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साांख्य साहित्य

• साांख्यसूत्र,
• तत्त्वसमाससूत्र तथा
• साांख्यकारिका साांख्य दर्शन के मूल प्रामणिक ग्रन्थ िैं। साांख्य साहित्य का अधिकाांर्
इनकी टीकाओां, भाष्यों आहद के रूप में ननर्मशत िैं। चकूां क अननरुद्ि के पूवश साांख्य सूत्रों
पि भाष्य आज उपलब्ि निीां िै जबकक कारिका-भाष्य उपलब्ि िै अत: पिले कारिका
के भाष्य अथवा टीकाओां का उल्लेख किके तब सूत्रों की टीकाओां का उल्लेख ककया
जायेगा।
• गौडपाद भाष्य
• जयमांगला
• तत्त्वकौमुदी
• माठि वत्तृ ि
• युक्ततदीत्तपका
• साांख्य चक्न्िका
• साांख्य तरु वसन्त
• साांख्य प्रवचन भाष्य
• साांख्य सप्तनतवत्तृ ि
• साांख्य सत्र
ू वत्तृ ि
• साांख्यवत्तृ ि
• सव
ु िशसप्तनत र्ास्त्त्र

साांख्यप्रवचनभाष्य

• साांख्यप्रवचनसत्र
ू पि आचायश त्तवज्ञानर्भक्षु का भाष्य िै । आचायश त्तवज्ञानर्भक्षु ने
साांख्यमत पन
ु : प्रनतक्ष्ठत ककया। त्तवज्ञानर्भक्षु का समय आचायश उदयवीि र्ास्त्त्री के
अनस
ु ाि सन ् 1350 ई. के पव
ू श का िोना चाहिए। अधिकाांर् त्तवद्वान इन्िें 15वीां-16वीां
र्ताब्दी का मानते िैं। त्तवज्ञानर्भक्षु की कृनतयों में साांख्यप्रवचनभाष्य के अनतरितत
योगवानतशक, योगसाि सांग्रि, त्तवज्ञानामत
ृ भाष्य, साांख्यसाि आहद प्रमख
ु िचनायें िैं। साांख्य
दर्शन की पिां पिा में त्तवज्ञानर्भक्षु ने िी सवशप्रथम साांख्यमत को श्रनु त औि स्त्मनृ तसम्मत
रूप में प्रस्त्तुत ककया। साांख्य दर्शन पि लगे अवैहदकता के आक्षेप का भी इन्िोंने
सफलता पूवक
श ननिाकिि ककया। अपनी िचनाओां के माध्यम से आचायश ने साांख्य
दर्शन का जो अत्यन्त प्राचीन काल में सुप्रनतक्ष्ठत वैहदक दर्शन माना जाता था, का
त्तविोि परििाि किते िुए परिमाजशन ककया।
• साांख्यकारिका-व्याख्या के आिाि पि प्रचर्लत साांख्यदर्शन में कई स्त्पष्टीकिि व
सांर्ोिन त्तवज्ञानर्भक्षु ने ककया। प्राय: साांख्यदर्शन में तीन अांत:कििों की चचाश र्मलती

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िै । साांख्यकारिका में भी अन्त:किि त्रत्रत्तवि[1] किकि इस मत को स्त्वीकाि ककया।
लेककन त्तवज्ञानर्भक्षु अन्त:किि को एक िी मानते िैं। उनके अनुसाि
'यद्यप्येकमेवान्त:कििां वत्तृ िभेदेन त्रत्रत्तविां लाघवात ्' सा.प्र.भा. 1/64)। आचायश
त्तवज्ञानर्भक्षु से पूवश कारिकाव्याख्याओां के आिाि पि प्रचर्लत दर्शन में दो िी र्िीि
सक्ष्
ू म तथा स्त्थल
ू मानने की पिम्पिा ििी िै । लेककन आचायश त्तवज्ञानर्भक्षु तीन र्िीिों
की मान्यता को यक्ु ततसांगत मानते िैं। सक्ष्
ू म र्िीि त्रबना ककसी अधिष्ठान के निीां
ििा सकता, यहद सक्ष्
ू म र्िीि का आिाि स्त्थल
ू र्िीि िी िो तो स्त्थल
ू र्िीि से
उत्राक्न्त के पश्चात ् लोकान्ति गमन सक्ष्
ू म र्िीि ककस प्रकाि कि सकता िै ?
त्तवज्ञानर्भक्षु के अनस
ु ाि सक्ष्
ू म र्िीि त्रबना अधिष्ठान र्िीि के निीां िि सकता अत:
स्त्थल
ू र्िीि को छोड़कि र्िीि िी िै [2]। । 'अङगष्ु ठमात्र:परु
ु षोऽन्तिात्मा सदा जना हृदये
सक्न्नत्तवष्ट:[3]', अङ्गष्ु ठमात्रां परु
ु षां स[4]- आहद श्रनु त-स्त्मनृ त के प्रमाि से अधिष्ठान र्िीि
की र्सद्धि किते िैं।
• अन्य साांख्याचायों से र्लांग र्िीि के त्तवषय में त्तवज्ञानर्भक्षु र्भन्न मत िखते िैं।
वाचस्त्पनत र्मश्र, माठि, र्ांकिाचायश आहद की तिि अननरुद्ि तथा मिादे व वेदान्ती ने
भी र्लांग र्िीि को अट्ठािि तत्त्वों का स्त्वीकाि ककया। इनके त्तवपिीत त्तवज्ञानर्भक्षु ने
सूत्र 'सप्तदर्ैकम ् र्लांगम[5]् ' की व्याख्या किते िुए 'सत्रि' तत्त्वों वाला 'एक' ऐसा स्त्वीकाि
किते िैं। त्तवज्ञानर्भक्षु अननरुद्ि की इस मान्यता की कक साांख्यदर्शन
अननयतपदाथशवादी िै - कटु र्ब्दों में आलोचना किते िैं[6] अननरुद्ि ने कई स्त्थलों पि
साांख्य दर्शन को अननयत पदाथशवादी किा िै । 'ककां चाननयतपदाथशवादास्त्माकम[7]् ',
'अननयतपदाथशवाहदत्वात्साांख्यानाम[8]् ' इसकी आलोचना में त्तवज्ञानर्भक्षु इसे मूढ़ प्रलाप
घोत्तषत किते िैं। उनका कथन िै कक -'एतेन साांख्यानामननयतपदाथाशभ्युपगम इनत
मूढ़प्रलाप उपेक्षिीय:[9]' । त्तवज्ञानर्भक्षुकृत यि हटप्पिी उधचत िी िै । साांख्यदर्शन में वगश
की दृक्ष्ट से जड़ चेतन, अजतत्त्वों की दृक्ष्ट से भोतता, भोग्य औि प्रेिक तथा समग्ररूप
से तत्त्वों की सांख्या 24, 25 वा 26 आहद माने गए िैं। अत: साांख्य को
अननयतपदाथशवादी किना ग़लत िै । िाां, एक अथश में यि अननयत पदाथशवादी किा जा
सकता िै यहद पदाथश का अथश इक्न्िय जगत ् में गोचन नानात्तवधि वस्त्तु ग्रिि ककया
जाय। सत्त्व िजस ् तमस ् की पिस्त्पि अर्भनव, जनन, र्मथन
ु , प्रनतकरयाओां से असांख्य
पदाथश उत्पन्न िोते िैं क्जनके बािे में ननयतरूप से कुछ निीां किा जा सकता।
• अननरुद्ि प्रत्यक्ष के दो भेद-ननत्तवशकल्प तथा सत्तवकल्प, की चचाश किते िुए सत्तवकल्प
प्रत्यक्ष को स्त्मनृ तजन्य अत: मनोजन्य, मानते िैं। त्तवज्ञानर्भक्षु इसका खण्डन किते िैं।
त्तवज्ञानर्भक्षु अननरुद्िवत्तृ ि को लक्ष्य कि किते िैं- 'कक्श्चिु सत्तवकल्पकां तु
मनोमात्रजन्यर्मनत' लेककन 'ननत्तवशकल्पकां सत्तवकल्पकरूपां द्त्तवत्तविमप्यैक्न्िकम ्' िैं।
आचायश उदयवीि र्ास्त्त्री ने भोग त्तवषयक अननरुद्ि मत का भी त्तवज्ञान र्भक्षु की
मान्यता से भेद का उल्लेख ककया िै [10]। तदनस
ु ाि अननरुद्ि ज्ञान भोग आहद का
सांपाइन बद्ु धि में मानते िैं। त्तवज्ञानर्भक्षु उतत मत उपेक्षिीय किते िुए किते िैं। 'एवां
हि बद्ु धििे व ज्ञातत्ृ वे धचदवसानो भोग: इत्यागामी सत्रू द्वयत्तविोि: परु
ु षों प्रभािाभावश्च।
पुरुषर्लांगस्त्य भोगस्त्य बुद्िावेव स्त्वीकािात[11]
् '। यहद ज्ञातत्ृ व भोततत्ृ वाहद को बद्
ृ धि में

2
िी मान र्लया गया तब धचदवसानो भोग:[12] व्यथश िो जायेगा। साथ िी भोततभ
ृ ावात ्
किकि पुरुष की अक्स्त्तत्वर्सद्धि में हदया गया प्रमाि भी पुरुष की अपेक्षा बुद्धि की
िी र्सद्धि किे गा। तब परु
ु ष को प्रमाणित ककस तिि ककया जा सकेगा।
• साांख्य दर्शन को स्त्वतांत्र प्रिान काििवादी घोत्तषत कि साांख्यत्तविोिी प्रकृनत पुरुष
सांयोग की असांभावना का आक्षेप लगाते िैं। त्तवज्ञानर्भक्षु प्रथम साांख्याचायश िै , क्जन्िोंने
सांयोग के र्लए ईश्विे च्छा को माना। त्तवज्ञानर्भक्षु ईश्विवादी दार्शननक थे। लेककन
साांख्य दर्शन में ईश्वि प्रनतषेि को वे इस दर्शन की दब
ु ल
श ता मानते िैं[13]। त्तवज्ञानर्भक्षु
के अनस
ु ाि साांख्य दर्शन में ईश्वि का खण्डन प्रमािापेक्षया िी िै । ईश्वि की र्सद्धि
प्रमािों (प्रत्यक्षानम
ु ान) से निीां की जा सकती इसर्लए सत्र
ू काि ईश्विार्सद्िे:[14] किते
िैं। यहद ईश्वि की सिा की अस्त्वीकृत वाांनछत िोती तो 'ईश्विाभावात ्'- ऐसा सत्र
ू काि
कि दे ते। इस प्रकाि त्तवज्ञानर्भक्षु साांख्य दर्शन में ईश्वि की सिा को स्त्वीकाि किके
योग, वेदान्त तथा श्रनु त-स्त्मनृ त की िािा में साांख्य दर्शन को ला दे ते िैं, जैसा
कक मिाभाित पुिािाहद में वि उपलब्ि था। इस तिि त्तवज्ञानर्भक्षु साांख्य दर्शन को
उसकी प्राचीन पिम्पिा के अनुसाि िी व्याख्यानयत किते िैं। ऐसा किके वे साांख्य,
योग तथा वेदान्त के प्रतीयमान त्तविोिों का परििाि कि समन्वय किते िैं। प्रनतपाद्य
त्तवषय में प्रमुखता का भेद िोते िुए भी र्सद्िान्तत: ये तीनों िी दर्शन श्रनु त-स्त्मनृ त के
अनुरूप त्तवकर्सत दर्शन िैं। अद्वैताचायश र्ांकि ने त्तवर्भन्न आक्स्त्तक दर्शनों का खण्डन
किते िुए क्जस तिि अद्वैतावाद को िी श्रनु तमूलक दर्शन बताया उससे यि मान्यता
प्रचर्लत िो चली थी कक इनका वेदान्त से त्तविोि िै । त्तवज्ञानर्भक्षु िी ऐसे प्रथम
साांख्याचायश िैं क्जन्िोंने ककसी दर्शन को 'मल्ल' घोत्तषत न कि एक िी ििातल पि
समक्न्वत रूप में प्रस्त्तुत ककया।

1. साांख्यसत्र
ू वत्तृ िसाि-अननरुद्िवत्तृ ि का सािाांर् िी िै क्जसके िचनयता मिादे व वेदान्ती िैं।
2. भाष्यसाि त्तवज्ञानर्भक्षुकृत साांख्यप्रवचनभाष्य का साि िै क्जसके िचनयता नागेर् भट्ट
िैं।
3. सवोपकारििी टीका यि अज्ञात व्यक्तत की तत्त्वसमास सूत्र पि टीका िै ।
4. साांख्यसूत्रत्तवविि तत्त्व समास सूत्र पि अज्ञात व्यक्तत की टीका िै ।
5. रमदीत्तपका भी तत्त्वसमास सूत्र की टीका िै कताश का नाम ज्ञात निीां िै ।
6. तत्त्वायाथार्थयशदीपन- तत्वसमास को यि टीका त्तवज्ञानर्भक्षु के र्र्ष्य भावागिेर् की
िचना िै यि र्भक्षु त्तवचािानुरूप टीका िै ।
7. साांख्यतत्त्व त्तववेचना- यि भी तत्वसमास सूत्र की टीका िै क्जसके िचनयता त्तषमानन्द
या क्षेमेन्ि िैं।
8. साांख्यतत्त्वालोक- साांख्ययोग र्सद्िान्तों पि िरिििानन्द आिण्य की कृनत िै ।
9. पुिािेनतिासयो: साांख्ययोग दर्शनत्तवमर्श: - नामक पुस्त्तक पुिािों में उपलब्ि
साांख्यदर्शन की तुलनात्मक प्रस्त्तुनत िै । इसके लेखक डा. श्रीकृष्िमणि त्रत्रपाठी िैं। औि
इसका प्रकार्न, सम्पूिाशनन्द सांस्त्कृत त्तवश्वत्तवद्यालय से सन ् 1979 ई. में िुआ।

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10. साांख्ययोगकोर्:- लेखक आचायश केदािनाथ त्रत्रपाठी वािािसी से सन ् 1974 ई. में
प्रकार्र्त।
11. श्रीिामर्ांकि भट्टाचायश ने साांख्यसाि की टीका तथा तत्त्वयाथार्थयशदीपन सहटप्पि की
िचना की। दोनों िी पुस्त्तकें प्रकार्र्त िैं[15]।

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