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पवू पीिठका
उप यास
सुलभ अि नहो ी
अंजुमन काशन
इलाहाबाद
भिू मका
रामकथा भारत क जनता क रग म खन ू क तरह दौड़ती है। भारत म ही नह , ीलंका,
इंडोनेिशया, कंपिू चया, थाईलड, लाओस, बमा, मलेिशया, िफलीप स, नेपाल, ित बत, चीन,
मंगोिलया, जापान, तुक आिद देश म भी रामकथा िकसी न िकसी प म चिलत है या चिलत
रही है। इंडोनेिशया जैसे मुि लम रा म भी नाग रक परू े स मान से रामकथा आज तक सहे जे ह
और उसको पढ़ते ह। इसके साथ ही यह भी सही है िक इन िविभ न रामकथाओं के
कथानक म पया िभ नता है। कह सीता रावण क पु ी ह तो कह दशरथ क पु ी भी ह। कह
अंत म सीता का भिू म वेश है तो कह राम के पास वापसी भी है। बौ जातक म भी रामकथा
ा है। इनम बु बताते ह िक वही पवू ज म म ीराम के प म अवत रत हए थे। बौ मत से
भािवत कई रामकथाओं म िहंसा से बचने का यास िकया गया है। इनम राम रावण का वध न
कर मा दंड देकर छोड़ देते ह। इसी कार जैन-मत से भािवत रामकथाएँ भी उपल ध ह। इन
रामकथाओं म अनेक कथाएँ ऐसी भी ह जो तुलसी क रामकथा पढ़ते-सुनते बड़े हये हम लोग
के िलये िनतांत अ ा ह। इन कथाओं के अनेक संग हमम से बहत से आ थावान लोग को
उ ेिजत भी कर सकते ह।
िव म कुल िकतनी रामकथाएँ चिलत ह इसक गणना संभव नह है। िव म या
भारत म ही कुल िकतनी रामकथाएँ िलखी गयी ह इसक ही गणना संभव नह है। ामािणक प
से बस इतना ही कहा जा सकता है िक इन सम त रामकथाओं म सव थम महिष वा मीिक
णीत ‘रामायण' ही है। बाद क सम त कथाओं म, भले ही रचनाकार ने उनम अपनी क पना
क उड़ान से अनेक प रवतन कर िदये ह , मल ू त व वा मीिक रामायण से ही िलये गये ह। वतं
रामकथाओं के अित र हमारे पौरािणक ंथ म भी थान- थान पर रामकथाएँ िबखरी हयी ह।
वा मीिक के बाद क रामकथाओं म संभवत: सवािधक ाचीन और िस भी, महिष कंबन क
तिमल रामकथा है। रामकथा म प र कार का यास भी यह से आरं भ हो गया। कंबन ने अपनी
कथा म कई प रवतन िकये िक तु मेरी समझ म उनम सबसे मह वपण ू प रवतन रावण के च र
म है। कंबन का रावण अ यंत उदा च र है। उसक जा उससे यार करती है। कंबन से तुलसी
तक आते-आते रावण िव ान तो रह गया िक तु उसके यि व के उदा गुण का ास होता
चला गया। तुलसी के राम वा मीिक के राम क तरह मानव नह रहे , वे िवराट् का अवतार
हो गये। वे मा कथा के नायक नह तुलसी के आरा य भी ह। वाभािवक है िक आरा य के च र
का िच ण भ भि भाव से ही करे गा। ऐसे म नायक के च र को उठाने के िलये खलनायक
के च र को िगराना अप रहाय हो जाता है। वही हआ भी। तुलसी के राम मयादा पु षो म के प
म थािपत हए। इ लाम के वच व से आ ांत िह दु व ने तुलसी के राम म अपना उ ारक
खोजने का यास िकया और मयादा पु षो म राम भारत के जन-जन के आरा य बन गये। ...
और तब से आज तक रावण ितवष, हर गाँव-गली म ितर कारपण ू दहन का दंश झेल रहा है।
रामकथा से इतर रावणकथा िलखने का थम यास संभवत: आचाय चतुरसेन ारा
िस कृित ‘वयं र ाम:' के मा यम से हआ। वयं र ाम: मह वपण ू े
ू इसीिलये है िक समच
इितहास म पहली बार सम त घटना म को रावण के ि कोण से देखने का यास िकया गया।
तुलसी ने जहाँ जनमानस तक पहँचने के िलये भि को आधार बनाया वह आचाय चतुरसेन ने
ान और िव ता को। कालांतर म सामी जी ने अपनी पु तक ‘लंके र' के साथ यही यास
िकया। इस म म आनंद नीलकंठन ने सराहनीय यास िकया। उनक ‘असुर-
परािजत क गाथा' अपने आप म त यपण ू और तकपणू ढं ग से रावण के च र का ितपादन
करती है। इन तीन के अित र रावण के ि कोण से िलिखत अ य कोई रामकथा
कम से कम मेरे सं ान म नह आयी।
आधुिनक युग म रामकथा के े म सबसे सफल और सबसे मा य काय नरे
कोहली का रहा है। उनक नौ खंड म आई रामकथा खबू पढ़ी और सराही गयी। उ ह ने परू े
कथानक को एक िभ न ि कोण से देखने का यास िकया। नरे कोहली के राम, वा मीिक
के राम के समान ही, नह महामानव ह।
अमीश ि वेदी, आनंद नीलकंठन और बकर ने रामकथा म भी अपने हाथ आजमाये।
आनंद नीलकंठन का िज पहले ही कर चुका हँ। अमीश ि वेदी और बकर हाइटेक लेखक ह। ये
िवषय म बहत गहरे तो नह उतरे िक तु इनक सोच हाइटेक के साथ-साथ परं परागत
आ याि मक पवू ा ह से भी मु है।
मेरे इस कथानक का आधार िनि त ही वा मीिक रामायण है। सबसे ाचीन होने के
नाते उसे ही सवािधक ामािणक माना भी जाना चािहये। दूसरे वा मीिक के राम महामानव तो ह
िक तु वयं नह ह। वा मीिक रामायण को आधार प म हण करने म बस एक ही
सम या का सामना करना पड़ा और वह थी - स पण ू कथानक म से ि अंश को छानने क ।
िफर भी पवू कथाओं को आकार देने के िलये बहत हद तक म इ ह ि खंड पर आि त रहा
हँ। कारण प है - मल ू कथा म तो वे कथाएँ ह ही नह ।
हाँ! इस कथानक के लेखन म मुझे सवािधक िजस ने परे शान िकया, वह था िक
इसक भाषा या रखी जाय? सं कृतिन या आम बोलचाल क । अंत म मुझे यही उिचत लगा
िक कथा म आये िव त-वग क भाषा तो उनक ग रमा के अनु प ही होनी चािहये। उनके संवाद
म देशज और िवदेशी श द से यथास भव परहे ज रखने का यास िकया है। िफर भी यह यास
रहा है िक भाषा सामा य पाठक के िलये दु ह न हो जाए। शेष कथा क भाषा को सहज रखने
का ही यास िकया है।
- सुलभ अि नहो ी
मो. - 9839610807
sulabhagnihotri.kan@gmail.com
www.sulabhagnihotri.redgrab.com
कथासार
मेरी इस राम-रावण कथा म रावण िवलेन नह है। यह दो सं कृितय का टकराव है।
सारी योजना के सू धार, इ के िहतिचंतक नारद ह और उनके सहयोगी देवगण व ऋिष
समुदाय। योजना क जानकारी दशरथ क तीन रािनय और मंथरा को भी है।
कथानक का आरं भ चपला नाम क एक िकशोरी के रावण के मातामह (नाना) सुमाली
से टकराव से होता है। यही चपला भिव य क मंथरा है। सुमाली व तुत: िव णु ारा जान बचा कर
भाग रहा है। बीच म वह चपला के उ ान म अपने बचे-खुचे लोग के साथ शरण ले लेता है।
परू े कथानक म मु यत: समाना तर तीन कथाएँ चल रही ह। पहली सुमाली और िफर
रावण क कथा है। दूसरी देव क रावण से िनपटने के िलए िकए जा रहे यास क कथा है और
तीसरी दशरथ क कथा है। इ ही म गुंथी हई दो कथाएँ और चलती ह। पहली कथा गौतम-
अह या, आ िण-इ -सय ू -बािल-सु ीव, केसरी-अंजना-हनुमान के अंतस ब ध क कथा है और
दूसरी उस काल के आम आदमी को दशाने के िलए गढ़ी गयी परू ी तरह से का पिनक मंगला क
कथा है।
सुमाली क कथा म मश: िव णु ारा परािजत सुमाली का पलायन, अ ातवास,
अपनी पु ी कैकसी को िव वा से िववाह के िलए पे्र रत करना, रावणािद का ज म, उनक
तप या और रावण ारा वरदान ा करना, िव वा के परामश के अनुसार कुबेर ारा रावण के
िलए लंका छोड़कर अलकापुरी बसाना, सुमाली ारा कूटनीित से रावण और कुबेर के म य यु
क ि थित उ प न करना, रावण ारा अलका पर िवजय ा करना और पु पक छीन लेना,
कैलाश पर िशव से भट, िशव ारा रावण का मानमदन और रावण ारा उनक शरण हण
करना, वापसी म रावण ारा वयं जंगल म ककर सुमाली आिद को लंका वापस भेज देना और
एक वष बाद वापस आने को कहना, वेदवती से रावण क भट, दोन म णय, सीता का ज म,
वेदवती ारा अि न वेश, और सीता जनक को िमल जाने क कथा है। इसी म बीच म
रावणािद के िववाह, मेघनाद का ज म और च नखा-िव िु ज ह का संग भी शािमल है।
दूसरी कथा रावणािद ारा ा का आशीष ा कर लेने से िचंता त देव क कथा
है। एक बार सुमाली के हाथ वग गँवा चुके इ समझते ह िक इस सब के पीछे सुमाली क
कूटनीित काम कर रही है और ा क छ छाया म रावण िफर कभी भी उनसे वग छीन सकता
है। नारद; िजस कार सुमाली ने दीघकालीन योजना पर काम कर पुन: वैभव ा िकया उसी
कार इ को भी रावण को परा त करने के िलए दीघकालीन योजना पर काम करने को
कहते ह। वे बताते ह िक िनकट भिव य म दशरथ के पु प म राम का ज म होगा जो र का
समल ू नाश करे गा। िक तु राम इस काय म स म हो सक इसके िलए परू ी तैयारी देव को करके
देनी होगी। इसी सलाह के अनु प देव ारा अग य के नेत ृ व म दि णांचल म वनवािसय के
िलए गु कुल क थापना कर उ ह तैयार करना आरं भ कर िदया जाता है। दूसरी ओर नारद
समझते ह िक राम रावण को परा त कर सक इसके िलए उनका वनगमन आव यक होगा। भी
दशरथ राम को िकसी भी हालत म एकाक रावण से यु के िलए जाने नह दगे। इसके िलए वे
कैकेयी को िव ास म लेकर भिू मका बनाने लगते ह।
तीसरी कथा उ त युवा दशरथ के राजा बनने, वण कुमार वाली दुघटना, मश:
दशरथ का कौश या, कैकेयी और सुिम ा से िववाह, तीन सौ से ऊपर उप-पि नयाँ बनाना, राम,
ल मण, भरत, श ु न का ज म, और उनके बचपन क कथा है। इसी कथा म गुंथी हई महाराज
अ पित ारा अिववेक प नी का याग, और बािलका कैकेयी को मंथरा (पवू म चपला) के
संर क व म स पना, कैकेयी के बचपन के संग भी शािमल ह। तीन रािनय के आपसी संबंध
और उनके दशरथ से संबंध को भी उभारने का यास िकया गया है।
वा मीिक रामायण म दशरथ के मं ी के प म जाबािल का िच ण िकया गया है जो
बहत कुछ चावाक दशन से भािवत है। वा मीिक रामायण म दशरथ के मंि य म वही एक कुछ
थान पर मुखर होकर सामने आता है। मने महामा य के प म उसे पाियत कर उसके च र
को िव तार िदया है। जाबािल के साथ शंबक
ू क कथा भी जुड़ती है और जाबािल उसे िश य प म
हण करते ह।
कथानक के थम ख ड का समापन सीता के ज म से होता है। सुमाली रावण को
समझा बुझा कर सीता को ले जाकर उस भखू ंड म सुरि त आरोिपत करता िक वह तुरंत जनक
को ा हो जाए जहाँ कुछ ही देर म जनक प नी सिहत हल चलाने वाले होते ह। हाँ, सीता रावण
और वेदवती क पु ी ह। वा मीिक रामायण म सीता रावण ारा बल कृत वेदवती का अगला
ज म ह।
घटनाओं के िलए मने आधार प म वा मीिक रामायण को ही िलया है। इसिलए कई
थान पर हमारी मा यताओं को बात खटक भी सकती है। जैसे दशरथ का च र । वा मीिक
रामायण के अनुसार दशरथ क ३५० उप पि नयाँ ह। जब िव ािम य र ा हे तु राम को दशरथ
से माँगते ह तो दशरथ प प रावण से भयभीत िदखाई पड़ते ह। वे तो यहाँ तक कहते ह िक
वे वयं सम त सेना के साथ जाकर भी खर और दूषण म से िकसी एक से यु कर सकते ह,
रावण से यु क तो बात ही नह उ प न होती। वा मीक य रामायण म एक राम को छोड़ कर
ाय: सभी पा , यहाँ तक िक सीता भी कह न कह दशरथ के िलए अपश द का योग करते
ह। इसी कार वा मीक य रामायण के अनुसार इ -अह या करण म अह या ने
इ को पहचानते हए वे छा से उससे रमण िकया था। परू े कथानक म मेरा यास सभी पा के
साथ याय करने का है। नायक के च र को उठाने के िलए खलनायक का च र हनन मुझे
ा य नह रहा।
इस थम खंड को एक कार से प रचय खंड भी कहा जा सकता है। रामायण के पा
का प रचय इस खंड म आप पायगे। यह प रचय उससे कह अिधक है िजतने से ाय: हम लोग
प रिचत ह। जैसे मने रावण के वंश को सुमाली से आरं भ िकया है। िक तु साथ ही सरसरी
जानकारी ‘र -सं कृित' के णेताओं - हे ित- हे ित से आरं भ क है। इसी कार दशरथ के तीन
िववाह और उनक उप-पि नय को भी रे खांिकत करने का यास िकया है। बािल सु ीव का
ज म, गौतम-अह या ारा उनका पालन-पोषण और अंत म वानरराज ऋ राज के द क पु
बनने के घटना म को और इसी कार केसरी-अंजना के िववाह और िफर हनुमान ज म क
कथा को भी तकस मत प म तुत करने का यास िकया है। इसी कार रावण-वेदवती के
णय और उससे सीता के ज म को भी रे खांिकत िकया है। सीता के ज म के साथ ही यह
प रचय-खंड िवराम ा करता है।
- सुलभ अि नहो ी
अनु म
1. चपला
2. र -सं कृित
3. दशरथ
4. अ पित
5. आखेट
6. कौश या से िववाह
7. सुमाली क दूर ि
8. कु भकण का अ यास
9. आ िण
10. कौश या का ताव
11. गौतम-अह या
12. कैकेयी
13. केसरी
14. उप-पि नय के आवास म
15. गौतम का ताव
16. देवे का आ ह
17. ा का आगमन
18. यु और वर
19. ा का वरदान
20. कैकेयी का भु व
21. लंका थान क भिू मका
22. जाबािल का याय
23. देव
24. महिष अग य
25. देवराज इ -नारद संवाद
26. ताड़का क दुदशा
27. सुमाली ारा रावण का अिभषेक
28. सुिम ा से िववाह
29. कुबेर के ासाद म
30. इ अह या के पास
31. रावण लंके र
32. गौतम का ाप
33. रावण-मंदोदरी
34. पु हीन दशरथ
35. लंका क यव था
36. केसरी पु व ांग
37. मंथरा-कैकेयी क िचंता
38. इ अग य के आ म म
39. सुमाली क तैयारी - 1
40. नारद-दशरथ संवाद
41. बािल-सु ीव-बजरं ग
42. मंथरा क उ सुकता
43. सुमाली क तैयारी - 2
44. अंग देश के िलए थान
45. मंगला
46. रामज म
47. मंगला के भाई का याह
48. सुमाली क कूटनीित
49. सुिम ा क सीख
50. मेघनाद का ज म
51. पवन-पु
52. कुबेर का दूत
53. मंगला का वेद से आ ह
54. कुमार का बचपन
55. वेद क गु देव से वाता
56. कुबेर िवजय
57. जाबािल-विश तक
58. िशव से भट
59. मंगला क िचंता
60. वेदवती से भट
61. नारद क ती ा
62. सुमाली का ताड़का से स पक
63. रावण क आसि
64. श बक ू
65. वेदवती से णय
66. मंगला का पलायन
67. च नखा-िव िु ज ह
68. श बक ू जाबािल का िश य
69. रावण-सुमाली-वेदवती
70. हनुमान
71. सीता का याग
1. चपला
‘‘ऐ! कौन हो तुम लोग? य कर िव हये यहाँ? अिवल ब बाहर िनकलो हमारी
आ वािटका से।’’ यह एक प ह वष क िकशोरी थी जो अपनी कमर पर दोन हाथ
रखे ोध से िच ला रही थी।
ोिधत होना वाभािवक भी था। अनुमानत: सौ-डे ढ़ सौ घुड़सवार के दल ने उसके
आम के बाग म डे रा डाल िदया था। थान- थान पर घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे हए थे, शेष
िन ् व खुले घम
ू रहे थे। सभी के आगे आम क पि य के ढे र लगे थे। अनेक डािलयाँ टूटी पड़ी
थ । अनेक लोग व ृ पर चढ़े हये आम तोड़-तोड़ कर नीचे िगरा रहे थे, नीचे खड़ी भीड़ उन आम
को लपक कर ढे र बना रही थी। दूर एक ओर कुछ अधेड़ बैठे आम चस
ू रहे थे। एक ओर बने बड़े से
तालाब म तीस-चालीस लोग नान कर रहे थे या जल ड़ा कर रहे थे। उस िकशोरी क आवाज
पर िकसी ने यान नह िदया। सब यथावत अपने काम म लगे रहे । अधेड़ और तालाब म घुसे
लोग तक तो उसक आवाज पहँची भी नह होगी।
‘‘सुनाई नह दे रहा तुम लोग को, कुछ कह रही हँ म? द यु कह के! तिनक सा
वािटका को जनशू य देखा िक अित मण कर िव हो गये, स यानाश करने।’’
इस बार उसक आवाज और तेज थी। आस-पास के कुछ लोग ने उसक ओर देखा
िक तु कोई यान नह िदया। उसका ोध इस अवहे लना पण
ू यवहार से और बढ़ गया। वह आगे
बढ़ी और सबसे िनकट के झु ड म खड़े एक युवा से आम छीनने का यास करते हये िफर
िच लाई -
‘‘ई र ने गजकण बनाया है, िफर भी सुनाई नह दे रहा। बिधर हो या?’’
उस लड़के के कान हाथी जैसे कदािप नह थे। उसने अपना आम वाला हाथ ऊँचा कर
िलया और दूसरे हाथ से लड़क को ह के से परे धकेल िदया। इससे लड़क और आवेश म आ गई
उसने भी पलट कर परू ी शि से युवक को ध का िदया। युवक थोड़ा सा लड़खड़ाया िफर उसने
दुबारा ध का देने को उ त लड़क का हाथ पकड़ िलया। अब वह बोला -
‘‘स यता से प रचय नह हआ अभी तक या? एक धर िदया तो ब ीसी बाहर आ
जायेगी।’’
‘‘स यता िसखा रहे हो मुझे?’’ उसक पकड़ से छूटने के िलये दूसरे हाथ से उसक
कलाई को नोचने का यास करती हयी लड़क बोली- ‘‘स यता से तु हारा वयं का योजन
(एक योजन बराबर लगभग यारह िकमी.) तक कोई संबंध रहा है कभी?’’
‘‘ या हो रहा है उधर उ म ?’’ दूर बैठे अधेड़ को इधर क हलचल का शायद कुछ
आभास हो गया था। उनम से एक ने आवाज लगाई।
‘‘बाबा! यह कोई बािलका अकारण उ ेिजत हो रही है।’’ उस लड़के ने उ र िदया।
‘‘धैय रखो, म आता हँ।’’ कहता हआ वह उठा और इधर क ओर बढ़ चला। दो अधेड़ और
भी उसके साथ हो िलये।
‘‘ या बात है? छोड़ो उसे उ म !’’ अधेड़ ने िनकट आते हये कहा।
‘‘बाबा यह अकारण ध के दे रही है, नोच रही है, काट रही है।’’ अपनी कलाई अधेड़ के
सामने करते हये उसने कहा।
‘‘ या बात है बेटी, या हम लोग सौहादपवू क वाता नह कर सकते?’’ अधेड़ लड़क से
स बोिधत हआ।
‘‘स य यि य के साथ ही सौहाद से वाता संभव होती है। द युओ ं के साथ तो द युओ ं
जैसा ही यवहार होना चािहये।’’
‘‘छोड़ो, इस पर िववाद नह करता म, अपनी सम या बताओ तुम।’’
‘‘आप सभी अिवल ब मेरी वािटका से बाहर िनकल जाइये।’’
‘‘वह हम नह कर सकते पु ी। हमारी िववशता है।’’
‘‘कैसी िववशता है। -पु तो ह सब लोग। अपने अ सँभािलये और िनकल जाइये
यहाँ से।’’ लड़क के तेवर म कोई अ तर नह आया था, बस अपने से वयस म बहत बड़े यि
को स मुख देख कर ‘तुम’ के थान पर ‘आप’ का योग करने लगी थी।
‘‘ऐसा नह है। हमम से अिधकांश यन ू ािधक आहत ह। तुम देख ही रही होगी िक म भी
आहत हँ।’’ पुन: बीच म कुछ बोलने को उ त लड़क को हाथ उठाकर रोकते हये वह आगे बोला
- ‘‘हम सब दो िदन से िनर तर भाग रहे ह, भोजन भी नह ा हआ है इस काल म। अब आगे
बढ़ने क न तो हमारी मता है और न ही अ क । हाँ कुछ हर िव ाम कर साँझ तक हम यहाँ
से वत: चले जायगे।’’
‘‘आप थके ह या आहत ह इससे आपको द युकम का अिधकार नह िमल जाता।’’
‘‘पु ी, उि है- ‘‘आपि काले मयादा नाि त!’’ िफर भी हम परू ी मयादा म रहने का
यास कर रहे ह।’’
‘‘वाह! या मयादा है, सारी वािटका का िव वंस कर िदया। साँझ तक के तो जो बचा
है वह भी िवन हो जायेगा। आपको ात है, यही आ -वािटका हमारी वष-पयत क जीिवका का
आधार है। अब या करगे हम?’’
‘‘तु हारी जो भी ित हई है उसक ितपिू त के िलये सहष त पर ह हम।’’
‘‘मुझे ितपिू त नह चािहये। मुझे बस अपनी वािटका म आप लोग क उपि थित स
नह है।’’
ू े को भोजन िखलाना तो तुम आय म सबसे बड़े पु य का काय माना गया है। िफर
‘‘भख
हम तो तु ह परू ी ितपिू त देने को त पर ह।’’
‘‘तुम आय म?’’ ओह इसका ता पय है आप लोग अनाय ह! म तो सोच रही थी िक आय
जाित इतनी जंगली कैसे हो गयी।’’
‘‘अब तुम अपनी सीमा का अित मण कर रही हो।’’ अधेड़ कुछ ऊँची आवाज म बोला।
‘‘अनाय के िलये मेरी कोई सीमा नह है। वैसे कौन ह आप?’’
‘‘हम र ह!’’
‘‘भाई मा यवान आप िव ाम क िजये जाकर, आप अिधक आहत ह। म िनपटता हँ
इससे।’’ अब तक शांत खड़े दूसरे अधेड़ ने उस यि को बाँह पकड़ कर जाने का इशारा करते
हये कहा। िफर वह खड़े अपे ाकृत युवा से स बोिधत हआ - ‘‘व मुि ले जाओ इ ह यहाँ से।’’
‘‘सुमाली! धैय से काम लेना।’’ पहले अधेड़ मा यवान ने दूसरे अधेड़ सुमाली क बात
मानकर जाते हये कहा।
‘‘जी िनि ंत रिहये।’’
‘‘मेरी बात सुन रहे ह या नह ?’’ लड़क पुन: िच लाई
‘‘सुन भी रहे ह और समझ भी रहे ह िक तु हमारी िववशता है िक उसे वीकार करना
संभव नह है।’’ सुमाली ने परू ी गंभीरता से न िक तु ढ़ वर म कहा।
‘‘ य ?’’
‘‘हम तु हारा अिधकार वीकार करते ह, इस नाते हम तु ह ितपिू त देने को त पर ह
िक तु सय
ू ा त से पवू हम यहाँ से जा नह सकते।’’
‘‘िकतना हठ! िकतनी उ ं डता! कैकय रा य म ऐसी उ ं डता के िलये थान कदािप
नह है।’’
‘‘अभी तो हमारी यह उ ं डता चलेगी। हमारी िववशता है।’’ सुमाली का वर पवू वत था।
‘‘कैसे चलेगी। म अभी रा यािधकारी को सिू चत करती हँ जाकर।’’
‘‘तुम कह नह जाओगी। वैसे हम तु हारे रा यािधकारी का भय नह है और वयं
अ पित इतनी शी ू ा त के उपरांत कोई हमारी धल
आ नह सकते। सय ू तक नह खोज
पायेगा।’’
‘‘आप रोकगे मुझे?’’
‘‘िववशता है, समझने का यास करो। शांित से बैठो, अपनी ितपिू त लो, सायंकाल
हम वयं चले जायगे।’’
‘‘आप मेरे साथ बल योग करगे, एक िनपट अकेली लड़क के साथ?’’
‘‘यिद तुमने वैसी ि थित उ प न कर दी तो करना ही पड़े गा।’’ यह आवाज एक
घुड़सवार क थी जो भीड़ लगी देख कर इधर आ गया था। ‘‘ या हआ है स पाती?’’ उसने भीड़ म
खड़े एक युवक से पछ
ू ा।
‘‘कुछ नह भाई! यह लड़क िपत ृ य (िपता के भाई) से अनगल िववाद िकये पड़ी है।
कहती है अभी वािटका से बिह कृत हो जाओ।’’
‘‘करो बल योग। म भी तो देखँ ू िकतने महान यो ा हो तुम। आय क याओं से अभी
पाला पड़ा नह है।’’ लड़क ने अब अपनी कमर म खँुसी कटार िनकाल ली थी।
‘‘कटार क आव यकता नह है बेटी। हम तु ह कोई ित नह पहँचायगे।’’
‘‘मत कहो मुझे बेटी। मुझे अनाय से कोई संबंध जोड़ने क आव यकता नह है। न ही
उनक सहानुभिू त क आव यकता है।’’
‘‘िपता आप चिलये। ये देव और आय वभावत: ही द भी होते ह। इ ह स यता क भाषा
समझ नह आती।’’
‘‘नह अक पन। तुम ोधी हो। तुम िववाद और बढ़ा दोगे।’’
‘‘नह िपता! म संयम ... आह!’’ उसका वा य बीच म ही रह गया।
लड़क ने ‘‘कर बल योग’’ कहते हये उस पर कटार से वार कर िदया था। कटार
अक पन क जाँघ म घुस गयी थी। तभी वहाँ खड़े दूसरे लड़के ने पीछे से लड़क के बाल पकड़
कर, उसे ख च िलया और एक जोरदार तमाचा रसीद िकया। वार परू ी ताकत से िकया गया था।
लड़क च कर खाकर जमीन पर जा िगरी।
‘‘नह द ड!’’ उस लड़के को रोकते हये सुमाली लपक कर लड़क को उठाने को बढ़ा
पर लड़क ने उससे पहले ही उठकर कटार वाला हाथ घुमा िदया। इस बार कटार सुमाली क बाँह
से छूते हये िनकल गयी। सुमाली ने बढ़ कर उसका कटार वाला हाथ पकड़ना चाहा पर वह िफर
हाथ घुमा चुक थी। सुमाली का हाथ बीच म आ जाने से वार चकू गया और घोड़े से उतरने के
िलये झुके हये अक पन क छाती क बजाय घोड़े क गदन म लगा। घोड़ा गदन को झटका देता
हआ एकदम अगले दोन पैर उठा कर खड़ा हो गया। उसक गदन के झटके से लड़क पलट कर
िगर पड़ी। हठाथ उसके दोन हाथ जमीन पर आये। पीछे से नीचे आते घोड़े के दोन पैर उसक
पीठ पर पड़े । लड़क क एक तेज चीख गँज ू गयी। झटके से उसका िसर नीचे आया और उसके
हाथ म थमी कटार उसके ही चेहरे म धँस गयी।
जब तक कोई समझे-समझे पलक झपकते यह सब हो गया। अक पन ने त परता से
घोड़े को पीछे ख च िलया था पर िफर भी उसक एक टांग लड़क क जांघ पर पड़ गयी थी।
सुमाली ने झपट कर लड़क को सँभालने का यास िकया। उसक आँख मँुद रह थ ।
उसके मँुह से अ फुट श द िनकले - ‘‘अगर चपला जीिवत बची तो तुम रा स को िनमल
ू करने
म अपना जीवन दाँव पर लगा देगी।’’ इसके साथ ही उसक आँख मँुद गय ।
अक पन घोड़े से नीचे आ गया था।
‘‘स पाती अ का घाव देखो!’’ कहते हये उसने झपटकर लड़क को उठाया और
िजधर मा यवान आिद बैठे थे उधर बढ़ चला।
‘‘पता नह य इन आय के मन-मि त क म इतना िवष घुला है!’’ कहता हआ सुमाली
उसके पीछे चल िदया।
2. र -सं कृित
मा यवान और सुमाली र सं कृित के णेता हे ित और हे ित के पौ थे।
दो भाइय म जब मनमुटाव होता है और वे अलग होते ह तो पर पर सबसे बड़े श ु बन
जाते ह। िववाद का िवषय ाय: एक ही होता है िक दूसरे ने मेरा हक मार िलया। यही झगड़ा देव
और दै य म भी रहा। प रणाम व प एक ही िपता, महिष क यप, क संतान होते हये भी दोन
स ा के दो िवपरीत ध् ुरव बन गये। दोन के िपता अव य एक थे िक तु माताएँ अलग-अलग थ ।
देव अिदित के पु थे और दै य िदित के। इस कार दोन सौतेले भाई थे और सौतेले भाइय का
झगड़ा तो हमारे इितहास म आम बात है।
र सं कृित का ादुभाव य सं कृित के साथ एक ही समय म एक ही थान पर हआ
था। पर कालांतर म उनम बड़ी दू रयाँ आ गय । य क देव से िम ता हो गयी और र क
श ुता। देव, र या दै य आय से कोई िभ न जाित ह ऐसा नह था िक तु आय य िक देव के
समथक थे (िपछल गू श द योग नह कर रहा म) इसिलये उ ह ने देव िवरोधी सभी शि य को
या य मान िलया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर म इ लाम वीकर कर लेने वाल को
ू त: या य मान िलया। व तुत: ये सब आय सं कृित के अंदर ही उपसं कृितयाँ थ
िह दुओ ं ने पण
िफर भी आय और देव इ ह हे य मानते थे और ये सब अपनी मह ा थािपत करने के िलये
य नशील रहते थे। इसी के चलते संघष उ प न होता था। आय दै य और र को एक ही पलड़े
पर रखते थे और दोन से समान प से घण ृ ा करते थे।
यह स ा का संघष था। समथक शि य से देव को कोई भय नह था। परू े पौरािणक
इितहास म एक-या दो ही ऐसे िक से ह जब िकसी आय नपृ ने देव क स ा को चुनौती दी हो या
देवे के िसंहासन पर दावा िकया हो िक तु दै य और बाद म र इसके िलये सदैव य नशील
बने ही रहे । िकसी भी शि शाली दै य या र क पहली मह वाकां ा देवे को पद- युत करना
ही होती थी।
देव वयं म कोई बहत बड़ी महाशि ह ऐसा नह था िक तु उस समय क तीनो
महाशि याँ ा, िव णु और महे श देव से आ त रक सहानुभिू त रखते थे। दै य भी हालांिक देव
के सौतेले भाई ही थे, इस कारण इन तीन महाशि य को दोन प के साथ समभाव रखना
चािहये था पर हक कत म ऐसा नह था। इन तीन म य िप ा और िशव यास करते थे िक
उन पर खुले प म प पात का आरोप थािपत न हो पाये और देव के साथ सहानुभिू त होते हये
भी यावहा रक तुला समतल पर ही ि थत रहे । इन दोन के िवपरीत िव णु खुल कर देव के प
म खड़े हो जाते थे। इसका कारण भी था। देवराज इ उनके बड़े भाई थे। बड़े भाई के प म खड़ा
होना वाभािवक विृ है। देव परा मी थे िक तु अजेय नह थे। दै य ने उ ह बार-बार परािजत
िकया िक तु िव णु का सहयोग िमल जाने से वे अ सर हार कर भी जीत जाते थे। अनेक
उदाहरण ह इसके। और यह तो थािपत स य है िक इितहास िवजेता क कलम से ही िलखा जाता
है। िवजेता क ही शि त गाता है। परािजत को वह खलनायक (हो या न हो) के तौर पर ही दज
करता है।
मा यवान आिद इन तीन भाइय के िक से म भी यही हआ था।
मा यवान, सुमाली और माली बल-पौ ष म बहत बढ़े -चढ़े थे।
अ ुत लंका नगरी इ ह ने ही बसायी थी। बाद म इ ह ने इ को परा त कर वग पर
भी अिधकार कर िलया था।
परािजत इ , अ य देवताओं के साथ सहायता क ाथना करने िशव के पास कैलाश
पहँचा िक तु िशव ने यह कहते हये इनकार कर िदया िक - ये तीन मेरे गाढ़ िम सुकेश के
पु ह। इनके िव म तु हारी सहायता नह कर सकता।
इस पर इ िव णु के पास सहायता माँगने पहँचा। िव णु ने ीर सागर (अ य अनेक
पौरािणक थल क भाँित ही ीर-सागर क ि थित के िवषय म भी िव ान अभी तक कोई
िनि त धारणा नह बना पाये ह।) के चार ओर अपना िवशाल सा ा य थािपत िकया था।
पौरािणक इितहास म िव णु क याित सबसे बड़े कूटनीित क है। आव यकतानुसार
वे साम-दाम-दंड-भेद सभी िविधय का योग करने म अित कुशल थे। उनका िस ांत था िक बड़े
उ े य के िलये छोटे िस ांत का याग भी करना पड़े तो बेिहचक कर देना चािहये। इ ह
िवशेषताओं के चलते वे सदैव इ के संकटमोचन बन कर उभरे । उ ह कभी पराजय का वाद
नह चखना पड़ा। इ ह सम प िविश ताओं के चलते कालांतर म कृ ण को पण ू िव णु क
उपािध से स मािनत िकया गया।
िव णु के सामने मा वान, सुमाली और माली नह िटक पाये। इनक सारी सेना िव णु ने
न कर दी थी। सबसे छोटा भाई माली भी रण म खेत रहा था।
इस समय ये बचे-खुचे थोड़े से लोग जान बचाते हये वापस लंका क ओर भाग रहे थे।
िव णु का सै य इनका पीछा कर रहा था इस कारण ये िदन म सघन वन -बाग आिद म छुपे रहते
थे और राि म िजतना संभव हो सके दूर िनकल जाने का यास करते थे। िपछले दो िदन से
इ ह कोई सही आ य नह िमला था और िव णु का सै य पीछे था ही इसिलये ये िबना के दो
िदन और दो रात भागते ही रहे थे, बस एक जंगल म एक हर का िव ाम अव य िकया था। पर
उस जंगल म भी खाने लायक कुछ नह िमला था।
चपला, अचेत होने से पवू उसने अपना जो नाम िलया था, के असहयोगपण
ू यवहार ने
मा यवान और सुमाली दोन को ही िचंता म डाल िदया था। उ ह आभास हो रहा था िक सागर
तक नह तो कम से कम िव याचल तक तो अव य ही उ ह ऐसे ही श ुतापण ू यवहार का
सामना करना पड़ सकता है।
उ ह समझ म नह आ रहा था िक भले ही उनक सं कृित र है तो भी आय तो वे भी ह,
िफर इन आय के मन म उनके िलये ऐसा िवकट, अतािकक ेष य है? या िबगाड़ा है उ ह ने
इन आय का। उ ह ने तो देवराज पर आ मण िकया था, इस आयभिू म के िकसी स ाट से तो
उनका कोई िववाद था ही नह । ठीक यही ि थित पवू म दै य क थी।
मा यवान और सुमाली दोन ही अपना िव ाम और भोजन भल ू कर चपला के उपचार म
लग गये थे। चोट गंभीर थी। यिद अिवल ब उपचार न िमला तो यह जीवन भर उठने-बैठने लायक
ू प ाघात का िशकार भी हो सकती है। भा य से उपचार क कुछ साम ी उनके
नह रहे गी। पण
साथ थी। वािटका म भी तलाश करने से भी कुछ बिू टयाँ िमल गयी थ । ब ती म जाना दु साहस
िस हो सकता था, अगर िकसी भी कार से िव णु के िकसी यि के सं ान म उनक यहाँ
उपि थित आ गयी तो अिन कारी हो सकता था। चपला के चेहरे पर कटार से हआ घाव गंभीर
था। जबड़ा चटक गया था। दािहने जबड़े से लेकर आँख के नीचे क हड्डी तक बुरी तरह से कट
गया था। उसका उपचार कर िदया गया था पर उ ह लग रहा था िक चेहरा सदैव के िलये कु प
तो हो ही जायेगा। ठोढ़ी टेढ़ी हो जायेगी, एक आँख पर भी असर पड़ने क संभावना है। जाँघ के
दोन ओर खपि चयाँ रख कर औषिध लगाकर बाँध िदया गया था। अभी ब ची है अि थ आसानी
से जुड़ जायेगी य िप चाल म लंगड़ाहट रह सकती है। सबसे बुरी चोट पीठ म थी। अ के पैर
पड़ने से रीढ़ क हड्डी के कई संिध थल अपने थान से हट गये तीत हो रहे थे। माँस पेिशयाँ
भी फट गयी थ । िजतना संभव था उतनी यव था उ ह ने कर दी थी पर यह तय था िक इस
लड़क क कमर सदैव के िलये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नह हो सकेगी। पर वे या कर
सकते थे। सारे कांड के िलये लड़क वयं उ रदायी थी। उनम से िकसी ने भी कोई वार नह
िकया था। ‘काश वह थोड़ी सिह णुता का दशन कर पाती’ - सुमाली ने सोचा।
साँझ होते होते दो और बालक आ गये थे। वे लड़क क अपे ा बहत सिह णु सािबत हये
थे। अगर वे भी लड़क जैसे ही िनकलते तो लड़क के िहत म बहत घातक हो सकता था पर
उ ह ने िबना हाथापाई िकये सारी बात सुनी। मा यवान ने उ ह सारी घटना के बारे म बताया।
जो-जो उपचार कर िदया गया था वह समझा िदया, आगे के िलये आव यक िनदश भी दे िदये।
सरू ज ढलने तक उन दोन को रोके रखा गया। िफर सबने अपने-अपने अ पर
सवार होकर आगे क या ा आरं भ क । सुमाली का बड़ा पु ह त सबसे बाद म िनकला। जब
सब आँख से ओझल होने क कगार पर आ गये तब वह लड़क से बोला -
‘‘इसे अितशी िकसी कुशल वै के संर ण म ले जाना। एक यि जाकर एक
चारपाई और कुछ यि य को िलवा लाओ। चारपाई पर ही लेकर जाना इसे, सावधानी से, किट
देश म तिनक सा भी आघात न लगने पाये अ यथा अ यंत िवषम प रि थित उ प न हो सकती
है।’’
इतना कह कर उसने अपने घोड़े को ऐड़ लगा दी। पलक झपकते ही घोड़ा हवा से बात
करने लगा। अब लड़के अगर ब ती म जाकर उनक सच ू ना दे भी देते तो कोई उनक हवा भी
नह पा सकता था।
हाँ! ितपिू त लेना इन लड़क ने भी िकसी भी तरह वीकार नह िकया था।
3. दशरथ
अयो या के युवा स ाट दशरथ ने अभी आयु के बीस वष पण ू ही िकये थे। उनक माता
इ दुमती का िनधन उनक बा याव था म ही हो गया था। िपता अज, जो अपनी प नी को दय
क गहराइय से यार करते थे, उनके िनधन से टूट गये थे। वे बस अपने इकलौते पु के कारण
ही जीिवत रहे थे। बीस वष का होते ही उ ह ने दशरथ का रा यािभषेक कर िदया और वयं अपनी
ि य प नी के पास जाने क इ छा से अ न-जल याग िदया था। उनका यथा से जजर शरीर यह
अ याचार अिधक सहन नह कर सका था और शी ही वे भी इस जगत के जंजाल से मुि पा
गये थे।
दशरथ पर अब कोई शासन नह था। उभरता हआ यौवन अपनी शि का स पण ू
उपभोग करने को उ त था। शासन िपता के समय म भी अिधकांशत: स म और वािमभ
मंि प रषद सँभालती थी, यिथत िपता तो संसार से िवरागी से ही थे। दशरथ ने भी इस यव था
म अिधक ह त ेप नह िकया। महामा य जाबािल के अित र सुमं , धिृ , जय त, िवजय,
सुरा , रा वधन, अकोप, धमपाल, सुय , का यप, गौतम, दीघायु, माक डे य और का यायन
सम त आमा य सुयो य, त वदश , कमठ और जाव सल थे।
इनके अित र िष विश और वामदेव इ वाकु वंश के राज पुरोिहत थे। इनम भी
गु विश राजगु क हैिसयत रखते थे। उनके िनणय म ह त ेप करने का साहस वयं
स ाट को भी नह होता था।
दशरथ अ यंत भावशाली यि व के वामी थे। साढ़े छह फुट के लगभग ऊँचा कद।
सुपु शरीर। सुदीघ केश, सुदशन नख-िशख और सबसे अिधक, िनबाध स ा उनके यि व
को और भी भावशाली बना देते थे। शासक य काय म दशरथ को कोई िच नह थी।
आव यकता भी नह थी, मंि प रषद सारे काय सुचा प से चला ही रही थी। एक ही यि था
जो इस अव था म दशरथ पर दबाव बना सकता था, वे थे गु विश । िक तु वे दशरथ के ित
वा स य भाव रखते थे। उनका िवचार था िक दशरथ अभी तो बालक ही है, समय के साथ-साथ
वयं प रप व हो जायेगा और अपने दािय व का समुिचत िनवहन करने लगेगा। अभी वह जीवन
के आन द का उपभोग कर रहा है तो करने िदया जाये। वे बस उसी ि थित म बाधा देते थे जब
दशरथ क ओर से कोई अनैितक कृ य उनके स मुख आता था अथवा जब दशरथ के ो साहन
से कोई िनरपराध जा को सताने का काय करता था। दशरथ भी ऐसे कृ य से यथासंभव बचने
का यास करते थे। वे अपने पवू ज क याित को धिू मल नह करना चाहते थे। यिद कभी कोई
ऐसा करण हो भी जाता था तो वे उसक भनक गु देव के कान तक पहँचने ही नह देते थे,
साम-दाम-द ड-भेद का योग कर उसे अपने तर तक ही िनपटा लेते थे। वैसे भी स ाट के
िव कुछ कहने का साहस िकसम था।
इस कार िनबाध स ा का उपभोग करते हये दशरथ जीवन के रस और आनंद से
भरपरू ोति विनय म अवगाहन कर रहे थे। मंि प रषद उनक इस उ छृंखलता से यिथत रहती
थी िक पता नह वे िकस िदन अपनी नादानी म िकसी संकट को िनम ण दे बैठ।
एक िदन, िदन ढलने से कुछ पवू , सुम और जाबािल गु देव के आ म म पहँचे। दोन
के ही ख वाट िसर पर सुदीघ िशखा शोभा ा कर रही थी। सुमं तीस से कुछ अिधक आयु के
थे। ल बी दाढ़ी, गे आ उ रीय और घुटन तक आती हई ेत सत ू ी धोती। उ रीय के पीछे से
कमर के भी नीचे तक लटकता य ोपवीत, गले म ा क माला, माथे पर च दन का ितलक,
इकहरा शरीर, सुदीघ काया, पैर म लकड़ी क खड़ाऊँ।
जाबािल वयस म सुमं से कुछ ही बड़े थे। कंधे पर िकनारीदार ेत बहमू य रे शमी
उ रीय, कमर म वैसी ही धोती। गले म ा क माला के अित र बहमू य सुवण-माला, दोन
बाजुओ ं म सुवण के ही बाजबू द, य ोपवीत और पैर म बहमू य िक तु लकड़ी क ही खड़ाऊँ।
सुमं क वेशभषू ा म जहाँ सादगी मह वपण ू थी वह जाबािल क वेशभषू ा उनके पद और वैभव
को दिशत कर रही थी। सुमं जहाँ सदाचार और यागमय जीवन यतीत करते थे वह जाबािल
संयिमत और यायपण ू आन द लेने के प धर थे।
ू रहते हये भी जीवन का पण
औपचा रक णाम िनवेदन के उपरांत सुमं ने िनवेदन िकया -
‘‘गु देव! महाराज को िनयंि त क िजये। वे शासिनक काय म रं च मा भी िच नह
ले रहे । सदैव आमोद- मोद और िवलािसता के आयोजन म ही य त रहते ह।’’
‘‘ यथ िचंितत हो रहे ह मंि वर! अभी बालक ह दशरथ! समय के साथ वत: दािय व
के ित सचेत हो जायगे।’’ गु देव ने अपनी ल बी सफेद दाढ़ी पर हाथ िफराते हये कहा। उनके
वैसे ही सफेद बाल िसर के ऊपर जड़ ू े के प म बँधे हये थे। विश क आयु िनि त प से अ सी
वष से भी अिधक थी। यह उनके तप और संयम का ही भाव था िक वे इस आयु म भी ि याशील
थे। अभी भी उनक कमर िबलकुल सीधी थी। उनके हाथ म, िषय क पर परा के अनुसार,
सदैव एक द ड रहता था िक तु उ ह कभी उसका सहारा लेने क आव यकता नह होती थी।
‘‘गु देव! ध ृ ता के िलये मा ाथ हँ!’’ जाबािल बोले- ‘‘िक तु आपका यही वा स य
महाराज को प रप व नह होने दे रहा है। आप कब तक उ ह बालक मानते रहगे। अब वे िववाह
के यो य हो रहे ह।’’
‘‘ या सच?’’ गु देव मानो आ य से बोले- ‘‘ या सच ही दशरथ िववाह यो य हो रहा
है?’’ णांश जैसे उ ह ने कुछ गणना क िफर आगे बोले- ‘‘िन य ही आप स य कह रहे ह
महामा य। िववाह यो य तो हो रहे ह दशरथ, इ क स वष के हो चुके ह अब तो। िवचार करता हँ
इस िवषय म। कोई उिचत स ब ध है या आपक ि म। कोई ऐसी क या जो ऐसे उ ं ड के साथ
सहजता पवू क िनवाह कर सके?’’
‘‘है तो गु देव!’’ सुम बोले।
‘‘कौन?’’
‘‘महाराज भानुमान क क या, कौश या।’’
‘‘आह! क या तो घर म ही है।’’
‘‘है तो गु देव! िक तु महाराज भानुमान या इस संबंध के िलये उ साह िदखायगे?’’
‘‘नह िदखायगे तो कुछ उपाय करना पड़े गा। कौश या से उपयु क या तो हो ही नह
सकती दशरथ के िलये। मुझे पहले य नह सझ
ू ा यह?’’ गु देव कुछ अचंिभत से बोले।
‘‘सझ
ू ता तो तब न गु देव जब आप महाराज को िववाह यो य समझते। आप तो उ ह
अभी तक बालक ही मानते चले आये ह।’’ जाबािल वाणी म िवनोद का पुट देते हये बोले।
‘‘यह भी स य है महामा य!’’ गु देव कुछ पल के िफर िकया-
‘‘ या वयस होगी कौश या क ? िववाह यो य हो तो गयी है? मने तो बहत पहले देखा
था तब तो िनरी बािलका ही थी।’’
‘‘चौदह-प ह वष क तो हो ही गयी होगी गु देव। अ यंत सु दर और सुशील क या
है।’’
‘‘ य नह होगी! सुयो य माता-िपता क क या है। मने तो दीघ काल पवू देखा था
िक तु तब भी उसने मुझे भािवत िकया था। वह िन य ही सु दर थी, सुशील भी थी और अपनी
वयस के अनुसार िवदुषी भी थी। उसके सं कारवान और धैयवान होने क भी हम आशा कर ही
सकते ह। ब च को सं कार अपने माता-िपता से ही तो ा होते ह।’’ गु देव स नता से बोले।
‘‘िन संदेह गु देव! सुना तो यही है िक अ यंत सं कारी क या है।
‘‘हँ ...!’’ गु देव ने िवचार म डूबे हये एक ल बी हंकारी ली।
‘‘तो गु देव अब हम या आदेश है?’’ सुमं ने पछ
ू ा।
‘‘िवचार करते ह। अिपतु आज ही बात क ँ गा दशरथ से, अभी सं या-वंदन के उपरांत।’’
‘‘आज तो संभव नह होगा बात कर पाना।’’
‘‘भला य ?’’
‘‘वे तो आज ात: ही अपनी िम -मंडली के साथ आखेट के िलये थान कर गये ह।’’
‘‘कब तक पुनरागमन क संभावना है?’’
‘‘ या कहा जा सकता है गु देव!’’ सुमं ने कंधे उचकाते हये िनराशा दिशत क -
‘‘महाराज ह वे। जब इ छा होगी तब लौटगे। हमम से िकसी म या उ ह िनयंि त करने क
साम य है?’’
‘‘िक तु कुछ बता कर तो गया होगा?’’
‘‘स ाट को या कुछ बताने क आव यकता है? िफर ऐसे स ाट को िजसने कोई भी
दािय व अभी तक वीकार न िकया हो। पण ू त: िन ् व , िन े य िवहार और िवलास म िल
हो।’’ कुछ िव ूप से सुमं ने कहा।
‘‘तो ात कैसे हआ आपको?’’
‘‘सेवक से ात हआ, िज ह ने उनक या ा हे तु यव थाएँ क थ ।’’
‘‘कौन-कौन है उसके साथ?’’ कुछ काल सोचने के बाद गु देव ने पछ
ू ा।
‘‘सेनापित मोद ह, कुछ अ य सै य अिधकारी ह, कुछ धिनक ह और पया सै य व
सेवक ह।’’
‘‘उसके आते ही मुझे सच
ू ना दीिजयेगा।’’
‘‘जी!’’
गु देव कुछ काल अपनी सुदीघ ेत दाढ़ी पर हाथ िफराते हये प रि थितय पर िवचार
करते रहे । िफर उ ह ने पछ
ू ा-
‘‘िफर भी कुछ तो अनुमान होगा ही आप लोग का िक कब तक संभािवत है उसका
पुनरागमन?’’
‘‘संभवत: एक स ाह, संभवत: एक माह। वे स पण ू यव था के साथ गये ह। यँ ू
यव था न भी हो तो महाराज के िलये यव था होते या देर लगती है। उनक इ छा होते ही
कह भी उनके िलये स पण
ू सुिवधाएँ वत: उपल ध हो जायगी। िकस जाजन म इतना साहस है
िक उनक इ छा क अवहे लना कर जाये।’’
गु देव के अधर पर मंद मु कान नाच गयी। पता नह यह वा स य था या िचंता थी?
कुछ काल मौन रहा िफर गु देव वत: बोले -
‘‘अ यु म अ वेषण िकया आप लोग ने। यिद यह स ब ध हो जाता है तो पुन: उ र और
दि ण कोशल एक रा य हो जायगे। पुन: दोन िबखरी हई धाराएँ आपस म िमल जायगी।
कौश या तो एकमा क या है भानुमान क ?’’
‘‘जी गु देव! िक तु मने पवू ही इंिगत िकया िक महाराज भानुमान क सहमित ा
होने म हम आशंका है!’’ सुम ने पुन: शंका कट क ।
‘‘तो मने भी तो कहा न िक कुछ उपाय िकया जायेगा।’’
‘‘मुझे तो बल योग के अित र अ य कोई माग िदखाई नह पड़ता।’’
‘‘तो ऐसा या पहली बार होगा? यह तो आयावत म अन त काल से होता चला आया है।
दशरथ यिद बल योग करे गा तो कौन सी परं परा का िव वंस हो जायेगा?’’
‘‘िक तु गु देव या ऐसे अकारण यु ा य ह?’’
‘‘अकारण य ? कौश या जैसी क या क ही आव यकता है अयो या को। उसके िलये
यु िकया जा सकता है।’’
‘‘िक तु गु देव यिद उस ि थित को वयं कौश या ने ही वीकार नह िकया तो? इसे
यिद उसने अपने िपता के अपमान क भाँित िलया और सदैव के िलये अपने दय म कटुता सँजो
ली तो?’’
‘‘मंि वर!’’ गु देव के वर म अ यंत आ य का भाव था - ‘‘आज या हो गया है
आपको? ऐसा तीत हो रहा है जैसे आप िकसी अ ात आदश लोक से पहली-पहली बार इस
भल
ू ोक पर अवत रत हये ह ।’’ अपनी बात कह कर उ ह ने उ मु हा य से कुिटया को गुंज रत
कर िदया।
‘‘म मानता हँ गु देव िक आयावत म यह कोई नई बात नह होगी िक तु यह परं परा
अनुकरणीय तो नह है।’’ गु देव के कटा क उपे ा करते हये सुम ने अपनी बात जारी
रखी।
‘‘महामा य! कह िकसी पुरातन िवरागी ऋिष क आ मा ने तो सुम के शरीर म
वेश नह कर िलया?’’ गु देव ने पुन: उ मु हा य के साथ कटा िकया - ‘‘ये तो आज
राजनीित के पि डत के थान पर िकसी नीितशा ी क भाषा बोल रहे ह।’’ िफर वे सुम से
संबोिधत हये - ‘‘ऐसा सामा य गहृ थ क क याओं के साथ तो संभव है िक तु आयावत के
छोटे-छोटे राजघरान क क याएँ तो जानती ह िक यही उनक िनयित है। पता नह कब कोई
तापी स ाट अपने शौय का तीक बनाकर उ ह अपने अंत:पुर म थान दे दे। िकसी दुबल राजा
क क या का सु दर और सुयो य होना अपराध है आयावत म। उसे ेम करने क वतं ता नह
होती, उसे िकसी शि शाली पु ष को ेम करने को बा य होना पड़ता है।’’
‘‘दोन पड़ोसी रा य म जो आ त रक वैमन य है वह और बढ़ जायेगा इस कार तो?’’
‘‘आपक शंका सकारण है िक तु मुझे िव ास है िक जब कौश या को अयो या म
सस मान राजमिहषी का थान ा होगा तो यह वैमन य वत: नेह क वषा से धुल जायेगा।’’
एक ण क कर गु देव आगे बोले -
‘‘िफर भी यास करना िक बल योग क ि थित उ प न न हो।’’
‘‘कोई संभावना नह है गु देव! वे छा से तो महाराज भानुमान स मित देने से रहे ।
या आपको ात नह िक महाराज दशरथ क याित उ त युवा क बनती जा रही है। सुदूर
रा य तक संभव है यह याित न पहँच पाई हो िक तु उ र कोशल जैसे िनकट थ थान तक
तो अव य ही पहँची होगी। आपसी संबंध पर जमी िहम को िपघलाने का कोई उपाय कर भी िलया
जाए तो भी अपनी क या से नेह करने वाला कोई भी सं कारी िपता अपनी इकलौती क या
ऐसी याित वाले यि को देने के िलये कैसे सहमत हो सकता है?’’
‘‘आप तो राज ोिहय जैसी भाषा का योग कर रहे ह मंि वर।’’ गु देव ने पुन: कटा
िकया।
‘‘ या आपको ऐसा लगता है गु देव िक म राज ोही हो सकता हँ?’’ सुमं गु देव के
इस यं य को एकाएक पचा नह पाये।
‘‘अरे िदल पर य ले रहे ह मंि वर? या मेरे िलये सदैव गंभीरता का मुखौटा धारण
िकये रहना ही आव यक है? या म कभी आपके साथ यंजना का आनंद नह ले सकता?’’
‘‘ले सकते ह गु देव! आप तो अयो या के अिभभावक ह। इसीिलये मंि वर ने आपके
स मुख व तुि थित को रखने का यास िकया है तािक आप महाराज के उ त वभाव को थोड़ी
सी गंभीरता से ल। यह अब आव यक हो गया है गु देव! महाराज को भी इ वाकु वंश क ग रमा
अपने वभाव म लानी ही होगी और इस काय को यिद कोई कर सकता है तो आप ही कर सकते
ह।’’ बड़ी देर से शांत भाव से यह वातालाप सुन रहे जाबािल बोले।
‘‘यह काय तो िवधाता का है महामा य और वह अपना काय जैसा उसने उिचत समझा,
कर चुका है।’’
‘‘अयो या के िलये तो आप ही िवधाता ह गु देव! आप िवधाता क भल ू को स पण
ू त:
नह तो यथासंभव तो सुधार ही सकते ह। सुधारने का यास तो कर ही सकते ह।’’
‘‘चिलये यास करँ गा। अयो या के महामा य का आदेश िशरोधाय!’’ गु देव पुन: जोर
से हँसे।
‘‘गु देव अपनी यंजना शि क धार या आज हम दोन पर ही परखने का िन य
िकये बैठे ह। म सहष अपनी पराजय वीकार करता हँ, कृपया अब मुझ पर आघात न कर।’’
जाबािल भी हँसते हये बोले।’’
‘‘चिलये ऐसा ही सही। तो िफर दशरथ के आते ही मुझे सच
ू ना देने क यव था िनि त
क िजयेगा।’’
‘‘जी गु देव!
4. अ पित
केकय नरे श अ पित ानी के प म िव यात थे। बड़े -बड़े ऋिष-मुिन भी इस संबंध
म उनसे राय लेने आते रहते थे। कहते तो यहाँ तक ह िक उ ह पशु-पि य क बोिलयाँ भी आती
थ । एक कथा चिलत है िक एक बार अ पित महारानी के साथ बगीचे म टहल रहे थे। बगीचे म
पि य क चहचहाहट एक वाभािवक विन होती है। अचानक महाराज हँस पड़े । महारानी
असमंजस से पछू बैठ -
‘‘महाराज मने कोई हा या पद बात तो नह क जो आप हँस रहे ह।’’
महाराज ने हाथ से उ ह शा त रहने का संकेत िकया और बड़े गौर से कह कान
लगाकर सुनने लगे। महारानी को समझ नह आ रहा था िक महाराज या सुनने का यास कर
रहे ह। उ ह लगा िक महाराज उनक उपे ा करने के िलये कुछ सुनने का अिभनय मा कर रहे
ह। पि य के कलरव के अित र वहाँ और कोई विन थी ही नह । इसी बीच महाराज िफर हँसने
लगे िफर महारानी से संबोिधत होते हये बोले -
‘‘हाँ महारानी जी! अब बताइये या कह रही थ ?’’
‘‘म या कह रही थी उसे तो छोिड़ये। मेरी बात तो आपको सुनने यो य लगती ही
नह ।’’ महारानी भी सामा य ि य क भाँित ही यवहार करने लगी थ ।
‘‘अरे नह ! िकसने कह िदया िक मुझे आपक बात म रस नह िमलता।’’
‘‘रस िमलता होता तो मेरी बात क उपे ा कर इस कार शू य को सुनने का अिभनय
नह करते।’’
‘‘महारानी जी म शू य को नह सुन रहा था।’’
‘‘तो िफर या सुन रहे थे? और हँस य रहे थे? मेरी बात का उपहास कर रहे थे न!’’
‘‘नह महारानी जी!’’
‘‘नह तो िफर बताते य नह िक य हँस रहे थे?’’
‘‘वो उधर व ृ पर बैठा एक प ी-युगल पर पर कुछ मनोरं जक वाता कर रहा था, उसी
को सुनने लगा था। उसी को सुनकर हँसी भी आ गई थी।’’
‘‘महाराज मुझे या आप अबोध िशशु समझते ह जो आपके इन त यहीन भुलाव म आ
जाऊँगी? भला पि य क बात का भी कोई मह व हो सकता है। यिद होता भी हो तो आपको या
पता िक वे पर पर या बात कर रहे थे।’’
‘‘महारानी जी! कभी-कभी अ यंत मह वपण
ू होती ह पि य क बात। और भा य से
किहये या दुभा य से, म उनक बात समझ भी सकता हँ।’’
‘‘तो बताइये िफर या कह रहे थे वे?’’ महारानी को महाराज क बात पर िव ास नह
हो रहा था। वे यही समझ रही थ िक महाराज उनक हँसी उड़ा रहे थे। इसी कारण उनक िचढ़
और ोध बढ़ते ही जा रहे थे। उ ह ने अब हठ पकड़ िलया था।
‘‘नह महारानी जी! यह हम नह बता सकते।’’
‘‘िफर बहाना! य नह बता सकते ह। हम तो मा सेिवका ही समझते ह आप।’’
‘‘नह महारानी जी! ऐसी बात नह है। पर हमारी िववशता है िक हम िकसी को नह
बता सकते िक वे या बात कर रहे थे।’’
‘‘ य नह बता सकते भला?’’ महारानी भी अपने हठ पर अड़ी थ ।
‘‘ य िक यिद हमने बता िदया तो उसी ण हमारी म ृ यु हो जायेगी। या आप वैध य
क आकां ी ह?’’
‘‘यह सब आपका आडं बर मा है। व तुत: आप कारा तर से हमारा ितर कार करना
चाहते ह।’’
‘‘भला हम आपका ितर कार य करना चाहगे?’’
‘‘मुझे नह ात। िक तु यिद ऐसा नह है तो िफर बताइये िक वे या वाता कर रहे थे?’’
‘‘मने कहा न िक म नह बता सकता। िववशता है।
‘‘पुन: वही अनगल लाप!’’ कहती हयी महारानी ोध से पैर पटकती हयी चली गय ।
ोध महाराज को भी आ गया था। वे सोचने लगे िक- ‘‘इस ी को अपने पित के
जीवन क िचंता नह है, बस अपना वथ
ृ ा हठ ही यारा है।’’ िफर भी उ ह ने आवाज दी -
‘‘ िकये महारानी। अनाव यक ोध उिचत नह है।’’
पर महारानी नह क।
महाराज को महारानी के आचरण से अपार ोभ हआ था। वे सोच रहे थे िक ऐसी प नी
तो कभी भी उनके िलये ही नह रा य के िलये भी संकट का कारण बन सकती है। उ ह ने उनके
याग का िन य कर िलया। ढ़ िन य। इसक िकसी भी बात पर अब िव ास नह करना है।
िकसी भी प ाताप के दशन पर यान नह देना है।
दशरथ ने डबडबाई आँख से उसका िसर भिू म पर रख िदया। िफर पास ही पड़ा िम ी का
घट उठाया और उसे भर कर उन व ृ द पित का सामना करने का साहस जुटाने का यास करते
हये चल िदये। नदी क बालू म चलना अ यंत दु कर हो रहा था। पैर जैसे बालू म धँसे जा रहे थे।
सारे िदन क थकान उन पर बुरी तरह हावी होने लगी थी।
उ ह अिधक नह चलना पड़ा। थोड़ी ही दूर पर उन व ृ मुिन द पित का एकाक छोटे
से कुटीर जैसा आ म था। दशरथ ने सहमते हये भीतर वेश िकया। उनक छाती धड़क रही थी।
‘‘आ गये व स!’’ बुिढ़या बोली - ‘‘लाओ जल दो। तषृ ा से याकुलता हो रही है।’’ दोन
ही अ यंत व ृ और जजर थे। दोन के ही केश सन के समान ेत थे। शरीर जैसे मा अि थय
का पंजर था। अंधकार हो गया था िक तु कुिटया के भीतर जो दीपक िटमिटमा रहा था उसम
इतना काश तो था ही िक वे अपने पु को पहचान लेते िक तु वे दशरथ को पहचान नह पाये
थे। इसका यही ता पय था िक उनक ि भी उनका साथ छोड़ ही चुक थी।
दशरथ मौन थे। उनका बोलने का साहस नह हो रहा था। उ ह ने घट एक ओर रख
िदया और चार ओर िनगाह दौड़ाई। एक दीवाल के साथ एक िम ी का पा रखा हआ था। उ ह ने
उसम जल लेकर व ृ ा को पकड़ा िदया था। पा लेने के यास म व ृ ा का हाथ दशरथ के हाथ
पर पड़ा।
‘‘तुम हमारे वण तो नह ! कौन हो तुम? वण कहाँ है?’’ उसने आशंिकत वर म
िकया।
‘‘ या? आगंतुक वण नह है?’’ व ृ ने भी आशंका से िकया।
‘‘जी! म आपका वण नह हँ।’’ कहने के साथ ही दशरथ ने सारा व ृ ांत दोन के
स मुख दोहरा िदया। मुिन कुमार ने यही करने को कहा था।
‘‘तो तुम कौन हो?’’ सब सुन कर ँ धे हये वर म व ृ ने िकया।
‘‘म दशरथ हँ। अयो या नरे श दशरथ।’’
‘‘आह! णाम महाराज!’’ इस ि थित म भी व ृ नरे श को णाम करने क
औपचा रकता नह भल
ू ा था।
‘‘नरे श का काय तो जापालन होता है, आप कैसे नरे श ह जो िनरीह जा क अकारण
ह या कर डालते ह।’’ आवेश म व ृ ा के मुख से िनकला।
‘‘मुिनवर! मने अपना अपराध वीकार कर िलया है। मने तो श द सुन कर िकसी गज
का अनुमान िकया था और शर-संधान कर िदया था। अपराध तो मुझसे िवकट हआ है िक तु यिद
संभव हो तो उदारतापवू क उसे मा कर द। म िकसी भी ायि त को त पर हँ। रा य ारा
आपक येक सुिवधा क स पण ू यव था का म वचन देता हँ।’’ अपराधबोध से यिथत दशरथ
ने कहा।
‘‘रा य ारा स पण
ू सुिवधा ... हंह!’’ िवदूरप
् से व ृ ा बोल पड़ी - ‘‘ या करगे हम रा य
का उपकार अपने ऊपर लाद कर?’’
‘‘महाराज आपने अपना अपराध वयं वीकार कर िलया है अब हम आप पर ोध कर
भी तो कैसे िक तु आपने िकतना बड़ा अपकार िकया है हमारे ित यह तो आप वयं समझ रहे
ह गे।’’
दशरथ डबडबाई आँख िलये मौन खड़े थे। या उ र देते!
‘‘अब जो दैव को वीकार था वह तो हो ही गया। अब एक उपकार कर दीिजये, हम
हमारे पु के अंितम दशन करा दीिजये तािक हम उसका िवधान पवू क अंितम सं कार कर सक।
तािक उसे स ित ा हो सके।’’
‘‘जी! अभी उपाय करता हँ।’’ दशरथ सोचने लगे िक दोन को एक साथ ले जाना कैसे
संभव है! तभी उ ह पीछे अपने अ के िहनिहनाने का वर सुनाई िदया। उ ह ने घम ू कर देखा।
सचमुच उनका अ उनके पीछे -पीछे आ गया था। उ ह ने धीरे से व ृ ा को उठाया और सँभाल कर
उसे अ क पीठ पर िबठा िदया।’’
‘‘माता इसके ये केश पकड़ लीिजये।’’ उ ह ने व ृ ा के हाथ पकड़ कर अ क ीवा के
बाल पर रखते हये कहा। िफर वे धीरे से अ क गरदन पर थपथपाते हये उसके कान म
फुसफुसाये ‘‘ि थर खड़े रहना चपलक!’’
अ ने कान फड़फाड़ाते हये िसर िहलाया जैसे अपने वामी क बात समझ गया हो।
िफर दशरथ ने उसी भाँित लाकर व ृ को भी अ पर िबठाया और तब झपट कर वयं
अ पर आ ढ़ हो गये। उ ह ने व गा के दोन िसरे अलग-अलग हाथ म पकड़ िलये थे, इस
कार व ृ द पि उनक भुजाओं और व गा के म य सुरि त थे। वे जानते थे अ वत: उ ह
इि छत थान पर ले जायेगा। उ ह ने बस पैर क एड़ी से उसके पेट पर ह का सा पश िकया
अ सधी हई चाल म धीरे -धीरे बढ़ चला।
‘‘धीरे -धीरे चलना चपलक।’’ दशरथ अ से संबोिधत हए।
कंु भकण से छोटा िवभीषण भी सात वष का हो गया था िक तु उसे कैकसी ने अभी यहाँ
नह छोड़ा था। उसके िवषय म िव वा ने कह िदया था िक इसे अभी यह रहने दो। इसे बारह वष
तक आ म के सं कार म पलने दो। दो बेटे तो निनहाल म छोड़ ही आयी हो। आव यकता तीत
हो तो वहाँ से सहयोग के िलये िकसी को यह बुला लो। इस पर कैकसी ने अिधक ितरोध नह
िकया था। ितरोध करने पर कह मुिनवर को शंका हो जाती तो सारा भेद खुल जाता जो िक
संकट को िनमं ण दे सकता था। उसे पण ू िव ास था िक मुिनवर ि कालदश ह। वे इ छा करते
ही सब कुछ जान सकते ह।
इस कार िवभीषण िपता के पास ही पल रहा था अभी। अिधक िचंता क बात नह थी
य िक जो कुछ सुमाली िसखाना चाहता था वह सब िव वा शायद और बेहतर िसखा सकते थे।
बस एक ही िचंता थी िक उसम आय सं कृित कह गहरे पैठ गई तो िनकालना किठन हो
जायेगा।
च नखा भी पाँच वष क हो गयी थी वह भी माता के पास ही थी िक तु उसक कोई
िचंता नह थी। आय सोच के अनुसार उसके िपता उसे दीि त करने हे तु िवशेष यासरत नह थे।
वे भी उसके िलये सामा य िव ा ही पया समझते थे। इस कारण वह माता के साि न य म ही
अिधक रहती थी और माता कैकसी, उसम भरपरू र सं कार रोप रही थी।
चलो जो होगा, देखा जायेगा। सुमाली ने िचंतन को झटके से उतार फका। उसका काय
िस करने के िलये दो ही पया थे। रावण का तेज और कुंभकण का असीिमत बल, इन दो के
सहयोग से वह अपने सपन को परू ा करने म अव य सफल होगा।
9. आ िण
घने बादल ने स पण ू आकाश को आ छािदत कर रखा था य िप वषा नह हो रही थी।
नंदन कानन से सुरिभत पु प क सुवास को अपने पंख म समेटे पवन ने सम त ासाद को
सुगंध से महमहा िदया था। देवराज इ अपने भ य, सुवण से दीि मान ासाद के िवनोद क म
मेनका, उवशी और र भा के साथ आमोद- मोद म त लीन थे। सोमरस के पा तीन के स मुख
रखे हये थे। वा शांत थे। उनके वादक उ ह समेटने का य न कर रहे थे। तीन ही अ सराओं के
उठते िगरते व और उसके आनन पर चमक रहे वेद िबंदु बता रहे थे िक वे अभी-अभी न ृ य से
िनव ृ हई ह। इ के हाथ म सोमरस का पा था िजसे वे चुसक रहे थे। वा समेटकर वादक ने
उ ह यथा थान यवि थत कर िदया और इ से थान क आ ा माँगी। इ ने िसर के ह के
से झटके से उ ह अनुमित दान कर दी। तीन अ सराएँ भी अपने-अपने पा सोमरस से भर कर
आकर इ के पास बैठ गय ।
इ का उ रीय और सुवण-मुकुट अलग रखा था। उसके गले म सतरं गे पु प क
सुवािसत माला झल
ू रही थी। तीन अ सराओं ने भी पु प से शंग
ृ ार िकया हआ था। संि सी
कंचुक और अधोव म उनका मादक यौवन िकसी क भी चेतना का हरण करने म स म था।
अ सराओं के बैठते ही इ ने अपने दािहनी ओर बैठी मेनका को हाथ बढ़ा कर अपने
आिलंगन म समेटना चाहा तो उसने इठलाते हये इ के हाथ को बीच म ही पकड़ िलया -
‘‘देवे साँस तो यवि थत हो जाने दीिजये।’’
‘‘ या आव यकता है? आप मेरी ास को भी अ यवि थत कर दीिजये!’’ इ ने
उसके हाथ को अपनी ओर ख चते हये कामास वर से कहा। मेनका बरबस उसक गोद म
िखंची चली आई और अपने अधर उसके अधर पर रख िदये। उवशी और र भा िखलिखलाने लग ।
ू देव के दशन हये।
तभी ार पर सय
‘‘देवे यिद यवधान न बनँ ू तो म भी वेश करने क अनुमित चाहता हँ।’’
ू देव! आपके तो इ के ासाद म दशन ही दुलभ ह। या कभी इ छा
‘‘आइये-आइये सय
ही नह होती हमसे भट करने क ?’’ इ ने मेनका के मुख से चेहरा हटा कर उलाहना सा देते
हये कहा।
‘‘इ छा तो सदैव रहती है देवे िक तु या क ँ अवकाश ही नह िमलता। स पण ू
िदवस तो रथ पर सवार भागते ही यतीत हो जाता है और िनशा म देवी िन ा घेर लेती ह। िवधाता
ने बड़ा अ याय िकया है मेरे साथ।’’
‘‘अरे नह सय
ू देव! आप ही तो सम त सिृ के तेज के ोत ह।’’
‘‘मुझे बस ऐसे ही थोथी शंसा से मख
ू बनाते रिहये।’’ सय
ू देव ने हँसते हये कहा -
‘‘और वयं इन सव े सु द रय के साथ िवहार क िजये।’’
‘‘अरे तो आपके िवहार म कौन सी बाधा है? य मेनका?’’
‘‘स य कहा देवे । हम वयं ही सेवा का अवसर नह देते और िफर आरोप मढ़ते ह। यह
तो अ याय है सय
ू देव!’’ मेनका ने इ क बात को आगे बढ़ाया।
इस बीच उवशी सय ू देव के िलये भी सोमरस का पा भर कर ले आई थी। उसके हाथ से
पा लेते हये सय
ू देव बोले -
‘‘ तीत होता है अभी-अभी आप न ृ य से िनव ृ हई ह। ये वेद िबंदु चुगली कर रहे ह।’’
कहते हये उ ह ने अपनी एक उँ गली से उवशी के माथे से वेद-िबंदु प छ िदये।
‘‘जी सय
ू देव!’’
‘‘दुभा य मेरा! तिनक सा िवल ब हो गया।’’
‘‘दुभा य य सय
ू देव! आप किहये तो पुन: आयोजन हो जायेगा।’’ र भा बोली।
‘‘िन य ही! बुलाओ तो वादक को।’’ देवे ने कहा।
‘‘अरे नह ! यह अ याचार नह क ँ गा म।’’ चलने को उ त हई उवशी का हाथ पकड़
कर उसे बैठाते हये सय
ू देव बोले- ‘‘आपका तमतमाया आनन और वेद से भीगा वपु (शरीर)
प बता रहा है िक आप िकतनी थक हई ह।’’
‘‘यह वेद तो शीतल वायु अभी सुखा देगी और यह सोमरस अभी नवीन ऊजा का
ू देव के कंधे का सहारा लेकर उसक बगल म बैठते हये बोली।
संचार कर देगा।’’ उवशी सय
‘‘मुझे तो आपका यह सामी य ही अिधक आनंद दे रहा है।’’
उवशी िखलिखला उठी।
‘‘ऐसा!!! तो लीिजये म भी आ जाती हँ।’’ कहते हये र भा उनक दूसरी ओर आकर बैठ
गयी।
‘‘आहा! यही तो है वा तिवक वग य आनंद।’’
यह सुरा और सुंदरी का दौर चलता रहा। सभी के ने म लाल डोरे तैरने लगे थे।
आचरण क मयादा धीरे -धीरे िशिथल पड़ती जा रही थी। बाहर ह क -ह क बँदू पड़ने लगी थ ।
मौसम क मादकता भी सबक चेतना को वशीभत ू करने लगी थी।
उधर बाहर सयू देव के रथ पर सारथी आ िण सय ू देव क वापसी क ती ा करती हई
बैठी थी। उसके ल बे बाल खुले हये उसक पीठ पर िबखरे हये थे। ह के से भरू े रं ग क आभा िलये
केश म वाभािवक प से कुंतल पड़े हये थे। सुदीघ और सुपु समानुपाती देहयि , अ सराओं
को भी लजाने वाली मुखाकृित और गौरवण मान दूध म ात: क थम िकरण को घोल िदया
गया हो, उसे अिनं सु दरी बना रहे थे। उ नत व को और भी सु प आकार दान करती हई
संि -सुनहरी कंचुक पर सोने का काम था। वैसा ही काम उसके किट से घुटन तक लपेटे हये
अधोव पर भी था। अधोव जंघाओं पर इस कार िलपटा हआ था िक उनके सौ व को और
उजागर कर रहा था। दीघ काल तक वह रथ पर ही अधलेटी से ती ा करती रही। ती ा लंबी
होती देखकर अंतत: रथ से उतर आई और सामने पु प-वािटका म िवचरने लगी।
तभी आकाश से ह क -ह क बँदू पड़ने लग । उसने सोचा िक या िकया जाये - बँदू
का आन द िलया जाय या रथ म शरण ली जाय? अंतत: उसने बँदू का आन द लेने का ही
िन य िकया। उसने ने मँदू िलये और िसर को ऊपर उठा कर बँदू को सीधे चेहरे पर आने िदया।
न जाने िकतनी देर तक वह रमिझम का आन द लेती रही। उसे यान ही नह रहा िक वह कहाँ
है? या कर रही है। उसका शरीर मानो िसतार बन गया था िजसके तार को मेघ अपनी बँदू पी
उँ गिलय के पश से छे ड़ रहे थे। इस पश से जैसे स पण
ू शरीर म अ ुत िसहरन झंकृत हो रही
थी।
इ वातायन से इस य को देख रहा था। अ सराओं का सौ दय य िप मादक था
िक तु वह तो उसे सदैव उपल ध था। उसम अब नवीनता नह रही थी। यह नवीन सौ दय उसे
िवचिलत कर रहा था वह सोच रहा था िक उसके ासाद म यह कौन जलपरी आकर ड़ा-
िवलास करने लगी है? म और वातावरण का भाव उसके उ माद को बढ़ा रहा था। उसका मन
कर रहा था िक वह त काल उठकर जाये और उस अपवू सु दरी से णय-िनवेदन कर दे। उसके
मन म सदैव से यह ढ़ भावना रही थी िक देवराज होने के नाते ि लोक क येक सव े
कृित पर उसका सव थम अिधकार था।
वह िन य ही अपनी सोच पर अमल करता िक तु सय ू देव क उपि थित के कारण
मयािदत था। वह अचानक कामना करने लगा िक सय ू देव अब थान कर ही जाय। वे उसके
और सु दरी के म य एक बाधा के समान उपि थत थे।
उसने मेनका को अपनी गोद से अलग कर िदया और सोमरस का पा िलये-िलये
उठकर वातायन के िनकट आ गया और िकंिचत ध ृ तापवू क उस सु दरी को िनहारने लगा।
‘‘सय
ू देव आज या पण
ू अवकाश पर ह?’’ उसने उधर ही देखते हये अ फुट वर म
िकया।
ू देव उवशी और र भा के यौवन म खोये हये थे। उ ह लगा िक इ
सय ने कुछ कहा है
िक तु समझ म नह आया िक या कहा है।
‘‘ या कहा देवराज?’’ उ ह ने ित िकया।
‘‘मने पछ
ू ा िक आज या पण
ू अवकाश पर ह। आप तो कभी इतनी सुदीघ अविध तक
एक थान पर नह ठहरते?’’ इ ने मु कुराने का यास करते हये कहा।
सयू देव ने ि उठाकर इ क ओर देखा। वे वहाँ नह थे, िक तु वर तो उ ह का
था! सय
ू देव ने सोचा िफर सचेत होकर ि क म चार ओर िफराई। इ उ ह वातायन से बाहर
झाँकते खड़े िदखाई िदये। उ ह ने यह भी देखा िक वे िकस कामुक ि से आ णी को देख रहे
ह। उ ह कुछ िख नता हई िक तु अपनी िख नता वे कट नह कर सकते थे। इ देवराज थे। वे
एकदम सचेत होते हये उठकर खड़े हो गये। बोले -
‘‘नह देवराज बस जा ही रहा था। मुझे अवकाश कहाँ यह तो उवशी और र भा ने अपने
नयन के स मोहन से मेरी चेतना को अवश कर िदया था। मायािवनी ह ये, मुझे भान ही नह
हआ िक इतना काल यतीत हो गया है मुझे यहाँ।’’ सयू देव झपी हई हँसी के साथ बोल पड़े -
‘‘बस अब आ ा दीिजये।’’
ू देव! म मथ को दोष नह देते जो चुपचाप आपके अंतस् म िव हो गया है,
‘‘वाह सय
हम मायािवनी बता रहे ह।’’ र भा ने मिदरा से भािवत वर म िखलिखलाते हये कटा िकया। -
‘‘यह तो अ याय है आपका।’’
उवशी ने हँसी म उसका साथ िदया। मेनका अ यमन क सी अभी यही सोच रही थी िक
इ अचानक उसे कामास छोड़ कर उठ य गये। यह तो उनके वभाव के िवपरीत है।
ू करने म स म तो आपके
‘‘म िम या नह कह रहा, म मथ को मेरी चेतना को वशीभत
इस मादक सौ दय ने ही बनाया है र भे!’’
‘‘अ छा!!!’’ र भा आ य का दशन करती हई बोली- ‘‘िक तु सय
ू देव इस कार बीच
म ही उठ कर आप हमारे इस सौ दय का अपमान कर रहे ह। यह तो अ याय क पराका ा है।’’
कहती हई वह िखलिखला उठी।
सय
ू देव ने उसक बात का उ र नह िदया। इस समय तो उ ह आ णी को देवराज क
िनगाह से दूर सुरि त ले जाने क शी ता थी। उ ह ने ार क ओर बढ़ते हये देवे से अनुमित
माँगने क औपचा रकता का िनवाह िकया -
‘‘अ छा! आ ा दीिजये देवराज!’’ और ार से बाहर िनकल गये।
‘‘अरे ! अभी यँ ू अचेत से मिदरा म म पड़े थे और अब अक मात इतनी शी ता। मुझे ार
तक िवदा करने का सौभा य तो दीिजये।’’ कहते हये इ भी उनके पीछे -पीछे बढ़ िलये।
सयू देव ने मु कुराने का यास करते हये देवराज के अपने बराबर आने क ती ा क ।
देवराज के कटा के उपरा त यह आव यक हो गया था। दोन एकसाथ ार से आगे बढ़े । बाहर
आते ही इ ने ऐसा अिभनय िकया जैसे उ ह ने अभी आ णी को देखा हो। वे नाटक य वर म
उससे स बोिधत हये -
‘‘अरे ि लोक क सव े सु दरी! या देवे तुमसे प रिचत होने का सौभा य ा
कर सकता है। तु हारे आगमन ने इ के इस कुटीर को ध य कर िदया है।’’
रमझम म हाथ पसारे गोल-गोल घम ू ती आ णी अपने ही संसार म खोयी हई थी। भीगने
से उसके संि व पारदश से हो गये थे िजनसे उसका यौवन मादक से मारक हो गया था।
वह यह वर सुनकर जैसे सोये से जाग गयी।
‘‘देवराज! ये महिष क यप और देवी िवनता क पु ी देवी आ णी ह। ये सारथी के प
म अपनी सेवाएँ दान कर मुझे ध य कर रही ह। ये ......’’
‘‘आह! सय ू देव क बात काटते हये बोल पड़े - ‘‘मुझे देवी के
ू देव!’’ इ बीच म ही सय
वर क रमिझम म अवगाहन ( नान करना) का सौभा य ा करने द। िन य ही इनका वर
भी इनके प सा ही अ ुत होगा।’’
‘‘ णाम देवराज!’’ आ णी इ को हठात् सामने देख कर अपने भीगे व को
अनुभव कर अपने म िसकुड़ी हई खड़ी थी। वह संकोच से बोली -‘‘अपनी इस अिश ता के िलये
म मा ाथ हँ।’’
अब तक तीन अ सराएँ भी बाहर िनकल आई थ और आँखे फाड़े आ णी को देख रही
थ।
‘‘अिश ता? देवी आप इ का उपहास कर रही ह। काश! आप ऐसी अिश ता िन य
िनरं तर दुहराएँ - इ के आतुर नयन तो अब येक पल इसी ती ा म रहगे।’’
आ णी को समझ ही नह आया िक वह या उ र दे। वह संकोच से िसर झुकाये
‘‘जी!’’ बस इतना ही उ चारण कर पाई। सय
ू देव हताश थे, देवराज ने अपना दाँव खेल ही िदया
था।
‘‘देवराज! अब अनुमित दीिजये। देवी आ णी रथ को घुमाइये।’’
‘‘सय
ू देव यह तो अनुिचत है। आपने इ को देवी से उिचत प से प रिचत ही नह होने
िदया। देवी आपका भी यह अ याय है इ के ित। आप यहाँ तक आई ं और इ के क को
अपनी चरण-रज से पिव तक नह िकया। अब इस काय हे तु आपको पुन: आना पड़े गा।’’
‘‘जी! देवराज! जब आप आ ा कर।’’ आ णी िठठक कर बोली। वह स न भी थी िक
वयं देवराज उसके प को सराह रहे ह और संकुिचत भी थी िक वह ऐसी अमयािदत अव था म
उनके स मुख है।
‘‘िक तु देवराज यिद देवी आपके पास आ जायगी तो मेरा तो स पण
ू काय बािधत हो
जायेगा। म या क ँ गा?’’ सयू देव ने ह त ेप िकया।
ू देव! म जानता हँ िक आप यव था कर लगे। देवी के यहाँ
‘‘ या बात करते ह सय
आगमन से आपके काय भािवत नह ह गे।’’
‘‘जी करनी ही पड़े गी।’’ सय
ू देव अपनी िनराशा को िछपाने का यास करते हये बोले।
‘‘आभारी रहँगा म आपका। यिद देवी नह आई ं तो म सदैव वयं को इनका अपराधी
अनुभव करता रहँगा। या आप चाहते ह िक आपके देवराज ऐसी मानिसक लािन अनुभव
कर?’’
‘‘नह देवराज! देवी कल आपके सम अव य उपि थत ह गी।’’ या करते सय ू देव और
कोई चारा ही नह था अब। इ तो िकसी भी सु दरी को देखते ही सारी मयादाएँ भल
ू ही जाते थे।
‘‘पुन: आभार आप दोन का। इ कल पलक िबछाये आपक ती ा करे गा देवी।’’
आ णी ने हाथ जोड़े और अ क व गा सँभाल कर रथ को घुमाने लगी।
दूसरे िदन कौश या ने भोर होते ही िफर वही बात छे ड़ दी। छे ड़ या दी पीछे पड़ के रह
गय । आिखरकार महाराज को अ पित के पास संदेश लेकर दूत भेजना ही पड़ा।
11. गौतम-अह या
‘‘अब नह होगा मुझसे ऋिषवर! अब िव ाम चािहये।’’
‘‘बस इस एक अ का और परी ण करना है। िफर िव ाम ही िव ाम है।’’
स िषय म एक महिष गौतम महान ऋिष के साथ-साथ महान श -िव ानी भी थे।
उ ह ने अनेक अ -श का आिव कार िकया था। वे िन य ही अपने श का परी ण िकया
करते थे। वे अपने िविश तीर क नोक पर अपने आिव कृत न ह-न ह िद य आयुध को
थािपत करते और िफर दूर च ान पर ल यवेध करते, अह या को कई-कई सौ गज दूर दौड़
कर उन िविश तीर को वापस लाना पड़ता था और उन िद य आयुध क मारक मता का
योरा ऋिषवर को देना पड़ता था। आज भी ात: से ही यह म चल रहा था। अह या बुरी तरह
थक गयी थी।
‘‘नह ऋिषवर! अब और दौड़ना मेरे िलये अस भव है। अबक यिद आपने मुझे दौड़ाया
तो म िनि त ही माग म ही ाण याग दँूगी।’’
‘‘अरे -अरे ! देवी! या अशुभ-भाषण करती ह। चिलये अ छा अब िव ाम करते ह।’’ कहते
हये ऋिषवर ने अपना िबखरा हआ सामान समेटना आर भ कर िदया। अह या भी उनका हाथ
बँटाने लग ।
‘‘अरे अंजना! बेटी अंजना!!’’ अह या ने पुकार लगाई।
पुकार के साथ ही एक चौदह-प ह वष क सुमुखी िकशोरी ने कुिटया से बाहर झाँका-
‘‘जी माता!’’
‘‘बेटी तिनक जल तो ले आ। तेरे िपता के ये योग तो सारी शि ू लेते ह।’’
चस
ऋिषवर हँसते हये नेह से अपनी कत यिन प नी क ओर िनहारने लगे, बोले कुछ
नह ।
थोड़ी ही देर म अंजना एक िम ी के पा म जल ले आई। जल लेते हये अह या ने पछ
ू ा-
‘‘शतान द आ गया?’’
‘‘नह ! ाता तो अभी नह आये।’’
‘‘अब तक तो आ जाना चािहये था?’’ अह या ने ऋिष क ओर देखते हये कहा।
‘‘आ जायेगा, आ जायेगा! महाराज ने बुलाया था, राजाओं के यहाँ समय लग ही जाता
है।’’
‘‘कल का गया हआ है।’’ अह या ने जैसे वगत-भाषण िकया। िफर पछ
ू ा - ‘‘ य
बुलाया होगा महाराज ने?’’
‘‘आने दो, उसी से पछ
ू ना।’’ ऋिष ने सहज भाव से उ र िदया।
‘‘ य आपको कोई उ सुकता नह होती?’’
‘‘अनाव यक उ कंठा क या आव यकता है देवी! जो भिवत य है वह होकर रहे गा,
इसिलये आगत को सदैव सहज प से वीकार करने हे तु त पर रहना चािहये।’’
‘‘िफर भी ऋिषवर!’’
‘‘िफर भी या? महाराज जनक के सदाचार, स यिन ा और जाव सलता पर कोई
शंका है या?’’
‘‘नह ! िक तु ....’’
‘‘अनाव यक िचंितत न ह देवी। महाराज के ारा िकसी के भी अिहत का ही नह
उठता। य ही नह िवदेहराज कहते ह उ ह।’’
‘‘महाराज से नह , िक तु माग म कह भी कोई दुघटना तो घट सकती है।’’
‘‘बालक नह है शतान द, सोलह वष का हो गया है। उसे समझ है अकारण कोई
दुघटना कैसे घट जायेगी। और यिद दैव ही िव हो जाये तो हम कर भी या सकते ह।’’
‘‘तक म आपसे कौन जीत सकता है। दशन के पि डत य ही नह ह। याय दशन के
णेता य ही नह ह। िक तु माता का दय तो आपका याय दशन नह जानता।’’
इस बार ऋिषवर ने कोई तक नह िदया बस धीरे से मु कुरा िदये।
महिष क अव था साठ वष से अिधक ही होगी िक तु देखने म अभी भी वे युवा ही लगते
थे। अपने भरू ापन िलये हये दीघ केश उ ह ने जड़ू े क तरह िसर पर बाँधे हये थे। वैसी ही सुदीघ
दाढ़ी हवा म लहरा रही थी। उनके कंधे पर य ोपवीत धारण िकया हआ था और कमर म मग ृ चम
लपेटा हआ था। सतत तप या के तेज से उनका आनन दी था। अह या उनसे पया छोटी थ ।
उनक वयस अभी ब ीस वष से कुछ अिधक नह थी। उनके शरीर म अभी भी िकशो रय सा
लाव य था। उनक गणना पंचकुमा रय म होती थी अथात जगत क पाँच सव े सु द रय म।
वे ा क पु ी थ । ज म के थोड़े काल बाद ही ा ने उ ह ऋिष गौतम को पालन-पोषण के
िलये स प िदया था। जब वे िववाह यो य हई ं तो उनसे िववाह के इ छुक क कमी नह थी। वयं
देवराज इ उनसे िववाह के उ सुक थे। वे वभावत: ही ि लोक क येक सव े व तु पर
अपना अिधकार समझते थे तो ि लोक क सव े नारी को ा करने के इ छुक भला य न
होते? िक तु सभी बात पर िवचार करने के उपरांत ा ने अंतत: ऋिष गौतम से ही अह या को
वरण करने का आ ह िकया। ऋिष ने िपतामह का आ ह वीकार कर िलया और उनक पा या
रही अह या उनक प नी बन गई।
ऋिष से अह या को दो संतान ा हई थ - शतानंद और अंजना।
अंजना इस बीच जल ले आयी थी। उसके हाथ से जल का पा लेते हए अह या ने ऋिष
से पछ
ू ा- ‘‘आप जल लगे या?’’
‘‘नह ! आप ही ा कर।’’
अह या पा से गले म धार बाँध कर जल पीने लगी। अंजना वह एक प थर पर बैठ
गयी और उँ गली से जमीन पर आड़ी-ितरछी रे खाएँ ख चने लगी।
‘‘ऋिष! अंजना भी िववाह यो य हो रही है। इस िवषय म आप कुछ नह सोच रहे ?’’ पानी
पीकर अह या ने वातालाप का िवषय शतानंद से हटाकर अब अंजना पर केि त कर िदया।
‘‘हाँ! यह बात तो आपक स य है।’’ ऋिष ने अह या का अनुमोदन करते हये कहा। िफर
कुछ सोचते हये और अंजना क ओर देख कर मु कुराते हये बोले -
‘‘तो अंजना से पछ
ू ा आपने िक वह िकससे िववाह करना चाहती है?’’
अपने िववाह क चचा सुनकर अंजना वहाँ से हट कर कुिटया म चली गयी।
‘‘वह या बतायेगी? आप भी कभी-कभी िनराधार बात करने लगते ह।’’ अह या
उपहास सा करती हई बोली - ‘‘देखा नह िक चचा चलते ही वह कुिटया म भाग गयी।’’
‘‘ य , इसम िनराधार या है? िजसका िववाह होना है उसक इ छा ही सवाप र होनी
चािहए।’’
‘‘अिधक ानी यि जगद् यापार (दुिनयादारी) म शू य हो जाता है। कम से कम
आपको देख कर तो यही लगता है।’’ अह या उसी कार हँसते हये बोली।
‘‘आपक यह बात भी स य है देवी।’’ ऋिष ने सहज भाव से वीकार िकया।
‘‘तक के प म आपक बात स य है ऋिष! अंजना क इ छा ही सवाप र होनी चािहये।
िक तु पहले उसे िवक प तो दीिजये िजनम से िकसी को वह वीकार करे । इन थोड़े से
आ मवािसय के अित र वह जानती ही िकस पु ष को है जो बतायेगी िक मुझे इससे िववाह
करना है।’’
ऋिष सोच म पड़ गये िफर बोले -
‘‘यह भी आप स य ही कह रही ह। तो िफर या कत य है? आप ही मागदशन क िजये
इस अ पबुि ऋिष का!’’ ऋिष ने हँसते हये कहा।
‘‘िवचार क िजये! आप तो अपनी ि से जगत म सबको जान सकते ह, देिखये
िक आपक पु ी के िलये कौन सा पु ष उपयु रहे गा!’’
‘‘उिचत है, आज सं या के समय यान क ँ गा।’’
‘‘अव य क िजयेगा। भल
ू मत जाइयेगा।’’
‘‘हाँ देवी! एक और मह वपण
ू सच
ू ना है।’’
‘‘ या?’’ अह या ने उ सुकता से पछ
ू ा।
‘‘आज सायंकाल देवराज आयगे।’’
‘‘ य ? या योजन है ऋिषवर?’’
‘‘देवराज को एक पु क ाि हई है। अब है िक उसका पालन-पोषण कैसे हो, तो
उस हे तु वे आपक सेवाएँ ा करना चाहते ह।’’
‘‘मेरी या आपक ऋिषवर!’’ अंजना हँसती हई बोली- ‘‘आपको तो देव ने तीत होता है
िशशुओ ं के पालन-पोषण का थाई दािय व दे िदया है।’’
‘‘नह अभी थाई नह कह सकते।’’
‘‘तो हो जायेगा। पहले म वयं, अब यह देवराज का पु , आगे कोई अ य भी आ जायेगा।
देवराज को सलाह तो िपतामह ने ही दी होगी?’’
‘‘हाँ देवी!’’ तभी उनक िनगाह आ म के ार क ओर गयी जहाँ से शतानंद वेश कर
रहा था।
‘‘लीिजये आपका पु भी आ गया।’’
‘‘बड़ा िवल ब हो गया पु ? िकस हे तु बुलाया था राजन ने?’’ अह या ने पु से
िकया।
शतानंद ने माता-िपता क चरण-रज ली, आशीवाद ा िकया िफर उ र िदया -
‘‘माता! महाराज मुझे अपने राजपुरोिहत म थान देना चाहते ह।’’
‘‘यह तो अित उ म है। अ छा जा कुिटया म अंजना से भोजन ले ले जाकर, भख
ू लगी
होगी।’’
‘‘जी माता!’’ कहता हआ शतानंद कुिटया क ओर बढ़ गया।
‘‘और ऋिषवर बालक क माता कौन है?’’ अह या पुन: िवषय पर आती हई बोली।
‘‘देवी आ णी, सय
ू देव क सारथी।’’
‘‘वे कैसे अपने पु को यागने को त पर हो गय ?’’
‘‘उनक प रि थितयाँ तो आप जानती ही ह। उनका काय पु ष वाला है, उनके िलये
िशशु का लालन-पालन कैसे संभव है! अ य भी कुछ प रि थितयाँ हो सकती ह।’’
‘‘चिलये कुछ भी हो आ म म शू यता नह उ प न होगी। शतानंद तो जा ही रहा है -
जनकपुरी। अंजना भी चली जायेगी तो यह बालक आ म को गुंजार िकये रहे गा। ... ऋिषवर नाम
या है बालक का?’’
‘‘बािल!’’ ऋिषवर ने संि सा उ र िदया।
सभाक म उनके िसंहासन के बगल म अपने आसन पर गु देव िवराजमान थे। उनक
बगल के आसन पर गै रक (गे आ) व म आव ृ , ख वाट िसर और दीघ िशखा म शोभायमान
एक अ य व ृ िवराजमान थे। एक पल को दशरथ असमंजस म रहे िफर एकदम उनके चेहरे पर
प रचय के भाव उभर आये - ‘‘ये तो देविष ह।’’
वे व रत गित से आगे बढ़े । उनके आगमन क आहट सुनकर दोन व ृ अपने आसन
से खड़े हो गये थे। दशरथ ने आगे बढ़कर बैठे रहने का आ ह करते हये दोन को णाम
िनवेिदत िकया। उ ह ने औपचा रक प से आशीवाद िदया। िफर तीन अपने-अपने आसन पर
िवराजमान हो गये।
‘‘आदरणीय अयो या ध य हो गयी आपक चरण-रज ा कर।’’ दशरथ ने
औपचा रकता का िनवाह िकया।
‘‘ध य तो नारद हो गया, इस पावन नगरी के, ऋिषय के भी पू य िष विश के
और वयं आपके दशन ा कर।’’ नारद ने भी औपचा रकता का िनवाह िकया।
‘‘माग म कोई क तो नह हआ।’’ दशरथ ने औपचा रकता आगे बढ़ाई।
‘‘नह राजन! आपके ताप से कह कोई क नह हआ।’’
‘‘गु देव! ऋिषवर सुदूर या ा से थिकत ह गे, उिचत िव ाम क यव था करवाई
जाये?’’
‘‘नह राजन! उसक आव यकता नह है।’’
‘‘तो आदेश द दशरथ आपका या ि य करे !’’
‘‘महाराज! आपको ात ही होगा िक वैजयंत नरे श श बर, देव और आय सं कृित का
महान ोही बन गया है।’’
‘‘हाँ सुना तो है िक वह द डकार य े म महान उ पात मचाये हये है।’’
‘‘उस िवकट परा मी असुर ने अकारण महाराज ितिम वज पर आ मण कर िदया है,
यह भी सुना होगा।’’
‘‘जी यह भी सच
ू ना ा हई है।’’
‘‘महाराज ितिम वज के रा य म उसने भीषण र पात िकया है। सेना ही नह जनता भी
ािह- ािह कर उठी है। इस पर देवगण महाराज क सहायता के िलये तुत हये िक तु उसने
उ ह भी परा त कर िदया।’’
‘‘जी, यह सच
ू ना भी ा हई है।’’
‘‘तो अंितम सच
ू ना यह है िक अब वह असुर स ाट श बर देवराज इ पर आ मण
करने को उ त है। इसी संबंध म देवराज आपक सहायता के आकां ी ह। उ ह ने कहा है िक इस
अवसर पर यिद सम त आय और देव सामिू हक प से ितरोध नह करते ह तो श बर हमारी
सं कृित को िवन कर देगा। अतएव आप अिवल ब अपनी चतुरंिगणी सै य सिहत तुत ह ।
देवगण आपका उपकार सदैव मरण रखगे।’’
‘‘अव य देविष! दशरथ देवराज के संग सहयोग हे तु सदैव तुत है। वह अभी अपनी
सै य को स ज होने का आदेश देता है।’’ असमय तुत इस आमं ण से दशरथ िख न नह हये
थे। यु तो उनका सवि य मनोरं जन था। उ ह ने उ साह से ताली बजाई। पलक झपकते एक
सेवक सेवा म तुत हो गया।
‘‘जाओ सेनापित से िनवेदन करो िक स ाट् सभाभवन म उनक ती ा कर रहे ह।’’
तीसरे िदन ात: महारानी कौश या ने आरती और ितलक कर भरी आँख से दोन को
रण े के िलये िवदा िकया।
17. ा का आगमन
‘‘उठो व स रावण!’’
‘‘तुम दोनो भी उठो कुंभकण और िवभीषण!’’
वर सुन कर तीन अचंिभत हये, यह िकसका वर है? यह तो पहले कभी सुना नह ।
िकतना गंभीर िफर भी िकतना मदृ ु !
‘‘आँख खोलो व स! अपने िपतामह से सा ात् नह करोगे?’’
तीन ने आँख खोल द । सामने सा ात् ा खड़े हये उ ह पुकार रहे थे। ठीक वही छिव
जैसी मातामह ने बताई थी। कमर म गे आ अधोव , कंधे पर य ोवपीत, अ यंत गौरवण, खबू
ऊँचा-लंबा कद, लंबी सी धवल दाढ़ी और वैसी ही धवल सुदीघ केश-रािश। तीन हष से भर उठे ।
िफर उठे और उनके चरण म द डवत लेट गये। रावण के दोन हाथ उनके एक चरण पर थे। पर
यह या? हाथ को ऐसा य लग रहा था िक उ ह ने िकसी के चरण को नह प ृ वी क िसकता
(रे त) को ही पश िकया हो। वहाँ पर िपतामह के चरण नह शू य ही हो। उसने च क कर
िपतामह के मुख क ओर देखा। ऐसी ही ि थित कुंभकण और िवभीषण क भी थी। वे भी
अचंिभत से ा के मुख क ओर देख रहे थे। ा हँस पड़े । िकतनी मोिहनी हँसी थी। ऐसा लगा
जैसे स पणू ा ड म मधुर हा य गुंजायमान हो उठा हो। तीन स मोिहत से हो गये। ा ने
आशीवाद िदया -
‘‘यश वी भव! तु हारे स पण
ू मनोरथ सफलीभत ू ह । बैठ जाओ व स, मुझे अपनी
वंशवेिल के सबसे न ह सद य का मुख तो देखने दो।’’
तीन मं मु ध से बैठ गये। उ ह समझ ही नह आ रहा था िक या बोल।
‘‘ िपतामह किठन पड़ता है, हम आपको िपतामह कह सकते ह।’’ वयं को संयत करते
हये रावण ने बातचीत का िसलिसला आरं भ करना चाहा।
ा नेह से तीन के मुख िनहार रहे थे। वे मु कुराये िफर बोले -
‘‘सम त ा ड मुझे िपतामह ही कहता है। िफर तुम तो मुझे ांड म सबसे यारे हो।
जो इ छा हो कह सकते हो।’’
‘‘िपतामह! आपने इतना िवल ब य िकया हमारे पास आने म? हम तो कब से आपको
पुकार रहे ह!’’ िवभीषण ने िकया।
‘‘अ छा िवभीषण! तुम यिद यहाँ से पुकार लगाओ तो या तु हारे मातामह सुन लगे?’’
‘‘कैसे सुन लगे? घर तो बहत दूर है िपतामह!’’
‘‘मेरी पुकार सुन लगे।’’ कुंभकण ने हाथ उठाते हये कहा।’’
‘‘हाँ िपतामह! यह अ यंत उ च वर म चीखता है। मेरे तो वण पट (कान के पद)
िवदीण होने लगते ह।’’ िवभीषण ने कुंभ का समथन िकया।
‘‘अ छा! इसका अथ हआ िक िवभीषण का वर इतना ती नह है िक घर तक पहँच
सके। यिद यह कुंभ के समान और अ यास करे तो इसका वर भी वहाँ तक पहँच पायेगा।’’
‘‘जी, संभवत:!’’
‘‘इसी कार तुम लोग के अंतस का वर इतना ती नह था िक मुझ तक पहँच पाता।
अ यास से उसम ती ता आई और वह मुझ तक पहँच गया। और जैसे ही मने तु हारी पुकार सुनी
म दौड़ कर आ गया। समझे?’’
‘‘जी िपतामह!’’ तीन ने समवेत वर म कहा।
‘‘अरे हाँ वह कहाँ है च नखा, उसे भी तो बुलाओ। जाओ िवभीषण, दौड़ कर जाओ।’’
ा ने चार ओर देखते हये कहा।
िवभीषण जैसा िक िव वा ने कहा था, बारह वष क अव था तक उ ह के पास रहा था।
तदुपरांत कैकसी उसे और च नखा दोन को थाई प से यह , अपने िपता के पास छोड़ गई
थी। वह वयं भी अब अिधकांशत: यह रहती थी।
िवभीषण िपतामह के आदेश के साथ ही त परता से उठ कर च नखा! च नखा!!
पुकारता हआ भागा और पलक झपकते ही वन म ओझल हो गया।
िवभीषण कुटीर से दूर ही था जब उसने देखा िक उसक पुकार सुन कर च नखा
भागी आ रही है। वह वह क गया और िच लाया -
‘‘च नखे! च नखे! चल िपतामह बुलाते ह।’’
‘‘िपतामह? वे कैसे आ गये? वे तो िपता के घर भी नह आये थे कभी।’’
‘‘अरे करना छोड़ दौड़ कर आ।’’
‘‘अरे मुिनवर पुल य आये ह। चल हम भी चलते ह। िपता! िपता ....’’ च नखा के
पीछे -पीछे ह त भी िनकल आया था। उसने सुमाली को आवाज लगाते हये कहा।
‘‘अरे वे िपतामह नह , िपतामह ... वयं ा आये ह।’’
‘‘ या? आ गये। आह!’’ ह त के मुख पर अनायास अपवू उ लास तैर गया। उसने
आकाश क ओर हाथ उठा िदये और इनके साथ चल िदया। ‘‘चल। म भी चलता हँ।’’
‘‘नह ह त! तुम नह ।’’ ह त क आवाज सुन कर सुमाली भी बाहर आ गया था,
उसने ह त को रोक िदया।
ह त क गया। िवभीषण और च नखा भी क गये और वाचक ि से सुमाली
क ओर देखने लगे।
‘‘तुम दोन जाओ। आज तो तु हारी तप या सफल हई है। जाओ अपने िपतामह का
भरपरू आशीवाद ा करो जाकर।’’
वे दोन उछलते-कूदते, दौड़ते चले गये तो सुमाली ह त से बोला -
‘‘वे उनका प रवार ह। ा अपना सारा नेह उनपर सहजता से उड़े ल दगे। उ ह अकेले
ही रहने दो। हम लोग क उपि थित उनके औदाय म यन ू ता भी उ प न कर सकती है। उनके
नेह म कृपणता भी आ सकती है। आओ हम लोग दूर से, उधर त ओं क ओट से देखते ह।’’
अब तक यह आवाज सुनकर सारा कुनबा इक ा हो गया था। सब शी ता से व ृ के
झुरमुट क ओर बढ़ चले।
18. यु और वर
यु िन संदेह िवकट था। असुरराज श बर का परा म अवणनीय था। चार ओर अ
और मनु य क मत ृ देह के ढे र लगे थे। देव और आय नपृ क संयु सेना स पण
ू शि से यु
कर रही थी िक तु तब भी वह असुरराज को िवचिलत करने म समथ नह हो पा रही थी। महाराज
दशरथ भी परू े परा म से यु कर रहे थे। कैकेयी रथ म उनक बाय ओर आ ढ़ उनके साथ थी।
उसने भी अपनी यु कला से महाराज को भािवत िकया था। महाराज के धनुष से बाण काल बन
कर िवप ी सै य पर बरस रहे थे और कैकेयी हाथ म ल बा भाला िलये िनकट आने का यास
करते अ ारोही िकसी भी असुर को यमराज को समिपत करती जा रही थी। साथ ही वह हाथ म
ढाल िलये अपनी और महाराज दशरथ क सुर ा भी कर रही थी।
अ र - नात थे। उनके शरीर म कई बाण िब हो चुके थे। सारथी भी आहत था।
महाराज और वयं कैकेयी के शरीर म भी कई घाव थे। िक तु दोन को ही उनक परवाह नह
थी। कोई भी घाव ाणघातक नह था।
तभी एक िवशाल रथ सामने आ गया। उसने िबना िकसी चेतावनी के आ मण कर
िदया। एक शर महाराज क दािहनी कलाई के ऊपर भुजा म िव हो गया। कैकेयी णांश म
अपनी ढाल लेकर महाराज के आगे आ गई तािक महाराज तीर िनकाल सक। तीर िनकालने के
बाद भी तीर के भाव से उनका धनुष संचालन भािवत हो गया था। सामने कौन महारथी था,
उसे कैकेयी नह पहचानती थी िक तु उसका िवशाल ऐ यशाली रथ और उसके िसर पर
सुशोिभत र नजिटत िशर ाण उसके िकसी िविश मह वपण ू यो ा होने को इंिगत कर रहे थे।
धनुष संचालन म उसका ह तलाघव कैकेयी को भािवत कर रहा था। तभी एक तीर दशरथ के
िशर ाण से लटक रह पतली लौह अगलाओं (जंजीर ) और कवच से ीवा क सुर ा के िलये
उठी हई पि य को बेधता हआ उनके गले के िकनारे को बेधता हआ िनकल गया। यह घाव
घातक था। भयानक र ाव होने लगा। कैकेयी ने पीछे आकर महाराज का र प छा तभी एक
तीर महाराज क जंघा म धँस गया। वे जोर से कराह उठे । वे लड़खड़ाने लगे थे। कैकेयी ने णांश
म अपना धनुष उठाकर त परता से कई तीर सामने वाले महारथी क यंचा को ल य कर छोड़
िदये। उसका वार सफल हआ। ित ं ी ने भी मु कुराकर उसके कौशल क शंसा क । िक तु
उसने भी त काल दूसरा धनुष उठा िलया। इस बीच महाराज चैत य हो गये और उ ह ने भी
सामने वाले को एक गंभीर घाव दे िदया।
इसी बीच सामने दािहनी ओर से एक रथ और दौड़ता हआ सामने आ गया। उस पर
सवार यो ा ारा छोड़ा गया तीर सारथी के कवच को बेधता हआ उसके कंधे म िव हो गया।
कैकेयी ने भी अपने तीर से उसके पेट पर आघात कर िदया। इसी बीच एक तीर महाराज के कवच
को बेधता हआ उनके व म िव हो गया। दूसरा तीर सारथी के म तक म िव हो चुका था।
सारथी अपने थान से लुढ़क कर नीचे यु भिू म म खो चुका था। कैकेयी ने त काल उछल कर
उसका थान लेते हये व गाएँ अपने िनयं ण म ले ल । महाराज के एक और आघात लग चुका
था। एक तीर कैकेयी के कंधे म भी गहरा धँस चुका था। एक उसके पेट को छूता हआ िनकल गया
था। अब प रि थितयाँ िनयं ण के बाहर थ । ऐसे म महाराज क ाणर ा सवािधक मह वपण ू थी।
उसे यहाँ से बचकर िनकलना ही होगा अ यथा वह और महाराज दोन ही काल-कविलत हो
जायगे।
उसने अ यंत त परता से रथ-संचालन क अपनी स पण
ू कुशलता दिशत करते हये
रथ को मोड़ िदया।
वापसी क अव था म महाराज को रथ क का -िनिमित सुर ा दान कर रही थी,
िक तु वयं कैकेयी पर कोई ओट नह थी। असुर इनक सेना म अ दर तक वेश कर चुके थे।
अचानक दािहनी ओर से ि एक भाले ने उसक पीठ म घाव कर िदया।
यु -भिू म के पीछे एक ओर देव के िशिवर थे। कैकेयी रथ को िवकट गित से दौड़ाती
सीधे वह पहँची। बार-बार उसे लग रहा था िक अब एक तीर आयेगा और उसक भी चेतना छीन
लेगा। कई तीर उसके दाय-बाय से सनसनाते हये िनकल गये थे। उसक उ ेजना अपने चरम पर
थी। छाती धाड़-धाड़ कर बज रही थी, िक तु उ ेजना म भी उसक इंि याँ और उसका मि त क
पण
ू त: िनयं ण म था। इस ि थित म भी उसे भय का अनुभव नह हो रहा था।
िशिवर म पहँचते ही िचिक सक के सहायक रथ के चतुिदक एक हो गये और
महाराज को अिवल ब िचिक सक य सहायता हे तु ले गये। महाराज को सुरि त हाथ म स पते ही
कैकेयी िनढाल होकर िगर पड़ी।
अब वे अिभयान के िलये तैयार थे। उनके पास तीन नौकाएँ थ । सुमाली ने कहा -
‘‘कंु भकण, व मुि , िव पा , ह त, अक पन और अनल तुम लोग मेरे साथ म य
वाली नौका म आओ। लंके र आप भी आय। बाक सब शेष दोन नौकाओं म बैठ जाओ।’’
नौकाएँ सागर म उतार दी गय । जहाँ तक ि जाती थी केवल जल ही जल िदखाई
देता था। हवा म म चल रही थी। मौसम सुहावना था िक तु जीवन के ही समान सागर म भी या
पता चलता है िक कब मौसम पलटा खा जाये। कब शीतल समीर उ ेिलत हो उठे और ये िथरकती
लहर ता डव करने लग और कब अपना िवकराल मुख पसार कर उनक िनरीह नौकाओं को
लील लेने को त पर हो जाय। उसने हाथ जोड़कर, आँख ब द कर अन त स ा से सबक सुर ा
क ाथना क िफर सबको थान का संकेत कर िदया।
नौकाएँ सागर क छाती पर मंथर गित से डोलती आगे बढ़ने लग और उ ह के साथ
रावण भी अपने पहले अिभयान पर आगे बढ़ने लगा। उसके मि त क म योजनाएँ बनने-िबगड़ने
लगी थ । उसक तं ा सुमाली के वर ने भंग क -
‘‘व मुि आओ अब तु हारी शंका का समाधान कर दँू। कुंभ! तुम ये मातुल क
पतवार सँभाल लो।’’
कुंभकण ने व मुि से पतवार ले ली।
‘‘भाई मा यवान के दोन ये पु - व मुि और िव पा , मेरे दोन ये पु -
ह त और अक पन तथा माली का ये पु - अनल सबको मं णा के उ े य से ही मने इस
नौका पर रखा है। अिभयान म आपस म िकसी तरह का वैमन य या कोई भी शंका नह रहनी
चािहये।
‘‘देखो हम सब िकतने भी बलशाली ह िक तु शारी रक बल म कुंभ हमम सव े है
और यिद सारी कसौिटय पर कसा जाये तो लंके र सव े ही नह हम सब से बहत आगे ह।
संभवत: हम सब िमलकर भी उनक समता नह कर सकते। यह िपतामह ा का आशीवाद है।
उनक कृपा है। इनके अिभषेक का पहला कारण तो यही है।’’
उसने सबक ओर देखा, सब मौन होकर यान लगाये उसे सुन रहे थे।
‘‘हम सब िकतने भी समथ ह िक तु सं या म मा चौबीस ही ह। दूसरी ओर, दुबल
कुबेर भी नह है। दुबल होता तो लोकपाल के दािय व का िनवाह नह कर पाता। िफर उसके साथ
सुस ज सै य भी है। हमसे सह गुना अिधक है उसक शि । िफर उसक सहायता को िकसी
भी समय इ और िव णु भी आ सकते ह। िव णु िकतना बल है हम जानते ह। उसका झंझावात
हमने अपने चरमो कष के काल म झेला है। िकस बुरी तरह परािजत िकया था उसने हम, इसे म
आज भी नह भल ू े होगे। रावण और कुंभ के अित र हम सबने देखा है
ू ा हँ, तुम लोग भी नह भल
उसका परा म। उसे परा त कर पाना असंभव है।’’
सुमाली ने रावण के चेहरे के भाव बदलते देखे, वह समझ गया िक रावण के अंतस म
कह ज म ले चुके अहंकार को िव णु क शंसा क ये पंि याँ अ छी नह लग रह । उसके
मि त क म फौरन क धा िक िव णु क साम य को कम करके आँकना रावण के िलये अ यंत
घातक हो सकता है। रावण के इस अित आ मिव ास को अभी से िनयंि त करना होगा। वह
बोला-
‘‘हाँ लंके र! िव णु इस समय अपराजेय है। हमारे िलये ही नह वयं आपके िपतामह
और िशव के िलये भी। यिद कह आपको यह लगता है िक आप उसे परा त कर सकते ह तो
अिवलंब उस सोच को िनकाल फिकये। आप बस यही कामना क िजये िक उससे सामना न हो।
वह िपतामह के वचन का स मान करते हये आपके माग म न आये। िक तु यह तो आगे क बात
है। अभी तो बस मेरी बात सुिनये और समझने क चे ा क िजये।’’
‘‘जी मातामह!’’ रावण ने धीरे से कहा।
‘‘इन प रि थितय म कैसे िवजयी हो सकते ह हम?’’ सुमाली ने कहना जारी रखा-
‘‘हम मा लंका ही िवजय नह करनी है, लंका तो हमारे अिभयान का पहला चरण है, सबसे
छोटा चरण िक तु इसक सफलता भिव य क आधारिशला रखेगी। आज हम सफल हये तो
ि लोक िवजय का ार हमारे िलये खुल जायेगा। और असफल हो गये तो पीिढ़य तक पुन: उसी
अँधेरे भिव य को वीकार करना पड़े गा। इसिलये पराजय हम िकसी भी ि थित म वीकार नह
कर सकते। पराजय का अथ है सव अंधकार। और बल योग से हम पराजय ही िमलनी है।’’
उसने िफर एक बार सबक ओर देखा। सब परू े यान से उसे सुन रहे थे। उसने आगे
बोलना आरं भ िकया -
‘‘इस ि थित म िवजय हम एकमा लंके र ही िदला सकते ह। वे कुबेर के भाई ह। लंका
उनके मातामह क थी और मातामह ारा अपनी इ छा से उ ह दी गयी है, इस नाते अब उनक है।
वे जब यह तक दगे तो यह तक वीकाय होगा। िपतामह के मन म उसके िलये िकतना नेह है
यह हम देख ही चुके ह। यही नेह पुल य और िव वा के मन म भी िन संदेह होगा और यही
नेह हम लंका िदलायेगा। लंका िवजय हम नह करगे लंका िवजय तो व तुत: रावण का िव वा-
पु होना करे गा। यह िवशेष ि थत हमम से िकसी को ा नह है। इसिलये हम लंकापित नह
बन सकते। हम तो कुबेर पल म खदेड़ देगा। समझ म आ गई न मेरी बात?’’
‘‘जी िपत ृ य। मेरी उस समय क नासमझी को मा कर। भिव य म कभी दुबारा ऐसी
ू नह होगी। हम सब लंके र के ित पण
भल ू समिपत रहगे।’’ व मुि बोला। िफर िफर उसने
नारा लगाया -
‘‘महान लंके र क ...
‘‘जय!’’ सबने उसके वर म वर िमला कर जयकारे को पण ू िकया। अब सब एकमित
थे-एकमत थे। कोई िववाद नह था, कोई शंका नह थी। यही ि थित अिभयान के िलये उिचत थी।
परू े एक अहोरा क या ा के बाद इनक नौकाओं ने लंका तट को पश िकया। ात:
क धपू िखलने लगी थी। शरद काल आरं भ हो चुका था। िदन सुहावने होने लगे थे। तट पर उतरते
ही सुमाली पहले घुटन के बल झुका और िफर दंडवत क मु ा म बालू पर लेट गया और बहत देर
तक लेटा रहा। आज तीस वष से अिधक समय बाद उसने इस धरती पर पैर रखे थे। उसका मन
भर आया था। बाक सब वह बैठकर उसके सामा य होने क ती ा करते रहे । इस बीच कुछ
लोग ने ढे र सारे ना रयल तोड़ िलये थे। सबने उनसे अपनी भख
ू यास बुझाई। जलपान िकया।
सामा य होकर सुमाली ने भी एक ना रयल फोड़ कर उसका पानी पीते हये कहा -
‘‘अभी तीन से चार िदन क पदया ा हम और करनी है, ासाद तक पहँचने के िलये।
या ऐसा करो, तट के सहारे -सहारे परू ब क ओर बढ़ते चलो। भिू म पर सघन वन म माग खोजना
अ यंत दु कर होगा। लंका का स पण ू दि ण ा त जनशू य और वन से आ छािदत है सागर के
िकनारे ही समतल भिू म है, शेष सम त देश पवतीय है जहाँ माग खोजना और भी दु कर होगा।
वन म व यपशुओ ं से भी भय रहे गा। माग म थान- थान पर दलदल भी पड़गे। तट के सहारे -
सहारे ही आगे उ र क ओर घम ू जाना। यही उिचत रहे गा। सुवेल पवत हम सागर से ही िदख
जायेगा। बस तभी हम लोग भिू म पर उतरगे और आगे क या ा पैदल करगे। बाक दोन नौकाओं
तक भी यह संदेश सा रत कर िदया गया।’’
‘‘िपताजी आपने मुझे बुलवाया था?’’ सुिम ा का वर सुनकर उनक िवचार-तं ा भंग
हई। देखा सुिम ा उनके स मुख खड़ी थी। उसके साथ महारानी भी थ ।
‘‘हाँ बेटी! बैठो। आप भी बैिठये महारानी।’’
‘‘अ यंत िचंितत तीत हो रहे ह। या दशरथ आ मण के उ े य से आये ह?’’
‘‘उ े य तो उनका यही है तथािप दिशत इससे िवपरीत कर रहे ह। वे कह रहे ह िक वे
काशी को गौरव िदलाने आये ह।’’
‘‘ता पय?’’ हठात् महारानी और सुिम ा दोन के ही मुख से िनकल पड़ा।
‘‘ता पय वे काशी के संबंधी बनना चाहते ह।’’
‘‘यह कैसे संभव है?’’ महारानी के वर म घोर आ य था- ‘‘वे तो वयस म आपसे भी
बड़े ह गे?’’
‘‘जी हाँ! ऐसा ही है।’’
‘‘तब वे ऐसा िवचार भी मन म कैसे ला सकते ह?’’
िजसक पीठ पर इतना बड़ा सै य बल खड़ा हो वह कैसा भी िवचार मन म ला सकता
है, महारानी!’’ काशीनरे श ने दीघ ास लेते हये कहा।
‘‘महारानी! राजा जा के िलये िपतवृ त होता है। उसक र ा राजा का थम दािय व
होता है िक तु मुझे समझ नह आ रहा िक म यह कैसे क ँ ?’’
‘‘एक ही माग है िपताजी, आप उनका ताव वीकार कर ल।’’ सुिम ा ने ह त ेप
िकया।
‘‘हम ऐसा कैसे कर सकते ह बेटी?’’ महारानी बोल - ‘‘उससे तो तेरा जीवन न हो
जायेगा।’’
‘‘िपताजी रा य क सुर ा मा राजा का ही धम नह होता, रा य के येक नाग रक
का धम होता है। येक यि का दािय व होता है िक वह अपने रा के गौरव को अख ड
रखने हे तु अपने ाण का भी बिलदान कर दे।’’
‘‘वह तो है, पु ी! िक तु ...’’
‘‘ या िक तु िपताजी? यिद मा मेरे छोटे से बिलदान से स पण
ू काशी के गौरव क
र ा हो रही है, काशी के सम त नाग रक क ाण र ा हो रही है तो मेरा दािय व बनता है िक
म अपने एक छोटे से सुख का बिलदान कर दँू।’’
‘‘नह बेटी! काशी के ि य का लह अभी पानी नह हआ है। वे अपनी बेिटय का
यापार नह करते।’’
‘‘िपताजी ध ृ ता मा कर िक तु यह मा ि य का अहम् है िजसके िलये वे अपना
लह बहा देते ह। यह बेिटय क आन नह उनक अपनी आन होती है। आप जैसे कुछ थोड़े से
ि य को पथ ृ क कर द तो ि य जाित क बेिटयाँ मा उनके व न को साकार करने का
संसाधन होती ह। ऐसा न हो तो वे बेिटय को सय
ू का काश देखने ही न द।’’
‘‘तेरी मित िफर गयी है या? या अनगल लाप कर रही है?’’ माता ने सुिम ा को
िझड़कते हये कहा- ‘‘ऐसी बात तो सोचना भी पाप है।’’
‘‘माता अभी पाप-पु य क या या करने का अवकाश नह है। आप एक पु ी क र ा
करने हे तु स पणू काशी िनवािसय का जीवन दाँव पर लगाने क सोच रहे ह, इसे मख ू ता के
अित र और या कहगे। अभी तो वे मा मुझे ही माँग रहे ह। यिद काशी म िवजेता के प म
उनके पाँव पड़ गये तो वे िकतनी सुिम ाओं को अपने साथ ले जायगे, इसे सोचा है आपने? अभी
तो सुख से अथवा क से, जैसे भी िमलेगा मुझे महारानी का ही पद ा होगा िक तु यिद वे मुझे
िविजत कर ले गये तो या पद ा होगा - एक या दो राि उनक भो या बन कर उपपि नय
क भीड़ का एक अंग बन कर रह जाऊँगी।’’
‘‘िक तु पु ी ...?’’
‘‘िकसी िक तु के िलये थान ही नह है िपताजी! इसके अित र एक ही उपाय है -
आप अपनी कटार उठाएँ और पहले मेरा वध कर द त प ात काशी क अ य सम त बेिटय -
वधुओ ं का वध कर यु म सारे ि य अपने ाण उ सग कर द। िक तु तब िजस काशी क आन
के िलये आप संघष करगे, या वह काशी शेष होगी? जब काशी ही नह होगी तब कैसी उसक
आन? कैसा उसका गौरव?’’
‘‘पु ी! तीत होता है तेरा मि त क इस समाचार के आघात को सहन नह कर पाया
है, तभी यह अनगल लाप कर रही है। शा त हो जा। जा अपने क म िव ाम कर। तेरे िपता कोई
माग िनकाल ही लगे।’’ पु ी के वचन से आहत महारानी ने भरे नयन से कहा।
ू त: संयत अव था म है माँ!’’ सुिम ा के अधर पर बरबस हा य खेल
‘‘मेरा मि त क पण
गया - ‘‘आप लोग ही पु ी के मोह से वशीभत
ू प रि थितय का वा तिवक आकलन करने से मँुह
फेर रहे ह। मुझे क म भेजने के थान पर िपताजी को स ाट् के िशिवर म भेिजये, अ यथा कह
यिद उ ह ने अपने कहे अनुसार आचरण कर िलया तो काशी म शव को बटोरने वाले भी शेष
नह बचगे। मेरी र ा तब भी नह कर पायगे आप लोग।’’
‘‘बेटी!!’’ माँ ने आतनाद िकया िक तु बेटी के मुख से वािहत श द के नह ।
‘‘मेरे भा य का िनधारण तो उसी पल हो गया िजस पल स ाट ने िकसी भी कारण से
मेरा चयन कर िलया। अब उस भा य को सुधारने का कोई माग नह है। आपका कत य अब मा
काशी क सुर ा करना है। अपनी आन क सुर ा को यागना ही ेय कर है। तभी स मान
सिहत मेरी िवदाई स भव है अ यथा वह भी नह होगी।’’
काशीनरे श के गाल पर अ ु ढुलक आये थे। वे अपनी िववशता से यिथत थे। उनके
श द उनके गले म अटके थे। उनके पास बेटी क बात का कोई उ र नह था।
‘‘िपताजी! महाराज भानुमान क भल ू मत दोहराएँ । उ ह ने यु कर या देवी कौश या
क र ा कर ली जो आप कर लगे? महाराज दशरथ का ताव वीकार कर लीिजये, इसी म
सबका िहत है। मुझे स मान से अपनी िनयित को वीकार करने के िलये िवदा कर। स ाट् को
अपनी वीकृित क सच ू ना देने हे तु थान कर। म िवनती करती हँ आपसे।’’ अब तक संयत
सुिम ा के ने भी िपता क िववशता को देख कर छलक आये थे।
काशीनरे श ने ख च कर पु ी को अपने सीने से िचपटा िलया और फूट-फूट कर रो पड़े ।
दो िदन प ात शुभ मुहत म सुिम ा का अयो या नरे श दशरथ के साथ धम
ू धाम से
िववाह स प न हो गया।
29. कुबे र के ासाद म
ये लोग जब कुबेर के ासाद म भीतर वेश करने लगे तो ारपाल ने रोक िदया -
‘‘ठहरो! कहाँ घुसे जा रहे हो?’’
‘‘लोकपाल से िमलना है।’’ रावण ने उ र िदया
‘‘लोकपाल से िमलना है।’’ ारपाल ने नकल उतारते हये कहा ‘‘स मान से बोलना भी
नह आता।’’ ारपाल क आवाज म ध ृ ता थी जो धू ा से सहन नह हई वह ोध म आगे
बढ़ा।
‘‘नह !’’ रावण हाथ फै लाकर उसे रोकता हआ हँसकर ारपाल से बोला ‘‘लोकपाल जी
से िमलना है ारपाल जी! स न!’’
‘मेरा उपहास करता है। मजा चखाऊँगा तुझे तो! इस समय महाराज िकसी से नह
िमलते। भाग जाओ। ात: राजसभा म उपि थत होना।’’
‘‘वे हमसे अभी िमलगे। यिद अपना िहत चाहते हो तो उ ह सच
ू ना करो िक वै वण रावण
आया है।’’ ारपाल उसे िफर िझड़कना चाहता था िक तु दूसरे ारपाल ने रोक िदया। उसने रावण
के मुख से उ च रत ‘वै वण’ श द पर यान िदया था। और इस श द ने उस पर चम कारी भाव
भी डाला था। वह स मान के साथ बोला -
‘‘ या कहा आपने? वै वण ह आप, महिष िव वा के पु ?’’
‘‘ या एक बार म सुनाई नह देता? लोकपाल ने ऐसे ही यि य को िनयु िकया है
ार क सुर ा के िलये?’’ रावण ने अिधकार यु वर म कहा।
उसके आ मिव ास और वर के अिधकार ने भी ारपाल पर साथक भाव डाला। वह
स मान से बोला-
‘‘आप लोग कुछ काल यह ती ा क िजये, म अभी सच
ू ना भेजता हँ।’’ िफर एक साथी
को आवाज देता हआ बोला -
‘‘अरे चतुर जा तो जरा महाराज को सच
ू ना कर दे।’’
सुमाली ासाद क भ यता को मं मु ध सा िनहार रहा था। कभी यह उसका ासाद
हआ करता था। कुंभकण ासाद क भ यता से चम कृत खड़ा था। उसक तो पलक भी नह
झपक रही थ ।
‘‘आप महाराज के ाता ह?’’ पहले वाले ारपाल ने िज ासा से रावण से पछ
ू ा। अब
उसके वर म उ ं डता नह स मान झलक रहा था।
‘‘हाँ! तु हारे महाराज मेरे बड़े भाई ह।’’
‘‘आप लोग बैठ जाइये तब तक।’’ ारपाल ने एक ओर बनी पीिठकाओं क कतार क
ओर संकेत करते हये कहा।
‘‘नह , ऐसे ही ठीक है।’’
‘‘आपको पहले कभी नह देखा?’’ ारपाल प रचय घिन करना चाहता था। महाराज
के भाई और संबंिधय क िनगाह म बसने म सदैव लाभ ही रहता है।
‘‘हाँ! म पहली बार आया हँ। पर तु ह इससे या? अपना काम करो।’’ रावण ने उसके
उ साह पर िवराम लगा िदया।
कुछ देर सभी मौन खड़े रहे ।
तभी सचू ना देने गया ारपाल का साथी लौटता िदखाई िदया। सबक उ सुक िनगाह
उसीक ओर उठ गय ।
उसने दूर से ही कहा -
‘‘आइये महाराज आप लोग क ती ा कर रहे ह।’’
सब उसके साथ चल िदये।
कुबेर अितिथशाला के ार पर ही िमला। सुदशन यि व। ऊँचा कद, बहमू य र न से
जड़े विणम राजमुकुट के नीचे से झांकते सुदीघ, चमक ले, काले केश। बहमू य व ाभषू ण।
लगता था िक कोई अ यंत वैभव और स ा स प न यि है। उसके साथ महारानी भी थ । वे भी
अपने पित से कम सुदशना नह थ । उनका परू ा शरीर जैसे आभषू ण से लदा था।
रावण ने झुककर कुबेर के चरण म णाम िकया। कुबेर ने उसे उठाकर सीने से लगा
िलया। िफर पछ
ू ा-
‘‘कुशल से तो हो व स?’’
‘‘जी! स पण
ू कुशल से।’’
कुबेर के आिलंगन से छूट कर रावण ने महारानी के चरण म णाम िकया। उधर
कुंभकण कुबेर से िमल रहा था। महारानी ने भी यार से उसके िसर पर हाथ फेर कर आशीवाद
िदया। उनक आयु िनि त ही कैकसी से कम नह होगी िक तु अभी भी प-यौवन म वह दीि
िव मान थी।
कुबेर कुंभकण को भुजाओं म बाँधे हँसते हये कह रहा था- ‘‘व स तुम साथ हो तो सै य
क आव यकता ही नह । अकेले ही परू े सै य पर भारी पड़ोगे।’’
‘‘जी! वो तो है।’’ कुंभकण अपनी शंसा से स न था। उसने अपनी भुजाओं क सु ढ़
मांसपेिशय का दशन िकया। सब हँस पड़े ।
आओ भीतर चल।
भीतर क भ यता देख कर तो कुंभकण क आँख खुली क खुली रह गय । यहाँ पर
सुमाली भी चम कृत था। आ त रक स जा क शोभा उसके समय से भी बहत े थी। िवशाल
क म चार ओर हाथी दाँत क पीिठकाएँ पड़ी थ । म य म िवशाल फिटक का पयक था िजस
पर मोटा सा मुलायम ग ा िबछा था। बहमू य रे शमी चादर पड़ी थी। सभी गवा (िखड़िकय ) पर
बहमू य कौषेय यविनकाएँ सुशोिभत थ िजन पर मोटा सोने का काम िकया गया था। कुल
िमलाकर सब कुछ अ यंत भ य था।
सब पीिठकाओं पर बैठ गये तो कुबेर ने सच
ू क ि से शेष लोग क ओर देखा।
रावण उसक िनगाह का ता पय समझ गया। बोला -
‘‘ ाता का प रचय करवा दँू सबसे।’’
‘‘हाँ! यह तो आव यक है।’’ कुबेर ने उ र िदया।
‘‘मातामह सुमाली’’ रावण ने सुमाली क ओर इंिगत िकया। कुबेर ने झुक कर उ ह परू ी
ा से णाम िकया। महारानी ने भी उसका अनुसरण िकया। िफर कुबेर बोला -
‘‘ध य भा य! लंका को थमत: बसाने वाले का आज तक नाम ही सुना था। आज
दशन ा कर ध य हो गया। आपके चरण से पिव हो गया यह ासाद। देिखये कह कोई कमी
तो नह रह गयी है? कुबेर ने परू े मन से देखभाल क है लंका क ।’’
कुबेर परू े स मान सच
ू क ढं ग से बोल रहा था िक तु िफर भी सुमाली का नाम सुनते ही
उसके चेहरे पर णांश के िलये जो च कने के िच ह कट हये थे वे रावण और सुमाली दोन ने
ही लि त िकये थे।
‘‘और ये सब मेरे मातुलगण ...’’ उसने एक-एक कर नाम लेते हये सभी का प रचय
िदया। कुबेर और िफर महारानी ने सबको णाम िकया।
इस बीच प रचा रकाओं ने सबके सामने वािद यंजन के वण-थाल सजा िदये थे।
‘‘लीिजये! हण क िजये सब लोग। कुबेर आज थम बार अपने मातामह और मातुल
के दशन ा कर कृतकृ य है।’’
‘‘अरी मंिदरे ! यह या? कुंभकण के सामने भी तन
ू े यह जरा सा थाल रखा है।’’
महारानी सहज हा य के साथ एक प रचा रका से स बोिधत हई ं- ‘‘मेरा देवर पहली बार आया है,
या कहे गा िक भाभी के यहाँ गया और त ृ भी नह हआ।’’
कुंभकण के चेहरे पर स नता क लाली दौड़ गयी। बोला -
‘‘भाभी हो तो ऐसी।’’
जलपान के म य ऐसी ही ह क -फु क बात होती रह । सब त ृ हये। कुंभकण घर से
बाहर अिधकांशत: त ृ नह हो पाता था पर आज वह भी पण
ू त ृ हआ। एक प रचा रका मा उसी
क सेवा म लगी रही थी। उसके ललाट पर चमक रह वेद क बँदू बता रही थ िक िकतना थक
गई थी वह।
जलपान के बाद प रचा रकाएँ सब साम ी बटोर ले गय । महारानी ने भी कुछ काम का
बहाना कर आ ा ा क तो कुबेर ने गंभीरता से वाता का सू आरं भ िकया -
‘‘व स रावण! आज भाई क याद कैसे आ गयी?’’
‘‘बस दशन क आकां ा ख च लाई।’’
‘‘मातामह भी आये ह, इससे लगता है िक कुछ िवशेष ही योजन है। हम सब तो यही
समझते थे िक मातामह कुटु ब सिहत ी िव णु ारा ....’’
‘‘मार िदये गये।’’ कुबेर के अधरू े छोड़ िदये गये वा य को सुमाली ने हँसते हये परू ा
िकया।
‘‘अब या कहँ मातामह, चचा तो यही थी चार ओर।’’
‘‘मुझे ात है। और मने यह म जान-बझ
ू कर फै ला भी रहने िदया। समझ सकते हो िक
इसी म भलाई थी।’’
‘‘जी!’’ कुबेर ने वीकार िकया। िफर आगे कहा -
‘‘मातामह अब स य योजन बताएँ आगमन का।’’
‘‘हाँ! मुझे भी लगता है िक बात को घुमा िफरा कर कहने से प कहना ही उिचत
होगा।’’
‘‘जी! आपस म कूटनीित भली नह होती। प ता ही ेय कर है।’’
‘‘तो सुनो। तुम जानते ही हो िक यह लंका हमारी है।’’
‘‘मातामह आपक नह है, हाँ आपक बसाई हई अव य है।’’
‘‘म िकसी भी कारण से यिद अपना घर र छोड़ कर कुछ काल के िलये कह चला
जाऊँ तो आप उस पर अिधकार कर लगे। यह तो याय नह हआ।’’
‘‘मने बलात अिधकार नह कर िलया, मुझे िपतामह ा ने लंका को िफर से बसाने
का िनदश िदया था वही मने िकया। आपने भी िव कमा के ारा बनाई हई लंका पर अिधकार
िकया था।’’
‘‘आप भल
ू कर रहे ह लोकपाल! मुझसे वयं िव कमा ने ही कहा था लंका म िनवास
करने को।’’
‘‘इससे या अ तर पड़ता है मातामह? लंका का िनमाण आपने तो नह करवाया था। न
यह स पणू भिू म आपने य क थी। आपको भी यह अ यु ि थित म ा हयी और आपने इसे
अपनी राजधानी बना िलया। मुझे भी यह अ यु ि थित म ा हई और मने भी इसे अपनी
राजधानी बना िलया।’’
‘‘अ तर है लोकपाल! मने िव कमा से उिचत पा रतोिषक पर एक नवीन पुरी बसाने
का आ ह िकया था। उसने नवीन पुरी बसाने के थान पर मुझे यह पुरी दे दी। जबिक आपने इसे
कुछ काल के िलये िनजन देख कर इस पर अनिधकार आिधप य कर िलया। अब म चाहता हँ िक
इसे आप पुन: मेरे दौिह और अपने छोटे भाई को स प द। आप समथ ह, दूसरी पुरी बसा सकते ह
िक तु इसके पास दूसरी पुरी बसाने के संसाधन नह ह।’’
‘‘मातामह! दोन ि थितय म िभ नता है। यिद आप लंका वापस चाहते ह तो वह संभव
नह है। लंका मुझे िपतामह ा ने दी है। उनके िनदश पर मने इसे अपनी राजधानी बनाया है।
‘‘यिद रावण यहाँ रहना चाहता है तो वह मेरा अनुज है। म नैसिगक प से उसके
संर क क ि थत म हँ। उसका मेरी येक व तु पर इस नाते सहज अिधकार है। वह यहाँ मेरा
अनुज होने के नाते सदैव सािधकार िनवास कर सकता है। उसके िलये या बाधा है। या परू ा
प रवार एक साथ नह रह सकता? मुझे और मेरी प नी दोन को यिद ये यहाँ रहगे तो अ यंत
स नता होगी। आपने देखा ही होगा िक इनके आगमन से हम दोन िकतने स न थे।’’
‘‘आज अक मात् आप इसके संर क हो गये। अभी तक जब आपके इन िनरीह भाइय
को संर ण क आव यकता थी तब आप कहाँ थे? आज जब ये समथ ह तब आप इनके संर क
होने का दावा कर रहे ह।’’
‘‘मुझसे पहले इनके माता-िपता इनके संर क ह। ये अपनी माता के संर ण म थे तो म
कैसे इनका संर क होने का दावा कर सकता था?’’
‘‘आप माता सिहत इ ह अपने पास िनवास हे तु आमंि त कर सकते थे।’’
‘‘माता कभी यहाँ आत उनका सदैव वागत होता। कुबेर वाथ नह है मातामह!’’
‘‘ये सब कहने क बात ह, लोकपाल! आपने कभी िनमि त िकया होता तो माता
आत ।’’
‘‘आपका आ ेप िम या है मातामह! माता ने कभी मुझे पु वत वीकार करना चाहा ही
नह । मुझे कभी इनका भाई माना ही नह । ...’’
सुमाली ने बीच म कुछ कहना चाहा तो कुबेर ने हाथ उठाकर उसे रोक िदया और कहना
जारी रखा-
प कहँ तो उ ह ने तो इ ह िपता के संर ण म भी नह रहने िदया। वयं भी कूट
उ े य क पिू त हे तु ही वे िपता के साथ रह । उ े य पण
ू होते ही उ ह ने िपता को भी छोड़ िदया।’’
‘‘कुबेर तुम अपनी माता का और मेरा अपमान कर रहे हो।’’ सुमाली ने कहा। उसके
श द तीखे अव य थे िक तु वर पण ू त: संयत था।
‘‘नह मातामह! स य यही है। उ ह ने तो िपता से िववाह ही संभवत: आपक कूटनीित
के अनुसार िकया था और इसीिलये उ ह ने इ ह अ यंत अ प वयस म ही िपता के पास से आपके
पास पहँचा िदया।’’
‘‘नह कुबेर! तुम प रि थितय का अपनी सुिवधा के िलये अनुिचत िव े षण करना
चाह रहे हो। कैकसी ....’’
‘‘िवराम दीिजये मातामह। इस िवषय म तक से कोई लाभ नह है और उनका कोई
योजन भी नह है। तक मा कटुता ही उ प न करगे। हम इस िवषय को यह याग कर आगे
बढ़ते ह।’’
‘‘लोकपाल कैसे िवराम दे सकते ह। आप मेरी और मेरी पु ी क ित ा पर आघात कर
रहे ह। आपने यिद कभी मन से कैकसी को मातावत माना होता तो आप उसे अपने पास आमंि त
कर सकते थे। स य तो यह है िक आप कभी उससे या अपने भाइय से भट करने ही नह गये। वह
जब मुिन िव वा के आ म म थी तब भी नह और जब मेरे यहाँ आ गई थी तब भी नह ।’’
‘‘मातामह! ...’’
‘‘मेरी बात परू ी हो जाने दीिजये।’’ सुमाली ने कुबेर को बीच म ही रोकते हये कहा -
‘‘कैकसी तो आपको कभी भलीभाँित जान ही नह पाई। आप तो धनपित बनने म लगे हये थे। बस
औपचा रकता िनभाने कई-कई वष बाद आप अपने िपता से भट करने चले जाते थे। अब य िक
कैकसी भी वह थी तो एक भ पु ष के समान आप उससे भी स मान पवू क िमल लेते थे। आपने
कभी भी उससे िमलना चाहा ही नह । आपने तो कभी आमं ण का ताव तक नह िदया। वह
यिद अपनी ओर से ताव रखती तो आप यही कहते िक वह वाथवश ऐसा कर रही है?
धनपित! हम साधनहीन हो सकते है, आ मस मान से रिहत नह ह।’’
‘‘मातामह! आप मेरे भाइय को उकसा कर भाइय के म य कटुता उ प न करने का
यास कर रहे ह। भाइय म बैर के बीज रोप रहे ह। अ यथा इ ह मेरे साथ रहने म कोई आपि
नह होनी चािहये। म अकेला हँ यिद ये भी मेरे साथ आ जाते ह तो हम चार हो जायगे। हम िमल
कर सम त ि लोक पर आिधप य कर सकते ह।’’
‘‘उसके िलये मेरे दौिह को आपक सहायता क आव यकता नह है। ये अपने
पु षाथ से ि लोक िवजय करने क साम य रखते ह।’’
‘‘िफर इ ह ि लोक म इस छोटी सी लंका क आव यकता या है? य नह ये ि लोक
म जहाँ चाह अपना रा य थािपत कर लेते।’’
‘‘ ाता वह इसिलये िक लंका मेरे मातामह क है और उनका उ रािधकारी होने के नाते
इस पर मेरा याियक अिधकार बनता है।’’ इतनी देर से शाि त से यह सारा वातालाप सुन रहे
रावण ने अब अपनी उपि थित दज करायी।
‘‘मुझे मेरे िपतामह ने लंका स पी है। मने इतने वष तक इसे अपने पु षाथ से स प न
बनाया है। सबसे बड़ी बात आज इस पर मेरा अिधकार है। तुम छोटे भाई बन कर यहाँ रहना चाहो
तो तु हारा सदैव वागत है। िजतना मेरा अिधकार है म तु ह भी उतना ही अिधकार देने को सहष
तुत हँ िक तु मातामह का अिधकार लंका पर म कदािप वीकार नह कर सकता। जब तक
लंका म उनका रा य था, लंका उनक थी आज यह मेरी है।’’
‘‘ ाता आप भाइय म िव ह को योता दे रहे ह। आप समथ ह, आपके पास संसाधन ह
आप दूसरी पुरी बसा सकते है। बसा लीिजये। हम अभी समथ नह ह, िफर लंका से मातामह का
गाढ़ भावना मक नाता है, आप हम लंका स प य नह देते? हम आपके दूसरी पुरी बसाने
तक ती ा कर लगे।’’
‘‘रावण! तु हारे मातामह के समान ही मेरा भी लंका से भावना मक नाता है। इनके
नाते के धागे तो पुराने होकर जजर हो चुके ह। वे सहजता से टूट सकते ह। पर मेरी भावना के
धागे तो अभी पणू प से सु ढ़ ह। यिद मातामह अपने धागे नह तोड़ सकते तो म कैसे तोड़ दँू?
रही बात अलग पुरी बसाने क तो संसाधन म उपल ध करा दँूगा, तुम बसा सकते हो नई पुरी।
इससे भी भ य पुरी।’’
‘‘तो आप नह मानगे, भले ही हम भाइय म सदैव के िलये नेह के थान पर ेष के
नाते बन जाय?’’
‘‘तुम समझने का यास य नह कर रहे हो व स! म तो तु ह यहाँ अपने बराबर
अिधकार दे कर यहाँ िनवास करने का योता दे रहा हँ। तुम अगर अलग पुरी बसाना चाहो तो
उसके िलये भी तु ह परू ी सहायता देने को सहष त पर हँ तब िफर तुम य हठ पाले हो?’’
‘‘हम हठ पाले ह भाई! या यह आपक हठधम है।’’
‘‘ या???? वयं हठ पर अड़े हो और मुझ पर आरोप लगा रहे हो। यह तो पौल य को
शोभा नह देता।’’
‘‘बस! बहत हो गया।’’ रावण के सारे मातुल वभाववश ोध म आ गये थे िक तु जैसा
िक चलते ही सुमाली ने िनिद िकया था िक इस अिभयान का परू ा नेत ृ व रावण करे गा, वे
िववशता म िकसी भाँित वयं को िनयंि त िकये बैठे थे। बार-बार उनके हाथ कमर म बँधी
तलवार क मठ ू तक जाते थे और वे वापस ख च लेते थे। अब व मुि से सहन नह हआ। वह
आवेश म खड़ा होकर बोल ही पड़ा - ‘‘तुम यु को िनमं ण दे रहे हो कुबेर!’’
‘‘मातुल! बैठ जाय।’’ रावण का वर कठोर हो गया था। ‘‘ये मेरे अ ज ह। म िकसी को
इनके साथ अिश ता क अनुमित नह दे सकता। आपको भी नह ।’’
व मुि का आवेश झाग क तरह बैठ गया। वह चुपचाप अपने थान पर बैठ गया।
‘ या सोच कर िपत ृ य ने इस डरपोक को अिभयान का नेत ृ व स प िदया है।’
िफर रावण कुबेर से संबोिधत हआ -
‘‘ ाता! मातुल क अिश ता के िलये म मा ाथ हँ। अब इनम से कोई नह बोलेगा।’’
‘‘कोई बात नह । ये मेरे भी ये ह। मने इनक बात का बुरा नह माना।’’
‘‘ ाता! आपने अभी िपता का उ लेख िकया था। य न हम िनणय उनके ही हाथ म
स प द? वे जो िनणय दे दगे वह दोन ही भाई मान लगे।’’ सुमाली ने जो बात रा ते म कही थ
उ ह ि गत रखते हये रावण ने बहत बड़ा दाँव फका था। मातामह का िव ास अगर सच
सािबत हआ तो आगे असीिमत गित का माग सहज ही खुल जाना था। ‘िक तु यिद दाँव उ टा
पड़ गया तो???’ पर अब िवचार करने का समय नह था। पु षाथ मनु य जो हो गया उस पर
पछताते नह , आगे क सोचते ह। अपने पु षाथ से िबगड़ी को िफर सँवारने का यास करते ह।
‘‘उिचत है। मुझे ताव वीकार है।’’
सुमाली ने एक दीघ िनः ास ली, जैसे उसके सीने पर से बड़ा भारी बोझ हट गया हो।
वह रावण क वाकपटुता से स न था। उसे अब भी परू ा िव ास था िक रावण ने सही चाल चली
थी।
30. इ अह या के पास
देविष क योजना अंतत: इ को समझ म आ गयी थी। यह तो वह पहले ही जानते थे
िक एक बार तो रावण से पराजय वीकार करनी ही होगी, िक तु उनका देवे होने का दंभ इसे
वीकार करने को त पर नह हो पा रहा था। नारद क योजना सुनकर जो हताशा का भाव घुन
बन कर भीतर ही भीतर उनके पौ ष को खाये जा रहा था उससे उ ह बड़ी हद तक मुि िमल
गयी थी और वे देविष क योजना पर अमल करने को त पर हो गये थे।
नारद क योजना थी िक बड़ी सं या म ऋिषय के आ म द डकार य म थािपत ह
और उन आ म के मा यम से देव ारा उस े के वनवािसय को इस भाँित िशि त िकया
जाये िक वे रावण के कटक से लोहा लेने म समथ हो सक। इन वनवािसय के पौ ष से देव भी
अप रिचत नह थे।
इ और देव लग गये थे इस योजना के ि या वयन म। महिष अग य ने सहयोग
देना वीकार कर िलया था। इसी संबंध म इ आज महिष गौतम से भट करने िमिथला के
िकनारे उनके आ म आये थे।
गौतम ऋिष का आ म, आ म ही था, गु कुल नह था। गु कुल नह था इसिलये वह
बहत बड़ा भी नह था िफर भी कई बीघे े फल म फै ला हआ था। आ म के तीन ओर निदय
ारा बनाई गयी गहरी खाई ं थी और उसके तुर त बाद पवत शंखृ लाएँ थ जो आगे जाकर
िहमा छािदत ंखलाओं से जुड़ जाती थ । आ म म वेश करते ही सुवािसत पु प से आ छािदत
लतागु म ने इ का वागत िकया। उसका मन स न हो गया। वह इ ह पार कर आगे बढ़ता
गया। आगे िवशाल मैदान म पाँच-छ: गौय िवचर रही थ । उसके आगे एक िवशाल य शाला को
घेरे सात-आठ कुटीर बने हये थे।
य शाला के पास जब इ पहँचे तो वहाँ उपि थत चार मुिनय ने उ ह पहचान कर
अिभवादन िकया। इ ने भी यथोिचत रीित से अिभवादन का उ र िदया। िफर पछ
ू ा-
‘‘महिष या अपनी कुटी पर ह?’’
‘‘नह देवे ! ऋिषवर तो आज आ म पर ही नह ह।’’
‘‘कहाँ गये ह?’’
‘‘यह तो नह पता। स भवत: ात: तक आ जायगे।’’
‘‘अ छा देवी अह या?’’
‘‘वे तो ह गी कुटी म। बस य शाला के िकनारे यह पहली कुटी उ ह क है।’’ एक मुिन
ने हाथ उठाकर कुटी क ओर इशारा करते हये कहा।
इ ने आभार य िकया और बताये अनुसार बढ़ चले।
ऋिष गौतम क कुिटया एक चौकोर सा िनमाण था। आगे क ओर लगभग डे ढ़ हाथ
ू रा था िजसपर परू े पर छ पर पड़ा हआ था। छ पर पीछे से एक बारह-तेरह हाथ ऊँची
ऊँचा चबत
क ची दीवाल पर और आगे क ओर व ृ के पतले तन पर िटका हआ था। पीछे क दीवाल म
तीन खुले ार थे।
कुिटया पर पहँच कर इ ने बाहर से ही आवाज दी
‘‘ऋिषवर!!!’’
आवाज के साथ ही एक ऋिषका (मिहला ऋिष या ऋिष प नी) ने बाहर झाँका -
‘‘अरे देवराज! आइये।’’
इ ने उसके आवाहन के साथ ही भीतर वेश करते हये उसे णाम िकया। इ ने
सोचा यह कौन है, यह तो अह या नह है। अह या पर तो वह बहत पहले से, उसके िववाह के पवू
से ही मोिहत है। यह कोई पतालीस वष क ऋिषका थी। साधारण ेत सत ू ी धोती और वैसी ही
ेत कंचुक म मनभावन लग रही थी। उसने इ को छ पर म पड़े कुश के आसन म से एक पर
बैठने का संकेत करते हये वयं ही उसे संशय से उबारते हये कहा -
‘‘ऋिषवर तो नह ह देवे ! संभवत: ात: तक आयगे, िक तु आप बैिठये म देवी को
सच
ू ना करती हँ।’’
‘‘जी!’’
िक तु ऋिषका के जाने से पवू ही भीतर से आवाज आई -
‘‘अ यागत कौन है सुक ित?’’
इ के कान म जैसे घि टयाँ सी बजने लग । जलतरं ग सा मधुर वर था। ये िन य ही
देवी अह या थ ।
‘‘ वयं देवे ह माता!’’ सुक ित य िप अह या से वयस म बड़ी थी िक तु अह या
गु प नी होने के नाते आ म म सभी के िलये माता का थान रखती थी। सभी उसे वैसा ही
स मान देते थे और वह भी सबको उसी भाँित नेह दान करती थी।
सुक ित के उ र के साथ ही जैसे अह या बाहर आ गयी।
‘‘अहोभा य आ म के जो वयं देवे ने दशन िदये। अरे आप अभी तक खड़े ही ह,
आसन तो हण क िजये। देवे यहाँ वग जैसी र नजिटत सुकोमल पीिठकाएँ नह िमलगी,
इ ह कुशासन पर बैठना पड़े गा।’’
इ अह या को देख कर जैसे स मोिहत सा हो गया था। कुछ पल उसे चेत ही नह रहा
िक वह कहाँ है और य है, वह बस िनिनमेष अह या का मुख ताक रहा था। आज इतने वष बाद
भी अह या का देह सौ व वैसा ही था जैसा उसने उसके िववाह से पवू देखा था, जब वह उसे ा
करने का इ छुक था य िक उसका मानना था िक ि लोक क येक सव े व तु पर देवराज
होने के नाते उसका नैसिगक अिधकार है। िक तु िपतामह ने उसे देने के थान पर अह या का
गौतम से प रणय करवा िदया था। उ ह गौतम से िजनके पास कभी बा याव था म वह पा या के
प म रह चुक थी।
देवी के इस िनमल िवनोद से उसे चेत हआ। वह थोड़ा संकुिचत हो गया िक तु साथ ही
उसे णाम क औपचा रकता का भी भान हआ। उसने आगे बढ़ कर कुछ हाथ दूर से ही भिू म को
पश कर देवी का चरण वंदन िकया और िफर अपना उ रीय सँभालता हआ इंिगत कुशासन पर
आकर खड़ा हो गया -
‘‘आप भी तो बैिठये देवी!’’
‘‘अरे आप अितिथ ह देवे !’’ िफर यह देख कर िक इ उसके बैठने क ती ा म
खड़ा है, हँसती हई बोली -
‘‘अ छा लीिजये बैठती हँ, आप भी बैिठये।’’
दोन बैठ गये। इ अब भी स मोिहत था। आह! या वर था, या प था? वग म भी
दुलभ है ऐसा प तो। बड़ी-बड़ी आँख क नील-झील म जैसे इ अवश डूबता जा रहा था। मुख
का एक-एक अवयव अनुपम था। सुक ित क भाँित ही अह या भी ेत धोती और ेत कंचुक
पहने थी जो उसके खर यौवन को िछपा नह पा रही थ । उसक अव था िनि त ही पतीस वष
के लगभग होगी। वह शतान द िजतने बड़े पु क माता है, िक तु आज भी उसके यौवन म वही
ि न ता है जो एक षोडषी म होती है। कह से भी िशिथलता नह आई है। अह या बैठ गयी तो
उसक सिपल वेणी हाथ भर भिू म पर फै ल गयी मानो काली नािगन मुख चं क सुर ा म फन
उठाये खड़ी हो। इ पुन: वशीभतू सा उसे ताक रहा था।
‘‘ या देख रहे ह देवे ?’’ अह या ने उसक ि को ल य कर िलया था। वह अपनी
वेणी को िसर पर जड़ ू े क भाँित बाँधती हई बोली। इस ि या म उसका यौवन और उभर आया था।
इ को पु पशर ने परू ी तरह आहत कर िदया था। िफर भी उसने िकसी तरह अपनी
ि हटाई। जैसे चोरी पकड़ ली गयी हो इस कार संकुिचत होता हआ बोला -
‘‘देवी आपक अिनं परािश म स मोहन ही ऐसा है जो ि को अवश कर देता है।’’
‘‘ऐसा देवे ?’’ एक सल ज ि मत के साथ अह या बोली ‘‘ य उपहास करते ह?
वग तो सिृ क सव े सु द रय से भरा हआ है। आपने ही िकतने कामजयी तपि वओं क
तप या भंग कराई है अपनी अ सराओं के मा यम से।’’
‘‘नह देवी! म िम या भाषण नह कर रहा। वग म कोई भी सु दरी आपक छाया भी
नह है।’’ इ को संतोष था िक अह या उसक ि क हठधिमता से कुिपत नह हई थी। यिद
कह वह कुिपत हो जाती तो उसके तेज के सामने इ के पास अपमािनत होकर भागने के िसवा
कोई माग नह बचता।
‘‘अ छा चिलये, मान ली आपक बात! अब आगमन का योजन तो बताइये!’’ वैसी ही
िनमल-सल ज ि मत के साथ अह या ने कहा।
‘‘कोई िवशेष नह देवी! इधर से िनकल रहा था तो सोचा ऋिषवर के दशन करता
चलँ।ू ’’
‘‘ऋिषवर तो आपको ात हो ही गया होगा आज आ म पर नह ह। आज िकये यह ,
ात: आ जायगे वे भी।’’
इसी बीच सुक ित एक पा म दूध ले आई थी। उसने वह इ को पकड़ा िदया और
हँसती हई बोली -
‘‘देवे यहाँ आ म पर आपको छ पन भोग तो नह िमल पायगे िक तु आ म क
गौओं का यह दु ध आपको उन सबसे वािद लगेगा।’’
ृ है, इससे े तो वग म भी
‘‘अरे देवी य संकुिचत करती ह इ को। यह तो अमत
कुछ नह िमलता। और िफर इसे तो आपके और देवी के नेह के मधु ने और भी वािद बना
िदया है।’’ इ ने पा लेकर दूध पीते हये कहा।
‘‘और लाऊँ देवराज?’’
‘‘अरे नह ! बस पया है। या आप भी इसी कुिटया म रहती ह देवी?’’
‘‘नह देवराज! सुक ित यहाँ मेरी सहायता के िलये आ जाती है। िदन ढलते ही यह
अपनी कुिटया पर चली जाती है। इसे अपना प रवार भी तो देखना होता है।’’ उ र अह या ने
िदया। सुक ित इ के हाथ से खाली पा लेकर िफर भीतर चली गयी थी।
‘‘तो यहाँ आप एकाक ही होती ह, भय नह लगता?’’
‘‘भय?’’ अह या हँस पड़ी, जैसे अटखेिलयाँ करता कोई िनझर वािहत हो उठा हो-
‘‘िकससे देवराज? यह तो आ म है कोई नगर नह जहाँ चोर-लुटेर का भय हो! और िफर चोर-
लुटेरे भी यहाँ से या ले जायगे, यहाँ या स पदा रखी है? ऋिषवर का याय-दशन तो उनके
िकसी काम आने से रहा!’’ हँसते हये अह या बोली।
‘‘व य-पशु तो आ ही सकते ह देवी!’’
‘‘ऋिषवर का ताप इतना है देवराज! िक िहं व य-पशु भी इस आ म क सीमा म
आकर पालतू हो जाते ह। वैसे भी इस े म िहं पशु नह ह - कभी िदखाई ही नह िदये।’’
‘‘जी देवी! स य कहा आपने व य-पशु भी आ म क मयादा का पालन करते ह।’’
कुछ पल दोन मौन रहे िफर अह या ने िकया -
‘‘देवे यिद आगमन का योजन बताएँ तो संभवत: अह या ही कुछ सहायता कर
सके।’’
‘‘कोई िवशेष योजन नह । िनकट भिव य म रावण से संभािवत यु के िलये तैया रय
के संबंध म देविष ने एक काययोजना बनाई है, उसी के संबंध म महिष से परामश करना था और
सहयोग का िनवेदन करना था।’’
‘‘ या काययोजना बनाई है देविष ने?’’
‘‘यही िक द डकार य े म ऋिषगण अपने आ म थािपत कर और उन आ म के
मा यम से ऋिष और देव िमलकर उस े के वनवािसय को िशि त- िशि त कर। यही
िशि त वनवासी भिव य म रावण को परा त करने म सहयोग करगे।’’
‘‘योजना तो अ छी है देवराज! िक तु या वनवासी ही स पण
ू दािय व िनभायगे
अिभयान म, आय जगत अलग हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे गा?’’
‘‘नह देवी! नेत ृ व तो िकसी महान आय-पु ष के हाथ म ही रहे गा िक तु शेष दािय व
ये वनवासी ही िनभायगे।’’ इ ने कहा, िफर अचानक उठकर बोला - ‘‘अ छा अब आ ा द देवी!
िफर िकसी िदन ऋिषवर से भट क ँ गा।’’
िकये, ात: ऋिषवर से भट करके ही जाय। आ म म भले ही िवलास के साधन नह ह
िक तु िन य मािनये यहाँ आपको कोई क नह होगा।’’
‘‘क क कोई बात नह है देवी! आपका स मोहन ऐसा है िक उसके वशीभत
ू यि
को और कुछ अनुभव ही नह होता है।’’ इन प रि थितय म भी इ को अपने मनोभाव पर
िनयं ण नह था। िवलास उसक कृित म ऐसा समा गया था िक प लाव य देखते ही वह सब
कुछ भल
ू जाता था।
‘‘देवराज क शंसा पाकर अह या गौरवाि वत है िक तु यह आपका वग नह है, यहाँ
उ छृंखलता के िलये थान नह है। िनवेदन है िक यहाँ के वातावरण क साि वकता को बनाये
रख यही अह या के और आपके दोन के िहत म होगा।’’
‘‘देवी म समझ रहा हँ आपक बात िक तु या क ँ अवश हँ। इसीिलये तो आ ा माँग
रहा हँ।’’
‘‘जैसी आपक इ छा!’’
नारद क योजना पर अमल आरं भ हो गया था। समच ू े दि णापथ म धीरे -धीरे आ म क
थापना हो रही थी। इस सारे अिभयान का नेत ृ व कर रहे थे महिष अग य। महिष अग य का
कुल भी देव क कृपा ा ऋिष-कुल म से एक था। िकंवदंितय के अनुसार कभी िव य पवत
इतना ऊँचा था िक इसे अलं य माना जाता था। महिष अग य देव क योजनानुसार जब किप-
ऋ को संगिठत करने के उ े य से यहाँ पहँचे तो िव य उ ह स मान देने के िलये झुक गया।
अग य ने पवत को आदेश िदया िक जब तक म वापस लौट कर न आऊँ तब तक इसी कार
झुके रहना। तभी से अनके आदेश का पालन करता हआ िव य आज तक झुका बैठा है। ... और
अग य जो एक बार दि णापथ क ओर गये तो िफर कभी वापस लौटे ही नह , वह के होकर
रह गये और िव य आज भी उनक वापसी क ती ा म झुका बैठा है।
यह तो िकंवदंती है। वा तिवकता म तो अग य ने उस काल तक अलं य मानी जाती
दुगम पवत-उप यकाओं म से िव य को पार करने का माग खोज िलया था और उसी माग से
उसे पार कर गये थे। तिमलभाषी मानते ह िक उनक भाषा का याकरण महिष अग य ने ही
तैयार िकया था। यह इस बात का भी माण है िक अग य ने उ र और दि ण क खाई पाटने के
िलये िकतना मह वपण ू काय िकया। अ यथा तो उस काल म आय ि ज का िव य पार करना
विजत ही था, िजसके चलते दोन भाग म पर पर स ब ध लगभग शू य था। महिष अग य ने
न िसफ दि ण म सं कृत का सार िकया अिपतु आय सं कृित का भी वहाँ सार िकया। इस
म म उ ह ने दि ण क भाषाओं को सीखा, समझा और उ ह यवि थत भी िकया। उनका यह
अ ितम योगदान अपने आप म अनठ ू ा है। ण य है।
इस समय इ उसी आयोजन क गित का मू यांकन करने आये हये थे। उनका
िवमान िवशाल आ म के बाहर खड़ा था।
‘‘महिष कोई असुिवधा तो नह हो रही काय-संचालन म?’’
‘‘कैसी असुिवधा? देवे हम ऋिषय के शरीर तो क के सहचर होते ह। असुिवधाएँ
हमारी सहचरी होती ह। आप बताइये या ा म कोई क तो नह हआ?’’
‘‘िठठोली कर रहे ह महिष!’’
‘‘अरे नह ! देवे , भला म आपसे िठठोली य क ँ गा। इतना अवकाश कहाँ है जीवन
म िक िठठोली कर सकँ ू ।’’
‘‘मुिनवर! वानर कोई ितरोध तो उ प न नह कर रहे ?’’
‘‘देवे ! ये वानर बड़े सहज ाणी ह। ये ितरोध तभी करते ह जब इ ह अिव ास होता
है या भय होता है। हम इनके सामने ऐसा कोई कारण ही य उपि थत कर िजससे इ ह हमारे
ऊपर अिव ास हो या हमसे भय हो?’’
उस काल म इस परू े े म नगरीय स यता का सार नह हआ था। नारद क योजना
के अनुसार वनवासी कबील वानर, रीछ आिद म घुसपैठ कर उ ह अपने भाव म लेने का काय
गु प से स पािदत िकया जा रहा था। ये जनजाितयाँ अधिवकिसत अव य थ िक तु मेधा और
शारी रक शि म आय से कमतर नह थ । इ ह वानर और रीछ जैसे पशुओ ं के नाम से य
स बोिधत िकया गया, इस िवषय म म माण पवू क कुछ नह कह सकता िक तु जो माण कहते
ह उनके अनुसार भारत म सबसे ाचीन जो मानव अवशेष पाया गया है वह िकसी नी ो वंश का
है। लगभग न बे हजार वष ाचीन यह अवशेष केरल म पाया गया है। यह मािणत करता है िक
आज बेशक भारत म नी ो जाित के लोग नह ह िक तु िकसी काल म दि ण भारत म वे अव य
बहतायत म रहे ह गे। इनका वंश भारत म कैसे समा हआ इस िवषय म कुछ भी माण पवू क
कहना संभव नह है।
ऐसे म आय जाित जो गौर वण और स दय म िव म िसरमौर मानी गयी है अगर नी ो
जाित को वानर या रीछ क सं ा दे दे तो उसम अचंभे क कोई बात नह । उस पर भी तब, जब
आय जाित स पण ू भारत म िवजेता के तौर पर थािपत रही हो। स यता और सं कृित के उ कष
म भी आय जाित इ ह अपने सामने बहत िपछड़ा हआ ही मानती थी। िक तु इस समय
प रि थितय को णाम करना आव यक था। देव को इस समय इ ह वनवािसय का आसरा था,
इसिलये इ ह अपने साथ जोड़ना ही था।
‘‘मुिनवर सफलता िमलेगी हम?’’ इ ने सशंक वर म पछ
ू ा।
‘‘ य ? न िमलने का या कारण है?’’
‘‘भगवती लोपामु ा तो असंतु नह ह हम देव से िक हमने उनसे मनु महाराज के
आदेश का उ लंघन करवा िदया?’’
‘‘देवे ! आप भगवती को या समझते ह? वे मं ा ह। वेद क रचना म उनका
मह वपणू योगदान है। मनु महाराज के आदेश आम आय के िलये थे तािक आय सं कृित कह
िवकृत न हो जाये। हम तो इन आिदवािसय म अपनी सं कृित के बीज बोने आये ह। हम तो यह
िस करने आये ह िक अब मनु महाराज का आदेश अ ासंिगक हो गया है। आय यिद िवं य के
उ र म ही बने रहे तो यह सारा भभ
ू ाग र सं कृित क बाढ़ से आ लािवत हो जायेगा और िफर
रावण को देर नह लगेगी आय सं कृित का मलू ो छे द करने म।’’
‘‘सही कह रहे ह आप।’’
‘‘अरे देवे ! आप कब आये पता ही नह चला?’’ यह भगवती लोपामु ा, महिष अग य
क प नी, का कंठ वर था।
‘‘अभी आया हँ भगवती!’’ इ ने झुक कर उ ह णाम करते हये कहा। ‘‘आप लोग
देवकाय से यहाँ इस बीहड़ म पड़े हये ह तो देव का भी दािय व बनता है िक आपक सुिवधा क
सुिध लेते रह।
‘‘चापलस
ू ी मत करो इ !’’ देवी वा स यपण
ू हा य से बोल ।
इ और अग य भी हँस िदये।
‘‘अरी मुि के! देख देवे आये ह, कुछ यव था कर।’’ अपने पीठ पर िबखरे गीले
बाल का िसर पर जड़ ू ा सा बनाते हये देवी ने जोर से आ म के पीछे क ओर आवाज दी।
‘‘जी देवी!’’ ित उ र आया।
‘‘देवे एक-दो वष हम इनके बीच पैठ बनाने दीिजये। इ ह हमसे िम वत होने दीिजये
िफर आप लोग यहाँ हमारे गु कुल म यु िव ा का िश ण आरं भ कर दीिजये। आपका नायक
तो अवत रत होने ही वाला है।’’
‘‘जैसी आ ा देवी क । हम तो बस आपके संकेत क ती ा म ह। जैसे ही आप इंिगत
करगी, हम लोग अपना काय आरं भ कर दगे।’’
‘‘नारद स य ही अ यंत दूरदश ह। र सं कृित क काट आय सं कृित नह यह वानर
सं कृित ही हो सकती है।’’ अग य ने नारद क शंसा करते हये कहा।
‘‘जी मुिनवर! इ ह आय सं कृित म दीि त करना कब से आरं भ करना है?’’ इ ने
िकया।
‘‘गलत सोच रहे ह देवे । ऐसा कोई भी यास नह करना है हम। जैसे हम आय
सं कृित यारी है, वैसे ही सबको अपनी सं कृित यारी होती है। इन वानर के साथ भी ऐसा ही
है। यिद आपने इ ह आय सं कृित म दीि त करना आरं भ िकया तो आप आय क सं या म
थोड़ी सी अिभविृ अव य कर लगे िक तु शेष वानर को अपना श ु बना लगे। हम ऐसा नह
कर सकते। िफर आप इ ह ा ण या ि य के प म तो वीकार करगे नह । आयावत म शू
ने अपनी िन नतर ि थित से समझौता कर िलया है य िक उ ह ने इसे अपने पवू ज म का फल
मान कर वीकार िकया है। साथ ही उ ह वण यव था से रिहत िकसी दूसरी सं कृित का भान
ही नह है। वे यह सोच ही नह सकते िक सम त नाग रक समान भी हो सकते ह। इसके िवपरीत
ये वानर तो समानता क सं कृित म जी रहे ह ये अपनी िन न ि थित वीकार नह कर पायगे,
थोड़े ही िदन म िव ोह कर दगे। िफर आप वापस जहाँ से चले थे वह आ जायगे बि क उससे भी
बुरी ि थित म ह गे।’’
‘‘िफर या करगे हम?’’
‘‘वे जहाँ ह, जैसे ह उसी ि थित म हम िनमल मन से, सेवा भाव से उनके दैिनक जीवन
क आव यकताओं म, उनक हारी-बीमारी म उनक सहायता करगे। उ ह े जीवन देने का
यास करगे, तभी वे हम पर िव ास कर पायगे।’’
‘‘जैसा आप उिचत समझ!’’ इ ने हिथयार डाल िदये।
‘‘देवे ! मुझे अपनी सं कृित पर गव है िक तु रावण से मेरा िवरोध इसिलये नह है िक
वह िकसी दूसरी सं कृित का पोषक है। येक यि क अपनी सोच होती है, येक सं कृित
क अपनी िवचारधारा होती है। हम अपनी सोच, अपनी िवचारधारा दूसरे पर थोपने का कोई
अिधकार नह है। इसी तरह से दूसरे को भी अपनी सोच, अपनी िवचारधारा हम पर थोपने का
कोई अिधकार नह है। िफर भी मेरा अपना मानना है िक कुछ भी उ म जहाँ से भी िमले हण
करना चािहये। रावण देवे का िसंहासन कल छीनता हो, आज छीन ले अग य को इससे रं च
मा आपि नह ।’’
‘‘ या कह रहे ह मुिनवर????’’ इ एकदम घबरा कर बोल पड़े ।
‘‘बीच म मत बोल ..’’ अग य ने उ ह हाथ के इशारे से रोकते हये कहा- ‘‘मेरा रावण
से िवरोध इसिलये नह है िक वह कल इ के िसंहासन पर अिधकार कर लेगा। वह इस यो य है।
मेरा उससे िवरोध इसिलये है िक उसके पीछे सुमाली जैसा यि है। उसने रावण के भीतर अपनी
सोच योिपत कर दी होगी। वह कल अव य अपनी सोच हमारे ऊपर आरोिपत करने का यास
करे गा। रावण यिद नह करे गा तो सुमाली उससे करवायेगा। म न तो िकसी के ऊपर अपनी
सं कृित, अपने सं कार थोपने का प धर हँ और न ही िकसी को अपने ऊपर कुछ थोपने का
अिधकार दे सकता हँ। हाँ िजसे म उ म और े समझँग ू ा उसे अपने मन से वीकार क ँ गा।
उसे हण करने म िवलंब नह क ँ गा।’’
इ ने राहत क सांस ली। तभी मुि का एक डिलया म फल लेकर आ गयी। उसे आता
देख कर अग य चुप हो गये। उनका चेहरा िनिवकार था।
‘‘यह रख दँू माता?’’ उसने पछ
ू ा।
‘‘हाँ! हाँ! रख दे।’’
‘‘लीिजये देवे ! ा क िजये!’’ अग य ने कहा।
‘‘पहले आप और देवी हण कर।’’
‘‘ले, पहले तू ले मुि के!’’ लोपामु ा ने एक फल उठा कर देते हये कहा। ‘‘अरी बैठ जा तू
भी, खड़ी य है?’’
मुि का तकरीबन चौदह वष क साँवली सी ल बे कद क बािलका थी। व से लेकर
जाँघ तक व कल (व ृ क छाल के व ) धारण िकये थी। वह बैठ गयी तो उसके सर पर यार
से हाथ फेरती हयी लोपामु ा बोल -
‘‘देवे ! यह मेरी सबसे यारी सखी है, मुि का।’’ मुि का सकुचा कर लोपामु ा के
पीछे िछपने लगी।
‘‘अरी या करती है? देवे को णाम तो कर!’’
मुि का ने यं चािलत से हाथ जोड़ िदये। उसका िसर संकोच से छाती पर झुका जा रहा
था। उसक मु ा पर सब हँस िदये। वह और लजा गयी।
सबने फल छीलना आरं भ कर िदया तो अग य ने मुि का से पछ
ू ा-
‘‘पु ी! तेरी बहन का िच कैसा है अब? औषिध से लाभ हआ?’’
‘‘जी गु देव! बहत लाभ हआ। म अभी आई तो वह खेल रही थी। दो वष पवू मेरे भइया
को भी ऐसा ही वर हआ था तो वह तो जान से ही चला गया था पर तु अब आपक औषिध ने तो
एक िदन म ही चम कार कर िदया।’’ संकोच के बावजदू मुि का ने बड़े उ साह से आँख गोल
करके उ र िदया।
‘‘तो जाते समय और औषिध िलये जाना। बस वह िबलकुल ठीक हो जायेगी।’’
‘‘जी गु देव।’’
‘‘और मने तु ह कल कुछ वन पितयाँ िदखाई थ , उनके गुण-धम बताये थे। याद ह या
भल
ू गई?’’
ू कैसे जाऊँगी - याद ह। सुनाऊँ ..?’’ मुि का ने गव से कहा। उसका संकोच कुछ
‘‘भल
कम हो गया था।
‘‘नह ! नह ! मने मान िलया तुझे याद है।’’ अग य ने यार से कहा।
‘‘अ छा मुिनवर आ ा दीिजये। कोई भी आव यकता हो तो इंिगत कर दीिजयेगा।’’ इ
ने अग य और लोपामु ा दोन क चरणरज लेते हये कहा। दोन ने िसर पर हाथ रख कर
आशीवाद िदया। िफर इ ने मुि का क ओर देखा। उसने फौरन हाथ जोड़ िदये ‘‘ णाम
देवे ।’’
‘‘आशीवाद पु ी। खबू स न रहो।’’ इ ने भी यार से उसके सर पर हाथ फेरते हये
कहा।
‘‘वा स य ही रखना इसके ित देवराज। इसे देवी अह या या आ णी या अपनी कोई
अ सरा मत समझ लेना।’’ अग य ने पुन: चोट क ।
‘‘ऋिषवर! आप य बार बार लि जत कर रहे ह? मुझे स चे िदल से अपने कृ य पर
पछतावा है। अब पुन: इ से ऐसा कोई भी दु कृ य नह होगा।’’ कहते हये इ बाहर िनकल
गये। उनके साथ अग य भी िवदा करते हये िनकल गये। अकेले म मुि का ने लोपामु ा से पछ
ू ा-
‘‘माता ये वही देवे थे ना जो वग के राजा ह।’’
‘‘हाँ पु ी।’’
‘‘लेिकन माता ये तो वैसे नह ह?’’
‘‘कैसे नह ह?’’
‘‘वैसे ही जैसा लोग कहते ह।’’
‘‘अरी; कैसा कहते ह लोग, सीधे-सीधे बोल ना, बात को ख च य रही है?’’ लोपामु ा
ने खुलकर हँसते हये कहा।
‘‘लोग कहते ह िक ... िक ... िक देवे तो बड़े ोधी ह, बड़े दु ह, िकसी का
स मान नह करते।’’
‘‘वे लोग कभी िमले ह देवे से?’’
‘‘नह माता!’’
‘‘तू तो आज िमल ली, तुझे कैसे लगे?’’
‘‘मुझे तो अ छे लगे।’’ मुि का पवू वत उ साह से बोली।
‘‘तो बस! तू उ ह अ छा मान। जो उनसे िमले ही नह वे या जान!’’
मुि का सहमित म िसर िहलाने लगी थी।
लोपामु ा उस न ह सी बािलका के िन कलुष मन म इ के ित िकसी दुरा ह के
पौधे को प लिवत नह होने देना चाहती थी इसिलए वह इ के दु कृ य क गाथा को गोल कर
गयी। वे और अग य तो इन सबके िनमल मन को और भी िनमल बनाने के िनिम यहाँ आये
थे।
39. सुमाली क तैयारी - 1
‘‘मुि क! तुम अपने साथ अपने भरोसे के सौ लोग को लेकर दि ण पवू के ीप क
ओर िनकल जाओ।’’
‘‘जी महामिहम!’’
सुमाली अपने कुछ िव थ कूटचर के साथ ासाद से दूर एक वन म बैठा हआ था।
उसके साथ पाँच यि बैठे हये थे, शेष इन लोग के चार ओर िछतराये हये लकिड़याँ एक
करने के बहाने चार ओर ि रख रहे थे। इ ह िनदश था िक दूर से ही िकसी को भी आता
देखते ही सुमाली को सतक कर द।
िजसे सुमाली ने मुि क कह कर स बोिधत िकया था वह खबू ऊँचा, काले रं ग का
लगभग पतालीस वष का यि था। उसने व के नाम पर मा कमर म लँगोट क भाँित एक
धोती बाँध रखी थी जो उसक जाँघ तक आ रही थी। गले म एक सीिपय क माला थी। खबू
गठीला बदन था। छोटे-छोटे घुंघराले बाल वाला यह यि देखने से ही कोई मछुआरा लगता था।
‘‘वहाँ तु ह वहाँ के शासन क शि का आकलन करने के साथ-साथ जनता म अपने
स ाट् का चार करना है। यह कहने क तो कोई आव यकता नह होनी चािहये िक तु ह यह
सब कुछ इस चतुराई से करना है िक िकसी को कानो-कान भनक न लगे िक तुम इसी काय हे तु
आये हो। तु ह वहाँ के लोग के म य इस कार घुल-िमल जाना है जैसे तुम वह पैदा हये हो। अब
यह सब तुम िकस कार करोगे, यह तुम ही जानो। वहाँ क प रि थितयाँ वह जाकर तु ह पता
चलगी।’’
‘‘जी महामिहम!’’
‘‘कोई ?’’
‘‘कोई नह ! मुझे कब थान का आदेश है?’’
‘‘िजतना शी संभव हो सके।’’
‘‘कल ात: ही हम िनकल जायगे।’’
‘‘उिचत। अब तुम जा सकते हो। अपनी तैया रयाँ करो जाकर।’’
वह यि णाम कर चला गया तो सुमाली अ य क ओर घम
ू ा।
उसके साथ बैठे शेष चार यि िकसान क सी वेशभषू ा म थे। सामा य यि व।
साँवला रं ग। घुटन से कुछ ही नीचे आने वाली धोती और कंधे पर अंगरखे जैसा व ।
‘‘इस स पण
ू अिभयान का नेत ृ व तु ह करना है िव द्- वधन!’’
‘‘महामिहम नेत ृ व तो आपको ही करना है सम त अिभयान का। हम तो सेवक ह
आपके।’’
िजन दोन यि य क ओर सुमाली ने संकेत िकया था उनम से एक बोला। यह िव द्
था - लगभग प चीस वष का सु दर मुखाकृित का युवा। दूसरा, वधन भी उसी का समवय क
था। इसके मुख पर िकसी यािध ने ह के भरू े दान के प म अपने िच ह छोड़े थे।
‘‘यह वा चातुय अिभयान के िलये बचा रखो िव द्। तु हारी सफलता पर ही लंका का
भिव य िनभर करता है।’’
‘‘जैसा आदेश आपका।’’
‘‘तुम दोन अपने िजतने भी साथी एक कर सको, कर लो और सम त लंका म फै ल
जाओ। िकतने यि एक कर लोगे?’’
‘‘कम से कम एक सह ।’’ िव द् ने उ र िदया।
‘‘लंका यवसाियय के कुबेर के साथ चले जाने के कारण िजतने भी यि बेकार हो
गये ह, उ ह टटोलो। जो भी आिथक प से अिधक िवप न िदखाई पड़ उ ह लालच दो िक
सरकार उ ह भरतखंड के दि ण तट पर बसाने म भरपरू आिथक सहयोग करे गी। एक माह म
िजतने भी यि एक कर पाओ उ ह प रवार सिहत लेकर सागर के उस पार ले जाकर बसाना
आरं भ कर दो। अपने कुछ सािथय को यह छोड़ देना, वे िनरं तर तु हारे िलये नये यि य को
खोजते रहगे। शेष को लेकर तुम भारत भिू म के दि णी तट से आरं भ कर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर
पचास-पचास, साठ-साठ यि य क बि तयाँ बसाते चले जाओ। यान रखना दो बि तय के
म य एक योजन से अिधक क दूरी न हो। तु ह अपने सािथय और इन यि य के सहयोग से
वन के म य से माग का िनमाण करते हये आगे बढ़ना है। माग इस कार बनाना िक तु हारे
अित र अ य िकसी को भी माग के अि त व क भनक तक न लग पाये।’’
‘‘जी!’’
‘‘मुझे नह लगता िक इसम िकसी बाधा का सामना करना पड़े गा, िसवाय व य-पशुओ ं
के। उनके िलये यव था करने म तुम स म हो ही। और िज ह बि तय म बसाना, उ ह भी स म
बनाते जाना। आरं भ म तु ह सब जनशू य े ही िमलगे। बीच-बीच म कुछ वनवासी कबीले
िमलगे। उनसे तु ह कोई झगड़ा नह करना है। उ ह उपहार आिद देकर अपना िम बनाना है। इन
कबील को आय सदैव ितर कृत करते आये ह। यिद थोड़ी सी भी चतुराई िदखाओगे तो तुम
सहजता से उनसे िम ता थािपत कर सकोगे। इ ह समझाना िक र सं कृित म उ ह सबके
समान ही मान स मान ा होगा जो आय ारा उ ह कभी नह ा हो सकता। स पण ू
द डकार य े म तु ह अपनी सं कृित का सार करना है।’’
‘‘जी!’’ िव द् ने हंकारी भरी।
‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो वधन?’’ कुछ बोलने को उ त सारण से सुमाली ने
िकया।
‘‘जी!’’
‘‘िनःशंक बोलो। इस अिभयान को अंतत: तो तु ह अपने अनुसार ही संचािलत करना
है।’’
‘‘ य न हम यहाँ िजन यि य को जोड़ उन म जो भी युवा ह उ ह लंका के िश ु
सैिनक के प म भत करते चल। आप हम कुछ िशि त सैिनक दे द जो उ ह िशि त करते
रहगे। साथ ही उ ह अ -श का िनमाण भी िसखाते रहगे। वन ांत म रहने के िलये भी उ ह
सैिनक के प म िशि त होना आव यक है और भिव य म वे हमारे सै य अिभयान म भी काम
आयगे।’’
‘‘तु हारा सुझाव तो अ छा है।’’
‘‘िक तु इसम यय अ यिधक आयेगा।’’
‘‘उसक िचंता मत करो। य िप अभी यवसाियय के कुबेर के साथ चले जाने के कारण
लंका का यवसाय चौपट हो चुका है, उसक आिथक ि थित अ छी नह है तथािप तु ह इस काय
म धन क कमी नह होने दी जायेगी। आर भ म अिधक यि नह जुड़गे तुमसे अत: आरि भक
काल म यय भी अिधक नह होगा। ... और ... कुछ काल म हम भी धन ाि के ोत खोज ही
लगे। तुम जुट जाओ अपने अिभयान म। यह ताव तु हारा है अत: इसक स पणू योजना भी तुम
दोन िमलकर ही बनाओ। मुझसे जो भी सहयोग माँगोगे िमल जाएगा।
‘‘जी!’’ दोन ने समवेत वर म उ र िदया।
‘‘अभी िकतने सैिनक चािहये ह गे तु ह?’’
‘‘िजतने अिधक संभव हो सक।’’
‘‘अिधक सैिनक क उपि थित म अिभयान गु नह रह पायेगा। वनवािसय के मन म
शंका उ प न हो सकती है। आरं भ म पाँच सौ सैिनक पया ह गे। जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ते
जाओगे तु ह अिधक सैिनक क आव यकता होगी। आव यकतानुसार हम तु ह और सैिनक देते
जायगे।’’
‘‘जी! आरं भ म इतने पया ह। कोई बाधा नह आयेगी।’’ वधन ने संतुि के साथ उ र
िदया।
‘‘यिद कोई आय नपृ माग म आया तो? तब तो किठनाई उ प न हो जायेगी। िव द् ने
िकया।
ू िव ास के साथ कहा- ‘‘आय िव य के दि ण म ह ही
‘‘नह आयेगा।’’ सुमाली ने पण
कहाँ। उ ह ने तो आय ि ज हे तु िव य पार करना विजत कर रखा है। उ ह तो लगता है िक यहाँ
के वनवािसय के साथ िमलने से उनका र दूिषत हो जायेगा।’’ कहता हआ इतनी देर म
पहली बार सुमाली मु कुराया।
‘‘तब ठीक है। हम लोग भी थान करते ह। आज से ही अिभयान म जुट जाते ह।
‘‘दे दो इ ह।’’ सुमाली ने शेष दोन यि य से कहा।
उ ह ने अपने कपड़ म न जाने कहाँ िछपी दो पोटिलयाँ िनकालकर िव द् और वधन
को थमा द ।
‘‘यह धन रख लो अिभयान आरं भ करने के िलये।’’
िव द्- वधन ने पोटिलयाँ सहे ज ल ।
‘‘अ य कोई ?’’
‘‘नह महामिहम। अब आ ा द।’’
सुमाली ने वीकृित म िसर िहला िदया। ये दोन भी णाम कर थान कर गये।
इस कार अब दि णापथ म देव के गु कुल के अित र सुमाली क र बि तय का
भी िनमाण आरं भ हो गया। इस े पर वच व के िलये दोन िवरोधी शि याँ मैदान म आ चुक
थ िक तु अभी दोन को एक-दूसरे क योजना क कोई भनक नह थी। दीघ काल तक होनी भी
नह थी।
40. नारद-दशरथ संवाद
‘‘महाराज क जय हो! देविष नारद ासाद म पधारे ह और आपके दशन क अनुमित
चाहते ह। वे इधर ही आ रहे ह।’’
ार पर हाथ जोड़े नत मु ा म खड़ी हई दासी ने िवन ता से अयो या नरे श दशरथ और
महारानी वैâकेयी से िनवेदन िकया। उसके िनवेदन ने दोन क तं ा तोड़ दी।
अयो या नरे श दशरथ ातःकाल क दैिनक ि याओं से िनव ृ होकर प मिहषी के साथ
ासाद म अनमने से पड़े थे। राजसभा म जाने का समय हो रहा था िक तु उसक तैयारी के िलये
अभी वे उ त नह हये थे। कुछ िदन पवू रावण को लेकर कैकेयी के साथ हए िववाद क छाया
अभी भी उनके स ब ध पर िव मान थी। संभवत: उनक अ यमन क अव था का यह भी एक
कारण था।
देविष के आगमन क सच ू ना पाते ही दशरथ और कैकेयी दोन सजग हो गये और
कैकेयी ने त काल कहा - ‘‘आदर से अिवल ब लेकर आओ देविष को।’’
दासी के जाने के साथ ही दोन वयं भी उठ खड़े हये और अपने व ठीक करते हये
ार क ओर लपके। दशरथ ने वाचक िनगाह से कैकेयी को देखते हये कहा - ‘‘ये देविष
अक मात कैसे आ गये?’’
‘‘ या पता? देविष और संकट कब, कहाँ अक मात उपि थत हो जाय यह तो िवधाता
भी नह जान सकता।’’
दशरथ रानी क बात पर इस अ यमन क अव था म भी मु कुराये िबना न रह सके।
दोन ही अब तक क से िनकल आये थे और िवशाल वीिथका म आगे बढ़ रहे थे।
वीिथका म थोड़ी-थोड़ी दूर पर प रचा रकाएँ हाथ बाँधे खड़ी थ । सबने ह क गुलाबी कंचुक और
वैसा ही अधोव धारण िकया हआ था। सभी युवा थ । थोड़ी ही देर म सामने से आते हए नारद
िदखाई पड़ गये। दासी उनके पीछे िसर झुकाये चली आ रही थी।
नारद को देखते ही राजा और रानी क गित बढ़ गई। दोन ने देविष क पगधिू ल लेकर
उ ह णाम िकया और परू ी ा का दशन करते हए उ ह क क ओर आमंि त िकया।
क म वेश कर देविष को एक ऊँची सी पीिठका पर आसन देकर स ाट वयं
सा ा ी के साथ सामने अपे ाकृत नीची पीिठका पर बैठ गये। दासी को आ ा दी - ‘‘देविष के
पाद ालन हे तु जल और तदुपरांत िम ा न क यव था करो।’’
दासी के चले जाने पर दशरथ ने देविष से औपचा रक िकया -‘‘माग म क तो
नह हआ देविष?’’
नारद हँसे। अपनी वीणा पर हाथ िफराया िफर ित िकया -‘‘राजन! अपने यसन
से िकसी को क होता है या? देशाटन तो मेरा यसन है।’’
इसी समय दासी थाली म जल ले आई। राजा ने िविधवत नारद के पाँव पखारे िफर
औपचा रक िकया -
‘‘सान द तो ह ऋिषवर?’’
‘‘आन द के तो दो ही श ु है राजन् मह वाकां ा और अहंकार ..’’ नारद ने खुल कर
हँसते हये कहा- ‘‘और उन दोन से ही नारायण ने अपनी माया क मोिहनी ारा मुझे मुि िदला
दी है।’’ कहकर नारद देर तक हँसते रहे ।
‘‘देविष! इस मु हा य का रह य हम नह बताएँ गे?’’ कैकेयी ने नारद के इस सुदीघ
हा य से िवि मत होते हये िकया।
‘‘कुछ नह महारानी! बस मोिहनी को रझाने के िलये किपवत क गयी अपनी उछल-
कूछ याद आ गयी थी। अहंकार और मह वाकां ा से मु करने हे तु कैसा मख
ू बनाया था मुझे
नारायण ने।’’
दशरथ और कैकेयी भी मु कुरा िदये िफर वाता को आगे बढ़ाने के उ े य से दशरथ ने
िकया -
‘‘अ छा छोिड़ये इन बात को, देविष! आप अपने आगमन का योजन बताएँ । कैसे
अक मात इस अिकंचन का मरण हो आया?’’
‘‘कोई िवशेष नह ! बस दीघ काल से आपके दशन नह ा िकये थे, मन म िवचार
आया और म उपि थत हो गया आपका स कार ा करने।’’
‘‘देविष िबना योजन के कह नह जाते, यह बात तो ि लोक जानता है।’’ िकंिचत
हा य के साथ कैकेयी ने आगे कहा - ‘‘अभी कट नह करना चाहते तो कोई बात नह ।’’
‘‘ऐसा नह है देिव! नारद वाथ नह है। नारद को तो वजन के नेह क सदैव
अिभलाषा बनी रहती है। इसी अिभलाषा के वशीभत
ू वह िबना के पयटनशील रहता है।
‘‘ऐसा ही सही देविष। आपक अनुक पा तो हम आय स ाट पर सदैव बनी ही रहती है।
और बताइये देवराज तो कुशल से ह?’’ महाराज दशरथ ने बात को आगे बढ़ाते हए कहा।
‘‘शीष पर बैठा यि कह कुशल से रह सकता है?’’ नारद ने पुन: िवनोद िकया।
नारद िवनोद का कोई अवसर चक
ू नह सकते थे।
‘‘ य मुिनवर? देवराज को या िच ता है?’’
‘‘वही जो उ ह सदैव रही है - कोई उ ह शीष पद से युत न कर दे।’’
‘‘यह िचंता तो वाभािवक है। िक तु देवराज से उनका िसंहासन छीनने क साम य
िकसम है?’’
‘‘ य महाराज या आजकल महारानी के क के बाहर के संसार से पण
ू त: िवर हो
गये ह?’’ नारद ने उपहास करते हये कहा।
‘‘ऐसा य कहा आपने देविष! दशरथ सम त संसार के समाचार का ान रखता है
िक तु उसे तो देवराज पर कोई आस न संकट िदखाई नह पड़ता।’’
‘‘ तीत तो ऐसा ही होता है राजन् िक आपने महारानी के अित र सम त िव से
स पक याग ही िदया है अ यथा आप लंके र क उपलि धय क उपे ा नह करते।’’
दशरथ ने कोई उ र नह िदया। उ ह कैकेयी के साथ हये अि य वातालाप का मरण हो
आया। उ ह मौन देखकर नारद आगे बोले -
‘‘ ा के वरदान से रि त रावण के आ मण का खड्ग सदैव उनके कंठ पर रखा
हआ है।’’
‘‘स य है। रावण का आ मण तो संभािवत है ही देवे पर। िक तु देवराज उससे
िनपटने म स म ह?
‘‘सहज नह है राजन् यह काय। लंका तो उसने ा कर ही ली है। अब न जाने कब वह
देवलोक पर चढ़ बैठेगा यही आशंका देवराज को बेचन ै िकये है। उसका दमन अव यंभावी है
िक तु जगतिपता ा के वचन के चलते वह देव, दानव, य , नाग आिद सभी के िलये अव य
है। ा जी के वचन को कैसे कोई िम या हो जाने दे! यिद र े आ मण करता है तो
पु षाथ होते हये भी देव , लोकपाल आिद को परािजत होना ही पड़े गा।’’
कुछ देर मौन रहा िफर कैकेयी ने िकया - ‘‘तो अब हम या आ ा है देविष?’’
‘‘आ ा नह , एक परामश है देिव! र े क क ित से देव सं कृित ही नह आय
सं कृित को भी िवनाश का भय है। यिद आप सब नरे श आय सं कृित को अ ु ण रखना चाहते
ह तो सबको िमल कर र े को परािजत करने का उ ोग करना ही होगा।’’
‘‘यही तो म भी कहती हँ देविष िक तु आय स ाट तो सभी जैसे सुषु ाव था म पड़े ह।
उ ह तो जैसे इस आस न संकट का कोई भान ही नह है।’’ कैकेयी ने नारद से सहमित कट
करते हए कहा।
‘‘आप दोन स य कहते ह िक तु आज आयावत म िकसक साम य है जो रावण का
सामना कर सके।’’ दशरथ ने ितवाद िकया- ‘‘मा यवान, सुमाली और माली का परा म सभी
को ात है िकस तरह उ ह ने देवलोक पर भी अिधकार कर िलया था। उनम से मुख सुमाली ही
रावण के पीछे है और अब तो उसे ा ारा सभी िव ाओं म पारं गत कर िदया गया है, उनका
वंशज जो ठहरा। उसको परािजत करना कदािप संभव नह हो सकता। जब वयं इ िचि तत ह
तो हम आय नपृ िकस िगनती म ह!’’
‘‘ या अयो या का महान स ाट, खर सय
ू वंश का आिद य दशरथ भी भयभीत है।’’
‘‘ दय को िवदीण कर देने वाला कठोर स य तो यही है िक दशरथ भी रावण से भयभीत
है, ... अ यंत भयभीत है।’’
नारद मौन रहे । ग भीर मु ा से दशरथ क ओर देखते रहे और दशरथ नजर झुकाये बैठे
रहे ।
‘‘देविष! महाराज भयभीत ह गे रावण से िक तु म नह हँ। र -सं कृित का सवनाश
मेरे जीवन का एक महत उ े य है। म इस उ े य क ाि के िलये कुछ भी करने को त पर हँ।
क ँ गी भी। म भी ाणी हँ, यिद आव यकता पड़ी तो श लेकर यु थल म भी उतरने म
संकोच नह क ँ गी।’’
‘‘आपको रण े म नह उतरना पड़े गा महारानी िक तु यह िनि त है िक रावण के
पराभव म आपक मह वपणू भिू मका रहे गी।’’
‘‘तो बताइये देविष। कैकेयी तुत है।’’
‘‘बताऊँगा! आपको नह बताऊगा तो िकसे बताऊँगा! िक तु अभी ती ा क िजये।’’
‘‘जैसी आपक इ छा। म जानती हँ आप जब बताएँ गे अपने मन से ही बताएँ गे। मेरे कहे
से तो बस बहला कर चले जायगे।’’
इसी बीच दासी एक पा म बहिविध िम ा न ले आई। दूसरे पा म केसर िमि त दु ध
था। उसने दोन पा नारद के सामने एक पीिठका पर रख िदये।
‘‘लीिजये देविष हण कर हम कृताथ क िजये।’’ कैकेयी ने िम ा न और दु ध क ओर
इंिगत करते हये नारद से कहा।
‘‘अव य महारानी। इसीिलये तो नारद आया है।’’ कहते हये देविष हँसे िफर बोले-
‘‘महाराज तो लगता है अि तम प से श ा समिपत कर चुके ह।’’
‘‘अब या कहँ देविष!’’ दशरथ मु कुराने का यथ यास करते हये बोले।
अक मात नारद ने िवषय प रवतन करते हए िकया - ‘‘महारानी जी! या आपको
स य ही ात नह है िक आपके जामाता ने अपने अनुसंधान म सफलता ा कर ली है?’’
‘‘हमारे जमाता .... ता पय?’’ कैकेयी के वर म आ य था, जैसे समझी नह हो बात
को। यथाथत: उसका मि त क अभी भी रावण म ही अटका हआ था।
‘‘ता पय महाराज के अन य िम अंगनरे श रोमपाद और महारानी कौश या क बड़ी
बहन विषणी के जामाता, उनक क या शा ता के पित ऋिष े ऋ य ंग ऋिष।’’
‘‘म भी कहँ हमारी तो पु ी ही नह है िफर यह जामाता कहाँ से आ गये।’’ कैकेयी हा य
से बोली।
अिभ न िम क पु ी या पु ीवत नह होती महारानी? और आप लोग तो शा ता को
पु ीवत मानते भी ह।’’
‘‘िबलकुल मानते ह, िक तु यह तो बताइये िक उ ह ने िकस अनुसंधान म सफलता
ा क है और उसका हमसे या संबंध है?’’
‘‘लगता है आप लोग तो संसार से िवर ही हो गये ह।’’
‘‘देविष उपहास मत क िजये। उ कंठा हो रही है बता ही डािलये अब।’’
‘‘आप लोग क सबसे बड़ी िचंता या है महारानी? रावण से भी बड़ी िचंता?’’
‘‘िन:संदेह पु - ाि , िजसके िलये हम सारे उ ोग करके अब तो हार मान चुके ह।’’
‘‘तो महाराज यही अनुसंधान िकया है आपके जामाता ने। पु ेि य के मा यम से वे
आपको पु वान बनाने क साम य रखते ह?’’
इस कथन से दशरथ म कुछ हरकत हई। कैकेयी तो च क ही पड़ी -‘‘ या कह रहे ह
मुिनवर? या स य ही ऐसा संभव है?’’
‘‘संभव? िनि त है महारानी .. िनि त! महाराज के ललाट क रे खाएँ प चार पु
का योग दशा रही ह।’’
‘‘यह तो देविष! गु देव भी न जाने िकतने काल से कहते आ रहे ह। िक तु काल बताने
म उनक गिणत िन पाय हो जाती है।’’
‘‘म बता तो रहा हँ िक अब समय आ गया है। अिवल ब ऋ य ंग मुिन को बुलाने क
यव था क िजये।’’
‘‘िनि त ही देविष। कल ही दूत को भेजती हँ। आपने तो ...’’ महारानी स नता से
भावुक हो उठ । उनका कंठ अव हो गया।
‘‘अ छा आ ा दीिजये महारानी।’’ अचानक नारद उठने का यास करते हये बोले।
‘‘अभी कैसे मुिनवर! िम ा न तो अभी आपने छुए भी नह ! और िफर अभी तो आपने
महाराज का म तक ही देखा है, मेरे ललाट क रे खाएँ या कह रही ह? वह भी तो बताइये।’’
कहते हये कैकेयी ने माथे पर झल
ू रहे बाल को दािहने हाथ से पीछे करते हये अपना म तक
नारद के सामने कर िदया।
नारद िम ा न पर हाथ साफ करते हये हँसे िफर बोले -
‘‘आपको भी चार पु का योग है महारानी।’’
‘‘ या? चार पु मेरे ही ह गे?’’
‘‘आपक कोख से तो एक ही होगा महारानी िक तु चार ही आपको पु वत यारे ह गे।
इस कार हआ न आपको भी चार पु का योग।’’
‘‘स य है देविष चार पु मेरे ही ह गे।’’ वह कुछ ण मु कुराती हयी शू य म ताकती
रही जैसे अभी से िकलका रयाँ मारते पु क छिव देख रही हो।
‘‘कहाँ खो गय महारानी?’’ िम ा न समा कर दु ध पा उठाते हये नारद ने कहा।
‘‘कुछ नह , बस पु के दशन कर रही थी।’’ कैकेयी ने जैसे चोरी पकड़ी गयी हो, कुछ
लजाते हये सरलता से कहा िफर लाज से उबरते हये बोली -
‘‘ऐसा य लगता है मुझे िक देविष अब भी कुछ गोपन रखे ह?’’
‘‘िविध का िवधान है महारानी। अभी आगे का रह य कट करने का समय नह आया।
म पहले ही कह चुका हँ िक उिचत समय पर आपको बहत बड़ी भिू मका का िनवाह करना है।’’
महारानी प तो कुछ नह समझ िक तु िफर भी एक खाका सा उनके मि त क म
बनने लगा। वे मु कुराय िफर धीरे से बोल - ‘‘लगता है देविष ने अपनी योजना पर काय आर भ
कर िदया है।’’
नारद पुन: हँसे। िफर बोले - ‘‘अभी िवदा दीिजये। राजकुमार को आशीष देने आऊँगा।’’
राजा-रानी ने पुन: देविष क पगधिू ल ली और नारद अपने िचर-प रिचत अंदाज म
‘‘नारायण-नारायण का जाप करते थान कर गये।
41. बािल-सु ीव-बजरं ग
‘‘दीदी! दीदी! देिखये यह सु ीव बजरं ग को मेरे साथ नह खेलने दे रहा! म अभी उठा
कर पटक दँूगा तब रोयेगा।’’ दस- यारह वष का बािल दौड़ता हआ अंजना का पास िशकायत
लेकर पहँचा।
‘‘अरे नह भैया! छोटे भाई से कह लड़ा जाता है!’’
‘‘लड़ा नह जाता तभी तो म आपके पास प रवाद लेकर आया हँ, अ यथा उसे पटक कर
छीन नह लेता बजरं ग को।’’
‘‘हाँ बात तो तु हारी स य है। तुम तो अ छे बालक हो। म अभी सु ीव को डाँटती हँ
चलकर।’’
‘‘चिलये दीदी! िक तु अिधक मत डाँिटयेगा, बस बजरं ग मुझे िदलवा दीिजयेगा।’’
‘‘ऐसा?’’ अंजना हँसती हई बोली।
चौथे िदन ात: ही सुमाली नौसेना के िशिवर म उपि थत था। उसके स मुख िव रथ
ारा छांटे गये पाँच सौ नौसैिनक स न खड़े थे।
पचास का कार को िव रथ दूसरे िदन ही उसके पास ले आया था। सुमाली ने उ ह
और यो य का कार को अपने साथ लेकर आज यहाँ उपि थत रहने का आदेश दे िदया था।
आज लगभग स र का कार उपि थत थे।
‘‘हमारे पोत और नौकाओं का तुम सब लोग िमल कर भलीभाँित िनरी ण कर लो।
लंका को एक वष क अविध म ऐसे कम से कम दो सह पोत और दस सह नौकाओं क
आव यकता है। सव थम दो पोत और दस नौकाओं का िनमाण कर उनका परी ण करो। जहाँ
भी कोई कमी समझ म आये उसे सुधार कर तब शेष पोत और नौकाओं का िनमाण आर भ
करना है। िक तु यह सदैव मरण रखना है िक एक वष म दो सह पोत और दस सह
नौकाएँ हर प रि थित म िनिमत होनी ही होनी ह। इस काय म कोई भी िशिथलता य नह
होगी। लंका के वन म अ यंत दीघकाल तक जल म रहकर भी सुरि त रहने वाले का क
कमी नह है। और जो भी साम ी आव यक होगी अिवल ब उपल ध करा दी जायेगी। कोई
?’’
कह से कोई वर नह आया।
‘‘िव रथ! इस स पण
ू काय का नेत ृ व करने हे तु िकसका चयन िकया है?’’
‘‘तेज वी! आगे आओ।’’ िव रथ के आदेश पर एक लगभग तीस वष का, साँवले रं ग
का, ऊँचा सा बिल युवक आगे आ गया। ‘‘मातामह! यह तेज वी इस टुकड़ी का नायक होगा
और दस सैिनक इसके सहायक ह गे।’’
‘‘उनका चयन कर िलया गया है?’’
‘‘जी! बुलाऊँ उनको भी?’’
‘‘नह ! कोई आव यकता नह ।’’ िफर वह तेज वी से स बोिधत हआ - ‘‘तुम ितिदन
सायंकाल मुझसे भट कर मुझे दैिनक गित क सच ू ना दोगे। पुन: कह रहा हँ - िकसी भी कार
क िशिथलता य नह होगी। अब तुम इन सबको लेकर अपनी योजना बनाना आर भ कर दो।
या करना है, कैसे करना है इस िवषय म सारे िनणय लेने को तुम वतं हो। उसम िकसी का
कोई ह त ेप नह होगा। बस िन य मुझे गित क जानकारी देनी है और आने वाली सम याओं
से अवगत कराना है। उनका िनराकरण म और तुम िमलकर करते रहगे। उिचत?’’
‘‘जी महामिहम!’’ तेज वी ने त परता से स न मु ा म आते हए उ र िदया।
‘‘ठीक है। लग जाओ अपने काय म। तु हारे कंध पर ही लंका के भिव य का भार है, इसे
सदैव मरण रखना।’’ िफर वह िव रथ से स बोिधत हआ - ‘‘आओ अब तु ह तु हारे अिभयान के
िवषय म समझा दँू।’’
िव रथ के साथ सुमाली िशिवर के एक क क ओर चल िदया।
‘‘देखो लंका क आिथक ि थित शोचनीय है। राजकोष ाय: र है यह तो तु ह ात
ही होगा।’’ सुमाली ने माग म कहना आरं भ िकया।
‘‘जी!’’
‘‘सम त यवसाय कुबेर के साथ ही चला गया है। कोष का लगभग सम त धन भी वह
अपने साथ ही ले गया है।’’
‘‘जी!’’
‘‘लंका को पुन: समथ बनाने के िलये येक े म बहत काय करना है और उसके
िलये धन क आव यकता है। वैधािनक माग से यह साम य ा करने म कई दशक लग जाने
क संभावना है िक तु हम उतनी ती ा नह कर सकते अत: कुछ अवैधािनक माग अपनाना
हमारी िववशता है।’’ सुमाली ने एक ण क कर िव रथ क ओर देखा। वह यान से उसक
बात सुन रहा था।
‘‘ये ऐसी बात है जो हर िकसी से नह क जा सकत । तुम मेरे िव ासी यि हो
ू त: गोपनीय रहना चािहये। मेरे अित र तुम िकसी
इसिलये तु ह यह दािय व स प रहा हँ। यह पण
से भी इस संबंध म वाता नह करोगे।’’ सुमाली ने िव रथ क आँख म झांकते हये आदेशा मक
वर म कहा।
‘‘जैसा आदेश!’’ िव रथ ने त परता से उ र िदया। अब तक वे क म आ गये थे।
िव रथ ने एक पीिठका क ओर इंिगत करते हये कहा -
‘‘आसन हण क िजये मातामह!’’
दोन बैठ गये।
‘‘कुबेर के सम त िवशाल यापा रक पोत लंका के दि णी सागर से ही या ा करते ह।
तु ह उन पर ि रखनी है। वे कब िनकलते ह? उनम या साम ी होती है? कब उनम धन होता
है ... आिद-आिद सम त िववरण अपनी पैनी ि और चतुराई से दयंगम करने ह। इस काय हे तु
तुम उनके पोत के कमचा रय से िम ता-संबंध भी थािपत कर सकते हो िक तु काय येक
प रि थित म स प न होना है और सावधानी से होना है।’’
‘‘जी! इस सम त िववरण का या उपयोग करना है मुझे?’’
‘‘अभी कुछ नह । अभी बस कुछ माह सब कुछ समझना है और मुझे सच
ू ना करनी है।’’
‘‘जी! हो जायगा।’’
‘‘इसके अित र एक काय और करना है। तु ह दो-तीन समुिचत तट छाँटकर वहाँ
उपयोगी प न (बंदरगाह) भी िवकिसत करने ह गे। इनके िलए तु ह िदखावा यह करना है िक
जैसे लंका कुबेर के पोत क सुिवधा के िलये प न थािपत कर रहा है। कालांतर म ये हम अपना
यापार थािपत करने म सहयोगी िस ह गे।’’
‘‘जी! यह भी हो जायगा।’’
‘‘धन आज सायंकाल तक तु ह उपल ध हो जायगा। िकतने तक क आव यकता
होगी।’’
‘‘म या कहँ, आप वयं िनणय करने म स म ह।’’
‘‘ठीक है। तो िफर म चलता हँ।’’
44. अंग दे श के िलये थान
महाराज दशरथ राजसभा क औपचा रक पर परा के बाद सभा क म बैठे हये थे। सभा
म कुछ नह हआ था, बस सबने देविष ारा िकये गये भिव य कथन पर हष य िकया था,
सदैव क भाँित चाटुका रता क थी। इसी म बहत समय यतीत हो गया था। सारे सभासद यह
दशाना चाहते थे िक वे ही सबसे अिधक शुभे छु ह महाराज के! वे ही सबसे बड़े वािमभ ह। यह
िक सा िन य का था। चाटुका रता सभासद क नस म लह से अिधक बहती थी। महाराज भी
इससे प रिचत थे िक तु उ ह इसम आन द िमलता था, उनके अहं को तुि िमलती थी। दशरथ
के अठारह मंि य म एक महामा य जाबािल ही ऐसे थे जो अपे ाकृत बहत खरा बोलते थे।
अ ुत च र था जाबािल का भी। वे एक कार से अनी रवादी थे। वे पुनज म
को भी नह मानते थे। पाप-पु य और कम के फल क अवधारणा को भी नकार देते थे।
उनके कुछ िवचार ऐसे थे जो सामािजक प रवेश के िलये ाि त के सू तीत होते थे।
जो कुछ है यही है जो सामने है। न इससे पीछे कुछ था न इसके आगे कुछ होगा। इसी ज म को
स कम से ध य करो। सुकम करो - इसिलये नह िक उनका फल अगले ज म के िलये संिचत
होगा या उनसे वग िमलेगा, अिपतु इसिलये िक सुकम ही करणीय ह। दु कम मत करो -
इसिलये नह िक उसके बदले म नक िमलेगा, अिपतु इसिलये िक उससे िकसी दूसरे को क
होता है, दुःख होता है। मनु य िवचारशील ाणी है, सामािजक ाणी है इसिलये उसे अपने साथ-
साथ सबक उ नित का, सबक स नता का यान रखना चािहये। सबके िहत क चे ा करनी
चािहये।
महाराज दशरथ कई बार उनक बात से ितलिमला भी जाते थे िक तु वे जानते थे िक
जाबािल से बढ़कर मंि प रषद म उनका कोई िहतैषी नह है इसीिलये अपने सनातन िवरोधी
िवचार के बावजदू वे जाबािल क बात को मह व देते थे। येक मह वपण
ू िवषय म वे एकांत म
उनसे परामश अव य लेते थे और यथासंभव उनक बात को अपने आचरण म समायोिजत करने
का यास भी करते थे। उनक बात से कई बार ितलिमलाने के बावजदू वे उ ह मंि प रषद से
हटाने या उनका मह व कम करने के िवषय म सोच भी नह सकते थे। जाबािल से अिधक मान
महाराज केवल राजगु विश को ही देते थे।
भोजन का समय यतीत होता जा रहा था। महाराज के भोजन के समय म बहत कम
यित म होता था, मा िकसी अक मात आपदा के आ खड़े होने पर ही यह संभव था। आज तो
कोई आपदा भी नह थी िक तु देविष आशा का एक ऐसा बीज बो गये थे िजसके पौधे के प म
अंकुरण म अब महाराज को कोई िवलंब स नह था। वे उस पौधे को अभी स चना-सहलाना
चाहते थे और इस सब म उ ह भख ू का अहसास ही नह हो रहा था। उनके साथ इस समय मा
जाबािल बचे थे। अनुचर से राजगु के पास संदेश भेजा गया था िक महाराज अ यंत शी उनके
चरण म णाम िनवेिदत करना चाहते थे। उनक अनु ा िमलते ही महाराज उनके स मुख
तुत होने को त पर थे। अनुचर अभी तक नह लौटा था और उसक इस लापरवाही पर अब
महाराज को रोष होने लगा था। उ ह ने आवाज लगाई - ‘‘ ितहारी!’’
आवाज के साथ ही ितहारी उपि थत हआ। झुक कर उसने महाराज को राजक य
प रपाटी के अनुसार णाम िकया और बोला - ‘‘आदेश महाराज!’’
‘‘देखो यह अनुचर कहाँ रह गया।’’
‘‘ मा कर महाराज, िक तु कौन अनुचर महाराज?’’
‘‘अरे वही, िजसे राजगु क सेवा म भेजा था।’’
ितहारी कोई उ र देता इससे पवू ही महाराज को दूर से ार क ओर आते राजगु
विश क छिव ि गोचर हो गयी। उ ह ने ितहारी क ओर हाथ िहलाते हये कहा - ‘‘जाओ
तुम!’’
विश लगभग चालीस पीिढ़य से, महाराज इ वाकु के शासनकाल से ही, इस वंश के
राजगु के पद पर आसीन थे। (अ यथा मत समझ लीिजयेगा - विश इनक उपािध थी जो
प रवार के ये पु को ा होती थी और वह इ वाकु वंश के राजगु के पद पर आसीन हो
जाता था। इनके वंश ने भी इ वाकु वंश के समान ही इतनी पीिढ़य तक अपनी े ता अ ु ण
रखी थी और अपने पद को ग रमा दान क थी।)
ितहारी चला गया। उसके पीछे महाराज भी उठकर ार क ओर बढ़े । महाराज के पीछे
अनायास ही जाबािल भी बढ़ चले। अ यंत िवशाल सभा क क परू ी ल बाई तय कर जब तक ये
लोग ार तक पहँचे राजगु भी ार तक आ गये थे। पहले महाराज ने और िफर जाबािल ने झुक
कर राजगु क चरण धिू ल हण क । महाराज य ता से बोले -
‘‘गु देव! आपने य क िकया, म तो आ ही रहा था, बस आपक अनु ा क ती ा
थी।’’
गु देव ने दोन को आशीष िदया। महाराज को ‘‘पु वान भव:’’ और जाबािल को
‘‘यश वी भव:’’।
‘‘अनुचर ने जब राजन का संदेश िदया तो मने उससे योजन भी पछ ू िलया। जो कुछ
उसने बताया उसके बाद मुझसे संवरण नह हआ। अनुचर आपको सच ू ना देता और आप आते
उतने समय म म वयं ही आ गया। कुछ अनुिचत िकया या मंि वर?’’
‘‘कैसी बात करते ह गु देव!’’ जाबािल ने धीरे से मु कुराते हए कहा।
‘‘राजन!!’’
‘‘जी गु देव!’’
‘‘तो िफर अब िवल ब या है? बुलाओ पु ी-जामाता को। दीघ काल से आई भी नह है
शांता।’’
‘‘कोई िवल ब नह है गु देव। बस आपक स मित क ती ा थी।’’
गु देव हँसे िफर बोले ‘‘अब तो िमल गयी स मित! अब िबना समय गँवाये ती गामी
अ वाले रथ से भेजो दूत को। बि क दूत के प म वयं आमा य जाबािल ही यिद चले जाएँ तो
सव े होगा।’’
‘‘जैसी आ ा गु देव!’’ दशरथ और जाबािल दोन ने ही हाथ जोड़ कर आदेश िशरोधाय
िकया।
‘‘मुिन े क मयादा के अनुकूल होगा यह। वैसे मुिनवर तो सरल यि व ह, िकसी
को भी भेज दो िवचार नह करगे िक तु िबिटया सोच सकती है।’’
‘‘म वयं चला जाऊँ।’’ दशरथ ने पछ
ू ा
‘‘यिद ऐसा संभव हो सके तब तो सवा म होगा। चाह तो महारािनय को भी ले
लीिजयेगा। महारानी कौश या भी अपनी बहन से िमल आयगी इसी बहाने।’’
‘‘तब िफर म वयं ही जाने को तुत होता हँ।’’
‘‘िक तु महाराज! आप बहधा अ व थ रहते ह। इतनी सुदीघ या ा आपके िलये
क कारी हो सकती है।’’ जाबािल ने कहा।
‘‘महामा य अ व थता तो मानिसक है और अब तो उसके िलए औषिध लेने जाना है।
इस िवचार मा से ही अब तो म पण
ू त: व थ हँ।’’ दशरथ ने हँसते हये कहा।
‘‘महामा य! महाराज को ही जाने द। सािलय से िमलने म रस ही अलग होता है।’’
सब हँस पड़े ।
‘‘स ाट्! कालगणना कह रही है िक आपके पु कालांतर म आयावत म सव पू य
ह गे। ये राजकुमार तो वयं इ से भी अिधक पू य होगा। युग तक वह आय के मन-
मि दर म सातव िव णु के प म वास करे गा। समच
ू ा आयावत उसे वयं परमे र का अवतार
मान कर उसक आराधना करे गा।’’
दशरथ तो वैसे भी स नता के अितरे क म डूबे हये थे गु देव के इस वा य ने तो उ ह
उ लास सागर म आकंठ डुबो िदया। उ ह समझ ही नह आ रहा था िक या कर, या कह! िकस
कार अपनी स नता को अिभ यि दान कर।
तभी एक उनके मन म कुलबुलाया। वे जरा संकोच से बोले -
‘‘गु देव एक है, अनुमित हो तो पछ
ू ू ँ ...’’
‘‘पछ
ू डािलये। को मन म कभी नह रखना चािहये। आते ही पछ
ू डालना चािहये
अ यथा स देह और शंका ज म लेने लगते ह।’’
‘‘गु देव! अभी तक आप राजकुमार के ज म का समय य नह िनि त कर पा रहे
थे। आप सदैव कहते थे िक मुझे चार पु का योग है िक तु कब यह कभी नह बताया।’’
‘‘यही िविध का िवधान था राजन। हम सब उस अनंत क लीला का एक कण मा ही तो
जानते ह। उसी क लीला थी िक हम कुमार का ज म समय नह िनि त कर पा रहे थे। िकसी
कोण से देखने पर कोई समय िनधा रत होता था तो दूसरे कोण से वह िनर त हो जाता था। पर
यह सदैव िनि त था िक आपको चार पु का योग है।’’ विश ने उ र िदया िफर ित
िकया ‘‘और कोई शंका महाराज?’’
‘‘नह गु देव! अब तो बस आन द ही आन द है। पौ िखलाने क आयु म म पु
िखलाऊँगा। गु देव समझ म नह आ रहा िक म अपनी स नता को कैसे य क ँ ?’’
‘‘आपके ने सबसे अ छी अिभ यि दे रहे ह, आप कोई यास न कर।’’ विश ने
हँसते हये कहा -
ू जा के मनोरथ पण
‘‘कुमार को आ जाने दीिजये िफर स पण ू कर दीिजयेगा। यही
सबसे उ म अिभ यि होगी आन द क ।’’ जाबािल ने सुझाया।
‘‘वह तो होगा ही महामा य। उसम भी कोई शंका है!’’ इस बार दशरथ जोर से हँस पड़े
हालांिक गु देव के सामने वे ऐसा नह करते थे पर आज आन द ने मयादाओं के बंधन को
िशिथल कर िदया था।
‘‘अ छा! तो अब हम अनुमित दीिजये और आप महारािनय सिहत थान का आयोजन
क िजये।’’ गु देव ने उठने का उप म करते हये कहा।
45. मंगला
‘‘बाबा म भी गु कुल जाऊँगी।’’ पाँच-छ: वष क मंगला िपता क पीठ पर लदी, उनके
गले म हाथ िपरोये लिड़या कर बोली। मंगला का िपता मिणभ अवध का एक े ी (सेठ) है।
उसक अनाज क ठीक-ठाक सी आढ़त है। बहत बिढ़या तो नह िफर भी अ छा खासा चल रहा है
उनका यापार। मंगला उसक दुलारी पु ी है। दुलारी हो भी य न, आिखर पाँच पु के बाद
तमाम देवी-देवताओं क मनौती के बाद मंगला ा हई है।
सेठ बाजार म अपनी ग ी पर बैठे िहसाब-िकताब म मगन थे। मंगला क बात सुन कर
ठठाकर हँस पड़े -
‘‘अरे लड़िकयाँ भी कह गु कुल जाती ह? तू अ मा के साथ रोटी बनाना य नह
सीखती?’’
‘‘वो तो सीख ली मने। पर मुझे गु कुल जाना है। मुझे भी वेद पढ़ना है।’’
‘‘अरे मुनीम जी! देखा आपने, हमारी िबिटया वेद पढ़ना चाहती है। आपने पढ़े ह?
‘‘नह सेठ जी मने तो नह पढ़े ।’’ मुनीम जी ने भी हँसते हये कहा।’’
‘‘मने भी नह पढ़े मुनीम जी!’’ मिणभ ने मंगला को िचढ़ाते हये कहा।’’
‘‘बाबा आप िठठोली कर रहे हो। जाओ म नह बोलती आपसे।’’ मंगला वैसे ही उनक
पीठ पर लदे-लदे बोली।’’
मंगला घर म सबसे छोटी थी, इसिलये सबक दुलारी थी। सेठ जी उसे मनाते हये बोले -
‘‘अरे कुिपत नह होते बेटा! हमारी िबिटया हमसे कुिपत हो जायेगी तो हमसे मीठी-मीठी
बात कौन करे गा? य मुनीम जी, आपको तो मीठी-मीठी बात करना आता नह ।’’
‘‘हाँ सेठजी हम तो नह आता।’’
सेठ जी ने हाथ पकड़ कर िबिटया को गोद म ख च िलया और पेट म गुदगुदाते हये बोले
-
‘‘तो तुमने रोटी बनाना सीख िलया।’’
‘‘बताया तो सीख िलया।’’ मंगला मँुह बना कर बोली।
‘‘तो और बिढ़या-बिढ़या खाना बनाना सीख। िफर हमको िखलाना। हम तो आज तक
तुमने अपने हाथ से रोटी बनाकर िखलाई ही नह ।’’
सेठ उसक सोच से इस गु कुल जाने क बात को हटाना चाहते थे। उस समय
क याओं को गु कुल भेजने क आयावत म प रपाटी नह थी। गु कुल के आचाय क क याएँ
ही थोड़ा बहत पढ़-िलख लेती थ या िफर कभी-कभी कोई राजक या गु कुल भेज दी जाती थी,
पर मा अपवाद के प म। शेष ि य और वै य क क याएँ तो आमतौर पर गु कुल का मँुह
भी नह देख पाती थ । लड़के भी कौन सा बहत गु कुल जाते थे। ऊँचे कुल के लड़के ही यह
सौभा य ा कर सकते थे िज ह रोटी कमाने क िच ता नह होती थी। बाक तो घर पर ही िपता
व चाचा से थोड़ा बहत गिणतीय ान ा करके यापा रक गितिविधय म लग जाते थे। कुछ
ि य या विणक िज ह अपने लड़क को पढ़ाने का बहत शौक होता था, थोड़े िदन के िलये उ ह
गु कुल भेज देते थे। सेठ के भी बड़े चार लड़के थोड़े -थोड़े िदन के िलये गु कुल गये थे। वेदािद
थ क सरू त देखी थ , थोड़ा सा िहसाब सीखा था और िफर िपता के यापार म हाथ बँटाने लगे
थे। सबसे छोटा बेटा ‘वेद’ अव य अभी भी गु कुल म था। उसे पढ़ाई से लगाव था। तीन वष हो
गये थे उसे वहाँ, ‘‘देखो िकतने िदन तक और पढ़े ’’ सेठ ने सोचा। मंगला क हठ ने अचानक
उ ह उसक याद िदला दी थी। पर मंगला कैसे जा सकती थी गु कुल। क याओं के बारे म तो
िकसी को िवचार ही नह आता था िक उ ह भी गु कुल भेजा जाना चािहये या भेजा जा भी
सकता है। क याओं से भी शोचनीय ि थित शू क थी। उनका पढ़ना तो पाप क ेणी म आता
था। उनके िलये तो इस िवषय म तो सोचना भी अपराध था। यहाँ तक कहा जाता था िक यिद कोई
शू वेद क ऋचाएँ सुन ले तो उसके कान म िपघला हआ शीशा भर देना चािहए।
ऐसी ि थित म भी उस काल म लोपामु ा, गाग , मै ेयी जैसी असं य िवदुषी ऋिषकाएँ
हय िज ह ने वेद क रचना तक म अपना मह वपण ू योगदान िदया। खैर ... आइये वापस अपनी
कहानी से जुड़ते ह।
‘‘ वािमनी से िनवेदन करो िक लंके र रावण के मातामह सुमाली उनके दशन करना
चाहते ह।’’ सुमाली ने ताड़का के ासाद के ार पर उपि थत ारपाल से कहा- ‘‘ या वे ासाद
म उपि थत ह?’’
रावण और सुमाली के नाम ने ारपाल को भािवत िकया था। िफर माण व प
पु पक उनके सामने खड़ा हआ था। ‘‘हाँ उपि थत ह। अभी सच
ू ना करता हँ।’’ कहते
हये एक ारपाल अिवलंब भीतर थान कर गया।
शेष ने स मान से इन सबके बैठने क यव था क ।
सच
ू ना करने गये ारपाल को लौटने म अिधक समय नह लगा।
‘‘आइये महामिहम! वािमनी ती ा कर रही ह।’’
‘‘मलद और का ष क वािमनी को सुमाली का णाम!’’ ताड़का के स मुख पहँचते
ही सुमाली ने िवन ता ओढ़ते हये कहा। ताड़का इ ह अपने क के ार पर ही िमल गयी थी।
‘‘ थम मुझे णाम करने दीिजये महामिहम! आपके दशन ा कर ताड़का ध य हो
गयी। उसने तो व न म भी नह सोचा था िक वयं महामिहम उसके कुटीर को ध य करगे।’’
ताड़का ने िविधवत णाम िनवेिदत करते हये सबको आसन दान िकया। तभी मारीच
और सुबाह भी आ गये। उनके चेहरे उ ेजना से लाल हो रहे थे। सच म कुबेर पर िवजय के साथ ही
रावण का थान आय और देवेतर जाितय के िलये नायक का हो गया था। दोन ने परू ी ा से
सुमाली के चरण म झुक कर णाम िनवेिदत िकया।
औपचा रक प रचय के उपरांत ताड़का ने कुछ चर को जलपान क यव था करने हे तु
आदेिशत िकया।
‘‘अरे इसक या आव यकता थी?’’ सुमाली ने औपचा रकता का िनवाह िकया।
ू हई या महामिहम या आप भी आय क भाँित शु ता-अशु ता के
‘‘हमसे कोई भल
यामोह से त ह।’’ ताड़का ने हँसते हये कहा।
‘‘दोन ही बात नह है। िक तु ऐसा य कहा आपने?’’ सुमाली ने आ य से कहा।
िक तु अगले ही पल यंजना उसक समझ म आ गयी - ‘‘लाओ भाई, अव य लाओ। िक तु मा
जलपान नह भोजन का समय हो रहा है, भोजन के िलये ही कह दीिजये।’’
ताड़का और उसके दोन पु स न हो उठे ।
‘‘महामिहम आदेश क िजये कैसे क िकया?’’
‘‘देवी! ये आय अपने िसवा अ य सबको अ यंत हीन समझते ह। ये सम त आयतर
सं कृितय से घण ृ ा करते ह जबिक हमारी सं कृितयाँ इस आय सं कृित से े तर ही ह।’’
‘‘स य कह रहे ह आप। ये र और दै य का उ लेख इस कार करते ह मान वे कोई
अ यंत कु प, घिृ णत िहं पशु ह । आय भल ू जाते ह िक उनके अित र अ य भी उ ह के
समान मानव ह। मुझे ही देिखये, म भी कभी अ यंत सुंदरी युवती थी िक तु आज ... मुझे वयं
अपनी सरू त देखते भय लगता है। यह िकसने िकया? उसी आय अग य ने ही न! इससे तो
अ छा उसने मुझे भी मेरे पित के साथ मार डाला होता - ऐसा नारक य जीवन तो नह जीना
पड़ता।’’
‘‘धैय रख देवी। इसीिलये तो लंके र र सं कृित के उ नयन का अिभयान चला रहे ह
तािक इन आय को दपण िदखाया जा सके।’’
‘‘िजन देव क ये पज ू ा करते ह, िज ह ये ह य समिपत करते ह उनके आचरण कभी
देखे ह?’’ मारीच ने वातालाप म ह त ेप करते हये कहा - ‘‘इ के आचरण देख कर तो िघन
आती है।’’
‘‘िचंता मत करो व स! कुबेर का मानभंग हो ही गया, अब शी ही इ क भी बारी
आने ही वाली है। लंके र यासरत ह। सच पछ ू ो तो आपके पास म इसी उ े य से आया हँ। म
चाहता हँ िक आप भी हमारी र सं कृित म दीि त होकर हम मान दान कर।’’
‘‘अरे महामिहम! आपने तो मेरे मन क बात कह दी।’’ ताड़का उ साह से बोली - ‘‘ये
आय तो हम वैसे ही रा स कह कर बुलाते ह। इस कार हम तो िबना दीि त हये ही र ह। हम
सब सहष आपके साथ सि मिलत होने को त पर ह। य मारीच?’’
‘‘जी माता! जब और जैसे महामिहम आदेश कर, हम सब त पर ह।’’
‘‘तो िनि त हआ। आप द डक वन के इस िसरे पर आज से लंके र क ितिनिध के
प म शासन क िजये। आज ही म आपको र सं कृित म दीि त करता हँ।’’
इसी बीच भोजन क सच
ू ना आ गयी।
भोजनोपरांत उसी िदन सायंकाल सुमाली ने ताड़का के नेत ृ व म उसके सम त
अनुयाियय को र सं कृित म दीि त कर िदया।
उसके हाथ एक और बड़ी सफलता लग चुक थी। उसे लग रहा था िक अब सम त
द डकार य े उसके भाव े म आ गया है। अग य का चुपचाप चल रहा मह र काय अभी
उसक िनगाह म नह आया था। अग य क ओट म चल रहे देव के गु कुल उसक िनगाह म
आये तो थे िक तु उनका वा तिवक उ े य अभी वह नह समझ सका था। इसी कार उसक
सफलताएँ भी अभी देव क िनगाह म नह आई ं थ । दोन ही प अभी यही समझ रहे थे िक बाजी
उनके हाथ है। दूसरा प अभी इस े के मह व को आँक नह पाया है और इसिलए अभी इस
े म सि य नह हआ है।
63. रावण क आसि
रावण क दुिनया जैसे वेदवती के ही चार ओर केि त होकर रह गयी थी। अपनी सारी
संक पशि समेट कर वह अपने िचंतन को दूसरी ओर मोड़ने का यास करता, पर िचंतन था
िक घमू -िफर कर वह आकर अटक जाता था। वेदवती क छिव उसक आँख म रह-रह कर क ध
जाती थी। मन छटपटाने लगता था। बड़े यास से वह कई िदन तक अपने को रोके रहा पर िफर
एक िदन वह िदमाग को भटकाने क नीयत से जंगल म िनकल गया। पता नह कब तक घम ू ता
रहा।
‘‘अरे वै वण! इतने िदन तक दशन ही नह िदये!’’ वेदवती के उलाहने भरे वर से
उसक तं ा भंग हई। उसे लगा सपना देख रहा है। उसने सर झटका। वह तो वेदवती से अपने मन
को दूर ले जाने के यास म िनकला था।
‘‘ या बात है? कुछ अनमने से लग रहे ह?’’ पुन: वेदवती के वर ने उसे परू ी तरह
चैत य िकया। नह यह सपना नह था। कोई अ य शि जैसे अनजाने ही उसे वेदवती के आ म
तक ख च लाई थी।
आज उसने सफेद धोती लपेट रखी थी। हाँ लपेट ही रखी थी। कायदे से पहनना िसखाने
वाला शायद कोई िमला ही नह था। इस अनगढ़ ढं ग से पहनी हई धोती ने उसके यौवन को और
भी घातक बना िदया था। रावण सुध-बुध भल
ू कर उसे एकटक िनहारता रह गया।
‘‘ या देख रहे ह? मुझे कुछ िभ न सी तीित हो रही है।
‘‘अ.... अ... आपक धोती ... असुिवधाजनक है कुछ?’’ आज जीवन म पहली बार रावण
हकलाया था।
‘‘नह ! ऐसा भी नह है, िक तु ऐसा भाव मने पवू म कभी अनुभव नह िकया।’’ वेदवती
के कपोल आर हो गये थे, िफर भी उसने कह िदया।
‘‘ओह! म तो आशंिकत हो गया था िक आपको असुिवधा हई। या क ँ इस प रधान म
आप इतनी सु दर लग रही ह िक ने अिनयंि त हो गये थे।’’
‘‘अरे यह! कभी-कभी पास क िकसी ब ती से कुछ कृपालु ि याँ आ जाती ह। उ ह
लगता है िक म उ ह आशीवाद दे दँूगी तो उनके क दूर हो जायगे। बेचारी भोली ि याँ! वे ही
आ म क कुछ यव थाएँ भी कर जाती ह। अभी परस भी दो मिहलाएँ आ गयी थ । मुझे तो यान
नह वे ही बता रही थ िक िपछली बार जब वे आई थ तो मझ ृ े मग
ृ छाला लपेटे देख गयी थ , वही
ू िविध से ऐसी ही धोती पहने थ , बड़ी सुंदर लग रही थ । मुझे
ये दे गयी ह। वे लोग बड़े सु िचपण
तो बाँधनी ही नह आती। उ ह क छिव याद करके पहनने का यास िकया है। बुरी लग रही है
न?’’
‘‘नह बहत सु दर लग रही है।’’ रावण बुरी कैसे कह देता इस धोती ने तो उसक
देहयि क मादकता को अनजाने ही और उभार िदया था। वह झीनी सी धोती वेदवती के उभार
को छुपाने से अिधक उभार रही थी।
‘‘उस िदन के बाद से आप कहाँ िवलु हो गये थे? म तो िन य आपक ती ा करती
थी।’’
‘‘िवलु कहाँ हो जाऊँगा, आ म पर ही था।’’
‘‘िफर आये य नह इधर?’’
‘‘आपने ही तो विजत कर िदया था।’’
‘‘मने?’’ वेदवती के वर म अपार आ य था ‘‘मने कब विजत िकया आपको? य
झठ
ू ा लांछन लगा रहे ह।’’
‘‘आप ही ने तो कहा था िक आप िव णु क वा द ा ह।’’
‘‘तो? ... इसम वजना कहाँ है?’’
‘‘छोिड़ये इसे। बताइये आपक साधना कैसी चल रही है?’’
‘‘नह चल पा रही!’’ वेदवती ने कुछ अनमने से वर म कहा।
‘‘नह चल पा रही, ता पय?’’
‘‘ यान लगाने का यास करती हँ तो यान म आप आ जाते ह। एक बात बताऊँ? मुझे
अब आपके िवषय म सब कुछ ात है। ा जी का वरदान, िफर आपका मंदोदरी से िववाह। िफर
कुबेर पर िवजय। िफर िशव से भट .... सब कुछ।’’ वेदवती ने िकसी ब ची क सी सरलता से
अपनी उपलि ध िगनाई।
‘‘क् ... क् ... कैसे? िकसने बताया आपको???’’ रावण के वर म असीम आ य था।
‘‘और कौन बतायेगा? कहा तो मने यान म आप आ जाते थे। और कौन रखा है यहाँ
बताने को?’’
‘‘आप यान म इतनी पारं गत ह? लगता तो नह ?’’ रावण को अभी भी आ य था।
‘‘लो! पैदा हई तब से और कर ही या रही हँ। पर पता नह य जैसे यान म मने
आपको घेर िलया वैसे िव णु को नह घेर पाती। पहले तो झलक िमलती भी थी, उस िदन के बाद
से तो वह भी नह िमलती।’’ वेदवती के वर म िफर उदासी सी आ गयी थी।
‘‘ऐसा य ???’’
‘‘नह पता!’’
‘‘तो अब या करगी?’’
‘‘ यास करती रहँगी और या कर सकती हँ।’’
‘‘अ छा एक बात बताइये, अगर िव णु नह आते तो आप या करगी?’’
‘‘आयगे कैसे नह ? उ ह आना ही पड़े गा।’’
‘‘मान लीिजये नह आते!!’’
‘‘कहा न मुझे नह पता। कोई और बात नह है आपके पास। आपके आने से िकतनी
स नता हई थी मुझे और आप वही दुखती रग छे ड़ने लगे।’’
‘‘अ छा चिलये नह करता। तो या बात क ँ ?’’
‘‘कुछ भी। आपसे वाता करना मुझे अ छा लगता है।’’
‘‘सच!’’ रावण को जैसे मँुहमांगी मुराद िमल गई हो। जैसे अ धे को आँख िमल गई ह ,
उसका चेहरा िखल उठा वह आगे बोला - ‘‘मुझे तो लगा था िक मेरे आने से आपका यान भंग
होगा, इसीिलये बचता था। म िन य आऊँगा अब।’’
‘‘यह हई ना िम वाली बात। आप बहत अ छे ह।’’
‘‘आप भी बहत अ छी ह। बहत सु दर। सच म मने ऐसा सौ दय पहले नह देखा।’’
‘‘अब लगे चापलस
ू ी करने।’’
‘‘म चापलस ू ी नह कर रहा। रावण इ के समान ल पट नह है िक तु आपसे िमलने
के बाद से मेरा मन अपने वश म नह है। बहत चाहता हँ यान को दूसरी ओर लगाऊँ िक तु नह
लगता। ित ण आपक छिव मेरी आँख म न ृ य करती रहती है।’’
‘‘स य?’’ वेदवती ने उ साह से कहा।
रावण को भय था िक इस बात का वेदवती बुरा न मान जाये पर वह तो चहक उठी थी,
िखल उठी थी। रावण उसके च र का िव े षण करने का यास कर रहा था पर उलझ कर रह
जाता था। उसने उ र िदया -
‘‘उतना ही स य िजतना सय
ू और च ह।’’
‘‘तब तो हम दोन एक ही पथ के पिथक ह। मुझे यान म आप िदखाई देते ह और
आपको म। कहते हये वेदवती हँस पड़ी। उ मु हँसी। जैसे रावण क सम त चेतना को रमिझम
ने सराबोर कर िदया हो। वह भी हँस पड़ा।
64. श बक
ू
अयो या म धोिबय के मुिखया धमदास के िपता का ा था। ा कम तो पुरोिहत को
करवाना था िक तु भोज के िलये वह नाक रगड़ कर जाबािल से भी िनवेदन कर गया था।
जाबािल ने वीकार भी कर िलया था। शू क ब ती म उ र क ओर धोिबय के घर थे। अ छी
खासी ब ती थी - करीब ढाई सौ घर क । घर क औरत ितिदन सायंकाल ि ज के घर म
जाकर व ले आती थ और दूसरे िदन पु ष उ ह सरयू तट पर बने धोबी घाट पर धो लाते थे।
बदले म उ ह जीवन यापन के िलये पया साम ी िमल जाती थी। यह ेता युग था। इसम
किलयुग के म यकाल या उ र म यकाल क भाँित शू को अपमानजनक ि थित म नह जीना
पड़ता था। ि ज को उनक छाया से कोई परहे ज नह था। यहाँ तक िक अितव ृ शू के अनुभव
और वयस को उिचत स मान िमलता था। माग म कोई व ृ शू आ रहा होता था तो युवा और ौढ़
ि ज उसे स मान से माग दे देते थे। बंधन था तो मा इतना ही िक उ ह अ ययन क अनुमित
नह थी। उ ह भिू म पर अिधकार नह था। उ ह खेती करने क अनुमित नह थी। सेवा ही उनक
जीिवका थी।
क कारी ि थित जो थी वह थी िक याय यव था उनके ित अ यंत कठोर थी। िकसी
ि ज के ित, िवशेष कर िकसी ा ण के ित अपराध करने पर कठोर दंड का ावधान था। यह
दंड म ृ युदंड तक हो सकता था - छोटे-छोटे अपराध तक म भी। दूसरी ओर ि ज ारा उनके ित
अपराध िकये जाने पर अपे ाकृत अ यंत यन ू दंड थे। ा ण को तो दंड से िवशेष छूट थी।
म ृ युदंड तो उ ह िदया ही नह जा सकता था।
धमदास धोिबय का मुिखया था। राज-प रवार म उसक िजजमानी थी। राजा, पुरोिहत,
मं ी आिद प रवार के व धोने का काम उसके प रवार का था। इन सम ृ प रवार से ितकर
भी अ छा िमलता था। कुल िमला कर बहत अ छे से जीवन यापन हो रहा था।
भोज के िदन यथासमय आमा य जाबािल आ गये। उनके साथ दो ा ण और थे। पहले
धमदास और उसके पीछे परू े प रवार ने तीन ा ण को सा ांग दंडवत कर उ ह णाम िकया।
जाबािल सिहत सबने स न मन से उ ह आशीष िदया तदुपरांत एक सोलह वष य िकशोर ने
उनके पैर धोकर उ ह आम क लकड़ी क बनी िबलकुल नई पीिठकाओं पर आसन हण करने
का िनवेदन िकया। गोबर से िलपे बड़े से क चे आँगन म, रसोई के बाहर ही इन लोग के बैठने
क यव था थी। तीन के सामने वैसी ही नई िक तु थोड़ी सी ऊँची पीिठकाएँ और रखी थ । उन
पर केले के प पर उ ह सु वादु भोजन परोसा गया। भोजन य िप सादा था िक तु िन:संदेह
वािद था जो घर क गहृ िणय क कुशलता का प रचायक था। भोजनोपरांत यथाशि दि णा
समिपत कर पुन: सबने उ ह सा ांग दंडवत िकया।
जाबािल इस परू े आयोजन म उस िकशोर के आचरण से अ यंत भािवत हये थे। उसक
िश ता, उसका बात करने का मधुर ढं ग, उसके सलीके से पहले हये व छ व सबने उ ह
उसक ओर आकिषत िकया था।
भोजनोपरांत वे शेष दोन ा ण से बोले -
‘‘आप लोग चिलये मुझे धमदास से कुछ वाता करनी है।’’
जब वे लोग चले गये तो जाबािल हाथ जोड़े खड़े धमदास क ओर मुड़े और उस िकशोर
क ओर इंिगत कर पछ
ू ा-
‘‘यह तु हारा पु है धम?’’
‘‘जी अ नदाता। यह बड़ा है, इसके बाद दो पु और तीन पुि याँ और ह।’’
‘‘ या करता है यह?’’
‘‘धोबी का बेटा या करे गा मािलक, वही पा रवा रक काय करता है।’’
‘‘इसे पढ़ने य नह भेजते?’’
‘‘मािलक शू के बेटे के भा य म कह पढ़ाई होती है! कौन पढ़ायेगा इसे?’’
‘‘इसक इ छा है पढ़ने क ?’’
‘‘जी गु देव! बहत इ छा है।’’ यह आवाज शंबक
ू क थी।
‘‘यह तो मािलक ाय: िकसी न िकसी गु कुल के बाहर घम ू ता रहता है। चारी जब
बाहर िनकलते ह तो उनके पीछे लग लेता है। उनक हर कार सेवा करता है और उनसे बातचीत
का यास करता है।’’ धमदास ने पु क बात को और आगे बढ़ाते हये कहा।
‘‘तो िफर भेजो इसे मेरे पास - इसी एकादशी को इसका उपनयन कर इसे म दीि त
क ँ गा।’’ जाबािल ने धमदास से कहा िफर शंबक ू क ओर मुड़ कर बोले - ‘‘आओगे?’’
ू पुन: उनके पैर मे पड़ गया था ‘‘ य नह आऊँगा! आप
‘‘जी गु देव अव य!’’ शंबक
तो भगवान ह हमारे , भगवान का आदेश भला टाला जा सकता है!’’
धमदास क आँख से आँसू बहने लगे थे। उसे समझ म नह आ रहा था या कहे । यह तो
ऐसी ि थित उ प न हो गयी थी िजसक उसने सपने म भी क पना नह क थी। आँसुओ ं को
प छता भरे कंठ से वह बोल पड़ा -
‘‘कोई सम या तो नह उठ खड़ी होगी अ नदाता?’’ वयं आमा य जाबािल के
आ ासन के बाद भी आशंकाएँ उसे घेरे थ , आयावत म शू का अ ययन अक पनीय बात थी।
जाबािल जो पैर म पड़े शंबक
ू को उठा रहे थे उसक इस बात पर हँस पड़े । बोले -
‘‘सम या? सम या कैसे उठे गी धम? उठे गी भी तो वह जाबािल क सम या होगी न िक
तु हारी या शंबक
ू क ।’’
‘‘अ नदाता यह तो नादान है। यह अभी िवधान के बारे म कुछ नह जानता। पर आप तो
जानते ही ह गे। शू का िव ा पढ़ना तो बड़ा अपराध िगना जायेगा। कह इसक जान पर ही न
बन आये!’’
‘‘तु ह या लगता है धम, या गु देव विश और जाबािल क सहमित के िबना भी
कोई दंड िनधारण हो सकता है?’’ उसी भाँित हँसते हए जाबािल बोले - ‘‘तुम िचंता मत करो। म
वयं तो आमं ण दे ही रहा हँ और िष विश भी कूप मंडूक नह ह। एकादशी को ात: ही
इसे मेरे पास भेज देना। वह मेरे गु कुल म ही िवधान से इसका य ोपवीत सं कार स प न
होगा।’’
‘‘जी आमा य।’’ हाथ जोड़े धमदास ने कृत ता से गीली आँख क कोर को प छते हये
कहा।
जाबािल चले गये िक तु उ ह पता नह मालम
ू था या नह , िक वे िकतनी बड़ी कलह
का कारण छोड़े जा रहे ह धमदास के घर म। उनके जाते ही शंबक ू क माता िबगड़ उठी। उसे
शंबकू का गु कुल जाना िकसी क मत पर वीकाय नह था। उसे असं य आशंकाएँ थ ा ण
क ओर से। महामा य कहाँ-कहाँ उनके साथ खड़े रहगे। ा ण और अ य ि ज का िवरोध हर
जगह झेलना पड़े गा उ ह। और िफर समाज! उसका या ख होगा? कह समाज ने उ ह
बिह कृत कर िदया तो कैसे िजयगे वे? या करगे? या उसम भी महामा य उ ह ाण िदला
पायगे? िफर महाराज या ि कोण अपनायगे इस िवषय म। सबसे बड़े दंडािधकारी तो वे ही ह।
वे तो परं पराओं के भ ह। वे कैसे अनुमित दगे?
यह बहस, यह झगड़ा एकादशी को शंबक ू के थान तक चलता ही रहा। यिद शंबक ू
क माता अिडग थी अपनी बात पर तो अिडग धमदास और शंबक ू भी थे। उनके कुल म पहली बार
िकसी को वेदा ययन का सौभा य ा हो रहा था। यिद शंबक ू वेद पढ़ गया तो उनक सारी
पीिढ़याँ तर जायगी। कैसे छोड़ द ऐसे अवसर को। दुबारा या ऐसा अवसर िमलेगा भी? और िफर
यिद शंबकू ने मना कर िदया तो महामा य या सोचगे? वे इसे अपना अपमान नह समझगे?
ू के
िबरादरी म इस मसले पर दो गुट हो गये थे। कुछ लोग थे जो धमदास और शंबक
ि कोण से सहमत थे िक तु अिधकतर तो िवरोध म ही थे। मिहलाएँ तो जैसे सारी क सारी ही
िवरोध म थ । अ छी बात एक ही थी िक पंच अिधकांश धमदास से सहमत थे इसिलये िबरादरी से
बाहर िकये जाने का भय नह था।
जब शंबक ू क माँ िकसी भी तरह नह मानी तो धमदास ने अपने पु ष व का योग
िकया। उसने दशमी क रात को उसक खबू ढं ग से पज ू ा कर दी। सारे ब चे सहमे-सहमे, आँसू
बहाते खड़े देखते रहे । िकसी क िह मत नह पड़ी बीच म कुछ बोलने क । पड़ोिसय को इससे
कुछ भी लेना-देना नह था। धमदास के यहाँ भले ही यह कमका ड बहत कम ही होता था िक तु
शेष शू के यहाँ तो यह आव यक िन य कम ही था। आज भी तो है।
इस कमका ड ने एक आ यजनक काय िकया। पड़ोस क तमाम ि याँ बड़ी स न
थ । धमदास क औरत भी िपट गयी इससे उ ह अपार संतोष िमला था। मरद, मरद होता है।
उसक बात तो माननी ही होती है। एक बार गलत हो तब भी माननी पड़ती है िफर ये तो सही ही
कह रहा है। वे अ यािशत प से अचानक शंबकू के गु कुल जाने क प धर बन गय ।
ू अपने िव ाजन के अिभयान पर िनकल ही पड़ा।
अंतत: एकादशी को शंबक
65. वे दवती से णय
‘‘आप यह कृपाण सदैव अपने साथ ही रखते ह, कभी वयं से पथ
ृ क नह करते?’’
वेदवती ने िठठोली करते हये रावण से िकया।
‘‘यह कोई साधारण कृपाण नह है। यह च हास है, वयं भु िशव ने मुझे दान क है।
इसके साथ िठठोली रावण को स नह है।’’
ू ा म सजा कर य नह रख देते?’’
‘‘ऐसा या? तो इसे कुिटया म पज
ू क नह है। उसके िशव
‘‘च हास रावण का आभषू ण है। रावण आय क तरह मिू त पज
मिू तय म नह , उसके दय म िनवास करते ह और उनका साद सदैव उसके साथ रहता है।’’
रावण और वेदवती के म य का आरं िभक संकोच समा हो गया था। दोन अब खुल कर
बात करते थे, हँसी-मजाक करते थे। इस िनजन वन- ांत म वे दोन ही एक दूसरे के सखा थे,
सहचर थे। दोन के कठोर साधना- त िशिथल हो गये थे। एक दूसरे के साथ समय िबताना दोन
को अ छा लगने लगा था। आज भी ऐसे ही दोन आपस म िठठोली करते हये वन म िवचर रहे थे।
‘‘अ छा उस िदन आप कह रहे थे िक इसके एक ही वार से आप परू ा व ृ िगरा सकते
ह?’’
‘‘ठीक ही कह रहा था।’’
‘‘तो िगरा कर िदखाइये!’’ वेदवती ने चुनौती के वर म कहा।
‘‘बताइये कौन सा?’’
‘‘वो ... वो वाला, जो सबसे ऊँचा िदखाई दे रहा है।’’ वेदवती ने एक खबू ऊँचे साल के
व ृ क ओर संकेत करते हये कहा।
रावण चं हास को थाम कर ढ़ कदम से धीरे -धीरे उस व ृ क ओर बढ़ा। उसने यान
से व ृ को देखा। च हास य िप बहत ल बी थी, एक सामा य ी क ऊँचाई से कुछ ही कम,
िफर भी व ृ का घेरा उससे पया बड़ा था। रावण ने ि से ही उसे नापा िफर झुकाव क िवपरीत
िदशा म जाकर खड़ा हो गया।
‘‘दूर हट जाओ या आकर इधर मेरे पीछे खड़ी हो जाओ।’’
‘‘म पया दूर हँ।’’ वेदवती को िव ास नह था िक इतने िवशाल घेरे वाला व ृ कृपाण
के एक वार से िगराया जा सकता था। िफर भी वह थोड़ा और पीछे हट गई।
रावण ने चं हास उठाई और जोर से हंकारी भरते हये दाय से बाय भरपरू वार कर िदया।
चं हास तने के आर-पार हो गयी थी िक तु िफर भी तने का व ृ के झुकाव क तरफ का लगभग
एक हाथ िह सा जो चं हास के वार क प रिध से बाहर रहा था िहलगा रह गया था।
‘‘नह िगरा!’’ वेदवती ने िवजेता के से वर म ताली बजायी।
रावण को वेदवती क आवाज ही सुनाई दी। उसके और वेदवती के बीच म वह िवशाल
व ृ था। उसने चरमराते हये व ृ म पीछे से एक भरपरू ध का िदया तो व ृ झटके से नीचे झुकता
चला गया। चड़-चड़ क आवाज सुन कर वेदवती च क और झुकते हये व ृ को देख कर पीछे
भागी िक तु व ृ क ऊँचाई उसके अनुमान से काफ अिधक थी। खड़ा हआ व ृ उतना ल बा
समझ नह आ रहा था िजतना िक वा तव म वह था। वेदवती परू ी शि से भागने के बाद भी
िकसी दै याकार ग ण के डैन सी फै ली उसक ल बी-ल बी डािलय क चपेट म आ ही गयी।
एक जोर क चीख सुनकर रावण उसक ओर भागा। वेदवती व ृ क डािलय -प के
नीचे दबी था। रावण को लगा जैसे उसक साँस क जा रही हो। पास जाकर जब उसने देखा िक
गनीमत हई थी, वेदवती िकसी मोटी डाल क चपेट म नह आई थी। िफर भी प और पतली-
पतली टहिनय ने उसके परू े शरीर पर चाबुक क तरह वार िकया था। पर पैर म अिधक चोट
होनी चािहये। एक अपे ाकृत मोटी टहनी दोन पैर पर से होते हये उसे दाबे थी। रावण ने एक
हाथ से डािलय को उचका िदया और उसे बाहर िनकलने का इशारा िकया। वेदवती ने कमर से
उचक कर हथेिलयाँ जमीन पर िटकाई ं और जोर लगाकर िनकलने का यास िकया पर इस
यास म ही उसक चीख िनकल गई। रावण ने अपने दूसरे हाथ से झुककर उसक भुजा पकड़ी
और पकड़ कर बाहर ख च िलया। वेदवती क चीख क उसने परवाह नह क ।
अब वेदवती व ृ से बाहर थी।
‘‘तु ह मरने क िवशेष शी ता है या?’’ दोन म से िकसी ने यान नह िदया िक आज
पहली बार रावण के मुख से उसके िलये अनायास तुम िनकल गया है।
वेदवती ने आँसुओ ं से भीगा मुख उठाकर कातर ि से उसे िनहारा। रावण का सारा
गु सा उसके आँसुओ ं के साथ बह गया। इस बार वह कोमलता से बोला -
‘‘कभी शेर के आगे कूद जाती हो, कभी िगरते व ृ के नीचे लेट जाती हो भला या है
यह? मने कहा था तुमसे िक दूर हट जाओ।’’ उसके वर म झुंझलाहट अभी भी थी - ‘‘देखो िफर
से िकतनी चोट लगा ली।’’
‘‘म तो दूर ही थी िक तु व ृ ही िगरते-िगरते दूना ल बा हो गया।’’
ू सा जवाब सुनकर रावण के मुख पर अनायास ि मत खेल गई। उसने
उसका मासम
हाथ बढ़ा कर उसक हथेली थाम ली और ख चते हये बोला-
‘‘उठने का यास करो।’’
वेदवती क िफर चीख िनकल गई। वह रावण के जोर से खड़ी तो हो गयी िक तु खड़े
होते ही दोन हाथो से रावण क कमर को कस कर पकड़ कर हाँफने लगी - ‘‘नह ! म नह
खड़ी हो पाऊँगी।
रावण ने अपनी भुजाओं क पकड़ उसक पीठ पर कसते हए उसे थाम िलया। िफर बोला
-
‘‘देखा िशव के च हास का अपमान करने का प रणाम!’’
वेदवती कुछ नह बोली बस आँसुओ ं से भीगी आँख उठाकर रावण क आँख म झाँका।
वह कस कर रावण से िलपटी हाँफ रही थी। िलपटी या, वह एक तरह से रावण क भुजाओं म
ू रही थी। उसके पैर ढीले पड़े था, शायद वे अपना वजन नह सहन कर पा रहे थे।
झल
‘‘ वयं को ि थर करो’’ कहते हये रावण ने अपनी पकड़ जैसे ही जरा सी ढीली क वह
िफर कराह कर नीचे िफसलने लगी।
‘‘मुझे िबठाल दो, म खड़ी नह हो पाऊँगी।’’
रावण ने उसे आिह ता से नीचे बैठा िदया। िफर उसने उसके पैर को एिड़य के पास से
पकड़ कर एक-एक कर ऊपर नीचे िकया। हर बार वह तड़प कर कराह उठी पर पैर मुड़ रहे थे,
सीधे भी हो रहे थे।
‘‘कोई गंभीर बात नह है। कोई टूट-फूट नह है। बस ऊपरी चोट है, आसानी से ठीक हो
जायेगी।’’ रावण ने उसे िदलासा दी।
‘‘िक तु अपार क हो रहा है। अभी तुमने जब पैर िहलाये तो जैसे जान ही िनकल गयी
थी।’’
वेदवती आज भी वही धोती पहने थी जो इस सब म अ त- य त हो गयी थी। कई जगह
से फट गयी थी। पैर मोड़ने के म म वह घुटन के बहत ऊपर आधी जंघाओं तक आ गई थी। उस
धोती के पीछे से उसका वार क भाँित उफनता यौवन झाँक रहा था। वेदवती को संभवत: पीड़ा
के चलते अपने व क अ त- य त ि थित का भान नह था पर उनसे बाहर िनकलने को
छटपटाता उसका यौवन रावण के संयम क जैसे परी ा ले रहा था। उसने अपनी िनगाह उसके
चेहरे पर केि त कर दी।
कुछ पल वह यँ ू ही सा वना क बात करता रहा। वेदवती क साँस क गित धीरे -धीरे
सामा य हो चली थी।
‘‘चलो अब उठने का यास करो।’’
‘‘नह ! म नह उठ पाऊँगी।’’ वेदवती जैसे उठने के नाम से ही भयभीत हो गई थी, उसने
िसर िहलाते हये कहा।
‘‘उठना तो पड़े गा ही। उठो ...’’ उसने खड़े होते हये अपना हाथ बढ़ा िदया। वेदवती ने
हाथ पकड़ िलया तो रावण ने हाथ ख च कर उसे खड़ा कर िदया। वह िफर जोर से कराह उठी।
रावण ने उसे बगल से पकड़ कर थाम िलया िफर धीरे से उसका वजन उसी के पैर पर छोड़ते हये
कहा - ‘‘पैर पर भार सहने का यास करो।’’
वेदवती इस बार कराहती हई अपने पैर पर िटक गयी। उसने अपने ओंठ कराह रोकने
के िलये दाँत से दबाये हये थे। उसका िसर वयमेव रावण के व पर िटक गया और वह जोर-
जोर से साँस लेने लगी।
रावण ने अपना बायाँ हाथ बगल से िनकाला और सामने से दूसरी तरफ लाते हये उसक
बाय भुजा थाम ली। वह दूसरी ओर झुकने लगी, वैसे ही रावण ने अपनी दाय भुजा उसक पीठ
पर से ले जाते हये उसक दािहनी भुजा पकड़ कर उसे थाम िलया - ‘‘चलो, अब पैर बढ़ाने का
यास करो।’’
‘‘मुझसे नह होगा।’’ उसने िफर कराहते हये कहा।
‘‘तो या यह बैठे रहने का इरादा है?’’
‘‘जब नह चला जाता तो या क ँ ?’’ इस बार वेदवती भी झुंझला पड़ी।
‘‘अरे यास तो करो, कुिटया तक कैसे चलोगी?’’
‘‘उस िदन कैसे ले गये थे?’’
‘‘उस िदन तो तुम अचेत थ !’’
‘‘आज भी हई जाती हँ।’’ इस पीड़ा म भी उसने शोखी से कहा और आँख बंद कर अपने
शरीर को ढीला छोड़ िदया।
रावण हँस पड़ा। उसने एक ण सोचा िफर धीरे से उसे गोद म उठा िलया। उसे एक हाथ
से ही साध कर धीरे से दूसरे हाथ से चं हास थाम िलया और कदम बढ़ा िदये।
कुछ कदम बढ़ते ही वेदवती ने आँख खोल द । बोली -
‘‘मुझे बचपन म जब चोट लग जाती थी तो िपता भी ऐसे ही गोद म उठा लेते थे और ...’’
कहते हये उसने अपनी बाह रावण के गले म िपरो द - ‘‘म ऐसे उनके गले म बाह डाल देती थी।’’
‘‘तो म तु हारा िपता हँ?’’ रावण ने तुनकते हये कहा।
‘‘मुझे नह पता िक तुम मेरे या हो? िक तु मुझे तुम अ छे लगते हो।’’
‘‘िफर या करते थे तु हारे िपता? रा ते म कह पटक देते ह गे िक चल अब अपने पैर
पर!’’
‘‘पटक य देते भला?’’ ितरछी नजर से रावण को देखते हये वेदवती बोली - ‘‘वे तो
यार से मेरे कपोल पर चु बन ले लेते थे।’’
‘‘ऐसे?’’ रावण ने उसके कपोल पर चु बन लेते हये कहा।
‘‘िबलकुल ऐसे ही!’’
‘‘एक ही ओर लेते थे?’’
‘‘नह !’’ कहते हये उसने दूसरा गाल भी सामने कर िदया।
रावण ने दूसरे गाल का भी एक गाढ़ चु बन ले िलया।
कुछ देर वह रावण क आँख म आँख डाले अजीब सी िनगाह से देखती रही िफर
अचानक उसने अपनी बाह रावण के गले म कस द और अपने ओंठ रावण के ओंठ पर रख िदये।
कुिटया पर पहँच कर रावण ने उसे िलटा कर खोज कर बिू टय का लेप बना कर उसके
पैर पर लगा िदया। जब वह कुछ सामा य हई तो रावण लौटने को उ त हआ तो वेदवती ने उसे
रोक िलया।
और िफर उस रात कृित का पु ष से िमलन हो ही गया।
66. मंगला का पलायन
उसी िदन से िजस िदन वेद ने िपता से मंगला के महामा य जाबािल के यहाँ पढ़ने जाने
क बात क थी घर म उथल-पुथल मची हई थी। जैसा अपेि त था वैसा ही हआ था, बि क उससे
भी बुरा। उसी ण से अ मा ने मंगला के हाथ पीले करने क अिनवायता क घोषणा कर दी थी।
मंगला, वेद और उनक भाभी तीन ही डाँट-फटकार क आशा कर रहे थे। उनके दय म कह
एक आशा क िकरण भी साँस ले रही थी िक शायद बाबा अ मा को भी राजी कर ही ल। बाबा
ोिधत तो हये थे िक तु यह समझाये जाने पर िक यह ताव वयं महामा य ने िदया है, वे
थोड़ा नरम पड़ गये थे। उ ह ने अ मा से बात करने का आ ासन दे िदया था।
उ ह ने अपने कहे अनुसार ही अ मा से बात भी क थी और बात करते ही अ मा फट
पड़ी थ । उ ह ने उसी ण घोषणा कर दी थी िक बस अब और नह , त काल कोई वर खोज कर
मंगला का िववाह कर िदया जाये। यह घोषणा मा घोषणा ही नह थी, आदेश था बाबा और मंगला
के सबसे बड़े भाई के िलये। भाई का मत भी इस िवषय म पण ू त: अ मा के ही साथ था। मंगला
बहत रोई थी िक तु अ मा ने एक नह सुनी थी। वे बस इतना ही बोली थ ‘‘िनणय हो गया सो हो
गया। हम अपने कुल क नाक नह कटवानी। कुल के आचार क र ा का भार हमारी सास हम
स प कर गयी ह और हम अपने ाण रहते इसे आँच नह आने दे सकत ।’’ इतना कहकर वे
मंगला को रोता छोड़ कर चली गय थ और उस िदन देर रात तक काम के नाम पर बतन को
पटकने क आवाज आती रही थ । मंगला ने िवरोध म रात म खाना भी नह खाया था िक तु
इससे अ मा के िनणय पर कोई असर नह पड़ा था। िपता ने रात म पछ ू ा भी था िक मंगला ने
खाना खा िलया अथवा नह िक तु अ मा ने यह कहते हये िक पड़ी रहने दो, एक जन ू भखू ी
रहने से मर नह जायेगी, बात का पटा ेप कर िदया था। दूसरे िदन भाभी ने समझा-बुझा कर उसे
खाना िखला िदया था।
उस िदन के बाद से अ मा चाहे कुछ भी भलू जाय िन य भोर बाबा को वर तलाशने क
याद िदलाना और रात म तलाश िकतनी कामयाब हई इसक जानकारी लेना नह भल ू ती थ ।
बाबा को मंगला से सहानुभिू त थी, वे िकसी न िकसी बहाने बात को टालने का य न करते थे
नतीजे म रोज दोन क झड़प होती थी और बाबा चुपचाप खाना खाकर बाहर िनकल जाते थे।
भाई क मंगला से कोई दु मनी नह थी िक तु उसे प रवार क नाक अिधक यारी थी।
एक माह बीतते न बीतते उसने मंगला क बात एक जगह प क भी कर दी थी। लड़के का नाम
ल मीदास था। उसका िपता अ यंत स प न विणक था। ल मीदास को िमलाकर वे छ: भाई थे
िजनम ल मी का म तीसरा था। बड़े दोन भाइय के िववाह हो चुके थे। उनक औलाद भी थ ।
जैसे ही भाई ने घर पर सच ू ाघर म जाकर भोलेनाथ के चरण म
ू ना दी थी, अ मा ने पज
िसर रख िदया था और फौरन साद चढ़ाकर परू े मोह ले म बाँटा था। मंगला ने साद लौटा िदया
था। उसने भी प घोषणा कर दी थी िक उसे यह िववाह नह करना। केवल बाबा और भाभी ने
ही उसक ओर देखा था, कुछ समझाना भी चाहा था िक तु अ मा के भय से दोन को ही साहस
नह हआ था। अ मा ने तो उसक बात पर कान ही नह िदया था।
इस बात को आज तीसरा िदन था। मंगला ने उस िदन से खाना भी नह खाया था। बस
पानी पी रही थी। भाभी िकसी तरह िदन म एक दो-बार उसे मना कर, अपनी सौगंध देकर, खुद
भी न खाने का वा ता देकर, दूध िपलाने म अव य सफल हो गई थी िक तु उसे समझ नह आ
रहा था िक यह कब तक चल पायेगा। अ मा तो जैसे मंगला क श ु ही हो गयी थ । वे अकेले म
तो छुप कर रो लेती थ िक तु सामने उनका चेहरा हर समय तना ही रहता था। ऐसा लगता था
जैसे मंगला के िनराहार रहने से उ ह कोई फक नह पड़ता था।
आज साँझ को जैसे ही बाबा लौटे थे, अ मा ने उ ह पानी देते हये सवाल दाग िदया था -
‘‘पंिडत जी से बात हई?’’
‘‘वेद क अ मा! य इतनी उतावली मचाये हो। उसक याह क आयु तो हो जाने दो।
उसे मन तो बना लेने दो।’’
‘‘और कब होगी याह लायक, बुढ़ापे म? बारह वष क तो हो गयी है।’’
‘‘बारह वष क आयु भी कह िववाह क आयु होती है? िफर मन से तो वह अभी िनरीह
क या ही है।’’
‘‘तो या हो गया? देख नह रहे कैसी ताड़ ऐसी बढ़ रही है? अ छा वर िमल रहा है,
शी ता से ितिथ तय करो और याह दो। जब तक ये यहाँ रहे गी, यही कलेस मचाये रहे गी।’’
मंगला जो अब तक कमरे म थी यह वाता सुनकर िनकल आई थी। आते ही वह बीच म
बोल पड़ी -
‘‘मुझे नह करना है िववाह।’’
‘‘तो या सारे जीवन हमारी छाती पर मँग
ू दलेगी?’’ अ मा चीख पड़ ।
‘‘म ऐसे यि से ही िववाह क ँ गी जो पढ़ा-िलखा हो, जो मुझे भी पढ़ा सके या पढ़ने
म सहायता कर सके।’’
‘‘तू समझती य नह बेटा? ऐसा नह हो सकता’’ िपता ने िफर समझाना चाहा।
‘‘ य नह हो सकता बाबा? या परू े समाज म कोई भी ऐसा लड़का नह िमलेगा जो
मेरी बात को समझ सके?’’
‘‘ये ऐसे नह मानेगी। लात के भतू बात से नह मानते।’’ कहते हये मंगला क माँ ने
उसक चोटी पकड़ ली और झकझोरने लगी - ‘‘अब जो एक बार भी मँुह से न िनकली तो काट
कर गाड़ दँूगी।’’ कहने के साथ ही उनक आँख म आँसू आ गये। मंगला क यह हठ उ ह बहत
अखर रही थी। उ ह बार-बार ोध आ रहा था। हालांिक समझ खुद मंगला को भी नह आ रहा था
िक उसम इतनी िह मत कहाँ से आ गयी, जो वह इस तरह से सबके सामने डट कर खड़ी हो
सक है।
‘‘अरे रे रे रे ...! यह या कर रही हो? बड़ी हो गयी है िबिटया, उसे धीरे से समझाओ।’’
मंगला के िपता अपनी प नी क इस हरकत से अचकचा गये, उ ह ने अपनी प नी का हाथ
पकड़ते हये कहा।
‘‘आप तो रहने ही दीिजये। आप ही ने तो िसर चढ़ाया है इसे जो ऐसी अनोखी टेक िलये
बैठी है। अभी वो ब ची थी अब बड़ी हो गयी है।’’
बड़ी मुि कल से मंगला के िपता मंगला को उसक माँ से छुड़ा पाये।
‘‘तो िफर आप ही समझाइये इसे िक टेक छोड़ दे। जैसा यह चाहती है वैसा लड़का
कोशल म तो कह नह िमलेगा।’’
‘‘तो मत क िजये न मेरा िववाह। म ऐसे ही रह लँग
ू ी।’’
‘‘म ऐसे ही रह लँग
ू ी और सारी िबरादरी म हम थुकवायेगी। नह करना िववाह तो मर
जाके कह । जीवन भर तो तुझे िबठा कर नह िखला सकते हम।’’
‘‘ या कह रही हो मंगला क माँ? तु ह तिनक भी संकोच नह िक तुम अपनी पु ी से
बात कर रही हो! अ छा अब तुम चुप करो और जाओ भीतर। मेरी बेटी मेरे िलये बोझ नह है। म
िखला लँग
ू ा उसे जीवन भर।’’ कहते हये िपता ने मंगला को अपनी बाह म समेट िलया। उनक
आँख म भी आँसू झलक आये थे।
‘‘हाँ िबठाये रखो, कटवाओ नाक परू े नगर म।’’ कहती हई माँ तमतमा कर रोती हई
दूसरे क म चली गयी। मंगला क भाभी भी, जो चुपचाप सारा वातालाप सुन रही थी, उ ह के
साथ चली गयी। िपता-पु ी अकेले रह गये क म।
‘‘बाबू जी आप रो रहे ह। बहत दुःख दे रही हँ म आपको?’’ मंगला बोली। अभी तक
उसके मन म िपता के िलये जो आ ोश था िक उ ह ने उसे पढ़ने नह िदया, उनके आँसुओ ं के
साथ िपघल कर बह गया था।
‘‘अपनी िववशता पर रो रहा हँ बेटा। म तो वयं चाहता हँ िक अपनी बेटी को िजतना वह
चाहे पढ़ने दँू िक तु मनीिषय ने तो ि य का पढ़ना िनषेध कर रखा है। बता म या क ँ ?
सबके िव तो नह जा सकता न म! इन प रि थितय म कौन गु पढ़ायेगा तुझे। जो भी तुझे
पढ़ायेगा उसे उसके शेष िश य छोड़ नह जायगे? और िफर सारा समाज भी तो उसके िव
खड़ा हो जायेगा। उसका अपने का जीना मुहाल हो जायेगा।’’
‘‘बाबा महामा य कह तो रहे ह िक वे मुझे पढ़ायगे। कोशल म महामा य का िकतना
स मान है या आप नह जानते?’’
‘‘िबिटया तो य उनका भी स मान न करने पर तुली है। िजस िदन से वे तुझे दी ा
दगे, नगर म उनका स मान भी न हो जायेगा।’’
‘‘आप भी बाबा अ मा क ही भाषा म बोलने लगे। महामा य का स मान य न हो
जायेगा भला? सारी दुिनया तो अ मा के जैसे ही नह सोचती होगी।’’
‘‘सोचती है पु ी। तू हठ छोड़ दे, म िकसी तरह से तेरी अ मा को समझा लँग
ू ा, अभी तेरा
िववाह नह होने दँूगा।’’
‘‘म या कोई अनुिचत हठ िकये हँ? जाने िकतने लड़िकयाँ मेरे समान पढ़ना चाहती
ह गी! जाने िकतने िपता आपक तरह अपनी क याओं को पढ़ाना चाहते ह गे! समाज और
ा ण के भय से वे साहस नह कर पाते। आज महामा य हम सहारा देने को त पर है, महामा य
के होते कोई कुछ नह कह पायेगा। म बढ़ँ गी तो सारी लड़िकय क राह खुल जायेगी।’’
ू े जगत यवहार देखा नह है इसिलये आशावादी है। तुझे
‘‘बेटी! तू अभी ब ची है। तन
पढ़ाना आरं भ करते ही महामा य भी अकेले पड़ जायगे। कुछ नह कर पायगे वे। वे अकेले ह गे
और सारा ा ण समुदाय एक ओर होगा। ा ण ही य , ा ण से भी पहले हमारे ही अपने
लोग हमारे िव ह गे। या पता कल पंचायत हम िबरादरी से बाहर ही कर दे। सब कुछ सोचना
पड़ता है िबिटया।’’
मंगला कुछ नह बोली, बस बैठी िससकती रही।
‘‘आज तक ऋिष क याओं को अथवा राजक याओं को छोड़कर कोशल म िकसी क या
ने गु कुल का मुख नह देखा। मनु महाराज ने यह िनषेध य लगाया था मुझे नह ात। इसके
िव उ ह ने िकसी द ड का भी िवधान िकया है या नह मुझे नह ात। िक तु हमारा समाज
अंधा-बहरा है। वह न कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न समझता है, उसने तो बस बंद आँख से
एक बार जो र जु (र सी) पकड़ ली है, बस उसे ही पकड़े अँधेरे म चला जा रहा है। वह न तो वयं
उस र जु से अलग माग खोजने को त पर है न िकसी अ य को ऐसा करने देता है, िफर भले ही
सब कुएँ म िगर या खाई ं म।’’
इतने म ही अ मा िफर वापस आ गय । आते ही वे इस बार अपे ाकृत शांत वर म बोल
-
‘‘समझा िलया अपनी दुलारी को? आया कुछ समझ म?’’
िकसी ने कोई उ र नह िदया तो अ मा पुन: बोल -
‘‘एक बात आप भी समझ ल और यह भी समझ ले, आती सहालग म इसका िववाह होना
है और इसी लड़के से होना है। िफर इसके ससुराल वाले इसे पढ़ाएँ चाह कुएँ म झ क द, हम नह
कुछ कहना।’’
‘‘ या अनगल बात करत हो तुम भी वेद क अ मा? शांित से समझा तो रहा हँ म,
समझ जायेगी। तुम अपने मन को समझाओ और शांित से सोओ जाकर।’’
ू े, मने कुछ कहा?’’ अ मा मंगला क ठोढ़ी िहलाते हये बोल । िफर अपने पित
‘‘सुना तन
से बोली-
‘‘ये कुछ नह समझने वाली, इसक मित िफर गई है।’’
‘‘अ छा तुम जाओ अब।’’ िपता ने कुछ तेज वर म कहा।
‘‘म तो जा रही हँ िक तु इतना समझ लो यिद भली लड़िकय के जैसे मानी नह िववाह
के िलये तो िफर इसके िलये कोई थान नह है मेरे घर म। जहाँ इ छा हो मरे जाकर।’’ कहते-
कहते वे िफर रोने लग - ‘‘िवधाता! िकस जनम के पाप का फल िदया हम ऐसी बेटी देकर?’’
मंगला के िपता ने कुछ कहा नह , बस ोध से उ ह घरू कर देखने लगे। पता नह उस
ि को समझ कर या अपने आप ही अ मा उठ और प लू से आँसू प छते हये चली गय ।
दूसरे िदन घर म हाहाकार मच गया। मंगला कह नह िमल रही थी। रात म पता नह
िकस समय वह चुपचाप कह िनकल गयी थी। यह ऐसा मसला था िजसके िवषय म िकसी से कुछ
कहा भी नह जा सकता था। सारे नगर म चुपचाप सुराग िलया गया िक तु उसका कह कोई
िच ह नह था।
67. च नखा-िव ुि ज ह
‘‘इतना िवल ब कर िदया आने म! जाओ म तुमसे बात नह करती।’’ यह च नखा थी।
उसका यौवन उसके भीतर िहलोर मार रहा था। अब वह कुछ वष पहले वाली कोई अ हढ़ बािलका
नह रही थी, पण ू यौवना हो गयी थी। भाइय का अंकुश उस पर था नह । एक भाई वष से लंका से
दूर था, दूसरा महाआलसी, सदैव नशे क सनक म रहता था और तीसरे को अपने धम-कम और
राज-काज से ही अवकाश नह था। भािभय को उसक गितिविधय का पता ही नह चलता था,
चलता भी तो वह उनका अंकुश मानने को त पर ही कहाँ थी। मातामह और मातुल कभी लंका म
तो कभी रावण के साथ। लंका म होते भी थे तो उनक अपनी इतनी य तताएँ होती थ िक वे उस
पर कोई यान नह दे पाते थे। िफर वह सबक िवशेष दुलारी भी तो थी, उ ह लगता ही नह था
िक वह इतनी बड़ी हो गयी है िक उसक यौवन क उमंग उछाल मारने लगी ह। िफर र म आय
क तरह कुमा रय पर कोई बंधन भी तो नह थे। वह व छं द रमण करती थी। इस समय वह
कालकेय िव िु ज ह के साथ थी। उसे वह बहत अ छा लगता था। िन य ासाद के बाहर के
िवशाल उपवन म उनका िमलन होता था।
‘‘कहाँ िवल ब कर िदया, म तो समय से ही आया हँ। देखो व ृ क छायाएँ उतनी ही
बड़ी ह अभी िजतनी कल थ ।’’ िव िु ज ह ने सफाई देते हये कहा।
‘‘नह ! कल से बड़ी हो गयी ह आज।’’ च नखा ने भी उतनी ही िढठाई से अपनी बात
रखी।
‘‘अ छा चलो मान ली गलती, राजकुमारी जी! देखो कान पकड़ िलये मने, अब तो माफ
कर दो।’’
च नखा दौड़ कर उससे िलपट गयी। िफर उसक आँख म झांकती हयी कृि म
उपाल भ के वर म बोली -
‘‘बड़े नाटक हो। कभी ोध करने का मन हो तो करने ही नह देते।’’
‘‘अरे ! ोध करने के िलये तु हारे अधीन इतने अ य यि ह तो, िफर इस सेवक पर
ोध य करना चाहती हो? इसे अपने ोध के ताप से बचा ही रहने दो ना मेरी यारी!’’ उसने
च नखा को बाह म बाँध कर उठा िलया। च नखा उसके गले म बाह डाले अधर म झल ू ती रही
िफर उसने उसके कंधे पर िसर रख िदया और आँख ब द कर बोली -
‘‘जाओ मा कर िदया।’’
‘‘कह ऐसे मा िकया जाता है?’’
‘‘लो!’’ च नखा ने अपने अधर उसके अधर पर रख िदये और एक गाढ़ चु बन के
बाद बोली - ‘‘ स न?’’
‘‘इतना थोड़ा सा!’’ िव िु ज ह ने ब च क तरह ठुनकते हये कहा।
‘‘हाँ! अभी इतना सा ही। अभी तो स पण
ू िनशा शेष है।’’
‘‘अ छा थोड़ा सा और!’’
‘‘नह !! अ छा नीचे उतारो मुझे। इतना कस कर पकड़ते हो िक सब पसिलयाँ चरमरा
जाती ह।’’ रोष का अिभनय करती हई च नखा बोली।
‘‘जैसा आदेश मेरे दय क महारानी का!’’ अिभनय पवू क कहते हये िव िु ज ह ने उसे
नीचे उतार िदया। िफर एक व ृ क ओर इशारा करता हआ बोला- ‘‘आओ वहाँ बैठते ह।’’
दोन बैठ गये तो च नखा उसक गोद म सर रख कर लेट गयी। िव िु ज ह उसक
लट से खेलने लगा -
‘‘ये दुरा ही अलक मेघ क भाँित मेरे च मा को बार-बार ढाँक य लेती ह?’’
‘‘ये मेघ नह नािगन ह। िजसे डस लेती ह वह पानी भी नह माँग पाता।’’ च नखा
हँसते हये बोली।
‘‘अ छा? लो मने इ ह पकड़ कर िकनारे कर िदया। इ ह ने तो नह डसा मुझे।’’
ु , तु ह कैसे डसगी।’’ उसने िफर िव त
‘‘तु हारी तो पालतू ह ये िव त ु के गले म बाह
डाल कर उसे झुकाया और िफर उसके अधर पर अपने अधर रख िदये।
‘‘मन करता है िक अहोरा म ऐसे ही तु हारी बाह म लेटी रहँ।’’ चु बन के प ात वह
बोली।
‘‘तो लेटी रहो, िकसने रोका है।’’
‘‘घर तो जाना ही होगा। नह तो भािभयाँ यथ बात सुनायगी।’’
‘‘तो आओ िववाह कर ल िफर चलो मेरे साथ रसातल लोक।’’
‘‘ या? ये चलने क बात कैसे क तुमने?’’ च नखा च क कर उठ बैठी।
‘‘हाँ च ! जाना होगा। िपता का संदेशा आया है।’’
‘‘ य ? ऐसा या हो गया। तुम तो अभी बहत िदन तक कने वाले थे?’’
‘‘ य तो अभी मुझे भी नह पता। िक तु कुछ बहत आव यक है। संदेशवाहक ने कहा है
िक िपता ने अिवल ब बुलाया है और कारण उसे भी नह बताया, कहा िक मुझे ही बताएँ गे।’’
‘‘िफर! जाकर कह आ ही नह पाये तुम?’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? िव त
ु अपनी च के िबना भला जी सकता है?’’
‘‘नह ! मेरा मन जाने कैसा होने लगा है। मेरी धड़कन बढ़ गयी ह, देखो ...’’ उसने
िव त
ु का हाथ पकड़ कर अपने व पर रख िलया।’’
‘‘तो कह तो रहा हँ िक चलो मेरे साथ।’’
‘‘पर िबना भाई क अनुमित के कैसे चल सकती हँ?’’
‘‘तु हारे भाई तो अ त यान ही हो गये ह। िकतना तो समय हो गया आये ही नह ।’’
‘‘हाँ! शेष सभी लोग लौट आये, बस वे वयं ही पता नह कहाँ क गये ह। मातामह
बता रहे थे िक कैलाश े म एकाक तप या कर रहे ह।’’
अब तप या क कौन सी आव यकता पड़ गयी उ ह। इस समय तो उ ह सा ा य क
यव था देखनी चािहये थी। तप या करनी ही थी तो बुढ़ापे म करते रहते।
‘‘ या पता, कौन सा माद हो गया उ ह। िक तु उनक अनुमित के िबना म तु हारे
साथ जा भी तो नह सकती।’’
‘‘तो ऐसा करते ह िक िववाह अभी कर लेते ह, जब तु हारे भइया आ जाय तब उनसे
अनुमित लेकर आ जाना मेरे पास।’’
‘‘कब जाना है तु ह? तुम तो कह रहे हो िक िपता ने अिवल ब बुलाया है?’’
‘‘बस कल सायं अथवा परस ात: िनकल जाऊँगा। कल कुछ यहाँ क यव थाएँ ठीक
करनी ह।’’
‘‘िफर! कल-कल म कैसे हो जायेगा िववाह? वह भी भइया के िबना! िकतना यार
करते ह भइया मुझसे, िकतनी ठे स लगेगी उ ह? िकतनी धम
ू -धाम से करना चाहते ह वे अपनी
अकेली बहन का िववाह!’’
ू धाम से करगे तो तब जब वे आयगे? उनके आने के तो कोई ल ण ही नह
‘‘पर धम
िदखाई देते।’’
‘‘मातामह ही बता रहे थे िक उ ह ने एक वष का समय माँगा है। उसम से आधा तो
बीतने को भी आया।’’
‘‘िफर भी अभी आधे वष से अिधक का समय तो है ही और मुझे तो परस ही जाना है।’’
‘‘सो तो है, िफर भी ...’’
‘‘अब भी िफर भी? जब तक तु हारे भइया को अवकाश िमलेगा तब तक हम हो जायगे
ू े । िफर हो चुका िववाह!’’ हँसते हये िव त
बढ़ ु ने कहा।
‘‘कैसी बात करते हो? इस समय भी तु ह िठठोली सझ ू रही है।’’ च नखा ँ आसी हो
ु क छाती पर कई मु के जड़ िदये।
आई। उसने रोते-रोते िव त
‘‘तो या क ँ म, पकड़ कर ला तो सकती नह भइया को।’’
‘‘तो करो यह िक चलो हम अभी गंधव िववाह कर ल। िफर जब भइया आ जाय तो उनक
अनुमित से धम
ू धाम से भी कर लगे। जब तुम कहोगी तब आकर म तु ह िलवा जाऊँगा।’’
दोन राि म माला पहने ासाद म पहँचे। देखते ही म दोदरी च क गयी। बोली -
‘‘यह या है च नखे?’’
‘‘भाभी मने िव िु ज ह से िववाह कर िलया है।’’
‘‘ऐसे अचानक िकसी से कुछ पछ
ू ा भी नह , िकसी को कुछ बताया भी नह ? ऐसे होता
है िववाह?’’
‘‘मेरी माँ ने भी तो ऐसे ही िकया था।’’
‘‘माँ क बात दूसरी थी, तब तु हारे मातामह लोग िव णु से भयभीत छुपे-छुपे घम
ू ते थे।
िक तु तुम तो लंका के स ाट क दुलारी बहन हो। तु ह छुप कर िववाह करने क या
आव यकता आन पड़ी?’’
‘‘खबू कही भइया क आपने भी! उ ह जब तक िवजय से अवकाश िमलेगा तब तक तो
म बढ़ ू ी हो जाऊँगी। और तब पता नह वे मेरे िलये कौन सा ि लोक िवजयी लड़का खोजने लग।
मुझे तो मा िव त ु से ेम है सो मने इससे िववाह कर िलया।’’
‘‘कर िलया तो अब कर ही िलया। ठीक है, बैठो चल कर मेरे क म। म तु हारा क
नविववािहत युगल के अनु प यवि थत करवाती हँ। तु हारे िलये आभषू ण और व आिद क
यव था करवाती हँ, आओ! भीतर चलो।’’
‘‘नह भाभी! म क नह सकता, िपता ने अिवल ब बुलाया है। म अपनी अमानत
आपको स पे जा रहा हँ उिचत समय पर आकर ले जाऊँगा। तब तक सहे ज कर रिखयेगा, नह तो
लड़ाई हो जायेगी मेरी आपसे।’’
‘‘चले जाना, पर अभी भीतर चलो।’’
‘‘नह भाभी, िपता का आदेश ...’’
‘‘जब तुमने च नखा से िववाह कर ही िलया है तो अब म तु हारे गु जन क ेणी म
हँ’’ म दोदरी िव िु ज ह क बात काटते हये बोली - ‘‘अभी म य हँ, मेरा आदेश मानो िफर
िपता का आदेश मानना, म नह रोकँ ू गी।’’
िववश िव िु ज ह ने च नखा के साथ भीतर वेश िकया।
‘‘ नान करो पहले। म तब तक तु हारे िलये व ाभषू ण िनकलवाती हँ। यहाँ से तुम
रावण के बहनोई के अनु प मयादा से ही िवदा होगे।’’ म दोदरी ने नानगहृ क ओर संकेत
करते हये कहा। िफर च नखा से बोली -
‘‘तुम च िकसी अ य क के नानगहृ म नान कर लो। म तु हारे भी व ाभषू ण
िनकलवाती हँ। उिचत रीित से िवदा करना अपने पित को।’’
दोन को आदेिशत कर मंदोदरी चली गयी।
कुछ ही देर म उसने दोन क म लंका क नव-िववािहता क या और दामाद के
अनु प बहमू य व ाभषू ण रखवा िदये और बाहर से ही दोन को इसक सच
ू ना दे दी।
कुछ देर बाद लंका म उपि थत सारा कुटुंब सभा क म उपि थत था। च नखा और
िव िु ज ह क छटा देखते ही बन रही थी। कैकसी ने जी भर के दोन क दुआएँ ल । मंदोदरी,
व वाला और सरमा ने िविधपवू क तीन क आरती उतारी और ितलक िकया। परू े आडं बर के
बाद िव त
ु ि ज ह को जाने क अनुमित िमल पाई।
68. श बक
ू जाबािल का िश य
ू जाबािल के ासाद के ार पर था।
िनि त िदन, िनि त समय पर श बक
‘‘म श बक
ू ! महामा य को ....’’ ार खोलने आये प रचर क वाचक ि के उ र
म श बक ू ने उ र िदया। प रचर को स भवत: उसके आगमन क स भावना से अवगत करा
ू का वा य परू ा होने से पवू ही उसे साथ आने का संकेत
िदया था जाबािल ने, अत: उसने श बक
िकया ‘‘आओ।’’
जाबािल के आवास का मु य भवन मनु य के बराबर ऊँची एक पीिठका पर िनिमत एक
िवशाल ासादवत िनमाण था िजसम सम त सुिवधाएँ उपल ध थ । सम त सुख को याग कर
तप या करना जाबािल को अभी न था। वे ानी थे, ानिपपासु थे िक तु ान ाि के िलये
सुख-सुिवधाओं के याग के थान पर सुख-सुिवधाओं के ित आसि को यागने के प धर थे।
भोग म रहते हये भी उनके ित उदासीन रहने के आ ही थे। उनका मानना था िक कृित ने
भोग क उ पि उनके उपभोग के िलये ही क है। उ ह याग देना उनक ि म मख ू ता के
अित र और कुछ नह था।
मु य भवन के चार ओर उपवन था। मु य ार से भवन के ार तक आने के िलये
उ ह लगभग ढाई सौ पद क दूरी तय करनी पड़ी थी। प रचर मु य भवन के पास पहँचकर
दािहनी ओर घम ू गया और भवन के साथ-साथ बने माग पर चलता हआ, भवन क प र मा कर
िपछवाड़े के िवशाल उ ान म पहँच गया। शंबक
ू उसका अनुसरण कर रहा था। उ ान के ार पर
एक वटुक ने उसका वागत िकया। प रचर यह से वापस लौट गया।
वटुक के वागत म कह एक िहचक को शंबक ू ने प ल य िकया िक तु वह िबना
कुछ बोले उसका अनुसरण करता चला गया। िपछवाड़े का यह उ ान कम से कम एक बीघे म
फै ला हआ था। चार ओर िविभ न कार के लता गु म म मुकुिलत सुमन अपनी सुरिभ िबखेर
रहे थे। आम, अशोक, नीम, पीपल और भी न जाने िकतने कार के व ृ चार ओर अपनी छाया
िबखेर रहे थे। कुल िमला अ यंत सुरिभत और मनोरम वातावरण था।
उ ान के अंत म कुटीर जैसे आवास थे। कुटीर के पहले एक र थान था िजसके
म य म बने य कु ड म लकिड़याँ और सिमधा-साम ी अभी भी सुलग रही थी।
वटुक शंबक
ू को उ ह म से एक कुिटया म ले गया।
कुिटया म एक कुशासन पर जाबािल बैठे हये थे। उनके सामने तीन आसन और पड़े थे।
एक पर श बकू के मागदशक वटुक के समान ही एक वटुक बैठा था। र दोन आसन प है
एक श बकू के िलये था और दूसरा उसके मागदशक के िलये।
ू कुिटया के ार पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसके साथ आये वटुक ने
श बक
अपना आसन हण कर िलया था।
‘‘भीतर आओ व स!’’ जाबािल ने कहा।
ू ने वेश कर जाबािल के पैर पर सर रख कर णाम िकया।
श बक
‘‘आशीवाद! यश वी भव!’’ जाबािल ने आशीवाद िदया। िफर र आसन क ओर
संकेत करते हये बोले -
‘‘बैठो!’’
ू िझझकता हआ बैठ गया। उसके बगल म बैठा बटुक थोड़ा दूसरी ओर को िसमट
श बक
गया।
‘‘िसमटने क आव यकता नह है व स वेद ! अब तो यह िन य तु हारे साथ बैठेगा,
कहाँ तक िसमटोगे?’’ जाबािल ने उसे िझड़कते हये कहा। िफर वे आगे बोले -
‘‘आओ तु हारा पर पर प रचय करावा दँू - यह श बक ू है। अब से यह भी तु हारे साथ
िव ाजन करे गा। ... श बक
ू यह है वेद , और यह जो तु ह साथ लेकर आया है यह है िज ासु।’’
श बकू ने दोन क ओर हाथ जोड़ िदये। उ ह ने िसर िहला कर उसके अिभवादन को
मौन सहमित दी।
‘‘वेद और िज ासु! तुम दोन यह भलीभाँित समझ लो िक इस आ म के भीतर वण-
यव था नह चलती। यहाँ सभी िव ाथ ह। सभी एक समान ह। प हो गया न?’’
‘‘जी आचाय!’’ दोन ने कहा अव य िक तु वर म कोई उ साह नह था। प है िक
उ ह उसके शू होने के संबंध म ात था।
‘‘व स! सहज नह होगा तु हारा िव ाजन। धधकती अि न म वेश करने जा रहे हो।
कटार क धार पर चलना पड़े गा। यिद िटके रहे तो इितहास-पु ष बन जाओगे। तु हारा साहस
और धैय आयावत के सम त शू हे तु उ नित के ार खोल देगा। िक तु यिद तुम बाधाओं से
िवचिलत हो गये तो यह ार पुन: सह ाि दय के िलये बंद हो जायेगा। इितहास तु ह एक
पलायनकता कापु ष के प म याद करे गा।’’
‘‘यिद आपके आशीष का स बल मेरे साथ है तो म कदािप पलायन नह क ँ गा। बाधाएँ
मुझे िमटा भले ही द, पलायन के िलये े रत नह कर पायगी।’’
‘‘ई र करे तु हारी यह ढ़ता इसी भाँित बनी रहे । कल तु हारा य ोपवीत सं कार
स प न होगा।’’
जाबािल क बात सही थी। य ोपवीत के अगले ही िदन वेद और िज ासु के िपताओं ने
जाबािल से स पक िकया। ये दोन ही ा ण बालक थे। इनके िपताओं को अपने पु के साथ
एक शू के बैठने पर आपि थी। जाबािल ने उनक आपि को िसरे से नकार िदया। िज ासु के
िपता इससे असंतु होकर उसे अपने साथ वापस िलवा ले गये।
‘‘आचाय! यिद मेरे कारण अ य िव ािथय म असंतोष उ प न हो रहा है तो ...’’
‘‘तो या?’’ जाबािल ने उसका वा य परू ा नह होने िदया - ‘‘पहली परी ा म ही
अनु ीण हो रहे हो। मने पहले िदन ही या कहा था - धधकती अि न म वेश करने जा रहे हो।
अभी तो यह आरं भ है, अभी देखो और िकतने यवधान आते ह। इस सबके बीच तु हारा एक ही
कत य है िक अपने ल य के ित एकिन बने रहो। िव ाजन करते रहो। शेष यवधान के
िवषय म सोचने का काय मुझ पर छोड़ दो। वह तु हारा िवषय नह है।’’
‘‘िक तु आचाय िज ासु ...’’
‘‘उसके िलये सभी गु कुल के ार खुले ह। उसक कोई िचंता नह है। तु हारे िलये
यहाँ के िसवा कोई आ य नह है, और अयो या का महामा य अयो या क अिधसं य जनसं या
के थम ितिनिध को िव ा से िवरत नह रख सकता। समझ गये? अब इस िवषय म कोई शंका
या मुझे वीकार नह है।’’
‘‘जी आचाय!’’
दूसरे िदन श बक ू का आचाय क प नी से सामना हआ। उसने ा से उनके चरण
पश करने चाहे तो उ ह ने उसे दूर ही रोक िदया और आशीवाद दे िदया।
‘‘इनके यवहार से आहत मत होना व स! ये दय से तु ह नेह करती ह िक तु अपने
सं कार से िववश ह। स नाता ह इस समय तुम इ ह पश नह कर सकते।’’ जाबािल ने हँसते
हये बात सँभाली। ‘‘सहज भाव से इनके आशीवाद का साद हण करो। वह भिव य म तु हारे
बहत काम आयेगा।’’
‘‘जी आचाय!’’
आचाय प नी के दय म यिद कोई अ यथा िवचार थे भी तो उ ह ने उ ह कट नह
होने िदया था। पता नह यह पित का दबाव था अथवा पित के ित उनक िन ा। िक तु जो भी
था श बकू का िव ाजन चलने लगा।
एक माह भी नह बीता था िक नगर के ा ण ने महाराज के स मुख इस संग को
लेकर ितवाद तुत कर िदया। महाराज य िप महामा य के इस कृ य से संतु नह थे िक तु
िफर भी उ ह ने सीधे कुछ नह कहा बस करण गु विश को स प िदया िक वे इस िवषय म
जो भी स मित दगे वही मा य होगी।
‘‘मुझे महामा य के इस यास पर कोई आपि नह है। अिपतु म तो उनक इस पहल
का शंसक हँ। म देखना चाहता हँ िक महामा य का यह यास या प रवतन लाता है। मेरी
सम त शुभकामनाएँ महामा य के साथ ह।’’ गु देव ने जाबािल के प म अपनी सं तुित दे दी।
‘‘गु देव मा शुभकामनाएँ नह , जाबािल को आपके आशीवाद क भी आव यकता
है।’’
‘‘वह भी सदैव आपके साथ है महामा य! मेरी दय से यही कामना है िक आप अपने
उ े य म पणू सफल ह ।’’
यह अ जब िन फल हो गया तो ा ण ने दूसरे अ का उपयोग िकया। वे श बक ू
के िपता का कोई शारी रक अिहत करने क ि थित म नह थे, य िक उसे वयं महामा य का
संर ण ा था। वे अिहंसक, वेदपाठी ा ण थे अत: वयं तो आ मण कर नह सकते थे उनके
कहे से अ य जो कोई भी ऐसा यास करता वह िन य ही राजदंड का भागी बनता। अंतत:
उ ह ने श बक ू के िपता के िजजमान को भड़काना आरं भ िकया। यह यास बहत सफल हआ।
कुछ ही िदन म उ ह लगभग आधी िजजमािनय से हाथ धोना पड़ गया। यह आिथक आघात था
िक तु यह भी उनके िन य को भािवत नह कर पाया। ऐसे समय म िबरादरी मौन प से उसके
ू के िव ाजन क बल िवरोधी थी, अब उसे
साथ खड़ी हो गयी। वही िबरादरी जो पहले श बक
िबरादरी के गौरव के प म देख रही थी।
एक बार माग म कुछ ि य बालक ने श बक ू पर आ मण भी िकया। पया चोट भी
आई उसे। िक तु इस आघात ने उसके िन य को और ढ़ कर िदया। उन बालक क पहचान हो
गयी थी। जाबािल ने उ ह दंिडत नह िकया िक तु उनके अिभभावक को राजसभा म बुलवाकर
कड़ी फटकार लगायी और चेतावनी दी िक ऐसी घटना क पुनराविृ होने पर कठोर द ड िदया
जायेगा। िश ा के े म भेदभाव और िव ेष को पनपने नह िदया जा सकता।
सारे अ िवफल हो जाने पर परं परावादी ा ण ने ती ा करने का िनणय िलया।
जाबािल या अमतृ पान िकये हये ह। इनके उपरांत देख लगे।
इस कार संकट कटा नह था, बस टल गया था।
सारे िवरोध के बावजदू वयं महामा य जाबािल, श बक
ू और उसका िपता ढ़ता से
खड़े हये थे। उनक ढ़ता से अ य कई शू भी अपने बालक को भी गु कुल भेजने के िवषय म
सोचने लगे थे िक तु अभी साहस नह कर पा रहे थे। उहापोह म पड़े थे वे। उनके उहापोह के
साथ-साथ उनके बालक भी पढ़ने के ित उ साही नह थे।
िफर भी अगले वष एक और लुहार बालक ‘‘म डलीक’’ ने जाबािल के आ म म वेश
िलया। उसके आने के कुछ ही िदन म वेद ने भी आ म याग िदया। िक तु जाबािल को िचंता
नह थी। योित जल चुक थी। एक से दो हो गये थे... आगे और बढ़गे, उ ह िव ास था। न भी
होता तो वे उिचत कम को याग देने वाल म नह थे।
69. रावण-सुमाली-वे दवती
सुमाली ठीक एक वष बाद वह पहँच गया जहाँ उसने रावण को छोड़ा था। उसके साथ
ह त और व मुि भी थे। रावण उस कुिटया म नह था। उ ह ने चार ओर खोजा, थोड़ी ही दूर
पर एक दूसरी कुिटया के बाहर बैठा रावण उ ह िदख गया। वहाँ पहँचते ही वे च क कर रह गये।
रावण क गोद म एक छोटी से क या थी जो उसक छाती म दूध खोजने क यथ चे ा कर रही
थी। सामने एक िचता जल रही थी। रावण का मँुह उतरा हआ था जैसे उसका सब कुछ लुट गया
हो। बाल िबखरे हये, आँख लाल जैसे कई िदन से सोया ही न हो। बस शू य नजर से शू य म
ताक रहा था।
‘‘पु ! पु ! या हआ? या है यह सब?’’ सुमाली ने उसे झकझोरा।
रावण पर उसका कोई असर नह पड़ा। वह वैसे ही शू य म ताकता रहा। तो सुमाली ने
उसे और जोर से झकझोरा -
‘‘ या बात है व स? कुछ तो उ र दो।’’
इस बार रावण ने चेहरा घुमाकर उसक ओर देखा पर बोला कुछ नह बस ताकता रहा
जैसे पहचान ही न रहा हो।
सुमाली ने िफर झकझोरा िफर व मुि से बोला -
‘‘व मुि देखो कह से जल लेकर आओ।’’
सुमाली रावण को चैत य करने का यास करने लगा तब तक व मुि कुिटया से एक
पा म जल लेकर आ गया। सुमाली ने परू ा पा रावण के िसर पर उलट िदया।
रावण एकदम च क कर खड़ा हो गया। क या को सुमाली ने धीरे से उसके हाथ से
िनकाल िलया, वह बरबस रो उठी। सुमाली ने उसे ह त के हाथ म पकड़ा िदया। रावण उसे देख
कर अजीब से वर म कह उठा -
‘‘मातामह!’’
सुमाली ने उसे सीने से लगा िलया। उसके उलझे बाल को सहलाता हआ बोला -
‘‘ या हआ है पु ? कुछ बताओ तो सही!’’
‘‘वह चली गयी मातामह!’’ रावण ने वैसे ही वर म उ र िदया।
रावण क ि थित देख कर सबक आँख गीली हो गयी थ ।
‘‘कौन चली गयी? यह िचता िकसक है?’’
‘‘वे...वेद...वेदवती चली गयी, उसी क िचता है यह ...’’ रावण ने िचता क ओर हाथ
उठाते हये कहा। िफर हठाथ झटके से उसका हाथ िगर गया। उसक आँख से बहकर आँसू
कपोल को गीला करने लगे।
‘‘और यह क या िकसक है?’’
रावण को एकदम जैसे होश आया। उसने पहले अपने हाथ क ओर देखा िफर च क कर
चार ओर देखने लगा। ह त के हाथ म क या देख कर उसने झपट कर उससे ले ली।
‘‘यह क या िकस क है पु ?’’
‘‘हमारी मातामह! मेरी और वेदवती क !’’
‘‘ओह! अ छा चलो कुछ िव ाम कर लो।’’
‘‘नह ! अब कुछ नह बचा।’’
‘‘लाओ क या मुझे दे दो।’’ उसने रोती हई क या को उससे लेने का यास करते हये
कहा।
रावण ने थोड़ा िहचक िदखाई पर सुमाली ने उसके हाथ से क या ले ही ली। िफर वह उसे
बलपवू क ख च कर कुिटया म ले आया और िलटा िदया। यह वेदवती क कुिटया थी। िफर
व मुि और ह त को वन म जाकर कुछ फल आिद ले आने को कहकर वयं पु पक क ओर
चला गया।
लौट कर आकर उसने कोई बटू ी एक प थर पर िघसी और पानी म िमला कर रावण को
देते हये बोला -
‘‘लो इसे पी लो।’’
रावण ने कोई नह िकया, चुपचाप पा हाथ म ले कर पीने लगा।
थोड़ी देर वह ती ा करता रहा। रावण अब भी वैसे ही शू य म ताक रहा था। सुमाली
जैसे अपने आप से ही बोला ‘‘इतने समय म तो असर हो जाना चािहये था।’’
िफर उसने एक बार और वह बटू ी जल म िमलाकर रावण को िपलाई। थोड़ी देर म रावण
क आँख मँुदने लग ।
इसी बीच ह त और व मुि फल लेकर आ गये। व मुि एक िहरन का ब चा भी
बगल म दबाये था।
‘‘यह अ छा िकया व । रावण तो अभी बहत देर सोयेगा। सोयेगा तभी कुछ व थ होगा।
ऐसा करो एक जना देखो बाहर गाय बँधी है, थोड़ा सा दु ध यिद हो सके तो िनकाल लाओ।
क या को आव यकता तीत होती है। और िफर भोजन क यव था करो।’’
दोन अपने-अपने काम म लग गये और सुमाली क या को चुप कराने का य न करने
लगा। तभी ह त दूध लेकर आ गया। सुमाली ने थोड़ा सा पानी और थोड़ा सा दूध िमलाया िफर
ह त से बोला -
‘‘देखो पु पक म चालक क म कपास होगी थोड़ी सी ले आओ।’’
कपास ( ई) क सहायता से वह धीरे -धीरे परू े धैय से दूध क या के मुख म टपकाने
लगा। थोड़ी देर म वह सो गयी। सुमाली ने उसे धीरे से चटाई पर िलटा िदया। इससे िनव ृ होकर
वह व मुि क ओर घम ू ा और बोला -
तस ली से भन
ू ो मग
ृ -शावक को। आन द आ जायेगा इसे खाने म।
मश: ...