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प्रकाशक— �वक्रेता—

ल�ण "प�थक" ल�ण “प�थक"


प�थक ऐ� क�नी वजीरगं ज (बदायूँ )
नई सड़क, देहली.

प्रथम सं �रण- 1936


राजनी�तक, धा�मक, ऐ�तहा�सक तथा सामा�जक
पु�क� �मलने का पता

लेखक- मह�ष क�पल अनुवादक- दशार्न�


�मलने का पता— मुद्रक—
सर�ती पु�क भ�ार पं ० म�ालाल �तवारी
आयर्नगर, लखनऊ शु�ा �प्र�ं टगं प्रेस,
लाटू श रोड, लखनऊ
सां� दशर्न
भाषाटीका
प्रथमोऽ�ायः
प्र०- मनु�-जीवन का मु� उद्दे� �ा है ?

उ०- अथ �त्र�वधदःु खा�� �नवृ��र��


पु�षाथर्ः॥१॥
अथर्- तीन प्रकार के दःु खो ं का अ��ामात्र हो जाना
प्राणीमात्र का मु� उद्दे� है।
प्र०- तीन प्रकार के कौन से दःु ख ह� ?
उ०- अ�ा��क, आ�धभौ�तक, आ�धदै�वक।

सांख्य दर्शन 1
उ०- अ�ा��क, आ�धभौ�तक, आ�धदै�वक।
प्र०- अ�ा��क दःु ख िकसको कहते ह� ?
उ०- जो दःु ख शरीरा�र म� उ�� हो, जैसे-ई�ार्, द्वेष,
लोभ, मोह, �ेश रोगािद।
प्र०- आ�धभौ�तक दःु ख िकस को कहते ह� ?
उ०- जो अ� प्रा�णयो ं के सं सगर् से उ�� हो, जैसे-सपर् के
काटने या �सहं से मारे जाने या मनु�ो ं के पर�र युद्ध से जो
दःु ख उप��त हो, उसे आ�धभौ�तक कहते ह�।
प्र०- आ�धदै�वक दःु ख िकसको कहते ह� ?
उ०- नो दःु ख दैवी श��यो ं अथार्त् अ��, वायु या जल के
�ूना�ध� से उप��त हो,ं उनको आ�धदै�वक कहते ह�।
प्र०- समय के �वचार से दःु ख िकतने प्रकार के होते ह� ?
उ०- तीन प्रकार के अथार्त् भूत, वतर्मान, अनागत।
प्र०- �ा इन तीनो ं के �लये पु�षाथर् करना चािहये ?

सांख्य दर्शन 2
उ०- के वल अनागत के �लये पु�षाथर् करना यो� है,
�ोिं क भूत तो �तीत हो जाने के कारण नाश हो ही गया,
और वतर्मान दूसरे �ण म� भूत हो जाता है, अतएव यह
दोनो ं �यं नाश हो जाते ह�, के वल अनागत का नाश करना
आव�क�य है।
प्र०- जो दःु ख अभी उ�� नही ं �आ या जो �ुधा अभी नही ं
लगी उसका नाश िकस प्रकार हो सकता है ?
उ०- "कारणाभावात् कायार्भावः"। (वैशे�षक)—
अथर्- कारण के नाश होने से कायर् का नाश हो जाता है,
अतएव दःु ख के कारण का नाश करना चािहये ; �ोिं क
कारण के नाश से अनागत दःु ख का नाश हो जाता है।
जैसािक मह�ष पत��ल ने �लखा है "हेयं दःु खमनागतम्"।
अथर्- आगामी दःु ख 'हेयं अथार्त् �ागने यो� है, उसी के
दूर करने का प्रय� करो।

सांख्य दर्शन 3
प्र०- इस सां� शा� म� िकस व�ु का वणर्न िकया गया
है ?
उ०- 'हेय' अथार्त् दःु ख 'हीन' अथार्त् दःु ख �नवृ��। 'हेयं हेतु'
अथार्त् दःु ख के उ�� होने का कारण 'हानोपाय' अथार्त्
दःु ख के नाश करने का उपाय।
प्र०- �ा दःु ख अ� और औषध इ�ािद से दूर नही ं होता?
उ०- दःु ख क� अ�� �नवृ�� िकसी प्राकृ �तक व�ु से नही ं
हो सकती, जैसा िक �लखा है—

न ��ात् ��ा��स�द्ध�नवृ�ेऽ�नुवृ�� दशर्नात्


॥२॥
अथर्- �� पदाथ� अथार्त् औष�ािद द्वारा दःु ख का
अ��ाभाव हो जाना स�व नही,ं �ोिं क �जस पदाथर् के
सं योग से दःु ख दूर होता है, उसके �वयोग से वही दःु ख िफर
उप��त हो जाता है, जैसे-अ�� के �नकट बैठने या कपड़े

सांख्य दर्शन 4
के सं सगर् से शीत दूर होता है और अ�� या कपड़े के अलग
होने से िफर वही शीत उप��त हो जाता है, अतएव ��
पदाथर् अनागत् दःु ख क� औषध नही।ं
प्र०- �ा �� पदाथर् दःु ख क� अ�� �नवृ�� का कारण
नही ं ?
उ०- नही।ं

प्र०- प्रा�िहकतु�तीकारवत् त�तीकारचे-


�नात् पु�षाथर्�म् ॥३॥
अथर्- �न�प्र�त �ुधा लगती है उसक� �नवृ�� भोजन से हो
जाती है। इसी प्रकार और दःु ख भी प्राकृ �तक व�ुओ ं से
दूर हो सकते ह� अथार्त् जैसे औषध से रोग क� �नवृ�� हो
जाती है, अतएव वतर्मान काल के दःु ख �� पदाथ� से दूर
हो जाते इसी को पु�षाथर् मानना चािहये।

सांख्य दर्शन 5
उ०- सवार्स�वात् स�वे�प स�ास�-
वाद्धयः प्रमाण कु शलैः॥४॥
अथर्- प्रथम तो प्र�ेक दःु ख �� पदाथ� से दूर ही नही ं होता,
�ोिं क सवर् व�ु प्र�ेक देश और काल म� प्रा� नही ं हो
सकती। यिद मान भी ल� िक प्र�ेक आव�क�य व�ुएँ
सुलभ भी हो ं तथा�प उन पदाथ� से दःु ख का अभाव नही ं हो
सकता, के वल दःु ख का �तरोभाव कु छ काल के �लये हो
जायेगा; अतएव बु�द्धमान को चािहये िक �� पदाथ� से दःु ख
दूर करने का प्रय� न करे, दःु ख के मूलो�े द करने का प्रय�
करे, जैसा िक �लखा है—

उ�षार्द�पमो�� सव��षर्श्रतु ेः ॥५॥


अथर्- मो� सब सुखो ं से परे है और प्र�ेक बु�द्धमान सबसे
परे पदाथर् क� ही इ�ा करता है। इस हेतु से �� पदाथ� को
छोड़कर मो� के �लये प्रय� कर�, यही प्रा�णयो ं का मु�
उद्दे� है।

सांख्य दर्शन 6
अ�वशेष�ोभयोः॥६॥
अथर्- यिद मो� को अ� सुखो ं के समान माना जाये तो
दोनो ं बात� समान हो जाय�गी, पर�ु ��णक सुख को
महाक� पयर्� सुख के समान समझना बड़ी मूखर्ता है।
प्र०- तुम जो मो� को सबसे उ�म जानते हो और मो�
छू टने को कहते ह�, छू टता वही है, जो ब�न म� हो। �ा
यह जीव ब�न म� है ? यिद कहो िक ब�न म� है तो वह
ब�न उसका �ाभा�वक गुण है या नै�म��क ?

उ०- न �भावतोबद्ध� मो� साधनोपदेश


�व�धः॥७॥
अथर्- दःु ख जीव का �ाभा�वक गुण नही,ं �ोिं क जो गुण
�भाव से होता है, वह गुणी से अलग नही ं होता, अतएव
दःु ख के नाश के कथन से ही प्रतीत होता है, िक दःु ख जीव
का �ाभा�वक गुण नही,ं �ोिं क वह गुणी से हो ही नही ं
सकता।

सांख्य दर्शन 7
�भाव�ानपा�य�ादननु�ानल�णम
प्रामा�म् ॥८॥
अथर्- �ाभा�वक गुण के अ�वनाशी होने से �जन म�ो ं म�
दःु ख दूर करने का उपदेश िकया गया है, वह सब प्रमाण
नही ं रह�गे, अतएव दःु ख जीव का �ाभा�वक गुण नही ं है।

नाश�ोपदेश�व�ध�प�द�ेऽ�नुपदेशः॥९॥
अथर्- �न�ल कमर् के �न�म� वेद म� कभी उपदेश नही ं हो
सकता, �ोिं क अस�व के �लये उपदेश करना भी न करने
के समान है, अतएव दःु ख जीव का �ाभा�वक गुण नही,ं
िक�ु नै�म��क है।

प्र०- शु�पटविद्वजब�ेत् ॥१०॥


अथर्- �ाभा�वक गुण का भी नाश हो जाता है, जैसे-�ेत
वन का �ेत रंग �ाभा�वक गुण है, पर�ु वह मैला सुखर् हो
जाने से न� हो जाता है। इसी प्रकार बीज म� अंकुर लाने का

सांख्य दर्शन 8
�ाभा�वक गुण है, पर�ु वह बीज के जला देने से न� हो
जाता है, अतएव यह �वचार करना ठीक नही।ं

उ०- श�ुद्भवानुद्भवा�ां नाश�ोपदेशः


॥११॥
अथर्- उपयु� उदाहरण �ाभा�वक गुण के अ��ाभाव
का सवर्था अयु� व अप्रामा�णक है; �ोिं क यह तो श��
के गु� व प्रकट होने का उदाहरण है; �ोिं क यिद रजक
के धोने से पुन: यह व� �ेत न हो जाता तब यह ठीक
होता। इसी प्रकार जला �आ बीज अनेक औष�धयो ं के मेल
से ठीक हो जाता है, अतएव यह कथन ठीक नही ं िक
�ाभा�वक गुण का भी नाश हो सकता है।
प्र०- यिद मान �लया जाये िक दःु ख जीव का �ाभा�वक
गुण नही ं तो िकन कारणो ं से दःु ख उ�� होता है ? मेरी
स��त म� तो सृ��काल म� दःु ख उ�� होता है और सृ� के
नाश से दःु ख न� हो जाता है। इस हेतु से दःु ख का कारण

सांख्य दर्शन 9
काल है ?

उ०- न कालयोगतो �ा�पनो �न��


सवर्स��ात् ॥१२॥
अथर्- दःु ख काल के कारण से नही ं हो सकता, �ोिं क
कालसवर्�ापक और �न� है और उसका सब से स��
है, अतएव काल के हेतु से तो ब�न और मु� हो नही ं
सकता; �ोिं क यिद काल ही दःु ख का हेतु माना जाये तो
सब ही दःु खी होने चािहये।
प्र०- तो �ा देश-योग से दःु ख उ�� होता है ? �ोिं क
ब�त से लोग यह कहते ह� िक घटक पार जाने से पाप होता
है और उससे दःु ख उ�� होता है ?

उ०- न देशयोगतोऽ��ात् ॥१३॥


अथर्- चुिक काल के अनुसार देश भी सवर्�ापक और सबसे
स�� रखने वाला तथा �न� है, इस�लये देशयोग से ब�न
नही ं हो सकता।

सांख्य दर्शन 10
प्र०- तो िफर �ा अब�ा अथार्त् दशाओ ं के हेतु से दःु ख
उ�� होता है ? �ोिं क तीन अब�ा अथार्त् जामत, ��
और सुषु�� या बा�ाव�ा या युवाव�ा या वृद्धाव�ा इन
छः दशाओ ं म� िकसके हेतु से दःु ख और ब�न होता है ?

उ०- नाव�ातो देहधमर्�ात् त�ाः॥१४॥


अथर्- इन दशाओ ं से भी दःु ख उ�� नही ं हो सकता, �ोिं क
बाल, युवा और वृद्धाव�ा शरीर के धमर् है। यिद अ� के
धमर् से अ� का ब�न माना जाये तो सवर्था अ�ाय है;
�ोिं क िकसी दूसरे ब�नयु� मनु� के धमर् से कोई मु�
ब�न म� पड़ जायेगा और मु� के धमर् से कोई ब� मु�
हो जायेगा।
प्र०- �ा इन अब�ाओ ं से जीव का कोई स�� नही,ं ये
के वल शरीर क� ह� ?

उ०- असं गोऽयं पु�ष इ�त ॥१५॥


अथर्- यह जीव सवर्था असङ्ग है, इसका बा�, वृद्ध और

सांख्य दर्शन 11
युवाव�ा से िक��त् स�� नही।ं
प्र०- तो �ा दःु ख अथार्त् ब�न के उ�� होने का हेतु, कमर्
है ?

उ०- न कमर्णा�धमर्�ाद�तमस�े � ॥१६॥


अथर्- वेद�विहत या �न�षद्ध कम� से जीव का ब�न �पी
दःु ख उ�� नही ं होता, �ोिं क कमर् करना भी शरीर या �च�
का धमर् है। िद्वतीय कमर् शरीर से होगा और शरीर कमर् के
फल से होता है, तो अनव�ा दोष उप��त हो जायेगा।
तीसरे यिद शरीर का कमर् आ�ा के ब�न का हेतु माना
जाये तो ब�न म� �ये जीव के कमर् से मु�-जीव का ब�न
होना स�व हो सकता अतएव कमर् द्वारा ब�न उ�� नही ं
होता।
प्र०- तो हम दःु ख�प ब�न भी �च� को ही मान ल�गे, उस
दशा म� �च� के कमर् द्वारा �च� को ब�न होने से कोई दोष
नही ं रहेगा ?

सांख्य दर्शन 12
उ०- �व�चत्र भोगानुपप��र�धमर्�े ॥१७॥
अथर्- यिद दःु ख योग-�प ब�न के वल �च� का धमर् माना
जाये तो नाना प्रकार के भोग म� सं सार' प्रवृ� है, नही ं रहना
चािहये, �ोिं क जीव को दःु ख होने के �बना ही यिद दःु ख
का अनुभवकतार् माना जाये तो सारे मनु� दःु खी हो जाय�गे;
�ोिं क �जस प्रकार दःु ख का स�� न होने से जैसे दःु खी
प्रतीत होता है ऐसे ही दःु ख के न होने पर सब दःु खी लोग हो
सकते ह�, अतएव कोई दःु खी या कोई सुखी इस प्रकार अ�
प्रकार का भोग नही ं हो सके गा।
प्र०- �ा प्रकृ �त के सं योग से दःु ख होता है ?

उ०- प्रकृ �त�नब�ना�े�त�ा अ�प पार-


त�यम् ॥१८॥
अथर्- यिद ब�न का कारण प्रकृ �त मानो तो प्रकृ �त �यं ही
�त� नही,ं तो परत� प्रकृ �त िकसी को िकस प्रकार बाँध
सकती है; �ोिं क जबतक प्रकृ �त का सं योग न हो तबतक

सांख्य दर्शन 13
वह िकसी को बाँध ही नही ं सकती और सं योग दूसरे के
अ�धकार म� है।
प्र०- �ा ब्रह्म ही उपा�ध से जीव-�प होकर अपने आप
बँ ध गया है ?

उ०- न �न�शुद्ध मु��भाव� तद्योग�द्यो-


गाहते ॥१९॥
अथर्- जो ई�र �न�, शुद्ध, बुद्ध, मु��भाव है, उसका तो
प्रकृ �त के साथ सदैव स�� है, इस�लये वह जीव-�प
होकर दःु ख नही ं पा सकता, �ोिं क उसके गुण एक रस ह�,
इस कारण ब्रह्म को उपा�धकृ त ब�न नही,ं वरन् जीव
अ��, �न� पदाथर् है उसी का प्रकृ �त के साथ योग होता
है और वह �म�ा�ान के कारण बद्ध हो जाता है, जैसा िक
आगे कथन होगा।
प्र०- तो �ा अ�वधा से ब्रह्म ही जीव हो गया है और इस
दःु ख क� उ��� के वल अ�वद्या से है ?

सांख्य दर्शन 14
उ०- ना�वद्यातोऽ� व�ुनोब�ायोगात् ॥२०॥
अथर्- अ�वद्या से जो कोई पदाथर् ही नही,ं ब�न का होना
स�व नही,ं �ोिं क आकाश के फू ल क� सुग�� िकसी को
भी नही ं आती। यिद मायावादी जो अ�वद्या, उपा�ध से जीव
को ब�न मानते ह� अ�वद्या को व�ु अथार्त् द्र� मानते ह�
तो उनका �सद्धा� उड़ जायेगा जैसािक �लखा है—

उ०- व�ु�े �सद्धा�हा�नः ॥२१॥


अथर्- यिद अ�वद्या को व�ु मान �लया जाये तो उनको एक
अद्वैत ब्रह्म के �सद्धा� का ख�न हो जायेगा, �ोिं क एक
व�ु जो ब्रह्म है दूसरी अ�वद्या हो गई, इस�लये अद्वैत न
रहा।
प्र०- इसम� �ा दोष है ?

उ०- �वजातीयाद्वैताप��� ॥२२॥


अथर्- अद्वैतवादी ब्रह्म को सजातीय अथार्त् बराबर जा�त

सांख्य दर्शन 15
वाले, �वजातीय �व�द्ध जा�तवाले, �गत अपने भाग
इ�ािद के भेद से रिहत मानते ह� और यहाँ अ�वद्या के व�ु
मानने से �वजा�त अथार्त् दूसरी जा�त का पदाथर् उप��त
होने से अद्वैत �सद्धा� का ख�न हो गया।
प्र०- हम अ�वद्या को व�ु और अब�ु दोनो ं से पृथक्
अ�नवर्चनीय पदाथर् मानते ह�, जैसे—

�वरद्धोभय �पा चेत् ॥२३॥


अथर्- यिद दोनो ं से पृथक् मानो तो यह दोष आ जायेगा।

उ०- न ताहकपदाथार्प्रतीतेः ॥२४॥


अथर्- इस प्रकार अ�वद्या व�ु अब�ु से पृथक् नही ं हो
सकती; �ोिं क ऐसा कोई पदाथर् नही ं जो सत् असत् से
पृथक् हो और यहाँ यह भी प्र� उ�� होता है िक तु�ारी
अ�वद्या के अ�नवर्चनीय होने म� कोई प्रमाण है या नही।ं
यिद कहो प्रमाण है तो वह प्रमेय हो गई, िफर अ�नवर्चनीय
िकस प्रकार हो सकती है। यिद कहो प्रमाण नही,ं तो उसके

सांख्य दर्शन 16
होने का �ा प्रमाण है ?

प्र०- न वयं षट्पदाथर्वा�दनोवैशे�षका�दवत


॥२५॥
अथर्- हम पट् पदाथ� को वैशे�षक के स�श नही ं मानते और
�ाय के समान सोलह भी नही ं मानते ह�। इस कारण हमारे
मत म� सत् असत् से अ�वद्या �वल�ण होना ठीक है और
वही ब� का हेतु है।

उ०- अ�नयत�ेऽ�प नायौ��क� सं ग्रहो


�थाबालो��ा�दसम�म् ॥२६॥
अथर्- आप पदाथ� क� सं �ा का �नयम मान� चाहे न माने,
पर�ु सत् असत् से पृथक् कोई पदाथर् �बना यु�� के
माननीय नही ं हो सकते । नही ं तो इस प्रकार बालक और
उनम� का कहना भी ठीक हो सकता है। �जस प्रकार
बालक और उ�� का कहना यु��शू� होने से प्रामा�णक
नही,ं इसी प्रकार तु�ारा कहना भी असं गत है।

सांख्य दर्शन 17
प्र०- तो �ा जीव अनािद वासना से ब�न म� पड़ा है।

उ०- नाना�द�वषयोपराग�न�म�कोऽ��
॥२७॥
अथर्- इस आ�ा को अनािद प्रवाह �प वासना से ब�न
होना भी अस�व मालूम होता है, �ोिं क �न��ल�खत
प्रमाण से अशुद्ध प्रतीत होता है।

न चाथा��रयो�र�ोपरंजक भावोऽ�प
देश�वधानात् �भ्र
ु �ापाट�लपुत्र�यो�रव
॥२८॥
अथर्- जो मनु� जीवा�ा को शरीर म� एक देशी मानते ह�,
इस कारण जीवा�ा का कु छ भी स�� बाह्य �वषयो ं से
नही ं रहेगा, �ोिं क आ�ा और जड़ के बीच अ�त देश का
अ�र है, जैसे-पटने का रहनेवाला �बना आगरे प�ँ चे वहाँ
के रहनेवाले को नही ं बाँध सकता, इसी प्रकार बाह्य इं िद्रयो ं
से उ�� �ई वासना आ��र� आ�ा के ब�न का हेतु

सांख्य दर्शन 18
िकस प्रकार हो सकती है ? और लोक म� भी ऐसा ही देखा
जाता है िक जब रन और वन का स�� �बना अ�र के
होता है तब तो व� पर रख चढ़ जाता है। यिद उनके बीच
कु छ अ�र हो तो रङ्ग कदा�प नही ं चढ़ सकता, अतएव
वासना से ब�न नही ं हो सकता, पर�ु जब लोग आ�ा
और वाद्य इ��यो ं म� अ�र मानते ह� तो इ��यकृ त वासना
से आ�ा िकसी प्रकार ब�न म� नही ं पा सकता । यिद यह
कहा जाये िक बाह्य इ��यो ं का आ��र इ��य मन आिद
से स�� है और आ��र इ��यो ं का आ�ा से । इस
पर�रा स�� से आ�ा भी �वषय वासना से बद्ध हो
सकता है, यह कहना अयु� है। �ोिं क—

द्वयोरेकदेशल�ोपरागा��व�ा ॥२९॥
जब आ�ा और इ��य दोनो ं को �वषय-वासना म� बं धा
मानोगे तो मु� और ब�न म� रहने वाले का पता भी नही ं
लगेगा। इसका आशय यह है िक जब आ�ा और इ��य
दोनो ं ही �वषय-वासना से समान स�� रखते ह� तो इ��यो ं

सांख्य दर्शन 19
का ब�न न कहकर के वल आ�ा ही का ब�न बतलाना
अयु� होगा। इस कारण वासना से भी ब�न नही ं होता।

अ�वशा�ेत् ॥३०॥
प्र०- तो �ा िफर अ� अथार्त् पूवर् िकये धमर् अधमर् से जो
एक भोग-श�� पैदा होती है उससे ब�न होता है ?

उ०-द्वयोरेककालायोगादपु काय�पकारक भावः


॥३१॥
अथर्- जब तु�ारा ब�न और अ�� एक काल म� उ��
होते ह� तो उनम� कतार् और कमर् नही ं हो सकता। जबिक
तु�ारी ��� म� सं सार प्र�ेक �ण म� बदलता है तो एक ��र
आ�ा के न होने से दूसरे आ�ा के अ�� से दूसरे आ�ा
का ब�न �प दोष होगा।

प्र०- पुत्रक�व�द�त चेत् ॥३२॥


अथर्- �जस प्रकार उसी काल म� तो गभार्धान िकया जाता है

सांख्य दर्शन 20
और उसी समय उसका सं �ार िकया जाता है, अतएव एक
काल म� उ�� होनेवाले पदाथ� म� पूवर् क�थत स�� हो
सकता है?

उ०- ना�� िह तत्र ��र एका�ा-यो गभार्-


धाना�दना सं ��यते ॥३३॥
अथर्- तु�ारे मत म� तो एक ��र जीवा�ा हा नही ं �जस का
गभार्धानािद से सं �ार िकया जाये, अतएव तु�ारा पुत्र
कमर् वाला ��ांत ठीक नही ं । यह ��ांत एक ��र आ�ा
मानने वालो ं के मत म� तो कु छ घट भी सकता है।
प्र०- ब�न भी (��णक) एक �ण भर रहनेवाला है
इस�लये उसका कारण अथार्त् �नयम नही,ं या अभाव ही
उसका कारण है, अथवा वह �बना कारण ही है ?

उ- ��रका�सद्धः ��णक�म् ॥३४॥


अथर्- यिद तुम ब�न को (��णक ) एक �ण रहनेवाला

सांख्य दर्शन 21
मानो तो उसम� दीप�शखा अथार्त् दीप�ो�त के समान दोनो ं
का कोई ��र कायर् उ�� नही ं होगा। इस अगले सूत्र से
�� करते ह� िक कायर् को ��णक मानने म� �ा दोष होगा।
न प्र��भ�ावाघात् ॥३५॥
अथर्- लोक म� कोई भी पदाथर् (��णक ) अथार्त् एक�ण
रहनेवाला नही,ं �ोिं क यह �ान के सवर्था �व�द्ध है, �ोिं क
प्र�ेक मनु� यह कहता �आ सुनाई देता है िक �जसको
म�ने देखा उसको �शर् िकया । ��ांत यह है िक जैसे िक यिद
एक घोड़ा मोल �लया जाये तो ��णकवादी के मत म� परी�ा
करके मोल लेना अस�व है; �ोिं क �जस �ण म� घोड़े को
देखा था तब और घोड़ा था, �जस �ण म� हाथ लगाया तब
और था, दबु ारा देखा तब और �आ, इस कारण कोई कायर्
हो ही नही ं सकता। अतएव �जसके �लये ��ांत न हो वह
ठीक नही;ं इस�लये ब�नािद ��णक नही ं वरन् ��र ह� और
प्रमाण देते ह�—

श्रु�त�ाय�वरोधाच ॥३६॥

सांख्य दर्शन 22
अथर्- यह कहना िक जगत् एक�ण रहता है श्रु�त अथार्त्
वेद और �ाय अथार्त् तकर् से सवर्था �व�द्ध है, जैसा िक
�लखा है—'सदेव सो�ेदमग्र आसीत्
अथर्- हे सौ�! इस जगत् से पिहले भी सत् था अथार्त्
जगत् का कारण था।
'तम एवेदमन श्रासीत्' अथर्- इस सृ�� से पिहले यह जगत्
तमो�प अथार्त् नाम- �प�ान जो कायर् म� है इनसे पृथक्
��प था और �ाय से इस�लये �व�द्ध है िक असत् से सत्
िकसी प्रकार हो नही ं सकता, इस कारण यह ब�न�प दःु ख
न तो ��णक है, �बना कारण ही है। और प्रमाण ली�जये—

��ा�ा�सद्धे� ॥३७॥
अथर्��णक म� जो दीप�शखा का ��ांत िदया वह अयु�
�ोिं क �ण ऐसा सू� काल है िक �जसक� इय�ा
अंदाजा)नही ं हो सकती और न उसको कु छ इय�ा
(तादाद) है और प्र�� म� दीप�शखा कई �ण तक एक-

सांख्य दर्शन 23
सी बराबर रहती है, यह कथन भी सवर्था अयु� है और
��णकवािदयो ं के मत म� एक दोष यह भी होगा िक कारण
और कायर्भाव नही ं हो सके गा और जब कायर् कारण का
�नयम न रहा तो िकसी रोग क� औषध जो �नदान अथार्त्
कारण के �ान को जानकर उसके �व�द्ध श�� से क� जाती
है नही ं हो सके गी और सं सार म� जो घट कारण मृ�� का को
माना जाता है सवर्था न कह सक� गे; �ोिं क �जस �ण म�
मृ�� का घट का कारण है वह �ण अब न� हो गया और
यह कहना सवर्था अयु� है िक मृ�� का घट का कारण
नही;ं �ोिं क �बना कारण जाने घट बनाने म� कु लाल क�
प्रवृ�� नही ं होती और यिद दोनो ं क� अथार्त् मृ�� का और
घट क� उ��� एक ही �ण म� मान� तो दोष होगा—

युगप�ायमानयोन कायर्कारणभावः ॥३८॥


अथर्- जो पदाथर् एक साथ उ�� होते ह� उनम� कायर्-कारण
भाव नही ं हो सकता ; �ोिं क ऐसा कोई ��ांत लोक म� नही ं
है, �जसम� कायर्-कारण क� उ��� एक साथ ही हो। यिद

सांख्य दर्शन 24
��णक- वादी यह कह� िक मृ�� का और घटक्रम से ह�,
पिहले मृ�� का कारण िफर घट कायर् उ�� हो गया तो
इसम� भी दोष है।

पूवार्पाये उ�रायोगात् ॥३९॥


अथर्- इस प� म� यह दोष होगा िक पूवर् �ण म� मृ�� का
उ�� �ई, दूसरे �ण म� न� �ई, तब पीछे उससे कायर् �प
घट �ोक ं र उ�� हो सकता है। इस�लये जबतक उपादान
कारण न माना जाये तबतक कायर् क� उ��� नही ं हो
सकती। अतएव कायर्-कारण भाव ��णकवािदयो ं के मत
से �सद्ध नही ं हो सकता।

उ०- तभावे तदयोगादभ


ु य��भचाराद�प न
॥४०॥
अथर्- कारण क� �वद्यमानता से और कायर् के साथ उसका
स�� न मानने से दोनो ं दशाओ ं म� ��भचार दोष होने से
कारण-कायर् का स�� नही ं रहता। जब कायर् बनता था

सांख्य दर्शन 25
तब तो कारण नही ं था और कारण �आ तब कायर् बनाने का
�वचार नही,ं अतएव ��णकवािदयो ं के मत म� कायर्-कारण
का स�� िकसी प्रकार हो नही ं सकता।
प्र०- �जस प्रकार घट का �न�म� कारण कु लाल पिहले से
ही माना जाता है. यिद इसी भाँ�त उपादान कारण भी माना
जाये तो �ा शङ्का है ?

उ०- पूवर्भावमा�े न �नयमः ॥४१॥


अथर्- यिद कारण को �नयत न मानकर पूवर्भावमात्र ही
माना जाये तो यह �नयम न रहेगा िक मृ�� का ही से घट
बनता है और वायु से नही ं बनता; �ोिं क ��णकवादी िकसी
�वशेष कारण को भाव से तो मानते नही,ं िक�ु भाव ही
मान�गे। अतएव उपरो� दोष बना रहेगा और �न�म�
कारण और उपादान का अ�र भी मालूम नही ं होगा और
लोक म� उपादान कारण और �न�म� कारण का भेद �न��त
है, इस�लये ��णकवाद ठीक नही।ं

सांख्य दर्शन 26
प्र०- जो कु छ सं सार म� है, सत्र �म�ा ही है, और सं सार म�
होने से ब�न भी �म�ा है, अतएव उसका कारण खोजने
क� कोई आव�कता नही,ं वह �यम् नाश�प है ?

उ०- न �व�ानमात्रं वाद्यप्रतीतेः ॥४२॥


अथर्- इस जगत् को के वल �म�ा�ान या �व�ानमात्र नही ं
कह सकते ; �ोिं क �ान आ��रक अथार्त् भीतर ही होता
है और जगत् बाहर और भीतर दोनो ं दशाओ ं म� प्रकट है।
प्र०-जब हम बाहर िकसी पदाथर् के भाव को मानते ही नही ं
के वल भीतर के �वचार ही मनोरा� का सृ�� क� भाँ��
मालूम होते ह�?

उ- तद्भावे तद्भवा�ू �ं त�ह ॥४३॥


अथर्- यिद तुम जगत् को वाह्य न मानो के वल भीतर ही
मानोगे तो इस िदखते �ए सं सार म� �व�ान का भी अभाव
मानना पड़ेगा और जगत् को शू� कहना पड़ेगा। इसका
कारण यह है िक प्रती�त �वषय का साधन करने वाली होती

सांख्य दर्शन 27
है, इस�लये यिद वाह्य प्रतीत जगत् का साधन न करे तो
�व�ान प्रतीत भी �व�ान को नही ं �सद्ध कर सकती, इस हेतु
से �व�ानवाद म� शू�वाद हो जायेगा ।
प्र०- अब शू�वादी ना��क अपनी दलील देता है ?

शू�ं त�ं , भावो �वन��त व�ुधमर्�ािद्व-


नाश� ॥४४॥
अथर्- �जतने पदाथर् ह� सब शू� है, और जो कु छ भाव ह�,
वह सत्र नाशवान् ह�, और जो �वनाशी है वह �� क� भां�त
�म�ा है। इससे स�ूणर् व�ुओ ं के आिद और अंत का तो
अभाव �सद्ध ही हो गया। अब रहा के वल म�भाग सो
यथाथर् नही-ं तब कौन िकस को बाँध सकता है ? और कौन
छोड़ सकता है ? इस हेतु से ब� �म�ा ही प्रतीत होता है।
�वद्यमान व�ुओ ं का नाश इस�लये है िक नाश होना
व�ुमान का धमर् है। इस शू�वादी के पूवर्प� का ख�न
करते ह�

सांख्य दर्शन 28
उ०- अपवादमानम बुद्धानाम् ॥४५॥
अथर्- जो कु छ भाव पदाथर् है वह सब नाशवान ह�, यह कथन
मूख� का अपवादमात्र है ; �ोिं क नाशमात्र व�ु का
�भाव कहकर, नाश म� कु छ कारण न बताने से �जन
पदाथ� का कु छ अबयव नही ं है उनका नही ं कह सकते।
इसका हेतु यह है िक कारण म� लय हो जाने को ही नाश
कहते ह�, और जब �नरवयव व�ुओ ं का कु छ कारण न
माना तो उनका लय िकसी म� न होने से उनका नाश न हो
सके गा। इसके �सवाय एक और भी दोष रहेगा िक हर एक
कायर् का अभाव लोक म� नही ं कह सकते ; जैस-े "घट टू ट
गया," इस कहने से यह �ात होगा, िक घट क� दूसरी दशा
हो गई; पर�ु घट�पी कायर् तो बना ही रहा। आकृ �त को
इस हेतु से माना िक वह एक घट के टू ट जाने से दूसरे घटो ं
म� तो रहती है।
अब तीनो ं ल�णो ं का ख�न करते ह�, अथार्त-�व�ानवादी
��णकवादी और शू�वादी।

सांख्य दर्शन 29
उभयप�समान�ेम�ादयम�प ॥४६॥
अथर्- �जस प्रकार ��णकवादी और �व�ानवादी का मत
प्र��भ�ािद दोष वाह्य प्रती�त से ख��त हो जाता है, इसी
प्रकार शू�वादी का मत भी ख��त हो जाता है। �ोिं क
उस दशा म� पु�षाथर् का �बलकु ल अभाव हो जाता है। यिद
यह कहो िक शू�वाद करने पर भी पु�षाथर् तो �ीकार
करते ह�, तो वह भी मानना अयु� होगा।

अपु�षाथर्�मुभयथा ॥४७॥
अथर्- शू�वादी के मत म� पु�षाथर् अथार्त् मु�� नही ं हो
सकती, �ोिं क जब दःु ख है ही नही ं के वल शू� ही है तो
उसक� �नवृ�� का उपाय �ो ं िकया जाये और मु�� भी
शू� हो होगी उसके �लये साधन भी शू� ही होगं े, तो ऐसे
शू� पदाथर् के �लये पु�षाथर् भी शू� ही होगा। अतएव
शू�वादी का मत िकसी प्रकार भी शा��दायक नही ं और
न उससे मु�� हो सकती है।

सांख्य दर्शन 30
न ग�त�वशेषात् ॥४८॥
अथर्- ग�त के ३ अथर् ह�-�ान, गमन, प्रा�� । यह तीनो ं
ब�न का हेतु नही ं होते । पिहले जब कहा जाये िक �ान
�वशेष से ब�न होता है। �ान तीन प्रकार का है-
प्रा�तभा�सक, �ावहा�रक, पारमा�थक । यिद कहा जाये
िक प्रा�तभा�सक स�ा के �ान से ब�न होता है तो यह
कहना ठीक नही,ं �ोिं क प्रा�तभा�वक स�ा का �ान इ��य
और सं �ार-दोष से उ�� होता है, पर�ु आ�ा म� न
इ��य है न सं �ार है। इस�लये �जसका कारण है ही नही ं
उसका कायर् कै से हो सकता है। और रहा �ावहा�रक �ान,
सो तो बद्ध अव�ा को छोड़ रहता ही नही,ं वह ब� का
कारण िकस प्रकार हो सकता है। और पारमा�थक �ान तो
मु�� का हेतु है वह ब� का कारण �ोक ं र हो सकता है,
अतएव �ान�वशेष से ब� नही ं होता। दूसरा गमन शरीरािद
म� होता है, वह जीव का �ाभा�वक धमर् होने से ब� का
हेतु नही ं हो सकता।

सांख्य दर्शन 31
तीसरा प्रा��, सो प्रा� होने वाले दो पदाथर् है-एक प्र�,
दूसरी प्रकृ �त, सो यह दोनो ं �ापक होने से जीव को सवर्दा
प्रा�, सदैव रहने वाली व�ु से सदैव स��, उससे भी
बद्ध नही ं हो सकता, अतएव ग�त �वशेष से ब� नही ं होता।

�न�य� तदस�वात् ॥४९॥


अथर्- िक्रया से शू� जड़ प्रकृ �त म� भी ग�त अस�व है और
�ापक ब्रहा म� भी ग�त अस�व है, और यिद जीव को
ग�त पर �वचार िकया जाये तो प्र� यह उप��त होगा, िक
जीव �वभु है अथवा म�म प�रणाम वाला है अथवा अणु
है? यिद �वभु मान ल� तो ग�त हो नही ं सकती। यिद म�म
प�रणाम- वाला मान ल� तो यह दोष होगा।
प्र०- �ा आ�ा अंग�ु मान नही ं है । यिद अंगु�मात्र है तो
उसम� ग�त इ�ािद स�व है। यिद �वभु है तो जाना हो ही
नही ं सकते ?

सांख्य दर्शन 32
उ०- मूतर्�ाद् घटा�दवत् समानधमार्प�ा-
वप�सद्धा�ः ॥५०॥
अथर्- आ�ा के मू�तमान होने से घटािदको ं क� भाँ�त
सावयव इ�ािद दोष आ जाय�गे और सावयव होने से सं योग
�वयोग अथार्त् उ��� और नाश भी मानना पड़ेगा। जो िक
आ�ा �न� है, इस�लये मू�त वाला नही ं हो सकता और जब
मू�� वाला नही ं तो उसम� इस प्रकार क� ग�त भी नही ं मानी
जा सकती। अतएव आ�ा को मू�त वाला मानना �सद्धा�
का ख�न करना है।

ग�तश्रु�त र�ुपा�धयोगादाकाशवत् ॥५१॥


अथर्- शरीर के सब अबयवो ं म� जो ग�त है अथार्त् दूसरे
शरीरो ं म� जो गमन है वह सू� शरीर �प उपा�ध के कारण
है, अथार्त् तब तक सू� शरीर न हो तब तक एक शरीर
छोड़ कर दूसरे शरीर म� नही ं जा सकता, जैसे-आकाश घट
क� उपा�ध से चलता है, �ोिं क घट म� जो आकाश है जहाँ

सांख्य दर्शन 33
क� उपा�ध से चलता है, �ोिं क घट म� जो आकाश है जहाँ
घट जायेगा साथ हो जायेगा।
प्र०- सू� शरीर िकसे कहते ह� ?
उ०- पं च प्राण, पं च उपप्राण, पं च �ाने��य, मन, अहंकार;
इन सबके समूह का नाम सू� शरीर है।
प्र०- �ा यह जीव से �बलकु ल पृथक् ह� ?
उ०- हाँ, �बलकु ल पृथक् ह�।
प्र०- तो पिहले-पहल जीव िकस प्रकार इस शरीर को धारण
करता है?
उ०- पिहले सांक��क सृ�� म� आता है, िफर उसका जब
सू� शरीर से स�� हो जाता है, तब दूसरे शरीरो ं म� जाता
है। यिद स�� न हो तो नही ं जाता।

न कमर्णा�तद्धमर्�ात् ॥५२॥
अथर्- कमर् से भी ब�न नही ं होता, �ोिं क वह भी शरीर

सांख्य दर्शन 34
सिहत आ�ा म� होता है और शरीर सुख दःु ख भोगने से
होता है। इस�लये कमर् से पिहले शरीर का होना आव�क
है और शरीर होने से ब�न भी है, उसके उ�� होने क�
आव�कता नही।ं

अ�तप्रस��र�धमर्�े ॥५३॥
अथर्- यिद और के धमर् से और का ब�न मान ल� तो �नयम
टू ट जाय�गे �ोिं क उस अव�ा म� बद्ध पु�ष के पाप से यु�
ब�न म� आ जाय�गे, जो असं गत है।

�नगुणा�दश्रु�त�वरोध�े�त ॥५४॥
अथर्- यिद उपा�ध के �बना पु�ष का ब�न माना जाये तो
�जन सूत्रो ं म� जीव को सा���प और �नगुर्ण बतलाया है
उनम� दोष आ जायेगा; इस�लये जीव �भाव से बद्ध है, न
मु� है, वरन् यह दोनो ं औपा�धक धमर् ह� । प्रकृ �त सं सगर्
से बद्ध हो जाता है और परमा�ा के सं सगर् से मु� हो जाता
है। यथाथर् म� जीव सुख दःु ख से पृथक् और तीनो ं तापो ं से

सांख्य दर्शन 35
िकनारे सा���प है। इस सूत्र म� इ�त श� कहने से ब�न
के कारण परी�ा समा� कर दी गई।
प्र०- जब दःु ख �ाभा�वक भी नही ं और नै�म��क भी नही ं
तो प्रतीत कै से होता है ?
उ०- जीव को अ��ता और प्रकृ �त सं सगर् से ब�न क�
प्रती�त होती है । चूँिक सं सगर् �न� है, इस�लये नै�म��क
नही ं कहला सकता, और ब� सं सगर् से उ�� होने वाले
अ�ववेक से प्रतीत होता है, इस कारण �ाभा�वक नही ं
कहला सकता । अतएव अ�ववेक ही इसका कारण है।
प्र०- जब तुम प्रकृ �त के योग से ब�न मानते हो और प्रकृ �त
भी काल और दशा क� नाई सवर्�ापक है, तो उसके योग
से ब�न िकस प्रकार हो सकता है ?

उ०- तयोगोऽ��ववेका� समान�म् ॥५५॥


अथर्- प्रकृ �त का योग भी अ�ववेक से होता है, इस- वा�े
यह काल और दशा के समान नही।ं

सांख्य दर्शन 36
प्र०- अ�ववेक िकसे कहते ह� ?
उ०- यह जानना िक यह व�ु हमारे वा�े लाभदायक है
अथवा हा�नकारक, उसको अ�ववेक कहते ह�।
प्र०- इस अ�ववेक का कारण �ा है?
उ०- जीव क� अ��ता ही अ�ववेक का कारण है ।
प्र०- �ा वह जीव क� अ��ता जीव का �ाभा�वक गुण
है अथवा उसका भी कोई कारण है।
उ०- उसका कोई कारण नही।ं
प्र०- जब अ��ता �ाभा�वक गुण है, और �ाभा�वक
को नाश हो नही ं सकता, बस कारण रहा, तो कायर्-ब�न
सदैव रहेगा?
उ०- �जस प्रकार वायु �भाव से उ�, शीत से अलग है,
ऐसे ही जीव ब�न मु�� से पृथक् है। यह दोनो ं गुण
नै�म��क ह�, इस�लये प्रवाह से अनािद ह�, और ��प से
आिद होते ह� ।

सांख्य दर्शन 37
�नयतकारणातद�ु ����ार्�वत् ।।५६॥
अथर्- �जस प्रकार म� अ�कार से जो सीप म� चाँदी का
�ान या र�ु म� सपर् का �ान है, उसके नाश करने का �नयत
उपाय है, अथार्त् प्रकाश का होना; िक�ु प्रकाश के �बना
िकसी अ� उपाय से यह अ�ान न� नही ं हो सकता । इसी
प्रकार अ�ववेक से उ�� होनेवाला जो ब�न है, उसके न�
करने के उपाय �ववेक अथार्त् पदाथर् के ��प का यथाथर्
�ान है ।

प्रधाना�ववेकाद�ा�ववेक� तद्धाने हानम्


॥५७॥
अथर्- जीव म� प्रधान अथार्त् प्रकृ �त के अ�ववेक अथार्त्
पदाथर् �ान के न होने से और कारण आिद से पदाथ� का
अ�ान होता है। आशय यह िक ब�न का कारण जीव क�
अ��ता है, �ोिं क जीव अपनी �ाभा�वक अ��ता से
प्रकृ �त का �ववेक नही ं रखता, �जससे प्राकृ �तक पदाथ� म�

सांख्य दर्शन 38
�म�ा �ान उ�� होता है, और �म�ा �ान से राग-द्वेष
और राग-द्वेष से प्रवृ�� उ�� होती है, और उससे ब�न
अथार्त् तीन प्रकार का दःु ख उ�� होता है, और �जस समय
प्रकृ �त का �म�ा �ान न� हो जाता है तब प्रकृ �त के पदाथ�
का अ�ववेक दूर होकर दःु ख �प ब�न से छू ट जाता है ।

बाङ मात्रं नतु त�ं �च���तेः ।।५८॥


अथर्- दःु खािद को �च� म� रहनेवाला होने से उनका पु�ष म�
कथनमात्र हो है ; जैसे-लाल डाँक के लगाने से अँगूठी का
हीरा लाल मालूम होता है, ऐसे जीव मन के दःु खी होने से
दःु खी मालूम होता है, और मन के सुखी होने से सुखी मालूम
होता है, वा�व म� सुख दःु ख से पृथक् है।
प्र०- यिद इस भाँ�त दःु ख कथनमात्र ही है, तो यु�� से भी
दूर हो जायेगा, उसके �लये �ववेक क� �ा आव�कता है,
इसका उ�र अगले सूत्र म� देते ह� ?

सांख्य दर्शन 39
यु��तोऽ�पन बा�ते�दक मुदवदपरोक्�ाहते
।।५९।।
अथर्- इस के वल कथनमात्र दःु ख का भी यु�� से नाश नही ं
हो सकता, �बना अपरो� �ान के । जैसे िकसी मनु� को
पूवर् िदशा म� उ�र का भ्रम हो जाये तो जब तक उसे पूवर्
और उ�र िदशा का भली-भाँ�त �ान न हो जाये, तब तक
यह भ्रम जा ही नही ं सकता। इस कारण �ववेक क�
आव�कता है, और सूत्र म� भी िदखलाया गया है, िक जब
तक िदशा का प्र�� न हो जाये तब तक भ्रम�नवृ�� नही ं
हो सकती ; इस�लये जब तक प्रकृ �त और पु�ष के धमर् का
ठीक �न�य करके प्रकृ �त से �नवृ�� और पु�ष क� प्रा�� न
हो तब तक द:ु ख दूर भी न होगा।

उ०- अचातुषाणामनुमानेन बोधो धूमा�द-


�भ�रव वह नेः ॥६०॥
अथर्- प्रकृ �त पु�ष अथार्त् जीवा�ा, परमा�ा और प्रकृ �त

सांख्य दर्शन 40
का तो प्र�� नही ं है, अनुमान से �ान होता है।
प्र०- �ा यह प्रकृ �त प्र�� नही ं ?
उ०- नही,ं प्र�ु� जो प्र�� है वह �वकृ �त है, अथार्त् प्रकृ �त
कर प�रणाम है।
प्र०- सूत्र म� तो पु�ष श� है, तुम इससे जीवा�ा और
परमा�ा िकस प्रकार लेते हो ?
उ०- शरीर म� रहने से जीवा�ा और सं सार म� �ापक होने
से परमा�ा पु�ष श� से �लये गये और �ाय म� आ�ा
और सां� म� पु�ष श� एक ही अथर् के बतलाने वाले ह�।

स�रज�मसां सा�ाव�ा, प्रकृ �तः प्रकृ तेम-


हान्,महतऽहंकरोऽहंकारा��त�ात्रा�ुभय
�म��यं त�ात्रे�ः �ूलभूता�न पु�ष इ�त
ं - �तगुर्णः ॥६१॥
पं च�वश
अथर्- स�गुण प्रकाश करने वाला, रजोगुण न प्रकाश और

सांख्य दर्शन 41
न आवरण करने वाला, तमोगुण आवरण करने वाला। जब
यह तीनो ं गुण समान रहते ह�, उस दशा का नाम प्रकृ �त है।
�ोिं क वतर्मान दशा म� स�गुण, तमोगुण का पर�र
�वरोध है । इस समय �जस शरीर म� स�गुण रहता है, वहाँ
तमोगुण का वास नही ं और इसी तरह जहाँ तमोगुण का
�नवास है वहाँ स�गुण नही;ं पर�ु कारण अथार्त् परमाणु
क� दशा म� एक दूसरे के �व�द्ध नही ं कर सकते, उस समय
पास ही पास रह सकते ह�। अब उस प्रकृ �त से मह��
अथार्त् मन उ�� होता है और मन से अहंकार और
अहंकार से पं च सू� त�ात्रा या �प रस, गं ध, �शर् और
श� उ�� होते ह�, उनसे पाँच �ाने��य और पाँच
कम���य उ�� होते ह�, और प�त�ात्राओ ं से पाँच भूत
अथार्त् पृ�ी, अप, तेज, वायु, और आकाश होते ह�, और
जब इनसे पु�ष अथार्त् जीव और ब्रह्म �मल जाता है तो २५
गुण कहलाते ह�।
प्र०- नेक पु�षो ं ने मह�� का अथर् बु�द्ध िकया है, तुम 'मन'

सांख्य दर्शन 42
िकस प्रकार लेते हो ?
उ०- बु�द्ध जीवा�ा का गुण है। जीव के स� होने से वह
�न� है, वह प्रकृ �त का कायर् नही ं और मन सू� अ� का
�वकार है, अतएव मन ही लेना चािहये।
प्र०- मन क� इ��यो ं म� गणना क� जाती है, अतएव �भ�
करने से बु�द्ध का ही प्रयोजन प्रतीत होता है ?
उ०- यिद १० इ��यो ं म� ११ वां मन भी �लया जाये तो
तु�ारी सं �ा ही अशुद्ध हो जायेगी, इस हेतु से मह�� का
अथर् मन ही है।

�ूलात् प�त�ात्राय ॥६२॥


अथर्- इन पांच प्रकाशवान् त�ो ं से उन सू� त�ात्रो ं का ।
अनुमान होता है, �जस प्रकार कायर् को देखकर कारण का
अनुमान होता है ; जैसे �लखा है— कारणगुणपूवर्क कायर्
गुणो ��ः॥
अथर्-कायर् के गुणो ं के अनुसार कारण और कारण के अनु

सांख्य दर्शन 43
-सार कायर् के गुणो ं का अनुमान होता है।
इसी प्रकार यहां कायर् त�ो ं को देख कर कारण त�ात्रा का
�ान हो जाता है।

वाथा��रा�ां तै�ाहङ्कार� ॥६३॥


अथर्- बाहर क� और आ��रीय इ��यो ं से प� त�ात्रा
�प कायर् का �ान होकर उसके कारण अहंकार का भी �ान
होता है, �ोिं क �शार्िद �वषयो ं का �ान समा�ध और
सुषु�� अव�ा म� जबिक अहंकार �प वृ�� का अभाव
होता है नही ं होता, इससे अनुमान होता है िक यह इस वृ��
से उ�� होते ह�, अथार्त् अहंकार के कायर् ह� और अहंकार
इनका कारण है; �ोिं क यह �नयम है िक जो �जसके �बना
पैदा न हो सके वह उसका कारण होता है, और भूत �बना
अहंकार के सुषु�� अव�ा म� ���गत नही ं होते, अतएव
यही उनका कारण अनुमान से प्रतीत होता है।

तेना�ाकरण� ॥६४॥

सांख्य दर्शन 44
अथर्- और अहंकार �पी कायर् से उसके कारण अ�: करण
का अनुमान होता है, �ोिं क प्रथम मन म� व�ु क� अ���
का �न�य करके उसम� अहंकार िकया जाता है, अथार्त् उसे
अपना मानते ह�। �जस समय तक व�ु को अ��� का
�न�य न हो तब तक उसम� अ�भमान नही ं होता है, अथार्त्
म� �ँ , और यह मेरा है, यह �ान जब तक अपने-अपने और
चीज को अ��� का �ान न हो, िकस तरह हो सकता है ?

ततः प्रकृ तेः ॥६५॥


अथर्- और उस मन से प्रकृ �त, जो मन का कारण है, उसका
अनुमान होता है, �ोिं क मन म�म प�रणाम वाला होने से
कायर् है और प्र�ेक कायर् का कारण अव� होता है ; अब
मन का कारण प्रकृ �त के अ�त�र� और कु छ हो नही ं
सकता। �ोिं क पु�ष तो प�रणाम रिहत है, और मन का
शरीर को तरह म�म प�रणाम वाला होना श्रु�त, �ृ�त और
यु�� से �सद्ध है। �ोिं क मन, सुख-दःु ख और मोह धमर्
वाला है, इस वा�े उसका कारण भी मोह धमर् वाला होना

सांख्य दर्शन 45
चािहये। दःु ख परत�ता का नाम है, और पु�ष क�
परत�ता हो नही ं सकती। परत�ता के वल जड़ प्रकृ �त का
धमर् है और उसका कायर् मन है ।

सं हतपराथर्�ात् पु�ष� ।।६६॥


अथर्- प्रकृ �त के अबयवो ं क� सं ह�त सवर्दा दूसरे के वा�े
होती है, अपने �लये नही ं । इससे पु�ष का अनुमान होता
है; �ोिं क मन आिद का जो प्रकृ �त के कायर् ह�, उन से पु�ष
को लाभ होता है। मन आिद का अपने �लये कु छ भी नही ं
कर सकते, और �जतने शरीर से लेकर अ�, व�, पत्रािद
प्रकृ �त के �वकार ह�, उन से दूसरो ं का ही उपकार होना है,
और पु�ष क� िक्रया का भोग पदाथर् नही ं है। �ोिं क
उप�नपद म� �लखा है "नवाबरे सवर्� कामाय सवर्�प्रयं भव�त
नतुकामायसवर्�प्रयं भव�त"-अथार्त् स�ूणर् व�ुओ ं के
उपयोगी होने से सब व�ुएँ �ारी नही,ं िक�ु आ�ा के
उपयोगी होने से सब व�ुएँ �ारी प्रतीत होती ह�।

सांख्य दर्शन 46
प्र०- �ा प्रकृ �त का कोई कारण नही ं है, ब्रह्म को कारण
सुना जाता है ?
उ०- ब्रह्म जगत् का �न�म�-कारण है। प्रकृ �त का उपादान
कारण नही।ं
प्र०- प्रकृ �त को �ो ं अकारण मानते हो ?

उ०- मूले मूला भावामूलं मूलम् ॥६७॥


अथर्- २२ त�ो ं का मूल उपादान कारण प्रकृ �त है, और मूल
अथार्त् जड़ क� जड़ नही ं होती, इस वा�े मूल �बना मूल के
ही होता है।
प्र०- प्रकृ �त को मूल �ो ं मानते हो ?
उ०- यिद मूल का मूल मानोगे, तो उसके मूल क� भी आव
-�कता होगी। इस प्रकार अनव�ा आ जायेगी।
प्र०- जैसे घट का कारण मृ�� का है, और मृ�� का का
कारण परमाणु है?

सांख्य दर्शन 47
उ०- पार�य�ऽ�ेकत्र प�र�न�े�त सं �ा- मानम्
॥६८॥
कारणो ं क� पर�रा के �वचार से परमाणु ही घट का कारण
है, मृ�� का तो नाममात्र है।

समानः प्रकृ तद्वयोः ॥६९॥


घट और मृ�� का के साथ प्रकृ �त का समान स�� है,
अथार्त् पर�रा से प्रकृ �त ही घट और मृ�� का कारण है,
और �नरवयव होने से �न� है, उसका कोई कारण नही।ं

अ�धका�रत्रै�व�ा��नयमः ॥७०॥
यद्य�प प्रकृ �त सबका उपादान कारण है। पर�ु प्र�ेक कायर्
म� जो तीन प्रकार के कारण माने जाते ह� अथार्त् १ उपादान,
२ �न�म�, और ३ साधारण-इन क� भी �व�ा न रहेगी,
�ोिं क जब कु �ार �मट्टी द�ािद का कारण प्रकृ �त ही
ठहरी, तो इन तीन कारणो ं को अनाव�कता होने से ब�त

सांख्य दर्शन 48
गोलमाल हो जायेगा । इस म� हेतु यह है, िक िफर कोई भी
िकसी का �न�म� व असाधारण कारण न रहेगा, अतएव
जहाँ-जहाँ कारण� कहा जाये, वहाँ-वहाँ प्रकृ �त को
छोड़कर कहना चािहये, �ोिं क प्रकृ �त तो सबका कारण है
ही, उसके कहने क� कोई भी आव�कता नही ं है; जैसे-
कु �ार के �पता को घट का कारण कहना अनाव�क है,
�ोिं क वह तो अ�था �सद्ध है। यिद वही न होता तो कु लाल
कहां से आता ? पर�ु घट के बनने म� कु लाल के �पता को
कोई भी आव�कता नही ं है, ऐसा ही नवीन नैया�यक भी
मानते ह�, िक कारण� प्रकृ �त को छोड़कर कहना चािहये।
१ उपादान कारण, जैसे घट का मृ�� का। २ �न�म� कारण,
जैसे घट का कु लाल ।३ साधारण, जैसे घट के द� आिद।

महदा�माद्यं काय� त�नः ॥७१॥


अथर्- प्रकृ �त का पिहला कायर् महत् है, और वह मन
कहलाता है। मन से अहसारािद उ�� होते ह�, मन क�
उ��� ६१ सूत्र म� कह चुके ह�।

सांख्य दर्शन 49
चरमोऽहङ्कारः ॥७२॥
अथर्- और प्रकृ �त का दूसरा कायर् अहंकार है। इन तीनो ं
सूत्रो ं का अ�भप्राय यह है िक यिद प्रकृ �त को कारण� कहा
जाये, तो के वल इ�ी ं दो काय� का कहना अ� काय� का
कारण महदािद को कहना चािहये । इसी बात को अगले
सूत्रो ं से �� करते ह�।

त�ायर्�मु�रेषाम् ॥७३॥
अथर्- महत् और अहंकार को छोड़ बाक� सब प्रकृ �त के
कायर् नही,ं िक�ु उनके कारण महदािद ह�।
प्र०- जब तुमने पिहले इसको प्रकृ �त का कायर् कहा, अब
उसे अलग करते हो, िक औरो ं को महदािदको ं का कायर्
कहना चािहये । अब यहाँ यह स�ेह होता है, िक पिहले
प्रकृ �त को सबका कारण कह चुके । अब महदािदको ं को
�ो ं कारण कहते ह� ?
तो इसका उ�र यह है िक—

सांख्य दर्शन 50
उ०- आद्यहेतुता तद्वारा पार�य�ऽ�णुवत्
॥७४॥
अथर्- �जस प्रकार पर�रा स�� से घटािद के कारण अणु
माने थे, उसी भाँ�त पर�रा स�� से महदािदको ं का
कारण भी प्रकृ �त ही है, अतएव कु छ दोष न रहेगा।

पूवर्भा�व�े द्वयोरेकतर� हानेऽ�तरयोगः


॥७५॥
अथर्- पिहले होने म� एक यह भी यु�� है, िक कायर् नाश
होकर कारण म� �मल जाता है, और अ� म� सब कायर् पदाथर्
प्रकृ �त म� लय हो जाते ह�।
यिद कोई शं का कर� िक जब प्रकृ �त और पु�ष दोनो ं कायर्
जगत् से पिहले थे, तो अके ली प्रकृ �त को �ो ं कारण माना
जाये ? इसका उ�र यह है िक पु�ष प�रणामी नही ं और
उपादान कारण का प�रणाम ही कायर् कहलाता है, और
पु�ष अप�रणामी होने म� १५-१६ के सूत्र प्रमाण ह�। यिद

सांख्य दर्शन 51
प्रकृ �त स�� से प्रकृ �त द्वारा पु�ष म� प�रणाम माने और
दोनो ं को कारण मान� तो वृथा गौरव होगा।
प्र०- कारण से उपादान कारण का �ो ं ग्रहण करते हो,
�न�म� को �ो ं नही ं लेते ?
उ०- उपादान-कारण के गुण ही कायर् म� रहा करते ह�। हम�
जगत् म� �जस आन� क� खोज है, यिद वह जगत् के कारण
म� होगा तो �मलेगा अ�था पु�षाथर् �नरथर्क जायेगा;
इस�लये �ववेक के �लये उपादान कारण क� ही आव�कता
है।
प्र०- प्रकृ �त एक-देशी है या �ापक ?

प�र���ं न सव�पादानम् ।।७६॥


उ०- एक देशी और अ�न� पदाथर् सवर् जगत् का उपादान
कारण नही ं हो सकते ; �ोिं क अ�न� पदाथर् को कायर् होने
से �यम् कारण क� आव�कता है।

सांख्य दर्शन 52
प्र०- एक देशी पदाथर् क� उ��� म� �ा प्रमाण है ?

उ०- तद�
ु ��श्रुते� ॥७७॥
अ�न� और एक-देशी पदाथ� क� उ��� अ�त म� मानी है
और �जसक� उ��� है उसका �वनाश अव� होगा
प्र०- अ�वद्या स�� से जगद�
ु �� है, इस म� �ा दोष ?
इसका उ�र महा�ा क�पल जी यह देते ह�।

नाव�ुनो व�ु�स�द्धः ॥७८॥


उ०- जो अ�वद्या द्र� नही ं है के वल गुण मात्र है या कोई
व�ु नही ं है, उस से यह जगत् जो द्र� और व�ु है, िकस
प्रकार उ�� हो सकता है ? �ोिं क गुण द्र� का एक
अवयव होता है। एक अवयव से अवयवी क� उ��� नही ं
हो सकती और न अभाव से भाव क� उ��� होती है; जैसे-
मनु� के सीगं नही ं तो उस सीगं से कमान कै से बन सकती
है।

सांख्य दर्शन 53
प्र०- यह सं सार भी अव�ु है, इस वा�े यह अ�वद्या से बना
है ?

आवाधादद�ु कारणज�वाचनाव�ु�म्
॥७९॥
उ०- यिद कहो जगत् भी अव�ु है, तो यह कहना ठीक
नही,ं �ोिं क न तो �� के पदाथ� के तु� जगत का िकसी
अव�ा �वशेष म� बाध होता है, जैसे--�� के पदाथ� का
जापत अव�ा म� बाध हो जाता है, और न जगत् िकसी
इ��य के दोष से प्रतीत होता है, जैसे-पी�लया रोग क�
अव�ा म� सब व�ुओ.ं को पीला प्रतीत करता है पर�ु यह
पीलापन स� नही ं जगत् । इस प्रकार के िकसी दोषयु�
कारण से उ�� नही ं �आ, इस कारण जगत् को अव�ु
नही ं कह सकते।
प्र०- जब श्रु�तयो ं म� जगत् का �म�ा होना कहा गया है तब
जगत् व�ु नही ं हो सकता?

सांख्य दर्शन 54
उ०- �ा तुम श्रु�त को जगत् के अ�र मानते हो या बाहर।
यिद अ�र मानो तो जगत् के �म�ा होने से श्रु�त का �यं
ही बाध हो जायेगा और वह �म�ा श्र�त प्रमाण ही न रहेगी।
यिद जगत् से बाहर मानो, तो अद्वैतवादी के �सद्धा� क�
हा�न होगी।
प्र०- "ने�त ने�त" इस प्रकार को श्रु�तयो ं का �ा अथर्
करोगे?
उ०- यह श्रु�तय� ब्रह्म का जगत् से भेद यानी �भ�ता को
बताने वाली ह� और जगत् को ��प से अव�ु बतलाने
वाली नही।ं

भावेतद्योगेन त���द्धरभावे तद्भावा �ु त�रां


त���द्धः ॥८०॥
अथर्- कारण के होने से उसके सं योग से कायर् बन सकता है,
और कारण के अभाव म� िकसके योग से द्र��प कायर्
बनेगा, जैसे-�मट्टी के होने से तो उसका घट बन जायेगा।

सांख्य दर्शन 55
जब मृ�� का ही न तो िकसका घट बनेगा ?
प्र०- तुम प्रधान अथार्त् प्रकृ �त को �ो ं कारण मानते हो ?
कमर् को मानना चािहये।

उ०- न कमर्ण उपादान�ायोगात् ॥८१॥


अथर्- कमर् से जगत् क� उ��� नही ं हो सकती, �ोिं क कमर्
द्र� तो ह� ही नही।ं द्र� के �बना गुणािद म� उपादान कारण
होने क� यो�ता नही ं । कारण यह है, िक द्र� का उपादान
कारण द्र� ही होता है। यिद कहो हम ऐसी क�ना करते
ह�, तो क�ना �� के अनुसार प्रामा�णक और �व�द्ध होने
से अप्रामा�णक है और वैशे�षक म� कहे �ये गुण और कमर्
कही ं उपादान कारण होते नही।ं देखो यहाँ कमर् श� से
अ�वद्या और गुणो ं को भी लेना चािहये, वह भी उपादान के
यो� नही।ं
यहाँ तक तो वह बतलाया गया िक प्रकृ �त म� प�रणाम है,
पर�ु पु�ष अथार्त् जीवा�ा और परमा�ा म� प�रणाम

सांख्य दर्शन 56
नही।ं दूसरे प्रकृ �त के �जतने कायर् ह�, वह दूसरे के वा�े ह�,
�ोिं क उसम� �यं भोग श�� नही ं । अब पाँच सूत्रो ं म�
मु�� का कारण कमर् नही ं �ववेक है, यह कह�गे।

नानुभ�वकाद�प त���द्धः सा��ेनावृ��-


योगादपु�षाथर्�म् ॥८२॥
अथर्- यह तो पिहले कह चुके ह� िक �� पदाथ� या कमर् से
दखु ा�� �नवृ�� नही ं होती। अब कहते ह�, िक �ान के
�बना वेदो कमर् से भी मु�� नह होती ; �ोिं क वैिदक कम�
से जो �गार्िद सुख �मलते ह� उनका भी नाश हो जाता है,
इस वा�े यह पु�षाथर् नही ं । पिहले "न कमर्ण अ�
धमर्�ात्" इस सूत्र म� कमर् से ब�न नही ं होता, इसका
ख�न िकया गया था, अब कमर् से मु�� होती है इसका
भी ख�न कर िदया।
प्र०- अ�त म� बतलाया गया है िक इस प्रकार के कमर् से
ब्रह्मलोक को प्रा� होकर ब्रह्मलोक क� आयु तक पुनरावृ��

सांख्य दर्शन 57
नही ं होती ?

उ०- तत्रप्रा��ववेक�ानावृ��श्रु�तः ॥८३॥


अथर्- इस श्रु�त म� भी प्रा�� �ववेक ही के वा�े वैिदक कम�
से अनावृ�� मानो गई है। यिद ऐसा न मानो तो दूसरी
श्रु�तयो ं से जो ब्रह्मलोक से पुनरावृ�� का कथन करती ह�,
�वरोध होकर दोनो ं का प्रमाण नही ं रहेगा; इस�लये प्रा��
�ववेक ही से मु�� माननी चािहये।

दःु खाद् दःु खं जला�भषेकव� जाड्य�वमोकाया


॥८४॥
अथर्- जो कमर् शरीर से उ�� होता है और शरीर म� न होने
पर नही ं होता, इस वा�े कमर् �यं दःु ख �प य अ�वद्या
��प है। �जस प्रकार दःु ख से दःु ख का नाश नई होता,
उसी प्रकार कमर् से दःु ख का नाश नही ं हो सकता, जैसे-जल
म� नहाने से शीत बढ़ता है, नाश नही ं होता, ऐसे ही �ववेक

सांख्य दर्शन 58
कमर् से मु�� नही ं होती।

का�ेऽका�ेऽ�प सा��ा�वशेषात् ॥८५॥


अथर्- चाहे कमर् �न�ाम हो चाहे सकाम हो, पर�ु �ान के
�बना मु�� का साधन नही ं हो सकता; �ोिं क दोनो ं प्रकार
के कम� म� सा�� अथार्त् शरीर से उ��� वाली होना
समान है, और श्रु�त म� भी �लखा है "न कमर्णा न प्रजया"
इ�ािद अथार्त् न तो कमर् से मु�� होती, न प्रजा से, न धन
से, �ान के �बना िकसी साधन से मु�� नही ं होती।
प्र०- �ान दःु ख का �वरोधी नही,ं इस�लये �ान से दःु ख का
नाश कै से हो सकता है ?
उ०- दःु ख ज�-मरण से होता है; ज�-मरण कमर् से होते
ह�, कमर् प्रवृ�� से होता है, प्रवृ�� राग-द्वेष से होती है, राग-
द्वेष �म�ा�ान से होते ह�, �ान �म�ा-�ान का �वरोधी है,
जब �म�ा �ान का नाश �ान से हो जायेगा तब उसक�
स�ान को दःु खािद उ�� ही नही ं होगं े।

सांख्य दर्शन 59
प्र०- जब �ान को साधन मानोगे तो �ान सा� होने से भी
मु�� दःु ख�प हो जायेगी, �ोिं क �ान भी तो देह�
आ�ा ही को होगा और �ान सा� होने से मु�� ऐसी ही
अ�न� होगी जैसा कमर् का फल है ?

उ०-�नजमु�� व��ं समात्रं परं न


समान�म् ॥८६॥
अथर्- कमर् का फल तो भाव �प सुख है, इस�लये वह
अ�न� है; पर�ु �ान का फल तो अ�वद्या का �वनाश �प
है। जब कायार्भाव �प नही ं तो उसका नाश न होगा। दूसरे
कमर् देहा��व�श� से होता है और उसका फल भी देहा�ा
�मलकर भोगते ह�, पर�ु देह �वनाशी है, इस�लये कमर् का
फल भी �वनाशी �ाना�ा का धमर् आ�ा म� �न� हो सकता
है।
प्र०- �ा आ� �नज मु� है ?
उ०- �वद्यािद दोषो ं से जो दःु ख उ�� होता है, उसके दूर

सांख्य दर्शन 60
होने से जीवा�ा मु�� सुख को लेता है । यहाँ प्राचायर् ऋ�ष
का यह आशय है िक �भाव से तो जीवा�ा बद्ध नही ं के वल
अ�ववेक से बद्ध होता है और अ�ववेक के नाश से मु�
होता है, तो मु�� �ं स अथार्त् नाश �प है, भाव �प नही।ं

द्वयोरेकतर� वा�स��कृ �ाथर् प�र����ः


प्रमा त�ाधकतमं य�त् �त्र�वधं प्रमाणम्
॥८७॥
अथर्- �ाता और �ेय के पास-पास होने से जो �ान होता है,
उसे प्रमा कहते ह�। इस प्रमा के साधन तीन प्रकार के प्रमाण
है-एक प्र��, दूसरा अनुमान, तीसरा श� । जो पदाथर्
भौ�तक और नजदीक है, उनका �ान प्र�� प्रमाण से होता
है, और जो पदाथर् अभौ�तक तथा दूर ह�, उनका श� और
अनुमान से होता है, यहाँ दूर का आशय परो� है। �जन
पदाथ� का तीन काल म� प्र�� न हो उनका श� प्रमाण से
बोध होता है। यहाँ श� का आशय योगी और ई�र क�

सांख्य दर्शन 61
आ�ा है। जहाँ भौ�तक पदाथ� का परो� होने म� श�
प्रमाण �लया गया है, वहाँ स�वादी आ� पु�ष का वा�
समझना चािहये।
प्र०- एक श� प्रमाया के दो अथर् �ो ं �लये जाय� ?
उ०- श� कहते ह� प्रा� के वा� को और प्रा� कहते ह�
�जसने धमर् से धम� का �न�य िकया हो, सो अभौ�तक
पदाथ� का यथाथर् �ान तो �बना परमा�ा और योगी के दूसरे
को हो नही ं सकता और भौ�तक पदाथ� के �ान के साधन
इ��यो ं के होने से प्रा� पु�ष का वा� भी प्रमाण मानना
चािहये।
प्र०- �ा यह तीन ही प्रमाण ह� उपमानािद नही ं ?

उ०- त��द्धौसवर्�सद्धेना�ध��स�द्धः ॥८८॥


अथर्- इन तीन प्रमाणो ं के �सद्ध होने से सब पदाथ� क� �स�द्ध
हो जाती है, इस�लये और प्रमाण माँगने क� आव�कता
नही ं ; �ोिं क महा�ा मनु ने भी �लखा है—

सांख्य दर्शन 62
प्र���ानुमानं च शा�ं च �व�वधागमम् । त्रयं सु�विदतं
कायर् धमर्शु�द्धमभी�ता।
अथर्- प्र��, अनुमान और शा� के अनुकूल जानकर
कायर् करना चािहये ; �ोिं क धमर् क� शु�द्ध क� इ�ा वालो ं
क� इ�ा इनसे पूरी हो सकती है और उपमानािद प्रमाण
इ�ी ं के अ�र जाते ह�।

य��द्धं स�दाकारो�े�ख �व�ानं तत्


प्र��म् ॥८९॥
�जस सामने उप��त पदाथर् के साथ �ाने��य का स��
हो और मन को भी उस इ��य के द्वारा उसका यथाथर् बोध
हो जाये, तो उसे प्र�� �ान कहते ह� और इस �ान का
कारण �ाने��य और मन क� वृ�� है। इस�लये मन और
इ��य� प्र�� प्रमाण कहलाती ह� और इनका �वषय के वल
प्राकृ त पदाथर् ही ह�। प्र�� से अप्राकृ त पदाथ� का �ान
नही ं हो सकता।

सांख्य दर्शन 63
प्र०- यो�गयो ं को तीनो ं काल के पदाथ� का सा�ात �ान हो
सकता है और योगी समा�ध अव�ा म� आ�ा और अ�र
के पदाथ� को प्र�� करता है, इस वा�े तु�ारा प्र�� का
ल�ण ठीक नही ं ?

उ०- यो�गनामबाघप्र���ा�दोषः ॥ ९०॥


अथर्- यह ल�ण वाह्य प्र�� का है और यो�गयो ं को अबाह्य
प्र�� भी होता है, इस�लये यो�गयो ं का प्र�� वाह्य �प न
होने से दोष नही।ं इसके �लये और यु�� देते ह�।

लीनव�ु ल�ा�तशयस�ं धाद्वा�ोषः ॥९१॥


योगी लोग ऐसी व�ु का जो दूर हो अथवा दूसरे के �च�
म� हो उसके साथ भी स�� रखते ह�, इस वा�े यो�गयो ं
के ऐसे प्र�� म� दोष नही ं आता।
प्र०- यो�गयो ं का ऐसा प्र�� �ो ं माना जाये ? �ोिं क यह
सा� अथार्त् प्रमाण क� आव�कता रखता है, इस�लये
इ��यबाह्य पदाथर् का ही प्र�� मानना चािहए और अती

सांख्य दर्शन 64
-��य पदाथर् का प्र�� न कहना चािहए ?
उ०- मन के इ��य होने से मान�सक प्र�� भी मानना
चािहए, इस�लये मान�सक प्र�� जो यो�गयो ं को होता है
वह �सद्ध है सा� नही।ं
प्र०- प्रमाण वह होता है जो सबके �लये एक सम हो, जो
प्र�� यो�गयो ं को हो अ� पु�षो ं को न हो, उसे प्र�� नही ं
कह सकते ?
उ०- इ��यो ं के �वकारी होने से इ��यज� �ान िकसी
को भी नही ं होता, जैसे-अ�े को �प का �ान, बिहरे को
श�- �ान इ�ािद।
प्र०- �ा सबके मन म� दोष है जो मान�सक प्र�� नही ं
होता?
उ०- �जसके मन म� मल, �व�ेप, आवरण, तीन दोष हो ं उसे
मान�सक प्र�� नही ं हो सकता, जैस-े दपर्ण से अपनी आँख
देख सकते ह�, पर�ु दपर्ण के मैला तथा ��र न होने अथवा

सांख्य दर्शन 65
कोई आवरण होने से नही ं देख सकते । जैसे गं गा म� यह
श�� है िक वह बड़े-बड़े मकानो ं को बहा ले जाये, पर�ु
यिद उसी गं गा को छोटी-छोटी ना�लयो ं म� �वभ� कर
िदया जाये तो एक �ट को भी नही ं बहा सकती। इसी प्रकार
मन सू� पदाथ� को जान सकता है, पर�ु �व��� वृ��
होने से उसक� श�� का �तरोभाव हो जाता है।
प्र०- इ��यो ं के प्र�� मानने और मान�सक प्र�� के न
मानने म� �ा दोष होगा ?

उ०- ई�रा�सद्धः ॥९२॥


मान�सक प्र�� के न मानने से ई�र क� �स�द्ध न होगी।
�ोिं क �प न होने से वह च�ु का �वषय नही ं ; सुगंध न
होने से वह ना�सका का �वषय नही ं ; रस न होने से वह रसना
का �वषय नही ं । जब ई�र का प्र�� न �आ तो अनुमान
भी न होगा, �ोिं क अनुमान प्र��-पूवर्क होता है।
�जसका तीन काल म� प्र�� न हो उसम� अनुमान हो नही ं

सांख्य दर्शन 66
सकता और श� प्रमाण से भी काम न चलेगा; �ोिं क वेद
के ई�र-वा� होने से वेद को प्रमाण मानते ह�। जब ई�र
�यं अ�सद्ध होगा तो उसका वा� वेद कै से प्रमाण माना
जायेगा? यहाँ अ�ो�ाश्रय दोष है, �ोिं क ई�र क� �स�द्ध
�बना वेद का प्रमाण हो नही ं सकता, और वेद के �बना
ई�र-वा� �सद्ध �ये प्रमाण ही नही ं हो सकता।
प्र०- अनुमान �ो ं नही ं होगा। �ोिं क कायर् को देखकर
कारण का अनुमान से �ान हो सकता है। ऐसे ही सृ�� को
प्र�� देखकर उसके कारण का अनुमान कर ल�गे?
उ०- अनुमान का होना �ा�� के अधीन है, और �ा��
प्र�� के अधीन है। जब तक प्र�� प्रमाण से �नयत
कारण कायर् का स�� �ान न हो जाये, तब तक �ा��
नही ं हो सकती, और जब तक �ा�� न हो तब तक
अनुमान नही ं हो सकता। जैसे जब बादल होता है, तभी वृ��
होती है, �बना बादल के कमी वृ�� होती नही ं देखी ; इस�लये
�जसका तीन काल म� प्र�� न हो उसका अनुमान से �ान

सांख्य दर्शन 67
नही ं हो सकता।
प्र०- हम �नयम-पूवर्क कायर् को �बना चेतन कतार् के नही ं
देखते, इससे हम �नय�मत कायर् से चेतन का अनुमान करते
ह�। यह जगत् भी प�रणामी होने से कायर्, और �नयम पूवर्क
होने से अपने चेतन कारण के अनुमान का साधक होगा?

उ०- मु�वद्धयोर�तराभावा� त���द्धः


॥९३॥
अथर्- सं सार म� कोई चेतन मु� और बद्ध से �भ� नही।ं
यिद तुम ई�र को बद्ध मानो तो वह सृ�� करने क� श��
नही ं रखता। यिद मु� मानो तो इ�ा के अभाव से सृ��
उ�� नही ं कर सकता, �ोिं क सं सार म� �जतनी सृ�� को
�नय�मत देखते ह�, वह कतार् क� इ�ा से होती है।

उभयथा�स�र�म् ॥९४॥
इस प्रकार मु�, बद्ध दोनो ं प्रकार के चेतन से सृ�� का होना
अनुमान से �सद्ध न होगा। इस�लये मान�सक प्र�� अव�

सांख्य दर्शन 68
मानना पड़ेगा। ई�र यो�गयो ं को समा�ध अव�ा म� प्र��
होते ह�, �ोिं क ��र मन के �बना ई�र का बोधक कोई
प्रमाण नही।ं ई�र को बद्ध और मु� दोनो ं प्रकार का नही ं
कह सकते, �ोिं क दोनो ं सापे� ह�, अथार्त् जो पहले बं धा
हो, वह ही बं ध से छू टने से मु� कहला सकता है । ई�र
इन दोनो ं अव�ाओ ं से पृथक् है । जगत् का करना उसका
�भाव है, इस�लये इ�ा क� आव�कता नही।ं
प्र०- एक व�ु म� दो �व�द्ध �भाव हो नही ं सकते। यिद
रचना ई�र का �भाव मानोगे तो �वनाश िकसका �भाव
मानोगे?
उ०- यह शं का परत� और अचेतन म� हो सकती �ोिं क
कतार् �त� होता है, और �त� उसे कहते ह�, �जसम�
करने न करने और उ�ा करने क� साम�र् हो।

मु�ा�नः प्रशं सा उपासा�स�द्ध� वा ॥९५॥


उपासना के �सद्ध होने से जो मु�ा�ा क� प्रशं सा क� जाती

सांख्य दर्शन 69
है, इससे प्रतीत होता है, िक ई�र है, �जसक� उपासना से
अ�ववेक क� �नवृ�� और �ववेक क� प्रा�� होकर आ�ा
को मु�� प्रा� होती है।

त���धानाद�ध�ातृ�ं म�णवत् ॥९६॥


प्रकृ �त िक्रया रिहत है। उसको िक्रया श�� ई�र क�
समीपता से प्रा� होती है, जैसे-म�ण को काँच क� समीपता
से सुरखी प्रा� होती है, परमा�ा म� इ�ा के न होने से उस
अकतार् कहा जाता है, और �बना उसको समीपता के प्रकृ �त
करने म� असमथर् है, जैसे-�बना हाथ के जीव उठा नही ं
सकता, इस वा�े कहते ह�, उठाना जीव का धमर् नही,ं पर�ु
हाथ म� जीव के �बना िक्रया श�� नही।ं इस वा�े जीवा�ा
को कतार् माना जाता है।

�वशेषकाय���प जीवानाम् ।।९७।।


जो कायर् सामा� �प से जगत् म� होते ह�, वह तो परमा�ा
क� स�ा से होते ह�, और जो कायर् �वशेष �प से प्र�त शरीर

सांख्य दर्शन 70
म� �भ�-�भ� होते ह�, वे जीव क� स�ा से होते ह�। सं सार के
आ�ा को परमा�ा और शरीर के आ�ा को जीवा�ा
कहते ह�।
प्र०- यिद प्र�� प्रमाण से व और प्रमाणो ं से ई�र क� �स�द्ध
हो गई, तो वेद का �ा प्रमाण माना जाये ? �ोिं क
अभौ�तक पदाथ� का तो प्र�� से �ान हो ही जायेगा, और
अभौ�तक का यो�गयो ं के अबाह्य प्र�� से हो जायेगा ?

उ०- �सद्ध�पबोद्ध�
ृ ाद्वा�ाथ�पदेशः ॥९८॥
अथर्- अ� प्रमाणो ं से ई�र के होने क� तो �स�द्ध हो जायेगी,
पर�ु उसके ��प का यथाथर् �ान नही ं होगा, जैसे-पुत्र को
देखकर उसके �पता के होने का �ान तो अनुमान से हो
सकता है, पर�ु उसके �प और आयु आिद के �ान के
वा�े श� क� आव�कता है। इस वा�े वेद का अव�
प्रमाण मानना चािहये।

सांख्य दर्शन 71
अ�ः करण� तद� ु �लत�ा�ोहवद�ध-
छातृ�म् ॥९९॥
अ�ःकरण भी चैत� के सं योग से उ��लत (प्रका�शत)
अतएव सं क� �वक�ािद काय� का अ�ध�ान अ�ःकरण
को है, जैसे-अ�� से तपाये �ए लोहे म� यद्य�प दाह श��
अ�� सं योग के कारण है तथा�प अ� पदाथ� के दाह करने
को वह लोह श�� भी हेतु हो सकती है।

प्र�तब��शः प्र�तबद्ध�ानमनुमानम् ॥१००॥


जो इ��य-ग्राह्य पदाथर् नही ं िदखता, उसके �ान के साधन
को अनुमान कहते ह� ; जैसे-अ�� प्र�� नही ं िदखती, िक�ु
धूम को देखकर उसका �ान हो जाना, इसी का नाम
अनुमान है। यह अनुमान �ा�� और साहचयर् �नयम के
�ान �बना नही ं होता ; जैसे-जब-तक कोई पु�ष पाकशाला
आिद म� धूम और अ�� क� �ा�� न समझ लेगा िक जहाँ
धूम होता है, वहाँ-वहाँ अ�� अव� होती है, तब तक धूम

सांख्य दर्शन 72
को देखकर अ�� का अनुमान कदा�प नही ं कर सकता ! वह
अनुमान �जतने प्रकार का है, इसका �नणर्य आगे कर�गे।
िक�ु प्रथम श� प्रमाण का ल�ण करते है ।

प्रा�ोपदेशः श�ः ॥१०१॥


यह सूत्र सब शा�ो ं म� ऐसा ही है। जैसे तीनो ं वेदो ं म� गायत्री
म� एक सम है, इसी भाँ�त इस सूत्र को भी जानना चािहये।
जो पु�ष धमर्�न� वाह्य धमर् से धम� के �ान को यथाथर् री�त
पर जानते ह�, तथा शुद्ध आचरणवान् ह�, उनका नाम प्रा�
है। उनके उपदेश को श� प्रमाण कहते ह�। प्रा�� का अथर्
यो�ता है, इस कारण त��ान से यु� अपौ�षवा� वेद
ही श� प्रमाण जानना चािहये। अब अगले सूत्र से प्रमाण
मानने क� आव�कता को प्रकट करते ह�

उभय�स�द्धः प्रमाणात् तदपु देशः ॥१०२॥


जब तक मनु� को व�ु का सामा� �ान हो, पर�ु यथाथर्
�ान न हो, तब तक वह सं शय कहाता है। सं शय क� �नवृ��

सांख्य दर्शन 73
�बना प्रमाण के हो नही ं सकती और सं शय क� �नवृ�� के
�बना प्रवृ�� नही ं हो सकती। प्रमाण से आ�, अना�, सद,्
असद,् दोनो ं प्रकार क� �स�द्ध होती है, इसी कारण प्रमाण
का उपदेश िकया है।

सामा�तो��ादभ
ु य�स�द्धः ॥१०३।।
तीन प्रकार के अनुमान होते ह�-पूवर्वत, शेषवत् और
सामा�तो�� । पूवर्वत् अनुमान उसे कहते ह�, जैसे धूम को
देखकर अ�� का अनुमान िकया जाता है, �ोिं क पहले
पाकशाला म� धूम और अ�� दोनो ं देखे थे, वैसे ही अ�त्र
होगं े, इस प्रकार का अनुमान पूवर्वत् कहलाता है। जो �वषय
कभी प्र�� नही ं िकया उसका कारण द्वारा अनुमान करना
शेषवत् अनुमान कहलाता है । जैसे-श्री और पु�ष दोनो ं को
नीरोग और हष-पु� देखकर इनके पुत्रो��� होगी यह
अनुमान करना, या मेघ को देखकर जल बरसेगा, यह
अनुमान करना शेषवत् का उदाहरण है। �जस जातीय
�वषय को प्र�� कर �लया है, उसके द्वारा सम� जा�त

सांख्य दर्शन 74
मात्र के कायर् का अनुमान करना सामा�तो �� कहलाता
है; जैसे-दो एक मनु� को देखकर यह बात �न�य करली
िक मनु� के सीगं नही ं होते, तो अ� मनु� मात्र के सीगं
न होगं े। यह सामा�तो� का उदाहरण है। इसी भाँ��
सामा�तो�� अनुमान म� यह बात भी आसकती है, िक जैसे
�बना कारण के कायर् क� अनु��� सामा�तो�� है। इससे
यह �न�य कर लेना चािहये िक जहाँ-जहाँ कायर् होगा, वहाँ-
वहाँ कारण भी अव� होगा।

�चदवसानो भोगः ॥१०४।।


चैत�ता का जो अवसान अथार्त् अभाव है, उसे भोग कहते
ह� । यहाँ पर मह�ष भो�ा और भोग को पृथक् -पृथक् करते
ह�, �ोिं क जड़ पदाथर् भोग होते और चैत� भो�ा होता
है, तथा भोग सदा प�रणामी होता है, और भो�ा एक रस
और चैत� होता है।
प्र०- �ा जड़, मन और इ��य� भो�ा नही ं ?

सांख्य दर्शन 75
उ०- नही,ं यह तो भोग के साधन ह�
प्र०- कमर् तो मन और इ��याँ करते ह� तो अकतार् जीवा�ा
उसका फल �ो ं भोगता है?

उ०- अकतुर्र�पफलोपभोगोऽ�ाद्यवत् ॥१०५॥


�जस प्रकार िकसानो ं के उ�� िकये अ�ािद का भोग राजा
करता है और सेना के हार जाने से राजा को दःु ख होता है,
इसी प्रकार इ��यो ं के िकये कम� का फल आ�ा भोगता
है।
प्र०- पिहले मान चुके हो अ� के कमर् से दूसरे का बं धन
नही ं होता, अब कहते हो दूसरे का िकया दूसरा भोगता है ?
उ०- �त� कतार् होता है। �त� के िकये का फल �तं त्र
को नही ं �मलता। यह इ��ये और मन �तं त्र नही,ं िक�ु
आ�ा के करने के साधन ह�, जैसे-खड्ग से काटने का कतार्
मनु� कहलाता है, ऐसे ही इ��यो ं के कम� का फल जीव
को होता है।

सांख्य दर्शन 76
प्र०- चैत� जीवा�ा को दःु खािद �वकार कै से हो स�ा है?

उ०- अ�ववेकाद्वा त��द्धेः कतुर्फर्लावगमः


॥१०६॥
कतार् को फल अ�ववेक से होता है, �ोिं क जीवा�ा अ��
है। व�ु का यथाथर् �ान �बना नै�म��क �ान के नही ं रहता,
इस�लये वह अ�ववेक से शरीरािद के �वकारो ं को अपने म�
मानता है, �जससे उसे दःु ख-सुख प्रतीत होते ह�; जैसे-सं सार
म� लोग प्राकृ त धन को अपना मानकर उसके नाश से दःु ख
मानते ह�, ऐसे ही अ�ववेक से शरीर�न� �वकारो ं से जीव
अपने को दःु खी-सुखी अनुभव करता है ।

नोभयं च त�ा�ाने ॥१०७॥


जब पु�ष प्रमाणो ं से यथाथर् �ान को प्रा� हो जाता है, तो
सुख दःु ख दोनो ं नही ं रहते ; �ोिं क जब हम� यह �न�य हो
जाता है, हम शरीर नही ं और न यह शरीर हमारा है, िक�ु
प्रकृ �त का �वकार है, तो इसके दःु ख सुख का हम� लेश भी

सांख्य दर्शन 77
नही ं प्रतीत होता।
प्र०- प्र��ािद प्रमाणो ं से प्राकृ �तक �ान नही ं होता,
इस�लये प्रकृ �त प्र�सद्ध है; �ोिं क वह िकसी इ��य का
�वषय नही?ं

उ०- �वषयोऽ�वषयोऽ��त दूरादेहानोपा-


दाना�ा�म��य� ॥१०८॥
इ��यो ं के �वषय प्र�त दूरािद कारणो ं से अ�वषय हो जाते
ह�, इस वा�े िकसी इ��य का �वषय न होने से प्रकृ �त क�
प्र�स�द्ध नही ं हो सकती है, जैसे-अभी एक मनु� था, पर�ु
थोड़े काल म� दूर चला गया, अब वह िकसी इ��य का �वषय
नही ं रहा।
प्र०- िकतने कारण ह� �जनसे व�ु का प्र�� �ान नही ं
होता?
उ०- अ�त दूर होने से, अ�त समीप होने से, इ��य के �बगड़
जाने से, मन के अ��र न होने, या मन के दूसरे काम म�

सांख्य दर्शन 78
लगे होने से, अ�त सू� होने से, बीच म� परदा होने से
इ�ािद, और भी कई कारणो ं से प्र�� का �वषय अ�वषय
होता है, इस�लये िकसी व�ु के प्र�� न होने से उसक�
प्र�स�द्ध नही ं हो सकती।
प्र०- प्रकृ �त का प्र�� न होने म� �ा कारण है ?

सौ�या�दतुपल��ः ॥१०९।।
उ०- प्रकृ �त और पु�ष का सू� होने से प्र�� �ान नही ं
होता, सू� होने से अ�� अणु होना अ�भप्राय नही ं
�ोिं क प्रकृ �त और पु�ष सवर्त्र �ापक है, इनका प्र��
यो�गयो ं को ही होता है।
प्र०- प्रकृ �त के प्र�� न होने से यह �ो ं माना जाये, िक
अ�त सू� होने से प्रकृ �त का प्र�� नही ं होता, िक�ु
प्रकृ �त का अभाव ही मानना चािहये, नही ं शश�ङ्गक�
अप्रती�त भी अ�त सू� होने से माननी पड़ेगी?

कायर्दशर्ना�दपु ल�ेः ॥११०॥

सांख्य दर्शन 79
उ०- सं सार म� प्रकृ �त के काय� को देखने से प्रकृ �त का होना
�सद्ध होता है; �ोिं क कायर् को देखने से कारण का अनुमान
होता है, और इन काय� को �बगाड़ कर सू� होकर कारण
म� लय होने से कारण क� सू�ता का अनुमान होता है।

वा�द�वम�तप�े�द�स�द्ध�र�त चेत् ॥१११॥


यिद सं सार म� वादी लोग प्रकृ �त क� अ�स�द्ध म� यह हेतु द�
िक कोई ब्रह्म को जगत् का कारण मानते ह�, कोई
परमाणुओ ं को, कोई जगत् को अनु�� ही मानते ह�, तो
इस जगत-�प कायर् से प्रकृ �त के अनुमान करने म� �ा हेतु
है ? प्रथम तो जगत् का कायर् होना सा� है, दूसरे कारण
ब्रहा है, या प्रकृ �त यह सं शया�क है, इस�लये प्रकृ �त प्र�सद्ध
है।

तथा�ेकतर�ष्ट्या एकतर�सद्धेनोंपलापः
॥११२॥
जब एक कायर् को देखकर कारण का अनुमान होता है और

सांख्य दर्शन 80
कारण को देखकर कायर् का अनुमान होता है, तो प्रकृ �त को
कारण �सद्ध मानना अनु�चत नही,ं �ोिं क सब कायर् प्रकृ �त
म� लय होते ह�। िद्वतीय पु�ष जो अप�रणामी है उसको
प�रणामी प्रकृ �त के अ�ववेक से ब� और �ववेक से मु��
होती है।

�त्र�वध�वरोधाप�े� ॥११३॥
सब कायर् तीन प्रकार के होते ह�-अतीत अथार्त गुजरा �आ,
दूसरे वतर्मान, तीसरे आने वाला । यिद कायर् को सत न माने
तो यह तीन प्रकार का �वहार-जैसे, घट टू ट गया, अथवा
घट वतर्मान है, अथवा घट होगा, नही ं बन सके गा। दूसरे
दःु ख सुख मोहािद क� उ��त म� �वरोध होगा �ोिं क ब्रह्म
तो आन���प होने से दःु खािद से शू� है, और परमाणु
और प्रकृ �त म� नाममात्र भेद है, इस�लए प्रकृ �त जगत् का
कारण �सद्ध अगले सूत्र म� इसे और भी पु� करते ह�—

नासद�
ु ादो न�ङ्गवत् ॥११४॥

सांख्य दर्शन 81
असत् िकसी व�ु का कारण नही ं हो सकता, जैसे-मनु�
के सीगं नही,ं इस�लये सं सार म� उसका कोई कायर् भी प्रतीत
नही ं होता, न उससे कोई कु छ बना सकता है।

उपादान�नयमात् ॥११५॥
सं सार म� सब व�ुओ ं का उपादान �नयत है, जैसे-मृ�त का
से घट तो बन सकता है पर�ु पट नही ं बन सकता, या लोहे
से तलवार बन सकती है, �ई से नही ं बन सकती, जल से
बफर् बनती है, घी से नही ं बनती, इसी प्रकार सब पदाथ� के
उपादान कारण �नयत ह�, �नय�मत कायर् कारण भाव के सत्
होने से कायर् को भी सत् मानना पड़ेगा।

सवर्त्र सवर्दा सवार्स�वात् ॥११६॥


यह कथन सवर्था अस�व है, �ोिं क सं सार म� ऐसे वा�ो ं
का साधक कोई भी ��ांतािदक नही ं िदखता िक (असतः
स�ायते) अथार्त् असत् से सत् होता है। अत: मानना
पड़ेगा िक ( सतः स�ायते ) अथार्त् सत् से सत् ही उ��

सांख्य दर्शन 82
होता है।

श�� श�करणात् ॥११७॥


कायर् म� कारण का श��म� होना ही उपादान कारण होता
है, �ोिं क �जस कारण द्र� म� जो कायर्श�� वतर्मान ही
नही ं है, उससे अ�भल�षत कायर् कदा�प नही ं हो सकता ;
जैसे िक कृ � रंग से �ेत रंग कदा�प नही ं हो सकता। अब
इससे यथाथर् �सद्ध हो गया िक जैसे कृ षण रंग से �ेत रंग
उ�� नही ं हो सकता, इसी प्रकार असत् से सत् भी उ��
नही ं हो सकता।

कारणभावाच ॥११८॥
उ��� से पिहले हो कायर् का कारण से भेद नही ं है, �ोिं क
कायर् कारण के भीतर ही सदैव रहता है, जैसे िक तेल �तलो ं
के भीतर रहता है।

न भावे भावयोग�ेत् ॥११९।।

सांख्य दर्शन 83
अब इसम� प्र� पैदा होता है िक कायर् तो �न� है तो भाव�प
'सत्' कायर् म� भाव�प उ���योग नही ं हो सकता, असत् से
सतू क� उ��� के �वहार होने से। अब इस �वषय म�
सां� के प्राचायर् अपने मत को प्रकाश करते ह�।

ना�भ����नब�नौ�वहारा�वहारौ
॥१२०।।
अब यहाँ पर स�ेह होता है िक यद्य�प उ��� से पिहले सत्
कायर् क� िकसी प्रकार उ��� हो, पर�ु अब कायर् स�ा
अनािद है, तो उसका नाश �ो ं हो सके । इसका उ�र यह
है, िक कायर् क� उ��� का �वहार और अ�वहार
अ�भ��� �न�म�क है, अथार्त् अ�भ��� के भाव से
कायर् क� उ��� होती है। अ�भ��� के अभाव से उ���
का अभाव है। जो पूवर् यह शं का क� थी, िक यिद कारण म�
कायर् रहता है, तो अमुक कायर् उ�� �आ, ऐसा कहना भी
नही ं हो सकता। उसके हो उ�र म� यह सूत्र है, िक
अ�भ��मान कायर् क� उ��� का �वहार अ�भ���

सांख्य दर्शन 84
�न�म�क है । पूवर् जो कायर् असत् नही ं या उसक� अब
उ��� �ई यह कथन ठीक नही ं है।

नाशः कारण लयः ॥१२१।।


"ली �ेषणे धातु से लय श� बनता है। अ�त सू�ता के
साथ कायर् का कारण म� �मल जाना, इसी का नाम नाश है।
कायर् क� �तीत अव�ा अथार्त् जो अव�ा कायर् क�
उ��� से पूवर् थी, उसी को धारण कर लेना और जो नाश
भ�व�त् म� होनेवाला है, उसी का नाम प्रागभाव नामक
नाश है। कोई-कोई यह कहते ह� िक जो व�ु नाश हो जाती
है उसक� पुन���� नही ं होती, पर�ु यह कहना सवर्था
अयो� है, �ोिं क इस कथन से प्र��भ�ा म� दोष होगा,
अथार्त् �जस पदाथर् को दो वषर् पहले देखा था, उसको ही
इस समय देखने से यह �ान होता है िक जो पदाथर् पिहले
देखा था उसी को इस समय देखता �ँ । इस �ान म� यह दोष
होगा िक जो �ान पूवर् �आ था वह इतने िदन तक न� रहा
और िफर भी समयानुसार उ�� हो गया । यिद न� �ये

सांख्य दर्शन 85
कायर् क� दूसरी बार अनु��� ही ठीक होती तो इसम�
अनु��� का ल�ण पाया भी जाता। अतएव यही कहना
ठीक है िक नाश को प्रा� कायर् िफर भी उ�� हो सकता
है। अब यह स�ेह होता है िक यिद पिहले कहा �आ ही
प� ठीक है, तो अपने कारण म� कायर् का नाश होता �ो ं
नही ं िदखता, जैसे-त�ु कपास से पैदा होते ह�, पर�ु नाश
के समय बह �मट्टी म� �मल जाते ह�। इसका उ�र यह है िक
कायर् का कारण म� लय हो जाना �ववेक� पु�षो ं को िदखता
है और अ�ववेिकयो ं को नही ं िदखता, जैसे त�ु �मट्टी के �प
हो जाते ह� और �मट्टी कपास के वृ��प हो जाती है और
वह वृ� फू ल, फल, कपास आिद �प से प�रणाम को प्रा�
होता है और जब कायर् का नाम और उसी के समान कु छ
बदला �आ �प सं सार म� मौजूद है, तब नाश, ऐसा कहना
भी यो� नही।ं यही �सद्धा� महाभा�कार मह�ष पतं ज�ल
जी का भी है, िक आकृ �त �न� है। अब यहाँ यह स�ेह
होता है िक अ�भ��� कायर् क� उ��� के पूवर् भी थी या
नही ं थी ? यिद थी तो कारण के य� से पूवर् अ�भ��� को

सांख्य दर्शन 86
�कायर्-जनकता दोष होगा और उ��� के �लए जो कारण
द्वारा य� िकया जाता है वह �थर् होगा । यिद कायर् को
उ��� से पिहले अ�भ��� नही ं थी तो स�ायर् प� म�
हा�न होगी; �ोिं क जब यह कह चुके ह� िक जो कायर् पूवर्
था, उसी क� इस समय उ��� होती िक�ु असत् क� उ���
नही ं होती, तो अ�भ��� का पूवर् म� अभाव कहने म� दोष
होगा। यिद यह कहा जाये िक अ�भ��� तो पूवर् भी थी
लेिकन एक अ�भ��� से दूसरी अ�भ��� कारण द्वारा
होती जाती है, इसी�लये कारण �ापार है, ऐसा कहने पर
अनव�ा दोष होगा �ोिं क एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी,
इसी तरह कहते जाओ, लेिकन कही ं भी �वश्राम नही ं हो
सकता, इस कारण यह अनव�ा दोष हो गया। इन पूवर् कहे
दोषो ं के उ�र यह ह�--प्रथम तो कारण �ापार से सब काय�
क� उ��� होती है, इस प्रकार पूव�� शं का ही नही ं हो
सकती। दूसरे यिद यह भी मान �लया जाये िक अ�भ���
पिहले नही ं थी, तो भी कारण �ापार द्वारा उसक� स�ा
प्रकाश करने के वा�े सदैव आव�क है, तब कोई दोष

सांख्य दर्शन 87
नही ं हो सकता । तीसरे यह भी है िक जब कायर् क� अनागत
अव�ा म� (जबतक कायर् उ�� नही ं �आ ) सत् कायर्वाद
क� कोई हा�न नही ं हो सकती, तब दोष भी नही ं हो सकता
; �ोिं क जबतक घट पैदा ही नही ं �आ, उससे पिहले भी
सत् कायर्वाही �मट्टी म� घट को मानते ह�, इसी प्रकार
अ�भ��� को भी समझना चािहये । यिद कोई ऐसा
स�ेह करे िक कायर् का प्रागभाव पिहले न होना ही नही ं
मानते तो घट पिहले नही ं था, िक�ु अब पैदा �आ है, ऐसा
कहना भी नही ं बन सकता। इसका उ�र यह है, िक कायर्
क� अव�ाओ ं का ही भाव अभाव कहते ह� न िक कायर् का
और जो अनव�ा दोष िदया उसका उ�र यह है—

पार�यर्तोऽ�ेषणा बीजांकुरवत् ॥१२२॥


बीज और अंकुर के समान अथार्त् जब �वचार िकया जाता
है िक पिहले बीज था या वृ�, इस �वषय म� पर�रा मानी
गई है। इसी तरह अ�भ��� मानी गई है, �सफर् भेद इतना
ही है, िक उसम� क्र�मक पर�रा दोष उ�� होता है, अथार्त

सांख्य दर्शन 88
पिहले कौन था, और इसम� एक-का�लक एक ही समय म�
एक का दूसरे से उ�� होना यह दोष, होगा, लेिकन यह
दोष इस कारण माना जाता है, िक पातं जलभा� म� भी
�ास जी ने काय� को ��प म� �न� और अव�ाओ ं से
�वनाशी माना है, वहां अनव�ा दोष को प्रामा�णक माना
है। यह बीजाङ्कर का ��ा� के वल लौिकक है, वा�व म�
यहाँ ज� और कमर् का ��ा� िदया जाता तो श्रे� था; से
कमर् होता है या कमर् से ज�, �ोिं क बीजाङ्कर के झगड़े म�
कोई-कोई आिद सगर् म� वृ� के �बना ही बीज क� उ���
मानते ह�, वा�व म� अव�ा कोई व�ु नही ं है, इसको कहते
ह�—

उ���वहादोषः ॥१२३॥
जैसे िक घट क� उ��� के ��प को ही वैशे�षकािद असत्
कायर्वादी कमी के सबब मानते ह�, अथार्त् यह उ��� िकस
से उ�� �ई, ऐसा स�ेह नही ं करते, के वल एक ही उ���
को मानते ह�। इसी तरह अ�भ��� क� उ��� िकस' से

सांख्य दर्शन 89
�ई, यह �ववाद नही ं करना चािहये । के वल अ�भ��� को
ही मानना चािहये । स�ायर्वादी और असत् कायर्वादी इन
दोनो ं म� के वल इतना ही भेदा है, िक असत् कायर्वादी कायर्
उ��� क� पूवर् दशा को प्रागभाव और कायर् के कारण म�
लय हो जाने को �ं स कहते ह�, और इन दोनो ं अव�ाओ ं
म� कायर् का अभाव मानते ह�, और इसी प्रकार स�ायर्वादी
कही �ई दोनो ं अव�ाओ ं को अनागत और अतीत कहते
ह�, तथा उन अव�ाओ ं म� कायर् का भाव मानते ह�, कायर् से
कारण का अनुमान कर लेना चािहए।
प्र०- िकस-िकस को कायर् कहते ह� ?

उ०- हेतुमद�न�म�ा�प सिक्रयमनेकमा�श्रत


�लङ्गम् ॥१२४॥
हेतुमान् अथार्त् कारण वाला, अ�न� अथार्त् हमेशा एकसा
जो न रहे, अ�ा�प अथार्त् एक देश म� रहनेवाला, सिक्रय
िक्रया क� अपे�ा वाला, अनेक �जसके अलग-अलग भेद

सांख्य दर्शन 90
मालूम होये, आ�श्रत कारण के अधीन इसको �लङ्ग अथार्त्
कायर् के पहचान ने का �चह कहते ह�।
प्र०- �जसम� हेतुम�ािदक होते ह� वही प्रधान के �लङ्ग कहे
जाते ह�!
उ०- तु�ारा यह कहना सवर्था असं गत है। �ोिं क प्रथम
तो इस सूत्र म� या पूवर् सूत्र म� प्रधान का नाम ही नही ं है, दूसरे
सां�कार ने प्रधान श� को �िढ़ नही ं माना, इसी कारण
इसको पु�षवाचक भी कह सकते ह� ; िक�ु प्रकृ �तवाचक
है । तीसरे यिद उनके ता�यार्नुसार (मतलब के मािफक )
यह �लङ्ग पु�ष के ही मान �लये जाय� तो भी ठीक नही,ं
�ोिं क सां�कार के मत म� कायर्मात्र क� उ��� प्रकृ �त से
है, एवं प्रकृ �त और पु�ष का भेद भी माना है, एवं
पर�रानपे�ा भी क�पलाचायर् का �सद्धांत है, तो प्रकृ �त से
पु�ष का अनुमान नही ं हो सकता।
हेतुम�ािद �वशेषण देने से कायर् कारण म� भेद मालूम होता
है, इसी कारण उस भेद क� प्रती�त म� प्रमाण देते ह�—

सांख्य दर्शन 91
आ��ाद भेदतो वागुण सामा�ादे����द्धः
प्रधान�पदेशाद्वा ।।१२५।।
अथर्- पा�� (प्र�� ) से, या कारण के सामा� गुण कायर्
म� पाये जाते ह�। �वशेष गुणो ं म� भेद रहता है,. इससे प्रधान
�पदेश से अथार्त् यह कारण है, यह कायर् है। इस लौिकक
�वहार से कायर् कारण के भेद क� �स�द्ध होती है।

�त्रगुणचेतन�ा�द द्वयोः ॥१२६॥


अब कायर् कारण का भेद कहकर कायर् कारण का साध�र् ,
अथार्त् बराबरीपन कहते ह�- िक सत्, रज, तम यह तीनो ं
गुण अचेतन�ािद धमर् दोनो ं के समान ही ह�, आिद श� से
प�रणा�म�ािद का ग्रहण होता है।

प्री� प्री�त �वषादायगुणा नाम�ो� वैधय॑म्


॥१२७॥
अथर्- अब कायर् कारण का पर�र ( आपस म� ) वैध�र्

सांख्य दर्शन 92
कहते ह�-स�, रज, तम, इन गुणो ं का सुख द:ु ख मोह इनम�
अ�ोऽ� वैध�र् ( एक ही कारण से अनेक-अनेक प्रकार
के कायर् क� उ��� होना) िदखाई पड़ता है। इस सूत्र म�
आिद श� से �जनका ग्रहण होता है, उनका वणर्न
प��शखाचायर् ने इस प्रकार िकया है िक स�गुण से प्री�त,
�त�त�ा, स�ोष आिद सुखा�क अन� अनेक धमर् वाले
कायर् पैदा होते ह�। इस ही री�त से रजोगुण से अप्री�त शोक
आिद दःु खा�क अन� अनेक धमर् वाले कायर् पैदा होते ह�,
एवं तम से �वषाद, �नद्रा (नीदं ) आिद मोहा�क अन�
अनेक धमर् वाले कायर् पैदा होते ह�। घट�प कायर् म� के वल
�मट्टी से �पमात्र का ही वैध�र् है।

लघ्वा�दधः साध�र् वैधय॑�गुणानाम् ॥१२८॥


अथर्- लघु�ािद धम� से स�ािद गुणो ं का साध�र् और
वैध�र् है ; जैसे लघु� के साथ सवर् स����यो ं का
(सतोगुण के पदाथ� का साध�र् है, रज और तम का वैधय॑
है, एवं चं चल�ािद के साथ रजो ���यो ं का ( रजोगुण

सांख्य दर्शन 93
के पदाथ� का) साध�र् है, और स� तम का वैध�र् है, इस
ही प्रकार गु�� आिद के साथ तमो���यो ं का (तमोगुण
के पदाथ� का) साध�र् है, और स�, रज से वैध�र् है
प्र०- यद्य�प महदािद ��प से �सद्ध ह� तो भी प्र�� से
उनक� उ��� नही ं िदखती, इसी कारण महदािदको ं के कायर्
होने म� कोई भी प्रमाण नही ं ?

उ०- उभया��ात् कायर्�ं महदादेघंटा- �दवत्


।।१२९।।
प्रकृ �त और पु�ष इन दोनो ं से महदािदक और ही ह�, इस
सबब उ�� कायर् मानना चािहये, जैसे-घट �मट्टी से अलग है
इसी सबव कायर् है, �ोिं क मट्टी कहने से न तो घट का बोध
होता है, और न घट कहने से �मट्टी का ही �ान होता है।
इसी प्रकार प्रकृ �त और पु�ष कहने से महदािदको ं का भी
�ान नही ं होता। इस कारण मदािदको ं को प्रकृ �त और पु�ष
से �भ� कायर् मानना चािहये; �ोिं क प्रकृ �त और पु�ष ह�,

सांख्य दर्शन 94
िक�ु कायर् नही ं ह�।

प�रणामात् ।।१३०॥
अथर्- प्रकृ �त और पु�ष प�र�मत भाव से रहते ह�, कभी
घटते बढ़ते नही।ं इसी सबब उनको कायर् नही ं कह सकते ;
�ोिं क—

सम�यात् ॥१३१॥
अथर्- मन को आिद लेके जो िक महदािदको ं का अवा�र
भेद ह�, सो अ�ािदको ं के �मलने से बढ़ते रहते ह�, और भूखे
रहने से �ीण होते ह�। इस पूव�� सम�य से भी
महदािदको ं को कायर्� मालूम होता है ; �ोिं क जो �न�
पदाथर् होता है वह अवयव (टुकड़ा) रिहत होता है, अत:
उसका घटना-बढ़ना नही ं हो सकता। इसका अथर् यह �आ
िक घटना-बढ़ना आिद कायर् म� हो सकता है, कारण म� नही ं
हो सकता। मन आिद अ� के �मलने से बढ़ते ह�, और न
�मलने से घटते ह�। इसी से महदािदको ं का कायर्� �सद्ध

सांख्य दर्शन 95
होता है।

श��त�े�त ॥१३२॥
अथर्- महदािदक पु�ष के कारण ह�, इसी म� महदािदको ं को
कायर्� है, �ोिं क इनके �बना पु�ष कु छ नही ं कर सकता,
जैसे िक नेत्रो ं के �बना कु छ नही ं कर सकता, अथार्त् देख
नही ं सकता, और पु�ष के �बना नेत्र म� देखने को श�� नही ं
हो सकती ; �ोिं क नेत्र तो जड़ ह�, इस कारण मनु� दशर्न
�प िक्रया को नेत्र�पी कारण के �बना नही ं कर सकता, इस
ही सबब से नेत्रािदको ं को कायर्� माना है। इस सूत्र म� इ�त
श� से यह जानना चािहये िक प्र�ेक कायर् क� �स�द्ध म�
इतने ही प्रमाण होते ह�।

तद्धाने प्रकृ �तः पु�षो वा ॥१३३॥


अथर्- महदािदको ं को कायर् नही ं माने तो मह�� को प्रकृ �त
या पु�ष इन दोनो ं से एक अव� माना जायेगा, �ोिं क जो
महदािद प�रणामी हो ं तो प्रकृ �त, और महदािद अप�रणामी

सांख्य दर्शन 96
ही को पु�ष मानना पड़ेगा।
प्र०- प्रकृ �त और पु�ष से �भ� अथार्त् दूसरा और कोई
पदाथर् मान �लया जाये तो �ा हा�न है ?

उ०- तयोर��े तु��म् ॥१३४॥


अथर्- हाँ ! हा�न है, तु�� दोष को प्रा�� होती है; �ोिं क
लोक म� प्रकृ �त और पु�ष के �सवाय अ� को अव�ु माना
है अथार्त् प्रकृ �त और पु�ष यह दोही व�ु ह� और सब व�ु
ह�; अतएव इसको प्रकृ �त का कायर् मानना चािहये। यिद
दूसरा मान� तो इसके कारण भी दूसरे ही मानने पड़�गे । इस
प्रकार महदािदको ं को कायर्� �सद्ध �आ। अब उनके द्वारा
प्रकृ �त का अनुमान �सद्ध करते ह�।

कायार्त् कारणानुमानं त�ािह�ात् ।।१३५॥


अथर्- कायर् से कारण का अनुमान होता है; �ोिं क जहाँ-
जहाँ कायर् होता है, वही-ं वही ं कारण भी होता है, और
महदािदक भी अपने काय� के उपादान कारण ह�, जैसे िक

सांख्य दर्शन 97
�तल�प कायर् �गत (अपने म� रहने वाले ) तेल का उपादान
कारण है । इस कथन से महदािदको ं के कायर्� म� िकसी
प्रकार क� हा�न नही ं है।

अ��ं �त्रगुणा�लगात् ॥१३६॥


अथर्- मह��ािदको ं क� अपे�ा भी मूल कारण प्रकृ �त
अ�� अथार्त् सू� है ; �ोिं क मह�� के कायर्
सुखािदको ं का प्र�� होता है, और सू�ता के कारण प्रकृ
-�त का कोई गुण प्र�� नही ं होता है।
प्र०- प्रकृ �त तो परम सू� है, अत: उसका न होना ही �सद्ध
होता है ?

उ०- त�ायर्त���दै पलापः ॥१३७॥


अथर्- प्रकृ �त का अभाव (न होना) नही ं हो सकता �ोिं क
प्रकृ �त क� �स�द्ध (होना) मालूम पड़ती है। उसके कायर्
महदािदक उसको �सद्ध कर रहे ह�। यहाँ तक प्रकृ �त का

सांख्य दर्शन 98
अनुमान समा� �आ। अब अ�ाय क� समा�� तक पु�ष
का अनुमान कह�गे।

सामा�ेन �ववादाभावाद्धमर् व� साधनम्


॥१३८॥
अथर्- �जस व�ु म� सामा� ही से �ववाद नही ं है उसक�
�स�द्ध म� साधनो ं क� कोई अपे�ा नही,ं जैसे-प्रकृ �त म�
सामा� ही से �ववाद है, उसक� �स�द्ध के वा�े साधनो ं क�
अपे�ा आव�कता है, वैसे पु�ष म� नही ं है ; �ोिं क �बना
चेतन के सं सार म� अँधेरा प्रतीत (मालूम ) होगा, यहाँ तक
िक बौद्ध भी सामा�तः कमर् भो�ा अहं पदाथर् को पु�ष
मानते ह�, तो उसम� िकसी प्रकार का �ववाद नही ं हो सकता।
उदाहरण, धमर्वत्- धमर् क� तरह, जैसे िक धमर् को सभी
बौद्ध ना��क आिद मानते ह�, वैसे ही एक चेतन को सभी
मानते ह�
प्र०- पु�ष िकसको कहते ह� ?

सांख्य दर्शन 99
उ०- शरीरा�द��त�र�ः पुमान् ॥१३९॥
अथर्- शरीर को आिद से लेकर प्रकृ �त तक जो २३ पदाथर्
ह� उनसे जो पृथक् है उसका नाम पु�ष है।
प्र०- शरीरािद से जो �भ� है उसका ही नाम पु�ष है। इसम�
�ा हेतु है ?

उ०- सं हतपदाथर्�ात् ॥१४०॥


जैसे श�ा आिदक सं हत पदाथर् दूसरे के वा�े सुख के देने
वाले होते ह�, अपने वा�े नही।ं इसी प्रकार प्रकृ �ािदक
पदाथर् भी दूसरे के वा�े ह� । �� आशय यह है, िक प्रकृ �त
आिद �जतने सं हत पदाथर् ह�, वह िकसी दूसरे के वा�े ह�,
और जो वह दूसरा है, उसी का नाम पु�ष है, और सं हत
देहािद से �भ� का नाम पु�ष है। यह पहले भी कह पाये ह�,
िफर यहाँ कहना हेतुओ ं क� के वल �गनती बढ़ानी है।
प्र०- पु�ष को प्रकृ �त ही �ो ं न माना जाये, इसम� �ा

सांख्य दर्शन 100


कारण है?

उ०- �त्रगुणा�द�वपयर्यात् ॥१४१॥


अथर्- �त्रगुण अथार्त् सत् , रज, तम, मोह आिद श� से
जड़�ािद, इनसे �वपरीत होने से पु�ष प्रकृ �त नही ं हो
सकता, अथार्त् वह प्रकृ �त से �भ� है ; �ोिं क �त्रगुणत्र
�व�श� का नाम प्रकृ �त है, अथार्त् सतोगुण, रजोगुण,
तमोगुण ; इन से �जसका स�� है, उसका ही नाम प्रकृ �त
माना है, और �जसम� �न��, शुद्ध�, बुद्ध� मु��, यह
धमर् है, उसका ही नाम पु�ष है, तो �वचारना चािहये प्रकृ �त
और पु�ष म� िकतना भेद । इस ही कारण पु�ष को प्रकृ �त
नही ं मान सकते ह�।

अ�ध�ाना�े�त ॥१४२॥
अथर्- और भी कारण है, पु�ष अ�ध�ान होने से प्रकृ �त से
जुदा ही है। अ�ध�ान अ�ध�ेय सं योग से मालूम पड़ता है,
िक दो के �बना सं योग हो ही नही ं सकता। इससे �सद्ध �आ

सांख्य दर्शन 101


िक पु�ष प्रकृ �त से �भ� है। आशय यह है िक जब प्रकृ �त
को आधार कहते ह�, तब उसम� प्राधेय भी अव� होना
चािहये वह आधेय पु�ष है।
प्र०- अ�ध�ान िकसको कहते ह� ?
उ०- आधार को
प्र०- आधार श� का �ा अथर् है ?
उ०- रखने क� जगह, जैसे पात्र ।
प्र०- अ�ध�ेय िकसको कहते ह� ?
उ०- आधेय को। ।
प्र०- प्राधेय श� का �ा अथर् है ?
उ०- रखने क� व�ु को आधेय कहते ह�, जैसे-घृत "धी।

भो� भावात् ॥१४३॥


अथर्- यिद यह कहो शरीरािदक ही भो�ा है, तो कतार् और

सांख्य दर्शन 102


कमर् का �वरोध होता है। �ोिं क आप ही अपने को भोग
नही ं सकता, अथार्त् शरीरािदक प्रकृ �त के कायर् ह�, और
सच�ना- िदक भी प्रकृ �त के कायर् ह�। इस कारण आप
अपना भोग नही ं कर सकता।

कै व�ाथर् प्रवृ�े� ॥१४४॥


अथर्- यिद शरीरािदक को ही भो�ा माना जायेगा, तो
दूसरा दोष यह भी होगा िक मो� के उपाय करने म� िकसी
क� प्रवृ�� न होगी, �ोिं क शरीरािद के �वनाश होने से आप
ही मो� होना स�व है, और तीसरा दोष यह होगा, िक सुख
दःु खािद प्रकृ �त के �ाभा�वक धमर् ह�, और खभाव िकसी
का नाश नही ं होता, इस कारण मो� अस�व है, इससे
पु�ष को ही भो�ा मानना ठीक है। पूवर् कहे �ए प्रमाणो ं से
पु�ष को २३ त�ो ं से �भ� कह चुके, अब पु�ष �ा व�ु
है, यह �वचार करते ह�।

जड प्रकाशायोगात् प्रकाशः ॥१४५॥

सांख्य दर्शन 103


इस �वषय म� वैशे�षक कहते ह� िक प्रकाश��प आ�ा मन
के सं योग होने से बा� �ान से यु� होता है और परमा�ा
प्रकाशमय है, जड़ प्रकृ �त से प्रकाशमय नही ं हो सकता।
लोक म� जड़ (प्रकाश रिहत) का� लो�ािदक है, और इनम�
प्रकाश िकसी तरह नही ं देखने म� आता । इस कारण
सू�ार्िदक के समान प्रकाश�प पु�ष जानना चािहये।
प्र०- प्रकाश�� आ�ा म� तमािद गुणो ं का भाव है, था
नही?ं

�नगुर्ण�ा��चद्धमार् ॥१४६॥
उ०- नही ं ! कारण यह है, िक पु�ष �नगुर्ण है, इसी सवत्र
�चत्, सत्, रजािद गुणवाला नही ं हो सकता; �ोिं क गुण
प्रकृ �त के धमर् ह�।
प्र०- ब�त तीन गुण पु�ष म� मानकर उसको �शव, �व�ु,
ब्रह्मा कहते ह� ?

सांख्य दर्शन 104


उ०- श्रु�ा �सद्ध� नापलापः स��� वाधात्
॥१४७॥
अथर्- यद्य�प उ� कथन से पु�ष म� गुण क�ना िकया
जाता है, लेिकन यु�� और अ�त इन दोनो ं से �व�द्ध है,
�ोिं क श्रु�तयो ं म� भी "सा�ी चेता के वलो�नगुर्ण�" इ�ािद
�वशेषणो ं पु�ष को �नगुण र् हो प्र�तपादन िकया है। एवं उस
अनुभव प्र�� म� दोष भी हो सकता है, �ोिं क वह अनुभव
िकसको होगा। यिद पु�ष को होगा, तो �ान को पु�ष से
पृथक् व�ु मानना पड़ेगा। इस कारण पु�ष �नगुर्ण है।
प्र०- जो पु�ष प्रकाश��प ही है, तो सुषु�� श्रािद
अव�ाओ ं क� क�ना नही ं हो सकती, �ोिं क उन
अव�ाओ ं म� प्रकाश��पता नही ं रहती । यह जीव पर
शं का है ?

उ०- सुष�
ु ावसा���म् ॥१४८॥
अथर् - पु�ष सुषु�� का आधा सा�ी है, अथार्त् �जन अ�:-

सांख्य दर्शन 105


करण क� ���यो ं का नाम सुषु�� है, वह अ�ःकरण पु�ष
के आश्रय है। इसी कारण उस सुषु�� का सा�ी पु�ष है,
और सुषु�� अ�ःकरण का धमर् है।
प्र०- यिद पु�ष प्रकाश��प है, और अ�ःकरण वृ��यो ं
का आश्रय है, तो वह पु�ष एक है या अनेक ?

उ०- ज�ा�द�व�ातः पु�षब��म् ॥१४९।।


सं सार म� ज� को आिद लेकर अनेक अव�ा देखने म�
आती ह�, तो इससे ही �सद्ध होता है, िक पु�ष ब�त ह�।
�ोिं क यिद सब अ�ःकरण क� वृ��यो ं का आधार एक हो
पु�ष होता, तो यह घट है, इस घट को म� जानता �ँ , इस
घट को म� देखता �ँ । इस प्रकार का अनुभव �जस �ण म�
एक अ�ःकरण को होता है, उसी �ण म� सब अ�ः करणो ं
को होना चािहये ; �ो-ं िक वह एक ही सबका आश्रयी है,
लेिकन सं सार म� ऐसा देखने म� नही ं आता, इस कारण पु�ष
अनेक ह�, और जो कोई-कोई टीकाकार इस सूत्र का यह
अथर् करते ह� िक ज�ािद �व�ा ही से ब�त से पु�ष प्रतीत

सांख्य दर्शन 106


(मालूम) होते ह� व�ुत: नही।ं उनका कहना इस कारण
अयो� है "पु�वान् �गर् जायेते, पापी नरके , अ�ोब�ते,
�ानी मु�ते । पु�ा�ा �गर् म� पैदा होता और पापी नरक
म� पैदा होता है ; अ� ब�न को प्रा� होता है, �ानी मु�
होता है, इ�ािद श्रु�तयां ब�� ( ब�त सारो)ं को प्र�तपादन
(सुबूत ) करती ह� उनसे �वरोध होगा।
प्र०- एक पु�ष क� ही अनेक ज�ािद �व�ा हो सकती
या एक पु�ष क� एक ही ज�ािद �व�ा है ?

उ०- उपा�ध भेदे�ेक� नानायोग त्राकाश-


�ेव घटा�द�भः ॥१५०॥
अथर्- उपा�धभेद (शरीरािद) होने पर भी एक पु�ष का
अनेक ज�ो ं म� अनेक शरीरो ं से योग -(मेल) होता है; जैसे
िक एक आकाश का घटािदको ं के साथ योग होता है।
(खुलासा ) एक ही पु�ष ज�ा�र म� अनेक उपा�धयो ं को
धारण करता है, और अनेक योग वाला कहलाता है,
आकाश के समान ; जैसे िक आकाश एक ही है, लेिकन

सांख्य दर्शन 107


जब घट के साथ योग को प्रा� होता है, तो घटाकाश
कहलाता है, और मठ के साथ योग को प्रा� होता है, तो
मठाकाश कहलाता है । लेिकन वे उपा�धयाँ आकाश को
एक ही समय और एक ही देश म� एक साथ नही ं हो सकती,
अथार्त् �जतने �ान आकाश का नाम भठाकाश है, उस
व� उस ही आकाश का नाम घटाकाश िकसी प्रकार नही ं
हो सकता, िक�ु मठ क� उपा�ध को नाश करके दूसरे व�
घट के �ापन होने पर घटाकाश कह सकते ह�। इस प्रकार
ही पु�ष भी एक देश काल म� अनेक उपा�धयो ं (शरीरािद)
को नही ं धारण कर सकता है, िक�ु अनेक काल म� अनेक
उपा�धयो ं को धारण करके नाना योग वाला कहने म� आता
है, अथार्त् एक ही जीव कभी मनु�, कभी पशु, प�ी आिद
नाना प्रकार के शरीर धारण करके एक ही रहता है। इस ही
प्रकार अनेक जीव अनेक उपा�धयो ं को धारण करते ह�, यह
�ा�नयो ं को ही अनुभव हो सकता है, और भी इस ही �वषय
म� कहते ह�।

सांख्य दर्शन 108


उपा�ध�भद्यते न तु तद्वान् ॥१५१॥
अथर्- उपा�ध के ब�त से �प होते ह� और उपा�ध को ही
नाना�पो ं से बोलते ह�, लेिकन उपा�ध वाला पु�ष एक ही है।
यद्य�प अनेक न� (नवीन) वेदा� शा� के जानने वाले
यह कहा करते ह�, िक एक ही आ�ा का कायर् कारण उपा�ध
म� प्र�त�व� के पड़ने से जीव ई�र का भेद है, और प्र�त-
�व� आपस म� जुड़े होने से ज�ािद �व�ा भी हो सकती
है। यह उनका कथन इस प्रकार अयो� है, इसम� भेद और
अभेद क� कोई क�ना नही ं हो सकती; �ोिं क �व�
(परछाई वाला), प्र�त�व� (परछाई), इन दोनो ं क� �बना
अलहदगी माने �व�, प्र�त�व� भाव हो ही नही ं सकता,
और जीव को ब्रह्म का प्र�त�व� मानते ह�, तो देखते ह�, िक
प्र�त�व� जड़ है। श्रतएव पु�ष को भोका, बद्ध, मु�, कभी
नही ं कह सकते ह�, और जीव, ब्रह्म को एकता के �वषय म�
हा�न प्रा� होगी। अतएव सां� मतानुसार, जीव, ब्रह्म को
एक मानना भी नही ं हो सकता है। एक ही ब्रह्म जीव �प को

सांख्य दर्शन 109


धारण करता है इस प� का ख�न इस सूत्र से होता है—

एवमेक�ेन प�रवतर्मान� न �व�द्ध धमार्-


�ासः ॥१५२॥
अथर्- यिद एक ही ब्रह्म स�ूणर् उपा�धयो ं से �मलकर जीव
�प हो जाता है, तो उसम� �व�द्ध धमर् दःु ख ब�नािद का
अ�ास अव� होगा, इस कारण जीव, ब्रह्म को एक
मानना यो� नही ं है।
प्र०- जबिक पु�ष को �नधर्मर् कह चुके, तब ज�, मरण,
ं र हो सकते ह�?
मो�, ब� आिद धमर् �ोक
उ०- यह धमर् प�रणामी नही ं है, जैसे- �िटक म�ण के पास
काला, पीला, हरा इ�ािद रंगो के रख देने से वह म�ण भी
नीली, पीली, काली िदखने लगती है, लेिकन म�ण तो
वा�व म� सफ़े द ही है, इस प्रकार ही पु�ष म� भी मन के धमर्
सुख, दःु खािद शरीर के धमर्, �पता, पुत्रािद प्रतीत होते ह� ।

सांख्य दर्शन 110


अ�धमर्�े�प नारोपा���द्धेरेक�ात्
॥१५३॥
अथर्- मन आिदको ं का धमर् जो सुख, दःु खािद उस धमर् का
पु�ष म� आरोप करने पर भी पु�ष को प�रणा�म� क� �स�द्ध
नही ं हो सकती, �ोिं क सुख, दःु खािद पु�ष के धमर् नही ं ह�,.
िक�ु मत के धमर् ह�। पु�ष ज�ा�र म� एक ही बना रहता
है। जब हर एक शरीर म� एक-एक पु�ष है तो नाना पु�ष
�सद्ध �ए और "एकमेवािहतीयं ब्रह्म' इ�ािदक अद्वैत
प्र�तपादक श्रु�तयो ं से �वरोध होगा?

उ०- नाद्वेतश्रु�त �वरोधो जा�तपर�ात्


॥१५४॥
अथर्- अद्वैत को प्र�तपादन (�सद्ध) करने वाली श्रु�तयो ं से
�वरोध न होगा, �ोिं क वहाँ पर अद्वैत श� जा�त पर है
जैसे-एक आदमी के समान कोई नही ं है, जैसा िक सं सार म�
देखने म� आता है, िक अमुक पु�ष अिद्वतीय है। इसका

सांख्य दर्शन 111


आशय यह है, िक उसके समान दूसरा और कोई नही ं है।
इस ही प्रकार ई�र को भी अद्वैत व अिद्वतीय कहते ह�।
प्र०- �जस री�त से अद्वैत श्रु�तयो ं का �वरोध दूर करने के
वा�े ई�र म� अद्वैत श� जा�त पर कहा है, उस प्रकार ही
पु�ष को भी ई�र का ही �पा�र �ो ं नही ं मानते ?

उ०-�व�दतब�कारण��ष्ट्यातदप् म ॥१५५॥
अथर्- मनु� के ब� आिद कारण सव �विदत ह�, और ई�र
�न�, शुद्ध, बुद्ध, मु���प है, इस कारण ई�र का
�पा�र नही ं हो सकता।
प्र०- यिद जीव ई�र का �पा�र नही ं है, तो अनेक शरीर
धारण करने पर भी एक ही पु�ष रहता है, इसम� �ा प्रमाण
है ?
उ०- ना�हष्ट्याचतु�तामनुपलभः ॥१५६।।
अथर्- जो पदाथर् अ�े को नही ं िदखे, उसका अभाव नेत्रवान्
मनु� कदा�प नही ं कह सकता ; �ोिं क उसक� नेत्र�े �य

सांख्य दर्शन 112


क� श�� न� हो गई है, इस कारण उसको िदख नही ं
सकता, और च�ु�ान के नेत्र�े �य क� श�� वतर्मान है,
इस कारण वह अभाव नही ं कह सकता।

वामदेवा�दमु�ो नाद्वैतम् ॥१५७।।


अथर्- यद्य�प वामदेवािदक मु� हो गये, लेिकन अद्वत
��प तो नही ं �ये �ोिं क यिद मु� जीव सब ही
अद्वैत��प हो जाते तो आजतक सहज-सहज सब पु�ष
अद्वैत होकर पु�ष का नाममात्र भी न रहता।
प्र०- वामदेवािदको ं का परम मो� नही ं �आ ?

उ०-अनादावद्ययावदभावाद्भ�व�द�ेवम्
॥१५८॥
अथर्- अनािद-काल से लेकर आजतक जो वात नही ं �ई है
वह भ�व�त्-काल म� भी न होगी, यही �नयम है। इससे यह
�सद्ध होता है, िक अनािद-काल से लेकर आजतक कोई भी

सांख्य दर्शन 113


पु�ष मु� होकर ब्रह्म नही ं �आ ; �ोिं क पु�षो ं क� सं �ा
कमती देखने म� नही ं आती, और नई पु�षो ं क� उ��� मानी
नही ं गई है, तो भ�व�त्-काल म� भी ऐसा ही होगा। अब
मो� के �वषय म� सां�कार अपना �सद्धा� (�न�य )
कहते ह�।

इदानी�मव सवर्त्र ना��ो�े दः ॥१५९॥


अथर्- इस वतर्मान-काल के ��ा� से यह जानना चािहये
िक पु�ष के ब�न का िकसी समय म� भी अ�� उ�े द
नही ं हो सकता। इसका मतलब यह है, िक कोई भी पु�ष
ऐसा मु� नही ं है, िक िफर उसका कभी ब�न न हो सके
और इससे यह भी मालूम होता है, िक मु� पु�ष का िफर
भी ज� होता है।
प्र०- मो� का �ा ��प है ?

उ- �ावृ�ोभय�पः ॥१६०॥

सांख्य दर्शन 114


अथर्- मु�� सं सार के दःु ख-सुख दोनो ं ही से �वल�ण है,
अथार्त् मु�� म� पु�ष को शा� सुख होता है, यह ��प
है।
प्र०- जबिक पु�ष को सा�ी कह चुके वह सा�ीपन मो�
समय म� नही ं रह सकता, �ोिं क वहां मनािद का अभाव है,
तो पु�ष सदा एक �प रहता है, यह कहना भी असं गत
�आ?

उ०- सा�ात् सं बं धात् सा���म् ॥१६१॥


अथर्- पु�ष को जो सा��� कहा है, वह मन आिद के साथ
सा�ात् स�� म� कहा है, िक�ु वा�व म� पु�ष सा�ी नही ं
है �ोिं क पा�ण�नमु�न ने सा�ी श� का ऐसा अथर् िकया है
"सा�ाद् ���र सं �ायाम्।। इस सूत्र से सा�ी श� �नपातन
िकया है, िक �जतने समय म� �नर�र देखता है उ�ने ही
समय म� उसक� सा�ी सं �ा है। इससे यह �सद्ध होता है, िक
�जतने समय तक पु�ष का मन से स�� रहता है, उतने ही
समय तक पु�ष क� सा�ी सं �ा रहती है, अथवा मन के

सांख्य दर्शन 115


सं सगर् : मेल ) से पु�ष म� दःु ख-सुख आिद को माना जाये,
तो पु�ष को वा�व म� दःु खािद से मु� होने म� यह दोष
होगा िक—

�न�मु��म् ॥१६२॥
अथर्- यिद पु�ष को �न�मु� मान�, तो मु�� का साधन
करना �थर् होता है, और मु�� प्र�तपादक जो श्रु�तयाँ ह�
उन- म� भी दोपारोपण होगा, और इस सूत्र के अथर् म� जो
�व�ान �भ�ु ने (�न�मु��म् ) यह पु�ष को �वशेषण
िदया है, अथार्त् पु�ष को �न� मु� माना है।
यह कथन इस कारण अयो� है, िक "इदानी�मव सवर्त्र
ना��ो�े दः” । इस सूत्र से पु�ष का अ�न� मु�
क�पलाचायर् ने मानी है । इससे यहाँ �वरोध होगा। उन
टीकाकारो ं ने यह न सोचा, �ा उन ऋ�षयो ं क� बु�द्ध मनु�ो ं
क� बु�द्ध क� तरह ��णक होती है, िक कभी कु छ कह�, कभी
कु छ कह�, जबिक उ� सूत्र “इदानी�म�ािद से पु�ष को
अ�न� मु� प्र�तपादन कर चुके, िफर �न�-मु� कै से

सांख्य दर्शन 116


कह सकते ह� और पूव�� टीकाकार के कथन म� इस कारण
से भी अयो�ता है िक जो दोष क�पलाचायर् को अपने कहे
�ये �वशेषणो ं से िदखे, उनके द�ु � करने के �लये "सा�ात्
स��ात् सा���म्" यह सूत्र िफर कहा, इसी प्रकार "�न�
मु��म्।" और "औदायर् सी�म् ," यह दो तरह के दोष
आय�ग,े उनका; समाधान इस अ�ाय के अ��म से �सद्ध
कर िदया गया है, इस ही कारण "�न� मु��म्" और
"औदायर् सी��ो�त, यह दोनो ं सूत्र दोष के िदखाने वाले
ह�।

औदासी��ो�त ॥१६३॥
अथर्- और पु�ष को वा�व म� मु� मान� तो औदासी�
दोष होगा, �ोिं क पु�ष का िकसी से स�� ही नही ं है, तो
वह िकसी कमर् का कतार् �ो ं होगा। जब िकसी कमर् का
कतार् तो रहा ही नही ं तो ब�न आिद म� �ो ं पड़ेगा, तब
उसम� औदासी� दोष होगा। इस सूत्र का भाव और पु�ष
को कतृर्� अगले सूत्र से प्र�तपादन कर�गे।

सांख्य दर्शन 117


प्र०- "औदासी��ो�तइस सूत्र म� 'इ�त' श� �ो ं है ?
उ०- यह इस वा�े है, िक पु�ष क� �स�द्ध म� दोष आिद का
ख�न कर चुके।

उपरागा� �ं �च�ा�न�ात् �च�ा��- �ात्


॥१६४॥
अथर्- पु�ष म� जो कतृर्� है, सो मन के उपराग से है, और
मन म� जो �चत्-श�� है, वह पु�ष के सं सगर् से है । यहाँ-
पर जो "�च�ा�न�ात्" यह दो बार कहा है सो अ�ाय क�
समा�� का जताने वाला है और इस अ�ाय म� शा� के
मु� चार ही अथर् कहे गये ह� "हय' �ागने के लायक,
"हान" �ांगना । "हेय" और "हान" और इन दोनो ं के हेतु ।

इ�त सां�दशर्ने प्रथमोऽ�ायः समा�ः।

सांख्य दर्शन 118


िद्वतीयोऽ�ायः
शा� का तो �वषय �न�पणांकर चुके, अब पु�ष को
अप�रमा�रण� ठहराने के वा�े प्रकृ �त से सृ�� का होना,
�व�ार से िद्वतीयोऽ�ाय म� कह�गे और इस ही दूसरे
अ�ाय म� प्रधान के जो कायर् ह�, उनके ��प को भी
�व�ार से कहना है ; �ोिं क प्रकृ �त के काय� से पु�ष का
�ान अ�� तरह से होता है। कारण यह है, िक प्रकृ �त के
काय� के �बना �ान �ए मु�� िकसी प्रकार नही ं हो सकती,
अथार्त् जब तक पु�ष, प्रकृ �त और प्रकृ �त के कायर्, इन
तीनो ं का अ�� तरह �ान नही ं हो सकता तब तक मु��
भी न होगी; िक�ु उनके जानने ही से मु�� होती है।
प्र०- अप�रमा�ण� िकसको कहते ह� ?

सांख्य दर्शन 119


उ०- जो प�रमाण को प्रा� न हो।
यिद अचेतन प्रकृ �त �न�योजन सृ�� को उ�� करती है,
तो मु� को भी ब� क� प्रा�� हो सकती है। इस आशय
को �वचार करके सृ�� के उ�� होने का प्रयोजन इस सूत्र
म� कहते ह�।

�वमु�मो�ाथर् �ाथर् वाप्रधान� ॥१॥


अथर्- पु�ष म� जो अहंकार के सं ब� से दःु ख मालूम पड़ता
है, उसक� मु�� के वा�े अथवा �ाथर् अथार्त् पु�ष के
स�� से जो मन आिद को दःु ख होते ह�, उनके दूर करने
के �लये प्रधान अथार्त् प्रकृ �त को कतर्� है, और इस सूत्र म�
कतर्� श� पहले सूत्र से लाया गया है।
प्र०- यिद मो� के वा�े ही सृ�� होती है, तो एक बार क�
ही सृ�� से सब पु�षो ं को मो� हो जाता, बार�ार सृ�� के
होने का �ा कारण है ?

उ०- �वर�� त��द्धेः ॥२॥

सांख्य दर्शन 120


अथर्- एक बार क� सृ�� से मो� नही ं होता, िक�ु ब�त से
ज�, मरण, �ा�ध आिद नाना प्रकार के (सैकड़ो)ं दःु खो ं
से अ�� (ब�त) त� (दःु �खत) होने पर जब प्रकृ �त पु�ष
का �ान पैदा होता है तब वैरा� द्वारा मो� होता है और वह
वैरा� एक बार क� सृ�� से आजतक िकसी को उ�� नही ं
�आ। इसम� यह सूत्र प्रमाण है—

न श्रवणमात्रात् त���द्धरना�दवासनाया बल-


व�ात् ॥३॥
अथर्- मु�� श्रवणमात्र से भी नही ं हो सकती। यद्य�प श्रवण
भी ब�त ज�ो ं के पु�ो ं से होता है तथा�प श्रवणमात्र से
वैरा� क� �स�द्ध भी नही ं होती है, िक�ु �ववेक के
सा�ा�ार से मु�� होती है और सा�ा�ार शीघ्र नही ं
होता। अनािद �म�ावासना के बलवान् होने से और उस
वासना के रहते �ए पु�ष मु� नही ं हो सकता, िक�ु योग
से जो �ववेक सा�ा�ार होता है। उसके ही द्वारा मु� होता
है और इस योग म� सैकड़ो ं �व� पैदा हो जाते ह� । इस कारण

सांख्य दर्शन 121


यह योग भी ब�त ज�ो ं म� �सद्ध होता है। इस कारण
ज�ा�र म� वैरा� को प्रा� होकर िकसी समय म� कोई-
कोई पु�ष मो� को प्रा� हो जाते ह�, िक�ु सब मो� को
नही ं प्रा� होते।
प्र०- सृ�� का प्रवाह (ज�, मरण आिद) िकस तरह चल
रहा है ?

उ०- ब�भृ�वद्वा प्र�ेकम् ।।४॥


अथर्- जैसे एक गृह� से सैकड़ो ं नौकर बाल, वृद्ध, �ी,
पु�ष आिद का क्रम से भरण-पोषण ( भोजन, व� आिद)
होता है, इसी प्रकार प्रकृ �त के स�ािद गुण प्र�ेक सैकड़ो ं
पु�षो ं को क्रम से मु� कर देते ह�, इस वा�े कोई-कोई
मु� हो भी जाते ह� लेिकन और जो बािक मनु� ह� उनक�
मु�� के वा�े सृ��प्रवाह क� आव�कता है, �ोिं क पु�ष
अन� है।

सांख्य दर्शन 122


प्र०- प्रकृ �त सृ�� क� कारण है, इसम� �ा हेतु है ? �ोिं क
पु�ष को ही कारण सब मानते ह� ?

उ०-प्रकृ �तवा�वेच पु�ष�ा�ास�स�द्धः॥५॥


अथर्- यद्य�प वा�व म� (�न��ेह ) प्रकृ �त ही सृ�� का
कारण है तथा�प (तो भी) सृ�� के करने म� पु�ष क� अ�ास
�स�द्ध है।
प्र०- अ�ास िकसको कहते ह� ?
उ०- अ�ास उसे कहते ह� िक काम दूसरा करे और नाम
दसु रे का हो, जैसे िक-लड़ाई म� योद्धा (वीर लोग) अपनी
श�� से जीत और हार करते ह�। लेिकन वह जीत-हार सब
राजा ही क� �गनी जाती है। इसको ही अ�ास कहते ह�।
प्र०- वा�व म� प्रकृ �त ही सृ�� करने वाली कै से है ? �ोिं क
सृ�� को अ�न� शा�ो ं ने प्र�तपादन (सबूत) िकया है। यिद
ऐसा है तो उस सृ�� का कारण, जो प्रकृ �त है, वह भी अ�न�
होगी ?

सांख्य दर्शन 123


उ०- कायर्त���द्धेः ॥६॥
अथर्- काय� के देखने ही से प्रकृ �त के वा�व कारण�
(कारण होने ) क� �स�द्ध हो सकती है, �ोिं क यह सृ���पी
कायर् प्रकृ �त के �सवाय और िकसका हो सकता है ? यिद
पु�ष का कह� तो पु�ष म� प�रणा�म� क� प्रा�� आती है,
और यिद प्रकृ �त कारण कह� तो िकसका- यह स�ेह पैदा
होता है ? इस कारण प्रकृ �त ही को वा�व म� कारण� है
और जो सृ�� के अनी�� म� �� का ��ा� देते ह�, सो
भी ठीक नही ं �ोिं क �� भी अपनी अब�ा म� स� ही
होता है। इस कारण सृ�� �न� है, और उसका कारण भी
�न� है।
प्र०- प्रकृ �त अपने मो� के वा�े सृ�� करने म� �ो ं तैयार
होती है।

उ०- चेतनोद्देशा�नयमः क�कमो�वत् ॥७॥

सांख्य दर्शन 124


अथर्- �ववेक� पु�ष के �लए प्रकृ �त का यह �नयम है िक वह
प्रकृ �त �ववेक� पु�ष के द्वारा अपना मो� करे, जैसे-
�ानवान् पु�ष बड़ी बु�द्धमानी के साथ काँटे से काँटे को
�नकालता है, उसका ही सहारा और अ�ानी मनु� भी लेते
ह� ; इस तरह से प्रकृ �त को भी जानना चािहये।
प्र०- पु�ष म� कारण� का होना �गनने ही मात्र कहा है सो
ठीक नही ं है, �ोिं क प्रकृ �त के मेल से पु�ष भी महदािदको ं
के प�रणाम को धारण कर लेता है, जैसे-काठ जमीन के ही
समान हो जाता है, उसी तरह पु�ष को भी होना चािहये ?

उ०- अ�योगेऽ �पत���द्धनार्��े


नायोदाहवत् ॥८॥
अथर्- प्रकृ �त के साथ पु�ष का योग होने पर भी पु�ष
वा�व म� सृ�� का कारण नही ं हो सकता, यह प्र�� ही है,
जैसे- लोहे और अ�� के सं योग होने पर लोहा अ�� नही ं हो
सकता। यद्य�प इस ��ांत से दोनो ं म� प�रणा�म� हो सकता

सांख्य दर्शन 125


�ोिं क अ�� और लोहे ने अपनी पहली अब�ा को छोड़
िदया है, तो भी एक ही प�रणामी होना चािहये; �ोिं क दोनो ं
प�रणामी होने से गौरव होता है, और जो दोनो ं ही को
प�रणामी माना जाये तो �िटकम�ण म� लाल या पीले रंग
क� परछाई पड़ने से जो उसम� लाली वा पीलापन आता है
वो भी वा��वक मानना पड़ेगा, लेिकन वैसा माना नही ं
जाता ?
प्र०- सृ�� का मु� �न�म�कारण �ा है ?

उ०- राग�वरागयोोगः �ृ��ः॥९॥


अथर्- �जसम� राग और �वराग इन दोनो ं का योग (मेल) हो,
उसे सृ�� कहते ह�। इन दोनो ं का योग होना ही सृ�� करने
का �न�म�-कारण है।
प्र०- सृ�� प्रिक्रया (होना) िकस तरह होती है ?

उ०- महदा�दक्रमेण प�भूतानाम् ॥१०॥

सांख्य दर्शन 126


अथर्- मह��ािदको ं से आकाश, वायु, अ��, जल, पृ�थवी,
यह पं चभूत पैदा �ये। यद्य�प प्रकृ �त का सृ��� अपनी
मु�� के वा�े हो �ोिं क वह प्रकृ �त �न� है िक�ु
महदािदको ं का अपने-अपने �वकार का सृ�� अपनी
मु�� के वा�े नही ं हो सकता, �ोिं क वह अ�न� है।
अतएव महदािदको ं का सृ�� पराये वा�े है। और भी
प्रमाण है।

आ�ाथर्�ात् सृ�ेनैषामा�ाथर्प्रार�ः॥११॥
अथर्- इन महदािदको ं का कारण� पु�ष के मो� के वा�े
है, िक�ु अपने वा�े नही ं है ; �ोिं क महदािद �वनाशी
अथार्त् नाशवाले ह�।
प्र०- यिद महदािद को ं ककारण� (बनाने वालापन) पराये
वा�े है, तो प्रकृ �त के वा�े होना चािहये। पु�ष के वा�े
�ो ं है ?

सांख्य दर्शन 127


उ०- महदािदक प्रकृ �त के ही कायर् है, इस कारण 'पर' श�
से पु�ष का ही ग्रहण होगा।
प्र०- िदशा और काल क� सृ�� िकस प्रकार से �ई ?

उ०- �दकालावाकाशा�द�ः ॥१२॥


अथर्- िदशा और काल यह दोनो ं आकाश से उ�� �ये, इस
कारण यह दोनो ं आकाश के समान �न� ह�, अथार्त् आकाश
म� जो �ापकता है, वह �ापकता इन दोनो ं म� भी है, इस
कारण यह दोनो ं �न� ह�। और जो ख� िदशा और काल
ह�, सो उपा�धयो ं के मेल से आकाश से उ�� होते ह�, वे
अ�न� होते ह�। अब बु�द्ध का ��प और धमर् िदखाते ह�।

अ�वसायोबु�द्धः ॥१३॥
अथर्- �न�या�क �ान का नाम बु�द्ध है, और अ�वसाय
नाम �न�य का है, उस �न�य को ही बु�द्ध कहते ह�।

त�ायर् धमार्�द ॥१४॥

सांख्य दर्शन 128


प्र०- उस बु�द्ध के कायर् धमार्िदक ह� तो मूखर् पु�षो ं क� बु�द्ध
म� �ानािद �न��त �ो ं प्रबल (बलवान्) होते ह� ?

उ०- महदपु रागािद्वपरीतम् ॥१५॥


अथर्- मन के सं योग होने से यिद मन म� �म�ा�ान के
सं �ार ह� तो धमार्िदक �वपरीत ( उलटे) हो जाते ह�, अथार्त्
अधमर्, अ�ान, अवैरा�, अनै�यर्, यह सब �वपरीत हो जा
-ते ह�। अब मह�� के कायर् अहंकार को िदखाते ह�।

अ�भमानोऽहंकारः ॥१६॥
अथर्- अहं करने वाले को अहंकार कहते ह�, जैसे-कु �ार
को कु �कार कहते ह�, और यह अहंकार श� अ�ःकरण
का नाम है। अहंकार और अ�भमान यह दोनो ं एक ही व�ु
के नाम। अब अहंकार का कायर् िदखाते ह�।

एकादश पं चत�ात्रं यत् कायर्म् ॥१७॥

सांख्य दर्शन 129


नेत्र को आिद लेकर १० इ��याँ, श� को आिद लेकर
पं चत�ात्रा, सब अहंकार के कायर् ह�।

सा��कमेकादशकं प्रवतर्ते वैकृतादहङ्कारात्


॥१८॥
अथर्- �वकार को प्रा� �ए अहंकार से सा��क मन होता
है, और यह भी समझना चािहये िक राजस रजोगुण वाले
अहंकार से के वल दश इ��याँ, और तामस तमोगुण वाले
अहंकार से पं चत�ात्रा होती ह�, और मन स�गुण से होता
है, इस कारण उनसे ही �ारह इ��याँ िदखाते ह�।

कम���यबुद्धी��यैरा�रमेकादशकम् ॥१९॥
अथर्- वाणी, हाथ, पाँव, गुदा, उप� (मूत्र�ान ), यह
कम���य कहलाती ह�। नेत्र, कान, �चा (खाल), रसना
(जीम), प्राण (नाक), यह पाँचो ं �ाने��य कहलाती ह�।
प्र०- इ��यो ं क� उ��� पं चभूतो ं से है ?

सांख्य दर्शन 130


उ०- अहङ्का�रक�श्रुतेन भौ�तका�न ॥२०॥
अथर्- ब�त-सी श्रु�तयां ऐसी देखने म� आती ह�, जो अहंकार
से ही इ��यो ं क� उ��� को कहती ह�, जैस-े एकाऽहं
ब��ाम् ) एक म� ब�त �पो ं को धारण करता �ँ इ�ािद।
इस कारण आकाशािद प�भूतो ं से इं िद्रयो ं क� उ���कहना
ठीक नही।ं
प्र०- अ��ःवाग�े�त वातं प्राणः अ�� म� वाणी लय होती है,
और पवन म� प्राण लय होता है। जबिक अ�� इ�ािद
श्रु�तयाँ कहती ह� िक अ�� म� वाणी लय हो जाती है और
वायु म� प्राण लय हो जाता है, तो उ��� भी इन से ही �ो ं
न मानी जाये ?

उ०- देवतालयश्रु�तनार�क� ॥२१॥


अथर्- अ�� आिद श्रे� गुण से यु� पदाथ� म� लय िदखता
है, लेिकन उ��� नही ं िदखती और यह कोई �नयम भी नही ं
है िक जो �जसम� लय हो वह उससे ही उ�� भी हो, जैसे-

सांख्य दर्शन 131


जल क� बूं द पृ�ी म� लय हो जाती है, लेिकन उससे उ��
नही ं होती। इस कारण इ��यो ं क� उ��� अहंकार ही से
है, िक�ु पं चभूतो ं से नही ं है।
प्र०- इ��यो ं से स�� रखने वाला मन �न� है व अ�न�?

उ०- तद�
ु ��श्रुते�वनाशदशर्नाच ॥२२॥
अथर्-�न� नही ं है, िक�ु अ�न� है, �ोिं क"एत�ा�ायते
प्राणो मनः सव���या�ण च" इससे ही सब इ��याँ और मन
पैदा होते ह�, इ�ािद श्रु�तयो ं से �सद्ध है िक मन का नाश भी
देखने म� आता है, �ोिं क बुढ़ापे म� च�ु (तेज) आिद
इ��यो ं क� तरह नाश भी होता है। इससे मन �न� नही ं है।
प्र०- ना�सका आिद इ��यो ं के गोलक (�चह्नो)ं को ही
इ��य माना है ?

उ०-अती��य�म��यं भ्रा�ानाम�ध�ाने
॥२३॥

सांख्य दर्शन 132


अथर्- हाँ! भ्रा� मनु�ो ं क� बु�द्ध ने गोलक का नाम इ��य
माना है, लेिकन इ��याँ तो अती��य ह�, अथार्त इ��यो ं से
इ��यो ं का �ान नही ं होता।
प्र०- इ��य एक ही है, उसक� ही अनेक श��याँ अनेक
�वल�ण काम करती रहती है ?

उ०- श��भेदे�प भेद�सद्धौ नैक�म् ॥२४॥


अथर्- एक इ��य क� भी अनेक श��यो ं के मानने से इ��
-यो ं का भेद �सद्ध हो गया, �ोिं क उन श��यो ं म� ही
इ��य� का �ापन हो सकता है।
प्र०- एक अहंकार से अनेक प्रकार क� इ��यो ं क� उ���
होना यह बात तो �ाय से �व�द्ध है, �ोिं क एक व�ु से
एक ही व�ु उ�� होनी चािहये ?

उ०- न क�ना�वरोधः प्रमाण��� ॥२५॥


अथर्- जो व�ु प्रमाण ही से �सद्ध है, उसके �व�द्ध क�ना

सांख्य दर्शन 133


करना �ाय से �व�द्ध है, �ोिं क महदािदको ं म� जो गुण
िदखते वे महदािदको ं के काय� म� भी िदखते ह�। इस प्रकार
प्र��ािद प्रमाणो ं से जो �सद्ध है वह �ाय से �व�द्ध नही ं हो
सकता। कारण वा�व म� तो मन एक ही है, लेिकन उस
कारण क� श��यो ं के भेद से दस इ��याँ अपने-अपने
कायर् के करने म� त�र (लगी) रहती ह� और इस ही बात को
अगला सूत्र भी पु� करता है।

उभया�कं मनः ॥२६॥


अथर्-पाँच �ाने��याँ और पाँच कम���याँ-इन दशो ं इ��यो ं
से मन का स�� है, अथार्त् मन के �बना कोई भी इ��य
अपने िकसी काम के करने म� नही ं लग सकती। अब इस
कहे �ए सूत्र का अथर् इस सूत्र म� �व�ार से कहते ह�।

गुणप�रणामभेदा�ाना�मव�ावत् ॥२७॥
अथर्- गुणो ं के प�रणाम भेद से एक मन क� अनेक श��याँ
इस तरह होती ह�, जैसे-मनु� जैसी सं गती म� बैठेगा उसके

सांख्य दर्शन 134


वैसे ही गुण हो जाय�गे ; यथा, का�मनी �ी क� सं गती से
कामी, और वैरा�-शील वाले के साथ वैरा�-शील वाला
हो जाता है। इस ही तरह मन भी नेत्र आिद को लेकर �जस
इ��य से सं गती करता है, उसी इ��य से मन का मेल हो
जाता है। अब �ाने��य और कम���य इन दोनो ं के �वषय
म� कहते ह�।

�पा�द रसमला�उभयोः ॥२८॥


अथर्- �प को आिद लेकर और मल �ाग पयर्� �ाने��य
और कम���यो ं के �वषय ह�, जैसे- नेत्र का �प �जह्वा
(जीभ) का रस, नाक का गं ध, �चा (खाल) का �शर्,
कानो ं का श�, मुख का वचन, हाथ का पकड़ना, पैरो ं का
चलाना, �लगं का पेशाब करना, गुदा का �व�ा करना- यह
दशो ं �वषय �भ�-�भ� ह�, और �जसका आश्रय लेकर यह
इ��य सं �ा को प्रा� होती ह� उस हेतु को भी कहते ह�।

द्रष्तृ�ा�दरा�नः करण��म��याणाम्॥२९॥

सांख्य दर्शन 135


अथर्- इ��यो ं का करण� आ�ा है अथार्त् जो-जो इ��याँ
अपने-अपने काम के करने म� लगती ह� वे आ�ा के समीप
होने से कर सकती ह�, इससे आ�ा को प�रणा�म� क�
प्रा�� नही ं हो सकती, जैसे-चु�क प�र के सं सगर् से लोह
�खचं आता है, ऐसे ही आ�ा के सं सगर् से नेत्र आिद इ��यो ं
म� देखने आिद क� श�� हो जाती है। अब अ�ःकरण क�
वृ��यो ं को भी कहते ह�।

त्रयाणां �ाल��म् ॥३०॥


अथर्- मन क� तीन वृ��याँ जो �च�, अहंकार और बु�द्ध ह�,
उनका पृथक् २ ल�ण �विदत होता है। अ�भमान के समय
अहंकार, �वचार के समय �च�, और �ान के समय बु�द्ध
�तः �विदत होती है।

सामा�करणवृ��ः प्राणाद्या वायवः पं च॥३१॥


अथर्- प्राण वायु आिद को लेकर समान पयर्� जो पाँच वायु
ह� यह अ�ःकरण क� साधारण वृ�त कहलाते ह�, अथार्त् जो

सांख्य दर्शन 136


वायु �दय म� रहता है, उसका नाम प्राण है; और जो गुदा म�
रहता है, उसका नाम प्राण है । और जो क� म� रहता है,
उसका नाम उदान है ; जो ना�भ म� रहता है, उसका नाम
समान है ; और जो सारे शरीर म� रहता है, उसका नाम
�ान-वायु है- यह सब अ�ःकरण के प�रणामी भेद ह�,
और जो ब�त-से प्राण और वायु को एक मानते ह�, उनका
मानना इस सब से अयो� है िक "एत�ा�ायते प्राणः
मनःसव���या�ण च। खं वायु�ो�तरापशय पृ�ी �व��
धा�रणी । इस म� प्राण और वायु को �भ�-�भ� माना है।
अब आचायर् अपने �सद्धा� को प्रकाश करते ह�, िक जैसे
कई पु�ष इ��यो ं क� वृ�� कम से (एक समय म� एक ही
इ��य काम करेगी) मानते ह�, उसको अयु� �सद्ध करते
ह�।

क्रमशोऽक्रमश�े��यवृ��ः ।।३२।।

सांख्य दर्शन 137


अथर्- इ��यो ं क� वृ�� क्रम से भी होती है और �बना क्रम
के भी होती है, �ोिं क सं सार म� िदखता है िक एक आदमी
जब पानी पीने म� त�र होता है, तब वह देखता भी है।
प्र०- �ा �ाय ने जो एक ही इ��य के �वषय का �ान
होना �लखा है, वह ठीक नही ं ?
उ०- एक काल म� दो �ाने��यां काम नही ं करती, पर�ु
एक कम���य और एक �ाने�� साथ-साथ काम कर सकती
ह�। मन क� वृ��यां ही सं सार का �नदान है, अथार्त् ज�
मरण आिद सब मन क� वृ��यो ं से ही होते ह�, इसको ही
कहते भी ह�—

वृ�यः पं चत�ः ���ा���ाः ॥३३॥


अथर्- प्रमाण (प्र�� आिद), �लपयर्य (झठू ा �ान),
�वक� ( स�ेह ), नीदं , �ृ�त ( याद होना ); यह पाँच मन
क� वृ��याँ ह�, और इनसे ही सुख-दःु ख उ�� होता है। जब
मन क� वृ��याँ �नवृ� हो जाती ह� तब पु�ष के ��प म�

सांख्य दर्शन 138


��त हो जाती ह�। इस बात को इस आगे के सूत्र से �सद्ध
करते ह�।

त��वृ�ावुपशा�ोपरागः��ः ॥३४॥
अथर्- मन क� वृ��यो ं के �नवृ� होने पर पु�ष का उपराग
शा� हो जाता है, और पु�ष �� हो जाता है। यही बात
योग सूत्र म� भी कही गई है, िक जब �च� क� वृ��यो ं का
�नरोध हो जाता है तब पु�ष अपने ��प म� ��त हो जाता
है। पु�ष का �� होना यही है, िक उसके उपा�ध�प
प्र�त�व� का �नवृ� हो जाना, इसको ही ��ा� से भी �सद्ध
करते ह�।

कु सुमव�म�णः ॥३५॥
अथर्- जैसे �िटक म�ण म� काले, पीले इ�ािद फू लो ं क�
परछाई पड़ने से काले, पीले रंग वालो वह �िटक म�ण
मालूम पड़ने लगती है, और जब उन काले, पीले फू लो ं को
म�ण के साथ से �भ� कर देते ह� तब वह म�ण �� प्र��

सांख्य दर्शन 139


रह जाती है। इस ही तरह मन क� वृ��यो ं के दूर होने पर
पु�ष राग रिहत और �� हो जाता है।
प्र०- यह इ��याँ िकसके प्रय� से अपने-अपने काय� के
करने म� लगी रहती ह�, �ोिं क पु�ष तो �न�वकार है और
ई�र से इ��यो ं का कोई भी स�� नही ं है ?

उ०- पु�षाथर् करणोद्भवोऽ ���ो�ासात्


॥३६॥
अथर्- पु�ष के वा�े इ��यो ं क� प्रवृ�� भी उसी कमर् के वश
से है, जो पहले प्रकृ �त को कह आये ह�, और इसका ��ा�
भी ३५ व� सूत्र म� दे चुके ह�, िक सं योग से जैसे एक का गुण
दूसरे म� मालूम होता है, उसी प्रकार प्रकृ �त का कमर् पु�ष
सं योग से है, वही इ��यो ं क� प्रवृ�� म� हेतु है । इस सूत्र म�
'अ�प' श� से पूवर् कही �ई प्रकृ �त क� याद िदलाकर पु�ष
को कमर् से कु छ अंश म� मु� िकया है, और िफर भी इसी

सांख्य दर्शन 140


प� को पु� करने के वा�े ह�ा� द�गे। दूसरे के वा�े भी
अपने आप प्रवृ�� होती है, इसम� ��ा� भी देते ह� ।

धेनु वद्व�ाय ॥३७॥


अथर्- जैसे िक बछड़े के वा�े गौ �यं (आप ही) दूध उतार
देती है, दूसरे क� कु छ भी आव�कता नही ं रखती। इसी
प्रकार अपने �ामी (पु�ष) के वा�े इ��यो ं क� प्रवृ��
�यं होती है।
प्र०- भीतर और बाहर क� सब इ��याँ िकतनी ह� ?

उ०- करणं त्रयोदश�वधमवा�रभेदान् ॥३८॥


अथर्- अवा�र भेद से इ��याँ तेरह तरह क� ह�- पाँच
�ाने��याँ, पाँच कम���याँ, एक बु�द्ध, मन, और अहंकार,
इन भेदो ं के होने से।
प्र०- अवा�र कहने का �ा प्रयोजन ( मतलब) है ?
उ०- मन सब इ��यो ं से मु� है।

सांख्य दर्शन 141


प्र०- पु�ष के वा�े इ��यो ं क� प्रवृ�� म� के वल मन ही
मु� है, और सब इ��याँ गौण ह�, तो बु�द्ध म� वो कौन-सा.
मु� धमर् है ?

उ०-इ��येषुसाधकतम�गुणयोगात् कु ठारवत्
॥३९॥
अथर्- जैसे िक पेड़ के काटने म� चोट का मारना मु� कारण
है, और उसके काटने का मु� साधन कु �ाड़ा है, इस ही
प्रकार इ��यो ं को करण� और मन को साधकतम�
(�जस के �बना िकसी तरह कायर् �सद्ध न हो) का योग है।
नोट- क�पलमु�न बु�द्ध और �च� को एक ही मानते ह�।
प्र०- जबिक अहंकार भी इ��य माना गया है, तो मन ही
मु� कारण है, ऐसा कहना अयो� है ?

उ०-द्वयोः प्रधानं मनोलोकवद्वभृ�वग�ष॥


ु ४०॥

सांख्य दर्शन 142


अथर्- वाह्य (बाहर ) क� और आ��र (भीतर ) क�, इन
बारह प्रकार के भेद वाली इ��यो ं म� मन ही प्रधान है।
�ोिं क सं सार म� यही बात िदखती है, जैसे-राजा के ब�त-
से नौकर-चाकर होते ह�, तथा�प उन सबके बीच म� एक म�ी
ही मु� होता है। छोटे-छोटे नौकर और जमीदं ार आिद
सैकड़ो ं होते इसी तरह के वल मन प्रधान है और सब इ��याँ
गौण ह�, और भी मन क� प्रधानता को इन तीन सूत्रो ं से पु��
प�ंचती है।

अ��भचारात् ॥४१॥
अथर्- यद्य�प मन सब इ��यो ं म� �ापक है तथा�प अपने
कायर् म� उस मन का अ��भचार (�न�य) िदखाई पड़ता
है।

तथाऽशेषसं �ाराधार�ात् ॥४२॥


अथर्- �जतने भी सं �ार ह� सबको मन ही धारण करता है।
यिद नेत्र आिद अहंकार अथवा मन इनको ही प्रधान माने

सांख्य दर्शन 143


तो अंध,े बहरे, इ�ािद को �रण (याद) क� श�� न होना
चािहये, लेिकन देखने म� आता है, िक उन लोगो ं को �रण
श�� अ�� तरह होती है, और त��ान के समय म� मन
अहंकार का लय भी हो जाता है, तो भी �रण-श�� न�
नही ं होती जो िक �ाभा�वक बु�द्ध का धमर् है

�ृ�ानुमानाच ॥४३॥
अथर्- �ृ�त का अनुमान बु�द्ध से ही होता है, �ोिं क �च�ा-
वृ�� (�ान फ� एक अब�ा) सब अब�ाओ ं से श्रे� है,
और इस सूत्र से यह भी मालूम होता है, िक क�पलाचायर्
बु�द्ध और �च� को एक ही मानने ह�, और मतवािदयो ं क�
तरह मन, बु�द्ध, �च�, अहंकार, इन चारो ं को अ�: करण
चतु�य नही ं मानते ह�।
प्र०- �चतं ावृ�� पु�ष को ही होनी चािहये ?

उ०- स�वेन �तः ॥४४॥

सांख्य दर्शन 144


अथर्- अपने आप पु�ष को �ृ�त नही ं हो सकती, �ोिं क
पु�ष कू ट� है।
प्र०- जबिक मन को करण (मु� इ��य) माना है तो और
इ��यो ं से �ा प्रयोजन है ?
उ०- �बना नेत्रािद इ��यो ं के मन अपना कोई भी काम नही ं
कर सकता। यिद नेत्रािद इ��यो ं के �बना भी मन इ��यो ं
का काम कर सकता है, तो अंधे आदमी को भी देखने क�
श�� होनी चािहये। �ोिं क मन तो उसके भी होता है।
पर�ु सं सार म� ऐसा देखने म� ही नही ं जाता, इससे प्र��
�सद्ध होता है, िक मन मु� है और सब इ��याँ गौण ह�।
प्र०- जबिक मन को हो मु� (प्रधान) माना है तो पिहले
सूत्र म� मन को उभया�क �ो ं माना है ?

उ०- आपे��कोगुणप्रधानभावःिक्रया�वशेषात्
॥४५॥

सांख्य दर्शन 145


अथर्- िक्रया के कमती-बढ़ती होने से गुणो ं का भी प्रधान-
भाव (बड़�न ) एक दूसरे क� �न�त से होता है, जैसे- नेत्र
आिद के �ापार म� अहंकार मु� है, इसी तरह अहंकार के
�ापार म� मन प्रधान है।
प्र०- इस पु�ष क� मन इ��याँ ही मु� ह�, अथार्त् अ�
इ��याँ गौण ह� ?

उ०-त�मार्�जत�ात् तदथर्म�भचे�ा लोकवत्


॥४६॥
अथर्- जैसे िक सं सार म� िदखता है, िक जो आदमी कु �ाड़ी
को खरीदता है, उस कु �ाड़ी के �ापार से खरीदने वाले को
फल भी होता है, इस प्रकार मन भी पु�ष के कम� से पैदा
होता है, अतएव मन आिद का फल पु�ष को �मलता है।
इस कारण मनु� क� मन इं िद्रय ही मु� है। यह समाधान
पहले कर भी आये ह�, िक पु�ष कमर् से रिहत है, लेिकन
पु�ष म� कमर् का आरोपण होता है। ��ा� भी इस �वषय

सांख्य दर्शन 146


का दे चुके ह�, जैसे-राजा के सेवक इ�ािद युद्ध कर� और
हार-जीत राजा क� �गनी जाती है, इस प्रकार ही पु�ष म�
कमर् का आरोपण होता है।

समानकमर्योगे बुद्धः प्रधा��ं लोकव�ोकवत्


॥४७॥
अथर्- यद्य�प सब इ��यो ं के साथ पु�ष का समान कमर्योग
है, तथा�प बु�द्ध ही को मु�ता है, जैसे-रा� के रहने वाले
चांडाल को आिद ले िद्वजा�त पय�त सब ही लोग राजा क�
प्रजा ह� तथा�प जमीदं ार से मु� मं त्री ही �गना जाता है ।
इस ��ा� को सं सार परंपरा के समान यहाँ समझ लेना
चािहये।
प्र०- लोकवत् यह श� दबु ारा �ो ं कहा ?
उ०- यह दबु ारा का कहना अ�ाय क� समा�� िदखाता है।
प्र०- इस अ�ाय म� िकतने �वषय कहे गये ह� ?
उ०- प्रकृ �त का कायर्, प्रकृ �त क� सू�ता, दो प्रकार क� इं िद्र

सांख्य दर्शन 147


-याँ, अ�ःकरण आिद का वणर्न है। इतने �वषय कहे गये
ह�।

इ�त सां�दशर्ने िद्वतीयोऽ�ायः समा�ः॥

सांख्य दर्शन 148


तृतीयोऽ�ायः
अब इस तीसरे अ�ाय म� प्रधान जो प्रकृ �त है उसका �ूल
कायर् और महाभूत (पृ�ी आिद) और दो तरह के शरीर
यह सब कहते ह�।

अ�वशेषािद्वशेषार�ः ॥१॥
अथर्- अ�वशेपात अथार्त �जससे छोटी और कोई व�ु न
हो सके ऐसे भूत सू� अथार्त् पं चत�ात्राओ ं से �वशेष
�ूलमहाभूतो ं क� उ��� होती है, �ोिं क सुखािद को का
�ान �ूलभूतो ं म� हो सकता है, और सू�भूत योगी
महा�ाओ ं के �दय म� प्रकाश होते रहते ह�।

त�ा�रीर� ॥२॥
तीन पूव�� (पहले कहे �ए) बाईस त�ो ं म� से �ूल सू�
शरीरो ं क� उ��� होती है।
प्र०- �ूल शरीर िकसको कहते ह�?

सांख्य दर्शन 149


उ०- �जसका जाग्रताव�ा म� अ�भमान होता है।
प्र०- �लङ्ग-शरीर िकसको कहते ह� ?
२०- मन, अहङ्कार और इ��याँ, �जसके द्वारा अपने अपने
काम करने म� त�र रहते ह�, उसको �लङ्ग-शरीर करते ह�।
प्र०- कारण- शरीर िकसको कहते ह� ?
उ०- �लङ्ग-शरीर के कारण को कारण- शरीर कहते ह�।
प्र०- बाईस तेईस त�ो ं के �बना सं सार क� उ��� नही ं हो
सकती ?

उ०- तद्वीजात् सं सृ�तः ॥३॥


अथर्- बाईस त� शरीर के कारण ह� , और देखने म� ऐसा
ही आता है, िक कारण के �बना कायर् क� उ��� नही ं होती,
अतः उ�ी ं बाईस त�ो ं से सं सार क� उ��� होती है । अब
सं सार क� अब�ध को भी कहते ह�—

आ�ववेकाच प्रवतर्नम�वशेषाणाम् ॥४॥

सांख्य दर्शन 150


अथर्- अ�वशेष जो सू� भूत है उनक� सृ�� प्रवृ�� तभी
तक रहती है जब तक �ववेक (�ान) नही ं होता । �ान के
होते ही सू� भूतो ं क� प्रवृ�� नही ं रहती ।
प्र०- यिद अ�ववेक के ही वा�े सृ�� का होना है तो
महाप्रलय म� भी सृ�� का होना यो� है, �ोिं क उस अब�ा
म� भी अ�ववेक बना रहता है ?

उ०- उपभोगा�दतर� ॥५॥


अथर्- जब अ�ववेक के कायर् प्रार� का उपभोग पूरा हो
जाता है, तब ही महाप्रलय होती है। जबिक अ�ववेक का
भोग ही �वशेष रहा है। तब सू�- भूत इस शरीर को �ो ं
उ�� कर�गे ? और महाप्रलयाव�ा म� प्रार� कमर् का भोग
नाश हो जाता है तब भी सं �चत कमर् बने रहते ह�, �ोिं क
कमर् प्रवाह से अनािद ह�।

सं ��त प�रमु�ो द्वा�ाम् ॥६॥


अथर्- सृ�� समय म� पु�ष दोनो ं वासना और भोग- वृद्ध होता

सांख्य दर्शन 151


प्र०- प�रमु� श� का अथर् तो छू टना है, आप पद्ध अथर्
करते ह� ?
उ०- पहले अ�ाय के सूत्रो ं म� पु�ष को भो�ृ�ािद
�वशेषण इस कारण यहां अभो�ा कहना अयो� है। दूसरे
सं सार दशा म� ही पु�ष को सुख- दःु ख न होगं े, तो �ा मु�
अब�ा म� होगं े और जो सुख- दःु ख ही नही ं है, तो मु��
का उपाय भी कोई न करेगा। तीसरे प�रमु� श� का अथर्
मु� करना भी अयो� है। यहाँ 'प�र' श� का अथर् बद्ध
करना ही दे चुके
अब �ूल और सू� दोनो ं तरह के शरीरो ं के भेद कहते ह�।

माता�पतृज �ूलं प्रायश इतर� तथा ॥७॥


अथर्-�ूल शरीर दो तरह के होते ह�- एक तो वह जो माता
के सं गम से पैदा होते ह� ; दूसरे वह जो �बना माता-�पता के
उ�� हो,ं जैसे वषार्ऋतु म� वीरव�टी इ�ािदक होते ह�।
प्र०- पूवर् सूत्रो ं से सा�बत �आ िक तीन प्रकार के शरीर ह�,

सांख्य दर्शन 152


लेिकन पु�ष कौन से शरीर क� उपा�धयो ं से सुख-दःु ख का
भो�ा होता है ?

उ०- पूव���े��ायर्�ं भोगादेक�नेतर�ा


॥८॥
अथर्- �लङ्ग-शरीर क� उपा�धयो ं से ही पु�ष को सुख- दःु ख
होते ह�, �ोिं क सं सार के आिद म� �लङ्ग-शरीर क� ही उ���
है, इस कारण सुखािदक इसके कायर् ह� । अतः एक �लङ्ग-
शरीर क� उपा�धयो ं से ही पु�ष को सुखािदक ह�, िक�ु �ूल
शरीर क� उपा�धयो ं से नही ं होते ; �ोिं क जब �ूल शरीर
मृ�ु को प्रा� हो जाता है, तब उसम� सुखािदक नही ं देखने
म� आते।
प्र०- सू� शरीर का ��प �ा है ?

उ०- स�दशैकं �लङ्गम् ॥९॥


अथर्- पाँच �ाने��याँ और पाँच कम���याँ, मन, अहंकार,
और पं चत�ात्रा (�प, रस, गं ध, �शर्, श� ), यह सू�

सांख्य दर्शन 153


शरीर ह�।
प्र०- यिद �लङ्ग शरीर एक ही है, तो अनेक शरीरो ं क�
आकृ �त (चे�ा) म� भेद �ो ं होता है ?

उ०- ���भेदः कमर्�वशेषात् ॥१०॥


अथर्- �ूल शरीर अनेक प्रकार के अनेक कम� के करने से
होते ह�। अब �वचार िकया जाता है, तो इससे यही बात �सद्ध
होती है िक जीवो ं के भोग का हेतु कमर् ही ह�।
प्र०- जब िक भोगो ं के �ान �लगं शरीर को ही शरीर� है
तो �ूल शरीर को शरीर �ो ं कहते ह� ?

उ०- तद�ध�ानाश्रये देहे तद्वादा�द्वादः ॥११॥


अथर्- प�भूता�क (�ल ) शरीर म� उस �लङ्गं शरीर का
अ�ध�ान ( रहने का �ान ) के सबब से देह बाद है, अथार्त्
�लगं शरीर का आश्रय �ूल शरीर है, इस�लये �ूल शरीर
को शरीर कहते ह�।

सांख्य दर्शन 154


प्र०- �ूल शरीर �लगं शरीर से दूसरा है, इसम� �ा . प्रमाण
है ?

उ०- न�ात��ात् तहते छायाव�चत्रच ॥१२॥


अथर्- वह �लङ्ग शरीर �बना िकसी आश्रय के नही ं रह सकता,
जैसे- छाया िकसी आश्रय के �बना नही ं रह सकती, और
त�ीर �बना आधार के नही ं �खचं सकती, इस तरह �लङ्ग
शरीर भी �ूल शरीर के �बना नही ं ठहर सकता है।
प्र०- यिद �लङ्ग शरीर मूतर् द्र� है तो वायु आिद के समान
उसका भी आधार आकाश हो सकता है, और जगह
क�ना करने से �ा ता�यर् है ?

उ०- मूत�ेऽ�पन सं घातयोगा�र�णवत् ॥१३॥


अथर्- यिद �लङ्ग शरीर मूतर्� भी है तथा�प वह िकसी �ान
के �बना नही ं रह सकता, जैसे- ब�त से तेज इकठे होकर �ब
ना पा�थव (पृ�ी से पैदा होने वाले) द्र� के आधार के नही ं
रह सकते, इस तरह �लगं शरीर भी �बना िकसी आधार के

सांख्य दर्शन 155


नही ं रह सकता।
प्र०- �लगं -शरीर का प�रमाण �ा है ?

उ०- अणुप�रमाणं तत् कृ �तश्रुतेः ॥१४॥


�लगं शरीर अणु परमाणु वाला अथार्त ढका �आ है, ब�त
अणु नही ं है ; �ोिं क ब�त ही अणु (सू� ) अबयव रिहत
होता है, और �लगं शरीर अबयव वाला है। कारण यह िक
�लगं शरीर के कायर् िदखते ह�, इस म� यु�� भी प्रमाण है।

तद�म��श्रुते� ॥१५॥
अथर्- वह �लगं शरीर असमय है, इस कारण अ�न� है।
�ोिं क इस �वषय म� श्रु�तयाँ प्रमाण देती ह� । "अ�मयं िह
सौ� ! मन आपो मयः प्राणः तेजोमयीवा� । हे सौ� !
यह मन अ�मय है, प्राण जलमय है, वाणी तेजोमयी है।
यद्य�प मन आिद कायर् भौ�तक नही ं ह�, तथा�प दूसरे के मेल
से इन म� घटना- बढ़ना िदखता है, इस कारण से ही अ�मय
मन को माना है।

सांख्य दर्शन 156


प्र०- यिद �लगं शरीर अचेतन है, तो उसक� अनेक शरीरो ं
के वा�े उ��� �ो ं है?

उ०- पु�षाथर्संमृ�त�लङ्गानां सूपकारवद्रा�:


॥१६॥
अथर् �लगं शरीर क� उ��� पु�ष के वा�े है, जैसे-
पाकशाला (भोजन बनाने क� जगह ) म� रसोइये को अपने
�ामी के वा�े जाना है, इस ही तरह �लगं शरीर का होना
भी पु�ष के वा�े है। �लगं शरीर का �वचार हो चुका । अब
�ूल शरीर का �वचार िकया जाता है—

पा�भौ�तको देहः ॥१७॥


अथर्- यह शरीर पा�भौ�तक कहलाता है, अथार्त् पृ�ी,
जल, तेज, वायु, आकाश, इनसे इसक� उ��� है।

चातुभौ�तक�म�ेके ॥१८॥
कोई ऐसा कहते ह�, िक चार ही भूतो ं से �ूल शरीर होता है,

सांख्य दर्शन 157


�ोिं क आकाश तो अबयव रिहत है, इस कारण आकाश
िकसी के साथ �वकार को प्रा� नही ं हो सकता है।

एकभौ�तक�म�परे ॥१९॥
और कोई ऐसा कहते ह�, िक यह �ूल शरीर एक भौ�तक
है, अथार्त् शरीर पा�थव पृ�ी का �वकार है ) और जो
�वशेष चार भूत ह� वे के वल नाम मात्र ही ह�। था इस प्रकार
जानना चािहये, िक एक- एक भूत के सब शरीर ह�। मनु�ो ं
के शरीर म� पृ�ी का अंश �ादा है, इस कारण यह शरीर
पा�थव है, और तैजस लोक वा�सयो ं म� तेज �ादा है, इससे
उनका शरीर तैजस है। शरीर �भाव से चैत� नही ं है, इस
प� को दूर करते ह�—

न सां�स�द्धकं चैत�ं प्र�ेका��ः ॥२०॥


अथर्- जब पृ�ी आिद भूतो ं को �भ�- �भ� करते ह�, तब
उनम� चेतन- श�� नही ं िदखती, अतः इससे �सद्ध होता िक
देह �भाव से चैत� नही ं है, िक�ु िकसी दूसरे चैत� के

सांख्य दर्शन 158


मेल से चैत� श�� को धारण करती है।

प्रपं चमरणायभाव� ॥२१॥


अथर्- यिद शरीर को �भाव से चैत� माना जाये, तो यह
भी दोष हो सकता है िक प्रपं च, भरण, सुसु�� आिद �भ�-
�भ� अव�ाएँ नही ं हो सक� गी; �ोिं क जो देह �भाव से
चैत� है, तो मृ�ु-काल म� इसक� चेतन श�� कहाँ को
भाग जाती है, और बीसव� सूत्र म� जो यह बात कही है िक
हरेक भूत के �भ�-�भ� करने पर चेतनता नही ं िदखती, अब
इस प� को भी पु� करते ह�।

मदश��व�ेत् प्र�ेकप�र��ेसाह�े
तदद्भु वः ।।२२॥
अथर्- यिद मिदरा क� श�� के समान माना जाये, जैसे-
अनेक पदाथ� के �मलने से मादकता, श�� उ�� हो जाती
है, इस ही तरह पाँच भूतो ं के �मलने से शरीर म� चैत�-
श�� उ�� हो जाती है, ऐसा कहना भी यो� नही ं है,

सांख्य दर्शन 159


�ोिं क मिदरा म� जो मादक श�� है, वह श�� उन पदाथ�
म� भी है, �जनसे मिदरा बनी है। यिद यह कहा जाये िक हर
एक भूत म� थोड़ी चेतनता है, और सब �मलकर बड़ी चेतनता
हो जाती है, ऐसा कहना भी अस� है ; �ोिं क ब�त- सी
चैत� श��यो ं क� क�ना करने म� गौरव हो जायेगा, इस
कारण एक ही चैत� श�� का मानना यो� है, और पिहले
जो इस बात को कह आये ह�, िक �लगं शरीर क� सृ�� पु�ष
के वा�े है, और �लगं शरीर का �ूल शरीर म� स�ार भी
पु�ष के वा�े है, उस का ता�यर् व कहते ह�, जो अ��
पु�षाथर् का हेतु है।

�ाना�ु��ः ॥२३॥
अथर्- �लगं शरीर म� जो मन आिद ह�, उन से �ान उ��
होता है, और �ान से ही मु�� होती है।

ब�ो�वपयर्यात् ॥२४॥
अथर्- �वषयर्य नाम �म�ा�ान का है, �म�ा�ान से ही सुख-

सांख्य दर्शन 160


दःु ख �प ब�न होता है। �ान से मु�� और �म�ा �ान से
बं धन होता है, इस �वषय को तो कह चुके, अब मु�� का
�वचार िकया जाता है—

�नयतकारण�ा� समु�य�वक�ौ ॥२५॥


अथर्- �ान से ही मु�� होती है, इस कारण मु�� का �नयत
कारण �ान है, इस वा�े मु�� म� �ान और कमर् दोनो ं हेतु
नही ं हो सकते; �ोिं क मु�� म� इस बात का कोई �वक�
भी नही ं है, �ोिं क कमर् से मु�� �ई, या �ान से, �ोिं क
इसका तो �ान ही �नयत कारण, और इस बात को भी इस
सूत्र से प्र�� करते ह�।

��जागरा�ा�मव मा�यकामा�यका�ां
नोभयोमु��ः पु�ष� ॥२६॥
अथर् जैसे ��ाव�ा और जाग्रताव�ा इन दोनो ं म� पहला
तो प्र�त�व� है, दूसरा स�ा है । यह ��ाव�ा और
जामताव�ा दोनो ं आपस म� �व�द्ध धमर् वाले ह�, अतः (इस

सांख्य दर्शन 161


कारण ) एक व� म� नही ं रह सकते, इसी तरह �ान और
कमर् भी एक व� म� नही ं रह सकते ह�। बस इसी से �सद्ध
हो गया िक �व�द्ध धमर् वाले पदाथर् न तो �मल सकते ह�, और
न मु�� का हेतु हो सकते ह�, और न इस �वषय पर �वक�
करना चािहये, िक िकस से मु�� होती है। �ोिं क मु��
का �नयत कारण �ान है, और "न कमर्णा न प्रजया धनेन
�ागेने के अमृत�मानशुः" ( कमर् से, स�ान से, दान से,
िकसी ने अमृत� नही ं पाया है ) इ�ािद श्रु�तयाँ भी कमर्
को मु�� का अहेतु कहती ह�।
प्र०- यिद कमर् का कु छ भी फल न रहा, तो कमर् का करना
ही �थर् है ?

उ०- इतर�ा�प ना���कम् ॥२७॥


अथर्- कमर् का �वशेष फल नही ं है, िक�ु सामा� ही फल
है। इस सूत्र म� 'इतर' श� से कमर् का ग्रहण इस�लये हो
सकता है िक इस प्रकरण म� �ान से मु�� होती है, कम से
नही।ं इसी का प्र�तपादन करते चले आते ह�, इस वा�े �ान

सांख्य दर्शन 162


के अ�त�र� कमर् का हो ग्रहण हो सकता है। यिद ऐसा
कहा जाये, िक �ान के अ�त�र� अ�ान का ग्रहण िक्रया
सो भी ठीक नही ं ; �ोिं क इस सूत्र म� आचायर् का अ�प और
ना���क श� कहना कमर् से �ून (कमती) फल का
जताने वाला है, जब इतर से अ�ान का ग्रहण िकया जाये,
तो ऐसा अथर् होगा, िक अ�ान का थोड़ा फल है ब�त नही,ं
इससे थोड़े फल का अ�भलाषी अ�ान को ही उ�म समझ
सकता है, इस वा�े ऐसा अनथर् करना अ�ा नही।ं इससे
आचायर् ने कमर् क� अपे�ा �ान को उ�म माना है। योगी के
सं क�- �सद्ध पदाथर् भी �म�ा नही ं ह�, इस बात का आगे
के सूत्र से और भी प्र�� कर�गे।

सं क��तेऽ�ेवम् ॥२८॥
अथर्- योगी के सं क� िकये �ए पदाथर् भी इसी प्रकार स�े
है जबिक योगी के सं क��त पदाथ� का कोई कारण प्र��
नही ं िदखता, तो वह �म�ा �ो ं नही ं ?

सांख्य दर्शन 163


उ०- भावनोपचया�ु द्ध�सवर् प्रकृ �तवत्
॥२९।।
अथर्- प्राणायामािदको से यो�गयो ं क� भावना अथार्त् �ान
अ�धक होता है, इस वा�े सब पदाथर् �सद्ध ह�, उनम� प्र��
कारण देखने क� आव�कता नही ं है ; �ोिं क हम लोगो ं
के समान यो�गयो ं के सं क� झठू े नही ं होते, जैसे- प्रकृ �त
�बना िकसी का सहारा �लये महदािदको ं को करती है, और
उसम� प्र�� कारण क� कोई आव�कता नही ं पड़ती, इसी
प्रकार योगी का �ान भी जानना चािहये । पूव�� सूत्रो ं से
यह बात �सद्ध हो गई िक �ान ही मो� का साधन है । अब
�ान िकस तरह होता है, इस बात को आगे के सूत्रो ं से प्र��
कर�गे।

रागोपह�तयानम् ॥३०॥
अथर्- �ान के रोकने वाले रजोगुण के कायर् जो �वषय-वास
नािदक ह� उनका �जनसे नाश हो जाये, उसे �ान कहते ह�।

सांख्य दर्शन 164


यहाँ- पर �ान श� से धारणा, �ान, समा�ध, इन तीनो ं
का ग्रहण है; �ोिं क पात��ल म� योग के आठ ग्रहो ं को ही
�ववेक सा�ात् म� हेतु माना है। इनके अवा�र भेद भी उसी
शा� म� �वशेष �मल�गे, बाक� पाँच साधनो ं को आचायर् आप
ही कह�गे। अब �ान क� �स�द्ध के ल�णो ं को कहते ह�—

वृ���नरोधात् त�स�द्धः ॥३१॥


�जसका �ान िकया जाये, उसके अ�त�र� वृ��यो ं के
�नरोध से अथार्त् स��ात योग से उसक� �स�द्ध जानी जाती
है, और �ान तबतक ही करना चािहये जबतक �ेय
(�जस- का �ान िकया जाता है) के �सवाय दूसरे क� तरफ
को �च� क� वृ�� न जाये । अब �ान के साधनो ं को कहते
ह�—

धारणासन�कमर्णा त�स�द्धः ॥३२॥


धारणा, आसन और अपने कमर् से �ान क� �स�द्ध होती है।
प्रथम धारणा का ल�ण कहते ह�—

सांख्य दर्शन 165


�नरोध��द�वधारणा�ाम् ॥३३॥
अथर्- छ�द (वमन) और �वधारण ( �ाग) अथार्त् प्राण का
पूरक, रेचक और कु �क से �नरोध ( वश म� रखने को
धारणा कहते ह�। यद्य�प आचायर् ने धारणा श� का
उ�ारण इस सूत्र म� नही ं िकया है तथा�प आगे के दो सूत्रो ं
म� आसन और �कमर् का ल�ण िकया है। इसी प�रशेप से
धारणा श� का अ�ाहार इस सूत्र म� कर �लया जाता है,
जैसे- पा�ण�न- मु�न ने भी लाघव के वा�े "लट, शेषे च"
इ�ािद सूत्र कहे ह�। अब आसन का ल�ण कहते ह�—

��रसुखमासनम् ॥३४॥
अथर्- ��र होने पर जो सुख का साधन हो, उसी का नाम
आसन, जैस-े ���का (पालक�) आिद ��र होने पर सुख
के साधन होते ह�, तो उनको भी आसन कह सकते ह� िकसी
�वशेष पदाथर् का नाम आसन नही ं है। अब �कमर् का
ल�ण कहते ह�—

सांख्य दर्शन 166


�कमर् �ाश्रम�विहतकमार्न�ु ानम् ॥३५॥
अथर्- जो कमर् अपने आश्रम के वा�े शा�ो ं ने प्र�तपादन
िकये ह� उनके अनु�ान को �कमर् कहते ह�। यहाँ पर कम
श� से यम, �नयम, और प्र�ाहार, इन तीनो ं को समझना
चािहये ; �ोिं क इनका सब वणो ं के वा�े समान स��
है, और इन यमािदको ं को योगशा� म� योग का अङ्ग तथा
�ान का साधन भी माना है, और भी जो �ान प्रा�� म� उपाय
ह�, उनको भी कह�गे—
प्र०- यम िकसको कहते ह�।
उ०- अिहसं ा (जीव का न मारना) स�, अ�ेय (चोरी न
करना), ब्रह्मचयर्, अप�रग्रह (�वषयो ं से बचना); इनका नाम
यम है।
प्र०- �नयम िकसको कहते ह� ?
उ०- शु�द्ध, स�ु� रहना, अपने कम� का अनु�ान करना,
वेदािद का पढ़ना, ई�रभ��; इसको �नयम कहते ह�।

सांख्य दर्शन 167


प्र०- प्र�ाहार िकसको कहते ह� ?
उ०- �जसम� �च� इ��यो ं सिहत अपने �वषय को �ाग कर
�ानाव��त हो जाये, उसको प्र�ाहार कहते ह�।

वैरा�ाद�ासाच ॥३६॥
अथर्- सांसा�रक पदाथ� के �वराग अथवा धारणािद पूव��
तीन साधनो ं के अ�ास से �ान प्रा� होता है । यहाँ चकार
का अथर् पूवार्थर् का समु�य और प्रार��त जो "�ानामु��
इस �वषय के प्र�तपादन क� समा�� के वा�े है । इससे
आगे "ध�ो �वपयर्यात्" इस पर �वचार प्रार� करते ह�—

�वषयर्यभेदाः पं च ॥३७॥
अथर्- �वद्या, अ��ता, राग, द्वेष और अ�भ�नवेश, यह पाँच
योगशाखो ं म� कहे �ए ब� के हेतु �वषयर्य (�म�ा �ान )
के अवा�र भेद ह�। अ�न�, अशु�च, दःु ख और अना� म�
�न�, शु�च, सुख और आ�बु�द्ध करने का नाम अ�वद्या है।
�जसम� आ�ा और अना�ा क� एकता मालूम होये, जैसे-

सांख्य दर्शन 168


शरीर के अ�त�र� और कोई आ�ा नही,ं ऐसी बु�द्ध का
होना अ��ता है राग और द्वेष के तो ल�ण प्र�सद्ध ही ह� ।
मृ�ु से डरने का नाम अ�भ�नवेश है, यह पांचो ं बात� बद्ध
जीव म� होती ह�, और इनका होना ही ब�न का हेतु है। अत्र
बु�द्ध को �बगाड़ने वाली अश��यो ं के भेद कहते ह�—
ं �तधातु ॥३८॥
अश��र�ा�वश
अथर्- अश�� अट्ठाईस प्रकार क� है, वह प्रकार अब कहते
ह�। �ारह इ��यो ं के �वधात हो जाने से �ारह प्रकार क�,
और नौ प्रकार क� तु��, तथा आठ प्रकार क� �स�द्ध से बु�द्ध
का प्र�त- कू ल होना- यह सब �मलकर अट्ठाईस प्रकार क�
बु�द्ध अश�� बु�द्ध म� होती है। इ��यो ं का �वधात इस तरह
होता है, िक कान से सुनाई न देना, �चा म� कोड़ का हो
जाना, आँखो ं से अंधा हो जाना इ�ािद �ारह इ��यो ं का
�वषय होना तथा तु�� आिद के जो भेद �जस प्रकार कहे ह�,
उनसे बु�द्ध का �वपरीत होना, अश�� का ल�ण है। जब
तक बु�द्ध म� प्रश�� नही ं होती, तबतक प्र�ान भी नही ं हो

सांख्य दर्शन 169


-ता! अब तु�� के भेद कहते ह�—

तु��नवधा ॥३९॥
अथर्- तु�� नौ प्रकार क� है। इसका �भ�- �भ� प्र��
आचायर् आगे के सूत्रो ं म� आप ही कर�ग।े अतः यहाँ �ा�ा
�लखना �थर् है।

�स�द्धर�धा ॥४०॥
अथर्- �स�द्ध आठ प्रकार क� है, इसका प्र�� भी आगे
�लख�गे। अब पूवर् कहे �ए �वषययर्, प्रश��, तु�� और �स
-�द्ध के भेदो ं क� �ा�ा आगे के चार सूत्रो ं म� कर�गे।

अवा�रभेदाः पूवर्वत् ॥४१॥


अथर्- �वषययर् अथार्त् �म�ा �ान के अवा�र भेद जी
सामा� री�त से पूवार्चाय� ने िकये ह�, उनको उसी तरह
समझना चािहये, यहाँ �व�ारभय से नही ं कहे गये।
अ�वद्यािदको ं के �जतने भेद ह�, उनक� �वशेष �ा�ा

सांख्य दर्शन 170


�व�ारभय के कारण छोड़ दी है। यिद कहे जाये तो
का�रकाकार ने अ�वद्या के बासठ भेद माने ह�, �जसम� आठ-
आठ प्रकार का तम और मोह, दश प्रकार का महामोह,
अठारह प्रकार का ता�मत्र और अठारह ही प्रकार का
अ�ता �मश्र- यह सब �मलकर बासठ प्रकार के �ए। यिद
इतने प्रकार के भेदो ं क� �भ�- �भ� �ा�ा क� जाये, तो
बड़ा भारी द�र भरने को चािहये, लेिकन हमारे �वचार से
इतने भेद मानना और उनक� �ा�ा करना के वल झगड़ा
ही है।

एव�मतर�ाः ॥४२॥
इसी प्रकार अश�� के भेद भी पूवार्चाय� के कथनानुसार
समझने चािहये।

आ���का�दभेदानवधा तु��ः ॥४३॥


अथर्- प्रकृ �त, उपादान, काल, भा�- यह चार प्रकार के
भेद होने से आ�ा��क तु�� कहलाती है, और पाँच प्रकार

सांख्य दर्शन 171


क� वाह्य �वषयो ं से उपराम को प्रा� होने वाली तु�� है।
एवम् आ�ा��कािद भेदो ं के होने से नौ प्रकार से है, िक
जो कु छ िदखता है, वह सब प्रकृ �त का ही प�रणाम है, और
उसको प्रकृ �त ही करती है। म� कू ट� �ँ - - ऐसी प्रकृ �त के
सं ब� म� बु�द्ध होने का नाम प्रकृ �त तु�� है , और जो
सं �ासी होकर आश्रम ग्रहण �पी उपादान से तु�- मानते
ह�, वह उपादान तु�� है। जो सं �ासी होकर भी समा�ध
आिद अनु�ानो ं से ब�त समय म� तु�� मानते ह� उसे काल
तु�� कहते ह�, और उसके बाद धमर्मेघ समा�ध म� जो तु��
होती है, उसे भा� तु�� कहते ह�। वाह्य पांच प्रकार क� तु��
इस तरह है िक माला, च�न, व�नता (�ी) आिद के प्रा�
करने म� दःु ख उ�� होगा, ऐसा करके उनका �ाग कर
देना, यह एक प्रकार क� तु�� �ई। पैदा िकये �ये धन को
या तो चोर चुरा ले जायेगे या राजा द� देकर छ�न लेगा तो
बड़ा भारी दःु ख उ�� होगा- ऐसा �वचार कर जो �ागना
है, यह दूसरी तु�� है। यह धनािदक बड़े प�रश्रम से सं चय
िकया गया है, इसक� र�ा करनी यो� है। �थर् न खोना

सांख्य दर्शन 172


चािहये- ऐसा �वचार करके जो �वषय- वासना से बचना है,
इसको तीसरी तु�� कहते ह� भोग के अ�ास से काम वृ�द्ध
होती है और �वषय के न प्रा� होने से का�मयो ं को बड़ा भारी
क� होता है। ऐसा �वचार कर जो भोगो ं से बचना है, यह
चौथी तु�� का ल�ण है । िहसं ा या दोषो ं के देखने से उपराम
हो जाना, पाँचत्रो ं तु�� का ल�ण है । यह पौन प्रकार क�
तु��यो ं क� �ा�ा के वल उपल�ण मात्र को गई है। इनक�
अव�ध यही ं तक न समझकर इसी प्रकार क� और भी तु��याँ
इ�ी ं पाँच प्रकार क� तु��यो ं म� प�रग�णत कर लेनी चािहये।

जहा�द�भः �स�द्धः ॥४४॥


अथर्- 'अह' श�, अ�यन और तीनो ं प्रकार के दःु खो ं का
नाश होना, �मत्र का �मलना, दान करना- इस तरह पाठ
प्रकार क� �स�द्ध होती है। �बना िकसी के उपदेश के पूवर्ज�
के सं �ारो ं से- त� को अपने आप �वचारने का नाम अह
है। दूसरे से सुनकर या अपने आप शा� को �वचार कर जो
�ान उ�� िकया जाता है, उसका नाम श� है। �श� और

सांख्य दर्शन 173


आचायर् भाव से शा� पढ़कर �ानवान होने को अ�यन
कहते ह�। यिद कोई दयावान् अपने �ान पर ही उपदेश देने
आया हो, और उसी उपदेश से �ान हो गया हो, इसको
सुह�ा�� कहते ह� और धन आिद देकर �ान का जो प्रा�
करना है, उसको दान कहते ह�, और पूव�� आ�ा��क,
आ�धभौ�तक, आ�धदै�वक, तीन प्रकार के दःु खो ं के �ववरण
को शा� के आिद म� हम वणर्न कर चुके ह�।
प्र०- ऊह आिदको ं से ही �स�द्ध �ो ं मानी जाती है ! �ोिं क
ब�तेरे मनु� म�ो ं से अ�णमािदक पाठ �स�द्ध मानते तब
�ा उनका �सद्धा� �म�ा हो सकता है ?

उ- तरा�दतरहानेन �बना ॥४५॥


अथर्- उहािद प�क के �बना म� आिदको ं से त� क� �स�द्ध
प्रा� नही ं होती, �ोिं क वह �स�द्ध इतर अथार्त् �वषयर्य �ान
के �बना भी प्रा� होती है। अतएव सांसा�र क� �स�द्ध होने
के कारण यह पारमा�थ क� नही ं कहला सकती। बस यहाँ

सांख्य दर्शन 174


तक सम��सगर् और प्र�यसगर् समा� हो गया, इस से आगे
"�- �तभेदः कमर्�वशेषात्" इस सं �ेप से कहे �ए सूत्र को
�वशेष �प से प्र�तपादन कर�गे।

देवा�दप्रभेदा ॥४६॥
अथर्- देव आिद सृ�� के प्रभेद ह�, अथार्त् एक दैवी सृ��,
दूसरी मनु�ो ं क� सृ�� है। यहाँ पर देव और मनु�ो ं के कहने
से यह न समझना चािहये, िक देवता जैसे और साधारण
मनु� मानते ह�, वही ह�, िक�ु �वद्वानो ं का नाम देव है और
जो �म�ा बोलते ह� वे मनु� ह�। िक�र, ग�वर्, �पशाच
आिद यह सब मनु�ो ं के ही भेद ह�, जैसा िक श्रु�तयाँ कहती
ह�।
"स�ं वै देवा अनृतं मनु�ाः, �वद्वा सो िह देवाः" इ�ािद ।
और मह�ष क�पल जी को भी यही बात अभी� (मं जूर) है,
जैसािक उ�ोनं े आगे ५३ वे सूत्र म� प्र�तपादन िकया है। अब
सृ�� का प्रयोग कहते ह�—

सांख्य दर्शन 175


आब्रह्म��पयर्� त�ृ तेसृ��रा�ववेकात्
।।४७।।
अथर्- ब्राह्मणो ं से लेकर �ावरािद तक �जतनी सृ�� है, वह
सवर् पु�ष के हो वा�े है, और उसे भी �ववेक के होने तक
ही सृ�� रहती है, बाद को मु�� होने से छू ट जाती है। अब
तीन सूत्रो ं से सृ�� के �वभाग को कहते ह�—

उचं स��वशाला ॥४८॥


अथर्- जो सृ�� ऊपर है, वह स�- प्रधान है। यहाँ पर ऊपर
कहने से आचायर् का प्रयोजन �ान के मागर् से उ��त करने
वालो ं से है, अथार्त् सतोगुणी उ��त करते ह�, �ोिं क सतो.
गुण प्रकाश करता है, इस कारण सतोगुणी अथार्त् �ानी
लोग सदा उ��त करते ह�, इस कारण ऊपर जाते ह�।

तमो�वशाला मूलतः ॥४९॥


अथर्- तमोगुणी अ�ःकरण वाले जीव नीच ग�त अथार्त्

सांख्य दर्शन 176


पशु- प�ी और क�ड़े आिद क� यो�नयो ं को प्रा� होते ह�।

म�े रजो�वशाला ॥५०॥


अथर् और बीच म� जो शरीर ह�, वे रजोगुण प्रधान ह�। बीच
का शरीर सामा� मनु� का ज� है, और सब शरीर इसक�
अपे�ा ऊँ चे ह�, या नीचे। सामा� मनु� रजोगुणी होता है।
स�ु�ष सतोगुणी, पशु आिद तमोगुणी । इस के अ�र भी
भेद ह�।
प्र०- प्रकृ �त तो एक ही है, लेिकन सृ�� अनेक तरह क� �ो ं
होती है ?

उ०- कमर्वै�च�ा�धानचे�ा गभर्दासवत्


।।५१।।
अथर् यह सब प्रधान अथार्त् प्रकृ �त क� चे�ा कम� क�
�व�चत्रता से होती है, इस म� ��ा� भी है, जैसे- कोई दासी
(१०२) अपने �ामी के वा�े नाना प्रकार क� चे�ा (पहल)
करती है, वैसे ही उसका पुत्र भी अपने �ामी के प्रस�ताथर्

सांख्य दर्शन 177


नाना प्रकार क� चे�ा करने लगता है, अतएव जो जैसा कमर्
करेगा उसक� सृ�� भी वैसा ही कमर् करेगी, इसम� कोई
स�ेह नही ं है।
प्र०- ऊ�र् क� सृ�� स�गुण प्रधान है, तो मनु� उसी से
कृ ताथर् हो सकता है, िफर मो� से �ा करना है ?

श्रावृ���त्रा�ु�रो�रयो�नयोगाय ॥५२।।
अथर्- उन ऊपर के और नीचे के देशो ं म� भी आवृ�� योग
रहता है, अथार्त् जब वहाँ गये तब सा�� क� वृ�� रहो, और
यहाँ रहे तब वही रजोगुण िफर आ गया, और वहाँ भी छोटी
बड़ी जा�तयाँ होती ह�, उनम� ज� होने से ठीक- ठीक स�
नही ं रहता ; इस वा�े ऐसा �वचार करना सब तरह छोड़ने
यो� है। और भी इस प� को पु� करते ह�।

समानं जरामरणा�दजर् दःु खम् ॥५३॥


िकसी शरीर म� हो,ं चाहे देवता हो, चाहे सामा� मनु�
अथवा पशु, प�ी- बुढ़ापे और मृ�ु का दःु ख सब म� होता

सांख्य दर्शन 178


है। इस कारण सब शरीरो ं क� अपे�ा मु� होना हो उ�म
है।
प्र०- �जस से यह शरीर उ�� �आ है, यिद उसी म� लय हो
जाये, तब �ा मु�� नही ं मानी जायेगी ?

उ०- न कारणलयात् कृ तकृ �ा म�व-


द�
ु ानात् ॥५४॥
अथर्- कारण म� लय हो जाने से भी कृ तकृ �ता नही ं होती,
�ोिं क जैसे मनु� जब जल म� डू बता तो कभी तो ऊपर को
आता है, और कभी नीचे को बैठ जाता है। इसी तरह जो
मनु� कारण म� लय हो गया है, कभी ज� को प्रा� होता
कभी मरण को प्रा� होता है, और ऐसा कहने से आचायर्
का यह ता�यर् नही ं है िक मु� जीव कभी ज� को नही ं
प्रा� होता; �ोिं क प्रथम तो आचायर् जीव को �न� मानते
ह�, जब उसका कारण ही नही ं तो लय िकसम� होगा। दूसरे
जो डू बे �ये का ��ा� िदया, अशा�� का पोषक िदया तथा

सांख्य दर्शन 179


इस म� पराधीनता िदखाई ; िक�ु मु�- जीवन तो न
अशा� है न पराये अधीन है। तीसरे यहाँ पर सृ�� का प्रसं ग
चला आता है, िक�ु जीव का �वषय भी नही ं है। इस�लये
अ�ःकरण के सुषु�� म� प्रकृ �त म� लय होने से ता�यर् है।
प्र०- जबिक प्रकृ �त और पु�ष दोनो ं ही अनािद ह�, तो प्रकृ �त
ही म� सृ�� का कतृर्� �ो ं माना जाता है ?

उ०- अकायर्�ेऽ�पतयोगः पारव�ात् ॥५५॥


अथर्- यद्य�प प्रकृ �त और पु�ष दोनो ं अकायर् अथार्त् �न�
ह� तथा�प प्रकृ �त को ही सृ�� करने का योग है ; �ोिं क जो
परवश होगा वही तो कायर् को करेगा । इस �वचार से प्रकृ �त
ही म� परवशता िदखती है।

प्र०- स िह सवर्�वत् सवर्कतार् ॥५६॥


अथर्- यिद प्रकृ �त �पी पदाथर् को सवर्� और सवर्�वत्
("�वस�ायाम्” इस धातु का प्रयोग है) सवर्श��मान मान
�लया जाये तो �ा हा�न है ?

सांख्य दर्शन 180


उ०- ईहशे�र�स�द्धः �सद्धा ॥५७॥
अथर्- इस तरह वेद के प्रमाण से ई�र को �स�द्ध �सद्ध है।
प्रकृ �त म� सवर्��ािद गुण तो िकसी सूरत म� नही ं हो सकते
ह�, सवर्��ािद गुण तो ई�र ही म� ह�।
प्र०- प्रकृ �त ने सृ�� को �ो ं पैदा िकया ?

उ०-प्रधानसृ��ः पराथ� �तोऽ�भो�ृ�ा-


द�ु �कुङ कु मवहनवत् ॥५८॥
अथर्- प्रधान जो सृ�� है उसक� सृ�� दूसरे के वा�े है
�ोिं क वह �यं भोग नही ं कर सकती । ��ा�- जैसे िक
ऊँ ट के शर को अपने ऊपर लादकर पराये वा�े ले जाता है
लेिकन उस के शर से अपना कु छ �ाथर् नही ं रखता। इसी
प्रकार प्रकृ �त क� सृ�� भी दूसरे के वा�े है।
प्र०- ऊँ ट का जो ��ांत िदया गया सो ऊँ ट चेतन है, और
चेतन क� चे�ा दूसरे के वा�े हो सकती है, लेिकन जड़ क�

सांख्य दर्शन 181


नही ं हो सकती ?

उ०- चेतन�े�प�ीरव�े��तं प्रधान� ॥५९।।


अथर्- यद्य�प प्रकृ �त अचेतन है, तथा�प उसक� प्रवृ�� दूसरे
के वा�े है । ��ा�- जैसे िक दूध जड़ है, लेिकन उसक�
प्रवृ�� चैत� बछड़ा आिद के वा�े है। और भी ��ा�
है—

कमर्वद्द�ेवार् कालादेः ॥६०॥


अथर्- जैसे िक खेती के करने म� बीज बोया जाता है, वह
अपनी ऋतु के धारण कर दूसरो ं के उपकाराथर् फल देता है।
इसी प्रकार प्रकृ �त क� सृ�� भी दूसरो ं के वा�े है।
प्र०- ऊँ ट तो �पटने के डर से के शर को लादकर ले जाता है,
लेिकन प्रकृ �त को तो िकसी का डर नही ं है ?

उ०- �भावा�े��तमन�भस�ानाभृ�वत्
॥६१॥

सांख्य दर्शन 182


अथर्- जैसे चतुर सेवक अपने �ामी का सब काम करता
और उसम� अपने �ाथर् का कु छ भी प्रयोजन नही ं रखता,
इसी तरह प्रकृ �त भी अपने आप सृ�� करती है, पु�ष
प्रेरणािदक क� अपे�ा नही ं करती।

कमार्कृ�ोऽना�दतः॥६२॥
अथर्- - अथवा कम� के अनािद प्रवाह के वश होकर प्रकृ �त
सृ�� को करती है। अब इससे आगे सृ�� क� �नवृ�� के
कारणो ं को कह�गे—

�व�व�योधात् सृ���नवृ��ः प्रधान� सूदवत्


पाके ॥६३॥
अथर्- जब �व�व� बोध अथार्त् एका� �ान हो जाता है,
तब प्रकृ �त क� सृ�� �नवृ� हो जाती है, जैसे- - - रसोइया
भोजन बनाकर �न��� हो जाता है, िफर उसको कोई काम
�वशेष नही ं रहता। इसी तरह प्रकृ �त भी �ववेक (�ान) को
उ�� करके अपनी सृ�� को �नवृ� कर देती है। आशय यह

सांख्य दर्शन 183


है िक �ान होने से सं सार छू ट जाता है।
प्र०- जबिक एक को �ान �आ और उससे सृ�� क� �नवृ��
हो गई, तो िफर �वशेष जीव बद्ध �ो ं रहते ह� ? �ोिं क सृ��
क� �नवृ�� म� ब�न न रहना चािहये ?

उ०- इतर इतरव�दोषात् ॥६४॥


अथर्- जो �ववेक (�ान ) रिहत है, वह वृद्ध के बराबर है,
�ोिं क अ�ान के दोष से बँ धा रहना ही पड़ता है। अब सृ��
�नवृ�� का फल कहते ह�—

द्वयोरेकतर� वौदासी�मपवगर्ः ॥६५॥


अथर्- प्रकृ �त और पु�ष इन दोनो ं क� आपस म� उदासीनता
का होना ही मु�� कहलाता है। दूसरा यह भी अथर् हो
सकता है, िक �ानी और अ�ानी इन दोनो ं म� से एक के
वा�े प्रकृ �� क� उदासीनता ही को अपवगर् मु�� कहते ह�।
प्र०- जबिक �ववेक के कारण प्रकृ �त पु�ष को मु� कर

सांख्य दर्शन 184


देती है, तो और भी पु�ष �ववेक से मु� हो जाय�गे, ऐसा
�वचार- कर प्रकृ �त �ववेक के डर के मारे सृ�� करने से
�वर� �ो ं नही ं होती ?

उ०- अ�सृष्ट्युपरागे�प न �वर�ते प्रबुद्ध


र�ुत��ेवोरगः ।।६६॥
अथर्- यद्य�प प्रकृ �त एक मनु� के �ानी होने से उसके वा�े
सृ�� से �वमुख हो जाती है, तथा�प दूसरे अ�ानी के वा�े
प्रकृ �त सृ�� करने से �वमुख नही ं होती। ��ा�- जैसे िक
िकसी मनु� ने र�ी को देखा, उस र�ी को देखकर उसको
प्रथम सॉप क� भ्रा�� �ई, और भय मालूम पड़ा। बाद को
जब उसने �वचार करके देखा, तो उसको यथाथर् �ान हो
गया, िक यह साँप नही ं है, िक�ु र�ी है । जब उसको
आन� हो गया, तब वह र�ी उस �ानी को िफर भय नही ं
देती, िक�ु जो अ�ानी है उसे तो साँप को भ्रा�� से भय
देती ही है। इसी प्रकार प्रकृ �त क� भी �व�ा है, िक जो
�ववेक� है उसके वा�े इसक� सृ�� नही ं है, िक�ु अ�ववेक�

सांख्य दर्शन 185


के वा�े है।

कमर् �न�म�योगाच ॥६७॥


अथर्- सृ�� के प्रवाह म� जो कमर् हेतु ह� उनके कारण भी
प्रकृ �त सृ�� करने से �वमुख नही ं होती, और मु� मनु� के
कमर् छू ट जाते ह� । इस कारण उसके वा�े सृ�� शा� हो
जाती है।
प्र०- जब सब मनु� समान और �नरपे� ह�, तो िकसी के
वा�े प्रकृ �त सृ�� क� �नवृ�� और िकसी के वा�े प्रवृ�� हो
इसम� �ा �नयम है ?
उ०- कमर् का प्रवाह ही इसम� �नयम है।
प्र०- यह उ�र ठीक नही,ं �ोिं क न मालूम िकस मनु� का
कौन- सा कमर् है ? यह भी कोई �न�य िकया �आ �नयम
नही ं है ?

सांख्य दर्शन 186


उ०- नरपे��प प्रकृ �ुपकारेऽ�ववेको �न�म�म्
॥६८॥
अथर्- यद्य�प सब पु�ष �नरपे� ह�, अथार्त् एक दूसरे क�
अपे�ा नही ं रखता, तथा�प यह मेरा �ामी है, म� इसका
सेवक �ँ ; इस तरह प्रकृ �त के उपकार म� (सृ�� करने म� )
अ�ववेक ही �न�म� है। प्र�� यह है िक जब प्रकृ �त यह
बात चाहती है, िक यह मनु� मु� हो, तब ही उसको
अपनी सृ�� के भीतर रखकर अनेक प्रकार के काय� म� लगा
देती है, और उ�ी काय� को करता �आ वह मनु� िकसी
न िकसी ज� म� �ववेक� (�ानी) होकर मु� हो जाता है;
इसी वा�े प्राचायर् ने सूत्र म� उपकार श� को �ा�पत िकया
है।
प्र०- जबिक प्रकृ �त का �भाव वतर्मान मान �लया है, तो
�ान के उ�� होने पर �ो ं �नवृ� हो जाती है ? �ोिं क जो
�जसका �ाभा�वक धमर् है, वह सब जगह एक सा रहना
चािहए ?

सांख्य दर्शन 187


उ०- नतर्क�वत् प्रवृ��ा�प �नवृ���ा-
�रता�ार्त् ॥६९॥
अथर्- जैसे नाच करने वाली का नाच करना �भाव है, वह
सब सभा को नाच िदखाती है, और जब नाच करते करते
उसके मनोरथ पूरे हो जाते ह�, तब वह नाच करने से �नवृ�
हो जाती है ; इसी तरह यद्य�प प्रकृ �त का सृ�� करना �भाव
है, पर�ु उस सृ�� करने का जो प्रयोजन है वह �ववेक के
उ�� होने से �नवृ� हो जाता है, अतएव उससे �नवृ� भी
हो जाती है।
अब मु�� से पुनरागमन होता है या नही,ं इसपर यहां इस
कारण �वचार िकया जाता है, िक इस अपर के सूत्र म� �ववेक
के उपरा� स�� क� �नवृ�� प्र�तपादन कर चुके, और इस
पर यह स�ेह होता है, िक जब प्रकृ �त यह समझ लेती होगी,
िक पु�ष को मेरे सं योग से अनेक दःु खािद होते ह�; अत-
एत्र िफर उसका सं योग िकसी काल म� न कहना चािहये।
इसी मत पर तो आचायर् �वचार करते ह�।

सांख्य दर्शन 188


दोषबोधेऽ�प नोपसपर्णं प्रधान� वधूवत्
॥७०॥
अथर्- पु�ष को मेरे सं योग से दःु ख होगा, इस बात म� प्रकृ �त
अपना दोष जानती है, तो �ा िफर उसका सं योग नही ं
करती, िक�ु अव� करती है, जैसे- अ�े वं श क�
प�तव्रता �ी से यिद कोई दोष हो भी जाये, और उससे
�ामी को क� भी प�ंचे, तब �ा वह अपने प�त के पास
का जाना छोड़ देगी? ऐसा नही ं हो सकता, अव� जायेगी;
�ोिं क जो प�त को �ागती है, तो उसका प�तव्रत धमर् न�
होता है। और भी प्रकार से अ� आचाय� ने इस सूत्र का
अथर् िकया है, िक जब प्रकृ �त अपना दोष जान लेती है तब
ल�ा के वश होकर िफर कभी पु�ष के पास नही ं जाती,
जैसे कु लवधू नही ं जाती। इस अथर् के करने से उनका ता�यर्
यह है, िक मु�� से पुनरावृ�� नही ं होती, पर�ु यह अथर्
ठीक नही ं �ोिं क �व�ान�मनु ने "अ�प श� का कु छ भी
आशय नही ं �नकाला, और न यह समझा िक जो अपने दोष

सांख्य दर्शन 189


से प�त को छोड़ दे, वह कु लवधू कै से हो सकती है। कु लवधू
वही होती है, जो अपने दोष को �ामी से �मा कराकर
अपने �ामी क� सेवा म� त�र (लगी) रहे िक�ु अ�
टीकाकारो ं ने इस ��ा� के गूढ आशय को �बना समझे जो
�लख िदया है, सो यो� नही ं है, अथवा प्राचायर् को यही बात
माननीय थी, िक मु�� से िफर नही ं लौटता, तो इन से पिहले
सूत्र म� इस बात को एक ��ांत के द्वारा प्र�तपादन कर ही
चुके थे, िफर इस सूत्र को बनाकर पुन��� �ो ं करते ।
इसी �ापक से �सद्ध है, िक मु�� से िफर लौट आता है,
लेिकन इस पुन��� को अ� प्राचायर् नही ं समझे। पु�ष
का ब� और मो� िकस से होता है ? इस बात का �वचार
करते ह�।

नैका�तोव�मो�ौ पु�ष�ा�ववेकाहते॥७१॥
अथर्- पु�ष को ब� मो� �ाभा�वक नही ं है, िक�ु
अ�ववेक ही से होते ह�।

सांख्य दर्शन 190


प्रकृ तेरा��ात् ससं ग�ात् पशुवत् ॥७२॥
अथर्- जब �वचार करते ह�, तो �ात होता है, िक प्रकृ �त का
सं योग पु�ष को रहता है, इसी से पु�ष का ब� है। प्रकृ �त
का सं योग छू टना ही मो� है, जैसे पशु र�ी के सं योग से
बं ध जाता है; और उसका सं योग छू ट जाता है, तब वह मु�
हो जाता है ; इसी तरह मनु� को भी जानना चािहये ।
प्र०- प्रकृ �त कौन से साधनो ं से ब�न करती है, और कै से
मु� करती है ?

उ०- �पैःस��भरा�ानं ब�ा�तप्रधान


कोशकारविद्वमोचय�ेक�पेण ॥७३।।
अथर्- धमर्, वैरा�, ऐ�यर्, अधमर्, अ�ान, अवैरा� और
अनै�यर्- इन सात �पो ं से प्रकृ �त पु�ष का ब�न करती है,
जैसे- तलवार के �ान बनाने वाले क� कारीगरी से तलवार
ढक� रहती है, इसी तरह प्रकृ �त से पु�ष को भी समझना
चािहये, और वही प्रकृ �त �ान से आ�ा को दःु खो ं से मु�

सांख्य दर्शन 191


कर देती है।
प्र०- जब मु�� म� हेतु �ान कहा, और धमार्िदक सब ब�न
के हेतु कहे, तो धमर् म� �ो ं िकसी क� प्रवृ�� होगी, और
�ो ं �ानािद के वा�े उपाय िकया जायेगा ?

उ०- �न�म��म�ववेक�े�त न ��हा�नः


॥७४।।
अथर्- मु�� के न होने म� अ�ान हो ( अ�ववेक) �न�म� है,
इस वा�े उसक� �नवृ�� हो के वा�े य� करना चािहये और
उस य� म� धमार्नु�ान आिद �च�शोधक कमर् भी प�र-
ग�णते ह�, अतः उसक� हा�न नही ं हो सकती ; �ोिं क �बना
धमर्, �ान आिद िकये, कोई भी �ानवान हो ही नही ं
सकता। अब �ववेक कै से होता है, उसका उपाय कहते ह�—

त�ा�ासा�े�त नेती�त �ागािद्ववेक �स�द्धः


॥७५॥

सांख्य दर्शन 192


अथर्- देह आ�ा नही ं है, पुत्र आ�ा नही ं है, इ��याँ आ�ा
नही ं ह�, मन आ�ा नही ं है। इस प्रकार ने�त- ने�त करके
�ाग से और त�ा�ास करने से �ववेक क� �स�द्ध हो जाती
है। श्रु�त भी इसी आशय को कहती है, "अथार्त आदेशो
ने�� नेती�त �ागेनैके अमृत�मानशुः ।

अ�धका�रप्रभेदा� �नयमः॥७६॥
अथर्- कोई मूखर् बु�द्ध वाले होते ह�, कोई �वल�ण (श्रे�)
बु�द्ध वाले होते ह�। इस कारण एक ही ज� म� सबको �ववेक
(�ान ) हो जाये, यह �नयम नही ं है, िक�ु श्रे� अ�धकारी
एक ज� म� भी �ववेक हो सकता है।

बा�धतानुवृ�ा म��ववेकतोऽ�पभोगः
॥७७ ॥
अथर्- �जसको �ववेक सा�ा�ार हो भी गया है, उसको भी
कम� का भोग भोगना होगा ही, �ोिं क यद्य�प कमर् एक बार
बा�धत भी कर िदये जाते ह�, तथा�प उनको अनु�� होती है।

सांख्य दर्शन 193


प्रार� आिद सं �ावाले कमर् सवर्था �वनाश को प्रा� नही ं
होते।

जीव�ु�� ॥७८॥
अथर्- जब �ववेक हो जाता है तब इस शरीर क� मौजूदगी
म� भी मु� हो सकता है, उसको ही जीव�ु� कहते ह�।
अब जीव�ु� होने का उपाय भी कहते ह�।

उपदे�ोपदे���ात् त�स�द्धः ॥७९॥


अथर्- जब �श� बनकर गु� के मुख से शात्रो ं को पढ़ेगा और
�वचार करने से �ववेक क� उ��� हो जायेगी, तो जीवन
मु� होना कु छ किठन बात नही ं है। �बना गु� द्वारा उपदेश
के जीव�ु� नही ं हो सकता। इसी �वषय को श्रु�त भी
प्र�त- पादन करती है।

श्रु�त� ॥८०॥
"तिद्व�ानाथर् सगु�मेवा�भग�े त् स�म�ा�ण:

सांख्य दर्शन 194


श्रो�त्रयं ब्रह्म- �न�म् । त�ै स�वद्वानुपास�ाय स�क्
प्रशा��च�ाय शमा- ��ताय येना�रं पु�पं वेद स�ं
प्रोवाचता��तो ब्रह्मावद्याम् ।"
अथर्- जबिक �ज�ासु पु�ष को स� के जानने क�
अ�भलाषा हो, उस समय स�म�ा�ण अथार्त् पु�ािदक हाथ
म� लेकर श्रो�त्रय ब्रह्म�न� (वेद के जानने वाले ) गु� क�
शरण ले, िफर उस महा�ा गु� को चािहये, िक ऐसे �श�
को धोखे म� न डाले, और वह उपदेश करना चािहये, �जस
कारण से वह �श� स�मागर् को प्रा� हो जाये।
प्र०- ब्रह्म�न� गु� क� ही शरण �ो ं ले, और भी तो ब�तेरे
होते ह�?

उ०- इतरथा�पर�रा ॥८१॥


यिद �ानवान् ब्रह्म�न� गु� से �ान न �लया जाये, तो �ा
भूखो ं से �लया जायेगा, िफर तो अ�-पर�रा �गनी जायेगी,
जैसे- एक अ�ा कु व� म� �गरा, तो सब ही अ�े कु व� म� �गर

सांख्य दर्शन 195


पड़े इसी प्रकार मूखर् क� शरण लेने से सब मूखर् रह जाते ह�।
प्र०- जब �ान से कमर् नाश हो जाते ह�, तो िफर शरीर �ो ं
रहता है, और उसक� जीव�ु� सं �ा कै से होती है ?

उ०- चक्रनमणबद्धतृ शरीरः॥८२॥


अथर्- जैसे कु �ार का चाक भोलुआ इ�ािद के बनाने के
समय दंडे से चलाया जाता है, और कु �ार-बतर्नो ं को बना-
कर उतार भी लेता है, लेिकन उस चलाने का ऐसा वेग होता
है िक पीछे ब�त देर तक वह चाक घूमना रहता है। इसी
तरह �ान के उ�� होते ही यद्य�प नये कमर् उ�� नही ं होते
तथा�प प्रार� कम� के वेग से शरीर को धारण िकये �ये
जीव�ु� रहता है।
प्र०- यद्य�प चक्र के घूमने म� द�े क� कोई ताड़ना उस समय
नही ं है, तो भी वह पिहली ताड़ना के कारण से चलता है,
िक�ु जब जीव�ु� के सब रागािद नाश हो जाते ह�, तो
वह उपभोग िकसके सहारे से करता है ?

सांख्य दर्शन 196


उ०- सं �ारलेशत����द्धः ॥८३॥
अथर्- रागािदको ं के सं �ार का भी लेश रहता है, उसी के
सहारे से उपभोग क� �स�द्ध जीवनमु� को हो जाती है,
वा��वक राग जीव�ु� को नही ं रहते। यह सब
जीव�ु� के �वषय म� कहा। अब �बना देह क� मु�� के
वा�े अपना परम�सद्धा� कहकर अ�ाय को समा�
करते ह�।

�ववेका��शेष दःु ख�नवृ�ौ कृ तकृ �ता नेत-


रा�ेतरात् ॥८४॥
अथर्- �ववेक ही से सब दःु ख दूर होते ह�, तब जीव कृ त-
कृ � होता है, दूसरे से नही ं होता, नही ं होता। पुन���
अथार्त् नेतरात् इसका दबु ारा कहना प� क� पु�� और
अ�ाय क� समा�� के वा�े है।

इ�त सां�दशर्ने तृतीयोऽ�ायः समा�ः॥

सांख्य दर्शन 197


चतुथ�ऽ�ायः
इस अ�ाय म� �ववेक (�ान) के साधनो ं का वणर्न कर�ग—

राजपुत्रव��ोपदेशात् ॥१॥
अथर्- पूवर् सूत्र से यहाँ �ववेक क� अनुवृ�� आती है। राजा
के पुत्र के समान त�ोपदेश होने से �ववेक होता है। यहाँ
यह कथा है, िक काई राजा का पुत्र गं डमाला रोग से यु�
उ�� �आ था, इस कारण वह शहर म� से �नकाल िदया
गया, और उसको िकसी शवर (भील ) ने पाल �लया। जब
वह बड़ा हो गया, तब अपने को भी शवर मानने लगा ।
काला�र म� (कु छ िदनो ं के बाद ) उस राजपुत्र को जीता
�आ देखकर कोई वृद्ध म�ी बोला- हे व� (पुत्र ) तू शवर
नही ं है, िक�ु राजपुत्र है, ऐसे वा�ो ं को सुनकर वह
राजपुत्र शीघ्र ही उस शवरमाव के मान को �ागकर
सा��क राजभाव को धारण करने लगा, िक म� तो राजा
�ँ । इस प्रकार �चरवद्ध जीव भी अपने को बद्ध मानता है,

सांख्य दर्शन 198


और जब त�ोपदेश से उसको ई�र �वषयक �ान होता है,
तब �ववेको��त से उसको मु�� प्रा� होती है । इस सूत्र
के अथर् से कोई- कोई टीकाकार ब्रह्मा��' वाला �सद्धा�
�नकालते ह�, िक जीव पिहले ब्रह्म था, इस कारण मु� था,
िक�ु अ�ान से बं ध गया है, जब त�ोपदेश �आ तो �ववेक
होने से मु�� हो गई। लेिकन ऐसा मानना ठीक नही ं है.
�ोिं क पिहले तो ग्र� के आर� म� इस बात का ख�न
िकया है ; दूसरे सूत्र म� जो राजपुत्र ऐसा श� कहा है, उससे
प्र�� मालूम होता है िक प्राचायर् जीव और ब्रह्म म� भेद
मानते ह�, इस वा�े जीव को छोटा मान कर राज पुत्रवत्
ऐसा कहा है, नही ं तो राजवत् ऐसा ही कह देत,े िक�ु दो
अ�रो ं अ�धक कहना इसी आशय से है, िक कोई एक ब्रह्म
के �पा�र अथर् न समझले।

�पशाचवद�ाथ�पदेशेऽ�प ॥२॥
अथर्- एक के वा�े जो उपदेश िकया जाता है, उससे दूसरा
भी मु� हो जाता है, जैसे- एक समय श्रीकृ � जी अजुर्न

सांख्य दर्शन 199


को उपदेश कर रहे थे, लेिकन एक �पशाच भी सुन रहा था,
वह �पशाच उस उपदेश को सुनकर उसके अनु�ान द्वारा
मु�� को प्रा� हो गया।

आवृ��रसकृ दपु देशात् ॥३॥


अथर्- यिद एक बार के उपदेश से �ववेक- प्रा�� न हो, तो
िफर उपदेश करना चािहये, �ोिं क छा�ो� उप�नपद् म�
�लखा का है िक �ेतके तु के वा�े आ��ण आिद मु�नयो ं ने
बराबर उपदेश िकया था।

�पतापुत्रवदभ
ु यो प्र�ात् ॥४॥
अथर्- �ववेक के द्वारा प्रकृ �त और पु�ष दोनो ं ही िदखते ह�।
��ा�- कोई मनु� अपनी ग�भणी �ी को छोड़कर परदेश
गया था, जब वह आया देखता �ा है, िक पुत्र उ�� होकर
पूरा युवा हो गया, लेिकन न तो वह पुत्र जानता है, िक यही
मेरा �पता है, और न वह पु�ष जानता है, िक यही मेरा पुत्र
है, तब उस �ी ने दोनो ं को प्रबोध ( �ान ) कराया, िक यह

सांख्य दर्शन 200


तेरा �पता है, तू इसका पुत्र है। इसी तरह �ववेक भी प्रकृ �त
और पु�ष का जानने वाला है।

�ेनवत् सुखदःु खी �ाग�वयोगा�ाम् ॥५॥


अथर् सं सार का यह �नयम है िक जब- जब द्र�- प्रा��
होती है, तब- तब तो आन�, और जब वह द्र� चला जाता
तब ही दःु ख होता है । ��ा�- कोई �ेन (बाज ) िकसी
प�ी का मांस �लये चला जाता था, उसी समय िकसी �ाध
ने पकड़ �लया और उससे वह मांस छ�न �लया, तो वह
अ�� दःु खी होने लगा। यिद आप ही उस मांस को �ाग
देता तो �ो ं दःु ख भोगता ? इस कारण आप ही �वषय-
वासना इ�ािद का �ाग कर देना चािहये।

अिह�नव�यनीवत् ॥६॥
अथर्- जैसे साँप पुरानी क� चुली को छोड़ देता है, इसी तरह
मुमु�ु (मो� क� इ�ा करने वाले ) को �वषय �ाग देने
चािहये।

सांख्य दर्शन 201


�छ�ह�वद्वा ॥७॥
अथर्- जैसे िकसी मनु� का हाथ कटकर �गर पड़ता है, िफर
वह कटे �ए हाथ से िकसी तरह का सं बं ध नही ं रखता, इसी
तरह �ववेक प्रा� होने पर जब �वषय- वासना न� हो जाता
है, तब मुमु�ु िफर उन �वषय- वासनाओ ं से कु छ सं बं ध
नही ं रखता है।

असाधनानु�च�नं ब�ाय भरतवत् ॥८॥


अथर्- जो मो� का साधन नही ं है लेिकन धमर् म� �गनकर
साधन वणर्न कर िदया तो उसका जो �वचार है, वह के वल
बं धन का ही कारण होगा, न िक मो� का। ��ांत- जैसे
राज�ष भरत यद्य�प मो� क� इ�ा करने वाले थे, लेिकन
िकसी ने कोई अनाथ ह�रण का ब�ा महा�ा को पालने
के �लये दे िदया, और उस अनाथ ह�रण के ब�े के पालन-
पोषण म� महा�ा के �ववेक- प्रा�� का समय न� हो गया,
और मु�� न �ई। यद्य�प अनाथ का पालन राजा का धमर्

सांख्य दर्शन 202


था, तथा�प पालन के �वचार म� महा�ा से �ववेक साधन न
हो सका, इस वा�े बं ध का हेतु हो गया। इसी वा�े कहते
ह� िक धमर् कोई और व�ु है, और �ववेक साधन कु छ और
व�ु है।

ब��भय�गे �वरोधोरागा�द�भाकु मारीशं खवत्


।।९।।
अथर्- �ववेक- साधन समय ब�तो ं का सं ग न करे, िक�ु
अके ले ही �ववेक- साधन को करे ; �ोिं क ब�तो ं के साथ
म� राग-द्वेषािद क� प्रा�� होती है, उससे साधन म� �व� होने
का भय प्रा� हो जाता है । ��ा�- जैसे िक कोई कु मारी
(क�ा) हाथो ं म� चूिड़याँ पहन रही थी, जब दूसरी क�ा के
साथ उसका मेल �आ, तब आपस म� ध�ा लगकर चूिड़यो ं
का झनकार श� �आ, इसी तरह यहाँ भी �वचारना
चािहये, िक ब�तो ं के सं ग म� �ववेक साधन नही ं हो सकता।

द्वा�ाम�प तथैव ॥१०॥

सांख्य दर्शन 203


अथर्- दो के साथ भी �ववेक साधन नही ं हो सकता, �ोिं क
दो आद�मयो ं म� भी राग-द्वेषािद का होना स�व है।

�नराशः सुखी �पगं लावत् ॥११॥


अथर्- जो मनु� आशा को �ाग देता है, वह सदैव �पगं ला
नाम वे�ा के समान सुख को प्रा� होता है। ��ांत-
�पगं ला नाम वाली एक वे�ा थी, उसको जार मनु�ो ं के
आने का समय देखते- देखते ब�त रात बीत गई, लेिकन
कोई �वषयी उसके पास न आया, तब वह जाकर सो रही,
बाद को िफर इस वे�ा को �ाल �आ शायद अब कोई
आदमी आये, ऐसा �वचार कर वह वे�ा िफर उठ आई,
और ब�त समय तक िफर जागती रही, लेिकन िफर भी
कोई न आया, तब उस वे�ा ने अपने �च� म� बड़ी �ा�न
मानी और कहा िक "आशा िह परमं दःु खं नैरा�ं परमं
सुखम्" आशा बड़े दःु ख देती है, और नैरा� म� बड़ा भारी
सुख है, ऐसा �वचार कर उस वे�ा ने उस िदन से आशा
�ाग दी और परम सुख को प्रा� �ई। इसी तरह जो मनु�

सांख्य दर्शन 204


आशा को �ाग�गे वह परम सुख को प्रा� होगं े।

अनार�े�प परगृहे सुखीसपर्वत् ॥१२॥


अथर्- गृहािद को ं के �बना बनाये भी पराये घर म� सुख पूवर्क
रह सकता है, जैसे- साँप पराये घर म� सुख- पूवर्क नास
करता है।

ब�शा�गु�पालनेऽ�प सारादानं षट्पदवत्


॥ १३॥
अथर्- ब�त से शा�ो ं से और गु�ओ ं से सार व�ु जो �ववेक
का साधन है उस ही को लेना चािहये, जैसे- भौरं ा फू लो ं का
जो सार मद है उसको ग्रहण करता है । इसी तरह सार का
लेना यो� है।

इषुकारव�ैक�च�� समा�ध हा�नः ॥१४॥


अथर्- �जसका मन एकाग्र रहता है, उसक� समा�ध म� िकसी
समय िकसी प्रकार क� भी हा�न नही ं हो सकती ह�ांत-

सांख्य दर्शन 205


कोई वाण बनाने वाला अपने �ल पर बैठी �आ वाण बना
रहा था, उसी समय उसक� बराल से होकर कटक सिहत
राजा �नकल गया लेिकन उसको न मालूम �आ कौन चला
गया,. और उसके काम म� भी िकसी प्रकार क� बाधा न �ई;
�ोिं क उसका मन अपने काम म� आस� था।

कृ त�नयमलङ धनादानथर्�ं लोकवत् ॥१५॥


अथर्- शौच, आचार आिद जो �नयम �ववेक क� बु�द्ध के
वा�े माने गये ह�, उनके लं घन से अथार्त् ठीक तौर से न
पालने पर अनथर् होता है, और उन �नयमो ं का- िफर कु छ
भी फल नही ं होता, जैसे िक रोगी के वा�े वैद्य ने प�
बताया वा�े नफे के , लेिकन उसने कु छ प� न िकया,
उसको कु छ फल अ�ा न होगा, िक�ु रोग वृ�द्ध को ही
प्रा� होगा।

तिद्व�रणेऽ�प लेक�वत् ॥१६॥


अथर्- त��ान के भूलने से दःु ख प्रा� होता है। ��ांत कोई

सांख्य दर्शन 206


राजा �शकार खेलने के वा�े बन को गया था, वहाँ पर उस
राजा ने िद� ��प एक क�ा को देखा, और उस क�ा
को देखकर राजा मोिहत हो गया, और बोला, क�े ! तुम
कौन हो ? वह बोली राजन् ! म� भेकराज (मेढको ं के राजा)
क� क�ा �ँ । तब राजा अपनी �ी होने के वा�े उससे
प्राथर्ना करने लगा, तब वह क�ा बोलो, राजन् ! अगर
मुझको जल का दशर्न हो जायेगा, तब हो म� तेरा साथ छोड़
दूंगी ; इस वा�े मुझको जल का दशर्न न होना चािहये, यह
मेरा �नयम पालन करना होगा। राजा ने प्रस� होकर इस
बात को �ीकार कर �लया। एक समय वह दोनो ं आन�
म� आस� थे, तब वह क�ा राजा से बोलो कही ं जल है,
तब राजा ने उस बात को भूल कर उसको जल िदखा िदया।
जल के दशर्न समय हो बह क�ा उस �प को छोड़कर जल
म� प्रवेश कर गई । तर राजा ने दःु खी होकर उस क�ा को
जल के अ�र ब�त देखा, लेिकन वह िफर न प्रा� �ई,
जैसे- यह राजा उस त� बात को भूल कर दःु ख को प्रा�
�ए, इसी तरह मनु� भी त��ान के भूलने से दख ु : को

सांख्य दर्शन 207


प्रा� होता है।

नोपदेशश्रवणे�प कृ तकृ �ता परामशार्हते


�वरोचनवत् ॥१७॥
अथर्- उपदेश के सुनने ही मात्र से कृ तकृ �ता नही ं होती
जब तक िक उसका �वचार न िकया जाये। घटा�-
वृह��त- जी ने �वरोचन और इ� इन दोनो ं को स�ोपदेश
िकया था। इ� ने उस उपदेश को सुनकर �बचारा भी,
पर�ु �वरोचन ने न �वचारा, िक�ु कान ही प�वत्र िकये।

���यो�र�� ।।१८॥
अथर्- देखने म� आया है, िक उस श्रवण से इ� को ही
�ववेक �ान �आ, �वरोचन को नही ं ; �ोिं क इ� ने तो उस
उपदेश का �वचार िकया था।

प्रण�तब्रह्मचय�पसपर्णा�न कृ �ा �स�द्धयर्�-
कालात् तद्वत् ॥१९॥

सांख्य दर्शन 208


अथर् - गु� से नम्र रहना, सदा गु� क� सेवा करना, ब्रह्मचयर्
को धारण करना, और वेद पढ़ने के वा�े गु� के पास
जाना, इ�ी ं कम� के करने से �ववेक क� �स�द्ध हो जाती है,
से िक इ� को �ई थी।

न काल�नयमो वामदेववत् ॥२०॥


अथर्- इतने िदनो ं म� �ववेक उ�� होगा, ऐसा कोई �नयम
नही ं है। �ोिं क वामदेव नाम वाले ऋ�ष को पूवर् ज� के
सं �ारो ं के कारण थोड़े ही िदनो ं म� �ववेक उ�� हो गया
था।

अ���पोपासनात् पार�य�ण य�ोपास-


काना�मव ।।२१॥
अथर्- शरीर ही आ�ा है, या मन ही आ�ा है, इस प्रकार
अ�ाहार करके जो उपासना क� जाती है, उसके परंपरा
सं बं ध से �ववेक होता है, जैसे-पिहले पुत्र को आ�ा माना,
पीछे शरीर को, उसके प�ात् इ��यो ं को, इसी प्रकार करते

सांख्य दर्शन 209


-करते आ�- �ववेक हो जाता है जैसे- य� करने वालो ं क�
पर�रा सं ब� से मु�� होती है। �ोिं क य� करने से �च�
क� शु�द्ध होती है, और �च� शु�द्ध से वासनाओ ं को �ूनता
आिद पर�रा से मु�� होती है, इसी प्रकार अ��
उपासना से भी जानना चािहये।

इतरलामेऽ�ावृ��ः पं चा��योगतो ज�-श्रुतेः


॥२२॥
अथर्- यिद प�ा�� योग से इतर अथार्त् शा�� का लाभ भी
कर �लया, तो भी कम� क� वासना बलवती बनी रहेगी।
अतएव वह कमर् िफर भी उ�रो�र उ�� होते जाय�गे, इसी
वात को श्रु�तयाँ भी प्र�तपादन करती ह� । वह श्रु�तयाँ
छा�ो� उप�नषद् के प�म प्रपाठक के आिद म� है, यहाँ
�व�ार भय से उनको नही ं �लखा है।

�वर�� हेयहानमुपादेयोपादनं हंसतीरवत्


॥२३॥

सांख्य दर्शन 210


अथर्- जो �वर� है, अथार्त् �जसको �ववेक हो गया है,
उसको हेय (छोड़ने यो�) का तो �ाग और उपादेय (ग्रहण
करने यो� ) का ग्रहण करना चािहये । हेय अथार्त छोड़ने
लायक सं सार है। उपादेय- ग्रहण करने लाया मु�� है,
जैसे- हंस जल के छोड़कर दूध पी लेते ह�, इसी तरह �वर�
को भी करना चािहये।

ल�ा�तशययोगाद्वा तद्वत् ॥२४॥


अधर्- अथवा जो �ान क� पराका�ा को प्रा� हो गया है,
यिद उसका सङ्ग हो जाये, तो भी पिहले कहे �ए हंस के
समान �ववेक� हो सकता है।

न कामचा�र�ं रागोपहते शुकवत् ॥२५॥


अथर्- राग के नाश हो जाने पर भी कामचा�र� (इ�ाधीन)
न होना चािहये, कारण यह है िक िफर ब�न म� पड़ने का
भय प्रा� हो सकता है। ��ा�- जैसे कोई तोता दाने के
लालच म� होकर ब�न म� पड़ गया था, जब उसको मौका

सांख्य दर्शन 211


�मला तथ वह उस ब�न म� से भाग गया, िफर उस ब�न
के पास भय के मारे नही ं आया। �ोिं क अगर इसके पास
जाऊँ गा तो िफर ब�न को प्रा� होऊँ गा। इसी प� क�
और भी पु�� कर�गे।

गुणयोगाबद्धः शुकवत् ॥२६॥


अथर्- जब काम जारी रहेगा, तब उसके गुणो ं म� िकसी क�
प्री�त हो जायेगी, तो भी उस �ववेक� को िफर बद्ध होना
पड़ेगा, जैसे- मनोहर भाषण (बोलना) आिद गुणो ं से तोते
का ब�न हो जाता है।

न भोगादागशा��मु�नवत् ॥२७॥
अथर्- भोगो ं को पूणर्�प से भोगने से भी राग को शा�� नही ं
होती, जैसे- सौभ�र नाम वाले मु�न ने भोगो ं को खूब अ��
तरह भोगा, लेिकन उससे कु छ भी शा�� न �ई। मृ�ु के
समय उन महा�ा ने ऐसा कहा भी था िक—

सांख्य दर्शन 212


आमृ�ु�ो नैवमनोरथानाम�ोऽ�� �व�ात�मदं मयाध ।
मनोरथास��पर��च�ं न जायेते वै परमाथर्सिह ॥
अथर्- आज मुझको इस बात का पूरा-पूरा �न�य हो गया,
िक मृ�ु तक मनोरथो ं का अ� नही ं है, और जो �च�
मनोरथो ं म� लगा �आ है, उसम� �व�ान का उदय कभी नही ं
होता।

दोषदशर्नादभ
ु योः ॥२८॥
अथर्- प्रकृ �त और प्रकृ �त के काय� के दोष, इन दोनो ं के
देखने से रागो ं को शा�� होती है, और �जसका �च� राग-
द्वेष इ�ािद को से यु� है, उसको उपदेश फल का देने
वाला नही ं होता।

न म�लनचेत�ुपदेशबीजप्ररोहोजबत् ॥२९॥
अथर्- रागािद को से म�लन �च� म� उपदेश �प �ान वृ�
का बीज नही ं जमता । राजा अज के समान, राजा अज क�
इ�मु ती �ी थी, उस �ी से राजा का बड़ा भारी प्रेम था ।

सांख्य दर्शन 213


काल- वश होकर वह इ�मु ती मृ�ु को प्रा� हो गई।
राजा अज उसके �वयोग से बड़ा भारी दःु खी �आ। उसका
�दय �ी के �वयोग से परम मलीन हो गया था। व�श� जी
ने उपदेश भी िकया, लेिकन �वयोग- म�लन �दय म� उपदेश
का अंकुर न जमा ।

नाभासमात्रम�प म�लन दपर्णवत् ॥३०॥


अथर्- म�लन �दय म� उपदेश का आभास-मात्र भी नही ं
पड़ता, जैसे- मैले शीशे म� प्र�त�ब� ( अ�) नही ं िदखता।

न त��ा�प तद्र� पम् पङ्कजबत् ॥३१॥


अथर्- मो� भी प्रकृ �त के ही सहारे से होता है, पर�ु उसी
प्रकृ �त से सं सार उ�� �आ है, और वह उसी प्रकृ �त का
�प समझा जाता है, वैसे मो� प्रकृ �त का �प नही ं हो सकता
�ोिं क जैसे पं क (कोच) से उ�� �आ, कमल क�च के
�प का नही ं होता, वैसे प्रकृ �त से उ�� �आ मो� प्रकृ �त
�प नही ं हो सकता है

सांख्य दर्शन 214


न भू�तयोगेऽ�प कृ तकृ �तोपा��स�द्धवद-ु
पा� �स�द्धवत् ।।३२॥
अथर्- ऊहािद �वभू�तयो ं के �मलने पर भी कृ त- कृ �ता नही ं
होती ; �ोिं क जैसा उपा� ( �जसक� उपासना क� जाती
है ) होगा वैसी ही उपासक को �स�द्ध प्रा� होगी, अथार्त
जो धनवान् क� उपासना क� जाती है, तो धन �मलता है,
और द�रद्र क� उपासना करने से कु छ भी नही ं �मलता।
इसी प्रकार उहा आिद �स�द्धयाँ नाश होने वाली ह�, इस
वा�े उनक� प्रा�� से कृ तकृ �ता नही ं हो सकती।
�स�द्धवत्, ऐसा जो दबु ारा कहना है, सो अ�ाय क� समा��
का जताने वाला है।

इ�त सां�दशर्ने चतुथ�ऽ�ायः समा�ः

सांख्य दर्शन 215


पं चमोऽ�ायः
मह�ष क�पल जी ने अपने शा� का �सद्धांत मु�� के
साधनो ं के स�� म� पहले चार अ�ायो ं म� �व�ारपूवर्क
वणर्न िकया, अब इस अ�ाय म� वादी प्र�तवादी �प से जो
शा� म� सू�तापूवर्क कही �ई बात� ह�, उनका प्रकाश
कर�गे। कोई वादी शं का करता है, िक मं गलाचरण करना
�थर् है, इस �वषय को हेतु ग�मत वा�ो ं से प्र�तपादन करते
ह�।

मं गलाचरणं �श�ाचारात् फलदशर्नात


श्रु�तत�े�त ॥१॥
अथर्- मं गलाचरण करना अव� चािहये। �ोिं क �श�जनो ं
का यही आचार है, और प्र�� म� भी यही फल िदखता है।
जो उ�म आचरण करता है, वही सुख भोगता है। बहरहः
सं �ामुपासीत, अहरहोऽ��होत्रं जु�यात् । रोज- रोज
सं �ा करनी चािहये, रोज- रोज अ��होत्र करना चािहये,

सांख्य दर्शन 216


इ�ािद श्रु�तयाँ भी अ�े ही आचरणो ं को कहती ह�। ब�तेरे
मनु� मं गलाचरण का यह अथर् समझते ह�, िक जब नये
ग्र� क� रचना क� जाये, तब उस ग्र� के शु� करने म�
िकसी उ�म श� का �लख देना उसको मं गलाचरण कहते
ह�, ऐसा समझना ठीक नही,ं �ोिं क पहले तो मं गलाचरण
का वैसा अथर् नही ं हो सकता, दूसरे यिद ग्र� के आिद म�
मं गल िकया तो अ�त्र अमं गल होगा; तीसरे काद�यार्िद
ग्र�ो ं म� मं गल के होने पर भी उनक� �न�व� समा�� नही ं
�ई, इस वा�े ऐसा मानना िकसी प्रकार श्रे� नही।ं इस
�वषय को सं �ेपतः �लया है, इसका �व�ार ब�त है। अ�
ग्र�ो ं म� कमर् का फल अपने आप होता है, इस प� का
ख�न करते ह�।

ने�रा�ध��ते फल�न���ः कमर्णा त��द्धार


॥२॥
अथर्- के वल ई�र का नाम लेने से अथार्त् मं गलाचरण से
फल नही ं �मल सकता, िक�ु उसका हेतु कमर् है, �जसके

सांख्य दर्शन 217


होने से ई�र फल देता है, यिद कहो �बना कमर् के ई�र फल
देता है।

�ोपकाराद�ध�ानं लोकवत् ॥३॥


अथर्- जैसे िक सं सार म� िदखता है, िक पु�ष अपने उप-
कार के वा�े कम� का फल देनेवाला एक �भ� �नयु�
करता है, इसी तरह ई�र भी सब के कमर् फल देने के वा�े
एक अ�ध�ान है।

लौिकके �रव�दतरथा ॥४॥


अथर्- यिद ई�र को सब कम� का फल देने वाला न माना
जाये, तो लौिकक ई�रो ं क� तरह �भ�- �भ� कम� के फल
देने वाले �भ�- �भ� ई�र मानने पड़�गे, जैसे- सं सार म�
जज, कल�र इ�ािदक �भ�- �भ� कम� के फल देने वाले
�भ�-�भ� ई�र है लेिकन इन लौिकक ई�रो ं म� भ्रम, प्रमाद
इ�ािदक दोष िदखते ह�। यही दोष उस ई�र म� भी िदख
पड़�गे। इस वा�े ऐसा मानना यो� नही,ं िक कमर् का फल

सांख्य दर्शन 218


ई�र नही ं देता।

पा�रभा�षको वा ॥५॥
अथर्- कमर् का फल अपने आप होता है, ऐसा मानने से एक
दोष और भी प्रा� होता है, वह दोष यह है िक ई�र के वल
नाममात्र ही रह जायेगा, �ोिं क कम� का फल तो आप ही
हो जाता है, िफर ई�र क� �ा आव�कता रही। और
ई�र के नाममात्र ही रह जाने म� यह भी दोष होगा, िक
वतर्मान सं सार क� �स�द्ध भी न हो सके गी।

न रागाहते त���द्धःप्र�त�नयतकारण�ात्
॥६॥
अथर्- ई�र सृ�� क� �स�द्ध म� प्र�त �नयत कारण है, उसके
�बना के वल राग से अथार्त् प्रकृ �त महदािदको ं से सं सार क�
�स�द्ध नही ं हो सकती।
प्र०- ई�र, जीव �पधारी प्रकृ �त का सही है, और उस म�
प्रकृ �त के सं योग होने से रागािदक भी ह� ?

सांख्य दर्शन 219


उ०- तद्योगेऽ�प न �न�मु�ः ॥७॥
अथर्- तु�ारा यह कथन यो� (स� ) नही,ं �ोिं क ई�र
�न� मु� न रहेगा, अथार्त् जैसे जीव प्रकृ �त के सं गी होने
से अ�न� मु� है। इसी तरह ई�र को भी मानना पड़ेगा।
और जो लोग इस तरह ई�र को मानते ह�, उनका ई�र भी
सं सार के जीवो ं के समान अ�न� मु� होगा। यिद ऐसा
कहा जाये िक ई�र से सं सार बना है, अथार्त् ई�र उपादान
कारण है, सो भी स� नही।ं

प्रधानश��योगा�ेत सं गाप��ः ॥८॥


अथर्- यिद ई�र को प्रधान श�� का योग हो, तो पु�ष म�
सं गप�� हो जाये, अथार्त् जैसे प्रकृ �त सू� से �मलकर
कायर्- �प म� सं गत �ई है, वैसे ई�र भी �ूल हो जाये ;
इस वा�े ई�र जगत् का उपादान कारण नही ं हो सकता,
िक�ु �न�म�-कारण है।

स�ामाना�ेत् सव��यर्म् ॥९॥

सांख्य दर्शन 220


अथर्- अगर चेतन से जगत् क� उ��� है, तो �जस प्रकार
परमे�र स�ूणर् ऐ�यो ं से यु� है, इसी तरह सब सं सार भी
स�ूणर् ऐ�यो ं से यु� होना चािहये, लेिकन सं सार म� यह
बात नही ं िदखती, इस हेतु से भी परमे�र जगत् का उपादान
कारण �सद्ध नही ं होता, िकंतु �न�म� कारण ही �सद्ध होता है
और भी पु��कार का इस �वषय का यह सूत्र है—

प्रमाणाभावा� त���द्धः ॥१०॥


अथर्- ई�र सं सार का उपादान कारण है इसम� कोई प्रमाण
नही ं है, इस वा�े उसक� �स�द्ध नही ं हो सकती।

स��ाभावा�ानुमानम् ॥११॥
अथर्- जबिक ई�र का सं सार से उपदान कारण �प सं ब�
ही नही ं है, तब ऐसा अनुमान करना िक ई�र ही से जगत्
उ�� �आ है, �थर् है।

श्रु�तर�प प्रधानकायर्�� ॥१२॥

सांख्य दर्शन 221


अथर्- जगत् का उपादान कारण प्रकृ �त ही है इस बात को
श्रु�तयाँ भी कहती ह�। “अजामेकां लोिहतशु�कृ �ां वहीः
प्रजाः सृजमानां ��पाः"। यह �ेता�ेतर उप�नषद् का
वा� है, इसका यह अथर् है िक जो ज�- रिहत स�, रज,
तमोगुण �प प्रकृ �त है वही ��पाकार से ब�त प्रजा�प हो
जाती है अथार्त् प�रणा�मनी होने से अव�ा�र हो जाती है
और ई�र अप�रणामी और असं गी है। कोई- कोई ऐसा
मानते ह�, िक ई�र को अ�वद्या सँ ग होने से बं धन म� पड़ना
पड़ता है, और उसी के योग से यह सं सार है. इस मत का
खं डन करते ह�।

ना�वद्याश��योगो �नः सं ग� ॥१३॥


अथर्- ई�र �नःसं ग है, इस वा�े उस ई�र को अ�वद्या-
श�� का योग नही ं हो सकता।

तद्योगे त��द्धाव�ोऽ�ाश्रय�म् ॥१४॥


अथर्- यिद अ�वद्या के योग से सं सार क� �स�द्ध मानी जाये,

सांख्य दर्शन 222


तो अनयो�ानय� दोष प्रा� होता है, �ोिं क �बना ई�र
अ�वद्या सं सार को नही ं कर सकती, और ई�र �बना अ�वद्या
के सं सार नही ं बना सकता, यही दोष �आ। यिद अ�वद्या
और ई�र इन दोनो ं को एक- का�लक ( एक समय म� होने
वाले ) अनािद मान�, जैसे- बीज और अंकुर को मानते यह
भी स� नही ं ; �ोिं क—

न बीजांकुरवत् सा�दश्रुतेः ॥१५॥


अथर्- बीज और अंकुर के समान अ�वद्या और ई�र को
मान�, तो यह दोष प्रा� होता है। "सदैव सौ�ेदमन आसीत्,
एकमवािद्वतीयं ब्रह्महे सौ� ! पहले यह जगत् सत् ही था,
एक ही अिद्वतीय ई�र है, इ�ािद श्रु�तयाँ एक ही ई�र को
प्र�तपादन करती ह�, और जगत् को आिद और ई�र को
अिद्वतीय कहती ह�। अगर उसके साथ अ�वद्या का झगड़ा
लगाया जाये, तो उ� श्रु�तयो ं म� �वरोध हो जायेगा। यिद
ऐसा कहा जाये, िक हमारी अ�वद्या योगशा� क�- सी नही ं
है, िकंतु जैसी आपके मत म� प्रकृ �त है, वैसे ही हमारे मत म�

सांख्य दर्शन 223


अ�वद्या है, तो यह मत भी स� नही ं है।

�वद्यातोऽ��े ब्रह्मबाधप्रसङ्गः ॥१६॥


अथर्- यिद �वद्या से अ�त�र� (दूसरे ) पदाथर् का नाम
अ�वद्या है, अथार्त �वद्या का नाश करने वाली अ�वद्या है,
तो ब्रह्म का भी अव� नाश करेगी; �ोिं क वह भी �वद्यामय
है, और इस सूत्र का दूसरा यह भी अथर् है। यिद अ�वद्या
�वद्या �प ब्रह्म से अ�त�र� है और उसको �व�वध (अनेक
प्रकार के प�र�े द रिहत नहा म� माना जाता है, और महा
अ�वद्या से अ� (अथार्त् दूसरा) है और अ�वद्या ब्रह्म से
अ� है, तो ब्रह्म के प�र�े द रिहत त� म� बाधा पड़ेगी, इस
वा�े ऐसा मानना स� नही।ं
प्र०- अ�वद्या का िकसी से बाध हो सकता है, या नही ं ?
इसका ही �वचार करते ह�—

अबाधे न��म् ॥१७॥


अथर्- उस अ�वद्या का अगर िकसी से बाध नही ं हो सकता,

सांख्य दर्शन 224


तो मु�� आिद �वद्याप्रा�� का उपाय करना �न�ल है।

�वद्यावा��े जगतोऽ�ेवम् ॥१८॥


अथर्- यिद �वधा से अ�वधा का बाध हो जाता है, तो अ�वद्या
से उ�� �ये जगत् का भी बाध होना चािहये।

त� प�े सा�द�म् ॥१९॥


अथर्- यिद अ�वद्या को जग�प मान�, अथार्त् जगत् ही
अ�वद्या है, तो अ�वद्या म� सादापना पाया जाता है, �ोिं क
जगत् आिद है। इस वा�े अ�वद्या कोई व�ु नही ं है, उसी
बु�द्धवृ�� का नाम अ�वद्या है, जो मह�ष पतं ज�ल ने कही है
और इस �वषय म� यह भी �वचार होता है, िक जब
क�पलाचायर् के मत म� स�ूणर् काय� क� �व�चत्रता का हेतु
प्रकृ �त है, और वही प्रकृ �त सुख दःु खािदक का हेतु है, तो
धमार्धमर् के मानने क� �ा आव�कता है। अब इसी पर
�वचार करके धमर् क� �स�द्ध करते ह�।

उन धमर्ऽपलापाप्रकृ �तकायर्वै�च�ात् ॥२०॥


सांख्य दर्शन 225
अथर्- प्रकृ �त के काय� क� �व�चत्रता से धमर् का अपलाप
(दूर होना) नही ं हो सकता, �ोिं क—

श्रु�त�लगं ा�द�भ����द्धः ॥२१॥


अथर्- उसक� �स�द्ध अ�त और यो�गयो ं के . प्र�� से हो
सकती है। "पु�ो वै पु�ने भव�त पापः पापेन" पु�
�न�य करके पु� से होता है, और यह भी �न�य है, िक
पाप, पाप से ही उ�� होता है, इ�ािद श्रु�तयाँ भी धमर् के
फल को कहती ह�, इस वा�े धमर् का अपलाप नही ं हो
सकता।
प्र०- धमर् म� कोई प्र�� प्रमाण नही ं है, इस वा�े उसक�
�स�द्ध नही ं हो सकती?

उ०- न �नयमाप्रमाणा�रावकाशात् ॥२२॥


अथर्- धमर् क�, �स�द्ध प्र�� प्रमाण से ही हो, यह कोई
�नयम नही ं है, �ोिं क इसम� अनेक प्रमाण ह�, और प्र��
प्रमाण के �सवाय और प्रमाणो ं से भी पदाथर् क� �स�द्ध होती

सांख्य दर्शन 226


प्र०- धमर् क� तो �स�द्ध इस तरह कर ली गई, लेिकन अधमर्
क� तो �स�द्ध िकसी प्रमाण से नही ं हो सकती ?

उ०- उभयत्रा�ेवम् ॥२३॥


अथर्- जैसे धमर् क� �स�द्ध म� प्रमाण पाए जाते ह� इसी तरह
अधमर् क� �स�द्ध म� भी प्रमाण पाये जाते ह�।

अथार्त् �स�द्ध�ेत् समानमुभयोः ॥२४॥


अथर्- वेदािद सत् शा�ो ं म� �जस बात क� �व�ध पाई जाती
है वही धमर् है, और इसके �सवाय अधमर् है। यिद इस प्रकार
क� अथार्प�� �नकाली जाये, तो भी ठीक नही,ं �ोिं क श्रु�त
आिदको म� �जस प्रकार धमर् क� �व�धयो ं का वणर्न है उस
ही प्रकार अधमर् का �नषेध भी है, जैसे- "परदारानग�े त्
पराई �ी के समीप गमन न करे, इस तरह के वा�
धमार्धमर् दोनो ं के �वषय म� हो �नषेध और �व�ध�प से बराबर
पाये जाते ह�।

सांख्य दर्शन 227


प्र०- यिद धमार्िद को आप मानते ह�, तो पु�ष को धमर्वाला
मानकर पु�ष म� प�रणा�म� प्रा� होता है ?

उ०- अ�ःकरणधमर्�ं धमार्दीनाम् ॥२५॥


अथर्- धमार्िदक अ�ःकरण के धमर् है, अथार्त् इन धमार्-
िदको ं का सं बं ध अ�ःकरण से है, जीव से नही ं है, और इस
सूत्र म� जो आिद श� है, उसके कहने से वैशे�षक शा� के
आचाय� ने जो आ�ा के �वशेष गुण माने ह�, उनका ही
ग्रहण माना गया है अथार्त् वही आ�ा के �वशेष गुण माने
गये ह�। प्रलयाव�ा म� तो अ�ःकरण रहता ही नही,ं तब
धमार्िदक कहां रहते ह�, ऐसा तकर् नही ं करना चािहये। कारण
यह है िक आकाश के समान अ�:करण भी नाश रिहत है,
अथार्त् अ�ःकरण का नाश �सवाय मु�� के कदा�प नही ं
होता, और इस बात को पहले कह भी चुके ह�, िक
अ�ःकरण कायर्- कारणभाव दोनो ं �प को धारण करता
है। इससे अ�:करण �प जो प्रकृ �त का अंश �वशेष है,
उससे धमर् अधमर् दोनो ं के सं �ार रहते ह�। इस बात को ही

सांख्य दर्शन 228


िकसी क�व ने भी कहा है, िक धमर् �न� है। और सुख
दःु खािद सब अ�न� ह�। इस �वषय म� यह सं देह भी उ��
होता है, िक प्रकृ �त के काय� क� �च�च�ता से जो धमर् अधमर्
आिद क� �स�द्ध क� गई है वह स� नही,ं �ोिं क प्रकृ �त तो
�त्रगुणा�क अथार्त् रजोगुण, तमोगुण, स�गुण, इनसे
यु� है, और उसके काय� का वाध इन श्रु�तयो ं से प्र��
मालूम पड़ता है। "वाचार�णं �वकारो नामधेय मृ��को�ेव
स�म् घट- पट आिद सब कहने मात्र को ही ह�, के वल मृ��
का (�मट्टी) ही स� है । इस वा�े प्रकृ �त के गुण मानना
स� नही,ं इस प� के ख�न के वा�े यह सूत्र है—

गुणादीनां च ना��वाधः ।।२६॥


अथर्- गुण जो स�ािदक अथार्त् स�, रज, तम, उनके धमर्
जो सुखािदक और उनके कायर् जो महदािदक ह�, उनका
��प से बा� नही ं है, अथार्त् ��प से नाश नही ं होता
िक�ु सं सगर् से बा� होता है, जैसे- आग के सं सगर् (मेल)
से जल क� �ाभा�वक शीतलता का बा� हो जाता है,

सांख्य दर्शन 229


पर�ु उसके ��प का बा� नही ं होता। इसी तरह प्रकृ �त
के गुणो ं का भी बा� नही ं होता।

पं चऽवयवयोगात सुखसं �व��ः ॥२७॥


अथर्- सुखािद पदाथ� क� �स�द्ध पं चावयव वा� से होती है,
�जस तरह �ाय- शा� म� मानी गई है। इस कारण जब
सुख आिद क� �स�द्ध �ाय- शा� के अनुसार मान ली जाती
है, तब उनका ��प से नाश भी नही ं माना जा सकता।
�ो-ं िक जो पदाथर् सत् है, उसका नाश नही ं हो सकता,
और उस पं चावयव वा� से सुखािद क� सं �व�च इस तरह
होती है, िक प्र�त�ा, हेत,ु उदाहरण, उपनय और �नगमन
इन पाँचो ं को सुख म� इस तरह लगाना चािहये, िक सुख सत्
है, इसका नाम प्र�त�ा है ; प्रयोजन िक्रयाकारी होने से
इसका नाम हेतु है, जैसे चेतन प्रयोजन क� िक्रयाओ ं का
कतार् है, उसी तरह इसका नाम भी ��ा� है। पुलिकत
(�ओ ं का खड़ा होना) आिद प्रयोजन क� िक्रया सुख म� है,
इसका नाम उपनयन है; इस वा�े वह स�ा है, यह �नगमन

सांख्य दर्शन 230


है। यहाँ के वल सुख का ग्रहण करना नाममात्र ही है। इसी
तरह और गुणो ं का ��प से नाश नही ं होता। इस जगह
आचायर् ने �ाय का �वषय इस वा�े वणर्न िकया है, िक इन
पाँच बातो ं के �बना िकसी झूठे- स�े पदाथर् का �न�य नही ं
हो सकता, और जो इस पं चावयव से �सद्ध नही ं हो सकता
उसम� अनुमान करना भी स� नही,ं और एक ना��क जो
िक प्र�� के �सवाय और प्रमाणो ं को नही ं मानता, और इस
पं चावयव के मु� �सद्धा� ��� का खं डन करने के
आशय से इस स�ाइसव� सूत्र से उसम� दोष और अनुमान
को असं गत बतलाता है।

न सकृ दग्रहणा�ं बं ध�स�द्धः ॥२८॥


अथर्- जहाँ धुंआ होगा, वहाँ अ�� भी होगी। इस साहचयर्
के �ीकार (मानने) से �ा���पी सं ब� क� �स�द्ध नही ं
होती; �ोिं क आग म� धुंआ सदा नही ं रहता, और जो
महानस (रसोई के �ान ) का ��ा� िदया जाता है, वह
भी स� नही ं है, �ोिं क िकसी जगह अ�� और घोड़ा इन

सांख्य दर्शन 231


दोनो ं को िकसी आदमी ने देखा, अब दूसरी जगह उसको
घोड़ा नजर पड़ा, तब वह ऐसा अनुमान नही ं कर सकता, िक
यहाँ अ�� भी होगी; �ोिं क घोड़ा िदखता है। ऐसे ही अ��
और घोड़ा म�ने वहाँ भी देखा था। बस इस पूवर्प� से
�ा�यक जैसा अनुमान करते ह�, वह अयु� �सद्ध �आ,
और प्र�� को ही मानने वाले चावार्क ना��क के मत क�
पु�� �ई। इसका यह उ�र है—

�नयतधमर्सािह�मुभयोरेकतर� वा �ा��:
॥२९॥
अथर्- �जन दो पदाथ� का �ा�- �ापक भाव होता है, उन
दोनो ं पदाथ� म� से एक का अथवा दोनो ं का जो �नयत धमर्
है, उसके सािह� ( साथ रहने का �नयम ) होने को �ा��
कहते ह�। �वशेष �ा�ा इस तरह है, िक जैसे पहाड़ पर
आग है, �ोिं क धुंआ िदखता है । जहाँ- जहाँ धुआँ होता
है, वही-ं वही ं आग भी अव� होती है। इसका नाम ही
�ा�� है। इससे यह जानना चािहये, िक धुआँ �बना आग

सांख्य दर्शन 232


के नही ं रह सकता, पर�ु आग �बना धुएँ के रह सकती है।
इससे �सद्ध �आ, िक धुएँ का आग के साथ रहना �नयत
धमर्- सािह� है; पर�ु यह एक का �नयत धमर्- सािह�
�आ। चावार्क ने जो अ�� घोड़े का ��ा� देकर �ा�� का
ख�न िकया था, वह भी स� नही ं हो सकता ; �ोिं क
घोड़ा तो सैकड़ो ं जगह �बना अ�� के िदखने म� आता है और
आग को �बना घोड़े के देखते ह�, इस वा�े वह साहचयर् नही ं
रहा, अतएव वह सब अयु� �सद्ध हो गया। अब रहा दोनो ं
का �नयत धमर्- सािह� वह गं ध और पृ�ी म� �मलता है,
अथार्त् जहाँ पृ�ी होगी, वहाँ गं ध अव� होगा, और जहाँ
गं ध होगी वहाँ पृ�ी भी अव� होगी। इन दोनो ं म� से �बना
एक के एक नही ं रह सकता है।

न त�ा�रं व�ुक�नाऽप्रस�ः ॥३०॥


अथर्- पहले सूत्र म� जो �ा�� का ल�ण िकया गया है,
उसके �सवाय िकसी और पदाथर् का नाम �ा�� नही ं हो
सकता, �ोिं क इस प्रकार अनेक तरह क� �ा�� मानने म�

सांख्य दर्शन 233


एक नया पदाथर् क�ना करना पड़ेगा। इस वा�े �ा��
का वही ल�ण स� है जो पहले सूत्र म� िकया है।

�नजश�ुद्भव�म�ाचायार्ः ॥३१॥
अथर्- जो �ा� क� श�� से उ�� िकसी �वशेष श��
का �प हो, वही �ा�� आचाय� के मत म� मानने लायक
है। इस सूत्र का आशय इस ��ा� से समझाना चािहये, िक
�ा� जो अ�� है, उसक� ही श�� से धुआँ उ�� होता
है, और वह धुआँ आग क� िकसी �वशेष श�� का �प है।
इसी तरह के पदाथर् को �ा�� कहते ह� और �जस म� यह
बात नही ं है, वह �ा�� िकसी प्रकार नही ं हो सकती।
प्र०- धुआँ आग क� श�� से पैदा नही ं होता है, गीले �धन
क� श�� से पैदा होता है ?
उ०- यह कहना ठीक नही ं है, यिद गीले �धन म� ऐसी श��
होती तो वायु (हवा) के सं योग होने से �धन म� से धुंआ �ो ं
नही ं उ�� होना पर�ु ऐसा देखने म� नही ं पाता ; इससे यह

सांख्य दर्शन 234


बात माननी पड़ेगी िक धुआँ अ�� क� श�� �वशेष है।

प्राधेयाश��योग इ�� प��शखः ॥३२॥


अथर्- आधार म� जो आधेय-श�� रहती है, उसको ही
पं च�शख नाम वाले आचायर् �ा�� मानते ह�। इसका
आशय भी इस ��ा� से समझ लेना चािहये, िक आधार
जो आग है, उसम� आधेय जो धुआ,ँ उसके रहने क� जो
श�� है, उसको �ा�� कहते ह�।
प्र०- जब आग म� धुआँ नही ं िदखता है, तब उसम� �ा��
का नाश हो जाता है �ा?
उ०- नही!ं �ोिं क धुएँ का आ�वभार्व �तरोभाव होता रहता
अथार्त् धुआँ कमी उ�� होता है कभी उसी के भीतर लय
हो जाता है। िक�ु आग से धुआँ नाश नही ं होता है। इस
वा�े �ा�� का नाश नही ं हो सकता, इसको पहले अ�ाय
म� �व�ार पूवर्क कह आये ह�।

सांख्य दर्शन 235


प्र०- आधार म� आधेय श��म� �ो ं क�ना िकया जाता
आधार क� ��पश�� को ही �ा�� �ो ं नही ं मानते ?

उ०- न ��पश���नयमः पुनवार्दप्रस�ः


॥३३॥
अथर्- �ा� (आधार) क� ��पश�� को �नयम अथार्त
�ा�� नही ं मान सकते ; �ोिं क उसम� िफर झगड़ा पड़ने
का भय है। अब उस झगड़े को �लखते ह� िक �जसका भय
है—

�वशेषणानथर्�प्रस�ः ॥३४॥
अथर्- �वशेषण देना �थर् हो जायेगा, जैसे कहा गया है, िक
ब�त धुएँ वाली आग है । इस वा� म� 'ब�त' श� �वशेषण
है, और 'धुआँ �वशे� है। इसी तरह 'धुआँ आधेय है, और
आग आधार है। यिद धुएँ को अ�� क� ��पश�� मान
ल�, तो ब�त श� को �ा मान� ; �ोिं क उस 'ब�त' श�
को अ�� क� ��पश�� नही ं मान सकते, और उस वा�

सांख्य दर्शन 236


के साथ होने से वह श� अपना कु छ अथर् भी अव� रखता
उस अथर् से ��प श�� म� �ूना�धकता (कमती- बढ़ती)
भी अव� हो जाती है, तो उसको भी कु छ न कु छ अव�
मानना चािहये। यिद न माना जायेगा, तो उसका उ�ारण
करना �थर् �आ जाता है, और महा�ाओ ं के अ�र �थर्
नही ं होते । और भी दूसरा झगड़ा प्रा� होता है िक—

प�वा�द�नुपप�� ॥३५॥
अथर् जैसे िक प�ो ं का आधार पेड़ है, और �ा�� का ल�ण
��पश�� मानकर वृ� क� श����प जो प�े ह�, वही
�ा�� के कहने से ग्रहण हो सकते ह�। इस प्रकार मानने म�
यह दोष रहेगा, िक जैसे वृ� क� ��पश�� प�ो ं को मान
�लया, और वही �ा�� भी हो गई, तो प�ो ं के टू टने पर
�ा�� का भी नाश मानना पड़ेगा। यिद �ा�� का नाश
माना जायेगा, तो बड़ा भारी झगड़ा उ�� हो जायेगा, और
प्र��वादी चावार्क ना��क का मत पु� हो जायेगा, इस
वा�े ऐसा न मानना चािहये, िक आधार क���पश��

सांख्य दर्शन 237


का ही नाम �ा�� है । अब इस बात का �न�य करते ह�,
िक प्राचायर् और पं च�शख नामक आचायर् के मत म� भेद है
या नही।ं �ोिं क पं च�शख नाम वाला आचायर् तो आधार (
भाग) म� प्राधेय (धुवे) क� श�� होने को �ा�� मानता है;
और आचायर् मु�न क�पल जी �ा� आग को श�� से
उ�� �ये �सक� �वशेष श�� को दूसरा पदाथर् मानकर
उसको �ा�� मानते ह�। इन दोनो ं म� से कौन स� है ?

प्राधेय श�� �सद्धौ �नज श�� योगः समा-


न�ायात् ॥३६॥
अथर्- समान�ाय अथार्त् बराबर मु�� होने से जैसे िक
आधेय- श�� क� �स�द्ध होती है वैसे ही �नज- श��योग
क�, यह आचायो ं का मत भी स� है। दोनो ं म� से कोई भी
यु�� हीन नही ं मानते ह�। यह �ा�� का झगड़ा के वल इसी
वा�े उ�� िकया गया था िक गुण आिद ��प से नाशवान
नही ं है। इस प� क� पु�� करने के वा�े आचायर् को
अनुमान प्रमाण क� आव�कता �ई और वह अनुमान

सांख्य दर्शन 238


प्रमाण पं चावयव के �बना नही ं हो सकता था, इस वा�े
उनको �लखना पड़ा। इसी �न�य म� पं चावयव के अ�गर्त
एक साहचयर् �नयम �जसका दूसरा नाम �ा�� आन पड़ा
उसको प्रकाश करने के वा�े यह कहकर अपने प� को पु�
कर �लया। अब इससे आगे पं चावयव �प श� को �ान
क� उ��� म� हेतु �सद्ध करने के वा�े श� क� श��यो ं
का प्रकाश करके उस श�- प्रमाण म� बाधा डालने वालो ं के
मत का ख�न करते ह�—

वा�वाचकभावः स��ः श�ाथर्योः ॥३७॥


अथर्- श� के अथर् म� वा�ता-श�� रहती है, और श�
म� वाचता श�� रहा करती है, इसको ही श� और अथर्
का वा�-वाचकभाव स�� कहते ह�, अथार्त् श� अथर्
को कहा करते ह�, और अथर् श� म� कहा जाता है । यही
इन श�ाथ� का स�ं ध है। उस वा�-वाचकता�प श��
को कहते ह�।

सांख्य दर्शन 239


�त्र�भः स�� �स�द्धः ॥३८॥
अथर्- पहले कहे �ये स�� क� �स�द्ध तीन तरह से आती
है- एक तो आ� ( पूणर् �वद्वान् ) के उपदेश से ; दूसरे वृद्धो ं
के �वहार से ; तीसरे सं सार म� जो प्र�सद्ध बतार्व म� आने-
वाले पद ह�, उनके देखने से । इन ही तीन तरह के श�ो ं का
वा�- वाचकभाव होता है। उसको इस तरह समझना
चािहये, िक आ�ो ं के द्वारा ऐसे श�ो ं का �ान होता है, जैसे
ई�र �नराकार स�चत्आन���प है। 'जब ई�र श�
कहा जायेगा, तब पूव�� (पहले कहे �ए) �वशेषण वाले
पदाथर् का �ान होगा, और वृद्धो ं के �वहार से यह मालूम
होता है, िक �जसके सा�ा (गौ के कं धो ं के नीचे जो लं बी सी
सल लटकती है ) और लांगूल ( पूंछ ) होती है, उसको गौ
कहते ह�, ऐसा �ान हो जाने पर जब- जब गौ श� का
उ�ारण होगा, तब उसी अथर् का �ान हो जायेगा, और
प्र�सद्ध श�ो ं का �वहार इस तरह है, िक जैसे क�प� एक
वृ� का नाम है, वह �ो ं क�प� श� से प्र�सद्ध है ? इस

सांख्य दर्शन 240


प्रकार का तकर् न करना चािहये ; �ोिं क लोकप्र�सद्ध होने
के कारण क�प� श� कहने से क�प� (कै थ ) का ही
ग्रहण होता है।

न कायर् �नयम उभयथा दशर्नात् ॥३९॥


अथर्- यह कोई �नयम नही ं है, िक श�- श�� का वा�-
वाचकभाव कायर् म� ही हो, और जगह नही ं ; �ोिं क दोनो ं
तरह श� क� श��यो ं का ग्रहण िदखता है। शा�ो ं म� जैसे
िकसी वृद्ध ने बालक से कहा "गौ को लाओ। इस वा� के
कहने से गौ का लाना यह कायर् िदखता है, और इसके श�
भी उस अथर् को ही िदखलाते ह�, और तेरे पुत्र उ�� हो गया
इसम� कायर् का प्र�� भार नही ं िदखाई पड़ता है। �ोिं क
पुन का उ�� होना यह जो िक्रया है वह पहले ही हो चुक�
और यह वा� उस बीती �ई िक्रया को कहता है। इस वा�े
यह �नयम नही ं िक कायर् म� ही श� और अथर् का स��
है।
प्र०- यह उपरो� प्रती�त लौिकक बातो ं म� हो सकती है,

सांख्य दर्शन 241


�ोिं क सं सार म� ब�धा कायर् श�ो ं का प्रयोग िकया जाता
है िक�ु वेद म� जो श� ह�, उनके अथर् का �ान कै से होता
है ? �ोिं क श� कायर् नही ं है।

उ०- लोके �ु��� वेदाथर्प्रती�तः ॥४०॥


अथर्- जो मनु� सांसा�रक काय� म� चतुर होते ह�, वही वेद
को यथाथर् री�त से जान सकते ह�, �ोिं क ऐसा कोई भी
लोक का िहतकारी कायर् नही ं है, जो वेद म� न हो; इस वा�े
वेद म� �व�ता उ�� करने के अथर् सांसा�रक जीवो ं को
यो�ता प्रा� करनी चािहये और श�ो ं क� श�� लोक (
सं सार ) और वेद इन दोनो ं म� बराबर है। इस �वषय पर
ना��क शं का करते ह�—

न �त्र�भरपौ�षेय�ाद्वेद� तदथर्�ाती��य-
�ात् ॥४१॥
अथर्- आपने जो तीन प्रमाण िदये उन प्रमाणो ं से वेद के अथर्
क� प्रती�त नही ं हो सकती, �ोिं क मनु�-मनु� क� बात

सांख्य दर्शन 242


का समझ सकता है, पर�ु वेद अपौ�षेय (जो िकसी मनु�
का बनाया �आ न हो) है, इस वा�े उसका अथर् इ��यो ं से
�ात नही ं हो सकता है, �ोिं क वह वेद अती��य है, अथार्त्
इ��यो ं क� श�� से बाहर है। इसका समाधान करने के
वा�े पहले इस बात को �सद्ध करते ह� िक वेदो ं का अथर्
प्र�� देखने म� आता है, अती��य नही ं है।

न य�ादेः ��पतो धमर्�ं वै�श�ायात् ॥४२॥


अथर्- वेद के अथर् को जो अती��य ( इ��यो ं से न जाना
जाये) कहा सो स� नही ं । वेद से जो य�ािद िकये जाते ह�,
और उन य�ािदको ं म� जो- जो काम िकये जाते ह�, वे सब
��प से ही धमर् है, �ोिं क उन य�ािदको ं का फल प्र��
म� िदखता है, जैसे-"य�ाद्भव�तपजर्�ः पजर्�ाद�स�वः ।
य� से मेघ होता है, और मेघ के होने से अ� उ�� होता है,
इ�ािद वा� गीता म� �मलते ह�।
प्र०- जबिक वेद अपौ�षेय ह�, तब उनका अथर् कै से �ात
होता है ?

सांख्य दर्शन 243


उ०- �नजश���ु��ा �व��द्यते ॥४३॥
अथर्- श� का अथर् होना यह श� क� �ाभा�वक श��
है, और �वद्वानो ं क� पर�रा से वह श�� वेद के अथ� म�
भी चली आती है, और उसी �ु��� ( वाकिफयत ) से वृद्ध
लोग �श�ो ं को उपदेश करते चले आये ह�, िक इस श� का
ऐसा अथर् है। और जो ऐसा कहते ह�, िक वेदो ं का अथर्
प्र�� नही ं है, िक�ु अती��य, उसका यह समाधान है।

यो�ायो�ेषु प्रती�तजनक�ात् त���द्धः


॥४४॥
अथर्- ब्रह्मचयार्िद �जन- �जन काय� को वेद ने अ�ा कहा
है, और िहसं ािद �जन- �जन काय� को बुरा कहा है, उनक�
प्रती�त प्र��ता म� िदखती है, अथार्त् इन दोनो ं काय� का
जैसा फल वेद म� �लखा है वैसा ही देखने म� आता है। इससे
इस बात क� �स�द्ध हो गई िक वेद का अथर् अती��य नही ं
है।

सांख्य दर्शन 244


प्र०- न �न��ं वेदानां कायर्�श्रुतेः ॥४५॥
अथर्- वेद �न� नही ं है, �ोिं क श्रु�तयो ं से मालूम होता है,
िक "त�ाद्य�ा�षर् �त ऋचः सामा�न ज��रे । उस य��प
परमा�ा से ऋ�ेद, सामवेद, उ�� �ये इ�ािद श्रु�तयाँ
पुकार-पुकार कह रही ह� िक वेद उ�� �ये। जब ऐसा �सद्ध
हो गया, तो यह बात �न�य ही है, िक �जसक� उ��� है,
उसका नाश भी अव� है ; इस वा�े वेद कायर्�प होने से
�न� नही ं हो सकते ह�।

उ०- न पौ�षेय�ं त�: पु�ष�ाभा- वात्


॥४६॥
अथर्- वेद िकसी पु�ष के बनाये �ये नही ं ह�, �ोिं क उनका
बनाने वाला िदखता नही ं । तब यह बात माननी पड़ेगी, िक
वेद, अपौ�षेय ह�, जबिक वेदो ं का अपौ�षेय� �सद्ध हो
गया, तो वह �जसके बनाये �ये वेद ह� �न� ह� ; और �न�
के कायर् भी �न� होते ह�, इस कारण वेदो ं का �न�� �सद्ध

सांख्य दर्शन 245


हो गया । यिद ऐसा कहा जाये, िक वेदो ं को भी िकसी जीव
ने बनाया होगा सो भी स� नही।ं

मु�ामु�योरयो��ात् ॥४७॥
अथर्- जीव भी दो प्रकार के होते ह�- एक तो मु�, दूसरे
अमु�। यह दोनो ं प्रकार के जीव वेद के बनाने के
अ�धकारी नही ं ह�। कारण यह है िक मु� जीव म� वह
श�� नही ं रहती, �जससे वेद बना सके , और बद्ध जीव
अ�ानी अ�� (थोड़ा जानने वाला) इ�ािद दोषो ं से यु�
होता है और वेद म� इस प्रकार क� बात� देखने म� आती है,
जो �बना सवर्� के नही ं हो सकती, और जीव अ�� है, इस
प्रमाण से भी वेदो ं क� �न�ता �सद्ध हो गई। इसी �वषय को
और भी �ढ़ करते ह�।

नापौ�षेय�ा����मं कु रा�दवत् ॥४८॥


अथर्- वेद अपौ�षेय ह�, इस वा�े �न� ह�, ऐसा नही;ं
�ोिं क अंकुर िकसी पु�ष का बनाया �आ नही ं होता, पर�ु

सांख्य दर्शन 246


अ�न� होता है।

तेषाम�प तद्योगे ��बाधा�दप्रस��ः ॥४९॥


अथर्- यिद वेदो ं को भी बनाया �आ माना जायेगा, तो प्र��
जो िदखता है, उसम� दोष प्रा� होगा। ��ा�- जैसे िक
अंकुर का लगाने वाला िदखता है और उपादान कारण जो
बीज है वह भी िदखता है। इस प्रकार वेदो ं का बनाने वाला
और उपादान कारण नही ं िदखता है. इस कारण �न� है।
यिद �न� न माना जाये, तो प्र�� से �वरोध हो जायेगा।
वेदो ं को जो अपौ�पेय कहा है, उसम� यह स�ेह होता है िक
पौ�षेय िकसको कहते ह� और अपौ�षेय िकसको कहते ह�?
इस स�ेह को दूर करने के �लये पौ�षेय का ल�ण �लखते
ह�।

य�����ेऽ�प कृ तबु�द्ध�पजायेते त�ौ�षे-


यम् ॥५०॥
अथर्- �जस पदाथर् का कतार् प्र�� न हो, अथार्त् बनाने वा

सांख्य दर्शन 247


-ला न िदखता हो, लेिकन उस पदाथर् के देखने से यह �ान
हो, िक इसका बनाने वाला कोई अव� है ; इसका ही नाम
पौ�-पेय है। लेिकन वेदो ं के देखने से यह बु�द्ध उ�� नही ं
होती, �ोिं क वेदो ं क� उ��� ई�र म� मानी गई है और उन
वेदो ं का बनाने वाला कोई नही ं है, और उ���, बनाना दोनो ं
म� इतना अ�र है िक वीज से अंकुर उ�� �आ, कु �ार ने
घड़े को बनाया, इस बात को बु�द्धमान अपने आप �वचार
लेव�, िक उ��� और बनाना इसम� भेद है या नही ं ? बनाना
कोई और बात ह�, उ��� कोई और बात है। इस तरह ही
वेदो ं क� उ��� मानी गई है, िक�ु घटािद पदाथ� के समान
वेदो ं क� उ��� नही ं है। इस कारण वेद अपौ�षेय है।
प्र०- जब िक वेदो ं म� उ�ी ं बातो ं का वणर्न है, जो सं सार म�
वतर्मान ह�, तो वेदो ं को �ो ं प्रमाण माना जाये ?

उ०- �नजश�य�भ��ः �तः एयम् ॥५१॥


अथर्- �जस वेद के �ान होने से अथार्त् जानने से आयुव�द

सांख्य दर्शन 248


(वैद्यक), कला- कौशल आिद सब तरह क� �वद्याओ ं का
प्रकाश होता है वह वेद �तः (अपने आप ) प्रमाण ह�। उस
म� दूसरे प्रमाण क� कोई आव�कता नही ं है, �ोिं क जो
आप ही दूसरो ं का प्रसारण है, उसका प्रमाण िकसको कह
सकते ह�, जैसे- सेर-दसु ेरी आिद तोलने को बाट तोलने म�
आप ही प्रमाण ह�, लेिकन सेर- दसु ेरी आिद बाट �ो ं प्रमाण
है, ऐसा प्र� कही ं हो सकता, �ोिं क वह तो �त: प्रमाण
है। इसी तरह वेदो ं को भी �त: प्रमाण समझना चािहये।
पहले जो ४१ व� सूत्र म� ना��क ने यह-पूवर् प� िकया था,
िक वेदो ं का अथर् नही ं हो सकता, उसका उ�र- प� वहाँ
पर कह आये थे, और िफर भी उसको ही ��ा� द्वारा प्र��
करते ह�।

नासतः �ानं वृ�ङ्गवत् ॥५२॥


अथर्- जैसे िक पु�ष के सीगं नही ं होते, इसी तरह जो पदाथर्
है ही नही,ं उसका कहना भी �थर् है, जैसे िक ब�ा खो का
पुत्र । जबिक ब�ा �ी के पुत्र होता ही नही ं तो ऐसा कहना

सांख्य दर्शन 249


भी �थर् है । यिद इस तरह वेदो ं का भी कु छ अथर् न होता
तो वृद्ध लोग पर�रा से (एक को एक ने पढ़ाया) �ो ं �श�ो ं
को पढ़ा कर प्र�सद्ध करते। इससे प्र�� होता है िक वेदो ं
का अथर् है।

न सतोवाघदशर्नात् ।।५३॥
अथर्- जो पदाथर् सत् है उसका बाध िकसी तरह नही ं हो
सकता और वेद सत् माने गये ह�, इस वा�े ऐसा कहना नही ं
बन सकता िक वेदाथर् नही ं है।
प्र०- वेदाथर् है या नही,ं ऐसा झगड़ा �ो ं िकया जाये, यही
न कह िदया जाये, िक वेद का अथर् है तो,पर�ु अ�नवर्चनीय
है।

ना�नवर्चनीय� तदभावात् ॥५४॥


अथर्- वेद के अथर् को अ�नवर्चनीय (जो कहने म� न आये)
कहना ठीक नही,ं �ोिं क सं सार म� ऐसा कोई पदाथर् नही ं
िदखता जो अ�नवर्चनीय हो, और उसी पदाथर् को कह सकते

सांख्य दर्शन 250


ह�, जो सं सार म� प्र�� है। इस�लये अ�नवर्चनीय कहना
ठीक नही ं है।

ना�था�ा�तः �वचो�ाघातात् ॥५५॥


अथर्- अ�था �ा�त भी नही ं कह सकते, �ोिं क ऐसा
कहने पर अपने ही कथन म� दोष प्रा� होता है । इस सूत्र
का अ�भप्राय यह है, िक वेद का अथर् दूसरा है, पर�ु सं सार
म� दूसरी तरह प्रच�लत हो रहा है, इस तरह क� अ�था
�ा�त करने पर यह दोष होता है, िक जो मनु� वेद का
अथर् हो न मान कर अ�नवर्चनीय कहते ह�, वह �ाय
प्र�ा�त को �ो ं मान सकते ह�, ऐसा कहना उनके वचन से
ही �व�द्ध होगा।
प्र०- अ�था �ा�त िकसको कहते है ?
ऊ०- पदाथर् तो दूसरा हो, और अथर् दूसरी तरह िकया जाये,
जैसे- सीप म� चाँदी का आरोप अथार्त् चाँदी �सद्ध करनी।

सदस��ा�तवार्धावाधात् ।।५६॥

सांख्य दर्शन 251


अथर्- यादा माना जाये,िक वेदो ं का कायर् भी और नही ं भी
है, �ोिं क जो सं सार के काय� म� चतुर नही ं ह� उनको वेद के
अथर् का बाध होता है और जो सांसा�रक काय� म� चतुर ह�,
उनको छात्राव होता है, इस तरह �ाद��, �ाना��, है या
नही,ं इस तरह जैनो ं के मत के अनुसार ही माना जाये, तो
भी ठीक नही।ं इस सूत्र म� पहले सूत्र से नकार अनुवृ��
आती है। "नासता�ातं न �ं गवत्" इम सूत्र से लेकर ५६
व� सूत्र तक जो अथर् �व�ान�मनु ने िकया है, और "गुणादीनां
ना��बाधः", इस सूत्र के आशय से �मलाया है, वह ठीक
नही;ं �ोिं क वैसा अथर् करने से प्रसं ग म� �वरोध पाता है।
दूसरे यह िक इस सूत्र को, जो क�पल मु�न के �सद्धा� प�
म� रखकर गुणो ं का बाध, अबाध दोनो ं ही माने ह�, वह भी
ठीक नही,ं �ोिं क "न वादक पदाथार्प्रतीतेः", इस सूत्र म�
प्राचायर् पहले ही कह चुके ह�, िक असत् और सत् इन दोनो ं
ध�ो ं वाला कोई पदाथर् सं सार म� नही ं िदखता, तो �ा
आचायर् भी �व�ान�भ�ु के समान �ान- रिहत थे, जो अपने
पूवार्पर कथन को �ान म� न रख कर गुणो ं को सत् और

सांख्य दर्शन 252


असत् दोनो ं �पो ं से कहते। यहां तक वेदो ं क� उ��� और
�न�ता को �सद्ध कर चुके। अब श� के स�� म� �वचार
करते ह�।

प्रती�प्रती�त�ां न �ोटा�कः श�ः ॥५७॥


अथर्- जी श� मुख से �नकलता है, उस श� के अ�त�र�
जो उस श� म� अथर् के �ान कराने वाली श�� है, उसे
�ोट कहते ह� ; जैसे िक िकसी ने कलश श� को कहा, तो
उस कलश श� के उ�ारण होने से क�ुप्रीवािद कपालो ं
का �जस श�� से �ान होता है, उसका ही नाम �ोट है।
इससे ऐसा न समझना चािहये, िक कलश इतना श� मुँह
से �नकलते ही क�ुप्रोव वाला जो पदाथर् है, उसका ही नाम
कलश है, िक�ु �जस श�� से उसका �ान होता है, उसी
का नाम �ोट कहलाता है, िक�ु �ोटा�क श� नही ं हो
सकता, �ोिं क इसम� दो तरह के तकर् उ�� हो सकते ह�,
िक श� क� प्रती�त होती है या नही।ं यिद प्रती�त होती है,
तो �जस अथर् वाले अ�र समुदाय से पूवार्पर �मला कर अथर्

सांख्य दर्शन 253


प्रती�त और वो� ( कहने लायक) व�ु का बोध (�ान) है,
उसके �सवाय �ोट को मानना �थर् है, �ोिं क श� से ही
अथर् �ान �आ, �ोट से नही।ं और यह कहो िक श� क�
प्रती�त नही ं होती, तब अथर् ही नही।ं िफर �ोट म� ऐसी
श�� कहां से आई जो �बना अथर् के अथर् क� प्रती�त करा
सके । इस कारण �ोट का मानना �थर् है ।

प्र०- न श��न��ं कायर्तापतातेः ॥५८॥


अथर्- श� �न� नही ं हो सकता, �ोिं क उ�ारण के बाद
श� न� हो जाता है ; जैसे- ककार उ�� �आ,
उ�ारणावसान म� िफर न� हो गया, इ�ािद अनुभवो ं से
�सद्ध होता है िक श� भी कायर् है।

उ०- पूवर्�सद्ध स��ा�म ���ीपेनैव घट�


॥५९॥
अथर्- �जस श� का होना पहले ही से �सद्ध है, उस श� का
उ�ारण करने से प्रकाश होता है, उसक� उ��� नही ं होती

सांख्य दर्शन 254


है। ��ा�- जैसे िक अंधरे े �ान म� र�े �ये पात्र को
दीपक प्रकाश कर देता है। ऐसा नही ं कह सकते िक दीये ने
पान को उ�� कर िदया, �ोिं क पान तो पहले से ही वहाँ
�वधमान था, अंधकार के कारण उसका �ान नही ं होता था।
इसी तरह श� भी पहले से �सद्ध है, उ�ारण करने से
के वल उनका प्रकाश होता है, इस�लये श� �न� है।

स�ायर्�सद्धांत�ेत् �सद्धसाधनम् ॥६०॥


अथर्- यिद ऐसा कहा जाये, िक कायर् �जस अव�ा म�
िदखता है, उसी अव�ा म� सत् है, शेप और अव�ाओ ं म�
असत् है। इसी तरह श� का भी कायर् है, और अपनी
अव�ा म� सत् है, ऐसा मान�गे, तो प्राचायर् कहते ह�, िक ऐसा
मानने पर हम श� के स�� म� �सद्ध साधन मान�गे, अथार्त्
जो श� पहले �दय म� था, उसी को उधारण आिद िक्रयाओ ं
से �� िकया है, िक�ु घटािद पदाथ� के समान बनाया नही ं
है । यहाँ- तक श�- �वचार समा� �आ। अब इस �वषय
का �वचार कर�गे िक जीव एक है या अनेक ह�।

सांख्य दर्शन 255


नाद्वैतमा�नो �लगं ात तरेदप्रतीतेः॥६१॥
अथर्- जीव एक नही ं है, िक�ु अनेक ह�, इस सूत्र का यह
भी अथर् है। जीव और ई�र इन दोनो ं का अभेद मानकर
जो अद्वैत माना जाता है वह ठीक नही,ं �ोिं क जीव के जो
अ���ािद �चह्न ह�, और ई�र के जो सवर्��ािद �च�
ह�, उनसे दोनो ं म� भेद �ात होता है।

नाना�ना�प प्र��वाधात् ।।६२।।


अथर्- अना�ा जो सुख दःु खािदको ं के भोग ह�। उनसे भी
यही बात �सद्ध होती है, िक जीव एक नही ं है, �ोिं क एक
मानने से प्र�� म� �वरोध क� प्रा�� होती है, और सं सार म�
िदखता भी है, िक सुख- दःु ख अनेक ��� एक समय म�
भोग करते ह�, दूसरे प� म� ऐसा अथर् करना चािहये, िक जो
मनु� एक आ�ा के अ�त�र� और कु छ नही ं मानते,
उनके �सद्धांत म� पूव�� दीप के अ�त�र� और एक दोष
यह भी प्रा� हो जायेगा, िक घटािद काय� को भी आ�ा

सांख्य दर्शन 256


मान कर उनके नाश होते ही आ�ा का भी नाश मानना
होगा। यह प्र�� से �वरोध होगा, इस�लये ऐसा अद्वैत
मानना स� नही ं है।

नोभा�ां ते नैव ॥६३॥


अथर्- आ�ा और अना�ा इन दोनो ं क� एकता है ऐसा
कहना भी यो� नही,ं �ोिं क उसी प्र�� प्रमाण म� बाधा
प्रा� हो जायेगी, और सं सार म� यह बात प्र�� िदख रही
है, िक आ�ा और अना�ा दो पदाथर् �भ�- �भ� ह�, इस
वारते ऐसा कहना िक एक आ�ा के अ�त�र� और कु छ
यो� नही।ं
प्र०- अगर तुम ऐसा मानते हो िक आ�ा और अना�ा
�भ�-�भ� पदाथर् ह�, तो श्रु�तयाँ ऐसा �ो ं कहती ह�, िक
"एकमेवा- िद्वतीयं ब्रह्म।" "आ�ैवेदं सवर्म।् (एक ही ब्रह्म
अिद्वतीय है); यह सब आ�ा ही है ) इ�ािद श्रु�तयाँ एक
आ�ा बताती ह�, तो ब�त से आ�ा, जीव या ब्रह्म पृथक् -
पृथक् �ो ं माने जाये।

सांख्य दर्शन 257


उ०- अ�पर�म�ववेकानां तत्र ॥६४॥
अथर्- इन श्रु�तयो ं म� अ�पर� अथार्त् द्वैत है, ऐसा �ान
अ�ो ं को होता है, और जो �वद्वान् ह� वह इन श्रु�तयो ं का
ऐसा अथर् नही ं करते ह�, �ोिं क अिद्वतीय श� से यह
प्रयोजन है, िक ई�र के समान दूसरा और कोई नही ं है,
और जो एक आ�ा मानते ह�, उनके मत म� सं सार का
उपादान कारण स� नही ं हो सकता।

ना�ा�वद्या नोभयं जगदपु ादानकारणं


�नःसङ्ग�ात् ।।६५॥
अथर्- इस कारण आ�ा जगत् का उपादान कारण नही ं हो
सकता िक वह �न�वकार है। यिद अ�वद्या को सं सार का
उपादान कारण मान� तो अ�वद्या भी सं सार का उपादान
कारण नही ं हो सकती, �ोिं क सत् मान� तो द्वैताप�� प्रा�
होती है, और असत् मानने पर ब�ा के पुत्र के स��
(समान) अभाव वाली हो जायेगी, और आ�ा तथा अ�वद्या

सांख्य दर्शन 258


यह दोनो ं �मलकर सं सार का उपादान कारण इस प्रकार नही ं
हो सकते िक आ�ा सं ग रिहत ह�, इस कारण ही जो एक
आ�ा के अ�त�र� और कु छ नही ं मानते, उनके मत म�
सं सार का उपादान कारण �सद्ध नही ं हो सकता है।

नैक�ान��चद्र�प�े द्वयोभ�दात् ॥६६॥


अथर्- वेदािद सत् शा� ई�र को स��दान� कहकर
पुकार रहे ह�, और जीव म� आन� �प होना नही ं है, इस
कारण ई�र और जीव इन दोनो ं म� भेद है।
प्र०- जीव म� आन� तो माना ही नही ं गया है, तो मु�� का
उपदेश �ो ं कहा, �ोिं क मु�� अव�ा म� दःु खो ं के दूर
हो जाने पर आन� होता ही है ?

उ०- दःु ख�नवृ�गौणः ।।६७।।


अथर्- मु�� होने पर दःु ख दूर हो जाते ह�, ऐसा कहना गौण
है। यद्य�प मु�� होने पर दःु ख दूर हो जाते ह�, पर�ु
अ��ता तो जीव म� उस समय भी बनी रहती है, इस�लये

सांख्य दर्शन 259


िफर भी दःु ख उ�� होने का भय बना ही रहता है, इस
कारण जीव सवर्दा आन� म� नही ं रहता है, अतः जीव को
आन� ��प नही ं कह सकते। आन� ��प तो ई�र को
ही कह सकते ह�।
प्र०- जब िक आप क� मु�� ऐसी है, िक �जसके होने पर
भी िफर कु छ िदनो ं के बाद दःु ख उ�� होने क� सं भावना
बनी रहती है तो ऐसी मु�� से बद्ध रहना ही अ�ा है।

उ०- �वमु��प्रशं सा म�ानाम् ॥६८॥


अथर्- �वमु� (बद्ध रहना) क� प्रशं सा मूखर् लोग करते न
िक �वद्वान् लोग । कोई- कोई मन को �न� मानते ह�, उनके
मत का भी खं डन करते ह�।

न �ापक�ं मनसः करण�ा�द��य�ाद्वाह


॥६९॥
अथर्- मन �ापक नही ं है, �ोिं क- मन को इ��य और
कारण माना है।

सांख्य दर्शन 260


प्र०- कारण िकसको कहते ह� ?
उ० - �जसके द्वारा जो अपने कायर् करने म� तैयार हो, जैसे
िक मन के द्वारा जीवा�ा अपने काय� को करता है

सिक्रय�ाद्ग�तश्रुतेः॥७०॥
अथर्- मन िक्रया वाला है इस�लये मन हर एक इ��यो ं के
�ापार और प्रवृ�� का हेतु है, ग�त वाला भी है।
प्र०यिद मन को �न� नही ं मानते तो मत मानो, लेिकन
�न�वभाग, कारण रिहत तो मानना होगा।

उ०- न �नभार्ग�ं तद्योगात् घटवत् ॥७१॥


अथर्- जैसे घट आिद पदाथर् मृ�� का (�मट्टी) के कायर् ह� इस
ही तरह मन भी िकसी का कायर् अव� है। जबिक कायर्
�न�य हो गया तो उसको कारण योग भी अव� होगा।
प्र०- मन �न� है या अ�न�

उ०- प्रकृ �तपुरपयोर�त् सवर्म�न�म् ।।७२॥

सांख्य दर्शन 261


अथर्- प्रकृ �त और पु�ष के अ�त�र� जो अ� पदाथर् ह�.
वह सब अ�न� है, इस कारण से मन भी अ�न� है।
प्र०- प्रकृ �त और पु�ष इन दो को ही �न� �ो ं माना है ?

उ०- न भागलाभो भो�गनो �नभार्ग�श्रुतेः


॥७३॥
अधर्- जो आप ही कारण �प उसका और कोई कारण नही ं
हो सकता, उसको तो सब ही कारण रिहत मानते चले आये
ह�, इस कारण प्रकृ �त, पु�ष दोनो ं �न� ह�।
प्र०- पु�ष को मु�� �ो ं मानी गई है ?

नान�ा�भ��� �त�नधमर्�ात् ॥७४॥


अथर्- प्रधान जो प्रकृ �त है उसको आन� क� अ�भ���
(�ान) नही ं हो सकती, हम कारण उसक� मु�� भी नही ं
कह सकते ; �ोिं क आन� प्रधान का धमर् नही ं है। िक�ु
जीव का है।

सांख्य दर्शन 262


उ०- �वशेषगुणो�����द्वत् ॥७५।।
अथर्- स�, रज, तम, इनको नाश होने को ही यिद मु��
माना जाये तो भी ठीक नही,ं �ोिं क उ� स�ािद तीन गुण
प्रधान के �ाभा�वक धमर् है, उनका नाश होना प्रधान का
धमर् नही ं है, इस�लये उसक� मु�� नही ं मानी जाती।

न�वशेषग�त��य� ॥७६॥
अथर्- यिद �वशेष ग�त अपर नीचे का जाना, आना अथार्त्
ब्रह्मलोक क� प्रा�� इ�ािदक को ही मु�� माने सो भी नही ं
हो सकती, �ोिं क प्रधान तो िक्रया शू� है जो कु छ उसम�
िकया िदखती है वह सत्र पु�ष के सं सगर् (मेल) से है, पर�ु
आप ऐसी श�� को नही ं रखता।

नाकारो परागो����ः ��णक�ा�ददोषातू


॥७७॥
अथर्- यिद आकार के स�� को छोड़ देना ही मु�� मान�

सांख्य दर्शन 263


तो भी ठीक नही,ं �ोिं क उसम� ��णक�ािद दोष प्रा�
होते ह�। इस सूत्र का ��ाथर् यह है- प्रकृ �त का आकार घड़ा
है, उसका फू ट जाना है उसको ही प्रकृ �त क� मु�� मान
�लया जाये सो यह कथन कु छ अ�ा नही ं है, �ोिं क
��णक�ािद सैकड़ो ं दोष प्रा� हो जाय�गे, ऐसा मानने से ।
जैसे िक कोइ घड़ा इस �ण म� टू ट गया और िफर इसी �ण
म� दूसरा बन गया तो इ�ािद कारणो ं से प्रधान क� मु��
कै से हो सकती है ?

न सव�����ः पु�षाथर्�ा�ददोषात् ॥७८॥


अथर्- सबको छोड़ देना भी मो� नही ं हो सकता। यिद
प्रधान स�ूणर् ( सब ) सृ�� आिद रचना को छोड़ दे तो भी
उसक� मु�� नही ं हो सकती, �ोिं क प्रधान के सब कायर्
पु�ष के �लये ह�।

एवं शू�म�प ॥७९॥


अथर् यिद सब को जोड़ देना ही प्रधान क� मु�� का ल�ण

सांख्य दर्शन 264


मान भी �लया जाये तो वह मु�� शू� रहेगी, �ोिं क
आन� न रहेगा तो �थर् है, इस�लये ऐसा न माना जाये।
प्र०- पु�ष के साथ रहने वाली प्रकृ �त िकसी �ान म� पु�ष
को छोड़ दे, इसको ही मु�� �ो ं न माना जाये ?

उ०- सं योगा� �वयोगा�ा इ�त न देशा�द-


लाभो�प ॥८०॥
अथर्- �जसका सं योग होता है उसका �वयोग तो �न�य ही
होगा िफर िकसी �ान म� जाकर छोड़ा तो �ा मु�� हो
सकती है ? िकसी सूरत म� नही।ं इसी तरह जब प्रकृ �त और
पु�ष का सं योग है तो �वयोग भी ज�र होगा, िफर उसम�
देश क� �ा ज�रत है, �ोिं क �ान के प्रा� होने से मु��
तो हो ही नही ं सकती।

नभा�गयोगो भाग� ।।८१॥


अथर्- प्रधान के भाग (अंश) जो मह��ािदक ह� उनका
भागी (प्रधान) म� �मल जाना ही मु�� है, सो भी नही ं हो

सांख्य दर्शन 265


सकता, �ोिं क वह तो उसम� �मलते ही ह�।

ना�णमा�दयोगोऽ�व�ं भा�व�ात् तद�ु �ते-


�रतरयोगवत् ॥८२॥
अथर्- पु�ष के योग से अ�णमािद ऐ�यो ं का योग होना भी
प्रधान क� मु�� का ल�ण नही ं हो सकता. �ोिं क �जसका
योग है उसका �वयोग तो अव� ही होगा, जैसािक दूसरे
पदाथ� म� मालूम होता है।

ने�ा�दपदयोगोऽ�पतद्वत् ॥८३॥
अथर्- पु�ष के सं योग से इ�ािद पद क� प्रा�� का होना
प्रधान क� मु�� का ल�ण नही ं हो सकता, �ोिं क वह सब
नाशवान ह� । अब "अहङ्का�रकश्रुतेनर्भौ�तका�न" इस सूत्र म�
जो वात सू� री�त से कही है उसको कहते ह�—

न भूताप्रकृ �त��म��याणामाई का�रक�-


श्रुतेः॥८४॥

सांख्य दर्शन 266


अथर्- जो घात पृ�ी आिद भूतो ं म� �वद्यमान है वह बात
इ��यो ं म� नही ं िदखती, इस वा�े इ��यो ं को भौ�तक नही ं
कह सकते, िक�ु अहंकार से पैदा �ई ह�।
प्र०- सां� के मत के अनुसार प्रकृ �त और पु�ष का �ान
होना ही मु�� का हेतु है। िक�ु वैशे�षकािदको ं ने जो छः
पदाथर् माने ह� उनके �ान से मु�� �ो ं नही ं हो सकती ?

उ०- म षट्पदाथर्�नयम�बोधा�ु��ः॥८५॥
अथर्- पदाथर् छः ही ह� ऐसा कोई �नयम नही ं ; िक�ु पदाथर्
असं � (बेशुमार ) ह�। अभाव जानने के वा�े असं �
पदाथर् ह�, तो छः पदाथ� के जानने से मु�� नही ं हो सकती।

षोड़शा�द��ेवम् ॥८६॥
अथर्- गौतमािदको ं ने जो सोलह पदाथर् माने ह� और �जन-
�जन मह�षयो ं ने प�ीस पदाथर् माने ह� उनके जान लेने से
भी मु�� नही ं हो सकती; �ोिं क पदाथर् तो असं � ह�।

सांख्य दर्शन 267


प्र०- वैशे�षकािदको ं का मत �ो ं दू�षत माना गया है;
�ोिं क वह वैशे�षकािदक पृ�ी आिद के अगुणो ं को �न�
मानते ह�।

उ०- नाणु�न�यतात�ायर्�श्रुतेः॥८७॥
अथर्- पृ�ी आिद के अणुओ ं क� �न�ता िकसी प्रकार प्रा�
नही ं हो सकती, �ोिं क श्रु�तयाँ उनको कायर् �प कहती ह�
और एक यु�� भी है। जब पृ�ी आिद साकार है तो उनके
अणु भी साकार हो सकते ह�। जब साकारता प्रा� हो गई
तो िकसी के कायर् भी ज�र �ए, इस कारण पृ�ी आिद के
अणुओ ं को �न� नही ं कह सकते। यहाँ अणु का अथर्
परमाणु नही,ं उससे �ूल है।
प्र०- आप अणुओ ं को �न� नही ं मानते तो मत मानो;
लेिकन उनका कोई कारण नही ं िदखता, इस वा�े उनको
कारण रिहत मानना चािहये ?

उ०- न �नभार्ग�ं कायर्�ात् ॥८८॥

सांख्य दर्शन 268


अथर्- जबिक अणु कायर् है तो कारण रिहत कै से हो सकते
ह�? �ोिं क जो कायर् है उसका कारण भी अव� ही कोई
न कोई होगा।
प्र०- जबिक प्रकृ �त और पु�ष दोनो ं ही प्रकार रिहत ह� तो
उनका प्र�� कै से हो सकता है; �ोिं क जबतक �प न
होगा तबतक प्र�� नही ं हो सकता ?

उ०- न �प�नय�ात् प्र���नयमः ॥८९॥


अथर्- �प के �बना प्र�� नही ं होता, कोई �नयम नही ं है
�ोिं क जो बाहर को व�ु है उसके देखने के वा�े
अव�मेव इ��य से योग क� आव�कता रहती है, लेिकन
जो �ान से जाना जाता है उसको �पवान होने क� कोई
आव�कता नही ं है, और ना��क लोग जो यह बात कहते
ह� िक साकार पदाथर् का ही प्र�� होता है, �नराकार का
नही ं होता, यह कथन ठीक नही,ं �ोिं क जब नेत्र आिद
इ��यो ं म� दोष हो जाता है तब सामने र�े �ए घट-घटािद
पदाथ� का भी प्र�� नही ं होता। इस से सा�बत होता है िक

सांख्य दर्शन 269


पदाथर् का ��प होना प्र�� होने म� �नयम नही,ं िक�ु
इ��यो ं क� ��ता हेतु है।
प्र०- आपने जो अणुओ ं को कायर्�प कहकर अ�न� �सद्ध
िकया तो �ा अणु कोई व�ु आपके मत म� है या नही ं ?
इसपर प्राचायर् अपना मत िदखाते ह�।

उ०- न प�रमाणचातु�व�ं द्वा�ांतद्योगात्


॥९०॥
अथर् जो मनु� अणु, महत्, दीघर्, ह्र� यह चार भेद मान-
कर प�रमाण चार तरह के मानते ह� ऐसा मानना ठीक नही ं
है। �ोिं क �जस बात के �सद्ध करने को चार प्रकार के
प�रमाण मानते ह� वह वात अणु और महत् इन दो तरह के
प�रमाणो ं से भी �सद्ध हो सकती है। दीघर् और हरव यह दो
प�रमाण महत प�रमाण के अवा�र ( भीतर रहने वाले)
भेद ह�। यिद �गनती बढ़ानी ही �ीकार है तो एक �तरछा
अणु, एक सीधा अणु, ऐसे ही ब�त से भेद हो सकते ह�,

सांख्य दर्शन 270


लेिकन ऐसा होना ठीक नही।ं और हमने जो अणुओ ं को
अ�न� प्र�तपादन िकया था वह �सफर् पृ�ी आिद के गुण
को अ�न� कहा था; िक�ु अणु प�रमाण द्र�ो ं को अ�न�
नही ं प्र�तपादन िकया था, �ोिं क हम भी तो अणु �न�
मानते ह�।
प्र०- जब प्रकृ �त और पु�ष के �सवाय सबको अ�न� कहा
तो प्र��भ�ा िकस तरह हो सकती है, �ोिं क जब सब
पदाथ� को नाशवान मान ल�गे तब प्र��भ�ा नही ं हो सकती
है। प्र��भ�ा का ल�ण पहले अ�ाय म� कह पाये ह�।

उ०- अ�न��े�प ��रतायोगात् प्र�- �भ�ानं


सामा�� ॥९१॥
अथर्- यद्य�प प्रकृ �त और पु�ष के �सवाय �जतने सामा�
पदाथर् ह� वे सब ही अ�न� ह� तथा�प हम उनको ��र मानते
ह�, लेिकन ��णकवािदयो ं के समान हर एक �ण म�
प�रवतर्नशील (लौटना अथार्त् उलटफे र ) नही ं मानते ह�।

सांख्य दर्शन 271


इस वा�े प्र��भ�ा हो सकती है।

न तदपलाप� मात् ॥९२॥


अथर्- अतएव सामा� पदाथर् कु छ न रहा ऐसा नही ं कहा
जा सकता ; िक�ु ऐसा कहा जा सकता है िक सामा�
पदाथर् �न� नही ं है।

ना��नवृ���प�ं भाव प्रतीतेः ॥९३॥


अथर्- सामा� पदाथ� को अ�न� नही ं कह सकते ह�,
�ोिं क उनक� �वद्यमानता िदखती है। आशय यह है िक जब
आचायर् प्रकृ �त और पु�ष के �सवाय सबको अ�न� मानते
ह� तो प्र��भ�ा कै से होगी ? इस शं का को दूर करने के वा�े
यह सूत्र कहा गया है िक सामा� पदाथर् िकसी प्रकार
अ�न� नही ं हो सकते ह�। �ोिं क वे भी िदखते ह�।
प्र०- प्र��भ�ा के वा�े जो सामा� पदाथ� को ��र माना
गया है उनको ��र मानने क� �ा ज�रत है ? �ोिं क
�जस पदाथर् म� प्र�त�भ�ा होती है उस तरह के दूसरे पदाथर्

सांख्य दर्शन 272


म� भी प्र�त�भ�ा हो सकती है ; जैसे- िकसी बात म� घड़े को
देखा था कु छ िदनो ं बाद उसी सूरत का एक घड़ा और देखा
उसम� भी यही बात घट सकती है िक जो घड़ा पहले देखा
था वो ही यह है, �ोिं क घड़े तो दोनो ं एक ही सूरत के ह� ?

उ०-न त�ा�रं सा��ं प्र��ोपल�धेः ॥९४॥


अथर्- एक घड़े के समान दूसरा घड़ा प्र��भ�ा का कारण
नही ं हो सकता ; �ोिं क यह बात तो प्र�� ही से िदखती है
िक जो घड़ा पहले देखा था उसम�, और जो अब देखा है
इसम� फकर् है। इस�लये सहश (समान) पदाथर् प्र��भ�ा का
कारण नही ं इस कारण सामा� पदाथर् और उनक� ��रता
माननी पड़ेगी।
प्र०- जो श�� पहले देखे �ये घड़े म� है वही श�� इस
समय िदखते �ये घड़े म� है। उस श�� के ही प्रकाश होने
से प्र��भ�ा �ो ं न मानी जाये । �ोिं क सब घड़े एक ही
श��वाले होते ह�, इस वा�े दूसरे घड़े के देखने से
प्र�त�भ�ा को मानना ही चािहये ?

सांख्य दर्शन 273


उ०- �नजश��भ���वार् वै�श�ायात्
तदपु ल�ेः ॥९५॥*
अथर्- घटािद पदाथ� क� श�� का प्रकाश होना प्र��भ�ा
म� हेतु नही ं हो सकता ; �ोिं क यह बात तो अथार्प�� से
�सद्ध है। यिद सब घड़ो ं म� समान (बराबर) श�� न होती
तो उनका घड़ा नाम �ो ं होता? इस वा�े समान आकृ �त
और समान श�� प्र��भ�ा का हेतु नही ं हो सकती ; िक�ु
वही पदाथर् जो पहले देखा है दूसरी बार के देखने से
प्र��भ�ा का हेतु हो सकता है । इस बात से �सद्ध हो गया
िक सामा� पदाथर् अ�न� होने पर भी ��र है और इसी से
प्र��भ�ा भी होती है।
प्र०- एक घड़े म� जो सं �ा (नाम) सं �ी (नाम वाला) स��
है वही स�� दूसरे घड़े म� भी है िफर उसम� प्र��भ�ा �ो ं
नही ं होती?

उ०- न सं �ासं ��स��ोऽ�प ॥९६॥

सांख्य दर्शन 274


अथर्- सं �ा-सं �ी का स�� भी प्र��भ�ा म� हेतु नही ं हो
सकता, �ोिं क ये भी अथार्प�� से जाना जा सकता है िक
सं �ा-सं �� स�� सब घड़ो ं म� बराबर है । पर�ु इतने पर
भी अनेक घड़ो ं म� अनेक भेद रहते ह�, इस कारण प्र��भ�ा
नही ं हो सकती, और सं �ासं �� स�� होने पर भी दूसरा
पदाथर् प्र��भ�ा का हेतु नही ं हो सकता, �ोिं क—

न स���न�तोभया�न��ात् ।।९७॥
अथर्- घटािद पदाथ� का स�� �न� नही ं है, �ोिं क सं �ा
और सं �ी यह दोनो ं अ�न� ह�। ता�यर् यह है िक जो घड़ा
घट नाम से पुकारा जाता है उस घड़े के नाश होते ही उसक�
सं �ा का भी नाश हो जाता है, �ोिं क उस घड़े के टू टने पर
उस को िफर घड़ा नही ं कह सकते ह� िक�ु कपाल (ठीकरा)
कह सकते ह�। जबिक िफर दूसरा घड़ा नजर आया तो
उसक� दूसरी घट सं �ा �ई। दूसरी घट सं �ा के होने से
समता कहां रही, जब समता ही नही ं है तो प्र��भ�ा कै सी?
�ोिं क वह प्र��भ�ा उसी पदाथर् म� होती है �जसको कमी

सांख्य दर्शन 275


पहले देखा हो, और जो घड़ा पहले देखा था उसका तो नाश
हो गया, �जसको अब देख रहे ह� वह दूसरा है, तो वह पहले
देखा �आ नही ं हो सकता, इसी से प्र��भ�ा भी नही ं हो
सकती।
प्र०- स��ी अ�न� हो पर�ु स�� तो �न� ही मानना
चािहये ?

उ०- नाता स��ोध�मग्राहकमानबाधात्


॥९८॥
अथर्- जबिक सं �ा-सं �ी दोनो ं हो अ�न� �सद्ध �ये तो
उनका सं ब� कै से �न� हो सकता है ? �ोिं क सं ब� �जन
प्रमाणो ं से �सद्ध होता है उनसे ऐसा कहना नही ं बन सकता
िक स��ी चाहे अ�न� हो पर स�� को �न� मानना
चािहये। उ�र यह है िक यह बात िकसी प्रकार ठीक नही ं हो
सकती िक स��ी तो अ�न� हो और स�� �न� हो।
प्र०- गुण और गुणी का �न� समवाय स�� शानो ं से सुना

सांख्य दर्शन 276


जाता है और वा�व म� वे दोनो ं अ�न� ह�, यह कै से ठीक
हो सकता है?

उ०- न समवायो�� प्रमाणाभावात् ॥९९॥


अथर्- समवाय कोई स�� नही ं है प्रमाण के न होने से।

उभयत्रा��था�सद्धनर् प्र��मनुमानं वा
॥१००॥
अथर्- घड़ा �मट्टी से बना है व बना होगा, इन दोनो ं तरह के
�ानो ं म� अ�था �स�द्ध है, इस वा�े समवाय को मानने क�
कोई ज�रत नही।ं इस सूत्र का �� भाव यह है िक घट का
उपादान कारण �मट्टी है और यह बात प्र�� िदखती है िक
�मट्टी से ही घड़ा बनता है और अनुमान भी िकया जाता है।
इस प्रकार यह भी उ� (कहे �ये) प्रमाणो ं से �सद्ध (
सा�बत) �आ िक �बना �मट्टी के घड़ा नही ं बन सकता है,
इस�लये घट और �मट्टी का स�� �आ, लेिकन समवाय
कोई स�� नही ं है ।

सांख्य दर्शन 277


प्र०- यिद समवाय स�� न माना जाये तो दो कपालो ं का
सं योग ( मेल ) घट क� उ��� म� हेतु होता है, उसको �ा
कह�गे और इस बात को कै से जान�गे िक दो कपालो ं का
सं योग घट क� उ��� म� हेतु है। �जन दो अबयवो ं (टुकड़ो ं
के ) �मलने से घड़ा बनता है उसको कपाल कहते ह� ?

उ०- जानुमेव�मेव िक्रयया ने�द�� त�द्वमो


�वपरो�प्रतीतेः ॥१०१॥
अथर्- िक्रया और िक्रया वाले का सं योग होकर घट बनता है,
इस बात के जानने के �लये अनुमान क� कोई आव�कता
नही ं है ; �ोिं क �घरे रहनेवाले कु �ार क� प्र�� िक्रया को
देख कर ही जान लेते ह� िक दो कपालो ं के �मलने से घट
बनता है, इस�लये जबतक वह घड़ा मौजूद रहेगा तबतक
स�� भी ज�र रहेगा। इसके �लये समवाय स�� के
मानने क� कोई ज�रत नही ं है। दूसरे अ�ाय म� यह मतभेद
कह चुके ह� िक शरीर पं चभौ�तक है। अब उन मतो ं क�
स�ास�ता िदखाते ह� िक वे मत स�े ह� या झूठे।

सांख्य दर्शन 278


न पांचभौ�तक शरीरं ब�नमुपादानायोगात्
॥१०२॥
अथर्- शरीर पं चभौ�तक नही ं है अथार्त् पृ�ी, जल, तेज,
वायु, आकाश से शरीर क� उ��� नही ं है, �ोिं क ब�त से
पदाथर् एक पदाथर् के उपादान कारण (जो �जससे बने, जैसे
�मट्टी से धड़ा बनता है) नही ं हो सकते ; इस कारण शरीर
को �सफर् पा�थव (पृ�ी से बना �आ) ही मानना चािहये,
और जो अ�� आिद चार भूत इसम� कहे जाते ह� वे �सफर्
नाम- मात्र को ही ह�। कोई- कोई �ूल शरीर को ही मानते
ह� उसका भी खं डन करते ह�।

न �ूल�म�त �नयम पा�तवािहक�ा�प


�वद्यमान�ात् ॥१०३॥
अथर्- �ूल शरीर ही है, ऐसा कोई �नयम भी नही ं है, �ोिं क
आ�तवािहक अथार्त् �लगं शरीर भी मौजूद है। यिद �लगं
शरीर को न माना जाये तो �ूल शरीर म� गमनािद िक्रया ही

सांख्य दर्शन 279


नही ं हो सकती । इस बात को तीसरे अ�ाय म� �व�ार-
पूवर्क कह पाये ह�, जैसे- तेल ब�ी �प से उ�� �ई दीप
क� �शखा स�ूणर् ( सब) घर का प्रकाश कर देती है, इसी
तरह �लगं शरीर भी �ूल शरीर को अनेक �ापारो ं म�
लगाता है, और इस बात को भी पहले कह आये ह� िक
इं िद्रयाँ गोलको ं से अ�त�र� ह�, इसके सा�बत करने को ही
इं िद्रयो ं क� श�� कहते ह�।

नामा� प्रकाशक��म�याणाम प्रा�ेः सवर्-


प्रा�ेवार् ॥१०४॥
अथर्- �जस पदाथर् का इ��यो ं से कोई भी स�� नही ं है
उसको इ��याँ प्रकाश नही ं कर सकती। यिद कमर् करती ह�
तो देशा�र (दूसरी जगह) म� र�ी कोई व�ु का भी
प्रकाश करना �सद्ध हो जायेगा; पर�ु ऐसी बात न तो नेत्रो ं
से देखी और न कानो ं से सुनी। इस सूत्र का �� भाव यह
है िक इ��याँ उसी पदाथर् को प्रकाश कर सकती ह� �जससे
उनका सं ब� होता है, स�� रिहत के प्रकाश करने म�

सांख्य दर्शन 280


उनक� श�� नही ं है। यिद इ��यो ं म� यह श�� होती िक
�बना स�� वाले पदाथर् को भी प्रकाश कर िदया करती तो
देशा�र के पदाथर् का भी प्रकाश करना कु छ मु��ल न
होता। और जब दूसरी जगह र�े �ए पदाथ� का नेत्र आिद
इ��यो ं को �ान हो जाया करता िक वह व�ु अमुक �ान
म� र�ी है तो उनको सवर्�ता प्रा� हो सकती है । इस�लये
ई�र और इ��यो ं म� कु छ भेद नही ं हो सकता, �ोिं क ई�र
भी सवर्� है और इ��याँ भी सवर्� ऐसा ही कहने म�
आयेगा। इस कारण यही बात माननी ठीक है िक नेत्र आिद
इ��याँ उस व�ु का ही प्रकाश कर सकती ह� जो उनको
िदखती ह�।
प्र०- अपसपण (फै लाना ) तेज का धमर् है और तेज पदाथर्
का प्रकाश करता है। इसी तरह नेत्र को भी तेज��प
मानना चािहये ; �ोिं क वह नेत्र भी पदाथर् का प्रकाश करता
है।

सांख्य दर्शन 281


उ०- न तेजोऽपसपर्णात् तैजसं च�वु ृ��-
त��सद्धः ॥१०५॥
अथर्- �न��ेह तेज म� फै लने क� श�� है, पर�ु इससे
च�ु (आँख) को तेज��प नही ं कह सकते ; �ोिं क �जस
बात के �सद्ध करने के �लये नेत्र को तेज��प मानने क�
ज�रत है वह बात इस री�त से भी �सद्ध हो सकती है िक जो
नेत्र क� वृ�� है (�जससे िक पदाथर् का प्र�� होता है।)
उसी से पदाथर् का प्र�� साना जाये।

प्रा�ाथर्प्राकाश�लगं ात् वृ���स�द्धः ॥१०६॥


अथर्- नेत्र का �जस पदाथर् से सं बं ध होता है उसको ही प्रकाश
करता है, इससे साफ- साफ �सद्ध होता है िक च�ु को वृ��
तेज��प है नेत्र तेज��प नही ं ह�।
प्र०- जब नेत्र का पदाथर् से सं बं ध होता है तब नेत्र क� वृ��
शरीर को �बना छोड़े उस पदाथर् पर कै से जा पड़ती है ?

सांख्य दर्शन 282


उ०- भागगुणा�ां त�ा�रं वृ��ः स�धाथर्
सपर्ती�त ॥१०७॥
अथर्- नेत्र आिद क� वृ�� पदाथर् के स�� के वा�े जाती
है, इससे नेत्र का ( भाग ) टुकड़ा या �प आिद गुण वृ��
नही ं ह�; िकंतु भाग और गुण इन दोनो ं से �भ� (जुदा) एक
तीसरे पदाथर् का नाम वृ�� है; �ोिं क यिद च�ु आिद के
भाग का नाम वृ�� होता तो एक- एक पदाथर् का एक- एक
वार नेत्र से स�� होने पर सहज- सहज नेत्र के टुकड़े
होकर उसका नाश हो जाना यो� था, और यिद गुण का हो
नाम वृ�� होता तो गुण जड़ होते ह�, इस वारते वृ�� का
पदाथर् के साथ स�� होते ही पदाथर् म� चला जाना नही ं हो
सकता था! अतः भाग और गुण इन दोनो ं से वृ�� �भ� एक
पदाथर् है।
प्र०- ऐसे ल�णो ं के करने से वृ�� एक द्र� �सद्ध होता है
तब इ�ा आिद जो बु�द्ध के गुण ह� उनको वृ�� �ो ं माना
है ? �ोिं क गुणो ं का नाम वृ�� नही ं हो सकता।

सांख्य दर्शन 283


उ०- न द्र��नयम�द्योगात् ॥१०८॥
अथर्- वृ�� द्र� ही है, यह �नयम नही ं ; �ोिं क अनेक
वा�ो ं म� ऐसे �वषय पर भी वृ�� श� का �वहार देखने
म� आता है जहाँ पर द्र� का अथर् नही ं हो सकता ; जैसे-
वै� वृ��, शूद्र वृ�� इ�ािद । अतः हमने �जस �वषय पर
वृ�� को द्र� माना है उसी �वषय पर द्र� है, और जगह
जैसा अथर् हो वैसा ही करना चािहये। इस बात को भी पहले
कह चुके है िक पाँच भौ�तक शरीर �सफर् नाममात्र ही ह�
वा�व म� तो पा�थव है। अब इस बात का �वचार िकया
जाता है िक �जन इ��यो ं के आश्रय से शरीर है वे इ��यां
जैसे िक हम लोगो ं क� अहंकार से पैदा है वैसे ही और देशो ं
के मनु�ो ं को भी अहंकार से ही पैदा होती ह�, पं चभूत से
नही ं पैदा होती।

न देशभेदेऽ��ोपादानता�दा �दव��यमः
॥१०९।।

सांख्य दर्शन 284


अथर्- देश के भेद होने पर भी व�ु का दूसरा उपादान नही ं
हो सकता, �ोिं क जैसे हम लोग और देशो ं म� जाकर वास
करने लगते ह�, पर�ु इ��यां नही ं बदलती वे �ो ं क� �ो ं
रहती ह�, हमारा देश ही तो पलट जाता है। यिद देश- भेद
ही इ��यो ं के बदलने म� या और उपादान कारण करने म�
हेतु होता है तो हम लोगो ं क� इ��यां भी वहां जाकर ज�र
बदल जाती, लेिकन ऐसा देखने म� नही ं आता, इससे �सद्ध
होता है िक इ��यां पांचभौ�तक नही,ं िक�ु अहंकार से पैदा
है।
प्र०- जबिक इ��यो ं क� अहंकार से उ��� है तो उनको
भौ�तक �ो ं प्र�तपादन िकया है ?

उ०- �न�म��पदेशात् तद्व्यपदेशः ॥११०॥


अथर्- इ��यो ं का �न�म� जो अहंकार है उस से ही प�भूतो ं
म� भी इ��यो ं का कारण� �ापन िकया जाता है, जैसे-
आग यद्य�प का�ठािद �प नही ं है तथा�प उसको लकड़ी,
आग इ�ािद �पो ं से पुकारते ह�। इसी तरह इिद्रयां भौ�तक

सांख्य दर्शन 285


भी नही ं है, तो भी उनको भौ�तक कहते ह�।
प्र०- सृ�� िकतने प्रकार क� है ?
उ०- छः प्रकार क�, देखो—

ऊ�जा�जजरायुजो�द्भ�सांक��क सां�स-
िद्वकं चे�त न �नयमः ॥१११॥
अथर्- (१) उ�ज (जो पसीने से पैदा होते ह�, जैसे लीख
आिद); अ�ज (जो अ�े से पैदा होते ह�, जैसे मुग�
आिद); (३) जरायुज (जो �म�ी से पैदा होते ह�, मनु�
आिद);(४) उ�द्भज (जो जमीन को फोड़कर पैदा होते ह�,
पेड़ आिद); (५) सांक��क (जैसे सृ�� के आिद म� �बना
माता-�पता के देवऋ�ष पैदा होते ह� । (६) सां�स�द्धक (जैसे
खान म� धातु बनते ह�। आचायर् (क�पल जी) ने यही छः
प्रकार क� सृ�� मानी है। लेिकन इन छः प्रकार के �सवाय
और िकसी तरह क� सृ�� नही ं है, ऐसा �नयम भी नही;ं
�ोिं क शायद िकसी दशा म� भूतो ं क� सृ�� इनसे अ�

सांख्य दर्शन 286


प्रकार क� हो। प्राचायर् के �न�य (तहक�कात से तो छः ही
प्रकार क� सृ�� देखने म� आती है।

सव�षु पृ�थ�ुपादानमसाधार�ात् तद�प-


देशः पूवर्वत् ॥११२॥
अथर्- इन सब प्रकार क� सृ��यो ं का साधारण उपादान
कारण पृ�ी है, इस�लये इनको पा�थव कहना यो� है, और
जो पांचभूतो ं का �पदेश (नाम) सुना जाता है वह पूवर्-
कथन (पहले कहा �आ) के समान समझना चािहये अथार्त्
मु� उपादान कारण पृ�ी है और सब गौण है।
प्र०- इस शरीर म� प्राण ही प्रधान (मु�) है, इस�लये प्राण
को ही देह का कतार् मानना चािहये ?

उ०- न देहार�क� प्राण��म��य-


श��त���द्धेः ॥११३॥
अथर्-शरीर का कतार् प्राण नही ं हो सकता, �ोिं क प्राण इ��

सांख्य दर्शन 287


-यो ं क� श�� से अपने कायर् को करता है और इ��यो ं के
साथ प्राण का अ�य ��तरेक ��ा� भी हो सकता है, िक
जब- तक इ��याँ है तब तक प्राण ह�, जब इ��यो ं नाश हो
ग� तब प्राण भी नाश हो गया, इस�लये प्राण को देह का
कारण नही ं कह सकते।
प्र०- जबिक शरीर के बनने म� प्राण नही ं है तो �बना प्राण के
भी शरीर क� उ��� होनी चािहये ?

उ० - भो� र�ध�ानाभोगायतन �नमार्णम-


�था पू�त भावप्रसं गात् ॥११४॥
अथर्- भो�ा (पु�ष) के �ापार से शरीर का बनना हो
सकता है। यिद वह प्राणो ं को अपने-अपने �ान न लगाए
तो प्राण-वायु कभी भी ठीक-ठीक रसो ं को नही ं पका
सकता। जब रस ठीक तरह से न पक� गे तो शरीर म� सैकड़ो ं
तरह के रोग पैदा हो जाय�गे और दगु र्�� आने लगेगी।
अतएव, यद्य�प प्राण कारण है लेिकन मु� कारण पु�ष को

सांख्य दर्शन 288


ही मानना चािहये ।
प्र०- जो अ�ध�ान� (बनानेवालापन) पु�ष म� माना जाता
है वह अ�ध�ान� यिद प्राण म� ही माना जाये तो �ा हा�न
है ?

उ०- भृ�द्वारा �ा��ध���तनैका�ात्


॥११५॥
अथर्- इस प्रकार हम भी पु�ष को अ�ध�ाता मानते ह�। जैसे
राजा अपने भृ�ो ं (नौकरो)ं के द्वारा मकानािदको ं को बन
पाता है और वह मकानािद राजा के बनाये �ए ह�, इस प्रकार
लोक म� प्र�सद्ध होते ह� और उन मकानो ं का मा�लक भी राजा
ही है। इसी प्रकार पु�ष भी प्राण और इ��यो ं के द्वारा शरीर
को चलाता है, पर�ु अके ला आप नही ं चलाता और �बना
उसके यह शरीर चल नही ं सकता, इससे वह अ�ध�ाता
समझा जाता है। अब इस से आगे पु�ष का मु� दशा म�
��प आिद कहते ह�।

सांख्य दर्शन 289


समा�धसुपु��मो�ेपु ब्रह्म�पता ॥११६।।
अथर्- समा�ध, सुषु�� और मो� म� पु�ष को ब्रह्म�पता हो
जाती है अथार्त जैसा ब्रह्म आन���प है वैसे ही जीव भी
आन���प हो जाता है। इम सूत्र का अथर् और
टीकाकारो ं ने ऐसा िकया है िक समा�ध, सुषु��, मो�, इन
तीनो ं अव�ाओ ं म� जीव ब्रह्म हो जाता है, पर�ु ऐसा अथर्
करना ठीक नही ं है, �ोिं क �प श� का स�� अथर् है,
जैसा िक अमुक मनु� देव-��प है। इसके कहने से यह
प्रयोजन �सद्ध हो जाना है िक यह देव नही ं है, िक�ु
देवताओ ं के - से उस म� गुण ह�। (�वद्यालोिह देवाः ) जो
�वद्वान है उनको ही देवता कहते ह�, इस बात को कह चुके
ह�। इसी से उसको देव��प कहा गया । यिद देवता ही
कहना �ीकार होता तो अमुक मनु� देवता है इतना ही
कहना यो� था; इस�लये इस कहे �ये सूत्र म� भी ब्रह्म�प
कहने से यह प्रयोजन है िक जीव म� ब्रह्म के - से िकतने ही
गुण इन अव�ाओ ं म� हो जाते ह�, पर�ु जीव ब्रहा नही ं हो

सांख्य दर्शन 290


जाता है। यिद आचायर् को भी यही बात �ीकार होती िक
उ� जीव ब्रह्म हो जाता है तो 'ब्रह्म�पता' न कहते, िकंतु
"ब्रह्म�म्। ऐसा कहते। जो ब्रह्म को और जीव को एक
मानते ह� उनका मत इस �ापक से दू�षत �आ।
प्र०- जब समा�ध और सुषु�� म� भी आन� प्रा� हो जाता
है तो मु�� के �लये उपाय करने क� �ा ज�रत है, और
मु�� म� अ�धक कौन सी बात रही है ?

उ०- द्वयोः सवीजम�त्र तद्ध�तः ॥११७॥


अथर्- समा�ध और सुषु�� म� जो आन� प्रा� होता है वो
थोड़े ही समय के �लये होता है और उसम� ब� भी बना
रहता है। मो� का आन� ब�त समय तक बना रहता और
बं ध का भी नाश हो जाता है, यह ही भेद समा�ध और
सुषु�� इन दो तरह के आन�ो ं म� और मो� के आन� म�
है।
प्र०- समा�ध और सुषु�� यह दोनो ं प्र�� िदखती है, पर�ु

सांख्य दर्शन 291


मो� प्र�� नही ं िदखता ; इस�लये उसम� आन� न कहना
चािहये।

उ०- द्वयो�रवत्रय�ा�प��ा� तुद्वौ ॥११८॥


अथर्- जैसे समा�ध और सुषु�� यह दोनो ं प्र�� िदखती
वैसे ही मो� भी प्र�� िदखता है । वह प्र�� इस प्रकार
होता है िक जबतक मनु� िकसी कमर् को करके उसका फल
नही ं भोग लेता है, तब तक उस कमर् के साधन करने के �लये
उसक� नीयत नही ं होती ; जैसे- पहले भोजन कर चुके ह� तो
दूसरे िदन भी भोजन करने के �लये उपाय िकया जाता है।
इसी तरह जब पहले कभी जीव मो� के सुख को जान चुका
है तब िफर भी मो�- सुख के �लये उपाय करने क� नीयत
होती है। यिद यह कहा जाये िक इस ज� म� �जस मनु� ने
कभी रा�- सुख नही ं भोगा है, पर�ु उसक� यह इ�ा
रहती है िक रा� का सुख प्रा� हो । इसका यह उ�र है
िक रा� म� जो सुख होता है उस- को तो नेत्रो ं से देखते ह�।
इससे यह सा�बत �आ िक या तो मो� का सुख कभी आप

सांख्य दर्शन 292


उठाया है अथवा िकसी को मो� से आन��त देखा है,
इस�लये उसक� मो�- सुख म� नीयत होती है, यही प्र��
प्रमाण है, और अनुमान से इस प्रकार मो� को जान सकता
है िक सुषु�� म� जो आन� प्रा� होता है उसको नाश करने
वाले �च� के रागािद दोष ह� और वे रागािदक �ान के
अ�त�र� और िकसी प्रकार नाश नही ं हो सकते ह�। जब
�ान प्रा� हो जायेगा तब सुषु�� आिद सब अव�ाओ ं क�
अपे�ा �जसम� अ�धक समय तक आन� क� प्रा�� हो,
ऐसी अव�ा को मो� कहते ह�।
प्र०- समा�ध म� तो वैरा� से कम� क� वासना कमती हो
जाती है. इस वा�े समा�ध म� तो आन� प्रा� हो सकता
है। पर�ु सुषु�� म� वासना प्रबल होती है, तो पदाथ� का
�ान भी अव� होगा अथार्त् वासनाय� अपने �वषय क�
तरफ बँ चकर उनम� जीव को लगा द�गी। जब पदाथर् का �ान
रहा तो आन� प्रा�� कै सी ?

सांख्य दर्शन 293


उ०- वासनयानथर्�ापनं दोषयोगे�प न
�न�म�� प्रधानबाधक�म् ॥११९।।
अथर्- जैसे वैरा� म� वासना कमती होकर अपना प्रभाव
नही ं िदखा सकती, इसी तरह �नद्रा- दोष के योग से भी
वासना अपने �वषय क� ओर नही ं खीचं सकती ; �ोिं क
वासनाओ ं का �न�म� जो सं �ार है वह �नद्रा के दोष से
बा�धत हो चुका है, इस वा�े सुषु�� म� भी समा�ध क� तरह
आन� रहता है। पहले इस बात को कह चुके ह� िक सं �ार
के लेश से जीव�ु� शरीर बना सकता है।
प्र०- जब सं �ार से शरीर बना रहता है वह एक ही सं �ार
उस जीव के प्राण धारण�पी िक्रया को दूर कर देता है या
जुड़ी-जुड़ी िक्रयाओ ं के वा�े जुड़े-जुड़े सं �ार होते ह� ?

उ०- एकः सं �ारः िक्रया�नवर्तको नतु प्र�तिक्रयं


सं �ारभेदा व�क�नाप्रस�ः ॥१२०॥

सांख्य दर्शन 294


अथर्- �जस सं �ार से शरीर का कायर् चल रहा है वह एक
ही सं �ार �ववृ� होकर शारी�रक िक्रयाओ ं को भी दूर कर
देता है। हर एक िक्रया के वा�े अलग- अलग सं �ार नही ं
मानने चािहये, �ोिं क ब�त से सं �ार हो जाय�गे और उन
ब�त से सं �ारो ं का होना �थर् है।
प्र०- सुषु�� अव�ा म� बाह्य पदाथ� का �ान नही ं होता,
इस कारण उस दशा म� शरीर को भोगायतन मानना ठीक
नही।ं

उ०- न वाह्यबु�द्ध�नयमो वृ�गु�लतौष�ध-


वन��ततृणवी�धादीनाम�पभो�भोगायतन
�ं पूवर्वत् ॥१२१॥
अथर्- �जसम� वाह्य बु�द्ध होती है उसको शरीर कहते ह�, यह
�नयम भी नही ं है ; �ोिं क मृतक शरीर म� वाह्य बु�द्ध नही ं
होती है तो �ा उसको शरीर नही ं कह सकते ह�। और वृ�,
गु�, ओष�ध, वन��त, तृण, वी�ध आिदको ं म� ब�त से

सांख्य दर्शन 295


जीव भोग के �न�म� रहते ह� और उनका बाहर के पदाथ�
से कु छ भी स�� नही ं रहता, यिद बाहर के पदाथ� के ,
�ान से ही शरीर माना जाये तो उनके शरीर को शरीर न
मानना चािहये।
प्र०- �ा वृ� म� जीव है िक नही ं ?
उ०- वृ� म� जीव नही ं है िकंतु यहां वृ� म� रहने वाले जीव
से अ�भप्राय है, �ोिं क गूलर आिद के फलो ं म� जो जीव
रहते ह� उनको बाहर के पदाथ� से कु छ स�� नही ं होता।
प्र०- यिद वृ� म� जीव न हो तो वह बढ़ नही ं सकता ?
उ०- बढ़ना, घटना जीव का धमर् नही ं प्रकृ �त का धमर् है
�ोिं क सं योग से चीज� बढ़ती और �वयोग से घटती ह�, यहाँ
तक िक प�र और पहाड़ भी बढ़ते ह�।
प्र०- �जनम� जीव है वे अंदर से बढ़ते ह� और �जनम� नही ं वे
बाहर से बढ़ते ह�। चूंिक वृ� अंदर से बढ़ते ह� इस वा�े
इनम� जीव मानना चािहये।

सांख्य दर्शन 296


उ०- यह कोई �नयम नही ं िक जो अंदर से बढ़ते ह� उनम�
अव� जीव हो, िक�ु जो चीज आग के सबब से बढ़ती है
वह अ�र से बढ़ती है, और जो पानी के सबब से बढ़ती है
वह बाहर से बढ़ती है।
प्र०- अंदर से बढ़ने वाली चीज नजर नही ं आती?
उ०- चने जब उबाले जाते ह� तब अंदर से बढ़ते ह�, यहां-
तक िक पहले से दूने बढ़ जाते ह�।
प्र०- वृ� म� जीव मानने से �ा स�ेह उ�� होते ह� ?
उ०- पहले तो यह स�ेह होगा िक एक वृ� म� �जतने फल
ह� उन सब म� एक जीव है या ब�त से जीव ह�। यिद कहो िक
एक जीव है तो बीच के टू टने से उससे वृ� पैदा नही ं हो
सकता और यिद ब�त जीव ह� तो एक शरीर के अ�भमानी
ब�त से जीव नही ं हो सकते।
प्र०- जड़ पदाथ� के स�श बाहरी �ान से पृथक हो जाता है
उसम� �ा प्रमाण है?

सांख्य दर्शन 297


उ०- �ृते� ॥१२२॥
अथर्- “शरीरजैः कमर् दोषैयार्�त �ावरतां मर शरीर से पैदा
�ए कमर् के दोषो ं से मनु� �ावर यो�न को प्रा� होता है,
इस बात को �ृ�तयां कहती ह�। इससे �सद्ध होता है िक
�वार भी शरीर है?
प्र०- जबिक वृ�ािदको ं को भी शरीरधारी मानते हो तो उनम�
धमार्धमर् मानने चािहये।

उ०- न देहमानतः कमार्�धका�र�ं वै�शष्ट्य-


श्रतेः ॥१२३॥
अथर्- देहधारी- मात्र को शुभाशुभ कम� का अ�धकार नही ं
िदया गया है, िक�ु श्रु�तयो ं ने मनु� जा�त को ही धमार्धमर्
का अ�धकार प्र�तपादन िकया है। देह के भेद से ही कमर्-
भेद है, इस बात को आगे के सूत्र से �सद्ध करते ह�।

सांख्य दर्शन 298


�त्रधा त्रयाणां �व�ा कमर्देहोपभोगदेहो-
भयदेहाः ॥१२४॥
अथर्- उ�म, म�म, अधम, इन तीन तरह के शरीरो ं क�
तीन �व�ा है और उनके वा�े ही धमर् आिद अ�धकार
ह�। एक कमर्- देह जो �सफर् कम� के करते- करते ही पूरा हो
जाये, जैसे अनेक ऋ�ष- मु�नयो ं का ज� तप के करने ही
म� पूरा हो जाता है । दूसरा उपभोग- देह, जैसे अनेक पशु-
प��, क�टािद का शरीर कमर्फल भोगते- भोगते ही पूरा हो
जाता है । तीसरा उभय- देह है, �जसने कमर् भी िकये हो ं
और भोग भी भोगे हो,ं जैसे सामा� मनु�ो ं का शरीर ।
के वल दो प्रकार के देहो ं के �लये कमर् क� �व�ध है, भो�
यो�न के वा�े नही।ं मनु� के अ�त�र� और सब उपभोग
देह अथार्त् भो� यो�न ह� ; इस�लये उनको धमार्धमर् का
�वधान नही ं है।

न िक��द�नुश�यनः ॥१२५॥

सांख्य दर्शन 299


अथर्- जो मु� हो गया है उसके वा�े कोई भी �वधान नही ं
है, और न उसको िकसी �वशेष नाम से कह सकते ह�।
प्र०- जीव को इस शा� म� �न� माना है तो उस जीव के
आश्रय म� रहने वाली बु�द्ध को भी �न� मानना चािहये ?

उ०- न बुद्ध्या�द �न��माश्रय �वशेषे�प-


व�ह्नत् ॥१२६॥
अथर्- यद्य�प बु�द्ध आिद का आश्रय जीव �न� है तो भी
बु�द्ध आिद �न� नही ं ह� ; जैसे चं दन का काठ शीत प्रकृ �त
वाला होता है पर�ु आग के सं योग होने पर उसक� शीतलता
आग म� नही ं हो सकती।

आश्रया�सद्धे� ॥१२७॥
अथर्- जीव बु�द्ध का आश्रय हो ही नही ं सकता। इनका
सं बं ध इस तरह है, जैसे �िटक और फू ल का है; इस वा�े
प्र�त�ब� कहना चािहये, आश्रय नही ं । इस �वषय पर यह
स�ेह होता है िक आचायर् योग क� �स�द्धयो ं को सही मानते

सांख्य दर्शन 300


ह� और उनके द्वारा मु�� को भी मानते ह�, पर�ु योग क�
ऐसी भी सैकड़ो ं �स�द्धयाँ ह� जो समझ म� नही ं आती। इस �व
-षय पर आचायर् श्राप ही कहते ह�।

योग�सद्धयोऽ�ौषधा�द �स�द्धव�ापलपनीयाः
॥१२८॥
अथर् जैसे औष�धयो ं क� �स�द्ध होती है अथार्त् एक- एक
औषध से अनेक रोगो ं क� शा�� होती है, इसी तरह योग
क� �स�द्धयो ं को भी जानना चिहये। क�पलाचायर् पु�ष को
चैत� मानते ह�, अतएव जो पृ�ी आिद भूतो ं को चैत�
मानते ह� उनके मत को दोषयु� ठहरा कर अ�ाय को
समा� करते ह�।

न भूतचैत�ं प्र�ेका��ः सांह�े�प च सांह-


�े�पच ।।१२९॥
अथर्- �मलने पर भी भूतो ं म� चैत� नही ं हो सकता। यिद

सांख्य दर्शन 301


उनम� चेतनता होती तो उनके अलग- अलग होने पर भी
िदखती; िक�ु पृथक होने पर उनको जड़ िदखते ह� तो चेतन
कै से माने ? "साह�े�प च ऐसा दो बार कहना अ�ाय क�
समा�� का सूचक है।

इ�त सां�दशर्ने प�मोऽ�ायः समा�ः।

सांख्य दर्शन 302


ष�ोऽ�ाय:
पहले पांच अ�ायो ं म� मह�ष क�पल जी ने अनेक प्रकार के
प्रमाण और यु��यो ं से अनेक मत का प्र�तपादन और अ�
मतो ं का ख�न िकया। अब इस अ� के छटे अ�ाय म�
अपने �सद्धा� को ब�त सरल रो�त पर कह�गे िक �जससे
इस दशर्न- शा� का सार �बना प्रयास अथार्त् थोड़ी मेहनत
से ही समझ आ सके और जो बात� पिहले अ�ायो ं म� कह
आये ह� अब उन बातो ं को ही सार �प से कह�गे िक �जससे
इस दशर्न का स�ूणर् सार साधारण मनु�ो ं क� समझ म� भी
आ जाया करे (या आ जाये); इस�लये उन बातो ं का पुनः
कहना पुन��� नही ं हो सकता है।

अ�ा�ा ना���साधनाभावात् ॥१॥


अथर्- आ�ा कोई पदाथर् अब� है, �ोिं क न होने म� कोई
प्रमाण नही ं िदखता।

देहा�द��त�र�ोऽसौ वै�च�ात् ॥२॥


सांख्य दर्शन 303
अथर्- आ�ा देहािदको ं से �भ� पदाथर् है, �ोिं क उस आ�ा
म� �व�चत्रता है।

ष�ी�पदेशाद�प ॥३॥
अथर्- मेरा यह शरीर है, इस पाठी�पदेश से भी आ�ा का
देह से �भ� पदाथर् होना �सद्ध है। यिद देहािदक ही आ�ा
होते तो मेरा यह शरीर है ऐसा कहना नही ं हो सकता था।
ऐसे कहने से ही प्रतीत होता है िक 'मेरा यह कोई और व�ु
है, यह शरीर कोई और पदाथर् है, एक नही।ं

न �शलापुत्रवद्व�मग्राहकमानबाधात् ॥४॥
अथर्- �शला के पुत्र का शरीर है, इस प्रकार यिद ष�ी का
अथर् िकया जाये तो भी ठीक नही ं हो सकता, �ोिं क
ध�मग्राहक अनुमान से बाध क� प्रा�� आती है। (भाव
इसका यह है िक) यिद ऐसा कहा जाये िक प�र का पुत्र
अथार्त् जो प�र है वही प�र का पुत्र है, इसम� कोई भी
भेद नही ं िदखता। इसी प्रकार जो आ�ा है वही शरीर है,

सांख्य दर्शन 304


ऐसा यिद ष�ी का अथर् िकया जाये तो भी ठीक नही ं हो
सकता ; �ोिं क ऐसा कोई प्रमाण देखने म� नही ं आता जो
�शला म� �पता पुत्र के भाव को �सद्ध करता हो।

अ��दःु ख�नवृ�ाकृ तकृ �ता ॥५॥


अथर्- दःु ख के अ�� �नवृ� होने से अथार्त् �बलकु ल दूर
होने से मो� होता है।

यथा दःु खात् �ेशः पु�ष� न तथा सुखाद-


�भलाषः ॥६॥
अथर्- �जस प्रकार पु�ष को दःु खो ं से �ेश होता है उसी
प्रकार सुख से उसक� अ�भलाषा नही ं होती अथार्त् सुखो ं से
अ�भलाषाओ ं का पूरा होना नही ं होता �ोिं क सुख भी प्रायः
दःु खो ं से �मले �ये ह�।

न कु त्रा�प कोऽ�प सुखी�त ॥७॥


अथर्- कही ं पर भी कोई सुखी नही ं िदखता, िक�ु सुखी

सांख्य दर्शन 305


दःु खी दोनो ं प्रकार से िदखते ह�।

तद�प दःु खशवल�म�त दःु खप�े �न��प�े


�ववेचकाः ॥८॥
अथर्- यिद िकसी प्रकार कु छ थोड़ा- ब�त सुख प्रा� भी
�आ तो भी सुख- दःु ख के �न�य करने वाले �वद्वान लोग
उस सुख को भी दःु ख म� �गनते ह�, �ोिं क उस म� भी दःु ख
�मले �ये होते ह� ; जैसे- �वष का �मला �आ �म� पदाथर्
(मीठी चीज); इस वा�े सांसा�रक सुख को छोड़कर मो�-
सुख के वा�े उपाय करना चािहये।

सुखलाभाभावादपु�षाथर्��म�त चे�द्वै�द�ात्
॥९॥
अथर्- जबिक िकसी को भी सुख प्रा� नही ं होता तो मु��
के वा�े उपाय करना �न�ल है, �ोिं क मु�� म� भी सुख
नही ं प्रा� हो सकता, ऐसा न समझना चािहये । सुख भी दो
प्रकार के ह�- एक मो� है, वह सुख और प्रकार का है, उसम�

सांख्य दर्शन 306


िकसी प्रकार के दःु ख का मेल नही ं है । दूसरा सांसा�रक सुख
है, वह और ही प्रकार का है, �ोिं क उस म� दःु ख �मले �ये
रहा करते ह�।
�नगुर्ण�मा�नोऽसङ्ग�ा�दश्रुतेः ॥१०॥
अथर्- मु�� अब�ा म� आ�ा �नगुर्ण रहता है। सांसा-
�रक दशा म� लौिकक सुख आ�ा को बाधा प�ंचाते ह� मु��
अब�ा म� आ�ा को असं ग अथार्त् �वकृ �त के सं ग से रिहत
श्रु�तयो ं द्वारा सुना गया है।

परधमर्�ेऽ�प त���द्भर�ववेकात् ॥११॥


अथर्- यद्य�प सांसा�रक दशा म� गुणो ं का सवर्दा पु�ष म� ही
बोध होता है, पर�ु उस प्रकार का बोध अ�ववेक से पैदा
होता है, �ोिं क जो अ�ववेक� है वही सांसा�रक कम� को
पु�ष- कृ त मानते ह�, पर�ु वा�व म� वह प्रकृ �त और पु�ष
के सं योग से होते ह� । इस�लये सं योगज� ह�।

अना�दर�ववेकोऽ�था दोषद्वयप्रस�: ॥१२॥

सांख्य दर्शन 307


अथर्- अ�ववेक को प्रवाह �प से अनािद मानना चािहये,
यिद आिद मानोगे तो यह प्र� उ�� होगा िक उसको िकसने
पैदा िकया ? यिद प्रकृ �त और पु�ष से पैदा �आ तब उनसे
ही पैदा �आ और उनका ही वध करे, यह दोष होगा। दूसरा
यह प्र� हो सकता है- यिद कम� से इसक� उ��� मान� तो
इस प्र� को अबकाश �मलता है िक कमर् िकससे उ�� �ये
ह�; इस�लये इन दोनो ं दोषो ं के दूर करने के �लये अ�ववेक
को अनािद मानना चािहये।

न �न�ः �ादा�वद�थानु����ः ॥१३॥


अथर्- अ�ववेक �न� नही ं हो सकता । यिद �न� ही माना
जायेगा तो उसका नाश हो सके गा: जैसे- आ�ा का नाश
नही ं होता है और उस अ�ववेक के नाश न होने से मु�� न
हो सके गी, इस�लये अ�ववेक को प्रवाह �प से अनािद
(अ�न�) मानना चािहये।

सांख्य दर्शन 308


प्र�त�नयतकारणना��म� �ा�वत्
॥१४॥
अथर्- यह अ�ववेक भी प्र�त�नयत कारण से नाश हो जाता
है, इस�लये अ�न� है; जैसे- अँधरे ा प्रकाश �प प्र�त�नयत
कारण से नाश हो जाता है, इस�लये वह अ�ववेक �न� नही ं
हो सकता।
प्र०- प्र�त�नयत कारण िकसको कहते ह� ?
उ०- �जससे उस कायर् क� उ��� वा नाश हो जाये, जैसा-
अ�ेरे के ��ा� से समझ लेना चािहये।

अत्रा�प प्र�त�नयमोऽ�य��तरेकात् ॥१५॥


अथर्- इस अ�ववेक के नाश करने म� भी प्र�त�नयत (�जस
से अब� नाश हो जाये) अ�य ��तरेक से �न�य कर
लेना चािहये । वह अ�य यही है िक �ववेक के होने से
इसका नाश और �ववेक के न होने से अ�ववेक का होना
प्रतीत होता है, यही अ�य ��तरेक कहने का ता�यर् है।

सांख्य दर्शन 309


प्रकारा�रास�वाद�ववेक एव बं धः ॥१६॥
अथर्- �सवाय अ�ववेक के जब कोई और प्रकार ब� म� हेतु
नही ं िदखता तो ऐसा मानना ही ठीक है िक अ�ववेक ही ब�
है और �ववेक ही मो� है। कोई वादी इन तीन सूत्रो ं से जो
िक आगे कहे जाय�गे मु�� स�� म� पूवर्-प� करता है।

प्र०- न मु�� पुनवर्�योगोऽ�नावृ��श्रु�ेः


॥१७॥
अथर्- मु� को िफर ब� योग नही ं होता अथार्त् जो मु�
हो चुका है वह िफर नही ं बं ध सकता है ; �ोिं क "नस पुनरा-
वतर्ते" (वह िफर नही ं आता है)। इस श्रु�त से मु� होने पर
नही ं आता, ऐसा �सद्ध होता है।

अपु�षाथर्�म�था ।।१८॥
अथर्- यिद मु� का ब� योग माना जाये तो अपु�षाथर्�
�सद्ध होता है।

सांख्य दर्शन 310


अ�वशेषाप���भयोः ॥१९॥
अथर्- बद्ध और मु� म� अ�वशेषाप�� अथार्त् बराबरी प्रा�
होती है। �ोिं क जो मु� नही ं है वह अब बँ धा �आ है और
जो मु� हो जायेगा उसको िफर ब� प्रा� हो जायेगा।

उ०- मु��र�राय��ेनर् परः ॥२०॥


अथर्- �जस प्रकार िक मु�� का वादी ने पूवर्- प� िकया,
उस प्रकार क� मु�� को आचायर् नही ं मानते, िक�ु
अ�रायो ं के �व�ो के �ं स (नाश) हो जाने के �सवाय और
िकसी प्रकार क� मु�� आचायर् नही ं मानते। शं कराचायर् ने
भी इस श्रु�त का अथर् इस क� म� लौटना माना है ; इस�लये
मु�� से िफर बँ धता नही,ं ऐसा कहना यो� नही ं हो
सकता। दूसरा यह जो दोष कहा िक पुनबर्� होने से बद्ध
मु� दोनो ं बराबर हो जाय�गे, सो भी यो� नही ं ; �ोिं क
जो मनु� रोगी है उसक� बराबरी नोरोगी के साथ िकसी
प्रकार नही ं हो सकती और जो नीरोगी है वह भी काला�र

सांख्य दर्शन 311


(कु छ िदनो ं के बाद ) म� रोगी हो सकता है । पर�ु यह
�वचार करके यह भ�व�त् ( अगाड़ी के समय म� ) रोगी
होगा, अतः रोगी के ही बराबर है, उसके साथ भी रोगी का-
सा �वहार नही ं कर सकते । इस�लये न तो मु� क�
पुनरावृ�� मानने से श्रु�त से �वरोध प्रा� होता है और न
यु�� से ही �वरोध होता है ।

अ�धका�रत्रै�व�ान �नयमः ॥२२॥


अथर्- उ�म, म�म, अधम, तीन प्रकार के अ�धकारी होते
ह�, इस कारण यह कोई �नयम नही ं है िक श्रवण, मनन आिद
सं योगो ं से सबक� ही मु�� हो।

दाढयार्थर्म�
ु रेषाम् ॥२३॥
अथर्- जो अ� ह� उनको �ढ़ता के �लये उ�चत है िक श्रवण,
मनन आिद योग के अंगो ं का अनु�ान कर� तो कु छ िदनो ं के
बाद मु�� को प्रा� हो सक� गे।

��रसुखमासन�म�त न �नयमः ॥२४॥


सांख्य दर्शन 312
अथर्- �जसम� सुख ��र हो वही आसन है, इस बात को
पहले कह आये ह�, अत: प�ासन, मयूरासन इ�ािदक भी
मोष के साधन ह�, या योग के अंग म� उनक� �गनती है, यह
�नयम नही ं है।

�ानं �न�वषयं मनः ॥२५॥


अथर्- �जसम� मन �न�वषय हो जाये उसी का नाम �ान है,
और यह �ान ही समा�ध का ल�ण है। अब समा�ध और
सुषु�� के भेद को िदखाते ह�।

उभयथा��वशेष��ैवमुपराग�नरोधािद्वशेष:
॥२६॥
अथर्- समा�ध और सुषु�� इन दोनो ं म� अ�वशेष अथार्त्
समानता है, ऐसा नही ं कहना चािहये। �ोिं क समा�ध म�
उपराग (�वषय- वासना) को रोकना पड़ता है, इस�लए
सुषु�� क� अपे�ा समा�ध �वशेष है।

सांख्य दर्शन 313


�नःसं गेऽ�ुरागोऽ�ववेकात् ॥२७॥
अथर्- यद्य�प पु�ष �नःसं ग है तथा�प अ�ववेक के कारण
उसम� �वषयो ं क� वासनाएँ माननी चािहये।

जवा��टकयो�खनोपरागःिक���भमानः
॥२८॥
अथर्- जैसे जवा का फू ल और �िटकम�ण को धोरे रखने
से उपराग होता है, वैसा उपराग पु�ष म� नही ं है, िकंतु
अ�ववेक के कारण से पु�ष म� �वषय-वासनाओ ं का
अ�भमान कहना चािहये।

�ानधारणा�ासवैरा�ा�द�भ��नरोधः
॥२९॥
अथर्- �ान, धारणा, अ�ास, वैरा� आिद को से �वषय-
वासनाओ ं का �नरोध ( �कावट) हो सकता है।

लय�व�ेपयोवृ�े�ाचायार्ः ॥३०॥
सांख्य दर्शन 314
अथर्- लय (सुषु��) �व�ेप (�� इन दोनो ं अब�ाओ ं के
�नवृ� होने से �वषय- वासनाओ ं का �नरोध हो जाता है, यह
आचाय� का मत है।

न �ान�नयम���प्रसादात् ॥३१॥
अथर्- समा�ध आिद के करने के वा�े �ान का कोई �नयम
नही ं है, जहाँ �च� प्रस� हो वही ं समा�ध हो सकती है।

प्रकृ तेराद्योपादानता�ेषां कायर्�श्रुतेः ॥३२॥


अथर् - उपादान कारण प्रकृ �त को ही माना है, महदािदको ं
को प्रकृ �त का कायर् माना है।

�न��ेऽ�प ना�नो योग�ा भावात् ॥३३॥


अथर्- आ�ा �न� भी है तो भी उसको उपादान कारण
कहना के वल भूल है। �ोिं क जो बात� उपादान कारण म�
होती ह� वे बात� आ�ा म� नही ं िदखती ( �� भाव यह है )
यिद आ�ा ही सबका उपादान कारण होती तो पृ�थवी आिद

सांख्य दर्शन 315


सत्र चैत� होने चािहये थे; पर�ु यह बात देखने म� नही ं
आती।

श्रु�त�वरोधा� कु तकार्पसद�ा�लाभः ॥३४॥


अथर्- जो मनु� श्रु�तयो ं के �वरोध से आ�ा के सं बं ध म�
कु तकर् (खोटे प्र� ) जरते ह� उनको िकसी प्रकार आ�ा का
�ान नही ं होता है।

पार�येऽ�प प्रधानानुवृ��रणुवत् ॥३५॥


अथर्- पर�रा स�� से भी प्रकृ �त को ही सबका कारण
मानना चािहये ; जैसे- घटािदको ं के कारण अणु ह� और
अणुओ ं का कारण परमाणु है, इसी तरह पर�रा स�� से
भी सबका कारण प्रकृ �त ही है।

सवर्त्र कायर्दशर्नािद्वभु�म् ।।३६॥


अथर्- प्रकृ �त के कायर् सब जगह िदखते ह� इस कारण प्रकृ �त
�वभु है।

सांख्य दर्शन 316


ग�तयोगे�ाद्यकारणताहा�नरणुवत् ॥३७।।
अथर्- यद्य�प शरीर म� गमनािद िक्रयाओ ं का योग है तो भी
उसका आध कारण (पिहला सबब) अब� मानना होगा।
जैसे- अणु यद्य�प सू� ह� तथा�प उनका कारण अब� ही
माना जाता है।

प्र�सद्धा�ध�ं प्रधान� न �नयमः ॥३८॥


अथर्- प्र�सद्धता तो प्रकृ �त को िदखती है, इससे अ�धक द्र�ो ं
को मानने का �नयम ठीक नही ं है, �ोिं क कोई तो नौ द्र�
मानते ह�, कोई सोलह द्र� मानते ह�, इस कारण उनका कोई
�नयम ठीक नही ं है, और प्रकृ �त के सब कायर् िदख रहे ह�।
इस�लये उसके ही कारण मानना चािहये।

स�ादीनामतद्धस�ं तद्र प�ात् ॥३९॥


अथर्- स�, रज, तम, यह प्रकृ �त के धमर् नही ं ह�, िकंतु
प्रकृ �त के �प ह�। स�ािद �प ही प्रकृ �त है।

सांख्य दर्शन 317


अनुपभोगेऽ�प पुमथ� सृ��प्रधान�ो��कु कु म
वहनवत् ॥४०॥
अथर्- यद्य�प प्रकृ �त अपनी सृ�� का आप भोग नही ं करती
तथा�प उसक� ��� पु�ष के �लये है; जैसे- ऊँ ट अपने �ामी
के �लये के शर को ले जाता है, ऐसे ही प्रकृ �त भी सृ�� करती
है।

कमर्वै�च�ात सृ��वै�च�म् ॥४१॥


अथर्- प्र�ेक मनु� के कम� क� वासनाय� �भ�- �भ� प्रकार
क� होती ह�, इसी कारण से प्रकृ �त क� सृ�� भी अनेक प्रकार
क� होती है, एक- सी नही ं होती है ।

सा�वैष�ा�ां कायर्द्वयम् ॥४२॥


अथर्- समता और �वषमता के कारण उ��� और प्रलय
होते ह�। जब प्रकृ �त क� समता होती है तब उ���, और
जब �वषमता होती है, तब प्रलय होता है। यही बात सं सार

सांख्य दर्शन 318


म� िदख रही है िक �जन दो औषध ( दवाइयो)ं को बराबर
भाग �मलाकर यिद खाया जाता है तो लाभ होता है और
कमती- बढ़ती �मला- कर खाने से �बगाड़ होता है।

�वमु�बोधा� सृ��ः प्रधान� लोकवत्


॥४३॥
अथर्- जब प्रकृ �त को इस बात का �ान हो जाता है यह पु�ष
मु� हो गया, िफर उसके वा�े सृ�� को नही ं करती है, यह
बात लोक के समान समझनी चािहये जैसे कोई मनु� िकसी
को बं धन म� से छु ड़ाने का उपाय करता है, जब वह उसको
उस बं धन से छु ड़ा देता है तो उस उपाय से �न��� हो बैठता
है; �ोिं क �जसके �लये उपाय िकया था वह कायर् पूरा हो
गया।

मा�ोपसपर्णेऽ�प मु�ोपभोगो �न�म�ा-


भावात् ॥४४॥

सांख्य दर्शन 319


अथर्- यद्य�प प्रकृ �त अ�ववेिकयो ं को बद्ध करती है, पर�ु
मु� को बद्ध नही ं करती ; �ोिं क �जस �न�म� से प्रकृ �त
अ�ववेिकयो ं को बद्ध करती थी वह अ�ववेक जीवो ं म� नही ं
रहता है।

पु�षब��ं �व�ातः ॥४५॥


अथर्- जीव ब�त ह�; �ोिं क प्र�ेक शरीर म� उनक� अलग-
अलग �व�ा होती है।

उपा�ध�ेत् त�सद्धौ पुनद्वैतम् ॥४६॥


अथर्- यिद ऐसा कहा जाये िक सूयर् एक है, पर�ु उसक�
छाया के अनेको ं �ानो ं म� पड़ने से अनेक सूयर् िदखने लगते
ह�; इसी प्रकार ई�र एक है िकंतु शरीर �पी उपा�धयो ं के
होने से अनेकता है तो भी ऐसा कहना ठीक नही ं है, �ोिं क
जो एक ब्रह्म के �सवाय और दूसरे को मानते ही नही ं है यिद
वह लोग मह और उपा�ध को मान�गे तो अद्वैतवाद न रहेगा,
िकंतु द्वैतवाद हो जायेगा।

सांख्य दर्शन 320


द्वा�ाम�प प्रमाण�वरोधः ॥४७॥
अथर्- यिद दोनो ं ही मान� तो प्रमाण से �वरोध होता है,
�ोिं क यिद उपा�ध को स� मान� तो �जन प्रमाणो ं से अद्वैत
क� �स�द्ध करते ह� उनसे �वरोध होगा। यिद उपा�ध को �म�ा
माने तो �जन प्रमाणो ं से उपा�ध को �सद्ध करते ह� उनसे
�वरोध होगा। अब इस �वषय पर प्राचायर् अपना मत कहते
ह�:-

द्वा�ाम��वरोधा� पूवर्म�
ु रं च साधकाभा-
चात् ॥४८॥
अथर्- द्वैत, अद्वैत इन दोनो ं से हमारा कोई �वरोध नही ं है ;
�ोिं क ई�र अद्वैत तो इस�लये है िक उसके बराबर और
कोई नही ं है। द्वैत इस वा�े है िक जीव और प्रकृ �त के गुण
ई�र क� अपे�ा और प्रकार के मालूम होते ह�, इस वा�े
ऐसा न कहना चािहये िक पिहला प� स� है वा दूसरा ;
�ोिं क एक प� क� पु�� करने वाला कोई प्रमाण नही ं

सांख्य दर्शन 321


िदखता, िक�ु जीव और ई�र के पाथर्� �सद्ध करने वाले
प्रमाण िदखते ह�।

प्रकाशत�त�सद्धौ कमर्क �वरोधः ॥४९॥


अथर्- ब्रह्म प्रकाश ��प है इस�लये जो चाहे सो कर सकता
है अथार्त् चाहे तो घटािद �प हो जाये । इस प्रमाण से यिद
ब्रह्म को घटािद �प कहकर अद्वैतवाद क� �स�द्ध क� जाये
तो कतार् और कमर् का �वरोध होगा �ोिं क ऐसा कही ं नही ं
देखने म� आता िक कतार् कमर् हो गया हो; जैसे- घट का कतार्
कु �ार है और उस कु �ार का कमर् घट (घड़ा) है, तो दोनो ं
को �भ�- �भ� पदाथर् मानना होगा, ऐसा नही ं कह सकते
िक कु �ार ही घट है।

जड़�ावृ�ो जई प्रकाशय�त �चद्र पः ॥५०॥


अथर्- जीव जड़ पदाथ� म� �मलकर उनको भी प्रकाश कर
देता है, इस वा�े वह प्रकाश ��प है; �ोिं क यिद जीव

सांख्य दर्शन 322


म� प्रकाश करने क� श�� न होती तो शरीर म� गमनािदक
िक्रयाय� न हो सकती थी।ं

नश्रु�त�वरोधोरा�गणां वैरा�ाय त��द्धेः


॥५१॥
अथर्- �जन श्रु�तयो ं से अद्वैत क� �स�द्ध होती है उनसे, और
जो द्वैत को �सद्ध करती ह� उनसे कु छ भी �वरोध न होगा;
�ोिं क जो ई�र को छोड़कर जीव या शरीर को ई�र मानते
ह� उनको समझाने के �लये वे श्रु�तयाँ ह� अथार्त् ई�र को उन
श्रु�तयो ं म� अद्वैत अिद्वतीय एक आिद �वशेषणो ं से इस�लए
कहा है िक उसके समान दूसरा और कोई नही ं है ; अत: द्वैत
के मानने से श्रु�तयो ं से �वरोध नही ं होता।

जगत स��म द�ु ाकारण ज��ाद् बाधका


भावात् ॥५२॥

सांख्य दर्शन 323


अथर्- जगत् स� है, �ोिं क इसका कारण �न� है और
िकसी समय म� भी इसका बाध (रोक) नही ं िदखता है। इस
सूत्र का आशय पिहले अ�ाय म� कह आये ह�, इस�लये
�व�ार नही ं िकया है।

प्रकारा�रासस्भवात् सद�
ु ��ः ॥५३॥
अथर्- जबिक प्रकृ �त के �सवाय और कोई कारण इसका
िदखता नही,ं तो ऐसा कहना चािहये िक इसक� उ���
असत् पदाथर् से नही ं है, िक�ु सत् पदाथर् से ही है।

अहङ्कारः कतार् न पु�षः ॥५४॥


अथर्- सं क�- �वक� आिदयो ं का कतार् अहंकार है, िक�ु
जीव नही ं है। �ोिं क जो �वचार बु�द्ध म� उ�� होता है उसके
बाद मनु� काय� के करने म� लगता है और उस बु�द्ध को
पु�ष का प्र�त�व� ही प्रकाश करता है।

�चदवसाना भु����ा�जत�ात् ॥५५॥

सांख्य दर्शन 324


अथर्- �जसका अ� जीव म� हो उसको भोग कहते ह�, वे
भोग जीव के कम� से होते ह�, इस कारण भोगो ं का अ�
जीव म� मानना चािहये।

च�ा�दलोके ऽ�ावृ���न�म�सभावात् ॥५६॥


अथर्- च�लोक के जीवो ं म� भी आवृ�� िदखती ह�, �ोिं क
�जस �न�म� से मु�� और ब� होते ह� वह वहां के जीवो ं
म� भी बराबर ही िदखते ह�। भाव यह है िक च�ािद लोको ं
के रहनेवाले जीव भी एक बार मु� होकर िफर कभी ब�न
म� नही ं पड़ते ह�, ऐसा कोई �नयम नही ं है, िक�ु वहाँ के भी
मु� जीव लौट आते ह�, �ोिं क वह च�ािदक लोक भी
भू- लोको ं के समान ही ह�।

लोक� नोपदेशात् �स�द्धः पूवर्वत् ॥५७॥


अथर्- जैसे इस लोक के पु�षो ं क� श्रवणमान से मु�� नही ं
होती है, इसी तरह च�लोक के मनु�ो ं क� भी श्रवणमात्र
से मु�� नही ं होती।

सांख्य दर्शन 325


पार�य�ण त��द्धो �वमु��श्रु�तः ॥५८॥
अथर्- जो ज�ा�रो ं से मु�� के वा�े य� करते चले आते
ह� वे लोग के वल श्रवणमात्र ही से मु�� को प्रा� हो सकते
ह� ; इस�लये 'श्रु�ा मु�ते' सुनने से मु�� को प्रा� हो जाता
है, यह श्रु�त भी साथर्क हो जायेगी।

ग�तश्रुते� �ापक�ेऽ�ुपा�धयोगालोग देश-


काल लाभो �ोमवत् ॥५९।।
अथर्- आ�ा म� जो ग�त सुनी जाती है उसको इस तरह से
समझना चािहये िक यद्य�प आ�ा शरीर म� �ापक है तथा�प
उस शरीर �पी उपा�ध के योग से अनेक तरह के भोग देश
और समयो ं का योग इसम� माना जाता है, अथार्त् भोगो ं क�
प्रा��, देशा�गर्मन और प्रात: सं �ा आिद का अ�तक्रम
आ�ा ही म� मालूम होता है; पर�ु आ�ा वा�व म� इनसे
पृथक है; जैसे 'घट का आकाश । घट को उठाकर दूसरी
जगह ले जाने से वह आकाश भी दूसरी जगह चला जाता

सांख्य दर्शन 326


है, इस बात को पिहले कह चुके ह� िक �बना जीव के �सफर्
वायु ही से शरीर का कायर् नही ं चलता, उसपर आचायर्
अपना �सद्धा� कहते ह�।

अन�ध����पू�तभावप्रसं गानत���द्धः॥६०

अथर्- यिद आ�ा इस शरीर का अ�ध�ाता न हो, तो शरीर
म� दगु र्� आने लगे, इस कारण प्राण को शरीर का
अ�ध�ाता नही ं कह सकते ह�

अ��द्वारा चेदस�द्ध� तदस�वाजला�द-


वदङ कु रे ॥६१॥
अथर्- यिद अ�� (प्रार� ) से प्राण को शरीर का अ�ध�ाता
कह� तो भी यो� नहा ; �ोिं क प्राण का जब प्रार� के साथ
कोई स�� ही नही ं है, तो उसको हम अ�ध�ाता कै से कह
सकते ह�? जैसे अंकुर के पैदा होने म� जल भी हेतु है, पर�ु
�बना बीज के जल से अंकुर पैदा नही ं हो सकता, इसी तरह

सांख्य दर्शन 327


यद्य�प शरीर क� अनेक िकया प्राण से होती ह� तो भी वह
प्राण �बना आ�ा के कोई िक्रया नही ं कर सकता।

�नगुर्ण�ात् तदस�वादहङ्कारधमार् येते ॥६२॥


अथर्- ई�र �नगुर्ण है, इस कारण उसको बु�द्ध आिद का
होना अस�व (झठू ) है; इस वा�े वह सब अहंकार के धमर्
बु�द्ध आिद जीव म� ही मानने चािहये।

�व�श�� जीव�म�य��तरेकात् ॥६३॥


अथर्- जो ई�र के गुणो ं से पृथक् शरीरािद यु� ह� उस-
को जीव सं �ा से बोलते ह�, इस बात को अ�य ��तरेक से
जानना चािहये, अथार्त् जीव के होने से शरीर म� बु�द्ध का
प्रकाश और न होने से बु�द्ध आिद का अप्रकाश िदखता है।

अहंकार कधीना कायर्�स�द्धने�राधीना


प्रमाणाभावात् ॥६४॥

सांख्य दर्शन 328


अथर्- अहंकार ही धमर् आिद काय� का करने वाला है, िक�ु
धमर् को ई�र नही ं कराता ; �ोिं क यिद धमार्िद ई�र �यम्
बनाये तो फल देना अ�ाय हो जाये।

अ��ोद �तवत् समान�म् ॥६५॥


अथर्- �जस व�ु के कतार् को हम प्र�� नही ं देखते ह� उस
कतार् का हम अनुमान कर लेते ह�। ��ा�- जैसे िक िकसी
घड़े को देखा और उसके कतार् कु �ार को नही ं देखा। तब
अनुमान से मालूम करते ह� िक इसका बनाने वाला अब�
है, चाहे वह िदखलाये नही।ं इसी प्रकार पृ�ी आिद अंकुरो
का कतार् भी कोई न कोई अब� है।

महतोऽ�त् ॥६६॥
अथर्- इसी प्रकार इ��यो ं को त�ात्राओ ं का कतार् भी
मह�� के �सवाय िकसी को मानना चािहये। वह कतार्
अहंकार ही है।

कमर्�न�म�ः प्रकृ तेः ��ा�मभावोऽ�ना�द-


सांख्य दर्शन 329
बीजाकु रवत् ॥६७॥
अथर्- प्रकृ �त और पु�ष का ��ा�मभाव स��ी भी पु�ष
के कम� क� वासना से अनािद ही मानना चािहये जैसे बीज
और अंकुर का होना अनािद माना गया है।

अ�ववेक�न�म�ो वा पं च�शखः ॥६८॥


अथर्- प्रकृ �त और पु�ष का ��ा�मभाव स�� कमर् क�
वासनाओ ं से नही ं है, िक�ु अ�ववेक से है ; प��शख प्राचायर्
ऐसा कहते ह�।

�लङ्गशरीर�न�म�क इ�त सन�नाचायर्ः ॥६९॥


अथर्- �लङ्ग शरीर के �न�म� प्रकृ �त और पु�ष का ��ा-
�मभाव स�� है । सन�नाचायर् ऐसा मानते ह�।

यदा तद्वा तद�ु ���ः पु�षाथर्�द�ु ���ः


पु�षाथर्: ॥७०॥

सांख्य दर्शन 330


अथर्- प्रकृ �त और पु�ष का चाहे कोई �ो ं न स�� हो
िक�ु िकसी न िकसी प्रकार से उस स�� का नाश हो जाये
उसको ही मो� कहते ह�, सां�ाचायर् का यही मत है।
"तद�ु ��त" ऐसा दो बार कहना वी�ा म� है। इस अ�ाय
म� जो- जो �वषय कहे गये ह� इन �वषयो ं को पिहले पांच
अ�ायो ं म� खूब फै लाकर कह चुके ह�, इस वा�े इन सूत्रो ं
को �व�ा ब�त फै लाकर नही ं क� है।

इ�त सां�दशर्ने ष�ोऽ�ायः पू�तमगात्॥


समा��ायं ग्र�ः।

सांख्य दर्शन 331

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