं पड़ता,

(७) सातवाँ - दयानंद के मतानुसार “िपतृ कुल म क ा आवे गी


तो द र करे गी ोिक जब-जब क ा आवे गी तब-तब उसे
कुछ न कुछ दे ना होगा” यह कथन भी भ मा है ामी जी
म जीतनी बु है वह उतना ही सोच पाते ह इसिलए म इसम
ामी जी को भी दोष नही ं दे सकता, ोिक क ा तो जहाँ
जाये गी वही कुछ न कुछ दे ना होगा, और अपने साम अनुसार
सभी कुछ न कुछ दे ते ही है अब कोई घर तो दे नही ं दे गा, तु ारे

P- 193
कहने का अथ तो ऐसा है िक क ा ऐसी होनी चािहए िक कोई
िपतृ कुल को लूट भी ले तो उसका जी न दु खे, ोिक जो ऐसी
होगी तो ही उसम िपतृ कुल को द र करने का साम होगा
अ था नही,ं और माता िपता िनकट हो या िफर दू र अपने
साम अनुसार सब ही अव था म दे ते ही रहते ह,

(८) आठवाँ - दयानंद के मतानुसार “ ीयों का भाव ती ण


और मृदु होता है इसिलए पास होने से घमंड हो जाएगा, लड़ाई
होगी, िपता के घर चली आये गी इ ािद” यह भी दयानंद ने
अपनी बु अनुसार ही िलखा है , क ा को छोिडये यह बताइए
िक सहायता िमलने पर िकसे घमं ड नही ं होता? और िजसे
सहायता िमलती रहती है उससे तो कोई लडता भी नही ं है , और
पर र सहाय के र े दार ों लड़गे ? और जहाँ तक सहायता
की बात है तो अपने आप को ही दे ख िलिजए, यिद तु
सहायता ने िमलती तो यह स ाथ काश भी न बना पाते , और
िकसी कार बना भी लेते तो अंड सं ड जो मन म आता िलख
दे ते जैसे पहले वाली स ाथ काश म िलखा और बाद म कहा
िक मुझे इन बातों का ान न होने के कारण भू ल वश िलख
िदया, और झगड़ालू लोगों का तो यह है िक वह पास हो या दू र
हर जगह कलेश ही करते ह और जब छोटी उ की ी घर से
िनकलती है और िपता का घर १००-२०० िकमी० दू र हो तो पूरे
माग म होती ई घर प ँ चती है और दू री अिधक होने के
कारण उसके दु म पर िकसी का ान भी नही ं जाता और
एक ही नगर म िववाह होने से ा िचत हो यिद िपता के घर
जाएं तो थोड़ी ही दे र म प ँ चने के कारण दु म से बच सकती
है और अिधक सं कोच से अिन से बची रहती है और भाव
तो िजसका जो है वही रहता है वह बदलने वाला नही ं िफर चाहे

P- 194
िववाह दू र हो या िनकट, मेरे कहने का अथ यह नही ं िक दू र
िववाह ही न करों, िववाह चाहे पास करो या दू र पर ु िपता का
गो और माता की सात पीिढ़यों को छोड़कर, ोिक मातृ िपतृ
कुल सिपंड होने से धम शा ों म विजत ह इस कारण उनम
िववाह नही ं हो सकता,

और ❝परो ि या इव िह दे वाः ि षः❞ इस ुित के अथ म


तो दयानंद ने वही काम िकया है जैसे कहावत है िक “कही ं िक
ईट कही ं का रोड़ा भानमती ने कुनवा जोड़ा”कहाँ का सं ग
कहाँ िलख िदया यह दे वता करण की बात है दे खए इसका
अथ इस कार है -

“परोऽ कामा िह दे वाः’’ (शत0 ा0 ६/१/१/२ और ७/४/१/१०),


इसी कार गोपथ ा ण ओर बृ हदार कोपिनषद् म भी कहा
गया है िक-“परो ि या इव िह दे वा भव ि षः’’ (गो0 ा0
१/१/१ और १/२/२१)

अथात दे वता परो ि य और से े ष करते ह भाव यह है


िक “दे वगण परो प से की गयी ु ित के चाहक होते ह व
पेण की गयी ु ित के अिन ु क रहते ह“

और तु मने इसे िववाह स म घुसेड़ मारा ा यार दयानंद


ऐसा करक ों बे चारे िनबु और मूख समाजीयों का चुितया
काटते हो ? तु ारे चैले तु म पर आँ ख मूंद कर िव ास करते ह
और तु म उ ी ं का चुितया बनाते हो कुछ तो शम करों

P- 195
स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६०,

❝सोलहव वष से लेकर चैबीसव वष तक क ा और प ीसव


वष से ले लेकर ४८ व वष तक पु ष का िववाह समय उ म है ,
इस म जो सोलह और प ीस म िववाह करे तो िनकृ ; अठारह
बीस वष की ी तथा तीस पतीस वा चालीस वष के पु ष का
म म; चौबीस वष की ी और अड़तालीस वष के पु ष का
िववाह उ म है , इससे िव ा ास अिधक होता हो जाता है ❞

समी क-- ऊपर िलखे दयानंद के इस लेख का िस ां त यह है


िक २४ वष की क ा का ४८ वष के बु े से िववाह कराय, सबसे
पहले तो िववाह की प रभाषा कहते ह उसके प ात ामी जी
के इस लेख का खंडन करगे ,

सनातन धम म िववाह को सोलह सं ारों म से एक सं ार


माना गया है , िववाह दो श ों से से िमलकर बना है िव + वाह
िजसका शा क अथ है -िवशेष प से उ रदािय का वहन
करना, पािण हण सं ार को ही सामा प से िववाह के
नाम से जाना जाता है ,

❝भाया ंपादक हणम्❞ अथात िजसके भरण पोषण का भार


सदै व के िलए िसर पर िलया जाए उसका जो भाव उसको
भाया कहते ह और सं पादक अथात उ भाव का उ
करने वाला ऐसे जो हण अथात ान वा भाया का भाव िजस
ान से उ होवे उसका नाम िववाह है , ❝त ीकार पं
ानं िवशेष समवायिवषय: तयोभदात् वरक यो:
िववाहकतृ कम ेित❞ अथात भाया का ीकार प जो
िवशेष ान है , उसमे समवाय और िवषय दो कार के भे द होने
से िववाह मे वर का कतृ और क ा का कम तीत
होता है इससे िववाह श के कहने से यह बात आती है िक वर

P- 196
और क ा के िवशेष सं योग का भाव मन म उदय होता है िवशेष
सं योग कहने का भाव यह है िक पु ष ी का आ ा मन शरीर
के भरण पोषण र ा आिद का भार अपने ऊपर लेना ीकार
करता है , इस कार के सं योग को छोड़कर अ िकसी कार
के सं योग को िववाह नही कह सकते इस कार के सं योग से
अिव े द सं बंध होता है , अब वह िववाह िकतने समय म होना
चािहए सो उसका िनणय िकया जाता है

ामी जी के लेखानुसार चले तो ामी जी िलखते ह िक २४ वष


की क ा और ४८ वष का वृ पु ष िववाह कर तो ही उ म है ,
ामी जी के मतानुसार १६ वष की क ा और २५ वष के पु ष
का िववाह करना या करवाना बे कार है , लेिकन ऐसे अनिगनत
माण ह िजससे यह िस होता है िक आय लोग भी थोड़ी ही
अव था म िववाह करते थे जैसे भगवान राम का िववाह १५ वष
की उ म आ, अिभम ु का िववाह १४ वष की उ म उ रा
के साथ आ और १६ वष की उ म महाभारत के यु म मृ ु
को ा ए, और उस समय उनकी प ी उ रा गभवती थी
िजससे राजा परीि त उ न् न ए, यह वा ीिक रामायण और
महाभारत से िस है उठाकर दे ख िलिजए, जो तु ारे कह
अनुसार २५, ३०, और ५८ वष तक बै ठे रहते तो पां डवों का तो
वं श ही समा हो गया होता,

इसिलए सही समय पर ही िववाह कर दे ना उिचत है यिद िववाह


थोड़ी ही अव था म हो जाए तो २०-२५ वष म स ान इस यो
हो जाता है िक िपता की ४५-५० वष की ीण अव था तक
सामथ हो िपता की सहायता के यो हो जाता है ोंिक
आजकल तो ७० से ७५ वष की अव था म ही ब तों की मृ ु हो
जाती है ऐसे म ४८ वष की उ (जो िक ीण अव था होती है ) म

P- 197
िववाह िकया तो दो तीन वष उपरां त ही पूण जरा पु ष और
पूण यु वाव था यु ी होती है तो बस “वृ त णी
िवषम्”बु ों के िलए तो कम उ की क ा वै से ही िवष समान
है उनको तो ब त सं ग भाता ही नही,ं ऐसे म वो ी िकसी
और नव यु वा की खोज करके धम ुत होती है , अब यं को ही
ले िलिजए यिद तु ारा िववाह ४८ वष की उ म िकसी २४ वष
की क ा से हो जाता तो वो बे चारी आज िसर पटकती या नही,ं
कहने का अथ यह है िक तु ारे इस कपोल क त िस ां त से
िसफ हािन ही होगी, और आज के समय म यह िस ां त चलने
वाला नही,ं अपने लाडले िश ों को ही दे ख लो, यिद कोई िकसी
एक समाजी का नाम भी बता द िजसने तु ारे इस लेखानुसार
४८ वष की उ म िववाह िकया हो, कहने का अथ यह है िक
जब तु ारे लाडले िश ही तु ारी बातों को मह नही ं दे ते तो
िफर भला दु सरे बु मान लोग तु ारी इस गपडचौथ को ों
मानगे , ामी जी ने अपने लाडले िश ों को ४८ वष की उ म
िववाह करने का आदे श िदया पर ु बड़े दु ख की बात है िक
एक भी समाजी उनकी बात को मह नही ं दे ते,

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६०,

❝ - अ वषा भवेद् गौरी नववषा च रोिहणी।


दशवषा भवे ा तत ऊ वं रज लाभ्॥१॥

ये ोक पाराशरी और शी बोध् म िलखे ह, अथ यह है िक


क ा आठव वष गौरी, नवमे वष रोिहणी, दशव वष क ा और
उस के आगे रज ला सं ा हो जाती है

P- 198
जैसे आठव वष की क ा म स ानो ि का होना अस व है
वै से ही गौरी, रोिहणी नाम दे ना भी अयु है , यिद गोरी क ा न
हो िक ु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना थ है और
गौरी महादे व की ी, रोिहणी वसु देव की ी थी उस को तु म
पौरािणक लोग मातृ समान मानते हो, जब क ामात् र म गौरी
आिद की भावना करते हो तो िफर उन से िववाह करना कैसे
स व और धमयु हो सकता है ❞

समी क-- पराशर जी ने यह ोक मनु ृित के इस ोक से


आशय लेकर बनाया है दे ख--
ि ंश ष वहे ां ां ादशवािषकीम्।

वष ऽ वषा वा धम सीदित स रः॥

~[मनु ृित- अ० ९, ोक ९४]

इस ोक म मनु जी ८ से १२ वष की क ा का िववाह करने


का िनयम करते ह यही मनु जी की िववाह करने म आ ा है
ोंिक १२ वष तक ब त सी क ा ऋतु मती हो जाती है और
शा ों म ऋतु मती ी का िववाह ने करने पर महादोष कथन
िकया है , इसी कारण पराशर जी ने मनु ृित के इन ोकों का
आशय लेकर यह ोक िलख पर ु दयानंद ने पराशर जी के
इस ोक का अथ तोड़ मरोड़ कर अथ का अनथ कर िदया है
पराशर जी का मतलब यह नही ं है दे खए यह केवल सं ा मा
बां धी है िक आठ वष की बािलका गौरी सं क, जो नव वष की
बािलका हो उसकी सं ा रोिहणी, दश वष की बािलका क ा
सं क और उसके आगे राज ला सं ा हो जाती है

और िववाह का अथ यह नही ं जैसा दयानंद ने िदखाने का यास


िकया है िववाह का अथ केवल स ान उ ि से मानना यह

P- 199
गधों का काम है िववाह का अथ केवल स ान उ ि नही ं होता
िववाह की प रभाषा हम इससे पहले कर आए ह पढ़ लेना,

अब दयानंद इतना बडा भी मूख नही था िक इस ोक का


आशय न समझ सक लेिकन अपनी आदत से मजबू र दयानंद ने
इस ोक के अथ को तोड़ मरोड़ कर इस कार िलखा, िक
“गौरी महादे व की ी, रोिहणी वसु देव की ी थी उस को तु म
पौरािणक लोग मातृ समान मानते हो, जब क ामा म गौरी
आिद की भावना करते हो तो िफर उन से िववाह करना कैसे
स व और धमयु हो सकता है ”

अब कोई इस धू त से यह पूछे िक ा गौरी सदा आठ ही वष


की रहती है और रोिहणी नौ वष की ही रहती है और जो नाम के
अनुसार ही अथ करते हो तो िफर तु यह सबसे पहले
अपने बाप से करना चािहए था िक उसने यशोदा नाम की ी
से िववाह ों िकया? ोिक यशोदा तो ीकृ की माता का
नाम है िजसे हम सब मातृ समान मानते ह और तु ारा बाप तो
था ही पौरािणक िफर भी तु ारे बाप ने यशोदा नाम की ी से
िववाह िकया, इस पु क म बकचोदी करने से अ ा अपने
िपता से पूछ िलया होता, और यिद िफर भी नाम ही के अनुसार
अथ लेते हो तो यिद कोई पौरािणक िकसी यशोदाबाई नाम की
ी से िववाह कर ल तो इसका मतलब यह तो नही ं िक वह
दयानंद का िपता हो गया ोंिक यशोदाबाई तो तु ारी माता
का नाम है कहने का अथ यह है िक जैसे यशोदाबाई नाम की
ी के साथ िववाह करने से कोई दयानंद का िपता नही ं बन
जाता जैसे यह स व नही ं उसी कार गौरी और रोिहणी
सं ज्ञक बािलका का अथ महादे व और वासु देव की ी से
मानना ठीक नही ं है ,

P- 200
और जो तु मने यह िबना बात की बकचोदी की है िक “यिद
गोरी क ा न हो िक ु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना
थ है ” जो नाम ही के अनुसार अथ लेते हो, तो िफर तो
िजसका नाम चंपा, चमेली आिद हो तो नाम अनुसार ही कम
होने चािहए जैसे तु ारा नाम दयानंद है तो तु सदा आनंद म
ही रहना चािहए पर ऐसा िदखता नही ं ज से ही तु म दु खी
आ ा थे जबसे पैदा ए हमेशा रोते ही रहे , मन कभी थर नही ं
रहा और तो और अंत समय म भी महीनों की ददनाक पीड़ा
सहने के बाद मृ ु को ा ए, तु ारा नाम तो दयानंद था
िफर ऐसा ों आ?

और सु िनए यिद नाम अनुसार ही अथ माने तो ाकरण म िजन


श ों की नदी, अि आिद सं ा मानी है तो ा वे श पानी
होकर बहते व अि होकर जलते ह इससे यह उ ारण मा
सं ा बां धी है इस कार वह बािलका गौरी या रोिहणी नही ं हो
जाती, जब कह िक यह बािलका रोिहणी तो जान लेना की
इसकी अव था नौ वष की है गौरी कह तोजान लेना चािहए की
आठ वष की है इसी कार क ा कहने पर जान लेना चािहए
की वह दस वष की है और उसके आगे राज ला और यही ं मनु
जी की िववाह करने म आ ा है ोंिक १२ वष तक क ा
ऋतु मती हो जाती है इसी कारण मनु जी ८ से १२ वष तक क ा
का िववाह कर दे ने की आ ा करते ह और मनु जी के इन
ोकों का आशय लेकर ही पराशर जी ने यह ोक िलख ह,
ोिक शा ों म ऋतु मती ी का िववाह ने करने पर महादोष
कथन िकया है , उसका कारण यह है िक ॠतु दान िबना िववाह
के नही ं होना चािहए, ोिक ऋतु समय म सं योग होने से
कदािचत सं तान उ ि हो जाती है इसी कारण ऋतु धम िजसे

P- 201
होने लगा हो उसका िववाह नही ं करने से माता िपता पापभागी
होते ह

स ार् थ काश चतुथ समु ास पृ ६१,


❝ ीिण वषा ुदी ेत कुमायृतुमती सती।

ऊ तु कालादे त ाि े त स शं पितम्॥ -मनु० [९/१०]

क ा रज ला ए पीछे तीन वष पय पित की खोज करके


अपने तु पित को ा होवे । तब ितमास रजोदशन होता है
तो तीन वष म ३६ वार रज ला ए प ात् िववाह करना यो
है , इससे पूव नही❞

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६२-६३,

❝( ) िववाह माता िपता के आधीन होना चािहये वा लड़का


लड़की के आधीन रहै ?

(उ र) लड़का लड़की के आधीन िववाह होना उ म है । जो


माता िपता िववाह करना कभी िवचार तो भी लड़का लड़की की
स ता के िवना न होना चािहये ,

,,,,,,,,,जब तक इसी कार सब ऋिष-मुिन राजा महाराजा आय


लोग चय से िव ा पढ़ ही के यं वर िववाह करते थे तब
तक इस दे श की सदा उ ित होती थी, जब से यह च से
िव ा का न पढ़ना, बा ाव था म पराधीन अथात् माता िपता के
आधीन िववाह होने लगा, तब से मशः आयाव दे श की हािन
होती चली आई है ❞

समी ा-- वाह ामी वाह! ा िश ा करी है अपने लाडले


िश ों को, वणसं कर न तै यार करने को तु ारा यह लेख ही

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काफी है , ामी जी ने मनु ृित के इस ोक के अथ का िकस
कार अनथ िकया है उसे दे खए ामी जी िलखते ह िक
“क ा रज ला ए पीछे तीन वष पय पित की खोज करके
अपने तु पित को ा होवे”यह तो ामी जी ने साफ-साफ
ी को िभचारीणी बनाने की िविध िलखी ं ह यह ा बात ई
िक माता िपता तो घर म चैन से बै ठे और बे टी गली-गली, गाँ व
नगर पित ढू ं ढती िफर, और अपने आप िववाह भी कर ल, शौक
है ऐसी बु पर!

ामी जी ने इस ोक के अथ का भी उसी कार अनथ िकया


है जैसे अ ोको के साथ िकया है दे खए इसका सही अथ
इस कार है -
ीिण वषा ुदी ेत कुमायृतुमती सती।

ऊ तु कालादे त ाि े त स शं पितम्॥

अथात िजस क ा के मातािपतािद नही ं हो वह ऋतु मती होने पर


तीन वष तक (उदी ते ) अपने कुटु यों की ती ा कर िक वह
िववाह कर द, जब यह समय भी बीत जाएं तो अपनी जाित के
पु ष जो अपने कुल गो के स श हो उसे वरण कर,

यह आप म है वना नृप कुल छोड़कर ी को यं वरण करने


का अिधकार नही ं है , पर ु ामी जी ने तो कुल गो , जाित, धम
सबको ताक पर रखकर िववाह का अिधकार लड़का लड़की के
आिधन कर िदया, िक माता िपता घर पर बै ठे और लड़की गली
नगर घुम घुमकर पित ढू ं ढ ामी जी का यह िस ां त पुरी तरह
से धम शा ों के िव है िववाह का अिधकार लड़का लड़की
के आिधन नही ं होना चािहए, यिद कहो की यु वाव था म ी
िच अनुसार पित ढू ं ढ लेगी तो ािभचा रणी न होगी तो इसका

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उ र यह है िक ायः ी जाित पु षों म पित को अ ा गु णों
की अपे ा सु रता यु होना अिधक चाहती है जैसे िक पु ष
सु र ी ढू ं ढते है और इसिलए लडका लड़की के आिधन
िववाह होने म यह दोष है िक ी प की ासी होती है जान
कौन सी जाित, धम के पु ष को पस कर, ोिक
“िभ िचिहलाक” सबके मन की िच िभ होती है तो
ऊँच नीच सं योग होने से वणसं कर की उ ि होती है , इससे
िववाह लड़का लड़की के आिधन नही ं होना चािहए और सु नो
यह जो ामी जी ने िलखा है िक “जब तक सब ऋिष-मुिन
राजा महाराजा आय लोग यं वर िववाह करते थे तब तक इस
दे श की सदा उ ित होती थी, पर ु जब से माता िपता के
आधीन िववाह होने लगा, तब से मशः आयाव दे श की हािन
होती चली आई है ”यह कथन भी दयानंद का िम ा ही है ,
ोिक यं वर केवल ि यों राजा-महाराजाओं म आ करते
थे िजसम ि य जाित के राजा-महाराजा एक आ करते थे,
ि यों के अलावा ा ण, वै या शू ों म यं वर नही ं होता था
लेिकन ामी जी ने जाित वण सब मट सब ही के िलए िलख
िदया मानो वणसं कर की उ ित का ार खोल िदया, और जो
दयानंद ने यह िलखा िक जब तक आयावत म यं वर िववाह
होते थे तब तक आयावत की उ ित ई है , लेिकन यं वर
िववाह से हािन छोड़ दे श की उ ित ई हो ऐसा तो कभी दे खने
म नही ं आया, इितहास म दे ख तो रमायण और महाभारत जैसे
महायु का कारण यं वर िववाह ही था और दोनों ही यु ों म
आयावत की भारी ित ही ई है उ ित कैसी?

और िववाह का अिधकार लड़का लड़की के आिधन करके


तु मने क ादान की था ही िमटाने की सोच ली, मुझे नही ं

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लगता तु म जैसा म बु क ादान का अथ भी समझता होगा,
जब क ादान श िववाह म कहा जाता है तो िबना िपता की
अनुमित के यं कैसे पित वरण कर सकती है , जबिक दान तो
िदया जाता है तो दे ने वाले को अिधकार है पर ु दाता को पा -
पा का िवचार अव कर लेना चािहए, पर ु तु मने तो
क ादान की था ही िमटाने की ठान रखी है

और मनु जी भी ी की ाधीनता नही ं अंगीकार करते ह


दे खए-
बा े िपतुवशे ित े ािण ाह यौवने।

पु ाणां भत र ेते न भजे ी त ताम्॥

य ैद ा ता ेनां ाता वानुमते िपतुः।

तं शु ूषेत जीव ं सं थतं च न ल येत्॥

-मनु ृित [अ० ५, ोक १४८,१५१]

ी को बचपन म िपता के अधीन, यु वा होने पर हाथ हण


करने वाले पित के अधीन, तथा पित की मृ ु हो जाने के प ात
पु ों के अधीन रहना चािहए, पर ु तं कभी नही ं रहना
चािहए,

लड़की का यह धम है िक उसका िपता या िपता की आ ा से


भाई िजस भी पु ष से उसका िववाह कर, वह उसे पित पम
ीकार कर जीवन भर उसकी से वा कर, पित की मृ ु हो जाने
पर अपने धम का पालन कर, इ ािद माणों के अनुसार िववाह
का अिधकार िपता माता के अधीन ही होना चािहए, ी यं
पित वरण नही ं कर सकती और जो यं वर है वह केवल राजा
महाराजाओं म आ करते ह

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स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६८,

❝क ा और वर का िववाह के पूव एका म मेल न होना


चािहए ोंिक यु वाव था म ी पु ष का एका वास
दू षणकारक है , पर ु जब क ा वा वर के िववाह का समय हो
अथात् जब एक वष वा छः महीने चया म और िव ा पूरी
होने म शेष रह तब उन क ा और कुमारों का ितिब अथात्
िजस को ‘फोटो ाफ’ कहते ह अथवा ितकृित उतार के
क ाओं की अ ािपकाओं के पास कुमारों की, कुमारों के
अ ापकों के पास क ाओं की ितकृित भे ज दे व, िजस-िजस
का प िमल जाय उस-उस के इितहास अथात् ज से लेके
उस िदन पय ज च र का पु क हो उस को अ ापक
लोग मंगवा के दे ख, जब दोनों के गु ण, कम, भाव स श हों
तब िजस-िजस के साथ िजस-िजस का िववाह होना यो समझ
उस-उस पु ष और क ा का ितिब और इितहास क ा
और वर के हाथ म दे व और कह िक इस म जो तु ारा
अिभ ाय हो सो हम को िविदत कर दे ना, जब उन दोनों का
िन य पर र िववाह करने का हो जाय तब उन दोनों का
समाव न एक ही समय म होवे , जो वे दोनों अ ापकों के
सामने िववाह करना चाह तो वहां , नही ं तो क ा के माता िपता
के घर म िववाह होना यो है , जब वे सम हों तब उन
अ ापकों वा क ा के माता िपता आिद भ पु षों के सामने
उन दोनों की आपस म बातचीत, शा थ कराना और जो कुछ
गु वहार पूछ सो भी सभा म िलखके एक दू सरे के हाथ म
दे कर ो र कर लेव❞

समी क-- अब ामी जी की फोटो िववाह की लीला सु िनए,


भला इसम कौन सी ुित माण है िक क ा की फोटो वर और

P- 206
वर की फोटो क ा के अ ापक के पास जाए, जबिक वर और
क ा के पास फोटो गई तो वे सू रत के अलावा और कुछ दे ख
ही नही ं सकते , और जीवन च र कहाँ से आव जबिक दोनों
अ ापक के पास पढ़ते ह और उस समय जीवन च र की
आव कता भी ा है ? ोिक केवल िव ा अ यन के
अलावा और उनके जीवन च र म ा हो सकता है , यही की ये
ये िवषय पढ़े है या िफर और कुछ? यिद और कुछ तो वो ा
हो? और उनम कौन से च र िलख जाएं , आपने इस िवषय म
कुछ बताया ही नही,ं जो कहो िक ज से लेकर २५, ३० और
४८ वष तक का पूरा जीवन च र हो तो यह उठता है िक
उसम ा िलख? यही की ज से पाँ च वष की अव था तक
खेला कूदा उसके अलावा गु कुल म जाकर पढ़ने लगा, इसके
अलावा और ा हो सकता है और उस जीवन च र का लेखक
और सा ी कौन होगा, तु म या तु ारे िनयोगी चैले? जो कहो की
अ ापक जीवन च र िलख तो यिद एक अ ापक के पास ५०
से १०० िश भी ए और वह उनका २५, ३० और ४८ वष का
जीवन च र िलखने बै ठ जाए तो िव ाथ यों को घ ा पढ़ाये गा,
या तो िफर वो जीवन च र ही िलखेगा या िफर पढ़ा ही लेगा,
और िबना लाभ २५, ३० या ४८ वष का इितहास िलखने कौन
बै ठे? एक दो हो तो िलख भी दे पर ु जहाँ ५०-१०० िव ाथ यों
का ४८ वष तक का इितहास िलखना हो वहाँ ा पता? ोिक
जब िव ाथ अ ापक के पास ही रहे ह तो उनकी व था वे
ही ठीक कार से जानते ह और जब वह धन लेकर ही पु क
बनायगे तो यह भी सं भव है िक अिधक धन दे ने वाले के अवगु णों
को िछपाकर केवल गु ण ही िलख, ोिक वे तो इस बात को
जानते ही ह िक यिद िव ाथ यों के अवगु ण िलखगे तो उनका
िववाह नही ं होने का, इसी कार लड़की भी करे गी जो कुछ घर

P- 207
से खच िमलेगा उसम से कुछ जीवन च र िलखने वाले को भट
करे गी, जो कहो की सब ऐसे नही ं होते तो और सु नो, यिद उ ोंने
लड़के लड़की के अवगु णों का जीवन च र िलखा तो अब उनसे
कौन िववाह कर वो िकसकी जान को रोव, िवधवा पर तो आपने
मेहरबान होकर उसके वा े िनयोग और एकादश ( ारह) पित
करने को िलख िदया पर ु वे कुमारी ा कर? वो पित कर या
नही ं और कर तो िकतने कर? यह कुछ नही ं िलखा तु मने ोिक
जो अवगु णयु है उनसे िववाह कौन कर? और फोटो से पसं द
करने के उपरां त यिद उसे कोई दू सरा उससे अिधक प गु ण
वाला िमला तो वो ी िकसी दू सरे के सं ग करने की इ ा कर
सकती है इससे तु ारा यह फोटो िववाह वाला फॅामूला यही
हो जाता है

और यह गु कुल म जाने से पहले जन् म से लेकर पाँ च वष की


अव था तक का इितहास िकस काम आये गा और उसम िलखा
ा जाए? धू री म लेटना, पड़े पड़े मू ािद कर दे ना, रोटी को
ओटी, पानी को मम कहना ा यह सब भी िलखा जाए, ोिक
य ोपवीत के प ात गु कुल म िव ा अ यन के िलए गए
िव ाथ का जीवन च र िसवाय पढने के और हो भी ा
सकता है ? और यिद जीवन च र को ही माण मानते हो तो
कोई ामी जी से यह पूछे िक तु ारा और तु ारे माता िपता
का ४० वष का जीवन च र कहाँ है ? यिद कोई दयानंदी यह
बोल की 'दयानंदिद जयाक' दयानंद का जीवन च र है तो
वह तो िकसी दयानंदी चैले ने दयानंद की मृ ु के उपरां त रचा
है इसिलए वह माण नही ं जो कहे िक दयानंद ने अपना
आ च रत १८८० के 'िथयोसोिफ प ' म छपवाया तो भी
िबना सा ी यं िल खत जीवन च र माण नही ं ोिक अपना

P- 208
च र कोई अपने आप िलख तो वह अपने अवगु ण नही ं िलखता,
ोिक जो अपने अवगु ण भी िलख तो िसवाय िनंदा के कुछ
ा न हो, सो यह सं भव है िक अपना च र िलखने वाला
बडाई की इ ा से ब त कुछ अस भी िलखता है , इसिलए वो
जीवन च र माण नही,ं

और जैसा िक ईसाइयों म चिलत ह िक लड़का लड़की अपनी


मज से पादरी के सामने िववाह कर लेते ह उसी कार ामी
जी िलखते ह िक “जो वे दोनों अ ापकों के सामने िववाह
करना चाह तो वही कर लेव” ामी जी का आशय तो वही है
पर ु थोड़ा सा घुमा कर िलखा है अरे भाई िसधा-िसधा िलख
दे ना था िक ईसाई बन जाओं, ाचीन समय से आज तक तो
िपता, माता, भाई स ीयों के स ुख क ा के घर पर ही
िववाह होता आया है पर ामी जी ने यह नई था चला दी की
लड़का लड़की अपनी इ ा से अपने आप ही िववाह कर लेव,
और तो ामी जी ने यह भी खुब िलखा िक “जब उन दोनों का
िन य पर र िववाह करने का हो जाये उसके प ात ही
अ ापक उनके िपता माता को यह सू चना दे ” ध है ामी
जी आपकी बु , अरे भाई जब सारी ाचीन था िमटा ही डाली
तो इसकी भी ा ज रत है ? िसधा जब उनके ब े वगै रह हो
जाएं तो क ा के घर सू चना भीजवा दे ते, जब माता िपता से
िववाह का अिधकार ही िछन िलया तो िफर िववाह तय हो जाने
के बाद माता िपता को सू चना दे ने का ा मतलब बनता है ?
यही तो तु ारे भं ग की तरं ग है भं ग के नशे म ा िलख िदया?
खुद को खबर नही,ं

और सु िनए जब क ा के पास २५-३० लड़को की फोटो जाएगी


तो िन य ही सबम कोई न कोई अलग बात अंदाज सबम कुछ

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न कुछ तो िवशेषता अव होगी, अब पसं द िकसे कर दबाव म
िकसी एक को तो ीकार करना ही होगा, पर ु मन म तो और
पु षों का भी कटा समाया रहेगा और यही ं िभचार का
ल ण है , ोिक सभी अपने से उ म को ही चाहते ह ामी जी
गु ण कम िमलाने को िलखते ह लेिकन क ा की इ ा िवशेष म
ई और वे अ ापक गु ण कम िमलाने लगे और क ा से बोल
इनम से एक पसं द कर लो तो अब लाचारी म ही सही उसे उनम
से एक को ीकार करना ही होगा पर मन म तो और ही पु ष
रहा और ठीक यही दशा पु षों की भी है तो अब कहो वह पित
का अचल ेम और आपस की स ित कहाँ रही?

और गु ण कम घ ा िमलाव कम तो सबका पढना ही आ िफर


िमलाव ा यही की जो जो िवषय लड़के ने पढ़ा है वह लड़की
ने पढ़ा है या नही,ं कदािचत यिद लड़की को झाडू पोछा करना
आता हो तो लड़का भी झाडू पोछा करना जानता हो वना कम
कैसे िमलेगा? और गु ण कौन से िमलावे यही की यिद िकसी म
तमोगु ण हो तो दु सरा भी तमोगु णी होना चािहए जो रात िदन घर
म कलेश होता रहे , और यह ा बात ई िक गु ण कम न िमले
तो िववाह ही न कर, िवधवा िक तो कामि बु झाने को तु मने यह
दया करी िक उसे एकादश ( ारह) पित करने को िलख िदया,
ारह पित करने म कोई दोष नही ं और कुमारी पर यह कोप
की िववाह ही न कर भला उसकी सं तान उ ि की इ ा और
कामबाधा को कौन पूण करे गा? ध हे ामी जी आपकी बु ,
लगता है यह लेख िलखने से पूव भर लौटा भं ग िपया था,

और ामी जी ने यहाँ वह गु बात भी न िलखी ं िक ा पूछे,


यही की नपुंसकािद रोग तो नही ं है या ये की िवय थापन और
िवयआकषण की िविध आती है या नही,ं अब भला यह बात िबना

P- 210
परी ण ात कैसे हो? और जो गु बात है उसे अ ापक कैसे
दे ख ा वे भी िकसी कार उनसे िनल ता यु भाषण कर,
अरे भाई गु बबात को खोलकर ही िलख दे ते की िववाह से पूव
एक बार सं योग भी हो जाए तो सब भे द खुल जाएं , लेिकन अब
क ा की परी ा कैसे हो िक कही ं वह बां झ तो नही ं है ोंिक
बां झ ई तो सं तान कहाँ से होवे इसिलए या तो िकसी अ े से
डॅ ा र से जाँ च कराय या िफर दो, चार महीने सं योग होता रहे
जो गभ थत हो जाए तो िववाह कर ल अ था छोड़ द, ों
ामी जी गु बात से आपका यही अिभ ाय है न या िफर और
कुछ,

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६९,

❝िजस िदन क ा रज ला होकर जब शु हो तब वे दी और


म प रचके अनेक सु ग ािद और घृतािद का होम तथा
अनेक िव ान् पु ष और यों का यथाथो स ार कर,
प ात् िजस िदन ऋतु दान दे ना यो समझ उसी िदन
‘सं ारिविध’ पु क थ िविध के अनुसार सब कम करके
म राि वा दश बजे अित स ता से सब के सामने
पािण हणपूवक िववाह की िविध को पूरा करके एका से वन
कर,

पु ष वीय थापन और ी वीयाकषण की जो िविध है उसी के


अनुसार दोनों कर,,,,,,,,जब वीय का गभाशय म िगरने का समय
हो उस समय ी और पु ष दोनों थर और नािसका के सामने
नािसका, ने के सामने ने अथात् सू धा शरीर और अ
स िच रह, िडग नही,ं पु ष अपने शरीर को ढीला छोड़े और
ी वीय ा समय अपान वायु को ऊपर खीच
ं े, योिन को
ऊपर सं कोच कर वीय का ऊपर आकषण करके गभाशय म

P- 211
थत करे , प ात दोनों शु जल से ान कर यह बात रह
की है इतने म ही सम बात समझ लेनी चािहए िवशेष िलखना
उिचत नही❞

समी क- वाह ामी जी वाह! िववाह का समय ा अद् भु त


रखा है िक िजस िदन रज ला होकर शु हो उस िदन िववाह
कर और तु ारी बनाईं सं ार िविध के अनुसार िववाह कराव,
यह बड़ी अनोखी बात कह दी तु मने , अब यह बताओ की जब
तु ारी िलखी ं सं ार िविध नही ं थी तब काह के अनुसार िववाह
होता था, तु ारे माता िपता का िववाह कौन से ं थ के अनुसार
आ था या िफर तु म िबना िववाह के ही उ हो गए, ोकी
आपसे पहले तो आपकी सं ार िविध पु क नही थी, ोिक
तु म तो यह आरोप लगाते हो िक ा णों ने ं थ क ना कर
िलए, तो अब यह बताइये की पूव ऋिष मुिन िववाह ि या कौन
से ं थ अनुसार करते थे, ोिक यह पु क तो जब बनी ं ही नही ं
थी, और ामी जी ने इसम बनाया ही ा है ? ोिक वे द मं
तो पूवकाल से ही थे, बस तु मने उसम भाषा िलख दी है और
तृ तीया समु ास के 'पठन पाठन करण' म तु मने सब भाषा
ंथ ा माना है इसिलए यह भी भाषा िमि त होने से ागने
यो है ोंिक काय तो मं ों ारा होता है भाषा से कुछ योजन
नही,ं िफर तु मने उसम ऐसा ा बनाया है जो तु ारी सं ार
िविध से ही िववाह कराव, और जहाँ तु ारी यह सं ार िविध
पु क नही ं है वहाँ के लड़के लड़की ा कर िववाह ही न कर,

अब जरा ामी जी की सं ार िविध की िश ा सु िनए, “पु ष


ी के दय पर हाथ धर के और ी पु ष के दय पर हाथ
धर के कहे तु म सदा मेरे मन म बहते रहो” जहाँ सभी स ी
वृ ब े उप थत हो वहाँ ीयों की ऐसी ढीठता, और यह भी

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दे खए िक मन म पित को बसा रही है और िनयोग के समय
अ ारह परपु षों के साथ न सोती है वाह रे ते री सं ार
िविध, इसका नाम सं ार िविध नही ं ब िभचार िविध रख
दे ना चािहए यह तु ारा ४८ वष के बु े के साथ २४ वष य ी
का िववाह और एकादश पु षों के साथ िनयोग यह दो ल ा
नाशक िभचार के खंभ है ,

आगे सु िनए, ामी जी िलखते ह िक “िववाह स हो जाने


पर दोनों ी पु ष अित स ता के साथ सबके सामने एका
से वन कर” अब जरा सोिचए जहाँ माता िपता, भाई स ी
और वृ जन उप थत हो वहाँ उन सबके सामने से दोनों ी
पु ष लाजशील छोड़ दश ारह बजे ही एकां त से वन के िलए
चले जाए, ध हे ामी जी आपकी बु , और सु िनए आगे
िलखते ह िक “पु ष वीय थापन और ी वीयाकषण की जो
िविध है उसी के अनुसार दोनों कर ,,,,,,,,जब वीय का गभाशय म
िगरने का समय हो उस समय ी और पु ष दोनों थर और
नािसका के सामने नािसका, ने के सामने ने अथात् सू धा
शरीर और अ स िच रह, िडग नही,ं पु ष अपने शरीर
को ढीला छोड़े और ी वीय ा समय अपान वायु को ऊपर
खीच
ं े, योिन को ऊपर सं कोच कर वीय का ऊपर आकषण
करके गभाशय म थत करे ” वाह रे वाह! स ाथ काश के
बनाने वाले लालभु ज ड़ ा कहना! तु झ को ऐसी अ ील
बात िलखने म तिनक भी ल ा और शम न आई, िनपट अ ा
ही बन गया, यह ं थ है या िफर कोई कामशा , पाठकगण
जरा ान द जैसा िक ामी जी ने िलखा है िक पु ष
वीय थापन और ी वीयाकषण की जो िविध है उसी के
अनुसार दोनों कर अब यह है िक ी ने वीयाकषण का

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अ ास पहले से िकया होगा तभी तो वह वीयाकषण कर सकती
है नही ं तो नही ं इसी कार पु षों ने भी वीय थापन का अ ास
पहले से ही िकया होगा, तभी तो आता होगा, और आकर् षण
िबना योग ि या के आ नही ं सकता, अब यह ि या क ा और
पु ष को कौन िसखाव, ा यह भी अ ापक और
अ ािपकाओं के सर मढ़ोगे , ोिक जब तक ी और पु ष
का सं योग न हो तब तक उ यं आकषण का अ ास कैसे
हो सकता है ? इसी कार पु षों को भी अ ास के िलए ी की
आव कता होगी, न जाने यह िव ा ामी जी ने कहाँ से सीखी
है जब यह िविध ामी जी को आती होगी तभी तो िलखी ं ह
लगता है ामी जी ने इसका काफी अ ास िकया है तभी इतने
िव ास के साथ िलखा है

क ा के माता िपता भी ब त स होते होंगे िक हमारी पु ी


वीयाकषण कर रही है और जमाता वीय थापन कर रहे ह,
“और पित ी से कह िक म अब वीय थापन करता ँ और
वह कहती जाये छोड़ो म वीयाकषण करती ँ ” वाह रे वाह!
स ाथ काश के बनाने वाले लालभु ज ड़ ा कहने ते रे! यह
रीित तो वै ाओं तक को ल त करने वाली है , इस कार का
अ ील लेख तो से ी उप ासों म भी न िमलेगा, अपने लाडले
िश ों के मनोरं जन के िलए अ ा कामशा िलखा है , ोिक
िबना कह तो िवदु षी ी जान नही ं सकती िक कब वीयपात होने
वाला है तो अब जब पित कहे गा िक म छोड़ता ँ तो वह ी
िनल हो कह िक छोड़ो म आकषण करने के िलए तै यार ँ
दू सरी ओर क ा के माता िपता भी स होते होंगे िक पु ी
वीयाकषण कर गभधारण कर रही है , भाड़ म जाए ऐसी रीित

P- 214
जो वै ाओं तक को ल त कर दे , इससे ही ात हो जाता है
िक ामी जी ने कामशा म िकतना अ ास िकया है ,

अब जहाँ तक मने पढ़ा है िक जब तक ी का रज और पु ष


का वीय नही ं िमलता तब तक गभ की थित नही ं होती, इसिलए
जब तक रज वीय नही ं िमलते तब तक चाहे ी अपान वायु को
ऊपर खीच
ं , या िफर योिन को ऊपर सं कोच कर आकषण कर
तो भी गभ थत होना किठन ही ह

और यिद ामी जी की ही बात स मान तो स ाथ काश


और सं ार िविध से पूव सृ ि ही नही ं होनी चािहए थी और यिद
ऐसे ही होता तो तु ारा ज भी नही ं होता यिद गभ का त ाल
धारण करना ीयों के आिधन होता तो ों कोई ी बां झ
होती यह तु ारी बात रह की तो नही ं िक ु िनल ता से भरी
वण व था का स ानाश करने वाली है यह ामी जी के ही
लेख का उ र है िजतने दोष उसम गु प से िलख थे उ
खोलकर समझा िदया है िजससे िक मनु इस स तानाशक
(आय समाज) अंधकूप म िगरने से बच यह केवल दयानंद के
लेख का उ र था इसिलए ान रहे दयानंद के पंथ म आने के
बाद ये ये अनथ करने पड़गे इसका ान करने के बाद ही इधर
कदम रखना,

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६९-७०,

❝गभ म दो सं ार एक चौथे महीने पुंसवन और दू सरा आठव


महीने म सीम ो यन िविध के अनुकूल करे ,

,,,,,,,,स ान के कान म िपता ‘वे दोऽसीित’ अथात् ‘ते रा नाम वे द


है ’ सु नाकर घी और सहत को लेके सोने की शलाका से जीभ पर

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‘ओ३म्’ अ र िलख कर मधु और घृत को उसी शलाका से
चटवावे , प ात् उसकी माता को दे दे वे, जो दू ध पीना चाहै तो
उस की माता िपलावे जो उस की माता के दू ध न हो तो िकसी
ी की परी ा कर के उसका दू ध िपलावे , प ात् दू सरे शु
कोठरी वा जहां का वायु शु हो उसम सु ग त घी का होम
ातः और सायं काल िकया करे और उसी म सू ता ी अपने
शरीर के पुि के अथ अनेक कार के उ म भोजन और
योिनसं कोचािद भी करे , छठे िदन ी बाहर िनकले और स ान
के दू ध पीने के िलये कोई धायी र े , वह स ान को दू ध
िपलाया करे और पालन भी करे , ी दू ध ब करने के अथ
न के अ भाग पर ऐसा लेप करे िक िजस से दू ध िवत न हो,

प ात् नामकरणािद सं ार ‘सं ारिविध’ की रीित से यथाकाल


करता जाय❞

समी क-- भला यह चौथे आठव महीने के सं ार से ा लाभ


िवचारा है ामी जी ने ? ाचीन लोगों म तो सं ार से िनमूल
बु आरो ता शुभ कम यु क्त स ान सं ार करने से होता
है ऐसा मानते ह और ामी जी ने तो हवन म वे द मं कंठ रहने
का लाभ बताया है , िफर यहाँ सं ार से ा िस है ? ा
जाने की वो शु ही हो जाएं तो यह गभाधान के दो सं ार
िम ा ही जायगे और सं ार की ामी जी ने आव कता ही
ों िलखी ं जबिक वे पहले ही िलख आए ह िक िबना य ोपवीत
के शु को मं भाग पढ़ावे तो िफर सं ार की आव कता
ा है ? जब ४८ वष उपरां त चय हो चूकेगा तब वण म
यो ता अनुसार कर िदया जाएगा,

और जैसा िक ामी जी ने आगे िलखा है “बालक को ण की


शलाके से घी शहद चटाना जीभ पर ओम् िलखना बालक के

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कान म ते रा नाम वे द ह” ऐसा कहना इससे ा योजन है ?
तथा ामी जी ारा रिचत सं ार िविध के अनुसार बालक से
ऐसी बात कहना जैसे कोई बड़ो से कह “हे बालक म तु झे मधु
धृ त का भोजन दे ता ँ , तु झे म वे द का दान दे ता ँ , हे बालक
भू गोल, अ र , गलोक का ऐ य तु झम म धारण करता
ँ ” िवचारने की बात है ा यह ामी जी का तं नही ं है अरे
भाई आप ऐसे कहाँ के परमे र के दरोगा है जो तीनों लोकों का
ऐ य चाहे िजसे हाथ उठाया दे िदया और बालक ा भू खे
मरगे , और िजसे ि लोक का ऐ य िमल गया तो वह द र न
होना चािहए अब ोंिक जब सबके सं ार की यही िविध है तो
कोई द र नही ं होना चािहए, और बालक के कान म यह कहना
िक ते रा नाम वे द ह भला वो दस िदन का बालक ा समझे गा
िक वे द िकसे कहते ह? आठ दस वष का बालक तो वे द मं
नही ं समझ पाता और यह दस िदन का बालक वे द तक समझता
है , ध हे ामी जी आपकी बु , जो ये कहो िक यह कथन
मा है तो ज ते ही बालक को झूठ म ों फसाना?

आगे ामी जी िलखते ह िक “इसके प ात् दू सरे शु कोठरी


म जहां की वायु शु हो उसम सु ग त घी का होम ातः और
सायं काल होता हो उसी म सू ता ी अपने शरीर के पुि के
अथ योिनसं कोचािद करे ” वाह जी वाह! ा कहने ामी जी
के, योिनसं कोचन के िलए ा जगह का चुनाव िकया है ? ब त
खुब, ामी जी को योिन सं कोचन का बड़ा ान रहता है पर ु
ामी जी ने यह नही ं बताया िक सू ता ी योिनसं कोचन कब
और िकस कार कर, ात: होम के समय या िफर सां य होम के
समय कर या िफर दोनों सं ावे ला म, होम के समय
योिनसं कोचन कर या िफर होम की समा पर योिन सं कोचे

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आपने कुछ बताया नही ं और ना ही यह बताया िक िकस कार
योिनसं कोचन कर यिद कोई औषिध वगै रह िलख दे ते तो िवषयी
याँ आपसे बड़ी स होती पर ु आपने कुछ बताया ही नही ं
बस यह िलख िदया िक “जहाँ सु ग त घी का होम ातः और
सायं काल होता हो उसी म सू ता ी योिनसं कोचन कर” शोक
है ऐसी बु पर िजस थान पर होमािद कर वही ी
योिनसं कोचन कर, ा यही तु ारा धम यही तु ारी शम है ,

आगे दे खए आगे िलखते ह िक “छ: िदन तक माता दू ध िपलावे


उसके प ात सू ता ी दू ध ब करने के अथ न के
अ भाग पर ऐसा ले प कर िक िजससे दू ध ािवत न हो” ब त
खुब! दू ध रोकने के अथ न के अ भाग पर ऐसा लेप कर,
कैसा लेप कर? और काह का ले प कर? और काह को लेप कर?
गपोड़ानंद जी महाराज कुछ कारण तो िलख िदया होता, िजस
अमृत तु दू ध का कृित तः िनमाण करती है उस दू ध को
रोकने का योजन ा है ? यिद सू ता ी का दू ध थ ही
होता तो िफर यह तः बनता ही ों है ? कुछ नही ं तो उस
औषिध का नाम ही िलख दे ते िजसके लेप से दू ध का ाव क
जाए इस पु क का नाम स ाथ काश नही ं ब िनल
काश होना चािहए था ामी जी इस पु क तथा अपनी
सं ार िविध म ऐसे िम ा सं ार िलख ह जो ाचीन था के
िब ु ल िव है ,

✍ स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६४,


❝येना िपतरो याता येन याता िपतामहाः।

तेन याया तां माग तेन ग र ते ॥ ~मनु०

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िजस माग से इस के िपता, िपतामह चले हों उस माग म स ान
भी चल पर ु (सताम्) जो स ु ष िपता िपतामह हों उ ी ं के
माग म चल और जो िपता, िपतामह दु हों तो उन के माग म
कभी न चल

,,,,,,,,, िकसी का िपता द र हो उस का पु धना होवे तो ा


अपने िपता की द र ाव था के अिभमान से धन को फ़क दे वे?
ा िजस का िपता अ ा हो उस का पु भी अपनी आं खों को
फोड़ लेवे? िजस का िपता कुकम हो ा उस का पु भी
कुकम को ही करे ❞

समी क-- अथ का अनथ करना तो कोई ामी जी से सीख,


ामी जी अपनी आदत से मजबू र है ामी जी ने इस ोक
का जैसा अथ िकया है इसका अथ वै सा कतई नही ं है दे खए
ामी जी िलखते ह िक “िकसी का िपता द र हो उस का पु
धना होवे तो ा अपने िपता की द र ाव था के अिभमान से
धन को फ़क दे वे? ा िजस का िपता अ ा हो उस का पु भी
अपनी आं खों को फोड़ लेवे” ामी जी की यह बात इस थान
म सं ग के िव है भला वण व था से इस बात का ा
स ? और यह ने हीन होना ा कमानुसार ह जो तु म
िलखते हो िक “िजसका िपता अ ा हो तो ा पु भी आँ ख
फोड़ लेव” भला इस बात का इस ोक से ास ?

गलती ामी जी की नही ं है उनकी बु जहाँ तक काम करती


ह वह उतना ही िलखते ह सो ामी जी औरों का तो आपने
दु आचरण बताया, अपने बड़ो को द र और ने िवकारी
ठहराने से पूव धम और धम वालों पर आ े प िकया सो आपके
इस लेख से यह भी िविदत होता है िक आपके िपता, िपतामह
दु आचरण वाले थे इसिलए आपने उस माग को छोड़ िदया

P- 219
िजस पर आपके िपता, िपतामह चलते आए, अथात इस समय
आपके आचरणों पर आपके िश ों को चलना चािहए

दे खए इस ोक का अथ वै सा नही ं है जैसा आप िदखाने का


य करते ह इस ोक का आशय यह है िक “िजस पु
पथ पर के िपता, िपतामह, पूवज चलते रहे ह वही ं े
मत अथात स ु षों का अनु ान िकया आ है ( ोिक वे वे द
के जानने वाले थे इस कारण सं ा, अि हो , ा ािद िस ां तों
को िन ा करते थे) उसी पु पथ पर पु भी चल” यह नही ं
िक आपके िपता (अ ाशंकर) तो सनातन धम का ितपालन
कर और बे टा मूित पूजा ा ािद का खंडन करता िफर, िपता
पित ता धम का चार कर और बे टा ीयों को एकादश पित
करवाता िफर, िपता िवधवा से त कराव और बे टा िवधवा से
िनयोग करवाता िफर, माता िपता तो पु को अ े सं ारों से
पोिषत कर और बे टा माता से पु को अ ील िश ा करने को
कह, इ ािद इ ी ं आधु िनक मतों का िनषेध करते ए मनु जी ने
यह ोक िलखा है िक िजस पु पथ पर िपता, िपतामह चले
हो उसी पथ पर आप चल

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६५,


❝ ा णोऽ मुखमासीद् बा राज ः कृतः।

ऊ तद य ै ःप ा शू ो अजायत॥

यह यजुवद के ३१व अ ाय का ११वां म है , इसका यह अथ है


िक ा ण ई र के मुख, ि य बा , वै ऊ और शू पगों
से उ आ है ।

P- 220
दयानंद का उ र- इस म का अथ जो तु म ने िकया वह ठीक
नही ं ोंिक यहां पु ष अथात् िनराकार ापक परमा ा की
अनुवृि है , जब वह िनराकार है तो उसके मुखािद अंग नही ं हो
सकते , जो मुखािद अंग वाला हो वह पु ष अथात् ापक नही ं
और जो ापक नही ं वह सवश मान् जगत् का ा, ध ा,
लयक ा जीवों के पु पापों की व था करने हारा, सव ,
अज ा, मृ ुरिहत आिद िवशेषणवाला नही ं हो सकता।

इसिलये इस का यह अथ है िक जो (अ ) पूण ापक


परमा ा की सृ ि म मुख के स श सब म मु उ म हो वह
( ा णः) ा ण (बा ) बल वीय का नाम बा है वह िजस म
अिधक हो सो (राज ः) ि य (ऊ ) किट के अधोभाग और
जानु के उप र थ भाग का नाम है जो सब पदाथ और सब दे शों
मऊ के बल से जावे आवे वे श करे वह (वै ः) वै और
(प ाम् ) जो पग के अथात् नीच अंग के स श मूखतािद
गु णवाला हो वह शू है , जैसा मुख सब अंगों म े है वै से पूण
िव ा और उ म गु ण, कम, भाव से यु होने से मनु जाित
म उ म ा ण कहाता है , जब परमे र के िनराकार होने से
मुखािद अंग ही नही ं ह तो मुख आिद से उ होना अस व है ,
और जो मुखािद अंगों से ा णािद उ होते तो उपादान
कारण के स श ा णािद की आकृित अव होती। जैसे मुख
का आकार गोलमोल है वै से ही उन के शरीर का भी गोलमोल
मुखाकृित के समान होना चािहये , ि यों के शरीर भु जा के
स श, वै ों के ऊ के तु और शू ों के शरीर पग के समान
आकार वाले होने चािहये । ऐसा नही ं होता और जो कोई तु म से
करे गा िक जो जो मुखािद से उ ए थे उन की ा णािद
सं ा हो पर ु तु ारी नही;ं ोंिक जैसे और सब लोग गभाशय

P- 221
से उ होते ह वै से तु म भी होते हो, तु म मुखािद से उ न
होकर ा णािद सं ा का अिभमान करते हो इसिलये तु ारा
कहा अथ थ है और जो हम ने अथ िकया है वह स ा है ❞

समी क- दयानंद उन लोगों म से है जो बु के पीछे लठ


लेकर दौड़ते है शायद ामी जी नही ं जानते िक यह पु ष सु
का मं है इसम सृ ि उ होने का वणन है और ामी जी हे
की गु ण कम के गीत गा रहे ह, ध हे ामी जी तु ारी बु ,

यिद ामी जी इसके पूव का मं िलख दे ते तो सब भे द खुल


जाता दे खए इससे पूव ये मं है िक-
यत् पु षं ् अदधुः कितधा क यन्।

मुखं िकम् अ कौ बा का ऊ पादा ऽ उ ेते॥

~यजु वद {३१/१०}

( )- िजस परमे र का यजन िकया उसकी िकतने कारों से


क ना ई उसका मुख, बा , उ , कौन ए और कौन पाद
कहे जाते ह

इसके उत् तर म यह मं है िक--


ा णोऽ मुखमासीद् बा राज ः कृतः।

ऊ तद य ै ःप ा शू ो अजायत॥ ~यजु वद {३१/११}

(अ ) उस परमे र के, (मुखम् ) मुख से , ( ा ण) ा ण, (बा


कृतः) बा से , (राज ः) ि य, (अ यत् उ तत् वै ः)
इसकी जो उ है उससे वै और (प ां ) चरणों से , (शू :)
शू , (अजायत) उ , (आसीत) आ,

इस कार इसका सही अथ यह होता है इस मं म कोई ा ण,


ि य, वै और शू के ल ण नही ं पूछता है िक ु यह ई र

P- 222
के िवषय है , अब यिद ामी जी इसका यह अथ कर िक जो
सब दे शों म उ के बल से आव जाव वह वै है तो िफर
ामी जी यह बताए िक वै ों के अित र िजतने भी ा ण,
ि य और शू है वे सब परदे श ा रग कर जाते ह? और जो
उ के बल से आव जाव वह वै है तो िफर तो िजतने भी
ा ण, ि य और शू परदे श म आते जाते ह सब ही वै
होने चािहए, पर जो बस, टे न और जहाज से परदे श को आव
जाव उनका ा नाम है ? यह नही ं बताया, ध हे तु ारी की
बु यवन मले सब ही परदे श जाने वालों को तु मने वै
बना िदया अब कोई इन ामी जी से यह पूछे िक वे सब अपने
गां व नगर म काह के बल से चलते ह जो और कुछ बल हो तो
िफर जाने दीिजए और यिद घरों म भी जाघों के बल से ही आना
जाना हो तो सब जगत ही वै हो गया, ध हो ामी
भं गेडानंद जी ा ण, ि य और शू आपने तो सब मेट एक
ही वण बना िदया,

और सु िनए ामी जी आगे िलखते ह िक “और (प ाम् ) जो


पग के स श मूखतािद गु णवाला हो वह शू है ” वाह ामी जी
वाह! ा बात है यह तो तु मने बड़ी ही िविच बात कह दी, ा
कही ं चरण भी मुख होते ह? चरणों के भी ाने य होती है ? पैरों
को मुख कहना ठीक ऐसा है जैसे िक ईट और प र से बात
करना, ध हे ामी जी तु ारी बु , पाठकगण! यं समझ
सकते ह पैरों को मुख कहने वाले दयानंद के अ र िकतनी
बु रही होगी, और (प यां) चरणों से यह पंचमी िवभ कहाँ
खो गई और (अजायत) िजसके अर् थ उ होने के है इस
कार यह अथ होता है िक चरणों से शू उ ए और यही ं
बात मनु ृित, शतपथ ा ण आिद ं थों म भी िलखी ं ह दे खए

P- 223
इससे अगली ुित म भी उ होने का वणन है इस मं म भी
िलखा है िक -
च मा मनसो जातश् च ोः सूय ऽ अजायत।

मन से च मा और ने ों से सू य उ आ

यिद तु ारी चलती तो तु म इसका अथ भी बदलकर मन का


नाम च मा और ने ों का नाम सू य िलख दे ते,

जैसे कोई यह कह िक अ ाशंकर से दयानंद की उ ि ई तो


ा ामी जी उसका अथ यह करगे िक “अथ का अनथ
करने वाले, िवधवा की कामाि बु झाने के अथ उसे एकादश
पित करने वाले, वणसं कर की रीित चलाने वाले ारह पु षों
के िनयोग से उ होने वाले को दयानंद कहते ह”

और सु िनए ामी जी आगे िलखते ह िक “जब परमे र के


िनराकार होने से मुखािद अंग ही नही ं है तो मुखािद से उ
होना असं भव है ” अब कोई ामी जी यह पूछे यिद ई र
िनराकार है उसका कोई आकार नही ं है तो यह जो साकार सृ ि
है यह ा ामी जी के घर से ई है ?

ऋ े द तथा यजुवद के पु ष सु म पहले ही मं म परमे र


के साकार प का वणन आया है ा यह ामी जी को
िदखाई नही ं िदया िनपट अ े ही हो गए, दे खए पु ष सु का
यह मं इसम श ों म िलखा है िक-

सह शीषा पु षः सह ा ः सह पात्।

P- 224
स भूिमं िव तो वृ ा ित शांगुलमं॥ ~[ऋ ेद १०:९०:१],
[यजु वद का ३१:१]

भावाथ: वे भु अ त िसरों, आँ खों व पैरों वाले ह, वे पुरे ा ा


को आवृ त करके भी दशां गुल जगत् से परे रहते है

ा तु वे द म यह मं िदखाई नही ं पड़ते , और यिद तु ारे


कथनानुसार ही बात कर तो िफर तो िनराकार से िनराकार सृ ि
उ होनी चािहए पर ु उससे सं सार मूितमान उ आ,
दे खए यजुवद म भी िलखा है िक-
त ाद् य ात् सव त ऽ ऋचः सामािन जि रे ।

छ ाम् िस जि रे त ाद् यजु स् त ाद् अजायत॥

त ाद् अ ा ऽ अजाय ये के चोभयादतः।

गावो ह जि रे त ात् त ाज् जाता ऽ अजावयः॥

च मा मनसो जातश् च ोः सूय ऽ अजायत।

~{यजु वद अ ाय ३१, मं ७,८,१२}

उसी िवराट पु ष से ऋ े द, यजुवद, सामवे दािद, उससे ही गाय,


घोड़े , बै ल आिद पशु, मन से च मा ने ों से सू य आिद उ
ए,अब बोिलए यिद वह िनराकार है उसके कोई अंग नही ं है
तो िफर िनराकार से यह साकार कैसे उ हो गए? जो यह
कहो की वे द का अि , वायु, सू य आिद के दय म काश आ
तो यह होगा िक वह अि , वायु , सू यािद कहाँ से आये , जो
कहो की अपने आप उ हो गए तो यं भू होने से वे ही ई र
हो गए और जो यह कहो की ई र ने उ िकए तो ाई र
मनु ाकृित का है ? तो िफर यह गाय, घोड़े , बै ल, बकरी आिद
कहाँ से उ हो गए, ा इनका भी िकसी के दय म काश
कर िदया था? और िजनके दय म िकया वे कहाँ से आए, इसी

P- 225
दो कौड़ी के ान के बल पर ामी जी यं को त ानी
समझते ह ई र की श की कुछ खबर नही,ं ध हे ामी
जी तु ारी बु , इसी कार इस ुित का आशय लेकर ही मनु
जी ने भी यह ोक िलखा है दे खए--
लोकानां तु िववृद् थ मुखबा पादतः।

ा णं ि यं वै ं शू ं च िनरवतयत्॥

~मनु ृित {अ ाय १, ोक ३१}

लोकों की वृ के अथ ई र ने मुख, बा , उ और पाद से


मशः ा ण, ि य, वै और शू को उ िकया” इस
कार ामी जी ारा िकया अथ िम ा िस होता है और
सु िनए आगे ामी जी मूखता के सारे रकॉड तोड़ते ए िलखते
ह िक-

“जो मुखािद अंगों से ा णािद उ होते तो उपादान कारण


के स श ा णािद की आकृित अव होती, जैसे मुख का
आकार गोलमोल है वै से ही उन के शरीर का भी गोलमोल
मुखाकृित के समान होना चािहये , ि यों के शरीर भु जा के
स श, वै ों के ऊ के तु और शू ों के शरीर पग के समान
आकार वाले होने चािहये ” ामी जी को मुखानंद ऐसे ही नही ं
बोला जाता ामी जी ा अंड सं ड बके जा रहे ह वे यं नही ं
जानते , ामी जी का यह लेख पढ़कर िविदत होता है िक ामी
जी म बु की ब त कमी है , ोंिक जो उ ादन कारण के
स श आकृित लेते हो तो जो योिन से उ होते ह उनका
आकार योिन के समान होना चािहए, इसी कार िनराकार से
िनराकार ही उ होना चािहए, पर ु ऐसा दे खने म नही ं आता,
इसी से पता चल जाता है िक ामी जी म िकतनी बु रही

P- 226
होगी, प ा यह गपोड़ा तो ामी जी ने गहरे भं ग के नशे म धु त
होकर ही िलखा है

॥िनयोग करण॥

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८२,

❝( )-पुनिववाह म ा दोष है ?

(उ र)- (पहला) ी पु ष म ेम ून होना ोंिक जब चाहे


तब पु ष को ी और ी को पु ष छोड़ कर दू सरे के साथ
स ् कर ले ,

(दू सरा) जब ी वा पु ष पित ी मरने के प ात् दू सरा िववाह


करना चाह तब थम ी के वा पूव पित के पदाथ को उड़ा ले
जाना और उनके कुटु वालों का उन से झगड़ा करना,

(तीसरा) ब त से भ कुल का नाम वा िच भी न रह कर उसके


पदाथ िछ िभ हो जाना,

(चौथा) पित त और ी धम न होना इ ािद दोषों के अथ


ि जों म पुनिववाह वा अनेक िववाह कभी न होने चािहये

(दे खए िफर इसी के िव पृ ८३ पर िलखा है )

,,,जो चय न रख सके तो िनयोग करके स ानो ि कर ल


P- 227
समी क-- वाह रे ! ामी िनयोगानंद जी ा दोष िगनवाये है ?
ा यह सभी दोष तु ारे ारा ही िलख लेखों से खंिडत नही ं
होते ? दे खए-

(पहला) ामी जी के अनुसार पुनिववाह से ी पु ष म ेम


ून होता है , तो अब ामी जी यह बताए िक जो तु मने ी
पु ष के रहते ारह अलग-अलग पु ष और ी से िनयोग
स बनाना िलखा है ा उससे उस ी पु ष के म ेम
ून नही ं होता? ा एकादश परपु षों और यों के साथ
िनयोग करने से पित प ी के बीच ेम बढ़ता है ? कदािप नही,ं
उ ा इससे तो उनके बीच ेम और ून होगा, एक तरफ तो
ामी जी पुनिववाह का िवरोध करते ह और दु सरी तरफ इस
महाअधम िभचार िनयोग था को बढ़ावा दे ते ह यह ामी
जी का दोगलापन नही ं तो और ा है ?

(दू सरा) ामी जी ारा चलाए महाअधम िभचार िनयोग था


के अनुसार जब ी एकादश िनयु पु षों के साथ सं भोग
करे गी तो िनि त ही ी पु ष के म ेम ून हो जाएगा और
यह भी सं भव है िक ी पित को छोड़ दू सरे िनयु पु ष पर
मोिहत हो जाएं और िनयु पु ष के साथ िमलकर पित के
पदाथ को उडा ले जाये , इससे पुनिववाह का तो पता नही ं पर ु
तु ारे ारा चलाए इस महाअधम िभचार िनयोग म यह दोष
अव है ,

(तीसरा) तु ारे ारा चलाए इस महाअधम िनयोग से ब त से


भ कुल का नाम वा िच मेटना सं भव है ,

(चौथा) पुनिववाह से पित धम और ी धम न हो


जाता है और ारह अलग-अलग ी पु ष के साथ सं भोग

P- 228
करने उनके साथ न होकर सोने से पित धम और ी
धम न नही होता, वाह रे ! ामी िनयोगानंद ा कहने तु ारे ,
शोक है ऐसी बु पर, िक ारह अलग-अलग ी पु ष के
साथ सं भोग करने से पित धम और ी धम खंिडत नही ं
होता और पुनिववाह से खंिडत हो जाता है , ध हे ! ामी जी
तु ारी बु ,

यहाँ तक िक मनु जी ने ंय इस महाअधम िनयोग को पशुधम


बताते ए इसकी िन ा की है दे खए मनु जी िलखते ह िक--
अनेकािन सह ािण कुमार चा रणाम्।

िदवं गतािन िव ाणामकृ ा कुलसंतितम्॥१५९॥

मृते भत र साढ् वी ी चय व थता।

गग पु ािप यथा ते चा रणः॥१६०॥

अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते।

सेह िन ामवा ोित परलोका हीयते॥१६१॥

पितं िह ापकृ ं मु ृ ं या िनषेवते।

िन ैव सा भवे ोके परपूवित चो ते॥१६३॥

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम्।

गालयोिनं ा ोित पापरोगै पी ते॥१६४॥

~मनु ृित [अ ाय ५, ोक १५९-१६४]

भावाथ- यिद िकसी ी के पित की मृ ु िबना िकसी सं तान को


उ िकए हो जाए तब भी ी को अपनी स ित के िलए िकसी
दू सरे पु ष का सं ग नही ं करना चािहए ॥१५९॥

P- 229
स ान उ नही ं करने वाले चारीयों की तरह पित की
मृ ु के बाद चय का पालन करने वाली ी पु वती नही
होने पर भी ग ा करती है ॥१६०॥

पु पाने की इ ा से जो ी पित त धम को तोड़ कर दू सरे


पु ष के साथ सं भोग करती है उसकी इस सं सार म िनंदा होती
है तथा परलोक म बु री गित िमलती है ॥१६१॥

अपने पित का ाग कर जो ी िकसी अ पु ष का सं ग


करती है वह इस सं सार म िनंदा का पा बनती है और दो पु षों
की अंकशाियनी बनने का कलंक लगवाती है ॥१६३॥

पित के अित र िकसी अ पु ष से सं भोग करने वाली ी


इस सं सार म म िनंदा का पा बनती है और मृ ु के प ात
गीदड़ की योिन म ज लेती है तथा कोढ़ जैसे अनेक असा
रोगों से पीड़ा पाती है ॥१६४॥

मनु जी के इन वचनों से यह िस हो जाता है िक दयानंद ारा


चलाया गया महाअधम िनयोग था पुरी तरह से धम शा ों के
िव है और यिद तु ारे मतानुसार सं तान के ही अथ िनयोग है
तो िफर यह बताइए िक जो ी िवधवा हो और बां झ भी हो तो
वह सं तान कैसे उ कर सकती है ? जो यह कहो की वह
जाित का बालक गोद ले लेव, तो िफर इस महाअधम
िभचार िनयोग की आव कता ा है ? िजस िकसी को पु
ा की इ ा होगी वह गोद ले लेव और तो और गोद िलया
पु सं ार यु होने से उससे शु ही है जबिक महाअधम
िनयोग से उ पु वै सा शु नही ं हो सकता ोंिक उसम
परपु ष के साथ भोग करना पड़ता है िजस कारण ी का
पित धम न हो जाता है इस कारण पु गोद ही ों न

P- 230
िलया जाए? अब यिद पु के अथ िनयोग करते हो तो िफर कुछ
लाभ नही ं हाँ यिद कामि बु झाने के अथ यह वै ा धम चलाया
है तो दू सरी बात है

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८३,

❝( ) पुनिववाह और िनयोग म ा भे द है ?

(उ र)-(पहला) जैसे िववाह करने म क ा अपने िपता का घर


छोड़ पित के घर को ा होती है और िपता से िवशेष स ्
नही ं रहता और िव ा ी उसी िववािहत पित के घर म रहती
है ।

(दू सरा) उसी िववािहता ी के लड़के उसी िववािहत पित के


दायभागी होते ह और िव ा ी के लड़के वीयदाता के न पु ा
कहलाते न उस का गो ा होता और न उस का उन
लड़कों पर रहता िक ु मृतपित के पु बजते , उसी का गो ा
रहता और उसी के पदाथ के दायभागी होकर उसी घर म
रहते ।

(तीसरा) िववािहत ी-पु ष को पर र से वा और पालन करना


अव है |और िनयु फ ी-पु ष का कुछ भी स ् नही ं
रहा।

(चौथा) िववािहत ी-पु ष का स ् मरणपय रहता और


िनयु ी-पु ष का काय के प ात् छूट जाता है ।

(पां चवां ) िववािहत ी-पु ष आपस म गृ ह के काय की िस


करने म य िकया करते और िनयु फ ी-पु ष अपने -अपने
घर के काम िकया करते ह❞

P- 231
समी क-- न जाने ामी जी ने िनयोग के यह पाचँ िनयम कौन
सी सिहं ता से िनकाले ह? ा यह ामी जी की िम ा क ना
नही ं है ? ान दे ने वाली बात है िक इससे पूव जो ामी ने
पुनिववाह के चार दोष िगनवाए है ा वे चारों दोष इन पाँ च
िनयमों से नही टू टते ? दे खए-

(पिहला)- जब ी पित के घर पर ही रहती है तो सास ससु र


की लाज भी अिधक होती है िजस कारण वह पर-पु ष से
भाषणािद म भी सं कोच करती है लेिकन हमारे ामी
िनयोगानंद जी तो समाजीयों को यह आदे श करते ह िक वह
पित के घर पर ही पर-पु ष को बु लाकर (भोग का नंगा नाच)
िनयोग कर, और ोिक ीयों म तो वै से भी पु ा की
ब तइ ा होती है ऐसे म पर-पु ष के साथ िनयोग करने से
उनका पित से भी ेम ू न हो जाएगा ोंिक यह तो उनको
िविदत ही है िक यिद पित मर जाये गा तो ामी दयानंद जी के
आ ानुसार िकसी अ पु ष के साथ सं भोग कर पु उ
कर लेगी, िफर पु े ि त कम आिद कुछ करने की
आव कता नही ं और ल ा आिद सब खो बै ठेगी, इसिलए
ामी दयानंद ारा चलाया यह महाअधम िनयोग ीयों को
िभचारी बनाने की िविध है इससे ादा कुछ नही,ं

(दू सरा)- ामी जी की बु म ान कम गोबर ादा भरा है


दे खए वे दों म ा िलखा ह?--
अंगादं गात स विस दयादिध जायसे।

आ ािस पु ा मा मृथाः स जीव शरदः शतम्॥ ~यह सामवेद वेफ


ा ण का वचन है ।

P- 232
हे पु ा! तू अंग-अंग से उ ए वीय से और दय से उ
होता है , इसिलये तू मेरा आ ा है , मुझ से पूव मत मरे िक ु सौ
वष तक जी, तो अब कोई इन िनयोगानंद जी से यह पूछ की जब
पु िपता के अंग अंग से उ होता है एवं उसी की आ ा का
अंश आ तो अब िनयु पु ष से उ सं तान चाहे िकसी के
भी घर ों न रहे ? उसम िनयु पु ष के ल ण अव
आयगे , और वह पु है भी उसी का, ोिक आम बोने से आम
ही होता है इसीिलए िनयु पु ष से उ ई सं तान का मृत
पु ष से कुछ भी सं बंध नही ं रहा, और जब िनयु पु ष से
उ पु मृतक के धन का अिधकारी आ तो ामी का यह
तक की (यिद पुनिववाह होगा तो धन दु सरो के हाथ लग जाये गा)
िम ा ही आ ोिक अब भी उसका धन दू सरे के हाथ ही
लगा, अपना पु तो तभी होगा जब अपने से उ होगा, ोिक
िनयु पु ष से उ पु उसके अंग अंग से उ एवं उसी
की आ ा का अंश आ सो मृतक से उसका कुछ स न
रहा, अथात दयानंद का यह दू सरा क त िस ा भी ए
जाता है ।

(तीसरा)- िववािहत ी पु ष तो बस नाम के ही रहे , ोिक


ारह परपु ष, और यों के साथ भोग करने से उनका
पाित और प ी धम तो पहले ही खंिडत हो चूका, वह तो
वे ा समान हो गई िफर घ ा ी पु ष का स रह गया,
जैसा उसके िलए िनयु पु ष वै से उसका पित वै से भी ामी
जी ने ारह पु षों तक िनयोग की आ ा दे रखी है सो ामी
जी के आ ानुसार वह जब चाहगी तब पित को ाग िकसी अ
पु ष का सं ग कर लगी, इसीिलए जैसे इस महाधम िनयोग को
करने वाले के िलए िनयु ी-पु ष से कुछ स नही ं रहता

P- 233
सो वै से ही अपने पित-प ी से भी कुछ लगाव नही ं रहता जो
होता तो इस महाधम िभचार िनयोग की आ ता ही न
रहती, यह तो बस ामी जी ने कामाि बु झाने को एक
वै ाधम चला रखा है ।

(चौथा)- परम पू ीय ामी िनयोगानंद जी िलखते हे िक


िनयु ी-पु ष का स कायिस के बाद छूट जावे , अब
ान दे ने वाली बात हे की ामी जी ेक िनयु ी पु ष
को दश पु उ करने की आ ा दे ते है , अथात जब ी
नयोग से िनयु पु षों और अपने िलए दश पु तक उ
कर लेव तब िनयु पु षों से स छूट जावे , तो इसका उ र
यह हे िक यिद िवषयी ी दो-दो वष पर भी एक पु उ
करती है तो वह लगभग २० वष तक िनयोग से पु उ
करती रहगी, और यह भी स व नही ं की वह हर बार पु को
ही ज दे , ब दे खा जाए तो पु ो की तु लना म पुि यों का
ज अिधक होता है ोंिक पु षों के वीय म दो कार के
गु णसू होते है िज आधु िनक भाषा म X और Y कहते है
जबिक यों म केवल X पाया जाता है , होता यह है की जब
पु ष का X ी के X से िमलता है तो पु ी ज लेती है और
जब पु ष का Y ी के X से िमलता है तो पु ज लेता है ,
इसिलए यह स व नही ं की ी हर बार पु को ही ज दे ,
िफर भी यिद एक बार को मान िलया जाए की वह हर बार पु
को ही ज दे ती है तो भी वह लगभग २० वष तक नयु
पु षों के साथ भोग करती है , तो अब भला २० वष तक िजस
ी का स अलग-अलग पु षों से रहा हों वह तु र कैसे
छु ट सकता है ? जो ी एक बार परपु ष गािमनी हो चुकी हो

P- 234
िफर ा सं तान के लालच से वह ि ित छूट सकती है ? भला २०
वष का अ ास तु र कैसे छूट सकता है ?

और ी पु ष का स मरणपयत घ ा रहा जब ी २०
वष तक िनयु पु षों से िनयोग कर सं तान उ करती
रहे गी तो ी का स तो िनयु पु षों के साथ ही रहा, इस
कार ामी जी का चौथा िनयम भी ए जाता है ।

(पाँ चवां)- यह बात तो ामी जी ने िवषयी पु षों के लाभ की


िलख दी िक रात को िनयु ी पु ष एक िब र पर और
सवे र अपने -अपने घर का कामकाज कर, सो इससे िवषयी
पु षों का ब त धन बच जाये गा, ोंिक वै ा के यहाँ जाने से
धन खच होता है , पर ु तु ारे िनयमानुसार िवषयी पु ष राि
को िनयु ी के घर म वे श कर गए और सवे र चले आए,
जब तक गभ न रहे यही कृ बार-बार दोहराते रहों,

अब जब ी को सं तानाथ ारह पु षों की आ ा है तो अ े


वीय वाले पु ष तो ब त कम ही होंगे और िबना सं भोग परी ा
नही ं होती तो लीिजये अब सै कड़ो पित बनाने पड़े और जो कोई
मनोहर िमल गया तो ससु र और पित की कमाई जीवनपयत
तु े दु वाएं दे ते रहग, शौक हे ! ऐसी बु पर

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८३,

❝( ) िववाह और िनयोग के िनयम एक से ह वा पृथक्-


पृथक्?

(उ र) कुछ थोड़ा सा भे द है , िजस की ी वा पु ष मर जाता है


उ ी ं का िनयोग होता है ,

P- 235
“वही िनयु ी दो तीन वष पय उन लड़कों का पालन
करके िनयु पु ष को दे दे वे, ऐसे एक िव ा ी दो अपने
िलये और दो-दो अ चार िनयु फ पु षों के िलए दो-दो
स ान कर सकती और एक मृत ीपु ष भी दो अपने िलये
और दो-दो अ अ चार िव ाओं के िलये पु उ कर
सकता है । ऐसे िमलकर दस-दस स ानो ि की आ ा वे द म
है , जैसे-
इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु ।

दशा ां पु ानाधेिह पितमेकाद शं कृिध || -(ऋ० १०/८५/४५)

हे (मीढ् व इ ) वीय से चन म समथ ऐ ययु फ पु ष !तू इस


िववािहत ी वा िव ा ायों को े पु और सौभा यु
कर, इस िववािहत ी म दश पु उ कर और ारहवी ं ी
को मान !हे ी !तू भी िववािहत पु ष वा िनयु पु षों से दश
स ान उ कर और ारहव पित को समझ❞

समी क-- ध है ! ामी जी कलयु ग तो िधरे -िधरे आता था


अपने उसे शी वत करने का ढं ग िनकाला, आपके अनुसार
एक ी चार िनयु पु षों के अथ और दो अपने िलए पु
उ कर ल, यह तो जैसे घर की खेती समझ ली की जब गये
पु हो गया, क ा का कोई नाम ही नही ं बस पु ही पु होंगे,
यिद यह ई र की आ ा है तो ई र स सं क है सबके पु ही
उ होने चािहए क ा एक भी नही,ं बस सारा िनयोग यही
समा हो जाता है , पर ु यह दे खने म नही ं आता तु म तो अपने
िम ा भा ों से ई र को भी झूठा बनाते हो, इसिलए इस ुित
का अथ यह नही ं बनता जैसा तु मने िकया है ब त से लोग
िनसं तान भी होते ह यह िभचार चार मूख िनयोग समाजीयों
के साथ-साथ सम भारतवािसयों को घोर अंधकार म डालने

P- 236
वाला है , इसम वे द मं ों को ों सानते हो? यिद इतनी ही ादा
खुजाई मच रही थी तो कोई अपनी ही िम ा सं ृ त बना लेते,
तु ारे चैले तो उसे भी प र की लकीर मान लेते, दे खए वे दों म
ऐसी बात कभी नही ं होती, यह मं िववाह करण का है जो
आशीवाद के अथ म है और इसका अथ इस कार है --
”हे इ परमए य यु दे व (मीढ:) सवसु खकारी पदाथ की
वृ ि करने वाले इस ी को भी पु वती धनवती करों, और दश
इसम पु ों को धारण करो भाव यह है िक दश पु पैदा करने के
अ इस ी म थािपत करों और ारहवां पित को करों
अथात जीिवत पित और जीिवत पु इसको करों” इसका अथ
यह है जो ामी िनयोगानंद जी ने कुछ का कुछ िलख िदया है ,
और ामी जी ने यह न सोचा िक यिद एकादश पित पय
िनयोग करने की ई र की आ ा है , तो ई र तो स सं क है
तब तो सब ीयों के दश-दश पु से कम नही ं होने चािहए यिद
दश से कम होंगे तो ई र का सं क िन ल होगा, इससे
ामी जी का िकया अथ अशु है ।
अब िवचारने की बात यह है िक इसम िनयोग चारक कौन सा
श है ? िजस मं मे िनयोग िक गं ध तक नही है ामी
िनयोगानंद जी ने उसे भी िनयोग से जोड िदया, दयानंद जी ने तो
यह समझ िलया िक हमारे अनुयायी हमारे वा ों को प र की
लकीर मानते ह और वे दभा भी हमारा िकया ही मानते ह
इसिलए जो चाहे सो अंड सं ड बकवास िकये जाय, इस िहसाब
से तो तु ारे मत म िकसी के दश से कम पु नही ं होने चािहए
और िजनके दश से कम है वह तु ारे वा ानुसार कुछ िचंता
कर, और दश सं तान म समय िकतना लगे गा यह भी तु मने न
िलखा।

P- 237
स ाथ काश चतुथ स ुलास पृ ८४

❝( ) है तो ठीक, पर ु यह वे ा के स श कम िदखता है

(उ र) नही,ं ोंिक वे ा के समागम म िकसी िनि त पु ष वा


कोई िनयम नही ं है और िनयोग म िववाह के समान िनयम ह,
जैसे दू सरे को िववाह म लड़की दे ने से ल ा नही ं आती, वै से ही
िनयोग म भी ल ा नही ं करनी चािहये,

( ) हम को िनयोग की बात म पाप मालूम पड़ता है ,

(उ र) जो िनयोग की बात म पाप मानते हो तो िववाह म पाप


ों नही ं मानते ? पाप तो िनयोग के रोकने म है ? ोंिक ई र
के सृ ि मानुकूल ी पु ष का ाभािवक वहार क ही
नही ं सकता, िसवाय वै रा वान् पूण िव ान् योिगयों के, ा
िव ा ी और मृतक ी पु ष के महास ाप को पाप नही ं
िगनते हो? ोंिक जब तक वे यु वाव था म ह मन म
स ानो ि और िवषय की चाहना होने वालों को िकसी
राज वहार वा जाित वहार से कावट होने से गु -गु
कुकम बु री चाल से होते रहते ह,

और जो िजते य रह सके िनयोग भी न कर तो ठीक है , पर ु


जो ऐसे नही ं ह उन का िववाह और आप ाल म िनयोग अव
होना चािहये ,

( ) िनयोग म ा- ा बात होनी चािहये ?

(उ र) जैसे िस से िववाह, वै से ही िस से िनयोग, िजस


कार िववाह म भ पु षों की अनुमित और क ा-वर की
स ता होती है , वै से िनयोग म भी अथात् जब ी-पु ष का

P- 238
िनयोग होना हो तब अपने कुटु म पु ष यों के सामने कह
की हम दोनों िनयोग स ानो ि के िलये करते ह, जब िनयोग
का िनयम पूरा होगा तब हम सं योग न करग।

( ) िनयोग अपने वण म होना चािहये वा अ वण के साथ


भी?

(उ र) अपने वण म वा अपने से उ मवण थ पु ष के साथ


अथात्

वै ा ी वै , ि य और ा ण के साथ; ि या ि य और
ा ण के साथ; ा णी ा ण के साथ िनयोग कर सकती है |
इसका ता य यह है िक वीय सम वा उ म वण का चािहये ,
अपने से नीचे वण का नही,ं ा◌ी और पु ष की सृ ि का यही
योजन है िक धम से अथात् वे दो रीित से िववाह वा िनयोग
से स ानो ि करना❞

समी क-- यं ही करते है की यह कम वै ा के स श


िदखता है , और िफर यं ही उ र दे ते है की नही,ं अखंड
चुितयापा है ! यिद यह कम वे ा के स श न होता तो िफर
ामी जी के मुख से ऐसी बात िनकलती ही ों? जैसी बात
होती है वै सी मुख से िनकल ही जाती है ,

और जो ामी जी ने यह िलखा है की “वै ा के समागम म


िकसी िनि त पु ष का िनयम नही ं है और िनयोग म िववाह के
समान िनयम है ” सो सु िनए िनयोग म कोई िनयम नही ं है
ारह पित बनाने तक की आ ा है बस िनयम कैसा? दे खए
िजस कार िवषयी पु ष वै ालय म जाकर िकसी भी दश,
ारह वै ाओ म से िकसी एक को पसं द कर उसका सं ग
करते है , िठक इसी कार का िनयम तु ारे ारा चलाये इस

P- 239
महाधम िनयोग म है , आपके आ ानुसार िवषयी ी-पु ष
िकसी भी ारह ी-पु ष तक के सं ग अपना मुँह काला करवा
सकते है इसिलए यह कहना की िनयोग म िववाह की भाँ ित
िनयम है यह बात पूरी तरह से गलत है िनयोग म िकसी भी
कार का कोई िनयम नही ं है यिद है भी तो वही वे ाओं वाले
इसिलए िववाह और िनयोग के िनयम समान बताकर अपने
एकादश िनयोग से उ होने का माण न िदिजये ,

आगे ामी जी िलखते ह िक “जै से िववाह म ल ा नही ं वैसे ही


िनयोग म ल ा नही ं करनी चािहए” ध हे ! ामी जी, यहाँ
आपकी आ ानुसार आपके अनुयािययों की ीयाँ गै रों के पलंग
पर गै म बजवा रही है वै ाओं की भां ित ारह- ारह पित
बनाने की आ ा करते हो, और कहते हो िक िनयोग म ल ा
नही करनी चािहए, यहाँ तो आपने लाज को भी ितलां जिल दे दी,
इस पु क का नाम स ाथ काश नही ब िनल काश
रख दे ना चािहए, आपके ारा चलाया यह महाअधम िनयोग
यों को िभचारी बनाने की िविध से ादा कुछ नही ं है ,

और “जबिक ई र की सृि मानुकूल मनु का भाव


कामचे ा से क नही ं सकता तो भला यौिग कैसे रोक सकते ह?”
जो यौिग रोक ल तो ई र का सृ ि म वृ था हो जाएगा और जो
यौिगयों ने सृ ि मउ ं घन कर िदया तो वे ई र की इ ा के
ितकूल ए, और जब यौिगयों को सृ ि म नही ं ा ा िफर
तो वे सब ही कुछ सृ ि म के िव कर सकते ह इससे
ामी जी बात पर र िव होने से अ माण है ,

दे खए िपछे तो ामी जी ने िनयोग से स ानो ि का योजन


बताया और अब िलखा िक ❝जवान ी-पु ष िवषय की चाहना
होने से स ािपत होते ह, िनयोग से उसे शांत कर लगे❞ यह बात

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यं ामी जी पर िबित है नही ं तो "जाके पैर न फटै िववाई, सो
ा जाने पीर पराई, यह सू झती कैसे ? िफर आगे िलखा िक जो
िजते य रहे िनयोग न कर तो ठीक है , यह ा कह िदया
आपने ? िपछे तो िलख आए िक ई र के सृ ि मानुकूल ी
पु ष का भाव कामचे ा से क नही सकता िसवाय यौिगयों
के इस तरह की पर र िव बात कोई महाचुितया ही िलख
सकता ह िव ान नही,ं मानो जैसे मुह द की भां ित
दयानंद जी भी रातों रात ई र से िमल आये और ई र ने सारा
सृ ि म दयानंद को बता िदया है , यिद यही ई र का सृ ि म
है तो मनु इसे कैसे रोक सकते ह? और जो रोक ल तो वे
सृ ि म के िव ई र के इ ा के ितकूल करते ह इससे
ई र का सृ ि म वृ था हो जाता है ध हे ! ामी जी आपकी
बु , दयानंद जी तो सृ ि म को लेकर यं िमत है और चले
है पंिड़त बनने ,

िफर आगे िलखा है िक ❝जो न क सके तो उनका


िनयोगिववाह करवा दो❞ यह ा अब तक तो िवधवा िववाह
का िनषेध करते रहे और अब यं ही िववाह की आ ा सु ना दी
जो कहो की िववाह कुमार कुमारी का कहा है सो यहाँ यह सं ग
नही,ं और उनका तो होता ही िलखने की ा आव कता है ?
या वे भी िजति य रहे िफर आपके मतानुसार ई र की सृ ि
कैसे बढे गी? यिद यह पशुधम भारत म चलता तो यह दे श
रसातल को चला जाता,
❝आप ही ऊंच नीच वण म िभचार होने से कुल म कलंक और
वंशो े द होना िलखते ह और आप ही अपने से उ वण का वीय
िनयोग म हण करना िलखते ह❞ अखंड चुितयापा है आपका
ऊंच नीच तो हो ही गया दे खए मनु ृित--

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सववणषु तु ासु प ी तयोिनषु ।

आनुलो ेन संभूता जा ा ेया एव ते॥१०/५॥

ा ण, ि य, वै और शू चारों वण को अपनी समान जाित


की क ा से यथाशा िववाह वहार करके उस उस ी से
जो सं तान उ होवे उसे उसी जाित का जानना चािहए शेष
वणसं कर जाने ,

ामी जी ने यहाँ मनु ृित ने दे खी इ ा तो भारतवष को


वणसं कर बनाने की थी पर ु यमराज ने पूण नही ं होने दी,

पुनः लेख है ❝जै से िस से िववाह, वैसे ही िस से िनयोग


कर❞ िस करने को टीवी, अखबार आिद म इ हार दे दे ,
काड वगै रह छपवाकर र े दारों म बं टवा दे , िढं ढोरा िपटवा दे
िमठाई वगै रह बटवां दे िक म िनयोग क ँ गा अब मुझसे और
नही ं रहा जाता, ठीक इसी कार वह ी भी कर िकतनी
िनल ता भरी है ये बात ा कह?

िफर िलखा है िक ❝िनयोग और िववाह से ई र की सृि का


योजन है❞ यिद ई र की यही इ ा थी िक सृ ि बढ़ तो उसने
अि वायु आिद की भां ित करोड़ों जीव एक साथ ों न उ
कर िदये , अथवा ीयों को िवधवा ों िकया? जो उनके पित
रहते तो बे चारी इस महाअधम िनयोग को करने से तो बच जाती,
यिद कहो की यह सु ख दु ःख मानुसार ही होता है , मानुसार
ही िवधवा होती है , तो भी आप सृ ि म के िव ही करते ह,
ोिक ई र जब मानुसार सु ख दु ःख दे ता है , तो जो
मानुसार दु ःख भोगने को िवधवा ई तु म उसका कमानुकूल
दु ःख मेटने का उपाय करके ई र का िनयम तोडने का पय
करते हो, और िनयोग से सृ ि नही ं बढ़ सकती उसकी सृ ि

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अन है कौन पार पा सकता है ? इस ां ड म उसने अनिगनत
लोक रच िदये है िकसी के बढ़ाये घटाय से उसकी सृ ि घट बढ़
नही ं सकती आप पु ष का दु सरा िववाह नही ं बताते ह सु िनये -
व ा मेऽिधवे ाऽअ े दशमे तु मृत जा।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥

या रोिगणी ा ु िहता संप ा चैव शीलतः।

सानु ा ािधवे ा नावमा ा च किह िचत्॥

~मनु ृित [अ ाय ९, ोक ८१-८२]

पि यिद व ा हो तो आठ वष उपरा , बार-बार मृत ब ों


को ज दे ती हो तो दश वष उपरा , या केवल क ाओं को ही
ज दे ती हों तो ारह वष उपरा पित दु सरा िववाह करने का
अिधकारी है और यिद पि अि य बोलने वाली है तो पित
त ाल दु सरा िववाह कर सकता है ।

ी के ब त िदनों से रोगी होने पर िक ु च र की धनी तथा


पित का िहत चाहने वाली होने पर पित को चािहए िक वह प ी
की अनुमित लेकर ही दू सरा िववाह कर, उसका अवमान करना
उिचत नही ं है ।

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८५,

❝( ) जैसे िववाह म वे दािद शा ों का माण है , वै से िनयोग


म माण है वा नही?ं

(उ र) इस िवषय म ब त माण ह। दे खो और सु नो-


कुह ोषा कुह व ोरि ना कुहािभिप ं करतः कुहोषतुः ।

को वां शयु ा िवधवेव दे वरं मय न योषा कृणुते सध थ आ ॥ -ऋ०


मं० १० | सू० ४० | मं० २॥

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हे (अि ना) ी पु षो !जैसे (दे वरं िवधवे व ) दे वर को िवधवा
और (योषा मय ) िववािहता ी अपने पित को (स थे) समान
थान श ा म एक ा होकर स ानो ि को (आ कृणु ते) सब
कार से उ करती है , वै से तु म दोनों ी पु ष (कुह
ोषा) कहां राि और

(कुह व ः) कहां िदन म वसे थे? (कुहािभिप म) कहां पदाथ


की ा (करतः) की? और (कुहोषतु ः) िकस समय कहां वास
करते थे ? (को वां शयु ा) तु ारा शयन थान कहां है ? तथा कौन
वा िकस दे श के रहने वाले हो? इससे यह िस आ िक दे श
िवदे श म ी पु ष सं ग ही म रह और िववािहत पित के समान
िनयु पित को हण करके िव ा ी भी स ानो ि कर
लेवे।

( ) यिद िकसी का छोटा भाई ही न हो तो िव ा िनयोग


िकसके साथ करे ?

(उ र) दे वर के साथ, पर ु दे वर श का अथ जैसा तु म समझे


हो वै सा नही।ं दे खो िन म-

दे वरः क ाद् ि तीयो वर उ ते ।-िन ० अ० ३ | ख १५ ॥

दे वर उस को कहते ह िक जो िव ा का दू सरा पित होता है ,


चाहे छोटा भाई वा बड़ा भाई अथवा अपने वण वा अपने से
उ म वण वाला हो िजस से िनयोग करे उसी का नाम दे वर है ❞

समी क-- ध हे ! ामी जी बड़ा भारी जाल डाला है , इस मं


म तो िनयोग का कुछ आशय ही नही ं िनकलता, अथ का अनथ
कर बस तु मने अपने अ से पैदल समाजीयों का चुितया काटा
है और कुछ नही,ं भला यह कौन िकससे पूछता है ? ा परदे शी
लौग ीयों से पूछ िक तु म रात म कहाँ थी? कहाँ सं तानो ि

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कर रही थी? या िफर ई र ी-पु षों से पूछता है िक तु म दोनों
कहाँ थे? ा ई र अ ानी है ? जो िवधवा से रित कर वो दे वर
चाहे बड़ा हो या छोटा, शोक हे ! ऐसी बु पर, िनयोग करने को
बड़ा भी जे हो तो ी का दे वर हो जाये, थू है ऐसे समाज पर,
इस मं म अि ना इस पद से ी पु ष हण करक केवल
जाल रचा है बस अर् थ का अनथ ही िकया है इस मं म अि नो
यह श दे वता का वाचक है ामी जी ने इसम कुछ माण न
िलखा दे खए िन म यह िलखा है -
अथातोद् यु थाना दे वता ासामि नौ थमागािमनौ॥ ~िन
{अ० १२, खं० १}

सव द् यु थान दे वताओं के म अि नौ दो दे वता य म थम


आगमन करते ह, यह िन कार का मत है इससे यह िस
आ िक अि नौ दे वता ह और अब इस मं का सही अथ करते
ह दे खए-
कुह ोषा कुह व ोरि ना कुहािभिप ं करतः कुहोषतुः।

को वां शयु ा िवधवेव दे वरं मय न योषा कृणुते सध थ आ॥


~(ऋ०-१०/४०/२)

भावाथ- हे (अि ना)- अि नौ तु म दोनों, (दोषा)- राि म, (कुह


त् )- कहाँ थे, और (वा ौ:)- िदन म, (कुह) कहाँ थे, िजससे न
राि और न िदन म तु ारा दशन हम िमला, (कुहािभिप ं)-
ान भोजनािद की ा कहाँ , (करत:) की, (कुह)- कहाँ ,
(ऊषतु )- िनवास करा, सवथा तु ारी आगमन वृ ि नही ं जानी
जाती, (क:)- कोई ही, (वाम्)- आप दोनों को, (सध थे)-
आ ा और परमा ा के स िलत प से थत होने के थान
दय म, (आकृणु ते)- अिभमुख करता है , (इव)- जैसे, (िवधवा)-
पित के चले जाने के प ात ी, (दे वरम्) दे वर पर आि त होती

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है , और अपने सभी छोटे बड़े काय के िलए दे वर की सहायता
लेती है , और (न)- जैसे, (योषा)- प ी, (शयु ा)- शयन थान म,
(मयम्)- पित को अिभमुख करती है , वै से ही तु अपने े य
म आदर सिहत कौन आ त करता है

इस मं म िनयोग का कुछ भी आशय तीत नही ं होता है यह


मं ात: काल अ िन कुमारों की ु ित का है और (दे वर:
का ा०) इसके अथ भी गडबड िलख ह और यह िन कार
का वा भी नही ं है इसी कारण इसको उ ोंने को म बं द
कर िदया है , और दु गाचार् य ने इस पर भा भी नही ं िकया
इससे यह े पक है ोकी या जी ने इसका अथ ऐसे िलखा
है िक “दे वरो दी ितकमा” तथा “ ातृभायया दे वनाथ ि यत
इित दे वर इ ु ते” इसका अथ यह िक भाई की ी की
शु ूषा करने से इसका नाम दे वर है अब यिद वह वा
या मुिन कृत होता तो िफर वह पुनः दे वर श का अथ ों
करते ? इससे यह िस होता है िक वह वा ि ही है , बड़े
आ य की बात है िक पुरे ं थ म ामी जी को ि ता ही
सू ी, और यहाँ िलखी ं ई भी न सू झी, और िफर इस वा म तो
है , िक दे वर को दू सरा वर ों कहते ह? दयानंद ने इसका
उ र न िलखकर अथ का अनथ करते ए केवल लोगों को
िमत करने का यास िकया है और यिद एक बार को इसे मान
भी िलया जाए तो भी ामी जी का अथ नही ं बन सकता, दे खए
मनु मे इस कार िलखा है िक--
य ा ि येत क ाया वाचा स े कृते पितः।

तामनेन िवधानेन िनजो िव े त दे वरः॥

~मनु ृित [अ०-९, ोक-६९]

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िजस क ा का वा ान के उपरा पित मर जाए, उसे दे वर
अथात उसके छोटे भाई से ाह दे , इसी कारण दे वर को दू सरा
वर कहते ह पर ु िनयोग यहाँ भी िस नही ं होता, और
(िवधावनात्) पित की मृ ु के उपरा ी रोकी जाती है , कही ं
आने जाने नही ं पाती इस कारण इसे िवधवा कहते ह, ामी जी
उसे ऐसा तं करते ह िक कुछ बू िझये मत, दयानंद ने सबको
ही दे वर बना िदया, जो कोई समाजी ीयों का गै म बजाए वही
दे वर शोक हे ! ऐसी बु पर,

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८५-८६,


❝उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एिह ।

ह ाभ िदिधषो वेदं प ुजिन मिभ सं बभूथ ॥ – ऋ० मं०


१० | सू० १८ | मं० ८॥

(ना र) िव े तू (एतं गतासु म) इस मरे ए पित की आशा छोड़


के (शेषे) बाकी पु षों म से (अिभ जीवलोकम) जीते ए दू सरे
पित को (उपैिह) ा हो और (उदी ्व) इस बात का िवचार
और िन य रख िक जो (ह ाभ िदिधषो:) तु म िव ा के पुनः
पािण हण करने वाले िनयु पित के स ् के िलये िनयोग
होगा तो (इदम्) यह (जिन म् ) जना आ बालक उसी िनयु
(प ुः) पित का होगा और जो तू अपने िलये िनयोग करे गी तो
यह स ान (तव) ते रा होगा। ऐसे िन ययु (अिभ सम् बभू थ)
हो और िनयु पु ष भी इसी िनयम का पालन करे ❞

समी क-- ामी जी का यह भा पढ़कर ऐसा तीत होता है


िक ामी जी के सर म बु कम गोबर ादा भरा है दे खए,
इधर पित मरा पड़ा है , ी िजसका वह पालक पोषक नाथ था,

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उसके शोक म िवलाप करती है , और ामी जी उसी समय
उसको कहने लगे िक इसे छोड़ औरों को पित बना ल, शोक हे !
ऐसी बु पर, ामी जी ने िसफ अपना ाथ साधने के िलए
वे द मं ों के अथ का अनथ िकया है दे खए इसका सही अथ इस
कार है --

उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एिह।

ह ाभ िदिधषो वेदं प ुजिन मिभ सं बभूथ॥

हे (ना र)- ी, ते रे पित मृ ु को ा हो चुके ह इसिलए,


(उदी )- उठ और इस, (जीवलोकम् अिभ)- जीिवत सं सार
अपने पु ािद और घर-प रवार का तू ान कर, इस कार
(गतासु म)- गत ाण, (एतम् )- इस पित के, (उपशे ष)- समीप बै ठ
शौक करने का ा लाभ? (एिह)- उठ और अपने घर को गमन
कर, (ह ाभ )- अपने गभ म स ान को थािपत करने
वाले, (तव प ु :)- अपने पित की,(इदं जिन म् )- इस स ान
को, (अिभ)- ान करती ई, (सं बभू थ)- अपने ा को ठीक
रखने के िलए य शील हो।

अब िवचारने की बात यह है इसम िनयोग चारक कौन सा


श है ? इस मं म तो िनयोग का कुछ भी आशय नही ं
िनकलता, और जबिक उसके पास बालक मौजूद ह िफर भला
उसे इस महाअधम िभचार िनयोग की ा आव कता है ?
अब बु मान यं िवचार की ामी जी ने इसम िकतने मं ाथ
बदले ह और अथ का अनथ कर लोगों को िमत करने का
यास िकया है ।

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स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८६,
❝अदे वृ पित ीहै िध िशवा पशु ः सुयमा सुवचाः ।

जावती वीरसूदवृकामा ोनेममि ं गाहप ं सपय ॥~अथव०


[का० १४, अनु० २, मं० १८]

हे (अपित दे वृि ) पित और दे वर को दु ःख न दे ने वली ी तू


(इह) इस गृ हा म म (पशु ः) पशुओं के िलये (िशवा) क ाण
करनेहारी (सु यमा) अ े कार धम-िनयम म चलने (सु वचाः)
प और सवशा ा िव ायु ( जावती) उ म पु पौ ािद से
सिहत (वीरसू ः) शूरवीर पु ों को जनने (दे वृकामा) दे वर की
कामना करने वाली ( ोना) और सु ख दे नेहारी पित वा दे वर को
(एिध) ा होके (इमम् ) इस (गाहप म् ) गृ ह थ स ं धी
(अि म्) अि हो ा का (सपय) से वन िकया कर❞

समी क-- ामी जी यहाँ भी अथ का अनथ करने से न चूंके,


दे खए इस मं म “दे वृकामा” इस पद से यह अथ िस नही ं
होता िक वह दे वर से भोग करना चाहती है , और जबिक पित है
तो भला वह दु सरे पु ष की इ ा ों करे गी? और कामना
िव मानता म नही ं होती, अिव मानता म होती है , यिद वह दे वर
को पित प म चाहती तो दे व र पितकामा ऐसा योग हो
सकता है , सो मं म िकया नही ं इससे िनयोग िस नही ं होता,
िक ु यह ऐसे थान का योग है , िजस ी के दे वर नही ं वह
चाहती है िक यिद मेरे ससु र के बालक हो तो म दे वर वाली
होऊं, ऐसी ी को दे वृकामा कहते ह, जैसे ातृ रिहत क ा म
“ ातृकामा” यह योग बनता है िक मेरे भाई हो तो म बहन
कहाऊं, ऐसे ही यह दे वृकामा श है इससे िनयोग िस नही ं
होता, अब इसका यथाथ अथ सु िनए--

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हे ी तू , (अपित दे वृि )- पित और दे वर को दु ख न दे ने
वाली, (एिध)- वृ को ा हो, अथात दे वर आिद कुटु यों से
िव मत करना, (इह)- इस गृ हा म म, (पशु :)- पशुओं के
िलये , (िशवा)- क ाणकारी, (सु यमा)- अ े कार धम िनयम
म चलने वाली, (सु वचा:)- प गु णयु , ( जावती)- उ म पु
पौ ािद सिहत, (वीरसू :)- वीर पु ों को ज दे ने वाली,
(दे वृकामा)- दे वर के होने की ाथना करने वाली, ( ोना)-
सु खनी, (इमम् )- इस, (गाहप म् )- गृ ह थ स ी, (अि म्)-
अि हो को, (सपय)- से वन िकया कर।

यह इसका अथ है ामी जी ने यह नही ं सोचा िक यह पु क


और भी कोई दे खेगा तो ा कहे गा? यह िववाह स ी मं
िनयोग म लगाये ह, ध है तु ारी बु , और सु िनए,
तदा रोहतु सु जा या क ा िव ते पितम्॥~ अथव० {१४/२/२२}

ोना भव शुरे ः ोना प े गृहे ः।

ोना ै सव ै िवशे ोना पु ायैषां भव॥~ अथव० {१४/२/२७}

हे ी तू ससु र, पित और घर के कुटु यों सभी के अथ सु ख


दे ने वाली हो।

अब यिद तु ारा िकया अथ ही सही माने तो यहाँ पित, ससु र


दोनों के िलए ( ोना) पद आया है अथात सु ख दे ने वाली हो एवं
सब ही कुटु यों को सु ख दे ने वाली िलखा है , तो ा जो पित
के सं ग वहार कर, वही सबके साथ कर? यह कभी नही ं हो
सकता पित को और कार का सु ख, और ससु रािद को से वा
आिद से सु ख दे ती है , यह नही ं िक सु ख दे ने से सबके सं ग भोग
के ही अथ हो जाये , इससे ामी जी के िकये सब अथ है

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िम ा है , इसके बाद अब ामी जी मनु ृित पर आ गये दे खए
ामी जी ा िलखते ह-

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८६,


❝तामनेन िवधानेन िनजो िव े त दे वरः ॥~ मनु० {९/६९}

जो अ तयोिन ी िव ा हो जाय तो पित का िनज छोटा भाई


उस से िववाह कर सकता है ❞

समी क-- ामी जी यहाँ भी अथ बनाने से न चूके, यिद ोक


पुरा िलख दे ते तो सब भे द खुल जाता, यह आधा अधु रा ोक
िसफ अपना ाथ िस करने को िलखा है सो इससे कुछ भी
िस नही ं होता दे खए पुरा ोक इस कार है
य ा ि येत क ाया वाचा स े कृते पितः।

तामनेन िवधानेन िनजो िव े त दे वरः॥ ~मनु० {९/६९}

िजस क ा का वा ान करने के उपरां त पित मर जाये उसका


उसके पित के छोटे भाई से िववाह कर द यह इसका अथ है ,
ऐसा सभी करते ह िजसकी सगाई हो जाए और वह पित मर
जाए तो उसका िववाह और के सं ग कर दे ते ह, ामी जी ने
इसम अ तयोिन और िववाह ई ी िलखा है यही महाकपट
है ।

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८६,

❝( )एक ी वा पु ष िकतने िनयोग कर सकते ह और


िववािहत िनयु पितयों का नाम ा होता है ?

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(उ र) सोम: थमो िविवदे ग वो िविवद उ रः।

तृतीयो अि े पित ु रीय े मनु जाः॥ ~ऋ० {१०/८५,/४०}

हे ी! जो (ते ) ते रा ( थमः) पहला िववािहत (पितः) पित तु झ को


(िविवदे ) ाप्त होता है उस का नाम (सोमः) सु कुमारतािद
गु णयु होने से सोम जो दू सरा िनयोग होने से (िविवदे ) ा
होता वह, (ग व:) एक ी से सं भोग करने से ग व, जो (तृ तीय
उ रः) दो के प ात् तीसरा पित होता है वह (अि ः)-
अ ु तायु होने से अि सं क और जो (ते ) ते रे (तु रीयः) चौथे
से लेके ारहव तक िनयोग से पित होते ह वे (मनु जाः) मनु
नाम से कहाते ह, जैसा (इमां िम ) इस म ा म ारहव
पु ष तक ी िनयोग कर सकती है , वै से पु ष भी ारहवी ं ी
तक िनयोग कर सकता है ❞

समी क-- ामी जी ने तो ऐसी हठ ठानी है िक अथ का


अनथ कर िदया है इस मं का यह अथ नही ं जैसा िक ामी
िनयोगानंद जी ने िकया है दे खए इसका सही अथ इस कार है -

सबसे ( थम:)- पहले, (सोम:)- सोम, (िववदे )- इस क ा को


ा हो, {अथात क ा के माता िपता सब से पहले तो ये दे ख
िक उसका पित 'सोम' है या नही,ं पित का भाव सौ है या
नही,ं त ात इस क ा को (ग व:)- 'गां वे दवायं धारयित' ान
की वािणयों को धारण करने वाला हो, यह (उ र:)- अिधक
उ ृ होता है , िक{ सौ ता यिद पित का पहला गु ण है तो ान
की वािणयों को धारण करना उसका दु सरा गु ण है , (तृ तीय:)-
तीसरा, (अि :)- गितशील मनोवृ ि वाला हो {अथात ते रा पित
वह है जो आगे बढ़ने की वृ ि वाला हो }, (तु रीय:)-चौथा,
(मनु जा:)- वह मनु की सं तान हो, {अथात िजसम मानवता

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हो, िजसका भाव दयालुता वाला हो ू रता वाला नही}ं , (ते )-
ते रा, (पित:)- पित है

भावाथ- क ा व उसके माता िपता उसके पित म िन


िवशेषताएं अव दे ख िक पहला तो वह सौ हो सौ ता पित
का पहला गु ण है , दु सरा ग व ान की वािणयों को धारण करने
वाला हो अथात ानी हो, तीसरा गितशील मनोवृ ि वाला हो,
चौथा वह मनु जा मनु की सं तान हो अथात िजसम मानवता
हो िजसका भाव दयालुता वाला हो ू रता वाला नही,ं

इस मं म कही ं भी िनयोग तो ा िनयोग िक गं ध तक नही ं है


पर ु ामी िनयोगानंद जी ने इसके अथ का ऐसा अनथ िकया
िक पूछ मत, अब बु मान लोग एक बार यं ामी जी ारा
िकये भा पर ि डालकर बताए िक दयानंदी लोग ा उसी
ी से िववाह करते ह जो थम एक से िववाह और दो से िनयोग
कर चुकी है ?

ध हे ! यही तो धम और ामी जी की शम है और पूव के


िव यहाँ ही दू सरा िववाह िनकाल िदया,

अब िवचारने की बात है यिद ामी िनयोगानंद जी का िकया


अथ माने तो, न जाने वह पहला िववािहत सोम सं ावाला पित
अपने जीते जी अपनी प ी ग व सं ावाले िनयोगी पित को ों
दे गा? और वह ग व िनयोगी अपने जीते ए अि सं ावाले
िनयोगी पित को ों दे गा? और चौथा ही पित मनु ों
कहाता है ? ा वे िपछले तीन िकसी जानवर की स ान ह?

और तीसरे को ही अि िक सं ा ों? शायद वो हमेशा यह


सोच कर जलता रहता हो िक पहले के समान सु कुमारतािद

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गु ण और म ों नही ं इ ािद इ ािद। इस कारण दयानंद के
िकये सब अथ है

इसके अित र और भी मं जैसे--


इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु।

दशा ां पु ाना धेिह पितमेकादशं कृिध॥ ~ऋ० {१०/८५/४५}

कुह ोषा कुह व ोरि ना कुहािभिप ं करतः कुहोषतुः।

को वां शयु ा िवधवेव दे वरं मय न योषा कृणुते सध थ आ॥ ~ऋ०


{१०/४०/२}

उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एिह।

ह ाभ िदिधषो वेदं प ुजिन मिभ सं बभूथ ॥ ~ऋ०


{१०/१८/८}

इ ािद मं ों के अथ का अनथ करक िनयोग बनाया है अथात


िनयोग झूठ से िस िकया है , जबिक इन सभी मं ों म कही ं भी
िनयोग की ग तक नही ं है ।

िसफ अपना ाथ िस करने के िलए दयानंद ने वे द मं ों के


साथ कैसा अनथ िकया वह आप सबके सामने ही है

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८७,

❝( ) एकादश श से दश पु और ारहव पित को ों न


िगने?

(उ र) जो ऐसा अथ करोगे तो ‘िव े व दे वरम्’ ‘दे वरः क ाद्


ि तीयो वर उ ते ’ ‘अदे वृि ’और ‘ग वो िविवद उ रः’इ ािद

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वे द माणों से िव दाथ होगा ोंिक तु ारे अथ से दू सरा भी
पित ा नही ं हो सकता❞

समी क- िन य ही हमारे ा िकसी ाचीन आ य के मत म


भी दु सरा पित नही ं माना गया है , वे द मं ों के अथ कर ही चुके ह
और (पितमेकादशम्) यहाँ एकादशम् के अथ ारहवां , और
पितम् पित को यह ि तीय िवभ का एकवचन पड़ा आ है ,
ारह पित तक करने का अथ तो ामी जी के कपोल भं डार से
िनकला है ।

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८७,


❝दे वरा ा सिप ा ा ाया स घ् िनयु या।

जे तािधग ास ान प र ये॥१॥

े ो यवीयसो भा ा यवीया ा ज ायम्।

पिततौ भवतो ग ा िनयु ाव नापिद॥२॥

औरसः े ाज ै०॥३॥ ~मनु०{अ० ८, ोक ५८-६०}

इ ािद मनु जी ने िलखा है िक (सिप ) अथात् पित की छः


पीि़ढयों म पित का छोटा वा बड़ा भाई अथवा जातीय तथा
अपने से उ म जाित थ पु ष से िव ा ी का िनयोग होना
चािहये , पर ु जो वह मृत ीपु ष वा िव ा ी स ानो ि
की इ ा करती हो तो िनयोग होना उिचत है , और जब स ान
का सवथा य हो तब िनयोग होवे |जो आप ाल अथात्
स ानों के होने की इ ा न होने म बड़े भाई की ी से छोटे
का और छोटे की ी से बड़े भाई का िनयोग होकर
स ानो ि हो जाने पर भी पुनः वे िनयु आपस म समागम

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कर तो पितत हो जाय, अथात् एक िनयोग म दू सरे पु के गभ
रहने तक िनयोग की अविध है ।

इसके प ात् समागम न कर और जो दोनों के िलये िनयोग आ


हो तो चौथे गभ तक अथात् पूव रीित से दस स ान तक हो
सकते ह, प ात् िवषयास िगनी जाती है , इस से वे पितत िगने
जाते ह और जो िववािहत ी पु ष भी दशव गभ से अिधक
समागम कर तो कामी और िन त होते ह? अथात् िववाह वा
िनयोग स ानों ही के अथ िकये जाते ह पशुवत् काम ीडा के
िलये नही❞

समी क-- ऐसा तीत होता है िक ामी जी म बु की ब त


कमी है यिद उनम थोड़ी ब त भी बु होती तो वह इस बात
को समझ पाते िक मनु जी इस महाअधम िनयोग के घोर िवरोधी
थे, और जहाँ तक इन ोकों की बात है तो मनु जी ने यह
ोक इसिलए िलख है िक उस समय राजा वे न के राज म यह
यह पशुधम िनयोग चलन म था, यह पशुधम राजा वे न ने आरं भ
िकया और उसने िनयोग के जो-जो िनयम चलाए उसे मनु जी ने
अपने ं थ म िलखते ए इस कार इसकी िनंदा की है सु िनए-
ातु भाया या गु प नुज सा।

यवीयस ु या भाया ुषा े सा ृता॥ -{९/५७}

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम्।

सृगालयोिनं चा ोित पापरोगै पी ते॥ -{९/३०}

ना न् िवधवा नारी िनयो ा ि जाितिभः।

अ न् िह िनयु ाना धम ह ुः सनातनम्॥ -{९/६४}

नो ािहकेषु म ेषु िनयोगः की ते िचत्।

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न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ -{९/६५}

अयं ि जै िह िव ः पशुधम िवगिहतः।

मनु ाणामिप ो ो वेने रा ं शासित॥ -{९/६६}

स महीम खलां भु न् राजिष वरः पुरा।

वणानां संकरं च े कामोपहतचेतनः॥ -{९.६७}

ततः भृित यो मोहा मीतपितकां यम्।

िनयोजय प ाथ तं िवगह साधवः॥ -{९/६८} ~मनु०

छोटे भाई के िलए बड़े भाई की प ी गु प ी तु , और बड़े


भाई के िलए छोटे भाई की प ी पु वधू जैसी होती है ॥

यिद िववािहत ी परपु ष का सं ग करती है तो वह इस लोक


म िन त होती है , और अनेक यौन स ी रोगों से िसत हो
जाती है तथा मृ ु के बाद गीदड़ी के पमज लेती है ॥

ा णािद तीनों वण की िवधवा ी को परपु ष का सं ग नही ं


करना चािहए, दू सरे पु ष का सं ग करने से ी सनातन एक
पित त धम को नष् ट करती है और उससे उ सं तान धम का
िवनाश करने वाली होती है ॥

जो वे द मं िववाह के स म कह गये ह, उनम न तो िनयोग


का वणन है और न ही िवधवा िववाह का॥

िनयोग का योग राजा वे न के शासनकाल म अव आ था


लेिकन तब भी िव नों ने इसे पशुधर् म बताते ए मनु ों के
िलए िनिष बताया था॥

जो राजा वे न स ूण धरती को भोगने वाला च वत स ाट था,


कामवासना के वशीभू त हो उसी राजा ने वणसं कर सं तान
उ करने के दु च (िनयोग) का आर िकया॥

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उस राजा वे न के समय से यह रीित चली और जो उसकी मित
मानने वाले लोग शा के न जानने वाले िवधवा ी को
परपु ष के साथ योजना करते ह, उस िविध को साधु पु ष
िन ा करते ह॥

इससे िस होता है िक मनु जी िनयोग के घोर िवरोधी थे मनु जी


ने इस महाअधम िनयोग की तु लना पशुधम से करते ए इसकी
ब त िन ा की, जो िव ान लोग ह वे इस बात को भलीभाँ ित
समझते ह, ामी जी राजा वे न के ही अवतार मालूम पड़ते ह,
या राजा वे न के भी गु क ं तो गलत नही ं होगा, ोिक उसने
तो केवल अपनी ही जाित म िनयोग चलाया और एक ही सं तान
उ करने को कहा, पर ु तु म तो सब ही जाित म िनयोग
करना और ारह तक पित बनाने की आ ा करते हो, यह
पशुधम आपने चलाया जो राजा वेन से ार आ है इससे पता
चलता है िक आप धम के नही ं अधम के फैलाने वाले ह।

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८७,

❝( ) िनयोग मरे पीछे ही होता है वा जीते पित के भी?

(उ र) जीते भी होता है ।
अ िमिप सुभगे पितं मत् ॥ ~ऋ० {मं० ११/ सू० १०}

जब पित स ानो ित म असमथ होवे तब अपनी ी को आ ा


दे वे िक हे सु भगे !सौभा की इ ा करने हारी ी तू (मत् ) मुझ
से (अ म् ) दू सरे पित की (इ )इ ा कर ोंिक अब मुझ
से स ानो ि की आशा मत कर, तब ी दू सरे से िनयोग
करके स ानो ि करे पर ु उस िववािहत महाशय पित की
से वा म त र रहै , वै से ही ी भी जब रोगािद दोषों से

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होकर स ानो ि म असमथ होवे तब अपने पित को आ ा
दे वे िक हे ामी आप स ानो ि की इ ा मुझ से छोड़ के
िकसी दू सरी िव ा ी से िनयोग करके स ानो ि कीिजये ,
जैसा िक पा ु राजा की ी कु ी और मा ी आिद ने िकया❞

समी क-- यह तो बे शम की हद ही हो गई, ामी जी ने तो


जैसे ठान रखा है िक अथ का अनथ ही करना है यिद ामी जी
इस मं को पूरा िलखते तो कलई खुल जाती, सारा िनयोग हवा
म उड जाता, दे खए पुरा मं यह है -
आ घा ता ग ानु रा युगािन य जामयः कृणव जािम।

उप बबृिह वृषभाय बा म िम सुभागे पितं मत्॥

~ऋ० {१०/१०/१०}

यह ऋचा यम यमी सं वाद की है यमी कहती है यम से िक हम


दोनों समागम कर तो यम इस मं से उ र दे ते ह, िक हे यमी वे
उ र यु ग आवगे िजन यु गों म (जामयः) भिगिनयां (अजािम
कृणवन्) भिगनी से िभ स त कम को करगी भाव यह है
िक किलयु गा म ही यह सं करता होगी,िजस काल म भिगनी से
िभ ी यो कम को भिगनी करगी, िक ु अभी तो सं कर
धम नही ं अपने -अपने धम म सब वण वतमान है इसिलए हे
सु भगे मेरे से अ यो पित की इ ा कर,

अब बु मान यह िवचार िक इसम कौन सी बात िनयोग की है ?


इसम ामी जी ने बड़ी बनावट कर मं का आशय स ूणत:
बदल िदया,

कु ी मा ी का भी ां त इसम घट नही ं सकता, ोिक पा ु


को शाप था इस कारण पा ु की आ ा से कु ी और मा ी ने
मं बल से दे वताओं का आ ान िकया, इ , वायु और धम से

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तीन पु उ ए, जो त ाल ऋतु दान करते ही उ हो गये ,
अ नीकुमारों से नकुल, सहदे व यह त ाल ही उ हो गये थे,
यिद इस कार मं ाकषण से पित की आ ानुसार ीम
दे वताओं के बु लाने की साम हो तो वह कर सकती है , इस दे व
स ी काय का यहाँ ां त नही ं घट सकता,

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८७-८८,


❝ ोिषतो धमकायाथ ती ोs ौ नरः समाः।

िव ाथ षड् यशोsथ वा कामाथ ी ुव रान् ॥१॥

व ा मेsिधवे ा े दशमे तु मृत जाः।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥२॥ ~मनु० {९/७६,८१}

िववािहत ी जो िववािहत पित धम के अथ परदे श गया हो तो


आठ वष, िव ा और कीित के िलये गया हो तो छः और धनािद
कामना के िलये गया हो तो तीन वष तक बाट दे ख के, प ात्
िनयोग करके स ानो ि कर ले , जब िववािहत पित आवे तब
िनयु पित छूट जावे ॥१॥

वै से ही पु ष के िलये भी िनयम है िक व ा हो तो आठव


(िववाह से आठ वष तक ी को गभ न रहै ), स ान होकर मर
जाय तो दशव, जब-जब हो तब-तब क ा ही होवे पु न हों तो
ारहव वष तक और जो अि य बोलने वाली हो तो स ः उस
ी को छोड़ के दू सरी ी से िनयोग करके स ानो ि कर
लेवे॥२॥

वै से ही जो पु ष अ दु ःखदायक हो तो ी को उिचत है ,
िक उस को छोड़ के दू सरे पु ष से िनयोग कर स ानो ि

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करके उसी िववािहत पित के दायभागी स ानो ि कर लेवे,
इ ािद माण और यु यों से यं वर िववाह और िनयोग से
अपने -अपने कुल की उ ित करे ❞

समी क-- यहाँ ामी जी ने यह लीला रची की पहला ोक तो


९ व अ ाय का ७६ वां और दू सरा ोक ८१ वां िलखा है और
इन दोनों का ामी जी ने एक ही सं ग लगा िदया, जबिक इनम
से एक म भी िनयोग तो ा िनयोग की गं ध तक नही ं है , दे खए
इससे पहले यह ोक ह--
िवधाय वृि ं भायायाः वसे ायवा रः।

अवृि किशता िह ी दु े थितम िप॥७४॥

िवधाय ोिषते वृि ं जीवेि यममा थता।

ोिषते िवधायैव जीवे ैरगिहतैः॥७५॥

ोिषतो धमकायाथ ती ोऽ ौ नरः समाः।

िव ाथ ष शोऽथ वा कामाथ ी ं ुव रान्॥७६॥

जब कोई पु ष परदे श को जाये तो थम ी के खान पान का


बं ध करता जाये , ोिक िबना बं ध ु धा के कारण कुलीन
ी भी दू सरे पु ष की इ ा कर सकती ह॥

खान पान की व था करक परदे श जाने के अन र उस पु ष


की ी िनयम अथात पित त से रहकर अपना समय तीत
कर, और जब भोजन को न रहे या पु ष पुरा बं दोब करक न
गया हो तो पित के परदे श होने तक िश कम जो िन त न हो
अथात सू त कातना ह से काढना आिद कम से गु जरा कर॥

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यिद वह परदे श धम काय को गया हो तो आठ वष, िव ा पढने
गया हो तो छ: वष, धन यश को गया हो तो तीन वष तक राह
दे ख, प ात पित के पास जहाँ हो वहाँ चली जाव॥

अब बु मान यं िवचार की इसम िनयोग की बात कहा से आ


गई और यह हम पहले ही बता चुके ह िक मनु जी ने िनयोग की
बात का समथन नही ं करते उ ोंने इसे पशुधम कहते ए
मनु ों के िन त बताया है पुन: माण दे ते ह दे खए मनु जी
िलखते ह िक-
नो ािहकेषु म ेषु िनयोगः की ते िचत्।

न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ {९.६५}

पािण ाह सा ी ी जीवतो वा मृत वा।

पितलोकमभी ी नाचरे ं िचदि यम्॥ {५/१५६}

कामं तु पये े हं पु मूलफलैः शुभैः।

न तु नामािप गृ ीया ौ ेते पर तु॥ {५/१५७}

आसीता मरणा ा ा िनयता चा रणी।

यो धम एकप ीनां का ी तमनु मम्॥ {५/१५८}

अनेकािन सह ािण कुमार चा रणाम्।

िदवं गतािन िव ाणामकृ ा कुलसंतितम्॥ {५/१५९}

मृते भत र साढ् वी ी चय व थता।

गग पु ािप यथा ते चा रणः॥ {५/१६०}

अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते।

सेह िन ामवा ोित परलोका हीयते॥ {५/१६१}

पितं िह ापकृ ं मु ृ ं या िनषेवते।

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िन ैव सा भवे ोके परपूवित चो ते॥ {५/१६३}

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम्।

गालयोिनं ा ोित पापरोगै पी ते॥ {५/१६४} ~मनु ृित

जो वे द मं िववाह के सं बंध म कह गए ह उसम न तो िनयोग


का वणन है और न ही िवधवा िववाह का॥

अगले ज मअ ा पित पाने की इ ा रखने वाली ी को


इस ज म िववािहत पित की जीवन-अविध म अथवा उसकी
मृ ु हो जाने पर उसे बु रा लगने वाला कोई काय नही ं करना
चािहए॥१५६॥

ी अपने पित की मृ ु हो जाने के प ात फल-फूल और क -


मूल खाकर अपना शरीर चाहे सु खा ले पर भू ल कर भी दू सरे
पु ष के सं ग की इ ा न कर॥१५७॥

पित ता ी को पित के मृ ु के बाद पुरा जीवन मा, सं यम,


तथा चय का पालन करते ए गु जारना चािहए, उसे
सदाचारणी ीयों ारा आचरण यो उ म धम का पालन
करने पर गव करना चािहए॥१५८॥

यिद िकसी ी के पित की मृ ु िबना िकसी सं तान को उ


िकए हो जाए तब भी ी को अपनी स ित के िलए दू सरे पु ष
का सं ग नही ं करना चािहए,॥१५९॥

स ान उ नही करने वाले चारीयों की तरह पित की


मृ ु के बाद चय पालन करने वाली ी पु वती नही होने
पर भी ग ा करती है ॥१६०॥

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पु ा की इ ा से जो ी पित त धम को तोड़ कर दू सरे
पु ष के साथ सं भोग करती है उसकी इस सं सार म िनंदा होती
है तथा परलोक म बु री गित िमलती है ॥१६१॥

कम गु णों वाले अपने पित का ाग कर जो ी अिधक गु णों


वाले अ पु ष का सं ग करती ह वह इस सं सार म िनंदा का
पा बनती है और दो पु षों की अंकशाियनी बनने का कलंक
लगवाती है ॥१६३॥

पित के िसवाय दू सरे पु ष से सं भोग करने वाली िववािहत ी


इस सं सार म िनंदा का पा तो बनती ही है और मरने के बाद
गीदड़ की योिन म ज लेती ह, वह कोढ़ जैसे अनेक असा
रोगों से पीड़ा पाित है ॥१६४॥

ा ामी जी ने मनु ृित म यह ोक नही ं दे ख? अव दे ख


होंगे पर ु िलखते कैसे इ ा तो ीयों को िभचारीणी बनाने
की थी, भारतवष को इस पशुधम की ओर धकेलने की थी, और
सु िनए ामी जी ने दू सरा ोक यह िलखा है ,
(व ा मेsिधवे ा े ०) इसका अथ पूव ही कर चुके ह, अब
ोिक ामी जी इसका अथ िबगाड़ने से भी न चूक इसिलए
पुनः इसका अथ िलखते ह,
व ा मेsिधवे ा े दशमे तु मृत जाः।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥

पि यिद व ा हो तो आठ वष, बार-बार मृत ब ों को ज


दे ती हो तो दश वष, या केवल क ाओं को ही ज दे ती हों तो
ारह वष उपरा पित दु सरा िववाह करने का अिधकारी है
और यिद पि अि य बोलने वाली है तो पित त ाल दु सरा
िववाह कर सकता है ।

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यह इसका अथ है , ामी जी ने यह भी खुब िलखा िक “पित
दु ःखदायक हो तो ी उसे छोड़ िकसी दू सरे पु ष से िनयोग
कर स ानो ि करके उसी िववािहत पित के दायभागी
स ानो ि कर लेवे” ध हे ! ामी जी आपकी बु , पहले
तो िलखा िक पित आ ा दे तो िनयोग कर, और अब िलखा िक
ी अपनी इ ा से पित छोड़ दू सरे पु ष से िनयोग कर ल, जब
वह दू सरे पु ष से िनयोग करे गी पित से लडे गी, तो वह उसे घर
म ही ों रहने दे गा, सास ससु र भी उसे घर म नही रहने दगे ,
एक नही ं सै कड़ों िनयोग कर, पर ु जब वह पित के िव
करे गी वह तो काह को उसे घर म घुसने दे गा, ऐसी िबना सर पैर
की बात तो कोई मुख भी न करे गा जैसी ामी जी ने यहाँ िलखी ं
ह जो ी दु सरे से स ान उ कर पित से छोड़ी ई िफर
उसके और से उ ए बालक कौन से शा से दायभागी
होंगे, िसवाय तु ारे िभचार काश के, और तो िकसी ं थ म
ै रणी ीयों के पु ों का दाय भाग नही ं िमल सकता।

स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८८,

❝वीय और रज को अमू समझ, जो कोई इस अमू पदाथ


को पर ी, वे ा वा दु पु षों के सं ग म खोते ह वे महामूख
होते ह, ोंिक िकसान वा माली मूख होकर भी अपने खेत वा
वािटका के िवना अ बीज नही ं बोते, ‘आ ा वै जायते पु ाः’
यह ा ण ों का वचन है ।
अंगादं गा विस दयादिध जायसे।

आ ािस पु ा मा मृथाः स जीव शरदः शतम्॥

~ यह सामवेद के ा ण का वचन है ।

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हे पु ा! तू अंग-अंग से उ ए वीय से और दय से उ
होता है , इसिलये तू मेरा आ ा है , मुझ से पूव मत मरे िक ु सौ
वष तक जी❞

समी क-- ामी जी इस बात से तो ामी जी का ही प


िबगाड़ता है , जबिक माली िकसान भी बीज अपनी भू िम म बोते
है तो वे पु ष भी मुख है जो अ ी से िनयोग करते और वृ था
बीज खोते है , ोिक एक ही बार जाने से गभ रह नही ं सकता,
और जब आ ा ही पु है तो मृत पु ष के वे बालक कहा नही ं
सकते , अब एक और बात सु िनये िकसी की बु िकतनी ही
ों न हों? िकतना ही नशे म चूर ों न हों? िफर भी वह
तु ारी भां ित िबना सर पैर की बात नही ं कर सकता।
॥इित स ाथ काशा गत चतुथसमु ास खंडनम् समा म्॥

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स ाथ काशा गत प मसमु ास खं डनं ार ते

स ाथ काश प म समु ास पृ ९२,


❝वनेषु च िव ैवं तृतीयं भागमायुषः।

चतुथमायुषो भागं ा संगान् प र जे त्॥ ~मनु०{६/३३}

इस कार वनों म आयु का तीसरा भाग अथात् पचासव वष से


पचह रव वष पय वान थ होके आयु के चौथे भाग म सं गों
को छोड़ के प र ाट् अथात् सं ासी हो जावे ।

( ) गृ हा म और वान था म न करके-सं ासा म करे उस


को पाप होता है वा नही?ं

(उ र) होता है और नही ं भी होता, जो बा ाव था म िवर हो


कर िवषयों म फंसे वह महापापी और जो न फंसे वह
महापु ा ा स ु ष है ❞

समी क-- अब दयानंद के लेख से ही दयानंद के स ासी होने


की परी ा करते ह, तु मने ७५ वष से पूव ही स ास ले िलया,
और िवषय सं ग भी नही ं छोड़ा, तो िफर तु िवषयों म फंसे रहने
से पाप ही आ, तु मने ल ों की ा का बं ध िकया, पलंग
पर शयन होता, बड़े बड़े तिकये लगे रहते , तरह तरह के ािद
भोजन होते , पैर धु लाने को कहार नौकर, चटनी, मुर े , पुरी,
हलवे के िबना भोजन अ ा नही ं लगता था, दु शाले ओढ़े जाते ,
ा िपया जाता था, पां व म िवलायती बूं ट, घड़ी आिद पहने
जाते , ाथ िस हे तु ईसाइयों के साथ उठना बै ठना था, जहां

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ठहरते कोठी बं गलों म ही ठहरते इ ािद िफर तु इन सं गों के
करने से पाप ही आ

स ाथ काश पं म समु ास पृ ९३,


❝नािवरतो दु रता ाशा ो नासमािहतः।

नाशा मानसो वािप ानेनैनमा ुयात्॥

~कठ० (व ी २ मं० २४)

जो दु राचार से पृथक् नही,ं िजसको शा नही,ं िजस का आ ा


योगी नही ं और िजस का मन शा नही ं है , वह सं ास ले के भी
ान से परमा ा को ा नही ं होता❞

समी क-- ामी जी तु ारे अंदर तो शा नाम मा भी नही ं


थी, जहाँ िकसी ने तु ारे िव कुछ कहा झट उसको उ र
दे ने को किटब गािलयों की वषा करने लगे , अपनी इस स ाथ
काश को ही ले लों, ि तीय, तृ तीया और एकादश समु ास म
गािलयों की वषा कर रखी है , आ ा भी तु ारी योगी नही ं थी
ोंिक जब िच की वृ ि ही शा न ई तो िफर आ ा म योग
कहाँ , मन भी तु ारा शा नही ं था कही कुछ िलखा तो कही ं
कुछ हमेशा थुक कर चाटने वाला काम िकया इस कारण
तु ारा स ास लेना थ ही आ

स ाथ काश पं म समु ास पृ ९३,


❝अिव ायाम रे व मानाः यं धीराः प त मानाः।

जघं मानाः प रय मूढा अ ेनैव नीयमाना यथा ाः॥

~मु ० (१ ख २ मं० ८)

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जो अिव ा के भीतर खेल रहे , अपने को धीर और प त मानते
ह, वे नीच गित को जानेहारे मूढ़ जैसे अ े के पीछे अ े दु दशा
को ा होते ह वै से दु ःखों को पाते ह❞

समी क-- पंिडतािभमान भी ामी जी म थोड़ा नही ं है , दे खए


तृ तीया समु ास म ही िव ा के घमंड म आकर ा से लेकर
जैिमनी तक के ं थों म अशु ता बता िदया िजन आ पु षों
के बारे म यह िलखा िक वे बड़े िव ान, सवशा िवत् और
धमा ा थे उ ी ं के ं थों म वे द िव ता ठहराते हो यहाँ तक
िक ा ण ों म भी वे द िव ता ठहरा िदया सवशा िवत्
महा ा लोग जो वे दाथ को स क् कार से जानते थे तु मने
उनका अथ भी िव बताया, सो यह ुित तु ारे ऊपर ठीक
बै ठती है , तु म जैसे लोगों की यही दशा होनी चािहए, और तु म तो
हो भी अंधे के चैले सो उसके ल ण आना तो ाभािवक है यह
ुित तु म पर बराबर बै ठती है

स ाथ काश प म समु ास पृ ९३,


❝वेदा िव ानसुिनि ताथाः सं ासयोगा तयः शु स ाः।

ते लोकेषु परा काले परामृताः प रमु सव॥

~मु ०३।ख २। मं० ६॥

जो वे दा अथात् परमे र ितपादक वे दम के अथ ान और


आचार म अ े कार िनि त सं ासयोग से शु ा ःकरण
सं ासी होते ह, वे परमे र म मु सु ख को ा हो; भोग के
प ात् जब मु म सु ख की अविध पूरी हो जाती है तब वहां से
छूट कर सं सार म आते ह। मु के िवना दु ःख का नाश नही ं
होता❞

P- 269
समी क-- न जाने यह कीड़ा तु ारी म कहां से घुस गया की
मु के बाद जीव वापस लौट आता है भला वह मु कैसी
िजसके बाद भी जीव ज -मरण के बं धन से मु नही ं होता,
यह तु ारे मन की गढ़ं त ही ह ोंिक इस ुित म ऐसा कही ं
नही ं िलखा िक मु के बाद जीव वापस लौट आता है , दे खए
इसका सही अथ इस कार है ,-

"िवचार ज िव ान से िज ोंने वे दां त के अथ को यथाथ जाना


है और वे य शील सव ाग प स ास योग से शु िच है
ऐसे साधक शरीर ाग लोक म परम अमृत मु को
ा होक, ज मरण के बं धन से मु होते ह,

इसकी िवशेष ाखा नवम समु ास के मु करण म करगे

स ाथ काश प म समु ास पृ ९४,


❝लोकैषणाया िव ैषणाया पु ैषणाया ो ायाथ भै चय
चर ॥ ~शत० कां० १४॥

लोक म ित ा वा लाभ धन से भोग वा मा पु िद के मोह से


अलग हो के सं ासी लोग िभ ुक हो कर रात िदन मो के
साधनों म त र रहते ह❞

समी क-- दयानंद केवल नाम के ही स ासी है यह बात इनके


इस लेख से ही िस हो जाती है ोंिक ामी जी म तो यह
इ ाएं कूट-कूट कर भरी ई ह दे खए- लोकैषणा के अथ
लोक म जन िन ा कर वा ु ित, और अ ित ा कर तो भी
िजसके िच म कुछ हष, शोक न हो वही स ासी कहलाने
यो है , लेिकन ामी जी की यिद कोई िनंदा करता है तो उ
िकतना दु ख होता है तु र उसकों उ र दे ने म किटब हो

P- 270
गािलयों की वषा करने लगते ह, िव ैषणा का ाग भी तु ारे
अ र नही ं पाया जाता, धन की इ ा यहाँ तक है िक उसकी
पूित नही ं होती, धन की ा के िलए कैसे-कैसे य िकए,
भीख मां ग-मां ग कर अपना िनजी यं ालय खोला, उसके बाद भी
पु कों के मु दोगु ने, तीनगु ने रख, तु ारी पु क कोई और
न छाप सक इसिलए उसकी रिज ी करवाईं, पु क िव य के
वहार से धन आने पर भी ाकरण की पु क छापने को
िफर से धन की सहायता ली, उपदे श मंडली के नाम से
एकल पया एकि त करने म ययथाश य िकया गया,
लोभ ने तु ारे मन म यहाँ तक िनवास िकया था िक धनवानों
पूंजीपितयों से ि ितसमेत घंटों वता होती थी, ईसाई िमशनरी
सभा और अं े जी द रों के च र काटा करते थे, िनधनों की
तो बू झ ही न थी, ित ा इतनी चाहते थे िक कोठी, बं गल और
महलों म ही ठहरते थे, पु तो था ही नही ं पर ु जो मु
से वकािद है उनम तु म ीती करते हो, और उनके सु ख दु ख म
हष, शोक कट करते हो, ोिक तु मने ही इसी के ऊपर पृ
९४, पर िलखा है िक जो दे हधारी है वह दु ख सु ख की ा से
पृथक नही ं रहा सकता, तो िलिजए तु म तीनों एषणाओं से मु
नही,ं इसिलए स ासी भी नही ं हो, ोिक तीनों एषणाओं को
केवल वही जीत सकता है जो सं सार के वहार से कोई स
न रखता हो,

स ाथ काश प म समु ास पृ ९४,


❝ ाजाप ां िन ेि सववेदसदि णाम्।

आ ी मारो ा णः वजे द् गृहात्॥

P- 271
जापित अथात् परमे र की ा के अथ इि अथात् य
करके उस म य ोपवीत िशखािद िच ों को छोड़ आहवनीयािद
पां च अि यों को ाण, अपान, ान, उदान और समान इन पां च
ाणों म आरोपण करके ा ण िवत् घर से िनकल कर
सं ासी हो जावे ❞

समी क-- दयानंद का यह अथ भी गलत ही है दयानंद ने यहाँ


सव वे दस् का अथ य ोपवीतािद से िलया है जबिक इसका अथ
सव से है यहाँ जाप इि की सव वे दस् दि णा िलखी ं ह
अब यं विवचार कर दे ख िक उ इि की दि णा सव हो
सकती है वा य ोपवीतािदक िजसम थोड़ी भी बु होगी वह
सव ही कहे गा, ोिक वै रा के िबना स ास का हण वृ था
है , और िजसने धनािद सव पदाथ का ाग न िकया उसम
वै रा कहाँ ,

स ाथ काश प म समु ास पृ ९५,

❝इ यों को अधमाचरण से रोक, राग- े ष को छोड़, सब


ािणयों से िनवर व कर मो के िलये साम बढ़ाया करे ❞

समी क- ामी जी म तो िव ा ान, वै रा , िजते यता भी


नही ं थी, िवषय भोग की इ ा पू ण थी, जो िव ा और ान यथाथ
होता तो पर र िव शा ितकूल यु रिहत लेख ों
िलखते , वै रा के िव धन आिद पदाथ म राग ों होता ?
िवषय भोग की इ ा न होती तो उ मो म भोजन और व ों से
ा योजन था?

P- 272
स ाथ काश प म समु ास पृ ९६,

❝सब भू तों से िनवर रहे ❞

समी क- आय समाज को छोड़कर तो तु ारा सबसे िवरोध ही


था, और ाचीनाचाय के लिलए तु मने कैसे-कैसे दु वा ों का
योग िकया है , यहाँ तक िक आ पु षों के ं थों का भी
अपमान िकया, अथात तु म स ासी नही ं थे,

स ाथ काश प म समु ास पृ ९५,

❝जब कही ं उपदे श वा सं वादािद म कोई सं ासी पर ोध करे


अथवा िन ा करे तो सं ासी को उिचत है िक उस पर आप
ोध न करे ❞

समी क- ामी जी ने यह बात िलखने को तो िलख दी पर ा


कभी इसका पालन भी िकया, कोई तु म पर ोध कर और तु म
उस पर न करों यह असं भव है , यहाँ तक िक जो लोग तु ारी
से वा म लगे रहते थे उनका दय भी तु ारी ोधाि से भ हो
जाता, जो कोई तु ारे दोषों को दोष कहता उसका भी
ितर ार होता था, सै कड़ों ां त तु ारी बनाई शा ाथ की
पु कों म िव मान है , गािलयाँ तु म बे धड़क बकते थे, अपने इस
स ाथ काश म ही दे ख िलिजए, और िबना ोध कोई गािलयाँ
नही ं बकता इससे िस होता है िक आप केवल नाम के स ासी
थे,

P- 273
स ाथ काश प म समु ास पृ ९८,

❝स ङ् िन मा ेय न् य ा स ङ् दु ःखािन
कमािण ये न स सं ासः, स श ो िव ते य स सं ासी जो
और उसकी आ ा म उपिव अथात् थत और िजस से
दु कम का ाग िकया जाय सं ास, वह उ म भाव िजस
म हो वह सं ासी कहाता है ❞

समी क-- वाह जी वाह! ा अथ िकया है ? दु कम का ाग


करने का नाम स ास है िफर तो े आचरण वाले सब ही
गृ ह थ पु ष स ासी हो गये, ऐसे तो सब ह े आचरण पु ष
घर बै ठे स ासी बन जाव, इसिलए तु ारा यह िस ां त गलत है
सु िनए िजसने सव ाग िदया अथात जो सं सार के वहार से
कोई स नही ं रखता वह स ासी होता है

स ाथ काश प म समु ास पृ ९९,


❝िवधािन च र ािन िविव ेषूपपादयेत्॥ ~{मनु० ११/६}

नाना कार के र सु वणािद धन सं ािसयों को दे व❞

समी क-- वाह रे धू तानंद वाह! धन का लोभ ते रे मन म इस


कार घर िकया आ िक उसकी पूित ही नही ं होती, लोगों से
ादा से ादा हडपन को यह छल कपट फैलाया की
मनु ृित के नाम से िम ा ोक क ना कर िलया, सारी
मनु ृित छान मारों पर यह ोक कही ं नही ं िमलने वाला, कई
दयानंदी इसके उ र यह ोक दे ते ह िक दयानंद ने इस
ोक के आशय से यह ोक क ना िकया है ,

P- 274
धनािन तु यथाश िव ेषु ितपादयेत्।

वेदिव ु िविव ेषु े ग सम ुते॥

~मनु ृित [अ० ११, ोक ६]

थम तो कोई इन ामी जी से यह पूछे की उसके बाप का राज


चल रहा है जो जब चाहा मूहँ उठा के उ ी सीधी सं ृ त गढ़
उसे मनु ृित का बता िदया, वो भी ऐसी बात क ना की जो
शा िव तो है ही साथ ही इस ोक से भी कोई स
नही ं रखता, िव ान जन यं िवचार इसम कही ं भी स ासी को
दे ने का पद िलखा ही नही ं है , िक ु वे दिवद् ा णों को जो
वे दों का ाता है उसको धनािद का दान दे ना कथन िकया है
दे खए इसका अथ इस कार है - “जो ा ण वे दों का ाता
और कुटुं बी हो ऐसे ा णों को यथाश दान दि णा दे ना
चािहए, ऐसे ा णों को दान दे ने से शरीर ागाने उपरा ग
की ा होती है ”

स ासी का यहाँ कोई करण नही,ं दयानंद ने तो ऐसी अद् भु त


बात कह दी जो बात िकसी धमशा म न िलखी ं होगी, स ासी
को तो चािहए िक--
ऋणािन ी पाकृ मनो मो े िनवेशयेत्।

अनपाकृ मो ं तु सेवमानो ज धः॥

~मनु ृित [अ० ६, ोक ३५]

इन तीनों ऋणों (दे वऋण, िपतृ ऋण और ऋिषऋण) से उ ार


होक, मन को मो म लगाव, इन तीनों ऋणों से मु ए िबना
जो मो की इ ा रखता है अथात स ासी होता है वह नरक म
िगरता है , ामी जी ने इस ोक को न िवचारा, और दे खए-

P- 275
एककालं चरे ै ं न स ेत िव रे ।

भै े स ो िह यितिवषये िप स ित॥

~मनु ृित [अ० ६, ोक ५५]

स ासी को चािहए िक एक समय िभ ा मां गकर उसी से अपना


पालन कर, उसे एक से ादा बार िभ ा मां गने की वृ ि से
दू र रहना चािहए, एक से अिधक बार िभ ा मां गने के लोभ म
फंसा स ासी िवषयों म फंसने लगता है ,ठीक ामी जी की
भां ित, और सु िनए,
अिभपूिजतलाभां ु जु गु ेतैव सवशः।

अिभपूिजतलाभै यितमु ोऽिप ब ते॥

~मनु ृित [अ० ६, ोक ५८]

आदर सिहत िमलने वाली ािद िभ ा की स ासी को उपे ा


करनी चािहए, ोिक उसके ाद म रस नही ं ले ने पर भी
स ासी को वह यजमान के ेह बं धन म जकड़ती है ,

पर ु ामी जी के तो ितिदन िविवध कार के उ मो म


भोजन बनते थे , स ासी को पेड़ के नीचे भू िम पर ही सोना,
बै ठना, एक समय भोजन करना आिद िलखा है िजसने सव
ाग कर िदया जो सं सार के वहार से कोई स न रखता
उसे स ासी कहते ह, ोिक िबना वै रा स ास नही ं होता
और िजसने धनािद सव पदाथ का ाग न िकया उसम
वै रा कहाँ इसिलए िजसका धनािद से मोह भं ग नही ं आ वह
स ासी नही ं हो सकता, भला िजसने सव ाग कर िदया
िजसे सं सार के वहार से कुछ भी स नही ं वह नाना कार
के र सु वणािद धन का ा करे गा? स ासी के िलए तो यह
सब धू ल समान ही है लेिकन ामी जी म इनम से एक भी

P- 276
ल ण नही ं िमलता, इस कारण उनका स ास लेना थ ही
आ,
॥इित चुितयाथ काश प मसमु ास खंडनम् समा म्॥

P- 277
स ाथ काशा गत ष समु ास खं डनं ार ते

॥राजधम प्रकरण॥

इस समु ास म दयनां द ने राजधम की ा ा की है इसम


सब ही ोक मनु ृित से िलख है जो ाचीन समय से आज
तक सब लोग मानते चले आए ह इसम कोई मत िवषयक चचा
नही ं है , पर ु इसम दयानंद ने कुछ बात ऐसी िलखी ं ह जो धम
िव ह और कुछ ऐसी भी िलखी ं ह जो यहाँ तो मानी है पर
अ नही ं मानी सो आपको िदखलाते है

स ाथ काश ष समु ास पृ १०५,

❝इस सभा म चारों वे द, ायशा , िन , धमशा आिद


के वे ा िव ान् सभासद् हों❞

,,,,,,,जो िवशेष दे खना चाह वे द, मनु ृित, शु नीित तथा


िवदु र जागर और महाभारतािद म दे खकर िन य कर जा का
वहार मनु ृित के स म, अ म, नवम अ ाय से कर❞

समी क-- ों ामी जी यहाँ वह ण छूट गया िक हम


वे दानुसार ही मानगे , जब वे दानुसार ही मानते हो तो मनु ृित से
िलखने की ा आव कता थी सब वे द से ही िलख िदये होते,
इससे पता चलता है िक मनु ों का वहार, राजधम आिद सब
धमशा ों से ही होता है इससे उसका यथावत मानना ही बनेगा,
वे दानुसार का मानना बन नही ं सकता यिद वे दानुसार है तो
बताओ यह राजधम कौन सी ुित से िनकाला है यह सा ी

P- 278
पूछना, दं ड िवधान आिद कहां के है , इससे अपने िवषय म
धमशा ही तः माण है

स ाथ काश ष समु ास पृ १०८,

❝और कुलीन, अ े कार सु परीि त, सात वा आठ म ी


करे ॥१॥

,,,,,,,जो शंिसत कुल म उ आ हो उसे दू तपने म िनयु


कर❞

समी क-- यहाँ ामी जी ने ज से जाित होना ीकार िकया


है दयानंद के कथनानुसार यिद शू स ूण गु णों से यु भी हो
तो वह दू त बनाने यो नही ं िक ु िजसका कुल भी े हो ऐसे
पु षों को ही मं ी और दू त बनाव, अब ोिक कुलीनता तो
ज से ही होती ह अ था नही,ं

स ाथ काश ष समु ास पृ १०९,

❝बड़े उ म कुल म उ सु र ल णयु अपने ि यकुल


की क ा जो अपने स श गु ण कम म हो उससे िववाह कर❞

समी क-- यहाँ भी दयानंद जाित ही उ म मानते ह, ामी जी


िलखते ह िक जो ि य क ा बड़े उ म कुल म उ ई हो,
उससे िववाह कर, और जो नीच कुल की पढ़ी िलखी ं गु णवान
क ा हो उससे िववाह करना नही ं िलखा, यहाँ भी जाित ही
धान मानी है ,

P- 279
स ाथ काश ष समु ास पृ १११,

❝जो उस की ित ा है िजस से इस लोक और परलोक म सु ख


होने वाला था उस को उस का ामी ले लेता है

स ाथ काश ष समु ास पृ ११७,

,,,,,,जो सा ी स बोलता है वह ज ा र म उ म ज और
उ म लोका रों म ज को ा होके सु ख भोगता है ❞

समी क-- यहाँ दयानंद जीव का पृ ी के अलावा अ लोकों


म जाना ीकार करते ह, अब जब तु मने लोका र म जीव की
गित मानी ं िफर न जाने ों ग लोक मानने से भयभीत होते
हों शायद इस कारण ोिक ग लोक म तो केवल पु ा ा
वे श करते ह प पाती वा अधम यों का वहाँ वे श नही ं हो
सकता, इसिलए तु मने सोचा हम तो वहाँ जाना ही नही ं सो िलख
िदया िक ग ही नही ं है

✍ स ाथ काश ष समु ास पृ १११,


❝रथा ं ह नं छ ं धनं धा ं पशू यः।

सव ािण कु ं च यो य यित त तत्॥११॥

इस व था को कभी न तोड़े िक जो-जो लड़ाई म िजस-िजस


भृ वा अ ने रथ घोड़े , हाथी, छ , धन-धा , गाय आिद
पशु और यां तथा अ कार के सब और घी, ते ल
आिद के कु े जीते हों वही उस-उस का हण करे ❞

समी क-- वाह रे स ाथ काश िलखने वाले िजहादी भं गेडानंद


वाह! ा यही है तु ारी बु , यही है तु ारा धम?

P- 280
ा लूटपाट के उ े से लडा गया यु , श ु ओं की धन सं पदा
और उनकी यों का भोग करना धमानुकूल और वे द स त
है ?

यिद मनु ृित तु ारी समझ से बाहर है तो िफर ों इसके अथ


का अनथ करते हो? जहाँ आशय 'मादा पशु ' से है तु मने वहाँ
पशु अलग और ी अलग कर िदया, ी को लूटने वाली व ु
बना िदया, वाह रे भं गेडानंद वाह! ा यही है तु ारी बु ?

ा तु ारे अनुसार लूटपाट के उ े से लडा गया यु , धन


सं पदा, पशुािद की भाँ ित यों को लूटना आिद धमानुकूल है ?

खेर इस कार का िनच कम तो ामी जी तु म जैसे मंद बु ,


धू त को ही शोभा दे ता है , आपके इस लेख और कुरान की सू रा
अनफ़ाल की आयत ६९ म कोई ादा अ र नही है ,
ْ ‫ﻏﻧِﻣْ ﺗ ُمْ ﻣِ ﻓ َﻣﱠﺎﻛ ُﻠ ُوا‬
َ ‫ﻏﻔ ُورٌ ٱ ﱠ َ إِنﱠ ٱ ﱠ َ َوٱﺗ ﱠﻘ ُوا ْ طَ ِّﯾﺑ ًﺎ ﺣَ ٰﻠ َ ًﻼ‬
َ ِ‫ﯾمٌ رﱠ ﺣ‬
(‫ اﻷﻧﻔ ﺎل‬- ٦٩)

और जो कुछ ग़नीमत(लूट) का माल तु मने ा िकया है , उसे


वै ध-पिव समझकर खाओ और अ ाह के आ ाकारी बनकर
रहो, (सू रा- अनफ़ाल, आयत ६९)

और तु म भी कुछ इसी कार की सोच रखते हों िक- "जो-जो


लड़ाई म धन-धा , यां आिद लूट वही उस-उस का हण
करे "

यहाँ तु ारा यह िस ां त ते ल ले ने चला गया िक जो वे दानुसार है


वही हम मा है इससे ही पता चलता है िक तु म िकतने वै िदक
और िकतने िजहादी मानिसकता के हो, वे द तो िसफ बहाना है
तु ारा मत तु ारी बु है

P- 281
तु म तो इ ाम से भी २ कदम आगे िनकल गए, अपने चेलों को
लडाई म जीती ई यों को लूट के माल िक तरह बां टने की
िश ा करते हों शोक है ऐसी बु पर, यं को वै िदक , वै िदक
कहते नही ं थकन वाले िनयोग समाजीयों दयानंद के इस लेख के
बारे म ा कहना चाहोगे ?? पहले ारह ारह ीयों से भोग
करना िसखाया और जब इतने से भी कामि शा न ई तो
ीयों को लूटने की िश ा दे ड़ाली, तु ारे भगवान दयानंद तो
मुह द साहब से भी दो कदम आगे िनकल गये , लड़ाई म
याँ लूटने और बाटने की बात कर रहे ह,

ामी जी की मानिसकता और इ ाम की मानिसकता म कोई


ादा अंतर नही ं रहा, जो दयानंद लड़ाई म यों को लूटने
और बाटने की बात करता है वो इतना भी नही ं जानता िक इस
कार का िनच कम धमानुकूल है या िफर वे द िव , वो
िकतना बड़ा ानी होगा ये बताने की आव कता नही ं है , खेर
यह सब दयानंद की बु म भरे गोबर का नतीजा है

ये दे खए मनु ृ ित म ा कहा गया है --


रथा ं ह नं छ ं धनं धा ं पशू यः।

सव ािण कु ं च यो य यित त तत्॥

अथात- राजा ारा यु मे श ु ओं के रथ, घोडे , हाथी, छ , धन-


धा , मादा पशु तथा घी-ते ल आिद जो कुछ भी जीता गया है ,
उिचत है िक, वह सब राजा उसी ाजा को वापस कर दे (िजस
रा को उसने जीता है )

दे खए मनु जी ा िलखते है -
िज ा संपूजये े वान् ा णां ैव धािमकान्।

द ा रहाराथ ापयेदभयािन च॥१॥

P- 282
सवषां तु िविद ैषां समासेन िचकीिषतम्।

थापये त ं ं कुया समयि याम्॥२॥

माणािन च कुव त तेषां धमान् यथोिदतान्।

र ै पूजयेदेनं धानपु षैः सह॥३॥

पा ाहं च सं े तथा ं चम ले।

िम ादथा िम ा ा या ाफलमवा ुयात्॥४॥

िहर भूिमसं ा ा पािथवो न तथैधते।

यथा िम ं ुवं ल ा कृशम ायित मम्॥५॥

-मनु ृित [७/२०१-२०३, ७/२०७-२०८]

राजा ारा श ु पर िवजय ा कर ले ने के बाद उसे दे वताओं


तथा धमा ा ा णों की पुजा कर, यु से जा के िजन लोगों
की अ -धन एवं जल की हािन ई हो, उसकी पूित करनी
चािहए तथा जा को अभय का िव ास दे ना चािहए॥१॥, िवजयी
राजा को चािहए िक वह परािजत राजा तथा उसके मंि यों के
मनोरथ को जानकर, परािजत ए राजा या उसके वं श म ज े
यो पु ष को राजग ी पर बै ठा दे । वह परािजत रा म जो
िनयम, कानून, िनषेध आिद चिलत हों उन पर ीकृित की
घोषणा करवा द ॥२॥, िवजेता राजा को चािहए िक वह यु म
हारे ए राजा के रा म जो धमाचार चिलत हो उनकी
मा ता की घोषणा करवा द । राजा अपने मुख मंि यों के
साथ परािजत राजा को रा पर अिभिष कर उसे रत्न
आिद भट म दान कर॥३॥, िवजेता राजा तथा उसके सहायकों
को परािजत राजा से या ा का फल, िम ता आिद ब मू
उपहार ा करना चािहए ॥४॥, ोिक िकसी से सोना अथवा
भू िम लेकर राजा उतना श शाली नही ं बनता, िजतना की

P- 283
िम ता ा कर बनता है । दु बल से दु बल राजा भी िम ता से
बलवान बन जाता है ॥५॥

अथात राजा को ि य धम का पालन करते ए अपने ाजा के


िहत म, दो रा ों के म शां ित बनाए रखने के िलए उिचत है
िक वह श ु राजा को अपना िम बना ल, और ऐसे श ु को
कभी न मारे जो वाहन से उतरकर खड़ा हो, नपुंशक हो, हाथ
जोड़कर धरती पर बै ठा हो, जो कह िक म तु ारी शरण म ँ ,
िबना श धारण िकए, लडने के अिन ु क, जो िवपि म हो,
दु खी हो, घायल हो, भयभीत हो अथवा यु छोड़ कर भाग रहा
हो।

वीर ि य राजा परािजत राजा की जा के साथ भी उसी कार


वहार कर जैसा वह अपनी जा के साथ करता है , और थम
तो ामी जी से यह पूछना है की यहाँ तु ारा वो ण कहाँ चला
गया जो तु मने तीसरे समु ास म िलया िक “जो-जो वे द म
करने और छोड़ने की िश ा की है उस-उस का हम यथावत्
करना, छोड़ना मानते ह, इसिलए वे द हम को मा है इसिलये
हमारा मत वे द है ” वे द म तो ऐसा करना कही ं नही ं िलखा,
ब यह नीच कम तो वे द िव है , िफर तु मने यह वे द
िव लेख ों िलखा ? इससे िस होता है िक तु ारा मत
वे द नही ं ब तु ारी बु ही तु ारा मत है ,

दे ख पहले तो लोगों से धन ऐठने को मनु के नाम से फज ोक


बनाकर स ासी को णािद धन दे ने को िलखा, और अब
ीयों को लूटने की बात इससे ही पता चलता है िक दयानंद
िकतने बडे वै िदक है जो कम धमशा ों मे महापाप बताया गया
है उसे यह धम का अंग बताता है

P- 284
खेर ये सब बात िजहादी दयानंद की समझ से बाहर है ।

दयानंद बचपन से ही मु मों िक ही भां ित क रपंथी


िवचारधारा वाले थे, िनराकार की उपासना, मुित पुजा का िवरोध,
सनातन धम से अलग अपना अलग मत बनाना, सनातनी दे वी
दे वताओं अपने माता िपता, पूवजों आिद का अपमान करने
वाले,अपने बाप तक को धू त, पाखंडी, मुख बोलने वाले , वे द
िवरोधी, धम िवरोधी, ऋिष कृत ं थों का अपमान करने वाले,
णािद ं थों तक मे वे द िव ता ठहराने वाल, नशेडी,
गं जेडी, भं गेडी, ा ण स ासी होते ए भी लाश की िचर फाड
जैसा िनच कम करने वाले, लूटपाट के समथक, भारतवष की
सम यो का अपमान करने वाले, एक ी के ारह पित
बताकर उनके पित त धम को खंिडत करने वाले, यों को
लूटने बाटने की व ु समझने वाल, अपना मत दु सरों पर थोपने
वाले, अपने मत से िभ सभी मतों का अपमान करने वाले आिद
आिद, ऐसे धू त से ऐसे ही लेख की उ ीद की जा सकती
है

स ाथ काश ष समु ास पृ १११,


❝लोभा ह ंद ु मोहा ूव ु साहसम्।

भयाद् ौम मौ द ौ मै ूव चतुगुणम्॥३॥

जो लोभ से झूठी सा ी दे वे उस से १५॥=)(प ह पये दश


आने ) द लेवे, जो मोह से झूठी सा ी दे वे उस से ३=) (तीन
पये दो आने) द लेवे, जो भय से िम ा सा ी दे वे उस से
६।) (सवा छः पये ) द लेवे और जो पु ष िम ता से झूठी
सा ी दे वे उससे १२॥) (साढ़े बारह पये ) द लेवे❞

P- 285
समी क-- वाह रे ामी मुखानंद वाह! ा िदमाग पाया है
तु मने , मनु के समय म पये चला िदए, ध हे तु ारी दो
कोड़ी की बु , थम तो कोई इन मुखानंद महाशय जी से यह
पूछे की इ ोंने यह प ह पये दस आने, तीन पये दो आने,
सवा छ: पये , और ये साढ़े बारह पये का द िकन पदों से
िनधा रत िकया, और कौन सी गिणत िव ा लगाकर यह द
की धनरािश िनधा रत की, या िफर ऐसे ही मूहँ म जो भी अंड
सं ड आया सो बक िदया, और वतमान म इस १५, ३, ६ और १२
पयों की औकात ा है ? १५ पये म तो के एक
समय का भोजन भी न आव, और झूठ बोलने के िलए इतना
मजेदार द आज तक िकसी ने नही ं सु नाया होगा, जब १५
पये , ३ पये , ६ पये और १२ पये म झूठ बोलने की पूण
आजादी िमल रही है तो िफर लोभ और मोह के वशीभू त हो
सभी झूठ ही बोलने लगे ? ोिक वे जानते ह िक यिद उनका
झूठ पकड़ा भी जाता है तो वह १२ या १५ पये का साधारण सा
द दे क छूट जावगे , लोगों म कुछ भय ही न रहे गा, ामी जी
के इस क तद िवधान के च र म झूठी गवाही दे ने से न
जाने िकतने िनद ष मनु ों का जीवन ही समा हो जाए, यह
ामी जी झूठ रोकने को नही ं ब झूठ की, अधम की उ ित
के अथ यह द की धनरािश क ना की है इसका अथ इस
कार है -
लोभा ह ंद ु मोहा ूव तु साहसम्।

भया ् वौ म मौ द ौ मै ा ूव चतुगुणम्॥

लोभ के वश म झूठी गवाही दे ने वाले सा ी को 'हजार पणों (पण


अथात त ालीन ण मु ाएं )’ का द दे ना चािहए मोह के
वशीभू त हो अस बोलने वाले सा ी को थम साहस अथात

P- 286
ढ़ाई सौ पणों ( ण मु ाओं) का, भय के वश मे आकर अस
बोलने वाले सा ी को दो म म साहस अथात पां च सौ ण
मु ाओं का द और िम ता के कारण अस बोलने वाले
सा ी को थम साहस का चारगुना अथात हजार ण मु ाओं
का द दे ना चािहए

और यही ं िनयम उिचत भी है इससे मनु ों के अंदर यह भय


हमेशा बना रहे गा िक यिद वह झूठी गवाही दे गा तो उसे बड़े
भारी द का भागी बनना होगा, अब िव ान लोग यं िवचार
हम सभी जानते ह िक पुराने समयों म केवल चां दी या ण की
मु ाएं चलती थी, सो ऐसे म दयानंद का १५ पये , १२ पये
जैसी साधारण धनरािश द के प म िनधा रत करना कहाँ
की समझदारी है यह झूठ बोलने वाले सा ी के िलए सजा िलखा
है या िफर मजा ? अब यिद िकसी सा ी को झूठ बोलने को
कोई हजारों, लाखों पये का लालच दे तो भला वह झूठ बोलने
से पीछे ों हटे गा ोिक वह यह बात अ ी कार जानता है
यिद उसका झूठ पकड़ा भी गया तो अिधकतम १५ पये का
साधारण सा द भरके वह बच जावे गा कम से कम दयानंद ने
(सह ) इस पद का अथ तो ठीक िलख िदया होता सह का
अथ प ह पये दस आने न जाने दयानंद ने यह अथ िकस
श कोश से िनकाला, ामी जी इसी खूबी के कारण तो उनका
एक नाम धू तानंद है शायद ामी जी ने यह १२ और १५ पये
का द इसिलए रखा ोंिक वे जानते ह िक यिद इस धरती
पर सबसे अिधक झूठ बोलने वाला कोई है तो वे यं है ,
और उनके बाद उनके चैले झूठ बोलने की परं परा को चलावे ग
इसिलए ामी जी ने सोच समझकर अपने चेलों के िहत म यह

P- 287
क त िनयम बनाया इस कारण दयानंद का यह लेख
अशु है

स ाथ काश ष समु ास पृ १११,

❝जो-जो िनयम शा े न पाव और उन के होने की


आव कता जान तो उ मो म िनयम बां ध❞

समी क-- न जाने ामी जी अपनी बु कहाँ रखकर भू ल


गये , ों ामी जी तु म तो शा ों म सब कुछ मानते हो? और
जो है नही ं नया बनावोग, इससे वह वे दों म न होने के कारण
िफर भी वे द िव ही होगा, और तु म यं िलखते हो जो वे दों
म या वे दानुसार नही ं वह तु मा नही,ं िफर जो नया बनाओग
तो उसका माण कैसे होगा? इससे ही पता चलता है िक ज रत
पड़ने पर तु मने ा- ाक ना िकया होगा? और आगे भी
करगे जैसे अब इस वै धर् म िनयोग को ही ले लो इसकी ा
ज रत थी ?, इससे पता चलता है िक पहले आपने कामि
बु झाने को महा िभचार वै धम िनयोग की क ना की, जब
इससे भी कामि शा न ई तो ज रत पड़ने पर ीयों को
लूटने का िनयम बां धा, लोगो से धन ऐठने को मनु ृित के नाम
से फज ोक गढ़ स ािसयों को धनािद दे ने का िनयम बां धा
इसी कार ज रत पड़ने पर अपनी ाथ पूित के िलए और न
जाने ा- ाक ना करोग, िव ान लोग तु ारे इस डामे को
अ ी कार समझते ह

॥इित चुितयाथ काश ष समु ास खं डनम् समा म् ॥

P- 288
स ाथ काशा गत स म् समु ास खं डनं ार ते

स ाथ काश स म् समु ास पृ १३२,

❝ यिसं शितं शता० इ ािद वे दों म माण ह इस की ा ा


शतपथ म की है िक ततीस दे व अथात् पृिथवी, जल, अि , वायु,
आकाश, च मा, सू य और न सब सृ ि के िनवास थान होने
से आठ वसु , ाण, अपान, ान, उदान, समान, नाग, कू ,
कृकल, दे वद , धन य और जीवा ा ये ारह इसिलये
कहाते ह िक जब शरीर को छोड़ते ह तब रोदन कराने वाले होते
ह, सं व र के बारह महीने बारह आिद इसिलये ह िक ये सब
की आयु को लेते जाते ह।

िबजली का नाम इ इस हे तु से है िक परम ऐ य का हे तु है ,


य को जापित कहने का कारण यह है िक िजस से वायु वृ ि
जल ओषधी की शु , िव ानों का स ार और नाना कार की
िश िव ा से जा का पालन होता है । ये ततीस पूव गु णों के
योग से दे व कहाते ह, इन का ामी चौंतीसवां उपा दे व
शतपथ के चौदहव का म िलखा है ❞

समी क-- दे ख कही ं तो ामी जी के िलए िव ान दे वता हो


जाते ह, तो कही ं िम ी, पानी, लकड़ी दे वता हो जाते ह, इसी
कार कही ं इ ई र हो जाते ह तो कही ं इ िबजली बन जाते
ह,

दे खए थम तो इस दयानंद ने ि तीय समु ास म यह लेख


िकया ह िक "जैसे यह पृिथवी जड़ है वै से ही सू यािद लोक ह, वे

P- 289
ताप और काशािद से िभ कुछ भी नही ं कर सकते , ा ये
चेतन ह जो ोिधत होके दु ःख और शा होके सु ख दे सक?"

और अब अपने ही िव खंडन करते ए स म् समु ास म


पृिथवी, जल, अि , वायु, आकाश, च मा, सू य और न आिद
को दे वता मान िलया ध है ामी भं गेडानंद कही ं तो पृिथवी,
जल, अि , वायु, आकाश, च मा, सू य और न आिद को जड़
माना और कही दे वता मान िलया यह ामी जी का दौगलापन
नही ं तो ा है ?

और “ यिसं शितं शता” िजसके अथ ३०३३ दे वताओं के है ,


ामी जी ने ३३ ही िकये ह वह अथ तो बदला ही पर िहसाब म
भी गड़बडी, ा तु मको ३३ से आगे िगनती नही ं आती जो ३०३३
के ३३ ही रह गए, दे खए दे वता तो अनेक है िजनके नाम जपने
से पाप दू र होता है
सिवता थमे ऽह ् अि र् ि तीये वायुस् तृतीय ऽ आिद श् चतुथ
च माः प म ऽ ऋतुः ष े म तः स मे बृह ितर् अ मे।

िम ो नवमे व णो दशम ऽ इ ऽ एकादशे िव े दे वा ादशे॥


~यजु वद {३९/६}

थम िदन सिवतादे व के िलए, दु सरे िदन अि , तीसरे िदन वायु ,


चौथे िदन आिद , पां चवे िदन च मा के िलए, छठे िदन ऋतु के
िलए, सातव िदन म दगण के िलए, आठव िदन बृ ह ित दे व
के िलए, नौव िदन िम के िलए, दसव िदन व ण के िलए,
ारहव िदन इ दे व के के िलए, बारहव िदन िव दे वता के
िलए, इन दे वताओं के िनिम बारह िदन तक ायि त के अथ
आ ित दी जाती है , अब ामी जी बताव इसम यह दे वता कहाँ
से आ गये,

P- 290
नृच सो अिनिमष ो अहणा बृह े वासो अमृत मानशुः।

ोतीरथा अिहमाया अनागसो िदवो व ाणं वसते ये॥


~ऋ ेद {१०/६३/४}

(नृच स:)- कमनेता मनु ों को दे खने वाले, (अिनिमषंत:)- सदा


जागरणशील िजनके पलक नही ं लगते , (दे वासु :)- वे दे वता,
(अहण)- लोक के प रचरणाथ, (बृ हत् अमृत ं )- अपर धम
को, (आनशु:)- ा ए ह, ( ोतीरथा:) वे दी मान रथ वाले,
(अिहमाया:)- अ व बु , (अनागसा:)- पापरिहत दे वता,
(व ाणं ) उ ू त दे श म, ( ये )- लोक के क ाणाथ,
(वसते )- रहते ह।
स ाजो ये सुवृधो य माययुरप रह्वृता दिधरे िदिव यम्।

तां आ िववास नमसा सुवृ िभमहो आिद ां अिदितं ये॥


~ऋ ेद {१०/६३/५}

य ों म आने वाले दे वता अित बु यु और अपने ते ज म


िति त रहने वाले ह, उन ग म िनवास करने वाले दे वताओं
एवं उनकी माता अिदित के िनिम े नम ार और ु ितयाँ
करते ह और िविवध कार से उनकी से वा करते ह।

इससे िविदत होता है िक दे वता य म आते ह इससे िबजली


आिद का क त अथ जो ामी जी ने िलखा है सो िम ा हो
गया।

P- 291
॥ई रिवषय करण॥

स ाथ काश स म् समु ास पृ १३३,

❝( ) परमे र दयालु और ायकारी है वा नही?ं

(उ र) है , ाय और दया का नाममा ही भे द है ोंिक जो


ाय से योजन िस होता है वही दया से , द दे ने का
योजन है

पुनः लेख है िक "िजस ने जैसा िजतना बु रा कम िकया हो उस


को उतना वै सा ही द दे ना चािहये , उसी का नाम ाय है "

और"दया वही है िक उस डाकू को कारागार म रखकर पाप


करने से बचाना❞

समी क-- यहाँ तो ामी जी ने दया की खुब रे ट िपिट है , ई र


ा है मानों जैसे इनका चेला है , जो सारा िस ां त ामी जी से
कथन कर िदया है , दे खए (नी ापणे ) धातु से ाय श िस
होता है , िजसके अथ यह है िक यथावत् ाय करना, जो द
के यो हो उसको द दे ना, और जो दया के यो हो उस पर
दया करना, और (दय) धातु से दया श िस होता है , िजसके
अथ यह है िक िकसी भ े ाचरणी पु ष से यिद अ ात म
कोई अपराध हो गया हो जाये तो उसको ु ित करने पर मा
करना, ोिक दया का योग अपराधी पर ही होता है , जबिक
िकसी का दु ख दे खकर उस पर क णा आती ं है िक इसका
दु ख दू र कर, तो इसी का नाम दया है , ई र अ यािम है वह
सबके मन की बात जानता है , िक यह अपराध वे सुधी म बना है ,

P- 292
या जानकर यिद वह ाथना कर िक आगे ऐसी भू ल न करे गा,
बस उसके ऊपर दया करता है , जैसा यजुवद म िलखा है िक-
स नो ब ुर् जिनता स िवधाता धामािन वेद भुवनािन िव ा।

य दे वा ऽ अमृतम् आनशानास् तृतीये धाम ् अ ् ऐरय ॥


~यजु वद {३२/१०}

(स:)- वह परमे र, (न:)- हमारा, (ब ु :)- िविवध कार की


सहायता र ा◌ािद करने से ब ु है , (स:)- वह, (जिनता)- हमारा
उ कता, (िवधाता)- िवधाता मािलक िपता है , (स:)- वह,
(िव ा)- सब लोकों, (भु वनािन)- ािण और, (धामािन)- थानों,
(वे द)- जानने वाला है , (दे वा:) दे वता, (य )- िजस ई र म,
(अमृतम् )- मो ापक ान को, (आनशान:)- ा करते,
(तृ तीये धामन् )- ऐसा वह परमे र ग प तृ तीया धाम है ।

इस मं म ब ु जिनता आिद श ों। से ई र म अपार दया


जानी जाती है , ब ु पन यही है िक आपदा म सहायता करनी,
जिनता िपता पु के अपराधों को मा कर दे ता है और दया
करता है ।
शं वातः शम् िहते घृिणः शं ते भव ् इ काः।

शं ते भव ् अ यः पािथवासो मा ािभ शूशुचन्॥

~यजु वद {३५/८}

ई र दया ि से कहता है िक हे यजमान भ , वायु ते रे िलए


सु ख प हो, सू य िकरण ते रे िलए क ाणकारी हो, म म और
िदशाओं म थािपत इि का ते रे िलए सु खकारी हो, पृ ी अि
ते रे िलए मंगलकारी हो वह तु झे तिपत नही ं कर, अब िवचारना
चािहए िक यह वा दया प है वा नही,ं इस कारण ाय दया

P- 293
पृथक है , और ई र म सवश मान होने से दोनों बात बनती
है ।

॥िनराकार साकार करण॥

स ाथ काश स म् समु ास पृ १३४,

❝( ) ई र साकार है वा िनराकार?

(उ र) िनराकार, ोंिक जो साकार होता तो ापक नही ं हो


सकता, जब ापक न होता तो सव ािद गु ण भी ई र म न घट
सकते , ोंिक प रिमत व ु म गु ण, कम, भाव भी प रिमत
रहते ह तथा शीतो , ु धा, तृ षा और रोग, दोष, छे दन, भे दन
आिद से रिहत नही ं हो सकता, इस से यही िनि त है िक ई र
िनराकार है , जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आं ख आिद
अवयवों का बनानेहारा दू सरा होना चािहये , ोंिक जो सं योग से
उ होता है उस को सं यु करनेवाला िनराकार चेतन
अव होना चािहये , जो कोई यहां ऐसा कहै िक ई र ने े ा
से आप ही आप अपना शरीर बना िलया तो भी वही िस आ
िक शरीर बनने के पूव िनराकार था❞

समी क-- ऐसा िविदत होता है िक ामी जी ने ई र को


मनु वत् समझ िलया है , यिद वह साकार हो जाए तो ापक न
रहे , उसका कोई बनाने वाला हो जाए जबिक ई र
सवश मान है , तो वह आकार वाला होकर श वा ान से
रिहत नही ं हो सकता, िजस समय लय होती है उस समय वह
िनराकार, जब उसम सृ ि रचना की इ ा होती है तब उसको

P- 294
सगु ण वा साकार कहते ह, यह ाय दयालु आिद नाम साकार
म ही घटते है , दे खए यजुवद के शतपथ ा ण म िलखा है
िक--
उभयं वा एत जापितिन ािन प रिमत ाप रिमत
त जु षा करोित यदे वा िन ं प रिमतं पं तद तेन
सं रो थ य ू ी ं यदे वा ािन मप रिमतं पं तद तेन
सं रोित॥ ~शतपथ ा ण {१४/१/२/१८}

वह परमे र दो कार का है प रिमत अप रिमत, िन और


अिन इस कारण जो कम यजुवद मं ों से करता है उसके
ारा परमे र के उस प का सं ार करता है जो िन
और प रिमत नाम है और जो अ ा मं का ही मनन करता है
उससे परमे र के उस प का सं ार करता है जो अिन
और अप रिमत नाम है इससे ई र म िनराकारता
साकारता पाई जाती है

इसके अित र यजुवद के पु ष सु म भी ई र के साकार


प का कथन है दे खए यह मं इसम िलखा है िक-
सह शीषा पु षः सह ा ः सह पात्।

स भूिमं िव तो वृ ा ित शांगुलमं॥~ [ऋ ेद १०/९०/१],


[यजु वद का ३१/१]

भावाथ: वे भु अ त िसरों, आँ खों व पैरों वाले ह, वे पुरे ा ा


को आवृ त करके भी दशां गुल जगत् से परे रहते है

इससे िस होता है िक ई र म साकारता और िनराकारता दोनों


पाई जाती है ।

P- 295
स ाथ काश स म् समु ास पृ १४८,

❝जो गु णों से सिहत वह सगु ण और जो गु णों से रिहत वह


िनगु ण कहाता है , अपने -अपने ाभािवक गु णों से सिहत और
दू सरे िवरोधी के गु णों से रिहत होने से सब पदाथ, सगु ण और
िनगु ण ह, कोई भी ऐसा पदाथ नही ं है िक िजस म केवल
िनगु णता वा केवल सगु णता हो िक ु एक ही म सगु णता और
िनगु णता सदा रहती है , वै से ही परमे र अपने अन ान
बलािद गु णों से सिहत होने से सगु ण पािद जड़ के तथा े षािद
जीव के गु णों से पृथक् होने से िनगु ण कहाता है ❞

समी क-- इस लेख से तो ामी जी का ही प िबगाड़ता है ,


जब इस कार िनराकार श का अथ माना तब तु ारे ता य
वाला िनराकार श का अथ नही ं जो मूितमान को न बोधन
कर, िक ु िद अलौिकक मूितमान का बोधक भी िनराकार
श हो सकता है जैसा िक स ाथ काश म िलखा है िक िद
अलौिकक गु ण वाले का भी िनगु ण श बोधक है , वै से ही
िनराकार श जब साकार का भी बोधक हो गया, तो िनगु ण
श के ां त म कोई िवरोध नही,ं िनराकार का आकार है ,
सवथा आकार शू का नाम िनराकार कहोग तो सरसव गु ण
शू का नाम िनगु ण ए से दयानंद का मत भं ग हो जाएगा,
ोिक स ाथ काश म सव गु ण शू का नाम िनगु ण नही ं
माना इससे िनराकार श भी साकार का बोधक हो गया।

जब इस कार िनराकार की अिवरोधी साकारता िस हो गई


तो, “स पय् अगाच् छु म् अकायम् अ णम् अ ािवरम् शु म्
अपापिव म्” इस मं म (अकायम्) इस पद का अ ी कार
सम य हो गया भौितक मिलन काया करक विजत ह और
बृ हदार क उपिनषद म िलखा है िक--

P- 296
े वाव णो पे मूत चैवामूत च०। ~बृहदार क
उपिनषद{२/३/१}

ई र के दो प ह एक मूितमान और एक अमूितमान (एकं पं


ब धा य: करोित)? और एक प को जो ब त कार का करता
है इस मं से तथा औरों से ही सवकारण बीज थाप परमा ा
म साकारता इस कार से कट है ।

॥अवतार करण॥

स ाथ काश स म् समु ास पृ १४०,

❝( ) ई र अवतार लेता है वा नही?ं

(उ र) नही,ं ोंिक ‘अज एकपात् ’, ‘सप ागा ु मकायम्’ ये


यजुवद के वचन ह, इ ािद वचनों से परमे र ज नही ं लेता।

पुनः पृ १४१ पर लेख है िक "और यु से भी ई र का ज


िस नही ं होता, जैसे कोई अन आकाश को कहै िक गभ म
आया वा मूठी म धर िलया, ऐसा कहना कभी सच नही ं हो
सकता, ोंिक आकाश अन और सब म ापक है , इस से न
आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वै से ही अन
सव ापक परमा ा के होने से उस का आना जाना कभी िस
नही ं हो सकता, जाना वा आना वहां हो सकता है जहां न हो, ा
परमे र गभ म ापक नही ं था जो कही ं से आया? और बाहर
नही ं था जो भीतर से िनकला? ऐसा ई र के िवषय म कहना और
मानना िव ाहीनों के िसवाय कौन कह और मान सकेगा,

P- 297
इसिलये परमे र का जाना-आना, ज -मरण कभी िस नही ं
हो सकता❞

समी क-- ामी जी यहाँ ई र को अज अकाय बताकर ई र


के अवतार होने म सं देह करते ह तो, जीवा ा भी तो अज और
ापक वण करी जाती है , िफर तो उसका भी ज न होना
चािहए, दे खए--
न जायते ि यते वा िवपि न्

नायं कुति बभूव कि त्।

अजो िन ः शा तोऽयं पुराणो

नह ते ह माने शरीरे ॥१८॥

ह ा चे ते ह ुँ हत े ते हतम्।

उभौ तौ न िवजानीतो नायँ ह नह ते॥१९॥

अणोरणीया हतो महीया-

ना ाऽ ज ोिनिहतो गुहायाम्।

तम तुः प ित वीतशोको

धातु सादा िहमानमा नः॥२०॥ ~कठोपिनषद

(िवपि त्) सव का ा जीवा ा, (सव ा सव भो ा


सवानुभव:) इ ािद वा ों से , आ ा ज मरण से रिहत है , यह
यं न तो िकसी के ारा उ होता है और न इसके ारा
(कि त् ) कोई भी उ होता है वह तो अज ा िन एकरस
वृ रिहत है , शरीर के न होने पर भी इसका नाश नही ं होता,
यिद कोई हनन कता पु ष हनन कता आ िचंतन करता है ,
और यिद कोई हत आ आ ा को हत िचंतन करता है , तो वे

P- 298
दोनों अ ानी है वे दोनों ही आ ा के यथावत प को नही
जानते , ोिक यह आ ान हनन करता है न हनन होता है ,

जो इस जीव की दय गु हा अथात पंचकोश प गु फा म


(िनिहत) थत है , यह आ ा अणु से भी अणु तर है अथात
दु ल है , इसे अणु तर कहा पर ु बड़े आकाशािद से महीयान्
मह र है (धातु: सादात्) ई र की स ता से , (अकतु :)
िवषयभोग सं क रिहत पु ष आ ा को दे खता है , तो आ ा
की मिहमा दे ख शोक रिहत होता है , दे खए योग शा के भा
म ास जी कहते ह िक--
योगि वृि िनरोधः {यो०पा०१ सू०२}

िचितश प रणािम ितसं मा दिशतिवषया शु ा चान ा च


ास भा म् अथ- (िचितश ) जीवचेतन अप रणामी है
(अ ितसं मा) ि या रिहत है (दिशतिवषया) सव िवषयों का
ा है शु और अन ापक है इस कार ास तथा
कणाद ऋिष के मत से जीवचेतन ापक है और जीव का ज
वे मानते ह इससे ापक का ज नही ं होता यह कथन कैसे
होगा? ोिक ापक का ज ासािदक मानते ह, यिद यह
कहो की "हम तो यु ही मानते ह ज मरण आना जाना
प रिछ पदाथ म बन सकता है , इस कारण जीवा ा का
प ापक नही ं मानते " इसका उ र, तब तो यह िवचार
कत है िवभू पदाथ से िभ अणु प रमाणवान् वा
म प रमाणवान् होता है , आ ा अणु प रमाण है वा
म प रमाण है , यिद कहो अणु प रमाणवान् है तो सारे शरीर म
शीतल जल सं योग से शीत श की तीत नही ं होनी चािहए,
ोिक आ ा को तु मने अणु प रमाणवान् माना है , सो एक दे श

P- 299
म थत होकर शीत का ान कर सकता है , आ ारिहत अंगों म
शीत श का भान कैसे होगा?

( ) आ ा य िप एक दे श म ह, तथािप जैसे क ू री की गं ध
सव िव ृ त होती है वै से ही आ ा का ानगु ण सव िव ृ त है ,
इससे शीत श की तीित सव हो सकती है , अथवा जैसे सू य
भाव वाला है वै से ही आ ा भी भावत् है ।

(उ र) यह िनयम है िक गु ण अपने आ य को ाग कर अ
गमन नही ं कर सकता ोंिक गु ण म ि या नही होती, और
क ू री के ां त म भी क ू री के सू अवयव िव ृ त होते ह,
इसी कारण क ू री कपूरािद र क उसको ब कर िकसी
िड े आिद म रखते ह और जो वह खुल रख जाये तो वे उड
जाते ह, और भा गु ण नही ं िक ु िवरल काश भा है , और
घन काश सू य है , ऐसे ही आ ा को मानने से ान प ही िस
होगा, सो ान एकरस है , कही ं सघन और कही ं िवरल ऐसा
कहना बनता नही,ं यिद अनेकरस मानोगे तो अिन स
होगी, और सवथा अणु वादी के मत म ि या तो ज र माननी
होगी, तो
{अ े ोयमदा ोयम े ोशो एव च।

िन ः सवगतः थाणुरचलोयं सनातनः॥}

इ ािद गीता के वचनों से िवरोध होगा, और आ ा िवनाशी


ि याव त् घटवत् इस अनुमान माण से िवनािश स तो
अव होगी, और म म प रमाण प म ही ज
िवनािश ािद दोष है , आ ा ज : म मप रमाणव ात् आ ा
िवनाशी म मप रमाणव ात् घटवत् इस कारण अनािद
जीवा ा को मानकर म म प रमाण कैसे मानोगे , ोिक

P- 300
मध् यम प रमाण मानने से ज की स होगी, इससे िबना
इ ा से भी ासािद महा ाओं के वचनानुसार आ ा को
ापक और अज अव मानना पड़े गा, तो ज शंका ई रत्
जीव म भी बन सकती है , तो िफर जीव का ज कैसे हो सकता
है , और जब जीव का ज मानते हो तो ई र का अवतार भी
मानना होगा, जैसा िक वे दािद शा ों से माण है दे खए
यजुवद--
जापितश् चरित गभ ऽ अ र् अजायमानो ब धा िव जायते।

त योिनं प र प धीरास् त न् ह त थुर् भुवनािन


िव ा॥~ यजु वद {३१/१९}

( जापित)- परमे र, (गभ अ :)- गभ म िव होकर,


(अजायमान:)- अज ा होते ए भी, (ब धा)- अनेक कारण प
{राम, कृ ािद पों} को, (चरित)- ा होकर, (िवजायते )-
उ होता है , (धीरा:)- ानी महा ाजन गु ण धान पु ष,
(त )- उस परमा ा के, (योिनम्)- ज कारण को,
(प रप )- ान से सब ओर से दे खते है ,{अ ानीयों को
उसका ज नही ं िविदत होता}, (य न्)- िजस परमे र म,
(हिव ाभु वनािन)- सब ा ण, (त थु)- थत है ।

इसके अलावा ीम गव ीता म भगवान ीकृ ने इस कार


कहा है िक--
अजोऽिप स या ा भूतानामी रोऽिप सन्।

कृितं ामिध ाय स वा ा मायया॥

~ ीम गव ीता {४/६}

P- 301
भावाथ-- म अज ा और अिवनाशी प होते ए भी तथा
सम ािणयों का ई र होते ए भी अपनी कृित को अधीन
करके अपनी योगमाया से कट होता ँ ।
यदा यदा िह धम ािनभवित भारत।

अ ु ानमधम तदा ानं सृजा हम्॥ ( ीम गव ीता- ४/७)

भावाथ-- हे भारत! जब-जब धम की हािन और अधम की वृ


होती है , तब-तब ही म अपने प को रचता ँ अथात साकार
प से लोगों के स ुख कट होता ँ ।
प र ाणाय साधूनां िवनाशाय च दु ृ ताम्।

धमसं थापनाथाय स वािम युगे युगे॥ ( ीम गव ीता- ४/८)

भावाथ-- साधु पु षों का उ ार करने के िलए, पाप कम करने


वालों का िवनाश करने के िलए और धम की अ ी तरह से
थापना करने के िलए म यु ग-यु ग म कट आ करता ँ ।
अ ं माप ं म े मामबु यः।

परं भावमजान ो ममा यमनु मम्॥ ( ीम गव ीता- ७/२४)

भावाथ-- बु हीन पु ष मेरे अनु म अिवनाशी परम भाव को


न जानते ए मन-इ यों से परे मुझ स दान परमा ा को
मनु की भाँ ित ज कर भाव को ा आ मानते ह।
नाहं काशः सव योगमायासमावृतः।

मूढोऽयं नािभजानाित लोको मामजम यम्॥

~( ीम गव ीता- ७/२५)

भावाथ-- अपनी योगमाया से िछपा आ म सबके नही ं


होता, इसिलए यह अ ानी जनसमुदाय मुझ ज रिहत

P- 302
अिवनाशी परमे र को नही ं जानता अथात मुझको ज ने -मरने
वाला समझता है ।
अवजान मां मूढा मानुषी ं तनुमाि तम्।

परं भावमजान ो मम भूतमहे रम्॥ ( ीम गव ीता- ९/११)

भावाथ : मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनु का


शरीर धारण करने वाले मुझ सं पूण भू तों के महान् ई र को तु
समझते ह अथात् अपनी योग माया से सं सार के उ ार के िलए
मनु प म िवचरते ए मुझ परमे र को साधारण मनु
मानते ह।
न मे िवदु ः सुरगणाः भवं न महषयः।

अहमािदिह दे वानां महष णां च सवशः॥ ( ीम गव ीता- १०/२)

भावाथ : मेरी उ ि को अथात् लीला से कट होने को न दे वता


लोग जानते ह और न महिषजन ही जानते ह, ोंिक म सब
कार से दे वताओं का और महिषयों का भी आिदकारण ँ ।

पुनः माण वा ीिक रामायण से दे खए--


एत रे िव ु पयातो महाद् युित:।

शङ् खच गदापािण: पीतवासा जग ित:॥१॥

तम ुव ुरा व०

ाि यो ामहे िव ो लोकानां िहतका या॥२॥

रा ो दशरथ मयो ािधपते: भो:

िव ो पु माग कृ ाऽऽ ानं चतुिवधम्॥३॥

त ं मानुषो भू ा वृ ं लोकक कम्।

अव ं दै वतैिव ो! समरे जिह रावणम्॥४॥

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~{वा ीिक रामायण बा० का० प हवां सग}

दे वताओं की ु ित सु नकर भगवान िव ुय थल म आये ,


शंख च गदा प धारण िकये पीले व सा ात्
जगदी र,॥१॥ भगवान से सब दे वता बोले हे भगवन् आपको
लोकों के िहत के वा े िनयु करते ह,॥२॥ िक राजा दशरथ
के यहाँ आप अपने अंश सिहत चार कार से िवभाग कर ज
लो,॥३॥ मनु प धारण कर बढ़े ए लोक-कंटक दे वताओं
से अब महापापी रावण का नाश कीिजये ॥४॥

उ माणों से यह िस होता है िक ई र अवतार लेता है ।

॥सवश मान करण॥

स ाथ काश स म् समु ास पृ १३४,

❝( ) ई र सवश मान् है वा नही?ं

(उ र) है , पर ु जैसा तु म सवश मान् श का अथ जानते


हो वै सा नही,ं िक ु सवश मान् श का यही अथ है िक
ई र अपने काम अथात् उ ि , पालन, लय आिद और सब
जीवों के पु पाप की यथायो व था करने म िकि त् भी
िकसी की सहायता नही ं लेता अथात् अपने अन साम से ही
सब अपना काम पूण कर लेता है ।

पुनः चार पं यों बाद यह लेख है िक "जो तु म कहो िक सब


कुछ चाहता और कर सकता है तो हम तु म से पूछते ह िक
परमे र अपने को मार, अनेक ई र बना, यम् अिव ान्,
चोरी, िभचारािद पाप कम कर और दु ःखी भी हो सकता है ?

P- 304
जैसे ये काम ई र के गु ण, कम, भाव से िव ह तो जो
तु ारा कहना िक वह सब कुछ कर सकता है , यह कभी नही ं
घट सकता, इसीिलए सवश मान् श का अथ जो हम ने
कहा वही ठीक है ❞

समी क-- ामी जी का लेख पढ़कर तो ऐसा िविदत होता है


िक जैसे ई र ने ामी जी से कज िलया होगा, और एक
तम ुक (ऋणप ) िलख िदया होगा, िजसके ज रये स ाथ
काश बना िलया और सवश मान का अथ अपना ही ठीक
रखा है , और ं थों का अशु जबिक ई र उ ि पालन लय
जीवों के काम आिद म िकसी कार की सहायता नही ं लेता, तो
इसके ित र तारागणािद की रचना म ज र सहायता लेता
होगा, यह ामी जी के ही लेख से खुल सकता है , जैसे िक
वे दाथ म ामी जी से ही सलाह ली होगी, तथा आपने भू िमका
भी नई गढ़ी, ा वे द का अथ करना आपको ही आता था, और
आपने यह भी कोई ई र पर बड़ी ही कृपा करी िक
सवश मान नाम तो रहने िदया, पर ु अथ ऐसा िकया जैसे
कोई बं धुए का नाम तं रख द, वा तं का नाम बं धुआ रख
द, ामी जी तु मने तो अपने जान वे दभा भू िमका म ई र को
बां ध ही िलया है और स ाथ काश पी तम ुक की धमकी
दे ते हो, िक खबरदार अवतारन ले ना नही,ं नही ं तो नािलश कर
दी जाये गी, यह अवतार ही दू र करने के वा े आपने उसकी
अन साम मध ा लगाया है ,

और यह तो अजब ही बात कही िक “जो चाहे सो कर तो अपने


आप को मार डाल, चोरी कर” ध हे ! स ाथ काश िलखने
वाले ते री बु , इस िनब धानंद का ा िठकाना कब ा िलख
द? चोरी करना आ घात करना यह दोनों काम करने को तो

P- 305
िनबल भी साम है , सब ही मर जाने चािहए सो ऐसा नही ं होता,
िक ु जो अ ानी है वो ही िकसी व ु की इ ा होने से और
उसके न िमलने से दु खी हो ाण खो दे ते है , पर ानी नही,ं
िनधन चोरी करते ह, ई र तो पूण ानी है िफर भला वह
आ घात ों करे गा? उसकी इ ा मा से सब जगत् उ
हो जाता है , िफर वह पूण ानी कौन से कारण से मर? और िन
का नाश नही ं होता, ा आ ा का कोई भी नाश कर सकता
है ? जब ई र अजर अमर है काश प है अकाय है तो अपने
को कैसे मार, आ ा के ल ण तो सु िनये --
नैनं िछ श ािण नैनं दहित पावकः।

न चैनं े दय ापो न शोषयित मा तः॥

अ े ोयमदा ोयम े ोशो एव च।

िन ः सवगतः थाणुरचलोयं सनातनः॥

~{ ीम गव ीता २/२३,२४}

अथ-- इस आ ा को न कोई श छे दन कर सकता है , न अि


इसे जला सकती है , न पानी इसे गला सकता है , और न ही वायु
इसे सु खा सकता है , ोिक यह आ ा अ े है , यह आ ा
अदाह्य, अ े और िनसं देह अशो है तथा यह आ ा
िन , सव ापी, अचल, और थर रहने वाला और सनातन है ,
जब आ ा ऐसा है िजसका प कुछ जाना नही ं जाता िफर
कैसे उसका नाश हो सकता है ? ा कोई ई र को आपने
अपनी भां ित मुख समझा है जो सवश मान होने से अपने
आपको मार डाले , तो वह श ही ों रखा अलग कर िदया
होता? इसी िव ा पर वे दभा की रचना करी थी, सवश मान
के अथ है िक सब कार की िजसम ताकत हो, जो चाहे सो कर

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सके, पर ु आपसे कदािचत ई र ने वाता करी हो, और बता
िदया हो िक सवश मान का ाचीन अथ अशु है , यह अथ
ठीक है पर ु ामी जी वे द तो यह कहते ह--
न तं िवदाथ य ऽ इमा जजाना द् यु ाकम् अ रं बभूव।

नीहारे ण ावृता ज ा चासुतृप ऽ उ शासश् चर ॥

~यजु वद {१७/३१}

हे मनु ों, (य:)- जो ई र, (इमा)- इस भु वन और सब ािणयों


को, (जजाना)- उ करता आ, तथा (यु ाकम्)- तु ारे
सबके, (अ रं )- म , (अ त् )- अ यामी प से थत,
(वभू व)- आ, (तं )- उस ई र को, (यू यं)- तु म, (निवदाथ)- नही ं
जानते ोिक, (नीहारे ण)- अ ान के ापक अंधकार से िघरे ,
(च)- तथा, (ज ा)- केवल वाता या िववाद म लगे ए मा
ाण-र ण व पोषण की िचंता से सं त लोग उस परमे र के
स म थ िववाद करते ए िवचरते है , उसका सा ा ार
नही ं कर पाते ।

अब दे खए िजसके जानने को वे द कहता है िक तु म नही ं जानते


िफर दयानंद उसको और उसकी सवश को कैसे जान गये ?
जो योिगयों को भी अग है ! और दे खये--
एतावान मिहमातो ायां पू षः।

पादोऽ िव ाभूतािन ि पाद ामृतंिदिव॥ ~यजु वद {३१/३}

(अ )- इस परमे र की, (मिहमा)- ऐ य िवभू ित, (एतावान् )-


इतनी ही नही,ं (च)- िक ु, (पु षः)- वह परमा ा, (अतः)- इस
सं सार से , ( ायान्)- अितशय अिधक है िजस कारण, (िव ा)-
सब, (भू तािन)- पृिथ ािद चराचर जगत् , (अ )- इस परमा ा
का, (पादः) चतु थाश अथात एक चौथाई है , और (ि पाद् )- शेष

P- 307
तीन भाग म, (अमृतम् ) नाशरिहत, (िदिव) काशमान मो
प आप है ।

इससे िविदत होता है िक जो कुछ यह आकाश पाताल स ूण


तारामंडल सिहत है यह सब तो मा उसकी मिहमा का चौथाई
है , िजसके पदाथ का ही अब तक लाखों वष म भे द नही ं जाना
जा सका, इससे तीनगु नी मिहमा उसके िनज लोक म थत है ,
और दे खए ीम गव ीता म भी इस कार कथन है िक (बु े :
परत ु स:) िक वह परमे र बु से परे है जब वह बु से परे
है तो भला उसके काय पूणतः कौन जान सकता है ? िफर उस
अन परमा ा की मिहमा और सवश मानी दयानंद ने कैसे
जान ली? और उस अन ऐ य वाले परमा ा का सृ ि क्रम
कैसे जाना? जो कह दे ते हो िक यह सृ ि म िव है , दे खये
वह सब कुछ कर सकता है यह सारा सं सार और जो कुछ भी है
यह सब उसकी मिहमा से उ ह दे खये ऋ े द म इस कार
कथन है िक--
नासदासी ो सदासी दानी ं नासी जो नो ोमा परो यत्।

िकमावरीवः कुह क शम ः िकमासी हनं गभीरम्॥

~ऋ ेद {१०/१२९/१}

(तदानी)ं - महा लय काल म, (असत् )- अपरा माया, (न)- नही ं


थी, (सत् )- जीव भी, (नो)- नही,ं (आसीत् )- था, (रज:)- रजोगु ण
भी, (न)- नही,ं (आसीत्) था, (यत् )- जो, ( ोम)- आकाश
तमोगु ण, (अपर:)- सतोगु ण, (नो)- नही ं था, (कुहक )- इ जाल
प, (शमन्)- ां ड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- त समूह
का आवरण होता है , (तत् ) (िकं) (निकम ासीत् )- वह भी नही ं

P- 308
था, (गहनंगभीरं )- गहन गं भीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा
था? अथात नही ं था

ामी जी कान खोलकर सु िनये और अपने अनपढ़ चैलों को भी


बताइये उस समय तु ारे िन माने पदाथ भी नही थे, और
सु िनये --
न मृ ुरासीदमृतं न तिह न रा ा अ आसी केतः।

आनीदवातं धया तदे कं त ा ा परः िकं चनास॥ ~ऋ ेद


{१०/१२९/२}

(तिह)- उस समय, (मृ ु)- मृ ु, (न) नही, (आसीत् )- थी, और


(अमृतं)- अमृत अथात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था,
(रा ा: अ :)- रात और िदन का, ( केत:)- ान, (न आसीत्)-
नही था, िसफ ( धया)- अपनी परा श से , (एकं)- अिभ
एक, (तत् )- ही, (आसीत् )- था, (त ात् ह)- उस
सवश मान से , (अ त् )- अ , (िकंच)- और कुछ भी, (न)-
नही, (आसीत् )- था।

अब िवचारने की बात है िक एक के अलावा जब कुछ भी


नही ं था, और िफर सब कुछ उससे ही उ आ, तो वह
सवश मान ों नही?ं दे खये वह सब कुछ करता है यं
अवतार भी धारण करता है यथािह--
य ऽ इमा िव ा भुवनािन जु द् ऋिषर् होता ् असीदत् िपता नः।

स ऽ आिशषा िवणम् इ मानः थम दवराँ ऽ आ िववेश॥


~यजु वद {१७/१७}

(य:)- जो, (ऋिष)- अती े य ा सव , (इमा:)- इस, (होता)-


सं सार प होम का कता, (न:)-हमारा, (िपता)- जनक उ
करने वाला परमा ा, (िव ा)- सब, (भु वनािन)- लोक लोका रों

P- 309
को, (जु त)- लयकाल म सं हार करता आ, ( सीद)- अकेला
ही थत आ, (स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक
अि तीय प म िव होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से
सृ ि रचना की इ ा से , ( िवणम्)- इस प जगत को,
(इ मान:)-इ ा करता आ, (अवरान्)- मायािवकार ि
समि दे हों म, (आिववे श)- अ यामी प से िव आ।

अब समझ लीिजए िक वह ा- ा कर सकता है ? वह सब


कुछ करने को साम है इस ुित से उसकी सवश म ा
कट होती है इससे िस होता िक वह सब लोक लोका रों को
उ करने वाला सवश मान ई र सब कुछ कर सकता है ।

स ाथ काश स म् समु ास पृ १३९,


❝अपािणपादो जवनो हीता प च ु ः स णो कणः।

स वेि िव ं न च त ा वे ा तमा र यं पु षं पुराणम्॥


~शवेता तर उपिनषद {३/१९}

परमे र के हाथ नही ं पर ु अपनी श प हाथ से सब का


रचन, हण करता, पग नही ं पर ु ापक होने से सब से
अिधक वे गवान्; च ु का गोलक नही ं पर ु सब को यथावत्
दे खता; ो नही ं तथािप सब की बात सु नता, अ ःकरण नही ं
पर ु सब जगत् को जानता है और उस को अविधसिहत
जाननेवाला कोई भी नही।ं उसी को सनातन, सब से े सब म
पूण होने से पु ष कहते ह।
नत काय करणं च िव ते न त म ा िधक ते।

परा श िविवधैव ूयते ाभािवकी ानबलि या च॥


~शवेता तर उपिनषद {३/८}

P- 310
परमा ा से कोई त ू प काय और उस को करण अथात्
साधकतम दू सरा अपेि त नही।ं न कोई उस के तु और न
अिधक है । सव मश अथात् िजस म अन ान, अन
बल और अन ि या है वह ाभािवक अथात् सहज उस म
सु नी जाती है । जो परमे र िन य होता तो जगत् की उ ि ,
थित, लय न कर सकता। इसिलये वह िवभु तथािप चेतन होने
से उस म ि या भी है ❞

समी क-- अब ामी धू तानंद जी की धू तता आप लोगों को


कहाँ तक िदखाय ामी जी तो मन म ठान कर बै ठे ह िक अथ
का अनथ ही करना है थम तो यह दे खये िक ऊपर िलखी ुित
म ामी जी ने िकतने पाठभे द िकये ह (स वेि वे ं) के थान
पर 'िव ं' यह पद िलखा है , और (महा ) के थान पर 'पुराण'
यह पद िलखा, और (न च त ा ) इसम से अ पद को
ागकर यं िनिमत क त ुित का अथ कर लोगों को िमत
करने का यास िकया है , िजस कारण इस ुित का आशय ही
बदल गया, दे खये सही ुित इस कार है --
अपािणपादो जवनो हीता प च ु ः स णो कणः।

स वेि वे ं न च त ा वे ा तमा र ं पु षं महा म्॥३/१९॥

अथ यह है िक वह ह पाद उपािध सिहत होकर वे गवान तथा


हण करता है , पर ु पमह पाद उपािध रिहत है , इसी
रीित से च ु ः कण रिहत होते ए अथात आखँ और कान के
िबना भी, च ु ः कण उपािध सिहत होकर दे खता तथा सु नता है ,
अतएव आ ा वे व ु को जानने वाला है , उसका जानने वाला
दू सरा नही ं यं काश होने से उस महान पु ष सव नाम प
पंच से आगे होने वाले को वे द वचन कथन करते ह,

P- 311
भाव यह की जैसे आ ा पमह पाद रिहत होते ए भी
ज लेकर ह पाद सिहत होकर वे गवान और हण करने
वाला होता है , च ु ः कण रिहत होते ए अथात आखँ और कान
के िबना भी दे खता व सु नता है उसी कार परमा ा अपने
काय की िस ी हे तु साकार प धारण कर सृ ि रचना करता
तथा अवतार भी लेता है , और ई र अवतार लेता है वे दािद
शा ों से यह हम पूव ही िस कर आये ह।

अब एक ि जरा ामी जी के ुित अथ पर डालकर दे ख,


ामी जी ने यह जो िलखा है िक "परमे र के हाथ नही ं पर ु
श प हाथ से सबका रचन हण करता है " तो यहाँ ामी
जी से यह पूछना है िक श परमा ा से िभ है वा अिभ ?
या िफर िभ अिभ से िवल ण िविच ता वाली अिनवचनीय है ,
जो िभ कहो तो अनािद ही मानना होगा, तो तु ारे मान ए
तीन पदाथ जो िन है , ई र, जीव और कृित {अ म समु ास,
पृ १५५} म एक चौथा पदाथ श भी होगी, जो सािद मानो तो
सािदश प शरीर से ई र शरीरी (साकार) हो जाये गा,
इससे ई र का शरीर सािद नही ं है यह कथन असं गत होगा,
और जो श को ई र से अिभ मानों तो श जड़ है , और
जड़ चेतन का अभे द वा व म बािधत है , और जो िभ अिभ
से िवल ण मानते हो तो उससे िभ जड़ कृित का मानना
िन ल है , ोिक ऐसा अद् भु त श मान ई र जड़ कृित की
सहायता नही ं चाहता वह अपनी सवश मता से सब करने म
स म है , इसी कार दु सरी ुित कहती है उसे काय और कारण
की कुछ आव कता नही ं है वह अपनी इ ा से जो चाहे सो
कर सकता है ।

P- 312
॥ई रीय ुित करण॥

स ाथ काश स म् समु ास पृ १३५,

❝ ा ु ित आिद करने से ई र अपना िनयम छोड़ ु ित,


ाथना करनेवाले का पाप छु ड़ा दे गा?

(उ र) नही,ं

( ) तो िफर ु ित ाथना ों करना?

(उ र) उनके करने का फल अ ही है , ु ित से ई र म ीित,


उस के गु ण, कम, भाव से अपने गु ण, कम, भाव का
सु धारना, ाथना से िनरिभमानता, उ ाह और सहाय का
िमलना, उपासना से पर से मेल और उसका सा ा ार
होना।

पुन: पृ १३५ पर ,,,,और जो केवल भां ड के समान परमे र के


गु णकीतन करता जाता और अपने च र नही ं सु धारता उसका
ु ित करना थ है ।

पुन: पृ १३७ पर ,,,,ऐसी ाथना कभी न करनी चािहये और न


परमे र उस को ीकार करता है िक जैसे हे परमे र! आप
मेरे श ु ओं का नाश, मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही ित ा और
मेरे आधीन सब हो जायँ इ ािद,

पुन: पृ १३७ पर ,,,,ऐसी मूखता की ाथना करते -करते कोई


ऐसी भी ाथना करे गा-हे परमे र! आप हम को रोटी बना कर
खलाइये , मकान म झाडू़ लगाइये , व धो दीिजये और खेती
बाड़ी भी कीिजये, इस कार जो परमे र के भरोसे आलसी
होकर बै ठे रहते ह वे महामूख ह

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पुनः पृ १४१ पर,,,,,( ) ई र अपने भ ों के पाप मा करता
है वा नही?ं

(उ र) नही,ं ोंिक जो पाप मा करे तो उस का ाय न हो


जाये और सब मनु महापापी हो जाय। ोंिक मा की बात
सु न ही के उन को पाप करने म िनभयता और उ ाह हो जाये ,
जैसे राजा अपरािधयों के अपराध को मा कर दे तो वे
उ ाहपूवक अिधक-अिधक बड़े -बड़े पाप कर, ोंिक राजा
अपना अपराध मा कर दे गा और उन को भी भरोसा हो जाय
िक राजा से हम हाथ जोड़ने आिद चे ा कर अपने अपराध छु ड़ा
लगे और जो अपराध नही ं करते वे भी अपराध करने से न डर
कर पाप करने म वृ हो जायगे ❞

समी क-- यहाँ तो ामी जी सारी उपासना ु ित की चटनी


कर गये , ामी जी के मतानुसार अब ई र की ाथना भी मत
करों ोिक वह हम उसका फल दे ता नही,ं पाप मा करता
नही ं िफर ई र का अ ीकारने से ा लाभ? जब उसका
नाम जपना भजन करना वृ था आ, तो िबना योजन तो
म बु पु ष भी कोई काम नही ं करते िफर ई र का नाम
रण भी िनरथक है , तो सब कम का फल भी िनरथक होगा,
लो कमकां ड भी समा कर िदया, जब ई र ही जो सबसे े
है ु ित ाथना से पाप दू र नही ं करता, तो िफर ऐसा कौन सा
शुभकम है िजसके करने से मनु दु ख से छूट? जबिक े
कम करने से े फल और बु रा कम करने से अिन फल की
ा होती है , तो उस पिव ा ा परमे र का रण उपासना
ान करने वाला पिव ों नही ं होगा? (जो यह कहो िक उस के
गुण, कम, भाव से अपने गुण, कम, भाव को सुधार) तो जब
उसका नाम कुछ गु ण रखता है तभी तो मनु उसके गु ण कम

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से अपने गु ण कम सु धार सकते ह नही ं तो िकस कार सु धार
सकते ह? यिद यं ही सु धार सकता तो उसके नाम रणािद
की आव कता ा थी? जब उसके नाम से गु ण कम भाव
सु धरते है तो पिव ों नही ं हो सकते ? जो पाप दू र नही हो
सकते तो गु ण कम भाव भी नही ं सु धर सकते और ई र म
कम ही ा है ? िजसके स श वह अपने गु ण कम सु धार, और
गु ण कम ही सु धारने है तो िकसी भले के च र दे ख
अपने कम सु धार सकता है , और जब ई र को िनराकार मानते
हो तो उसके कम ा होंगे, मनु उसके िकस कम को
दे खकर अपने गु ण कम सु धार, इससे तो आप भगवान ी
रामचं को े पु ष मानते हो उनके सब ही कम े थे, उ ी ं
का नाम रण कर मनु अपने गु ण कम और भाव सु धार
सकते ह, और जब आप कहते ह िक ाथना करने से अंहकार
दू र होगा, सहायता ा होगी तो ा उसके पाप दू र न ए,
और जब ई र ने सहायता करी तो िफर पाप कहां रहा? पाप तो
दू र हो गया, बस ई र ने सहायता की तो भ ों के मनोरथ पूण
हो गये, और पाप से छूट सु ख के भागी ए, सु ख जभी होता है
जब पाप दू र होते ह, इस सहायता करने से तो दयानंद का लेख
ही उनके लेख का खंडन करता है , और उपासना से पर से
मेल होना भी आपने न जाने ा सोचकर िलखा है ? जो मेल
आ तो िफर पृथक होना असं भव है , जो जल एक बार गं गा जल
म पड़ गया हजार कोिशशों के बाद भी वह िफर से अलग नही ं
हो सकता, मेल होने उपरां त िफर मु से नही लौट सकता है ,
और िनराकार ई र का सा ा ार िकस कार हो सकता है
यह नही ं िलखा? ई र के होने के आपने िवशेष अथ नही ं
खोल, ा वह इ यों के सामने हो जाता है ? ोिक जो
आकार वाला होगा वही इ यों के सामने होगा, इससे तो यही

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िस होता है िक ई र साकार है , भला िनराकार िकस
कार हो सकता है ? और जो तु मने यह िलखा है िक (जो भांड
के समान परमे र के गुणकीतन करता जाता और अपने च र
नही ं सुधारता उसका ुित करना थ है) यह तो तीयों की
भां ित बड़ा ही उ ा लेख िलखा है तु मने , ोिक ई र की
ाथना तो सकाम इसी से करी जाती है िक यह काम हमारे
साम से बाहर है इसिलए हे ई र तू हमारी सहायता कर, जो
अपना च र सु धारने म असमथ है वा और िकसी काय म वही
तो ाथना कर सहायता चाहते ह िक ई र हमारा च र सु धारने
म सहायता कर हमारा काम बने ऐसी कृपा करों, और जो िजस
काम के करने म यं समथ होता है वह कब दू सरे की सहायता
चाहए है , जो अपना च र सु धारने म यं समथ है वह उसम
ई र की सहायता ों चाहे गा, दे खए पहले तो िलखा िक अपने
गु ण कम सु धारने को ई र की ाथना करनी और अब िलखा िक
अपने कम सु धारों िबन सु धार ु ित ाथना करना थ है यह
पर र िव लेख िसवाय ामी जी जैसे ितयों के कौन
बु मान मान सकता है ? और (ऐसी ाथना कभी न कर िक जै से
हे परमे र! आप मेरे श ुओ ं का नाश करों, मुझे सबसे अिधक
करो इ ािद) तो ा ाथना म ामी जी के यं ालय की वृ
हो ऐसी इ ा कट कर, दे खए शतश: वे द मं इसी आशय से
पूण है हे ई र हमारे पाप दू र कर, हमारे श ु ओं का नाश हो,
हम े आचरण वाला बनाओ, हमारी र ा करों इ ािद ा
वे दों म यह िम ा लाप है , नही ं तो कह दो िक िकसने िमला
िदया है , बस यही कसर रह गई है यिद तु ारी चलती तो
केजरीवाल की भां ित अपने ितकूल मं ों पर ज र हरताल
फेरते , लेिकन िफर भी अथ बदलकर अनथ कर ही िदया, और
यह ा ितयों की भां ित िलखा है िक (हे परमे र! आप हम को

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रोटी बना कर खलाइये, मकान म झाडू़ लगाइये, व धो दीिजये
और खेती बाड़ी भी कीिजये) ऐसा ितत होता है जैसे यह पु क
िलखते समय अपनी बु रखकर कही ं भू ल गये हो, या पु क
िलखते िलखते भू ख लग गई, या कूड़े कचरे के बीच बै ठकर
िलख रह थे, या िफर कपड़े मैले होने के कारण दु गध आ रही थी
िजससे परे शान होकर िलख िदया होगा िक हे परमे र व धो
दीिजए, ोिक ऐसी बालक बु वाली बात िसवाय तु ारे
िकसी और को नही ं सू झती, भला िलखने से पूव यह तो सोचा
होता िक िजसके भौितक शरीर नही ं वह कैसे ऐसा काम कर
सकेगा? जो यह कहो की यह बात औरों के िलए कही ं है तो
िसवाय आपके ऐसी मूखतापूण बात हमने तो िकसी के मुख से
आज तक नही ं सु नी, भला अपने उ कता सं कटमोचन से
कोई भी मनु ऐसा कह सकता है , साधारण मािलक के सामने
तो जवाब नही ं िदया जाता और उस परमे र से यह ढीठता,
शायद ऐसी ाथना तु मने ही की होगी, जब तु ारे व मैले,
सामने कूड़ा कचरा पड़ा होगा, िक ई र हमारे यह दोनों काम
कर द, जब उसने नही ं िकया तो ोिधत होकर िलख िदया, िक
उसकी ाथना मत करों कुछ लाभ नही,ं मने करके दे ख िलया,
िफर आगे िलखा है िक (िक जो परमे र के भरोसे बैठे रहते ह वो
मूख ह) दे खये इस ना कता को िक ई र का भरोसा करना
मूखता है , अब जब ई र का भरोसा करना मूखता है तो िजसका
भरोसा ही नही ं उसके गु ण कम से ा लाभ? और ना कता
ा होती है ? इसी को अनी रवादी कहते ह, सह ों ऋिष मुिन
आर म ई र के भरोसे जप तप करते थे और आज भी करते
ह और वही ं परमा ा उनकी र ा करता है , ा ामी जी
तु ारे भं डार से सीधा जाया करता था जो भोजन कर ऋिष मुिन
तप िकया करते थे, तु दे ना बु रा लगे था जो िलख िदया िक

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ई र के भरोसे रहना वृ था है , तु म िलखते हो िक वह भ ों के
भी पाप मा नही ं करता यिद कर तो सब पाप करने लग जाव,
तो सु िनये वह दु ों के पाप मा नही ं करता, भ ों के अव
करता है , ोिक वह जानता है िक यह पाप उससे अनजाने म
आ है और अब ित ा करता है िक आगे से नही होगा, और
करे गा भी नही ं उसके पाप ई र िन य मा करे गा, वह ाथना
ही उसका ायि त है और जो दु ह मन म पाप और ऊपर से
बने भ वं चक उनका पाप कभी मा नही ं होगा, जो भला
होता है उसके अनजाने अपराध को तो राजा भी मा
कर दे ता है , जो अ :करण से शु है और ेम से ई र का
रण करते ह उनके पाप भी मा होते ह, और दु ों को
यथावत दं ड दे ता है , इसी का नाम ाय है , जो दु ह उ दं ड
और जो दया यो है उन पर दया करना यही ाय है , दे खए
श ु िनवृ ि अपनी उ ित आिद की ाथना भी वे दों म है ,
सस ु ा अरातयो बोध ु शूर रातयः।

आ तू न इ शंसय गो ेषु शुि षु सह ेषु तुवीमघ॥४॥

सव प र ोशं जिह ज या कृकदा म्।

आ तू न इ शंसय गो ेषु शुि षु सह ेषु तुवीमघ॥७॥


~ऋ ेद {म•१/ सु• २९/ मं• ४-७}

हे भु ! हमारे श ु सोते रह और िम जागरणशील हो, हमारा


अशुभ िच न करने वाले श ु ओं का नाश कर, िहं सको का नाश
कर, हे ऐ यशाली इ दे व! हमे सह ो े गौंएँ और घोड़े
दान करके सं प बनाय॥४-७॥

॥पाप मा मांगना॥
ं नः पा ंहसो जातवेदो अघायतः।

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र ा णो ण वे॥ ~ऋ ेद {६/१६/३०}

हे अ े ! काश प परमा ा, हमको पाप से मु करों, हे


थितयों के ामी अि दे व, श ु ओं से हमारी र ा कर।
र ा णो अ े तव र णेभी रार ाणः सुमख ीणानः।

ित ु र िव ज वीड् वंहो जिह र ो मिह िच ावृधानम्॥

~ऋ ेद {४/०३/१४}

हे परमे र! आप हम सबके सं र क होकर स तापूवक र ण


साधनों ारा हमारी र ा कर और हम ते ज ी बनाये , आप
हमारे भू लवश ए अपराधों (पापों) को िविन कर, बढ़ी ई
असु री श यों का नाश कर।
यद् ामे यद् अर े यत् सभायां यद् इ ये।

यद् एनश् चकृमा वयम् इदं तद् अव यजामहे ाहा॥

~यजु वद {३/४५}

गां व म रहते ए हमने (उप व ज ) जो पाप िकया, वन म


रहकर मृगया- प जो पाप िकया, तथा सभा थल पर (अस
भाषण, े पु षों के ितर ार ज ) जो पाप िकया, और िज ा
आिद इ यों ारा िम ाचरण प जो पाप हमसे बन गया है
उन सभी पापों के न करने के िलए यह आ ित दे ता ँ । और
दे खये --
अ े नय सुपथा राये ऽ अ ान् िव ािन दे व वयुनािन िव ान्।

युयो ्अ ज् जु राणम् एनो भूिय ां ते नम ऽ उ ं िवधेम॥


~यजु वद {४०/१६}

इसके अथ स ाथ काश पृ १३७ पर यं ामी जी ने यह


िलखा है िक "हे सु ख के दाता काश प सब को

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जाननेहारे परमा न्! आप हम को े माग से स ूण ानों
को ा कराइये और जो हम म कुिटल पापाचरण प माग है
उस से पृथक् कीिजये , इसीिलये हम लोग न तापूवक आपकी
ब त सी ु ित करते ह िक हम को पिव कर"

यह ामी जी का अथ ही इस बात को िस करता है िक ई र


पाप दू र करता है अब यहाँ बु मान िवचार िक दयानंद के इस
लेख से यं उनका ही लेख खंिडत होता है या नही,ं दे खये--
स नो ब ुर् जिनता स िवधाता धामािन वेद भुवनािन िव ा।

य दे वा ऽ अमृतम् आनशानास् तृतीये धाम ् अ ् ऐरय ॥


~यजु वद {३२/१०}

(स:)- वह परमे र, (न:)- हमारा, (ब ु :)- िविवध कार की


सहायता र ा◌ािद करने से ब ु है , (स:)- वह, (जिनता)- हमारा
उ कता, (िवधाता)- िवधाता मािलक िपता है , (स:)- वह,
(िव ा)- सब लोकों, (भु वनािन)- ािण और, (धामािन)- थानों,
(वे द)- जानने वाला है , (दे वा:) दे वता, (य )- िजस ई र म,
(अमृतम् )- मो ापक ान को, (आनशान:)- ा करते,
(तृ तीये धामन् )- ऐसा वह परमे र ग प तृ तीया धाम है ।

जब वह हमारा ब ु उ कता पालनकता है तो हम उस पर


भरोसा ों न कर, और ों न वह हमको फल दे गा, ामी जी
िलखते ह िक ई र की ु ित करना भां ड का काम है और
उसकी ु ित करना उसका भरोसा करना थ बताते ह यह
दयानंद की ना कता नही ं तो ा है ? ु ित करना भी कम है
और जब ककम है तो अव उसका कुछ फल होगा, ु ित
करना कभी थ नही ं हो सकता, वे दों म शतश: ाथना
िव मान ह।

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स ाथ काश स म् समु ास पृ १४०,

❝परमे र जगत् का उपादान कारण नही ं िक ु िनिम कारण


है ❞

समी क-- य िप यह हम पूव ही िस कर आये ह िक ई र


जगत का उपादान कारण है पर ु ामी जी ने इसे बार-बार
िलखा है इसिलए एक बार िफर से वे दािद शा ों से आपको
िदखाते ह िजससे यह िविदत हो जाये गा िक परमे र जगत् का
उपादान कारण है थम वे द से माण िलखते ह दे खये --
नासदासी ो सदासी दानी ं नासी जो नो ोमा परो यत्।

िकमावरीवः कुह क शम ः िकमासी हनं गभीरम्॥

~ऋ ेद {१०/१२९/१}

(तदानी)ं - महा लय काल म, (असत् )- अपरा माया, (न)- नही ं


थी, (सत् )- जीव भी, (नो)- नही,ं (आसीत् )- था, (रज:)- रजोगु ण
भी, (न)- नही,ं (आसीत्) था, (यत् )- जो, ( ोम)- आकाश
तमोगु ण, (अपर:)- सतोगु ण, (नो)- नही ं था, (कुहक )- इ जाल
प, (शमन्)- ां ड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- त समूह
का आवरण होता है , (तत् ) (िकं) (निकम ासीत् )- वह भी नही ं
था, (गहनंगभीरं )- गहन गं भीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा
था? अथात नही ं था

ामी जी कान खोलकर सु िनये उस समय तु ारे िन माने


पदाथ भी नही थे, और सु िनये -
न मृ ुरासीदमृतं न तिह न रा ा अ आसी केतः।

आनीदवातं धया तदे कं त ा ा परः िकं चनास॥

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~ऋ ेद {१०/१२९/२}

(तिह)- उस समय, (मृ ु)- मृ ु, (न) नही, (आसीत् )- थी, और


(अमृतं)- अमृत अथात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था,
(रा ा: अ :)- रात और िदन का, ( केत:)- ान, (न आसीत्)-
नही था, िसफ ( धया)- अपनी परा श से , (एकं)- अिभ
एक, (तत् )- ही, (आसीत् )- था, (त ात् ह)- उस
सवश मान से , (अ त् )- अ , (िकंच)- और कुछ भी, (न)-
नही, (आसीत् )- था।

अब िवचारने की बात है िक एक के अलावा जब कुछ भी


नही ं था, और िफर सब कुछ उससे ही उ आ, तो परमे र
जगत् का उपादान कारण ों नही,ं और सु िनये --
य ऽ इमा िव ा भुवनािन जु द् ऋिषर् होता ् असीदत् िपता नः।

स ऽ आिशषा िवणम् इ मानः थम दवराँ ऽ आ िववेश॥


~यजु वद {१७/१७}

(य:)- जो, (ऋिष)- अती े य ा सव , (इमा:)- इस, (होता)-


सं सार प होम का कता, (न:)-हमारा, (िपता)- जनक उ
करने वाला परमा ा, (िव ा)- सब, (भु वनािन)- लोक लोका रों
को, (जु त)- लयकाल म सं हार करता आ, ( सीद)- अकेला
ही थत आ, (स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक
अि तीय प म िव होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से
सृ ि रचना की इ ा से , ( िवणम्)- इस प जगत को,
(इ मान:)-इ ा करता आ, (अवरान्)- मायािवकार ि
समि दे हों म, (आिववे श)- अ यामी प से िव आ।

अब ोिक यह प जगत परमे र से ही उ आ


इससे ामी जी का िस ां त हो जाता है और इस ुित से

P- 322
यह िस हो जाता है िक परमे र जगत् का उपादान कारण है ,
और सु िनये --
नत कि ितर लोके न चेिशता नैव च त िल म्।

स कारणं करणािधपािधपो न चा कि िनता न चािधपः॥


~ ेता तर उपिनषद {६/९}

इस आ ा का लोक म न तो कोई ामी है और न ही कोई


िश क है , न उसका कोई िलंग है वही कारण है वही ईश है
उसका कोई उ कता वा अिधपित नही ं है अथात सब कुछ
वही है और जो कुछ भी है उससे ही है , इससे िस होता है िक
ई र जगत् का उपादान कारण है ।

स ाथ काश स म् समु ास पृ १४८,

❝अथोदरम रं कु ते , अथ त भयं भवित। ि तीया ै भयं


भवित॥ ~बृ हदार क उपिनषद {१/४/२}

ामी जी इसका अथ करते ह िक, जो जीव परमे र का िनषेध


वा िकसी एक दे श, काल म प र परमा ा को माने वा उस
की आ ा और गु ण, कम, भाव से िव होवे अथवा िकसी
दू सरे मनु से वै र करे उस को भय ा होता है ❞

समी क-- अब ोिक ामी जी ने कभी उपिनषद का पाठ ही


नही ं िकया तो उसके बारे म बात करना ही थ है , जरा कोई
ामी धू तानंद जी यह पूछे िक इस ुित म उ ोंने जीव परमे र
िनषेध, दे शकाल प रिछ गु ण कम भाव कहाँ से िलख िदया,
ामी जी का यह कपोल क त अथ िकन पदों से िस होता
है ामी जी के िकये सभी अथ िम ा ामी जी के कपोल

P- 323
भं डार से िनकले ह, इसका अथ यही है िक जो आ ा से पृथक
दे खता है उसी को भय होता है जैसे ामी जी को मृ ु का भय
आ था िजस कारण उ ोंने मृ ु से बचने उससे छूपने के िलए
गृ ह ाग िकया जो उनके िलख आ च रत से ही िस होता है ।

स ाथ काश स म् समु ास पृ १४९,

❝( )ई रमइ ा है वा नही।ं

(उ र) ई र म इ ा का तो स व नही,ं िक ु ई ण अथात्
सब कार की िव ा का दशन और सब सृ ि का करना कहाता
है ❞

समी क-- ध हे ! ामी जी, जै से गु वै से चैले, ई र म इ ा


ों नही ं यिद इ ा नही ं होती तो यह सृ ि कहाँ से आ गई यिद
िबना इ ा के अपने आप ही सब जगत की रचना हो गई तो
ई र की आव कता ा है ? सव थम अनी रवादी बने , और
अब तो बौ मत ही म घुस गये ध हे आपकी बु !ई रम
इ ा है दे खये माण--

य ऽ इमा िव ा भुवनािन जु द् ऋिषर् होता ् असीदत् िपता नः।

स ऽ आिशषा िवणम् इ मानः थम दवराँ ऽ आ िववेश॥


~यजु वद {१७/१७}

(य:)- जो, (ऋिष)- अती े य ा सव , (इमा:)- इस, (होता)-


सं सार प होम का कता, (न:)-हमारा, (िपता)- जनक उ
करने वाला परमा ा, (िव ा)- सब, (भु वनािन)- लोक लोका रों
को, (जु त)- लयकाल म सं हार करता आ, ( सीद)- अकेला

P- 324
ही थत आ, (स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक
अि तीय प म िव होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से
सृ ि रचना की इ ा से , ( िवणम्)- इस प जगत को,
(इ मान:)-इ ा करता आ, (अवरान्)- मायािवकार ि
समि दे हों म, (आिववे श)- अ यामी प से िव आ, और
सु िनये -

इस मं से यह िस होता है िक ई र म इ ा है अगले
समु ास म इस िवषय पर और िलखगे ।

P- 325
॥वेद ा करण॥

स ाथ काश स म् समु ास पृ १४९,

❝जीवों को अ यामी प से (वे दों) का काश िकया है

पुनः पृ १५० पर स से िलखा है िक, िकन के आ ा म


कब वे दों का काश िकया?

P- 326
(उ र) अ े वा ऋ े दो जायते वायोयजुवदः सू या ामवे दः॥
~शत० {११/४/२/३}

थम सृ ि की आिद म परमा ा ने अि , वायु , आिद तथा


अंिगरा इन ऋिषयों के आ ा म एक-एक वे द का काश िकया।

( ) यो वै ाणं िवदधाित पूव यो वै वे दां िहणोित त ै॥ -


यह उपिनषत् का वचन है { े० उप० ६/१८}

इस वचन से ा जी के दय म वे दों का उपदे श िकया है , िफर


अ ािद ऋिषयों के आ ा म ों कहा?

(उ र) ा के आ ा म अि आिद के ारा थािपत कराया,


दे खो! मनु म ा िलखा है ?

अि वायु रिव ु यं सनातनम्।

दु दोह य िसद् थमृ जुः सामल णम्॥ ~मनु ० [१/२३]

िजस परमा ा ने आिद सृ ि म मनु ों को उ करके अि


आिद चारों महिषयों के ारा चारों वे द ा को ा कराये
और उस ा ने अि , वायु, आिद और अंिगरा से ऋग् यजुः
साम और अथववे द का हण िकया।

( ) उन चारों ही म वे दों का काश िकया अ म नही,ं इस से


ई र प पाती होता है ।

(उ र) वे ही चार सब जीवों से अिधक पिव ा थे, अ उन के


स श नही ं थे, इसिलये पिव िव ा का काश उ ी ं म िकया

( ) िकसी दे श-भाषा म वे दों का काश न करके सं ृ त म


ों िकया?

P- 327
(उत् तर) जो िकसी दे श-भाषा म काश करता तो ई र प पाती
हो जाता, ोंिक िजस दे श की भाषा म काश करता उन को
सु गमता और िवदे िशयों को किठनता वे दों के पढ़ने पढ़ाने की
होती, इसिलये सं ृ त ही म काश िकया, जो िकसी दे श भाषा
नही और अ सब दे शभाषाओं का कारण है , उसी म वे दों का
काश िकया

समी क-- इस पु क को िलखते समय ामी जी के मन म


ा चल रहा था कौन जाने ? लेिकन इतना तो साफ की ामी
धू तानंद जैसा धू त मने अपने जीवन म नही ं दे खा, अपने नवीन
कपोल मत की िस हे तु ामी जी ने न केवल अथ का अनथ
िकया ह ब सब ही बात सनातन धम से उ ी िलखी ं ह जो
ऐसा न िलखते तो उनकी ाित कैसे होती, इसिलए ामी जी
ने ाित पाने को यह नया ढं ग िनकाला है िक सब काम वे द
िव ही करगे , जैसे हम कह िक मुितपूजन ा अवतार
पित त वे दमत है तो वे कह यह सब झूठ है और िनयोग
( िभचार) ठीक है , हम गौ की र ा कर तो वह अपने वे दभा
म उसे मारना िलखते ह, हम कह वे द ा पर आये तो वे कह
िक नही ं चार ऋिषयों पर आय, अब ामी जी की धू तता आप
लोगों को कहाँ तक बताये , इसिलए आप यं दे ख लीिजये
ामी जी ने इस लेख म िकस कार अथ का अनथ कर लोगों
को िमत करने का काय िकया है थम ामी जी ने
स से यह िलखा,

( कता)- "िकन के आ ा म कब वे दों का काश िकया?

ामी जी इसका उ र िलखते ह िक


"अ ेवा ऋ ेदो जायते वायोयजु वदः सूया ामवेदः॥ ~शत०
{११/४/२/३}

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थम सृ ि की आिद म परमा ा ने अि , वायु , आिद तथा
अंिगरा इन ऋिषयों के आ ा म एक-एक वे द का काश िकया"

इस ुित को दे खने मा से ही िविदत हो जाता है िक ामी जी


ने शतपथ ा ण पढना तो छोिडये कभी दे खा भी नही ं है ,
अथवा दे खा हो तो भू ल गये , ोिक स ाथ काश म िलखी यह
ुित अशु है यह ुित ामी जी के कपोल भं डार से िनकली है
दे खए ामी जी ने इस ुित म कई एक पद बदलकर भारी
िमलावट की है जैसे थम अ े श के आगे "वा" और ऋ े द
के आगे "जायते " यह पद नही ं है और ना ही यह ुित शत० ा०
{११/४/२/३} की है ब यह ुित इस कार है सु िनये -
ते े यो वेदा अजाय ा ेऋ ेदो वायोयजु वदः
सूया ामवेदः॥ ~शत० {११/५/८/३}

अब जबिक ामी जी की माण दी ई ुित का पाठ ही अशु


है तो उनके अथ िनणय की ा आशा है ? दे खये इस ुित का
अथ यह है िक अि वायु और सू य इन तीन तप ीयों से तीनों
वे द ऋ े द, यजुवद और सामवे द काश ए, अथात वे द
िविहत कम का चार आ, ोिक इस ुित म (अजायत) यह
पद आया है और वह (जिन) धातु से बनी है जो ादु भाव के अथ
म िस है और ादु भाव काश होने को कहते ह, भाव यह है
िक इन तीनों दे वताओं ने जगत् म तीनों वे दों का चार िकया,
जबिक ामी जी ारा इस ुित का िकया अथ िकंिचत् मा भी
स नही ं रखता, दे खए इस ुित म िलखा है िक
(अ े ऋ े दो) अि से ऋ े द, (वायोयजुवदः) वायु से यजुवद,
और (सू या ामवे दः) सू य से सामवे द का काश आ, अब यहाँ
यह उठता है िक ामी जी ने इस ुित का जो यह अथ
िकया है िक " थम सृ ि की आिद म परमा ा ने अि , वायु ,

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आिद तथा अंिगरा इन ऋिषयों के आ ा म एक-एक वे द का
काश िकया" इसम आिद सृ ि म परमा ा से अंिगरा म
अथववे द का काश होना जो ामी ने यह अथ िकया है , यह
अथ ामी ने िकन पदों से िलया है ोंिक इस ुित म तो ऐसा
कोई पद ही नही ं है िजससे ामी जी ारा िकया यह अथ िस
होता हो, और यहाँ यह भी िवचारणीय है िक ामी जी अपने
इस लेख म अि वायु और सू य को ऋिष िलखा है , जबिक
वे दािद शा ों म कही ं भी इस नाम के ऋिष सु नने म नही ं आते
िक ु इस नाम के दे वता अव सु नने म आते ह दे खए--
अि दवता। वातो दे वता। सूय दे वता। च मा दे वते ािद।
~यजु वद {१४/२०}

इससे ामी जी का िकया अथ अशु है , इससे यह भी िस


होता है िक आर म तीन ही वे द थे, िजसम ऋ े द प ा क,
यजुवद ग ा क और सामवे द गीता क है , जबिक अथववे द म
ग ,प और गायन तीनों कार के मं दे खने म आते ह, वह
इस कारण ोिक आर म तीन ही वे द थे, और समय तीत
होने के साथ दे व की चौथी पीढ़ी म उ अंिगरा ऋिष ने
इन वे दों से अिभचार और अनु ान वाले मं ों को अलग कर
चतु थ वे द की रचना की िजसे अथववे द के नाम से जाना गया,
वह इसिलए ोंिक मुंड़कोपिनषद के अनुसार ा जी ने यह
वे द िव ा थम अपने े पु अथव को पढ़ाई और अथव ने
अंगी ऋिष को पढ़ाई, अंगी ने स वाह को और स वाह ने
अंिगरा ऋिष को पढ़ाई, अब ोिक ा के पु अथव ऋिष से
यह वे द िव ा िश पर रा से अंिगरा ऋिष को ा ई इस
कारण उ ी ं के नाम पर इसका नाम अथववे द पड़ा, इसे आगे
माण सिहत िस करगे , अब यहाँ िवचारणीय यह है िक जब

P- 330
आर म तीन ही वे द थे, जो इस ुित से िसद् ध होता है तो िफर
अंिगरा ऋिष जो िक ा जी के चौथी पीढ़ी म उ ए, तो
िफर ामी जी यहाँ आिद सृ ि म अथववे द और अंिगरा की
बात कहाँ से कर बै ठे? जबिक अथववे द की रचना तो काफी
बाद म ई, उससे पुव ऋ े द यजुवद और सामवे द यह तीन वे द
ही थे, दे खए वे दािद शा ों से आपको माण िदखाते ह, सु िनए
मनु ृित म इस कार कथन है िक--
अि वायुरिव ु यं सनातनम्।

दु दोह य िसद् थमृ जु ःसामल णम्॥ ~मनु ृित {१/२३}

उस ( )- परमा ा ने , (य िस थम् )- य िस हे तु, ( ं


सनातनम् )- तीनो सनातन वे दों, (ऋ जु:साम्)- ऋगवे द, यजुवद
और सामवे द का ान काश, (ल णम्)- समान गु ण वाले,
(अि वायु रिव ु)- अि , वायु , और सू य को, (दु दोह)- िदया

भावाथ- इसके प ात उस परमा ा ने य ों की िस हे तु तीनो


सनातन वे दों ऋ े द, यजुवद और सामवे द का ान काश
समान गु ण वाले अि वायु और सू य को िदया।
षट् ि शदा कं च गुरौ ैवैिदकं तम्।

तिदधकं पािदकं वा हणा कमेव वा॥ ~मनु ृित {३/१}

(गु रौ)- गु कुल म चारी को, (षट् ि शदा कं)- छ ीस वष


तक िनवास करक, ( ै वैिदकं तम्)- तीनों वे दों {ऋक्, यजुः और
साम} का पूण अ यन, (च )- करना चािहए, छ ीस वष तक
स व न होने पर (तद् अिधकम्)- उसके आधे अथात अ ारह
वष तक, (वा)- या उतना भी स व न होने पर, (पािदकं)-
उसके आधे अथात नौ वष तक, (वा)- या उतने काल तक िजतने
म, ( हण अ कम्)- वे दों म िनपुणता ा हो सके रहना

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चािहए, दे खए ोिक अंिगरा ऋिष, मनु जी से उ दश
ऋिषयों म से थे, इसिलए मनु जी ारा िलखी यह ुित माण है
िक आर म अंिगरा के उ होने से पूव तीन ही वे द थे, इस
ुित म ( ैवैिदकं) यह पद इस बात का सू चक है , और सु िनये
िपताहम जगतो माता धाता िपतामहः

वे ं पिव मोंकार ऋ ाम यजु रेव च॥ ~ ीम गव ीता {९/१७}

ैिव ा मां सोमपाः पूतपापा य ै र ा गितं ाथय े।

ते पु मासा सुरे लोकं अ िद ान् िदिव दे वभोगान्॥


~ ीम गव ीता {९/२०}

इस स ूण जगत का धाता अथात बनाने वाला एवं कम के फल


को दे ने वाला, माता, िपता, िपतामह, जानने यो पिव ॐकार
तथा ऋ े द सामवे द और यजुवद भी म ही ँ ।

( ैिव ा)- तीनों वे दों {ऋ े द यजुवद और सामवे द} म िवधान


िकये ए साकाम कम को करने वाले सोमरस को िपने वाले,
पापरिहत पु ष अपने पु ों के फल प गलोक को ा
होकर ग म िद दे वताओं के भोगों को भोगते है । यहाँ इस
ोक म ( ै िव ा) यह पद तीनों वे दों ऋ े द यजुवद और
सामवे द का सू चक है अतः वे दािद शा ों, ा ण तथा गीता
आिद के वचनों से भी िस होता है आर म तीन ही वे द थे,

(दयानंदी)- तो तु म अथववे द को चतु थ वे द नही ं मानते , उसे


नवीन मानकर उसका िवरोध करते हो।

(समी क)- तू ितया है , यह िवरोध वाला कीड़ा तु ारे ामी


जी के िपछवाड़े म ह हमारे नही,ं हमने अथववे द का चतु थ वे द
होना अपने लेख म िलखा और माना है ,

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(दयानंदी)- जब अथववे द का चतु थ वे द होना ीकार करते हो
तो ामी जी की िलखी ं बात का िवरोध ों? आिद म अंिगरा के
दय म अथववे द का काश होना ों नही ं मानते ?

(समी क)- ोिक यह बात ामी जी के कपोल भं डार से


िनकली है इस बात म कुछ स ाई नही ं दे खो वे दािद शा ों से
यह माण है िक सृ ि रचना की इ ा से आिद म थम ा
जी उ ए, उ ोंने ने ही आिद म अि वायु सू य आिद
दे वताओं सिहत सब लोकों को रचा और वे द अनुकूल ही सबके
गु ण कम भाव सु िनि त कर उनके नाम रख और अि वायु
सू य सिहत अपने पु अथव को वह वे द िव ा पढाई, और वह
वे द िव ा अथव से होती ई िश पर रा से ा जी की चौथी
पीढ़ी म उ अंिगरा ऋिष को ा ई यह मनु ृित से
माण है अब जब अंिगरा ऋिष ा जी के चौथी पीढ़ी म उ
ए, तो िफर आिद म परमा ा ारा अंिगरा के दय म काश
होना िम ा िस आ, जबिक अंिगरा ऋिष मनु ृित उपिनषद
आिद के वचनों से ा जी के चतु थ िश करके िगने जाते ह,
और ोिक अथववे द की रचना महिष अंिगरा ारा ई इसिलए
अथववे द को आिद म ऋक्, यजुः, साम से िभ िगनना
महाकपट है

(दयानंदी)- तु म अथववे द की रचना अंिगरा से मानते हो और वे द


परमा ा से उ ए िफर अथववे द ई रीय वचन िकस कार
िस करोगे ।

(समी क)- यह तु ारे मन म म से उ आ है दे खों


आिद सृ ि म वे द ऋक्, यजुः, साम प म कट ए अब
ोिक अंिगरा ऋिष ने उस यी िव ा को पढ उ ी ं वे दों से
अिभचार और अनु ान वाले कुछ ऋचाओं को अलग कर चतु थ

P- 333
वे द की रचना की, अब ोिक सभी ऋचाएं आिद म परमा ा से
ही कट ई है इससे चतु थ वे द के प म अलग होने पर भी
वह ऋक्, यजुः, साम प ही ई ोंिक आिद म अथववे द
ऋक्, यजुः, साम म ही थत था और उ ी ं यी िव ा को पढ
बाद म महिष अंिगरा िज ा ण उपिनषद मनु ृित आिद
ं थों म ा जी का चतु थ िश करके िगना है उ ोंने उससे
चतु थ वे द की रचना की िजसे अथववे द कहा गया, इसिलए आिद
म ऋक्, यजुः, साम से पृथक अथववे द को मानना यही
महाकपट है , इससे धम के न जानने वालों म म की थित पैदा
होती ह और धम म बाधा उ होती है ोंिक वे दािद शा ों
म आिद सृ ि म अथववे द को चतु थ वे द करके कही नही िलखा,
िक ु यी िव ा ऋक्, यजुः, और साम करक दे खा जाता ह
ोंिक आर म वे द तीन थे,

अब जरा एक ि (अि वायुरिव ु यं सनातनम्०)


~मनु ृित {१/२३} इस ुित पर डािलये ामी जी इसका अथ
स ाथ काश म यह िलखते ह िक "िजस परमा ा ने आिद
सृ ि म मनु ों को उ करके अि आिद चारों महिषयों के
ारा चारों वे द ा को ा कराये और उस ा ने अि ,
वायु, आिद और अंिगरा से ऋग् यजुः साम और अथववे द का
हण िकया" इस ुित का सही अथ हम पूव ही िलख आये ह,
इस ुित से ामी जी का अथ िकंिचत् मा भी स नही ं
रखता, ामी िनबाधानंद जी का यह कथन िक अि वायु सु य
और अंिगरा से चारों वे द ा जी को ा ए, यही िस कर
दे ता है िक ामी जी म बु की िकतनी कमी थी, जबिक
वे दािद शा ों से यह माण है िक आिद म सृ ि रचना की इ ा
से थम ा जी उ ए और उ ी ं से वे द कट ए,

P- 334
(दयानंदी)- इस बात म ा माण है िक सृ ि के आर म
थम ा जी कट ए? और उनसे ही अि , वायु, सू य आिद
दे वों और अंिगरा ने वे द ा िकये ।

(समी क)- इस बात म ब त से माण है थम हम आपको


मनु ृित से ही माण िलखते ह दे खए (अि वायु रिव ु यं
सनातनम् ०) ~मनु ृित {१/२३} इस ुित से पहले यह ुित
है िजसका अथ यह है िक-
तद मभव ै मं सह ांशुसम भम्।

त े यं ा सवलोकिपतामहः॥ ~मनु ृित {१/९}

सह ों सू य के समान चमकीले अंड प काशयु ोित


िप (िहर गभ) से स ूण लोकों की सृ ि करने वाले ा जी
उ ए, इससे यह िस होता है िक आिद म ा जी सबसे
थम उ ए और सब लोकों की सृ ि ा जी ने ही की,
सु िनये अथववे द म भी श ों म िलखा है िक-
े ास ृता िवयािण ा े े ं िदवमा ततान।

भूतानां ा थमोत ज े तेनाहित णा िधतुं कः॥


~अथववेद {१९/२२/२१}

(भूतानां ा थमोत ज े) अथात सबसे थम ा जी उ


ए, दयानंद तथा उनके कम अ िनयोगी चमचों को आखँ
दे खना चािहए यह वे द वचन ही है इसम िलखा है िक आिद
म सबसे थम ा जी उ ए, वही सब लोकों को रचने
वाले वही सबसे े है दे खये यजुवद म ा जी की उ ि के
बारे म इस कार कथन है िक--
िहर गभः सम् अवतता े भूत जातः पितर् एक ऽ आसीत्। स
दाधार पृिथवी ं ाम् उतेमां क ै दे वाय हिवषा िवधेम॥

P- 335
~यजु वद {१३/४}

सृ ि के ार म िहर गभ पु ष ( जापित ा) स ूण
ां ड के एक मा उ ादक और पालक रहे , वही ग
अंत र और पृ ी को धारण करने वाले ह, उस जापित के
िलए हम आ ित समिपत करते है । और सु िनये मुंडकोपिनषद म
भी इस कार कथन है िक-
ॐ ा दे वानां थमः स भूव िव कता भुवन गो ा।

स िव ां सविव ा ित ामथवाय े पु ाय ाह॥१॥

अथवणे यां वदे त ाऽथवा तां पुरोवाचाि रे िव ाम्।

स भार ाजाय स वाहाय ाह भार ाजोऽि रसे परावराम्॥२॥


~मुंडकोपिनषद {१/१/१-२}

सब जगत के बनाने वाले ा जी सब दे वों म सव थम उ


ए, उ ोंने वह वे द िव ा िजसके सब िव ा आ य है अपने
े पु अथव ऋिष को पढाई, अथव ने वह िव ा अंगी
ऋिष को पढाई, अंगी ने वह वे द िव ा ऋिष भार ाजवं शीय
स वाह को पढाई और स वाह ने वह वे द िव ा अंिगरा ऋिष
को पढाई, ध ामी मुखानंद जी आपकी बु , इस ुित म तो
अंिगरा ऋिष को िश पर रा करके ा जी का चतु थ िश
िगना है , और ामी जी िलखते ह िक अंिगरा ने ा जी को
अथववे द पढ़ाया, हद हो गई ितयापंित की, न जाने ामी
ितयानंद जी ने इस कथन से अपना ा लाभ समझा है , सु िनये
ोिक ा जी ने थम वे द िव ा का उपदे श अपने े पु
अथव को िकया, अथव ने अंगी को, अंगी से स वाह को, और
िश पर रा से स वाह से वह वे द िव ा अंिगरा को ा
आ, त ात अंिगरा ऋिष ने इन वे दों के अिभचार और

P- 336
अनु ान वाली कुछ ऋचाओं को अलग करक चतु थ वे द की
रचना की, ोिक अथव ऋिष से वह वे द िव ा िश पर रा से
होती ई अंिगरा ऋिष को ा ई इसिलए अथव ऋिष के नाम
पर ही इसका नाम अथववे द पड़ा, और अथववे द को
बृ हदार कोपिनषद् , ा णािद ं थों म कुछ एक थान पर
अथवअंिगरस कहा है उसका कारण यह है िक मुंडकोपिनषद
के वचनानुसार थम ा जी के पु अथव से वे द िव ा जो
िश पर रा से होती ई अंिगरा को ा ई, इसी कारण इसे
कुछ एक थान पर अथवअंिगरस कहा गया है

और दे खये मनु ृित से भी यही िस होता है िक अंिगरा ऋिष


बाद म उ ए दे खये --
ि धा कृ ा नो दे हमधन पु षोऽभवत्।

अधन नारी त ां स िवराजमसृज भुः॥३२॥

तप ासृज ं तु स यं पु षो िवराट् ।

तं मां िव ा सव ारं ि जस माः॥३३॥

अहं जाः िससृ ु ु तप ा सुदु रम्।

पतीन् जानामसृजं महष नािदतो दश॥३४॥

मरीिचम ि रसौ पुल ं पुलहं तुम्।

चेतसं विस ं च भृगुं नारदमेव च॥३५॥ ~मनु ृित {१/३२-३५}

३२ से ३५ तक के इन ोकों का आशय यह है िक "सं सार की


वृ के अथ ा जी ने एक ी और पु ष को उ िकया,
उनसे थम िवराट, िवराट से मनु और मनु से दस महिष मरीिच,
अि , अंिगरा, पुल य, पुलह, तु , चेता, विस , भृ गु, नारद
उ ए, अब ोिक अंिगरा ा जी की चौथी पीढ़ी म उ

P- 337
ए और वे दािद ं थों से भी िस आ िक ा जी सृ ि के
आर म थम उ ए, इससे यह िस आ िक अि वायु
सू यािद दे वता सृ ि के अ गत उ ए, इससे ामी जी का
यह कथन िक अि ािद दे वों ने ा जी को वे द ा कराय यह
कथन असं गत है , दे खये सृ ि के आिद से ही वे द ा जी के
पास थे दे खये मनु म इस कार कथन है िक--
सवषां तु स नामािन कमािण च पृथ ृथक्।

वेदश े एवादौ पृथ ं था िनममे॥ ~मनु ृित {१/२१}

ा जी ने सृ ि के आिद म सबके िभ -िभ नाम और कम


आिद वे द श ों से अथात वे द अनुसार व था करक गौ जाित
का नाम गौ, अ जाित का नाम अ , मनु जाित का नाम
मनु रखा, जब सबके नाम और कम वे द अनुसार व था
करक बनाय तो िन य है िक अि का नाम अि , वायु का वायु
और सू य का नाम सू य वे द से ही ा जी ने रखा हो, या िफर
ामी जी बताये िक वह कौन सा वे द था? िक सब सृ ि के आिद
म अि की अि सं ा, वायु की वायु, सू य की सू य सं ा होने से
पहले ा जी के पास था, िजससे उ ोंने सबके नाम रख, इससे
यही िस होता है िक सृ ि के आर म ा जी के पास वे द
थे, यिद वे द इन तीनों पर आते तो वही सबके नाम कम आिद
की व था वे दानुसार करते, और सु िनये
कमा नां च दे वानां सोऽसृज ािणनां भुः।

सा ानां च गणं सू ं य ं चैव सनातनम्॥२२॥

~मनु ृित {१/२२}

इसके प ात सब ािणयों के भु ा जी ने कम भाव रखने


वाले अि वायु आिद दे वताओं के समूह, सा ों का समूह और

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सनातन य आिद की सृ ि की, इस ोक म भु श ा
जी का िवशेषण ह अथ उसका जनक अथात उ करने वाला
िपता है , इससे यही िविदत होता है िक अि आिद की गणना भी
इसी दे वगण म है इससे बाहर नही ं है , इसके बाद
(अि वायु रिव ु यं सनातनम् ०) मनु ृित का यह २३
वाँ ोक ह इससे िस होता है िक ा जी इन तीनों दे वताओं
को दे वगण की सृ ि के सं ग उ िकया, और िफर वे दानुकूल
उन सबके नाम रख, अब जबिक इनकी उ ि और नाम रखने
से पहले ा जी के पास वे द थे तो िफर यह कैसे सं भव है िक
अि आिद ने ा जी को वे द पढाये , इससे ामी जी का यह
कपोल क त मत होता है , अब आगे सु िनये ,

इसके आगे दयानंद जी स से िलखते ह,

( कता) उन चारों ही म वे दों का काश िकया अ म नही,ं


इससे ई र प पाती होता है ।

अब ामी का उ र सु िनये ामी जी इसका उ र यो दे ते ह


िक "वे ही चार सब जीवों से अिधक पिव ा थे, अ उन के
स श नही ं थे, इसिलये पिव िव ा का काश उ ी ं म िकया"

यहाँ ामी जी यं ही कता है और यं ही उ र दे ने वाले,


ामी जी का यह कथन अबोध ब ों का सा जान पड़ता है
दे खये जबिक वे दािद शा ों म िलखा है िक--
नासदासी ो सदासी दानी ं नासी जो नो ोमा परो यत्।

िकमावरीवः कुह क शम ः िकमासी हनं गभीरम्॥ ~ऋ ेद


{१०/१२९/१}

(तदानी)ं - महा लय काल म, (असत् )- अपरा माया, (न)- नही ं


थी, (सत् )- जीव भी, (नो)- नही,ं (आसीत् )- था, (रज:)- रजोगु ण

P- 339
भी, (न)- नही,ं (आसीत्) था, (यत् )- जो, ( ोम)- आकाश
तमोगु ण, (अपर:)- सतोगु ण, (नो)- नही ं था, (कुहक )- इ जाल
प, (शमन्)- ां ड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- त समूह
का आवरण होता है , (तत् ) (िकं) (निकम ासीत् )- वह भी नही ं
था, (गहनंगभीरं )- गहन गं भीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा
था? अथात नही ं था
न मृ ुरासीदमृतं न तिह न रा ा अ आसी केतः।

आनीदवातं धया तदे कं त ा ा परः िकं चनास॥

~ऋ ेद {१०/१२९/२}

(तिह)- उस समय, (मृ ु)- मृ ु, (न) नही, (आसीत् )- थी, और


(अमृतं)- अमृत अथात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था,
(रा ा: अ :)- रात और िदन का, ( केत:)- ान, (न आसीत्)-
नही था, िसफ ( धया)- अपनी परा श से , (एकं)- अिभ
एक, (तत् )- ही, (आसीत् )- था, (त ात् ह)- उस
सवश मान से , (अ त् )- अ , (िकंच)- और कुछ भी, (न)-
नही, (आसीत् )- था।

अब िवचारने की बात है जबिक सृ ि रचना के पूव एक के


अलावा जब कुछ भी नही ं था, और िफर सब कुछ उससे ही
उ आ, मनु ृित के ोक २१, २२ के अनुसार सब
ािणयों की सृ ि कर वे दानुकूल िभ िभ कम भाव के
अनुसार उनके नाम रख, तो िफर सृ ि के आर म कोई आ ा
पिव और कोई कम पिव िकस कार आ? दरअसल यह
बात ामी जी के कपोल भं डार से उ ई है यह ामी जी
की िम ा क ना है , दे खये इसका उ र तो हम पूव ही िलख
आये ह, जैसा िक वे द, उपिनषद, मनु ृित और ा णािद ं थों

P- 340
से िस होता है िक आिद म सृ ि रचना की इ ा से िहर गभ
प णयु आभा से थम सब जीवों के िपतामह ा जी
कट ए त ात उ ोंने अि वायु सू य आिद की सृ ि करक
अि आिद सिहत अपने े पु अथव को वे द िव ा का
उपदे श करते ए उ यह दािय सौंपा की सं सार की वृ के
साथ साथ इस वे द िव ा का उपदे श जा को कर, इस तरह
यं ा जी अपने पु अथव को यह वे द िव ा पढाई, और
अथव ऋिष ने अंगी को, अंगी ने स वाह को, और स वाह से
यह वे द िव ा अंिगरा ने पढ़ी, इस कार गु िश की पर रा
से िनर र वे द िव ा का काश जा म होता आया है , और इस
गु िश की पर रा की शु आत यं परम िपता ा जी ने
की है , इससे ई र म प पात की बात नही ं आती, दयानंद एवं
उनके िनयोगी चैलों को यह बात समझनी चािहए, यह बात
िकसी अ के मन म नही ं यं ामी जी के मन म ही आयी
होगी, जो उ ोंने स से क ना करके यहाँ िलख दी है ,
और सु िनये ,

इसके बाद ामी जी िफर से स से िबना सर पैर की


बात िलखते ह दे खए-

( कता) िकसी दे श-भाषा म वे दों का काश न करके सं ृत


म ों िकया?

ामी जी इसका उ र यह िलखते ह िक "जो िकसी दे श-भाषा


म काश करता तो ई र प पाती हो जाता, ोंिक िजस दे श
की भाषा म काश करता उन को सु गमता और िवदे िशयों को
किठनता वे दों के पढ़ने पढ़ाने की होती, इसिलये सं ृ त ही म
काश िकया, जो िकसी दे श भाषा नही और अ सब
दे शभाषाओं का कारण है , उसी म वे दों का काश िकया"

P- 341
यहाँ कता और उसका उ र दे ने वाला दोनों ही अ ल दज
के चुितया है , अब चाहे यह ामी जी ने यं क ना िकया
हो या िफर िकसी और ने की हो, ोिक ऐसी िबना सर पैर की
बात तो कोई गधा भी नही ं करे गा, अब यहाँ ामी जी से कोई
यह पूछे िक सृ ि के आर म कुल िकतने दे श थे और उनम
कुल िकतनी भाषाय बोली ं जाती थी, ामी जी का यह लेख
पढ़कर तो ऐसा िविदत होता है जैसे ामी जी अपने ज से ही
सृ ि का आर मानते ह इसिलए अपने लेख म वे दों के कट
होने से पूव अनेक दे श और भाषाओं का होना िलखते ह और
लेख तो ऐसे िलखा है जैसे मानों वे द कट करने से पहले यं
ई र ामी जी के पास आकर बोल हो िक ामी जी आप
पहले ों नही ं उ ए? दे खये अब िकतने दे श उ हो
गये और िकतनी भाषाय बोली ं जाने लगी ं अब आप बताय की म
वे दों का काश िकस भाषा म क ँ अं े जी, फारसी, उदू या
िफर सं ृ त म और ामी जी के सु झाव पर अं े जी, फारसी,
उदू आिद भाषाओं म न करके सं ृ त भाषा म िकया, िजसे
ामी जी ने अपने लेख म कथन िकया है , शोक हे ! ऐसी बु
पर, सृ ि के आर म अनेक दे श और भाषाओं की बात
क ना करने से ही ामी जी की बु का पता चलता है , कोई
बड़ा से बड़ा चुितया भी इससे ादा समझदारी वाली बात
करता होगा,

जैसा िक दयानंद ने भी यह माना िक सं ृ त सब भाषाओं का


कारण है , सं ृ त से ही सब भाषा उ ई, तो ा इससे यह
िस नही ं आ िक थम सं ृ त भाषा ही पठन पाठन और
बोल चाल की भाषा थी, लेिकन ामी जी के इस लेख पर ि
डालने पर इसका यह आशय िनकलता है िक ामी जी के

P- 342
मतानुसार आिद सृ ि म न केवल अनेक दे श थे ब उनम
अनेक भाषाएँ भी बोली जाती थी, और िफर यं यह भी िलखा
िक सं ृ त सब भाषाओं का कारण है , ध हे ! ामी मुखानंद
जी आपकी बु , ऐसा पर र िव बातों से भरा लेख आपके
िसवाय कोई अ नही ं िलख सकता, जब सं ृ त सब भाषाओं
का कारण है तो सं ृ त जानने से पूव अनेक भाषाएं कैसे उ
हो गई, और जब वे द सृ ि के आर म कट ए, वे द श ों से
ही गु ण, कम और भाव के अनु सार सबके नाम रख गये , तो
उससे पूव अनेक दे शों और भाषाओं की क ना कहाँ से कर
ली? बोिलए ामी िनब धानंद जी, वे द कट होने से पूव अनेक
दे श और भाषाओं का होना यह िकस मं भाग म पढ िलया,
इसी दो कौड़ी की बु पर ामी जी अपने आपको वे दों का
ान समझते ह।
॥इित चुितयाथ काश स म् समु ास खंडनम् समा म्॥

P- 343
॥स ाथ काशा गत अ मसमु ास खं डनं ार ते ॥

॥सृि उ ि करण॥

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५४,


❝पु ष एवेदँ सव यद् भूतं य भा म्।

उतामृत ेशानो यद ेनाितरोहित॥४॥ -{यजु ः अ० ३१/ मं० २}

इसका अथ ामी जी यह िलखते ह िक- "हे मनु ो! जो सब म


पूण पु ष और जो नाश रिहत कारण और जीव का ामी जो
पृिथ ािद जड़ और जीव से अित र है ; वही पु ष इस सब
भू त भिव त् और वतमान थ जगत् का बनाने वाला है ❞

समी क-- ामी जी के अथ की कैसी िविच मिहमा है िक


इस मं म जीव कृित और ई र का वणन कर बै ठे ह, वे दा
िवषय म आता तो बात कुछ और होती, पर ामी जी ठहर
आदत से मजबू र अथ का अनथ िकये बगै र उनसे रहा भी नही ं
जाता, दे खये इसका अथ यह है िक--

(इदम्)- यह, (यत्)- जो, (भू तम्)- सं क जगत् है , (च)-


और, (यत् )- जो, (भा म्)- भिव सं क जगत् है , (उत)-
और, (यत् )- जो, (अ े न)- बीज वा अ प रणाम वीय से ,
(अितरोहित)- वृ नर पशु आिद प से कट होता है ,
(सवम्)- वह सब, (अमृत )- मो का, (ईशान:)- ामी,
(पु ष:)- परमे र, (एव)- ही है उसका अ न होने से से
उ होने से सब जगत् प ही है , इससे अन है ,

P- 344
अब ोिक ामी जी जीव जगत जड कृित म का भे द
मानते ह इससे ऊपर वाली ुित से िवरोध पडे गा, और सु िनये ,

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५४,


❝यतो वा इमािन भूतािन जाय े येन जातािन जीव ।

य य िभसंिवश ति िज ास तद् ॥५॥ -


तैिनरीयोपिन०

इसका अथ ामी जी यह िलखते ह िक- "िजस परमा ा की


रचना से ये सब पृिथ ािद भू त उ होते ह िजससे जीव और
िजस म लय को ा होते ह; वह है , उस के जानने की
इ ा करो❞

समी क-- यह ा ामी जी इतना ही पद िलखकर गड़प गये ,


(िजससे जीव) इससे तो है िक िजस परमा ा से जीव
उ होते ह और ामी जी आगे इनको िनत् य भी मानते ह,
ध हे ! तु ारी बु , िन भी मानना और ज भी कहना यह
वे द िवरोधी लेख अथ कता को रसातल म ों न ले जाये गा,
सीधा सा अथ है िक िजससे यह ाणी उ होते , उसी से जीते
और अ म उसी म वे श करते ह उसे ही जानों, अब जीव
और कृित िन और पृथक न रहे , और सु िनये ,

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५५,


❝ ा सुपणा सयुजा सखाया समानं वृ ं प रष जाते।

तयोर ः िप लं ा न ो अिभ चाकशीित॥१॥ ~ऋ०मं०


१। सू० १६४। मं० २०।।

P- 345
शा ती ः समा ः ।।२।। ~यजु ः० अ० ४०। मं० ८॥

( ा) जो और जीव दोनों (सु पणा) चेतनता और पालनािद


गु णों से स श (सयु जा) ा ापक भाव से सं यु (सखाया)
पर र िम तायु सनातन अनािद ह और (समानम्) वै सा ही
(वृ म्) अनािद मूल प कारण और शाखा प काययु वृ
अथात् जो थूल होकर लय म िछ िभ हो जाता है वह तीसरा
अनािद पदाथ इन तीनों के गु ण, कम और भाव भी अनािद ह
(तयोर ः) इन जीव और म से एक जो जीव है वह इस
वृ प सं सार म पापपु प फलों को ( ा ि )अ े कार
भो ा है और दू सरा परमा ा कम के फलों को (अन न् ) न
भो ा आ चारों ओर अथात् भीतर बाहर सव काशमान हो
रहा है । जीव से ई र, ई र से जीव और दोनों से कृित िभ
प; तीनों अनािद ह❞

समी क-- िजस कार बा रश की पहली बुं द िगरते ही वन के


सभी मढक खुशी से झु म उठते है ठीक वही ां त ामी जी पर
है , बस उनके िनयोगी चैलों और उ ै त करण को यह ुित
सजीवन मूल है , पर ु उनके अंदर इतनी बु कहाँ जो इस
ुित का आशय समझ सक, वा व म इसका अथ यह है सु िनये ,

थम तो इस मं म यह है िक यह मंत्र चेतन म भे द िस
करता है या भो ा अभो ा प पि यों के भे द को िस
करता है , जो चेतन भे द साधक कहों तो इस मं म ऐसा कोई
पद नही ं जो चेतन म भे द साधन कर, इस कारण चेतन म भे द
नही,ं िक ु दो सु पण का बोधन करता है , वह भी सु पण वे द
ितपाद् य होने चािहए, मं का अथ दो सु पण है (सयु जा)-
पर रस वाले, (सखाया)- समान ि ित वाले अथात
िजनका ितत होना तु है वे दोनों, (समान)- एक, (वृ ं )- वृ

P- 346
को, (प रष जाते )- आ य कर रहे ह, (तयो:)- उन दोनों म,
(अ :)- एक, (िप लं ा ि )- वृ फल को भो ा है और
दू सरा, (अन न् )- न भो ा आ, (अिभचाकशीित)- काश
करता है , वही काश करने वाला सु पण मं ितपा है यथािह
एकः सुपणः स समु मा िववेश स इदं िव ं भुवनं िव च े।

तं पाकेन मनसाप म त ं माता रे ह स उ रे ह मातरम्॥


~ऋ ेद {१०/११४/४}

अथ यह है िक (एकः)- एक, (सु पणः)- ाणवायु उपािधक


सु पणवत् सु पण है , (स:)- वह, (समु म्)- समु वत् िव ृत
अ र को, (आिववे श)- वे श करता है , (स:)- वह
ाणोपािधक परमा ा, (इदम्)- इस, (िव ं भु वनम् )- सव लोक
को, (िवच े)- प ित काश करता है , (तम्)- उस ाण दे व को,
(पाकेन मनसा)- प रपक मन म उपासक, (अ त:)- अपने
दयकमल म (अप म् )-दे खता आ िकस कार से , जो
(तम्)- उस ाणदे व को अ यनकाल म, (माता)- माँ कह सो,
(रे ह)- अपने आप म लीन कर लेती है , और तू ीभ
ं ावकाल म
वह ाणदे व, (मातरम्)- वाक् को अपने म लीन कर लेता है , एक
तो सु पण इस मं से ाणोपािधक ई र चेतन ितपा है , यहाँ
जो लीनता कही ं है वह केवल उपािध धम का वहार है िविश
म करा है , और जो ाण उपािधक ई र ितपा इस मंत्र म न
होता तो सव जगत् काशता कैसे कहते , वे द िनघ ु अ ाय ३/
खंड ११ मे, (िवच े) प ितकमा कही ं है इससे केवल जड़ ाण
इस मं म ितपा नही ं और केवल चेतन भी ितपा नही,ं
ोिक वाक् म लीनता कही ं है इससे ाणोपािधक िचत् ितपा
है यह सु पण तो केवल काशक अभो ा प से मं ितपा
है और भो ा प बु उपािधक जीव िचत् है तथािह

P- 347
त था ाकाशे ेनो वा सुपण वा िवप रप ा ः संह
प ौ संलयायैव ि यते।

एवमेवायं पु ष एत ा अ ाय धवित।

य सु ो न कं चन कामं कामयते न कं चन ंप ित ॥ ~बृ ०


उ० {४/३/१९}

जैसे इस िस आकाश म े न बड़े शरीर वाला वा सु पण


अ शरीर वाला बाज है वह अिधक मण करने से म को
ा होकर पंखों को (सं ह ) िव ार करक, (सं लय) अपने
नीड़ को, (ि यते ) अनव थत हो गमन करता है वै से यह,
(पु ष) जीव बु उपािधक, (अ ) अ र थान जो दयकमल
है , वहाँ को दोड़ता है जहाँ सोता आ कुछ भी, (काम) िवषय
को, (नकामयते ) नही ं चाहता और कुछ भी नही ं दे खता, इस
ुित म सु पण ां त से जो बु उपािधक जीव सु पणवत् जा त
सु पु म गमन करने वाला ि तीय सु वण कमफल भो ा
ितपादन करा है , सो यह दो सु पण वा ा र ितपा ही ( ा
सु वणा) इ ािद मं ों से कह गये ह, उन दोनों को ाण बु
उपािध भे द से भे द वे दा यों के िस ां त म ीकृत ही है , चेतन
सवा प से (यो ऽसाव् आिद े पु षः सो ऽसाव् अहम्०)
इस मं म ितपादन करा है , उसके भे द का साधन कौन है ?
अथात उसके भे द का साधक कोई मं नही,ं यह भे द केवल
मोह और उपािध से तीत होता है वा व म जीव कुछ और
नही ं है , आ ा जीव प से मोह के होने से तीत होता है यह
मं ही कहता है दे खये --
एको वशी सवभूता रा ा

एकं पं ब धा यः करोित ।

तमा थं येऽनुप धीराः

P- 348
तेषां सुखं शा तं नेतरे षाम् ॥ ~कठोपिनषद {२/२/१२}

समाने वृ े पु षो िनम ोऽनीशया शोचित मु मानः।

जु ं यदा प मीशम मिहमानिमित वीतशोकः॥

सब दे हधा रयों म आ ा प से िनवास करने वाला तथा सबको


िनय ण म रखने वाला परमे र एक प वाला होकर भी
अनेक प धारण कर लेता है , और जो िव ान अपने भीतर
थत उस का सा ा ार कर लेत है वह सम उपािध
रिहत होकर उस ह्म मे ही लीन हो जाते है , एक ही इस शरीर
म पूण पु ष परमा ा िनगू ढ़ है , यह यं अनीश बु से मोह
को ा होकर सोचता है , सं सार म कता ँ सु खी दु खी ँ ऐसा
ज मरणािद अनुभव करता है और जब िन तृ शोकरिहत
(ईशम् ) अपने प अन ता से दे खता है अथात सा ा ार
करता है तब शोकरिहत हो जाता है दे ह से पृथक अपने प
के सा ा ार से सम उपािध रिहत होकर इसकी मिहमा
अथात सवा सव ािदपन को ा होता है , यहाँ मिहमा का
यही अथ है िक अपने प को ा होता है , इस कारण
वा व म वह एक ही है , मोह से भे द तथा दो तीत होते ह

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५५,


❝अजामेकां लोिहतशु कृ ां ब ीः जाः सृजमानां स पाः।

अजो ेको जु षमाणोऽनुशेते जहा ेनां भु भोगामजोऽ ः॥


~ े० उप०{४/५}

कृित, जीव और परमा ा तीनों अज अथात् िजनका ज कभी


नही ं होता और न कभी ज लेते अथात् ये तीन सब जगत् के
कारण ह, इन का कारण कोई नही,ं इस अनािद कृित का भोग

P- 349
अनािद जीव करता आ फंसता है और उस म परमा ा न
फंसता और न उस का भोग करता है ❞

समी क-- दयानंद ने तृ तीया समु ास पृ ५१ पर, (ईश, केन,


कठ, , मु क, मा ू , ऐतरे यी, तै ि रे यी, छा ो और
बृ हदार क) यह दश उपिनषद ही माण माने ह और यह ुित
े ता तर उपिनषद का है जो उनके माण िकये उपिनषद म
नही ं है , अपने अथिस को यह उपिनषद भी मान िलया, और
दू सरे के माण म कहते ह िक हम यह नही ं मानते , भला इसम
मं ों का माण ों नही ं िलखा।

ामी जी ने यहाँ यह सोचा होगा िक एक अज श जीववाचक


और दू सरा ई रवाचक है , पर ु यहाँ ई र का हण करोगे तो
(जहा ेनां भु भोगामजोऽ ः) इस ुित भाग की असं गित
होगी, ोिक भोग िलया है , भोग पूव काल म िजससे उस कृित
को ाग दे ता है , ऐसा अथ होने से परमे र म सु ख दु ख
सा ा ार भोग मानना असं गत है , इसिलए यहाँ अनु
सा ा ार और उ सा ा ार जीवों का हण है , ामी जी
यहाँ जीवों को ज रिहत कहते ह और इससे पूव स म्
समु ास पृ १४३ पर, यह िलखा है िक (जो िवभु होता तो
जागृ त, , सु षु , मरण, ज , सं योग, िवयोग, जाना, आना
कभी नही ं हो सकता) यहाँ उसका प रिछ मानकर ज मानते
ह, ामी जी के पर र िव ले खों को कहाँ तक िदखाव,
ामी जी ने तो मुखता की सारी िसमाये ही पार कर दी, कही ं
जीव का ज िलखते ह तो कही ं िन मानते ह, ध हे ! ामी
जी तु ारी बु , दे खए इस ुित से पूव की ु ितयों से यही
िस होता है िक सब जगत ई र प ही है सब लोक और

P- 350
ाणी उससे ही उ होते ह, अब जब कुछ ई र ने ही उ
िकया है तो कृित िन कैसे?
त ा ा एत ादा न आकाशः स ूतः आकाशा ायुः वायोरि ः
अ ेरापः अ ः पृिथवी पृिथ ा ओषधयः ओषधी ो म्
अ ा ु षः स वा एष पु षोऽ नरसमयः॥ १

इद सवमसृजत यिददं िक ॥~तै री० उप०

उस आ ा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अि , अि से


जल, जल से पृ ी, पृ ी से औषिध, औषिध से अ , अ से वीय,
और वीय से पु ष इस कारण अ रसमय यह पु ष अ रसमय
है ,

जो कुछ भी है सब परमे र ने बनाया है । और


नासदासी ो सदासी दानी ं नासी जो नो ोमा परो यत्।

िकमावरीवः कुह क शम ः िकमासी हनं गभीरम्॥१॥

न मृ ुरासीदमृतं न तिह न रा ा अ आसी केतः।

आनीदवातं धया तदे कं त ा ा परः िकं चनास॥२॥


~ऋ ेद {म० १०, सु० १२९, मं० १-२}

इ ािद वे द मं जो पीछे िलख आये ह िक लय काल म सत्


रज तम कृित आिद कुछ भी नही ं था, िसवाय एक ई र के इस
कारण कृित को िन मानना ठीक नही।ं

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५९,

❝सवश मान् का अथ इतना ही है िक परमा ा िबना िकसी


के सहाय के अपने सब काय पूण कर सकता है ❞

P- 351
समी क-- ामी जी की बु िकसी बालक जैसी है , दे खों कही ं
तो यह िलखा है िक िबना कृित के वह कुछ नही ं कर सकता,
और कही ं िलखा है िक वह िबना सहाय काय कर सकता है , सव
श म ा तो ई र की उड़ गई,

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५९,

❝जब वह कृित से भी सू और उन म ापक है तभी उन


को पकड़ कर जगदाकार कर बना दे ता है ❞

समी क-- दयानंद के इस लेखानुसार मानों कृित कही ं भागी


जाती होगी, ई र उसके पीछे दौड़ता है , वह उसे पकडता होगा
और कृित नाही ं करती होगी, लेिकन ई र उसे जगदाकार कर
बना दे ता होगा, ध हे ! ामी जी तु ारी बु ,

स ाथ काश अ म समु ास पृ १५९,

❝( ) ा कारण के िबना परमे र काय को नही ं कर


सकता?

(उ र) नही❞

समी क-- दे खों ामी जी पूव तो िलख आये िक उसे काय


कारणािद की कुछ अपे ा नही,ं वह िबना सहाय सब काय कर
सकता है , और अब यहाँ यह गड़बडी, यही तो ामी जी के भं ग
की तरं ग है िक ामी जी को अपने पूव िलख लेखों का भी
रण नही ं रहता।

P- 352
॥आिद सृि करण॥

स ाथ काश अ म समु ास पृ १६६,

❝( ) सृ ि की आिद म एक वा अनेक मनु उ िकये थे


वा ा?

(उ र) अनेक। ोंिक िजन जीवों के कम ऐ री सृ ि म उ


होने के थे उन का ज सृ ि की आिद म ई र दे ता है । ोंिक
‘मनु ा ऋषय ये ' ~[यजु वद अ ाय ३१, मुंडकोप० ९, मुं०
२/७/१]

'ततो मनु ा अजाय ’ ~यह यजुवद म िलखा है ।

इस माण से यही िन य है िक आिद म अनेक अथात् सै कड़ों,


सह ों मनु उ ए❞

समी क-- ामी जी ने तो मानों अस बोलने का ठे का ले रखा


है , जब मूहँ खोलते है तो अस ही बोलते ह, दे खये ‘मनु ा
ऋषय ये' यह वा यजुवद म कही ं नही ं िलखा, िक ु यजुवद
म 'सा ाऽऋषय ये' यह िलखा है सो इससे भी दयानंद की
िलखी ं बात िस नही ं होती, सु िनये यह मं इस कार है िक--
तं य ं बिहिष ौ न् पु षं जातम् अ तः।

तेन दे वा ऽ अयज सा ा ऽ ऋषयश् च ये॥ ~यजु वद {३१/९}

(ये )- जो, (सा ा: दे वा: च ऋषय:)- सा दे वता और ऋिष है


उ ोंने, (अ तः)- सृ ि के पूव, (जातम्)- उ ए, (तम्)- उस,
(य म्)- य साधन भू त, (पु षम् ) िवराट पु ष को, (बिहिष)-

P- 353
आ ा म, ( ौ न्)- ो ण कर, (ते न)- उस पु ष ारा,
(अयज )- य िकया।

और िफर िलखा है िक यह वा मुंडकोपिनषद ९, मुंड० २/७/१


सो सु िनये यह भी ामी जी ने िम ा ही िलखा है , इससे िविदत
होता है िक ामी जी ने कभी मुंडकोपिनषद उठा कर भी नही ं
दे खा, ोिक पुरे मुंडकोपिनषद म कुल ३ ही मुंडक है , और
इनम से ेक मुंडक म दो-दो खंड है अथात पुरे
मुंडकोपिनषद म कुल िमलाकर ६ खंड है , जबिक दयानंद
िलखते ह िक यह वा ि तीय मुंडक के सातव खंड का पहला
मं है , जबिक ि तीय मुंडक म केवल २ ही खंड है िफर दयानंद
ने यह सातवां खंड कहाँ से पैदा कर िदया, और यह जो
'मुंडकोपिनषद ९' ऐसा िलखा है यह ा है ?

अब ाय ि से िवचा रय िक दयानंद ने वे दों के नाम से कैसी-


कैसी झूठी गपौड उडाई है , सृ ि के आिद म थोक के भाव से ,
सै कड़ों सह ों मनु उ नही ं ए, सृ ि के आर म थम
ा जी उ ए, ा जी से िवराट, िवराट से मनु और मनु
से मरीिच, अि , अंिगरा आिद दश महिष उ ए, यह बात
वे द, उपिनषद, मनु ृित आिद से पूव वणन कर आये ह,

और सु िनये आगे जो ामी जी ने यह दू सरा पद 'ततो मनु ा


अजाय ’ िलखा है सो यह भी यजुवद म कही ं नही ं िलखा, यह
वा यजुवद का नही ं िक ु शतपथ ा ण का है , सो इससे भी
दयानंद की कपोल क त बात िस नही ं होती, ब इससे
तो उ ा ामी जी का ही प िबगाड़ता है दे खये ामी जी ने
'ततो मनु ा अजाय ’ जो यह वा िलखा है इसका अथ तो
यह आ िक त ात मनु उ ए, और यह हम पूव ही
िस कर आये ह िक--

P- 354
भूतानां ा थमोत ज े तेनाहित णा िधतुं कः॥
~अथववेद {१९/२२/२१}

(भू तानां ा थमोत ज े) अथात सबसे थम ा जी उ


ए,
ि धा कृ ा नो दे हमधन पु षोऽभवत्।

अधन नारी त ां स िवराजमसृज भुः॥३२॥

तप ासृज ं तु स यं पु षो िवराट् ।

तं मां िव ा सव ारं ि जस माः॥३३॥

अहं जाः िससृ ु ु तप ा सुदु रम्।

पतीन् जानामसृजं महष नािदतो दश॥३४॥

मरीिचम ि रसौ पुल ं पुलहं तुम्।

चेतसं विस ं च भृगुं नारदमेव च॥३५॥ ~मनु ृित {१/३२-३५}

३२ से ३५ तक के इन ोकों का आशय यह है िक त ात
उ ोंने "सं सार की वृ के अथ अपने आधे भाग से पु ष और
आधे भाग से ी की सृ ि की, उनसे थम िवराट, िवराट से मनु
और मनु से दस महिष मरीिच, अि , अंिगरा आिद महिष उ
ए, और ठीक यही बात दयानंद भी मानते ह दे खये तभी तो
उ ोने अपने "स ाथ काश के अ म समु ास म पृ १६८ पर
यह िलखा है िक-- ा का पु िवराट, िवराट का पु मनु और
मनु से मरीिच, अि , अंिगरा आिद दश ऋिष उ ए, इससे
यही िस आ िक ामी जी भी यह मानते ह िक आिद म
थम ा जी उ ए और उ ोंने ही सब लोकों, मनु
आिद की सृ ि की है , पर ु इस बात को खुलकर ीकार करने
म ामी जी की फटती है , ोिक उ ोंने यह सोचा होगा जो
इस बात को खुलकर ीकार कर िलया तो उनका यह कपोल

P- 355
मत सनातन धम से िभ कैसे िदखेगा? इस कारण ामी जी ने
यह बात क ना कर ली िक आिद म सै कड़ों सह ों मनु
उ ए, पर ु यह सै कड़ों सह ों मनु िकस कार उ
ए? यह नही ं िलखा, जब तु ारा यह मत है िबना ी पु ष के
सं योग के मनु उ नही ं हो सकता, तो िफर जो यह आिद म
सै कड़ों सह ों मनु उ ए िलखा है , ा यह सब मनु
आसमान से टपके थे? यहाँ इस बात का माण ों न िलखा?
या यह सै कड़ों सह ों मनु भी आपकी ही भां ित ारह िनयोग
से उ ए थे इसिलए आपके िलए यह कह पाना किठन है
िक कौन िकससे उ आ? आपका तो समझ म आता है िक
आपको अपने माता िपता का नही ं मालूम िक वे कौन थे? इस
कारण अपने आ च रत म माता िपता का नाम छोड़ सब िलखा
है , लेिकन सब मनु ों को अपनी ही भां ित िनयोग से उ मान
लेना यह तो गलत है , अरे सै कड़ों सह ों नही ं तो कम से कम दो
चार का नाम िलखकर अपना मत तो कट करते , तब हम
बताते की आप िकतने सही और िकतने गलत ह वै से तो आपके
ही ारा पृ १६८ पर िलखे इस एक वा से िक-- ा का पु
िवराट, िवराट का पु मनु और मनु से मरीिच, अि , अंिगरा
आिद दश ऋिष उ ए, इससे ही आपकी सब बातों का
खंडन हो गया,

स ाथ काश अ म समु ास पृ १६६,

❝( ) मनु ों की आिद सृ ि िकस थल म ई?

(उ र) ि िव प अथात् िजस को ‘ित त’ कहते ह

पुनः पृ १६७ पर यह लेख है िक--

P- 356
( ) िफर वे यहाँ कैसे आये ?

(उ र) जब आय और द ुओं म अथात् िव ान् जो दे व अिव ान्


जो असु र, उन म सदा लड़ाई बखेड़ा आ िकया, जब ब त
उप व होने लगा तब आय लोग सब भू गोल म उ म इस भू िम
के ख को जानकर यही ं आकर बसे , इसी से इस दे श का नाम
‘आयाव ’ आ

पुनः लेख है िक--

( ) थम इस दे श का नाम ा था और इस म कौन बसते थे?

(उ र) इस के पूव इस दे श का नाम कोई भी नही ं था और न


कोई आय के पूव इस दे श म बसते थे, ोंिक आय लोग सृ ि
की आिद म कुछ काल के प ात् ित त से सू धे इसी दे श म
आकर बसे थे❞

समी क-- दे खये इस गवग को ा अंड सं ड बके जा रहा


है , िलखा है िक आिद म मनु ों की सृ ि ित त म ई, अब
कोई इस भं गेडानंद से यह पूछे िक यह बात इसने िकस आधार
पर िलखी ं ह, यहाँ इस बात म कोई माण ों न िलखा? अब
तक तो केवल अं े ज ही कहते थे िक आय ईरान से आये थे, पर
यह ा इस दयानंद को यह ा हो गया, यह तो उनसे भी दो
कदम आगे िनकल कर उससे भी आगे ित त म मनु ों की
उ ि िलख मारी, और अब जरा एक ि दयानंद के इस लेख
पर डालकर दे ख िलखा है िक-- "जब आय और द ु ओं म
अथात् िव ान् जो दे व अिव ान् जो असु र, उन म सदा लड़ाई
बखेड़ा आ िकया, जब ब त उप व होने लगा तब आय लोग
सब भू गोल म उ म इस भू िम के ख को जानकर यही ं आकर
बसे । इसी से इस दे श का नाम ‘आयाव ’ आ

P- 357
और पुनः पृ १६८ पर िलखा है िक-- इस के पूव इस दे श का
नाम कोई भी नही ं था और न कोई आय के पूव इस दे श म
बसते थे, ोंिक आय लोग सृ ि की आिद म कुछ काल के
प ात् ित त से सू धे इसी दे श म आकर बसे थे"

अब कोई इस भं गेडानंद से यह पूछे िक इसने कौन से वे दानुसार


यह ित त से आने वाली बात िलखी ं है , और जो यह 'ि िव प'
को ित त िलखा है यह कौन से कोश म से िनकाला है , जहाँ
तक म जानता ँ पूवकाल वा नवीनकाल का हमारे मत का कोई
ऐसा ं थ नही ं है िजसम यह बात िलखी ं हो, और जहाँ तक ामी
जी के इस लेख की बात है तो वे तो थे ही िथयोसोिफकल
सोसायटी नामक ईसाई िमशनरी सभा के सद सो यह बात
उ ोंने वही से िसखी होगी, िजसे उ ोंने यहाँ िलख मारा न जाने
दयानंद ने इससे अपना ा लाभ सोचा होगा, अं े जों ने ईरान
कहा तो ामी जी ने ित त िलखकर चुितयापंित का पहला
सिटिफ़केट हािसल करने की दौड़ म सबको पीछे छोड़ िदया,
इससे दयानंद और उनके तथाकिथत ित ती पूवजों की मूखता
भी िस होती ह िक 'ि िव प' िजसका अथ ग के स श आ
उसे छोड़, उससे े आयावत को जाना, अब जबिक दयानंद ने
यह माना िक आयावत सब भू गोल म े थान है तो िस है
िक परमे र ने थम सृ ि इसी दे श म िक होगी, और यह भी
एक बड़ी अद् भु त बात िलखी िक उ ि होते ही लड़ाई ई और
इस लड़ाई म िवजयी आय ही हारे , शोक हे ! ऐसी बु पर,
इससे तो यह िस आ िक दयानंद और उनके िनयोगी चमचे
सब िदन से आयावत म नही ं रहते थे, ोिक इससे पूव वह
ित त म रहते ह, इससे वह ित ती ए, और इस दे श को
उ म जान यहाँ आ बसे , िस ां त यह िक वे दशा म जो कुछ

P- 358
आयावत की मिहमा िलखी ं ह दयानंद ने उस पर धू ल डाल दी,
और यह बात कौन से ं थ म िलखी है िक मनु ों की सृ ि
ित त म ई, जो िबना माण हमारे अ से पैदल दयानंदी
भाई 'ि िव प' से ित त दयानंद की इस कपोल क ना को
सही मानते ह तो ईरान से आय अं े जों का यह कथन माण
ों नही?ं दयानंद की कपोल क ना िकस आधार पर स
जान िलया, और यिद ऐसा मानते हो िक आय के इस दे श म
आने से इस दे श का नाम आयावत पड़ा तो इससे पूव िजस दे श
म रहते थे उसका नाम ित त ों? उसका नाम भी आयवत
होना चािहए था और जैसा िक दे खने म आता है िक जो जहाँ का
होता है उसे उसी नाम से जाना जाता है जैसे ईरान के रहने वाले
ईरानी, यू रोप के रहने वाले यू रोिपयन, उसी कार ित त के
रहने वाले ित ती ए और आयावत म रहने वाले आय कहलाते
ह पर ु दयानंद तो अं े जों की ही भाँ ित इससे उ ी ही बात
िलखते ह इससे ही दयानंद की बु का पता चलता है , सु िनये
आय कही ं से आय नही ं िक ु सदा से इसी दे श म रहने वाले ह
इसी से इस दे श को आयावत कहते ह जैसा िक मनु ृ ित म
िलखा है िक--
आसमु ा ु वै पूवादा समु ा पि मात्।

तयोरे वा रं िगय रायावत िवदु बुधाः॥ ~मनु ृित {२/२२}

पूव (बं गाल के) समु से लेकर पि मी (अरब दे श के) समु


तक िहमालय और िव ाचल के म थत िजतना दे श ह
उसको आयावत कहते ह, और अब दयानंद की उस बात का
उ र िलखते ह िजसम उ ोंने िलखा है िक-- इसके पूव इस
दे श का नाम कोई भी नही ं था और ित ितयों के आने से पूव
इस दे श म कोई नही ं बसता था

P- 359
सर ती श ोदवन ोयद रम्।

तं दे विनिमतं दे शं ावत च ते॥ ~मनु ृित {२/१७}

सर ती नदी जो िक गु जरात और पंजाब दे श के पि म भाग म


बहती है और ष ती नदी जो िक नेपाल के पूव भाग म बहती है
इन दोनों पिव निदयों के म िजतना दे श ह वह आयावत की
अपे ा से पु दे श है और दे वताओं ारा िनिमत है उसको
ावत कहते ह, ोिक ा जी ने थम मनु ों की सृ ि इसी
थल म की इस कारण पूवकाल म इस दे श का नाम ावत
आ, इसके प ात अ दे श बसे और सब दे शों के मनु ों ने
इस दे श से िव ा सीखी, सु िनये --
एत े श सूत सकाशाद ज नः।

ं ं च र ं िश ेरन् पृिथ ां सवमानवाः॥ ~मनु ृित {२/२०}

इस दे श के उ ए िव ानों से सारी पृ ी के मनु अपने


च र और िव ाओं को सीख यही के लोगों से सबने िव ा सीखी
यहाँ यह िस आ िक ावत ही सब की सृ ि का मूल थान
है और यही से और दे शों को िव ा गईं,

हाँ यिद अब भी दयानंद के िनयोगी चमचे यही हठ ठान कर बै ठे


ह िक हम तो यं को ित ती ही मानगे तो, िफर िगरों अंधकूप
म हम ा?

स ाथ काश अ म समु ास पृ १६७,


❝सर ती ष ोदवन ोयद रम्।

तं दे विनिमतं दे शमायाव च ते॥ ~मनु ृित {२/२०}

P- 360
समी क-- अब जरा एक ि इस ोक पर डािलये , इस
ोक म भी दयानंद ने उसी कार उ फेर िकया ह जैसा
अ वे दािद ुितयों के साथ िकया ह दे खों यहाँ 'दे शं ावत'
यह पद आया है िजसे दयानंद ने बदलकर उसके थान पर
'दे शमायाव ' िलख लोगो को िमत करने का यास िकया है
इसका अथ पूव िलख आये ह, अब यहाँ दयानंद से यह है
िक जब वह यं िनिमत उ ी सीधी सं ृ त को ही माण
मानते ह तो िफर उ मनु ृित आिद का बता लोगों को िमत
ों करना? िसधा िसधा िलख दे ते की हम मनु ृित आिद ं थों
को नही ं ब यं िनिमत वा ों को ही माण मानते ह,
वे दािद शा ों म िमलावट कर लोगों को िमत ों करना?

स ाथ काश अ म समु ास पृ १६८,


❝आयवाचो े वाचः सव ते द वः ृताः॥१॥ ~मनु०
{१०/४५}

े दे श तः परः॥२॥ ~मनु० {२/२३}

जो आयावत दे श से िभ दे श ह वे द ुदेश और े दे श
कहाते ह❞

समी क-- दे खों इस गपोिड़य को ा अंड सं ड िलखा है , यहाँ


दयानंद ने यह लीला रची की आधा ोक िलखकर आधा
ोक गडप गये, सु िनये पुरा ोक इस कार है िक--
मुखबा प ानां या लोके जातयो बिहः।

े वाच ायवाचः सव ते द वः ृताः॥ ~मनु ृित {१०/४५}

P- 361
ा ण ि य वै और शू ारा अपने ि यालोप अथात अपने
कत ों का ाग करने से जो अधमजाित उ होती है वह
द ु कहलाती है , िफर चाहे वो मले भाषा बोलने वाले हो या
आय भाषा बोलने वाले, यह इसका अथ है ,

इसका अथ यह नही ं िक इससे िभ दे श द ु दे श कहात है ,


ब इसका भाव यह है िक आयावत दे श म भी कमहीन,
ि या लोगों का नाम द ु चिलत था और जो आधा ही
ोक माण मानोगे तो इस ोकानुसार (आयवाचो े वाचः
सव ते द वः ृताः) िजतने लोग यं को आर् य कहते ह उन
सबकी द ु सं ा हो जाये गी, इससे ही दयानंद की बु का
पता चलता है , दयानंद ने यह नही ं जाना िक इस आधे ोक से
सबकी द ु सं ा हो गई िफर चाहे वह मले भाषी हो या िफर
आय भाषी,

और अब एक ि दयानंद के इस अथ पर डािलये , दयानंद ने


िलखा है िक-- "जो आयावत दे श से िभ दे श ह वे द ुदेश
और े दे श कहाते ह" इससे तो यह िस आ िक दयानंद
और उनके िनयोगी चमचे इस दे श म आने से पूव े दे श
(ित त) म रहा करत थे, इससे दयानंद लेखानुसार उनकी और
उनके िनयोगी चमचों की मले और द ु सं ा ई, अथात
मले और द ु कोई और नही ं ब ित त से आकर बसे
दयानंद और उनके िनयोगी चैले ही है , और हमारे इस आयावत
को सब भू गोल म े थान जानकर यहाँ आ बसे और यं को
आय पु कथन करने लगे ? इससे ही ामी जी की बु का
पता चलता है िक उनम िकतनी बु रही होगी, उ तो अपने
पूव िलख लेखों का भी रण नही ं रहता, ऐसा चुितया
मने अपने जीवन म नही ं दे खा जो अपने लेख से अपने ही मत

P- 362
का खंडन करता है दे खये जब यहाँ यह माना िक इस आयावत
दे श से िभ दे श द ुदेश और मले दे श कहाते है तो इससे तो
यही िस होता िक इस दे श म आने से पूव दयानंद, उनके
पूवज और उनके िनयोगी चमचे सब के सब मले दे शी ए,
इसी कारण बोलता ँ िक यह आधा अधु रा ोक िलखकर अथ
का अनथ करना सही नही ं है , िसफ अपना ाथ साधने के
च र म दयानंद ने यह अधू रा ोक यहाँ िलखा है पर ु
उ ोंने यह नही ं सोचा था िक इससे तो उनका ही मत िबगाड़ता,
अपने िव वह यं खंडन कर रहे ह, यह ामी जी के भं ग
की तरं ग नही ं तो ा है ? भला िजसे अपने पूव िलख लेख ही
रण न रहते हो ऐसे भं गेडी की बातों का ा माण?

स ाथ काश अ म समु ास पृ १७१,

❝( ) सू य च और तारे ाव ु ह और उनम मनु ािद


सृ ि है वा नही?ं

(उ र) ये सब भू गोल लोक और इनम मनु ािद जा भी रहती


ह ोंिक-

एतेषु हीदँ सव वसुिहतमे ते हीदँ सव वासय े त िददँ सव


वासय े त ा सव इित॥ ~शत० का० १४

पृिथवी, जल, अि , वायु, आकाश, च , न और सू य इन का


वसु नाम इसिलये है िक इ ी ं म सब पदाथ और जा वसती ह
और ये ही सब को वसाते ह, िजस िलये वास के िनवास करने के
घर ह इसिलये इन का नाम वसु है । जब पृिथवी के समान सू य
च और न वसु ह प ात् उन म इसी कार जा के होने म
ा स े ह?❞

P- 363
समी क-- अपने इस लेख से तो ामी जी ने चुितयापंित के
सारे रकॉड ही तोड़ िदये , इस लेख को पढ़ने मा से ही पता
चलता है िक दयानंद म िकतनी बु रही होगी, यहाँ कता
और उ र दे ने वाला दोनों ही उ कोिट के चुितया है , दे खये
थम तो दयानंद ने स ाथ काश के स म समु ास म पृ
१३२ पर यह िलखा है िक- "ततीस दे वता अथात, पृ ी, जल,
अि , वायु, आकाश, च मा, सू य और न " यहाँ ामी ने इ
चेतन मान ततीस दे वों म से यह आठ वसु गण कथन िकये , और
िफर यहाँ उ जड़ मानकर, उनम मनु ािद जा बसा दी, अब
थम तो यहाँ दयानंद से यह है िक इनम से तु ारा कौन सा
कथन स मान? यह आठ वसु गण जो आपने यहाँ कथन िकये
हउ आप ा मानते ह जड़ या िफर चेतन?

दू सरा -- जो तु मने यह िलखा है िक पृ ी, जल, अि , वायु ,


आकाश, च मा, सू य और न आिद ये सब भू गोल लोक है ,
सो यहाँ यह बताओ िक जल, अि , वायु, आकाश को भू गोल
िकस आधार पर िलखा है ? ा जल, अि , वायु, आकाश आिद
की भू गोल आकृित आपने कही ं दे खी है ? इनम मनु ािद जा
के बसने यो ठोस धरातल है जो इ भू गोल लोक कथन कर
िदया, और आकाश जो अन है िजसका अ कोई नही ं
जानता, आपने उसे भी भू गोल कथन कर िदया, आपके िदमाग
का कोई ु िढला तो नही ं है ।

तीसरा -- अि और सू य जो िक सब कुछ भ करने का


साम रखते ह आपने उनम मनु ािद जा की िम ा क ना
िकस आधार पर की? जबिक आपने यं अपने एकादश
समु ास म मं ों की िस को नकारते ए यह तक िदया है
िक-- "जो कोई यह कह िक मं से अि उ होता है तो वह मं

P- 364
के जप करने वाले के दय और िज ा को भ कर दे व" और
इसके िवपरीत यहाँ यह दौगलापन िदखाया िक अि सू य आिद
म मनु ािद की सृ ि िलख मारी, यहाँ तु ारा वो िस ां त की
अि अपने स क म आने वाले सब पदाथ मनु ािद को भ
कर दे व कहाँ घुस गया, यह खड़ा बाल आपम सनातन मत के
िव ही ों िदखता है ? किहये ा आपके इस लेखानु सार
अि सू य आिद म मनु ािद जा का होना स व है ? ा यह
मनु ािद जीवों को भ न कर दगे ?

ामी जी सू य पर मनु ािद जा होने की क ना करते ह सो


उनसे यह है िक िजस सू य का सतही तापमान लगभग
६०००ºC (छ: हजार िड ी से यस) और सतही दबाव इतना है
िक धातु तक को तरल म प रवितत कर द उस पर मनु ािद
जा होने जैसी अस व बात ामी जी के िदमाग म आयी
कैसे ? यहाँ पृ ी पर ही ४०-५०ºC तापमान पर मनु का ते ल
िनकल जाता है और ामी जी है िक मनु ािद को सू य पर बसा
रहे ह ध हे ! भं गेडानंद जी आपकी बु ,

और सु िनये अपने इस चुितयों वाले लेख म दयानंद ने जो यह


शतपथ ा ण से ुित माण िलखा है और इसका यह अथ
िलखा है िक-- "एते षु हीदँ सव वसु िहतमेते हीदँ सव वासय े
त िददँ सव वासय े त ा सव इित॥ ~शत० का० १४

पृिथवी, जल, अि , वायु, आकाश, च , न और सू य इन का


वसु नाम इसिलये है िक इ ी ं म सब पदाथ और जा वसती ह
और ये ही सब को वसाते ह। िजस िलये वास के िनवास करने के
घर ह इसिलये इन का नाम वसु है । जब पृिथवी के समान सू य
च और न वसु ह प ात् उन म इसी कार जा के होने म
ा स े ह"

P- 365
यह अथ भी दयानंद ने िम ा क ना िकये ह इस ुित का यह
अथ नही ं बनता, यह िम ा अथ दयानंद ने अपनी बु अनुसार
क ना िकया है सो दयानंद का यह अथ मानने यो नही ं है ,
सु िनये यह ुित इस कार है िक--
अि पृिथवी च वायु ा र ं चािद ौ न ािण चैते वसव
एतेषु हीदं सव वसु िहतमेते हीदं सव वासय े त िददं सव
वासय े त ा सव इित॥ ~शतपथ ा ण {१४/६/९/४}

अि , पृ ी, वायु, अ र , आिद , द् यु लोक, च और न ,


यह आठ दे व अ वसु इस कारण कहाते है ोंिक इ ी ं से
स ूण जगत् सि िहत है इसिलए इ वसु गण कहते ह और
यही अपने -अपने गु ण, कम से सबको बसाते है , भाव यह है िक
यह आठ वसु गण अपने -अपने गु ण कम से मनु ािद जीवों के
बसने यो प र थित उ करते है , जैसे सू य अपने ताप और
काश आिद गु ण से सब जगत् को कािशत करता और जल
को वा म प रवितत कर वषा करता है जैसे पृ ी मनु ािद
जीवों के के िलए आ य थल प म और अ औषिध आिद से
मनु ािद जीवों का पालन पोषण करती है , इसी कार यह अ
वसु अपने अपने गु णों से मनु ािद आिद जीवों को बसाते अथात
उनके अनुकूल प र थितयों को उ करते ह, यह इसका अथ
है जो दयानंद ने कुछ का कुछ िलख िदया, इसम यह कही नही
िलखा िक सू य तारों आिद म मनु ािद जा बसते है , यह िम ा
अथ तो दयानंद के कपोल भं डार से िनकल है , इस कारण यह
मानने यो नही,ं

हाँ यह बात सब िव ानों के मन म अव आती है िक इस


िवशाल ां ड म पृ ी जैसे और भी ह हो सकते ह, िजनम
शायद हमारी ही भां ित मनु ािद जीव रहते हो, पर ु सू य तरों

P- 366
आिद ऊजा ोतों पर मनु ािद जा की क ना करना िसवाय
चुितयों के और िकसी के बु म नही ं आ सकती।
॥इित चुितयाथ काश अ मसमु ास खंडनम् समा म्॥

P- 367
॥स ाथ काशा गत नवम् समु ास खं डनं ार ते ॥

स ाथ काश नवम् समु ास पृ १७५,

❝( ) यह जो ऊपर को नीला और धूं धलापन दीखता है वह


आकाश नीला दीखता है वा नही?ं

(उ र) नही,ं

( ) तो वह ा है ?

ामी जी इसका उ र यह िलखते ह िक--

(उ र) अलग-अलग पृिथवी, जल और अि के सरे णु दीखते


ह। उस म जो नीलता दीखती है वह अिधक जल जो िक वषता है
सो वही नीला िदखाई पड़ता है ❞

समी क-- पता नही ं ामी जी अपने आपको ा समझते ह दो


कौड़ी की बु नही ं इनम और चले ह वै ािनक बनने , िलखा है
िक आकाश का नीला रं ग उसम उप थत जल के कारण
िदखाई पड़ता है जो वषता है सो वही नीला िदखाई पड़ता है ,
ध हे ! भं गेडानंद ते री बु , अब कोई ामी भं गेडानंद जी से
यह पूछे िक यिद जल के कारण आकाश का रं ग नीला िदखाई
पड़ता है तो िफर बादलों म तो लबालब पानी भरा होता है िफर
वह काले सफेद रं ग के ों िदखाई पड़ते ह?

दू सरा -- जबिक जल रं गहीन होता है उसका कोई अपना रं ग


ही नही ं होता तो भला उससे आकाश आिद का रं ग प रवतन
िकस कार स व है ?

P- 368
ऐसी-ऐसी चुितयापंित से भरी बात करने मा से ही दयानंद की
बु का पता चलता है , सु िनये आकाश का रं ग नीला जल के
कारण नही ं ब , सू य के काश का पृ ी के वायु मंडल म
उप थत गै सािद अणु ओं से टकराने के प ात ए काश के
परावतन के कारण िदखाई दे ता है ,

वा व म काश एक कार की ऊजा है , जो िवद् यु त चु िकय


तरं गों के प म सं च रत होती है

सू य से आने वाली काश िकरणों म सभी रं ग पहले से िव मान


होते ह पर ु हमारी आँ ख केवल उ ी ं रं गों को दे ख पाती है ,
िजसकी तरं गदै सीमा के भीतर होती है , तकनीकी या
वै ािनक सं दभ म िकसी भी तरं गदै के िविकरण को काश
कहते ह, काश का मूल कण फ़ोटान होता है , काश की
मुख िवमाय िन वत है ,

१• ती ता जो काश की चमक से स त है

२• आवृ ि या तरं ै जो काश का रं ग िनधा रत करती है ।

अब सु िनये होता यह है जब सू य का काश हमारे वायु मंडल म


वे श करता है तो उसम उप थत धु ल गै सािद के अणु ओं से
टकराकर चारों ओर िबखर जाता है इन िबखरे ए काश
िकरणों म छोटी तरं गदै वाले बै गनी, आसमानी और नीला रं ग
ादा िबखरते है , जबिक इनकी अपे ा ल ी तरं गदै वाली
काश िकरण कम िबखरती है , यही तीनों रं ग हमारी आँ खों तक
सबसे ादा प ँ चते ह, इन तीनों रं गों का िम ण नीले रं ग के
स श बनता है , इस कारण आकाश हम नीला िदखता है , और
ामी जी इसम ा चुितयापंित िलखी ं ह वह आपके सामने है ,

P- 369
स ाथ काशा गत दशम् समु ास खं डनं ार ते

इस समु ास को िलखते समय ामी जी अपनी बु न जाने


कहाँ रखकर भू ल गये , यह पूरा समु ास पर र िव बातों
से भरा आ है पहले तो ामी जी ने इसम शू ों के हाथ का
पका भोजन खाना िलखा और िफर बाद म शू ों के हाथ का
खाने को मना िकया, यहाँ तक की मनु ों का मां स खाना भी
िलखा है , शोक हे ऐसी बु पर, ऐसा बावला इं सान तो मने
आज तक नही ं दे खा, िजसे अपने िलख िक कोई सु ध नही ं िक
ा अंड सं ड िलख जा रहा है , वो घंटा दू सरों का मागदशन
करे गा, सो आइए अब आपको दयानंद की वो गपडचौथ
िदखलाते ह

स ाथ काश दशम समु ास पृ १११,

❝जो अित उ दे श हो तो सब िशखा सिहत छे दन करा दे ना


चािहये ोंिक िशर म बाल रहने से उ ता अिधक होती है और
उससे बु कम हो जाती है । डाढ़ी मूँछ रखने से भोजन पान
अ े कार नही ं होता❞

समी क-- वाह रे भं गेडानंद वाह बस यही दो बात िलखना शेष


रह गया था, सो वह भी पुरा कर िदया, िथयोसोिफकल सोसायटी
जैसी ईसाई िमशनरी सभा से ीती का असर साफ िदख रहा है
तु ारी सोच भी िब ु ल ईसाइयों जैसी ही है िब ु ल सफाचट,
धम, कम, सं ार सब धो ड़ाला, जैसे तु म स ासी होकर िशखा

P- 370
डाढ़ी मूँछ नही ं रखते वै से ही तु म चाहते हो सब हो जाएं , अब
यिद तु मको कोई वे दिन क भी कह तो उसका कहना अनुिचत
नही ं होगा, भारत म भी लगभग छः महीने से अिधक उ ता
रहती है , तो िफर साफ िलख दे ना था िक छ: महीने को डाढ़ी
मूँछ, सर के बाल के साथ चूिटया तक मुंडवा दो, खास कर
अपने चैलों को तो तु म यही आ ा करते हो िक तु म लोग
ईसाइयों की भां ित िशखा सिहत िसर के बाल मुंडवा िदया करों
ोिक अ िधक गम से बु कम हो जाती है , पर ु तु ारी
इस स ाथ काश को दे खकर िविदत होता है िक तु मने यह
पु क ज र सर पर ऊनी व बां धकर या िफर भ ी म सर
घुसेड़कर िलखी ं होगी, तभी बु हीनता की इतनी बात िलखी है ,
चलों डाढ़ी मूँछ का तो तु मने यह कारण बताया िक इससे
खानपन अ ी कार नही ं हो पता, पर ु िशखा से ा हािन
होती है ? वह तो खान पान म बाधा नही ं डालती, िफर िशखा
उड़ाना ों िलखा? जैसी तु ारी हरकत है उसे दे खकर तो यही
समझ म आता है िक तु ारे मन यह भय होगा िक कभी िकसी
से िववाद हो गया तो लड़ाई म कोई तु ारी या तु ारे चैलों की
चुिटया पकड़ कर सु त न द लेिकन तु मने यं अपनी सं ार
िविध म िशखा सू का धारण करना िलखा है अब यिद िशखा
रखने से बु कम होती है तो िफर िशखा सू का सं ार िविध
म धारण करना थ ही िलखा है , िफर य ोपवीत भी धारण
करना थ है तो यह सं ार उडाकर वे द पर भी हडताल फेर
दी होती, तु यह ने सू झी की यिद डाढ़ी मूँछ म उ लग
गया तो ा वह पानी से नही ं धु ल सकती, या तु म इतने बड़े वाले
आलसी हो िक भोजन करने के प ात मूहँ भी नही ं धोते, और
जब िशखा ही उडा दी, तो जरा अब अपने उस लेख को याद
करों जो तु मने पंच महाय िविध के पृ ५ पर यह िलखा है िक

P- 371
“इसके अनंतर गाय ी मं से िशखा को बांध कर र ा करे ”
अब जब तु मने िशखा ही उडवा दी तो भला िशखा बां ध कैसे?
और जब तक िशखा नही ं बां धते तब तक तु ारे कथनानुसार
र ा कैसे होगी? इसिलए तो कहता ँ िक ामी जी को अपने
िलख िक ही सु ध नही ं कब ा िलखा और कब ा? उ यं
नही ं पता, ामी जी की यह स ानाश काश पर र िव
बातों से भरी ई ह, यह िसफ ामी जी का ढ़ोग है , यह आय
को करने को ढ़ं ग चलाया है ोंिक आय के यह दो ही
िवशेष िच है िशखा और सू सो ामी जी ने यही िमटने को
यह लोप लीला चलाईं है , इस कारण दयानंद की यह बात मानने
यो नही,ं स ास आ म म िव होने के समय को छोड़ और
िकसी भी समय िशखा का ाग नही ं करना चािहए यही वे दों की
अ ा है

स ाथ काश दशम समु ास पृ १९८,

❝अिधि ता वा शू ाः सं ारः ु ः।

यह आप का सू है , आय के घर म शू अथात् मूख ी
पु ष पाकािद से वा कर, आय के घर म जब रसोई बनाव तब
मुख बां ध के बनाव, ोंिक उनके मुख से उ और िनकला
आ ास भी अ म न पड़े ❞

समी क-- अब इस धू त दयानंद की बु को ा कह? अपनी


आदत से मजबू र दयानंद ने यहाँ भी अथ का अनथ ही िकया है
थम तो कोई इस दयानंद से यह पूछे िक कोई भी बु मान
मूख ी पु ष को रसोई बनाने का काम ों दे गा?
जबिक रसोई बनाना भी काफी चतु राई का काय है , रसोइये भी

P- 372
केवल वही ं लोग रखते ह जो धनवान है और धनी लोगों के घरों
म िविवध कार के ं जन बनते ह जो केवल चतु र और िनपुण
लोग ही बना सकते ह ोंिक ाचीन समय म भोजन आिद
बनाने का काय भी केवल उ ी ं लोगों को िदया जाता था जो
सू पशा ािद जानते थे, मने तो आज तक नही ं सु ना िक रसोई
बनाने को िकसी ने मूख रख हो, और जो मुख ी पु ष को
रसोई बनाने का काम िदया तो वो िनि त ही अपने ल णानुसार
कुछ न कुछ मूखता अव करे गा, भला िनबु और मुख ी
पु ष िज िसखाय कुछ भी न आए वह रसोइ कैसे बना सकते
ह? और धनी लोगों के घरों म तो िविवध कार के ं जन बनते
ह भला मूख ी पु ष कैसे बना सकगे ? वे दािद शा ों म कही ं
भी यह नही ं िलखा और न ही कभी सु ना है िक ि जों के घर म
शू रसोई बनाव, यह तो ामी धू तानंद जी की लीला है जो
ि जों के घरों म शू ों को रसोई करना िलखते ह और जो सू ाथ
दयानंद के ही अनुसार कर तो इसका यह अथ होता है िक
'आय के यहाँ शू सं ार करने वाले' अथात झाडू, पोछा
करना, बतन माजना, कपड़े धौना से वािद सं शोधन के काय शू
करते थे , और अब भी यह काय कहारािद करते ही ह पर ु
भोजन बनवाकर खाना ऐसा तो इस सू म कोई श नही ं
िलखा, इसिलए दयानंद का यह कथन अस िस होता है

स ाथ काश दशम समु ास पृ १९८,


❝िज ोंने गुड़, चीनी, घृत, दू ध, िपशान, शाक, फल, मू ल खाया उ ोंने
जानो सब जगत् भर के हाथ का बनाया और उ खा िलया❞

समी क-- ामी जी के इस लेख से ा तीत होता है यही िक


सब जात के हाथ का भोजन करने से सब सं सार एक जात हो

P- 373
जाएं , पहले चुिटया कटवाई और अब सब जाित एक बनाईं यह
तो दयानंद का गु अिभ ाय था िक मु म, ईसाई, चां डालािद
सबको एक ही कर दे ना चािहए ोंिक गु ड़, चीनी ायः सब ही
खाते ह तो सब ही हो गए और िफर तु मने ही दशम
समु ास के पृ १९८ पर यह िलखा है िक ❝शू ों के पा म
तथा उनके घर का अ आपातकाल के िबना कभी न खाव❞

अब कोई इस भं गेडानंद जी से यह पूछे िक गु ड़, चीनी, घृतािद


खाने से जब सब एक ही हो गए, तो िफर शू के यहाँ खाने म
ा दोष रहा ? वाह रे भं गेडानंद यही तो तु ारी बु है कही ं
कुछ िलखा तो कही कुछ और अपने ा िपने की बात यहाँ न
िलखी ं

स ाथ काश दशम समु ास पृ १९९,

❝और म , मां साहारी े िक िजन का शरीर म , मां स के


परमाणु ओं ही से पू रत है उनके हाथ का न खाव❞

समी क-- ामी जी की बु का ा कह दे खए पहले तो


यं ही िलखा िक “िज ोंने गु ड़, चीनी, घृत, दू ध, िपशान,
शाक, फल, मूल खाया उ ोंने जानो सब जगत् भर के हाथ का
बनाया और उ खा िलया”और अब मले ों के हाथ का
खाने का िनषेध करते ह, ध है ामी भं गेडानंद जी आपकी
बु , यिद मले ों का शरीर म , मां स के परमाणु ओं ही से पूण
है , तो शु भी तो मां स खाते ह, िफर मले ों के हाथ के भोजन
म जो दोष िलखा, ा वह दोष शू ों के हाथ का भोजन करने म
नही ं लगता? शोक है ऐसी बु पर कही ं तो भं ग के नशे म कुछ
िलखा और कही ं कुछ इसी से तो कहता ँ िक ामी जी म

P- 374
बु की ब त कमी थी, और ामी जी ने यहाँ अपने बारे म न
बताया, ामी जी यं मले ों के हाथ का खाते िपते थ
“िथयोसोिफकल सोसायटी” जैसी ईसाई िमशनरी सभा ामी
जी िजसके अहम सद ों म से थे, इस ईसाई िमशनरी सभा के
सं थापकों कनल आ ाट, मैडम ैवाट ी जैसे ईसाइयों के
साथ ामी जी का ितिदन का उठना बै ठना, चाय ना ा,
भोजनािद होता ही था, तो ा मले ों के हाथ का व उनके
साथ खाने से यह दोष उनपर नही ं लगता?

स ाथ काश दशम समु ास पृ २००,

❝यह राजपु षों का काम है िक जो हािनकारक पशु वा मनु


हों उ द दे व और ाण भी िवयु कर द।

( ) िफर ा उन का मां स फक द?

(उ र) चाह फक द, चाह कु े आिद मां साहा रयों को खला दे व


वा जला दे व अथवा कोई मां साहारी खावे तो भी सं सार की कुछ
हािन नही ं होती िक ु उस मनु का भाव मां साहारी होकर
िहं सक हो सकता है ❞

समी क-- ध हे ामी जी तु ारी बु , ामी जी ने यहाँ


मनु ों का मां स खाने खलाने की प रपाटी िनकाली है , कोई इस
दयानंद से यह पूछे िक ा कही ं मनु भी खाये जाते ह?
ामी जी ने जो अपने आ च रत म द रया से मृत शव
िनकालकर चाकू से चीरने फाडन की बात ीकारी है उसका
कारण नाड़ी च का परी ण नही ं ब हो सकता है ामी
जी को भू ख लगी हो सो ऐसा काम िकया हो, ोिक ामी जी
अपने इस लेख म मां साहारीयों को मनु का मां स खाना िलखते

P- 375
है और कहते ह िक ऐसा करने से सं सार की कुछ हािन नही ं
होती, िहं सक जीव शेर, िचता, भे िडया आिद का मां स तो कोई
मनु नही ं खाता और मनु का मां स भी मनु नही ं खाते
इसिलए यह दोनों बात बु के िव है , और मां साहारी जीव
कु े आिद तो मां स खाते ही यह सबको पता है पर ु कु े आिद
मां साहारी जीव भी मनु का मां स नही ं खाते , जो उ मनु ों
का मां स या अ जीवों का मां स खलाते है तो मां स खाने से
उनका भाव और अिधक िहं सक होगा और मनु का मां स
खलाने से मनु का खुन उनके मूहँ लग जाएगा िजससे वो
िहं सक हो मनु ों को हािन प ँ चाएं गे इससे तो सं सार की हािन
ही होगी, और जब मां स खाने से मनु ों का भाव मां साहारी
होकर िहं सक हो सकता है तो इससे सं सार की हािन कैसे नही ं
होती इससे तो सं सार की ब त बड़ी हािन है , ामी जी ने यह
मां सिविध भी आलौिकक िलखी ं ह, एक का मां स दु सरे को
खलाकर जीव का भाव िहं सक बनाने और मां साहार को
बढ़ावा दे ने की िविध िलखी ं ह, जीव िहं सा और मां स भ ण यह
धम का अंग नही ं होने से वे द िव है , इस कार के वे द
िव लेख िलखने से ही दयानंद की बु का पता चलता है ।

स ाथ काश दशम समु ास पृ २००,


❝( ) एक साथ खाने म कुछ दोष है वा नहीं?

(उ र) दोष है , ोंिक एक के साथ दू सरे का भाव और कृित नहीं


िमलती, जैसे कु ी आिद के साथ खाने से अ े मनु का भी िधर
िबगड़ जाता है वैसे दू सरे के साथ खाने म भी कुछ िबगाड़ ही होता है ❞

समी क-- जब साथ भोजन करने मा से भाव कृित आिद


म अ र पडता है तो भला शू िजनका शरीर म , मां स के

P- 376
परमाणु ओं ही से पू रत होता है यिद वह भोजन बनावे गा तो
उसके हाथों से आटा िमडना आिद होने से ा भाव म
िवकृित नही ं होगी िब ु ल होगी, इसी कारण तो कहते ह िक
ामी जी ने यह पु क भारी भं ग के नशे म िलखी है तभी तो
कही ं कुछ और कही कुछ िलखा है , इसे तो यं अपने िलख िक
ही सु ध नही,ं तभी तो पहले पृ १९८ पर, शू के हाथों का बना
भोजन खाने को िलखा िफर आगे अपने ही िव खंडन करते
ए डं के की चोट पर शू ों के हाथ का खाने का िनषेध िकया है ,
दे खए ...

स ाथ काश दशम समु ास पृ २०१,


❝( ) मनु मा के हाथ की पकी ई रसोई के खाने म ा दोष है ?

(उ र) दोष है , ोंिक िजन उ म पदाथ के खाने पीने से ा ण और


ा णी के शरीर म दु ग ािद दोष रिहत रज वीय उ होता है वैसा
चा ाल और चा ाली के शरीर म नहीं, ोंिक चा ाल का शरीर
दु ग के परमाणुओं से भरा आ होता है वैसा ा णािद वण का नहीं,
इसिलये ा णािद उ म वण के हाथ का खाना और चा ालािद नीच
भंगी चमार आिद का न खाना❞

समी क-- कदािचत दयानंद ने यह समु ास मले ों के हाथ


का भोजन करक िलखा हो तो कोई आ य नही ं ोिक यह पुरा
समु ास पर र िव बातों से भरा आ है दे खए थम तो
पृ १९८ पर, शू के हाथ का भोजन करना िलखा तो कही ं
सबको एक जाित करने का आशय झलकाया तो कही ं मनु ािद
का मां स भ ण करना िलखा है , पर अंत म स बात ही मुख से
िनकली, अपने पूव िलख लेखों का खंडन करते ए दयानंद यं
िलखते ह िक शू ों के हाथ का भोजन नही ं करना चािहए ोंिक

P- 377
नीच के हाथ का भोजन करने से उनके शरीर की दु ग ािद से
भोजन हािन और रोगकारक होकर भाव को िबगाड़ता है ,
इसी कारण ि जों को नीच म , मां साहारी िजन का शरीर म ,
मां स के परमाणु ओं ही से पू रत है उनके हाथ का न खाना
चािहए, दे खए मनु मे भी िलखा है -
ना ा ू प ा ं िव ान ा नो ि जः।

आददीताममेवा ादवृ ावेकराि कम्॥३॥ ~मनु ृित [अ० ४,


ोक २२४]

अथात िव ान ि जों को शू ों के पा एवं उनके हाथ का पका


भोजन न करना चािहए, और जो कही ं आपदा आन पड़ी हो और
भोजन न िमलता हो तो एक िदन के िनवाह मा क ा अ
(क ा सीधा दाल आटािद) ले लेव।

यहाँ भी यही िविदत होता है िक िवपि के समय आव कता


पड़ने पर एक िदन के िनवाह मा क ा सीधा जैसे दाल
आटािद ले लेव, पर ु शू के हाथ का पका भोजन नही करना
चािहए
॥इित स ाथ काशा गत दशम् समु ास खंडनम् समा म्॥

P- 378
P- 379
िजन भड़वे समािजयों का उ े सनातन धम ं थों के
उदाहरणों को गलत सं दभ म ु त करते ए- धम के न जानने
वालों के बीच म का भाव उ कर उ धम के माग से
िवमुख करना है सनातनधिमयों को अपमािनत करना व उ
नीचा िदखाना, धम िवरोधीयों की सहायता करना आिद ह, उनके
िलए स ेम --------------

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)


पूषणं विन ठु ना ाही थूलगुदया सपा गुदािभिवह्लुत
आ ैरपो व ना वृषणमा ा ां वािजन गं शेपेन
जा ं रे तसा चाषान् िप े न दरान् पायुना
कू ा किप ै ः॥ ~यजुवद {अ ाय २५, मं ७}

दयानंद अपने यजुवदभा म इस मं का अथ यह िलखते ह


िक---

हे मनु ों! तु म मां गने से पुि करने वालों को थूल गु दि यों के


साथ वतमान, अंधे सप को गु दि यों के साथ वतमान िवशेष
कुिटल सप को आं तों से , जलों को नािभ के नीचे के भाग से ,
अंडकोष को आं डों से , घोडे के िलंग और वीय से सं तान को,

P- 380
िप से भोजनों को, पेट के अंगो को गु दि य और श यों से
िशखावटों को िनरं तर लेओ।ं

समी क-- अब कोई इन िनयोग समाजीयों से यह पूछे िक उ


दयानंद ारा िकये गये अिधकां श मं ो के ऐसे अथ अ ील ों
नही ं लगते ? और जब इस वे द ऋचा की ही भां ित इ अ
सनातनी धम थों मे कोई ुित या ोक िदख जाता ह तो
अपनी बु अनुसार ही उसके अथ का अनथ कर आ पु षों
ारा रिचत ं थों का अपमान करते है और उ ा सनातनधिमयों
और उनके शा कारों को-- धू त, िनशाचर, पाखंडी, नीच और
न जाने िकतनी गािलयाँ दे ते ह,

तो अब िनयोग समाजी हम बताए िक दयानंद के इन भा ों के


बारे म उनकी ा राय है ? दयानंद ारा िकया यह अथ उ
अ ील लगता है या नही।ं

१• दयानंदी हम बताए िक अंधे सप को गु दा म घुसाने और


कुिटल सप को आं तों से ले ने की आ ा ा ई र ने दे ता ह?

यिद दे ता है तो समाजी िदन म ये िकतनी बार लेते ह?

२• दयानंदी हम बताये अंधे कुिटल सप और अ के िलंग


को गु दा व आं तों म िनरं तर लेते रहने के पीछे का िव ान
समझाए .

३• दयानंदी गु दा व आं तों म अंधे कुिटल सप एवं अ के


िलंग को िनरं तर लेते रहने की िवशेष यु का खुलासा कर,
ोिक दयानंदीयों के सप के साथ इस कृ की क ना करके
भी, हमारी समझ से तो बाहर ह िक सप को ये िकस यु से
वे श दे ते होंग ?

P- 381
४• सप को गु दि य म लेने की आव कता ा ह?
गु दि य आनंद ही अगर अपेि त ह, तो सप के समान आकार
वाली अ व ु ओं का िवक भी तो है न आपके िलए? और
यिद लेते समय साँ प घबराकर आपको अंदर या बाहर से काट
लेव, तो वै के पास जाकर ा कहोग अभागों?

५• और अंधा सप ही ो? आँ ख वाले सप से ा गु दि यों


को नजर लगने का भय ह?

६• अथ मे आता ह िक - "अंडकोष को आं डों से िनरं तर


लेओं" अब दयानंदी पहले तो अंडकोष और आं डों के बीच का
अंतर बताय, और िफर ये बताय िक अंडकोष से आडों को िकस
कार िलया जा सकता ह?

उिचत होता यिद दयानंदी गु आ ा का पालन करते ए ामी


जी की ही गु दा म दो चार अंधहीन सप छोड़ दे ते, और ामी जी
को िनरं तर अ का िलंग हण कराते रहते , तब जाकर कही ं
गु आ ा का फल कट होता,

अब कोई अनाय समाजी ये न कह िक इसका मतलब ये नही ं है ,


वो नही ं ह, फलाना ह, तो िढमाका ह ... ोिक यही बात जब
हम आप लोगों को समझाते ह तो बु और िववे क को एक
तरफ रखकर आप लोग केवल श ों को ही पकड़ के बै ठे रहते
हो,

दे खये दयानंद स ाथ काश के ादश समु ास म


महीधरािद पर अ ील भा करने का आरोप लगाते ए
िलखते ह-- “हां! भांड धू िनशाचरवत् महीधरािद टीकाकार ए
ह, उन की धू ा है; वेदों की नही ं”

P- 382
ा यह बात इस भडवे दयानंद पर लागू नही ं होती? िब ु ल
होती है , अत: पाठकगणों से िनवे दन है िक वो इस बात को
समझ की दयानंद ने जो ये अ ील भा िकया है वो इस भां ड
धू िनशाचरवत् दयानंद की धू तता है , वे दों की नही,ं दे खये इस
ुित का सही अथ इस कार है

शंका समाधान-

"इस मं म आ ित ारा, पाचन सं बंधी िविभ अंगों म


उप थत िभ -िभ श यों को उनसे सं बंिधत दे वों की
स ता के िलए समिपत िकया गया है सभी की श याँ दे व
योजनों के िलए समिपत हो, ऐसा जानकर रोगमु थ
जीवन की ाथना की गई है , यह एक आदश सं गठना क िव ा
है , दे खए ा कहता है ये मं --

पूषणं विन ठु ना ाही थूलगुदया सपा गुदािभिवह्लुत


आ ैरपो व ना वृषणमा ा ां वािजन गं शेपेन
जा ं रे तसा चाषान् िप े न दरान् पायुना
कू ा किप ै ः॥ ~यजुवद {२५/७}

(पूषणं विन ठु ना थूलगु दया)- थूल आं तों व गु दा, पाचन सं बंधी


अंगों का भाग पूषण दे वता के िलए, हे पूषण दे व हमारे पाचन
तं सं बंधी अंगों को थ कर शरीर की ािधयाँ उसी कार
दू र कर, िजस कार, (अ ाहीन सपान)- अंधहीन सप आपने
बां बी से दू र िनकल जाते है , (गु दािभिवह्लुत आ ैरपो)- और हे
िव त दे व गु दा से सं बंधी अ ािधयों को दू र कर हम
रोगमु थ जीवन दान कर, इस कार (व ना)- व
भाग जल के िलए, (वृ षणमा ा ां )- अंडकोशों की श वृ षण
दे व के िलए, (वािजनं)- उप थ की श वाजीदे व के िलए,

P- 383
(रे तसा)- िवय जा की र ा के िलए, (चाषान् िप ेन)- िपत चाष
दे व के िलए, ( दरान् पायु ना)- आं तों का तृ तीया भाग सरदे वों
के िलए, (कू ा किप ै ः)- तथा शकिप ों को कू दे व
की स ता के िलए समिपत करते ए रोगमु , थ जीवन
की कामना करते ह,

और भां ड दयानंद ने इसके अथ का ा अनथ िकया है , वो


आप लोगों के सामने है ,

तो मेरे नवीन समाजी भाईयों आगे बढ़ और दयानंद की थुत पर


चार जूते मारकर भां ड दयानंद ारा िकए गए इन अ ील
भा ों का िवरोध कर....

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)


शादं द र् अवकां द मू लैर् मृ दं ब स् तेगा म्ं ा ाम्ं
सर ा ऽ अ िज ं िज ाया ऽ उ ादम् अव े न तालु
वाजम्ँ हनु ाम् अप ऽ आ ेन वृषणम् आ ा ाम्
आिद ाम्ँ ुिभः प ानं ू ां ावापृिथवी वत ां
िवद् युतं कनीनका ाम्ं शु ाय ाहा कृ ाय ाहा
पायािण प ा ् अवाया ऽ इ वो वायािण प ािण पाया ऽ
इ वः॥ ~यजुवद {अ ाय २५, मं १}

दयानंद अपने यजुवदभा म इस मं का अथ यह िलखते ह


िक---

"हे अ े ान की चाहना करते ए ानी जन! ,,,,,,,,,//////


(आ ा ाम्)- वीय को अ े कार धारण करनेहारे आ ों से ,
(वृ षणम् )- वीय वषानेवाली अंग {िलंग} को, ( ुिभ:)- मुख के

P- 384
चारों ओर जो केश, अथात डाढ़ी उससे ,,,,,,,,, /////वे पदाथ
अ े कार हण करने चािहए

समी क-- िदन रात जहाँ तहाँ अ ीलता ढु ढने वाले


दयानंदीयों तु दयानंद ारा िकए ये अ ील भा नजर ों
नही ं आत, तु ारे दयानंद ने तो अपनी अ ील बु से ई रीय
ान वे दों को भी अ ील बना िदया,

१• दयानंदी बताय िक ा ई र मनु ों को यही उपदे श


करता है जैसे िक दयानंद ने इस ुित का अथ िकया है ?

२• दयानंदी बताय िक दयानंद अपने भा ारा आ ों,


वीय वषाने वाले अंग िलंग और डाढ़ी से ऐसा कौन सा ई रीय
ान बाँ ट रहा है ?

३• दयानंदी बताय यिद यह ई रीय अ ा है तो दयानंद के


भा ानुसार वे िलंग एवं आ ों को अपने मुख के चारों ओर
िदन म िकतनी बार हण करते है ?

४• दयानंदी आ ों, एं व िलंग को मुख के चारों ओर हण


करने की िवशेष यु के साथ साथ उसके िपछे का वै ािनक
रह समझाए,

५• दयानंदी बताय िक वे मुख के चारों ओर केवल पु षों के


आ ों एवं िलंग को हण करते ह या िफर गधे घोड़े आिद
पशुओं का भी हण करते ह,

६• दयानंदी बताय िक वह इस कृ को ितिदन दोहराते


ह या िफर समाज के िकसी वािषक उ व पर?

हम यह भलीभाँ ित जानते ह िक इन धू त समाजीयों के पास इन


ों का कोई उत् तर नही ं है , और ना ही वह इसका उ र दे ना

P- 385
चाहगे , यह समाजीयों के दय म तीर की तरह चुभ रहे
होंगे, ोिक आज से पहले उ ोंने दयानंद के यह भा नही ं
पढे होग, ोिक उ दू सरों की िनंदा करने से फुसत ही कहाँ
है जो दू सरों से पहले एकबार िन क्ष भाव से दयानंद ारा
िकये इन अथ को पढ लेते तो तु र समाज का ाग कर दे त,
दयानंद ने वे दभा के नाम पर िसफ अथ का अनथ ही िकया
है , इन ुितयों का अथ ऐसा िबलकुल नही ं है , दे खये-

अ मेध य के अ गत वन ित याग एवं कृत् आ ितयों


के म म िवशेष आ ितयाँ दान िक जाती है , इस आ ित म
ािणयों के िविभ अंगों म थत श यों को दे व योजनों के
िलए समिपत िकया जाता है , अ मेध य रा सं गठन के अथ म
यु है , यह आदश सं गठना क िव ा है , सु िनये इस ुित का
अथ यह है िक--

दां तों की श से शाद दे वता को, दं तमूल से अवका दे वता को,


दां तों के प भाग से मृद दे वता को, दाढ़ों से ते गदे वता को, िज ा
के अ भाग से सर ती को, एवं िज ा से उ ाद दे वता को
स करते ह, तालु की श से अव दे वता को, ठोढी हे
अन् न दे वता को, मुख से जल दे वता को स करते ह, वृ षणों से
वृ षण दे वता को, दाढी से आिद ों को, भौं से प दे वता को,
पलक लोमों से पृ ी एवं द् यु लोक को, तथा आँ ख की पुतिलयों
से िवद् यु त् दे वता को स करते ह, शु एवं कृ दे व
श यों के िनिम यह आ ित समिपत है , ने ों के नीचे एवं
ऊपर के लोमों से 'पार' एवं 'अवार' दे वश यों को स करते
ह।

अब दयानंदी बताय िक इस ुित का जो अथ दयानंद ने िकया है


उसम यह अ ील श कहाँ से आ गये , इस ुित से दयानंद

P- 386
का िकया क त और अ ील अथ िकंिचत् मा भी स
नही ं रखता, जबिक दयानंद का िकया यह अथ अ ील के साथ
साथ िनरथक भी है , दयानंद के इन अ ील भा ों का कोई
आशय ही नही ं िनकलता, ा दयानंदीयों को दयानंद ारा िकये
यह अ ीलभा नजर नही ं आते , या दयानंद के भा पढने से
पहले इस भा ानुसार मुहँ और आँ खों म टोपा ले लेते हो िजस
कारण तु यह अ ीलभा िदखाई नही ं पड़ते , यिद ऐसा है
तो कुछ और बात है दयानंद की बात आने पर शायद कान म
भी ले लेते होगे िजससे तु सु नाई भी न पडता होगा, बु मान
यं िवचार ा यह दयानंदीयों का दौगलापन नही है , जो
है उन दयानंदभा ों पर तो इनकी बोलती बं द हो जाती है
और जहाँ नही ं िदखता वहाँ अपना वही पुराना रं d! रौना रोते है
िक फला ं थ म अ ीलता है तो इस ं थ म अ ीलता है
इसिलए यह हम मा नही,ं अबे तो तु पूछता ही कौन है ?
कौन कहता है िक तु म इ मानों जी करता है तो मानों नही ं
करता है तो मत मानों पर कम से कम यह अपना रं d! रौना तो
बं द करों

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -३)


यजुवद अ ाय १९, मं ७६, भां ड दयानंद ने इस मं के अथ
का जो अनथ िकया है , वो तो िकसी को बताने यो भी नही,ं इस
कार का अ ील लेख या तो आपको से ी उप ासों म या
िफर दयानंद ारा िल खत कामशा म ही पढने को िमल
सकता है , दे खए ा िलखता है ये भां ड--

P- 387
रे तो मू ं िव जहाित योिनं िवशद् इ यम् । गभ
जरायुणावृत ऽ उ ं जहाित ज ना। ऋतेन स म् इ यं
िवपानम्ँ शु म् अ स ऽ इ े यम् इदं पयो ऽमृ तं
मधु॥ ~यजुवद {१९/७६}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ िलखते ह िक--

"जैसे पु ष का िलंग ी की योिन म वे श करता आ, वीय को


छोडता है , और इससे अलग मू को छोडता है , इससे जाना
जाता है िक शरीर म मू के थान से पृथक थान म िवय रहता
है "

समी क-- वाह रे ! वे दभा के नाम पर कामशा िलखने


वाले कामानंद, ा कहने ते रे! तु झ को ऐसी-ऐसी अ ील बात
िलखने म तिनक भी ल ा और शम न आई, िनपट अ ा ही बन
गया, यह जो तु ने िलखा है िक (जैसे पु ष का िलंग ी की योिन
म वे श करता आ, वीय को छोडता है और इससे अलग मू
को छोडता है , इससे जाना जाता है िक शरीर म मू के थान से
पृथक थान म िवय रहता है ) भला यह अथ तु मने कौन से पदों
से िलया है , भला इसम कौन सा ई रीय ान छूपा है ? ा
तु ारे इस भा से पूव मनु ों को इसका ान न था िक शरीर
म मू और िवय पृथक पृथक थान म रहते है , शोक हे ! ते री
बु पर, ा तु मने ई रीय ान को इतना तु और अ ील
जान रखा है ? दे खये इस ुित का अथ ऐसा िब ु ल नही ं जैसा
तु मने अपनी अ ील बु अनुसार िकया है , सु िनये इसका सही
अथ इस कार है िक--

"िजस कार गभ अपनी र ा के िलए यं को जरायु म आवृ त


करता है , पर ु ज के प ात उसे िवदीण कर उसका

P- 388
प र ाग कर दे ता है , जैसे एक ही माग से िभ िभ पदाथ (मु
एवं वीय) िन:सृ त होते ह लौिकक स इसी स का प है , यह
अ प सोम, िविश साधन, बल, अ , ते ज, इ य सामाथ,
दु ािद पेय और मधू र पदाथ को हमारे िनिमत दान करता है ,

यह इसका अथ है और दे खये इस कामानंद ने इस वे द ुित के


अथ का ा अनथ िकया है ा दयानंद को ऐसा अ ील अथ
करते तिनक भी ल ा न आई? उसने एक बार भी यह नही
सोचा की िजन वे द ऋचाओं को ई रीय वचन कहा जाता है , उन
वे द ऋचाओं का ऐसा अ ील अथ करने पर िव ान लोग उ
ा कहगे ? िजन वे दों का थान सं सार की सभी पु कों म
थम आता है , इस कामानंद ने उनका अ ील भा कर लोगों
से घृणा करवायी है , जबिक यही दयानंद वे दों के अ ील भा
करने का आरोप लगाते ए स ाथ काश के ादश समु ास,
म महीधरािद टीकाकारों को भां ड, धू त और िनशाचरवत् बोलते
है , पर ु उ ोंने ख़ुद वे द ऋचाओं का अथ अ ील के साथ
िनरथक भी कर डाला,

पाठकगण! ंय िवचार करक बताए, वे दभा के नाम पर


अंतवासना िलखने वाले इस दयानंद को ा कहना उिचत
रहे गा? और सु िनये आगे इसी अ ाय म मं ८८ का अथ करते
ए िलखते है , िक--

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -४)


मु खम्ँ सद् िशर ऽ इत् सतेन िज ा पिव म् अि नास ्
सर ती । च ं न पायुर् िभषग् अ वालो व र् न शेपो
हरसा तर ी ॥ ~यजुवद {१९/८८}

P- 389
दयानंद इसका अथ अपने यजुवदभा म यह िलखते ह िक—
“हे मनु ो! जैसे िजससे रस हण िकया जाता है वह वाणी के
समान ी, इस पित के सु र अवयवों से िवभ िशर के साथ
िशर कर तथा मुख के समीप पिव मुख कर इसी कार
गृ हा म के वहार म ा ी पु ष दोनों ही वत तथा जो
इस रोग से र क वै और बालक के समान वास करने का हे तु
पु ष उप थे य (िलंग) को बल से करनेहारा होता है वह
शा करने के समान वतमान मे स ानो ि का हे तु होवे उस
सबको यथावत करे ”

लेिकन बाद म ामी जी ने सोचा होगा िक उनके िनयोगी चैल


उनके इस अथ को समझ न सकगे इसिलए अपने िश ों के
वा े अथ को थोड़ा और आसान बनाने के िलए ामी जी
भावाथ म यह िलखते ह िक--

ी पु ष गभाधान के समय मे पर र िमलकर ेम से पू रत


होकर मुख के साथ मुख, आँ ख के साथ आँ ख, मन के साथ मन,
शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गभ का धारण कर
िजससे कु प और िवकलां ग स ान न होवे ,

लेिकन ामी जी की अ ील बु यही न िक, दयानंद


अपने इसी कामशा का िव ार से वणन करते ए स ाथ
काश के चतु थ समु ास म अपने लाडले िश ों के िलए
फरमाते है िक--

“जब वीय का गभाशय म िगरने का समय हो उस समय ी


और पु ष दोनों थर और नािसका के सामने नािसका, ने के
सामने ने अथात् सू धा शरीर और अ स िच रह, िडग
नही।ं पु ष अपने शरीर को ढीला छोड़े और ी वी ा

P- 390
समय अपान वायु को ऊपर खीच
ं े , योिन को ऊपर सं कोच कर
वी का ऊपर आकषण करके गभाशय म थत करे , प ात्
दोनों शु जल से ान कर”

समी क-- वाह रे ! इस कामशा के बनाने वाले, ा कहना


ते रा? दयानंद के इस भा को पढ़कर यह कह पाना मु ल है
िक दयानंद वे दभा िलख रहा था या िफर कोई अंतवावसना,
या िफर दयानंद ने ई रीय ान को इतना तु और अ ील
समझ रखा है जैसा इस भां ड के भा ों से कट हो रहा है ,

जहाँ तक गभाधान िविध का है , यह तो एक ाभािवक


ि या है , इसे तो न केवल अनपढ़, गवार मनु जानता है ,
ब पशु-प ी भी जानते है , पशु-पि यों को कौन से ‘शा ों
का ान होता ह? उ भला कौन यह सब िसखाता ह? इस
कारण दयानंद का िकया यह अथ अशु है वे दों म ऐसी बात
कही नही ं है , यह िश ा करने को तो मनु िनिमत साधारण
पु क ही काफी है इसिलए इस वे द ुित का यह अथ नही ं है ,
िक ु इसका अथ यह है िक—“इ दे व के इस िवराट शरीर म
मुख और म कस से पिव है मुख म थत िज ा स
वाणी और स ाद से पिव है , दोनों अ नीकुमारों और दे वी
सर ती के ारा इन अंगों के सं चालन से पिव ता ा ई,
च पायु इ य ई, और बाल शारी रक दोषों को बाहर
िनकालने वाले िभषक् (उपचारकता प) ए, और व तथा
िवय से जननि य ई। इस ुित म तो शरीर के िविभ अंगों की
सृ ि िकस-िकस कार ई यह कथन िकया है और इससे पूव
और बाद के मं ों म भी यही कथन िकया है ”

यह इसका अथ है जबिक दयानंद का िकया अथ इससे कुछ भी


स नही ं रखता, ने जाने ामी कामानंद ने यह कपोल

P- 391
क तअ ील अथ िकन पदों से िनकाला है , इस वे द ुित म
ऐसा कोई पद नही ं िजससे ामी कामानंद जी का िलखा
क त अथ िस होता हो, दयानंद ने इस कार का अ ील
अथ िलखने से पूव एक बार भी यह न सोचा िक िव ान लोग जब
इसे दे खगे तो उनके बारे म ा सोचगे , भला ई रीय ान भी
इतना तु हो सकता है ा? ा यही वे द िव ा है ा यही
वे दों का सार है ? दयानंद ने इन वे द ऋचाओं के अथ का जो
अनथ िकया है ऐसा तो कभी िकसी ने भी नही ं िकया होगा,

मुझे यह समझ म नही ं आता इन समाजीयों को दयानंद ारा


िकये यह अ ील भा नजर ों नही ं आते , ों उनकी ि
दयानंद के इन भा ों पर नही ं पडती? यह धू त समाजी ों नही ं
दयानंद के इन भा ों का िवरोध करते ह? यह तु ारा
दौगलापन नही तो और ा है ? जब दे खों जहाँ तहाँ अ ीलता
ढू ं ढते िफरते हो यहाँ तु है तो भी तु ारे ने ों से िदखाई
नही ं पडता, इन िनयोगी द ों का दौगालपन तो यही िस हो
जाता है , दे खये थम तो ामी कामानंद जी अपने लाडले
िश ों को गभाधान का उपदे श इस कार करते है िक-- ( ी
पु ष गभाधान के समय मे पर र िमलकर ेम से पू रत होकर
मुख के साथ मुख, आँ ख के साथ आँ ख, मन के साथ मन, शरीर
के साथ शरीर का अनुसंधान करके गभ का धारण कर, इस
कार गभधारण करने से कु प और िवकलां ग स ान उ
नही ं होती,

और िफर आगे इसी के िव यजुवद अ ाय २८, मं ३२ का


भा करते ए िलखा है िक--

P- 392
(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -५)
होता य त् सुरेतसं ारं पुि वधनम्ँ पािण िब तं पृथक्
पुि म् इ ं वयोधसम् ।

ि पदं छ ऽइ यम् उ ाणं गां न वयो दधद् वे ्


आ होतर् यज॥ ~यजुवद {२८/३२}

इसका अथ ामी कामानंद जी ने अपने यजुवदभा म यह


िलखा है िक--

"हे मनु ों! जैसे बै ल गौओं को गािभन करके पशुओं को बढ़ता


है , वै से गृ ह थ लोग ीयों को गभवती कर जा बढ़ाव"

{नोट-- स ाथ काश थम सं रण म दयानंद ने िलखा है


िक एक बै ल से हजारों गै यां गभवती हो जाती है यहाँ वही
अिभ ाय है या और कुछ?}

अब दयानंद के इन भा ों पर ि डाल तो दयानंद ने यहाँ दो


कार की गभाधान िविध का खुलासा िकया,

(पहला)-- ी पु ष पर र िमलकर ेम से पू रत होकर मुख


के साथ मुख, आँ ख के साथ आँ ख, मन के साथ मन, शरीर के
साथ शरीर का अनुसंधान करके गभ का धारण कर,

(दू सरा)-- जैसे बै ल गौओं को गािभन करके पशुओं को बढ़ता


है , वै से समाजी लोग अपनी ीयों को गभवती कर जा बढ़ाव"

अब दयानंद के भा ानुसार ही दयानंदी बताय िक भला इन


दोनों िविधयों म से गभाधान की कौन सी िविध सही है ?

बु मान लोग यं िवचार ा धू त दयानंद की मूखता यही


िस नही हो जाती, भला ई रीय ान इतना तु और उट

P- 393
पटां ग हो सकता है ा?, िब ु ल नही,ं दरअसल यह िम ा
अर् थ ामी कामानंद जी के कपोल भं डार से िनकल है , यही तो
दयानंद के भं ग की तरं ग है भं ग के नशे म जो भी अंड सं ड मुहँ
म आया बक िदया, जो मन म आया सो िलख िदया,

ामी कामानंद जी को तो अपने िलख िक ही खबर नही ं ा


अंड सं ड िलख जा रहे ह, भला ामी जी के यह कपोल क त
अथ िकन पदों से िस होते है , इस ुित म तो ऐसा कोई पद ही
नही ं िजससे ामी जी का कथन िस होता हो, भला यह कौन
सा ई रीय ान है िक "जैसे बै ल गौओं को गािभन करके पशुओं
को बढ़ता है , वै से सब लोग अपनी ीयों को गभवती कर"?, यह
हमारी समझ से तो बाहर है , इससे ही पता चलता है िक ामी
जी को सं ृ त की िकतनी समझ रही होगी, दयानंद ने वे दभा
के नाम पर िसफ अनुिचत िश ा िदखा कर लोगों से घृणा
करवाईं है , इसिलए िव ानों को दयानंद का िकया यह अथ
अशु जानकर ागने यो है , इस वे द ुित का यह अथ
िक ी ं पदों से िस नही ं होता, िक ु इसका अथ यह है िक--

“ि होता ने ि पदा छं द, इ यश िसं चन करने वाली गौ


( ाणवधक िकरणों) एं व आयु को धारण करते ए, उ ादन
श से स , िविभ ािणयों को पोषण दे ने वाले, पुि को
धारण करने वाले े ादे व एवं आयु बढ़ाने वाले इ दे व का
यजन िकया, ा एवं इ दे व हिव का पान कर, हे होता! तु म
भी इसी कार य करों”

यह इसका अथ है और दयानंद ने इस वे द ुित के अथ का


कैसा अनथ िकया है वह आपके सामने है

P- 394
दरअसल यह अथ ामी जी ने खास अपने िश ों के िलए तै यार
िकया है , दयानंद जी अपने भा ानुसार अपने लाडले िश ों को
यह उपदे श करते ह िक जैसे बै ल गाय को गािभन करता है उसी
कार तु म अपनी-अपनी ीयों को करों, पर ु दयानंदी अभी
उस तरीके से काम नही ं लेते, दयानंदीयों को चािहए िक गु
आ ा का पालन करते ए, आज से ही मनु से पशु बनकर
बै लों की भां ित अपनी-अपनी यों को गभवती कर जा को
बढावे और यिद तु म से न हो सके तो समाज से बाहर िकसी
अ पु ष की सहायता से अपनी ीयों को गौओं की भां ित
गािभन करवा जा को बढ़ावे , यह िनयोग नामक पशुधम ामी
जी ने इसी के अथ चलाया है , इसिलए पशुओं की ही भां ित
अपनी यों को जब कभी िकसी परपु ष के पास िनयोग के
िलए भजे तो उसे समझा दे िक जैसे बै ल गौओं को गािभन करता
है वै से ही वह तु ारी ी को गािभन कर जा को बढ़ावे , तब
जाकर कही ं गु आ ा का फल कट होगा और दयानंद के
लाडले िश पुरे वै िदक कहला सकगे , अ था नही,ं और
सु िनये ,

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -६)


सूप था ऽ अ दे वो वन ितर् अभवद् अि ां छागे न
सर ै मे षेणे ाय ऽऋषभेणा ँ ान् मे द ः ित
पचतागृभीषतावीवृध पुरोडाशैर् अपुर् अि ना
सर ती ः सु ामा सुरासोमान्॥ ~यजुवद {२१/६०}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

P- 395
“हे मनु ों! ाण और अपान के िलए दु :ख िवनाश करने वाले
छे री आिद पशु से , वाणी के िलए मढ़ा (मढक) से , और परम
ऐ य के िलए बै ल से भोग कर”

ामी कामानंद जी अपने इस भा ानुसार अपने लाडले िश ों


के िलए फरमाते है , िक यिद कोई दयानंदी हमेशा दु खी रहता
हो, हमेशा परे शानीयों से िघरा रहता हो, तो वो दु :ख के िवनाश
के िलए छे री (बकरी) आिद पशु के साथ भोग िकया कर,

और यिद िकसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे


तु तलापन हो, गला बै ठ गया हो या िफर ज से गूं गा आिद हो
तो ऐसे समाजी, वाणी के िलए मढ़ा (मढक) से भोग िकया कर,

और परम ऐ य की कामना रखने वाले सभी दयानंदी परम


ऐ य के िलए बै ल से भोग िकया कर,

वाह! दयालु हो तो ऐसा, दे खये ामी जी ने िकस यु से


अपने लाडले िश ों का धन बचाया है , भारतवष म अब तक
लोग यह िशकायत िकया करते थे िक यहाँ िववाहों म धन
अिधक खच होता है , लेिकन आज तक कोई इसका व ोव न
कर सका, पर ु ामी जी ने यु के साथ वह व ोव भी
कर िदया, अब दयानंदीयों को न तो खच करने की ज रत और
न ही िववाह करने की ज रत, दोनों आव कताएँ िमट गई,
ोिक दयानंदी अब अपने वे दभा ों के िव ी के साथ
भोग ही नही ं करगे , जब इ ा होगी िकसी बकरी, मढे या िफर
बै ल के साथ भोग कर िलया करगे,

इसके अलावा एक और अ ाय हो गया वह यह िक हमारे


दयानंदी भाई तो बै ल से भोग कर परम ऐ य वाले हो जायगे ,
और उनसे िभ मत वाले हमेशा गरीब ही रहगे , ोिक इनके

P- 396
हाथ तो िक त की चमचमाती छडी लग गई जहाँ जरा सी भी
स ि घटी िफर बै ल के साथ भोग कर लगे और इनसे िभ
मत वाले इस िन त घृणा मु कम कर न सकगे , और हमेशा
गरीब ही रहगे , इसके िवपरीत समाजी ऐ यवान होते जायगे
िफर चाहे कोई रोजगार कर या न कर,

मुझे इस बात का बड़ा सं देह हो गया िक हमारे दयानंदी भाई


उिचत अनुिचत जो कुछ भी दयानंद िलख गये यह सबको स
ही मानते ह, अब आप सोिचये िक इस कार की उट पटां ग बात
िलखने वाले दयानंद की बु कैसी रही होगी? और सु िनये ,

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -७)


ाण े पा पान े पािह ान े पािह च ु म ऽ उ ा
िवभािह ो े ोकय।

अपः िप ौषधीिज ि पादव चतु ात् पािह िदवो


वृि मे रय॥ ~यजुवद {१४/८}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

ी पित से और पित अपनी ी से कह िक-- “हे ी! तू मेरे


नािभ के नीचे गु हे य माग से िनकलने वाली अपान वायु की
र ा कर”

समी क-- ध हे ! ामी िनब धानंद जी तु ारी बु , इस


वे दभा को मानने वाले दयानंदीयों से मेरा यह है िक ा
इतना कहते कुछ ल ा न आवगी?

और वह ी गु हे य माग से िनकलने वाली वायु की र ा कैसे


करे गी?

P- 397
साथ म यह भी है िक यह र ा रोज रोज होती है या िफर
आय समाज के िकसी वािषक उ व पर?

यिद यह र ा रोज होती है तो दयानंदी लोग अपने गृ ह थािद


काय िकस कार करते ह ोंिक यिद गृ ह थ काय म
होने के दौरान ही गु हे य माग से वायु िनकल जाये तो हमारे
दयानंदी उसकी र ा करने से चू क जायगे , तो लो अब सब काम
धाम छोड़ गु हे य माग से िनकलने वाली वायु के िनकलने की
ती ा करों, समाजी ी अपने पित की और समाजी पु ष
अपनी ी के गु हे य माग की तरफ टकटकी लगाकर बै ठे
रहे , जाने कब िनकल जाय

ध है ऐसे भा कार और ध है ऐसे भा ों को मानने वाल


अ से पैदल समाजी, और सु िनये

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -८)


वाचं ते शु ािम। ाणं ते शु ािम। च ु स् ते शु ािम। ो ं
ते शु ािम। नािभं ते शु ािम। मे ढं ते शु ािम। पायुं ते
शु ािम। च र ाम्ँ स् ते शु ािम॥ ~यजुवद {६/१४}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

“हे िश ! मै ते री वाणी, ने , नािभ, िजससे “मू ो गािद” िकये


जाते ह उस “िलंग” को, ते रे “गुदे य” को शु करता ँ ”

ामी कामनंद जी इस वे दभा म अपने लाडले िश ों को


उपदे श करते ए िलखते है िक गु को चािहए िक अपने िश
के िलंग और गु दा को शु कर, ध हे ! ऐसा भा कार, भा
हो तो ऐसे , इनके भा ों म तो महापाप भी धम है ,

P- 398
मै दयानंदीयों से पूछना चा ँ गा ा दु िनया की स जाितयाँ इस
भा को पढ़कर छी छी नही ं करे गी, दयानंद को ऐसा अ ील
भा करते ए ल ा न आई, ये सब िलखने से पूव दयानंद ने
यह नही सोचा िक िव ान लोगों की ि जब उनके इस अथ पर
पडे गी तो वे उनके बार म ा सोचगे ,

म दयानंदीयों से ही पूछना चाहता ँ िक यह सतिश क स ूण


िव ाओं का भं डार वे द ह या िफर िकसी िभचारी िश क ारा
िलखा कामशा ,

हमारे दयानंदी भाई कहते ह िक हमारा मत वे द ह और हम


केवल दयानंद कृत वे दभा ही मा ह, दे खये ये है इनके
वे दभा और ये है इनकी स ता, दयानंद का वे दभा पढ़ने
बै ठों समझ म नही ं आता िक वे द पढ़ रहे ह या िफर िकसी
िभचारी पु ष ारा िल खत कामशा ,

िजस भारतवष की पावन भू िम पर आयभ , वराहिमिहर,


गु , बोधयन, चरक, सु ुत, नागाजुन, और कणाद आिद
जैसे महािव ान उ ए, उसी भारत भू िम पर दयानंद जैसा
धू त भी उ आ, िजन वे दों का थान िव की थम पु कों
म आता है िज सब सतिव ाओं का भं डार कहा गया है उसी
वे द के नाम पर दयानंद ने अनुिचत िश ा िदखलाकर लोगों को
घृणा करवाईं है लेिकन यह याद रहे िक इन मं ों के यह अथ
हिगज नही ं यह ामी जी की गढ़ है यह दयानंद वे दभा है
जो उ ोंने अपनी अ ील बु अनुसार कर है , इस कारण यह
मानने यो नही ं और िज ोंने यह अथ िकये ह, वह महिष ा?
महामूख कहलाने यो भी नही,ं और ऐसे मूख को महिष
कहना, महिष श की इ त उतारना है ,

P- 399
न भेदी जाितवादी “दयानंद”

॥पैदाइशी चुितया करण॥

हमारे दयानंदी गपोिड़ये अ र एक बात कहते नही ं थकते िक


दयानंद ने समाज म ा सामािजक कुरीितयों पर आ मण
करते ए, जाितवाद का िवरोध िकया, तथा कम के आधार पर
वे दानुकूल वण-िनधारण की बात कही, वे दिलतो ार के प धर
थे, इसी कार के और न जाने ा ा गपोड़े मारते है , सो
आज इस लेख के मा म से म इन सब बातों का खंडन कर,
दयानंद की िजहादी िवचारधारा से आप लोगों को अवगत
कराना चाहता ँ , िजससे यह िस हो जाये गा िक दयानंद
दिलतो ार के प धर नही ं ब दिलतो ार के घोर िवरोधी थे,
समाज म ा सामािजक कुरीितयों न भे द जाितवाद आिद
को बढ़ावा दे ने वाले ामी दयानंद ही थे, जो यं दयानंद के ही
ारा िलखे वे दभा और लेखों से िस होता है दे खये --

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)


अ ये पीवानं पृिथ ै पीठसिपणं वायवे चा ालम्
अ र ाय वम्ँ शनितनं िदवे खलितम्ँ सूयाय हय ं
न े ः िकिमरं च मसे िकलासम् अ े शु ं िप ा म्ँ
रा ै कृ ं िप ा म् ॥ ~यजुवद { ३०/२१}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक---

P- 400
“हे परमे र वा राजन् !आप, (हय म्)- ब र की सी छोटी
आँ खों वाले शीत ाय दे शी मनु ों को,,,,,,, (िप लम् )- पीली
आँ खोवाले को उ कीिजये,,,,,, (चा ालम् )- भं गी को,
(खलितम् )- गं जे को,,,,,, (कृ म् )- काले रं गवाले, (िप ा म्))-
पीले ने ों से यु पु ष को दू र कीिजये”

ामी जी अपने इस अथ की पुि के िलए भावाथ म श ों


म िलखते ह िक—“भं गी के शरीर से आया वायु दु गधयु होने
से से वन यो नही ं इस कारण उसे दू र भगाव”

समी क-- वाह रे ! इस कपोल क त वे दभा के िलखने


वाले, वे दों के नाम से अनैितक िश ा कर लोगों से घृणा कराने
वाले भडवानंद ा कहने ते रे! तु झको ऐसा िम ा अथ करते
तिनक भी ल ा वा शम न आयी, यह भी न सोचा िक जब
िव ान जन तु ारा यह अथ पढ़गे तो तु ारे बारे म ा सोचगे,
ा यही ई रीय वचन है ? इस वे द ुित म यही कथन िकया है ?
जब सं ृ त तु ारी बु से परे है , तो भला ों वे द मं ों के
अथ का अनथ करते हो, तु ारे ारा िकया यह क त अथ
िक ी ं पदों से िस नही ं होता, दे खों इसका सही अथ यह है
िक--

अ ये पीवानं पृिथ ै पीठसिपणं वायवे चा ालम्


अ र ाय वम्ँ शनितनं िदवे खलितम्ँ सूयाय हय ं
न े ः िकिमरं च मसे िकलासम् अ े शु ं िप ा म्ँ
रा ै कृ ं िप ा म् ॥

(अ ये )= अि के समीप काय करने के िलए, (पीवानम्)=


बलवान पु षों को, (पृिथ ै )= पृ ी के िलए, (पीठसिपणम्)=
आसन पर बै ठकर काय करने वाले पु षों को, (वायवे)= ते ज

P- 401
वायु वाले थान के िलए, (चा ालम् )= चंड श वाले पु ष
को, (अ र ाय)= आकाश थत अथात ऊंचाई वाले काय के
िलए, (वं शनि नम् )= बाँ स पर कलािद िदखाने वालों को, (िदवे)=
द् यु लोक के िलए, (खलितम् )= आकाश थ गोिलय िपंड़ों की गित
को जानने वाले खगोलिवद पु षों को, (सू याय)= सू य के िलए,
(हय म्)= ह रत वण वाले, (न े ः)= न ों के िलए,
(िकिमरम्)= धवल वण के जानने वाले िवदजनों को, (च मसे )=
च स ी भावों के िनवारण हे तु, (िकलासम्)= िकलासिवद
जनों को, (अ े )= िदन के काय के िलए, (शु म् )= े त रं ग के,
(िप ा म्)= पीले ने ों वाले, तथा (रा ै)= राि के िलए,
(कृ म् )= काले रं ग वाले, (िप ा म्)= पीले ने ों से यु
पु षों को िनयु करना चािहए।

यह इसका अथ है , इस ुित म सब कार के ाणीयों, जो


िजसके यो है उससे वह काय ल ऐसा इस ुित म कथन िकया
है , इससे इसम िकसी का अनादर नही ं दे खा जाता और जबिक
इसी ुित का ामी िनब धानंद जी ने कैसे अथ का अनथ िकया
है वह आप सबके सामने है , दयानंद का यह भा पढ़कर इस
बात म कोई सं देह नही ं रह जाता िक दयानंद पैदाइशी ितया है ,
दयानंद का यह भा इस बात की पुि करता है , अब यहाँ
िव ान लोगों को यं दयानंद के इस अथ पर एक ि ड़ालकर
यह दे खना चािहए िक थम तो दयानंद ने अपने इस अथ म यह
िलखते ह िक "हे परमे र वा राजन् ! आप (िप ालम् ) पीली
आँ खवाले को उ कीिजये " और िफर यं ही उस पदाथ के
अ म ऊपर िलखी बात के िव यह िलखते ह िक "हे
परमे र आप, (िप ा म्) पीले ने ों से यु पु ष को दू र
कीिजये"

P- 402
अब यहाँ बु मान जन यं िवचार िक एक ही मं म दो
पर र िव बातों का िलखना, ा दयानंद की बु पर
िच नही ं लगाता? ा ई र इस कार की पर र िव
बातों से भरा उपदे श मनु ों को कर सकता है ? कदािप नही,ं
इस मुखानं द ने तो अपने इस भा से ई र तक को कं ूज
कर िदया होगा, िफर साधारण मनु ों की तो बात ही ा
करनी, अब यह बात तो हमारे दयानंदी भाई ही बता सकगे , की
दयानंद के इस भा ानुसार ई र को ा करना चािहये, वह
पीले ने ों वाले मनु ों को उ कर या ना कर! और सु िनये ,

अपने इसी भा म दयानंद जी आगे िलखते ह िक “हे परमे र!


आप, (हय म्)- ब र की सी छोटी आँ खों वाले शीत ाय दे शी
मनु ों को, (चा ालम् )- भं गी को, (खलितम्)- गं जे को,
(कृ म् )- काले रं गवाले, (िप ा म्))- पीले ने ों से यु पु ष
को दू र कीिजये”

अब यहाँ िव ान लोग िवचार िक भला ई र भं गी, गं जे, काले रं ग


वाले, पीले ने ों वाले और छोटी आँ खों वाले, मनु ों को दू र ों
कर, इनसे सं सार की कौन सी ऐसी हािन हो गई जो ई र इनको
दू र कर, इन सबने ामी जी का ऐसा ा िबगाड़ िदया जो
ामी जी इनकी भडास अपने वे दभा ों म िनकाल रहे ह, भला
ई रइ दू र ों कर कोई कारण तो िलखा होता, ा यह सब
मनु मनु की सं तान नही?ं या िफर इनकी सृ ि ई र ारा
नही ं ई, भला ई र ऐसा ों करने लगे , िज यं ई र ने ही
उ न् न िकया वह उ दू र ों करगे ?

हाँ दयानंद ज र ऐसा सोचते होंगे, शायद उ ऐसे पु ष अ े


न लगते हो, िजसे उ ोंने अपने वे दभा के मा म से िलखकर
उनके ित मन म भरी घृणा को जगजािहर िकया है , और

P- 403
भावाथ म तो यह तक िलख िदया िक “भं गी के शरीर से
आया वायु दु गधयु होने से से वन के यो नही ं इसिलए उ
दू र भगाव” अब दयानंदी ही बताय िक यिद दयानंद के
भा ानुसार भं गी को िसफ इस कारण दू र कर द ोिक उसके
शरीर से दु गधयु वायु आती है , तो ा उनके बदले यह काय
करने दयानंद का बाप आये गा, इससे िस होता है िक समाज
म ा कुरीितयों न भे द, जाितवाद आिद को बढ़ावा दे ने
वाले दयानंद ही है और वही अनैितक िश ा दयानंद ने अपने
वे दभा ों से अपने लाडले िश ों के िलए िलखी ं ह, और सु िनये

इस भा म ऊपर दयानंद ने यह िलखा है िक “हे परमेश्वर!


आप, (हय म्) ब र की सी छोटी आँ खों वाले शीत ाय दे शी
मनु ों को दू र भगाव”

यह ामी जी ने ा िलख िदया, ऐसी शारी रक रचना तो


िवशेषकर ित त आिद दे श के मनु ों की होती है और ामी
जी स ाथ काश के अ म समु ास म यह िलखा है िक
उनकी और उनके पूवजों की सृ ि ित त म ई थी, और इस म
बसने से पूव ामी जी और उनके िनयोगी चैले ित ती थे,
इससे यह िस आ िक यह ब र की सी छोटी आँ खों वाले
मनु दयानंद तथा आय समाजीयों के पूवज ए, और अपने ही
पूवजों के िलए दयानंद यह िलखते ह िक परमे र उ दू र
भगाव, ध हे ! दयानंद की बु िजसे अपने मत की अपने
िलख िक ही सु ध नही,ं िक ाउ सू िलख िदया यं को
खबर नही,ं दरअसल यह दयानंद के भं ग की तरं ग है भं ग के
नशे म मूहँ म जो अंड सं ड आया बक िदया जो मन म आया सो
िलख िदया, भला ऐसे भं गेडी के बातों का ा माण? और
सु िनये --

P- 404
(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)
मू धा वयः जापितश् छ ः। ं वयो मयंदं छ ः। िव ो
वयो ऽिधपितश् छ ः। िव कमा वयः परमे ी छ ः। व ो
वयो िववलं छ ः। वृ र् वयो िवशालं छ ः। पु षो वयस्
त ं छ ः। ा ो वयो ऽनाधृ ं छ ः। िसँहो वयश् छिदश्
छ ः। प वाड् वयो बृ हती छ ः। ऽ उ ा वयः ककुप्
छ ः। ऽ ऋषभो वयः सतोबृ हती छ ः॥ ~यजुवद {१४/९}

दयानंद अपने यजुवद म इसका अथ यह िलखते ह िक--

“हे ी वा पु ष! ( ा :) जो िविवध कार के पदाथ को अ े


कार सूँ घता है , उस ज ु के तु राजा तू,,,,,, (ष वाट् )- पीठ
से बोझ उठाने वाले ऊँट आिद के स श वै तू ,,,,,, (उ ा)-
सीच
ं नेहारे बै ल के तु शू तू , (ऋषभ:)- शी ग ा पशु के तु
भृ तू , (छ ः)- तं ता की ेरणा कर”

समी क-- वाह रे ! इस वे दभा के िलखने वाले गवग


दयानंद ा कहने ते रे, ऊँट के स श वै , बै ल के तु शू
और शी ग ा पपशु के तु भृ (से वक), ध है ऐसा
भा कार और ध है ऐसे भा ों को मानने वाले मुझे समझ
नही ं आता िक ये अथ दयानंद ने िकस िनघंटु से िलए है जहाँ
“(ष वाट् )- पीठ से बोझ उठाने वाले ऊँट आिद के स श वै ,
(उ ा)- सीच
ं नेहारे बै ल के तु शू , और (ऋषभ:)- शी ग ा
पशु के तु भृ ” आिद पदों के यह अथ िलख ह, इस ुित का
यह अथ तो िक ी ं पदों से िसद् ध नही ं होता, िक ु इसका सही
अथ यह है िक--

P- 405
“गाय ी प से जापित ने इ ाश ारा मूध ा ण की
उ ि की, अिन छ से सं र ण-यु ि य का सृ जन
िकया, जगत् को पोषण दे ने वाले परमे र ने छ प हो वै ों
की रचना की, परमे ी िव कमा ने श ारा छ प शु
की उ ि की, एकपाद नामक छ के भाव से परमे र ने
मेष आिद जीवों को उ िकया, पं छ के भाव से मनु
को उ िकया, िवराट छ के भाव से जापित ने ा
आिद को कट िकया, अितजगती छ के भाव से िसं ह को
कट िकया, बृ हती छ के भाव से भारवाहक पशुओं को
उ िकया, ककुप् छ के भाव से जापित ने उ ा जाित
को उ िकया, सतोबृ हती छ के भाव से भालू आिद
पशुओं को उ िकया”

यह इसका अथ है और दयानंद ने इस ुित के अथ का ा


अनथ िकया है वो आपके सामने है और सु िनये िसफ यही नही ं
दयानंद ने राजा तक को पशु तु बताते ए राजा को िकसी
कु े की भां ित समझ िलया है ामी मुखानंद जी िलखते ह िक
( ा :)- जो िविवध कार के पदाथ को अ े कार सूँ घता है
उस ज ु के तु राजा तू , (िसं ह:)- पशु आिद को मारनेहारे
िसं ह के समान परा मी राजा तू ,

अब किहये इससे बड़ी चुितयापंित और ा हो सकती है ? िजस


राजा को जा िपता तु , ई र के ितिनिध के प म दे खती
है , उसे दयानंद िकसी कु े की भां ित सु घने वाला पशु बताते ह,

और इसी कार दयानंद ने अ ाय १६ मं ५२ म भी िलखा ह


िक—“हे (िविक र )- िवशेषकर सू वर के समान सोने वाले,
(भगव:)- ऐ ययु राजन”

P- 406
बु मान िवचार ा राजा को कु े सू वर आिद की उपमा दे ना
ठीक है यं सोचकर दे खए िजस ई र को दयानंद ने यं
अपने वे दभा ों म अनेकों थान पर “राजा” ऐसा कथन िकया है ,
उसी को यहाँ कु े की भां ित सु घने वाला, सू वर के समान सोने
वाला िलखा है इससे समझा जा सकता है िक इस वे दभा के
िलखने वाले दयानंद की बु कैसी रही होगी?

लोगों का तो पता नही ं पर दयानंद का ये भा पढ़कर दयानंद


की शंसा म मेरे मुख से दो वा ज र िनकलते ह िक-- भं ग
के नशे म िवशेषकर सू वर के समान सोने वाले भं गेडानंद, भा
हो तो ऐसा और धू त हो तो ते रे जैसा

शु , वै , भृ (से वक), राजा आिद को पशु तु बताने वाले


दयानंद के िलए ये उपमा िब ु ल सही है

ोिक मेरे िहसाब से ामी दयानंद ने अपने अदभु द ान से


िव भर म फैली गं दगी को उसी कार दू र कर िकया िजस
कार एक सू वर गूँ खाकर समाज म फैली गं दगी को दू र करता
है

और मुझे नही ं लगता िक दयानंदीयों को इससे कोई आपि


होनी चािहए,

यहाँ तक िक दयानंद राजा को िनद ष पशुओं को मारने वाले


िहं सक िसं ह के समान बोलते है ,

भला िनद ष पशुओं की ह ा करने वाला राजा परा मी कैसे


आ?

यहाँ तो दयानंद ने पशुिहं सा को भी धम का अंग बता िदया, वाह


रे भं गेडानंद ते री बु ! तु ारे श ों की कैसी िविच मिहमा है
िजस ई र को अपने वे दभा ों म यं राजा तु िलखा है और

P- 407
यहां उसी राजा को कु े आिद जीवों की भां ित सु घने वाला और
सू वर के समान सोने वाला कथन िकया है , इससे िविदत होता है
िक इस िदन तु मने थम तो लौटा भर कर िपया होगा िफर भा
करने बै ठे होंगे।

P- 408
ामी दयानं द एकादश िनयोग की दे न

सनातन धम से िभ दयानंद ारा चलाए गये वे द िव मतों म


से एक मत है पशुधम नाम से िव ात “िनयोग था” दयानंद ने
अपने तथाकिथत ं थ “स ाथ काश” म लगभग पूरा एक
समु ास इस पशुधम िनयोग पर ही िलखा है , और वे दािद
शा ों के अथ का अनथ कर अपने अनुयािययों के साथ साथ
सम भारतवष को इस महाअधम िभचार िनयोग नामक
अंधकूप म धकेलने का असफल यास िकया है , वे द मनु ृ ित
आिद के अथ का अनथ कर िनयोग िस िकया है िजससे धम
के न जानने वाले लोगों म म की थित उ होती है , सो इस
लेख के मा म से म दयानंद के उन िम ा भा ों की ध यां
उडाते ए, माण के साथ यह िस करक िदखाऊंगा की
दयानंद ारा चलाया यह पशुधम िनयोग वे द िव होने से
मनु ों के िलए िनिष है अथात मनु ों को यह पशुधम ागने
यो है , सो अब एक एक करक दयानंद के उन सभी वे द
िव भा ों का खंडन करते ह िजनके अथ का अनथ कर
दयानंद ने िनयोग िस िकया है सु िनये --

(दयानं द कृत ॠ ेदभा , भा -१)


सोम: थमो िविवदे ग वो िविवद उ रः।

तृतीयो अि े पित ु रीय े मनु जाः॥ ~ऋ० {मं ० १०,


सू० ८५, मं ० ४०}

P- 409
दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

“हे ी! जो (ते ) ते रा ( थमः) पहला िववािहत (पितः) पित तु झ


को (िविवदे ) ा होता है उस का नाम (सोमः) सु कुमारतािद
गु णयु होने से सोम जो दू सरा िनयोग होने से (िविवदे ) ा
होता वह, (ग व:) एक ी से सं भोग करने से ग व, जो (तृ तीय
उ रः) दो के प ात् तीसरा पित होता है वह (अि ः)-
अ ु तायु होने से अि सं क और जो (ते ) ते रे (तु रीयः) चौथे
से लेके ारहव तक िनयोग से पित होते ह वे (मनु जाः) मनु
नाम से कहाते ह | जैसा (इमां िम ) इस म ा म ारहव
पु ष तक ी िनयोग कर सकती है , वै से पु ष भी ारहवी ं ी
तक िनयोग कर सकता है ”

समी क-- ामी जी ने तो ऐसी हठ ठानी है िक अथ का


अनथ कर िदया है इस मंत्र का यह अथ नही ं जैसा िक ामी
िनयोगानंद जी ने िकया है दे खए इसका सही अथ इस कार है
िक--

सबसे ( थम:)= पहले , (सोम:)= सोम, (िववदे )= इस क ा को


ा हो, {अथात क ा के माता िपता सब से पहले तो ये दे ख
िक उसका पित 'सोम' है या नही,ं पित का भाव सौ है या
नही,ं त ात इस क ा को (ग व:)= 'गां वे दवायं धारयित'
ान की वािणयों को धारण करने वाला हो, यह (उ र:)= अिधक
उ ृ होता है , िक{ सौ ता यिद पित का पहला गु ण है तो ान
की वािणयों को धारण करना उसका दु सरा गु ण है , (तृ तीय:)=
तीसरा, (अि :)= गितशील मनोवृ ि वाला हो {अथात ते रा पित
वह है जो आगे बढ़ने की वृ ि वाला हो }, (तु रीय:)=चौथा,
(मनु जा:)= वह मनु की सं तान हो, {अथात िजसम मानवता

P- 410
हो, िजसका भाव दयालुता वाला हो ू रता वाला नही}ं , (ते )=
ते रा, (पित:)= पित है

भाव यह है िक—“क ा व उसके माता िपता उसके पित म िन


िवशेषताएं अव दे ख िक पहला तो वह सौ हो सौ ता पित
का पहला गु ण है , दु सरा ग व ान की वािणयों को धारण करने
वाला हो अथात ानी हो, तीसरा गितशील मनोवृ ि वाला हो,
चौथा वह मनु जा मनु की सं तान हो अथात िजसम मानवता
हो िजसका भाव दयालुता वाला हो ू रता वाला नही”ं

इस मं म कही ं भी िनयोग तो ा िनयोग िक गं ध तक नही ं है


पर ु ामी िनयोगानंद जी ने इसके अथ का ऐसा अनथ िकया
िक पूछ मत, अब बु मान लोग एक बार यं ामी जी ारा
िकये भा पर ि डालकर बताए िक दयानंदी लोग ा उसी
ी से िववाह करते ह जो थम एक से िववाह और दो से िनयोग
कर चुकी है ?

ध हे ! यही तो धम और ामी जी की शम है और पूव के


िव यहाँ ही दू सरा िववाह िनकाल िदया,

अब िवचारने की बात है यिद ामी िनयोगानंद जी का िकया


अथ माने तो, न जाने वह पहला िववािहत सोम सं ावाला पित
अपने जीते जी अपनी प ी ग व सं ावाले िनयोगी पित को ों
दे गा? और वह ग व िनयोगी अपने जीते ए अि सं ावाले
िनयोगी पित को ों दे गा? और चौथा ही पित मनु ों
कहाता है ? ा वे िपछले तीन िकसी जानवर की स ान ह?

और तीसरे को ही अि िक सं ा ों? शायद वो हमेशा यह


सोच कर जलता रहता हो िक पहले के समान सु कुमारतािद

P- 411
गु ण और म ों नही ं इ ािद इ ािद। इस कारण दयानंद के
िकये सब अथ है

इसके अित र और भी मं जैसे--

इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु।

दशा ां पु ाना धेिह पितमे कादशं कृिध॥

~ऋ० {मं ० १०, सू ० ८५, मं० ४५}

उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमु प शेष एिह।

ह ाभ िदिधषो वेदं प ु जिन मिभ सं बभूथ॥


~ऋ० {मं ० १०, सू० १८, मं ० ८}

इ ािद मं ों के अथ का अनथ करक िनयोग बनाया है अथात


िनयोग झूठ से िस िकया है , जबिक इन सभी मं ों म कही ं भी
िनयोग की ग तक नही ं है ।

िसफ अपना ाथ िस करने के िलए दयानंद ने वे द मं ों के


साथ कैसा अनथ िकया वह आप सबके सामने ही है , और सु िनये

(दयानं द कृत ऋ ेदभा , भा -२)


इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु।

दशा ां पु ानाधेिह पितमे कादशं कृिध॥

~ऋ० {मं ० १०, सू ० ८५, मं ० ४५}

दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

“हे (मीढ् व इ ) वीय से चन म समथ ऐ ययु फ पु ष !तू इस


िववािहत ी वा िव ा ायों को े पु और सौभा यु

P- 412
कर, इस िववािहत ी म दश पु उ कर और ारहवी ं ी
को मान !हे ी !तू भी िववािहत पु ष वा िनयु पु षों से दश
स ान उ कर और ारहव पित को समझ”

समी क-- ध है ! ामी जी कलयु ग तो िधरे -िधरे आता था


अपने उसे शी वत करने का ढं ग िनकाला, जैसा िक आपने
अपने स ाथ काश म इस ुित के अथ यह िलखा िक "एक
ी चार िनयु पु षों के अथ और दो अपने िलए पु उ
कर ल" यह तो जैसे घर की खेती समझ ली की जब गये पु हो
गया, क ा का कोई नाम ही नही ं बस पु ही पु होंगे, यिद यह
ई र की आ ा है तो ई र स सं क है सबके पु ही उ
होने चािहए क ा एक भी नही,ं बस सारा िनयोग यही समा हो
जाता है , पर ु यह दे खने म नही ं आता तु म तो अपने िम ा
भा ों से ई र को भी झूठा बनाते हो, इसिलए इस ुित का अथ
यह नही ं बनता जैसा तु मने िकया है ब त से लोग िनसं तान भी
होते ह यह िभचार चार मूख िनयोग समाजीयों के साथ साथ
सम भारतवािसयों को घोर अंधकार म डालने वाला है , इसम
वे द मं ों को ों सानते हो? यिद इतनी ही ादा खुजाई मच
रही थी तो कोई अपनी ही िम ा सं ृ त बना लेते, तु ारे चैले
तो उसे भी प र की लकीर मान लेते, दे खए वे दों म ऐसी बात
कभी नही ं होती, यह मं िववाह करण का है जो आशीवाद के
अथ म है और इसका अथ इस कार है िक--

हे (इ )= इ परमए य यु दे व (मीढ:) सवसु खकारी पदाथ


की वृ ि करने वाले , ( म्)= आप, (इमाम्)= इस ी को भी,
(सु पु ाम् सु भगम्)= पु वती धनवती (कृणु)= कर और, (दश)=
दश इसम, (पु ान्)= पु ों को धारण करो, भाव यह है िक दश

P- 413
पु पैदा करने के अ इस ी म थािपत करों, और
(एकादशं)= ारहवां , (पितम्)- पित को, (कृिध)= करों अथात
जीिवत पित और जीिवत पु इसको करों, यह मं आिशवाद के
अथ है , जो ामी िनयोगानंद जी ने कुछ का कुछ िलख िदया है ,
और ामी जी ने यह न सोचा िक यिद एकादश पित पय
िनयोग करने की ई र की आ ा है , तो ई र तो स सं क है
तब तो सब ीयों के दश-दश पु से कम नही ं होने चािहए यिद
दश से कम होंगे तो ई र का सं क िन ल होगा, इससे
ामी जी का िकया अथ अशु है ।

अब िवचारने की बात यह है िक इसम िनयोग चारक कौन सा


श है ? िजस मं मे िनयोग िक गं ध तक नही है ामी
िनयोगानंद जी ने उसे भी िनयोग से जोड िदया, दयानंद जी ने तो
यह समझ िलया िक हमारे अनुयायी हमारे वा ों को प र की
लकीर मानते ह और वे दभा भी हमारा िकया ही मानते ह
इसिलए जो चाहे सो अंड सं ड बकवास िकये जाय, इस िहसाब
से तो तु ारे मत म िकसी के दश से कम पु नही ं होने चािहए
और िजनके दश से कम है वह तु ारे वा ानुसार कुछ िचंता
कर, और दश सं तान म समय िकतना लगे गा यह न िलखा
तु मने। और सु िनये ,

(दयानं द कृत ऋ ेदभा , भा -३)


उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमु प शेष एिह।

ह ाभ िदिधषो वेदं प ु जिन मिभ सं बभूथ॥


~ऋ० {मं ० १०, सू० १८, मं ० ८}

अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

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“हे (ना र) िव े तू (एतं गतासु म) इस मरे ए पित की आशा
छोड़ के (शेषे) बाकी पु षों म से (अिभ जीवलोकम) जीते ए
दू सरे पित को (उपैिह) ा हो और (उदी ्व) इस बात का
िवचार और िन य रख िक जो (ह ाभ िदिधषो:) तु म िव ा
के पुनः पािण हण करने वाले िनयु पित के स ् के िलये
िनयोग होगा तो (इदम्) यह (जिन म्) जना आ बालक उसी
िनयु (प ुः) पित का होगा और जो तू अपने िलये िनयोग
करे गी तो यह स ान (तव) ते रा होगा। ऐसे िन ययु (अिभ
सम् बभू थ) हो और िनयु पु ष भी इसी िनयम का पालन करे ”

समी क-- ामी जी का यह भा पढ़कर ऐसा तीत होता है


िक ामी जी के सर म बु कम गोबर ादा भरा है दे खए,
इधर पित मरा पड़ा है , ी िजसका वह पालक पोषक नाथ था,
उसके शोक म िवलाप करती है , और ामी जी उसी समय
उसको कहने लगे िक इसे छोड़ औरों को पित बना ल, शोक हे !
ऐसी बु पर, ामी जी ने िसफ अपना ाथ साधने के िलए
वे द मं ों के अथ का अनथ िकया है दे खए इसका सही अथ इस
कार है --

हे (ना र)= ी, ते रे पित मृ ु को ा हो चुके ह इसिलए,


(उदी )= उठ और इस, (जीवलोकम् अिभ)= जीिवत सं सार
अपने पु ािद और घर-प रवार का तू ान कर, इस कार
(गतासु म)= गत ाण, (एतम् )= इस पित के, (उपशे ष)= समीप
बै ठ शौक करने का ा लाभ? (एिह)= उठ और अपने घर को
गमन कर, (ह ाभ )= अपने गभ म स ान को थािपत
करने वाले, (तव प ु :)= अपने पित की,(इदं जिन म् )= इस

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स ान को, (अिभ)= ान करती ई, (सं बभू थ)= अपने ा
को ठीक रखने के िलए य शील हो।

अब िवचारने की बात यह है इसम िनयोग चारक कौन सा


श है ? इस मं म तो िनयोग का कुछ भी आशय नही ं
िनकलता, और जबिक उसके पास बालक मौजूद ह िफर भला
उसे इस महाअधम िभचार िनयोग की ा आव कता है ?
अब बु मान यं िवचार की ामी जी ने इसम िकतने मं ाथ
बदले ह और अथ का अनथ कर लोगों को िमत करने का
यास िकया है । और सु िनये ,

(दयानं द कृत ऋ ेदभा , भा -४)


अदे वृ पित ीहै िध िशवा पशु ः सुयमा सुवचाः।

जावती वीरसूदवृकामा ोने ममि ं गाहप ं सपय॥


~अथव० {का० १४, अनु ० २, मं ० १८}

दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

“हे (अपित दे वृि ) पित और दे वर को दु ःख न दे ने वली ी तू


(इह) इस गृ हा म म (पशु ः) पशुओं के िलये (िशवा) क ाण
करनेहारी (सु यमा) अ े कार धम-िनयम म चलने (सु वचाः)
प और सवशा ा िव ायु ( जावती) उ म पु पौ ािद से
सिहत (वीरसू ः) शूरवीर पु ों को जनने (दे वृकामा) दे वर की
कामना करने वाली ( ोना) और सु ख दे नेहारी पित वा दे वर को
(एिध) ा होके (इमम् ) इस (गाहप म् ) गृ ह थ स ं धी
(अि म्) अि हो ा का (सपय) से वन िकया कर”

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समी क-- ामी जी यहाँ भी अथ का अनथ करने से न चूंके,
दे खए इस मं म “दे वृकामा” इस पद से यह अथ िस नही ं
होता िक वह दे वर से भोग करना चाहती है , और जबिक पित है
तो भला वह दु सरे पु ष की इ ा ों करे गी? और कामना
िव मानता म नही ं होती, अिव मानता म होती है , यिद वह दे वर
को पित प म चाहती तो “दे व र पितकामा” ऐसा योग हो
सकता है , सो मं म िकया नही ं इससे िनयोग िस नही ं होता,
िक ु यह ऐसे थान का योग है , िजस ी के दे वर नही ं वह
चाहती है िक यिद मेरे ससु र के बालक हो तो म दे वर वाली
होऊं, ऐसी ी को दे वृकामा कहते ह, जैसे ातृ रिहत क ा म
“ ातृ कामा” यह योग बनता है िक मेरे भाई हो तो म बहन
कहाऊं, ऐसे ही यह दे वृकामा श है इससे िनयोग िस नही ं
होता, अब इसका यथाथ अथ सु िनए--

हे ी तू , (अपित दे वृि )= पित और दे वर को दु ख न दे ने


वाली, (एिध)= वृ को ा हो, अथात दे वर आिद कुटु यों
से िव मत करना, (इह)= इस गृ हा म म, (पशु :)= पशुओं
के िलये , (िशवा)= क ाणकारी, (सु यमा)= अ े कार धम
िनयम म चलने वाली, (सु वचा:)= प गु णयु , ( जावती)=
उ म पु पौ ािद सिहत, (वीरसू :)= वीर पु ों को ज दे ने
वाली, (दे वृकामा)= दे वर के होने की ाथना करने वाली,
( ोना)= सु खनी, (इमम्)= इस, (गाहप म् )= गृ ह थ स ी,
(अि म्)= अि हो को, (सपय)= से वन िकया कर।

यह इसका अथ है ामी जी ने यह नही ं सोचा िक उनका यह


भा और भी कोई दे खेगा तो ा कहे गा? यह िववाह स ी
मं िनयोग म लगाये ह, ध है तु ारी बु , अब यिद तु ारी

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अ ील बु म केवल उ ी बात ही आती है तो सु िनये इस
ुित म कथन है िक--

तदा रोहतु सु जा या क ा िव ते पितम् ॥ ~अथव०


{१४/२/२२}

ोना भव शु रे ः ोना प े गृहे ः।

ोना ै सव ै िवशे ोना पु ायैषां भव॥ ~अथव०


{१४/२/२७}

हे ी तू ससु र, पित और घर के कुटु यों सभी के अथ सु ख


दे ने वाली हो।

अब यिद तु ारा िकया अथ ही सही माने तो यहाँ पित, ससु र


दोनों के िलए ( ोना) पद आया है अथात सु ख दे ने वाली हो एवं
सब ही कुटु यों को सु ख दे ने वाली िलखा है , तो ा जो पित
के सं ग वहार कर, वही सबके साथ कर? यह कभी नही ं हो
सकता पित को और कार का सु ख, और ससु रािद को से वा
आिद से सु ख दे ती है , यह नही ं िक सु ख दे ने से सबके सं ग भोग
के ही अथ हो जाये , इससे ामी जी के िकये सब अथ है
िम ा है ,

इससे यही िस होता है िक ामी का चलाया यह महाअधम


िभचार िनयोग झूठ से िस होता है , इसी कार दयानंद ने
अ ं थों के अथ का अनथ कर िनयोग िस करने का
असफल यास िकया है ,

दयानंदी-- तु म िनयोग को वे द िव कहते हो तो ा जो ये


मनु ृित आिद ं थों म िनयोग कथन िकया है वह सब िम ा है ?

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दे खये ामी दयानंद ने स ाथ काश म मनु ृित से िनयोग
का माण दे ते ए यह िलखा है िक—

“ ोिषतो धमकायाथ ती ोs ौ नरः समाः।

िव ाथ षड् यशोsथ वा कामाथ ी ुव रान् ॥१॥

व ा मे sिधवे ा े दशमे तु मृ त जाः।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥२॥ ~मनु०


{९/७६,८१}

िववािहत ी जो िववािहत पित धम के अथ परदे श गया हो तो


आठ वष, िव ा और कीित के िलये गया हो तो छः और धनािद
कामना के िलये गया हो तो तीन वष तक बाट दे ख के, प ात्
िनयोग करके स ानो ि कर ले , जब िववािहत पित आवे तब
िनयु पित छूट जावे ॥१॥

वै से ही पु ष के िलये भी िनयम है िक व ा हो तो आठव


(िववाह से आठ वष तक ी को गभ न रहै ), स ान होकर मर
जाय तो दशव, जब-जब हो तब-तब क ा ही होवे पु न हों तो
ारहव वष तक और जो अि य बोलने वाली हो तो स ः उस
ी को छोड़ के दू सरी ी से िनयोग करके स ानो ि कर
लेवे॥२॥“

ा इन माणों से िनयोग िस नही ं होता? किहये!

समी क-- यह अथ दयानंद के कपोल भं डार से िनकल है , इन


दोनों ही ोकों म कही ं भी िनयोग तो ा िनयोग की गं ध तक
नही ं है , और यह ा बात ई िक यहाँ पहला ोक तो ९ व
अ ाय का ७६ वां और दू सरा ोक ८१ वां िलखा है और इन
दोनों का दयानंद ने एक ही सं ग लगा िदया, जबिक इनम से

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एक म भी िनयोग तो ा िनयोग की गं ध तक नही ं है , दे खों
इससे पहले यह ोक ह िक--

िवधाय वृि ं भायायाः वसे ायवा रः।

अवृि किशता िह ी दु े थितम िप॥७४॥

िवधाय ोिषते वृि ं जीवेि यममा थता।

ोिषते िवधायैव जीवे ैरगिहतैः॥७५॥

ोिषतो धमकायाथ ती ोऽ ौ नरः समाः।

िव ाथ ष शोऽथ वा कामाथ ी ं ुव रान् ॥७६॥

इसका अथ यह है िक-- जब कोई पु ष परदे श को जाये तो


थम ी के खान पान का बं ध करता जाये , ोिक िबना
बं ध ु धा के कारण कुलीन ी भी दू सरे पु ष की इ ा कर
सकती ह॥७४॥

खान पान की व था करक परदे श जाने के अन र उस पु ष


की ी िनयम अथात पित त से रहकर अपना समय तीत
कर, और जब भोजन को न रहे या पु ष पुरा बं दोब करक न
गया हो तो पित के परदे श होने तक िश कम जो िन त न हो
अथात सू त कातना ह से काढना आिद कम से गु जरा
कर॥७५॥

यिद वह परदे श धर् म काय को गया हो तो आठ वष, िव ा पढने


गया हो तो छ: वष, धन यश को गया हो तो तीन वष तक राह
दे ख, प ात पित के पास जहाँ हो वहाँ चली जाव॥७६॥

अब तु म ही बताओ िक इसम िनयोग की बात कहा से आ गई


और यह हम पहले ही कह चुके ह िक मनु जी इस महाअधम
िनयोग का समथन नही ं करते, ब मनु जी तो इसे पशुधम

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बताते ए, इस महाअधम िभचार िनयोग की घोर िनंदा करते
ह, सु िनये मनु जी िनयोग की िनंदा करते ए मनु ृित म यह
िलखते ह िक--

नो ािहकेषु म ेषु िनयोगः की ते िचत्।

न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ {९.६५}

पािण ाह सा ी ी जीवतो वा मृ त वा।

पितलोकमभी ी नाचरे ं िचदि यम् ॥ {५/१५६}

कामं तु पये े हं पु मू लफलै ः शुभैः।

न तु नामािप गृ ीया ौ ेते पर तु॥ {५/१५७}

आसीता मरणा ा ा िनयता चा रणी।

यो धम एकप ीनां का ी तमनु मम् ॥ {५/१५८}

अनेकािन सह ािण कुमार चा रणाम् ।

िदवं गतािन िव ाणामकृ ा कुलसंतितम् ॥ {५/१५९}

मृ ते भत र साढ् वी ी चय व थता।

गग पु ािप यथा ते चा रणः॥ {५/१६०}

अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते ।

सेह िन ामवा ोित परलोका हीयते॥ {५/१६१}

पितं िह ापकृ ं मु ृ ं या िनषे वते।

िन ैव सा भवे ोके परपूवित चो ते॥ {५/१६३}

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम् ।

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गालयोिनं ा ोित पापरोगै पी ते॥ {५/१६४}
~मनु ृ ित

जो वे द मं िववाह के सं बंध म कह गए ह उसम न तो िनयोग


का वणन है और न ही िवधवा िववाह का॥

अगले ज मअ ा पित पाने की इ ा रखने वाली ी को


इस ज म िववािहत पित की जीवन-अविध म अथवा उसकी
मृ ु हो जाने पर उसे बु रा लगने वाला कोई काय नही ं करना
चािहए॥१५६॥

ी अपने पित की मृ ु हो जाने के प ात फल-फूल और क -


मूल खाकर अपना शरीर चाहे सु खा ले पर भू ल कर भी दू सरे
पु ष के सं ग की इ ा न कर॥१५७॥

पित ता ी को पित के मृ ु के बाद पुरा जीवन मा, सं यम,


तथा चय का पालन करते ए गु जारना चािहए, उसे
सदाचारणी ीयों ारा आचरण यो उ म धम का पालन
करने पर गव करना चािहए॥१५८॥

यिद िकसी ी के पित की मृ ु िबना िकसी सं तान को उ


िकए हो जाए तब भी ी को अपनी स ित के िलए दू सरे पु ष
का सं ग नही ं करना चािहए,॥१५९॥

स ान उ नही करने वाले चारीयों की तरह पित की


मृ ु के बाद चय पालन करने वाली ी पु वती नही होने
पर भी ग ा करती है ॥१६०॥

पु ा की इ ा से जो ी पित त धम को तोड़ कर दू सरे


पु ष के साथ सं भोग करती है उसकी इस सं सार म िनंदा होती
है तथा परलोक म बु री गित िमलती है ॥१६१॥

P- 422
कम गु णों वाले अपने पित का ाग कर जो ी अिधक गु णों
वाले अ पु ष का सं ग करती ह वह इस सं सार म िनंदा का
पा बनती है और दो पु षों की अंकशाियनी बनने का कलंक
लगवाती है ॥१६३॥

पित के िसवाय दू सरे पु ष से सं भोग करने वाली िववािहत ी


इस सं सार म िनंदा का पा तो बनती ही है और मरने के बाद
गीदड़ की योिन म ज लेती ह, वह कोढ़ जैसे अनेक असा
रोगों से पीड़ा पाित है ॥१६४॥

अब कहों ा तु मने और तु ारे इस िनबु दयानंद ने


मनु ृित म यह ोक नही ं दे ख? अव दे ख होंगे पर ु
िलखते कैसे इ ा तो भारतवष की सम ीयों को
िभचारीणी बनाने की थी, भारतवष को इस पशुधम की ओर
धकेलने की थी, और दे खये तु ारे ामी जी ने जो यह दू सरा
ोक िलखा है , (व ा मेsिधवे ा े ०) इसके अथ भी गडबड
िलख ह, सु िनये इसका सही अथ इस कार है िक--
व ा मेsिधवे ा े दशमे तु मृत जाः।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥

पि यिद व ा हो तो आठ वष, बार-बार मृत ब ों को ज


दे ती हो तो दश वष, या केवल क ाओं को ही ज दे ती हों तो
ारह वष उपरा पित दु सरा िववाह करने का अिधकारी है
और यिद पि अि य बोलने वाली है तो पित त ाल दु सरा
िववाह कर सकता है ।

यह इसका अथ है , अब कहों इसम िनयोग की बात कहाँ से आ


गई, भला इसम िनयोग िवषयक ऐसा कौन सा पद है िजससे िक
िनयोग िस होता है , यह िनयोग की बात तु ारे ामी जी के

P- 423
कपोल भं डार से कट ई है , इस कारण दयानंद के िकये सभी
अथ अशु होने से , मानने यो नही,ं

दयानंदी-- तो ा मनु ृित से िनयोग िस नही ं होता?

समी क-- नही,ं और इस बात का माण हम पूव िलख आये


ह।

दयानंदी-- यिद ऐसा मानते हो तो सु िनये , ामी दयानंद जी ने


स ाथ काश के चतु थ समु ास म पुनः मनु ृित से माण
िलखा है िक—

“दे वरा ा सिप ा ा ाया स घ् िनयु या।

जे तािधग ा स ान प र ये ॥१॥

े ो यवीयसो भा ा यवीया ा ज ायम् ।

पिततौ भवतो ग ा िनयु ाव नापिद॥२॥

औरसः े ाज ै ०॥३॥ ~मनु ०{अ० ८, ोक ५८-६०}

(सिप ) अथात् पित की छः पीि़ढयों म पित का छोटा वा बड़ा


भाई अथवा जातीय तथा अपने से उ म जाित थ पु ष से
िव ा ी का िनयोग होना चािहये , पर ु जो वह मृत ीपु ष
वा िव ा ी स ानो ि की इ ा करती हो तो िनयोग होना
उिचत है , और जब स ान का सवथा य हो तब िनयोग होवे ,
जो आप ाल अथात् स ानों के होने की इ ा न होने म बड़े
भाई की ी से छोटे का और छोटे की ी से बड़े भाई का
िनयोग होकर स ानो ि हो जाने पर भी पुनः वे िनयु
आपस म समागम कर तो पितत हो जाय, अथात् एक िनयोग म
दू सरे पु के गभ रहने तक िनयोग की अविध है ”

अब तु म कहों ा इससे िनयोग िस नही ं होता?

P- 424
समी क-- तु म चुितया हो, और तु मसे भी बड़ा चुितया है
तु ारा यह िनबु दयानंद, सु नो तु मने यह ोक तो पढ़े पर
यह जाना िक यह ोक यहाँ िकस स भ म िलखा है , मनु ृ ित
म िलखी ं सब ही बातों को मनु जी का मत जान लेना, इसी से
दयानंद की बु का पता चलता है , सु िनये यह मत मनु जी का
नही ं ब राजा वे न का है िजसे मनु जी अपने ं थ म इस
कारण कथन िकया है ोंिक उस समय राजा वे न के राज म
यह पशुधम िनयोग चलन म था, यह पशुधम राजा वे न ने आरं भ
िकया और उसने िनयोग के जो-जो िनयम चलाए उसे मनु जी ने
अपने ं थ म िलखा है िजससे सब मनु यह बात भलीभाँ ित
समझ सक िक ा धम है और ा अधम? और यह हम पूव
ही िस कर आये ह िक मनु जी इस पशुधम िनयोग के घोर
िवरोधी थे, सु िनये मनु जी, राजा वे न ारा चलाये इस महाअधम
िनयोग की िनंदा करते ए िलखते ह िक--

ातु भाया या गु प नुज सा।

यवीयस ु या भाया ु षा े सा ृता॥ -{९/५७}

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम् ।

सृगालयोिनं चा ोित पापरोगै पी ते॥ -{९/३०}

ना न् िवधवा नारी िनयो ा ि जाितिभः।

अ न् िह िनयु ाना धम ह ु ः सनातनम् ॥ -{९/६४}

नो ािहकेषु म ेषु िनयोगः की ते िचत्।

न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ -{९/६५}

अयं ि जैिह िव ः पशुधम िवगिहतः।

मनु ाणामिप ो ो वेने रा ं शासित॥ -{९/६६}

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स महीम खलां भु न् राजिष वरः पुरा।

वणानां संकरं च े कामोपहतचेतनः॥ -{९.६७}

ततः भृित यो मोहा मीतपितकां यम् ।

िनयोजय प ाथ तं िवगह साधवः॥ -{९/६८} ~मनु ०

छोटे भाई के िलए बड़े भाई की प ी गु प ी तु , और बड़े


भाई के िलए छोटे भाई की प ी पु वधू जैसी होती है ॥

यिद िववािहत ी परपु ष का सं ग करती है तो वह इस लोक


म िन त होती है , और अनेक यौन स ी रोगों से िसत हो
जाती है तथा मृ ु के बाद गीदड़ी के पमज लेती है ॥

ा णािद तीनों वण की िवधवा ी को परपु ष का सं ग नही ं


करना चािहए, दू सरे पु ष का सं ग करने से ी सनातन एक
पित त धम को न करती है और उससे उ सं तान धम का
िवनाश करने वाली होती है ॥

जो वे द मं िववाह के स म कह गये ह, उनम न तो िनयोग


का वणन है और न ही िवधवा िववाह का॥

िनयोग का योग राजा वे न के शासनकाल म अव आ था


लेिकन तब भी िव नों ने इसे पशुधम बताते ए मनु ों के
िलए िनिष बताया था॥

जो राजा वे न स ूण धरती को भोगने वाला च वत स ाट था,


कामवासना के वशीभू त हो उसी राजा ने वणसं कर सं तान
उ करने के दु च (िनयोग) का आर िकया॥

उस राजा वे न के समय से यह रीित चली और जो उसकी मित


मानने वाले लोग शा के न जानने वाले िवधवा ी को

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परपु ष के साथ योजना करते ह, उस िविध को साधु पु ष
िन ा करते ह॥

इससे िस होता है िक यह पशुधम िनयोग राजा वे न ने आर


िकया, और मनु जी िनयोग था के घोर िवरोधी थे, मनु जी ने इस
महाअधम िनयोग की तु लना पशु धम से करते ए इसकी ब त
िन ा की है , जो िव ान लोग ह वे इस बात को भलीभाँ ित
समझते ह, मुझे तो तु ारे ामी जी राजा वे न के ही अवतार
मालूम पड़ते ह, या राजा वे न के भी बाप, दादा या गु क ं तो
गलत नही ं होगा, ोिक उसने तो केवल अपनी ही जाित म
िनयोग चलाया और एक ही सं तान उ करने को कहा, पर ु
तु ारे दयानंद तो सब ही जाित म िनयोग करना और ारह
तक पित बनाने की आ ा करते ह, यह पशुधम दयानंद ने
चलाया जो राजा वे न से ार आ है इससे पता चलता है िक
दयानंद धम के नही ं अधम के फैलाने वाले ह।

अब जबिक वे दािद माणों से यह िस हो चुका है िक िनयोग


झूठ से िस होता है , धमशा ों के अनुसार भी िव नों ने इसे
पशुधम बताते ए मनु ों के िलए िनिष बताया और इस
महाअधम िभचार िनयोग की खुब िनंदा की है , िफर भी न
जाने ों ामी िनयोगानंद जी बार-बार वे दािद ं थों के अथ का
अनथ कर इस पशुधम िनयोग को िस करने का असफल
यास करते ह, इससे मन म शंका उ होती ह िक ामी जी
अपने िपता की ही पैदाइश है या िफर ारह िनयोग की!

P- 427
महिष या िफर महाचुितया

इस लेख के मा म से म आप लोगों के सामने दयानंद कृत


यजुवदभा के कुछ ऐसे भा रख रहा ँ िजसे पढ़कर एक
बार को आप लोगों की बु भी चकरा जाये गी आप लोगों को
यही समझ म नही ं आये गा िक दयानंद के इन भा ों पर हं स,
ोिधत हो या िफर दयानंद की मानिसक थित को लेकर दु ख
कर, इस लेख को िलखने का मेरा उ े िसफ इतना है
िक जो लोग दयानंद को सं ृ त का िव ान समझते ह, उ यह
पता होना चािहए िक दयानंद को सं ृ त तो छोिडये सं ृ त का
'स' भी नही ं आता था, या यह कहे िक उ ोंने सं ृ त की कभी
श तक न दे खी होगी तो कहना गलत न होगा, और जब ऐसा
मंदबु वे दों का भा करने बै ठ जाये तो अथ का िकस
कार अनथ करता है , यह बताने की आव कता नही ं है , वह
आपके सामने ही है दे खये --

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)


होता य द् अि नौ छाग हिवष ऽ आ ाम् अ म तो
मे द ऽ उद् भृतं पुरा े षो ः पुरा पौ षे ा गृभो घ ां नूनं
घासे ऽ अ ाणां यवस थमानाम्ँ सुम राणाम्ँ
शत ि याणाम् अि ा ानां पीवोपवसानां पा तः ोिणतः
िशतामत ऽ उ ादतो ाद् -अ ाद् अव ानां करत
एवाि ना जुषेताम्ँ हिवर् होतर् यज॥ ~यजुवद {२१/४३}

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दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ करते ए अपने
लाडले िश ों के िलए फरमाते है िक--

“हे (होत:) दे नेहारे ! जैसे, (होता) लेनेवाला,,,, (छाग ) बकरा


आिद पशुओं के, (म त:)- बीच से , (हिवष:)- लेने यो पदाथ,
(मेद:)- अथात घी, दू ध आिद,,,,,, (आ ाम्) लेव वा,,,,, (नूनम् )
िन य करक, (घ ाम् ) खाव वा,,,,,, (हिव:) उ पदाथ से खाने
यो पदाथ का,,,,,, (जुषेताम्) से वन कर”

भावाथ म ामी जी िलखते ह िक "जो छाग (अथात बकरा)


आिद पशुओं की र ा कर उनके दू ध घी आिद का अ ी कार
से वन करते ह उनके सब अंग रोग मु हो सु ख को ा करते

समी क-- वाह रे ! स ाथ काश के रचने वाले, वे द ऋचाओं


के अथ का अनथ करने वाले , ा कहने ते रे! (छागस्य) अथात
बकरा आिद पशुओं से िलए दू ध घी आिद का अ ी कार
से वन कर, ध हे ! िनब धानंद ते री बु ,अ ी िश ा िलखी ं ह
अपने लाडले िश ों को बस यही शेष रह गया था, सो भी तु मने
अपने िश ों को कथन कर िदया, अभी तु ारे चेले कम नमूने
थे जो उ नर बकरे का दू ध घी खाना िलख िदया, इस ुित का
अथ िलखने से पूव ज र ामी जी ने (छाग ) बकरे का दू ध
िपया होगा, िजससे उनकी मित हो गई, इसी कारण ामी
जी इस ुित म (छाग ) नर बकरे का दू ध घी खाना िलखते ह,
बकरी का नही ं खास बकरों का, ध हे ! ऐसा भा कार और
ध है ऐसे भा ों को मानने वाले अ से पैदल समाजी, अब
आपको ामी जी की बु के बारे म ा कह? ामी जी ने
इस ुित के अथ का कैसा अनथ िकया है वह आप लोगों के
सामने ही है , ये दयानंदी कहते ह िक हम वै िदक है और हम

P- 429
केवल दयानंद कृत वे दभा ही मा है , हम िजतने भी काय
करते ह उसी के अनुकूल करते ह,

तो म उनसे पूछना चा ँ गा, ा मेरे दयानंदी भाई रोज (छग )


नर बकरे का दू ध, दही, घी आिद खाते ह, यिद नही ं खाते तो वे द
िव करते ह ोिक जब तक ये दयानंद ने भा ानुसार बकरे
का दू ध, घी नही ं खाते , तब तक वै िदक न कहलायगे , और यिद
एक बार को दयानदी खाना भी चाहे तो खायगे कहाँ से , ा
सं सार म बकरे का दू ध, दही, घी आिद होता भी है ? जो ये
खायगे , बकरों का दू ध, घी आिद न तो इस सं सार म कभी आ
है और न ही होगा, ऐसी असं भव िचज के खाने को िलखने से ही
दयानंद की बु का पता लगता है , कोई िकतना ही बड़ा मुख
ों न हो, उसकी बु िकतनी ही घुटनों म ों न हों वह भी
ऐसी िबना िसर की बात न िलखेगा, जैसे ामी ने िलखा है ,
दयानंद के इस भा को पढ़कर ही पता लग जाता है िक ामी
जी ने उस िदन लौटा भरकर िपया होगा, अब बकरे का दू ध
िपया या कुछ और ही पी िलया यह कह पाना मु ल है , और
सु िनये ,

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)


सूप था ऽ अ दे वो वन ितर् अभवद् अि ां छागे न
सर ै मे षेणे ाय ऽऋषभेणा ँ ान् मे द ः ित
पचतागृभीषतावीवृध पुरोडाशैर् अपुर् अि ना
सर ती ः सु ामा सुरासोमान्॥ ~यजुवद {२१/६०}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

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“हे मनु ों! (अि ाम्)- ाण और अपान के िलए, (छागे न)-
दु :ख िवनाश करने वाले छे री आिद पशु से , (सर ै )- वाणी के
िलए, (मेषेण)- मढ़ा से , (इ ाय)- परम ऐ य के िलए, (ॠषभे ण)-
बै ल से , (अ न् )- भोग कर”

ामी जी अपने इस भा ानुसार अपने लाडले िश ों के िलए


फरमाते है , िक यिद कोई दयानंदी हमेशा दु खी रहता हो, जीवन
म िद त परे शानीयाँ ादा रहती हो, तो वो दु :ख के िवनाश के
िलए छे री (बकरी) आिद पशु के साथ भोग िकया कर,

और यिद िकसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे


तु तलापन हो, गला बै ठ गया हो या िफर ज से गूं गा आिद हो
तो ऐसे समाजी, वाणी के िलए मढ़ा (मढक) से भोग िकया कर,

और परम ऐ य की कामना रखने वाले सभी दयानंदी परम


ऐ य के िलए बै ल से भोग िकया कर,

वाह! दयालु हो तो ऐसा, दे खये ामी जी ने िकस यु से


अपने लाडले िश ों का धन बचाया है , भारतवष म अब तक
लोग यह िशकायत िकया करते थे िक यहाँ िववाहों म धन
अिधक खच होता है , लेिकन आज तक कोई इसका व ोव न
कर सका, पर ु ामी जी ने यु के साथ वह व ोव भी
कर िदया, अब दयानंदीयों को न तो खच करने की ज रत और
न ही िववाह करने की ज रत, दोनों आव कताएँ िमट गई,
ोिक दयानंदी अब अपने वे दभा ों के िव ी के साथ
भोग ही नही ं करगे , जब इ ा होगी िकसी बकरी, मढे या िफर
बै ल के साथ भोग कर िलया करगे,

इसके अलावा एक और अ ाय हो गया वह यह िक हमारे


दयानंदी भाई तो बै ल से भोग कर परम ऐ य वाले हो जायगे ,

P- 431
और उनसे िभ मत वाले हमेशा गरीब ही रहगे , ोिक इनके
हाथ तो िक त की चमचमाती छडी लग गई जहाँ जरा सी भी
स ि घटी िफर बै ल के साथ भोग कर लगे और इनसे िभ
मत वाले इस िन त घृणा मु कम कर न सकगे , और हमेशा
गरीब ही रहगे , इसके िवपरीत समाजी ऐ यवान होते जायगे
िफर चाहे कोई रोजगार कर या न कर,

मुझे इस बात का बड़ा सं देह हो गया िक हमारे दयानंदी भाई


उिचत अनुिचत जो कुछ भी दयानंद िलख गये यह सबको स
ही मानते ह, अब आप सोिचये िक इस कार की उट पटां ग बात
िलखने वाले दयानंद की बु कैसी रही होगी? और सु िनये ,

इसी कार अ ाय १६ मं १७ म दयानंद राजा को आम के


वृ काटना िलखते ह

नमो िहर बाहवे सेना े िदशां च पतये नमो नमो वृ े ो


ह रकेशे ः पशू नां पतये नमो नमः श राय षीमते
पथीनां पतये नमो नमो ह रकेशायोपवीितने पु ानां पतये
नमः॥१६/१७

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह


िक—“हे श ु ताड़क से नापित! (वृ े :)- आ ािद वृ ों को
काटने के िलए, (नम:)- व ािद श ों को हण कर”

ामी जी राजा के िलए िलखते ह िक वो आम आिद के िजतने


भी सं सार को लाभ प ं चाने वाले वृ है उ कटवा द, वाह
ामी जी वाह ा उ म बात सोची है , जो वृ सं सार को लाभ
प चाते है उ ी ं को कटवा द, उसी का नाम तो उपकार है
मालूम होता है इस िदन लौटा भरकर भां ग िपया है , और सु िनये ,

P- 432
िफर आगे यजुवद अ ाय १६ मं ५२ के भा म अपने िश ों
को आ ा दे ते ह िक तु म राजा से कहों की सू वर के समान सोने
वाले राजा,

िविक र िवलोिहत नमस् ते ऽ अ ु भगवः।

यास् ते सह म्ँ हे तयो ऽ म् अ न् िन वप ु ताः॥


~यजुवद {१६/५२}

“हे (िविक र )- िवशेषकर सू वर के समान सोने वाले, (भगव:)-


ऐ ययु राजन्!”

वाह वाह राजा के िलए बड़ी ही अ ी उपमा दी है , िजस ई र


को अपने वे दभा ों म राजा बोलते आए, और िफर उसी राजा
को सू वर की उपमा ये आप जैसे धू त को ही शोभा दे ता है ,
दयानंद की बु का पता तो यही लग जाता है , िजस राजा को
जा िपता तु मानती है उसे ामी जी सू वर की भां ित सोने
वाला िलखते है ,

हमारे यहाँ तो राजा को ऐसे अपश नही ं बोले जाते , हो सकता


है आय समाज म राजा को सू वर के तु समझा जाता हो,
शायद समाजी अपने राजा अथात दयानंद को इसी कार बोलते
हो, की "हे भं ग के नशे म िवशेषकर सू वर की भां ित सोने वाले
राजन्" और िफर दयानंद ने यही बात अपने वे दभा म िलख
दी हो, और सु िनये ,

िफर आगे अ ाय ३७ मं ७ म दयानंद िलखते ह िक- “ई र


हमारे भाईयों को घोड़े की लडी अथात लीद से तपाता है ”

अ ा वृ ःश ा धूपयािम दे वयजने पृिथ ाः।


मखाय ा मख ा शी ।अ ा वृ ःश ा
धूपयािम दे वयजने पृिथ ाः। मखाय ा मख ा शी ।

P- 433
अ ा वृ ःश ा धूपयािम दे वयजने पृिथ ाः।
मखाय ा मख ा शी । मखाय ा मख ा
शी मखाय ा मख ा शी मखाय ा मख ा
शी ॥ ~यजुवद {३७/९}

“हे मनु ! जैसे म, ( ा)- तु झको, (अ )- घोड़े की, (श ा)-


लडी, लीद से , (धू पयािम)- तपाता ँ ”

ध है ऐसे भा को िजसके से हमारे दयानंदी भाई रोज


घोड़े की लीद से तपते है ,

ध है ऐसे भा कार और ध है ऐसे भा ों को मानने वाल,

P- 434
दयानंद मत पशुिहंसा धम का अंग

॥िजहादी दयानंद॥

दयानंद यजुवदभा ,अ ाय १३ मं ४८, ४९,

इमं मा िहँ सीर् एकशफं पशुं किन दं वािजनं वािजनेषु।


गौरम् आर म् अनु ते िदशािम तेन िच ानस् त ो िन
षीद। गौरं ते शु ग् ऋ तु यं ि स् तं ते शु ग् ऋ तु॥
~यजुवद {१३/४८}

इम्ँ साह ्ँ शतधारम् उ ं मान्ँ स रर म े। घृ तं


दु हानाम् अिदितं जनाया े मा िह्ँ सीः परमे ोमन्। गवयम्
आर म् अनु ते िदशािम ते न िच ानस् त ो िन षीद।
गवयं ते शुग् ऋ तु यं ि स् तं ते शुग् ऋ तु॥

~यजुवद {१३/४९}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका यह अथ िलखते ह िक--

“मनु ों को उिचत है िक िजनके मारने से जगत् की हािन और


न मारने से सबका उपकार होता है , उनका सदै व पालन पोषण
कर, और जो पशु तु ारे िलए लाभकारी न हों उनको मार”॥४८॥

“हे (अ े ) दया को ा ए परोपकार राजन्, (ते ) ते रे रा म,


(आर म्)- वन म रहने वाली, (गवयम्)- गौ जाित की नीलगाय
से खेती की हािन होती है इस कारण, (तेन)- उसके मारने को,
(अनुिदशािम)- उपदे श करता ँ ”

P- 435
इसके भावाथ म ामी जी िलखते ह िक-- और गौ जाित से
स रखने वाली, गौ के समान िदखने वाली नीलगाय आिद
जो जंगल म रहती है , उससे खेती की हािन होती है इसिलए वह
मारने यो है ,

समी क-- ध है ऐसा भा करने वाला मंद बु दयानंद


और ध है इन भा ों को मानने वाले अ से पैदल समाजी,
यह ामी जी को ा सु झी की धम कम छोड़ िहं सा का माग
पकड़ िलया, यह िश ा वे द म दे खने को तो नही ं िमलती, यह तो
वे द के नाम पर आपने अपने िश ों को खुली छूट दे दी, िक
नीलगाय आिद जो पशु तु ारे िलए लाभकारी नही ं उ मार,
शोक हे ! ऐसी बु पर, दे खये इसका यह अथ नही ं है जैसा
तु मने िलखा है यह वे द ुित ाथना के अथ है इस ुित म यह
ाथना है िक--

“हे अ े ! यह गौ े थान म रहने वाली सह ों उपकार करने


वाली, दु ािद की सै कड़ों धारा वाली, लोकों म िविवध वहार
को ा और मनु ों का िहत करने को घृत, दु को दे ने वाली
है , अिदित पा यह गौ आपके इस प को दे ख पीिडत न
हो इसके िवपरीत आर म रहने वाले गवय आिद पशुओं
(िजनसे खेती की हािन होती है ) को आपसे भय ा हो”

इसी कारण लोग वनीय पशुओं से अपनी फसल आिद की र ा


करने के अथ मसाल आिद जलाकर रखते ह िजस कारण वन म
रहने वाले पशु उनसे दू र ही रहते ह ोंिक सब ही कार के
वन म रहने वाले पशु अि से भय खाते ह और उनसे दू र ही
भागते है , यह इस ुित का आशय है इसम कही ं भी िकसी भी
जीव को मारना कथन नही ं िकया है , ोिक िकसी भी कार की
िहं सा अधम होने से वे द िव है , यह बात दयानंदीयों को भी

P- 436
समझनी चािहए, जबिक दयानंद ने अपने वे दभा म अपने
लाडले िश ों को खुली छूट दे दी िक जो पशु तु ारे िलए
लाभकारी नही ं है उ मार दो, और यह अथ ामी जी से िकसी
भू लवश नही ं आ, ामी जी अपने अ लेखों म भी पशुिहं सा
का समथन कर चुके ह दे खये जै से स ार् थ काश के थम
सं रण के पृ १४६ म िलखा है िक “मां स के िप दे ने म तो
कुछ पाप नही”ं

पृ सं ा १७२ म िलखा है िक “य के वा े जो पशुओं की


िहं सा है सो िविधपूवक हनन है ”

पृ सं ा ३०२ म है िक “कोई भी मां स न खाएँ तो जानवर,


पि , म ् य और जल इतने है , की उनसे शत सह गु ने हो
जाएं , िफर मनु ों को मारने लग और खेतों म धा ही न होने
पावे िफर सब मनु ों की आजीिवका न होने से सब मनु न
हो जाएं ”

पृ ३०३ म िलखा है िक “जहाँ जहाँ गोमेधािदक िलखे ह वहाँ


वहाँ पशुओं म नरों का मारना िलखा है और एक बै ल से हजारों
गै या गभवती होती है , इससे हािन भी नही ं होती और जो ब ा
गाय होती है उसको भी योमेघ म मारना ोिक ब ा गाय से
दु और व ािदको की उ ि होती नही”ं

पृ ३६६ म िलखा है िक “पशुओं को मारने म थोड़ा सा दु :ख


होता ह पर ु यश म चराचर का अ उपकार होता है ”

यह सब बात स ाथ काश के थम सं रण म ामी जी ने


ही िलखी है िजसे बाद म स ाथ काश के ि तीय सं रण म
सं शोधन कर यह कहकर हटा िदया गया, िक यह बात िलखने व
छापने वालों की गलती से छप गई थी,

P- 437
िन लेख को पढ़कर िव ान लोग स क् समझ सकते ह िक
दयानंद जी धम के फैलाने वाले थे या िफर अधम के, और सु िनये
आगे अ ाय १५ मं १५ म दयानंद िलखते ह िक--

अयं पुरो ह रकेशः सूयर स् त रथगृ श् च रथौजाश्


च सेनानी ाम ौ। पुि क थला च तु थला चा रसौ
दङ् णवः पशवो हे ितः पौ षे यो वधः हे ितस् ते ो नमो ऽ
अ ु ते नो ऽव ु ते नो मृ डय ु ते यं ि ो यश् च नो े ि
तम् एषां ज ेद ः॥ ~यजुवद {१५/१५}

“जो (अयम् )- यह, (दङ् णवः)- मां स और घास आिद पदाथ को


खानेवाले पशु आिद उनके ऊपर, (हे ित:)- िबजुली िगरे ,,,,, (य:)-
जो, (न:)- हमसे , ( े ि )- िवरोध कर, (तम्)- उसको हम लोग,
(एषाम् )- इन ा ािद पशुओं के, (ज े )- मुख म, (द :)-
थापन कर”

समी क-- दयानंद की िहं सक बु दे ख दयानंद िलखते ह िक


(दङ् णवः)- मां स और घास आिद पदाथ को खानेवाले पशु
आिद उनके ऊपर, (हे ित:)- िबजुली िगरे , दयानंद ने यहाँ
पशुिहं सा को भी धम का अंग बना िदया, ध है ामी जी
तु ारी बु , अब दयानंदी हम ये बताए भला इन जीवों पर
िबजुली ों िगरनी चािहए, और भला ई र इन जीवों पर िबजुली
ों िगराने लगे ? िजनकी सृ ि उसी के ारा की गई है , यिद ये
जीव सं सार के लाभकारी न होते तो भला ई र उनकी सृ ि ों
करता? और दयानंद तो घास खाने वाले अिहं सक जीवों तक को
मारना िलखते है , दयानंदी बताए, भला घास खाने वाले जीवों से
सं सार की ा हािन है ? उनके ऊपर िबजुली ों िगरनी
चािहए? मुझे तो नही ं लगता िक इस सं सार म कोई भी ऐसा जीव
है जो सं सार के िलए हािनकारक है , यिद ऐसा होता तो ई र

P- 438
उसकी सृ ि ही नही ं करता, इस जगत् म ेक जीव एक दू सरे
पर िनभर है , और ऐसे म यिद एक जीव की न भी ख हो
जाए तो पुरा जीवन म ही िबगड जाए यही नही, इसी ुित म
िफर आगे िलखा है िक--

(य:)- जो, (न:)- हमसे , ( े ि )- िवरोध कर, (तम्)- उसको हम


लोग, (एषाम् )- इन ा ािद पशुओं के, (ज े )- मुख म, (द :)-
थापन कर,

ध हे ! ामी जी बु , ामी जी को तो अपने िलख लेख भी


रण नही ं रहते दे खये स ाथ काश के स म समु ास म
पृ १३७ पर ामी जी यह िलखते ह िक "ऐसी ाथना कभी न
करनी चािहये और न परमे र उस को ीकार करता है िक
जैसे हे परमे र! आप मेरे श ु ओं का नाश, मुझ को सब से बड़ा,
मेरी ही ित ा और मेरे आधीन सब हो जाये इ ािद,

ामी जी के इस भा से तो ामी जी जी का ही मत खंिडत


होता है , अब यिद ई र ऐसी ाथना को ीकार नही ं करता तो
इससे यही िस होता है िक दयानंद का यह भा अशु है ,
अब दयानंदी यं इस बात का िनणय कर िक इसम से कौन सी
बात सही है , दयानंद का यह वे दभा या िफर स ाथ काश म
िलखा यह लेख!

P- 439
P- 440
आय अथात े
(आय स ोधन का श न की कोई जाित)

कुछ लोग यं को इसिलए भी आय कहते है ोंिक पूव काल


म इस दे श का एक नाम आयवत आ करता था, थम इस दे श
का नाम ावत, िफर आयवत उसके बाद भारत आिद नाम से
जाना गया है , हर कोई इस दे श को अलग-अलग नाम से
पुकारता है

रामायण महाभारत मे भी आय का स ोधन आया है , पर ु ा


यह सं बोधन िकसी िवशेष के िलए था? या उस समय के
लोग यं को आय ( े ) कहते थे? ऐसा दे खने म तो नही ं आता,
रामायण महाभारत आिद म भी यही दे खने म आता है िक उस
समय भी दु सरों के ारा ही “आयपु ” “आयमाता” “आयप ी”
का सं बोधन िमलता है । एक भी ऐसा उदाहरण नही िमलता
िजसमे िकसी ने ंय को आय कहा हो, कहते भी तो कैसे ? उस
सयय के लोग इतने मूख नही थे , आय स ोधन का श है , जो
सदै व दु सर के िलए योग होता हे , कभी कोई अपने िलए योग
नही ं करता, िजन पु षों के गु ण कम और भाव दू सरों से े
होते ह, जो पु ष कुलीन होते ह उ आय कहकर सं बोिधत
िकया जाता है , यह उस मनु पर िनभर करता की उसके गु ण
कम और भाव आय कहलवाने यो है या नही,ं लेिकन जो
यह बात जानते है िक उनका भाव टु ों वाला है , बु मूख
वाली है उ ि ारह िनयोग से ई है इस कारण उ कोई
आय तो कहने से रहा सो वह अपने मुख से यं को आय कथन

P- 441
कर घोिषत आय बनने की कोिशश करते ह, ऐसी ही
घोिषत आय वाली मूख की एक टोली आय समाज के नाम
से चिलत है , वह यं को ही अपने मुख से आय बोलकर मन
ही मन खुश होते ह, इसी कार मुख अ र िमलते रहते ह,
अभी कुछ िदन पहले मेरी बहस एक आय समाजी से हो गई,
बात आगे बढ़ी तो वह बोल पड़ा िक "म तो आय ँ " ा तु म
आय नही ं हो, मने कहा म आय ँ या नही ं यह म कैसे बोल
सकता ँ , यह तो मेरे गु ण कम भाव पर िनभर करता है
इसका िनणय तो दु सरे ही कर सकते ह, मेरे गु ण कम
भाव यिद इस यो होंगे तो अव कहला सकूंगा अ था
नही,ं

लेिकन आपने अपने आप को आय िकस आधार पर कहा?


इससे तो आपके अ र अंहकार का भाव आता है और जहाँ
तक म जानता ँ अंहकार के मद म चूर पु ष कभी आय नही ं
हो सकता, यह ल ण आय के नही,ं ब महामुख के है , भला
उस उपािध का ा लाभ जो यं से यं को िमल? और दु सरे
आपको पूछे भी नही,ं हाँ आय आप जब कहाते जब कोई दू सरा
आपके गु ण कम भाव आिद से स होकर आपको आय
कहकर सं बोिधत करता, लेिकन इसके िवपरीत आप आपने ही
मुख से यं को आय बोलकर यं को तस ी दे रहे हो,
अथात आप यं जानते हो िक आपम आय के ल ण नही ं
इसिलए कोई आपको कोई आय नही ं कहे गा, इसिलए घोिषत
आय बन बै ठे, इससे तु म आय नही।ं

इससे यह िजतने भी तथाकिथत घोिषत आय बने बै ठे है सब


के सब मले बु , बु हीन मनु है ोिक यिद इनम
थोडी भी बु होती तो ये ंय अपने मुख से अपने आपको े

P- 442
न बोलते भला खुद के मुख से खु द को े कहना कहाँ की
े ता है ?

दयानंदी-- जब मूित पूजा वे द िव है तो आप मूित पूजा ों


करते हो, ा ऐसे आप वे दिव नही ं करते ?

समी क-- यह बात तु मने िकस आधार पर कही ं िक मूित पूजा


वे द िव है ?

दयानंदी-- दे खों यजुवद म यह िलखा है िक "न त ितमा


अ " अथात उस परमा ा की कोई मूित नही ं है

समी क-- ऐसे ही आधे अधु रे मं ों से तो दयानंद ने तु ारी


बु हर ली है , "न त ितमा अ " बस इतना ही पद
िलखकर गड़प गये, आप लोगों को वे द तो कभी पढने नही ं है ,
बस चार श रट िलये है उसे ही सारी उ गाते रहते हो, और
सु नो ितमा का अथ िसफ मूित नही ं होता दे खये --
ितमानं ितिब ं ितमा ितयातना।

ित ाया ितकृितरचा पुंिस ितिनिध: उपमोपमानं ात्॥


~अमरकोष-{२/१०/३५-३६}

यहाँ ितमा ितमान आिद श उपमा उपमान अथ म ुत


िकये गये ह, पूववत मनीषी उपमा उपमान का स ितमा
आिद श ों से करके अथ करते रहे ह, िजसका सं केत सु िस
टीकाकार भानुजी दीि त ने रामा मी ा ा म िकया है ।

इससे िस आ िक ितमा का अथ िसफ मूित नही ं ब ,


ितमा का अथ उपमा, उपमान और स श भी होता है

और तु तो यह तक न पता होगा िक यह िकस अ ाय का


कौन सा मंत्र है , तु तो दयानंद ने मा चार श रटवाया है ,

P- 443
जो पूरा मं िलख दे ते तो उनकी पोल खुल जाती, दे खों पुरा मं
इस कार है --
नत ितमा ऽ अ य नाम महद् यशः।

िहर गभ ऽ इ ् एषः।

मा मा िहमसीद् इ ् एषा।

य ान् न जात ऽ इ ् एष॥ ~यजु वद {३२/३}

अथ इसका यह है , िक "िजस परमा ा की मिहमा का वणन


‘िहर गभ’ (यजुवद २५/१०) ‘य ा जात:’ (यजुवद ८/२३)
तथा ‘मा मा िहं सीत्’ (यजुवद १२/१०२) आिद मं ों म िकया गया
है , 'य नाम महद् यशः' िजसका नाम और यश ऐसा है उसकी
तु लना म कोई नही ं वही आिद है , वही वायु है , च , शु , जल
जापित और सव भी वही है , 'न त ितमा अ ' ऐसा
अि तीय प परमा ा है उसके स श कोई और नही ं है ।

और अब वे द से आपको मूित पूजा का माण िदखाते ह दे खये -


कासीत् मा ितमा िकं िनदानमा ं िकमासी रिधः क आसीत्।

छ ः िकमासी ौगं िकमु ं य े वा दे वमयज िव े॥ ~ऋ ेद


{१०/१३०/३}

सबकी यथाथ ानबु कौन है और ितमा मूित कौन है , और


जगत का कारण कौन है , और घृत के समान सार जानने यो
कौन है और सब दे खों का िनवृ ि कारक और आनंद यु ि ित
का पा प रिध कौन है और इस जगत् का पृ ावरण कौन है
और तं व ु और ु ित करने यो कौन है , यहाँ तक तो
इसम है अ म सबका उ र इसम है िक िजस परमे र
मूित को इं ािद ने पूजा पूजते है और पूजगे वह परमा ा ितमा

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प से जगत् म थत है और वो ही सारभू त घृतवत् ु ित करने
यो है

ये ो र म है इसे वाकोवा भी कहा जाता है ,

समझने वालों को तो इतने से ही समझ लेना चािहये , और न


मानने वाले को तो सा ात् परमा ा भी नही ं समझा सकता
माण रावण कंस िशशुपालािद को कहाँ समझा पाये ।

औरों की तो बात ही ा मूितपूजा पर िच लगाने वाले भी


दयान जी कृत सं ारिविध ६२-७४ म उलूखल मूसल छु रा
झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते ह।

इसिलए औरों को नसीहत दे कर खुद फजीहत करवाना छोड़


दो,

यह तो था वे दों से माण अब तु मूित पूजा का वै ािनक मह


कथन करते ह सु िनये -- जैसे समु के जल की सभी समुि क
िवशेषताय लोटे के जल म भी होती ह उसी तरह चूहे म भी
ई रीय िवशेषताय होना ाभािवक है । लेिकन वह प रपूण नही ं
है और वह ई र का प नही ं ले सकता। आप िनराकार वायु
और आकाश को दे ख नही ं सकते लेिकन अगर उन म पृ ी
त का अंश ‘रं ग’ िमला िदया जाये तो वह साकार प से गट
हो सकते ह। यह साधारण भौितक ान है िजसे समझा और
समझाया जा सकता है । आम की या ई र की िवशेषताय बता
कर ब े और मुझ जैसे अ ानी को समझाया नही ं जा सकता
लेिकन अगर उसका कोई माडल ( ितक िच ) बना के िदखा
िदया जाये तो िकसी को भी मूल-पाठ िसखा कर महा- ानी
बनाया जा सकता है । इस िलये म मूित िनहारने या उसे पूजा म
ई र के तीक प म योग करने म कोई बु राई नही ं समझ,

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ितमा तो ान कि त करने का साधन है , मूितयों का िवरोध
करना ही िजहादी मानिस ा है ।

तु िजतना रटवाया जाता है बस उसे तोते की तरह रट लेते हो


अपनी बु से कुछ काम नही ं लेते, इसी कार िबना जाने
समझ पुराण आिद सनातन धम ं थों का िवरोध कर तु म अपनी
बु हीनता का माण दे ते हो

दयानंदी-- तो ा पुरणों म िमलावट नही ं है ?

समी क-- यह बात तु मने िकस आधार पर कही।ं

दयानंदी-- ामी दयानंद ने िलखा है िक अपने नीज लाभ के


िलए पुराण म ा णों ने िमलावट कर दी है ।

समी क-- तु म भी िकस चुितये की बात करते हो, उसने यं


अपने नीज लाभ अपने ाथ पूित को वे दािद ं थों के अथ के
अनथ कर िदये , िकतने ही ुितयों म िमलावट कर अथ का
अनथ कर िदया, इसिलए ऐसे मूख की बातों म नही ं आना
चािहए, जो यह मानते हो िक ा णों ने पुराण म िमलावट कर
दी, तो जरा इस पर भी तो सोच िवचार करक दे खो िक ३ यु गों
तक लगभग करोड़ वष तक ी वे द भी तो उ ी ं ा णों और
पौरािणकों के पास ही रहे ह, तो ा उ ोंने वे दों म िमलावट
नही ं की?उ कैसे शु मान लेते हो?

अगर पुराणों को गलत िसफ इसिलए कहते हो की ा णों ने


अपने ार् थ के िलए िलखे तो उ ी ा णों के पास ३ यु गो से
वे द भी रहे ह उनको ी वे दों को एकदम सही कैसे मान रहे हो?

इसिलए ऐसी बात करने वाले और उ मानने वाले दोनों ही


उ कोिट के चुितयों म से है ।

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दयानंदी-- वे दािद ं थों म पुराण का कोई वणन नही ं िमलता
इससे पुराण पर शंका होती है ,

समी क-- मने यह पहले ही कहा था िक तु म िसफ नाम के


वै िदक हो, असल म तु मम से िकसी ने भी कभी वे द उठाकर
नही ं दे ख, जो दे खा होता तो ऐसी मूख वाली बात न करते ।

दे खये थम आपको वे दों से ही माण दे ते ह-


य ः जनयन् पुराणं वतयत्।

एकं तद ं पुराणमनुसंिवदु ः॥

~अथववेद- {१०/७/२६}

से उ पुराण को वितत िकया, वह का अंग


पुराण कहा जाता है ।
तिमितहास पुराणं च गाथा नाराशंसी ानु चलन् ॥ ११

इितहास च वै स पुराण च गाथानां च नाराशािसनां च ि यं


धाम भवित य एवम् वेद ॥ ~अथववेद {१५/६/१२}

अथ- इितहास पुराण और गाथा नारां शंसी के िपय धाम होते है ,


एक ा िव ान, 'इितहास, पुराण, गाथा व नाराशंसी' ारा वे दों
का वधन ा ान करता आ वृ की िदशा म आगे बढ़ता है
ऋचः सामािन छ ांिस पुराणं यजुषा सह।

उ ा ि रे सव िदिव दे वा िदिवि तः॥

~अथववेद {११/९/२४}

ऋक् साम, छ , पुराण, यजु आिद द् यु लोक और ग थ सभी


दे वता उ य म ही उ हए, अथात् पुराणों का आिवभाव
ऋक्, साम, यजु , और छ के साथ ही आ था।

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अब ा ण ों से आपको माण िदखाते ह दे खों शतपथािद
म इस कार कथन है िक--
म ा तयो ह वा एता दे वानाम् यदनुशासनािन िव ा
वाकोवा िमितहासपुराणं गाथा नाराशं ः स य एवं
िव ाननुशासनािन िव ा वाकोवा िमितहासपुराणं

गाथा नाराशंसी र हरहः ा ायमधीते म ा ितिभरे व

त े वां पयित त एनं तृ ा पय योग ेमेण ाणेन रे ॥


~शतपथ {११/५/६/८}

अथ- शा दे वताओ के म आ ित है दे व िव ा िव ा
आिदक िव ाएँ उ र ू तर प इितहास पुराण गाथा
और नाराशंसी ये शा है जो इनका िन ित ाय करता है
वह मानो दे वताओ के िलए आ ित दे ता है ।
स यथा धा ेर ािहत पृथ ूमा िविन र ेवं वा अरे ऽ
महतो भूत िन िसतमेत ेदो यजु वदः सामवेदोऽथवाि रस
इितहासः पुराणं िव ा उपिनषदः ोकाः सू ा नु ा ानािन
ा ाना ैवैतािन सवािण िन िसतािन ॥

~शतपथ ा ण {१४/५/४/१०}

अथ- िजस कार चारों ओर से आधान िकए ए िगले ईधन से


उ अि से धू िनकलता है उसी कार हे मै े यी ! ऋ े द,
यजुवद, सामवे द, अथवाि रस, इितहास , पुराण उपिनषद सु ,
ोक, ा ान, अनु ा ान, इ (य ), त (य िकया
आ), पाियत, इहलोक, परलोक और सम ाणी उस महान
स ा के िन: ास ही है ।

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स होवाच— ऋ ेदं भगवोऽ ेिम यजु वदं सामवेदमाथवणं
चतुथिमितहासपुराणं प मं वेदानां वेदं िप ं रािशं दै वं िनिधं
वाकोवा मेकायनं दे विव ां िव ां भूतिव ां िव ां
न िव ां सपदे वजनिव ामेत गवोऽ ेिम ॥

~[छा ो : ७/१/२]

नारदजी बोल, हे भगवन्! म ऋ े द, यजुवद, सामवे द और


अथवण जानता ँ (ईितहासपुराणं प मं वे दानां वे दं) इितहास,
पुराण जो वे दों म पाँ चवाँ वे द ह वो भी जानता ँ , ा क ,
गिणत, उ ादिव ा, िनिधशा , तकशा , नीितशा ,
िन , स ं धी उपिनषदिव ा, भू तत , धनुवद, ोितष,
सपदे वजनिव ा, दे वजनिव ा, ग धरण, नृ , गीत, बा इन
सबको जानता ँ

दे खों छा ो के इस वा ानुसार िकतनी िव ा िस हो गई


और यहाँ भी पुराण पाँ चवे वे द के प म पृथक ही हण िकया
है ,
अरे ऽ महतो'भूत' िन' िसतम्एत' ' ेदो' यजु वद'
सामवेदो'ऽथवाि र' सइितहास'पुराण'िव ा' उपिनष'दः ो'काः
सू' ा नु ा ा' नािन ा ा' निनद ' त' मािशत' पाियत'
मय'चलोक'प'र लोक' स'वािण च भूता' ै' वै'ता'िन स'वािण
िन' िसतािन॥ ~बृह० ऊ० {४/५/११}

अथ- उस पर नारायण के िन ास से ऋ े द, यजुवद,


सामवे द, अथवाि रस, इितहास , पुराण उपिनषद सु , ोक,
ा ान, अनु ा ान, इ (य ), त (य िकया आ) ,
पाियत, इहलोक, परलोक और सम भु त है ।

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एविममे सव वेदा िनिमता क ा सरह ा: स ा णा
सोपिनष ा: सेितहासा: सां ाता:सपुराणा:स रा:ससं ाराः
सिन ा: सानुशासना सानुमाजना: सवाकोवा ा॥
~गोपथ ा ण {१/२/२०}

अथ- क रह ा ण उपिनषद इितहास पुराण अनवा ात


र सं ार िन अनुशासन और वाकोवा सम वे द
परमे र से िनिमत है ।

अब मनु ृित, वा ीिक आिद से कथन करते ह दे खए-


ा ायं ावयेत् िप े,धमशा ािण चैव िह।

आ ानिमितहासां ,पुराणा खलािन च॥

~मनु ृित {३/२३२}

ा के उपरा िपतरों की ीित के िलये , वे द पारायण वण


कराये, धम शा आ ान ,इितहास, पुराणािद को भी सु नाये ।
एत ु ारह: सूतो राजानिमदम वीत।

ूयतां य ुरा वृतं पुराणेषु मया ुतम्॥

~वा ीिक रामायण

यह सु नकर सू त ने एकां त मे राजा से कहा सु नो महाराज, यह


ाचीन कथा है जो मने पुराणों म सु नी है इसके बाद रामज
का च र जो भिव था सब राजा को सु नाया िक ीराम आपके
यहाँ ज लगे ऋंगी ऋिष को बु लाइए और वै सा ही आ

पुराण ायमीमां सा धमशा ा िमि ताः।

वेदाः थानािन िव ानां धम च चतुदश॥ ~या ० ृित०


{१/३}

P- 450
अथ- पुराण ाय मीमां शा धम शा और छः अ ों सिहत वे द
ये चौदह िव ा धम के थान है ।

इसी कार शतपथ ा ण (१४/३/३/१३) म तो ‘पुराणवा ङमय’


को वे द ही कहा गया है । छा ो उपिनषद् “इितहास पुराणं
प म वेदानांवेदम्” (७/१/२,४) म भी पुराण को वे द कहा है ।
बृ हदार कोपिनषद् तथा महाभारत म कहा गया है िक
“इितहास पुराणा ां वेदाथ मुपबहयेत्” अथात् वे द का
अथिव ार पुराण के ारा करना चािहये , इनसे यह है िक
वै िदक काल म पुराण तथा इितहास को समान र पर रखा
गया है ।

अब पुराणों के ल ण कथन करते ह दे खए-


सग ितसग वंशो म रािण च।

वंशानुच रतं चैव पुराणं प ल णम्॥

१.सगः (जगतः उगमः)

२. ितसगः (अवनितः पु ृि ः)

३.वं शः (ऋिषदे वतादीनां जीवनम्)

४.म रम् (मानवजाते ः उगमः, मनूनां रा भारः)

५.वं शानुच रतम् (सू यच वं शीयराजानां च र म्)

अथात (१) सग– पंचमहाभू त, इं ि यगण, बु आिद त ों की


उ ि का वणन,

(२) ितसग– ािद थावरां त सं पूण चराचर जगत् के िनमाण


का वणन,

(३) वं श– सू यचं ािद वं शों का वणन,

P- 451
(४) म र– मनु, मनुपु , दे व, स िष, इं और भगवान् के
अवतारों का वणन,

(५) वं शानुच रत– ित वं श के िस पु षों का वणन, ये पुराण


के पाँ च ल ण ह, िजसम यह पाँ च ल ण हो वो पुराण कहलाता
है ,

सृ ि के रचनाकता ाजी ने सव थम िजस ाचीनतम धम ं थ


की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है । इसका
माण वे दों म भी दे खए-
ऋचः सामािन छ ांिस पुराणं यजुषा सह।

उ ा ि रे सव िदिव दे वा िदिवि तः॥ ~अथववेद {११/९/२४}

अथात् पुराणों का आिवभाव ऋक्, साम, यजु, और छ के साथ


ही आ था।

इसिलए पुराणों को नवीन बताने वाल वे द िवरोधी, ना क


दयानंद और उसके िनयोगी चमचों को अपनी औकात म रहकर
ही बोलना चािहए वे इस बात को कदािप न भू ल की िजस पुराण
की मिहमा का गु णगान वे द, उपिनषद, ा ण, मनु ृित,
वा ीिक रामायण और महाभारत आिद ं थों म िकया गया है
िजस पुराण को हमारे ऋिष मुिनयों ने वे दों म पाँ चवाँ वे द कहा है
उसे नवीन बताकर िवरोध करने वाले दयानंद और उसके
िनयोगी चमच वे दािद ं थों का ही अपमान करते ह इसिलए
बु मानों को उिचत है िक पुराणों को नवीन बताकर उसका
िवरोध करने वाले िनयोगी दयानंदीयों की बात सु नने के बजाय
उनके कान के नीचे दो धर के मारे , बु अपने आप िठकाने पर
आ जाएगी, ोिक जो िव ान ह उनके िलए तो वे द , ा ण
और उपिनषदों से बड़ा कोई माण नही ं

P- 452
सुधारक, िन क या सहायक

सोशल मीिडया म खर ािनयों के कुछ कमे ् स पढ कर


केवल औपचा रकता के नाते केवल अपने िवचार िलख रहा ँ ।
यह िकसी पर गत आ े प नही ं मेरे िनिज िवचार ह अगर
िकसी को तक-सं गत ना लगे , तो ना आगे पढ और ना मान। मेरे
पास केवल ऐक साधारण का िदमाग़ है , पिहरावा और
साधन ह और म जो कुछ साधारण बु से समझता ँ वही
दू सरों के साथ कई बार बाँ ट लेता ँ । िकसी दू सरे को सु धारने
या िबगाडने का मेरा कोई ल नही ं है ।

सामा भौितक ान- भौितक शा के सामा ान के


अनुसार सृ ि की रचना अणु ओं से ई है जो श से प रपूण ह
और सदा ही ाचालित रहते ह। वह िनर र एक दू सरे से
सं घष करते रहते ह। आपस म जुड़ते ह, और िफर कई बार
िबखरते -जुड़ते रहते ह। जुड़ने –िबखरने की प रि या से वही
अणु -कण िभ िभ प धारण कर के गट होते ह तथा पुनः
िवलीन होते रहते ह। िजस कार ि ज़म के भीतर रखे काँ च के
रं गीन टु कड़े ि ज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते ह, उसी
कार ेक बार अणु ओं के िबखरने और जुड़ने से सृ ि म भी
सृ जन–िवसर् जन का म चलता रहता है । पवत झील,
महासागर, पशु-प ी, तथा मानव उ ी ं अणु कणों के िभ -िभ
प ह। सृ ि म जीवन इसी कार अनािद काल से चल रहा है ।

जीवत ाणी- हर जीिवत ाणी म भोजन पाने की, फलने फूलने


की, गितशील रहने की, अपने जैसे को ज दे ने की तथा
सं वेदनशील रहने की मता होती है । सभी जीवत ाणी जैसे िक

P- 453
पैड़-पौधे , पशु-प ी भोजन लेते ह, उन के प े झड़ते ह, वह
फल दे ते ह, मरते ह और पुनः जीवन भी पाते ह। पशु -पि यों,
जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधा रत है ।
यह ितकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण म अपने आप
थाना रण कर सकते ह। अपने –आप को वातावरण के
अनुसार थोड़ा ब त ढाल सकते ह। मानव ही एकमा ऐसा
ाणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनु प ढाल
सकता है अिपतु वातावरण को भी प रवितत करने की मता
ा कर चुका है । कई कार के वै ि यािनक आिव ारों
दु आरा मानव वातावरण को िनय त कर चुका है ।

जीवन-आ ा- जीवन आ ा के बल पर चलता है । आ ा ही


हर ाणी की दे ह का सं चालन करती है । िजस कार िबजली
कई कार के उपकरणों को ऊरजा दान कर के उपकरणों
की बनावट के अनुसार िविभ कार की ि याय करवाती है
उसी कार आ ा हर ाणी की शारी रक मता के अनुसार
िभ िभ ि याय करवाती है । िजस कार िबजली एयर
क शनर म वातावरण को ठं डा करती है , माइ ोवे व को गम
करती है , कैमरे से िच खचती है , टे प- रकाडर से िन
अंकलन करती है , ब से रोशनी करती है तथा करं ट से ह ा
भी कर सकती है – उसी कार आ ा िभ -िभ शरीरों से
िभ -िभ ि याय करवाती है । िबजली काट दे ने के पशचात
जैसे सभी उपकरण अपनी-अपनी चमक-दमक रहने का
बावजूद िन य हो जाते ह उसी कार शरीर से आ ा िनकल
जाने पर शरीर िन ाण हो जाता है ।

ऐकता और िभ ता- हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही


ोत से िबजली दान कर सकते ह और सभी उपकरण अलग

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अलग तरह की ि याय करते ह। उसी कार सभी ािणयों म
आ ा का ो भी ऐक है और सभी आ ाय भी ऐक जैसी ही
है , पर ु वह िभ -िभ शरीरों से िभ -िभ ि याय करवाती
है । आ ा शेर के शरीर म िहं सा करवाती है और गाय के शरीर
म दू ध दे ती है , प ी के शरीर म उड़ती है तथा साँ प के शरीर म
रगती है । इसी कार मानव शरीर म थत आ ा कचु ऐ के
शरीर की आ ा से अिधक भावशाली है । आ ा के शरीर
छोड़ जाने पर सभी कार के शरीर मृत हो जाते ह और सड़ने
गलने लगते ह। आ क िवचार से सभी ाणी समान ह िक ु
शरी रक िवचार से उन म िभ ता है ।

कण-कण म ई र- इन समानताओं के आधार पर िन ेह


सभी ािणयों का सृ जनकता कोई एक ही है ोंिक सभी
ािणयों म ऐक ही सृ जनकता की छिव का आभास होता
है । थोड़ी ब त िविभ ता तो केवल शरीरों म ही है । सभी
ािणयों म ऐक ही सजन कता की छिव िनहारना तथा सभी
िणयों को समान समझना ऐक वै ि ािनक त है अ िवशवास
नही ं और यह िस ा वे दों के कट होने से भी पूव आिद-
वािसयों को पता था जो ाकृित के अंगों म भी, ई र को कण-
कण म अनुभव करते थे और इन म मानवों से लेकर चूहे तक
सभी शािमल ह। ातन धम की शु आत यही ं से यी है ।

ई र की मानवी प रभाषा- ई रीय श यों को मानवी


प रभाषा म सीिमत नही ं िकया जा सकता। उन के बारे म अभी
िव ान भी ब त कुछ नही ं जानता। िजस िदन िव ान या कोई
महाऋिष िजन म ामी दयान भी शािमल ह ई र को अपनी
प रभाषा म बा सके गे उसी िदन ई र सीिमत हो कर ई र
नही ं रहै गा। ई र की श यों के कुछ अंशों को ही जाना जा

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सकता है जैसे अ े आदिमयों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर
अनादी तथा अन है और वै से ही रहै गा। यही सब से बडा
स है ।

समु के जल म आथाह श होती है । बड़े से बड़े जहाज़ों को


डु बो सकता है । लेिकन अगर उस जल को िकसी लोटे म भर
िदया जाये तो उस जल म भी समु ी जल के सभी गु ण िवधमान
होंते ह लेिकन लोटे म रखा जल म जहाज़ को डु बोने की श
नही ं होगी। अगर उस जल को वािपस समु म डाल िदया जाये
तो िफर से जहाज़ों को डु बोने की श उस जल को भी ा
हो जाये गी। यह बात भी पूण ा वै ािनक स है ।

मू ित की आव ा- जैसे समु के जल की सभी समुि क


िवशेषताय लोटे के जल म भी होती ह उसी तरह चूहे म भी
ई रीय िवशेषताय होना ाभािवक है । लेिकन वह प रपूण नही ं
है और वह ई र का प नही ं ले सकता। आप िनराकार वायु
और आकाश को दे ख नही ं सकते लेिकन अगर उन म पृ ी
त का अंश ‘रं ग’ िमला िदया जाये तो वह साकार प से गट
हो सकते ह । यह साधारण भौितक ान है िजसे समझा और
समझाया जा सकता है । आम की या ई र की िवशेषताय बता
का ब े और मुझ जैसे अ ानी को समझाया नही ं जा सकता
लेिकन अगर उसे िम ी का खलोना या माडल बना की िदखा
िदया जाये तो िकसी को भी मूल-पाठ िसखा कर महा- ानी
बनाया जा सकता है । इस िलये म मूित िनहारने या उस की पूजा
करने म भी कोई बु राई नही ं समझता। मूितयों का िवरोध करना
ही िजहादी मानिस ा है ।

तक और आ था- जहां तक समा होता है वही ं से आ था का


ज होता है । जहां आ था म तक आ जाये वही ं पर आ था

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समा हो जाती है और िव ान शु हो जाता है । दोनो गोलाकार
के दो िसरे ह। हम जीवन म 99 ितशत काम आ थाओं के
आधार पर ही करते ह और केवल 1 ितशत तक पर करते ह।
माता-िपता की पहचान भी आ था पर होती है । कोई भी
अपना DNA टे करवा कर माता िपता की पहचान िस नही ं
करवाता। सू य की पे गं पर ‘ओइम’ िलख कर उसे अपना
झ ा बना लेना आय समाज की आ था है , जो िकसी वै ािनक
तक पर आधा रत नही ं है , ऐक तरह का अस , और मूित पूजा
ही है । लेिकन अपनी आ था का आदर तकशा ी आय समाजी
भी करते ह।

िह दू -ऐकता- आय-समाजी सं गठन ने मूित पूजा को तािलबानी


तरीके का ऐक मु ा बना कर िह दू -ऐकता को कमजोर िकया
है । आज सनातनी-म र और आय-समाजी म र अलग
अलग बने िदखाई दे ते ह। मेरा िनिज मानना है िक वै िदक धम
और सनातन धम ऐक ही िस े के दो पहलू ह। वै िदक धम
वै ािनक बातों को शु तरीके से ािनयों के िलये समझाता है
तो सनातन धम उ ी ं बातों को आ थाओं म बदल कर दै िनक
जीवन की सरल िदनचया बना दे ता ह। दोनों ऐक दू सरे के पूरक
ह। आम के िच से ब े को आम की पहचान करवाना अधम
या मूखता नही ं इसी तरह िकसी िच से भगवान के प को
समझने म भी कोई बु राई नही ं वह केवल टे िनंग ऐड है । िबना
िच ों के तो िव ान की पु क भी बो रं ग होती है । आप अपने
घर म अितिथयों को अपनेिववाह और ज िदन की ऐलबम
िदखाते हो तो ा वह सभी ‘अस ’ होता है ?

भगवान राम ने भी रामे रम पर िशविलंग थािपत कर के मूित


पूजा करी थी। तो ा भगवान राम आय नही ं थे? कोई भी

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सनातनी िह दू आय-समािजयों को मूित पूजा के िलये बा नही ं
करता। लेिकन िजस तरह घरों म आय-समाजी अपने माता-
िपता की तसवीर लगाते ह ामी दयान सरसवती के िच
लगाते ह उसी तरह िशव, राम, और कृ के िच भी लगा द तो
सारा िह दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी ातनी िह दू आय ह
और वे दों, उपिन दों, रामायण, महाभारत, दशन शा ों और
पुराणों को िलखने वाले सभी ऋिष आय थे। आय-समाजी नही ं
थे। आय-समाज तो ऐक सं गठन का नाम है ।

आय समाजी सुधारक- हर आय-समाजी अपने आप को


सनातन धम का ‘सु धारक’ समझता है चाहे उस ने वे दों की
पु क की श भी ना दे खी हो। आधे से ादा आय
समािजयों ने तो ‘स ाथ- काश’ भी नही ं पढा होगा। ज रत है
आय समाजी अपनी तािलबानी मानिस ा पर दोबारा िवचार
करे ँ । आय समाजी कहते ह ‘जमन और अं े ज़ों ने हमारे वे द पढ
कर सारी गित करी है । वै ािनक अिव ार िकये ह।’ चलो-
यह बात तो ठीक है । उ ों ने हमारे ं थ पढ कर और रसच
करी, मेहनत करी और अिव ार िकये । अब आय समाजी यह
बताये िक उ ों ने अपने ं थ पढ कर कौन-कौन से अिव ार
िकये ह। ामी दयान ने उ वे दों का मह बता िदया िफर
आय समाजी िकसी ऐक अिव ार का नाम तो बताये । अगर
नही ं करे तो ों नही ं करे ? ा उस के िलये भी जमन, अं े ज़
या ातनी िह दू कसू रवार ह? दू सरों को कोसते रहने से ा
िमला? आय समाजी कभी ातनी िह दू ओं को कभी जैिनयों –
बौधों और िसखों का िवरोध कर के िह दू ऐकता को ख त
करने के इलावा और ा करते रहै ह? दू सरों की ग़लितयां

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िनकालने के इलावा इ ों ने और ा िकया है - वह बताने का
यास ों नही ं करते ?

हम ने अकसर आय समािजयों को सनातनी िवदू वानों को


पाखणडी या िम ाचारी कहते ही सु ना है । आय समािजयों के
िलये अब चुनौती है िक दू सरों की िन ा करते रहने के बजाये
अब वह अपने वै िदक ान का पूरा लाभ उठाये और ‘मेक इन
इ या’ की अि म पंिकत म अपना थान बनाये । आ था का
दू सरा नाम ढ़ िन य होता है । आप िकसी भी मूित, व ु , थान,
, गु के साथ आ था जोड कर मेहनत करने लग जाईये
सफलता िमले गी। वै ािनक की आ था अपने आ िवशवास
और िसखाये गये त ों पर होती है । वह य करता रहता है
और अ म अिव ार कर िदखाता है ।

िजहादी मानिस ा- िकसी िह दू को अपने आप को आय


कहने के िलये आय समाज से माणपत् र की ज रत नही।ं
सभी िह दू आय ह और सभी आय िह दू ह। िफर आय समाज ने
दोनो के बीच म अ र ों डाल रखा है । ातन धम ने तो
ामी दयान को महिष कह कर ही स ोिधत िकया है ।
लेिकन यह समझ लेना िक ामी दयान सव थे और उन म
कोई ु िट नही ं थी उसी इ ामी मानिस ा की तरह है जैसे
मुह द के बाद कोई अ पैग़ र नही ं हो सकता।

अधाकां श आय समािजयों के मूहँ से वे िदक ान कम और


दू सरों के ित आलोचनाय, िन ा, गािलयां ही अिधक िनकलती
ह जैसे स समझने-समझाने का लाईसस केवल उ ी ं के पास
है । स की खोज के बहाने सभी जगह वह यही खोजने म लगे
रहते ह हर धम घटक म ग गी कहाँ पर है । इसे स की खोज
तो िबलकुल ही नही ं कहा जा सकता।

P- 459
चुनौती- कुछ करना है तो आय समािजयों को यु वाओं म
नैितकता का पाठ पढाने की चुनौती ीकार करनी चािहये ।
लव-िजहाद, िलव-इन- रलेशस, वे ले ाईन-डे , ू -इयर-डे ,
आतं कवािदयों आिद की िवकृितयों को भारत म फैलने से रोकने
के िलये ा करना चािहये, उस पर िवचार कर के िकसी नीित
को सफलता से अपनाये और स म कर के िदखाय।

ब ों और यु वाओं को वे द- ान, सं ृ त भाषा का आसान तरीके


से ान का पा म तै ार कर के ऐसा सािह तै ार कर
तािक वह ‘जेक ऐ िजल’ को भू ल कर भारतीयता अपनाय
और साथ ही साथ ान भी हािसल कर। ान का अथ कुछ मं
रटा कर तोते की तरह बु लवाना नही ं होता, ब ान को
इ े माल कर के वह अपनी जीिवका इ त के साथ कमा सक।
यु वाओं को कित िवकास की िश ा आधु िनक तकनीक के
साथ लेिकन भारतीय वै िदक सं ृ ित के अनु प िकस कार
दी जाये इस को ि या क प दे ना चािहये । कित ऐसा
होना चािहये जो दु िनयां के िकसी भी वातावरण म आ िव ास
और द ता के साथ आधु िनक उपकरणों के साथ काम कर
सके। ऐसा कित नही ं बने िक वह केवल दू र-दराज गाँ व म
िछप कर, या दोचार भजन गा कर ही अपनी जीिवका कमाने
लायक ही बन पाय।

िकसी कार का सा वे यर या हाडवे यर अपनी वै िदक यो ता


से स ूण दे श बनाय तािक हम बाहर से यह सामान ना
मंगवाना पडे । हमारे पास इं जीिनयर, तकनीिशयन,
योगशालाय, अथ-शा ी आिद सभी कुछ तो है । अब ों नही ं
हम वह सब कुछ कर सकते जो अं े ज़ों और जमनी वालों ने

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आज से 200 वष पूव “हमारी नकल मार के” कर िदखाया था।
इस कार के कई सकारा क काम आय समाजी अब कर के
िदखा सकते ह। उ चािहये िक आम लोगों को माण
िदखाय िक हमारा यह हमारा ान िवदे िशयों ने चुराया था, अब
हमारे पास है िजस का इ े माल कर के हम िव म अपनी
जगह बना रहै ह। रोक सको तो रोक लो। केवल मूित पूजा का
िवरोध कर के और अपने वे दों का खोखला िढं ढोरा पीट कर
आप िव म अपनी बात नही ं मनवा सकते । कुछ कर के िदखाने
की चुनौती आय ब ुओं, वे दा यों और चारकों को ीकार
करनी पडे गी।

स ं वदः – ि यं वदः- बहस और शा ाथ म ना कोई जीता है


और ना ही कोई जीते गा, म भारत की ाचीन उपल यों का
पूण समथन करता ँ लेिकन लेिकन आय समाजी मानिस ा
का नही।ं स को कला क तरीके से कहना ही वै ािनक
कला है । ऐक ने हीन को सू रदास कहता है तो दू सरा अ ा–
बस यही फक है । “स ं वदः – ि यं वदः” का वे द-मं
आयसमाजी भू ल चुके ह। इस िलये िकसी की आ था का
अपमान कर के स वादी या सु धारक नही ं बन बै ठना चािहये ।
यही भू ल ामी दयान ने भी कर दी थी। अब उसी काम का
टे र आिमर खान ने भर िदया है और ोिफट कमा रहा है । जो
कुछ बात आय समाजी करते रहै ह वही आिमर खान ने भी करी
ह िजस का समथन फेसबु क पर आय समाजी कर के िह दू ओं
का मज़ाक उडा रहै ह। सोच कर दे खो- दोनों म कोई फक
नही।ं

मेरा ल केवल अपने िवचार को दू सरों के साथ शेयर करना है


िकसी को मजबू र करना या उन का सु धारक बनना नही ं है । मुझे

P- 461
भी अब आगे बहस नही ं करनी है । जो सहमत हों वही अपनी
इ ा करे तो मान। वे िदक िवचार और सनातनधम की आ था
दोनों ऐक ही िस े के पहलू ह और दोनों बराबर ह। िकसी को
भी अपने मूहँ िमयां िमठ् ठू बन कर दू सरे का सु धारक बनने की
ज रत नही।ं

ोत-- ~अ ात (इं टरने ट जगत से ली गई साम ी)

P- 462
ा ांितकारी आयसमाज से थे?

आयसमाजी गपोड़ा- आयसमाजी अ र एक ग मारते ह


िक– त ता आं दोलन के ८० ितशत ां ितकारी,
आयसमाजी थे , इनके लेखो व पि काओ मे भी ये बात दे खने म
आती ह। िजनमे िक ग और झूठ िलख िलखकर ये यं का
इतना मिहमामंडन करते ह िक लगता है जैसे इस रा के िलए व
धम के िलए केवल और केवल आयसमाज ने ही काय िकए ह,
इ ौने ही बिलदान िदये ह, आयसमाज के ही लोगो ारा िलखे
गए झूठ से भरे पुिलंदे ही इनके िलए इितहास का माण होते
ह। इतना और इस तरह से मिहमामंडन िक यु वा आयसमाजी तो
इतने सनकी हो जाते है िक उनके िदमाग मे यह भर जाता ह िक
त ता सं ाम म “भी” सबसे बड़ा योगदान इ ी का था, अब
इनके इस दावे की वा िवकता दे खये —

सरकारी आकड़ों के अनुसार, अं े ज़ो से लड़ते ये सात लाख से


अिधक ां ितकारी बिलदान ये थे। तो इन गपोिड़यों के
अनुसार साढ़े पाँ च लाख से अिधक ां ितकारी आयसमाजी होने
चािहए? इस पर सबसे पहला ही इनकी पोल खोल दे ता ह
िक — “ये आकडा तु म कहा से लाये ? इसका आधार ा ह?
िकसी भी ओथे क इितहासकार का एक माण िदखा सकते
हो?

दू सरी बात— ा तु म इसे िस कर सकते हो? रा ीय


अिभलेखागार से इस सू ची को ा करो और िदखाओ न
….वा िवकता िनकल कर अपने आप सामने आएगी िक ८०

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ितशत तो छोिडये ८० आय समाजी भी खीच
ं तान के नही ं
िनकलगे ,

अब इन ां ितका रयों को आयसमाजी बनाने का फॉमूला नंबर


१ दे खये — चूंिक उस समय आयसमाज ां ितका रयों की मदद
करता था, व इससे सं ब त गितिविधयो मे सं ल रहकर, अपना
योगदान दे रहा था। आयसमाज के मंिदरो म भी ां ितकारी
छु पा करते थे व गु मं णाए भी होती थी, रा भ की बात भी
होती थी, इनके अनुसार वो सब आयसमाजी हो जाते ह। केवल
इस कारण से कई ां ितका रयों ने इनकी शंशा की, तो उनकी
ये शंशा िक– “आयसमाज मे दे शभ अ ी ह, िवचारधारा
अ ी ह , तो ये उसे िदखाएं गे और कहगे – ये दे खो ये भी
आयसमाजी थे , मतलब जैसे िक म कह दू ँ िक– अमे रका की
सु र ा व था बे िमसाल ह, तो ा म अमरीकी हो जाऊंगा?
दयानंद या आयसमाज को िकसी एक कारण से कोई पसं द
करता हो तो वो आयसमाजी नही ं हो जाता, अ था जो जो
आयसमाजी अ ु ल कलाम को पसं द करते ह, ा वो
मुसलमान मान िलए जाये ?

फॉमूला न॰ – २ ह िक िकसी ां ितकारी के माता, िपता, चाचा,


ताऊ, फूफा, मौसी से लेकर दू र से दू र तक की र े दारी म
अगर एक भी आयसमाजी ह तो िफर उस ां ितकारी को
भी ये आयसमाजी घोिषत कर दे ते ह, बे शक उस ां ितकारी का
यं आयसमाज से धािमक स ं ध िबलकुल न हो। और कमाल
की बात, कुछ आयसमाजी तो अपनी पु कों म उस ां ितकारी
का ेरणा ोत व माग िदखाने वाला भी उसी आय समाजी
सं बंधी को घोिसत कर दे ते ह। उदाहरण के तौर पर ये भगत

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िसं ह को भी आयसमाजी बताते ह, जब िक उनके माता-िपता
आयसमाजी थे , वे नही।ं

उस समय गरम दल के सबसे अिधक ां ितकारी महारा और


बं गाल ने िदये । बं गाल के लगभग सभी ां ितकारी माँ दु गा के
उपासक थे, वहा उद् घोषणा ही ये यी थी िक– “माँ दु गा के िलए
बिलदान दे ने का समय आ गया ह” आयसमाजी थे ा ये ?
महारा मे तब आयसमाज का भाव न के बराबर था, वहाँ के
९० ितशत से अिधक ां ितकारी मराठी िह दू थे। पंजाब की
ओर जाओ वहाँ िस ां ितका रयों का बा था, कूका
िव ोही गु मुख िसं ह आयसमाजी थे ा? जहा साढ़े पाँ च सौ
कूका-िव ोिहयो को तोप के मुंह पर बां धकर उड़ा िदया गया था,
िकतने आयसमाजी थे इनमे ?

नेता जी सु भाषच बॉस की ‘आजाद िह फोज’ के लाखो


सै िनको मे िकतने आयसमाजी थे गपोिड़यों? जब िक इसमे
बं गाल के ही सै िनक अिधक थे, लगभग साठ हजार, सु खदे व थे ,
राजगु थे, उधम िसं ह थे, नाना भाई भै रव जी थे, िबरसा मुंडा थे,
सावरकर थे, राजिबहारी बॉस थे , खुदीराम बॉस थे, भल च थे
ऐसे ही अनेकों थे, शम नही ं आती इतना बड़ा झूठ बोलते ये ,
िक ८० ितशत ां ितकारी आयसमाजी थे? मंगल पां डे, रानी
ल ीबाई, तां ा टोपे, नाना साहब पेशवा आिद और इनके
सै िनको म िकतने आयसमाजी थे?

और इससे पहले जो सं घष ये , तब कहा थे आयसमाजी?


छ पित िशवाजी महाराज कौन थे? "िह दू दय स ाट" थे या
"आयसमाज दय स ाट"? महाराणा ताप आिद ां ितकारी ये
धमयो ा आयसमाजी थे ा? इनकी से ना जो मुगलो से लड़ी,
लाखों बिलदान ये , ये आयसमाजी से ना थी ा, तब कहा था

P- 465
आयसमाज? इ े दे शभ का पाठ, धमभ का पाठ
आयसमाज ने पढ़ाया था ा? कहते है हमने बचाया, ये तु मने
बचाया? कहते है हमने िसखाया, ये िसखाएँ गे हम िह दु ओ को
दे शभ िजनके यहा बीस बीस वष के लड़के तक हसते हसते
फां सी पर चढ़ गए, ये िसखाएँ गे हमे धम के िलए बिलदान दे ना
जहाँ दस दस वष के ब ों तक ने अपना धम छोड़, इ ाम नही ं
कुबू ला और शरीर के हसते हसते टु कड़े करवा िलए, िह दु ओ से
अिधक बिलदान इस रा के िलए िकसने िदये ह? इसिलए इनके
िकसी भी गपोड़े की स ता परखे िह दु ओ को इनकी िकसी भी
बात पर िव ास नही ं करना चािहए, हा आयसमाजी चाहे तो ये
कह सकते है िक उस समय ८० ितशत आयसमाजी कों े सी
थे।

जय ी राम

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ा चाण मू ितपूजा िवरोधी थे?

आय समाजी इस लेख का खं डन करके िदखाए!

आय समाजी हमेशा यह तक दे ते है िक महान आचाय चाण


मूितपूजा िवरोधी थे, लेिकन अपने पंथ को चलाए रखने के िलए
ये इसी तरह के कई कुतक करते रहते है जो िब ु ल िनराधार
सािबत होते आए है -

- चाण मूितपूजा िवरोधी थे?

समी क-- चाण मूितपूजा िवरोधी नही थे, ोंिक उनकी


अमर कृित चाण नीित म कई ोक ऐसे है जो आय
समािजयो के इस कुतक को िनराधार सािबत करते है , दे खये--
का पाषाणधातूनां कृ ा भावेन सेवनम् ।

या च तया िस िव ु: सीदित॥ ~चाण नी०


{८/११}

भावाथ- लकड़ी,प र अथवा धातु की मूित म भु की भावना


और ा उसकी पूजा की जाएगी तो िस ी अव ा होती
है , भु इस भ पर अव स होत है ।

यिद चाण ये ोक अपनी पु क चाण नीित म िलख


सकते है तो इससे साफ हो जाता है िक मूितपूजा से कोई हािन
नही अथवा लाभ है , लेिकन पुराण के अनुसार चाण भी ये ही
कहते है िक मूित म भगवान नही ब ान कि त करने का
एक रा ा है , इसी को समझाते ए चाण अपने अगले ोक
म बोलते है -

P- 467
न दे वो िव ते का े न पाषाणे न मृ ये।

भावे िह िव ते दे व ाद् भावो िह कारणम्॥ ~चाण नी०


{८/१२}

भावाथ- दे वता काठ या प र की मूित म नही है , परमे र तो


मनु की भावना म िव मान रहते ह अथात् जहाँ मनु भावना
ारा उसकी पूजा करता है ,वही ं वे कट होते ह।

इसका सीधा अथ चाण समझाना चाहते है िक यिद मूित को


िबना िकसी भावना के पूजोगे तो वह मूित मूित ही रहे गी लेिकन
यिद उसके साथ मन की भावना जुड़ जाए तो दे वता यं कट
दशन और फल दे ते है ,

- “ ितमा बु ीनां सव समदिशन:” ४/२१ अथात् मुख


लोगो के िलए मूित ही ई र है ,िजनकी बु समान है वे परमे र
को सव पाते है , तो ये चाण ने ों िलखा?

समी क-- यह पहले के ही ोक म चाण ने यह कहा है


िक मूित ई र प है , ई र नही, जो लोग ई र को धमशा ो
का िबना अ यन िकये िसफ कमका म ही िव ास करते है
उनको चाण ने मुख कहा है , यही नही िसफ कमका ो को
उसके योजन को िबना जाने ही उसम लीन रहता है उसको
पुराणो ने भी मुख ही कहा है ।

आय समाजी लोगो के पास पूरे चाण कृितयो म िसफ यह


एकमा ोक है िजनको ये अपना पंथ चलाने के िलए दु चार
करके भु नाते है और बाकी के ोको सिहत पूरी चाण नीित
को अ ीकार कर दे ते है , चाण ने ऐसे पाखंिडयो से भी बचने
के िलए आदे श िकया है , कोई भी कुतक चाण नीित के अ
ोको पर िव ास नही करता, (उपरी िदखावा पोल खुलने के

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डर से ) और अपने पंथ का प लेने के िलए हजारो झूठ बोल
लेगा।

चलो अभी चाण के उपर उठाए गए सारे कुतक का


पदाफाश करते ह।

-- चाण िसफ िनरं कार को मानते है ।

समी क-- यह कुतक िसफ कुतिकयों ने अपने पंथ को चलाने


के िलए बनाया है और िबना चाण के ं थो को पढे भे ड़चाल म
चलना शु कर िदया है , चाण ं थो से साफ िदखाई पड़ता है
िक वे िव ु भगवान् के परम् भ थे, यही नही उ ोने अपनी
अमर कृित की शु आत भगवान िव ु की ु ित से ही की है ।

ण िशरसा िव ुं ै लो ािधपितं भु म्। १/१

अथात् म तीनो लोको-पृ ी,अंत र और पाताल के ामी


सवश मान सव ापक परमे र िव ु को िसर झु काकर
णाम करता ँ , इसी कार ोक १०/१४ म चाण कहते ह-
“जनादन (िव ु ) को जो अपना िपता मानता है वही सव े है ”

इसी कार १०/१७ ोक म भगवान िव ु को सभी का


पालनकता बताया है और उसकी कृित का गु णगान िकये है , ये
इनके भगवान िव ु के ित आ ीयता का भाव दशाता है ।

-- चाण िसफ वै िदक ान को ही मानते थे, पुराण आिद


उनके िलए िम ा थी।

समी क-- यह एक पूण कुतक है ोंिक चाण मे अपनी


कृितयो म कई पौरािणक कथाओं और मा ताओं का समथन
ही नही िकया ब आ ीयता का भाव दशाया है , जैसे--

P- 469
ोक-१५/७ म चाण ने पौरािणक मा ता म भगवान शंकर
के िवषवमन की ा ा की है । अ ोक १५/१६ म चाण
भगवान् िव ु और ल ी के सं वाद की ा ा पुराण मा म से
करते ह। यही नही अ ोक १७/५ म पौरािणक कथा म शंख
ल ी चं स ं ध को चाण दशाते ह।

-- चाण भा म िव ास नही करते थे।

समी क-- इन पंथ भ ो को यिद ई र की ोितष िव ा पर


िव ास नही तो इ ोने चाण को भी िबना सोचे समझे अपने
पंथ के समान घोिषत कर िदया। इसके माण इस कार है --

ोक ४/१ म चाण कहते है िक जब पु माता के गभ म


आता है तब ही उसके आयु , कम, धन, िव ा, मृ ु िनि त हो
जाते है । अ ोक ६/५ म चाण कहते है िक जैसा भा
मनु का ज से तय होता है उसकी बु ,काय, वसाय भी
वै से ही होते है तथा भा के सहायक होते ह, ोक १०/५ म
चाण भा की मिहमा को अपर ार बताते है जो राजा को
रं क और िभखारी को राजा बना दे ती है , इसी कार १३/१३ म
सभी को भा के अधीन बताया है ।

इससे साफ पता चलता है िक वे द के घोिषत ठे केदार वे द के


ोितषशा की िव ा को िसफ इसिलए नही मानते ोंिक
उनके पंथगु ने अपनी पंथ पु क म इसका िनषेध िकया है ।

-- आय समाज और चाण मअ ा- ा भे द है ?

समी क-- आय समाज और चाण दोनो म भे द ही भे द है ,


िजनम से कुछ और भे द ु त क ँ गा।

P- 470
ोक ४/११ म चाण कहते ह िक क ा का एक ही बार
क ादान अथात् क ादान होना चािहए। किलयु ग म िवधवा
िववाह िनषेध माना गया है िजसका समथन चाण ने िकया है ।

ोक ९/१२ म चाण के ये भाव है िक भावना से जो काय


अ ा लगता है , उसी िवधी से हम ई र की पूजा करनी चािहए
िजसका उदाहरण रिचत माला,अपने हाथ से िघसा चंदन और
यं के ारा रिचत भगवान के ोत से ु ित करने का कहा
है ,और चाण कहते ह इसम रम जाने से मनु इ की धन
स ित को भी वश म कर सकता है ।

आय समाजी कहते है िक राम कृ महापु ष हो सकते है


लेिकन ई र नही तो इसके िलए चाण ने भगवान कृ के
िलए अपनी भावना कट की है -- “अहं कृ रसोत :” १२/१२
अथात् मेरे िलए तो ी कृ के चरणो म ही उ व है , यिद ये
कृ को ई र न मानते तो कृ के थान पर ा, िव ु , गु
इ ािद म से िकसी के चरण म उ व की बात करते ।

आय समाजीयों के िलए चाण का एक ोक एकदम स


बै ठता है -११/८ िक िजस िकसी म गु णों की े ता का ान नही
वह सदा उनकी िनंदा करता रहता है ।

जैसा आय समाजीयों का मु काय हमेशा पुराण िनंदा,


साकारवाद िनंदा आिद है , ये कृ राम को ई र नही मानते
ोंिक इनको उनके प का थोड़ा भी ान नही, यिद ये
सनातन धम की िनंदा न करते तो मुझे भी आय समािजयो से
कोई घृणा नही थी लेिकन जब पानी िसर से ऊपर चला जाए तो
उसको उसी की भाषा म जवाब दे ना ही ेय र होता है ।

P- 471
आय समािजयो से मुझे कोई वै र नही ब मुझे उनके कृ ो से
वै र है , इसिलए सभी को यही कहना चा ँ गा-

“आय बनो आय समाजी नही”

P- 472
॥दयानंद का अद् भुत िव ान॥

अपने अित र सब को मुख जानने वाले दयानंद की बु का


एक नमू ना आपको िदखाते ह, उसके बाद आप ही यह िनणय
कर िक इस लेख को िलखने वाले दयानंद की बु कैसी रही
होगी।

स ाथ काश नवम् समु ास पृ १७५,

❝( ) यह जो ऊपर को नीला और धूं धलापन दीखता है वह


आकाश नीला दीखता है वा नही?ं

(उ र) नही,ं

( ) तो वह ा है ?

ामी जी इसका उ र यह िलखते ह िक--

(उत् तर) अलग-अलग पृिथवी, जल और अि के सरे णु दीखते


ह। उस म जो नीलता दीखती है वह अिधक जल जो िक वषता है
सो वही नीला िदखाई पड़ता है ❞

समी क-- पता नही ं ामी जी अपने आपको ा समझते ह


दो कौड़ी की बु नही ं इनम और चले ह वै ािनक बनने , िलखा
है िक आकाश का नीला रं ग उसम उप थत जल के कारण
िदखाई पड़ता है जो वषता है सो वही नीला िदखाई पड़ता है ,
ध हे ! भं गेडानंद ते री बु , अब कोई ामी भं गेडानंद जी से
यह पूछे िक यिद जल के कारण आकाश का रं ग नीला िदखाई

P- 473
पड़ता है तो िफर बादलों म तो लबालब पानी भरा होता है िफर
वह काले सफेद रं ग के ों िदखाई पड़ते ह?

दू सरा -- जबिक जल रं गहीन होता है उसका कोई अपना


रं ग ही नही ं होता तो भला उससे आकाश आिद का रं ग प रवतन
िकस कार स व है ?

ऐसी-ऐसी चुितयापंित से भरी बात करने मा से ही दयानंद की


बु का पता चलता है , सु िनये आकाश का रं ग नीला जल के
कारण नही ं ब , सू य के काश का पृ ी के वायु मंडल म
उप थत गै सािद अणु ओं से टकराने के प ात ए काश के
परावतन के कारण िदखाई दे ता है ,

वा व म काश एक कार की ऊजा है , जो िवद् यु त चु िकय


तरं गों के प म सं च रत होती है

सू य से आने वाली काश िकरणों म सभी रं ग पहले से िव मान


होते ह पर ु हमारी आँ ख केवल उ ी ं रं गों को दे ख पाती है ,
िजसकी तरं गदै सीमा के भीतर होती है , तकनीकी या
वै ािनक सं दभ म िकसी भी तरं गदै के िविकरण को काश
कहते ह, काश का मूल कण फ़ोटान होता है , काश की
मुख िवमाय िन वत है ,

१• ती ता जो काश की चमक से स त है

२• आवृ ि या तरं ै जो काश का रं ग िनधा रत करती है ।

अब सु िनये होता यह है जब सू य का काश हमारे वायु मंडल म


वे श करता है तो उसम उप थत धु ल गै सािद के अणु ओं से
टकराकर चारों ओर िबखर जाता है इन िबखरे ए काश
िकरणों म छोटी तरं गदै वाले बै गनी, आसमानी और नीला रं ग
ादा िबखरते है , जबिक इनकी अपे ा ल ी तरं गदै वाली

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काश िकरण कम िबखरती है , यही तीनों रं ग हमारी आँ खों तक
सबसे ादा प ँ चते ह, इन तीनों रं गों का िम ण नीले रं ग के
स श बनता है , इस कारण आकाश हम नीला िदखता है , और
ामी जी इसम ा चुितयापंित िलखी ं ह वह आपके सामने है ,
और सु िनये इसी कार अ म समु ास म यह िलखा है --

स ाथ काश अ म समु ास पृ १७१,

❝( ) सू य च और तारे ाव ु ह और उनम मनु ािद


सृ ि है वा नही?ं

(उ र) ये सब भू गोल लोक और इनम मनु ािद जा भी रहती


ह ोंिक-
एतेषु हीदँ सव वसुिहतमेते हीदँ सव वासय े त िददँ सव
वासय े त ा सव इित॥ ~शत० का० १४

पृिथवी, जल, अि , वायु, आकाश, च , न और सू य इन का


वसु नाम इसिलये है िक इ ी ं म सब पदाथ और जा वसती ह
और ये ही सब को वसाते ह, िजस िलये वास के िनवास करने के
घर ह इसिलये इन का नाम वसु है । जब पृिथवी के समान सू य
च और न वसु ह प ात् उन म इसी कार जा के होने म
ा स े ह?❞

समी क-- अपने इस लेख से तो ामी जी ने चुितयापंित के


सारे रकॉड ही तोड़ िदये , इस लेख को पढ़ने मा से ही पता
चलता है िक दयानंद म िकतनी बु रही होगी, यहाँ कता
और उ र दे ने वाला दोनों ही उ कोिट के चुितया है , दे खये
थम तो दयानंद ने स ाथ काश के स म समु ास म पृ
१३२ पर यह िलखा है िक- "ततीस दे वता अथात, पृ ी, जल,

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अि , वायु, आकाश, च मा, सू य और न " यहाँ ामी ने इ
चेतन मान ततीस दे वों म से यह आठ वसु गण कथन िकये , और
िफर यहाँ उ जड़ मानकर, उनम मनु ािद जा बसा दी, अब
थम तो यहाँ दयानंद से यह है िक इनम से तु ारा कौन सा
कथन स मान? यह आठ वसु गण जो आपने यहाँ कथन िकये
हउ आप ा मानते ह जड़ या िफर चेतन?

दू सरा -- जो तु मने यह िलखा है िक पृ ी, जल, अि , वायु ,


आकाश, च मा, सू य और न आिद ये सब भू गोल लोक है ,
सो यहाँ यह बताओ िक जल, अि , वायु, आकाश को भू गोल
िकस आधार पर िलखा है ? ा जल, अि , वायु, आकाश आिद
की भू गोल आकृित आपने कही ं दे खी है ? इनम मनु ािद जा
के बसने यो ठोस धरातल है जो इ भू गोल लोक कथन कर
िदया, और आकाश जो अन है िजसका अ कोई नही ं
जानता, आपने उसे भी भू गोल कथन कर िदया, आपके िदमाग
का कोई ु िढला तो नही ं है ।

तीसरा -- अि और सू य जो िक सब कुछ भ करने का


साम रखते ह आपने उनम मनु ािद जा की िम ा क ना
िकस आधार पर की? जबिक आपने यं अपने एकादश
समु ास म मं ों की िस को नकारते ए यह तक िदया है
िक-- "जो कोई यह कह िक मं से अि उ होता है तो वह
मं के जप करने वाले के दय और िज ा को भ कर दे व"
और इसके िवपरीत यहाँ यह दौगलापन िदखाया िक अि सू य
आिद म मनु ािद की सृ ि िलख मारी, यहाँ तु ारा वो िस ां त
की अि अपने स क म आने वाले सब पदाथ मनु ािद को
भ कर दे व कहाँ घुस गया, यह खड़ा बाल आपम सनातन मत
के िव ही ों िदखता है ? किहये ा आपके इस

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लेखानुसार अि सू य आिद म मनु ािद जा का होना स व
है ? ा यह मनु ािद जीवों को भ न कर दगे?

ामी जी सू य पर मनु ािद जा होने की क ना करते ह सो


उनसे यह है िक िजस सू य का सतही तापमान लगभग
६०००ºC (छ: हजार िड ी से यस) और सतही दबाव इतना है
िक धातु तक को तरल म प रवितत कर द उस पर मनु ािद
जा होने जैसी अस व बात ामी जी के िदमाग म आयी
कैसे ? यहाँ पृ ी पर ही ४०-५०ºC तापमान पर मनु का ते ल
िनकल जाता है और ामी जी है िक मनु ािद को सू य पर बसा
रहे ह ध हे ! भं गेडानंद जी आपकी बु ,

और सु िनये अपने इस चुितयों वाले लेख म दयानंद ने जो यह


शतपथ ा ण से ुित माण िलखा है और इसका यह अथ
िलखा है िक-- "एते षु हीदँ सव वसु िहतमेते हीदँ सव वासय े
त िददँ सव वासय े त ा सव इित॥ ~शत० का० १४

पृिथवी, जल, अि , वायु, आकाश, च , न और सू य इन का


वसु नाम इसिलये है िक इ ी ं म सब पदाथ और जा वसती ह
और ये ही सब को वसाते ह। िजस िलये वास के िनवास करने के
घर ह इसिलये इन का नाम वसु है । जब पृिथवी के समान सू य
च और न वसु ह प ात् उन म इसी कार जा के होने म
ा स े ह"

यह अथ भी दयानंद ने िम ा क ना िकये ह इस ुित का यह


अथ नही ं बनता, यह िम ा अथ दयानंद ने अपनी बु अनुसार
क ना िकया है सो दयानंद का यह अथ मानने यो नही ं है ,
सु िनये यह ुित इस कार है िक--

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अि पृिथवी च वायु ा र ं चािद ौ न ािण चैते वसव
एतेषु हीदं सव वसु िहतमेते हीदं सव वासय े त िददं सव
वासय े त ा सव इित॥ ~शतपथ ा ण {१४/६/९/४}

अि , पृ ी, वायु, अ र , आिद , द् यु लोक, च और न ,


यह आठ दे व अ वसु इस कारण कहाते है ोंिक इ ी ं से
स ूण जगत् सि िहत है इसिलए इ वसु गण कहते ह और
यही अपने -अपने गु ण, कम और िवशेषताओं ारा सबको बसाते
है , भाव यह है िक यह आठ वसु गण अपने -अपने गु ण कम से
मनु ािद जीवों के बसने यो प र थित उ करते है , जैसे
सू य अपने ताप और काश आिद गु ण से सब जगत् को
कािशत करता और जल को वा म प रवितत कर वषा करता
है जैसे पृ ी मनु ािद जीवों के के िलए आ य थल पम
और अ औषिध आिद से मनु का पालन पोषण करती है ,
इसी कार यह अ वसु अपने अपने गु णों से मनु ािद आिद
जीवों को बसाते अथात उनके अनुकूल प र थितयों को उ
करते ह, यह इसका अथ है जो दयानंद ने कुछ का कुछ िलख
िदया, इसम यह कही नही िलखा िक सू य तारों आिद म
मनु ािद जा बसते है , यह िम ा अथ तो दयानंद के कपोल
भं डार से िनकल है , इस कारण यह मानने यो नही,ं

हाँ यह बात सब िव ानों के मन म अव आती है िक इस


िवशाल ां ड म पृ ी जैसे और भी ह हो सकते ह, िजनम
शायद हमारी ही भां ित मनु ािद जीव रहते हो, पर ु सू य तरों
आिद ऊजा ोतों पर मनु ािद जा की क ना करना िसवाय
चुितयों के और िकसी के बु म नही ं आ सकती।

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