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मीमां सा दशन

1. ावना मीमां सा' श का अथ है -गहन िवचार, परी ण या अनुस ान। भारत के षड् दशनों
म से यह एक है ।
2. मूल प से मीमां सा दो ख ों म िवभ है -जै िमिन ारा वितत पू वमीमां सा और वादरायण
के नाम से िव ात उ रमीमां सा या मीमां सा।

इन दोनों दशनों म समानता की कोई बात नही ं है ।

3. पूवमीमां सा, जो इस का िवषय है , वह मु तः वेद के कमका परक म ों की सही


ा ा है । यह वेद के मूल पाठों के स अं शों का िनणय करता है ।
4. उ रमीमां सा मु त: अथात् नाम की थित के िवषय म िवचार करता है ।
5. अत: पूवमीमां सा को केवल मीमां सा नाम से तथा उ रमीमां सा को 'वे दा ' के नाम से पु कारते
ह। उ रमीमां सा म जैिमिन के दशनशा की उ राधता की कोई बात नही ं है । अत: उसे इससे िभ
दशन माना जाता है ।
6. वेद' िह दु ओं का धम है । पर रा के अनुसार इसकी कई प रभाषाय ह। उनम प रभाषा के
अनुसार—'इ ा तथा अिन प रहार के अलौिकक उपाय बतलाने या अ को वे द कहा जाता है ।'
वेद िजस धम को बतलाता है , वह धम न तो कही ं िदखलाई पड़ता है और न अनुमान ारा ही
बोधग होता है ; ोंिक और अनु मान तो उस व ुत को कािशत करते ह, िजसका कोई
अ होता है , ठोस आकार या कार होता है । यही कारण है िक मीमां सक िव ान् वेद की साथकता
अ ात रह के ितपादन म मानते ह-अ ा े तु शा मथवत् इित ायिवदः (मीमां साभा ,
िन पण)।
7. जहाँ तक िवद् ाने धातु से िवद अनेन इस ु ि के आधार पर
वेद को ान का साधन मान िलया जाय तो भी हम अपेि त त की उपल नही ं होती। मीमां सा एक
दशन है । दशन यु धान होता है ; िक ु मीमां सादशन म यु यों का योग मु तः आ वचनों के
समथन म तथा उनम किथत त ों के समथन म आ है ।

मीमां सादशन का थम सू है -अथातो धमिज ासा अथात् अब इसिलये धम की िज ासा करनी चािहए।
इसी तरह वेदा सू का थम सू है -अथातो िज ासा अथात् इसी तरह अब की िज ासा करनी
चािहए। इस पर रामानुज भृित कुछ आचायों ने मीम
ं ां सासू और वेदा सू को एक ही वृ की दो
शाखाओं के पम ीकार िकया है । आचाय को अथातो धमिज ासा से ले कर वे दा के अ म
सू -अथावृि ः श ादनावृि ः श ात् तक शा ीय िच न की एक ही पिव धारा वािहत तीत होती
है । इस िवचार से अनु ािणत श राचाय के पूववत आचाय की एक ल ी पर रा है । इस पर रा
की ृंखला की ाय: अ म कड़ी िमिथला-मही की िवभूित स वत: म न िम ही थे । इस पर रा
के आचाय म कमसमु य का अनेक शै िलयों म ितपादन िकया है ।आचाय शं कर ने भी कम तथा
उपासना अथात् ान को िच शु के िलये उपादे य माना है । मीमां सादशन के खर एवं उ ट आचाय
कुमा रलभ थे।

इनकी गणना भारतीय दशन के मूध आचायों म की जाती है । इ ोंने अपने बल तक से बौ धम


तथा बौ दशन का ख न कर वैिदक धम और दशन का पुन: थापना की। उ जनसामा के बीच
पुन: िति त पद दान िकया। कुमा रल भ को आज भी दाशिनकों ने मीमां सा और वेदा के बीच का
सश सेतु ही माना है । जहाँ तक मीमां सा का है , उसकी िववेचना का मुख ल वैिदक कमका
की सुसंगत एवं सुस द ास ुत करना है ।

मीमांसा-दशन के मुख आचाय

जैिमिन-महिष जैिमिन मीमां सा-सू के रचियता तो ह, िक ु मीमां सा-दशन के वतक नही ं ह; ोंिक
इ ोंने यं अपने पूवव ा कई आचाय का उ े ख िकया है । उनम मुख ह-बाद र, आ ेय, कामुकायन
और ऐतशायनु भृित। दु भा वश इसकी चचा तो उपल है , पर उनकी कोई कृित उपल नही ं है ।

मीमां सासू की रचनाकाल- जैिमिन के मीमां सासू की रचना का काल डॉ. राधाकृ न् के अनु सार ई.
पूव 400 वष माना गया है (भारतीय दशन-डॉ. राधाकृ न् ) ।

जैकोबी ने मीमां सासू म बौ िवचारों की आलोचना दे ख कर उसका िनमाणकाल बौ मत के उदय के


प ात् ई. पू. 300 से 200 वष के बीच माना है (भारतीय दशन, वमा) ।

प त के एक ोक म पािणिन के समकालीन जै िमिन को माना गया है । तदनु सार जैिमिन का समय


ई. पू. 500 वष ठहरता है (मीमां साकृतमु माथ ह ी मुिनं जै िमिनम्);

पर इतना तो िनि त प से कहा जा सकता है िक मीमां सासू ों की रचना ई. पू. 200 म अव हो चु की


थी, ोंिक ई. पू. थम शता ी म इस पर शाबरभा िलखा जा चुका था।

मीमां सासू म िवषय-योजना- मीमां सासू दाशिनक सू ों म सवािधक िवपु ल का है । इसम सोलह
अ ाय ह; िजसम बारह अ ाय ' ादशल णी' नाम से िस है और अ म चार अ ायों को
'दे वताका ' कहते ह। मीमां सा के धमिज ासा, भे द, शे ष , यो - योजकभाव, म, अिधकार,
सामा , अितदे श, िवशेष-अितदे श, ऊह, बाध, त और स -ये बारह व िवषय ह। इसीिलए इ
' ादशल णी' भी कहा जाता है ।

शबर ामी-शबर ामी ने मीमां सासू ों पर एक बृहद् भा िलखा है । यह शाबरभा के नाम से


जाना जाता है ।

एक िकंवद ी के अनुसार शबर ामी का नाम आिद सेन था। जैनों के आत से ये शबर अथात्
जंगली आदमी का वेश धारण कर जंगल म रहने लगे। उ ोंने अपना नाम शबर- ामी रख िलया।

शाबरभा का रचनाकाल-पा ा प त जै कोबी इसकी रचना 200 से 500 ई. के बीच मानते ह।


डॉ. राधाकृ न्, डॉ. ग ानाथ झा भृित िव ान् इसका रचनाकाल ई. पूव थम शता ी मानते ह
(भारतीय दशन, डॉ. राधाकृ न् ।

इस के तीन मुख ा ाकार ए-

1. कुमा रल भ ,
2. भाकर िम
3. मुरारी

इन तीनों के िवचारों म अ र होने के कारण तीन नवीन स दायों की ित ा ई, िजनके नाम ह-

1. भा मत,
2. गु मत
3. िम मत।

ये तीनों मीमां सा-दशन के मुख स दाय माने जाते ह।

भा मत के आचाय

(1) कुमा रल भ –बौ ों को परािजत कर वै िदक धम की पु न: थापना म कुमा रल भ का अि तीय


थान है । इनके स म कहा जाता है िक ये िमिथलािनवासी थे और वै िदक कमका के बल समथक
िव ान् थे। ये बौ मत से िह दू धम दीि त हए थे (भारतीय दशन, पादिट णी) । तारानाथ इ दाि णा
मानते ह।

शंकरिद जय' के अनुसार कुमा रल ने एक बार छ वे श धारण कर बौ सं ासी के प म बौ


मठों म वेश िकया और वहाँ बौ गु से सू शा ाथ- णाली म पार त होकर बाहर िनकल आये ।
पुनः शा ाथ म उ ी ं की णाली से उ ही परािजत कर वैिदक धम की जा फहराई। गु के साथ
िकये गये कपटाचार-जैसे जघ पाप से इनकी आ ा कराह उठी। इ ोंने 'आ दाह' जैसे कठोर कम
से ायि करने का िनणय िलया। तदनुसार याग प ँ च कर आ दाह के िलये 'तुषाि ' जलाने की
व था इ ोंने की। वहाँ ही उनकी स ाट हषवधन की बहन रा ी, हष और आचाय श र से भट
ई। आचाय शंकर ने उनसे जीिवत रहने का अनु रोध िकया; पर उ ोंने श र के अनुरोध को भी ठु करा
िदया। इस आधार पर इनका समय सातवी ं शता ी अथात् 600 ई. का परवत माना जा सकता है ।

रचना-इ ोंने शाबरभा पर तीन ों की रचना की-

1 ोकवाि क,

2.त वाि क

3.टु ीका

शाबरभा के िविभ अ ों की इनम ा ा है । ोकवाि क म तकपाद की ा ा है । त वाि क


म थम अ ाय के अविश तीन पाद, ि तीय और तृ तीय अ ाय की ा ा है । टु ीका म शाबरभा
के अविश नौ अ ायों की टीका है । इस की भू िमका म कुमा रल ने िलखा है -मीमां साशा ना क
लोगों के अिधकार म आ गया था, मने उ ार कर आ क पथ पर लाने का यास िकया है —

ायेणैव िह मीमां सा लोके लोकायतीकृता ( ोकवाितक)।

कुमा रल भ के टीकाकारों म मुख नाम इस कार ह-

1. पाथसारिथ,
2. माधवाचाय
3. ख दे व
म न िम —मा म न िम की दाशिनक ितभा िवल ण थी। मीमां सादशन के िच न म िम जी
का थान िनता महनीय है । मीमां सा के े म इनकी असाधारण ितभा एवं का पा की
िविश छाप आज भी ितभािसत है । ये कुमा रल भ के धान िश तथा अपने युग के सव े मीमां सक
थे। ये मैिथल ा ण थे। 'श रिद जय' के अनुसार एक बार श राचाय म न िम के साथ शा ाथ
करने के िलए उनके गाँ व मािह ती (आधुिनक सहरसा िजले के 'मिहषी') गाँ व प ं चे। वहाँ कुएँ पर पानी
भरने वाली पिनहा रन से म न िम के घर का पता पू छा। पिनहा रन ने उ घर का पता इस कार
बताया-

तः माणं परत: माणं शु का ना य िगरो िगर ।

िश ोपिश ै पगीयमानमवेिह त निम धाम ।।

एक साधारण पिनहा रन की यह असाधारण ितभा दे ख-सु न कर अव ही चिकत ए होंगे, जगद् गु


श राचाय। यही थी म न िम की िमिथला की िम ी की मिहमा। आज भी वहाँ भगवती उ तारा का
िस पीठ ात है । वहाँ म न िम और शंकराचाय का शा ाथ आ। शा ाथ की म थता म न
िम की िवदु षी प ी भारती ने की। पूविनधा रत शत के अनु सार शा ाथ म परािजत होने पर िम जी ने
आचाय शकर का िश ीकार कर उनसे अ ै त वे दा की िश ा ली। त ात् सु रे राचाय के नाम
से िव ात ए।

इनका समय सातवी ं शता ी माना जाता है ।

रचनाएं - इ ोंने मीमां सा और वे दों दोनों पर िलखा है । इनकी कृितयाँ ह-

1. िविधिववेक,
2. िव मिववेक,
3. भावनािववेक मीमां सासू ानु मणी,
4. ोटिस ,
5. नै िस ,
6. िस - भृित।

पाथसारिथ िम -िमिथला म सवजन िस यह बात है िक पाथसारिथ िम िमिथला-िनवासी मैिथल


ा ण थे। 'िम ' उपािध मैिथलों की ही होती है ।

इनका ज नवी ं शता ी म आ था।


रचनाएं - इनकी िन िल खत रचनाएँ उपल ह-

1. ायर ाकर,
2. ायर माला.
3. त र
4. शा दीिपका।

मीमां सादशन के वे का प त थे।

माधवाचाय- िस भा कार सायणाचाय के माधवाचाय अ ज थे। इनके िपता का नाम मायण तथा
माता का नाम ीमती था। अपनी खर ितभा और बल पा तथा िवमल वै दु के कारण दाशिनक
समाज म ये समादरणीय थे ।

इनका थितकाल सातवी ं शता ी का अ म चरण माना गया है ।

रचनाएं - इनकी िस रचनाएँ चार ह-

1. ायभाषािव ार,
2. मीमां सापादु का,
3. ई रमीमां सा,
4. सवदशनसं हािद।

भा मत के अ आचाय-भा मत को े ता दे ने का ेय इस दे श के कुछ मुख िव ानों को जाता है ।


उन आचाय के नाम इस कार ह-

1. वाच ितिम - ायकिणका


2. अ यदीि त-िविधरसायन और न माला
3. ख दे व िम -भा कौ ुभ एवं भा दीिपका
4. सोमे र भ - ायसुधा,
5. नारायण भ - मानमेयोदय,
6. लौंगाि भा र-अथसं ह,
7. श रभ - मीमां साबाल काश

गु मत के आचाय

भाकर िम -गु मत के सं थापक भाकर िम के काल और िनधारण के स भ म भारतीय


समालोचकों के बीच ऐ मत नही ं है । पर रा के अनु सार भाकर कुमा रल के िश थे। भाकर की
खर बु से भािवत कुमा रल ने इ गु की उपािध दी थी। कहा जाता है िक एक बार छा ों को
पढ़ाने के म म कुमा रल के सामने एक पं आई-
अ तु नो म्। त ािप नो म्, इित पौन म् ।
इस पं को दे ख कर उ स े ह आ। यहाँ भी नही ं कहा गया है , वहाँ भी नही ं कहा गया है , अत:
पुन है ?' जब यहाँ भी नही ं कहा गया, वहाँ भी नही ं कहा गया तो पुन कैसी? इस स ाव था
म ही कुमा रल भ उठ कर बाहर चले गये । इसी बीच भाकर ने वहाँ आकर उस पं का पद-िव े द
िलख िदया–अ तुना उ म्, त ािपना उ म्, इित पौन म्। यहाँ तु श से कहा गया है , वहाँ अिप
श से कहा गया है , इस कार यहाँ पुन है । गु जब लौट कर आए तब इस तरह पदिव े द कर
िलखा दे खा तो चौंक गए। उ ोंने छा ों से पू छा-ऐसा िकसने िकया? उ र िमला- भाकर ने। भाकर का
बौ क िवल णता से भािवत कुमा रल ने उनका नाम 'गु ' रख िदया; िक ु डॉ0 ग ानाथ झा जैसे
कितपय आधुिनक िव ान् इस मत से सहमत नही ं ह। इनका ि म भाकरमत कुमा रलमत
से ाचीन है।

कालिनधारण- कु ू ामी और डॉ. ग ानाथ झा भाकर का समय 610 ई0 से 690 ई. के बीच मानते
ह( डॉ. म न िम )। डॉ. कीथ भाकर को कुमा रल का पूववत मानते ह।

भाकर ने शाबरभा पर दो टीका िलखे ह—

1. बृहती (इसका दू सरा नाम 'िनब न' है ) और


2. ल वी (दू सरा नाम 'िववरण')।

इनकी ा ा सरल, सुबोध आर भावानुसा रणी है ; पर इन दोनों ों म बृहती ही कािशत है , ल वी


नही।ं
शािलकनाथ-िमिथला या बंगाल के िनवासी शािलकनाथ िम भाकर के सा ात् िश कहे जाते ह।
इ ोंने अपने गु भाकर के मत का पा पू ण िववेचन ुत िकया है ।

काल- इनका समय म न िम के बाद तथा वाच ित िम के पूव माना जाता है । यह समय नवम
शतक का है ।

रचनाएं -शािलकनाथ िम ने गु मत की ित ा तीन पि काओं के णयन ारा थािपत की है —

1. ऋिवमला, यह पूव 'बृहती' की ा ा है ।


2. दीपिशखा, यह पूव ‘ल वी' की टीका है ।
3. करणपि का, गु मत पर यह एक मौिलक रचना है । सामा त: लोग इसे पि का के नाम से
जानते ह।

भवनाथ या भवदे व िम -िमिथला के एक ा ण-प रवार म भवनाथ िम का ज आ था। ये


ितभास गु मत के एक अिधकृत िव ान् माने जाते थे ।

काल- ारहवी ं शता ी के आन बोधाचाय की श िनणयदीिपका म इसका उ रण िमलने के कारण


भवनाथ िम का समय दशम शता ी मानना चािहए।

ीभा के वृि कार सुदशनाचाय के ारा इनका नाम िनदिशत िकया गया है । अत: इनका समय 1200
ई. से 1300 ई. के बीच होना चािहए। 'त रह ' गु मत के त ों की जानकारी दे ने म उपयु है ।

रचनाएं - इ ोंने मीमांसासू ों पर 'नयिववेक' नामक एक त टीका िलखी है । इस टीका म उ ोंने


भाकर िम के मीमां साज िच नों का ग ीर िववेचन िकया है । नयिववे क म इ ोंने वाच ितिम
के मत का उ ेख िकया है ।

नयिववेक की चार टीकाएँ उपल ह—

1. वरदराज की 'दीिपका',
2. श र िम की 'पि का',

3. दामोदर सू र का 'अल ार' और

4. र दे व का 'िववेकत ' ।
ये सभी मीमां सा के े म मह पूण ह। गु मत के अ ों म-

1. न ी र-रिचत भाकर-िवजय' तथा

2. रामानुजाचायरिचत त रह उ ेखनीय है ।

पूव शािलकनाथ तथा भवनाथ (नाथ ा सारे ऽ न शा े मम प र मः - ा. स.-31) का िनदश


करता है ।

मुरा रमत के आचाय

मुरा रिम -मुरा र िम िमिथला ा के िनवासी थे । मीमां सा-दशन म इनकी अलौिकक ितभा थी। वे
एक मीमां सक थे, िफर भी उनका ितभा िवल ण थी। मीमां सक होते ए भी वे एकमा को ही
पदाथ मानते थे। भा एवं गु मत के अित र यह उनका अपना और त मत था। इसीिलए उनके
स मे मुरारे ृतीयः प ाः यह सू चिलत ई। उ सू के ल भू त मुरा र िम को मीमां सा-
दशन के तृतीय स दाय का वतक होने का अलौिकक एवं अद् भुत गौरव ा है । मुरा र ने दशम
शतक म उप थत भवनाथ िम के मतों का कई थलों पर सयु ख न िकया है ।

साथ ही मुरा र का उ ेख ात दाशिनक गंगेश उपा ाय ने तथा उनके सु पु वधमान उपा ाय ने


भी िकया है । फलत: इनका समय बारहवी ं शदी कहा जा सकता है ।

रचनाएं - मुरा र िम के दो रचनाएं ह-

1. 'ि पादीनीितनयन' और
2. 'एकादशा ायािधकरण' नामक दो उपल है ।

ये दोनों कािशत ह। इ काश म लाने का सारा े य डॉ0 उमेश िम को है । इनका मह पू ण


और मौिलक िवचार ामा वाद पर दशनीय है । इस पर रा के अ उपल नही ं ह। इनके मत
के अनुयायी अ आचाय का कोई पता नही ं चलता। मुरा र िम के 'ि पादीनीितनयन' मीमां सासू के
थम अ ाय के ि तीय, तृतीय और चतुथ पादों की अिधकरणमूलक ा ा है । इनकी एकादश अ ाय
के आिदम अिधकरण की ा ा थम िवक की ओर ही सं केत करती है । इनके बाद इस पर रा
को आगे बढ़ाने वाले आचाय ाितफलक पर उभर कर सामने नही ं आ सके।
पूवमीमां सा का मु िवषय व ु

श और अपूव

श -काय-कारण के स की ा ा के म म मीमां सादशन ने अपनी एक नई ि का प रचय


िदया है । िकसी भी काय की उ ि के िलए कारण के अित र एक 'श ' को मानना भी आव क
है । इनके अनुसार सारे काय की उ ि के मू ल म एक अ श उप थत रहती है । मीमां सकों ने
इस अ श को भी कारण के प म ही मा ता दी है । इस कारण प श के रहने पर ही
िकसी काय की उ ि स व है । यिद िकसी कारण से यह श न हो जाय तो काय की उ ि िकसी
भी थित म नही ं होगी। जै से—बीज के भीतर एक अ श होती है , जो अंकु रत होकर वृ के प
म काया त होती है । वही बीज यिद िकसी भड़भू जे के घर भाड़ म भून िदया जाय तो अंकु रत होने की
उस बीज की श ही न हो जाती है और उस श के अभाव म बीज कभी अ रत नही ं हो पाता।
श रहने पर ही कोई बीज अंकु रत होता है । इसीिलए मीमां सकों ने 'श ' को एक अलग पदाथ के
पम ीकार िकया है । श एक िविश पदाथ है ।

अपूव-कमफल के िनणायक एक अ श को मीमां सकों ने 'अपू व' कहा है । मीमां सकों का यह


अपूव-िस ा िवल ण एवं मह पूण है । जै िमिन के अनु सार इस समय िकया गया कम भिव म िवना
िकसी अ श की सहायता के शुभ या

अशुभ फल को उ नही ं कर सकता है । इसके िलये मीमां सकों ने एक ऐसी अ श की क ना


की है , िजसे 'अपूव' कहा जाता है । 'अपूव' को थाना र और काला र म शु भाशु भ कम की फलदा ी
श कहा गया है । अपूव एक ऐसी श है . जो अ है और कम करने से इसकी उ ि है । इसी
से फल उ होते ह। अत: कम और कमफल के बीच का यह एक मा म है । मीमां सकों के अनुसार
'अपूव' को िवना मा म बनाये काला र म िकसी भी फल की ा स व नही ं है (मीमां सासू ,
शाबरभा -2.1.5) । कुमा रल के अनुसार कम के ारा उ वह श जो कमफल तक प ँ चाती है ,
उसे 'अपूव' कहते ह—(त वाितक, कुमा रल)। शािलकनाथ ने 'अपूव' को पा रभािषत करते ए कहा है
िक इस लोक म िकया गया कम एक अ श को उ करता है , िजसे अपूव कहते ह
( करणपिशका) । इस तरह 'श ' और 'अपू व' दोनों की प रक ना मीमां सकों की मौिलक दे न है ।
धम-िववेचन

मीमां सादशन का िज ा , मुख ितपा और िववे िवषय धम ही है । महिष जैिमिन का थम सू है -


अथातो धमिज ासा (मीमां सासू -1.1.1)। इस सू ने मीमां सा-दशन के योजनभू त धम की िज ासा को
ही ाथिमकता दान की है । इससे यह िस होता है िक मीमां सा-दशन का मुख िववे िवषय
धम ही है । महिष जैिमिन के अनुसार धम का ल ण है -चोदनाल णोऽथ धमः (मीमां सासू -1.1.4) अथात्
ेरणा, उपदे श द वा अथात् ि या क वचन या िविधवा ारा लि त अथ को धम कहा गया है ।
श ा र म वतक वचन अथात् िविधवा ही धम है । जै से- यजेत गकामः िविधवा है । वे द
ि यापरक िविधवा है । जो वेदभाग त. ि यापरक नही ं है , वह अथवाद है और उसकी साथकता
पर रया ि या का अ बन कर ही है - आ ाय ि याथ ादानथ मतदानाम्-मीमां सासू -1.2.1।

धम ल ण म य 'चोदना' श ि या का वतक वचन माना जाता है । क चोदनेित ि यायाः


वतकवचनमा ः (शाबरभा ) तथा (ख) चोदना चोपदे श िविधोकाथवािचन: ( ोकवाि क)। इस
तरह 'यजेत गकामः ' अथात ग की इ ा करने वाला य करे —यह ि या वतक वा है ,
िविधवा है । इस वा का ता य यह है िक य पी ि या के अनु ान से ग प फल की ा
होती है । इस तरह मीमां सकों की ि म याि क कम ही धम है । इसकी ा ा करते हए ीभा र ने
िलखा है -

वेद ितपा ो योजनवदथ धमः अथात् वेद- ितपािदत गािद योजन वाला ही धम है ।

इस ल ण म धम को स योजन बतलाया गया है । धम को यथावसर कुछ ऋिष-मुिनयों ने पा रभािषत


करने की चे ा की है । तदनु सार मनु के श ों म धम का प इस कार है -

वेद ृितः सदाचारः च ि यमा नः ।

एत तुिवधं ा ः सा ा म ल णम् ।।

महाभारत म भी कहा गया है -

ु ित ृितसमं पु ं पापनाशनमु मम् ।

िच येद् ा णो भ ा धमसं थापनाय च ।।

दे शे काले उपायेन ासम तम् ।


पा े दीयते य त् सकलं धमल णम् ।।

ु ित ृितसदाचारः च ि यमा नः ।

स क् स ज: कामो धममूलिमदं ृतम् ।।

इन ल णों म धम को स योजन बतलाया गया है । जीवन म यथाथ सु खोपल ही धम का योजन है ।


यह योजन वेद ितपािदत होना चािहए। वे द- ितपा धम भी सुखो ादक होना चािहए। इसीिलए उ
ल णों म 'अथ' पद का सि वेश िकया गया है ; ोंिक े न याग भी तो य ही है ; िक ु इस य का
योजन श ुमरण है । श ुओं की मृ ु से य कता को सुख तो िमलता है ; िक ु अ म श ुह ा होने के
पाप प नरक का भोग भी उ ही करना पड़ता है । अत: ेनयागज सुख की प रणित दु :ख म हो
जाती है । अत: ेनयागज सुख, सु ख नही ं दु :ख ही है । फलत: वे द ितपा योजनवान् अथ ही धम है ।
कहने का ता य यह है िक वेद के ेरणादायी वा अथात् िविधवा ही धम है । अब उठता है िक
वेदवा ा है ? उसकी िविध ा है ? अपौ षे य वा ही वे दवा है । इस वे द के पाँ च िवभाग ह।
यथा-िविध, म , नामधेय, िनषेध और अथवाद। िह दु ओं की मा ता के अनुसार अ धम ों की तरह
वेद का कोई कता पु ष नही ं है । वे द अपौ षेय है । वे द ई र की ितमूित है । इसका ेक म
ि यापरक है । अत: कमका या मीमां सा की ि से वेद के पाँ च िवभाग ह; यथा—िविध । वेद का वह
भाग, जो िकसी अ ात अथवा आ ात धम का ान कराता है , उसे िविध कहते ह-

त ाताथ ापको वेदभागो िविधः (अथसं ह; िविधल णम्) ।

इसे और करने के िलए हम कह सकते ह िक अि हो ं जु यात् गकामः ( ग पाने की इ ा से


अि हो का स ादन करे ) यह िविधवा है ; ोंिक श माण प वे द के अित र िकसी भी अ
माण से अि हो का ान स नही ं होता है । अि हो का फल ग ा है । अत: अि हो भी
स योजन है । िविध के चार भेद ह-उ ि िविध, िविनयोगिविध, अिधकारिविध और योगिविध। इनके
अित र अपूविविध और प रसं ािविध भी है ।

समासत: मीमां सा-दशन म िविध के इ ी ं पों का िव े षण है । पहले भी कहा जा चुका है िक िविधवा


ि यापरक वा है । िविधवा या ेरणा ही त: धम का ल ण है । पर यहाँ े रणा (चोदना) पद
िविध प होने से वेदां श का ही वाचक है । वे द के और अं श ह—म , नामधेय, िनषेध, अथवाद भृ ित।
जैिमिन के अनुसार अगर ‘चोदना' ही धम का ल ण है तब तो एकादे शमा भू त िविध ही धम है , स ू ण
वेद नही।ं लौंगाि ने इसका समाधान िकया है —चोदनाल णोऽथ धम इित यहाँ 'चोदना' का योग
स ूण वेदपरक है , आं िशक नही।ं इसीिलए लौंगाि भा र ने धम की प रभाषा िलखते समय कहा है -
वेद ितपा ो योजनवदथ धमः । जैिमिन के 'चोदना' ि या का भी इससे कोई िवरोध नही ं है । वेद ही
धम का मूल है —वेदोऽ खलो धममूलम् । इसके अनुसार सम वे द धम के ही ितपादक ह। मीमां सा के
अनुसार िकसी शुभ योजन के ारा िविहत यागािद अथ ही धम है ।

कममीमांसा और मो िववेचन

मीमां सा का मुख िच िवषय है — कमिस ा । अपनी जाल री िव ा के यु जाल म जलेिबया


मोड़ पर आकर यह ऐसे िठठक गया िक कमिस ा का िव े षण करते ए मीमां सकों ने ई र की
स ा को ही भुला िदया। य ीय कमका का अनु ान ही मीमां सकों की ि म 'कम' है । इसीिलए कमित
मीमां सका: लोक चिलत है ; ोंिक अ दशनों म जो ई र का थान है , वही थान मीमां सा-दशन म
'कम' का है । ोंिक धम वेदिविहत कम ही तो है । कम अपना फल दे ने म यं समथ है ; ोंिक कम म
पूव 'अपूव' नामक फलो ादक श होती है , जो कम और कमफल के बीच की कड़ी है । अपू व
श क ा म सि िहत है । वह अवसर आने पर फलो ु ख होकर फल उ करता है । कता ारा कृत
शुभ कम अपनी पु श से सुख पी फल दे ता है और अशु भ कम अपनी पापश से दु ः ख पी
फल दे ता है । इसीिलए मीमां सा को ई र की कोई आव कता नही ं महसूस होती। इनकी ि म कम
अपना फल दे ने म यं स म है । कम को इतना मह पू ण मानने के कारण ही पूवमीमां सा को
कममीमां सा कहा जाता है ।

मीमां सादशन के अनुसार वे द ितपािदत कम िन ख ों म िवभ है -

1. िन कम,
2. नैिमि क कम,
3. ितिष कम और
4. का कम।

िन कम-वेदिविहत होने से ये ितिदन कत या करणीय ह । ि जाितयों के िलए ये क कम ह।


जैसे— ात: आरा - रण, स ा, जप, व नािद।
नैिमि क कम-िकसी िनिम को ल कर वेदों म ितपािदत आव क कम नै िमि क कम कहलाते
ह। यह कम अवसरिवशेष पर करणीय है , ये ह त, ा , य ोपवीत या जातकमािद। कुमा रल के
अनुसार इन कम के करने से पाप का य होता है और नही ं करने से पाप का भागी होता है ।
भाकर के अनुसार इन कम को वेदिविहत क कम मान कर िन ाम भाव से करना चािहए।

ितिष कम-ये कम ितिष ह। वेद म ऐसे कम का िनषे ध िकया गया है । हटपू वक ऐसे कम करने
से अशुभ होता है । जैसे-कलशं न भ येत् अथात् जहरीले अ से आहत पशु या प ी का मां स नही ं खाना
चािहए।

का कम-यह कम िकसी कामना की िस के िलए करणीय ह। ये कम वै क क ह। इनका करना,


न करना की इ ा पर िनभर करता है । इसे करने से पु होता है , िजससे कामना की िस होती
है और न करने से कोई हािन नही ं होती। इसका उदाहरण है - गकामो यजेत अथात् िजसे ग जाने
की इ ा हो, उसे य करना चािहए। कुछ समी कों ने ' ायि ' नामक चतुथ कम के िवधान को भी
ीकार िकया है । ायि कम का िवधान ृ ितकालीन है । भू ल से या मादवश यिद कोई िकसी
तरह का अपकम करता है तो उसके माजन-हे तु ायि का िवधान िकया गया है । ायि कम के
ारा पापों के वे ग को शिमत िकया जाता है ।

धम ान का आधार वेद कहा गया है -वेदा म िह िनबभौ।

इस तरह हम दे खते ह िक मीमां सा-दशन म जो सव थान धम को उपल था, उसे परवत काल म
मो या अपवग ने ले िलया। है िक पहले मीमां सा का आ ह धम पर था और उसका ल था—
इससे ा ग; िक ु काला र म ग के थान पर मो को जीवन का चरम पु षाथ माना गया। इस
कार जैिमिन एवं शबर के मत म मो का कोई थान न होते ए भी भाकर एवं कुमा रल के मत म
उसे मह पूण ित ा िमली है । भाकर और कुमा रल दोनों ने मानव-जीवन म मो को ही चरम पु षाथ
माना है और ाय-वैशेिषकों की तरह उसकी क ना दु :ख के अ ाऽभाव के प म की है । ये दोनों
आचाय आ ा को मानते ह। ये ान को गुण या ि या मानते ह। दे ह और इ यों के साथ सं योग
होने पर ब आ ा म िवषय-स क से ान, सुख, दु :ख, इ ा, े ष, य आिद धम उ होते ह।
मो ाव था म दे हे य-िवषय-संयोग के िवलय होने के कारण आ ा म ान और आन उ नही ं हो
सकते। कहने का ता य यह है िक मीमां सा-दशन ने आ ा के सां सा रक ि िवध ब नों से सदा के िलए
मु होने को ही मो माना है । यथा- ि िवध ािप ब ा को िवलयो मो ः (शा दीिपका)।
भाकर ने मो को पा रभािषत ए कहा है -

आ क ु दे हो े दो िन:शेषधमाधमप र यिनब नो मो ः ( करणपि का)

अथात् जब शरीर के सारे धमाधम िवलु हो जाते ह, शरीर का आ क नाश हो जाता है , सां सा रक
ब नों से सदा के िलए मु िमल जाती है तो उस थित को मु ाव था कहा जाता है ।

मीमां सकों ने मो -जैसे मह पूण िवषय का िववेचन अित सू ि से िकया है । इस जगत् के साथ
आ स के िवलय को इ ोंने मो कहा है - पशस िवलयो मो ः ।

भोगायतन शरीर, भोगसाधन इ य और भो पदाथ िवषय-इन तीनों के आ क िवनाश को ही तो


मो कहा जाता है । पाथसारिथ िम का कथन है िक कुमा रलस त मो म प स अथात् दे ह,
इ य और िवषयस के आ क िवलय के कारण ान और आन स व नही ं है , िक ु नारायण
भ का कहना है िक कुमा रल-मत म केवल िवषयसु ख का अभाव होता है , पर आ ा के प का
आिवभाव होने के कारण आ सुख का तो उपभोग बना ही रहता है । यथा

दु ः खा समु े दे सित ागा वि नः ।

सुख मनसा भु मु ा कुमा रलैः ।। (मानमे योदय)

इससे पता चलता है िक कुमा रल कम ानसमु यवाद के पोषक ह। वे उपासना और ान पर


अिधक बल दे ते ह। कम का मह पूण योगदान है मो म । कम और उपासना शु ान के आिवभाव
म सहायक ह, िजससे मो की ा होती है । य िप कुमा रल पू वमीमां सा के खर आचाय ह, िफर भी
इ ोंने उ रमीमां सा या वे दा का माग भी श िकया है । यही कारण है िक लोग इ पू व और
उ रमीमां सा को जोड़ने वाले सेतु के पम ीकार करते ह। इ ोंने बौ धम और दशन का अपनी
खर बु और यु पूण तक से ख न कर वैिदक धमदशन को पु न ीिवत कर िति त िकया है ।
उ ोंने यं िलखा है िक कुछ मीमां सकों ने मीमां सा को लोकायत (चावाक) की तरह भौितकवादी बना
िदया था, िजसे इ ोंने पुन: आ क पथ पर लाने का यास िकया है । इस स भ म उनकी यह उ
दशनीय है

ायेणैव िह मीमां सा लोके लोकायतीकृता।

तामा कपथे क ुमयं य ः कृतो मया।। ( ोकवाितक-1.10)


कुमा रल मीमां साशा के ग ीर अ ेता थे। आ ान को सु ढ़ बनाने के िलए वे दा का मनन, वण
और िनिद ासन के सेवन पर इ ोंने अ िधक बल िदया है

ढ मेति षय बोधः याित वेदा िनषेवणे न । ( ोकवाितक)

भाकर ने केवल दु :ख िनवृि नही,ं ुत सुख और दु ः ख दोनों की िनवृि को मो माना है । ये परमान


की अव था को भी मो नही ं मानते; ब आ ा के ाकृितक प म अव थत होने को ही मो
मानते ह-

ा ु रण प:- करणपि का।

कुमा रल ने भी कारा र से दु :खों से रिहत, ि िवध ब नों से मु ,आ प म अव थत थित को


ही मो माना है (शा दीिपका)। ये आन ाव था को भी मो मानने को तै यार नहीं ह। इनके अनुसार
श पी वेद-शा एक ही परमा ा ारा अनु भूत है , वही इसका अिध ान भी है । यथा-

सव ेित य ेदं शा ं वे दा मु ते।

तद िधि तं सवमेकेन परमा ना ।। ( ोकवाि क)

ई र म अपनी आ था करते ए भी आ ा की मु ाव था की थित का इनका अपना िच न


है । मु ाव था म आ ा सुख-दु :खािद अनुभूितयों से सवथा शू हो जाती है । दे हे य और मन से
उसका स िव हो जाता है । इस कार धमाधम का िवनाश होते ही शरीर त: िवन हो जाता
है । पुन: भिव म अिभनव दे ह की सृि नही ं होती ( - ोकवाि क, स ा े पप रहार)। इसे ही
उ ोंने मु ाव था कहा है । इस अव था म आ ा सवशू हो जाती है । वह अपने मूल प म
अव थत हो जाती है । इस अव था म ान-अ ान, सुख और दु ः ख, इ ा- े ष, य -अ य , धम और
अधम सबसे यह आ ा शू हो जाती है । इस अव था म आ ा चे तनाशू हो जाती है । ऐसी थित म
आ ा िन , मु और शु ाव था म रहती है । कुमा रल भ ने आ ा के इसी प म वै िदक य पु ष
के प म भगवान् िशव की व ना ोकवाि क के म लाचरण म की है -

िवशु ानदे हाय ि वेदीिद च ुषे।

ेय: ा िनिम ाय नमः सोमा धा रणे ।।


िवशु ानमय िजनकी दे ह है , िजनके िद तीन ने वेद यी ह। िजनके हाथों म सोमरस के पा ह।
अ च िजनके िशर की शोभा बढ़ा रहा है । जो लोकक ाण और िन: ेयस प मो की ा के
कारण ह, उन वैिदक य पु ष प भगवान् िशव को णाम है ।

इस उ रण से हम इस िन ष पर आते ह िक कुमा रल की ि म पूवमीमां सा और उ रमीमां सा एक


ही शा के दो ख ह। इनके अनुसार पूवमीमां सा की प रणित उ रमीमां सा म है । केवल अ र इतना
ही है िक पूवमीमां सा की मु ाव था म जगत् की स ा पूववत् बनी रहती है , जबिक उ रमीमां सा अथात्
वेदा म ान होने पर जगत् की स ा नही ं रहती।

मो के साधन

मीमां सा-दशन म कम और मो का अ ो ा य स है । आ ा का कृत कम ही उसके ब न का


कारण है । ब न आिद काय ह तो कम उसका कारण है । कारण के न होने पर काय त: न हो जाता
है । िवचार करने पर पता चलता है िक का और िनिष कम ब न के प ह; िक ु िन और
नैिमि क कम इस दोष से मु माने गये ह। िकसी कामना की िस के िलए िकए गए कम का फल
भोगना ही पड़ता है । ितिष कम का अशु भ फल भोगने के िलए भी जीव िववश है ; अत: इससे िनवृि
वा नीय है िक ु िन -नैिमि क कम का अनु ान तो सबके िलए वा त ही है । अब दे खना यह है
िक का कम से पु और िनिष कम से पाप उ होता है । ये दोनों ही ब न के कारण ह। इन
कारणों के न होने पर ब न पी काय का त: नाश हो जाता है । अत: का और िनिष कम का
ाग मु के िलए अपेि त है । जो आ ा सां सा रक ब नों से मु होना चाहती है , उसे का और
िनिष कम का सवथा प र ाग करना चािहए। केवल वे दिविहत िन और नै िमि क कम का अनु ान
ही कत होना चािहए। अत: का और िनिष कम से िनवृि ; िक ु िन कम म वृि रखनी
चािहए। मो की सािधका यही है । कम के साथ आ ा का आ ान उपे णीय िवषय नही ं है । केवल
वेदिविहत कम ही अपेि त होना चािहए। सां सा रक ब नों से मु चाहने वाले को का एवं
िनिष कम का सवथा प र ाग कर दे ना चािहए। कम के नाम पर केवल वे दिविहत कम ही करणीय
होना चािहए। इस कार वेदिविहत कम का िवधान एवं अनपेि त कम के ाग से इस पा भौितक दे ह
का ास और अिभनव दे ह की उ ि का म थम जाता है । केवल आ ा इन आवागमन की ि याओं
से मु होकर अपने शु प म थत हो जाती है । यही मो के साधन ह।
दे वता

मु त: मीमां सादशन के अनुसार दे वता ‘श मयी' है । वेदिविहत य ािद कम और दे वता-इन दो


व ुओं से स होते ह। जहाँ तक का है , य म यु होने वाले हिव (Anything fit for
an oblation); यथा-घी, दही, च आिद ह। बची बात दे वता की, तो वह ‘शा ै कसमिधग ' है ।
दे वता के स भ म मीमां सा-दशन म तीन प ों का उ े ख िमलता है —

1. अथदे वता,
2. श िविश अथदे वता,
3. श दे वता।

इन तीनों म अ मप ही मीमां सा का िस ा है ; ोंिक िकसी भी अथ का बोध तो श के मा म


से ही होता है । सव थम श की उप थित होती है ; इसीिलए श को ही दे वता कहा गया है -श ो
ः । अिभनवगु ने श की मह ा पर एक कदम और बढ़ कर कहा है -सकलश मयी खल ते तनु ः
। यथा 'इ ाय ाहा' और 'अ ये ाहा'-इन दोनों वा ों म इ ाय और अ ये म चतु पद ही
'दे वता'वाची है । श की अपे ा अथ को मह ा दे ने वाला प भी कम से कम श की उपे ा तो कर
ही नही ं सकता; ोंिक अथ का आधार भी तो श ही है । फलत: मीमां सा-दशन का िस ा 'श मयी'
दे वता ही है ।

मीमां सा इस दे वता का िव ह अथात् सावयव शरीर भी ीकार करता है । िव ह के स भ म इसने पाँ च


व ुओं की अलग-अलग स ा को मा ता दी है । यथा-

िव हो हिवषां भोग ऐ य स ता ।

फलदातृ िम ेतत् प कं िव हािदकम् ।।

दे वता भी मनु की तरह आकृितवान होते ह। हिव ान का भोजन करते ह। वे ऐ यशाली होते ह। वे
िजस पर स होते ह, उसके कृतकम का शु भाशु भ फल दे ते है । ये दे वता मनु की तरह िव हवान ह।
यहाँ भी श मयी दे वता का िस ा स तीत होता है , िक ु मीमां सा-दशन के सभी आचाय इस
िस ा पर एकमत नही ं ह।

शबर ामी ने दे वतािव ह का जमकर ख न िकया है । पाथसारिथ तथा ख दे व ने इनके िवचारों का


समथन िकया है । कुछ अ मूध मीमां सकों ने भी इसी मत का अनुसरण िकया है । कुमा रल भ ने
दे व को अ ीकार करने की अपे ा य ीय कम की मह ा को अिधक मह िदया है । य म य ीय
कम म ही फलदातृ श को ीकार िकया है । शबर ामी के मत को ौिढवादी मत कहा गया है ।
मीमां सा-दशन का सवापे ा े िस ा 'श मयी दे वता' ही सव मा है ।

सवाितशायी सुख को ही मीमां सकों ने ग कहा है । ग- ा के िलए ही मीमां सकों ने य ीय िवधान


या अनु ान की व था की है । अ दशनों की तरह यहाँ भी 'मो ' को ही मानव-जीवन का चरम ल
माना गया है । यहाँ भी मो की भावना त: प रलि त होती है । सकाम कम के अनु ान से मनु
पाप या पु का भागी होता ही है ; पर िन ाम धमाचरण और आ ान के भाव से पूवकृत कम के
सं ार िवन हो जाते ह और मनु सां सा रक दु :ख और ों से मु होकर ज -मरण के च र से
छु टकारा पाकर शारी रक ब न से मु होकर िनरितशय सुख ा करता है ।

उपसंहार

धम, कम और आचार के ि कोणा क िच न म मीमां सा-दशन अि तीय एवं िन पम है । यह इस दे श


म सदा से धम, कम की पृ भूिम तैयार करता रहा है । वा ु एवं िश दोनों ही िविश कम ह; उनके
बाद ही कला का थान आता है । वा ु एवं िश -दोनों ही कम धम की उ भू िम या े रणा बनी रही
है । ृितकारों के पू व भ म रों का िनमाणकम भी तो धम के अ गत ही आता है । म यु ग म िनिमत
िवशाल एवं आकषक म र भी तो धम के अ गत ही आते ह। िव का सातवाँ आ य आगरा का
ताजमहल इसी िश कम का बेिमसाल उदाहरण है ; पर इस दे श म एक ऐसा भी समय आया था जब
चावाक दशन ने सश यु यों से जनजीवन म इ यज सु खोपल की बल े रणा भर दी थी तथा
इसके बाद जैन दशन ने जनजीवन को जम कर िनरपे िव ानवाद की ओर े रत कर िदया था। इसके
बाद बचे-खु चे वैिदक धम तथा कमका ीय व था की जड़ को बौ ों ने िहला िदया। फल प
वणा म व था िछ -िभ हो गयी, धम की मयादा लु हो गई एवं कमका की पर रा िव हो
गई। इस िव वी वातावरण के शमन-हे तु, वै िदक धम और कमका की र ा-हे तु, महिष जैिमिन ने
वेद ामा वाद का िवशाल दु ग खड़ा िकया।
मीमां सा की ि म वेद िन और शा त ह। वैिदक कमका सबके िलए करणीय कम ह। इसम य -
यागािद वैिदक अनु ानों की ता क िववेचना है । इस िववेचन की उ ि का िस ा अ मह पू ण
है । यह वैिदक कमका मानव-जीवन के िलए यथाथवाद का स ाग तैयार करता है । श िवषयक
मीमां सा के िस ा भाषाशा की ि से अ महनीय ह। कुमा रल का ‘अिभिहता यवाद' तथा
भाकर का 'अ तािभधानवाद' शा बोध के यथाथ िन पण के िलए एक महनीय पृ भू िम तै यार करते
ह। िवरोधी वा ों की एकवा ता की ि या मीमां सा की दे न है । जैसे 'पद' का ान ाकरण से एवं
माण का ान ाय से होता है , उसी कार वा का ान मीमां सा से होता है ।

मीमां सा की एक िविश दे न यह भी है िक उसके अनु सार आ ा एक अचेतन है । उसका स


जब शरीर, इ य और िवषय से होता है तब इसम चेतना आ जाती है । अगर आ ा का इनसे स न
रहे तो शरीर म रह कर भी आ ा इ यों के मा म से िवषयों का अनुभव नही ं कर पाती। इसे ही
मीमां सा ने मो की थित कहा है ; िक ु इनके साथ-साथ आ ान को भी आव क माना है । आ ान
से ही सभी ब नों का िवनाश होता है । यथा--

मो ाथ न वतत त का िनिष योः ।

िन नैिमि के कुयात् वायिजघां सया।।

त ाता त ानां मो ा ूव ि या ये ।

उ र चयाभावात् दे ही नो ते पुनः ।।

कमज ोपभोगाथ शरीरं न व ते।

तदभावे न कि हे तु ावित ते।।

त ात् कम यादे व हे भावेन मु ते।

- ोकवाि क

मीमां सादशन ने अने क मौिलक िवषयों के िस ा ों का िव े षण िकया है । इनके अिभनव िस ा ों का


उपयोग परवत सािह के ृ ित ों के अथिनणय के िलए िकया गया है । ृ ित ों म पर र िवरोधी
कथनों की भरमार है ; िक ु मीमां सा की िव ेषण शै ली के उपयोग से , योग से कही ं कोई िवरोध नही ं
रह जाता है । यही कारण है िक ृित के मम ान के िलए कममीमां सा का अ िधक उपयोग िकया जाता
है । मीमां सा के अनुसार वेदिविहत कम का अनु ान लौिकक-पारलौिकक दोनों के िलए सुख का साधन
बन जाता है । यह का और िनिष कम का वजन तथा िन -नै िमि क कम करने की ेरणा दे ती है ।
मीमां सा म 'अपूव' की प रक ना भी इसकी एक अलग िविश ता है । यह य कम और कमफल के बीच
कड़ी को जोड़ता है । अत: मीमां सा का अनुशीलन वैिदक कम की जानकारी के िलए आव क है ।
कुमा रल के श ों म

धमा ं िवषयं व ुं मीमां सायाः योजनम् ।

नोट- मीमांसा की अ िवषयव ु म िन िल खत िस ा भी माने जाये गे-

1. त मीमांसा
2. माण मीमांसा
3. ई र आिद
4. ामा वाद
5. ाितवाद

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