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ाय-वैशेिषक दशन

1. तकशा की शाखाऒ ं म धान थान रखने वाली दो शाखाएं ह-

अ.वैशेिषक

आ. ाय।

सवदशनकौमुदी, पृ. ४ म कहा गया है - तक ऽिप ि िवधो वै शेिषकनै याियकभे देन।

2. इनदोनो शाखाऒं म वैशेिषक शा मेय धान है , और ायशा माण धान। य िप मेय


ही मु है , तथािप अपवग की ा माणानपे नही हो सकती है । यही कारण है िक मनन को
त सा ा ार का एक अ ाव क अंग माना है ।

3. ाय, वैशेिषक की दाशिनक पर रा अित ाचीन पम ीकार ली जाती है । ऐसा माना जाता
है िक तक तथा शा ाथ का युग ाय-वै शेिषक दशन की पर रा से ही माना जाता है । न केवल
आषदशनॊ ं अिपतु जै न और बौ दशनॊ ं म भी तक ाय के भाव से िवकिसत ए ह। आगे चलकर
अ ै त वेदा तथा उसके उ रवत आवायॊ ने भी ायदशन का ख न उसी तक के आधार पर िकया।

4. इसिलये वा ायन ने अपने भा म आ ीि की ायिव ा का मह बतलाते ए कहा है -

दीपः सविव ानामुपायः सवकमणाम्।

आ यः सवधमाणां िव ो े शॆ कीितता।

अथात् यह सब िव ाऒं का काशक है , सम कम का उपाय है ,पदाथॊ के सम धमॊ का आ य है ,


यह िव ा ब त ही िव ृत और सू है ।

5. ये दोनों दशन महाभारत काल से पू व ह। िक ु उनपर ा भा आिद बाद के काल के ह,


जैसे-तािकक र ा (वरदराज) एवं स पदाथ (िशवािद ) आिद १४वी ं शता ी से पू व रचे गए ह,
जबिक शं करिम की उप ार ा ा एवं िव नाथ की ाय-सू -वृि १४वी ं शता ी के भी बाद की
रचनाय ह।
6. ऐसा भारतीय दशन म िनिववाद प से माना जाता है िक वै िदक सािह अथात् उपिनषद् ,
ा ण ों के प ात् षड् दशन पर रा को ीकार िकया जाता है , िजसे दू सरे श ो म सू यु ग कहा
जाता है । ाय-वै शेिषक की पर रा अ ाचीन मानी जाती है । भारतीय दशन म तक तथा शा ाथ
का ार इन दोनो दशनों से ही माना जाता है । यह तक की अवधारणा आषदशनॊ ं म ही नही ं अिपतु
जैन एवम् बौ दशनॊ ं म भी ाय के भाव से िवकिसत ई है । आगे चलकर अ ै त वे दा तथा उसके
उ रवत आचाय ने भी ाय दशन का ख न उसी तक के आधार पर िकया है । इसीिलये वा ायन
ने अपने भा म आ ीि की ायिव ा का मह बतलाया है
दीपः सविव ानामुपायः सवकमणाम्।
आ यः सवधमाणां सेयमा ीि की मता।
अथात् आ ीि की स ूण िव ाऒं का काशक, सम कमॊ का साधक और सम धमॊ का आ य
है ।

ायवैशेिषक के िवकास का काल

सतीशच िव ाभूषण ने ाय-वैशेिषक के इितहास को कारा र से तीन कालों म िवभ िकया है

(I have made a departure from the time honoured classification of Indian Logic into
ancient and modern and have added an intermediate stage, thus dividing it into three
periods- Vidyabhushan, HIL, Intro.,p. XII) -

१. ाचीन काल,

२. म काल,

३.अवाचीन काल।

ाचीन काल- उनका िवचार है िक ाचीन काल म िह दू ाय का समावे श होता है ; अतः ाचीन कहने
पर भी इसम वे चौदहवी ं-प हवी ं शता ी के कारों को भी ले ले ते ह।

म काल- म काल से उनका अिभ ाय बौ एवं जै न ाय से है , अतः इसम भी एक ओर तो थम


शता ी के जैन लेखक, यथा उमा ाित तथा दू सरी ओर चतुथ या पंचम शता ी के बौ दाशिनक
असंग एवं वसुब ु का समावेश आ है ।
अवाचीन काल-अवाचीन काल का आर उ ोंने ११वी ं शता ी से माना है , अत: इसम ायसार,
ायलीलावती, तकभाषा, तकसं ह आिद करण ों के अित र गंगेशोपा ाय ारा वितत
न ाय-स दाय के सभी आ जाते ह।

िक ु कितपय िव ान् इस िवभाजन को सही नही मानते ह।

डॉ० धम नाथ शा ी ने ाय-वैशेिषक के इितहास को एक अिभनव ि से तीन कालों म िवभ


करने का यास िकया है । उ ोंने बौ दाशिनक िदङ्नाग को इस वग करण का के िब दु मानकर
यह िवभाजन िकया है

1. उ ि काल अथवा पूव िदङ्नाग काल।


2. िवकास काल अथवा िदङ्नाग स दाय से संघष काल।
3. ास काल अथवा िदङ्नागो र काल।

उ पि काल- इनम से थम काल के अ गत उ ोंने मशः वैशेिषक सू , ाय सू , ायभा एवं


श पाद भा को रखा है

िवकास काल- ि तीय काल म उ ोंने उ ोतकराचाय, वाच ित िम , जय भ , भासव , िशवािद ,


ोमिशव, ीधराचाय एवं उदयनाचाय की रचनाओं को रखा है ।

ास काल- तृतीय काल म वरदराज, व भाचाय एवं ीधर के अित र गंगेशोपा ाय तथा उनके
अनुयायी एवं साथ ही तं करण- ों के रचियता आते ह।

तः यह वग करण एक िभ ि से िकया गया है , िजसम ाय-वै शेिषक एवं बौ दशन दोनों का


समाना र अ यन िकया जाता है , िक ु उस ि कोण को न लेते ए भी हम इस वग करण को िनद ष
पम ीकार कर सकते ह; ोंिक यह ों के आकार या शैली पर आधा रत नही ं है , अिपतु िस ा ों
के आ रक िवकास म पर आधृत है ।
ाय एवं वैशेिषक की समु िदत प से मह ा

1. आ क िवचारधारा का थम यु ाय-वैशेिषक दशन का है , जो वेदों पर आ था रखते ए


भी तं प से िवकिसत आ तथा िजसने जगत् से परे आ ा क गु याँ सुलझाने की अपे ा
इसी प र मान् िव की स ा को वा िवक मानकर उसकी ा ा करना ही ेय र समझा। अत:
इस ि से भारतीय दशन की इस धारा का योगदान अ मौिलक एवं मह पू ण है , ोंिक उसके
अनुसार 'अनुभव ही माण है '।

2. ाय-वैशेिषक दाशिनक क र व ुवादी ह तथा अनु भव की यथाथता म उसे ढ़ िव ास है ।


अतः उसकी मूल थापना यही है िक जगत् म िजन व ु ओं का हम अनु भव होता है , वे व ु तः 'सत्' ह।
अ श ों म 'बा व ुओं की वा िवकता को जानने के िलए हमारा अनु भव ही एकमा माण है ।

3. धम-धम भेद-बा जगत् म हमारा सामा अनुभव िविवध व ुओं को ुत करता है , जो


अनेक कार की िवशेषताओं या धम के आ य- प म तीत होते ह। इस कार व ु या धम तथा
गुणों या धम म जो भेद हम अनुभव होता है , उसका अपलाप कथमिप नही ं िकया जा सकता। अ श ों
म धम-धम भेद ाय वैशेिषक का आधारभू त िस ा है ।

अ. धम-धम नामक िस ा के कारण भारतीय दशन-पर रा म इस स दाय का िविश थान


है , तथा यही िस ा इसे अ दशनों से पृथक् भी कर दे ता है , ोंिक केवल ाय वै शेिषक का मत ही
मानव के सामा बा अनु भव के सवािधक िनकट पड़ता है ।

आ. इस दशन-स दाय की सव थम थापना यही है िक जगत् िजस प म हम अनु भव होता है ,


उसी प म वा िवक एवं सत् है तथा उसकी स ा हमारे अनुभव से भी तं िनरपे है । उसे इस
कार भी कहा जा सकता है िक ाय-वैशेिषक के अनु सार ाता, ेय एवं ान-तीनों की पृ थक्-पृथक्
व ुगत स ा मानी गई है , ेय की स ा ाता या उसके ान पर िनभर नही ं है , वह इन दोनों से तं
प म सत् है , जबिक अ दशन जैसे-
(क) वेदा ाता को ान प ही मानता है तथा े य को भी ान से पृथक् नही ं मानता।

(ख) बौ ान ( िणक िव ान) को ही वा िवक मानता है तथा ाता एवं े य दोनों को ही उससे पृथक्
नही ं मानता।
(ग) सां भी ाता और ान को पृथक्-पृ थक् नही ं मानता। य िप ेय ( कृित) की पृ थक् स ा वह
ीकार करता है , िक ु उसे ाता की अपे ा है , ऐसी भी उसकी मा ता है ।

इस कार, केवल ाय वैशेिषक दशन ही व ु तः व ु वादी कहा जा सकता है , ोंिक वह अनु भव ारा
ुत जगत् के त ों की व ु गत स ा ीकार करता है ।

4. पदाथ िन पण-इस ीकृित के अन र ाय-वै शेिषक दाशिनक उन जागितक त ों के


प को समझने म वृ होता है , िक ु अपने अनु भव म हम जगत् की अन व ुओं की तीित
होती है और अनुभव का िवषय होने के कारण वे सभी सत् भी ह, ऐसा ाय-वै शेिषक का म है ।
अतः सत् होने के कारण दाशिनक उन अन व ुओं के प को समझने की चे ा करता है , पर ु
सीिमत साम वाले मानव-म के िलए उन असीम व ुओं म से े क को उसके गत प
म जानना संभव नही ं है । इसिलए, सू िनरी ण के प ात् दाशिनक को उन पृथक्-पृथक् अन व ु ओं
म भी कुछ अ िनिहत सा िमल जाते ह, उनको आधार बना कर दाशिनक उन व ु ओं की कुछ
ेिणयाँ या वग बना दे ते ह, िजससे उन असीम व ु ओं का ान भी सु िवधा से हो सके। इ ी ं ेिणयों या
वग को ाय-वैशेिषक म 'पदाथ' नाम िदया गया है और सम िव के मू ल त ों को इ ी ं पदाथ म
वग कृत िकया गया है । िक ु िवशेष उ ेखनीय यह है िक बा ाथवादी ाय-वै शेिषक के मत म ये
पदाथ भी वा िवक प से सत् ह, केवल िवचारों की उपज नही ं है -िवचारों से सवथा तं भी उनकी
स ा है । अ श ों म वैशेिषक दशन के पदाथ की स ा मानिसक या बु गत ही नही ं, ता क या
यथाथ है ।

ाय दशन का इितहास

ाय श की अथ तथा योग

भारतीय वा य म ाय श के अनेक अथॊ म योग ए ह। 'िनयमेन ईयते इित' इस िव ह म ’िन’


उपसगपूवक ’इण् गतौ’ से प र ोन णॊद् यू ता े षयोः (पा.सू 3.3.37) से िन ाय श का कोशगत
अथ है - 'उिचत-अनुिचत का िववेक'।
1. दू सरा ु ि ल अथ है - ’नीय े ा े िववि ताथः अने न अ न् वा।’ इस िव ह से भी ' ाय'
श की िन ि होती है , िजसका अथ होता है . िजसके ान ा िकया जाय, उसे ाय कहते ह ।
अथात् िजस साधन से हम अपने ( ेय) त के पास प ँ च जाते ह, वही साधन ाय है ।
2. इसके अित र िनय संहर न् इित (िन + इण् + घ) अ ाय ायो ावसं हाराधारावाया
(पा.सू. 3.3.122)। इस िव ह से भी ' ाय' श िन होता है , ाय एक ब ल अथस श है ।
इसका योग ा और कहावत के अथ म भी होता है । जैसे ा के अथ म--कनककु ल
ाय । इसी तरह काकतालीय ाय तथा थाली-पु लाक ाय कहावत के अथ म यु आ है ।
3. िक ु ासि कता की ि से दशनशा म यु ' ाय' श का ु ि ल अथ संकुल है ।
इसके अनुसार ाय उसे कहते ह, िजसके ारा िकसी ितपा िवषय की अथवा िविनि त अथ की
िस की जा सके-
नीयते ा ते िविनि ताथिस रनेन इित ायः ।
4. वा ायन ने इस ु ि के अथ को ीकार करते ए िलखा है िक इस िववि ताथ की िस
प ावयववा ों से होती है । इनके अनुसार प ावयवयु वा समूह को ' ाय' कहते ह—
प ावयवोपेतवा ा को ायः ( ायभा -वा ायन 1.1.1) । ित ा, हे तु, ा , उपनय और
िनगमन-ये प ावयव वा कहलाते ह- ित ाहे तूदाहरणोपनयिनगमना वयवाः (Six System of
Indian Philosophy) । जै से कोई पवत पर धूम को दे खकर वहाँ आग का अनुमान करते
ह।
5. तदधीते त े द (अ ा ायी 4.2.59) इस सू से अ यन करने वाले या जानने वाले के अथ म
तू ािदसू ा ा क् (अ ा ायी, 4.2.60) इस सू से उ ािदगणपिठत होने के कारण ाय
श से ठक् य आ। िफर न वा ां पदा ा ां पू व तु ता ामैच् (अ ा ायी, 7.3.3) म
एच् का आगम होकर नैयाियक श िन आ।

6. नैयाियक का अथ है - ायशा को जानने वाले। उसके तनय अथात् तनय के समान िश गण,
उनके ारा।

7. कौिट ने अपने अथशा म भी आ ीि की श का योग िकया है , िक ु िव ानों ने कौिट


के आ ीि की श से " ाय" का हण नही ं िकया।

8. ाचीनकाल म मीमां सा के िलये ाय श का योग होता था। बुहलर ने कहा है िक आप सू ,


११.४८.१३, १६.६.१४/३ म ाय श का ाय श का योग पू व मीमां सा के अथ म ही आ है ।
पूवमीमां सा के अनेक ों का नाम ाय श से यु है , जै से- ायर माला, मीमां सा ाय काश,
ायकिणका इ ािद।

ाय दशन की पृ भूिम

1. भारत के दाशिनक वा य म ायशा के दो भेद माने गये ह-


अ. वैिदक ाय
आ. अवैिदक ाय

वैिदक ाय- को आधुिनक ऐितहािसकों ने ’ ा ण ाय’ की सं ा दी है । यह ाय गौतमीय ाय,


काणाद ाय, पात ल ाय, जैिमनीय ाय और वैयािसक ाय के पमप िवत और पु त आ
है । इन सभी ायॊ ं म गौतमीय ाय ही अपने प और िवषय के िव ार तथा ग रमा और ग ीरता
के कारण ’ ायशा ’ के गौरवपूण नाम से अिभिहत होता है ।

अवैिदक ाय- इसमे बौ ाय एवम् जैन ाय आते ह।

2. ाय दशन का इितहास हजारों वषॊ पु राना है । अनेक िव ानॊ ं के अनुसार ाय दशन का ज


अनेक िव ानॊ ं के बीच शा ाथ के फल प आ। ाचीन काल म उपिनषदॊ ं के ुितवचनॊ ं के अथॊ
को लेकर शा ाथ आ करता था। मनु ने भी इसका समावेश ु ित के अ र िकया है । या व ृित,
१.३१ ने भी इसे वे द के चार अंगॊ ं म से एक माना है । आ ोपिनषद् , २ म भी इसका वणन दे खा जा सकता
है ।

3. आ ान म मनन का मह ुितिस है । बृहदार क उपिनषद् , ४.५.५ म कहा गया है -

“आ ा वा अरे ः ोत ोम ो िनिद ािसत ः ।”-

तक को ही औपिनषद् श ावली म ’मनन’ कहा जाता है । ऐसा कहा जाता है -“यु ा


स ािवत ानुस ानं मननं तु तत्॥- प.द.-१.५३,

ाय कुसुमा िल, १.३ म भी इस बात को कहा गया है -

ाय चचयमीश मनन पेदशभाक्। उपासनैव ि यते वणान रागता।

मनन के िबना आ ा के िवषय म अस ावना की िनवृ ि नही हो पाती है । “नै षा तकण मितरापनेया”
इ ािद कथन का ता य से कुतक से है , न िक सतक से। अतः आ ान के िलये तक परमाव क है ।
िव ानॊ ं के अनु सार, रामायण म की गयी आ ीि की िव ा की िन ा को भी आ ीि ाभास से ही
स समझना चािहये। रामायण की वह पं इस कार है -

“धमशा ेषु मु ेषु िव मानेषु दु बधाः । बु मा ीि की ा िनरथ वद ते।–बा ीकी


रामायण २.१००.३९
वा व म यथाथ आ ीि की का धमशा से कोई िवरोध नही है । यह त आ ीि की श के अथ
पर ि पात करने से भी मािणत होता है , िजसका वणन आगे है ।

ाय दशन म ाय/आ ीि की श का अथ

1. ायिव ा के िलये भी ाचीनकाल से ायश का योग होता रहा है । ायभा कार वा ायन
ने बतलाया है िक ायिव ा िवशेष प से अनु मान का िववे चन करती है । “ और आगम के आि त
अनुमान होता है , वही अ ी ा कहलाती है , ोंिक वह और आगम के ारा ईि त का अ ी ण
होता है । उस अ ी ा म जो वृि होती है , वह अ ीि की ाय िव ा या ाय शा है -

“ ागमि तमनुमानं सा ी ा ागमा ामीि त ा ी णम ी ा। तथा वतते इ ा ीि की


ायिव ा ायशा म्।– ायभा , 1.1.1

2. नैयाियक ानमीमां सा पर इतना बल दे ते ह िक वा ायन ने ाय दशन को प रभािषत करते


ए अपने भा म िलखा है - माणों का सं ह करके उनसे मेय व ु की परी ा ाय है । अतः माणॊ
के ारा अथपरी ण करना ाय कहलाता है । उस ाय का ितपादन करने वाला शा भी उपचार से
ाय कहलाता है ।

3. ाय श की ानमीमां सीय ा ा के आधार पर यह नही ं समझना चािहए िक ाय


ानमीमां सा को ही चरम मानते ह। उनके अनु सार भी मो ही चरम है , ान उसका साधन है । व ु तः
गौतम णीत ाय दशन म भी ानमीमां सा उतनी ही सीमाब है िजतनी अ भारतीय दशनी म। पर ु
ाय दशन पर जो परवत टीकाएँ की गईं उनम ानमीमां सा मुख होकर आई ह। व ु तः गौतम के
परवत बौ ों, मु तः िद ाग, ने गौतम के वा वादी दशन के िव जो आपि याँ की उनका उ र दे ने
म ाय दशन की टीकाओं म ानमीमां सा मुख हो गई।

4. ाय िवचार की उस णाली का नाम है िजसम व ुत के िनधारण के िलये सभी माणॊ ं का


उपयोग िकया जाता है । वा ायन ने ” माणैः अथपरी णं ायः ’ ( ायभा सू १) कहकर यही मत
िकया है ।
5. ायश से उन वा ों के समुदाय को भी अिभिहत िकया जाता है , जो अ पु ष को अनुमान
के मा म से िकसी िवषय का बोध कराने के उ े से यु िकय जाते ह। वा ायन ने उसे परम ाय
कहकर वाद, ज , िवत ा प िवचारॊ ं का मूल एवम् त िनणय का आधार बताया है । जैसे-
“साधनीयाथ यावित श समूहे िस ः प रसमा ते , त प ावयवाः ित ादयः समूहमपे ावयवा
उ े। तेषु माणसमवायः । आगमः ित ा, हे तुरनु मानम्, उदाहरणं म्, उपमानमुपमानम्,
सवषामेकाथसमवाये साम दशनं िनगमनिमित। सोऽयं परमो ाय इित। एते न वादज िवत ाः
वत े, नातोऽ थेित। तदा या च त व था।” ( ायभा , सू १)
अथात् िजस अथ का साधन करना अभी है उसकी िस िजस वा समूह का योग करने पर स
होती है , ित ा आिद पां च वा उस वा समूह ायवा के अवयव कहे जाते ह। उन वा ों म
सभी माणॊ ं का समावे श हो जाता है । जैसे- ित ा म श माण का, हे तु म अनुमान माण का,
उदाहरण म माण का और उपनय म उपमान माण का। िनगमन से एक अथ के साधन म सभी
माणॊ ं के योगदान का दशन होता है । यह श समूह परम ाय है । इसी के ारा वाद, ज ,
िवत ा क कथाय की जाती ह। इनके िबना वाद आिध कथाय स व ही नही ह, त िनणय भी इसी
पर आि त ह।
6. ायशा के वतक गौतम मुिन ने िनः े यस-मो को ही उस शा का योजन माना है । और
उसे माण, मेयािद १६ पदाथॊ के त ान से सा माना है । यथा-
माण, मेय, संशय, योजन, ा , िस ा , अवयव, तक, िनणय, वाद, ज , िवत ा,
हे ाभास लजाितिन ह थानानां त ानाि ः ेयािधगमः । - ाय द् . १.१.१
मुिन के अनुसार, ायशा के अ यन से पदाथॊ का त ान होता है , और उससे आ त का
सा ा ार होकर मो की ा होती है ।

7. ाय को आ ीि की भी कहते ह। जैसा िक है िक आगम के ारा ईि त का अ ी ण


होता है । उस अ ी ा से जो वृ होती है वह आ ीि की ाय िव ा या ाय शा है । वा ायन के
उपयु कथन म आ ीि की श का योग ाय िव ा के िलए िकया गया है ।

8. आ ीि की िव ा म यं ाय का तथा ाय की णाली से अ िवषयॊ ं का ितपादन होने से


उसे ायिव ा/ ायशा कहा जाता है । इसे य -त हे तुिव ा, हे तुशा , तकशा आिद अ ा
नामॊ ं से भी व त होता है ।
गौतम का ायसू
यह ायशा का आ है , िजसे ायदशन भी कहते ह। यह जगत् की िविवध यातनाऒं से पीिडत
ाणीवग के क ाणाथ की गई है । ग े शॊपा ाय ने अपने त िच ामिण के आर म कहा है -
“अथ जगदे व दु ः खप िनम मुि धीषुः अ ादशिव ा थाने िहततमामा ीि की ं परमका िणको मुिनः
िणनाय।”

ायदशन म कुल ५ अ ाय है । ेक अ ाय म २ आि क है । थम अ ाय म ११ करण, ६१ सू ,


ि तीय अ ाय म १३ करण, १३३ सू , तृतीय अ ाय म १६ करण, १३५ सू , चतुथ अ ाय म २०
करण, ११८ सू और प म अ ाय म २४ करण, ६८ सू है । इस कार ायदशन के ५२८ सू ॊ ं म
माण आिध १६ पदाथॊ का वणन है ।

ाचीन ाय तथा न ाय

गौतम णीत वैिदक ायशा के सम वा य को दो धाराऒं म िवभ िकया जा सकता है -

अ. पर रागत ाय

आ. न ाय।

इन दोनों म भेद का एक मुख आधार इनकी ानमीमां सा भी है । इसी को दू सरे कार से भी कह सकते
ह-
अ. मेय धान ाचीन ाय-गौतम से ग े शॊप ाय के पू व तक के ायिवद् िव ानॊ ं की कृितयां ।
आ. माण धान न ाय- ग े शॊपा ाय की त िच ामिण तथा उसपर आधा रत परवत
िव ानों की सम कृितयां ।

मेय धान ाचीन ाय- ायदशन म मेय के ितपादन की धानता है , माण के ितपादन की
धानता नही है , ोंिक ५ अ ायों के ायदशन के थोडॆ ही सू ७० म ही माण के ितपादन ह।
जबिक अ सू ॊ ं म आ ा आिद १२ मेय तथा उनके िकसी भेद म अ भूत होने वाले पदाथ का
ितपादन है । ायसू से गंगेशॊपा ाय के पूव तक के ायः सभी या तो ायसू के म से रिचत
है , या िकसी मेयिवशेष का धान प से ितपादन है । अतः वे सभी मेय धान है और मेय धान
होने से ाचीन ाय है ।

माण धान न ाय- गंगेशॊपा ाय की त िच ामिण म माण का बडा ग ीर तथा िव ृत


ितपादन िकया गया है । अतः वह तथा उसकी टीका, टीका, िट णी आिद के प म अथवा उसके
िकसी एक अंश के िव ृ त िववेचन के प म जो णीत ए ह, वे सब माण धान है और
माण धान होने से न ाय है ।

ाचीन ाय-न ाय म भे द
1. इनदोनो थानॊ ं की िभ ता का आधार है , ितपा िवषय का गौण धानभाव तथा भाषा और
शैली की िभ ता। िक ु दोनो थानॊ ं का मूल ोत एक ही है और वह है - ायदशन/ ायसू ।
2. इनम जो भेद है , वह मु तया उनकी भाषा और शै ली पर आधा रत है । उनदोनो के ॊ ं की
भाषा और शैली म इतना पया और अ र है ।
3. ाचीन ाय के ॊ ं म जहां कारता, िवशे ता, संसगता, ितयोिगता, अनु योिगता,
अव े दकता, अव े ता, िन पकता, िन ता आिद श किठनाई से ा होता है यही न ाय
के ों म इनकी भरमार रहती है ।दोनो की शै ली म भी महान् भेद है ।
4. ाचीन ाय की भाषा सरल और िनराड र होने पर भी योिगक शै ली के कारण संि एवं
सां केितक होती है िक उसका ितपा िवषय अनेक शी ता से ु ट नही हो पाता है । ब त से अनु मान
ऐसे यु होते ह शै ली की दु ः शीलता के कारण ही िजसका अनु मान नही हो पाता है । प , हे तु
और सा की िवशद ितपि नही हो पाती है । िक ु न ाय की भाषा किठन होने पर भी शै ली की
शालीनता के कारण अथतः अ होती है ।

ाचीन ाय के आचाय

वा ायन- ाचीन ाय के आचायॊ म वा ायन का मुख थान है । इ ोने अ पाद के ायसू पर


’ ायभा /वा ायनभा नाम के भा की रचना की। िकंतु ायभा के िनमाता के िवषय म भी
अनेक मत िस ह। ायभा कार ने यं को वा ायन कहा है । जै से-
योऽ पादमृिषं ायः भाद् वदतां वरः ।
त वा ायन इदं भा जातमवतयत्॥
वाितककार भार ाज ने भी ायवाितक के अ म इसी नाम से ायभा कार का रण िकया है ।
जैसे-
यद पाद ितभो भा ं वा ायनो जगौ।
अका र महत भार ाजे न वाितकम्।
वाच ित िम ने ायवाितकता यटीका के आर म ायभा कार को पि ल ामी के नाम से िनिद
िकया है । जैसे-
“अथ भगवता अ पादे न िनः ेयसहे तौ शा े णीते ु ािदते च भगवता पि ल ािमना
िकमपरमविश ते यदथ वाितकार ः?
हे मच के अिभधानिच ामिण, म का म वा ायन के ८ नाम बताये गये ह। जै से-
वा ायनो म नागः कौिट णका जः ।
ािमलः पि ल ामी िव ु गु ोऽङ्गु ल सः ।।
इन सब वचनॊ ं से इतना है िक ायभा कार के ’वा ायन’ और पि ल ये दो ब स त नाम ह।
िक ु वा ायन नाम ही मु होना चािहये ोंिक इस नाम का िनदश यं भा कार ने िकया है ।
इनका िनवास थान भी ायसू गौतम के समान िमिथला ही होना चािहये ोंिक जब ायसू का
िनमाण िमिथला म आ, तब यह ाभािवक है िक उसके भा का िनमाण भी िमिथला म ही होना
चािहये। वा ायन के समय को लेकर एक िनि त मत नही है िक ु इतना अव िनि त है िक भा
ायसू के ब त बाद की रचना है , ोंिक भा को दे खकर ऐसा तीत होता है िक उनके समय तक
ायदशन के अनेक सू ॊ ं के अथ के स म िविभ मा ताएं िवकिसत हो चु की थी ं और सू ॊ ं म
िकये गये िस ा ों के िव अनेक मत खडॆ हो गये । जैसे- भा कार को ’ माणतोऽथ ितप ौ
वृि साम ादथव माणम्’ कहकर मा के परतो ा का समथन करते ए सू की संगित बतानी
पडी।

भार ाज उ ोतकर- इ ोने वा ायन के ायभा पर ायवाितक नामक की रचना की है ।


इस म ायसू और ायभा दोनो की ा ा है । का आर िन ां िकत प मे आ है ।
यद पादः वरो मुनीनां शमाय शा ं

ाय- सािह का िव ार से प रचय


ायसू -
1. इसके रचनाकार गौतम ह। गौतम मुिन का नाम अ पाद भी माना जाता है । िक ु इस स
म िव ानॊ ं का मतभे द है िक गौतम मुिन और अ पाद एक ही के नाम ह या पृ थक् पृ थक् नाम है ।
ऐसा तीत होता है िक दशन के मौिलक त ॊ ं को अितसू तमा से पयवे ण करने के कारण मुिन का
गुणवाची नाम अ पाद पड गया होगा।

वा ायन का ायभा -
1. ाय सू ों पर ाचीनतम भा के रचियता वा ायन को पि ल ामी के नाम से भी जाना जाता
है ।
2. वा ायन श पाद से पू ववत ह या परवत -इस स म िव ानों म मतै नही ं है , िक ु
अिधकां श िव ान् उ पूववत ही मानते ह, इसिलए यहाँ उ श पाद से पहले रखा गया है । केवल
बोडास ने श पाद को वा ायन से पूववत माना है । श पाद से उनके पौवापय की भां ित ही उनके
काल के िवषय म भी िविभ िव ानों के िभ -िभ मत ह।
3. ाय भा म स ूण ायसू ों की न केवल शा क अिपतु गहन. भावपूण ा ा की गई है .
एवं सभी सम ाओं पर िव ारपूवक िवचार िकया गया है । अतः यह भा ाय-दशन के अ यन म
तो अ सहायक है ।
4. इसम वैशेिषक पदाथ का भी िनदश आ है , एक दो थलों पर कणाद के सू भी उद्धृत िकए
गए ह तथा वैशेिषक को समानतं दशन घोिषत िकया गया है । इससे िस हो जाता है िक गौतम ारा
' ितत िस ा ' नाम से कहा गया दशन वै शेिषक ही है , वह िन य ही ाय-दशन से पू ववत भी है
तथा आर से ही ये दोनों दशन-स दाय एक दू सरे के पू रक रहे ह।

ाय दशन के अ आचाय एवं उनकी कृितयां-

अ एवं आचाय िन िल खत कार से है -

ायवाितक उ ोतकर

ायवाितकता यटीका वाच ित िम

ायसूचीिनब वाच ित िम
ासू ो ार वाच ित िम

ायम री जय भ

ायसार भासव

ायभूषण

ायलीलावती ीव भाचाय

मानमनोहर वािदवागी र

तािकक र ा वरदराज

पदाथत िन पणम् रघुनाथ िशरोमिण

ाय कु. दीिधित रघुनाथ िशरोमिण

िकरणा. . दीिधित रघुनाथ िशरोमिण

आ त िववेक िदिधत रघुनाथ िशरोमिण

ाय. ली. . िदिधत रघुनाथ िशरोमिण

भाषाप र े द िव नाथ

ायिस ा मु ावली िव नाथ

ायिस ा मु ावली िव नाथ


ायसू वृि

तककौमुदी लौगाि भा र

तकसं ह अ भ

त िच ामिण गंगेशोपा ाय

तकभाषा केशविम
वैशेिषक दशन (RADHAKRISHNAN-INDIAN PHILOSOPHY)

सव थम इस दशन को वै शेिषक नाम िकसने िदया, इस िवषय म कोई माण नही है । कणाद ने
केवल एक बार यह श अपने सू ॊ ं म योग िकया है -
“संयु समवायद ेवशेिषकम्”- वैशेिषकसू , १०.२७,
यहां इसका अथ ’पृथक’ करने वाला या ’िवशे षता’ है । पािणनी के अनुसार यह नाम िवशे ष श से बना
है तथा इसका अथ िवशेष परक है - अिधकृ ’कृते े’। अ ा ायी ४.३.११६
कोश ों के अनु सार ’िवशेष’ पद के अनेक अथ हो सकते ह- भे द, कार, वै िश य एवम् उ ष आिद।
वैशेिषक नाम के स भ म िवपि तों म कई तरह के िच न उपल होते ह।

1. ु ि के आधार पर साध और वै ध मे मा म से सभी दशनॊ ं से व े दक अथात्


िविश होने के कारण ही इ वैशेिषक कहते ह। इस ि से इसकी ु ि होगी-
िविश ते सवतः व ते ये न सः िवशे षः । िवशेषा ाम्=साध वैध ा ाम् भवित
ाहरित वा वैशेिषकम्।
2. वैशेिषकसू के भा कार च का तकालंकार ने िलखा है िक अ दशनों की अपे ा इस
दशन म िविश त ॊ ं का िविनवेश कर उनकी ा ा ु त करने के कारण वै शेिषक पडा है ।

यथा-यिददं वैशेिषकं नाम शा मार म्, तत् खलु त ा रात् िवशे ष ाथ ािभधानात्
(च का भा ) ।
वैशेिषक दशन की इस िविश ता पर िविभ िच कॊ ं के िभ -िभ िच न ह-
क. कुछ की ि म सां और वे दा से िविश होने के कारण इसका नाम 'वै शेिषक' पड़ा;
ोंिक पदाथ का िजतना सू िव े षण इसम उपल उतना अिधक अ कही ं नही ं है ।
वेदा केवल एक ही की स ा म सम पदाथ का सि वेश करता है ।
ख. सां दशन कृित और पु ष—इन दो त ों म सभी त ों का समावेश करता है ; िक ु
वैशेिषक दशन इनसे िभ एक िविश स ा को ीकार करता है । इसका ि कोण िव ु ल ही
सं ेषणा क है । अपनी इस िवशेषता के कारण ही इसे वै शेिषक दशन कहा जाता है :
ि े च पाकजो ौ िवभागे च िवभागजे ।
य न िलता बु ं वै वैशेिषकं िवदु ः ।।
अथात् वा िवक िभ ताओं को ि म रखते ए सू िव े षण म िजसकी बु िलत न हो,
वही वैशेिषक दशन है ।
ग. षड् दशन की वृि म िलखा गया है िक नैयाियकों की अपे ा , गुण आिद िवशे ष त ों
की ा ा होने के कारण इसे वैशेिषक कहते ह—नै याियके ो गुणािदसाम ा िविश िमित
वैशेिषकम् (षड् दशनसमु यवृि )।
महिष गौतम- ितपािदत ायदशन के सोलह पदाथ म धम और धम का िववे चन न होने के कारण
उनका पर र साध और वैध िदखाते ए सु व थत प से -गुण आिद स पदाथ का
िववेचन इसमे िमलता है । इस िवशेष उ े को आगे बढ़ाने के िलए ही इनका नाम वैशेिषक पड़ा
(सवदशनसं ह)।
3. सवमा मत यह है िक अ दशनों की अपे ा िवल ण 'िवशेष' नामक पदाथ की ा ा करने
के कारण इसका नाम वैशेिषक पड़ा-
िवशेषं पदाथमिधकृ कृतं शा म् वैशेिषकम् ( ायकोशः )।

िव ेषणा क ि से िच न करने पर पता चलता है िक े क व ु की स ा अलग अलग होती है ।


वैशेिषकों की ि म इसी िविश स ा के कारण एक पदाथ दू सरे पदाथ से िभ होता है । एक परमाणु
दू सरे परमाणु से िभ होते ह । परमाणुओं म भी सामा को को छाँ टते-छाँ टते अ म जो भाग शेष बच
जाते ह; ये वैशेिषक उसे 'िवशेष' कहते ह-
अ े अिवभा पेण अविश ते इित िवशे षः ।
संसार की हर व ु या पदाथ म अपनी अलग-अलग िवशेषता होती है । ेक म अलग-अलग
है । इ ी ं वै िश के कारण इस दशन का नाम वै शेिषक दशन है । िवशे ष का वैिश उसकी
आ ा है ।
1. वैशेिषक दशन का एक दू सरा नाम 'औलू दशन' भी य -त उपल होता है । सवदशनसं ह म
इसे इसी नाम से अिभिहत िकया गया है । नै षधच रत म ीहष ने भी इसे औलू दशन ही कहा है
ा वामो िवचारणायां वैशेिषकं चा मतं मतं ते । औलूकमा ः खलु दशनं त मं
तम िनवारणाय ।।
-(नैषधच रत-22.35)
पर रा के अनुसार वैशेिषक दशन का ोता कणाद मुिन को माना गया है । कणादके िपता का
नाम उलूक ऋिष था। अतः इस दशन का नाम औलू दशन पडा।
जैन दाशिनक राजशे ने िलखा है िक एकबार भगवान् िशव ने उलूक का प धारण कर मुिन
कणाद को -गुण-कमािद षट् पदाथॊ का उपदे श िदया था। यथा-
मुनये कणादाय यमी रः उलूक पधारी ीभूय -गुण-कम-सामा -िवशे ष-
समवायल णं पदाथ ्कम् उपिददे श- ायलीलावती, भूिमका।
इसीिलये इसे औलू दशन कहा जाता है ।
चीनी पर रा के अनुसार कणाद िदन म ग रचना करते थे और रात म उलूक की तरह जीवन-
यापन के िलये िभ ाटन करते थे, इसीिलये इसे औलू दशन कहा जाता है । अतः िजस कार उ ू
की आखे िजस कार अ ेरे म भी सारे पदाथॊ का यथावत् काश की तरह अवलोकन करती है ,
उसीतरह कणाद मुिन ारा धरती के कण-कण का यथावत् अवलोकन कर उनका दाशिनक िववे चन
करने के कारण इसका नाम औलू दशन पडा।
वैशेिषक सू का सािह

वैशेिषक-सू -

1. महिष कणाद/कणभुज/कणभ के नाम से िस , दश अ ायों तथा बीस आि कों म िवभ


लगभग ३७० सू ही वैशेिषक पर रा की ाचीनतम उपल रचना है ।

2. य िप वैशेिषक सू ों का समय सवथा अिनि त तथा आठ शता यों के म दोलायमान है ।


ोंिक ये सू अपनी रचना से पूव कई शता यों तक िस ा प म चिलत रहे होंगे, सू कार
ने तो केवल उ मब आकार दान िकया होगा। कुछ शायद बाद म भी जोड़े गए होंगे,
िक ु इतना तो िनि त प से कहा जा सकता है िक वै शेिषक-सू ाय सू ों से ाचीन ह।

कणाद- वैशेिषक शा के रचियता का नाम कणाद है । य िप ऐसा तीत होता है िक यह इनका


वा िवक नाम नही है , यह नाम इनके माता-िपता ारा द नही है । इनके वा िवक नाम के
िवषय म कोई जानकारी नही ा होती है । इनके कणाद नामकरण पर भी कुछ कथाय िस
ह, जैसे-

१. कृषक जब अपनी खेत की खडी फसल काटते थे, तब िज अ /कण खॆत म पडॆ रह जाते थे ,
उसकॊ बीनकर यह रषी इक ा कर लेते थे और उसी से अपना जीवन िनवाह करते थे। अतः उनका
नाम कणाद पडा।
कणाद के अित र इनके अ दो नामॊ ं का उ ेख िमलता है - का प और उलूक। पहले नाम का
उ ेख श पादभा के बु गुण के सं ग के अ गत अनु मान के करण म-
“िव ािस स मिल ं का पोऽ वीत” ा होता है । तथा िकरणावली म-
“क पा जः कणादीऽ वीत” म िमलता है ।
दू सरे नाम के आधार पर इस शा को औलू दशन नाम से व त होता है । माधव के सवदशनसं ह
म भी वैशेिषक दशन को औलू दशन कहा गया है । ोमिशव ने श पादभा की टीका ोमवती
म सू कार के िलये उलूक नाम का िनदश है । य िप ऐसा तीत होता है िक यह नाम दे ते ए सू कार
का उपाल के साथ उपहास िकया गया है ।
इसके साथ ही इनका पहला नाम “का प” नाम गो नाम है अथवा िकरणावली के अनु सार कणाद के
िपता का नाम क प रहा होगा। िक ु उलूक नाम का आधार के िवषय म कहना मु ल है । डा. उई
के अनुसार उलूक नाम इसिलये पडा ोंिक सू कार िदन म रचना का काय करते थे और राि म
उलूक के समान जीिवकासाधन जुटाने का य करते थे। िक ु यह तक उिचत नही जान पडता है ,
ोिक राि मानव ारा चोरी, त री इ ािद काय ही िकये जाते ह। इसके नाम के पीछे एक कारण
यह भी हो सकता है िक बा काल म स वतः वह जडबु रह हों, उसी के आधार पर इनका यह नाम
पड गया हो। कथा है िक शं कर भगवान ने घॊर तप ा से स होकर कणाद को इस शा का रह
कट िकया था। उलूक नाम के एक रिष का महाभारत, शा पव ४७.११ मे उ े ख िमलता है । भी
के मृ ु के अवसर पर इनका आगमन आ था। अनु शासन पव ४.५१ म िव ािम के वं शजॊ ं म उलूक
के नाम का उ ेख है । उ ोग पव १८६.२६ के अनु सार व दे श म उलू क ऋिष का आ म था, जहां
कािशराज क ा अ ा ने भी ारा अप त एवम् उपे ि त िकये जाने पर कुछ काल के िलये आ य
ा िकया था। उ ोगपव के अनुसार, शकुिन के पु का नाम भी उलूक था। एकबार दु य धन का दू त
बनकर यु ार होने से पहले पा व िशिवर म वह गया था। इस कार महाभारत के संगॊ ं म उलूक
रिष का वणन तो है , िक ु वैशेिषकरचना स ी कोई सं केत उपल नही है ।

वैशेिषकसू पर ा ा -
अ. आजकल सू ॊ ं के आधार पर वै सेिशक के पठन-पाठन ममु प से शं करिम के उप ार
नामक ा ा का अिधक उपयोग होता है । य िप सू और उप ार म काल म अ राल
ब त ल ा है ।
आ. वैशेिषक पर अ ाचीन श दे व अथवा श पाद की है , जो कार के नाम पर
श पादभा के नाम से िस है । इसका एक अ नाम पदाथधमसं ह भी है । कार ने
वैशेिषक सु से इतर इस का िवषयव ु इस कार से रखा िक वै शेिषक के अ यन का
म ही बदल गया। एवम् सू म से पठनपाठन धीरे धीरे िशिथल होता गया। इसी रीित के
आधार पर अनेक् छोटे -छोटे ि या ॊ ं की रचना होती रही। पदाथधमसं ह पर भी अने क
ा ा िलखॆ गये, जो इस कार है -
१ ोमवती ा ा- ोमिशवाचाय ( अ म शती िव म)
१. िकरणावली- उदयनाचाय- १०४१ िव. सं वत्
२. ाय ली- ीधराआय-१०४८ िव. सं वत्
कितपय संभािवत एवम् उपल -अनुपल ा ा-
३. का नाम अ ात- शािलकनाथ
४. पदाथ वेशिनणय-अिभनवगु
५. कणादरह - शं करिम
६. भा िनकष-म नाथ
७. सेतु-प मनाथ िम
८. सू -जगदीश तकालंकार
९. ायलीलावती- ीव / ीव भ

वैशेिषक दशन के अ आचाय एवं कृितयाँ:-

अ एवं आचाय िन िल खत प से ह:

दशपदाथ

ोमवती ोमिशवा
चाय

ायक ली ीधराचाय

स पदाथ िशवािद

माणमंजरी

िकरणावली

ल णावली उदयनाचा

पदाथर मंजूषा कृ िम

पदाथ िद च ुः उमापित
उपा ाय

जगदीशी जगदीश
भ ाचाय

सू
तकामृत

शंकरिम
वैशेिषक सू
उप ारवृि

शंकरिम
ायलीलावतीक ाभरण

शंकरिम
त िच ामिण 'मूयख'

शंकरिम
आ त िववेक-
'क लता' "

शंकरिम
कणादरह

वेणीद
पदाथम नम्

ाय और वै शेिषक के मतॊ ं म असमानता

1. वैशेिषक म पदाथ सात ह- , गुण, कम, सामा , िवशेष, समवाय, अभाव ह। जबिक
ाय म पदाथ सोलह ह- माण, मेय, सं शय, योजन, ा , िस ा , अवयव, तक, िनणय,
वाद, ज , िवत ा, हे ाभास, छल, जाित, िन ह थान।
2. वैशेिषक िवशेष को पदाथ के प म ीकार करते ह। िक ु ाय िवशे ष को पदाथ नही मानते
ह।
3. वैशेिषक के अनुसार समवाय is अती य ह अतः मा अनु मेय ह.। ाय के अनुसार समवाय
का इ याथसि ष से होता है ।
4. वैशेिषक- पीलुपाक (पीलवः परमाणव एव त ाप े।) को ीकार करते ह। ाय

िपठरपाक को ीकार करते ह।


5. वैशेिषक दशन िवभागजिवभाग मानते ह जबिक ाय दशन िवभागजिवभाग को ीकार
नही करते ह।
6. वैशेिषक दशन आ न् को मानते ह। ाय के अनु सार आ न् मानस का िवषय है ।
7. वैशेिषक दशन दो माण ीकार करता है - , अनु मान। जबिक ाय दशन चार माण
ीकार करता है - , अनुमान, उपमान, श ।

ाय-वैशेिशक दशन के मु ख िस ा -

(तकभाषा, ायिस ा मु ावली तथा तकसं ह के आधार पर यं िलख)

1. माण की प रभाषा तथा उसका प


2. परमाणुवाद
3. पदाथ का प
4. अभाव का प
5. िवशेष का प
6. सामा का प

आिद।

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