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चाण य नीित
"जो कोई भी यि इस नीित शा का मन से अ ययन करे गा
वह जीवन म कभी धोखा नह खाएगा,
सफलता सदा उसके कदम चूमेगी।"
eISBN: 978-81-2881-956-8
© काशकाधीन
काशक : डायमंड पॉकेट बु स ा. ल.
X-30, ओखला इंड टयल ए रया,
फेस-II नई िद ी-110020
फोन 011-40712200
ईमेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइड : www.diamondbook.in
सं करण : 2015
Chanakya Neeti
By - Ashwani Prashar
चाण य : एक संि प रचय
ाचीन भारतीय सं कृत वांङ मय के इितहास म आचाय िव णुगु चाण य अपने गुण से
मंिडत, राजनीित िवशारद, आचार-िवचार के मम , कू टनीित म स ह त एवं वीण प म
यातनाम ह। उ ह ने नंद वंश को समूल न कर उसके थान पर अपने सुयो य एवं मेधावी वीर
िश य च गु मौय को शासक पद पर संहासना ढ़ करके अपनी जस िवल ण ितभा का
प रचय िदया उससे सम त िव व प रिचत है। मौय वंश क थापना आचाय चाण य क एक
महती उपल ध है।
सं कृत सािह य म नीितपरक थ क कोिट म चाण य नीित का मह वपूण थान है। इसम
सू ा मक शैली म जीवन को सुखमय एवं सफल-स प बनाने के लए उपयोगी अनेक िवषय
पर काश डाला गया है। चाण य के अनुसार आदश रा य सं था वही है जसक योजनाएं जा
को उसके भूिम, धन-धा यािद पाते रहने के मूला धकार से वंिचत कर देनवे ाली न ह , उसे ल बी-
चौड़ी योजनाओं के नाम से कर-भार से आ ांत न कर डाल। रा ो ारक योजनाएं राजक य
यय म से बचत करके ही चलाई जानी चािहए। राजा का ा भाग देकर बचे जा के टु कड़
के भरोसे पर लंबी-चौड़ी योजना छेड़ बैठना जा का उ पीड़न है।
चाण य का सािह य समाज म शांित, याय, सुिश ा, सवतो मुखी गित सखानेवाला ान
भंडार है। राजनीितक िश ा का यह दािय व है िक वह मानव समाज को रा य सं थापन,
संचालन, रा संर ण-तीन काम सखाए।
दभा
ु य है भारत का िक चाण य के ान क उपे ा करके देशी-िवदेशी श ुओं को आ मण
करने का िनमं ण देकर अपने को श ुओं का िन पाय आखेट बनाने वाली आसुरी िश ा को
अपना लया है। नैितक िश ा, धम िश ा का लोप हो गया है। च र िनमाण को बिह कृत कर
िदया है। मा लिपक ( लक) पैदा करनेवाली, स ांतहीन, पेट-पालन क िश ा रह गई है।
समाज धीरे -धीरे आसुरी प लेता जा रहा है। अथ-दास स मान या आ मगौरव क उपे ा करता
है। वािभमान का जनाजा िनकाला जा रहा है।
34 – काद बरी
19/9 रोहाणी,
नई िद ी - 110085
— अ वनी पाराशर
अनु मिणका
चाण य नीित
पहला अ याय
दसरा
ू अ याय
तीसरा अ याय
चौथा अ याय
पाँचवां अ याय
छठा अ याय
सातवां अ याय
आठवां अ याय
नौवां अ याय
दसवां अ याय
यारहवां अ याय
बारहवां अ याय
तेरहवां अ याय
चौदहवां अ याय
पं हवां अ याय
सोलहवां अ याय
स हवां अ याय
चाण य सू
सू
साधु य ते िनवत ते पु ा िम ािण बा धवाः।
ये च तैः सह ग ता ग तार त मात् सुकृतं कु लम।।
चा.नी.4/2
चा.नी.4/2
चाण य नीित
चाण य नीित
थम अ याय
ई वर ाथना
तीन लोक ( वग, पृ वी, पाताल) के वामी भगवान िव णु के चरण म शीश नवाकर
णाम करके अनेक शा से उ तृ राजनीित के संकलन का वणन करता ह।ं
चाण य (िव णुगु ) के लए कौिट य का स बोधन इनके कू टनीित म वीण होने के कारण
योग िकया है। यह एक त य है िक चाण य क नीित राजा एवं जा, दोन के लए ही योग
िकए जाने के लए थी। राजा के ारा िनवाह िकए जानेवाला जा के ित धम ही राज धम कहा
गया है और जा ारा राजा अथवा रा के ित िनवाह िकया धम ही जा धम कहा गया। इस
धम का उपदेश ही नीितवचन के प म िनिव न पूण हो, इसी आशय से ार भ म मंगलाचरण
के प म िव णु क आराधना से कायार भ िकया गया है।
अ छा मनु य कौन
राजनीित : जग लयाण के लए
िश ा : सुपा क
मूख िश य को पढ़ाने से, उपदेश देने से, द ु ी का भरण-पोषण करने से तथा दःखी
ु लोग
का साथ करने से िव ान यि भी दःु खी होता है यानी कह सकते ह िक चाहे कोई भी िकतना
ही समझदार य न हो िक तु मूख िश य को पढ़ाने पर, द ु ी के साथ जीवन िबताने पर तथा
दःु खय -रोिगय के बीच म रहने पर िव ान यि भी दःु खी हो ही जाता ह, साधारण आदमी क
तो बात ही या। अतः नीित यही कहती है िक मूख िश य को िश ा नह देनी चािहए। द ु ी
से स ब ध नह रखना चािहए, ब क उससे दरू ही रहना चािहए और दःखी
ु यि य के बीच म
नह रहना चािहए।
अथात् जसके घर म माता न हो और ी यिभचा रणी हो, उसे वन मे चले जाना चािहए,
य िक उसके लए घर और वन दोन समान ही ह।
दःखी
ु का पालन भी स तापकारक ही होता है। वै ‘परदःु खेन त यते’ दस
ू रे के दःु ख से
दःखी
ु होता है। अंतः दःु खय के साथ यवहार करने से प डत भी दःखी
ु होगा।
मृ यु के कारण से बच
िवप म या कर
संकट, दःख
ु म धन ही मनु य के काम आता है। अतः ऐसे संकट के समय म संिचत धन ही
काम आता है, इस लए मनु य को धन क र ा करनी चािहए। प नी धन से भी बढ़कर है, अतः
उसक र ा धन से भी पहले करनी चािहए। िक तु धन एवं प नी से पहले तथा इन दोन से
बढ़कर अपनी र ा करनी चािहए। अपनी र ा होने पर इनक तथा अ य सबक भी र ा क जा
सकती है।
इन थान पर न रह
जस देश म स मान न हो, जहां कोई आजीिवका न िमले, जहां अपना कोई भाई-ब धु न
रहता हो और जहां िव ा अ ययन संभव न हो, ऐसे थान पर नह रहना चािहए।
अथात् जस देश अथवा शहर म िन न ल खत सुिवधाएं न ह , उस थान को अपना िनवास
नह बनाना चािहए‒
ऐसे थान पर रहने से कोई लाभ नह होता। अतः इन थान को छोड़ देना ही उिचत होता
है।
जहां कोई सेठ, वेदपाठी िव ान, राजा और वै न ह , जहां कोई नदी न हो, इन पांच थान
पर एक िदन भी नह रहना चािहए।
ऐसे थान पर यि का कोई स मान नह होता और वहां रहना भी किठन ही होता है। अतः
यि को अपने आवास के लए सब कार से साधन स प और यावहा रक थान चुनना
चािहए तािक वह एक व थ वातावरण म अपने प रवार के साथ सुरि त एवं सुखपूवक रह
सके। य िक जहां के लोग म ई वर, लोक व परलोक म आ था होगी वह सामा जक आदर
का भाव होगा, अकरणीय काय करने म भय, संकोच व ल जा का भाव रहेगा। लोग म पर पर
याग भावना होगी और वे यि वाथ म लीन कानून तोड़ने म वृ नह ह गे, ब क दसर
ू के
िहताथ दानशील ह गे।
यिद िकसी िवशेष अवसर पर सेवक को कह िकसी िवशेष काय से भेजा जाए तभी उसक
ईमानदारी आिद क परी ा होती है। रोग या िवप म ही सगे-स ब धय तथा िम क पहचान
होती है और गरीबी म, धनाभाव म प नी क परी ा होती है।
सभी जानते ह िक मनु य सामा जक ाणी है। वह अकेला नह रह सकता। उसे अपने हर
काम को करने म सहायक, िम , ब धु, सखा और प रजन क आव यकता होती है िक तु
िकसी भी कारणवश उसके ये सहायक उसक जीवन-या ा म समय पर सहायक नह होते तो
उस यि का जीवन िन फल हो जाता है। अतः सही सेवक वही जो असमय आने पर सहायक
हो। िम , सखा व ब धु वही भला जो आप के समय सहायक हो, यसन से मुि िदलाने वाला
हो और प नी वही सहाियका और असली जीवनसंिगनी है जो धनाभाव म भी पित का सदैव साथ
दे। ऐसा न होने पर इनका होना बेकार है।
देखा जाए तो सामा जक ाणी होने के कारण मनु य के स पक म अनेक लोग आ जाते ह
और अपने लाभ के कारण वह यि से जुड़े होने का भाव भी जताते ह, िक तु वे िकतने स चे
और सही िम ह और िकतने मौकापर त, इसका अनुभव तो समय आने पर ही हो पाता है।
(िववाह के लए वर और वधू, दोन का घराना समान तर का होना चािहए। बुि मान मनु य
को अपने समान कु ल क क या से ही िववाह करना चािहए। चाहे क या साधारण प-रं ग क ही
य न हो, िन न कु ल क क या यिद सु दर और सुशील भी हो, तो उससे िववाह नह करना
चािहए।)
ग ड़ पुराण म भी यह लोक िकंिचत् पाठभेद से िमलता है। उसम भी कहा गया है िक
‘समान कु ल यसने च स यम्’ अथात् िम ता एवं िववाह समान म ही शोभा देता है। िवजातीय
अथवा असमान (बेमेल िववाह) म अनेक क आते ह। अनेक सम याएं पैदा हो जाती ह।
य िप मनु मृित म ितकू ल िववाह का भी िवधान है, लेिकन देखने म यही आता है िक असमान
िववाह अनेक कारण से असफल ही हो जाते ह या उनका प रणाम सुखद नह रह पाता। इस लए
जीवन के स दभ म िववाह जैसे मह वपूण न को भावुकता का िशकार बनने से रोकना ही
नीितसंगत है।
इसी कार आचाय चाण य राजकु ल क भी चचा करते ह। उनके िवचार से राजनीित सदा
ही प रवतनशील होती है। राजप रवार के लोग स ा प से जुड़े होने के कारण या स ा म आने
(स ा पाने) के लोभ म कू ट चाल म त रहते ह, उसी के िशकार भी होते ह। उनके िम व
श ु सामियक हािन-लाभ पर िनभर करते ह। इस प से ऐितहा सक पृ भूिम म देख तो यह
तय प है िक रा य- ाि के लए पु िपता क ह या करवा देता है। उसे कारागार म डलवा
देता है। कंस ने लोभ म िपता उ सेन को कारागार म डाल िदया था और अपने ाण को सुरि त
रखने के भाव से बहन देवक को पित वासुदेव सिहत जेल म डाल िदया था। कृ ण का ज म
कंस क कारावास म ही हआ था।
सार को हण कर
अमृत अमृत है, जीवनदायी है, अतः िवष म पड़े हए अमृत को ले लेना ही उिचत होता है।
सोना यिद कह पर गंदगी म भी पड़ा हो तो उसे उठा लेना चािहए। अ छा ान या िव ा िकसी
नीच कु ल वाले यि से भी िमले तो उसे खुशी से हण कर लेना चािहए। इसी तरह यिद द ु
के कु ल म भी कोई गुणवान, सुशील े क या हो, तो उसे वीकार कर लेना चािहए।
ी पु ष से आगे होती है
य के वाभािवक दोष
आचाय चाण य ने यहां नारी के वभाव का वणन िकया है और मानते ह िक सृि क रचना
म नारी का अ ु ण योगदान है। लेिकन जहां वभाव का न है वहां ये दोष भी पाये जाते ह,
इसका अथ यह नह िक नारी बुि मान् नह होती। आ शंकराचाय ने नो री म उि खत
िकया है िक ‘ ारं िकमेकं नरक य नारी’ अथात् नरक का धान ार या एकमा ार के पम
नारी को उ तृ िकया है। तुलसीदास ने कहा है िक ‘ना र वभाव स य किव कह , अवगुण आठ
सदा उर रह ।।’ इन आठ अवगुण म इसी लोक म िगनाये नाम का अनुवाद िकया है। साथ ही
सामा य िनयम को िवशेष िनयम भािवत करते रहते ह, य िक नारी ममता, दया, मा आिद
का एकमा थान है। इसके िबना सृि ही अधूरी है। अतः सीता, राधा, जीजाबाई, ल मीबाई
आिद म अवगुण ढू ंढ़ना अपनी अिववेिकता है। ये तो नारी के आदश ह और आचाय चाण य ने
य के जन दोष क ऊपर चचा क है वे वाभािवक वृ यां ह। आव यक नह िक ये सभी
य म पाई जाएं।
जीवन सुख म ही वग है
साथकता म ही स ब ध का सुख
आचाय चाण य का कथन है िक पु वही है, जो िपता का भ है। िपता वही है, जो पोषक
है, िम वही है, जो िव वासपा हो। प नी वही है, जो दय को आन दत करे ।
छली िम को याग द
आचाय चाण य का कथन है िक पीठ पीछे काम िबगाड़ने वाले तथा सामने ि य बोलने वाले
ऐसे िम को मुंह पर दधू रखे हए िवष के घड़े के समान याग देना चािहए।
अिभ ाय यह है िक एक िवष भरे घड़े के ऊपर यिद थोड़ा-सा दधू डाल िदया जाए तो िफर
भी वह िवष का ही घड़ा कहा जाता है। इसी कार मुंह के सामने िचकनी-चुपड़ी बात करनेवाला
और पीठ पीछे काम िबगाड़ने वाला िम भी इस िवष भरे घड़े के समान होता है। िवष के घडे़ को
कोई भी यि नह अपना सकता। इस लए इस कार के िम को याग देना ही उिचत है। सच
तो यह है िक ऐसे यि िम कहे ही नह जा सकते। इ ह श ु ही समझना चािहए।
मन का भाव गु ही रख
पराधीनता
साधु पु ष
पु के ित क य
वा याय
लोकेन वा तद न तद ाऽ ा रे ण वा।
अब यं िदवसं कु याद ् दाना ययनकमिभ।।13।।
आसि िवष है
िवनाश का कारण
इसी कार राजा का बल म ी होता है। म ी राजा को स माग म वृ एवं कु माग से हटाता
है। उसका न होना राजा के लए घातक है। इस लए राजा के पास म ी भी होना चािहए।
यि का बल
द ु कम ं से सचेत रह
दराचारी
ु च द ु ि दराऽऽवासी
ु च दज
ु नः।
य मै ी ि यते पु भनरः शी िवन यित।।19।।
यहां आचाय चाण य का कथन है िक दोष कहां नह है? इसी आशय से उनका कहना है िक
िकसके कु ल म दोष नह होता? रोग िकसे दःु खी नह करते? दःख
ु िकसे नह िमलता और
िनरं तर सुखी कौन रहता है अथात् कु छ न कु छ कमी तो सब जगह है और यह एक कड़वी
स चाई है। दिनया
ु म कोई भी ऐसा यि नह है, जो कभी बीमार न पड़ा हो और जसे कभी
कोई दःख
ु न हआ हो या जो सदा सुखी हो रहा हो तो िफर संकोच या दःु ख िकस बात का?
यवहार कुशल बन
यहां आचाय चाण य यावहा रकता क चचा करते हए कहते ह िक क या का िववाह िकसी
अ छे घर म करना चािहए, पु को पढ़ाई- लखाई म लगा देना चािहए, िम को अ छे काय ं म
तथा श ु को बुराईय म लगा देना चािहए। यही यावहा रकता है और समय क मांग भी।
द ु से बच
दज
ु नेषु च सपषु वरं सप न दज
ु नः।
सप दंशित कालेन दज
ु न तु पदे-पदे।।4।।
संगित कुलीन क कर
आचाय चाण य यहां कु लीनता का वैिश बताते हए कहते ह िक कु लीन लोग आरं भ से
अंत तक साथ नह छोड़ते। वे वा तव म संगित का धम िनभाते ह। इस लए राजा लोग कु लीन
का सं ह करते ह तािक समय-समय पर स परामश िमल सके।
मूख ं का याग कर
आचाय चाण य यहां नरपशु क चचा करते हए कहते ह िक मूख यि को दो पैर वाला
पशु समझकर याग देना चािहए, य िक वह अपने श द से शूल के समान उसी तरह भेदता
रहता है, जैसे अ य कांटा चुभ जाता है।
आशय यह है िक मूख यि मनु य होते हए भी पशु ही है। जैसे पांव म चुभा हआ कांटा
िदखाई तो नह पड़ता पर उसका दद सहन नह िकया जा सकता है। इसी कार मूख यि के
श द िदखाई नह देते, िक तु दय म शूल क तरह चुभ जाते ह। मूख को याग देना ही उिचत
रहता है।
िव ा का मह व पहचान
आशय यह है िक मनु य चाहे िकतना ही सु दर हो, जवान हो और धनी घराने म पैदा हआ हो,
िक तु यिद वह िव ाहीन है, मूख है तो उसे स मान नह िमलता। िव ा मनु य क सुग ध के
समान है। जैसे सुग ध न होने पर िकंशुक पु प को कोई पस द नह करता, इसी तरह अिशि त
यि क भी समाज म कोई इ जत नह होती। अतः िव ा यि को वा तव म गुणी मनु य
बनाती है।
े ता को बचाएं
प र म से ही फल िमलता है
अित का याग कर
गुणवान एक भी पया है
एकेनािप सुवण पु पतेन सुग धना।
व सतं त नं सव सुपु ेण कु लं यथा।।14।।
आचाय चाण य कहते ह िक गुणवान अपने एक भी गुण का िव तार करके नाम कमा लेता
है। उनका कहना है िक वन म सुंदर खले हए फू ल वाला एक ही वृ अपनी सुगंध से सारे वन
को सुगं धत कर देता है। इसी कार एक ही सुपु सारे कु ल का नाम ऊंचा कर देता है।
आशय है िक अनेक अवगुणी पु के होने से कोई लाभ नह । उनके पैदा होने से सबको
दःख
ु ही होता है, िक तु कु ल को सहारा देने वाला, उसका नाम ऊंचा करने वाला एक ही पु
अ छा है। ऐसे पु से कु ल अपने को ध य समझता है।
आचाय चाण य यहां समय क सूझ क चचा करते हए कहते ह‒ उप व या लड़ाई हो जाने
पर, भयंकर अकाल पड़ जाने पर और द ु का साथ िमलने पर भाग जाने वाला यि ही जीता
है।
जीवन क िन फलता
आशय यह है िक धम, धन, काम (भोग) तथा मो पाना मनु य जीवन के चार काय ह। जो
यि न तो अ छे काम करे धम का संचय करता है, न धन ही कमाता है, न काम-भोग आिद
इ छाओं को ही पूरा कर पाता है और न ही मो ही ा करता है, उसका जीना या मरना एक
समान है। वह जैसा इस दिु नया म आता है, वैसा ही यहां से चला जाता है। उसका जीवन िनरथक
है।
ल मी का वास
मूखाः य न पू य ते धा यं य सुसंिचतम्।
दा प योः कलहो ना त त ी वयमागता।।21।।
आयुः कम िव िव ा िनधनमेव च।
प ैतािन िह सृ य ते गभ थ यैव देिहनः।।1।।
आचाय चाण य यहां स संगित क चचा करते हए कहते ह िक जैसे मछली, मादा कछु आ
और िचिड़या अपने ब च का पालन मशः देखकर, यान देकर तथा पश से करती है, उसी
कार स संगित भी हर थित म मनु य का पालन करती है।
जहां तक हो पु य कम कर
आशय यह है िक िव ा कामधेनु के समान सभी इ छाओं को पूरा करने वाली है। बुरे से बुरे
समय म भी यह साथ नह छोड़ती। घर से कह बाहर चले जाने पर भी यह मां के समान र ा
करती है। यह एक गु धन है, इस धन को कोई नह देख सकता।
इस कार िव ा संकट म कामधेनु के समान और परदेश म मां के समान है। सबसे बड़ी
बात यह है िक यह छ और सुरि त धन है। सोने के आभूषण के समान इसे न कोई छीन
सकता है, न चुरा सकता है।
गुणवान पु एक ही पया है
इनसे सदा बच
कु ामवासः कु लहीन सेवा कु भोजनं ोधमुखी च भाया।
पु च मूख ं िवधवा च क या िवनाि मेते दह त कायम्।।8।।
आशय यह है िक जो गाय न तो दधू देती है और न गािभन ही होती है। ऐसी गाय का होना या
न होना बराबर ही है। ऐसी गाय को पालना बेकार ही होता है। इसी तरह जो पु न तो िव ान हो
और न भ हो, उस पु का होना या न होना बराबर है।
आशय यह है िक अपने ब चे, प नी तथा अ छे लोग का साथ, ये तीन चीज बड़े काम क
ह। यि जब कामकाज से थककर िनढ़ाल हो जाता है, तब ये ही तीन चीज उसे शा त देती ह।
य िक ायः देखा जाता है िक आदमी बाहर के संघष ं से जूझता हआ, िदन भर के प र म से
थका-मांदा जब शाम को घर लौटता है तो अपनी संतान को देखते ही सारी थकावट, पीड़ा और
मान सक यथा को भूलकर व थ, शा त और संतु लत हो जाता है। इसी कार पित के घर
आने पर जब मु कु राती हई प नी उसका वागत करती है, अपनी सुमधुर वाणी से उनका हाल
पूछती है, जलपान से उसको तृ एवं संतु करती है तो आदमी अपनी सारी परे शानी भूल
जाता है। और इसी तरह जब कोई महापु ष िकसी अस दःु ख से स त यि को ानोपदेश
देता है तो उसके भाव से वह भी शांत और संयत हो जाता है। इस कार आ ाकारी स तान,
पित ता ी और साधु संग मनु य को सुख देने वाले साधन ह। यि के जीवन म इनका बड़ा
मह व है।
आचाय चाण य यहां संयत और एक ही बार काय करने के संदभ म कहते ह िक राजा लोग
एक ही बार बोलते ह; पंिडत भी एक ही बार बोलते ह तथा क यादान भी एक ही बार होता है।
ये तीन काय एक-एक बार ही होते ह।
कब अकेले कब साथ रह
पित ता ही प नी है
आशय यही है िक जसका आचरण पिव हो, कु शल गृिहणी हो, जो पित ता हो, जो अपने
पित से स चा ेम करे और उससे कभी झूठ न बोले, वही ी प नी कहलाने यो य है। जस ी
म ये गुण नह होते, उसे प नी नह कहा जा सकता।
अथात आदश प नी वही है जो मन, वचन तथा कम से पिव हो, उसके गुण का गहन
िववेचन करते हए बताया गया है िक शरीर और अ तःकरण से शु , आचार-िवचार व छ,
गृहकाय ं यथा भोजन, पीसना, कातना, धोना, सीना-िपरोना और साज-स जा आिद म िनपुण,
मन, वचन और शरीर से पित म अनुर और पित को स करना ही अपना कत य-कम
माननेवाली, िनरं तर स य बोलनेवाली; कभी हंसी-मजाक म भी ऐसी कोई बात नह करने वाली
जससे थोड़ा भी संदेह पैदा होता है, वही घर वग होगा वरना सम झए िक वह इन गुण के
अभाव म घर नह नरक है।
िनधनता अिभशाप है
ान का अ यास भी कर
आचाय चाण य अपने ान को िचर थायी व उपयोगी बनाए रखने के लए अ यास पर जोर
देते हए कहते ह िक जस कार बिढ़या से बिढ़या भोजन बदहजमी म लाभ करने के थान पर
हािन पहच
ं ाता है और िवष का काम करता है, उसी कार िनरं तर अ यास न रखने से शा ान
भी मनु य के लए घातक िवष के समान हो जाता है। जो यि िनधन व द र है, उसके लए
िकसी भी कार क सभाएं, उ सव िवष के समान ह। य कहने को तो वह प डत होता है,
पर तु अ यास न होने के कारण वह शा का भली कार िव लेषण-िववेचन नह कर पाता
तथा उपहास और अपमान का पा बनता है। ऐसी थित म स मािनत यि को अपना अपमान
मृ यु से भी अ धक दःु ख देता है। जो यि िनधन व द र है उसके लए िकसी भी कार क
सभाएं, उ सव िवष के समान ह। इन गोि य , उ ास के आयोजन म तो केवल धनवान् यि
ही जा सकते ह। यिद कोई द र भूल से अथवा मूखतावश इस कार के आयोजन म जाने क
धृ ता करता भी है तो उसे वहां से अपमािनत होकर िनकलना पड़ता है, अतः िनधन यि के
लए सभाओं, गोि य , खेल व मेल -ठे ल म जाना ित ा के भाव से अपमािनत करने वाला
ही स होता है। उसे वहां नह जाना चािहए।
बुढ़ापे के ल ण
माता-िपता के िभ प (िपता)
अथात् वयं अपना िपता जो ज म देता है, उपनयन (य ोपवीत) सं कार करने वाला गु ,
अ -भोजन देने वाला तथा िकसी किठन समय म ाणी क र ा करने वाला इन पांच यि य
को िपता माना गया है। िक तु यवहार म िपता का अथ ज म देने वाला ही लया जाता है।
माता
यहां इस लोक म आचाय चाण य मां के बारे म चचा करते हए कहते ह िक राजा क
प नी, गु क प नी, िम क प नी, प नी क मां तथा अपनी मां‒ये पांच कार का मांएं होती
ह।
व तुतः देखा जाए तो माता ममता और क णा क ितमूित होती है। जहां से ममता और
क णा का वाह पु के लए होता है, उसे माता मान लया गया है। अतः इन पांच थान से
भावनामयी, क णामयी दय से भावमय वाह वािहत होता है। इस लए इन पांच को माता माना
जाता है। इस लए इनका यि के जीवन म मां के समान ही मह व है।
पांचवां अ याय
अित थ े होता है
गु रि ि जातीनां वणानां ा णो गु ः।
पितरे व गु ः ीणां सव या यगतो गु ः।।1।।
अथात् सोना खरा है या खोटा, यह जानने के लए पहले उसे कसौटी पर िघसा जाता है, िफर
काटा जाता है, िफर आग म गलाया जाता है तथा अ त म उसे पीटा जाता है। इसी कार कु लीन
यि क परी ा भी उसके याग से, वभाव से, गुण से तथा काय ं से ली जाती है। कु लीन
यि याग करने वाला सुशील, िव ा आिद गुण वाला तथा सदा अ छे काय करने वाला होता
है।
संकट का स मान कर
एकोदरसमु७ूता एक न जातका।
न भव त समा शीले यथा बद रक टका।।4।।
प वादी बन
अथात् जस यि को दिु नयादारी से वैरा य हो जाता है, उसे कोई काय नह स पना चािहए।
बनने-संवरने वाला यि कामी होता है। य िक दसर
ू का यान आक करने के लए ही
ृंगार िकया जाता है। अतः जो यि कामी नह होता उसे ृंगार से ेम नह होता। का ड
िव ान यि सदा स य बात कहता है। वह ि य नह बोलता। साफ-साफ बात करने वाला
यि कपटी नह होता।
आचाय चाण य यहां ेष करने वाल क चचा करते हए कहते ह िक मूख-पंिडत से;
िनधन-धिनय से; वे याएं-कु लवधुओं से तथा िवधवाएं- सुहािगन से ेष करती ह।
यहां आचाय चाण य कौन िकससे न होता है‒क चचा करते हए कहते ह िक आल य से
िव ा न हो जाती है। दस
ू रे के हाथ म जाने से धन न हो जाता है। कम बीज से खेत तथा
िबना सेनापित के सेना न हो जाती है।
मूख का याग कर
अथात् साम य के अनुसार दान देना चािहए, इससे अपनी ही द र ता दरू हो जाती है। सदाचार
से यि के दःख
ु न हो जाते ह। भले-बुरे क पहचान करने वाली बुि यि के अ ान को
दरू कर देती है तथा साहस करके ढ़ भावना करने से भी सभी कार के भय दरू हो जाते ह।
आ मा को पहचान
यहां आचाय परम सुख का मह व ितपािदत करते हए सुख का ही बखान करते हए कहते
ह िक ‘काम’ के समान या ध नह है, मोह-अ ान के समान कोई श ु नह है, ोध के समान
कोई आग नह है तथा ान के समान कोई सुख नह है।
अथात् काम-वासना मनु य का सबसे बड़ा रोग है, मोहमाया या अ ान सबसे बड़ा श ु है,
ोध के समान कोई आग नह है तथा ान के समान कोई सुख नह है।
यहां आचाय चाण य सांसा रकता को ितनके के समान बताते हए कहते ह िक ानी को
वग, वीर को अपना जीवन, संयमी को ी तथा यागी को सारा संसार ितनके समान लगता है।
आशय यह है िक जो यि ा को जान लेता है, उसे वग क कोई इ छा नह रहती,
य िक वग के सुख को भोगने के बाद िफर ज म लेना पड़ता है। ानी ा म िमल जाता
है। अतः उसके लए वग का कोई मह व ही नह रह जाता। यु भूिम म वीरता िदखानेवाला
यो ा अपने जीवन क परवाह नह करता। जो यि अपनी इ य को जीत लेता है, उसके
लए ी ितनके के समान मामूली व तु हो जाती है। जस योगी क सभी इ छाएं समा हो
जाती ह, वह सारे संसार को ितनके के समान समझने लगता है।
िम के िभ प
कौन कब बेकार है
अथात् समु म वषा से या लाभ! जसका पेट भरा हो उसे भोजन कराना, धनी यि को
दान देना या िदन म दीपक जलाना यथ है। कोई भी काम थान, यि तथा समय देखकर ही
करना उिचत होता है।
ि य व तुएं
ना त मेघसमं तोयं ना त चा मसमं बलम्।
ना त च ुसमं तेजो ना त चा समं ि यम्।।17।।
आचाय चाण य के इस लोक का मूल भाव यही है िक इस संसार म सभी ाणी िकसी न
िकसी कार के अभाव से पीिड़त ह। जो कु छ उ ह ा है वे उसको मह व न देकर सदा
अ ा व तु क कामना करते रहते ह।
स येन धायते पृ वी स येन तपते रिवः।
स येन वाित वायु च सव स ये िति तम्।।19।।
धम ही अटल है
यहां आचाय चाण य धम चचा करते हए कहते ह िक ल मी चंचल है, ाण, जीवन, शरीर
सब कु छ चंचल और नाशवान है। संसार म केवल धम ही िन चल है।
इ ह धूत मान
आशय यह है िक पु ष म नाई धूत होता है। पि य म कौआ धूत माना जाता है। चौपाये
पशुओं म सयार को तथा य म मा लन को धूत समझा जाता है।
छठा अ याय
सुनना भी चािहए
चंड ाल कृित
यहां आचाय शुि क चचा करते हए कहते ह िक कांसा भ म से शु होता है, तांबा अ ल
से, नारी रज वला होने से तथा नदी अपने वेग से शु होती है।
मण आव यक है
भाव यह है िक एक थान से दस
ू रे थान पर सदा घूमते रहनेवाले राजा, िव ान तथा योगी तो
पूजे जाते ह, िक तु ऐसा करनेवाली ीन हो जाती है। मण करना राजा, िव ान तथा योगी,
इन तीन को ही शोभा देता है, ी को नह ।
धन का भाव
यहां आचाय चाण य धनवान होने से उपजी गुणव ा क चचा करते हए कहते ह िक जस
यि के पास पैसा है, लोग वतः ही उसके िम बन जाते ह। बंधु-बांधव भी उसे आ घेरते ह।
जो धनवान है उसी को आज के युग म िव ान और स मािनत यि माना जाता है। धनवान
यि को ही िव ान और ानवान भी समझा जाता है।
व तुतः सैकड़ वष पूव आचाय चाण य ारा कही गई यह बात आज के युग म पूरी तरह
स य स हो रही है। यह देखा गया है िक जसके पास धन नह होता, िम -ब धुगण उससे मुंह
मोड़ लेते ह, ब धु-बा धव और प रवारवाले उसका प र याग कर देते ह। यहां तक िक िनधन
यि को इनसान समझने म भी किठनाई अनुभव क जाती है। ऐसे यि को कोई आदमी ही
नह समझता। अनेक गुण वाला िनधन यि आज के युग म उपेि त रहता है। यही धन क
मह ा का लौिकक भाव है।
ो ै
समय बलवान होता है
आचाय चाण य यहां काल के भाव क चचा करते हए कहते ह िक काल ही ािणय को
िनगल जाता है। काल सृि का िवनाश कर देता है। यह ािणय के सो जाने पर भी उनम
िव मान रहता है। इसका कोई भी अित मण नह कर सकता।
भाव यह है िक काल या समय सबसे बलवान है। समय धीरे -धीरे सभी ािणय और सारे
संसार को भी िनगल जाता है। ािणय के सो जाने पर भी समय चलता रहता है। ितपल उनक
उ कम होती रहती है। इसे कोई नह टाल सकता, य िक काल के भाव से बचना यि के
लए संभव नह है। चाहे योग-साधन िकए जाएं अथवा वै ािनक उपाय का सहारा लया जाए तो
भी काल के भाव को हटाया नह जा सकता। समय का भाव तो हर व तु पर पड़ता ही है।
शरीर िनबल हो जाता है, व तुएं जीण और रत हो जाती ह। सभी देखते ह और जानते ह िक
यि यौवन म जस कार साहसपूण काय कर सकता थावृ ाव था म ऐसा कु छ नह कर
पाता। बुढ़ापे के िच यि के शरीर पर काल के पग-िच ही तो ह। काल को मोड़कर पीछे
नह घुमाया जा सकता, यानी गया समय कभी नह लौटता। यह बात िबलकु ल स य है िक काल
क गित को रोकना देवताओं के लए भी संभव नह । अनेक किवय ने भी काल क मिहमा का
वणन िकया है। भतृह र ने भी कहा है िक काल समा नह होता वरन् मनु य का शरीर ही काल
का ास बन जाता है। यही कृित का िनयम है। अतः समय के मह व को जानकर आचरण
करना चािहए।
भाव यह है िक ज म से अ धा यि दिनया
ु क कोई भी चीज नह देख सकता।
कम का भाव
श ु कौन
भाव यह है िक पु के लए कजा छोड़ जाने वाला िपता श ु के समान होता है। बुरे चाल-
चलनवाली मां भी स तान के लए श ु के समान होती है। अ धक सु दर प नी को भी श ु के
समान समझना चािहए तथा मूख पु भी मां-बाप के लए श ु के ही समान होता है।
इ ह वश म कर
दु से बच
सीख िकसी से भी ले ल
शेर से
यहां आचाय चाण य शेर से ली जाने वाली सीख के बारे म बता रहे ह िक छोटा हो या बड़ा,
जो भी काम करना चाह, उसे अपनी पूरी शि लगाकर कर? यह गुण हम शेर से सीखना
चािहए।
भाव यह है िक शेर जो भी काम करता है, उसम अपनी पूरी शि लगा देता है। अतः जो भी
काम करना हो उसम पूरे जी-जान से जुट जाना चािहए।
बगुले से
यहां आचाय बगुले से सीख के बारे म बता रहे ह। बगुले के समान इ य को वश म करके
देश, काल एवं बल को जानकर िव ान अपना काय सफल कर।
गधे से
यहां आचाय चाण य गधे से सीखे जाने वाले गुण क चचा करते हए कहते ह िक े और
िव ान यि य को चािहए िक वे गधे से तीन गुण सीख। जस कार अ य धक थका होने पर
भी वह बोझ ढोता रहता है, उसी कार बुि मान यि को भी आल य न करके अपने ल य
क ाि और सि के लए सदैव य न करते रहना चािहए, क यपथ से कभी िवमुख नह
होना चािहए। काय सि म ऋतुओं के सद और गम होने क भी िच ता नह करनी चािहए। जस
कार गधा स तु होकर जहां-तहां चर लेता है, उसी कार बुि मान यि को भी सदा संतोष
रखकर, फल क िच ता िकए िबना, यथावत् कम म वृ रहना चािहए।
मुग से
यहां आचाय चाण य मुग से सीखने यो य चार मह वपूण बात क चचा करते हए कह रहे ह
िक समय पर जागना, लड़ना, भाईय को भगा देना और उनका िह सा वयं झपटकर खा जाना,
ये चार बात मुग से सीख।
काग से
कौए से सीखाने यो य बात क चचा करते हए आचाय कहते ह िक िछपकर मैथुन करना,
समय-समय पर सं ह करना, सावधान रहना, िकसी पर िव वास न करना और आवाज देकर
और को भी इक ा कर लेना, ये पांच गुण कौए से सीख।
े े
कु े से
व शी व पस तु ः सुिन ो लघुचेतनः।
वािमभ च शूर च षडेते वानतो गुणाः।।20।।
आशय यह है िक कु ा िकतना ही भूखा य न हो, उसे जतना िमल जाए, उसी म स तोष
कर लेता है। साथ ही उसे जतना खला दो, वह सब खा जाता है। थोड़ी ही देर म उसे गहरी न द
आ जाती है। िक तु गहरी न द म भी वह थोड़ी-सी आहट पाते ही जाग जाता है। मा लक के साथ
वफादारी और बहादरु ी से िकसी पर झपट पड़ना भी कु े क आदत ह। कु े से इ ह छः गुण को
सीखना चािहए।
िश ा संबल बनाती है
मन क बात मन म रख
लाज-संकोच देख कर कर
भाव यह है िक स तोष सबसे बड़ा सुख है। जो यि स तोषी होता है उसे परम सुख और
शा त ा होती है, धन क चाह म इधर-उधर दौड़-भाग करने वाल को ऐसी सुख-शा त
कभी नह िमलती।
इनसे बच
आचाय चाण य यहां माग म अपनाई जाने वाली वजना क चचा करते हए कहते ह िक दो
ा ण के बीच से, ा ण और आग के बीच से, मा लक और नौकर के बीच से, पित और
प नी के बीच से तथा हल और बैल के बीच से नह गुजरना चािहए।
य िक ऐसा माना जाता है िक जहां दो यि खड़े ह अथवा बैठे हए बात कर रहे ह , वहां
िकसी को उनके बीच म से न िनकलकर एक ओर से िनकलना चािहए। यिद दो ा ण खड़े ह
तो उनके बीच म से न गुजरने का भाव यह है िक हो सकता है िक वे िकसी शा -चचा म लगे
ह । इसी तरह आग के बीच से नह गुजरना चािहए। पित और प नी, वामी और सेवक जब
कोई बात कर रहे ह तो उनके पास नह जाना चािहए और न ही उनके म य म से गुजरना
चािहए। इसी कार हल और बैल के बीच म से गुजरने क भी मनाही है, य िक इससे चोट
लगने क संभावना रहती है। और इस तरह देख तो यि को गुजरते समय आसपास का
माहौल देखकर गुजरना चािहए।
आचाय चाण य कहते ह िक आग, गु , ा ण, गाय, कुं आरी क या, बूढ़े लोग तथा ब च
को पांव से नह छू ना चािहए। ऐसा करना अस यता है। ऐसा करने से उनका अनादर तो है ही,
उपे ा भाव भी कट करता है। इनको पैर से छू ना अपनी मूखता कट करना है, य िक ये सभी
आदरणीय, पू य और ि य होते ह।
आचाय चाण य कहते ह िक बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ
दरू रहना चािहए, िक तु द ु यि से बचने के लए थोड़ा-बहत अंतर पया नह । उससे बचने
के लए तो आव यकता पड़ने पर देश भी छोड़ा जा सकता है।
आशय यह है िक हाथी को अंकुश से पीटकर वश म िकया जाता है। घोड़े को हाथ से पीटा
जाता है। गाय, भस आिद स ग वाले पशुओं को हाथ से या लाठी से पीटा जाता है, िकंतु द ु को
पीटते समय हाथ म ख ग या कोई अ य ह थयार अव य होना चािहए। द ु को हाथ म ह थयार
लेकर ही सीधा करना चािहए। अ छाई क भाषा उसक समझ म नह आती। यानी लात के भूत
बात से नह मानते।
आचाय चाण य द ु क दस
ू रे के दःख
ु म सुख अनुभव करने क द ु वृ का बखान करते
हए कहते ह िक ा ण तो भोजन से स होते ह। मोर बादल के गरजने पर आनंिदत हो उठता
है। स जन दसर
ू क स प ता से सुखी होते ह, िक तु द ु तो दस
ू रे क िवप को देखकर खुश
होते ह। यह िकतनी िविच बात है।
यौवन ही य का बल है
आशय यह है िक जस राजा क बाजुओं म शि होती है वही राजा बलवान माना जाता है।
ा को जाननेवाला ा ण ही बलवान है। को जानना ही ा ण का बल है। सु दरता,
जवानी तथा वाणी क मधुरता ही य का सबसे बड़ा बल है।
ना य तं सरलेन भा यं ग वा प य वन थलीम्।
िछ ते सरला त कु जा त त पादपाः।।12।।
आचाय चाण य यहां हंस के यवहार को आदश मानकर उपदेश दे रहे ह िक जस तालाब
म पानी यादा होता है हंस वह िनवास करते ह। यिद वहां का पानी सूख जाता है तो वे उसे
छोड़कर दस
ू रे थान पर चले जाते ह। जब कभी वषा अथवा नदी से उसम पुनः जल भर जाता है
तो वे िफर वहां लौट आते ह। इस कार हंस अपनी आव यकता के अनु प िकसी जलाशय
को छोड़ने अथवा उसका आ य लेते रहते ह।
अ जत धन का याग करते रह
आशय यह है िक िकसी तालाब के पानी को साफ रखने के लए उसका बहते रहना ठीक
है। क जाने पर वह ग दा हो जाता है। इसी कार धन का भी याग करते रहना चािहए। ऐसा न
करने पर यि म अनेक बुराईयां आ जाती ह। धन को अ छे काम म खच करते रहना
चािहए। यही धन क सबसे बड़ी र ा है।
स कम म ही महानता है
वग थतानािमह जीवलोके
च वा र िच ािन वस त देह।े
दान संगो मधुरा च वाणी
देवाचनं ा णतपणं च।।15।।
आशय यह है िक दान देने क आदतवाला, सबसे ि य बोलने वाले देवताओं क पूजा करने
वाला तथा िव ान - ा ण का स मान करने वाला यि िद य आ मा होता है। जस यि म
ये सभी गुण पाये जाते ह, वह महान पु ष होता है। ऐसे यि को िकसी वग क आ मा का
अवतार समझना चािहए।
द ु कम नरक भोगते ह
आशय यह है िक द ु यि अयत ोधी वभाव का होता है। उसक वाणी कड़वी होती
है, उसके मुंह से मीठे बोल िनकल ही नह सकते। वह सदा द र -गरीब ही रहता है। और क
बात ही छोिड़ए, उसक अपने प रवार वाल से भी श ुता ही रहती है। नीच लोग का साथ और
ऐसे ही लोग क सेवा करना ही उसका काम होता है। जस यि म ये सब अवगुण िदखाई द
उसे िकसी नरक क आ मा का अवतार समझना चािहए।
सबसे बड़ी शु ता है
देह म आ मा देख
स मान ही महापु ष का धन है
यहां आचाय चाण य नान, दान के लए िकसी वजना या समय क बा यता न मानते हए
कहते ह िक ◌इंख, जल, दधू , मूल, पान, फल और औष ध को खा लेने के बाद भी नान, दान
आिद काय िकए जा सकते ह।
आशय यह है िक ग ा चूसने के बाद, पानी या दधू पी लेने के बाद, पान चबा लेने के बाद
कोई क द मूल, फल या दवा खा लेने के बाद भी नान, पूजा, दान आिद काय िकए जा सकते
ह। जबिक अ य चीज खा-पी लेने पर ये काय नह िकये जाते।
यथा अ तथा संतान
यि का भोजन जैसा होता है, वैसी ही उसक स तान भी पैदा होती है। सा वक भोजन
करने से स तान भी यो य और बुि मान होगी तथा तामसी भोजन से मूख स तान ही पैदा होगी।
दीपक अ धकार को खाता है, तो का लमा ही पैदा करता है।
धन के सदपु योग
नान से शु ता
नान करके ही यि पिव होता है वरना शू है। इसी को प करते हए आचाय चाण य
कहते ह‒तेल लगाने पर, िचता का धुआं लगने पर, मैथुन करने पर तथा बाल कटाने पर जब
तक मनु य नान नह कर लेता तब तक वह चा डाल होता है।
पानी एक औष ध है
ान को यवहार म लाएं
भावना म ही भगवान है
शांित ही तप है
मह वपूण संसाधन क चचा करते हए आचाय चाण य कहते ह िक शांित के समान कोई
तप या नह है, संतोष से बढ़कर कोई सुख नह है, तृ णा से बढ़कर कोई या ध नह है और दया
से बढ़कर कोई धम नह है।
आचाय चाण य दगुु ण के कारण स गुण के नाश क चचा करते हए कहते ह िक गुणहीन
का प, दरु ाचारी का कु ल तथा अयो य यि क िव ा न हो जाती है। धन का भोग न करने
से धन न हो जाता है।
ये शु ह
दगु ुण का द ु भाव
अस तु ा ि जा न ाः स तु ा च महीभूतः।
सल ा गिणका न ािनल जा च कु लांगनाः।।18।।
आचाय चाण य यहां उन दगु ुण क चचा कर रहे ह जो द ु भावी होते ह। इस तरह देख तो
असंतु ा ण तथा संतु राजा न हो जाते ह। ल जा करने वाली वे या तथा िनल ज
कु लीन घर क बह न हो जाती है।
आशय यह है िक मांस खाने वाले, शराबी तथा मूख, इन तीन को पशु समझना चािहए। भले
ही इनका शरीर मनु य का होता है। मनु य के आकार वाले ये पशु पृ वी के लए भार जैसे ह।
मो
आशय यह है िक यिद कोई मनु य मो चाहता है, तो सबसे पहले उसे अपनी इ य के
िवषय को िवष मानकर इनका याग कर देना चािहए। अथात् उसे अपनी सारी इ छाओं-बुराईय
को याग देना चािहए। िफर मा, दया आिद गुण को अपनाना चािहए तथा स चाई क राह पर
चलते हए अपनी आ मा को पिव करना चािहए। तभी मो िमल सकता है।
िवडं बना
ग धं सुवण फलिम ुद डे नाका रपु पं खलु च दन य।
िव ान धनी भूपितद घजीवी धातुः पुरा कोऽिप न बुि दोऽभूत।।3।।
महत् गुणी व तु म दशन का गुण नह होता। इसक चचा करते हए आचाय कहते ह िक
सोने म सुगंध, ग े म फल, चंदन म फू ल नह होते। िव ान धनी नह होता और राजा दीघजीवी
नह होते। या ा को पहले िकसी ने यह बुि नह दी?
आशय यह है िक सोना क मती धातु है, िक तु इसम सुग ध नह होती। ग े म िमठास होती
है, पर इसम फल नह लगते। च दन म सुग ध है, पर फू ल नह आते। िव ान यि िनधन होते
ह और राजाओं क ल बी उ नह होती। या सृि बनाने वाले ा को इन सब बात क
सलाह पहले िकसी ने न दी होगी?
िव ा का स मान
दतो
ू न स रत े न चले च वाता
पूव न ज पतिमदं न च संगमोऽ त।
यो न मं रिवशिश हणं श तं
जानाित यो ि जवरः स कथं न िव ान्।।5।।
आचाय का कहना है िक आकाश म न तो कोई दतू ही जा सकता है, और न उससे कोई
वाता ही हो सकती है, न तो पहले से िकसी ने बताया है, और न ही वहां िकसी से िमल ही सकते
ह। िफर भी िव ान लोग सूय और च हण के िवषय म पहले ही बता देते ह। ऐसे लोग को
कौन िव ान नह कहेगा।
इ ह सोने न द
इ ह जगाएं नह
इनसे न डर
आड बर भी आव यक है
महापु ष का जीवन
ा ूत संगेन म या े ी संगतः।
रा ौ चौर संगेन कालो ग छित धीमताम्।।11।।
स दय ास
मदन
आचाय चाण य यहां दबाए जाने क गुणव ा ितपािदत करते हए कहते ह िक ◌इंख,
ितल, शू , प नी, सोना, पृ वी, च दन, दही तथा ता बूल (पान) इनके मदन से ही गुण बढ़ते ह।
उपचार गुण
आचाय चाण य यहां सापे गुण भाव क चचा करते हए कहते ह िक धीरज से िनधनता
भी सुंदर लगती है, साफ रहने पर मामूली व भी अ छे लगते ह, गम िकए जाने पर बासी
भोजन भी सुंदर जान पड़ता है और शील वभाव से कु पता भी सुंदर लगती है।
िव ा अथ से बड़ा धन
सोच िवचार कर कम कर
भा य
आचाय चाण य यहां िव ा, दान, शील आिद गुण से हीन यि क िनरथकता क चचा
करते हए कहते ह िक जनम िव ा, तप या, दान देना, शील, गुण तथा धम म से कु छ भी नह
है, वे मनु य पृ वी पर भार ह। वे मनु य के प म पशु ह, जो मनु य के बीच म घूमते रहते ह।
उपदेश सुपा को ही द
दज
ु नं स जनं कतुमुपायो न िह भूतले।
अपानं शतधा धौतं न े िम यं भवेत्।।10।।
आशय यह है िक इस संसार म दज
ु न को सुधारने का यास िनरथक ही है, य िक ऐसा कोई
साधन नह , जससे उसे सुधारा जा सके। यह बात िब कु ल ऐसी ही तीत होती है िक कु े के
पूंछ को िकतने ही िदन कांच क नली म दबाकर रखा जाए, पर तु बाहर िनकलने पर वह टेढ़ी
ही रहेगी। मूख को िकतना ही समझाया जाए, वह मूख ही रहेगा।
िनधनता अिभशाप है
वरं वनं या गजे सेिवतं, ुमालयः प फला बु सेवनम्।
तृणेषु श या शतजीणव कलं, न ब धुम ये धनहीनजीवनम्।।12।।
आचाय चाण य कहते ह िक मनु य िहंसक जीव ‒बाघ, हाथी और संह जैसे भयंकर जीव
से िघरे हए वन म रह ले, वृ पर घर बनाकर, फल-प े खाकर और पानी पीकर िनवाह कर
ले, धरती पर घास-फू स िबछाकर सो ले और वृ क छाल को ओढ़कर शरीर को ढक ले,
परं तु धनहीन होने पर अपने स ब धय के साथ कभी न रहे, य िक इससे उसे अपमान और
उपे ा का जो कड़वा घूंट पीना पड़ता है, वह सवथा अस होता है।
आशय यह है िक िनधन होना बड़ा पाप है। ऐसे म िनधन यि को अपने सगे स ब धय से
जो अपमान सहना पड़ता है बड़ा अस होता है।
ा ण धम
घर म ैलो य सुख
यहां आचाय तीन लोक के सुख क चचा करते हए कहते ह िक जस मनु य क माँ ल मी
के समान है, िपता िव णु के समान है और भाई-बंधु िव णु के भ ह, उसके लए अपना घर
तीन लोक के समान है।
भावुकता से बच
एक वृ े समा ढा नानावणिवहंगमाः।
भाते िद ु ग छ त त का प रवेदना।।15।।
बुि ही बल है
आचाय चाण य कहते ह िक जस यि के पास बुि होती है, बल भी उसी के पास होता
है। बुि हीन का तो बल भी िनरथक है, य िक बुि के बल पर ही वह उसका योग कर
सकता है अ यथा नह । बुि के बल पर ही एक बुि मान खरगोश ने अहंकारी संह को वन के
कु एं म िगराकर मार डाला था।
यह कथा- संग इस कार है िक एक बार संह के साथ पशुओं ारा िकये गए समझौते के
अनुसार ितिदन बारी-बारी से वन का एक पशु संह के भोजन के लए जाता था। एक िदन जब
एक खरगोश क बारी आई तो वह जान-बूझकर देर से गया और देरी का कारण बताते हए संह
से कहा िक उसे दस
ू रा संह अपना भोजन बनाना चाहता था। वह उसे सूिचत करके लौटने क
ित ा करके आया है। शेर ने जब खरगोश को दस
ू रा शेर िदखाने को कहा तो उसने कु एं म
संह को उसी क परछाई िदखा दी। मूख संह ने अपने श ु को पछाड़ने के लए कुं ए म छलांग
लगा दी और वह मर गया।
इस कथा का अिभ ाय यह है िक बुि मान ही बल का सही उपयोग कर सकता है, बुि हीन
का बल भी उसके काम नह आता। एक छोटे-से बुि मान खरगोश ने अपने से भी अ धक
शि शाली संह को मार िगराया। अ ल बड़ी या भस वाली कहावत यहां पूणतः च रताथ होती
है।
सब ई वर क माया है
घी सबसे बड़ी शि
िच ता िचता समान
आचाय चाण य यहां काय-कारण क चचा करते हए कहते ह िक शोक से रोग बढ़ते ह।
दधू से शरीर बढ़ता है। घी से वीय बढ़ता है। मांस से मांस बढ़ता है।
सं कार का भाव
आशय यह है िक दान देने का वभाव, सबके साथ मधुरता से बात करना, धीरज तथा सही
चीज क पहचान करना ये यि के सहज गुण है; अथात् ये गुण यि के साथ ही पैदा होते ह।
इन गुण को िकसी को सखाया नह जा सकता। यि चाहे वयं इनका िकतना ही अ यास
य न कर, इ ह ा नह कर सकता।
अपना वग
े ी ी
सूरत से सीख बड़ी
आदत नह बदलती
न दज
ु नः साधुदशामुपैित बह कारै रिप िश यमाणः।
आमूल स ं पयसा घृतेन न िन बवृ़ ोः मधुर वमेित।।6।।
आचाय चाण य यहां पापी के सुरापा के समान सं ा देते हए कहते ह िक जैसे सुरापा
अि म जलाने पर भी शु नह होता। इसी कार जसके मन म मैल हो, वह द ु चाहे सैकड़
तीथ नान कर ले, कभी शु नह होता।
आशय यह है िक सुरा-शराब का बतन चाहे आग म जला िदया जाए, पर उसे शु नह
समझा जाता। इसी तरह जस यि का मन मैला हो उसे तीथ नान का कोई फल नह िमलता।
तीथ नान से शरीर क सफाई हो सकती है, मन क नह । पापी चाहे सैकड़ तीथ ं म नान कर
ले, वह पापी ही रहता है।
मौन
िव ाथ के लए न करने यो य बात
ऋिष
ि ज
यहां आचाय ि ज के गुण के बारे म चचा करते हए कहते ह िक िदन म एक बार ही भोजन
करने वाला, अ ययन, तप आिद छः काय ं म लगा रहने वाला तथा ऋतुकाल म ही प नी से
संभोग करने वाला ा ण ि ज कहा जाता है।
वै य
आशय यह है िक सभी सांसा रक (दिु नयादारी के) काम करने वाला, पशु पालने वाला,
यापार करनेवाला, खेती करनेवाला ा ण भी वै य ही कहलाएगा। वैसे इन काम को
करनेवाला यि , चाहे कोई भी हो, उसे वै य कहा जात है।
िबलौटा
ले छ
चा डाल
देव यं गु यं परदारािभमषणम्।
िनवाहः सवभूतेषु िव चा डाल उ यते।।16।।
दान क मिहमा
गृह थ धम
आचाय चाण य यहां उन कु छ भले लोग क चचा करते हए कहते ह िक जो अपने लोग से
ेम, पराय पर दया, द ु के साथ स ती, स जन से सरलता, मूख ं से परहेज, िव ान का
आदर, श ुओं के साथ बहादरु ी और गु जन का स मान करते ह, ज ह य से लगाव नह
होता, ऐसे लोग महापु ष कहे जाते ह। ऐसे ही लोग के कारण दिु नया िटक हई है।
स संगित मिहमा
स संगतेभवित िह साधुता खलानां
साधूनां न िह खलसंगतेः खल वम्।
आमोदं कु सुमभवं मृदेव ध े
मृ ग धं न िह कु सुमािन धारय त।।7।।
साधु दशन का पु य
आचाय चाण य कहते ह िक साधुओं के दशन से पु य िमलता है। साधु तीथ ं के समान होते
ह। तीथ ं का फल कु छ समय बाद िमलता है, िक तु साधु समागम तुर त फल देता है।
आचाय चाण य कहते ह िक अरे िम ! इस नगर म बड़ा कौन है? ताड़ के वृ बड़े ह।
दानी कौन है? धोबी ही यहां दानी है, जो सुबह कपड़े ले जाता है तथा शाम को दे जाता है। चतुर
यि कौन है? दसरे
ू का धन तथा ी हरने म सभी चतुर ह। तब तुम इस नगर म जीिवत कैसे
रहते हो? बस गंदगी के क ड़े समान जीिवत रहता ह।ं
आशय यह है िक जस शहर म िव ान, बुि मान, ानी पु ष नह रहते; जहां के लोग दान
नह जानते; जहां अ छे काम करने म कोई चतुर न हो, िक तु लूट-खसोट, बुरे चाल-चलन म
सभी एक से बढ़कर एक ह , ऐसी जगह को ग दगी का ढेर ही समझना चािहए और वहां के
लोग को ग दगी के क ड़े। और खेद का िवषय है िक आज संसार इ ह बात पर चल रहा है।
र तेदार के छः गुण
स यं माता-िपता ानं धम ं ाता दया सखा।
शा तः प नी मा पु ः षडेते मम बा धवाः।।11।।
द ु तो द ु ही है
अनुराग ही जीवन है
राम क मिहमा
आचाय चाण य कहते ह िक क पवृ का है। सुमे पहाड़ है। पारस केवल एक प थर
है। सूय क िकरण ती ह। च मा घटता रहता है। समु खारा है। कामदेव का शरीर नह है।
ब ल दै य है। कामधेनु पशु है। हे राम! म आपक तुलना िकसी से नह कर पा रहा ह।ं आपक
उपमा िकससे दी जाए।
आशय यह है िक हे भगवान राम, लोग आपको क पवृ तथा कामदेव के समान सबक
इ छा पूरी करने वाला कहते ह। आप सबक इ छाएं पूरी करते ह, यह बात स य है। िक तु
क पवृ लकड़ी है तथा कामधेनु पशु है। आपको सोने के पहाड़ सुमे के समान कहा जाता है।
यह सही है िक आपक स प का कोई पार नह है। िक तु सुमे है तो एक पहाड़ ही। आपको
िच तामिण (पारस प थर) के समान कहा जाता है। पारस लोहे को सोना बना देता है। आपके
पास आने वाला भी हर अ छा-बुरा यि गुणवान हो जाता है। पर पारस है तो एक प थर ही।
आपको सूय के समान तेज वाला कहा जाता है। िक तु सूय क तेज िकरण दःु खी भी करती ह।
जबिक आपको देखकर सब सुखी ही होते ह। आपको च मा के समान सुख देने वाला कहा
जाता है। िक तु च मा क िकरण घटती-बढ़ती रहती ह, आप सदा समान रहते ह। आपको समु
के समान गंभीर माना जाता है, िक तु कहां समु और कहां आप। समु का पानी खारा होता है।
आपको कामदेव के समान सु दर कहना भी ठीक नह । कामदेव का तो शरीर ही नह है, अतः
वह सु दर कैसे हआ? आपको ब ल के समान दानी कहा जाता है। आप सबसे बड़े दानी ह, यह
सच है, और ब ल भी महान दानी था, िक तु ब ल दै य था। आप सा ात् भगवान ह। इस लए
इनके साथ आपक तुलना नह क जा सकती। आपक उपमा िकससे दी जाए?
सीख कह से भी ले ल
आशय यह है िक राजकु मार अ य त िवन तथा शालीन होते ह। अतः उनसे िवन ता और
शालीनता सीखनी चािहए। िव ान् लोग का बोलने का ढंग स य एवं सु दर होता है। इस लए
उनसे सु दर बोलने क कला सीखनी चािहए। यिद कभी एकदम सफेद झूठ बोलने क
आव यकता पड़े तो यह गुण जुआ रय से सीखना चािहए। छल- पंच, कपट ी से सीखना
चािहए।
सोचकर काम कर
जलिब दिनपाते
ु न मशः पूयते घटः।
स हेतु सविव ानां धम य च धन य च।।20।।
आशय यह है िक एक-एक बूंद डालते रहने से धीरे -धीरे बड़ा भर जाता है। इसी कार धीरे -
धीरे ान, धम तथा धन को भी संचय करते रहने से ये बढ़ते ह। छोटी-छोटी बचत बढ़कर एक
बड़ी रािश बन जाती ह।
तेरहवां अ याय
कम क धानता
आचाय चाण य यहां बीती बात भुलाकर आगे क सुध लेने पर बल देते हए कहते ह िक
बीती बात पर दःु ख नह करना चािहए। भिव य के िवषय म भी नह सोचना चािहए। बुि मान
लोग वतमान समय के अनुसार ही चलते ह। बीती बात पर दःु ख करने से कोई लाभ नह होता।
भिव य के लए भी अभी से दःखी
ु नह होना चािहए। वतमान को ही सु दर करना चािहए। इसी से
भिव य भी सु दर बनता है। यही बुि मानी है। और कहा भी गया है - बीती तािह िबसार दे, आगे
क सु ध लेह। यानी जो बीत गया उसे भूलकर आगे क सोचनी चािहए।
ी े ो
मीठे बोल
आचाय चाण य का कथन है िक िकसी के ित ेम होता है, उसे उसी से भय भी होता है,
ीित दःख
ु का आधार है। नेह ही सारे दःख
ु का मूल है, अतः नेह-ब धन को तोड़कर
सुखपूवक रहना चािहए।
भाव यह है िक संसार म वतन नेह के कारण होता है। ायः सांसा रक लोग इसी म फंसते
ह। ीमदभगवत म जड़ भरत क कथा भी इसी ांत है। य िक उसे राजपाट, घर-बार, माता-
िपता को छोड़ने के बाद भी नेहा ध य के कारण मृगयोिन म ज म लेना पड़ा। इस लए कहा गया
है िक संसार म अनेक कार के ब धन ह, लेिकन नेह का ब धन अपूव है। लकड़ी का भेदन
करने म िनपुण मर ेमपाश के कारण कमलकोश म िन य हो जाता है।
भिव य के ित जाग क रह
आशय यह है िक जैसा राजा होता है, वैसी जा भी बन जाती है। राजा धािमक हो तो जा
भी धािमक तथा राजा पापी हो तो जा भी पापी बन जाती है। य िक जा राजा का ही अनुसरण
करती है।
आचाय चाण य यहां यि क साथकता क चचा करते हए कहते ह िक धम, अथ, काम
तथा मो म से जस यि को एक भी नह िमल पाता, उसका जीवन बकरी के गले के तन
के समान यथ है।
आशय यह है िक दसरे
ू लोग क उ ित को देखकर द ु यि को अ यंत दःख
ु होता है,
वह इसे देखकर जल उठता है। वयं उ ित कर नह सकता, अतः वह उ ित करने वाले आदमी
क बुराई करने लगता है। अथात् लोमड़ी अंगूर तक नह पहच
ं सक तो कह िदया िक अंगूर
ख े ह।
मो माग
सुख -दःु ख
आशय यह है िक दिु नया म कोई भी ऐसा यि नह होगा, जसक सारी इ छाएं पूरी हो गयी
ह गी; जसे उसके मनचाहे सारे सुख िमल गए ह गे। सुख या दःख
ु का िमलना भा य के अधीन
है। यि के अधीन नह । अतः जो चीज अपने वश म न हो उसके लए दःखी
ु नह होना चािहए;
संतोष करना चािहए।
आचाय चाण य का कथन है िक जैसे हजार गाय म भी बछड़ा अपनी ही मां के पास जाता
है, उसी तरह िकया हआ कम कता के पीछे-पीछे जाता है। आशय यह है िक हजार गाय चर
रही हो और बछड़े को छोड़ िदया जाए, तो वह मूक पशु अपनी ही मां के पास जाता है। िकसी
अ य गाय के पास नह । इसी कार यि जो भी अ छा या बुरा कम करता है, उसका फल
उसी के पीछे-पीछे लगा रहता है। उस फल को यि को भोगना ही पड़ता है। इस लए मनु य
को सदा अ छे ही कम करने चािहए।
सेव ा भाव
आचाय चाण य का कथन है िक जैसे फावड़े से खोदकर भूिम से जल िनकाला जाता है,
इसी कार सेवा करने वाला िव ाथ गु से िव ा ा करता है।
पूव ज म
गु मिहमा
एका रं दातारं यो गु ं नािभव दते।
वानयोिन शतं भु वा चा डाले विभजायते।।18।।
आशय यह है िक परमा मा का नाम ॐ है, जसे एका र ा कहा जाता है- जो परमा मा
का दशन कराने वाले गु का आदर नह करता, उस िश य को सौ बार ज म लेकर कु ा बनना
पड़ता है और िफर उसे चा डाल के घर ज म लेना पड़ता है।
आचाय चाण य महापु ष के वभाव क चचा करते हए कहते ह िक युग का अंत होने पर
भले ही सुमे पवत अपने थान से हट जाए और क प का अंत होने पर भले ही सात समु
िवच लत हो जाएं, स जन अपने माग से कभी िवच लत नह होते।
पृ वी र न
इसी कार अ और साधु वचन का मह व है। शेष सभी चीज इनके सामने अथहीन
िदखलाई पड़ती ह। इस लए इ ह क क करनी चािहए।
आचाय चाण य कहते ह िक द र ता, रोग, दःु ख, बंधन और यसन सभी मनु य के अपराध
पी वृ के फल ह।
एकता
आचाय चाण य यहां एकता क शि ितपािदत करते हए कहते ह िक बहत-से छोटे ाणी
भी िमलकर श ु को जीत लेते ह। मूसलाधार वषा को भी ितनके िमलकर रोक देते ह।
थोड़ी भी अ धक है
आशय यह है िक पानी म थोड़ा भी तेल डाल िदया जाए, तो वह शी ही पूरे पानी म फैल
जाता है। द ु -चुगलखोर को भेद भरी कोई बात यिद थोड़ी-सी भी बता दी जाए तो वह उस बात
को फैला देता है। यो य यि क धन से यिद थोड़ी भी सहायता क जाए, तो वह उस धन को
कई गुना बढ़ा लेता है। िव ान को यिद िव ा थोड़ी-सी भी दे दी जाए तो वह उस िव ा का
िव तार वयं कर लेता है।
वैरा य मिहमा
अिभ ाय यह है िक बुरा काम करने पर पछतावा होता है और बुि िठकाने पर आ जाती है।
यिद ऐसी बुि पहले ही आ जाए, तो पछताना ही नह पड़े। अतः कोई भी काम सोच-समझ कर
ही करना चािहए।
अहंकार
दरू ी मन क
मीठी वाणी
य मा च ि यिम छेत् त य ूया सदा ि यम्।
या ो मृगवधं ग तुं गीतं गायित सु वरम्।।10।।
आचाय चाण य यहां वाणी क मधुरता ितपािदत करते हए कहते ह िक जससे अपना कोई
क याण करना हो, उसके सामने सदा मीठा बोलना चािहए, य िक बहे लया िहरन को मारते
समय सुंदर वर म गीत गाता है।
इनके पास न रह
ई वर सव यापी है
अि दवो ि जातीनां मनीषीणां िद दैवतम्।
ितमा व पबु ीनां सव समदिशनः।।12।।
गुणहीन का या जीवन
आचाय चाण य कहते ह िक जसम गुण है, वही मनु य जीिवत है, जसम धम है, वही
जीिवत है। गुण और धम से हीन मनु य का जीवन यथ है।
आचाय चाण य यहां पंिडत के बारे म बताते हए कहते ह िक जो संग के अनुसार बात
करना, भाव डालने वाला ेम करना तथा अपनी शि के अनुसार ोध करना जानता है, उसे
पंिडत कहते ह।
गोपनीय
सु स मौषधं धम गृहिछ ं व मैथुनम्।
कु भु ं कु ुतं चैव मितमा काशयेत्।।17।।
इनका सं ह कर
धम धनं च धा यं गुरोवचनमौषधम्।
संगृहीतं च कत यम यथा न तु जीवित।।19।।
मानव धम
यज दज
ु नसंसग भज साधुसमागमम्।
कु पु यमहोरा ं मर िन यमिन यतः।।20।।
दयावान बन
गु ा है
एकमेवा रं य तु गु ः िश यं बोधयेत्।
पृ थ यां ना त त यं यद ् द वा चाऽनृपी भवेत्।।2।।
दु का उपचार
खलानां क टकानां च ि िवधैव िति या।
उपानामुखभंगो वा दरू तैव िवसजनम्।।3।।
ल मी कहां नह ठहरती
धन ही स चा बंधु
आचाय चाण य कहते ह िक संसार क यह रीित है िक यहां सारा कारोबार- यापार पैसे
यानी धन से चलता है।
आचाय चाण य कहते ह िक ल मी वैसे ही चंचल होती है परं तु चोरी, जुआ, अ याय और
धोखा देकर कमाया हआ धन भी थर नह रहता, वह बहत शी ही न हो जाता है। इसके
लए आचाय चाण य ने सीमा िनधारण कर दी है। वे कहते ह िक अ याय, धूतता अथवा बेईमानी
से जोड़ा-कमाया धन अ धक से अ धक दस वष ं तक रहता है। यारहव वष म वह बढ़ा हआ
धन मूल के साथ ही न हो जाता है।
स संगित
अयु वािमनो यु ं यु ं नीच य दषू णम्।
अमृतं राहवे मृ युिवषं शंकरभूषणम्।।7।।
आचरण
आचाय चाण य कहते ह िक भोजन वही है, जो ा ण को खला लेने के बाद बच जाए।
ेम वही है जो दसर
ू पर िकया जाए। बुि वही है, जो पाप न करे । धम वही है, जसे करने म
घमंड न हो।
आशय यह है िक प र थितय के कारण भले ही कभी मिण जमीन म पैर के पास पड़ी हो
और कांच सर म पहच
ं जाए, पर इससे या फक पड़ता है। आ खर मिण तो मिण ही है। कभी न
कभी तो कोई पारखी-जौहरी आयेगा ही जो मिण का ही मू य लगाएगा, न िक कांच का। कहने
का ता पय यह है िक हालात के च कर म कभी यो य और िव ान यि को भी आदर नह
िमल पाता। जबिक एक मूख और िनक मा यि एक ऊंची जगह पर पहच
ं जाता है। पर तु
जब कभी िकसी यो य यि क ज रत पड़ती है, तब यो यता क क मत का पता लगता है।
त व हण
आचाय चाण य कहते ह िक शा अनंत है, िव ाएं अनेक ह, िक तु मनु य का जीवन बहत
छोटा है, उसम भी अनेक िव न ह। इस लए जैसे हंस िमले हए दधू और पानी म से दधू को पी
लेता है और पानी को छोड़ देता है, उसी तरह काम क बात हण कर लो तथा बेकार क बात
छोड़ दो।
चा डाल कम
मूख कौन
आचाय चाण य कहते ह िक मूख यि चार वेद तथा अनेक धमशा को पढ़ते ह। िफर
भी जैसे भोजन के रस को करछी नह जानती वैसे ही मूख अपनी आ मा को नह जानते ह।
आशय यह है िक एक करछी पूरी तरह से स जी म डूबी होने पर भी, उसका वाद नह जान
सकती। इसी कार एक मूख भी, चाहे वह सभी वेद और धमशा को पढ़ ले, िक तु रहता
अ त तक मूख ही है।
ा ण को मान द
ा ण और लड़क
ेम बंधन
ढ़ता
पु य से यश
संतान
ी चर
आचाय चाण य यहां िवनाश आने पर बुि साथ छोड़ जाती है, क उि को प करते हए
कहते ह िक सोने क िहरनी न तो िकसी ने बनाई, न िकसी ने इसे देखा और न यह सुनने म ही
आता है िक िहरनी सोने क भी होती है। िफर भी रघुन दन क तृ णा दे खए! वा तव म िवनाश
का समय आने पर बुि िवपरीत हो जाती है।
आशय यह है िक न तो िवधाता ने सोने का िहरन बनाया है, न िकसी ने ऐसा िहरण देखा है
और न सुना है। िफर भी भगवान राम को या सूझी! सोने के िहरन को देखकर मन ललचा गया
और उसे मारने चल िदए। एक अनहोनी बात पर िव वास कर लया। इस ओर सोचने क भी
ज रत न समझी िक कह सोने का भी िहरन होता है। उनका भी या दोष! परे शािनय म जो
पड़ना था। परे शािनय का समय आने पर यि क अ ल ही मारी जाती है।
महानता
आचाय चाण य गुण क मह ा बताते हए कहते ह िक गुण से ही मनु य बड़ा बनता है, न
िक िकसी ऊंचे थान पर बैठ जाने से। राजमहल के िशखर पर बैठ जाने पर भी कौआ ग ड़
नह बनता।
आशय यह है िक यि गुण से ही बड़ा बनता है। गुणहीनता उसे अ थायी लाभ दे सकती है
थायी नह ।
गुणाः सव पू य ते न मह योऽिप स पदः।
पूण द ु िकं तथा व ो िन कलंको यथा कु शः।।7।।
अनुिचत धन
आचाय चाण य कहते ह िक वधू के समान घर के अंदर बंद रहने वाली ल मी या काम
आती है। और जस ल मी का वे या के समान सभी भोग करते ह, ऐसी ल मी भी िकस काम
क?
आचाय चाण य कहते ह सभी ाणी, धन, जीवन, ी तथा भोजन से सदा अतृ रहकर
संसार से चले गए, जा रहे ह और चले जाएंगे।
आशय यह है िक धन, जीवन, ी, तथा भोजन क इ छा कभी पूरी नह होती। इनक चाह
सदा बनी रहती है। इसी चाह को लेकर दिु नया के लोग मरते आए ह, मर रहे ह तथा आने वाले
समय म भी ऐसा ही होता रहेगा।
साथक दान
याचकता
तृणं लघु तृणा ूलं तूलादिप च याचकः।
वायुना िकं न जीतोऽसौ मामयं याचिय यित।।15।।
आचाय चाण य मांगने को मरने के समान मानते हए कहते ह िक ितनका हलका होता है,
ितनके से हलक ई होती है और याचक ई से भी हलका होता है। तब इसे वायु उड़ाकर य
नह ले जाती? इस लए िक वायु सोचती है िक कह यह मुझसे भी कु छ मांग न बैठे।
िनधनता
मीठे बोल
आशय यह है िक मधुर वचन बोलना, दान के समान है। इससे सभी मनु य को आनंद
िमलता है। अतः मधुर ही बोलना चािहए। बोलने म कैसी गरीबी ।
िव ा और धन समय के
ान गु कृपा का
शठ के साथ शठता
तप क मिहमा
आचाय चाण य तप क चचा करते हए कहते ह िक जो व तु दरू है, दरु ारा य है, दरू थत
है, वह सब तप से सा य है। तप सबसे बल व तु है।
आशय यह है िक कोई व तु चाहे िकतनी ही दरू य न हो, उसका िमलना िकतनी ही किठन
य न हो, और वह पहच
ं से बाहर ही य न हो, किठन तप या अथात् प र म से उसे भी ा
िकया जा सकता है। तप या सबसे शि शाली व तु है।
िवडं बना
आचाय चाण य कहते ह िक जसका िपता र न क खान समु है, और सगी बहन ल मी है,
ऐसा शंख िभ ा मांगता है। इससे बड़ी िवड बना या हो सकती है?
लाचारी
आशय यह है िक दिनया
ु म अ धकतर कमजोर-दबु ल यि ही साधु बनते ह, गरीब बेचारा
मजबूरी से चारी बन जाता है, रोगी यि भगवान क पूजा करने लगता है और भ बन
जाता है तथा हर बूढ़ी ी पित ता बन जाती है अथात् ये सब लाचारी के काम ह।
आशय यह है िक अ और जल का दान सबसे बड़ा दान है। ादशी सबसे पिव ित थ है।
गाय ी सबसे बड़ा मं है। मां सबसे बड़ी देवता है।
द ु ता
आशय यह है िक सांप के केवल दांत म िवष होता है, म खी के सर म ही िवष होता है,
िब छू का िवष उसक पूंछ म होता है। िक तु द ु इन सबसे अ धक िवषैला होता है। उसके सारे
शरीर म िवष होता है। अतः द ु से सदा बचकर रहना चािहए।
कुप नी
पित परमे वर
सुंदरता
शोभा
आचाय चाण य यहां कु छ िनषेध क चचा करते हए कहते ह िक नाई के घर म जाकर बाल
बनवाना, प थर म सुग धत ग ध लगाना और जल म अपने व प क परछाई देखना - ये काय
करने वाले क स प तथा ल मी न हो जाती है।
आचाय चाण य कहते ह िक तुंडी के सेवन से बुि त काल न हो जाती है, वच के सेवन
से बुि का शी िवकास होता है। ी के साथ संभोग करने से शि त काल न हो जाती है
तथा दधू के योग से खोई हई ताकत िफर वापस लौट आती है। अतः प है िक तुंिड
बुि नाशक है तो वच बुि वधक है। ी बलनाशक है तो दधू बलवधक। अतः ी व तुंडी से
होने वाली ितपूित वच और दधू के सेवन से करनी चािहए।
सुगृिहणी क मिहमा
गुणहीन पशु
आहारिन ा भय मैथुरािन समािन चैतािन नृणां पशूनाम्।
ाने नराणाम धको िवशेषो ानेन हीना पशुिभः समानाः।।16।।
आचाय चाण य कहते ह िक भोजन, न द, भय तथा मैथुन करना, ये सब बात मनु य एवं
पशुओं म समान प से पायी जाती ह, िक तु ान मनु य म ही पाया जाता है। अतः ान रिहत
मनु य को पशुओं के समान समझना चािहए।
आचाय चाण य कहते ह िक मद से अंधे बने मूख हाथी ने अपने कान के पास मंडराने वाले
भंवर को कान से उड़ा िदया। भला इससे भंवर का या घटा, हाथी के ही गंड थल क शोभा
कम हो गयी। भंवरे तो िफर कमल के वन म चले जाते ह।
आशय यह है िक जवान हाथी के कान से मीठा मल बहने लगता है, जस पर भंवरे मंडराने
लगते ह। ये भंवरे हाथी क सु दरता म चार चांद लगा देते ह । मूख हाथी कान फड़फड़ाकर उ ह
उड़ा देता है। इससे हाथी क ही सु दरता घटती है, भंवर का कु छ नह िबगड़ता। वे िकसी कमल
वाले सरोवर म चले जाते ह। यिद मूख यि गुणी लोग का आदर नह करते, तो इससे गुणी
का कोई नुकसान नह होता। उ ह आदर देने वाले अ य लोग िमल जाते ह। िकंतु मूख को गुणी
लोग नह िमलते।
परदःु ख कातरता
राजा वे या यम चाि ः चौराः बालक याचकाः।
परदःु खं न जान त अ मो ामक टकाः।।18।।
आशय यह है िक राजा, वे या, यमराज, आग, चोर, ब चे, िभखारी तथा लोग को आपस म
लड़ाकर तमाशा देखने वाला यि , ये आठ दस
ू रे के दःु ख को नह समझ सकते। राजा पहले
तो दःख
ु या होता है, इसे जानता ही नह । य िक ‘जाके पैर न पड़ी िबवाई, सो या जाने पीर
पराई’ यह कहावत सोलहो आने सही है। जसने दःु ख देखे ही न ह , वह दसरे
ू के दःख
ु को या
समझ सकता है। इसके साथ ही राज-काज चलाने म राजा को कठोर भी होना ही पड़ता है। भला
एक वे या को दसरे
ू के दःख-दद
ु से या मतलब! उसक तरफ से कोई मरे या जए, िकसी का
घर फूं के या बरबाद हो, उसे तो पैसा चािहए। यमराज भी दसरे
ू के दःख
ु को नह देखता। िकसी
का प रवार रोये या िबलखे, उसे तो अपना काम करना ही होता है। चोर का तो पेशा ही चोरी
करना है। चोर कोई महापु ष तो होता नह , जो दसरे
ू क पीड़ा को समझे। छोटा बालक भला
अपने माता-िपता या िकसी क भी परे शानी या दःख
ु को या समझ सकता है। उसका तो काम
ही है ज करना या शरारत करना। िभखारी भी सबके सामने हाथ फैला देता है। उसे या पता
िक सामने वाले के पास कु छ है या नह है। और कु छ लोग को दस
ू र को आपस म लड़ाने म ही
आनंद आता है। ऐसे लोग क तो आ मा या इंसािनयत ही मर जाती है। दस
ू र को दःखी
ु करने म
ही ये खुश होते ह।
आचाय चाण य कहते ह िक बा लके! नीचे भूिम म या देख रही हो? मूख! या नह
जानते हो िक मेरे यौवन का मोती खो गया है।
आचाय चाण य कहते ह िक दान करने से, सैकड़ उपवास करने से या तीथया ा करने से
ी उतनी शु नह होती, जतनी पित के पैर के जल से होती है।
आचाय चाण य कहते ह िक हे केतक ! भले ही तू सांप का घर है, फलहीन है, कांट वाली
है, व (टेढ़ी) है, क चड़ म उगी हई और तुझ तक किठनाई से पहच
ं ा जाता है, िफर भी सुगंध
के कारण तू सबक ि य है। िन चय ही एक ही गुण सारे दोष को न कर देता है।
अतः स प होने पर मनु य को िववेकशील भी बने रहना चािहए, तािक िकसी कार के
िवनाश का सामना न करना पड़े। जीवन गत म चला जाता है।
आचाय चाण य कहते ह िक जनके दय म परोपकार क भावना होती है; उनक िवप यां
न हो जाती ह तथा पग-पग पर स प यां ा होती ह।
सू