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उ ररामच रत

( स संउकृत ररामच
नाटक का हरत
द पा तर)

महाक व भवभू त
अनुवादक
ो. इ

मू य : .................. पये (Rs. 000.00)


सं करण : 2008 © महाक व भवभू त
ISBN : 978-81-7028-779-7
UTTARRAMCHARIT (Sanskrit Play) by Bhavbhooti
राजपाल ए ड स ज़, क मीरी गेट, द ली-110 006
Website : www.rajpalpublishing.com
E-mail : mail@rajpalpublishing.com
भू मका

सं कृत सा ह य के सव य नाटककार म भवभू त का स मानपूण थान है। अपनी कृ त


‘उ ररामच रत’ के लए ही उसक या त संसार म अन र प से व मान है।
आलोचनाशा के प डत ारा उ ररामच रत नाट् यकला क एक अ तीय रचना
वीकार क गई है। इसम सात अंक ह, इसक कथाव तु रामायण के उ रका ड पर आ त
है।
लंका म रावण का संहार करके ीराम सीता-स हत अयो या म वा पस आते ह और
उनका रा या भषेक होता है। उसी समय जा के लोग सीता के च र के स ब ध म चचा
आर भ कर दे ते ह। जब मुख गु तचर ारा ीराम को जनापवाद का यह समाचार ा त
होता है, वे ल मण ारा सीता को वन म नवा सत कर दे ते ह।
सीता उस समय गभवती थी। वन म उसके दो पु —कुश तथा लव उ प होते ह।
माता पृ वी तथा भागीरथी इस अव था म सीता का पालन-पोषण करती ह और ब च को
वा मी क मु न को, श ा-द ा के लए सुपुद कर के सीता को अपने साथ पाताल-लोक म
ले जाती ह।
बारह वष बाद ीराम अ मेध य आर भ करते ह। इसी समय, य ार भ करने से
पूव, वे शू तप वी श बूक क खोज म द डकार य म जाते ह। वहाँ उनक पुरानी मृ तयाँ
उद्बु हो जाती ह। भागीरथी को यह ान था क ीराम द डकार य आने वाले ह और वे
लौटते ए पंचवट से अव य गुजरगे। अतः वह सीता को साथ लेकर गोदावरी से मलने के
लए पंचवट म प ँच गई थी। वहाँ उसने सीता को फूल चुनने के बहाने उस थान पर भेजा
जहाँ ीराम आ चुके थे। भागीरथी ने वरदान ारा सीता को अ य बना दया—य प
सीता वयं सबको दे ख सकती थी।
पंचवट म ीराम ने सीता क उप थ त को ही नह , युत उसके अंग पश को भी
अनुभव कया, पर तु उसके दखाई न दे ने पर उसे ा तमा जान कर अ त ु ध तथा
वष ण होते ह। नराश होकर वे अयो या आ जाते ह।
अ मेध य को आर भ करने के लए य य अ को छोड़ा जाता है। ल मण का
पु च केतु सेनास हत उस अ क र ा के लए साथ जाता है। अ घूमता- फरता
वा मी क-आ म के समीप प ँचता है। वहाँ लव तथा अ य आ म के ब चे उसे
उ सुकतावश पकड़ लेते ह।
च केतु अ को छु ड़ाने के लए यु शु करते ह। पर तु लव को दे ख कर अकारण
ही उसका दय उसके त आकृ हो जाता है। पर पर नेह-स ब ध क भावना जागृत
होती है। भगवान् राम उसी समय पु पक वमान ारा यु थल पर प ँचते ह और दोन
ब च को यु - वराम के लए े रत करते ह।
कुश भी तब वहाँ आ जाता है। इन दोन —लव, कुश—को दे ख-दे ख कर ीराम
व मत तथा च तत होने लगते ह और उ ह, उन दोन ब च म अपना तथा सीता का
नकट सा य गोचर होने लगता है।
तभी वा मी क मु न वहाँ उप थत हो जाते ह और आ यच कत ीराम को
अ सरा ारा कए गए अ भनय के लए आम त करते ह। सह अ य नर-नारी भी
इस अ भनय को दे खने के लए उप थत होते ह। नाट् यकला के ज मदाता वयं भरत मु न
ारा वा मी क-कृत कथाव तु का अ भनय आर भ होता है। वग से उतरी ई उन
अ सरा ने अपनी उ कृ कला का दशन तुत कया। ा जन म मु ध होकर उस
अ भनय के क ण रसपूण य का अवलोकन करने लगे। सव थम घोर वन म गभवती
सीता का भागीरथी-तट पर ल मण ारा नवासन दखाया गया। तदन तर भागीरथी माता
क गोद म सीता के दो पु के ज म तथा उसके पाताल म वलय का मम पश य
उप थत कया गया। पुनः ब च के वा मी क-आ म म भरण-पोषण तथा श ा-द ा का
च भी तुत कया गया।
इस समय रंगमंच पर से अ सराएँ चली जाती ह और वयं वा मी क मु न उप थत
होते ह। माता पृ वी तथा भागीरथी सीता को साथ लेकर पाताल-लोक से कट होती ह।
व स -प नी अ धती जाजन क , सीता के च र पर म या लांछन लगाने के लए,
भ सना करती है और राम को अपनी नद ष- न कलंक प नी को वीकार करने के लए
ाथना करती है। सम त जा इस ाथना म स म लत होती है और अपने कए कम पर
ल जत होती है। तब राम और सीता का पुन मलन होता है और आन द- वभोर जाजन के
जय-जयकार के साथ अ भनय क समा त होती है।
इस सु दर कथाव तु के थन म भवभू त को अद्भुत सफलता ा त ई है। लेखक
क स म त म यह सफलता का लदास को अ भ ान शाकु तल क कथाव तु के थन म
ा त सफलता से कसी अंश म कम नह है।
नःस दे ह भवभू त क अ य दो कृ तयाँ—महावीरच रत तथा मालतीमाधव—इतनी
उ चको ट क नह ह, जतनी उ ररामच रत है। स भवतः इसका कारण यही है क थम
दोन रचनाएँ भवभू त क ार भक अव था क ह तथा अ तम रचना पूणाव था क है।
यही थ त का लदास क अ भ ान शाकु तल के स ब ध म मानी जा सकती है, जो
न संशय अ य दो कृ तय —माल वका न म तथा व मोवशीय—से अ धक उ कृ रचना
है और अव यमेव प रप वाव था म थत ई तीत होती है।
कई व ान ने उ ररामच रत के कता के नाम के बारे म संशय कट कया है। नाटक
क तावना म णेता ने अपना प रचय इस तरह दया है—

अ त खलु त भवान् का यपः ीक ठपदला छनः पद


वा य माण ो भवभू तनाम जतुकण पु ः ।

—यह क व क यप-गो म उ प ‘ ीक ठ’ पदवी से भू षत, ाकरण, मीमांसा


तथा यायशा का ाता, जतुकण का पु भवभू त नाम का है।
इस प रचय म न द ‘ ीक ठ’ श द को कुछ व ान् नाम प म वीकार करते ह
और ‘भवभू त’ को उसका वशेषण (भवाद्भू तय य— जसे भव अथात् महादे व जी से
भू त— ान-स प ा त ई हो) बतलाते ह। पर तु यह धारणा यु संगत तीत नह
होती, य क ‘ ीक ठ’ श द के साथ पदलांछन का योग यह प करता है क वा तव म
‘ ीक ठ’ क व का कोई भू षत करने वाला व द था, जसका अथ है ‘ ीः सर वती क ठे
य य’ ( जसके क ठ म सर वती का नवास हो।)। ‘भवभू त’ श द के समीप ‘नाम’ श द
का योग होना यही सू चत करता है क क व का नाम भवभू त था— जससे वह संसार म
स है।
महावीरच रत क तावना म भवभू त के पता का नाम नीलक ठ तथा पतामह का
नाम भ गोपाल कहा गया है। पता के नाम म ‘क ठ’ श द का व यास दे ख कर ही यह म
आ तीत होता है क क व का नाम ीक ठ था। पर तु यह पर परा वीकार कर ली जाए
तो पतामह के नाम म भी ‘क ठ’ पद का योग होना आव यक था।
राजशेखर (दशम शती) ने बालच रत म, क हण ( ादश शती) ने राजतरं गणी म तथा
गोवधनाचाय (चतुदश शती) ने आयास तशती म यशोवमा के समकालीन सु व यात क व
भवभू त का वणन कया है। मालतीमाधव म तो ‘भवभू त नामा’ लखकर क व ने स दे ह
को सवथा मटा दया है क उसका नाम ‘भवभू त’ ही था, ‘ ीक ठ’ कोई उसका वभूषक
पद था।
मालतीमाधव क एक पुरानी ह त ल खत पु तक म ‘ करण मदं कुमा रल-
श य य उ बेकाचाय य’ (अथात् यह मालतीमाधव- करण कुमा रल के श य
उ बेकाचाय का लखा आ है।) ऐसा नदश ा त होता है, जससे भवभू त का एक अ य
नाम उ बेकाचाय भी तीत होता है। उ बेकाचाय कुमा रल भ -कृत ‘ ोक वा तक’ के
ट काकार- प म भी स है। वेदा त के व यात ध ‘त व द पका’ म च सुखाचाय ने
जहाँ ‘उ बेक’ नाम क चचा क है, वहाँ भी ट काकार ने भवभू त तथा उ बेक का तादा य
तपा दत कया है। ‘ ोक वा तक’ क ता पय ट का के रच यता का नाम ‘भ उ बेक’
प म द शत कया गया है। भवभू त के पतामह का नाम भ गोपाल था। व समाज म
शा चतु यवे ा को ‘भ ’ उपा ध से वभू षत करने क था थी। इसी लए पतामह के
समान भवभू त के ‘उ बेक’ नाम से पूव ‘भ ’ पद का योग कया गया, ऐसा माना जा
सकता है।
इस नाम के वषय म कुछ स दे ह का भी थान अव य है, य क मालतीमाधव के
उपयु उ रण म तो उ बेक को कुमा रल- श य कहा गया है। पर तु महावीरच रत क
तावना म भवभू त के गु का नाम ान न ध लखा गया है—

े ः परमहंसानां, महष णा मवाऽ राः ।


यथाथनामा भगवान्, य य ान न धगु ः ।।

पर तु इस स दे ह का नवारण इस तरह हो सकता है क स भवतः ‘ ान न ध’ ही


कुमा रल भ का सरा नाम था। अथवा ान न ध और कुमा रल भ -दोन ही भवभू त के
गु थे। भवभू त ने स भवतः कुमा रल भ से पूवमीमांसा का तथा ान न ध से उ रमीमांसा
का अ ययन कया था। उ रारामच रत क तावना म भवभू त का ‘पदवा य माण ’
वशेषण एवं उसी नाटक के चतुथ अंक म दा डायन-सौधात क संलाप म—

समांसो मधुपक इ या नायं ब म यमानाः ो या-


या यागताय व सतर महो ं या पच त गृहमे धनः ।
तं ह धम धमसू काराः समामन त।

ऐसा उ लेख करना भवभू त क ौतकम- व ता एवं मीमांसाशा - नपुणता को


कट करता है।
अतः ान न ध तथा कुमा रल भ के श य भवभू त का एक अ य नाम उ बेकाचाय
अथवा भ उ बेक वीकार करने म वशेष व तप अव श नह रह जाती।
भवभू त का ज म थान कौन-सा था—इस स ब ध म महावीरच रत तथा
मालतीमाधव से कुछ संकेत ा त होता है। ‘अ त द णापथे प पुरं नाम नगरम्’ तथा
‘द णापथे वदभषु’ नदश मशः दोन नाटक म उपल ध होते ह। इनसे प है क
द णापथ म वदभ ा त के प पुर नामक नगर म क व का ज म आ। द णापथ भारत
का कौन-सा भाग था, इसका प रचय महाभारत के न न ल खत उ रण से प होता है—
एते ग छ त बहवः, प थानो द णापथम् ।
अव तमृ व त च, सम त य पवतम् ।।
एष प था वदभाणामसौ ग छ त कोशलान् ।
अतः पर च दे शोऽयं, द णे द णापथः ।।

—ये अनेक माग द णापथ को जा रहे ह। यह ऋ वत् पवत को पार करके अव त


क तरफ जा रहा है। यह माग वदभ को जा रहा है, और वह कोशल को। उस थान के
द ण म थत दे श के द णापथ नाम से कहा जाता है।
इस कथन म स भवतः अशु न होगी क द णापथ वतमान द कन है, जो द ण
का ही अप ंश है। वदभ वतमान बरार प म व ान ारा ायः वीकार कया जाता है।
इसी बरार ा त म प पुर नाम के नगर म क व का ज म आ। यह प पुर वतमान कौन-सा
नगर है, यह अभी तक न य नह कया जा सका।
य प भवभू त का ज म थान बरार (प पुर) था, तथा प उसने अपने जीवन का
बड़ा भाग का यकु ज म तीत कया, जहाँ वह महाराज यशोवमा के दरबार म राजक व-
प म था। सु स इ तहासकार क हण ने राजतरं गणी म महाराज मु ापीड ल लता द य
(क मीर-नरेश) ारा का यकु ज के राजा यशोवमा के परा जत होने का वणन कया है।
“ जसने वयं क व होने के कारण अपने वजेता का, क वता करके, यशोगान कया।”
क हण ने यशोवमा के स ब ध म यह भी लखा है क उसके दरबार म वाक्प त, राज ी,
भवभू त आ द क व उसक सेवा करते थे—

क ववाक्प त-राज ी-भवभू या दसे वतः ।


जतो ययौ यशोवमा, तद्गुण तु तव दताम् ।।

इ तहासकार ारा यशोवमा का काल स तम शती का उ राध माना जाता है। अतः
भवभू त क व का काल भी यही वीकार कया जाना उ चत है।
ऐसा तीत होता है क भवभू त को अपने जीवन-काल म क त-लाभ नह हो सका।
का लदास, बाणभ आ द ने जो या त जी वत अव था म ा त कर ली, वह भवभू त के
भा य म न आ सक । अतएव नराशा से ु ध होकर उसने मालतीमाधव नाटक म लख
दया ( न न ल खत ोक भ उ बेक-कृत ‘ ोकवा तक’ क ता पय ट का म भी मलता है
—जो भवभू त तथा भ उ बेक के तादा य को मा णत करता है)—

ये नाम के च दह न थय यव ां
जान त ते कम प तान् त नैष य नः ।
उ प यते तु मम कोऽ प समानधमा
कालो यं नरव धः वपुला च पृ वी ।।

भवभू त ने नराशा म भी इस आशा को कट कया क अव य कोई ऐसा समय


आएगा, जब उसक क वता का संसार म आदर होगा। उसे व ास था क गुण ाही लोग
उ प ह गे और उसक रचना का उ चत मू यांकन करगे।
व तुतः ऐसा ही आ। भवभू त क मृ यु के ब त वष बाद ही, लगभग दशम शता द
से, उसके क व व का मू य पहचाना गया। भवभू त क सा ह य- े म शंसा इतनी बढ़ गई
क कुछ व ान ने तो यहाँ तक कह दया—

कवयः का लदासा ाः भवभू तमहाक वः ।

—का लदास आ द तो साधारण क व ह, भवभू त ही एकतम महाक व है।


वतमान समय म भवभू त व - व ुत क व ह। उसक या त न केवल सं कृत
सा ह य के े म सी मत है, पर तु ना कला के ापक े म भी यह व तृत हो चुक है।
पा ा य दे श म इस क व का अ ययन कया गया है और इसे उ कृ कलाकार- प म
वीकार कया गया है। ोफेसर व सन का मत है क कला का सौ दय तथा वचार क
उ चता म संसार का अ य कोई क व भवभू त क तुलना नह कर सकता।
प डत व ासागर का कथन है, “भवभू त क रचना म जस उदा एवं उ कृ
प म व भ रस का प रपाक आ है, वैसा अ य कह गोचर नह होता।”
डा टर भ डारकर भी भवभू त क आलोचना करते ए न न श द म उसका
मू यांकन करते ह, “सघन वन क एका त र यता, उ ुंग शृंखला क मनोरम भ ता एवं
संगीतमय जल पात क वग य सु दरता के च ण म भवभू त अ त नपुण है। वह कृ त
का उपासक है। मानव- दय क अ त हत वेदना के च ण म भी वह स ह त है।
अ त तल क कोमलता तथा ग भीरता को समझने क मता तो उसम अद्भुत है। वह
सामा य पदाथ म भी सौ दय क खोज करता है। अनुभू त के सू म त व का वह प रशीलन
करता है। शैली पर उसका पूण अ धकार है। श द को अथ के अनुसार सजीव बोलता आ
बनाने क भवभू त म अनुपम साम य है।
सवस म त से उ ररामच रत भवभू त क सु दरतम रचना है। इस स ब ध म स
उ है, ‘उ रे रामच रते भवभू त व श यते’, अथात् अ य कृ तय क अपे ा भवभू त
को उ ररामच रत म व श सफलता ा त ई है। जैसे ऊपर कहा जा चुका है, यह कृ त
क व क प रप वाव था क है। डा टर भ डारकर, डा टर बलवे कर तथा डा टर लेनमन
का भी यही मत है। उ ररामच रत के भरत वा य से इसी मत क पु होती है—
शद वदः कवैः प रणत य वाणी ममाम् ।
—श द- वे ा, प रप व बु वाले क व क इस वाणी (उ ररामच रत) का
व ान् लोग उ चत स मान कर।
कुछ वचारक ने मालतीमाधव को क व क अ तम रचना स करने का य न कया
है। उनके अनुसार मालतीमाधव क शैली क पना के उ च तर पर अव थत है।
उ ररामच रत तो केवल रामायण क छायामा है।
उनका कथन है क उ ररामच रत म, तावना म, अ भनय क से कुछ
अशु याँ रह गई ह, ज ह क व ने मालतीमाधव म र कर दया है। उ ररामच रत म
सू धार के ‘एषोऽ म कायवशाद् आयो यक तदानीतन संवृ ः’ के बाद तावना क
समा त को बना सू चत कए ही, कथाव तु का आर भ कर दया गया है। पर तु
मालतीमाधव म तावना को समा त करके ही नाटक य वषय का वेश कया गया है।
पुनः उनका तक है क मालतीमाधव म ‘ये नाम के च दह न थय यव ां,
उ प यते तु मम कोऽ प समानधमा’ इ या द रोष के वचन तभी कहे जा सकते ह, जब
क व क पूव कृ तय का स मान न आ हो और अ त म ु ध होकर उसे कहना पड़ा हो क
मेरी रचना का आदर कभी संसार म पीछे आने वाल ारा अव य होगा। इन वचन से
मालतीमाधव का ही भवभूती क अ तम कृ त होना स होता है।
पर तु मालतीमाधव क ृंगार-रस- धानता उपयु सब यु य का प रहार करती
है। युवाव था के उ माद म ही क व ेम क सरल क पना कर सकता था। उ ररामच रत का
क ण रस एवं स व धान धीरोदा नायक का च ण क व क प रणत ा का ही
प रचायक है और यही वीकार करना उ चत तीत होता है क यही कृ त उसक अ तम
कृ त थी। मालती-माधव तथा महावीरच रत का लोक य न बन सकना भी इसी त य का
पोषण करता है।
तीन नाटक के अनुशीलन से यह प तया सू चत होता है क इनके रच यता क
ह धम म ढ़ आ था थी। महावीरच रत के ना द -वचन म क व चेतन यो तः व प
नगुण क तु त इस कार करता है—

अथ व थाय दे वाय, न याय हतपा मने ।


म वभागाय, चैत य यो तषे नमः ।।

—स चदान द पर को नम कार है, जो वयं काश है, न य एवं नलप है, जो


अ होकर भी नाम तथा प म अ भ होता है, जो चेतन व प परम यो त है।
इसी महावीरच रत म यह भी प होता है क क व भगवान् राम को उस का मूत
प वीकार करता है और इसी म उसक असीम ा एवं भ है। व स के
मुख से भगवान् राम का क व ने इस कार वणन कया है।

मायाः स े ं गुणम णगणानाम प ख नः


प ानां मू ः सुकृतप रपाको ज नमताम् ।
कृपारामो रामो व ह रह शोपा यत इ त
मोदाद् वै त या युप र प रवतामह इ त ।।

—वह राम मा के े ह, गुणम णय क खान ह। शरण म आए ए मनु य के


लए, वे उनके पु य का मू तमान प रपाक ह। वे राम कृपा नधान ह। उ ह आँख से भी
उपासना का वषय बनाया जा सकता है। उस भ रस म डू बकर ऐसा अनुभव होता है क
हम कसी अ नवचनीय आन द म नम न हो गए ह।
ीराम के त भवभू त क भ , केवल उदा नायक के प म ही नह है, अ पतु
आरा य दे व के प म है। इसका अ धक प ीकरण न न उ रण (महावीरच रत) से होता
है—

इदं ह त व परमाथभाजां, अयं ह सा ात् पु षः पुराणः ।


धा वभ ा कृ तः कलैषा, ातुं भु व वेन सतोऽवतीणा ।।

—यह ीराम परमाथ- ज ासु के लए परमवे दत त व ह। यह पुराणपु ष ह,


जनका सा ा कार परमवांछनीय है। यही व क मूल कृ त ह जसक वध प—
ा, व णु, महे र—म अ भ होती है और जो जगत् के प र ाण के लए पृ वी पर
अवत रत होती है।
महावीरच रत क तावना म भी क व ने अपने पूव-पु ष का प रचय दे ते ए, अपने
वंश- मागत धम का इस तरह काशन कया है—

“त के चत् तै रीयाः का यपा रणगुरवः पं -पावनाः


प चा नयो धृत ताः सोपपी थनः उ बराः वा दनः
तवस त। तदामु यायण य त भवतो वाजपेयया जनो
महाकवेः प चमः सुगृहीतना नो भ गोपाल य पौ ः प व क तः
नीलक ठ या मस भवः ीक ठपदला छनो भवभू तनाम
जतुकण पु ः ।”

इस उ रण म क व के पूव पु ष का वै दक सोमपायी, या क, वाद ा ण


होना स होता है। उसके पतामह भ गोपाल वशेष प से वाजपेययाग के कमका ड म
न णात ा ण थे।
इस कार भवभू त पर परा-अनुसार वै दक धम के अनुयायी तथा वशेष प से
रामभ गोचार होते ह। यह ठ क है क मालतीमाधव म क व ने शव जी को एवं गणेश
जी को भी नम कार कया है। पर तु इतने से उसका शैव होना स नह हो जाता है। व न-
शा त के लए ह मा गणेश जी क व दना करता है। नटराज शव जी क भी
नाट् यकला- वतक के प म व दना वै णव धम से वरोध उ प नह करती। भवभू त के
तीन नाटक क तावना म ऐसा ात होता है क इन नाटक का अ भनय
काल यानाथ के या ा-उ सव के समय कया जाता था। काल या अथवा गा के नाथ
शव जी का नाट् यकला के साथ अटू ट स ब ध था। इसी कारण शव जी का मरण
नाट् यव तु के अ भनय म ायः आव यक माना जाता था। ऐसा केवल धम क से नह ,
युत नाटक य से कया जाता था।
मालतीमाधव म भवभू त ने वयं अपने वेद , उप नषद , सां य, योग आ द ह
शा के ान क तरफ संकेत कया है, य प वह उसे नाटक-कला के लए अ य त
आव यक नह मानता—

यद् वेदा ययनं तथोप नषदां सां य य योग य च


ानं त कथनेन क? न ह ततः क द् गुणो नाटके ।

अपने शा ीय पा ड य का प रचय क व ने कई अ य थान पर दया है।


महावीरच रत म ‘रा गोपः पुरो हतः’ कह कर उसने ऐतरेय ा ण का ान कट कया है।
इसी कार उ ररामच रत म ‘असुया नाम ते लोकाः’ इ या द वा य ारा उप नषद का
बोध दशन कया है। वह पर—

व ाक पेन म ता, मेघानां भूयसाम प ।


णीव ववतानां, वा प वलयः कृतः ।।

इस ोक से क ववर ने वेदा त के अ ै त स ा त का उद्भासन कया है।


मालतीमाधव म भी महाक व ने योग तथा त म अपनी सरल ग त का काशन कया है।
इन सबसे भवभू त के क व व के अ त र असाधारण वै य का भी प रचय मलता है।
भवभू त के स ब ध म इतना लखने के बाद अब उ ररामच रत नाटक के वषय म
भी कुछ आलोचना करनी आव यक है।
जैसे ऊपर कहा जा चुका है, उ ररामच रत भवभू त क सव कृ रचना है।
उ ररामच रत क कथाव तु वा मी क रामायण से ली गई है। इस कथाव तु के थन म क व
ने अद्भुत कला का दशन कया है। वा मी क के राम और सीता, नाटक म द -उदा
नायक तथा ना यका- प म उप थत कए गए ह। क व क थन-चातुरी म कोई भी
आलोचक स दे ह नह कर सकता।
इस कथन म भी अस य नह है क भवभू त क रचना पर का लदास तथा भास क
कृ तय का अव य भाव पड़ा है। इन दोन पुरातन नाटककार क पर परा क उपे ा भी
कैसे क जा सकती थी? भवभू त इन दोन के त अव य ऋणी ह, पर तु फर भी उसक
अपनी मौ लकता को अ वीकार नह कया जा सकता।
का लदास के अ भ ान शाकु तल तथा भास क व वासवद ा क छाया भवभू त
के उ ररामच रत पर कह -कह अव य दखाई दे ती है। उदाहरण- प म, सीता तथा
शकु तला—दोन का अपने प तय ारा प र याग कया जाता है और वह भी तब जब क
दोन के गभ म स तान है। राम और य त समान प से प नी-प र याग के बाद वषाद-
त हो जाते ह। दोन का अपनी प नय के साथ सु र आ म म पुन मलन होता है और
वह भी अपने अप र चत पु के ारा।
शाकु तल (अंक 7) म य त सवदमन को दे ख कर कहता है—

अ य बालक य पसंवा दनी आकृ तः ।

इस वा य क उ ररामच रत (अंक 6) के न न वा य से स शता प है। इसे राम ने


लव को दे खने के बाद कहा—

अये! न केवलम मत् संवा दनी आकृ तः ।

दोन वयु ा प नयाँ प त- वयोग से नर तर पी ड़त रहती ह और अक मात् प तय


को मल कर, उनक बलता को दे ख कर अ त ः खत होती ह। का लदास क शकु तला
य त को पहचान भी नह सकती है और कहती है, “यह तो आयपु के स श नह ह”—
न खलु आयपु इव। इसी कार भवभू त क सीता भी राम को दे खकर वषाद से कहती
है, “हाय इनक आकृ त कस कार भातकालीन च -म डल के समान ीण एवं पा डु र
वण हो गई ह”—हा कथं भातच -म डलपा डु राकृ तः।
य त द घ वरह के बाद आ म म शकु तला को मलते ए मम पश श द म
कहता है—

वसने प रधूसरे दधाना, नयम ाममुखी धृतैकवे णः ।


अ त न क ण य शु शीला, मम द घ वरह तं वभ त ।।

शकु तला के इस वणन का तमसा ारा कए गए वर हणी सीता के वणन के साथ


कतना सा य है—

प रपा डु बलकपोलसु दरं, दधती वलोलकबरीकमाननम् ।


क ण य मू त रव वा शरी रणी, वरह थेव वनमे त जानक ।।

का लदास तथा भवभू त—दोन को ही, वर ह णय के यथाथ च ण म समान


सफलता ा त ई है। वर ह णय का अपने य प तय के साथ संयोग समान सौ दय से
द षय क उप थ त म, रमणीय तपोवन-भू मय म कराया गया है।
महाक व भास के व वासवद ा नाटक (अंक 5) म महाराजा उदयन अपनी ेयसी
वासवद ा को ( जसक मृ यु म ी यौग धरायण ने आग म जल जाने के कारण घो षत कर
द थी—पर तु जो व तुतः जी वत थी) व म दे खते ह और न द म ही रोना आर भ करते
ह। उस समय वासवद ा आती है, महाराज के अंग का पश करती है और लौट जाती है।
उदयन- पश-सुख का अनुभव करने के साथ ही उठ बैठते ह—पर तु वासवद ा को न दे ख
कर अ धक वलाप करते ह।
उ ररामच रत म लगभग ऐसा ही य सीता- पश से राम के स ब ध म दखाया गया
है। राम उ म होकर वास ती से कहते ह, मने अभी सीता को दे खा है।
व वासवद ा म उ रण इस कार है—
उदयन— म ( व षक)! तु हारे लए एक अ छा समाचार है, वासवद ा जी वत है।
व षक—हाय, वासवद ा, कहाँ है वासवद ा? वह तो कब क मर चुक ।
उदयन—नह , म नह । म आधा जाग रहा था, जब वह आई। अपने मधुर पश से
उसने मुझे उठाया और फर चली गई। म वत् ने मुझे यह कह कर धोखा दया है क वह
मर चुक है।
उ रारामच रत म एत स श ही करण है—
राम—स ख वास ती, तु हारा सौभा य उदय आ आज।
वास ती—वह कैसे महाराज!
राम—सीता मुझे मल गई है।
वास ती—महाराज, वह कहाँ है?
राम—वह दे खो, तु हारे सामने खड़ी है।
न स दे ह भास, का लदास तथा भवभू त भरत क ना कला-पर परा के पर पर गुँथे
ए एक ही हार के मोती ह। उ रकालीन क वय पर इ ह तीन क अ मट छाप प प से
गोचर होती है। न संशय भवभू त पर अपने पूववत दोन महाक वय क भी छाप है।
का लदास को बा जगत् के च ण म जहाँ वशेष सफलता ा त ई है, वहाँ
भवभू त को अ तजगत् के आले य-लेखन म वशेष सफलता मली है। भवभू त मानव-
दय क अनुभू तय को समझने तथा उ ह सरस-सा शैली ारा तुत करने म अ धक
द है। वैसे दोन ही क व-मूध य अपनी-अपनी कृ तय म अनुपम ह—उनक पर पर तुलना
ही सुकर नह है।
‘एक एव भवेदंगी शृंगारो वीर एव वा’—सा ह यदपण के इस पुरातन स ा त के
अनुसार का लदास ने अपने तीन नाटक का धान रस शृंगार रखा है। ऐसा करते ए
का लदास ने ढ़ क दासता ही का शत क है। अ यथा तीन नाटक म कसी एक म तो
अ य रस का भी धानतया समावेश कया जाता।
भवभू त ने इस स ब ध म अ धक वशाल का प रचय दया है। मालतीमाधव म
जहाँ उसने शृंगाररस को धान रस बनाया है, वहाँ उ ररामच रत म क णरस को धानता
द है। वयःप रणाम के साथ इस रस क मह ा तथा ग रमा को भवभू त ने वयं इतना
अनुभूत कया क उसने उ ररामच रत (3-47) म यहाँ तक कह डाला क—

एको रसः क ण एव न म भेदात्


भ पृथक् पृथ गव यते ववतान् ।
आवत बुदबु
् दतर
् मयान् वकारान्
अ भो यथा स ललमेव ह त सम तम् ।।

—क ण ही व तुतः एक रस है। वही न म -भेद से भ होता आ पृथक्-पृथक्


शृंगार आ द प रणाम का आ य करता है। जैसे एक जल ही भँवर, बुदबु
् द और तरंग- प
अनेक वकार म प रणत होता है, पर तु वह सब व तुतः जल ही है—इसी कार अ य सब
रस क ण रस के ही वकारमा ह।
भवभू त ारा उ ररामच रत म सीता- वसजन का च कस स दय के दय को
उ म थत नह कर दे ता? वयं राम इस वसजन क पीड़ा को सहन नह कर सकते; केवल
जनापवाद के नवारण के लए वे यह घोर काय कर बैठते ह। वलाप करते ए वे वयं कहते
ह—

शैशवात् भृ त पो षतां यां, सौ दादपृथगा या ममाम् ।


ना प रददा म मृ यवे, शौ नके गृहशकु तका मव ।। (1-45)

—बचपन से पोषण क गई— ेम के कारण मेरे से कभी बछु ड़ कर न रहने वाली,


अपनी या सीता को, आज म छल से मौत के मुँह म डालने लगा ँ, जैसे कोई ब धक घर
म पाली ई मैना को सूनागृह म भेज रहा हो।
द डकार य म जाकर या सीता क मृ तय से पी ड़त होकर ीराम कस कार
क ण दन करते ह—

हा हा दे व! फुट त दयं वंसते दे हब धः


शू यं म ये जगद वरल वालम त वला म ।
सीद धे तम स वधुरो म जतीवा तरा मा
व वङमोहः थगय त कथं म दभा यः करो म ।। (3-38)

—हाय-हाय दे व! मेरा दय बद ण हो रहा है, शरीर का स ध-ब धन श थल पड़


रहा है। संसार मुझे सूना दखाई दे रहा है। म शरीर के भीतर अ वरल वाला से जल रहा ँ।
अवस होकर यार हत अ तरा मा मानो गाड़ अ धकार म डू बा जा रहा है। चार तरफ से
मू छा आवरण कर रही है। म द भा य वाला म, अब या क ँ ?
क ण रस का कतना मम छे द दा ण वणन है? इसी कारण भवभू त को धानतया
क ण रस का क व कहा जाता है। उसके क ण रस म तो ‘प थर’ भी रोना आर भ कर दे ता
है, व का दय भी वद ण हो जाता है—‘अ प ावा रो द य प दल त व य दयम्‘।
गोव नाचाय ने ‘आया स तशती’ म भवभू त क वाणी को वह पवतभू म कहा है, जसका
येक पाषाण, क णा से दन कर उठता है—

भवभूतेः स ब धात्, भूधरभूरेव भारती भा त ।


एत कृतका ये, कम यथा रो द त ावा ।।

उ ररामच रत म व षक का अभाव क ण रस क प रपु के लए ही है। नायक


ीराम क णा म अ भभूत होने के कारण प रहास का अवसर ही ा त नह कर सकते।
मानो क व ने उ ह मूत क ण रस ही बनाया हो। जगद्व ा सीता क वशु तमा उनक
आँख के सदा स मुख रहती है और वे उसी को सब जगह दे खते ह। उसे न पाकर, वे
अ तस त त हो जाते ह—

अ य च ड जान क! इत ततो यसे, नानुक पसे ।


... वा स ये! दे व! सीद सीद! न मामेवं वधं प र य ु मह स ।

वास ती जब राम को, अपने लोको र धैय से सहारा दे ने के लए कहती है और उसे


बतलाती है क य सखी सीता अब संसार म कहाँ, तब अपने दय को थाम कर राम
नराशा के ये वचन कह कर रह जाते ह—
ं ना येव! कथम यथा वास य प न प येत्। अ प खलु व एष यात्।
न चा म सु तः? कुतो राम य न ा? सवथाऽ प स एवैष भगवाननेकवारक पतो
व ल भः पुनःपुनरनुब ना त माम्।
—सचमुच सीता यहाँ नह है। नह तो वास ती भी उसे कैसे न दे खती? कदा चत् यह
व हो। म सोया आ भी नह ँ। राम को न द कहाँ? सब तरह से वह ऐ यस प और
च ता से प रक पत म ही कदा चत् मुझे बार-बार सता रहा है।
राम का वयं सीता का प र याग करके इस कार क ण दन करना असंगत-सा
तीत होता है—पर तु उनक ववशता को जानकर ‘राम नद ष ह’ ऐसा ही वीकार करना
पड़ता है। धम-संकट के कारण ही ीराम को सीता-प र याग करना पड़ा। राजधम के पालन
के लए उ ह अपने सुख, या सीता एवं प नी-धम को भी तलांज ल दे नी पड़ी। वयं
भागीरथी माता राम का प लेते ए पृ वी को अपने दामाद पर कोप न करने के लए इस
कार समझाती है—
“लोक म भयंकर अक त फैल गई थी। लंका प म सीता क जो अ न-परी ा ई,
उसका यहाँ के लोग कैसे व ास कर। इ वाकु-कुल के राजा का यह वंश- मागत धम है
क—स पूण जा क आराधना क जाए। इस कारण इस धम-संकट म व स रामभ
और या कर सकता था?” (7-6)
भवभू त क सम त का -कला ीराम को न कलंक मा णत करने म ही यु
ई है। उ ररामच रत म क ण रस का पुट इसी कारण इतना भावो पादक बन सका है।
व तुतः उ ररामच रत क वशेषता ही उसक अ वरल, अन व छ क ण रस-धारा है।
उ ररामच रत क री त वैदभ है। क व क इस रचना म माधुय एवं साद गुण कूट-
कूट कर भरे ए ह। इस रचना म ल लत श द एवं कोमल भावना का ऐसा सु दर
स म ण आ है क उसक उपमा मलनी क ठन है। का लदास के शाकु तल से भी अ धक
दयहा रणी शैली का इसम अनुसरण कया गया है।
शाकु तल क ना यका संसार क साधारण अ भसा रका नारी है। उसका ेम अपने
पता क व क अनु ा के बना था और ‘आ म- ापार- वरोधी’ अथात् आ म क उ च
मयादा के तकूल था। इस मयादा के उ लंघन के कारण ही उसे ाय त- प म प त
या यात होना पड़ा। का लदास ने नारी-च र क बलता दखाने के लए ही स भवतः
ऐसा च र च ण कया।
पर तु भवभू त क सीता भारत क आदश नारी है। उसका अपने यतम के त ेम
उ छृ ं खल नह है। वह राम म न कारण ी त एवं भ रखती है। सीता अपने प त क
यारी है। उसका या यान राजधम-पालन से ववश होकर प त ारा कया गया, ेम क
कसी यूनता के कारण नह । य त ने शकु तला का अपमान करके और उसके साथ
सम त ी-जा त का अपमान करके, उसका वसजन कया। का लदास का इस कार ी-
जा त के त कठोर होना अ यायपूण था। पर तु य क उसका नायक साधारण राजा ही
था, इस लए उससे ऐसा वहार कराना यथाथता के व भी न था।
का लदास क व श ता कृ त- च ण म है—इसम वह भवभू त से बढ़ा आ है।
भवभू त मानव- दय के च ण म कुशल है। वह अ य त भावुक है। अपने द धीरोदा
नायक राम को भी वह अधीरता क मू त बना दे ता है। भवभू त का ेम केवल शारी रक व
ल गक ही नह —यह तो दो आ मा क द अनुभू त है, अ नवचनीय पार प रक चेतना
है। “यह सुख और ःख म एक प है, सभी अव था म एक रस है। इसम दय का
व ाम है। काल बीतने पर भी इसका ास नह होता। समय के साथ तो वह अ धक
प रप व और राशीभूत हो जाता है। यही ान द-सहोदर—अ ै त ेम स चा आन द है।”
(1-39)।
उ ररामच रत के अ तम अंक म अ धती के मुख ारा भवभू त ने पा ण हण तथा
ेम के भारतीय आदश को इस कार उप थत कया है—

जग पते रामभ ।
नयोजय यथाधम, यां वं धमचा रणीम् ।
हर म याः तकृतेः पु यां कृ तम वरे ।।

—हे जग प त राम! इस अपनी य प नी को वीकार करो, जो तु हारी


सहधमचा रणी है। सुवणमयी तमा को हटा कर, अब इस कृ त- प सीता को य -धम-
स प करने के लए अपने साथ नयु करो।
भवभू त के नायक-ना यका का लदास के नायक-ना यका से कह उ कृ ह।
उनका च र - च ण भारतीय मयादा तथा आदश का यथाथ च ण है। उसक क व व-
तभा भी का लदास से कम नह , य प वह का लदास के समान चुर का का सृजन
नह कर सक । शाकु तल तथा उ ररामच रत क पर पर तुलना म का लदास तथा भवभू त
लगभग एक समान उतरते ह। का लदास का थम वै श केवल सव थम पा ा य
आलोचक के ानगोचर होने के कारण आ है। तुलना मक समी ा म दोन महाक वय का
मू यांकन ायः समान प से ही कया जाना उ चत है।

—इ
पा

पु ष-पा

सू धार धान नट
नट सू धार-सहकारी
रामच (नायक) अयो याप त सूयवंशी राजा
ल मण सु म ा-पु , राम का अनुज
श ुन सु म ा का छोटा पु , ल मण का
अनुज
जनक म थलाधीश, राम- सुर
अ ाव मु न- वशेष
वा मी क रामायण- णेता मह ष
सौधात क दा डायन वा मी क- श य
कुश-लव राम के पु
च केतु ल मण-पु
सुम सार थ
व ाधर दे वयो न- वशेष
कंचुक (गृ ) अ तःपुर-चर, वृ ा ण
मुख गु तचर
श बूक शू -तापस
मु न कुमार, सै नक आ द।
ी-पा
सीतादे वी (ना यका) जनक-तनया—राम-प नी
वास ती वन-दे वी, सीता क सखी
आ ेयी चा रणी
तमसा मुरला नद -अ ध ा ी दे वी
भागीरथी गंगा दे वी
कौश या राम-जननी
पृ वी सीता-जननी
अ धती व स -प नी
व ाधरी व ाधर-प नी
तहारी अ तःपुर- ार क र का
उ ररामच रत

वा मी क- ास आ द को, करते हम णाम ह ।


-कला वाणी को भी, नम कार अ भराम है ।।

[ना द क समा त पर]


सू धार : बस-बस, ब त आ। आज इस काल यानाथ भगवान् शव जी के
या ो सव पर म उप थत ए आय महानुभाव को सू चत करता ँ—
ऐसा आप सबको व दत हो क क यप-गो म उ प , जतुकण के
पु , ‘ ीक ठ’ पदवी से भू षत, ाकरण- याय-मीमांसा के ाता
भवभू त नाम से एक महाक व ह, जनका ा के समान अनुसरण,
सर वती दे वी वशव तनी होकर, करती है। आज उसी भवभू त से
णीत उ ररामच रत कृ त का अ भनय हम तुत करगे।
यह म क व क रेणा से त कालीन अयो या- नवासी बन गया ँ।
(चार तरफ दे खकर)
अरे, यह या—जब पौल यकुल के धूमकेतु महाराज रामच जी के
रा या भषेक का मंगल-महो सव चल रहा है तो राजमाग पर यह
सूनापन य ? कह पर कोई आता-जाता ही दखाई नह दे ता।
[ वेश करके]
नट : म , महाराज ने लंका- वजय के बाद साथ आए सब वानर-सु द ,
रा स तथा स कार के लए उप थत नाना दशा को प व करने
वाले मह षय एवं राज षय को अपने-अपने घर भेज दया है, जनके
आने के उपल य म अब तक आन द- मोद चल रहा था।
सू धार : अ छा, समझा—यह कारण है।
नट : और भी। ीराम क माताएँ कौश या आ द दे वयाँ गु व स तथा
उसक धमप नी अ धती के साथ य म स म लत होने के लए
दामाद के आ म म गई ह।
सू धार : म परदे सी ँ; पूछता ँ क यह दामाद कौन है?
नट : महाराज दशरथ ने शा ता नाम क एक क या को उ प कया। उ ह ने
उसे राजा रोमपाद को पु ी- प म भट कया। वभा डक के पु
ऋ यशृंग ने उस शा ता से ववाह कया। यह ऋृ यशृंग महाराज दशरथ
का दामाद है। उसने अब बारह वष का य आर भ कया आ है।
उसी य म स म लत होने के लए गु जन कठोर गभ वाली जानक
को भी छोड़ कर गए ए ह।
सू धार : अ छा, इन बात से या? चलो, हम दोन अपनी जा त-मयादा के
अनुसार राज ार पर जा कर ठहरते ह।
नट : हाँ चलो। चल कर महाराज क ऐसी श त कर गान कर जो सवथा
दोषर हत हो।
सू धार : म , श त जैसी भी हो, उसका योग करना चा हए। सवथा नद ष
श त कहाँ? य के च र तथा वाणी के स ब ध म लोग सदा
छ ा वेषण करते रहते ह।
नट : ‘अ त लोग’ ऐसा कहना चा हए। दे खो, दे वी वैदेही के स ब ध म
भी लोग न दा से पूण ह। इसका कारण दे वी का रा स के घर म
ठहरना है। अ न दे वता ारा उसक शु म लोग का अ व ास है।
सू धार : य द यह कवद ती महाराज तक प ँच जाए, तो बड़ा अनथ होगा।
नट : दे वता और ऋ षजन सवथा क याण ही करगे। (घूमकर) हे-हे
महाराज! कहाँ ह अब? (सुनकर) अ छा, लोग ऐसा कहते ह क राजा
जनक नेह-स कार के लए अयो या म कुछ दन आ कर और उ ह
आन द-मंगल स हत तीत करके, आज म थला को वा पस लौटे ह।
और महाराज अब धमासन से उठ कर ः खत दे वय को सा वना दे ने
के लए नवास-गृह म व ए ह।
[दोन नकल जाते ह।]
थम अंक

[सीता के साथ बैठे ए ीराम का वेश]


राम : दे व वैदेही, आ ासन करो। वे गु जन हम कभी नह छोड़ सकते।
क -पालन मनु य क वत ता का अपहरण कर लेता है। य ा न
द त करने वाले गृह थय का गृह थ-धम अनेक व न से प रपूण
होता है।
सीता : जानती ँ आयपु , जानती ँ। क तु ब धुजन का वयोग
स तापकारी होता है।
राम : हाँ, ऐसा ही है। संसार क ये अनुभू तयाँ दय-मम को छे दने वाली
होती ह। इ ह से ला न करते ए मनीषी लोग सब कामना का
प र याग करके जंगल का आ य लेते ह।
[ वेश करके]
कंचुक : रामभ ,...(इस तरह आधा कहने पर शंका के साथ) महाराज...
राम : (मु कुराते ए) आय, आपका मुझे ‘रामच ’ इस तरह स बो धत
करना ही शोभा दे ता है। अतः जैसा आपको अ यास है, वैसा ही आप
कहा कर।
कंचुक : ऋृ यशृंग के आ म से अ ाव पधारे ह।
सीता : आय, तो वल ब य करते हो।
राम : शी ही उ ह वेश कराओ। (कंचुक चला जाता है।)
[ वेश करके]
अ ाव : आप दोन का क याण हो।
राम : भगवन्, अ भवादन करता ँ। इधर बै ठए।
सीता : भगवन्, नम ते। गु जन, जमाता, आया शा ता सब कुशलपूवक तो ह
न?
अ ाव सोमपान करने वाले भगवान् ऋृ यशृंग तथा आया शा ता सवथा कुशलपूवक
: ह।
सीता : या हम मरण भी करते ह?
अ ाव (बैठ कर) य नह । दे व, कुलगु भगवान् व स जी ने तु ह इस तरह कहा है
: : ‘भगवती व भरा ने तु ह उ प कया है। जाप त के समान महाराज
जनक तु हारे पता ह। हे न दनी! तुम उन राजा क वधू हो, जनके कुल म
वयं सूय भगवान् और हम गु ह। तो और या आशीवाद द—केवल यही
कहना है क तुम वीर- सवा बनो।’
राम : हम अनुगृहीत ए। संसारी साधु क वाणी तो अथ का अनुसरण करती है,
पर तु आ द ऋ षय के स ब ध म यह स य है क अथ उनक वाणी का
अनुसरण करता है।
अ ाव और भगवती अ धती, दे वय तथा आया शा ता ने बार बार यह स दे श भेजा
: है क इस जानक का जो कोई गभकालीन दोहद उ प हो, उसे अव य एवं
शी ही पूण कया जाए।
राम : जैसा भी यह कहेगी, वैसा ही कया जाएगा।
अ ाव ननद के प त ने भी दे वी के लए यह स दे श भेजा है क ‘व से! तुम कठोर गभ
: वाली थी, इसी लए तु ह यहाँ नह लाया गया। व स रामभ को भी तु हारे
मनो वनोद के लए वह रहने दया है। तो आयु मती को हम पु से गोद भर
जाने के बाद मलगे।”
राम : (हष, ल जा तथा मु कुराहट के साथ) ऐसा ही हो। भगवान् व स ने और कुछ
आदे श नह भेजा?
अ ाव सुनो। “हम यहाँ जामाता के य म के ए ह। तुम अभी बालक ही हो, यह
: रा य नया है। हमारा यही आदे श है क तुम जारंजन म सदा संल न रहो।
राजा के लए यश ही सव कृ धन है, तुम उसका उपाजन करो।”
राम : जैसे भगवान् मै ाव ण क आ ा। मुझे तो जारंजन-धम का पालन करते ए
नेह, दया, सौ य और य द आव यक हो तो जानक का भी प र याग करते
ए, त नक भी था न होगी।
सीता : अतएव आयपु रघुवंश- शरोम ण ह।
राम : है यहाँ कोई? जाओ, अ ाव जी को व ाम कराओ।
[ल मण का वेश]
अ ाव (उठ कर और घूम कर) अरे, कुमार ल मण आ गए।
:
[अ ाव जाते ह।]
ल मण जय हो महाराज क । च कार अजुन ने हमारे वणन-अनुसार आपके च र को
: इस वी थ पर च त कया है। आप इसे दे खए।
राम : व स, तुम दे वी के ः खत मन का वनोद करना जानते हो। अ छा तो यह च
कहाँ तक क घटना को च त करता है?
ल मण आया क अ न-शु तक।
:
राम : पाप शा त हो! (सा वना-वचन के साथ) ज म से प रपूत इस दे वी क अ य
शु कैसी? तीथ का जल तथा अ न कसी अ य से शु क अपे ा नह
करते। हे दे व! य -पु ी! यह लोकापवाद तु हारे जीवनपय त रहेगा। राजा को
जारंजन करना ही होता है। जो तु हारे स ब ध म अभी ल मण ने अ न-शु
क चचा क है, तुम सवथा इसके यो य न थ । सुग धत पु प क वाभा वक
थ त म तक पर होती है, न क चरण से उसका र दा जाना उ चत होता है।
सीता : जाने दो इन बात को आयपु ! आओ, दे ख इस च म तु हारे च र को।
ल मण यह है वह च ।
:
सीता : (दे ख कर) ये या ह—जो ऊपर नर तर खड़े ए आयपु क तु त कर रहे ह।
ल मण दे व, ये वे रह यपूण जृ भका ह, जो भृशा मु न से व ा म को ा त ए
: और ज ह ताड़का-वध के समय व ा म ने आय को साद प म दान
कया।
राम : दे व, इनक वंदना करो। ये द अ ह। ये वे अ ह जनका सा ा कार ा
आ द ाचीन गु ने सह वष क घोर तप या के बाद, अपने ही तपोमय
तेज- प म कया।
सीता : इ ह नम कार है।
राम : ये द ा अब तु हारी स त त म सं ा त ह गे।
सीता : म अनुगृहीत ई।
ल मण यह म थला का वृ ा त है।
:
सीता : अरे, यह आयपु का कैसा सु दर च है? कैसा यह शखाभू षत भोलाभाला
मुखम डल है? खलते ए कमल क का त वाले इस मुखम डल को मेरे पता
कस कार न ल से दे ख रहे ह। यह दे खो, शव जी का धनुष पड़ा है,
जसे आयपु ने खेल-खेल म दो टु कड़े कर दया है।
ल मण दे व, इधर दे खो। तु हारे पता महाराज दशरथ तथा अ य स ब धय क अचना
: कर रहे ह। इधर, जनक के पुरो हत गौतम शतान द व स क पूजा कर रहे ह।
राम : यह स ब ध कैसा सु दर आ। जनक और रघु का यह स ब ध कसको य
न होगा, जसम क यादान करने वाले तथा क या हण करने वाले वयं भगवान्
व ा म थे।
सीता : ये ह आप चार भाई; उस समय गोदान-मंगल करने के बाद यहाँ खड़े ए। आप
सब ववाह-द त हो चुके ह। यह म उसी थान पर खड़ी ँ; हाँ, उसी काल म
वतमान ँ।
राम : यह वही समय है, जब हे सुमु ख! गौतम से अ पत कया आ तेरा हाथ मुझे
आन द- वभोर करता था। यह तु हारा सु दर वलय से अलंकृत हाथ, मेरे लए
मू तमान महो सव का हेतु बना था।
ल मण यह आप ह। यह आया मा डवी है और यह ुतक त।
:
सीता : व स, और यह चौथी कौन है?
ल मण (ल जा और मु कुराहट के साथ, एक तरफ हट कर) अरे आया उ मला को पूछ
: रही ह। अ छा, सरी तरफ इ ह ले जाता ।ँ ( कट प से) आय, आपने यह
य तो दे खा नह । यह भगवान् परशुराम।
सीता : (काँप कर) मुझे इनसे डर लगता है।
राम : ऋ षवर, नम कार है।
ल मण आय, यह दे खो। यह आय ने... (इस तरह आधा कहने पर)
:
राम : (रोकते ए) अरे, अभी ब त कुछ दे खना है। कोई अ य य दखाओ।
सीता : ( नेह तथा स मान स हत दे ख करके) आयपु , इस वनय-गौरव से तुम कैसे
शोभा दे ते हो।
ल मण ये हम अयो या प ँच गए।
:
राम : (आँख म आँसू भर कर) हाँ, मरण है, सब मरण है। वे दन अब बीत गए, जब
पू यपाद पता जी जी वत थे, जब हमारा नया-नया पा ण हण आ था और
जब माताएँ ेमवश हमारा नर तर च तन कया करती थ । तब यह जानक भी
वरले एवं मनोहर द तांकुर से आलो कत, शशुसुभग, मु ध मुखम डल को
धारण करती ई अपने मधुर, मृ ल एवं लाव यमय अंग ारा मेरे अंग म
कौतूहल उ प करती थी।
ल मण यह म थरा का वृ ा त है।
:
राम : (ज द से सरी तरफ यान खीचते ए) दे व, वैदेही, दे खो यह वह शृगंवेरपुर म
इंगुद का वृ है, जहाँ अपने य म नषाद-प त गुह के साथ हमारी सव थम
भट ई थी।
ल मण (हँस कर— दल म) अरे, आय ने म यमा बा कैकेयी के वृ ा त को इस तरह टाल
: दया!
सीता : यह वह थान है, जहाँ आयपु ने जटाब धन कया था।
ल मण जस वान थ-धम का पालन इ वाकु-वंश के राजा ने वृ ाव था म पु म
: रा यल मी था पत कर दे ने के बाद कया, उस प व धम का आचरण आय ने
बा याव था म ही आर भ कर दया।
सीता : यह व छ, पु य जल वाली भगवती भागीरथी है।
राम : रघुकुल दे वते! तु ह मेरा नम कार है। हे भगव त गंगे! शारी रक स ताप क
च ता न करके, घोर तप या ारा तुझे पृ वी पर ला कर, तेरे पु य जल के पश
से राजा भगीरथ ने पतामह को पुनज वत कया था, जो अपने पता सगर के
अ मेध य म य य घोड़े क तलाश करते, पाताल-लोक म प ँचे थे और
ोधा व क पल मु न के च ड तेज से भ म कर दए गए थे। हे माता! वह तुम
अ धती क तरह अपनी पु वधू सीता म सदा क याण- च तन करने वाली
बनो।
ल मण यह वह च कूट क तरफ जाने वाले माग पर यमुना-तट- थत याम नाम वाला
: वट वृ है, जसे भार ाज मु न ने हम बतलाया था।

[राम पृहा के साथ उसे दे खते ह।]


सीता : आयपु , इस दे श को मरण करते ह?
राम : ये! म इसे कैसे भूल सकता ँ। यह वही तो थान है जहाँ माग पर चलने के
प र म से अलसाए ए सु दर, मु ध एवं मसली ई मृणाली के समान अपने
बल अंग को मेरी छाती पर रख कर तुम सो गई थ और जन अंग को म ढ़
आ लगन ारा ब त दे र तक दबाता रहा था।
ल मण यह है व याचल के जंगल म वराध रा स क घटना।
:
सीता : रहने दो इसे। यह दे खो आयपु अपने हाथ म तालप को आतप क तरह
पकड़े ए इस बीहड़ द डकार य म चले जा रहे ह।
राम : ये दे खो, पवत क न दय के तट पर रमणीय तपोवन ह, जनम वृ के नीचे
तप वी लोग तप या कर रहे ह। तपोवन म इन कु टय को दे खो, जनम अ त थ-
सेवा म त पर, ये गृह थी मु भर अ पका कर संयमपूवक नवास कर रहे ह।
ल मण यह पंचवट के बीच म खड़ा वण नाम का पवत है। इसम गोदावरी नद के
: दोन तरफ घने वृ का जंगल अपनी न ध नी लमा से च को कैसा
आक षत कर रहा है? नर तर बरसते ए बादल से अ धक याम होती ई यह
नी लमा आँख को कैसी यारी लग रही है।
राम : हे सु द र! तुम उन दन को मरण करती हो, जब इस वण पवत पर ल मण
ारा सेवा-सु ूषा कए ए हम दोन सुख से नवास करते थे? तुम इस सरस
जल वाली गोदावरी नद को मरण करती हो, जसके कनारे पर हम दोन लोटा
करते थे? याद है न, हम यहाँ पर पर आ लगन करके, गाल से गाल सटा कर
भुजा ारा ढ़ता से एक- सरे को आ ल करके नर तर धीमे-धीमे कुछ बात
करते रहते थे और इस तरह सारी रात बीत जाती थी और पता तक न लगता था।
ल मण यह पंचवट म शूपणखा का वृ ा त है।
:
सीता : हाँ आयपु ! बस यह तक तु हारा दशन आ।
राम : अरी वयोग से डरने वाली! यह तो च है।
सीता : जैसा भी हो— जन का मरण भी ःखदायी होता है।
राम : यह पंचवट का वृ ा त वतमान म घ टत आ-सा तीत होता है।
ल मण इसके बाद पापी रा स ने सुवण मृग के छद्म ारा जो घोर काय कया वह
: आज धुल जाने के बाद भी दय को पी ड़त करता है। तब इस नजन पंचवट म
आय ने हतचेतन होकर जो क ण दन कया उससे प थर भी पघल गए और
व भी वद ण हो गए।
सीता : (आँसू बहाते ए— दल म) हाय, र वकुल-न दन आय, मेरे कारण इतने ःखी
ए!
ल मण (राम को दे ख कर पश करते ए) आय, यह या? यह तु हारे आँसू, टू टे ए हार
: के मो तय के समान जजर कण होकर, धारा म बहते ए पृ वी पर गर रहे
ह! तु हारे व ु ध दय का आवेग, फड़कते ए ह ठ तथा ना सका पुट से
सर को प य हो रहा है, य प तुम उस पर वजय ा त करने का य न
कर रहे हो।
राम : व स ल मण, ठ क है। उस समय सीता के वयोग से उ प ई जो ती ःखा न
मने तकार क भावना से सहन कर ली थी, वही आज फर मन म द त होती
ई दय म मम ण के समान अस पीड़ा को पैदा कर रही है।
सीता : हाय ध कार! म भी कसी अस अ तवदना के कारण अपने को आयपु से
वयु आ अनुभव कर रही ँ।
ल मण ( दल म) अ छा, इ ह सरी तरफ ले चलता ँ। ( च दखाते ए कट प से)
: यह तातोपम वयोवृ जटायु के परा म का अद्भुत य है।
सीता : हा तात! तुमने इस तरह अपने स तान- ेम को नबाहा!
राम : हा तात! क यप-पु प राज! तु हारे स श तीथभूत महान् साधु का ज म फर
कहाँ होगा?
ल मण यह है वह पंचवट के प म क तरफ कुंजवान् नाम का पवत, जस पर यह
: द डकार य है, जहाँ कब ध रा स नवास करता था। इसी के कनारे पर मतंग
ऋ ष का आ म है जसम मणी नाम क तप वनी शबरी रहती थी। और यह
है प पासरोवर-कमल से भरा आ।
सीता : यह पर आयपु ने अपना सहज धैय तोड़ कर मु क ठ से दन कया था।
राम : दे व! यह कैसा रमणीय सरोवर है। मने इसे आँसु के गरने तथा नकलने के
अ तराल समय म सतृ ण से दे खा था। यहाँ कूजते ए कलहंस के पँख से
हलाए जाते ए कमल-प के मृणाल-द ड तथा कमल-पु प कस तरह यारे
लगते थे।
ल मण यह आय हनुमान ह।
:
सीता : यह वही महानुभाव पवन-पु है न, जसने सम त जीवलोक के उ ार तथा
उपकार का गु - त धारण कया आ है?
राम : हाँ, यह वही महाभाग, महाबा , अंजना माता का सुपु है जसके परा म तथा
बल से हम लोग ही नह , भुवन कृताथ आ है।
सीता : यह कौन-सा पवत है, जसके कुसु मत कद ब वृ पर मयूर नृ य कर रहे ह और
जहाँ एक त तल म तु हारा यह च है, जसम तुम रोते ए, मू छा ा त
आयपु का अवल बन कर रहे हो? हाय, मेरे वयोग म आयपु क ऐसी अव था
हो गई थी—चेहरे पर अव श अनुभाव, सौभा य एवं सौ दय क यह आभा
कैसी पीड़ा उ प कर रही है?
ल मण यह वही ककुभ वृ से सुग धत मा यवान् नाम का पवत है, जसके शखर पर
: नीला, न ध बादल अपनी नूतन छटा म दखाई दे रहा है। आय ने इसी पवत
पर...
राम : बस-बस। इससे परे म नह सुन सकता। मुझे सीता का वयोग फर से लौटा आ
अनुभव हो रहा है।
ल मण इसके बाद आपक तथा वानर क वीरता के अनेक आ यकारी, एक- सरे से
: बढ़ कर कए गए काय के अद्भुत य ह, जनम रा स का वध कया जा रहा
है।...पर तु अब आया थक चुक ह। म ाथना करता ँ क अब आप व ाम
कर।
सीता : आयपु , इस च के दे खने से मेरे दय म एक दोहद उ प आ है—य द
आ ा हो तो कह ँ ।
राम : अव य कहो।
सीता : इ छा हो रही है क एक बार फर रमणीय वनरा जय म मण करके, भगवती
भागीरथी के प व , नमल, शीतल जल म नान क ँ ।
राम : व स ल मण।
ल मण यह उप थत ँ। या आ ा है, महाराज!
:
राम : व स, अभी गु ने स दे श भेजा है क “दे वी का जो भी दोहद उ प हो, उसे
शी पूरा करना चा हए” तो अभी रथ ले कर आओ।
सीता : आप भी मेरे साथ चलगे न?
राम : अ त कठोर दये! ऐसा कहने क भी आव यकता थी?
सीता : तो मेरा य मनोरथ पूरा आ।
ल मण जैसे आय आ ा दे ते ह। ( नकल जाता है।)
:
राम : ये, इस खड़क के पास हवा म बैठो।
सीता : मुझे तो थकावट के कारण न द सता रही है।
राम : तो उठो, व ाम-गृह क तरफ चल। सहारे के लए, अपनी बा को मेरे गले म
डाल दो। तु हारी बा कतनी यारी है, मुझे यह नया जीवन दान कर रही है।
च मा क करण से चु बत हारम णय क छटा इस बा पर कैसी सु दर लग
रही है! अरे, इस पर तो भय तथा प र म के कारण वेद के ब दखाई दे रहे
ह। (सीता क बा अपने गले म डालता आ) ये! यह या है? न य नह हो
पाता क यह सुख है या ःख, मोह है अथवा न ा, वष-संचार है अथवा मद
का आवेग? तु हारे अंग- पश से ही मेरी इ याँ न ेतन-सी हो रही ह—कोई
अवणनीय च - वकार मेरी चेतनता को ा त और मूढ़-सा बना रहा है।
सीता : आप तो धीर कृ त ह, फर ऐसा य ?
राम : हे कमलनय न! तु हारे ये य वचन मेरे कु हलाए ए जीवन-पु प को पुनः
वक सत करने वाले ह। ये मेरे कान के लए अमृत के समान ह, मन के लए
रसायन स श ह और मेरी सम त इ य को स मो हत एवं स तृ त करने वाले
ह।
सीता : यंवद आय! आओ यहाँ व ाम कर।
राम : ऐसा भी कहना था? ववाह के समय से लेकर घर म और वन म, शैशव म और
तदन तर फर यौवन म, जो राम क बा तु हारी न ा का आधार बनी, वही
मेरी बा , कसी अ य ी से पश न क ई—आज भी तु हारे लए त कए का
काम दे गी।
सीता : (ऊँघती ई) हाँ, आयपु ऐसा ही हो। (सो जाती है।)
राम : अरे, कस तरह बोलते-बोलते ही यारी, मेरी छाती पर सो गई? (सीता क तरफ
दे खते ए) यह मेरे घर क ल मी है। यह मेरी आँख म अमृत-व त है। इसका
यह अंग- पश मेरे शरीर म च दन के शीतल लेप के समान है। मेरे क ठ म पड़ा
आ इसका यह कोमल बा , मु ा-म णय के नमल हार के स श है। इसक
कौन-सी व तु मुझे य नह है। केवल इसका वरह ही मुझे परम अस है।
[ वेश करके]
तहारी दे व, उप थत आ है।
:
राम : अरे, कौन?
तहारी आपका अ तरंग सेवक मुख।
:
राम : ( दल म) अ छा वही अ तरंग काय म नयु मुख। इसे मने ाम तथा नगर-
नवा सय के बीच गु तचर- प म भेजा था। ( कट प से) उसे आने दो।
( तहारी नकल जाता है)

[ वेश करके]
मुख : ( दल म) हाय, कैसे म दे वी के स ब ध म ऐसे अ च तनीय लोकापवाद का दे व
के स मुख कथन क ँ गां अथवा मुझ अभागे का यह कत ही है।
सीता : (सपने म बड़बड़ाती है।) आयपु कहाँ हो?
राम : च -दशन के कारण उ प ई वरह-भावना ही इस अ तवदना तथा व म
बड़बड़ाने का कारण बनी है। ( नेह से सीता के अंग को पश करते ए) यह
दा प य- ेम भी या अद्भुत अनुभू त है, जो जागते-सोते सभी अव था म,
दो अ भ आ मा म सुख- ःख का साथ दे ती है, जसम दय को व ाम
ा त होता है। बुढ़ापा भी जसक सरसता का अपहरण नह कर सकता और
समय के बीतने के साथ तब ध र हत हो कर जो अ वरल ेम- वाह म
प रणत हो जाती है। सभी संसारवासी इस अ नवचनीय ान द-सहोदर
दा प य- नेह क कामना करते ह।
मुख : (समीप जाकर) जय हो महाराज क !
राम : बतलाओ, जो कुछ दे खा व सुना है।
मुख : ाम तथा नगर- नवासी, सब आपक तु त करते ह और कहते ह क आपके
गुण के कारण, हम महाराज दशरथ को भी भूल गए ह।
राम : यह तो नरथक शंसा ई। वे लोग मेरे म कसी दोष का भी नदश करते ह
जसका तकार कया जाए?
मुख : (आँसु के साथ) सु नए महाराज, (कान म) इस तरह से।
राम : आह, यह तो अ त ती व - हार है! (मू छत हो जाता है।)
मुख : महाराज आ ासन क जए।
राम : (आ त होकर) हाय, ध कार है! वैदेही का परगृह- नवास का जो कलंक उन
अद्भूत उपाय से शा त कया गया था, वह आज फर दै व वपाक से कु े के
वष के समान चार तरफ फैल गया है। तो, अब म अभागा या क ँ । (सोच
कर—क णा के साथ) अथवा यह या है! े राजा का धम तो सब तरह
जारंजन करना है। पू य पता जी ने, मुझे और अपने ाण का प र याग करते
ए, इसी धम का पालन कया। भगवान् व स जी ने भी तो ऐसा ही स दे श
अभी भेजा था।
हाय! लोक- े सूयवंशी राजा ने जस न कलंक शु राजच र को आज तक
द त रखा, उसी च र के स ब ध म, मेरे कारण, य द लोग म ऐसी षत
भावनाएँ जागृत हो गई ह , तो मुझ भा यहीन को ध कार है!
हा दे व य -पु ! हा अपने ज म से पृ वी को प व करने वाली! हा जनक-
न दनी! हा, अ न, व स , अ धती ारा श त च र वाली! हा राम क ाण!
मेरे अर यवास क य स ख! तात- ये! अ पभाषी! कैसे तु हारा, इस कार का
भीषण प रणाम होना था! तेरे कारण यह सम त व पु यमय है और तेरे स ब ध
म लोग क ऐसी अपु य उ याँ? तेरे कारण तीन लोक सनाथ ह और तू वयं
अनाथ हो कर न हो जाएगी? ( मुख के त) जाओ, ल मण को कहो—यह
नया राजा राम इस तरह आ ा दे ता है (कान म) इस तरह।
मुख हाय, अ न से प रशु दे वी के बारे म महाराज ने एक जन के वचनमा से ऐसा
: घोर न य कया है! भगवती के गभ म तो रघुकुल क प व स त त का आधान
आ है।
राम : पाप शा त हो! पाप शा त हो! जा के लोग अ य त जन ह। वह इ वाकु-वंश जो
संसार म आज तक परम वशु माना जाता था, अब भा य से न दा का पा बन
रहा है। वह जो अ न-शु का अद्भुत काय दे वी के लए कया गया, उस पर
कौन व ास करे, जब क वह सु र थान पर आ।
तो जाओ।
मुखे हा दे व! ( नकल जाता है।)
:
राम : ध कार है मुझे! म कैसा नृशंस तथा बीभ सकमा हो गया ँ। मने जस या को
शैशव से पाला-पोसा था। और जसे नेहवश अपने से कभी पृथक् नह कया था
उसे ही आज म कपट से मृ यु के मुख म डाल रहा ँ, जैसे कोई ब धक घर क मैना
को सूना गृह म भेज रहा हो।
तो या म पापी, अ पृ य अपने पश से इस दे वी को षत कर रहा ँ? (सीता का
सर उठा कर अपनी बा ख च लेता है।) अ य मु धे! मुझ जघ य कम करने वाले,
चा डाल को छोड़ो। तुम च दन क ा त से ज़हरीले फल वाले वषवृ का
आ य कर रही हो। (उठ कर) हाय! मेरे लए आज संसार नरक बन गया है, आज
राम के जीवन का योजन समा त हो गया है। अब यह लोक मेरे लए नजन वन
के समान हो गया है। संसार असार है। यह मेरा शरीर का ाय हो रहा है। म
शरणहीन ँ। या क ँ अब, या ग त है?
ःख क अनुभू त करने के लए ही, राम म चेतनता लौट आई है। मेरे ाण,
ममभेद व क ल के समान दय म गड़ गए ह और नकलते भी नह ।
हाँ माता अ ध त! भगवान व स ! राज ष व ा म ! जग पावक पावक! हे दे व
वसु धरा! हा पता जनक! हा माता कौश या! हा ये म महाराज सु ीव! सौ य
हनुमान! महोपकारी लंका धप त वभीषण! हा स ख जटा! तुम सब मुझ पातक
राम ारा ठगे गए हो, धोखा दए गए हो! मुझ रा मा कृत न ारा नाम हण कए
जाने पर भी, आप महा मा लोग पाप से षत हो जाते हो। म वह पातक ,ँ जो
अपनी छाती पर गर कर नःशंक सोई ई गृहल मीभूत य प नी को हसक
ा णय के मुख म ब ल बना कर दे ने लगा ँ; उस अपनी य प नी को जो पूण
गभ के कारण, इस समय, ःसह वेदना क अव था म है। (सीता के दोन पैर को
अपने म तक से लगा कर) यह तु हारा राम के सर पर अ तम चरण- पश है।
(रोता है।)
[नेप य म]
ा ण पर घोर अ याचार! ा ण पर घोर अ याचार!
राम : दे खो, यह या बात है?
[ फर नेप य म]
यमुना-तीर पर नवास करने वाले, उ तप या म रत ऋ षय का समुदाय-लवण
रा स से पी ड़त आ—र ा के लए आपके पास उप थत आ है।
राम : या आज भी रा स से भय बाक है? तो अभी मधुरा के इस रा मा, कु भीनसी
के पु , रा स को समूल न करने के लए श ु न को भेजता ।ँ (घूमकर और
फर लौट कर) हा दे व! या तुम इसी ग भणी अव था म चली जाओगी? भगव त
वसु धरा! अपनी नद ष पु ी जानक को दे खो। यह जनक और रघु के कुल
क समूची मंगल- वभू त है—इस पु यमयी वभू त को, हे परमपावन, दे वव दत
जन न! तुमने वयं ज म दया।
[इस तरह रोता आ चला जाता है।]
सीता हा सौ य आयपु , कहाँ हो! (एकदम उठ कर) हाय ध कार, म ः व क
: तारणा म पड़ी रही। आयपु मेरे पास नह ह। हाय ध कार, अकेली यहाँ सोई
इ छोड़ कर नाथ कह चले गए ह? अ छा उन पर ोध क ँ गी, य द उ ह दे ख
कर ोध कर सक । है कोई यहाँ?
[ वेश करके]
मुख कुमार ल मण कहते ह क “रथ तैयार है, आप आ कर उस पर बै ठए।”
:
सीता अभी आती ँ (उठ कर और घूम कर) मेरा गभ-भार हल रहा है। धीरे से चलती ँ।
:
मुख इधर से आइए आप।
:
सीता रघुकुल दे वता को नम कार हो।
:
[सब चले जाते ह।]
[ थम अंक समा त]
तीय अंक

[नेप य म]
तप वनी का वागत हो!
[तब या ी के वेष म तप वनी वेश करती है।]
तप वनी : अरे, यह तो सा ात् वनदे वी चली आ रही है? प -पु प-फल के अ य
के साथ मेरे पास ही उप थत हो रही है?
[ वेश करके]
वनदे वी : (अ य तुत करके) अ त थ का वागत हो। मेरे वन क सम त
साम ी आपके यथे छ भोगने के लए तुत है। मेरे अहोभा य ह। इस
शुभ दन, मेरे पु य के कारण आपका यहाँ समागम आ है। यह वृ
क छाया है, यह जल है, यह तप वीयो य क द-मूल-फल का भोजन
है। वे छापूवक आप सेवन कर सकती ह।
तप वनी : इस स ब ध म या कहा जाए। मेरा भी सौभा य है क आप स श
सा वी से सा ा कार आ है। साधु के न कलंक एवं वशु च र
का समु कष वणनातीत है। उनक मधुर कृ त, वनयपूण वाणी का
संयम, सहज क याणी बु , अ न दत प रचय, य और परो म
एक रस नेह—ये सभी गुण दय जीतने वाले होते ह।
[दोन बैठ जाती ह।]
वनदे वी : या म अ त थ का नाम जान सकती ँ?
तप वनी : मेरा नाम आ ेयी है।
वनदे वी : आय आ े य! आपका इधर कैसे आना आ? कस योजन से आप
द डकार य म पधारी ह।
आ ेयी : इस दे श म अग य आ द अनेक वेदा त-वे ा षगण नवास
करते ह। उ ह से वेदा त- व ा हण करने के लए म वा मी क ऋ ष
के आ म से यहाँ प ँची ।ँ
वनदे वी : जब अ य सब मु न लोग वेद-परायण के लए उसी वे ा, पुराणगु
ाचेतस ऋ ष के पास जाते ह, तो आपका उ ह छोड़ कर इधर आने
का या कारण है?
आ ेयी : वहाँ व ा ययन म महान् व न उप थत हो गया है, इस लए उस
आ म को छोड़ कर इधर आना पड़ा है।
वनदे वी व न कैसा?
:
आ ेयी उस भगवान् वा मी क को कसी दे वता ारा दो ब चे ा त ए थे, जो धमुँही
: अव था म थे और सब कार से अद्भुत थे। वे दोन ब चे न केवल उस मह ष
के, अ पतु पशु-प य के दय को भी अपने नेहपाश म बाँध लेते थे।
वनदे वी उनका नामकरण आ या नह ?
:
आ ेयी उसी दे वता ने उन दोन का नाम कुश-लव रखा और उनके अद्भुत भाव को भी
: घो षत कया।
वनदे वी वह कैसा भाव था?
:
आ ेयी उन दोन को रह यपूण जृ भका ज म स - प म ा त ए।
:
वनदे वी यह तो सचमुच आ य क बात है।
:
आ ेयी उन दोन ब च का वा मी क मु न ने माता के स श पालन-पोषण कया।
: चौलकम के उपरा त उन दोन बालक को वेद के अ त र अ य तीन
आ वी क -वाता-द डनी त- व ा का अ यास कराया गया। तदन तर गभ से
यारह वष के बाद यो चत व ध के अनुसार गु ने उनका उपनयन-सं कार
कया और उ ह वेद का अ ययन भी करा दया। इन अ त तेज वी एवं कुशा
बु छा के साथ हम जैसी म दम तय का पढ़ना अब नह हो सकता। य क,
गु समान प से ा तथा जड़ म व ा का वतरण करता है। वह उन दोन क
ान-श को न बढ़ाता है, न घटाता है। फर भी प रणाम म बड़ा अ तर पड़
जाता है। व छ म ण जस कार त ब ब के हण म समथ होती है वैसी म
आ द नह ।
वनदे वी तो यह है आपके अ ययन म व न!
:
आ ेयी और भी है।
:
वनदे वी सरा कौन-सा व न है?
:
आ ेयी एक दन एक ष म या म नान करने के लए तमसा नद पर गए। वहाँ
: उ ह ने मलकर वहार करते ए क च के जोड़े म से एक को शकारी ारा मारा
जाता आ दे खा। उस समय सहसा उनके मुख से अनु ु भ् छ द म सर वती का
इस तरह आ वभाव आ—
नह नषाद त ा को
जाओ समय शा त ।
च मथुन म एक जो
मारा काम मो हत ।।
वनदे वी व च ही यह शा से अ य छ द का नवीन अवतार आ है।
:
आ ेयी उसी समय भूतभावन भगवान् का आ वभाव आ और वे श द के
: सा ा कता ाचेतस के समीप जा कर बोले—“मह षवर! तु ह वा का
ा भाव आ है। तुम रामच रत का ा यान करो। तु ह अ ाहत यो त, आष
च ु ा त ई है। तुम आ द क व हो।” इतना कहकर भगवान् अ त हत हो गए।
तब मह ष ाचेतस ने मनु य म सव थम श द के अवतारभूत रामायण का
णयन कया।
वनदे वी इस अनुपम कृ त से संसार महाम हमामय हो गया।
:
आ ेयी इसी लए कहती ँ क वहाँ व ा ययन म महान व न उप थत हो गया है।
:
वनदे वी ठ क है।
:
आ ेयी अब म व ाम कर चुक ँ। ब हन, मुझे अग य मु न के आ म का माग तो
: बतलाओ।
वनदे वी इधर पंचवट म वेश करके इस गोदावरी के तट से चली जाओ।
:
आ ेयी (आँसू बहाते ए) यह तपोवन है? या यह पंचवट है? यह गोदावरी नद है?
: यह वण पवत है? या तुम पंचवट क वनदे वी वास ती हो?
वनदे वी हाँ, यह सब ऐसा ही है।
:
आ ेयी हा ये जानक ! यही तु हारे हाथ से बढ़ाए ए यारे वृ ह, जनका संगवश
: तुम कथन कया करती थ । आज तु हारी मृ तमा अव श रह जाने पर, ये
दखाई दे ते ए वृ तु हारा य दशन करा रहे ह।
वास ती (भय के साथ दल म) ‘ मृ त अव श ’ इसका या अ भ ाय? ( कट प म)
: आय! सीता दे वी का या अमंगल आ है?
आ ेयी केवल अमंगल ही नह , लोकापवाद भी (कान म) इस तरह।
:
वास ती हाय, यह तो भा य का दा ण हार है! (मू छत हो जाती है।)
:
आ ेयी ब हन, आ ासन करो, आ ासन करो।
:
वास ती हाय य स ख! तु हारे जीवन का यही प रणाम होना था! हाय राम, पर तु अब
: तु हारे स बोधन से या! आय आ ेयी! उस जगंल म छोड़ जाने के बाद ल मण
के लौट जाने पर, सीता का या आ—है कोई, इस स ब ध म समाचार?
आ ेयी नह , नह
:
वास ती हाय क ! आया अ धती, भगवान् व स एवं वृ ा रा नय के जीते ए रघुकुल
: म ऐसा नृशंस वृ कस तरह घ टत आ।
आ ेयी तब सब गु जन ऋ यशृंग के य म गए ए थे। ा श वष य य अब समा त
: आ है। ऋृ यशृंग ने स कार स हत गु जन को वदा कया। तब भगवती
अ धती ने कहा—“म ब से र हत अयो या म नह जाऊँगी।” राम क
माता ने इसका अनुमोदन कया। उनके अनुरोध से मह ष व स जी ने न य
कया क सब वा मी क जी के आ म म जा कर नवास कर।
वास ती अब रामभ का कैसा हाल है?
:
आ ेयी उस राजा ने राज तु अ मेध का आर भ कया है।
:
वास ती : अहह, ध कार! या उसने पुन ववाह भी कर लया है?
आ ेयी : पाप शा त! ऐसा नह ।
वा ती : तो फर य म उसक सहधमचा रणी कौन बनी?
आ ेयी : ी राम ने सीता क सुवण तमा को धम प नी बनाया।
वास ती : लोको र पु ष के च र अद्भुत होते ह। उनके च को कौन जान सकता
है, जो कभी तो व के समान कठोर होते ह और कभी फूल से भी कोमल हो
जाते ह।
आ ेयी : महाराज ने वामदे व मु न ारा द त य य अ भी छोड़ दया है। शा -
व ध अनुसार उसके र क साथ भेज दए गए ह। उन र क के अ ध ाता-
प म ल मण के पु च केतु को भी चतुरं गणी सेना स हत तथा द ा
स हत भेज दया गया है।
वास ती : (हष तथा कौतुक के आँसु के साथ) कुमार ल मण का भी पु है—यह सुन
कर म अ त आन दत अनुभव करती ँ।
आ ेयी : इसी बीच म एक ा ण अपने पु को ले कर राज ार पर प ँचा और छाती
पीट कर “ ा ण पर अ याचार हो गया!”—इस तरह च लाने लगा। उस
समय जब दयालु रामभ वचार कर रहे थे क “राजा के दोष के बना
जा क अकाल मृ यु नह हो सकती” तब अक मात् अशरी रणी वाणी
उ प ई और बोली—“श बूक नाम का शू पृ थवी पर तप या कर रहा है।
हे राम, तु ह उसका सर काट कर, इस ा ण-पु को जी वत करना होगा।”
यह सुन कर जग प त राम हाथ म तलवार ले कर, पु पक वमान पर चढ़ कर
सब दशा- व दशा म उस शू तप वी को ढूँ ढ़ने के लए नकल पड़े।
वास ती : वह धू पान करने वाला श बूक शू तो मुँह नीचा कए ए, इसी पंचवट म
तप या कर रहा है। रामभ शायद फर हमारे इस वन को अलंकृत कर।
आ य े ी: ब हन, अब म चलती ँ।
वास ती : अ छा जाओ आ ेयी! दन भी ब त चढ़ गया है। यह दे खो वृ गम के
कारण श थल ब धन वाले पु प ारा गोदावरी क अचना कर रहे ह। खुजली
करते ए हा थय के ग ड थल से रगड़े जाते ए ये वृ कस तरह काँप रहे
ह! यह दे खो, छाया म बैठे ए कौवे अपनी च च से क ड़ क वचा को
काट कर कस तरह खा रहे ह! नद -तीर पर वृ के घ सल म ये नदाघ-
पी ड़त कबूतर, मुग आ द प ी कस कार कोलाहल कर रहे ह!
[घूमकर दोन चली जाती ह।]
[दयापूवक तलवार हाथ म लए ए ीराम का वेश]
राम : हे मेरे दा हने हाथ! मृत ा ण- शशु को जी वत करने के लए इस शू
तप वी पर तलवार चलाओ। तुम उसी राम क बा हो, जसने पूण गभ से
पी ड़त सीता का नजन वन म नवासन कर दया। तु ह दया कहाँ?
( कसी तरह हार करके) तुमने राम-स श काम कर ही दया, शायद वह
ा ण-पु जी वत हो जाए।
[ वेश करके]
द पु ष जय हो महाराज क ! यमराज से भी अभयदान दे ने वाले, आपके द ड धारण
: करने पर वह ा ण- शशु पुनः जी वत हो गया है और मुझे यह ऋ ात
हो गई है। यह म श बूक आपके चरण म नम कार करता ँ। स संग त से
उ प होने वाली मृ यु भी भवसागर से पार करने वाली होती है।
राम : हम दोन ही य ह। तो तुम अपने उ तप का फल अनुभव करो। जहाँ
आन द और मोद ह और पु य वभू तयाँ सदा व मान ह—वे यो तमय,
क याणकारी वैराज नाम के वग-लोक तु ह ा त ह ।
श बूक : वा मन्! आपक कृपा क ही यह म हमा है। इसम तप या का या फल?
अथवा तप या का ही यह महान् उपकार है। जो तुम सवभूता धप त यो गय
के लए अ वेषण का वषय हो और संसार क एकमा शरण हो, वही तुम
मुझ शु का अ वेषण करते ए, सैकड़ योजन पार करके, यहां प ँचे हो—
यह मेरे तप का ही साद है, अ यथा अयो यापुरी से कहाँ तु हारा इस सु र
द डकार य म आगमन होना था।
राम : या यह द डकार य है? (सब तरफ दे ख कर) हाय, सचमुच ये द डकार य
के ही प र चत भू म-भाग दखाई दे रहे ह। हाँ, वही पहले क तरह कह पर ये
न ध और याम ह और कह खे और भीषण ह। पूववत्, ोत क झंकार
से यहाँ दशाएँ थान- थान पर मुख रत हो रही ह। इन भू म-भाग म ये तीथ,
आ म, पवत, न दयाँ उप यका और वन पहले क तरह वराजमान ह।
श बूक यह द डक वन ही है। यहाँ पहले नवास करते ए आपने यु म षण, खर तथा
: मूधा नाम के रा सराज को और उनक चौदह हज़ार क सेना को मृ यु का
ास बनाया था। जसके कारण इस स द पु य े म मुझ जैसे
जनपदवा सय को नभय हो कर तप या करने का अवसर ा त आ।
राम : यह केवल द डकार य ही नह —पंचवट भी समीप थ है।
श बूक हाँ, यह द ण दशा क तरफ, जन थान के भी व तृत अर य-भाग ह, जनके
: वकट ग र-ग र म ह पशु व ाम करते ह और जाने वाले प थक म रोमांच
पैदा करते ह। ये दे खए, इन अर य के सीमा ा त—जो कह तो सवथा न त ध
और शा त ह और कह च ड पशु क गजना से आपू रत ह; कह
वे छापूवक सोए ए, वशाल फण वाले साँप अपने फु कार से वषैली आग
उ प कर रहे ह और कह पानी सूख जाने के कारण, गुफा म बैठे ए प ी
अजगर साँप के वेद व को ही पी रहे ह।
राम : म इस जन थान को दे ख रहा ँ, जो पहले कभी खर रा सराज का नवास थान
था। म उन बीते ए वृ ा त का य प म अनुभव कर रहा ।ँ (सब तरफ
दे खकर) सीता को ये वन- दे श ब त य थे। पर तु आज यह कतने भयानक
दखाई दे रहे ह? (आँसु के साथ) यह यारी ने कहा था क “म तु हारे साथ
उन मधुर सुग ध वाले वन म र ँगी।” उसका वह अलौ कक नेह आज भी मुझे
पाशब कर रहा है।
णयी कुछ न भी करता आ सुख से ःख को तरो हत कर दे ता है।
जसका जो ेमी जन है, वह उसका कोई अनुपम धन है।
श बूक इन ःसह मृ तय को छो ड़ए। अब आप इन शा त एवं ग भीर महार य क
: तरफ डा लए जनके पय त भाग नृ यो म मयूर के क ठ के स श कोमल
छ व वाले ह, जो घनी नीली छाया से यु त रा जय से म डत ह और जहाँ
ह पशु व ाम कर रहे ह। दे खए, ये मृगयूथ उ ह दे ख कर भी अस ा त भाव
से वचरण कर रहे ह।
यहाँ दे खए, कैसी सु दर न दयाँ बह रही ह, जनके शीतल- व छ जल म त
प य से क पत वानीर वृ के फूल से सुग धत हो रहे ह और जनके ोत
ज बू- नकुंज से गरते ए जामुन फल के कारण श दायमान हो रहे ह।
यहाँ पर गुफा म बैठे ए भालु क थूकने क आवाज त व न के कारण
गु णत हो रही है। यहाँ हा थय से लताड़ी ई स लक लता का श शर एवं
कटु ग ध फैलता आ अनुभूत होता है।
राम : (आँ को रोकते ए) य भाई! तु हारे लए दे वता के माग क याणकारी
ह । तुम पु यलोक म जा कर लीन हो जाओ।
श बूक म पुराण- ष अग य जी का अ भवादन करके उस शा त पद म वेश करता
: ँ। (चला जाता है।)
राम : आज इस वन का कैसा पुनदशन आ, जसम पहले वस त चरकाल तक ठहरा
रहता था। यहाँ अर यवासी एवं गृही लोग अपने-अपने धम का आचरण करते ए
रहते थे। हम भी यहाँ साँसा रक सुख का रस हण करते ए आन द से समय
बताते थे।
ये वही पवत ह जहाँ मोर केकारव से उ म हो कर नृ य करते थे। ये वही
वन थल ह जहाँ ह रण नभय हो कर वहार करते थे। ये वही नद -तीर ह जहाँ
घने-घने नीप और नबुल के वृ वराजमान थे और जहाँ मंजुल वृ पर प ी
चहचहाते थे।
यह जो समीप हो मेघमाला के समान दखाई दे रहा है, वह वण नाम का पवत
है जहाँ गोदावरी नद बहती है।
इसी वण पवत के शखर पर गृ राज जटायु का नवास था। इसक तलहट
म हम पणकुट बना कर रहते थे। इसके रमणीय वन म वहग-वृ द कलरव कया
करते थे। यहाँ गोदावरी के जल म पड़ती ई वशाल वृ क यामल छाया
आँख को कैसी यारी लगती थी!
यह पर वह पंचवट थी, जहाँ हमने चरकाल तक नवास कया था और जहाँ
हमारे व वध नेह- संग के सा ी थे ये दे श और या क वह य सखी, वन
क दे वी वास ती। आज राम को या हो रहा है? अब तो मानो कोई ती वषरस
चरकाल के बाद फर उठ कर मेरे सारे शरीर म वेग से ा त हो रहा है। कोई
क ल का टु कड़ा कह से फका आ मानो मेरे मम- थल को काट रहा है। मानो,
मेरे दय म कोई ण पक कर फट गया है। पहले अनुभव कया आ शोक आज
नूतन बन कर मुझे अ य त ाकुल कर रहा है।
आज पूव प र चत म के समान इन भू म-भाग को दे ख रहा ँ। (दे ख कर)
अहो, पदाथ क थ त म कतना प रवतन हो गया है? पहले जहाँ नद का ोत
बहता था वहाँ अब थल दखाई दे रहा है। वृ का घन- वरल भाव भी वपरीत
हो गया है। ब त समय के बाद दे खने से यह वन कोई सरा ही वन तीत होता
है। केवल पवत क पूववत थ त ही यह व ास दलाती है क यह वही थान
है।
हाय, न चाहते ए भी पंचवट बलपूवक अपने नेहपाश म आक षत कर रही है।
(क णा के साथ)
जस पंचवट म मने उसके साथ वे दन तीत कए, जैसे अपने घर म; और
जहाँ पंचवट क रमणीयता क ल बी चचा करते ए हम दोन बैठे रहते थे,
अपनी यतमा का नाश करके पापी राम अकेला आज उसी पंचवट म कैसे
वेश कर सकता है अथवा उसका स कार कए बना भी कैसे चला जा सकता
है?
[ वेश करके]
श बूक जय हो महाराज क ! दे व, मेरे से आपके यहाँ समीप होने को सुनकर, भगवान्
: अग य ने आपसे कहा है—“मेरी प नी लोपामु ा नीराजना- व ध समा त करके
तथा अ य सब मह ष लोग व स क ती ा कर रहे ह। तो ज द आओ और
अपने दशन दे कर हम स मा नत करो। फर ती ग त वाले पु पक वमान से
वदे श लौट कर अ मेध य क तैयारी करो।”
राम : जैसी भगवान् आ ा दे ते ह।
श बूक इधर आइए, इधर आइए, महाराज।
:
राम : (राम पु पक को घुमाते ए) भगवती पंचवट । गु जन क आ ा के अनुरोध से
णभर के लए जा रहा ।ँ राम का यह अ त म मा करना।
श बूक महाराज, दे खए, वह क च नाम का पवत है। इसके गूँजते ए कुंज के कुट र पर
: बैठे ए उन उलूक-पं य को दे खए, जनके घु कार को सुन कर भयभीत ए
कौवे बाँस वृ पर मौन हो कर बैठे ह। इस पवत पर नृ य करते ए उन मयूर
को भी दे खए जनके केकारव को सुन कर च दन वृ पर लपटे ए साँप
उ नता से क पत हो रहे ह।
इधर दे खए, द ण दशा के पवत को भी, जनक गुफा म से गोदावरी नद
के जल गद्गद करते ए बह रहे ह। पवत के वे शखर मँडराते ए बादल क
नी लमा से कैसे सु दर दखाई दे रहे ह। न दय के उस रमणीय संगम पर भी
पात क जए, जहाँ ग भीर एवं प व जल, पर पर टकराती ई लहर के
कारण कोलाहल करते ए, ऊपर उछल रहे ह।।
[सब चले जाते ह।]
[ तीय अंक समा त]
तृतीय अंक

[दो न दय का वेश]
एक : स ख मुरले! सं ा त-सी य दखाई दे ती हो?
मुरला : स ख तमसे! भगवान् अग य क प नी लोपामु ा ने मुझे गोदावरी दे वी
के पास यह स दे श दे ने के लए भेजा है क “तुम जानती ही हो क
जब से ीराम ने सीता का प र याग कया है तब से उनके दय म
पुटपाक के स श था का ऐसा पुंज एक त हो गया है क वह बाहर
अभ न होने के कारण अ दर-ही-अ दर उ ह घुन क तरह खाए
जा रहा है। वैसी अपनी यारी सीता के ःख से उ प ए शोका तशय
से अब ीराम इतने ीण तथा बल हो गए ह क उ ह दे ख कर मेरा
कोमल दय क पत हो गया है। अब रामभ लौटते ए पंचवट
आएँगे और वह अपनी या के नेह के सा ीभूत दे श का अव य
दशन करगे। य प राम वभाव से धीर ह तथा प अपनी वतमान
अव था म अ य त व ु ध होने के कारण स भव है कसी घटना से
त हो जाएँ अतः भगवती गोदावरी! आपको उनके स ब ध म
सावधान हो कर रहना चा हए। य द कसी समय ीराम शोकवश
न ेतन हो जाएँ तो आप उ ह अपनी तरंग के शीकर से शीतल और
प केसर के सुग ध से सुग धत पवन ारा पुनः सचेतन कर दे ना।”
तमसा : यह नेह के सवथा अनुकूल ही है। पर तु रामभ के संजीवन का
उपाय तो मूल प म ही समीप थत है।
मुरला : वह कैसे?
तमसा : तो सुनो सब। जब ल मण वा मी क मु न के तपोवन के पास सीता का
प र याग करके लौट गए तब सीता दे वी ने सव-वेदना क पीड़ा को
सहन न कर सकने के कारण, ःखा भभूत हो कर अपने को गंगा के
वाह म फक दया। उसी समय दो ब च क उ प ई। त काल
भगवती भागीरथी और पृ वी माता ने उन दोन ब च को और सीता
को अपनी गोद म हण कर लया और उ ह पाताल-दे श म प ँचा
दया। जब दोन ब च ने त य पान छोड़ा, उ ह ले कर गंगा दे वी ने
वयं मह ष वा मी क को अ पत कर दया।
मुरला : (आ य के साथ) ऐसी आलौ कक वभू तय का वपाक भी परम
अद्भुत होता है, जहाँ इस कार क द श य को भी उपकरण
बनने के लए वयं उप थत होना पड़ता है।
तमसा : अब सरयू के मुख से यह सुन करके क ीराम श बूक का उ ार
करके पंचवट प ँचे ह, भगवती भागीरथी नेहवश वही शंका करती
ई जसे लोपामु ा ने कया है, वयं सीता को ले कर गोदावरी के
समीप आ गई ह।
मुरला : भगवती भागीरथी ने अ छा ही वचार कया है। रा य- सहासन पर
बैठे ए तो लोक-क याण-काय म त रहने के कारण ीराम को
च - व ेप का कम ही अवकाश ा त होता है। पर तु यहाँ सवथा
अ होने के कारण केवल शोक के साथ होने से उनका पंचवट म
वेश करना महान् अनथ का हेतु होगा। तो दे वी सीता रामभ का
आ ासन कैसे कर सकेगी?
तमसा : भगवती भागीरथी ने इस तरह कहा है—“व से य -पु ी सीता! आज
आयु मान् कुश-लव के ज म क बारहव वषगाँठ है। तो तुम अपने
पुराण सुरभूत, सूयवंश के सं थापक, पाप यकारी भगवान् आ द य
क अपने हाथ से चुने ए पु पोपहार ारा पूजा करो। पृ वी पर
वचरण करती ई तु ह हमारे भाव से वनदे वता भी नह दे ख सकगे,
मनु य का तो या कहना।” मुझे भी भगवती भागीरथी ने आ ा द है
क “तमसे! वधू जानक का तुमसे अ य त नेह है अतः तुम ही इसके
अ त समीप हो कर रहो।” तो म अब जैसी आ ा ई है तदनुसार
आचरण करती ँ।
मुरला : म भी इस वृ ा त को लोपामु ा से जा कर कहती ।ँ म समझती ँ क
रामभ भी इस वन म अब प ँच चुके ह।
तमसा : यह दे खो, सीता भी गोदावरी के जलाशय से नकल कर इसी वन क
तरफ चली आ रही है। दे वी सा ात् क णा क मू त एवं वरह- था
क तमा दखाई दे रही है। हाय, इसका मुख कतना बल और
पीला हो रहा है, य प कपोल पर लाव य पूववत् व मान है। खुले
ए केश इसके मुख क आभा को और भी अ धक क णाजनक बना
रहे ह।
मुरला : यह है वह। इसके कृश एवं पा डु र शरीर को, जो ब धन से टू टे
कसलय से भी अ धक कोमल है, दय-कुसुम को सुखा दे ने वाला
दा ण शोक इस तरह का तहीन कर रहा है, जैसे शरद्ऋतु का ताप
केतक के प को झुलसा दे ता है।
[घूम कर दोन चली जाती ह।]
[नेप य म]
अनथ हो गया, अनथ हो गया!
[तब फूल के चुनने म क णा और उ सुकता से श द को सुनती ई
सीता व होती है।]
सीता ओ हो! समझी, य सखी वास ती बोल रही है।
:
[ फर नेप य म]
जो हाथी का ब चा सीता दे वी से वयं हाथ ारा स लक -प खला कर पहले
बड़ा कया गया था...
सीता उसका या आ?
:
[ फर नेप य म]
वह अपनी ब के साथ, पानी म वहार करता आ कसी अ य दप म हाथी
ारा हमला करके घेर लया गया है।
सीता ( ाकुलता से कुछ कदम चल कर) हे आयपु ! र ा करो, र ा करो मेरे उस पु
: क । हाय ध कार, पंचवट के दशन से वही चरप र चत अ र मुझ म दभा गनी
के मुख पर आ रहे ह। हा आयपु !
[ वेश करके]
तमसा आ ासन करो।
:
[नेप य म]
वमानराज, यह ठहर जाओ।
सीता (आ त हो कर भय और उ लास के साथ) अरे, यह जल से भरे बादल क
: गजना क तरह ग भीर श द कहाँ से आ रहा है, जो मुझ म दभा गनी के मृत ाय
कान को भी उ सुक कर रहा है?
तमसा (मु कुराहट तथा ःख के साथ) अ य व से! कह से आते ए अ प व न वाले
: श द को सुन कर तुम ऐसी च कत और उ क ठत हो कर खड़ी हो गई हो, जैसे
मोरनी गजते बादल को सुन कर त भत हो जाती है।
सीता भगवती! या कहती हो, ‘अ प श द’? वर-संयोग से म तो जानती ँ क यह
: न य से आयपु क ही वाणी है।
तमसा सुना है तप या करने वाले शू को द ड दे ने के लए इ वाकुराज इधर द डकार य
: म आए ए ह।
सीता सौभा य से महाराज धम-पालन म सतत ह।
:
[नेप य म]
ये गोदावरी के तट पर पवत क उप यकाएँ ह जहाँ वृ और ह रण मेरे ब धु के
समान थे, और जहाँ म यारी के साथ चरकाल तक रहा था। इन उप यका के
बहते ए नझर और क दराएँ कैसी सु दर दखाई दे रही ह?
सीता (दे ख कर) यह या, आयपु का चेहरा भातकालीन च मा के समान कैसा
: पीला, ीण एवं बल दखाई दे रहा है। इ ह पहचानना तक क ठन हो रहा है।
इनक सौ य आकृ त अपने ग भीर अनुभवमा से ल त हो रही है। भगवती
तमसे! मुझे धारण करो।
तमसा व से! आ ासन करो, आ ासन करो।
:
[नेप य म]
इस पंचवट के दशन से मेरे अ ततम म लीन स तापा न आज च ड प म
व लत हो रही है और धूमपुंज के समान मोह तो पहले ही मुझे सब तरफ से
आवृत कर रहा है। हा ये जान क!
तमसा ( दल मे) गु जन ने इसक आशंका क थी।
:
सीता (आ त हो कर) हाय, यह या?
:
[ फर नेप य म]
हा दे व! द डकार य म नवास क य स ख! वदे ह-पु ी!
[मू छत हो जाता है।]
सीता हाय ध कार! मुझ म दभा गनी को स बो धत करके आयपु अपने नील कमल-
: स श ने को ब द करके मू छत हो गए। हा! पृ वी पर ासहीन हो कर गर
गए! भगवती तमसे, र ा करो। आयपु को जी वत करो।
तमसा हे क याणी! तुम वयं ही जग प त को संजी वत करो। तु हारे हाथ का पश उसे
: परम य है। उसी म यह ेमी नरत है।
सीता अ छा ऐसा ही हो; जैसी भगवती क आ ा।
:
[शी ता से जाती है।]
[राम पृ वी पर पड़े ए ह, सीता आँसू बहाती ई उ ह पश करती है और
राम ास लेना आर भ करते ह।]
सीता (कुछ हष के साथ) जानती ँ लोक का जीवन पुनः लौट आया है।
:
राम : यह या? मुझे अपने शरीर म ह रच दन के प लव का-सा रस बहता आ
अनुभव हो रहा है, च करण का शीतल सचन अंग-अंग म होता आ तीत
होता है और दय म संजीवनी औष ध का लेप-सा होता आ दखाई दे ता है,
जससे मेरी आ मा प रतृ त हो रही है! न य से यह वही पुराना प र चत पश है
जो मुझे पुनः जीवन दान कर रहा है और मन म परम स तोष उ प कर रहा है।
यह पश स तापज य मेरी मू छा को शी र करके आह्लाद ारा अ नवचनीय
ाशू यता को मेरे म उ प कर रहा है।
सीता (भय तथा क णा के साथ, पास जा कर) इतना ही मेरे लए ब त है।
:
राम : (उठकर बैठ जाता है।) कह यारी सीता तो मेरे पास नह आ गई।
सीता हाय ध कार! या आयपु मेरी न दा करगे।
:
राम : अ छा, दे खता ।ँ
सीता भगवती तमसे! चलो, हट जाएँ यहाँ से। मुझे दे ख कर, बना आ ा उनके पास मेरे
: आने पर, राजा ोध करगे।
तमसा यारी, च ता मत करो; भगवती भागीरथी क कृपा से तुम वनदे वता के लए
: भी अ य हो गई हो।
सीता या ऐसा है?
:
राम : हाँ य जानक !
सीता (भय से गद्गद होते ए) आयपु , प र याग करने के बाद तु हारा मुझे ‘ य’
: स बो धत करना उ चत नह है। (आँसु के साथ) पर तु भगवती! या म
ाणनाथ के त व मय बन जाऊँ? म उनके त नदय नह हो सकती।
ज मातर म भी इनका दशन मुझे लभ होगा। जस तरह आज आयपु मुझ
म दभा गनी के लए ेम- व ल हो कर वलाप कर रहे ह—मुझे भी मु क ठ से
क दन करना चा हए। म ही इनके दय को जानती ँ और वे मेरे दय को जानते
ह।
राम : (सब तरफ दे ख कर, नवद के साथ) हाय, यहाँ तो कुछ नह ।
सीता भगवती! न कारण भी प र याग करने वाले आयपु के दशन से मेरी कैसी
: अव था हो रही है?
तमसा यारी, म सब जानती ँ। तु हारा दय इस समय नराशा के कारण तट थ, घोर
: अपमान के कारण उ े जत, इस द घ वयोग म ाण य के आक मक
स मलन के कारण त भत, अपने वभाव-सुलभ सौज य के कारण कृ त थ,
राम क क याणपूण अव था के कारण क णा एवं ेम के कारण वीभूत हो
रहा है।
राम : दे वी, तु हारा नेह-सा , शीतल- पश मू तमान् अनु ह बन कर आज मुझे
आन दत कर रहा है। पर तु यारी, तुम कहाँ हो?
सीता आयपु का यह वलाप कैसा अमृतमय है? कस कार अगाध मान सक नेह का
: दशन करने वाला है और केसी आन द-धारा को वा हत कर रहा है! न कारण
प र याग से छलनी आ- आ भी मेरा दय इस वलाप को सुन कर परम स तोष
का अनुभव कर रहा है।
राम : अथवा यतमा कहाँ? उसका पश केवल म है, तारणा है—संक प का
उ माद मा है।
[नेप य म]
अहो बड़ा अनथ हो गया, अनथ हो गया!
जो हाथी का ब चा सीता दे वी से वयं हाथ ारा पहले स लक -प खला कर
बड़ा कया गया था...
राम : (क णा और उ सुकता के साथ) उसका या आ?
[ फर नेप य म]
वह अपनी ब के साथ पानी म वहार करता आ कसी अ य दप म हाथी
ारा हमला करके घेर लया गया है।
सीता अब कौन उसक र ा करेगा?
:
राम : कहाँ है वहहाथी, जो यारी के पु पर हमला कर रहा है?
[ वेश करके]
वास ती (स ा त ई-सी) महाराज ज द चलो।
:
सीता : हाय, यह तो मेरी य सखी वास ती है!
राम : दे वी क य सखी वास ती यहाँ कैसे?
वास ती दे व, ज द चलो, ज द चलो। इधर, जटायु- शखर क द ण तरफ सीता तीथ
: ारा गोदावरी म उतर कर आप दे वी के पु क र ा क जए।
सीता : हा तात जटायु! यह पंचवट वन तु हारे बना सूना दखाई दे ता है।
राम : हाय, ये पुरातन मृ तयाँ दय के मम थल को छे दने वाली ह।
वास ती महाराज, इधर आइए।
:
सीता : सचमुच, वनदे वी भी मुझे नह दे ख रही।
तमसा : यारी, भगवती भागीरथी का ऐ य कृ तम है, तो य शंका करती हो?
सीता : चलो, हम इनका अनुसरण कर।
राम : भगवती गोदावरी! आपको मेरा नम कार है।
वास ती (दे ख कर) महाराज, बधाई हो। दे वी का यह पु वजयी हो गया है।
:
राम : यह आयु मान् सदा वजयी रहे।
सीता : अहो, मेरा पु इतना बड़ा हो गया है?
राम : दे व, बधाई हो। जो तु हारा पु बचपन म अपने कोमल-कोमल नए द तांकुर
ारा तु हारे कणाभूषण से लवली-प लव को ख च लया करता था, आज वही
म दोम हा थय का वजेता बन गया है और त णाव था के क याण का पा
हो गया है।
सीता : चरंजीव, अब इस सौ य दशन वाली अपनी वधू से सदा अ वयु रहो।
राम : स ख वास ती! दे खो-दे खो, इस ब चे ने का ता को स करने क चतुरता को
भी सीख लया है। दे खो। यह कमल-प को खेल-खेल म उखाड़ कर, उनम
सूँड ारा पु प से सुग धत जल को प नी के लए भर रहा है। फर उस जल से
यु सूँड से उसे नान करा रहा है। तद तर ेमवश कमल-प के आतप को
बनाकर उस पर छाया कर रहा है।
सीता : भगवती तमसा! यह तो इतना बड़ा हो गया है। वे दोन कुश-लव, म नह जानती,
इस समय तक कतने बड़े हो गए ह गे।
तमसा : जतना बड़ा यह है, उतने वे दोन हो गए ह गे।
सीता : म ऐसी म दभा गनी ँ, जसे न केवल आयपु का वरह है, अ पतु पु का भी
वरह है।
तमसा : भ वत ता है।
सीता : उन पु को मेरे ज म दे ने का या लाभ आ, जनके मृ ल दशन-कुड् मल वाले
मधुर-अ फुट प से तुतलाते ए न य उ वल-मुख-कमल को, आयपु ने
नह चूमा।
तमसा : दे वता के साद से ऐसा हो गया।
सीता : भगवती तमसा, इस अप य सं मरण से अब मेरे तन से ध बहने लगा है और
ब च के पता के समीप होने पर म पुनः संसार म आई ई अपने को अनुभव
कर रही ँ।
तमसा : इस स ब ध म या कहा जाए? स तान नेह क पराका ा है। यह माता- पता
को पर पर सं करने वाली अ व छे थ है। अप य वह आन द- थ है,
जो द प त के अ तःकरण-त व को नेह-ब धन म बाँध दे ती है।
वास ती इधर भी आप दे खए। यह मोर अपनी वधू के साथ मुकुट क तरह शखा ऊँची
: करके, कद ब वृ पर नृ य कर रहा है, जसे य सखी सीता ने वयं त दन
बढ़ाया था। इसके पँख तब नए-नए ही नकले थे।
सीता : (कौतुक तथा नेहा ु के साथ) यह है वह।
राम : सान द रहो व स! आज हमारी वृ ई।
सीता : व तुतः ऐसा ही है।
राम : पु ! म तु ह अ छ तरह मरण करता ँ; जब तु ह यारी सीता, घूमती ई,
अपनी आँख को म डलाकार बना कर, चंचल ू-लता के इशार से, और
हाथ से ताली बजाती ई नृ य कराया करती थी। हाय, ये प ी भी नेह-स ब ध
क कस तरह र ा करते ह। इस कद ब वृ क , कुछ फूल के अंकुर फूटने के
बाद से, यतमा सीता ने पालना क थी...
सीता : (आँसु के साथ) आयपु ने ठ क पहचाना है।
राम : यह पवत का मोर इस वृ को दे वी के वजन- प म मरण करता आ, इस पर
मोद कर रहा है।
वास ती दे व यहाँ पर आसन हण कर।
:
[राम बैठ जाता है।]
वास ती यह वह शला-तल है, जस पर आप या के साथ बैठा करते थे। इस घने
: कदली-वन के म य म यह पूववत् व मान है। इसी पर बैठ कर सीता व य मृग
को घास खलाया करती थी और वे मृग नेहवश उसका साथ नह छोड़ते थे।
राम : इसे दे खना अस है। ( सरी तरफ मुँह करके रोता है)
सीता : स ख वास ती! यह तुमने या कया, आयपु को और मुझे तुमने य इस थान
का दशन कराया? हाय ध कार है। यह वही पंचवट वन है। वही य सखी
वास ती है। ये वही गोदावरी-तट के वन- दे श ह, ज ह ने हमारी णय-लीला
का सा य कया था। ये वही पूवप र चत हरण, प ी और वृ ह। पर तु ये सब
दखाई दे ते ए भी मुझ म दभा गनी के लए न होने के समान ह। मेरे लए सारा
संसार ही अभावमय हो गया है।
वास ती स ख सीते! रामभ क इस अव था को य नह दे खती? जो राम अपने
: कमल-स श कोमल अंग से हमारे नयनो सव को कया करता था और जो
नर तर दे खे जाने पर भी सदा नूतन ही तीत होता था, वह आज शोक के
कारण बल और पा डु छाया वाला आ- आ, शू य च ु स हत,
अनुमानमा से पहचाना जा रहा है। इस कृश- ीण अव था म भी यह कैसा
यारा लग रहा है?
सीता : स ख! म दे ख रही ँ।
तमसा : दे खो-दे खो। य को बार बार दे खो।
सीता : हा दै व! यह कसने स भावना क थी क यह मेरे बना और म इनके बना कभी
रह सकूँगी। तो णभर म वा प- वाह के बीच म ज म-ज मा तर म लभ दशन
वाले आयपु को आँख भर कर दे ख लेती ँ।
तमसा : (आ लगन करके, आँसु के साथ) स ख! यह तु हारी, आन द और शोक के
अ ु बहाती ई नेह- न प दनी ध-कु या के समान धवलता और
मधुरता से दयेश को न पत कर रही है। यह प मल और उ ान होती ई
कतने मु ध भाव से यतम को दे ख रही है।
वास ती आज ीराम वयं फर इस वन म आए ह। वृ ो! तुम पु प -फल और मधु ारा
: उ ह अ य दान करो। वन-पवन ! वक सत कमल का आमोद ले कर तुम
उनका वागत करो। प यो! तुम अनुरागमय क ठ ारा अ वरल मधुर गान
करो।
राम : आओ, स ख वास ती! इधर बैठ।
वास ती (बैठ कर, आँसु के साथ) कुमार ल मण तो कुशलपूवक ह?
:
राम : (अनसुनी करते ए) जन वृ , प य और ह रण का मै थली ने अपने हाथ
ारा जल, नीवार और श प दे कर पोषण कया था, उ ह दे ख कर मेरे च म
ऐसा कोई वकार उ प हो रहा है क मानो दय ही व बन कर बाहर नकल
रहा हो।
वास ती महाराज, म पूछती ँ क कुमार ल मण तो कुशलपूवक ह?
:
राम : ( दल म) ‘महाराज’! यह तो ेमशू य स बोधन है। केवल सौ म का ही कुशल
पूछा है और फर आँसु से इसक आँख भर गई ह। ऐसा तीत होता है क
इसे सीता का वृ ा त व दत हो चुका है। ( कट प म) हाँ, कुमार ल मण
कुशलपूवक ह।
वास ती (रोती है।) दे व, तुम अ त न ु र हो।
:
सीता : स ख वास ती! या तुम भी ऐसा ही मानती हो, आयपु तो सबके लए पूजाह
ह, वशेषतः तु हारे लए।
वास ती “तुम मेरा जीवन हो, तुम मेरा सरा दय हो, तुम मेरी आँख क चाँदनी हो, तुम
: मेरे अंग म अमृत हो” इ या द सैकड़ यारी बात से उस भोली सीता को बहका
करके फर तुमने उस भोलीभाली के साथ या कया? बस इस स ब ध म शा त
रहना ही उ चत है, अ धक कहने से या!
[मू छत हो जाती है।]
तमसा : वास ती क थान पर वा य- नवृ तथा मू छा ई है।
राम : स ख, आ ासन करो, आ ासन करो।
वास ती (आ त हो कर) आपने ऐसा अकाय य कया?
:
सीता : स ख वास ती, क जाओ।
राम : लोग नह सहन करते।
वास ती कस कारण?
:
राम : वही जानते ह क या कारण है?
तमसा : दे र के बाद यह उपाल भ दया गया है।
:
वास ती न ु र राम! य द तु ह यश ही यारा था, तो इससे बढ़ कर और या घोर अपयश
: हो सकता है? नाथ, कहो, उस मृगनयनी का जंगल म या आ होगा? तु हारा
या अनुमान है?
सीता : स ख वास ती! तुम कतनी दा ण और कठोर हो जो वलाप करते ए आयपु
को इस तरह अ धक ला रही हो।
तमसा : णय एवं शोक ही उससे ऐसा करा रहा है।
राम : स ख, मेरा या अनुमान है? म समझता ँ, मृगशावक के स श उ वल आँख
वाली, गभ-भार से थक कर गरी ई बचारी सीता का यो नामय, मृ मृणाल-
क प शरीर हसक जीव ने जंगल म अव य समा त कर दया होगा।
सीता : आयपु ! नह -नह , म अभी जी वत ँ। यह अभा गन अभी ाण धारण कए
ए है।
राम : हा य जानक , कहाँ हो!
सीता : हाय ध कार! आयपु तो सामा य जन के समान मु क ठ से वलाप कर रहे
ह!
तमसा : व से! यह उ चत ही है। ः खत य को ःख नवारण इसी तरह करना
होता है। जलाशय म अ धक जल भर जाने पर, उसका वाह कर दे ना ही
तकार होता है एवं शोक से दय के अ त ु ध होने पर, आँसू बहा कर ही उसे
शा त कया जा सकता है। वशेषतया रामभ के लए यह संसार अ त क दायी
है। उसे नी त के अनुसार धमत पर हो कर इस व क पालना करनी है। उस
पर यारी का शोक उसके कोमल च को इस तरह झुलसा रहा है, जैसे घाम
फूल को झुलसा दे ता है। या का प र याग उसने वयं कया इस लए वलाप
करना भी उसके लए क ठन है। आज रामभ को रोने का इस वन म अवसर
ा त होना लाभकारी ही है, इस कारण ाण धारण करना तो स भव होगा।
राम : हाय कतना क है। शोको े ग से मेरा दय फटा जा रहा है, पर तु दो टु कड़े नह
होता। मेरा शरीर मोह के कारण अ य त वकल हो रहा है, पर तु चेतनता-शू य
नह होता। अ दर-अ दर जलती ई आग मेरे अंग को द ध कर रही है, पर तु
पूणतया भ मसात् नह करती। दव मेरे मम थल पर हार कर रहा है। पर तु
जीवन-त तु को काट नह दे ता।
हे नगर- नवा सयो! य द सीता दे वी का घर म रहना तु ह अभी नह था, जब
मने उसे तृण-समान नजन वन म छोड़ दया तो तुमने उसके लए एक आँसू तक
नह बहाया; आज यारी के ये चरप र चत थान मेरे दय को वत कर रहे ह;
म अशरण हो कर वलाप कर रहा ँ—तुम स रहो।
वास ती ( दल म) शोक का यह अ त ग भीर उद्गार है। ( कट प म) दे व! वगत पर
: शोक करना वृथा है, धैय का अवल बन क जए।
राम : या कहती हो, धैय? आज संसार को दे वी से शू य ए- ए, बारह वष तीत हो
गए। उस बेचारी का नाम भी लु त हो गया, पर तु ऐसा नह क राम जी वत नह
है।
सीता : आयपु के इन य वचन से म म मु ध एवं खोई ई-सी अनुभव करती ँ।
तमसा : ऐसा ही है, व से, ये य वचन व तुतः नेहा पर तु अ त न ु र ह। ये वे मधु
धाराएँ बह रही ह, जो वष से भरी ई ह।
राम : स ख वास ती! जैसे लोहे का क ल तरछा छाती म खुब गया हो अथवा वषैला
दाँत अ दर गड़ गया हो, वैसे ही दय को छे दता आ और मम थल को काटता
आ ती शोक-शंकु या मने सहन नह कया?
सीता : म अब भी कतनी म दभा गनी ँ, जो आयपु के इस अस शोक का कारण
बन रही ँ।
राम : म अपने अ तःकरण के व ोभ का कतना भी संवरण कर रहा ,ँ पर तु आज
इन पूवप र चत व तु के पुनदशन से मुझे यह आवेग अ नवाय हो रहा है।
मयादा को तोड़ कर उमड़ते ए क णा- वाह के इस आवेग को रोकने के लए
जतना भी म य न करता ँ, उतना ही कोई चेतो वकार मेरे अ ततम को चीर
कर बाहर नकल आता है, जैसे जल का वाह रेतीले बा ध को चीर कर बाहर
नकल जाता है।
सीता : आयपु के इस दा ण ःख को दे ख कर मेरा अपना ःख न हो गया है और
मेरा दय न ेतन हो कर फटा जा रहा है।
वास ती ( दल म) हाय, ीराम अ य त शोकम न हो गए ह। ( कट प म) आप अब
: इधर अपनी चरप र चत पंचवट क इन व तृत भू मय को भी दे खए।
राम : हाँ, दे खता ँ। उठ कर घूमता है।
सीता : वास ती का यह दल बहलाने का उपाय, म समझती ,ँ ःख को अ धक
भड़काने वाला होगा।
वास ती हे दे व! यहाँ इस लता-गृह म तुम सीता क राह दे खते ए बैठे होते थे; जब वह
: गोदावरी-तीर पर हँस के साथ खेलती ई आने म दे र कर दे ती थी। आने पर वह
सीता, तु हारे मुख पर रोष क रेखा को दे खने के साथ ही, कातरतावश अपने
भोले कमल-कुड् मल-स श कर-युगल जोड़ दे ती थी और मा माँगती थी।
सीता : वास ती! तुम अ त न ु र हो जो इस कार ममभेद दय ावक वचन ारा मुझ
म दभा गनी का मरण आयपु को करा रही हो।
राम : अ य च ड जानक ! इधर-उधर दखाई दे रही हो, पर तु मेरे पर अनुक पा य
नही करती? हाय दे वी, मेरा दय फट रहा है, शरीर व त हो रहा है। मुझे सारा
जगत् सूना दखाई दे रहा है। म अ दर-ही-अ दर अ वरल वाला से जला जा
रहा ।ँ मेरी व ल आ मा घोर अ धकार म डू बी जा रही है। मू छा मुझे चार
तरफ से घेर रही है, हाय म अभागा या क ँ ?
[मू छत हो जाता है।]
सीता : हाय ध कार! फर आयपु मू छत हो गए।
वास ती दे व आ ासन क जए, आ ासन क जए।
:
सीता : आयपु ! मुझ म दभा गनी के कारण आपका जीवन, जो सम त व के
क याण के लए ा भूत आ है, इस तरह से संशय म पड़ गया है। हाय म मारी
गई। (मू छत हो जाती है)
तमसा : व से! आ ासन करो, आ ासन करो। फर तु हारा पा ण पश ही रामभ के
जीवन का एकमा उपाय है।
वास ती या अभी तक होश म नह आए। य स ख सीते! कहाँ हो, अपने ाणे र को
: पुनज वत करो।
[सीता ज द से समीप जाकर दय और म तक पर पश करती है।]
वास ती सौभा य से रामभ फर होश म आ गए ह।
:
राम : अहा, यह कैसा पश है जो मुझे अक मात् पुनज वत कर रहा है और अमृतमय
लेप ारा मेरे सम त शरीर को अ दर तथा बाहर ल त कर रहा है! यह पश तो
आन दा तरेक से मुझे फर मू छत कर रहा है। (आन द के साथ आँख खोल
कर) स ख वास ती, बधाई हो।
वास ती दे व, कैसी बधाई?
:
राम : स ख! और या? फर जानक मल गई।
वास ती दे व रामभ , वह कहाँ?
:
राम : ( पश-सुख का अ भनय करते ए) दे खो, यह सामने ही तो है।
वास ती दे व रामभ ! य मम छे द , दा ण लाप ारा य सखी क वप के ःख
: से जली ई मुझ म दभा गनी को तुम फर जलाते हो।
सीता : म हटना चाहती ँ। पर तु यह या, मेरा हाथ आयपु के पश से पकड़ा-सा
गया है और अपने थान से वच लत नह होता। यह पश चर नेह-स भार से
कतना शीतल है और मेरे द घ एवं दा ण स ताप को झट से हलका कर रहा है।
हाय, मेरा हाथ व से ता ड़त आ न े हो रहा है।
राम : स ख! यह लाप कैसा? जो हाथ, कंकण को धारण कया आ, मने ववाह-
सं कार के समय हण कया था और जो च मा क अमृत- श शर करण के
समान शीतल था...
सीता : आयपु अभी तो तुम वही हो।
राम : वही, ब कुल वही! लवली-लता के स श कोमल हाथ, मुझे अभी ा त आ है।
(पकड़ता है।)
सीता : हाय ध कार! आयपु के पश-मो हत हो जाने पर मेरे से ऐसा माद हो गया?
राम : स ख वास ती! म अब य- पश से आन द- वभोर हो रहा ँ। तुम भी मुझे
थोड़ा सहारा दो।
वास ती हाय, राम को कैसा च - व म हो रहा है।
:
[सीता झटके से हाथ छु ड़ा कर र हट जाती है।]
राम : हाय ध कार! कतनी असावधानी ई? मेरे काँपते ए, जड़ एवं वेदयु
हाथ से यारी का काँपता आ, जड़ एवं वेदयु हाथ छू ट गया।
सीता : हाय ध कार! अभी तक अ तवदना से पी ड़त दय को म थाम नह पा रही।
तमसा : ( नेह, उ सुकता तथा मत के साथ सीता को दे खती ई) यारी सीता का शरीर
यतम के सुख- पश से कस तरह रोमां चत तथा क पत हो रहा है। यह बेचारी
इस तरह वेद से सची जा रही है, जैसे कद ब वृ क शाखा वायु से े रत
तुषार-रा श ारा स चत हो जाती है।
सीता : ( दल म) म भगवती तमसा के स मुख परवश ई- ई, ल जा का पा बन रही
ँ। यह या वचार करती होगी क एक तरफ प र याग है और सरी तरफ इस
तरह पर पर आस है।
राम : (सब तरफ दे ख कर) हाय, सीता तो कह नह । न क ण वैदेही! तुम कहाँ हो?
सीता : सचमुच म न क ण ँ, जो ऐसी अव था म भी तु ह दे ख कर अभी तक जी वत
ँ।
राम : ये कहाँ हो? दे व कृपा करो। मुझे इस द न अव था म छोड़ना तु हारे लए
उ चत नह ।
सीता : आयपु ! तुम उ ट बात कह रहे हो। प र याग तो तुमने कया है।
वास ती दे व, अपने लोको र धैय से ही सीमा का उ लंघन कर शोक म म न ई आ मा
: को थामो। वह य स ख अब संसार म कहाँ।
राम : सचमुच अब नह है। नह तो वास ती उसे य न दे खती अथवा यह व ही हो।
पर तु म सोया आ तो नह ँ। राम को न द कहाँ? वही अनेक बार क पना को
कलु षत करने वाला म मुझे बार बार सता रहा है।
सीता : मने ही न ु र बन कर आयपु को ा त का शकार बनाया है।
वास ती दे व! दे खो-दे खो। जटायु ारा तोड़ा आ रावण का यह लोहे का रथ पड़ा है। ये
: सामने रथ के गदह के अ थमय कंकाल पड़े ह, जनके मुख पशाच के ह।
रावण यह पर अपनी तलवार से जटायु के पँख को काट कर सीता को उठा कर
इस तरह आकाश म चढ़ गया था, जैसे बादल अ दर बजली को धारण करके
ऊपर चढ़ जाता है।
सीता : (भय के साथ) आयपु बचाओ, बचाओ। तात जटायु मारा जा रहा है। मुझे भी
रावण हर कर ले जा रहा है।
राम : (वेग के साथ उठ कर) अरे पापी रावण, पता के ाण को हरने वाले और सीता
का अपहरण करने वाले, कहाँ जाओगे?
वास ती दे व, रा स-कुल का तो तुम वंस कर चुके हो। आज कौन तु हारे ोध का
: वषय अव श है?
सीता : ओहो म भी ा त म पड़ गई।
राम : अब का सीता- वयोग सवथा ही वल ण है। पहले तो मु धा ी का वयोग श ु
के न कर दे ने तक था। जगत् म उस अद्भुत रस वाले वीर के पर पर संघष के
बाद, वह वयोग तो समा त हो गया। तब उपाय के होने के कारण च को
सा वना ा त होती रही। वह वयोग कटु होते ए भी चुपचाप सहन करने यो य
था। पर तु अब का वयोग अव ध से र हत है, जो कभी समा त न होगा।
सीता : पूव वरह के बाद मेरा ब त स मान आ। पर तु वतमान वरह नरव ध है, यह
जान कर मेरा दय वद ण होता है।
राम : हाय ये! तुम उस थान पर प ँच गई हो, जहाँ सु ीव क म ता थ है।
वानर का परा म न योजन है। जा बवान् क कुशलता नरथक है। जहाँ
पवनपु क भी ग त नह । जहाँ व कमा का पु नल भी माग नह बना सकता
और जहाँ ल मण के बाण नह प ँच सकते।
सीता : पूव वरह म मेरा ब त आदर आ।
राम : स ख वास ती! अब म के लए राम का दशन ःख का ही हेतु है। म तु ह कब
तक लाता र ँगा। तो अब मुझे जाने क अनुम त दान करो।
सीता : (उ े ग तथा मोह के साथ तमसा को आ लगन करके) अब आयपु जाने लगे ह,
म या क ँ !
तमसा : व से जानक ! आ ासन करो, आ ासन करो। व ध तु हारे अनुकूल होगी।
चलो, हम दोन भी कुश-लव के वा षक मंगल-काय को स प करने के लए
भागीरथी नद पर जाएँ।
सीता : भगवती! थोड़ा ठहरो, म यतम को एक बार फर दे ख लूँ, उसका दशन फर
लभ हो जाएगा।
राम : मुझे अ मेध य के अनु ान के लए भी अब शी वा पस प ँचना है। उस य
म मेरी सहधमचा रणी भी होगी।
सीता : (कटा के साथ) आयपु , वह कौन है?
वास ती या, आपने पुन ववाह कर लया है?
:
राम : नह -नह । सीता क सुवण- तमा ही मेरी सहधमचा रणी होगी।
सीता : (द घ ास लेते ए, आँसु के साथ) आयपु , अब तुम अपने वा त वक
व प म हो। तुमने यह कह कर मेरे दय का काँटा नकाल दया।
राम : उस वण- तमा म ही, जा कर, अपनी आँख को तृ त करता ँ।
सीता : ध य है वह, जो इस तरह आयपु ारा ब त स मा नत क जा रही है। ध य है
वह, जो आयपु को इस तरह धारण करती ई जीव-लोक क आशा का आधार
बन गई है।
तमसा : (मु कराते ए, नेह स हत आ लगन करके) इस तरह अपनी ही तु त कर रही
हो।
सीता : (ल जा स हत) तुमने मेरा उपहास कया।
वास ती आपका यही समागम हमारी स ता का हेतु बना है। जाने के स ब ध म, जैसे
: भी काय क हा न न हो, वैसे ही आप क जए।
राम : ऐसा ही उ चत है।
सीता : वास ती ही मेरे तकूल हो गई। तमसा : व से, चलो चल। सीता : ऐसा ही कर।
तमसा : तुमसे इस जगह को छोड़ कर जाना कैसे हो सकेगा। तु हारी आँख तो यतम म
गड़ी ई ह। वे सतृ ण भाव से एकटक उसे दे ख रही ह। उनका स कष अ त कठोर य न
से ही रोका जा सकता है। सीता : पु या मा लोग से दशनीय आयपु के चरण-कमल म
मेरा नम कार है। (मू छत हो जाती है) तमसा : व से आ ासन करो। सीता : (आ त हो
कर) कब तक बादल के ढकने से पूण च मा का दशन रोका जा सकता है? तमसा :
आ य का वषय है क एक क ण रस ही न म भेद से भ हो कर पृथक्-पृथक् शृंगार
आ द रस का प धारण कर लेता है, जैसे जल-त व एक होता आ भी तरंग, बुदबु ् द और
आवत के प को धारण करता है। राम : वमानराज, इधर आइए। [सब उठते ह।]
तमसा और
वास ती : ( मशः सीता तथा राम के त) माता पृ वी, हमारे साथ गंगादे वी, वह कुलप त
मह ष वा मी क जो सव थम छ द का योग करने वाले ह और अ धती स हत गु व स ,
ये सब तु ह चुर मंगल दान कर। [सब बाहर चले जाते ह।] [तृतीय अंक समा त।]
चतुथ अंक

[दो तप वी वेश करते ह।]


थम : सौधात क! दे खो तो, आज वा मी क मह ष के आ म म कतनी
चहल-पहल है। कतने ही अ त थ लोग आए ए ह। उनका स कार
कस सु दर प म स प कया जा रहा है। दे खो न इधर, वह
तपोवन-मृग कस कार अपनी स ः सूता या के पीने के बाद बचे
ए मधुर तथा उ ण नीवारौदन के म ड को यथे छ प से खा रहा है।
इधर दे खो, कक धू फल से म त शाक क सुग ध कैसे फैल रही है
—साथ ही घी से छ के ए भात का प रमल भी कैसा मीठा लग रहा
है?
सौधात क : इन ल बी दाढ़ वाले वृ तपोधन का वागत है। इनके कारण हम
अना याय तो ा त आ।
थम : (हँस कर) सौधात क, अभी इन गु का स मान अपूण ही है।
सौधात क : द डायन, भला यह कौन है बूढ़ा अ त थ जो अभी बड़े य के समूह
के साथ यहाँ प ँचा है?
द डायन : हँसी को रोको। यह भगवान् व स ह, जो ऋृ यशृंग के आ म से
अ धती तथा महाराज दशरथ क प नय को साथ ले कर यहां पधारे
ह। वृथालाप मत करो।
सौधात क : ह, व स ?
द डायन : और या?
सौधात क : मने समझा था क यह कोई शेर आया है?
द डायन : अरे, या कहा?
सौधा तक : और या? दे खो न, इनके आने के साथ ही बेचारी क पला गाय
मड़मड़ा कर च लाने लगी।
द डायन : शा का वधान है क अ यागत को, आने पर, माँस स हत मधुपक
तुत करना चा हए। अतएव गृहमेधी लोग ो य-अ त थ के आने
पर व सतरी अथवा महो को पकाते ह। धम-सू कार आप त ब
आ द इसे धम बतलाते ह।
सौधात क : नह , तुम पकड़े गए।
द डायन : कैसे?
सौधा तक : व स जी के आने पर तो व सतरी को मारा गया। पर तु आज ही जब
राज ष जनक यहाँ प ँच,े तब भगवान् वा मी क ने केवल द ध और
मधु ारा ही मधुपक तैयार कया। व सतरी को तो छोड़ दया।
द डायन : अ नवृ माँस अ त थय के लए ही समांस मधुपक का वधान है
राज ष जनक तो नवृ मांस ह।
सौधात क : राज ष जनक नवृ मांस कब से ए?
द डायन : जब से उ ह ने अपनी पु ी सीता के दा ण प र याग का समाचार सुना,
तब से वे वान थी हो गए और आज कतने ही वष तीत हो गए ह,
उनको च प के तपोवन म घोर तप या करते ए।
सौधात क : तो यहाँ य कर आए ह?
द डायन अपने पुराने य म भगवान् वा मी क को मलने के लए।
:
सौधात क या उनक भट अपनी स ब धनी कौस या आ द से भी ई है?
:
दा डायन अभी भगवान् व स ने दे वी कौस या के पास भगवती अ धती को भेजा है
: क वह वयं महाराज जनक को मलने के लए जाएँ।
सौधात क जैसे ये बूढ़े लोग पर पर मल कर आन द मना रहे ह, वेसे चलो, हम बालक
: भी मल कर अन याय-महो सव को, खेलते ए मनाएँ।
द डायन यह राजा जनक वा मी क और व स के साथ आ म के बाहर वृ के नीचे
: बैठे ए ह। इनका दय सीता के वयोग के कारण न य भभकती ई
शोका न से इस तरह स त त हो रहा है जैसे सूखा वृ अ दर फैलती ई
अ न से जलता है।
[दोन नकल जाते ह।]
[तब जनक वेश करते ह।]
जनक : मेरी पु ी के साथ वह जो घोर अ याचार आ उस दय को छलनी करने
वाले, ती था प ँचाने वाले तथा नर तर बढ़ने वाले अ याय से ती ण होता
आ मेरा शोक आज भी शा त नह होता, अ पतु आरे क तरह मेरे मम थल
को काटता आ धारावाही प म बढ़ता चला जा रहा है।
य प मेरा शरीर जराजीण हो चुका है। ःसह ःख तथा उपवास एवं
च ायणा द घोर तप या से शो षत हो चुका है और इसके सब धातु ीण हो
चुके ह तथा प यह अब तक मृ यु को ा त नह होता। वे अ धता म असुय
नाम के लोक ह, जहाँ पर मर कर वे लोग प ंचते ह, जो आ मह या करते ह,
ऐसा ऋ ष लोग मानते ह। अनेक वष बीतने के बाद भी मेरा दा ण ःख-वेग
त ण सीता का च तन करने के कारण, वशद काश वाला सवथा नवीन
ःख के समान आज भी हरा-भरा है। हे माता पृ वी! तु हारी सृ क रचना
ऐसी ही थी क ल जावश व छ दतापूवक दन तक नह कया जा
सकता।
हा पु ! शैशव काल के तु हारे उस मुख-कमल को म मरण करता ँ, जसम
कभी मु कराहट और कभी रोदन होता था, जसम कुड् मल-स श कोमल
द ताव ल अ त सु दर तीत होती थी और जसक आभा तोतली वाणी के
अ फुट एवं स ब श द के कारण अ त मंजुल दखाई दे ती थी।
भगवती वसु धरे! सचमुच व मयी हो जस दे वी क अलौ कक म हमा को
तुम जानती थ एवं अ न दे वता, मु न लोग, भगवती अ धती, गंगा तथा
रघु के कुलगु भगवान् भा कर भी जानते थे, जसे तुमने, वाणी ने जेसे
व ा को ज म दया, उस अपनी पु ी क वशु मा णत हो जाने के बाद
भी उस तरह का नदयतापूवक वनाश, हे दा ण मातः! तुमने कस तरह
सहन कया?
(नेप य से) इधर आइए भगवती और महादो वयो!
जनक : महाराज दशरथ के कंचुक गृ ारा माग दखाई जाती ई यह भगवती
अ धती चली आ रही है (उठ कर) पर तु यह महादे वी कौन होगी? (दे ख
कर) हा-हा, यह तो महाराज दशरथ क धमप नी, मेरी यसखी कौस या है।
कौन व ास करेगा क यह वही है। यह दशरथ के घर म ऐसी थी जैसे ल मी।
उपमा-सा य से या, यह तो सा ात् ल मी थी। क है, आज वह दै ववश से
कुछ और ही हो गई है। ा णय का यह कैसा ःखा तक प रणाम होता है।
जो य सखी कौस या पहले मेरे लए मू तमान महो सव होती थी, उसी का
दशन आज जले पर नमक के समान हो रहा है।
[अ धती, कौस या तथा कंचुक वेश करते ह।]
अ धती आपके कुलगु का आदे श है क महाराज जनक के पास वयं जा कर उनका
: दशन करो इस लए मुझे भेजा गया है। तो यह य पद-पद पर महान् स दे ह
कट कर रही हो?
कंचुक : दे वी! म भी कहता ँ अपने को सँभालो और चल कर भगवान् व स क
आ ा का पालन करो।
कौस या ऐसे समय म मुझे म थला धप का दशन करना होगा, हाय! एक साथ ही सब
: ःख मेरे पर टू ट रहे ह। मेरा दय ही उ मू लत आ जा रहा है—म उसे कैसै
सँभालू?ँ
अ धती इसम या स दे ह है? स ब धय के वयोग से उ प होने वाले मनु य के
: ःख अ व छ प से बहते ए भी यजन के दे खने पर ःसह हो जाते ह
और सह ोत म फूट कर बहने लगते ह।
कौस या ब के इस कार वन म प र याग करने के बाद उसके पता राज ष जनक को
: म कस तरह अपना मुँह दखाऊँगी।
कौस या यह है आपके ा य स ब धी जनक-कुल- द प वदे हराज, ज ह मह ष
: या व य ने व ा का उपदे श दया था।
कौस या यह ह महाराज के दय न वशेष, यारी ब के पता सीर वज वदे हराज। मुझे
: वे ववाह-मंगल के पु य दन मरण हो आए ह। हा दे व! वह सब कुछ अब
नह रहा।
जनक : (पास जाकर) भगवती अ ध त! स र वज वैदेह अ भवादन करता है।
जस आपसे पूव गु के भी गु , प व तेज के न ध, भगवान् व स अपने
को पुनीत मानते ह ऐसी लोक क मंगल- प जगद्व दनीया, उषादे वी के
स श आपको म नतम तक हो कर णाम करता ँ।
अ धती तु हारी अन र यो त सदा काशमान रहे। यह सूय भगवान्, जो तमस् से परे
: यो तमय है, वह तु ह प व करे।
जनक : आय गृ ! जापालक ीराम क माता तो कुशलतापूवक ह?
कंचुक : ( दल म) सवथा अ त न ु र प से उपाल भ दया है। ( कट प म) राजष,
इसी कारण जस दे वी ने ोधवश रामभ को दे खना भी दे र से छोड़ दया है,
उस अ त खयारी कौस या माता को ऐसा कह कर अ धक ःखी न करो।
ीराम का भी अ त भा य है जो नगरवा सय ने भीषण कवद तय को
फैलाना शु कर दया। उ ह ने र थत लंका म क गई अ न-शु पर भी
व ास न कया। अतएव रामभ को वह दा ण काय करना पड़ा।
जनक : (रोष के साथ) आः—, यह अ न कौन है मेरी स त त को शु करने वाली?
अ न-शु पर अ व ास करने वाले नगरवा सय के इस अपमानजनक
वहार से हमारा दय और भी छलनी-छलनी हो रहा है।
अ धती (ठ डी साँस ले कर) ऐसा ही है। ‘अ न’ ये अ र ही ‘सीता’ अ र के स मुख
: सवथा हीन ह। सीता क प व ता के स मुख अ न क या थ त? हा व से!
तुम मेरी श या और पु ी कुछ भी थ , तु हारी परम वशु ता के लए मेरे दय
म ढ़ आ था थी। चाहे तुम शशु हो या ी, जगत् क तुम व दनीया थ ।
गु णय म गुण पूजा का थान होते ह, जटा, उपवीता द च ह तथा आयु आदर
का वषय नह होते।
कौस या वेदनाएँ मेरे दय को उ मू लत कर रही ह। (मू छत हो जाती है।)
:
जनक : हाय, यह या?
अ धती राजष, और या?
:
वह राजा, वह सुख, वे शशुजन और वे बीते ए दन—वे सब आज आप
इ ब धु के दशन पर मृ त म फर आ वभूत हो गए ह। इस घोर अव था म
आपक सखी के दय म या व लव उठ रहा है यह वही जानती है। य
का च तो फूल के समान अ त कोमल होता है।
जनक : हाय, म कतना ू र ँ जो इतनी दे र के बाद दे खी ई म क प नी को इस
उपे ा से दे ख रहा ँ।
वह महाराज दशरथ मेरे लए या नह थे; वे मेरे ा य स ब धी थे, य
सु द थे, मेरे दय थे, सा ात् आन द थे। मेरे जीवन का स पूण फल थे, मेरा
शरीर थे, मेरी आ मा थे और उससे भी अ धक मेरे भगवान् थे—वे मेरे लए
या नह थे? हाय, या यह वही कौस या है?
इसम और इसके प त म जो भी गूढ़ म णा होती थी, म दोन प त-प नी के
उपाल भ का वषय बनता। दोन पर पर कलह का नणय मेरे से कराते थे। इन
दोन क स ता व ोध मेरे ही अधीन होता था। पर तु अब इनके मरण से
या? ये सब मृ तयाँ मेरे दय को घेर कर भ मसात् कर रही ह।
अ धती हाय, कौस या दे वी का दय तो ास के क जाने के कारण प दन-शू य-सा
: तीत हो रहा है।
जनक : हा य स ख! (कम डल से पानी लेकर कौस या पर छड़कता है।)
कंचुक : हाय वधाता! म क तरह तुमने पहले सुख द, एकरस अनुकूलता को कट
कया, फर अचानक ही नदयता एवं दा णता को दखा कर इस कार
अस पीड़ा का हम शकार बनाया।
कौस या (होश म आ कर) हा व से जानक ! तुम कहाँ हो? म तु हारे ववाहकालीन मु ध
: मुख-म डल को मरण कर रही ँ, जो कमल के समान संफु ल था और जो
उद यमान च का के स श लाव यमय था। मेरी पु ! आओ, मेरी गोद को
सुशो भत करो। महाराज दशरथ सदा कहा करते थे क जानक रघुकुल के
महान् पु ष क पु वधू होगी—हमारी तो वह पु ी है।
कंचुक : दे वी ने ठ क कहा है। महाराज दशरथ क चार स तान थ —पर तु उन सबम
ीराम उ ह यतम थे। चार ब म भी उ ह और कोई पु ी इतनी य न
थी जतनी सीता।
जनक : हा य म दशरथ! तुम सब कार से हमारे दय को जीतने वाले थे। तु ह
कस तरह भुलाया जा सकता है?
क या-प के लोग ायः दामाद-प के लोग क पूजा तथा शु ूषा करते ह।
पर तु हमारे पर पर स ब ध म यह सब उलटा ही था। तु हारा मेरे त वशेष
स मान और आदर था। काल-भगवान् तु हारा अपहरण करके चले गए।
पर पर स ब ध क बीजभूत उस पु ी को भी लेकर वह चले गए। म अकेला ही
अब इस घोर नरकमय जीव-लोक म बच रहा ँ। ध कार है मेरे जीने को!
कौस या पु ी जानक ! म या क ँ ? मुझ अभा गनी के ाण भी नह छू टते—मानो
: व क ल -से मेरे म वे गड़ गए ह ।
अ धती रानी, आ ासन करो। बीच-बीच म आँसु को रोकना ही चा हए। और तु ह
: मरण नह जो तु हारे कुलगु ने ऋृ यशृंग मु न के आ म म कहा था; “भावी
हो कर रहेगी, पर तु अ त म सब क याण ही होगा।”
कौस या मेरे मनोरथ क पू त क अब कहाँ स भावना।
:
अ धती राजप नी, तुम या समझती हो वह म या वचन था? ये! तु ह ऐसा नह
: मानना चा हए। जन षय को परम यो त का आ वभाव हो चुका है उनके
वचन म तु ह कभी संदेह नह होना चा हए। इनक वाणी म शुभल मी न हत
होती है। ये कोई भी ऐसा वचन नह बोलते, जो अथहीन हो।
[नेप य म कोलाहल—सब सुनते ह।]
जनक : अरे, यह तो श जन के समागम पर अन याय मनाते ए और जी भर कर
खेलते ए छा का कोलाहल है।
कौस या बचपन खेलने के लए ही होता है। (दे खकर)
:
अरे, इनके बीच म यह कौन बालक है जो रामभ -स श सुकुमार मु ध एवं
ल लत अंग ारा हमारी आँख को शीतल कर रहा है!
अ धती ( दल म—हष तथा उ क ठा के साथ) यह भागीरथी से बतलाया आ, कण
: के लए अमृत- प रह य तीत होता है। पर तु यह नह ात हो रहा क यह
कुश तथा लव म कौन-सा भाई है? ( कट प म) अरे, यह कौन मेरी आँख म
एकदम अमृत-लेप-सा कर रहा है; कैसा यह सु दर बालक है, जसका वण
कमल-प के समान याम है, जसके सर पर काक-प शोभामान है, जो
अपनी पु यल मी से सब बालक म परम तेज वी दखाई दे रहा है? ऐसा
तीत होता है क व स रघुन दन ही फर शशु बन कर अवतीण आ है।
कंचुक : न य से यह बालक य चारी है।
जनक : ऐसा ही है। दे खो, इसक पीठ पर दोन तरफ तरकस लटके ए ह, जनम
बाण के कंकप पर पर सटे ए ह। इसक छाती पर ऐणेय मृग का चम है,
जस पर भ ममय प व लांछन है। इसका मजीठे रंग का अधोव मौव -
मेखला ारा बँधा आ है। इसके एक हाथ म धनुष और जयमाला है, तथा
सरे म अ थ द ड है। भगवती अ ध त! या समझती हो यह बालक कहाँ
का है?
अ धती हम तो आज ही यहाँ प ँचे ह।
:
जनक : आय गृ , मुझे ब त उ क ठा है। भगवान् वा मी क के पास जाओ और
पूछो। इस बालक को भी कहो क ये कुछ वृ पु ष तुझे दे खना चाहते ह।
कंचुक : जैसे आपक आ ा। ( नकल जाता है।)
कौस या या समझते हो? ऐसा कहने पर वह आ जाएगा या नह ?
:
जनक : अ यथा ऐसी अलौ कक आकृ त का आचरण सवथा वपरीत होगा।
कौस या (दे ख कर) वह तो गृ के वचन को स वनय वण करके, अ य सब बालक
: को छोड़ कर इधर चला आ रहा है।
जनक : (दे र तक दे ख कर) इस बालक म वनय से शीतल एवं मु धता से मसृण,
अद्भुत म हमा तशय है जो सू मद शय से ही हण करने यो य है, सर से
नह । यह बालक मेरे सु थर च को भी इस तरह अपनी तरफ आक षत कर
रहा है, जैसे छोटा-सा चु बक का टु कड़ा लोह- प ड को ख च लेता है।
लव : ( वेश करके) इन पूजनीय वृ को म कस म से नम कार क ँ ! (सोच
कर) हाँ, यह एक कार साव क प से वीकार कया जाता है। (स वनय,
सर झुका कर) लव का यह शरोऽ भवादन आप सबको अ पत है।
अ धती- पु , चरंजीव रहो।
जनक :
कौस या पु आयु मान् होओ।
:
अ धती इधर आओ, ब चे! (लव को गोद म लेकर, दल म) सौभा य से न केवल मेरी
: गोद, अ पतु चर अ भलाषा भी आज पूण ई।
कौस या इधर भी आओ न। (गोद म लेकर) न केवल यह अपने अध खले कमल-स श
: कोमल एवं उ वल शरीर से रामभ का अनुकरण कर रहा है, अ पतु इसका
वर भी उसी तरह कलहंस-मधुर है। इसके शरीर का पश रामभ के पश के
समान दय को शीतल करने वाला है। पु , आओ तु हारा मुख-कमल दे ख।ूँ
(ठोड़ी ऊपर उठा कर, दे ख कर—आँसू बहा कर) राजष, आप दे खते नह ,
इसका मुख तो ब सीता के मुखच से ब कुल मलता-जुलता है।
जनक : स ख, दे खता ँ, दे खता ँ।
कौस या मेरा दय तो स ा त हो कर न मालूम कस अस भव दशा म वृ हो रहा
: है।
जनक : इस ब चे म सीता और राम क अनुकृ त प अ भ हो रही है। ऐसा
तीत होता है क यह उन दोन का त ब ब ही है। ब कुल उन जैसी
आकृ त है, उन जैसी ु त है। वाणी भी वैसी है, वनय भी वैसी है—इसका
सहज पु यानुभाव भी ब कुल उन जैसा है। हा दे वी सीते! मेरा मन चंचल हो
कर उ माग म भागा चला जा रहा है।
कौस या पु ! तु हारी माता कौन है? पता को भी मरण करते हो?
:
लव : नह ।
कौस या तो तू कसका है?
:
लव : सुगृहीतनामधेय भगवान् वा मी क का।
कौस या कुछ अ धक बताओ न।
:
लव : म तो इतना ही जानता ँ।
(नेप य म)
हे-हे सै नक , यह कुमार च केतु आ ा दे ता है क कोई आ म क भू म पर
आ मण करने क चे ा न करे।
अ धती- अरे, यह तो य य अ क र ा करता आ व स च केतु यहाँ प ँचा है।
जनक : कैसा शुभ दन है—ब चे से अक मात् ही भट हो गई।
कौस या कैसे यारे श द ह क व स ल मण का पु च केतु आ ा दे ता है—मानो
: अमृत-रस बह रहा हो।
लव : यह च केतु कौन है?
जनक : दशरथ के पु -राम-ल मण को जानते हो?
लव : वही न, जो रामायण क कथा के नायक ह?
जनक : हाँ वही।
लव : उ ह तो म अ छ तरह जानता ।ँ
जनक : उसी ल मण का यह आ मज-च केतु है।
लव : अ छा-अ छा, तो यह म थला-प त राज ष जनक का दोहता और उ मला का
पु आ।
अ धती ठ क, ब कुल ठ क। तुम तो रामायण क कथा म बड़े वीण हो।
:
जनक : (सोच कर) य द तुम कथा म इतने वीण हो तो बतलाओ। दे ख कतना जानते
हो। कहो, दशरथ के पु को कन- कन प नय से कौन-कौन-सी स तान ई
और उनके या- या नाम ह?
लव : रामायण-कथा का यह भाग हमने या कसी और ने अभी तक नह सुना।
जनक : या क व ने उसक रचना भी नह क ?
लव : रचना तो कर ली है, पर तु उसका काशन नह कया। कथा का एक अंश
उ ह ने सरस यका - प म अ भनय के लए तैयार कया है, जसे
भरतमु न के तौय क सू धार को अ पत कर दया गया है।
जनक : वह कस लए?
लव : वह भगवान् भरतमु न अ सरा ारा इस अ भनय का योग कराएँगे।
जनक : यह सब हम समझ म आ गया।
लव : भगवान् वा मी क क भरतमु न म महती आ था है। उ ह ने कुछ छा के हाथ
वह पु तक भरत के आ म म भेज द है। उनके साथ मेरा भाई भी धनुष-बाण
ले कर माग म व न-बाधा से र ा करने के लए गया है।
कौस या पु , तु हारा भाई भी है?
:
लव : है, आय कुश नाम से।
कौस या बड़ा भाई होगा।
:
लव : जी, बड़ा। ज म के म से वह मेरे से बड़ा ही है।
जनक : या तुम युगल ाता हो?
लव : जी।
जनक : अ छा बतलाओ, उस कथा का तु ह कहाँ तक ान है?
लव : म या लोकापवाद से स ा त ए राजा से नवा सत क ई गभवती माता
सीता को जंगल म अकेला छोड़ कर ल मण वा पस आ गया—यहाँ तक।
कौस या हा मु धमु ख व से! तुम अकेली के कुसुम-स श कोमल शरीर के साथ उस
: जंगल म या बीता होगा!
जनक : हा व से! तुमने उस अपने अपमान को, घोर वन म तथा सू त-काल क था
को ा त करके, हसक ा णय से घर जाने पर सं त होते ए, शरण के
लए मुझे अनेक बार मरण कया होगा।
लव : आय, ये दोन कौन ह?
अ धती यह कौस या है और यह जनक है।
:
[ब त स मान, खेद तथा कौतूहल से दोन को दे खता है।]
जनक : हाय, अयो यावा सय क इतनी ता और नदयता! रामभ ने भी इतनी
ज दबाजी से लोकापवाद को वीकार कर लया। मेरी पु ी पर मेरे दे खते इतना
कठोर व पात आ। यह तो समय है मेरे ोध के व लत होने का। मुझे तो
धनुष ारा अथवा शाप ारा उस राम को तथा उस अपवा दनी जा को
समा त कर दे ना चा हए था।
कौस या (भय के साथ काँपते ए) भगवती, र ा करो। ोधा व राज ष को शा त
: करो।
लव : यह ोध तो मन वी य के अपमान का एकमा ाय त है।
अ धती है राजन्, राम तो तु हारा ही पु है। बेचारी जा का सदा पालन करना ही
: राजा का कत है।
जनक : अ छा, दोन धनुष तथा शाप शा त ही रह। रघुन दन सचमुच मेरे ही पु -र न
ह और बेचारी जा पर या ोध- जसम ा ण, बालक, वृ , रोगी तथा
अबलाएँ ही अ धकता से होती ह।
[कुछ स ा त बालक वेश करते ह।]
कुमार, कुमार घोड़ा नाम का जानवर जो नगर म ायः सुना जाता है, उसे
हमने अभी आँख से य कया है।
लव : घोड़ा, इसका प रगणन पशु-वग म तथा यु -वग म कया जाता है। बताओ तो
वह कैसा है?
बालक : अरे, सुनो—
उसके पीछे एक बड़ी पूँछ है जसे वह नर तर हलाता रहता है। उसक गदन
बड़ी ल बी है। खुर उसके चार ही ह। घास खाता है। आम क गुठली जतनी
लीद को बखेरता जाता है। पर तु इस ा या से या; वह दे खो, वह तो र-
र चला जा रहा है। आओ-आओ हम चल।
[इस तरह लव को व तथा हाथ से पकड़ कर ख च कर ले जाते ह।]
लव : (हष, बला कार तथा वनय का दशन करते ए) पू य पु षो! दे खए, इनसे
ख चे लया जा रहा ।ँ (इस तरह ज द से नकल जाता है।)
अ धती ब चा कतना स हो रहा है।
:
कौस या इन सब वनवासी ब च के सु दर प तथा आलाप से हम म मु ध-से हो
: गए। म तो उसक राम से स शता पर वचार करती ई उसके पूण दशन से
वं चत ही रह गई। तो यहाँ से हट कर सरी तरफ से उस भागते ए चरंजीव
बालक को दे ख।
अ धती वह चंचल बालक तो बड़े वेग से कह र नकल गया, अब कैसे दखाई दे गा।
:
कंचुक : ( वेश करके) भगवान् वा मी क का स दे श है क आपको इस अवसर पर
कुछ नवेदन करना है।
जनक : कोई ग भीर व तीत होता है। भगवती अ धती, स ख कौस या, आय
गृ ! चलो, हम सब वयं जा कर भगवान् वा मी क का दशन कर।
[सब वृ जन चले जाते ह।]
बालक ( वेश करके) कुमार, इस अद्भुत ाणी को दे खो।
:
लव : दे खा और समझ लया। अरे यह तो अ मेध य म छोड़ा आ घोड़ा है।
बालक तुमने यह कैसा जाना?
:
लव : अरे मूख , तुमने भी तो वह का ड पढ़ा ही है। या दे खते नह हो, इस घोड़े के
साथ र ा करने के लए, सौ कवच पहने ए यो ा ह, सौ द डी ह और तरकस
बाँधे ए धनुधारी ह। कुछ ऐसे ही अ य यो ा भी साथ ह। य द तु ह स दे ह है तो
पूछ लो।
बालक हे-हे राजपु षो! कस योजन से यह घोड़ा तुमसे घरा आ फर रहा है?
:
लव : ( पृहा के साथ दल म) अ मेध य तो व - वजयी य क ऊज वता,
सव प र तेज तथा उ कष का तीक है।
[नेप य म]
यह जो घोड़ा है, यह वजय-पताका तथा यह वीर सहनाद—यह सब सात लोक
म अ तीय वीर, रावण-कुल का संहार करने वाले ीराम के ह।
लव : (अ भमान के साथ) ये वचन तो अ य त अपमानजनक ह।
बालक या कहा, अपमानजनक ह? आप तो बु मान् ह।
:
लव : अरे राजपु षो? या पृ थवी य से शू य हो गई है, जो इस तरह घोषणा कर
रहे हो?
[नेप य म]
अरे, महाराज रामच जी के स मुख कौन य है?
लव : ध कार है तुम वृथालाप करने वाल को! य नह ह ऐसे य? अभी य
बाक ह। यह डरावा कैसा? अ छा अ धक बोलने से या, लो म तु हारी इस
वजय-पताका को हर कर ले जाता ँ। हे बालको! इ ह घेर लो और प थर मार
कर घोड़े को ले चलो। यह हमारे आ म के बीच म ह रण के साथ वचरण
करेगा।
[ वेश करके ोध के साथ]
पु ष : अरे चंचल बालक, यह तुमने या कहा? हमारे ती ण श , बालक क गवपूण
वाणी को सहन नह कर सकते। राजकुमार च केतु तु हारी तरह ही गवपूण ह।
वह पीछे कसी सु दर वन- दे श को दे खने के लए क गए ह। जब तक वे यहाँ
नह प ँचते, तुम इन वृ क झुरपुट से ज द ही खसक जाओ।
बालक छोड़ो-छोड़ो कुमार इस घोड़े को। सौ नक लोग धनुष क यंचा बजा-बजा कर
: हम डरा रहे ह। आ म है भी यहाँ से र। तो आओ, ह रण क छलाँग से हम
भाग चल।
लव : या सौ नक लोग धनु ंकार से हम भयभीत करना चाहते ह?
[अपने धनुष क यंचा खोलते ए]
यह लो मेरा धनुष भी काल के प को धारण करे। काल के समान अपनी यंचा
क जीभ से, अपनी उ कट को ट क दाढ़ से, अपने घोर घघर घोष से तथा संसार
को हड़पने के लए उ त यमराज के स श मुख से यह मेरा धनुष अपने भीषण
चम कार को द शत करे।
[इस तरह यथो चत दशन कर के सब चले जाते ह।]
[चतुथ अंक समा त]
पंचम अंक

[नेप य म]
हे-हे सै नक , हमारा सहारा हो गया।
यह दे खो, हमारे यु का समाचार सुन कर, सुम ारा हाँके गए
वेगवान् घोड़ के रथ से, न नो त थान पर वच लत ई वजय-
पताका के साथ कुमार च केतु हमारी र ा के लए चले आ रहे ह।
[तब सुम सार थ स हत रथ ारा हाथ म धनुष पकड़े ए हष
तथा व मय के साथ च केतु वेश करते ह।]
च केतु : आय सुम , दे खो-दे खो!
यह कोई वीर कुमार यु म हमारी सेना पर तीर क अ वरल वषा
कर रहा है। इसका मुख ोध से कैसा लाल हो रहा है? दे खो, नर तर
धनुष क डोरी चढ़ाने से इसके सर पर हलता आ जूड़ा कैसा
शोभायमान हो रहा है।
दे खो-दे खो, कतना आ य है क अकेला ही यह मु नकुमार सह
हा थय के कपोल को अपने तीर से छे दता आ, ोध से धनुष क
घोर टं कार करता आ हमारी सेना म ऐसा भीषण अ नका ड
उप थत कर रहा है। यह तो मानो, हमारे इ वाकु-वंश के नाम को ही
म म मलाने चला है।
सुम : आयु मान्, इस ब चे के अ तमानव प को दे ख कर मुझे व ा म के
य म सुबा आ द रा स को मारने के लए, धनुष धारण कए ए
बाल रघुन दन का मरण आ रहा है।
च केतु : मुझे तो यह दे ख कर ल जा आ रही है क हमारे सह सौ नक
अकेले मु नकुमार का मुकाबला कर रहे ह।
दे खो न, हमारी सेनाएँ कस तरह हाथ म ज टल श को धारण कए
ई, झन-झन करते रथ पर भागती ई तथा हा थय क घटा को आगे
बढ़ाती ई, अकेले मु नकुमार को घेर कर खड़ी है।
सुम : व स, ये सब मल कर भी इस बालक के लए पया त नह ह। अलग-
अलग का तो या कहना।
च केतु : आय, ज द चलो, ज द चलो। इसने तो हमारी सेना का बड़ा संहार
आर भ कर दया है। यह दे खो, यह वीर तो गजते ए हा थय के कान
म, अपनी यंचा के तुमुल घोष से शूल उ प करता आ, भ-
नाद के बीच म, सारी यु -भू म को कटे ए शरःकपाल से आ तीण
कर रहा है और उ ह महाकराल काल के मुख म ास प म उप थत
कर रहा है।
सुम : ( दल म) म इस यदशन बालक के साथ यु करने के लए
च केतु को कैसे अनुम त ँ ? (सोच कर) अथवा, हम इ वाकु-कुल के
वृ पु ष ह। सर पर यु आ जाने पर, अब चारा भी या है?
च केतु : ( व मय, ल जा तथा ाकुलता के साथ) हाय, ध कार! मेरी सेनाएँ
मुँह फेर कर सब तरफ भागी जा रही ह!
सुम : (रथ को अ धक वेग से चला कर के) आयु मान्, यह ली जए, यह वीर
अब आपक वाणी का वषय बन गया है।
च केतु : (कुछ भूलते ए) आय, उस वीर का या नाम पुकारा गया है?
सुम : ‘लव’—यह नाम।
च केतु : हे-हे महाबालु लव, इन सै नक से तु ह या? यह म आ गया ।ँ मेरे
सामने आओ। तु हारा तेज मेरे पर ही शा त हो।
सुम : कुमार! दे खो-दे खो...
तुमसे बुलाया आ यह यकुमार, सेना के संहार से क गया है, जैसे ग वत
सह-शावक बादल क गजना सुन कर हा थय के संहार से क जाता है।
[तब धीरो त भाव से परा म द शत करता आ, लव वेश करता है।]
लव : राजपु ! तु हारा अ भन दन करता ँ। तुम इ वाकु-कुल- द प हो। इसी लए
शी ही तु हारे बुलाने पर उप थत हो गया ँ।
[नेप य म बड़ा शोर होता है।]
लव : (गव से घूम कर) अरे, हार कर भागे ए सै नक फर वा पस आकर मुझे घेरना
चाहते ह। ध कार है तुम कायर को! यह तु हारा उमड़ता आ सेना-समूह
ु ध समु के वड़वानल के समान च ड मेरे ोध क अ न का ास बने। यह
तु हारा चार तरफ उठता आ तुमुल कोलाहल लय-कालीन समु - वाह के
समान मेरे कोपानल म लीन हो जाए।
[वेग के साथ घूमता है।]
च केतु हे-हे कुमार! तुम इस अ यद्भुत गुणा तशय से मेरे य हो। तुम मेरे सखा हो।
: जो कुछ मेरा है, तु हारा है, तो य तुम अपने ही ब धु पर अ न-वषा कर रहे
हो। तु हारे वा भमान क परी ा क कसौट —म वयं च केतु तु हारे स मुख
उप थत ँ।
लव : (हष तथा शी ता से घूम कर) अरे, इस सूयवंशी तेज वी राजकुमार क वाणी
कतनी वीरता-भरी, ककश पर तु मधुर है। तो इन छोटे यो ा से या, इसी
एक शूरवीर से लोहा लेता ँ!
[नेप य म फर कोलाहल होता है।]
लव : ( ोध तथा वर के साथ) अरे, इन यो ा ने अब तक इस शूरवीर के
साथ ट कर लेने म व न ही डाला। (च केतु क तरफ बढ़ना आर भ करता
है।)
च केतु आय, इस मनोरम य को दे खए, यह राजकुमार कस कार गव से मेरे पर
: पात कर रहा है। पीछे -पीछे इसके सेना चली आ रही है। मेरे तथा सेना के
बीच म धनुष उठा कर खड़ा आ यह वीर इस तरह शोभा दे रहा है, जैसे
वषाकाल का बादल वायु से चंचल बनाया आ इ धनुष के साथ शोभा दे ता है।
सुम : आप ही ह, जो इस तेज वी कुमार को दे ख सकते ह। म तो सवथा आ य से
च कत ही हो रहा ँ।
च केतु रे-रे राजाओ! तुम असं य लोग ने हाथी, घोड़े और रथ पर बैठ कर, इस अकेले
: पैदल राजकुमार पर आ मण कया— ध कार है तु ह। तुम सब लोग ने लोहे
के कवच से अपने शरीर क र ा क ई है, इसने केवल मृगमच ओढ़ा आ
है। तुम सब आयु म इससे कतने बड़े हो। इस बुढ़ापे म तु ह वजय- या त क
कामना ई है जो ऐसा वषम यु तुमने इस कशोराव था के कुमार से छे ड़
रखा है! बार बार ध कार है तु ह। तु हारे इस न दनीय काय से वयं हम भी
ध कार है!
लव : ( हसा-भाव कट करते ह।) अरे मुझे बल समझ कर या यह मेरे पर
अनुक पा दखा रहा है! (वेग से वचार करके) सेनाएँ अभी पीछे चली आ रही
ह, तो समय बचाने के लए, म जृ भका चला कर इन सेना को यह खड़ा
कर दे ता ँ। ( यान का अ भनय करता है।)
सुम : यह या? सेना का कोलाहल एकदम ब द य हो गया?
लव : अ छा, तो अब इस राजकुमार से नपटता ।ँ
सुम : ( ाकुलता से) व स, ऐसा तीत होता है क इस कुमार ने जृ भका का
आ ान कया है।
च केतु इसम या स दे ह है? दे खो न कैसे अ धकार तथा काश का भयंकर म ण है?
: आँख को कैसा यह चकाच ध एवं हत बना रहा है। अरे, हमारी सेना केसी
न प द तथा च ल खत-सी खड़ी हो गई है। अव य ही जृ भका का अस
भाव सब दशा म फैल रहा है।
दे खो, आकाश म जृ भका कस तरह छाए जा रहे ह। कभी वे पाताल क
गुफा म पुंजीभूत घोर अ धकार के समान काले भीषण प म कट हो रहे ह
और कभी तपे ए ता बे के स श उ वल यो त से दे द यमान हो रहे ह।
दे खो, ये जृ भका लयकालीन बल वायु से मानो खदे ड़े ए आकाश म इस
तरह फैले जा रहे ह, जैसे व याचल के स मुख थत उतुंग शृंग अपने म लीन
बादल क कड़कती ई बज लय से इस व तृत आकाश म गूँजते ए दखाई
दे ते ह।
सुम : इन ब च को जृ भका कहाँ से ा त ए ह गे?
च केतु म समझता ँ, ये भगवान् वा मी क से ा त ए ह।
:
सुम : नह , जृ भका के स ब ध म ऐसा नह हो सकता। इनका ज म भृशा मु न
से आ। उनसे ये व ा म को ा त ए। व ा म ने इ ह ीराम म त त
कया।
च केतु पर तु इ ह अ य तपो न म ा मु न भी अपने तेज ारा उपा जत कर
: सकते ह।
सुम : व स! सावधान हो जाओ। यह कुमार यु के लए तु हारे स मुख उप थत हो
गया है।
दोन (एक- सरे के त) अहो, यह राजकुमार कतने यदशन वाला है? ( नेह तथा
कुमार : अनुराग से दे ख कर) हम दोन का यह दै वयोग से पर पर मलाप आ है, पर तु
ऐसा तीत होता है क हम दोन का कोई पूवज म का पुराना प रचय है अथवा
आ मीयता का कोई अ ात स ब ध है। इस कुमार के गुणा तशय को दे ख कर
मेरा दय परवश आ- आ खचा चला जा रहा है।
सुम : ायः ा णय म अकारण ही कसी क कसी म ी त हो जाती है। लोक-
वहार यही है क केवल आँख मलने से ही अनुराग उ प हो जाता है। ी त
व तुतः एक अ नवचनीय अनुभू त है। यह अहेतुक प पात है, जसका तकार
अस भव होता है। यह वह नेहा मक त तु है, जो ा णय के दय को एक सू
म सी दे ता है।
दोन (एक- सरे के त) इस कोमल एवं राजक य व से सुशो मत शरीर पर तीर
कुमार : कैसे फके जा सकते ह। मेरे अंग तो इससे आ लगन करने क अ भलाषा से
रोमां चत हो रहे ह।
पर तु, य-धम का पालन करने वाले क श - योग के सवाय और या
ग त है? वह श भी कैसा, जसे ऐसे वीर का सामना करना न मले? एक-
सरे पर अ उठा लेने के बाद म य द यु - वमुख होता ँ तो यह या कहेगा?
वीर का धम अ त कठोर है, वह नेह का पालन भी नह कर सकता।
सुम : (लव को दे खकर, आँसू बहाते ए, दल म) दय, य चंचल होते हो? और
अस भव क पना म य खोए जाते हो? यह सु दर कुमार राम का कैसे हो
सकता है? वधाता ने मनोरथ के बीज को पहले ही हर लया था। जब बेल ही
कट गई तो उस पर फूल क कैसी स भावना?
च केतु आय सुम ! म रथ से उतरता ँ।
:
सुम : कस लए?
च केतु एक तो ऐसा करने से इस वीर राजकुमार के त मेरा आदर का शत होगा और
: सरे, य-धम का पालन भी हो जाएगा। शा के अनुसार रथारोही को
पैदल पर आ मण नह करना चा हए।
सुम : ( दल म) यह तो अ त दा ण थ त है। म इस य चत मयादा का कैसे
तषेध कर सकता ँ और इस ःसाहस क अनुम त भी कैसे दे सकता ँ।
च केतु आय! आप या वचार कर रहे ह? संशय होने पर पता जी आपसे परामश
: करते ह, तो आप मुझे उ चत म णा य नह दे ते?
सुम : व स! तुमने धम-मयादा के अनुकूल ही कथन कया है। यही सं ाम
यायानुमो दत सनातन धम है। यही रघुवंशी वीर यो ा का स च र है।
च केतु आपका यह वचन सवथा उपयु है। आप धम, इ तहास तथा पुराण के
: त ववे ा ह। आप रघुकुल-मयादा के भी वशेष ाता ह।
सुम : व स! इ जत को जीतने वाले, तु हारे पता के उ प ए अभी कतने दन ए
ह? मुझे यह दे खकर अपार हष होता है क उसक स तान भी आज य-धम
का पालन कर रही है। दशरथ के कुल को इस कार त त आ दे ख कर
मेरा दय फूला नह समाता।
च केतु ( ःख के साथ) ये पता के अभी तक अ त त रहने पर हमारे कुल क
: कैसी त ा? बाक तीन पता यही च ता करके सदा स त त रहते ह।
सुम : व स! ये तु हारे वचन सचमुच दय को वद ण करने वाले ह।
लव : ेम तथा वीर रस का यह कोई अद्भुत म ण हो रहा है। एक तरफ मेरी
इस कुमार को दे ख कर इस तरह आन द- वभोर हो रही है, जैसे कम लनी
च मा को दे ख कर होती है, सरी तरफ मेरी भुजा धनुष के या- च ह से
अं कत ई- ई, टं कार म ी त रखती ई, इससे यु करने को लाला यत हो
रही है।
च केतु (रथ से उतरते ए) आय! यह म इ वाकु-वंशीय च केतु आपका अ भवादन
: करता ँ।
सुम : श ु के पराभव के लए, तुम महा वराहावतार क मता धारण करो। तु हारे
वंश का गु सूय भगवान् यु म तु ह वजय दान करे। म -व ण दे वता
का तु ह आशीवाद ा त हो। इ , व णु, अ न, वायु एवं सुपण (ग ड़) का
ओज तु ह बलवान् बनाए। राम-ल मण के धनुष का या-घोष तु ह वजयी
करे।
लव : आप रथ पर बैठे ए ब त शोभा दे ते ह। अ यादर दखाने क आव यकता नह ।
च केतु तो आप भी कसी रथ पर आ ढ़ हो जाएँ।
:
लव : आय! आप राजकुमार को रथ पर अ ध त कर द जए।
सुम : आप ही च केतु के अनुरोध को वीकार कर ली जए।
लव : अपने रथ के योग म या आप हो सकती है। पर तु हम वनवा सय को रथ
पर बैठ कर यु करने का अ यास नह ।
सुम : व स! तुम वा भमान एवं सौज य के सदाचरण को अ छ तरह जानते हो। य द
इ वाकु-राजा ीराम तु ह इस अव था म दे ख ल, तो उनका दय वत हो
जाए।
लव : हाँ, सुना है क वह राजा अ य त स दय है। (ल जा के साथ) य द हम व तुतः
उस महापु ष के इस तरह ेमभाजन ह, और य द वे अपने गुण ारा सब
जाजन के इस तरह य ह, तो मेरा महाराज क स ा का वरोध करना
सवथा अनु चत है। पर तु अ र क का इस तरह सम त य को नरादर से
ललकारना मेरे ोध को च ड करने का कारण बना। इसी लए मने वरोध
करना आर भ कया।
च केतु या आपको हमारे पू य पता के तापो कष पर भी ोध आता है?
:
लव : व तुतः मेरा ोध अनु चत है। पर तु एक बात पूछता ँ। हमने सुना है क
रघुराज सवथा अनहंकार ह। न वे वयं अहंकार करते ह, न उनक जा अहंकार
करती है। तो उनके ये लोग य रा सी वाणी बोल रहे थे?
ऋ षय का कथन है क रा सी वाणी का योग उ म लोग करते ह अथवा
त लोग। यह रा सी वाणी सब वैर-भावना क मूल होती है। इससे लोग म
तशोध क वाला द त होती है। सब लोग इस वाणी क न दा करते ह और
सरी वाणी क शंसा करते ह।
यह सरी सूनृता वाणी कामधेनु के समान सब कामना को हती है, अल मी
को र करती है, क त का सार करती है और दय वाल क ता का
नाश करती है। यह सुनृता वाणी शु , शा त एवं सब मंगल क जननी होती है।
सुम : वा मी क मु न का यह श य कुमार लव अपने सहज सं कार-वश, अपमान
अनुभव करते ए, ऐसा ोध कर रहा है।
लव : भाई च केतु! तुमने या कहा क मुझे तु हारे पू य पता के तापो कष पर
य ोध आता है? म पूछता ँ क या य व केवल उ ह म ही सी मत हो
चुका है?
च केतु तुम इ वाकु-कुल- शरोम ण ीराम को नह जानते, तभी ऐसी बात करते हो।
: अब अ धक ववाद क आव यकता नह । तुमने हमारे सै नक का मुकाबला
करके सचमुच ओज वता का दशन कया है, पर तु परशुराम के भी वजेता
ीराम के स ब ध म ऐसा नरथक लाप मत करो।
लव : (हँसते ए) वह महाराज परशुराम के भी वजेता ह, इसम ड ग मारने क या
बात है? ा ण का बल तो केवल वाणी म होता है। बा बल तो य म
माना जाता है। य द ा ण परशुराम ने श हण कर लया और उसे तु हारे
महाराज ने परा जत कर दया, तो इसम तु त क या बात है?
च केतु ( ोध के साथ) आय सुम ! इस उ र- यु र से बस! यह कोई नया ही अब
: पु षावतार उ प आ है, जसके लए भृगुन दन परशुराम भी वीर नह ह। यह
तो पू य पता जी के पावन च र को भी तु छ मानता है, जससे सात भुवन
को अभय-दान ा त आ है।
लव : कौन रघुप त के च र व म हमा को नह जानता, तुमने कुछ और बतलाना है?
वृ के च र पर वचार नह करना ही अ छा है, हाँ, सब कोई जानता है क
ताड़का के मारने म ीराम ने कतनी वीरता दखाई थी और संसार म कतना
यश कमाया था? खर- षण से यु करते ए, कतनी कुशलता से उ ह ने अपने
पग पीछे हटा लए थे? बा ल का वध करते समय भी उ ह ने जो नपुणता
दखाई थी उससे भी सब लोग प र चत ह।
च केतु अरे, पता क न दा करने वाले! तुम तो मयादा का उ लंघन करने लग गए हो,
: तुम छोटे मुँह बड़ी बात कर रहे हो!
लव : अरे, मेरी और भृकुट तान कर य दे खते हो?
सुम : दोन का ोध द त हो गया है। ोध के कारण दोन के केश चंचल हो रहे ह
और सम त शरीर काँप रहा है। आँख र कमल-प के समान लाल हो रही ह।
भृकु टय के तन जाने से दोन के मुख लांछन स हत च मा तथा मर-चु बत
कमल क का त को धारण कर रहे ह।
लव : कुमार, कुमार! आओ-आओ! यु -भू म म उतर कर नणय करते ह।
[सब चले जाते ह।]
[पंचम अंक समा त]
ष अंक

[ वमान ारा व ाधर तथा व ाधरी का वेश]


व ाधर : इन दोन सूय-कुल-कुमार का दे वता तथा असुर को भी उद् ा त
कर दे ने वाला यह कैसा अद्भुत यु चल रहा है? बाल-कलह से ही
दोन च ड हो उठे ह। और अपने य व का प रचय दे रहे ह।
पर पर ोध के कारण इनके मुख-म डल क आभा कैसी उद त हो
रही है?
दे खो, ये, दे खो! इन दोन शूरवीर का कैसा भीषण एवं व च
सं ाम चल रहा है? इनके धनुष क यंचा का कैसा कराल कोलाहल
उ प हो रहा है? यंचा के साथ बँधी ई क क णय क कैसी मधुर
झंकार हो रही है। दे खो, ये दोन राजकुमार कैसी अ वरल-धारा म
बाण-वषा कर रहे ह? दे खो, दोन कुमार के मंगल-स पादन के लए
ही मानो मेघ क ग भीर गजना के समान भ का मंगल-नाद
आर भ हो गया है।
तो इन दोन शूरवीर बालक पर वण-कमल से यु , क प-वृ के
म ण-मुकुल से सुशो भत, मकर द-सु दर पु प क वषा करो।
व ाधरी : आकाश म यह या च ड व ुत् का-सा ती काश दखाई दे रहा
है, जससे आँख चुं धया-सी रही ह।
व ाधर : यह या होगा? या व कमा के शाण-च पर घूमते ए च ड
मात ड का यह काश है अथवा ने भगवान् क ललाट थ च ु
क यह अस यो त है।
अ छा, समझा! ोध से व ु ध ए च केतु ने वह आ नेया
चलाया है। वही अ न-वषा कर रहा है। यह दे खो, वमान क वजाएँ
तथा चँवर अ न से जले जा रहे ह। नव कशुक पु प के स श लाल-
लाल ये वालाएँ वजा के अंशुक को कस ती ता से भ म कए
जा रही ह। दे खो, अ न क च डता कैसी बढ़ती जा रही है? व के
व फोट के समान कतना भीषण श द उठ रहा है। सवसंहार करती
ई वालाएँ ना गन क तरह जीभ नकाल कर सम त दशा को
चाटती ई चली जा रही ह। तो म अपनी या को व से ढँ क कर र
ले जाता ँ।
[वैसा करता है।]
व ाधरी : नाथ के शीतल पश ारा मेरा व ु ध मन अब कुछ शा त हो रहा है
और नेहान द के कारण मेरे दय का स ताप र हो गया है।
व ाधर : ये! मने या कया है? य जन तो कुछ न करता आ भी सुख से
ःख को तरो हत कर दे ता है। ेमी का नेहा दय एक अनोखा
है, जसके मह व को े मका का दय ही जानता है।
व ाधरी : यह या अब तो आकाश म मयूर-क ठ के स श काले-काले बादल
उमड़ते ए दखाई दे रहे ह। दे खो, इनम बजली कतनी चंचलता से
नृ य कर रही है।
व ाधर : अरे, यह तो कुमार ने वा णा चला दया है। उसी के भाव से यह
दे खो, आ नेया शा त हो गया है। बादल क नर तर जलधाराएँ,
दे खो, कस ती ता से अ न- फु लग को बुझाती चली जा रही ह।
व ाधरी : अ छा आ, अ छा आ।
व ाधर : अ छा कैसे आ? दे खो न, कैसे भयंकर काले-काले बादल उमड़ते
चले आ रहे ह? कैसा घोर अ धकार आकाश म छा गया है? वकराल
काल मानो व नगलने के लए मुँह बाए खड़ा है। ऐसा तीत होता
है क सम त ाणी लय-काल म संहारो त दे व के उदर म व
ए चले जा रहे ह।
शाबास च केतु, शाबास! तुमने उ चत समय पर वाय अ का
योग कर दया। इस अ से आकाश म घोर घन-घटा का इस
तरह वलोप हो गया, जैसे व ा ारा न वशेष स मा कूट थ चेतन
म सब नाम पा मक ववत का वलय हो जाता है।
व ाधरी : नाथ! यह कौन है जो इन दोन के बीच म अपने वमान को उतार कर
अपने उ रीयांचल को हलाते ए मधुर, न ध वाणी ारा दोन
राजकुमार को यु ब द करने क ेरणा दे रहा है?
व ाधर : (दे ख करके) अरे यह तो भगवान् राम ह जो श बूक का वध करके
वा पस आए ह। यह दे खो राजकुमार लव ने महापु ष के शा त वचन
को सुन कर आदरवश अपने अ का उपसंहार कर लया है। यह
दे खो, राजकुमार च केतु उनके चरण म णाम करने के लए अपना
म तक न ता से नीचे झुका रहा है। पु के पुन मलन से महाराज का
क याण हो। तो चलो, अब इधर चल।
[दोन चले जाते ह।]
[तब राम व होते ह— णाम करते ए लव तथा च केतु
भी।]
राम : (पु पक वमान से उतरते ए) हे सूय-कुल-च च केतु! ज द इधर आओ
और मुझे आ लगन करो। तु हारे अंग के शीतल पश से मेरे च का दाह शा त
हो। (उठा कर और नहेपूवक आ लगन करके) या तु हारे नूतन द अ
कुशलपूवक तो ह न? इनके ारा यु म तु हारी वजय न त है।
च केतु भगवन्, सब कुशल है, वशेषतया इस अद्भुत यवय य के लाभ से। इसे पा
: कर मेरा महान् अ युदय हो गया है। म ाथना करता ँ, आप इस साहसी वीर
का भी नेह-सा से अ भन दन कर।
राम : (लव को दे ख कर) इसक तो तु हारे जैसी ही मधुर तथा मनमोहनी आकृ त है।
ऐसा तीत होता है क लोक क र ा के लए अ वेद सा ात् शरीर धारण
करके आया आ है। मानो ा ड के प र ाण के लए मू तमान ा धम
उप थत हो गया है। यह कोई श का पुंज एवं गुण क रा श—तेज वी
राजकुमार दखाई दे ता है। यह तु हारा वय य जगत् के पु य-संचय का य
व प है।
लव : ( दल म) इस महानुभाव के दशन कतने मंगलकारी ह? दे खने मा से दय म
भ का उ े क उ प होता है। महापु ष सा ात् धम के अवतार दखाई दे ते
ह।
आ य है, इनके दशन से ही हम दोन का वरोध शा त हो गया है। आन द से
सा -रस अमृत हो रहा है। हम दोन क उ तता समा त हो गई है। न ता से
मेरा म तक इस महापु ष के स मुख झुका चला जा रहा है। न मालूम य इस
महापु ष के दशनमा से म अपने को परवश-सा अनुभव कर रहा ँ। सच है
महापु ष का पावन दशन तीथ के समान आ मा को प व तथा पाप र हत
करने वाला होता है।
राम : यह कुमार मेरे अ तरतम के ःख को व ा त कर रहा है और न मालूम कस
कारण अपने नेह-पाश म मुझे बाँधता ही चला जा रहा है। अथवा नेह का
कारण सापे होना आव यक नह । कोई आ त रक हेतु ही दो दय को पर पर
नेह सं स करता है। बा कारण पर ी तयाँ आ त नह होत । सूय के
उदय होने पर कमल वयं फु लत हो जाता है, च मा के शीतल पश से
च का त म ण वयं वत हो जाती है।
लव : च केतु! ये महानुभाव कौन ह?
च केतु यवय य! ये मेरे पू यपाद पता ह।
:
लव : तो मेरे भी धम से पू य पता ए य क तुमने मुझे यवय य कहा है। पर तु
रामायण-कथा म चार पु ष ‘पू यपाद पता’ नाम से कहे जाते ह। वशेष प म
बतलाओ क ये चार म कौन-से पता ह।
च केतु ये पता ह।
:
लव : (उ लास के साथ) या ये रघुनाथ ह? मेरा अहोभा य है क आज इनके पु य
दशन ा त ए। ( वनयपूवक सर झुका कर) भगवन्! म वा मी क- श य
आपको नम कार कहता ँ।
राम : आयु मान्, आओ-आओ। ( नेह से आ लगन करके) व स, इस अ त वनय से
बस। आओ ढ़ता से मेरे अंग से आ लगन करो। तु हारा यह शीतल पश
च मा क यो ना एवं च दन क रसधारा के स श मेरे स त त दय को शा त
कर रहा है। वक सत पद्म के समान यह पश कतना सुकोमल एवं मधुर
तीत हो रहा है।
लव : ( दल म) इनका मेरे त कैसा अकारण नेह ह? मने अनजाने ही, इनके साथ
ोह करते ए श हण कया। ( कट प म) पू य पता! आप मेरे
मूखतावश कए गए अपराध को मा क जए।
राम : व स, तुमने कौन-सा अपराध कया है?
च केतु अ मेधीय घोड़े के र क ारा आपके ताप क चचा सुन कर, इसने वीरता
: का दशन कया है।
राम : वीरता ही य का स चा भूषण है। तेज वी पु ष सर के फैलते ए तेज
को सहन नह कर सकता। ऐसा उसका वभाव ही होता है, जो सवथा अकृ म
एवं आनुषं गक ही है। जब सूय अनवरत प म करण ारा लावा उगलता है,
या सूयका त म ण उसे सहन न करता आ अ न को नह उगलता?
च केतु इस वीर युवक का ोध भी शोभा दे ता है। आप दे खए तो सही, इस वीर ारा
: यु कए जृ भका से हमारी सब सेनाएँ स म लत हो कर खड़ी हो गई ह।
राम : ( व मय तथा खेद से दे खकर— दल म) या व स का इतना भाव है? ( कट
प म) व स, अपने अ का उपसंहार कर लो। च केतु, तुम भी त भत होने
के कारण न े ई अपनी सेना को जा कर सा वना दान करो।
[लव यान ारा अ का उपसंहार करता है।]
च केतु जैसी आप क आ ा। ( नकल जाता है।)
:
लव पता, अ शा त हो गया।
:
राम ये रह यपूण जृ भका सौभा य से इस व स को भी स ए ह। इन अ का
: सव थम सा ा कार अपने ही तपोमय तेज के प म, ा द ाचीन गु ने
सह वष तप या करने के बाद, हत के लए कया था। इस अ -म मयी
उप नषद का ा यान मह ष कृशा ने, सह वष सेवा म नरत अपने य श य
कौ शक के लए कया। भगवान् कौ शक ने उसका ा यान मुझे कया है, यही
अ -सं मण क पर परा है। पर म पूछता ँ क कुमार को इनक ा त कैसे ई?
लव हम दोन को ये अ वतः ा त ए ह।
:
राम (सोच कर) या स भव नह ? वपुल पु य के प रणाम- व प इनका ा भाव
: कसी म हो सकता है? पर तु ‘हम दोन ’ का या मतलब है!
लव हम दो युगल भाई ह?
:
राम तो वह सरा कौन है?
:
[नेप य म]
द डायन! या कहा तुमने क आयु मान् लव का राजा क सेना के साथ यु चल
रहा है? आज ‘राजा’ श द ही संसार से उठ जाएगा। आज य जा त के श
क अ न सवथा शा त हो जाएगी।
राम यह कौन है, इ नील म ण क शोभा वाला जो इधर आ रहा है? अपनी मधुर वाणी
: से ही मेरे सब अंग को यह पुल कत कर रहा है। मेघ क ग भीर गजना से उ मेष को
ा त ए कमल-कुड् मल के समान, मेरा रोम-रोम इस बालक को दे ख कर ेमरस-
प रपूण हो रहा है।
लव यही मेरा बड़ा भाई आय कुश है, जो अभी भरत मु न के आ म से वा पस आ रहा
: है।
राम (कौतुक के साथ) तो व स! इधर ही बुलाओ आयु मान् को।
:
लव जैसी आपक आ ा। ( नकल जाता है।)
:
[तब कुश वेश करता है।]
कुश ( ोध के साथ धनुष को ख च कर) आज मेरा अहोभा य है क मेरे धनुष क यंचा
: सूयवंशी राजा के द त अ क ती ण र मय का सा ा कार करगी। सुना है
क इन सूयवंशी य ने अपने ताप से दे वराज इ को भी अभयदान दया आ
है और मनु से यमराज तक—अ भमानी राजा के अ भमान का दमन कया है।
[अ भमानपूवक घूमता है।]
राम इस बालक म कतना अद्भुत आ मा भमान है? इसक सम त जगत् को
: तु छता क बु से दे ख रही है? इसक धीर एवं उ त ग त धरती को ही मानो
झुकाए चली जा रही है। इस कुमार अव था म भी पवत के समान गु ता को यह
बालक दशत कर रहा है। सा ात् वीर रस ोध का च ड प धारण कर के
चला आ रहा है।
लव (समीप आ कर) जय हो आय क ।
:
कुश आयु मान! यह कैसी यु क बात है?
:
लव हाँ कुछ थी। पर तु अब आप अ भमान छोड़ कर वन भाव को हण कर।
:
कुश य?
:
लव य क यहाँ दे व रघुन दन वराजमान ह, वही जो रामायण क कथा के नायक ह
: और ाणु के गो ता ह।
कुश इस महापु ष के पु य दशन सवथा अ भन दनीय ह पर तु म सोचता ँ क इसका
: अ भवादन हम कस प म करना चा हए।
लव उसी प म जैसे गु वा मी क का।
:
कुश यह य कर?
:
लव उ मला के पु च केतु ने अ त सौहाद भाव से मुझे अपना यवय य कहा है। उसी
: स ब ध से यह राज ष हमारा धम- पता है।
कुश तब तो इस महापु ष के त वनय- दशन उ चत ही है।
:
[दोन आगे जाते ह।]
लव आप इस महापु ष को दे खए! आकार, अनुभाव, ग भीरता से ही इसके लोको र
: च र का प रचय ा त होता है।
कुश (दे ख कर) सचमुच; आकार कतना सौ य है, अनुभव कतना पावन है। रामायण-
: णेता क व वा मी क ने उ चत थान पर ही अपनी वाणी का योग कया है। पू य
महानुभाव म वा मी क- श य कुश आपका अ भवादन करता ँ।
राम आओ-आओ चरंजीव! अमृतपूण मेघ के स श तेरे गा का आ लगन करने के लए
: मेरा मन उ क ठत हो रहा है। (आ लगन करके दल म) कैसा सरस पश है इस
बालक का! ऐसा तीत होता है क इसके अंग- यंग से नेह वत हो रहा है।
मानो वह नेह चेतन प धारण करके इस बालक के आकार म ा भूत हो गया है।
इससे कया गाढ़ आ लगन मेरे दय को आन द से सा करता आ शीतल
अनुभू त को उ प कर रहा है।
लव यह म या ह-सूय हमारे सर पर तपने लग गया है। आइए, आप इस साल वृ क
: छाया म ण भर व ाम कर ली जए।
राम जैसा व स को चकर लगे।
:
[सब जा कर यथो चत प म बैठ जाते ह।]
राम (अपने दल म) अ त वन होने पर भी इन दोन का उठना, बैठना, चलना इ या द
: च वत राजा के ल ण से यु है। इनके शरीर से फूटते ए राजसी च ह इनके
लाव य को गु णत कर रहे ह। जैसे न कलंक च मा क र मयाँ उसक शोभा
को गु णत करती ह अथवा वक सत कमल के मकर द- ब उसक का त को
समृ करते ह।
इन दोन म मुझे रघुकुल-कुमार के अनेक च ह दखाई दे रहे ह। इनके शरीर
कपोत-क ठ के समान नील वण के ह, क धे बैल के क ध के समान उ त ह,
सह-स श गवमयी है और इनक व न मंगल-मृदंग के समान मांसल ह। (सू मता
से दे ख कर) न केवल हमारे वंश से ही इनक आकृ त मलती है, अ पतु इस शशु-
युगल म जनकसुता का सा य भी प गोचर हो रहा है। इनको दे ख कर मेरी
आँख के स मुख या का कमल-सु दर वदन उप थत हो जाता है। इनके दाँत क
छ व सीता के सवथा समान है। वैसे ही ओ -मु ा है, वैसे ही कणपाश ह। आँख
य प कुछ अ धक लाल और नीली ह तथा प उनका सो दय सीता-स श ही है।
(सोच कर) यह वही वा मी क मु न से अ ध त वन है, जहाँ सीता को छोड़ा गया
था। इन बालक क आकृ त सीता-स श है। सीता-प र याग को बारह वष बीत चुके
ह, इनक आयु भी उतनी ही है। इनका लाव य या वाला है, इ ह जृ भका वतः
काश ए ह—ये उ ह सं कार का भाव है जो गभाव था म च दे खते समय
सीता के मन पर अं कत ए थे। जृ भका तो हमने पूवज से सुना है क बना गु
के उपदे श से कसी को सं ा त नह होते। फर इ ह ये कैसे ा त ए, यह कुछ
समझ म नह आता। ये दोन युगल भाई ह, यह कुछ अपने पर ही घटता है।
सीतादे वी के गभ पर दो जीव का प च ह दखाई दे ता था। (आँसू प छ कर) जब
हम दोन का पर पर ेम पराका ा तक प ँच गया था, तब एका त म व ासपूवक
बैठ ई, ल जा से अवनत नयन वाली सीता के गभ पर कर- पश ारा पहले मने
पता लगाया था क युगल पु होने वाले ह—सीता ने तो कुछ दन के बाद इस बात
का अनुभव भी कया था।
(रोते ए) तो, इन दोन से कस कार पूछूँ?
लव महानुभाव, यह या? आपका जग-मंगलकारी मुख आँसु से आ य हो गया
: है? ओस से सचे ए कमल-फूल क दशा को यह तु हारा मुख य धारण कर रहा
है?
कुश य भाई! यह या पूछते हो? सीतादे वी के बना रघुप त के लए या ःखकारी
: नह है? या का नाश हो जाने पर सारा संसार ही सूने जंगल के समान हो जाता है।
दोन म कतना स चा ेम था? अब इन दोन का वयोग भी सीमा र हत है! तुम तो
ऐसी बात पूछते हो क मानो क तुमने रामायण कभी पढ़ ही न हो।
राम ( दल म) अरे, भाषण तो तट थ है। इससे कुछ पूछना न योजन होगा। मूख दय!
: तुम न कारण ही लभ वषय क ा त के लए मनोरथ कर रहे हो! इस तरह दय
का आवेग कट करने से बालक ारा भी दया का पा बनाया गया ँ। अ तु, अपने
आवेग को छपाता ँ। ( कट प से) व स! “रामायण, भगवान् वा मी क क
सर वती का वाह है और सूयवंश के च र का क तन है” ऐसा सुना जाता है, इस
कारण कुछ कुतूहल से सुनने क इ छा करता ँ।
कुश हाँ, हम लोग ने स पूण थ का अ यास कया है। इस समय बालच रत के ये दो
: ोक मरण म उप थत ह।
राम व स कहो।
:
कृ त से ही यारी थी, राघव को जो सीता
वगुण से अ धक यारी, बनी गुणवती सीता ।।
राम को भी सीता थी, ाण से अ धक य ।
पर पर ी त को उनका, जानता केवल हय ।।
राम हाय, यह तो दय पर घोर व ाघात के स श है दे व! सचमुच ऐसा ही था। पर तु
: संसार के वयोग तथा मरण मा म अव श रह जाने वाले, ऐसे ही दा ण प रणाम
ह।
वह पर पर अ य धक नेह से सना आ अप रमेय आन द कहाँ? वह पर पर का
अनुराग और लीलाएँ कहाँ? वह सुख और ःख म अ भ रहने वाली दय क
एकता कहाँ? तो भी पापपूण यह ाणवायु चल रहा है और कता नह ।
हाय क है!
मुझे उस समय का मरण करा दया गया है, जब या के सह गुण का मशः
वकास हो रहा था। यह मरण कतना ःसह हो रहा है!
उस समय या का ता य अ सर हो रहा था। मृगनयनी के तन-युगल यौवन के
साथ त दन पीन हो रहे थे। कामदे व आयु क वृ के साथ-साथ मु धा के शरीर म
शनै:-शनै वेश करता जाता था और कट प म अपने भाव को अंग- यंग म
दखा रहा था।
कुश च कूट पवत के माग म, गंगाजल म ड़ा करती ई सीता को उ े य करके
: रघुनाथ का यह एक ोक है—
था पत यह तेरे लए, शलादे वी सु व तृता ।
केसर वृ है कर रहा, जसको नर तर पु पता ।।
राम (ल जा, मत, वा स य एवं क णा के साथ) ये दोन बालक कतने भोले-भाले ह।
: जंगल म रहने के कारण नलप ह। हा दे वी! या उस समय के एका त णय को भी
तुम मरण करती हो? तु हारा मुख म से उ प वेद कण से भरा आ था। गंगा
क म द-म द शीतल समीर से तु हारे चंचल अलक च मा क का त वाले ललाट
पर गर रहे थे। भूषण के बना भी सु दर कणपाश से तु हारा उ वल कपोल
वाला आनन, द आभा से द त हो रहा था और म सतृ ण नयन से उसे नर तर
दे खता ही जाता था।
( त भत क तरह होकर, शोक के साथ) ओह! यजन के वास म, मनु य
क पना ारा उसक मू त को बना कर और उसका यान करके अपने मन को
सा वना व आ ासन दे लेता है पर तु यतमा प नी के लोका त रत हो जाने पर,
उसके लए सम त जगत् ही जीण अर य के समान हो जाता है और उसका दय
तुषानल क रा श म मानो द ध हो जाता है।
[नेप य म]
अ धती के साथ व स , वा मी क, दशरथ क महारा नयाँ और जनक लव और
च केतु का यु सुन कर, भययु ए- ए उ न मन से, आ म के र होने के
कारण थके ए, अपने जरा त अंग के साथ धीरे-धीरे चले आ रहे ह।
राम भगवती अ धती, भगवान् व स , माताएँ और महाराज जनक यहाँ कैसे प ँच
: गए? म इन लोग का कैसे दशन क ँ ? (क णापूवक दे ख कर) यह जान कर क
पता जनक जी भी यह आ गए ह, म म दभा य वाला व से ता ड़त आ अनुभव
कर रहा ँ। वष पूव मेरे पता और जनक जी का हमारे ववाह के समय सुमधुर
पर पर मलन आ था। व स जी तथा अ य सब बड़े लोग स तान के इस शुभ
ववाह पर अ य त स थे। उस समय को मरण करके और आज घोर हसा हो
जाने के बाद अपने पू य पता के सु द् जनक जी को इस अव था म दे ख कर के
मेरा दय हज़ार टु कड़े य नह हो जाता। अथवा राम के लए या कर है?
[नेप य म]
ओह! क है!
भावमा से शोभा स प रामच जी को अत कत भाव से दे ख कर कौस या
आ द माताएँ, जनक जी से होश म लाई ई, पुनः मू छत हो जाती ह।
राम जनकवंश तथा रघुवंश के लए जो स पूण गो -मंगल के समान थी, उस सीता पर
: भी नदयता का आचरण करने वाले मुझ नृशंस पर, आप लोग क यह दया थ
है। अ छा तो जा कर इनका अ भवादन करता ँ। (ऐसा कह कर उठता है।)
कुश- पता जी, इधर आव, इधर।
लव :
[क णा के साथ घूम कर सब चले जाते ह।]
[ष अंक समा त]
स तम अंक

[ल मण वेश करता है।]


ल मण : अरे भगवान! वा मी क ने हम लोग के साथ और ा ण, य,
नाग रक तथा ामवासी जन के साथ जा को बुला कर, स पूण
दे वता, दै य और नाग आ द के साथ थावर-जंगम सम त ा णसमूह
को अपने भाव से कस तरह इकट् ठा कर लया है? आय रामच ने
मुझे आ ा द है क “व स ल मण! भगवान् वा मी क ने अ सरा से
अ भनय क जाने वाली अपनी रचना (नाटक) को दे खने के लए हम
लोग को नम त कया है। तुम गंगा-तीर पर जा कर सामा जक के
लए उपयु संगीत-नाट् यशाला का ब ध कर दो।” तो मने मनु य
एवं दे वता —सब के लए उ चत आयोजन कर दया है। यह दे खो
ीराम रा य- सहासन पर आसीन हो कर भी कठोर मु न त को
धारण कए ए वा मी क मु न के गौरव से इधर चले आ रहे ह।
[ ीराम वेश करते ह।]
राम : व स ल मण! नाट् यशाला म या सामा जक लोग उप थत हो गए ह?
ल मण : जी हाँ।
राम : इन दोन कुमार को च केतु के समान थान दे कर स मा नत करना।
ल मण : महाराज के नेह को जान कर, पहले ही ऐसा कर दया है। यह
सहासन आपके लए बछा है। आप इस पर बै ठए।
राम : (बैठ कर) नाटक आर भ करो।
[सू धार वेश करता है।]
स यवाद भगवान् वा मी क, चराचर जगत् को यह आ ा दे ते ह
—“हमने अलौ कक से दे ख कर यह जो पावन, क ण एवं
अद्भुत रस वाला अमृत वाणी से सना आ नाटक लखा है, उसके
अ भनय को आप लोग का -गौरव से सावधान हो कर दे ख।”
राम : यह ठ क कहा है। मह ष लोग धम का सा ा कार करने वाले होते ह।
उनक ा ऋृत भरा होती है। रजोगुण से परवत उनका ान कभी
ाहत नह होता। इस कारण उनके वचन पर कभी शंका नह क जा
सकती।
[नेप य म]
हा आयपु ! हा कुमार ल मण! तुम मुझे अकेली इस अशरण म छोड़
कर कहाँ चले गए हो! मेरी सव-वेदनाएँ उप थत होने वाली ह। इस
घोर जंगल म मुझ अबला को ये ा आ द ह ज तु खाने क
इ छा कर रहे ह। हाय! इस समय म म द भा य वाली या क ँ ?
अ छा, अपने शरीर को भागीरथी माता क गोद म फकती ँ।
ल मण : क है। यह तो कुछ और ही शु हो गया।
सू धार : यह दे खो, पृ वी क पु ी महारानी सीता महाराज राम से वन म
प र य क ई, सव-वेदना के उप थत होने पर—अपने शरीर को
गंगा के वाह म डाल रही है।
[ऐसा कह कर चला जाता है।]
[ तावना]
राम : (भय के साथ) दे व! दे व! ल मण को दे खो।
ल मण : आय! यह नाटक है।
राम : हा दे व! द डकार य- नवास क यस ख! राम से तु हारा यह प रणाम आ!
ल मण : आय! आ त हो कर दे खए? यह ऋ ष क रचना है।
राम : यह म व दय तैयार ँ।
[एक-एक बालक को गोद म ले कर पृ वी और गंगा के ारा आ य द
ई मू छत सीता वेश करती है।]
राम : व स, म कसी अ ात घोर-अ धकार म वेश-सा कर रहा ँ। मुझे सहारा दो।
दोन हे क या ण सीते! तुम समा त होओ। भा य से बढ़ रही हो। तुमने जल के
दे वयाँ : भीतर रघुवंश को धारण करने वाले दो कुमार को ज म दया है।
ल मण : (राम के पैर म गर कर) आय, भा य से हम लोग बढ़ रहे ह। रघुवंश शुभ
अंकुर वाला आ है। (दे ख कर) हाय, यह आय राम तो अ ुधारा बहाते ए,
मू छत हो गए ह। (हवा करता है।)
दोन व से, समा त हो।
दे वयाँ :
सीता : (समा त हो कर) भगवती! आप लोग कोन ह? मुझे छो ड़ए।
पृ थवी : ये तु हारे शुर-कुल क दे वता गंगा जी ह।
सीता : हे भगवती! आपको नम कार है।
भागीरथी च र के यो य क याण-स प को ा त करो।
:
ल मण : हम लोग अनु हीत हो गए।
भागीरथी यह तु हारी माता पृ थवी है।
:
सीता : हा माता! आपने मुझे ऐसी अव था म दे खा।
पृ थवी : पु व से सीते! आओ।
[दोन आ लगन कर मू छत हो जाती ह।]
ल मण : (हष के साथ) कस तरह आया को गंगा और पृ थवी ने अनुगृहीत कया।
राम : भा य से यह बात ई। यह क णाजनक य भी तो दे खो।
भागीरथी जो संसार को धारण करने वाली माता पृ थवी भी इस तरह ः खत हो रही है,
: इसम स तान- ेम क वजय -गोचर होती है। यह स तान- नेह सब म
समान प से रहने वाला है। यह मन का मोह-ब धन है, ा णय क
आ य त रक चंचलता है। यह स तान-मोह संसार का त तु व प है। स ख
व भरे, भूतधा ! पृ थवी! व से वैदेही! अ त होओ।
पृ थवी (आ त हो कर) सीता का सव करके म कैसे आ त होऊँ? इसका ब त
: काल तक रा स के बीच म रहना मने सहन कया। प त से कया गया, यह
सरा याग तो अब मेरे लए अ तशय ःसह हो रहा है..
गंगा : कौन ाणी फल दे ने के लए त पर भा य के ार को ब द करने के लए समथ
हो सकता है?
पृ थवी भगवती भागीरथी! या यह सब करना आपके रामभ को उ चत था?
:
न उसने बा याव था म सीता के साथ पा ण- हण क अपे ा क , न मेरी, न
जनक क , न अ न क , न सीता के पा त य क और न ही स तान क अपे ा
क।
सीता : हा आयपु , या मुझे मरण करते हो?
पृ थवी ओह! आयपु तु हारा अब कौन है?
:
सीता : (ल जा के साथ आँसू बहा कर) जैसा भी कहती है।
राम : माँ पृ थ व! म ऐसा ही ।ँ
गंगा : भगव त पृ थ व! आप संसार क शरीर- प हो। इस लए य अनजान क तरह
बन कर जामाता पर कु पत होती ह? लोक म भयंकर अक त फैल गई थी।
लंका प म सीता क जो क ठन परी ा उसका यहाँ के लोग कैसे व ास कर।
इ वाकु-कुल के राजा का यह वंश मागत धम है क स पूण जा क
आराधना क जाए। इस कारण इस धमसंकट म व स रामभ और या कर
सकता था?
ल मण दे वता सब ा णय क मनोवृ को जानते ह। उनका ान अ ाहत एवं
: तब ध र हत होता है। माता पृ थवी से तु हारी नद षता छपी नह ।
गंगा : मेरी यह आपको नम कार क अंज ल है।
राम : मात :! आपने भगीरथ-वंश पर अनु ह कया, आज मेरे वंश पर कर रही हो।
पृ थवी म आपसे सवथा सहमत ँ। पर तु स त त- नेह दय को ववश बना दे ता ह
: सीता पर रामच का अगाध ेम ह—ऐसा म अ छ तरह जानती ँ। म जानती
ँ सीता का याग करके उनका दय अ त संत त है। वे अपने लोको र धैय से
तथा जा के पु य से ही अब तक जी वत ह।
राम : पू य जन, अप य- प हम लोग पर सदा दयालु रहते ह।
सीता : (रोती ई, हाथ जोड़ कर) माता जी! मुझे अपने अंग म वलीन कर ली जए।
गंगा : या कहती हो व से, हजार वष तक जीती रहो।
पृ थवी तु ह तो दोन पु क दे ख-रेख करनी है।
:
सीता : ये अनाथ पु कैसे जी वत हो सकगे।
राम : दय, तुम व न मत हो।
गंगा : ये पु सवथा सनाथ ह। इ ह अनाथ कैसे कहती हो?
सीता : मुझ भा यहीना क सनाथता कैसी?
दोन हे सीते! तुम जगत्-क याण व प अपना इस तरह तर कार य करती हो?
दे वयाँ तु हारे स पक से तो हम दोन क प व ता उ कष को ा त होती है।
:
ल मण आय! सु नए।
:
राम : लोक सुन।
[नेप य म कोलाहल होता है।]
राम : अ तशय आ यकारक कुछ है।
सीता : कस लए आकाश कोलाहल यु हो कर चमक रहा है?
दोन जान लया।
दे वयाँ
:
कृशा , व ा म और राम—ऐसा जन श का गु म है, वे ही श
जृ भक श के साथ कट हो रहे ह।
[नेप य म]
है दे वी! सीते! आपको नम कार है। हम आपके दोन पु क खोज म ह आपके
च -दशन के साथ ही हम रामच जी ने आपके पु को स प दया था।
सीता : सौभा य है मेरा। आप अ -दे वता ह—मेरे पु म वेश करना चाहते ह।
आयपु , अभी तक आपके अनु ह का शत हो रहे ह।
ल मण मरण है, आय ने सीता को एक दन कहा था—“ये जृ भका तु हारी सूत
: स त त को ा त ह गे।”
दोन हे े अ ो! आप लोग को नम कार है। आप लोग के वीकार से हम लोग
दे वयाँ ध य हो गए ह। यु आ द के अवसर पर यान कए जाने पर आप लोग को
: हमारे दोन व स (कुश और लव) के पास उप थत होना चा हए। आप लोग का
क याण हो।
राम : व मय तथा आन द के संयोग से वशीण ई- ई क णा क उ मयाँ इस समय
मेरे दय म अ नवचनीय अव था को उ प कर रही ह।
दोन स हो जाओ, व से! स हो जाओ। तु हारे दोन पु इस समय रामभ के
दे वयाँ तु य हो गए ह।
:
सीता : भगवती! कौन इनके यो चत सं कार कराएगा।
राम : क है! यह व स के श य रघुवंशी राजा क आन द-हेतु सीता आज अपने
पु के सं कार कराने वाले आचाय को भी नह पा रही।
गंगा : क या ण! तु ह इस च ता से या योजन? ध छोड़ने के बाद इन दोन व स
को म भगवान् वा मी क को अपण कर ँ गी। इस समय व स ऋ ष ही रघुवंश
के आचाय ह। वे ही इन दोन का ा णो चत तथा यो चत सं कार करगे।
रघु और जनक, इन दोन वंश म जस तरह व स और शतान द गु ह, उसी
तरह वा मी क ऋ ष भी गु ह।
राम : भगवती गंगा ने अ छा वचार कया।
ल मण म स य नवेदन करता ँ। ब त कारण से ये व स कुश और लव ही वे सीता के
: पु ह—म ऐसी स भावना करता ँ। य क ये दोन वीर ह, इनको जृ भका
ज म स ह। दोन ने मह ष वा मी क से सं कार-लाभ कया है, ये दोन आपके
स श आकार वाले ह और दोन ही वय से बारह वष के ह।
राम : व तुतः ऐसा ही है। म इन दोन व स को अपने पु समझ कर ही चंचल और
अ तशय मोहयु हो रहा ।ँ
पृ थवी आओ बेट ! पाताल को प व कर लो।
:
राम : ये! या तुम सरे लोक क चली गई हो।
सीता : माता जी! आप मुझे अपने अंग म वलीन कर लो। म मनु य-लोक के ऐसे
तर कार को सहन नह कर सकती ँ।
ल मण या उ र होगा?
:
पृ थवी मेरी आ ा से ध छोड़ने के समय तक पु क दे ख-रेख करो। इसके अन तर
: जैसी च होगी वैसा क ँ गी।
गंगा : ऐसा ही करना चा हए।
[दोन दे वयाँ और सीता जी चली जाती ह।]
राम : कस तरह सीता ने वीकार ही कर लया? हा च र -दे वते! सरे लोक म व ाम
को चली गई हो?
[ऐसा कह कर मू छत हो जाता है।]
ल मण भगवन् वा मी क! र ा क जए, र ा क जए! आपके का का या यही
: योजन था?
[नेप य म]
वा -वादन ब द कर दो। हे थावर और जंगम ा णवग! दे वता और
मनु यसमुदाय! इस समय आप लोग वा मी क ऋ ष से आ द प व आ य को
दे ख।
ल मण (दे ख कर) यह या? गंगा जी जैसे म थन से ु ध हो रही ह। आकाश दे वता
: और ऋ षय से ा त है। दे खए, कतना आ य है क आया सीता गंगा और
पृ थवी के साथ जल म से नकल कर ऊपर उठ रही ह।
[नेप य म]
हे जगद्-व अ ध त! हम दोन गंगा और पृ थवी पर अनु ह क जए। हम
प व त वाली इस वधू सीता को आपको स पती ह।
ल मण : अहो! आ य है, आ य है! आय अ ध त! इ ह दे खए। हाय, आय तो अभी
तक होश म नह आए।
[अ धती और सीता वेश करती ह।]
अ धती बेट सीते! ज द करो। ल जाशीलता को छोड़ो। आओ, कोमल पश वाले
: अपने हाथ से मेरे व स रामभ को पुन जी वत कर दो।
सीता : (ज द से पश करती है।) आ त ह , आयपु आ त ह ।
राम : (होश म आ कर आन द के साथ) अरे! यह या है? (दे ख कर हष और आ य
के साथ) या दे वी सीता आ गई है? (ल जा के साथ) अरे! अरे या माता
अ धती और स पूण ऋृ यशृंग आ द हमारे पू य जन भी यह उप थत ह?
अ धती व स! यह भागीरथी से लाई गई, हमारे रघुकुल क दे वता, माता गंगा हम पर
: स ई ह।
[नेप य म]
जग प त रामभ ! च -दशन के अवसर पर मुझे जो कहा था, उसका मरण
करो—“हे माता! गंगा! तुम पु वधू सीता म अ धती क तरह क याण-
च तन करने वाली बनो।” वैसा ही करके अब म ऋणमु ई ँ।
अ धती यह तु हारी सास भगवती पृ थवी है।
:
[नेप य म]
चरंजीव ने सीता के प र याग के अवसर पर मुझे कहा था—“भगवती पृ थ व!
पु यशीला पु ी सीता क दे ख-रेख करना।” मने अब तक तु हारे वचन का
पालन कया है।
राम : भगव त! राम ने घोर अपराध कया है। फर भी आप उस पर अनुक पा
क जए। म हाथ जोड़ता ँ।
अ धती हे नगर तथा ामवासी जाजनो! इस समय पृ थवी तथा गंगा से इस कार
: शंसा क गई, पहले भी जसके प व च र का भगवान् अ नदे व ने नणय
कया था, जसके पावन यश का गान ा आ द दे व ने वयं कया है—उस
सूयवंश क वधू, य स भवा सीता को म आपको सम पत करती ;ँ आप इसे
वीकार करो। अथवा आपक इस वषय म या स म त है?
ल मण : आय! इस तरह अ धती से उलाहना दए ए जाजन तथा स पूण
ा णसमुदाय आया को नम कार कर रहे ह। लोकपाल और स त षगण भी
पु पवृ से आया क पूजा कर रहे ह।
अ धती जग प त रामभ ! इस अपनी या प नी सीता को तुम हण करो, जो तु हारी
: सहधमचा रणी है। सुवणमयी तमा को हटा कर, अब तुम इस कृ त- प
सीता को य -धम स प करने के लए अपने साथ नयु करो।
सीता : (अपने दल म) आयपु सीता के ःख का नवारण करना भी जानते ह।
राम : भगवती जैसी आ ा करती ह।
ल मण : म कृतकृ य हो गया ँ।
सीता : मने पुनज वन को ा त कर लया है।
ल मण : आय! यह ल मण णाम करता है।
सीता : व स तुम ऐसे ही हो कर चरकाल तक जीते रहो।
अ धती भगवन् वा मीके! इस समय, सीता के गभ से उ प कुश और लव को रामभ
: के समीप ले आइए। (ऐसा कह कर चली जाती है।)
राम और भा य से यह बात वैसी ही ई।
ल मण
सीता : मेरे दोन पु कहाँ ह?
[तब वा मी क, कुश और लव वेश करते ह।]
वा मी क ब चो! ये रामच जी तु हारे पता ह। ये ल मण जी छोटे चाचा ह। ये सीता
: जी माता ह और ये राज ष जनक तु हारे मातामह (नाना) ह।
सीता : (हष, शोक और आ य के साथ दे ख कर) कैसे पता जी यहाँ उप थत हो गए
ह? ये दोन पु भी आ गए ह?
दोन हा पता जी! हा माता जी! हा मातामह (नानाजी)?
बालक :
राम और (हष के साथ आ लगन करके) पु ो! चरकाल के बाद ा त ए हो।
ल मण
सीता : पु कुश! आओ, पु लव! आओ। सरे लोक से आई ई मुझ माता को दे र
तक आ लगन करो।
कुश और (वैसा करके) हम दोन ध य ह।
लव
सीता : भगवन्! यह म णाम करती ।ँ
वा मी क बेट ! ब त काल तक ऐसी—प त एवं पु से अ वयु हो कर ही रहो।
:
[नेप य म]
लवणासुर को मार कर मधुरा के अधी र—श ु न जी प ँचे ह।
ल मण : क याण के अन तर क याण-पर परा का आर भ होता है।
राम : इन सब वषय का सा ा कार करता आ भी, म व ास नह कर रहा क
या यह स य है अथवा क याण का यह वभाव ही है?
वा मी क रामभ ! कहो, म और या तु हारे अभी का स पादन क ँ ?
:
राम : इससे भी अ धक या अभी हो सकता है! फर भी यह भरत वा य स प
हो—
पाप से करती वमु , करती संवृ क याण क ,
है रामायण क कथा, यह मनोहारी जग पावनी ।
शद ववेक- व क व ने ना या मका है कया,
मेधावी, इस नाटक य कृ त को दे ख वचार सदा ।
[सब लोग चले जाते ह।]
[समा त]

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