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पाठ का प्रारूप
1. पाठ का उद्देश्य
2. प्रस्तािना
3. हिरेचन का इहतिाि
4. हिरेचन और त्रािदी का िम्बन्ध
5. हिरेचन की कलापरक व्याख्या
6. हिरेचन की धमषपरक व्याख्या
7. हिरेचन की नीहतपरक व्याख्या
8. हनष्कषष
2. प्रस्तािना
कै थार्मिि या हिरे चन हिद्धान्त के प्रहतपादक ग्रीि के दाशषहनक और िैज्ञाहनक अरस्तू िैं। अरस्तू प्लेटो के िबिे योग्य और
हप्रय हशष्य माने जाते िैं। किा जाता िै कक अरस्तू की प्रहतभा िे प्रभाहित िोकर प्ले टो ने किा था कक “मेरे हिद्यापीठ के दो
भाग िैं-एक िै शरीर और दूिरा महस्तष्क। मेरे अन्य िभी छात्र शरीर िैं और अरस्तू महस्तष्क िै।” (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-
देिेन्रनाथ शमाष, पृ.20)
अरस्तू ने काव्य और नाटक िे जुडे हुए कई हिद्धान्त कदये। अपने गुरु प्लेटो के कई हिद्धान्तों में िंशोधन भी ककया। अरस्तू
की कृ हतयां यूनानी (ग्रीक) भाषा में िैं। यूनानी भाषा के बहुत िारे शब्दों की अथषित्ता या अथषछटा अंगरे जी में यथाित
व्यक्त निीं िो पाती। उदािरण के रूप में ‘हममेहिि’ शब्द को देखा जा िकता िै। अंगरे जी में अनूकदत िोने पर इिे
‘इहमटेशन’ किते िैं। लेककन हिद्वानों का मानना िै कक यि ‘हममेहिि’ का िटीक अनुिाद निीं िै। यूनानी शब्द ‘हममेहिि’
के भाि अंगरे जी का यि शब्द ठीक व्यक्त निीं कर पाता।
काव्यशास्त्र िे जुडे अरस्तू के हिद्धान्तों में काव्य और अनुकरण, त्रािदी की अिधारणा और हिरे चन का हिद्धान्त प्रमुख िै।
ििषप्रथम अरस्तू ने िी त्रािदी का हिशद हििेचन ककया।
अरस्तू के अनुिार हिरे चन अथाषत् भािों का शुहद्धकरण ककिी भी त्रािदी का उद्देश्य िोता िै। अरस्तू का मानना था कक
स्िास््य के हलए हजि प्रकार शारीररक मल का हनष्कािन और शोधन जरूरी िै, उिी प्रकार मानहिक मल का हनष्कािन-
शोधन भी आिश्यक िै। मनुष्य के मन में जो हिहिध भाि िोते िैं , जैिे ईष्याष, द्वेष, लोभ, मोि, क्रोध, क्रूरता आकद, ये
मानहिक हिकार भी मनुष्य को मानहिक रूप िे अस्िस्थ कर देते िैं। स्िस्थ रिने के हलए इन मनोभािों की मात्रा का
िन्तुलन भी जरूरी िोता िै।
अरस्तू ने हिरे चन का हिद्धान्त हचककत्िाशास्त्र िे ग्रिण ककया था। हिरे चन भारतीय हचककत्िा-पद्धहत आयुिद
े का एक
पाररभाहषक शब्द िै और ‘कै थार्मिि’ यूनानी हचककत्िाशास्त्र का एक पाररभाहषक शब्द िै। अरस्तू ने अपने प्रहिद्ध ग्रन्थ
पोइरटक्ि में त्रािदी के िन्दभष में हिरे चन का हजक्र ककया िै। हिरे चन का िामान्य अथष िोता िै भािों का शुहद्धकरण।
हिन्दी में इिका अनुिाद रे चन, हिरे चन तथा पररष्करण शब्दों के रूप में ककया गया िै। इनमें हिरे चन शब्द ििाषहधक
प्रचहलत िै।
अरस्तू (384 ई.पू.- 322 ई.पू.) का जन्म मकदूहनया के स्तहगरा नामक शिर में हुआ था। उनके हपता यूनानी िम्राट
किहलप के राजिैद्य थे। उन्िोंने शारीररक कष्टों के हनिारण के हलए औषहध द्वारा हिकारों को उभारकर उनका शमन िोते
देखा था। िंभितः हिरे चन के हिद्धान्त की प्रेरणा अरस्तू ने अपने हपता िे प्रभाहित िो कर िी ली थी। अरस्तू का लालन-
पालन िुिंस्कृ त, िम्पन्न और अहभजात पररिेश में हुआ था। हिद्वानों का मानना िै कक उनकी इि परिररश की छाप उनके
माना जाता िै कक यूनान की प्रगहत के पीछे अरस्तू और उनके ज्ञान का बहुत बडा योगदान था। उन्िोंने दशषनशास्त्र,
राजनीहतशास्त्र, काव्यशास्त्र और भाषणशास्त्र आकद पर िमान अहधकार कदखाया। इिी के िाथ िी भौहतकहिज्ञान,
जीिहिज्ञान, िनस्पहतहिज्ञान, मनोहिज्ञान आकद हिधाओं में उनकी जानकारी का लोिा दुहनया मानती िै। स्ियं अरस्तू का
मानना था कक मनुष्य को ‘ज्ञान की िभी शाखाओं में अबाध गहत’ िे चलना चाहिए। किना न िोगा कक अपने कथन को
उन्िोंने अपने ऊपर लागू करके कदखाया।
किा जाता िै कक उन्िोंने करीब चार िौ ग्रन्थ हलखे िै। दुभाषग्य िे उनके अहधकतर ग्रन्थ आज उपलब्ध निीं िैं। उनके
प्रहिद्धतम ग्रन्थ का यूनानी नाम ‘पेरर पोएहतके ि’ िै। इिका अंग्रेज़ी रूपान्तर िै ‘ऑन पोइरटक्ि’ ककन्तु िि के िल
‘पोएरटक्ि’ नाम िे प्रहिद्द िै। एक िजार िे भी अहधक िषों के बाद ‘पेरर पोएहतके ि’ हिस्मृहत के गभष िे हनकल कर
हिद्वानों के िामने आया।
3. हिरेचन का इहतिाि
‘पेरर पोएहतके ि’ लगभग पचाि पृष्ठों की छोटी-िी पुस्तक िै। इिमें 26 अध्याय िैं। अरस्तू मुख्य रूप िे तकष प्रिण
दाशषहनक िैं। पोएरटक्ि में हिरे चन का उल्लेख मात्र िै, उिका थोडा स्पष्टीकरण राजनीहत शास्त्र में हमलता िै.
यूनानी पद ‘कथार्मिि’ के हलए हिदी में ‘हिरे चन’ पद प्रचहलत िै। कु छ हिद्वान इिके हलए ‘शुहद्धकरण’ पद का भी प्रयोग
करते िैं। हजि तरि आयुिेद में ‘हिरे चन’एक पाररभाहषक शब्द माना जाता िै, उिी प्रकार यूनानी हचककत्िाशास्त्र में
‘हिरे चन’ भी एक पाररभाहषक शब्द िै। हचककत्िा शास्त्र में इिका अथष िै – रे चक औषहधयों द्वारा शरीर के अनािश्यक
अस्िास््यकर पदाथष को बािर हनकालना। अरस्तू ने हचककत्िा शास्त्र के एक शब्द को िौन्दयष शास्त्र के एक अथष गर्मभत
स्थायी उपकरण के रूप में पररणत कर कदया।
आयुिेद के अनुिार मनुष्य के शरीर में तीन दोष िोते िैं-िात, हपत्त और कि। शरीर में जब तक इनका अनुपात प्राकृ हतक
रूप िे ठीक रिता िै तब तक मनुष्य का शरीर भी स्िस्थ रिता िै। इनका अनुपात जब हबगड जाता िै तब मनुष्य का
स्िास््य भी हबगडने लगता िै। इि प्रकार शरीर में रोग अपना घर बनाने लगते िैं। शरीर के रोग को दूर करने के हलए
िात, हपत्त और कि को किर िे अनुपात में लाना बहुत िी आिश्यक िोता िै।
शरीर में िंहचत दोष को हनकालने के हलए िमेशा औषहध िी पयाषप्त निीं िोती। कभी-कभी औषहध के िाथ कु छ शारीररक
कक्रयाएं भी रोगी को करनी पडती िैं। या यूं किें कक आयुिेदाचायष रोगी के शरीर को कु छ कक्रयाएं करने के हलए बाध्य करते
िैं। ये कक्रयाएं कई प्रकार की िो िकती िैं। अतः इनका पाररभाहषक नाम भी अलग-अलग िै। इन्िीं में िे एक कक्रया िमन
(कै ) किलाती िै। मनुष्य के अमाशय में िंहचत मल के हनष्कािन के हलए रोगी िे ‘िमन’ की कक्रया करिाई जाती िै। इिी
तरि पेट में िंहचत मल को हनकालने के हलए रोगी िे हिरे चन (दस्त) की कक्रया करिाई जाती िै।
हिरे चन मल-हनष्कािन द्वारा शरीर-शोधन तथा हत्रहिध दोषों में िाम्यािस्था के हनष्पादन की अन्यतम प्रकक्रया या हिहध
को किते िैं। इिकी ििायता िे अहतररक्त तथा व्याहधकारक मल शरीर िे बािर हनकल जाता िै। मल के हनकलने िे शरीर
किर िे अपना िन्तुलन प्राप्त करने लगता िै। इि प्रकार रोगी की व्याहध हमटने लगती िै और धीरे -धीरे उिका शरीर
स्िस्थ िोने लगता िै।
स्िास्थय के हलए हजि प्रकार शरीर के मल-मूत्र का शरीर िे बािर हनकलना जरूरी िै, उिी प्रकार मन के स्िास््य के
हलए मानहिक मल का हनष्कािन और शोधन भी जरूरी िै। ईष्याष , द्वेष, लोभ क्रोध, मोि, क्रूरता, अिंकार आकद मानहिक
आयुिेद में हिरेचन शब्द का प्रयोग शारीररक मल के शोधन के हलए िी रूढ़ िै। धीरे -धीरे इि शब्द का अथष हिस्तार भी
हुआ िै। िाहित्य में इिका व्यििार भाि-शोधन के हलए भी ककया जाने लगा िै। इिीहलए अरस्तू के ‘कथार्मिि’ के अनुिाद
के रूप में इिे हिदी में प्रचहलत ककया गया िै।
इि शब्द पर पहश्चम में बहुत हििाद हुए िैं। हिद्वानों में मतभेद देखने को हमले िैं। इि शब्द की धार्ममक, नैहतक, मानहिक
आकद कई प्रकार की व्याख्याएं हुई िैं।
‘कै थार्मिि’ या हिरे चन मूलतः अरस्तू द्वारा कदया गया शब्द निीं िै। यि बहुत िी पुराना शब्द िै। प्लेटो ने भी अपने
हचन्तन में इि शब्द का व्यििार ककया िै। अरस्तू ने इिमें एक नया अथष भरने की कोहशश की िै। नये िन्दभष में इि शब्द
की भंहगमा और भाि भी बदल गये िैं।
‘कै थार्मिि’ या हिरे चन शब्द अरस्तू के पोइरटक्ि में हििष एक बार िी आया िै। इि शब्द का प्रयोग अरस्तू ने त्रािदी के
प्रभाि के प्रिंग में ककया िै.
पोइरटक्ि के छठे अध्याय के आरम्भ में अरस्तू ने त्रािदी की पररभाषा देते हुए हलखा िै, “त्रािदी ककिी गंभीर, स्ितःपूणष
तथा हनहश्चत आयाम िे युक्त कायष की अनुकृहत का नाम िै - हजिमें करुणा तथा त्राि के उरेक द्वारा मनोहिकारों का
उहचत हिरे चन ककया जाता िै।” (पाश्चात्य िाहित्य-हचन्तन- हनमषला जैन, पृ. 59)
अरस्तू ने हिरे चन शब्द की अलग िे कोई व्याख्या निीं की िै। अतः हिहभन्न भाष्यकारों ने इि शब्द की अलग- अलग
व्याख्या की िै। लम्बे िमय तक यि माना जाता रिा कक भािों के हिरे चन अथिा शोधन के द्वारा त्रािदी अथिा दुखान्तक
नैहतक प्रभाि उत्पन्न करता िै।
हिरे चन शब्द का प्रयोग अरस्तू ने मूलतः दो अथों में ककया िै। पिला, त्रािदी हििेचन के प्रिंग में। इिमें उन्िोंने किा िै
कक त्रािदी भय और करुणा के भािों का हिरे चन तभी पूरा करती िै जब-
हिरे चन का दूिरा उल्लेख अरस्तू ने अपने ग्रन्थ पॉहलरटक्ि में करते हुए किा िै कक धार्ममक उन्माद के नृत्य और
िंगीत के द्वारा भी भािों का हिरे चन िोता िै।
िामान्यतः शत्रु हिपहत्त उत्पन्न करते िैं। जिााँ हमत्र हिपहत्त उत्पन्न करते िैं ििााँ िमारा हिहस्मत िो जाना स्िाभाहिक िै।
भय और करुणा के प्रिार के हलए इििे बेितर प्रिंग निीं िो िकता। िंक्षेप में, त्रािदी ककिी श्रेष्ठ नायक द्वारा ऐिे कायष
का िम्पादन िै जो उिे अप्रत्याहशत घटनाओं में डालती हुई अन्ततः अनेपहक्षत अन्त की ओर ले जाती िै जिााँ िि अपने
ककए पर न पछता िकता िै, न उिे िुधार िकता िै। इि हिपहत्त के बीज नायक के चररत्र के एक दोष में हनहित िोते िै।
बीज रूप में हनहित यि दोष नायक को बराबर अग्रेहषत करता िै। उिके हिनाश पर भाग्य भी िाँिता िै। ऐिे िमय पर
िि अनजाने में िि िब कु छ बोलता िै जो दशषकों को उिके अन्त की िूचना देते िैं। मिलन, ‘जूहलयि िीज़र’ नाटक में
िीज़र किता िै, ‘खतरा जानता िै, िीज़र का ख़तरा ख़तरे िे अहधक खतरनाक िै’। यि अहतशय आत्महिश्वाि िी उिे ले
डू बता िै। भाग्य उि पर िाँिता िै। यि िंिी भय और करुणा िे भािों को प्रक्षाहलत करती िै।
इिहलए अरस्तू ने इि बात पर जोर कदया कक त्रािदीकार को नैहतकता और हशक्षा का प्रिार अव्यक्त रूप िे करना
चाहिए। अनैहतक स्थल अपने पूणष िन्दभष में िी िाथषक िैं। कहि न तो खुल्लम-खुल्ला नैहतक आदशों का प्रचारक िो िकता
िै और न आध्याहत्मक हिचारों का प्रितषक िी। नैहतकता-अनैहतकता को काव्य में मूत्तष पररहस्थहतयों के माध्यम िे िामने
आना िोगा।
अरस्तू के अनुिार, कहिता और नाटक में हजन भािनाओं और िािनाओं का हचत्रण िोता िै , मंच पर प्रदशषन िोता िै, िे
मनुष्य के भीतर स्िाथष और अिंभाि िे भरी हुई िाहनकारक भािनाएं निीं रि जाती िैं। कलात्मक अहभव्यहक्त िे हिरे हचत
िो जाने के कारण इन भािनाओं और िािनाओं का उदात्तीकरण और शु हद्धकरण िो जाता िै।
हिरे चन की कलापरक व्याख्या करनेिाले हिद्वानों में िबिे प्रमुख बुचर िैं। ये अरस्तू के पोइरटक्ि के प्रहिद्ध भाष्यकार भी
िैं। बुचर का मानना िै कक “िास्तहिक जीिन में करुणा और भय के भाि दूहषत और कष्टप्रद तत्त्िों िे युक्त रिते िैं।
दुखान्तकीय उत्तेजना में दूहषत अंश के हनकल जाने िे िे कष्टप्रद के बदले आनन्दप्रद बन जाते िैं। बहल्क यों किें कक िे भाि
स्ियं िी शोहधत अथिा हिरे हचत िो जाते िैं।
डॉ. नगेन्र ने इि व्याख्या पर हिचार करते हुए हलखा िै कक हिरे चन की प्रकक्रया के दो पक्ष िोते िैं। पिला अभािात्मक
और दूिरा भािात्मक। करुणा और त्राि का उरेक और उनके शमन िे हनष्पन्न मानहिक िन्तुलन हिरे चन का अभािात्मक
यानी पूिष पक्ष िै। डॉ. नगेन्र के अनुिार अरस्तू ने हिरे चन का हजि अथष में प्रयोग ककया िै उिमें उिकी अभािात्मक
व्याख्या तो हमलती िै, ककन्तु भािात्मक पक्ष की ठीक-ठीक व्याख्या निीं हमलती िै।
8. हनष्कषष
हिरे चन िे अरस्तू का ठीक-ठीक क्या अहभप्राय था, यि पता न िोने के कारण हिरे चन की कई व्याख्याएं हुई िैं। प्रो.
हनमषला जैन ने अनुमान लगाया िै कक अरस्तू के “काव्य-हचन्तन का एक के न्रीय िरोकार यि था कक प्लेटो द्वारा लगाये गये
आक्षेपों के हिरुद्ध काव्य का पक्ष-िमथषन कर िकें । उिके (काव्य के ) पक्ष में दलीलें प्रस्तुत कर िकें ।” (पाश्चात्य िाहित्य-
हचन्तन- हनमषला जैन, पृ. 63)
करुणा और भय मन को िुख देने िाले भाि निीं िोते िैं। किर कहिता और नाटक में आने के बाद ये भाि दशषक या पाठक
को आनन्द कै िे देते िैं? इि मत पर कािी िाद-हििाद चला । अरस्तू ने भी इि प्रश्न का कोई ठीक-ठीक जिाब निीं कदया।
लेककन हिरे चन िे िंबहं धत अरस्तू की अिधारणाओं को जानने के बाद यि किा जा िकता िै कक “िास्तहिक जीिन में
शोधन या हिरे चन का िाहिहत्यक स्िरूप क्या िो, अरस्तू इि पर चुप िैं। अपने लेखन में किीं भी उन्िोंने इिका कोई
िंकेत निीं ककया िै। उनके लेखन िे हििष इतना िी पता चलता िै कक हिरे चन द्वारा िे ककिी कष्टप्रद या अशाहन्तप्रद तत्त्ि
की ओर इशारा करना चािते िैं। अपने ‘शािन शास्त्र’ ग्रन्थ में इि शब्द की जो पररभाषा उन्िोंने दी िै उििे हिद्वानों की
इि धारणा की पुहष्ट िोती देखी जा िकती िै। अरस्तू के अनुिार, “भय घातक या कष्टकर आिन्न अहनष्ट की आशंका िे
उत्पन्न एक प्रकार की पीडा िै।” (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-देिेन्रनाथ शमाष, पृ.57) इि पररभाषा में तीन बातों पर ध्यान
कदया जाना चाहिए। पिली यि कक अहनष्ट ऐिा िो जो घातक प्रतीत िोता िो। दूिरी यि कक िि आिन्न िो और तीिरी
यि कक उिका प्रभाि िम पर िी पडनेिाला िो।
इिी तरि “करुणा घातक या कष्टकर अहनष्ट िे उत्पन्न एक प्रकार की पीडा िै हजिका िम्बन्ध ऐिे व्यहक्त िे िोता िै जो
िस्तुतः उिका पात्र निीं िोता; जैिे ित्य िररश्चन्र नाटक में राजा िररश्चन्र और रानी शैव्या को कष्ट ििते देख िम करुणा
िे भर जाते िैं. अपने ऊपर या ककिी अत्मीय के ऊपर इि अहनष्ट के हनकट भहिष्य में घरटत िोने की िमें आशंका बनी
रिती िै।” (ििी, पृ. 57) मानना चाहिए कक अरस्तू के अनुिार करुणा और भय, दोनों िी पीडादायक भाि िै। त्रािदी या
काव्य िमारे इन्िीं भािों का हिरे चन करने की कोहशश करते िैं।
अरस्तू का किना िै कक िस्तुत: भािों का दमन हितकर निीं िाहनकर िै। उन्िें दहमत करने के बदले िंतुहलत रखना
िांछनीय और आिश्यक िै। दुखान्तक भािों का उरेक करता िै, िि उरेक स्थायी निीं िोता ककन्तु भािों में िामंजस्य और
िन्तुलन आता िै। मन एक प्रकार की आनन्दप्रद हिश्राहन्त का अनुभि करने लगता िै। इििे भािात्मक रुग्णता दूर िो
जाती िै।
यि व्याख्या िोम्योपैथी के अनुकूल िै हजिका हिद्धान्त िै - िम: िमं शमयहत. करुणा और भय के भाि उकरक्त िोकर मन
में हिद्यमान करुणा और भय का शमन कर देते िैं, हजििे मन पिले की अपेक्षा स्िस्थ िो जाता िै। िास्तहिक जीिन में
करुणा और भय के भाि दुःख िे िंिहलत अिश्य िोते िैं ककन्तु कलात्मक प्रकक्रया के िैहशष्य के कारण दुखद अंश हिलुप्त
िो जाता िै और शुद्ध आनन्द बचा रिता िै।
हिरे चन िे के िल भािनात्मक शाहन्त िी निीं हमलती, बहल्क भािों का पररष्कार भी िोता िै, भले िी िः अस्थायी िो। डॉ
नगेन्र का कथन िै कक ििल त्रािदी का चमत्कार मूलत: रागात्मक िै, यि हिरेचन प्रकक्रया द्वारा भािों को उद्बुद्ध करती
िै, उनका िमंजन करती िै और इि प्रकार आनन्द की भूहमका प्रस्तुत करती िै . यिी हिरे चन हिद्धान्त की मित्िपूणष देन
िै। यकद ऐिा न िोता और त्रािदी के िल भािों को हिक्षुब्ध करके छोड देती तो प्रेक्षक िमय और धन खचष कर त्रािदी
देखने क्यों जाते?
िालांकक कई लोगों ने इि पर प्रश्न भी उठाया िै। देिेन्रनाथ शमाष का मत िै कक “दुखान्तक देखने के बाद ऐिा तो िोता
निीं कक क्लेशकर भािों िे मनुष्य िमेशा के हलए मुक्त िो जाय; यकद ऐिा िोता तो नाटक नैहतक िुधार का ििोत्तम
िाधन बन जाता; जेलों की जगि नायशालाएं ले लेतीं।” इिहलए किना चाहिए कक हिरे चन िे “स्थायी भाि-पररष्कार
तो निीं िोता पर तात्काहलक अिश्य िोता िै।” (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-देिेन्रनाथ शमाष, पृ.60) यिी हिरे चन की िाथषकता
िै।