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सांख्य दर्शन 1
उ०- अ�ा��क, आ�धभौ�तक, आ�धदै�वक।
प्र०- अ�ा��क दःु ख िकसको कहते ह� ?
उ०- जो दःु ख शरीरा�र म� उ�� हो, जैसे-ई�ार्, द्वेष,
लोभ, मोह, �ेश रोगािद।
प्र०- आ�धभौ�तक दःु ख िकस को कहते ह� ?
उ०- जो अ� प्रा�णयो ं के सं सगर् से उ�� हो, जैसे-सपर् के
काटने या �सहं से मारे जाने या मनु�ो ं के पर�र युद्ध से जो
दःु ख उप��त हो, उसे आ�धभौ�तक कहते ह�।
प्र०- आ�धदै�वक दःु ख िकसको कहते ह� ?
उ०- नो दःु ख दैवी श��यो ं अथार्त् अ��, वायु या जल के
�ूना�ध� से उप��त हो,ं उनको आ�धदै�वक कहते ह�।
प्र०- समय के �वचार से दःु ख िकतने प्रकार के होते ह� ?
उ०- तीन प्रकार के अथार्त् भूत, वतर्मान, अनागत।
प्र०- �ा इन तीनो ं के �लये पु�षाथर् करना चािहये ?
सांख्य दर्शन 2
उ०- के वल अनागत के �लये पु�षाथर् करना यो� है,
�ोिं क भूत तो �तीत हो जाने के कारण नाश हो ही गया,
और वतर्मान दूसरे �ण म� भूत हो जाता है, अतएव यह
दोनो ं �यं नाश हो जाते ह�, के वल अनागत का नाश करना
आव�क�य है।
प्र०- जो दःु ख अभी उ�� नही ं �आ या जो �ुधा अभी नही ं
लगी उसका नाश िकस प्रकार हो सकता है ?
उ०- "कारणाभावात् कायार्भावः"। (वैशे�षक)—
अथर्- कारण के नाश होने से कायर् का नाश हो जाता है,
अतएव दःु ख के कारण का नाश करना चािहये ; �ोिं क
कारण के नाश से अनागत दःु ख का नाश हो जाता है।
जैसािक मह�ष पत��ल ने �लखा है "हेयं दःु खमनागतम्"।
अथर्- आगामी दःु ख 'हेयं अथार्त् �ागने यो� है, उसी के
दूर करने का प्रय� करो।
सांख्य दर्शन 3
प्र०- इस सां� शा� म� िकस व�ु का वणर्न िकया गया
है ?
उ०- 'हेय' अथार्त् दःु ख 'हीन' अथार्त् दःु ख �नवृ��। 'हेयं हेतु'
अथार्त् दःु ख के उ�� होने का कारण 'हानोपाय' अथार्त्
दःु ख के नाश करने का उपाय।
प्र०- �ा दःु ख अ� और औषध इ�ािद से दूर नही ं होता?
उ०- दःु ख क� अ�� �नवृ�� िकसी प्राकृ �तक व�ु से नही ं
हो सकती, जैसा िक �लखा है—
सांख्य दर्शन 4
के सं सगर् से शीत दूर होता है और अ�� या कपड़े के अलग
होने से िफर वही शीत उप��त हो जाता है, अतएव ��
पदाथर् अनागत् दःु ख क� औषध नही।ं
प्र०- �ा �� पदाथर् दःु ख क� अ�� �नवृ�� का कारण
नही ं ?
उ०- नही।ं
सांख्य दर्शन 5
उ०- सवार्स�वात् स�वे�प स�ास�-
वाद्धयः प्रमाण कु शलैः॥४॥
अथर्- प्रथम तो प्र�ेक दःु ख �� पदाथ� से दूर ही नही ं होता,
�ोिं क सवर् व�ु प्र�ेक देश और काल म� प्रा� नही ं हो
सकती। यिद मान भी ल� िक प्र�ेक आव�क�य व�ुएँ
सुलभ भी हो ं तथा�प उन पदाथ� से दःु ख का अभाव नही ं हो
सकता, के वल दःु ख का �तरोभाव कु छ काल के �लये हो
जायेगा; अतएव बु�द्धमान को चािहये िक �� पदाथ� से दःु ख
दूर करने का प्रय� न करे, दःु ख के मूलो�े द करने का प्रय�
करे, जैसा िक �लखा है—
सांख्य दर्शन 6
अ�वशेष�ोभयोः॥६॥
अथर्- यिद मो� को अ� सुखो ं के समान माना जाये तो
दोनो ं बात� समान हो जाय�गी, पर�ु ��णक सुख को
महाक� पयर्� सुख के समान समझना बड़ी मूखर्ता है।
प्र०- तुम जो मो� को सबसे उ�म जानते हो और मो�
छू टने को कहते ह�, छू टता वही है, जो ब�न म� हो। �ा
यह जीव ब�न म� है ? यिद कहो िक ब�न म� है तो वह
ब�न उसका �ाभा�वक गुण है या नै�म��क ?
सांख्य दर्शन 7
�भाव�ानपा�य�ादननु�ानल�णम
प्रामा�म् ॥८॥
अथर्- �ाभा�वक गुण के अ�वनाशी होने से �जन म�ो ं म�
दःु ख दूर करने का उपदेश िकया गया है, वह सब प्रमाण
नही ं रह�गे, अतएव दःु ख जीव का �ाभा�वक गुण नही ं है।
नाश�ोपदेश�व�ध�प�द�ेऽ�नुपदेशः॥९॥
अथर्- �न�ल कमर् के �न�म� वेद म� कभी उपदेश नही ं हो
सकता, �ोिं क अस�व के �लये उपदेश करना भी न करने
के समान है, अतएव दःु ख जीव का �ाभा�वक गुण नही,ं
िक�ु नै�म��क है।
सांख्य दर्शन 8
�ाभा�वक गुण है, पर�ु वह बीज के जला देने से न� हो
जाता है, अतएव यह �वचार करना ठीक नही।ं
सांख्य दर्शन 9
काल है ?
सांख्य दर्शन 10
प्र०- तो िफर �ा अब�ा अथार्त् दशाओ ं के हेतु से दःु ख
उ�� होता है ? �ोिं क तीन अब�ा अथार्त् जामत, ��
और सुषु�� या बा�ाव�ा या युवाव�ा या वृद्धाव�ा इन
छः दशाओ ं म� िकसके हेतु से दःु ख और ब�न होता है ?
सांख्य दर्शन 11
युवाव�ा से िक��त् स�� नही।ं
प्र०- तो �ा दःु ख अथार्त् ब�न के उ�� होने का हेतु, कमर्
है ?
सांख्य दर्शन 12
उ०- �व�चत्र भोगानुपप��र�धमर्�े ॥१७॥
अथर्- यिद दःु ख योग-�प ब�न के वल �च� का धमर् माना
जाये तो नाना प्रकार के भोग म� सं सार' प्रवृ� है, नही ं रहना
चािहये, �ोिं क जीव को दःु ख होने के �बना ही यिद दःु ख
का अनुभवकतार् माना जाये तो सारे मनु� दःु खी हो जाय�गे;
�ोिं क �जस प्रकार दःु ख का स�� न होने से जैसे दःु खी
प्रतीत होता है ऐसे ही दःु ख के न होने पर सब दःु खी लोग हो
सकते ह�, अतएव कोई दःु खी या कोई सुखी इस प्रकार अ�
प्रकार का भोग नही ं हो सके गा।
प्र०- �ा प्रकृ �त के सं योग से दःु ख होता है ?
सांख्य दर्शन 13
वह िकसी को बाँध ही नही ं सकती और सं योग दूसरे के
अ�धकार म� है।
प्र०- �ा ब्रह्म ही उपा�ध से जीव-�प होकर अपने आप
बँ ध गया है ?
सांख्य दर्शन 14
उ०- ना�वद्यातोऽ� व�ुनोब�ायोगात् ॥२०॥
अथर्- अ�वद्या से जो कोई पदाथर् ही नही,ं ब�न का होना
स�व नही,ं �ोिं क आकाश के फू ल क� सुग�� िकसी को
भी नही ं आती। यिद मायावादी जो अ�वद्या, उपा�ध से जीव
को ब�न मानते ह� अ�वद्या को व�ु अथार्त् द्र� मानते ह�
तो उनका �सद्धा� उड़ जायेगा जैसािक �लखा है—
सांख्य दर्शन 15
वाले, �वजातीय �व�द्ध जा�तवाले, �गत अपने भाग
इ�ािद के भेद से रिहत मानते ह� और यहाँ अ�वद्या के व�ु
मानने से �वजा�त अथार्त् दूसरी जा�त का पदाथर् उप��त
होने से अद्वैत �सद्धा� का ख�न हो गया।
प्र०- हम अ�वद्या को व�ु और अब�ु दोनो ं से पृथक्
अ�नवर्चनीय पदाथर् मानते ह�, जैसे—
सांख्य दर्शन 16
होने का �ा प्रमाण है ?
सांख्य दर्शन 17
प्र०- तो �ा जीव अनािद वासना से ब�न म� पड़ा है।
उ०- नाना�द�वषयोपराग�न�म�कोऽ��
॥२७॥
अथर्- इस आ�ा को अनािद प्रवाह �प वासना से ब�न
होना भी अस�व मालूम होता है, �ोिं क �न��ल�खत
प्रमाण से अशुद्ध प्रतीत होता है।
न चाथा��रयो�र�ोपरंजक भावोऽ�प
देश�वधानात् �भ्र
ु �ापाट�लपुत्र�यो�रव
॥२८॥
अथर्- जो मनु� जीवा�ा को शरीर म� एक देशी मानते ह�,
इस कारण जीवा�ा का कु छ भी स�� बाह्य �वषयो ं से
नही ं रहेगा, �ोिं क आ�ा और जड़ के बीच अ�त देश का
अ�र है, जैसे-पटने का रहनेवाला �बना आगरे प�ँ चे वहाँ
के रहनेवाले को नही ं बाँध सकता, इसी प्रकार बाह्य इं िद्रयो ं
से उ�� �ई वासना आ��र� आ�ा के ब�न का हेतु
सांख्य दर्शन 18
िकस प्रकार हो सकती है ? और लोक म� भी ऐसा ही देखा
जाता है िक जब रन और वन का स�� �बना अ�र के
होता है तब तो व� पर रख चढ़ जाता है। यिद उनके बीच
कु छ अ�र हो तो रङ्ग कदा�प नही ं चढ़ सकता, अतएव
वासना से ब�न नही ं हो सकता, पर�ु जब लोग आ�ा
और वाद्य इ��यो ं म� अ�र मानते ह� तो इ��यकृ त वासना
से आ�ा िकसी प्रकार ब�न म� नही ं पा सकता । यिद यह
कहा जाये िक बाह्य इ��यो ं का आ��र इ��य मन आिद
से स�� है और आ��र इ��यो ं का आ�ा से । इस
पर�रा स�� से आ�ा भी �वषय वासना से बद्ध हो
सकता है, यह कहना अयु� है। �ोिं क—
द्वयोरेकदेशल�ोपरागा��व�ा ॥२९॥
जब आ�ा और इ��य दोनो ं को �वषय-वासना म� बं धा
मानोगे तो मु� और ब�न म� रहने वाले का पता भी नही ं
लगेगा। इसका आशय यह है िक जब आ�ा और इ��य
दोनो ं ही �वषय-वासना से समान स�� रखते ह� तो इ��यो ं
सांख्य दर्शन 19
का ब�न न कहकर के वल आ�ा ही का ब�न बतलाना
अयु� होगा। इस कारण वासना से भी ब�न नही ं होता।
अ�वशा�ेत् ॥३०॥
प्र०- तो �ा िफर अ� अथार्त् पूवर् िकये धमर् अधमर् से जो
एक भोग-श�� पैदा होती है उससे ब�न होता है ?
सांख्य दर्शन 20
और उसी समय उसका सं �ार िकया जाता है, अतएव एक
काल म� उ�� होनेवाले पदाथ� म� पूवर् क�थत स�� हो
सकता है?
सांख्य दर्शन 21
मानो तो उसम� दीप�शखा अथार्त् दीप�ो�त के समान दोनो ं
का कोई ��र कायर् उ�� नही ं होगा। इस अगले सूत्र से
�� करते ह� िक कायर् को ��णक मानने म� �ा दोष होगा।
न प्र��भ�ावाघात् ॥३५॥
अथर्- लोक म� कोई भी पदाथर् (��णक ) अथार्त् एक�ण
रहनेवाला नही,ं �ोिं क यह �ान के सवर्था �व�द्ध है, �ोिं क
प्र�ेक मनु� यह कहता �आ सुनाई देता है िक �जसको
म�ने देखा उसको �शर् िकया । ��ांत यह है िक जैसे िक यिद
एक घोड़ा मोल �लया जाये तो ��णकवादी के मत म� परी�ा
करके मोल लेना अस�व है; �ोिं क �जस �ण म� घोड़े को
देखा था तब और घोड़ा था, �जस �ण म� हाथ लगाया तब
और था, दबु ारा देखा तब और �आ, इस कारण कोई कायर्
हो ही नही ं सकता। अतएव �जसके �लये ��ांत न हो वह
ठीक नही;ं इस�लये ब�नािद ��णक नही ं वरन् ��र ह� और
प्रमाण देते ह�—
श्रु�त�ाय�वरोधाच ॥३६॥
सांख्य दर्शन 22
अथर्- यह कहना िक जगत् एक�ण रहता है श्रु�त अथार्त्
वेद और �ाय अथार्त् तकर् से सवर्था �व�द्ध है, जैसा िक
�लखा है—'सदेव सो�ेदमग्र आसीत्
अथर्- हे सौ�! इस जगत् से पिहले भी सत् था अथार्त्
जगत् का कारण था।
'तम एवेदमन श्रासीत्' अथर्- इस सृ�� से पिहले यह जगत्
तमो�प अथार्त् नाम- �प�ान जो कायर् म� है इनसे पृथक्
��प था और �ाय से इस�लये �व�द्ध है िक असत् से सत्
िकसी प्रकार हो नही ं सकता, इस कारण यह ब�न�प दःु ख
न तो ��णक है, �बना कारण ही है। और प्रमाण ली�जये—
��ा�ा�सद्धे� ॥३७॥
अथर्��णक म� जो दीप�शखा का ��ांत िदया वह अयु�
�ोिं क �ण ऐसा सू� काल है िक �जसक� इय�ा
अंदाजा)नही ं हो सकती और न उसको कु छ इय�ा
(तादाद) है और प्र�� म� दीप�शखा कई �ण तक एक-
सांख्य दर्शन 23
सी बराबर रहती है, यह कथन भी सवर्था अयु� है और
��णकवािदयो ं के मत म� एक दोष यह भी होगा िक कारण
और कायर्भाव नही ं हो सके गा और जब कायर् कारण का
�नयम न रहा तो िकसी रोग क� औषध जो �नदान अथार्त्
कारण के �ान को जानकर उसके �व�द्ध श�� से क� जाती
है नही ं हो सके गी और सं सार म� जो घट कारण मृ�� का को
माना जाता है सवर्था न कह सक� गे; �ोिं क �जस �ण म�
मृ�� का घट का कारण है वह �ण अब न� हो गया और
यह कहना सवर्था अयु� है िक मृ�� का घट का कारण
नही;ं �ोिं क �बना कारण जाने घट बनाने म� कु लाल क�
प्रवृ�� नही ं होती और यिद दोनो ं क� अथार्त् मृ�� का और
घट क� उ��� एक ही �ण म� मान� तो दोष होगा—
सांख्य दर्शन 24
��णक- वादी यह कह� िक मृ�� का और घटक्रम से ह�,
पिहले मृ�� का कारण िफर घट कायर् उ�� हो गया तो
इसम� भी दोष है।
सांख्य दर्शन 25
तब तो कारण नही ं था और कारण �आ तब कायर् बनाने का
�वचार नही,ं अतएव ��णकवािदयो ं के मत म� कायर्-कारण
का स�� िकसी प्रकार हो नही ं सकता।
प्र०- �जस प्रकार घट का �न�म� कारण कु लाल पिहले से
ही माना जाता है. यिद इसी भाँ�त उपादान कारण भी माना
जाये तो �ा शङ्का है ?
सांख्य दर्शन 26
प्र०- जो कु छ सं सार म� है, सत्र �म�ा ही है, और सं सार म�
होने से ब�न भी �म�ा है, अतएव उसका कारण खोजने
क� कोई आव�कता नही,ं वह �यम् नाश�प है ?
सांख्य दर्शन 27
है, इस�लये यिद वाह्य प्रतीत जगत् का साधन न करे तो
�व�ान प्रतीत भी �व�ान को नही ं �सद्ध कर सकती, इस हेतु
से �व�ानवाद म� शू�वाद हो जायेगा ।
प्र०- अब शू�वादी ना��क अपनी दलील देता है ?
सांख्य दर्शन 28
उ०- अपवादमानम बुद्धानाम् ॥४५॥
अथर्- जो कु छ भाव पदाथर् है वह सब नाशवान ह�, यह कथन
मूख� का अपवादमात्र है ; �ोिं क नाशमात्र व�ु का
�भाव कहकर, नाश म� कु छ कारण न बताने से �जन
पदाथ� का कु छ अबयव नही ं है उनका नही ं कह सकते।
इसका हेतु यह है िक कारण म� लय हो जाने को ही नाश
कहते ह�, और जब �नरवयव व�ुओ ं का कु छ कारण न
माना तो उनका लय िकसी म� न होने से उनका नाश न हो
सके गा। इसके �सवाय एक और भी दोष रहेगा िक हर एक
कायर् का अभाव लोक म� नही ं कह सकते ; जैस-े "घट टू ट
गया," इस कहने से यह �ात होगा, िक घट क� दूसरी दशा
हो गई; पर�ु घट�पी कायर् तो बना ही रहा। आकृ �त को
इस हेतु से माना िक वह एक घट के टू ट जाने से दूसरे घटो ं
म� तो रहती है।
अब तीनो ं ल�णो ं का ख�न करते ह�, अथार्त-�व�ानवादी
��णकवादी और शू�वादी।
सांख्य दर्शन 29
उभयप�समान�ेम�ादयम�प ॥४६॥
अथर्- �जस प्रकार ��णकवादी और �व�ानवादी का मत
प्र��भ�ािद दोष वाह्य प्रती�त से ख��त हो जाता है, इसी
प्रकार शू�वादी का मत भी ख��त हो जाता है। �ोिं क
उस दशा म� पु�षाथर् का �बलकु ल अभाव हो जाता है। यिद
यह कहो िक शू�वाद करने पर भी पु�षाथर् तो �ीकार
करते ह�, तो वह भी मानना अयु� होगा।
अपु�षाथर्�मुभयथा ॥४७॥
अथर्- शू�वादी के मत म� पु�षाथर् अथार्त् मु�� नही ं हो
सकती, �ोिं क जब दःु ख है ही नही ं के वल शू� ही है तो
उसक� �नवृ�� का उपाय �ो ं िकया जाये और मु�� भी
शू� हो होगी उसके �लये साधन भी शू� ही होगं े, तो ऐसे
शू� पदाथर् के �लये पु�षाथर् भी शू� ही होगा। अतएव
शू�वादी का मत िकसी प्रकार भी शा��दायक नही ं और
न उससे मु�� हो सकती है।
सांख्य दर्शन 30
न ग�त�वशेषात् ॥४८॥
अथर्- ग�त के ३ अथर् ह�-�ान, गमन, प्रा�� । यह तीनो ं
ब�न का हेतु नही ं होते । पिहले जब कहा जाये िक �ान
�वशेष से ब�न होता है। �ान तीन प्रकार का है-
प्रा�तभा�सक, �ावहा�रक, पारमा�थक । यिद कहा जाये
िक प्रा�तभा�सक स�ा के �ान से ब�न होता है तो यह
कहना ठीक नही,ं �ोिं क प्रा�तभा�वक स�ा का �ान इ��य
और सं �ार-दोष से उ�� होता है, पर�ु आ�ा म� न
इ��य है न सं �ार है। इस�लये �जसका कारण है ही नही ं
उसका कायर् कै से हो सकता है। और रहा �ावहा�रक �ान,
सो तो बद्ध अव�ा को छोड़ रहता ही नही,ं वह ब� का
कारण िकस प्रकार हो सकता है। और पारमा�थक �ान तो
मु�� का हेतु है वह ब� का कारण �ोक ं र हो सकता है,
अतएव �ान�वशेष से ब� नही ं होता। दूसरा गमन शरीरािद
म� होता है, वह जीव का �ाभा�वक धमर् होने से ब� का
हेतु नही ं हो सकता।
सांख्य दर्शन 31
तीसरा प्रा��, सो प्रा� होने वाले दो पदाथर् है-एक प्र�,
दूसरी प्रकृ �त, सो यह दोनो ं �ापक होने से जीव को सवर्दा
प्रा�, सदैव रहने वाली व�ु से सदैव स��, उससे भी
बद्ध नही ं हो सकता, अतएव ग�त �वशेष से ब� नही ं होता।
सांख्य दर्शन 32
उ०- मूतर्�ाद् घटा�दवत् समानधमार्प�ा-
वप�सद्धा�ः ॥५०॥
अथर्- आ�ा के मू�तमान होने से घटािदको ं क� भाँ�त
सावयव इ�ािद दोष आ जाय�गे और सावयव होने से सं योग
�वयोग अथार्त् उ��� और नाश भी मानना पड़ेगा। जो िक
आ�ा �न� है, इस�लये मू�त वाला नही ं हो सकता और जब
मू�� वाला नही ं तो उसम� इस प्रकार क� ग�त भी नही ं मानी
जा सकती। अतएव आ�ा को मू�त वाला मानना �सद्धा�
का ख�न करना है।
सांख्य दर्शन 33
क� उपा�ध से चलता है, �ोिं क घट म� जो आकाश है जहाँ
घट जायेगा साथ हो जायेगा।
प्र०- सू� शरीर िकसे कहते ह� ?
उ०- पं च प्राण, पं च उपप्राण, पं च �ाने��य, मन, अहंकार;
इन सबके समूह का नाम सू� शरीर है।
प्र०- �ा यह जीव से �बलकु ल पृथक् ह� ?
उ०- हाँ, �बलकु ल पृथक् ह�।
प्र०- तो पिहले-पहल जीव िकस प्रकार इस शरीर को धारण
करता है?
उ०- पिहले सांक��क सृ�� म� आता है, िफर उसका जब
सू� शरीर से स�� हो जाता है, तब दूसरे शरीरो ं म� जाता
है। यिद स�� न हो तो नही ं जाता।
न कमर्णा�तद्धमर्�ात् ॥५२॥
अथर्- कमर् से भी ब�न नही ं होता, �ोिं क वह भी शरीर
सांख्य दर्शन 34
सिहत आ�ा म� होता है और शरीर सुख दःु ख भोगने से
होता है। इस�लये कमर् से पिहले शरीर का होना आव�क
है और शरीर होने से ब�न भी है, उसके उ�� होने क�
आव�कता नही।ं
अ�तप्रस��र�धमर्�े ॥५३॥
अथर्- यिद और के धमर् से और का ब�न मान ल� तो �नयम
टू ट जाय�गे �ोिं क उस अव�ा म� बद्ध पु�ष के पाप से यु�
ब�न म� आ जाय�गे, जो असं गत है।
�नगुणा�दश्रु�त�वरोध�े�त ॥५४॥
अथर्- यिद उपा�ध के �बना पु�ष का ब�न माना जाये तो
�जन सूत्रो ं म� जीव को सा���प और �नगुर्ण बतलाया है
उनम� दोष आ जायेगा; इस�लये जीव �भाव से बद्ध है, न
मु� है, वरन् यह दोनो ं औपा�धक धमर् ह� । प्रकृ �त सं सगर्
से बद्ध हो जाता है और परमा�ा के सं सगर् से मु� हो जाता
है। यथाथर् म� जीव सुख दःु ख से पृथक् और तीनो ं तापो ं से
सांख्य दर्शन 35
िकनारे सा���प है। इस सूत्र म� इ�त श� कहने से ब�न
के कारण परी�ा समा� कर दी गई।
प्र०- जब दःु ख �ाभा�वक भी नही ं और नै�म��क भी नही ं
तो प्रतीत कै से होता है ?
उ०- जीव को अ��ता और प्रकृ �त सं सगर् से ब�न क�
प्रती�त होती है । चूँिक सं सगर् �न� है, इस�लये नै�म��क
नही ं कहला सकता, और ब� सं सगर् से उ�� होने वाले
अ�ववेक से प्रतीत होता है, इस कारण �ाभा�वक नही ं
कहला सकता । अतएव अ�ववेक ही इसका कारण है।
प्र०- जब तुम प्रकृ �त के योग से ब�न मानते हो और प्रकृ �त
भी काल और दशा क� नाई सवर्�ापक है, तो उसके योग
से ब�न िकस प्रकार हो सकता है ?
सांख्य दर्शन 36
प्र०- अ�ववेक िकसे कहते ह� ?
उ०- यह जानना िक यह व�ु हमारे वा�े लाभदायक है
अथवा हा�नकारक, उसको अ�ववेक कहते ह�।
प्र०- इस अ�ववेक का कारण �ा है?
उ०- जीव क� अ��ता ही अ�ववेक का कारण है ।
प्र०- �ा वह जीव क� अ��ता जीव का �ाभा�वक गुण
है अथवा उसका भी कोई कारण है।
उ०- उसका कोई कारण नही।ं
प्र०- जब अ��ता �ाभा�वक गुण है, और �ाभा�वक
को नाश हो नही ं सकता, बस कारण रहा, तो कायर्-ब�न
सदैव रहेगा?
उ०- �जस प्रकार वायु �भाव से उ�, शीत से अलग है,
ऐसे ही जीव ब�न मु�� से पृथक् है। यह दोनो ं गुण
नै�म��क ह�, इस�लये प्रवाह से अनािद ह�, और ��प से
आिद होते ह� ।
सांख्य दर्शन 37
�नयतकारणातद�ु ����ार्�वत् ।।५६॥
अथर्- �जस प्रकार म� अ�कार से जो सीप म� चाँदी का
�ान या र�ु म� सपर् का �ान है, उसके नाश करने का �नयत
उपाय है, अथार्त् प्रकाश का होना; िक�ु प्रकाश के �बना
िकसी अ� उपाय से यह अ�ान न� नही ं हो सकता । इसी
प्रकार अ�ववेक से उ�� होनेवाला जो ब�न है, उसके न�
करने के उपाय �ववेक अथार्त् पदाथर् के ��प का यथाथर्
�ान है ।
सांख्य दर्शन 38
�म�ा �ान उ�� होता है, और �म�ा �ान से राग-द्वेष
और राग-द्वेष से प्रवृ�� उ�� होती है, और उससे ब�न
अथार्त् तीन प्रकार का दःु ख उ�� होता है, और �जस समय
प्रकृ �त का �म�ा �ान न� हो जाता है तब प्रकृ �त के पदाथ�
का अ�ववेक दूर होकर दःु ख �प ब�न से छू ट जाता है ।
सांख्य दर्शन 39
यु��तोऽ�पन बा�ते�दक मुदवदपरोक्�ाहते
।।५९।।
अथर्- इस के वल कथनमात्र दःु ख का भी यु�� से नाश नही ं
हो सकता, �बना अपरो� �ान के । जैसे िकसी मनु� को
पूवर् िदशा म� उ�र का भ्रम हो जाये तो जब तक उसे पूवर्
और उ�र िदशा का भली-भाँ�त �ान न हो जाये, तब तक
यह भ्रम जा ही नही ं सकता। इस कारण �ववेक क�
आव�कता है, और सूत्र म� भी िदखलाया गया है, िक जब
तक िदशा का प्र�� न हो जाये तब तक भ्रम�नवृ�� नही ं
हो सकती ; इस�लये जब तक प्रकृ �त और पु�ष के धमर् का
ठीक �न�य करके प्रकृ �त से �नवृ�� और पु�ष क� प्रा�� न
हो तब तक द:ु ख दूर भी न होगा।
सांख्य दर्शन 40
का तो प्र�� नही ं है, अनुमान से �ान होता है।
प्र०- �ा यह प्रकृ �त प्र�� नही ं ?
उ०- नही,ं प्र�ु� जो प्र�� है वह �वकृ �त है, अथार्त् प्रकृ �त
कर प�रणाम है।
प्र०- सूत्र म� तो पु�ष श� है, तुम इससे जीवा�ा और
परमा�ा िकस प्रकार लेते हो ?
उ०- शरीर म� रहने से जीवा�ा और सं सार म� �ापक होने
से परमा�ा पु�ष श� से �लये गये और �ाय म� आ�ा
और सां� म� पु�ष श� एक ही अथर् के बतलाने वाले ह�।
सांख्य दर्शन 41
न आवरण करने वाला, तमोगुण आवरण करने वाला। जब
यह तीनो ं गुण समान रहते ह�, उस दशा का नाम प्रकृ �त है।
�ोिं क वतर्मान दशा म� स�गुण, तमोगुण का पर�र
�वरोध है । इस समय �जस शरीर म� स�गुण रहता है, वहाँ
तमोगुण का वास नही ं और इसी तरह जहाँ तमोगुण का
�नवास है वहाँ स�गुण नही;ं पर�ु कारण अथार्त् परमाणु
क� दशा म� एक दूसरे के �व�द्ध नही ं कर सकते, उस समय
पास ही पास रह सकते ह�। अब उस प्रकृ �त से मह��
अथार्त् मन उ�� होता है और मन से अहंकार और
अहंकार से पं च सू� त�ात्रा या �प रस, गं ध, �शर् और
श� उ�� होते ह�, उनसे पाँच �ाने��य और पाँच
कम���य उ�� होते ह�, और प�त�ात्राओ ं से पाँच भूत
अथार्त् पृ�ी, अप, तेज, वायु, और आकाश होते ह�, और
जब इनसे पु�ष अथार्त् जीव और ब्रह्म �मल जाता है तो २५
गुण कहलाते ह�।
प्र०- नेक पु�षो ं ने मह�� का अथर् बु�द्ध िकया है, तुम 'मन'
सांख्य दर्शन 42
िकस प्रकार लेते हो ?
उ०- बु�द्ध जीवा�ा का गुण है। जीव के स� होने से वह
�न� है, वह प्रकृ �त का कायर् नही ं और मन सू� अ� का
�वकार है, अतएव मन ही लेना चािहये।
प्र०- मन क� इ��यो ं म� गणना क� जाती है, अतएव �भ�
करने से बु�द्ध का ही प्रयोजन प्रतीत होता है ?
उ०- यिद १० इ��यो ं म� ११ वां मन भी �लया जाये तो
तु�ारी सं �ा ही अशुद्ध हो जायेगी, इस हेतु से मह�� का
अथर् मन ही है।
सांख्य दर्शन 43
-सार कायर् के गुणो ं का अनुमान होता है।
इसी प्रकार यहां कायर् त�ो ं को देख कर कारण त�ात्रा का
�ान हो जाता है।
तेना�ाकरण� ॥६४॥
सांख्य दर्शन 44
अथर्- और अहंकार �पी कायर् से उसके कारण अ�: करण
का अनुमान होता है, �ोिं क प्रथम मन म� व�ु क� अ���
का �न�य करके उसम� अहंकार िकया जाता है, अथार्त् उसे
अपना मानते ह�। �जस समय तक व�ु को अ��� का
�न�य न हो तब तक उसम� अ�भमान नही ं होता है, अथार्त्
म� �ँ , और यह मेरा है, यह �ान जब तक अपने-अपने और
चीज को अ��� का �ान न हो, िकस तरह हो सकता है ?
सांख्य दर्शन 45
चािहये। दःु ख परत�ता का नाम है, और पु�ष क�
परत�ता हो नही ं सकती। परत�ता के वल जड़ प्रकृ �त का
धमर् है और उसका कायर् मन है ।
सांख्य दर्शन 46
प्र०- �ा प्रकृ �त का कोई कारण नही ं है, ब्रह्म को कारण
सुना जाता है ?
उ०- ब्रह्म जगत् का �न�म�-कारण है। प्रकृ �त का उपादान
कारण नही।ं
प्र०- प्रकृ �त को �ो ं अकारण मानते हो ?
सांख्य दर्शन 47
उ०- पार�य�ऽ�ेकत्र प�र�न�े�त सं �ा- मानम्
॥६८॥
कारणो ं क� पर�रा के �वचार से परमाणु ही घट का कारण
है, मृ�� का तो नाममात्र है।
अ�धका�रत्रै�व�ा��नयमः ॥७०॥
यद्य�प प्रकृ �त सबका उपादान कारण है। पर�ु प्र�ेक कायर्
म� जो तीन प्रकार के कारण माने जाते ह� अथार्त् १ उपादान,
२ �न�म�, और ३ साधारण-इन क� भी �व�ा न रहेगी,
�ोिं क जब कु �ार �मट्टी द�ािद का कारण प्रकृ �त ही
ठहरी, तो इन तीन कारणो ं को अनाव�कता होने से ब�त
सांख्य दर्शन 48
गोलमाल हो जायेगा । इस म� हेतु यह है, िक िफर कोई भी
िकसी का �न�म� व असाधारण कारण न रहेगा, अतएव
जहाँ-जहाँ कारण� कहा जाये, वहाँ-वहाँ प्रकृ �त को
छोड़कर कहना चािहये, �ोिं क प्रकृ �त तो सबका कारण है
ही, उसके कहने क� कोई भी आव�कता नही ं है; जैसे-
कु �ार के �पता को घट का कारण कहना अनाव�क है,
�ोिं क वह तो अ�था �सद्ध है। यिद वही न होता तो कु लाल
कहां से आता ? पर�ु घट के बनने म� कु लाल के �पता को
कोई भी आव�कता नही ं है, ऐसा ही नवीन नैया�यक भी
मानते ह�, िक कारण� प्रकृ �त को छोड़कर कहना चािहये।
१ उपादान कारण, जैसे घट का मृ�� का। २ �न�म� कारण,
जैसे घट का कु लाल ।३ साधारण, जैसे घट के द� आिद।
सांख्य दर्शन 49
चरमोऽहङ्कारः ॥७२॥
अथर्- और प्रकृ �त का दूसरा कायर् अहंकार है। इन तीनो ं
सूत्रो ं का अ�भप्राय यह है िक यिद प्रकृ �त को कारण� कहा
जाये, तो के वल इ�ी ं दो काय� का कहना अ� काय� का
कारण महदािद को कहना चािहये । इसी बात को अगले
सूत्रो ं से �� करते ह�।
त�ायर्�मु�रेषाम् ॥७३॥
अथर्- महत् और अहंकार को छोड़ बाक� सब प्रकृ �त के
कायर् नही,ं िक�ु उनके कारण महदािद ह�।
प्र०- जब तुमने पिहले इसको प्रकृ �त का कायर् कहा, अब
उसे अलग करते हो, िक औरो ं को महदािदको ं का कायर्
कहना चािहये । अब यहाँ यह स�ेह होता है, िक पिहले
प्रकृ �त को सबका कारण कह चुके । अब महदािदको ं को
�ो ं कारण कहते ह� ?
तो इसका उ�र यह है िक—
सांख्य दर्शन 50
उ०- आद्यहेतुता तद्वारा पार�य�ऽ�णुवत्
॥७४॥
अथर्- �जस प्रकार पर�रा स�� से घटािद के कारण अणु
माने थे, उसी भाँ�त पर�रा स�� से महदािदको ं का
कारण भी प्रकृ �त ही है, अतएव कु छ दोष न रहेगा।
सांख्य दर्शन 51
प्रकृ �त स�� से प्रकृ �त द्वारा पु�ष म� प�रणाम माने और
दोनो ं को कारण मान� तो वृथा गौरव होगा।
प्र०- कारण से उपादान कारण का �ो ं ग्रहण करते हो,
�न�म� को �ो ं नही ं लेते ?
उ०- उपादान-कारण के गुण ही कायर् म� रहा करते ह�। हम�
जगत् म� �जस आन� क� खोज है, यिद वह जगत् के कारण
म� होगा तो �मलेगा अ�था पु�षाथर् �नरथर्क जायेगा;
इस�लये �ववेक के �लये उपादान कारण क� ही आव�कता
है।
प्र०- प्रकृ �त एक-देशी है या �ापक ?
सांख्य दर्शन 52
प्र०- एक देशी पदाथर् क� उ��� म� �ा प्रमाण है ?
उ०- तद�
ु ��श्रुते� ॥७७॥
अ�न� और एक-देशी पदाथ� क� उ��� अ�त म� मानी है
और �जसक� उ��� है उसका �वनाश अव� होगा
प्र०- अ�वद्या स�� से जगद�
ु �� है, इस म� �ा दोष ?
इसका उ�र महा�ा क�पल जी यह देते ह�।
सांख्य दर्शन 53
प्र०- यह सं सार भी अव�ु है, इस वा�े यह अ�वद्या से बना
है ?
आवाधादद�ु कारणज�वाचनाव�ु�म्
॥७९॥
उ०- यिद कहो जगत् भी अव�ु है, तो यह कहना ठीक
नही,ं �ोिं क न तो �� के पदाथ� के तु� जगत का िकसी
अव�ा �वशेष म� बाध होता है, जैसे--�� के पदाथ� का
जापत अव�ा म� बाध हो जाता है, और न जगत् िकसी
इ��य के दोष से प्रतीत होता है, जैसे-पी�लया रोग क�
अव�ा म� सब व�ुओ.ं को पीला प्रतीत करता है पर�ु यह
पीलापन स� नही ं जगत् । इस प्रकार के िकसी दोषयु�
कारण से उ�� नही ं �आ, इस कारण जगत् को अव�ु
नही ं कह सकते।
प्र०- जब श्रु�तयो ं म� जगत् का �म�ा होना कहा गया है तब
जगत् व�ु नही ं हो सकता?
सांख्य दर्शन 54
उ०- �ा तुम श्रु�त को जगत् के अ�र मानते हो या बाहर।
यिद अ�र मानो तो जगत् के �म�ा होने से श्रु�त का �यं
ही बाध हो जायेगा और वह �म�ा श्र�त प्रमाण ही न रहेगी।
यिद जगत् से बाहर मानो, तो अद्वैतवादी के �सद्धा� क�
हा�न होगी।
प्र०- "ने�त ने�त" इस प्रकार को श्रु�तयो ं का �ा अथर्
करोगे?
उ०- यह श्रु�तय� ब्रह्म का जगत् से भेद यानी �भ�ता को
बताने वाली ह� और जगत् को ��प से अव�ु बतलाने
वाली नही।ं
सांख्य दर्शन 55
जब मृ�� का ही न तो िकसका घट बनेगा ?
प्र०- तुम प्रधान अथार्त् प्रकृ �त को �ो ं कारण मानते हो ?
कमर् को मानना चािहये।
सांख्य दर्शन 56
नही।ं दूसरे प्रकृ �त के �जतने कायर् ह�, वह दूसरे के वा�े ह�,
�ोिं क उसम� �यं भोग श�� नही ं । अब पाँच सूत्रो ं म�
मु�� का कारण कमर् नही ं �ववेक है, यह कह�गे।
सांख्य दर्शन 57
नही ं होती ?
सांख्य दर्शन 58
कमर् से मु�� नही ं होती।
सांख्य दर्शन 59
प्र०- जब �ान को साधन मानोगे तो �ान सा� होने से भी
मु�� दःु ख�प हो जायेगी, �ोिं क �ान भी तो देह�
आ�ा ही को होगा और �ान सा� होने से मु�� ऐसी ही
अ�न� होगी जैसा कमर् का फल है ?
सांख्य दर्शन 60
होने से जीवा�ा मु�� सुख को लेता है । यहाँ प्राचायर् ऋ�ष
का यह आशय है िक �भाव से तो जीवा�ा बद्ध नही ं के वल
अ�ववेक से बद्ध होता है और अ�ववेक के नाश से मु�
होता है, तो मु�� �ं स अथार्त् नाश �प है, भाव �प नही।ं
सांख्य दर्शन 61
आ�ा है। जहाँ भौ�तक पदाथ� का परो� होने म� श�
प्रमाण �लया गया है, वहाँ स�वादी आ� पु�ष का वा�
समझना चािहये।
प्र०- एक श� प्रमाया के दो अथर् �ो ं �लये जाय� ?
उ०- श� कहते ह� प्रा� के वा� को और प्रा� कहते ह�
�जसने धमर् से धम� का �न�य िकया हो, सो अभौ�तक
पदाथ� का यथाथर् �ान तो �बना परमा�ा और योगी के दूसरे
को हो नही ं सकता और भौ�तक पदाथ� के �ान के साधन
इ��यो ं के होने से प्रा� पु�ष का वा� भी प्रमाण मानना
चािहये।
प्र०- �ा यह तीन ही प्रमाण ह� उपमानािद नही ं ?
सांख्य दर्शन 62
प्र���ानुमानं च शा�ं च �व�वधागमम् । त्रयं सु�विदतं
कायर् धमर्शु�द्धमभी�ता।
अथर्- प्र��, अनुमान और शा� के अनुकूल जानकर
कायर् करना चािहये ; �ोिं क धमर् क� शु�द्ध क� इ�ा वालो ं
क� इ�ा इनसे पूरी हो सकती है और उपमानािद प्रमाण
इ�ी ं के अ�र जाते ह�।
सांख्य दर्शन 63
प्र०- यो�गयो ं को तीनो ं काल के पदाथ� का सा�ात �ान हो
सकता है और योगी समा�ध अव�ा म� आ�ा और अ�र
के पदाथ� को प्र�� करता है, इस वा�े तु�ारा प्र�� का
ल�ण ठीक नही ं ?
सांख्य दर्शन 64
-��य पदाथर् का प्र�� न कहना चािहए ?
उ०- मन के इ��य होने से मान�सक प्र�� भी मानना
चािहए, इस�लये मान�सक प्र�� जो यो�गयो ं को होता है
वह �सद्ध है सा� नही।ं
प्र०- प्रमाण वह होता है जो सबके �लये एक सम हो, जो
प्र�� यो�गयो ं को हो अ� पु�षो ं को न हो, उसे प्र�� नही ं
कह सकते ?
उ०- इ��यो ं के �वकारी होने से इ��यज� �ान िकसी
को भी नही ं होता, जैसे-अ�े को �प का �ान, बिहरे को
श�- �ान इ�ािद।
प्र०- �ा सबके मन म� दोष है जो मान�सक प्र�� नही ं
होता?
उ०- �जसके मन म� मल, �व�ेप, आवरण, तीन दोष हो ं उसे
मान�सक प्र�� नही ं हो सकता, जैस-े दपर्ण से अपनी आँख
देख सकते ह�, पर�ु दपर्ण के मैला तथा ��र न होने अथवा
सांख्य दर्शन 65
कोई आवरण होने से नही ं देख सकते । जैसे गं गा म� यह
श�� है िक वह बड़े-बड़े मकानो ं को बहा ले जाये, पर�ु
यिद उसी गं गा को छोटी-छोटी ना�लयो ं म� �वभ� कर
िदया जाये तो एक �ट को भी नही ं बहा सकती। इसी प्रकार
मन सू� पदाथ� को जान सकता है, पर�ु �व��� वृ��
होने से उसक� श�� का �तरोभाव हो जाता है।
प्र०- इ��यो ं के प्र�� मानने और मान�सक प्र�� के न
मानने म� �ा दोष होगा ?
सांख्य दर्शन 66
सकता और श� प्रमाण से भी काम न चलेगा; �ोिं क वेद
के ई�र-वा� होने से वेद को प्रमाण मानते ह�। जब ई�र
�यं अ�सद्ध होगा तो उसका वा� वेद कै से प्रमाण माना
जायेगा? यहाँ अ�ो�ाश्रय दोष है, �ोिं क ई�र क� �स�द्ध
�बना वेद का प्रमाण हो नही ं सकता, और वेद के �बना
ई�र-वा� �सद्ध �ये प्रमाण ही नही ं हो सकता।
प्र०- अनुमान �ो ं नही ं होगा। �ोिं क कायर् को देखकर
कारण का अनुमान से �ान हो सकता है। ऐसे ही सृ�� को
प्र�� देखकर उसके कारण का अनुमान कर ल�गे?
उ०- अनुमान का होना �ा�� के अधीन है, और �ा��
प्र�� के अधीन है। जब तक प्र�� प्रमाण से �नयत
कारण कायर् का स�� �ान न हो जाये, तब तक �ा��
नही ं हो सकती, और जब तक �ा�� न हो तब तक
अनुमान नही ं हो सकता। जैसे जब बादल होता है, तभी वृ��
होती है, �बना बादल के कमी वृ�� होती नही ं देखी ; इस�लये
�जसका तीन काल म� प्र�� न हो उसका अनुमान से �ान
सांख्य दर्शन 67
नही ं हो सकता।
प्र०- हम �नयम-पूवर्क कायर् को �बना चेतन कतार् के नही ं
देखते, इससे हम �नय�मत कायर् से चेतन का अनुमान करते
ह�। यह जगत् भी प�रणामी होने से कायर्, और �नयम पूवर्क
होने से अपने चेतन कारण के अनुमान का साधक होगा?
उभयथा�स�र�म् ॥९४॥
इस प्रकार मु�, बद्ध दोनो ं प्रकार के चेतन से सृ�� का होना
अनुमान से �सद्ध न होगा। इस�लये मान�सक प्र�� अव�
सांख्य दर्शन 68
मानना पड़ेगा। ई�र यो�गयो ं को समा�ध अव�ा म� प्र��
होते ह�, �ोिं क ��र मन के �बना ई�र का बोधक कोई
प्रमाण नही।ं ई�र को बद्ध और मु� दोनो ं प्रकार का नही ं
कह सकते, �ोिं क दोनो ं सापे� ह�, अथार्त् जो पहले बं धा
हो, वह ही बं ध से छू टने से मु� कहला सकता है । ई�र
इन दोनो ं अव�ाओ ं से पृथक् है । जगत् का करना उसका
�भाव है, इस�लये इ�ा क� आव�कता नही।ं
प्र०- एक व�ु म� दो �व�द्ध �भाव हो नही ं सकते। यिद
रचना ई�र का �भाव मानोगे तो �वनाश िकसका �भाव
मानोगे?
उ०- यह शं का परत� और अचेतन म� हो सकती �ोिं क
कतार् �त� होता है, और �त� उसे कहते ह�, �जसम�
करने न करने और उ�ा करने क� साम�र् हो।
सांख्य दर्शन 69
है, इससे प्रतीत होता है, िक ई�र है, �जसक� उपासना से
अ�ववेक क� �नवृ�� और �ववेक क� प्रा�� होकर आ�ा
को मु�� प्रा� होती है।
सांख्य दर्शन 70
म� �भ�-�भ� होते ह�, वे जीव क� स�ा से होते ह�। सं सार के
आ�ा को परमा�ा और शरीर के आ�ा को जीवा�ा
कहते ह�।
प्र०- यिद प्र�� प्रमाण से व और प्रमाणो ं से ई�र क� �स�द्ध
हो गई, तो वेद का �ा प्रमाण माना जाये ? �ोिं क
अभौ�तक पदाथ� का तो प्र�� से �ान हो ही जायेगा, और
अभौ�तक का यो�गयो ं के अबाह्य प्र�� से हो जायेगा ?
उ०- �सद्ध�पबोद्ध�
ृ ाद्वा�ाथ�पदेशः ॥९८॥
अथर्- अ� प्रमाणो ं से ई�र के होने क� तो �स�द्ध हो जायेगी,
पर�ु उसके ��प का यथाथर् �ान नही ं होगा, जैसे-पुत्र को
देखकर उसके �पता के होने का �ान तो अनुमान से हो
सकता है, पर�ु उसके �प और आयु आिद के �ान के
वा�े श� क� आव�कता है। इस वा�े वेद का अव�
प्रमाण मानना चािहये।
सांख्य दर्शन 71
अ�ः करण� तद� ु �लत�ा�ोहवद�ध-
छातृ�म् ॥९९॥
अ�ःकरण भी चैत� के सं योग से उ��लत (प्रका�शत)
अतएव सं क� �वक�ािद काय� का अ�ध�ान अ�ःकरण
को है, जैसे-अ�� से तपाये �ए लोहे म� यद्य�प दाह श��
अ�� सं योग के कारण है तथा�प अ� पदाथ� के दाह करने
को वह लोह श�� भी हेतु हो सकती है।
सांख्य दर्शन 72
को देखकर अ�� का अनुमान कदा�प नही ं कर सकता ! वह
अनुमान �जतने प्रकार का है, इसका �नणर्य आगे कर�गे।
िक�ु प्रथम श� प्रमाण का ल�ण करते है ।
सांख्य दर्शन 73
�बना प्रमाण के हो नही ं सकती और सं शय क� �नवृ�� के
�बना प्रवृ�� नही ं हो सकती। प्रमाण से आ�, अना�, सद,्
असद,् दोनो ं प्रकार क� �स�द्ध होती है, इसी कारण प्रमाण
का उपदेश िकया है।
सामा�तो��ादभ
ु य�स�द्धः ॥१०३।।
तीन प्रकार के अनुमान होते ह�-पूवर्वत, शेषवत् और
सामा�तो�� । पूवर्वत् अनुमान उसे कहते ह�, जैसे धूम को
देखकर अ�� का अनुमान िकया जाता है, �ोिं क पहले
पाकशाला म� धूम और अ�� दोनो ं देखे थे, वैसे ही अ�त्र
होगं े, इस प्रकार का अनुमान पूवर्वत् कहलाता है। जो �वषय
कभी प्र�� नही ं िकया उसका कारण द्वारा अनुमान करना
शेषवत् अनुमान कहलाता है । जैसे-श्री और पु�ष दोनो ं को
नीरोग और हष-पु� देखकर इनके पुत्रो��� होगी यह
अनुमान करना, या मेघ को देखकर जल बरसेगा, यह
अनुमान करना शेषवत् का उदाहरण है। �जस जातीय
�वषय को प्र�� कर �लया है, उसके द्वारा सम� जा�त
सांख्य दर्शन 74
मात्र के कायर् का अनुमान करना सामा�तो �� कहलाता
है; जैसे-दो एक मनु� को देखकर यह बात �न�य करली
िक मनु� के सीगं नही ं होते, तो अ� मनु� मात्र के सीगं
न होगं े। यह सामा�तो� का उदाहरण है। इसी भाँ��
सामा�तो�� अनुमान म� यह बात भी आसकती है, िक जैसे
�बना कारण के कायर् क� अनु��� सामा�तो�� है। इससे
यह �न�य कर लेना चािहये िक जहाँ-जहाँ कायर् होगा, वहाँ-
वहाँ कारण भी अव� होगा।
सांख्य दर्शन 75
उ०- नही,ं यह तो भोग के साधन ह�
प्र०- कमर् तो मन और इ��याँ करते ह� तो अकतार् जीवा�ा
उसका फल �ो ं भोगता है?
सांख्य दर्शन 76
प्र०- चैत� जीवा�ा को दःु खािद �वकार कै से हो स�ा है?
सांख्य दर्शन 77
नही ं प्रतीत होता।
प्र०- प्र��ािद प्रमाणो ं से प्राकृ �तक �ान नही ं होता,
इस�लये प्रकृ �त प्र�सद्ध है; �ोिं क वह िकसी इ��य का
�वषय नही?ं
सांख्य दर्शन 78
लगे होने से, अ�त सू� होने से, बीच म� परदा होने से
इ�ािद, और भी कई कारणो ं से प्र�� का �वषय अ�वषय
होता है, इस�लये िकसी व�ु के प्र�� न होने से उसक�
प्र�स�द्ध नही ं हो सकती।
प्र०- प्रकृ �त का प्र�� न होने म� �ा कारण है ?
सौ�या�दतुपल��ः ॥१०९।।
उ०- प्रकृ �त और पु�ष का सू� होने से प्र�� �ान नही ं
होता, सू� होने से अ�� अणु होना अ�भप्राय नही ं
�ोिं क प्रकृ �त और पु�ष सवर्त्र �ापक है, इनका प्र��
यो�गयो ं को ही होता है।
प्र०- प्रकृ �त के प्र�� न होने से यह �ो ं माना जाये, िक
अ�त सू� होने से प्रकृ �त का प्र�� नही ं होता, िक�ु
प्रकृ �त का अभाव ही मानना चािहये, नही ं शश�ङ्गक�
अप्रती�त भी अ�त सू� होने से माननी पड़ेगी?
सांख्य दर्शन 79
उ०- सं सार म� प्रकृ �त के काय� को देखने से प्रकृ �त का होना
�सद्ध होता है; �ोिं क कायर् को देखने से कारण का अनुमान
होता है, और इन काय� को �बगाड़ कर सू� होकर कारण
म� लय होने से कारण क� सू�ता का अनुमान होता है।
तथा�ेकतर�ष्ट्या एकतर�सद्धेनोंपलापः
॥११२॥
जब एक कायर् को देखकर कारण का अनुमान होता है और
सांख्य दर्शन 80
कारण को देखकर कायर् का अनुमान होता है, तो प्रकृ �त को
कारण �सद्ध मानना अनु�चत नही,ं �ोिं क सब कायर् प्रकृ �त
म� लय होते ह�। िद्वतीय पु�ष जो अप�रणामी है उसको
प�रणामी प्रकृ �त के अ�ववेक से ब� और �ववेक से मु��
होती है।
�त्र�वध�वरोधाप�े� ॥११३॥
सब कायर् तीन प्रकार के होते ह�-अतीत अथार्त गुजरा �आ,
दूसरे वतर्मान, तीसरे आने वाला । यिद कायर् को सत न माने
तो यह तीन प्रकार का �वहार-जैसे, घट टू ट गया, अथवा
घट वतर्मान है, अथवा घट होगा, नही ं बन सके गा। दूसरे
दःु ख सुख मोहािद क� उ��त म� �वरोध होगा �ोिं क ब्रह्म
तो आन���प होने से दःु खािद से शू� है, और परमाणु
और प्रकृ �त म� नाममात्र भेद है, इस�लए प्रकृ �त जगत् का
कारण �सद्ध अगले सूत्र म� इसे और भी पु� करते ह�—
नासद�
ु ादो न�ङ्गवत् ॥११४॥
सांख्य दर्शन 81
असत् िकसी व�ु का कारण नही ं हो सकता, जैसे-मनु�
के सीगं नही,ं इस�लये सं सार म� उसका कोई कायर् भी प्रतीत
नही ं होता, न उससे कोई कु छ बना सकता है।
उपादान�नयमात् ॥११५॥
सं सार म� सब व�ुओ ं का उपादान �नयत है, जैसे-मृ�त का
से घट तो बन सकता है पर�ु पट नही ं बन सकता, या लोहे
से तलवार बन सकती है, �ई से नही ं बन सकती, जल से
बफर् बनती है, घी से नही ं बनती, इसी प्रकार सब पदाथ� के
उपादान कारण �नयत ह�, �नय�मत कायर् कारण भाव के सत्
होने से कायर् को भी सत् मानना पड़ेगा।
सांख्य दर्शन 82
होता है।
कारणभावाच ॥११८॥
उ��� से पिहले हो कायर् का कारण से भेद नही ं है, �ोिं क
कायर् कारण के भीतर ही सदैव रहता है, जैसे िक तेल �तलो ं
के भीतर रहता है।
सांख्य दर्शन 83
अब इसम� प्र� पैदा होता है िक कायर् तो �न� है तो भाव�प
'सत्' कायर् म� भाव�प उ���योग नही ं हो सकता, असत् से
सतू क� उ��� के �वहार होने से। अब इस �वषय म�
सां� के प्राचायर् अपने मत को प्रकाश करते ह�।
ना�भ����नब�नौ�वहारा�वहारौ
॥१२०।।
अब यहाँ पर स�ेह होता है िक यद्य�प उ��� से पिहले सत्
कायर् क� िकसी प्रकार उ��� हो, पर�ु अब कायर् स�ा
अनािद है, तो उसका नाश �ो ं हो सके । इसका उ�र यह
है, िक कायर् क� उ��� का �वहार और अ�वहार
अ�भ��� �न�म�क है, अथार्त् अ�भ��� के भाव से
कायर् क� उ��� होती है। अ�भ��� के अभाव से उ���
का अभाव है। जो पूवर् यह शं का क� थी, िक यिद कारण म�
कायर् रहता है, तो अमुक कायर् उ�� �आ, ऐसा कहना भी
नही ं हो सकता। उसके हो उ�र म� यह सूत्र है, िक
अ�भ��मान कायर् क� उ��� का �वहार अ�भ���
सांख्य दर्शन 84
�न�म�क है । पूवर् जो कायर् असत् नही ं या उसक� अब
उ��� �ई यह कथन ठीक नही ं है।
सांख्य दर्शन 85
कायर् क� दूसरी बार अनु��� ही ठीक होती तो इसम�
अनु��� का ल�ण पाया भी जाता। अतएव यही कहना
ठीक है िक नाश को प्रा� कायर् िफर भी उ�� हो सकता
है। अब यह स�ेह होता है िक यिद पिहले कहा �आ ही
प� ठीक है, तो अपने कारण म� कायर् का नाश होता �ो ं
नही ं िदखता, जैसे-त�ु कपास से पैदा होते ह�, पर�ु नाश
के समय बह �मट्टी म� �मल जाते ह�। इसका उ�र यह है िक
कायर् का कारण म� लय हो जाना �ववेक� पु�षो ं को िदखता
है और अ�ववेिकयो ं को नही ं िदखता, जैसे त�ु �मट्टी के �प
हो जाते ह� और �मट्टी कपास के वृ��प हो जाती है और
वह वृ� फू ल, फल, कपास आिद �प से प�रणाम को प्रा�
होता है और जब कायर् का नाम और उसी के समान कु छ
बदला �आ �प सं सार म� मौजूद है, तब नाश, ऐसा कहना
भी यो� नही।ं यही �सद्धा� महाभा�कार मह�ष पतं ज�ल
जी का भी है, िक आकृ �त �न� है। अब यहाँ यह स�ेह
होता है िक अ�भ��� कायर् क� उ��� के पूवर् भी थी या
नही ं थी ? यिद थी तो कारण के य� से पूवर् अ�भ��� को
सांख्य दर्शन 86
�कायर्-जनकता दोष होगा और उ��� के �लए जो कारण
द्वारा य� िकया जाता है वह �थर् होगा । यिद कायर् को
उ��� से पिहले अ�भ��� नही ं थी तो स�ायर् प� म�
हा�न होगी; �ोिं क जब यह कह चुके ह� िक जो कायर् पूवर्
था, उसी क� इस समय उ��� होती िक�ु असत् क� उ���
नही ं होती, तो अ�भ��� का पूवर् म� अभाव कहने म� दोष
होगा। यिद यह कहा जाये िक अ�भ��� तो पूवर् भी थी
लेिकन एक अ�भ��� से दूसरी अ�भ��� कारण द्वारा
होती जाती है, इसी�लये कारण �ापार है, ऐसा कहने पर
अनव�ा दोष होगा �ोिं क एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी,
इसी तरह कहते जाओ, लेिकन कही ं भी �वश्राम नही ं हो
सकता, इस कारण यह अनव�ा दोष हो गया। इन पूवर् कहे
दोषो ं के उ�र यह ह�--प्रथम तो कारण �ापार से सब काय�
क� उ��� होती है, इस प्रकार पूव�� शं का ही नही ं हो
सकती। दूसरे यिद यह भी मान �लया जाये िक अ�भ���
पिहले नही ं थी, तो भी कारण �ापार द्वारा उसक� स�ा
प्रकाश करने के वा�े सदैव आव�क है, तब कोई दोष
सांख्य दर्शन 87
नही ं हो सकता । तीसरे यह भी है िक जब कायर् क� अनागत
अव�ा म� (जबतक कायर् उ�� नही ं �आ ) सत् कायर्वाद
क� कोई हा�न नही ं हो सकती, तब दोष भी नही ं हो सकता
; �ोिं क जबतक घट पैदा ही नही ं �आ, उससे पिहले भी
सत् कायर्वाही �मट्टी म� घट को मानते ह�, इसी प्रकार
अ�भ��� को भी समझना चािहये । यिद कोई ऐसा
स�ेह करे िक कायर् का प्रागभाव पिहले न होना ही नही ं
मानते तो घट पिहले नही ं था, िक�ु अब पैदा �आ है, ऐसा
कहना भी नही ं बन सकता। इसका उ�र यह है, िक कायर्
क� अव�ाओ ं का ही भाव अभाव कहते ह� न िक कायर् का
और जो अनव�ा दोष िदया उसका उ�र यह है—
सांख्य दर्शन 88
पिहले कौन था, और इसम� एक-का�लक एक ही समय म�
एक का दूसरे से उ�� होना यह दोष, होगा, लेिकन यह
दोष इस कारण माना जाता है, िक पातं जलभा� म� भी
�ास जी ने काय� को ��प म� �न� और अव�ाओ ं से
�वनाशी माना है, वहां अनव�ा दोष को प्रामा�णक माना
है। यह बीजाङ्कर का ��ा� के वल लौिकक है, वा�व म�
यहाँ ज� और कमर् का ��ा� िदया जाता तो श्रे� था; से
कमर् होता है या कमर् से ज�, �ोिं क बीजाङ्कर के झगड़े म�
कोई-कोई आिद सगर् म� वृ� के �बना ही बीज क� उ���
मानते ह�, वा�व म� अव�ा कोई व�ु नही ं है, इसको कहते
ह�—
उ���वहादोषः ॥१२३॥
जैसे िक घट क� उ��� के ��प को ही वैशे�षकािद असत्
कायर्वादी कमी के सबब मानते ह�, अथार्त् यह उ��� िकस
से उ�� �ई, ऐसा स�ेह नही ं करते, के वल एक ही उ���
को मानते ह�। इसी तरह अ�भ��� क� उ��� िकस' से
सांख्य दर्शन 89
�ई, यह �ववाद नही ं करना चािहये । के वल अ�भ��� को
ही मानना चािहये । स�ायर्वादी और असत् कायर्वादी इन
दोनो ं म� के वल इतना ही भेदा है, िक असत् कायर्वादी कायर्
उ��� क� पूवर् दशा को प्रागभाव और कायर् के कारण म�
लय हो जाने को �ं स कहते ह�, और इन दोनो ं अव�ाओ ं
म� कायर् का अभाव मानते ह�, और इसी प्रकार स�ायर्वादी
कही �ई दोनो ं अव�ाओ ं को अनागत और अतीत कहते
ह�, तथा उन अव�ाओ ं म� कायर् का भाव मानते ह�, कायर् से
कारण का अनुमान कर लेना चािहए।
प्र०- िकस-िकस को कायर् कहते ह� ?
सांख्य दर्शन 90
मालूम होये, आ�श्रत कारण के अधीन इसको �लङ्ग अथार्त्
कायर् के पहचान ने का �चह कहते ह�।
प्र०- �जसम� हेतुम�ािदक होते ह� वही प्रधान के �लङ्ग कहे
जाते ह�!
उ०- तु�ारा यह कहना सवर्था असं गत है। �ोिं क प्रथम
तो इस सूत्र म� या पूवर् सूत्र म� प्रधान का नाम ही नही ं है, दूसरे
सां�कार ने प्रधान श� को �िढ़ नही ं माना, इसी कारण
इसको पु�षवाचक भी कह सकते ह� ; िक�ु प्रकृ �तवाचक
है । तीसरे यिद उनके ता�यार्नुसार (मतलब के मािफक )
यह �लङ्ग पु�ष के ही मान �लये जाय� तो भी ठीक नही,ं
�ोिं क सां�कार के मत म� कायर्मात्र क� उ��� प्रकृ �त से
है, एवं प्रकृ �त और पु�ष का भेद भी माना है, एवं
पर�रानपे�ा भी क�पलाचायर् का �सद्धांत है, तो प्रकृ �त से
पु�ष का अनुमान नही ं हो सकता।
हेतुम�ािद �वशेषण देने से कायर् कारण म� भेद मालूम होता
है, इसी कारण उस भेद क� प्रती�त म� प्रमाण देते ह�—
सांख्य दर्शन 91
आ��ाद भेदतो वागुण सामा�ादे����द्धः
प्रधान�पदेशाद्वा ।।१२५।।
अथर्- पा�� (प्र�� ) से, या कारण के सामा� गुण कायर्
म� पाये जाते ह�। �वशेष गुणो ं म� भेद रहता है,. इससे प्रधान
�पदेश से अथार्त् यह कारण है, यह कायर् है। इस लौिकक
�वहार से कायर् कारण के भेद क� �स�द्ध होती है।
सांख्य दर्शन 92
कहते ह�-स�, रज, तम, इन गुणो ं का सुख द:ु ख मोह इनम�
अ�ोऽ� वैध�र् ( एक ही कारण से अनेक-अनेक प्रकार
के कायर् क� उ��� होना) िदखाई पड़ता है। इस सूत्र म�
आिद श� से �जनका ग्रहण होता है, उनका वणर्न
प��शखाचायर् ने इस प्रकार िकया है िक स�गुण से प्री�त,
�त�त�ा, स�ोष आिद सुखा�क अन� अनेक धमर् वाले
कायर् पैदा होते ह�। इस ही री�त से रजोगुण से अप्री�त शोक
आिद दःु खा�क अन� अनेक धमर् वाले कायर् पैदा होते ह�,
एवं तम से �वषाद, �नद्रा (नीदं ) आिद मोहा�क अन�
अनेक धमर् वाले कायर् पैदा होते ह�। घट�प कायर् म� के वल
�मट्टी से �पमात्र का ही वैध�र् है।
सांख्य दर्शन 93
के पदाथ� का) साध�र् है, और स� तम का वैध�र् है, इस
ही प्रकार गु�� आिद के साथ तमो���यो ं का (तमोगुण
के पदाथ� का) साध�र् है, और स�, रज से वैध�र् है
प्र०- यद्य�प महदािद ��प से �सद्ध ह� तो भी प्र�� से
उनक� उ��� नही ं िदखती, इसी कारण महदािदको ं के कायर्
होने म� कोई भी प्रमाण नही ं ?
सांख्य दर्शन 94
िक�ु कायर् नही ं ह�।
प�रणामात् ।।१३०॥
अथर्- प्रकृ �त और पु�ष प�र�मत भाव से रहते ह�, कभी
घटते बढ़ते नही।ं इसी सबब उनको कायर् नही ं कह सकते ;
�ोिं क—
सम�यात् ॥१३१॥
अथर्- मन को आिद लेके जो िक महदािदको ं का अवा�र
भेद ह�, सो अ�ािदको ं के �मलने से बढ़ते रहते ह�, और भूखे
रहने से �ीण होते ह�। इस पूव�� सम�य से भी
महदािदको ं को कायर्� मालूम होता है ; �ोिं क जो �न�
पदाथर् होता है वह अवयव (टुकड़ा) रिहत होता है, अत:
उसका घटना-बढ़ना नही ं हो सकता। इसका अथर् यह �आ
िक घटना-बढ़ना आिद कायर् म� हो सकता है, कारण म� नही ं
हो सकता। मन आिद अ� के �मलने से बढ़ते ह�, और न
�मलने से घटते ह�। इसी से महदािदको ं का कायर्� �सद्ध
सांख्य दर्शन 95
होता है।
श��त�े�त ॥१३२॥
अथर्- महदािदक पु�ष के कारण ह�, इसी म� महदािदको ं को
कायर्� है, �ोिं क इनके �बना पु�ष कु छ नही ं कर सकता,
जैसे िक नेत्रो ं के �बना कु छ नही ं कर सकता, अथार्त् देख
नही ं सकता, और पु�ष के �बना नेत्र म� देखने को श�� नही ं
हो सकती ; �ोिं क नेत्र तो जड़ ह�, इस कारण मनु� दशर्न
�प िक्रया को नेत्र�पी कारण के �बना नही ं कर सकता, इस
ही सबब से नेत्रािदको ं को कायर्� माना है। इस सूत्र म� इ�त
श� से यह जानना चािहये िक प्र�ेक कायर् क� �स�द्ध म�
इतने ही प्रमाण होते ह�।
सांख्य दर्शन 96
ही को पु�ष मानना पड़ेगा।
प्र०- प्रकृ �त और पु�ष से �भ� अथार्त् दूसरा और कोई
पदाथर् मान �लया जाये तो �ा हा�न है ?
सांख्य दर्शन 97
�तल�प कायर् �गत (अपने म� रहने वाले ) तेल का उपादान
कारण है । इस कथन से महदािदको ं के कायर्� म� िकसी
प्रकार क� हा�न नही ं है।
सांख्य दर्शन 98
अनुमान समा� �आ। अब अ�ाय क� समा�� तक पु�ष
का अनुमान कह�गे।
सांख्य दर्शन 99
उ०- शरीरा�द��त�र�ः पुमान् ॥१३९॥
अथर्- शरीर को आिद से लेकर प्रकृ �त तक जो २३ पदाथर्
ह� उनसे जो पृथक् है उसका नाम पु�ष है।
प्र०- शरीरािद से जो �भ� है उसका ही नाम पु�ष है। इसम�
�ा हेतु है ?
अ�ध�ाना�े�त ॥१४२॥
अथर्- और भी कारण है, पु�ष अ�ध�ान होने से प्रकृ �त से
जुदा ही है। अ�ध�ान अ�ध�ेय सं योग से मालूम पड़ता है,
िक दो के �बना सं योग हो ही नही ं सकता। इससे �सद्ध �आ
�नगुर्ण�ा��चद्धमार् ॥१४६॥
उ०- नही ं ! कारण यह है, िक पु�ष �नगुर्ण है, इसी सवत्र
�चत्, सत्, रजािद गुणवाला नही ं हो सकता; �ोिं क गुण
प्रकृ �त के धमर् ह�।
प्र०- ब�त तीन गुण पु�ष म� मानकर उसको �शव, �व�ु,
ब्रह्मा कहते ह� ?
उ०- सुष�
ु ावसा���म् ॥१४८॥
अथर् - पु�ष सुषु�� का आधा सा�ी है, अथार्त् �जन अ�:-
उ०-�व�दतब�कारण��ष्ट्यातदप् म ॥१५५॥
अथर्- मनु� के ब� आिद कारण सव �विदत ह�, और ई�र
�न�, शुद्ध, बुद्ध, मु���प है, इस कारण ई�र का
�पा�र नही ं हो सकता।
प्र०- यिद जीव ई�र का �पा�र नही ं है, तो अनेक शरीर
धारण करने पर भी एक ही पु�ष रहता है, इसम� �ा प्रमाण
है ?
उ०- ना�हष्ट्याचतु�तामनुपलभः ॥१५६।।
अथर्- जो पदाथर् अ�े को नही ं िदखे, उसका अभाव नेत्रवान्
मनु� कदा�प नही ं कह सकता ; �ोिं क उसक� नेत्र�े �य
उ०-अनादावद्ययावदभावाद्भ�व�द�ेवम्
॥१५८॥
अथर्- अनािद-काल से लेकर आजतक जो वात नही ं �ई है
वह भ�व�त्-काल म� भी न होगी, यही �नयम है। इससे यह
�सद्ध होता है, िक अनािद-काल से लेकर आजतक कोई भी
उ- �ावृ�ोभय�पः ॥१६०॥
�न�मु��म् ॥१६२॥
अथर्- यिद पु�ष को �न�मु� मान�, तो मु�� का साधन
करना �थर् होता है, और मु�� प्र�तपादक जो श्रु�तयाँ ह�
उन- म� भी दोपारोपण होगा, और इस सूत्र के अथर् म� जो
�व�ान �भ�ु ने (�न�मु��म् ) यह पु�ष को �वशेषण
िदया है, अथार्त् पु�ष को �न� मु� माना है।
यह कथन इस कारण अयो� है, िक "इदानी�मव सवर्त्र
ना��ो�े दः” । इस सूत्र से पु�ष का अ�न� मु�
क�पलाचायर् ने मानी है । इससे यहाँ �वरोध होगा। उन
टीकाकारो ं ने यह न सोचा, �ा उन ऋ�षयो ं क� बु�द्ध मनु�ो ं
क� बु�द्ध क� तरह ��णक होती है, िक कभी कु छ कह�, कभी
कु छ कह�, जबिक उ� सूत्र “इदानी�म�ािद से पु�ष को
अ�न� मु� प्र�तपादन कर चुके, िफर �न�-मु� कै से
औदासी��ो�त ॥१६३॥
अथर्- और पु�ष को वा�व म� मु� मान� तो औदासी�
दोष होगा, �ोिं क पु�ष का िकसी से स�� ही नही ं है, तो
वह िकसी कमर् का कतार् �ो ं होगा। जब िकसी कमर् का
कतार् तो रहा ही नही ं तो ब�न आिद म� �ो ं पड़ेगा, तब
उसम� औदासी� दोष होगा। इस सूत्र का भाव और पु�ष
को कतृर्� अगले सूत्र से प्र�तपादन कर�गे।
आ�ाथर्�ात् सृ�ेनैषामा�ाथर्प्रार�ः॥११॥
अथर्- इन महदािदको ं का कारण� पु�ष के मो� के वा�े
है, िक�ु अपने वा�े नही ं है ; �ोिं क महदािद �वनाशी
अथार्त् नाशवाले ह�।
प्र०- यिद महदािद को ं ककारण� (बनाने वालापन) पराये
वा�े है, तो प्रकृ �त के वा�े होना चािहये। पु�ष के वा�े
�ो ं है ?
अ�वसायोबु�द्धः ॥१३॥
अथर्- �न�या�क �ान का नाम बु�द्ध है, और अ�वसाय
नाम �न�य का है, उस �न�य को ही बु�द्ध कहते ह�।
अ�भमानोऽहंकारः ॥१६॥
अथर्- अहं करने वाले को अहंकार कहते ह�, जैसे-कु �ार
को कु �कार कहते ह�, और यह अहंकार श� अ�ःकरण
का नाम है। अहंकार और अ�भमान यह दोनो ं एक ही व�ु
के नाम। अब अहंकार का कायर् िदखाते ह�।
कम���यबुद्धी��यैरा�रमेकादशकम् ॥१९॥
अथर्- वाणी, हाथ, पाँव, गुदा, उप� (मूत्र�ान ), यह
कम���य कहलाती ह�। नेत्र, कान, �चा (खाल), रसना
(जीम), प्राण (नाक), यह पाँचो ं �ाने��य कहलाती ह�।
प्र०- इ��यो ं क� उ��� पं चभूतो ं से है ?
उ०- तद�
ु ��श्रुते�वनाशदशर्नाच ॥२२॥
अथर्-�न� नही ं है, िक�ु अ�न� है, �ोिं क"एत�ा�ायते
प्राणो मनः सव���या�ण च" इससे ही सब इ��याँ और मन
पैदा होते ह�, इ�ािद श्रु�तयो ं से �सद्ध है िक मन का नाश भी
देखने म� आता है, �ोिं क बुढ़ापे म� च�ु (तेज) आिद
इ��यो ं क� तरह नाश भी होता है। इससे मन �न� नही ं है।
प्र०- ना�सका आिद इ��यो ं के गोलक (�चह्नो)ं को ही
इ��य माना है ?
उ०-अती��य�म��यं भ्रा�ानाम�ध�ाने
॥२३॥
गुणप�रणामभेदा�ाना�मव�ावत् ॥२७॥
अथर्- गुणो ं के प�रणाम भेद से एक मन क� अनेक श��याँ
इस तरह होती ह�, जैसे-मनु� जैसी सं गती म� बैठेगा उसके
द्रष्तृ�ा�दरा�नः करण��म��याणाम्॥२९॥
क्रमशोऽक्रमश�े��यवृ��ः ।।३२।।
त��वृ�ावुपशा�ोपरागः��ः ॥३४॥
अथर्- मन क� वृ��यो ं के �नवृ� होने पर पु�ष का उपराग
शा� हो जाता है, और पु�ष �� हो जाता है। यही बात
योग सूत्र म� भी कही गई है, िक जब �च� क� वृ��यो ं का
�नरोध हो जाता है तब पु�ष अपने ��प म� ��त हो जाता
है। पु�ष का �� होना यही है, िक उसके उपा�ध�प
प्र�त�व� का �नवृ� हो जाना, इसको ही ��ा� से भी �सद्ध
करते ह�।
कु सुमव�म�णः ॥३५॥
अथर्- जैसे �िटक म�ण म� काले, पीले इ�ािद फू लो ं क�
परछाई पड़ने से काले, पीले रंग वालो वह �िटक म�ण
मालूम पड़ने लगती है, और जब उन काले, पीले फू लो ं को
म�ण के साथ से �भ� कर देते ह� तब वह म�ण �� प्र��
उ०-इ��येषुसाधकतम�गुणयोगात् कु ठारवत्
॥३९॥
अथर्- जैसे िक पेड़ के काटने म� चोट का मारना मु� कारण
है, और उसके काटने का मु� साधन कु �ाड़ा है, इस ही
प्रकार इ��यो ं को करण� और मन को साधकतम�
(�जस के �बना िकसी तरह कायर् �सद्ध न हो) का योग है।
नोट- क�पलमु�न बु�द्ध और �च� को एक ही मानते ह�।
प्र०- जबिक अहंकार भी इ��य माना गया है, तो मन ही
मु� कारण है, ऐसा कहना अयो� है ?
अ��भचारात् ॥४१॥
अथर्- यद्य�प मन सब इ��यो ं म� �ापक है तथा�प अपने
कायर् म� उस मन का अ��भचार (�न�य) िदखाई पड़ता
है।
�ृ�ानुमानाच ॥४३॥
अथर्- �ृ�त का अनुमान बु�द्ध से ही होता है, �ोिं क �च�ा-
वृ�� (�ान फ� एक अब�ा) सब अब�ाओ ं से श्रे� है,
और इस सूत्र से यह भी मालूम होता है, िक क�पलाचायर्
बु�द्ध और �च� को एक ही मानने ह�, और मतवािदयो ं क�
तरह मन, बु�द्ध, �च�, अहंकार, इन चारो ं को अ�: करण
चतु�य नही ं मानते ह�।
प्र०- �चतं ावृ�� पु�ष को ही होनी चािहये ?
उ०- आपे��कोगुणप्रधानभावःिक्रया�वशेषात्
॥४५॥
अ�वशेषािद्वशेषार�ः ॥१॥
अथर्- अ�वशेपात अथार्त �जससे छोटी और कोई व�ु न
हो सके ऐसे भूत सू� अथार्त् पं चत�ात्राओ ं से �वशेष
�ूलमहाभूतो ं क� उ��� होती है, �ोिं क सुखािद को का
�ान �ूलभूतो ं म� हो सकता है, और सू�भूत योगी
महा�ाओ ं के �दय म� प्रकाश होते रहते ह�।
त�ा�रीर� ॥२॥
तीन पूव�� (पहले कहे �ए) बाईस त�ो ं म� से �ूल सू�
शरीरो ं क� उ��� होती है।
प्र०- �ूल शरीर िकसको कहते ह�?
तद�म��श्रुते� ॥१५॥
अथर्- वह �लगं शरीर असमय है, इस कारण अ�न� है।
�ोिं क इस �वषय म� श्रु�तयाँ प्रमाण देती ह� । "अ�मयं िह
सौ� ! मन आपो मयः प्राणः तेजोमयीवा� । हे सौ� !
यह मन अ�मय है, प्राण जलमय है, वाणी तेजोमयी है।
यद्य�प मन आिद कायर् भौ�तक नही ं ह�, तथा�प दूसरे के मेल
से इन म� घटना- बढ़ना िदखता है, इस कारण से ही अ�मय
मन को माना है।
चातुभौ�तक�म�ेके ॥१८॥
कोई ऐसा कहते ह�, िक चार ही भूतो ं से �ूल शरीर होता है,
एकभौ�तक�म�परे ॥१९॥
और कोई ऐसा कहते ह�, िक यह �ूल शरीर एक भौ�तक
है, अथार्त् शरीर पा�थव पृ�ी का �वकार है ) और जो
�वशेष चार भूत ह� वे के वल नाम मात्र ही ह�। था इस प्रकार
जानना चािहये, िक एक- एक भूत के सब शरीर ह�। मनु�ो ं
के शरीर म� पृ�ी का अंश �ादा है, इस कारण यह शरीर
पा�थव है, और तैजस लोक वा�सयो ं म� तेज �ादा है, इससे
उनका शरीर तैजस है। शरीर �भाव से चैत� नही ं है, इस
प� को दूर करते ह�—
मदश��व�ेत् प्र�ेकप�र��ेसाह�े
तदद्भु वः ।।२२॥
अथर्- यिद मिदरा क� श�� के समान माना जाये, जैसे-
अनेक पदाथ� के �मलने से मादकता, श�� उ�� हो जाती
है, इस ही तरह पाँच भूतो ं के �मलने से शरीर म� चैत�-
श�� उ�� हो जाती है, ऐसा कहना भी यो� नही ं है,
�ाना�ु��ः ॥२३॥
अथर्- �लगं शरीर म� जो मन आिद ह�, उन से �ान उ��
होता है, और �ान से ही मु�� होती है।
ब�ो�वपयर्यात् ॥२४॥
अथर्- �वषयर्य नाम �म�ा�ान का है, �म�ा�ान से ही सुख-
��जागरा�ा�मव मा�यकामा�यका�ां
नोभयोमु��ः पु�ष� ॥२६॥
अथर् जैसे ��ाव�ा और जाग्रताव�ा इन दोनो ं म� पहला
तो प्र�त�व� है, दूसरा स�ा है । यह ��ाव�ा और
जामताव�ा दोनो ं आपस म� �व�द्ध धमर् वाले ह�, अतः (इस
सं क��तेऽ�ेवम् ॥२८॥
अथर्- योगी के सं क� िकये �ए पदाथर् भी इसी प्रकार स�े
है जबिक योगी के सं क��त पदाथ� का कोई कारण प्र��
नही ं िदखता, तो वह �म�ा �ो ं नही ं ?
रागोपह�तयानम् ॥३०॥
अथर्- �ान के रोकने वाले रजोगुण के कायर् जो �वषय-वास
नािदक ह� उनका �जनसे नाश हो जाये, उसे �ान कहते ह�।
��रसुखमासनम् ॥३४॥
अथर्- ��र होने पर जो सुख का साधन हो, उसी का नाम
आसन, जैस-े ���का (पालक�) आिद ��र होने पर सुख
के साधन होते ह�, तो उनको भी आसन कह सकते ह� िकसी
�वशेष पदाथर् का नाम आसन नही ं है। अब �कमर् का
ल�ण कहते ह�—
वैरा�ाद�ासाच ॥३६॥
अथर्- सांसा�रक पदाथ� के �वराग अथवा धारणािद पूव��
तीन साधनो ं के अ�ास से �ान प्रा� होता है । यहाँ चकार
का अथर् पूवार्थर् का समु�य और प्रार��त जो "�ानामु��
इस �वषय के प्र�तपादन क� समा�� के वा�े है । इससे
आगे "ध�ो �वपयर्यात्" इस पर �वचार प्रार� करते ह�—
�वषयर्यभेदाः पं च ॥३७॥
अथर्- �वद्या, अ��ता, राग, द्वेष और अ�भ�नवेश, यह पाँच
योगशाखो ं म� कहे �ए ब� के हेतु �वषयर्य (�म�ा �ान )
के अवा�र भेद ह�। अ�न�, अशु�च, दःु ख और अना� म�
�न�, शु�च, सुख और आ�बु�द्ध करने का नाम अ�वद्या है।
�जसम� आ�ा और अना�ा क� एकता मालूम होये, जैसे-
तु��नवधा ॥३९॥
अथर्- तु�� नौ प्रकार क� है। इसका �भ�- �भ� प्र��
आचायर् आगे के सूत्रो ं म� आप ही कर�ग।े अतः यहाँ �ा�ा
�लखना �थर् है।
�स�द्धर�धा ॥४०॥
अथर्- �स�द्ध आठ प्रकार क� है, इसका प्र�� भी आगे
�लख�गे। अब पूवर् कहे �ए �वषययर्, प्रश��, तु�� और �स
-�द्ध के भेदो ं क� �ा�ा आगे के चार सूत्रो ं म� कर�गे।
एव�मतर�ाः ॥४२॥
इसी प्रकार अश�� के भेद भी पूवार्चाय� के कथनानुसार
समझने चािहये।
देवा�दप्रभेदा ॥४६॥
अथर्- देव आिद सृ�� के प्रभेद ह�, अथार्त् एक दैवी सृ��,
दूसरी मनु�ो ं क� सृ�� है। यहाँ पर देव और मनु�ो ं के कहने
से यह न समझना चािहये, िक देवता जैसे और साधारण
मनु� मानते ह�, वही ह�, िक�ु �वद्वानो ं का नाम देव है और
जो �म�ा बोलते ह� वे मनु� ह�। िक�र, ग�वर्, �पशाच
आिद यह सब मनु�ो ं के ही भेद ह�, जैसा िक श्रु�तयाँ कहती
ह�।
"स�ं वै देवा अनृतं मनु�ाः, �वद्वा सो िह देवाः" इ�ािद ।
और मह�ष क�पल जी को भी यही बात अभी� (मं जूर) है,
जैसािक उ�ोनं े आगे ५३ वे सूत्र म� प्र�तपादन िकया है। अब
सृ�� का प्रयोग कहते ह�—
श्रावृ���त्रा�ु�रो�रयो�नयोगाय ॥५२।।
अथर्- उन ऊपर के और नीचे के देशो ं म� भी आवृ�� योग
रहता है, अथार्त् जब वहाँ गये तब सा�� क� वृ�� रहो, और
यहाँ रहे तब वही रजोगुण िफर आ गया, और वहाँ भी छोटी
बड़ी जा�तयाँ होती ह�, उनम� ज� होने से ठीक- ठीक स�
नही ं रहता ; इस वा�े ऐसा �वचार करना सब तरह छोड़ने
यो� है। और भी इस प� को पु� करते ह�।
उ०- �भावा�े��तमन�भस�ानाभृ�वत्
॥६१॥
कमार्कृ�ोऽना�दतः॥६२॥
अथर्- - अथवा कम� के अनािद प्रवाह के वश होकर प्रकृ �त
सृ�� को करती है। अब इससे आगे सृ�� क� �नवृ�� के
कारणो ं को कह�गे—
नैका�तोव�मो�ौ पु�ष�ा�ववेकाहते॥७१॥
अथर्- पु�ष को ब� मो� �ाभा�वक नही ं है, िक�ु
अ�ववेक ही से होते ह�।
अ�धका�रप्रभेदा� �नयमः॥७६॥
अथर्- कोई मूखर् बु�द्ध वाले होते ह�, कोई �वल�ण (श्रे�)
बु�द्ध वाले होते ह�। इस कारण एक ही ज� म� सबको �ववेक
(�ान ) हो जाये, यह �नयम नही ं है, िक�ु श्रे� अ�धकारी
एक ज� म� भी �ववेक हो सकता है।
बा�धतानुवृ�ा म��ववेकतोऽ�पभोगः
॥७७ ॥
अथर्- �जसको �ववेक सा�ा�ार हो भी गया है, उसको भी
कम� का भोग भोगना होगा ही, �ोिं क यद्य�प कमर् एक बार
बा�धत भी कर िदये जाते ह�, तथा�प उनको अनु�� होती है।
जीव�ु�� ॥७८॥
अथर्- जब �ववेक हो जाता है तब इस शरीर क� मौजूदगी
म� भी मु� हो सकता है, उसको ही जीव�ु� कहते ह�।
अब जीव�ु� होने का उपाय भी कहते ह�।
श्रु�त� ॥८०॥
"तिद्व�ानाथर् सगु�मेवा�भग�े त् स�म�ा�ण:
राजपुत्रव��ोपदेशात् ॥१॥
अथर्- पूवर् सूत्र से यहाँ �ववेक क� अनुवृ�� आती है। राजा
के पुत्र के समान त�ोपदेश होने से �ववेक होता है। यहाँ
यह कथा है, िक काई राजा का पुत्र गं डमाला रोग से यु�
उ�� �आ था, इस कारण वह शहर म� से �नकाल िदया
गया, और उसको िकसी शवर (भील ) ने पाल �लया। जब
वह बड़ा हो गया, तब अपने को भी शवर मानने लगा ।
काला�र म� (कु छ िदनो ं के बाद ) उस राजपुत्र को जीता
�आ देखकर कोई वृद्ध म�ी बोला- हे व� (पुत्र ) तू शवर
नही ं है, िक�ु राजपुत्र है, ऐसे वा�ो ं को सुनकर वह
राजपुत्र शीघ्र ही उस शवरमाव के मान को �ागकर
सा��क राजभाव को धारण करने लगा, िक म� तो राजा
�ँ । इस प्रकार �चरवद्ध जीव भी अपने को बद्ध मानता है,
�पशाचवद�ाथ�पदेशेऽ�प ॥२॥
अथर्- एक के वा�े जो उपदेश िकया जाता है, उससे दूसरा
भी मु� हो जाता है, जैसे- एक समय श्रीकृ � जी अजुर्न
�पतापुत्रवदभ
ु यो प्र�ात् ॥४॥
अथर्- �ववेक के द्वारा प्रकृ �त और पु�ष दोनो ं ही िदखते ह�।
��ा�- कोई मनु� अपनी ग�भणी �ी को छोड़कर परदेश
गया था, जब वह आया देखता �ा है, िक पुत्र उ�� होकर
पूरा युवा हो गया, लेिकन न तो वह पुत्र जानता है, िक यही
मेरा �पता है, और न वह पु�ष जानता है, िक यही मेरा पुत्र
है, तब उस �ी ने दोनो ं को प्रबोध ( �ान ) कराया, िक यह
अिह�नव�यनीवत् ॥६॥
अथर्- जैसे साँप पुरानी क� चुली को छोड़ देता है, इसी तरह
मुमु�ु (मो� क� इ�ा करने वाले ) को �वषय �ाग देने
चािहये।
���यो�र�� ।।१८॥
अथर्- देखने म� आया है, िक उस श्रवण से इ� को ही
�ववेक �ान �आ, �वरोचन को नही ं ; �ोिं क इ� ने तो उस
उपदेश का �वचार िकया था।
प्रण�तब्रह्मचय�पसपर्णा�न कृ �ा �स�द्धयर्�-
कालात् तद्वत् ॥१९॥
न भोगादागशा��मु�नवत् ॥२७॥
अथर्- भोगो ं को पूणर्�प से भोगने से भी राग को शा�� नही ं
होती, जैसे- सौभ�र नाम वाले मु�न ने भोगो ं को खूब अ��
तरह भोगा, लेिकन उससे कु छ भी शा�� न �ई। मृ�ु के
समय उन महा�ा ने ऐसा कहा भी था िक—
दोषदशर्नादभ
ु योः ॥२८॥
अथर्- प्रकृ �त और प्रकृ �त के काय� के दोष, इन दोनो ं के
देखने से रागो ं को शा�� होती है, और �जसका �च� राग-
द्वेष इ�ािद को से यु� है, उसको उपदेश फल का देने
वाला नही ं होता।
न म�लनचेत�ुपदेशबीजप्ररोहोजबत् ॥२९॥
अथर्- रागािद को से म�लन �च� म� उपदेश �प �ान वृ�
का बीज नही ं जमता । राजा अज के समान, राजा अज क�
इ�मु ती �ी थी, उस �ी से राजा का बड़ा भारी प्रेम था ।
पा�रभा�षको वा ॥५॥
अथर्- कमर् का फल अपने आप होता है, ऐसा मानने से एक
दोष और भी प्रा� होता है, वह दोष यह है िक ई�र के वल
नाममात्र ही रह जायेगा, �ोिं क कम� का फल तो आप ही
हो जाता है, िफर ई�र क� �ा आव�कता रही। और
ई�र के नाममात्र ही रह जाने म� यह भी दोष होगा, िक
वतर्मान सं सार क� �स�द्ध भी न हो सके गी।
न रागाहते त���द्धःप्र�त�नयतकारण�ात्
॥६॥
अथर्- ई�र सृ�� क� �स�द्ध म� प्र�त �नयत कारण है, उसके
�बना के वल राग से अथार्त् प्रकृ �त महदािदको ं से सं सार क�
�स�द्ध नही ं हो सकती।
प्र०- ई�र, जीव �पधारी प्रकृ �त का सही है, और उस म�
प्रकृ �त के सं योग होने से रागािदक भी ह� ?
स��ाभावा�ानुमानम् ॥११॥
अथर्- जबिक ई�र का सं सार से उपदान कारण �प सं ब�
ही नही ं है, तब ऐसा अनुमान करना िक ई�र ही से जगत्
उ�� �आ है, �थर् है।
�नयतधमर्सािह�मुभयोरेकतर� वा �ा��:
॥२९॥
अथर्- �जन दो पदाथ� का �ा�- �ापक भाव होता है, उन
दोनो ं पदाथ� म� से एक का अथवा दोनो ं का जो �नयत धमर्
है, उसके सािह� ( साथ रहने का �नयम ) होने को �ा��
कहते ह�। �वशेष �ा�ा इस तरह है, िक जैसे पहाड़ पर
आग है, �ोिं क धुंआ िदखता है । जहाँ- जहाँ धुआँ होता
है, वही-ं वही ं आग भी अव� होती है। इसका नाम ही
�ा�� है। इससे यह जानना चािहये, िक धुआँ �बना आग
�नजश�ुद्भव�म�ाचायार्ः ॥३१॥
अथर्- जो �ा� क� श�� से उ�� िकसी �वशेष श��
का �प हो, वही �ा�� आचाय� के मत म� मानने लायक
है। इस सूत्र का आशय इस ��ा� से समझाना चािहये, िक
�ा� जो अ�� है, उसक� ही श�� से धुआँ उ�� होता
है, और वह धुआँ आग क� िकसी �वशेष श�� का �प है।
इसी तरह के पदाथर् को �ा�� कहते ह� और �जस म� यह
बात नही ं है, वह �ा�� िकसी प्रकार नही ं हो सकती।
प्र०- धुआँ आग क� श�� से पैदा नही ं होता है, गीले �धन
क� श�� से पैदा होता है ?
उ०- यह कहना ठीक नही ं है, यिद गीले �धन म� ऐसी श��
होती तो वायु (हवा) के सं योग होने से �धन म� से धुंआ �ो ं
नही ं उ�� होना पर�ु ऐसा देखने म� नही ं पाता ; इससे यह
�वशेषणानथर्�प्रस�ः ॥३४॥
अथर्- �वशेषण देना �थर् हो जायेगा, जैसे कहा गया है, िक
ब�त धुएँ वाली आग है । इस वा� म� 'ब�त' श� �वशेषण
है, और 'धुआँ �वशे� है। इसी तरह 'धुआँ आधेय है, और
आग आधार है। यिद धुएँ को अ�� क� ��पश�� मान
ल�, तो ब�त श� को �ा मान� ; �ोिं क उस 'ब�त' श�
को अ�� क� ��पश�� नही ं मान सकते, और उस वा�
प�वा�द�नुपप�� ॥३५॥
अथर् जैसे िक प�ो ं का आधार पेड़ है, और �ा�� का ल�ण
��पश�� मानकर वृ� क� श����प जो प�े ह�, वही
�ा�� के कहने से ग्रहण हो सकते ह�। इस प्रकार मानने म�
यह दोष रहेगा, िक जैसे वृ� क� ��पश�� प�ो ं को मान
�लया, और वही �ा�� भी हो गई, तो प�ो ं के टू टने पर
�ा�� का भी नाश मानना पड़ेगा। यिद �ा�� का नाश
माना जायेगा, तो बड़ा भारी झगड़ा उ�� हो जायेगा, और
प्र��वादी चावार्क ना��क का मत पु� हो जायेगा, इस
वा�े ऐसा न मानना चािहये, िक आधार क���पश��
न �त्र�भरपौ�षेय�ाद्वेद� तदथर्�ाती��य-
�ात् ॥४१॥
अथर्- आपने जो तीन प्रमाण िदये उन प्रमाणो ं से वेद के अथर्
क� प्रती�त नही ं हो सकती, �ोिं क मनु�-मनु� क� बात
मु�ामु�योरयो��ात् ॥४७॥
अथर्- जीव भी दो प्रकार के होते ह�- एक तो मु�, दूसरे
अमु�। यह दोनो ं प्रकार के जीव वेद के बनाने के
अ�धकारी नही ं ह�। कारण यह है िक मु� जीव म� वह
श�� नही ं रहती, �जससे वेद बना सके , और बद्ध जीव
अ�ानी अ�� (थोड़ा जानने वाला) इ�ािद दोषो ं से यु�
होता है और वेद म� इस प्रकार क� बात� देखने म� आती है,
जो �बना सवर्� के नही ं हो सकती, और जीव अ�� है, इस
प्रमाण से भी वेदो ं क� �न�ता �सद्ध हो गई। इसी �वषय को
और भी �ढ़ करते ह�।
न सतोवाघदशर्नात् ।।५३॥
अथर्- जो पदाथर् सत् है उसका बाध िकसी तरह नही ं हो
सकता और वेद सत् माने गये ह�, इस वा�े ऐसा कहना नही ं
बन सकता िक वेदाथर् नही ं है।
प्र०- वेदाथर् है या नही,ं ऐसा झगड़ा �ो ं िकया जाये, यही
न कह िदया जाये, िक वेद का अथर् है तो,पर�ु अ�नवर्चनीय
है।
सदस��ा�तवार्धावाधात् ।।५६॥
सिक्रय�ाद्ग�तश्रुतेः॥७०॥
अथर्- मन िक्रया वाला है इस�लये मन हर एक इ��यो ं के
�ापार और प्रवृ�� का हेतु है, ग�त वाला भी है।
प्र०यिद मन को �न� नही ं मानते तो मत मानो, लेिकन
�न�वभाग, कारण रिहत तो मानना होगा।
न�वशेषग�त��य� ॥७६॥
अथर्- यिद �वशेष ग�त अपर नीचे का जाना, आना अथार्त्
ब्रह्मलोक क� प्रा�� इ�ािदक को ही मु�� माने सो भी नही ं
हो सकती, �ोिं क प्रधान तो िक्रया शू� है जो कु छ उसम�
िकया िदखती है वह सत्र पु�ष के सं सगर् (मेल) से है, पर�ु
आप ऐसी श�� को नही ं रखता।
ने�ा�दपदयोगोऽ�पतद्वत् ॥८३॥
अथर्- पु�ष के सं योग से इ�ािद पद क� प्रा�� का होना
प्रधान क� मु�� का ल�ण नही ं हो सकता, �ोिं क वह सब
नाशवान ह� । अब "अहङ्का�रकश्रुतेनर्भौ�तका�न" इस सूत्र म�
जो वात सू� री�त से कही है उसको कहते ह�—
उ०- म षट्पदाथर्�नयम�बोधा�ु��ः॥८५॥
अथर्- पदाथर् छः ही ह� ऐसा कोई �नयम नही ं ; िक�ु पदाथर्
असं � (बेशुमार ) ह�। अभाव जानने के वा�े असं �
पदाथर् ह�, तो छः पदाथ� के जानने से मु�� नही ं हो सकती।
षोड़शा�द��ेवम् ॥८६॥
अथर्- गौतमािदको ं ने जो सोलह पदाथर् माने ह� और �जन-
�जन मह�षयो ं ने प�ीस पदाथर् माने ह� उनके जान लेने से
भी मु�� नही ं हो सकती; �ोिं क पदाथर् तो असं � ह�।
उ०- नाणु�न�यतात�ायर्�श्रुतेः॥८७॥
अथर्- पृ�ी आिद के अणुओ ं क� �न�ता िकसी प्रकार प्रा�
नही ं हो सकती, �ोिं क श्रु�तयाँ उनको कायर् �प कहती ह�
और एक यु�� भी है। जब पृ�ी आिद साकार है तो उनके
अणु भी साकार हो सकते ह�। जब साकारता प्रा� हो गई
तो िकसी के कायर् भी ज�र �ए, इस कारण पृ�ी आिद के
अणुओ ं को �न� नही ं कह सकते। यहाँ अणु का अथर्
परमाणु नही,ं उससे �ूल है।
प्र०- आप अणुओ ं को �न� नही ं मानते तो मत मानो;
लेिकन उनका कोई कारण नही ं िदखता, इस वा�े उनको
कारण रिहत मानना चािहये ?
न स���न�तोभया�न��ात् ।।९७॥
अथर्- घटािद पदाथ� का स�� �न� नही ं है, �ोिं क सं �ा
और सं �ी यह दोनो ं अ�न� ह�। ता�यर् यह है िक जो घड़ा
घट नाम से पुकारा जाता है उस घड़े के नाश होते ही उसक�
सं �ा का भी नाश हो जाता है, �ोिं क उस घड़े के टू टने पर
उस को िफर घड़ा नही ं कह सकते ह� िक�ु कपाल (ठीकरा)
कह सकते ह�। जबिक िफर दूसरा घड़ा नजर आया तो
उसक� दूसरी घट सं �ा �ई। दूसरी घट सं �ा के होने से
समता कहां रही, जब समता ही नही ं है तो प्र��भ�ा कै सी?
�ोिं क वह प्र��भ�ा उसी पदाथर् म� होती है �जसको कमी
उभयत्रा��था�सद्धनर् प्र��मनुमानं वा
॥१००॥
अथर्- घड़ा �मट्टी से बना है व बना होगा, इन दोनो ं तरह के
�ानो ं म� अ�था �स�द्ध है, इस वा�े समवाय को मानने क�
कोई ज�रत नही।ं इस सूत्र का �� भाव यह है िक घट का
उपादान कारण �मट्टी है और यह बात प्र�� िदखती है िक
�मट्टी से ही घड़ा बनता है और अनुमान भी िकया जाता है।
इस प्रकार यह भी उ� (कहे �ये) प्रमाणो ं से �सद्ध (
सा�बत) �आ िक �बना �मट्टी के घड़ा नही ं बन सकता है,
इस�लये घट और �मट्टी का स�� �आ, लेिकन समवाय
कोई स�� नही ं है ।
न देशभेदेऽ��ोपादानता�दा �दव��यमः
॥१०९।।
ऊ�जा�जजरायुजो�द्भ�सांक��क सां�स-
िद्वकं चे�त न �नयमः ॥१११॥
अथर्- (१) उ�ज (जो पसीने से पैदा होते ह�, जैसे लीख
आिद); अ�ज (जो अ�े से पैदा होते ह�, जैसे मुग�
आिद); (३) जरायुज (जो �म�ी से पैदा होते ह�, मनु�
आिद);(४) उ�द्भज (जो जमीन को फोड़कर पैदा होते ह�,
पेड़ आिद); (५) सांक��क (जैसे सृ�� के आिद म� �बना
माता-�पता के देवऋ�ष पैदा होते ह� । (६) सां�स�द्धक (जैसे
खान म� धातु बनते ह�। आचायर् (क�पल जी) ने यही छः
प्रकार क� सृ�� मानी है। लेिकन इन छः प्रकार के �सवाय
और िकसी तरह क� सृ�� नही ं है, ऐसा �नयम भी नही;ं
�ोिं क शायद िकसी दशा म� भूतो ं क� सृ�� इनसे अ�
न िक��द�नुश�यनः ॥१२५॥
आश्रया�सद्धे� ॥१२७॥
अथर्- जीव बु�द्ध का आश्रय हो ही नही ं सकता। इनका
सं बं ध इस तरह है, जैसे �िटक और फू ल का है; इस वा�े
प्र�त�ब� कहना चािहये, आश्रय नही ं । इस �वषय पर यह
स�ेह होता है िक आचायर् योग क� �स�द्धयो ं को सही मानते
योग�सद्धयोऽ�ौषधा�द �स�द्धव�ापलपनीयाः
॥१२८॥
अथर् जैसे औष�धयो ं क� �स�द्ध होती है अथार्त् एक- एक
औषध से अनेक रोगो ं क� शा�� होती है, इसी तरह योग
क� �स�द्धयो ं को भी जानना चिहये। क�पलाचायर् पु�ष को
चैत� मानते ह�, अतएव जो पृ�ी आिद भूतो ं को चैत�
मानते ह� उनके मत को दोषयु� ठहरा कर अ�ाय को
समा� करते ह�।
ष�ी�पदेशाद�प ॥३॥
अथर्- मेरा यह शरीर है, इस पाठी�पदेश से भी आ�ा का
देह से �भ� पदाथर् होना �सद्ध है। यिद देहािदक ही आ�ा
होते तो मेरा यह शरीर है ऐसा कहना नही ं हो सकता था।
ऐसे कहने से ही प्रतीत होता है िक 'मेरा यह कोई और व�ु
है, यह शरीर कोई और पदाथर् है, एक नही।ं
न �शलापुत्रवद्व�मग्राहकमानबाधात् ॥४॥
अथर्- �शला के पुत्र का शरीर है, इस प्रकार यिद ष�ी का
अथर् िकया जाये तो भी ठीक नही ं हो सकता, �ोिं क
ध�मग्राहक अनुमान से बाध क� प्रा�� आती है। (भाव
इसका यह है िक) यिद ऐसा कहा जाये िक प�र का पुत्र
अथार्त् जो प�र है वही प�र का पुत्र है, इसम� कोई भी
भेद नही ं िदखता। इसी प्रकार जो आ�ा है वही शरीर है,
सुखलाभाभावादपु�षाथर्��म�त चे�द्वै�द�ात्
॥९॥
अथर्- जबिक िकसी को भी सुख प्रा� नही ं होता तो मु��
के वा�े उपाय करना �न�ल है, �ोिं क मु�� म� भी सुख
नही ं प्रा� हो सकता, ऐसा न समझना चािहये । सुख भी दो
प्रकार के ह�- एक मो� है, वह सुख और प्रकार का है, उसम�
अपु�षाथर्�म�था ।।१८॥
अथर्- यिद मु� का ब� योग माना जाये तो अपु�षाथर्�
�सद्ध होता है।
दाढयार्थर्म�
ु रेषाम् ॥२३॥
अथर्- जो अ� ह� उनको �ढ़ता के �लये उ�चत है िक श्रवण,
मनन आिद योग के अंगो ं का अनु�ान कर� तो कु छ िदनो ं के
बाद मु�� को प्रा� हो सक� गे।
उभयथा��वशेष��ैवमुपराग�नरोधािद्वशेष:
॥२६॥
अथर्- समा�ध और सुषु�� इन दोनो ं म� अ�वशेष अथार्त्
समानता है, ऐसा नही ं कहना चािहये। �ोिं क समा�ध म�
उपराग (�वषय- वासना) को रोकना पड़ता है, इस�लए
सुषु�� क� अपे�ा समा�ध �वशेष है।
जवा��टकयो�खनोपरागःिक���भमानः
॥२८॥
अथर्- जैसे जवा का फू ल और �िटकम�ण को धोरे रखने
से उपराग होता है, वैसा उपराग पु�ष म� नही ं है, िकंतु
अ�ववेक के कारण से पु�ष म� �वषय-वासनाओ ं का
अ�भमान कहना चािहये।
�ानधारणा�ासवैरा�ा�द�भ��नरोधः
॥२९॥
अथर्- �ान, धारणा, अ�ास, वैरा� आिद को से �वषय-
वासनाओ ं का �नरोध ( �कावट) हो सकता है।
लय�व�ेपयोवृ�े�ाचायार्ः ॥३०॥
सांख्य दर्शन 314
अथर्- लय (सुषु��) �व�ेप (�� इन दोनो ं अब�ाओ ं के
�नवृ� होने से �वषय- वासनाओ ं का �नरोध हो जाता है, यह
आचाय� का मत है।
न �ान�नयम���प्रसादात् ॥३१॥
अथर्- समा�ध आिद के करने के वा�े �ान का कोई �नयम
नही ं है, जहाँ �च� प्रस� हो वही ं समा�ध हो सकती है।
द्वा�ाम��वरोधा� पूवर्म�
ु रं च साधकाभा-
चात् ॥४८॥
अथर्- द्वैत, अद्वैत इन दोनो ं से हमारा कोई �वरोध नही ं है ;
�ोिं क ई�र अद्वैत तो इस�लये है िक उसके बराबर और
कोई नही ं है। द्वैत इस वा�े है िक जीव और प्रकृ �त के गुण
ई�र क� अपे�ा और प्रकार के मालूम होते ह�, इस वा�े
ऐसा न कहना चािहये िक पिहला प� स� है वा दूसरा ;
�ोिं क एक प� क� पु�� करने वाला कोई प्रमाण नही ं
प्रकारा�रासस्भवात् सद�
ु ��ः ॥५३॥
अथर्- जबिक प्रकृ �त के �सवाय और कोई कारण इसका
िदखता नही,ं तो ऐसा कहना चािहये िक इसक� उ���
असत् पदाथर् से नही ं है, िक�ु सत् पदाथर् से ही है।
अन�ध����पू�तभावप्रसं गानत���द्धः॥६०
॥
अथर्- यिद आ�ा इस शरीर का अ�ध�ाता न हो, तो शरीर
म� दगु र्� आने लगे, इस कारण प्राण को शरीर का
अ�ध�ाता नही ं कह सकते ह�
महतोऽ�त् ॥६६॥
अथर्- इसी प्रकार इ��यो ं को त�ात्राओ ं का कतार् भी
मह�� के �सवाय िकसी को मानना चािहये। वह कतार्
अहंकार ही है।