Professional Documents
Culture Documents
P- 2
❝य ा ातम जग व य ेव लीयते।
येनेदं धायते चैव त ै ाना ने नमः॥
P- 3
जय ी राम िम ों...
P- 4
चतुथ खं ड- ना क आय समाजीयों को जबाव (इस खंड म
इं टरनेट जगत से ली गई साम ी ारा, ना क आय समाज
ारा लगाये गये आरोपों का खं डन कर उ उ र िदया गया है )
ध वाद
P- 5
िजन िजन ं थों का इसम वणन है ।
वे द
ऋक् यजु, साम, अथव
ा ण
ऐतरे य, शतपथ, ता य, गोपथ
उपिनषद
ईश, केन, कठ, , मु , मा ू , तैि रीय,
बृ हदार क, छा ो
धमशा
या व , मनु ृित
दशन
महाभारत, रामायण, इितहास, पु राण
P- 6
िवषयानु मिणका
भू िमका ..…009
थम खंड- दयानं द की वा िवकता
१• दयानं द आ च रत (एक अधूरा सच) …..017
२• दयानं द, स ाथ काश एवं उनके वेदभा ों िक
वा िवकता …..056
३• ईसाई िमशनरी सभा िथयोसोिफकल सोसायटी से
दयानं द के स …..066
४• काशी शा ाथ …..078
ि तीय खंड- स ाथ काश की समी ा
५• स ाथ काश अ गत भू िमका की समी ा …..085
६• थम मु ास की समी ा …..091
७• ि तीय मु ास की समी ा …..111
८• तृतीया मु ास की समी ा …..130
९• चतुथ मु ास की समी ा …..187
१०• पंचम मु ास की समी ा …..267
११• ष मु ास की समी ा …..278
P- 7
१२• स म मु ास की समी ा …..289
१३• अ म मु ास की समी ा …..344
१४• नवम् मु ास की समी ा …..368
१५• दशम् मु ास की समी ा …..370
तृतीया खंड- दयानं द कृत वे दभा ों िक समी ा
१६• दयानं द का कामशा …..380
१७• न भे दी दयानं द …..400
१८• ामी दयानं द एकादश िनयोग की दे न …..408
१९• महिष या िफर महाचुितया …..428
२०• पशु िहं सक दयानं द (िजहादी दयानं द) …..434
चतुथ खंड- ना क एवं िनयोग समाजीयों (आय
समाजीयों) को जवाब
२१• आय अथात े आय संबोधन का श …..440
२२• सुधारक, िन क या सहायक …..453
२३• ा ां ितकारी आय समाज से थे? …..463
२४• ा चाण मू ितपूजा िवरोधी थे? …..467
२५• दयानं द का अद् भु त िव ान …..472
P- 8
ॐ इ ेतद रिमदं सव त ोप ा ानं भूतं भव िव िदित
सवमोंकार एव।
भू िमका
P- 9
रामानुज ामी, व भाचाय जहा के धम चारक,
सायणाचाय, य दे व म नाथ जहा के भा कार,
अमरिसंह, महे र जहा के कोषकार हो गए है , ऐसा एक
ही दे श है और वो भारत ही है ।
िजस समय मे यह सब साम ी िव मान थी, उस समय इस
दे श मे सनातन वैिदक धम पूण प से चिलत था, नरपित
ऋिषमुिनयो के य से पु े , प य से थयो के
घर, और अर क पाठ से कानो मे पु का वाह बह
रहा था, सनातन धम की मिहमा और भ सबके
अंतःकरण मे खल रही थी।
परं तु समय की भी ा अलौिकक मिहमा है , की
सूयमं डल को आकाश मे चढ़कर म ा समय महाती ण
होकर िफर से नीचे उतरना पड़ता है ठीक वही दशा इस
दे श की ई, जो सबका िशर मौर था वो पराधीनता के भार
से महापीिङत हो रहा है , भारत के उपरां त यह दे श
िवदे शी चढ़ाइयों से गारत होकर ऐसा आहत आ है , की
िन ार बलहीन होकर आल का भं डार हो गया है ,
इसकी िव ा बु सब िवदे शी िश ा मे लय हो गयी है ,
धम कम मे असावधानी हो गयी है , सं ृ त िव ा जो
ि जमा का आधार थी, उसके श भी अब शु नही
उ ारण होते, इस कार धम िवलु होने से अने क
मतभे द भी हो गए है , िजस पु ष को कुछ भी सहायता
िमली झट उसने अपना नवीन पंथ की कलपना कर श
की क ना कर ली, और िश ो को उपदे श दे ना
P- 10
आरं भ कर िदया, इसका फल इस दे श मे यह आ की
फूट का वृ उतप हो गया और सत् धम ने बाधा पड़ने
लगी, इन नवीन मतो से हािन तो हो ही रही थी, इसी समय
दयान सर ती ने अपना मत चलाकर कोप लीला
ार की, इसमे भ , भाव मू ितपूजा, अवतार, ा ,
पाप दोइर होना, तीथ, माहा आिद का िनषे ध करके
जप तप, आचार िवचार, जाती को मे टकर, कम से
ा णािद वण, िनयोग- चार, ी के एकादश ( ारह)
पित आिद करने की िविध आिद की आ ा दे कर वेद मे
रे ल, तार, कमे टी आिद का वणन कर सब कुछ वेदों के
नाम से ही िलख िदया है , इससे सं ृ त ना जानने वाले
सनातन धम से हीन हो उनकी ा ा सुन अपने महान
पु षो की गित ाग इस नाम मा मे मगन हो जाते है ,
इनके संगठन का नाम आय समाज है , तथाकिथत स ासी
जी के बनाये ए ंथो मे दू सरी बार का छपा
स ाथ काश ही इस मत का मू ल है , ामी जी के
अनु यायी इसको प र की लकीर समझते है , इसका पाठ
करते है और कोई कोई इसकी कथा भी कहाते है ,
समािजयों मे इसका पाठ होता है , और शा ाथ मे माण
भी उसी से दे ते है , ात रहे की वतमान म मौजू द स ाथ
काश ामी दयानं द ारा िनिमत स ाथ काश का ही
ि तीय सं रण है यह संशोिधत सं रण है , िजसे ामी
जी के ारा की गई मू खता पर पदा डालने के िलए आय
P- 11
समाजीयों ारा दौबारा ामी जी की मृ ु के बाद १८८४
म "वैिदक यं ालय" ारा मु ि त कराया गया।
पर ु समाजी नवीन समाजीयों को िमत करने के िलए
इसे ामी जी के जीते जी १८८२ म छपा बताते ह, और
संशोिधत स ाथ काश (ि तीय सं रण) की भू िमका मे
िलखते ह की-
"स ाथ काश को दू सरी बार शु कर छपवाया है ,
ोंिक िजस समय यह ंथ बनाया था, उस समय और
उसके पूव सं ृ त भाषण करना, पठन-पाठन मे सं ृ त
ही बोलने का अ ास और ज भू िम की भाषा गुजराती
थी, इ ािद कारणों से मु झ को इस भाषा का िवशे ष
प र ान नही था, अब इसको अ े कार से भाषा के
ाकरणानु सार अ ास भी कर िलया है , इसिलए इस
समय इसकी भाषा पूव से उ म है , कही कही श वा
रचना का भे द आ है , वह करना उिचत था ोंिक उसके
भे द िकये िबना भाषा की प रपाटी सुधरनी किठन थी, परं तु
अथ का भे द नही िकया गया है , ुत िवशे ष तो िलखा
गया है हा, जो थम छपने मे कही कही भू ल रह गयी थी,
वह वह िनकाल कर शोधकर ठीक ठीक कर िद गयी है "
इससे यह है की दू सरी वाली स ाथ काश पर
उनके अनु यायी अिधक ा रखते है , ले िकन नवीन
समाजी ये नहीं जानते िक ये भू िमका नवीन समाजीयों को
िमत करने के िलए तैयार की गई है , िजसका खं डन हम
P- 12
इस पु क के थम खं ड (दयानं द, स ाथ काश और
उनके वेद भा ों की वा िवकता) म कर चुके ह।
जहाँ तक मे री बु की प चँ है तो स ाथ काश वेद
शा ितकूल और पर र िव बातों से भरा आ
िदखता है , इसमे वेद के नाम से लाल बाग िदखाया गया है
और सं ृ त अनिभ ो को वशीभू त करने को श र की
माया िदखाई दे ती है , इसके अनु यािययों के अनगल बातो
को सुनकर दे खकर मु झे इसकी समी ा की आव कता
ई कारण की इसकी समी ा से दे श का उपकार होकर
सनातन धम की वृ होगी और इसको पढ़कर मनु इस
कपोल क त मत से बचगे।
अब ोिक यह मत ामी जी ारा थािपत िकया गया है
अतः उ ीं के ंथों की समालोचना करना उिचत है , सो
इस पु क मे ामी जी के कपोल क त ंथ का
ाचीन ंथों से िमलान कर स नों के सामने गट करता
ँ उससे बु मान यं स -अस का िनणय कर
सकगे, स ाथ काश दो भाग मे है पूवाध और उ राध,
पूवाध के १० स ुलासों मे ामी जी ने अपना मं त
कािशत कर नवीन धम की िनव डाली है और उ राध के
४ संमु ासों मे आयवत य मतों का खं डन िकया है , जै न,
बौ , चावाक, ईसाई तथा यवनों का भी खं डन िकया है
इनके खं डन से हमारा योजन नही है , हमको थम
उनके ारा थािपत मत की परी ा करनी है , िजसको वे
वेदानु सार बताकर मनु ों को म मे डालते है , खं डन
P- 13
करने से मे रा योजन े ष श ु ता या िकसी का जी दु खान
से नही है , िक ु इसके िलखने का योजन केवल यह है
की मनु को स अस का ान होकर ामी जी के
ंथों का वृतां त िविदत हो जाये की उनके अनु सार चलने से
हम वतमान मे धम पथ पर थत है या नही,
मने जो इस पु क मे माण िलखे है िजनको ामी जी ने
माना और अपने ंथ मे िलखा है और मं ो के अथ ाचीन
भा ानु सार िलखे है , सनातन धमावलं िवयों को इससे
महालाभ की संभावना है कारण की स ू ण धम िवषय वेद
से भा सिहत ितपािदत िकये गए है , िजससे िकसी
कार की ा नही रहती, धम की ा और पाखं ड
की िनरवृि ही इस पु क का उ े है ,आय समािजयों
से िवशे ष ाथना है की जब भी वो इस पु क को पढ़ तो
शां ित से िवचारे और यिद बकरे की तीन टां ग का ही हठ
है , तो स अस का िनणय नही हो सकेगा और िफर
िकसी के कुछ भी समझाने का कोई फल नही होगा।
अ :सुखमारा :सुखतरमारा तेिवशेष : ।
ा दु िवद दयं िपतंनरं नर यित ॥
अथात- अ ानी सुख से और ानी महासुख से समझाया
जा सकता है परं तु ान दु िव दय वाले मनु को
यम ा जी भी नही समझा सकते।
पाठक महाशयो से िनवेदन है की यिद इसमे कोई भू ल रह
गयी हो तो अव हमे सूिचत कर दे , उिचत होगी तो
P- 14
दू सरी बार बना दी जायेगी, आपको लाभ होने से मे रा
प र म सफल होगा।
P- 15
P- 16
दयानंद आ च रत (एक अधू रा सच)
P- 17
प रवार था, हमारा कुटु इस समय १५ पृथक-पृथक प रवारों म
िवभ है और इस समय मे री अव था ४६ वा ५० वष की है ।
P- 18
२• दयानं द के बचपन का नाम, उनके माता और िपता का
नाम आिद-
(अ) आय समाजी गपोड़ा- दयानं दीयों के अनु सार ामी दयानं द
के बचपन का नाम मू लजी दयाराम था तो कुछ कहते ह िक उनके
बचपन का नाम मू लशं कर था, इसी कार दयानं द के माता, िपता
के बारे म कुछ लोग कहते ह िक उनके िपता का नाम अ ाशं कर
और माता का नाम यशोदाबाई था, तो वही कुछ का कहना है िक
उनके िपता का नाम करशनजी लालजी ि वेदी और माता का नाम
यशोदाबाई था।
अब आइए दयानं द ा कहते ह वो भी दे ख ले ते ह।
(ब) दयानं द के अनु सार- दयानं द अपने आ च रत के पृ
सं ा १ म िलखते ह िक- अने क लोग यह िज ासा करते ह म
ा ण ँ वा नही, और वे लोग अनु रोध करते ह िक इसके माण
के िलए अपने कुटु यों का नाम बतलाओं अथवा उनम से िकसी
का िलखा आ कोई प िदखलाओं, ये कहना अनाव क है िक
गुजरातवासी लोगों के साथ म अिधकतर अनु रागसु म िनब ँ,
अपने कुटु यों के साथ यिद मे रा िकसी कार से सा ात् हो जाए,
तो िजस सां सा रक अशां ित से मने अपने आप को तं िकया ह
िफर मु झे उसी अशां ितजाल म िन य ही फसना होगा, इसी कारण
से म अपने कुटु यों के नाम बतलाना व उनम से िकसी का िलखा
प दशन करना उिचत नहीं समझता।
समी ा-- अब यह बात तो हम हमारे दयानं दी भाई समझा सकते
ह िक जब ामी दयानं द ने अपने आ च रत म अपने माता िपता
P- 19
कुल गो आिद के बारे मे कुछ भी िलखने वा बताने से साफ-साफ
मना कर िदया, तो िफर दयानंदी िकस आधार पर इतने िव ास के
साथ यह बात कहते ह िक "दयानं द की माता का नाम यशोदाबाई
और उनके दो िनयोगी िपता िजनके नाम मशः अ ाशं कर और
करशनजी लालजी ि वेदी थे , वैसे यह कोई आ य की बात भी नहीं
है ोंिक ामी जी के मतानुसार एक ी एकादश ( ारह) पित
तक कर सकती है , जब यह हाल है िक एक ी के ारह पित हो
सकते ह तो िफर ामी दयानं द जी के दो िपता ों नहीं हो
सकते? शाबाश! दयानं दीयों ऐसे ही लग रहो और म तो कहता ँ
एक बार िफर से जाँ च कर, ा पता यशोदाबाई के दो से अिधक
िनयोगी पित िस हो जाये।
ामी जी के इस ले ख से यह तो हो जाता है िक ामी जी के
ज और उनके वण का पता लग पाना लगभग असंभव है , और
ऐसे के िलए ामी जी स ाथ काश थम सं रण के
पृ ६७ म िलखते ह िक मले नाम िनं िदत नहीं है िजन पु षों के
आचरण म वण का उ ारण नहीं होता उनका नाम मले
है ,
दयानं द के ले खानु सार वे मले ठहर अब दयानं दीयों को
अिधकार है िक वह अपने गु की आ ा को ीकार कर या िफर
ितर ार,
और सुिनये इसी ले ख म आगे दयानं द जी िलखते ह िक “अपने
कुटु यों के साथ यिद मे रा िकसी कार सा ात् हो जाये तो िजस
P- 20
सां सा रक अशां ित से मने अपने आपको तं िकया ह िफर मु झे
उसी अशां ितजाल म िन य ही फसना होगा”
अब यहाँ ामी जी से हमारा यह है िक उ ोंने यह बात ा
सोचकर िलखीं ह? यह म ामी जी के मन म कैसे उ हो गया
िक उ ोंने सां सा रक अशां ित से यं को तं कर िलया, शायद
यहाँ ामी दयानं द अपने आप को अ ानवश स ासी समझ बैठे
ह, इस कारण यह बात िलख दी हो, पर ु स ासीयों वाले ल ण
ामी जी म िदखते नहीं, सुिनये कठोपिनषद म इस कार कथन है
िक—
नािवरतो दु रता ाशा ो नासमािहतः।
P- 21
नहीं रखता, लोक म जन िनं दा कर वा ु ित, और अ ित ा कर तो
भी िजसके िच म कुछ हष शोक न हो वही स ासी कहलाने
यो है ले िकन दयानं द जी की तो कोई िनं दा करता है तो उ
िकतना दु ख होता है तुर उसको उ र दे ने म किटब हो उस
पर गािलयों की वषा करने लगते ह, िवतैषणा का ाग भी ामी
जी के अ र नहीं पाया जाता, धन की इ ा तो ामी जी के अ र
इस हद तक है िक उसकी पूित नहीं होती, धन की ा के िलए
कैसे-कैसे य िकये, भीख माँ ग-माँ ग कर अपना िनजी यं ालय
खोला, उसके प ात भी पु कों के मु दोगुने तीनगुने रख,
तु ारी पु क कोई और न छाप सक इसिलए उसकी रिज ी
करवाईं, उपदे श म ली के नाम से एकल पयाँ एकि त
करने म यथाश य िकया गया, लोभ ने तु ारे मन म यहाँ
तक िनवास िकया था िक धनवानों पूंजीपितयों से ि ितसमे त घंटों
वता होती थी िनधनों की तो बूझ ही न थी, ित ा इतनी चाहते थे
िक हमे शा कोठी, बंगल और महलों म ही ठहरते थे, पु तो था ही
नहीं पर ु जो मु सेवकािद है उनम तुम ि ित करते हो,
कामवासना तो मन म ऐसे भरी थी िक अपने अ ील ले ख एवं
भा ों से वेदभा और यं िनिमत ंथों को भर िदया,
तो लो तुम इन सब िवकारों से मु नहीं इसिलए स ासी भी नहीं
हो, इससे तु ारे मन म उ यह म की तुमने सां सा रक अशां ित
का ाग कर िदया, िम ा िस आ।
P- 22
३• िपता से घृ णा और माता से े म का रह -
दयानं द अपने आ च रत के पृ सं ा २-५ म िलखते ह- मे रा
प रवार शै वमतवाल ी था, इसिलए अ वय से ही मु झे िशविलं ग
की पूजा करनी पड़ी म अपे या सबेरे आहार िकया करता था और
िशवपुजा म ब त से उपसवास और कठोरता सहन करनी पड़ती ह
इसिलए ा की हािन के भय से माता मु झे ितिदन िशव की
उपासना करने से रोका करती थी, पर ु िपता उसका ितवाद
िकया करते थे, इस कारण इस िवषय को ले कर माता के साथ िपता
का ायः िववाद रहा करता था, माता के बारं बार ितिदन िशवपुजा
के करने से िनषे ध करने पर भी िपता मु झको उसके करने के िलए
कठोर आदे श िकया करते थे, िशवराि के आने पर िपता ने कहा
िक आज तु ारी दी ा होगी, और मं िदर म जाकर सारी रात
जागना होगा, िपता की आ ानुसार म उस िदन राि को अ ा
लोगों के साथ स िलत होकर िशवमं िदर गया, िशवराि का
जागरण चार पहरों म िवभ होता है २ पहर बीत जाने के प ात
तीसरे पहर म मने िपता से घर लौटने की अनु मित मां गी, िपता ने
आ ा दे कर मे रे साथ एक िसपाही कर िदया और इस िवषय म िक
म भोजन करके वृतभं ग ने क बारं बार मु झसे कह िदया, पर ु
घर म आकर जब मने माता से ु धा की कथा को कािशत िकया,
तब उ ोंने जो कुछ भी मु झे आहार के िलए िदया उसको म िबना
खाएँ न रह सका, भोजन के प ात मु झे गहरी नींद आ गई दु सरे
िदन ात:काल िपता ने घर म आकर सुना िक मने त भं ग िकया ह,
यह सुनकर वह मे रे ऊपर बड़े ोिधत ए और मु झे भला बुरा
P- 23
कहने लगे इस िवषय को ले कर िफर से माता और िपता के बीच
िववाद आ।
समी ा-- इस ले ख को पढ़ने के प ात िव ान लोग आसानी से यह
बात समझ सकते ह िक मू लशंकर बचपन से इतना मू ढ़, हठी, िढ़ठ
और ना क वृि का ों रहा था?
दयानं द को यिद कलयुगी रावण कह तो यह कहना गलत न होगा,
यिद ामी जी के िपता ऋिष िव वा, तो उनकी माता रा सी
कैकसी के समान थी और उसका रज (प रणाम) धम का नाश
करने वाला ना क िशरोमिण मू लशं कर आ, मू लशं कर के िपता
जहाँ उसे धम के माग पर ले जा रहे थे, तो दू सरी ओर उसकी माता
उसे अपने भाव अनु सार रा सी िश ा से पोिषत कर रही थीं,
इसका प रणाम यह आ िक जो-जो धम कम वेदानु सार है उसकी
माता ने उससे उ िश ा कर मू लशं कर को अधम और ना क
वृि का बना िदया, और आगे चलकर वही उसके जीवन का
उ े बन गया, जै से उसकी माता उसे धम कम के माग से िवमु ख
कर भौितकवाद की तरफ ले गई, िठक उसी कार मू लशंकर
भारतवष म घुम-घुम कर धम कम करने वाले जो उनसे
िमलते उनसे सनातन कमकां डों का िनषे ध कर उनको िमत
करते, और जै सा िक इस ले ख से है ामी दयानं द बचपन से
ही पेटू थे, और इस बात को दयानं द ने अपने इस ले ख म ीकार
भी िकया है , िपता उ त आिद करने को कहते पर ु मू लशं कर
से भू ख बदा नहीं होती थी, ोिक उसकी माता अ र चोरी से
उ भोजन करवा उनका त भं ग करवा दे ती, पर जब यह बात
उनके िपता को पता चलती िक उ ोंने उनके आदे श की अवहे लना
P- 24
करते ए त भं ग कर िदया, तो वे उनपे ोिधत हो जाते और उ
इसके िलए दं िडत करते,इसी कारण मू लशं कर िक माता और िपता
का ायः िववाद रहा करता था, ऐसे म ामी जी को अपने िपता
िकसी श ु से कम नहीं लगते जो अपने िनयम धम कम से उनकी
भोगिवलास वाले जीवन म अशां ित उ कर रहे थे, यही कारण
था िक मू लशं कर अपने िपता से घृणा करने लगा, िपता उसे जो
करने को कहते मू लशं कर उससे उ ा ही करता, और इसी घृणा ने
मू लशं कर को ना क बना िदया।
४• मूित ( ितक) पु जा म अिव ास-
(अ) आय समाजी गपोड़ा- उनके जीवन म ऐसी ब त सी घटनाएं
ईं, िज ोंने उ सनातन धम की पार रक मा ताओं और ई र
के बारे म गंभीर पूछने के िलए िववश कर िदया, एक बार
िशवराि की घटना है , तब वे बालक ही थे, िशवराि के उस िदन
उनका पूरा प रवार राि जागरण के िलए एक म र म ही का
आ था, सारे प रवार के सो जाने के प ात् भी वे जागते रहे िक
भगवान िशव आयगे उसे दशन दगे और साद हण करगे,
उ ोंने दे खा िक िशवजी के िलए रखे भोग को चूहे खा रहे ह, यह
दे ख कर वे ब त आ यचिकत ए और सोचने लगे िक जो ई र
यं को चढ़ाये गये साद की र ा नहीं कर सकता वह मानवता
की र ा ा करे गा? इस बात पर उ ोंने अपने िपता से बहस की
और तक िदया िक हम ऐसे असहाय ई र की उपासना नहीं करनी
चािहए।
P- 25
(ब) ामी दयानं द के अनु सार- दयानं द अपने आ च रत के
पृ सं ा ३-४ म िलखते ह- दो पहरों के प ात जब िनिशथ काल
आया, तब पुरोिहत और अ ा लोग मं िदर के बाहर चले गए,
उसके कुछ समय प ात मने दे खा कई एक चुहे िबल म से बाहर
िनकल कर महादे व की िप ी के ऊपर इ ापूवक िवचरण और
उनके म क थत चावलआिद का भ ण करने लगे, मै जागते ए
इस को दे खता रहा, इस कारण इस को दे खते समय मे रे
सरल अ :करण म यह उठा िक जो कई कई सौ दु दमनीय
दानवों के संहार म समथ है , वे अपनी दे ह पर से थोड़े से चूहों को
दू र करने म समथ ों नहीं, इस को ब त दे र तक सोचते
सोचते मे रे म घूमने लगा, िजस कारण म िपता की िन ा भं ग
िकए िबना रह सका जब िपता जागे, तो मने इस को पूछा,
िज ािसत के उ र म िपता ने मु झे समझाते ए कहा- "तु
अ बु बालक है यह तो केवल महादे व का तीक मा है " िपता
के इस कार के उ र से म संतु न हो सका, इसिलए मने उसी
थान और उसी ण यह ित ा की िक यिद म ि शू लधारी महादे व
के दशन नहीं क ँ गा, तो म िकसी कार से भी उसकी आराधना
नहीं क ँ गा।
"इस कार की ित ा करके म घर लौट आया और माता से यह
कहकर िक म ब त भू खा ँ खाने को पदाथ मां गा"
P- 26
समी ा-- ामी जी आपके िपता ने सहीं कहा था यिद आप
अ बु नहीं होते तो इस कार की उटपटां ग बात न करते,
वेदािद ंथों म सही कहा गया है िक—
अिव ायाम रे वतमानाः यं धीराः प तं म मानाः।
~ऋ े द {१०/१२९/१}
P- 27
है , (तत्) (िकं) (निकम ासीत्)- वह भी नहीं था, (गहनं गभीरं )- गहन
गंभीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा था? अथात नहीं था
न मृ ुरासीदमृ तं न तिह न रा ा अ आसी केतः।
~ऋ े द {१०/१२९/२}
~यजुवद {१३/४}
P- 28
य ऽ इमा िव ा भुवनािन जु द् ऋिषर् होता ् असीदत् िपता नः।
~[यजुवद : अ० ३१, मं ३]
P- 29
यह ि काला क िव उस ई र की मिहमा ही है , िक ु उसकी
मह ा इससे भी अिधक है , यह स ू ण िव जीवों सिहत जो कुछ
भी है उसकी मिहमा का एक भाग है , और शे ष तीन भाग म
काशमान मो प आप है । और ीम गव ीता म भी इस
कार िलखा है िक (बु े : परत ु स:) िक वह परमे र बु से परे
है जब वह बु से परे है तो भला दयानं द जै सा ना क उसके
प को कैसे जान सकता है ?
य जग ां जगत् ॥१॥ ~ईश० उपिनषद
तद ेष ोको भवित॥“
P- 30
ना क को ा बोल गया, इसी को अनी रवादी कहते ह, सह ों
ऋिष मु िन संसार का ाग कर, मन म िसफ परमा ा का प
जानने की इ ा िलए आर म वष किठन तप ा िकया करते थे
और आज भी करते ह, और एक यह की न ी जान जै सी वै ा के
हाथों मृ ु को ा होने वाला मन म ई र के दशन करने की
इ ा िलए हडताल पर बैठा है , िक जब तक दशन नहीं कर लू गाँ
तब तक ई र के अ को न ीका गाँ , ध हे ! तेरी बु ,
अब तो दयानं दी ही हम बताए िक ा दयानं द ने अपने मतानु सार
िनराकार के दशन कर िलए थे? या पुरे जीवन हडताल पर बैठे
रहे , ोकी िबना दशन िकए तो दयानं द ई र की ु ित करने से
साफ मना करते ह।
इसका मतलब दयानं द ने अपने जीवन म कभी भी ई र की ु ित
की ही नहीं पुरी िजं दगी ना क ही बने रहे , अब जब यह हाल है
िक समाज का सं थापक यं ना कतावाद की राह पर चल पड़ा
तो उसके चैलों का ा कहना, वह ा िकसी को धम का माग
िदखायेगा, जो यं माग से भटक चुका है ।
५• दयानं द के गृ ह ाग का रह -
(अ) आय समाजी गपोड़ा- अपनी छोटी बहन और चाचा की है जे
के कारण ई मृ ु से वे जीवन-मरण के अथ पर गहराई से सोचने
लगे और ऐसे करने लगे िजससे उनके माता िपता िच त रहने
लगे, तब उनके माता-िपता ने उनका िववाह िकशोराव था के
ार म ही करने का िनणय िकया (१९ वीं सदी के भारत म यह
P- 31
आम था थी) ले िकन बालक मू लशं कर ने िन य िकया िक िववाह
उनके िलए नहीं बना है और वे १८४६ मे स की खोज मे िनकल
पड़े ।
(ब) ामी दयानं द के अनु सार- दयानं द अपने आ च रत के
पृ सं ा ६ म िलखते ह िक- "हम पाँ च भाई बहन थे, उनम दो
मे रे भाई और दो बहन थी, जब मे री आयु १६ वष की थीं तब मे रे
छोटे भाई का ज आ,
एक बार म राि के समय एक बा व के घर म नृ उ व दे ख
रहा था िक घर से एक भृ ने आकार समाचार िदया िक मे री १४
वष की बहन ब त पीिडत हो गई है आ य है िक यथोिचत
िचिक ा के होते ए भी मे रे घर लौटने के दो घंटे प ात उसकी
मृ ु हो गई, उस भगनी के िवयोग का शोक मे रे जीवन का पहला
शोक था।
िजस समय सब मे री भगनी के चारों ओर िवलाप और रै दन कर रहे
थे, उस समय म खड़ा खड़ा यह सोच रहा था िक इस संसार म सभी
को एक ना एक िदन मृ ु के मु ख म जाना होगा, इसिलए मुझे भी
एक िदन मृ ु का ास बनना होगा, मे रे मन म मृ ु का भय बैठ
गया, म मन ही मन ये सोचने लगा िक िकस जगह जाने से म मृ ु
के य ण से बच सकूंगा।
कुछ िदन िपछे मे रे चाचा की भी मृ ु हो गई, मे रे चाचा
सद् गुणस सुिशि त थे और वह मु झको ब त ार
करते थे इस कारण म उनके िवयोग से ब त ही िथत आ,
इसके अित र इस घटना के प ात म यह िच ा भी करने लगा
P- 32
िक मु झको भी इसी कार से कालकवल बनना पडे गा, जब मश:
मृ ुिच ा ब त वल हो गई, तो मै अपने बा वों से पुछने लगा
िक िकस उपाय का अवल न कर मु झे अमर ा हो सकता
है , दे श के पंिडतों ने मु झेको योगा ास करने का परामश िदया,
इसिलए अमर की ा हे तु मने गृह ाग का संक िकया और
एक िदन सं ा के समय िबना िकसी को बताए मने गृह ाग कर
िदया, उस समय मे री आयु २० वष थी...
P- 33
भयानक और ददनाक ई िजसकी ामी जी ने कभी क ना भी
नहीं की होगी,
और गपोिडये दयानं दी यह कहते ह िक दयानं द ने स की खोज
म गृह ाग िकया, अरे मू ख स की खोज म नही, जब दयानं द
की मृ ु से फटी तो उ ोंने गृह ाग िकया, जो दयानं द मृ ु जै से
स को न समझ सका, सारी उ उससे बचने को इधर उधर
भागता रहा, वो िकतना बु मान होगा यह समझना कोई बड़ी बात
नहीं,...
यह तो था ामी दयानं द के ज से ले कर उनके गृह ाग तक
का वृ ां त, अब आगे दयानं द के गृह ाग के बाद का वृ ां त ामी
जी के ही श ों म यहाँ ों का ों िलखते ह.....
६• स े योगी की खोज –
अब तक हमने पढ़ा की िकस कार ामी दयानं द ने मृ ु से बचने
व अमर की खोज म गृह ाग िकया ामी दयानं द ऐसे योगी की
खोज म िनकल पड़े जो उ अमर की ा करा सक, अब
आगे--
उ जीवन च र के पृ १७ म दयानं द का कथन ह िक शै लानगर
म, म लाला भक्त के पास ठहरा आ था लाला भ एक साधु
और सुिशि त करके िस थे, वहाँ एक चारी के साथ
मे री बातचीत ई म उससे दी ा ले कर ब चारी के आ म म िव
हो गया, और गे वे व धारण करके "शु चैत " नाम हण
कर िलया।
P- 34
पृ २० म िलखा है िक काितक के महीने म एक िदन म िस पुर
प चाँ कारण यह था िक उस समय िस पुर म एक मे ले के लगने
की चचा थी, इसके अित र यह आशा करके की मे ले के कारण
अने क योग-िव ा िवशारद योिगयों का समागम होगा और उनम से
िकसी एक के उपदे श से मु झे अमर ा होना संभव है ,
पृ २१ म िलखा है िक चलते चलते म अहमदाबाद और बडौदा
प चाँ , बडौदा के चैत मठ नामक म रम ानं द और अ ा
चारी स ासीयों से िमला,
पृ २२ पर िलखा है िक ानंद आिद स ु षों से बात करके मु झे
िव ास हो गया िक अथात ई र मु झसे िभ कोई पदाथ नहीं
है , जीव और की एकता का िन य मु झे स क् करा िदया,
पिहले भी ायः मे रे मन म ये बात आती थी पर ु आज इन महा ा
पु षों ने इस बात को मे रे मन म पुरे कार से िस करके िदखा
िदया, और मु झे पुरा पुरा िव ास हो गया िक म ही ँ
पृ २७-२८ से कट है िक दयानं द ने परमानं द परमहं स से
वेदां तसार और वेदां त प रभाषा आिद की िश ा हण की, उसके
बाद पुणानं द सर ती से स ास की दी ा ले कर स ासी के
आ म म िव हो गए, पूणानं द ने उ े स ािसयों की चौथी क ा
म थान दे कर उनका नाम दयानं द सर ती रख िदया,
पृ ४९ म िलखते ह, िक १८६० मथु रा प ँ च म िवरजानं द नामक
सुप त साधु के पास गया उस समय उनकी आयु ८१ वष की थीं
िवरजानं द ज से ही अंधे थे और उनको उदर की पीड़ा थी उनके
पास रहकर मने ाकरण के साथ वेदािद ंथों का अ यन आर
P- 35
िकया, िवरजानं द के पास पाठ समा करके दो वष तक म आगरा
म रहा,
P- 36
अ ै तवाद को झूठा जानकर छोड िदया और ै तवादी बन गए,
िनदान अ ै तवाद अथात शं कराचाय के मत के खं डन म एक छोटी
सी पु क भी बनाई और स ाथ काश म भी इसका खं डन कर
गु दि णा प अपने गु जनों के मु हँ पर जू ता दे मारा, और
साथ ही अपने ारह िनयोग से उ होने का माण िदया।
पाठकगण! ान कर िक अब तक उ ोंने िकतने प बदल,
िकतने मत ीकार िकए, िकस-िकस के चेले बने और िकस-िकस
का ाग िकया, िजसने जीवन पय अपने आपको माना
उससे बढ़कर ना क और कौन होगा? ऐसे पु ष के कथन व
व ाव का ा भरोसा?
जीवन पय जीन िवरजानं द को अपना गु और परम िव ान
िलखते आए उ ीं के मत को िम ा और झूठा कहते रहे , एक
काल म परम िव ान और गु िलखना और उसी के मत को झूठा
ठहराना अित अ ानता और ल ा की बात है ,
और अंत म पाठकगण! जरा िवचार कर िजस उ े से दयानं द ने
गृह ाग िकया ा दयानं द उसम सफल रहे ? ाउ कभी
स ा योगी िमल सका? इसका िनणय आप लोग यं कर।
७• ामी दयानं द की बु -
अब आपको ामी जी की बु का नमू ना उ ीं के ारा िलखे
'दयानं द आ च रत' से िदखाते ह-
दयानं द आ च रत पृ ४८-४९ पर चां ड़ालगढ़ के वणन म िलखा
है िक खोटी ार से इस जगह मु झे एक बड़ा दोष लग गया
अथात मु झे भं ग पीने की ऐसी आदत हो गई िक कभी-कभी तो
P- 37
उसके कारण म सवथा बेहोश हो जाया करता था, एक बार
चां डालगढ़ िनकट थ एक गां व के िशवालय म एक िदन राि यापन
के िलए उप थत आ, भं ग से उ मादकता के वश मे मुझे वहाँ
गहरी नींद आ गई , मे रे िववाह के संबंध म पावती के साथ महादे व
की बात-चीत हो रही है , ऐसा एक दे खकर म जाग गया, ात:
काल एक ी ने मु झे दही िदया मने उसे खा िलया, दही ब त ख ा
था इसिलए भं ग का नशा उतरने को एक अ ी औषिध हो गई,
P- 38
ने आकर कहा- "आप यं को सव ागी स ासी बताते ह,
ा आपके प म इस कार ब मू त ाकू सेवन करना िवधेय
है ? आपको धू पान करते ए ल ा नहीं आती" इस बात के सुनते
ही ामी जी ने उसी ण धू पान छोड़ने का िन य िकया,
पाठकगण! िवचार कर पहले भं ग और अब धू पान ा ये
चारी, स ासी के ल ण ह?
ा इन दोषों और अवगुणों को दे खते ए दयानं द को महिष कहा
जाना चािहए? कदािप नहीं!
पृ ४७ पर िलखा है िक मने एक ंथ म नाड़ी च का िववरण
पढ़ा, वह मु झे स तीत नहीं आ, ुत उस िवषय म संशय
उ हो गया, संशयजाल को तोडने के अिभ ाय से म एक िदन
नदी के भीतर से एक शव खींच लाया, और एक तेज छूरी ारा शव
को चीरना ारं भ िकया, मने िदल को उसम से िनकाला और िफर
नािभ से पसली तक चीर िदया, इसी कार िसर और गदन से एक-
एक भाग को काटकर अपने स ुख रख िलया, उसके प ात चीर
ए शव के अने क अंगों को िमलाकर दे खने लगा, पर ु उसके
िकसी अंग म भी ंथविणत नाड़ीच का िनदशन मा भी न पाकर
उस शव के साथ ही उस ंथ को भी टु कड़े टु कड़े करके नदी म
फक िदया
P- 39
पाठकगण! िवचार करके बताए, भला ये ि जाितयों और
स ािसयों का धम है , व नीच कम, इस कार महामु ख वाले काम
के िलए तो ामी जी को चुितयापंित का सव े पुर ार िमलना
चािहए ामी दयानं द के इस ले ख को पढ़कर इस बात म कोई
संदेह नहीं रह जाता की ामी जी उन महामु ख म से है जो मु दा
लाश म नाड़ी (Pulse) ढु ढ़ रहे है ध है आप और आपकी बु
अ ा आ आपने उसम मन, आ ा आिद नहीं ढू ढ़ा अ था न
पाकर उ भी िम ा ही बोल दे ते,
िनस े ह भं ग और धू पान से ई बु की ां ित ने आपसे यह
अनु िचत कम करवा िदया।
दयानं द आ च र पृ ३७-३८ से कट है िक उ ोने िजन पु षों
को अपनी आँ खों से पशु वध करत मां स भ ण करते दे खा, िज े
हाथों म पशु मुंड िलए बैठे दे खा, उ ी से सीधा आिद ले कर भोजन
िकया,
िफर पृ ६५ मे िलखा है िक- "म एक भयानक जं गल मे गुम गया
मशः चारों िदशाएं सं ा के अंधकार म आवृत होने लगी, उस
समय मै ने थोड़ी दू र पर ही अि का काश दे ख वही एक िवशाल
वृ के नीचे बैठ गया, वहाँ के लोग मे रे िनकट मु झे अपनी झोपडी
म बुलाने आए पर ु मने उनका भोजनािद स ार ीकार नहीं
िकया ोंिक वे सब मू ितपूजक थे ,
समी ा-- ध हे ! ामी जी आप और आपकी बु , िजसे अपनी
आँ खों से पशु वध करत और मां स खाते दे खा िजनके हाथों म कटे
ए पशु मंड दे ख उससे सीधा आिद ले कर भोजन करना तो ीकार
P- 40
िकया और मू ितपूजकों के स ार का ितर ार, ये बु की ां ित
का अंधकार है वा ै षाि की ेरणा का अंधकार यह भी ान रहे
िक ामी जी मू ितपूजक के रजिवय से ही कट ए मू ितपूजक के
अ से ही उनका शरीर बढ़ा, जब तक सब जगह समाज थािपत
नहीं ए मू ितपूजक के अित र िकसी के भोजनािद स ार से
पालन पोषण आ, ऐसा ले ख िलखते ए आपको ल ा नहीं आई।
आप आपने यजु वद भा १३/४८-४९ आिद मं ों म भी पशु िहं सा
अथात नीलगायािद पशु ओं को श ों म मारना िलखाते है
आपको वेदों म पशु िहं सा िलखते मां सभि यों के हाथों सीधा ले कर
भोजन करते ल ा नहीं आई और मू ितपूजकों के स ार का
ितर ार िसफ इस कारण कर दे ते ह ोंिक वे मू ितपूजक है यही
है आपकी बु
पाठकगण! उ ले ख म िगनवाये दयानं द के दोषों को पढ़कर यं
िवचार कर िक जीवन पय धू पान करने वाले, लाश की िचर
फाड करने वाले, मां सभ कों के हाथ से भोजन करने वाले, वेदों म
पशु िहं सा िलखने व उसका समथन करने वाले दयां नंद की बु को
दे खते ए बताए-
ा ऐसा चारी, स ासी या िफर महिष कहलाने यो
है ? कदािप नहीं!
८• समाज सुधारकर या िफर समाज को अ ान पी अंधकूप म
धकेलने वाला-
P- 41
को दू र करने के िलए, िनभय होकर उन पर आ मण िकया, वे
'सं ासी यो ा' कहलाए, उ ोंने ज ना जाित का िवरोध िकया
तथा कम के आधार वेदानु कूल वण-िनधारण की बात कही, वे
दिलतो ार के प धर थे, उ ोंने बाल िववाह का िनषे ध िकया तथा
िवधवा िववाह का समथन िकया...
P- 42
ामी जी अपनी पु क ‘सं ार िविध’ म िलखते ह िक गोद के
ब ों के नाम रखते समय भी उनके ा ण, ि य, वै और शू
होने का पूरा ान रखना चािहए, वह िलखते ह--
‘‘नामकरण का काल िजस िदन ज हो, उस िदन से ले के १०
िदन छोड़ ११व व १०१ (एक सौ एक) म अथवा दू सरे वष के आरं भ
म, िजस िदन ज आ हो, नाम धरे ’’ ~(सं ार िविध, पृ ६३)
‘‘दे व अथवा जयदे व ा ण हो तो दे व शमा, ि य हो तो दे व
वमा, वै हो तो दे व गु और शू हो तो दे व दास इ ािद...बालक
का नाम धर के पुनः ‘ओं कोिस.’ ऊपर िल खत मं बोलना.’’
~(सं ार िविध, पृ ६६)
दयानं द ऋ े दािदभा भू िमका के पृ ९२ पर “प ाँ शू ो” का
अथ करते ए िलखते ह--
जै से पग सबसे नीच अंग ह, वैसे मू खता आिद नीच गुणों से शू वण
िस होता है ’
स ाथ काश, म ‘शू ों को िनबु और मू ख बताते ह
यजु वद अ ाय १४/९ म वै और शु ों की पशु से तुलना करते
ए िलखते है िक--
(ष वाट् )- पीठ से बोझ उठाने वाले ऊँट आिद के स श वै ,
(उ ा)- सींचने हारे बैल के तु शू ,
यजु वद ३०/२१ मे िलखते है िक--
(चा ालम्)- भं गी को, (खलितम् )- गंजे को, (कृ म्)- काले रं ग
वाले, (िपड़् गा म्)- िपले ने ों से यु पु ष को दू र कीिजये,
P- 43
दयानं दीयों का कहना है िक दयानं द ने कम के आधार वेदानु कूल
वण-िनधारण की बात कही
दयानं दीयों ने शायद दयानं द के वेदभा नहीं पढ़ नहीं तो जान
पाते िक दयानं द वेदानु कूल नहीं ब पशु ओं के कमानु कूल
पशु ओं से तुलना करके वण-िनधा रत करते ह जै से अपने
यजु वदभा १४/९ म वै ों के ऊँट और शु ों को गधे बैलािद के
तु बताया है
शायद यही कारण है िक दयानं द ने स ाथ काश चतुथ समु ास
म शू ों की ीयों के साथ िनयोग का समथन तो िकया है पर शू
पु षों को िनयोग के अिधकार से यह कहकर वंिचत रखा िक
याँ िसफ अपने से उ वण के पु ष के साथ िनयोग कर इस
कार दयानं द ने अपनी शू िवरोधी मां िसकता जगजािहर कर दी,
दयानं दीयों के अनु सार उ ोंने बाल िववाह का िनषे ध िकया तथा
िवधवा िववाह का समथन िकया- -
इस बात को तो म भी मानता ँ िक ामी जी ने बाल िववाह का
िनषे ध कर, अधेड उ के िववाह का समथन िकया, मी दयानं द
अधेड़ उ के समाजी रं डवों को ान मे रखते ए स ाथ काश
मे िलखते है िक सबसे उ म िववाह २४ वष की क ा और ४८ वष
के बुढ़ों का है , और जहाँ तक िवधवा िववाह का है तो मु झे
लगता ह दयानं दी अपने ंथों का ही अ यन नहीं करते अगर
करते तो जान पाते िक ामी दयानं द िवधवा िववाह के घोर
िवरोधीयों मे से थे, स ाथ काश चतुथ समु ास म दयानं द ने
P- 44
बकायदे पुनिववाह के दोषों पर ल ा चौड़ा और बचकाना सा ले ख
िलखा है
ामी दयानं द िवधवा ी को िसफ और िसफ ब ा पैदा करने की
मशीन समझते थे उनके मतानुसार िवधवा ी चाहे तो िकसी
परपु ष से िनयोग कर पु उ कर ल, पर ु पुनिववाह नही
कर, ामी दयानं द के अनु सार पुनिववाह से ी का पित त धम
खं िडत हो जाता है पर ु ारह अलग-अलग पु षों के साथ सोकर
भी उसका पित त धम खं िडत नहीं होता, यही तो ामी जी के भं ग
की तंरग है नशे म ा ा बक गए कुछ ाल है
पाठकगण! यं िवचार कर दयानं द समाज सुधारक थे या िफर
समाज को घोर अंधकार म धकेलने वाले सनकी ...
P- 45
पाठकगण! के मन म उठ रहा होगा िक आ खर अं ेजी
सरकार दयानं द पर इतनी मे हरबान ों थी, तो इसका जबाव है --
‘िडवाइड एं ड ल’ अं ेज़ों की नीित "महान तं ता सेनानी
सुभाषच बोस ने अं ेजों की नीित का तीन श ों म खु लासा करते
ए िलखा है - िडवाइड एं ड ल अथात फूट डालो और राज करो"
ामी दयानं द यही कर रहे थे, उनके नवीन मत चार से सनातन
धम मे िबखराव की थित उ होने लगी थी और अं ेजों की तो
शु से यही नीित रही थी, िजसे ामी दयानं द ने और आसान बना
िदया, ामी दयानं द आ खर ऐसा ा कर रहे थे दे ख--
दयान सर ती के बारे म ी कॉलेज के ाचाय डॉ
होनले (Rudolf Hoernley) ने यह बात िलखी—
दयान िहं दुओं के मन म यह बात भर दे ना चाहते ह िक आज का
िहं दूधम, वैिदक िह दू धम के पूणतया िवपरीत है , और जब यह बात
िह दु ओं के मन म बैठ जायेगी तो वे तुरंत िहं दूधम का ाग कर
दगे; पर तब दयान के िलए उ वैिदक थित म वापस ले जाना
स व न होगा, ऐसी थित म िहं दुओं को एक िवक की खोज
होगी जो उ िहं दू से ईसाई धम की ओर ले जायेगी।
ोत: The Christian Intelligence, Calcutta, March 1870, p
79 and A F R H quoted in The Arya Samaj by Lajpat Rai,
1932, p 42 quoted in Western Indologists A Study in
Motives.htm, Purohit Bhagavan Dutt
अब आपको दयानं द का असली चेहरा िदखाते है - जबसे ू यॉक म
िथयोसोिफकल सोसायटी की थापना ई तभी से ामी दयानं द ने
P- 46
उनसे स क साधना आरं भ कर िदया, और १३ अ ैल १८७८ म
ामी दयानं द ने िथयोसोिफकल सोसायटी को प िलखकर
िथयोसोिफकल सोसायटी से यह िनवेदन िकया िक वह अपना
धान कायालय ू यॉक से मु ई ले आए, उसके जबाव म
िथयोसोिफकल सोसायटी की तरफ से जबाव म जो प आया वो ये
है उसम िलखा था—
P- 47
The Theosophical Society, New York, May 22nd 1878.
To the Chief of the Arya Samaj.
HONOURED SIR,
You are respectfully informed that at a meeting of the
Council of the Theosophical Society, held at New York
on the 22nd of May 1878, the President in the chair
upon motion of Vice-President A. Wilder seconded by
the corressponding Secre tary H. P. Blavatsky, it was
unanimously resolved that the society accept the
proposal of the Arya Samaj, to unite with itself, and
that the title of this Society be changed to
" The Theosophical Society of the Arya Samaj of India.
*
Resolved, that the Theosophical Society for itself and
branches in America, Europe and else-where, hereby
recognize Swami Dayanand Saraswati, Pandit, Founder of
the Arya Samaj, as its lawful Director or Chief.
Awaiting the signification of your approval and any
instructions that you may be pleased to give.
I am, honoured sir, by order of the Council,
Respectfully yours,
(Sd.) AUGUSTUS GOSTAM,
Recording Secretary
***********************************
P- 48
िजसका िह ी अनुवाद इस कार है-
आपका
(ह ा र) आग मग म,
***********************************
P- 49
प म श ों म िलखा है िक यह सभा आय समाज के इस
ाव को िक सभा (अथात िथयोसोिफकल सोसाइटी) उ
समाज (अथात आय समाज) के साथ िमल जाव और इस सभा का
नाम प रवितत करके "Theosophical Society of the Arya
Samaj" रखा जाव ीकार करती है ,
उ प से यह साफ हो जाता है िक िकस कार ामी जी ईसाई
िमशनरीयों से िनवेदन कर रहे ह िक आओं आय समाज के जमाता
हमारे साथ िमल कर भारतीय सनातन सं ृ ित को न करने म
मे री सहायता कर और अपने मत का चार कर ना कवाद को
बढ़ाने म आय समाज का सहयोग कर,
पाठकगण! िवचार कर यिद दयानं द का काम वैिदक धम का चार
ही था तो ा दयानं द को पुरे भारतवष म कहीं वैिदक लौग नहीं
िमल, जो वे ईसाइयों के सामने िगडिगडा रहे थे , आ खर दयानं द ने
उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसे कौन से वैिदक गुण दे ख
िलए जो उ सनातनधम यों मे न िदख, दरअसल ामी जी ाथ,
अंहकार और ै षाि म इतने अंधे हो चुके थे िक अपने ाथपूित
के िलए वो िकसी भी र तक िगर सकते थ वना दयानं दी जबाव द
िक यिद दयानं द का मन साफ था तो उ ोंने सनातनधम यों के
साथ िमलकर वैिदक धम का चार सार ों नहीं िकया और उस
गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसा ा दे ख िलया जो ना तो
वैिदक धिम थे और ना ही इस भारतभू िम के, िफर ऐसा ा कारण
था जो िथयोसोिफकल सोसाइटी को भारत म बुलाने व उसका
िह ा बनने के िलए उनकी लार टपक रही थी, ऐसा करते ए
दयानं द को ल ा नहीं आई,
P- 50
पाठकगण ! यं िनणय कर दयानं द वैिदक धम के चार थे या
िफर सनातन सं ृ ित को न करने वाले एक ष ं कारी...
P- 51
िफर आगे िलखा है िक-- इस बात से न ी जान ामी जी से
अ ंत ोिधत हो उठी, न ी जान ामी जी की ह ा का ष ं
रचने लगी, उसने रसोइये जग ाथ के मा म से २९ िसतंबर १८८३
की राि को दू ध म िवष िमलाकर िपलवा िदया, िजससे उनका
ा खराब होने लगा, उ ी और द कने का नाम नहीं ले ते,
उदर शू ल और यकृत म सूजन के साथ-साथ ामी जी को
अ िधक शारी रक दु बलता अनु भव होने लगी।
और इस कार महीनों की ददनाक पीड़ा सहने के बाद ३०
अ ू बर १८८३ ई. दीपावली की शाम को ामी दयानं द की मृ ु
हो गई, मृ ु से पहले ामी दयानं द के अंितम श थे-
‘हे दयामय, हे सवश मान् ई र, तेरी यही इ ा है , तेरी यही
इ ा है , तेरी इ ा पूण हो, अहा! तूने अ ी लीला की!
P- 52
ामी जी ने अपने सािह म कहीं भी ई र और स ु षों के
कम को लीला नहीं कहा है लेिकन अ काल आया तो जाते जाते
वह ई र के कम को भी ‘लीला’ कह गए, इससे समझा जा सकता
है िक संसार से िवदा होते समय उनके दय म ई र के ित िकस
कार के भाव थे,
ामी जी स ाथ काश म धूत, ठग और धोखे बाज़ों को ‘पोप’ की
सं ा दे ते ए उनके बुरे कामों को ‘लीला’ कहते है , वे लीला का अथ
बताते ए िलखते है --
“अथात् राजा और जा को िव ा न पढ़ने दे ना, अ े पु षों का संग
न होने दे ना, रात िदन बहकाने के िसवाय दू सरा कुछ भी काम नही ं
करना है ” ~(स ाथ काश, एकादश समु ास)
P- 53
दयानं द का अं ितम सं ार-
बताया गया है िक दो मन (८० िक ा.) च न, दस मन (४०० िक ा.)
पीपल की लकड़ी, चार मन (१६० िक ा.) घी, पां च सेर कपूर, एक
सेर केसर, दो तोला क ू री आिद साम ी ामी जी की िचता को
जलाने म ख़च की गई।
उनकी अ म सं ार के ख़च को आज जोड़ा जाए तो लगभग १०
से १२ लाख पये बैठता है । और ामी जी ‘सं ारिविध’ के पृ
१४१ पर ेक मृ तक को इतनी ही साम ी के साथ जलाना ही
वैिदक सं ार िलखा है , और िलखते ह िक जो कोई द र हो तो
ू न से ू न २० िक ा घी अव होना चािहए और जो इतना भी
घृतािद न होए तो न गाड़े , न जल म छोडे , न दाह करे , िक ु दू र
जाके जं गल म छोड आव,
समी ा-- वाह रे ! दयानं द तेरी बु , ये सं ार िविध ज र भं ग
के नशे म िलखी होगी, इतनी साम ी हो तो अंितम सं ार हो नहीं
तो शव को जं गल म फक द, िजस िदन दयानं द के पचास, सौ चेलों
की लाश जं गल म पड़ी िमले गी उस िदन गु आ ा का फल कट
होगा।
उिचत होता िक दयानं दी गु आ ा का पालन करते ए दयानं द के
अंितम सं ार म बेकार का इतना धन खच करने की बजाय
दयानं द की लाश को दू र कहीं जं गल म छोड़ आते, इस कार जो
धन और खा य साम ी बचती उससे लगभग १० प रवारों के एक
वष का भोजन का बंध हो जाता,
P- 54
दयानं द आ च रत िलखने का मे रा उ े िसफ इतना है िक
हमारे सनातनी भाई दयानं द के असली जीवन च र के बारे म
ठीक-ठीक जान सके, इससे पहले िक यह स हमे शा हमे शा के
िलए इितहास के अंधेरे म खो जाएं , ोिक हम सभी जानते ह, िक
जब भी हम िकसी आय समाजी ारा तैयार दयानं द जीवन च र
पढते है तो, हम केवल वही पढ़ और समझ पाते ह जो वो हम
िदखाना चाहता है या कह जो वो हमारे िदमाग म डालना चाहता है ,
िफर चाहे वो स हो या िफर अस ,
ले िकन उसम िकतना स और िकतना अस िलखा है वो हम
तभी जान पाते ह जब हम दयानं द ारा िल खत "दयानं द
आ च रत" पढ़ते है , और इस पु क के मा म से मने वही सत्य
लोगों के सामने रखने का यास िकया है , आशा है इस पु क से
सभी को ब त लाभ होगा,
नवीन आय समाजीयों से िवशे ष िनवेदन है िक जब भी वो इस
पु क को पढ़े तो शां त मन से िवचार कर, तभी स और अस
का िनणय हो सकेगा,
आशा करता ँ यह पु क सभी के िलए लाभकारी िस होगी,
~उपे कुमार 'बागी'
P- 55
दयानंद, स ाथ काश और उनके वेदभा ों िक
वा िवकता...
P- 56
क ना कर ली, और िश ों को उपदे श दे ना आरं भ कर िदया,
इसका फल इस दे श मे यह आ की फूट का वृ उतप हो गया
और सत् धम म बाधा पड़ने लगी, इन नवीन मतो से हािन तो हो ही
रही थी, इसी समय दयान सर ती ने अपना मत चलाकर कोप
लीला ार की, इसमे भ भाव, मू ितपूजा, अवतार, ा , पाप
दू र होना, तीर् थ, माहा आिद का िनषे ध करके जप तप, आचार
िवचार, जाित को मे टकर, कम से ा णािद वण, िनयोग- चार, ी
के एकादश ( ारह ) पित आिद करने की िविध आिद की आ ा
दे कर वेद मे रे ल, तार, कमे टी आिद का वणन कर सब कुछ वेदों के
नाम से ही िलख िदया है ,
इससे सं ृ त ना जानने वाले सनातन धम से हीन हो उनकी
ा ाँ सुन अपने महान पु षो की गित ाग इस नाम मा मे
मगन हो जाते है , इनके संगठन का नाम आय समाज है , तथाकिथत
स ासी जी के बनाये ए ंथो मे दू सरी बार का छपा स ाथ काश
ही इस मत का मू ल है , ामी जी के अनु यायी इसको प र की
लकीर समझते है , इसका पाठ करते है और कोई कोई इसकी
कथा भी कहाते है , समािजयों मे इसका पाठ होता है और शा ाथ
मे माण भी उसी से दे ते है , समाजीयों का ऐसा मत है िक स ाथ
काश का थम सं रण १८७५ म मु ि त आ, और कुछ तो यह
भी कहते है िक १८७५ के आसपास ही ामी जी ने वेदभा भी
िलख िलया था, पर ु इस बात म कुछ स ाई नहीं, स तो यह है
िक सच को िछपाने के िलए धूत समाजीयों ारा लोगों के िदमाग म
ये बात भर दी जाती है िक स ाथ काश का थम सं रण
१८७५ म और ि तीय सं रण १८८२ म छपा पर ु ये दयानं दी
P- 57
िकसी को ये नहीं बताते िक ये सं रण कब, कैसे और िकस
मु णालय से छप? इसका एक कारण यह है िक ादातर समाजी
यं नहीं जानते की स ाथ काश का थम सं रण कब, कैसे
और कहाँ से मु ि त आ?
यह बात इसिलए भी िछपाई गईं िक यिद लोगों को ये स ात हो
जाता की स ाथ काश का थम सं रण कब कैसे और िकस
मु णालय से छपा? तो लोगों के बीच ामी दयानं द की छिव
सनातनधम िवरोधी बनकर रह जाती, और भिव म कोई
इनके इस संगठन पर थु कना भी पसंद नहीं करता।
इस बात से िचंितत आय समाज ारा यह एक झूठ गढ़ा िक 'स ाथ
काश' का थम सं रण १८७५ म मु ि त आ, पर ु स तो
यह है िक स ाथ काश के ले खन का काय राजा जयकृ दास
ारा ले खन काय के िलए िनयु पं० च शे खर की सहायता से
जू न १८७४ म आरम्भ आ, और इस कार १८७५ म ामी
दयानं द ने थम समु ास को एक छोटी सी पि का के पम
प छपवाकर १० अ ैल १८७५ म आय समाज की थापना की,
िजसम ामी जी ने अपना मत और िनयम पर काश डाला था,
यह मा कुछ पृ ों की एक छोटी सी पि का थी, पर ु दयानंदी
इसे ही स ाथ काश का थम सं रण समझते ह, यही उनकी
बड़ी भारी भू ल ह, और यहीं नहीं ि तीय सं रण के बारे म भी
अस बोला गया िक वह दयानं द के जीिवत रहते छपीं, िजससे िक
भिव म दयानं द और आय समाज पर कोई उं गली न उठे , पर
अफसोस िक झुठ बोलते बोलते यह दयानं दी स को भू ल झूठ म
ही जीने लग, पर समाजी शायद यह भू ल गये िक स को िच ाना
P- 58
नहीं पडता और झूठ को हजार बार रटने से भी वह स म वितत
नहीं हो सकता।
अब ये उठता ह िक यिद स ाथ काश का थम सं रण
१८७५ म मु ि त न आ तो िफर कब आ? और दयानं द के
वेदभा ों और स ाथ काश िक स ाई ा है ? तो इसका उ र
हम ामी जी के इितहास म ही िमले गा तो आइए एक ि आय
समाज के इितहास पर भी डाल लते ह,
सन् १८६० दयानं द लु डकते-लुडकते मथु रा िवरजानं द के आ म जा
प ँ चे, िवरजानं द जो िक पाचँ वष की उ से ही ने हीन थे , उ ोंने
दयानं द को अपना चेला बनाया, यहाँ दयानं द ने 4G की ीड से
ान ा िकया, पर आदत से मजबूर ामी जी यहाँ भी ादा
समय तक न क सक, और सन १८६३ म अपने ने हीन गु
िवरजानं द को भी छोड़कर भाग खड़े ए, िफर कुछ वष तक वह
साधारण स ािसयों की आकृित से ह र ार ऋिषकेश आिद के
जं गलों म रहते रहे , कोई उनका नाम भी न जानता था, सन १८६७
के उपरां त वह गंगा जी के िनकट गां व और नगरों म ठहर कर जो
लोग उनसे िमलते थे उनसे सनातन पर राओं जै से भ भाव,
मू ितपूजा, अवतार, ा , पाप दू र होना, तीथ, माहा आिद का
िनषे ध करते, कुछ वष प ात अचानक दयानं द जी की भट राजा
जयकृ दास ई, राजा जयकृ दास दयानं द की बातों से काफी
भािवत ए और उ उनके मतों पर एक पु क िलखने का
सुझाव िदया, इस कार राजा जयकृ दास की सहायता से
दयानं द ने ले खन का काम ारं भ िकया, (सन १८७४ मे मै मु लर
ने अपने वेदभा कािशत िकए इसके बाद दयानं द ने अपने
P- 59
वेदभा एवं स ाथ काश आिद पर ले खन का काम ारं भ
िकया) लेखन का काय राजा जयकृ दकस ारा ले खन कार् य के
िलए िनयु पं० च शे खर की सहायता से जू न १८७४ को काशी म
आरं भ आ, यह सहायता इसी प म थी िक दयानं द बोलते जाते
थे और च शे खर जी िलखते जाते थे, इसके लगभग एक वष बाद
ामी जी ने थम समु ास को एक छोटी पु क 'स ाथ काश'
के नाम से छपवाकर आय समाज की थापना की, इस पु क की
सहायता से ामी जी ने केवल अपना मत कट िकया था, यहाँ यह
साफ कर द िक १८७५ म मु ि त 'स ाथ काश' म मा पहला
समु ास था िजसके ारा ामी जी ने अपना मत कट िकया था,
यह पु क पूण 'स ाथ काश' नहीं ह जो लोग इसे पूण स ाथ
काश समझते ह वह उनकी भू ल है , आइए अब आपको यह
बताते ह िक कब, कैसे और कहाँ से स ाथ काश का थम
सं रण छपा दे खए- यह हम पहले ही साफ कर चुके ह िक
स ाथ काश का ले खन काय पं० च शे खर ारा आ ामी जी
अपने मत चार और शा ाथ के िलए महीनों शहर से बाहर जाते
रहते और जब वापस लौटते तो उसका सब हाल ले खन काय के
िलए िनयु पं० च शे खर से कहते और वह उसे ों का ों
िलख दे ते इस तरह जब ले खन की साम ी ादा हो गई तो दयानं द
को सािह काशन हे तु मु णालय की आव कता होने लगी, इस
काय मे दयानं द को आय समाज मु राबाद, आय समाज मे रठ और
राजा जरकृ दास से कुछ सहायता ा ई, इसके अलावा
िथयोसोिफकल सोसायटी ने भी इसम भारी सहायता दान की।
P- 60
इसके बाद िथयोसोिफकल सोसायटी की मदद से ि ंिटं ग मशीन
लं दन से भारत मं गवाईं गईं, और िफर इस कार १२ फरवरी १८८०
को ल ीकुंड थत िवजयनगरािधपित के उ ानगृह की छत पर
वैिदक यं ालय की थापना ई, इस कार १८८१ म वैिदक यं ालय
ारा दयानं द यजु वदभा का काशन िकया गया, उसके लगभग
एक वष बाद स ाथ काश का थम सं रण भी वैिदक यं ालय
याग ारा १८८२ के अंत तक कािशत िकया गया इसम कुल
ारह समु ास थे,
दयानं द ारा स ाथ काश पर इसके आगे के ले खन का काम
चल रहा था साथ ही दयानं द ऋ े द का भी भा कर रहे थे अभी
ले खन का काम पूरा भी नहीं आ था िक ३० अ ू बर १८८३ को
ामी जी न ीजान नाम की एक वै ा के हाथों वीरगित को ा
हो गये।
दयानं द की मृ ु तक स ाथ काश का बारहवाँ समु ास िलखा
जा रहा था और ऋ े द के ६ मं डल तक का भा पुरा हो सका था
सातव मं डल के दू सरे सु का भा आरं भ िकया था पर वो पुरा न
हो सका।
इस कार कुल िमलाकर दयानं द २ वेद का भा भी पुरा न कर
सक, दयानं द की मृ ु के बाद तो दयानं दी जै से अनाथ ही हो गये,
सनातन धिमयों के बीच दयानं द और आय समाज की छिव सनातन
धम िवरोधी बन चुकी थी, इसका सबसे मु कारण यह रहा था
िक, दयानं द ने जीिवत रहते अपने इस तथाकिथत ंथ स ाथ
काश म िसफ और िसफ सनातन धम ही की िनं दा की थी और
P- 61
यही दयानं द का उ े भी था िथयोसोिफकल सोसायटी के साथ
अ े संबंध होने के कारण दयानं द ने कभी ईसाई और मु म मत
के िव कुछ नहीं िलखा, लोगों के मन म आय समाज की छिव
सनातन धम िवरोधी बनकर न रह जाय, इस भय से दयानं दीयों ने
दयानं द की मृ ु के बाद ईसाई और मु म मत के िव २
समु ास और तैयार िकए, िजसे १८८४ के अंत म वैिदक यं ालय
ारा स ाथ काश के ि तीय सं रण म छापा गया और एक
झूठ गढ़ा गया िक ये समु ास दयानं द के जीिवत रहते ही िलखे
गए थे पर कुछ सम ाओं के कारण यह छप न सक यहाँ तक िक
ि तीय समु ास और थम समु ास के छपने के समय को
ले कर भी झूठ बोला गया तािक आय समाज और दयानं द का ये
कुकम कभी िकसी के सामने ने आ सके,
ये झूठ १३३ वष से बोला जा रहा है ये समय इतना ल ा है िक अब
तो समाजी इस झूठ को ही स मान बैठे ह यही कारण है िक इन
समाजीयों से स ाथ काश के थम सं रण के बारे म पूछने पर
इनके पास कोई जबाव नहीं होता जबिक दोनों ही सं रण और
वेदभा एक ही मु णालय से छापे गए थे िजसकी थापना सन्
१८८० म ई थी
ये आय समाजीयों की गपडचौथ है िक थम सं रण १८७५ म
और ि तीय सं रण १८८२ म छपा, जबिक इस बात म कुछ भी
स ाई नहीं है , दरअसल ये समाजी रट् टू तोते है इ िजतना रटाया
जाता है उ उतना ही पता होता है
P- 62
स ाथ काश का थम सं रण उस बदनसीब ब े िक तरह है
िजसका बाप होते ए भी १३३ वष से लावा रस की तरह पहचान
की उ ीद म बैठा इं तजार कर रहा है , पर ु अफसोस की इस
तरफ िकसी का ान ही जाता, यिद इसकी बात होती तो सब भे द
खु ल जाता,
अब आइए एक ि दयानं द के वेद भा ों पर भी डाल ले ते ह
दरअसल आय समाजी िजन वेदभा ों को आज दयानं द वेदभा ों
के नाम से जानते ह वो यही नहीं जानते िक दयानं द ने तो कभी
वेदभा िकए ही नहीं थे , ब दयानं द ने मै मु लर के भा ों
का ही िह ी अनु वाद िकया है
माण-
मै मु लर ने अपनी ित १८७४ म दिशत की इसके ७ वष प ात
दयानं द ने अपने वेद भा कािशत िकया!!!
मै मु लर और दयानं द की वेद भा करण म कुछ समानताएं ह
जो बाकी वेद ंथों से समानता नहीं रखतीं। और इसके बाद टी एच
ि थ ने भी वेद भा को िलखा जो िक उ ोंने यं ही कहा है िक
वो मै मु लर से े रत है ।
इन तीनों के भा म सभी ादातर मं सं ा और उनका अथ
एक सामान है , यह संभव है िक दयानं द ने मै मु लर का वेद
भा पढ़ा और उसको अपने अनु सार िहं दी म िलखा जो िक आज
दयानं द वेदभा नाम से चिलत है , िक ु यह मू ल वेद ित नहीं है
ब केवल अथ का अनथ है , िजसमे कई मं ों को आधा अधुरा
करके िलखा गया है , िजससे अथ का समू ल नहीं होता ब
P- 63
अलग ही कार से अथ को दशाने का यास होता है , कई मं ऐसे
िलखे गए ह जो इनके वेद भा ों म ह वो अ वेद ंथों म नहीं ह,
आप कोई मं का सं ा का अ ाय भी दयानं द वंशजों से पूछ
ल तो ये अपनी मानिसकता पर आ जाते ह िक ु सही जवाब नहीं
दे ते, ोंिक ये यं भी जानते ह िक ये जो दयानं द कृत पु क
पढ़ते ह वे वेद नहीं ह, केवल छलावा ह लोगों को वेदों के नाम पर
अपनी िश ा दे ने का और अपनी सोच को वेदों के अनु सार न
ढालकर लोगों म अपनी सोच के अनु सार वेद ान को ढाल िदया है ,
अपने अनु सार इ ोने अथ बना रखे ह अपने अनु सार उनके मं
सं ा तय कर िदए!!!
ये जानकारी है िक िकसने कब िलखा और िकसने कब ये दे खये।
मै मु लर ने १८७४ म वेदभा िकए। िजसके २६ वष प ात् मृ ु
को ा ए,
दयानं द ने १८८१ म यजु वदभा , १८८२ म स ाथ काश और
१८८३ म ऋ े दभा िलखते िलखते ही मृ ु को ा ए,
रा टी एच ि थ ने कुछ कुछ ही वष के अंतराल म सारे वेदों
को टां सले ट कर िदया! और अं ितम टां सले शन के ७ साल बाद मृ ु
को ा ए।
Hymns of the Rigveda (published 1889) इसके कुल ४ साल
म ही सामवेद का पूण अ यन और टां सले शन!!!
Hymns of the Samaveda (published 1893) इसके कुल तीन
साल म ही अथववेद का पूण टां सले शन!!!!!
P- 64
Hymns of the Atharvaveda (published 1896) इसके बाद
तीन साल म ही यजु वद का टां सले शन!!!!
The Texts of the Yajurveda (published 1899)
P- 65
िथयोसोिफकल सोसायटी आफॅ द आय समाज
(Theosophical Society of the Arya Samaj)
P- 66
के अं ेजों के साथ अ े स थे (जो िथयोसोिफ प म छपे
कुछ ले खों से िस होता है इसकी चचा हम आगे करगे) सो ामी
जी ने अपने मत चार हे तु ईसाई िमशनरीयों की सहायता ले ने का
िन य िकया,
उस समय ामी दयानं द भारत म ईसाई िमशनरी के एकमा
सबसे बड़े ऐजट के प म सामने आये, आ यचिकत होने की
आव कता नही है , आप लोगों ने सही सुना ामी दयानं द भारत
म ईसाई िमशनरी के सबसे बड़े द ों म से एक थे , ामी दयानं द
न केवल िथयोसोिफकल सोसायटी के अहम सद थे, ब
िथयोसोिफकल सोसायटी के सं थापकों को प िलखकर उ
भारत म लाने वाले भी दयानं द ही थे , १८७८ से ले कर अपनी मृ ु
१८८३ तक ामी जी ने इस ईसाई िमशनरी सभा के साथ िमलकर
न केवल काय िकया, ब भारत म ईसाई धम के फलने फूलने
के िलए पैर जमाने के िलए अ ा खासा मं च तैयार करके िदया,
ामी दयानं द कब और कैसे िथयोसोिफकल सोसायटी के साथ
जु ड़े? अब आपको िव ार म समझाते ह,
सन् १८७५ म जब दयानं द अपने नवीन मत का चार करने काशी
प ँ चे, उ ीं िदनों, मै डम है लना पैटोवना ै वाट ी और कनल
हे नरी ील आ ाट नामक दो ईसाई िमशनरी सभा के धम
चारक भी अपने मत चार म लगे ए थे , यह बात जब ामी
दयानं द के कानों तक प ं ची, तो वह उनसे िमले िबना न रह सक
और मन म िमलने की इ ा िलए उनके स ुख प ं चे, ामी
दयानं द उनके काय की शं सा करते ए, उनके सामने साथ
िमलकर काम करने का ाव रखा और उ मु ई आने का
P- 67
िनमं ण िदया, मै डम ै वाट ी और कनल आ ाट उनका
ाव ीकार कर उनके साथ मु ई प ं चे, उसके कुछ समय
प ात ामी दयानं द ने १० अ ैल १८७५ म यहाँ आय समाज की
थापना की, िजसके बाद दोनों वापस ू यॉक के िलए िनकल गय,
ू यॉक प ँ चकर मै डम ै वाट ी और कनल आ ाट ने १७
नवंबर १८७५ म ईसाई िमशनरी सभा अथात िथयोसोिफकल
सोसाइटी की थापना की,
उसके बाद पुनः कनल और मै डम सन् १८७५ ई• की १७ वीं
िदसंबर को अमे रका के ू यॉक नगर से चलकर लं दन म २
स ाह यापन करक सन् १८७६ के फरवरी मास की १६ वीं तारीख
को मु ई म आकर उप थत ए, उसके प ात वहाँ कुछ िदन
ठहर कर सहारनपुर चले गये ,
(The Theosophist Vol 1. P 1., दे वे बाबु िल खत दयानं दच रत,
पृ २७३)
उन िदनों ामी जी पंिडत कृपाराम शा ी से भट करने के िलए
दे हरादू न आये ए थे , ले िकन जब उ यह ात आ िक मैडम
ै वाट ी और कनल आ ाट सहारनपुर आए ए ह तो उ ोंने
तुरंत दे हरादू न से सहारनपुर के िलए थान िकया, मै डम और
कनल को ले कर ामी जी सहारनपुर से मे रठ आए, मे रठ म उनके
रहने के िलए तं बंध हो गया, माई मास की पां चवी तारीख को
कनल आ ाट ने छे दीलाल की कोठी म एक व ृ ता दी, इस
कार कई एक िदन ामी जी के िकसी-िकसी िवषय म
िवगतसंशय होकर कनल और मै डम दयानं द जी की िकसी बात पर
P- 68
ोिधत होकर मे रठ छोड़कर चले गए, उनके चले जाने पर दयानं द
कुछ िदनों मे रठ म ही रहे , पर उन िदनों उ ोंने कोई ा ान या
व ृ ता नहीं दी,
उसके बाद दयानं द ने िथयोसोिफकल सोसाइटी को कई प िलखे,
और अंत म १३ अ ैल १८७८ म ामी दयानं द ने िथयोसोिफकल
सोसायटी को प िलखकर िथयोसोिफकल सोसायटी से यह
िनवेदन िकया िक वह अपना धान कायालय ू यॉक से मु ई ले
आए,
उसके जबाव म िथयोसोिफकल सोसायटी की तरफ से जबाव म
जो प आया वो आपको िदखाते है उसम िलखा था-
P- 69
The Theosophical Society, New York, May 22nd 1878.
To the Chief of the Arya Samaj.
HONOURED SIR,
You are respectfully informed that at a meeting of the
Council of the Theosophical Society, held at New York
on the 22nd of May 1878, the President in the chair
upon motion of Vice-President A. Wilder seconded by
the corressponding Secre tary H. P. Blavatsky, it was
unanimously resolved that the society accept the
proposal of the Arya Samaj, to unite with itself, and
that the title of this Society be changed to
" The Theosophical Society of the Arya Samaj of India.
*
Resolved, that the Theosophical Society for itself and
branches in America, Europe and else-where, hereby
recognize Swami Dayanand Saraswati, Pandit, Founder of
the Arya Samaj, as its lawful Director or Chief.
Awaiting the signification of your approval and any
instructions that you may be pleased to give.
I am, honoured sir, by order of the Council,
Respectfully yours,
(Sd.) AUGUSTUS GOSTAM,
Recording Secretary
***********************************
P- 70
िजसका ह द अनु वाद इस कार है -
आपका
(ह ा र) आग मग म,
P- 71
( ोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND:
Swami Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं
दे वे बाबु रिचत 'दयानंद च रत', पृ २७५,२७६)
***********************************
प म श ों म िलखा है िक यह सभा आय समाज के इस
ाव को िक सभा (अथात िथयोसोिफकल सोसाइटी) उ
समाज (अथात आय समाज) के साथ िमल जाव और इस सभा का
नाम प रवितत करके "Theosophical Society of the Arya
Samaj" रखा जाव ीकार करती है ,
उ प से यह साफ हो जाता है िक िकस कार ामी जी ईसाई
िमशनरी सभा से िनवेदन कर रहे ह िक आओं आय समाज के
जमाता हमारे साथ िमल कर भारतीय सनातन सं ृ ित को न
करने म मे री सहायता कर, और अपने मत का चार कर
ना कवाद को बढ़ाने म आय समाज का सहयोग कर,
ामी दयानं द के िनमं ण पर फरवरी १८७९ म सोसाइटी का
धान कायालय ू याक से मु ई म लाया गया, और आय समाज
कायालय का नाम बदल कर "िथयोसोिफकल सोसायटी आफॅ द
आय समाज (Theosophical Society of the Arya Samaj)"
रखा गया।
उसके बाद आरं भ आ इनका असली खे ल, आय समाज और
िथयोसोिफकल सोसाइटी दोनों ने िमलकर एक साथ सनातन धम
पर आघात िकया, इसका प रणाम यह आ िक सनातनधम यों के
P- 72
बीच मतभे द उ होने लग, िजसका सबसे ादा लाभ
िथयोसोिफकल सोसायटी को िमला, १८७९ से ले कर १८८३ तक
दयानं द की सहायता से यह सभा (िथयोसोिफकल सोसाइटी) लाखों
सनातनधम यों को ईसाई मत की ओर ले जाने म सफल रही,
दयानं द के िलए अं ेजी शासन िकसी ण युग से कम न था, उनके
अनु सार उ ोंने सनातन धम के िव िजतना िवष उगला यिद
अं ेजों ने उनकी र ा न की होती तो ज र कोई न कोई उ
मरवा डालता
१८८० के िथयोसोिफ प के एक ले ख म ामी जी बताते ह िक
"यिद अं ेजी रा न होता तो म जो इतनी बार फ खाबाद आया,
ा ण मु झे कभी जीिवत न छोड़ते, िकसी से मरवा डालते,
पाठकगण ! के मन म उठ रहा होगा िक आ खर अं ेजी
सरकार दयानं द पर इतनी मे हरबान ों थी, तो इसका जबाव है -
‘िडवाइड एं ड ल’: अं ेज़ों की नीित "महान तं ता सेनानी
सुभाषच बोस ने अं ेजों की नीित का तीन श ों म खु लासा करते
ए िलखा है - िडवाइड एं ड ल अथात फूट डालो और राज करो"
ामी दयानं द यही कर रहे थे, उनके नवीन मत चार से सनातन
धम म िबखराव की थित उ होने लगी थी, और अं ेजों की तो
शु से यही नीित रही थी, िजसे ामी दयानं द ने और आसान बना
िदया, ामी दयानं द आ खर ऐसा ा कर रहे थे दे ख-
P- 73
दयान सर ती के बारे म ी कॉलेज के ाचाय डॉ
होनले (Rudolf Hoernley) ने यह बात िलखी—
दयान िहं दुओं के मन म यह बात भर दे ना चाहते ह िक आज का
िहं दूधम, वैिदक िह दू धम के पूणतया िवपरीत है , और जब यह बात
िह दु ओं के मन म बैठ जायेगी तो वे तुरंत िहं दूधम का ाग कर
दगे; पर तब दयान के िलए उ वैिदक थित म वापस ले जाना
स व न होगा, ऐसी थित म िहं दुओं को एक िवक की खोज
होगी जो उ िहं दू से ईसाई धम की ओर ले जायेगी।
ोत: The Christian Intelligence, Calcutta, March 1870, p
79 and A F R H quoted in The Arya Samaj by Lajpat Rai,
1932, p 42 quoted in Western Indologists A Study in
Motives.htm, Purohit Bhagavan Dutt
P- 74
पाठकगण ! िवचार कर यिद दयानं द का काम वैिदक धम का
चार ही था तो ा दयानं द को पुरे भारतवष म कहीं वैिदक लौग
नहीं िमल, जो वे ईसाइयों के सामने िगडिगडा रहे थे , आ खर
दयानं द ने उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसे कौन से
वैिदक गुण दे ख िलए जो उ सनातनधम यों मे न िदख, दरअसल
ामी जी ाथ, अंहकार और ै षाि म इतने अंधे हो चुके थे िक
अपने ाथपूित के िलए वो िकसी भी र तक िगर सकते थ वना
दयानं दी जबाव द िक यिद दयानं द का मन साफ था तो उ ोंने
सनातनधम यों के साथ िमलकर वैिदक धम का चार सार ों
नहीं िकया? और उस गौभ क ईसाई िमशनरी सभा म ऐसा ा
दे ख िलया? जो ना तो वैिदक धिम थे और ना ही इस भारतभू िम के,
िफर ऐसा ा कारण था जो िथयोसोिफकल सोसाइटी को भारत म
बुलाने व उसका िह ा बनने के िलए उनकी लार टपक रही थी?
ऐसा करते ए ा दयानं द को तिनक भी ल ा न आई? उ ोंने
एक बार भी यह नहीं सोचा की िव ान लोग उनके बारे म ा
सोचगे?
आय समाज िकस कार िथयोसोिफकल सोसायटी से जु ड़ा आ
था यिद यह जानना हो तो आप गूगल पर जाकर िसफ इतना टाइप
कर दीिजए "Theosophical Society of the Arya Samaj"
आपको आपकी सभी बातों का जवाब िमल जाएगा और यिद इसम
अब भी िकसी कार कोई संदेह रह गया हो िक दयानं द
िथयोसोिफकल सोसायटी के सद थे या नहीं तो वो जाकर
दयानं द की १८८२ म तैयार कराई वसीयत के बारे म पढे , दयानं द
ने अपनी वसीयत जो िक उ ोंने मे रठ म पंजीकृत कराईं थी िजसम
P- 75
कुल १८ लोग थे िज दयानं द ने अपनी अं ेि करने तथा िनजी
व , पु क, मं ालय आिद का अिधकार िदया था उसम
िथयोसोिफकल सोसायटी के सं थापक कनल आ ाट और मै डम
ै वाट ी का भी नाम है
P- 76
िमशनरी सभा का उ े एक ही था िकसी भी कार सनातन
सं ृ ित को पुरी तरह से समा करना शायद यही कारण रहा िक
दयानं द ने अपने तथाकिथत ं थ के थम सं रण म १८७५ से
ले कर १८८३ तक केवल सनातन धम की ही आलोचना की है ईसाई
या मु म मत के िव एक श नहीं िलखा।
ये ले ख उन मू ख के मु हँ पर तमाचा है जो दयानं द को वैिदक धम
का चारक और िह दु ओं का िहतैषी बोलते ह जबिक स तो यह
है िक दयानं द जै सा ाथ , िनच , कपटी और ग ार जो
अपने दे श, धम अपने भाई बंधुओं का नहीं आ पूरे संसार म नहीं
िमले गा जीवन पय दयानं द का केवल एक ही उ े रहा
सनातन धम को तोड के एक नया धम बनाना,
P- 77
ामी दयानंद का काशी शा ाथ
P- 78
िव ान आ यचिकत हो गए िक ये अजीब नवीन मत वाला कौन
नया शा ाथ आ गया? ऐसे िव ितप मित ामी दयान की
बु िठकाने लगाने के िलए दयानन्द के अ ान दप का दलन
करने के िलए काशी के मू ध िव ान ामी िवशु ान जी ने
िकया “रचनानु प े नानु मानम् ” इस वेदा सू की वेदमू लकता
ा है ? ामी दयान जी िन र हो गए और लाज बचाने के
िलए बोले िभ करण की चचा का कोई औिचत्य नहीं है , मु झे
सारे शा उप थत नहीं
ामी िवशु ान ने कहा यिद सब शा उप थत नहीं ह तो
शा ाथ के िलए ों आये?
ामी दयान ने पूछा- ा आपको सभी शा उप थत ह?
ामी िवशु ान जी ने िस ा गजना करते ए कहाँ – हाँ , तब
ामी दयानं द ने पूछा तो धम का ल ण बताइय, िवशु ान जी ने
पूव मीमां सा दशन के सू से ामी दयानं द का पुनः दप दलन
करते ए उ र िदया–
चोदना ल णोsथ धमः (अथात् वेद के ेरक वा धम ह ),
तब ितलिमलाए ामी दयान ने अपना रटा-रटाया उ र ना
पाकर बोला, तुम गलत बोलते हो, धम के तो दस ल ण है -
धृितः मा दमोऽ ेयं शौचिम यिन हः।
P- 79
इन दयानं द महाशय को ये भी ात नहीं था िक मनु ृित के धम
ल णों से पूवमीमां सा के धम ल ण का बाध नहीं होता, ामी
दयानं द की इस मू ढ़ता पर हं सते ए ामी िवशु ान जी बोले–
घटं िभ ा पटं िछ ा कृ ा रासभरोहणम् ।
P- 80
दयान ने पंिडत बालशा ी जी से पूछा िक आप बताएं िक
आपके मत म यहाँ िव दशियता कौन है ? बालशा ी ने उ र
िदया इ यॉ, ामी दयानं द ने कहा िक इ यॉ दे खने वाली ह न
िक िदखाने वाली, बालशा ी जी ऐसे बड़बोले धूत मित से ा
बोलते िजसको ये भी ना मालूम हो िक इ यों से ही िव ों की
तीित की जाती है ,
ामी िवशु ान जी ने ामी दयान जी से पूछा- जै से मन और
सूय म बु करके उपासना करे , इससे तीकोपासना कही है ;
ठीक वैसे ही शािल ाम पूजन का हण ों नहीं करना चािहए,
ामी दयानं द ने कहा– जै से मनो े ुपासीत इ ािद कहा है ,
वैसे पाषाणािद े ुपासीत– ऐसा नहीं कहा है , पुनः पाषाणािद का
हण ों िकया जाय ? सारे पंिडत दयानं द की मू खता पर हं सने
लगे ोंिक एक ओर तो दयानं द मन (जड़ त ) की तीकोपासना
का िवधान यं ीकृत कर रहे ह और दू सरी ओर उसी का अपने
तक से िनषे ध भी!
तब प त माधवाचाय ने पूछा – ‘पुराण’ श कहीं वेदों म है वा
नहीं? तब ामी जी ने कहा – अने क है िक ु भू तकालवाची
िवशे षण के प म यु आ है । ‘ ा णानीितहासपुराणािन’
यहाँ भी पुराना सनातन ा ण इ ािद अथ ही अिभ ेत ह न िक
वैव आिद, जबिक अथववेद के ऋचः सामािन ां िस पुराणं
यजुषा सह० इस उ सू म पुराण श िबना िवशे षण के
योग आ है जो िक धू ामी दयानं द ने उद् धृत न िकया,
मु ा भटकाने के िलए ामी दयान ने पंिडत बालशा ी से पूछा
P- 81
ाकरण म क सं ा िकसकी है ? मे धावी पंिडत ी बालशा ी
जी ने बता िदया िक महाभा के अमु क थल पर अमु क पम
इसकी चचा है , तब माधवाचाय ने दो प े िनकाल कर प तों के
बीच फक िदये, िजस पर िलखा था– य समा पर दशम िदवस
म पुराण पाठ सुने,
प तों ने पूछा– यहाँ पुराण श का ा अथ है ? तब ामी
दयानं द ने कहा- पुराना िव ा– वेदिव ा िव ा का हण करना
चािहए– यही अिभ ाय है अ था यहाँ वैव आिद का नाम
िलखा होता, पुराण श से पुरानी िव ा अथ करने वाले
दयानं द की अ ता जगजािहर थी ोंिक िव ा तो िव ा
है , वो नयी ा और पुरानी ा? ऐसी कोई भी “पुरानी िव ा”
नहीं िजसका कमका म पाठ िकया जाता हो तथै व पौरािणक
िस ा के अनु सार एक ही “पुराण” १८ पों म महिष वेद ास
ारा संकिलत है तथा इस कार १८ पुराणों का ोतक है , िजनके
१८ उप तथा औप इस कार ५४ कार िनिद ह, उन ५४ नामों
का इतना लं बा कथन सू म िकया जाए तो सू की सू ा कता
ा रही? एक बालक भी आसानी से ये त समझ सकता है , इस
कार पुराण श के वैव ािद नाम ा ाियत ना होने पर
अ ीकार प असद् हे तु की यथाथता है | ऐसे मू ख की चले
तो सू के ृते आिद सू ों पर न जाने म ािद ृितयों का
ा हाल करगे! खै र!
इस पर िवशु ान जी आिद ने अपना अमू समय ऐसे थ
दु रा ह यु लापकारी धूत के च र म न करना थ है , ये
िस कर िलया, यहाँ िवल हो रहा है , चलते ह, ऐसा कहकर हर
P- 82
हर महादे व और सनातन धम के िवजय उद् घोषों के साथ उठना
शु कर िदया, काशी नरे श ी ई री नारायण िसंह ने भी
िनणय िदया िक– ये दयान धूत है अतः आप पंिडत गण इसके
उठाये संग पर ख न -मं डन के बनाइये, सभी प तों एवं
उनके अनु यािययों ने हर हर महादे व का िवजयी उद् घोष से ामी
दयान को धोबी पछाड़ हार का ाद चखाकर यथा थान थान
िकया, अन र शा ाथ के म थ काशी नरे श की आ ानुसार
“दयान पराभू ित’’ एवं “दु जनमु खमदन” नामक दो पु क
कािशत कर ामी दयान की यथाथता को जगजािहर िकया,
साथ ही पंिडत बालशा ी जी के ह ा र यु िव ापनों से भी
इस यथाथता को जन- सामा को स माण अवगत भी करा िदया
गया, पर ु ामी दयान तब भी ना सुधरे ! इसी पर रा के
अनु सार ामी दयानं द के चेले आय समािजयों (अनाय नमािजयों)
का भी ये इितहास है िक कु े की पूंछ भी कदािचत् सीधी हो जाए
िक ु ये नवाय िनयोगी नमाजी बार-बार मुं ह की खाकर भी नहीं
सुधरते!
P- 83
P- 84
स ाथ काश अ गत भूिमका की समी ा
(स ाथ काश) भूिमका पृ , १
P- 85
पर ु इसम कोई भी गु जराती भाषा का श िदखाई नही ं
पड़ता, ों?
P- 86
के समय आ है , अथात इससे पू व रिचत 'वे दभा भू िमका' और
'यजुवदभा ' आिद की भाषा भी अशु होगी,
P- 87
पृ १४६ म िलखा है िक मां स के िप दे ने म तो कुछ पाप नही,ं
P- 88
उसके प ात दयानंद ने वे दभा के दू सरे अंक म यह िव ापन
िदया िक स ाथ काश म मृतकों का ा और पशुय िलखने
और शोधने वालों की गलती से छप गया है इसिलए अब यह
दु सरा स ाथ काश तै यार िकया जा रहा है , इसम जो कुछ
कहा है वह ब त कुछ समझकर वे दानुसार ही कहा है
P- 89
P- 90
य ा ातम जग व य ेव लीयते।
स ाथ काश थम समु ास पृ , ९
❝ओ३म् श ो िम ः शं व णः श ो भव मा।
P- 91
ॐ शं नः िम ः शं व णः। शं नः भवतु अयमा। शं नः इ ः
बृह ितः। शं नः िव ुः उ मः। नमः णे। नमः ते वायो। म्
एव ंब अिस। ाम् एव ं विद ािम । ऋतं
विद ािम। स ं विद ािम। तत् माम् अवतु। तत् व ारम् अवतु।
अवतु माम। अवतु व ारम्। ॐ शा ः, शा ः, शा ः।
~कृ यजु वद- [तैि रीय उपिनषद् ] (िश ा ब ी, थम
अनुवाक)
P- 92
यह इसका अथ है और दयानंद ने अपने स ाथ काश म
इसका अ था ा ान िकया है , इससे ही दयानंद की बु
का पता चलता है , अब आते है ॐकार करण पर
~ऋ ेद १/१६४/३९
P- 93
इित िवदु षः उपिदशित कतम दे तद रमोिम ेषा वािगित
शाकपूिणऋचो रे परमे वने धीय े नानादे वते षु च
म े ेत वा एतद रं य व यी ं िव ां ित तीित च ा णम्
िन १३/१०, प रिश े ० भा म् कतमत् तद रम् इित
ॐम् इ ेषा वाक् इित शाकपूणे: अिभ ाय: ॐकारमृतेन
चय त ा अ रे परमे ोमन् ोम िविवधम न्
श जातमोतिमित ोम त न् ितसृ पु मा ासु
अकारोकारमकारल णासू पशा ासु यदविश ते तद रं परमं
ोम श सामा मिभ िम िभ ाय: य े वाः
अिधिनिष ाः सव ऋगािदषु ये दे वाः ते म ारे णा रे िनष ाः
त श कारण ात् अथवा थमायां मा ायां पृिथवी आ े ः
ऋ े दः पृिथवीलोकािनवािसन इ ेवं ि तीयायां मा ायां
अ र म् वायु: यजूंिष तॡकिनवािसनी जना इित तृ तीयायां
मा ायां ौ: अि ः सामािन तॡकिनवािसनी जना इित िव ायते
ही ॐकार एवे दं सवम् इित य वे द अनया िवभू ा रम्
िकमसौ ऋचा ऋगािदिभमै ै ः क र ित य ा रा ना प ित
य इ ि दु इमे समासते इित िवदु ष उपिदशित ते िह
त र ानात् ता ा मुपगताः णविव हमा ानमनु िव
समीकृता िनवा शा ािचषं इवानला इित
P- 94
( ) िजस परम ोम सं क अ र मे दे वािद थत ह वह अ र
कौन है ?
P- 95
सिहत अ र को जानते ह, वे मनु (समासते) णव ान से
अ र भाव को ा ए अपने आ ा को णव प िन य
करके णव म िव होकर समता को ा हो शा ाला
अि वत् (िनवा नाम िनवाणपदं मो ं ा व ) िनवाण
अथात मु होते है , आिद प म यह अथ है िक िजस
ोम प परम अ र प आिद म सब दे वता थत है , मं
ारा उस आिद को जो नही ं जानते वे ऋगािद मं ों का ा
करगे ? जो इस नाम एवं उस आिद को जानते ह वे मनु ही
िव न भू िम म सु ख पूवक रोगािद रिहत भोग स िचरकाल
जीते ह, मां डू उपिनषद म इस कार कथन है सु िनए-
ॐिम ेतद रिमदं सव त ोप ा ानभूतं भव िव िदित
सवमो ार एव।
P- 96
आिद तीनों कालों वाला यह सं सार ॐकार ही है ,और तीनों
कालों से परे भी जो अ त है वह ॐकार ही है , जो वा की
धानता वाला ॐकार चारों पाद वाला आ ा है ऐसा पुव
ा ान िकया है यथा (सव ेत ायमा ा सोऽयमा ा
चतु ात्) सव (कारण और काय) ही यह है सव जो ॐकार
मा ा है ऐसा ुित ने कहा है सो यह है यह आ ा है , सो
यह आ ा ही अ र ि से ॐकार है , वह मा ाओं का िवषय
करके थत है , यह आ ा अ र है , अ र का आ य लेकर
िजसका अिभधान (वाचक) की धानता से वणन िकया जाए उसे
अ र कहते ह, यह आ ा चार पादवाला है , आ ा के जो
पाद ह वे ॐकार की मा ा है और ॐकार की जो मा ा है वे
आ ा के पद है 'अकार' 'उकार' और 'मकार' यह तीन ॐकार
की मा ा है
P- 97
करने वाली होने से सु षु थान वाला ा नामक तृ तीया चरण
है , िजस कार ओ ार का उ ारण करने पर अकार और
उकार अ म अ र म एकीभू त हो जाते ह उसी कार सु षु
के समय िव और तै जस ा म लीन हो जाते ह।
P- 98
मकार ाि संकाशो िवधूमो िवद् युतोपमः।
~ ीम गव ीता {८/१३}
स ाथ काश थम समु ास पृ , १०
❝स ा स िव ुः स िशव ोऽ र परमः राट् ।
P- 99
भावथ : सब जगत् के बनाने से ‘ ा’, सव ापक होने से ‘िव ु ’,
दु ों को द दे के लाने से ‘ ’, मं गलमय और सब का क ाणक ा
होने से ‘िशव’,
जो सव ा अिवनाशी, यं काश प और लय म सब का
काल और काल का भी काल है , इसिलए परमे र का नाम ‘कालाि ’ है
❞
P- 100
स ा स िव ुः स िशव ोऽ र परमः राट् ।
स ाथ काश • समु • पृ १७
❝आपो नारा इित ो ा आपो वै नरसूनवः।
P- 101
स ाथ काश • समु • पृ , १८ म िलखते है िक-
❝(गॄ श े ) इस धातु से ‘गु ’ श बना है । ‘यो ध ान् श ान्
गृणा ुपिदशित स गु ः’ ‘स पूवषामिप गु ः काले नानव े दात्’।योग०।
जो स धम ितपादक, सकल िव ायु वेदों का उपदे श करता, सृि
की आिद म अि , वायु, आिद , अं िगरा और ािद गु ओं का भी
गु और िजसका नाश कभी नहीं होता, इसिलए उस परमे र का नाम
‘गु ’ है ❞
त े यं ा सवलोकिपतामहः॥
P- 102
(भू तानां ा थमोत ज े) अथात सबसे थम ा जी उ
ए, दयानंद तथा उनके कम अ िनयोगी चमचों को आखँ
दे खना चािहए यह वे द वचन ही है इसम िलखा है िक आिद
म सबसे थम ा जी उ ए, वही सब लोकों को रचने
वाले वही सबसे े है दे खये यजुवद म ा जी की उ ि के
बारे म इस कार कथन है िक--
िहर गभः सम् अवतता े भूत जातः पितर् एक ऽ आसीत्।
सृ ि के ार म िहर गभ पु ष ( जापित ा) स ूण
ां ड के एक मा उ ादक और पालक रहे , वही ग
अंत र और पृ ी को धारण करने वाले ह, उस जापित के
िलए हम आ ित समिपत करते है , और सु िनये ,
य ारणम ं िन ं सदसदा कं।
P- 103
स भार ाजाय स वाहाय ाह भार ाजोऽि रसे परावराम्॥२॥
~मुंडकोपिनषद {१/१/१-२}
स ाथ काश • समु • पृ , १४
❝(िव लृ ा ौ) इस धातु से ‘नु’ य होकर ‘िव ु’ श िस आ
है , ‘वेवेि ा ोित चराऽचरं जगत् स िव ुः’ चर और अचर प जगत्
म ापक होने से परमा ा का नाम ‘िव ु’ है ❞
स ाथ काश • समु • पृ , १६
❝( िदर् अ ुिवमोचने) इस धातु से ‘िणच्’ य होने से ‘ ’श
िस होता है । ‘यो रोदय ायका रणो जनान् स ः’ जो दु कम
करने हारों को लाता है , इससे परमे र का नाम ‘ ’ है ❞
P- 104
स ाथ काश • समु • पृ , १८
❝(बृह बृिह वृ ौ) इन धातुओं से ‘ ा’ श िस होता है । ‘योऽ खलं
जगि माणेन बहित व यित स ा’ जो स ूण जगत् को रच के
बढ़ाता है , इसिलए परमे र का नाम ‘ ा’ है ❞
स ाथ काश • समु • पृ , २०
❝(गण सं ाने ) इस धातु से ‘गण’ श िस होता है , इसके आगे
‘ईश’ वा ‘पित’ श रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपित श ’ िस होते ह।
‘ये कृ ादयो जडा जीवा ग े सं ाय े तेषामीशः ामी पितः
पालको वा’ जो कृ ािद जड़ और सब जीव ात पदाथ का ामी
वा पालन करने हारा है , इससे उस ई र का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपित’ है
❞
स ाथ काश • समु • पृ , २०
❝(ि ञ् सेवायाम् ) इस धातु से ‘ ी’ शब्द िस होता है । ‘यः ीयते
से ते सवण जगता िव य िगिभ स ीरी रः’। िजस का सेवन सब
जगत्, िव ान् और योगीजन करते ह, उस परमा ा का नाम ‘ ी’ है ❞
स ाथ काश • समु • पृ , २०
❝(सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् य होने से
‘सर ती’ श िस होता है । ‘सरो िविवधं ानं िव ते य ां िचतौ सा
सर ती’ िजस को िविवध िव ान अथात् श , अथ, स योग का
ान यथावत् होवे , इससे उस परमे र का नाम ‘सर ती’ है ❞
स ाथ काश • समु • पृ , २२
❝(डु कृञ् करणे) ‘शम्’ पूवक इस धातु से ‘शंकर’ श िस आ है ।
‘यः शंक ाणं सुखं करोित स शंकरः’ जो क ाण अथात् सुख का
करने हारा है , इससे उस ई र का नाम ‘श र’ है ❞
स ाथ काश • समु • पृ , २२
P- 105
❝‘महत्’ श पूवक ‘दे व’ श से ‘महादे व’ िस होता है । ‘यो महतां
दे वः स महादे वः’ जो महान् दे वों का दे व अथात् िव ानों का भी िव ान् ,
सूयािद पदाथ का काशक है , इसिलए उस परमा ा का नाम
‘महादे व’ है ❞
स ाथ काश • समु • पृ , २२
❝(िशवु क ाणे ) इस धातु से ‘िशव’ श िस होता है ।
‘ब लमे ति दशनम्।’ इससे िशवु धातु माना जाता है , जो
क ाण प और क ाण का करने हारा है , इसिलए उस परमे र
का नाम ‘िशव’ है (इस कार दयानं द ने ई र के १०० नाम िलख और
िफर संबंध से िलखते ह)❞
स ाथ काश • समु • पृ , २२
❝( ) जैसे अ कार लोग आिद, म और अ म म लाचरण
करते ह वैसे आपने कुछ भी न िलखा, न िकया?
P- 106
काश के ार मे और अ के पृ म िफर से “श ोिम ािद”
और ये परमे र के सौ नाम िकस आशय से िलख ह, तथा अपने
वे दभा के ेक अ ाय के ारं भ म “िव ािन दे व
सिवतदु रतािन परासुव, य ं त आसुव” ों िलखा है ? इससे
आपके लेखानुसार तो यही िस होता है िक आपके 'वे दभा ों'
और 'स ाथ काश' के बीच-बीच म अम लाचरण ही है ,
ऊपर टीके म स वे दो ई र की आ ा कहना म लाचरण है
और आपने जो रां ड, रां ड ेही, धू त, िनशाचर, भां ड, भडु वे , ढे ड,
चमार, चुतड, भ ी, पोप आिद न जाने कौन-कौन से ब त से
अपश और दु वचन आगे इस पु क मे िलख है , िजनके
उ ारण की आ ा वे दों मे कही नही पाई जाती, यह ा है ?
शायद इसी कारण ारं भ मे तो दयानंद म लाचरण से िहचकते
है और यं वही प रपाटी हण करते है यिद ऐसा न करते तो
इनका यह मत अ लोगों से िभ कैसे तीत होता?
स ाथ काश • समु • पृ , २३
❝इसिलए जो आधु िनक ों म ‘ ीगणेशाय नमः’, ‘सीतारामा ां
नमः’, ‘राधाकृ ा ां नमः’, ‘ ीगु चरणारिव ा ां नमः’, ‘हनु मते नमः’,
‘दु गायै नमः’, ‘वटु काय नमः’, ‘भैरवाय नमः’, ‘िशवाय नमः’, ‘सर ै
नमः’, ‘नारायणाय नमः’ इ ािद ले ख दे खने म आते ह, इन को बु मान्
लोग वेद और शा से िव होने से िम ा ही समझते ह। ोंिक वेद
और ऋिषयों के ों म कहीं ऐसा म लाचरण दे खने म नहीं आता
और आष ों म ‘ओम् ’ तथा ‘अथ’ श तो दे खने म आता है
P- 107
स ाथ काश • समु • पृ , २३
❝‘ ीगणेशाय नमः‘ इ ािद श कहीं नहीं। और जो वैिदक लोग वेद
के आर म ‘ह रः ओम् ’ िलखते और पढ़ते ह, यह पौरािणक और
ता क लोगों की िम ा क ना से सीखे ह❞
P- 108
दु ःखािनितह र:’ जो सबमे रम रहा है वो राम है , और भ ों के
दु ख हरने से परमे र का नाम ह र है और
“कृिषभूवाचक: श ोण िनवृितवाचक:।
तयोरै ं पर कृ इ िभधीयते॥“
P- 109
म लाचरण िकए जा रहे हो, और पुछने पर मना भी कर रहे हो,
परमे र के सौ नामों मे जो नाम िलख आप ही उ े िम ा
बतलाते है , तीत होता है िक ामी जी ने अपने यजुवदभा
अनुसार (छाग ) नर बकरे का दू ध, घी कुछ ादा ही खा
िलया,
P- 110
स ाथ काशा गत ि तीयसमु ास खं डनं ार ते
॥ िश ा करणम् ॥
स ाथ काश ि • समु • पृ , २४
स ाथ काश ि • समु • पृ , २४
P- 111
को छोड़ के जो शा , आरो , बल, बु , परा म और
सु शीलता से स ता को ा कर❞
स ाथ काश ि • समु • पृ , २४
❝( ) तो ा ोितषशा झूठा है ?
P- 112
समी ा-- ों साहब? आपका यह लेख जो िक मनु ृित के इन
ोकों से उ त है -
ऋतुः ाभािवकः ीणां रा यः षोडश ृताः।
स ाथ काश ि • समु • पृ , २५
P- 113
िपलावे , दू ध रोकने के िलये न के िछ पर उस ओषधी का
लेप करे िजससे दू ध िवत न हो, ऐसे करने से दू सरे महीने म
पुनरिप यु वती हो जाती है ❞
P- 114
यहाँ तक िक िचिक ा िव ान के िवशेष ों के अनुसार भी--
P- 115
अब आप बताए कहाँ की सू ता ी के दू ध म इतनी िवशेषताएं
ह और कहाँ आप कहते ह िक " सू ता ी के दू ध म बल नही ं
होता" इसिलए उसे थ ही समझ, शोक है ऐसी बु पर,
स ाथ काश ि • समु • पृ , २५
P- 116
गया तू ज ते ही ों नही ं गभ ही म न हो गया? वा ज ते
समय मर ों न गया? कम से कम समाजी ीयाँ इस महापाप
से तो बच जाती,
P- 117
स ाथ काश ि • समु • पृ , २६
❝गुरो: ेत िश ु िपतृमेधं समाचरन्।
~मनु० [अ ाय ५ ोक ६५]
P- 118
अथ- गु का गवास होने पर िश गु की अं ेि ि या,
िपंडािद िवधान करता आ शव को उठाने वाले के साथ दसव
िदन शु होता है ,
P- 119
िलख िदया होता की ऐसा कहाँ िलखा है , ािद ने तो ऐसा कही ं
नही ं िलखा यह तो तु ारे ही िदमाग की उपज ह तु म हर जगह
अपना मुँह ों िछपाते हो? ा यहाँ भी िपता जी का डर है जो
वो आकर पकड़ ले जायगे , अपना नाम ों नही ं िलखते िक म
ऐसा मानता ँ आप भू त, ेतािद को नही ं मानते ोिक आप
दौगले हो, दे खों मनु ृित, सु ुतसं िहता, वे दािद ं थों से आपको
इसके माण दे ते ह,--
य र ःिपशाचां ग वा रसोऽसुरान्।
~[अथववेद- १२/१/५०]
P- 120
पु , पौ ों को िहं िसत करते ह, हे अि दे व! आप उन
छदमवे शधारी असु रों को बाहर कर।
ये पािण ितमु माना ऽ असुराः स ः धया चर ।
~[अथववेद- १/१६/१]
P- 121
अथ- जो िपशाच जलपान, या ा, शयन के समय हम पीिडत
िकया करते ह, वह अपनी जा सिहत दू र हो जाएं और वह रोगी
िनरोगी हो जाए॥१॥
हे अ े ! आप इन मां सभ क, र भ क और मन को क
करने वाले िपशाच को न कर, श शाली इ उ व से
मार और सोमदे व उनका शीश काट द॥३॥
P- 122
िपशाच, नाग हों आिद से पीिड़त का शा कम,
बिलदान आिद कम ि याओं ारा उपरो दे वािद दे वों का
उपशमन होता है वह भू तिव ा कही जाती है ।
P- 123
मनु सु ुत आिद ारा रिचत ं थों मे भी इसके माण िमलते है ,
ा ये भी अ ानी है ? आपके अनु सार सब अ ानी केवल आप
ही बु मान हो, और होंगे भी ो नही? आपने (छाग ) अथात
बकरा आिद नर पशुओं का दू ध घी जो खाया है (दयानंद कृत
यजुवदभा २१/४३ म िलखा है ), और आप की भां ित आपके
िनयोगी चैले भी बकरे का दू ध, घी खाकर बु मान बने िफरते
है , बड़ा आ य होता है यह दे खकर िक िजस म न तो दो
कौडी िक बु और न बोलने िक स ता ऐसे महाधु त को
महिष बनाने का यास िकया जा रहा है
स ाथ काश ि • समु • पृ , २६
र तु ा ौ र तु।
P- 124
शां ितकारक िस हो, यह वे दों म शां ित करण ा थ की है
इसी से ह दु ख सु ख दे ने वाले िस होते ह॥१-२॥
P- 125
वा ीिक रामायण म िलखा है िक जब रामचं वन को चल तो
कौश ा ने मं पढ़कर र ा की सु ुत सं िहता के सू थान म
रोगी की भू त ेतािद से मं पढ़कर र ा करनी िलखी ं है िजसका
माण इससे पहले दे चुके ह और भी अनेक मं है वे द के जो
भू त ेत, िपशाचों की शां ित करते ह ये दे खए वे दों से माण-
शं नो भव प ओषधयः िशवाः।
इ व ो अप ह ु र स आराि सृ ा इषवः पत ु
र साम्॥१॥ ~[अथववेद- २/३/६]
पथ इमं त ा ो ा ै वम कृ िस॥२॥
~[अथववेद- ८/२/१०,१२]
P- 126
िदवा मा न ं यतमो दद ा ातूनां शयने शयानम्।
हे अ े ! आप इन मां सभ क, र भ क और मन को क
करने वाले िपशाच को न कर, श शाली इ उ व से
मार और सोमदे व उनका शीश काट द॥
ये ग वा अ रसो ये चारायाः िकमीिदनः।
~[अथववेद- १२/१/५०]
P- 127
ों साहब ा कहते हो यह सभी वे द मं परमे र के िनयम म
है या नही?ं
स ाथ काश ि • समु • पृ २८
P- 128
✍ स ाथ काश ि • समु • पृ , २९
P- 129
स ाथ काशा गत तृतीयासमु ास खं डनं ार ते
✍ स ाथ काश तृ • समु • पृ ३१
P- 130
अथ- राजा को यो है िक वह मां िसक थकावट से रिहत होकर
िदन के म या अधराि म अकेले अथवा मंि यों के साथ धम,
अथ तथा काम से स त िवषयों पर िचंतन कर, यिद मंि यों
के धम, अथ तथा काम आिद िवषयों पर अलग-अलग िवचार हो,
तो िवरोध दू र करके अजन का उपाय अपने कुल की क ाओं
के िववाह एवं राजकुमारों की सु र ा से स त िवषयों पर
िवचार कर।
िधयो यो नः चोदयात्॥
इस म म जो थम (ओ३म्) है उस का अथ थमसमु ास म
कर िदया है , वही ं से जान लेना, अब तीन महा ा ितयों के अथ
सं े प से िलखते ह-‘भू रित वै ाणः’ ‘यः ाणयित चराऽचरं जगत्
स भू ः य ू री रः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, ाण
से भी ि य और य ू है उस ाण का वाचक होके ‘भू ः’
P- 131
परमे र का नाम है , ‘भु व र पानः’ ‘यः सव दु ःखमपानयित
सोऽपानः’ जो सब दु ःखों से रिहत, िजस के सं ग से जीव सब
दु ःखों से छूट जाते ह इसिलये उस परमे र का नाम ‘भु वः’ है ,
‘ रित ानः’ ‘यो िविवधं जगद् ानयित ा ोित स ानः’,
जो नानािवध जगत् म ापक होके सब का धारण करता है
इसिलये उस परमे र का नाम ‘ ः’ है , ये तीनों वचन तै ि रीय
आर क के ह।
P- 132
तासामु ह ैतां चतुथ म्। माहाचम ः वेदयते।
P- 133
अथात भू रािद जापित अंगों को िजस िजस प म िचंतन
करना है सो िन पण करते ह।
अथ- भू : यह िस अि है , भु व: वायु और : सू य है , और
मह: च मा है ोंिक च मा ही सब ोितयों को मिहमा त
करता है , भू : यह िस ऋचा (ऋ े द) है , भु व: सामवे द, और
: यजुवद है ।
मह इित । णा वाव सव वेदा महीय े।
P- 134
मह इ म्। अ ेन वाव सव ाण महीय े।
P- 135
ॐकारकला, अ कला ऐसा जापित का आ श ितपाध
म भाग है , ऐसे षोडसकला यु पु ष को दय म ान
करने से जो फल ा होता है सो कथन करते है इन ा ितयों
को पूव कार से जो जानता है सो को जानता है ।
P- 136
उस कारण से जो सिवता का भगा प है , उसको िचंतन
करते ह,
P- 137
लोकािनितभ:) अपने मंडल अंतगत काश करक सव जगत् को
कािशत करता है इस कारण 'भग' है (रं जयतीमािन भू तािन
इित र:) अपने आन प से सव ाणी वग को आन त करता
है इसिलए 'भग' है (ग न् वा आग ात् सवा इमा:
ज जा इित ग:) और सु षु बोध मम वा महा लय उ ि
काल म सव जा परमा ा म लीन होकर िफर उ होती है
इस कारण 'भग' है और (श त् सू यमानात् सू :) िनर र उदय
और अ होकर ात: कालािद करने से सू य है , और सव ाणी
वग की वृ ि अ वीयािद ारा उ ि कता होने से सिवता है ,
(आदानात् आिद :) पृ ी का रस तथा ाणी वग की आयु को
हण करने से आिद है (पवनात् पावनो ेषएव) सबको पिव
करने से पावन नाम वायु भी यह परमे र है , और अप नाम जल
भी परमे र ही है ऐसे वािद कहते ह इस कार गाय ी मं
के दोपाद से अिध दे वत का िन य करा, अथात सू य, वायु ,
जल उपलि त यावत् दे वता प परमा ा का बोधन करा, और
यावत् जगत् उ ि , पालन, सं हार कतृ बोधन करा तथा
जगतलयधार और जगत उ ादन कारण भी 'भग' पद ा ान
से कहा,
P- 138
गाय ी जो चतु वद धान है उसका अथ िकसी एक ा ान की
रीित से तो दयानंद को िलखना अव था, और यहाँ ान दे ने
वाली बात है िक दयानंद की दयानंद ने जो ये ११२७ ( ारह सौ
स ाईस) शाखा िलखी ं है वो भी गलत िलखा है ोंिक महाभा
की रीित से ११३१ ( ारह सौ इक ीस) शाखा होती है अब यहाँ
िवचारणीय है िक इन मं ों के ा ान होने पर भी दयानंद को
एक ा ान भी गाय ी मं के अथ िन पण वा े न मिमला,
तो िफर इनके क त अथ को कौन मानेगा?
॥आचमन करणम् ॥
P- 139
सं ासमय सं ार कता तथा सं ा करने वालों के कंठ म फेरा
करगे , और यिद 'माजन' का योजन आल दू र करना ही है
तो कोई अ बे हतर उपाय जैसे चाय कॉफी पी िलया करो, या
िफर सबसे अ ा उपाय है िक अमोिनया की सीसी लेकर सूं घ
िलया करों उससे तो मूिछत भी उठ खड़ा हो िफर तु ारे
आल की तो बात ही ा? और सं ा तो ात:काल ान
करने के बाद ही होता है िफर ान करते ही आल आ गया
वाह! समझ नही ं आता िक तु म मनु की औलाद हो या िफर
रा स कुंभकण की औलाद जो तु हमेशा िन ा और आल
ही घेरे रहती है , अब तु म ही बताओ यिद ान करने के बाद भी
तु ारा आल दू र नही ं होता तो भला 'माजन' से कैसे हो
सकता है ? इस कारण ामी मुखानंद जी आपका यह कथन
पुरी तरह से िम ा ही िस होता है 'आचमन' करने से आ ं तर
शु होती है दे खए मनु ृित म िकस कार िलखा है -
ा ेण िव ीथन िन कालमुप ृशेत् ।
P- 140
~[मनु ृित : अ ाय २, ोक ५८-६२]
P- 141
आप (मनु ृित २/१०४) इस ोक म जल के पास बै ठकर
गाय ी जप िलखते ह, पर ु आपके जो चैले आल और
कफिप िसत रहते ह वो तो आपके मतानुसार कोट पतलून
पहनकर कोठी, बं गलों म ही जप कर िलया करगे ।
❝‘ ाहा’ श का अथ यह है िक जैसा ान आ ा म हो वै सा
ही जीभ से बोले, िवपरीत नही❞
ं
P- 142
स ाथ काश तृ• समु • पृ ३४
P- 143
पदाथ िव ा की बात है , तो तु ारी पदाथ िव ा तो अ म और
नवम समु ास म ही िदख जाती है जहाँ तु मने सू य, च , तारे
आिद पर मनु ों की जा और आसमान का नीला रं ग पानी के
कारण होना िलखा है , िक ु उसका खंडन हम वही करगे,
िफलहाल आपके इस पदाथ िव ा की ध यां उडाते है
P- 144
के िलए, घृतािद से आ ित जलवायु की शु िनिम , और अब
यह गाय ी के साथ ाहा और लगवा िदया, और तो और ाहा
का अथ भी आपका क त ही है अब आपके हवन का कोई
अथ तो रहा नही ं बस बे मतलब घी फूंक जाइए, थम तो ामी
जी ने इससे चुिटया बं धवाई, िफर र ा की,िफर जप िकया,
अविध फूंका, यहाँ तक की दयानंदी मृतकों का अंितम सं ार
भी गाय ी से करते ह दे खए एक गाय ी से िकतने लाभ िलए
आगे जब और िव ा की उ ित होगी तब इसम इं जन लगाकर
रे ल चलवायगे और पंख लगाकर हवाई जहाज उडाये ग,
P- 145
िस ां त आपका ठीक नही,ं ोिक हवन करने घृतािद से
आ ित दे ने और मं ों के उ ारण से सु ख, धै य, धन-धा , र ा
साम , पाप न होने के साथ साथ ग की ा भी होती है ,
दे खए आपको वे दािद ं थों से माण दे ते ह-
भू त-भिव के ाता हे ा दश अि दे व! ऐ य ा की
कामना करने वाले ते ज ी, महान, याजक य म आपको
सिमधा ारा िलत करते ह॥४॥
आ न् ह ा जु होतन॥१॥
P- 146
सुसिम ाय शोिचषे घृतं ती ं जु होतन।
अ ये जातवेदसे॥२॥
P- 147
यह घृत इन अि का उ ि थान है , घृत ही इ ती ण करने
वाला है , अि इस घृत के ही आि त है अतः म इन अि के मुख
म घृत सीच
ं ने की इ ा करता ँ , हे अ य ! हिव सं ार के
बाद अि का आ ान करों और जब यह तृ हो जाएं तब इनसे
हिवयों को दे वताओं तक प ँ चाने का िनवे दन करों।
अिभ व समनेव योषाः क ा ः यमानासो ऽ अि म्।
P- 148
को हण करने को आव, सभी अि याँ दी हो और हम ऐ य
व अ की ा हो ॥
आयुर् य ेन क तां ाणो य ेन क तां च ु र् य ेन क ताम्
ो ं य ेन क तां वाग् य ेन क तां मनो य ेन क ताम् आ ा
य ेन क तां ा य ेन क तां ोितर् य ेन क ताम् र्
य ेन क तां पृ ं य ेन क तां य ो य ेन क ताम् । ोमश् च
यजु श् च ऽ ऋक् च साम च बृहच् च रथ रं च। र् दे वा ऽ
अग ामृता ऽ अभूम जापतेः जा ऽ अभूम वेट् ाहा
~[यजु वद अ० १८, मं २९]
P- 149
ओजस् च मे सहश् च म ऽ आ ा च मे तनूश् च मे शम च मे वम च
मे ऽ ािन च मे ऽ थीिन च मे प म् िष च मे शरीरािण च म ऽ
आयुश् च मे जरा च मे य ेन क ाम्॥३॥
P- 150
ीहयश् च मे यवाश् च मे माषाश् च मे ितलाश् च मे मु ाश् च मे
ख ाश् च मे ि य वश् च मे ऽणवश् च मे ामाकाश् च मे
नीवाराश् च मे गोधूमाश् च मे मसूराश् च मे य ेन क ाम्
॥१२॥
P- 151
दीघ जीवन, वं श परं परा, ऐ य और िव ािद गु ण उ ृ ता को
ा हो ॥४॥
हम य ािद े कम के फल पम ग ा , रोगाभाव,
ािधयों का अभाव, औषिध, िदघआयु , श ु ओं का अभाव,
अभय, आनंद, सु ख शै ा, े भात और य , दान आिद कम
से यु क ाणकारी िदवस दे वताओं की कृपा से ा हो
॥६॥
P- 152
य ािद े कम के फल से हमारी सं पदा हमारे ऐ य हर कार
से पु हो, शरीर आिद की भी सब कार से पुि हो, हमारी
ापकता, भु ता, पुणता और धन-धा की चुरता म पया
वृ होती रहे , हमारे कुवय धा , य रिहत अ , पुि कारक
अ और हमारी ु धा म भी अिभवृ होती रहे ॥१०॥
P- 153
कराव, हमारी सभी कामनाएं दे वताओं की कृपा से पूण हो
॥१५॥
और सु िनए-
अयं नो ऽ अि र् व रवस् कृणो ् अयं मृधः पुर ऽएतु िभ न्।
अयं वाजान् जयतु वाजसाताव् अयम् श ून् जयतु ज षाणः
ाहा॥ ~[यजु वद अ० ५, मं ३७]
यह अि हम लोगों को े धन दान कर यह अि श ु ओं का
िवनाश करती ई हमारे सम कट हो, यह अि अ की
कामना करने वाले यजमानों को, श ु ओं से ा धन दान
करती ई िवजयी हो, यह अि श ु ओं को स ता पूवक जीते ,
तथा हमारे ारा समिपत आ ितयों को हण कर।
सीद होतः ऽ उ लोके िचिक ान् सादया य म् सुकृत योनौ।
दे वावीर् दे वान् हिवषा यजा ् अ े बृहद् यजमाने वयो धाः ॥३५॥
P- 154
इसी कार सामवे द आिद म भी अि को दे वताओं का दू त
िलखा है और घृतािद े पदाथ से आ ित दे ना िलखा है ोंिक
घृत दे वताओं को ि य है िजसका माण पूव दे आए ह अब
ीम गव ीता और मनु ृित से हवन के लाभ का कथन करते
ह सो सु िनये -
ैिव ा मां सोमपाः पूतपापाय ै र ा गितं ाथय े।
P- 155
िन य -हवन आिद करने से इस जगत के सम जड-चेतन
का पालन तथा िवकास होता है , ोिक यजमान ारा अि म
डाली जाने वाली आ ित सू य को प ँ चती है , सू य ही वषा का
कारण है , वषा से ही खेतों म अ होता है और इसी अ से जा
का पालन होता है ॥७५-७६॥
पूवा सं ां जपं ैशमेनो पोहित।
P- 156
समी क-- यिद ामी मुखानंद जी के ारा िकया यह अथ
िकसी िव ान के समझ म आ जाए तो मुझे अव
समझाय, ोिक ामी मुखानंद जी ारा िकया गया यह
क त अथ बु मान लोगों की समझ से पर है , ामी जी ने
इसम यं ही क ना करक िम ा अथ तै यार िकया है , थम
तो कोई इनसे यह पूछे िक यह इतना ल ा चौड़ा अिभ ाय कौन
से अ रों से िस होता है , और जो यह आठ, छ ीस और
चवालीस जो अथ िकया है यह अथ िकन पदो से िस होता है ,
या िफर भं ग के नशे म उ ा िसधा जो भी मुहँ म आया सो बक
िदया और जो मन िकया सो िलख िदया, ोिक इस ोक का
तु मने जो अथ िकया है उसका यह अथ तो कतई नही ं बनता,
दे खए सही अथ इस कार है -
षट् ि शदा कं च गुरौ ैवैिदकं तम्।
P- 157
िम ा अथ कर कम अ ,अ से पैदल समाजीयों का आप
चुितया नही बनाते
P- 158
यह ि काला क िव उस ई र की मिहमा ही है , िक ु उसकी
मह ा इससे भी अिधक है , यह स ूण िव जीवों सिहत जो
कुछ भी है उसकी मिहमा का एक भाग है , और शेष तीन भाग
म काशमान मो प आप है , और ीम गव ीता म भी
इस कार िलखा है िक (बु े : परत ु स:) िक वह परमे र बु
से परे है जब वह बु से परे है तो भला उसके काय पूणतः
कौन जान सकता है ? पर ु ामी जी तो शरीर रहते ए ही
सृ ि का म आिद सब उससे पूछ आए, अब यं िवचार कर
दे ख ा कोई भी साधारण सा मनु ई र के सृ ि म को
पूणतया जान सकता है ? िवशेषकर दयानंद जैसे, दो कौड़ी की
बु नही ं िजनम ऐसे महामूख यिद ई र के सृ ि म को जानने
का दावा कर, तो िफर ई र सव कहाँ रहा? सव सब िवषयों
का ाता तो दयानंद हो गया, िफर तो ई र अब जो कर पर
दयानंद की नजरों से न बच सक, ोिक दयानंद ने तो "ई र
का सृ ि कम ा है ? ई र के गु ण, कम और भाव कैसे ह?
ई र ा- ा कर सकता है ? और ा- ा नही ं कर सकता
सकता? उसकी सीमाएं ा है ? सब इस फटीचर सी पु कम
िलख मारा जैसे ई र ने दयानंद को नही ब दयानंद ने ई र
को उ िकया है , ध हे ामी धू तानंद जी! आपकी बु ,
इतना अिभमान अपने ान पर, की ई र को भी सीमाओं म बां ध
िदया,
P- 159
उस परमे र से ही अ और जो कोई दू सरे पशु ऊपर नीचे के
दां त वाले ह उ ए ह उससे ही गौ, बै ल, भे ड़, बकरी आिद
उ ए,
P- 160
इससे आपका यह कपोल क त सृ ि म सब आ जाता
है शौक है आपकी बु पर,
P- 161
सृ ि म से िव ह। जो बात सृ ि म के अनुकूल हो वही
स व है ❞
P- 162
अ पूव महादे व सादमकरोि भु ।
P- 163
~[ ीम गव ीता- अ० ४, ोक ६-८]
~[ ीम गव ीता- अ० ७, ोक २४]
~[ ीम गव ीता- अ० ९, ोक ११]
P- 164
अपनी योग माया से सं सार के उ ार के िलए मनु पम
िवचरते ए मुझ परमे र को साधारण मनु मानते ह ॥११॥
P- 165
जैसे ऋ जुः साम और अथव चारों वे द ई रकृत ह वै से ऐतरे य,
शतपथ, साम और गोपथ चारों ा ण, िश ा, क , ाकरण,
िनघ ु , िन ,छ और ोितष छः वे दों के अंग, मीमां सािद
छः शा वे दों के उपां ग; आयु वद, धनुवद, गा ववे द और
अथवे द ये चार वे दों के उपवे द इ ािद सब ऋिष मुिन के िकये
ह। इनम भी जो जो वे दिव तीत हो उस-उस को छोड़
दे ना ोंिक वे द ई रकृत होने से िन ा तः माण अथात्
वे द का माण वे द ही से होता है । ा णािद सब परतः
माण अथात् इनका माण वे दाधीन है ❞
P- 166
जो वे द और आ पु षों के िकए शा ों का अपमान करता है ,
उस वे दिन क ना क को जाित, पं और दे श से बाहर
िनकाल दे ना चािहए।
P- 167
िनघ ु म यह अथ है शतपथ म इस कार िलखा है इस कारण
इसका यह अथ होता है जब यह हाल है िक िबना ा ण,
िनघ ु के आप वे द का अथ तक िस नही ं कर सकते , तो िफर
वे ा ण, िनघ ु वे द के अथ िस ककरने से तः िस और
तः माण ों नही?ं
P- 168
जो यह हाल है तो आपके कथानुसार ा ण ों आिद म भी
अस है तो िवषवत् होने से उनको भी ाग दे ना चािहये िफर
आप इनको मानते ों है ? यही तो आपका दौगलापन िस हो
जाता है िक िजस थाली म खाया उसी म छे द िकया, यह और
कुछ नही ं आपकी बु म भरे गोबर का नतीजा ही है जो आप
ा णािद ं थों म अस और वे द िव ता मानते हो, यिद आप
इनम भी अस और वे द िव ता मानते ह तो िफर इ ी ं ं थों
से माण दे ते ए तु ल ा नही ं आती, आप अपने पूव िलख
लेख को बड़ी ज ी भू ल जाते हो िक िवष िमला अमृत भी िवष
ही होता है अब ोिक आपने अपने स ानाश काश,
भा भू िमका और वे दभा ों म इ ी ं ं थों का योग िकया है
इसिलए आपके कथानुसार ही आपका यह स ानाश काश
और आपके वे दभा आिद अस िमि त होने से ाग दे ना
चािहये , अथात अस िमि त ं थों को ागने का शुभारं भ
आपके ं थों से ही करना चािहए, ोिक जो-जो उनम स है
सो-सो वे दािद स शा का है और िम ा आप (दयानंद) के
घर का है , वे दािद स श के ीकार म सब स का हण
हो जाता है , और जो कोई दयानंद के िम ा ों से सत् य का
हण करना चाहै तो िम ा भी उस के गले िलपट जावे , (जैसे
को तै सा)
P- 169
॥पुराण करण॥
अथ- शा दे वताओ के म आ ित है दे व िव ा िव ा
आिदक िव ाएँ उ र ू तर प इितहास पुराण गाथा
और नाराशंसी ये शा है जो इनका िन ित ाय करता है
वह मानो दे वताओ के िलए आ ित दे ता है ।
स यथा धा ेर ािहत पृथ ूमा िविन र ेवं वा अरे ऽ
महतो भूत िन िसतमेत ेदो यजु वदः सामवेदोऽथवाि रस
P- 170
इितहासः पुराणं िव ा उपिनषदः ोकाः सू ा नु ा ानािन
ा ाना ैवैतािन सवािण िन िसतािन॥
~शतपथ ा ण {१४/५/४/१०}
~छा ो {७/१/२}
P- 171
अरे ऽ महतो'भूत' िन' िसतम्एत' ' ेदो' यजु वद'
सामवेदो'ऽथवाि र' सइितहास'पुराण'िव ा' उपिनष'दः ो'काः
सू' ा नु ा ा' नािन ा ा' निनद ' त' मािशत' पाियत'
मय'चलोक'प'र लोक' स'वािण च भूता' ै' वै'ता'िन स'वािण
िन' िसतािन ॥ ~बृह० ऊ० {४/५/११}
~अथववेद {१०/७/२६}
~अथववेद {१५/६/१२}
P- 172
ऋक् साम, छ , पुराण, यजु आिद द् यु लोक और ग थ सभी
दे वता उ य म ही उ हए, अथात् पुराणों का आिवभाव
ऋक्, साम, यजु , और छ के साथ ही आ था।
और दे खए-
एविममे सव वेदा िनिमता क ा सरह ा: स ा णा
सोपिनष ा: सेितहासा: सां ाता:सपुराणा:स रा:ससं ाराः
सिन ा: सानुशासना सानुमाजना: सवाकोवा ा॥
~गोपथ ा ण {१/२/२०}
P- 173
ा के उपरा िपतरों की ीित के िलये , वे द पारायण वण
कराये, धम शा आ ान ,इितहास, पुराणािद को भी सु नाये ।
एत ु ारह: सूतो राजानिमदम वीत।
P- 174
सग ितसग वंशो म रािण च ।
२. ितसगः (अवनितः पु ृि ः)
P- 175
अथात् पुराणों का आिवभाव ऋक्, साम, यजु, और छ के साथ
ही आ था।
❝( ) तु ारा मत ा है ?
P- 176
सब तु मने वे द से िलख ह? जो तु ारा मत वे द ही है तो िफर ों
ा ण, उपिनषद, मनु ृित, वा ीिक, महाभारत, चरक, सु ुत
आिद म घुसे चले आते हों सब माण वे द से ही ों नही ं दे
िदए? और तु म कहते हो िक जो-जो वे द म करने और छोड़ने
की िश ा की है उस-उस का तु म यथावत् करना, छोड़ना मानते
हो तो बताओ ा तु ारे वे द म दू सरों की िनंदा करना िलखा
है ? और तु ारी इस 'स ानाश काश' म जो ये रां ड, रां ड ेही,
भं गी, चमार, भां ड, भडु वे , चूतड, गवग आिद ना जाने कैसी-
कैसी गािलयाँ बकी है तु मने, ा ये सब वे दों म करना िलखा है ?
P- 177
समी क-- थम तो उन बातों को िलखते ह जो दयानंद ने शू ों
के िवषय म मानी और िलखी ं ह दे खए—
शू कौन?
१• ,,,,,(उ ा) सीच
ं नेहारे बै ल पशु के तु शू । ~[दयानंदकृत
यजुवदभा अ ाय १४, मं ९],
और अब िलखते ह िक--
P- 178
पढ़ने पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह िनबु और मूख होने से
शू कहाता है , उस का पढ़ना पढ़ाना सब थ है , अब यह
उठता है िक जब शू िनबु और मूख को ही कहते ह िजसे
पढने पढाने से कुछ भी न आव, तो िफर दयानंद ने कौन से भं ग
के तरं ग म शू ों को वे द पढने का अिधकार दे िदया। दे खए ा
िलखा है इस िनबु दयानंद ने—
ी और शू न पढ़ यह ुित है ।
P- 179
परमे र यं कहता है िक हम ने ा ण, ि य, (अ ाय)
वै , (शू ाय) शू , और ( ाय) अपने भृ वा यािद
(अरणाय) और अितशू ािद के िलये भी वे दों का काश िकया
है ; किहये ! अब तु ारी बात मान वा परमे र की? यिद वो
पढ़ाना नही ं चाहता तो इनके वाक् और ो इ य ों रचता?
वे द म क ाओं के पढ़ने का माण-
P- 180
वे द पढ़ा शु नही ं हो सकता वह तो उ वण हो जाएगा, िफर
भी मुख वे द पढ़ा ही शू सं क रहा इससे तु ारे वचन से भी
शू वे द पढ़ा नही ं हो सकता, मनु जी ा कहते ह अब वह
सु िनए-
न शू े पातकं िकं िच च सं ारमहित।
म व न दु शंसां ा ुव च॥२॥
P- 181
नमताम् अदः। स सँसदो ऽ अ मी भूतसाधनी। सकामाँ२ऽ
अ नस् कु सं ानम् अ ु मे ऽमुना॥ ~[यजु वद- २६/१]
P- 182
(शू ाय) शू , (च) और, ( ाय) अपने , (अरण) पराये के अथ,
भाव यह है िक सबको ि य वचन पूवक दान दे ना ऐसा करने से
म, (दे वानाम्) िव ानों का तथा, (दातु :) परमे र का (ि य) ि य,
(भू यासम्) होऊँ, इस सं सार म (अयम्) यह, (मे) मेरा, (काम:)
काय, (समृ ताम् ) धनािद लाभ प समृ को ा हो और,
(मा) मुझे, (अप:) परलोक सु ख, (नमतु ) ा हो।
P- 183
चयण क ा युवानं िव ते पितम्।
~[अथववेद- ११/७/१८]
स शू व िह ायः सव ा ् िवजकमणः॥
P- 184
अथात- जो ि ज ( ा ण, ि य, वै ) वे द को छोड़ और
िव ाओं म प र म करता है वह जीते ए ही अपने वं शसिहत
शू ् को ा होता है ॥
P- 185
अिधकारी ह, और यिद ई र पर प पात का दोष लगाते हो तो
ई र धन-धा और सं तान भी सबको बराबर दे ता,
P- 186
स ाथ काशा गत चतुथसमु ास खं डनं ार ते
॥समावतनिववाह करणम् ॥
P- 187
(२) दू सरा-जैसे पानी म पानी िमलने से िवल ण गु ण नही ं होता,
वै से एक गो िपतृ वा मातृ कुल म िववाह होने म धातु ओं के
अदल-बदल नही ं होने से उ ित नही ं होती।
P- 188
िपता के एकगो ा माता की छः पीढ़ी और समीप दे श म िववाह
करना अ ा नही❞
ं
P- 189
िलखते ह? इ भी खा जाते , धमशा की मयादा तो तु मने वै से
भी िमटा दी, और सु नो माता का कुल तो ननसाल होता है और
िपतृ कुल के लड़के लड़िकयों का पर र भाई बहन का स
होता है इस कारण वहाँ िववाह विजत है , और अपने गो म तो
िववाह होता ही नही ं इसिलए पास और दू र का इससे कोई
मतलब नही ं ोंिक िजसका गो एक है वह सब एक ऋिष के
सं तान वा िश होने से भाई बहन है जो अपने स ी है चाहे
वे सह कोश दू र ही ों न हो अपने ही कहलाते ह और
िजनसे कोई स ही न हो वे घर के पास होकर भी दू र होते
ह, इस कारण तु ारे इस गपडचौथ का कोई मतलब नही ं
बनता,
P- 190
होकर एक दू सरे के साथ गभाधान-गभाधान खेलते होग वही
ामी जी यहाँ िलखते ह
P- 191
इस कारण वहाँ िववाह विजत है , और अपने गो म तो िववाह
होता ही नही ं ोंिक िजसका गो एक है वह सब एक ऋिष के
सं तान वा िश होने से भाई बहन है इस कारण एक गो मातृ
व िपतृ कुल म िववाह नही ं होता,
P- 192
हो हो ही जाता है , पर ु िनकट िववाह होने का लाभ यह है िक
सु ख दु ख म सहायता शी हो सकती है , और दू र होने पर खच
भी पड़ता है और समय पर सहायता भी नही ं िमलती, और जहाँ
तक िवरोध की बात है तो ा दू र दे श के िववाह म िवरोध नही ं
होता है ? िब ु ल होता है , जो कुपा होगा तो पास दू र दोनों म
िवरोध करे गा, लेिकन जो दू र दे श म िववाह होता है उसम िवरोध
ादा रहता है क ा भी दू र घर होने से वष माता-िपता के
दशन से वं िचत रहती है , दू र दे श म क ा को चाहे िजतना दु ख
हो कोई पूछने वाला ही नही,ं िनकट िववाह होने से अपने
नगरवािसयों तथा लड़की के िपता आिद के सं कोच से अिधक
दु ख नही ं दे सकते ,
P- 193
कहने का अथ तो ऐसा है िक क ा ऐसी होनी चािहए िक कोई
िपतृ कुल को लूट भी ले तो उसका जी न दु खे, ोिक जो ऐसी
होगी तो ही उसम िपतृ कुल को द र करने का साम होगा
अ था नही,ं और माता िपता िनकट हो या िफर दू र अपने
साम अनुसार सब ही अव था म दे ते ही रहते ह,
P- 194
िववाह दू र हो या िनकट, मेरे कहने का अथ यह नही ं िक दू र
िववाह ही न करों, िववाह चाहे पास करो या दू र पर ु िपता का
गो और माता की सात पीिढ़यों को छोड़कर, ोिक मातृ िपतृ
कुल सिपंड होने से धम शा ों म विजत ह इस कारण उनम
िववाह नही ं हो सकता,
P- 195
स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६०,
P- 196
और क ा के िवशेष सं योग का भाव मन म उदय होता है िवशेष
सं योग कहने का भाव यह है िक पु ष ी का आ ा मन शरीर
के भरण पोषण र ा आिद का भार अपने ऊपर लेना ीकार
करता है , इस कार के सं योग को छोड़कर अ िकसी कार
के सं योग को िववाह नही कह सकते इस कार के सं योग से
अिव े द सं बंध होता है , अब वह िववाह िकतने समय म होना
चािहए सो उसका िनणय िकया जाता है
P- 197
िववाह िकया तो दो तीन वष उपरां त ही पूण जरा पु ष और
पूण यु वाव था यु ी होती है तो बस “वृ त णी
िवषम्”बु ों के िलए तो कम उ की क ा वै से ही िवष समान
है उनको तो ब त सं ग भाता ही नही,ं ऐसे म वो ी िकसी
और नव यु वा की खोज करके धम ुत होती है , अब यं को ही
ले िलिजए यिद तु ारा िववाह ४८ वष की उ म िकसी २४ वष
की क ा से हो जाता तो वो बे चारी आज िसर पटकती या नही,ं
कहने का अथ यह है िक तु ारे इस कपोल क त िस ां त से
िसफ हािन ही होगी, और आज के समय म यह िस ां त चलने
वाला नही,ं अपने लाडले िश ों को ही दे ख लो, यिद कोई िकसी
एक समाजी का नाम भी बता द िजसने तु ारे इस लेखानुसार
४८ वष की उ म िववाह िकया हो, कहने का अथ यह है िक
जब तु ारे लाडले िश ही तु ारी बातों को मह नही ं दे ते तो
िफर भला दु सरे बु मान लोग तु ारी इस गपडचौथ को ों
मानगे , ामी जी ने अपने लाडले िश ों को ४८ वष की उ म
िववाह करने का आदे श िदया पर ु बड़े दु ख की बात है िक
एक भी समाजी उनकी बात को मह नही ं दे ते,
P- 198
जैसे आठव वष की क ा म स ानो ि का होना अस व है
वै से ही गौरी, रोिहणी नाम दे ना भी अयु है , यिद गोरी क ा न
हो िक ु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना थ है और
गौरी महादे व की ी, रोिहणी वसु देव की ी थी उस को तु म
पौरािणक लोग मातृ समान मानते हो, जब क ामात् र म गौरी
आिद की भावना करते हो तो िफर उन से िववाह करना कैसे
स व और धमयु हो सकता है ❞
P- 199
गधों का काम है िववाह का अथ केवल स ान उ ि नही ं होता
िववाह की प रभाषा हम इससे पहले कर आए ह पढ़ लेना,
P- 200
और जो तु मने यह िबना बात की बकचोदी की है िक “यिद
गोरी क ा न हो िक ु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना
थ है ” जो नाम ही के अनुसार अथ लेते हो, तो िफर तो
िजसका नाम चंपा, चमेली आिद हो तो नाम अनुसार ही कम
होने चािहए जैसे तु ारा नाम दयानंद है तो तु सदा आनंद म
ही रहना चािहए पर ऐसा िदखता नही ं ज से ही तु म दु खी
आ ा थे जबसे पैदा ए हमेशा रोते ही रहे , मन कभी थर नही ं
रहा और तो और अंत समय म भी महीनों की ददनाक पीड़ा
सहने के बाद मृ ु को ा ए, तु ारा नाम तो दयानंद था
िफर ऐसा ों आ?
P- 201
होने लगा हो उसका िववाह नही ं करने से माता िपता पापभागी
होते ह
P- 202
काफी है , ामी जी ने मनु ृित के इस ोक के अथ का िकस
कार अनथ िकया है उसे दे खए ामी जी िलखते ह िक
“क ा रज ला ए पीछे तीन वष पय पित की खोज करके
अपने तु पित को ा होवे”यह तो ामी जी ने साफ-साफ
ी को िभचारीणी बनाने की िविध िलखी ं ह यह ा बात ई
िक माता िपता तो घर म चैन से बै ठे और बे टी गली-गली, गाँ व
नगर पित ढू ं ढती िफर, और अपने आप िववाह भी कर ल, शौक
है ऐसी बु पर!
ऊ तु कालादे त ाि े त स शं पितम्॥
P- 203
उ र यह है िक ायः ी जाित पु षों म पित को अ ा गु णों
की अपे ा सु रता यु होना अिधक चाहती है जैसे िक पु ष
सु र ी ढू ं ढते है और इसिलए लडका लड़की के आिधन
िववाह होने म यह दोष है िक ी प की ासी होती है जान
कौन सी जाित, धम के पु ष को पस कर, ोिक
“िभ िचिहलाक” सबके मन की िच िभ होती है तो
ऊँच नीच सं योग होने से वणसं कर की उ ि होती है , इससे
िववाह लड़का लड़की के आिधन नही ं होना चािहए और सु नो
यह जो ामी जी ने िलखा है िक “जब तक सब ऋिष-मुिन
राजा महाराजा आय लोग यं वर िववाह करते थे तब तक इस
दे श की सदा उ ित होती थी, पर ु जब से माता िपता के
आधीन िववाह होने लगा, तब से मशः आयाव दे श की हािन
होती चली आई है ”यह कथन भी दयानंद का िम ा ही है ,
ोिक यं वर केवल ि यों राजा-महाराजाओं म आ करते
थे िजसम ि य जाित के राजा-महाराजा एक आ करते थे,
ि यों के अलावा ा ण, वै या शू ों म यं वर नही ं होता था
लेिकन ामी जी ने जाित वण सब मट सब ही के िलए िलख
िदया मानो वणसं कर की उ ित का ार खोल िदया, और जो
दयानंद ने यह िलखा िक जब तक आयावत म यं वर िववाह
होते थे तब तक आयावत की उ ित ई है , लेिकन यं वर
िववाह से हािन छोड़ दे श की उ ित ई हो ऐसा तो कभी दे खने
म नही ं आया, इितहास म दे ख तो रमायण और महाभारत जैसे
महायु का कारण यं वर िववाह ही था और दोनों ही यु ों म
आयावत की भारी ित ही ई है उ ित कैसी?
P- 204
लगता तु म जैसा म बु क ादान का अथ भी समझता होगा,
जब क ादान श िववाह म कहा जाता है तो िबना िपता की
अनुमित के यं कैसे पित वरण कर सकती है , जबिक दान तो
िदया जाता है तो दे ने वाले को अिधकार है पर ु दाता को पा -
पा का िवचार अव कर लेना चािहए, पर ु तु मने तो
क ादान की था ही िमटाने की ठान रखी है
P- 205
स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ६८,
P- 206
वर की फोटो क ा के अ ापक के पास जाए, जबिक वर और
क ा के पास फोटो गई तो वे सू रत के अलावा और कुछ दे ख
ही नही ं सकते , और जीवन च र कहाँ से आव जबिक दोनों
अ ापक के पास पढ़ते ह और उस समय जीवन च र की
आव कता भी ा है ? ोिक केवल िव ा अ यन के
अलावा और उनके जीवन च र म ा हो सकता है , यही की ये
ये िवषय पढ़े है या िफर और कुछ? यिद और कुछ तो वो ा
हो? और उनम कौन से च र िलख जाएं , आपने इस िवषय म
कुछ बताया ही नही,ं जो कहो िक ज से लेकर २५, ३० और
४८ वष तक का पूरा जीवन च र हो तो यह उठता है िक
उसम ा िलख? यही की ज से पाँ च वष की अव था तक
खेला कूदा उसके अलावा गु कुल म जाकर पढ़ने लगा, इसके
अलावा और ा हो सकता है और उस जीवन च र का लेखक
और सा ी कौन होगा, तु म या तु ारे िनयोगी चैले? जो कहो की
अ ापक जीवन च र िलख तो यिद एक अ ापक के पास ५०
से १०० िश भी ए और वह उनका २५, ३० और ४८ वष का
जीवन च र िलखने बै ठ जाए तो िव ाथ यों को घ ा पढ़ाये गा,
या तो िफर वो जीवन च र ही िलखेगा या िफर पढ़ा ही लेगा,
और िबना लाभ २५, ३० या ४८ वष का इितहास िलखने कौन
बै ठे? एक दो हो तो िलख भी दे पर ु जहाँ ५०-१०० िव ाथ यों
का ४८ वष तक का इितहास िलखना हो वहाँ ा पता? ोिक
जब िव ाथ अ ापक के पास ही रहे ह तो उनकी व था वे
ही ठीक कार से जानते ह और जब वह धन लेकर ही पु क
बनायगे तो यह भी सं भव है िक अिधक धन दे ने वाले के अवगु णों
को िछपाकर केवल गु ण ही िलख, ोिक वे तो इस बात को
जानते ही ह िक यिद िव ाथ यों के अवगु ण िलखगे तो उनका
िववाह नही ं होने का, इसी कार लड़की भी करे गी जो कुछ घर
P- 207
से खच िमलेगा उसम से कुछ जीवन च र िलखने वाले को भट
करे गी, जो कहो की सब ऐसे नही ं होते तो और सु नो, यिद उ ोंने
लड़के लड़की के अवगु णों का जीवन च र िलखा तो अब उनसे
कौन िववाह कर वो िकसकी जान को रोव, िवधवा पर तो आपने
मेहरबान होकर उसके वा े िनयोग और एकादश ( ारह) पित
करने को िलख िदया पर ु वे कुमारी ा कर? वो पित कर या
नही ं और कर तो िकतने कर? यह कुछ नही ं िलखा तु मने ोिक
जो अवगु णयु है उनसे िववाह कौन कर? और फोटो से पसं द
करने के उपरां त यिद उसे कोई दू सरा उससे अिधक प गु ण
वाला िमला तो वो ी िकसी दू सरे के सं ग करने की इ ा कर
सकती है इससे तु ारा यह फोटो िववाह वाला फॅामूला यही
हो जाता है
P- 208
च र कोई अपने आप िलख तो वह अपने अवगु ण नही ं िलखता,
ोिक जो अपने अवगु ण भी िलख तो िसवाय िनंदा के कुछ
ा न हो, सो यह सं भव है िक अपना च र िलखने वाला
बडाई की इ ा से ब त कुछ अस भी िलखता है , इसिलए वो
जीवन च र माण नही,ं
P- 209
न कुछ तो िवशेषता अव होगी, अब पसं द िकसे कर दबाव म
िकसी एक को तो ीकार करना ही होगा, पर ु मन म तो और
पु षों का भी कटा समाया रहेगा और यही ं िभचार का
ल ण है , ोिक सभी अपने से उ म को ही चाहते ह ामी जी
गु ण कम िमलाने को िलखते ह लेिकन क ा की इ ा िवशेष म
ई और वे अ ापक गु ण कम िमलाने लगे और क ा से बोल
इनम से एक पसं द कर लो तो अब लाचारी म ही सही उसे उनम
से एक को ीकार करना ही होगा पर मन म तो और ही पु ष
रहा और ठीक यही दशा पु षों की भी है तो अब कहो वह पित
का अचल ेम और आपस की स ित कहाँ रही?
P- 210
परी ण ात कैसे हो? और जो गु बात है उसे अ ापक कैसे
दे ख ा वे भी िकसी कार उनसे िनल ता यु भाषण कर,
अरे भाई गु बबात को खोलकर ही िलख दे ते की िववाह से पूव
एक बार सं योग भी हो जाए तो सब भे द खुल जाएं , लेिकन अब
क ा की परी ा कैसे हो िक कही ं वह बां झ तो नही ं है ोंिक
बां झ ई तो सं तान कहाँ से होवे इसिलए या तो िकसी अ े से
डॅ ा र से जाँ च कराय या िफर दो, चार महीने सं योग होता रहे
जो गभ थत हो जाए तो िववाह कर ल अ था छोड़ द, ों
ामी जी गु बात से आपका यही अिभ ाय है न या िफर और
कुछ,
P- 211
थत करे , प ात दोनों शु जल से ान कर यह बात रह
की है इतने म ही सम बात समझ लेनी चािहए िवशेष िलखना
उिचत नही❞
ं
P- 212
दे खए िक मन म पित को बसा रही है और िनयोग के समय
अ ारह परपु षों के साथ न सोती है वाह रे ते री सं ार
िविध, इसका नाम सं ार िविध नही ं ब िभचार िविध रख
दे ना चािहए यह तु ारा ४८ वष के बु े के साथ २४ वष य ी
का िववाह और एकादश पु षों के साथ िनयोग यह दो ल ा
नाशक िभचार के खंभ है ,
P- 213
अ ास पहले से िकया होगा तभी तो वह वीयाकषण कर सकती
है नही ं तो नही ं इसी कार पु षों ने भी वीय थापन का अ ास
पहले से ही िकया होगा, तभी तो आता होगा, और आकर् षण
िबना योग ि या के आ नही ं सकता, अब यह ि या क ा और
पु ष को कौन िसखाव, ा यह भी अ ापक और
अ ािपकाओं के सर मढ़ोगे , ोिक जब तक ी और पु ष
का सं योग न हो तब तक उ यं आकषण का अ ास कैसे
हो सकता है ? इसी कार पु षों को भी अ ास के िलए ी की
आव कता होगी, न जाने यह िव ा ामी जी ने कहाँ से सीखी
है जब यह िविध ामी जी को आती होगी तभी तो िलखी ं ह
लगता है ामी जी ने इसका काफी अ ास िकया है तभी इतने
िव ास के साथ िलखा है
P- 214
जो वै ाओं तक को ल त कर दे , इससे ही ात हो जाता है
िक ामी जी ने कामशा म िकतना अ ास िकया है ,
P- 215
‘ओ३म्’ अ र िलख कर मधु और घृत को उसी शलाका से
चटवावे , प ात् उसकी माता को दे दे वे, जो दू ध पीना चाहै तो
उस की माता िपलावे जो उस की माता के दू ध न हो तो िकसी
ी की परी ा कर के उसका दू ध िपलावे , प ात् दू सरे शु
कोठरी वा जहां का वायु शु हो उसम सु ग त घी का होम
ातः और सायं काल िकया करे और उसी म सू ता ी अपने
शरीर के पुि के अथ अनेक कार के उ म भोजन और
योिनसं कोचािद भी करे , छठे िदन ी बाहर िनकले और स ान
के दू ध पीने के िलये कोई धायी र े , वह स ान को दू ध
िपलाया करे और पालन भी करे , ी दू ध ब करने के अथ
न के अ भाग पर ऐसा लेप करे िक िजस से दू ध िवत न हो,
P- 216
कान म ते रा नाम वे द ह” ऐसा कहना इससे ा योजन है ?
तथा ामी जी ारा रिचत सं ार िविध के अनुसार बालक से
ऐसी बात कहना जैसे कोई बड़ो से कह “हे बालक म तु झे मधु
धृ त का भोजन दे ता ँ , तु झे म वे द का दान दे ता ँ , हे बालक
भू गोल, अ र , गलोक का ऐ य तु झम म धारण करता
ँ ” िवचारने की बात है ा यह ामी जी का तं नही ं है अरे
भाई आप ऐसे कहाँ के परमे र के दरोगा है जो तीनों लोकों का
ऐ य चाहे िजसे हाथ उठाया दे िदया और बालक ा भू खे
मरगे , और िजसे ि लोक का ऐ य िमल गया तो वह द र न
होना चािहए अब ोंिक जब सबके सं ार की यही िविध है तो
कोई द र नही ं होना चािहए, और बालक के कान म यह कहना
िक ते रा नाम वे द ह भला वो दस िदन का बालक ा समझे गा
िक वे द िकसे कहते ह? आठ दस वष का बालक तो वे द मं
नही ं समझ पाता और यह दस िदन का बालक वे द तक समझता
है , ध हे ामी जी आपकी बु , जो ये कहो िक यह कथन
मा है तो ज ते ही बालक को झूठ म ों फसाना?
P- 217
आपने कुछ बताया नही ं और ना ही यह बताया िक िकस कार
योिनसं कोचन कर यिद कोई औषिध वगै रह िलख दे ते तो िवषयी
याँ आपसे बड़ी स होती पर ु आपने कुछ बताया ही नही ं
बस यह िलख िदया िक “जहाँ सु ग त घी का होम ातः और
सायं काल होता हो उसी म सू ता ी योिनसं कोचन कर” शोक
है ऐसी बु पर िजस थान पर होमािद कर वही ी
योिनसं कोचन कर, ा यही तु ारा धम यही तु ारी शम है ,
P- 218
िजस माग से इस के िपता, िपतामह चले हों उस माग म स ान
भी चल पर ु (सताम्) जो स ु ष िपता िपतामह हों उ ी ं के
माग म चल और जो िपता, िपतामह दु हों तो उन के माग म
कभी न चल
P- 219
िजस पर आपके िपता, िपतामह चलते आए, अथात इस समय
आपके आचरणों पर आपके िश ों को चलना चािहए
ऊ तद य ै ःप ा शू ो अजायत॥
P- 220
दयानंद का उ र- इस म का अथ जो तु म ने िकया वह ठीक
नही ं ोंिक यहां पु ष अथात् िनराकार ापक परमा ा की
अनुवृि है , जब वह िनराकार है तो उसके मुखािद अंग नही ं हो
सकते , जो मुखािद अंग वाला हो वह पु ष अथात् ापक नही ं
और जो ापक नही ं वह सवश मान् जगत् का ा, ध ा,
लयक ा जीवों के पु पापों की व था करने हारा, सव ,
अज ा, मृ ुरिहत आिद िवशेषणवाला नही ं हो सकता।
P- 221
से उ होते ह वै से तु म भी होते हो, तु म मुखािद से उ न
होकर ा णािद सं ा का अिभमान करते हो इसिलये तु ारा
कहा अथ थ है और जो हम ने अथ िकया है वह स ा है ❞
~यजु वद {३१/१०}
P- 222
के िवषय है , अब यिद ामी जी इसका यह अथ कर िक जो
सब दे शों म उ के बल से आव जाव वह वै है तो िफर
ामी जी यह बताए िक वै ों के अित र िजतने भी ा ण,
ि य और शू है वे सब परदे श ा रग कर जाते ह? और जो
उ के बल से आव जाव वह वै है तो िफर तो िजतने भी
ा ण, ि य और शू परदे श म आते जाते ह सब ही वै
होने चािहए, पर जो बस, टे न और जहाज से परदे श को आव
जाव उनका ा नाम है ? यह नही ं बताया, ध हे तु ारी की
बु यवन मले सब ही परदे श जाने वालों को तु मने वै
बना िदया अब कोई इन ामी जी से यह पूछे िक वे सब अपने
गां व नगर म काह के बल से चलते ह जो और कुछ बल हो तो
िफर जाने दीिजए और यिद घरों म भी जाघों के बल से ही आना
जाना हो तो सब जगत ही वै हो गया, ध हो ामी
भं गेडानंद जी ा ण, ि य और शू आपने तो सब मेट एक
ही वण बना िदया,
P- 223
इससे अगली ुित म भी उ होने का वणन है इस मं म भी
िलखा है िक -
च मा मनसो जातश् च ोः सूय ऽ अजायत।
मन से च मा और ने ों से सू य उ आ
सह शीषा पु षः सह ा ः सह पात्।
P- 224
स भूिमं िव तो वृ ा ित शांगुलमं॥ ~[ऋ ेद १०:९०:१],
[यजु वद का ३१:१]
P- 225
दो कौड़ी के ान के बल पर ामी जी यं को त ानी
समझते ह ई र की श की कुछ खबर नही,ं ध हे ामी
जी तु ारी बु , इसी कार इस ुित का आशय लेकर ही मनु
जी ने भी यह ोक िलखा है दे खए--
लोकानां तु िववृद् थ मुखबा पादतः।
ा णं ि यं वै ं शू ं च िनरवतयत्॥
P- 226
होगी, प ा यह गपोड़ा तो ामी जी ने गहरे भं ग के नशे म धु त
होकर ही िलखा है
॥िनयोग करण॥
❝( )-पुनिववाह म ा दोष है ?
P- 227
समी क-- वाह रे ! ामी िनयोगानंद जी ा दोष िगनवाये है ?
ा यह सभी दोष तु ारे ारा ही िलख लेखों से खंिडत नही ं
होते ? दे खए-
P- 228
करने उनके साथ न होकर सोने से पित धम और ी
धम न नही होता, वाह रे ! ामी िनयोगानंद ा कहने तु ारे ,
शोक है ऐसी बु पर, िक ारह अलग-अलग ी पु ष के
साथ सं भोग करने से पित धम और ी धम खंिडत नही ं
होता और पुनिववाह से खंिडत हो जाता है , ध हे ! ामी जी
तु ारी बु ,
अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते।
P- 229
स ान उ नही ं करने वाले चारीयों की तरह पित की
मृ ु के बाद चय का पालन करने वाली ी पु वती नही
होने पर भी ग ा करती है ॥१६०॥
P- 230
िलया जाए? अब यिद पु के अथ िनयोग करते हो तो िफर कुछ
लाभ नही ं हाँ यिद कामि बु झाने के अथ यह वै ा धम चलाया
है तो दू सरी बात है
❝( ) पुनिववाह और िनयोग म ा भे द है ?
P- 231
समी क-- न जाने ामी जी ने िनयोग के यह पाचँ िनयम कौन
सी सिहं ता से िनकाले ह? ा यह ामी जी की िम ा क ना
नही ं है ? ान दे ने वाली बात है िक इससे पूव जो ामी ने
पुनिववाह के चार दोष िगनवाए है ा वे चारों दोष इन पाँ च
िनयमों से नही टू टते ? दे खए-
P- 232
हे पु ा! तू अंग-अंग से उ ए वीय से और दय से उ
होता है , इसिलये तू मेरा आ ा है , मुझ से पूव मत मरे िक ु सौ
वष तक जी, तो अब कोई इन िनयोगानंद जी से यह पूछ की जब
पु िपता के अंग अंग से उ होता है एवं उसी की आ ा का
अंश आ तो अब िनयु पु ष से उ सं तान चाहे िकसी के
भी घर ों न रहे ? उसम िनयु पु ष के ल ण अव
आयगे , और वह पु है भी उसी का, ोिक आम बोने से आम
ही होता है इसीिलए िनयु पु ष से उ ई सं तान का मृत
पु ष से कुछ भी सं बंध नही ं रहा, और जब िनयु पु ष से
उ पु मृतक के धन का अिधकारी आ तो ामी का यह
तक की (यिद पुनिववाह होगा तो धन दु सरो के हाथ लग जाये गा)
िम ा ही आ ोिक अब भी उसका धन दू सरे के हाथ ही
लगा, अपना पु तो तभी होगा जब अपने से उ होगा, ोिक
िनयु पु ष से उ पु उसके अंग अंग से उ एवं उसी
की आ ा का अंश आ सो मृतक से उसका कुछ स न
रहा, अथात दयानंद का यह दू सरा क त िस ा भी ए
जाता है ।
P- 233
सो वै से ही अपने पित-प ी से भी कुछ लगाव नही ं रहता जो
होता तो इस महाधम िभचार िनयोग की आ ता ही न
रहती, यह तो बस ामी जी ने कामाि बु झाने को एक
वै ाधम चला रखा है ।
P- 234
िफर ा सं तान के लालच से वह ि ित छूट सकती है ? भला २०
वष का अ ास तु र कैसे छूट सकता है ?
और ी पु ष का स मरणपयत घ ा रहा जब ी २०
वष तक िनयु पु षों से िनयोग कर सं तान उ करती
रहे गी तो ी का स तो िनयु पु षों के साथ ही रहा, इस
कार ामी जी का चौथा िनयम भी ए जाता है ।
P- 235
“वही िनयु ी दो तीन वष पय उन लड़कों का पालन
करके िनयु पु ष को दे दे वे, ऐसे एक िव ा ी दो अपने
िलये और दो-दो अ चार िनयु फ पु षों के िलए दो-दो
स ान कर सकती और एक मृत ीपु ष भी दो अपने िलये
और दो-दो अ अ चार िव ाओं के िलये पु उ कर
सकता है । ऐसे िमलकर दस-दस स ानो ि की आ ा वे द म
है , जैसे-
इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु ।
P- 236
वाला है , इसम वे द मं ों को ों सानते हो? यिद इतनी ही ादा
खुजाई मच रही थी तो कोई अपनी ही िम ा सं ृ त बना लेते,
तु ारे चैले तो उसे भी प र की लकीर मान लेते, दे खए वे दों म
ऐसी बात कभी नही ं होती, यह मं िववाह करण का है जो
आशीवाद के अथ म है और इसका अथ इस कार है --
”हे इ परमए य यु दे व (मीढ:) सवसु खकारी पदाथ की
वृ ि करने वाले इस ी को भी पु वती धनवती करों, और दश
इसम पु ों को धारण करो भाव यह है िक दश पु पैदा करने के
अ इस ी म थािपत करों और ारहवां पित को करों
अथात जीिवत पित और जीिवत पु इसको करों” इसका अथ
यह है जो ामी िनयोगानंद जी ने कुछ का कुछ िलख िदया है ,
और ामी जी ने यह न सोचा िक यिद एकादश पित पय
िनयोग करने की ई र की आ ा है , तो ई र तो स सं क है
तब तो सब ीयों के दश-दश पु से कम नही ं होने चािहए यिद
दश से कम होंगे तो ई र का सं क िन ल होगा, इससे
ामी जी का िकया अथ अशु है ।
अब िवचारने की बात यह है िक इसम िनयोग चारक कौन सा
श है ? िजस मं मे िनयोग िक गं ध तक नही है ामी
िनयोगानंद जी ने उसे भी िनयोग से जोड िदया, दयानंद जी ने तो
यह समझ िलया िक हमारे अनुयायी हमारे वा ों को प र की
लकीर मानते ह और वे दभा भी हमारा िकया ही मानते ह
इसिलए जो चाहे सो अंड सं ड बकवास िकये जाय, इस िहसाब
से तो तु ारे मत म िकसी के दश से कम पु नही ं होने चािहए
और िजनके दश से कम है वह तु ारे वा ानुसार कुछ िचंता
कर, और दश सं तान म समय िकतना लगे गा यह भी तु मने न
िलखा।
P- 237
स ाथ काश चतुथ स ुलास पृ ८४
❝( ) है तो ठीक, पर ु यह वे ा के स श कम िदखता है
P- 238
िनयोग होना हो तब अपने कुटु म पु ष यों के सामने कह
की हम दोनों िनयोग स ानो ि के िलये करते ह, जब िनयोग
का िनयम पूरा होगा तब हम सं योग न करग।
वै ा ी वै , ि य और ा ण के साथ; ि या ि य और
ा ण के साथ; ा णी ा ण के साथ िनयोग कर सकती है |
इसका ता य यह है िक वीय सम वा उ म वण का चािहये ,
अपने से नीचे वण का नही,ं ा◌ी और पु ष की सृ ि का यही
योजन है िक धम से अथात् वे दो रीित से िववाह वा िनयोग
से स ानो ि करना❞
P- 239
महाधम िनयोग म है , आपके आ ानुसार िवषयी ी-पु ष
िकसी भी ारह ी-पु ष तक के सं ग अपना मुँह काला करवा
सकते है इसिलए यह कहना की िनयोग म िववाह की भाँ ित
िनयम है यह बात पूरी तरह से गलत है िनयोग म िकसी भी
कार का कोई िनयम नही ं है यिद है भी तो वही वे ाओं वाले
इसिलए िववाह और िनयोग के िनयम समान बताकर अपने
एकादश िनयोग से उ होने का माण न िदिजये ,
P- 240
यं ामी जी पर िबित है नही ं तो "जाके पैर न फटै िववाई, सो
ा जाने पीर पराई, यह सू झती कैसे ? िफर आगे िलखा िक जो
िजते य रहे िनयोग न कर तो ठीक है , यह ा कह िदया
आपने ? िपछे तो िलख आए िक ई र के सृ ि मानुकूल ी
पु ष का भाव कामचे ा से क नही सकता िसवाय यौिगयों
के इस तरह की पर र िव बात कोई महाचुितया ही िलख
सकता ह िव ान नही,ं मानो जैसे मुह द की भां ित
दयानंद जी भी रातों रात ई र से िमल आये और ई र ने सारा
सृ ि म दयानंद को बता िदया है , यिद यही ई र का सृ ि म
है तो मनु इसे कैसे रोक सकते ह? और जो रोक ल तो वे
सृ ि म के िव ई र के इ ा के ितकूल करते ह इससे
ई र का सृ ि म वृ था हो जाता है ध हे ! ामी जी आपकी
बु , दयानंद जी तो सृ ि म को लेकर यं िमत है और चले
है पंिड़त बनने ,
P- 241
सववणषु तु ासु प ी तयोिनषु ।
P- 242
अन है कौन पार पा सकता है ? इस ां ड म उसने अनिगनत
लोक रच िदये है िकसी के बढ़ाये घटाय से उसकी सृ ि घट बढ़
नही ं सकती आप पु ष का दु सरा िववाह नही ं बताते ह सु िनये -
व ा मेऽिधवे ाऽअ े दशमे तु मृत जा।
P- 243
हे (अि ना) ी पु षो !जैसे (दे वरं िवधवे व ) दे वर को िवधवा
और (योषा मय ) िववािहता ी अपने पित को (स थे) समान
थान श ा म एक ा होकर स ानो ि को (आ कृणु ते) सब
कार से उ करती है , वै से तु म दोनों ी पु ष (कुह
ोषा) कहां राि और
P- 244
कर रही थी? या िफर ई र ी-पु षों से पूछता है िक तु म दोनों
कहाँ थे? ा ई र अ ानी है ? जो िवधवा से रित कर वो दे वर
चाहे बड़ा हो या छोटा, शोक हे ! ऐसी बु पर, िनयोग करने को
बड़ा भी जे हो तो ी का दे वर हो जाये, थू है ऐसे समाज पर,
इस मं म अि ना इस पद से ी पु ष हण करक केवल
जाल रचा है बस अर् थ का अनथ ही िकया है इस मं म अि नो
यह श दे वता का वाचक है ामी जी ने इसम कुछ माण न
िलखा दे खए िन म यह िलखा है -
अथातोद् यु थाना दे वता ासामि नौ थमागािमनौ॥ ~िन
{अ० १२, खं० १}
P- 245
है , और अपने सभी छोटे बड़े काय के िलए दे वर की सहायता
लेती है , और (न)- जैसे, (योषा)- प ी, (शयु ा)- शयन थान म,
(मयम्)- पित को अिभमुख करती है , वै से ही तु अपने े य
म आदर सिहत कौन आ त करता है
P- 246
िजस क ा का वा ान के उपरा पित मर जाए, उसे दे वर
अथात उसके छोटे भाई से ाह दे , इसी कारण दे वर को दू सरा
वर कहते ह पर ु िनयोग यहाँ भी िस नही ं होता, और
(िवधावनात्) पित की मृ ु के उपरा ी रोकी जाती है , कही ं
आने जाने नही ं पाती इस कारण इसे िवधवा कहते ह, ामी जी
उसे ऐसा तं करते ह िक कुछ बू िझये मत, दयानंद ने सबको
ही दे वर बना िदया, जो कोई समाजी ीयों का गै म बजाए वही
दे वर शोक हे ! ऐसी बु पर,
P- 247
उसके शोक म िवलाप करती है , और ामी जी उसी समय
उसको कहने लगे िक इसे छोड़ औरों को पित बना ल, शोक हे !
ऐसी बु पर, ामी जी ने िसफ अपना ाथ साधने के िलए
वे द मं ों के अथ का अनथ िकया है दे खए इसका सही अथ इस
कार है --
P- 248
स ाथ काश चतुथ समु ास पृ ८६,
❝अदे वृ पित ीहै िध िशवा पशु ः सुयमा सुवचाः ।
P- 249
हे ी तू , (अपित दे वृि )- पित और दे वर को दु ख न दे ने
वाली, (एिध)- वृ को ा हो, अथात दे वर आिद कुटु यों से
िव मत करना, (इह)- इस गृ हा म म, (पशु :)- पशुओं के
िलये , (िशवा)- क ाणकारी, (सु यमा)- अ े कार धम िनयम
म चलने वाली, (सु वचा:)- प गु णयु , ( जावती)- उ म पु
पौ ािद सिहत, (वीरसू :)- वीर पु ों को ज दे ने वाली,
(दे वृकामा)- दे वर के होने की ाथना करने वाली, ( ोना)-
सु खनी, (इमम् )- इस, (गाहप म् )- गृ ह थ स ी, (अि म्)-
अि हो को, (सपय)- से वन िकया कर।
P- 250
िम ा है , इसके बाद अब ामी जी मनु ृित पर आ गये दे खए
ामी जी ा िलखते ह-
P- 251
(उ र) सोम: थमो िविवदे ग वो िविवद उ रः।
P- 252
हो, िजसका भाव दयालुता वाला हो ू रता वाला नही}ं , (ते )-
ते रा, (पित:)- पित है
P- 253
गु ण और म ों नही ं इ ािद इ ािद। इस कारण दयानंद के
िकये सब अथ है
P- 254
वे द माणों से िव दाथ होगा ोंिक तु ारे अथ से दू सरा भी
पित ा नही ं हो सकता❞
जे तािधग ास ान प र ये॥१॥
P- 255
कर तो पितत हो जाय, अथात् एक िनयोग म दू सरे पु के गभ
रहने तक िनयोग की अविध है ।
P- 256
न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ -{९/६५}
P- 257
उस राजा वे न के समय से यह रीित चली और जो उसकी मित
मानने वाले लोग शा के न जानने वाले िवधवा ी को
परपु ष के साथ योजना करते ह, उस िविध को साधु पु ष
िन ा करते ह॥
(उ र) जीते भी होता है ।
अ िमिप सुभगे पितं मत् ॥ ~ऋ० {मं० ११/ सू० १०}
P- 258
होकर स ानो ि म असमथ होवे तब अपने पित को आ ा
दे वे िक हे ामी आप स ानो ि की इ ा मुझ से छोड़ के
िकसी दू सरी िव ा ी से िनयोग करके स ानो ि कीिजये ,
जैसा िक पा ु राजा की ी कु ी और मा ी आिद ने िकया❞
~ऋ० {१०/१०/१०}
P- 259
तीन पु उ ए, जो त ाल ऋतु दान करते ही उ हो गये ,
अ नीकुमारों से नकुल, सहदे व यह त ाल ही उ हो गये थे,
यिद इस कार मं ाकषण से पित की आ ानुसार ीम
दे वताओं के बु लाने की साम हो तो वह कर सकती है , इस दे व
स ी काय का यहाँ ां त नही ं घट सकता,
वै से ही जो पु ष अ दु ःखदायक हो तो ी को उिचत है ,
िक उस को छोड़ के दू सरे पु ष से िनयोग कर स ानो ि
P- 260
करके उसी िववािहत पित के दायभागी स ानो ि कर लेवे,
इ ािद माण और यु यों से यं वर िववाह और िनयोग से
अपने -अपने कुल की उ ित करे ❞
P- 261
यिद वह परदे श धम काय को गया हो तो आठ वष, िव ा पढने
गया हो तो छ: वष, धन यश को गया हो तो तीन वष तक राह
दे ख, प ात पित के पास जहाँ हो वहाँ चली जाव॥
अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते।
P- 262
िन ैव सा भवे ोके परपूवित चो ते॥ {५/१६३}
P- 263
पु ा की इ ा से जो ी पित त धम को तोड़ कर दू सरे
पु ष के साथ सं भोग करती है उसकी इस सं सार म िनंदा होती
है तथा परलोक म बु री गित िमलती है ॥१६१॥
P- 264
यह इसका अथ है , ामी जी ने यह भी खुब िलखा िक “पित
दु ःखदायक हो तो ी उसे छोड़ िकसी दू सरे पु ष से िनयोग
कर स ानो ि करके उसी िववािहत पित के दायभागी
स ानो ि कर लेवे” ध हे ! ामी जी आपकी बु , पहले
तो िलखा िक पित आ ा दे तो िनयोग कर, और अब िलखा िक
ी अपनी इ ा से पित छोड़ दू सरे पु ष से िनयोग कर ल, जब
वह दू सरे पु ष से िनयोग करे गी पित से लडे गी, तो वह उसे घर
म ही ों रहने दे गा, सास ससु र भी उसे घर म नही रहने दगे ,
एक नही ं सै कड़ों िनयोग कर, पर ु जब वह पित के िव
करे गी वह तो काह को उसे घर म घुसने दे गा, ऐसी िबना सर पैर
की बात तो कोई मुख भी न करे गा जैसी ामी जी ने यहाँ िलखी ं
ह जो ी दु सरे से स ान उ कर पित से छोड़ी ई िफर
उसके और से उ ए बालक कौन से शा से दायभागी
होंगे, िसवाय तु ारे िभचार काश के, और तो िकसी ं थ म
ै रणी ीयों के पु ों का दाय भाग नही ं िमल सकता।
~ यह सामवेद के ा ण का वचन है ।
P- 265
हे पु ा! तू अंग-अंग से उ ए वीय से और दय से उ
होता है , इसिलये तू मेरा आ ा है , मुझ से पूव मत मरे िक ु सौ
वष तक जी❞
P- 266
स ाथ काशा गत प मसमु ास खं डनं ार ते
P- 267
ठहरते कोठी बं गलों म ही ठहरते इ ािद िफर तु इन सं गों के
करने से पाप ही आ
~मु ० (१ ख २ मं० ८)
P- 268
जो अिव ा के भीतर खेल रहे , अपने को धीर और प त मानते
ह, वे नीच गित को जानेहारे मूढ़ जैसे अ े के पीछे अ े दु दशा
को ा होते ह वै से दु ःखों को पाते ह❞
P- 269
समी क-- न जाने यह कीड़ा तु ारी म कहां से घुस गया की
मु के बाद जीव वापस लौट आता है भला वह मु कैसी
िजसके बाद भी जीव ज -मरण के बं धन से मु नही ं होता,
यह तु ारे मन की गढ़ं त ही ह ोंिक इस ुित म ऐसा कही ं
नही ं िलखा िक मु के बाद जीव वापस लौट आता है , दे खए
इसका सही अथ इस कार है ,-
P- 270
गािलयों की वषा करने लगते ह, िव ैषणा का ाग भी तु ारे
अ र नही ं पाया जाता, धन की इ ा यहाँ तक है िक उसकी
पूित नही ं होती, धन की ा के िलए कैसे-कैसे य िकए,
भीख मां ग-मां ग कर अपना िनजी यं ालय खोला, उसके बाद भी
पु कों के मु दोगु ने, तीनगु ने रख, तु ारी पु क कोई और
न छाप सक इसिलए उसकी रिज ी करवाईं, पु क िव य के
वहार से धन आने पर भी ाकरण की पु क छापने को
िफर से धन की सहायता ली, उपदे श मंडली के नाम से
एकल पया एकि त करने म ययथाश य िकया गया,
लोभ ने तु ारे मन म यहाँ तक िनवास िकया था िक धनवानों
पूंजीपितयों से ि ितसमेत घंटों वता होती थी, ईसाई िमशनरी
सभा और अं े जी द रों के च र काटा करते थे, िनधनों की
तो बू झ ही न थी, ित ा इतनी चाहते थे िक कोठी, बं गल और
महलों म ही ठहरते थे, पु तो था ही नही ं पर ु जो मु
से वकािद है उनम तु म ीती करते हो, और उनके सु ख दु ख म
हष, शोक कट करते हो, ोिक तु मने ही इसी के ऊपर पृ
९४, पर िलखा है िक जो दे हधारी है वह दु ख सु ख की ा से
पृथक नही ं रहा सकता, तो िलिजए तु म तीनों एषणाओं से मु
नही,ं इसिलए स ासी भी नही ं हो, ोिक तीनों एषणाओं को
केवल वही जीत सकता है जो सं सार के वहार से कोई स
न रखता हो,
P- 271
जापित अथात् परमे र की ा के अथ इि अथात् य
करके उस म य ोपवीत िशखािद िच ों को छोड़ आहवनीयािद
पां च अि यों को ाण, अपान, ान, उदान और समान इन पां च
ाणों म आरोपण करके ा ण िवत् घर से िनकल कर
सं ासी हो जावे ❞
P- 272
स ाथ काश प म समु ास पृ ९६,
P- 273
स ाथ काश प म समु ास पृ ९८,
❝स ङ् िन मा ेय न् य ा स ङ् दु ःखािन
कमािण ये न स सं ासः, स श ो िव ते य स सं ासी जो
और उसकी आ ा म उपिव अथात् थत और िजस से
दु कम का ाग िकया जाय सं ास, वह उ म भाव िजस
म हो वह सं ासी कहाता है ❞
P- 274
धनािन तु यथाश िव ेषु ितपादयेत्।
P- 275
एककालं चरे ै ं न स ेत िव रे ।
भै े स ो िह यितिवषये िप स ित॥
P- 276
ल ण नही ं िमलता, इस कारण उनका स ास लेना थ ही
आ,
॥इित चुितयाथ काश प मसमु ास खंडनम् समा म्॥
P- 277
स ाथ काशा गत ष समु ास खं डनं ार ते
॥राजधम प्रकरण॥
P- 278
पूछना, दं ड िवधान आिद कहां के है , इससे अपने िवषय म
धमशा ही तः माण है
P- 279
स ाथ काश ष समु ास पृ १११,
,,,,,,जो सा ी स बोलता है वह ज ा र म उ म ज और
उ म लोका रों म ज को ा होके सु ख भोगता है ❞
P- 280
ा लूटपाट के उ े से लडा गया यु , श ु ओं की धन सं पदा
और उनकी यों का भोग करना धमानुकूल और वे द स त
है ?
P- 281
तु म तो इ ाम से भी २ कदम आगे िनकल गए, अपने चेलों को
लडाई म जीती ई यों को लूट के माल िक तरह बां टने की
िश ा करते हों शोक है ऐसी बु पर, यं को वै िदक , वै िदक
कहते नही ं थकन वाले िनयोग समाजीयों दयानंद के इस लेख के
बारे म ा कहना चाहोगे ?? पहले ारह ारह ीयों से भोग
करना िसखाया और जब इतने से भी कामि शा न ई तो
ीयों को लूटने की िश ा दे ड़ाली, तु ारे भगवान दयानंद तो
मुह द साहब से भी दो कदम आगे िनकल गये , लड़ाई म
याँ लूटने और बाटने की बात कर रहे ह,
दे खए मनु जी ा िलखते है -
िज ा संपूजये े वान् ा णां ैव धािमकान्।
P- 282
सवषां तु िविद ैषां समासेन िचकीिषतम्।
P- 283
िम ता ा कर बनता है । दु बल से दु बल राजा भी िम ता से
बलवान बन जाता है ॥५॥
P- 284
खेर ये सब बात िजहादी दयानंद की समझ से बाहर है ।
भयाद् ौम मौ द ौ मै ूव चतुगुणम्॥३॥
P- 285
समी क-- वाह रे ामी मुखानंद वाह! ा िदमाग पाया है
तु मने , मनु के समय म पये चला िदए, ध हे तु ारी दो
कोड़ी की बु , थम तो कोई इन मुखानंद महाशय जी से यह
पूछे की इ ोंने यह प ह पये दस आने, तीन पये दो आने,
सवा छ: पये , और ये साढ़े बारह पये का द िकन पदों से
िनधा रत िकया, और कौन सी गिणत िव ा लगाकर यह द
की धनरािश िनधा रत की, या िफर ऐसे ही मूहँ म जो भी अंड
सं ड आया सो बक िदया, और वतमान म इस १५, ३, ६ और १२
पयों की औकात ा है ? १५ पये म तो के एक
समय का भोजन भी न आव, और झूठ बोलने के िलए इतना
मजेदार द आज तक िकसी ने नही ं सु नाया होगा, जब १५
पये , ३ पये , ६ पये और १२ पये म झूठ बोलने की पूण
आजादी िमल रही है तो िफर लोभ और मोह के वशीभू त हो
सभी झूठ ही बोलने लगे ? ोिक वे जानते ह िक यिद उनका
झूठ पकड़ा भी जाता है तो वह १२ या १५ पये का साधारण सा
द दे क छूट जावगे , लोगों म कुछ भय ही न रहे गा, ामी जी
के इस क तद िवधान के च र म झूठी गवाही दे ने से न
जाने िकतने िनद ष मनु ों का जीवन ही समा हो जाए, यह
ामी जी झूठ रोकने को नही ं ब झूठ की, अधम की उ ित
के अथ यह द की धनरािश क ना की है इसका अथ इस
कार है -
लोभा ह ंद ु मोहा ूव तु साहसम्।
भया ् वौ म मौ द ौ मै ा ूव चतुगुणम्॥
P- 286
ढ़ाई सौ पणों ( ण मु ाओं) का, भय के वश मे आकर अस
बोलने वाले सा ी को दो म म साहस अथात पां च सौ ण
मु ाओं का द और िम ता के कारण अस बोलने वाले
सा ी को थम साहस का चारगुना अथात हजार ण मु ाओं
का द दे ना चािहए
P- 287
क त िनयम बनाया इस कारण दयानंद का यह लेख
अशु है
P- 288
स ाथ काशा गत स म् समु ास खं डनं ार ते
P- 289
ताप और काशािद से िभ कुछ भी नही ं कर सकते , ा ये
चेतन ह जो ोिधत होके दु ःख और शा होके सु ख दे सक?"
P- 290
नृच सो अिनिमष ो अहणा बृह े वासो अमृत मानशुः।
P- 291
॥ई रिवषय करण॥
P- 292
या जानकर यिद वह ाथना कर िक आगे ऐसी भू ल न करे गा,
बस उसके ऊपर दया करता है , जैसा यजुवद म िलखा है िक-
स नो ब ुर् जिनता स िवधाता धामािन वेद भुवनािन िव ा।
~यजु वद {३५/८}
P- 293
पृथक है , और ई र म सवश मान होने से दोनों बात बनती
है ।
❝( ) ई र साकार है वा िनराकार?
P- 294
सगु ण वा साकार कहते ह, यह ाय दयालु आिद नाम साकार
म ही घटते है , दे खए यजुवद के शतपथ ा ण म िलखा है
िक--
उभयं वा एत जापितिन ािन प रिमत ाप रिमत
त जु षा करोित यदे वा िन ं प रिमतं पं तद तेन
सं रो थ य ू ी ं यदे वा ािन मप रिमतं पं तद तेन
सं रोित॥ ~शतपथ ा ण {१४/१/२/१८}
P- 295
स ाथ काश स म् समु ास पृ १४८,
P- 296
े वाव णो पे मूत चैवामूत च०। ~बृहदार क
उपिनषद{२/३/१}
॥अवतार करण॥
P- 297
इसिलये परमे र का जाना-आना, ज -मरण कभी िस नही ं
हो सकता❞
ह ा चे ते ह ुँ हत े ते हतम्।
ना ाऽ ज ोिनिहतो गुहायाम्।
तम तुः प ित वीतशोको
P- 298
दोनों अ ानी है वे दोनों ही आ ा के यथावत प को नही
जानते , ोिक यह आ ान हनन करता है न हनन होता है ,
P- 299
म थत होकर शीत का ान कर सकता है , आ ारिहत अंगों म
शीत श का भान कैसे होगा?
( ) आ ा य िप एक दे श म ह, तथािप जैसे क ू री की गं ध
सव िव ृ त होती है वै से ही आ ा का ानगु ण सव िव ृ त है ,
इससे शीत श की तीित सव हो सकती है , अथवा जैसे सू य
भाव वाला है वै से ही आ ा भी भावत् है ।
(उ र) यह िनयम है िक गु ण अपने आ य को ाग कर अ
गमन नही ं कर सकता ोंिक गु ण म ि या नही होती, और
क ू री के ां त म भी क ू री के सू अवयव िव ृ त होते ह,
इसी कारण क ू री कपूरािद र क उसको ब कर िकसी
िड े आिद म रखते ह और जो वह खुल रख जाये तो वे उड
जाते ह, और भा गु ण नही ं िक ु िवरल काश भा है , और
घन काश सू य है , ऐसे ही आ ा को मानने से ान प ही िस
होगा, सो ान एकरस है , कही ं सघन और कही ं िवरल ऐसा
कहना बनता नही,ं यिद अनेकरस मानोगे तो अिन स
होगी, और सवथा अणु वादी के मत म ि या तो ज र माननी
होगी, तो
{अ े ोयमदा ोयम े ोशो एव च।
P- 300
मध् यम प रमाण मानने से ज की स होगी, इससे िबना
इ ा से भी ासािद महा ाओं के वचनानुसार आ ा को
ापक और अज अव मानना पड़े गा, तो ज शंका ई रत्
जीव म भी बन सकती है , तो िफर जीव का ज कैसे हो सकता
है , और जब जीव का ज मानते हो तो ई र का अवतार भी
मानना होगा, जैसा िक वे दािद शा ों से माण है दे खए
यजुवद--
जापितश् चरित गभ ऽ अ र् अजायमानो ब धा िव जायते।
~ ीम गव ीता {४/६}
P- 301
भावाथ-- म अज ा और अिवनाशी प होते ए भी तथा
सम ािणयों का ई र होते ए भी अपनी कृित को अधीन
करके अपनी योगमाया से कट होता ँ ।
यदा यदा िह धम ािनभवित भारत।
~( ीम गव ीता- ७/२५)
P- 302
अिवनाशी परमे र को नही ं जानता अथात मुझको ज ने -मरने
वाला समझता है ।
अवजान मां मूढा मानुषी ं तनुमाि तम्।
तम ुव ुरा व०
P- 303
~{वा ीिक रामायण बा० का० प हवां सग}
P- 304
जैसे ये काम ई र के गु ण, कम, भाव से िव ह तो जो
तु ारा कहना िक वह सब कुछ कर सकता है , यह कभी नही ं
घट सकता, इसीिलए सवश मान् श का अथ जो हम ने
कहा वही ठीक है ❞
P- 305
िनबल भी साम है , सब ही मर जाने चािहए सो ऐसा नही ं होता,
िक ु जो अ ानी है वो ही िकसी व ु की इ ा होने से और
उसके न िमलने से दु खी हो ाण खो दे ते है , पर ानी नही,ं
िनधन चोरी करते ह, ई र तो पूण ानी है िफर भला वह
आ घात ों करे गा? उसकी इ ा मा से सब जगत् उ
हो जाता है , िफर वह पूण ानी कौन से कारण से मर? और िन
का नाश नही ं होता, ा आ ा का कोई भी नाश कर सकता
है ? जब ई र अजर अमर है काश प है अकाय है तो अपने
को कैसे मार, आ ा के ल ण तो सु िनये --
नैनं िछ श ािण नैनं दहित पावकः।
~{ ीम गव ीता २/२३,२४}
P- 306
सके, पर ु आपसे कदािचत ई र ने वाता करी हो, और बता
िदया हो िक सवश मान का ाचीन अथ अशु है , यह अथ
ठीक है पर ु ामी जी वे द तो यह कहते ह--
न तं िवदाथ य ऽ इमा जजाना द् यु ाकम् अ रं बभूव।
~यजु वद {१७/३१}
P- 307
तीन भाग म, (अमृतम् ) नाशरिहत, (िदिव) काशमान मो
प आप है ।
~ऋ ेद {१०/१२९/१}
P- 308
था, (गहनंगभीरं )- गहन गं भीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा
था? अथात नही ं था
P- 309
को, (जु त)- लयकाल म सं हार करता आ, ( सीद)- अकेला
ही थत आ, (स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक
अि तीय प म िव होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से
सृ ि रचना की इ ा से , ( िवणम्)- इस प जगत को,
(इ मान:)-इ ा करता आ, (अवरान्)- मायािवकार ि
समि दे हों म, (आिववे श)- अ यामी प से िव आ।
P- 310
परमा ा से कोई त ू प काय और उस को करण अथात्
साधकतम दू सरा अपेि त नही।ं न कोई उस के तु और न
अिधक है । सव मश अथात् िजस म अन ान, अन
बल और अन ि या है वह ाभािवक अथात् सहज उस म
सु नी जाती है । जो परमे र िन य होता तो जगत् की उ ि ,
थित, लय न कर सकता। इसिलये वह िवभु तथािप चेतन होने
से उस म ि या भी है ❞
P- 311
भाव यह की जैसे आ ा पमह पाद रिहत होते ए भी
ज लेकर ह पाद सिहत होकर वे गवान और हण करने
वाला होता है , च ु ः कण रिहत होते ए अथात आखँ और कान
के िबना भी दे खता व सु नता है उसी कार परमा ा अपने
काय की िस ी हे तु साकार प धारण कर सृ ि रचना करता
तथा अवतार भी लेता है , और ई र अवतार लेता है वे दािद
शा ों से यह हम पूव ही िस कर आये ह।
P- 312
॥ई रीय ुित करण॥
(उ र) नही,ं
P- 313
पुनः पृ १४१ पर,,,,,( ) ई र अपने भ ों के पाप मा करता
है वा नही?ं
P- 314
से अपने गु ण कम सु धार सकते ह नही ं तो िकस कार सु धार
सकते ह? यिद यं ही सु धार सकता तो उसके नाम रणािद
की आव कता ा थी? जब उसके नाम से गु ण कम भाव
सु धरते है तो पिव ों नही ं हो सकते ? जो पाप दू र नही हो
सकते तो गु ण कम भाव भी नही ं सु धर सकते और ई र म
कम ही ा है ? िजसके स श वह अपने गु ण कम सु धार, और
गु ण कम ही सु धारने है तो िकसी भले के च र दे ख
अपने कम सु धार सकता है , और जब ई र को िनराकार मानते
हो तो उसके कम ा होंगे, मनु उसके िकस कम को
दे खकर अपने गु ण कम सु धार, इससे तो आप भगवान ी
रामचं को े पु ष मानते हो उनके सब ही कम े थे, उ ी ं
का नाम रण कर मनु अपने गु ण कम और भाव सु धार
सकते ह, और जब आप कहते ह िक ाथना करने से अंहकार
दू र होगा, सहायता ा होगी तो ा उसके पाप दू र न ए,
और जब ई र ने सहायता करी तो िफर पाप कहां रहा? पाप तो
दू र हो गया, बस ई र ने सहायता की तो भ ों के मनोरथ पूण
हो गये, और पाप से छूट सु ख के भागी ए, सु ख जभी होता है
जब पाप दू र होते ह, इस सहायता करने से तो दयानंद का लेख
ही उनके लेख का खंडन करता है , और उपासना से पर से
मेल होना भी आपने न जाने ा सोचकर िलखा है ? जो मेल
आ तो िफर पृथक होना असं भव है , जो जल एक बार गं गा जल
म पड़ गया हजार कोिशशों के बाद भी वह िफर से अलग नही ं
हो सकता, मेल होने उपरां त िफर मु से नही लौट सकता है ,
और िनराकार ई र का सा ा ार िकस कार हो सकता है
यह नही ं िलखा? ई र के होने के आपने िवशेष अथ नही ं
खोल, ा वह इ यों के सामने हो जाता है ? ोिक जो
आकार वाला होगा वही इ यों के सामने होगा, इससे तो यही
P- 315
िस होता है िक ई र साकार है , भला िनराकार िकस
कार हो सकता है ? और जो तु मने यह िलखा है िक (जो भांड
के समान परमे र के गुणकीतन करता जाता और अपने च र
नही ं सुधारता उसका ुित करना थ है) यह तो तीयों की
भां ित बड़ा ही उ ा लेख िलखा है तु मने , ोिक ई र की
ाथना तो सकाम इसी से करी जाती है िक यह काम हमारे
साम से बाहर है इसिलए हे ई र तू हमारी सहायता कर, जो
अपना च र सु धारने म असमथ है वा और िकसी काय म वही
तो ाथना कर सहायता चाहते ह िक ई र हमारा च र सु धारने
म सहायता कर हमारा काम बने ऐसी कृपा करों, और जो िजस
काम के करने म यं समथ होता है वह कब दू सरे की सहायता
चाहए है , जो अपना च र सु धारने म यं समथ है वह उसम
ई र की सहायता ों चाहे गा, दे खए पहले तो िलखा िक अपने
गु ण कम सु धारने को ई र की ाथना करनी और अब िलखा िक
अपने कम सु धारों िबन सु धार ु ित ाथना करना थ है यह
पर र िव लेख िसवाय ामी जी जैसे ितयों के कौन
बु मान मान सकता है ? और (ऐसी ाथना कभी न कर िक जै से
हे परमे र! आप मेरे श ुओ ं का नाश करों, मुझे सबसे अिधक
करो इ ािद) तो ा ाथना म ामी जी के यं ालय की वृ
हो ऐसी इ ा कट कर, दे खए शतश: वे द मं इसी आशय से
पूण है हे ई र हमारे पाप दू र कर, हमारे श ु ओं का नाश हो,
हम े आचरण वाला बनाओ, हमारी र ा करों इ ािद ा
वे दों म यह िम ा लाप है , नही ं तो कह दो िक िकसने िमला
िदया है , बस यही कसर रह गई है यिद तु ारी चलती तो
केजरीवाल की भां ित अपने ितकूल मं ों पर ज र हरताल
फेरते , लेिकन िफर भी अथ बदलकर अनथ कर ही िदया, और
यह ा ितयों की भां ित िलखा है िक (हे परमे र! आप हम को
P- 316
रोटी बना कर खलाइये, मकान म झाडू़ लगाइये, व धो दीिजये
और खेती बाड़ी भी कीिजये) ऐसा ितत होता है जैसे यह पु क
िलखते समय अपनी बु रखकर कही ं भू ल गये हो, या पु क
िलखते िलखते भू ख लग गई, या कूड़े कचरे के बीच बै ठकर
िलख रह थे, या िफर कपड़े मैले होने के कारण दु गध आ रही थी
िजससे परे शान होकर िलख िदया होगा िक हे परमे र व धो
दीिजए, ोिक ऐसी बालक बु वाली बात िसवाय तु ारे
िकसी और को नही ं सू झती, भला िलखने से पूव यह तो सोचा
होता िक िजसके भौितक शरीर नही ं वह कैसे ऐसा काम कर
सकेगा? जो यह कहो की यह बात औरों के िलए कही ं है तो
िसवाय आपके ऐसी मूखतापूण बात हमने तो िकसी के मुख से
आज तक नही ं सु नी, भला अपने उ कता सं कटमोचन से
कोई भी मनु ऐसा कह सकता है , साधारण मािलक के सामने
तो जवाब नही ं िदया जाता और उस परमे र से यह ढीठता,
शायद ऐसी ाथना तु मने ही की होगी, जब तु ारे व मैले,
सामने कूड़ा कचरा पड़ा होगा, िक ई र हमारे यह दोनों काम
कर द, जब उसने नही ं िकया तो ोिधत होकर िलख िदया, िक
उसकी ाथना मत करों कुछ लाभ नही,ं मने करके दे ख िलया,
िफर आगे िलखा है िक (िक जो परमे र के भरोसे बैठे रहते ह वो
मूख ह) दे खये इस ना कता को िक ई र का भरोसा करना
मूखता है , अब जब ई र का भरोसा करना मूखता है तो िजसका
भरोसा ही नही ं उसके गु ण कम से ा लाभ? और ना कता
ा होती है ? इसी को अनी रवादी कहते ह, सह ों ऋिष मुिन
आर म ई र के भरोसे जप तप करते थे और आज भी करते
ह और वही ं परमा ा उनकी र ा करता है , ा ामी जी
तु ारे भं डार से सीधा जाया करता था जो भोजन कर ऋिष मुिन
तप िकया करते थे, तु दे ना बु रा लगे था जो िलख िदया िक
P- 317
ई र के भरोसे रहना वृ था है , तु म िलखते हो िक वह भ ों के
भी पाप मा नही ं करता यिद कर तो सब पाप करने लग जाव,
तो सु िनये वह दु ों के पाप मा नही ं करता, भ ों के अव
करता है , ोिक वह जानता है िक यह पाप उससे अनजाने म
आ है और अब ित ा करता है िक आगे से नही होगा, और
करे गा भी नही ं उसके पाप ई र िन य मा करे गा, वह ाथना
ही उसका ायि त है और जो दु ह मन म पाप और ऊपर से
बने भ वं चक उनका पाप कभी मा नही ं होगा, जो भला
होता है उसके अनजाने अपराध को तो राजा भी मा
कर दे ता है , जो अ :करण से शु है और ेम से ई र का
रण करते ह उनके पाप भी मा होते ह, और दु ों को
यथावत दं ड दे ता है , इसी का नाम ाय है , जो दु ह उ दं ड
और जो दया यो है उन पर दया करना यही ाय है , दे खए
श ु िनवृ ि अपनी उ ित आिद की ाथना भी वे दों म है ,
सस ु ा अरातयो बोध ु शूर रातयः।
॥पाप मा मांगना॥
ं नः पा ंहसो जातवेदो अघायतः।
P- 318
र ा णो ण वे॥ ~ऋ ेद {६/१६/३०}
~ऋ ेद {४/०३/१४}
~यजु वद {३/४५}
P- 319
जाननेहारे परमा न्! आप हम को े माग से स ूण ानों
को ा कराइये और जो हम म कुिटल पापाचरण प माग है
उस से पृथक् कीिजये , इसीिलये हम लोग न तापूवक आपकी
ब त सी ु ित करते ह िक हम को पिव कर"
P- 320
स ाथ काश स म् समु ास पृ १४०,
~ऋ ेद {१०/१२९/१}
P- 321
~ऋ ेद {१०/१२९/२}
P- 322
यह िस हो जाता है िक परमे र जगत् का उपादान कारण है ,
और सु िनये --
नत कि ितर लोके न चेिशता नैव च त िल म्।
P- 323
भं डार से िनकले ह, इसका अथ यही है िक जो आ ा से पृथक
दे खता है उसी को भय होता है जैसे ामी जी को मृ ु का भय
आ था िजस कारण उ ोंने मृ ु से बचने उससे छूपने के िलए
गृ ह ाग िकया जो उनके िलख आ च रत से ही िस होता है ।
❝( )ई रमइ ा है वा नही।ं
(उ र) ई र म इ ा का तो स व नही,ं िक ु ई ण अथात्
सब कार की िव ा का दशन और सब सृ ि का करना कहाता
है ❞
P- 324
ही थत आ, (स:)- वह परमे र, ( थम त)- थम एक
अि तीय प म िव होता, (आिशषा)- िफर अपने साम से
सृ ि रचना की इ ा से , ( िवणम्)- इस प जगत को,
(इ मान:)-इ ा करता आ, (अवरान्)- मायािवकार ि
समि दे हों म, (आिववे श)- अ यामी प से िव आ, और
सु िनये -
इस मं से यह िस होता है िक ई र म इ ा है अगले
समु ास म इस िवषय पर और िलखगे ।
P- 325
॥वेद ा करण॥
P- 326
(उ र) अ े वा ऋ े दो जायते वायोयजुवदः सू या ामवे दः॥
~शत० {११/४/२/३}
P- 327
(उत् तर) जो िकसी दे श-भाषा म काश करता तो ई र प पाती
हो जाता, ोंिक िजस दे श की भाषा म काश करता उन को
सु गमता और िवदे िशयों को किठनता वे दों के पढ़ने पढ़ाने की
होती, इसिलये सं ृ त ही म काश िकया, जो िकसी दे श भाषा
नही और अ सब दे शभाषाओं का कारण है , उसी म वे दों का
काश िकया
P- 328
थम सृ ि की आिद म परमा ा ने अि , वायु , आिद तथा
अंिगरा इन ऋिषयों के आ ा म एक-एक वे द का काश िकया"
P- 329
आिद तथा अंिगरा इन ऋिषयों के आ ा म एक-एक वे द का
काश िकया" इसम आिद सृ ि म परमा ा से अंिगरा म
अथववे द का काश होना जो ामी ने यह अथ िकया है , यह
अथ ामी ने िकन पदों से िलया है ोंिक इस ुित म तो ऐसा
कोई पद ही नही ं है िजससे ामी जी ारा िकया यह अथ िस
होता हो, और यहाँ यह भी िवचारणीय है िक ामी जी अपने
इस लेख म अि वायु और सू य को ऋिष िलखा है , जबिक
वे दािद शा ों म कही ं भी इस नाम के ऋिष सु नने म नही ं आते
िक ु इस नाम के दे वता अव सु नने म आते ह दे खए--
अि दवता। वातो दे वता। सूय दे वता। च मा दे वते ािद।
~यजु वद {१४/२०}
P- 330
आर म तीन ही वे द थे, जो इस ुित से िसद् ध होता है तो िफर
अंिगरा ऋिष जो िक ा जी के चौथी पीढ़ी म उ ए, तो
िफर ामी जी यहाँ आिद सृ ि म अथववे द और अंिगरा की
बात कहाँ से कर बै ठे? जबिक अथववे द की रचना तो काफी
बाद म ई, उससे पुव ऋ े द यजुवद और सामवे द यह तीन वे द
ही थे, दे खए वे दािद शा ों से आपको माण िदखाते ह, सु िनए
मनु ृित म इस कार कथन है िक--
अि वायुरिव ु यं सनातनम्।
P- 331
चािहए, दे खए ोिक अंिगरा ऋिष, मनु जी से उ दश
ऋिषयों म से थे, इसिलए मनु जी ारा िलखी यह ुित माण है
िक आर म अंिगरा के उ होने से पूव तीन ही वे द थे, इस
ुित म ( ैवैिदकं) यह पद इस बात का सू चक है , और सु िनये
िपताहम जगतो माता धाता िपतामहः
P- 332
(दयानंदी)- जब अथववे द का चतु थ वे द होना ीकार करते हो
तो ामी जी की िलखी ं बात का िवरोध ों? आिद म अंिगरा के
दय म अथववे द का काश होना ों नही ं मानते ?
P- 333
वे द की रचना की, अब ोिक सभी ऋचाएं आिद म परमा ा से
ही कट ई है इससे चतु थ वे द के प म अलग होने पर भी
वह ऋक्, यजुः, साम प ही ई ोंिक आिद म अथववे द
ऋक्, यजुः, साम म ही थत था और उ ी ं यी िव ा को पढ
बाद म महिष अंिगरा िज ा ण उपिनषद मनु ृित आिद
ं थों म ा जी का चतु थ िश करके िगना है उ ोंने उससे
चतु थ वे द की रचना की िजसे अथववे द कहा गया, इसिलए आिद
म ऋक्, यजुः, साम से पृथक अथववे द को मानना यही
महाकपट है , इससे धम के न जानने वालों म म की थित पैदा
होती ह और धम म बाधा उ होती है ोंिक वे दािद शा ों
म आिद सृ ि म अथववे द को चतु थ वे द करके कही नही िलखा,
िक ु यी िव ा ऋक्, यजुः, और साम करक दे खा जाता ह
ोंिक आर म वे द तीन थे,
P- 334
(दयानंदी)- इस बात म ा माण है िक सृ ि के आर म
थम ा जी कट ए? और उनसे ही अि , वायु, सू य आिद
दे वों और अंिगरा ने वे द ा िकये ।
P- 335
~यजु वद {१३/४}
सृ ि के ार म िहर गभ पु ष ( जापित ा) स ूण
ां ड के एक मा उ ादक और पालक रहे , वही ग
अंत र और पृ ी को धारण करने वाले ह, उस जापित के
िलए हम आ ित समिपत करते है । और सु िनये मुंडकोपिनषद म
भी इस कार कथन है िक-
ॐ ा दे वानां थमः स भूव िव कता भुवन गो ा।
P- 336
अनु ान वाली कुछ ऋचाओं को अलग करक चतु थ वे द की
रचना की, ोिक अथव ऋिष से वह वे द िव ा िश पर रा से
होती ई अंिगरा ऋिष को ा ई इसिलए अथव ऋिष के नाम
पर ही इसका नाम अथववे द पड़ा, और अथववे द को
बृ हदार कोपिनषद् , ा णािद ं थों म कुछ एक थान पर
अथवअंिगरस कहा है उसका कारण यह है िक मुंडकोपिनषद
के वचनानुसार थम ा जी के पु अथव से वे द िव ा जो
िश पर रा से होती ई अंिगरा को ा ई, इसी कारण इसे
कुछ एक थान पर अथवअंिगरस कहा गया है
तप ासृज ं तु स यं पु षो िवराट् ।
P- 337
ए और वे दािद ं थों से भी िस आ िक ा जी सृ ि के
आर म थम उ ए, इससे यह िस आ िक अि वायु
सू यािद दे वता सृ ि के अ गत उ ए, इससे ामी जी का
यह कथन िक अि ािद दे वों ने ा जी को वे द ा कराय यह
कथन असं गत है , दे खये सृ ि के आिद से ही वे द ा जी के
पास थे दे खये मनु म इस कार कथन है िक--
सवषां तु स नामािन कमािण च पृथ ृथक्।
P- 338
सनातन य आिद की सृ ि की, इस ोक म भु श ा
जी का िवशेषण ह अथ उसका जनक अथात उ करने वाला
िपता है , इससे यही िविदत होता है िक अि आिद की गणना भी
इसी दे वगण म है इससे बाहर नही ं है , इसके बाद
(अि वायु रिव ु यं सनातनम् ०) मनु ृित का यह २३
वाँ ोक ह इससे िस होता है िक ा जी इन तीनों दे वताओं
को दे वगण की सृ ि के सं ग उ िकया, और िफर वे दानुकूल
उन सबके नाम रख, अब जबिक इनकी उ ि और नाम रखने
से पहले ा जी के पास वे द थे तो िफर यह कैसे सं भव है िक
अि आिद ने ा जी को वे द पढाये , इससे ामी जी का यह
कपोल क त मत होता है , अब आगे सु िनये ,
P- 339
भी, (न)- नही,ं (आसीत्) था, (यत् )- जो, ( ोम)- आकाश
तमोगु ण, (अपर:)- सतोगु ण, (नो)- नही ं था, (कुहक )- इ जाल
प, (शमन्)- ां ड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- त समूह
का आवरण होता है , (तत् ) (िकं) (निकम ासीत् )- वह भी नही ं
था, (गहनंगभीरं )- गहन गं भीर, (अंभ:)- जल, (िकं आसीत्)- ा
था? अथात नही ं था
न मृ ुरासीदमृतं न तिह न रा ा अ आसी केतः।
~ऋ ेद {१०/१२९/२}
P- 340
से िस होता है िक आिद म सृ ि रचना की इ ा से िहर गभ
प णयु आभा से थम सब जीवों के िपतामह ा जी
कट ए त ात उ ोंने अि वायु सू य आिद की सृ ि करक
अि आिद सिहत अपने े पु अथव को वे द िव ा का
उपदे श करते ए उ यह दािय सौंपा की सं सार की वृ के
साथ साथ इस वे द िव ा का उपदे श जा को कर, इस तरह
यं ा जी अपने पु अथव को यह वे द िव ा पढाई, और
अथव ऋिष ने अंगी को, अंगी ने स वाह को, और स वाह से
यह वे द िव ा अंिगरा ने पढ़ी, इस कार गु िश की पर रा
से िनर र वे द िव ा का काश जा म होता आया है , और इस
गु िश की पर रा की शु आत यं परम िपता ा जी ने
की है , इससे ई र म प पात की बात नही ं आती, दयानंद एवं
उनके िनयोगी चैलों को यह बात समझनी चािहए, यह बात
िकसी अ के मन म नही ं यं ामी जी के मन म ही आयी
होगी, जो उ ोंने स से क ना करके यहाँ िलख दी है ,
और सु िनये ,
P- 341
यहाँ कता और उसका उ र दे ने वाला दोनों ही अ ल दज
के चुितया है , अब चाहे यह ामी जी ने यं क ना िकया
हो या िफर िकसी और ने की हो, ोिक ऐसी िबना सर पैर की
बात तो कोई गधा भी नही ं करे गा, अब यहाँ ामी जी से कोई
यह पूछे िक सृ ि के आर म कुल िकतने दे श थे और उनम
कुल िकतनी भाषाय बोली ं जाती थी, ामी जी का यह लेख
पढ़कर तो ऐसा िविदत होता है जैसे ामी जी अपने ज से ही
सृ ि का आर मानते ह इसिलए अपने लेख म वे दों के कट
होने से पूव अनेक दे श और भाषाओं का होना िलखते ह और
लेख तो ऐसे िलखा है जैसे मानों वे द कट करने से पहले यं
ई र ामी जी के पास आकर बोल हो िक ामी जी आप
पहले ों नही ं उ ए? दे खये अब िकतने दे श उ हो
गये और िकतनी भाषाय बोली ं जाने लगी ं अब आप बताय की म
वे दों का काश िकस भाषा म क ँ अं े जी, फारसी, उदू या
िफर सं ृ त म और ामी जी के सु झाव पर अं े जी, फारसी,
उदू आिद भाषाओं म न करके सं ृ त भाषा म िकया, िजसे
ामी जी ने अपने लेख म कथन िकया है , शोक हे ! ऐसी बु
पर, सृ ि के आर म अनेक दे श और भाषाओं की बात
क ना करने से ही ामी जी की बु का पता चलता है , कोई
बड़ा से बड़ा चुितया भी इससे ादा समझदारी वाली बात
करता होगा,
P- 342
मतानुसार आिद सृ ि म न केवल अनेक दे श थे ब उनम
अनेक भाषाएँ भी बोली जाती थी, और िफर यं यह भी िलखा
िक सं ृ त सब भाषाओं का कारण है , ध हे ! ामी मुखानंद
जी आपकी बु , ऐसा पर र िव बातों से भरा लेख आपके
िसवाय कोई अ नही ं िलख सकता, जब सं ृ त सब भाषाओं
का कारण है तो सं ृ त जानने से पूव अनेक भाषाएं कैसे उ
हो गई, और जब वे द सृ ि के आर म कट ए, वे द श ों से
ही गु ण, कम और भाव के अनु सार सबके नाम रख गये , तो
उससे पूव अनेक दे शों और भाषाओं की क ना कहाँ से कर
ली? बोिलए ामी िनब धानंद जी, वे द कट होने से पूव अनेक
दे श और भाषाओं का होना यह िकस मं भाग म पढ िलया,
इसी दो कौड़ी की बु पर ामी जी अपने आपको वे दों का
ान समझते ह।
॥इित चुितयाथ काश स म् समु ास खंडनम् समा म्॥
P- 343
॥स ाथ काशा गत अ मसमु ास खं डनं ार ते ॥
॥सृि उ ि करण॥
P- 344
अब ोिक ामी जी जीव जगत जड कृित म का भे द
मानते ह इससे ऊपर वाली ुित से िवरोध पडे गा, और सु िनये ,
P- 345
शा ती ः समा ः ।।२।। ~यजु ः० अ० ४०। मं० ८॥
थम तो इस मं म यह है िक यह मंत्र चेतन म भे द िस
करता है या भो ा अभो ा प पि यों के भे द को िस
करता है , जो चेतन भे द साधक कहों तो इस मं म ऐसा कोई
पद नही ं जो चेतन म भे द साधन कर, इस कारण चेतन म भे द
नही,ं िक ु दो सु पण का बोधन करता है , वह भी सु पण वे द
ितपाद् य होने चािहए, मं का अथ दो सु पण है (सयु जा)-
पर रस वाले, (सखाया)- समान ि ित वाले अथात
िजनका ितत होना तु है वे दोनों, (समान)- एक, (वृ ं )- वृ
P- 346
को, (प रष जाते )- आ य कर रहे ह, (तयो:)- उन दोनों म,
(अ :)- एक, (िप लं ा ि )- वृ फल को भो ा है और
दू सरा, (अन न् )- न भो ा आ, (अिभचाकशीित)- काश
करता है , वही काश करने वाला सु पण मं ितपा है यथािह
एकः सुपणः स समु मा िववेश स इदं िव ं भुवनं िव च े।
P- 347
त था ाकाशे ेनो वा सुपण वा िवप रप ा ः संह
प ौ संलयायैव ि यते।
एवमेवायं पु ष एत ा अ ाय धवित।
एकं पं ब धा यः करोित ।
P- 348
तेषां सुखं शा तं नेतरे षाम् ॥ ~कठोपिनषद {२/२/१२}
P- 349
अनािद जीव करता आ फंसता है और उस म परमा ा न
फंसता और न उस का भोग करता है ❞
P- 350
ाणी उससे ही उ होते ह, अब जब कुछ ई र ने ही उ
िकया है तो कृित िन कैसे?
त ा ा एत ादा न आकाशः स ूतः आकाशा ायुः वायोरि ः
अ ेरापः अ ः पृिथवी पृिथ ा ओषधयः ओषधी ो म्
अ ा ु षः स वा एष पु षोऽ नरसमयः॥ १
P- 351
समी क-- ामी जी की बु िकसी बालक जैसी है , दे खों कही ं
तो यह िलखा है िक िबना कृित के वह कुछ नही ं कर सकता,
और कही ं िलखा है िक वह िबना सहाय काय कर सकता है , सव
श म ा तो ई र की उड़ गई,
(उ र) नही❞
ं
P- 352
॥आिद सृि करण॥
P- 353
आ ा म, ( ौ न्)- ो ण कर, (ते न)- उस पु ष ारा,
(अयज )- य िकया।
P- 354
भूतानां ा थमोत ज े तेनाहित णा िधतुं कः॥
~अथववेद {१९/२२/२१}
तप ासृज ं तु स यं पु षो िवराट् ।
३२ से ३५ तक के इन ोकों का आशय यह है िक त ात
उ ोंने "सं सार की वृ के अथ अपने आधे भाग से पु ष और
आधे भाग से ी की सृ ि की, उनसे थम िवराट, िवराट से मनु
और मनु से दस महिष मरीिच, अि , अंिगरा आिद महिष उ
ए, और ठीक यही बात दयानंद भी मानते ह दे खये तभी तो
उ ोने अपने "स ाथ काश के अ म समु ास म पृ १६८ पर
यह िलखा है िक-- ा का पु िवराट, िवराट का पु मनु और
मनु से मरीिच, अि , अंिगरा आिद दश ऋिष उ ए, इससे
यही िस आ िक ामी जी भी यह मानते ह िक आिद म
थम ा जी उ ए और उ ोंने ही सब लोकों, मनु
आिद की सृ ि की है , पर ु इस बात को खुलकर ीकार करने
म ामी जी की फटती है , ोिक उ ोंने यह सोचा होगा जो
इस बात को खुलकर ीकार कर िलया तो उनका यह कपोल
P- 355
मत सनातन धम से िभ कैसे िदखेगा? इस कारण ामी जी ने
यह बात क ना कर ली िक आिद म सै कड़ों सह ों मनु
उ ए, पर ु यह सै कड़ों सह ों मनु िकस कार उ
ए? यह नही ं िलखा, जब तु ारा यह मत है िबना ी पु ष के
सं योग के मनु उ नही ं हो सकता, तो िफर जो यह आिद म
सै कड़ों सह ों मनु उ ए िलखा है , ा यह सब मनु
आसमान से टपके थे? यहाँ इस बात का माण ों न िलखा?
या यह सै कड़ों सह ों मनु भी आपकी ही भां ित ारह िनयोग
से उ ए थे इसिलए आपके िलए यह कह पाना किठन है
िक कौन िकससे उ आ? आपका तो समझ म आता है िक
आपको अपने माता िपता का नही ं मालूम िक वे कौन थे? इस
कारण अपने आ च रत म माता िपता का नाम छोड़ सब िलखा
है , लेिकन सब मनु ों को अपनी ही भां ित िनयोग से उ मान
लेना यह तो गलत है , अरे सै कड़ों सह ों नही ं तो कम से कम दो
चार का नाम िलखकर अपना मत तो कट करते , तब हम
बताते की आप िकतने सही और िकतने गलत ह वै से तो आपके
ही ारा पृ १६८ पर िलखे इस एक वा से िक-- ा का पु
िवराट, िवराट का पु मनु और मनु से मरीिच, अि , अंिगरा
आिद दश ऋिष उ ए, इससे ही आपकी सब बातों का
खंडन हो गया,
P- 356
( ) िफर वे यहाँ कैसे आये ?
P- 357
और पुनः पृ १६८ पर िलखा है िक-- इस के पूव इस दे श का
नाम कोई भी नही ं था और न कोई आय के पूव इस दे श म
बसते थे, ोंिक आय लोग सृ ि की आिद म कुछ काल के
प ात् ित त से सू धे इसी दे श म आकर बसे थे"
P- 358
आयावत की मिहमा िलखी ं ह दयानंद ने उस पर धू ल डाल दी,
और यह बात कौन से ं थ म िलखी है िक मनु ों की सृ ि
ित त म ई, जो िबना माण हमारे अ से पैदल दयानंदी
भाई 'ि िव प' से ित त दयानंद की इस कपोल क ना को
सही मानते ह तो ईरान से आय अं े जों का यह कथन माण
ों नही?ं दयानंद की कपोल क ना िकस आधार पर स
जान िलया, और यिद ऐसा मानते हो िक आय के इस दे श म
आने से इस दे श का नाम आयावत पड़ा तो इससे पूव िजस दे श
म रहते थे उसका नाम ित त ों? उसका नाम भी आयवत
होना चािहए था और जैसा िक दे खने म आता है िक जो जहाँ का
होता है उसे उसी नाम से जाना जाता है जैसे ईरान के रहने वाले
ईरानी, यू रोप के रहने वाले यू रोिपयन, उसी कार ित त के
रहने वाले ित ती ए और आयावत म रहने वाले आय कहलाते
ह पर ु दयानंद तो अं े जों की ही भाँ ित इससे उ ी ही बात
िलखते ह इससे ही दयानंद की बु का पता चलता है , सु िनये
आय कही ं से आय नही ं िक ु सदा से इसी दे श म रहने वाले ह
इसी से इस दे श को आयावत कहते ह जैसा िक मनु ृ ित म
िलखा है िक--
आसमु ा ु वै पूवादा समु ा पि मात्।
P- 359
सर ती श ोदवन ोयद रम्।
P- 360
समी क-- अब जरा एक ि इस ोक पर डािलये , इस
ोक म भी दयानंद ने उसी कार उ फेर िकया ह जैसा
अ वे दािद ुितयों के साथ िकया ह दे खों यहाँ 'दे शं ावत'
यह पद आया है िजसे दयानंद ने बदलकर उसके थान पर
'दे शमायाव ' िलख लोगो को िमत करने का यास िकया है
इसका अथ पूव िलख आये ह, अब यहाँ दयानंद से यह है
िक जब वह यं िनिमत उ ी सीधी सं ृ त को ही माण
मानते ह तो िफर उ मनु ृित आिद का बता लोगों को िमत
ों करना? िसधा िसधा िलख दे ते की हम मनु ृित आिद ं थों
को नही ं ब यं िनिमत वा ों को ही माण मानते ह,
वे दािद शा ों म िमलावट कर लोगों को िमत ों करना?
जो आयावत दे श से िभ दे श ह वे द ुदेश और े दे श
कहाते ह❞
P- 361
ा ण ि य वै और शू ारा अपने ि यालोप अथात अपने
कत ों का ाग करने से जो अधमजाित उ होती है वह
द ु कहलाती है , िफर चाहे वो मले भाषा बोलने वाले हो या
आय भाषा बोलने वाले, यह इसका अथ है ,
P- 362
का खंडन करता है दे खये जब यहाँ यह माना िक इस आयावत
दे श से िभ दे श द ुदेश और मले दे श कहाते है तो इससे तो
यही िस होता िक इस दे श म आने से पूव दयानंद, उनके
पूवज और उनके िनयोगी चमचे सब के सब मले दे शी ए,
इसी कारण बोलता ँ िक यह आधा अधु रा ोक िलखकर अथ
का अनथ करना सही नही ं है , िसफ अपना ाथ साधने के
च र म दयानंद ने यह अधू रा ोक यहाँ िलखा है पर ु
उ ोंने यह नही ं सोचा था िक इससे तो उनका ही मत िबगाड़ता,
अपने िव वह यं खंडन कर रहे ह, यह ामी जी के भं ग
की तरं ग नही ं तो ा है ? भला िजसे अपने पूव िलख लेख ही
रण न रहते हो ऐसे भं गेडी की बातों का ा माण?
P- 363
समी क-- अपने इस लेख से तो ामी जी ने चुितयापंित के
सारे रकॉड ही तोड़ िदये , इस लेख को पढ़ने मा से ही पता
चलता है िक दयानंद म िकतनी बु रही होगी, यहाँ कता
और उ र दे ने वाला दोनों ही उ कोिट के चुितया है , दे खये
थम तो दयानंद ने स ाथ काश के स म समु ास म पृ
१३२ पर यह िलखा है िक- "ततीस दे वता अथात, पृ ी, जल,
अि , वायु, आकाश, च मा, सू य और न " यहाँ ामी ने इ
चेतन मान ततीस दे वों म से यह आठ वसु गण कथन िकये , और
िफर यहाँ उ जड़ मानकर, उनम मनु ािद जा बसा दी, अब
थम तो यहाँ दयानंद से यह है िक इनम से तु ारा कौन सा
कथन स मान? यह आठ वसु गण जो आपने यहाँ कथन िकये
हउ आप ा मानते ह जड़ या िफर चेतन?
P- 364
के जप करने वाले के दय और िज ा को भ कर दे व" और
इसके िवपरीत यहाँ यह दौगलापन िदखाया िक अि सू य आिद
म मनु ािद की सृ ि िलख मारी, यहाँ तु ारा वो िस ां त की
अि अपने स क म आने वाले सब पदाथ मनु ािद को भ
कर दे व कहाँ घुस गया, यह खड़ा बाल आपम सनातन मत के
िव ही ों िदखता है ? किहये ा आपके इस लेखानु सार
अि सू य आिद म मनु ािद जा का होना स व है ? ा यह
मनु ािद जीवों को भ न कर दगे ?
P- 365
यह अथ भी दयानंद ने िम ा क ना िकये ह इस ुित का यह
अथ नही ं बनता, यह िम ा अथ दयानंद ने अपनी बु अनुसार
क ना िकया है सो दयानंद का यह अथ मानने यो नही ं है ,
सु िनये यह ुित इस कार है िक--
अि पृिथवी च वायु ा र ं चािद ौ न ािण चैते वसव
एतेषु हीदं सव वसु िहतमेते हीदं सव वासय े त िददं सव
वासय े त ा सव इित॥ ~शतपथ ा ण {१४/६/९/४}
P- 366
आिद ऊजा ोतों पर मनु ािद जा की क ना करना िसवाय
चुितयों के और िकसी के बु म नही ं आ सकती।
॥इित चुितयाथ काश अ मसमु ास खंडनम् समा म्॥
P- 367
॥स ाथ काशा गत नवम् समु ास खं डनं ार ते ॥
(उ र) नही,ं
( ) तो वह ा है ?
P- 368
ऐसी-ऐसी चुितयापंित से भरी बात करने मा से ही दयानंद की
बु का पता चलता है , सु िनये आकाश का रं ग नीला जल के
कारण नही ं ब , सू य के काश का पृ ी के वायु मंडल म
उप थत गै सािद अणु ओं से टकराने के प ात ए काश के
परावतन के कारण िदखाई दे ता है ,
१• ती ता जो काश की चमक से स त है
P- 369
स ाथ काशा गत दशम् समु ास खं डनं ार ते
P- 370
डाढ़ी मूँछ नही ं रखते वै से ही तु म चाहते हो सब हो जाएं , अब
यिद तु मको कोई वे दिन क भी कह तो उसका कहना अनुिचत
नही ं होगा, भारत म भी लगभग छः महीने से अिधक उ ता
रहती है , तो िफर साफ िलख दे ना था िक छ: महीने को डाढ़ी
मूँछ, सर के बाल के साथ चूिटया तक मुंडवा दो, खास कर
अपने चैलों को तो तु म यही आ ा करते हो िक तु म लोग
ईसाइयों की भां ित िशखा सिहत िसर के बाल मुंडवा िदया करों
ोिक अ िधक गम से बु कम हो जाती है , पर ु तु ारी
इस स ाथ काश को दे खकर िविदत होता है िक तु मने यह
पु क ज र सर पर ऊनी व बां धकर या िफर भ ी म सर
घुसेड़कर िलखी ं होगी, तभी बु हीनता की इतनी बात िलखी है ,
चलों डाढ़ी मूँछ का तो तु मने यह कारण बताया िक इससे
खानपन अ ी कार नही ं हो पता, पर ु िशखा से ा हािन
होती है ? वह तो खान पान म बाधा नही ं डालती, िफर िशखा
उड़ाना ों िलखा? जैसी तु ारी हरकत है उसे दे खकर तो यही
समझ म आता है िक तु ारे मन यह भय होगा िक कभी िकसी
से िववाद हो गया तो लड़ाई म कोई तु ारी या तु ारे चैलों की
चुिटया पकड़ कर सु त न द लेिकन तु मने यं अपनी सं ार
िविध म िशखा सू का धारण करना िलखा है अब यिद िशखा
रखने से बु कम होती है तो िफर िशखा सू का सं ार िविध
म धारण करना थ ही िलखा है , िफर य ोपवीत भी धारण
करना थ है तो यह सं ार उडाकर वे द पर भी हडताल फेर
दी होती, तु यह ने सू झी की यिद डाढ़ी मूँछ म उ लग
गया तो ा वह पानी से नही ं धु ल सकती, या तु म इतने बड़े वाले
आलसी हो िक भोजन करने के प ात मूहँ भी नही ं धोते, और
जब िशखा ही उडा दी, तो जरा अब अपने उस लेख को याद
करों जो तु मने पंच महाय िविध के पृ ५ पर यह िलखा है िक
P- 371
“इसके अनंतर गाय ी मं से िशखा को बांध कर र ा करे ”
अब जब तु मने िशखा ही उडवा दी तो भला िशखा बां ध कैसे?
और जब तक िशखा नही ं बां धते तब तक तु ारे कथनानुसार
र ा कैसे होगी? इसिलए तो कहता ँ िक ामी जी को अपने
िलख िक ही सु ध नही ं कब ा िलखा और कब ा? उ यं
नही ं पता, ामी जी की यह स ानाश काश पर र िव
बातों से भरी ई ह, यह िसफ ामी जी का ढ़ोग है , यह आय
को करने को ढ़ं ग चलाया है ोंिक आय के यह दो ही
िवशेष िच है िशखा और सू सो ामी जी ने यही िमटने को
यह लोप लीला चलाईं है , इस कारण दयानंद की यह बात मानने
यो नही,ं स ास आ म म िव होने के समय को छोड़ और
िकसी भी समय िशखा का ाग नही ं करना चािहए यही वे दों की
अ ा है
❝अिधि ता वा शू ाः सं ारः ु ः।
यह आप का सू है , आय के घर म शू अथात् मूख ी
पु ष पाकािद से वा कर, आय के घर म जब रसोई बनाव तब
मुख बां ध के बनाव, ोंिक उनके मुख से उ और िनकला
आ ास भी अ म न पड़े ❞
P- 372
केवल वही ं लोग रखते ह जो धनवान है और धनी लोगों के घरों
म िविवध कार के ं जन बनते ह जो केवल चतु र और िनपुण
लोग ही बना सकते ह ोंिक ाचीन समय म भोजन आिद
बनाने का काय भी केवल उ ी ं लोगों को िदया जाता था जो
सू पशा ािद जानते थे, मने तो आज तक नही ं सु ना िक रसोई
बनाने को िकसी ने मूख रख हो, और जो मुख ी पु ष को
रसोई बनाने का काम िदया तो वो िनि त ही अपने ल णानुसार
कुछ न कुछ मूखता अव करे गा, भला िनबु और मुख ी
पु ष िज िसखाय कुछ भी न आए वह रसोइ कैसे बना सकते
ह? और धनी लोगों के घरों म तो िविवध कार के ं जन बनते
ह भला मूख ी पु ष कैसे बना सकगे ? वे दािद शा ों म कही ं
भी यह नही ं िलखा और न ही कभी सु ना है िक ि जों के घर म
शू रसोई बनाव, यह तो ामी धू तानंद जी की लीला है जो
ि जों के घरों म शू ों को रसोई करना िलखते ह और जो सू ाथ
दयानंद के ही अनुसार कर तो इसका यह अथ होता है िक
'आय के यहाँ शू सं ार करने वाले' अथात झाडू, पोछा
करना, बतन माजना, कपड़े धौना से वािद सं शोधन के काय शू
करते थे , और अब भी यह काय कहारािद करते ही ह पर ु
भोजन बनवाकर खाना ऐसा तो इस सू म कोई श नही ं
िलखा, इसिलए दयानंद का यह कथन अस िस होता है
P- 373
जाएं , पहले चुिटया कटवाई और अब सब जाित एक बनाईं यह
तो दयानंद का गु अिभ ाय था िक मु म, ईसाई, चां डालािद
सबको एक ही कर दे ना चािहए ोंिक गु ड़, चीनी ायः सब ही
खाते ह तो सब ही हो गए और िफर तु मने ही दशम
समु ास के पृ १९८ पर यह िलखा है िक ❝शू ों के पा म
तथा उनके घर का अ आपातकाल के िबना कभी न खाव❞
P- 374
बु की ब त कमी थी, और ामी जी ने यहाँ अपने बारे म न
बताया, ामी जी यं मले ों के हाथ का खाते िपते थ
“िथयोसोिफकल सोसायटी” जैसी ईसाई िमशनरी सभा ामी
जी िजसके अहम सद ों म से थे, इस ईसाई िमशनरी सभा के
सं थापकों कनल आ ाट, मैडम ैवाट ी जैसे ईसाइयों के
साथ ामी जी का ितिदन का उठना बै ठना, चाय ना ा,
भोजनािद होता ही था, तो ा मले ों के हाथ का व उनके
साथ खाने से यह दोष उनपर नही ं लगता?
( ) िफर ा उन का मां स फक द?
P- 375
है और कहते ह िक ऐसा करने से सं सार की कुछ हािन नही ं
होती, िहं सक जीव शेर, िचता, भे िडया आिद का मां स तो कोई
मनु नही ं खाता और मनु का मां स भी मनु नही ं खाते
इसिलए यह दोनों बात बु के िव है , और मां साहारी जीव
कु े आिद तो मां स खाते ही यह सबको पता है पर ु कु े आिद
मां साहारी जीव भी मनु का मां स नही ं खाते , जो उ मनु ों
का मां स या अ जीवों का मां स खलाते है तो मां स खाने से
उनका भाव और अिधक िहं सक होगा और मनु का मां स
खलाने से मनु का खुन उनके मूहँ लग जाएगा िजससे वो
िहं सक हो मनु ों को हािन प ँ चाएं गे इससे तो सं सार की हािन
ही होगी, और जब मां स खाने से मनु ों का भाव मां साहारी
होकर िहं सक हो सकता है तो इससे सं सार की हािन कैसे नही ं
होती इससे तो सं सार की ब त बड़ी हािन है , ामी जी ने यह
मां सिविध भी आलौिकक िलखी ं ह, एक का मां स दु सरे को
खलाकर जीव का भाव िहं सक बनाने और मां साहार को
बढ़ावा दे ने की िविध िलखी ं ह, जीव िहं सा और मां स भ ण यह
धम का अंग नही ं होने से वे द िव है , इस कार के वे द
िव लेख िलखने से ही दयानंद की बु का पता चलता है ।
P- 376
परमाणु ओं ही से पू रत होता है यिद वह भोजन बनावे गा तो
उसके हाथों से आटा िमडना आिद होने से ा भाव म
िवकृित नही ं होगी िब ु ल होगी, इसी कारण तो कहते ह िक
ामी जी ने यह पु क भारी भं ग के नशे म िलखी है तभी तो
कही ं कुछ और कही कुछ िलखा है , इसे तो यं अपने िलख िक
ही सु ध नही,ं तभी तो पहले पृ १९८ पर, शू के हाथों का बना
भोजन खाने को िलखा िफर आगे अपने ही िव खंडन करते
ए डं के की चोट पर शू ों के हाथ का खाने का िनषेध िकया है ,
दे खए ...
P- 377
नीच के हाथ का भोजन करने से उनके शरीर की दु ग ािद से
भोजन हािन और रोगकारक होकर भाव को िबगाड़ता है ,
इसी कारण ि जों को नीच म , मां साहारी िजन का शरीर म ,
मां स के परमाणु ओं ही से पू रत है उनके हाथ का न खाना
चािहए, दे खए मनु मे भी िलखा है -
ना ा ू प ा ं िव ान ा नो ि जः।
P- 378
P- 379
िजन भड़वे समािजयों का उ े सनातन धम ं थों के
उदाहरणों को गलत सं दभ म ु त करते ए- धम के न जानने
वालों के बीच म का भाव उ कर उ धम के माग से
िवमुख करना है सनातनधिमयों को अपमािनत करना व उ
नीचा िदखाना, धम िवरोधीयों की सहायता करना आिद ह, उनके
िलए स ेम --------------
P- 380
िप से भोजनों को, पेट के अंगो को गु दि य और श यों से
िशखावटों को िनरं तर लेओ।ं
P- 381
४• सप को गु दि य म लेने की आव कता ा ह?
गु दि य आनंद ही अगर अपेि त ह, तो सप के समान आकार
वाली अ व ु ओं का िवक भी तो है न आपके िलए? और
यिद लेते समय साँ प घबराकर आपको अंदर या बाहर से काट
लेव, तो वै के पास जाकर ा कहोग अभागों?
P- 382
ा यह बात इस भडवे दयानंद पर लागू नही ं होती? िब ु ल
होती है , अत: पाठकगणों से िनवे दन है िक वो इस बात को
समझ की दयानंद ने जो ये अ ील भा िकया है वो इस भां ड
धू िनशाचरवत् दयानंद की धू तता है , वे दों की नही,ं दे खये इस
ुित का सही अथ इस कार है
शंका समाधान-
P- 383
(रे तसा)- िवय जा की र ा के िलए, (चाषान् िप ेन)- िपत चाष
दे व के िलए, ( दरान् पायु ना)- आं तों का तृ तीया भाग सरदे वों
के िलए, (कू ा किप ै ः)- तथा शकिप ों को कू दे व
की स ता के िलए समिपत करते ए रोगमु , थ जीवन
की कामना करते ह,
P- 384
चारों ओर जो केश, अथात डाढ़ी उससे ,,,,,,,,, /////वे पदाथ
अ े कार हण करने चािहए
P- 385
चाहगे , यह समाजीयों के दय म तीर की तरह चुभ रहे
होंगे, ोिक आज से पहले उ ोंने दयानंद के यह भा नही ं
पढे होग, ोिक उ दू सरों की िनंदा करने से फुसत ही कहाँ
है जो दू सरों से पहले एकबार िन क्ष भाव से दयानंद ारा
िकये इन अथ को पढ लेते तो तु र समाज का ाग कर दे त,
दयानंद ने वे दभा के नाम पर िसफ अथ का अनथ ही िकया
है , इन ुितयों का अथ ऐसा िबलकुल नही ं है , दे खये-
P- 386
का िकया क त और अ ील अथ िकंिचत् मा भी स
नही ं रखता, जबिक दयानंद का िकया यह अथ अ ील के साथ
साथ िनरथक भी है , दयानंद के इन अ ील भा ों का कोई
आशय ही नही ं िनकलता, ा दयानंदीयों को दयानंद ारा िकये
यह अ ीलभा नजर नही ं आते , या दयानंद के भा पढने से
पहले इस भा ानुसार मुहँ और आँ खों म टोपा ले लेते हो िजस
कारण तु यह अ ीलभा िदखाई नही ं पड़ते , यिद ऐसा है
तो कुछ और बात है दयानंद की बात आने पर शायद कान म
भी ले लेते होगे िजससे तु सु नाई भी न पडता होगा, बु मान
यं िवचार ा यह दयानंदीयों का दौगलापन नही है , जो
है उन दयानंदभा ों पर तो इनकी बोलती बं द हो जाती है
और जहाँ नही ं िदखता वहाँ अपना वही पुराना रं d! रौना रोते है
िक फला ं थ म अ ीलता है तो इस ं थ म अ ीलता है
इसिलए यह हम मा नही,ं अबे तो तु पूछता ही कौन है ?
कौन कहता है िक तु म इ मानों जी करता है तो मानों नही ं
करता है तो मत मानों पर कम से कम यह अपना रं d! रौना तो
बं द करों
P- 387
रे तो मू ं िव जहाित योिनं िवशद् इ यम् । गभ
जरायुणावृत ऽ उ ं जहाित ज ना। ऋतेन स म् इ यं
िवपानम्ँ शु म् अ स ऽ इ े यम् इदं पयो ऽमृ तं
मधु॥ ~यजुवद {१९/७६}
P- 388
प र ाग कर दे ता है , जैसे एक ही माग से िभ िभ पदाथ (मु
एवं वीय) िन:सृ त होते ह लौिकक स इसी स का प है , यह
अ प सोम, िविश साधन, बल, अ , ते ज, इ य सामाथ,
दु ािद पेय और मधू र पदाथ को हमारे िनिमत दान करता है ,
P- 389
दयानंद इसका अथ अपने यजुवदभा म यह िलखते ह िक—
“हे मनु ो! जैसे िजससे रस हण िकया जाता है वह वाणी के
समान ी, इस पित के सु र अवयवों से िवभ िशर के साथ
िशर कर तथा मुख के समीप पिव मुख कर इसी कार
गृ हा म के वहार म ा ी पु ष दोनों ही वत तथा जो
इस रोग से र क वै और बालक के समान वास करने का हे तु
पु ष उप थे य (िलंग) को बल से करनेहारा होता है वह
शा करने के समान वतमान मे स ानो ि का हे तु होवे उस
सबको यथावत करे ”
P- 390
समय अपान वायु को ऊपर खीच
ं े , योिन को ऊपर सं कोच कर
वी का ऊपर आकषण करके गभाशय म थत करे , प ात्
दोनों शु जल से ान कर”
P- 391
क तअ ील अथ िकन पदों से िनकाला है , इस वे द ुित म
ऐसा कोई पद नही ं िजससे ामी कामानंद जी का िलखा
क त अथ िस होता हो, दयानंद ने इस कार का अ ील
अथ िलखने से पूव एक बार भी यह न सोचा िक िव ान लोग जब
इसे दे खगे तो उनके बारे म ा सोचगे , भला ई रीय ान भी
इतना तु हो सकता है ा? ा यही वे द िव ा है ा यही
वे दों का सार है ? दयानंद ने इन वे द ऋचाओं के अथ का जो
अनथ िकया है ऐसा तो कभी िकसी ने भी नही ं िकया होगा,
P- 392
(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -५)
होता य त् सुरेतसं ारं पुि वधनम्ँ पािण िब तं पृथक्
पुि म् इ ं वयोधसम् ।
P- 393
पटां ग हो सकता है ा?, िब ु ल नही,ं दरअसल यह िम ा
अर् थ ामी कामानंद जी के कपोल भं डार से िनकल है , यही तो
दयानंद के भं ग की तरं ग है भं ग के नशे म जो भी अंड सं ड मुहँ
म आया बक िदया, जो मन म आया सो िलख िदया,
P- 394
दरअसल यह अथ ामी जी ने खास अपने िश ों के िलए तै यार
िकया है , दयानंद जी अपने भा ानुसार अपने लाडले िश ों को
यह उपदे श करते ह िक जैसे बै ल गाय को गािभन करता है उसी
कार तु म अपनी-अपनी ीयों को करों, पर ु दयानंदी अभी
उस तरीके से काम नही ं लेते, दयानंदीयों को चािहए िक गु
आ ा का पालन करते ए, आज से ही मनु से पशु बनकर
बै लों की भां ित अपनी-अपनी यों को गभवती कर जा को
बढावे और यिद तु म से न हो सके तो समाज से बाहर िकसी
अ पु ष की सहायता से अपनी ीयों को गौओं की भां ित
गािभन करवा जा को बढ़ावे , यह िनयोग नामक पशुधम ामी
जी ने इसी के अथ चलाया है , इसिलए पशुओं की ही भां ित
अपनी यों को जब कभी िकसी परपु ष के पास िनयोग के
िलए भजे तो उसे समझा दे िक जैसे बै ल गौओं को गािभन करता
है वै से ही वह तु ारी ी को गािभन कर जा को बढ़ावे , तब
जाकर कही ं गु आ ा का फल कट होगा और दयानंद के
लाडले िश पुरे वै िदक कहला सकगे , अ था नही,ं और
सु िनये ,
P- 395
“हे मनु ों! ाण और अपान के िलए दु :ख िवनाश करने वाले
छे री आिद पशु से , वाणी के िलए मढ़ा (मढक) से , और परम
ऐ य के िलए बै ल से भोग कर”
P- 396
हाथ तो िक त की चमचमाती छडी लग गई जहाँ जरा सी भी
स ि घटी िफर बै ल के साथ भोग कर लगे और इनसे िभ
मत वाले इस िन त घृणा मु कम कर न सकगे , और हमेशा
गरीब ही रहगे , इसके िवपरीत समाजी ऐ यवान होते जायगे
िफर चाहे कोई रोजगार कर या न कर,
P- 397
साथ म यह भी है िक यह र ा रोज रोज होती है या िफर
आय समाज के िकसी वािषक उ व पर?
P- 398
मै दयानंदीयों से पूछना चा ँ गा ा दु िनया की स जाितयाँ इस
भा को पढ़कर छी छी नही ं करे गी, दयानंद को ऐसा अ ील
भा करते ए ल ा न आई, ये सब िलखने से पूव दयानंद ने
यह नही सोचा िक िव ान लोगों की ि जब उनके इस अथ पर
पडे गी तो वे उनके बार म ा सोचगे ,
P- 399
न भेदी जाितवादी “दयानंद”
P- 400
“हे परमे र वा राजन् !आप, (हय म्)- ब र की सी छोटी
आँ खों वाले शीत ाय दे शी मनु ों को,,,,,,, (िप लम् )- पीली
आँ खोवाले को उ कीिजये,,,,,, (चा ालम् )- भं गी को,
(खलितम् )- गं जे को,,,,,, (कृ म् )- काले रं गवाले, (िप ा म्))-
पीले ने ों से यु पु ष को दू र कीिजये”
P- 401
वायु वाले थान के िलए, (चा ालम् )= चंड श वाले पु ष
को, (अ र ाय)= आकाश थत अथात ऊंचाई वाले काय के
िलए, (वं शनि नम् )= बाँ स पर कलािद िदखाने वालों को, (िदवे)=
द् यु लोक के िलए, (खलितम् )= आकाश थ गोिलय िपंड़ों की गित
को जानने वाले खगोलिवद पु षों को, (सू याय)= सू य के िलए,
(हय म्)= ह रत वण वाले, (न े ः)= न ों के िलए,
(िकिमरम्)= धवल वण के जानने वाले िवदजनों को, (च मसे )=
च स ी भावों के िनवारण हे तु, (िकलासम्)= िकलासिवद
जनों को, (अ े )= िदन के काय के िलए, (शु म् )= े त रं ग के,
(िप ा म्)= पीले ने ों वाले, तथा (रा ै)= राि के िलए,
(कृ म् )= काले रं ग वाले, (िप ा म्)= पीले ने ों से यु
पु षों को िनयु करना चािहए।
P- 402
अब यहाँ बु मान जन यं िवचार िक एक ही मं म दो
पर र िव बातों का िलखना, ा दयानंद की बु पर
िच नही ं लगाता? ा ई र इस कार की पर र िव
बातों से भरा उपदे श मनु ों को कर सकता है ? कदािप नही,ं
इस मुखानं द ने तो अपने इस भा से ई र तक को कं ूज
कर िदया होगा, िफर साधारण मनु ों की तो बात ही ा
करनी, अब यह बात तो हमारे दयानंदी भाई ही बता सकगे , की
दयानंद के इस भा ानुसार ई र को ा करना चािहये, वह
पीले ने ों वाले मनु ों को उ कर या ना कर! और सु िनये ,
P- 403
भावाथ म तो यह तक िलख िदया िक “भं गी के शरीर से
आया वायु दु गधयु होने से से वन के यो नही ं इसिलए उ
दू र भगाव” अब दयानंदी ही बताय िक यिद दयानंद के
भा ानुसार भं गी को िसफ इस कारण दू र कर द ोिक उसके
शरीर से दु गधयु वायु आती है , तो ा उनके बदले यह काय
करने दयानंद का बाप आये गा, इससे िस होता है िक समाज
म ा कुरीितयों न भे द, जाितवाद आिद को बढ़ावा दे ने
वाले दयानंद ही है और वही अनैितक िश ा दयानंद ने अपने
वे दभा ों से अपने लाडले िश ों के िलए िलखी ं ह, और सु िनये
P- 404
(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)
मू धा वयः जापितश् छ ः। ं वयो मयंदं छ ः। िव ो
वयो ऽिधपितश् छ ः। िव कमा वयः परमे ी छ ः। व ो
वयो िववलं छ ः। वृ र् वयो िवशालं छ ः। पु षो वयस्
त ं छ ः। ा ो वयो ऽनाधृ ं छ ः। िसँहो वयश् छिदश्
छ ः। प वाड् वयो बृ हती छ ः। ऽ उ ा वयः ककुप्
छ ः। ऽ ऋषभो वयः सतोबृ हती छ ः॥ ~यजुवद {१४/९}
P- 405
“गाय ी प से जापित ने इ ाश ारा मूध ा ण की
उ ि की, अिन छ से सं र ण-यु ि य का सृ जन
िकया, जगत् को पोषण दे ने वाले परमे र ने छ प हो वै ों
की रचना की, परमे ी िव कमा ने श ारा छ प शु
की उ ि की, एकपाद नामक छ के भाव से परमे र ने
मेष आिद जीवों को उ िकया, पं छ के भाव से मनु
को उ िकया, िवराट छ के भाव से जापित ने ा
आिद को कट िकया, अितजगती छ के भाव से िसं ह को
कट िकया, बृ हती छ के भाव से भारवाहक पशुओं को
उ िकया, ककुप् छ के भाव से जापित ने उ ा जाित
को उ िकया, सतोबृ हती छ के भाव से भालू आिद
पशुओं को उ िकया”
P- 406
बु मान िवचार ा राजा को कु े सू वर आिद की उपमा दे ना
ठीक है यं सोचकर दे खए िजस ई र को दयानंद ने यं
अपने वे दभा ों म अनेकों थान पर “राजा” ऐसा कथन िकया है ,
उसी को यहाँ कु े की भां ित सु घने वाला, सू वर के समान सोने
वाला िलखा है इससे समझा जा सकता है िक इस वे दभा के
िलखने वाले दयानंद की बु कैसी रही होगी?
P- 407
यहां उसी राजा को कु े आिद जीवों की भां ित सु घने वाला और
सू वर के समान सोने वाला कथन िकया है , इससे िविदत होता है
िक इस िदन तु मने थम तो लौटा भर कर िपया होगा िफर भा
करने बै ठे होंगे।
P- 408
ामी दयानं द एकादश िनयोग की दे न
P- 409
दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—
P- 410
हो, िजसका भाव दयालुता वाला हो ू रता वाला नही}ं , (ते )=
ते रा, (पित:)= पित है
P- 411
गु ण और म ों नही ं इ ािद इ ािद। इस कारण दयानंद के
िकये सब अथ है
P- 412
कर, इस िववािहत ी म दश पु उ कर और ारहवी ं ी
को मान !हे ी !तू भी िववािहत पु ष वा िनयु पु षों से दश
स ान उ कर और ारहव पित को समझ”
P- 413
पु पैदा करने के अ इस ी म थािपत करों, और
(एकादशं)= ारहवां , (पितम्)- पित को, (कृिध)= करों अथात
जीिवत पित और जीिवत पु इसको करों, यह मं आिशवाद के
अथ है , जो ामी िनयोगानंद जी ने कुछ का कुछ िलख िदया है ,
और ामी जी ने यह न सोचा िक यिद एकादश पित पय
िनयोग करने की ई र की आ ा है , तो ई र तो स सं क है
तब तो सब ीयों के दश-दश पु से कम नही ं होने चािहए यिद
दश से कम होंगे तो ई र का सं क िन ल होगा, इससे
ामी जी का िकया अथ अशु है ।
P- 414
“हे (ना र) िव े तू (एतं गतासु म) इस मरे ए पित की आशा
छोड़ के (शेषे) बाकी पु षों म से (अिभ जीवलोकम) जीते ए
दू सरे पित को (उपैिह) ा हो और (उदी ्व) इस बात का
िवचार और िन य रख िक जो (ह ाभ िदिधषो:) तु म िव ा
के पुनः पािण हण करने वाले िनयु पित के स ् के िलये
िनयोग होगा तो (इदम्) यह (जिन म्) जना आ बालक उसी
िनयु (प ुः) पित का होगा और जो तू अपने िलये िनयोग
करे गी तो यह स ान (तव) ते रा होगा। ऐसे िन ययु (अिभ
सम् बभू थ) हो और िनयु पु ष भी इसी िनयम का पालन करे ”
P- 415
स ान को, (अिभ)= ान करती ई, (सं बभू थ)= अपने ा
को ठीक रखने के िलए य शील हो।
P- 416
समी क-- ामी जी यहाँ भी अथ का अनथ करने से न चूंके,
दे खए इस मं म “दे वृकामा” इस पद से यह अथ िस नही ं
होता िक वह दे वर से भोग करना चाहती है , और जबिक पित है
तो भला वह दु सरे पु ष की इ ा ों करे गी? और कामना
िव मानता म नही ं होती, अिव मानता म होती है , यिद वह दे वर
को पित प म चाहती तो “दे व र पितकामा” ऐसा योग हो
सकता है , सो मं म िकया नही ं इससे िनयोग िस नही ं होता,
िक ु यह ऐसे थान का योग है , िजस ी के दे वर नही ं वह
चाहती है िक यिद मेरे ससु र के बालक हो तो म दे वर वाली
होऊं, ऐसी ी को दे वृकामा कहते ह, जैसे ातृ रिहत क ा म
“ ातृ कामा” यह योग बनता है िक मेरे भाई हो तो म बहन
कहाऊं, ऐसे ही यह दे वृकामा श है इससे िनयोग िस नही ं
होता, अब इसका यथाथ अथ सु िनए--
P- 417
अ ील बु म केवल उ ी बात ही आती है तो सु िनये इस
ुित म कथन है िक--
P- 418
दे खये ामी दयानंद ने स ाथ काश म मनु ृित से िनयोग
का माण दे ते ए यह िलखा है िक—
P- 419
एक म भी िनयोग तो ा िनयोग की गं ध तक नही ं है , दे खों
इससे पहले यह ोक ह िक--
P- 420
बताते ए, इस महाअधम िभचार िनयोग की घोर िनंदा करते
ह, सु िनये मनु जी िनयोग की िनंदा करते ए मनु ृित म यह
िलखते ह िक--
मृ ते भत र साढ् वी ी चय व थता।
अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते ।
P- 421
गालयोिनं ा ोित पापरोगै पी ते॥ {५/१६४}
~मनु ृ ित
P- 422
कम गु णों वाले अपने पित का ाग कर जो ी अिधक गु णों
वाले अ पु ष का सं ग करती ह वह इस सं सार म िनंदा का
पा बनती है और दो पु षों की अंकशाियनी बनने का कलंक
लगवाती है ॥१६३॥
P- 423
कपोल भं डार से कट ई है , इस कारण दयानंद के िकये सभी
अथ अशु होने से , मानने यो नही,ं
जे तािधग ा स ान प र ये ॥१॥
P- 424
समी क-- तु म चुितया हो, और तु मसे भी बड़ा चुितया है
तु ारा यह िनबु दयानंद, सु नो तु मने यह ोक तो पढ़े पर
यह जाना िक यह ोक यहाँ िकस स भ म िलखा है , मनु ृ ित
म िलखी ं सब ही बातों को मनु जी का मत जान लेना, इसी से
दयानंद की बु का पता चलता है , सु िनये यह मत मनु जी का
नही ं ब राजा वे न का है िजसे मनु जी अपने ं थ म इस
कारण कथन िकया है ोंिक उस समय राजा वे न के राज म
यह पशुधम िनयोग चलन म था, यह पशुधम राजा वे न ने आरं भ
िकया और उसने िनयोग के जो-जो िनयम चलाए उसे मनु जी ने
अपने ं थ म िलखा है िजससे सब मनु यह बात भलीभाँ ित
समझ सक िक ा धम है और ा अधम? और यह हम पूव
ही िस कर आये ह िक मनु जी इस पशुधम िनयोग के घोर
िवरोधी थे, सु िनये मनु जी, राजा वे न ारा चलाये इस महाअधम
िनयोग की िनंदा करते ए िलखते ह िक--
P- 425
स महीम खलां भु न् राजिष वरः पुरा।
P- 426
परपु ष के साथ योजना करते ह, उस िविध को साधु पु ष
िन ा करते ह॥
P- 427
महिष या िफर महाचुितया
P- 428
दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ करते ए अपने
लाडले िश ों के िलए फरमाते है िक--
P- 429
केवल दयानंद कृत वे दभा ही मा है , हम िजतने भी काय
करते ह उसी के अनुकूल करते ह,
P- 430
“हे मनु ों! (अि ाम्)- ाण और अपान के िलए, (छागे न)-
दु :ख िवनाश करने वाले छे री आिद पशु से , (सर ै )- वाणी के
िलए, (मेषेण)- मढ़ा से , (इ ाय)- परम ऐ य के िलए, (ॠषभे ण)-
बै ल से , (अ न् )- भोग कर”
P- 431
और उनसे िभ मत वाले हमेशा गरीब ही रहगे , ोिक इनके
हाथ तो िक त की चमचमाती छडी लग गई जहाँ जरा सी भी
स ि घटी िफर बै ल के साथ भोग कर लगे और इनसे िभ
मत वाले इस िन त घृणा मु कम कर न सकगे , और हमेशा
गरीब ही रहगे , इसके िवपरीत समाजी ऐ यवान होते जायगे
िफर चाहे कोई रोजगार कर या न कर,
P- 432
िफर आगे यजुवद अ ाय १६ मं ५२ के भा म अपने िश ों
को आ ा दे ते ह िक तु म राजा से कहों की सू वर के समान सोने
वाले राजा,
P- 433
अ ा वृ ःश ा धूपयािम दे वयजने पृिथ ाः।
मखाय ा मख ा शी । मखाय ा मख ा
शी मखाय ा मख ा शी मखाय ा मख ा
शी ॥ ~यजुवद {३७/९}
P- 434
दयानंद मत पशुिहंसा धम का अंग
॥िजहादी दयानंद॥
~यजुवद {१३/४९}
P- 435
इसके भावाथ म ामी जी िलखते ह िक-- और गौ जाित से
स रखने वाली, गौ के समान िदखने वाली नीलगाय आिद
जो जंगल म रहती है , उससे खेती की हािन होती है इसिलए वह
मारने यो है ,
P- 436
समझनी चािहए, जबिक दयानंद ने अपने वे दभा म अपने
लाडले िश ों को खुली छूट दे दी िक जो पशु तु ारे िलए
लाभकारी नही ं है उ मार दो, और यह अथ ामी जी से िकसी
भू लवश नही ं आ, ामी जी अपने अ लेखों म भी पशुिहं सा
का समथन कर चुके ह दे खये जै से स ार् थ काश के थम
सं रण के पृ १४६ म िलखा है िक “मां स के िप दे ने म तो
कुछ पाप नही”ं
P- 437
िन लेख को पढ़कर िव ान लोग स क् समझ सकते ह िक
दयानंद जी धम के फैलाने वाले थे या िफर अधम के, और सु िनये
आगे अ ाय १५ मं १५ म दयानंद िलखते ह िक--
P- 438
उसकी सृ ि ही नही ं करता, इस जगत् म ेक जीव एक दू सरे
पर िनभर है , और ऐसे म यिद एक जीव की न भी ख हो
जाए तो पुरा जीवन म ही िबगड जाए यही नही, इसी ुित म
िफर आगे िलखा है िक--
P- 439
P- 440
आय अथात े
(आय स ोधन का श न की कोई जाित)
P- 441
कर घोिषत आय बनने की कोिशश करते ह, ऐसी ही
घोिषत आय वाली मूख की एक टोली आय समाज के नाम
से चिलत है , वह यं को ही अपने मुख से आय बोलकर मन
ही मन खुश होते ह, इसी कार मुख अ र िमलते रहते ह,
अभी कुछ िदन पहले मेरी बहस एक आय समाजी से हो गई,
बात आगे बढ़ी तो वह बोल पड़ा िक "म तो आय ँ " ा तु म
आय नही ं हो, मने कहा म आय ँ या नही ं यह म कैसे बोल
सकता ँ , यह तो मेरे गु ण कम भाव पर िनभर करता है
इसका िनणय तो दु सरे ही कर सकते ह, मेरे गु ण कम
भाव यिद इस यो होंगे तो अव कहला सकूंगा अ था
नही,ं
P- 442
न बोलते भला खुद के मुख से खु द को े कहना कहाँ की
े ता है ?
P- 443
जो पूरा मं िलख दे ते तो उनकी पोल खुल जाती, दे खों पुरा मं
इस कार है --
नत ितमा ऽ अ य नाम महद् यशः।
िहर गभ ऽ इ ् एषः।
मा मा िहमसीद् इ ् एषा।
P- 444
प से जगत् म थत है और वो ही सारभू त घृतवत् ु ित करने
यो है
P- 445
ितमा तो ान कि त करने का साधन है , मूितयों का िवरोध
करना ही िजहादी मानिस ा है ।
P- 446
दयानंदी-- वे दािद ं थों म पुराण का कोई वणन नही ं िमलता
इससे पुराण पर शंका होती है ,
एकं तद ं पुराणमनुसंिवदु ः॥
~अथववेद- {१०/७/२६}
~अथववेद {११/९/२४}
P- 447
अब ा ण ों से आपको माण िदखाते ह दे खों शतपथािद
म इस कार कथन है िक--
म ा तयो ह वा एता दे वानाम् यदनुशासनािन िव ा
वाकोवा िमितहासपुराणं गाथा नाराशं ः स य एवं
िव ाननुशासनािन िव ा वाकोवा िमितहासपुराणं
अथ- शा दे वताओ के म आ ित है दे व िव ा िव ा
आिदक िव ाएँ उ र ू तर प इितहास पुराण गाथा
और नाराशंसी ये शा है जो इनका िन ित ाय करता है
वह मानो दे वताओ के िलए आ ित दे ता है ।
स यथा धा ेर ािहत पृथ ूमा िविन र ेवं वा अरे ऽ
महतो भूत िन िसतमेत ेदो यजु वदः सामवेदोऽथवाि रस
इितहासः पुराणं िव ा उपिनषदः ोकाः सू ा नु ा ानािन
ा ाना ैवैतािन सवािण िन िसतािन ॥
~शतपथ ा ण {१४/५/४/१०}
P- 448
स होवाच— ऋ ेदं भगवोऽ ेिम यजु वदं सामवेदमाथवणं
चतुथिमितहासपुराणं प मं वेदानां वेदं िप ं रािशं दै वं िनिधं
वाकोवा मेकायनं दे विव ां िव ां भूतिव ां िव ां
न िव ां सपदे वजनिव ामेत गवोऽ ेिम ॥
~[छा ो : ७/१/२]
P- 449
एविममे सव वेदा िनिमता क ा सरह ा: स ा णा
सोपिनष ा: सेितहासा: सां ाता:सपुराणा:स रा:ससं ाराः
सिन ा: सानुशासना सानुमाजना: सवाकोवा ा॥
~गोपथ ा ण {१/२/२०}
P- 450
अथ- पुराण ाय मीमां शा धम शा और छः अ ों सिहत वे द
ये चौदह िव ा धम के थान है ।
२. ितसगः (अवनितः पु ृि ः)
P- 451
(४) म र– मनु, मनुपु , दे व, स िष, इं और भगवान् के
अवतारों का वणन,
P- 452
सुधारक, िन क या सहायक
P- 453
पैड़-पौधे , पशु-प ी भोजन लेते ह, उन के प े झड़ते ह, वह
फल दे ते ह, मरते ह और पुनः जीवन भी पाते ह। पशु -पि यों,
जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधा रत है ।
यह ितकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण म अपने आप
थाना रण कर सकते ह। अपने –आप को वातावरण के
अनुसार थोड़ा ब त ढाल सकते ह। मानव ही एकमा ऐसा
ाणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनु प ढाल
सकता है अिपतु वातावरण को भी प रवितत करने की मता
ा कर चुका है । कई कार के वै ि यािनक आिव ारों
दु आरा मानव वातावरण को िनय त कर चुका है ।
P- 454
अलग तरह की ि याय करते ह। उसी कार सभी ािणयों म
आ ा का ो भी ऐक है और सभी आ ाय भी ऐक जैसी ही
है , पर ु वह िभ -िभ शरीरों से िभ -िभ ि याय करवाती
है । आ ा शेर के शरीर म िहं सा करवाती है और गाय के शरीर
म दू ध दे ती है , प ी के शरीर म उड़ती है तथा साँ प के शरीर म
रगती है । इसी कार मानव शरीर म थत आ ा कचु ऐ के
शरीर की आ ा से अिधक भावशाली है । आ ा के शरीर
छोड़ जाने पर सभी कार के शरीर मृत हो जाते ह और सड़ने
गलने लगते ह। आ क िवचार से सभी ाणी समान ह िक ु
शरी रक िवचार से उन म िभ ता है ।
P- 455
सकता है जैसे अ े आदिमयों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर
अनादी तथा अन है और वै से ही रहै गा। यही सब से बडा
स है ।
P- 456
समा हो जाती है और िव ान शु हो जाता है । दोनो गोलाकार
के दो िसरे ह। हम जीवन म 99 ितशत काम आ थाओं के
आधार पर ही करते ह और केवल 1 ितशत तक पर करते ह।
माता-िपता की पहचान भी आ था पर होती है । कोई भी
अपना DNA टे करवा कर माता िपता की पहचान िस नही ं
करवाता। सू य की पे गं पर ‘ओइम’ िलख कर उसे अपना
झ ा बना लेना आय समाज की आ था है , जो िकसी वै ािनक
तक पर आधा रत नही ं है , ऐक तरह का अस , और मूित पूजा
ही है । लेिकन अपनी आ था का आदर तकशा ी आय समाजी
भी करते ह।
P- 457
सनातनी िह दू आय-समािजयों को मूित पूजा के िलये बा नही ं
करता। लेिकन िजस तरह घरों म आय-समाजी अपने माता-
िपता की तसवीर लगाते ह ामी दयान सरसवती के िच
लगाते ह उसी तरह िशव, राम, और कृ के िच भी लगा द तो
सारा िह दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी ातनी िह दू आय ह
और वे दों, उपिन दों, रामायण, महाभारत, दशन शा ों और
पुराणों को िलखने वाले सभी ऋिष आय थे। आय-समाजी नही ं
थे। आय-समाज तो ऐक सं गठन का नाम है ।
P- 458
िनकालने के इलावा इ ों ने और ा िकया है - वह बताने का
यास ों नही ं करते ?
P- 459
चुनौती- कुछ करना है तो आय समािजयों को यु वाओं म
नैितकता का पाठ पढाने की चुनौती ीकार करनी चािहये ।
लव-िजहाद, िलव-इन- रलेशस, वे ले ाईन-डे , ू -इयर-डे ,
आतं कवािदयों आिद की िवकृितयों को भारत म फैलने से रोकने
के िलये ा करना चािहये, उस पर िवचार कर के िकसी नीित
को सफलता से अपनाये और स म कर के िदखाय।
P- 460
आज से 200 वष पूव “हमारी नकल मार के” कर िदखाया था।
इस कार के कई सकारा क काम आय समाजी अब कर के
िदखा सकते ह। उ चािहये िक आम लोगों को माण
िदखाय िक हमारा यह हमारा ान िवदे िशयों ने चुराया था, अब
हमारे पास है िजस का इ े माल कर के हम िव म अपनी
जगह बना रहै ह। रोक सको तो रोक लो। केवल मूित पूजा का
िवरोध कर के और अपने वे दों का खोखला िढं ढोरा पीट कर
आप िव म अपनी बात नही ं मनवा सकते । कुछ कर के िदखाने
की चुनौती आय ब ुओं, वे दा यों और चारकों को ीकार
करनी पडे गी।
P- 461
भी अब आगे बहस नही ं करनी है । जो सहमत हों वही अपनी
इ ा करे तो मान। वे िदक िवचार और सनातनधम की आ था
दोनों ऐक ही िस े के पहलू ह और दोनों बराबर ह। िकसी को
भी अपने मूहँ िमयां िमठ् ठू बन कर दू सरे का सु धारक बनने की
ज रत नही।ं
P- 462
ा ांितकारी आयसमाज से थे?
P- 463
ितशत तो छोिडये ८० आय समाजी भी खीच
ं तान के नही ं
िनकलगे ,
P- 464
िसं ह को भी आयसमाजी बताते ह, जब िक उनके माता-िपता
आयसमाजी थे , वे नही।ं
P- 465
आयसमाज? इ े दे शभ का पाठ, धमभ का पाठ
आयसमाज ने पढ़ाया था ा? कहते है हमने बचाया, ये तु मने
बचाया? कहते है हमने िसखाया, ये िसखाएँ गे हम िह दु ओ को
दे शभ िजनके यहा बीस बीस वष के लड़के तक हसते हसते
फां सी पर चढ़ गए, ये िसखाएँ गे हमे धम के िलए बिलदान दे ना
जहाँ दस दस वष के ब ों तक ने अपना धम छोड़, इ ाम नही ं
कुबू ला और शरीर के हसते हसते टु कड़े करवा िलए, िह दु ओ से
अिधक बिलदान इस रा के िलए िकसने िदये ह? इसिलए इनके
िकसी भी गपोड़े की स ता परखे िह दु ओ को इनकी िकसी भी
बात पर िव ास नही ं करना चािहए, हा आयसमाजी चाहे तो ये
कह सकते है िक उस समय ८० ितशत आयसमाजी कों े सी
थे।
जय ी राम
P- 466
ा चाण मू ितपूजा िवरोधी थे?
P- 467
न दे वो िव ते का े न पाषाणे न मृ ये।
P- 468
डर से ) और अपने पंथ का प लेने के िलए हजारो झूठ बोल
लेगा।
P- 469
ोक-१५/७ म चाण ने पौरािणक मा ता म भगवान शंकर
के िवषवमन की ा ा की है । अ ोक १५/१६ म चाण
भगवान् िव ु और ल ी के सं वाद की ा ा पुराण मा म से
करते ह। यही नही अ ोक १७/५ म पौरािणक कथा म शंख
ल ी चं स ं ध को चाण दशाते ह।
-- आय समाज और चाण मअ ा- ा भे द है ?
P- 470
ोक ४/११ म चाण कहते ह िक क ा का एक ही बार
क ादान अथात् क ादान होना चािहए। किलयु ग म िवधवा
िववाह िनषेध माना गया है िजसका समथन चाण ने िकया है ।
P- 471
आय समािजयो से मुझे कोई वै र नही ब मुझे उनके कृ ो से
वै र है , इसिलए सभी को यही कहना चा ँ गा-
P- 472
॥दयानंद का अद् भुत िव ान॥
(उ र) नही,ं
( ) तो वह ा है ?
P- 473
पड़ता है तो िफर बादलों म तो लबालब पानी भरा होता है िफर
वह काले सफेद रं ग के ों िदखाई पड़ते ह?
१• ती ता जो काश की चमक से स त है
P- 474
काश िकरण कम िबखरती है , यही तीनों रं ग हमारी आँ खों तक
सबसे ादा प ँ चते ह, इन तीनों रं गों का िम ण नीले रं ग के
स श बनता है , इस कारण आकाश हम नीला िदखता है , और
ामी जी इसम ा चुितयापंित िलखी ं ह वह आपके सामने है ,
और सु िनये इसी कार अ म समु ास म यह िलखा है --
P- 475
अि , वायु, आकाश, च मा, सू य और न " यहाँ ामी ने इ
चेतन मान ततीस दे वों म से यह आठ वसु गण कथन िकये , और
िफर यहाँ उ जड़ मानकर, उनम मनु ािद जा बसा दी, अब
थम तो यहाँ दयानंद से यह है िक इनम से तु ारा कौन सा
कथन स मान? यह आठ वसु गण जो आपने यहाँ कथन िकये
हउ आप ा मानते ह जड़ या िफर चेतन?
P- 476
लेखानुसार अि सू य आिद म मनु ािद जा का होना स व
है ? ा यह मनु ािद जीवों को भ न कर दगे?
P- 477
अि पृिथवी च वायु ा र ं चािद ौ न ािण चैते वसव
एतेषु हीदं सव वसु िहतमेते हीदं सव वासय े त िददं सव
वासय े त ा सव इित॥ ~शतपथ ा ण {१४/६/९/४}
P- 478