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यज्ञ

यज्ञ की व्याख्या

भारतीय संस्कृतत के आधारभूत तत्त्वों में से यज्ञ एक है। यह कहना अधधक ठीक है कक यज्ञ भारतीय संस्कृतत का प्राण है।
आयय मानव जब माता के गभय में होता है, तभी यज्ञ द्वारा संस्कृत होना प्रारम्भ हो जाता है। यज्ञ के वातावरण में ही वह जन्म
लेता है, यज्ञ द्वारा ही पाललत पोकित होता है, यज्ञ में ही अपना समग्र जीवन व्यतीत करता है, अन्त में यज्ञ द्वारा ही अपनी
इहलोकलीला को समाप्त करता है। जीवन में उसे दैतनक अग्निहोत्र, पंचयज्ञ, िोडश संस्कार तथा अन्य कई श्रीत यज्ञ तो
करने होते ही हैं, पर शास्त्रकारों ने यहाँ तक कहा है कक वह अपने सम्पूणय जीवन को ही यज्ञरूप समझे। उपतनिद् में ललखा
है - पुरुिो वाव यज्ञः।

मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। उसकी आयु के जो प्रथम चौबीस विय हैं, वे मानो प्रातः सवन है, अगले चौबीस विय माध्यन्दिन
सवन हैं, अगले अड़तालीस विय तृतीय सवन हैं। इस प्रकार यह एक सौ सौलह विय चलने वाला यह है यज्ञ| मनुष्य को
चाहहए कक इसे मध्य में ही आधध-व्याधधयों से खण्डित न होने दे। 1. यज्ञ शब्द का अथय – 'यज्ञ' शब्द देवपूजा, संगततकरण
और दान अथयवाली यन् धातु से नह प्रत्यय करके तनष्पन्न होता है लजस कमय में परमेश्वर का पूजन, तवद्वानों का सत्कार,
संगततकरण अथात् मेल और हतव आहद का दान ककया जाता है, उसे यज्ञ कहते हैं। आचायय सायण का मत है कक देवता
तवशेि के ललए अग्नि में हव्य पदाथों का त्याग करना यज्ञ कहलाता है - उकिश्यं देवतां द्रव्य त्यागो यागोऽधभधीयते।

मत्स्य पुराण में यज्ञ का लक्षण उसके अंगों को आधार मानते हुए ककया गया है। उसके अनुसार देवताओ,ं हतवयों, ऋक्,
साम, यजुिु मन्त्रों एवं ऋत्विजों तथा दलक्षणा का संयोग लजस कमय में ककया जाता है वह यज्ञ कहलाता है -

देवतानां देयहतविां ऋक् साम यजुिां तथा । ऋत्विजां दलक्षणानां च संयोगो यज्ञ उच्यते।।

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आचायय यास्क के अनुसार यज्ञः कस्मात् ? प्रख्यातं यजतत कमेतत नैरुक्ता:* तनघण्टु (3.17) में वेन, अध्वरः, मेधः, नायय:,
सवनम् होत्रा, इकटः, देवताता, तवष्णु, इन्द्रः, प्रजापततः, धमय आहद यज्ञ के अनेक अथय प्राप्त होते हैं। अतः यज्ञ उसको कहते हैं
लजसमें तवद्वानों का सम्मान, यथायोग्य लशल्प अथात् रसायन जो कक पदाथयतवद्या उससे उपयोग और तवद्याहद शुभगुणों का
दान, अग्निहोत्राहद लजनसे वायु, वृकटजल, औिधध की पतवत्रता करके जीवों को सुख पहुुँचाना है। धािथय के आधार पर
आयोिेश्यर्नममाला (47) में यज्ञ की पररभािा इस प्रकार है-

" जो अग्निहोत्र से लेकर अवश्वमेधपययन्त वा जो लशल्प व्यवहार और जो पदाथय तवज्ञान है, जो कक जगत् के उपकार के ललए
ककया जाता है, उसको यज्ञ कहते हैं।"

यज्ञ सृकट तथा जागततक पदाथों में सतत् चलने वाली आदान-प्रदान की प्रकिया और जीव का ब्रह्म में समपयण आहद का
वाचक है। इस प्रकार यज्ञ प्रकिया भेद से मुख्यतः दो प्रकार का होता है प्राकृत यज्ञ और भौततक यज्ञ । प्राकृत यज्ञ प्रकृतत
में 'ऋत' के माध्यम से तनरन्तर चल रहा है, उसी का अनुकरण कर भौततक यज्ञ का तवधान ककया गया है। प्रकृतत के अंगभूत
प्राणणयों में भी तनरन्तर यज्ञ की प्रकिया हो रही है। यहाँ वैश्वानर अग्नि (जठराग्नि) में तनत्य (भोज्यपदाथय ) अन्न की आहुतत दी
जा रही है लजससे प्राणणयों में शग्नक्त सम्वर्द्यन होता रहता है। भौततक यज्ञ इन्हीं सूक्ष्म यज्ञों का प्रतीक है। इसी का अनुकरण
कर वैहदक ऋकियों ने धातमयक कृत्य के रूप में स्थूल यज्ञ का तवकास ककया और इसे श्रेष्ठतम कमय माना। सामान्यतः देवताओ ं
के उिेश्य से द्रव्य-त्याग को यज्ञ कहा जाता है।" ये यज्ञ वस्तुतः देवों की प्रसन्नता के ललए ककए जाते हैं। प्रकृतत में चलने
वाले यज्ञ दैवी हैं, परन्तु भौततक यज्ञ मानवी हैं।

2. यज्ञ का तवकास

वैहदक वाङ्गमय में सृकट के तवकास की कथा और यज्ञ के तवकास का स्वरूप दोनों तनरन्तर गततशीलता और पररवतयन की
प्रकिया से पररपूणय पररललक्षत होते हैं। लजस प्रकार सृकट के तवकास में अनेक तत्त्वों का सत्वम्मश्रण और अनेक तवचारधाराओ ं
का सत्वम्मलन दृकटगोचर होता है उसी प्रकार यज्ञ के तवकास की परम्परा में भी अनेक रूपों का सत्वम्मलन प्राप्त होता है।
समग्र सृकट की प्रकिया ही यज्ञ प्रकिया के रूप में मानी गई है। यहद हम यज्ञ को सृकट प्रकिया का रूपक कहें तो अनुचचत
नहीं होगा। तवश्व की तनयामक शग्नक्त के रूप में ऋत की कल्पना" और ऋत को यज्ञ का स्वरूप तथा यज्ञ को ऋत का कारण
मानना यज्ञ को ही रूपाग्नयत करना है।
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ऋग्वेद के पुरुिसूक्त में सृकट-तवस्तार के ललए स्वयं तवराट् (पुरुि) पशु रूप में बुँधा, जो सृकट-रूप यज्ञ प्रकिया का रहस्य
उद्घाकटत कर रहा है। यजुवेद के सप्तदश अध्याय में सभी तवश्वकमा यज्ञ वणणयत है, जो वस्तुतः यज्ञ रूप में सगयरचना का ही
वणयन है।" यज्ञ की प्रकिया शनै: शनै: यजुवेद तक और सुदृढ़ होती गयी। यज्ञ के तवकासात्मक स्वरूप पर दृकटपात करने
से ऐसा प्रतीत होता है कक ऋग्वेद काल से लेकर यजुवेद काल तक आते-आते उस संस्था में सामालजक पररवतयनों व
दे शकालाहद ने बहुत योगदान हदया है। यजुवेद संहहताओ ं में उसके स्वरूप, संगठन, काययपर्द्तत आहद में बहुमुखी तवकास
हुआ है।

शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ के तविय में कहा गया है कक यज्ञ लजस प्रकार हदखाई पड़ता है वैसा नहीं है। देवता भी परोक्ष हैं और
यज्ञ भी परोक्ष है। 4 यज्ञों का तवधान अत्वन्तम लक्ष्य की प्रान्दप्त के ललए ककया गया, ककन्तु तवकासात्मक प्रकिया भौततक
समृणर्द् के साथ तनम्न उिेश्य भी संयक्त
ु होते चले गए लजनसे यज्ञों में अनेक प्रकार की तवकृततयाँ भी आयीं। अथवयवेद में
अनेक अधभचार मन्त्रों में उनका रूप देखा जा सकता है। आरण्यकों में वणणयत यज्ञों के तवधध-तवधान के साथ-साथ उनके
आध्यात्वत्मक और दाशयतनक पक्ष को भी उद्घाकटत ककया गया है। बृहदारण्यक, छिोग्य आहद उपतनिदों में मात्र प्रतीकों के
माध्यम से सम्पूणय यज्ञ-प्रकिया की साधना की लशक्षा का वणयन है। आरण्यकों में यज्ञ-सम्बन्धी वस्तुओ ं पर ध्यान के द्वारा
तवचारों की एकाग्रता का महत्त्व है। यज्ञ के तबना भी यहद कोई मनुष्य ध्यान लगाता है तो उसे यज्ञ के ही फल की प्रान्दप्त
होगी 115

यज्ञ-प्रकिया वैहदक दशयक को समझने, शाश्वत सत्य को प्राप्त करने और परमात्मा को प्राप्त करने के साधन रहे हैं। वैहदक
ऋकियों ने लजस परमसत्य का दशयन ककया उसी को अपने जीवन में उतारा और उसी के माध्यम से अपने समाज का तनमाण
ककया। यज्ञ प्राचीन काल में उद्भतू हुआ, परन्तु कालान्तर में यह सूक्ष्म से स्थूल और स्थूलतर होता हुआ कमयकाि तक
सीतमत रह गया। इस प्रकार कालिम से तवकास की परम्परा ने यज्ञ जैसे पतवत्र शाश्वत सत्य को लौककक सुख का कारण
मानकर कमयकाि का जकटल रूप दे हदया।

3. यज्ञ के तत्त्व

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संहहताओ ं और ब्राह्मणों में बहुधा यज्ञ को पंग्नक्त अथात् पाँच अंगों वाला कहा गया है।" देवता, हतवद्रयव्य, मन्त्र, ऋत्विक और
दलक्षणा को यज्ञ के पाँच अंगों में पररगणणत ककया है। वस्तुतः ये पाँचों यज्ञ के मूल तत्त्व हैं, ककन्तु इनके अततररक्त भी यज्ञ
सम्पादन में अनेकानेक वस्तुओ ं और व्यग्नक्तयों का योगदान अपेलक्षत है। इन सब अपेलक्षत साधनों को सामान्यतः तीन वगों
में तवभक्त कर सकते हैं-

1. यज्ञ के आधार ।

2. यज्ञ के सम्पादक

(i) यज्ञ का संकल्पकता

(ii) यज्ञ के अनुष्ठाता

(iii) आनुिंग्नगक काययकता

3. यज्ञ के उपकरण

. यज्ञ के आधार

देवता, मन्त्र और हतव यज्ञ के मूलाधार तत्त्व हैं।" इन्हीं के चारों ओर यज्ञ कियाओ ं का समस्त ताना-बाना बुना जाता है।
वस्तुतः देवता यज्ञ का सवयप्रथम तत्त्व हैं।" यज्ञ से देवताओ ं की ही नानातवध उपासना कर उनका अनुग्रह पाया जाता है,
ककन्तु मूलतः देवता यजमान के उिेश्य की प्रान्दप्त का एक माध्यम मात्र है तथाकप यह माध्यम सवाधधक महत्त्वपूणय है। देवता
के अनुसार ही तत्सम्बन्धी मन्त्र और हतव का प्रयोग भी फल प्रान्दप्त के ललए साधन रूप ही है। यज्ञों के उिेश्य के भेद के
कारण प्रत्येक यज्ञ के मुख्य देवता धभन्न-धभन्न और एक अथवा अनेक होते हैं। मन्त्र और हतव का प्रयोग देवता के अनुरूप ही
ककया जाता है। यज्ञ के सवयप्रमुख देवता अग्नि, तवष्णु, इन्द्र और सोम हैं। प्रायः सभी यज्ञों में इनका स्थान है। हद्वतीय कोकट
के देवताओ ं में वरुण, अहदतत, सतवता, पूिा, मरुत्, तवश्वदेवा, धावापृधथवी और सरस्वती आहद हैं, इनकी स्थस्थतत सब यागों
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में न होते हुए भी अनेक बागों में है। तीसरी कोकट में गौण देवता है इनका स्थान एक या दो से अधधक में नहीं है अनुमतत,
राका, कुछ लसनीवाली, तनऋतत, कपतर, मरुतों के िीकडन्, सान्तपन और गृहमेधी रूप तथा ऋम्बक" हतवयों में आज्य के
अततररक्त पृिादाज्य, पुरोडाश, चरु और सोम प्रमुख हैं। सान्नय्य, आधभक्षा, वालजन, करम्भ, मन्य और धाना आहद हतवयाँ भी
प्रयुक्त होती हैं। कभी-कभी 14 प्रकार के अन्न, दही, पयस् और सुरा का प्रयोग भी होता है। पशुयाग में पशु की हतव मुख्य
है।

1. यज्ञ के सम्पादक

यज्ञ को सम्पन्न करने में लजन व्यग्नक्तयों का योगदान आवश्यक है, उन्हें

भी तीन वगों में बांट सकते हैं-

(i) यज्ञ का संकल्पकर्ता

वैहदक यज्ञों के संकल्पकता, देवयजन के अधभलािी व्यग्नक्त को यजमान कहते हैं। यह यजमान संकल्पात्मक मन का ही
रूप है। यही यज्ञकता है, अतः अपने यज्ञ का प्रजापतत है। यज्ञ सम्बन्धी व्रतों के पालन का दाग्नयि भी यजमान पर है। अतः
यही यज्ञ के समस्त फल का अधधकारी है। ऋत्विज इसी के ललए नानातवध ऐश्वयय की कामना करते हैं।

यजमान प्नमी की उपस्थस्थतत भी यज्ञ की पूणयता के ललए आवश्यक है, क्योंकक अयज्ञो वा एि योऽप्नमीकः ।" यजमान के साथ
वह भी स्वगयलोक, की भागी होती है।

(ii) यज्ञ के अनुष्ठार्ता

यजमान के बीजरूप संकल्प को पल्लतवत और पुन्दष्पत वृक्ष का रूप देने वाले यज्ञतवधधयों के अनुष्ठाता, ऋत्विज भी यजमान
द्वारा ही चुने जाते हैं। अतः यहद यजमान यज्ञ की आत्मा है तो ये ऋत्विज् यज्ञ के अंग हैं।

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तैततरीय ब्राह्मण" के अनुसार अग्निहोत्र में एक, दशयपूणम
य ास में चार, चातुमास्यों में पाँच, पशुयागों में छह, सोमयागों में सात
और सत्रों में दस ऋत्विज् होते हैं। अग्न्याधान एवं दशयपण
ू यमास में ऋत्विजों में होता, अध्वयु,य आिीध एवं ब्रह्मा की आवश्यकता
होती है।"

सोमयागों के 16 ऋत्विजों में प्रमुख चार ऋत्विजों में होता, अध्वयु,य ब्रह्मा और उद्गाता आते हैं। इनमें अिीध्र ब्रह्मा का सहयोगी
ऋत्विक् माना गया है। वस्तुतः सोमयागों में सामगान की तवलशट स्थस्थतत होने के कारण उद्गाता को प्रमुख स्थान हदया गया
है। इस तरह हतव-यज्ञों के चार और सोमयाग के अन्य प्रमुख ऋत्विज उद्गाता को तमलाकर कुल पाँच प्रधान ऋत्विक हैं।
इनके कायय इस प्रकार है

1. अध्वयुय - यह मुख्यतः यजुिों द्वारा यज्ञ की प्रायः सभी तवधधयों का अनुष्ठाता है। -

2. होता - ऋग्वेदीय मन्त्रों से याज्यानुवाक्या मन्त्रों का पाठ करता है। शास्त्र आहद तथा हतवयों के यायावाक्या मन्त्रों का पाठ
करता है।

3. उद्गाता - यथासमय सामों का गान करता है।

4. ब्रह्मा - यज्ञ का तनरीक्षण करता हुआ कुछ तवधधयों को सम्पन्न करके यज्ञ के न्यूनाधधक दोिों का पररमाजयन करता है।

अतः ब्राह्मणों में अध्वयय को यज्ञ की प्रततष्ठा, अिीघ्र को यज्ञ का मुख, होता को आत्मा, उद्गाता को यश और ब्रह्मा को
चचककत्सक कहा गया है। होता का स्थान वेदी के उत्तर में, ब्रह्मा का दलक्षण में, उद्गाता का पूवय में, अध्वयुय का पलिम में होता
है। यजमान अध्वयुय और ब्रह्मा के मध्य में दलक्षण पलिम कोण पर पीछे की ओर बैठता है। यजमान प्नमी का स्थान लसफय
गाहयपत्य वेदी के पलिम में काफी पीछे होता है।

ये सभी ऋत्विज् अतनवायय रूप से दलक्षणा के पात्र होते हैं। दलक्षणाहीन यज्ञ नट हो जाता है और दलक्षणा से यज्ञ समृर्द् होता
है। दलक्षणा में मुख्य पदाथय चार हैं- हहरण्य, वस्त्र, गाय और अश्व ।" ककन्तु अन्य भी नानातवध वस्तुएुँ देने का तवधान है।

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(iii) आनुषंगिक काययकर्त्ता

यज्ञ के तीसरे प्रकार के व्यग्नक्त ऐसे 'आनुिंग्नगक काययकत्ता' है, जो आवश्यकतानुसार ककए जाने वाले एकाध कायय के करने
में सहयोगी बनते हैं। ऐसे काययकत्ताओ ं का स्वतंत्र महत्त्व और अस्तस्ति कुछ नहीं है। इनमें हतव के कूटने पीसने वाले
हतवष्कृत, पशु के मारने वाले शातमतृ और सोम तविेता आहद आते हैं।

3. यज्ञ के उपकरण

यज्ञ के प्रमुख नानातवध उपकरणों का वणयन इस प्रकार है।

1. जुहू - यह पालाश वृक्ष की होती है। इसका अग्रभाग हथेली के बराबर चौड़ा, 6 अङ्गुल खोदा हुआ, और पीछे का भाग
दिाकार होता है। इसकी पूरी लम्बाई बाहुमात्र होती है। इसका आकार चम्मच जैसा होता है। इससे यज्ञों में आहुतत दी
जाती है। इसे यज्ञ का दाहहना हाथ, यजमान का प्रतीक माना गया है। यह खाहदर की लकड़ी से भी बनता है।

2. उपभृत - यह (अश्वत्थ) पीपल के वृक्ष की होती है। इसका आकार जुहू के समान होता है। इसे यज्ञ का बाँया हाथ भी कहा
जाता है। इसकी उपमा अन्तररक्ष लोक से दी जाती है। इसकी लम्बाई बाहुमात्र या 24 अंगुल होती है।

3. ध्रुवा - यह तवकंकत वृक्ष की होती है। इससे यज्ञों में आहुतत दी जाती है। इससे तवशेित: घृत को हतव रूप में ग्रहण ककया
जाता है। ध्रुवा को हृदय के ऊपर धारण करना चाहहए। इसकी लम्बाई 24 अङ्गुल होती है।

4. अग्निहोत्रहवणी - यह भी तवकङ्कत वृक्ष की होती है। इससे अग्निहोत्र ककया जाता है- अग्निहोत्र हूयते ऽनयेतत इसका मुख
वृत्ताकार होता है। हाथ से पकड़ने के ललए इसके एक ओर हत्था लगा होता है। इस पात्र से प्रातः होम में दूध की आहुतत दी
जाती है।

5. स्रुव - यह खहदर (खैर) वृक्ष का होता है। इसे लोकभािा में सुवा कहते हैं। यह उदुम्बर, पलाश और तवकङ्कत लकहड़यों से
भी तनतमयत होता है। यह अंगूठे के पौर के आकार में खुदा हुआ आलल (22 अंगुल) प्रमाण लम्बा गोल दिेवाला होता है।
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6. कूचय - यह वरण वृक्ष का होता है। यह अग्निहोत्रहवणी के नीचे रखा जाता है।

7. स्पय (वज्र ) - यह खहदर वृक्ष का होता है। कृपाण की आकृततवाला अरध्नम प्रमाण का होता है।

8. उलूखल - मुसल ये पलाश वृक्ष के होते हैं। उलूखल बैठे हुए व्यग्नक्त के नाधभपययन्त कुँचा तथा मुसल लशरपययन्त ऊुँचा
होता है। इनका प्रयोग व्रीहह, जौ आहद कूटने में होता है।

9. शूपय (सूप) - यह बाँस की पतली सींक का अथवा सरकिे का बना होता है। इसमें चमय व नाड़ का प्रयोग वलजयत है। यह
हतवयों को साफ करने के ललए होता है।

10. कृष्णालजन - यह काले मृग का अखण्डित चमय होना चाहहए। अखण्डित कहने का तात्पयय है गोली या बाण से मारे गये
मृग का चमय नहीं होना चाहहए। यह ऊखल के नीचे तबछाने के ललए होता है, लजससे व्रीहह या जौ कूटते हुए उछल कर ग्नगरने
वाले दाने भूतम पर न ग्नगरे ।

11. दृिद् उपल - यह सुदृढ़ पत्थर के होने चाहहए लजससे व्रीहह वा - जौ के पीसने पर पत्थर ग्नघस कर न उतरे । इसका प्रमाण
12 अंगुल चौड़ा 18 अंगुल लम्बा होना चाहहए। उपल यज्ञीय पात्र है, लजससे सोम पौधों का रस तनचोड़ा जाता है। उपल का
पररमाण 6 अंगुल होना चाहहए।

12. इडायात्री - यह वरण वृक्ष की होती है। इसमें दधध, मधु एवं घृताहद हावयाँ रखी जाती हैं। यज्ञ को सम्पन्न करने के ललए
हतवयों से पूणय पात्री को यजमान अपने उदर पर धारण करता है। यह तमट्टी से बनता है। यह एक हाथ (24 अंगुल) अथवा
अरध्नम (22 अंगुल) लम्बी 4 अंगुल ऊुँची बीच में सुकड़ी, मध्य में खुदी होनी चाहहए। पकड़ने के ललए चार अंगुल का दिा
होना चाहहए।

13. आसन - ब्रह्मा, अध्वयु.य यजमान, यजमान प्नमी, होता आहद के - ललए कुशा से तनतमयत आसन होता है। यह 22 अंगुल
लम्बा व चौड़ा होता है।
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14. योक् योक् - यह मूंज की तीन लड़ी कटी हुई लम्बी रस्सी होती है। यह यज्ञ कमय में यजमान प्नमी के ककटप्रदे श में बांधने
के ललए होती है। इसकी लम्बाई चार हाथ होती है।

15. पुरोडाश पात्री - पुरोडाश रोटी अथवा ललट्टी बाटी का द्योतक है। पुरोडाश का प्रयोग प्रायः सभी यज्ञों में होता है।
दशयपूणयमास में दो-दो पुरोडाश होते हैं। इनके ललए पृथक् पृथक् दो पुरोडाशपात्री होती हैं। यह 9 अंगुल लम्बी, 8 अंगल
ु चौड़ी
मध्य में 6 अंगुल खुदी हुई होती है।

16. शृतावदान - यह 9 अंगल


ु लम्बा दो अंगुल फैला हुआ, इसका - अग्र भाग तीखा होता है। यह घरों में प्रयुक्त पलटे जैसा
होता है। यह पके हुए पुरोडाश आहद के तवभाजन के ललए होता है।

17. प्रालशत्रहरण - (दो) ये चौकोर या गोल या गौ के कान के समान आकृतत वाले, मध्य में थोड़े खोदे हुए होते हैं। यज्ञों में
पुरोडाश आहद में से काटकर तनकाला हुआ वह छोटा भाग जो ब्रह्मोिेश्य से अलग करके प्रालशत्रहरण नामक यज्ञपात्र में रखा
जाता है।

18. रज्जु - यह मूंज की होती है, सतमधा आहद के बांधने के ललए इनका प्रयोग होता है।

19. शंकु खैर की लकड़ी से तनतमयत अग्रभाग से तीखे होते हैं। यह वेहद तनमाण के ललए स्थान नापने के काम में आते हैं।
इनकी आवश्यकता के अनुसार संख्या होती है। ये 12 अंगुल लम्बे, माथे पर 4 अंगुल चौड़े होते हैं।

20. पूणयपात्र (दो) - यजमान और यजमान प्नमी के ललए होते हैं। ये प्रायः सभी यज्ञों में प्रयुक्त होते हैं। इसमें रखा हुआ जल
यज्ञीय तवघ्नों को शान्त करता है तथा यजमान के शत्रुओ ं का तवनाश करता है। ये 12 अंगल
ु लम्बे, 4 अंगुल चौड़े व 4 अंगुल
गहरे खुदे हुये होते हैं।

21. आज्यस्थाली - घृत (आज्य) रखने के ललए। यह 12 अंगुल चौड़ा (गोल) 9 अंगल
ु ऊुँचा होता है।

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22. चरूस्थली - चरू अथात् (तबना मांड तनकाले चावल) के पकाने के ललए होता है। यह 12 अंगुल चौड़ा, 9 अंगल
ु ऊंचा
होता है।

23. अन्वाहाययपात्र - चार पुरुिों के खाने योग्य चावल पकाने के ललए इसका प्रयोग होता है।

24. अरणी - इसके उत्तराणण तथा अधरारणण दो भेद हैं। ये पीपल की होती हैं। ये दोनों अग्निमन्थन ( रगड़ कर आग उत्पन्न
करने) के ललए प्रयुक्त होती है।

25. प्रोक्षणी - प्रोक्षणी जल सेचन आहद के ललए होती है। 26. ओवली यह अग्निमन्थन के समय उत्तराणण के ऊपर रख कर
इससे दबाया जाता है। यह 12 अंगल
ु लम्बी होती है। इसके मध्य में छे द होता है।

27. इध्म - पलाश की सतमधाएुँ , ये अग्नि प्रज्ज्वललत करने के काम में आती है।

28. नेत्री - (नेत नेती ) यह गौ के बालों की तीन लड़वाली रस्सी है। - यह चार हाथ लम्बी रस्सी होती है। इसे उत्तराणण में
लपेट कर दोनों हाथों से अग्नि-मन्थन के ललए दधधमन्थन की रस्सी के समान खीचते हैं।

29. मदन्तीपात्र - मदन्ती उष्ण जल को कहते हैं। व्रीहह या जौ के पीसे हुए आटे को तमलाने के ललए गरम पानी की
आवश्यकता होती है, उसी के ललए यह पात्र हैं।

30. कपटलेप-पात्री - कपटलेप पात्री में कपसे हुए आटे को तमलाते समय पात्र में जो अंश लग जाता है, उसे पानी से धोकर रखा
जाता है।

31. शकट - दशयपूणयमासाहद यज्ञों में उपयुक्त होने वाले हतव द्रव्य को - ग्रहण करने के ललए यज्ञशाला के समीप इस गाड़ी में
व्रीहह या यव को रखकर लाते हैं।

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32. कपाल - ये तमट्टी के बने छोटे-छोटे पतले, अग्नि से पके हुए फूटे घड़े की ठीकररयाँ जैसे होते हैं। इन पर पुरोडाश को
रखकर पकाया जाता है। दशयपूणयमास में 19 कपाल अपेलक्षत होते हैं।

33. कुशा - वेहद में तबछाने के ललए तथा घृत आहद के शुणर्द्करण के ललए अपेलक्षत होती है।

34. कुम्भी - यह तमट्टी की पकी हुई हण्डिया है। इस में दूध गरम ककया जाता है। इसका पररमाण दूध के पररमाण पर तनभयर
होता है।

आधुतनक समय में यज्ञ के ललए जो प्रमुख उपकरण हैं वे तनम्न हैं- 1. यज्ञ कुि, 2. चार छोटी थाललयाँ सामग्री के ललए, 3.
चार साधारण कटोररयाँ, 4. घी के ललए एक बड़ी कटोरी, 5. चार छोटे चम्मच, 6. एक बड़ा चम्मच, 7. आध सेर घी, 8. धूप
तथा एक दो पैकेट सामग्री, 9. चिन, पलाश या आम की सतमधा, 10. चार मट्टी के दीये, 11. थोड़ी सी रूई बत्ती बनाने के
ललए, 12. कपूर, 13. दीयासलाई, 14. हाथ से झलने का पंखा, 15. जलभरा कटोरा, 16. चार यज्ञोपवीत, 17. यज्ञ वेदी को
सजाने के ललए आटा, कपसी हुई हल्दी, रोली, 18. छः आसन, 19. दो पुष्प मालाएं , 20. तमष्यन्न ।

आचायय सत्यव्रत लसर्द्ान्तालंकार* के अनुसार यज्ञ छोटा हो या बड़ा इस बात को ध्यान में रखकर उपयुयक्त सामग्री में
पररवतयन ककया जा सकता है। प्रततहदन के होम में इतने सामान घी, सामग्री की आवश्यकता नहीं, साप्ताहहक होम में कुछ
अधधक सामान चाहहए और संस्कारों के होम में लगभग ऊपर ललखा सामान जुटा लेना चाहहए।

वस्तुतः यज्ञ को वैहदक वाङ्मय में कत्रवृत् कहा गया है। यही कारण है कक यज्ञ से सम्बर्द् सभी तत्त्व तीन-तीन हैं। यज्ञ में प्रयुक्त
त्रयी तवद्या प्रख्यात है- सैघा त्रयी तवद्या सौम्येऽध्वरे प्रयुज्यते।" यज्ञ में प्रातः, माध्यन्दिन और सांय सवन तीन हैं।" सतमधा,
घृत और हतव में साधन भी तीन हैं - बसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद् हतवः ।" मुख्य सतमधा भी तीन हैं आहवनीय,
दलक्षण एवं गाहयपत्य अग्नियाँ भी तीन ही हैं।" शतपथ ब्राह्मण (1.1.4.23) यज्ञ को कत्रवृत् यज्ञ की संज्ञा देते हुए उल्लेख करता
है। कत्रवृणर्द् यज्ञः ।

4. यज्ञों में अग्निचयन की तवधेयता

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अग्निचयन कोई स्वतंत्र यज्ञ नहीं है। शतपथ ब्राह्मण के अनेक कथनों से यह प्रमाणणत होता है कक अग्निचयन सोमयाग का
अंग है।" सोमयागों में अग्निचयन करना आवश्यक एवं तनयत नहीं है। गवामयन सत्र के उपान्त्य हदवस में करणीय महाव्रत
के आहवनीय में अग्नि का चयन तनत्यतवधध है।" प्रथम अनुष्ठेय सोमयाग में अग्नि के चयन का तनिेध ककया गया है न प्रथमाहारे
। हद्वतीय सोमयाग में इसका तवधान ककया जा सकता है। कात्यायन श्रौतसूत्र में तापलित् नामक सत्र में भी अग्निचयन करने
की तवधध उपलब्ध है।

कृष्णयजुवेदीय संहहताओ ं एवं ब्राह्मणों में यह स्पट रूप से नहीं कहा गया है कक अग्निचयन का तवधान ककस यज्ञ में करना
चाहहए, परन्तु कततपय ऐसे प्रमाण तमलते हैं, लजनके बल पर यह कहा जा सकता है कक यह प्रस्थान भी अग्निचयन को स्वतंत्र
यज्ञ का स्थान नहीं प्रदान करता और इसे सोमयाग का अंग ही मानता है। सोमयाग में तवहहत दलक्षणीय दृकट में आिावैष्णव
एकादशपालक पुरोडाश का तवधान है आिावैष्णवमेकादशकपालं पुरोडाशं तनवयपतत ।" अग्नि-दीक्षा में वैश्वानर
द्वादशकपालक पुरोडाश तथा आहदत्य चरू के साथ आिावैष्णव का भी तनवाप ककया जाता है। अग्नि की औद्ग्रमण आहुतत
के साथ-साथ सोमयागीय औग्रमण आहुतत देने के ललए तनदे श हदया गया है।" कृष्णयजुवेद के सभी श्रौतसूत्र चयन को
सोमयाग के अंग के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं। बौधायान अग्निचयन को सभी सोमयागों में करणीय मानते हैं। शुक्लयजुवेद
प्रस्थान के समान बौधायान भी महाव्रत में अग्नि चयन को आवश्यक मानते हैं।" आपस्तम्ब श्रौतसूत्र का अधभमत है कक
साद्यस्क, वाजपेय, िोडशी और सारस्वतसत्र के अततररक्त सभी सौतमक यज्ञों में अग्निचयन का अनुष्ठान ककया जा सकता
है।”

(i) अग्निचयन का अथय

अग्निचयन पद अग्नि और चयन दो शब्दों के मेल से बना है। यास्क अनुसार अग्नि का अथय अग्रणीभयवतत, अग्रं यज्ञेिु प्रणीय
अन सत्रममान" अथात् यह अग्रणी है, यज्ञ में सबसे पहले प्रणीत की जाती है, झुकती हुई (वस्तुओ ं को) अङ्ग बना लेती है।
अग्निचयन में चयन शब्द धातु का तनशान लगाना चचव् (चयने) से तनष्पन्न होता है। चचञ् चथने, इत्यस्य ल्युकट रूपम् ।" शत०
ब्रा० अनुसार अग्निचयन कमय और तवद्या का बोधक है-- एिा है व सा तवद्या, यहदि। एतदु है व तत् कमय, यहदि अथात् कमय
की दृकट से अग्निचयन का अथय अग्नियों को चुनना है। यज्ञ में प्रमुख तीन अग्नियाँ - गाहयपत्य, दलक्षण, आहवनीय है, इसके
अततररक्त सभ्य और आवसथ्य गृह्यसंज्ञक दो अग्नियों की भी स्थापना की जाती है। सभ्याग्नि जहाँ गुरु लशष्य को पढ़ाता है।
आवसथ्य में गृह्यसूक्त संस्कार कमय ककये जाते हैं। पारस्करगृह्यसूत्रानुसार आवसथ्याधानं दारकाले, दायाद्य काले" अथात्
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तववाह समय और दायभाग (बटवारे ) के समय आवसथ्य अग्नि का प्रयोग होता है। इस प्रकार गाहयपत्य (वनस्पतत), दलक्षणाग्नि
(शतमत), आहवनीय (देव अग्नि) श्रौत अग्नियाँ हैं तथा सभ्य तथा आवसथ्य स्मातय अग्नियाँ हैं। वेदी के पलिम भाग में गाहयपत्य
अग्नि, पूवय भाग में आहवनीय तथा दलक्षण भाग में दलक्षणाग्नि की स्थापना की जानी चाहहए। आप श्रीत० (547-8) के अनुसार
सभ्याग्नि को आहवनीय से पूवय और आवसथ्याग्नि को सभ्याग्नि से पूवय की ओर स्थाकपत करते हैं। गाहयपत्य अग्नि से ही
दलक्षणाग्नि व आहवनीय अग्नि प्रज्वललत की जाती है। ये तीनों अग्नियाँ गाहयपत्य, आहवीय, दलक्षणाग्नि िमशः पाधथयव अग्नि,
सौर अग्नि तथा अन्तररक्ष की प्रतीक है। तववाह काल में लजस अग्नि में यज्ञ ककया जाता है उसी को गृहस्थ अपने घर में प्रदीप्त
रखता है उसे बुझने नहीं देता वह गाहयपत्य है। दलक्षणाग्नि से यज्ञ काल में पदाथय लेने के ललए तैयार ककए जाते हैं। लजसमें
अग्निहोत्राहद ककए जाते हैं वह आहवनीय हैं

आहवनीय अग्नि के तनमाण में ईंटों द्वारा तनतमयत तवधभन्न प्रस्तरों को चचतत कहा गया है। इसी दृकट से अग्निचयन का दूसरा
अधभधान अग्निचचतत है तथा इसकी तवशेि तवधाएुँ सुपणयचचतत, श्येनचचतत आहद शब्दों द्वारा अधभहहत होती हैं। यद्यकप यह
चचतत पद पूवयकधथते चचञ् से तनष्पन्न होता है, तथाकप अग्निचयन तवद्या भी है। अग्नि के इस तवद्या रूप के कारण ही शंकर इसे
उपतनिद् कहते हैं। इस पररप्रेक्ष्य में सायण के अनुसार चचतत शब्द √चचती से व्युत्पन्न होगा ।" आधुतनक तवद्वान भी इसी तथ्य
को स्वीकार करते हैं। अतः अग्निचयन, अग्निचचतत तथा अग्नि शब्द अग्निचयन के ही बोधक हैं।

(ii) अग्निचयन का महत्त्व

जैतमतन मीमांसासूत्र (2.3.22) के अनुसार चयनेनेनं (अग्निम् ) संस्कुरुते चचती स्थापयतत अथात् चयन अग्नि का संस्कार है।
वैहदक यज्ञों की तवधभन्न तवधाओ ं में अग्निचयन की कोई स्वतंत्र स्थस्थतत नहीं है, परन्तु अपनी महत्ता के कारण यजुवेदीय
संहहताओ ं में इसका तववरण एक स्वतंत्र यज्ञ की अपेक्षा अधधक तवस्तार से ककया गया है। याजुि संहहताओ ं एवम् ब्राह्मणों
का अधधकांश भाग अग्निचयन की तवधध और व्याख्या से भरा पड़ा है।

वस्तुतः अग्निचयन में अग्नि प्रजापतत पुरुि की संरचना की जाती है। वह सकल वैलश्वक पदाथों का, ब्रह्माि का तथा ब्रह्माि
में स्थस्थत सभी अस्तस्तिों के नामरूपात्मक संघात का प्रततरूप है। सकल भूत और भाव्य भाव अग्निचयन में संतनहहत हैं। इसी
दृकट से अनेक आधुतनक तवद्वानों ने भी अग्निचयन के लसर्द्ान्तों का अध्ययन ककया है। अग्निचयन अमृति का तवधायक है।
सृकटतवद्या एवं ब्रह्मतवद्या के सारे लसर्द्ान्त इसी से तनःसृत हुए हैं। उपतनिदों का पूणय बोध अग्निचयन के ज्ञान के तबना असंभव
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है।" शैव और वैष्णव धमों का उदय अग्निचयन से हुआ। मंहदर संस्था और वास्तुतवद्या के लसर्द्ान्तों का जनक भी अग्निचयन
है। अग्निचयन को जीवन की पूणयता का तनदशयक माना गया है।

5. पयायों की प्रतीकात्मकता एवं तमचश्रत प्रतीक

ब्राह्मण ग्रन्थ अपनी व्याख्या में अपने आशय को स्पट करते हुए बहुधा ऐसी वाक्यावलल तवधध का प्रयोग करते हैं कक "जल
ही यज्ञ है, वाक् ही पशु है, घृत ही तेज है, हहरण्य अमृत है, अग्नि संवत्सर है," इत्याहद। इनमें एकता तादात्म्य बताते हुए एक
को दूसरे के पयाय के रूप में प्रयुक्त ककया गया है। ब्राह्मण व्याख्यानों में नानातवध यज्ञों के प्रयोजन, यज्ञतवधधयों की
साथयकता और यज्ञ-साधनों की उपयोग्नगता को ही समझाया गया है और इन्हीं सिभों में उपयुक्त
य पयाय हदये गये हैं। अतः
एक ओर तो पयायों के केन्द्र तबिु को पकड़ने के ललए यज्ञों के स्वरूप को समझना आवश्यक है, और दूसरी ओर इन
पयायों के आधारों को जाने तबना यज्ञों को पूणयत: उद्घाकटत करना असम्भव सा प्रतीत होता है।

सामान्यतः पयायों के मूल में यज्ञ का प्रतीकवाद तनहहत है क्योंकक यज्ञतवधधयों का तववरण यह स्पट करता है कक तात्विक
रूप से यज्ञ एक रूपक है, लजसकी प्रत्येक किया और वस्तु के द्वारा प्रतीकात्क शैली में जीव जगत् के रहस्यों को व्यक्त
करने की चेटा की गई है। अग्निचचत याग इसका स्पट उदाहरण है, लजसमें सृकट के तत्त्वों के प्रतीक रूप में ही नानातवध
इटकाओ ं का आधान ककया गया है। अग्निटोमयाग के दीक्षा-संस्कारों की कियाओ ं द्वारा गभयस्य लशशु की स्थस्थतत को चचकत्रत
करना, अनेकों सोमग्रहों को प्राण-अपान, वाक्, दक्षितु श्रोत्र, नेत्र, आत्मा, वीयय और वायु आहद के रूप में वणणयत करना" भी
स्पटतः इसी प्रतीक शैली की पुकट करते हैं। अग्न्याधान में गाहयपत्य, आहवनीय और दलक्षणाग्नि इन तीनों अग्नियों के आधानों
को तीन प्राणों अथवा तीन लोकों को स्थाकपत करने के रूप में व्याख्यान करना भी यज्ञ-तवधध की प्रतीकात्मक का ही प्रमाण
देते हैं।

प्रतीकों पर आधाररत पयायों को दो वगों में तवभक्त ककया जा सकता है-

(i) प्रतीकमात्र

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ककसी अप्रस्तुत, परोक्ष अथवा अज्ञात वस्तु के ललए कोई भी प्रतीक स्वीकार कर ललया जाता है, यद्यकप दोनों में कोई भी
साम्य नहीं होता है। यथा-

वैश्वदेव - पवय में द्यावापृधथवी के ललए एक कपाल पुरोडाश की हतव बनाते हैं। इस पुरोडाश को पहले घी से तर करते हैं और
कफर आहवनीय में आहुतत देते हैं। इस तवधध में प्रयोजन को स्पट करते हुए कहा गया है कक, यजमानो वा एक कपालः
आहवनीयः स्वगे लोको। इन दोनों के पयायों को स्पट करते हुए ब्राह्मण करता है कक यत् सवयहुतं करोतत हतवभूयतमेवैनं स्वगय
लोकं गमयतत ।" अथात् इस सारे पुरोडाश की आहुतत देता है (इसमें मानो) हतवरूप इस (यजमान) को ही स्वगय लोक भेजता
है। यहाँ पुरोडाश यजमान का प्रतीक मात्र है, और आहवनीय अग्नि स्वगयलोक की प्रतीक है। यही इन पयायों का मूल है।

अग्निचचततयाग में तीन स्वयंमातृणा - प्राकृततक चछद्र वाली ईंटें रखीं जाती है। इनके ललए ब्राह्मणकार कहते हैं कक इयं वै
प्रथमातृणा, अन्तररक्षं हद्वतीया, असौ तृतीया । एनामेव लोकानुपद्यत।" स्पटतः इन ईंटों को तीनों लोकों का प्रतीक मानकर
इनसे स्वीकृत ककया गया है और इनके आधान से तीनों लोकों की ऊध्वयस्थस्थतत को ही व्यक्त ककया गया है। शतपथ ब्राह्मण
में इन ईंटों को प्राणों का प्रतीक मानकर कहा गया है कक प्राण वैस्वयमातृष्णा और इनके आधान का प्रयोजन है प्राणों का
शरीर में तनबाध संचरण करना। इसी तरह तीन गायों को भी तीन लोकों की प्रतीक मानकर दुहा जाता है कक इनके दोहन
से मानो तीनों लोकों को ही दुह ललया जाता है।

हद्वस्तना उखापात्र के सम्बन्ध में कहा गया है कक अन्तररक्षं वा उखा, इभी लोकी स्तनौ ।" इनके द्वारा सृकट रचना के स्वरूप
को व्यक्त करने के ललए उखा को अन्तररक्ष और पाश्र्ववती दोनों स्तनों को द्युलोक भूलोक का प्रतीक बताते हुए कहा गया
है कक जैसे इस मध्यवती सावकाश उखा के दोनों और दो स्तन हैं, वैसे ही सावकाश अन्तररक्ष मध्य में और इसके दोनों पावों
में द्यावापृधथवी लोक हैं।

सुव, जुह, उपभृत् आहद का आयु, प्राण, चक्षु और लोक आहद कहना भी इसी प्रतीक वगय के अन्तगयत है।

(ii) तमचश्रत प्रतीक

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अनेक पयाय ऐसे हैं लजनमें प्रतीकात्मक के साथ-साथ अन्य तत्त्वों की भी समानता तमल जाती है। इन तत्त्वों की समानता में
गुणों, कियाओ,ं संख्याओ,ं सम्बन्धों, स्वरूपों आहद अनेक पहलुओ ं का समावेश होता है। यथा-

वाजपेययाग में प्रजापतत के ललए सोम और सुरा के 17-17 ग्रह ललये जाते हैं। इस प्रकिया के प्रयोजन को स्पट करने के ललए
अनेक प्रतीक पयायों का प्रयोग करते हुए कहा गया है प्रजापततवय सप्तदश, सप्तदश पुरुिो प्राजापत्यः श्रीवै सोमः, पाप्मा
सुरोपयामा । इन चारों पयायों में दो संख्या पर आधाररत प्रतीक हैं, और दो गुणों पर प्रजापतत अथवा पुरुि सप्तदश क्यों है?
इसके ललए ब्राह्मण कहता है कक लसर, ग्रीवा, आत्मा, चार प्रकार की वाणी और 10 प्राण इन सत्रह अंगों से युक्त होने के
कारण प्रजापतत पुरुि सप्तदश है और इसी प्रतीक रूप में सोम और सुरा के 17-17 ग्रह होते हैं। अतः यह संख्या साम्य पर
आधाररत पुरुि के स्वरूप को बताने वाला प्रतीक है और सोम को श्री कहना उसके शरीर पोिक गुण और सुरा को पाप्मा
कहना उसके शरीर के स्वाभातवक रोग दोिगुण को स्पट करता है। इस तरह से पयाय गुणबोधक है, ककन्तु कुल तमलाकर
इन पयायों और तवधध का स्वरूप प्रतीकात्मक ही है, क्योंकक सोम ग्रहों को अनुकूलता से ग्रहण करने का प्रतीकात्मक
प्रयोजन पुरुि शरीर के सत्रों अंगों को श्री से सम्पन्न करता है, और सुराग्रहों के प्रततकूल गतत से दूर करने का आशय सब
अंगों से दोिों का तनराकरण करना है।

शतपथ ब्राह्मण यहाँ प्रजापतत को सप्तदश न कहकर 'चतुचयिाररंशद्' कहता है और उसका आधार और प्रयोजन इस प्रकार
स्पट करता है कक 33 देवता हैं, और 34वाँ प्रजापतत है अतः 17 सोम और 17 सुरा कुल 34 ग्रहों के ग्रहण से प्रजापतत को ही
जीत लेते हैं। प्रयोजन की लसणर्द् में तात्विक अन्तर न होते भी प्रतीक के आधार में धभन्नता होने के कारण ही पयाय में भी
अन्तर पड़ गया है। तैधत्तरीय ब्राह्मण इसे इस प्रतीक शैली में व्यक्त करता है सोम ब्रह्मा का तेज है, लजसे यजमान में रखते
हैं, सुरा अन्न का शमल है लजसे यजमान से दूर कर देते हैं। सोम पुरुि है, सुरा स्वी है, प्रजनन के ललए इनका तमथुन होता
है।

वस्तुतः ये तीन प्रकार के पयाय तीन धभन्न पहलुओ ं को स्पट करते हैं। प्रथम पयाय सोम की उत्कृटता और हतवरूप में देवों
से उसके सम्बन्ध को तथा सुरा की हीनता और मनुष्यों से उसके सम्बन्ध को बताता है। यह पयाय सम्बन्ध और स्तर को
साथ-साथ अधभव्यक्त करता है। दूसरा पयाय कुछ धभन्नता के साथ कहता है कक सोम में ज्ञान वधयक गुण हैं, और सुरा अन्न
की तवकृतत है। यह पयाय गुण पर आचश्रत हैं और तीसरा पयाय मात्र ललंग पर तनभयर है। तीनों प्रयोजनों में एक साथ इतनी
धभन्नता पयायों की ही नहीं, यज्ञतवधध की प्रतीकात्मक को भी भली प्रकार स्पट करती है।
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6. प्रतीकाचश्रत तवतनयोग

प्रतीक अथात् एक ऐसी वस्तु । जसकी ककसी अन्य वस्तु के स्थान पर स्वीकार कर ललया जाता है। यथा दीलक्षत व्यग्नक्त को
एक दि लकड़ी हदया जाता है। ब्राह्मण इसके औचचत्य को स्पट करते हुए कहता है कक दि देने का तात्पयय वाणी प्रदान
करना है। इसललए दि का पररणाम मुखधन मुख तक लम्बा होता है, क्योंकक वाणी मुख से उत्पन्न होती है। इससे स्पट है
कक दि को यहाँ वाणी के स्थान पर उसके प्रतीक रूप में स्वीकार ककया गया है। लकड़ी आहद से तनतमयत वाद्यों की ध्वतन
राग उत्पन्न करने की क्षमता से प्रकट होता है कक वनस्पततयों में भी वाणी हैं। अतः वनस्पतत तनतमयत यह दि वाणी का प्रतीक
मान ललया जाए। मेखला को बाँधने का औचचत्य बताते हुए ब्राह्मण कहता है कक इससे यजमान में बल का आधान ककया
जाता है। अथात् मेखला बल के प्रतीक रूप में स्वीकृत है। मेखला औिधध तवशेि से बनाई जाती है और औिधध बलकारक
होती है। अतः मेखला को बल का प्रतीक स्वीकार ककया गया। इसी प्रकार प्रायः सभी यज्ञ कियायें ककसी-न-ककसी जीवनी-
शग्नक्त या सृकट तत्त्व के प्रतीक रूप में की जाती है। मन्त्रों के तवतनयोग में भी ये प्रतीक तनयामक होते हैं, यह स्वाभातवक है।

इस प्रकार यज्ञ-पात्रों स्रुव, जुहू, उपभृत इत्याहद को मांजते हुए मन्त्र बोला जाता है कक, "मैं आयु और प्राण को चक्षु और श्रोत्र
को वाणी और पशुओ ं को तथा यज्ञ को और प्रजा को मांजता स्वच्छ करता हूुँ।" शतपथ में वणणयत प्राण एवं सुवः और
मैत्रायणी संहहता में चचकत्रत असा आहदत्यः सुवः, छीजुई, आत्मा जुडूः अन्तररक्षयुपभृत् प्रजा उपभूत पृधथवी ध्रुवाः, पशवो धुवा"
के आधार पर इन पात्रों की प्रतीकात्मकता को जानकर ही इस मन्त्र के तवतनयोग का स्वरूप स्पट होता है।

दशपूणयमास की समान्दप्त पर अध्वयु,य जुहू और उपभृत् नामक युवाओ ं को िमश: ऊपर उठाते हुए और नीचे ले जाते हुए जो
बोलता है, उसका भाव है कक, "इस उखान उद्यान से मुझे समृर्द् करो, और इस अधोगमन तनग्राभ से मेरे शत्रुओ ं का नाश
करो।" इसकी संगतत भी ब्राह्मण के यजमान देवत्या वै जुहूः भातृव्योपभृत"् के प्रतीकपरक व्याख्यान से ही स्पट होती है कक
यजमान देवता वाली जुहू को उठाना मानो यजमान को ही समुन्नत करना है, और भ्रातृव्यदेवता वाली उपभृत् को नीचे करना
मानो शत्रु को ही पराभृत करना है। ये दोनों सुवायें एक प्रसंग में आत्मा और प्रजा की प्रतीक मानी गई हैं, और इस प्रकरण
में यजमान और भ्रातृव्य से सम्बर्द् की गई है।

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दीक्षा संस्कार के समय कृष्णालजन की श्वेत और कृष्ण वणय की रोमपंग्नक्त को छूते हुए कहा जाता है की ऋक्सामयो: लशल्पे
स्थ।" । इस तनतवयोग को भी ब्राह्मण के तनम्न प्रतीक व्याख्यान के आधार पर ही समझा जा सकता है कक ऋक् और साम
यज्ञ का आधा (भाग) थे। ये दोनों अपने महत्त्व (पूणय भाग) को चछपाकर यज्ञ के पास गये। उनका यह महत्त्व हदन और रात
बन गया। यह जो कृष्णालजन का रूप है, यह इन दोनों का ही प्रतीक है। जो शुक्ल है, वह हदन का और जो कृष्ण है, वह राकत्र
का रूप है।

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वैददक यज्ञ एवं उनके आधुननक प्रर्तीक
यज्ञ वैहदक धमय का मेरुदि है। ऋग्वेद काल में यज्ञ शब्द यजन के सामान्य अथय में आया परन्तु बाद में अग्नि में आहुतत देने
के साथ जो अनेक प्रकार के कमानुष्ठान हदये जाते हैं, उसे ही यज्ञ कहते हैं। द्रव्यं देवतात्यागः' अथात् ककसी तवलशट देवता
को उिेश्य बनाकर द्रव्य के त्याग को याग कहा जाता है। गाहयपत्य आहद वैहदक अग्नियों में तवहहत मन्त्र द्वारा ककसी देवता
तवशेि को उकिट कर तवहहत द्रव्य के प्रक्षेप को यज्ञ कहा जाता है, इसीललए प्रत्येक याग के रूप में द्रव्य तथा देवता का
तनदे श ककया जाता है।

1. यज्ञों की संख्या
सामान्यतः यज्ञ की तीन संस्थाएुँ हैं -
(1) पाकयज्ञ संस्था - इसमें औपासन होम, वैश्वदेव, पावयण, अटकाश्रार्द्, मालसकश्रार्द्, श्रवणाकमय, शूलगव आहद सात
पाकयज्ञ संस्थाएुँ हैं।
(2) हतवययज्ञ संस्था - अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दशयपूणयमास, आग्रायण, चातुमास्य, तनरूढ़ पशुबन्ध और सौत्रामणी आहद सात
संस्थाएुँ हैं।
(3) सोमयज्ञ संस्था - अग्निटोम, अत्यग्निटोम, उक्थ्थ्य, िोडशी, वाजपेय, अततरात्र और अप्तोयाम ये सात सोमयज्ञ संस्थाएुँ
हैं।

इस प्रकार 7+7+7 21 यज्ञ संस्थाएुँ हो जाती हैं। इन संस्थाओ ं को स्मातय एवं श्रौत नामक दो संस्थाओ ं में तवभक्त ककया
जाता है। सात पाक संस्था का तनरुपण स्मृतत तथा गृह्यसूत्रों में ककया गया है। इनमें पके हुए अन्नों की आहुतत दी जाती है।
सात हतवययज्ञ और सात सोम यज्ञ संस्थाओ ं की श्रौतसंस्था के अन्तगयत सत्वम्मललत ककया गया है। इनका तनरूपण
श्रौतसूत्रों में ककया गया है। हतवययज्ञों में दूध, आज्य, चावल, जौ आहद द्रव्यों की आहुतत दी जाती है। पशु संस्थाओ ं में पशु
मुख्य यजनीय द्रव्य होता है। सोमयज्ञों में तवशेि रूप से सोमरस की आहुतत के साथ-साथ पशु-द्रव्य की आहुतत भी दी
जाती है।

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सोमयज्ञों के कालजन्य भेद तीन हैं -
1. एकाह एक हदन में पूरा होने वाला यज्ञ ।
2. अहीन दो हदनों से लेकर बारह हदनों तक चलने वाला यज्ञ ।
3. सत्र - तेरह हदनों से लेकर पूरे वियभर या अधधक चलने वाला यज्ञ ।

उक्त श्रौत यज्ञों के अततररक्त शतपथ ब्राह्मण में प्रवग्यय, अग्निचयन, राजसूय, अश्वमेध, पुरुिभेध, द्वादशाह, िडहयाग,
अधभप्लव, तवश्वलजत् आहद सोमयज्ञों का भी वणयन तमलता है।

वैहदक यज्ञों को पाँच भागों में तवभक्त ककया गया है- 1. अग्निहोत्र, 2. दशयपूणम
य ास, 3. चातुमास्य, 4. पशु और 5. सोम

सभी यज्ञ तवधध तववरण की दृकट से दो प्रकार के होते हैं प्रकृतत एवं तवकृतत । समग्रांगोपदे शः प्रकृततः अथात् लजसमें
अपेलक्षत सभी अंगों का तववेचन ककया है, उसे प्रकृतत याग कहते हैं। अग्निहोत्र, दशयपूणयमास और ज्योततटोम, अग्निटोम
प्रकृतत याग है। इनमें प्रसंग के सभी अंगों का तववरण हदया जाता है। प्रकृतत याग में तववृतत तवधधयों के अततररक्त कमों का
ही तववरण जहाँ हदया जाता है, उसे तवकृतत याग कहते हैं। इसके अततररक्त कुछ याग प्रकृतत तवकृतत होते हैं। जैस-े
चातुमास्य याग का प्रथम पवय वैश्वदेव दशयपूणयमास की तवकृतत होने पर भी दूसरे पवय वरुणप्रघास की प्रकृतत है। कुछ याग
न तो प्रकृतत न ही तवकृतत न ही तवकृतत होते हैं, जैस-े चातुमास्यान्तगयत ग्रहमेधयी इकट।

यज्ञों के प्रर्तीक
भारतीय दशयन में प्रत्येक प्रतीक तीन अथों में प्रयुक्त हुआ है आधधभौततक, आधधदैतवक एवं आध्यात्वत्मक। इन तीनों अथों
को जान लेने पर ही हम प्रतीक का पूवय अथय समझ सकते हैं। आधधभौततक वह गुण है लजसकी उपमा के द्वारा हम कुछ
समझाते हैं, आधधदैतवक अथय उस गुण में तनहहत शग्नक्त, उस गुण को जन्म देने वाली शग्नक्त का ज्ञान है तथा आध्यात्वत्मक
अथय में भाव में उस शग्नक्त को जानकर उसके तवकास द्वारा आत्वत्मक उन्नतत में अग्रसर होना है। वेद सामान्यतया यज्ञ की
समान, व्यापक धारणा की अधभव्यग्नक्त करते हैं। वह यज्ञ पाधथयव है अथात् सामान्य मनुष्यों द्वारा भी ककया जाता है। सुख
का इच्छुक सामान्य मनुष्य अध्वर अथात् हहंसारहहत यज्ञ में आहुततयाँ अकपयत करता है। वह यज्ञ हदव्य भी है, क्योंकक हदव्य
जन अथवा तवद्वान भी अथवा प्राकृततक शग्नक्तयाँ भी यज्ञ के चचह्न भूत अग्नि का सतमन्धन करते हैं। ज्ञान के प्रकाश और
भौततक इच्छाओ ं वाले सभास्थल पर सम्पन्न यज्ञ में जहाँ हदव्य गुणों के इच्छुक नेतृि गुणयुक्त मनुष्य आनन्दित होते हैं,
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जहाँ सबके स्वामी परमेश्वर को जीवन का उत्तम रस अकपयत ककया जाता है वहाँ मनुष्य आनि को सवयप्रथम प्राप्त होता है
और उत्तम गतत को प्राप्त करता है। इस प्रकार वैहदक यज्ञ भौततक द्रव्यों के समपयण और हदव्य ज्ञान की प्रान्दप्त का प्रतीक
है। वैहदक यज्ञ मूल रूप में आध्यात्वत्मक, भावनात्मक अथवा सृकट सम्बन्धी यज्ञ का प्रतीक है। हतवययज्ञ और सोमयज्ञों की
प्रतीकात्मकता इस प्रकार स्पट है-

अग्न्याधान
इस आधान यज्ञ द्वारा िमशः गाहयपत्याग्नि, दलक्षणाग्नि और आहवनीय अग्नि को स्थाकपत ककया जाता है। इन्हीं तीनों, अग्नियों
में यथासमय यजमान के सभी यज्ञीय कायय - श्रौत, स्मातय और गृह्य यज्ञ अनुकष्ठत ककये जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में इन तीनों
अग्नियों को प्राण, अपान और व्यान कहा गया है। इन अग्नियों का मन्थन करके देवों ने अपने में प्राणों को ही जीतवत और
स्थाकपत ककया था। तैधत्तरीय ब्राह्मण में इन अग्नियों को तीनों लोकों का प्रतीक माना गया है। अतः तीनों अग्नियों का आधान
करना तीनों लोकों का व्यवस्थस्थत तवभाजन करने के समान है। गाहयपत्याग्नि पाधथयव अग्नि का प्रतीक है, आहवनीयाग्नि सौर
अग्नि की तथा दलक्षणाग्नि अन्तररक्षस्थ अग्नि की प्रतीक है। इन तीनों अग्नियों को िमशः वनस्पतत, शतमत और देव अग्नि
कहा गया है।

श्रौर्तयाि

अगिहोत्र

अग्निहोत्र शब्द का अथय है - अिये हूयते अस्तस्मन् तद् अग्निहोत्रम् अथात् लजस कमय में अग्नि के ललए होम ककया जाता है।
मन्त्रपूवयक अग्नि स्थापन करके सांय प्रातः तनयम से ककया जाने वाला होम। सायण भाष्यानुसार अग्निहोत्र वह कृत्य है
लजसमें अग्नि के ललए होम ककया जाता है।" यद्यकप अग्निहोत्र कमय में दो देवता हैं- सांयकालीन कमय का अग्नि, प्रातः कालीन
का सूयय, तथाकप इस होम कमय का आरम्भ सांयकाल में होता है, राकत्र का देवता अग्नि है। मानव राकत्र में अग्नि के सहारे ही
कायय करने में समथय होता है, इस कारण उभयकालीन कमय की संज्ञा अग्निहोत्र रखी गई है। ककपष्ठ कठ संहहता अनुसार
वह प्रथमाहुतत अग्नि में दी गयी, उसी से सभी आहुततयाँ अग्नि में दी जाती हैं। अत: वह अग्निहोत्र कहा जाता है। 12 अग्निहोत्र
को प्रजाओ ं की सृकट कहा गया है। प्रजापतत ने अग्नि में में दी गई 13 आहुततयों द्वारा िमशः सात ग्राम्य पशुओ ं और छह:
ऋतुओ ं को उत्पन्न ककया था। तैधत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार होम द्वारा ही अंग्नगरसों ने औिधधयों को और प्रजापतत ने अग्नि,
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वायु तथा आहदत्य को उत्पन्न ककया था। इन तीनों देवों ने िमशः प्राण, शरीर और आुँखों के ललए आहुतत देकर एक गाय
को जन्म हदया। वही गाय अग्निहोत्र है। इसका ज्ञाता प्राण और अपान से अग्नि को प्रदीप्त करता है।

दशयपूणयमास
दशय का अथय है - अमावस्या, पूणय का अथय है- पूणणयमा दशय शब्द की व्युत्पधत्त दृश् / धातु घञ् प्रत्यय लगकर हुई है लजसका
अथय है दशयन । प्रातः सूयोदय से पहले पूवय हदशा में चन्द्र की सूक्ष्म लेखा हदखाई पड़ती है। पूणय अथात् उलजयाले पक्ष की
अत्वन्तम ततधथ लजस हदन चन्द्रमा का मिल पूणय हदखलाई पड़ता है।" महाभारत (12-29-114) में उल्लेख है

दशे च पूणयमासे च चातुमास्ये पुनः पुनः । अयजद्वयमेधन


े सहस्त्रं पररवत्सरान् ।।

पूणयमासी शुक्ल पक्ष के अन्त्य ततधथ के नाम है। दशय-कृष्ण पक्ष के अन्त्य ततधथ के नाम है।" शतपथ ब्राह्मण में इस याग के
आधधदैतवक सम्बन्ध का वणयन करते हुए पूणणयमा और अमावस्या को िमश: सूय-य चन्द्रमा, पृधथवी- द्युलोक तथा हदन-रात
का प्रतीक कहा गया है। इस याग में दुग्ध-हतव के ललए दुही जाती तीन गायें तीनों लोकों की प्रतीक हैं। पुरोडाश बनाने की
तुलना लसरे की रचना से की गई है। दशयपूणयमास सभी इकटयों की प्रकृतत है।" सायण भाष्यानुसार इकटयाँ दशयपूणयमास की
तवकृतत होने के कारण साक्षात् रूप से दशयपूणम
य ास में अपेलक्षत हैं।"

चार्तुर्मास्य
चातुमास + ण्य यज्ञ तवशेि जो प्रत्येक चार मास बाद अथात् काततयक, फाल्गुन व आिाढ़ के आरम्भ में ककया जाता है।
चौमासा, आिाढ़ की पूणणयमा या शुक्ला द्वादशी से काततयक की पूणणयमा या शुक्ला द्वादशी तक का समय। इस काल में
ककया जाने वाला एक पौराणणक व्रत।” दशयपूणयमास के अनन्तर इस याग का तवधान है। यह याग िमश: चार पवो का
समूह है- वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध एवं शुनासीरीय। प्रथम पवय में पयस्या आतमक्षा (पनीर) की तवलशट हतव दी जाती
है, लजसके देवता तवश्वदेव हैं, इसललए इस पवय को वैश्वदेव कहते हैं। हद्वतीय पवय में वरुण देवता के ललए प्रघास हतव दी
जाती है, अतः इसको वरुणप्रघास नाम हदया गया है। तृतीय पवय में सूयोदय के साथ प्रथम हतव अतीकवात् अग्नि को
अकपयत की जाती है, इसकी संज्ञा साकमेध (साकम् - शाथ, एध दीन्दप्त) है। चतुथय पवय की प्रधान देवताएुँ शुन (वायु या इन्द्र)
तथा सीर (आहदत्य) है, अतः यह शुनासीरीय के नाम से पुकारा जाता है। वसन्त में वैश्वदेव को, विा में वरुणप्रघास से तथा

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हेमन्त से साकमेध से यज्ञ करे । गोपथ इनको भैिज्य यज्ञ भी इसी कारण कहता है अथो भैिज्ययज्ञा वा एते
यच्चातुमास्यातन । तस्माद् ऋतुसत्वन्धिु प्रयुज्यन्ते ।”

संक्षेपतः वैश्वदेव से जीवन, वरुणप्रपास से स्वास्थ्य, साकमेध से शत्रुरहहत तनदोिता और शुनासीर से समृणर्द् प्राप्त करके
उत्तम जीवन जीने की शग्नक्त पाना वस्तुतः जीवनतवकास की एक सुिर ितमक प्रकिया है।

सौत्रार्मणीयाि
वह यज्ञ जो इन्द्र को प्रसन्न करने के ललए ककया जाता है। इसमें इन्द्र की पापरूप मृत्यु से सम्यक्तया रक्षा की गई। यही
सौत्रामणी का सौत्रामणीि है। जब इन्द्र ने िष्य के पुत्र सोमपायी तवश्वरूप को मार हदया, तो बुर्द् िटा ने इन्द्र को सोम
से वंचचत कर हदया। इन्द्र ने उसके मद का तवनाश करके सारा सोम पी ललया, लजससे उसकी सारी शग्नक्त क्षीण हो गई।
इस यज्ञ से इन्द्र में पुन: शग्नक्त का संचरण हुआ और वह मृत्यु से बच गया। प्रतीक रूप में इसका मूल भाव है कक जब
अत्यधधक मात्रा में कपया गया सोम शरीर के अिर पचकर शग्नक्तरूप में पररवततयत होने के बदले तबना पचे ही अजीणय के
रोगी की तरह तनकलकर शरीर की शग्नक्त को क्षीण करने लगता है तब इस याग द्वारा शरीर की शग्नक्त में पुनः संस्थापन से
शरीर रक्षा की जाती है। इस यज्ञ की एक-एक वस्तु पुरुि शरीर के तवतवध घटकों की प्रतीक है। अग्निटोम

अग्नि ही अग्निटोम है। अग्निटोम का तनवयचन करते हुए कहा गया है।

यज्ञायज्ञीय इत्यस्यामािेय्यामुत्पन्नेन अिेटोमसान्मा समाप्तेरग्निटोम इततनाम सम्पन्नतमतत।" इसमें अग्नि की स्तुतत की जाती
है, इसललए इसका नाम अग्निटोम है। अग्नि के अचयन से लजस-लजस प्रयोजन की लसणर्द् होती है, वे सभी इसके भी साध्य हैं।
अग्निटोम से वैश्वदेवयज्ञ को बनाकर प्रजापतत ने प्रजा का संवधयन ककया 2 अग्निटोम को ब्रह्म ब्रह्मवचयस, आत्मा, वीयय और
प्रततष्ठा भी कहा गया है। इसके यजन से देवों ने भूलोक पर तवजय प्राप्त की थी। सोमयागों में यह प्रथम है, अतः इसे
यज्ञमुख भी कहा जाता है। यह यज्ञ ज्योततटोम नामक यज्ञ का रूपान्तर है और स्वगय की कामना के ललए ककया जाता है।
यह पाँच हदन में समाप्त होता है। इसका काल वसन्त है और द्रव्य सोम, देवता इन्द्र व वायु है।

उक्थ्य

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अग्निटोम के आधार पर उक्थ्थ्य ककया जाता है। पशुकामना के ललए यह याग होता है। इसमें सवनीय पशुयाग के समय
ऐन्द्राि देवता एक अततररक्त पशु का आलम्भन ककया जाता है। अग्निटोम याग में 3 स्तोत्र एवं शस्त्र सायंसवन के समय
अधधक पढ़े जाते हैं ये स्तोत्र एवं शस्त्र का उच्य नामधेय है। अग्निटोमीय चमसों को भरने के पिात् तीन चमसों के ललए
सोम बचाया जाता है जो उक्थ्थ्य याग में प्रयोग होता है। उक्थ्थ्य से वरुणप्रघास यज्ञ का तनमाण करके प्रजा को वरुण के
द्वारा ग्रहण कराया।"

षोडशी
उक्थ्थ्य में पन्द्रह-पन्द्रह स्तोत्र होते हैं। उक्थ्थ्य की तवधधयों के सम्पन्न होने पर िोडशी की तवधधयाँ आरम्भ की जाती हैं। इस
याग में सोलह संख्या का तवशेि महत्त्व है, अतः इसका नाम िोडशी (सोलह वाला) प्रलसर्द् हुआ है। इस याग में अत्वन्तम
स्तोत्र शस्त्र सोलहवें हैं, इसललए उनको िोडशी कहा जाता है। स्तोत्र शस्त्र के सम्बन्ध में ग्रह को िोडशी और ग्रह के
सम्बन्ध में ऋतु को भी िोडशी नाम हदया गया है। िोडशी शस्त्र की ऋचाएुँ , अनुटुप छि में हैं, सोलह अक्षरों के पाठ के
पिात् 'ओउम्' का उच्चारण ककया जाता है, इसमें सोलह अक्षरों वाला तनतवद का तनवेश ककया जाता है।

अनर्तरात्र
यह याग एक हदन में समाप्त नहीं होता, राकत्र भर तनरन्तर चलता रहता है। और अगले हदन समाप्त होता है। राकत्र का
अततिमण होने के कारण इसका नाम अततरात्र प्रलसर्द् हुआ है।" इस बाग में अधधक सोम आहुततयाँ दी जाती हैं, अतः
सोमिम के समय अधधक पररमाण में सोम का ग्रहण ककया जाता है। िोडशी ग्रह के पिात् ग्रह नहीं होते, केवल चमस ही
होते हैं और उनका देवता इन्द्र है। अततरात्र से साकमेध यज्ञ तनमाण करके इन्द्र ने वृत्र को मारा 25 प्रजा ब्रह्मवचयस,्
सवयकामना की पूततय अथवा पशु की कामना में यह याग ककया जाता है।

वाजपेययाि
'वाजपेय को सोमयाग माना जाता है। शतपथ ब्राह्मण में यह राजसूय से भी उत्तम माना गया है। सोमयज्ञ संस्थाओ ं में
इसका पाँचवां स्थान है" और इसकी प्रकृतत अग्निटोम है। इसकी तवशेिताओ ं के कारण इसका तनरूपण स्वतंत्र याग के
रूप में ककया जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में वाजपेय शब्द की अनेक तनरुग्नक्तयाँ तमलती हैं। 'वाज' का अथय है- अन्न, बल, गतत।
पेय का अथय है- पीना। अतः वाजपेय का अथय है- अन्न, पान, बल का पान अथवा गतत का पान। अधभप्राय यह है कक इस
याग में सोमपान करने से तवलशट अन्न, शग्नक्त एवं स्फूततय की प्रान्दप्त होती है। इस याग के अत्वन्तम स्तोत्र-शस्त्र का नाम
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वाजपेय है। वाजपेय यज्ञ को केवल ब्राह्मण व क्षकत्रय ही कर सकते हैं। वाजपेय याग में सत्रह संख्या को तवशेि स्थान
प्राप्त है। प्रजापतत सप्तदशात्मक है और वही यज्ञ है। आधधदैतवक पक्ष में 12 महीने तथा लशलशर और हेमन्त को एक करके
पाँच ऋतुएुँ सप्तदश प्रजापतत है। वाजपेय 17 हदन में सम्पन्न होता है। यूप की ऊुँचाई 17 अरध्नम रखी जाती है। 17 सोमग्रह
तथा 17 सुरा (दूध) ग्रह होते हैं। 17 स्तोत्रों व 17 शस्त्रों का प्रयोग होता, सत्रहवें स्तोत्र-शस्त्र का नाम ही वाजपेय है।

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अप्तोयार्म
अप्तोयाम शब्द की व्युत्पधत्त ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर इस प्रकार की जाती है - अप्तोः प्राप्त, यामः यज्ञ अप्तोयामः ।
अधभप्राय यह है - इसके द्वारा प्रजापतत ने पृथक् हुए पशुओ ं को पुनः प्राप्त ककया, अतः इसका नाम अप्तोयाग प्रचललत हो
गया। इसललए उत्तम पशुओ ं की प्रान्दप्त के इच्छुक व्यग्नक्त को इसका अनुष्ठान करना चाहहए। इस याग का अनुष्ठान करने
वाले को सभी पदाथय प्राप्त होते हैं। यह याग अततरात्र की तवकृतत माना जाता है। अतः राकत्र स्तोत्र शस्त्र और सत्वन्धस्तोत्र एवं
आलश्वन शस्त्र का अनुष्ठान प्रकृतत सम्पन्न होने के पिात् अप्तोयाम स्तोत्र-शस्त्रों का अनुष्ठान ककया जाता है।

श्रौर्तयािों की प्रर्तीकात्मकर्ता
शनै: शनै: यज्ञ के द्रव्यमय रूप के स्थान पर उसमें प्रतीकात्मकता और आन्तररकता मुख्य होती गई। स्वाध्याय और
ज्ञानयज्ञ इसी के प्रततफल है। अन्ततः स्थस्थतत यह हुई कक हर शुभ और मंगल कायय को, लजसके अनुष्ठान-संपादन का
प्रयोजन सवयजनकल्याण रहा, यज्ञ कहा जाने लगा। छािोग्योपतनिद् के अनुसार जीवन की गततशीलता ही यज्ञ है -
चलते हुए वह सबको पतवत्र कर देता है- एि ह वै यज्ञो योऽयं पवते, एि ह यग्नन्नटं सवं पुनातत (4.16.1 ) ।

2. प्राचीन प्रर्तीकों और आधुननक प्रर्तीकों र्में अन्तर

वैहदक कोश अनुसार प्रतत+इ+ईकन् = प्रतीक प्रतीत होते हैं या प्रतीत करवाये जाते है, लजनके द्वारा वे प्रतीत होते है
अथात् प्रतीयन्ते प्रत्याय्यन्ते वाथा अनेन इतत प्रतीकम् । अमरकोश में प्रतीक का अथय है अङ्गः प्रतीको अवयवः ।
अधभधानर्नममाला में प्रतीक को पुल्लल्लङ्ग वाचक शब्द प्रतीयते प्रत्येतत वा इतत एक दे श, अङ्ग, अवयव अथय हदया है।" इस
शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी है, इसी का भाष्य करते हुए सायणाचय ने ललखा है - 29 तथाग्निः पृथु तवस्तीणं प्रतीकं
पृधथव्या अवयवं ।"

अथात् " उस अग्नि का तवस्तार कर" पृथु ने पृथ्वी का प्रतीक अवयव बनाया, तो प्रतीक उसे कहें ग,े जो ककसी का अंग हो
अवयव हो। शास्त्रकारों का मत है कक दो सौ करोड़ विय पूवय सूयय से पृथ्वी बनी। पृथु नामक तवद्युत् आकाश गंगा से तनकल
कर पृथ्वी को घेरे हुए है। पृथ्वी सूयय से बाहर सौ गुनी छोटी है, अिाकार है और 18½ मील प्रतत सैकि की गतत से सूयय
की पररिमा करती रहती है। अतएव पृथ्वी सूयय का अङ्ग है, अवयव है, प्रतीक है। तैधत्तरीय संहहता और शतपथ ब्राह्मण में
यज्ञ को पंचांग सम्पन्न कहा गया है। 30 पुराणों में भी इन पाँचों अवयवों का उल्लेख है - देवता, हतवद्रयव्य, मन्त्र, ऋत्विक्
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और दलक्षणा । इनमें ककसी भी एक अंग तवशेि के अभाव या न्यूनाधधक्य की स्थस्थतत में यज्ञावयी तवकलांग हो जाता है,
क्योंकक कामनाओ ं के पूरक देवता होते हैं। द्रव्य को देवों तक पहुुँचाने एवं उन्हें यज्ञशाला में आहूत करने के साधन मन्त्र
होते हैं। मन्त्रों का उच्चारण करने वाले ऋत्विज् होते हैं। ऋत्विजों को तृप्त करने पर अथात् दलक्षणा देने पर यज्ञ की पूणयता
व सफलता तनभयर होती है। इसललए ये पाँचों अंग एक-दूसरे से सम्बत्वन्धत ही नहीं अकपतु पूणयतया अन्योन्याचश्रत भी हैं।
यहद इन अंगों को यज्ञीय प्रतीक माने तो अनुचचत नहीं होगा। प्रकृतत का तनयम है पररवतयनशीलता। इसी तनयमानुसार
प्राचीन और आधुतनक वैहदक यज्ञों के तवधध-तवधान में ही पररवतयन हुआ है, तो उनके इन प्रतीकों में भी पररवतनयशीलता
सम्भव है।

प्राचीन काल में भारतविय में अततन्दन्द्रयदशी ऋकि-मुतन नाना प्रकार के यज्ञ-यागानुष्ठानों में व्यस्त रहते थे।
राज्यलसंहासनारूढ़ क्षकत्रय भी अपने अधधकार के अनुसार यज्ञ करते थे। उस समय साधारणतया सभी लोग यज्ञ को
लौककक और अलौककक सभी प्रकार की फल प्रान्दप्त का प्रधान उपाय समझते थे। इसललए उस समय यज्ञ की महहमा के
सम्बन्ध में सभी की प्रगाढ़ श्रर्द्ा थी । कहा जाता है कक यज्ञ तवहीन व्यग्नक्त का यह लोक भी सुखी नहीं है और परलोक में
भी शात्वन्त नहीं है। ब्रह्म प्रान्दप्त के ललए स्वाध्याय, दान और तपस्या के साथ यज्ञ का भी उल्लेख है - तमेतं वेदानुवचनेन
ब्राह्मणा तवतवहदित्वन्त यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेन ।"

वतयमान समय में यज्ञ का तात्पयय और रहस्य अधधकांश लोगों को ज्ञात नहीं है। एक समय था, लजसका प्रत्यक्ष सत्य के
रूप में सवयत्र आदर था। आज वह सम्यक् ज्ञान और तवधधपूवयक अनुष्ठान के अभाव से मात्र एक तनरथयक आचार के रूप में
बदल रहा है। यथाथयता तो यह है कक जो लोग सदाचार सम्पन्न एवं प्राचीन परम्परा के पक्षपाती होने से श्रर्द्ालु हैं, वे भी
यज्ञ के तत्त्व और प्रयोग के तविय में उत्तम जानकारी नहीं रखते।" इसललए यज्ञ के प्रतत अधधकांश स्थलों में अनादर और
उपेक्षाभाव हदखाई दे रहा है।

यज्ञ को सवात्मना सम्पन्न करने के ललए यज्ञ के जो उपयुयक्त पाँच अंग स्वीकार ककये हैं, उन पर तवचार ककया जा रहा है.

1. देवर्ता
आचायय यास्क के अनुसार " देवता शब्द दान देने, द्योततत होने, - दीन्दप्तमान होने तथा द्युस्थानी होने के कारण लसर्द् होता
है। यज्ञ में यजमान की मनोकामनाओ ं की पूततय के ललये दान कमय करने के कारण देवतापद का यह तनवयचन अथय संगत ही
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है। यज्ञ में अकपयत हतव एक मात्र देवताओ ं को ही प्राप्त होती है, लजसे प्राप्त कर वे प्रसन्न होते हैं। उनकी प्रसन्नता ही यजमान
का कल्याण है। देवता दो प्रकार के होते हैं- 1. मनुष्य देव, 2. भौततक देव, की संज्ञा से तवश्रुत हैं। देवताओ ं को सत्यकप्रय
कहा गया है" इसललए ये सत्य के प्रतीक हैं। ये सत्य के पक्षधर एवं असत्य के तवरोधी होते हैं। शतपथ के अनुसार - 'जो
व्यग्नक्त तवद्या ज्ञान से तवभूकित, वेदज्ञ और महान् तवपलित् होते हैं, उनकी गणना मनुष्य देव के अन्तगयत की जाती है ये
ब्राह्मणशुश्रूिां सोऽनूचानस्ते मनुष्य देवाः ।" तवद्वान् पुरुि भी देवता की संज्ञा से तवभूकित होते हैं। मनुष्यों में माता, कपता,
आचायय एवं कपतरों को भी इस िम में देवता के रूप में उर्द्तृ ककया गया है। मानव के इसी देविारोपण के कारण देवों
और मनुष्यों को साहचयय तवहहत है उभये ह व इदमग्रे स हा सुदेवाि मनुष्याि ।"

भौततक देवों की तीन तवधायें 1. आजानज देवता, 2. कमयदेवता तथा 3. आजान देवता। आजानज देवता तथा कमय देवता
हदव्यलोक में रहकर कृतकमय का फल भोगते रहते हैं। आजान देवता सृकट के आहदकाल में उद्भतू हाते हैं, यथा- सूय,य चन्द्र,
वायु, वरुण, इन्द्र आहद। ये स्तुतत तथा आहुतत से सन्तुट होते हैं और कमयफल प्रदान करते हैं। इनमें से प्रथम दो कोकटयों
के देवता सभी अग्नि के माध्यम से ही हतव ग्रहण करते हैं। इसललए अग्नि को देवता का मुख, सेनानी, गोपा एवं अश्व कहा
गया है।" ऐतरे य ब्राह्मण के अनुसार तो अग्नि ही सवय देव है।" यज्ञों में देवों की प्रधानता उनमें तनहहत दान, गुण एवं
शग्नक्तमत्ता के आधार पर तनलित होती है। तबना देवताह्वान ककये यज्ञानुष्ठान सम्भव नहीं है। अतः देवों को देय हतवयों का
तवधान कर उन्हें तृप्त करना यजमान के ललए अतनवायय होता है। आध्यात्वत्मक दृकट से 'एक सत्' के रूप में देवताओ ं की
एकात्मकता ही लसर्द् होती है, तथाकप ऋचाओ ं से लेकर परवती साहहत्य तक में बहुदेववाद का प्रततपादन हुआ है।
संहहताओ ं एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में देवताओ ं की संख्या 33 बतलायी गई है आचायय यास्क ने पृथ्वी स्थानी, अन्तररक्ष स्थानी
एवं द्युस्थानी के रूप में देवों का कत्रधा तवभाजन ककया है- अग्निः पृथ्वी स्थानः वायुवा इन्द्रो वा अन्तररक्षस्थानः सूयोद्युस्थान: "

यागों के अन्तगयत देवों का आह्वान उनसे सम्बत्वन्धत ऋचाओ,ं यजुिों एवं साम मन्त्रों द्वारा ही ककया जाता है। इससे वे यज्ञ-
कमय में तवतनयुक्त होते हैं। मन्त्र ककसी और देवता का नहीं, अकपतु उसी देवता का होना चाहहए, तभी यज्ञकमय की सफलता
सम्भव है। आहुतत देते समय तवधधवाक्य में लजस देवता का नाम आया है, उसी को पढ़ना चाहहए, उसके पयायवाची पदों
को नहीं, यथा अिये स्वाहा।

2. हनवदयव्य
ऋकि दयानि ने होम के ललए चार प्रकार के द्रव्यों को बताया है, यथा-
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(प) सुगत्वन्धत कस्तूरी, केसर, अगर, श्वेत- चिन, जायफल, जातवत्री इत्याहद ।
ii) पुकटकारक - घृत, दूध, फल, कि, अन्न, चावल, गेहूं, उड़द आहद।
(iii) तमट शक्कर, शहद, छुहारे , दाख इत्याहद ।
(iv) रोगनाशक- सोमलता अथात् ग्नगलोय आहद ओिधधयाँ ।

यज्ञ के हतव पदाथों की संज्ञा द्रव्य है। देवताओ ं की प्रसन्नता हे तु उनके अभीट पदाथों का अपयण अतनवायय है, इनकी हतवि्
संज्ञा है। वास्तव में देवताओ ं के तनतमत्त अग्नि में आहुत यज्ञ के साधन भूत द्रव्य को हतव कहते हैं, ये तीन प्रकार के होते हैं.
-
(i) आहुनर्त द्रव्य
(i) सोमाहुतत, (ii) आज्याहुतत। दो प्रकार के आहुतत द्रव्य हैं। सोमाहुतत केवल सोम यागों के तनतमत्त प्रयुक्त की जाती है।
यह सोम नामक लता से तनकाले गये रस की आहुतत है। वतयमान समय में सोम के स्थान पर ग्नगलोय नामक औिधध की
आहुतत दी जाती है। जो सोम के समान गुणकारी है। आज्याहुतत का प्रयोग हतवययज्ञ एवं पशु आहद सभी यज्ञों में ककया
जाता है। गोघृत को सबसे उत्तम माना गया है।

(ii) होर्मद्रव्य
ततलाहद को होमद्रव्य कहते हैं। पय, दधध, घृत, तैल, यवागू, तन्डु ल, ओदन, सोमरस और माि ये दश पदाथय होम द्रव्यों के
अन्तगयत आते हैं।

(iii) यािद्रव्य
यागद्रव्य के अन्तगयत आज्य, पृिदाज्य, आतमक्षा, वालजन, चरु, पुरोडाश, सुरा, सोम नामक पदाथों की गणना की जाती है।
इन पदाथों में हतव, सोम आहद द्रव्यों की प्रधानता रही है। इनकी प्रधानता के ही आधार पर हतवययज्ञ, सोमयज्ञ तथा
पाकयज्ञ संस्थान तीन कोकटयों में यज्ञों का तवभाजन ककया गया है। हतवयों के अपयणरूप कमय से ही यजमान अपनी
कामनाओ ं की पूततय में सक्षम होता है तथा यज्ञ फल के रूप में प्रभूत द्रव्याजयन कर लेता है। अतः द्रव्य यज्ञ का अपररहायय
अंग है।

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आवश्यकतानुसार सब प्रकार के द्रव्यों से यज्ञ करे लजससे सूयय (तवष्णु या यज्ञ) अत्यन्त वायु शुणर्द् के ललए समथय हो।
सामग्री दोिरहहत और तीव्र कल्याणकारी होनी चाहहए। ऐसी सामग्री से सम्पन्न यज्ञ अभीट देने वाला होता है - वीतं हतवः
शतमतं शतमता यजध्यै तुरीयो यज्ञो यत्र हव्यमेतत । जैतमनी ब्राह्मण (1-19) में कहा है कक यहद पयः न हो तो ककससे होम करें ,
तब व्रीहह यव से, यहद वे न तमले तो ककससे हवन करें , तब अन्य ककसी धान्य से, यहद अन्य धान न तमले तो ककससे होम
करे ? तब आरण्य ओिधधयों से, यहद ओिधधयों की प्रान्दप्त भी न हो तो तब ककससे होम करें , तब जल से। यहद प्रायः (जल)
न तमले तब ककससे होम करें , तब सत्य का श्रर्द्ा में होम करें ।

3. र्मन्त्र
आचायय यास्क ने मन्त्र को 'मन्' धातु से तनष्पन्न माना है, क्योंकक शग्नक्तरूप होने से इनका मनन ककया जाता है मन्त्रा
मननात् । महकिय जैतमनी ने तो यज्ञ के प्रेरक वाक्यों को मन्त्र माना है। यज्ञ में शग्नक्त सम्पन्न लजस शब्दरालश से हतव देवता के
समीप योग्य रूप से पहुुँचती है, वह शब्दरालश ही 'मन्त्र' कही जाती है। ये मन्त्र साधारण शब्द समूह नहीं है प्रत्युत उस
शग्नक्त के प्रतीक है, लजनके ललए प्रयुक्त हुए होते हैं। मन्त्र यालज्ञक प्रकिया में ऋक्, यजुि् और साम नाम से पररभाकित हैं,
अतः ये त्रयीतवद्या कहे जाते हैं।" ऋग्वेद के अनुसार यज्ञ की सफलता मन्त्रों पर तनभयर करती है, तथा मन्त्र ही यज्ञ का भार
वहन करते हैं। इसी के मन्त्र में ऐसा उल्लेख है कक जो मनुष्य, सतमधा, आहुतत तथा वेदमन्त्रों से अग्नि में यज्ञ करता है, वह
यश, अश्वाहद को प्राप्त करता है। उसे इन्दन्द्रयजन्य तथा शरीरजन्य अपयश नहीं सताता इसललए मन्त्रपूवयक ही यज्ञानुष्ठान
होना चाहहए। यजुि् मन्त्र तीनों लोकों का प्रतीक माना गया है- अर्द्ा वै तद्यहदमे लोका अर्द्ातद्यजुस्तस्माकत्रयजुिा हरतत।"
यज्ञ में यजुिु मन्त्रों के उच्चारण से तीनों लोकों की बुराईयाँ दूर होती हैं। मन्त्रों के तबना यज्ञ के स्वरूप की और उसकी
पूणयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, क्योंकक त्रयी तवद्या रूप मन्त्र यज्ञ से अधभन्न है।" इसललए ये पूणत
य ा के भी
प्रतीक माने गये हैं। अतः यज्ञ में मन्त्रों का उच्चारण अतनवायय ही नहीं अपररहायय है। शतपथ ब्राह्मण ने ऋक् और साम का
वाणी के साथ तथा यजुि् का मन के साथ तादात्म्य स्थाकपत ककया है- वागेवऽचयि सामातन च मन एव यजूंकि.... ।" वाचा,
मनसा, कमयणा यज्ञानुष्ठान के ललए मन्त्रों का तवतनयोग आवश्यक है। इस प्रकार संहहताओ,ं ब्राह्मणों, कल्प-ग्रन्थों में प्राप्त
यज्ञ और मन्त्र सम्बन्धी तववेचनों से यह स्पट हो जाता है कक प्राचीन काल से ही यज्ञों में मन्त्रोच्चारण का तवधान है। यह
तवधान भी औपचाररक नहीं प्रत्युत अतनवायय है। मन्त्र के तबना यज्ञकमय पूणय नहीं होता और उसमें देवों की कल्पना भी नहीं
की जा सकती। वस्तुतः मन्त्र दैवी वाक् के प्रतीक हैं और यज्ञ दैवी सृकट का प्रतीक है। इसललए पूणयत: पतवत्र दैवी यज्ञ को
दैवी वाक् मन्त्र से युक्त कर यज्ञ को तद्योग्य बनाने लोक-कल्याण के ललए तथा यजमान के ललए मंगलकारी बनाने हे तु
यज्ञों में मन्त्रोच्चारण तवधध का तनवयहण अपररहायय है।
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4. ऋत्विक्
'ऋत्विक्' शब्द 'ऋत' पद से 'उ' और इज (यज्) धातु के संयोग से बना है, जो ऋत (समय) पर यजन करता है, वही
ऋत्विक् कहलाता है । यज्ञ मधुसूदन के अनुसार- "जो ब्राह्मण यजमान द्वारा दलक्षणा द्रव्यों से प्रसन्न होकर यजमान के
कल्याणाथय यजनशाला के अन्तगयत कायय करता है, उसे ऋत्विक् कहते हैं अथवा ऋतुओ ं में यजन सम्पन्न करवाने के
कारण ऋत्विज् कहलाता है।

यो यजमानिीतः पराथयमन्तवेहदकमय करोतत स ऋत्विक् ।" ऋत्विक् बनने का अधधकारी एक मात्र ब्राह्मण को है। क्षकत्रय,
वैश्य आहद इसके अधधकारी नहीं होते। यजमानों को अपने यज्ञ में ऋत्विजों के चयन में तवद्या, कमय और जन्म का
तवशेिरूप से ध्यान रखना आवश्यक माना गया है।" उनकी परीक्षा वणय, गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा और सूत्र इन छः मापदिों
के अनुसार की जानी चाहहए। होता, अध्वयु,य उद्गाता एवं ब्रह्मा नामक चार प्रकार के प्रधान ऋत्विजों की यज्ञों में प्रधानता
होती है। ये चारों प्रधान ऋत्विज् अपने-अपने वेद से सम्बर्द् होकर अपने यज्ञीय कमय को तनष्पन्न करते हैं। सायण के
अनुसार होता का सम्बन्ध ऋग्वेद से होता है।" वह ऋग्वेद की ऋचाओ ं से देवताओ ं का यज्ञ में आह्वान करता है यो
यजनीयान् देवानाहवयतत स होता अध्वयुय यजुवेद से सम्बन्ध रखने वाला ऋत्वि है। उसका कमय यजुिों के माध्यम से यज्ञ
में अनुष्ठान करता है। उद्गाता सामवेद से सम्बत्वन्धत होता है। सामों का उच्च स्वर से गायन करना ही उसका कायय है। ब्रह्मा
का सम्बन्ध अथवयवेद से जोड़ा गया है, तथाकप यह अथवयवेद के अततररक्त तोनों वेदों में तवहहत कमय का जाता होता है स च
ब्रह्मावेदत्रयोक्तसवयकमयधभज्ञः । यज्ञ में यथावसर अनुज्ञा प्रदान करना तथा तवतवध अनुष्ठानों का पययवेक्षण करते रहना
उसका प्रमुख कतयव्य है। छिोग्योपतनिद् के अनुसार यही यज्ञ है, वाणी तथा मन उस यज्ञ के दो मागय हैं। प्रथम मन मागय
का संस्कार ब्रह्मा अपने मन के द्वारा करता है तथा दूसरे का संस्कार होता, अध्वयुय तथा उद्गाता अपने मन्त्रोच्चारण रूप
वाणी के माध्यम से सम्पन्न करते हैं।" यज्ञ में हुई त्रुकटयों का शोधन ब्रह्मा प्रायलित तवधान देकर करता है।

उपयुक्त
य ऋत्विजों में प्रत्येक के तीन-तीन सहायक ऋत्विक भी होते हैं। मैत्रावरुण, अच्छावाक् तथा ग्रावस्तोता होता के
सहायक एवं प्रततप्रस्थाता, नेटया और उन्नेता अध्वयुय के सहायक हैं। इसी प्रकार उद्गाता के सहायक प्रस्तोता, प्रततहता एवं
सुब्रह्मण्य तथा ब्रह्मा के ब्राह्मणाञ्छसी, आिीध्र और पोता हैं। इस प्रकार चार प्रमुख ऋत्विज् एवं बारह उनके सहायकों को
तमलाकर ऋत्विजों की संख्या सोलह हो जाती है। सदस्य सप्तदशा ऋत्विजः भवत्वन्त के आधार पर कततपय आचायों ने
सदस्य नामक ऋत्विक् सहहत सत्रहवें को भी नातमत ककया है। ज्ञातव्य है कक प्रत्येक यज्ञ संस्था के ऋत्विजों की संख्या
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एक समान नहीं है। ककन्हीं-ककन्हीं यज्ञ संस्थाओ ं में 16 तथा 17 ऋत्विजों की आवश्यकता होती हैं, सब में नहीं। अग्निहोत्र में
मात्र एक ऋत्विज् अध्वयुय की, अग्न्याधेय दशयपूणयमास एवं अन्य दृकटयों में चार ऋत्विजों अध्वयु,य आिीध होता एवं ब्रह्मा की
" तथा चातुमास्यों के ललए पाँच ऋत्विजों की आवश्यकता होती है। दशयपूणयमास के ललए चार पुरोहहत तथा प्रततप्रस्थाता
अत्यावश्यक है। पशुबन्ध याग में मैत्रावरुण नाम का छटा पुरोहहत भी होता है। सोमयागों के ललए समस्त सोलह ऋत्विजों
तथा साकमेध चातुमास्य पवय में आिीध को 'ब्रह्मपुत्र' की संज्ञा दी गयी है।"

इस तववेचन से यज्ञ के ऋत्विज् नामक अंग के तविय में स्पट होता है। कक यज्ञ के अनुष्ठाता ये ही ऋत्विज् जन हुआ करते
हैं। इन्हें सम्पूणय यज्ञ का तनधारण, आनुष्ठातनक ज्ञान होता है। मन्त्र तवतनयोग, कामपूरक देवताओ ं एवं यज्ञों का तनधारण
यही करते हैं। इनकी कुशलता एवं दक्षता यज्ञ की सफलता को प्रभातवत करती है। अकुशल ऋत्विजों से सम्पाहदत बाग
नाशकारी होता है। अतएव यजमानों के ललए अत्यावश्यक है कक वे ऋत्विक वरण करते समय उनकी परीक्षा अवश्य
करवा ले।

6. दक्षिणा
दलक्षणा पद दक्ष+इनन् (दलक्षण) आच् प्रत्यय द्वारा तनष्पन्न है। इस व्युत्पधत्त के अनुसार इस पुल्लल्लग
ं पद का अथय "दाहहनी
और" या "दलक्षण हदशा में" होता है, तथा स्त्रीललंग दलक्षण शब्द से टापू प्रत्यय लगाने पर तनतमयत इस पद का अथय " दलक्षण
हदशा अथवा यज्ञ कमय की सम्पन्नता पर ऋत्विजों को हदया जाने वाला द्रव्य है। दक्ष धातु के माध्यम से दलक्षणा पद की
समृर्द्ध्यथयकता की लसणर्द् होती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, "जब यज्ञ का वध हो गया तथा वह शग्नक्तहीन बन गया,
तब देवों ने दलक्षणा द्वारा यज्ञ को पररपूररत ककया। यह यज्ञ दलक्षणाओ ं द्वारा दक्ष हो गया, इसललए इसका नाम दलक्षणा
पड़ा।" स एि यज्ञो हतो न ददक्षे। तं देवा दलक्षणाधभः अक्षयं तस्मात् दलक्षणा नाम्।" यास्क भी समृद्ध्यथयक दक्ष धातु से ही
दलक्षणा पद की तनतमयतत स्वीकार करते हैं।" इस सम्बन्ध में उन्होंने ललखा है कक यज्ञ में जो कुछ न्यून होता है उसे दलक्षणा
दूर करती है तथा प्रदलक्षणा िम से अथवा दलक्षण हदशा की ओर आसीन रहने वाले ऋत्विजों को दाहहने हाथ से हदये जाने
के कारण इसका नाम दलक्षणा पड़ा। यज्ञ को दक्षता के कारण हो दलक्षणा का महत्त्व अन्य ग्रन्थकारों ने भी स्वीकारा है।

यज्ञान्त में यजमान द्वारा ऋत्विजों को पारश्रतमकस्वरूप हदये जाने वाले द्रव्य का नाम दलक्षणा है। दलक्षणा रहहत यज्ञ
तनष्फल होता है। शतपथ ब्राह्मण भी दलक्षणा रहहत यज्ञ का तनिेध करता है - नादलक्षणेन हतविा यजेत ।" अतएव यज्ञ से
पूणयतया लाभात्वन्वत होने के ललए यथातवहहत दलक्षणा प्रदान करना श्रेयस्कर होता है। सामान्यता दलक्षणा में गौ, हहरण्य,
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भूतम, अन्न, वस्त्र अथवा अन्य कोई वस्तु देव होती है अग्नि पुराण के अनुसार स्वणय, अश्व, ततल, गज, भूतम, दासी, रथ, गृह,
कन्या एवं ककपलानी आहद दलक्षणा के सवोत्तम् पदाथय हैं।" ऋत्विजों के कमय भेद से दलक्षणा द्रव्य और उसके पररमाण में भी
भेद होना स्वाभातवक है। यज्ञ में सवोत्तम द्रव्य ही दलक्षणा के रूप में प्रदेय है। वैहदक काल से ही गाय दलक्षणा के देय
पदाथों में सवयश्रेष्ठ एवं पतवत्र मानी जाती रही है।" यही कारण है कक परवतयकाल में गौ की दलक्षण इतनी श्रेष्ठ मानी गयी कक
दलक्षणा एवं गी एक-दूसरे के पयाय बन गये हैं।

यज्ञमधुसूदन" के मतानुसार यज्ञों में देव दलक्षण पदाथों के आधार पर ऋत्विजों का चतुधा वगीकरण प्रस्तुत ककया गया है।
प्रथम भाग में िमश: होता, अध्वयु,य उद्गाता और ब्रह्मा आते हैं, जो पूणय दलक्षणा के अधधकारी होते हैं। हद्वतीय भाग में
मैत्रावरुण, प्रततप्रस्थाता, प्रस्तोता और ब्राह्मणी नामक ऋत्विजों की गणना है, लजन्हें प्रथम भाग की दलक्षणा से आधी दी
जाती है। अतएव ये 'अद्वधन्' की संज्ञा से अधभहहत ककये गये हैं ये हद्वतीया मैत्रावरुणायादयस्ते प्रथम दलक्षणापेक्षया
अधयदलक्षणां लभन्ते तस्मादधधयनः ।

तृतीय भाग में आने वाले ऋत्विज् िमश: अच्छावाक्ष्य प्रततहता और आिीध्र हैं, लजन्हें प्रथम भाग की दलक्षणा का तृतीयांश
हदया जाता है, लजसके फलस्वरूप उन्हें तृतीग्नयन् की संज्ञा दी गयी है तृतीयांश दलक्षणां लभन्ते । तस्मातृतीग्नयनः । चतुथय
भाग में आने वाले ऋत्विज िमशः ग्रावस्तोता, उन्नेता, सुब्रह्मण्य और पोता है। इन्हें प्रथम भाग की दलक्षणा का चतुथांश
प्रदान ककया जाता है। इसललए इन्हें 'पादी' की उपाधध से तवभूकित ककया गया है- चतुथाश लभन्ते । इत्यस्ते ते पाहदन्
उच्यते।

वैहदक धमय कमयकाि प्रधान है। सम्पूणय वैहदक वाङ्मय में यज्ञों की 115 आनुष्ठातनक प्रकियाओ,ं रहस्य तथा पररणाम आहद
का प्रततपादन ककया गया है। प्राचीन समय में या वतयमान समय में ककए जाने वाले यज्ञों के देवता, हतवद्रयव्य, मन्त्र, ऋत्विक्
तथा दलक्षणा पञ्चांग हैं। ये यज्ञ की पूणयता तथा सफलता के प्रतीक हैं। शास्त्रकारों ने मन्त्रहीन, श्रर्द्ाहीन, तवधधहीन यज्ञों
को यजमान का तवनाश करने वाला कहा है। यज्ञ में यहद मन्त्रोच्चारण गलत होगा, तो आहुततयाँ देने का अथय ही गलत हो
जायेगा और यज्ञ का उिेश्य भी भ्रट हो जायेगा। यहद यज्ञीय सामग्री के तनमाण में त्रुकट होगी, हतव रूप पदाथों का तीव्र अग्नि
में पाचन नहीं होगा, ऋतु, दे श, काल का ध्यान न रखते हुए स्वास्थ्य की दृकट से प्रततकूल पदाथों का यज्ञ में प्रयोग होगा, तो
ऐसा यह यजमान एवं यज्ञ कत्ताओ ं का तवनाश भी कर देगा तब तो नास्तस्त यज्ञ समो ररिु यह कथन चररताथय होगा।

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इसललए समग्र यज्ञों की सफलता हे तु इनका तथा तवहहत तवधानों के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न ककया जाना तनतान्त
आवश्यक एवं वैज्ञातनक है।

3. प्राचीन प्रर्तीकों का र्महत्त्व एवं उनका र्मानस अस्तित्त्व


प्रतीक का अथय है चचह्न प्रतीक वह है जो ककसी अन्य स्तर पर अपनी - स्थस्थतत या समतुल्य यथाथय के द्वारा सिभय के रूप में
सुतनलित स्थस्थतत पर वतयमान रहता है। प्रतीक के तविय में सवाधधक महत्त्वपूणय तथ्य यह है कक वह यथाथय को बलपूवयक
प्रदलशयत तो करता ही है और ककसी को अस्वीकारता नहीं है। प्रतीक का सम्बन्ध इततहास, अनुष्ठान एवं तवतवध कलाओ ं से
है। तनलित रूप से यज्ञ कमय एवं उससे प्रयुक्त सहायक उपकरण अथवा पदाथय लौककक जगत् की वस्तुएुँ न होकर
प्राकृततक एवं आध्यात्वत्मक तत्त्वों की भी प्रतीक हैं। जो 'शतपथ ब्राह्मण' में प्रततपाहदत यज्ञों में प्रयुक्त उपकरणों की
प्रतीकात्मक

व्याख्या से पूणयतः स्पट है।

यज्ञ की सभी तवधधयाँ अथात् कृत्य तथा उनमें प्रयुक्त पाशाहद सभी प्रतीकात्मक हैं। यह की इसी प्रतीकात्मक के कारण
दशयपौणयमास को भी

'तैधत्तरीय संहहता' में देवरथ कहा गया है एि वै देवरथो यिशयपूणयमासी “

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार संसार में दो ही बाते हैं अनश्वर और नश्वर । देवता अनश्वर है और मनुष्य नश्वर । अतः यज्ञ
व्यग्नक्त के ललए देवि प्रान्दप्त का साधन माना गया है। यज्ञ दैवी है, इसललए इसमें प्रयुक्त सभी उपकरण अथवा पदाथय भी
दैवी होने चाहहए। मनुष्य नश्वर होने के कारण उससे सम्बर्द् सभी वस्तुएुँ भी नश्वर होंगी। ऐसी स्थस्थतत में अनश्वर से सत्य
की प्रान्दप्त कैसे हो सकती है। इसके ललए सृकट के प्रतीक रूप यज्ञ में प्रयुक्त उपकरणाहद भी ककसी न ककसी दैवी तत्त्व के
प्रतीक होते हैं, उदाहरणाथय-

1. जल

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यज्ञ का प्रथम पदाथय जल है" जो सृकट का प्रतीक है, क्योंकक यही सृकट का आहद तत्त्व माना गया है। यज्ञ प्रजापतत का
प्रतीक है, और प्रजापतत ने सृकट के ललए सवयप्रथम जल को ही प्रयुक्त ककया था। यज्ञ में सवयप्रथम जल ग्रहण ककया जाता
है। शतपथ ब्राह्मण (6.8.22) में कहा गया है आपो वा अस्य सवयस्य प्रततष्ठा अथात् जल जगत् की प्रततष्ठा है। जल सवयत्र
व्याप्त है इसललए यह व्यापकि का भी प्रतीक है। जल पतवत्रता का प्रतीक है पतवत्रं वाऽआपः । शत० ब्रा० (1.2.10)।
इसके सेवन से यजमान तो पतवत्र होता ही है, साथ ही यज्ञीय उपकरणों को भी जल से पतवत्र करके यज्ञ में प्रयोग लाया
जाता है। जल वज्र का प्रतीक है, वज्रो वाऽआपः (श०ब्रा०, 3. 1.2.6, तै०स०, , 1.1.4.), क्योंकक जल जहाँ अतत वेग से
ग्नगरता है वहाँ खड्डा कर देता है अत्यधधक जल जहाँ होता है वृक्षाहद को गला देता है तथा तबना जल से ये नट हो जाते हैं।
वज्र के भी खड्डा करना व ग्नगरने पर नट करना ये दो ही कायय होते हैं। इसललए देवों ने जलरूपी वज्र की खोज की और
उसके संरक्षण में यज्ञ अथात् सृकट का तवस्तार ककया।

2. अनस्
अनस् हतव के धान की गाड़ी है लजससे हतव तनतमयत करने के ललए धान ललया जाता है। आध्यात्वत्मक दृकट से अनस् अन्
'प्राणने' से शरीर का प्रतीक है", लजसमें प्राण का संचार होता है और यहाँ से ली जाने वाली हतव अथवा सोम आत्मा का
प्रतीक है लजस प्रकार लोक में आत्मा शरीर से संयक्त
ु होकर सृकट में प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार हतव से युक्त अनस् यज्ञरूप
सृकट से संयक्त
ु होती है। अत: हतव युक्त अनस् प्राणवान् शरीर का प्रतीक है। यज्ञ में सोम अथवा हतव तनतमयत करने हे तु
धान अनस से ग्रहण ककया जाता है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है - भूमा वाऽअन: (५.५.ञ्च.०) अथात् यह बहुतायत का
प्रतीक है। वस्तुतः गाड़ी बहुतायत का चचह्न है, जो चीज बहुत होती है उसके ललए गाड़ी का प्रयोग करते हैं। परोक्ष रूप से
यह यज्ञ का भी प्रतीक है। अनस का जुआ अग्नि का प्रतीक है, जुएुँ के मध्यभाग में लगा हुआ दि वेटी का और धान रखने
का स्थान हतवधयन का प्रतीक है।" इस प्रकार अनस् यज्ञ का प्रतीक है, जो यज्ञरूप सृकट कमय में संयक्त
ु ककया जाता है।

3. कृष्णाक्षजन (काला र्मृिचर्मय )


यज्ञ में इसका प्रयोग व्रीहह आहद हतव के कूटने के ललए उलूखल के नीचे तबछाने के ललए ककया जाता है।" कृष्णमृगचमय
पृधथवी, अन्तररक्ष एवं द्युलोक का प्रतीक है क्योंकक इससे श्वेत, कृष्ण तथा भूरा रं ग होता है जो तीन लोक हैं। इसका श्वेत
रं ग सूयय का प्रतीक है क्योंकक सूयय का प्रकाश श्वेत होता है। कृष्णवणय पृधथवी का प्रतीक है क्योंकक पृस्तथ्वी कृष्णवणय है
इसमें से कृष्ण रस्तियाँ तनकलती हैं जो सूयय के प्रकाश से वास्ततवक रूप में हदखाई नहीं देती। कृष्ण एवं श्वेत वणय के मध्य
जो भूरा रं ग है वह अन्तररक्ष का प्रतीक है। इसका देवी नाम शमय है।" शमय का अथय है- कल्याणकारक या मंगलकारी। यज्ञ
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भी मंगलदायक होता है अतः मङ्गलरूप यज्ञ का आधार भी कल्याणकारी होना चाहहए, इसललए इसे यज्ञ रूप माना गया
है। यज्ञ के कूटने, फटकने वाले कमय कृष्णालजन पर ककए जाते हैं, लजससे कुछ नीचे ग्नगरे तो इसी पर ग्नगरे और यज्ञ की
पूणयता नट न हो। अतः यह यज्ञ के गौरव तथा इसकी रक्षा का प्रतीक है।

4. जुहू, उपभृर्त् और ध्रुवा


प्रमुख होमों में प्रयोग को जाने वाली स्रुच् की संज्ञा जुहू है। यह पलाश काष्ठ से तनतमयत एक अरध्नम या बाहुमात्र लम्बी होती
है। आहुतत देने वाले खुच् या चमस् को उपभृत् कहते हैं। यह अश्वत्थ काष्ठ से तनतमयत जुहू जैसा ही होता है। होमाथय सुच् के
द्वारा हदए जाने वाले आज्य को आहहत करने वाले स्रूच की संज्ञा ध्रुवा है। यह तवकंकत काष्ठ का होता है और यह भी जुहू
के आकार जैसा होता है। वस्तुत: आहुतत देने वाले चमसों का समकटगत नाम स्रुच् है और यह पाँच प्रकार की होती है,
परन्तु सवाधधक महत्त्वपूणय तीन ही मानी गई है। इनमें जुहू 'द्यौ' का प्रतीक है, उपभृत् अन्तररक्ष का और ध्रुवा पृधथवी का
क्योंकक पृधथवी से ही सब लोक उत्पन्न होते हैं, अतः ध्रुवा से सब यज्ञ उत्पन्न होते हैं।2 आध्यात्वत्मक दृकट से जुहू 'वाक् "" का
प्रतीक है और लौककक दृकट से 'यजमान का क्योंकक जुहू से मुख्य आहुतत दी जाती है और यज्ञ का मुख्य प्रतीक पात्र
यजमान होता है। उपभृत् 'मन" का प्रतीक है और ध्रुवा आत्मा का", क्योंकक ध्रुवा से ही सब यज्ञ उत्पन्न माने जाते हैं और
आत्मा से ही सम्पूणय सृकट सत्तावान् होती है तथा सभी अंग प्रत्यंग प्रादुभूयत होते हैं।

5. उलूखल-र्मुसल
उलूखल मुसल यज्ञायु काष्ठ से तनतमयत पुरोडाश सम्बन्धी व्रीहह आहद कूटने के ललए प्रयोग में लाये जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण
के अनुसार उलूखल योनी (उपस्थ) तथा मुसल लशशु (उपस्थेन्दन्द्रय) के प्रतीक हैं।" यहाँ ध्यातव्य है कक लजस प्रकार सृकट के
ललए लशश्न योतन में प्रवेश कर प्रजनन के ललए गभाधान करता है उसी प्रकार उलूखल और मुसल संयक्त
ु होकर यज्ञ
सम्पादन हे तु पुरोडाश के ललए व्रीहह को कूटकर तैयार करते हैं। कठ संहहता के अनुसार यह तवष्णु की नाधभ का प्रतीक है-
यदुलूखमुपदधातत तवष्णोरेव नाभावग्निचचनुते (कठ० ५.३)। उलूखल का कायय कूटने की किया द्वारा सार एवं असार को
अलग करना है। धान्य से उसका चछलका' जो असार तत्त्व है अलग ककया जाता है। बुणर्द् एवं तववेक द्वारा हम ग्राह्य एवं
अग्राह्य का तनणयय करते हैं, दोनों को अलग करते हैं इसललए ये बुणर्द् एवं तववेक के प्रतीक हैं।"

6. दुषद्-उपल

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दृिद् उपल भी यज्ञायुध कहे जाते हैं तथा चरू अथवा पुरोडाश के ललए व्रीहह को पीसने में सहायक होते हैं। वस्तुतः दृिद्
पृथ्वी का प्रतीक है और उसके ऊपर रखी जाने वाली शमी अन्तररक्ष का तथा उपल द्यु का प्रतीक माना गया है क्योंकक यु
और पृथ्वी अन्तररक्ष के द्वारा स्थस्थर ककये जाते हैं। लजस प्रकार सम्पूणय सृकट पृथ्वी पर तवस्तृत है और उसका आधार यु और
अन्तररक्ष लोकों में है उसी प्रकार यज्ञ का हव्यपदाथय जो स्वयं यज्ञ की पूणयता का कारण है वह व्रीहह (चावल) इसी दृिद् के
ऊपर फैला हुआ यज्ञानुष्ठान के ललए तैयार ककया जाता है। अतः ये इन लोकों के प्रतीक हैं। आध्यात्वत्मक दृकट से ये दोनों दो
जबड़ों के प्रतीक तथा शमी लजह्वा का प्रतीक मानी गई है क्योंकक जठराग्नि में भी दी जाने वाली अन की आहुतत जठराग्नि के
ललए कूट-पीस कर (चबाकर ) योग्य बनाई जाती है।

7. स्पय और यूप
इनका पररगणन भी यज्ञायुधों में ककया गया है। स्पय खहदर काष्ठ से तनतमयत अतनमात्र लम्बी, चार अंगुल तवस्तार वाली खङ्ग
आकृतत की होती है। वेदी में रे खा खींचने में इसका प्रयोग ककया जाता है। यूप में यज्ञ पशुओ ं को बांधा जाता है। यज्ञ में
यज्ञायुध के रूप में प्रयुक्त ये दोनों इन्द्र के वज्र के प्रतीक हैं, जो वज्र के चार टु कड़ों में से दो हैं तथा शेि दो, रथ और बाण
हैं, लजसका प्रयोग क्षकत्रय युर्द् में करते हैं।" कृष्ण यजुवेदीय संहहताओ ं में स्फ्य देवताओ ं के वज्र का प्रतीक है क्योंकक देवों
ने अध्वर के तनतवयघ्न समान्दप्त के ललए जैसे वज्र का प्रयोग ककया था, उसी प्रकार अध्वयुय यज्ञ के समय इसका प्रयोग करता
है।

8. खुवा और खुच्
खुवा खहदर काष्ठ से तनतमयत अतनमात्र लम्बा तथा गोलाकार मुुँहवाला होता है। आज्यस्थाली से आज्य तनकालकर जुहू
आहद खुचों में डालने के ललए छोटे चमस् के रूप में इसका प्रयोग होता है। इसकी उपमा शतपथ ब्राह्मण में पवन से दी गई
है। अतः यह पवन का प्रतीक है, लजस प्रकार वायु का संचार सभी लोकों में होता है, तथैव खुवा सभी सुचाओ ं तक पहुुँच
जाती है तस्मादु - खुवः सवा अनु स्रुचः सच्चरतत ।" लौककक दृकट से सुवा पुरुि का प्रतीक है तथा सुच् स्वी का पुरुि के
पीछे -पीछे स्त्री गमन करती है उसी प्रकार वेदी पर पहले खुवा और बाद में खुच् का सम्माजयन होता है ।" आध्यात्वत्मक दृकट
से सुवा प्राण का और स्रुच सभी अंगों का प्रतीक है, क्योंकक प्राण सब अंगों में संचार करता है, इसी प्रकार सुवा का भी
आज्य आहद सभी स्रुचों में ललया जाता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आहुतत देने के पिात् प्रजापतत के हाथों को रगड़ने से
तवकंकत की उत्पधत्त हुई, अतः यह यज्ञपात्रीय वृक्ष हैं।" इसीललए अन्य यज्ञ सम्बन्धी पात्र इससे तनतमयत ककये जाते हैं।

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9. शूपय और अगिहोत्रहवणी
शूपय (सूप) बाँस की पतली सींक या सरकिे का बना होता है। इसमें चमय या नाड़ का प्रयोग वलजयत है। यह अहहंसा का
प्रतीक है। सायण अनुसार इससे व्रीहह आहद हतव तबना साफ ककये यहद यज्ञ में प्रयोग में लाया जायेगा तो अस्वच्छ हतव के
साथ कीड़े-मकोड़े आहद जन्तु भी जलकर मर जायेंग,े लजससे यज्ञ में हहंसा हो जाएगी, इसललए यज्ञीय उपयोग में लाने से
पूवय हतवयों को शूपय से साफ करना अतनवायय है।" अग्निहोत्रहवणी की लम्बाई बाहुमात्र (24 अंगल
ु ) होती है। इसका मुख
वृत्ताकार होता है। यह तवकङ्कत वृक्ष की बनी होती है।" इससे अग्निहोत्र ककया जाता है- अग्निहोत्रं हूयतेऽनयेतत। इससे प्रात:
होम में मुख्य दूध की आहुतत दी जाती है। ये दोनों पात्र व्यापकता के प्रतीक हैं यज्ञाय हह तस्मादाह कमयण वातमतत वेिाय
वातमतत वेवेटीव हह यज्ञम्” अथात् तुम दोनों का प्रयोग यज्ञ कमय की व्यापकता के ललए ककया जाता है क्योंकक यजमान यज्ञ
में व्यापक होता है। शूपय पुरुि का प्रतीक है, लजस प्रकार पुरुि में तववेकशील गुण होता है उसी प्रकार शूपय भी तुिाहद को
पृथक् करके तववेकी रूपी वायु से उड़ा देता है - वायुध्वो तवतवनक्तु ।" अग्निहोत्रहवणी स्त्री का प्रतीक है क्योंकक श्रर्द्ा में
सत्य का हवन होता है।" सत्य का प्रतततनधध घृत दूध को रखा है। घृत प्रत्यक्ष ज्ञानरूप दूध का सार है। लजस प्रकार
सन्तानाग्नि के उत्पन्न होने पर वही सत्यरूप दूध जननी के स्तनों द्वारा सन्तानाग्नि में हवन होता है उसी प्रकार
अग्निहोत्रहवनी से दूध की आहुतत द्वारा यज्ञाग्नि में हवन होता है।

10. वेदी र्तथा बदहय


यह यज्ञ का आधार है, लजससे सभी कृत्य सम्पाहदत ककये जाते हैं। यद्यकप यह पात्र नहीं है तथाकप इस प्रसङ्ग में इसकी
प्रतीकात्मकता का संकेत करना अनुचचत नहीं होगा। आधधदैतवक दृकट से यह पृधथवी का प्रतीक है", क्योंकक इसी वेदी के
द्वारा देवों ने सम्पूणय पृथ्वी को राक्षसों से जीता था। राक्षसों का इससे कथमकप सम्पकय न हो इसललए इस पर ओिधधरूप
बहहय तबछाया जाता है। इस वेदी पर पहली तीन रे खाओ ं का घेरा पुनि तीन रे खाओ ं का घेरा छः ऋतुओ ं का प्रतीक है और
पुनः संवत्सर प्रजापतत का प्रतीक बन जाता है।" प्रथम घेरे में छः व्याहृततयाँ और दूसरे घेरे में पुन छः व्याहृततयाँ बारह मासों
का प्रतीक है। भौततक दृकट से देखने पर वेदी स्त्री का प्रतीक है और अग्नि पुरुि का वेदी में अग्नि की स्थापना स्त्री में पुरुि
रूप रेतस् की स्थापना का प्रतीक है। लजसमें सृकट रूप यज्ञ सम्पन्न होता है, अतः यज्ञ प्रकारान्तर से सृकट का ही प्रतीक है।"
देदी स्त्री का प्रतीक है और यज्ञ के साथ देवता और तवद्वान् ऋत्विक् वेदी के चारों ओर तवद्यमान रहते हैं, इसललए स्त्री को
नि नहीं होना चाहहए, इस कारण इसके ऊपर बहहय तबछाया जाता है -

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योिा वै वेहदः तामेतिेवाि पयासते, ये चेमे ब्राह्मणाः शुश्रुवांसोऽनूचानाः तेष्वेवैनामेत् पयासीनेष्वनिां करोतत । वेदी पर
तबछाया गया बहहय यौवन का प्रतीक है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार तस्या वेहदरूपस्या लोमातन बहहयः" अथात् यौवन काल
में स्त्री के जो रोभ उदय होते हैं, वही वहहय होते हैं। अतः बहहय यौवन का प्रतीक है। इसललए स्त्री रूपी वेदी पर यह तवछाया
जाता है। बहहय पृधथवी लोक का भी प्रतीक है क्योंकक इसी पृधथवी पर औिधधयाँ उत्पन्न होती हैं और औिधध की को भी बहहय
कहते हैं ।" यजमान यज्ञ द्वारा पृधथवी लोक में औिधध की स्थापना करता है। बहहय उन समस्त तत्त्वों का प्रतततनधध है जो
वृणर्द्गत है। यह प्रजा और पशुओ ं का भी प्रतीक है क्योंकक प्रजा से समाज व राटर वृणर्द् को प्राप्त होते हैं। पशुओ ं के दुग्ध,
वृत आहद से भी मनुष्य वृणर्द् को प्राप्त होते हैं।

इस प्रकार संहहताओ,ं ब्राह्मणों और आरण्यकों में उपलब्ध यज्ञों पात्रों एवं उपकरणों से सम्बर्द् प्रतीकों के तववेचन के
आधार पर ऐसा प्रतीत हे ता है। कक यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले सभी उपकरण प्राकृततक सृकट यज्ञ में प्रयुक्त प्राकृततक अथवा
दैवी तत्त्वों के प्रतीक हैं। जब यज्ञ स्वयं प्रजापतत के सृकट यज्ञ का प्रतीक है और प्रकृतत में तनरंतर चलने वाले प्राकृततक
यज्ञ के आधार पर पररकस्थल्पत है तब तनिय ही इस यज्ञ में उपयोगी सभी पात्र भी सृकट यज्ञ में काम आने वाले प्राकृततक
तत्त्वों के प्रतीक हैं अथवा देवी हैं। यहाँ पर संक्षेप रूप में मुख्य पात्रों या उपकरणों की प्रतीकात्मकता पर तवचार ककया
गया है, इसी आधार पर अन्यों की प्रतीकात्मकता पर तवचार अपेलक्षत है।

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क्रिया का क्षसद्धान्त - यज्ञ एक प्रर्तीकात्मक क्रिया

आधुतनक तवश्व में सभी सामालजक, सांस्कृततक अनुशासन इस तथ्य को मानते हैं कक उनके अध्ययन का समुचचत क्षेत्र
मानव-किया है। प्रतीकवाद का लसर्द्ान्त और किया का लसर्द्ान्त अन्योन्याचश्रत है। ये दोनों ज्ञानमीमांसा एवं सैर्द्ांततक
मीमांसा के सोपानिम से जुड़े हैं। वस्तुतः यह कथन नहीं है परन्तु इसको संकेत ककया जा सकता है अथवा
नकारात्मकरूप में इसका अनुभव ककया जा सकता है। यज्ञ एक प्रतीकात्मक किया है। वस्तुतः किया के लसर्द्ान्त की
व्याख्या प्रतीक के लसर्द्ान्त का पूरक है।

मैक्समूलर, बेबर आहद पािात्य तवद्वान् किया को पररभाकित करते हुए कहते हैं कक सामालजक किया एक ऐसी किया है
जो दूसरी किया की ओर संकेत करती है। इस स्थस्थतत में प्रत्येक किया सामालजक हो जायेगी और इसका सामालजक
तवशेिण भी तनरथयक होगा ।" अतः यह एक तवरोधाभास है, सामालजक किया के साथ वैयग्नक्तक किया की उपेक्षा कर दी
गई है। यह इसललए हुआ, क्योंकक किया के सिभय में स्थस्थत 'अन्य' का तववेचन नहीं ककया गया है। सभी कियाओ ं का
कत्रतवधध तवभाजन संभव है आधथयक तकनीकी, राजनैततक किया और सांस्कृततक धातमयक किया। ध्यातव्य है कक
सोपानिम में सांस्कृततक धातमयक किया सबसे ऊपर है, तकनीकी आधथयक सबसे नीचे और राजनैततक किया मध्यवती
है। अध्ययन की दृकट से यहाँ सांस्कृततक धातमयक किया ही सबसे महत्त्वपूणय है। अतएव इसी का तववेचन अपेलक्षत है। यह
सही है कक ये कियाएुँ मानव को मानव बनाने, तवश्व के साथ उसका तादात्म्य स्थाकपत करने में सहायक लसर्द् हुई है।

वाजसनेग्नयसंहहता की प्रथम कण्डिका में प्रयुक्त श्रेष्ठतम कमय की व्याख्या करते हुए महीधर ने किया का चतुधा तवभाजन
ककया है, अप्रशस्त, प्रशस्त, श्रेष्ठ तथा श्रेष्ठतम् । लोकतवरुर्द् हत्या, चारी आहद कायय अप्रशस्त कमय है। लोक में प्रशंलसत
बन्धु बांधवों का पालन-पोिण प्रशस्त कमय है। धमयशास्त्रों में वणणयत वापी, कूप, तालाब आहद लोकोपकारी कायय श्रेष्ठ कमय
के अंतगयत आते हैं। वेदतवहहत यज्ञ का कायय श्रेष्ठतम है। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी यज्ञकमय को सवाततशायी बताया गया है।
ऐतरे य ब्राह्मण में स्पट है यज्ञ एक ऐसी सुिर तथा सुदृढ़ नौका है, लजससे व्यग्नक्त की चेतना स्वतनष्ठ यथाथय को पारकर
परम यथाथय की चेतना से तादात्म्य की स्थापना कर सकती है। या प्रथम धमय है ऋक् संहहता में अधभव्यक्त है चाहे यज्ञ हो,
कला हो, कतवता हो, यजमान कलाकार और कतव उसी महत् देवता से इन तवधाओ ं के द्वारा संवाद करता है। एवं प्रेरणा
लेता है। यह संवाद सदैव परोक्षरूप से होता रहता है, क्योंकक वह आत्वत्मक ज्ञान पर आधाररत है दुतवयज्ञानं काव्यं
देवतानाम्। परोक्ष रूप से तवश्वलजत् यज्ञ महाव्रत है। वह इन साधनों के द्वारा प्रत्यक्षरूप से अन्न प्राप्त करता है। इसका
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कारण यह है कक मनुष्य जो स्वयं प्रत्यक्षरूप से पाता है, वह परोक्षत: देवताओ ं को प्राप्त होता है। इस दृकट से सभी वैहदक
यज्ञ रहस्यमय एवं अनुकरणीय कमय है। वस्तुतः धातमयक जीवन सामालजक जीवन की प्रदीप्त रे खा है।

प्रत्येक किया तभी तक उचचत एवं नैततक है जब तक वह यज्ञ अथवा अनुष्ठान की भावना से की जाती है। अतएव शुर्द् एवं
सत्यमय जीवन का अथय उसकी प्रत्येक किया के अनुष्ठान में तनहहत है। इस प्रकार यज्ञ पूरी सामालजक किया का आधार
है। व्यग्नक्त हदक्काल सापेक्ष होता है, प्रत्येक अस्तस्ति की यही स्थस्थतत है, अतएव जीवन को अथयवत्ता की प्रततमाओ ं से
आच्छाहदत कर उसे साथयकता प्रदान करने के ललए केवल एक ही उपाय है, इसके प्रत्येक अणु को यज्ञ के द्वारा शाश्वत्
सत् से पररवततयत करता रहे। यहद आधुतनक तवश्व प्राचीन मानलसकता का उपहास करता है तो वह इसललए कक वह
यालज्ञक या आनुष्ठातनक प्रकिया के संस्पशय से बचचत है या मूल को छूने का प्रयास नहीं करना चाहता है।

5. आधुननक प्रर्तीकों की वैज्ञाननकर्ता


वैहदक साहहत्य से यह ज्ञात होता है कक वैज्ञातनक कमय 'यज्ञ' से भलीभाँतत जुड़ा हुआ है क्योंकक अग्नि का अतवष्कार मन्त्रों
के युग से हुआ था। ऋग्वेद में वैज्ञातनक तवज्ञान तीन प्रकार की अग्नि पर अवलत्वम्बत है- 1. पाधथयवाग्नि, 2. अन्तररक्षाग्नि
(तवद्युत्) और द्युलोकाग्नि (सूयय)। यज्ञ का सम्बन्ध मुख्य रूप से पाधथयवाग्नि और गौण रूप से अन्तररक्षाग्नि व द्युलोकाग्नि से
भी है। भौततक तवज्ञान भी प्रकाश, उष्मा और तवद्युत् के रूप में कत्रतवध अग्नियों का अध्ययन करता है। इसमें प्रकाश एवं
उष्मा का सबसे बड़ा स्रोत 'सूयय' को माना गया है। घुलोक में यही सूयय का प्रकाश महान् अग्नि के मुख की भाँतत है-
अिेरनीकं बृहतः सपयं हदतवशुिं यजतं सूयस्य
य ।

तवज्ञान में मुख्यतः पदाथय तीन रूपों में तवभक्त ककए जाते हैं- 1. बेस (काष्ठ, बफय आहद), 2. तरल (द्रव्य, जल, दुग्ध आहद)
और 3. गैस (हवा, वाष्प) आहद इन्हीं पदाथों से जगत् की संरचना हुई है। इन तीन पदाथय भेदों से यज्ञ का घतनष्ठ सम्बन्ध है,
क्योंकक पदाथय का दूसरा नाम द्रव्य भी है और अग्निहोत्राहद यज्ञ को 'द्रव्ययज्ञ' भी कहते हैं, क्योंकक द्रव्यों के तबना यज्ञ
सम्पाहदत नहीं होता। यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सतमधा, यज्ञपात्र, कलश, यज्ञवेदी आहद ठोस पदाथय हैं, हव्यद्रव्य के रूप में
प्रयुक्त घृत, जल, दुग्ध इत्याहद तरल पदाथय हैं तथा हव्य द्रव्यों के जलने से समुत्पन्न नानातवध सुगत्वन्धत और पुकटकारक
वाष्प ही गैसीय पदाथय हैं। यज्ञों में तवज्ञान की आवश्यकता इसललए भी होती है कक यहों का प्रायः प्रयोग जल-वृकट, वायु-
शुणर्द् आहद के ललए होता रहा है अतः यालज्ञकों को वायु, जल और अग्नि के सूक्ष्म कायों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो
जाता है, क्योंकक विा वायु-चि पर और गमी सदी, ग्रह उपग्रह और पृधथवी की गतत पर अवलत्वम्बत हैं।
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सृकट की साम्यावस्था में सभी पदाथय एक रूप होते हैं, ककसी का पृथक अस्तस्ति नहीं रहता, सवयत्र एकरूपता और
एकरसता होती है। इस स्थस्थतत को आधुतनक वैज्ञातनक नाधभक कहते हैं, परन्तु यज्ञ मन्त्रों में उसे 'हहरण्यगभय' कहा गया
है। अथवयवेद में भी ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कक परमेश्वर ने महान् व्यापक मूल तत्त्व से तैंतीस लोकों का तनमाण ककया
और उन लोकों में ज्ञानाथय उन्होंने यज्ञ की सृकट की इस प्रकार यह न केवल सृकट का प्रतीक है प्रत्युत उसकी व्याख्या भी है
लजसका सम्बन्ध तवज्ञान से है।

यज्ञ वस्तुतः सृकट का शाश्वत तनयम है जो परमाणु से लेकर 'महत्' तत्त्व पययन्त तनरन्तर गततमान है। एक तत्त्व में अनेक
यज्ञ उसके केन्द्रों और उपकेन्द्रों में चलते रहते हैं। अतः सृकट का समस्त कायय यज्ञमय है और यज्ञ से ही संचाललत होता है।

ऋतञ्च सत्यञ्चाभीर्द्ात् तपसोऽध्यजायत ।

अथात् परमात्मा के तप से प्रादुभूयत ऋत और सत्य से ही सृकट का हद्वतवधशग्नक्तमय रूप बनकर िमपूवयक चलता रहता है,
जो मूल में भी दृकटगोचर होता है। ऋतु गततशील तत्त्व है और सत्य केन्द्रभूत ।

आधुतनक वैज्ञातनकों ने सृकट के लजस मौललक तत्त्व परमाणु का अन्वेिण ककया उसमें उन्हें ऋत अथात् 'इलेक्ट्रोन'
गततशील रूप में तथा सत्य अथात् 'प्रोयेन' केन्द्रस्थस्थत रूप में दृकटगोचर हुआ है। अतः तनरन्तर गततमान कमय रूप यज्ञ ही
ऋत और सत्य है।

यज्ञ की प्रततष्ठा सत्य पर आधृत है, क्योंकक सत्य ज्ञान, सत्य वाणी, सत्य कमय, सत्य श्रर्द्ा, सत्य तनयम और सत्य तनिय के
तबना कोई यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। अतः सत्य ही मूल है। अग्नि और सूयय का यज्ञ से गहन सम्बन्ध है, क्योंकक अग्नि के
तबना यज्ञ सम्भव नहीं है 10 और सूयय ककरणे ही अग्नि द्वारा यज्ञ में हुत पदाथों को प्राप्त कर आकाश में सुरलक्षत करती हैं"
और रासायतनक पररवतयन से तवतवध कायों का सम्पादन भी करती है एतदथय अग्नि तत्त्ववाहक दूत है, अतः इससे श्रेष्ठ यज्ञ
का कोई उत्तम साधन नहीं है जो हतवरन्न को प्रज्ज्वललत कर उसके सूक्ष्म तत्त्वांश को सभी देवों तक पहुुँचा सके। चक्षु के
कायय की उपादेयता तो स्वतः लसर्द् है, क्योंकक चक्षु का तात्पयय समग्र प्रत्यक्ष साधन इन्दन्द्रयों से है लजसके आधार पर यज्ञाहद
कायय सम्पाहदत होते हैं चक्षुि मे यज्ञेन कल्पताम् ।" मन का तवचार कमय ही यज्ञ है। इसकी पतवत्रता, , के ललए भी
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यज्ञानुष्ठान ककए जाते हैं, क्योंकक मन के स्वस्थ होने पर ही यज्ञ रूपी कमय सुचारु रूप से सम्पन्न होता है 14, इसललए यज्ञ
सम्पादन के अवसर पर ऋत्विजों और यालज्ञकों के ललए व्रत धारण कर सात्वत्त्वक आहार करने की व्यवस्था की गयी है
इससे वेदपाहठयों का मन पतवत्र होने से स्मृतत ठीक बनी रहती है। यही कारण है कक यज्ञाहद श्रेष्ठ कमों के यथातवधध
सम्पादनाथय यजुवेद में उपासक द्वारा मन को लशवसंकल्प बनाने की बारम्बार प्राथयना की गई है - तन्मे मनः
लशवसङ्कल्पमस्तु ।”” अतः सात्वत्त्वक वाणी और मन से 'यज्ञ सम्पाहदत होता है।

उपयुक्त
य तथ्यों से यह कहा जा सकता है कक वैहदक सृकट-यज्ञ लजन-लजन तत्त्वों अथवा पदाथों से सम्बन्ध रखता है उन्हीं
तत्त्वों अथवा पदाथों का सम्बन्ध ककसी न ककसी रूप में भौततक तवज्ञान से है तथा यह तवज्ञान लजन तत्त्वों का तववेचन
करता है उन्हीं का तववेचन यह सृकट-तवज्ञान रूप यज्ञ भी करता है। अतः भौततक तवज्ञान लजन-लजन सुख-सुतवधाओ ं का
जनक है उन-उन को देने में वैहदक यज्ञ की सक्षम है। वस्तुतः यज्ञ भी एक सृकट तवज्ञानाचश्रत किया है। अतः तनःसिे ह
वैहदक यज्ञ और तवज्ञान का घतनष्ठ सम्बन्ध है।

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