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राम-रावण कथा ख ड-एक

पवू पीिठका
उप यास
सुलभ अि नहो ी

अंजुमन काशन
इलाहाबाद
भिू मका
रामकथा भारत क जनता क रग म खन ू क तरह दौड़ती है। भारत म ही नह , ीलंका,
इंडोनेिशया, कंपिू चया, थाईलड, लाओस, बमा, मलेिशया, िफलीप स, नेपाल, ित बत, चीन,
मंगोिलया, जापान, तुक आिद देश म भी रामकथा िकसी न िकसी प म चिलत है या चिलत
रही है। इंडोनेिशया जैसे मुि लम रा म भी नाग रक परू े स मान से रामकथा आज तक सहे जे ह
और उसको पढ़ते ह। इसके साथ ही यह भी सही है िक इन िविभ न रामकथाओं के
कथानक म पया िभ नता है। कह सीता रावण क पु ी ह तो कह दशरथ क पु ी भी ह। कह
अंत म सीता का भिू म वेश है तो कह राम के पास वापसी भी है। बौ जातक म भी रामकथा
ा है। इनम बु बताते ह िक वही पवू ज म म ीराम के प म अवत रत हए थे। बौ मत से
भािवत कई रामकथाओं म िहंसा से बचने का यास िकया गया है। इनम राम रावण का वध न
कर मा दंड देकर छोड़ देते ह। इसी कार जैन-मत से भािवत रामकथाएँ भी उपल ध ह। इन
रामकथाओं म अनेक कथाएँ ऐसी भी ह जो तुलसी क रामकथा पढ़ते-सुनते बड़े हये हम लोग
के िलये िनतांत अ ा ह। इन कथाओं के अनेक संग हमम से बहत से आ थावान लोग को
उ ेिजत भी कर सकते ह।
िव म कुल िकतनी रामकथाएँ चिलत ह इसक गणना संभव नह है। िव म या
भारत म ही कुल िकतनी रामकथाएँ िलखी गयी ह इसक ही गणना संभव नह है। ामािणक प
से बस इतना ही कहा जा सकता है िक इन सम त रामकथाओं म सव थम महिष वा मीिक
णीत ‘रामायण' ही है। बाद क सम त कथाओं म, भले ही रचनाकार ने उनम अपनी क पना
क उड़ान से अनेक प रवतन कर िदये ह , मल ू त व वा मीिक रामायण से ही िलये गये ह। वतं
रामकथाओं के अित र हमारे पौरािणक ंथ म भी थान- थान पर रामकथाएँ िबखरी हयी ह।
वा मीिक के बाद क रामकथाओं म संभवत: सवािधक ाचीन और िस भी, महिष कंबन क
तिमल रामकथा है। रामकथा म प र कार का यास भी यह से आरं भ हो गया। कंबन ने अपनी
कथा म कई प रवतन िकये िक तु मेरी समझ म उनम सबसे मह वपण ू प रवतन रावण के च र
म है। कंबन का रावण अ यंत उदा च र है। उसक जा उससे यार करती है। कंबन से तुलसी
तक आते-आते रावण िव ान तो रह गया िक तु उसके यि व के उदा गुण का ास होता
चला गया। तुलसी के राम वा मीिक के राम क तरह मानव नह रहे , वे िवराट् का अवतार
हो गये। वे मा कथा के नायक नह तुलसी के आरा य भी ह। वाभािवक है िक आरा य के च र
का िच ण भ भि भाव से ही करे गा। ऐसे म नायक के च र को उठाने के िलये खलनायक
के च र को िगराना अप रहाय हो जाता है। वही हआ भी। तुलसी के राम मयादा पु षो म के प
म थािपत हए। इ लाम के वच व से आ ांत िह दु व ने तुलसी के राम म अपना उ ारक
खोजने का यास िकया और मयादा पु षो म राम भारत के जन-जन के आरा य बन गये। ...
और तब से आज तक रावण ितवष, हर गाँव-गली म ितर कारपण ू दहन का दंश झेल रहा है।
रामकथा से इतर रावणकथा िलखने का थम यास संभवत: आचाय चतुरसेन ारा
िस कृित ‘वयं र ाम:' के मा यम से हआ। वयं र ाम: मह वपण ू े
ू इसीिलये है िक समच
इितहास म पहली बार सम त घटना म को रावण के ि कोण से देखने का यास िकया गया।
तुलसी ने जहाँ जनमानस तक पहँचने के िलये भि को आधार बनाया वह आचाय चतुरसेन ने
ान और िव ता को। कालांतर म सामी जी ने अपनी पु तक ‘लंके र' के साथ यही यास
िकया। इस म म आनंद नीलकंठन ने सराहनीय यास िकया। उनक ‘असुर-
परािजत क गाथा' अपने आप म त यपण ू और तकपणू ढं ग से रावण के च र का ितपादन
करती है। इन तीन के अित र रावण के ि कोण से िलिखत अ य कोई रामकथा
कम से कम मेरे सं ान म नह आयी।
आधुिनक युग म रामकथा के े म सबसे सफल और सबसे मा य काय नरे
कोहली का रहा है। उनक नौ खंड म आई रामकथा खबू पढ़ी और सराही गयी। उ ह ने परू े
कथानक को एक िभ न ि कोण से देखने का यास िकया। नरे कोहली के राम, वा मीिक
के राम के समान ही, नह महामानव ह।
अमीश ि वेदी, आनंद नीलकंठन और बकर ने रामकथा म भी अपने हाथ आजमाये।
आनंद नीलकंठन का िज पहले ही कर चुका हँ। अमीश ि वेदी और बकर हाइटेक लेखक ह। ये
िवषय म बहत गहरे तो नह उतरे िक तु इनक सोच हाइटेक के साथ-साथ परं परागत
आ याि मक पवू ा ह से भी मु है।

मेरे इस कथानक का आधार िनि त ही वा मीिक रामायण है। सबसे ाचीन होने के
नाते उसे ही सवािधक ामािणक माना भी जाना चािहये। दूसरे वा मीिक के राम महामानव तो ह
िक तु वयं नह ह। वा मीिक रामायण को आधार प म हण करने म बस एक ही
सम या का सामना करना पड़ा और वह थी - स पण ू कथानक म से ि अंश को छानने क ।
िफर भी पवू कथाओं को आकार देने के िलये बहत हद तक म इ ह ि खंड पर आि त रहा
हँ। कारण प है - मल ू कथा म तो वे कथाएँ ह ही नह ।
हाँ! इस कथानक के लेखन म मुझे सवािधक िजस ने परे शान िकया, वह था िक
इसक भाषा या रखी जाय? सं कृतिन या आम बोलचाल क । अंत म मुझे यही उिचत लगा
िक कथा म आये िव त-वग क भाषा तो उनक ग रमा के अनु प ही होनी चािहये। उनके संवाद
म देशज और िवदेशी श द से यथास भव परहे ज रखने का यास िकया है। िफर भी यह यास
रहा है िक भाषा सामा य पाठक के िलये दु ह न हो जाए। शेष कथा क भाषा को सहज रखने
का ही यास िकया है।
- सुलभ अि नहो ी
मो. - 9839610807
sulabhagnihotri.kan@gmail.com
www.sulabhagnihotri.redgrab.com
कथासार
मेरी इस राम-रावण कथा म रावण िवलेन नह है। यह दो सं कृितय का टकराव है।
सारी योजना के सू धार, इ के िहतिचंतक नारद ह और उनके सहयोगी देवगण व ऋिष
समुदाय। योजना क जानकारी दशरथ क तीन रािनय और मंथरा को भी है।
कथानक का आरं भ चपला नाम क एक िकशोरी के रावण के मातामह (नाना) सुमाली
से टकराव से होता है। यही चपला भिव य क मंथरा है। सुमाली व तुत: िव णु ारा जान बचा कर
भाग रहा है। बीच म वह चपला के उ ान म अपने बचे-खुचे लोग के साथ शरण ले लेता है।
परू े कथानक म मु यत: समाना तर तीन कथाएँ चल रही ह। पहली सुमाली और िफर
रावण क कथा है। दूसरी देव क रावण से िनपटने के िलए िकए जा रहे यास क कथा है और
तीसरी दशरथ क कथा है। इ ही म गुंथी हई दो कथाएँ और चलती ह। पहली कथा गौतम-
अह या, आ िण-इ -सय ू -बािल-सु ीव, केसरी-अंजना-हनुमान के अंतस ब ध क कथा है और
दूसरी उस काल के आम आदमी को दशाने के िलए गढ़ी गयी परू ी तरह से का पिनक मंगला क
कथा है।
सुमाली क कथा म मश: िव णु ारा परािजत सुमाली का पलायन, अ ातवास,
अपनी पु ी कैकसी को िव वा से िववाह के िलए पे्र रत करना, रावणािद का ज म, उनक
तप या और रावण ारा वरदान ा करना, िव वा के परामश के अनुसार कुबेर ारा रावण के
िलए लंका छोड़कर अलकापुरी बसाना, सुमाली ारा कूटनीित से रावण और कुबेर के म य यु
क ि थित उ प न करना, रावण ारा अलका पर िवजय ा करना और पु पक छीन लेना,
कैलाश पर िशव से भट, िशव ारा रावण का मानमदन और रावण ारा उनक शरण हण
करना, वापसी म रावण ारा वयं जंगल म ककर सुमाली आिद को लंका वापस भेज देना और
एक वष बाद वापस आने को कहना, वेदवती से रावण क भट, दोन म णय, सीता का ज म,
वेदवती ारा अि न वेश, और सीता जनक को िमल जाने क कथा है। इसी म बीच म
रावणािद के िववाह, मेघनाद का ज म और च नखा-िव िु ज ह का संग भी शािमल है।
दूसरी कथा रावणािद ारा ा का आशीष ा कर लेने से िचंता त देव क कथा
है। एक बार सुमाली के हाथ वग गँवा चुके इ समझते ह िक इस सब के पीछे सुमाली क
कूटनीित काम कर रही है और ा क छ छाया म रावण िफर कभी भी उनसे वग छीन सकता
है। नारद; िजस कार सुमाली ने दीघकालीन योजना पर काम कर पुन: वैभव ा िकया उसी
कार इ को भी रावण को परा त करने के िलए दीघकालीन योजना पर काम करने को
कहते ह। वे बताते ह िक िनकट भिव य म दशरथ के पु प म राम का ज म होगा जो र का
समल ू नाश करे गा। िक तु राम इस काय म स म हो सक इसके िलए परू ी तैयारी देव को करके
देनी होगी। इसी सलाह के अनु प देव ारा अग य के नेत ृ व म दि णांचल म वनवािसय के
िलए गु कुल क थापना कर उ ह तैयार करना आरं भ कर िदया जाता है। दूसरी ओर नारद
समझते ह िक राम रावण को परा त कर सक इसके िलए उनका वनगमन आव यक होगा। भी
दशरथ राम को िकसी भी हालत म एकाक रावण से यु के िलए जाने नह दगे। इसके िलए वे
कैकेयी को िव ास म लेकर भिू मका बनाने लगते ह।
तीसरी कथा उ त युवा दशरथ के राजा बनने, वण कुमार वाली दुघटना, मश:
दशरथ का कौश या, कैकेयी और सुिम ा से िववाह, तीन सौ से ऊपर उप-पि नयाँ बनाना, राम,
ल मण, भरत, श ु न का ज म, और उनके बचपन क कथा है। इसी कथा म गुंथी हई महाराज
अ पित ारा अिववेक प नी का याग, और बािलका कैकेयी को मंथरा (पवू म चपला) के
संर क व म स पना, कैकेयी के बचपन के संग भी शािमल ह। तीन रािनय के आपसी संबंध
और उनके दशरथ से संबंध को भी उभारने का यास िकया गया है।
वा मीिक रामायण म दशरथ के मं ी के प म जाबािल का िच ण िकया गया है जो
बहत कुछ चावाक दशन से भािवत है। वा मीिक रामायण म दशरथ के मंि य म वही एक कुछ
थान पर मुखर होकर सामने आता है। मने महामा य के प म उसे पाियत कर उसके च र
को िव तार िदया है। जाबािल के साथ शंबक
ू क कथा भी जुड़ती है और जाबािल उसे िश य प म
हण करते ह।
कथानक के थम ख ड का समापन सीता के ज म से होता है। सुमाली रावण को
समझा बुझा कर सीता को ले जाकर उस भखू ंड म सुरि त आरोिपत करता िक वह तुरंत जनक
को ा हो जाए जहाँ कुछ ही देर म जनक प नी सिहत हल चलाने वाले होते ह। हाँ, सीता रावण
और वेदवती क पु ी ह। वा मीिक रामायण म सीता रावण ारा बल कृत वेदवती का अगला
ज म ह।
घटनाओं के िलए मने आधार प म वा मीिक रामायण को ही िलया है। इसिलए कई
थान पर हमारी मा यताओं को बात खटक भी सकती है। जैसे दशरथ का च र । वा मीिक
रामायण के अनुसार दशरथ क ३५० उप पि नयाँ ह। जब िव ािम य र ा हे तु राम को दशरथ
से माँगते ह तो दशरथ प प रावण से भयभीत िदखाई पड़ते ह। वे तो यहाँ तक कहते ह िक
वे वयं सम त सेना के साथ जाकर भी खर और दूषण म से िकसी एक से यु कर सकते ह,
रावण से यु क तो बात ही नह उ प न होती। वा मीक य रामायण म एक राम को छोड़ कर
ाय: सभी पा , यहाँ तक िक सीता भी कह न कह दशरथ के िलए अपश द का योग करते
ह। इसी कार वा मीक य रामायण के अनुसार इ -अह या करण म अह या ने
इ को पहचानते हए वे छा से उससे रमण िकया था। परू े कथानक म मेरा यास सभी पा के
साथ याय करने का है। नायक के च र को उठाने के िलए खलनायक का च र हनन मुझे
ा य नह रहा।
इस थम खंड को एक कार से प रचय खंड भी कहा जा सकता है। रामायण के पा
का प रचय इस खंड म आप पायगे। यह प रचय उससे कह अिधक है िजतने से ाय: हम लोग
प रिचत ह। जैसे मने रावण के वंश को सुमाली से आरं भ िकया है। िक तु साथ ही सरसरी
जानकारी ‘र -सं कृित' के णेताओं - हे ित- हे ित से आरं भ क है। इसी कार दशरथ के तीन
िववाह और उनक उप-पि नय को भी रे खांिकत करने का यास िकया है। बािल सु ीव का
ज म, गौतम-अह या ारा उनका पालन-पोषण और अंत म वानरराज ऋ राज के द क पु
बनने के घटना म को और इसी कार केसरी-अंजना के िववाह और िफर हनुमान ज म क
कथा को भी तकस मत प म तुत करने का यास िकया है। इसी कार रावण-वेदवती के
णय और उससे सीता के ज म को भी रे खांिकत िकया है। सीता के ज म के साथ ही यह
प रचय-खंड िवराम ा करता है।
- सुलभ अि नहो ी
अनु म
1. चपला
2. र -सं कृित
3. दशरथ
4. अ पित
5. आखेट
6. कौश या से िववाह
7. सुमाली क दूर ि
8. कु भकण का अ यास
9. आ िण
10. कौश या का ताव
11. गौतम-अह या
12. कैकेयी
13. केसरी
14. उप-पि नय के आवास म
15. गौतम का ताव
16. देवे का आ ह
17. ा का आगमन
18. यु और वर
19. ा का वरदान
20. कैकेयी का भु व
21. लंका थान क भिू मका
22. जाबािल का याय
23. देव
24. महिष अग य
25. देवराज इ -नारद संवाद
26. ताड़का क दुदशा
27. सुमाली ारा रावण का अिभषेक
28. सुिम ा से िववाह
29. कुबेर के ासाद म
30. इ अह या के पास
31. रावण लंके र
32. गौतम का ाप
33. रावण-मंदोदरी
34. पु हीन दशरथ
35. लंका क यव था
36. केसरी पु व ांग
37. मंथरा-कैकेयी क िचंता
38. इ अग य के आ म म
39. सुमाली क तैयारी - 1
40. नारद-दशरथ संवाद
41. बािल-सु ीव-बजरं ग
42. मंथरा क उ सुकता
43. सुमाली क तैयारी - 2
44. अंग देश के िलए थान
45. मंगला
46. रामज म
47. मंगला के भाई का याह
48. सुमाली क कूटनीित
49. सुिम ा क सीख
50. मेघनाद का ज म
51. पवन-पु
52. कुबेर का दूत
53. मंगला का वेद से आ ह
54. कुमार का बचपन
55. वेद क गु देव से वाता
56. कुबेर िवजय
57. जाबािल-विश तक
58. िशव से भट
59. मंगला क िचंता
60. वेदवती से भट
61. नारद क ती ा
62. सुमाली का ताड़का से स पक
63. रावण क आसि
64. श बक ू
65. वेदवती से णय
66. मंगला का पलायन
67. च नखा-िव िु ज ह
68. श बक ू जाबािल का िश य
69. रावण-सुमाली-वेदवती
70. हनुमान
71. सीता का याग
1. चपला
‘‘ऐ! कौन हो तुम लोग? य कर िव हये यहाँ? अिवल ब बाहर िनकलो हमारी
आ वािटका से।’’ यह एक प ह वष क िकशोरी थी जो अपनी कमर पर दोन हाथ
रखे ोध से िच ला रही थी।
ोिधत होना वाभािवक भी था। अनुमानत: सौ-डे ढ़ सौ घुड़सवार के दल ने उसके
आम के बाग म डे रा डाल िदया था। थान- थान पर घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे हए थे, शेष
िन ् व खुले घम
ू रहे थे। सभी के आगे आम क पि य के ढे र लगे थे। अनेक डािलयाँ टूटी पड़ी
थ । अनेक लोग व ृ पर चढ़े हये आम तोड़-तोड़ कर नीचे िगरा रहे थे, नीचे खड़ी भीड़ उन आम
को लपक कर ढे र बना रही थी। दूर एक ओर कुछ अधेड़ बैठे आम चस
ू रहे थे। एक ओर बने बड़े से
तालाब म तीस-चालीस लोग नान कर रहे थे या जल ड़ा कर रहे थे। उस िकशोरी क आवाज
पर िकसी ने यान नह िदया। सब यथावत अपने काम म लगे रहे । अधेड़ और तालाब म घुसे
लोग तक तो उसक आवाज पहँची भी नह होगी।
‘‘सुनाई नह दे रहा तुम लोग को, कुछ कह रही हँ म? द यु कह के! तिनक सा
वािटका को जनशू य देखा िक अित मण कर िव हो गये, स यानाश करने।’’
इस बार उसक आवाज और तेज थी। आस-पास के कुछ लोग ने उसक ओर देखा
िक तु कोई यान नह िदया। उसका ोध इस अवहे लना पण
ू यवहार से और बढ़ गया। वह आगे
बढ़ी और सबसे िनकट के झु ड म खड़े एक युवा से आम छीनने का यास करते हये िफर
िच लाई -
‘‘ई र ने गजकण बनाया है, िफर भी सुनाई नह दे रहा। बिधर हो या?’’
उस लड़के के कान हाथी जैसे कदािप नह थे। उसने अपना आम वाला हाथ ऊँचा कर
िलया और दूसरे हाथ से लड़क को ह के से परे धकेल िदया। इससे लड़क और आवेश म आ गई
उसने भी पलट कर परू ी शि से युवक को ध का िदया। युवक थोड़ा सा लड़खड़ाया िफर उसने
दुबारा ध का देने को उ त लड़क का हाथ पकड़ िलया। अब वह बोला -
‘‘स यता से प रचय नह हआ अभी तक या? एक धर िदया तो ब ीसी बाहर आ
जायेगी।’’
‘‘स यता िसखा रहे हो मुझे?’’ उसक पकड़ से छूटने के िलये दूसरे हाथ से उसक
कलाई को नोचने का यास करती हयी लड़क बोली- ‘‘स यता से तु हारा वयं का योजन
(एक योजन बराबर लगभग यारह िकमी.) तक कोई संबंध रहा है कभी?’’
‘‘ या हो रहा है उधर उ म ?’’ दूर बैठे अधेड़ को इधर क हलचल का शायद कुछ
आभास हो गया था। उनम से एक ने आवाज लगाई।
‘‘बाबा! यह कोई बािलका अकारण उ ेिजत हो रही है।’’ उस लड़के ने उ र िदया।
‘‘धैय रखो, म आता हँ।’’ कहता हआ वह उठा और इधर क ओर बढ़ चला। दो अधेड़ और
भी उसके साथ हो िलये।
‘‘ या बात है? छोड़ो उसे उ म !’’ अधेड़ ने िनकट आते हये कहा।
‘‘बाबा यह अकारण ध के दे रही है, नोच रही है, काट रही है।’’ अपनी कलाई अधेड़ के
सामने करते हये उसने कहा।
‘‘ या बात है बेटी, या हम लोग सौहादपवू क वाता नह कर सकते?’’ अधेड़ लड़क से
स बोिधत हआ।
‘‘स य यि य के साथ ही सौहाद से वाता संभव होती है। द युओ ं के साथ तो द युओ ं
जैसा ही यवहार होना चािहये।’’
‘‘छोड़ो, इस पर िववाद नह करता म, अपनी सम या बताओ तुम।’’
‘‘आप सभी अिवल ब मेरी वािटका से बाहर िनकल जाइये।’’
‘‘वह हम नह कर सकते पु ी। हमारी िववशता है।’’
‘‘कैसी िववशता है। -पु तो ह सब लोग। अपने अ सँभािलये और िनकल जाइये
यहाँ से।’’ लड़क के तेवर म कोई अ तर नह आया था, बस अपने से वयस म बहत बड़े यि
को स मुख देख कर ‘तुम’ के थान पर ‘आप’ का योग करने लगी थी।
‘‘ऐसा नह है। हमम से अिधकांश यन ू ािधक आहत ह। तुम देख ही रही होगी िक म भी
आहत हँ।’’ पुन: बीच म कुछ बोलने को उ त लड़क को हाथ उठाकर रोकते हये वह आगे बोला
- ‘‘हम सब दो िदन से िनर तर भाग रहे ह, भोजन भी नह ा हआ है इस काल म। अब आगे
बढ़ने क न तो हमारी मता है और न ही अ क । हाँ कुछ हर िव ाम कर साँझ तक हम यहाँ
से वत: चले जायगे।’’
‘‘आप थके ह या आहत ह इससे आपको द युकम का अिधकार नह िमल जाता।’’
‘‘पु ी, उि है- ‘‘आपि काले मयादा नाि त!’’ िफर भी हम परू ी मयादा म रहने का
यास कर रहे ह।’’
‘‘वाह! या मयादा है, सारी वािटका का िव वंस कर िदया। साँझ तक के तो जो बचा
है वह भी िवन हो जायेगा। आपको ात है, यही आ -वािटका हमारी वष-पयत क जीिवका का
आधार है। अब या करगे हम?’’
‘‘तु हारी जो भी ित हई है उसक ितपिू त के िलये सहष त पर ह हम।’’
‘‘मुझे ितपिू त नह चािहये। मुझे बस अपनी वािटका म आप लोग क उपि थित स
नह है।’’
ू े को भोजन िखलाना तो तुम आय म सबसे बड़े पु य का काय माना गया है। िफर
‘‘भख
हम तो तु ह परू ी ितपिू त देने को त पर ह।’’
‘‘तुम आय म?’’ ओह इसका ता पय है आप लोग अनाय ह! म तो सोच रही थी िक आय
जाित इतनी जंगली कैसे हो गयी।’’
‘‘अब तुम अपनी सीमा का अित मण कर रही हो।’’ अधेड़ कुछ ऊँची आवाज म बोला।
‘‘अनाय के िलये मेरी कोई सीमा नह है। वैसे कौन ह आप?’’
‘‘हम र ह!’’
‘‘भाई मा यवान आप िव ाम क िजये जाकर, आप अिधक आहत ह। म िनपटता हँ
इससे।’’ अब तक शांत खड़े दूसरे अधेड़ ने उस यि को बाँह पकड़ कर जाने का इशारा करते
हये कहा। िफर वह खड़े अपे ाकृत युवा से स बोिधत हआ - ‘‘व मुि ले जाओ इ ह यहाँ से।’’
‘‘सुमाली! धैय से काम लेना।’’ पहले अधेड़ मा यवान ने दूसरे अधेड़ सुमाली क बात
मानकर जाते हये कहा।
‘‘जी िनि ंत रिहये।’’
‘‘मेरी बात सुन रहे ह या नह ?’’ लड़क पुन: िच लाई
‘‘सुन भी रहे ह और समझ भी रहे ह िक तु हमारी िववशता है िक उसे वीकार करना
संभव नह है।’’ सुमाली ने परू ी गंभीरता से न िक तु ढ़ वर म कहा।
‘‘ य ?’’
‘‘हम तु हारा अिधकार वीकार करते ह, इस नाते हम तु ह ितपिू त देने को त पर ह
िक तु सय
ू ा त से पवू हम यहाँ से जा नह सकते।’’
‘‘िकतना हठ! िकतनी उ ं डता! कैकय रा य म ऐसी उ ं डता के िलये थान कदािप
नह है।’’
‘‘अभी तो हमारी यह उ ं डता चलेगी। हमारी िववशता है।’’ सुमाली का वर पवू वत था।
‘‘कैसे चलेगी। म अभी रा यािधकारी को सिू चत करती हँ जाकर।’’
‘‘तुम कह नह जाओगी। वैसे हम तु हारे रा यािधकारी का भय नह है और वयं
अ पित इतनी शी ू ा त के उपरांत कोई हमारी धल
आ नह सकते। सय ू तक नह खोज
पायेगा।’’
‘‘आप रोकगे मुझे?’’
‘‘िववशता है, समझने का यास करो। शांित से बैठो, अपनी ितपिू त लो, सायंकाल
हम वयं चले जायगे।’’
‘‘आप मेरे साथ बल योग करगे, एक िनपट अकेली लड़क के साथ?’’
‘‘यिद तुमने वैसी ि थित उ प न कर दी तो करना ही पड़े गा।’’ यह आवाज एक
घुड़सवार क थी जो भीड़ लगी देख कर इधर आ गया था। ‘‘ या हआ है स पाती?’’ उसने भीड़ म
खड़े एक युवक से पछ
ू ा।
‘‘कुछ नह भाई! यह लड़क िपत ृ य (िपता के भाई) से अनगल िववाद िकये पड़ी है।
कहती है अभी वािटका से बिह कृत हो जाओ।’’
‘‘करो बल योग। म भी तो देखँ ू िकतने महान यो ा हो तुम। आय क याओं से अभी
पाला पड़ा नह है।’’ लड़क ने अब अपनी कमर म खँुसी कटार िनकाल ली थी।
‘‘कटार क आव यकता नह है बेटी। हम तु ह कोई ित नह पहँचायगे।’’
‘‘मत कहो मुझे बेटी। मुझे अनाय से कोई संबंध जोड़ने क आव यकता नह है। न ही
उनक सहानुभिू त क आव यकता है।’’
‘‘िपता आप चिलये। ये देव और आय वभावत: ही द भी होते ह। इ ह स यता क भाषा
समझ नह आती।’’
‘‘नह अक पन। तुम ोधी हो। तुम िववाद और बढ़ा दोगे।’’
‘‘नह िपता! म संयम ... आह!’’ उसका वा य बीच म ही रह गया।
लड़क ने ‘‘कर बल योग’’ कहते हये उस पर कटार से वार कर िदया था। कटार
अक पन क जाँघ म घुस गयी थी। तभी वहाँ खड़े दूसरे लड़के ने पीछे से लड़क के बाल पकड़
कर, उसे ख च िलया और एक जोरदार तमाचा रसीद िकया। वार परू ी ताकत से िकया गया था।
लड़क च कर खाकर जमीन पर जा िगरी।
‘‘नह द ड!’’ उस लड़के को रोकते हये सुमाली लपक कर लड़क को उठाने को बढ़ा
पर लड़क ने उससे पहले ही उठकर कटार वाला हाथ घुमा िदया। इस बार कटार सुमाली क बाँह
से छूते हये िनकल गयी। सुमाली ने बढ़ कर उसका कटार वाला हाथ पकड़ना चाहा पर वह िफर
हाथ घुमा चुक थी। सुमाली का हाथ बीच म आ जाने से वार चकू गया और घोड़े से उतरने के
िलये झुके हये अक पन क छाती क बजाय घोड़े क गदन म लगा। घोड़ा गदन को झटका देता
हआ एकदम अगले दोन पैर उठा कर खड़ा हो गया। उसक गदन के झटके से लड़क पलट कर
िगर पड़ी। हठाथ उसके दोन हाथ जमीन पर आये। पीछे से नीचे आते घोड़े के दोन पैर उसक
पीठ पर पड़े । लड़क क एक तेज चीख गँज ू गयी। झटके से उसका िसर नीचे आया और उसके
हाथ म थमी कटार उसके ही चेहरे म धँस गयी।
जब तक कोई समझे-समझे पलक झपकते यह सब हो गया। अक पन ने त परता से
घोड़े को पीछे ख च िलया था पर िफर भी उसक एक टांग लड़क क जांघ पर पड़ गयी थी।
सुमाली ने झपट कर लड़क को सँभालने का यास िकया। उसक आँख मँुद रह थ ।
उसके मँुह से अ फुट श द िनकले - ‘‘अगर चपला जीिवत बची तो तुम रा स को िनमल
ू करने
म अपना जीवन दाँव पर लगा देगी।’’ इसके साथ ही उसक आँख मँुद गय ।
अक पन घोड़े से नीचे आ गया था।
‘‘स पाती अ का घाव देखो!’’ कहते हये उसने झपटकर लड़क को उठाया और
िजधर मा यवान आिद बैठे थे उधर बढ़ चला।
‘‘पता नह य इन आय के मन-मि त क म इतना िवष घुला है!’’ कहता हआ सुमाली
उसके पीछे चल िदया।
2. र -सं कृित
मा यवान और सुमाली र सं कृित के णेता हे ित और हे ित के पौ थे।
दो भाइय म जब मनमुटाव होता है और वे अलग होते ह तो पर पर सबसे बड़े श ु बन
जाते ह। िववाद का िवषय ाय: एक ही होता है िक दूसरे ने मेरा हक मार िलया। यही झगड़ा देव
और दै य म भी रहा। प रणाम व प एक ही िपता, महिष क यप, क संतान होते हये भी दोन
स ा के दो िवपरीत ध् ुरव बन गये। दोन के िपता अव य एक थे िक तु माताएँ अलग-अलग थ ।
देव अिदित के पु थे और दै य िदित के। इस कार दोन सौतेले भाई थे और सौतेले भाइय का
झगड़ा तो हमारे इितहास म आम बात है।
र सं कृित का ादुभाव य सं कृित के साथ एक ही समय म एक ही थान पर हआ
था। पर कालांतर म उनम बड़ी दू रयाँ आ गय । य क देव से िम ता हो गयी और र क
श ुता। देव, र या दै य आय से कोई िभ न जाित ह ऐसा नह था िक तु आय य िक देव के
समथक थे (िपछल गू श द योग नह कर रहा म) इसिलये उ ह ने देव िवरोधी सभी शि य को
या य मान िलया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर म इ लाम वीकर कर लेने वाल को
ू त: या य मान िलया। व तुत: ये सब आय सं कृित के अंदर ही उपसं कृितयाँ थ
िह दुओ ं ने पण
िफर भी आय और देव इ ह हे य मानते थे और ये सब अपनी मह ा थािपत करने के िलये
य नशील रहते थे। इसी के चलते संघष उ प न होता था। आय दै य और र को एक ही पलड़े
पर रखते थे और दोन से समान प से घण ृ ा करते थे।
यह स ा का संघष था। समथक शि य से देव को कोई भय नह था। परू े पौरािणक
इितहास म एक-या दो ही ऐसे िक से ह जब िकसी आय नपृ ने देव क स ा को चुनौती दी हो या
देवे के िसंहासन पर दावा िकया हो िक तु दै य और बाद म र इसके िलये सदैव य नशील
बने ही रहे । िकसी भी शि शाली दै य या र क पहली मह वाकां ा देवे को पद- युत करना
ही होती थी।
देव वयं म कोई बहत बड़ी महाशि ह ऐसा नह था िक तु उस समय क तीनो
महाशि याँ ा, िव णु और महे श देव से आ त रक सहानुभिू त रखते थे। दै य भी हालांिक देव
के सौतेले भाई ही थे, इस कारण इन तीन महाशि य को दोन प के साथ समभाव रखना
चािहये था पर हक कत म ऐसा नह था। इन तीन म य िप ा और िशव यास करते थे िक
उन पर खुले प म प पात का आरोप थािपत न हो पाये और देव के साथ सहानुभिू त होते हये
भी यावहा रक तुला समतल पर ही ि थत रहे । इन दोन के िवपरीत िव णु खुल कर देव के प
म खड़े हो जाते थे। इसका कारण भी था। देवराज इ उनके बड़े भाई थे। बड़े भाई के प म खड़ा
होना वाभािवक विृ है। देव परा मी थे िक तु अजेय नह थे। दै य ने उ ह बार-बार परािजत
िकया िक तु िव णु का सहयोग िमल जाने से वे अ सर हार कर भी जीत जाते थे। अनेक
उदाहरण ह इसके। और यह तो थािपत स य है िक इितहास िवजेता क कलम से ही िलखा जाता
है। िवजेता क ही शि त गाता है। परािजत को वह खलनायक (हो या न हो) के तौर पर ही दज
करता है।
मा यवान आिद इन तीन भाइय के िक से म भी यही हआ था।
मा यवान, सुमाली और माली बल-पौ ष म बहत बढ़े -चढ़े थे।
अ ुत लंका नगरी इ ह ने ही बसायी थी। बाद म इ ह ने इ को परा त कर वग पर
भी अिधकार कर िलया था।
परािजत इ , अ य देवताओं के साथ सहायता क ाथना करने िशव के पास कैलाश
पहँचा िक तु िशव ने यह कहते हये इनकार कर िदया िक - ये तीन मेरे गाढ़ िम सुकेश के
पु ह। इनके िव म तु हारी सहायता नह कर सकता।
इस पर इ िव णु के पास सहायता माँगने पहँचा। िव णु ने ीर सागर (अ य अनेक
पौरािणक थल क भाँित ही ीर-सागर क ि थित के िवषय म भी िव ान अभी तक कोई
िनि त धारणा नह बना पाये ह।) के चार ओर अपना िवशाल सा ा य थािपत िकया था।
पौरािणक इितहास म िव णु क याित सबसे बड़े कूटनीित क है। आव यकतानुसार
वे साम-दाम-दंड-भेद सभी िविधय का योग करने म अित कुशल थे। उनका िस ांत था िक बड़े
उ े य के िलये छोटे िस ांत का याग भी करना पड़े तो बेिहचक कर देना चािहये। इ ह
िवशेषताओं के चलते वे सदैव इ के संकटमोचन बन कर उभरे । उ ह कभी पराजय का वाद
नह चखना पड़ा। इ ह सम प िविश ताओं के चलते कालांतर म कृ ण को पण ू िव णु क
उपािध से स मािनत िकया गया।
िव णु के सामने मा वान, सुमाली और माली नह िटक पाये। इनक सारी सेना िव णु ने
न कर दी थी। सबसे छोटा भाई माली भी रण म खेत रहा था।
इस समय ये बचे-खुचे थोड़े से लोग जान बचाते हये वापस लंका क ओर भाग रहे थे।
िव णु का सै य इनका पीछा कर रहा था इस कारण ये िदन म सघन वन -बाग आिद म छुपे रहते
थे और राि म िजतना संभव हो सके दूर िनकल जाने का यास करते थे। िपछले दो िदन से
इ ह कोई सही आ य नह िमला था और िव णु का सै य पीछे था ही इसिलये ये िबना के दो
िदन और दो रात भागते ही रहे थे, बस एक जंगल म एक हर का िव ाम अव य िकया था। पर
उस जंगल म भी खाने लायक कुछ नह िमला था।

चपला, अचेत होने से पवू उसने अपना जो नाम िलया था, के असहयोगपण
ू यवहार ने
मा यवान और सुमाली दोन को ही िचंता म डाल िदया था। उ ह आभास हो रहा था िक सागर
तक नह तो कम से कम िव याचल तक तो अव य ही उ ह ऐसे ही श ुतापण ू यवहार का
सामना करना पड़ सकता है।
उ ह समझ म नह आ रहा था िक भले ही उनक सं कृित र है तो भी आय तो वे भी ह,
िफर इन आय के मन म उनके िलये ऐसा िवकट, अतािकक ेष य है? या िबगाड़ा है उ ह ने
इन आय का। उ ह ने तो देवराज पर आ मण िकया था, इस आयभिू म के िकसी स ाट से तो
उनका कोई िववाद था ही नह । ठीक यही ि थित पवू म दै य क थी।
मा यवान और सुमाली दोन ही अपना िव ाम और भोजन भल ू कर चपला के उपचार म
लग गये थे। चोट गंभीर थी। यिद अिवल ब उपचार न िमला तो यह जीवन भर उठने-बैठने लायक
ू प ाघात का िशकार भी हो सकती है। भा य से उपचार क कुछ साम ी उनके
नह रहे गी। पण
साथ थी। वािटका म भी तलाश करने से भी कुछ बिू टयाँ िमल गयी थ । ब ती म जाना दु साहस
िस हो सकता था, अगर िकसी भी कार से िव णु के िकसी यि के सं ान म उनक यहाँ
उपि थित आ गयी तो अिन कारी हो सकता था। चपला के चेहरे पर कटार से हआ घाव गंभीर
था। जबड़ा चटक गया था। दािहने जबड़े से लेकर आँख के नीचे क हड्डी तक बुरी तरह से कट
गया था। उसका उपचार कर िदया गया था पर उ ह लग रहा था िक चेहरा सदैव के िलये कु प
तो हो ही जायेगा। ठोढ़ी टेढ़ी हो जायेगी, एक आँख पर भी असर पड़ने क संभावना है। जाँघ के
दोन ओर खपि चयाँ रख कर औषिध लगाकर बाँध िदया गया था। अभी ब ची है अि थ आसानी
से जुड़ जायेगी य िप चाल म लंगड़ाहट रह सकती है। सबसे बुरी चोट पीठ म थी। अ के पैर
पड़ने से रीढ़ क हड्डी के कई संिध थल अपने थान से हट गये तीत हो रहे थे। माँस पेिशयाँ
भी फट गयी थ । िजतना संभव था उतनी यव था उ ह ने कर दी थी पर यह तय था िक इस
लड़क क कमर सदैव के िलये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नह हो सकेगी। पर वे या कर
सकते थे। सारे कांड के िलये लड़क वयं उ रदायी थी। उनम से िकसी ने भी कोई वार नह
िकया था। ‘काश वह थोड़ी सिह णुता का दशन कर पाती’ - सुमाली ने सोचा।

साँझ होते होते दो और बालक आ गये थे। वे लड़क क अपे ा बहत सिह णु सािबत हये
थे। अगर वे भी लड़क जैसे ही िनकलते तो लड़क के िहत म बहत घातक हो सकता था पर
उ ह ने िबना हाथापाई िकये सारी बात सुनी। मा यवान ने उ ह सारी घटना के बारे म बताया।
जो-जो उपचार कर िदया गया था वह समझा िदया, आगे के िलये आव यक िनदश भी दे िदये।
सरू ज ढलने तक उन दोन को रोके रखा गया। िफर सबने अपने-अपने अ पर
सवार होकर आगे क या ा आरं भ क । सुमाली का बड़ा पु ह त सबसे बाद म िनकला। जब
सब आँख से ओझल होने क कगार पर आ गये तब वह लड़क से बोला -
‘‘इसे अितशी िकसी कुशल वै के संर ण म ले जाना। एक यि जाकर एक
चारपाई और कुछ यि य को िलवा लाओ। चारपाई पर ही लेकर जाना इसे, सावधानी से, किट
देश म तिनक सा भी आघात न लगने पाये अ यथा अ यंत िवषम प रि थित उ प न हो सकती
है।’’
इतना कह कर उसने अपने घोड़े को ऐड़ लगा दी। पलक झपकते ही घोड़ा हवा से बात
करने लगा। अब लड़के अगर ब ती म जाकर उनक सच ू ना दे भी देते तो कोई उनक हवा भी
नह पा सकता था।
हाँ! ितपिू त लेना इन लड़क ने भी िकसी भी तरह वीकार नह िकया था।
3. दशरथ
अयो या के युवा स ाट दशरथ ने अभी आयु के बीस वष पण ू ही िकये थे। उनक माता
इ दुमती का िनधन उनक बा याव था म ही हो गया था। िपता अज, जो अपनी प नी को दय
क गहराइय से यार करते थे, उनके िनधन से टूट गये थे। वे बस अपने इकलौते पु के कारण
ही जीिवत रहे थे। बीस वष का होते ही उ ह ने दशरथ का रा यािभषेक कर िदया और वयं अपनी
ि य प नी के पास जाने क इ छा से अ न-जल याग िदया था। उनका यथा से जजर शरीर यह
अ याचार अिधक सहन नह कर सका था और शी ही वे भी इस जगत के जंजाल से मुि पा
गये थे।
दशरथ पर अब कोई शासन नह था। उभरता हआ यौवन अपनी शि का स पण ू
उपभोग करने को उ त था। शासन िपता के समय म भी अिधकांशत: स म और वािमभ
मंि प रषद सँभालती थी, यिथत िपता तो संसार से िवरागी से ही थे। दशरथ ने भी इस यव था
म अिधक ह त ेप नह िकया। महामा य जाबािल के अित र सुमं , धिृ , जय त, िवजय,
सुरा , रा वधन, अकोप, धमपाल, सुय , का यप, गौतम, दीघायु, माक डे य और का यायन
सम त आमा य सुयो य, त वदश , कमठ और जाव सल थे।
इनके अित र िष विश और वामदेव इ वाकु वंश के राज पुरोिहत थे। इनम भी
गु विश राजगु क हैिसयत रखते थे। उनके िनणय म ह त ेप करने का साहस वयं
स ाट को भी नह होता था।
दशरथ अ यंत भावशाली यि व के वामी थे। साढ़े छह फुट के लगभग ऊँचा कद।
सुपु शरीर। सुदीघ केश, सुदशन नख-िशख और सबसे अिधक, िनबाध स ा उनके यि व
को और भी भावशाली बना देते थे। शासक य काय म दशरथ को कोई िच नह थी।
आव यकता भी नह थी, मंि प रषद सारे काय सुचा प से चला ही रही थी। एक ही यि था
जो इस अव था म दशरथ पर दबाव बना सकता था, वे थे गु विश । िक तु वे दशरथ के ित
वा स य भाव रखते थे। उनका िवचार था िक दशरथ अभी तो बालक ही है, समय के साथ-साथ
वयं प रप व हो जायेगा और अपने दािय व का समुिचत िनवहन करने लगेगा। अभी वह जीवन
के आन द का उपभोग कर रहा है तो करने िदया जाये। वे बस उसी ि थित म बाधा देते थे जब
दशरथ क ओर से कोई अनैितक कृ य उनके स मुख आता था अथवा जब दशरथ के ो साहन
से कोई िनरपराध जा को सताने का काय करता था। दशरथ भी ऐसे कृ य से यथासंभव बचने
का यास करते थे। वे अपने पवू ज क याित को धिू मल नह करना चाहते थे। यिद कभी कोई
ऐसा करण हो भी जाता था तो वे उसक भनक गु देव के कान तक पहँचने ही नह देते थे,
साम-दाम-द ड-भेद का योग कर उसे अपने तर तक ही िनपटा लेते थे। वैसे भी स ाट के
िव कुछ कहने का साहस िकसम था।
इस कार िनबाध स ा का उपभोग करते हये दशरथ जीवन के रस और आनंद से
भरपरू ोति विनय म अवगाहन कर रहे थे। मंि प रषद उनक इस उ छृंखलता से यिथत रहती
थी िक पता नह वे िकस िदन अपनी नादानी म िकसी संकट को िनम ण दे बैठ।
एक िदन, िदन ढलने से कुछ पवू , सुम और जाबािल गु देव के आ म म पहँचे। दोन
के ही ख वाट िसर पर सुदीघ िशखा शोभा ा कर रही थी। सुमं तीस से कुछ अिधक आयु के
थे। ल बी दाढ़ी, गे आ उ रीय और घुटन तक आती हई ेत सत ू ी धोती। उ रीय के पीछे से
कमर के भी नीचे तक लटकता य ोपवीत, गले म ा क माला, माथे पर च दन का ितलक,
इकहरा शरीर, सुदीघ काया, पैर म लकड़ी क खड़ाऊँ।
जाबािल वयस म सुमं से कुछ ही बड़े थे। कंधे पर िकनारीदार ेत बहमू य रे शमी
उ रीय, कमर म वैसी ही धोती। गले म ा क माला के अित र बहमू य सुवण-माला, दोन
बाजुओ ं म सुवण के ही बाजबू द, य ोपवीत और पैर म बहमू य िक तु लकड़ी क ही खड़ाऊँ।
सुमं क वेशभषू ा म जहाँ सादगी मह वपण ू थी वह जाबािल क वेशभषू ा उनके पद और वैभव
को दिशत कर रही थी। सुमं जहाँ सदाचार और यागमय जीवन यतीत करते थे वह जाबािल
संयिमत और यायपण ू आन द लेने के प धर थे।
ू रहते हये भी जीवन का पण
औपचा रक णाम िनवेदन के उपरांत सुमं ने िनवेदन िकया -
‘‘गु देव! महाराज को िनयंि त क िजये। वे शासिनक काय म रं च मा भी िच नह
ले रहे । सदैव आमोद- मोद और िवलािसता के आयोजन म ही य त रहते ह।’’
‘‘ यथ िचंितत हो रहे ह मंि वर! अभी बालक ह दशरथ! समय के साथ वत: दािय व
के ित सचेत हो जायगे।’’ गु देव ने अपनी ल बी सफेद दाढ़ी पर हाथ िफराते हये कहा। उनके
वैसे ही सफेद बाल िसर के ऊपर जड़ ू े के प म बँधे हये थे। विश क आयु िनि त प से अ सी
वष से भी अिधक थी। यह उनके तप और संयम का ही भाव था िक वे इस आयु म भी ि याशील
थे। अभी भी उनक कमर िबलकुल सीधी थी। उनके हाथ म, िषय क पर परा के अनुसार,
सदैव एक द ड रहता था िक तु उ ह कभी उसका सहारा लेने क आव यकता नह होती थी।
‘‘गु देव! ध ृ ता के िलये मा ाथ हँ!’’ जाबािल बोले- ‘‘िक तु आपका यही वा स य
महाराज को प रप व नह होने दे रहा है। आप कब तक उ ह बालक मानते रहगे। अब वे िववाह
के यो य हो रहे ह।’’
‘‘ या सच?’’ गु देव मानो आ य से बोले- ‘‘ या सच ही दशरथ िववाह यो य हो रहा
है?’’ णांश जैसे उ ह ने कुछ गणना क िफर आगे बोले- ‘‘िन य ही आप स य कह रहे ह
महामा य। िववाह यो य तो हो रहे ह दशरथ, इ क स वष के हो चुके ह अब तो। िवचार करता हँ
इस िवषय म। कोई उिचत स ब ध है या आपक ि म। कोई ऐसी क या जो ऐसे उ ं ड के साथ
सहजता पवू क िनवाह कर सके?’’
‘‘है तो गु देव!’’ सुम बोले।
‘‘कौन?’’
‘‘महाराज भानुमान क क या, कौश या।’’
‘‘आह! क या तो घर म ही है।’’
‘‘है तो गु देव! िक तु महाराज भानुमान या इस संबंध के िलये उ साह िदखायगे?’’
‘‘नह िदखायगे तो कुछ उपाय करना पड़े गा। कौश या से उपयु क या तो हो ही नह
सकती दशरथ के िलये। मुझे पहले य नह सझ
ू ा यह?’’ गु देव कुछ अचंिभत से बोले।
‘‘सझ
ू ता तो तब न गु देव जब आप महाराज को िववाह यो य समझते। आप तो उ ह
अभी तक बालक ही मानते चले आये ह।’’ जाबािल वाणी म िवनोद का पुट देते हये बोले।
‘‘यह भी स य है महामा य!’’ गु देव कुछ पल के िफर िकया-
‘‘ या वयस होगी कौश या क ? िववाह यो य हो तो गयी है? मने तो बहत पहले देखा
था तब तो िनरी बािलका ही थी।’’
‘‘चौदह-प ह वष क तो हो ही गयी होगी गु देव। अ यंत सु दर और सुशील क या
है।’’
‘‘ य नह होगी! सुयो य माता-िपता क क या है। मने तो दीघ काल पवू देखा था
िक तु तब भी उसने मुझे भािवत िकया था। वह िन य ही सु दर थी, सुशील भी थी और अपनी
वयस के अनुसार िवदुषी भी थी। उसके सं कारवान और धैयवान होने क भी हम आशा कर ही
सकते ह। ब च को सं कार अपने माता-िपता से ही तो ा होते ह।’’ गु देव स नता से बोले।
‘‘िन संदेह गु देव! सुना तो यही है िक अ यंत सं कारी क या है।
‘‘हँ ...!’’ गु देव ने िवचार म डूबे हये एक ल बी हंकारी ली।
‘‘तो गु देव अब हम या आदेश है?’’ सुमं ने पछ
ू ा।
‘‘िवचार करते ह। अिपतु आज ही बात क ँ गा दशरथ से, अभी सं या-वंदन के उपरांत।’’
‘‘आज तो संभव नह होगा बात कर पाना।’’
‘‘भला य ?’’
‘‘वे तो आज ात: ही अपनी िम -मंडली के साथ आखेट के िलये थान कर गये ह।’’
‘‘कब तक पुनरागमन क संभावना है?’’
‘‘ या कहा जा सकता है गु देव!’’ सुमं ने कंधे उचकाते हये िनराशा दिशत क -
‘‘महाराज ह वे। जब इ छा होगी तब लौटगे। हमम से िकसी म या उ ह िनयंि त करने क
साम य है?’’
‘‘िक तु कुछ बता कर तो गया होगा?’’
‘‘स ाट को या कुछ बताने क आव यकता है? िफर ऐसे स ाट को िजसने कोई भी
दािय व अभी तक वीकार न िकया हो। पण ू त: िन ् व , िन े य िवहार और िवलास म िल
हो।’’ कुछ िव ूप से सुमं ने कहा।
‘‘तो ात कैसे हआ आपको?’’
‘‘सेवक से ात हआ, िज ह ने उनक या ा हे तु यव थाएँ क थ ।’’
‘‘कौन-कौन है उसके साथ?’’ कुछ काल सोचने के बाद गु देव ने पछ
ू ा।
‘‘सेनापित मोद ह, कुछ अ य सै य अिधकारी ह, कुछ धिनक ह और पया सै य व
सेवक ह।’’
‘‘उसके आते ही मुझे सच
ू ना दीिजयेगा।’’
‘‘जी!’’
गु देव कुछ काल अपनी सुदीघ ेत दाढ़ी पर हाथ िफराते हये प रि थितय पर िवचार
करते रहे । िफर उ ह ने पछ
ू ा-
‘‘िफर भी कुछ तो अनुमान होगा ही आप लोग का िक कब तक संभािवत है उसका
पुनरागमन?’’
‘‘संभवत: एक स ाह, संभवत: एक माह। वे स पण ू यव था के साथ गये ह। यँ ू
यव था न भी हो तो महाराज के िलये यव था होते या देर लगती है। उनक इ छा होते ही
कह भी उनके िलये स पण
ू सुिवधाएँ वत: उपल ध हो जायगी। िकस जाजन म इतना साहस है
िक उनक इ छा क अवहे लना कर जाये।’’
गु देव के अधर पर मंद मु कान नाच गयी। पता नह यह वा स य था या िचंता थी?
कुछ काल मौन रहा िफर गु देव वत: बोले -
‘‘अ यु म अ वेषण िकया आप लोग ने। यिद यह स ब ध हो जाता है तो पुन: उ र और
दि ण कोशल एक रा य हो जायगे। पुन: दोन िबखरी हई धाराएँ आपस म िमल जायगी।
कौश या तो एकमा क या है भानुमान क ?’’
‘‘जी गु देव! िक तु मने पवू ही इंिगत िकया िक महाराज भानुमान क सहमित ा
होने म हम आशंका है!’’ सुम ने पुन: शंका कट क ।
‘‘तो मने भी तो कहा न िक कुछ उपाय िकया जायेगा।’’
‘‘मुझे तो बल योग के अित र अ य कोई माग िदखाई नह पड़ता।’’
‘‘तो ऐसा या पहली बार होगा? यह तो आयावत म अन त काल से होता चला आया है।
दशरथ यिद बल योग करे गा तो कौन सी परं परा का िव वंस हो जायेगा?’’
‘‘िक तु गु देव या ऐसे अकारण यु ा य ह?’’
‘‘अकारण य ? कौश या जैसी क या क ही आव यकता है अयो या को। उसके िलये
यु िकया जा सकता है।’’
‘‘िक तु गु देव यिद उस ि थित को वयं कौश या ने ही वीकार नह िकया तो? इसे
यिद उसने अपने िपता के अपमान क भाँित िलया और सदैव के िलये अपने दय म कटुता सँजो
ली तो?’’
‘‘मंि वर!’’ गु देव के वर म अ यंत आ य का भाव था - ‘‘आज या हो गया है
आपको? ऐसा तीत हो रहा है जैसे आप िकसी अ ात आदश लोक से पहली-पहली बार इस
भल
ू ोक पर अवत रत हये ह ।’’ अपनी बात कह कर उ ह ने उ मु हा य से कुिटया को गुंज रत
कर िदया।
‘‘म मानता हँ गु देव िक आयावत म यह कोई नई बात नह होगी िक तु यह परं परा
अनुकरणीय तो नह है।’’ गु देव के कटा क उपे ा करते हये सुम ने अपनी बात जारी
रखी।
‘‘महामा य! कह िकसी पुरातन िवरागी ऋिष क आ मा ने तो सुम के शरीर म
वेश नह कर िलया?’’ गु देव ने पुन: उ मु हा य के साथ कटा िकया - ‘‘ये तो आज
राजनीित के पि डत के थान पर िकसी नीितशा ी क भाषा बोल रहे ह।’’ िफर वे सुम से
संबोिधत हये - ‘‘ऐसा सामा य गहृ थ क क याओं के साथ तो संभव है िक तु आयावत के
छोटे-छोटे राजघरान क क याएँ तो जानती ह िक यही उनक िनयित है। पता नह कब कोई
तापी स ाट अपने शौय का तीक बनाकर उ ह अपने अंत:पुर म थान दे दे। िकसी दुबल राजा
क क या का सु दर और सुयो य होना अपराध है आयावत म। उसे ेम करने क वतं ता नह
होती, उसे िकसी शि शाली पु ष को ेम करने को बा य होना पड़ता है।’’
‘‘दोन पड़ोसी रा य म जो आ त रक वैमन य है वह और बढ़ जायेगा इस कार तो?’’
‘‘आपक शंका सकारण है िक तु मुझे िव ास है िक जब कौश या को अयो या म
सस मान राजमिहषी का थान ा होगा तो यह वैमन य वत: नेह क वषा से धुल जायेगा।’’
एक ण क कर गु देव आगे बोले -
‘‘िफर भी यास करना िक बल योग क ि थित उ प न न हो।’’
‘‘कोई संभावना नह है गु देव! वे छा से तो महाराज भानुमान स मित देने से रहे ।
या आपको ात नह िक महाराज दशरथ क याित उ त युवा क बनती जा रही है। सुदूर
रा य तक संभव है यह याित न पहँच पाई हो िक तु उ र कोशल जैसे िनकट थ थान तक
तो अव य ही पहँची होगी। आपसी संबंध पर जमी िहम को िपघलाने का कोई उपाय कर भी िलया
जाए तो भी अपनी क या से नेह करने वाला कोई भी सं कारी िपता अपनी इकलौती क या
ऐसी याित वाले यि को देने के िलये कैसे सहमत हो सकता है?’’
‘‘आप तो राज ोिहय जैसी भाषा का योग कर रहे ह मंि वर।’’ गु देव ने पुन: कटा
िकया।
‘‘ या आपको ऐसा लगता है गु देव िक म राज ोही हो सकता हँ?’’ सुमं गु देव के
इस यं य को एकाएक पचा नह पाये।
‘‘अरे िदल पर य ले रहे ह मंि वर? या मेरे िलये सदैव गंभीरता का मुखौटा धारण
िकये रहना ही आव यक है? या म कभी आपके साथ यंजना का आनंद नह ले सकता?’’
‘‘ले सकते ह गु देव! आप तो अयो या के अिभभावक ह। इसीिलये मंि वर ने आपके
स मुख व तुि थित को रखने का यास िकया है तािक आप महाराज के उ त वभाव को थोड़ी
सी गंभीरता से ल। यह अब आव यक हो गया है गु देव! महाराज को भी इ वाकु वंश क ग रमा
अपने वभाव म लानी ही होगी और इस काय को यिद कोई कर सकता है तो आप ही कर सकते
ह।’’ बड़ी देर से शांत भाव से यह वातालाप सुन रहे जाबािल बोले।
‘‘यह काय तो िवधाता का है महामा य और वह अपना काय जैसा उसने उिचत समझा,
कर चुका है।’’
‘‘अयो या के िलये तो आप ही िवधाता ह गु देव! आप िवधाता क भल ू को स पण
ू त:
नह तो यथासंभव तो सुधार ही सकते ह। सुधारने का यास तो कर ही सकते ह।’’
‘‘चिलये यास करँ गा। अयो या के महामा य का आदेश िशरोधाय!’’ गु देव पुन: जोर
से हँसे।
‘‘गु देव अपनी यंजना शि क धार या आज हम दोन पर ही परखने का िन य
िकये बैठे ह। म सहष अपनी पराजय वीकार करता हँ, कृपया अब मुझ पर आघात न कर।’’
जाबािल भी हँसते हये बोले।’’
‘‘चिलये ऐसा ही सही। तो िफर दशरथ के आते ही मुझे सच
ू ना देने क यव था िनि त
क िजयेगा।’’
‘‘जी गु देव!
4. अ पित
केकय नरे श अ पित ानी के प म िव यात थे। बड़े -बड़े ऋिष-मुिन भी इस संबंध
म उनसे राय लेने आते रहते थे। कहते तो यहाँ तक ह िक उ ह पशु-पि य क बोिलयाँ भी आती
थ । एक कथा चिलत है िक एक बार अ पित महारानी के साथ बगीचे म टहल रहे थे। बगीचे म
पि य क चहचहाहट एक वाभािवक विन होती है। अचानक महाराज हँस पड़े । महारानी
असमंजस से पछू बैठ -
‘‘महाराज मने कोई हा या पद बात तो नह क जो आप हँस रहे ह।’’
महाराज ने हाथ से उ ह शा त रहने का संकेत िकया और बड़े गौर से कह कान
लगाकर सुनने लगे। महारानी को समझ नह आ रहा था िक महाराज या सुनने का यास कर
रहे ह। उ ह लगा िक महाराज उनक उपे ा करने के िलये कुछ सुनने का अिभनय मा कर रहे
ह। पि य के कलरव के अित र वहाँ और कोई विन थी ही नह । इसी बीच महाराज िफर हँसने
लगे िफर महारानी से संबोिधत होते हये बोले -
‘‘हाँ महारानी जी! अब बताइये या कह रही थ ?’’
‘‘म या कह रही थी उसे तो छोिड़ये। मेरी बात तो आपको सुनने यो य लगती ही
नह ।’’ महारानी भी सामा य ि य क भाँित ही यवहार करने लगी थ ।
‘‘अरे नह ! िकसने कह िदया िक मुझे आपक बात म रस नह िमलता।’’
‘‘रस िमलता होता तो मेरी बात क उपे ा कर इस कार शू य को सुनने का अिभनय
नह करते।’’
‘‘महारानी जी म शू य को नह सुन रहा था।’’
‘‘तो िफर या सुन रहे थे? और हँस य रहे थे? मेरी बात का उपहास कर रहे थे न!’’
‘‘नह महारानी जी!’’
‘‘नह तो िफर बताते य नह िक य हँस रहे थे?’’
‘‘वो उधर व ृ पर बैठा एक प ी-युगल पर पर कुछ मनोरं जक वाता कर रहा था, उसी
को सुनने लगा था। उसी को सुनकर हँसी भी आ गई थी।’’
‘‘महाराज मुझे या आप अबोध िशशु समझते ह जो आपके इन त यहीन भुलाव म आ
जाऊँगी? भला पि य क बात का भी कोई मह व हो सकता है। यिद होता भी हो तो आपको या
पता िक वे पर पर या बात कर रहे थे।’’
‘‘महारानी जी! कभी-कभी अ यंत मह वपण
ू होती ह पि य क बात। और भा य से
किहये या दुभा य से, म उनक बात समझ भी सकता हँ।’’
‘‘तो बताइये िफर या कह रहे थे वे?’’ महारानी को महाराज क बात पर िव ास नह
हो रहा था। वे यही समझ रही थ िक महाराज उनक हँसी उड़ा रहे थे। इसी कारण उनक िचढ़
और ोध बढ़ते ही जा रहे थे। उ ह ने अब हठ पकड़ िलया था।
‘‘नह महारानी जी! यह हम नह बता सकते।’’
‘‘िफर बहाना! य नह बता सकते ह। हम तो मा सेिवका ही समझते ह आप।’’
‘‘नह महारानी जी! ऐसी बात नह है। पर हमारी िववशता है िक हम िकसी को नह
बता सकते िक वे या बात कर रहे थे।’’
‘‘ य नह बता सकते भला?’’ महारानी भी अपने हठ पर अड़ी थ ।
‘‘ य िक यिद हमने बता िदया तो उसी ण हमारी म ृ यु हो जायेगी। या आप वैध य
क आकां ी ह?’’
‘‘यह सब आपका आडं बर मा है। व तुत: आप कारा तर से हमारा ितर कार करना
चाहते ह।’’
‘‘भला हम आपका ितर कार य करना चाहगे?’’
‘‘मुझे नह ात। िक तु यिद ऐसा नह है तो िफर बताइये िक वे या वाता कर रहे थे?’’
‘‘मने कहा न िक म नह बता सकता। िववशता है।
‘‘पुन: वही अनगल लाप!’’ कहती हयी महारानी ोध से पैर पटकती हयी चली गय ।
ोध महाराज को भी आ गया था। वे सोचने लगे िक- ‘‘इस ी को अपने पित के
जीवन क िचंता नह है, बस अपना वथ
ृ ा हठ ही यारा है।’’ िफर भी उ ह ने आवाज दी -
‘‘ िकये महारानी। अनाव यक ोध उिचत नह है।’’
पर महारानी नह क।
महाराज को महारानी के आचरण से अपार ोभ हआ था। वे सोच रहे थे िक ऐसी प नी
तो कभी भी उनके िलये ही नह रा य के िलये भी संकट का कारण बन सकती है। उ ह ने उनके
याग का िन य कर िलया। ढ़ िन य। इसक िकसी भी बात पर अब िव ास नह करना है।
िकसी भी प ाताप के दशन पर यान नह देना है।

दूसरे ही िदन उ ह ने रथ तैयार करवाया और सैिनक क एक टुकड़ी के संर ण म


महारानी को उनके मायके िभजवा िदया - इस िनदश के साथ िक अब केकय रा य म उनके िलये
कोई थान नह है।
महारानी का तो िनवासन हो गया िक तु अब था अ प-वय क पु ी क उिचत
देखभाल का। सात भाइय म अकेली बहन, सबक दुलारी। महाराज के जीवन का आधार - िकसे
स प यह दािय व। कैकेयी अभी मा तीन वष क ही तो है। माता का िनवासन कह उसक
भावनाओं को आहत न करे ! वह अब धीरे -धीरे चीज को समझने लगी है। इस समय यिद उसक
भावनाएँ आहत हई ं या िव ोह क ओर उ मुख हो गय तो ... य िप महारानी का साि न य तो
उसे उ छृंखल और ध ृ ही बनाता। यँ ू ही िकसी को तो नह स पा जा सकता उसका दािय व। यिद
युधािजत (अ पित का बड़ा पु ) का िववाह हो गया होता तो उसक प नी को ही यह दािय व
स पा जा सकता था िक तु उसम तो अभी िवल ब है। तब? ... एक बहत बड़ा उ ह मथ रहा
था।
अचानक उ ह यान आया चपला का िजसका राजक य उपचारगहृ म पाँच वष तक
उपचार चला था। अब चार वष से वह पणू व थ हो गयी थी। महाराज उसके साहस एवं ढ़ता से
अ यंत भािवत थे। उसे भी उिचत संर ण क आव यकता थी। उ ह ने िन य कर िलया िक उसे
ही कैकेयी क संरि का िनयु करगे। यह दोन के िलये ही िहतकर रहे गा।
इस कार चौबीस वष य चपला तीन वष य कैकेयी क संरि का बन कर कैकय नरे श
अ पित के राज ासाद म आ गयी। समय के साथ चपला के घाव भर गये थे पर उसका चेहरा
कटार के गहरे घाव के कारण कु प हो गया था। रीढ़ क हड्डी जुड़ गयी थी पर कमर थाई प
से इस उ म ही झुक गयी थी। जाँघ क हड्डी भी जुड़ अव य गई थी पर चाल म लंगड़ाहट आ
गई थी। उसक गित मंथर हो गयी थी और इस मंथर गित के कारण ही उसका नाम चपला से
वत: मंथरा हो गया था। उसे वयं भी इस नाम से पुकारे जाने म कोई आपि नह थी। वह तो
अब मा र के अि त व का समल ू नाश करने के अपने संक प के िलये जी रही थी, य िप उस
भयानक िदवस के उपरा त उसे र के िवषय म कोई समाचार नह ा हआ था। िजससे भी
उसने कुछ पछू ने का यास िकया उसी ने अनिभ ता दिशत क थी।
मंथरा के संर क व ने कैकेयी क िवचारधारा को भी िन य ही भािवत िकया। झुक
कमर और लंगड़ी चाल के बावजदू मंथरा को श संचालन म िच थी िजससे समय के साथ
कैकेयी क िच भी इस ओर जा त हो गयी। मंथरा के साि न य म उसक यह िच भली-भाँित
िवकिसत होने लगी। दोन डट कर अ यास करत । महाराज भी उ ह परू ा ो साहन देते थे और
इसके िलए उ ह ने िविश यव थाएँ स नतापवू क कर दी थ । शी ही कैकेयी अ -श के
संचालन म िनपुण हो गयी। रथ के अ के संचालन म तो उसका कोई सानी ही नह था।
कैकेयी को मंथरा के संर ण म देकर उसक गित से महाराज अ पित पण ू संतु थे।
वे मंथरा को भी अपनी पु ी क भाँित ही नेह देते थे। कैकेयी उसे परू ा आदर और स मान देती
थी। वह एक कार से वैâकेयी क धाय माँ थी िक तु कैकेयी उसका अपनी माँ के समान ही
स मान करती थी।
महाराज िन य ही कम से कम एक बार अव य कैकेयी से िमलने आते थे। कैकेयी से
िमलने आते थे तो मंथरा क भी उनसे भट होती ही थी। इस सतत प रचय से वह महाराज के साथ
एक सीमा तक अनौपचा रक हो गयी थी। इस अनौपचा रकता को महाराज ने ही ो सािहत
िकया था। एक िदन बात ही बात म मंथरा ने अपने जीवन के परम उ े य के िवषय म चचा छे ड़
दी।
ू कर चुके ह।’’ अ पित हँसते हये बोले।
‘‘तु हारा काय तो िव णु स पण
‘‘ता पय महाराज?’’
‘‘जब तुमसे उन लोग क मुठभेड़ हई तब वे िव णु से परािजत होकर ही भाग रहे थे।
मा यवान और सुमाली का छोटा भाई माली तो िव णु के ारा मारा जा चुका था।’’
‘‘जी!’’ मंथरा के चेहरे पर संतोष के भाव थे।
‘‘उसके बाद िव णु ने इन लोग को लंका तक खदेड़ा। िवशाल सेना थी इनक िजसने
देवराज इ तक को परािजत कर वग पर अिधकार कर िलया था। िक तु तुमने देखा ही होगा
िक िकतने थोड़े से लोग बचे थे।’’
‘‘थोड़े से कहाँ महाराज कई सौ थे।’’
‘‘अ ौिहिणय म जब कई सौ बचते ह तो वे थोड़े से ही कहे जाते ह।’’ अ पित खुलकर
हँसते हये बोले।
‘‘ओह! िक तु वे पुन: अपनी शि एक करगे, पुन: अ ौिहिणयाँ जोड़ लगे। उनके
मुख म से दो तो अभी भी जीिवत ही ह।’’
‘‘नह ! मंथरा ऐसा लगता तो नह है।’’
‘‘लगता नह है िक तु असंभव भी तो नह है। मेरा दय तो तभी शीतल होगा जब शेष
बचे ये दोन भी काल का ास बन जायगे।’’
‘‘हँ ... दोन म से बड़ा मा यवान तो संसार यागकर वान थी हो गया है। वह तभी से
एकांत म तप या म िनम न है। उसक कोई भी संिद ध गितिविध तब से नह देखी गयी। यिद
देखी गयी होती तो िव णु उसे भी अव य समा कर देते। बचा सुमाली। वह पता नह जीिवत है भी
या नह । तभी से उसके िवषय म िकसी को भी कोई समाचार नह िमला है। वह और उसके पु
िकस जगत म ह यह अब िकसी को ात नह ।’’
‘‘िक तु उनक म ृ यु हो गयी यह भी तो सुिनि त नह है।’’
‘‘यह तो है।’’
‘‘िफर उनके पु भी तो ह। जब तक सबक म ृ यु मािणत नह हो जाती है तब तक
कैसे माना जा सकता है िक वे दुबारा िसर नह उठायगे?’’
‘‘यह भी उिचत है। िक तु यिद वे पुन: िसर उठायगे तो पुन: उ ह कुचल िदया जायेगा।
इस बार िकसी को भी जीिवत नह छोड़ा जायेगा।’’
‘‘देखते ह महाराज! एक बार तो िव णु जैसा यि भी चक
ू कर ही गया। साँप को
घायल करके कह जीिवत छोड़ा जाता है।’’
5. आखेट
दशरथ अपने रथ पर आ ढ़ थे। उनके साथ ही सेनापित मोद भी थे। उनके पीछे नगर
के कुछ अ य धनपितय के पु के रथ थे। इनके पीछे दस अ ारोही सै य अिधकारी थे। सबसे
पीछे एक सह अ ारोही सै य दल था। िदवस के दो हर यतीत हो चुके थे। दो सौ बैलगािड़य
पर आव यकता का सारा सामान लेकर एक सह भालाधारी सै य और इतने ही शि शाली
युवा कमचारी पौ फटते ही थान कर चुके थे। ये सभी नगर के उ री ार से बाहर िनकल कर
सरयू के िकनारे -िकनारे पवू क ओर बढ़ रहे थे। नगर से कोई पाँच योजन आगे िवशाल वन ांत
आरं भ हो जाता था, वही इनका ल य था। वह आखेट करने का काय म िनि त हआ था। इ ह
आशा थी िक जब तक इनका दल अपने ल य तक पहँचेगा, ात: ही िनकला हआ कायदल
सम त यव थाओं को यथोिचत प से पण ू कर चुका होगा।
‘‘सेनापित! अयो या के वन म िसंह क उपि थित तो न के बराबर ही है।’’
‘‘हाँ महाराज! िक तु व य शक
ू र, ह रण, व य मिहष इ यािद पया िमलगे। यिद भा य
हआ तो िसंह भी िमल सकता है। कुछ भी िमले, आखेट का आन द तो परू ा ही िमलेगा।’’
‘‘आपने कभी िसंह का िशकार िकया है?’’
अभी तक तो नह ।’’ सेनापित मोद ने उ र िदया। सेनापित आयु म य िप दशरथ से
पया बड़ा था, लगभग चालीस वष का िक तु इसका उसक शारी रक मताओं पर कोई असर
नह पड़ा था। वह भी छह फुट से िनकलते कद का, अ यंत पु , पहलवान सरीखे शरीर का
वामी था। दशरथ से उसक अ छी िनभती थी। कारण एक ही था िक दोन क िचयाँ समान थ
- आखेट और मिदरा। िनरास अज क यु म भी कोई आसि नह रही थी, इस कारण
अयो या के सै य को दीघ अविध से कोई यु नह करना पड़ा था। इस कारण सै य अिधका रय
के पास य तता का अभाव था।
दोपहर यतीत होने लगी थी जब ये लोग िशिवर तक पहँचे। िशिवर सरयू से कोई सात
सौ डग क दूरी पर लगाया गया था। त बुओ ं का परू ा एक गाँव बस गया था। शरद ऋतु का आरं भ
हो चुका था इसिलये िसर पर चमक रहे सय ू ने अिधक क नह िदया था। िशिवर म दशरथ का
त बू दूर से ही पहचान म आ रहा था। सबसे अलग, सबसे भ य। सारथी ने रथ को सीधे इनके
त बू के बाहर ही रोका जाकर। दोन ने ही त बू म वेश िकया। अ दर एक िवशाल राजसी क
क अिधकांश सुिवधाएँ उपल ध थ । त बू क चार कपड़े क दीवार म िवशाल वातायन बने थे,
जो िक खुले हये थे, तािक चार ओर से व छ वायु वेश कर सके। एक ओर बारह गुणा छ: हाथ
के े म ग े िबछे हये थे िजन पर सुनहरे रे शमी चादर िबछे थे। एक कोने म शीतल जल के घड़े
रखे हये थे। उनके साथ ही चाँदी के पा रखे थे।
दशरथ वेश करते ही सीधे ग क ओर बढ़े और लेट गये। उ ह ने अपना उ रीय उतार
कर एक ओर डाल िदया। उनके बैठते ही दो प रचा रकाएँ मोरपंख के िवशाल पंखे लेकर उनके
दोन ओर खड़ी हो गय और हवा झलने लग ।
‘‘आप भी िवरािजये सेनापित।’’ सेनापित को िहचिकचाते हये खड़ा देख कर दशरथ
बोले - ‘‘आखेट िशिवर म राजसी मयादाएँ िशिथल हो जाने िदया क िजये।’’
सेनापित भी आकर बैठ गये। थोड़ी ही देर म अ य िम भी आ गये। सब उ ह ग पर
बैठ गये। दशरथ िवशाल राजसी तिकय के सहारे अधलेटे से बैठे थे। तीन प रचा रकाएँ और पंखे
लेकर आ गयी थ । वे अ य लोग पर पंखा झलने लग ।
‘‘महाराज पहले भोजन लगे या नान के िलये जायगे?’’ एक प रचा रका ने आकर हाथ
जोड़ कर िकया।
‘‘बताइये सेनापित जी! या आप बताइये भ क!’’ दशरथ ने िजसे संबोिधत िकया था वह
एक प चीस वष का सुदशन नवयुवक था िजसने बहमू य व धारण कर रखे थे। सारा शरीर
आभषू ण से लदा था। देखने मा से ही वह कोई अ यंत धन स प न यि तीत होता था।
‘‘महाराज थम तो िव ांित िनवारण हे तु कुछ यव था होनी चािहये।’’
‘‘ या? आप ही बताएँ ।’’
‘‘मिदरा ... लाव य (नमक न) ... संगीत ...।’’
‘‘सुन िलया?’’ दशरथ प रचा रका से संबोिधत हये।
‘‘जी महाराज! मुझे आ ा है?’’
‘‘हँ!!! .... जाओ।’’

अंतत: सायंकाल आखेट का आयोजन हआ।


थानीय िनवासी हाँके के िलये पकड़ िलये गये थे। सै य किमय के साथ वे वन के
आंत रक भाग से ढोल पीट-पीट कर व य-पशुओ ं को बाहर मचान क ओर खदेड़ने का यास
कर रहे थे। िशिवर से चौथाई कोस पर थोड़े -थोड़े अंतर पर ऊँचे-ऊँचे व ृ पर चार मचान बनाये
गये थे। िजन पर महाराज और उनके साथी धनुष-बाण िलये सतक बैठे थे। अ ारोिहय क एक
टुकड़ी इनसे थोड़ी दूरी पर स न खड़ी थी तािक िकसी भी संकटकालीन प रि थित म
अिवल ब सहायता के िलये तुत हो सके। वयं सेनापित मोद इस टुकड़ी का नेत ृ व कर रहे
थे। उ ह ने मचान पर जाना अ वीकार कर िदया था। कुछ सौ सश सैिनक मचान के आसपास
व ृ पर िबना मचान के ही प के बीच िछपे हये थे। इ ह िकसी भी पशु पर तभी वार करने क
आ ा थी जब वह महाराज या उनके सािथय के िलये संकट का कारण बन रहा हो। आव यकता
पड़ने पर ये िकसी भी राजपु ष या उनके साथी पर आया संकट अपने ाण पर ले सकते थे।
आखेट सय ू ा त के उपरांत तक चला िक तु उपलि ध कुछ िवशेष नह हई। थम
महाराज ने एक िहरन का आखेट िकया। त प ात अपने सािथय क इ छा का स मान करते
हये उ ह ने उ ह अवसर िदया िक तु िकसी का भी िनशाना ल य पर नह लग पाया। अंतत: राि
का थम हर आरं भ होते-होते महाराज के सािथय को ुधा का बोध होने लगा अत: उस िदन
का आखेट वह थिगत करने का िनणय हआ। हाँका ब द करने का संकेत कर िदया गया। तभी
एक व य-शक ू र के दशन हो गये। महाराज ने िबना िकसी चक
ू के बाण चला िदया। ल य चक
ू ने
का ही नह था। महाराज तो श दवेधी हार के िलये यात थे। इसी के साथ उस िदन आखेट
क पण ू ाहित हो गयी।
आखेट का आयोजन तो समा हो गया था िक तु महाराज का मन नह भरा था। वे
चुपचाप िकसी को िबना बताये अकेले ही अ ा ढ़ होकर पवू क ओर चल पड़े । चलते-चलते
अचानक उनके मन म िवचार आया िक य न कुछ काल सरयू के िकनारे ती ा क जाये,
संभव है िक कोई हाथी या अ य व य ज तु तषृ ा-शाि त हे तु नदी तट पर आ िनकले। उ ह ने
अपने अ को वह िवचरने के िलये छोड़ िदया और वयं उतर कर व ृ के एक झुरमुट म िछप
गये और ती ा करने लगे। अ के कह जाने क आशंका नह थी। वह उनका िशि त अ
था। वह अपने वामी को भलीभाँित पहचानता था, उ ह छोड़ कर वह िकसी मू य पर नह जा
सकता था। अंधकार गहराने लगा था। उनके मन म आया िक िशिवर म उनक अनुपि थित से
खलबली मची होगी, चलना चािहये। िफर सोचा िक बस आधे मुहत (एक मुहत ४८ िमनट का
होता है) और ती ा करके देखा जाये उसके बाद वापस लौट जायगे।
उ ह उतनी भी ती ा नह करनी पड़ी। थोड़े ही काल म ऐसा श द सुनाई पड़ा जैसे
ू से पानी ख च रहा हो। उ ह ने अपना यान केि त िकया और श द क
कोई हाथी अपनी सँड़
िदशा म ल य कर बाण छोड़ िदया।
‘‘आह!!! मुझ िनरपराध पर यह शराघात ....’’ एक ल बी चीख वातावरण म गँज
ू गयी।
दशरथ च क पड़े - ‘यह या हो गया। या यह कोई मनु य था? आह िकतना बड़ा पाप
हो गया।’ अनेक आशंकाओं से यिथत वे हठात् नदी क ओर भागे। ‘हो सकता है बाण िकसी
घातक थान पर न लगा हो, यास करने से ाणर ा हो जाय।’
च मा के धँुधले काश म उ ह एक छटपटाती हई मानवीय आकृित िदखाई पड़ने
लगी। उसके गले म उनका तीर धँसा हआ था।
भागते हये वे िनकट पहँचे। अब प िदखाई पड़ रहा था िक यह एक मुिनकुमार था।
‘आह िवधाता यह या कर िदया मने?’ उ ह ने याकुलता से सोचा।
पास पहँच कर उ ह ने उसे शी ता से गोद म उठाने का यास िकया तो उसने रोक
िदया और पलक झपका कर संभवत: णाम करने का यास िकया।
‘‘भयभीत मत ह मुिनकुमार! म अभी आपको िशिवर म िलये चलता हँ। वहाँ उपचार क
यव था हो जायेगी।’’ दशरथ ह या के पाप का िवचार कर भीतर तक भयानक प से िसहर
उठे थे।
मुिनकुमार ने िसर िहला कर मना कर िदया और संकेत से बाण िनकालने का अनुरोध
िकया।
‘‘बाण िनकालते ही तु हारा ाणा त हो जायेगा।’’ दशरथ ने गले से बहते लह को ल य
करते हये कहा।
‘‘वह तो होना ही है।’’ उसने अ यंत क के साथ कहने का यास िकया। उसक बात
स य थी। दशरथ भी अनुभव कर रहे थे िक बस कुछ पल का ही अ तर पड़े गा। िक तु बाण
िनकाल देने से उसका ता कािलक क कुछ कम हो जायेगा साथ ही वह कुछ बोल भी पायेगा।
गले म िब बाण के साथ बोल पाना तो िनतांत असंभव सा ही था। उ ह ने भु का मरण िकया
और बाण उसके गले से ख च िलया। एक बार िफर ती ची कार वातावरण को िहला गयी। लह परू े
वेग से बह िनकला। दशरथ ने तुरंत अपना उ रीय उसक ीवा पर रख िदया।
‘‘बोिलये मुिनकुमार म आपका या िहत कर सकता हँ।’’ दशरथ का कंठ भी िवचिलत
हो उठा था। उ ह ने मुिनकुमार का िसर अपने घुटने पर रख िलया था।
‘‘आप महाराज दशरथ ही ह न?’’ उसने क के साथ पछ
ू ा।
दशरथ ने िसर िहला कर सहमित जताई।
‘‘आप ह या का िवचार मन से िनकाल द। म वै य िपता और शू ा माता क संतान
हँ।’’ इस क म भी उसे महाराज क िचंता थी।
‘‘जो भी ह , आप मुिनकुमार तो ह ही। शी बताएँ म आपका या िहत कर सकता हँ?
इस अपराध का ायि त िकस कार कर सकता हँ?’’
‘‘अपनी म ृ यु का मुझे कोई क नह , महाराज ...। क एक ही है ... िक मेरे बाद मेरे
असहाय माता-िपता का या होगा। वे भी मेरे िवयोग म ाण याग दगे।’’
‘‘कहाँ ह वे। म उनके सुिवधा पवू क जीवन यापन क स पण
ू यव था क ँ गा।’’
‘‘वे नह वीकार करगे। आप मा एक उपकार कर द। इस घट म जल ले जाकर उ ह दे
द, वे तषृ ाकुल मेरी ती ा कर रहे ह गे।’’ उसक साँस उखड़ने लगी थी। आँख उलटने लगी थ ।
‘‘िकधर ह वे?’’
उसने हाथ से पवू क ओर संकेत करते हये बोलने का अंितम यास िकया िक तु उसके
अ फुट श द दशरथ क समझ म न आ सके। इसके साथ ही उसका िसर एक ओर लुढ़क गया।
उसके ाण अपनी अंितम या ा पर थान कर चुके थे।

दशरथ ने डबडबाई आँख से उसका िसर भिू म पर रख िदया। िफर पास ही पड़ा िम ी का
घट उठाया और उसे भर कर उन व ृ द पित का सामना करने का साहस जुटाने का यास करते
हये चल िदये। नदी क बालू म चलना अ यंत दु कर हो रहा था। पैर जैसे बालू म धँसे जा रहे थे।
सारे िदन क थकान उन पर बुरी तरह हावी होने लगी थी।
उ ह अिधक नह चलना पड़ा। थोड़ी ही दूर पर उन व ृ मुिन द पित का एकाक छोटे
से कुटीर जैसा आ म था। दशरथ ने सहमते हये भीतर वेश िकया। उनक छाती धड़क रही थी।
‘‘आ गये व स!’’ बुिढ़या बोली - ‘‘लाओ जल दो। तषृ ा से याकुलता हो रही है।’’ दोन
ही अ यंत व ृ और जजर थे। दोन के ही केश सन के समान ेत थे। शरीर जैसे मा अि थय
का पंजर था। अंधकार हो गया था िक तु कुिटया के भीतर जो दीपक िटमिटमा रहा था उसम
इतना काश तो था ही िक वे अपने पु को पहचान लेते िक तु वे दशरथ को पहचान नह पाये
थे। इसका यही ता पय था िक उनक ि भी उनका साथ छोड़ ही चुक थी।
दशरथ मौन थे। उनका बोलने का साहस नह हो रहा था। उ ह ने घट एक ओर रख
िदया और चार ओर िनगाह दौड़ाई। एक दीवाल के साथ एक िम ी का पा रखा हआ था। उ ह ने
उसम जल लेकर व ृ ा को पकड़ा िदया था। पा लेने के यास म व ृ ा का हाथ दशरथ के हाथ
पर पड़ा।
‘‘तुम हमारे वण तो नह ! कौन हो तुम? वण कहाँ है?’’ उसने आशंिकत वर म
िकया।
‘‘ या? आगंतुक वण नह है?’’ व ृ ने भी आशंका से िकया।
‘‘जी! म आपका वण नह हँ।’’ कहने के साथ ही दशरथ ने सारा व ृ ांत दोन के
स मुख दोहरा िदया। मुिन कुमार ने यही करने को कहा था।
‘‘तो तुम कौन हो?’’ सब सुन कर ँ धे हये वर म व ृ ने िकया।
‘‘म दशरथ हँ। अयो या नरे श दशरथ।’’
‘‘आह! णाम महाराज!’’ इस ि थित म भी व ृ नरे श को णाम करने क
औपचा रकता नह भल
ू ा था।
‘‘नरे श का काय तो जापालन होता है, आप कैसे नरे श ह जो िनरीह जा क अकारण
ह या कर डालते ह।’’ आवेश म व ृ ा के मुख से िनकला।
‘‘मुिनवर! मने अपना अपराध वीकार कर िलया है। मने तो श द सुन कर िकसी गज
का अनुमान िकया था और शर-संधान कर िदया था। अपराध तो मुझसे िवकट हआ है िक तु यिद
संभव हो तो उदारतापवू क उसे मा कर द। म िकसी भी ायि त को त पर हँ। रा य ारा
आपक येक सुिवधा क स पण ू यव था का म वचन देता हँ।’’ अपराधबोध से यिथत दशरथ
ने कहा।
‘‘रा य ारा स पण
ू सुिवधा ... हंह!’’ िवदूरप
् से व ृ ा बोल पड़ी - ‘‘ या करगे हम रा य
का उपकार अपने ऊपर लाद कर?’’
‘‘महाराज आपने अपना अपराध वयं वीकार कर िलया है अब हम आप पर ोध कर
भी तो कैसे िक तु आपने िकतना बड़ा अपकार िकया है हमारे ित यह तो आप वयं समझ रहे
ह गे।’’
दशरथ डबडबाई आँख िलये मौन खड़े थे। या उ र देते!
‘‘अब जो दैव को वीकार था वह तो हो ही गया। अब एक उपकार कर दीिजये, हम
हमारे पु के अंितम दशन करा दीिजये तािक हम उसका िवधान पवू क अंितम सं कार कर सक।
तािक उसे स ित ा हो सके।’’
‘‘जी! अभी उपाय करता हँ।’’ दशरथ सोचने लगे िक दोन को एक साथ ले जाना कैसे
संभव है! तभी उ ह पीछे अपने अ के िहनिहनाने का वर सुनाई िदया। उ ह ने घम ू कर देखा।
सचमुच उनका अ उनके पीछे -पीछे आ गया था। उ ह ने धीरे से व ृ ा को उठाया और सँभाल कर
उसे अ क पीठ पर िबठा िदया।’’
‘‘माता इसके ये केश पकड़ लीिजये।’’ उ ह ने व ृ ा के हाथ पकड़ कर अ क ीवा के
बाल पर रखते हये कहा। िफर वे धीरे से अ क गरदन पर थपथपाते हये उसके कान म
फुसफुसाये ‘‘ि थर खड़े रहना चपलक!’’
अ ने कान फड़फाड़ाते हये िसर िहलाया जैसे अपने वामी क बात समझ गया हो।
िफर दशरथ ने उसी भाँित लाकर व ृ को भी अ पर िबठाया और तब झपट कर वयं
अ पर आ ढ़ हो गये। उ ह ने व गा के दोन िसरे अलग-अलग हाथ म पकड़ िलये थे, इस
कार व ृ द पि उनक भुजाओं और व गा के म य सुरि त थे। वे जानते थे अ वत: उ ह
इि छत थान पर ले जायेगा। उ ह ने बस पैर क एड़ी से उसके पेट पर ह का सा पश िकया
अ सधी हई चाल म धीरे -धीरे बढ़ चला।
‘‘धीरे -धीरे चलना चपलक।’’ दशरथ अ से संबोिधत हए।

दशरथ ने जैसे ही दोन को उनके पु के पास उतारा व ृ अनायास बोल पड़ा -


‘‘राजन एक उपकार और कर द। पु के िलये िचता क यव था ...’’
‘‘बस आप अपने पु को देिखये, अभी होता है।’’ कहकर दशरथ पुन: अ पर आ ढ़
हो गये।
वन म िचता के िलये लकिड़य क कोई कमी नह थी। दशरथ वन क ओर बढ़ चले।
‘‘महाराज! कहाँ चले गये थे आप?’’ अचानक दशरथ ने देखा िक उ ह खोजते हये
सेनापित आ गये थे। उनके साथ चार अ ारोही और थे।
‘‘कह नह , बस सरयू के तट पर शीतल वायु का आनंद ले रहा था।’’
‘‘तो अब िशिवर क ओर चिलये, सब िचंितत आपक ती ा कर रहे ह। कई दल वन म
आप को खोज रहे ह।’’
‘‘आप चिलये म कुछ काल म आता हँ। सारे दल को बुला लीिजये, म अपनी सुर ा
करने म समथ हँ।’’
‘‘िक तु महाराज ...’’
‘‘यह आदेश है।’’ दशरथ ने सेनापित क बात काटते हये कहा।
‘‘जी!’’ आदेश क अवहे लना संभव नह थी िक तु सभी के हाव-भाव से प
प रलि त हो रहा था िक यह आदेश वीकार करने म उ ह असुिवधा हो रही है। वे कुछ पल
महाराज क ओर देखते रहे िफर िहचिकचाते हये वापस लौट पड़े ।

दशरथ अ क पीठ पर लकिड़याँ लेकर आये तो व ृ ा ने बेटे के िसर को अपनी गोद म


रखा हआ था और बुरी कार िवलाप कर रही थी। लकिड़याँ डाले जाने का वर सुनकर व ृ ने
धीरे से अपनी सहधिमणी का कंधा िहलाया। िफर दशरथ ने देखा िक दोन उठकर डगमगाते हये
कदम से सरयू क ओर बढ़ गये। दशरथ शांत भाव से िचता सजाते रहे ।
लौट कर वे िचता के पास आये। उनके व से पानी टपक रहा था।
‘‘महाराज वण के शरीर को एक बार सरयू म नान करवा कर तदुपरांत िचता पर
रिखयेगा।’’
दशरथ ने वैसा ही िकया। परू े स मान से मुिनकुमार के शव को पिव सरयू म नान
करवाया और िफर उसे लाकर िचता पर रख िदया।
ू हो गया।’’ उ ह ने व ृ को संकेत िकया।
‘‘मुिनवर वण का नान स पण
व ृ ने लकिड़य क सहायता से अि न विलत क ।
थोड़ी ही देर म िचता परू े वेग से विलत हो उठी। उसे अनुकूल वायु का साथ िमल रहा
था।
‘‘राजन इ ह ने आपको मा कर िदया िक तु माता के दय म इतनी मता नह
होती। जैसे हम अपने पु के िवयोग म तड़प-तड़प कर शरीर याग रहे ह दैव चाहे गा तो आप भी
इसी भाँित अपने पु के िवयोग म तड़प-तड़प कर ाण यागगे।’’ रोते हये व ृ ा ने कहा।
दशरथ उसक बात सुनकर िसहर उठे । या बोलते वे!
‘‘ या अनथ कर रही हो? वह तो एक दुघटना थी। दैव क इ छा पर राजन का भी या
वश था? यिद दैव ने हमारे पु को इतनी ही आयु दान क थी तो इसम राजन का या दोष? वे
तो अनजाने ही दैव क इ छापिू त का साधन बन गये।’’ व ृ ने अपनी प नी को उलाहना िदया।
‘‘ या क ँ नाथ! माता का मन है, नह मानता।’’ व ृ ा ने िनिवकार भाव से कहा।
‘‘तो भी! हम साधु ह। हम अपने वचन और कम पर से िववेक का िनयं ण नह खोना
चािहये।’’
‘‘नाथ! अब पु के िबना हमारा भी या काय शेष है धरती पर। हम तो अपनी आयु
पहले ही परू ी कर चुके ह।’’ व ृ ा िवषय-प रवतन करती हई बोली- ‘‘हम भी पु का अनुसरण
कर?’’
कहने के साथ ही वह िचता म िगर पड़ी। दशरथ च क कर उसक ओर दौड़े । वे जब तक
वहाँ तक पहँचते व ृ भी अपनी प नी के ऊपर िगर चुका था।
दशरथ ने उ ह ज दी से बाहर ख चा। उनके शरीर म कोई चे ा शेष नह थी। उ ह ने
शी ता से दोन क नाड़ी टटोली - शांत। उ ह ने अपने हाथ उनके दय पर रख िदये। धड़कन
बंद हो चुक थी। दशरथ के अ ु अब उनका िनयं ण वीकार करने को तैयार नह थे। अचानक
उ ह चेत हआ। वे बदहवास से दौड़ कर पुन: अ पर सवार हये।
जब वे लौटे तो उनके साथ िजतनी भी लकिड़याँ वे अ क पीठ पर लाद सकते थे,
उतनी लकिड़याँ थ । उ ह ने िचता के दोन ओर लकिड़याँ लगाकर उसका आकार बड़ा िकया
और िफर पु क एक ओर िपता को और दूसरी ओर माता को िलटा िदया।
6. कौश या से िववाह
गु देव विश को जब सच ू ना िमली िक महाराज आखेट से वापस आ गये ह तो उ ह
आ य हआ। इतनी शी ! अभी कल ही तो गया था, स ाह-महीने लगने क संभावना थी, एक ही
िदवस म लौट आया! उ ह ने सोचा, अव य ही कुछ अघिटत घट गया है िजससे वह अपना आमोद-
मोद बीच म ही छोड़ कर आ गया है। या इस समय ही भट क जाये। नह ! उनके िववेक ने
सुझाया इस समय उिचत नह है। यिद कुछ अघिटत घटा है तो अभी अव य ही उसका मन उि न
होगा। ातःकाल िमलना ही उिचत होगा।
दूसरे िदन सं या-वंदन के उपरांत, जब उ ह तीत हआ िक दशरथ भी अब तक उठ गये
ह गे, गु देव सभाभवन म पहँचे। सभाभवन म उ ह ने वेश नह िकया अिपतु थोड़ी सी दूर ही
एक व ृ के नीचे खड़े हो गये जहाँ से सभाभवन के भीतर से उ ह देखा न जा सके। यिद वे
सभासद क ि म आ जाते तो बहत समय औपचा रकताओं म न हो जाता। उ ह ने संकेत से
ारपाल को बुलाया।
ारपाल से उ ह ात हआ िक महाराज का आगमन नह हआ है। यही संभावना भी थी।
सभासद और कुछ आमा यगण उपि थत थे। महामा य अभी नह आये थे, वे िकसी िवशेष योजन
से नगर म ह। आमा य सुमं उपि थत थे। गु देव ने उ ह ही चुपचाप बुला लाने का िनदश िदया।
ू ना िमलते ही सुमं उपि थत हो गये। औपचा रकताओं के बाद गु देव बोले -
सच
‘‘आओ चल।’’
‘‘कहाँ गु देव?’’
‘‘दशरथ के हाल जानने! अपने क म ही होगा अभी तो?’’ गु देव मंद ि मत के साथ
बोले।
‘‘संभावना तो यही है।’’ सुमं ने संि उ र िदया।
दोनो चल पड़े गंत य क ओर।
‘‘िकस समय लौटे ये आखेटक?’’
‘‘सय
ू ा त से पवू ही आ गये थे।’’
‘‘कुछ बताया िक आयोजन बीच म छोड़ कर कैसे वापस आ गये?’’
‘‘नह गु देव! िक तु कुछ िवशेष हआ अव य है। महाराज क मनि थित व थ नह
है। अपने म ही खोये-खोये से िदखाई पड़ रहे ह। तिनक सी बात पर अधीर होने लगते ह।
‘‘उनके सािथय ने कुछ बताया?’’
‘‘सेनापित बस इतना बता पाये िक आखेट से वापस आने के प ात महाराज एकाक
कह चले गये थे, िकसी को कुछ भी सच ू ना िदये िबना। बहत खोजने के उपरांत वे सरयू क ओर
वन म िमले। उसने उनसे भोजन के िलये लौट चलने को कहा, सबक िच ता के िवषय म भी
बताया िक तु उ ह ने उसे वापस जाने का आदेश दे िदया। वे वयं अधराि के उपरांत ही वापस
लौटे थे और भोजन िकये िबना ही लेट गये थे। ात: उठते ही वापसी का आदेश दे िदया था।’’
ू ा नह , कैसा सेनापित है?’’
‘‘उसने कुछ सँघ
‘‘महाराज के आदेश क अवहे लना कर वह उनके पीछे कैसे जा सकता था? िफर भी
उसने नदी िकनारे से धँुआ उठते देखा था, जैसे कोई िवशाल िचता जल रही हो।’’
‘‘सै य मुख होने के नाते उस पर ित- ण महाराज क सुर ा का दािय व होता है।
महाराज ने उसे वापस कर िदया था तो भी उसे उनके सं ान म आये िबना ही िनरं तर उन पर
ि रखनी चािहये थी। एका त वन म उनके साथ कोई भी दुघटना हो सकती थी। बात करनी
पड़े गी उससे। उसने िन य ही अपने दािय व क अवहे लना क है। दंड का भागी है वह।’’
‘‘अनुभव क कमी है अभी।’’
‘‘सही कहा, िक तु इस कमी को अनदेखा तो नह िकया जा सकता। दशरथ ने उस
जैसे अनुभवहीन को इतना गु तर दािय व स प कर बड़ी चक
ू क है।’’
इसी कार वाता करते हये वे दशरथ के क तक पहँच गये। दशरथ अभी भी श या म
ही थे, हालांिक जाग रहे थे। गु देव को देखते ही वे उठ खड़े हये और झुककर उनक चरणधिू ल
हण क , गु ने आशीवाद िदया।
‘‘आपने य क िकया गु देव, मुझे बुलवा िलया होता।’’
‘‘एक ही बात है, व स!’’
‘‘आदेश क िजये! सभाभवन म चलना होगा?’’
‘‘नह ! यह बात करते ह।’’
‘‘तो िफर आसन हण क िजये। मंि वर आप भी िवरािजये।’’
दोन के बैठ जाने पर दशरथ भी श या पर ही बैठ गये और वाचक ि से गु देव
क ओर देखने लगे।
‘‘व स मने िनणय िकया है िक अब तु हारा िववाह हो जाना चािहये।’’
‘‘जी???’’ दशरथ एकदम च क से पड़े - ‘‘अक मात? ... अक मात यह िवचार कैसे आ
गया? अभी तो ...’’
‘‘अक मात नह व स!’’ गु देव उनक बात काटते हये बोले - ‘‘यही उिचत समय है।
अब तो यह दािय व मेरे ही ऊपर है।’’
‘‘तो िफर जैसी आपक आ ा। जैसा आप कहगे वैसा ही करे गा दशरथ।’’ िफर सुमं क
ओर घम
ू ते हये बोले- ‘‘कोई ताव है या मंि वर?’’
सुम ने चुपचाप गु देव क ओर संकेत कर िदया। इस िवषय को गु देव ही उिचत
कार से सँभाल सकते थे।
‘‘ ताव तो नह है अभी। िक तु राजाओं के िववाह ताव आने पर ही नह होते, े
क या क ाि के िलये नपृ वयं भी पु षाथ का सहारा लेते ह।’’
‘‘आशय नह समझा म आपका गु देव?’’
‘‘उ र कोशलाधीश भानुमान क क या कौश या क अ यंत शंसा सुनी है मने।
मंि वर और महामा य भी मेरे िवचार से सहमत ह।’’
‘‘िक तु उनसे तो अयो या के संबंध मधुर नह ह गु देव?’’ दशरथ के उ र म
प झलक रहा था।
‘‘तभी तो मने कहा िक नपृ को वयं भी पु षाथ करना पड़ता है।’’
‘‘अथात यिद भानुमान वीकृित न द तो बलात हरण ...?’’
‘‘हाँ! यही ता पय है मेरा। िक तु थम तो ताव पे्रिषत करना ही उिचत होगा। यिद वे
अ वीकार कर द तो िफर यु या हरण जैसी भी प रि थित हो ...।’’
‘‘तो गु देव! पहले तो अभी आपक सि यता क ही आव यकता है।’’ दशरथ िकंिचत
हा य से बोले - ‘‘ ताव भेजने का काय तो आप ही स पािदत करगे।’’
‘‘वह तो म क ँ गा ही। बस ताव भेजने से पवू तुमसे परामश करना था। या पता
तु हारी िच कह और हो।’’ गु देव ने सहज भाव से कटा िकया।’’
‘‘ऐसा कुछ नह है गु देव।’’ दशरथ ने कुछ संकुिचत होते हये उ र िदया।
जैसी िक आशंका थी, भानुमान ने गु विश का ताव िवन ता से अ वीकार कर
िदया। उ ह ने ताव लेकर गये दूत को उ र म एक ल बा सा प िदया था िजसम बहत कुछ
कहा गया था िक तु उस िव तार का यहाँ कोई योजन नह है।
आखेट के समय हई उस दुघटना से दशरथ का मन अ यंत िख न था। वे छोटी-छोटी
बात पर ितलिमला उठते थे। भानुमान के प ने उनक उस यथा, उस िख नता को ोध बन
कर उबल पड़ने का माग दान कर िदया। अ वीकृित के साथ-साथ उ ह ने जो आरोप लगाये थे
वे दशरथ को अस थे। प िमलते ही उ ह ने उ र कोशल के िलये कूच कर िदया। गु का
परामश तो उनके साथ था ही। इस ि थित क तो वे क पना कर ही रहे थे।
उ र कोशल नाम से ही प है िक कोशल से उ र म अवि थत था। सरयू नदी दोन
रा य के म य क सीमा िनधा रत करती थी, उ र म उ र कोशल और दि ण म कोशल या
दि ण कोशल। उ र कोशल अपे ाकृत अ यंत छोटा रा य था। आयावत क राजनीित म उसका
मह व नग य था। इसीिलये दि ण कोशल का उ लेख ाय: कोशल के नाम से ही होता था।
दोन रा य क सै य साम य क कोई तुलना नह थी। िफर भी, अपनी सा ा यवादी नीित के
बाद भी कोशल ने कभी उ र कोशल को िविजत करने का यास नह िकया था। कोशल से सटा
हआ होते हये भी उ र कोशल एक वतं रा य था िजसने कभी कोशल क अधीनता वीकार
नह क थी। दो पड़ोिसय म ाय: संबंध अ छे नह होते, मा ऊपर से, अ छे संबंध का िदखावा
िकया जाता है। एक क उ नित अ य के िलये ई या का कारण बन जाती है। िकसी हद तक इन
दोन रा य क भी यही ि थित थी। इनम तो अ छे संबंध का िदखावा भी नह था।
यह जानते हये भी िक वे सै य शि म कोशल के सामने कह नह िटकते, महाराज
भानुमान ने ि य क टेक का अनुसरण करते हये रण े म परू ी बहादुरी से दशरथ का
सामना िकया। िक तु दशरथ को अिधक ऊजा यय नह करनी पड़ी। एक िदन के यु म ही
भानुमान क सेना ने श याग िदये। वयं भानुमान बंदी बना िलये गये। दशरथ ने र रं िजत
कृपाण के साथ अंत:पुर म वेश िकया और शतािधक अ य ि य के साथ कौश या को बलात
अपने अिधकार म ले िलया। वे सारी िवशाल नौकाएँ िजनसे सेना ने सरयू पार क थी, ती ा म
खड़ी ही थ । ात: का सय ू िनकलने से पवू ही दशरथ कौश या सिहत अपने ासाद म थे।
कौश या के ह तगत होते ही भानुमान को छोड़ िदया गया था। उ र कोशल तो काला तर म
वत: उनके सा ा य म िमल ही जाना था तो भावी प नी के िलये ोभ का कारण य उ प न
िकया जाये।

एक स ाह प ात शुभ मुहत म गु देव ने यथािविध िववाह काय स प न करा िदया।


भानुमान को भी िववाह म िनमं ण भेजा गया था िक तु उ ह ने आना वीकार नह िकया। तो भी
कौश या कोशल क महारानी बन गयी। उसने भी परू े मन से अपनी ि थित को वीकार कर
िलया।
7. सुमाली क दूर ि
कैकसी तीन वष के रावण को लेकर आई हई थी। वष भर का कंु भकण भी उसक गोद
म था। िववाह के बाद पहली बार वह आई थी िक तु इसका यह ता पय नह था िक इस बीच
उसका िपता के प रवार से कोई स पक नह रहा था। सौभा य से िव वा का आ म सुमाली के
िठकाने से एक िदवस क दूरी पर समु म एक छोटे से टापू पर था। येक दो-तीन माह के
अ तराल पर ह त आिद म से कोई भी भाई नाव लेकर जाता था और उससे िमल आता था।
सुमाली कभी िमलने नह गया था। उसे डर था िक कह िव वा उसे पहचान न ल। कैकसी भी
मुिन के साथ यवहार म पण ू त: सतक रहती थी िक वे िकसी भी कार अ स न न होने पाय।
वह जानती थी िक यिद िकसी िदन मुिनवर ने यान क अव था म उसके िवषय म जानने का
यास कर िलया तो वे सब जान जायगे। तब उसके िपता का प रचय ही सारा खेल िबगाड़ने के
िलये पया होगा। यँ ू वे िवर सं यासी थे। उनके मन म ई र के अित र िकसी को भी जानने
क लालसा नह थी। िसलिसला बिढ़या चल रहा था और उसे आशा थी बिढ़या ही चलता रहे गा।
ह त के नाव िकनारे पर लगाते ही उसने देख िलया िक परू ा कुल उनक ती ा कर
रहा है।
उनके उतरते ही िपता ने उसे बाह म भर िलया। रावण और कुंभकण को गोद म लेने के
िलये उनके सारे मामा-मामी आपस म झगड़ने लगे। िवजय मामाओं क हई। मािमयाँ धीरे से
उसक ओर िखसक आई ं और जो बातचीत का िसलिसला आरं भ हआ तो पता ही नह चला िक
कब सय ू ा त हो गया।
राि म भोजनोपरांत उसे िपता के साथ बैठ कर शाि त से बितयाने का अवसर िमल
पाया। भाई लोग घमू ने िनकल गये थे, भािभयाँ घर के काम म य त थ और ब चे रावण व
कुंभकण को घेरे उनके साथ खेल रहे थे।
‘‘और सुना बेटी, आन द तो है मुिनवर के आ म म?’’
‘‘हाँ! मुझे छोड़ कर शेष सभी आन द से ह।’’
‘‘तेरे साथ मने अ याय िकया है। ... है न?’’
‘‘नह िपताजी मेरे कहने का अथ यह कदािप न था। हम सब के पुन थान के िलये
यह तो आव यक था। पर या क ँ वहाँ के वातावरण म मुझे आन द नह िमल पाता, बस
कत य क ि से प रि थितय के साथ िनवाह िकये जा रही हँ।’’
‘‘आन द तो िमल भी नह पायेगा। तेरा बचपन ऐ य म बीता िफर बुरे िदन म भी इतने
भरे -परू े प रवार के साथ रही। सब समय तुम भाई-बहन का कलरव रहता था। सदैव कोलाहल
रहता था। इसके िवपरीत वहाँ आ म का एका त-शांत वातावरण, िनरं तर य और यान, मन तो
भटकता ही होगा तेरा।’’
‘‘अब जो है सो है। यही संतोष है िक इसी म से पुन: ऐ य का माग िनकलेगा।’’
‘‘सही कहा। अ छा हाँ! जब वापस जाना तो रावण को यह छोड़ जाना।’’
‘‘ या?’’ कैकसी च क पड़ी - ‘‘अभी तो बहत छोटा है।’’
‘‘यही तो समय होता है ब चे के मन क भिू म पर पौध रोपने का। वहाँ िपता के साथ रहा
तो आय सं कार उसके मन म घर कर लगे, वह भी आय हो जायेगा। म नह चाहता वह आय बने।
म नह चाहता वह र सं कृित से घणृ ा करे ।’’
‘‘समझ गयी म आपक बात। ऐसा ही होगा। मुिनवर को बता दँूगी िक यहाँ दो-दो छोटे
ब च को सँभालने म असुिवधा होती थी इसिलये नाना-नानी के पास छोड़ िदया।’’
‘‘हाँ! इसे ही तो र सं कृित का उ ारक बनना है।’’ सुमाली ने दूर ि ितज पर ि
केि त िकये हये कहा।
‘‘यह भी ठीक है िपता। छोड़ जाऊँगी म रावण को यह । उसे आप अपनी आकां ाओं के
अनु प दीि त क िजयेगा।’’
इसी बीच कैकसी क भािभय क ओर से बुलावा आ गया िक या हम कुछ भी समय
नह दगी जीजी? कैकसी हँसती हई भािभय क म डली म चली गई। सुमाली क आँख म
िपछली घटनाएँ पुन: सजीव होकर घम
ू ने लग ।
लगभग प ह वष पवू वे लोग िव णु से परािजत होकर वग से भागे थे। िव णु के सै य
ने इनका बहत दूर तक पीछा िकया था। इ ह भय था िक वह अव य लंका पर आ मण करे गा
अत: लंका पहँचते ही इन लोग ने अपने प रवार को, और जो कुछ भी समेट सकते थे उसे समेटा
था और चार ओर िततर-िबतर हो गये थे।
मा यवान को इस सबसे बड़ा ध का लगा था। उसे वैरा य हो गया था। उसने पवू क
ओर एक ीप पर जाकर एक आ म बना िलया था और ई र क आराधना म लग गया था।
सुमाली बाक सारे कुनबे को नाव म भरकर दि ण क ओर िनकल गया था -
अनजाने संसार म, भा य के भरोसे। लंका म क कर तो म ृ यु अव यंभावी थी। िकसी भी ात
भिू म पर िव णु ारा उ ह जीिवत छोड़े जाने क कोई संभावना नह थी। इस या ा म भी सागर
ारा उनका जीवन लील िलये जाने क ही संभावना अिधक थी िक तु िफर भी उसने यह जुआ
खेलने का िन य कर ही िलया था - या पता दैवयोग से कोई अ ात भिू म उनक जीवन-र ा
कर ही ले।
अपनी लंका को, िजसे उ ह ने अपने पु षाथ से बसाया और सम ृ िकया था, वे अनाथ
छोड़कर जा रहे थे - संभवत: सदैव के िलये। उसने आँसुओ ं से धँुधलाई आँख से धीरे -धीरे दूर होती
जा रही लंका को देखा था और िफर झटके से घम ू कर बैठ गया था। परू ी दो रात, दो िदन या ा
करने के बाद भिू म के दशन हये थे। यह एक िनजन े था, दूर-दूर तक उ ह कोई नह िदखाई
देता था। यह कौन सा थान था उसे नह ात था। वे तो अभी तक यही समझते आये थे िक लंका
के दि ण म मा जल ही जल है। लंका क भाँित यहाँ भी ना रयल के व ृ क भरमार थी,
उ ह ने ढे र सारे ना रयल तोड़ कर उसी से अपनी यास िमटाई। भोजन क तो थोड़ी बहत
यव था थी नाव म उनके पास िक तु पीने के िलये जल नह था। दो िदन तक उ ह यासा ही
रहना पड़ा था। िफर उ ह ने थोड़ी सी भिू म कृिष यो य बनाई और अपना पेट पालने लगे। वे अब भी
इतने समथ तो थे ही िक पुन: कोई छोटा सा रा य बसा सकते थे िक तु िव णु का भय उनके मन
म समाया हआ था िक कह उनके िवषय म सं ान होते ही िव णु पुन: आ मण न कर दे। अब तो
प रवार मा ही बचा था। सारी सेना, सारे संसाधन समा हो चुके थे इसिलये अ ात बने रहने म
ही भलाई थी।
कुछ काल उपरांत जब वे सुि थर हये तो उसने अपने कुल और सं कृित के पुन: उ ार
के उपाय पर िवचार करना आरं भ िकया। उसे ात था िक िव णु के कोप से दो ही शि याँ संर ण
देने म समथ थ - ा और िशव। यह भी िनि त था िक िव णु के िव ये दोन ही उसे कोई
सीधा सहयोग नह दान करगे। ि देव क यही सबसे बड़ी िवशेषता थी िक वे एक-दूसरे के
िवपरीत कभी नह जाते थे। एक-दूसरे के मान के िलये कुछ भी कर सकते थे।
तब या िकया जाय? िवकराल था सामने। उसे कुछ समझ नह आ रहा था।
अक मात एक िदन उसे ात हआ िक ा ने अपने पौ कुबेर को लोकपाल बनाकर
लंका स प दी है। उसके दय म शल
ू ऐसा चुभा िक तु उसे एक राह भी िदखाई दे गई।
उसने यौवन के ार पर द तक देती अपनी अ यंत पवती-गुणवती क या कैकसी को
कुबेर के िपता यानी ा के पौ और महिष पुल य के पु महिष िव वा के स मुख तुत
कर िदया। वह उसे सब कुछ समझा कर उनके आ म के िनकट छोड़ आया था। वयं नह गया
था आ म तक, या पता उसे देख कर िव वा पहचान ल और सच ू ना िव णु तक पहँच जाये। वैसे
भी णय-िनवेदन करने जाती िकसी मु धा के साथ उसके िपता का या योजन था! यिद
कैकसी िव वा को वयं पर आस कर पाने म सफल रही तो तेज से स प न उसक
स तान िन य ही कुल का उ ार करने म समथ िस होगी। उसके शीश पर सहज ही वयं ा
का वरद्ह त होगा, जैसे कुबेर पर है। वह भी िपतामह ा क कृपा से िन य ही कुबेर के
समान सव पू य होगा। िव वा क प नी महिष भर ाज क पु ी देवविणनी अब कुबेर के साथ
लंका आ गयी थ । इसिलये यह काय सुमाली को और भी सुगम तीत हो रहा था। यिद कैकसी
थोड़ा सा भी िववेक का योग कर सक तो काय िन:संदेह िस होगा।
कैकसी क तुलना म ऋिषवर अ यंत व ृ थे, उसे तीित थी िक वह अपनी पु ी के साथ
अ याय कर रहा है, उसके िपतम
ृ ोह को उसके ही िव हिथयार बना रहा है - िक तु उ ार का
अ य कोई माग भी तो नह िदख रहा था।
कैकसी ने उसे िनराश नह िकया। उसने िव वा क मन से सेवा क और अ तत:
उनक प नी का पद ा कर ही िलया। प रणाम सामने था। अब उसक गोद म महिष िव वा के
अंश व प दो संतान थ - िजनम िन य ही वयं ा का भी अंश िव मान था।
8. कु भकण का अ यास
‘‘हाँ ऐसे! अतीव सु दर कुंभकण!’’
सुमाली रावण और कुंभकण को साधना का अ यास करवा रहा था। कुंभकण को अभी
यहाँ आये सात वष ही हये थे। इस समय वह आठ वष का हो गया था। वह अभी से चम का रक
प से वहृ दाकार था। मा वहृ दाकार ही नह था, अिव सनीय बल का वामी भी था। अभी से वह
अ छे -भले मनु य को परा त कर देने क साम य रखता था। उसक माता के िलये उसे गोदी म
उठाना या िहलाना तक संभव नह था। प िदख रहा था िक आने वाले समय म उसके समान
बलशाली कोई दूसरा खोजे नह िमलने वाला था। िक तु इसके साथ ही उसके च र म एक बड़ी
दुबलता भी थी, वह परम आलसी था। दूसरी तरफ रावण सुदशन यि व का वामी बन रहा था।
उसका कद भी खबू अ छा िनकलता िदख रहा था, य िप कंु भकण क तरह अिव सनीय नह
था। कुंभकण के िवपरीत वह अ यंत िज ासु था, उ मी था, मेधावी था। कुल िमला कर वह भिव य
म सिृ के सव े मानव म िगने जाने यो य मताएँ रखता था।
सुमाली ने इनक िश ा दी ा के िलये अपने तर पर स पण ू ब ध िकये थे। वह
यौिगक साधना म इ ह पण ू पारं गत करना चाहता था। उसक अिभलाषा थी िक शी ाितशी
दोन इतने पारं गत हो जाय िक ा से योग-समािध के ारा स पक थािपत कर सक।
त प ात तो महिष िव वा का नाम ही पया था। ा का नेह और आशीवाद इ ह िमलना ही
था। यिद कुबेर को ा लोकपाल बना सकते थे तो इ ह भी यँ ू ही तो नह छोड़ सकते थे।
रावण म उसे परू ी संभावनाएँ िदख रही थ । इन दोन क िश ा का स पण
ू भार उसे वयं
ही उठाना था। भारत क मु य भिू म पर िकसी गु कुल म भेजना भर ही अिन कारक हो सकता
था। य िप यह किठन दािय व था तथािप उसे िव ास था िक वह वयं ही इन लोग के िलये
उपयु िश क था। भाइय सिहत उसने भी तो अपने समय म योग-समािध क पराका ा को
पश िकया था। उन तीन ने भी तो इसी मा यम से ा को स न िकया था।

रावण अब दस वष का हो गया था अथात् उसे साधना करते हये सात वष यतीत हो


चुके थे। उसक गित अ यंत उ साहवधक थी और सुमाली को िव ास था िक वह वयं उससे भी
बहत आगे जायेगा। वह र सं कृित को पुन: सवा च िशखर पर ले जाकर उसका व न साकार
करे गा। उसने मुड़ कर रावण क ओर देखा - वह अब भी समािध थ था। आस-पास के स पण ू
जगत से पण ू त: िनिल । वह अब कुछ-कुछ को अनुभव करने लगा था।
उसके अपने पु और ातज ृ यो ा के प म अ यंत े होते हये भी साधक नह बन
पाये थे। वे समािध म उस सीमा तक कभी नह डूब पाये थे िजस सीमा तक पहँचने पर से
सा ा कार संभव हो पाता है। इसीिलये तो उसे अपने दौिह पर दाँव लगाना पड़ा था। वे े तम
ऋिषय म से एक क संतान थे। अपने समय के े तम ऋिष के पौ थे। वयं ा के पौ के
पु थे। इन े तम मनीिषय का अंश ाकृितक प से इनम आना ही था। उसने और उसके
भाइय ने सफलता अपने यास और इ छा शि से ा क थी िक तु इ ह तो उसका बहत बड़ा
अंश िवरासत म िमलने वाला था। िपता क ओर से योग-िव ा म े ता और माता क ओर से
शारी रक साम य। इसीिलये तो उसने कैकसी को िव वा के पास भेजा था। ‘रावण आने वाले एक
दशक म संसार का सव े योगी बन जायेगा।’ उसने सोचा।
अनायास उसक ि पुन: रावण क ओर उठ गयी। वह अब भी उिचत मु ा म
समािध थ था। िफर उसक ि वाभािवक प से कुंभकण क ओर गई - उसक कमर झुक
गई थी, शरीर बार-बार आगे क ओर झल ू जाता था। अरे यह तो पुन: सो गया, सदैव क भाँित।
वह हँसा िफर कुंभकण के पास जाकर उसे झकझोरता हआ बोला -
‘‘सो गये पु ?’’
‘‘अँ ... न ... नह तो!’’ उसने िसर को झटका िदया िफर बोला - ‘‘नह तो मातामह।’’
उसने एक बार और िसर को झटका िदया। अब उसे चेत हो गया था, बोला - ‘‘मातामह जैसे ही म
समािध थ होता हँ, आप यवधान दे देते ह। मेरी साधना टूट जाती है।’’
‘‘समािध थ थे या सो गये थे।’’ सुमाली ने वर को कठोर बनाते हये कहा।
‘‘स य मातामह! समािध थ था।’’
सुमाली उसक व रत बुि पर हँस पड़ा, ‘‘है चतुर यह भी!’’ िफर बोला - ‘‘बहाने
ू े माता के गभ म ही सीख िलया था!’’
बनाना तो तन
‘‘ या माता भी बहाने बनाती थी?’’ कुंभकण ताली बजाता हआ बोला।
‘‘नह माता बहाने नह बनाती थी, यह तो तेरी अपनी िवशेषता है।’’
‘‘िक तु यह बात आप क उिचत नह है मातामह!’’
‘‘ या बात उिचत नह है।’’
‘‘यही िक आप मेरी तो समािध भंग कर देते ह पर तु भइया रावण को कभी यवधान
नह देते।’’
सुमाली इस बार जोर से हँसा िफर बोला -
‘‘रावण समािध म ही है और तुम सो रहे थे। तुम सदैव सो जाते हो, इसीिलये तु ह
जगाना पड़ता है।’’
‘‘नह मातामह! स य म म सोया नह था।’’
‘‘अ छा चलो तु हारा ही कथन स य मान िलया िक तु पुन: समािध म जाने का यास
करो।’’
‘‘अ छा करता हँ, िक तु इस बार यवधान मत देना।’’
‘‘नह दँूगा, पर सो जाओगे तब तो जगाना ही पड़े गा।’’
‘‘हँ .... िफर वही बात। कहा न, म नह सोता हँ पर तु मेरी बात तो आप मानते ही
नह ।’’ कुंभकण ने ोध का अिभनय करते हये हाथ जमीन पर पटका। उसके हाथ के नीचे आये
प थर म ह का सा बाल आ गया था। यह बात कंु भकण ने ल य नह क िक तु सुमाली ने क ।

‘‘अ छा चलो नह दँूगा िक तु अब बात बनाना यागो और अ यास पर यान केि त


करो।’’
‘‘अ छा यह तो बताइये िक आप कैसे कह देते ह िक म सो रहा था और भइया समािध म
ह।’’
‘‘कुछ वष और अ यास कर लो तदुपरांत म बताऊँगा िक कैसे कह देता हँ। बताऊँगा
या मािणत करके िदखाऊँगा। िक तु अभी अपनी वा पटुता को िवराम दो और अ यास करो।’’
सुमाली ने अपनी हँसी दबाते हये कठोरता से कहा। कुंभकण िफर प ासन क अव था म बैठ
गया, आँख ब द करके।
सुमाली ने पुन: रावण पर ि पात िकया, इस सारे घटना म से वह अ भािवत था। उसे
पुन: स नता का अनुभव हआ। ‘अब कल से ही उसे ाणायाम का अ यास कराना आरं भ कर
दँूगा’ - उसने सोचा।

कंु भकण से छोटा िवभीषण भी सात वष का हो गया था िक तु उसे कैकसी ने अभी यहाँ
नह छोड़ा था। उसके िवषय म िव वा ने कह िदया था िक इसे अभी यह रहने दो। इसे बारह वष
तक आ म के सं कार म पलने दो। दो बेटे तो निनहाल म छोड़ ही आयी हो। आव यकता तीत
हो तो वहाँ से सहयोग के िलये िकसी को यह बुला लो। इस पर कैकसी ने अिधक ितरोध नह
िकया था। ितरोध करने पर कह मुिनवर को शंका हो जाती तो सारा भेद खुल जाता जो िक
संकट को िनमं ण दे सकता था। उसे पण ू िव ास था िक मुिनवर ि कालदश ह। वे इ छा करते
ही सब कुछ जान सकते ह।
इस कार िवभीषण िपता के पास ही पल रहा था अभी। अिधक िचंता क बात नह थी
य िक जो कुछ सुमाली िसखाना चाहता था वह सब िव वा शायद और बेहतर िसखा सकते थे।
बस एक ही िचंता थी िक उसम आय सं कृित कह गहरे पैठ गई तो िनकालना किठन हो
जायेगा।
च नखा भी पाँच वष क हो गयी थी वह भी माता के पास ही थी िक तु उसक कोई
िचंता नह थी। आय सोच के अनुसार उसके िपता उसे दीि त करने हे तु िवशेष यासरत नह थे।
वे भी उसके िलये सामा य िव ा ही पया समझते थे। इस कारण वह माता के साि न य म ही
अिधक रहती थी और माता कैकसी, उसम भरपरू र सं कार रोप रही थी।
चलो जो होगा, देखा जायेगा। सुमाली ने िचंतन को झटके से उतार फका। उसका काय
िस करने के िलये दो ही पया थे। रावण का तेज और कुंभकण का असीिमत बल, इन दो के
सहयोग से वह अपने सपन को परू ा करने म अव य सफल होगा।
9. आ िण
घने बादल ने स पण ू आकाश को आ छािदत कर रखा था य िप वषा नह हो रही थी।
नंदन कानन से सुरिभत पु प क सुवास को अपने पंख म समेटे पवन ने सम त ासाद को
सुगंध से महमहा िदया था। देवराज इ अपने भ य, सुवण से दीि मान ासाद के िवनोद क म
मेनका, उवशी और र भा के साथ आमोद- मोद म त लीन थे। सोमरस के पा तीन के स मुख
रखे हये थे। वा शांत थे। उनके वादक उ ह समेटने का य न कर रहे थे। तीन ही अ सराओं के
उठते िगरते व और उसके आनन पर चमक रहे वेद िबंदु बता रहे थे िक वे अभी-अभी न ृ य से
िनव ृ हई ह। इ के हाथ म सोमरस का पा था िजसे वे चुसक रहे थे। वा समेटकर वादक ने
उ ह यथा थान यवि थत कर िदया और इ से थान क आ ा माँगी। इ ने िसर के ह के
से झटके से उ ह अनुमित दान कर दी। तीन अ सराएँ भी अपने-अपने पा सोमरस से भर कर
आकर इ के पास बैठ गय ।
इ का उ रीय और सुवण-मुकुट अलग रखा था। उसके गले म सतरं गे पु प क
सुवािसत माला झल
ू रही थी। तीन अ सराओं ने भी पु प से शंग
ृ ार िकया हआ था। संि सी
कंचुक और अधोव म उनका मादक यौवन िकसी क भी चेतना का हरण करने म स म था।
अ सराओं के बैठते ही इ ने अपने दािहनी ओर बैठी मेनका को हाथ बढ़ा कर अपने
आिलंगन म समेटना चाहा तो उसने इठलाते हये इ के हाथ को बीच म ही पकड़ िलया -
‘‘देवे साँस तो यवि थत हो जाने दीिजये।’’
‘‘ या आव यकता है? आप मेरी ास को भी अ यवि थत कर दीिजये!’’ इ ने
उसके हाथ को अपनी ओर ख चते हये कामास वर से कहा। मेनका बरबस उसक गोद म
िखंची चली आई और अपने अधर उसके अधर पर रख िदये। उवशी और र भा िखलिखलाने लग ।
ू देव के दशन हये।
तभी ार पर सय
‘‘देवे यिद यवधान न बनँ ू तो म भी वेश करने क अनुमित चाहता हँ।’’
ू देव! आपके तो इ के ासाद म दशन ही दुलभ ह। या कभी इ छा
‘‘आइये-आइये सय
ही नह होती हमसे भट करने क ?’’ इ ने मेनका के मुख से चेहरा हटा कर उलाहना सा देते
हये कहा।
‘‘इ छा तो सदैव रहती है देवे िक तु या क ँ अवकाश ही नह िमलता। स पण ू
िदवस तो रथ पर सवार भागते ही यतीत हो जाता है और िनशा म देवी िन ा घेर लेती ह। िवधाता
ने बड़ा अ याय िकया है मेरे साथ।’’
‘‘अरे नह सय
ू देव! आप ही तो सम त सिृ के तेज के ोत ह।’’
‘‘मुझे बस ऐसे ही थोथी शंसा से मख
ू बनाते रिहये।’’ सय
ू देव ने हँसते हये कहा -
‘‘और वयं इन सव े सु द रय के साथ िवहार क िजये।’’
‘‘अरे तो आपके िवहार म कौन सी बाधा है? य मेनका?’’
‘‘स य कहा देवे । हम वयं ही सेवा का अवसर नह देते और िफर आरोप मढ़ते ह। यह
तो अ याय है सय
ू देव!’’ मेनका ने इ क बात को आगे बढ़ाया।
इस बीच उवशी सय ू देव के िलये भी सोमरस का पा भर कर ले आई थी। उसके हाथ से
पा लेते हये सय
ू देव बोले -
‘‘ तीत होता है अभी-अभी आप न ृ य से िनव ृ हई ह। ये वेद िबंदु चुगली कर रहे ह।’’
कहते हये उ ह ने अपनी एक उँ गली से उवशी के माथे से वेद-िबंदु प छ िदये।
‘‘जी सय
ू देव!’’
‘‘दुभा य मेरा! तिनक सा िवल ब हो गया।’’
‘‘दुभा य य सय
ू देव! आप किहये तो पुन: आयोजन हो जायेगा।’’ र भा बोली।
‘‘िन य ही! बुलाओ तो वादक को।’’ देवे ने कहा।
‘‘अरे नह ! यह अ याचार नह क ँ गा म।’’ चलने को उ त हई उवशी का हाथ पकड़
कर उसे बैठाते हये सय
ू देव बोले- ‘‘आपका तमतमाया आनन और वेद से भीगा वपु (शरीर)
प बता रहा है िक आप िकतनी थक हई ह।’’
‘‘यह वेद तो शीतल वायु अभी सुखा देगी और यह सोमरस अभी नवीन ऊजा का
ू देव के कंधे का सहारा लेकर उसक बगल म बैठते हये बोली।
संचार कर देगा।’’ उवशी सय
‘‘मुझे तो आपका यह सामी य ही अिधक आनंद दे रहा है।’’
उवशी िखलिखला उठी।
‘‘ऐसा!!! तो लीिजये म भी आ जाती हँ।’’ कहते हये र भा उनक दूसरी ओर आकर बैठ
गयी।
‘‘आहा! यही तो है वा तिवक वग य आनंद।’’
यह सुरा और सुंदरी का दौर चलता रहा। सभी के ने म लाल डोरे तैरने लगे थे।
आचरण क मयादा धीरे -धीरे िशिथल पड़ती जा रही थी। बाहर ह क -ह क बँदू पड़ने लगी थ ।
मौसम क मादकता भी सबक चेतना को वशीभत ू करने लगी थी।
उधर बाहर सयू देव के रथ पर सारथी आ िण सय ू देव क वापसी क ती ा करती हई
बैठी थी। उसके ल बे बाल खुले हये उसक पीठ पर िबखरे हये थे। ह के से भरू े रं ग क आभा िलये
केश म वाभािवक प से कुंतल पड़े हये थे। सुदीघ और सुपु समानुपाती देहयि , अ सराओं
को भी लजाने वाली मुखाकृित और गौरवण मान दूध म ात: क थम िकरण को घोल िदया
गया हो, उसे अिनं सु दरी बना रहे थे। उ नत व को और भी सु प आकार दान करती हई
संि -सुनहरी कंचुक पर सोने का काम था। वैसा ही काम उसके किट से घुटन तक लपेटे हये
अधोव पर भी था। अधोव जंघाओं पर इस कार िलपटा हआ था िक उनके सौ व को और
उजागर कर रहा था। दीघ काल तक वह रथ पर ही अधलेटी से ती ा करती रही। ती ा लंबी
होती देखकर अंतत: रथ से उतर आई और सामने पु प-वािटका म िवचरने लगी।
तभी आकाश से ह क -ह क बँदू पड़ने लग । उसने सोचा िक या िकया जाये - बँदू
का आन द िलया जाय या रथ म शरण ली जाय? अंतत: उसने बँदू का आन द लेने का ही
िन य िकया। उसने ने मँदू िलये और िसर को ऊपर उठा कर बँदू को सीधे चेहरे पर आने िदया।
न जाने िकतनी देर तक वह रमिझम का आन द लेती रही। उसे यान ही नह रहा िक वह कहाँ
है? या कर रही है। उसका शरीर मानो िसतार बन गया था िजसके तार को मेघ अपनी बँदू पी
उँ गिलय के पश से छे ड़ रहे थे। इस पश से जैसे स पण
ू शरीर म अ ुत िसहरन झंकृत हो रही
थी।
इ वातायन से इस य को देख रहा था। अ सराओं का सौ दय य िप मादक था
िक तु वह तो उसे सदैव उपल ध था। उसम अब नवीनता नह रही थी। यह नवीन सौ दय उसे
िवचिलत कर रहा था वह सोच रहा था िक उसके ासाद म यह कौन जलपरी आकर ड़ा-
िवलास करने लगी है? म और वातावरण का भाव उसके उ माद को बढ़ा रहा था। उसका मन
कर रहा था िक वह त काल उठकर जाये और उस अपवू सु दरी से णय-िनवेदन कर दे। उसके
मन म सदैव से यह ढ़ भावना रही थी िक देवराज होने के नाते ि लोक क येक सव े
कृित पर उसका सव थम अिधकार था।
वह िन य ही अपनी सोच पर अमल करता िक तु सय ू देव क उपि थित के कारण
मयािदत था। वह अचानक कामना करने लगा िक सय ू देव अब थान कर ही जाय। वे उसके
और सु दरी के म य एक बाधा के समान उपि थत थे।
उसने मेनका को अपनी गोद से अलग कर िदया और सोमरस का पा िलये-िलये
उठकर वातायन के िनकट आ गया और िकंिचत ध ृ तापवू क उस सु दरी को िनहारने लगा।
‘‘सय
ू देव आज या पण
ू अवकाश पर ह?’’ उसने उधर ही देखते हये अ फुट वर म
िकया।
ू देव उवशी और र भा के यौवन म खोये हये थे। उ ह लगा िक इ
सय ने कुछ कहा है
िक तु समझ म नह आया िक या कहा है।
‘‘ या कहा देवराज?’’ उ ह ने ित िकया।
‘‘मने पछ
ू ा िक आज या पण
ू अवकाश पर ह। आप तो कभी इतनी सुदीघ अविध तक
एक थान पर नह ठहरते?’’ इ ने मु कुराने का यास करते हये कहा।
सयू देव ने ि उठाकर इ क ओर देखा। वे वहाँ नह थे, िक तु वर तो उ ह का
था! सय
ू देव ने सोचा िफर सचेत होकर ि क म चार ओर िफराई। इ उ ह वातायन से बाहर
झाँकते खड़े िदखाई िदये। उ ह ने यह भी देखा िक वे िकस कामुक ि से आ णी को देख रहे
ह। उ ह कुछ िख नता हई िक तु अपनी िख नता वे कट नह कर सकते थे। इ देवराज थे। वे
एकदम सचेत होते हये उठकर खड़े हो गये। बोले -
‘‘नह देवराज बस जा ही रहा था। मुझे अवकाश कहाँ यह तो उवशी और र भा ने अपने
नयन के स मोहन से मेरी चेतना को अवश कर िदया था। मायािवनी ह ये, मुझे भान ही नह
हआ िक इतना काल यतीत हो गया है मुझे यहाँ।’’ सयू देव झपी हई हँसी के साथ बोल पड़े -
‘‘बस अब आ ा दीिजये।’’
ू देव! म मथ को दोष नह देते जो चुपचाप आपके अंतस् म िव हो गया है,
‘‘वाह सय
हम मायािवनी बता रहे ह।’’ र भा ने मिदरा से भािवत वर म िखलिखलाते हये कटा िकया। -
‘‘यह तो अ याय है आपका।’’
उवशी ने हँसी म उसका साथ िदया। मेनका अ यमन क सी अभी यही सोच रही थी िक
इ अचानक उसे कामास छोड़ कर उठ य गये। यह तो उनके वभाव के िवपरीत है।
ू करने म स म तो आपके
‘‘म िम या नह कह रहा, म मथ को मेरी चेतना को वशीभत
इस मादक सौ दय ने ही बनाया है र भे!’’
‘‘अ छा!!!’’ र भा आ य का दशन करती हई बोली- ‘‘िक तु सय
ू देव इस कार बीच
म ही उठ कर आप हमारे इस सौ दय का अपमान कर रहे ह। यह तो अ याय क पराका ा है।’’
कहती हई वह िखलिखला उठी।
सय
ू देव ने उसक बात का उ र नह िदया। इस समय तो उ ह आ णी को देवराज क
िनगाह से दूर सुरि त ले जाने क शी ता थी। उ ह ने ार क ओर बढ़ते हये देवे से अनुमित
माँगने क औपचा रकता का िनवाह िकया -
‘‘अ छा! आ ा दीिजये देवराज!’’ और ार से बाहर िनकल गये।
‘‘अरे ! अभी यँ ू अचेत से मिदरा म म पड़े थे और अब अक मात इतनी शी ता। मुझे ार
तक िवदा करने का सौभा य तो दीिजये।’’ कहते हये इ भी उनके पीछे -पीछे बढ़ िलये।
सयू देव ने मु कुराने का यास करते हये देवराज के अपने बराबर आने क ती ा क ।
देवराज के कटा के उपरा त यह आव यक हो गया था। दोन एकसाथ ार से आगे बढ़े । बाहर
आते ही इ ने ऐसा अिभनय िकया जैसे उ ह ने अभी आ णी को देखा हो। वे नाटक य वर म
उससे स बोिधत हये -
‘‘अरे ि लोक क सव े सु दरी! या देवे तुमसे प रिचत होने का सौभा य ा
कर सकता है। तु हारे आगमन ने इ के इस कुटीर को ध य कर िदया है।’’
रमझम म हाथ पसारे गोल-गोल घम ू ती आ णी अपने ही संसार म खोयी हई थी। भीगने
से उसके संि व पारदश से हो गये थे िजनसे उसका यौवन मादक से मारक हो गया था।
वह यह वर सुनकर जैसे सोये से जाग गयी।
‘‘देवराज! ये महिष क यप और देवी िवनता क पु ी देवी आ णी ह। ये सारथी के प
म अपनी सेवाएँ दान कर मुझे ध य कर रही ह। ये ......’’
‘‘आह! सय ू देव क बात काटते हये बोल पड़े - ‘‘मुझे देवी के
ू देव!’’ इ बीच म ही सय
वर क रमिझम म अवगाहन ( नान करना) का सौभा य ा करने द। िन य ही इनका वर
भी इनके प सा ही अ ुत होगा।’’
‘‘ णाम देवराज!’’ आ णी इ को हठात् सामने देख कर अपने भीगे व को
अनुभव कर अपने म िसकुड़ी हई खड़ी थी। वह संकोच से बोली -‘‘अपनी इस अिश ता के िलये
म मा ाथ हँ।’’
अब तक तीन अ सराएँ भी बाहर िनकल आई थ और आँखे फाड़े आ णी को देख रही
थ।
‘‘अिश ता? देवी आप इ का उपहास कर रही ह। काश! आप ऐसी अिश ता िन य
िनरं तर दुहराएँ - इ के आतुर नयन तो अब येक पल इसी ती ा म रहगे।’’
आ णी को समझ ही नह आया िक वह या उ र दे। वह संकोच से िसर झुकाये
‘‘जी!’’ बस इतना ही उ चारण कर पाई। सय
ू देव हताश थे, देवराज ने अपना दाँव खेल ही िदया
था।
‘‘देवराज! अब अनुमित दीिजये। देवी आ णी रथ को घुमाइये।’’
‘‘सय
ू देव यह तो अनुिचत है। आपने इ को देवी से उिचत प से प रिचत ही नह होने
िदया। देवी आपका भी यह अ याय है इ के ित। आप यहाँ तक आई ं और इ के क को
अपनी चरण-रज से पिव तक नह िकया। अब इस काय हे तु आपको पुन: आना पड़े गा।’’
‘‘जी! देवराज! जब आप आ ा कर।’’ आ णी िठठक कर बोली। वह स न भी थी िक
वयं देवराज उसके प को सराह रहे ह और संकुिचत भी थी िक वह ऐसी अमयािदत अव था म
उनके स मुख है।
‘‘िक तु देवराज यिद देवी आपके पास आ जायगी तो मेरा तो स पण
ू काय बािधत हो
जायेगा। म या क ँ गा?’’ सयू देव ने ह त ेप िकया।
ू देव! म जानता हँ िक आप यव था कर लगे। देवी के यहाँ
‘‘ या बात करते ह सय
आगमन से आपके काय भािवत नह ह गे।’’
‘‘जी करनी ही पड़े गी।’’ सय
ू देव अपनी िनराशा को िछपाने का यास करते हये बोले।
‘‘आभारी रहँगा म आपका। यिद देवी नह आई ं तो म सदैव वयं को इनका अपराधी
अनुभव करता रहँगा। या आप चाहते ह िक आपके देवराज ऐसी मानिसक लािन अनुभव
कर?’’
‘‘नह देवराज! देवी कल आपके सम अव य उपि थत ह गी।’’ या करते सय ू देव और
कोई चारा ही नह था अब। इ तो िकसी भी सु दरी को देखते ही सारी मयादाएँ भल
ू ही जाते थे।
‘‘पुन: आभार आप दोन का। इ कल पलक िबछाये आपक ती ा करे गा देवी।’’
आ णी ने हाथ जोड़े और अ क व गा सँभाल कर रथ को घुमाने लगी।

इ का िनमं ण ठुकराना आ णी के िलये ही या िकसी के िलये भी संभव नह था।


एक बार आर भ होकर िफर यह िमलन का म तब तक चला जब तक गभ ने आ िण के शरीर
के समानुपाती कटाव के अनुपात को िकंिचत िबगाड़ नह िदया। इ ने अपना बीज उसे दे िदया
था।
10. कौश या का ताव
महाराज दशरथ क आयु ाय: अड़तीस वष क हो चुक थी। महारानी कौश या से
िववाह हये तेरह वष यतीत हो चुके थे। इन वष म महारानी के अनुभव िमले-जुले थे। उ साह से
अनु ािणत स नता के अनुपम ण भी थे तो यथा से करवट बदलती भयावह रात भी थ ।
महाराज सतत यु म रत रहते थे िजनम अनेक यु तो अनाव यक थे जो मह वहीन छोटी-
छोटी बात पर मा ा -दप के कारण हआ करते थे। कौश या का िववाह भी तो ऐसे ही एक यु
का प रणाम था।
दशरथ ने य िप कौश या को बलात ा िकया था तथािप कौश या ने अपने कोमल
वभाव के अनुकूल ही आचरण करते हये दशरथ को परू े मन से अपना सव व समिपत कर िदया।
िपता के साथ उनके वैमन य को उसने बीच म नह आने िदया। इसका उसे ितफल भी िमला था,
उसने महारानी के पद के साथ-साथ दशरथ के दय म स मान भी अिजत कर िलया था। स पण ू
अयो या उसे अ तस् क गहराइय से स मान देती थी।
कुछ वष सुखमय यतीत हये िक तु बदलते समय के साथ-साथ ि थितयाँ भी बदलती
गय । दशरथ यु म य त होते गये। येक यु म िवजय के साथ-साथ कुछ उप-पि नयाँ भी
ा होती थ उ ह।
उप-पि नय के आगमन का िसलिसला तो कौश या के आगमन के साथ ही आरं भ हो
गया था। कौश या के साथ ही उ ह ने शतािधक ि य का अपहरण िकया था। उस काय म िकसी
का कुल-गो , प रचय जानने का यास नह िकया गया था, बस अंत:पुर म िजतनी भी युवा
ि याँ थ सभी को बलात ‘भर’ लाया गया था। इन ि य म अठारह-बीस राजकुल से थ । उन
सभी को उपपि नय का पद ा हो गया था। कुछ अ यंत सुंदर दािसय को भी यह पदवी ा हई
थी। शेष सम त, जो पवू म भी दासी ही थ , कौश या क दािसय म थान पा गयी थ ।
पहले-पहल इ ह कौश या के ासाद म ही थान िदया गया था। (कौश या को महाराज
ने माता वाला ासाद दे िदया था।) कालांतर म जब उनक सं या बढ़ने लगी थी तो उनके िलये
पथ
ृ क िनवास क यव था कर दी गयी थी।
कौश या अयो या क महारानी थी िक तु अब वह महाराज के िलये बासी हो गयी थी।
उसके शांत दैवीय सौ दय क अपे ा उप-पि नय का मादक-उ त सौ दय उ ह अिधक रझाता
था। उ ह अब िन य नई कली के अधर का रसपान करने का अ यास होने लगा था। येक यु
म िवजय के साथ-साथ उपपि नय क नई खेप आती थी और तब कई-कई माह तक कौश या
को महाराज के दशन नह हो पाते थे। अनवरत यु , ढाई सौ कैशोय से यौवन क ओर पदापण
करती उपपि नयाँ, अब दशरथ कौश या के महल म औपचा रकता का िनवाह करने ही आ पाते
थे। उनके म य अब णय के संबंध समा हो चुके थे अब तो बस महाराज और महारानी का
औपचा रक संबंध शेष था।
कोशल को उ रािधकारी अभी तक ा नह हआ था। न कौश या से और न ही
उपपि नय से।

आज का िदन भी उन शुभ िदन म से एक था जब महाराज को महारानी के महल म


राि यतीत करने का अवकाश िमल जाता था। रात म सोते हये अचानक वे च क कर उठ बैठे।
उ ह ने पुन: वही व न देखा था। उनक माता इ दुमती और िपता अज उ ह तािड़त कर रहे थे
िक वे अभी तक िपत-ृ ऋण नह चुका पाये ह। माता क तो व तुत: उ ह कोई याद ही नह थी, बस
िच म ही उ ह देखा था। िपता बताते थे िक जब वे बहत छोटे बालक थे तभी माता वगवासी हो
गयी थ । दशरथ माता-िपता के इकलौते पु थे। िपता उनक माता के िवयोग म अ यंत लांत
रहते थे। जैसे ही दशरथ किठनता से रा य सँभालने यो य हये थे, िपता ने उ ह रा य स प कर
अ न-जल याग िदया था। उनका ण शरीर पहले ही जजर हो चुका था उ ह अिधक िदन
िनराहार नह करना पड़ा, शी ही म ृ यु ने उ ह अपनी गोद म सहे ज िलया था।

दशरथ के अचानक उठ बैठने से महारानी कौश या क भी न द खुल गयी।


‘‘ या हआ महाराज?’’ दशरथ के अचानक उठ बैठने से कौश या भयातुर हो उठी थ । वे
धीरे -धीरे दशरथ क पीठ पर हाथ फेरने लग । - ‘‘कुछ अ व थता अनुभव कर रहे ह? राजवै
को बुलाऊँ?’’
‘‘नह महारानी! कोई शारी रक यथा नह है।’’
‘‘तब या क है महाराज? कोई मानिसक यथा ....?’’
‘‘हाँ! आज पुन: व न म माता और िपता दोन िपतऋ
ृ ण न चुकाने हे तु तािड़त कर रहे
थे। या क ँ ? सारे उपाय तो कर िलये।’’
‘‘पुन:? .... ता पय यह व न पवू म भी आता रहा है?’’
‘‘हाँ महारानी! इधर एक वष म यह व न कई बार हमारी िन ा अप त कर चुका है।’’
‘‘महाराज अब दूसरा िववाह कर ही लीिजये। अ य कोई माग नह है।’’
‘‘ या कह रही ह आप? वयं ही अपने दा प य पर सप नी के प म हण को
आमंि त करना चाह रही ह!’’
‘‘सप नी य होगी वह? उसे म अपनी छोटी बहन बना कर रखँगू ी।’’ कौश या के मन
म आया िक वह उप-पि नय का उलाहना दे दे िक तु वह वभावत: िववािदत िवषय नह छे ड़ती
थी।
‘‘महारानी! दशरथ के अंत:पुर म आपके अित र िकतनी ि याँ और ह वयं दशरथ
को भी नह ात। उन सभी के साथ मने िन य नह तो कभी न कभी तो संबंध थािपत िकये ही
ह। कोई भी संयोग तो उ पादक िस नह हआ। तो अब एक और ी आकर या अ तर डाल
देगी?’’
कौश या ने िजस कटुस य को िज हा पर आते-आते भी रोक िलया था, वह दशरथ ने
वयं ही उ ािटत कर िदया था। िन संदेह उनके िलये उपपि नय क उपि थित सहज वाभािवक
ि थित थी, इसे लेकर न तो उनके मन म कोई अपराध बोध था और न ही कोई िछपाने क विृ ।
कौश या बरबस हँस पड़ी िक तु णांश म उसने वयं को सँभाल िलया। बोली -
ृ ण चुकाने के
‘‘तो या हआ! आप दूसरा िववाह राजनीित या िवलास हे तु नह , िपतऋ
ू हो ही जाये। इन असं य उपपि नय के साथ संबंध आप पित
िलये करगे। या पता यह फलीभत
बन कर नह मा एक पु ष बन कर ही थािपत करते ह। या पता िवधानपवू क आई प नी के
साथ जब आप पित के प म संबंध थािपत कर तो वह फलदायी हो ही जाये।’’
‘‘हँ!!! सोचते ह इस िवषय म भी।’’
‘‘अब सोच-िवचार म समय न मत क िजये। बस िन य कर ही लीिजये। महाराज
अ पित क षोडषी क या कैकेयी क सु दरता और वीरता दोन क ही कथाएँ परू े ावत े
म फै ल रही ह। ात: ही महाराज के पास संदेश लेकर दूत भेज दीिजये।’’
‘‘महारानी िकसी स ाट् का िववाह भी मा यि गत संबंध नह होता, परू ी राजनीित
होती है उसके पीछे ।’’
‘‘तो उसम भी शंका या महाराज! कैकयराज अ पित आपके पुराने िम ह। िफर या
कमी है आपम या अयो या के सा ा य म, जो िकसी भी स ाट् को आपसे स ब ध जोड़ने म कोई
आपि होगी। या ऊँच-नीच देखगे महाराज अ पित, मुझे तो समझ म नह आता?’’
‘‘आपके िपता ने ही वे छा से तो वीकार नह िकया था हमारा स ब ध!’’
‘‘अब उस िवषय क चचा न ही कर महाराज!’’
‘‘चिलये नह करते। िक तु यह तो देिखये िक हमारी और कैकेयी क वयस म िकतना
अ तर है?’’
‘‘वयस से या दुबलता आ गयी है आपम? प रप व और हो गये ह। आपक साम य
ू े ’’ कहते हये महारानी वयं लजा गय ।’’
कोई मुझसे पछ
‘‘पर कैकयराज आपसे तो पछ
ू ने नह आयगे।’’ महाराज ने भी िवनोदपवू क कहा।
‘‘कोई तक नह महाराज बस कल भोर होते ही आप ताव भेज ही दीिजये।’’
‘‘आप समझ नह रही ह महारानी। यिद अ पित ने न कह िदया तो एक इतने पुराने
िम से संबंध असहज हो सकते ह। यह एक ऐसा मू य होगा जो इस समय कोशल नह चुका
सकता।’’
‘‘ऐसा कुछ नह होगा महाराज, आप िव ास रिखये।’’
‘‘िफर हमारी ओर से ताव भेजना हमारी दुबलता भी तो दशाता है।’’
‘‘महाराज यह दुबलता तो स पण
ू जगत को ात है। ढक बात को ढांक कर रखा जाता
है। जब सबको ात हो ही गया तो अब छुपाने का या योजन!’’
‘‘तो आप मानगी नह महारानी?’’
‘‘नह महाराज।’’
‘‘अ छा अब इस समय तो शयन क िजये, ात: देखगे।’’
‘‘अब भी आप टाल रहे ह।’’
‘‘अ छा बाबा भेज दगे। अब तो स न?’’
‘‘जी महाराज!’’ कहकर कौश या ने महाराज को आिलंगन म भर िलया। महाराज ने
भी उ ह बाह म समेट िलया। वे कौश या के हठ से ोिधत नह हये थे। वे महारानी को समय
भले ही न द िक तु उनसे ऐसा आचरण कभी नह करते थे िजससे उनके महान पवू ज क
याित को ब ा लगे। उप-पि नयाँ या िवलास तो शौय और स ा के तीक थे। उनसे याित
अव य बढ़ती है िक तु सा ा य और कुल क ग रमा तो महारानी ही होती ह।

दूसरे िदन कौश या ने भोर होते ही िफर वही बात छे ड़ दी। छे ड़ या दी पीछे पड़ के रह
गय । आिखरकार महाराज को अ पित के पास संदेश लेकर दूत भेजना ही पड़ा।
11. गौतम-अह या
‘‘अब नह होगा मुझसे ऋिषवर! अब िव ाम चािहये।’’
‘‘बस इस एक अ का और परी ण करना है। िफर िव ाम ही िव ाम है।’’
स िषय म एक महिष गौतम महान ऋिष के साथ-साथ महान श -िव ानी भी थे।
उ ह ने अनेक अ -श का आिव कार िकया था। वे िन य ही अपने श का परी ण िकया
करते थे। वे अपने िविश तीर क नोक पर अपने आिव कृत न ह-न ह िद य आयुध को
थािपत करते और िफर दूर च ान पर ल यवेध करते, अह या को कई-कई सौ गज दूर दौड़
कर उन िविश तीर को वापस लाना पड़ता था और उन िद य आयुध क मारक मता का
योरा ऋिषवर को देना पड़ता था। आज भी ात: से ही यह म चल रहा था। अह या बुरी तरह
थक गयी थी।
‘‘नह ऋिषवर! अब और दौड़ना मेरे िलये अस भव है। अबक यिद आपने मुझे दौड़ाया
तो म िनि त ही माग म ही ाण याग दँूगी।’’
‘‘अरे -अरे ! देवी! या अशुभ-भाषण करती ह। चिलये अ छा अब िव ाम करते ह।’’ कहते
हये ऋिषवर ने अपना िबखरा हआ सामान समेटना आर भ कर िदया। अह या भी उनका हाथ
बँटाने लग ।
‘‘अरे अंजना! बेटी अंजना!!’’ अह या ने पुकार लगाई।
पुकार के साथ ही एक चौदह-प ह वष क सुमुखी िकशोरी ने कुिटया से बाहर झाँका-
‘‘जी माता!’’
‘‘बेटी तिनक जल तो ले आ। तेरे िपता के ये योग तो सारी शि ू लेते ह।’’
चस
ऋिषवर हँसते हये नेह से अपनी कत यिन प नी क ओर िनहारने लगे, बोले कुछ
नह ।
थोड़ी ही देर म अंजना एक िम ी के पा म जल ले आई। जल लेते हये अह या ने पछ
ू ा-
‘‘शतान द आ गया?’’
‘‘नह ! ाता तो अभी नह आये।’’
‘‘अब तक तो आ जाना चािहये था?’’ अह या ने ऋिष क ओर देखते हये कहा।
‘‘आ जायेगा, आ जायेगा! महाराज ने बुलाया था, राजाओं के यहाँ समय लग ही जाता
है।’’
‘‘कल का गया हआ है।’’ अह या ने जैसे वगत-भाषण िकया। िफर पछ
ू ा - ‘‘ य
बुलाया होगा महाराज ने?’’
‘‘आने दो, उसी से पछ
ू ना।’’ ऋिष ने सहज भाव से उ र िदया।
‘‘ य आपको कोई उ सुकता नह होती?’’
‘‘अनाव यक उ कंठा क या आव यकता है देवी! जो भिवत य है वह होकर रहे गा,
इसिलये आगत को सदैव सहज प से वीकार करने हे तु त पर रहना चािहये।’’
‘‘िफर भी ऋिषवर!’’
‘‘िफर भी या? महाराज जनक के सदाचार, स यिन ा और जाव सलता पर कोई
शंका है या?’’
‘‘नह ! िक तु ....’’
‘‘अनाव यक िचंितत न ह देवी। महाराज के ारा िकसी के भी अिहत का ही नह
उठता। य ही नह िवदेहराज कहते ह उ ह।’’
‘‘महाराज से नह , िक तु माग म कह भी कोई दुघटना तो घट सकती है।’’
‘‘बालक नह है शतान द, सोलह वष का हो गया है। उसे समझ है अकारण कोई
दुघटना कैसे घट जायेगी। और यिद दैव ही िव हो जाये तो हम कर भी या सकते ह।’’
‘‘तक म आपसे कौन जीत सकता है। दशन के पि डत य ही नह ह। याय दशन के
णेता य ही नह ह। िक तु माता का दय तो आपका याय दशन नह जानता।’’
इस बार ऋिषवर ने कोई तक नह िदया बस धीरे से मु कुरा िदये।
महिष क अव था साठ वष से अिधक ही होगी िक तु देखने म अभी भी वे युवा ही लगते
थे। अपने भरू ापन िलये हये दीघ केश उ ह ने जड़ू े क तरह िसर पर बाँधे हये थे। वैसी ही सुदीघ
दाढ़ी हवा म लहरा रही थी। उनके कंधे पर य ोपवीत धारण िकया हआ था और कमर म मग ृ चम
लपेटा हआ था। सतत तप या के तेज से उनका आनन दी था। अह या उनसे पया छोटी थ ।
उनक वयस अभी ब ीस वष से कुछ अिधक नह थी। उनके शरीर म अभी भी िकशो रय सा
लाव य था। उनक गणना पंचकुमा रय म होती थी अथात जगत क पाँच सव े सु द रय म।
वे ा क पु ी थ । ज म के थोड़े काल बाद ही ा ने उ ह ऋिष गौतम को पालन-पोषण के
िलये स प िदया था। जब वे िववाह यो य हई ं तो उनसे िववाह के इ छुक क कमी नह थी। वयं
देवराज इ उनसे िववाह के उ सुक थे। वे वभावत: ही ि लोक क येक सव े व तु पर
अपना अिधकार समझते थे तो ि लोक क सव े नारी को ा करने के इ छुक भला य न
होते? िक तु सभी बात पर िवचार करने के उपरांत ा ने अंतत: ऋिष गौतम से ही अह या को
वरण करने का आ ह िकया। ऋिष ने िपतामह का आ ह वीकार कर िलया और उनक पा या
रही अह या उनक प नी बन गई।
ऋिष से अह या को दो संतान ा हई थ - शतानंद और अंजना।
अंजना इस बीच जल ले आयी थी। उसके हाथ से जल का पा लेते हए अह या ने ऋिष
से पछ
ू ा- ‘‘आप जल लगे या?’’
‘‘नह ! आप ही ा कर।’’
अह या पा से गले म धार बाँध कर जल पीने लगी। अंजना वह एक प थर पर बैठ
गयी और उँ गली से जमीन पर आड़ी-ितरछी रे खाएँ ख चने लगी।
‘‘ऋिष! अंजना भी िववाह यो य हो रही है। इस िवषय म आप कुछ नह सोच रहे ?’’ पानी
पीकर अह या ने वातालाप का िवषय शतानंद से हटाकर अब अंजना पर केि त कर िदया।
‘‘हाँ! यह बात तो आपक स य है।’’ ऋिष ने अह या का अनुमोदन करते हये कहा। िफर
कुछ सोचते हये और अंजना क ओर देख कर मु कुराते हये बोले -
‘‘तो अंजना से पछ
ू ा आपने िक वह िकससे िववाह करना चाहती है?’’
अपने िववाह क चचा सुनकर अंजना वहाँ से हट कर कुिटया म चली गयी।
‘‘वह या बतायेगी? आप भी कभी-कभी िनराधार बात करने लगते ह।’’ अह या
उपहास सा करती हई बोली - ‘‘देखा नह िक चचा चलते ही वह कुिटया म भाग गयी।’’
‘‘ य , इसम िनराधार या है? िजसका िववाह होना है उसक इ छा ही सवाप र होनी
चािहए।’’
‘‘अिधक ानी यि जगद् यापार (दुिनयादारी) म शू य हो जाता है। कम से कम
आपको देख कर तो यही लगता है।’’ अह या उसी कार हँसते हये बोली।
‘‘आपक यह बात भी स य है देवी।’’ ऋिष ने सहज भाव से वीकार िकया।
‘‘तक के प म आपक बात स य है ऋिष! अंजना क इ छा ही सवाप र होनी चािहये।
िक तु पहले उसे िवक प तो दीिजये िजनम से िकसी को वह वीकार करे । इन थोड़े से
आ मवािसय के अित र वह जानती ही िकस पु ष को है जो बतायेगी िक मुझे इससे िववाह
करना है।’’
ऋिष सोच म पड़ गये िफर बोले -
‘‘यह भी आप स य ही कह रही ह। तो िफर या कत य है? आप ही मागदशन क िजये
इस अ पबुि ऋिष का!’’ ऋिष ने हँसते हये कहा।
‘‘िवचार क िजये! आप तो अपनी ि से जगत म सबको जान सकते ह, देिखये
िक आपक पु ी के िलये कौन सा पु ष उपयु रहे गा!’’
‘‘उिचत है, आज सं या के समय यान क ँ गा।’’
‘‘अव य क िजयेगा। भल
ू मत जाइयेगा।’’
‘‘हाँ देवी! एक और मह वपण
ू सच
ू ना है।’’
‘‘ या?’’ अह या ने उ सुकता से पछ
ू ा।
‘‘आज सायंकाल देवराज आयगे।’’
‘‘ य ? या योजन है ऋिषवर?’’
‘‘देवराज को एक पु क ाि हई है। अब है िक उसका पालन-पोषण कैसे हो, तो
उस हे तु वे आपक सेवाएँ ा करना चाहते ह।’’
‘‘मेरी या आपक ऋिषवर!’’ अंजना हँसती हई बोली- ‘‘आपको तो देव ने तीत होता है
िशशुओ ं के पालन-पोषण का थाई दािय व दे िदया है।’’
‘‘नह अभी थाई नह कह सकते।’’
‘‘तो हो जायेगा। पहले म वयं, अब यह देवराज का पु , आगे कोई अ य भी आ जायेगा।
देवराज को सलाह तो िपतामह ने ही दी होगी?’’
‘‘हाँ देवी!’’ तभी उनक िनगाह आ म के ार क ओर गयी जहाँ से शतानंद वेश कर
रहा था।
‘‘लीिजये आपका पु भी आ गया।’’
‘‘बड़ा िवल ब हो गया पु ? िकस हे तु बुलाया था राजन ने?’’ अह या ने पु से
िकया।
शतानंद ने माता-िपता क चरण-रज ली, आशीवाद ा िकया िफर उ र िदया -
‘‘माता! महाराज मुझे अपने राजपुरोिहत म थान देना चाहते ह।’’
‘‘यह तो अित उ म है। अ छा जा कुिटया म अंजना से भोजन ले ले जाकर, भख
ू लगी
होगी।’’
‘‘जी माता!’’ कहता हआ शतानंद कुिटया क ओर बढ़ गया।
‘‘और ऋिषवर बालक क माता कौन है?’’ अह या पुन: िवषय पर आती हई बोली।
‘‘देवी आ णी, सय
ू देव क सारथी।’’
‘‘वे कैसे अपने पु को यागने को त पर हो गय ?’’
‘‘उनक प रि थितयाँ तो आप जानती ही ह। उनका काय पु ष वाला है, उनके िलये
िशशु का लालन-पालन कैसे संभव है! अ य भी कुछ प रि थितयाँ हो सकती ह।’’
‘‘चिलये कुछ भी हो आ म म शू यता नह उ प न होगी। शतानंद तो जा ही रहा है -
जनकपुरी। अंजना भी चली जायेगी तो यह बालक आ म को गुंजार िकये रहे गा। ... ऋिषवर नाम
या है बालक का?’’
‘‘बािल!’’ ऋिषवर ने संि सा उ र िदया।

बािल के आगमन के लगभग डे ढ़ वष उपरांत आ णी का दूसरा पु भी महिष गौतम


और देवी अह या के संर ण म आ गया। इसका नाम सु ीव था। सु ीव का बीज आ णी क
कोख को सय ू देव से ा हआ था। वे ही भला य पीछे रह जाते। बहरहाल ... अलग-अलग
िपताओं से उ प न दोन भाई गौतम और अह या के नेहपणू आ य म एक साथ पलने लगे।
12. कैकेयी
‘‘कैकेयी! बेटा कैकेयी! अब बस कर! आजा।’’ उपवन म मंथरा कैकेयी के पीछे भागने
का यास करती हयी िच ला रही थी।
‘‘बस धाय माँ, अभी आती हँ।’’ िहरन के ब चे के पीछे भागती हई कैकेयी बोली- ‘‘जरा
इस दु को पकड़ लँ।ू ’’
‘‘अरे वह तेरी पकड़ाई म नह आने वाला। अ यंत चपल होते ह िहरन।’’
‘‘आयेगा कैसे नह !’’ कहते हये कैकेयी ने एक छलांग मारी िक तु मा उसक
उँ गिलयाँ िहरन के ब चे को पश कर सक । ब चा चौकड़ी भरता हआ भाग गया था।
‘‘अरे मान जा! अभी िकसी प रचर से कह कर पकड़वा दँूगी इसे। देख या सरू त बना
ली है, सारी धलू म सन गयी है। और देख धोती कैसे पहनी है? िपता देखगे तो ोध करगे।’’
धोती कैकेयी को दौड़ने म बाधा दे रही थी इसिलये उसने उसे नीचे से पलट कर कमर म
ख स िलया था। प लू भी कंधे पर लटकने के थान पर कमर म खँुसा हआ था। उसी को ल य
कर मंथरा ने कहा।
‘‘कुछ नह कहगे िपता।’’ कैकेयी को धाय मंथरा क बात सुनने का अवकाश नह था।
वह लगभग आधे मुहत से इस िहरन के ब चे के पीछे दौड़ रही थी। और वह भी जैसे इसक
मताओं क परी ा ले रहा था।
‘‘तुझे कुछ नह कहगे िपता िक तु मुझ पर तो ोध करगे िक म तु हारा यान नह
रखती।’’
‘‘नह करगे, म उनसे कह दँूगी िक आपने तो बहत रोका था िक तु म ही नह मानी।’’
‘‘कुछ पल क कर सास यवि थत कर ले, िफर पकड़ इसे और िफर शी ता से आकर
पुन: नान कर। िपता कुछ नह कहगे िक तु अ य जो भी कोई देखेगा वह तो कहे गा िक देखो
राजकुमारी कैसी रा सी बनी िफर रही है।’’
‘‘मुझे रा सी कहा आपने?’’ इस बार कैकेयी क गयी और आँख फाड़े ोध का
अिभनय करती हई बोली।
‘‘हाँ ऐसे ही कुछ पल ल बी-ल बी सांस ले। देख कैसी बुरी तरह हाँफ रही है।’’ मंथरा ने
उसके तेजी से उठते-िगरते व क ओर इंिगत करते हये कहा।
बहरहाल कैकेयी ने उसका यह परामश मान िलया। कुछ ही पल म वह सामा य हो गयी
और पुन: उस िहरन के ब चे क ओर चल पड़ी।
‘‘िबलकुल धीरे -धीरे जा पास, िब ली क चाल से और िफर एक ही छलांग म पकड़ ले
उसे।’’ मंथरा ने पुन: परामश िदया। कैकेयी ने परामश का अनुसरण िकया। धीरे -धीरे , िब ली जैसे
नाप कर पैर रखते हये आगे बढ़ी। िहरन का ब चा घास क कोमल पि याँ चर रहा था। उसने
एक बार िसर घुमा कर पीछे देखा और िफर अपने काय म य त हो गया। उसके कान चौक ने
थे, अपने पीछे िकसी भी आहट क सच ू ना हण करने के िलये।
कैकेयी उसके कुछ कदम पीछे पहँच कर क गयी। वह थोड़ा सा झुक िफर अपने पंजो
पर शरीर का भार तौला, एक दो बार ऊपर-नीचे हई और बस एक ल बी छलांग मार दी। िहरन के
ब चे क सतकता इस बार उसने िवफल कर दी थी। उसने कूदने का यास िकया िक तु उसका
िपछला एक पैर कैकेयी क पकड़ म आ चुका था। कैकेयी ने उसे धीरे से ख च िलया और गोद म
उठाकर यार से पुचकारने लगी।
‘‘ला इसे मुझे दे और तू चल कर नान कर। अपनी सरू त ठीक कर ले, महाराज के आने
का समय हो रहा है।’’
‘‘तो आने दो न महाराज को। मुझे थोड़ी देर इससे बितया लेने दो।’’ कहते हये उसने
िहरन के ब चे को अपने सीने से िचपटा िलया - ‘‘है न ‘चंचल’! बात करोगे न मुझसे?’’ वह
उसके कान म फुसफुसाई।
‘‘अरे धाय माँ! आप तिनक भी यान नह देत ! देिखये कैकय क राजकुमारी कैसी
रा सी सी लग रही है।’’ कैकेयी और मंथरा दोन ने अचकचा कर वर क िदखा म देखा। हँसते
हये महाराज अ पित चले आ रहे थे।
‘‘िपता आप भी मुझे रा सी कह रहे ह!’’ कैकेयी ने मँुह फुला कर कहा।
‘‘आप भी? ता पय और िकसी ने भी कहा है। बता तो जरा नाम उसका, अभी उसे
चा डाल के हाथ म स प दँू।’’
‘‘धाय माँ ने।’’
‘‘इतनी िह मत हो गयी तु हारी धाय माँ क ? अभी बुलाता हँ चा डाल को, ले जाये
इ ह।’’
‘‘छोिड़ये िपताजी! मा कर दीिजये।’’ कैकेयी हँसती हई बोली। मंथरा ने हँसी िछपाने के
िलये अपना प लू मँुह पर रख िलया। महाराज के सम हँसना अभ ता होती।
‘‘तुम कहती हो तो कर देते ह मा। िक तु अब इधर आकर भली क याओं क भाँित
बैठो तो जरा, कुछ मह वपणू चचा करनी है।’’
‘‘तो म या भली क या नह हँ िपताजी?’’
‘‘सो तो तुम जगत क सबसे भली क या हो’’ महाराज अ पित ने बेटी का मन रखते
हये कहा- ‘‘िक तु इस समय तो स य ही रा सी जैसी सरू त बना रखी है।’’ अ पित ने पास ही
बनी ल बी से तर-पीिठका पर बैठते हये कहा।
‘‘जाइये म आपसे नह बोलती।’’ कैकेयी ने िफर मँुह फुलाते हये कहा।
तब तक वह िपता के िनकट आ गयी थी। अ पित ने उसे यार से ख चते हये अपने से
िचपटा िलया।
‘‘अरे ... रे .. िपताजी आपके व .... देिखये आप के कारण छूट गया। िकतनी
किठनाई से पकड़ा था।’’
अ पित के ख चने से कैकेयी क पकड़ िहरन के ब चे पर से ढीली हो गयी थी। वह
अवसर पाकर कूद गया।
‘‘उसे जाने दो, तुम मेरी बात सुनो। बाद म उसे म पकड़ दँूगा।’’
‘‘जी! िक तु मुझे छोिड़ये तो, आप के व गंदे हो गये।’’
‘‘हो जाने दो। व पु ी से अिधक मू यवान नह ह।’’ अ पित ने उसे अपने सीने से
िचपटाये उसके िसर पर हाथ फेरते हये कहा।
‘‘जी या मह वपण ू चचा करनी थी।’’ जब अ पित ने उसे आिलंगनमु कर बगल म
िबठा िलया तब कैकेयी ने धोती के प लू से अपना मँुह प छते हये िकया।
‘‘पहले धोती सीधी कर। अब तू बड़ी हो गयी है - िववाह यो य। अब यह उछल-कूद ब द
करनी पड़े गी। ग रमामय ना रय सा आचरण करना आरं भ कर।’’
कैकेयी ने उठकर अपनी उलटी हई धोती ठीक क । िफर बोली -
‘‘यह ग रमामय आचरण कैसा होता है िपताजी?’’
‘‘मुझसे िठठोली करती है? बताता हँ तुझे।’’ कहते हये अ पित ने उसक लंबी चोटी
पकड़ कर िहला दी।
कैकेयी लाड़ से हँसती रही।
‘‘अ छा अब गंभीर हो जा।’’ अ पित भी गंभीर होते हये बोले - ‘‘आज महाराज दशरथ
के यहाँ से दूत आया है।’’
‘‘तो इसम मुझे या करना है? इसम तो आपके मंि गण परामश दगे।’’ कैकेयी अपनी
हँसी दबाते हये बोली।
‘‘वह तेरे िववाह का ताव लाया है।’’
‘‘ या???’’ कैकेयी च क पड़ी।
‘‘हाँ! और इस िवषय म मुझे तेरा ही परामश मा य है, या उ र दँू उसे?’’
‘‘अभी आपने या कहा है दूत से?’’
‘‘अभी कुछ नह कहा। अभी तो बस उससे कहा है िक वह एक िदन कैकय का आित य
वीकार करे , कल म अपना उ र दँूगा उसे।’’
‘‘अ छा, आप इस िवषय म या सोचते ह?’’
‘‘म कुछ नह सोचता। इस िवषय म तो तुझे ही िनणय लेना पड़े गा।’’
‘‘बहत बड़ा िनणय है िपताजी! आप अपनी पु ी क सहायता नह करगे इस अवसर पर
- जैसे सदैव करते ह!’’
कैकेयी के कहने के ढं ग पर अ पित हँस पड़े ।
‘‘बता या सहायता क ँ । दशरथ हर कार से यो य ह, कोशल से कैकय देश के संबंध
भी िम तापण
ू ह िक तु उनक आयु तुझसे बहत अिधक है।’’
‘‘िकतनी अिधक?’’
‘‘बयालीस के लगभग!’’
‘‘िपताजी! महाराज दशरथ जैसा यो ा तो साठ वष म भी बढ़
ू ा नह होता, िफर अभी तो
वे जैसा आपने बताया वह बयालीस वष के ही ह।’’
‘‘िवचार कर ले। कल ात: तक का समय है तेरे पास। ऐसे िवषय म िबना भलीभाँित
िवचार िकये िनणय नह लेना चािहये।’’
‘‘कोई आव यकता नह िपताजी। यिद आपको संबंध उिचत तीत न हआ होता तो
ू े िबना ही मना कर िदया होता। आपने ऐसा नह िकया इसका अथ है िक आपको
आपने मुझसे पछ
यह ताव उिचत लगा है।’’
‘‘िक तु उनक आयु?’’
‘‘िपताजी, पु ष क आयु नह उसक साम य मह वपण ू होती है। और साम य जहाँ तक
म जानती हँ, महाराज दशरथ म भरपरू है। उ ह ने अनेक यु म अपने पौ ष को िस िकया
है।’’
‘‘तो यह स ब ध तु ह वीकार है?’’
‘‘जी िपताजी! कोशल आयावत का सबसे शि शाली सा ा य है। उसक रानी बनना
भला िकसी को भी य वीकार नह होगा?’’
‘‘िक तु दशरथ िववािहत ह। तुम उनक दूसरी प नी बनोगी। या इस प म तु ह
उिचत स मान िमल पायेगा वहाँ?’’
‘‘पहली रानी से महाराज को संतान ा नह हई है। इसीिलये तो वे दूसरा िववाह कर
रहे ह। इस ि थित म जो रानी उ ह संतान देगी उसका वच व वत: थािपत हो जायेगा। अनुिचत
कह रही हँ म?’’
‘‘पहली प नी के संतान नह हई इसका अथ यह तो नह िक होगी ही नह ! कल को
महारानी कौश या भी माँ बन सकती ह!’’
‘‘तो या हआ िपताजी। महारानी कौश या के िवषय म तो मने जो भी सुना है बहत
अ छा ही सुना है। सुना है िक उनका वभाव अ यंत मधुर है। आप या कहते ह।’’
‘‘कथन तो तेरा स य है। महारानी कौश या का वभाव ऐसा ही है।’’
‘‘तब या सोचना िपताजी!’’
‘‘िफर भी िवचार कर ले। मेरा कोई दबाव नह है तेरे ऊपर इस संबंध को वीकार करने
के िलये।’’
‘‘मने िवचार कर िलया है िपताजी! आगे कुछ ई र को भी तो िवचारने दीिजये।’’
‘‘ठीक है तो म वीकृित िदये देता हँ दूत को।’’
‘‘वह आपके िवचार का िवषय है।’’
और िफर अ पित ने िववाह के िलये अपनी वीकृित भेज दी। बस वीकृित के साथ एक
अनुबंध जोड़ िदया िक दशरथ के उपरांत कैकेयी का पु ही रा य का उ रािधकारी बनेगा।
दशरथ ने गु विश और महारानी कौश या के साथ िवचार के उपरांत यह अनुबंध
वीकार कर िलया और कैकेयी दशरथ क दूसरी रानी बन गयी।
13. केसरी
वानर े केसरी असीिमत बल के वामी होते हये भी मन से िवरागी थे। तीथाटन
उनका यसन था। वे िनरं तर िविभ न तीथ म मण करते रहते थे, पज
ू ा-पाठ करते रहते थे। इस
सबके पीछे उनक कोई कामना नह थी, कोई वाथ नह था, बस जैसे-जैसे वे बड़े हो रहे थे,
परम स ा के ित उनका अनुराग बढ़ता चला जा रहा था। िशव के वे िवशेष भ थे। इसी
तीथाटन के म म इस समय वे गोकण तीथ (वतमान म कनाटक म) म िनवास कर रहे थे।
उनक आयु तीस वष क हो गयी थी िक तु वे अभी तक एकाक ही थे। तीथाटन और
आराधना से समय िमलता तब तो िववाह के िवषय म सोचते। िन य मंिदर म जाना, अचना करना
और यान थ होकर िशव म त लीन हो जाना - यही उनका िन य कम था। आज भी वे अपने
यान म डूबे हये थे िक अचानक मंिदर प रसर म भगदड़ मच गयी थी। कोलाहल जब ती हो
गया तो केसरी का यान भी टूट गया था। भयभीत भ का ं दन सुनकर वे िवत हो उठे थे
और भीड़ को चीरते हये आगे बढ़े थे। उ ह ने देखा था िक एक िवशालकाय दानव सरीखा यि
हाथ म मु दर िलये ालुओ ं क एक भीड़ को आहत करने म जुटा है। बीिसय ालु मंिदर के
डे ढ़ सौ हाथ चौड़े और लगभग चार सौ हाथ ल बे प रसर म भिू म पर पड़े कराह रहे थे। सबके अंग
लह से लथपथ थे। पज ू न साम ी चार ओर िबखरी हई थी। ालु प रसर के दोन िसर पर भीड़
लगाये खड़े थे। मंिदर के भीतर से कोई बाहर जाने का साहस नह कर पा रहा था, इसी कार
ार पर एक भीड़ प रसर म वेश करने का साहस नह कर पा रही थी। ांगण के िजतने भी
लोग उसके मु दर क चपेट म आ गये थे वे सभी अब अपने पैर पर खड़े होने म समथ नह तीत
हो रहे थे। उ ह आहत कर वह अब मंिदर क ओर बढ़ रहा था। अ त- य त भीड़ मंिदर के भीतर
भागने लगी थी। कई लोग ने केसरी को भी ख चना चाहा था िक तु उ ह ने उ ह झटक िदया था
और आगे बढ़ गये थे।
अब वे उस आततायी के सामने खड़े थे।
‘‘अपनी दु ता का प रहार कर अ यथा म केसरी तुझे जीिवत नह छोड़ँ गा।’’ केशरी के
ोध क सीमा नह थी।
‘‘अ छा तो तू केसरी है! या करे गा रे वानर?’’ वह यि उसक हँसी उड़ाते हये बोला।
‘‘यह तो, तू अब ध ृ ता करने का यास कर, तुझे वत: ात हो जायेगा।’’
‘‘तो यह ले!’’ कहते हये उसने अपने मु दर का भरपरू वार केसरी पर कर िदया-
‘‘स बसादन के मु दर से ि लोक भयभीत रहता है, तेरी तो िगनती ही या है!’’
केसरी ने चपलता से एक ओर झुकाई दी। वार यथ हो गया। इसके साथ ही उनका
दािहना हाथ आगे बढ़ा और स बसादन क कलाई उनक पकड़ म थी। स बसादन ने अपने दूसरे
हाथ से वार िकया तो वह भी केसरी ने पकड़ िलया। दोन िवकट यो ा जझ ू ने लगे। दोन अपने
पैर से दूसरे के पैर पर हार कर एक-दूसरे को िगराने का यास कर रहे थे िक तु कोई सफल
नह हो रहा था। दोन एक दूसरे को झटके दे रहे थे। केसरी का यास था िक िकसी तरह
श बसादन का मु दर उसक पकड़ से छूट जाये। बल म यह दानव भारी पड़ रहा है, केसरी को
तीत हआ। इसे चपलता से ही परा त करना होगा - उ ह ने सोचा और अचानक बैठते हये हाथ
को जोर का झटका िदया। श बसादन अपना संतुलन नह सँभाल पाया और उनके िसर के ऊपर
से उड़ता हआ पीछे िगर पड़ा। मु दर उसके हाथ से छूट गया। केसरी िव त
ु गित से उठे और मु दर
को ठोकर से परे धकेल िदया। इसी बीच श बसादन भी उठ खड़ा हआ और दोन के पंजे िफर
आपस म उलझ गये।
देर तक दोन एक दूसरे को धकेलने और िगराने का यास करते रहे । सारे उपि थत
जनसमहू क साँस जैसे उनके गले म अटक हई थी। जैसे ही केसरी श बसादन को धकेलते भीड़
म कोलाहल होता िक तु जैसे ही श बसादन भारी पड़ता घुटी हयी िससिकयाँ गँज
ू जात ।
अचानक केसरी का दाँव िफर लग गया। उ ह ने एक धोबी पाट मारा तो श बसादन
उछल कर एक ओर िगरा। उसके िगरते ही उछाल मारते हये केसरी कंधे के बल उसक छाती पर
िगरे । चोट भरपरू थी। श बसादन डकार उठा िक तु िफर भी उसने त परता से अपनी बाँह केसरी
के गले म लपेट दी और उनके गले को दबाने का यास करने लगा। केसरी को लगा जैसे उनका
गला घुट जायेगा। उ ह ने लेटे-लेटे ही कोहनी का एक भरपरू वार उसक छाती पर, उसी थान
पर िकया। श बसादन क पकड़ कुछ ढीली हो गयी। केसरी ने अवसर का लाभ लेते हये एक
पलटी मारी और श बसादन के चेहरे पर एक भरपरू मुि - हार कर िदया। उसक नाक से लह
बहने लगा िक तु उसक परवाह न करते हये उसने अपने दोन हाथ उनके कंध पर िटकाये और
लात उनक कमर म फँसाते हये परू ा जोर लगा कर उ ह पलट िदया। केसरी ने नीचे आते ही
अपनी दोन भुजाएँ उसक छाती पर कस द और कसाव बढ़ाने लगे। श बसादन कराह उठा।
केसरी के कंधे का हार घातक िस हआ था। उसक पसिलयाँ कसक गय थी। केसरी ने अपना
एक पैर उसक कमर म फँसा कर एक झटके से उसे िफर नीचे पटक िदया और उसके मुख पर
एक और भरपरू मुि हार कर िदया। स बसादन िफर कराह उठा।
कराह सुनते ही केसरी का उ साह दुगना हो गया। िनि त ही अब बाजी उनके हाथ थी।
उ ह ने दबाव और बढ़ा िदया। श बसादन छटपटा उठा। िकसी तरह उसने जैसे आिखरी यास
करते हये अपनी सारी शि एक क और हाथ-पैर के सामिू हक जोर से केसरी को अलग
उछाल िदया। िगरते ही केसरी अ ुत गित से वापस उछल कर खड़े हो गये। श बसादन भी उठ
कर खड़ा हो गया था। केसरी अचानक पीछे भागे। श बसादन यह पैतरा नह समझ पाया, उसने
भी उनके पीछे जाने का यास िकया। तभी केसरी कलाबाजी खाते हये पलटे और दौड़ते हये एक
ऊँची उछाल ली। दोन पैर का भरपरू हार था यह। श बसादन लड़खड़ा गया। िगरते-िगरते भी
उसने केसरी के पैर पकड़ने का यास िकया। वह सफल भी हआ िक तु हवा म ही केसरी ने
झटका िदया। लड़खड़ाता हआ श बसादन यह झटका सँभाल नह पाया और िगर पड़ा।
भीड़ का कोलाहल बढ़ गया था। चार ओर से ‘‘मार डालो इसे-मार डालो इसे’’ क
आवाज आने लग थ ।
इस बार केसरी ने उठने का यास करते हये श बसादन को कोई अवसर नह िदया।
उ ह ने उसे अपने पैर पर ले िलया। चेहरे पर, छाती पर लात ही लात उसे प त कर िदया। उसका
चेहरा र से नहा गया। वह दुबारा नह उठ पाया। अंतत: वह िन े िगर पड़ा। उसके शांत होते
ही केसरी ने भी वार करना रोक िदया। वह मँुह के बल पड़ा था। केसरी ने उसे अपने पैर से सीधा
िकया। वह ल बी-ल बी साँसे ले रहा था। केसरी उसे वैसे ही पड़ा छोड़ कर चलने के िलये उ त
हये। तभी एक बुिढ़या ने रोते हये उनका रा ता रोक िलया -
‘‘बेटा इस रा स को जीिवत मत छोड़ो। इसने हमारा जीवन नक कर िदया था। िन य ही
िकसी न िकसी पज ू ालय म यह इसी कार आतंक मचाये रहता था। न जाने िकतन के ाण हर
िलये ह इसने। तुमने इसे यिद छोड़ िदया तो हमारा जीवन पुन: असुरि त हो जायेगा।’’ कहती हई
बुिढ़या उनके पैर म झुकने लगी।
उसके समथन म अनेक वर हवा म तैर गये - ‘‘हाँ जीिवत मत छोड़ो इसे।’’
केसरी हत भ रह गये। हड़बड़ा कर उ ह ने व ृ ा को बीच म ही पकड़ िलया -
‘‘यह या कर रही ह माता। मुझे बेटा भी कह रही ह और मुझे नक भेजने का आयोजन
भी कर रही ह।’’
‘‘बेटा तु ह नक भेजने का आयोजन य क ँ गी म! हमारे िलये तो तुम सा ात
भगवान बन कर आये हो यहाँ।’’ व ृ ा का चेहरा आँसुओ ं से तर था।
‘‘इसे जीिवत मत छोड़ो! मार डालो इसे’’ क आवाज अभी भी गँज
ू रही थ ।
केसरी ने व ृ ा को धीरे से अलग िकया। िफर घम
ू कर श बसादन क ओर देखा। कुछ
कदम पीछे हटे िफर अचानक हवा म उछल गये। इस बार जब वे नीचे आये तो उनका मुड़ा हआ
घुटना सीधे लंबी-लंबी सांस लेते श बसादन क गदन पर पड़ा। एक तड़ाक क आवाज हई और
उसक इहलीला समा हो गयी। एक मुहत से भी कम समय म एक दुः व न, जो परू े े म
आतंक का पयाय बना हआ था, का अंत हो गया था।
भीड़ म हष का कोलाहल गँज ू गया। सभी ने उ ह चार ओर से घेर िलया। मिहलाएँ
उनक बलाएँ लेने लग । कई युवक ने उ ह कंध पर उठा िलया। बड़ी किठनाई से उ ह ने वयं
को सबसे छुड़ाया। िफर उ ह ने अपने दोन हाथ उठाकर सबको शांत होने का संकेत िकया और
वयं मंिदर के चबत
ू रे पर खड़े हो गये। भीड़ म शांित हो गयी।
‘‘एक अकेला दु आततायी आप पर अ याचार कर रहा था और आप सब सह रहे थे।’’
‘‘यह दु बहत बलशाली था। हम उसके सम िववश थे।’’
‘‘नह ! आपने कभी अपनी सि मिलत शि का आकलन िकया ही नह । आप तो बस
अपनी अकेले क शि क उसके साथ तुलना करते रहे और वयं को िनरीह समझते रहे । यिद
आप एक हो गये होते तो आपक सि मिलत शि के स मुख यह आततायी एक िदन भी नह
िटक पाता। आज तो सौभा य से म यहाँ था। म भी कोई अजबू ा नह हँ। म भी आप क ही भाँित एक
साधारण मनु य हँ। बस मने अपनी शि पर भरोसा िकया और प रणाम आपके सामने है। कल
कोई दूसरा श बसादन उ प न हो सकता है। तब तो म नह होऊँगा। िक तु यिद आपने अपनी
सामिू हक शि को पहचान िलया और उसका सही कार उपयोग करने म स म बन सके तो
कोई भी आततायी आपका कुछ नह िबगाड़ पायेगा।’’ कहते हये केशरी ने अनुमित माँगते हये
हाथ जोड़ िदये।
14. उपपि नय के आवास म
दशरथ के िदन आन द से यतीत हो रहे थे। कैकेयी से उनके िववाह को दो वष यतीत
हो चुके थे। जब से कैकेयी का आगमन हआ था, महाराज उसके आकषण-पाश म आब हो गये
थे। उसके उ ाम यौवन और उसके वा चातुय ने उ ह स मोिहत कर िलया था। उनक येक
िनशा कैकेयी के मादक साि न य म ही यतीत होती थी। कैकेयी के आगमन से पवू ही उ ह ने
उसके िलये एक भ य नवीन ासाद का िनमाण करा िदया था। उसी म उन दोन का िन य
आनंदो सव होता था।
कौश या के ासाद म तो वे पहले ही बहत कम पहँच पाते थे। अब तो यह उपि थित मा
औपचा रक ही रह गयी थी। य िप कौश या के यि व या उसके कायकलाप से उ ह कोई
असंतुि नह थी।
उप-पि नय के ासाद क ओर तो उ ह ने िवगत दो वष से झांक कर भी नह देखा
था। आज पता नह िकस भावना के वशीभत
ू उ ह ने इस ासाद म आने का मन बना िलया था।
उप-प नी श द से कोई अ यथा ता पय न ल। ये भी राजमहल के अनेक अलंकरण के
समान ही थ । िजतनी अिधक उप-पि नयाँ, उतना ही सम ृ रा य और परा मी नरे श। कौश या
के िलये िकये गये यु से दशरथ ने यु का वाद चख िलया था। अब आखेट के थान पर यु
उनके मनोिवनोद का साधन बन गया था। िवगत बारह वष म उ ह ने बीस से अिधक यु िकये
थे और येक यु ने अयो या क मिहमा को और अिधक भ यता दान क थी। येक यु म
उ ह ने कर के प म िवपुल स पि , हाथी-घोड़े , दास-दािसय के अित र अनेक उप-पि नयाँ
भी ा क थ । अब उनके रिनवास म उप-पि नय क सं या तीन सौ को पश करने ही वाली
थी।
उप-पि नय क सं या अिधक हो जाने पर महाराज ने उनके िलये पथ
ृ क ासाद का
िनमाण करवा िदया था। व तुत: यह ासाद न होकर अधच ाकार प म तीन पंि य म बने
दुख डे वतं आवास का एक संकुल था। इस अधच के के म िवशाल सरोवर था जो सदैव
कुसुिमत कमल-पु प और डारत हंस से आ छािदत रहता था। अनेक उपपि नय को भी
जल ड़ा से िवशेष लगाव था। इस समय भी तीन-चार पगिवताएँ इस सरोवर म उ मु िवलास
कर रही थ । आवास क स जा अयो या क ित ा के अनु प तो थी ही, इस बात का भी यान
रखा गया था िक इनम से िकसी भी आवास म कभी भी वयं महाराज राि यतीत करने आ
सकते थे। इस कारण इनम ऐसी येक सुिवधा उपल ध थी िजसक अयो या नरे श कामना कर
सकते थे। इस ासाद म महाराज के अित र िकसी भी अ य पु ष का वेश पण ू त: विजत था।
यहाँ क सुर ा का दािय व भी ी र क के ऊपर ही था।
यह प रसर योजन क चौथाई प रिध म िव तीण था। इस प रसर क सुर ा के िलये दस
हाथ ऊँची और चार हाथ चौड़ी प रहा (चहारदीवारी) थी, िजसके ऊपर और तीन हाथ क घनी
कांटेदार बाड़ थी। दस हाथ चौड़े िवशाल मु य ार को छोड़ कर स पण ू प रहा से सटा हआ
िवशाल उ ान था। आगे िवशाल खुला ांगण था िजसम सह क भीड़ समा सकती थी। सम त
आवास के थम ख ड म रािनयाँ रहती थ और ि तीय खंड सामा यत: उनक दािसय और
िनजी अंगरि काओं के काम आते थे, जो यिद रानी के साथ नह भी ह तो पुकार के साथ ही
उपि थत हो सक। यवहार म इस ख ड म उनका अ यंत िनजी सामान ही रहता था। वे वयं तो
इनम ाय: मा शयन के िलये ही जा पाती थ । उनका अहोरा अपनी वािमनी क सेवा म
उपि थत रहना अिनवाय था।
पित से उपेि त, रित से वंिचत, िववश नारी का अधिवि हो अपनी अधीन थ के ित
ू र हो जाना कोई बहत बड़ी बात नह होती। अिधकांश सेिवकाओं को ऐसी ही वािमिनय को
स न रखने का सतत उ ोग करना पड़ता था। इन दािसय के िलये िववाह और प रवार के
िवषय म सोचना भी अपराध था। दािसयाँ तो मिहलाओं क सेिवका और पु ष क भो या होती
थ । उनके जीवन का सुख और सुर ा उनक वािमनी के च र का मुखापे ी होता था।
कट प से तो यहाँ िकसी पु ष क उपि थित असंभव थी, िक तु काम िकसी ी पर
उपकार करने से पवू यह िवचार नह करता िक उसे पु ष का साि न य उपल ध है या नह । ऐसे
म वह कृपापा ा िकसी भी सीमा तक दु साहस को तुत हो जाती है। यहाँ भी ऐसा असंभा य
नह था। िकसी रानी या उसक िकसी दासी के दु साहस से पोिषत कोई पु ष जब चोरी-छुपे
अंत:पुर म वेश पा जाता था तो उसके सौभा य से वयं इ भी लजा जाते थे।
कुछ रािनय ने अपनी िनयित को धैय से वीकार कर वयं को भु के चरण म
समिपत कर िदया था। उनक दािसयाँ अपे ाकृत सुखी थ । कुछ रािनयाँ ऐसा यास कर रही थ
िक तु उनक अत ृ वासना और प रि थितय से हताशा, माग म बाधा बनी हई थी। ऐसी रािनय
क दािसयाँ सवािधक क म थ । शेष कुछ चतुर या किहये यु प नमित रािनय ने ि थितय
से समझौता कर िलया था और उसी म सुख क यव था करने का यास (कभी-कभी ये यास
दु साहस या षड़यं क सीमा तक भी पहँच जाते थे।) करती थ । इनके िलये महाराजा का
अि त व कोई अथ नह रखता था। उनके ित इनके मन म प नी का भाव भी नह था। महाराज
यिद कभी भा य से आ जाते तो ये उस आगमन को भुनाने का परू ा यास करत और उनके जाते
ही उनके अि त व को पुन: भल
ू जाती थ । इनक दािसयाँ सवािधक सुखी थ ।
सैिनक अिधकांशत: ासाद के बाहर अपने प रवार म रहती थ । वे अपने समय से आती
थ और समय से चली जाती थ । एक-एक सह ी सैिनक क तीन टुकिड़याँ थ । इस कार
एक न एक टुकड़ी हर समय उपि थत रहती थी।
मा उपपि नय क यि गत अंगरि काओं क टुकिड़याँ प रसर म िनवास करती थ ।
आजीवन अिववािहत रहना इनक भी िनयित थी।
ासाद म वेश के िलये एक ही िवशाल ार था िजस पर सदैव एक दजन सश
रि काएँ सजग-स न रहती थ । ासाद के भीतर रािनय क यि गत अंगरि काओं के
अित र , उपरो एक सह सश रि काएँ , िकसी भी संकट, िजसके आने क कोई
स भावना नह थी, का सामना करने के िलये सदैव त पर रहती थ ।
आज इस ासाद म अित र कोलाहल था। सच ू ना ा हई थी िक महाराज िकसी भी
समय आ सकते थे। ासाद को दो वष से अिधक समय प ात ऐसा सौभा य ा हो रहा था। इस
ासाद म महाराज का कुछ काल तक िनयिमत आगमन मा तभी होता था जब उप-पि नय क
कोई नवीन खेप आती थी। कैकेयी के िववाह के बाद से िकसी नवीन उपप नी का आगमन नह
हआ था िफर महाराज के आगमन का या उ े य हो सकता है? सभी संशय म थे िक यह
स नता का िवषय है या िफर िकसी संकट क आहट। िकसे ध य करने वाले ह महाराज या
िकसके ाण पर संकट उ प न होने वाला है। कह महाराज को िकसी आंत रक षड़यं क गंध
तो नह िमल गयी थी? सभी संशिकत िक तु सचेत थे। सारी अ यव थाओं को दूर कर िदया गया
था या िछपा िदया गया था तािक वे महाराज क ि म न आ सक। िक तु िज ह सवािधक सजग
या आ हािदत होना चािहये था, महाराज क उपपि नयाँ, वे अिधकांशत: इस सम त आयोजन के
ित उदासीन थ । येक यह मान कर चल रही थी िक महाराज उससे िमलने नह आ रहे ,
इसिलये अपने सामा य काय- यवहार म य त थी। मा वे उप-पि नयाँ िजनका दबा-ढका कोई
ेम- करण चल रहा था ही सशंिकत थ ।
अंतत: महाराज का आगमन हो ही गया। महाराज के आगे-आगे दुलक चाल से चलते
एक सश अ ारोही दल का आगमन हआ। उसे दूर से देखते ही ार-रि काओं ने ार खोलना
आरं भ कर िदया था। अ ारोिहय के पीछे -पीछे महाराज के चार अ वाले रथ ने वेश िकया। रथ
का छ ठोस सोने का था। शेष रथ भी वण-प क से मढ़ा हआ था। रथ मु य ार से िव
होकर सीधे सरोवर के पास का आकर। मु य वेश ार से सरोवर तक के माग पर दोन ओर
दािसयाँ महाराज पर पु प क वषा कर रही थ । उनके पीछे सश रि काएँ स न खड़ी थ ।
महाराज परू ी ग रमा से रथ से नीचे उतरे । उनके सर पर वण-मुकुट, कंठ म अनेक
र न-मालाएँ और किट म र नजिटत मेखला सुशोिभत थी। उ ह ने सोने के काम वाला कौषेय
(रे शमी) उ रीय और वैसा ही अधोव धारण िकया हआ था। पैर म ह रण के चम से मढ़ी सु दर
पादुकाएँ थ । उतर कर उ ह ने एक बार चार ओर ि पात िकया। तभी पुन: पीछे कुछ कोलाहल
हआ। महाराज का यान उसक ओर आकृ हो गया, वे क कर उधर ही देखने लगे। एक
अ ारोही बड़ी ती ता से ांगण म वेश करना चाह रहा था, उसी से ार-रि काओं का कुछ
िववाद हो रहा था। अंतत: उसे वेश क अनुमित िमल गयी। वह सीधा महाराज के सम का
आकर।
उसने त परता से अ से उतरकर महाराज को णाम िकया।
ू ना है जो तुम मेरे पीछे ही चले आये?’’
‘‘कहो िजतेि य! इतनी आव यक कौन सी सच
उस यि ने उ र देने के थान पर अपनी मु ी म दबा एक कौषेय प का पर िलिखत
िलपटा हआ प महाराज को स प िदया और दो डग पीछे हट कर ती ा करने लगा।
‘‘आह गु देव भी!! कभी भी, कह भी ...’’ उ ह ने वा य परू ा नह िकया बस प को
खोलकर पढ़ने लगे।
प पढ़ कर वे कुछ पल उसे लेकर आने वाले सैिनक को घरू ते रहे िफर वापस रथ पर
चढ़ गये।
‘‘वापस चलो - सभागहृ ।’’
15. गौतम का ताव
मंिदर से आकर केसरी ने एक बार िफर नान कर अपनी थकान दूर क और पुन:
समािध म बैठ गये।
आज समािध म उ ह एक नवीन अनुभव हआ। भु िशव के थान पर आज यान म उ ह
महिष गौतम के दशन हये।
‘‘ णाम महिष!’’
‘‘आयु मान भव!’’
‘‘आदेश कर महिष!
‘‘महान केसरी! अपनी मताओं को न य कर रहे हो?’’
‘‘ता पय नह समझा आपका, महिष!’’
‘‘व स! वैरा य तु हारा धम नह है।’’
‘‘िफर या है?’’
‘‘देव ने तु ह पु षाथ िदया है। उसका उपयोग करो।’’
‘‘करता तो हँ महिष, जहाँ आव यकता होती है। आप या चाहते ह म भी श बसादन
क भाँित िनरीह लोग पर अपने पु षाथ का योग करने लगँ?ू ’’
‘‘मेरा ऐसा ता पय कैसे हो सकता है?’’ केसरी के उ र पर महिष हँसने लगे।
‘‘तो िफर या है? प किहये न महिष!’’
‘‘तु हारे िपतर असंतु ह। तुमने अभी तक िपत-ृ ऋण नह चुकाया है।’’
केसरी मौन हो गये। उ ह समझ नह आ रहा था या कह। महिष का कथन स य था
िक तु केसरी का वभाव तो िवरागी था, वे तो अपना तन-मन िशव को अिपत कर चुके थे।
‘‘मौन य हो गये, महान केसरी?’’
‘‘ या बोलँ ू महिष! स य है िक िपत-ृ ऋण से उऋण होना दैवा ा है िक तु मुझे यह
वभाव भी तो दैव ने ही िदया है।’’
‘‘नह ! ऐसा नह है। अपने वभाव के दूसरे प क ओर तुम यान ही नह देते। उसे
िनरं तर उपेि त िकये हए हो।’’
‘‘अ छा महिष! अनेक ऋिषगण भी तो िववाह नह करते, अपना स पण
ू जीवन साधना
को ही समिपत कर देते ह। उन पर यह बा यता य नह होती?’’
‘‘यह तो कुतक है महान केसरी। नारद जैसे कुछ उँ गिलय पर गणना यो य ऋिष ही इस
यव था से मु ह। शेष सभी तो अग य, विश , िव ािम , वयं म ... सभी गाह य का
िनवाह कर रहे ह। और तो और वयं तु हारे परम आरा य, सिृ के महानतम योगी िशव भी
गाह य का िनवहन कर रहे ह।’’
‘‘िक तु ऋिषवर ...’’ केसरी को कोई तक नह सझ
ू रहा था और वे िववाह के ब धन म
बँधने को भी वीकार नह कर पा रहे थे।
‘‘कोई िक तु-पर तु नह व स! िववाह अिनवाय है। उससे बचने का कोई बहाना नह
है।’’
‘‘मेरी बात तो सुिनये ऋिषवर!’’
‘‘अ छा कहो।’’
‘‘मेरा वभाव तो आप जानते ही ह। यह तो दैव ने ही िदया है मुझे। मेरे इस वभाव के
साथ कौन क या स न रह पायेगी?’’
‘‘रह पायेगी! क याएँ भी तु हारी भाँित िवरागी कृित क होती ह।’’
‘‘होती ह गी महिष, िक तु िववाह के साथ ही येक क या के मन म कुछ अिभलाषाएँ
ज म ले लेती ह। उनका या होगा। िकसी से िववाह कर िफर उसक आकां ाओं का गला घ ट
देना या उसके ित अ याय नह होगा?’’
‘‘नह होगा व स! म जानता हँ िक वही अिभलाषाएँ वयं तु हारे मन म भी वत: ज म
ले लगी।’’
‘‘महिष! मुझे तो मा ही कर। य मुझे इस दलदल म घसीटना चाह रहे ह?’’
‘‘यह दलदल नह है व स। यह तो अ याव यक सं कार है। मने भी तो िववाह िकया है
न।’’
‘‘महिष आपक और मेरी कोई तुलना है या?’’
‘‘ य तुम भी िवरागी, म भी िवरागी। तुलना य नह है?’’
‘‘अ छा कोई ऐसी क या िमले जो मेरे साथ िनवाह कर सके तो बताइयेगा। म अव य
िवचार क ँ गा।’’ केसरी ने िफलहाल जान छुड़ाने का यास करते हये कहा।
‘‘क या तो है। तभी तो म तुमसे वाता कर रहा हँ।’’
‘‘ओह!’’ केसरी ने ल बी साँस ली - ‘‘तो आप परू ी योजना के साथ उपि थत हये ह।
महिष कुछ नह बोले बस ह के से मु कुरा िदये।
‘‘तो बताइये, कौन है क या?’’ हिथयार डालते हये केसरी ने कहा।
‘‘अंजना, मेरी पु ी।’’
‘‘ओह महिष! आप अपनी ही पु ी के साथ अ याय य कर रहे ह। म उसके िलये यो य
वर नह हँ।’’
‘‘यह तो मुझे िनि त करना है िक तुम यो य हो अथवा नह ।’’
‘‘आप िन य ही उसके साथ अ याय कर रहे ह। वह आय क या है। ऊपर से
पंचक याओं म एक, आया अह या क पु ी, अव य ही अ यंत सु दर होगी।’’
‘‘अित सु दर!’’
‘‘आपक पु ी है तो सुशील भी होगी, िवदुषी भी होगी।’’
‘‘है।’’
‘‘तो भी आप एक मेरे समान वानर जाित के वनवासी पु ष के साथ उसका िववाह
करना चाहते ह। म न तो सु दर हँ, न ही िव ान हँ। कभी आप जैसे िकसी िव ान गु के
साि न य म भी नह रहा। म कैसे उसे संतु रख पाऊँगा?’’
‘‘तु हारी यो यताएँ मुझे ात ह। तभी तो सारे जगत म खोजने के बाद मने तु हारा
चयन िकया है। मुझे अपनी क या अ यंत ि य है।’’
‘‘पुन: िवचार कर लीिजये महिष! मुझ से अ छे ... अिपतु बहत अ छे अनेक वर िमल
जायगे आपक क या को।’’
‘‘नह िमलगे। म परू ा यास कर चुका हँ। तु हारे और अंजना के संयोग से जो पु होगा
वह अि तीय होगा जगत म। शि , स दय और ान का अ ुत संगम। भि और वैरा य का
मिू तमान व प होगा वह। वह मानवता क अमू य धरोहर होगा। अनंत काल तक उसके नाम से
तुम जीिवत रहोगे।’’
‘‘यह आपक आ ा है?’’
‘‘यही समझ लो व स!’’
‘‘तब िफर आगे िकसी तक के िलये थान ही नह है। आपका आदेश मुझे वीकार है।’’
‘‘तो िफर मेरे आ म क ओर थान करो व स। अह या और अंजना दोन ही अ यंत
स न ह गी मेरे चयन पर।’’
‘‘जैसा आदेश महिष! माता को मेरा णाम किहयेगा।’’

केसरी को एक माह लग गया िमिथला म गौतम के आ म तक पहँचते-पहँचते। उनके


पहँचते ही शुभ मुहत म िववाह स प न हो गया। स यािसय के यहाँ िकसी आड बर का या
योजन। बस वैिदक-िवधान का अनुपालन करना था और वही िकया गया था। न हे बािल और
सु ीव को अपने बहनोई बहत अ छे लगे थे। जब तक केसरी गौतम के आ म म रहे , ये दोन
उनक प र मा करते ही रहे ।
16. दे वे का आ ह
दशरथ के मन म अ यिधक आ ोश था। िक तु िववश थे, स पणू सा ा य म गु देव ही
एक ऐसा यि व थे िजनके सम वे वयं को िनरीह अनुभव करते थे। वे या, उनके िपता और
िपतामह ने भी कभी उनक इ छा क अवहे लना करने का साहस नह िकया था। उनक
अिव सनीय आ याि मक शि याँ ही तो कोशल क सुख-समिृ के मल ू म थ । आज भी उ ह ने
कोई कारण नह बताया था, बस सारे काय छोड़कर अिवल ब सभागहृ म उपि थत होने का
आदेश भेज िदया था। एक बार तो उनका मन हआ था आदेश-प को फाड़ कर फक द िक तु
साहस नह हआ था। चुपचाप िबना िकसी ितरोध के चल िदये थे।
इ ह िवचार म तैरते-उतराते वे सभागहृ तक पहँच गये। ार पर ारपाल ने झुक कर
णाम िनवेदन िकया। दशरथ उसे अनदेखा करते हये भीतर िव हो गये।

सभाक म उनके िसंहासन के बगल म अपने आसन पर गु देव िवराजमान थे। उनक
बगल के आसन पर गै रक (गे आ) व म आव ृ , ख वाट िसर और दीघ िशखा म शोभायमान
एक अ य व ृ िवराजमान थे। एक पल को दशरथ असमंजस म रहे िफर एकदम उनके चेहरे पर
प रचय के भाव उभर आये - ‘‘ये तो देविष ह।’’
वे व रत गित से आगे बढ़े । उनके आगमन क आहट सुनकर दोन व ृ अपने आसन
से खड़े हो गये थे। दशरथ ने आगे बढ़कर बैठे रहने का आ ह करते हये दोन को णाम
िनवेिदत िकया। उ ह ने औपचा रक प से आशीवाद िदया। िफर तीन अपने-अपने आसन पर
िवराजमान हो गये।
‘‘आदरणीय अयो या ध य हो गयी आपक चरण-रज ा कर।’’ दशरथ ने
औपचा रकता का िनवाह िकया।
‘‘ध य तो नारद हो गया, इस पावन नगरी के, ऋिषय के भी पू य िष विश के
और वयं आपके दशन ा कर।’’ नारद ने भी औपचा रकता का िनवाह िकया।
‘‘माग म कोई क तो नह हआ।’’ दशरथ ने औपचा रकता आगे बढ़ाई।
‘‘नह राजन! आपके ताप से कह कोई क नह हआ।’’
‘‘गु देव! ऋिषवर सुदूर या ा से थिकत ह गे, उिचत िव ाम क यव था करवाई
जाये?’’
‘‘नह राजन! उसक आव यकता नह है।’’
‘‘तो आदेश द दशरथ आपका या ि य करे !’’
‘‘महाराज! आपको ात ही होगा िक वैजयंत नरे श श बर, देव और आय सं कृित का
महान ोही बन गया है।’’
‘‘हाँ सुना तो है िक वह द डकार य े म महान उ पात मचाये हये है।’’
‘‘उस िवकट परा मी असुर ने अकारण महाराज ितिम वज पर आ मण कर िदया है,
यह भी सुना होगा।’’
‘‘जी यह भी सच
ू ना ा हई है।’’
‘‘महाराज ितिम वज के रा य म उसने भीषण र पात िकया है। सेना ही नह जनता भी
ािह- ािह कर उठी है। इस पर देवगण महाराज क सहायता के िलये तुत हये िक तु उसने
उ ह भी परा त कर िदया।’’
‘‘जी, यह सच
ू ना भी ा हई है।’’
‘‘तो अंितम सच
ू ना यह है िक अब वह असुर स ाट श बर देवराज इ पर आ मण
करने को उ त है। इसी संबंध म देवराज आपक सहायता के आकां ी ह। उ ह ने कहा है िक इस
अवसर पर यिद सम त आय और देव सामिू हक प से ितरोध नह करते ह तो श बर हमारी
सं कृित को िवन कर देगा। अतएव आप अिवल ब अपनी चतुरंिगणी सै य सिहत तुत ह ।
देवगण आपका उपकार सदैव मरण रखगे।’’
‘‘अव य देविष! दशरथ देवराज के संग सहयोग हे तु सदैव तुत है। वह अभी अपनी
सै य को स ज होने का आदेश देता है।’’ असमय तुत इस आमं ण से दशरथ िख न नह हये
थे। यु तो उनका सवि य मनोरं जन था। उ ह ने उ साह से ताली बजाई। पलक झपकते एक
सेवक सेवा म तुत हो गया।
‘‘जाओ सेनापित से िनवेदन करो िक स ाट् सभाभवन म उनक ती ा कर रहे ह।’’

सेनापित शी ही उपि थत हो गये। सारी बात समझ कर उ ह ने एक िदवस का समय


माँगा। इस सुदूर अिभयान के िलये अनेक यव थाएँ करनी आव यक थ । उनके अनुसार तीसरे
िदन ात: थान िकया जा सकता था।
सेनापित क बात वीकार करने यो य थी। इतना समय आव यक था। अब सेनापित
को समय गँवाये िबना सि य हो जाना था। वे िवन ता पवू क आ ा लेकर थान कर गये।
उनके जाने के बाद देविष ने भी आ ा माँगी -
‘‘अब आ ा द महाराज!’’
‘‘अरे , आप िकये देविष! एक िदन अयो या का आित य वीकार क िजये िफर साथ ही
थान करगे।’’
‘‘यह संभव नह है महाराज। आप तो जानते ही ह िक नारद सदैव गितमान रहता है। वह
कभी कह कता नह ।’’
‘‘अभी कैसे जायगे? मेरा अनुरोध वीकार क िजये और परस मेरे साथ रथ म ही
चलकर मुझे ध य क िजये।’’
‘‘नह महाराज! आपके सौज य के िलये नारद आभारी है िक तु उसक गमनागमन
क अपनी यव थाएँ ह। िकसी भी थान पर कना नारद क मयादा के ितकूल है।’’

सभाभवन से दशरथ सीधे कैकेयी के ासाद म पहँचे। सै य थान क सम त


तैया रयाँ तो सेनापित को करनी थ , उससे दशरथ को कोई योजन नह था।
‘‘अरे नरे श!’’ उ ह देखते ही आ यिमि त हष से कैकेयी ने उनका वागत िकया-
‘‘आज तो कैकेयी ध य हो गयी जो नरे श ने समय से पवू ही अपना अनु ह दान िकया।’’ कहते
हये वह दशरथ क फै ली हई बाह म समा गयी।
‘‘ ाणािधके! आज देविष का आगमन हआ था।’’ कैकेयी को लेकर श या पर बैठते हये
दशरथ ने बताया।
‘‘अ छा! कोई िवशेष ही योजन होगा?’’ कैकेयी नरे श क गोद म िसर रख कर लेट
गयी और बाह उनके गले म डाल द ।
‘‘हाँ! देविष श बरासुर से यु हे तु देवराज का िनवेदन लेकर आये थे।’’
‘‘ या?’’ कैकेयी हठात् उठ बैठी- ‘‘ या उ र िदया आपने?’’
‘‘देवराज के िनवेदन का या उ र िदया जा सकता है? परस ात: कोशल का सै य
थान करे गा।’’
‘‘कैकेयी भी चलेगी महाराज आपके साथ।’’
‘‘ या कह रही ह आप?’’ दशरथ कैकेयी के ताव से चिकत हो गये - ‘‘यु पु ष
का आभषू ण होता है। आप यह से हमारी िवजय का अनु ान क िजयेगा।’’
‘‘नह महाराज! म अव य आपके साथ चलँग
ू ी।’’ कैकेयी ने िनणया मक वर म कहा।
‘‘ि ये! यु कोमलांिगय के िलये नह होता। आप अपनी हठ से इन ण का अनादर
कर रही ह।’’
ू ी। कैकेयी िस कर देगी िक ना रयाँ यु -भिू म म भी िकसी से
‘‘अब तो अव य ही चलँग
कम नह होत ।’’
‘‘आपने अपने िपता के यहाँ िविधवत श -संचालन सीखा है यह मुझे ात है। िक तु
यु म प रि थितयाँ आपक उस िश णशाला से पण
ू त: िभ न ह गी। यु म कोई भी कृपाण
दशक को आनि दत करने हे तु नह , मा ित दी के ाण लेने के िलये संचािलत क जाती
है। वहाँ श ा के िलये आप महारानी नह , मा श ु ह गी और श ुओ ं के िलये उनक एक ही
मयादा होती है - िन:सकोच वध।’’
‘‘महाराज आप मेरे नैपु य का अपमान कर रहे ह।’’ कैकेयी ने िकंिचत रोष से कहा।
‘‘नह ि ये! आप तो दशरथ क आ मा ह, उसके ाण ह। आपक िनपुणता का अपमान
करने का म सोच भी कैसे सकता हँ।’’
‘‘तो िफर और या कर रहे ह आप? कैकेयी अबला नह है। आपने अभी तक उसका
णयी व प ही देखा है, इसीिलये ऐसा कहने का साहस कर रहे ह। िजस िदन आप उसका
रणचंडी व प देख लगे उस िदन से आप ....’’
‘‘महारानी ... महारानी!’’ दशरथ उसके कंध को ह के से झकझोरते हये बोले -
‘‘सुिनये तो मेरी बात!’’
‘‘नह ! मुझे कुछ नह सुनना। म आपका आवाहन करती हँ िक खड्ग हण क िजये।
यिद एक मुहत म आपने मुझे परा त कर िदया तो म अपना िनणय बदल दँूगी।’’
‘‘म ऐसा कैसे कर सकता हँ? म आपके िव श कैसे उठा सकता हँ।’’
‘‘तो िफर मुझे साथ चलने क अनुमित दीिजये।’’
‘‘अथात् आपका िनणय अटल है!’’
‘‘िन य ही!’’

तीसरे िदन ात: महारानी कौश या ने आरती और ितलक कर भरी आँख से दोन को
रण े के िलये िवदा िकया।
17. ा का आगमन
‘‘उठो व स रावण!’’
‘‘तुम दोनो भी उठो कुंभकण और िवभीषण!’’
वर सुन कर तीन अचंिभत हये, यह िकसका वर है? यह तो पहले कभी सुना नह ।
िकतना गंभीर िफर भी िकतना मदृ ु !
‘‘आँख खोलो व स! अपने िपतामह से सा ात् नह करोगे?’’
तीन ने आँख खोल द । सामने सा ात् ा खड़े हये उ ह पुकार रहे थे। ठीक वही छिव
जैसी मातामह ने बताई थी। कमर म गे आ अधोव , कंधे पर य ोवपीत, अ यंत गौरवण, खबू
ऊँचा-लंबा कद, लंबी सी धवल दाढ़ी और वैसी ही धवल सुदीघ केश-रािश। तीन हष से भर उठे ।
िफर उठे और उनके चरण म द डवत लेट गये। रावण के दोन हाथ उनके एक चरण पर थे। पर
यह या? हाथ को ऐसा य लग रहा था िक उ ह ने िकसी के चरण को नह प ृ वी क िसकता
(रे त) को ही पश िकया हो। वहाँ पर िपतामह के चरण नह शू य ही हो। उसने च क कर
िपतामह के मुख क ओर देखा। ऐसी ही ि थित कुंभकण और िवभीषण क भी थी। वे भी
अचंिभत से ा के मुख क ओर देख रहे थे। ा हँस पड़े । िकतनी मोिहनी हँसी थी। ऐसा लगा
जैसे स पणू ा ड म मधुर हा य गुंजायमान हो उठा हो। तीन स मोिहत से हो गये। ा ने
आशीवाद िदया -
‘‘यश वी भव! तु हारे स पण
ू मनोरथ सफलीभत ू ह । बैठ जाओ व स, मुझे अपनी
वंशवेिल के सबसे न ह सद य का मुख तो देखने दो।’’
तीन मं मु ध से बैठ गये। उ ह समझ ही नह आ रहा था िक या बोल।
‘‘ िपतामह किठन पड़ता है, हम आपको िपतामह कह सकते ह।’’ वयं को संयत करते
हये रावण ने बातचीत का िसलिसला आरं भ करना चाहा।
ा नेह से तीन के मुख िनहार रहे थे। वे मु कुराये िफर बोले -
‘‘सम त ा ड मुझे िपतामह ही कहता है। िफर तुम तो मुझे ांड म सबसे यारे हो।
जो इ छा हो कह सकते हो।’’
‘‘िपतामह! आपने इतना िवल ब य िकया हमारे पास आने म? हम तो कब से आपको
पुकार रहे ह!’’ िवभीषण ने िकया।
‘‘अ छा िवभीषण! तुम यिद यहाँ से पुकार लगाओ तो या तु हारे मातामह सुन लगे?’’
‘‘कैसे सुन लगे? घर तो बहत दूर है िपतामह!’’
‘‘मेरी पुकार सुन लगे।’’ कुंभकण ने हाथ उठाते हये कहा।’’
‘‘हाँ िपतामह! यह अ यंत उ च वर म चीखता है। मेरे तो वण पट (कान के पद)
िवदीण होने लगते ह।’’ िवभीषण ने कुंभ का समथन िकया।
‘‘अ छा! इसका अथ हआ िक िवभीषण का वर इतना ती नह है िक घर तक पहँच
सके। यिद यह कुंभ के समान और अ यास करे तो इसका वर भी वहाँ तक पहँच पायेगा।’’
‘‘जी, संभवत:!’’
‘‘इसी कार तुम लोग के अंतस का वर इतना ती नह था िक मुझ तक पहँच पाता।
अ यास से उसम ती ता आई और वह मुझ तक पहँच गया। और जैसे ही मने तु हारी पुकार सुनी
म दौड़ कर आ गया। समझे?’’
‘‘जी िपतामह!’’ तीन ने समवेत वर म कहा।
‘‘अरे हाँ वह कहाँ है च नखा, उसे भी तो बुलाओ। जाओ िवभीषण, दौड़ कर जाओ।’’
ा ने चार ओर देखते हये कहा।
िवभीषण जैसा िक िव वा ने कहा था, बारह वष क अव था तक उ ह के पास रहा था।
तदुपरांत कैकसी उसे और च नखा दोन को थाई प से यह , अपने िपता के पास छोड़ गई
थी। वह वयं भी अब अिधकांशत: यह रहती थी।
िवभीषण िपतामह के आदेश के साथ ही त परता से उठ कर च नखा! च नखा!!
पुकारता हआ भागा और पलक झपकते ही वन म ओझल हो गया।
िवभीषण कुटीर से दूर ही था जब उसने देखा िक उसक पुकार सुन कर च नखा
भागी आ रही है। वह वह क गया और िच लाया -
‘‘च नखे! च नखे! चल िपतामह बुलाते ह।’’
‘‘िपतामह? वे कैसे आ गये? वे तो िपता के घर भी नह आये थे कभी।’’
‘‘अरे करना छोड़ दौड़ कर आ।’’
‘‘अरे मुिनवर पुल य आये ह। चल हम भी चलते ह। िपता! िपता ....’’ च नखा के
पीछे -पीछे ह त भी िनकल आया था। उसने सुमाली को आवाज लगाते हये कहा।
‘‘अरे वे िपतामह नह , िपतामह ... वयं ा आये ह।’’
‘‘ या? आ गये। आह!’’ ह त के मुख पर अनायास अपवू उ लास तैर गया। उसने
आकाश क ओर हाथ उठा िदये और इनके साथ चल िदया। ‘‘चल। म भी चलता हँ।’’
‘‘नह ह त! तुम नह ।’’ ह त क आवाज सुन कर सुमाली भी बाहर आ गया था,
उसने ह त को रोक िदया।
ह त क गया। िवभीषण और च नखा भी क गये और वाचक ि से सुमाली
क ओर देखने लगे।
‘‘तुम दोन जाओ। आज तो तु हारी तप या सफल हई है। जाओ अपने िपतामह का
भरपरू आशीवाद ा करो जाकर।’’
वे दोन उछलते-कूदते, दौड़ते चले गये तो सुमाली ह त से बोला -
‘‘वे उनका प रवार ह। ा अपना सारा नेह उनपर सहजता से उड़े ल दगे। उ ह अकेले
ही रहने दो। हम लोग क उपि थित उनके औदाय म यन ू ता भी उ प न कर सकती है। उनके
नेह म कृपणता भी आ सकती है। आओ हम लोग दूर से, उधर त ओं क ओट से देखते ह।’’
अब तक यह आवाज सुनकर सारा कुनबा इक ा हो गया था। सब शी ता से व ृ के
झुरमुट क ओर बढ़ चले।
18. यु और वर
यु िन संदेह िवकट था। असुरराज श बर का परा म अवणनीय था। चार ओर अ
और मनु य क मत ृ देह के ढे र लगे थे। देव और आय नपृ क संयु सेना स पण
ू शि से यु
कर रही थी िक तु तब भी वह असुरराज को िवचिलत करने म समथ नह हो पा रही थी। महाराज
दशरथ भी परू े परा म से यु कर रहे थे। कैकेयी रथ म उनक बाय ओर आ ढ़ उनके साथ थी।
उसने भी अपनी यु कला से महाराज को भािवत िकया था। महाराज के धनुष से बाण काल बन
कर िवप ी सै य पर बरस रहे थे और कैकेयी हाथ म ल बा भाला िलये िनकट आने का यास
करते अ ारोही िकसी भी असुर को यमराज को समिपत करती जा रही थी। साथ ही वह हाथ म
ढाल िलये अपनी और महाराज दशरथ क सुर ा भी कर रही थी।
अ र - नात थे। उनके शरीर म कई बाण िब हो चुके थे। सारथी भी आहत था।
महाराज और वयं कैकेयी के शरीर म भी कई घाव थे। िक तु दोन को ही उनक परवाह नह
थी। कोई भी घाव ाणघातक नह था।
तभी एक िवशाल रथ सामने आ गया। उसने िबना िकसी चेतावनी के आ मण कर
िदया। एक शर महाराज क दािहनी कलाई के ऊपर भुजा म िव हो गया। कैकेयी णांश म
अपनी ढाल लेकर महाराज के आगे आ गई तािक महाराज तीर िनकाल सक। तीर िनकालने के
बाद भी तीर के भाव से उनका धनुष संचालन भािवत हो गया था। सामने कौन महारथी था,
उसे कैकेयी नह पहचानती थी िक तु उसका िवशाल ऐ यशाली रथ और उसके िसर पर
सुशोिभत र नजिटत िशर ाण उसके िकसी िविश मह वपण ू यो ा होने को इंिगत कर रहे थे।
धनुष संचालन म उसका ह तलाघव कैकेयी को भािवत कर रहा था। तभी एक तीर दशरथ के
िशर ाण से लटक रह पतली लौह अगलाओं (जंजीर ) और कवच से ीवा क सुर ा के िलये
उठी हई पि य को बेधता हआ उनके गले के िकनारे को बेधता हआ िनकल गया। यह घाव
घातक था। भयानक र ाव होने लगा। कैकेयी ने पीछे आकर महाराज का र प छा तभी एक
तीर महाराज क जंघा म धँस गया। वे जोर से कराह उठे । वे लड़खड़ाने लगे थे। कैकेयी ने णांश
म अपना धनुष उठाकर त परता से कई तीर सामने वाले महारथी क यंचा को ल य कर छोड़
िदये। उसका वार सफल हआ। ित ं ी ने भी मु कुराकर उसके कौशल क शंसा क । िक तु
उसने भी त काल दूसरा धनुष उठा िलया। इस बीच महाराज चैत य हो गये और उ ह ने भी
सामने वाले को एक गंभीर घाव दे िदया।
इसी बीच सामने दािहनी ओर से एक रथ और दौड़ता हआ सामने आ गया। उस पर
सवार यो ा ारा छोड़ा गया तीर सारथी के कवच को बेधता हआ उसके कंधे म िव हो गया।
कैकेयी ने भी अपने तीर से उसके पेट पर आघात कर िदया। इसी बीच एक तीर महाराज के कवच
को बेधता हआ उनके व म िव हो गया। दूसरा तीर सारथी के म तक म िव हो चुका था।
सारथी अपने थान से लुढ़क कर नीचे यु भिू म म खो चुका था। कैकेयी ने त काल उछल कर
उसका थान लेते हये व गाएँ अपने िनयं ण म ले ल । महाराज के एक और आघात लग चुका
था। एक तीर कैकेयी के कंधे म भी गहरा धँस चुका था। एक उसके पेट को छूता हआ िनकल गया
था। अब प रि थितयाँ िनयं ण के बाहर थ । ऐसे म महाराज क ाणर ा सवािधक मह वपण ू थी।
उसे यहाँ से बचकर िनकलना ही होगा अ यथा वह और महाराज दोन ही काल-कविलत हो
जायगे।
उसने अ यंत त परता से रथ-संचालन क अपनी स पण
ू कुशलता दिशत करते हये
रथ को मोड़ िदया।
वापसी क अव था म महाराज को रथ क का -िनिमित सुर ा दान कर रही थी,
िक तु वयं कैकेयी पर कोई ओट नह थी। असुर इनक सेना म अ दर तक वेश कर चुके थे।
अचानक दािहनी ओर से ि एक भाले ने उसक पीठ म घाव कर िदया।
यु -भिू म के पीछे एक ओर देव के िशिवर थे। कैकेयी रथ को िवकट गित से दौड़ाती
सीधे वह पहँची। बार-बार उसे लग रहा था िक अब एक तीर आयेगा और उसक भी चेतना छीन
लेगा। कई तीर उसके दाय-बाय से सनसनाते हये िनकल गये थे। उसक उ ेजना अपने चरम पर
थी। छाती धाड़-धाड़ कर बज रही थी, िक तु उ ेजना म भी उसक इंि याँ और उसका मि त क
पण
ू त: िनयं ण म था। इस ि थित म भी उसे भय का अनुभव नह हो रहा था।
िशिवर म पहँचते ही िचिक सक के सहायक रथ के चतुिदक एक हो गये और
महाराज को अिवल ब िचिक सक य सहायता हे तु ले गये। महाराज को सुरि त हाथ म स पते ही
कैकेयी िनढाल होकर िगर पड़ी।

कैकेयी को जब चेत हआ तो वह िचिक सा िशिवर म एक श या पर लेटी थी। उसके घाव


पर प ी बाँध दी गयी थी िक तु उसे कुछ समझ नह आ रहा था िक यह या है? वह कहाँ है? उसे
सब धँुधला-धँुधला सा िदखाई दे रहा था। कुछ पल लग गये जब वह सब कुछ समझने क दशा म
आ पायी। िफर भी उसे लग रहा था जैसे उसका मि त क सु न सी अव था म हो। उसने एक
प रचारक से यह बात बताई। प रचारक उसे सां वना देकर िबना िवल ब िकये िशिवर के दूसरे
भाग म चला गया। कुछ ही काल म वह वापस लौटा। इस बार उसके साथ ल बी ेत दाढ़ी और
वैसे ही सुदीघ केश वाला एक व ृ भी था। उसने आते ही कैकेयी क कलाई पकड़ ली। कुछ पल
वह आँख ब द िकये उसक नाड़ी क परी ा करता रहा, िफर उसके चेहरे पर मु कुराहट आ
गयी। उसने आँख खोल और धीरे से कैकेयी का हाथ श या पर रख िदया। िफर पछू ा-
‘‘अब व थ अनुभव कर रही ह महारानी?’’
‘‘ज् ... ज् ... जी! िक तु मेरी ि ...? मुझे सब कुछ धँुधला सा य िदख रहा है?’’
कैकेयी ने ीण से वर म कहा।
‘‘वह कुछ नह महारानी। पीड़ाहारी औषिधय का भाव है। एक हर से भी कम म ही
आप सामा य हो जायगी।’’ व ृ वै ने आ ासन िदया।
‘‘और ... और महाराज? महाराज कैसे ह?’’ कैकेयी ने य ता से उठने का यास करते
हये पछ
ू ा।
अचानक उसे सब कुछ मरण हो आया था। उसे महाराज क िचंता होने लगी।
व ृ ने उसके कंधे पर ह का सा दबाव देते हये उसक चे ा को रोक िदया और बोला -
ू त: व थ ह। उनके जीवन को कोई भय नह
‘‘न-न महारानी। लेटी रिहये। महाराज पण
ह।’’
कैकेयी ने एक चैन क साँस ली। िफर बोली -
‘‘तो भी मुझे उनके दशन करने ह। ले चिलये मुझे उनके पास।’’
‘‘अभी यह संभव नह है महारानी। अभी आप औषिधय के भाव म ह। आपका भी बहत
अिधक र बह गया है इसिलये दुबलता है। आप आँख ब द कर सोने का यास कर। अगली बार
चैत य होते ही म आपको महाराज के पास ले चलँग ू ा।’’ िफर उसके संकेत पर उसका एक
सहयोगी कोई आसव ले आया जो उसने धीरे से महारानी को िपला िदया। कैकेयी को पता नह
चला कब अपनी चेतना पर से उसका िनयं ण समा हो गया। वह सो गयी थी।

कैकेयी को जब पुन: चेतना आई तो सब कुछ सामा य था। उसे प िदखाई पड़ रहा


था। चेतना आते ही उसे महाराज का मरण हो आया। उसने उठने का यास िकया ... उठ भी गई
िक तु इतने से ही यास म उसे लगा िक उसका शरीर पसीने से नहा गया है, उसके िसर म
च कर सा आ गया। उसने सहारे के िलये अपने दोन हाथ से श या पकड़ ली। उसके मुख से
अनजाने ही ह क सी कराह िनकल गयी।
कराह का वर सुनते ही पास ही दूसरे आहत सैिनक का नाड़ी परी ण करती एक
ौढ़ा िचिक सक ने घमू कर उसक ओर देखा और उसक ि थित देखकर दूसरे घायल को
छोड़कर ती ता से उसके पास आ गई और उससे पुन: लेटने का आ ह करने लगी।
‘‘नह ! मुझे महाराज के पास जाना है।’’
‘‘अभी ले चलते ह महारानी, बस कुछ काल ती ा कर।’’ िफर उसने एक प रचर को
संकेत िकया। कुछ ही पल म वह एक पा म दूध ले आया।
‘‘लीिजये महारानी जी! यह पी लीिजये, िफर आपको महाराज के पास ले चलते ह।’’
कैकेयी ने वह पा पकड़ना चाहा िक तु उस ौढ़ा ने पा अपने हाथ म लेकर उसके
होठ से लगाते हये कहा-
‘‘मेरे हाथ से पीिजये महारानी जी। आप अभी सँभाल नह पायगी।’’
कैकेयी ने पा का सारा व पी डाला। था तो वह दूध ही िक तु पता नह या िमला था
उसम। कुछ कसैला सा वाद था उसका। ‘दूध तो ऐसा नह होता है!’ उसने सोचा पर कहा कुछ
नह ।
‘‘चिलये।’’ कैकेयी ने कुछ काँपते से वर म कहा।
‘‘अभी गु देव आते ही ह गे। वे ले जायगे आपको अपने साथ।’’ ौढ़ा िचिक सक ने
मु कुराते हये कहा। िफर वह आगे बोली - ‘‘आप बस कुछ पल ऐसे ही शांत बैठी रह म अभी उस
सैिनक का नाड़ी-परी ण करके आती हँ। चाह तो लेट जाय, लाइये िलटा दँू।’’
कैकेयी ने हाथ के संकेत से ही कहा िक वह ठीक है। ौढ़ा ने कोई ितवाद नह िकया,
वह चुपचाप चली गयी।
उसे वापस आने म थोड़ा समय लग गया। िवल ब होते देखकर कैकेयी ने घम ू कर उसे
देखने का यास िकया। इस बार वह अपे ाकृत सहजता से घम ू गई। न पसीना आया न िसर
चकराया। उसक ि दो श या दूर घायल सैिनक के पास खड़ी ौढ़ा िचिक सक से िमली। ि
िमलते ही दोन मु कुराई ं। कुछ ही पल म वह कैकेयी के पास आ गई।
‘‘आये नह आपके गु जी?’’ कैकेयी ने िकया।
‘‘बस आते ही ह गे। अब कैसा अनुभव कर रही ह?’’
‘‘अब तो व थ हँ।’’
‘‘सच म महारानी जी हम आप पर गव है। अतीव साहस और कौशल का प रचय िदया
आपने।’’
‘‘सब दैव का आशीवाद है। मुझे तो उस समय बस महाराज क जीवन-र ा क ही िचंता
थी।’’
‘‘वह आपने कर ली। सच म यिद आप साथ म नह होत तो महाराज क ाण-र ा नह
हो सकती थी।’’
कुछ काल वह िचिक सका कैकेयी को यँ ू ही बात म लगाये रही, तब तक गु जी आ
गये। उ ह ने आते ही मु कुराकर कर कैकेयी से पछू ा - ‘‘अब तो व थ अनुभव कर रही ह
महारानी जी!’’
कैकेयी ने भी मु कुराकर सहमित म िसर िहला िदया। िफर गु जी ने उसका नाड़ी
परी ण िकया। वह पुन: मु कुराया-
‘‘तो चल महारानी जी?’’
‘‘जी!’’ कहते हये कैकेयी ने श या क पाटी पर दोन ओर हाथ से जोर डालते हये खड़े
होने का यास िकया। तुरंत उन दोन ने उसक एक-एक बगल म अपने हाथ िपरो िदये और
उठने म सहायता क । व ृ बोला -
‘‘ य ता नह महारानी जी। आप अ यंत दुबल ह।’’
‘‘िक तु मुझे या हो गया है गु जी? म तो स पण
ू चैत य म रथ हाँक कर यहाँ तक
लाई थी। तब तो कोई दुबलता नह थी?’’
‘‘वह एक ता कािलक आवेश था। प रि थितय क उ ेजना से उपजा लह का वाह था
िजसने आपके शरीर को दुबलता का अनुभव नह करने िदया। महाराज क ाण-र ा क िचंता
ने आपक सम त चेतना को वशीभत ू कर रखा था। उसी ने आपके शरीर क सम त संिचत ऊजा
का उपयोग कर आपको ि याशील बनाये रखा। तभी तो महाराज को हमारे हाथ म स पते ही
आप अचेत हो गय थ । ात है, आपको िकतने काल म चेतना आई है?’’
‘‘िकतना? एक हर से कुछ अिधक हआ होगा!’’ कैकेयी ने अनुमान लगाते हये कहा।
वह जब रथ दौड़ा रही थी तब म या ह था अब सय
ू ा त होने वाला था।’’
‘‘दो िदवस बाद आपक चेतना लौटी थी जब पहली बार आपने मुझे देखा होगा, जब मने
आपको वह आसव िपलाया था, याद आया?’’
‘‘दो िदवस??’’ कैकेयी के वर म अ यंत आ य था।
‘‘हाँ महारानी जी! उसके बाद पुन: लगभग सारा िदन यतीत हो गया है जब आपको
पुन: चेतना आई है।’’
‘‘ओह! महाराज ...?’’
‘‘बस आ गये हम महाराज के पास।’’ अपने एक हाथ से एक यविनका (पदा) को एक
ओर से उठाते हये ौढ़ा िचिक सक ने कहा।
उसी िशिवर म घायल सैिनक क पंि के बाद एक यविनका से उस अ थाई क का
िवभाजन कर िदया गया था। तीन ने वेश िकया। सामने ही महाराज लेटे हये थी। सारा शरीर
सफेद प य से ढँ का था। दोन ने महाराज क श या क बगल म ही िबछी दूसरी र श या पर
कैकेयी को िबठा िदया।
‘‘महारानी अिधक बोलने का यास मत क िजयेगा। आप बात करगी तो महाराज भी
करगे जो इनके िलये घातक होगा। इनके शरीर से अ यिधक र बह गया है और र य के
प रणाम व प शरीर अ यिधक दुबल हो गया है। तिनक भी िवल ब और होता तो ...’’ व ृ ने
वा य अधरू ा छोड़ िदया।
महाराज ने कैकेयी को देखा। उनक आँख क कोर गीली हो गयी थी। उ ह ने हाथ
बढ़ाने का यास िकया। कैकेयी ने अपने दोन हाथ बढ़ाकर महाराज क हथेली अपनी दोन
हथेिलय के म य ले ली।
‘‘आ...आ ... पका उप ...कार कैसे ......?’’ दशरथ ने अटकते-अटकते कहने का यास
िकया।
‘‘कैसा उपकार महाराज? आप ही तो हमारा जीवन ह ... हमारे ाण ह। आपक ाण-
र ा कर तो हमने अपनी ाण-र ा क है। इसम उपकार कैसा?’’ वह आगे बोली- ‘‘और महाराज
बस शांत लेटे रिहये, िव ाम क िजये ... बोलने का यास अभी आपके िलये हािनकर िस हो
सकता है।’’
महाराज कुछ पल चुपचाप लेटे रहे । दोन एक दूसरे से िनगाह से ही बात करते रहे िफर
महाराज ने पुन: यास िकया
‘‘दो ... वर ... आ ... प को ....’’
‘‘ठीक है महाराज!’’ कैकेयी उनक बात काटती हई बोली ‘‘मने वीकार िकये। िकतु
आप ह तो कैकेयी के पास सब कुछ है। मुझे और कुछ माँगने क आव यकता ही नह है।’’
‘‘िफर ... भी ... रघु ...कुल ... का ......’’
‘‘रघुकुल क टेक िम या नह होगी महाराज।’’ कैकेयी उनका मंत य समझ कर बीच म
ही बोली ‘‘मेरे वर आपके पास मेरी धरोहर रहे । जब भी मुझे आव यकता होगी म माँग लँग
ू ी।
ठीक?’’
महाराज के मुख पर सां वना के भाव आये।
‘‘बस अभी आप शांत लेटे रिहये। अ छा आँख बंद क िजये और सोने का यास क िजये।
गु जी किहये न इनसे आप।’’
‘‘हाँ महाराज! महारानी जी ठीक कह रही ह। आप सोने का यास क िजये।’’
महाराज ने धीरे से मुख पर संतोष का भाव िलये आँख बंद कर ल ।
19. ा का वरदान
िवभीषण और च नखा पहँचे तो ा, रावण और कुंभकण तीन िकसी बात पर खुल
कर हँस रहे थे।
च नखा ने दूर से ही हाथ जोड़ कर ा को णाम िकया -
‘‘ णाम िपतामह!’’
‘‘आशीवाद पु ी। आयु मान भव!’’
‘‘िपतामह! तप या तो हम लोग ने क थी और आते ही सबसे पहले पछ
ू ा आपने इसे।
इसने तो कभी आपका मरण भी नह िकया था।’’
‘‘िपतामह भइया िम या भाषण करते ह। म भी आपको िन य मरण करती थी।’’
‘‘अरे पर पर झगड़ो मत। यह सबसे यारी जो है, इसीसे मने इसे पछ ू ा था। िफर तुम लोग
तो यह उपि थत थे। यही नह थी, मुझे तो अपने सारे ब च से िमलना था।’’
‘‘िपतामह! िक तु आपको इसके िवषय म ात कैसे हआ? तप या म तो यह कभी बैठी
ही नह थी।’’ इस बार िवभीषण ने पछ
ू ा।
‘‘अरे ! तुम लोग जब यहाँ तप या म बैठते थे तो यह भी घर म मन ही मन मुझे मरण
करती थी।’’ ा ने च नखा का मन रखने के िलये बात बना दी। ‘‘करती थी न च नखे।’’
‘‘जी िपतामह! करती थी।’’
‘‘देखा। यह भी करती थी।’’ ा िफर खुल कर हँसे। िफर बोले -
‘‘तु हारे मन म कुछ मचल रहे ह, पछ
ू ते य नह व स रावण?’’
रावण झप गया। मानो चोरी पकड़ी गई हो। िपतामह ने उसके मन क बात पकड़ ली थी।
वह बोला -
‘‘िपतामह हमने जब आपके चरण- पश िकये तो हम आपके चरण के थान पर
िसकता का बोध य हआ?’’
‘‘ऐसा है व स! जब तुम लोग क पुकार मेरी मानिसक तरं ग से टकरायी तो मने
यान लगा कर तु ह देखा। पल म मुझे तु हारा सारा इितव ृ ात हो गया। म तो स नता से
नाच उठा। तुम लोग तो िवलु ऐसे हो गये थे। यह ात होते ही िक तुम तो मेरी ही संतान हो, म
तुमसे िमलने का लोभ संवरण नह कर सका। अब म अवि थत तो था सुदूर लोक म। आने म
बहत समय लग जाता। म तो अिवल ब तुमसे सा ात् करना चाहता था। बस, मने त काल अपनी
मानिसक शि से अपनी ि आयामी छिव यहाँ तु हारे स मुख ि क और उसके मा यम से
मानिसक प से तु हारे सम उपि थत हो गया। यह जो तुम दशन कर रहे हो न, व तुत: यह
मा मेरी छिव है, मेरा शरीर तो अभी लोक म ही िव मान है। इसी कारण तुम मेरे शरीर का
पश नह कर पाये, मा शू य का आभास हआ तु ह। िक तु अितशी म सशरीर आऊँगा तु हारे
सम । तु ह गाढ़ आिलंगन म भरने हे तु मेरा मन भी हलस रहा है।’’
‘‘िपतामह या हम भी आपक तरह अपनी ि आयामी छिव ि कर सकते ह।’’
‘‘ य नह कर सकते? िक तु अभी नह , उसके िलये सुदीघ अ यास क आव यकता
होती है।’’
‘‘कब कर पायगे हम ऐसा।’’ कंु भकण ने पछ
ू ा।
‘‘ ा पुन: हँसे। वही ि न ध, धवल हँसी। बोले ‘‘अरे ! उतावले नह होते। उतावली म
िकया गया काय स यक् नह हो पाता। बस धैय से अ यास िकये रहो।’’

ऐसे ही बड़ी देर तक बात होती रह उनम। चार को यह आभास ही नह हो रहा था िक


यह ा से उनक पहली भट है। उ ह तो ऐसा लग रहा था जैसे वे सदा से उनके साथ ही उनके
नेह क छाया म रहते आये ह । तब ा बोले -
‘‘अ छा पु अब तो मुझे थान करना होगा। िवल ब हो रहा है, िक तु या क ँ
तुमसे िबछड़ने का मन ही नह हो रहा।’’
‘‘तो िकये न िपतामह! हमारा मन भी नह हो रहा िक अभी आप जाय। पहली बार तो
िमले ह हम आपसे।’’ रावण ने कहा।
‘‘अ यंत आव यक है पु , िक तु चलो कुछ काल और सही।’’
‘‘आहा!’’ च नखा ने ताली बजाई ‘‘ क गये िपतामह।’’
‘‘अ छा तुम सब एक-एक कर अपनी इ छा बताओ। थम तुम कहो रावण अपनी
अभी सा।’’
‘‘म तो अमर होना चाहता हँ िपतामह!’’
‘‘यह िकसने कह िदया व स तुमसे िक अमर व भी संभव है। कोई भी िजसका ज म
हआ है, वह चाहे चेतन हो या जड़ उसका िवनाश अव यंभावी है। यह धरती-यह अ बर, सभी
नाशवान ह। म भी अिवनाशी नह हँ। हाँ योग और ाणायाम का मेरा अ यास इतना दीघ है िक
काल मेरे पास आने से भयभीत रहता है। िफर भी, म भी मा दीघजीवी हँ, अमर नह । वे सारी योग
ि याएँ जो दीघजीवी बनाती ह, म तु ह भी िसखा दँूगा। अ छा और बताओ!’’
‘‘और िपतामह! ... देव, दावन, गंधव, नाग, य आिद कोई भी मेरा वध न पाये।’’ रावण
ने कुछ देर सोचने के उपरांत कहा।
‘‘अथात् कारा तर से पुन: वही अिभलाषा!’’ ा खुलकर हँसे। ब च क बात उ ह
आनंद म डुबो रही थ । आज बहत समय बाद वे वयं को इतना ह का-फु का महसस ू कर रहे थे।
ब च का साथ उ ह कहाँ िमल पाता था। उनके सामने तो बड़े -बड़े ऋिष-मुिन, देव-दानव आिद
जिटल िलये उपि थत रहते थे। हँसते हये ही वे आगे बोले -
‘‘िक तु रावण! तुमने इसम मनु य का नाम तो िलया ही नह ।’’
‘‘मनु य को तो हम यँ ू मसल दगे िपतामह!’’ दोन हथेिलय को आपस म रगड़ने का
अिभनय करते हये कुंभकण बीच म ही बोल पड़ा।
ा और जोर से हँस पड़े िफर घोर आ य का अिभनय करते हये बोले -
‘‘अ छा!!!! इतना बल है तुमम।’’
‘‘हाँ िपतामह! मेरे शरीर से िदखाई नह देता?’’
‘‘िदखाई देता है। िदखाई देता है।’’ हँसी रोकने का यास करते हये ा बोले।
‘‘िपतामह खाता भी तो िकतना है। इसका बस चले तो सबके िह से का भोजन चट कर
डाले।’’ यह च नखा थी।
‘‘ऐसा? य कुंभकण च नखा का भाग तो नह खाते?’’ ा ने पुन: आ य का
अिभनय िकया।’’
नह िपतामह! माता देती ही नह ।’’
‘‘उिचत करती है।’’
‘‘कभी तु हारा भाग खाये तो मुझे बताना। म इसके कान ख च कर सब बाहर िनकाल
ू ा।’’ ब च के संग
लँग ा भी ब चे बन गये थे।
‘‘अ छा एक बात बताओ’’ ू ा- ‘‘मुझे लगता है कथाएँ
ा ने थोड़ा गंभीर होते हये पछ
अिधक सुनते हो तुम लोग। तभी वरदान और ाप पर इतना यक न है। है न ऐसी बात?’’
‘‘कभी-कभी मातुल सुनाते ह ऐसी कहािनयाँ।’’ रावण ने कहा।
‘‘वे सारी कहािनयाँ िम या ह। वरदान और ाप कोई तक से ऊपर क शि याँ नह है
िक बस कहा और हो गया।’’
‘‘यह तो आपने बड़ी अ ुत बात कह दी। हम समझाइये।’’ इस बार बड़ी देर से चुप बैठा
िवभीषण बोला।
‘‘देखो वरदान या है - िकसी का िहत करना, िकसी क सहायता करना। है न?’’
‘‘जी!’’ सभी समवेत वर म बोल उठे ।
‘‘िकसी का िहत या सहायता तीन कार से हो सकती है पहला भौितक। िकसी को धन
क आव यकता हई तो मेरे पास चुर है मने उसे उसक आव यकतानुसार दे िदया। िक तु यिद
कोई यह अभी सा करे िक उसे ि लोक का सारा धन िमल जाये तो म भला कैसे दे दँूगा। समझ
गये?’’
‘‘जी।’’
‘‘दूसरा शारी रक या ान संबंधी। मान लो कोई रोग से पीिड़त है। उसने अभी सा क
िक रोग दूर हो जाये तो मेरी साम य म है िक म उसके िलये े तम िचिक सक, अ य सुिवधाओं
और औषिधय क यव था कर दँूगा िक तु लाभ तो उस यि को उतना ही िमल पायेगा
िजतना उन े तम िचिक सक , सुिवधाओं और औषिधय से संभव होगा। येक रोग का
उपचार तो मेरे िलये भी संभव नह है यिद ऐसा होता तो न कोई रोगी होता और न िकसी क म ृ यु
होती, सब अमर हो जाते िक तु मने रावण से पवू ही कह िदया िक अमर होना तो संभव ही नह ।
उिचत है न?’’
‘‘जी!’’
‘‘रावण से मने कहा िक म उसे योग और ाणायाम क ि याएँ िसखा दँूगा िजससे वह
सदैव व थ रहे गा और दीघजीवी होगा। िक तु वे सम त ि याएँ करनी तो वयं उसे ही ह गी।
करे गा ही नह तो कैसे ा होगा उनका लाभ?’’
‘‘जी िपतामह। पर यह कर लेगा।’’ च नखा ने कहा - ‘‘यह बहत उ ोगी है।’’
‘‘तीसरा हआ मानिसक। यह सबसे मह वपण ू है। िजस कार मने मानिसक शि से
अपनी ि आयामी छिव यहाँ ि कर दी और उसके मा यम से तुमसे बात कर रहा हँ। ऐसे ही
मानिसक शि से म अनेक अ ुत काय स पािदत कर सकता हँ जो तु ह चम कार तीत ह गे।
मान लो कोई अ यंत पीड़ा म है तो म उसे स मोिहत कर यह भावना दे दँूगा िक उसे पीड़ा का
अनुभव ही नह होगा। मानिसक शि के योग से म उसके रोग का भी िकसी सीमा तक उपचार
कर सकता हँ िक तु पणू त: व थ तो नह कर सकता, वह तो औषिधय से ही होगा। समझ
गये?’’
‘‘जी!’’
‘‘एक बात और, तुम जानते होगे िक सिृ क येक व तु पंचमहाभत
ू से बनी है। बस
सबके रासायिनक और भौितक गुण-धम िभ न ह, उनका संघटन िभ न है।’’
‘‘जी!’’
‘‘अब देखो यह िसकता है। म अपनी मानिसक शि से इसके गुण-धम प रवितत कर
इसे िम ा न म प रवितत कर सकता हँ।’’
‘‘सच िपतामह!’’ च नखा आ य से बोली- ‘‘क िजये ना!’’
‘‘देखो इसके मँुह म पानी आ गया।’’ कहते हये ा हँसे।
‘‘यह तो ज मजात चटोरी है िपतामह।’’ कु भकण ने अपना बदला परू ा िकया।
ा हँसे िफर बोले -
‘‘अभी नह कर सकता। अभी तो म लोक म बैठा हँ। मेरी छिव यह काम थोड़े ही कर
सकती है। उसके िलये तो मुझे य म उपि थत होना पड़े गा। हाँ! इतना अव य कर सकता हँ
िक िम ा न क छिव वहाँ ि कर दँू और तु ह भावना दे दँू िक तुमने वह िम ा न उदर थ
िकया।’’
‘‘वही क िजये िपतामह।’’
‘‘ या खाओगे बताओ?’’
‘‘मालपआ
ू ।’’ च नखा फौरन बोली। उसक त परता पर शेष सब हँसने लगे तो वह
झप गयी।
‘‘उपहास य कर रहे हो उसका?’’ ा ने भाइय को डाँटने का अिभनय िकया।
च नखा स न हो गयी। तभी सबने देखा िक सामने एक रजत थाल म ढे र सारे मालपय ू े रखे
ह। च नखा ने उ ह उठाने का यास िकया तो उसके हाथ म बालू आ गई। सारे भाई इस बार
िखलिखला कर हँस पड़े । पर यह हँसी बीच म ही क गयी। सबको ऐसा लग रहा था जैसे उ ह ने
ू े खाये ह । आहा या वाद था? जैसा उ ह ने पहले कभी अनुभव नह िकया था।
मालपय
सब संतु थे।
‘‘और कुछ?’’ ा ने पछ
ू ा।
‘‘िपतामह ाप भी इसी तरह से होता होगा?’’ रावण ने िकया।
‘‘हाँ पु ! यिद कोई ऋिष यह कहे िक वह ाप देकर िकसी को भ म कर देगा तो वह
ऐसा नह कर सकता। वह मा सामने वाले को स मोिहत कर जलन क भावना दे सकता है।
उसे यह अनुभव करा सकता है िक वह लपट म िघरा हआ है। व तुत: भ म करने िजतनी शि
उपािजत करने हे तु इतनी साधना और इतने अ यास क आव यकता होती है जो अ य प ऋिषय
के पास ही है। वे जब अपनी स पणू मानिसक शि िकसी एक िवशेष िब दु पर एका कर उसे
भ म कर देने क अिभलाषा करते ह तो वह िब दु विलत हो उठता है। िक तु पहले ही बताया
िक इस तर तक अ य प ऋिष ही पहँच पाते ह। इस तर को स पण ू प से मा िशव, िव णु
और मने ा िकया है। कुछ ऋिष-गण भी यन ू ािधक मा ा म यह शि अिजत कर पाये ह।
तथािप इसम इतनी मानिसक शि यय हो जाती है िक पुन: सुदीघ साधना क आव यकता
पड़ती है उसे पुन: ा करने हे तु।’’
‘‘िपतामह िजस कार आपने कहा िक आप बालू के गुण-धम प रवितत कर उसे
िम ा न म प रवितत कर सकते ह। उसी कार बालू के गुण-धम प रवितत कर उसे अि न म भी
तो प रवितत िकया जा सकता होगा। यही ि या मनु य के शरीर के साथ भी तो संभव होगी?’’
रावण ने पछ
ू ा।
‘‘हाँ व स! िक तु मने बताया न िक उसम इतनी मानिसक शि यय हो जाती है िक
उसके पुन: उपाजन हे तु पुन: सुदीघ साधना क आव यकता होती है। अत: कोई भी ऋिष ऐसे
योग नह करता। यिद कोई करता है तो अ यंत ोध क अव था म ही करता है... और ोध म
तो मानिसक शि का वैसे ही व रत गित से य होता है। ऐसा ऋिष अित शी ही साधारण
यि क कोिट म आ जाता है।’’
‘‘िपतामह! आपने मेरी अिभलाषा पछ
ू ी ही नह !’’ कुंभकण अचानक बीच म ही बोल
पड़ा। वाता का ख पुन: गंभीर से सहज हो गया।
‘‘अगली बारी तु हारी ही है। िक तु थम रावण क अिभलाषा पर तो वाता स पण
ू हो
जाये।’’
‘‘चिलये उिचत ही है। यह अ ज होने के कारण सदैव लाभ म रहता है।’’
सब हँस पड़े । ा बोले -
‘‘देखो येक यि िजसे वह यार करता है उसक सहायता हे तु िबना कहे त पर
रहता है। है न?’’
सबके िसर सहमित म िहलने लगे।
‘‘अगर िवभीषण पर कोई वार करे गा तो या कुंभकण यह ती ा करे गा िक िवभीषण
सहायता माँगे तब वह जाकर उसे बचाये?’’
‘‘कैसी बात कर दी िपतामह आपने? म त काल उस दु साहसी को धराशायी कर
दँूगा।’’
‘‘बस ऐसे ही म, तु हारे िपतामह और िपता भी, तीन ही तुम लोग से अ यिधक यार
करते ह। जब भी तु ह हमारी सहायता क आव यकता होगी, तब हम अव य तु हारी सहायता
हे तु उपि थत हो जायगे। अ -श के संचालन म म तु ह पण ू पारं गत कर ही दँूगा। अपने पास
से नवीनतम िद या भी तु ह दँूगा। तु ह ऐसे दुधष यो ा के प म िवकिसत क ँ गा िजसके
सारा संसार भयभीत रहे गा। िक तु एक बात सदैव यान रखना - अपनी शि का दु पयोग
कदािप मत करना। तु हारी यह अिभलाषा भी पण ू होगी िक देव, दानव आिद कोई भी तु हारा वध
न कर पाये। म त काल वार और तु हारे म य उपि थत होकर तु हारी सुर ा क ँ गा। हाँ यिद
तु हारी आयु पण
ू हो ही गयी होगी तो म चाह कर भी कुछ नह कर पाऊँगा। कोई न कोई ऐसा
यवधान उपि थत हो ही जायेगा िक म सहायता नह कर पाऊँगा और जैसा तुम सोचते हो िक
मनु य से तु ह कोई भय नह है तो उनसे तु हारे यु म म ह त ेप नह क ँ गा। यह मुझे शोभा
भी नह देता िक िकसी दुबल के िव तु हारे यु म म तु हारी सहायता हे तु आऊँ। उिचत है
न?’’
‘‘जी िपतामह!’’
‘‘िक तु म मा तु हारी सुर ा ही कर सकता हँ, यु तो येक अव था म तु ह वयं
ही करना होगा।’’
‘‘आप तो सब जानते ह िपतामह। यह भी जानते ह गे िक ऐसा समय कब आयेगा जब
चाह कर भी आप मेरी सहायता नह कर पायगे।’’
‘‘चतुर हो। िक तु स य तो यह है िक इसके िलये मुझे तु हारे ज मांग पर िवचार करना
होगा। अभी तो म तुमसे भट क उ सुकता म ऐसे ही आ गया। तु हारा ज मांग तो देखा ही नह है
अभी। िक तु इतना तो िनि त है िक ऐसा समय िनकट भिव य म नह आने वाला।’’
‘‘जी िपतामह। देिखयेगा अव य ज मांग!’’
ू ा पु । मुझे वयं उ सुकता रहे गी।’’
‘‘अव य देखँग
‘‘अब मेरी बारी?’’ कुंभकण अपने को रोक नह पा रहा था।
‘‘हाँ बोलो, अब तु हारी बारी।’’ ा ने उसक चंचलता का आनंद लेते हये कहा।
‘‘िपतामह म तो चाहता हँ िक म बस सोता ही रहँ, ... सोता ही रहँ।’’
‘‘इसके िलये तो मुझे कुछ करने क आव यकता ही नह है। अपना भोजन और बढ़ा दो।
आव यकता से दूना-चौगुना खाओगे तो वैसे ही भोजन के मद म पड़े रहोगे।’’
‘‘िक तु िपतामह माता देती ही नह । कहती है पेट खराब हो जायेगा, हािन पहँचायेगा।’’
‘‘कुछ यौिगक ि याएँ िसखा दँूगा, कुछ िवल ण औषिधयाँ बतला दँूगा िजनसे वह
भोजन तु हारे शरीर को पु ही करे गा, हािन कदािप नह करे गा।’’ ा ने कहा। िफर बाक
तीन से बोले ‘‘तुम लोग माता को बता देना िक इसे िजतना यह खा पाये उतना भोजन द। यह
सब पचा लेगा और िफर इतना शि शाली बन जायेगा िक स पण ू जगत आ य करे गा। कह दोगे
न?’’
‘‘जी िपतामह।’’ सबने समवेत वर म कहा। कुंभकण तो इस बात से खुशी से उछल ही
पड़ा- ‘‘ये बात हई िपतामह।’’
‘‘अ छा अब तुम बताओ िवभीषण। तुम बहत शांत बैठे हो।’’
‘‘मेरी कोई अिभलाषा नह िपतामह! बस भु के चरण म िच लगा रहे । बुि सदैव शु
रहे । िपता से सीखी िव ाओं म आ था बनी रहे ।’’
‘‘मेरा आशीवाद तु हारे साथ है व स! ऐसा ही होगा।’’
िवभीषण क इस इ छा का मम अभी इनम से कोई नह समझता था। वयं िवभीषण भी
नह ।
‘‘अ छा अब तुम बताओ च नखे!’’
‘‘म तो िपतामह मा इतना चाहती हँ िक म िव क सबसे सु दर नारी बनँ।ू ’’
ा िफर खुलकर हँसे -
‘‘वह तो तुम वैसे ही हो, िव क सबसे सु दर क या। भाइय के साथ योगा यास
करती रहना बस अपने आप बन जाओगी िव क सबसे सु दर क या से सबसे सु दर नारी।’’
‘‘िपतामह! आइये घर चिलये न! मातामह, माता, मातुल आिद सभी िकतना स न ह गे
आपसे िमलकर।’’
‘‘नह पु ी अभी नह । अभी तो पहले ही अ यंत िवल ब हो गया है। अब तो चलँग
ू ा। चलो
णाम करो सब।’’ ा ने आनंिदत मन से कहा।
लड़क ने दंडवत कर और च नखा ने हाथ जोड़ कर णाम िकया। ा ने परू े मन से
उ ह आशीवाद िदया। उनका समय अपने इन ब च के साथ अ यंत आनंद म यतीत हआ था। वे
अ यंत फुि लत थे। और िफर देखते ही देखते वह छिव धिू मल होकर िवलु हो गयी। ा
अ त यान हो गये थे।
उधर व ृ के झुरमुट म छुपा सुमाली सोच रहा था िक आज उसक तप या पण ू हई। अब
उसे िछप कर रहने क आव यकता नह रही। वह िनशंक हो कर कह भी जा सकता है - अपने
इन सौभा यशाली दौिह के साथ। इनका ा के साथ संबंध वत: अब सव ात हो जायेगा। ये
अभय हो जायगे। अब रावण को लंका ह तगत करने के िलये उकसाने का समय आ गया है।
20. कैकेयी का भु व
देव-दानव यु म कैकेयी के अ ुत शौय दशन के बाद से कैकेयी का मह व कोशल
म और भी अिधक बढ़ गया। य िप कैकेयी ने इसे सहज कत यभाव से ही वीकार िकया था
िक तु दशरथ उसके ऋणी हो गये थे। उनका अिधकांश समय कैकेयी के ासाद म ही यतीत
होता था। कैकेयी भी मह वाकांि णी थी। उसने भी राजक य यव थाओं म सि य िच लेना
आरं भ कर िदया था। अब वह िविभ न राजक य उ सव म सदैव महाराज के साथ िदखाई पड़ती
थी। राजक य कमचा रय को अब आव यकता पड़ने पर वह सीधे आदेश भी देने लगी थी।

इस सब के बीच यिद िकसी क ि थित म वा तिवक अंतर पड़ा था तो वे थ महारानी


कौश या। उनके ासाद म पहँचने का महाराज को अब अवसर ही नह िमलता था। कैकेयी से
समय बचने के बाद भी अंत:पुर म इतनी िखलती हयी किलयाँ थ िक उनके बीच दशरथ को
कौश या म िच रहती भी तो कैसे! उस पर भी कौश या के वभाव म एक ग रमामय
आिभजा य था। चंचलता, जो पु ष को बाँधने म मह पवण ू भिू मका अदा करती है, उसका उनके
च र म िनतांत अभाव था। महाराज का साि न य पाने के िलये भी अपनी ग रमा के साथ
समझौता करना उनके वभाव म नह था। महाराज को रझाने के िलये भी कामुकता का
अिभनय वह नह कर सकती थ । ि या-च र उ ह आता ही नह था। अपना भाव थािपत करने
के िलये कोई याचना करना, राजक य कमचा रय का यान अपनी ओर आकृ करने का
यास करना या अनाव यक िकसी काय म ह त ेप करना उनक विृ म नह था। यिद
महाराज उनके ासाद म नह आते थे तो इसे उ ह ने पण ू ग रमा के साथ वीकार िकया था। वे
ितपल महाराज क ती ा करती थ , उनके आगमन के ित सतक रहती थ िक तु यह सब
कत य क भाँित करती थ , अिधकार के भाव को उ ह ने याग िदया था। इसी कारण इन
प रि थितय म भी वे सहज-शांत भाव से अपने सीिमत दािय व का िनवहन कर रही थ । आज
भी उनके क म िन य राि से पवू महाराज के वागत क स पण ू तैयारी रहती थी और ात: वे
सारे आयोजन िवसिजत कर िदये जाते थे। कोई स भावना, कोई अपे ा, कोई आकां ा न होते
हये भी यह एक अिनवाय दैिनक कृ य था। हाँ उनका महारानी पद आज भी सुरि त था।
कैकेयी के बढ़ते भाव से कैकेयी और कौश या के आपसी संबंध पर कोई दु भाव
नह पड़ा था। कैकेयी अब भी उनका उतना ही स मान करती थी। कैकेयी को ात था िक उसके
ही कारण कौश या का महाराज के मन म आदर घट गया है। इसके साथ ही उसे यह भी ात था
िक ऐसी ि थितय म साधारणत: रािनयाँ षड़यं म िल हो जाती ह या िफर अपना मानिसक
स तुलन खो बैठती ह। िक तु इसके िवपरीत महारानी कौश या आज भी सहज थ , शांत थ और
कैकेयी से उसी कार नेह करती थ , जैसा उ ह ने जब वह नई-नई याह कर आई थी तब
िकया था। कैकेयी ने कभी भी उनके यवहार म कूटनीित क कोई झलक नह अनुभव क थी।
उनक इस सहनशीलता से कैकेयी अ यंत भािवत थी और इस कारण उसका बड़ी रानी के ित
स मान और भी बढ़ गया था। य िक कैकेयी उनका मन से स मान करती थी इस कारण
ू अंत:पुर भी कौश या का बड़ी रानी के प म स मान करता था।
स पण
अिभमािननी होते हये भी जा के ित कैकेयी उदार थी और सभी ि य क भाँित
ा ण का स मान करती थी। आरं भ म कुछ िनिहत वाथ त व ने उसक इस उदारता का
अपने वाथ हे तु उपयोग करना चाहा िजसके कारण उसका रा य के महामा य जाबािल के साथ
टकराव भी हो गया। शी ही दोन को समझ आ गया िक वे दोन तो एक ही राह के राही ह।
राजक य िवषय म दोन के िवचार समान ह। यह समझ आते ही दोन एक-दूसरे के शंसक बन
गये।
हआ कुछ य िक एक िदन अयो या के सबसे बड़े मठ के महंत जी अपना प रवाद लेकर
कैकेयी के ासाद म उपि थत हये। उनके साथ एक विणक और एक शू भी था। प रचा रका
ू ना िमलते ही कैकेयी ने महंत जी को महल के बाहरी क म बुलवा िलया। आते ही महंत
ारा सच
जी बोले -
‘‘महारानी जी क जय हो!’’ वैâकेयी महंत जी को पहचानती थी। उसने भी परू े स मान
से उ ह णाम िकया और आदर से एक उ च पीिठका पर आसन दान िकया। विणक को भी
आसन दान िकया गया। शू ार के िनकट ही भिू म पर खड़ा रहा।
‘‘मह त जी आदेश क िजये या भला कर सकती हँ म आपका?’’ कैकेयी ने कुशल-
ेम क औपचा रकताओं के बाद िकया।
‘‘महारानी जी बस आपके दशन क उ कंठा ख च लाई।’’ महंत जी ने चापलस
ू ी भरे
वर म कहा।
‘‘ध य हई कैकेयी आपका अनु ह पाकर।’’ कैकेयी ने अपने वर के यं य को िछपाने
का यास करते हये िवनीत वर म कहा- ‘‘िक तु यिद मा भट के योजन से आये होते तो
आपके साथ ये दो अ य यि नह होते।’’
‘‘वह तो ... ह...ह...ह ..... बस साथ आ गये।’’
‘‘चिलये आ गये तो कोई बात नह । िक तु अब समय का मू य पहचानते हये प
बताएँ िक म आपका या िहत कर सकती हँ? ... अरे कोई महंत जी के िलये कुछ िम ा न तो
लाओ।’’ वा य का अंितम अंश अ य प रचर को ल य कर कहा गया था।
‘‘नह ... नह औपचा रकता क कोई आव यकता नह ।’’
‘‘हाँ तो .. महंत जी ...?’’ वा य अधरू ा छोड़ कर कैकेयी उनके चेहरे पर ि िटकाये
ती ा करने लगी।
‘‘महारानी जी! रा य के महामा य अपनी सीमा का अित मण करने लगे ह। वे मठ
और ा ण के काय म अनुिचत ह त ेप करने लगे ह। वे रा य क थािपत प रपािटय क
अवहे लना कर िनयम क मनमानी या या करने लगे ह।’’
‘‘ या स य ही ऐसा है? महंत जी! यह तो सवथा अनुिचत है।’’
‘‘जी महारानी जी! हम सब उनके इस िनरं कुश आचरण से अ यंत आहत ह। वे अपने
दंभ के वशीभत ू े और स मािनत ा ण तक का अपमान कर डालते ह। वे अपनी स ा का
िनरं तर दु पयोग कर रहे ह।’’
‘‘तो आपने महाराज को नह बताया?’’
इस बीच प रचा रका महंत जी के िलये चाँदी क बड़ी सी थाली म फल और िम ा न ले
आयी थी।
‘‘उसे भी तो दो!’’ ार पर खड़े यि क ओर इंिगत करते हये कैकेयी ने प रचा रका
से कहा।
‘‘जी महारानी जी, दे रही हँ उसे भी।’’
‘‘कैसे बताएँ महारानी जी!’’ पा म से िम ा न का बड़ा सा टुकड़ा उठा मँुह म
डालकर उसे गले से उतारने के बाद महंत जी आगे बोले- ‘‘महाराज क छूट ने ही, उनके
अंधिव ास ने ही तो महामा य को िनरं कुश बनाया है। महाराज तो उनके िव कुछ सुनना ही
नह चाहते। शासिनक िवषय म वे महामा य के िनणय पर आँख मँदू कर ह ता र कर देते
ह।’’
‘‘तो भी आपको महाराज से िमलना चािहये था। महाराज यिद एक यि क बात नह
सुनते तो आपको एक ा ण का ितिनिधमंडल बनाकर अपनी बात उनके सम रखनी
चािहये थी। उस ि थित म महाराज अव य आपक बात सुनते और उस पर यायपण ू िनणय भी
करते। महामा य क मनमानी पर तो अव य ही िवराम लगना चािहये, कोई भी यि िविध और
ा ण से ऊपर नह हो सकता।
इस बीच महंत जी ने एक और टुकड़ा मँुह म डाल िलया था, उसे िनपटा कर विणक के
हाथ म कुछ फल रखते हये वे बोले -
‘‘महारानी जी इसीिलये तो म आपके पास आया हँ। यिद हमारी बात आपके मा यम से
पहँचेगी तो महाराज अव य उसे मा यता दगे और उस पर उिचत कायवाही करगे।’’
‘‘बैठ जाओ तुम भी वह पर।’’ महारानी ार पर खड़े यि से बोल , िफर वे महंत जी
से संबोिधत हई ं -
‘‘यिद आप मुझसे यह चाहते ह तो म तुत हँ। म आपका परू ा सहयोग क ँ गी।’’
‘‘ आपक स ा अ ु ण रखे। हम सदैव आपके आभारी रहगे महारानी जी!’’
‘‘िक तु महंत जी मुझे स पण
ू ि थित समझाइये तो! म या बताऊँगी महाराज को?
माण व प कुछ त य भी ह आपके पास या सब कुछ मौिखक ही है।’’
‘‘ह महारानी जी! अकाट्य त य ह। इसीिलये तो म इन दोन को अपने साथ लेकर आया
हँ।’’
‘‘यह अ छा िकया आपने। तो बताइये करण या है?’’
‘‘महारानी जी इस शू ने अपने घर का िव य वे छा से इस विणक के प म िकया
था। अब इसका एक पु वेद-िवरोधी नाि तक है। वह महामा य का शंसक है। वह वाद लेकर
महामा य के पास पहँच गया। महामा य ने मा उसके कहने पर िव य िनर त कर िदया और
वह घर इसके पु को िदला िदया। अब बताइये इस विणक के साथ ऐसा अ याय करने क या
आव यकता थी महामा य को? इसक तो मु ा भी गयी और य िकया हआ घर भी गया।’’
‘‘ या महंत जी स य कह रहे ह?’’ कैकेयी ने ार पर बैठे शू से िकया।
‘‘जी महारानी जी!’’ उसने शांत भाव से उ र िदया।’’
‘‘ठीक है महंत जी! म बात क ँ गी महाराज से।’’
‘‘बड़ी दया होगी आपक ।’’ महंत जी िम ा न का अंितम टुकड़ा उदर थ कर उठने को
उ त होते हये आगे बोले - ‘‘तो अब हम आ ा द। पुन: कब आपक सेवा म उपि थत हो जाय?’’
‘‘कल म या ह से पवू आ जाय। राि म म बात कर लँग
ू ी महाराज से।’’
‘‘जी, यही उिचत रहे गा।’’ कहते हये महंत जी ने कैकेयी के ित हाथ जोड़ िदये। विणक
ने भी कमर से झुकते हये हाथ जोड़ कर णाम िकया। शू ने वह ार से ही भिू म पर म तक
िटका कर णाम िकया और अपने िलये आयी िमठाई और फल अपने कंधे पर टंगे छोटे से मैले से
अंगव (अँगौछा) म बाँध िलये और ार के बाहर खड़ा हो गया।
कैकेयी कुछ पल कुछ सोचती रही िफर बोली -
‘‘ऐसा क िजये महंत जी कल सायंकाल रिखये। म महामा य को भी बुला लँग
ू ी यह ।
उनके भी तक सुन ल िफर उसी के अनुसार महाराज से बात क जाय।’’
महंत जी ार क ओर बढ़ते-बढ़ते िठठक गये। वे एकदम मुड़ते हये हड़बड़ा कर बोले -
‘‘नह -नह ! ऐसा मत कर डािलयेगा महारानी जी! महामा य अ यंत कुिटल और वाचाल
ह। मुझे तो तीत होता है िक उ ह ने कोई कापािलक िव ा िस क हयी है िजससे उ ह ने
महाराज को अपने वश म कर रखा है। उ ह यहाँ बुलायगी तो वे आप पर भी उसी िव ा का योग
कर डालगे।’’
‘‘आप भी कैसी बात करते ह महंत जी!’’ कैकेयी हँसती हई बोली- ‘‘अब तो अव य
बुलाऊँगी महामा य को, म भी तो देखँ ू होती या है यह कापािलक िव ा?
‘‘म पुन: आपको सावधान करता हँ, ऐसा मत क िजये महारानी जी! मुझे नह लगता
िक यह उिचत होगा।’’
‘‘महंत जी! या आपक आ याि मक शि कापािलक िव ा से भयभीत है? आप
िचि तत न ह सब शुभ ही होगा।’’ िफर भट का पटा ेप करती हई बोली- ‘‘तो कल सायंकाल भट
होती है। अब मुझे भी अनुमित द, कुछ अ यंत आव यक काय ह मुझे भी।’’
ू ी से बोले। वे अभी और ितवाद करना चाहते थे िक तु कैकेयी
‘‘जी!’’ महंत जी मायस
ने माग ही अव कर िदया था। वे हताश से बाहर िनकल गये।
21. लंका थान क भिू मका
सुमाली के पैर आजकल धरती पर नह थे। िव णु ारा परािजत होने के बाद उसने जो
सपना इतने दीघ काल से सँजोया था वह अब सच बनने जा रहा था। िजस पौधे को इतने काल
तक उसने अपने दय क ितशोध क आग से स चा था वह आज लहलहा उठा था। परम हताशा
के ण म भी िजस राख म दबी िचंगारी को उसने बुझने नह िदया था वह आज िवकराल वाला
बनकर अँगड़ाई लेने को त पर थी। उसक योजनाएँ एक-एक कर सफलता ा कर रही थ ।
सव थम पु ी कैकसी िव वा से िववाह करने म सफल हई थी िफर उसने िव वा से तीन यश वी
पु क माता बनने म सफलता पायी थी और अब वे पु िपतामह ा ारा िविभ न िद य
िव ाओं और िद या से सुसि जत होकर अजेय हो चुके थे। वे अब ा के वचन के कवच के
भीतर सुरि त होकर देव, दानव, य , नाग आिद सभी के िलये अव य हो चुके थे। मानव क तो
स ा ही या है उसके पु और दौिह के पौ ष के सम । अब शी ही सम त सिृ उसके
वनक ड़ाभिू म बनने वाली थी। एक बार पुन: उसक मह वाकां ाएँ समय के व पर अपने
ह ता र करने को उतावली हो रही थ । एक बार पुन: वह ि लोक के सवा च िसंहासन का
अिधपित बनने के माग पर अ सर था। सुमाली ने सोचा िक अब उसके दुिदन यतीत हो चुके ह,
अ छे िदन उसके सौभा य के कपाट पर थपक दे रहे ह, बस उसे अब कपाट खोलकर उनका
वागत करने क आव यकता है। इस अ सी वष क आयु म वह पुन: इ से अपना ितशोध
लेने म समथ हो पायेगा।
आज भी वह ऐसे ही मनोभाव क ोति वनी म िकलोल करता कैकसी क चार
संतान के साथ सुर य वन- ांत म िवचरण कर रहा था। मानो युग यतीत हो गये थे उसे कृित
के सौ दय का रसपान िकये। इतने समय से तो वह मा अपने ितशोध क िवष-वेिल को ही
देख रहा था, स च रहा था और उसी क छाँव म जलता हआ ती ा क घिड़याँ िगन रहा था। अब
कह उसक िनगाह ने शेष संसार का सौ दय िनरखना आरं भ िकया था। आह! िकतनी सु दर है
कृित क सुषमा! िकतनी शीतल है यह बयार, िकतना सौरभ है इन पु प म और िकतनी सुगंिध
से भरा है इस वन का येक अणु!
ू ने के बाद अचानक च नखा बोल पड़ी -
बहत देर घम
‘‘मातामह थक गयी हँ म तो! अब तो िव ाम करना है।’’
‘‘चल आ जा कंधे पर िबठा लँ ू तुझे!’’ कुंभ ने ताव िकया िक तु सुमाली ने च का
ताव मानते हये िव ाम करने का ही िन य िकया। सब वह बैठ गये और िफर लेट गये। कुछ
देर यँ ू ही बितयाते रहे िफर -

‘‘मातामह ! कहानी सुनाओ ना!’’ च नखा ने हठ िकया। तेरह वष क च नखा


सुमाली के एक ओर उसक भुजा पर सर रखे लेटी थी। उसने किट देश पर सु दर, सुकोमल
गोव स ेत चम लपेटा हआ था। अभी कुछ ही काल से उसने व पर भी ेत कपासी (सत ू ी)
कंचुक धारण करना आरं भ िकया था। पाँव म वैसे ही ेत गोव स क पादुकाएँ थ िज ह डोरी
से टखने पर कस िदया गया था। उसक सुिच कण, मरवण सुदीघ केशरािश उसके कंध से
होती हई व पर िबखरी हई थी, िजसे उसने मुकुिलत व लरी के बंधन से लपेट रखा था। यौवन
ने उसके शरीर को चषक बनाकर उसे मिदरा से आ लािवत करना आरं भ कर िदया था। िक तु
पु पशर अभी उसके मन के सा ा य पर आिधप य करने म सफल नह हआ था। वभाव से अभी
भी वह न ही सी बािलका ही थी।
उसक बगल म अठारह वष य रावण लेटा था - यौवन और ऊजा से भरपरू । सुगिठत
देहयि , ओठ के ऊपर पौ ष क तीक मछ ू , उ नत ललाट, दीघ केश और अ ुत ने िजनपर
एक बार ि पात करते ही ि को मानो कोई अ य स ा अपने दास व म दीि त कर लेती
थी। दूसरी ओर सोलह वष य कुंभकण मानो िकसी छोटे से पवत िशखर ने मानवाकार हण कर
िलया हो और सोलह वष का िवभीषण जैसे िकसी युवा ऋिष क प ितकृित हो, लेटे थे। तीन
के ही किट देश पर याघच सुशोिभत था।
‘‘इतनी बड़ी हो गयी च नखे! िक तु अभी तक कहानी सुनने का चाव नह गया।’’
रावण ने हँसते हये कहा।
‘‘कौन सी कहानी सुनोगी?’’ रावण क बात पर यान न देते हये सुमाली ने च नखा
के गाल पर दुलारते हये पछ
ू ा। सच म यौवन क दहलीज पर कदम रखती हयी च नखा अ यंत
सुंदर लग रही थी। िन य ही वह िव क सव े सुंद रय म से एक िस होने वाली थी भिव य
म।
‘‘वही लंकापुरी वाली।’’
आह! लंका क बात छे ड़ने के िलये सुमाली को कोई बहाना खोजना ही नह पड़ा था।
च नखा ने वयं बहाना दे िदया था। िपतामह से रावण के सा ा कार के बाद से ही वह इस
िवषय को छे ड़ने के अवसर क ती ा कर रहा था। वह चाहता था िक रावण के मि त क म यह
िवचार जड़ जमा ले िक लंका का वा तिवक अिधपित वही है, कुबेर तो उस पर बलात कुंडली मारे
बैठा है। िक तु वह यह नह चाहता था िक रावण को ऐसा लगे िक उसका मातामह यह यास कर
रहा है। वह नह चाहता था िक इन चार म से िकसी को भी र ी भर भी संदेह हो िक इसम उसका
भी कुछ वाथ हो सकता है। उसे अवसर िमल गया था। बस अब लंका पुन: उसके अिधकार म
होगी, उसक सोने क लंका।
‘‘मातामह कहानी बाद म उससे पवू इस कुंभकण को िखसकाइये अलग। बार-बार मुझे
धकेल देता है।’’ िवभीषण ने भुनभुनाते हये कहा।
‘‘सो गया िफर? इतनी शी ?’’ सुमाली ने घम
ू कर कु भकण क ओर देखते हये कहा -
‘‘अब भैया इस सोते हये पवत को िखसकाना मेरे िलये तो संभव है नह ।’’
‘‘पहले ही िनरा आलसी था, अब तो िपतामह ने करे ला नीम पर चढ़ा िदया है।’’ िवभीषण
ने यं य िकया।
उसक बात सुनकर रावण हँसता हआ उठा और उसने िवभीषण के साथ िमलकर कुंभ
को परे िखसका िदया। िवभीषण स नता से सुमाली क भुजा पर िसर रख कर लेट गया।- ‘‘अब
सुनाइये।’’
‘‘मातामह लंका तो आप लोग ने ही बसाई थी ना।’’ यह रावण ने िकया था।
‘‘हाँ पु ! तु हारे तीन मातामह ने ही िमलकर बसाई थी। यह तो िनयित का फेर है िक
हम यहाँ वन म संसाधन हीन अव था म पड़े ह और तु हारा भाई कुबेर वहाँ वैभव भोग रहा है।’’
‘‘कुबेर हमारा भाई है?’’
‘‘हाँ पु !’’
‘‘तो िफर वह हमारे साथ य नह रहता?’’ यह िवभीषण ने िकया था।
‘‘वह तु हारे िपता क बड़ी प नी देवी देवविणनी का पु है। वह अपने िपता के साथ ही
रहता था, इसिलये वह िपतामह ा के िनकट रहा। बड़े होने पर उ ह ने उसे लोकपाल बना िदया
और लंका का अिधपित भी बना िदया।’’
‘‘िक तु मातामह लंका हमारी है यह तो िपतामह को भी पता होगा। वे तो िकतने अ छे
ह।’’
‘‘हाँ पु ! उ ह तो पता ही है।’’
‘‘तो िफर उ ह ने वह भाई कुबेर को य दे दी?’’ रावण के मन म कुबेर के ित ेष
ज म लेने लगा था।
‘‘वह इसिलये िक हमारी इ से श ुता थी, हमने उसे परा त कर वग पर आिधप य
कर िलया था। तब इ ने िव णु के साथ िमल कर छल से हम पर आ मण कर िदया। हमारी
सारी सेना मारी गयी बस हम थोड़े से यि ही िकसी कार बच कर भाग िनकले। िव णु ने तो
हमारा लंका तक पीछा िकया। हम लोग बहत थोड़े थे, आहत थे, थके थे और उसके पास परू ी सेना
थी तो ाण-र ा हे तु हम लोग यहाँ जनशू य देश म िछप गये आकर। सबको तीत हआ िक हम
लोग भी िकसी कार से मर-खप गये ह गे। ा को भी यही तीत हआ होगा। लंका तो िनजन
पड़ी ही थी तो उ ह ने वह कुबेर को दे दी। कुबेर के भी तो वे िपतामह ह तु हारी ही तरह।’’
‘‘भाई कुबेर ने नह कहा िक, नह यह तो मेरे छोटे भाइय क है। उ ह ही िमलनी
चािहये।’’
‘‘पर तब तक तो तुम लोग का ज म ही नह हआ था। व तुत: तो तब तक तु हारी
माता का ऋिष िव वा से िववाह ही नह हआ था।’’
‘‘तो अब उसे वापस कर देना चािहये।’’
‘‘हाँ अव य! यिद वापस न करे तो अब तो तुम लोग समथ हो, छीन सकते हो उससे
अपनी लंका।’’
‘‘अव य छीनगे।’’
‘‘िक तु पु ! इतना सहज भी नह है उससे लंका छीनना। उसके साथ स पण
ू सै य
होगा। वह लोकपाल है। धनपित है। उसक साम य हमसे बहत अिधक है।’’
‘‘तो या हम िकसी से दुबल ह? या कुबेर रण म रावण का सामना कर सकता है।
िवगत कुछ माह म िपतामह ने िकतना कुछ िसखा िदया है हम। और िफर इस कु भ को िवधाता
ने िकस िदन के िलये ऐसा पवताकार शरीर िदया है! कुबेर के सारे सै य के िलये तो यह अकेला
ही पया है।’’
‘‘हाँ सो तो है।’’ सुमाली ने कहा और एक बार पुन: वह िवचार-वीिथय म खो गया।

सच म िपतामह ने अपना वचन परू ा िकया था। रावण को उ ह ने योग- ाणायाम के


अित र अ -श के संचालन के िवषय म भी इतना कुछ िसखा िदया था िक आज वयं
सुमाली रावण के सामने कह नह ठहरता था। जब िपतामह ने रावण को िशि त करना आरं भ
िकया तो एक-एक कर सुमाली के अपने िवषय म सारे दंभ टूटते चले गये थे। वह वयं को अ यंत
यो य समझता था योगा यास म भी और श संचालन म भी पर उसे शी ही समझ आ गया िक
िपतामह के स मुख वह भुनगे बराबर भी नह था। अ छा िश य पाकर िपतामह अपना कोष
खोलते ही चले गये थे। उसे अपनी योजना पर गव हआ िक उसने कैकसी को िव वा से संयोग के
िलये े रत िकया था।
कंु भकण ने भी बहत कुछ सीखा था। िक तु वह आलसी था। शारी रक बल म वह रावण
से बहत आगे था िक तु बाक सभी िव ाओं म उससे बहत पीछे था। िपतामह ने भी उसे िसखाने
के िलये बहत म नह िकया था। िवभीषण बहत अिधक नह सीख पाया था य िक उसक
आधारिशला उतनी ठोस नह थी। कारण भी था - वह बारह वष क अव था तक िपता के साथ
रहा था। उ ह ने उसे ान तो खबू िदया था िक तु योग ारा अपने तन मन को अभे बनाने क
िश ा नह दी थी। उसके िलये तो योग परमे र से वयं को जोड़ने का ही साधन था। ऐसे म वह
एक बार जो रावण से पीछे छूटा तो छूटता ही चला गया। यह भी था िक िवभीषण को वयं भी इस
सबक बहत चाह नह थी। उसने तो वत: ही िपतामह के सामने बस परमा मा के ित भि
पाने क ही अिभलाषा कट क थी।

‘‘मातामह कहाँ खो गये।’’ रावण क आवाज सुनकर सुमाली अपनी िवचार क


वीिथका से बाहर आया। रावण कह रहा था -
‘‘सै य से तो कु भकण अकेला िनपट लेगा। आधी सेना तो इसक सरू त देख कर ही
भयभीत होकर भाग जायेगी, शेष इसका गजन सुन कर अधमरी हो जायेगी।’’
‘‘हाँ! सो तो है। पर तु संभवत: यु क ि थित उपि थत नह हो पायेगी। तु ह यास भी
करना होगा िक ऐसी ि थित उ प न न हो।’’
‘‘यु क ि थित कैसे नह आयेगी मातामह? कोई अपना रा य स नता से य
िकसी को स प देगा?’’ रावण को मातामह क बात समझ म नह आयी थी।
‘‘पु ! तु हारे िपतामह और िपता के िलये तो तुम और कुबेर एक समान ही हो। कुबेर
क तरह तुम भी उनके पु हो। वे अव य तु हारे साथ याय करगे। तु ह मा अपना अिधकार
माँगना होगा कुबेर से। िन य ही कुबेर वे छा से लंका तु ह स पने से मना कर देगा।’’
‘‘िफर भी आप कह रहे ह िक यु ....’’
‘‘परू ी बात तो सुनो व स!’’ सुमाली ने रावण क बात बीच म ही काटते हये कहा- ‘‘जब
कुबेर लंका देने से मना कर दे तब तु ह यास यह करना होगा िक इस िववाद क म य थता
िपता ारा क जाय। मेरा ढ़ िव ास है िक तु हारे िपता, यिद तुम अपनी मांग पर अिडग रहोगे
तो तु हारे प म ही िनणय दगे। साथ ही आव यकता पड़ने पर यु के िलये भी तुत रहना
होगा।’’
‘‘कैसे मातामह? िपता ऐसा य करगे? भाई कुबेर िन:संदेह उनके अिधक िनकट ह गे,
तब वे हमारे प म िनणय य करगे?’’ रावण उचक कर कुहिनय के बल लेटते हये बोला।
‘‘व स तु हारे िपता िवर सं यासी ह। याग उनका वभाव है। कुबेर बड़ा है, साधन
स प न है और सबसे बड़ी बात है िक उनके िनकट है इसीिलये वे उसे याग करने क सलाह
दगे। वैरागी लोग वयं याग को तुत रहते ह और अपने िनकट थ यि य से भी याग क
ही आशा रखते ह। उनक यही कृित तु हारा िहतसाधन करे गी।’’
‘‘और यिद भाई नह माने तो? यिद िपता ने उसके प म ही अपना मत िदया तो?’’
‘‘पहले तो ऐसा नह होगा। यिद हो ही गया तब तो यु के िलये तुम तुत हो ही। यु
िकया जायेगा। िफर भी जहाँ तक हो सके अभी यु को टालना है। यु के िलये तो अभी तु हारा
सारा जीवन पड़ा है।’’
‘‘तो िफर मातामह लंका- थान क योजना बनाइये। अब िवलंब य कर रहे ह?’’
रावण के मुख से यह ताव सुनने क ही तो ती ा कर रहा था सुमाली। इसी हे तु तो
उसने इतनी लंबी तप या क थी, अ ातवास भोगा था। सारी ौढ़ाव था खपा डाली थी इस
िबयाबान जंगल म। यही ती ा करते-करते वह आधा बुढ़ापा भी काट चुका था िक वह अपनी
लंका एक िदन िफर वापस लेगा। उसने स नता के अितरे क म रावण को भुजाओं म भर उसके
म तक पर एक सुदीघ चु बन अंिकत कर िदया।
ू गयी थी। अब तो नई कहानी जीवन के प ृ
च नखा भी इस वातालाप म कहानी भल
पर उतरने को त पर थी।
22. जाबािल का याय
‘‘महामा य! यह म या सुन रही हँ?’’ कैकेयी के वर म असंतोष झलक रहा था।
‘‘ या महारानी जी? म समझ नह पाया।’’
महामा य को सच ू ना िमली थी िक सायंकाल महारानी कैकेयी उनसे भट करना चाहती
ह। महारानी क इ छा आदेश ही होती थी। महामा य ने अपनी वीकृित िभजवा दी थी और वे
समय से महारानी के स मुख उपि थत हो गये थे। आते ही उ ह ने क के ार पर एक शू को
खड़े देखा था, वे सारा करण समझ कर भी अनिभ िदखने का यास कर रहे थे।
‘‘आप िविध क यव थाओं क मनमानी या या करने लगे ह। आप स मािनत
ा ण क बात भी अनसुनी कर देते ह। शासन म आप िविध को संर ण देने के थान पर
वे छाचारी होते जा रहे ह।’’
‘‘संभवत: बड़े मठ के मह त ने दन िकया होगा आपके स मुख।’’ महामा य ने
मु कुराते हये सहज शांत वर म उ र िदया।
‘‘उनका आरोप यिद िम या है तो थािपत कर।’’
ू आरोप मेरे स मुख प
‘‘वह तो तब होगा जब आप स पण करगी।’’
‘‘मुझे िकसी मठ के िववाद से योजन नह है। मेरा सीधा सा तो यह है िक या
आप अपने हठ म धािमक यव थाओं क भी अनदेखी कर देते ह? े धािमक यि य को भी
अपमािनत कर डालते ह?’’
‘‘नह महारानी जी! म मा धम के वजवाहक को अपने काय म ह त ेप नह करने
देता। यिद वे शासिनक काय म अनुिचत ह त ेप करगे, धम को अ याय का साधन बनायगे
तो मुझे उनको भी याय क तुला पर तोलना ही पड़े गा।’’
‘‘कैसा ह त ेप और कैसी याय क तुला? प किहये।’’
‘‘यिद कोई महंत िकसी िनरीह पर धम के नाम पर अ याचार करे गा, रा य के याय म
ह त ेप करे गा तो म उस महंत के अिधकार पर अंकुश लगा कर रहँगा। म अ याय को य
नह दे सकता और इस काय से मुझे कोई नह रोक सकता, वयं महाराज भी नह ।’’
‘‘आमा य! दंभ का वर सुनाई दे रहा है मुझे।’’
‘‘ऐसा कुछ नह है महारानी।’’ जाबािल बरबस मु कुरा उठे - ‘‘यिद महारानी को ऐसा
लगता है तो यह उनका म मा है।’’
‘‘आपको महारानी से इस कार बात करते भय नह लगता।’’
‘‘भय य लगेगा महारानी? आमा य का कत य है उिचत परामश देना। राजा को उिचत
माग के अनुकरण हे तु े रत करना तािक जा सुखी और संतु रह सके। रा य सम ृ और
थाई रह सके।’’
कैकेयी ने ताली बजायी। तुरंत एक सेवक उपि थत हआ।
‘‘जाओ क म बड़े मठ के मह त जी बैठे ह। उ ह आदर से बुला लाओ।’’ कैकेयी ने
क क ओर हाथ से संकेत करते हये उसे आदेश िदया।
मह त जी आ गये। उनके साथ वह विणक भी था। जाबािल और कैकेयी दोन ने उठ कर
मह त जी का वागत िकया, णाम िकया। मह त जी जब बैठ गये तो कैकेयी ने कहा -
‘‘हाँ मह त जी! अब बताइये या आरोप है आपका? महामा य भी उपि थत ह आपका
समाधान करने के िलये।’’
‘‘आरोप नह है महारानी जी! म तो मा आपसे याय क िभ ा माँग रहा हँ।’’
‘‘महंत जी इस वा जाल को याग कर प अपना आरोप तुत कर।’’ महामा य ने
सि मत कहा।
‘‘महारानी जी! इस यि ने...’’ उ ह ने ार पर खड़े द र से यि क ओर इंिगत
करते हये कहा- ‘‘इस विणक को अपना घर िव य िकया था, वे छा से। िक तु इसका पु
महामा य के पास पहँच गया तो उ ह ने वह िव य-प िनर त कर घर उस पु को िदलवा िदया।
एक िविध-स मत उिचत िव य म ह त ेप का इनको या अिधकार था?’’
‘‘पहली बात महंत जी, आपका इस समच ू े करण से कोई संबंध नह है। याय माँगने
यह विणक महोदय वयं आ सकते थे। अभी आप वयं समझ जायगे िक आपने यहाँ आकर
िकतनी महान भलू कर दी है। दूसरी यह आरोप लेकर आप दरबार म महाराज के पास य नह
उपि थत हये? आपको वह आना चािहये था। स य है िक महाराज महारानी क सलाह का
स मान करते ह िक तु उिचत ि या का पालन भी आव यक है। कैसा भी आदेश, चाहे वह
आपके प म हो या िवप म, महाराज ही दगे, महारानी नह ।’’
‘‘महामा य आप मेरी स ा पर उपि थत कर रहे ह।’’ कैकेयी के वर म ोध और
आ य दोन ही थे।
‘‘नह महारानी! म आपक स ा को मा यता देता हँ। म पवू ही कह चुका हँ िक
महाराज आपक स मित का स मान करते ह। इस िवषय म भी िनि त ही करगे। यिद आप
महाराज को महंत जी के प म फै सला देने क स मित दगी तो वे स भवत: वही करगे।’’
‘‘िफर? िफर यिद ये मेरे पास आ गये तो आपको क य हआ?’’
‘‘मुझे क नह हआ महारानी! ि या का है। सम त अिभलेख अिभलेखागार म
होते ह। सभाभवन म बैठे महाराज उ ह अिवल ब मँगवाकर उनका िनरी ण कर सकते ह जो िक
यहाँ इस समय संभव नह है।’’
‘‘हँ!!!’’
‘‘त य यह है िक इस कार ये महंत महोदय वयं को रा य यव था से ऊपर िस
करना चाहते ह। सभाभवन म आना इ ह अपनी हे ठी तीत होती है।
‘‘ठीक है। अब ये यहाँ आ ही गये ह तो इनक सम या का िनदान क िजये।’’
‘‘नह हो सकता महारानी।’’
‘‘आप मुझे न कह रहे ह महामा य।’’
‘‘नह महारानी! म इ ह न कह रहा हँ।’’
‘‘बात तो एक ही है।’’
‘‘नह ! आपने अभी एक ही प सुना है। या आप कोई भी आदेश दोन प को सुने
िबना, परू े करण का सं ान िलये िबना दे सकती ह?’’
‘‘नह ! िक तु या इ ह ने मुझसे िम या-भाषण िकया है?’’
‘‘िजतना बताया है उतना तो स य ही बताया है। िक तु अधस य बताया है। उस यि
ने ऐसा य िकया यह तो बताया ही नह । कैसे िकया यह तो बताया ही नह ।’’
‘‘तो आप ही बता दीिजये।’’
‘‘उिचत तो यही होगा महारानी जी िक स पण
ू स य उस यि का पु ही बताये।’’
जाबािल ने कहा। महारानी उनक बात का कोई उ र देत उससे पवू ही महंत जी उस कृषकाय
यि क ओर, जो पवू वत हाथ जोड़े खड़ा हआ था, संकेत करते हये बोल पड़े -
‘‘महारानी जी! यह वह यि है िजसने घर िव य िकया था। आप इसी से स पण
ू सय
जान लीिजये। इसका पु कौन होता है ह त ेप करने वाला।’’
‘‘महारानी जी य िप दूसरा प यह नह इसका पु है। िफर भी इससे ही पछ
ू लीिजये
िफर म आपको संतु कर दँूगा।’’ मु कुराते हये जाबािल ने कहा।
‘‘नाम या है तु हारा?’’ कैकेयी ने पछ
ू ा।
‘‘गोकरन महारानी जी!’’
‘‘घर तुमने वे छा से िव य िकया था।’’
‘‘जी!’’
‘‘िव य क परू ी रािश तु ह ा हो गयी थी।’’
‘‘जी!’’
‘‘रािश कम तो नह थी? िगन ली थी उिचत कार से?’’
‘‘जी महारानी जी!’’
‘‘तु ह िगनना आता है।’’
‘‘नह महारानी जी।’’
‘‘िफर कैसे िगनी थी?’’
‘‘मह त जी ने ही एक-एक कर मु ाय मुझे िगनकर समझायी थ ।’’
‘‘तुम संतु हो?’’
‘‘जी!’’
कैकेयी ने कुछ ण सोचा िफर बोली -
‘‘एक बात और बताओ! घर तु हारा ही था, तु हारे पु का तो नह था?’’
‘‘नह महारानी जी! मेरा ही था।’’
‘‘लीिजये महामा य! सब कुछ तो दपण क भाँित प है।’’
‘‘दो म भी पछ
ू लँ ू महारानी?’’ जाबािल ने पछ
ू ा।
‘‘िजतने चाहे पिू छये। आप महामा य ह कोशल के।’’ कैकेयी ने कुछ यं य से कहा।
‘‘घर तुमने िकससे य िकया था?’’
‘‘िकसी से नह !’’
‘‘ता पय? जब य नह िकया था तो िफर तु हारा कैसे हो गया?’’
‘‘पुरख से िमला था। हम लोग कई पीिढ़य से उसी म रह रहे ह।’’
‘‘िकतने लोग रहते ह सब कुल उस घर म।’’
‘‘जी ... जी ...?’’
‘‘अरे िकतने लोग रहते ह उस घर म? सीधा सा तो है।’’
‘‘जी! हम पित-प नी, हमारे तीन बेटे, तीन बहएँ , दो अन याही क याएँ और ....’’ वह
उँ गिलय पर कुछ िहसाब जोड़ता रहा, िफर बोला - ‘‘तीन बेट के सात ब चे।’’
‘‘अथात् कुल प ह ाणी। ठीक है न मह त जी।’’
‘‘ठीक है िक तु इससे या अ तर आ गया?’’ मह त जी कुछ गड़बड़ाये, उ ह समझ
नह आ रहा था िक महामा य बात को िकधर ले जाना चाहते थे। उ ह महामा य पर कतई
िव ास नह था। उनक तीखी, भीतर तक बेधती हई ि से वे बहत घबराते थे। इसीिलये जब
महारानी ने महामा य को बुलाने का िनणय िलया था तो वे आशंिकत हो गये थे, िक तु या
करते, वे महारानी को िनदिशत तो नह कर सकते थे।
‘‘इसका भी उ र दँूगा िक तु थम इससे परू ी बात कर लँ।ू ’’ जाबािल ने मह त के
गड़बड़ाने का आन द िलया िफर उस यि से पछू ा-
‘‘िनवास हे तु अ य भी कोई यव था है तु हारे पास?’’
‘‘नह मं ी जी!’’ उसक आँख गीली हो गयी थ ।
‘‘तो अब कहाँ रहगे इतने सारे ाणी?’’
‘‘जी! िकसी व ृ के नीचे या जहाँ भगवान थान देगा वह रह लगे।’’
‘‘ य अपने प रवार, िवशेषकर ि य और ब च को रहने का थान दान करना
तु हारा कत य नह है?’’
‘‘है मं ी जी! पर या कर भगवान ही नह चाहते तो ...’’ अब उस यि के आँसू गाल
तक बह आये थे।
‘‘ य या हो गया। जब तुमने वे छा से िव य िकया था तो अब दन का या अथ
है?’’
वह यि या जवाब देता, बस रोता रहा।
‘‘अ छा िव य िकया य था? म पान हे तु?’’ जाबािल ने पुन: िकया।
‘‘छी-छी! जीवन म कभी हाथ नह लगाया म को।’’
‘‘तो िफर ... त
ू हे तु?’’
‘‘महारानी जी महामा य अकारण एक सीधे-सरल यि को मानिसक प से तािड़त
कर रहे ह। सबको ात है िक यह अ यंत धािमक विृ का यि है। म या त ू या अ य िकसी
भी यसन से कोस दूर है। आमा य से किहये िक ऐसे अनगल न कर िजनसे िकसी का
अपमान होता हो। उसक ित ा पर आँच आती हो। इसने कोई अपराध नह िकया है, अपनी
आव यकताओं से िववश होकर अपना घर िव य िकया है। महामा य अकारण एक शू का
अपमान कर रहे ह। कोशल म शू को भी सामािजक स मान ा है, इस यव था को यह
िव मतृ कर गये ह।’’ यह ल बा सा ितवाद महंत जी ने िकया था। जाबािल शांत भाव से
मु कुराते हये उनक बात सुनते रहे थे।
‘‘महामा य मह त जी का तक उिचत है। यह यि अपराधी नह है, कोई भी ऐसा
कथन न कर िजससे इसे पीड़ा पहँचे या इसका अपमान हो।’’ महारानी ने महंत जी क बात पर
अपनी मुहर लगा दी।
‘‘उिचत है महारानी। िक तु आप भी महंत जी के स पण ू तक मरण रिखयेगा। वैसे
महंत जी को मरण िदला दँू िक शू को कोशल म सामािजक स मान िदलाने वाला यि यह
जाबािल ही है। महंत जी जैसे तो आज भी शू को अपनी चरण-पादुका ही समझते ह।’’
‘‘महामा य! उपहास मत क िजये और न महंत जी पर कोई यि गत आ ेप क िजये।’’
महारानी ने िफर टोका। महंत जी महामा य क ओर देखते हये छाती फुला कर मु कुराने लगे।
‘‘महारानी जानती ह िक जाबािल कभी उपहास नह करता और न ही उसका महंत जी
पर यि गत आ ेप करने का यास है।’’ कुछ पल क कर पुन: बोले- ‘‘आप अव य जानती
ह गी िक तु िफर भी म हमारे समाज क वण यव था के िवषय म कुछ कहने क अनुमित
चाहता हँ।’’
‘‘किहये।’’
‘‘महारानी जी हमारे समाज म शू को मु ा से कोई योजन ही नह होता। होता भी है
तो अ य प मा ा म। स पण ू रा य के शू के घर म कुल िमलाकर स भवत: सौ रजत मु ाएँ
आपको ा नह हो पायगी। वण मु ाओं क बात तो जाने ही दीिजये। मु ा या आभषू ण इनके
पास मा तभी आता है जब िकसी धनी ि ज से, िववाह-ज म आिद िकसी िविश उ सव म,
मिृ त-िच ह व प ा होता है और उसे ये लोग भी अपने यहाँ िववाह या ब च के ज म या
िकसी क म ृ यु म यय करने हे तु सहे ज कर रख देते ह। ये ि ज के यहाँ सेवा काय करते ह ...’’
अपनी बात बीच म ही रोकते हये अचानक वे उस यि क ओर मुड़े और पछ ू ा - ‘‘ य ! या
करते हो तुम? कौन जात हो?’’
‘‘जी बढ़ई।’’
‘‘अब जैसे यह बढ़ई है-का कार, यह िजसके यहाँ भी काय करता है वहाँ इसे िदन म
रोटी िमलती है खाने को। शाम को अनाज िमल जाता है। स प न यि य के यहाँ या िजनके
यहाँ ये लोग अिधक िदन काय करते ह, इ ह व , ाय: उतरन, भी िमल जाते ह। इनके घर का
येक सद य काय करता है। अ ययन से इ ह कोई योजन नह होता - इ ह अनुमित ही नह
है उसक । पाँच-छह वष क आयु होते ही इनका बालक भी इनके साथ काय करने लगता है और
अपना भोजन वयं कमाने लगता है। पद ाण या पगड़ी या उ म व धारण करने क भी इ ह
अनुमित नह है। आभषू ण इनक ि याँ धारण कर नह सकत । इ ह मु ा क आव यकता या
है?
‘‘अब जैसे यह का कार है, इसे यिद िकसी कु भकार से कु भ क आव यकता है तो
यह उसके यहाँ कुछ काय कर देगा और बदले म उससे कु भ ा कर लेगा। नह तो उसे
िविनमय म अनाज दे देगा। ऐसे म यह वाभािवक है िक यिद इसके पास कोई यसन नह है
तो इसे मु ा क आव यकता य पड़ी? आप समझ रही ह न महारानी जी म आपका यान िकस
ओर आकिषत करना चाह रहा हँ?’’
‘‘कहते रिहये आप, म समझ रही हँ।’’
‘‘महारानी जी महामा य का यह सुदीघ व य स पण ू करण को उलझाने का यास
मा है। इस सबका िव य से या स ब ध? िकसी भी यि क कोई भी िववशता हो सकती है।
त य तो मा यह है िक इस यि ने िव य वे छा से िकया था, इसे यह वयं आपके स मुख
वीकार कर चुका है।’’ महंत जी ने यवधान िदया। महामा य के व य से उनका आ मिव ास
िडगने लगा था।
कैकेयी ने महंत जी के तक का कोई उ र नह िदया और महामा य को अपनी बात
आगे बढ़ाने का संकेत िकया।
‘‘धैय रख महंत जी! अभी सब प हआ जाता है। म कह रहा था िक ... कृिषकाय ये
कर नह सकते, इ ह अिधकार ही नह है, इनके पास कृिष भिू म ही नह होती इसिलये यह भी
संभावना नह है िक कृिष म हािन हो गयी इसिलये धन क आव यकता थी या कृिष भिू म य
करने के िलये धन क आव यकता थी। महंत जी उिचत कह रहा हँ न?’’
महंत जी तो केवल ‘‘जी!’’ करके रह गये िक तु महामा य के कथन पर कैकेयी बरबस
मु कुरा उठी। अब तक उसे समझ म आने लगा था िक बात उतनी सीधी नह थी िजतनी उसने
समझी थी। यह उसके मि त क म भी कचोटने लगा था िक वाकई शू का तो धन से कोई
योजन होता ही नह । इसे धन क आव यकता या थी?
‘‘महारानी जी! इनके यहाँ िशशु के ज म से लेकर म ृ यु पयत सारे काम िबना मु ा के
ही स प न होते ह।’’ महामा य कहते जा रहे थे - ‘‘काय तो सारे िकसी न िकसी शू को ही
करने होते ह और वे सब, इसी क भाँित काय के िलये मु ा नह माँगते, वे सब काय के
पा रतोिषक के प म आव यकता पड़ने पर इससे अपना काय कराते ह या अनाज ले लेते ह।
‘‘महारानी जी शू पर रा य क ओर से कोई कर आरोिपत होता नह । उनसे िमल भी
या सकता है? व ृ और अ व थ यि य हे तु िचिक सा यव था रा य ारा पणू त: िनःशु क
उपल ध है। िफर इसे धन क आव यकता या थी वह भी इतने धन क िक इसे अपने प रवार के
सर क छत तक िव य करनी पड़ गयी?
महारानी जी शू को मु ा क आव यकता जीवन म मा एक काय हे तु पड़ती है,
जानती ह िकस काय हे तु ...?’’ जाबािल महारानी के उ र क ती ा करने लगे।
‘‘नह महामा य! मुझे तो त
ू और म के अित र ऐसा कोई काय मरण नह हो रहा
िजसके िलये इ ह मु ा क आव यकता पड़ती हो। आप ही बताइये।’’
‘‘उपरो दोन काय के अित र इ ह मु ा क आव यकता होती है मा ा ण
देवता को दि णा देने के िलये।’’
कैकेयी एक दीघ िन ास लेकर रह गयी।
‘‘जाने दीिजये ...’’ वे िफर उस यि क ओर मुड़े - ‘‘तो िफर िकसिलये िव य िकया
तुमने अपना घर।’’
‘‘जी! वह माता जी का देहा त हो गया था।’’ उस यि क आँख पुन: गीली हो गयी
थ।
‘‘तो या तु हारे पास इतना धन भी नह था िक उनका शवदाह भी कर पाते? तो आते
रा य क ओर से िनःशु क सम त यव था हो जाती।’’
‘‘वह तो हो गयी थी ...’’
‘‘िफर? िफर या बात थी?’’
‘‘जी! बाक सं कार भी तो करने थे। ा ण को भोज करना था। महा ा ण को दान
करना था। अ य ा -कम करने थे।’’
‘‘यह सब िकसने बताया था?’’
‘‘महारानी जी महामा य अनगल कर उस दुखी यि को और दुखी कर रहे ह।
कृपया इ ह िनिद क िजये।’’ महंत जी ने महारानी से गुहार लगायी।’’
‘‘कैकेयी का ोध उस यि के आँसुओ ं म बह गया था। वह ि थित को समझने लगी
थी। शायद उसक आँख भी नम थ । उसने जाबािल को संकेत िकया िक वे जारी रख।
‘‘बताया नह तुमने?’’
‘‘जी मह त जी ने।’’
‘‘िकतने ा ण का भोज करना था?’’
‘‘जी एक सौ एक।’’
‘‘ या?’’ जाबािल ने च कने का अिभनय करते हये महंत क ओर देखा। िफर बोले -
‘‘महंत जी! आपका मठ तो अ यंत स प न है िफर भी लगता है आपको िनधन का लह
ू ने का अ यास पड़ा हआ है। कह मठ क स प नता के पीछ यही तो कारण नह है? ... जाने
चस
दीिजये, मनु मिृ त क सरू त देखी है कभी?’’
‘‘जी। मठ म सम त थ रखे ह।’’
‘‘कभी अ ययन भी िकया है या रखे हये धल
ू ही खा रहे ह?’’
‘‘आप मेरा अपमान कर रहे ह महामा य। ा ण के ाप से डर।’’
‘‘कुछ नह करता ा ण का ाप। यिद करता होता तो थम तो म ही आपको ाप दे
देता।’’
‘‘महारानी जी! म तो बड़ी आशा से आपके पास आया था िक आप याय करगी।
महामा य क व छं दता पर अंकुश लगायगी, िक तु आप भी ...’’
‘‘आप मेरे ऊपर आरोप लगा रहे ह।’’ कैकेयी तीखे वर म बोल पड़ी।
‘‘महारानी ोिधत न ह । अभी तो कुछ शेष ह। हाँ, महंत जी मेरे का उ र नह
िदया िक थ रखे ही ह या कभी उनके प ृ भी पलटे ह।
महंत जी ोध क भंिगमा बनाये, आँख फाड़े महामा य को घरू ते रहे , कोई उ र नह
िदया।
‘‘इसे भी जाने दीिजये! िक तु बैठ जाइये, कायवाही म अनिधकार ह त ेप मत क िजये।
याय िमलेगा आपको भी, वंिचत नह रहगे।’’
‘‘नह चािहये मुझे आपसे याय।’’ महंत जी फुफकार उठे । महामा य के कथन क
यंजना उ ह समझ म आ रही थी।
‘‘बैठ जाइये महंत जी।’’ कैकेयी के वर के तीखेपन से महंत जी सकपका गये। वे
एकदम से हड़बड़ा कर बैठ गये।
‘‘हाँ महामा य जी आप आगे पिू छये।’’
‘‘हाँ तो या नाम बताया तुमने अपना?’’
‘‘जी गोकरन।’’
‘‘तो गोकरन! िम ा न भी ऐसे ही बताये ह गे महंत जी ने, जो कभी तु हारी माँ ने देखे
भी नह ह गे?’’
‘‘जी मह त जी ने वयं ही हलवाई भेजे थे, उ ह ने ही बनाया था सब कुछ। मुझे तो बहत
सी व तुओ ं के नाम ही नह ात ह।’’
‘‘अ छा एक का उ र और दे दो। घर के िव य से तु ह जो मु ा ा हई थी उससे
सम त आयोजन स प न हो गया था अथवा कह अ य से भी कुछ ऋण लेना पड़ा था?’’
‘‘जी एक सौ एक वण मु ाएँ इ ह विणक महोदय से और ऋण व प ा क थ -
दि णा देने हे तु।’’
‘‘अब इसे चुकाने हे तु या िव य करोगे? मख
ू !’’ यह चाकू क धार सा तीखा वर
कैकेयी का था। वह जाबािल से बोली -
‘‘महामा य! महंत जी के िलये या दंड-िवधान है?’’
‘‘अभी िकये तो महारानी जी! अभी तो विणक महोदय से सा ा कार शेष है। तिनक
उनक भी तो थाह ले ली जाये। वाद लेकर तो यही आये ह, महंत जी तो मा संर क,
परामशदाता और व ा बन कर इनके साथ आये ह - एक िनरीह विणक को याय िदलाने।
‘‘उिचत है ... उिचत है। इ ह भी कसौटी पर किसये, उिचत रीित से!’’
‘‘हाँ तो विणक महोदय, या अभी है आपको? इससे घर िकतनी मु ाओं म य िकया
था आपने?’’
‘‘मुझे कुछ भी अभी नह महामा य! मुझे मा कर, म अपनी ित वहन कर लँग
ू ा।’’
‘‘ऐसा िकस कार संभव है? आप याय क अिभलाषा से आये ह, आपके साथ पू य
महंत जी आये है, याय तो आपको दान िकया ही जाएगा।’’
‘‘मुझे याय राजसभा म ही िमल गया था। म उससे संतु हँ।’’
‘‘मेरे का उ र दीिजये अ यथा अव ा का अिभयोग चलाया जायेगा आपके ऊपर?’’
‘‘जी सौ वण मु ाओं म।’’
‘‘िक तु िववािदत घर का मू य तो इससे पया अिधक होगा। कम से कम एक सह
ू मू य पर कैसे िव य कर िदया इसने? इसम भी
वण मु ाएँ , अिधक भी हो सकता है। इतने यन
आपक कोई दुरिभसंिध थी या?’’
‘‘नह -नह महामा य मेरी कोई दुरिभसंिध नह थी। मने इसे कदािप बा य नह िकया
िव य हे तु। इसने वे छा से ही िव य िकया था। मेरे पास मा दो सौ एक वण मु ाएँ थी सो सब
क सब मने इसे दे दी थ ।’’
‘‘तो इस नाट्य म यह भिू मका महंत जी ने िनवहन क होगी इसे नक का भय या वग
का लोभ िदखा कर। य है न यही स य? और आपने महंत जी को अव य ही कुछ उ कोच
( र त) िदया होगा अ यथा िबना लाभ के तो यह कुछ करते नह ।’’
‘‘जी ... जी ... यह या कह रहे ह आप? मने ऐसा कुछ नह िकया।’’ विणक बुरी तरह
से बौखला गया था। वह काँपने लगा था।
‘‘विणक महोदय! आपको महंत जी क तरह कोई िवशेषािधकार ा नह है। उ कोच
िस तो कर ही दँूगा म, िफर समझ लीिजयेगा आपके साथ या यवहार होगा।’’
‘‘महारानी मुझ िनरीह ाणी पर दया कर। मने कुछ नह िकया।’’ उसक आँख से आँसू
बहने लगे थे।
‘‘उ र दो महामा य को।’’ कैकेयी क मुखमु ा अ यंत गंभीर थी िक तु वर अ यंत
शांत। विणक को यह शांित तफू ान के पहले क शांित जैसी लगी। वह और घबरा गया।
‘‘महामा य मुझे मा कर द। पुन: कोई भल
ू नह होगी। मा कर मुझे, मेरे बाल-ब च
पर दया कर।’’
‘‘ या लाप कर रहे हो मेवाराम? िबना िकसी अपराध के मा माँग रहे हो, मुझे
उ कोच के अपराध म घसीट रहे हो।’’ महंत जी अचानक िच ला उठे ।
‘‘म कहाँ कुछ कह रहा हँ महंत जी। म तो बस मा माँग रहा हँ।’’ वह विणक िजसका
नाम मेवाराम था रोते हये बोला, बेचारा महामा य क एक ही घुड़क म चरमरा गया था।
‘‘उ ह चीखने दो, तुम मुझे उ र दो मेवाराम! अ यथा सारी मेवा राजकोष म चली
जायेगी।’’
‘‘महामा य! म ा ण के ऊपर कैसे आरोप लगा दँू? मुझसे यह पाप नह होगा।’’
‘‘ता पय यह िक आप वयं ई र के ितिनिध महाराज और महारानी के आदेश क
अवहे लना करगे। इस ा ण से अिधक शु इस दूसरे ा ण - अयो या के महामा य जाबािल के
आदेश क अवहे लना करगे।’’
‘‘मेवाराम नरक म जाओगे।’’ महंत जी अभी भी चीख रहे थे।
‘‘अपना नक अपने पास ही रख महंत जी। वग-नक सब यह है। जाबािल को आपसे
अिधक ान है शा का भी और कृित क यव था का भी।’’ अब जाबािल का वर शेर क
गुराहट सरीखा हो गया था - ‘‘मने पवू ही कहा था आपसे िक आपने महान भल
ू कर दी है यहाँ
आकर।’’ िफर वे मेवाराम क ओर घमू े-
‘‘अभी तक उ र नह िदया तुमने?’’
‘‘स... स... स ... एक सह वण मु ाएँ ।’’ मेवाराम ने आँसुओ ं से भीगे चेहरे से
हकलाते हये उ र िदया। उसने अपना चेहरा हथेिलय से िछपा िलया था।
‘‘ओह! िजसका घर था उसे सौ मु ाएँ और महंत जी को सह मु ाय?’’ कैकेयी के
मुख से हठात् िनकल पड़ा।
‘‘यह िम या भाषण कर रहा है महारानी। िम याभाषण। महामा य इसे आ ांत कर
अपनी सुिवधानुसार श द दे रहे ह। एक िति त ा ण, अयो या के बड़े मठ के िति त
मह त को फँसाने का ... अपमािनत करने का कुच रच रहे ह। म शा त नह बैठूँगा। मेरे एक
आवाहन पर अयो या म िव ोह क दु दुभी बज उठे गी। और तू मेवाराम ... तेरी तो सात पीिढ़याँ
रौरव नरक भोगगी।’’
‘‘महारानी! महंत जी का लाप ही उनक पोल खोल रहा है। अब म आपको स पण ू
घटना म सुनाता हँ।’’ महंत के गरजने-बरसने पर कोई यान न देते हये जाबािल ने कहा
-
‘‘इस विणक ने इसी कार इस महंत के साथ कुच रचकर ऐसे कई भोले-भाले
नाग रक के घर हड़प िलये ह। उनम से दो तो इस गोकरन के अगल-बगल के ही ह। अथात्
इसका घर दोन के बीच म पड़ रहा था। अगर तीन घर इसके पास आ जाते तो तीन को िमला
कर छोटा-मोटा साद बना सकता था। इस कारण मेवाराम दीघकाल से अवसर क ती ा म था
इसका घर हड़पने के िलये। गोकरन िव य के िलये कदािप उ सुक नह था। इस ि थित म इसके
पास एक ही माग बचता था, पुन: महंत जी का सहयोग लेने का। म पुन: श द का योग कर रहा
हँ महारानी, महंत जी ने पवू म भी अ या य करण म लोग को धम का भय िदखा कर इसके
छल- पंच म सहयोग िदया है। इस बार भी इसने महंत जी का ही सहयोग िलया। महंत जी भी
समझते थे िक यह घर मेवाराम के िलये िकतना मह व रखता है अत: इ ह ने इस दुधा गाय को
पणू मनोयोग से दुहा। ये लोग राह देखने लगे िक कब गोकरन क म ृ यु के ार पर खड़ी माता
का वगवास हो और ये अपना जाल फै लाय। बहत संभव है िक गोकरन क माँ क म ृ यु म भी
इन लोग क कोई भिू मका हो िक तु उसका कोई माण मुझे नह िमल सका। ..... बस इ ह ने
जाल फै लाया और मख ू -धमभी गोकरन उस जाल म फँस गया।
‘‘महारानी हमारी अनपढ़ जा शा के संबंध म कोई ान नह रखती। इसी अ ानता
के चलते उसे ये कपटी धमाचाय जैसे चाहते ह मख ू बनाते ह। उसके सामने जैसी चाहते ह वैसी
अनगल, वाथपण ू और अतािकक या या करते ह धम क , और ये धमभी लोग, ये वैसे तो
पर पर िनरं तर कलह करते ह, ी और संतान को पीटते ह, छोटी-छोटी बात म कपट करते ह,
िक तु इन लोग के कपट के िव कुछ नह बोलते। ा ण के भय के मारे , नरक के भय के
मारे , अगले ज म म क ट-पतंगा होने के भय के मारे - िसर झुका कर सारे अ याचार झेल लेते ह।
वह तो अ छा हआ िक गोकरन का एक बेटा बुि मान िनकला और उसने इस अ याय के िव
प रवाद तुत कर िदया अ यथा हम इस महंत और इस विणक के कुच के संबंध म कुछ जान
ही नह पाते। इनके सारे कुकृ य गोपन ही बने रहते।’’
ू ा था िक इन महंत महाराज के िलये या दंड हो सकता है।’’
‘‘महामा य मने पछ
‘‘महारानी ा ण के संबंध म हमारा िवधान अ यंत उदार है। उनके बड़े -से बड़े अपराध
के िलये अिधकतम दंड यही है िक िसर मँुड़ा कर, जो िक अ सर पहले ही मँुड़ा हआ होता है,
रा य से िनवािसत कर िदया जाये। उसक स पि अिध हीत नह क जा सकती, उसे शारी रक
दंड बहत िवशेष प रि थित म वह भी न के बराबर ही िदया जा सकता है।’’
‘‘िफर महामा य या स मित है आपक ?’’
‘‘पहले तो एक कथा सुिनये िजससे आपके सामने इन महंत का आचरण प हो
जायेगा।’’
‘‘सुनाइये।’’
‘‘एक बार एक कु े को एक ोधी ा ण ने अकारण बुरी तरह लािठय से पीट िदया।
कु े ने राजा के स मुख अपनी यथा रोयी जाकर। ा ण पर दोष िस हो गया। िवधान क
ि थित देखते हये राजा ने कु े से ही पछ
ू िदया िक इस ा ण को या दंड िदया जाये। इस पर
कु े ने कहा ‘‘महाराज इसे िकसी मठ का महंत बना दीिजये।’’ राजा ने उसक बात मान ली
िक तु उ सुकतावश पछ ू िलया िक यह कैसा दंड है, यह तो पा रतोिषक हआ।’’ इस पर कु े ने
उ र िदया िक महाराज! म भी पवू ज म म एक मठ का महंत ही था। मने तो परू ी स यिन ा से
अपना कत य िनवहन िकया था िफर भी मुझे यह योिन िमली। यह तो महा ोधी ा ण है, इसक
गित तो मुझसे भी बहत बुरी होगी। आप इ ह बड़ा दंड नह दे पायगे, ई र वयं इ ह बड़ा दंड
देगा।’’
(‘‘उपरो कथा वा मीिक रामायण, उ र का ड से ही ली गयी है। वहाँ राजा ह वयं ीराम।
हमारी कथा म अभी ीराम का ज म ही नह हआ है और महंत का संग आ गया तो यह िकसी
का पिनक राजा के नाम से दे दी गयी है।)
‘‘महारानी! ऐसा तीत होता है जैसे िवधान यह मान कर चलता है िक ा ण कुछ
अनुिचत कर ही नह सकता। उसके उपरांत भी यिद कुछ अकरणीय करता भी है तो िवधान के
अनुसार उसे कोई कठोर दंड नह िदया जा सकता। िवधान क इसी उदारता का महंत जी जैसे
वाथ त व अनुिचत लाभ उठाते ह। म यास क ँ गा िक इनक कोई ऐसी चक ू िमल जाये िजससे
इ ह ा ण व से युत िकया जा सके, तभी इ ह कोई कठोर दंड दे पाना संभव हो सकेगा।’’
‘‘क िजये महामा य। परू ी त परता से क िजये। और हाँ वे एक सौ एक वणमु ाएँ अभी
इनसे लेकर राजकोष म जमा करवा दीिजये। इस विणक ने इस कार िजतनी भी स पि छल
पवू क अिजत क है सम त ह तगत कर उनके वा तिवक अिधका रय को वापस कर दी जाय।
येक ऐसी स पि पर उनके मू य के समतु य अथद ड भी इस पर आरोिपत िकया जाये। कोई
आनाकानी करे तो इसक सारी स पि अिध हीत कर ली जाये। इन महंत जी को कुछ िदन
राजक य अितिथशाला म स कार पवू क रखा जाये िक तु इनके क के बाहर अहोरा सुर ा
क यव था रहनी चािहये तािक इ ह कोई क न दे पाये। िकसी को भी इनके क म वेश न
करने िदया जाये। सबसे बता दीिजये िक महंत जी ने आशंका कट क है िक इनके मठ म ही
कोई यि इनके िव षड़यं कर रहा है। आपको इस बहाने मठ क भलीभाँित छानबीन
करने का अवसर भी िमल जायेगा। जब तक षड़यं कारी नह िमल जाता ये राजक य सुर ा म
ही रहगे। इस बीच आप इनक परू ी कुंडली बना डािलये ... बाँच डािलये।’’
‘‘हो जायेगा महारानी जी! हो जायेगा।’’ महामा य ने कहा। िफर वे उस शू से स बोिधत
हये -
‘‘और तुम जान लो गोकरन! तु हारे बेट का पैदा होते ही तु हारी पैतकृ स पि म
अिधकार बन जाता है। तु हारे तीन बेटे ह चौथे तुम हो इस कार उस घर म तु हारा अिधकार
मा चतुथाश रह गया है। तुम परू ी स पि अपनी इ छा से िव त नह कर सकते। इसके िलये
तुम दंड के भागी हो िक तु तुमने जो कुछ िकया अ ानतावश िकया, इस महंत के बहकावे म
आकर िकया इसिलये तु हारा अपराध य है। तु हारा दंड यही है िक अब स पि म परू ा
अिधकार तु हारे बेट का होगा, तु हारा कोई अिधकार नह होगा। तुम तो अपनी स पि िव य
कर ही चुके हो। िफर भी यह बात तु हारे बेट को नह बताई जायेगी तािक वे तु ह िकसी कार
का क न पहँचाय। आगे सुनो - मनु मिृ त ा कम म मा एक ... अिधकतम तीन ा ण के
भोज क बात करती है। इससे अिधक न जाय यह िज मेवारी भी ा करने वाले पर नह ,
ा ण पर डालती है। इस कार तु हारा यह भोज भी शा ो नह था, इस भोज से तु हारी
माता को वग नह िमलेगा। तु ह यह भी पता नह होगा िक तु महंत जी अ ानता का बहाना
नह बना सकते, इ ह तो पता होना ही चािहये आिखर महंत ह। आज तु हारे ऊपर कोई
द डा मक कायवाही नह क जा रही है िक तु भिव य म यिद िकसी महंत के बहकावे म आकर
तुमने पुन: कोई मखू तापण
ू काय िकया तो तु हारे ऊपर कोई दया नह क जायेगी। अब जाओ
अपने घर।’’
महंत जी चीखते रहे । अपने ा ण होने क दुहाई देते रहे िक तु महामा य के संकेत पर
सैिनक महंत और बिनये को अपने साथ ले गये।
महारानी का मत महामा य के िवषय म पण
ू त: बदल चुका था।
23. दे व
(मुझे लगता है िक कथा म आगे बढ़ने से पवू उस काल क प रि थितय को समझने
का थोड़ा सा यास आव यक है। पौरािणक आ यान को लेकर हमारे समाज के बीच इतनी
अितशयोि पण ू , कई बार तो अनगल, मा यताएँ घर कर चुक ह िक इस यास के िबना हम
ि थितय को समझ ही नह पायगे।)
महिष क यप और देवी अिदित के बलशाली पु देव के नाम से िस हये। ये ततीस थे।
बारह आिद य · इ , िवधाता, अयमा, िम , व ण, िवव वान, पषू ा, पज य, अंशुमान्,
भग, व ा, िव णु
यारह · आनंद, िव ान, मानस, ाण, वाक्, आ मन्, ईषान, त पु ष, अघोर,
वामदेव, स ोजात
आठ वसु · धरा, ुव, सोम, अप्, अनल, अिनल, यषू तथा भास
और दो अि नी कुमार या नास य।
मेरी समझ से तो ये देव सिृ क शि य , सिृ के अवयव और मानव क चेतनाओं
के तीक मा ह िज ह कालांतर म पुराण ने थल ू प दे िदया। और यह उलझाव उ प न हो
गया। िक तु यहाँ तो हम एक पौरािणक आ यान को तािकक कथा के प म तुत करने का
उ ोग कर रहे ह अत: इन देव के थल ू प को वीकार करना आव यक है।
ये देव ततीस से ततीस कोिट ( कार) और िफर ततीस कोिट (करोड़) कैसे हो गये,
इसका पता म अपने सारे यास के बावजदू नह लगा पाया हँ। यिद िकसी पाठक को इसक
जानकारी हो तो कृपया मुझसे साझा कर मुझे उपकृत करे ।
इ इनम सबसे बड़े थे और इस नाते देवे क सं ा ा थे।
ऋ वैिदक काल से पवू ही देव ने उ र म िहमालय से लेकर दि ण म िव याचल तक
अपनी े ता थािपत कर दी थी। ऋ वेद इन देवताओं क तुितगान से भरा हआ है। स -सै धव
देश के िनवासी जो वयं को आय कहलाना पसंद करते थे देव को अितमानवीय शि मानते
थे और उ ह स न करने के यास म लगे रहते थे। इसके िलये वे य का आयोजन करते थे।
उनम आमंि त कर देव का पज ू न करते थे और उ ह स मानपवू क ह य समिपत करते थे। ह य
को आप वआरोिपत कर भी कह सकते ह िजसके बदले म वे अपे ा करते थे िक देव उनके
जीवन को सुख और समिृ दान करगे। उ ह संर ण दान करगे।
देव ने अपना सा ा य िहमालय क सुर य घािटय म थािपत िकया था। उनक
राजधानी, अमरापुरी, भमू डल क सबसे सुर य और िवकिसत नगरी थी। इसे वग भी कहा
जाता था। हमारे पौरािणक आ यान वग के बखान से इस कदर भरे पड़े ह िक उसके िवषय म
कुछ कहने क आव यकता ही नह है।
इस े क जलवायु शीत धान थी, आज भी है। यह जलवायु और इस जलवायु म ा
होनी वाली अनेक ाकृितक जड़ी-बिू टय का भाव देव को सु दर-सुगिठत यि व के साथ-
साथ रोग और जरामु दीघ आयु दान करता था। आज भी करता है। इन जड़ी-बिू टय को आज
िवलु हो चुक सर वती के िहम-शीत जल से शोिधत कर देव एक िवशेष पेय सोमरस का
िनमाण करते थे जो उ ह अ ुत वा य और ऊजा के साथ-साथ और भी दीघायु बनाता था। जरा
(बुढ़ापा) को उनके पास तक नह फटकने देता था। बुढ़ापे म भी उनके चेहरे तेज से चमकते रहते
थे। देव ने कभी अपनी वग भिू म से उतर कर िकसी भी रा य को जीतने का यास नह िकया।
उस समय तक ात भम ू डल पर कह भी वग िजतनी व छ और वा यवधक जलवायु ा
नह थी। संभव है िहमालय क शीतल जलवायु के आदी होने के कारण उ ह आयावत क िवषम
जलवायु क द भी तीत होती हो। दूसरी तरह से देख तो इसक कोई आव यकता भी नह थी।
आय तो वत: ही उ ह े मान कर उ ह कर प म ह य समिपत करते थे। वे तो बगैर िविजत
िकये उनके वश म थे। दै य के साथ यु म जब भी आव यकता हई, आय राजाओं ने देव क
ओर से दै य से यु िकया। परू े पौरािणक इितहास म मा एक या दो ही ऐसे ांत ह जब िकसी
अिभमानी आय नपृ ने देव को पराभत ू करने का यास िकया हो।
देव को अमर कहा गया है। यिद यह व तुि थित होती तो ात ढाई-तीन हजार वष के
इितहास म कभी तो उ ह ने सनातन स यता के संर ण हे तु अपनी उपि थित दज कराई होती।
आिखर पौरािणक काल म भी तो वे स ाट के स पक म रहते थे। िक तु ऐसा कह इितहास म
उ लेख नह िमलता।
ऋिषगण अमर नह थे। िक तु िफर भी पौरािणक आ यान के अनुसार उनक आयु
लाख वष िस होती है। महिष विश महाराज इ वाकु के ही समय से इ वाकु वंश के पुरोिहत
थे। इ वाकु से दशरथ तक आते-आते चालीस के लगभग पीिढ़याँ गुजर चुक थ और वयं
दशरथ ने ही साठ हजार वष से अिधक काल तक शासन िकया था। अब विश क आयु क आप
क पना कर लीिजये। इस ऊँची छलांग को समायोिजत करने का एक ही िवक प मुझे समझ म
आता है।
उस काल म ऋिषय म, सव तो नह िक तु एक बह चिलत परं परा थी िक कुल के
पहले ऋिष का नाम मश: सभी उ रािधकारी ‘पदवी’ के प म धारण करते जाते थे। वे केवल
उनका नाम ही नह आचरण भी अपनाने का परू ा यास करते थे और उनके अनुसंधान काय को
आगे बढ़ाते रहते थे। भिव य म जब कभी कोई पु अपना अलग आ म थािपत करता था तभी
वह अपने नाम क पर परा आरं भ करता था िजसे आगे उसके पु धारण करते रहते थे। इस
कार पु का नाम मह वहीन हो जाता था और ाय: िव मत ृ ही हो जाता था। सभी उसे उसके
कुल के नाम से ही जानते थे। इसी कारण आज इन ऋिषय के िववरण पढ़ने पर ऐसा लगता है
जैसे वे ऋिष लाख वष तक जीिवत रहे ह , यह म इसी परं परा के चलते होता है।
देव ने भी इसी परं परा को अपना िलया था। इ का बेटा उसक ग ी सँभालने के बाद
इ के नाम से ही जाना जाता था अपने नाम से नह । यही ि थित सब देव क थी।
ऋ वैिदक काल के बाद तीन महाशि य का अ युदय हआ। ा, िशव और िव णु।
आज बहत से आ थावान िशव के अनुयायी िशव को एकादश क सि मिलत शि
मानते ह िक तु व तुत: ऐसा नह है। अ य देव क भाँित ही क यप और अिदित के पु ह
िक तु िशव का उ म अ ात है। उ ह पुराण ने अनािद मान िलया है। हमारे पुराण ने ा को
सिृ कता, िव णु को सिृ का पालनकता और िशव को संहारकता कहा है। िक तु आ यान म
िशव का संहारकता प कह सामने नह आता अिपतु वे तो भोले वरदानी के प म जाने जाते
ह, सहज ही सब पर स न हो जाने वाले। वे ही एकमा ऐसे देव ह िजनके भ देव के साथ-
साथ दै य और रा स भी ह।
िशव का मानवता के िलये सबसे बड़ा योगदान योग िव ा का आिव कार है। आज भी
सिृ के सबसे बड़े योगी िशव ही माने जाते ह। िशव ने अनवरत समािध और योग के मा यम से
अपनी साम य को अिव सनीय सीमा तक बढ़ा िलया था। इसके साथ ही अपनी आयु को भी।
सिृ क सबसे ताकतवर शि होते हये भी अघोरी के प म पहचान रखने वाले िशव सहजता
और सरलता क ितमिू त थे। मा एक बाघ बर लपेटे, शरीर पर राख मले वे अिधकांशत: तो
समािध म ही त लीन रहते थे। बाक िशव के िवषय म हर पाठक इतना कुछ जानता है िक और
कुछ कहने क आव यकता नह । िशव ने अपना िनवास कैलाश पवत पर बनाया। कोई ासाद
नह , कोई िवलास के साधन-संसाधन नह अनेक आयुध का िवकास करने वाले िशव का
सवि य आयुध सदैव उनका ि शल ू रहा।
ा वयस म सबसे बड़े थे - ेतकेशी। योग पर इनका भी पण
ू अिधकार था। ये भी
अ यंत सहज सरल थे। ान ा करना और कराना इनका यसन था। सिृ के िवकास म
इनका मुख योगदान रहा इसीिलये इ ह सिृ कता माना गया। अनेक आयुध का सजक होते
हये भी इ ह स भवत: कभी उनके योग क आव यकता नह पड़ी।
इन दोन के िवपरीत िव णु पवू ा देव म से ही एक थे िज ह ने अपनी एक पथ ृ क
पहचान बना ली थी। शारी रक शि म िशव से कमतर और ान म ा से कमतर होते हये भी
िव णु सवािधक मा य हये। कारण था उनक दूर ि , व रत बुि और कूटनीित। स य का
प धर होते हये भी िव णु क मा यता थी िक सा य क े ता मह वपण ू है। े सा य को ा
करने के िलये यिद साधन क शुिचता से समझौता भी करना पड़े तो कर लेना चािहये। अपनी
पथृ क मह वपणू पहचान थािपत कर लेने के बाद भी िव णु सदैव देव के सहयोगी बने रहे ।
उ ह क बदौलत देव ने सदैव दै य पर िवजय ा क । िव णु के गुण परू ी तरह आज तक बस
एक बार िकसी और म देखने को िमले - ापर म ीकृ ण म। इसीिलये उ ह िव णु का पणू ावतार
मान िलया गया।
देव का अपने सौतेले भाइय - दै य के साथ सदैव िववाद चलता रहा। दै य क यप क
दूसरी प नी िदित के पु थे, इसी कारण उ ह दै य कहा गया। बल-परा म म वे देव से कतई
कम नह थे िक तु वे कभी भी िव णु क कूटनीित से पार नह पा पाये।
देवराज इ को अपनी स ा से अ यंत मोह था और िव णु सहज भाव से उसका
िसंहासन बचाये रखने म उसक सहायता करते थे। वाभािवक भी था, इ आिखर उनके बड़े
भाई थे। जब भी दै य, ... बाद म र , देव पर भारी पड़े तो िव णु ने ही इ का उ ार िकया।
इ क स ा क भख ू इतनी बल थी िक िकसी भी दै य, र या मानव के शि म
बल होते ही वह िचंतातुर हो जाता था और छल-बल से उसे स ा युत करने का यास करने
लगता था। यह ि थित सभी इ क बनी रही और िव णु सदैव उनके संकटमोचन बनते रहे ।
इसके कुछ उदाहरण देना शायद उिचत रहे गा -
ीरसागर-मंथन के साझा अनुसंधान से ा अमत ृ को अकेले ही ा करने के उ े य
से देव ने दै य का महािवनाश िकया। बावजदू इसके िक दै य ने उस अिभयान क अ य सभी
उपलि धयाँ सहष देव को स प दी थ ।
अपने पु के इस महािवनाश से यिथत िदित (इ क िवमाता) ने पुन: एक ऐसे पु
क कामना क जो बड़ा होकर इ का नाश कर सके तो इ ने उस पु को गभ म ही मार
िदया।
िव ािम ने जब अपने तप के भाव से ि य होते हये भी िष का पद ा िकया तो
पुन: इ को लगा िक कह ये वग पर दावा न कर द तो उसने मेनका को भेज कर िव ािम
का तप भंग करने का यास िकया।
दानवराज बिल ने अपने े शासन से जब चतुिदक अ ुत स मान ा िकया तो इ
को पुन: आशंका हई िक बिल कह वग पर दावा न कर बैठ तो तो उसने िव णु क सहायता से
छल से बिल को स ा युत करवा िदया। ऐसी घटनाएँ बार-बार दोहराई गय , िबना यह सोचे िक
अगला यि इ के िसंहासन का इ छुक है भी या नह । इ भी आज के राजनीित क भाँित
ही यह चाहता था िक उसक स ा को चुनौती देने म समथ कोई भी शि पनप न पाये।
देव िन:संदेह वाथ थे। उपरो उदाहरण के अित र भी आप देख उ ह ने अपने
िव ान या अ याि मक िव ान से जो भी उपलि धयाँ ा क उनका उपयोग मा अपने िलये
िकया। अपनी उपलि धय को जनक याण के िलये बाँटना उ ह कभी वीकार नह हआ। स पण ू
पौरािणक इितहास म देख तो वायुयान देव के अित र मा रावण के पास ही उपल ध था
िक तु वह भी उसने कुबेर से छीना था। देव के पास यिद ऐसी तकनीक थी भी तो उ ह ने कभी
भी वह आय स ाट से साझा नह क , बावजदू इसके िक ये आय स ाट जब भी देव को
आव यकता हई, उनक सहायता के िलये यु म दै य के िव उतरते रहे ।
इ का िवलासी च र भी सव ि गोचर होता है। आ िण और अह या के च र तो
इस कथा म आये ही ह, अ य भी ऐसे तमाम संग उपल ध ह। इ के पु जय त ने तो वयं
सीता पर ही कु ि डाली थी िजसका भुगतान उसे अपनी एक आँख गँवा कर करना पड़ा था।

येक युग म आय क इस देवपज


ू न था का िवरोध करने वाले भी हये।
सतयुग म दै य तो िवरोध करते ही रहे और िव णु के सहयोग से इ उनका दमन
करते रहे िफर िहर यक यप व िहर या हये उ ह भी िव णु ने ही समा िकया। बाद म मा यवान
आिद ने िकया तो भी िव णु के ारा ही उनका पराभव हआ।
ेता म दै य का भाव ीण हो जाने से यह ितरोध भी ह का पड़ गया। इस युग म
पहला बल िवरोध काितवीय अजुन और िफर रावण ने दज कराया था। ापर म यह काय कृ ण
ने िकया।
ेता के दोन िवरोिधय का अ त करवाने म देव राम के मा यम से सफल हये। य िप
दोन अलग-अलग थे िक तु नाम दोन का ही राम था। पहले थे महिष जमदि न के पु राम जो
अपने अ परशु के कारण परशुराम नाम से जाने-पहचाने गये। काितवीय ने देव पज
ू ा का िवरोध
करते हये अनेक ऋिषय के आ म पर आ मण कर उनका िवनाश िकया था। इनम एक महिष
जमदि न का आ म भी था। इस आ मण म वयं महिष जमदि न भी मारे गये थे और उनक इस
ह या का ितशोध लेते हये परशुराम ने न केवल काितवीय अजुन का नाश िकया अिपतु उ ह ने
उस सम त मिह मत देश (आज के म य देश, गुजरात आंिशक राज थान और आंिशक
महारा ) म जो भी ि य िमला उसे मौत के घाट उतार िदया।
इसके कुछ ही उपरांत हमारे इस कथानक के एक मुख पा रावण ने भी देव क पजू ा
का िवरोध िकया। उसका यह िवरोध अ यंत खर था। उसने मा देव पजू ा का िवरोध ही नह
िकया समर म सम त देव को परा त कर उनका मानमदन भी िकया। रावण को भी देव ने ल बे
कूटनीितक अिभयान के बाद दशरथ पु राम के ारा समा करवाने म सफलता ा क ।
इसका िव ततृ िववरण आगे कथा म आपको िमलेगा ही। देव समथक आय के समाज ने इन
दोन को ही िव णु क उपािध से िवभिू षत िकया।
ापर म कृ ण ने यही काय िकया। उ ह ने इ क पज ू ा ब द करवाकर गोवधन पज ू ा
का आयोजन करवाया। इस काल तक देव क शि अपे ाकृत ीण हो चुक थी अत: वे कृ ण
का फलदायी ितरोध करने क ि थित म नह थे। उ ह ने कृ ण से समझौता कर िलया। कृ ण ने
आजीवन िकसी भी जाित या सं कृित का िवरोध करने क बजाय बुराई का िवरोध िकया, वह
बुराई कह भी य न हो? अपने िकतने भी सगे यि म य न हो? कृ ण का यह च र िव णु
के च र से पण ू त: मेल खाता था। उ ह भी िव णु क उपािध से िवभिू षत िकया गया। कृ ण
इकलौते पौरािणक च र ह जो इ का िवरोध करने के बावजदू िव णु क उपािध से िवभिू षत
हये।
िव याचल के दि ण म स यता का िवकास अ य प हआ था। यह स पण ू ा त दु ह
सघन जंगल और ऊँचे पठारी देश से ढँ का हआ था। उस काल म इसे द डकार य के नाम से
जाना जाता था। कुछ वनवासी िक म क जाितयाँ इनम िनवास करती थ जो नगरीय स यता से
बहत हद तक अप रिचत थ । महाराज मनु ने मनु मिृ त म, िजसे त कालीन आय का संिवधान
होने का दजा ा था, ि ज के िलये िव याचल से पार जाना पण ू त: विजत कर िदया था। इस
कारण इस े म आय और देव का आगमन नह के बराबर हआ था। महिष अग य क
अगुआई म पहली बार ऋिषय ने देवकाय को िस करने हे तु - राम के अिभयान क तावना
िलखने के िलये, इस े म वेश िकया। पौरािणक कथानक के अनुसार िव य उस समय
अलं य (दुल य नह ) हआ करता था। महिष अग य को आते देख कर उ ह स मान देने के
िलये उसने झुक कर णाम िकया। महिष ने उसे पार करते हये आदेश िदया िक जब तक म वापस
न लौट आऊँ, ऐसे ही झुके रहना। तब से िव य महिष क वापसी क ती ा म आज तक झुका
हआ है और महिष जो एक बार उस पार गये तो िफर कभी वापस नह लौटे। उ ह ने परू ी िन ा से,
परू े मन से उस े के िवकास को अपना जीवन समिपत कर िदया।
अ त म म एक बार पुन: प कहना चाहता हँ िक हमारे पौरािणक च र , िवशेषकर
देव और दै य तीक मा ह। इस कथा म इ ह वा तिवक च र के प म तुत करने के
बावजदू यही मेरा अंितम मत है। इन सारे कथानक को अपने िववेक क छलनी से छान कर
उसम से िनकले सार को ही हण करना ेय कर है। आगे येक यि को िवधाता ने या
कृित ने (जो भी आप मान ल - म दोन को ही वीकार करता हँ।) बुि और िववेक िदया है।
येक यि प रि थितय का िव े षण करने क और तदनु प तकस मत िन कष िनकालने
क मता रखता है और म उसक इस मता को णाम करता हँ। मेरा उ े य िकसी क
मा यता पर आघात करना कतई नह है। बहत संभव है िक मेरे ही िन कष गलत ह । बहरहाल ...
कथा से जुड़ते ह -
इ एक बार पुन: िचंता त था। ा के आशीष से अव य हआ रावण उसक िचंता
का कारण था। इस बार उसक आशंका सही भी थी - रावण के मातामह (नाना) सुमाली ने अपना
सारा जीवन इसी आयोजन म खपा िदया था िक िकस कार पुन: इ को परािजत िकया जा
सके। और अब रावण का इ पर आ मण केवल व क बात थी।
24. महिष अग य
गंगा और सरयू के संगम के ठीक बाद, गंगा और सोन निदय के म य का भाग उस
काल म सु दरवन के नाम से जाना जाता था। (आज सु दरवन गंगा के डे टा देश के वन को
कहा जाता है।) संभव है यह नामकरण सु द के नाम पर ही हआ हो। सघन वन से आ छािदत
यह देश अनेक ऋिषय क तप थली था। इनम महिष अग य का नाम सव मुख है। यह े
मलद और का ष जनपद के अंतगत ही आता था।
मलद (मल को धारण करने वाला) और का ष ( ुधा या भख ू ) के नामकरण के संबंध
म मा यता है िक व ृ ासुर के वध के बाद लगी ह या से उ ार पाने हे तु इ ने यह पर
ायि त व प तप िकया था। उसी तप के भाव से उ ह ने पुन: िनमल कांित ा क थी और
उ ह ह या के मल व भख ू से छुटकारा ा हआ था।
आज हम जानते ह िक यह मा ता कािलक ल ण ही था। स य तो यही है िक
स ाधीश को इन दोन से कभी मुि नह िमलती। उ ह बस िनमल िच होने का माण-प
सहजता से िमल जाता है, जैसे इ को िमल गया था।
समय बीतने के साथ सुकेतु नामक एक य का यहाँ आगमन हआ। वह अपने परा म
से इस े का अिधपित बन गया। उसके कोई स तान नह थी। स तान ाि हे तु उसने ाक
शरण ली। ा के आशीवाद से उसे एक क या क ाि हई जो आगे चल कर ताड़का के प म
िस हई। ताड़का यि णी थी, सौ दय य को ाकृितक प से ा होता ही है। िक तु
ताड़का को सौ दय के साथ-साथ अिव सनीय शारी रक शि भी ाकृितक प से ा हई थी।
वह सुकेतु क अकेली क या थी। इस कारण सुकेतु ने उसे पु क भाँित पाला था। उसे अ -
श के संचालन क भी परू ी िश ा दी थी और ताड़का ने भी परू े मन से वह िश ा हण क थी।
ताड़का जब पण ू िवकिसत हई तो उसका कौशल जगत म िव यात हो गया। उसका सामना
करने क साम य बड़े -बड़े यो ाओं क भी नह होती थी। अब सुकेतु के सामने िवकट सम या थी
िक ऐसी क या के िलये यो य पित कैसे खोजा जाय।
उसक खोज समा हई सु द दै य पर जाकर। सु द दै य होते हये भी अ ुत पौ षेय
सौ दय का वामी था।
सुकेतु क म ृ यु के उपरांत सु द और ताड़का इस े के अिधपित बने। इ ह के पु थे
मारीच और सुबाह।
इन दोन छोटे-छोटे लड़क क उ ं डताओं से महिष अग य का सारा आ म त था।
बड़ा मारीच बारह-तेरह वष का था और छोटा सुबाह वष दो वष छोटा रहा होगा। उ ं डताओं म
मु य भिू मका मारीच क ही होती थी िक तु उसके येक कृ य म सुबाह भी सहभागी हआ
करता था। महिष अग य के पास िन य ही आ मवासी अपनी यथा रोते थे िक तु िकसी को
यह समझ म नह आता था िक उपाय या िकया जाय।
महिष अग य का आ म काशी के पवू म सु दरवन े म ि थत था। उ ह ने आ म
तो स यता से दूर वन ांत म इसी उ े य से बनाया था िक नगरीय कोलाहल से मु होकर वहाँ
िनिव न साधना और योग िकये जा सकगे िक तु मारीच और सुबाह के उ पात िनरं तर उनक
साधना म िव न डालते रहते थे। कभी य क अि न म पानी डाल देते, तो कभी सिमधा क
साम ी िबखरा देते। कभी-कभी तो गौओं और बछड़ को ही खोल देते और िफर ऋिषगण उनके
पीछे दौड़ते उ ह पकड़ते िफरते। ऋिषय को त देख कर लड़के ताली बजा-बजा कर आनंद
लेते। अब आय-ऋिषय के आयोजन-अनु ान, उनम शु ता वैसे ही िवकट अिनवाय त व होती
थी। जरा सी छ क आ जाने से भी अपिव ता का उठ खड़ा होता था। ऐसे म लड़क के ये
उ ं डतापण ू कृ य बार-बार उ ह अनु ान का सम त आयोजन दुबारा से करने को िववश कर
देते थे। िजतना ऋिषगण उि न होते, लड़क को उतना ही आनंद आता। िजतना वे उ ह समझाने
का यास करते उतने ही ये उ छृंखल होते जाते। ये छोटे-छोटे लड़के इतने चपल थे िक ऋिषय
क सारी सतकता को धता बता कर उ ह चकमा दे ही डालते थे। छुपते-छुपाते आते और पलक
झपकते ही कोई शैतानी कर छूमंतर हो जाते। पहले तो वे ऋिषय क पकड़ाई म ही नह आते थे
और अगर कभी पकड़ाई म आ भी जाते थे तो ऋिषगण या करते उनके साथ? डाँट कर, समझा
कर और उपदेश देकर अंतत: छोड़ ही देते थे। अिहंसक ऋिष थे, आम मानव के समान कलह-
लेश करना उनके वभाव म नह था। वे बस ई र से ाथना करते िक इ ह सुबुि दान करे
और महिष अग य से ाथना करते िक कोई उपाय कर इन लड़क क उ ं डताओं से मुि
िदलाने के िलये।
एक िदन िन य क भाँित महिष य का आयोजन कर रहे थे। ातःकाल का समय था।
सारे ऋिषगण नानािद से शु होकर, परू े े को गोबर से लीप कर, वेदी सजाये बैठे थे।
आहितयाँ पड़ रही थ , मं क विन गँज ू रही थी। येक आहित के साथ अि न और चंड
होकर आकाश को पश करने का य न कर रही थी। सभी कुछ वैिदक िवधान के अनु प चल
रहा था िक अचानक एक बड़ा सा ान मँुह म हड्डी दबाये, जाने कहाँ से दौड़ता हआ आया और
उनके बीच म घुस गया। सारे ऋिष हड़बड़ा गये। एक ऋिष ने अपने द ड से उसे परे धकेलना चाहा
तो वह ऋिष के ऊपर ही हड्डी छोड़कर उनक छाती पर चढ़ गया और उनक बाँह दबोच ली।
ऋिष पीड़ा से कराह उठे । िकसी क समझ म नह आ रहा था या कर। सब दूर से ही अपने-अपने
द ड से हार कर धत्-धत् करने लगे। एक ऋिष ने ऋिष को छुड़ाने के िलये साहस कर उसक
पीठ पर द ड से एक कठोर हार कर िदया तो वह ान पहले ऋिष को छोड़कर उन पर ही झपट
पड़ा। उसने उनक जंघा से बड़ा सा मांस नोच िलया। अंतत: सामने बैठे ऋिष अग य उठकर आये
और उ ह ने झपट कर उस ान को उसक ीवा (गदन) से कस कर पकड़ िलया। ान ने
पलट कर उनक कलाई दबोचनी चाही िक तु महिष का पकड़ मजबत ू थी। महिष ने उसे गदन से
ही पकड़ कर उठा िलया। महिष के व ृ और कृष शरीर म अिव सनीय शि थी। ान उनक
पकड़ म हवा म पैर चला रहा था। अब उसके मँुह से कँ ू -कँ ू का वर िनकल रहा था। महिष ने
उसके गले पर दबाव बढ़ा िदया, कुछ ही पल म उनके हाथ म उसका िनज व शरीर झल ू रहा था।
वे अपना हाथ पीछे लाये और परू ी शि से ान को दूर उछाल िदया। ान का शव बीिसय हाथ
दूर िगरा जाकर।
िजधर से यह ान आया था उसी ओर एक व ृ के पीछे से िनकल कर दोन लड़के
ताली बजाते हये कूद रहे थे। आज अ ह िवशेष आन द आया था। सारे ऋिष उस ओर ोध से
िनहार रहे थे िक तु महिष मा एक शांत ि उस ओर डाल कर वापस य वेदी क ओर उ मुख
हो गये।
‘‘इसे एक गड्ढा कर उसम दबा देना।’’
ान के शव क ओर संकेत करते हये उ ह ने एक अ य ऋिष से कहा। उनका वर
पणू त: शा त था। िफर उ ह ने आहत ऋिषय क ओर देखा। पहले ऋिष क परू ी छाती पर खर च
के िच ह थे िजनसे र रस रहा था। उनक बाँह से अ यिधक मांस नोच िलया गया था। बाँह क
अि थ तक िदखने लगी थी। वे ऋिष अचेत से हो गये थे।
‘‘इसीिलये म य म बिल को आव यक बताता हँ। लह देखते ही अचेत हो गये।’’ महिष
का वर अब भी शांत था- ‘‘इ ह कुिटया म ले जाकर उपचार करो।’’
दूसरे ऋिष क ि थित य िप उतनी बुरी नह थी तथािप उनक जंघा म भी गहरा घाव
था।
‘‘इ ह भी ले जाइये। हाँ दोनो के घाव म थमत: िमच और नीम पीस कर भर दीिजयेगा
तािक िवष का भाव समा हो जाये। िकसी भी व य-पशु का काटना घातक हो सकता है।’’
महिष का वर अब भी सामा य था।
िफर उ ह ने अपने चार ओर ि घुमाई। सारी सिमधा िबखरी हई थी। य तो िव वंस हो
ही चुका था। उ ह ने िनराशा से िसर झटका िफर उन ताली बजा कर नाच रहे लड़क क ओर
ि उठाई और घरू कर उ ह देखने लगे। पता नह या था उनक ि म िक लड़के कूदना
छोड़ कर उनक ओर िखंचे चले आये।
‘‘रा स ह दोन । इ ह ले जाकर कुिटया म ब द कर द।’’ महिष ने वहाँ शेष बचे दोन
ऋिषय से कहा।
‘‘महिष कुिटया के ार तो साधारण ह, ये तो पल म उ ह तोड़ कर भाग जायगे।’’
‘‘तो इनके हाथ-पैर बाँध कर डाल द तािक भाग न सक। उ ं डता जब सहनशि क
सीमा को पार कर जाय तब दंड देना आव यक हो जाता है। बालक क उ ं डता आनंद देती है
िक तु मयादा से बाहर जाकर नह । िकसी भी ाणी को िनरथक पीड़ा देकर आनि दत होना
बचपना नह कहलाता।’’
‘‘ये या सहजता से हाथ-पैर बँधवा लगे गु देव? आप भी आइये न साथ।’’
‘‘कोई आव यकता नह है। मेरी आव यकता तो अब तब होगी जब इनके माता-िपता
आयगे।’’
दान ऋिष उ ह पकड़ कर अपने साथ ले गये। लड़के भी चुपचाप स मोिहत अव था म,
िबना िकसी ितरोध के उनके साथ चले गये।
कुछ देर बाद जब दोन बालक महिष के स मोहन के भाव से मु हये तो परू ा आ म
उनक चीख-पुकार से भर गया। ऋिषगण वाचक ि से महिष क ओर देखने लगे िक तु
महिष पवू वत शा त थे।
‘‘चीखने द उ ह, आप लोग अपना काय कर। उन पर यान देने क कोई आव यकता
नह है।’’
25. दे वराज इ -नारद संवाद
देवराज इ के दरबार म मौन पसरा हआ था।
िकसी गंभीर िवषय ने जैसे सभी क िज हा को पंगु कर िदया हो।
िव णु को छोड़कर शेष ब ीस देव अपने-अपने आसन पर िवराजमान थे। सब शा त थे।
ा ारा रावण को िदये गये वचन/वरदान ने सबक न द उड़ा दी थी।
मौन के इस सा ा य को तोड़ने का काय िकया देविष ने जो अपनी िचर-प रिचत भषू ा
और भंिगमा म वीणा गले म लटकाये, खरताल बजाते, नारायण-नारायण जपते अचानक आकर
उपि थत हो गये।
‘‘नारायण-नारायण! देवे या िवपि आ गयी जो ऐसा मौन का सा ा य थािपत है?
न अ सराएँ ह, न न ृ य-संगीत है - या अघटनीय घिटत हो गया है?’’
इ ने नजर उठाकर नारद को णाम िनवेिदत िकया। शेष देव ने भी णाम िकया।
िफर इ ने ही उ र िदया- ‘‘देविष आप से या िछपा है? हमारे दय को कौन सा लेश घुन
बन कर खाये जा रहा है या आपको ात नह ?’’
नारद हँसे िफर बोले - ‘‘तो इस कार अवसाद त होकर बैठने मा से या कोई हल
िनकल आयेगा?’’
‘‘जब आप वयं को असहाय पाते ह तो अवसाद तो होता ही है?’’ आठव वसु ने ितवाद
िकया।
‘‘िक तु यह अवसाद इतना गहन य कर हो गया है िक आप लोग को मुझे आसन
तक देने का यान नह है। कोई बात नह म वयं आसन िलये लेता हँ।’’ नारद ने उ मु हा य
के साथ कहा और एक खाली आसन देख कर बैठ गये। वीणा उ ह ने बगल म रख ली।
‘‘ओह! इस ुिट के िलये हम मा ाथ ह देविष।’’ इ ने लि जत होते हये कहा।
‘‘देवे ! िनि त ही आपके लेश का कारण िपतामह का रावणािद को िदया गया
अभयदान ही होगा।’’
‘‘स य कहा आपने। लंके र को ा का अभयदान या वरदान जो भी किहये, एक
ऐसी फाँस सा दय म गड़ा है जो कैसे भी िनकाले नह िनकलती। िन य ही िकसी न िकसी
धमसंकट म डाल देते ह िपतामह भी।’’ इ ने उ र िदया।
‘‘माना मने िक िपतामह ने वै वण के शीश पर अपना वरद् ह त रख िदया है। िक तु
इसम नवीन या है? यह तो िपतामह सदैव करते आये ह। िपतामह ही या िशव भी यही कर
डालते ह। अपनी कृपा के घट से िकसी का अिभषेक करते समय ये दोन मा पा क भि और
अनुरि देखते ह, देवे से उसके संबंध क मीमांसा तो करते नह । य िप यह भी एक स य है
िक िजसे भी वे अपना कृपा-पा बनाते ह उसका थम यास ही देवे के िद यासन को
ह तगत करने का होता है। िक तु देवे तब भी अभी तक इस आसन पर पण ू गौरव से
िवराजमान ह।’’
‘‘इस बार ि थित िभ न है देविष! इस बार ...’’
नारद ने हाथ उठाकर इ को रोकते हये अपनी बात जारी रखी -
‘‘इस बार िपतामह ने देव, दै य आिद से रावण क जीवन-र ा का ही तो वचन िदया है,
यह वचन तो नह िदया िक वे यु म रावण के प म खड़े होकर आपसे यु रत ह गे, तब आप
य िचंतातुर ह? या हो गया है व ृ ासुरह ता देवे के परा म को?’’
‘‘देविष या आपको ात नह िक रावण सुमाली का दौिह है?’’ इ ने आसन पर
पहलू बदलते हये कहा।
‘‘ ात है। भलीभाँित ात है।’’
‘‘तो यह भी ात होगा िक उसका पालन-पोषण ऋिष िव वा ने नह सुमाली ने ही
िकया है।’’
‘‘यह भी जानता हँ।’’
‘‘िफर आप यह बात य नह समझ पा रहे िक सुमाली ने उसके दय म मेरे िलये
अपना सारा िवष उँ ड़ेल िदया होगा। यिद वह अपने िपता के संर ण म बड़ा हआ होता तो उसने
उनसे सं कार पाये होते, िक तु उसे तो सं कार सुमाली के ही िमले ह गे। वह कब तक नह
दौड़े गा वग क ओर? या आपको सुमाली क देव से श ुता ात नह । या वह िव णु के हाथ
हई अपनी दुगित को िबसार देगा?’’
‘‘कदािप नह ! सुमाली ने तो इसी वैर का बदला लेने हे तु ही कैकसी का संयोग ऋिषवर
िव वा से करवाया होगा। िन य ही यह उसक सुिवचा रत योजना है।’’
‘‘िफर भी आप मुझे िनि ंत रहने के िलये कह रहे ह? इन प रि थितय म भला म कैसे
िनि ंत रह सकता हँ?’’
‘‘आह देवे ! अभी तो पहले कुबेर के भयभीत होने का समय है। अभी तो पहले सुमाली
लंका को ह तगत करे गा, िफर सै य संगठन बनायेगा, देवराज पर आ मण का िवचार तो वह
बहत बाद म करे गा। सुमाली अबोध नह है जो परू ी तैयारी के िबना ही देवलोक पर चढ़ दौड़े । ा
ने रावण क जीवन-र ा का वचन िदया है, पराजय से बचाने का नह ।’’
‘‘िक तु आ मण करे गा तो?’’
‘‘करे गा तो िन य ही और आपको परािजत भी करे गा।’’
‘‘िफर भी ... िफर भी आप ...’’
‘‘ या िफर भी देवे ?’’ नारद जैसे उकताते हये बोले- ‘‘म ृ यु अव यंभावी है या इस
भय से जीना ही छोड़ िदया जाता है?’’
‘‘मुिनवर! जीना नह छोड़ िदया जाता िक तु आपने ही कहा िक म ृ यु अव यंभावी है।
शरीर धारण करने वाले येक यि को यह स य ात होता है। वह समय-समय पर इस स य
को य घिटत होते देखता भी रहता है, अपने ि य यि य क म ृ यु के प म। तब भी तो
येक यि म ृ यु पर िवजय पाने का आकां ी होता है, वह यथासंभव म ृ यु को टालने का
यास करता है।’’
‘‘करता है। िक तु म ृ यु के भय से जीना कब छोड़ देता है?’’ नारद ने ‘देता’ पर जोर
देते हये कहा- ‘‘जीवन का आनंद लेना कब छोड़ देता है? आप तो संभािवत पराजय के भय से
अभी से संत ह? आप तो अभी से पराजय वीकार िकये बैठे ह।’’
‘‘तो आप या यही परामश देना चाहते ह िक आगत संकट पर मंथन याग कर देव
िवलास म ही ाण खोजने का यास कर?’’
‘‘कदािप नह ! म आपको ऐसा स परामश कैसे दे सकता हँ?’’ नारद ने हँसते हये
िन योजन अपनी वीणा के तार छे ड़े, िफर बोले- ‘‘म तो मा यह चाहता हँ िक देवे पराजय से
पवू ही पराजय वीकार न कर। वे संभािवत संकट का यो ाओं क भाँित सामना कर।’’
‘‘वही तो कर रहे ह मुिनवर। यही तो मंथन कर रहे ह िक इस सम या से कैसे उ ार
संभव है?’’
‘‘कहाँ कर रहे ह देवे आप ऐसा? आप सब तो लांत आनन िलये अपने आसन पर
िकसी मुरझाई व लरी क भाँित पड़े ह।’’
‘‘आप तो िनभय ह। आप पर तो कोई आ मण करता नह , तभी आपको सदैव उपहास
ू ता है। यिद आपके स मुख भी पराजय खड़ी होती तो आप भी यह हा य भल
सझ ू जाते।’’
‘‘देवे ! िजतनी आसि होगी, उतना ही भय याकुल करे गा। िजतना दंभ होगा उतना
ही दंभ पर आघात होगा। नारद के पास न तो आसि है और न ही दंभ! आप भी य नह याग
कर देते इनका? यह राजस ा याग कर नारद के समान उ मु हो जाइये िफर या अिहत कर
लेगा रावण आपका?’’
‘‘अथात् कत य याग कर पलायन कर जाय?’’
‘‘देवे यह मा वा जाल है। इससे आप वयं को छल सकते ह नारद को नह । याग
और अनासि को पलायन क सं ा नह दे सकते। आपक स ा म आसि है तभी तो आपको
स ा िछन जाने का भय है। यह आसि याग दीिजये, भय वत: आपको याग देगा। अ यथा
इसी भाँित ...’’ नारद ने वा य बीच म छोड़ िदया और जैसे इ को िचढ़ाते हये बोले- ‘‘आह!
नारद का तो दय िवदीण हआ जा रहा है दुदमनीय देव क दुदशा देख कर!’’
‘‘मुिनवर! आप िकसी भी अव था म उपहास से िवरत नह रह सकते? हम पहले ही
संत है और आप िनरं तर अपने श द-वाण से आघात िकये जा रहे ह।’’
‘‘काश! मेरे उपहास से ही आपका पौ ष जा त हो जाये। काश! मेरे उपहास से ही
आपक िजजीिवषा पंदन करने लगे!’’ नारद उसी कार हँसते हये बोले।
‘‘यिद स य ही ऐसा चाहते ह, यिद स य ही आप देव के िहतैषी ह तो उपहास याग
कर कोई साथक माग सुझाय! अ यथा हम पर कृपा कर, हम अपना काय करने द।’’
‘‘आह देवे तो हो गये! चिलये नह करता उपहास! बताइये या उपाय सोचा है
आपने।’’
‘‘उपाय ही सोच िलया होता तो इस कार बैठे होते? उस उपाय को ि याि वत नह कर
रहे होते। ऐसा कंटक बो िदया है िपतामह ने ...’’
‘‘माना देवराज िक िपतामह ने कंटक बो िदया है, तो या हआ। आप उस कंटक को
िनकाल फिकये। रावण आपके माग का कंटक है - आप रावण के माग म कंटक बोइये।’’
‘‘कैसे? कोई माग है? हम तो िदखता नह !’’
‘‘माग तो रावण ने वयं ही अपने अित आ मिव ास म छोड़ िदया है।’’
‘‘देविष पहे िलयाँ मत बुझाइये। सीधे-सीधे बताइये िक माग या है?’’
‘‘आह देवे ! लगता है हताशा म आपक बुि भी आपका साथ छोड़ बैठी है।’’
ू ेगा ही।’’
‘‘कर लीिजये उपहास। आपको तो उपहास सझ
‘‘उपहास नह कर रहा।’’ नारद हँसते हये बोले- ‘‘बुि साथ न छोड़ गयी होती तो आप
यँ ू ती ा करते न बैठे होते िक कब रावण आप पर आ मण करे और कब आप उससे पराजय
वीकार कर ल। यिद यही ि थित रही तब तो देवलोक हाथ से गया ही समिझये।’’
‘‘आह?’’ इ कुछ खीजते हये से बोले। उ ह समझ नह आ रहा था िक इस समय
नारद से कैसे पीछा छुड़ाया जाये। नारद ने बोलना जारी रखा -
‘‘रावण ि लोक िवजेता बनेगा यह तो िनि त है, इसे कोई नह रोक सकता। ह क
चाल उसके प म है। िक तु देवे इसके साथ यह भी तो तय है िक जो बेल अ यंत शी ता से
बढ़ती है वह दीघजीवी नह होती। दीघजीवी तो होता है वट व ृ । वह िकतनी मंद गित से बढ़ता है,
आप अनुभव ही नह कर पाते उसक बाढ़ को। आपक स पण ू आयु यतीत हो जाती है उसे जस
का तस देखते पर वह बढ़ता तो रहता ही है। रावण भी िजस शी ता से िशखर क ओर बढ़ रहा है
उससे प है िक उसका पतन भी उतनी ही शी ता से होगा। कुछ काल के िलये थोड़ा सा झुक
कर रह लीिजये। कुछ काल के िलये र वंश क पताका को देव सं कृित के ऊपर फहरा लेने
दीिजये, अ ततोग वा तो देव सं कृित को सव े आसन पर सुशोिभत होना ही है, सदैव क
भाँित।’’
‘‘यही तो मल
ू है देविष। देव सं कृित को झुक कर चलने का अ यास नह है।’’
‘‘िकसे धोखा दे रहे ह देवराज? देव सं कृित को झुकना तो न जाने िकतनी बार पड़ा
है। असुर , दै य और कभी-कभी तो आय ने भी देव वंश को पराजय का वाद चखाया है। और तो
और यह सुमाली ही अपने भाइय के साथ आपका मानमदन कर चुका है। इस बार अ तर केवल
यह है िक ा के वचन से बँधे नारायण क माया का अवल ब आपको उपल ध नह है, जो सदैव
पराजय के बाद भी आपका उ ार करती रही है। यही िवषाद आपको खाये जा रहा है। स य कहा
न मने?’’
‘‘अब जो भी किहये मुिनवर। आपको तो उपालंिभत करने म िवशेष आनंद आता है।’’
‘‘ओह िवधाता! या हालत कर दी है िपतामह ने अतुिलत बलशाली देव क ।’’
‘‘.............’’
इ ने कुछ न कहना ही बेहतर समझा। नारद ने कुछ पल िति या क ती ा क
िफर आगे बोले-
‘‘ या आपको ात नह है िक उसने मानव को िकसी गणना म ही नह िलया है। यिद
कह ा उसे मानव के िव भी अभयदान दे देते तब तो आप कह के नह रहते। िन य ही
इस िवषय म सुमाली परामश देने के िलये उसे उपल ध नह रहा होगा।’’
‘‘............’’
‘‘अब अपने अित आ म-िव ास म उसने जो भल
ू कर दी है, उसी का आसरा कर।’’
‘‘िक तु िकस मानव म इतनी साम य है जो उसके स मुख खड़ा हो सके?’’
‘‘वह साम य पैदा कर देवे ! अपनी सारी कूटनीित, अपने सारे संसाधन योग कर
और मानव म वह साम य पैदा कर िक वे एक िदन रावण का िवनाश कर सक। और अपने इस
उ म म अभी से लग जाय। िवल ब न कर। यह िनि त जान ल िक रावण का िवनाश मानव के
हाथ ही होगा।’’
‘‘आह! पुन: वही मुिनवर? देखते नह आप, ा ने उसे अपनी सम त िव ाएँ और
िद या देकर अजेय बना िदया है। आज कौन सा स ाट् उसका सामना करने का साहस कर
सकता है? सब तो भयभीत ह - अभी से जब उसने कोई भी िवजय नह क है। जब उसने िकसी
पर आ मण तक नह िकया है।’’
‘‘ऐसा इसिलये है देवे िक एक ओर तो अिधकांश स ाट् िवलासी हो गये ह। ऐ य
भोगते-भोगते अ यवसाय का उनका अ यास ही छूट गया है। दूसरी ओर जनक जैसे साधु च र
के स ाट ह यु िजनके िलये सवथा या य िवषय है।’’
‘‘यही तो हम भी कह रहे ह देविष। कोई आय स ाट आज रावण से यु क क पना
तक नह करता, परािजत करना या उसका िवनाश करना तो ....।’’ इ ने हताशा म वा य
अधरू ा ही छोड़ िदया।
‘‘देवे ! नारायण ने सुमाली भाइय को कैसे पददिलत िकया था, मरण है? माली
जीवन से गया, मा यवान ने संसार याग िदया। िकतना लाचार हो गया होगा सुमाली -
स पि हीन, रा यहीन, सै य िवहीन ... असली दुिदन भोगे ह गे उसने! िक तु देिखये िकतने
धैय से उसने िकतनी सटीक योजना बनाई और उसे िकतनी सफलता से ि याि वत भी िकया
िक आज आप यँ ू लानमुख बैठे ह। जब िव णु ने उसे परािजत िकया था तब या कोई माग था
उसके स मुख? िक तु उसने माग िनकाला ... और या खबू िनकाला िक पुन: अभी भी आपके
स मुख भंगुरवत् होते हये भी, िवजयी मु कान के साथ खड़ा हआ है।’’
‘‘देविष! आप देविष है या सुमाली के प कार? हम देव क रात न द उड़ी हई है और
आप िनरं तर िठठोली ही िकये जा रहे ह। सुमाली का यशोगान िकये जा रहे ह।’’ इस बार व ण
कुछ िखिसयाये से बोल पड़े ।
‘‘व ण देव! म सुमाली का यशोगान नह कर रहा। म तो आप देव को दपण िदखा रहा
हँ। यिद सफलता चाहते ह तो उसी क तरह धैय से योजना बनाकर उसे कायाि वत करना होगा।
अ यथा बस य ही िच ता म घुलते रहगे। ि मिू त म से कोई भी नह आयेगा इस बार आपको
उबारने। ा तो रावण के प म खड़े ही ह, िशव तो िशव है - वैसे भी सुमाली के िलये उनके
दय म उदार भाव ह, पवू म भी तो उ ह ने उसके िव आपक सहायता करने से प मना
कर िदया था। रही मेरे नारायण क बात, तो मुझे नह लगता िक वे िपतामह के वचन क
अवहे लना करने का उ ोग करगे। काश! आज यहाँ आपने उ ह भी बुला िलया होता तो वे भी
आपको वही परामश देते जो म दे रहा हँ। आप देव म एक वही तो समझदार और नीितपण ू ह।
बाक आप सब तो अ सराओं के साथ भोग करते-करते और वा णी म डूबते-उतराते अब िकसी
काम के नह रहे । आप िवलास म जीते-जीते िनवीय से हो गये ह। आज उस व ृ ासुरह ता इ क
आप परछाई ं भी नह लग रहे ।’’
‘‘देविष!!!’’ इस बार इ क आवाज एक चीख जैसी थी। होती भी य नह - नारद
उ ह न तर पर न तर चुभोये जा रहे थे।
‘‘उ ेिजत मत ह देवराज!’’ नारद ने इ क उ ेजना पर आनंिदत सा होते हये वैसे ही
शांत भाव से मु कुराते हये अपनी बात जारी रखी। यही मु कुराहट तो नारद के यि व क
िचरप रिचत पहचान थी - ‘‘सुमाली से कुछ सीख लीिजये। उसने कैसे एकाक इतनी बड़ी योजना
को स पािदत िकया। सीख लीिजये और इस बार आप उसी क तरह धैय से अपनी योजना बनाइये
और उतने ही धैय से उसे कायाि वत भी क िजये। तभी आप सुमाली क योजना का काट कर
पायगे। अ यथा एक बार पराजय का वाद तो वैसे भी आपको चखना ही है।’’
‘‘तो िफर? प किहये आप जो भी कहना चाहते ह। म पहले ही िनवेदन कर चुका हँ
िक पहे िलयाँ मत बुझाइये।’’
‘‘स ाट का आसरा छोिड़ये देवे , जा को तैयार क िजये। वही आपका िहतसाधन
करे गी। वही आपका उ ार करे गी।’’
‘‘िक तु कैसे? अपना स पण ू म त य एक ही बार म प कह भी दीिजये अब मुिनवर!
बहत ले चुके हमारे धैय क परी ा!’’
‘‘तो सव थम इस हताशा से बाहर िनकिलये। अपनी सामा य िदनचया म जीना आरं भ
िकिजये। जब तक रावण आप पर आ मण नह करता तब तक तो आप देवे ह ही। तब तक
अपनी इस ि थित का परू ा आनंद लीिजये जैसे सदैव लेते रहे ह।’’
‘‘चिलये ठीक है ऐसा ही यास करगे। अब कुछ साथक भी किहये।’’
‘‘तो या अभी तक म िनरथक लाप कर रहा था?’’ नारद ने िफर चुटक ली।
‘‘देविष!!!!!’’
‘‘ठीक है तो सुिनये।’’
26. ताड़का क दुदशा
‘‘ऋिष तीच! आइये पुन: वेदी को यवि थत कर।’’ महिष अग य ने अपने एक
सहयोगी से कहा- ‘‘ ात: का य तो इन मख
ू ने अकारण वंस ही कर िदया।’’
अपरा ह का समय हो गया था। दोन ऋिष कुिटया से बाहर िनकल आये। उ ह बाहर
देख कर एक-एक कर अ य ऋिषगण भी अपनी-अपनी कुिटयाओं से िनकल आये। य थल को
पुन: गोबर से लीपा गया। सिमधा क साम ी लाकर यथा थान सजायी गयी। आम क नई
लकिड़याँ लाकर वेिदका बनाई गयी।
‘‘आप सब लोग भी जाइये और बड़ी-बड़ी लकिड़याँ ले आइये। आज वेदी बड़ी बनानी है -
िचता के िजतनी बड़ी।’’ महिष अग य ने कहा।
सारे ऋिष अचंिभत से उनक ओर देखने लगे।
‘‘आज कोई िवशेष अनु ान होगा गु वर?’’ एक ऋिष ने पछ
ू ही िलया।
‘‘हाँ! आज इन रा स से मुि का अनु ान होगा।’’ महिष ने शू य म देखते हये उ र
िदया।
‘रा स’ श द का अथ उस काल म र सं कृित के अनुयाियय के िलये ही योग म
नह आता था, अिपतु अिधकांशत: वह शि शाली यि के ित अपनी अ िच या घण ृ ा दिशत
करने के िलये योग होता था। आज भी होता है। एक अपमान जनक गाली के प म जैसे पवू म
दै य यु होता था।
लकिड़याँ आ गय । िवशाल वेदी सजा दी गयी। ऋिषगण अरिण-म थन कर अि न का
आवाहन करने लगे। महिष अग य इससे िनरास कुछ काल के िलये अपने आसन पर यान
लगा कर बैठ गये। अ य ऋिषय को आ य हो रहा था िक आज महिष के यवहार म कुछ अ तर
सा य तीत हो रहा है। अरिण-म थन के समय वे यान थ य हो गये ह।
अि न विलत हो गयी। महिष भी अपने यान से बाहर आ चुके थे। पुन: वेदमं
ू ने लगे। महिष आज मं पाठ करते समय अपने ने मँदू े हये थे।
गँज
‘‘पु मारीच! पु सुबाह! कहाँ हो तुम दोन ?’’
इन पुकार से अचानक ऋिषगण िसहर उठे । अभी तक तो ये बालक ही य का िव वंस
करते रहते थे, आज तो इनके माता-िपता भी आ गये थे। पु तो अकारण ही उ ं डताओं का दशन
करते थे, आज तो इनके पास कारण भी है। वे यह य मानगे िक उनके बालक को उनके
कुकृ य के कारण दंड िदया गया है।
‘‘ऐ जटाधा रय ! हमारे पु आये ह इधर?’’ सु द ने अस मान का दशन करती वाणी
म िकया।
ाय: ही आयतर जाितयाँ ऋिषय को िनठ ला मानती थ और उनके य ािद कम को
ढ ग समझती थ । उनक ि म यह मा ा ण का जनता को मख ू बनाने का नाटक था,
और कुछ नह ।
‘‘हाँ!’’ मु कुराते हये महिष ने उ र िदया।’’
‘‘अब कहाँ ह?’’
‘‘भीतर कुिटया म बँधे पड़े ह।’’ महिष ने उसी कार मु कुराते हये कहा।
‘‘ या? तु हारा इतना साहस िक सु द के पु को िकसी अपराधी क भाँित बाँध कर
डाल िदया!’’ सु द ने अिव ास के साथ कहा- ‘‘ताड़का देखो तो तिनक भीतर!’’
ताड़का झपट कर कुिटया क ओर बढ़ी। ार से ही उसने पुकार लगायी - ‘‘पु !!’’
उसका वर सुनते ही थककर चुपचाप लेटे दोन बालक का दन पुन: आरं भ हो गया।
‘‘माता देखो, या िकया इ ह ने! बहत मारा है हम दोन को। सारी देह म पीड़ा हो रही
है।’’
ताड़का भीतर गयी तो अपने पु को देख कर वह भी िवि मत और िवचिलत हो उठी।
उसके िलये व न म भी यह सोचना संभव नह था िक कोई ऋिष उनके पु के साथ ऐसा
यवहार करने का साहस कर सकता है। पु का दन सुनकर उसके ोध क कोई सीमा नह
रही। वह उ ह लेकर दहाड़ती हई बाहर िनकली।
‘‘तु हारा साहस कैसे हो गया हमारे पु के साथ दु यवहार करने का नीच
जटाधा रय !’’ वह आँख से अंगारे बरसाती हई िच लायी- ‘‘अभी आग लगाती हँ, तु हारी जटाओं
और दािढ़य म।’’
‘‘नह तुम पु को सँभालो ताड़का। म देखता हँ इ ह।’’ कहते हये सु द ने अपनी
कृपाण ख च ली। महिष वेदी से दो-तीन हाथ आगे अिवचिलत भाव से उसी कार मु कुराते हये
उसक आँख म देख रहे थे। पीछे लपलताती हई ं लपट क गम से उनक पीठ चमक रही थी।
‘‘इस कोमल लता से मारे गा हम?’’ महिष उपहास से हँसे- ‘‘मढ़
ू कम से कम कृपाण तो
लाया होता?’’
ऋिषवर के वा य से सु द हड़बड़ा गया। उसे स य ही ऐसा लगा जैसे उसके हाथ म कोई
कोमल लता झल ू रही हो। ोधावेश म वह कुछ समझ नह पाया। उसने आ य से देखते हये
अपने हाथ से कृपाण फक दी। इतना अवसर महिष के िलये पया था। उसक पल भर क
असावधानी से लाभ उठाते हये उ ह ने उसक कलाई थामकर अपने िसर के ऊपर ख चा। वह
सीधा उनके िसर के ऊपर से उड़ता हआ िचतानुमा बनी धधकती वेदी म िगरा जाकर।
‘‘देख िकतना शीतल सरोवर है। डुबक मार ले इसम सीधा वैकु ठ पहँच जायेगा।’’
सु द ने सच म िचता से बाहर िनकलने के थान पर डुबक मारने का यास िकया।
सु द क ि थित देखते ही ताड़का ोध से महिष क ओर दौड़ी।
‘‘मुझसे बाद म िनपट लेना रा सी, पहले अपने पित को बचा अ यथा उसक तो िचता
सज ही गयी।’’ महिष उसका उपहास उड़ाते हये बोले।
ताड़का ने ोध म भी ि थित को समझा और ‘‘बाहर य नह आते आप इस अि न
से?’’ िच लाती हई जलते हये सु द क ओर दौड़ी। सु द को िनकलने का कोई यास न करते
देख उसने िचता म से उसे ख चने का यास िकया। सु द क जलती हई चमड़ी ताड़का के हाथ
म िचपट गयी। उसने दूसरे हाथ से उसका दूसरा हाथ भी पकड़ िलया और परू ी शि से उसे
ख चने का यास िकया। उसक अतुलनीय शि भी इस समय यथ िस हई। सुंद ने उसका
हाथ झटक िदया।
‘ या हो गया है इ ह?’ उसने सोचा। इस यास म वह भी बुरी तरह झुलस गयी। उसके
बहमू य व आग पकड़ चुके थे। वह प रि थित समझ रही थी। समय न न करते हये वह धल ू
म लोटने लगी। इससे आग तो बुझ गई िक तु उसक जली हई वचा थान- थान से िछल गयी,
परू े शरीर पर घाव उभर आये।
वह उठकर पुन: महिष क ओर भयानक ोध से दौड़ी। उसका बस चलता तो वह उ ह
क चा चबा जाती।
अब तक परू े वातावरण म चब के जलने क दुग ध फै लने लगी थी। सारे ऋिषगण एक
ओर त ध खड़े देख रहे थे। महिष के िवषय म उ ह ने बहत कुछ सुना था िक तु वे इस सीमा
तक जा सकते ह इसका उ ह आभास नह था।
‘‘वह ठहर जा!’’ इतनी देर म पहली बार महिष के भीतर का आवेश उनक वाणी म
िबि बत हआ- ‘‘अ यथा इससे भी बुरा होगा।’’
‘‘अ यथा या करे गा ढ गी? ताड़का म सह हािथय का बल है, तेरे इन जादू-टोन
से वह नह डरती।’’ कहते हए उसने महिष पर वार करने के िलये अपना हाथ जैसे ही उठाया उसे
लगा िक िकसी अ य शि ने उसका हाथ जकड़ िलया है। उसने परू ी शि लगा दी िक तु हाथ
िहल भी नह सका।
‘‘हाथ छोड़ ढ गी। साहस है तो जादू-टोना छोड़कर सामना कर।’’
‘‘िजसके पास जो शि ू रा सी! तेरे पास
होती है वह उसी का योग करता है, मख
शारी रक शि है मेरे पास मानिसक शि है। जब तेरे पु अकारण हम क देते थे तब तुझे
नह समझ आया था िक अनुिचत है।’’
‘‘तुम दोन या देख रहे हो? उठा कर झ क दो इसे भी इसी अि न म, जहाँ तु हारे िपता
को इसने झ का है।’’ ताड़का िववशता म िचंघाड़ उठी।
मारीच और सुबाह म साहस नह हो रहा था। वे भीतर से उबल रहे थे िक तु अब उ ह
आभास हो रहा था िक िज ह वे िनरीह समझते थे वे िनरीह नह थे। बस अपनी शि का
दु पयोग नह करते थे। वे सोच रहे थे िक इनसे िनपटने के िलये उ ह अपनी शि बढ़ानी
पड़े गी।
‘‘सोच या रहे हो? आय क तरह तुम भी भी (डरपोक) हो गये या?’’
‘‘अपने िपता क म ृ यु से कोई सीख नह ली तुमने?’’ मारीच और सुबाह को आगे बढ़ते
देख कर महिष कहर भरे वर म बोले- ‘‘तु हारी गत उनसे भी बुरी होगी। उ ह तो एक झटके ही
म मो िमल गयी है िक तु तुम यिद आगे बढ़े तो स पण
ू जीवन इस ण को कोसते हये िजयोगे।
दोन के बढ़ते हये पैर अपने थान पर ही जम गये।
‘‘जाओ भाग जाओ सब यहाँ से और दुबारा कभी इधर पलट कर मत देखना।’’ महिष
पुन: बोले। इसके साथ ही जैसे ताड़का का जकड़ा हआ हाथ छूट गया।
ताड़का पर महिष क चेतावनी का कोई भाव नह पड़ा था। ोध क अिधकता म वह
अंधी हो चुक थी। उसके भला-बुरा सोचने के िववेक को जैसे लकवा मार गया था। वह छूटते ही
पुन: महिष क ओर लपक ।
महिष ने िव त
ु गित से एक मु ी अ त से भरी और कुछ मं पढ़ते हये अपनी ओर
बढ़ती ताड़का पर फक कर मार िदये।
अ त के शरीर से पश करते ही ताड़का बुरी तरह चीखती हई पछाड़ खाकर िगर
पड़ी। येक अ त ने जैसे कटार का काय िकया था। वे ताड़का के सारे शरीर म गहरे धँस गये
थे। उसका चेहरा बुरी कार िवकृत हो गया था। वह लगातार चीखती जा रही थी।
‘‘भाग जाओ यहाँ से। पुन: इस आ म और आ मवािसय क ओर ि पात करने का
साहस मत करना।’’ महिष ने गु -ग भीर वाणी म पुन: चेतावनी दी।
ताड़का कराहती हई िकसी कार उठी। उसने एक आहत ि िचता म जलते अपने पित
पर डाली और िफर मारीच व सुबाह को लेकर पलट गयी। आ म क सीमा पर जाकर उसने पलट
कर महिष क ओर देखा जैसे अपनी ि से ही स पण ू आ म को भ म कर देगी।
27. सुमाली ारा रावण का अिभषे क
सुमाली ने सारी रणनीित बना ली थी। वह वयं और उसके दस पु , सात पु मा यवान
के, चार माली के और रावण व कुंभकण कुल ये प रवार के ही चौबीस लोग थे। िवभीषण को
ि य और ब च के साथ ीप पर ही छोड़ िदया गया था।
नौकाएँ खोलने के पवू सुमाली बोला -
‘‘आज से हमारे सम त अिभयान का नेत ृ व रावण करे गा। आओ पु तु हारा लंकापित
के प म अिभषेक कर तब हम अपने अिभयान का शुभारं भ कर।’’
‘‘िक तु िपत ृ य (िपता का भाई) ऐसा य ? लंकापित के पद पर अिभषेक रावण का
य ? वह तो कंु भकण को छोड़ कर हम सबसे किन है। यह अिधकार तो आपका बनता है।
अिभषेक आपका ही होना चािहये।’’ मा यवान के बड़े पु व मुि ने शंका कट क । वह
मा यवान, सुमाली और माली तीन के पु म भी सबसे बड़ा था।
‘‘और आपके बाद यह अिधकार मेरा बनता है। आप तो व ृ हो गये, चार िदन म िनपट
ही जायगे तब एकमेव मेरा अिधकार शेष रह जायेगा - यही कहना चाहते हो न तुम? बात को परू ा
करो, अधरू ा य छोड़ िदया।’’ सुमाली ने उसे बड़ी िनममता से िझड़क िदया।
‘‘मेरा यह ता पय नह था िपत ृ य। म तो कहना चाहता हँ िक लंका आपक थी और
आपक ही रहनी चािहये।’’
‘‘मातुल क बात उिचत ही है मातामह। आपको उ ह इस तरह अपमािनत नह करना
चािहये।’’ रावण ने कहा। वह अिभयान आरं भ होने से पवू ही आपस म फूट नह चाहता था।
‘‘नह उसने ठीक नह कहा। नेत ृ व को लेकर िकसी एक के भी मन म यिद कोई शंका
उ प न हो जाती है तो वह सारे अिभयान को मिटयामेट कर सकती है। िजसके मन म भी कोई
शंका हो वह अभी वयं को अिभयान से पथृ क कर ले। लंके र रावण के अित र और कोई नह
हो सकता।’’
‘‘िक तु मातामह ...’’
‘‘कोई िक तु-पर तु नह । यह मेरा व न है। इसे परू ा करने के िलये मने अपनी आयु
का बड़ा भाग होम िकया है। अब जब व न परू ा होने का समय आया तो म ऐसा कोई भी काय ..
ऐसी कोई भी सोच सहन नह कर सकता िजससे व न भंग होने क ि थित उ प न हो जाये।
आगे आओ रावण!’’ सुमाली ने आदेशा मक वर म कहा।
रावण िझझकता हआ आगे आया। उसने नह सोचा था िक अिभयान म नेत ृ व क
सम या भी आ सकती है। सुमाली ने झुककर अपनी अंजिल म सागर का जल िलया और वह
ू े म ह का सा चीरा लगाया और अपने
रावण पर िछड़क िदया। िफर उसने कटार से अपने अँगठ
र से रावण का रा यािभषेक कर िदया। िफर जयकारा लगाया -
‘‘बोलो लंके र रावण क ...’’
‘‘जय!’’ बाक सबने जयकारे को पण
ू िकया।
तीन बार यह नारा लगाया गया। इस कार यह अिभषेक पण
ू हआ।
इसके बाद सुमाली ने एक बार िफर अपनी अंजिल म सागर का जल िलया और बाक
सबके ऊपर िछड़क िदया।
‘‘आज से हम सभी रावण को लंके र के नाम से ही बुलायगे। इसे उसी अनुसार पण

स मान दगे। अभी से अ यास डाल लो इसका। नेत ृ व के ित िकसी कार क असिह णुता,
अवहे लना या अव ा य नह होगी।’’ िफर वह रावण से संबोिधत हआ- ‘‘लंके र आप भी
समझ ल! अनौपचा रक वाता म म आपका मातामह हो सकता हँ िक तु आिधका रक प से
आपका अनुगामी मा हँ। हम सब आपके सलाहकार, सिचव या मं ी हो सकते ह िक तु लंके र
आप ही ह। इस मयादा का िनवाह आपको भी करना होगा। आिधका रक प से आप हम नाम से
या भिव य म जो भी पदभार हम िदया जायेगा उसके अनुसार ही संबोिधत करगे।’’ सुमाली ने
अपने कथन को ितपािदत करते हये वयं भी रावण को तुम के थान पर स मान से लंके र
या आप कह कर संबोिधत करना आरं भ कर िदया था।
‘‘जी ... जी ...’’ रावण इस अक मात आरोिपत े ता के भार से दब सा गया था, वह
हकलाने लगा।
‘‘जी... जी ... नह , अ यास डाल लीिजये आप भी। आपको सम त भम
ू ंडल का अिधपित
बनना है और आिधप य वयं के अंदर सव े होने क भावना जा त िकये िबना संभव नह है।
आपको वयं को सव े िस करना है और उसी के अनुसार आचरण भी करना है, उसी के
अनुसार सब पर शासन भी करना है - अपने मातुल पर भी और वयं मुझ पर भी! िक तु साथ ही
यह भी यान रख िक नायक बनना है, अिधनायक नह । अनुगामी यिद असंतु हो गये तो
नायक को समा होते देर नह लगती। इसिलये सदैव यह यास कर िक आपके नायक व म
कोई ऐसा काय न हो जाये िजससे आपके अनुगामी वयं को उपेि त या अपमािनत अनुभव कर।
िजस िदन ऐसा हो गया उसी िदन समझ लीिजयेगा िक लंके र के पराभव क घड़ी आ गयी है।’’
‘‘जी!’’
सुमाली मु कुराया। वह समझ रहा था िक कुछ समय लगेगा पर रावण उसक अपे ाओं
पर आगे भी खरा ही उतरे गा जैसे अभी तक उतरता आया है।

अब वे अिभयान के िलये तैयार थे। उनके पास तीन नौकाएँ थ । सुमाली ने कहा -
‘‘कंु भकण, व मुि , िव पा , ह त, अक पन और अनल तुम लोग मेरे साथ म य
वाली नौका म आओ। लंके र आप भी आय। बाक सब शेष दोन नौकाओं म बैठ जाओ।’’
नौकाएँ सागर म उतार दी गय । जहाँ तक ि जाती थी केवल जल ही जल िदखाई
देता था। हवा म म चल रही थी। मौसम सुहावना था िक तु जीवन के ही समान सागर म भी या
पता चलता है िक कब मौसम पलटा खा जाये। कब शीतल समीर उ ेिलत हो उठे और ये िथरकती
लहर ता डव करने लग और कब अपना िवकराल मुख पसार कर उनक िनरीह नौकाओं को
लील लेने को त पर हो जाय। उसने हाथ जोड़कर, आँख ब द कर अन त स ा से सबक सुर ा
क ाथना क िफर सबको थान का संकेत कर िदया।
नौकाएँ सागर क छाती पर मंथर गित से डोलती आगे बढ़ने लग और उ ह के साथ
रावण भी अपने पहले अिभयान पर आगे बढ़ने लगा। उसके मि त क म योजनाएँ बनने-िबगड़ने
लगी थ । उसक तं ा सुमाली के वर ने भंग क -
‘‘व मुि आओ अब तु हारी शंका का समाधान कर दँू। कुंभ! तुम ये मातुल क
पतवार सँभाल लो।’’
कुंभकण ने व मुि से पतवार ले ली।
‘‘भाई मा यवान के दोन ये पु - व मुि और िव पा , मेरे दोन ये पु -
ह त और अक पन तथा माली का ये पु - अनल सबको मं णा के उ े य से ही मने इस
नौका पर रखा है। अिभयान म आपस म िकसी तरह का वैमन य या कोई भी शंका नह रहनी
चािहये।
‘‘देखो हम सब िकतने भी बलशाली ह िक तु शारी रक बल म कुंभ हमम सव े है
और यिद सारी कसौिटय पर कसा जाये तो लंके र सव े ही नह हम सब से बहत आगे ह।
संभवत: हम सब िमलकर भी उनक समता नह कर सकते। यह िपतामह ा का आशीवाद है।
उनक कृपा है। इनके अिभषेक का पहला कारण तो यही है।’’
उसने सबक ओर देखा, सब मौन होकर यान लगाये उसे सुन रहे थे।
‘‘हम सब िकतने भी समथ ह िक तु सं या म मा चौबीस ही ह। दूसरी ओर, दुबल
कुबेर भी नह है। दुबल होता तो लोकपाल के दािय व का िनवाह नह कर पाता। िफर उसके साथ
सुस ज सै य भी है। हमसे सह गुना अिधक है उसक शि । िफर उसक सहायता को िकसी
भी समय इ और िव णु भी आ सकते ह। िव णु िकतना बल है हम जानते ह। उसका झंझावात
हमने अपने चरमो कष के काल म झेला है। िकस बुरी तरह परािजत िकया था उसने हम, इसे म
आज भी नह भल ू े होगे। रावण और कुंभ के अित र हम सबने देखा है
ू ा हँ, तुम लोग भी नह भल
उसका परा म। उसे परा त कर पाना असंभव है।’’
सुमाली ने रावण के चेहरे के भाव बदलते देखे, वह समझ गया िक रावण के अंतस म
कह ज म ले चुके अहंकार को िव णु क शंसा क ये पंि याँ अ छी नह लग रह । उसके
मि त क म फौरन क धा िक िव णु क साम य को कम करके आँकना रावण के िलये अ यंत
घातक हो सकता है। रावण के इस अित आ मिव ास को अभी से िनयंि त करना होगा। वह
बोला-
‘‘हाँ लंके र! िव णु इस समय अपराजेय है। हमारे िलये ही नह वयं आपके िपतामह
और िशव के िलये भी। यिद कह आपको यह लगता है िक आप उसे परा त कर सकते ह तो
अिवलंब उस सोच को िनकाल फिकये। आप बस यही कामना क िजये िक उससे सामना न हो।
वह िपतामह के वचन का स मान करते हये आपके माग म न आये। िक तु यह तो आगे क बात
है। अभी तो बस मेरी बात सुिनये और समझने क चे ा क िजये।’’
‘‘जी मातामह!’’ रावण ने धीरे से कहा।
‘‘इन प रि थितय म कैसे िवजयी हो सकते ह हम?’’ सुमाली ने कहना जारी रखा-
‘‘हम मा लंका ही िवजय नह करनी है, लंका तो हमारे अिभयान का पहला चरण है, सबसे
छोटा चरण िक तु इसक सफलता भिव य क आधारिशला रखेगी। आज हम सफल हये तो
ि लोक िवजय का ार हमारे िलये खुल जायेगा। और असफल हो गये तो पीिढ़य तक पुन: उसी
अँधेरे भिव य को वीकार करना पड़े गा। इसिलये पराजय हम िकसी भी ि थित म वीकार नह
कर सकते। पराजय का अथ है सव अंधकार। और बल योग से हम पराजय ही िमलनी है।’’
उसने िफर एक बार सबक ओर देखा। सब परू े यान से उसे सुन रहे थे। उसने आगे
बोलना आरं भ िकया -
‘‘इस ि थित म िवजय हम एकमा लंके र ही िदला सकते ह। वे कुबेर के भाई ह। लंका
उनके मातामह क थी और मातामह ारा अपनी इ छा से उ ह दी गयी है, इस नाते अब उनक है।
वे जब यह तक दगे तो यह तक वीकाय होगा। िपतामह के मन म उसके िलये िकतना नेह है
यह हम देख ही चुके ह। यही नेह पुल य और िव वा के मन म भी िन संदेह होगा और यही
नेह हम लंका िदलायेगा। लंका िवजय हम नह करगे लंका िवजय तो व तुत: रावण का िव वा-
पु होना करे गा। यह िवशेष ि थत हमम से िकसी को ा नह है। इसिलये हम लंकापित नह
बन सकते। हम तो कुबेर पल म खदेड़ देगा। समझ म आ गई न मेरी बात?’’
‘‘जी िपत ृ य। मेरी उस समय क नासमझी को मा कर। भिव य म कभी दुबारा ऐसी
ू नह होगी। हम सब लंके र के ित पण
भल ू समिपत रहगे।’’ व मुि बोला। िफर िफर उसने
नारा लगाया -
‘‘महान लंके र क ...
‘‘जय!’’ सबने उसके वर म वर िमला कर जयकारे को पण ू िकया। अब सब एकमित
थे-एकमत थे। कोई िववाद नह था, कोई शंका नह थी। यही ि थित अिभयान के िलये उिचत थी।
परू े एक अहोरा क या ा के बाद इनक नौकाओं ने लंका तट को पश िकया। ात:
क धपू िखलने लगी थी। शरद काल आरं भ हो चुका था। िदन सुहावने होने लगे थे। तट पर उतरते
ही सुमाली पहले घुटन के बल झुका और िफर दंडवत क मु ा म बालू पर लेट गया और बहत देर
तक लेटा रहा। आज तीस वष से अिधक समय बाद उसने इस धरती पर पैर रखे थे। उसका मन
भर आया था। बाक सब वह बैठकर उसके सामा य होने क ती ा करते रहे । इस बीच कुछ
लोग ने ढे र सारे ना रयल तोड़ िलये थे। सबने उनसे अपनी भख
ू यास बुझाई। जलपान िकया।
सामा य होकर सुमाली ने भी एक ना रयल फोड़ कर उसका पानी पीते हये कहा -
‘‘अभी तीन से चार िदन क पदया ा हम और करनी है, ासाद तक पहँचने के िलये।
या ऐसा करो, तट के सहारे -सहारे परू ब क ओर बढ़ते चलो। भिू म पर सघन वन म माग खोजना
अ यंत दु कर होगा। लंका का स पण ू दि ण ा त जनशू य और वन से आ छािदत है सागर के
िकनारे ही समतल भिू म है, शेष सम त देश पवतीय है जहाँ माग खोजना और भी दु कर होगा।
वन म व यपशुओ ं से भी भय रहे गा। माग म थान- थान पर दलदल भी पड़गे। तट के सहारे -
सहारे ही आगे उ र क ओर घम ू जाना। यही उिचत रहे गा। सुवेल पवत हम सागर से ही िदख
जायेगा। बस तभी हम लोग भिू म पर उतरगे और आगे क या ा पैदल करगे। बाक दोन नौकाओं
तक भी यह संदेश सा रत कर िदया गया।’’

एक िदन क या ा और स प न हई। िक तु यह इतनी थकाने वाली नह थी। ये लोग


तट के साथ-साथ चल रहे थे अत: उिचत थान देखकर दो बार तट पर आकर जल और आहार
भी ा िकया। अगले िदन दोपहर होते-होते सुवेल पवत के दशन होने लगे। एक नदी का मुहाना
देख कर नौकाएँ रोक दी गय ।
‘‘आगे क या ा अब पैदल ही करनी होगी। नौकाएँ यह िकनारे एक ओर रे त पर छोड़
देते ह और आगे बढ़ते ह।’’ सुमाली ने िनदश िदया।
सब ने अनुमोदन िकया। नौकाएँ बाहर िनकाल कर तट पर छोड़ दी गय । सबने जी भर
के वह नदी म नान िकया, तरोताजा हये िफर भोजन बनाया, खाया, कुछ िव ाम िकया और
आगे चल पड़े ।
साँझ होते-होते ये लोग कुबेर के ासाद के बाहर थे।
28. सुिम ा से िववाह
मन भी अजीब चीज है। यह एक ऐसी पतंग है िजसक डोर को थामना बड़ा किठन होता
है। इसे एक बार आकाश म तान दो तो िफर उड़ता ही जाता है - आपके िनयं ण से बाहर! इस डोर
को अगर ख चना चाहो तो यह अ सर डोर ही तुड़ा कर उड़ जाता है। ... और यिद कोई डोर को
वयं ही छोड़ दे तब? ... तब तो वह महाराज दशरथ हो जाता है।
महाराज दशरथ का मन भी सीमाहीन आकाश म िनबाध उड़ता ही चला जा रहा था।
उनक उप-पि नय क सं या तीन सौ को पार कर गयी थी िफर भी उनके मन को चैन नह था
... संतोष नह था। कौश या का वे थम राजमिहषी के नाते स मान करते थे। कैकेयी को वे
यार करते थे। यार के साथ ही िकसी सीमा तक उसके उपकार के बोझ से दबे भी रहते थे।
कैकेयी ने अभी तक उनके िदये गये वरदान माँगने का कोई यास नह िकया था। कभी उनका
संकेत तक नह िकया था, मानो भल ू ही गयी हो उनके िवषय म। उनक िनशा ाय: िन य ही
कैकेयी के ासाद म यतीत होती थी िक तु वह अब अ यास मा था। कैकेयी के ित उनका
स मान, णय से िभ न भावना थी, िक तु उससे मन क भख ू तो नह िमटती थी। मन तो
वासनाओं का हाथ पकड़ कर िन य नयी देह के साथ उड़ना चाहता था।
कुल िमला कर कौश या और कैकेयी दोन के साथ ही अब देह का वह र ता नह रह
गया था जो उनके मन को संतु कर पाता और उपपि नयाँ तो िखलौना मा थ , कुछ देर मन
बहलाव का साधन।
इधर यु का भी कोई अवसर नह था, जो पवू म उनके मन को बाँधे रहता था। इसे यिद
इस कार कहा जाये िक श बर यु के बाद से उनका यु ो माद ठं डा पड़ गया था तो अिधक
सही होगा। यु के ित अब उनक िच नह रह गयी थी। यु करते भी िकससे। स पण ू
आयावत े के छोटे-मोटे राजाओं को तो वे अपने अधीन कर ही चुके थे। बड़े सा ा य उनके
िम थे। न भी होते तो उनके साथ यु करना कोई खेल नह था।
कुछ काल से उनके मन क छटपटाहट और बढ़ गयी थी, वह येक डोर को तोड़कर
उड़ने को याकुल था। काशी क राजकुमारी सुिम ा के स दय क चचाएँ सम त आयावत के
वायुमंडल को आव ृ िकये थ । महाराज के कान तक भी ये चचाएँ पहँच और महाराज के मन
क छटपटाहट का कारण बन गय । उनका मन सुिम ा को ा करने के िलये मचलने लगा।
कोई बाधा नह थी इसम िसवाय इसके िक यिद काशीराज ने अपनी क या का हाथ उ ह देने से
मना कर िदया तो ...?
इस तो का एक ही उ र था िक सुिम ा को ा करने हे तु ससै य अिभयान कर िदया
जाय। काशीनरे श यिद वे छा से वीकार कर ल तो ठीक है अ यथा ...
कौश या के समय थी थोड़ी बहत िहचक, अब वे बहत प रप व हो चुके थे। अब कोई
िहचक नह थी आ मण करने म।
दशरथ ने काशी के चार ओर घेरा डाल िदया।

काशीनरे श के माथे पर गहन िचंता क रे खाएँ प िदखाई पड़ रही थ । वे अभी-अभी


दशरथ के िशिवर से वापस लौटे थे। दशरथ के काशी क ओर थान क सच ू ना उ ह पवू म ही
ा हो चुक थी। उनके काशी क सीमा पर पहँचने का समाचार ा होते ही वे वयं गये थे,
राजगु को साथ म लेकर, शांित का ताव लेकर। उ ह ने िनवेदन िकया था िक काशी,
कोशल क तुलना म अ यंत छोटा सा, बलहीन रा य है। उस पर आ मण कोशल क याित म
ब ा ही लगायेगा। वे कोशल क अधीनता वीकार करने हे तु कोई भी उिचत भट देने को सहष
त पर है।
महाराज दशरथ उनसे अ यंत स मान से िमले थे। उ ह ने अ यंत स दयता से उनका
िनवेदन भी वीकार िकया था। काशीनरे श अपने साथ िजतने भी उपहार लेकर गये थे वे सब
उ ह ने बड़ी न ता से लौटा िदये थे िक इ ह कहाँ ढोता िफ ँ गा म, ये जैसे कोशल म - वैसे ही
काशी म। काशीनरे श अ यंत भािवत हये थे उनके सौज यपण ू यवहार से। त प ात दशरथ ने
अ यंत िवन ता से एक ही उपहार क आकां ा क थी और उसी आकां ा ने काशीनरे श के माथे
पर ये गहन िचंता क रे खाएँ ख च दी थ ।
‘‘महाराज म तो कोशल से काशी तक मा आपके अनु ह का आकां ी बन कर आया
हँ। मने आपक उदारता के अनेक संग सुने ह, म नतम तक हँ आपके िवराट यि व के
स मुख।’’ कहते हये वे स य ही झुक गये थे।
काशी नरे श क आँख म अभी तक वह य घम ू रहा था। वे अ यंत संकुिचत हो गये थे
दशरथ के इस कार के यवहार से। हड़बड़ाहट म उनके मँुह से हठात् िनकल पड़ा था -
‘‘यह या कर रहे ह स ाट्? काशी का छोटा सा रा य तो आपके स मुख अ यंत तु छ
है। आप इस कार झुक कर मुझे लि जत य कर रहे ह? आप आदेश दीिजये। यिद मेरी साम य
म होगा तो म अव य आपके आदेश का पालन क ँ गा।’’
‘‘आदेश नह महाराज!’’ दशरथ हाथ जोड़े हये बोले थे- ‘‘अनुरोध, िवन अनुरोध!’’
‘‘किहये तो आप!’’ काशीनरे श क समझ म कुछ नह आ रहा था- ‘‘मेरी साम य म
...’’
‘‘आपक ही साम य म है महाराज!’’ दशरथ उनक बात काटते हये बोल पड़े थे।
‘‘तो कह डािलये महाराज!’’
‘‘मुझे उपहार म बस अपनी िवदुषी क या दे दीिजये। सुना है वह भी आपके ही समान
िवराट यि व क वािमनी है। अयो या का सा ा य ध य हो जायेगा उसे अपनी महारानी के
प म पाकर।’’
काशीनरे श को व न म भी ऐसी आशा नह थी। दशरथ तो आयु म उनसे भी बड़े थे।
सुिम ा से तो तीन गुनी आयु होगी उनक । वे धमसंकट म थे - यिद दशरथ का ताव अ वीकार
कर देते ह तो काशी का गौरव न हो जायेगा। यिद वीकार कर लेते ह तो उनक पु ी का
जीवन न हो जायेगा। उ ह सझ ू ही नह रहा था या कह।
‘‘िकस दुिवधा म पड़ गये महाराज? मने ऐसा तो कुछ नह माँग िलया जो आपक
साम य म नह हो। म तो काशी क मयादा को, काशी के स मान को गौरव ही दान िकया
चाहता हँ। कोशल का स ब धी बन कर काशी भी ध य हो जायेगा।’’ दशरथ ने कुिटल ि मत के
साथ कहा था।
‘‘आप स य कह रहे ह महाराज िक तु आपका ताव वीकार करने से पवू मुझे एक
बार सुिम ा से भी पछ
ू ना तो पड़े गा ही। आप तो जानते ही ह िक उसक वीकृित आव यक है इस
िवषय म।’’
‘‘म जानता हँ महाराज! और म यह भी जानता हँ िक सुिम ा अ यंत बुि मती है, वह
काशी के पराभव का कारण कदािप नह बनना चाहे गी।’’ दशरथ के मधुर वर म िछपी धमक
काशी नरे श प समझ रहे थे पर वे एकाएक अपना कत य िनधा रत नह कर पा रहे थे। बड़ा
साहस कर वे बोले -
‘‘महाराज, मुझे एक बार सुिम ा से वाता करने क अनुमित दान कर। म कल ात:
ही आपक सेवा म उपि थत होता हँ।’’
‘‘कल ात:?’’ दशरथ ने अ यंत आ य का दशन करते हये कहा- ‘‘अभी तो िदवस
का दूसरा हर ही चल रहा है महाराज! मा एक छोटे से ताव के िलये सुिम ा क सहमित
लेने म िकतना समय लग जायेगा आपको? आपको िकसी यु अिभयान के िलये मं णा थोड़े ही
करनी है िजसके िलये तैया रय के िलये समय चािहये हो।’’
‘‘िक तु महाराज ....??’’ काशी नरे श ने कहना चाहा िक तु दशरथ ने उनक बात
पुन: बीच म ही काट दी -
‘‘ या िक तु महाराज?’’ वे उनके जुड़े हये हाथ पकड़ते हये नेहिस वर म बोले थे-
‘‘म सायंकाल यहाँ आतुरता से ती ा क ँ गा आपक ! अब शी ता से थान क िजये तािक
शी ता से मुझे शुभ समाचार दे सक।’’
अब कहने को कुछ था ही नह ।

‘‘िपताजी आपने मुझे बुलवाया था?’’ सुिम ा का वर सुनकर उनक िवचार-तं ा भंग
हई। देखा सुिम ा उनके स मुख खड़ी थी। उसके साथ महारानी भी थ ।
‘‘हाँ बेटी! बैठो। आप भी बैिठये महारानी।’’
‘‘अ यंत िचंितत तीत हो रहे ह। या दशरथ आ मण के उ े य से आये ह?’’
‘‘उ े य तो उनका यही है तथािप दिशत इससे िवपरीत कर रहे ह। वे कह रहे ह िक वे
काशी को गौरव िदलाने आये ह।’’
‘‘ता पय?’’ हठात् महारानी और सुिम ा दोन के ही मुख से िनकल पड़ा।
‘‘ता पय वे काशी के संबंधी बनना चाहते ह।’’
‘‘यह कैसे संभव है?’’ महारानी के वर म घोर आ य था- ‘‘वे तो वयस म आपसे भी
बड़े ह गे?’’
‘‘जी हाँ! ऐसा ही है।’’
‘‘तब वे ऐसा िवचार भी मन म कैसे ला सकते ह?’’
िजसक पीठ पर इतना बड़ा सै य बल खड़ा हो वह कैसा भी िवचार मन म ला सकता
है, महारानी!’’ काशीनरे श ने दीघ ास लेते हये कहा।
‘‘महारानी! राजा जा के िलये िपतवृ त होता है। उसक र ा राजा का थम दािय व
होता है िक तु मुझे समझ नह आ रहा िक म यह कैसे क ँ ?’’
‘‘एक ही माग है िपताजी, आप उनका ताव वीकार कर ल।’’ सुिम ा ने ह त ेप
िकया।
‘‘हम ऐसा कैसे कर सकते ह बेटी?’’ महारानी बोल - ‘‘उससे तो तेरा जीवन न हो
जायेगा।’’
‘‘िपताजी रा य क सुर ा मा राजा का ही धम नह होता, रा य के येक नाग रक
का धम होता है। येक यि का दािय व होता है िक वह अपने रा के गौरव को अख ड
रखने हे तु अपने ाण का भी बिलदान कर दे।’’
‘‘वह तो है, पु ी! िक तु ...’’
‘‘ या िक तु िपताजी? यिद मा मेरे छोटे से बिलदान से स पण
ू काशी के गौरव क
र ा हो रही है, काशी के सम त नाग रक क ाण र ा हो रही है तो मेरा दािय व बनता है िक
म अपने एक छोटे से सुख का बिलदान कर दँू।’’
‘‘नह बेटी! काशी के ि य का लह अभी पानी नह हआ है। वे अपनी बेिटय का
यापार नह करते।’’
‘‘िपताजी ध ृ ता मा कर िक तु यह मा ि य का अहम् है िजसके िलये वे अपना
लह बहा देते ह। यह बेिटय क आन नह उनक अपनी आन होती है। आप जैसे कुछ थोड़े से
ि य को पथ ृ क कर द तो ि य जाित क बेिटयाँ मा उनके व न को साकार करने का
संसाधन होती ह। ऐसा न हो तो वे बेिटय को सय
ू का काश देखने ही न द।’’
‘‘तेरी मित िफर गयी है या? या अनगल लाप कर रही है?’’ माता ने सुिम ा को
िझड़कते हये कहा- ‘‘ऐसी बात तो सोचना भी पाप है।’’
‘‘माता अभी पाप-पु य क या या करने का अवकाश नह है। आप एक पु ी क र ा
करने हे तु स पणू काशी िनवािसय का जीवन दाँव पर लगाने क सोच रहे ह, इसे मख ू ता के
अित र और या कहगे। अभी तो वे मा मुझे ही माँग रहे ह। यिद काशी म िवजेता के प म
उनके पाँव पड़ गये तो वे िकतनी सुिम ाओं को अपने साथ ले जायगे, इसे सोचा है आपने? अभी
तो सुख से अथवा क से, जैसे भी िमलेगा मुझे महारानी का ही पद ा होगा िक तु यिद वे मुझे
िविजत कर ले गये तो या पद ा होगा - एक या दो राि उनक भो या बन कर उपपि नय
क भीड़ का एक अंग बन कर रह जाऊँगी।’’
‘‘िक तु पु ी ...?’’
‘‘िकसी िक तु के िलये थान ही नह है िपताजी! इसके अित र एक ही उपाय है -
आप अपनी कटार उठाएँ और पहले मेरा वध कर द त प ात काशी क अ य सम त बेिटय -
वधुओ ं का वध कर यु म सारे ि य अपने ाण उ सग कर द। िक तु तब िजस काशी क आन
के िलये आप संघष करगे, या वह काशी शेष होगी? जब काशी ही नह होगी तब कैसी उसक
आन? कैसा उसका गौरव?’’
‘‘पु ी! तीत होता है तेरा मि त क इस समाचार के आघात को सहन नह कर पाया
है, तभी यह अनगल लाप कर रही है। शा त हो जा। जा अपने क म िव ाम कर। तेरे िपता कोई
माग िनकाल ही लगे।’’ पु ी के वचन से आहत महारानी ने भरे नयन से कहा।
ू त: संयत अव था म है माँ!’’ सुिम ा के अधर पर बरबस हा य खेल
‘‘मेरा मि त क पण
गया - ‘‘आप लोग ही पु ी के मोह से वशीभत
ू प रि थितय का वा तिवक आकलन करने से मँुह
फेर रहे ह। मुझे क म भेजने के थान पर िपताजी को स ाट् के िशिवर म भेिजये, अ यथा कह
यिद उ ह ने अपने कहे अनुसार आचरण कर िलया तो काशी म शव को बटोरने वाले भी शेष
नह बचगे। मेरी र ा तब भी नह कर पायगे आप लोग।’’
‘‘बेटी!!’’ माँ ने आतनाद िकया िक तु बेटी के मुख से वािहत श द के नह ।
‘‘मेरे भा य का िनधारण तो उसी पल हो गया िजस पल स ाट ने िकसी भी कारण से
मेरा चयन कर िलया। अब उस भा य को सुधारने का कोई माग नह है। आपका कत य अब मा
काशी क सुर ा करना है। अपनी आन क सुर ा को यागना ही ेय कर है। तभी स मान
सिहत मेरी िवदाई स भव है अ यथा वह भी नह होगी।’’
काशीनरे श के गाल पर अ ु ढुलक आये थे। वे अपनी िववशता से यिथत थे। उनके
श द उनके गले म अटके थे। उनके पास बेटी क बात का कोई उ र नह था।
‘‘िपताजी! महाराज भानुमान क भल ू मत दोहराएँ । उ ह ने यु कर या देवी कौश या
क र ा कर ली जो आप कर लगे? महाराज दशरथ का ताव वीकार कर लीिजये, इसी म
सबका िहत है। मुझे स मान से अपनी िनयित को वीकार करने के िलये िवदा कर। स ाट् को
अपनी वीकृित क सच ू ना देने हे तु थान कर। म िवनती करती हँ आपसे।’’ अब तक संयत
सुिम ा के ने भी िपता क िववशता को देख कर छलक आये थे।
काशीनरे श ने ख च कर पु ी को अपने सीने से िचपटा िलया और फूट-फूट कर रो पड़े ।
दो िदन प ात शुभ मुहत म सुिम ा का अयो या नरे श दशरथ के साथ धम
ू धाम से
िववाह स प न हो गया।
29. कुबे र के ासाद म
ये लोग जब कुबेर के ासाद म भीतर वेश करने लगे तो ारपाल ने रोक िदया -
‘‘ठहरो! कहाँ घुसे जा रहे हो?’’
‘‘लोकपाल से िमलना है।’’ रावण ने उ र िदया
‘‘लोकपाल से िमलना है।’’ ारपाल ने नकल उतारते हये कहा ‘‘स मान से बोलना भी
नह आता।’’ ारपाल क आवाज म ध ृ ता थी जो धू ा से सहन नह हई वह ोध म आगे
बढ़ा।
‘‘नह !’’ रावण हाथ फै लाकर उसे रोकता हआ हँसकर ारपाल से बोला ‘‘लोकपाल जी
से िमलना है ारपाल जी! स न!’’
‘मेरा उपहास करता है। मजा चखाऊँगा तुझे तो! इस समय महाराज िकसी से नह
िमलते। भाग जाओ। ात: राजसभा म उपि थत होना।’’
‘‘वे हमसे अभी िमलगे। यिद अपना िहत चाहते हो तो उ ह सच
ू ना करो िक वै वण रावण
आया है।’’ ारपाल उसे िफर िझड़कना चाहता था िक तु दूसरे ारपाल ने रोक िदया। उसने रावण
के मुख से उ च रत ‘वै वण’ श द पर यान िदया था। और इस श द ने उस पर चम कारी भाव
भी डाला था। वह स मान के साथ बोला -
‘‘ या कहा आपने? वै वण ह आप, महिष िव वा के पु ?’’
‘‘ या एक बार म सुनाई नह देता? लोकपाल ने ऐसे ही यि य को िनयु िकया है
ार क सुर ा के िलये?’’ रावण ने अिधकार यु वर म कहा।
उसके आ मिव ास और वर के अिधकार ने भी ारपाल पर साथक भाव डाला। वह
स मान से बोला-
‘‘आप लोग कुछ काल यह ती ा क िजये, म अभी सच
ू ना भेजता हँ।’’ िफर एक साथी
को आवाज देता हआ बोला -
‘‘अरे चतुर जा तो जरा महाराज को सच
ू ना कर दे।’’
सुमाली ासाद क भ यता को मं मु ध सा िनहार रहा था। कभी यह उसका ासाद
हआ करता था। कुंभकण ासाद क भ यता से चम कृत खड़ा था। उसक तो पलक भी नह
झपक रही थ ।
‘‘आप महाराज के ाता ह?’’ पहले वाले ारपाल ने िज ासा से रावण से पछ
ू ा। अब
उसके वर म उ ं डता नह स मान झलक रहा था।
‘‘हाँ! तु हारे महाराज मेरे बड़े भाई ह।’’
‘‘आप लोग बैठ जाइये तब तक।’’ ारपाल ने एक ओर बनी पीिठकाओं क कतार क
ओर संकेत करते हये कहा।
‘‘नह , ऐसे ही ठीक है।’’
‘‘आपको पहले कभी नह देखा?’’ ारपाल प रचय घिन करना चाहता था। महाराज
के भाई और संबंिधय क िनगाह म बसने म सदैव लाभ ही रहता है।
‘‘हाँ! म पहली बार आया हँ। पर तु ह इससे या? अपना काम करो।’’ रावण ने उसके
उ साह पर िवराम लगा िदया।
कुछ देर सभी मौन खड़े रहे ।
तभी सचू ना देने गया ारपाल का साथी लौटता िदखाई िदया। सबक उ सुक िनगाह
उसीक ओर उठ गय ।
उसने दूर से ही कहा -
‘‘आइये महाराज आप लोग क ती ा कर रहे ह।’’
सब उसके साथ चल िदये।
कुबेर अितिथशाला के ार पर ही िमला। सुदशन यि व। ऊँचा कद, बहमू य र न से
जड़े विणम राजमुकुट के नीचे से झांकते सुदीघ, चमक ले, काले केश। बहमू य व ाभषू ण।
लगता था िक कोई अ यंत वैभव और स ा स प न यि है। उसके साथ महारानी भी थ । वे भी
अपने पित से कम सुदशना नह थ । उनका परू ा शरीर जैसे आभषू ण से लदा था।
रावण ने झुककर कुबेर के चरण म णाम िकया। कुबेर ने उसे उठाकर सीने से लगा
िलया। िफर पछ
ू ा-
‘‘कुशल से तो हो व स?’’
‘‘जी! स पण
ू कुशल से।’’
कुबेर के आिलंगन से छूट कर रावण ने महारानी के चरण म णाम िकया। उधर
कुंभकण कुबेर से िमल रहा था। महारानी ने भी यार से उसके िसर पर हाथ फेर कर आशीवाद
िदया। उनक आयु िनि त ही कैकसी से कम नह होगी िक तु अभी भी प-यौवन म वह दीि
िव मान थी।
कुबेर कुंभकण को भुजाओं म बाँधे हँसते हये कह रहा था- ‘‘व स तुम साथ हो तो सै य
क आव यकता ही नह । अकेले ही परू े सै य पर भारी पड़ोगे।’’
‘‘जी! वो तो है।’’ कुंभकण अपनी शंसा से स न था। उसने अपनी भुजाओं क सु ढ़
मांसपेिशय का दशन िकया। सब हँस पड़े ।
आओ भीतर चल।
भीतर क भ यता देख कर तो कुंभकण क आँख खुली क खुली रह गय । यहाँ पर
सुमाली भी चम कृत था। आ त रक स जा क शोभा उसके समय से भी बहत े थी। िवशाल
क म चार ओर हाथी दाँत क पीिठकाएँ पड़ी थ । म य म िवशाल फिटक का पयक था िजस
पर मोटा सा मुलायम ग ा िबछा था। बहमू य रे शमी चादर पड़ी थी। सभी गवा (िखड़िकय ) पर
बहमू य कौषेय यविनकाएँ सुशोिभत थ िजन पर मोटा सोने का काम िकया गया था। कुल
िमलाकर सब कुछ अ यंत भ य था।
सब पीिठकाओं पर बैठ गये तो कुबेर ने सच
ू क ि से शेष लोग क ओर देखा।
रावण उसक िनगाह का ता पय समझ गया। बोला -
‘‘ ाता का प रचय करवा दँू सबसे।’’
‘‘हाँ! यह तो आव यक है।’’ कुबेर ने उ र िदया।
‘‘मातामह सुमाली’’ रावण ने सुमाली क ओर इंिगत िकया। कुबेर ने झुक कर उ ह परू ी
ा से णाम िकया। महारानी ने भी उसका अनुसरण िकया। िफर कुबेर बोला -
‘‘ध य भा य! लंका को थमत: बसाने वाले का आज तक नाम ही सुना था। आज
दशन ा कर ध य हो गया। आपके चरण से पिव हो गया यह ासाद। देिखये कह कोई कमी
तो नह रह गयी है? कुबेर ने परू े मन से देखभाल क है लंका क ।’’
कुबेर परू े स मान सच
ू क ढं ग से बोल रहा था िक तु िफर भी सुमाली का नाम सुनते ही
उसके चेहरे पर णांश के िलये जो च कने के िच ह कट हये थे वे रावण और सुमाली दोन ने
ही लि त िकये थे।
‘‘और ये सब मेरे मातुलगण ...’’ उसने एक-एक कर नाम लेते हये सभी का प रचय
िदया। कुबेर और िफर महारानी ने सबको णाम िकया।
इस बीच प रचा रकाओं ने सबके सामने वािद यंजन के वण-थाल सजा िदये थे।
‘‘लीिजये! हण क िजये सब लोग। कुबेर आज थम बार अपने मातामह और मातुल
के दशन ा कर कृतकृ य है।’’
‘‘अरी मंिदरे ! यह या? कुंभकण के सामने भी तन
ू े यह जरा सा थाल रखा है।’’
महारानी सहज हा य के साथ एक प रचा रका से स बोिधत हई ं- ‘‘मेरा देवर पहली बार आया है,
या कहे गा िक भाभी के यहाँ गया और त ृ भी नह हआ।’’
कुंभकण के चेहरे पर स नता क लाली दौड़ गयी। बोला -
‘‘भाभी हो तो ऐसी।’’
जलपान के म य ऐसी ही ह क -फु क बात होती रह । सब त ृ हये। कुंभकण घर से
बाहर अिधकांशत: त ृ नह हो पाता था पर आज वह भी पण
ू त ृ हआ। एक प रचा रका मा उसी
क सेवा म लगी रही थी। उसके ललाट पर चमक रह वेद क बँदू बता रही थ िक िकतना थक
गई थी वह।
जलपान के बाद प रचा रकाएँ सब साम ी बटोर ले गय । महारानी ने भी कुछ काम का
बहाना कर आ ा ा क तो कुबेर ने गंभीरता से वाता का सू आरं भ िकया -
‘‘व स रावण! आज भाई क याद कैसे आ गयी?’’
‘‘बस दशन क आकां ा ख च लाई।’’
‘‘मातामह भी आये ह, इससे लगता है िक कुछ िवशेष ही योजन है। हम सब तो यही
समझते थे िक मातामह कुटु ब सिहत ी िव णु ारा ....’’
‘‘मार िदये गये।’’ कुबेर के अधरू े छोड़ िदये गये वा य को सुमाली ने हँसते हये परू ा
िकया।
‘‘अब या कहँ मातामह, चचा तो यही थी चार ओर।’’
‘‘मुझे ात है। और मने यह म जान-बझ
ू कर फै ला भी रहने िदया। समझ सकते हो िक
इसी म भलाई थी।’’
‘‘जी!’’ कुबेर ने वीकार िकया। िफर आगे कहा -
‘‘मातामह अब स य योजन बताएँ आगमन का।’’
‘‘हाँ! मुझे भी लगता है िक बात को घुमा िफरा कर कहने से प कहना ही उिचत
होगा।’’
‘‘जी! आपस म कूटनीित भली नह होती। प ता ही ेय कर है।’’
‘‘तो सुनो। तुम जानते ही हो िक यह लंका हमारी है।’’
‘‘मातामह आपक नह है, हाँ आपक बसाई हई अव य है।’’
‘‘म िकसी भी कारण से यिद अपना घर र छोड़ कर कुछ काल के िलये कह चला
जाऊँ तो आप उस पर अिधकार कर लगे। यह तो याय नह हआ।’’
‘‘मने बलात अिधकार नह कर िलया, मुझे िपतामह ा ने लंका को िफर से बसाने
का िनदश िदया था वही मने िकया। आपने भी िव कमा के ारा बनाई हई लंका पर अिधकार
िकया था।’’
‘‘आप भल
ू कर रहे ह लोकपाल! मुझसे वयं िव कमा ने ही कहा था लंका म िनवास
करने को।’’
‘‘इससे या अ तर पड़ता है मातामह? लंका का िनमाण आपने तो नह करवाया था। न
यह स पणू भिू म आपने य क थी। आपको भी यह अ यु ि थित म ा हयी और आपने इसे
अपनी राजधानी बना िलया। मुझे भी यह अ यु ि थित म ा हई और मने भी इसे अपनी
राजधानी बना िलया।’’
‘‘अ तर है लोकपाल! मने िव कमा से उिचत पा रतोिषक पर एक नवीन पुरी बसाने
का आ ह िकया था। उसने नवीन पुरी बसाने के थान पर मुझे यह पुरी दे दी। जबिक आपने इसे
कुछ काल के िलये िनजन देख कर इस पर अनिधकार आिधप य कर िलया। अब म चाहता हँ िक
इसे आप पुन: मेरे दौिह और अपने छोटे भाई को स प द। आप समथ ह, दूसरी पुरी बसा सकते ह
िक तु इसके पास दूसरी पुरी बसाने के संसाधन नह ह।’’
‘‘मातामह! दोन ि थितय म िभ नता है। यिद आप लंका वापस चाहते ह तो वह संभव
नह है। लंका मुझे िपतामह ा ने दी है। उनके िनदश पर मने इसे अपनी राजधानी बनाया है।
‘‘यिद रावण यहाँ रहना चाहता है तो वह मेरा अनुज है। म नैसिगक प से उसके
संर क क ि थत म हँ। उसका मेरी येक व तु पर इस नाते सहज अिधकार है। वह यहाँ मेरा
अनुज होने के नाते सदैव सािधकार िनवास कर सकता है। उसके िलये या बाधा है। या परू ा
प रवार एक साथ नह रह सकता? मुझे और मेरी प नी दोन को यिद ये यहाँ रहगे तो अ यंत
स नता होगी। आपने देखा ही होगा िक इनके आगमन से हम दोन िकतने स न थे।’’
‘‘आज अक मात् आप इसके संर क हो गये। अभी तक जब आपके इन िनरीह भाइय
को संर ण क आव यकता थी तब आप कहाँ थे? आज जब ये समथ ह तब आप इनके संर क
होने का दावा कर रहे ह।’’
‘‘मुझसे पहले इनके माता-िपता इनके संर क ह। ये अपनी माता के संर ण म थे तो म
कैसे इनका संर क होने का दावा कर सकता था?’’
‘‘आप माता सिहत इ ह अपने पास िनवास हे तु आमंि त कर सकते थे।’’
‘‘माता कभी यहाँ आत उनका सदैव वागत होता। कुबेर वाथ नह है मातामह!’’
‘‘ये सब कहने क बात ह, लोकपाल! आपने कभी िनमि त िकया होता तो माता
आत ।’’
‘‘आपका आ ेप िम या है मातामह! माता ने कभी मुझे पु वत वीकार करना चाहा ही
नह । मुझे कभी इनका भाई माना ही नह । ...’’
सुमाली ने बीच म कुछ कहना चाहा तो कुबेर ने हाथ उठाकर उसे रोक िदया और कहना
जारी रखा-
प कहँ तो उ ह ने तो इ ह िपता के संर ण म भी नह रहने िदया। वयं भी कूट
उ े य क पिू त हे तु ही वे िपता के साथ रह । उ े य पण
ू होते ही उ ह ने िपता को भी छोड़ िदया।’’
‘‘कुबेर तुम अपनी माता का और मेरा अपमान कर रहे हो।’’ सुमाली ने कहा। उसके
श द तीखे अव य थे िक तु वर पण ू त: संयत था।
‘‘नह मातामह! स य यही है। उ ह ने तो िपता से िववाह ही संभवत: आपक कूटनीित
के अनुसार िकया था और इसीिलये उ ह ने इ ह अ यंत अ प वयस म ही िपता के पास से आपके
पास पहँचा िदया।’’
‘‘नह कुबेर! तुम प रि थितय का अपनी सुिवधा के िलये अनुिचत िव े षण करना
चाह रहे हो। कैकसी ....’’
‘‘िवराम दीिजये मातामह। इस िवषय म तक से कोई लाभ नह है और उनका कोई
योजन भी नह है। तक मा कटुता ही उ प न करगे। हम इस िवषय को यह याग कर आगे
बढ़ते ह।’’
‘‘लोकपाल कैसे िवराम दे सकते ह। आप मेरी और मेरी पु ी क ित ा पर आघात कर
रहे ह। आपने यिद कभी मन से कैकसी को मातावत माना होता तो आप उसे अपने पास आमंि त
कर सकते थे। स य तो यह है िक आप कभी उससे या अपने भाइय से भट करने ही नह गये। वह
जब मुिन िव वा के आ म म थी तब भी नह और जब मेरे यहाँ आ गई थी तब भी नह ।’’
‘‘मातामह! ...’’
‘‘मेरी बात परू ी हो जाने दीिजये।’’ सुमाली ने कुबेर को बीच म ही रोकते हये कहा -
‘‘कैकसी तो आपको कभी भलीभाँित जान ही नह पाई। आप तो धनपित बनने म लगे हये थे। बस
औपचा रकता िनभाने कई-कई वष बाद आप अपने िपता से भट करने चले जाते थे। अब य िक
कैकसी भी वह थी तो एक भ पु ष के समान आप उससे भी स मान पवू क िमल लेते थे। आपने
कभी भी उससे िमलना चाहा ही नह । आपने तो कभी आमं ण का ताव तक नह िदया। वह
यिद अपनी ओर से ताव रखती तो आप यही कहते िक वह वाथवश ऐसा कर रही है?
धनपित! हम साधनहीन हो सकते है, आ मस मान से रिहत नह ह।’’
‘‘मातामह! आप मेरे भाइय को उकसा कर भाइय के म य कटुता उ प न करने का
यास कर रहे ह। भाइय म बैर के बीज रोप रहे ह। अ यथा इ ह मेरे साथ रहने म कोई आपि
नह होनी चािहये। म अकेला हँ यिद ये भी मेरे साथ आ जाते ह तो हम चार हो जायगे। हम िमल
कर सम त ि लोक पर आिधप य कर सकते ह।’’
‘‘उसके िलये मेरे दौिह को आपक सहायता क आव यकता नह है। ये अपने
पु षाथ से ि लोक िवजय करने क साम य रखते ह।’’
‘‘िफर इ ह ि लोक म इस छोटी सी लंका क आव यकता या है? य नह ये ि लोक
म जहाँ चाह अपना रा य थािपत कर लेते।’’
‘‘ ाता वह इसिलये िक लंका मेरे मातामह क है और उनका उ रािधकारी होने के नाते
इस पर मेरा याियक अिधकार बनता है।’’ इतनी देर से शाि त से यह सारा वातालाप सुन रहे
रावण ने अब अपनी उपि थित दज करायी।
‘‘मुझे मेरे िपतामह ने लंका स पी है। मने इतने वष तक इसे अपने पु षाथ से स प न
बनाया है। सबसे बड़ी बात आज इस पर मेरा अिधकार है। तुम छोटे भाई बन कर यहाँ रहना चाहो
तो तु हारा सदैव वागत है। िजतना मेरा अिधकार है म तु ह भी उतना ही अिधकार देने को सहष
तुत हँ िक तु मातामह का अिधकार लंका पर म कदािप वीकार नह कर सकता। जब तक
लंका म उनका रा य था, लंका उनक थी आज यह मेरी है।’’
‘‘ ाता आप भाइय म िव ह को योता दे रहे ह। आप समथ ह, आपके पास संसाधन ह
आप दूसरी पुरी बसा सकते है। बसा लीिजये। हम अभी समथ नह ह, िफर लंका से मातामह का
गाढ़ भावना मक नाता है, आप हम लंका स प य नह देते? हम आपके दूसरी पुरी बसाने
तक ती ा कर लगे।’’
‘‘रावण! तु हारे मातामह के समान ही मेरा भी लंका से भावना मक नाता है। इनके
नाते के धागे तो पुराने होकर जजर हो चुके ह। वे सहजता से टूट सकते ह। पर मेरी भावना के
धागे तो अभी पणू प से सु ढ़ ह। यिद मातामह अपने धागे नह तोड़ सकते तो म कैसे तोड़ दँू?
रही बात अलग पुरी बसाने क तो संसाधन म उपल ध करा दँूगा, तुम बसा सकते हो नई पुरी।
इससे भी भ य पुरी।’’
‘‘तो आप नह मानगे, भले ही हम भाइय म सदैव के िलये नेह के थान पर ेष के
नाते बन जाय?’’
‘‘तुम समझने का यास य नह कर रहे हो व स! म तो तु ह यहाँ अपने बराबर
अिधकार दे कर यहाँ िनवास करने का योता दे रहा हँ। तुम अगर अलग पुरी बसाना चाहो तो
उसके िलये भी तु ह परू ी सहायता देने को सहष त पर हँ तब िफर तुम य हठ पाले हो?’’
‘‘हम हठ पाले ह भाई! या यह आपक हठधम है।’’
‘‘ या???? वयं हठ पर अड़े हो और मुझ पर आरोप लगा रहे हो। यह तो पौल य को
शोभा नह देता।’’
‘‘बस! बहत हो गया।’’ रावण के सारे मातुल वभाववश ोध म आ गये थे िक तु जैसा
िक चलते ही सुमाली ने िनिद िकया था िक इस अिभयान का परू ा नेत ृ व रावण करे गा, वे
िववशता म िकसी भाँित वयं को िनयंि त िकये बैठे थे। बार-बार उनके हाथ कमर म बँधी
तलवार क मठ ू तक जाते थे और वे वापस ख च लेते थे। अब व मुि से सहन नह हआ। वह
आवेश म खड़ा होकर बोल ही पड़ा - ‘‘तुम यु को िनमं ण दे रहे हो कुबेर!’’
‘‘मातुल! बैठ जाय।’’ रावण का वर कठोर हो गया था। ‘‘ये मेरे अ ज ह। म िकसी को
इनके साथ अिश ता क अनुमित नह दे सकता। आपको भी नह ।’’
व मुि का आवेश झाग क तरह बैठ गया। वह चुपचाप अपने थान पर बैठ गया।
‘ या सोच कर िपत ृ य ने इस डरपोक को अिभयान का नेत ृ व स प िदया है।’
िफर रावण कुबेर से संबोिधत हआ -
‘‘ ाता! मातुल क अिश ता के िलये म मा ाथ हँ। अब इनम से कोई नह बोलेगा।’’
‘‘कोई बात नह । ये मेरे भी ये ह। मने इनक बात का बुरा नह माना।’’
‘‘ ाता! आपने अभी िपता का उ लेख िकया था। य न हम िनणय उनके ही हाथ म
स प द? वे जो िनणय दे दगे वह दोन ही भाई मान लगे।’’ सुमाली ने जो बात रा ते म कही थ
उ ह ि गत रखते हये रावण ने बहत बड़ा दाँव फका था। मातामह का िव ास अगर सच
सािबत हआ तो आगे असीिमत गित का माग सहज ही खुल जाना था। ‘िक तु यिद दाँव उ टा
पड़ गया तो???’ पर अब िवचार करने का समय नह था। पु षाथ मनु य जो हो गया उस पर
पछताते नह , आगे क सोचते ह। अपने पु षाथ से िबगड़ी को िफर सँवारने का यास करते ह।
‘‘उिचत है। मुझे ताव वीकार है।’’
सुमाली ने एक दीघ िनः ास ली, जैसे उसके सीने पर से बड़ा भारी बोझ हट गया हो।
वह रावण क वाकपटुता से स न था। उसे अब भी परू ा िव ास था िक रावण ने सही चाल चली
थी।
30. इ अह या के पास
देविष क योजना अंतत: इ को समझ म आ गयी थी। यह तो वह पहले ही जानते थे
िक एक बार तो रावण से पराजय वीकार करनी ही होगी, िक तु उनका देवे होने का दंभ इसे
वीकार करने को त पर नह हो पा रहा था। नारद क योजना सुनकर जो हताशा का भाव घुन
बन कर भीतर ही भीतर उनके पौ ष को खाये जा रहा था उससे उ ह बड़ी हद तक मुि िमल
गयी थी और वे देविष क योजना पर अमल करने को त पर हो गये थे।
नारद क योजना थी िक बड़ी सं या म ऋिषय के आ म द डकार य म थािपत ह
और उन आ म के मा यम से देव ारा उस े के वनवािसय को इस भाँित िशि त िकया
जाये िक वे रावण के कटक से लोहा लेने म समथ हो सक। इन वनवािसय के पौ ष से देव भी
अप रिचत नह थे।
इ और देव लग गये थे इस योजना के ि या वयन म। महिष अग य ने सहयोग
देना वीकार कर िलया था। इसी संबंध म इ आज महिष गौतम से भट करने िमिथला के
िकनारे उनके आ म आये थे।
गौतम ऋिष का आ म, आ म ही था, गु कुल नह था। गु कुल नह था इसिलये वह
बहत बड़ा भी नह था िफर भी कई बीघे े फल म फै ला हआ था। आ म के तीन ओर निदय
ारा बनाई गयी गहरी खाई ं थी और उसके तुर त बाद पवत शंखृ लाएँ थ जो आगे जाकर
िहमा छािदत ंखलाओं से जुड़ जाती थ । आ म म वेश करते ही सुवािसत पु प से आ छािदत
लतागु म ने इ का वागत िकया। उसका मन स न हो गया। वह इ ह पार कर आगे बढ़ता
गया। आगे िवशाल मैदान म पाँच-छ: गौय िवचर रही थ । उसके आगे एक िवशाल य शाला को
घेरे सात-आठ कुटीर बने हये थे।
य शाला के पास जब इ पहँचे तो वहाँ उपि थत चार मुिनय ने उ ह पहचान कर
अिभवादन िकया। इ ने भी यथोिचत रीित से अिभवादन का उ र िदया। िफर पछ
ू ा-
‘‘महिष या अपनी कुटी पर ह?’’
‘‘नह देवे ! ऋिषवर तो आज आ म पर ही नह ह।’’
‘‘कहाँ गये ह?’’
‘‘यह तो नह पता। स भवत: ात: तक आ जायगे।’’
‘‘अ छा देवी अह या?’’
‘‘वे तो ह गी कुटी म। बस य शाला के िकनारे यह पहली कुटी उ ह क है।’’ एक मुिन
ने हाथ उठाकर कुटी क ओर इशारा करते हये कहा।
इ ने आभार य िकया और बताये अनुसार बढ़ चले।
ऋिष गौतम क कुिटया एक चौकोर सा िनमाण था। आगे क ओर लगभग डे ढ़ हाथ
ू रा था िजसपर परू े पर छ पर पड़ा हआ था। छ पर पीछे से एक बारह-तेरह हाथ ऊँची
ऊँचा चबत
क ची दीवाल पर और आगे क ओर व ृ के पतले तन पर िटका हआ था। पीछे क दीवाल म
तीन खुले ार थे।
कुिटया पर पहँच कर इ ने बाहर से ही आवाज दी
‘‘ऋिषवर!!!’’
आवाज के साथ ही एक ऋिषका (मिहला ऋिष या ऋिष प नी) ने बाहर झाँका -
‘‘अरे देवराज! आइये।’’
इ ने उसके आवाहन के साथ ही भीतर वेश करते हये उसे णाम िकया। इ ने
सोचा यह कौन है, यह तो अह या नह है। अह या पर तो वह बहत पहले से, उसके िववाह के पवू
से ही मोिहत है। यह कोई पतालीस वष क ऋिषका थी। साधारण ेत सत ू ी धोती और वैसी ही
ेत कंचुक म मनभावन लग रही थी। उसने इ को छ पर म पड़े कुश के आसन म से एक पर
बैठने का संकेत करते हये वयं ही उसे संशय से उबारते हये कहा -
‘‘ऋिषवर तो नह ह देवे ! संभवत: ात: तक आयगे, िक तु आप बैिठये म देवी को
सच
ू ना करती हँ।’’
‘‘जी!’’
िक तु ऋिषका के जाने से पवू ही भीतर से आवाज आई -
‘‘अ यागत कौन है सुक ित?’’
इ के कान म जैसे घि टयाँ सी बजने लग । जलतरं ग सा मधुर वर था। ये िन य ही
देवी अह या थ ।
‘‘ वयं देवे ह माता!’’ सुक ित य िप अह या से वयस म बड़ी थी िक तु अह या
गु प नी होने के नाते आ म म सभी के िलये माता का थान रखती थी। सभी उसे वैसा ही
स मान देते थे और वह भी सबको उसी भाँित नेह दान करती थी।
सुक ित के उ र के साथ ही जैसे अह या बाहर आ गयी।
‘‘अहोभा य आ म के जो वयं देवे ने दशन िदये। अरे आप अभी तक खड़े ही ह,
आसन तो हण क िजये। देवे यहाँ वग जैसी र नजिटत सुकोमल पीिठकाएँ नह िमलगी,
इ ह कुशासन पर बैठना पड़े गा।’’
इ अह या को देख कर जैसे स मोिहत सा हो गया था। कुछ पल उसे चेत ही नह रहा
िक वह कहाँ है और य है, वह बस िनिनमेष अह या का मुख ताक रहा था। आज इतने वष बाद
भी अह या का देह सौ व वैसा ही था जैसा उसने उसके िववाह से पवू देखा था, जब वह उसे ा
करने का इ छुक था य िक उसका मानना था िक ि लोक क येक सव े व तु पर देवराज
होने के नाते उसका नैसिगक अिधकार है। िक तु िपतामह ने उसे देने के थान पर अह या का
गौतम से प रणय करवा िदया था। उ ह गौतम से िजनके पास कभी बा याव था म वह पा या के
प म रह चुक थी।
देवी के इस िनमल िवनोद से उसे चेत हआ। वह थोड़ा संकुिचत हो गया िक तु साथ ही
उसे णाम क औपचा रकता का भी भान हआ। उसने आगे बढ़ कर कुछ हाथ दूर से ही भिू म को
पश कर देवी का चरण वंदन िकया और िफर अपना उ रीय सँभालता हआ इंिगत कुशासन पर
आकर खड़ा हो गया -
‘‘आप भी तो बैिठये देवी!’’
‘‘अरे आप अितिथ ह देवे !’’ िफर यह देख कर िक इ उसके बैठने क ती ा म
खड़ा है, हँसती हई बोली -
‘‘अ छा लीिजये बैठती हँ, आप भी बैिठये।’’
दोन बैठ गये। इ अब भी स मोिहत था। आह! या वर था, या प था? वग म भी
दुलभ है ऐसा प तो। बड़ी-बड़ी आँख क नील-झील म जैसे इ अवश डूबता जा रहा था। मुख
का एक-एक अवयव अनुपम था। सुक ित क भाँित ही अह या भी ेत धोती और ेत कंचुक
पहने थी जो उसके खर यौवन को िछपा नह पा रही थ । उसक अव था िनि त ही पतीस वष
के लगभग होगी। वह शतान द िजतने बड़े पु क माता है, िक तु आज भी उसके यौवन म वही
ि न ता है जो एक षोडषी म होती है। कह से भी िशिथलता नह आई है। अह या बैठ गयी तो
उसक सिपल वेणी हाथ भर भिू म पर फै ल गयी मानो काली नािगन मुख चं क सुर ा म फन
उठाये खड़ी हो। इ पुन: वशीभतू सा उसे ताक रहा था।
‘‘ या देख रहे ह देवे ?’’ अह या ने उसक ि को ल य कर िलया था। वह अपनी
वेणी को िसर पर जड़ ू े क भाँित बाँधती हई बोली। इस ि या म उसका यौवन और उभर आया था।
इ को पु पशर ने परू ी तरह आहत कर िदया था। िफर भी उसने िकसी तरह अपनी
ि हटाई। जैसे चोरी पकड़ ली गयी हो इस कार संकुिचत होता हआ बोला -
‘‘देवी आपक अिनं परािश म स मोहन ही ऐसा है जो ि को अवश कर देता है।’’
‘‘ऐसा देवे ?’’ एक सल ज ि मत के साथ अह या बोली ‘‘ य उपहास करते ह?
वग तो सिृ क सव े सु द रय से भरा हआ है। आपने ही िकतने कामजयी तपि वओं क
तप या भंग कराई है अपनी अ सराओं के मा यम से।’’
‘‘नह देवी! म िम या भाषण नह कर रहा। वग म कोई भी सु दरी आपक छाया भी
नह है।’’ इ को संतोष था िक अह या उसक ि क हठधिमता से कुिपत नह हई थी। यिद
कह वह कुिपत हो जाती तो उसके तेज के सामने इ के पास अपमािनत होकर भागने के िसवा
कोई माग नह बचता।
‘‘अ छा चिलये, मान ली आपक बात! अब आगमन का योजन तो बताइये!’’ वैसी ही
िनमल-सल ज ि मत के साथ अह या ने कहा।
‘‘कोई िवशेष नह देवी! इधर से िनकल रहा था तो सोचा ऋिषवर के दशन करता
चलँ।ू ’’
‘‘ऋिषवर तो आपको ात हो ही गया होगा आज आ म पर नह ह। आज िकये यह ,
ात: आ जायगे वे भी।’’
इसी बीच सुक ित एक पा म दूध ले आई थी। उसने वह इ को पकड़ा िदया और
हँसती हई बोली -
‘‘देवे यहाँ आ म पर आपको छ पन भोग तो नह िमल पायगे िक तु आ म क
गौओं का यह दु ध आपको उन सबसे वािद लगेगा।’’
ृ है, इससे े तो वग म भी
‘‘अरे देवी य संकुिचत करती ह इ को। यह तो अमत
कुछ नह िमलता। और िफर इसे तो आपके और देवी के नेह के मधु ने और भी वािद बना
िदया है।’’ इ ने पा लेकर दूध पीते हये कहा।
‘‘और लाऊँ देवराज?’’
‘‘अरे नह ! बस पया है। या आप भी इसी कुिटया म रहती ह देवी?’’
‘‘नह देवराज! सुक ित यहाँ मेरी सहायता के िलये आ जाती है। िदन ढलते ही यह
अपनी कुिटया पर चली जाती है। इसे अपना प रवार भी तो देखना होता है।’’ उ र अह या ने
िदया। सुक ित इ के हाथ से खाली पा लेकर िफर भीतर चली गयी थी।
‘‘तो यहाँ आप एकाक ही होती ह, भय नह लगता?’’
‘‘भय?’’ अह या हँस पड़ी, जैसे अटखेिलयाँ करता कोई िनझर वािहत हो उठा हो-
‘‘िकससे देवराज? यह तो आ म है कोई नगर नह जहाँ चोर-लुटेर का भय हो! और िफर चोर-
लुटेरे भी यहाँ से या ले जायगे, यहाँ या स पदा रखी है? ऋिषवर का याय-दशन तो उनके
िकसी काम आने से रहा!’’ हँसते हये अह या बोली।
‘‘व य-पशु तो आ ही सकते ह देवी!’’
‘‘ऋिषवर का ताप इतना है देवराज! िक िहं व य-पशु भी इस आ म क सीमा म
आकर पालतू हो जाते ह। वैसे भी इस े म िहं पशु नह ह - कभी िदखाई ही नह िदये।’’
‘‘जी देवी! स य कहा आपने व य-पशु भी आ म क मयादा का पालन करते ह।’’
कुछ पल दोन मौन रहे िफर अह या ने िकया -
‘‘देवे यिद आगमन का योजन बताएँ तो संभवत: अह या ही कुछ सहायता कर
सके।’’
‘‘कोई िवशेष योजन नह । िनकट भिव य म रावण से संभािवत यु के िलये तैया रय
के संबंध म देविष ने एक काययोजना बनाई है, उसी के संबंध म महिष से परामश करना था और
सहयोग का िनवेदन करना था।’’
‘‘ या काययोजना बनाई है देविष ने?’’
‘‘यही िक द डकार य े म ऋिषगण अपने आ म थािपत कर और उन आ म के
मा यम से ऋिष और देव िमलकर उस े के वनवािसय को िशि त- िशि त कर। यही
िशि त वनवासी भिव य म रावण को परा त करने म सहयोग करगे।’’
‘‘योजना तो अ छी है देवराज! िक तु या वनवासी ही स पण
ू दािय व िनभायगे
अिभयान म, आय जगत अलग हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे गा?’’
‘‘नह देवी! नेत ृ व तो िकसी महान आय-पु ष के हाथ म ही रहे गा िक तु शेष दािय व
ये वनवासी ही िनभायगे।’’ इ ने कहा, िफर अचानक उठकर बोला - ‘‘अ छा अब आ ा द देवी!
िफर िकसी िदन ऋिषवर से भट क ँ गा।’’
िकये, ात: ऋिषवर से भट करके ही जाय। आ म म भले ही िवलास के साधन नह ह
िक तु िन य मािनये यहाँ आपको कोई क नह होगा।’’
‘‘क क कोई बात नह है देवी! आपका स मोहन ऐसा है िक उसके वशीभत
ू यि
को और कुछ अनुभव ही नह होता है।’’ इन प रि थितय म भी इ को अपने मनोभाव पर
िनयं ण नह था। िवलास उसक कृित म ऐसा समा गया था िक प लाव य देखते ही वह सब
कुछ भल
ू जाता था।
‘‘देवराज क शंसा पाकर अह या गौरवाि वत है िक तु यह आपका वग नह है, यहाँ
उ छृंखलता के िलये थान नह है। िनवेदन है िक यहाँ के वातावरण क साि वकता को बनाये
रख यही अह या के और आपके दोन के िहत म होगा।’’
‘‘देवी म समझ रहा हँ आपक बात िक तु या क ँ अवश हँ। इसीिलये तो आ ा माँग
रहा हँ।’’
‘‘जैसी आपक इ छा!’’

इ अह या से अनुमित लेकर चला तो आया िक तु अपना दय वह छोड़ आया था।


यान म बैठे-बैठे वह बस अह या के िवषय म ही सोचता रहा। िजतना अिधक वह इस िवषय म
सोच रहा था उतना ही अवश होता जा रहा था, उसे समझ नह आ रहा था या करे । उसने यान
को इतना ऊपर उठा िलया िक अब वह धरती से िदखाई नह पड़ सकता था। सरू ज ढल गया,
िनशा का आगमन हो गया िफर अ ् धराि भी हो गयी िक तु इ का यान अभी भी ऊपर
आकाश म अह या के आ म के चार ओर च कर काट रहा था। उस यान म एकाक , काम-
िवमोिहत इ यान क ही भाँित च कर काट रहा था। न द उससे कोस दूर चली गयी थी। यान
अपनी िनधा रत गित से िनधा रत प रिध म च कर काट रहा था, उसे संचािलत करने क कोई
आव यकता नह थी, वह ई ंधन रहने तक यं ू ही घम
ू ता रह सकता था।
अंतत: इ क वासना ने उसके िववेक को परा त कर ही िदया। वह सोच रहा था -
‘कोई या जान पायेगा यिद वह इस समय छुप कर िकसी मुिन के वेश म आ म म
पहँच जाये। सब तो सो रहे ह गे। अह या भी अपनी कुिटया म एकाक होगी, मुिनवर तो ह नह ।
सुक ित भी नह होगी इस समय। िफर सारे कुटीर िकतनी दूर-दूर पर ह - िकसी को इस
अ ् धराि म या पता चलेगा। िफर जो होगा सो देखा जायेगा - अब इ नह रह सकता अह या
के िबना।’
उसने यान म ही िकसी मुिन का सा वेश धारण िकया। अिधक कुछ करना ही नह था
बस अपने राजसी व ाभषू ण उतार कर साधारण ेत व ही तो धारण करने थे। केश को थोड़े
यास से िसर पर जटाओं क भाँित बाँध िलया - ‘राि के अंधकार म कौन देख पायेगा?’ इतनी
तैयारी के बाद उसने अपना यान आ म से थोड़ी दूर पर व ृ के झुरमुट म उतार िदया और
छुपता-छुपाता चल िदया अह या से णय िनवेदन करने। उसे िव ास था िक अह या उसका
िनवेदन अ वीकार नह करे गी। उसक वासनामय सोच क तरं ग उसे उ सािहत कर रही थ -
‘वह भी िन य ही देवराज से भािवत है - उसका एक-एक आचरण इस स य को
मािणत रहा है। कैसे ल जा से हँस रही थी? कैसे उसके यौवन-कलश पर अटक मेरी ि का
उसने बुरा नह माना था अिपतु आ हािदत ही हई थी। संसार म कौन सी ऐसी पगिवता नारी है
जो देवे के स मोहन से बच पाये।’
सच ही कहा गया है िक जुआरी को बस अपना ही दाँव नजर आता है। वैसे देवे अपनी
सोच म िकसी हद तक सही भी था। िनि त ही अह या उससे भािवत थी। वह भी इस बात से
आ हािदत ही थी िक देवराज उसके प-यौवन से िकस कार स मोिहत हो गये थे।
31. रावण लंके र
जैसी िक सुमाली को अपे ा थी, िपता िव वा का िनणय रावण के प म आया था।
दूसरे िदन ात: ही यह परू ा कुटु ब कुबेर के साथ पु पक म बैठकर िव वा के पास गया
था। उ ह ने परू ी बात समझी और बोले- ‘‘म दोन से पथ ृ क-पथृ क एका त म बात करना चाहता
हँ।’’
पहले रावण से बात हई। िव वा ने उसे तभी देखा था जब वह दुधमुहाँ ब चा था। आज
उसको इस पण ू िवकिसत अव था म देख कर उ ह स नता हई। उसे नेह से सीने से लगा
िलया। िफर वे धीरे से िवषय पर आये -
‘‘पु कुबेर तु हारा भाई है। उसके साथ समान अिधकार से रहने म असुिवधा या है?’’
‘‘िपता! ऐसा कैसे संभव है? भाई कुबेर के साथ हम सब क ि थित अनुगत क ही तो
रहे गी। हमारा वतं अि त व या रह जायेगा?’’
‘‘ य ? आिखर इसम ऐसी किठनाई या है? िपता के यवसाय को ाय: सारे भाई
िमलकर ही सँभालते ह, और उसे नई ऊँचाइय पर ले जाते ह। वहाँ सबका समान वािम व होता
है।’’
‘‘िक तु िपता यहाँ ऐसा तो नह है। यह रावण के िपता का यवसाय तो नह है, यह
सा ा य भी रावण के िपता का नह है। यिद यह सब आपका होता तो रावण का इसम सहज अंश
होता िक तु यह सब तो भाई के अनुसार उसका ही है। िपता ने तो कभी भाई के सा ा य को
आँख भर कर देखा भी नह होगा। यह िपता का होता तो रावण भाई का ताव वीकार कर
लेता िक तु यह तो भाई का िनतांत यि गत है। उसने वहाँ सब कुछ अपने अनुसार थािपत
िकया है। ऐसे म रावण वहाँ पणू त: अ ासंिगक ही होगा। वह भाई क दया पर आि त यि जैसा
जीवन यतीत करे गा और इसके िलये रावण कदािप तुत नह है।’’
‘‘ऐसा य होगा, जब कुबेर वयं तु ह आ त कर रहा है अपने समान अिधकार देने
के िलये?’’
‘‘िपता! भाई यिद मन से चाह भी तो भी ऐसा नह हो पायेगा।’’
‘‘ य ?’’
‘‘भाई के सा ा य म सब कुछ भाई ारा, उसक वयं क सुिवधा और िहत के िलये
थािपत है। वह एक ऐसा यं है िजसम येग अंग-उपांग अपने िनधा रत थान पर अपना काय
कर रहा है। और सुचा प से काय कर रहा है। कोई थान शेष ही नह है जहाँ रावण और
उसके भाइय को समायोिजत िकया जाय। िफर रावण के मातामह और मातुल को तो कह पर भी
समायोिजत कर पाना संभव ही नह है। उ ह समायोिजत िकया जायेगा भी तो अिन छा से। िकसी
अवांि त अितिथ क भाँित ही उनके भरण-पोषण क यव था होती रहे गी पर उसे उनका
वािभमान कैसे वीकार कर सकेगा, आप ही बताइये?’’
‘‘तुम अनाव यक प से स भावनाओं का िवकृत िन पण कर रहे हो। ऐसा कुछ भी
नह होगा। कुबेर तु हारे सभी के िलये अपने समान ही स मानजनक यव था करे गा! वह
आ ासन दे तो रहा है।’’
‘‘नह िपता! ऐसा नह है। जैसे येक राजसभा म कुछ ऐसे सभासद भी होते ह िजनका
काय मा राजा क शंसा करना ही होता है। िव जन के सम उनक ि थित िवदूषकवत् ही
होती है। रावण क ि थित भी भाई क राजसभा म कुछ वैसी ही हो जायेगी। और मातामह व
मातुल क ि थित तो उससे भी हा या पद होगी। या आपको लगता है िक आपका पु ऐसी
ि थितय के साथ सामंज य िबठा पायेगा। या आप वयं ही दय से अपने पु को ऐसी
ि थितय से सामंज य िबठाने का यास करने का परामश दगे?’’
‘‘ऐसी ि थितय के साथ कोई भी आ मािभमानी यि सामंज य नह िबठा सकता। म
अपने पु को ऐसा परामश कैसे दे सकता हँ? िक तु पु मुझे िव ास है िक ऐसा नह होगा।
कुबेर भी मेरा ही पु है। वह ऐसी ि थित नह आने देगा।’’
‘‘रहना तो ऐसे ही होगा िपता! रावण म िव वा और कैकसी का र है, दोन ही पण

वािभमानी ह। रावण परजीवी क भाँित पड़ा-पड़ा नह खा सकता। नह रह सकता।’’
‘‘परजीवी क भाँित य पड़ा रहे रावण? जो भी दािय व वह उिचत समझे या जो भी
दािय व कुबेर उसके िलये िनधा रत करे उसका िनवहन करे !’’
‘‘ येक दािय व को तो उिचत यि ने पहले ही उठाया हआ है। मने कहा न िक यं
का येक अंग-उपांग अपने थान पर परू ी कुशलता से काय कर रहा है।’’
‘‘हँ ....’’
‘‘इसके साथ ही एक त य और भी तो है। भाई का सा ा य कहने के िलये है। व तुत: तो
भाई आज िव के सबसे बड़े धनपित ह। उ ह तो धन का वामी ही मान िलया गया है। वे थमत:
यवसायी ह, विणक ह। उनके रा य म वही काय ह। दूसरी ओर रावण ा ण यो ा है, उसम
विणक बुि है ही कहाँ जो भाई के सा ा य म कोई दािय व कुशलता से िनभा सके। रावण के
मातुल क ि थित तो और भी हा या पद हो जायेगी। वे तो मा खड्ग क भाषा ही जानते ह।’’
िव वा कुछ देर सोचते रहे । ऐसा लग रहा था िक रावण के तक उ ह भािवत कर रहे थे।
िफर भी उ ह ने समझाने का यास िकया -
‘‘सोच लो पु ! कुबेर क बात मान लेने से तु ह जीवन के उतार-चढ़ाव से नह जझ
ू ना
पड़े गा। सहजता से तुम उ कष को ा करोगे। इसके िवपरीत यिद लंका तु ह दे दी जाती है तो
तु ह सब कुछ नये िसरे से बसाना पड़े गा। सारा यवसाय जो कुबेर ने थािपत िकया है वह तो
उसी के साथ चला जाएगा। लंका क सारी स प नता भी उसी के साथ चली जायेगी। लंका के
अिधकांश स प न यवसायी भी संभवत: उसी के साथ चले जायगे। शेष बची जा के भरण-
पोषण क भी तु ह नये िसरे से यव था करनी पड़े गी। अ यंत दु ह होगा यह काय।’’
रावण स न हो गया। िपता के इस वा य से उसे जो शंका थी वह िमट गयी थी। उसे
िव ास हो गया िक मातामह का िव े षण सही सािबत हो रहा था। िपता उसके प म आ गये थे।
उसने परू े आ मिव ास से कहा -
‘‘िपता रावण को अवसर तो दीिजये वयं को िस करने का। वह आपक क ित को
कलंक नह लगने देगा। वह लंका क समिृ म इतनी अिभविृ कर िदखायेगा िजतनी ाता
कुबेर ने कभी सोची भी नह होगी।’’
‘‘ठीक है, मान लेता हँ तु हारी बात िक तु अभी इसे िनणय मत मान लेना। अभी मुझे
कुबेर से भी बात करनी है। उसके तक भी सुनने-समझने ह। देखता हँ वह या कहता है ...।’’
कुबेर क ओर से िपता को अिधक ितरोध का सामना नह करना पड़ा। वह यो ा से
पवू यवसायी था। वह कभी झगड़ा नह चाहता था। झगड़ा यवसाय को चौपट कर देता है और
ऐसी प रि थित वह वीकार नह कर सकता था। जब तक बात केवल रावण या सुमाली क थी,
उसके आ मस मान का था। वह लंका को छोड़ना वीकार नह कर सकता था। िक तु अब
िपता क आ ा उसके िलये एक ढाल के समान थी। बड़ पन िदखाने का अवसर था। उसने
ताव वीकार कर िलया और लंका से अपना सारा तामझाम समेटने लगा।
उसने कुछ महीन का समय माँगा जो देने म रावण को कोई आपि नह थी। बि क यह
तो उसके िलये भी िहतकर था। यिद कुबेर उसे लंका तुरत ही स प देता तो शायद यापार िवहीन
लंका का भरण-पोषण कर पाना उसके िलये भी संभव नह हो पाता। भख ू ी जा िव ोह भी कर
सकती थी, िजसे सँभालना आसान नह होता। रावण को राज-काज सँभालने का कोई अनुभव तो
था नह । राज-काज या उसे तो कैसा भी अनुभव नह था। वह तो साधना से उठकर सीधे लंका
के राजिसंहासन पर जाने वाला था। इसिलये उसे भी समय चािहये था नीितगत िचंतन के िलये।
मातुल पर वह अ यिधक िनभर नह रहना चाहता था। वह जानता था िक यह सब काय उनके
बस का नह था। मातामह और ह त पर ही वह िकसी हद तक भरोसा कर सकता था िक वे
उसके सहायक िस ह गे। कुंभकण तो ज मजात आलसी था, उससे तो कोई आसरा था ही नह ।
उसका योग बस यु काल म ही हो सकता था जो अभी रावण कतई नह चाहता था। िवभीषण
बहत छोटा था साथ ही िपता क संगित म अिधक रहा होने के कारण उसम तपि वय वाले
सं कार अिधक थे जो िक रा य संचालन के िलये सवथा अनुपयु थे।
अंतत: यही तय हआ िक कुबेर छह माह क समयाविध म लंका से अपना सम त
यवसाय समेट कर लंका छोड़ देगा और कैलाश पर अलकापुरी के नाम से अपना पथ
ृ क रा य
थािपत करे गा। तब तक रावणािद लंका म ही रहकर लंका को समझगे और कुबेर के जाने के
बाद वत: सम त लंका के वामी हो जायगे।
ा के िसखाये रावण ने मानिसक और आि मक शि य का अपवू िवकास कर िलया
था। वह परू ी गंभीरता से लंका क प रि थितय को समझने लगा। सुमाली और ह त के साथ
िमलकर भिव य क काय णाली तय करने लगा - िकस कार लंका के िबखरे हये यवसाय को
पुन: थािपत करना है साथ ही उपि थत होने को त पर आिथक सम याओं का िनदान िकस
कार करना है। कुबेर के सभी मंि य और मुख सहयोिगय ने उसी के साथ जाना तय िकया
था। उ ह अभी रावण क मताओं पर िव ास नह था िक तु िनचले तर के सभी किमय के
िलये यह संभव नह था। उनम से अिधकांश ने लंका म ही रहने का िन य िकया था। यह रावण
के िलये बड़ी तस ली क बात थी। उसने अपने सभी मातुल को ऐसे कमचा रय के साथ लगा
िदया, शासिनक व अ य यव थाएँ समझने के िलये। लगभग समच ू ी जा ने लंका म ही रहना
तय िकया था। वभावत: उ ह अपनी ज मभिू म से लगाव था। वे उसे िकसी मू य पर छोड़ने को
तैयार नह थे। उनके िलये अलकापुरी म बसना आसान भी नह था। जैसा िक सुना जा रहा था
अलकापुरी का े एक पण ू त: िभ न कार क जयवायु का देश था। आम जनता के पास इतने
संसाधन नह होते िक ऐसे देश के साथ सहजता से सामंज य िबठा सक। िफर उनके खेत यह
थे, स पि यह थी, व ृ यह थे, वे इ ह िकसके भरोसे छोड़ जाते और छोड़ भी जाते तो या
अलकापुरी म उ ह इनके थान पर दूसरे खेत, स पि , व ृ िमलने वाले थे? उ ह परू ा भरोसा
नह था। यिद िमल भी जाते तो वे उ ह िकस कार सँभालते, इस संबंध म अपनी मताओं पर भी
उ ह भरोसा नह था। कुछ भी हो रावण तो अब एक कार से लंके र बन ही गया था।
32. गौतम का ाप
अभी बाल-रिव का आगमन नह हआ था। हाँ कुछ ही देर म ाची म उनके आगमन का
पवू -संदेश लेकर उनक मरीिचयाँ सुनहरी िलिप से भाती िलखना आरं भ कर दगी। िफर धीरे -धीरे
ाची से आगे बढ़कर स पण ू जगत को अपने भाव म ले लगी।
महिष गौतम अपने आ म क ओर बढ़े चले जा रहे थे। महिष के पु शतान द महाराज
जनक के राजपुरोिहत हो गये थे, उ ह से कुछ आव यक परामश करने हे तु महिष जनकपुरी
गये थे। वहाँ से वे राि के तीसरे हर म ही चल िदये थे तािक ात: उनक िनयिमत िदनचया म
कोई यवधान न आये। माग म उ ह ने आ म से थोड़ी दूर पर ही ि थत नदी म नान िकया िफर
चढ़ाई चढ़ते हये आ म क ओर बढ़ चले। उनके व अभी भी गीले थे। वातावरण म पया
शीतलता थी िक तु महिष उससे अ भािवत अपनी गित से बढ़ते चले आ रहे थे। उ ह शीत और
ी म दोन को ही सहने का पया अ यास था। ये उनके योगा यासी शरीर को यिथत नह
करते थे।
आ म के ार के पास ही उ ह कोई मुिन वेशधारी आकृित िदखाई पड़ी। पता नह य
उ ह लगा िक वह आकृित अपने को िछपाते हये आगे बढ़ रही है। उ ह आ य हआ िक यहाँ उनके
आ म म िछप कर आने-जाने क िकसी को या आव यकता पड़ गयी? उनका आ म तो
सबका वागत ही करता है। कुतहू लवश वे एक व ृ के पीछे िछप गये और आग तुक के िनकट
आने क ती ा करने लगे।
आग तुक कुछ िनकट आया तो ऋिषवर ने प पहचाना उसे। ‘अरे यह तो देवराज
इ ह। िक तु ये मुिनवेश म और इस समय वह भी कुछ भयभीत से जैसे कोई अनथ करके आये
ह । और ये वयं को िछपाने का यास य कर रहे ह? देवे को िछपने क या आव यकता
है? वे तो सव सहज वागतयो य ह? अव य कुछ अघटनीय घिटत हआ है।’ गौतम का मन
आशंिकत हो उठा। उ ह मरण हआ िक इ अह या से िववाह करना चाहते थे। उ ह ने ा से
इस िवषय म िनवेदन भी िकया था। कह ... उनक आशंका और ती हो गयी। उ ह ने अपनी
आँख ब द क और यान थ हो गये। पल भर म सारा घटना म उनक ब द आँख के सामने से
गुजर गया।
महिष को सामा यत: ोध नह आता था िक तु इ के इस अनैितक कृ य से और
उस कृ य म अह या क मौन सहमित ने अचानक उनके िववेक का जैसे हरण कर िलया। वे
ोध म एकदम से चीख पड़े -
‘‘देवे !!!!’’
इ ू ा। उसी ण ऋिषवर के
उनक आवाज सुन कर च क कर आवाज क िदशा म घम
ू ता हआ आया और िकसी भाले क तरह इ क जंघाओं के
हाथ म थमा द ड अ यंत वेग से घम
जोड़ से टकराया। इ भयानक आतनाद करता हआ अपने थान पर बैठ गया। उसका अधोव
र से रं िजत होने लगा था। िफर िकसी तरह सारी शि संजोकर इ उठा और अपने दोन
हाथ से घायल थल को दबाये, लंगड़ाता हआ अपने यान क ओर भाग िलया।
गौतम ने उसका पीछा करने का कोई यास नह िकया। िक तु उनका फुफकारता हआ
वर उसका पीछा करता रहा -
‘‘नीच! नराधम! महिष क यप के कुल को लजाने वाले भिव य म अब तू िकसी के
साथ रमण करने यो य नह रहे गा। मुझे ात है तेरा अंडकोष िवदीण हो गया है। भाग जा कायर!
दुबारा कभी मुझे अपनी सरू त मत िदखाना।’’
इ कुछ भी उ र देने के िलये नह का। वह सीधा अपने यान क ओर गया और
उसम बैठ कर भाग िलया। उसे बस एक ही बात सझ
ू रही थी िक चेतना खोने से पवू उसे देवलोक
म पहँचकर अपना उिचत उपचार करवाना है अ यथा ऋिषवर का कथन स य हो जायेगा। वह
स य ही िकसी से रमण करने यो य नह रह जायेगा। उसका अंडकोष स य ही गौतम के दंड के
वार से िवदीण होकर िबखर चुका था।
यह कोलाहल सुनकर सम त आ म जाग गया था और गौतम क ओर भागा आ रहा
था। कई लोग ने भागते हये इ को देखा था। गौतम का आ ोश से भरा ती वर तो सभी ने
सुना था। सभी समझ गये िक या घिटत हआ था। देवराज का आचरण तो िवलासी था ही, उनके
इस कृ य से िकसी को अिधक आ य नह हआ था। आ य तो इस बात का था िक एक
ऋिषप नी ने देवराज के अनाचार म उनका सहयोग िकया था। उ ह सहमित दान क थी। वे
सारी िनगाह जो अह या के िलये मातवृ त स मान से भरी रहती थ अचानक उनम घण
ृ ा भर गयी
थी।
मुिनवर ने िबफरते हये आ म म वेश िकया। शेष सभी आ मवासी भी उनके पीछे थे।
अह या िसर झुकाये चबत
ू रे पर खड़ी हई थी। गौतम आकर चबत ू रे से कुछ दूर ही खड़े
हो गये। कुछ देर ोध से अह या के चेहरे पर ि गड़ाये रहे िफर श द को चबाते हये बोले -
‘‘कुलटा! तुझे यिद इ से रमण क इतनी ही आकां ा थी तो तभी िपतामह से िव ोह
कर उसके साथ य नह चली गयी? मेरे कुल का सवनाश करने यहाँ य आ गयी? िववाह से
पवू बा यकाल म जब मेरी पा या बनकर पु ीवत मेरे पास रही तब भी तुझे समझ नह आया िक
गौतम से तुझे िपतावत नेह िमल सकता है। गौतम को तेरे प, तेरे यौवन और तेरे शरीर-
सौ व से कोई योजन नह था। वह तो वैसे ही परमानंद म िनम न था। िफर भी गौतम ने तुझे
सारे सुख देने का यास िकया। तुझे देह का सुख भी िदया। तुझे पु िदया, पु ी दी और या
चािहये था। ऋिषप नी थी त,ू यह या तुझे िववाह के समय ात नह था। तुझे या ात नह था
िक ऋिषप नी का आचरण कैसा होता है, उसक मयादा या होती है? यिद इ ही तुझे अभी
था तो य नह िववाह से पवू ही िपतामह से तू ने प कह िदया िक तुझे इ अभी है, गौतम
नह । िपतामह से कहने म कोई भय था तो मुझसे ही कह िदया होता म ही िपतामह को परामश
देकर तुझे इ के साथ िभजवा देता। कलंिकनी! मेरे कुल का नाश करने चली आई। मेरे कुल के
सारे गौरव को धिू ल-धस
ू रत कर िदया।’’
आवेश म ऋिषवर क साँस फूलने लगी थी। वे कुछ क कर साँस लेने लगे। िक तु
उनक जलती िनगाह अह या के मुख पर ही जमी थ ।
अह या भी िवदुषी थी, अिभमािननी थी और पगिवता भी थी। गौतम क आयु उससे
बहत अिधक थी। िफर भी उसने िबना िकसी िशकायत के स नतापवू क उनके साथ िनवाह
िकया था। उनके येक काय म वह अपनी सारी शि से लगी रही थी। यह सच था िक उनसे
उसे कोई िवशेष शारी रक सुख नह िमला था िक तु वह िफर भी परू ी िन ा से उनके ित
समिपत रही थी। उनके आ म के ित समिपत रही थी। उसक एक भल ू से ही आ ोिषत होकर
ऋिषवर ने उसक सारी िन ा और समपण को गाली दे दी। इ ह ने वयं िकतनी बड़ी भल ू क थी
उसे भाया के प म वीकार कर - यह नह िदखाई देता इ ह। अह या म भी आ ोश भरने लगा।
अभी तक अपराध-बोध से झुका उसका म तक झटके से उठ गया और वह भी जलती हई िनगाह
से गौतम क आँख म देखने लगी। उसके इस तेवर से गौतम के ोध क अि न म जैसे घी पड़
गया। वे ितलिमला उठे । उनका शरीर काँपने लगा। वे और जोर से चीख उठे -
‘‘आह! ध ृ ता क पराका ा! इतने बड़े दु कृ य के बाद भी आँख म कोई लािन नह ।
कोई अपराध बोध नह ! आह! शील ही मर गया है लगता है तेरा तो। परू ी वे या हो गई है तू तो
...’’
‘‘बस ऋिषवर! अपनी मयादा का मरण रख। मुझसे यिद अपराध हआ है तो आप तो
अपराध क पराका ा को पश कर रहे ह। म आपक प नी हँ कोई तदासी नह । भलीभाँित
िवचार कर ही श द मुख से िनकाल।’’ गौतम क बात को बीच म ही काटती हई अह या भी
फुफकार उठी।’’
‘‘आह! अिभमान तो देखो इस कुलटा का! कोई अपराध बोध नह । स पण ू नारी जाित
को लजाने के बाद भी आँख म कोई ल जा नह । असंभव! अब तेरे साथ िनवाह िनतांत असंभव
है। यिद तनू े मा मांग ली होती तो गौतम तेरा अपराध संभवत: मा भी कर देता। लोकापवाद
क भी िचंता नह करता। पर तुझे तो अपने कृ य पर कोई लाज ही नह है। गौतम आज से - इसी
पल से तेरा याग करता है और सम त ि भुवन को तेरा याग करने के िलये िनदिशत करता है।
आज से जो भी तेरे साथ कोई भी संबंध रखेगा वह गौतम का कोपभाजन बनेगा।
‘‘चलो सब लोग। इस कुलटा के साथ हम इस आ म का भी याग करते ह। यहाँ इसने
सारी मयादाओं का उ लंघन करते हये अपने ेमी के साथ रमण िकया है। इसके इस घोर
दुराचरण से यह आ म भी अपिव हो गया है। यहाँ अब य काय स पािदत नह हो सकता। चलो
सब लोग। आ म का सामान बाँध लो गौओं को खोल लो और चलो और कह आ म बनाते ह।’’
इतना कह कर गौतम एक व ृ के नीचे बैठ गये।
अह या धीरे से, िबना कुछ बोले कुटीर के भीतर चली गयी। उसके भा य का िनणय हो
गया था। उसे अब आजीवन एका तवास करना था। गौतम से तक-िवतक करने का कोई लाभ
नह था। आव यकता भी नह थी। उससे अपराध हआ था िक तु इसका यह अथ तो नह िक
उसका कोई स मान ही नह है। ऐसा ही है यह पु ष धान समाज। पु ष िजतने चाह िववाह कर।
िजतनी चाह ि य से रमण कर, सब य है। िक तु ी का छोटा सा कृ य भी महान अपराध
हो जाता है। उसके िलये मा नह होती।
वह जानती थी िक गौतम के श द का अनादर कर कोई भी उसक छाया तक के पास
आने का साहस नह करे गा। और य करे गा सभी तो गौतम क भाँित ही सोचते ह। सबक ि
म ही वह महान अपरािधनी हो गयी होगी इस समय। ... और वह इ ... वह अब भी देवे बना
रहे गा। ि लोक म स मािनत होता रहे गा। सारे ऋिष-मुिन उसे य म स मान से आमंि त कर
ह य समिपत करते रहगे। बड़ा दोष तो इ का ही है। उसे पथ करने का आयोजन तो इ
ने ही िकया है। रमण का ताव तो उसके सम इ ने ही रखा था, उसने तो नह रखा था ...
िफर भी सारा दोष उसका ही हो गया। एकमा वही कलंिकनी हो गयी। वयं महिष गौतम ने भी
तो व ृ ाव था म उस जैसी अपवू पवती त णी से िववाह िकया था। या यह अपराध नह था
उनका? य िकया था उ ह ने ऐसा बेमेल िववाह? उनके इस अपराध का द ड कौन देगा? या
िपतामह दगे - वे भी तो इस अपराध म सहभागी थे िज ह ने देवराज के थान पर महिष के हाथ
म िदया था उसका हाथ। ... और यही महिष गौतम ह - याय-दशन के ितपादक? कहाँ गया
इनका याय? कहाँ गये इनके तक? कहाँ गया इनका येक बात को बुि क कसौटी पर
परखने का िस ांत? एक जरा से झटके म ही इनक बुि कुंद हो गयी? चकनाचरू हो गये सब
के सब िस ांत? बन गये अपने पवू ा ह -दुरा ह से त एक सामा य यि । उसके मि त क
म झंझावात सा चल रहा था। बहत देर तक वह ोध म उफनती रही िफर भिू म पर पड़ कर रोने
लगी। न खाया-न िपया, न ही नान पज ू न कुछ िकया बस रोती ही रही। कब दोपहर हई और कब
सं या हो गयी - उसे पता ही नह चला। जब वह कुछ व थ होकर बाहर िनकली तो साँझ ढल
चुक थी, अँधेरा िघरने लगा था। आ म म स नाटा पसरा हआ था। ऋिष गौतम के साथ सारे
आ मवासी िकसी अ ात थान के िलये थान कर चुके थे। सारी गाय और अ य पशु-प ी भी
उ ह के साथ चले गये थे। रह गयी थी िनपट अकेली अह या।
अब वह व थ हो गयी थी। उसने नान िकया। दीपक जलाये और िफर समािध म बैठ
गयी - परम भु क आराधना के िलये। उसने अखंड तप या से अपने माथे पर लगे इस कलंक को
धोने का ढ़ िन य कर िलया था।

इ पर महिष का एक ही द ड हार अ यंत घातक िस हआ था। उसका अ डकोष


त-िव त हो गया था। महिष ने ठीक ही कहा था िक अब वह िकसी के साथ रमण करने यो य
ही नह रहे गा िक तु वे भल
ू गये थे िक यह इ था, देवराज! वह समय से वग पहँच गया था।
अि नी-कुमार ने समय से उसके मत ृ ाय अंग का यारोपण कर िदया था। कुछ ही िदन म वह
पण
ू व थ हो गया और पुन: अपने रावण-अिभयान म लग गया था। अह या को वह शायद भल ू
ही गया था। उसका मनोरथ तो पण ू हो चुका था। वह अह या को ा कर चुका था अब उसे अपने
गले म लटका कर रखने का कोई अथ नह था। उसके सम अपना इ ासन बचाना अिधक
मह वपणू था। हाँ! इस अिभयान के एक मह वपण
ू सहयोगी से वह हाथ धो बैठा था। अब गौतम के
सहयोग क कोई स भावना नह थी।
अक मात उपि थत हो गयी इन िवकट प रि थितय म महिष के सम एक ही सम या
थी िक अबोध बािल और सु ीव का या िकया जाय? महिष िवचार म पड़े ही थे िक िकसी
आ मवासी ने वानरराज ऋ राज का नाम सुझाया। िकि कंधा-नरे श ऋ राज संतानहीन थे और
कुछ िदन पवू ही वे सप नीक स तान के िलये महिष का आशीवाद ा करने आये थे। संभवत:
अभी वे िमिथला म ही ह ।
दोन अबोध बालक का सौभा य था। वानरनरे श िमिथला म ही िमल गये। उ ह ने दोन
बालक महिष के आशीवाद व प स नतापवू क हण िकये। उनक तो साध परू ी हो गयी थी।
बािल-सु ीव अब वानरराज ऋ राज के पु हो गये। वे अचानक ही आ मवासी से िकि कंधा के
राजकुमार बन गये थे। इस सम या का समाधान हो गया था। साथ ही महिष का ोध भी अब
संयत हो गया था। अपने आवेश पर अब उ ह भी ोभ हो रहा था िक कैसे वे एक आम संसारी क
ू यवहार कर बैठे थे! िक तु अब तो जो होना था वह हो ही चुका था। अब उसे
भाँित अिववेकपण
बदला नह जा सकता था। संभवत: िनयित को यही वीकार था।

अब इन प रि थितय म उ ह दूसरा आ म बसाना वीकार नह था। अह या के ित


उनसे अ याय हआ था और उसका ायि त उ ह करना ही था। उ ह ने आ म वािसय को उनक
वे छा पर छोड़ िदया िक वे जहाँ चाह आ म बनाएँ और वयं सब कुछ छोड़कर िहमालय क
कंदराओं म तप या करने के िलये िनकल गये। पण
ू प से एकाक , अह या क ही भाँित - जब
तक अह या शाप मु नह हो जाती तब तक के िलये। जो द ड उ ह ने अपनी प नी को िदया
था वही द ड उसी मा ा म वयं भी हण कर िलया था, अिनि त काल के िलये।
33. रावण-मंदोदरी
‘‘ि ये लंका म आपका वागत है।’’ रावण ने क म वेश करते हये कहा।
मंदोदरी पयक से उठकर खड़ी हो गयी और उसने आगे बढ़कर झुककर रावण के चरण
म अपना म तक रख िदया। ‘‘अरे ! यह या करती ह? आपका थान तो रावण के
दय म है।’’ कहते हये रावण ने उसे उठा कर अपने सीने से लगा िलया। मंदोदरी ने भी पण

समपण के साथ अपना िसर उसके िवशाल व पर रख िदया।
यह तय हआ था िक कुबेर के थान से पवू ही रावण का िविधवत रा यािभषक हो
जाये। अिधक भ यता का दशन नह िकया गया था इस काय म म। रावण के िपता और
िपतामह के अित र उसके िपतक ृ ु ल से कुबेर और कुबेर क माता देवविणनी उपि थत थे। उसका
स पण ू मातक ृ ु ल था और कुछ चुिनंदा य , दै य और गंधव आिद के ितिनिध उपि थत थे।
पुल य और िव वा क उपि थित म सादा िक तु परू े िवधान से स प न हआ था रा यािभषेक।
जा ने भी परू े उ साह से भाग िलया था। समारोह क सादगी देख कर जा अचंिभत भी थी और
सच कहा जाय तो मायस ू भी थी। उसे तो कुबेर के काल म भ यतम समारोह देखने का अ यास
था। उस कसौटी पर यह सादा समारोह उसे फ का-फ का सा लग रहा था िक तु उसे अभी या
पता था िक भिव य म लंके र के सम त आयोजन भ यता क नवीन प रभाषा िलखने वाले थे।
रा यािभषेक के एक िदन पवू दानवराज मय ऋिषवर िव वा के क म पहँचे थे और
उ ह ने उनके सम अपनी सवाग सु दरी क या म दोदरी रावण को समिपत करने का ताव
रख िदया था। िव वा क ि म इस िववाह म कोई बाधा नह थी। मय वयं एक स मािनत दै य
स ाट थे और म दोदरी क याित भी एक अ यंत सु दर और िवदुषी क या के प म उ ह ने
सुनी थी, िफर भी उ ह ने रावण के वय क हो जाने क बात कहते हये िनणय रावण पर ही छोड़
िदया था। रावण ने सदैव क भाँित अपने मातामह सुमाली से परामश िलया था। सुमाली ने देखा
िक यह ताव राजनैितक और सामािजक दोन ही ि य से लाभ द है अत: उसने सहष यह
ताव वीकार करने का परामश िदया था। मय के ताव पर ही रावण और म दोदरी क एक
पर एक भट हई थी और उस भट म रावण िन य ही म दोदरी से भािवत हआ था। इसके बाद
िवलंब का कोई कारण नह था। सभी प रजन उपि थत थे ही अत: रा यारोहण के साथ ही यह
िववाह भी स प न हो गया।
रा यारोहण के कारण एक स ाह तक रावण अ यंत य त रहा था। राजमिहषी के नाते
मंदोदरी य िप अिधकांशत: उसके साथ ही रही थी तथािप उ ह एकांत म िमलने का कोई अवसर
ा नह हआ था। आज िववाह के उपरांत एक स ाह बाद वे अपने क म एका त म िमल रहे थे।
‘‘लगता है लंकेश िक ह गंभीर िवचार म खो गये ह?’’ रावण को बहत देर तक चुप
देख कर मंदोदरी ने उसके व से िसर उठाकर उसक आँख म झाँकते हये िकया।
‘‘अरे नह महारानी! रावण तो अपने सौभा य पर इतरा रहा था।’’
‘‘सौभा यशाली तो आप िन य ही ह। िक तु या हम यँ ू खड़े ही रहगे?’’ मंदोदरी ने
शोखी से कहा।
‘‘अरे नह महारानी!’’ रावण ने भी उसी शोखी से उ र देते हये उसे फौरन बाह म उठा
िलया और पयक क ओर बढ़ चला।
‘‘लंका आपको अ छी तो लगी।’’ मंदोदरी को पयक पर िलटाते हये रावण ने पछ
ू ा।
‘‘मुझे तो लंकेश अ छे लगे। वे तो मेरी आँख म ऐसे बसे ह िक और कुछ िदखाई ही नह
देता।’’
‘‘आप तो किवता भी कर लेती ह।’’
‘‘पित के गुण का कुछ अंश तो प नी म भी होना ही चािहये।’’
‘‘ओ हो! तो और या- या गुण पाये ह प नी जी ने?’’
‘‘न ृ य, संगीत, कला, दशन सबम िन णात है आपक प नी। अिभयाि क उसे िपता
से िवरासत म िमली है और श िव ा तो येक दानव वंशी का पहला पाठ होता ही है।’’
‘‘अरे वाह! ता पय रावण ने मा िवदुषी ही नह , सवगुण स प न प नी पाई है। ध य हो
गया रावण आपको पाकर!’’
‘‘सो तो है!’’ म दोदरी ने रावण का मुकुट उतार कर एक ओर रख िदया था। वह उसके
केश म यार से उँ गिलयाँ िफराती हई बोली।
‘‘तो िफर बताइये ऐसी सवगुण स प न प नी क सेवा िकस कार करे लंके र?’’
रावण ने मंदोदरी के कपोल को अपनी दोन हथेिलय म भरकर अपनी ि उसक आँख म
िटकाये हये पछ
ू ा?
‘‘िक तु लंके र अभी मंदोदरी के गुण क गणना तो अधरू ी ही रह गयी है। आपक
प नी आपको अपने हाथ से बना कर ऐसे-ऐसे यंजन िखलायेगी िक आप अपनी उँ गिलयाँ चाट
लगे। मुझे तो डर है कह पा ही न खा डाल।’’
‘‘अ छा जी! तब तो रसोइय क छु ी कर देनी पड़े गी।’’ रावण ने अचि भत होने का
अिभनय करते हये कहा।
‘‘ऐसा य ? या लंका का रा य इतना कृपण है िक कुछ रसोइय का मानदेय बचाकर
अपना कोष भरना चाहता है? मंदोदरी मा अपने लंके र के िलये यंजन बनायेगी। बाक सबके
िलये तो रसोइय को ही बनाना पड़े गा।’’ मंदोदरी ने इठलाते हये कहा।
‘‘चिलये, जैसी आपक इ छा। रावण तो अपने भा य पर मु ध है। पहले लंका का रा य
िमला और िफर उससे भी अिधक मह वपण ू आप िमल गय । िकस मँुह से वह आभार य करे
िवधाता का!’’
‘‘जी हाँ! िवधाता का आभार तो य करना ही चािहये। िक तु अकेले अपने भा य पर
अिधक मत इतराइये। कम भा यशािलनी म दोदरी भी नह है। उसने भी सवगुण स प न पित
पाया है, लंके र के प म।’’
‘‘नह महारानी! अिधक भा यशाली तो रावण ही है। कुछ काल पवू तक रावण एक
िव ा- यसनी वटुक मा था और आज वह लंका का स ाट् है और सवगुण स प न म दोदरी
जैसी महारानी का चरण सेवक है।’’
‘‘अ छा तो महाराज मेरे चरण-सेवक ह। ऐसा अनथ मत क िजये, म दोदरी को
अिभमान न हो जाये।’’
‘‘तो िफर या क ँ ?’’
‘‘यह भी या बताना पड़े गा? हाय! लाज नह आयेगी म दोदरी को?’’ कहते हये
म दोदरी ने रावण के व म मँुह िछपा िलया।
34. पु हीन दशरथ
‘‘महारानी! या इ वाकु वंश हमारे साथ ही समा हो जायेगा।’’ अनमने भाव से दशरथ
बोले।
महाराज दशरथ अचानक सोते से उठ गये थे। उनके उठने से महारानी कैकेयी भी जाग
गयी थ ।
‘‘ या पुन: वही व न?’’ कैकेयी ने आँखे मलते हये िकया।
‘‘हाँ!’’ दशरथ ने दोन हाथ से अपना िसर थाम िलया था- ‘‘पहले तो यदा-कदा ही
माता-िपता व न म तािड़त करते थे िक तु अब तो यह िन य का िनयम बन गया है। या क ँ
म, समझ नह आता?’’
‘‘महाराज िविध का िवधान कौन समझ सका है। यिद समझ ले तो सारी सम याओं का
समाधान न िनकाल ले।’’
‘‘वही तो महारानी! िक तु म या क ँ ? माता-िपता क ताड़ना ...’’ दशरथ ने बात
अधरू ी ही छोड़ दी। कैकेयी ने भी कोई उ र नह िदया। कोई उ र था ही नह ।
कई वष यतीत हो गये थे महाराज दशरथ को सुिम ा से िववाह िकये। यौवन का
उ माद अब उनका साथ छोड़ चुका था। उनके िचंतन म ही नह यवहार म भी ग भीरता आने
लगी थी। स तानहीनता अब उ ह अस होने लगी थी। उस पर यह दुः व न! पता नह या
रह य था इसका। जाने स य ही माता-िपता उ ह तािड़त करते थे व न म अथवा ये उनक
संतान के िलये उ कट लालसा थी जो माता-िपता का प धर, िन य उनक न द छीन लेती थी।
अब तो उनके अंदर अपराध-बोध सा ज म लेने लगा था।
‘‘महाराज धैय रख। अधीरता से तो कोई हल िनकलने वाला नह । गु देव ने सदैव कहा
है िक हम स तान ा होगी।’’
‘‘कैसे धैय रख? तीन महारािनयाँ, साढ़े तीन सौ उप-पि नयाँ और संतान के नाम पर
शू य। िकसी से हम कोई स तान ा नह हई इतने वष म।’’
‘‘तो या हआ? अभी तक नह हई तो इसका यह ता पय तो नह िक होगी ही नह ।’’
‘‘थोथी िदलासा से या होगा महारानी? या आपको स तान न होने का दुःख नह
होता?’’
‘‘होता है, अव य होता है। िक तु दुःख को ओढ़े रहने से या ा होगा?’’
‘‘आप सँभाल सकती ह गी वयं को, िक तु म ... ऊपर से ये दुः व न .... हे भु तू ही
कोई माग िदखा।’’ कहते हये दशरथ ने छत क ओर हाथ उठा िदये।’’
‘‘ भु हमारी पुकार य नह सुनता?’’ कैकेयी ने भी हाथ उठाते हये कहा- ‘‘महाराज
क उदासी को य नह देखता त?ू या हमारी भि म कोई खोट िदखाई पड़ती है तुझे?’’
‘‘कुछ तो खोट होगी ही महारानी! अथवा कुछ पाप ह गे पवू ज म के ...’’ अक मात
जैसे दशरथ के मिृ तपटल पर आखेट क उस भयंकर रात का य घम ू गया, उ ह ने आगे
जोड़ा- ‘‘या या पता इसी ज म के!’’
‘‘एक बात कहँ?’’ कैकेयी ने कहा।
‘‘आपको भी अनुमित क आव यकता है?’’
‘‘इस भाँित उदास होने से ... हताश होने से या स तान ा हो सकती है?’’
‘‘ या कहना चाहती ह आप? इस उदासी पर या हमारा वश है? ये तो िन य ही हमारे
पाप ह जो हम घेरे ह।’’
‘‘िनरथक बात महाराज!’’ कैकेयी ने अपनी असहमित जताई- ‘‘आप यास भी तो
बेमन से करते ह या िफर करते ही नह !’’
‘‘ या ता पय है आपका? या यास नह िकया हमने? सम त देव क मनौितयाँ
मान , िजसने भी जो भी उपचार बताया वह िकया, और या कर - आप ही बताइये।’’
‘‘मनौितयाँ और उपचार ही पया नह होते - संसग भी आव यक होता है।’’ कैकेयी ने
कहना चाहा िक तु कह नह सक । वह साहसी थी िक तु उ मु नह थी।
‘‘महामा य जब-तब कहते ह िक आप राज-काज म भी अब कोई उ साह नह िदखाते।’’
‘‘ या उ साह िदखाय? आमा यमंडल राज-काज म हमसे कह अिधक िनपुण है। वह
अपने दािय व स पणू कुशलता से िनवहन करता है। हमारे िलये जो भी औपचा रकताएँ आव यक
होती ह उनका िनवहन तो हम करते ही ह।’’
‘‘अ छा महाराज! सुिम ा के क म कब से नह गये आप?’’ कैकेयी ने अचानक
िवषय प रवितत करते हये कहा।
‘‘ य ? या उसने कुछ कहा आपसे?’’
‘‘आपको या लगता है - वह ऐसा कुछ कर सकती है?’’
‘‘नह ? िक तु ी के च र का या पता लगता है? राजमहल तो षड़यं क सबसे
बड़ी कायशाला होते ह, उस पर भी कोई उपेि त महारानी ... या न कर जाये।’’
‘‘महारािनय को दोष मत दीिजये महाराज! जीजी और सुिम ा जैसी पि नयाँ बड़े भा य
से िमलती ह।’’ कैकेयी को कुछ आवेश सा आ गया था- ‘‘अव य आपने पवू ज म म िवशेष पु य
िकये ह गे!’’
‘‘आपका यवहार हमारी समझ म नह आता। आप सौत के िलये हमसे इस वर म बात
कर रही ह।’’
‘‘हंह’’ भरसक यास के बाद भी कैकेयी के वर क िवत ृ णा कट हो ही रही थी- ‘‘वे
सौत नह ह मेरी। जीजी ने सदैव मुझे बड़ी बहन सा नेह िदया है और सुिम ा भी छोटी बहन के
समान ही मुझे परू ा स मान देती है। कोशल के अंतःपुर म षड़यं नह होते।’’
‘‘चिलये मान ली आपक बात।’’ दशरथ ने भी कैकेयी के वर का प रवतन ल य कर
िलया था- ‘‘अब यह बताइये िक आपने पछ
ू ा य था?’’
‘‘आप उ र तो दीिजये।’’
‘‘ मरण नह । कई माह तो हो ही गये ह गे।’’
कैकेयी ने एक दीघ ास ली। बोली कुछ नह ।
‘‘छोिड़ये महाराज! आप सोने का यास क िजये।’’
‘‘न द नह आयेगी।’’
‘‘कोई बात नह , आप यास तो क िजये - या पता आ ही जाये।’’ कैकेयी मु कुराई।
दोन लेट गये। कैकेयी ने िन य कर िलया था िक राजमिहषी क मयादा को याग कर
श या म उसे पण ू उ मु -उ छृंखल बनना ही होगा। ‘‘यह काय सुिम ा करती तो उिचत होता,
मेरी भी तो वयस अब ऐसे आचरण के उपयु नह है।’’ उसने मन ही मन सोचा। िक तु वह अपने
िन य पर ढ़ थी।
‘‘ या महाराज! कुछ तो उ साह दिशत क िजये।’’ कैकेयी फुसफुसायी।
‘‘उ साह भीतर से होता है। वत: उ प न होता है - स यास नह उ प न िकया जा
सकता।’’
‘‘हाँ! अभी कोई यु का अवसर होता तो आपम उ साह जा त हो जाता।’’
‘‘महारानी अब हम साठ के होने वाले ह।’’
‘‘तो या यु म आप तीस के हो जाते ह।’’
‘‘यु म भी तो नह हो पाते। िकतने काल से कोई यु नह िकया हमने।’’
‘‘तो आज यही यु सही। म भी तो देखँ ू िकतना पौ ष शेष है अयो या नरे श म।’’
‘‘नह है। आपसे तो मने सदैव पराजय वीकार क है। आज भी करता हँ।’’
‘‘ओह महाराज!’’ कैकेयी हताशा से बोल पड़ी िक तु उसने अपना यास नह छोड़ा।
35. लंका क यव था
‘‘िपत ृ य लंका तो हमारे आिधप य म आ गयी।’’ व मुि सुमाली के क म बैठा था।
सुमाली ने अपने प रवार के येक सद य के िलये पथृ क ासाद का चयन नह िकया था। एक
ही िवशाल तीन ख ड के ासाद म उन सबका िनवास था। उसके येक पौ या पौ ी के पास
अपना पथृ क क था। सम त सुख-सुिवधाएँ , दास-दािसयाँ उनके िलये उपल ध थ ।
सबके िलये एक ही ासाद का चयन कर उसने कट म तो अपनी सादगी और सरलता
ू म उ े य यह था िक उसके सभी पु एकांत मं णा
दिशत करने का यास िकया था िक तु मल
के िलये सदैव उपल ध ह ।
उसका अपना क िकसी साधु के क क भाँित अ यंत सामा य स जा से यु था।
िवलास का कोई दशन नह था उसम।
‘‘हमारे नह , रावण के। य िप यहाँ मा हम ही ह िक तु सदैव सतक रहो िक मुख से
कोई भी ऐसा श द न उ च रत हो जाये जो कोई शंका उ प न कर सकता हो।’’
‘‘जी! लंका तो लंके र के आिधप य म आ गयी। अब देवलोक पर आ मण क
रणनीित पर काय करने का समय आ गया है।’’
‘‘पु सीधे चू हे से तुर त िनकला भोजन भी मँुह जला देता है। थम लंका सँभाल लो
िफर आगे क सोचो। इतनी शी ता उिचत नह है।’’
‘‘तो म कब कह रहा हँ िक कल ही आ मण कर िदया जाय। म तो रणनीित बनाने क
बात कर रहा हँ।’’
‘‘वह तो बनी बनायी है।’’
‘‘ या? वही तो म जानना चाह रहा हँ!’’
‘‘समय आने दो वत: ात हो जायेगा।’’
‘‘िपत ृ य मेरे साथ भी गोपनीयता।’’
‘‘आव यक है। एक बात गाँठ बाँध लो - राजनीित म अपने अित र िकसी पर पणू
िव ास नह िकया जाता। तुम मुझसे बाहर नह जा सकते यह मुझे िव ास है, िक तु कोई
जानकारी तुमसे िकसी अ य यि तक थाना त रत तो हो ही सकती है।’’
‘‘नह होगी, िपत ृ य िव ास क िजये।’’
‘‘हठ नह , मने जो सीख दी अभी उस पर अमल करना आरं भ कर दो। तुम अभी भी
अप रप व हो। तुम अपने अंदर क भावनाओं को गोपनीय रखने म अभी समथ नह हो। तुम कभी
भी ोध म या उ साह म या अपन व म कुछ ऐसा कह सकते हो जो नह कहा जाना चािहये।’’
‘‘जैसा आप उिचत समझ।’’
इसी बीच एक प रचा रका ने आकर सच
ू ना दी िक स ाट् आ रहे ह।
‘‘िकसने दी यह सच
ू ना?’’ सुमाली ने प रचा रका से िकया।
‘‘स ाट् का दूत आया है उनके आगे-आगे, उसी ने दी।’’
‘‘ठीक है। जाओ।’’ सुमाली ने उसे जाने का संकेत करते हये कहा। िफर व मुि से
बोले-
‘‘व स तुम ार पर जाकर लंके र क अगवानी करो। यान रखना स ाट के ित
तु हारा यवहार उनक ग रमा के अनुकूल ही रहे ।’’
व मुि चला गया तो सुमाली ने लंके र के वागत म अपनी िबखरी पड़ी साम ी
यवि थत क और िफर ती ा करने लगा। कुछ ही काल म रावण को लेकर व मुि ने वेश
िकया।
‘‘ वागत है लंके र का!’’ सुमाली ने मंद ि मत के साथ कहा।
‘‘नह मातामह! इस समय रावण अपने मातामह के पास आया है। आशीवाद दीिजये।’’
रावण ने उसके चरण म झुकते हये कहा।
‘‘यश वी भव, व स! सव िवजयी भव!’’
‘‘मातामह रावण से कोई अपराध हो गया या?’’
‘‘ऐसा य कहा व स?’’
‘‘आप राजक य यव थाओं म इधर िवशेष िच नह ले रहे । राजसभा म भी कम ही
दशन होते ह आपके।’’
‘‘व स तु हारा मातामह अब व ृ हो गया है। उसने तु हारे िलये जो व न देखा था वह
ू हो चुका है। अब उसके िव ाम का समय है।’’
पण
‘‘मातामह! आप जैसे पु षाथ जीव िचता म ही िव ाम लेते ह।’’
‘‘स य ही कहा व स!’’ सुमाली ने हँसते हये कहा- ‘‘िक तु अपने मातामह क अव था
भी तो देखो। अब शरीर म अिधक म क साम य नह रही।’’
‘‘तो आपको म करने क आव यकता ही या है अब? आप तो मा हम लोग को
िदशा-िनदश करते रह। म तो हम लोग कर लगे। मने अनुिचत कहा या मातुल?’’
‘‘उिचत कहा व स! अभी-अभी म भी िपत ृ य से यही कह रहा था िक इनके इस कार
शांत होकर बैठने से काम नह चलेगा।’’ व मुि ने रावण का समथन करते हये कहा।
‘‘तो या चाहते हो मुझसे तुम लोग?’’
‘‘मातामह मुझे िनदिशत कर िक अब मेरे िलये या कत य है?’’
‘‘कुबेर के साथ लंका के मह वपण
ू यवसाियय और शीष रा यािधका रय के भी चले
जाने से जो रि ता उपि थत हो गयी है, सव थम उसे भरने का काय करो। इसके साथ ही जा
के दय म थान बनाने का यास करो।’’
‘‘मातामह यह तो रावण भी जानता है िक इस रि को भरना आव यक है िक तु
तो यह है िक यह काय कैसे िकया जाय? राजक य यव था तो मातुलगण सँभालने का य न कर
रहे ह िक तु यावसाियक रि ता कैसे पू रत क जाय? उस िवषय म तो हम कोई ान ही नह
है।’’
‘‘तो ान ा करो!’’
‘‘मने तो जो भी ान ा िकया है वह आपसे या िपतामह ा से ही ा िकया है।
इसीिलये म आपक शरण म आया हँ।’’
‘‘इस िवषय म म या तु हारे िपतामह भी कोई सहायता नह कर सकते। िक तु मुझे नह
तीत होता िक यह काय लंके र के िलये किठन होना चािहये।’’
‘‘तो यह दािय व आप ही वीकार क िजये न!’’
‘‘नह , यह काय तो तु ह ही करना होगा। म चाहता हँ िक लंके र का अपनी जा से
सीधा संवाद थािपत हो।
‘‘तो वह संवाद आपके िनदशन म थािपत हो जायेगा।’’
‘‘नह ! राजा क सफलता यही है िक उसके और जा के म य कोई म य थ न हो।’’
‘‘आह िपतामह! आप रावण को इस जंजाल म फँसा कर वयं िनिल कैसे रह सकते
ह?’’ रावण ने उपालंभ सा देते हये कहा।
‘‘म िनिल नह रहँगा पु । और भी आव यक काय ह िजन पर मुझे अपना यान
कि त करना है।’’ सुमाली उसके उपालंभ पर यान न देते हए बोला।
‘‘जैसे, मातामह?’’
‘‘म लंका के सा ा य के िव तार के माग खोजने का यास क ँ गा। लंका के
सहयोिगय क सं या म विृ करने का यास क ँ गा, भिव य क रणनीित के िलए यह
आव यक है।’’
‘‘मान ली आपक बात। िक तु वा दािय य का अवल ब लेकर आप आ त रक
दािय व से मु नह हो सकते। आपका परामश हम सदैव चािहये। यह आपके इस दौिह का
अिधकार है, उसे इस अिधकार से आप कदािप वंिचत नह कर सकते।’’
‘‘ वीकार व स! तु हारा सीमाहीन अिधकार वीकार है मुझे।’’
‘‘तो मागदशन क िजये न!’’
‘‘देखो ... थम तो जा के उ सव म लंके र अपनी िनरिभमान सहभािगता सुिनि त
कर। जा को अनुभिू त होनी चािहए िक लंके र उसके अपने म य का यि है, उनका
िहतिच तक है। उनका सखा है, उनका समथ अिभभावक और मागदशक है। वह उनक सम त
किठनाइय को दूर करने क साम य रखता है।’’
‘‘ वीकार!’’ रावण ने अिवल ब अपनी सहमित दान कर दी। िक तु यह कैसे करे
रावण यह भी तो बताएँ मातामह!’’
‘‘लंके र ितिदन एक समय िनधा रत कर जब कोई भी जाजन िबना िकसी अवरोध
के उनके सम उपि थत होकर अपने क से, अपनी सम याओं से ... उ ह अवगत करा सके।
... और लंके र परू ी सहानुभिू त से उनक बात सुन और उनक सम याओं ... क के
िनराकरण का उिचत यास कर। िनवारण न भी कर सक तो भी उस यि को यह अव य
तीित कराय िक वे उसके क -िनवारण का परू ा यास कर रहे ह।’’
‘‘जी मातामह, यह भी वीकार! इसक उिचत यव था बनानी पड़े गी िक तु उसे म और
मातुल ह त िमलकर बना लगे।’’
‘‘ इसके अित र लंका से जो यवसायी चले गये ह वे अपने साथ अपने सारे
सहयोिगय को नह ले गये ह। उन सहयोिगय को खोज कर एक कर और रा य क ओर से
उ ह भरपरू सहयोग दान कर िक वे उन यवसाय को पुन: आरं भ कर सक। इस िवषय म मेरा
या तु हारा ान उनके ान के सम िनतांत बौना है।’’
‘‘जी यह भी वीकार!’’
‘‘और ... और येक ाम म अपने या ह त के िनदशन म ाम के स मािनत
वयोव ृ जन क छोटी-छोटी सभाएँ गिठत कर। उ ह यह अिधकार दान कर िक वे अपने तर
पर अपने ाम क सम याओं को हल करने का यास कर। जो सम याएँ उनके तर से बड़ी ह
वे राजसभा के सम तुत क जाय।’’
‘‘जी यह भी वीकार!’’
‘‘िक तु इसम सवािधक मह वपण ू है चयन का काय। इसे राजक य कमचा रय पर
कदािप मत छोड़ द। इसके िलये िववेकशील और अपने िव ासपा यि य क ही िनयुि कर
- जो वयं ाम- ाम घमू कर िन प और कमठ िच तनशील यि य का चयन कर।’’
‘‘जी!’’
‘‘अब ‘जी’ या! बस काय म जुट जाओ, िफर देखो कैसे सम त सम याओं का हल
िनकल आता है।’’ सुमाली सहजता से स मानसच ू क स बोधन से अपन वभरे स बोधन पर आ
गया था। य िप रावण ने इसे प रलि त नह िकया। सुमाली ने अपनी बात जारी रखी- ‘‘इससे
तुम जा का भरोसा और नेह ा करने म सफलता ा करोगे। अभी य िप कुबेर लंका से
चला गया है िक तु अपनी मिृ तयाँ लंकावािसय के मनोमि त क म छोड़ गया है। अपनी
सिह णुता, स दयता, कुशलता और यायि यता से तु ह उन मिृ तय को िवलोिपत कर देना है।
जब तक कुबेर लंकावािसय के दय म जीिवत रहे गा, रावण स चे अथ म लंके र नह बन
पायेगा। और हाँ ... िवभीषण और िकसी काय म उपयोगी हो या न हो, इस काय म अ यंत उपयोगी
िस हो सकता है। यहाँ उसका उपयोग करो, उसे भी तीत होगा िक भाई उसे िनतांत अनुपयोगी
नह समझते ह।’’
‘‘उिचत है। और बताएँ ?’’
‘‘अब भी और? अ छा एक काय और करो। अपरािधय के िलये व रत और कठोर दंड
का िवधान करो। याय म कदािप प पात नह होना चािहये। जो भी रा य कमचारी अपराधी पाये
जाय उनके िलये कठोरतम दंड सुिनि त करो। ये कमचारी ही राजा क ानेि याँ और
कमि याँ होते ह। यिद यि क इंि याँ भलीभाँित अपने दािय व का िनवहन नह करगी तो
यि का अित शी पराभव सुिनि त हो जाएगा। इसिलये इन रा य कमचा रय पर सदैव अपनी
िनगरानी बनाये रहना, वे कदािप तुमसे बाहर न जा सक।’’
‘‘जी!’’
‘‘तो अब जाओ और अपने दािय व के िनवहन म लग जाओ। मेरा आशीवाद सदैव
तु हारे साथ है।’’
‘‘मा आशीवाद नह , परामश भी, मागदशन भी मातामह!’’
‘‘हाँ वह भी! अब तो स न?’’ कहते हये सुमाली हँस पड़ा।
‘‘िक तु या रावण के यहाँ बैठने से मातामह के काय म कोई यवधान पड़ रहा है?’’
‘‘ य ऐसा य कहा?’’
‘‘आप ही तो मुझे अपने पास से टालना चाहते ह, भगा रहे ह।’’
‘‘ऐसा नह है पु । तुम लंके र हो, तु हारा समय अ यंत मू यवान है, इसिलए कहा
मने। अ यथा तुम तो सदैव ही मेरे दय म अवि थत रहते हो। तु हारा मेरे क म सदैव, िकसी भी
घड़ी मन से वागत है।’’ सुमाली ने गंभीरता से कहा।
‘‘रावण को इसम कोई संदेह नह है मातामह! अ छा आ ा दीिजये, आपका कथन स य
है, लंके र का समय उसक जा का है।’’ रावण तनावमु होकर थान कर गया।
36. केसरी पु - व ांग
‘‘देव! एक शुभ सच
ू ना है!’’
‘‘ या देिव? या भु भोलेशंकर ने दशन दे िदये?’’
‘‘आपको तो सोते-जागते भोलेशंकर के िसवा कुछ िदखाई ही नह देता।’’
‘‘देिव! उ ह क कृपा से तो यह शरीर है, यह जीवन है, उ ह ही याद नह रखँग
ू ा तो
िकसे याद रखँग ू ा।’’
अंजना बोली कुछ नह बस मान भरे भाव से अपने पित क ओर ितरछी ि से देखा
और पैर के अँगठ
ू े से भिू म को कुरे दने लगी।
‘‘बताया नह आपने िफर या शुभ सच
ू ना है?’’
‘‘मुझे लाज आती है।’’
‘‘अरे !’’ केसरी हँस पड़े - ‘‘लाज आती है? िकससे - मुझसे?’’
‘‘हाँ!’’ अंजना वैसे ही भिू म पर अँगठ
ू े से िच कारी करती हई बोली।
वानर े केसरी नेह से अपनी प नी का मुख िनहारते रहे ।
जब से िववाह हआ था, दोन िनरं तर तीथ या ाओं म ही य त थे। आज कल इनका
पड़ाव भतू भावन भगवान भोलेनाथ क नगरी काशी म था। केसरी को जो आशंका थी िक िववाह
के बाद प नी उसके और िशव के बीच आ जायेगी, वह िनमल ू िस हई थी। अंजना के सहचय म
तो वे और भी आनंद से अपने भु को समिपत थे। दोन िनरास ािणय का जीवन सहज-शांत
गित से वहमान था। और अब तो अंजना वयं केसरी से भी बड़ी िशवभ हो गयी थी। वह सदैव
िशव म ही त लीन रहती थी।
‘‘िकस सोच म पड़ गय देवी।’’
‘‘भोलेनाथ ने मेरी ाथना सुन ली।’’
‘‘वे तो सदैव ही सबक ाथना सुनते ह। दु क भी सुन लेते ह - इसीिलये तो
भोलेनाथ ह।’’
‘‘आपने यह नह पछ
ू ा िक ाथना या थी?’’
ू हँ म भी। बताइये!’’ केसरी हँसते हए बोल पड़े ।
‘‘अरे ! मख
‘‘सो तो ह। िबलकुल मेरे िपता क भाँित।’’ कहती हई अंजना भी हँस पड़ी।
‘‘यह अनुिचत है देवी! महिष को इस आरोप से मु रख। वे तो ानी ह, परमे र
के िनकट थ ह।’’ केसरी ने प नी क हँसी म सि मिलत होते हये भी उसके कथन का िवरोध
िकया।
‘‘ह! घर-गहृ थी के िवषय म वे भी आपके समान ही ह, तभी तो उ ह ने आपका चयन
िकया।’’
‘‘चिलये इस पर िववाद नह करते। महिष क ग रमा के ितकूल कोई भी िट पणी मुझे
स नह है। आप तो अपनी ाथना के िवषय म बताइये।’’
‘‘म भोलेनाथ से सदैव पु प म उनका ही अंश मांगती थी। कल राि म उ ह ने व न
म मुझे दशन िदये और मेरी ाथना वीकार कर ली।’’
‘‘सच!’’ केसरी स नता से उछल पड़े - ‘‘सच म भु ने दशन िदये?’’ सच म तु हारे
गभ म भु का अंश है? सच म तुम गभवती हो?’’
‘‘हाँ! म सच म हँ और सच म व न म भु ने कहा िक गभ म उनका ही अंश है।’’
भाव-िव हल केसरी ने अंजना के हाथ अपने हाथ म थाम िलये। िफर वे ा से झुके
और अंजना के गभ के सम िसर नवा िदया।
‘‘स य देवी! आपने केसरी को उसके जीवन क सबसे बड़ी उपलि ध दान क है। मेरा
मन कर रहा है िक म स नता से नतन करने लगँ।ू ’’
‘‘नह -नह !’’ अंजना एकदम अचकचा कर बोली- ‘‘ऐसा मत क िजयेगा देव! लोग
सोचगे िक या हो गया?’’
‘‘तो उ ह बता दगे िक या हो गया। इसम संकोच क या बात है?’’
‘‘है! मुझे लाज आती है!’’ अंजना ने हथेिलय म अपना मँुह िछपाते हये कहा।’’
‘‘चिलये न ृ य नह क ँ गा। िक तु अपने हष को अिभ य िकस कार क ँ , आप ही
बताइये।’’
‘‘कुछ मत क िजये। बस अब िकि कंधा क ओर थान क िजये। तािक सव काल
समीप आने से पवू ही हम वहाँ तक पहँच सक।’’
‘‘िक तु इसम िकि कंधा चलना कहाँ से आ गया? भोलेनाथ के अंश को यह उनक
नगरी म कट होने दो।’’
‘‘नह ! भोलेनाथ तो कण-कण म या ह। म सव काल म अपने देश म ही रहना
चाहती हँ। माता-िपता तो ....’’ कहते-कहते अंजना का गला ँ ध गया। उसने वा य को अधरू ा ही
छोड़ िदया।
‘‘अधीर य होती ह देवी! कहते ह गभकाल म ी को सदैव स न रहना चािहये।
महिष और माता का संकट भी भोलेनाथ क कृपा से शी ही कट जायेगा। आप उनसे ाथना
करती रिहये।’’ कहते हये केसरी ने अंजना को अपनी बाह के सुरि त घेरे म ले िलया। अंजना
उनके सीने से सटी मौन सुबकती रही।
‘‘जब चलना ही है तो िफर कल ही थान य न कर िदया जाए?’’ केसरी ने प नी के
िसर पर दुलार से हाथ फेरते हये कहा।’’
‘‘जी! उिचत होगा।’’

िकि कंधा नरे श ऋ राज के ही सेनापित तो थे केसरी। उ ह ने वभावत: तापस-विृ


धारण कर ली थी तो भी ऋ राज ने उ ह पदमु नह िकया था। अब तो वे एक कार से केसरी
के सुर भी हो गये थे। अंजना के मँुहबोले भाई बािल और सु ीव अब उनके द क पु थे। इस
नाते अंजना भी उनक पु ी ही हयी थी और केसरी दामाद। िकि कंधा पहँचते ही ऋ राज ने उ ह
अपनी पु ी और दामाद के समान ही स मान दान िकया।
दो माह से अिधक समय यतीत हो गया था माग म। या ा अ यंत ल बी और क द
थी। कभी कोई साधन िमल जाता था तो कभी पदया ा भी करनी पड़ती थी िक तु ये क उनके
उ साह को यन ू करने म सफल नह हए थे। िकि कंधा पहँचते-पहँचते अंजना के शरीर पर
गभधा रणी के ल ण कट होने लगे थे। माता क पारखी िनगाह से यह िछपा नह रह पाया था।
अंजना को उ ह कुछ बताने क आव यकता भी नह पड़ी थी, वे सब समझ गयी थ और
स नता से उ ह ने एक गभवती पु ी क माता के दािय व का िनवहन करना आर भ कर िदया
था।
बािल और सु ीव क तो स नता का िठकाना ही नह था। िकतने िदन बाद उनक
भट अपनी दीदी से हई थी। यह जान कर िक वे मातुल बनने वाले ह उनक स नता कई गुना
बढ़ गयी थी। सम त िकि कंधा म हष क लहर दौड़ गयी।
बािल और सु ीव अब समझदार हो गये थे। वे अब गु कुल जाने लगे थे। िवगत कुछ वष
म देव ने े म अनेक गु कुल क थापना क थी। पहले-पहल ऋ राज को देव के इस काय
क सदाशयता पर िव ास नह हआ था िक तु समय के साथ-साथ उनक आशंकाएँ िनमल ू
िस हो रही थ । देव स य ही िन वाथ भाव से वानर-ऋ बालक को दीि त कर रहे थे। उ ह
यो य बना रहे थे। गु कुल म बािल और सु ीव का भी मानिसक और शारी रक दोन कार का
िवकास अ यंत ती गित से हो रहा था। दोन ही इ देव के गु कुल म जाते थे। य िप उ ह या
िकसी भी अ य यि को यह ात नह था िक बािल व तुत: इ का ही पु है और सु ीव
सयू देव का। यह रह य तो मा महिष गौतम और देवी अह या को ही ात था।
उिचत समय पर अंजना ने पु को ज म िदया। अ ुत था यह पु । ज म के समय ही वह
सामा य बालक से दूना सुपु था। सभी उसके अ ुत िवकास को देख कर चिकत थे। स पण ू
िकि कंधा म उ सव क घोषणा कर दी गयी थी। सम त जा को अनेक उपहार से लाद िदया
गया था। महाराज-महारानी भी अ यंत स न थे। राज प रवार म पहली बार िकसी संतान ने
ज म िलया था।
नामकरण के िदन केसरी ने परामश िदया िक बालक का नाम भु िशव के नाम पर
रखा जाय। िक तु अंजना सहज िव ास से बोली िक भु िशव का अंश तो बालक वयं ही है।
उनके नाम पर उसका नामकरण करने क कोई आव यकता नह है। वह बोली -
‘‘ भु ने इसे व के समान अंगकांित दान क है। अत: इसका नाम म तो व ांग ही
रखँग
ू ी।’’
िकसी को अंजना का सुझाव मानने म कोई आपि नह थी। वही तो िशशु क माता थी।
िशशु का नामकरण ‘व ांग’ कर िदया गया।
‘व ांग’ उ चारण िकि कंधा के नाग रक को कुछ दु ह अनुभव हआ। उ ह ने उसे
सहज ही ‘बजरं ग’ कर िदया। धीरे -धीरे सभी ने ‘बजरं ग’ ही वीकार कर िलया।
37. मंथरा-कैकेयी िक िचंता
रावण ने अभी तक कोई यु नह िकया था। अभी तो वह लंका क यव थाओं को
सुधारने म ही लगा था, यु अभी उसके िचंतन म दूर-दूर तक कह नह था। सुमाली भी अभी यु
क योजना नह बना रहा था। वह कूटनीित था और जानता था िक अभी रावण और लंका दोन
ही यु के िलये समथ नह ह।
दूसरी ओर देव के अपने सच
ू नातं थे। उ ह तो ा ारा आशीवाद दान िकये जाते
ही रावण के अि त व का भान हो गया था और वे इस भिव य के संकट का सामना करने क
तैया रयाँ भी करने लगे थे। आयावत क ि थित ऐसी नह थी। यहाँ के राजाओं का सचू ना-तं
देव जैसा कुशल और सुिनयोिजत नह था। उ ह अब धीरे -धीरे रावण के अ युदय क सच
ू ना ा
होना आरं भ हई थी। इसे उ ह ने मा सचू ना के प म ही हण िकया था, भिव य के संकट क
आहट अभी उ ह ने नह सुनी थी। वे सुनना चाहते भी नह थे। रा ीयता जैसी िकसी भावना ने
अभी तक उनके िचंतन को पश नह िकया था। वे अपने यि गत या अपने कुल और रा य के
गौरव म जीते थे। उसी के िलये लड़ते थे। अपनी सं कृित या सम त भरतखंड के िलये लड़ना
उनक कृित म नह था। सम त भरतखंड को एक वज के नीचे लाने का यास उनके िलये
सा ा यवादी नीित के समान था। येक नपृ ऐसा करना अव य चाहता था िक तु भरतखंड क
एकता के िलये नह , अपने और अपने कुल के गौरव के िलये।
िफर भी चाहने से या होता है। स पण ू इितहास म कोई भी नपृ ऐसा कर नह पाया।
राजसयू य , अ मेध य बहत से राजाओं ने िकये। च वत होने क उपािध भी बहत ने धारण
क िक तु वा तिवकता म च वत हो कोई नह पाया। सभी अपने-अपने रा य क सीमाओं म
ृ क सीमाएँ समा कर एक अख ड भरतखंड के
उलझे रहे । उ ह बढ़ाते-घटाते रहे । रा य क पथ
िनमाण का व न िकसी ने नह देखा, उसे बनाने क तो बात ही नह उठती।
तो रावण क याित आयावत के राजाओं तक पहँचने लगी थी। िक तु वे समय क
ती ा कर रहे थे िक देखते ह आगे या होता है। र सं कृित से या य कह येक आयतर
ृ ा तो सभी करते थे िक तु उससे लड़ने के िलये िकसी सामिू हक यास क उ ह ने
सं कृित से घण
कभी आव यकता नह समझी थी। कोई एक यिद अपने िनजी तर पर कोई यास करता भी था
तो कोई दूसरा सामने वाले के प म खड़ा हो जाता था।
िक तु दशरथ के अंतःपुर म ि थित इससे तिनक िभ न थी। कोई भी कारण रहा हो
िक तु थी।
कैकेयी ने भी इस िवषय म सुना था और सुन कर उसे िचंता भी हई थी िक तु अिधक
नह । वह तो मंथरा थी जो इस समाचार से उि न हो उठी थी, अधीर हो उठी थी। यिद उसक
साम य म होता तो वह अभी सीधे लंका के िलये थान कर जाती और रावण का अंत कर ही
वापस लौटती। िक तु उसक साम य म यह नह था। िफर भी इतना तो उसने कर ही िदया था िक
कैकेयी के मन म िचंता के बीज रोप िदये थे। उसी ने कैकेयी को यह सच
ू ना भी दी थी िक उसक
आशंका सही थी। िव णु से सं ाम के बाद सुमाली समा नह हआ था, वह मा अ ातवास म
चला गया था और अब पुन: शि एक कर रहा है - इ और िव णु से बदला लेने के िलये।
उसने यह भी बताया था िक यह रावण और कोई नह सुमाली का ही दौिह है। सुमाली ने ही इसे
अपने उपयोग के िलये अपनी सोच के अनुसार गढ़ा है।
कैकेयी वीरांगना थी। मंथरा क बात उसक समझ म आ गयी थी। अब वह अधीरता से
राि क ती ा कर रही थी िक कब महाराज का आगमन हो और वह उनसे इस िवषय म चचा
करे । िक तु महाराज उस राि आये ही नह । ात: ही उसने महाराज के पास सच
ू ना भेज दी िक
वह उनसे भट करना चाहती है।
अगली राि महाराज का आगमन हआ।
‘‘कल कहाँ रह गये थे महाराज?’’ आते ही कैकेयी के साथ तुत हय ।
‘‘कह नह ! कुछ आव यक काय थे िजनम अ ् धराि यतीत हो गयी थी। िफर सोचा
िक इस समय आपको य यथ क िदया जाय।’’ दशरथ ने अचकचा कर उ र िदया। कैकेयी
के ये तेवर उनके िलये नये ही थे।
‘‘जैसे पहले कभी सोते से जगाया ही नह ?’’
‘‘चिलये अपराध हो गया, मा क िजये।’’ दशरथ ने कैकेयी क हथेिलयाँ थामते हये
कहा।
कैकेयी ने कोई उ र नह िदया।
‘‘ या बात है महारानी? व थ तो ह?’’ दशरथ ने पुन: िकया।
‘‘हाँ शरीर से तो व थ ही हँ।’’ कैकेयी ने उलाहना सा देते हये कहा। उसका यवहार
आज दशरथ क समझ म नह आ रहा था।
‘‘िफर या बात है। शरीर से व थ ह तो मन को कोई क है। आप जब तक प
बताएँ गी नह हम कैसे समझगे!’’ उलझे हये वर म दशरथ ने उ र िदया।
‘‘िजस ी का पित कई-कई रात उसके पास न आता हो उसका मन व थ कैसे रह
सकता है।’’
‘‘महारानी! यह उपाल भ यिद महारानी कौश या या सुिम ा देत तो उिचत भी था
िक तु आपके मुख से तो यह शोभा नह देता। कारण अव य ही कुछ और है।’’ कहते हये दशरथ
ने ताली बजायी- ‘‘महारानी के िलए शीतल जल तुत करो।’’
कुछ ही पल म एक प रचा रका एक चाँदी क थाली म दो सुवण पा और एक करवे
जैसा रजत पा लेकर उपि थत हई। थाली को एक पीिठका पर रखकर उसने करवे से पा म
जल डालकर अलग रख िदया और थाली म िगलास रखकर महाराज के स मुख तुत हई।
पा से उठती गुलाब जल क सुगंध महाराज क नािसका तक पहँच रही थी उ ह ने कैकेयी क
ओर संकेत कर िदया। प रचा रका ने थाली महारानी क ओर बढ़ा दी। महाराज का यह आचरण
कैकेयी को कतई नह च रहा था िक तु प रचा रका के सामने वह कोई हा या पद य
उपि थत नह करना चाहती थी अत: चुपचाप िगलास उठाकर जल पी िलया। िफर उसे जाने का
संकेत कर िदया।
प रचा रका के जाने के बाद वह अ स न वर म बोली -
‘‘यह या खेल था महाराज?’’
‘‘कुछ नह बस आपके मन को स न करने का यास था। अब ोध छोिड़ये और सही
बात बताइये।’’
‘‘ य या जो मने बताया वह आपको सही नह लगता?’’
‘‘िनि त ही वह स य हो सकता है िक तु इस काल नह है।’’
‘‘नह है तो जाइये। आज भी आने क या आव यकता थी?’’
‘‘आपके आदेश क अव ा कैसे कर सकता है दशरथ? वैसे भी दशरथ क िनशाएँ ाय:
आपके ही मनोहारी साि न य म यतीत होती ह। कभी कोई आव यक राजक य काय लग जाये
तब तो िववशता होती है।’’
‘‘वे राजक य काय आपको सदैव लगे ही रहते ह। अहोरा राजक य काय म य त
रहते ह और कभी यिद कुछ िज ासा कर बैठो तो उ र होता है िक ात नह अथवा जाबािल या
सुम से पछ ू ो।’’
‘‘महारानी आज या अपमािनत करने के िलये ही बुलवाया था आपने। कब हमने
आपके के उ र नह िदये?’’
‘‘बहधा ऐसा ही होता है।’’
‘‘अ छा आज या है? आज हम अव य आपको उ र देकर संतु करगे।’’
‘‘आज कोई नह है मेरे पास। आप आ गये मेरे बुलाये से यह आपका उपकार है। अब
राि हो चुक है, आपको भी न द आ रही होगी। कल भी पता नह सोये थे या नह , सो जाइये।’’
‘‘अब तो आपको संतु करने के बाद ही शयन होगा।’’
‘‘ठीक है।’’ कैकेयी ने कुछ देर सोचने का बहाना िकया। िफर बोली- ‘‘सुना है र पुन:
सि य हो रहे ह?’’
‘‘हाँ हये तो ह। रावण ने कुबेर से लंका ा कर ली है।’’
‘‘तो इनक सि यता के ितकार का कोई उपाय िकया आपने?’’
‘‘ या उपाय करना है महारानी? लंका यहाँ से बहत दूर है। उनक सि यता से अयो या
पर कोई संकट नह है।’’
‘‘सि य होकर वे आगे नह बढ़गे या? वह लंका म ही संतु रहगे?’’
‘‘वे लंका म संतु रह या न रह, इससे अयो या को कोई अ तर नह पड़ता। लंका
अयो या से बहत दूर है। व तुत: लंका तो सम आयावत से ही बहत दूर है।’’
‘‘सो तो दूर है। िक तु जब एक बार िकसी के मन म िदि वजय क लालसा जाग जाती
है तो वह यि ाणी नह रह जाता, वह बस एक र -िपपासु नर ेत बन जाता है। पहले भी इन
र ने बहत उ पात मचाया था। अब पुन: वही आतंक नह दोहरायगे या ये?’’
‘‘दोहरायगे तो दोहराने दो। अयो या क सुर ा यव था अभे है। कभी िकसी का
साहस नह हआ अयो या पर आ मण करने का। कभी अयो या म यु नह हआ इसीिलये तो
इसका नाम अयो या है।’’
‘‘महाराज जो कभी नह हआ वह कभी होगा भी नह यह सोचना बुि मानी नह
होती।’’
‘‘कहना या चाहती ह आप?’’
‘‘यही िक एक भल ू तो िव णु ने क थी सुमाली को जीिवत छोड़कर। उसी भल
ू का
प रणाम है िक अब पुन: वह सि य हआ है। दूसरी भल
ू आप आय नपृ कर रहे ह - र का अभी
दमन कर देना ही अभी है। अभी वे अपनी शि बढ़ा नह पाये ह, रोग के ज मते ही उसका
उपचार कर देना चािहये अ यथा वह घातक हो जाता है।’’
‘‘आप यथ िचंितत हो रही ह। र यिद समथ हो भी गये तो वे थमत: देवलोक पर
आ मण करगे, इ से इन र का पुराना वैर है और वहाँ इस बार भी िव णु उनसे िनपटने म
समथ ह।’’
‘‘ या आपको ात नह िक इस बार वयं ा ने रावण को देव से अव य होने का
वरदान दे िदया है?’’
‘‘तो या हआ? अ य र को तो िपतामह ने ऐसा वरदान नह दे िदया। एक अकेला
रावण जीिवत रह कर भी या कर लेगा?’’
‘‘ य ? सुमाली ने या कर िलया? उसने पुन: लंका को अपने आिधप य म ले ही िलया।
और इस बार रावण और उसके भाइय को वयं ा ने ा समेत अनेक िद या से
सुसि जत िकया है। या यह भी आपको ात नह है?’’
‘‘सुना तो है ऐसा िक तु यिद यही स य है तो हम कर भी या सकते ह?’’
‘‘ य ा ने उसे देव आिद से अव य होने का वरदान िदया है, मनु य से नह । ऐसे म
आप लोग ही उसका संहार कर सकते ह।’’
‘‘आपक मित हो गई है या?’’ दशरथ का धैय अब उनका साथ छोड़ने लगा था-
‘‘आप ही अभी कह कर हटी ह िक िपतामह ने उसे ा समेत अनेक िद या िदये ह। उनसे
वह अकेला ही दशरथ क सम त सेना का िवनाश कर सकता है। दशरथ के पास तो िद या ह
नह ।’’
‘‘उसके पास िद या ह तो या इस भय से आपको हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना शोभा
देता है।’’
‘‘और कोई उपाय नह है।’’
‘‘ य महाराज? या सम त आय-नपृ एकजुट होकर अभी उसका दमन नह कर
सकते?’’
‘‘नह !’’ दशरथ ने ित वर म कहा- ‘‘लंका समु के पार ि थत है। उस िवशाल
सागर को पार करना कोई खेल नह है। िफर जैसे अयो या म हमारे पास अभे दुग है वैसे ही
लंका म र के पास भी अभे दुग अव य होगा। इस ि थित म लंका पर आ मण करना
आ मह या के िसवाय कुछ नह है।’’
‘‘र भी तो उस सागर को पार करते ही ह गे। जो साधन वे अपनाते ह वही आप भी
अपना सकते ह।’’
‘‘वे एक-एक दो-दो जलयान से थोड़े -थोड़े सागर पार करते ह। यिद वे अिधक सं या म
भी सागर पार करगे तो भी उ ह कोई बाधा नह है। भरतखंड के तट पर कोई सेना उनका
वागत करने के िलये नह त पर होती। िक तु हम जब पार करने का यास करगे तो उधर
लंका के तट पर उनक सेना हमारे वागत को त पर खड़ी होगी। एक यास म हमारा िजतना
भी सै य सागर पार करे गा उसे लंका क सेना त काल समा कर देगी। हम कोई ितरोध करने
क ि थित म भी नह ह गे य िक हम एक साथ स पण ू सै य को सागर पार नह उतार
सकते।’’
‘‘यह तो वीर ि य वाली भाषा नह हई महाराज। यह तो तापी इ वाकु वंश क
मयादा नह हई।’’
‘‘न हो। िक तु दशरथ आ मह या का इ छुक कदािप नह है।’’
‘‘ या आयावत के सम त ि य आपक ही भाँित कायरता पवू क सोच रहे ह।’’
‘‘िजसे आप कायरता कह रही ह वही बुि मानी है। जो आप चाह रही ह उसे म मख
ू ता
कहता हँ। और आयावत के ि य अब मख ू नह ह।’’
‘‘आह महाराज!’’ कैकेयी हताशा से कंधे झटकते हये बोली- ‘‘मुझे िव ास नह होता
िक यह अयो या का इतना तापी स ाट् बोल रहा है।’’
‘‘नह होता तो रहने दीिजये। िक तु आपके कहने से म आ मह या को उ त नह हो
सकता। खैर अब सो जाइये।’’
‘‘एक और महाराज!’’
‘‘पिू छये! वह भी पिू छये!’’
‘‘आपने ही अभी कहा िक यिद र शि शाली हो गये तो वे थमत: देव पर आ मण
करगे।’’
‘‘हाँ कहा, तो?’’
‘‘ या देव आपके िम नह ह? या उनके संकटकाल म आप सहायता नह करगे?’’
‘‘देव हमारे िम ह। संकटकाल म हम अव य उनक सहायता करगे, िक तु जहाँ
मानवीय यु होगा वह । िद या के यु म हम यथ ाण देने नह जायगे।’’
‘‘यह पहले से कैसे कहा जा सकता है िक यु म िद या का योग होगा या नह ?’’
‘‘नह कहा जा सकता िक तु िद या का योग होते ही वयं को यु से िवरत तो
िकया जा सकता है।’’
‘‘दूसरे श द म पीठ िदखाकर भागा तो जा सकता है।’’ कैकेयी िख नता से बोली।
‘‘अब आप जो कह। आप भी तो िकसी समय हम यु के मैदान से बाहर िनकाल कर
लायी थ । या वह पीठ िदखाना नह था?’’
‘‘कोई अथ नह है आपसे वाता करने का। अब आप कुतक करने लगे ह। सो ही जाइये
अब।’’
‘‘यही उिचत है।’’ कहते हये दशरथ लेट गये।
कैकेयी ने उठकर दीपक क लौ म म क और आकर वह भी लेट गयी, दूसरी ओर
करवट बदलकर।
38. इ अग य के आ म म
‘‘महिष णाम वीकार कर।’’ महिष अग य के आ म म वेश करते हये इ ने
कहा।
‘‘देवे को या आशीवाद दँू म?’’ अग य ने हँसते हये कहा ‘‘देवे के सौभा य से
तो सारा िव पहले ही ई या करता है।’’
‘‘ या कहते ह मुिनवर! इस समय तो इ को आपके आशीवाद क सवािधक
आव यकता है। इस समय यह कृपणता? दया कर, इस समय भरपरू आशीवाद द।’’
‘‘महिष गौतम के साथ ऐसा घात करने के बाद भी जो िव म पज
ू नीय है भला उसे
अिकंचन अग य के आशीवाद से या अ तर पड़ता है!’’ अग य ने कटा करते हये चुटक
ली।
‘‘महिष य लि जत करते ह?’’ इ ने संकुिचत होते हये कहा - ‘‘ या इस अपराध
के िलये मुिनवर इ को मा नह करगे?’’
‘‘ मा? अग य कौन होता है आपको मा करने वाला देवे ! मा का तो तब
उठता जब पहले दंड का िवधान हआ होता। ि लोक म ऐसा कौन है जो आपको द ड देने का
िवचार कर सके। आप तो िन कंटक िवहार क िजये, जीवन का आनंद लीिजये।’’
‘‘गु देव! अब और वा हार मत क िजये न! कहा न इ अ यंत लि जत है।’’
‘‘अरे ! यह या कह रहे ह देवराज? ल जा तो नारी का भषू ण है या दुबल क िववशता
है। आप न तो नारी ह और न ही दुबल। आप लि जत य होते ह? लि जत तो ह गी देवी
अह या।’’
‘‘ऋिषवर! अब और लि जत न ही कर। बताइये िकस कार मा माँगँ?ू या ायि त
क ँ ?’’
‘‘सच म? ायि त करगे आप?’’ अग य ने हँसते हये पछ
ू ा।
‘‘जी! सच म! जैसा आप िनदश करगे।’’
‘‘और ायि त करने के उपरांत पुन: वही करगे। आप अपने च र से िववश ह।’’
‘‘नह ऋिषवर अब पुन: ऐसा कुछ नह होगा। आप आशीवाद द बस।’’
‘‘देवे ! आपक इन बात पर भरोसा वही कर सकता है जो आपको जानता न हो।’’
खुलकर हँसते हए महिष बोले- ‘‘िफर भी तुत योजना म म आपका सहयोगी हँ। यह आयोजन
आपके पाप के चलते िन फल न हो इसिलए आपको आशीवाद देना इस समय मेरी िववशता है।
चलो तो - िन कंटक भव, िवजयी भव! िक तु सुधरने का यास अव य कर। देवे का आचरण
िव के िलए अनुकरणीय होना चािहए।’’ णांश के मौन के बाद महिष पुन: हँसते हए बोले- ‘‘
अब तो स न हए देवराज?’’

नारद क योजना पर अमल आरं भ हो गया था। समच ू े दि णापथ म धीरे -धीरे आ म क
थापना हो रही थी। इस सारे अिभयान का नेत ृ व कर रहे थे महिष अग य। महिष अग य का
कुल भी देव क कृपा ा ऋिष-कुल म से एक था। िकंवदंितय के अनुसार कभी िव य पवत
इतना ऊँचा था िक इसे अलं य माना जाता था। महिष अग य देव क योजनानुसार जब किप-
ऋ को संगिठत करने के उ े य से यहाँ पहँचे तो िव य उ ह स मान देने के िलये झुक गया।
अग य ने पवत को आदेश िदया िक जब तक म वापस लौट कर न आऊँ तब तक इसी कार
झुके रहना। तभी से अनके आदेश का पालन करता हआ िव य आज तक झुका बैठा है। ... और
अग य जो एक बार दि णापथ क ओर गये तो िफर कभी वापस लौटे ही नह , वह के होकर
रह गये और िव य आज भी उनक वापसी क ती ा म झुका बैठा है।
यह तो िकंवदंती है। वा तिवकता म तो अग य ने उस काल तक अलं य मानी जाती
दुगम पवत-उप यकाओं म से िव य को पार करने का माग खोज िलया था और उसी माग से
उसे पार कर गये थे। तिमलभाषी मानते ह िक उनक भाषा का याकरण महिष अग य ने ही
तैयार िकया था। यह इस बात का भी माण है िक अग य ने उ र और दि ण क खाई पाटने के
िलये िकतना मह वपण ू काय िकया। अ यथा तो उस काल म आय ि ज का िव य पार करना
विजत ही था, िजसके चलते दोन भाग म पर पर स ब ध लगभग शू य था। महिष अग य ने
न िसफ दि ण म सं कृत का सार िकया अिपतु आय सं कृित का भी वहाँ सार िकया। इस
म म उ ह ने दि ण क भाषाओं को सीखा, समझा और उ ह यवि थत भी िकया। उनका यह
अ ितम योगदान अपने आप म अनठ ू ा है। ण य है।

इस समय इ उसी आयोजन क गित का मू यांकन करने आये हये थे। उनका
िवमान िवशाल आ म के बाहर खड़ा था।
‘‘महिष कोई असुिवधा तो नह हो रही काय-संचालन म?’’
‘‘कैसी असुिवधा? देवे हम ऋिषय के शरीर तो क के सहचर होते ह। असुिवधाएँ
हमारी सहचरी होती ह। आप बताइये या ा म कोई क तो नह हआ?’’
‘‘िठठोली कर रहे ह महिष!’’
‘‘अरे नह ! देवे , भला म आपसे िठठोली य क ँ गा। इतना अवकाश कहाँ है जीवन
म िक िठठोली कर सकँ ू ।’’
‘‘मुिनवर! वानर कोई ितरोध तो उ प न नह कर रहे ?’’
‘‘देवे ! ये वानर बड़े सहज ाणी ह। ये ितरोध तभी करते ह जब इ ह अिव ास होता
है या भय होता है। हम इनके सामने ऐसा कोई कारण ही य उपि थत कर िजससे इ ह हमारे
ऊपर अिव ास हो या हमसे भय हो?’’
उस काल म इस परू े े म नगरीय स यता का सार नह हआ था। नारद क योजना
के अनुसार वनवासी कबील वानर, रीछ आिद म घुसपैठ कर उ ह अपने भाव म लेने का काय
गु प से स पािदत िकया जा रहा था। ये जनजाितयाँ अधिवकिसत अव य थ िक तु मेधा और
शारी रक शि म आय से कमतर नह थ । इ ह वानर और रीछ जैसे पशुओ ं के नाम से य
स बोिधत िकया गया, इस िवषय म म माण पवू क कुछ नह कह सकता िक तु जो माण कहते
ह उनके अनुसार भारत म सबसे ाचीन जो मानव अवशेष पाया गया है वह िकसी नी ो वंश का
है। लगभग न बे हजार वष ाचीन यह अवशेष केरल म पाया गया है। यह मािणत करता है िक
आज बेशक भारत म नी ो जाित के लोग नह ह िक तु िकसी काल म दि ण भारत म वे अव य
बहतायत म रहे ह गे। इनका वंश भारत म कैसे समा हआ इस िवषय म कुछ भी माण पवू क
कहना संभव नह है।
ऐसे म आय जाित जो गौर वण और स दय म िव म िसरमौर मानी गयी है अगर नी ो
जाित को वानर या रीछ क सं ा दे दे तो उसम अचंभे क कोई बात नह । उस पर भी तब, जब
आय जाित स पण ू भारत म िवजेता के तौर पर थािपत रही हो। स यता और सं कृित के उ कष
म भी आय जाित इ ह अपने सामने बहत िपछड़ा हआ ही मानती थी। िक तु इस समय
प रि थितय को णाम करना आव यक था। देव को इस समय इ ह वनवािसय का आसरा था,
इसिलये इ ह अपने साथ जोड़ना ही था।
‘‘मुिनवर सफलता िमलेगी हम?’’ इ ने सशंक वर म पछ
ू ा।
‘‘ य ? न िमलने का या कारण है?’’
‘‘भगवती लोपामु ा तो असंतु नह ह हम देव से िक हमने उनसे मनु महाराज के
आदेश का उ लंघन करवा िदया?’’
‘‘देवे ! आप भगवती को या समझते ह? वे मं ा ह। वेद क रचना म उनका
मह वपणू योगदान है। मनु महाराज के आदेश आम आय के िलये थे तािक आय सं कृित कह
िवकृत न हो जाये। हम तो इन आिदवािसय म अपनी सं कृित के बीज बोने आये ह। हम तो यह
िस करने आये ह िक अब मनु महाराज का आदेश अ ासंिगक हो गया है। आय यिद िवं य के
उ र म ही बने रहे तो यह सारा भभ
ू ाग र सं कृित क बाढ़ से आ लािवत हो जायेगा और िफर
रावण को देर नह लगेगी आय सं कृित का मलू ो छे द करने म।’’
‘‘सही कह रहे ह आप।’’
‘‘अरे देवे ! आप कब आये पता ही नह चला?’’ यह भगवती लोपामु ा, महिष अग य
क प नी, का कंठ वर था।
‘‘अभी आया हँ भगवती!’’ इ ने झुक कर उ ह णाम करते हये कहा। ‘‘आप लोग
देवकाय से यहाँ इस बीहड़ म पड़े हये ह तो देव का भी दािय व बनता है िक आपक सुिवधा क
सुिध लेते रह।
‘‘चापलस
ू ी मत करो इ !’’ देवी वा स यपण
ू हा य से बोल ।
इ और अग य भी हँस िदये।
‘‘अरी मुि के! देख देवे आये ह, कुछ यव था कर।’’ अपने पीठ पर िबखरे गीले
बाल का िसर पर जड़ ू ा सा बनाते हये देवी ने जोर से आ म के पीछे क ओर आवाज दी।
‘‘जी देवी!’’ ित उ र आया।
‘‘देवे एक-दो वष हम इनके बीच पैठ बनाने दीिजये। इ ह हमसे िम वत होने दीिजये
िफर आप लोग यहाँ हमारे गु कुल म यु िव ा का िश ण आरं भ कर दीिजये। आपका नायक
तो अवत रत होने ही वाला है।’’
‘‘जैसी आ ा देवी क । हम तो बस आपके संकेत क ती ा म ह। जैसे ही आप इंिगत
करगी, हम लोग अपना काय आरं भ कर दगे।’’
‘‘नारद स य ही अ यंत दूरदश ह। र सं कृित क काट आय सं कृित नह यह वानर
सं कृित ही हो सकती है।’’ अग य ने नारद क शंसा करते हये कहा।
‘‘जी मुिनवर! इ ह आय सं कृित म दीि त करना कब से आरं भ करना है?’’ इ ने
िकया।
‘‘गलत सोच रहे ह देवे । ऐसा कोई भी यास नह करना है हम। जैसे हम आय
सं कृित यारी है, वैसे ही सबको अपनी सं कृित यारी होती है। इन वानर के साथ भी ऐसा ही
है। यिद आपने इ ह आय सं कृित म दीि त करना आरं भ िकया तो आप आय क सं या म
थोड़ी सी अिभविृ अव य कर लगे िक तु शेष वानर को अपना श ु बना लगे। हम ऐसा नह
कर सकते। िफर आप इ ह ा ण या ि य के प म तो वीकार करगे नह । आयावत म शू
ने अपनी िन नतर ि थित से समझौता कर िलया है य िक उ ह ने इसे अपने पवू ज म का फल
मान कर वीकार िकया है। साथ ही उ ह वण यव था से रिहत िकसी दूसरी सं कृित का भान
ही नह है। वे यह सोच ही नह सकते िक सम त नाग रक समान भी हो सकते ह। इसके िवपरीत
ये वानर तो समानता क सं कृित म जी रहे ह ये अपनी िन न ि थित वीकार नह कर पायगे,
थोड़े ही िदन म िव ोह कर दगे। िफर आप वापस जहाँ से चले थे वह आ जायगे बि क उससे भी
बुरी ि थित म ह गे।’’
‘‘िफर या करगे हम?’’
‘‘वे जहाँ ह, जैसे ह उसी ि थित म हम िनमल मन से, सेवा भाव से उनके दैिनक जीवन
क आव यकताओं म, उनक हारी-बीमारी म उनक सहायता करगे। उ ह े जीवन देने का
यास करगे, तभी वे हम पर िव ास कर पायगे।’’
‘‘जैसा आप उिचत समझ!’’ इ ने हिथयार डाल िदये।
‘‘देवे ! मुझे अपनी सं कृित पर गव है िक तु रावण से मेरा िवरोध इसिलये नह है िक
वह िकसी दूसरी सं कृित का पोषक है। येक यि क अपनी सोच होती है, येक सं कृित
क अपनी िवचारधारा होती है। हम अपनी सोच, अपनी िवचारधारा दूसरे पर थोपने का कोई
अिधकार नह है। इसी तरह से दूसरे को भी अपनी सोच, अपनी िवचारधारा हम पर थोपने का
कोई अिधकार नह है। िफर भी मेरा अपना मानना है िक कुछ भी उ म जहाँ से भी िमले हण
करना चािहये। रावण देवे का िसंहासन कल छीनता हो, आज छीन ले अग य को इससे रं च
मा आपि नह ।’’
‘‘ या कह रहे ह मुिनवर????’’ इ एकदम घबरा कर बोल पड़े ।
‘‘बीच म मत बोल ..’’ अग य ने उ ह हाथ के इशारे से रोकते हये कहा- ‘‘मेरा रावण
से िवरोध इसिलये नह है िक वह कल इ के िसंहासन पर अिधकार कर लेगा। वह इस यो य है।
मेरा उससे िवरोध इसिलये है िक उसके पीछे सुमाली जैसा यि है। उसने रावण के भीतर अपनी
सोच योिपत कर दी होगी। वह कल अव य अपनी सोच हमारे ऊपर आरोिपत करने का यास
करे गा। रावण यिद नह करे गा तो सुमाली उससे करवायेगा। म न तो िकसी के ऊपर अपनी
सं कृित, अपने सं कार थोपने का प धर हँ और न ही िकसी को अपने ऊपर कुछ थोपने का
अिधकार दे सकता हँ। हाँ िजसे म उ म और े समझँग ू ा उसे अपने मन से वीकार क ँ गा।
उसे हण करने म िवलंब नह क ँ गा।’’
इ ने राहत क सांस ली। तभी मुि का एक डिलया म फल लेकर आ गयी। उसे आता
देख कर अग य चुप हो गये। उनका चेहरा िनिवकार था।
‘‘यह रख दँू माता?’’ उसने पछ
ू ा।
‘‘हाँ! हाँ! रख दे।’’
‘‘लीिजये देवे ! ा क िजये!’’ अग य ने कहा।
‘‘पहले आप और देवी हण कर।’’
‘‘ले, पहले तू ले मुि के!’’ लोपामु ा ने एक फल उठा कर देते हये कहा। ‘‘अरी बैठ जा तू
भी, खड़ी य है?’’
मुि का तकरीबन चौदह वष क साँवली सी ल बे कद क बािलका थी। व से लेकर
जाँघ तक व कल (व ृ क छाल के व ) धारण िकये थी। वह बैठ गयी तो उसके सर पर यार
से हाथ फेरती हयी लोपामु ा बोल -
‘‘देवे ! यह मेरी सबसे यारी सखी है, मुि का।’’ मुि का सकुचा कर लोपामु ा के
पीछे िछपने लगी।
‘‘अरी या करती है? देवे को णाम तो कर!’’
मुि का ने यं चािलत से हाथ जोड़ िदये। उसका िसर संकोच से छाती पर झुका जा रहा
था। उसक मु ा पर सब हँस िदये। वह और लजा गयी।
सबने फल छीलना आरं भ कर िदया तो अग य ने मुि का से पछ
ू ा-
‘‘पु ी! तेरी बहन का िच कैसा है अब? औषिध से लाभ हआ?’’
‘‘जी गु देव! बहत लाभ हआ। म अभी आई तो वह खेल रही थी। दो वष पवू मेरे भइया
को भी ऐसा ही वर हआ था तो वह तो जान से ही चला गया था पर तु अब आपक औषिध ने तो
एक िदन म ही चम कार कर िदया।’’ संकोच के बावजदू मुि का ने बड़े उ साह से आँख गोल
करके उ र िदया।
‘‘तो जाते समय और औषिध िलये जाना। बस वह िबलकुल ठीक हो जायेगी।’’
‘‘जी गु देव।’’
‘‘और मने तु ह कल कुछ वन पितयाँ िदखाई थ , उनके गुण-धम बताये थे। याद ह या
भल
ू गई?’’
ू कैसे जाऊँगी - याद ह। सुनाऊँ ..?’’ मुि का ने गव से कहा। उसका संकोच कुछ
‘‘भल
कम हो गया था।
‘‘नह ! नह ! मने मान िलया तुझे याद है।’’ अग य ने यार से कहा।
‘‘अ छा मुिनवर आ ा दीिजये। कोई भी आव यकता हो तो इंिगत कर दीिजयेगा।’’ इ
ने अग य और लोपामु ा दोन क चरणरज लेते हये कहा। दोन ने िसर पर हाथ रख कर
आशीवाद िदया। िफर इ ने मुि का क ओर देखा। उसने फौरन हाथ जोड़ िदये ‘‘ णाम
देवे ।’’
‘‘आशीवाद पु ी। खबू स न रहो।’’ इ ने भी यार से उसके सर पर हाथ फेरते हये
कहा।
‘‘वा स य ही रखना इसके ित देवराज। इसे देवी अह या या आ णी या अपनी कोई
अ सरा मत समझ लेना।’’ अग य ने पुन: चोट क ।
‘‘ऋिषवर! आप य बार बार लि जत कर रहे ह? मुझे स चे िदल से अपने कृ य पर
पछतावा है। अब पुन: इ से ऐसा कोई भी दु कृ य नह होगा।’’ कहते हये इ बाहर िनकल
गये। उनके साथ अग य भी िवदा करते हये िनकल गये। अकेले म मुि का ने लोपामु ा से पछ
ू ा-
‘‘माता ये वही देवे थे ना जो वग के राजा ह।’’
‘‘हाँ पु ी।’’
‘‘लेिकन माता ये तो वैसे नह ह?’’
‘‘कैसे नह ह?’’
‘‘वैसे ही जैसा लोग कहते ह।’’
‘‘अरी; कैसा कहते ह लोग, सीधे-सीधे बोल ना, बात को ख च य रही है?’’ लोपामु ा
ने खुलकर हँसते हये कहा।
‘‘लोग कहते ह िक ... िक ... िक देवे तो बड़े ोधी ह, बड़े दु ह, िकसी का
स मान नह करते।’’
‘‘वे लोग कभी िमले ह देवे से?’’
‘‘नह माता!’’
‘‘तू तो आज िमल ली, तुझे कैसे लगे?’’
‘‘मुझे तो अ छे लगे।’’ मुि का पवू वत उ साह से बोली।
‘‘तो बस! तू उ ह अ छा मान। जो उनसे िमले ही नह वे या जान!’’
मुि का सहमित म िसर िहलाने लगी थी।
लोपामु ा उस न ह सी बािलका के िन कलुष मन म इ के ित िकसी दुरा ह के
पौधे को प लिवत नह होने देना चाहती थी इसिलए वह इ के दु कृ य क गाथा को गोल कर
गयी। वे और अग य तो इन सबके िनमल मन को और भी िनमल बनाने के िनिम यहाँ आये
थे।
39. सुमाली क तैयारी - 1
‘‘मुि क! तुम अपने साथ अपने भरोसे के सौ लोग को लेकर दि ण पवू के ीप क
ओर िनकल जाओ।’’
‘‘जी महामिहम!’’
सुमाली अपने कुछ िव थ कूटचर के साथ ासाद से दूर एक वन म बैठा हआ था।
उसके साथ पाँच यि बैठे हये थे, शेष इन लोग के चार ओर िछतराये हये लकिड़याँ एक
करने के बहाने चार ओर ि रख रहे थे। इ ह िनदश था िक दूर से ही िकसी को भी आता
देखते ही सुमाली को सतक कर द।
िजसे सुमाली ने मुि क कह कर स बोिधत िकया था वह खबू ऊँचा, काले रं ग का
लगभग पतालीस वष का यि था। उसने व के नाम पर मा कमर म लँगोट क भाँित एक
धोती बाँध रखी थी जो उसक जाँघ तक आ रही थी। गले म एक सीिपय क माला थी। खबू
गठीला बदन था। छोटे-छोटे घुंघराले बाल वाला यह यि देखने से ही कोई मछुआरा लगता था।
‘‘वहाँ तु ह वहाँ के शासन क शि का आकलन करने के साथ-साथ जनता म अपने
स ाट् का चार करना है। यह कहने क तो कोई आव यकता नह होनी चािहये िक तु ह यह
सब कुछ इस चतुराई से करना है िक िकसी को कानो-कान भनक न लगे िक तुम इसी काय हे तु
आये हो। तु ह वहाँ के लोग के म य इस कार घुल-िमल जाना है जैसे तुम वह पैदा हये हो। अब
यह सब तुम िकस कार करोगे, यह तुम ही जानो। वहाँ क प रि थितयाँ वह जाकर तु ह पता
चलगी।’’
‘‘जी महामिहम!’’
‘‘कोई ?’’
‘‘कोई नह ! मुझे कब थान का आदेश है?’’
‘‘िजतना शी संभव हो सके।’’
‘‘कल ात: ही हम िनकल जायगे।’’
‘‘उिचत। अब तुम जा सकते हो। अपनी तैया रयाँ करो जाकर।’’
वह यि णाम कर चला गया तो सुमाली अ य क ओर घम
ू ा।
उसके साथ बैठे शेष चार यि िकसान क सी वेशभषू ा म थे। सामा य यि व।
साँवला रं ग। घुटन से कुछ ही नीचे आने वाली धोती और कंधे पर अंगरखे जैसा व ।
‘‘इस स पण
ू अिभयान का नेत ृ व तु ह करना है िव द्- वधन!’’
‘‘महामिहम नेत ृ व तो आपको ही करना है सम त अिभयान का। हम तो सेवक ह
आपके।’’
िजन दोन यि य क ओर सुमाली ने संकेत िकया था उनम से एक बोला। यह िव द्
था - लगभग प चीस वष का सु दर मुखाकृित का युवा। दूसरा, वधन भी उसी का समवय क
था। इसके मुख पर िकसी यािध ने ह के भरू े दान के प म अपने िच ह छोड़े थे।
‘‘यह वा चातुय अिभयान के िलये बचा रखो िव द्। तु हारी सफलता पर ही लंका का
भिव य िनभर करता है।’’
‘‘जैसा आदेश आपका।’’
‘‘तुम दोन अपने िजतने भी साथी एक कर सको, कर लो और सम त लंका म फै ल
जाओ। िकतने यि एक कर लोगे?’’
‘‘कम से कम एक सह ।’’ िव द् ने उ र िदया।
‘‘लंका यवसाियय के कुबेर के साथ चले जाने के कारण िजतने भी यि बेकार हो
गये ह, उ ह टटोलो। जो भी आिथक प से अिधक िवप न िदखाई पड़ उ ह लालच दो िक
सरकार उ ह भरतखंड के दि ण तट पर बसाने म भरपरू आिथक सहयोग करे गी। एक माह म
िजतने भी यि एक कर पाओ उ ह प रवार सिहत लेकर सागर के उस पार ले जाकर बसाना
आरं भ कर दो। अपने कुछ सािथय को यह छोड़ देना, वे िनरं तर तु हारे िलये नये यि य को
खोजते रहगे। शेष को लेकर तुम भारत भिू म के दि णी तट से आरं भ कर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर
पचास-पचास, साठ-साठ यि य क बि तयाँ बसाते चले जाओ। यान रखना दो बि तय के
म य एक योजन से अिधक क दूरी न हो। तु ह अपने सािथय और इन यि य के सहयोग से
वन के म य से माग का िनमाण करते हये आगे बढ़ना है। माग इस कार बनाना िक तु हारे
अित र अ य िकसी को भी माग के अि त व क भनक तक न लग पाये।’’
‘‘जी!’’
‘‘मुझे नह लगता िक इसम िकसी बाधा का सामना करना पड़े गा, िसवाय व य-पशुओ ं
के। उनके िलये यव था करने म तुम स म हो ही। और िज ह बि तय म बसाना, उ ह भी स म
बनाते जाना। आरं भ म तु ह सब जनशू य े ही िमलगे। बीच-बीच म कुछ वनवासी कबीले
िमलगे। उनसे तु ह कोई झगड़ा नह करना है। उ ह उपहार आिद देकर अपना िम बनाना है। इन
कबील को आय सदैव ितर कृत करते आये ह। यिद थोड़ी सी भी चतुराई िदखाओगे तो तुम
सहजता से उनसे िम ता थािपत कर सकोगे। इ ह समझाना िक र सं कृित म उ ह सबके
समान ही मान स मान ा होगा जो आय ारा उ ह कभी नह ा हो सकता। स पण ू
द डकार य े म तु ह अपनी सं कृित का सार करना है।’’
‘‘जी!’’ िव द् ने हंकारी भरी।
‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो वधन?’’ कुछ बोलने को उ त सारण से सुमाली ने
िकया।
‘‘जी!’’
‘‘िनःशंक बोलो। इस अिभयान को अंतत: तो तु ह अपने अनुसार ही संचािलत करना
है।’’
‘‘ य न हम यहाँ िजन यि य को जोड़ उन म जो भी युवा ह उ ह लंका के िश ु
सैिनक के प म भत करते चल। आप हम कुछ िशि त सैिनक दे द जो उ ह िशि त करते
रहगे। साथ ही उ ह अ -श का िनमाण भी िसखाते रहगे। वन ांत म रहने के िलये भी उ ह
सैिनक के प म िशि त होना आव यक है और भिव य म वे हमारे सै य अिभयान म भी काम
आयगे।’’
‘‘तु हारा सुझाव तो अ छा है।’’
‘‘िक तु इसम यय अ यिधक आयेगा।’’
‘‘उसक िचंता मत करो। य िप अभी यवसाियय के कुबेर के साथ चले जाने के कारण
लंका का यवसाय चौपट हो चुका है, उसक आिथक ि थित अ छी नह है तथािप तु ह इस काय
म धन क कमी नह होने दी जायेगी। आर भ म अिधक यि नह जुड़गे तुमसे अत: आरि भक
काल म यय भी अिधक नह होगा। ... और ... कुछ काल म हम भी धन ाि के ोत खोज ही
लगे। तुम जुट जाओ अपने अिभयान म। यह ताव तु हारा है अत: इसक स पणू योजना भी तुम
दोन िमलकर ही बनाओ। मुझसे जो भी सहयोग माँगोगे िमल जाएगा।
‘‘जी!’’ दोन ने समवेत वर म उ र िदया।
‘‘अभी िकतने सैिनक चािहये ह गे तु ह?’’
‘‘िजतने अिधक संभव हो सक।’’
‘‘अिधक सैिनक क उपि थित म अिभयान गु नह रह पायेगा। वनवािसय के मन म
शंका उ प न हो सकती है। आरं भ म पाँच सौ सैिनक पया ह गे। जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ते
जाओगे तु ह अिधक सैिनक क आव यकता होगी। आव यकतानुसार हम तु ह और सैिनक देते
जायगे।’’
‘‘जी! आरं भ म इतने पया ह। कोई बाधा नह आयेगी।’’ वधन ने संतुि के साथ उ र
िदया।
‘‘यिद कोई आय नपृ माग म आया तो? तब तो किठनाई उ प न हो जायेगी। िव द् ने
िकया।
ू िव ास के साथ कहा- ‘‘आय िव य के दि ण म ह ही
‘‘नह आयेगा।’’ सुमाली ने पण
कहाँ। उ ह ने तो आय ि ज हे तु िव य पार करना विजत कर रखा है। उ ह तो लगता है िक यहाँ
के वनवािसय के साथ िमलने से उनका र दूिषत हो जायेगा।’’ कहता हआ इतनी देर म
पहली बार सुमाली मु कुराया।
‘‘तब ठीक है। हम लोग भी थान करते ह। आज से ही अिभयान म जुट जाते ह।
‘‘दे दो इ ह।’’ सुमाली ने शेष दोन यि य से कहा।
उ ह ने अपने कपड़ म न जाने कहाँ िछपी दो पोटिलयाँ िनकालकर िव द् और वधन
को थमा द ।
‘‘यह धन रख लो अिभयान आरं भ करने के िलये।’’
िव द्- वधन ने पोटिलयाँ सहे ज ल ।
‘‘अ य कोई ?’’
‘‘नह महामिहम। अब आ ा द।’’
सुमाली ने वीकृित म िसर िहला िदया। ये दोन भी णाम कर थान कर गये।
इस कार अब दि णापथ म देव के गु कुल के अित र सुमाली क र बि तय का
भी िनमाण आरं भ हो गया। इस े पर वच व के िलये दोन िवरोधी शि याँ मैदान म आ चुक
थ िक तु अभी दोन को एक-दूसरे क योजना क कोई भनक नह थी। दीघ काल तक होनी भी
नह थी।
40. नारद-दशरथ संवाद
‘‘महाराज क जय हो! देविष नारद ासाद म पधारे ह और आपके दशन क अनुमित
चाहते ह। वे इधर ही आ रहे ह।’’
ार पर हाथ जोड़े नत मु ा म खड़ी हई दासी ने िवन ता से अयो या नरे श दशरथ और
महारानी वैâकेयी से िनवेदन िकया। उसके िनवेदन ने दोन क तं ा तोड़ दी।
अयो या नरे श दशरथ ातःकाल क दैिनक ि याओं से िनव ृ होकर प मिहषी के साथ
ासाद म अनमने से पड़े थे। राजसभा म जाने का समय हो रहा था िक तु उसक तैयारी के िलये
अभी वे उ त नह हये थे। कुछ िदन पवू रावण को लेकर कैकेयी के साथ हए िववाद क छाया
अभी भी उनके स ब ध पर िव मान थी। संभवत: उनक अ यमन क अव था का यह भी एक
कारण था।
देविष के आगमन क सच ू ना पाते ही दशरथ और कैकेयी दोन सजग हो गये और
कैकेयी ने त काल कहा - ‘‘आदर से अिवल ब लेकर आओ देविष को।’’
दासी के जाने के साथ ही दोन वयं भी उठ खड़े हये और अपने व ठीक करते हये
ार क ओर लपके। दशरथ ने वाचक िनगाह से कैकेयी को देखते हये कहा - ‘‘ये देविष
अक मात कैसे आ गये?’’
‘‘ या पता? देविष और संकट कब, कहाँ अक मात उपि थत हो जाय यह तो िवधाता
भी नह जान सकता।’’
दशरथ रानी क बात पर इस अ यमन क अव था म भी मु कुराये िबना न रह सके।
दोन ही अब तक क से िनकल आये थे और िवशाल वीिथका म आगे बढ़ रहे थे।
वीिथका म थोड़ी-थोड़ी दूर पर प रचा रकाएँ हाथ बाँधे खड़ी थ । सबने ह क गुलाबी कंचुक और
वैसा ही अधोव धारण िकया हआ था। सभी युवा थ । थोड़ी ही देर म सामने से आते हए नारद
िदखाई पड़ गये। दासी उनके पीछे िसर झुकाये चली आ रही थी।
नारद को देखते ही राजा और रानी क गित बढ़ गई। दोन ने देविष क पगधिू ल लेकर
उ ह णाम िकया और परू ी ा का दशन करते हए उ ह क क ओर आमंि त िकया।
क म वेश कर देविष को एक ऊँची सी पीिठका पर आसन देकर स ाट वयं
सा ा ी के साथ सामने अपे ाकृत नीची पीिठका पर बैठ गये। दासी को आ ा दी - ‘‘देविष के
पाद ालन हे तु जल और तदुपरांत िम ा न क यव था करो।’’
दासी के चले जाने पर दशरथ ने देविष से औपचा रक िकया -‘‘माग म क तो
नह हआ देविष?’’
नारद हँसे। अपनी वीणा पर हाथ िफराया िफर ित िकया -‘‘राजन! अपने यसन
से िकसी को क होता है या? देशाटन तो मेरा यसन है।’’
इसी समय दासी थाली म जल ले आई। राजा ने िविधवत नारद के पाँव पखारे िफर
औपचा रक िकया -
‘‘सान द तो ह ऋिषवर?’’
‘‘आन द के तो दो ही श ु है राजन् मह वाकां ा और अहंकार ..’’ नारद ने खुल कर
हँसते हये कहा- ‘‘और उन दोन से ही नारायण ने अपनी माया क मोिहनी ारा मुझे मुि िदला
दी है।’’ कहकर नारद देर तक हँसते रहे ।
‘‘देविष! इस मु हा य का रह य हम नह बताएँ गे?’’ कैकेयी ने नारद के इस सुदीघ
हा य से िवि मत होते हये िकया।
‘‘कुछ नह महारानी! बस मोिहनी को रझाने के िलये किपवत क गयी अपनी उछल-
कूछ याद आ गयी थी। अहंकार और मह वाकां ा से मु करने हे तु कैसा मख
ू बनाया था मुझे
नारायण ने।’’
दशरथ और कैकेयी भी मु कुरा िदये िफर वाता को आगे बढ़ाने के उ े य से दशरथ ने
िकया -
‘‘अ छा छोिड़ये इन बात को, देविष! आप अपने आगमन का योजन बताएँ । कैसे
अक मात इस अिकंचन का मरण हो आया?’’
‘‘कोई िवशेष नह ! बस दीघ काल से आपके दशन नह ा िकये थे, मन म िवचार
आया और म उपि थत हो गया आपका स कार ा करने।’’
‘‘देविष िबना योजन के कह नह जाते, यह बात तो ि लोक जानता है।’’ िकंिचत
हा य के साथ कैकेयी ने आगे कहा - ‘‘अभी कट नह करना चाहते तो कोई बात नह ।’’
‘‘ऐसा नह है देिव! नारद वाथ नह है। नारद को तो वजन के नेह क सदैव
अिभलाषा बनी रहती है। इसी अिभलाषा के वशीभत
ू वह िबना के पयटनशील रहता है।
‘‘ऐसा ही सही देविष। आपक अनुक पा तो हम आय स ाट पर सदैव बनी ही रहती है।
और बताइये देवराज तो कुशल से ह?’’ महाराज दशरथ ने बात को आगे बढ़ाते हए कहा।
‘‘शीष पर बैठा यि कह कुशल से रह सकता है?’’ नारद ने पुन: िवनोद िकया।
नारद िवनोद का कोई अवसर चक
ू नह सकते थे।
‘‘ य मुिनवर? देवराज को या िच ता है?’’
‘‘वही जो उ ह सदैव रही है - कोई उ ह शीष पद से युत न कर दे।’’
‘‘यह िचंता तो वाभािवक है। िक तु देवराज से उनका िसंहासन छीनने क साम य
िकसम है?’’
‘‘ य महाराज या आजकल महारानी के क के बाहर के संसार से पण
ू त: िवर हो
गये ह?’’ नारद ने उपहास करते हये कहा।
‘‘ऐसा य कहा आपने देविष! दशरथ सम त संसार के समाचार का ान रखता है
िक तु उसे तो देवराज पर कोई आस न संकट िदखाई नह पड़ता।’’
‘‘ तीत तो ऐसा ही होता है राजन् िक आपने महारानी के अित र सम त िव से
स पक याग ही िदया है अ यथा आप लंके र क उपलि धय क उपे ा नह करते।’’
दशरथ ने कोई उ र नह िदया। उ ह कैकेयी के साथ हये अि य वातालाप का मरण हो
आया। उ ह मौन देखकर नारद आगे बोले -
‘‘ ा के वरदान से रि त रावण के आ मण का खड्ग सदैव उनके कंठ पर रखा
हआ है।’’
‘‘स य है। रावण का आ मण तो संभािवत है ही देवे पर। िक तु देवराज उससे
िनपटने म स म ह?
‘‘सहज नह है राजन् यह काय। लंका तो उसने ा कर ही ली है। अब न जाने कब वह
देवलोक पर चढ़ बैठेगा यही आशंका देवराज को बेचन ै िकये है। उसका दमन अव यंभावी है
िक तु जगतिपता ा के वचन के चलते वह देव, दानव, य , नाग आिद सभी के िलये अव य
है। ा जी के वचन को कैसे कोई िम या हो जाने दे! यिद र े आ मण करता है तो
पु षाथ होते हये भी देव , लोकपाल आिद को परािजत होना ही पड़े गा।’’
कुछ देर मौन रहा िफर कैकेयी ने िकया - ‘‘तो अब हम या आ ा है देविष?’’
‘‘आ ा नह , एक परामश है देिव! र े क क ित से देव सं कृित ही नह आय
सं कृित को भी िवनाश का भय है। यिद आप सब नरे श आय सं कृित को अ ु ण रखना चाहते
ह तो सबको िमल कर र े को परािजत करने का उ ोग करना ही होगा।’’
‘‘यही तो म भी कहती हँ देविष िक तु आय स ाट तो सभी जैसे सुषु ाव था म पड़े ह।
उ ह तो जैसे इस आस न संकट का कोई भान ही नह है।’’ कैकेयी ने नारद से सहमित कट
करते हए कहा।
‘‘आप दोन स य कहते ह िक तु आज आयावत म िकसक साम य है जो रावण का
सामना कर सके।’’ दशरथ ने ितवाद िकया- ‘‘मा यवान, सुमाली और माली का परा म सभी
को ात है िकस तरह उ ह ने देवलोक पर भी अिधकार कर िलया था। उनम से मुख सुमाली ही
रावण के पीछे है और अब तो उसे ा ारा सभी िव ाओं म पारं गत कर िदया गया है, उनका
वंशज जो ठहरा। उसको परािजत करना कदािप संभव नह हो सकता। जब वयं इ िचि तत ह
तो हम आय नपृ िकस िगनती म ह!’’
‘‘ या अयो या का महान स ाट, खर सय
ू वंश का आिद य दशरथ भी भयभीत है।’’
‘‘ दय को िवदीण कर देने वाला कठोर स य तो यही है िक दशरथ भी रावण से भयभीत
है, ... अ यंत भयभीत है।’’
नारद मौन रहे । ग भीर मु ा से दशरथ क ओर देखते रहे और दशरथ नजर झुकाये बैठे
रहे ।
‘‘देविष! महाराज भयभीत ह गे रावण से िक तु म नह हँ। र -सं कृित का सवनाश
मेरे जीवन का एक महत उ े य है। म इस उ े य क ाि के िलये कुछ भी करने को त पर हँ।
क ँ गी भी। म भी ाणी हँ, यिद आव यकता पड़ी तो श लेकर यु थल म भी उतरने म
संकोच नह क ँ गी।’’
‘‘आपको रण े म नह उतरना पड़े गा महारानी िक तु यह िनि त है िक रावण के
पराभव म आपक मह वपणू भिू मका रहे गी।’’
‘‘तो बताइये देविष। कैकेयी तुत है।’’
‘‘बताऊँगा! आपको नह बताऊगा तो िकसे बताऊँगा! िक तु अभी ती ा क िजये।’’
‘‘जैसी आपक इ छा। म जानती हँ आप जब बताएँ गे अपने मन से ही बताएँ गे। मेरे कहे
से तो बस बहला कर चले जायगे।’’
इसी बीच दासी एक पा म बहिविध िम ा न ले आई। दूसरे पा म केसर िमि त दु ध
था। उसने दोन पा नारद के सामने एक पीिठका पर रख िदये।
‘‘लीिजये देविष हण कर हम कृताथ क िजये।’’ कैकेयी ने िम ा न और दु ध क ओर
इंिगत करते हये नारद से कहा।
‘‘अव य महारानी। इसीिलये तो नारद आया है।’’ कहते हये देविष हँसे िफर बोले-
‘‘महाराज तो लगता है अि तम प से श ा समिपत कर चुके ह।’’
‘‘अब या कहँ देविष!’’ दशरथ मु कुराने का यथ यास करते हये बोले।
अक मात नारद ने िवषय प रवतन करते हए िकया - ‘‘महारानी जी! या आपको
स य ही ात नह है िक आपके जामाता ने अपने अनुसंधान म सफलता ा कर ली है?’’
‘‘हमारे जमाता .... ता पय?’’ कैकेयी के वर म आ य था, जैसे समझी नह हो बात
को। यथाथत: उसका मि त क अभी भी रावण म ही अटका हआ था।
‘‘ता पय महाराज के अन य िम अंगनरे श रोमपाद और महारानी कौश या क बड़ी
बहन विषणी के जामाता, उनक क या शा ता के पित ऋिष े ऋ य ंग ऋिष।’’
‘‘म भी कहँ हमारी तो पु ी ही नह है िफर यह जामाता कहाँ से आ गये।’’ कैकेयी हा य
से बोली।
अिभ न िम क पु ी या पु ीवत नह होती महारानी? और आप लोग तो शा ता को
पु ीवत मानते भी ह।’’
‘‘िबलकुल मानते ह, िक तु यह तो बताइये िक उ ह ने िकस अनुसंधान म सफलता
ा क है और उसका हमसे या संबंध है?’’
‘‘लगता है आप लोग तो संसार से िवर ही हो गये ह।’’
‘‘देविष उपहास मत क िजये। उ कंठा हो रही है बता ही डािलये अब।’’
‘‘आप लोग क सबसे बड़ी िचंता या है महारानी? रावण से भी बड़ी िचंता?’’
‘‘िन:संदेह पु - ाि , िजसके िलये हम सारे उ ोग करके अब तो हार मान चुके ह।’’
‘‘तो महाराज यही अनुसंधान िकया है आपके जामाता ने। पु ेि य के मा यम से वे
आपको पु वान बनाने क साम य रखते ह?’’
इस कथन से दशरथ म कुछ हरकत हई। कैकेयी तो च क ही पड़ी -‘‘ या कह रहे ह
मुिनवर? या स य ही ऐसा संभव है?’’
‘‘संभव? िनि त है महारानी .. िनि त! महाराज के ललाट क रे खाएँ प चार पु
का योग दशा रही ह।’’
‘‘यह तो देविष! गु देव भी न जाने िकतने काल से कहते आ रहे ह। िक तु काल बताने
म उनक गिणत िन पाय हो जाती है।’’
‘‘म बता तो रहा हँ िक अब समय आ गया है। अिवल ब ऋ य ंग मुिन को बुलाने क
यव था क िजये।’’
‘‘िनि त ही देविष। कल ही दूत को भेजती हँ। आपने तो ...’’ महारानी स नता से
भावुक हो उठ । उनका कंठ अव हो गया।
‘‘अ छा आ ा दीिजये महारानी।’’ अचानक नारद उठने का यास करते हये बोले।
‘‘अभी कैसे मुिनवर! िम ा न तो अभी आपने छुए भी नह ! और िफर अभी तो आपने
महाराज का म तक ही देखा है, मेरे ललाट क रे खाएँ या कह रही ह? वह भी तो बताइये।’’
कहते हये कैकेयी ने माथे पर झल
ू रहे बाल को दािहने हाथ से पीछे करते हये अपना म तक
नारद के सामने कर िदया।
नारद िम ा न पर हाथ साफ करते हये हँसे िफर बोले -
‘‘आपको भी चार पु का योग है महारानी।’’
‘‘ या? चार पु मेरे ही ह गे?’’
‘‘आपक कोख से तो एक ही होगा महारानी िक तु चार ही आपको पु वत यारे ह गे।
इस कार हआ न आपको भी चार पु का योग।’’
‘‘स य है देविष चार पु मेरे ही ह गे।’’ वह कुछ ण मु कुराती हयी शू य म ताकती
रही जैसे अभी से िकलका रयाँ मारते पु क छिव देख रही हो।
‘‘कहाँ खो गय महारानी?’’ िम ा न समा कर दु ध पा उठाते हये नारद ने कहा।
‘‘कुछ नह , बस पु के दशन कर रही थी।’’ कैकेयी ने जैसे चोरी पकड़ी गयी हो, कुछ
लजाते हये सरलता से कहा िफर लाज से उबरते हये बोली -
‘‘ऐसा य लगता है मुझे िक देविष अब भी कुछ गोपन रखे ह?’’
‘‘िविध का िवधान है महारानी। अभी आगे का रह य कट करने का समय नह आया।
म पहले ही कह चुका हँ िक उिचत समय पर आपको बहत बड़ी भिू मका का िनवाह करना है।’’
महारानी प तो कुछ नह समझ िक तु िफर भी एक खाका सा उनके मि त क म
बनने लगा। वे मु कुराय िफर धीरे से बोल - ‘‘लगता है देविष ने अपनी योजना पर काय आर भ
कर िदया है।’’
नारद पुन: हँसे। िफर बोले - ‘‘अभी िवदा दीिजये। राजकुमार को आशीष देने आऊँगा।’’
राजा-रानी ने पुन: देविष क पगधिू ल ली और नारद अपने िचर-प रिचत अंदाज म
‘‘नारायण-नारायण का जाप करते थान कर गये।
41. बािल-सु ीव-बजरं ग
‘‘दीदी! दीदी! देिखये यह सु ीव बजरं ग को मेरे साथ नह खेलने दे रहा! म अभी उठा
कर पटक दँूगा तब रोयेगा।’’ दस- यारह वष का बािल दौड़ता हआ अंजना का पास िशकायत
लेकर पहँचा।
‘‘अरे नह भैया! छोटे भाई से कह लड़ा जाता है!’’
‘‘लड़ा नह जाता तभी तो म आपके पास प रवाद लेकर आया हँ, अ यथा उसे पटक कर
छीन नह लेता बजरं ग को।’’
‘‘हाँ बात तो तु हारी स य है। तुम तो अ छे बालक हो। म अभी सु ीव को डाँटती हँ
चलकर।’’
‘‘चिलये दीदी! िक तु अिधक मत डाँिटयेगा, बस बजरं ग मुझे िदलवा दीिजयेगा।’’
‘‘ऐसा?’’ अंजना हँसती हई बोली।

महाराज ऋ राज के बहत आ ह के बाद भी केसरी ने मु य राज ासाद म रहना


वीकार नह िकया था। उ ह ने राज साद के बाहरी िह से म एक उपवन म अपने िलये एक
तपि वय जैसा क चा आवास तैयार िकया था। आवास म तीन क थे। म य भाग म एक आँगन
था और बाहर छ पर पड़ा हआ था। भीतर का भाग धि नय से पटा था।
ात: काल मुहत से भी पहले उठकर नान, हवन और भु िशव का यान अब भी
उनक सबसे आव यक िदनचया थी। तदुपरांत वे सै य े म चले जाते थे। उनके ल बे वास म
भी ऋ राज ने उ ह सेनापित पद से मु नह िकया था। आते ही उ ह ने अपना दािय व पुन:
सँभाल िलया था।
म या ह म वे भोजन करने घर आते थे। भोजन के उपरांत िफर चले जाते थे और सय
ू ा त
के समय लौटते थे। सुदीघ काल से कोई यु नह हआ था आगे भी िकसी यु क संभावना अभी
िदखाई नह पड़ती थी िक तु िफर भी केसरी अपने दािय व के िनवहन म कोई चक ू नह होने
देते थे। िकि कंधा क वानर-सेना बड़े -बड़े स ाट को धल
ू चटाने म स म थी।
बािल और सु ीव गु कुल से छु ी पाते ही बजरं ग के साथ खेलने के लालच म यह दौड़े
चले आते थे। गतवष उनक माता के िनधन के बाद से अंजना ही उनक बहन और
माता दोन के दािय व िनभा रही थी। वह जानती थी िक बािल अपने छोटे भाई को बहत चाहता है।
वह यह भी जानती थी िक दोन भाई उसके बजरं ग को बहत अिधक चाहते ह। वे वयं को उसका
अिभभावक समझते ह।
‘‘ य भइया सु ीव! अपने बड़े भाई को य नह खेलने दे रहे बजरं ग के साथ?’’
अंजना ने कृि म ोध से कहा।
बजरं ग माँ को देख कर उसक ओर बाह फै ला कर उछलने लगा था।
‘‘अरे िम धीरे से िगर जाओगे।’’ सु ीव ने उछलते हये बजरं ग से कहा। िफर अंजना से
बोला - ‘‘दीदी ये तो उसे गोद म उठा लेते ह। िफर म नह खेल पाता उसके साथ।’’
बजरं ग अब दो वष का हो गया था। वह चलने या दौड़ने भी लगा था। बािल और सु ीव
क भाँित वह भी डीलडौल म अपने हमउ बालक से सवाया या ड्योढ़ा था। उसे गोद म लेती
हई अंजना सु ीव से बोली -
‘‘और तुम वयं या कर रहे थे? तुम भी तो बजरं ग को गोद म ही उठाये हये थे।’’
‘‘वह तो दीदी भैया चले गये थे इसिलये मने इसे गोद म उठा िलया था।’’
सु ीव क व रत बुि से उ प न बहाना सुनकर अंजना बरबस हँस पड़ी। िफर वह
बजरं ग को नीचे उतारती हई बोली-
‘‘अ छा अब तुम दोन भागो, बजरं ग तु ह पकड़े गा। य बजरं ग?’’
बजरं ग ने ताली पीट कर हामी भर दी।
‘‘िक तु धीरे -धीरे दौड़ना। ... और देखे रहना यह कह ठोकर खाकर िगर न पड़े ।’’
‘‘आप जाइये हम देखे रहगे।’’
‘‘और जो म भी तु हारा खेल देखना चाहँ तो ...?’’
दोन अंजना के इस पर कुछ लजा गये। ‘‘तो आप भी देिखये।’’ बािल बोला।
‘‘आओ बजरं ग पकड़ो मुझे’’ सु ीव ताली बजाता हआ बजरं ग से बोला।
बािल-सु ीव दोन ही ऊँचाई म बजरं ग के तर तक आने के िलये झुके हये थे। इस
अव था म उनका कूदना अंजना को आ हािदत कर रहा था।
बड़ी देर तक वह इनका खेल देख कर आनि दत होती रही।
तभी ार से केसरी आते िदखाई पड़े ।
उ ह देखते ही न हा बजरं ग उनक ओर दौड़ा। तभी उसके पैर म िकसी चीज क ठोकर
लगी िजससे वह हड़बड़ा कर िगर पड़ा। उसे िगरते देख कर केसरी और अंजना दोन ही सब भलू
कर दौड़ पड़े । संयोग से दोन एक साथ ही उस तक पहँचे और एक ही समय म उसे उठाने के
िलये झुके। उनका स पण ू यान बजरं ग क ओर ही था अत: पर पर एक-दूसरे क ि थित का
सही अनुमान नह लग पाया और दोन के िसर टकरा गये। बजरं ग को िगरने से कोई चोट नह
आयी थी। इनके िसर टकराये उसी समय वह उठकर खड़ा हो रहा था। उसका िसर इनक ठुड्डी
से टकराया। केसरी तो झेल गये िक तु अंजना इस आघात से िबलिबला गयी और अपनी ठुड्डी
सहलाने लगी। उसक आँख म आँसू आ गये थे। उधर न हा बजरं ग उसे देख कर ताली पीट रहा
था -
‘‘माता रोई! माता रोई!’’
सब हठात् हँस पड़े ।
‘‘इसे या चोट नह लगती? दद नह होता? जब मुझे इतनी जोर से लगी है तो आघात
तो इसे भी लगा होगा पर देखो कैसे ताली पीट कर हँस रहा है जैसे कुछ हआ ही न हो। इसके पवू
िगरने पर भी नह रोया था।’’ उसे आ य भी हो रहा था और गव भी हो रहा था अपने पु पर।
‘‘दु अ मा को चोट लग गई और तुझे आन द आ रहा है।’’ कट म वह बजरं ग क
ओर आँख काढ़ कर डाँटती हई दौड़ी। बजरं ग दौड़ कर केसरी के पीछे िछप गया।
‘‘बाबा माता डाँटी।’’
केसरी ने हँसते हये उसे गोद म उठा िलया।
‘‘ य तािड़त करती हो हमारे पु को?’’
‘‘ तािड़त न क ँ तो या क ँ ? देखा नह आपने कैसे ताली पीट कर मेरा उपहास
कर रहा था!’’
‘‘जीजा जी! जीजा जी!’’ केसरी का उ रीय पकड़ कर ख चता हआ बािल बोला- ‘‘बहत
चंचल हो गया है बजरं ग।’’
‘‘सो तो हो गया है। य व ांग! तुम इतने चंचल य हो गये हो?’’ अब मा केसरी ही
उसे व ांग कहते थे।
‘‘नई ं बाबा। चंचल नई ं।’’ सब िफर हँस पड़े ।
‘‘अ छा अब इसे छोिड़ये और भीतर चिलये रसोई म।’’ अंजना ने बाधा देते हये कहा।
केसरी भोर के गये हये अभी म या ह के उपरांत आये थे। िन य ही भख
ू े ह गे।
केसरी ने बजरं ग को उतार िदया।
‘‘देखो इसका यान रखना तुम दोन ।’’ अंजना ने जाते-जाते बािल और सु ीव से कहा।
‘‘हाँ! आप जाइये दीदी। हम यान रखगे।’’
भीतर बड़ी सी रसोई के बीच म इकहरी ई ंट क पंि से रसोई का िवभाजन कर िदया
गया था। एक ओर भोजन बनाने का काय होता था, दूसरी ओर खाने का।
अंजना ने जल लेकर वहाँ िछड़का िफर एक कुश का आसन िबठा िदया पित के बैठने के
िलये। इस बीच केसरी हाथ-पैर धोने चले गये थे।
‘‘तुमने भोजन ा िकया?’’ केसरी ने आसन पर बैठते हये पछ
ू ा।
‘‘आपके पवू मने कभी भोजन िकया है?’’ अंजना ने मु कुराते हये ित िकया।
‘‘िकतनी बार समझाया तु ह िक मुझे तो बहधा िवल ब हो ही जाता है, तुम समय से
भोजन कर िलया करो। व ांग अभी तनपान करता है। और नह तो उसके िलये तो तु ह अपने
भोजन पर िवशेष यान रखना ही चािहये।’’
‘‘अब अपना यह वचन रहने दीिजये। ऐसा कह होता है। आप ही समय से आ जाया
क िजये तो म भी समय से भोजन कर िलया क ँ गी।’’
‘‘ यास तो करता हँ िक तु कुछ न कुछ काय लग ही जाता है और िवल ब हो जाता
है।’’
42. मंथरा क उ सुकता
नारद के थान के उपरांत जैसे ही महाराज दशरथ क से गये, मंथरा आ उपि थत
हयी।
कैकेयी ने पछ
ू ा-
‘‘मंथरा! लगता है तुम ती ा ही कर रही थ िक कब महाराज जाय और तुम आओ।’’
‘‘सही समझा महारानी ने। सच म ऐसा ही है।’’
‘‘कह ार से कान लगाये तो नह खड़ी थी? यह स यता के िवपरीत आचरण है।
ू ना लगता है महाराज के कान म डालनी पड़े गी।’’
तु हारी ध ृ ता क सच
‘‘अरे आप ऐसा कैसे कर सकती ह?
‘‘ य नह कर सकती? तुम ध ृ ता करोगी तो ...’’
‘‘भला आपक मंथरा ध ृ ता कर सकती है?’’ मंथरा ने आँख नचाते हये कहा- ‘‘कैकय
रा का र ध ृ हो सकता है भला?’’
‘‘अ छा! अब कैकय रा को बीच म ले आई ं।’’ कैकेयी बहत जोर से हँसते हये बोली।
मंथरा हँस कर रह गयी, कुछ बोली नह ।
‘‘अ छा जाओ मा िकया। बताओ तो सही या िज ासा है?’’
नारद के आगमन से मंथरा को आशा क िकरण िदखाई दी थी। बोली-
‘‘महारानी, नारद मुिन आये थे।’’
‘‘आये थे।’’ हँसते हये मंथरा क उ कंठा का आन द लेते हये कैकेयी ने उ र िदया।
‘‘ या योजन था?’’
‘‘वे महाराज को चार पु का योग बता गये ह।’’
‘‘सच म!’’ मंथरा क उ कंठा सहज ही उ लास म बदल गयी। ‘‘और महारानी को?’’
‘‘कोख से तो एक ही वैसे चार। महाराज के चार ही पु मेरे पु नह ह गे या
मंथरा?’’
‘‘अव य महारानी! यह तो अ यंत शुभ समाचार है। या ऐसे ही ... ...’’ मंथरा ने
कुिटलता से मु कुराते हये वा य अधरू ा छोड़ िदया।
महारानी कैकेयी उसका मंत य समझ गय । वे भी हँस और हँसते हये ही उ ह ने अपने
गले से मु ाहार उतार कर मंथरा के गले म पहना िदया। - ‘‘ऐसे ही नह , ऐसे! स न?’’
‘‘दािसय क स नता तो महारानी क कृपा क अनुगािमनी होती है महारानी!’’
‘‘मंथरा! मुझे ोध मत िदलाओ।’’ कैकेयी ने बनावटी रोष से कहा। ‘‘तु ह कब दासी
समझा है मने?’’
मंथरा ने फौरन कान पकड़ने का अिभनय िकया और बोली - ‘‘मंथरा अपने श द वापस
लेती है महारानी! आपने स य ही मुझे सदैव अपनी सखी और संरि का सा नेह िदया है। तभी
तो मंथरा कभी-कभी अपनी मयादा से अिधक बोल जाती है।’’
कैकेयी उसके अिभनय पर खुल कर हँस ।
मंथरा ने पुन: िकया - ‘‘महारानी या नारद मुिन बस यही बताने आये थे?’’
‘‘हाँ!’’ कैकेयी ने मु कुराते हये अदा से कहा।
‘‘वे ऐसे तो नह ह महारानी। नारद मुिन आय और उसम उनका अपना कोई रह यमय
वाथ न िछपा हो, ऐसा भी कभी होता है?’’
अनुिचत है मंथरा। नारद मुिन तो जन-जन के िहतैषी ह। जन क याण के िलये सतत
सम त भम
ू ंडल क प र मा िकया ही करते ह। और तुम उ ह वाथ कह रही हो।’’
‘‘ वाथ नह तो सरल भी नह ह मुिनवर। िन योजन तो वे कह नह जाते। आप ही
बताइये जाते ह या?’’
‘‘बड़ी चतुर हो तुम!’’
‘‘इसम चतुरता काहे क महारानी। नारद मुिन क लीलाओं से ि लोक म कौन अवगत
नह है!’’
‘‘चतुरता तो है ही। तुम सही भांप रही हो। य िप देविष ने कुछ प कहा तो नह है
िक तु दबा-ढँ का संकेत तो कर ही गये ह िक देव कुछ षड़यं रच अव य रहे ह?’’
‘‘ या महारानी?’’
‘‘अब बंद भी करो या- या।’’ कैकेयी ने मु कुराते हये कहा। ‘‘कहा न उ ह ने कुछ
बताया नह ।’’
‘‘संकेत तो िकया न, कैसा संकेत?’’
‘‘कैसा भी नह । अभी मुझे पु के आगमन क आनंद स रता म बहने दो। अपनी
षडयं कारी बुि से उसम िव न मत डालो।’’
‘‘बुरा मान गय महारानी?’’
‘‘अरे नह मान गयी। पर समय क ती ा करो। देविष ने मुझे भी यही कहा है।’’
‘‘अ छा महारानी! या हो सकती है देव क योजना?’’
‘‘मुझे या पता? बताया तो देविष मा पहे िलयाँ बुझा कर चले गये।’’
‘‘अ छा यही बता दीिजये िक िकसके िव षड़यं रच रहे ह देव?’’
‘‘िजनके िव तुम चाहती हो - र के!’’
‘‘सच महारानी? या योजना है?’’
‘‘कहा न िक नारद मुिन ने कुछ नह बताया बस समय क ती ा करने को कहा है।’’
‘‘कोई अनुमान नह लगा पाय आप?’’
‘‘अनुमान लगाने िजतना भी तो नह बताया उ ह ने। पर अब शांत बैठो तुम, समय आने
पर देविष आप बताएँ गे सब। तभी हमारी भिू मका भी बताएँ गे। तभी करना जो भी तु हारे मन म हो।
‘‘ठीक है! वैसे िव णु भी इस बार चक
ू कर ही गये।’’
‘‘िव णु कभी चक
ू नह करते। उनसे बड़ा कूटनीित कोई नह है।’’
‘‘महारानी चक
ू तो िकसी से भी हो सकती है। अनुमान िकसी का भी िम या िस हो
सकता है।’’
‘‘अ छा अब अनगल लाप ब द करो तुम। ऐसा करो महाराज से एक बिढ़या अ
िदलवा देती हँ तु ह। कटारी तो तु हारे पास होगी ही - बस िनकल जाओ लंका क ओर। तुम यिद
साहस जुटा सको तो अकेले ही िनपट सकती हो रावण से।’’
‘‘महारानी साहस क कमी नह है मंथरा के पास, बस अब साम य नह रही, अ यथा
िदखा देती रावण को भी िक ...’’
‘‘ओहो मेरी धाय माँ? वो र का समल
ू नाश करने वाली तु हारी भावना अभी तक र ी
भर कम नह हई लगता।’’
‘‘जी महारानी जी! न कम हई है और न होगी। र के नाश के िलये मंथरा अपना
जीवन भी दाँव पर लगाने को सहष तुत है। वह अपना सव व याग करने को सहष तुत
है।’’ मंथरा ने जैसे शू य म देखते हये कहा।’’
‘‘अब िदल क आग ठं डी कर भी लो, अब रावण तु हारी वािटका उजाड़ने नह आ रहा।’’
‘‘महारानी जी! सारा आयावत मेरी वािटका है, हमारी सनातन आय सं कृित मेरी
वािटका है। रावण इन पर तो आ मण करे गा ही।’’ िफर अचानक बातचीत का पवू सू पकड़ते
हये बोली - ‘‘नारद मुिन ने और या कहा महारानी जी?’’
‘‘और यह भी कहा है िक भिव य म मुझे बड़ी भिू मका का िनवहन करना होगा।’’
‘‘कैसी बड़ी भिू मका महारानी?’’
‘‘कहा न िक कुछ प नह बताया उ ह ने। बस इतना ही कहकर मुझे रह य के
सागर म गोता लगाते छोड़ गये।’’
‘‘सच म यह बड़ी बुरी आदत है मुिनवर क । परू ी बात कभी नह बताते। रह य छोड़ ही
जाते ह।’’
‘‘कुछ तो सोचा ही होगा उ ह ने।’’
‘‘अ छा!! मुझे भी भिू मका म अपने साथ ही रखना महारानी जी म आपके िलये अपने
ाण भी हँसते-हँसते योछावर कर दँूगी!’’
‘‘चलो रखँगू ी साथ, स न? वैसे नह भी रखँग
ू ी तो तुम या छोड़ दोगी मुझे? लसड़
ू े
क तरह हर समय िचपक तो रहती हो मेरे साथ। महाराज के साथ भी अब तो मुझे एकांत पाने
का भरोसा नह , पता नह िकस ार से कान लगाये खड़ी हो तुम!’’
‘‘ या महारानी जी! मेरा उपहास उड़ा रही ह!’’ मंथरा ने अिभनय के साथ कहा -
‘‘अ छा एक बात तो बताइये, या उपाय बताया है नारद मुिन ने संतान के िलये?’’
‘‘नारद मुिन ने बताया है िक अंगराज के जामाता ऋ य ंग ऋिष ने इस े म अपने
अनुसंधान म सफलता ा क है। उनके ारा आयोिजत पु ेि य ारा हमारी कामना िनि त
ही पण
ू होगी।’’
‘‘मुझे तो अभी से उ कंठा हो रही है महारानी जी! म तो अभी से कुमार के िलये न हे -
न ह, यारे - यारे व बनाना आर भ कर दँूगी।’’
‘‘कर दो बाबा, कर दो! तु ह रोकने क साम य िकसम है भला!’’
दोन हँसने लग और आने वाली संतान क सुखद मिृ तय म खो गय ।

अभी मंथरा को या पता था िक सबसे मु य भिू मका तो उसे ही िनभानी थी। बि क


कैकेयी को भी उसक भिू मका याद िदलानी थी और युग -युग के िलये अपने सर पर लांछन ले
लेना था।
43. सुमाली क तैयारी - 2
‘‘व मुि तुम एक काय करो।’’
‘‘आदेश क िजये िपत ृ य!’’
सुमाली और व मुि सुमाली के साधारण से क म बैठे हये ि थितय पर िवचार कर
रहे थे।
‘‘तुम अपने साथ सैिनक क एक टुकड़ी लेकर स पणू लंका का सव ण कर डालो। म
चाहता हँ िक लंका के माग को सुिनयोिजत और सु यवि थत िकया जाये।’’
‘‘इसम तो अ यिधक यय आयेगा?’’
‘‘इस यय से ही भिव य म आय का माग श त होगा। और िफर अ यिधक यय य
आयेगा? ये सैिनक पड़े -पड़े मोटे और आलसी ही तो हो रहे ह। वेतन तो इ ह देना ही पड़ता है - ये
प र म करगे तो ये भी व थ और चपल हो जायगे और रा का भी िहत होगा।’’
‘‘जी िपत ृ य!’’
‘‘सुनो सव थम सुवेल पवत से दि ण सागर तक एक यवि थत माग क यव था
करो। तीन माह म यह काय हो जाना चािहये।’’
‘‘तीन माह म? यह तो असंभव है!’’
‘‘यिद इ छाशि बल हो तो असंभव कुछ नह होता। आव यकता समझो तो सैिनक
क दो टुकिड़याँ साथ ले लो िक तु यह माग मुझे तीन माह म आवागमन के यो य चािहये ही
चािहये।’’
‘‘जी यास करता हँ।’’
‘‘ यास नह , मुझे प रणाम चािहये। जाओ अब लग जाओ काय म। हाँ जाने से पवू
िव रथ से कहते जाना िक मने उसे अिवलंब बुलाया है। सम त काय छोड़ कर मुझसे िमले
आकर। जानते तो हो न िव रथ को?’’
‘‘जी िपत ृ य! वही न जलसै य का मुख?’’
‘‘हाँ!’’
व मुि िनकल गया। सुमाली अपने भोजनािद क यव था म लग गया।
वह भोजन से िनव ृ हआ ही था िक िव रथ आ गया।
‘‘मातामह ने मरण िकया मुझे?’’
‘‘हाँ आओ िव रथ! आव यक काय है तुमसे। बैठो।’’
‘‘आदेश क िजये मातामह!’’ बैठते हये िव रथ बोला और सुमाली क ओर ताकने लगा।
‘‘तु हारे पास िकतने जलपोत ह िव रथ?’’
‘‘जी बीस बड़े पोत और दो सौ छोटी नौकाएँ ।’’
‘‘अ यंत कम ह ये तो?’’
‘‘जी महाराज कुबेर ने कभी साम रक पोत के िवकास पर अिधक यान नह िदया। वे
तो मु यत: यवसायी थे। हमारे पास तीन सौ से अिधक यापा रक पोत थे जो सभी उ ह के
साथ चले गये।’’
‘‘ऐसा? अ छा दो काय करो।’’ सुमाली ने कुछ सोचते हये कहा।
‘‘आदेश क िजये।’’
‘‘उससे पवू यह बताओ िक जलयान िनमाण म कुशल सैिनक िकतने ह हमारे पास?’’
‘‘अिधक नह ह मातामह! िकसी भी काय म कुशलता तो काय करने से ही आती है।
हमारे सैिनक को कभी पोत िनमाण का काय करना ही नह पड़ा तो कुशलता कैसे आती।’’
‘‘चलो कोई बात नह । कुछ सैिनक ऐसे तो ह गे ही िजनक मेधाशि सामा य से बहत
अ छी हो। जो िकसी भी बात को अ यंत शी ता से समझ लेते ह ?’’
‘‘हाँ अव य ह गे! कुछ जो मेरे स पक म आये ह उनसे तो म प रिचत हँ। शेष खोजने से
और िमल जायगे।’’
‘‘तो िजतन से तुम प रिचत हो उ ह ही यह दािय व स प दो िक वे ऐसे मेधा स प न
अपने सािथय को खोज और सबको मुझसे िमलवाओ।’’
‘‘जी!’’
‘‘इस काय के िलये तु हारे पास मा तीन िदन का समय है। ठीक चौथे िदन ात:काल
म आऊँगा तु हारे िशिवर म।’’
‘‘जी!’’
‘‘राजधानी और आसपास के े म िजतने भी कुशल का कार ह कल अपरा ह म
उ ह मेरे पास लेकर आओ।’’
‘‘जी! उिचत है।’’
‘‘और ... तुम वयं को एक ल बे अिभयान के िलये त पर कर लो। चौथे िदन मुझे अ य
मेधावी नौसैिनक से िमलवाने के उपरांत तु ह लंका के दि णी तट क ओर थान करना है।’’
‘‘जी मुझे या करना होगा वहाँ?’’
‘‘उसी िदन बताऊँगा। अपने साथ तुम प ह बड़े पोत और डे ढ़ सौ नौकाएँ और एक
सह जुझा नौसैिनक लेकर थान करोगे। िकसे-िकसे अपने साथ ले जाओगे यह िनणय
तु ह ही करना है।

चौथे िदन ात: ही सुमाली नौसेना के िशिवर म उपि थत था। उसके स मुख िव रथ
ारा छांटे गये पाँच सौ नौसैिनक स न खड़े थे।
पचास का कार को िव रथ दूसरे िदन ही उसके पास ले आया था। सुमाली ने उ ह
और यो य का कार को अपने साथ लेकर आज यहाँ उपि थत रहने का आदेश दे िदया था।
आज लगभग स र का कार उपि थत थे।
‘‘हमारे पोत और नौकाओं का तुम सब लोग िमल कर भलीभाँित िनरी ण कर लो।
लंका को एक वष क अविध म ऐसे कम से कम दो सह पोत और दस सह नौकाओं क
आव यकता है। सव थम दो पोत और दस नौकाओं का िनमाण कर उनका परी ण करो। जहाँ
भी कोई कमी समझ म आये उसे सुधार कर तब शेष पोत और नौकाओं का िनमाण आर भ
करना है। िक तु यह सदैव मरण रखना है िक एक वष म दो सह पोत और दस सह
नौकाएँ हर प रि थित म िनिमत होनी ही होनी ह। इस काय म कोई भी िशिथलता य नह
होगी। लंका के वन म अ यंत दीघकाल तक जल म रहकर भी सुरि त रहने वाले का क
कमी नह है। और जो भी साम ी आव यक होगी अिवल ब उपल ध करा दी जायेगी। कोई
?’’
कह से कोई वर नह आया।
‘‘िव रथ! इस स पण
ू काय का नेत ृ व करने हे तु िकसका चयन िकया है?’’
‘‘तेज वी! आगे आओ।’’ िव रथ के आदेश पर एक लगभग तीस वष का, साँवले रं ग
का, ऊँचा सा बिल युवक आगे आ गया। ‘‘मातामह! यह तेज वी इस टुकड़ी का नायक होगा
और दस सैिनक इसके सहायक ह गे।’’
‘‘उनका चयन कर िलया गया है?’’
‘‘जी! बुलाऊँ उनको भी?’’
‘‘नह ! कोई आव यकता नह ।’’ िफर वह तेज वी से स बोिधत हआ - ‘‘तुम ितिदन
सायंकाल मुझसे भट कर मुझे दैिनक गित क सच ू ना दोगे। पुन: कह रहा हँ - िकसी भी कार
क िशिथलता य नह होगी। अब तुम इन सबको लेकर अपनी योजना बनाना आर भ कर दो।
या करना है, कैसे करना है इस िवषय म सारे िनणय लेने को तुम वतं हो। उसम िकसी का
कोई ह त ेप नह होगा। बस िन य मुझे गित क जानकारी देनी है और आने वाली सम याओं
से अवगत कराना है। उनका िनराकरण म और तुम िमलकर करते रहगे। उिचत?’’
‘‘जी महामिहम!’’ तेज वी ने त परता से स न मु ा म आते हए उ र िदया।
‘‘ठीक है। लग जाओ अपने काय म। तु हारे कंध पर ही लंका के भिव य का भार है, इसे
सदैव मरण रखना।’’ िफर वह िव रथ से स बोिधत हआ - ‘‘आओ अब तु ह तु हारे अिभयान के
िवषय म समझा दँू।’’
िव रथ के साथ सुमाली िशिवर के एक क क ओर चल िदया।
‘‘देखो लंका क आिथक ि थित शोचनीय है। राजकोष ाय: र है यह तो तु ह ात
ही होगा।’’ सुमाली ने माग म कहना आरं भ िकया।
‘‘जी!’’
‘‘सम त यवसाय कुबेर के साथ ही चला गया है। कोष का लगभग सम त धन भी वह
अपने साथ ही ले गया है।’’
‘‘जी!’’
‘‘लंका को पुन: समथ बनाने के िलये येक े म बहत काय करना है और उसके
िलये धन क आव यकता है। वैधािनक माग से यह साम य ा करने म कई दशक लग जाने
क संभावना है िक तु हम उतनी ती ा नह कर सकते अत: कुछ अवैधािनक माग अपनाना
हमारी िववशता है।’’ सुमाली ने एक ण क कर िव रथ क ओर देखा। वह यान से उसक
बात सुन रहा था।
‘‘ये ऐसी बात है जो हर िकसी से नह क जा सकत । तुम मेरे िव ासी यि हो
ू त: गोपनीय रहना चािहये। मेरे अित र तुम िकसी
इसिलये तु ह यह दािय व स प रहा हँ। यह पण
से भी इस संबंध म वाता नह करोगे।’’ सुमाली ने िव रथ क आँख म झांकते हये आदेशा मक
वर म कहा।
‘‘जैसा आदेश!’’ िव रथ ने त परता से उ र िदया। अब तक वे क म आ गये थे।
िव रथ ने एक पीिठका क ओर इंिगत करते हये कहा -
‘‘आसन हण क िजये मातामह!’’
दोन बैठ गये।
‘‘कुबेर के सम त िवशाल यापा रक पोत लंका के दि णी सागर से ही या ा करते ह।
तु ह उन पर ि रखनी है। वे कब िनकलते ह? उनम या साम ी होती है? कब उनम धन होता
है ... आिद-आिद सम त िववरण अपनी पैनी ि और चतुराई से दयंगम करने ह। इस काय हे तु
तुम उनके पोत के कमचा रय से िम ता-संबंध भी थािपत कर सकते हो िक तु काय येक
प रि थित म स प न होना है और सावधानी से होना है।’’
‘‘जी! इस सम त िववरण का या उपयोग करना है मुझे?’’
‘‘अभी कुछ नह । अभी बस कुछ माह सब कुछ समझना है और मुझे सच
ू ना करनी है।’’
‘‘जी! हो जायगा।’’
‘‘इसके अित र एक काय और करना है। तु ह दो-तीन समुिचत तट छाँटकर वहाँ
उपयोगी प न (बंदरगाह) भी िवकिसत करने ह गे। इनके िलए तु ह िदखावा यह करना है िक
जैसे लंका कुबेर के पोत क सुिवधा के िलये प न थािपत कर रहा है। कालांतर म ये हम अपना
यापार थािपत करने म सहयोगी िस ह गे।’’
‘‘जी! यह भी हो जायगा।’’
‘‘धन आज सायंकाल तक तु ह उपल ध हो जायगा। िकतने तक क आव यकता
होगी।’’
‘‘म या कहँ, आप वयं िनणय करने म स म ह।’’
‘‘ठीक है। तो िफर म चलता हँ।’’
44. अंग दे श के िलये थान
महाराज दशरथ राजसभा क औपचा रक पर परा के बाद सभा क म बैठे हये थे। सभा
म कुछ नह हआ था, बस सबने देविष ारा िकये गये भिव य कथन पर हष य िकया था,
सदैव क भाँित चाटुका रता क थी। इसी म बहत समय यतीत हो गया था। सारे सभासद यह
दशाना चाहते थे िक वे ही सबसे अिधक शुभे छु ह महाराज के! वे ही सबसे बड़े वािमभ ह। यह
िक सा िन य का था। चाटुका रता सभासद क नस म लह से अिधक बहती थी। महाराज भी
इससे प रिचत थे िक तु उ ह इसम आन द िमलता था, उनके अहं को तुि िमलती थी। दशरथ
के अठारह मंि य म एक महामा य जाबािल ही ऐसे थे जो अपे ाकृत बहत खरा बोलते थे।
अ ुत च र था जाबािल का भी। वे एक कार से अनी रवादी थे। वे पुनज म
को भी नह मानते थे। पाप-पु य और कम के फल क अवधारणा को भी नकार देते थे।
उनके कुछ िवचार ऐसे थे जो सामािजक प रवेश के िलये ाि त के सू तीत होते थे।
जो कुछ है यही है जो सामने है। न इससे पीछे कुछ था न इसके आगे कुछ होगा। इसी ज म को
स कम से ध य करो। सुकम करो - इसिलये नह िक उनका फल अगले ज म के िलये संिचत
होगा या उनसे वग िमलेगा, अिपतु इसिलये िक सुकम ही करणीय ह। दु कम मत करो -
इसिलये नह िक उसके बदले म नक िमलेगा, अिपतु इसिलये िक उससे िकसी दूसरे को क
होता है, दुःख होता है। मनु य िवचारशील ाणी है, सामािजक ाणी है इसिलये उसे अपने साथ-
साथ सबक उ नित का, सबक स नता का यान रखना चािहये। सबके िहत क चे ा करनी
चािहये।
महाराज दशरथ कई बार उनक बात से ितलिमला भी जाते थे िक तु वे जानते थे िक
जाबािल से बढ़कर मंि प रषद म उनका कोई िहतैषी नह है इसीिलये अपने सनातन िवरोधी
िवचार के बावजदू वे जाबािल क बात को मह व देते थे। येक मह वपण
ू िवषय म वे एकांत म
उनसे परामश अव य लेते थे और यथासंभव उनक बात को अपने आचरण म समायोिजत करने
का यास भी करते थे। उनक बात से कई बार ितलिमलाने के बावजदू वे उ ह मंि प रषद से
हटाने या उनका मह व कम करने के िवषय म सोच भी नह सकते थे। जाबािल से अिधक मान
महाराज केवल राजगु विश को ही देते थे।
भोजन का समय यतीत होता जा रहा था। महाराज के भोजन के समय म बहत कम
यित म होता था, मा िकसी अक मात आपदा के आ खड़े होने पर ही यह संभव था। आज तो
कोई आपदा भी नह थी िक तु देविष आशा का एक ऐसा बीज बो गये थे िजसके पौधे के प म
अंकुरण म अब महाराज को कोई िवलंब स नह था। वे उस पौधे को अभी स चना-सहलाना
चाहते थे और इस सब म उ ह भख ू का अहसास ही नह हो रहा था। उनके साथ इस समय मा
जाबािल बचे थे। अनुचर से राजगु के पास संदेश भेजा गया था िक महाराज अ यंत शी उनके
चरण म णाम िनवेिदत करना चाहते थे। उनक अनु ा िमलते ही महाराज उनके स मुख
तुत होने को त पर थे। अनुचर अभी तक नह लौटा था और उसक इस लापरवाही पर अब
महाराज को रोष होने लगा था। उ ह ने आवाज लगाई - ‘‘ ितहारी!’’
आवाज के साथ ही ितहारी उपि थत हआ। झुक कर उसने महाराज को राजक य
प रपाटी के अनुसार णाम िकया और बोला - ‘‘आदेश महाराज!’’
‘‘देखो यह अनुचर कहाँ रह गया।’’
‘‘ मा कर महाराज, िक तु कौन अनुचर महाराज?’’
‘‘अरे वही, िजसे राजगु क सेवा म भेजा था।’’
ितहारी कोई उ र देता इससे पवू ही महाराज को दूर से ार क ओर आते राजगु
विश क छिव ि गोचर हो गयी। उ ह ने ितहारी क ओर हाथ िहलाते हये कहा - ‘‘जाओ
तुम!’’
विश लगभग चालीस पीिढ़य से, महाराज इ वाकु के शासनकाल से ही, इस वंश के
राजगु के पद पर आसीन थे। (अ यथा मत समझ लीिजयेगा - विश इनक उपािध थी जो
प रवार के ये पु को ा होती थी और वह इ वाकु वंश के राजगु के पद पर आसीन हो
जाता था। इनके वंश ने भी इ वाकु वंश के समान ही इतनी पीिढ़य तक अपनी े ता अ ु ण
रखी थी और अपने पद को ग रमा दान क थी।)
ितहारी चला गया। उसके पीछे महाराज भी उठकर ार क ओर बढ़े । महाराज के पीछे
अनायास ही जाबािल भी बढ़ चले। अ यंत िवशाल सभा क क परू ी ल बाई तय कर जब तक ये
लोग ार तक पहँचे राजगु भी ार तक आ गये थे। पहले महाराज ने और िफर जाबािल ने झुक
कर राजगु क चरण धिू ल हण क । महाराज य ता से बोले -
‘‘गु देव! आपने य क िकया, म तो आ ही रहा था, बस आपक अनु ा क ती ा
थी।’’
गु देव ने दोन को आशीष िदया। महाराज को ‘‘पु वान भव:’’ और जाबािल को
‘‘यश वी भव:’’।
‘‘अनुचर ने जब राजन का संदेश िदया तो मने उससे योजन भी पछ ू िलया। जो कुछ
उसने बताया उसके बाद मुझसे संवरण नह हआ। अनुचर आपको सच ू ना देता और आप आते
उतने समय म म वयं ही आ गया। कुछ अनुिचत िकया या मंि वर?’’
‘‘कैसी बात करते ह गु देव!’’ जाबािल ने धीरे से मु कुराते हए कहा।
‘‘राजन!!’’
‘‘जी गु देव!’’
‘‘तो िफर अब िवल ब या है? बुलाओ पु ी-जामाता को। दीघ काल से आई भी नह है
शांता।’’
‘‘कोई िवल ब नह है गु देव। बस आपक स मित क ती ा थी।’’
गु देव हँसे िफर बोले ‘‘अब तो िमल गयी स मित! अब िबना समय गँवाये ती गामी
अ वाले रथ से भेजो दूत को। बि क दूत के प म वयं आमा य जाबािल ही यिद चले जाएँ तो
सव े होगा।’’
‘‘जैसी आ ा गु देव!’’ दशरथ और जाबािल दोन ने ही हाथ जोड़ कर आदेश िशरोधाय
िकया।
‘‘मुिन े क मयादा के अनुकूल होगा यह। वैसे मुिनवर तो सरल यि व ह, िकसी
को भी भेज दो िवचार नह करगे िक तु िबिटया सोच सकती है।’’
‘‘म वयं चला जाऊँ।’’ दशरथ ने पछ
ू ा
‘‘यिद ऐसा संभव हो सके तब तो सवा म होगा। चाह तो महारािनय को भी ले
लीिजयेगा। महारानी कौश या भी अपनी बहन से िमल आयगी इसी बहाने।’’
‘‘तब िफर म वयं ही जाने को तुत होता हँ।’’
‘‘िक तु महाराज! आप बहधा अ व थ रहते ह। इतनी सुदीघ या ा आपके िलये
क कारी हो सकती है।’’ जाबािल ने कहा।
‘‘महामा य अ व थता तो मानिसक है और अब तो उसके िलए औषिध लेने जाना है।
इस िवचार मा से ही अब तो म पण
ू त: व थ हँ।’’ दशरथ ने हँसते हये कहा।
‘‘महामा य! महाराज को ही जाने द। सािलय से िमलने म रस ही अलग होता है।’’
सब हँस पड़े ।
‘‘स ाट्! कालगणना कह रही है िक आपके पु कालांतर म आयावत म सव पू य
ह गे। ये राजकुमार तो वयं इ से भी अिधक पू य होगा। युग तक वह आय के मन-
मि दर म सातव िव णु के प म वास करे गा। समच
ू ा आयावत उसे वयं परमे र का अवतार
मान कर उसक आराधना करे गा।’’
दशरथ तो वैसे भी स नता के अितरे क म डूबे हये थे गु देव के इस वा य ने तो उ ह
उ लास सागर म आकंठ डुबो िदया। उ ह समझ ही नह आ रहा था िक या कर, या कह! िकस
कार अपनी स नता को अिभ यि दान कर।
तभी एक उनके मन म कुलबुलाया। वे जरा संकोच से बोले -
‘‘गु देव एक है, अनुमित हो तो पछ
ू ू ँ ...’’
‘‘पछ
ू डािलये। को मन म कभी नह रखना चािहये। आते ही पछ
ू डालना चािहये
अ यथा स देह और शंका ज म लेने लगते ह।’’
‘‘गु देव! अभी तक आप राजकुमार के ज म का समय य नह िनि त कर पा रहे
थे। आप सदैव कहते थे िक मुझे चार पु का योग है िक तु कब यह कभी नह बताया।’’
‘‘यही िविध का िवधान था राजन। हम सब उस अनंत क लीला का एक कण मा ही तो
जानते ह। उसी क लीला थी िक हम कुमार का ज म समय नह िनि त कर पा रहे थे। िकसी
कोण से देखने पर कोई समय िनधा रत होता था तो दूसरे कोण से वह िनर त हो जाता था। पर
यह सदैव िनि त था िक आपको चार पु का योग है।’’ विश ने उ र िदया िफर ित
िकया ‘‘और कोई शंका महाराज?’’
‘‘नह गु देव! अब तो बस आन द ही आन द है। पौ िखलाने क आयु म म पु
िखलाऊँगा। गु देव समझ म नह आ रहा िक म अपनी स नता को कैसे य क ँ ?’’
‘‘आपके ने सबसे अ छी अिभ यि दे रहे ह, आप कोई यास न कर।’’ विश ने
हँसते हये कहा -
ू जा के मनोरथ पण
‘‘कुमार को आ जाने दीिजये िफर स पण ू कर दीिजयेगा। यही
सबसे उ म अिभ यि होगी आन द क ।’’ जाबािल ने सुझाया।
‘‘वह तो होगा ही महामा य। उसम भी कोई शंका है!’’ इस बार दशरथ जोर से हँस पड़े
हालांिक गु देव के सामने वे ऐसा नह करते थे पर आज आन द ने मयादाओं के बंधन को
िशिथल कर िदया था।
‘‘अ छा! तो अब हम अनुमित दीिजये और आप महारािनय सिहत थान का आयोजन
क िजये।’’ गु देव ने उठने का उप म करते हये कहा।
45. मंगला
‘‘बाबा म भी गु कुल जाऊँगी।’’ पाँच-छ: वष क मंगला िपता क पीठ पर लदी, उनके
गले म हाथ िपरोये लिड़या कर बोली। मंगला का िपता मिणभ अवध का एक े ी (सेठ) है।
उसक अनाज क ठीक-ठाक सी आढ़त है। बहत बिढ़या तो नह िफर भी अ छा खासा चल रहा है
उनका यापार। मंगला उसक दुलारी पु ी है। दुलारी हो भी य न, आिखर पाँच पु के बाद
तमाम देवी-देवताओं क मनौती के बाद मंगला ा हई है।
सेठ बाजार म अपनी ग ी पर बैठे िहसाब-िकताब म मगन थे। मंगला क बात सुन कर
ठठाकर हँस पड़े -
‘‘अरे लड़िकयाँ भी कह गु कुल जाती ह? तू अ मा के साथ रोटी बनाना य नह
सीखती?’’
‘‘वो तो सीख ली मने। पर मुझे गु कुल जाना है। मुझे भी वेद पढ़ना है।’’
‘‘अरे मुनीम जी! देखा आपने, हमारी िबिटया वेद पढ़ना चाहती है। आपने पढ़े ह?
‘‘नह सेठ जी मने तो नह पढ़े ।’’ मुनीम जी ने भी हँसते हये कहा।’’
‘‘मने भी नह पढ़े मुनीम जी!’’ मिणभ ने मंगला को िचढ़ाते हये कहा।’’
‘‘बाबा आप िठठोली कर रहे हो। जाओ म नह बोलती आपसे।’’ मंगला वैसे ही उनक
पीठ पर लदे-लदे बोली।’’
मंगला घर म सबसे छोटी थी, इसिलये सबक दुलारी थी। सेठ जी उसे मनाते हये बोले -
‘‘अरे कुिपत नह होते बेटा! हमारी िबिटया हमसे कुिपत हो जायेगी तो हमसे मीठी-मीठी
बात कौन करे गा? य मुनीम जी, आपको तो मीठी-मीठी बात करना आता नह ।’’
‘‘हाँ सेठजी हम तो नह आता।’’
सेठ जी ने हाथ पकड़ कर िबिटया को गोद म ख च िलया और पेट म गुदगुदाते हये बोले
-
‘‘तो तुमने रोटी बनाना सीख िलया।’’
‘‘बताया तो सीख िलया।’’ मंगला मँुह बना कर बोली।
‘‘तो और बिढ़या-बिढ़या खाना बनाना सीख। िफर हमको िखलाना। हम तो आज तक
तुमने अपने हाथ से रोटी बनाकर िखलाई ही नह ।’’
सेठ उसक सोच से इस गु कुल जाने क बात को हटाना चाहते थे। उस समय
क याओं को गु कुल भेजने क आयावत म प रपाटी नह थी। गु कुल के आचाय क क याएँ
ही थोड़ा बहत पढ़-िलख लेती थ या िफर कभी-कभी कोई राजक या गु कुल भेज दी जाती थी,
पर मा अपवाद के प म। शेष ि य और वै य क क याएँ तो आमतौर पर गु कुल का मँुह
भी नह देख पाती थ । लड़के भी कौन सा बहत गु कुल जाते थे। ऊँचे कुल के लड़के ही यह
सौभा य ा कर सकते थे िज ह रोटी कमाने क िच ता नह होती थी। बाक तो घर पर ही िपता
व चाचा से थोड़ा बहत गिणतीय ान ा करके यापा रक गितिविधय म लग जाते थे। कुछ
ि य या विणक िज ह अपने लड़क को पढ़ाने का बहत शौक होता था, थोड़े िदन के िलये उ ह
गु कुल भेज देते थे। सेठ के भी बड़े चार लड़के थोड़े -थोड़े िदन के िलये गु कुल गये थे। वेदािद
थ क सरू त देखी थ , थोड़ा सा िहसाब सीखा था और िफर िपता के यापार म हाथ बँटाने लगे
थे। सबसे छोटा बेटा ‘वेद’ अव य अभी भी गु कुल म था। उसे पढ़ाई से लगाव था। तीन वष हो
गये थे उसे वहाँ, ‘‘देखो िकतने िदन तक और पढ़े ’’ सेठ ने सोचा। मंगला क हठ ने अचानक
उ ह उसक याद िदला दी थी। पर मंगला कैसे जा सकती थी गु कुल। क याओं के बारे म तो
िकसी को िवचार ही नह आता था िक उ ह भी गु कुल भेजा जाना चािहये या भेजा जा भी
सकता है। क याओं से भी शोचनीय ि थित शू क थी। उनका पढ़ना तो पाप क ेणी म आता
था। उनके िलये तो इस िवषय म तो सोचना भी अपराध था। यहाँ तक कहा जाता था िक यिद कोई
शू वेद क ऋचाएँ सुन ले तो उसके कान म िपघला हआ शीशा भर देना चािहए।
ऐसी ि थित म भी उस काल म लोपामु ा, गाग , मै ेयी जैसी असं य िवदुषी ऋिषकाएँ
हय िज ह ने वेद क रचना तक म अपना मह वपण ू योगदान िदया। खैर ... आइये वापस अपनी
कहानी से जुड़ते ह।

मंगला ने तो हठ पकड़ ली थी, सेठ क रोिटय क बात म उसका मन नह भटका। वह


बोली
‘‘पहले गु कुल भेजने के िलये हाँ किहये, िफर बनाकर िखलाऊँगी।’’
मिणभ ने िसर पीट िलया। आिखर म उस समय बात टालने के िलये उ ह मंगला को
िदलासा देनी ही पड़ी -
‘‘अ छा तस ली रख। बात क ँ गा आचाय से। अगर उ ह ने अनुमित दे दी तो तुझे भी
भेज दँूगा गु कुल।’’
‘‘मेरे अ छे बाबा!’’ मंगला ने इतने से ही खुश होकर उनके गले म बाह डाल द ।
‘‘अ छा अब घर जा। मुझे काम करने दे। अरे ओ मध!ू जा मंगला को घर छोड़ आ।’’
उ ह ने बड़े बेटे को आवाज दी।
‘‘बाबा िब ू के साथ भेज दो ना! म गेहँ क बो रयाँ िगन रहा हँ।’’ िब ू सेठ के नौकर
का नाम था। नाम तो शायद िव ानाथ था पर िव ा से उसका उसके जैसे बाक सारे शू क
तरह कोई नाता नह था शायद इसीिलये सब उसे िब ू ही बुलाते थे। असली नाम तो उसे खुद भी
याद नह रहा था।
‘‘बो रयाँ छोड़ो, इधर आओ अिवल ब।’’ सेठ क आवाज अचानक अ वाभािवक प से
तेज हो गयी। आवाज क इस तेजी से सकपकाकर मधू सब काम छोड़ कर भाग कर आ गया -
‘‘जी बाबा!’’
‘‘जी बाबा के ब चे। तिनक भी लोकलाज क िच ता है िक नह । बड़ी हो गयी है अब
मंगला, इसके-उसके साथ भेज द उसे? जा भेज कर आ।’’
मधू चाहकर भी नह कह पाया िक बाबा िब ू इसके-उसके म नह आता। उसे अपनी
बेटी से यादा परवाह है मंगला क । वह चुपचाप मंगला को लेकर घर क ओर चल िदया। मंगला
गु कुल जाने क संभावना से स नमन उसक उँ गली पकड़ कर चल दी। एक ऐसे िदन का
सपना देखती हई जो शायद कभी नह आना था।
‘‘भइया आप तो गु कुल गये हो।’’ चलते-चलते मंगला ने भइया से पछ
ू ा।
‘‘नह गया।’’
‘‘अ मा बता रह थी िक आप गये हो। बताओ ना भइया।
‘‘अ छा चबड़-चबड़ बंद कर, चुपचाप चल।’’
‘‘बता दो न, मेरे यारे भइया। कैसा होता है गु कुल?’’
‘‘अ छा चुपचाप चल, नह तो ध ँ एक कान पर।’’ भइया ने झुंझला कर डपट िदया। वह
िकसी और काम म लगा था और िपता ने जबरद ती इसके साथ भेज िदया था। झुंझलाहट तो थी
ही उसपर ये मंगला क बक-बक, ऐसे म ोध आ जाना तो वाभािवक ही था, अ यथा तो मंगला
उसक भी चहे ती थी।
मंगला सहमकर चुपचाप उसके साथ चलने लगी।
46. रामज म
समय का च अपनी गित से चलता रहा।
महाराज दशरथ िपता बन गये। बड़ी रानी कौश या ने पु को ज म िदया। दशरथ का
मन खुशी से नाचने लगा। उ ह समझ नह आ रहा था िक अपना उ लास कैसे य कर। उनका
बस चलता तो वे मुकुट आिद सारे राजक य आड बर को एक ओर रखकर नाचते, गाते,
िच लाते अयो या क सड़क पर िनकल जाते और एक-एक आदमी को पकड़ कर उसे यह शुभ
समाचार सुनाते। पर हाय री पद क मयादा! वे ऐसा नह कर सकते थे। िफर भी अयो या का कोष
खोल िदया गया था। परू ी पुरी को सात िदन तक भरपेट राजक य भोज खाने को िमला था। सब
त ृ हो गये थे। अ य बहमू य उपहार से भी मा ा ण वग ही नह सम त जा कृतकृ य हो
गयी थी। सब स न थे।
महाराज के िदन का अिधक भाग अब कौश या के महल म ही बीतने लगा। वे कैकेयी
के महल म भी िदन म कई बार जाते थे, वे भी तो िकसी भी िदन माता बनने वाली थ , पर अिधक
समय क नह पाते थे। गु देव ने िजस िदन बालक का ‘राम’-सबके मन को र यता देनेवाला,
नामकरण िकया उसके तीसरे िदन ही कैकेयी ने भी उ ह एक पु र न दान कर िदया। आह!
या कर दशरथ? उनका एक पैर बड़ी रानी के महल म तो दूसरा मँझली रानी के, बीच-बीच म
समय िनकाल कर सुिम ा के महल म भी। अयो या क जा िफर पकवान के भोज से त ृ हो
रही थी। गु देव ने इस ि तीय पु का नामकरण िकया ‘भरत’।
और!!! िवधाता क लीला को भी या कह!
कुछ ही काल बाद छोटी रानी सुिम ा ने स ाट् को जुड़वाँ पु से आनि दत िकया।
इनका गु देव ने नामकरण िकया मश: ‘ल मण’ और ‘श ु न’।
ू ा कोशल उ लास के सागर म डूब गया।
समच
कहाँ तो सारी युवाव था बीत गई, सारी ौढ़ाव था भी बीत गयी नरक से तारने के िलये
मा एक पु क आकां ा म, पर पु नह िमला और अब बुढ़ापे क दहलीज पर खड़े दशरथ को,
जब सामा यत: संतान ाि क संभावनाएँ ाकृितक प से ही धिू मल हो जाती ह तो एकाएक
चार-चार पु ा हो गये। राजा क स नता का पारावार नह था। समझ ही नह आ रहा था िक
कैसे अपने उ लास को य कर! िकसे या बाँट द। चतुर अनुचर क चाँदी थी आजकल,
महाराज खुले हाथ से पुर कार बाँट रहे थे, बस लेने वाले म महाराज को थोड़ा सा उकसाने क
साम य हो।
राजगु विश ने चार कुमार क ज म-कु डिलयाँ बनाय और चार को ही रघुकुल
क क ितपताका को और भी दीि दान करने वाला बताया।
अपने वायदे के अनुसार ही देविष राजकुमार के ज म के कुछ ही िदन बाद उ ह आशीष
दान करने आये और अपनी योजना का दूसरा िबंदु वैâकेयी के कान म फँ ू क गये। महाराज उस
समय सभाभवन म थे। कुमार के साथ महारानी कौश या, वैâकेयी और सुिम ा, तीन
महारािनयाँ ही थ ।
‘‘महारानी आपके ये पु साधारण नह ह। यह ये पु ‘राम’ धरती से र -सं कृित
का समल ू नाश करने वाला बनेगा। रावण, आज जो लंका पर अपना रा य थािपत कर अपनी
िवजय या ा आरं भ कर रहा है, शी ही समच ू े देव और आय के िलये बहत बड़ा संकट बनने
वाला है। राम देव और आय को इस रावण नाम के आतंक से मुि िदलायेगा।’’
तीन रािनय के चेहरे चमक उठे । कैकेयी तो स नता के अितरे क से बोल ही पड़ी -
‘‘आह! देविष आप नह जानते िक आपके इस कथन ने मेरे कलेजे को िकतनी ठं डक
पहँचायी है।’’
‘‘म जानता हँ महारानी िक र सं कृित का पुन: अ युदय आपको िकतना आघात
पहँचा रहा है।’’
‘‘रावण! नीच-पातक ! आय स यता को पददिलत करने वाला अघोरी! उसका
िशरो छे द ही मानवता के िलये शुभ होगा। यह काय हमारा राम करे गा जीजी! मेरी छाती जुड़ा
गयी।’’ कहती हयी महारानी कैकेयी राजमिहषी क मयादा के बंधन को और देविष क
उपि थित को भी भुलाकर कौश या के सीने से िचपट गय । िफर दोन रािनय ने अपनी एक-एक
बाँह फै लाकर सुिम ा को भी आमंि त िकया और तीन रािनयाँ स न मन पर पर आिलंगन म
समा गय ।
नारद हँसते हये सोचने लगे िक अभी तो रावण ने िकया ही या है। और आगे भी या
करे गा। यिद आय सं कृित के िवन होने का भय न होता, यिद देवे के िसंहासन युत होने
का भय न होता तो संभवत: रावण से उ म कोई स ाट् नह होता। रावण ने लंका का शासन
सँभालते ही जो यव थाएँ क थ , नारद उनसे बहत भािवत थे। काश! रावण र सं कृित को
न अपनाता? काश! वह सुमाली के संर क व म न जाकर अपने िपता के ही साथ रहा होता तो
वह मनु यता को नयी प रभाषाएँ देने वाला बनता। पर तब संभवत: वह स ाट् बनता ही नह ।
या पता वह भी अपने िपता और िपतामह के समान जगत से िनिल सं यासी बन जाता।
एका त साधना करता। िकसे पता है या होता! जो हआ वही होना था, िविध का िवधान तो अटल
होता है। खैर ... या सोच रहा हँ म? उ ह ने अपने िवचार- वाह को झटक िदया और वतमान म
आते हये महारािनय के पर पर हष- दशन को बाधा दी-
‘‘महारानी! िक तु मने कुछ और भी कहा था आपसे। याद है न!’’
‘‘अ र-अ र याद है देविष! बताइये मुझे या बिलदान देना होगा इस उपलि ध के
िलये। कैकेयी येक याग के िलये तुत है।’’
‘‘रावण शी ही ि लोक क महाशि बनने वाला है। ा से स ब ध के चलते
नारायण भी िजसका सामना करने से िन य ही वयं को िवलग कर लगे। ऐसे रावण को परा त
करना कोई खेल नह होगा।’’
‘‘मुिनवर! आप जो इतना उ ोग कर रहे ह वह यँ ू ही तो नह होगा। आपने कोई न कोई
संभावना तो देखी ही होगी।’’ कैकेयी हँसती हई बोली।
‘‘रावण को म म रखकर ही परा त िकया जा सकेगा।’’
‘‘ या ता पय है आपका - छल से?’’
‘‘उसका भी सहारा लेना पड़ सकता है। िक तु अभी मेरा आशय छल से नह है।’’
‘‘तो िफर?’’
‘‘रावण ने यिद आपक शि का आकलन कर िलया तो िफर उसे परािजत नह िकया
जा सकेगा। वह वयं म अ यंत साम यवान है - मा शारी रक और साम रक शि से ही नह ,
मानिसक और आि मक शि से भी। पहले सुमाली ने और िफर ा ने उसे िव के सव े
यि के प म ढाला है। िफर मा यवान और सुमाली क कूटनीित उसके साथ पहले ही है। इस
समय वह लगभग अपराजेय है।’’
‘‘कहना या चाहते ह मुिनवर?’’
‘‘अभी से उकताइये मत महारानी! अभी और भी है ... आपके राम को इस अिभयान म
एकाक जाना होगा, ससै य नह ।’’
‘‘एकाक ??? ..’’. तीन रािनय क आँख आ य से फै ल गय ‘‘ऐसा य ?’’
‘‘महारानी! इस अिभयान म देव आपक छ न सहायता ही कर पायगे। वे कदािप
य यु म सि मिलत नह ह गे। यिद वे ऐसा करते ह तो िपतामह ा बीच म आ जायगे। तब
संभवत: िशव भी तट थ न रह पाय। उ ह ने सुमाली आिद के िव ही देव का सहयोग करने से
प मना कर िदया था, आपको ात ही होगा। ा के कारण नारायण भी आपके साथ नह
ह गे, वे तट थ हो जायगे। कुल िमला कर ये तीन महाशि याँ या तो आपके िवरोध म ह गी
अथवा तट थ ह गी। ऐसी ि थित म देव क साम य नह है िक वे य यु कर।’’
‘‘मान ली आपक बात देविष। िक तु इ वाकुओं को आप दुबल य समझ रहे ह।
िकतनी बार ही हमारे वंश ने देव के िलये यु िकया है। वयं महाराज दशरथ ने भी श बर के
िव यु म देवराज का सहयोग िकया था। उस यु म उनके ाण जाते-जाते बचे थे।
इ वाकुवंशी और उनके िम रावण से भी िनपट लगे।’’
‘‘आपक भलू है महारानी! आपने देखा नह था महाराज दशरथ िकस कार रावण के
उ लेख से भयभीत तीत होते थे। उ ह ने तो अपना भय िछपाया भी नह था। और िफर आप रावण
को एकाक य समझ रही ह? आप हैहय को य भल ू रही ह? उनक तो आपसे पीिढ़य से
श ुता चली आ रही है। आज आपके िम रा म ऐसा कौन है जो हैहय का सामना कर सके!
यिद आप िम रा को साथ लेकर रावण पर आ मण करगे तो हैहय, तालजंघ, शायात आिद
सब य नह रावण के प म खड़े हो जायगे। सभी तो आपके श ु ह। रावण के वे न तो िम ह
और न ही श ु। तो िफर ‘वे श ु का श ु िम होता है’ इस िस ांत का अनुकरण य नह करगे?
उनके िलये िकतना सरल होगा सागर माग से लंका तक पहँचना जबिक आपको िव य सिहत
अनेक पवत और दुगम वन को लाँघते हये लंका तक पहँचना होगा। आपके सै य का मनोबल
तो इस दु कर माग को ही जीतने म आधा टूट चुका होगा। महारानी सै य आ मण के ारा आप
रावण को परािजत नह कर सकते।
‘‘हे ई र!’’ तीन रािनय के चेहरे पर भय सा फै ल गया।
‘‘और महारानी पि म म एक और शि का उदय हो गया है, या आपने अभी तक
जामदि न राम का नाम नह सुना है? उनक श ुता य िप हैहय स ाट् अजुन से ही है िक तु वे
ि य मा के ित उ होते जा रहे ह। बहत संभावना है िक राम-रावण यु से बहत पवू ही
जामदि न अजुन का नाश कर चुके ह । तब वे या सहज ही ा णवंशी रावण के प धर नह
बन जायगे?’’
तीन महारािनय के मुख पर िच ता क रे खाएँ और गहरी हो गय ।
‘‘और सुिनये महारानी! या आप वानर क साम य को नह जानत । आय उनक
सं कृित को कैसी हे य ि से देखते ह, यह या आपको पता नह ? दूसरी ओर र सं कृित म
वे बड़ी सहजता से खप सकते ह। आपको या लगता है िक वे िकधर ह गे?’’
‘‘मुिनवर आप तो डरा रहे ह।’’ नारद क बात काटती हई कौश या बोल पड़ी - ‘‘और
उसके बाद भी कहते ह िक राम को अकेले जाना होगा इस अिभयान पर ... सुकुमार राम, कैसे
कर पायेगा सामना इन िवकट शि य का?’’
‘‘राम या ऐसा ही सुकुमार सा ही बना रहे गा? वह अिभयान पर जायेगा तब तक वयं
एक सव े शि के प म िवकिसत हो चुका होगा।’’
‘‘िफर भी मुिनवर! एकाक राम इन िवकट शि य से कैसे िनपट पायेगा? जानते-
ू ते आप उसे आग म धकेलने का आयोजन कर रहे ह!’’ कौश या क शंका िमट नह रही थी।
बझ
‘‘राम जायेगा समर पर और देवगण बैठे आनंद से तमाशा देखगे, यही कहना चाहते ह
न मुिनवर आप?’’ कैकेयी के वर म रोष था।’’
‘‘नह महारानी! यु काल म तो देवगण छुट-पुछ सहायता के अित र मक ू दशक ही
रहगे िक तु वे राम के अिभयान के िलये भिू म बनाने के िलये जुट चुके ह। जब तक राम-रावण के
सं ाम क ि थित आयेगी देव इतनी यव था कर चुके ह गे िक वानर एक सबल शि बन कर
राम के साथ खड़े ह । िदखाई ऐसा दे िक यह सा ा य का यु नह शोिषत वानर का रावण के
िव यु है। ऐसा होने पर अ य सम त शि याँ तट थ बनी रहगी। वानर से े यो ा उस
े म कोई िस नह हो सकता। साथ ही उस काल तक राम को देव िकसी न िकसी रीित से
सम त िद या का ान दान कर रावण के समक ही नह उससे भी े यो ा के प म
िवकिसत कर चुके ह गे।’’
‘‘कैसे देविष? जब देव य प से सामने ही नह आयगे तो ...’’
‘‘महारानी! देव वयं सामने नह आयगे तो या हआ, राम तो िव के सव े यो ा
के प म थािपत ह गे ही ह गे। देव का यह काय ऋिषगण स पािदत करगे। इस कार करगे
िक िकसी को इसम देव क कूटनीित िदखाई ही नह देगी। यही ा य भी है।’’
‘‘िफर भी देविष! ससै य अिभयान म मुझे कोई बुराई नह िदखती? अवध, कोशल,
कैकेय, काशी और अ य िम रा के सेनाएँ भी यिद वानर सै य के साथ ह गी तो रावण
अव य परािजत होगा। सबको साथ लेकर चलना ही अिधक ेय कर होगा।’’
‘‘नह महारानी! ससै य अिभयान से सवनाश के अित र कुछ भी ा नह होगा। इस
िवषय म तो सोच ही मत।’’
‘‘ य ?’’
‘‘ थमत: रावण के िव अिभयान के िलये वयं महाराज दशरथ ही अनुमित नह
दगे। आप तो जानती ही ह िक वे रावण से िकतने भयभीत ह।’’
‘‘आप स य कह रहे ह। महाराज रावण से भयभीत ह िक तु जब हम सब का सि मिलत
यास होगा तो वे अव य अिभयान क अनुमित दगे। नह दगे तो म वयं रण के िलये अपने राम
के साथ ससै य तुत रहँगी। मुझे महाराज िकसी भी कार रोक नह पायगे।’’ कैकेयी ने पुन:
वातालाप म ह त ेप िकया।
‘‘आगे-आगे मत चिलये महारानी। सारे त य को देिखये तो पहले।’’
‘‘अ छा बताइये!’’
‘‘अभी सब कुछ बता तो चुका हँ - तब िकतनी शि याँ आपके िव खड़ी ह गी।
संभवत: वानर आिद वनवासी भी आपके साथ नह ह गे .... और आपका सै य वहाँ िकसी काम
का िस नह होगा।’’
कैकेयी मौन नारद का मुख िनहारती रह तो नारद आगे बोले -
‘‘सै य अिभयान क ि थित म वानर यह भी सोच सकते ह िक यह सै य अिभयान
उनके ही िव है और तब यिद उ ह ने द डकार य म ही हमारे सै य पर आ मण कर िदया तो
ि थित बड़ी िवकट हो जाएगी। हमारे सैिनक ने तो कभी उस े म पाँव ही नह रखे ह, मनु
महाराज ने पहले ही आय ि ज के िव य पार करने पर ितब ध लगा रखा है। दि णापथ क
दुगम धरातलीय प रि थितय से अनिभ हमारे सैिनक को बािल और केसरी बड़ी आसानी से
धराशायी कर दगे और रावण का पराभव बस सोचने क ही बात रह जायेगा। बड़ा भीषण इलाका
है द डकार य का।’’
‘‘आप तो मुिनवर पणू अंधकारमय िच ख च रहे ह। इन प रि थितय म राम या कर
पायेगा। आप कहते ह उसी के हाथ रावण का नाश िनि त है।’’
‘‘अनुिचत नह कहता महारािनय ! उसक कुंडली म यह यश प प रलि त है।
िक तु यह काय राम ससै य नह कर सकता। अिपतु इसे ... य समझ इस काय को वह ि य
आय स ाट क सेना के साथ नह कर सकता।’’
‘‘िफर???’’
‘‘उसे अपनी सेना का गठन वहाँ वयं करना होगा।’’
‘‘कहाँ से? सारे माग तो आप वयं बंद िकये दे रहे ह। कहाँ से गठन करे गा वह सै य
का?’’
‘‘वह दि णवत के वानर और ऋ से। देव और ऋिषय ने अपना काय आरं भ कर
िदया है बस राम को सही समय आने पर वयं को उनका िहतैषी सखा िस कर उनका नेत ृ व
ह तगत कर लेना होगा।’’
‘‘वानर और ऋ से!! उपहास कर रहे ह मुिनवर! एक ओर आप कह रहे ह िक वे
हमारी अपे ा सहज प से रावण के िम बन जायगे दूसरी ओर कह रहे ह िक राम को उनका
सै य गिठत करना होगा। कैसे संभव हो सकेगा यह?’’
‘‘होगा महारानी होगा। यह यास सफल हो कर रहे गा। शी ही आपको इसक सचू ना
िमल जायेगी। देव और कर या रहे ह दि णापथ म!’’ नारद ने रह यमयी मु कान के साथ
कहा।
‘‘िक तु कैसे मुिनवर?’’
‘‘बस देखती जाइये महारानी। समय आने पर आपको वयं ात हो जायेगा।’’
‘‘चिलये मान ली आपक बात। िक तु िफर भी ...’’
कोई िक तु नह महारानी।’’ नारद उनक बात काटते हये बोले- ‘‘अग य आिद िष
अकारण ही नह दि णावत म बसे ह जाकर।’’
‘‘हँ!!!’’ तीन रािनय के मँुह से अनायास हंकारी िनकली। नारद ने बोलना जारी रखा
-
‘‘इस अिभयान का नेत ृ व मा राम करे गा। शेष तो यह रण ा ण रावणािद और
उसक अनाय जा के साथ अग यािद ा ण और किप-ऋ आिद अनाय जाितय का यु
होगा। आय ि य इसम मक
ू ही रहगे।’’
‘‘और देव? वे भी केवल भिू मका ही बनायगे?’’
इस बार नारद िकंिचत हँसे िफर बोले -
‘‘सच कह रही ह महारानी। ा के वचन के चलते देव य यु म भाग नह ले
सकते, िफर भी वे आपको परू ा रण सजा कर दगे। अपनी कूटनीित से सारी प रि थितय को वे ही
तो िनयं ण करगे।’’
‘‘ प कह मुिनवर! वे आग लगाकर दूर से हाथ सेकगे।’’
‘‘महारानी अकारण देव पर आरोप लगा रही ह!’’
‘‘अकारण य ? या येक देवासुर सं ाम म आय स ाट् देव के साथ असुर से नह
लड़े ? या वयं कैकेयी सं ाम म महाराज दशरथ के साथ रणरत नह हई?’’ महारानी कैकेयी
अब आवेश म आने लगी थ । उनक आवाज वत: ऊँची हो गयी िक तु नारद वैसे ही शांत थे। वे
बोले -
‘‘पणू त: स य! िक तु इस सं ाम म आय स ाट् कोई प कहाँ ह गे महारानी? आप तो
इस सं ाम म देव से भी अिधक िनि य ह गे। देव तो परो प से परू ी तरह राम के सहायक
रहगे िक तु आय स ाट् तो पणू त: मक
ू दशक मा रहगे। बहत स भावना है िक उ ह तो यु का
सं ान ही तब हो पाये जब यु समा हो चुका हो।’’
‘‘ऐसा कैसे संभव है? राम जब घोर रण म ह गे तो उसके िपता, मातुल आिद िनि य
कैसे रह सकते ह? अपने ब चे को काल के जबड़ म छोड़कर दूर से देखते नह रहा जा
सकता।’’
‘‘न! न! महारानी! पहले भी चेता चुका हँ। यह अनथ कदािप न कर बैठ आप लोग,
अ यथा सवनाश के िसवा कुछ हाथ नह आने वाला। राम पर, ऋिषय पर और देव क योजना
पर भरोसा रख। राम िवजयी हो कर रहगे। र वंश का समल ू नाश होकर रहे गा। जो काम
मा यवान और सुमाली को छोड़ कर िव णु ने अधरू ा छोड़ िदया था उसे अब िव णु क ेरणा से ही
राम परू ा करगे।’’
‘‘वा जाल न फै लाएँ मुिनवर! मान य नह लेते िक देवगण रावण से भयभीत ह।’’
‘‘स य है िक देवगण भयभीत ह िक तु रावण क शि से नह अिपतु ा के वचन
से।’’
कुछ ण क कर नारद पुन: बोले -
‘‘एक सच
ू ना दँू आपको महारानी, शायद आपको अभी ात न हो।’’
‘‘दीिजये।’’
‘‘शी ही आपको सच ू ना िमलेगी िक रावण के सम देव परािजत हो गये। देव को
पराजय वीकार करनी ही होगी।’’
‘‘ या? देव वत: पराजय वीकार कर लगे?’’
‘‘हाँ! अ यथा ा बीच म आ जायगे और तब पराजय वीकार करनी होगी।’’
‘‘लेिकन कर या रहे ह देव? आप तब से कह रहे ह िक देव भिू मका तैयार कर रहे ह
िक तु कैसे इस िवषय म कुछ नह कह रहे ।’’
‘‘वह कहने का समय अभी नह आया। आप लोग भी इस िवषय म मौन ही रह। बस यह
जान ल िक यह िकसी को ात नह और ात होने भी नह िदया जायेगा।’’
‘‘िफर भी मुिनवर! कुछ तो संकेत द!’’
‘‘आय म, ि य म मा आपक भिू मका रहे गी इस स पण
ू अिभयान म। महारानी
कौश या और महारानी सुिम ा आपक मौन सहयोगी ह गी।’’
कैकेयी कुछ मौन रह । धीरे -धीरे उनके चेहरे का तनाव कम हआ जो इस ल बे वातालाप
म उ ेजनावश आ गया था। िफर हँसते हये बोल -
‘‘मेरे को घुमा गये मुिनवर!’’
नारद भी हँसे -
‘‘अभी यही उिचत है महारानी! अपनी भिू मका नह समिझयेगा, उसी पर तो सारी
सफलता िनभर है!’’
‘‘बताइये!’’
‘‘आपको राम को एकाक वन भेजना होगा, महाराज के सं ान म यह आये िबना िक
सारी योजना या है। अगर कह महाराज को तिनक भी संदेह हो गया तो कुछ भी हो जाये वे राम
को एकाक वन नह जाने दगे।’’
‘‘िक तु यह कैसे होगा? कैसे म ू र हो पाऊँगी राम के ित? आप ही तो कहकर गये
ह पवू म िक राम पर मेरा िवशेष नेह होगा।’’
‘‘ दय पर प थर रखकर यह तो करना ही होगा महारानी। यह बिलदान तो देना ही
होगा। यही तो आपक भिू मका है, इसी पर तो सारा अिभयान िनभर है।’’
‘‘ठीक है। जैसी आपक आ ा।’’
‘‘आ ा नह महारानी! हम सब िवधाता के रचे रं गमंच पर अपनी-अपनी भिू मकाओं का
िनवाह कर रहे ह। म भी कर रहा हँ, आपको भी करना होगा।’’
‘‘िक तु म कैसे कर पाऊँगी भला यह?’’
‘‘उसके िलये अभी िवचार िकया जा रहा है। आप भी िवचार क िजये। म आपके स पक म
रहँगा।’’
47. मंगला के भाई का याह
मंगला का गु कुल का सपना परू ा नह हो पाया था। थोड़े िदन वह मचलती रही और
िपता उसे बहलाते रहे । िफर घर म उसके बड़े भाई के िववाह का संग चल गया, वह आिखर बाइस
से ऊपर का हो गया था। घर म एक बह आ जाये तो िफर मंगला के िलये भी लड़का देखा जाये।
िकतनी तेजी बढ़ती ह ये लड़िकयाँ भी। अभी से ताड़ सी हई जा रही है।
मंगला को िपता के इन खयाल का सपने म भी भान नह था। वह तो यारी सी भाभी
क क पनाओं म डूबी हई थी। इन क पनाओं म वह कुछ काल के िलये गु कुल को भी भलू गयी
थी। उसे सपने म भी यह खयाल नह आता था िक उसे भी िववाह करना होगा। जैसे भाभी उसके
घर आ रही है ऐसे ही उसे भी िकसी क भाभी बनकर, िकसी क प नी बनकर उसके घर जाना
होगा। वह अपनी िदन-िदन बढ़ती ल बाई से स न होती थी पर यह ल बाई उसके माता-िपता के
िलए िच ता का िवषय भी हो सकती है, यह उसे समझ नह आ रहा था।
िफर एक िदन धम ू धाम से भाभी आ गयी। सुंदर-सलोनी सी चौदह वष क गुिड़या। परू े
प ह िदन चला िववाह का काय म। इतने िदन घर के पु ष का भी घर के भीतर वेश परू ी
तरह विजत रहा। वैसे भी कौन सा वे घर के भीतर जाते थे। भोजन के िलये चौके म जाने के
अित र पु ष वग सामा यत: बाहर के िह से म ही रहता था। कोई काय हआ तो वह से पड़े -पड़े
पुकार लगा दी, बस माँ या मंगला दौड़ कर उनक सेवा म उपि थत हो जाते थे।

नई बह को घर का सद य बनते-बनते दो वष गुजर गये। इतने िदन तो वह िफर आई,


िफर मायके गई। िफर आई िफर मायके गई यही चलता रहा। चौथी, िफर गौना, िफर रौना और न
जाने या ... या। पर इस आई-गई के बीच भी मंगला ने ढे र सारी मन क बात कर डाल थ
अपनी भाभी से। जैसे वह गु कुल गई िक नह ? नह गई तो य नह ? उसे गाय ी मं आता है?
भाभी बेचारी के पास उसके हर सवाल का जवाब ‘नह ’ या ‘पता नह ’ इतना ही होता था। इससे
मंगला को संतोष नह होता था। उसे समझ नह आ रहा था िक भाभी मख ू ा है या उससे बात ही
नह करना चाहती। लेिकन िफर भी भाभी उसे अ छी लगती थी। उसके साथ समय यतीत करना
उसे अ छा लगता था।
इस बार जब भाभी आई तो िटक कर रही। पर मंगला को इस बार वह कुछ अलग सी
लगने लगी थी। जब आई थी तब वह हमेशा जैसी ही थी पर दूसरी रात के बाद से वह बदल गई
थी। उसक मु कुराहट बदल गई थी। अब वह बार-बार वह मंगला के यहाँ-वहाँ चुटक काट लेती
थी। जब मंगला ितरोध करती तो कहती हाँ ‘‘हमारा चुटक काटना तो खराब लगेगा ही, दू हे
से खबू मन से कटवाना।’’ मंगला को उसक इस तरह क बात समझ म नह आती थ । िफर भी
भाभी उसे अ छी लगती थी। उसके आने से मंगला के काफ सारे काम कम हो गये थे। पर भाभी
घर के पु ष के सामने तो आँगन म भी नह आती थी। हमेशा ल बे से घँघू ट म रहती थी जैसे
दादी के सामने अ मा रहती थ । उसक दादी-बाबा को भगवान ने ज दी ही बुला िलया था अपने
पास। वह बहत छोटी थी तभी। पहले बाबा गए थे उनके कुछ िदन बाद ही दादी भी चली गयी थ ।
अपने बाबा को वह बढ़ ू े बाबा कहती थी। उसक तमाम सहे िलय के दादी-बाबा तो अभी भी ह। पता
नह उसके बाबा-दादी को ही बुलाने क भगवान को इतनी ज दी य थी। उसे थोड़ी-थोड़ी याद
है अपने बचपन क - वे दोन उसे खबू यार करते थे, उसे ढे र सारी कहािनयाँ सुनाते थे, उसक
येक इ छा परू ी करते थे। उनके सामने उसे गु कुल और पढ़ाई के बारे म ान ही नह था,
नह तो उ ह से कहती और वे अ य बात के समान ही तुरंत उसक यह बात भी मान लेते।
उनके सामने बाबा भी कुछ नह कह पाते। बढ़ ू े बाबा के सामने बाबा क कुछ नह चलती थी।
एक िदन मंगला क भाभी मँुह अँधेरे बैठी चिकया पीस रही थी। यह उसका िन यकम
था। पहले यह काम अ मा का था पर जब से अबक बार भाभी आई थी यह उसके िज मे हो गया
था। पतले से ल बे-ल बे कमरे क छत म किड़य क जगह पड़े टेढ़े-मेढ़े लकड़ी के ल े काफ हद
तक काले पड़ चुके थे। इसे कमरे क बजाय बड़ी सी कोठरी कहना शायद अिधक उपयु होगा।
कमरे के एक कोने म मँज ू क चटाई पर भाभी बैठी थी। सामने ताड़ के बड़े से प पर चिकया
रखी थी। इ ह प पर चिकया से िपसा हआ आटा िनकल कर चार ओर िबखर रहा था। उसक
बाय ओर दीपक जल रहा था। दीपक का काश कोठरी के दूसरे छोर तक पहँचने म असमथ था।
सरू ज ने अभी झांकना शु नह िकया था, इसिलए कोठरी क आँगन क ओर क दीवाल के
बीच -बीच ि थत दरवाजे से चुपके से झांकती मंगला का आभास भाभी को नह हो पाया।
मंगला एकदम से ‘‘हो ऽऽऽ’’ करके भीतर घुसी तो अपने म मगन भाभी एकबारगी च क
गई।
मंगला भाभी के घबराने का मजा लेती हई हँस पड़ी और िफर दौड़ती हई आकर उससे
िलपट गयी।
‘‘हा ऽऽ! इ ी बड़ी होकर डर गयी।’’ मंगला ने चुहल क ।
‘‘रा सी से कौन नह डरता।’’ भाभी ने पलटवार िकया।
‘‘म रा सी हँ?’’ मंगला रोष का दशन करती हई बोली।
‘‘अरे नह ! तू तो मेरी ब नो है। तेरे अचानक होऽऽ करने से मुझे लगा जैसे रा सी आ
गई हो।’’ उसने िफर चिकया घुमाना आरं भ करते हए पछ ू ा- ‘‘अ छा बता इतने भोर कैसे उठ
गयी?’’
‘‘तुमसे कुछ पछ
ू ना था।’’
‘‘पछ
ू ो’’
‘‘भाभी तुम गु कुल गई हो?’’
‘‘ या???’’ चिकया क घर-घर म भाभी को उसका सही से सुनाई नह िदया।
मंगला ने हाथ बढ़ाकर चिकया क मठ
ू पकड़ ली और बोली -
‘‘पहले इसे तिनक रोको, तब तो सुनाई दे कुछ।’’
‘‘इसे रोक दँूगी तो रोटी कहाँ से खाओगी ब नो!’’ भाभी ने हँसते हए चुहल क - ‘‘पर
तुम अभी चिकया-चू हा छोड़ो और पड़ के चैन से सोओ जाके।’’
‘‘न द खुल गयी तो सोचा तु हारा ही हाथ बँटा दँू।’’
‘‘तो लो पीसो, पर िफर मत कहना िक हाय! कंधा िपरा रहा है।’’
‘‘नह कहँगी। पर पहले मेरी बात का उ र दो।’’
‘‘तो पछ
ू ो तो!’’
‘‘चिकया तो रोको।’’
‘‘लो रोक दी। अब बोलो?’’
‘‘तुम गु कुल गयी हो?’’
‘‘नह ! लेिकन तुझे गु कुल का इतना चाव य है - कोई लड़का है या वहाँ?’’ भाभी
ने उसके गाल पर चुटक भरते हये जवाब म दूसरा सवाल जड़ िदया।
‘‘बस तु हारी यही बात हम अ छी नह लगती। जब देखो नोचती रहती हो। सीधे बात ही
नह कर पात । जाओ नह पछ ू ना मुझे कुछ।’’
‘‘अरे ! मेरी ब नो तो नाराज हो गयी। अ छा चलो नह नोचँग
ू ी अब।’’
‘‘िफर ब नो कहा। म ब नो नह हँ।’’ मंगला का मँुह फूल गया था - ‘‘सीधे से नाम भी
नह ले सकत । जाने या हो गया है इस बार तु ह। भइया से िशकायत करनी पड़े गी।’’
‘‘अ छा लो कान पकड़ती हँ, अब न नोचँग
ू ी, न ब नो कहँगी। तु हारे भइया क
कसम!’’
ू ी कह क । मेरे भइया क
‘‘झठ या जान लेनी है, अपने भइया क खाओ झठ
ू ी कसम।’’
‘‘अ छा मेरे भइया क कसम, अब स न!’’ भाभी मंगला से िलपट गयी। ‘‘हम तो
सहे िलयाँ ह, नह ? सहे िलय से कह नाराज हआ जाता है? लो मने कान पकड़ िलये, अब माफ
कर दो।’’
भाभी क अदा पर मंगला को हँसी आ गयी। गु सा िपघल कर बह गया।
‘‘तो सीधे से बताओ - गु कुल गई हो िक नह ।’’
‘‘नह ! लड़िकयाँ कह गु कुल जाती ह! वे तो घर पर ही पढ़ लेती ह थोड़ा-बहत।’’
भाभी ने िफर उसीसे सवाल कर िदया - ‘‘तुम गई हो या?’’
‘‘नह ! म भी नह गई। लेिकन मन बहत है वहाँ जाने का, पढ़ने का।’’
‘‘लेिकन यह कभी नह होगा। मने तो अभी तक िकसी क या को गु कुल जाते देखा
नह ।’’
‘‘अ छा भाभी क या पढ़ य नह सकती?’’
‘‘ य िक भगवान ने ऐसा कहा है?’’
‘‘भगवान ऐसा य कहगे भला?’’
ू ना, मुझे भला कैसे मालम
‘‘अब यह तो अपने बाबा से ही पछ ू हो। म भी तो बेपढ़ी हँ।’’
‘‘पर मुझसे बड़ी तो हो।’’
‘‘पढ़ाई क बात बड़े होने से थोड़े ही मालम
ू होती ह। वे तो पढ़ने से ही मालम
ू होती ह
और पढ़ना मुझे आता नह ।’’
‘‘िफर िकससे पछू ? बाबा बताएँ गे कुछ? उ ह तो अपने यापार के अलावा कुछ पता ही
नह रहता। जब देखो दुकान क ही गिणत लगाते रहते ह।’’
‘‘तो िफर सोचो, िकससे पछ
ू ोगी!’’
‘‘अबक वेद भइया आयगे तो उनसे पछ
ू ू ँ गी। उ ह सब पता होगा।’’
‘‘हाँ तु हारे वेद भइया को तो अव य ही पता होगा। वे तो इतने िदन से गु कुल म पढ़
रहे ह।’’
‘‘तो यही प का रहा। वेद भइया अगर बताने म ना-नुकुर कर तो तुम मेरा साथ देना। वे
भी तो घर आने पर अपने िम म ही य त हो जाते ह। और िकसी क तो उ ह सुिध रहती ही
नह ।’’
‘‘अरे प का मेरी ब नो।’’ कहती हई भाभी ने िफर उसके गाल म चुटक काट ली।
‘‘िफर वही! तुम भी ना भाभी, सुधर नह सकत ।’’ मंगला बोली, पर इस बार वर म
नाराजगी नह थी। उसे अपने का उ र पाने का माग जो िमल गया था और भाभी ने उसका
सहयोग करने का आ ासन भी दे िदया था। वह इससे स न थी। इस स नता के बदले भाभी
क इतनी सी उ ं डता मा क जा सकती थी।
अब ‘वेद’ भइया क ती ा आरं भ हो गयी थी।
48. सुमाली क कूटनीित
सुमाली और व मुि आज दि ण क ओर मण पर िनकल पड़े थे। सुमाली अपने
िवशेष अिभयान म अिधकांशत: व मुि को ही अपने साथ लेकर िनकलता था। वह उसके पु
और ातज ृ म सबसे बड़ा भी था और उसक सोच भी उससे िमलती थी।
िव रथ को अपना अिभयान आर भ िकये चार माह का समय यतीत हो गया था।
सुमाली ने िजन-िजन मोच पर अपना यान केि त िकया था, सभी से उ साहजनक
समाचार िमल रहे थे।
भरतखंड क मु य भिू म के दि णी तट पर चौिकयाँ थािपत करने का काय सफलता
पवू क चल रहा था। वहाँ येक चौक पर ४०-५० यि य को वे लोग छोड़ देते थे और आगे बढ़
जाते थे। ये चौिकयाँ यँ ू देखने म छोटे-छोटे ाम से तीत होते थे िक तु इनम सुमाली के िशि त
सैिनक सामा य नाग रक क वेशभषू ा म रहते थे। कुछ थान पर थानीय आिदवािसय को भी
अपने साथ जोड़ पाने म ये लोग सफल रहे थे।
लंका म पोत और नौकाओं का िनमाण काय परू े उ साह से चल रहा था। िव रथ के
चुने हये सैिनक िन य ही यो य िस हए थे। आरं भ म तैयार हए पोत का सुमाली ने वयं
परी ण िकया था और उ ह उपयु पाया था। कुछ किमयाँ जो उसे तीत हई थ उनक ओर
उसने इंिगत कर िदया था और तेज वी ने उन किमय को दूर करवा िदया था।
िव रथ ने लंका के दि णी छोर पर दो प न थािपत कर िलये थे और कुबेर के पोत
के िवषय म उ साहजनक िववरण बटोरने म सफल रहा था। उसने सुमाली के परामश के अनुसार
ही उधर से िनकलने वाले सम त पोत के कमचा रय से िम ता संबंध थािपत करने म भी
सफलता ा क थी। उनम से कुछ तो उसके पवू प रिचत ही िनकल आये थे और इ ह के
मा यम से वह अ य के साथ भी िम ता थािपत करने म सफल हआ था। कुबेर के ये कमचारी
लंकावािसय को अपना बा धव ही मानते थे। अलका और लंका के म य अभी श ुतापण ू संबंध
नह बने थे। इस कार उनके साथ अनौपचा रक वातालाप म उसे उन पोत के आवागमन क
समय-सा रणी के साथ-साथ अ य भी अनेक मह वपण ू िववरण सहजता से उपल ध हो गये थे।
अलकापुरी के सागर से बहत दूर होने के कारण कुबेर को अपना यवसाय यवि थत
करने म आरं भ म बड़ी असुिवधा हई थी िक तु उसने शी ही सब कुछ यवि थत कर िलया था।
अब पवतीय े म उसक यापा रक साम ी रथ और बैलगािड़य के मा यम से आती थी।
पवतीय े समा होते ही पि म म िसंधु और पवू म गंगा नदी म ती ा कर रहे उसके छोटे-
छोटे यापा रक पोत म यह साम ी थानांत रत कर दी जाती थी। सागर तक ये पोत इन दोन
निदय के मा यम से साम ी ढोते थे और उसके बाद सागर म ती ारत उसके िवशाल पोत यह
साम ी लेकर सुदूर तट क ओर बढ़ जाते थे। यह यव था हो जाने से अब उसके छोटे पोत लंका
होकर नह गुजरते थे िक तु िफर भी पवू -पि म के देश को जोड़ते हए ल बी या ा करने वाले
उसके िवशाल पोत के िलये माग म ककर िव ाम करने और आव यक ई ंधन आिद लेने के
िलये लंका ही एकमा िवक प था।
लंका के दि ण-पवू ीप से भी आशाजनक समाचार थे। सुमाली के कूटचर वहाँ क
जनता म सफलता पवू क घुल-िमल गये थे और र सं कृित क े ताओं का चार कर रहे थे।
व मुि ने दि ण सागर तक के माग का काय समय-सीमा के भीतर ही पण ू कर िदया
था। इसी माग से आज इन लोग ने या ा क थी। ती अ पर भी दि ण समु तट तक पहँचने
म सारा िदन लग गया था। इन लोग ने मँुह अँधेरे या ा आरं भ क थी और अब िदन ढलने के
करीब था।
रावण ह त से सवािधक संतु था इसिलये उसे सदैव अपने साथ ही रखता था।
अ सर व बाह भी उनके ही साथ रहता था। कुंभकण ने कोई भी दािय व लेने से साफ मना कर
िदया था। उसे मिदरा क लत लग गयी थी। वह बस जी भर के मिदरापान कर म त लेटा रहता
था। जब तं ा टूटती तो ख च कर भोजन करता और िफर मिदरा चढ़ा लेता। चैत य अव था म
उसके दशन संभवत: भम ू ंडल पर सवािधक दुलभ उपलि ध थी।
िवभीषण सदैव क भाँित य , पज ू ा आिद म य त रहा करता था। उस पर िपता का
भाव रावण और कुंभकण क अपे ा बहत अिधक था। वाभािवक भी था, रावण और कुंभकण
को तो कैकसी उनके समझदार होने से पवू ही सुमाली को स प गयी थी, मा वही अिधक काल
तक िपता के साथ रहा था। इधर सुमाली ने भी उसे अपने भाव म लेने का अिधक यास नह
िकया था। उसे दुधष यो ाओं क आव यकता थी य िवशारद क नह । उसे रावण को ि लोक
िवजयी बनाना था, उसके िपता के समान याि क नह । िक तु उसे अभी पता नह था िक वह
िकतनी बड़ी भल ू कर रहा था। िवधाता सिृ को अपनी इ छानुसार संचािलत करता है, संभवत:
इसीिलये वह बड़े से बड़े कूटनीित से भी कह न कह भल ू करवा ही देता है।
‘‘िपत ृ य! लंका का यह दि णी िसरा तो अभी भी अ यंत अिवकिसत अव था म
ि गत होता है। यह तो लगता ही नह िक उसी समिृ शाली लंका का भाग हो।’’ वजम ृ ुि ने
माग के दोन ओर दूर-दूर तक फै ले बीहड़ े पर िनगाह डालते हये कहा- ‘‘माग िनमाण म
अनेक किठनाइय का सामना करना पड़ा। िदवस म िद सच ू क यं और राि म ध् ुरव तारा ही
सहायक होते थे िक हम सही िदशा म बढ़ रहे ह अथवा नह ।’’
‘‘हाँ पु ! कुबेर का सारा यापार पवू और पि म के प न से ही होता था। वे े ि कूट
से िनकट पड़ते ह। संभवत: इसी कारण यह भाग उपे ा का िशकार रहा।’’
‘‘यिद इन सारे बीहड़ को चौरस करा िदया जाये तो िकतनी अिधक कृिष यो य भिू म
िनकल सकती है, नह ?’’
‘‘िन संदेह िनकल सकती है। िक तु अिधक कृिष भिू म क हम आव यकता नह है।
लंका म पया मा ा म खा ा न उ प न होता है।’’
‘‘अिधक खा ा न का हम िनयात भी तो कर सकते ह?’’
‘‘कर सकते ह िक तु या वह पया लाभकारी होगा? यह सारा े इतना बंजर और
ऊबड़-खाबड़ है िक इसे समतल कराना आसान नह होगा। िफर थान- थान पर पवतीय े
भी ह। उ ह कैसे समतल कराओगे? और यिद उ ह छोड़ दोगे तो भिू म ही िकतनी ा होगी?’’
व मुि कुछ देर सोचता रहा िफर बोला - ‘‘िकसी सीमा तक आप ठीक ही कह रहे ह,
िवशेष लाभकारी तो नह होगा िक तु हािन भी नह देगा।’’
‘‘सो तो नह देगा िक तु इतने कृषक कहाँ से लाओगे यहाँ पर खेती करने के िलये?
जब कृषक ही नह ह तो कृिष भिू म क आव यकता ही या है!
‘‘हाँ! यह तो है।’’
‘‘िफर इसके िलये िकतने सारे िमक क आव यकता होगी, वे भी कहाँ से आयगे।
लंका को अभी सैिनक क अिधक आव यकता है, कृषक और िमक क नह । िनकट भिव य
म हम अनेक यु करने ह गे।’’
‘‘यह भी स य है िपत ृ य! मने इस ि से तो सोचा ही नह था।’’
‘‘पु ! यिद रा य का संचालन उिचत कार से करना है तो िकसी एक िब दु पर नह
सम त िब दुओ ं पर ि रखनी पड़ती है। अपनी ि को िवहंगम बनाओ तभी तुम वयं को
शासन के यो य िस कर पाओगे।’’
‘‘जी! यास तो कर रहा हँ।’’
‘‘मुझे पता है। म भी यही चाहता हँ िक तुम सम प से यो य बन सको इसीिलये सदैव
अपने साथ रखता हँ।
‘‘जी!’’
‘‘हम कुछ भिू म को अव य समतल करायगे और त प ात यहाँ लोग को बसायगे भी।
माग को तो अव य ही ठीक करायगे तािक सव िनबाध आवागमन संभव हो सके। िक तु शेष
े पर इन वन को ही उिचत रीित से िवकिसत करगे। सारे े म छोटी-छोटी ामीण बि तय
का िवकास करगे, वही इन वन क सुर ा करगे और इनक उपज को संकिलत भी करगे।
अपार स पदा है इन वन के पास। एक व ृ कई पीिढ़य तक फल देता है और उसम बहत म क
भी आव यकता नह होती, मा व य-पशुओ ं से सुर ा के।’’
सागर का िकनारा अब िदखाई देने लगा था। िकनारे पर कोई पचास-साठ अ ारोही
उपि थत थे। दूर से ही इ ह देख कर उनम से कुछ अ ारोही इनक ओर बढ़ चले थे। थोड़ी ही देर
म वे इनके पास आ पहँचे। दोन ने देखा िक उनम सबसे आगे िव रथ था।
‘‘ णाम मातामह! णाम मंि वर!’’ िव रथ और उसक देखादेखी अ य अ ारोिहय
ने अिभवादन िकया।
सुमाली और व मुि दोन ने िसर िहलाकर अिभवादन का उ र िदया और अपने अ
भी उनके साथ कर िदये। तट पर पहँच कर सुमाली दूर ि ितज क ओर देखने लगा। सागर म
थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बड़ी-बड़ी साम रक नौकाएँ तैर रही थ । यहाँ से समझ नह आ रहा था िक तु
सबम सश सैिनक पया मा ा म उपि थत थे।
‘‘िपत ृ य आज यहाँ कुछ अिधक चहल-पहल नह िदख रही?’’ व मुि ने िज ासा से
पछ
ू ा।
सुमाली उसी कार दूर ि ितज म िनगाह गड़ाये रहा। कोई भी उ र देने के थान पर
बस मु कुरा िदया।
सागर क लहर बार-बार घोड़ को िभगो जाती थ िजससे वे बार-बार िहनिहना कर
अि थर होते थे और पँछ
ू फटकारते थे। पर इससे सुमाली क त मयता पर कोई भाव नह पड़
रहा था। िव रथ भी लगातार उसक ि का अनुसरण कर रहा था।
‘‘वो देखा! िदखाई पड़ने लगे। हम सही समय पर यहाँ पहँच गये।’’ अचानक दि ण पवू
कोने क ओर हाथ फै लाकर सुमाली बोला।
‘‘जी मातामह, िदखाई पड़े ।’’ िव रथ ने भी उसक बात का समथन िकया।
‘‘िकतने िदन म िनकलते ह ये पोत?’’
‘‘मातामह ाय: एक माह म एक बार अव य आते ह। कभी-कभी बीच म भी आ जाते
ह।’’
‘‘ता पय यह िक आज एक माह हो रहा है।’’
‘‘नह मातामह! माह तो परस पणू होगा। िक तु आपको पवू म ही बुलवा िलया था। कई
बार पोत समय से पवू भी आ जाते ह।’’
‘‘चलो अ छा ही रहा जो आज ही आ गये पोत, अ यथा ती ा करनी पड़ती।’’
‘‘जी मातामह! ऐसा लगता है जैसे पोत ती ा ही कर रहे थे िक कब आप आय और
कब वे कट ह ।’’
‘‘कोई िवशेष पोत ह वे?’’ व मुि ने पछ
ू ा जो उस कोने से समाना तर कई िवशाल
पोत के अ भाग ऊपर को उठते हये देख रहा था िक तु वाता का िवषय उसक समझ म नह आ
रहा था।
‘‘हाँ!’’ सुमाली ने संि सा उ र िदया। िफर उसने आदेश िदया -
‘‘िव रथ! उन सबको घेर कर तट पर ले आओ।’’
‘‘मातामह उसक कोई आव यकता नह है। वे वत: यहाँ तट पर कगे।’’
‘‘िफर भी अपने पोत को सतक कर दो, यिद ये पोत कतराकर िनकलना चाह भी तो
इ ह घेर ल।’’
‘‘जी!’’ िव रथ िबना कोई िकये सागर म तैर रहे अपने साम रक पोत को
त संबंधी आ ा सा रत करने लगा।
‘‘िपता! ये तो कुबेर के यापा रक पोत लग रहे ह, इ ह य पकड़वा रहे ह?’’ अब तक
पोत परू े िदखाई पड़ने लगे थे। व मुि ने उ ह पहचानते हये िज ासा कट क ।
‘‘पु ! दूर क सोचो। या हम मा लंका तक ही सीिमत रहना है?’’
‘‘िन संदेह नह ! हम िदि वजय करनी है।’’
‘‘तो िदि वजय या ऐसे ही हो जायेगी?’’
‘‘िक तु िपता! िदि वजय का इन पोत को अनाव यक पकड़ने से या संबंध है?’’
‘‘संबंध है। रावण म मने िकतना भी अपने सं कार रोिपत करने का यास िकया हो
िक तु उसे जो अपने तप वी िपतक
ृ ु ल से मल
ू सं कार ा हये ह, उनका या करोगे?’’
‘‘म नह समझा!’’
‘‘िदि वजय तभी तो करोगे, जब उसके िलये थान करोगे। यु के िलये उ त होगे। या
यह लंका म बैठे-बैठे ही िदि वजय हो जायेगी?’’
‘‘ थान तो करना ही पड़े गा।’’
‘‘ या तु ह रावण म ऐसे कोई ल ण िदखाई दे रहे ह?’’
‘‘अब समझा, रावण के िपत ृ कुल के सं कार का ता पय!’’ व मुि ने िकंिचत हा य
के साथ कहा।
‘‘समझे तो यह भी समझो िक रावण को इसके िलये उ ेिजत करना होगा तभी वह इस
िवषय म सोचेगा।’’
‘‘पर म अब भी नह समझा िक उसका इन पोत से या संबंध है?’’
‘‘कैसे सँभालोगे लंका के सेनापित का पद यिद ऐसी मख
ू तापण
ू बात करोगे?’’ सुमाली
अब झुंझला उठा था।
ू ा।’’ सुमाली के झुंझलाने पर भी
‘‘िक तु िपत ृ य आप समझायगे तभी तो समझँग
व मुि ने संयम नह खोया था।
‘‘तु ह नह लगता िक यह िदि वजय अिभयान आरं भ करने के िलये सवा म ल य
कुबेर ही हो सकता है। वह िजतना स प न है रण े म उतना ही दुबल िस होगा। यापारी
कभी बहत अ छा यो ा नह होता। अभी तो हमने शि जुटाना आरं भ ही िकया है, अभी हम यम
या इ पर आ मण तो नह कर सकते। वे हम एक झटके म मसल दगे।’’
‘‘स य है!’’
‘‘और रावण ने अभी तक कोई यु नह िकया है। यु के आनंद का वाद अभी उसने
चखा ही कहाँ है! उसे यह वाद चखाना होगा। उसक तप वी मनोदशा को यु ाकां ी और र
िपपासु यो ा क मनोदशा म बदलना होगा। वह श संचालन म पारं गत है, ा क कृपा से
वह िद या के संचालन म भी द है िक तु उसक आ मा तो यो ा वाली नह है। उसक
आ मा को भी तो यु ो मादी यो ा के प म िशि त करना होगा।’’
‘‘और इस िश ण के िलये कुबेर से मुलायम चारा और हो ही या सकता है!’’
व मुि क समझ म अब सुमाली क रणनीित आने लगी थी।
‘‘रावण को हम यँ ू ही अकारण तो कुबेर से यु के िलये उकसा नह सकते। कोई कारण
भी तो खड़ा करना पड़े गा, अ यथा वह अपने ही भाई के िव यु रत कैसे होगा? वह भी उस
भाई के ित जो िबना िकसी िवशेष ितरोध के लंका उसे स प कर चला गया हो।’’
‘‘इन यापा रक पोत को पकड़ने से कैसे कारण खड़ा हो जायेगा?’’
‘‘इससे कुबेर उ ेिजत होगा। उ ेिजत होगा तो ितरोध करे गा।’’
‘‘पर सारी बात जान कर रावण हमसे कुिपत नह होगा।’’
‘‘उसे सारी बात बतायेगा कौन? म तो उसे सारी बात अपने ही तरीके से बताऊँगा
िजससे वह कुबेर पर और भी ोिधत हो उठे ।’’ सुमाली कुिटल मु कुराहट के साथ बोला। ‘‘िक तु
यान रखना तु ह कुछ भी नह पता। रावण कुछ भी पछ ू े तु ह अनिभ ता ही कट करनी है। इस
संबंध म जो भी बात क ँ गा म ही क ँ गा। जब उिचत समझँग ू ा तब क ँ गा। समझ गये?’’ सुमाली
ने अ दर तक भेदने वाली ि से व मुि को देखते हये कहा।
‘‘जी! िक तु यिद उसने िव रथ से पछ
ू िलया तो?’’
‘‘तु ह या लगता है स ाट् एक अदना से सै य अिधकारी से बात करे गा? वह इस सब
के भारी यि से बात करे गा जो िक म हँ। म, सुमाली उसका मातामह!’’
‘‘जी िपत ृ य! स य है आपका कथन।’’
‘‘और भी सुनो। इन पोत को पकड़ने का एक उ े य और भी है। पछ
ू ो या ...!’’
‘‘ या िपत ृ य?’’
‘‘तुम जानते ही हो िक लंका क अथ यव था इस समय जजर अव था म है। योजनाएँ
अनेक ह िक तु उ ह ि याि वत करने हे तु लंका के कोष म धन नह है। यवसाय लगभग सब
का सब कुबेर के साथ ही चला गया है। ऐसी अव था म इन योजनाओं के काया वयन के िलए
धन क यव था भला और वैâसे संभव है! कुबेर के इन पोत म अपार स पदा होगी, वह हमारी
योजनाओं को धरातल पर उतारने म काम आएगी। अभी ऐसे कई अिभयान करने पड़गे।’’
‘‘वह तो उिचत है िपत ृ य िक तु या यह द युकम नह कहलायेगा?’’
‘‘कहलायेगा! िन य ही कहलायेगा।’’ सुमाली िव ूप से हँसा- ‘‘िक तु या कुबेर को
नह सोचना चािहए था िक वह लंका का सम त कोष अपने साथ िलए जा रहा है तो रावण यहाँ
क यव थाएँ कैसे स पािदत करे गा। या उसका दािय व नह बनता था िक स पण ू नह तो
कम से कम आधा कोष पीछे यह छोड़कर जाए?’’
‘‘जी!!!’’
‘‘हमारा दाय यिद कोई वे छा से नह देता तो उसे छीन लेना द युकम नह होता, वह
हमारा वैध अिधकार होता है ... और हम अपने इसी वैध अिधकार का योग कर रहे ह। अपने
िह से को ही कुबेर से छीन रहे ह। अपने िह से के मा एक छोटे से भाग को। और कोई शंका??’’
‘‘नह िपत ृ य!’’
49. सुिम ा क सीख
सुिम ा के ासाद म महाराज न के बराबर ही आते थे िक तु उसे इसक कोई यथा
नह थी। उसने तो काशी को दशरथ के कोप से बचाने के िलये ही उनसे िववाह िकया था। दूसरे
श द म इसे िववाह नह आ मो सग भी कह सकते ह। इस िववाह से उसक ज मभिू म और वहाँ
के िनवािसय क र ा हो सक थी इसी से वह संतु थी। अयो या म वह बुरी से बुरी प रि थित
के िलये मानिसक प से तैयार होकर आई थी।
वैसे भी यिद महाराज से संयोग या उनक नेिहल छाया को छोड़ िदया जाये तो
प रि थितयाँ अ छी ही थ । वह कोशल क रानी थी, इस नाते उसे सव परू ा स मान ा था।
सबसे बड़ा सौभा य तो यह था िक दोन ये रािनयाँ उससे भिगनीवत नेह करती थ । तीन
रािनयाँ पर पर एक- ाण थ । मँझली रानी कैकेयी, महाराज क िवशेष कृपापा होते हए भी
िनरहंकार थी।
सौभा य से ऐसा ही सहज नेह चार कुमार म भी था। चार ही एक ाण थे। चार
कुमार राि म ही अपनी माताओं के पास आते थे, स पण
ू िदवस तो वे पर पर एक साथ ही रहते
थे। साथ खेलते, साथ खाते और साथ ही िवनोदपणू कौतुक (शैतानी) करते। िदन के समय उ ह
अलग कर पाना संभव नह था। तीन रािनय को इसम कोई आपि भी नह थी। उनके इस
पर पर नेह से तीन स न ही थ । तीन को ही राम सबसे अिधक यारे थे।
ू ा त के उपरांत ही कुमार ल मण और कुमार श ु न माता के ासाद म
आज भी सय
आये थे।
‘‘माता-माता! आज अतंत (अ यंत) आनंद आया।’’ दौड़कर आते हये ल मण ने कहा।
‘‘हाँ माता!’’ उसके पीछे -पीछे श ु न भी आ गये।
‘‘अ छा! तो ऐसा या िकया िजसम ‘अतंत’ आनंद आया?’’ सुिम ा ने ल मण क
नकल करते हए कहा। कहने के साथ ही उसने अपनी दोन बाह फै ला द , दोन पु उन बाह म
समा गये।
‘‘हम ना ... हम ना ...’’ ल मण ने हाथ से पकड़ कर सुिम ा का मुख अपनी ओर
करते हये कहा। स नता और उ ेजना के कारण वह सही से बोल ही नह पा रहा था। उसी बीच
श ु न ने अपने दोन हाथ से चेहरा अपनी ओर मोड़ने का यास आरं भ कर िदया -
‘‘नह म बताऊगा?’’
‘‘अरे -अरे लड़ो नह ।’’ ऐसी ि थितय म दोन को संतु रख पाना अ यंत किठन
परी ा होती थी िक तु अब तक सुिम ा ऐसी परी ाओं का सफलतापवू क सामना करने म
पारं गत हो गयी थी। उसने अपने हाथ से पकड़ कर दोन को अलग-अलग खड़ा करते हये कहा
-
‘‘एक साथ नह ! एक-एक कर िजससे म पछ
ू ू ँ वह बतायेगा। ठीक?’’
‘‘मुझ से पिू छये!’’ दोन ने एक साथ कहा।
‘‘बड़ा कौन?’’
‘‘म!’’ ल मण ने हाथ उठा िदया।
‘‘इसे कह बड़ा कहते ह, कुछ पल ही तो बड़ा है।’’ श ु न ने ितवाद िकया।
‘‘तो या हआ! बड़ा तो बड़ा है।’’ सुिम ा ल मण क ओर आकृ होती हई बोली -
‘‘तुम बताओ ल मण - कहाँ-कहाँ गये थे आज?’’
‘‘राजसभा, िफर ...’’
‘‘नह पहले ाता राम के क छ (क ) म’’ श ु न ने ल मण क बात काटते हये
संशोधन िकया।
‘‘हाँ पहले ाता राम के क छ म, िफर उनको लेकर ाता भरत के क छ म, िफर
राजसभा, िफर उ ान म।’’
‘‘और भोजन कहाँ िकया था? - श ु न तुम बताओ।’’
‘‘ ाता भरत के क छ म। माता ... मझली माता ने इतने सािद ट ( वािद ) पकवान
िखलाये थे िक बस आनंद आ गया।’’
‘‘और बड़ी माँ ने या- या िखलाया?’’
‘‘माखन-िमसरी।’’ दोन एक साथ बोले। इस बार सुिम ा िकसी एक का नाम लेना भल

जो गयी थी।
‘‘और सबसे अिधक आन द कहाँ आया? ल मण तुम बताओ।’’
‘‘उ ान म। पता माँ वहाँ हम खबू दौड़े । म तो व ृ पर भी चढ़ा।’’
‘‘म भी तो चढ़ा।’’
‘‘हाँ ये भी चढ़ा।’’
‘‘और तु हारे ाता राम-भरत? वे नह चढ़े ? श ु न!’’
‘‘वे दोन तो अित सरल ह। वे तो िपताजी िजतना कहते ह उतना ही करते ह।’’
‘‘िवशेष कर ाता राम।’’ ल मण ने ि थित और अिधक प क।
‘‘तो िपताजी ने मना िकया था व ृ पर चढ़ने को, िफर भी तुम लोग चढ़े ।’’ सुिम ा ने
किठनाई से अपनी हँसी रोकते हये डाँट िपलायी।
दोन ने जीभ दाब ली। ाता लोग क िखंचाई करने के उ साह म अपनी ही पोल खोल
बैठे थे।
‘‘अब ऐसा नह करगे माता।’’
‘‘अ छा और या िकया व ृ पर चढ़ने के अित र ?’’
‘‘इतने सारे पु प तोड़े ’’ अपने दोन हाथ को परू ा फै लाते हये ल मण ने कहा- ‘‘और
उनसे खबू होली खेली।’’
‘‘अ छा ये तो खेल क बात हो गय है। अब तो ुधा भी अनुभव हो रही होगी?’’
‘‘हाँ माता! हो तो रही है।’’ ल मण ने कहा।
‘‘अ िधक (अ यिधक) हो रही है।’’ श ु न ने बात और अिधक प क।
‘‘तो िफर हाथ-मँुह धोकर आओ शी ता से। भोजन के उपरांत वाता करते ह।’’
दोन दौड़ गये।
सुिम ा रसोई क ओर बढ़ गयी। सुिम ा भी कौश या क ही भाँित अपनी और ब च क
रसोई वयं करती थी। य िप इस काय के िलये एक ा ण िवधवा महारािजन के प म थी
िक तु ब च को अपने हाथ का पका िखलाने का स तोष ही और होता है। शेष प रचा रकाओं
और अ य लोग के िलये अलग भोजन क यव था होती थी जो महारािजन बनाती थी। कैकेयी
के ासाद म अव य सम त भोजन रसोइय ारा तैयार होता था। वहाँ महाराज ाय: ही आते
रहते थे।
रसोई के बाहर ही भोजन क था। उसी म सुिम ा ने दो कुशासन िबछा िदये थे। दोन
बालक हाथ-मँुह धोकर आये और उन आसन पर बैठ गये िफर समवेत पुकार लगायी -
‘‘माता हम आ गये।’’
सुिम ा उनक पुकार के साथ ही न ह -न ह रजत थािलय म भोजन लेकर आ गयी।
जल पा उसने पहले ही रख िदये थे। िफर वह बोली -
‘‘आर भ करो।’’
‘‘आप नह आयगी माता? ल मण ने कहा।
‘‘हाँ! आप भी आइये ना।’’ श ु न ने कहा।
‘‘अ छा आती हँ!’’ कहने के साथ ही सुिम ा ने आवाज लगाई- ‘‘माई!’’
आवाज देने के बाद वह ती ा के िलये क नह । उसने एक कुशासन दोन बालक
के सामने अपने िलये भी डाल िलया और अपनी थाली भी परस कर ले आई।
तभी महारािजन भी आ गयी। वह िबना कुछ कहे ही अपना दािय व समझ गयी थी अत:
रसोई के ार पर खड़ी होकर ती ा करने लगी िक जो भी आव यकता हो ले आये।
बालक ने सव थम येक यंजन म से थोड़ा-थोड़ा लेकर थाली क बगल म रखा।
तदुपरांत हथेली म जल लेकर थाली के चार ओर िफराया। िफर हाथ जोड़कर, आँख ब द कर
ाथना क और तब भोजन आर भ िकया। सुिम ा ने भी यही सारी ि याएँ स प न क ।
‘‘माता! आज पता है राम भइया ने या िकया?’’ श ु न ने भोजन करते-करते कहा।
‘‘भोजन करते समय बोला नह जाता। ह न माँ!’’ ल मण ने अपनी बुि म ा का
दशन िकया।
‘‘हाँ पहले भोजन कर लो िफर आराम से बाहर वािटका म घम
ू ते हये बात करगे।’’
सुिम ा ने अपनी स मित देते हये कहा।
भोजनोपरांत तीन वािटका म आ गये।
‘‘अब बताओ श ु न!’’
‘‘उ ान म एक मग
ृ शावक को चोट लग गयी थी। उससे लह भी बह रहा था। वह चल भी
नह पा रहा था।’’
‘‘अ छा! तो या िकया राम ने?’’ सुिम ा ने आ य कट करते हये िकया।
‘‘तो न माता! राम भइया ने उसके ण पर प ी कर दी। और न, हम सब लोग उससे
बात करते रहे ।’’
‘‘अ छा! यह तो बहत अ छा िकया राम ने।’’
‘‘िफर न माता वह शावक हमारा िम बन गया। िफर तो वह हमारे पीछे ही घम
ू ता रहा।’’
‘‘अरे वाह! तब तो अब तुम लोग पाँच हो गये।’’
‘‘हाँ माता।’’
‘‘और ल मण तुम कहाँ खोये हये हो?’’ सुिम ा ने ल य कर िलया था िक ल मण ने
इस बीच वातालाप म कोई ह त ेप नह िकया था।
‘‘कह नह माता।’’
‘‘चलो तो िफर दोन अब मेरी ओर परू ा यान दो। अ यंत मह वपण
ू बात कहनी है।’’
‘‘किहये माता।’’ दोन बोले ‘‘हम परू े यान से सुन रहे ह।’’
‘‘तो कौन से ाता तुम लोग को अिधक अ छे लगते ह?’’ सुिम ा के मि त क म
नारद क बात घम ू रही थी िक राम को एकाक रावण के िव अिभयान पर जाना होगा। उसे
राम क िचंता थी।
‘‘दोन ही।’’
‘‘यह तो बहत अ छी बात है। िक तु तुम भी दो हो और ाता लोग भी दो ह। ह न?’’
‘‘जी!’’
‘‘तुम लोग ने कहा न िक दोन ाता अ यंत सरल ह।’’
‘‘सो तो ह माता।’’
‘‘और तुम दोन चतुर हो।’’
‘‘हाँ! सो तो ह माता।’’ दोन ने एक साथ कहा।
‘‘िक तु यह ल मण अिधक चतुर है। और ोधी भी है।’’ श ु न ने कहा। ऐसा बहत कम
ही होता था िक दोन म से कोई एक दूसरे क े ता वीकार कर ले। दोन म येक े म
ित ंिदता चलती रहती थी। व थ ित ंिदता जो ाय: सभी जुड़वाँ भाइय या बहन म रहती है।
‘‘अ छा अिधक सरल कौन सा ाता है?’’ सुिम ा ने श ु न ारा ल मण क े ता
वीकार िकये जाने के िवल ण अपवाद पर यान नह िदया था।
‘‘ ाता राम।’’ दोन ने िफर एक साथ कहा। ता पय िक इन बात म दोन का मतै य
था।
‘‘तो ऐसा करो िक दोन ही एक-एक ाता का दािय व ले लो। अ यथा उ ह सरल जान
कर सभी मख
ू बना िदया करगे। उिचत है न?’’
‘‘हाँ माता। यह तो बहत उिचत है।’’ ल मण ने कहा।
‘‘सच यही उिचत रहे गा।’’ श ु न ने कहा।
‘‘तो ल मण जो अिधक चतुर है वह राम के साथ सदैव रहे गा।’’
‘‘वह तो ाय: रहता ही है।’’ श ु न ने उ ाटन िकया।
‘‘और श ु न ..’’
‘‘ ाता भरत के साथ।’’ सुिम ा क बात परू ी करते हये ल मण बोला।
‘‘हाँ! िक तु ाय: नह - सदैव। मा जब वे अपनी माता के ासाद म शयन हे तु जाय
तब को छोड़कर वे जहाँ भी जाय उनका जोड़ीदार उनके साथ रहे गा।’’
‘‘जी माता।’’
‘‘चाहे वे वयं मना कर अथवा कोई अ य मना करे िक तु ...’’
‘‘हम नह मानगे। हम तो उनके साथ ही जायगे।’’ दोन ने माता क बात परू ी क ।
‘‘ ... और उनक सदैव, येक प रि थित म सुर ा करगे।’’ सुिम ा ने आगे बात जोड़ी।
सुिम ा ल मण के मन म यह बात इतनी गहराई से रोप देना चाहती थी िक रावण के
िव अिभयान म राम पण ू त: एकाक न ह । कम से कम एक भाई तो अव य ही उनका साथ
देने को उनके साथ हो। वह चार बालक को इसी अव था म भली-भाँित समझ गयी थी। उसे पता
था िक ल मण राम के समान िबना िकसी के गु जन क आ ा मानने वाला नह था। वह
आ ाकारी था िक तु तब भी अपने िववेक का योग करता था और यिद वह िकसी बात पर ढ़
हो जाता था तो िफर उसे कोई नह िडगा सकता था।
वह सोच रही थी ‘‘ल मण क इस ढ़ता को इतना बल करना है तािक वह येक
संकट म परछाई ं के समान राम के साथ उपि थत हो।’’
50. मे घनाद का ज म
लंके र रावण अ यंत स न था। उसे सु दर-सलोने पु क ाि हई थी। पु ने पैदा
होते ही इतनी जोर का दन िकया था िक लगा जैसे बादल गरज उठे ह । जब नामकरण का
समय आया तो मंदोदरी ने सल ज मु कान के साथ सुझाया िक य न इसका नाम मेघनाद
रखा जाये। और िशशु का नाम मेघनाद ही रख िदया गया।
रावण का मन अहोरा अपने पु म ही रखा रहता था। उसके पग अनायास मंदोदरी के
क क ओर बढ़ चले।
क म पहँचा तो देखा वहाँ व वाला (कु भकण क प नी) और सरमा (िवभीषण क
प नी) भी उपि थत ह। उसे देख कर दोन संकोच से उठ खड़ी हय और णाम िकया। अवगु ठन
का तो लंका म ही नह था िक तु दोन के चेहरे पर सहज स मान-जिनत ी-सुलभ
संकोच फै ल गया था। पवान होते हये भी िकतनी सं कारवान ह दोन , रावण ने सोचा।
व वाला दै यराज िवरोचन क पु ी थी, और सरमा गंधवराज शैलषू क पु ी थी।
रावण के िववाह के बाद कुंभकण और िवभीषण के िलये भी अनेक ताव आये थे िक तु सहमित
नह बन पा रही थी िक एक िदन ह त ने इन दोन ताव के आने का उ लेख िकया। ये
ताव सभी को पसंद आये, खास तौर से म दोदरी को। िफर िवलंब का कोई कारण नह था।
शी ही शुभ मुहत म कुंभकण का व वाला से और िवभीषण का सरमा से िववाह स प न हो
गया था।
मंदोदरी िशशु को िलये पयक पर बैठी थी, रावण उधर ही बढ़ा िक व वाला बोली
- ‘‘अ छा जीजी हम लोग चलती ह। कोई भी आव यकता हो तो बुलवा लीिजयेगा।’’
‘‘चलती कहाँ हो बैठो। लंके र या तु ह खा जायगे?’’ म दोदरी ने प रहास िकया।
‘‘तुम लोग ने ये आय वाले सं कार कहाँ से सीख िलये? दानव और गंधव म तो
ये से िछपने क था है नह और रावण भी अनगल आय सं कार को य नह देता।’’
रावण ने भी म दोदरी का समथन िकया।
दोन पयक क दूसरी ओर पीिठकाएँ ख च कर बैठ गय ।
‘‘ ये यह आय सं कार नह है। आपको दीदी के साथ एका त समय िमल ही िकतना
पाता है? िफर इन कुछ पल म भी हम यवधान बन कर बैठ जाय यह तो मयादा के िवपरीत है।’’
व वाला ने सल ज ि मत के साथ कहा।
‘‘स य कहा तुमने िक तु महारानी क वा तिवक सखी तो तुम लोग ही हो अत: बैठ
जाओ।’’ िफर वह िशशु क ओर आकिषत हआ।
‘‘िकतना यारा मुखड़ा है, नह ?’’ रावण ने िशशु के ललाट पर चु बन अंिकत करते हये
कहा।
‘‘माँ का मुखड़ा कम यारा है ये ?’’ व वाला हठात् बोल पड़ी।
‘‘अभी भागी जा रही थी, अब देख कैसी िनल जता से बोल रही है!’’ मंदोदरी ने
व वाला के कथन पर मन ही मन आनंिदत होते हये चोट क ।
‘‘तो मने या झठ
ू कहा जीजी, य सरमा?’’ व वाला ने पुन: सल ज मु कान से
कहा।
क सबके सि मिलत मंद हा य से रसिस हो उठा।
तभी िव न आ गया। एक दासी ने ार पर द तक दी - ‘‘महाराज क जय हो!
महारािनय क जय हो!’’
रावण ने उसे इशारे से भीतर आने को कहा। वह आकर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी।
‘‘कहो या बात है?’’ रावण ने पछ
ू ा।
‘‘महाराज! मातामह सुमाली भट करना चाहते ह। सभा क म आपक ती ा कर रहे
ह।’’
‘‘इस काल सभाक म?’’ रावण को आ य हआ। सुमाली तो सभाक म अब वैसे ही
बहत कम आता था, उस पर यह तो सभा का समय भी नह था। साँझ िघरने लगी थी। कुछ ही
काल म अ धकार फै लने वाला था।
‘‘ या उनके साथ कोई अ य भी है?’’ रावण ने िकया।
‘‘जी महाराज!’’
‘‘कौन??’’
‘‘महाराज दासी को सही-सही तो ात नह िक तु अनुमान लगा सकती है।’’
‘‘वही लगाओ।’’ उसके कहने के ढं ग पर रावण को हँसी आ गयी। तीन ि याँ भी
मु कुरा उठ ।
‘‘महाराज स भवत: महाराज कुबेर के दूत ह।’’
‘‘भाई के दूत?’’ रावण को आ य हआ- ‘‘अक मात ऐसी या आव यकता आ पड़ी।’’
उसने मन ही मन सोचा िफर दासी से बोला - ‘‘कुछ काल ती ा कर, हम अभी आते ह!’’
दासी चली गयी।
‘‘इस समय या काम आ गया जो ाता ने दूत भेज िदया। ऐसी कौन सी बात है जो
मातामह से नह हो सकती? रावण को पु से बात भी नह करने देते सब लोग।’’
रावण के कथन पर िफर सब मु कुरा उठे ।
रावण ने पु के भाल पर पुन: एक बार चु बन अंिकत िकया, नाक क नोक पर उँ गली
से गुदगुदाया िफर मंदोदरी क हथेली पकड़ कर दबाते हये बोला -
‘‘अ छा चलता हँ महारानी! मातामह के आदेश क उपे ा भी तो नह क जा सकती।’’
हाँ वह तो नह क जा सकती महाराज। और ये के दूत को भी ती ा करवाना
उिचत नह है।’’ मंदोदरी ने कुछ उदास मुख से कहा।
िफर रावण व वाला और सरमा क ओर ि पात करता हआ बोला ‘‘लो! यिद तुम
लोग चली जात तो महारानी तो अकेली रह जात !’’
दोन बस मु कुरा द , कुछ बोलने क आव यकता भी नह थी।
‘‘ या ही अ छा होता यिद रावण भी अपने िपता और िपतामह के समान ही सं यासी बन
गया होता। इस शासन- शासन क यािध से तो मु रहता।’’ रावण उठकर अपना अंगव
सँभालता हआ बोला। उसक बात सुनकर मंदोदरी इस उदास अव था म भी बरबस मु कुरा उठी।
51. पवन-पु
बजरं ग अब छह वष का हो गया था। अब वह भी बािल और सु ीव के साथ गु कुल जाने
लगा था। बजरं ग वभावत: बचपन से ही अ यंत िनभ क, िकसी सीमा तक दु साहसी था। ये गुण
बािल और सु ीव म भी थे िक तु बजरं ग म उनसे कह अिधक थे। तीन ही कोई अ याय सहन
नह कर सकते थे। अ याय के ितकार म अपने से बहत बड़े यि से भी उलझ जाने म उ ह
सोचना नह पड़ता था। इस कारण तीन का जब-तब िकसी न िकसी से िववाद होता ही रहता था
जो बहधा हाथापाई म प रवितत हो जाता था।
ात: मँुह अँधेरे ही तीन गु कुल के िलये िनकल पड़ते थे। आज भी िनकल पड़े थे।
कमर म धोती, कंधे पर जनेऊ, ख वाट िसर तीन अपने म मगन चले जा रहे थे। रा ता बीहड़ था
िक तु उसक या िचंता थी। गु कुल िकि कंधा नगर से दो कोस क दूरी पर तंुगभ ा नदी के
तट पर ि थत था। दि णावत म देव ने जो गु कुल थािपत िकए थे उनम िनयम कुछ हद तक
िशिथल कर िदए थे। यहाँ उनका उ े य वनवािसय को अ या म के चरम तक पहँचा कर का
सा ा कार करवाना नह था। यहाँ तो धान उ े य इ ह अपने साथ जोड़ना और साम रक प
से अिधक से अिधक स म बनाना था। इसिलये सारे बालक को गु कुल म ही रहना अिनवाय
नह था। वे गु कुल म भी िनवास कर सकते थे और िन य अपने घर से भी आ सकते थे। यह
िश य और उनके अिभभावक क वे छा पर छोड़ िदया गया था।
माता अंजना को लगता था िक उनका न हा सा बालक िन य दो कोस (करीब सात
िकलोमीटर) कैसे आ-जा पायेगा। पहले िदन जब बजरं ग गु कुल गया तो माता सारा िदन
यिथत रही और सांझ को उसके लौटते ही उसने उसे सीने से भ च िलया। बजरं ग अचकचा गया
िक यह या हआ! िफर अंजना ने उसे िबठा कर उसके पैर म गुनगुने तेल क मािलश करनी
चाही तािक थकान उतर जाए िक तु बजरं ग एकदम छूट कर भाग िलया।
‘‘पु बजरं ग! क जा।’’
‘‘नह माता, म तो मातुल के संग खेलने जा रहा हँ।’’
‘‘अरे सुनता य नह , थक गया होगा।’’
‘‘र ी भर नह थका माता।’’
‘‘पैर म मािलश करवा ले तािक कल गु कुल जाने म क न हो।’’
‘‘मुझे कोई क नह होगा माता।’’
अंजना उसे पकड़ने के िलये दौड़ती ही रह गयी िक तु बजरं ग तो उड़न-छू हो चुका था।
वह जब लौटा तो बािल और सु ीव भी उसके साथ थे।
‘‘ य रे िकतना ती दौड़ता है त!ू ’’ अंजना के वर म ोध भी था, हताशा भी थी और
साथ ही साथ स नता भी थी। अपने पु क उपलि ध पर िकस माता क छाती गव से चौड़ी नह
होगी।
‘‘अरे दीदी ये दौड़ता नह है, ये तो लगता है उड़ता है।’’ सु ीव ने हाँ म हाँ िमलाई।
‘‘हम भी नह पकड़ पाते इसे तो। ऐसा लगता है जैसे पवन देव इसे गोद म िलए उड़ रहे
ह ।’’ बािल भी य पीछे रह जाता।
‘‘ य रे पवन का पु है या त,ू जो पवनदेव तुझे गोद म लेकर दौड़ते ह?’’ अंजना ने
हँसते हए कहा।
‘‘नह माता म तो बाबा का ही पु हँ सभी जानते ह।’’ बजरं ग ने भोलेपन से कहा।
‘‘हा-हा! पवन-पु !’’ सु ीव को इस नामकरण म आन द आ गया। वह ताली बजा कर
जैसे ‘‘पवनपु ’’ नाम क माला सी जपता हआ बजरं ग को िचढ़ाने लगा। उसक देखादेखी बािल
को भी िचढ़ाने म आन द आने लगा।
‘‘आप दोन मुझे िचढ़ा रहे हो?’’ बजरं ग ने भोलेपन से पछ
ू ा। उसे अभी समझ नह आया
था िक वे उसक शंसा कर रहे ह या िचढ़ा रहे ह।
‘‘नह पु , ये तो तेरी शंसा कर रहे ह। तू इनसे भी ती है न।’’
‘‘हाँ सो तो है माता। म तो सबसे ती हँ।’’
‘‘अ छा चल आजा तेरे पैर दबा दँू, थक गया होगा।’’
‘‘छी-छी! माता से कह पैर दबवाये जाते ह।’’
‘‘बचपन म तो िकतने पैर दबाये ह मने तेरे’’ अंजना हँसती हई बोली - ‘‘आ जा थकान
उतर जाएगी।’’
‘‘बचपन म तो मुझे कुछ ान ही नह था। अब तो म बड़ा हो गया हँ। ... और स ची
माता मुझे र ी भर थकान नह है।’’
‘‘अरे अव य होगी। अभी खेल म तुझे समझ नह आ रहा। ात: जब उठे गा तब पता
चलेगी।’’ अंजना ने झपट कर उसे पकड़ना चाहा िक तु बजरं ग उछल कर दूर हो गया और ताली
बजाता हआ बोला -
‘‘नह पकड़ पाओगी माता।’’
‘‘स ची दीदी आप नह पकड़ पायगी इसे।’’ बािल ने कहा।
‘‘और थका तो यह जरा भी नह होगा। देख नह रह कैसे कूद रहा है। आते-जाते दोन
ही बारी यह हम से आगे-आगे ही भागता रहा है।’’ िफर हँसते हये बजरं ग क ओर देख कर बोला -
‘‘पवनपु !’’
बजरं ग भी इसे अपनी शंसा मान कर उ सािहत हो उठा। वह गाल फुला कर, हाथ आगे
फै लाकर कुछ झुका हआ लहराता हआ दौड़ा और िफर अचानक उछाल मार दी। अंजना आतंिकत
सी चीख उठी िक तु हनुमान उसके िसर पर से होता हआ दूसरी ओर कलाबाजी खा गया और
हँसता हआ उछल कर खड़ा हो गया।
‘‘तू अपनी उछल-कूद से बाज नह आ सकता? िकसी िदन चोट खा जायेगा।’’
‘‘नह खाऊँगा माता। यह उछल-कूद तो हम वानर को कृित से ही िमलती है।’’
‘‘देखो ये दोन तो नह कूदते तु हारी भाँित!’’ अंजना ने समझाना चाहा।
‘‘हा-हा! आप या जानो! ये तो मुझसे भी अिधक कूदते ह।
बहरहाल यह िन य का करण था। अंजना को सदैव यही तीित होती थी िक पु थक
गया होगा िक तु पु था िक थकना जानता ही नह था। अंजना िन य अपने आरा य भु शंकर
का ध यवाद करती िक उ ह ने पु प म उसे अपना अंश दान िकया है और यह ाथना भी
करती िक सदैव उसक र ा कर। यह म जब तक अंजना जीिवत रही तब तक चलता ही रहा।
हाँ गु कुल से लौटने पर पैर दबाने या तेल मलने का यास धीरे -धीरे अपने आप छूट गया।
उस िदन के बाद से बािल और सु ीव ने बजरं ग को हँसी म पवनपु बुलाना ही आरं भ
कर िदया। धीरे -धीरे अ य साथी भी उनका अनुकरण करने लगे।
52. कुबे र का दूत
सभाक म सुमाली के साथ एक अप रिचत यि भी ती ारत था। व मुि , ह त
और अकंपन भी उपि थत थे। रावण के वेश करते ही सब उठ कर खड़े हो गये। रावण अपने
िसंहासन पर आसीन हआ। अिभवादन क औपचा रकताओं के बाद उसने सुमाली से पछ
ू ा-
‘‘यह अप रिचत स जन कौन ह मातामह?’’
‘‘लंके र! ये तु हारे ाता कुबेर के दूत ह। उनका संदेश लेकर आये ह।’’
‘‘महाराज! म ेतांक हँ, लोकपाल, धनपित कुबेर का दूत!’’
‘‘किहये ाता कुशल से तो ह? और भाभी?’’ रावण ने स मान से पछ
ू ा।
‘‘हाँ महाराज! सब कुशल से ह।’’
‘‘ या संदेश भेजा है ाता ने?’’
‘‘लोकपाल ने कहा है िक आपक उ छृंखलताएँ बढ़ती जा रही ह वे अब स नह
ह गी।’’
‘‘यह कैसा अनगल संदेश लाये हो दूत? कैसी उ छृंखलताएँ ? रावण ने तो कोई ध ृ ता
नह क ।’’ रावण ने आ य से कहा। उसका वर संयत था िक तु िफर भी चेहरे पर तनाव क
लक र िदखने लगी थ ।
‘‘दूत! तु हारी यह ध ृ ता तु ह भारी भी पड़ सकती है। इन अनगल आरोप से ता पय
या है तु हारा?’’ यह वर सुमाली का था।
‘‘परू ी बात सुन ल महाराज!’’ दूत ने कहा- ‘‘म तो दूत हँ जो संदेशा मुझे लोकपाल ने
िदया वह आप तक पहँचा रहा हँ। आगे जो उ र आप दगे वह लोकपाल तक पहँचा दँूगा।’’
‘‘कहो परू ी बात।’’ रावण बोला।
‘‘लोकपाल ने कहा है िक आपके पोत अनाव यक प से अलका के पोत को रोक कर
तािड़त करते ह। अ यिधक शु क आरोिपत करते ह। कई बार तो उ ह लटू भी लेते ह। उ ह
िवलि बत करते ह और बहधा उनके कमचा रय को तािड़त भी करते ह। और ...’’
‘‘बस! तु हारा अनगल लाप हम सहन नह है।’’ सुमाली चीखते हये बोला।
‘‘हाँ! हाँ! स ाट् यह तो सीधा लंका के िव दुष चार है। कुबेर यिद वैमन य ही
बढ़ाना चाहते ह तो प कह, िम या दोषारोपण य कर रहे ह?’’ व मुि और अकंपन ने
सुमाली से सहमित य क।
‘‘महामं ी!’’ रावण ह त से संबोिधत हआ - ‘‘ये या कह रहे ह?’’
‘‘स ाट्! मेरे सं ान म तो ऐसी कोई बात आज तक नह आई। लोकपाल कुबेर को कोई
म तो नह है, या वे जानबझ ू कर िववाद उ प न करने का यास कर रहे ह।’’
‘‘मातामह! या आपके सं ान म ऐसा कुछ हआ है? या आपके सं ान म हमारे सै य
ने ाता के पोत के साथ िकसी कार का बल योग िकया है?’’ इस बार रावण ने सुमाली से
िकया।
‘‘ ही नह उठता स ाट्।’’ सुमाली ने वर म आवेश भरते हए उ र िदया- ‘‘तटीय
देश का काय- यापार तो म वयं देख रहा हँ। कभी भी ऐसी कोई घटना मेरे सं ान म नह
आई। अिपतु मने तो तटर क को िनदिशत िकया हआ है िक लोकपाल के पोत के साथ िवशेष
उदारता का यवहार िकया जाए। लोकपाल आिखर हमारे स ाट् के बड़े भाई ह। अव य ही कह
कोई म है।’’
‘‘दूत! सुन िलया?’’ रावण ने कहा।
‘‘सुना महाराज! िक तु संभव है िक आपके सं ान म न हो, महामं ी ह त के सं ान
म भी न हो, मातामह के सं ान म भी न हो िक तु िफर भी किन अिधकारी अपने िववेक से ही
जाने-अनजाने ऐसा कोई कृ य कर रहे ह िजससे हमारे पोत को असुिवधा हो रही है। कोई भी
मत ि थर करने से पवू भली कार जाँच कर लेते तो उिचत रहता। अलका के पोत पर आ मण
तो हो ही रहा है लंका म। जब भी पोत लौटते ह तो उनके कमचारी इससे यिथत होते ह।’’
‘‘तो अपने पोत कमचा रय क िनगरानी कर। वे िन य ही अपने िकसी अपकृ य को
िछपाने के िलये लंका पर आरोप मढ़ रहे ह और इस कार कुबेर को िमत करने का यास कर
रहे ह।’’ सुमाली ने ोध से कहा।
‘‘ऐसा नह हो सकता वे सब अ यंत अनुभवी और िव सनीय कमचारी ह।’’
‘‘ऐसा तो नह इसके पीछे देवे क कोई कुिटल चाल हो?’’
‘‘नह ऐसा नह है। इसम हम कोई शंका नह है। देवे को हमारे साथ कुिटलता करने
क कोई आव यकता ही नह है। वे ऐसा य करगे!’’
‘‘देवे , देवे ह। कुिटलता उनका वभाव है। वे अकारण ही कुिटलता करते रहते ह।
और िफर रावण से तो उ ह िवशेष ेष है। रावण क अपक ित के िलये वे िन े य ही कोई भी
कुिटल चाल चल सकते ह।’’
‘‘नह मातामह! ऐसा नह है।’’
‘‘तो िफर दूत तुम हम पर िकसी कूट उ े य से े रत होकर िनराधार आरोप लगा रहे
हो। हम तो सदैव यही चाहते ह िक हमारे ाता के साथ मधुर संबंध बने रह। हमारे ऊपर उनक
छ छाया बनी रहे िक तु इस कार के िनराधार आरोप के चलते यह कैसे संभव हो सकेगा?’’
रावण बोला।
‘‘महाराज हम िनराधार आरोप नह लगा रहे ।’’
‘‘ या माण है इसका?’’
‘‘हमारे पोत किमय के कथन, वे कदािप िम या भाषण नह कर सकते।’’
‘‘तो तुम कहना चाह रहे हो िक हम सब िम या भाषण कर रहे ह?’’
‘‘स ाट्! यह सरासर मेरा अपमान है। आप अब समथ हो चुके ह। सुमाली का काय
समा हो चुका है, अब आप मुझे सेवा से मु कर द।’’ सुमाली बोल पड़ा। वह इस मौके को यथ
नह जाने देना चाहता था। वह रावण के मन म कुबेर के िलये इतना ोध भर देना चाहता था िक
वह कुबेर पर आ मण को त पर हो जाये।
‘‘यह आप या कह रहे ह मातामह? रावण को लंके र बनाने वाले आप ही तो ह।
आपके परामश के िबना रावण या है? ऐसे मख
ू तापण
ू आरोप से आप यँ ू िवचिलत होने लगगे तो
लंके र का या होगा?’’
‘‘िफर या क ँ पु ? कुबेर तु हारा अ ज है। वह कारा तर से मुझ पर आरोप लगा
रहा है। ऐसी ि थित म मेरा अलग हो जाना ही उिचत है। अ यथा कल को तुम भी यही कहोगे िक
मातामह के कारण मेरा भाई से बैर हो गया।’’ सुमाली भावनाओं को और उभाड़ने के िलये स ाट्
से पु पर आ गया।
‘‘रावण कुछ नह कहे गा। रावण का रोम-रोम मातामह का ऋणी है। मातामह के स मान
के िलये यिद रावण को अपना स पण ू र भी बहा देना पड़े तो वह सहष बहा देगा।’’
‘‘यह या कह रहे हो पु !’’ सुमाली ने त लौह पर चोट क ‘‘र बहे तु हारे बै रय
का।’’
‘‘तो िफर आप अपने श द वापस लीिजये अ यथा रावण भी पुन: उसी तपि वय के
जगत म लौट जायेगा।’’
‘‘िलये पु , िलये! िक तु इतना यान रखो िक तु हारे मातामह का अकारण अपमान न
हो। अकारण कोई उ ह िम याचारी िस करे गा तो कैसे िजयेगा यह व ृ ?’’
‘‘हाँ तो ... ेतांक! प समझ लो िक हमने ऐसा कुछ भी नह िकया है।’’
‘‘िक तु महाराज ...’’
‘‘कोई िक तु-पर तु नह । अब रावण को तु हारी कोई बात नह सुननी। तुम जा सकते
हो।’’ रावण उठता हआ आगे बोला ‘‘मातामह ये अगर कना चाह तो उिचत यव था करवा
दीिजये और यिद जाना चाह तो वैसी यव था करवा दीिजये।’’
‘‘महाराज! आपका यह यवहार उिचत नह है। यिद आप नह मानते तो लोकपाल के
पास अ य िविधयाँ भी ह िजनसे वह अपनी बात मनवा सकते ह।’’ रावण के उठते-उठते भी
ेतांक कहता चला गया।
‘‘कौन सी अ य िविधयाँ? या कहना चाहते हो तुम?’’ क से िनकलने को त पर
रावण क गया और फुफकार उठा।
‘‘महाराज आप वयं मन वी ह।’’
‘‘ या तुम हम यु क धमक दे रहे हो?’’ व मुि बोल उठा।
‘‘हम यु क धमक नह दे रहे । हम यु कदािप नह चाहते िक तु अ य कोई माग
शेष न रहने पर ...’’
‘‘ या? एक बार िफर से तो कहो!’’ रावण का ोध बढ़ता जा रहा था।
‘‘कुछ नह महाराज! हम यु कदािप नह चाहते िक तु आप यिद इसी कार
हठधिमता पर उ त रहे तो िववशता म वैसी भी प रि थित आ ही सकती है।’’
‘‘तो िफर कह देना भाई से िक अब यु के मैदान म ही भट होगी। रावण भी यु से
डरता नह है।’’
53. मंगला का वे द से आ ह
मंगला के वेद भइया आ गये थे। उनके आते ही मंगला जुगत म लग गई िक कैसे अपना
उनके स मुख रखा जाये। उ ह तो भीतर अंत:पुर म आने का अवकाश ही नह िमलता था।
भाइय से करने को अनेक बात थ , िम से िमलना था, उनके साथ कभी न समा होने वाले
असं य सं मरण साझा करने थे और भी जाने या- या था करने को। बस इसी सब म लगे रहते
थे। उ ह संभवत: व न म भी मरण नह होता था िक भीतर उनक दुलारी बहन िकतनी उ कंठा
से उनक ती ा कर रही है। वह भाभी से बार-बार पछ ू ती थी िक कब आयगे वेद भइया भीतर?
जाने या कर रहे ह, इतने िदन बाद तो आये ह और अब भी िमलने का अवकाश नह ।
सायंकाल वेद भइया को अवकाश िमल ही गया। भाभी के कमरे म भाभी वेद और मंगला
तीन जुड़े थे। भाभी ने उसे कोहनी मारी - ‘‘अब बोलती य नह ?''
‘‘ या बात है?'' वेद ने पछ
ू ा।
‘‘कुछ नह ! इसे कुछ पछ
ू ना था। जब से आप आये हो लाला, ये मेरी दम चाटे है िक कहाँ
ह वेद भइया, भीतर आते य नह , या कर रहे ह?'' भाभी ने मु कुराते हये कहा।
ू ती य नह ? य री या बात है? और तुझे इतनी लाज कब से आने लगी?''
‘‘तो पछ
वेद ने मंगला क चोटी िहलाते हये कहा।
मंगला बेचारी! जैसे इतने िदन से जुटाया गया सम त साहस ितरोिहत हो गया हो। इतने
िदनो से सोच कर रखा था िक कैसे कहे गी भाई से, अगर नह मानगे तो कैसे िववाद करे गी
िक तु सामने पड़ते ही िज ा जैसे तालू से िचपक कर रह गयी थी।
ू ना मुझे कुछ।'' बेचारी को पछ
‘‘आह!! चोटी छोड़ो अ छा, लगती है। जाओ नह पछ ू ना था
कुछ और मँुह से िनकल कुछ गया।
‘‘अब पछ
ू ती य नह , नखरे िदखा रही है?'' वेद ने चोटी को एक और झटका िदया।
‘‘पहले चोटी छोड़ो। जब देखो मारते रहते हो या चोटी ख चते रहते हो।''
‘‘छोड़ दो लाला! अब बड़े हो गये हो और यह भी बड़ी हो गयी है।'' भाभी ने बीच-बचाव
करना चाहा।
‘‘सो कुछ नह भाभी! अब तो चोटी तभी छूटेगी जब यह पछ
ू लेगी। पछ
ू ?'' उसने
चोटी को एक झटका और िदया।
‘‘भइया! मुझे भी गु कुल जाना है।'' सारा साहस जुटाकर, आँख म आँसू भरे , अंतत:
मंगला ने कह ही िदया। तीन साल पहले वाली मंगला को आगा-पीछा सोचने क आव यकता
नह थी िकंतु इन कुछ वर्षोे म वह स य ही ब ची से बड़ी हो गयी थी। अब वह िपता और भाइय
से पहले जैसी िन ् व ता से बात नह कर पाती थी। पता नह य उसे इनसे संकोच लगने लगा
था। या बात थी यह उसे भी समझ नह आता था।
‘‘ या?'' वेद ने अचंभे से कहा िफर हँसने लगा - ‘‘अरे घर के काम य नह सीखती?
वही ससुराल म काम आयगे। वेद पढ़े गी। बािलकाएँ कह वेद पढ़ती ह!’’ वेद ने चोटी छोड़ कर
उसे िचढ़ाते हये िसर पर एक चपत रख दी।
‘‘ या भइया? मारने लगे आप भी।’’ मंगला वेद के कटा से िखिसया गयी। ‘‘आप भी
िपताजी क ही भाँित हो। वे भी मेरे पढ़ने का नाम लेते ही िचढ़ाने लगते ह और आप भी वही करने
लगे।’’ साल दो साल पहले क बात होती तो वह उन पर चढ़ दौड़ी होती या अ मा के पास उनके
िव प रवाद लेकर दौड़ गयी होती िकंतु अब ऐसा नह कर पाती थी।
‘‘अरे िचढ़ा नह रहा हँ, सच कह रहा हँ! सच म हमारे यहाँ बािलकाओं के गु कुल जाने
क पर परा नह है। मेरे साथ गु कुल म कोई भी बािलका नह है।''
‘‘नह है सो तो मुझे भी पता है, िक तु य नह है?''
‘‘नह है, इतना मुझे ात है। य नह , यह मुझे भी नह ात। हाँ, गु जी ने एक िदन
चचा म कहा था िक मिहलाओं का वेद पढ़ना शा म िनिष है।''
‘‘िकस शा म िलखा है ऐसा?'' वाता आरं भ होने तक जो भय या संकोच मंगला क
वाचालता को संकुिचत िकये हये थे, वाता आरं भ होते ही वे ितरोिहत हो गये थे और वह वही
पुरानी मंगला हो गयी थी िजसे भाई से कैसे भी यु म कोई संकोच नह था।
‘‘अब मुझे नह ात, और सुन कान मत खा, जाकर अपना काम कर।'' मंगला के
िनर तर हठ से वेद भी झँुझलाने लगा था।
‘‘आपने तो वेद पढ़े ह। उनम मना िकया गया होता तब तो आपको पता होता।''
‘‘जहाँ तक मने वेद पढ़े है उनम ऐसा कुछ नह है, आगे हो तो मुझे या पता। अब जा
अ छा। समा कर इस िववाद को। कोई और वाता हो तो कर अ यथा भाग।''
‘‘सो कुछ नह ! अब मुझे साफ-साफ बताओ िकस शा म िलखा है?''
‘‘कह तो िदया मुझ नह पता।''
‘‘तो पढ़ा या है आपने गु कुल म इतने िदन तक, इ ी सी बात नह पता?''
‘‘घास खोदी है! स न! अब भागती है यहाँ से या नह , या एक और ध ँ कसके?''
‘‘अरे ! अरे ! वेद लाला! ऐसे य बोलते हो? बेचारी छोटी बहन है, छोट पर कह गु सा
होते ह!'' इस बार भाभी ने मंगला का प िलया।
‘‘अब भाभी ये तो बात पकड़ कर रह गयी। अब शा म मना है तो म बताओ या
क ँ ? मने तो िलखे नह शा जो बदल दँू।''
‘‘अब यह थोड़े ही कह रहा है कोई।''
‘‘और या कह रही है यह? एक ही रट लगाये है - िकस शा म िलखा है? म कहाँ से
बता दँू, मने या सारे शा पढ़ िलये ह। जब पढ़ लँग
ू ा तब बता दँूगा।''
‘‘अ छा एक बात कहँ, क िजएगा?''
‘‘बोिलये आप भी!''
‘‘इस बार जब गु कुल जाइयेगा तो वहाँ गु जी से पिू छयेगा िक िकस शा म िलखा
है ऐसा? इतना तो कर दगे? या इसम भी कोई सम या है?''
‘‘चिलये पछ
ू लँग
ू ा और आप लोग को बता भी दँूगा। अ छा एक बात तो बताइये तिनक,
या आपको भी इसक तरह सनक लग गयी है?''
‘‘अरे नह भइया! घर के और काम कम ह या मेरे िलये जो यह एक यािध और
पालँग
ू ी। म तो ऐसी ही भली।'' भाभी ने हँसते हये कहा। उसका सच म पढ़ने-िलखने से कोई
वा ता नह था।
‘‘तो प का पछ
ू गे भइया!'' मंगला ने एक बार िफर साहस करते हये कहा।
‘‘हाँ! हाँ! मेरी अ मा! पछ
ू लँग
ू ा। अब स न?''
मंगला ने िसर िहला िदया।
‘‘अ छा जा मेरे िलये पानी लेकर तो आ।'' वेद ने कहा और मंगला स न-मन उठकर
पानी लेने चली गयी।
54. कुमार का बचपन
चार कुमार धीरे -धीरे बड़े होने लगे।
अयो या म राज-प रवार ही नह जा के भी चहे ते थे चार बाल-कुमार।
िवधाता ने उ ह छिव भी तो अ ुत दान क थी। उनम भी यामल होते हये भी राम के
सौ दय क तो कोई उपमा ही नह थी। पु -गुदगुदा शरीर, वयानुसार े ल बाई, सदैव
आसपास क येक व तु को परू ी तरह समझने को त पर आँख। उसक चंचलता म भी अ ुत
सौ यता थी जो िकसी ने और कह देखी ही नह थी। राम क सौ यता के िवपरीत ल मण और
श ु न म िवशेष चपलता थी - सदैव उ सुक, उ लिसत कुछ न कुछ नवीन करने को उ त। भरत
ने अपे ाकृत शांत वभाव पाया था। अभी से ऐसा तीत होता था िक वह अ यंत धैयवान िस
होगा भिव य म।
चार ही कुमार को िकसी भी व तु के िलये हठ करने क आव यकता ही नह पड़ती
थी। उनक येक अिभलाषा कट होने से पवू ही पण ू कर दी जाती थी।
माताओं क तो परू ी िदनचया ही कुमार के चतुिदक केि त हो गयी थी। तीन माताएँ
नौिनहाल को देख-देख िनहाल होती रहती थ । माताओं के यवहार से यह समझ पाना कदािप
संभव नह था िक कौन िकसका पु है। चार ही तीन माताओं के परम दुलारे थे। िफर भी कैकेयी
का राम पर नेह असीिमत था। राम के मुख पर जरा सी उदासी लि त करते ही वे उि न हो
जाती थ । कह अगर राम खेल म भी रो िदये तो बस ... दास-दािसय के िलये संकट उ प न हो
जाता था।
और महाराज दशरथ, उनम तो जैसे नवीन ाण का संचार ही हो गया था। पहले
अ यमन कता म राज-पाट पर उिचत यान नह दे पाते थे, अब पु के मोह म। वह तो कुशल
मंि प रषद, िवशेषकर जाबािल क कमठता थी जो सारे काय िबना िकसी िव न के उिचत रीित
से स पािदत हो रहे थे। जा पण
ू संतु थी। सब ओर खुशहाली थी।

ऐसे ही एक िदन ात: का समय था। ये मास समापन क ओर था अत: सय ू ादय के


साथ ही ी म का कोप आरं भ हो गया था। दशरथ नानािद से िनव ृ होकर पज ू न हे तु बैठे थे।
आरा य के स मुख आँख ब द िकये, स वर गाय ी मं का जाप कर रहे थे िक चार कुमार
दौड़ते हये मि दर म घुस आये। उलझे केश, अ त- य त व - आते ही चार म िपता क गोद म
चढ़ने को लेकर होने लगा। मा भरत शांत खड़ा अपनी बारी क ती ा कर रहा था।
दशरथ ने चार को बाह म समेट िलया और हँसते हये बोले -
‘‘अरे -अरे ! देखो तो म पज
ू न कर रहा हँ।’’
‘‘हम भी पज
ू न करगे िपताजी!’’ ल मण और श ु न एक साथ बोले।
ू न करोगे तो मेरे पीछे खड़े हो सीधी कतार म और आँख ब द कर, हाथ जोड़ कर
‘‘पज
भु का मरण करो।’’
‘‘आँख ब द कर भु को देखगे कैसे िपताजी?’’ श ु न ने शंका कट क ।
‘‘उनको यिद स चे मन से याद करोगे तो अव य िदखाई पड़गे। चलो करो।’’
‘‘नह हम तो आपक गोद म बैठ कर पज ू न करगे।’’ ल मण उनक गोद म चढ़ता हआ
बोला। ल मण के चढ़ते ही बाक कुमार भी चढ़ने लगे।
‘‘ भु मा करना िक तु कहते ह िक ब च म ही ई र िनवास करता है। बस मुझे तो
इसी ई र क सेवा करने द, इसी म आप संतु हो ल।’’ दशरथ कुमार को सँभालने का यास
करते हये स नता के आवेग म कह उठे ।
‘‘िपताजी यह ई र या होता है?’’ राम ने कर िदया।
दशरथ और जोर से हँसे - ‘‘बड़ा किठन कर िदया राम! कैसे समझाऊँ???’’ िफर
जैसे उ र िमल गया हो ब च क तरह ही स न होते हए बोले -
‘‘बस य समझ लो तु ह हो ई र।’’
‘‘िपताजी राम भइया ई र ह?’’ यह श ु न क ओर से आया था।
‘‘हाँ तु हारे राम भइया ही नह तुम सभी ई र हो।’’
‘‘स ची िपताजी! हम सभी ई र ह?’’
‘‘हाँ! तुम सभी। तुम सभी मेरे ई र हो। इस अयो या के ई र हो।’’ दशरथ कुछ भावुक
हो उठे । आँख क कोर अनायास गीली हो उठी।
‘‘िपताजी आप रो रहे ह। चोट लग गई कह ?’’ गीली आँख देख भरत ने कर िदया।
‘‘अरे नह रे ! ये तो स नता के आँसू ह।’’
‘‘ स नता के आँस!ू माता तो कहती ह क म आँसू िनकलते ह?’’ आ य से भरा यह
ित ल मण का था।
‘‘तु हारी माता तो ऐसे ही कहती ह, स नता म भी आँसू िनकलते ह। क के आँसू
िनकलते ह तो यि रोता है। जैसे तुम रोते हो ऊँ .. ऊँ .. करके।’’ दशरथ ने रोने क नकल
करते हये कहा। पर देखो म कह रो रहा हँ? म तो हँस रहा हँ। इसिलये मेरे आँसू स नता के
आँसू ह।’’
‘‘हाँ िपताजी! आप तो हँस रहे ह।’’ ल मण क समझ म बात आ गयी थी िक तु श ु न
अभी भी अपने म उलझा था - ‘‘िक तु िपताजी ई र होना या होता है?’’
‘‘अरे बाबा रे ! मेरे बस का नह तुम लोग के का सामना करना।’’ दशरथ को
एकाएक कोई उ र नह सझ ू ा तो उ ह ने बात घुमाते हये पछ
ू ा - ‘‘अ छा या खाओगे
बताओ?’’
‘‘आम’’ चार ने एक वर से उ र िदया। ‘‘आमवन म चिलये न िपताजी’’ - चंचल
ल मण ने दशरथ के अधोव ख चते हये उतावली िदखाई।
‘‘अरे बाबा चलते ह। लेिकन तुम लोग थक जाओगे। अभी अनुचर को बुलाता हँ। वह तु ह
गोद म ले लेगा, िफर चलते ह।’’
‘‘नह िपताजी! हम नह थकगे। हम तो बड़े हो गये ह अब।’’ आम का िज आ जाने भर
से ल मण से लोभ का संवरण नह हो रहा था, उसने पवू वत अधोव ख चते हये कहा।
‘‘अ छा चलो। िक तु दौड़ना नह ।’’
‘‘नह दौड़गे।’’ चार ने एकसाथ कहा।
‘‘प का?’’
‘‘िबलकुल प का िपताजी!’’
दशरथ पु को लेकर ासाद के उपवन क ओर चल िदये जहाँ तमाम आम के व ृ लगे
थे। माग म आते हये जाबािल िमल गये। दशरथ को देख कर उ ह ने झुक कर णाम िकया -
‘‘महाराज क जय हो!’’
‘‘ या िम ! यह राजक य आडं बर राजसभा के िलये ही रहने दो। यहाँ तो म वयं इन
महाराज का दास हँ।’’ कहकर दशरथ ठठाकर हँस पड़े ।
‘‘यही सही! इस प म अगर महाराज का उ मु हा य सुनाई पड़ता है तो जा इसम
भी स न है। इन कुमार से बड़ा महाराज कौन हो सकता है।’’
‘‘उिचत कहा! और बताएँ कैसे आना हआ? कोई िवशेष योजन?’’
‘‘नह महाराज! कल आप राजसभा म नह पहँचे थे अत: बस दशन करने चला आया।
सोचा देख आऊँ आज आने क संभावना है या नह !’’
‘‘कैसे आऊँ िम ? देख रहे हो चाकरी कर रहा हँ।’’ कहकर दशरथ पुन: हँस पड़े ।
ै ोक का सबसे बड़ा आनंद है। इसे बस
‘‘इसे चाकरी य कह रहे ह महाराज! यह तो ल
अनुभव िकया जा सकता है, वणन नह िकया जा सकता। गँग ू े का गुड़ कह लीिजये इसे।’’
जाबािल ने भी हँसते हये कहा।
‘‘अरे -अरे को! तुमने वचन िदया था िक दौड़ोगे नह ।’’ अचानक दशरथ का यान
जाबािल क ओर से हटकर कुमार क ओर चला गया जो दूर से ही आ वन को देखकर दौड़ पड़े
थे। उ ह ने भी अपनी गित ती कर दी। तभी आवाज सुन कर आ वन के प रचर बाहर िनकल
आये। उ ह देखते ही दशरथ लगभग दौड़ते हये ही िच लाये -
‘‘अरे सँभालो उ ह! देखो िगर न जाय।’’
जाबािल पीछे -पीछे मु कुराते हये चले आ रहे थे। सदैव गंभीर रहने वाले स ाट का यह
प उ ह सुहा रहा था।
चार कुमार को प रचारक ने दौड़ कर गोद म उठा िलया था और उनक चंचलता पर
आनंिदत होते हये उ ह आ वन क ओर िलये जा रहे थे। अब दशरथ कुमार क ओर से िनि ंत
हो गये थे। ती गित से चलने के कारण उनक साँस फूलने लगी थी। उ ह ने सोचा ‘‘वाध य
द तक देने लगा है। देने दो, अब या िचंता! अब तो चार-चार कुमार ह, भिव य म शासन
सँभालने के िलये।’’ अपनी सोच पर वे वयं हँस पड़े और क कर जाबािल क ती ा करने
लगे। कुछ ही पल म जाबािल भी आ गये - दशरथ क ही भाँित िवहँसते हये।
‘‘पता है मंि वर म या सोच कर हँसा था अभी?’’
‘‘कुमार के चांच य पर हँसे ह गे, और या!’’
‘‘अरे नह ! म सोच रहा था िक अब वाध य आ गया है िक तु या िचंता, कुछ ही िदन
म ये चार कुमार बड़े हो जायगे रा य का भार सँभालने के िलये।’’
‘‘यह तो है महाराज! अब स पण
ू कोशल िनि ंत है। स न है।’’ जाबािल मु कुराये।
दशरथ पुन: बोले -
‘‘अ छा अब अपने आने का वा तिवक योजन बताइये। आपक भी यथ ही दौड़ करा
दी मने।
‘‘नह महाराज! ऐसी मनभावन दौड़ हो तो म तो िन य दौड़ने को त पर हँ।’’ जाबािल
ने हँसते हये कहा।
‘‘कोई अ य राजक य सम या या कोई यव था स ब धी कोई ? सब उिचत रीित
से तो चल रहा है महामा य?’’
‘‘नह महाराज! िकसी भी कार क कोई भी सम या नह है। सम त यव था उिचत
प से चल रही है, उस िवषय म आप पण
ू िनि ंत रह। आप बस हमारे कुमार को स न रख,
शेष सम त यव थाएँ मंि प रषद देख लेगी।’’ जाबािल ने हँसते हये कहा।
‘‘यह तो है! आप लोग के होते मुझे कोई िचंता हो ही नह सकती।’’ महाराज हँसे िफर
धीरे से चुटक लेते हये बोले - ‘‘िफर भी आपको देख कर ऐसा लगता है िक इस आनंद से िनकल
कर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ना पड़े गा, बस यही क हो जाता है।’’
‘‘तो मत ओिढ़ये महाराज! जब तक कोई वा अितिथ नह आता तब तक आपका यह
बाल प ही कोशल को पसंद है। आप ऐसे ही रह।’’ जाबािल ने भी पवू वत हँसते हये कहा।
ये लोग भी अब आम के झुरमुट म वेश कर चुके थे। प रचारक दौड़ कर पीिठकाएँ ार
के िनकट ही व ृ क छाया म उठा लाया था और दोन क ती ा कर रहा था। दशरथ बैठ गये।
‘‘बैिठये महामा य! खड़े य ह?’’
‘‘नह ! अब मुझे आ ा दीिजये। राजसभा म जाने का समय हो रहा है।’’
‘‘अरे नह ! इससे बड़ी राजसभा और कौन सी हो सकती है जहाँ आपके राजा के भी
राजा उपि थत ह। बैिठये आम खाकर जाइयेगा।’’ दशरथ उ मु हा य के साथ बोले।
‘‘नह महाराज ...’’
‘‘अरे बैिठये भी!’’ दशरथ ने उनका वा य परू ा नह होने िदया और हाथ पकड़ कर बैठा
िलया। तभी उनका यान व ृ पर चढ़ने का यास करते ल मण और श ु न पर गया। वे
िच लाये -
‘‘देखो-देखो! या कर रहे ह ये!’’ और कहने के साथ ही वयं भी उठकर उनक ओर
बढ़ गये।
55. वे द क गु दे व से वाता
वेद बड़े उहापोह म था। िकस कार बात करे वह गु जी से मंगला के िवषय म। गु देव
ोधी वभाव के कदािप नह थे तो भी उसक िह मत नह पड़ रही थी। वह िन य ात: िन य
करता िक आज म या ह म भोजन के समय अव य ही गु देव से पछ ू े गा िक तु म या ह से साँझ
पर टल जाता और साँझ से पुन: अगली ात: पर। अंतत: एक िदन उसने िन य िकया िक अब
कोई सोच-िवचार नह करे गा बस सीधे जाकर गु जी से पछ ू लेगा, िफर जो होगा देखा जायेगा।
नह पछू े गा तो िफर घर जाते ही मंगला िचक-िचक करे गी।
वह उठा, आ म म देखा - गु जी कह नह थे। वह वािटका क ओर िनकल गया। वहाँ
आम के व ृ के झुरमुट म गु जी उसे िदखाई दे गये। वह गया और जाकर सीधे गु जी के पीछे ,
कुछ पग क दूरी पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। गु जी िकसी से बात कर रहे थे। उसने िफर
सोचा िक इस समय उिचत नह है, इस समय पता नह गु जी िकससे या आव यक चचा कर
रहे ह , जब अकेले ह गे तब बात करे गा।
गु देव िजससे वातालाप कर रहे थे, वे व तुत: महामा य जाबािल थे। वेद लौटने ही
वाला था िक महामा य ने उसे देख िलया। उ ह लगा िक वह इस ती ा म है िक वातारत
गु जन का यान उसक ओर घम ू े तो वह अपनी बात कहे । उ ह ने गु देव का यान इशारे से
उसक ओर आकिषत िकया।
‘‘कहो व स वेद, कोई शंका है?’’ गु देव ने उसे देख कर जानना चाहा।
अब वापस लौटने का कोई माग नह था। उसने बढ़ कर दोन गु जन के चरण क
धिू ल ली और िफर शाि त से खड़ा हो गया।
‘‘आयु मान भव:!’’ गु देव ने कहा। जाबािल ने भी उसके िसर पर हाथ रख कर
आशीवाद िदया।
‘‘हाँ कहो व स!’’ गु देव ने उसके संकोच को समझते हये नेह से उसे पछ
ू ने के िलये
ो सािहत करते हये कहा।
‘‘गु देव मेरी छोटी बहन को गु कुल म पढ़ने क बड़ी लगन है। मने जब उसे बताया
िक शा म बािलकाओं के िलये पढ़ना िनषेध है तो वह हठ करने लगी िक िकस शा म
िलखा है ऐसा?’’ वेद एक ही साँस म परू ी बात कह गया। शायद उसे यह अपनी अनिधकार
चे ा तीत हो रहा था।
‘‘तो इसम इतने संकुिचत से य हो रहे हो व स! पहले बैठ जाओ, िफर संयत होकर
बात करो। बहत गंभीर है यह। बैठो-बैठो। संकोच मत करो।’’ गु देव कुछ कह इससे पहले ही
जाबािल ने िकंिचत हा य के साथ बात को लपक िलया। उ ह ने यह लि त कर िलया था िक वेद
इस को बहन के दबाव म ही पछ ू रहा है अ यथा शा पर िकसी भी तरह क शंका उठाने
भर से ही वह भयभीत है। उ ह ने पहले उसे इस भय से बाहर िनकालने के िलये ही बात को
ह के-फु के ढं ग से लेते हये उसे बैठने को कहा। वह जब बैठ गया और थोड़ा सा संयत हआ तो
पुन: उ ह ने उससे िकया -
‘‘पहले यह बताओ, िकतना समय हो गया तु ह गु कुल म?’’
‘‘जी आचाय वर पाँच वष।’’
‘‘अ छा या- या पढ़ा अभी तक?’’
‘‘जी ऋक् और यजुवद पढ़ िलये ह। सामवेद चल रहा है।’’
‘‘पण
ू कंठ थ ह?’’
‘‘जी!’’
‘‘और मनु मिृ त?’’
‘‘अभी आरं भ नह हयी।’’
‘‘नाम तो सुना होगा उसका।’’
‘‘जी! सुना है।’’
‘‘मंि वर! वै यकुल से यह सबसे अ छा िव ाथ है।’’ गु देव विश जो अभी तक
जाबािल और वेद के वातालाप को मु कुराते हये सुन रहे थे, उ ह ने पहली बार वातालाप म
ह त ेप िकया।
‘‘तो गु देव इसक शंका का समाधान क िजये।’’ जाबािल ने भी गु देव क ओर
मु कुराते हये देखते हये कहा। ‘‘मेरी भी उ सुकता है इस म। वेद! अपनी बहन के िलये मेरा
णाम वीकार करो िजसने इतना मह वपण ू उठाने का साहस िकया है। ध य है वह!’’
वेद जाबािल के इस कथन से िफर संकुिचत हो गया। उसे समझ ही नह आया िक या
जवाब दे। बस मंि वर क ओर हाथ जोड़ कर रह गया।
‘‘व स! अभी मंि वर िजस मनु मिृ त क बात कर रहे थे उसी म यह िनषेध िकया गया
है। शू और मिहलाओं को अ ययन क अनुमित नह है। वेद के अ ययन क तो कदािप नह ।
मनु महाराज ने कहा है िक िववाह ही ि य का उपनयन है और गहृ थी के काय ही उनका
वेदपाठ है।’’ गु देव ने बताया।
वेद वैसे ही हाथ जोड़े िसर झुकाये बैठा था िक तु जाबािल चुप नह रहे वे बोल पड़े -
‘‘यह अ याय नह है गु देव? यिद भगवती लोपामु ा, भगवती गाग आिद तमाम
ऋिषकाएँ ी होते हये भी वेद क रचना कर सकती ह तो िफर ि याँ वेद पढ़ य नह
सकत ।’’
‘‘महामा य! याय-अ याय का नह है।’’
जाबािल ने संकेत से गु देव को और कुछ कहने से रोका और वेद क ओर मुड़ते हये
संकि पत से वर म कहा -
‘‘व स अपनी बहन से कह देना िक गु कुल म भले ही उसके अ ययन क यव था न
हो सके िक तु यिद वह या अ य कोई भी क या अ ययन को उ सुक हो और इस हे तु साहस जुटा
सके तो जाबािल के कुटीर के कपाट उसके िलये सदैव खुले ह। जाबािल उ ह येक िव ा
िसखाने को त पर है। जाबािल क ि म जैसे सय ू ािणमा के िलये उगता है वैसे ही ान का
सयू भी िबना वण या िलंग का भेद िकये सबके िलये उगना चािहये। जाओ अब - मेरा संदेश अपनी
बहन तक पहँचा देना। जानते तो हो न मुझे?’’
‘‘जी, अयो या म आपका नाम कौन नह जानता। पहचानता नह था अभी तक सो दैव
कृपा से आज पहचान भी िलया।’’
कहते-कहते वह उठ खड़ा हआ। पुन: दोन का चरण वंदन िकया और आ ा लेकर चल
पड़ा।
56. कुबे र िवजय
जैसा िक अपेि त था, रावण ने अपने बड़े भाई कुबेर का मानमदन कर ही िदया। इस
िवजय ने उसके अहंकार का पोषण करने का काय भी िकया। स ा के साथ स ा का मद आना
वाभािवक ही है। इस मद के अित र इस िवजय से उसे जो कुछ भी ा हआ था उसम सबसे
मह वपणू था कुबेर का पु पक िवमान।
रावण ने कुबेर को परा त करने के बाद अलका का रा य ह तगत नह िकया। जैसे
बहत बाद म, ऐितहािसक म य काल म इ लामी आ मण कारी भारत आते थे और लटू का माल
समेट कर लौट जाते थे, उसी तरह ेता म रावण ने कुबेर का माल समेटा। दरअसल रावण ने माल
भी नह समेटा, समेटना चाहा भी नह । इस परू े घटना म म उसक स मित भी नह थी िक तु
सेना को इससे कैसे रोका जा सकता था। सेना तो िविजत े म लटू पाट करना अपना थम
अिधकार समझती थी। रावण को तो केवल पु पक छीनना ही अभी था। शेष सेना और
सेनापितय ने या लटू पाट क उसे ात भी नह हो पाया। इसम भी सुमाली क सफल कूटनीित
का बहत बड़ा हाथ था। रावण यिद जान जाता तो शायद इसे रोकने का कोई उपाय अव य करता।
सुमाली ने सेनापितय को सेना और ा सम त उपहार समेत लंका लौटने का
िनदश देकर रावण के स मुख पु पक पर आ ढ़ होकर उस मनोरम े म िवहार करने का
ताव रखा िजसे रावण ने सहष वीकार कर िलया। रावण, सुमाली, महोदर, ह त, शुक,
सारण और धू ा , इन छह पा रवा रक जन के साथ पु पक पर आ ढ़ होकर कैलाश मण
करने लगा। िहमवान क शंख ृ लाओं से सागर पयत सम त ात सिृ म उस काल म िगनती के
ही िवमान थे - देव और लोकपाल के पास। मानव तो केवल इन िवमान क कहािनयाँ सुनकर
ही संतु हो जाते थे और इन कहािनय म िफर अपनी क पना के पंख लगाते थे। कोई कहता था
िक यह िवमान इतना बड़ा था िक परू ा नगर समा जाये, कोई बताता था िक इसे चलाने के िलये
िकसी सारथी क आव यकता नह थी बस वामी ने इ छा क और पु पक चल िदया, जहाँ जाने
क इ छा हई वह पहँचा िदया। कोई बताता था िक पु पक मनु य क तरह बात भी करता था, तो
कोई कहता था िक यह आव यकतानुसार आप ही छोटा-बड़ा हो जाता था और इसक गित के
बारे म तो यह कथा चल िनकली थी िक यह मन क गित से चलता था। आपने इ छा क और
पलक झपकते जहाँ जाना था वहाँ पहँच गये। इसे कह खड़ा करने और रखरखाव क भी ज रत
नह थी - आपके इ छा करते ही कट हो जाता था और आपको ग त य पर पहँचाकर वयं
अ य हो जाता था। िक तु ये सब केवल कहने क ही बात थ ।
यह तो कहो िक इस िवमान का िनमाता मय दानव, रावण का सुर था। उसक प नी
हे मा को देवराज इ ने बलात वग म रोक िलया था। वह महान अिभयंता अब एकाक , व ृ था
कहाँ जाता, सो लंका म ही एका त म िनवास कर रहा था। वह अ सर अपने म ही खयाल म
खोया रहता, हे मा के खयाल म या िकसी नये िनमाण क परे खा बनाने म यह कोई नह
जानता। िफर भी कभी-कभी तो रावण के साथ उसक बैठक होती ही रहती थी और जब भी वह
बोलने क मनोदशा म होता पु पक क चचा अव य करता था। उसम या- या खिू बयाँ ह, वह
कैसे काम करता है आिद-आिद। इसी के चलते रावण को पु पक के संचालन के िवषय म काफ
कुछ ात था। उसे ऐसा लगने लगा था जैसे पु पक उसका अपना ही िवमान हो। अगर यह संयोग
न रहा होता तो शायद पु पक उनके िलये िकसी काम का नह होता, वे उसे चला ही नह पाते तो
उसे कुबेर से छीन कर लाते भी कैसे? यही आधा-अधरू ा, सुना-सुनाया ान आज उनके काम आ
रहा था।
तो रावण चल िदया पु पक पर सवार होकर कैलाश े क ाकृितक सुषमा को
िनरखने। अब जाकर कह उसका मि त क इस िवषय म सोचने लायक हआ था। कह दूर तक
िहमा छािदत पवत शंग
ृ तो कह गहरी घािटय म ऊँचे-ऊँचे व ृ का सा ा य। अ ुत य था,
सभी खोकर रह गये उस य क शोभा म।
अचानक पु पक आकाश म एक झटके से एक ही थान पर अटक कर रह गया। वह
आगे नह बढ़ा पा रहा था। जैसे िकसी डोर से बँधी पतंग हो, जब तक डोरी म ढील नह दी जाती
अपनी जगह पर आसमान म तनी रहती है। वह कैसे आगे बढ़े िकसी क समझ म नह आ रहा
था। सबने सारे य न करके देख िलये, कोई नतीजा नह िनकला। कौन सी डोर पकड़े थी पु पक
को - िकसी क समझ म नह आ रहा था।
अंतत: उसे नीचे उतारना ही ेय कर समझा गया। सौभा य था िक इस काय म िकसी
सम या का सामना नह करना पड़ा। पु पक को सहजता से सुरि त नीचे उतार िलया गया। सब
लोग उसके कल पुज म जझ ू ने लगे िक आिखर या खराबी है, इसे कैसे ठीक िकया जाये? पर
कुछ समझ म नह आ रहा था। तभी अचानक पीछे से एक वर सुनाई पड़ा -
‘‘ओह! शायद रावण हो तुम! तभी पु पक तु हारे पास है। या कर रहे हो यहाँ?’’
‘‘देख नह रहे पु पक म कुछ याि क िवकार उ प न हो गया है, उसी को समझने का
यास कर रहे ह। िक तु तुम कौन होते हो हमसे यह करने वाले? जाओ अपनी राह।’’
वह यि हँस पड़ा -
‘‘कोई िवकार नह उ प न हआ है पु पक म। यह भगवान िशव का े है - कैलाश।
यहाँ िकसी भी अप रिचत का वेश विजत है। पु पक को पीछे क िदशा म संचािलत करो यह
वत: सि य हो जायेगा।’’
‘‘लंके र को िनदिशत करने वाला तू कौन होता है दु ? जा अपने रा ते अ यथा
ाण से हाथ धो बैठेगा।’’ यह आवाज धू ा क थी। रावण से अिधक स ा का मद उसके सािथय
म आ गया था। कोई भी ऐरा-गैरा आकर सवाल करने लगे यह उ ह बदा त नह था। उस पर भी
रावण को पहचानने के बाद, उसक लोकपाल कुबेर पर िवजय से प रिचत होने के बावजदू ।
‘‘नह धू ा ! उ ेिजत मत ह ।’’ रावण को धू ा का उस यि पर बरसना अ छा
लगा था पर िफर भी उसने वयं को गंभीर और िश यि िस करने का यास करते हये
कहा। िफर आगंतुक क ओर मुड़ा और बोला -
‘‘माना िक यह िशव का े है िक तु हम तु हारा या अिहत कर रहे ह?’’
‘‘ कुछ िहत या अिहत करने का है ही नह । आप िकसी के घर म िबना उसक
सहमित के कैसे वेश कर सकते ह? और िफर इस समय तो भु और माता िवहार कर रहे ह। इस
समय तो िकसी को भी वेश क अनुमित नह है।’’
‘‘हम तु हारे भु के िवहार े म कहाँ वेश कर रहे ह। हमारे यान म कुछ िवकार आ
गया है अत: िववशतावश हम यहाँ खड़े ह अ यथा हम तो वयं ही आगे अपने माग पर थान
कर गये होते।’’
‘‘कहा तो मने, तु हारे यान म कुछ नह हआ है। यह यान भी भु क इ छा के िबना इस
े म वेश नह कर सकता। पीछे लौट जाओ यान सकुशल तु ह ले जायेगा। बस यह आगे नह
बढ़े गा।’’
‘‘ता पय िक इसम भी तु हारा कोई कपट काय है? िबना यान को पश िकये भी तुम
इसक गित िनयंि त कर सकते हो?’’ रावण ने आ य से पछ
ू ा।
‘‘इसम मेरा कोई कपट कृ य नह है। भु ने इस े म कुछ चु बक य तरं ग वािहत
कर दी ह िज ह कोई यान काट नह सकता।’’
‘‘ओह! यह बात है।’’ रावण अब ह त क ओर घम
ू ा - ‘‘मातुल या कर? आप ही
स मित दीिजये।’’
‘‘इसम स मित क या आव यकता है? िजसने भी लंके र के यान को रोका है वह
दंड का भागी है। उसे दंड तो देना ही पड़े गा, वह कोई भी हो।’’
‘‘होश म आओ! ऐसा न हो जीवन से ही हाथ धोना पड़े ।’’ आग तुक बोला।
‘‘एक साधारण से चर का इतना साहस जो सा ात लंके र को धमका रहा है, ये ले
...’’ यह धू ा था िजसने इतना कहने के साथ ही आग तुक पर वार कर िदया था। आग तुक
ने कुशलता से पतरा बदल कर वार को नाकाम कर िदया और धू ा का हाथ पकड़ िलया।
धू ा सारी ताकत लगाकर भी हाथ नह छुड़ा सका। आग तुक ने उसका हाथ पकड़े -पकड़े ही
दूसरे हाथ से आगे बढ़ते हये महोदर को एक ध का मारा तो वह दूर िगरा जाकर। िफर आग तुक
बोला -
‘‘यह साधारण सा चर नंदी है। भु िशव का अिकंचन सेवक। दु साहस से बाज आ जाओ
तुम लोग।’’
उसने धू ा के हाथ को एक झटका िदया तो एक चटाक क आवाज हई और धू ा
हाथ पकड़ कर बैठ गया। वह चीखा -
‘‘स ाट इसका इतना साहस हो गया िक आपके स मुख ही इसने मुझ पर वार कर
िदया। इस पर भी अगर आप चुप ही रहे तो आपक याित का या होगा? स ा पुचकार से नह ,
द ड से ही सँभाली जाती है अ यथा लोग दुबल और भी समझने लगते ह।’’
‘‘ठीक कहते हो धू ा !’’ कहने के साथ ही रावण ने नंदी पर छलांग लगा दी।
दोन के पंजे एक दूसरे म उलझ गये। रावण को अहसास हआ िक इतना आसान नह है
नंदी से पार पाना। काफ देर दोन आपस म उलझे रहे पर आिखर उसने नंदी को िगरा ही िदया।
उसने मौका पाकर नंदी क गदन पर एक भरपरू वार िकया, अगले ही ण नंदी के हाथ-पैर ढीले
पड़ गये, उसक चेतना लु हो गयी थी।
‘‘हाथ-पैर बाँध कर डाल दो इसे। िफर आगे देखते ह कौन है इसका भु िशव। अब तो
उसको भी रावण क स ा से प रिचत कराना आव यक हो गया है।’’
नंदी को हाथ-पैर बाँध कर वह डालकर वे लोग आगे बढ़े ।
57. जाबािल-विश तक
वेद चला गया िक तु गु देव और महामा य के म य एक शा ाथ क भिू मका रच गया।
उसके जाते ही महामा य बोले -
‘‘गु देव! मा ाथ हँ िक मने आपको बाधा दी। म नह चाहता था िक हमारी चचा उस
बालक के सं ान म आये। वह अनुिचत संदेश हण कर सकता था। अब कह।’’
‘‘उिचत िकया आपने।’’ गु देव बोले ‘‘म कह रहा था िक यहाँ याय-अ याय का है
ही नह । राजनीित म याय को ाय: ही रा िहत अथवा समाजिहत के िलये बिलदान देना होता
है।’’
‘‘िन:संदेह गु देव! िकंतु ी अथवा शू का िश ा ाि का अिधकार राजनीित का
िवषय कहाँ है? यह तो समाज का िवषय है ... यापक समाजिहत का िवषय है। ान ाि येक
मानव का नैसिगक अिधकार है। उसका यह अिधकार समाज या रा िहत से पथ ृ क कहाँ है?
विश कुछ पल आँख मँदू े, अपनी सुदीघ-धवल दाढ़ी को सहलाते रहे िफर बोले-
‘‘आपका कथन तक के िलये अथवा आदश के िन पादन के िलये तो उिचत है िकंतु आदश और
तक सदैव रा िहत के पोषक नह होते। यि के नैसिगक अिधकार सदैव रा िहत का
अनुसरण ही नह करते। अनेक अवसर ऐसे भी आते ह जब यि के अिधकार और रा िहत म
िवरोधाभास उ प न हो जाता है। म अपनी बात और प करता हँ -
‘‘ येक रा के अ य रा म िवशेषकर श ु रा म अपने कूटचर अथवा गु चर
होते ह।’’
जाबािल ने सहमित म िसर िहलाया।
‘‘मान लीिजये िकसी श ु रा म आपके िकसी गु चर का रह य उ ािटत हो जाता है।
वह ब दी बना िलया जाता है। ऐसी ि थित म आप या करते ह?’’
म द ि मत िबखरते हए जाबािल ने उ र िदया- ‘‘उससे अपने िकसी भी कार के
स ब ध को नकार देते ह। उसे अपना नाग रक तक वीकार नह करते। िकंतु गु देव वह एक
िभ न ि थित होती है। उस प रि थित क तुलना िकसी यि के िश ा के अिधकार से कैसे क
जा सकती है?’’
‘‘म दोन ि थितय क तुलना नह कर रहा। म तो अभी मा यह पाियत करने का
यास कर रहा हँ िक यि के अिधकार और रा िहत पर पर िवरोधी भी हो सकते ह।’’
‘‘चिलये, वीकार िकया आपका िन पण। िकंतु यहाँ दूसरा है। यहाँ हम उस ि थित
को कैसे आरोिपत कर सकते ह?’’
‘‘मुझे भी आपका तक वीकार है। िकंतु मने कहा न िक यह तो मने मा यह प
करने के िलये कहा िक यि और रा के िहत िवपरीत भी हो सकते ह। अब वेद क भिगनी के
अिधकार के पर आते ह।
‘‘रा अथवा समाज को एक वहृ र पु ष मान लेते ह। ऐसे म येक यि उस वहृ र
पु ष के शरीर का कोई न कोई अवयव होता है। कोई ने है, कोई शीश है, कोई केश है तो कोई
रोमिछ भी है। यजुवद ने इसे अपने श द म कहा है - ‘‘ ा णो यमुखमासीत् बाह राज य: कृत:
....
‘‘जी!’’
‘‘तो महामा य जी।’’ विश के अधर पर कुछ पल के िलए एक ि मत नतन कर गयी-
‘‘अधर नािसका का काय नह कर सकते और नािसका ने का काय नह कर सकती। कृित
जब िकसी शरीर का िनमाण करती है तो उसे उसके काय के अनु प ही िवशेषताएँ , यो यताएँ
और गुण-धम भी दान करती है तािक वह अपने कत य का स यक् िनवहन कर सके।
सहमत?’’
‘‘जी। िक तु ा ण ही उस िवराट् पु ष का मुख य हो सकता है? यह असंभव तो
नह िक कृित िकसी शू को भी मुख होने क यो यताओं सिहत ज म दे। कृित िकसी बीज
को ज म देते समय उसका वग िनधा रत नह करती, यह तो समाज करता है। कृित िकसी बीज
को िकसी गभ म थािपत करते समय यह िवचार नह करती िक वह बीज िकसी ा णी के गभ
म थािपत हो रहा है अथवा िकसी शू ा के गभ म। वह िकसी भी बीज म कोई भी गुणधम
आरोिपत कर सकती है। कृित बीज का िलंग िनधा रत करते समय भी उसम मा स तानो पि
स ब धी िवभेद ही उ प न करती है, मेधा अथवा यो यता दान करने म िलंग के अनुसार भेद
नह करती।’’
‘‘नह महामा य! यह कथन अंशत: ही स य है। कृित िकसी भी बीज के गुण-धम
िकसी शू य से नह उ प न करती, वह उसके माता-िपता के गुण-धम से ही अवशोिषत कर उस
बीज को उसके गुण-धम दान करती है। ... और यह म वंशानु म से चलता ही रहता है। तभी
तो महान ऋिष-कुल िनरं तर अपनी े ता अ ु ण रखने म सफल हो पाते ह। इ वाकु वंश जैसे
महान राजवंश अनवरत अपनी े ता अ ु ण रखने म सफल हो पाते ह।’’
‘‘जी गु देव!’’ जाबािल हँसकर बोले- ‘‘इसी कुल म महान असमंज भी हए थे िजनके
पापाचार से ु ध होकर अंतत: उनके िपता सगर ने उ ह रा य से बिह कृत कर िदया था।’’
गु देव भी हँस पड़े । िफर बोले- ‘‘उिचत उठाया आपने। कृित मा गुणधम का
िनधारण करती है, स पण ू जीवन हे तु आचारसंिहता बनाकर नह देती। साथ ही वह यह गुणधम
तुला से तोलकर भी नह दान करती, यन ू ािधक तो होते ही रहते ह। जहाँ तक असमंज का
ू गुण-धम तो उनके भी वही थे। इ वाकु वंश का मुख गुण है शौय। दंभ शौय का
है तो मल
सदैव सहचर होता है। असमंज म यह दंभ परपीड़न विृ बनकर अिभ य हआ।
‘‘देिखए! कृित गुणधम दान करती है। अब यह गुणधम या है- अनेक गुण -अवगुण
क समाकिलत सं ा। यि के इन अनेक गुण -अवगुण म सम त तो अिभ य हो नह पाते।
वातावरण, प रि थितयाँ, संगित, गु जन का िनदशन आिद िमलकर इनम से कुछ को उभार देते
ह और कुछ सुषु पड़े रह जाते ह। अपनी मयादाओं से आब आप महाराज दशरथ के ित कोई
अि य िट पणी नह कर सकते िकंतु म तो कर ही सकता हँ। देखा नह आपने! यदा-कदा उनके
शौय के साथ ही उनक भी ता भी प रलि त हो जाती है। उनक कामातुरता तो बहधा कट
होती ही रही है।’’
‘‘गु देव! आपके इस िन कष को ही म और िव तार दान करता हँ।’’
‘‘क िजए।’’
‘‘आपने कहा िक वातावरण, प रि थितयाँ, संगित, गु जन का िदशा-िनदशन इ यािद
िमलकर इनम से कुछ को उभार देते ह और कुछ सुषु पड़े रह जाते ह।’’
गु देव ने सहजभाव से िसर िहलाकर सहमित य क।
‘‘तब या रा य का दािय व नह बनता िक वह सम त जाजन के गुण का
अनुसंधान करे और येक यि के े गुण को कट होने का अवसर दान करे ?’’
‘‘अव य बनता है महामा य! िकंतु येक जाजन के गुण का अनुसंधान करना
संभव नह है। अत: रा य जहाँ िजस गुण क ाि क अिधक स भावना है वह उस गुण का
अनुसंधान करता है। यही कत य है, अ यथा रा य मा गुण के अनुसंधान क कायशाला बन
कर रह जाएगा, उन गुण को ाकट्य का अवसर नह दान कर पाएगा।’’
‘‘यह तो गु देव िबना यास के ही िन कष िनकालने जैसा हआ?’’
‘‘यह यास तो हमारे पवू ज कर चुके। तभी उ ह ने वण और िलंग के अनुसार दािय व-
िवभाजन िकया।’’
‘‘नह गु देव! अिश ता के िलए मा कर। िकंतु यह िन कष जाित-दंभ से अनु ािणत
है। यह स य िन कष कदािप नह है। साथ ही साथ यह रा और समाज के गु तर दािय व का
सरलीकरण भी है। ... और यही विृ शू और ि य के साथ िनरं तर अ याय को य दे रही
है।’’
‘‘हाँ महामा य! संभवत: इस यव था के िलए अिधक उ रदायी यह ‘दािय व का
सरलीकरण’ ही है। िकंतु यही स भव भी है। यही औिच यपण
ू भी है।’’
‘‘कैसे गु देव?’’
‘‘इस यव था म िशशु अव था से ही यि को अपना भिव य का काय े ात होता
है। वह उसी अव था से उसम नैपु य अिजत करना आरं भ कर देता है। युवा होने तक वह पणू
िनपुण हो चुकता है। यिद रा य येक जाजन के गुण-अवगुण का अनुसंधान करने लगेगा तो
गु कुल ान दान करने के थान पर मा गुण का अनुसंधान करते ही रह जाएँ गे। ान का
अनुसंधान करने का उनके पास अवकाश ही नह होगा।’’
‘‘गु देव! पुन: मा ाथ हँ। िकंतु मुझे तीत हो रहा है जैसे आप अकारण ही पवू ा ही
हो रहे ह। शू या ि य म िकतने ऐसे िमलगे जो अ ययन के ित आ ही ह। किठनता से दोन
उँ गिलय के पोर पर गणना करने भर के। स भव है इतने भी न िमल। मा इतन को ान देने
से गु कुल का सारा काय- यापार बािधत हो जाएगा?’’
‘‘महामा य! मा ाथ होने क आव यकता नह है। मनीिषय म सम त िवषय म
मतै य तो संभव ही नह है।’’ कहते हए गु देव िकंिचत् हँसे, िफर पुनः बोले- ‘‘जहाँ तक
गु कुल का काय- यापार बािधत होने का है तो आप कुछ यि य के अ ययन का ताव
कहाँ कर रहे ह? आप तो येक जाजन के गुण के अनुसंधान क आकां ा कर रहे ह जोिक
िनतांत असंभव है। देिखए! समाज क अनेक यव थाएँ रा य ारा िनयम बनाकर नह तय क
जात , उ ह वयं समाज शनै:-शनै: िवकिसत करता है। कालांतर म महा मा मनु जैसा कोई
यि उ ह िलिपब कर देता है। ऐसी यव थाओं को रा य ारा अनुशािसत कर पाना सहज
नह होता, उ ह पर परा ही अनुशािसत करती है, प र कृत-प रमािजत करती है। कभी-कभी
िवकृत भी करती है। ...’’
‘‘बहधा िवकृत ही करती है।’’ जाबािल बीच म ही बोल पड़े - ‘‘ य िक समाज धन और
बाहबल से स प न यि य का अनुसरण करता है और ये लोग पर पराओं को अपने िहत-
साधन का मा यम बना लेते ह। देिखये न, अथववेद प कहता है - अथेमां वाचं
क याणीमावदािन जने य:। राज या या वं शू ाय चायाय च वाय चारणाय।।’’
ा ण ( ) ि य (राज या:), शू (शू ाय), वै य (च अयाय), अपने अनुचर -
ि य -पािलत ( वाय), अितशू (च अरणाय)। मेरी क याणकारी वाणी का उपदेश सभी जन के
िलये करो।
‘‘पर तु यह वग ऐसे उदाहरण को कभी सं ान म नह लाता।’’
गु देव ने पुन: संि हा य िबखेरा तदुपरांत बोले- ‘‘महामा य! आप ान क प रिध
को संकुिचत य कर रहे ह? ान मा वेद, उपिनषद् अथवा ा ण थ ही तो नह ह। येक
कौशल या ान नह है? ा ण जो ान ा करता है वह तो मा ान क सीमाओं के
िव तार के िलए होता है। स य ान, िजससे जीवन- यापार संचािलत होता है वह तो वही है िजसे
ये शू अथवा ि याँ ा करती ह। का ान यिद संसार को नह होगा तो हमारे दैनि दन
जीवन- वाह पर कोई अ तर नह पड़े गा िकंतु यिद इन लोग का ान संसार से िवलु हो गया
तो जीवन का वाह भािवत ही नह होगा, अव हो जाएगा। आप भोजन के िलए पुन: कंद-
मलू का अ वेषण करते िफरगे। आपके ासाद, आपके श , आपके व , आपके िवलास क
सम त साम ी अप त हो जाएगी। आप पुन: आिदम अव था म पहँच जाएँ गे। इन शू और ि य
का ह तलाघव ही तो हमारे जीवन का आधार है। एक बार क पना कर देिखए उस समाज क
िजसम शू और ि य क अनुपि थित हो।’’
‘‘गु देव! स य कह रहे ह आप। िकंतु ऐसी ि थित म या यह हमारा ु वाथ नह है
जो हम इ ह ान से िवरत रख रहे ह?’’
‘‘िन संदेह है। िकंतु यह समाज क िववशता भी है। यिद यह वग ान क ाि का
उ ोग करने लगा तो सम त सांसा रक काय भािवत हो जाएँ गे।’’
‘‘तब िफर हम इस वग के ित असिह णु य ह? इसे सम त िवशेषािधकार से वंिचत
य रखा गया है? इसे हम इसका उिचत मानदेय य नह दान करते?’’
‘‘यहाँ भी महामा य आप आंिशक स य ही हण कर रहे ह। एक अथ म ा ण और
शू दोन क ि थित समान है। शू को यिद दंड से याग के िलए पे्र रत िकया जाता है तो
ा ण को स मान से। दोन ही अथ से वंिचत ह। मा ा ण का वह वग जो रा या य ा है,
ही तो स प नता का सुख भोगता है। उसम भी बहसं य ऋिषय क जीवनचया शू से भी
किठन है। मा इतना है िक वे वे छा से याग को अंगीकार कर इस जीवन को अपनाते ह।
उनके पास तो िभ ाटन के अित र उपाजन के िलए कोई संसाधन नह है। न कृिष है, न
वािण य है, न कोई िश प है और न ही रा य से कोई िनयिमत विृ । समय-समय पर ा दान ही
उनका िवलास है। वा तिवक िवलास या तो ि य के पास है अथवा वै य के। िकंतु उसके साथ
ही यह भी स य है िक सवािधक दु:ख भी उ ह ही है। दु:ख क जननी तो मह वाकां ा ही होती
है!’’
‘‘गु देव! आदश से पेट क ुधा शा त नह होती। ा ण को यिद आदश का पाठ
पढ़ाया गया तो उ ह बदले म भरपरू स मान भी िदया गया। अनेक िवशेषािधकार भी िदये गये।
उनके ित अपराध करने पर कठोरतम द ड का ावधान िकया गया। प रणाम व प अनेक
ा ण अपने धम से युत होकर िवलास क वीिथय म िवचरण करने लगे ह, अ याय करने लगे
ह और अ याय को य भी देने लगे ह। वेद से, दशन से उनका कोई स ब ध शेष नह बचा
है।’’
गु देव कुछ काल शांत बैठे रहे । िफर हाथ झाड़े और मु कुराते हए महामा य क आँख
म आँख डाल द । बोले-
‘‘महामा य! या आपको तीत होता है िक हमारी यह चचा िकसी िन कष को ा
कर सकेगी?’’
‘‘ य नह गु देव?’’
‘‘नह महामा य! य िप मेरी िवचारधारा आपके तथाकिथत सुिवधाभोगी ा ण क
भाँित आपक धुर िवरोधी नह है, तथािप मेरे सं कार क जड़ भी अ यंत गहरी ह। हम दोन ही
बुि -िवलास म पर पर समक ह। हम अनवरत तक-िवतक करते रह सकते ह। िकंतु तक से
िन कष नह िनकलते। िन कष के िलए सम वय क आव यकता होती है। तो य न सीधे
सम वय के माग से ही यास कर? आप प अपना म त य कह डािलए।’’
‘‘गु देव! हम मनु मिृ त को राजक य यवहार एवं लोक- यवहार क आचारसंिहता
मानते ह। समाज यव था के िलए सदैव मनु मिृ त से ही आधार हण करते ह। तब िफर
मनु मिृ त के ही कथन-
‘शू ो ा णतामेित ा ण िै त शू ताम्।
ि या जातमेव तुः िव ा ै या थैव च।।
को यवहार प म य नह अपनाते?’’
‘‘आप महामा य ह कोशल के।’’ गु देव हँसे ‘‘आप यास क िजए न!’’
‘‘ यासरत तो हँ गु देव!’’
‘‘करते रिहए। सह वष के अ यास ह ये, एक ज म के यास से नह छूटने वाले।
आपके उपरांत भी यिद िवधाता हम कोई न कोई जाबािल देता रहा तो िनि त ही एक न एक िदन
इस यव था म प रवतन होकर रहे गा।’’
‘‘मेरे यास ही पया नह ह। आपका भी सहयोग और आशीवाद दोन आव यक ह।’’
‘‘मेरा आशीवाद आपके साथ है य िक म जानता हँ िक आपके अ तमन म कोई
दुभावना नह है। कोई वाथ भी नह है। शेष रही सहयोग क बात, तो यह तो िवधाता ही जानता
है, दे पाऊँगा अथवा नह । म तो अब जीवन क अवसान-वेला म हँ। न जाने कब बुलावा आ जाए!
तथािप जब तक सि यता है शरीर म, यिद सहयोग न भी कर सका तो िवरोध भी नह क ँ गा।
और किहए?’’
‘‘बस, आपका आशीवाद और छ न सहयोग का ही सही आ ासन िमल गया, यही
पया आधार है जाबािल के िलए।’’
‘‘तो िफर अपनी इसी िश या से आर भ कर दीिजए।’’
‘‘गु देव! या आपको तीत होता है िक यह क या आ पाएगी अ ययन के िलए?’’
‘‘नह ।’’ गु देव ने प कहा।
‘‘मुझे भी यही तीत होता है।’’
‘‘चिलए, कह तो हमम मतै य है।’’ गु देव पुन: हँसे- ‘‘महामा य! आपके इस
अिभयान म आपके सबसे बड़े िवरोधी तो वे ही िस ह गे, िजनके िलए आप यासरत ह। उनके ये
सं कार इतने सु ढ़ ह िक वे उ ह छोड़ने को कदािप त पर नह ह गे। अथक यास करना होगा
आपको, आरं भ करने के िलए भी।
‘‘यह वैसे ही है जैसे हम राजा को वयं ई र का ितिनिध या उसका अंश वीकार कर
चुके ह। िकंतु जब तक राजा सुमाग का अनुयायी है, इस मा यता से लाभ ही है। स ा क िनबाध
सव चता के अभाव म शासन संभव भी नह है। िवके ीकृत स ा मा िववाद को ही ज म देती
है, मा ाचार को ही ज म देती है।’’
‘‘स य है गु देव!’’
‘‘तो बस आरं भ कर दीिजए। आप यिद मेरी मा यताओं को िम या िस कर सके तो
आपसे अिधक स नता मुझे होगी।’’
58. िशव से भट
रावण इ यािद नंदी को बाँध कर थोड़ी ही दूर बढ़े ह गे िक कमर म बाघ बर पहले, िसर
पर खे जटाजटू बाँधे, शरीर पर राख मले एक िवशालकाय यि व ने उनक राह रोक ली।
सात फुट से भी अिधक ही होगा उसका कद। ेत वण पर धस ू र वण क राख अ ुत स मोहक
भाव उ प न कर रही थी। िवशाल ने म भी जैसे चु बक सी शि थी। एक पल को तो जैसे
सब उन ने के जाल म उलझ कर रह गये। उस यि के पीछे एक अिनं सु दरी खड़ी थी।
पु पाहार से सुसि जत। पर उसक ओर देखने का समय नह था।
‘‘तो तुम लोग ने नंदी क बात नह मानी। यवधान उ प न करने आ ही गये।’’
‘‘लंके र का माग रोकने वाले को म ृ यु ही ा होती है। त पर हो जा तू भी म ृ यु का
वरण करने के िलये।’’ अब तक रावण परू ी तरह ोध म आ चुका था। सामने वाला यि िकतना
भी मजबतू य न हो वे छ: अब भी थे, एक के घायल होने के बाद भी। उसे आसानी से वश म कर
सकते थे।
‘‘अिधक अिभमान ठीक नह होता। लौट जाओ।’’ िशव अभी भी मु कुरा रहे थे।
‘‘यह उि तो तु हारे ऊपर भी लागू होती है। तु ह भी तो अपनी शि का अिभमान है
तभी तो हमारा माग रोक रहे हो।’’
‘‘ या चाहते हो?’’
‘‘यु ! लंकापित रावण तुमसे यु चाहता है।’’
‘‘मख
ू ता मत करो।’’
‘‘तुम रावण के बल को कम आँक रहे हो?’’
‘‘नह ! कुबेर को परा त करने वाला दुबल नह हो सकता। िक तु मुझे अपने बल का
भी ान है।’’
‘‘तो तु ह भी ात है कुबेर क पराजय! आओ।’’
‘‘चलो! तु हारा मन रख ही लेते ह। वार करो। चाहो तो सात िमल कर एक साथ भी
वार कर सकते हो।’’
‘‘नह और कोई नह ! अकेला रावण ही यु करे गा। अ यथा तुम कहोगे िक लंके र ने
मुझे अनीित से परा त िकया।’’
‘‘जैसी तु हारी इ छा!’’ िशव अब भी हँस रहे थे। पवू वत दोन पैर थोड़ा सा फै लाये हये।
दोन पैर पर समान भार डाले हये। उनका ि शल ू दूर एक िशला के साथ िटका था।
रावण ने अपनी कृपाण को हाथ म तौला। कुछ देर िशव क आँख म घरू कर उ ह
स मोिहत करने का यास िकया िक तु यास िवफल हो गया। उसे ऐसा लगा जैसे वह वयं
स मोिहत हो जायेगा।
‘‘अपना ि शल
ू उठा लो।’’ रावण बोला।
‘‘कोई आव यकता नह है।’’ िशव अब भी हँस रहे थे।
रावण ने भी अपनी कृपाण फक दी। वह दो-तीन बार पंज पर ह का सा उछला िफर
थोड़ा सा पीछे हटा, िफर अचानक आगे बढ़ते हये उसने उछल कर परू ी ताकत से िशव के सीने पर
वार कर िदया।
पर यह या? िशव जैसे ब चे को िखला रहे ह इसी भाँित उ ह ने हँसते हये रावण के पैर
हवा म एक ही हाथ से लपक िलये और उसे अपने िसर के चार ओर घुमाने लगे जैसे कोई ब चा
दूर फकने के िलये लंगड़ घुमा रहा हो।
‘‘बोलो तो तु हारे पु पक पर ही फक दँू तु ह।’’ लेिकन उ ह ने ऐसा िकया नह । उसे
धीरे से वह भिू म पर डाल िदया और उसके सीने पर एक पैर िटका िदया।
रावण को ऐसा लगा जैसे उसके सीने पर पहाड़ रख िदया गया हो। वह परू ी ताकत से
िच ला पड़ा। उसका दम घुटा जा रहा था।
बाक सबको जैसे साँप सँघू गया था। सब तर क मिू त के समान अचल खड़े हये थे।
िकसी म इतना बल भी हो सकता है, यह उनक क पना से परे था। वे सात अगर िमलकर भी
िशव पर टूटते तो भी शायद उ ह िहला नह पाते। उ ह परा त करना तो सपना देखने जैसा ही
था।
‘‘अिधक हो गया या?’’ िशव ने पैर का दबाव ह का कर िदया। िफर धीरे से बढ़ाया।
रावण िफर चीख उठा। सब िकंकत यिवमढ़ू से खड़े थे। सबसे पहले ह त को ही चेत हआ। वही
आगे बढ़ कर िशव के पैर म झुकता हआ बोला -
‘‘ भु मा कर। हम आपको जानते नह थे। अनजाने म हमसे अपराध हआ है। आप
महान ह। लंके र को मादान देकर हम पर कृपा कर।’’
‘‘जाओ दे दी मा। जहाँ जाना चाहते हो जा सकते हो। लेिकन हाँ नंदी के साथ या
िकया तुम लोग ने? उसके चेतना म रहते तो तुम लोग यहाँ तक आ ही नह सकते थे।’’
‘‘कुछ नह उसे बस अचेत कर बाँध कर वह छोड़ िदया था।’’
‘‘तो जाओ, पहले उसे बंधन मु कर स मान से यहाँ लेकर आओ।’’
‘‘जैसी आ ा भु क ! िक तु लंके र को भी मा कर। उसे भी छोड़ द।’’
‘‘कैसे छोड़ दँू उसे? उसने तो मुझसे यु माँगा था सो मने िदया। मने तो उसक ही इ छा
का मान रखा। मा तो उसने माँगी ही नह वह कैसे दे सकता हँ।’’
‘‘ भु लंके र भी मा माँग रहे ह। उ ह मा माँग सकने क अव था म तो आने द।
उ ह ास ले सकने क अव था म तो आने द।’’
‘‘ऐसा?’’ िशव आ य सा कट करते हये हँसे। एक ण अपने पैर के नीचे अधमरे से
पड़े रावण को िनहारा िजसक अब तक चीख भी ब द हो चुक थ , िफर धीरे से अपना पैर हटा
िलया।
ह त नंदी को लेने चला गया। शुक, सारण दोन ने बढ़ कर रावण को उठाया। उसक
पीठ सहलाई िजससे उसे धीरे -धीरे चैत य आया।
चैत य आते ही रावण िशव के पैर म पड़ गया।
‘‘ ािहमाम् ... ािहमाम्! रावण को अपनी शरण म ल भु! रावण आपको पहचान नह
पाया था। ु नाली म जब बरसात का थोड़ा सा जल िमल जाता है तो वह उफनने लगती है।
अपने को सागर स श समझने लगती है। मेरे साथ भी ऐसा ही हआ है। आपका उपकार है जो
आपने मुझे मेरी ु ता का ान करा िदया। मुझे मेरा थान िदखा िदया। अब ोध याग कर
मुझे अपने चरण म थान दान करने क कृपा कर।’’
‘‘उठो व स! मुझे ोध नह है पर अिश बालक को िश ता का पाठ तो पढ़ाना ही
पड़ता है। उसके साथ थोड़ा सा ोध का अिभनय तो करना ही पड़ता है। उठो!’’
‘‘नह भु! रावण का थान अब आपके चरण म ही है।’’
‘‘मेरे चरण म ही पड़े रहोगे तब तो मेरे िलये बंधन बन जाओगे और िशव पावती के
अित र दूसरा कोई ब धन पसंद नह करता। उठो ..’’ कहते हये िशव ने रावण को कंधे से
पकड़ कर उठा िलया। उसे अपने सामने खड़ा िकया िफर बोले - ‘‘ ा के वचन का म अस मान
नह कर सकता इसिलये तुम मेरे िलये अव य हो, िक तु िबना वध िकये भी तु ह मतृ तु य तो
बना ही सकता हँ। भिव य म िबना संयत बुि से िवचार िकये मदम हो िकसी से मत उलझना।
यिद स मान चाहते हो तो दूसर का स मान करना भी सीखो।’’
‘‘जैसी आ ा भु क । आपक यह सीख सदैव याद रखँग
ू ा।’’
िशव ने उसे यान से ऊपर से नीचे तक देखा, िफर पीछे घम
ू कर पावती से संबोिधत हये,
बोले-
‘‘देखो ि ये! या इसके ये आँसू स चे ह? तु ह या तीत होता है इसे सच म प ाताप
है? ब च के दय म माता ही सहजता से झाँक सकती है।’’
ओंठ पर म द ि मत िलये पावती आगे आय । रावण को सर से पैर तक िनहारा। िफर
बाक सब पर भी िनगाह डाली-
‘‘ भु! लगते तो स चे ही ह। मा कर ही दीिजये।’’
‘‘जाओ आन द करो! यश वी भव! दीघायु भव! तु हारे साहस से म स न हँ। तु हारे
थान पर कोई अ य होता तो वह मुझसे टकराने का साहस कदािप नह करता। तुमने िकया।’’
‘‘ भु ऐसे ही चला जाऊँ? जब तक आप रावण को शरण म थान नह दगे वह नह
जायेगा।’’
‘‘दे तो िदया थान, और कैसे दँू?’’ िशव के अधर पर मधुर मु कान न ृ य कर रही थी।
‘‘ भु अपनी कोई ऐसी िनशानी दीिजये िजससे मुझे सदैव तीत होता रहे िक आपका
वरद ह त मेरे शीश पर है।’’
इस समय तक ह त नंदी को लेकर आ गया था। दोन एक ओर हाथ जोड़े खड़े थे।
िशव नंदी से बोले -
‘‘नंदी जाओ गुफा से मेरा चं हास खड्ग ले आओ।’’
ू े-
नंदी चला गया तो िशव पावती क ओर घम
ू े ह गे, थक भी
‘‘देवी अब तो ये लोग शरणागत ह, कुछ साद तो दान करो इ ह। भख
गये ह गे।’’
पावती ने ताली बजायी तो पता नह कहाँ से एक अजीब सी सरू त वाला गण कट हआ।
खबू बड़ी-बड़ी आँख, असामा य प से िवकिसत नािसका, िबलकुल ेत वण, िसर पर उलझी
जटाओं के दो जड़ ू े से बाँध रखे थे जो दो स ग से लग रहे थे। िशव से कुछ ही कम ल बा, लेिकन
इतना पतला िक लगता था जैसे सरकंड से बना हो। व के नाम पर केवल एक लँगोटी। उसने
भी सारे शरीर पर गाढ़ी राख मली हई थी। आते ही उसने णाम िकया तो पावती ने कहा -
‘‘वीरभ ! अितिथय के िलये कुछ साद क यव था करो तो जरा।’’
‘‘माता! ढे र सारे फल उपल ध ह कैलाश पर, कौन-कौन से ले आऊँ।’’
‘‘अरे कोई भी ले आओ, जो तु ह अिधक िचकर ह !’’
59. मंगला क िचंता
गु देव विश और महामा य जाबािल क आशंका अकारण नह थी। दोन ही िचंतन
धान यि व के वामी थे और दोन का ही सामािजक च र पर िवशद िचंतन था।
अगली बार जब वेद घर पहँचा तो उसने िम के साथ समय यतीत नह िकया था। इस
बार उसके पास कुछ िवशेष था मंगला को बताने के िलये। अभी दोपहर नह हई थी। वह घर
पहँचते ही सीधा अंदर गया। मंगला घर के आँगन म ि थत कुएँ से पानी ख च रही थी। वेद ने सीधे
उसक चोटी म झटका मारते हये सच ू ना दी -
‘‘तेरे िलये तो शुभ समाचार है।’’
‘‘ या! गु जी ने वीकृित दे दी?’’ मंगला को लगा जैसे उसने ल
ै ो य क सबसे बड़ी
िनिध पा ली हो, र सी उसके हाथ से छूट गयी।’’
इससे पहले िक मटक सिहत र सी कुएँ के अ दर जाती वेद ने झपट कर उसे थाम
िलया और मंगला को िचढ़ाते हये बोला -
‘‘रही भ दू क भ दू! अभी मुझे ही उतरना पड़ता कुय म मटक r िनकालने के िलये। इसी
बुि से पढ़ाई करे गी।’’
मंगला िखलिखला कर हँस पड़ी िफर भाई के हाथ से र सी पकड़ कर वापस िघर म
फाँसते हये बोली - ‘‘आपने समाचार ही ऐसा िदया िक म सब कुछ भल
ू गयी।’’ मटक
ऊपर ख च कर कुएँ क जगत पर रखते हये वह आगे बोली- ‘‘ या कहा गु देव ने? म भी जा
सकँ ू गी गु कुल?’’
‘‘गु देव ने हाँ नह कही है।’’
‘‘िफर कैसा शुभ समाचार हआ?’’ मंगला बरबस आँसी सी हो आई।
‘‘गु देव ने तो अनुमित नह दी िक तु महामा य जाबािल ने अनुमित दे दी है। उ ह ने
तुझे अपने घर पर पढ़ने के िलये आमंि त िकया है। तेरी अ य सिखयाँ भी यिद चाह तो तेरे साथ
जा सकती ह।’’
‘‘सच भाई!’’ मंगला ने वेद का हाथ पकड़ कर अपने िसर पर रखते हये कहा - ‘‘खा
मेरी सौगंध!’’
‘‘तेरी सौगंध!’’
मंगला क साँस अचानक ऐसे चलने लगी थी जैसे बड़ी दूर से भाग कर आ रही हो।
चेहरा तमतमा गया था। इतना बड़ा समाचार था यह उसके िलये। उसने तो आशा ही छोड़ दी थी
िक उसे भी पढ़ने का अवसर िमल सकता है। हद से हद यही सोचा था िक गु देव यह बता दगे
िक िकस शा म ि य के िलये अ ययन का िनषेध िकया गया है।
उसे समझ ही नह आ रहा था िक या करे ।
उसक ि थित देखकर वेद भी हत भ रह गया था। वह थोड़ा सा घबरा गया। उसने भाभी
को आवाज लगाई -
‘‘अरे भाभी देखो तो इसे या हो गया?’’ माँ को बुलाना उसने उिचत नह समझा था। वे
अभी सारा घर िसर पर उठा लेत ।
भाभी को आवाज लगाने के साथ ही उसने वही मटक जो अभी मंगला ने कुएँ से ख ची
थी, उसके िसर पर उँ ड़ेल दी। ठं डा-ठं डा पानी िसर पर पड़ते ही मंगला एकदम िसहर उठी। उसने
अचकचा कर वेद के चेहरे क ओर देखा। िफर जैसे सामा य अव था म आ गई। उसने वेद के
दोन हाथ पकड़ कर झकझोरते हये कहा - ‘‘िकतनी शुभ सच ू ना दी भइया यह तो तुमने! आज
अपने हाथ से वािद हलुआ बनाकर िखलाऊँगी तु ह, ढे र सारा मेवा पड़ा हआ।’’
इसी बीच घबराई सी भाभी भी दौड़ती हई आ गयी। आँगन क ि थित देख कर वह भी
हत भ रह गयी। उसके मुख से हठात िनकला -
‘‘यह या क च कर दी सारे आँगन म। अभी कौन सी होिलका आ गयी है जो ... और
होली खेलनी ही थी तो मुझे बुला लेते, कह बहन के साथ भी होली खेली जाती है?’’ इसके साथ
ही वह हँसते-हँसते दोहरी हो गयी। बड़ी किठनाई से वह आगे बोल पाई -
‘‘वैसे हआ या था? तुम तो आँसे से चीख रहे थे और यहाँ तो हलुआ िखलाने क बात
हो रही है।’’
‘‘म तो सच म घबरा गया था भाभी। यह तो सं ाशू य सी हो गयी थी। ऐसे हाँफ रही थी
जैसे जड़
ू ी चढ़ आई हो। तभी मने इसके ऊपर पानी क मटक उलट दी।’’
‘‘ व थ तो है अब?’’
‘‘लि त नह हो रही आपको?
‘‘वह तो हो रही है। होली खेलने क ललक उठ आई होगी तभी अ व थता का नाट्य
वांग कर िलया होगा? अरे मुझे बुला िलया होता नंदरानी, अपने भइया को य क िदया। म तो
ऐसा प का रं ग डालती िक ज मा तर तक नह धुलता।’’
‘‘ या भाभी! आपको तो प रहास के िसवा कुछ सझ
ू ता ही नह कभी!’’ मंगला ने बुरा
नह माना था भाभी क बात का। इस समय तो वह सातव आसमान पर थी, बुरा मानने का
अवकाश ही नह था, बोली- ‘‘बात ही ऐसी स नता क है भाभी िक .... अब या कहँ ...
आपको भी िखला दँूगी हलुआ चलो।’’ मंगला क स नता हँसी बन कर उसके चेहरे से फूटी पड़
रही थी। इसे भाभी ने भी ल य िकया।
‘‘ब नो मेरी! सो तो म खाऊँगी ही, िक तु अब बात तो बताओ। या महाराज दशरथ ने
अपना सारा राजपाट तुझे ही स प िदया, जो तेरा रोम-रोम ऐसे नाच रहा है?’’
‘‘अरे नह भाभी, भैया कह रहे ह िक महामा य जाबािल ने मुझे पढ़ाने का ताव िदया
है। उ ह ने कहा है िक म अपनी सिखय को भी साथ ला सकती हँ, चलोगी आप मेरे साथ?’’
‘‘अरी ब नो! जरा धीरज रख। तेरी अ मा महामा य क भी महामा य ह। अभी उनसे तो
अनुमित ले लो पहले। िफर मुझे योता बाँटना।’’
मंगला के उ साह का गु बारा जैसे एकदम फूट गया। जैसे अंत र क ऊँचाई पर उड़ते
िकसी िवहंगम को अचानक याध ने अपने तीर से ब ध िदया हो। मंगला क उ मु स रता सी
मचलती हँसी क धारा को अचानक जैसे रे त ने लील िलया।
‘‘भाभी बड़ी अभागी हो तुम। मेरी र ी भर स नता सही नह गयी। कुछ काल मुझे ऐसे
ही हँस लेने देत तब याद िदलात अ मा क ।’’ िखलिखलाती मंगला ँ आसी हो आई थी।
‘‘मेरी ब नो! म कोई तेरी बैरी हँ? हम दोन ही िमलकर िछटक जु हाई सा नाचगी पर
अभी पहले अ मा को मनाने क जुगत सोचो। तुम भी वेद लाला।’’
‘‘मुझे तो कोई माग नह िदखता।’’ वेद बोला - ‘‘िपताजी को तो मनाया जा सकता है
िक तु अ मा ... असंभव। वे तो डुक रया पुराण क कुलािधपित ह। वे नह वीकृित देने वाली।’’
‘‘कर लो उपहास, यिद अ मा ने सुन िलया कह तो कह ठौर नह िमलेगा। डुक रया
पुराण क कुलािधपित!’’ भाभी कहती जा रही थी और मँुह पर धोती रखे हँसे जा रही थी।
वेद भाभी क बात पर इस ि थित म भी मु कुरा उठा। ‘‘आप भी पंिडता हो गय
भाभी।’’
‘‘बात तु हारी स ची है वेद लाला! ह तो अ मा ऐसी ही। अब सोचो उ ह कैसे मनायगे।
सबसे बड़ी बात यह िक कहे गा कौन उनसे?’’
‘‘म नह कहँगा।’’
‘‘तो या म कहँगी? मुझे तो वे पका कर खा जायगी और डकार भी नह लगी।’’
‘‘कह दो ना! मेरी यारी भाभी! इतना सहयोग नह करोगी अपनी ननद का?’’ कहती
हई मंगला भाभी से िलपट गयी।
‘‘सौ बार ना! मेरे कहने से तो अनुमित िमलती होगी तो नह िमलेगी। उ ह यही लगेगा
िक म तुझे उकसा रही हँ।’’ भाभी ने मंगला क ठोढ़ी पकड़ कर उसक आँख म झांकते हये
कहा।
‘‘तो म िफर कैसे कहँगी? मुझे या छोड़ दगी वे?’’
‘‘एक ही माग है, वेद लाला ही बात कर।’’
‘‘ या?’’ वेद िचटकते हये बोला जैसे पैर के नीचे साँप आ गया हो।
‘‘सुनो तो परू ी बात। अ मा से नह , बाबा से बात करो पहले। वे एक बार मान भी सकते
ह।’’
वेद ने बहत ना-नुकुर क । िक तु अंतत: यही तय हआ िक वेद बाबा से बात करे गा।
मंगला उसके पीछे -पीछे साथ म रहे गी। यिद बाबा ोिधत हये तो वेद सारा दोष मंगला पर मढ़कर
वयं को सुरि त कर लेगा। िफर जो भी हो मंगला जाने, मंगला भुगते।
60. वे दवती से भट
रावण उ लिसत भी था और यिथत भी। उसे िशव जैसे शि शाली यि क अनुकंपा
ू ता को कैसे भल
ा हो गयी थी पर वह अपनी मख ू सकता था। िशव अगर चाहते तो उसे भुनगे
क तरह मसल सकते थे पर उ ह ने उसे छोड़ िदया था। छोड़ ही नह िदया था अपना वा स य भी
दान िकया था। उसक सारी अव ा को मा कर िदया था। िकतना अ ुत शौय है उनम, शायद
ि लोक म दूसरा कोई नह होगा उनक समता करने वाला िफर भी िकतना शांत यि व है।
अपनी शि का कोई दंभ नह । अपने सव े होने का भान होते हये भी ा के वचन का
स मान करते ह। दूसरी ओर वह वयं है जो एक कुबेर पर िवजय ा करने भर से अपने को
सव े समझने लगा। दंभ के वशीभत ू हो उनसे लड़ने पहँच गया। खैर! जो हआ सो अ छा ही
हआ। अगर वह नंदी क ही बात मान कर लौट आता तो िशव क कृपा कैसे ा होती! सोचते-
सोचते वह हँस पड़ा।
िशव के यि व का रावण पर अ ुत भाव पड़ा था। कुबेर पर िवजय ा करने से
उसम जो आ म ाघा का भाव उ प न हो गया था वह िफलहाल एक कोने म दुबक गया था। वह
पुन: िनमल दय हो गया था। कैलाश म िशव का आशीवाद ा कर रावण ने इ छा य क थी
िक इन रमणीय घािटय का आन द िलया जाये। भला िकसी को या आपि हो सकती थी। अत:
अब वे कैलाश क तलहटी म िवचरण कर रहे थे। वहाँ क ाकृितक सुषमा का आनंद ले रहे थे।
सुमाली चाहता था िक अब लंका वापस लौटा जाय और आगे के अिभयान क परे खा बनाई
जाय। कुबेर पर िवजय तो मा भिू मका थी। वा तिवक कथानक तो देवे पर िवजय से िलखा
जाना था। वह िदन भी आयेगा जब रावण ल ै ो य िवजयी बनेगा। और उसका संर क सुमाली
ि लोक म सबसे स मािनत यि व होगा। िक तु रावण था िक िशव से िमलने के बाद से
अचानक िफर िवर का सा आचरण कर रहा था। उसे जैसे लंका वापस लौटने क कोई उ कंठा
ही नह थी।
अचानक एक िदन रावण बोला -
‘‘आप लोग पु पक लेकर लंका क ओर थान कर। म एक वष यह साधना क ँ गा।
िशव के साथ मने जो अभ ता क है उसका ायि त क ँ गा।’’
‘‘िक तु स ाट् ...’’ ह त ने िवरोध करना चाहा पर रावण ने उसक बात बीच म ही
काट दी।
‘‘कोई िक तु-पर तु नह मातुल। मने िन य कर िलया है।’’
‘‘िक तु स ाट् क अनुपि थित सा ा य के वा य के िलये िहतकर नह होती,
लंके र!’’ सुमाली ने कहा।
‘‘आप सब लोग ह तो। और िफर एक वष बाद म भी वापस लौट ही आऊँगा। संभव है
इसके पवू ही लौट आऊँ।’’
‘‘स ाट् वहाँ सारे लंकावािसय के साथ-साथ महारानी मंदोदरी भी आपक ती ा म
ह गी। िकतने िदन हये ह अभी आपके िववाह को।’’
‘‘तो या हआ मातामह! रावण कोई सं यास तो नह ले रहा, बस कुछ समय यहाँ
एका त म िबताना चाहता है। पुन: थोड़ा आ म-सा ा कार कर वयं को भिव य के िलये तैयार
करना चाहता है। और िफर मंदोदरी कोई आम ी नह है, वह लंका क सा ा ी है। उसे तो
इसका अ यास डालना ही पड़े गा।’’
‘‘और महाराज आपका पु , न हा सा मेघनाद! या उससे िमलने का मन नह होता
आपका?’’ ह त ने कहा।
‘‘ य दुखती रग छे ड़ रहे ह मातुल? उससे िमलने का तो बहत मन होता है, िक तु यह
भी आव यक है।’’
सबने बहत समझाया िक तु रावण नह माना। अंतत: हार कर सब लोग चले गये। ठीक
एक वष बाद उसे लेने आने का वायदा करके।
रावण ने एक बार पुन: तप वी का बाना धारण कर िलया था। ात: उठता, िन य कम
करता और यान थ होने का यास करने लगता। योग समािध का उसे बचपन से ही पया
अ यास था िक तु इस समय कभी-कभी उसका अ यास उसे धोखा भी दे जाता था। सही से यान
नह लग पाता था - कभी प नी म दोदरी का मुख सामने आ जाता तो कभी पु का ‘‘अब
िकतना बड़ा हो गया होगा मेघनाद?’’ कभी िशव के बारे म सोचने लगता ‘‘कैसा अ ुत
यि व है उनका।’’
जब भी भखू लगती तो जंगल म क द-मल ू क कमी नह थी। राि म िव ाम के िलये
कोई सम या नह थी एक िवशाल कुिटया जब सब लोग यहाँ थे तो उ ह ने बनाई थी, उसी म
िव ाम करता। जंगली पशु अभी तक कोई सामने नह आया था। आता भी तो उसका डर नह था।
भु िशव का िदया च हास उसके पास था। िन य ही िशव के समान ही अ ुत था उनका खड्ग
भी। सामा य पु ष तो उसे उठा भी नह सकता था। रावण उसके एक ही वार से िवशाल व ृ का
तना काट सकता था।
इस समय वह पणू त: िशवमय था। उसने िशवता डव तो म् क रचना कर डाली थी जो
युग तक उसे अमर करने के िलये पया था। और भी अनेक रचनाएँ अपने आप फूट रही थ । सब
उसे सहज ही कंठ थ होती जा रही थ । जैसे ही वह यान म बैठता तो जैसे ोति वनी फूट पड़ती।
उसके आ याि मक उ कष के सव े काल म से एक था यह काल। ऐसे ही दो माह कब गुजर
गये, उसे पता ही नह चला।
एक िदन ऐसी ही एक ल बी योग समािध के बाद जब उठा तो िनकल गया वन म मण
करने। िकतनी देर मण करता रहा उसे नह पता। शरीर वन म मण कर रहा था तो मन
िवचार क उलझी गिलय म िमत हो रहे थे। उसे पता ही नह था िक िकधर से आया था और
िकधर जा रहा है, बस चलता जा रहा था। िफर मन िकया तो एक व ृ के तने से टेक लगाकर बैठ
गया। अचानक एक भयंकर गजना से उसक तं ा टूटी। उस गजना के साथ ही िकसी नारी कंठ
क भयभीत चीख भी थी। वह च क कर सतक हो गया - यह तो िकसी िसंह क आवाज लगती है।
खैर िसंह तो संभािवत है इस िनजन वन म िक तु यह नारी कंठ क ची कार कैसी थी? इस
भयंकर िनजन ा त म िकसी नारी क उपि थित का या योजन?’’ वह उठ खड़ा हआ और
सतक भाव से चीख क िदशा म बढ़ने लगा। च हास तो जैसे उसके शरीर का भाग बन गया
था, वह इस समय भी उसके हाथ म था। थोड़ी ही दूर पर उसे िहरन का एक भयभीत झु ड भागता
िदखाई िदया। उस झु ड के पीछे एक बदहवास ी चली आ रही थी। थोड़ी दूर पर एक झाड़ी के
पीछे से झांकता एक िसंह का िसर िदखाई दे रहा था। िसंह ने िफर एक दहाड़ मारी। दहाड़ से जैसे
ी और भी घबरा गयी। उसने भागते-भागते ही पीछे देखने क कोिशश क । इसी य न म वह
लड़खड़ाई, उसे िकसी चीज क ठोकर लगी और वह मँुह के बल िगर पड़ी। िसंह झाड़ी से बाहर आ
गया था और ी क ओर झपटने को त पर था। रावण इस समय कुछ भी सोच नह रहा था।
उसक सारी अ यमन कता ितरोिहत हो गयी थी। वह जैसे िकसी अ य शि से संचािलत उस
ी क ओर दौड़ पड़ा।
इसी समय िसंह ने भी छलांग मार दी। दूसरी छलांग म िसंह ी के शरीर के ऊपर था
और उसी ण रावण भी उसके स मुख था। िसंह को यह अयािचत आग तुक पसंद नह आया।
उसके अगले दोन पैर ी के शरीर के दोन ओर थे। उसी अव था म वह रावण क ओर घरू ते हये
गुराने लगा। रावण भी ि थर खड़ा उसक आँख म आँख डाले था। दो कदम और बढ़ते ही िसंह
उसके च हास के वार क प रिध म होता। अचानक िसंह ने ी को छोड़कर रावण पर झप ा
मार िदया। िसंह का झपटना और रावण का च हास वाला हाथ घम ू ना एक साथ हआ। हाथ के
साथ-साथ रावण खुद भी १८० अंश तक घम ू गया। अगले ही पल िसंह धड़ से दो भाग म िवभ
हआ उसके पैर के पास भिू म पर पड़ा था। उसक रीढ़ क हड्डी तक कट कर अलग हो गयी थी।
उसक आँते बाहर आ गयी थ । उसके चार ओर र का कु ड बनने लगा था। रावण ने दो ल बी-
ल बी साँस ल िफर िसंह पर से अपनी िनगाह हटा ल और उस ी क ओर आकिषत हआ जो
शायद भय से अपनी चेतना खो बैठी थी।
रावण ी के पास घुटने के बल बैठ गया। उसने कंधे से पकड़ कर ी को सीधा
िकया। उसक आँख फटी हयी थ । रावण ने उसक गदन पर हाथ रख कर देखा - रग म हरकत
थी। मतलब अभी जीिवत थी, भय से उसके ाण पखे उड़ नह गये थे। ी क मग ृ छाल घुटन
से बहत ऊपर िखसक आई थी, लगभग सम त जंघाएँ अनाव ृ थी। रावण ने मग ृ छाल को
यवि थत िकया िफर िसर को झटक कर अपना यान उधर से हटाया। उसने ी को झकझोर
कर उसक चेतना वापस लाने का यास िकया पर कोई हरकत नह हई। या करे वह? कुछ पल
और झकझोरने के बाद अ तत: उसने ी को उठाकर कंधे पर डाल िलया और अपनी कुिटया
क ओर चलने का िन य िकया। पर िकधर थी उसक कुिटया? िवचार म खोया वह िकधर आ
गया था यह उसे पता ही नह था। िफर उसने चार ओर िनगाह दौड़ाई, शायद ी का ही िठकाना
िदखाई पड़ जाये। वह अिधक दूर से तो यहाँ तक नह आई होगी। थोड़े ही यास से उसे व ृ के
झुरमुट म िछपी एक झोपड़ी सी िदखाई पड़ गयी। वह उधर ही बढ़ चला। झोपड़ी अिधक दूर नह
थी। झोपड़ी या यह एक छोटा सा आ म था। झोपड़ी के बाहर भिू म साफ कर उसम पया
फुलवारी उगाई हई थी िजनक सुवास से रावण का मन स न हो गया। एक ओर एक गाय बँधी
हई थी। फुलवारी को पार कर उसने झोपड़ी म पड़ी एक चटाई पर ी को िलटा िदया। उसने चार
ओर िनगाह दौड़ाई, एक कोने म एक िम ी का घड़ा रखा था। उसके ऊपर एक ता पा रखा था।
िन य ही उसम जल होगा। रावण ने घड़े से उस ता पा म जल लाकर ी का मँुह धो िदया।
िफर एक पा जल और लाकर उसके िसर पर डाल िदया। इतने से ी म धीरे -धीरे चेतना के
िच ह जा त होने लगे। कुछ ही पल म उसने आँख खोल द । िफर एकदम से झपट कर उसने
उठने का यास िकया।
‘‘लेटी रह अभी।’’ रावण ने कहा।
ी ने रावण क ओर अच भे से देखा
‘‘म ... म... वह िसंह ...?
‘‘िसंह को मने मार िदया। आप पण
ू त: व थ ह बस भयभीत हो गयी ह।’’ वह िफर एक
पा भर लाया -
‘‘लीिजये जल पी लीिजये। शी व थ अनुभव करगी।’’
ी ने कोहनी के बल उठते हये पा ले िलया। जल पीकर वह अपे ाकृत व थ िदखाई
पड़ने लगी।
‘‘कदािचत् यह आपका ही आ म है?’’ रावण ने िकया।
‘‘हाँ।’’
‘‘िक तु आप एकाक यहाँ ... शेष सब कहाँ ह?’’
‘‘म यहाँ एकाक ही रहती हँ।’’
‘‘सच म? आ य है!’’
‘‘िक तु वह िसंह?’’ ी को िफर जैसे कुछ याद आ गया, उसक आँख म िफर से भय
तैर गया।
‘‘बताया तो, मने मार िदया उसे। यह देिखये उसका र अभी तक टपक रहा है
च हास से।’’ रावण ने च हास क ओर संकेत करते हये कहा।
ी ने उधर देखा। देख कर शायद उसे तस ली िमली, उसने एक ल बी सी साँस ली।
‘‘अब व थ तीत हो रहा है?’’ थोड़े से मौन के बाद रावण ने सहानुभिू त से
िकया।
ी ने धीरे से िसर िहला िदया और उठने का यास िकया। रावण ने उसे िफर रोकने का
यास िकया -
‘‘अभी थोड़ा और िव ाम क िजये। अभी आप पण
ू त: व थ नह हई ह।’’
‘‘िक तु यह अिश ता है। आप अितिथ ह। ऊपर से आपने मेरी ाण र ा क है।’’
‘‘सो तो क है।’’ रावण ह के से हँसा। ‘‘िक तु आप िसंह का भोजन बनने गई ं य थ ।
अगर म दैवयोग से वहाँ न होता तो आपक म ृ यु िनि त ही थी।’’
‘‘वह तो है। मने तो िगरते ही मान िलया था िक िसंह ने मुझे खा िलया है।’’ वह भी हँस
पड़ी। हँसी के साथ ही उसके चेहरे पर लाज क लाली भी दौड़ गयी।
‘‘अब म व थ हँ।’’ कहते हये इस बार वह रावण के रोकते रहने पर भी उठ बैठी। -
‘‘इससे पवू कभी िसंह िदखा नह इस े म। मने तो ज म ही इसी आ म म िलया है।’’ वह जैसे
वगत भाषण कर रही थी। िफर वह उठी और कुिटया के एक कोने म एक केले के प े से ढँ के
क द मल ू रखे थे, उ ह उठा लाई और रावण के सामने रख िदये।
‘‘लीिजये।’’ अब उसका यान गया िक रावण जमीन पर ऐसे ही एक घुटना िटकाये बैठा
है।
‘‘अरी मेरी मइया! आप भिू म पर ही बैठे ह। आप इधर बैिठये।’’ उसने चटाई खाली कर दी
और रावण से बैठने का आ ह िकया।
‘‘और आप?’’
‘‘आप अितिथ है। ाणर क ह। म भिू म पर बैठ जाऊँगी।’’
‘‘नह ! यह नह होगा।’’ रावण ने प इनकार कर िदया।
‘‘िबलकुल होगा। बैिठये।’’ अचानक ही ी के वर म अिधकार का पुट आ गया।
रावण उसक ओर देखने लगा िफर उठकर चटाई पर एक कोने म आ खड़ा हआ -
‘‘एक ही सरू त म, चटाई पया बड़ी है आप भी बैिठये।’’
‘‘चिलये, यह िकया जा सकता है।’’ वह भी चटाई के दूसरे कोने पर आ गई। ‘‘अब तो
बैिठये।’’
दोन बैठ गये तो रावण ने पछ
ू ा-
‘‘ या आपके एकाक इस भयानक वन म रहने का कारण जान सकता हँ?’’
‘‘िन य ही! िक तु अितिथ देव पहले अपना प रचय द िफर म अपना स पण
ू व ृ ांत
बताऊँगी।’’
‘‘म महिष पुल य का पौ , वै वण रावण।’’
‘‘ध य हई वेदवती आपके दशन ा कर। िपता ी अ सर महिष पुल य और महिष
िव वा क चचा करते थे।’’
‘‘वह तो ठीक िक तु अब आपक बारी है।’’
‘‘हाँ!’’ वह ी सुलभ म द हा य से हँस पड़ी। हँसते समय उसके गाल म पड़ने वाले
गड्ढ म जैसे रावण का मन डूब गया। अब रावण ने उसक ओर यान से देखा। ओह! अगर
रावण ने माता पावती के दशन न ा िकये होते तो यही सोचता िक इससे सु दर रचना तो सिृ
म हो ही नह सकती। िकस चीज का बखान करे , येक अंग जैसे पु पशर का वाण था। िवधाता
क अनुपम कृित, देखने वाले को मं मु ध कर लेने वाला। रावण भी िवमोिहत सा हो गया। शरीर
पर व के प म मग ृ छाला थी िजससे घुटन के नीचे के सुदीघ पैर और कदली तंभवत
सुिच कण जंघाओं का भी कुछ भाग अनाव ृ था। मग ृ छाला एक कंधे पर गाँठ के सहारे क थी।
दूसरा कंधा अनाव ृ था। पण ू िवकिसत उ नत व क ऊपरी गोलाइयाँ मग ृ छाला के ऊपर से
झाँकती हई आमंि त सा कर रही थ । कंध से िनकली कमलनाल के समान शोभायमान सुदीघ
नीरोम भुजाएँ जैसे रावण के मन को अपनी मु ी म कस लेने को त पर थ । चेहरा अि तीय, कोई
उपमा नह थी उसक ।
‘‘कहाँ खो गये वै वण!’’
‘‘ओह!’’ रावण च ककर सचेत हआ। ‘‘आपके लाव य ने चेतना को बंदी बना िलया था।
मा कर।’’
‘‘हाँ आगे से सचेत रह। मेरे िपता मुझे िव णु को समिपत कर चुके ह।’’
‘‘देवी यास क ँ गा िक तु मन तो बहधा बुि के आदेश क अवहे लना कर ही जाता
है।’’ रावण ने कहा ‘‘आप अपने िवषय म बता रही थ ।’’
‘‘सुनने वाला सुनने क ि थित म आये तब न बताऊँ!’’ वह हँसी िफर कहने लगी ‘‘मेरे
िपता बहृ पित के पु ऋिष कुश वज थे। माता-िपता यह इसी आ म म तप या करते थे। यह
मेरा ज म हआ। म बड़ी हई तो तमाम देव, गंधव आिद िपता से मेरा हाथ माँगने आने लगे िक तु
िपता ने कहा िक उनम से कोई भी मेरे यो य नह था। उ ह ने संक प िकया था िक मेरे यो य
सिृ म मा िव णु ह, वे मुझे उ ह को समिपत करगे। इससे कुिपत होकर अचानक एक िदन
दै य शु भ ने सोते हये िपता क ह या कर दी। माता भी उ ह के साथ िचता म जलकर सती हो
गय । म कहाँ जाती, आ म के िसवा म कुछ जानती ही नह थी। यह मने सारा बचपन िबताया,
यह िपता से िश ा ा क । मने िन य िकया िक मेरे िपता जो चाहते थे म वही माग अपनाऊँगी।
इसिलये म यह िव णु क तप या कर रही हँ। एक न एक िदन मेरा त अव य सफल होगा और
िव णु मेरा वरण करगे। बस इतनी सी है मेरी कहानी।’’
‘‘ या रावण आपका हाथ माँगने क ध ृ ता कर सकता है?’’
‘‘आपने मेरी ाणर ा क है िक तु मेरे िपता मुझे िव णु को समिपत कर चुके ह और म
भी मन से इसे वीकार कर चुक हँ। इस कार म िव णु क वा द ा हँ, म अ य िकसी पु ष के
िवषय म सोच भी नह सकती।’’
‘‘दुभा य रावण का। िफर भी रावण आस नह छोड़े गा। या पता भा य िकसी िदन उस
पर कृपालु हो जाये और आप अपना िनणय बदल द।’’
‘‘अितिथ! ऐसा नह होगा। मा आस रखना, आशा को पण ू करने हे तु कोई दु साहस
मत कर डालना अ यथा वेदवती इस शरीर को अि न को समिपत कर देगी।’’
रावण अवाक् रह गया। वह कुछ नह बोला। सामने के फल वैसे ही रखे थे। िकंिचत मौन
के बाद वेदवती पुन: बोली -
‘‘वै वण! आप अक मात कहाँ से कट हो गये थे मेरी ाण र ा के िलये? यहाँ पवू म
तो कभी आपके दशन हये नह !’’
रावण ने सं ेप म सारी कथा सुना दी। िफर थोड़ी देर मौन रहा। साँझ हो गयी थी, रावण
उठ खड़ा हआ और बोला -
‘‘तो अब अनुमित दीिजये, थोड़े ही काल म राि हो जायेगी।’’
‘‘आपका आ म कहाँ पर है?’’
‘‘ या क िजयेगा जान कर? रावण क आशा तो आप तोड़ ही चुक ह।’’
‘‘इस िनजन वन के हम दो ही िनवासी ह। एक-दूसरे का थान ात होना ही चािहये।
िफर मुझे िव ास है िक वै वण का च र इतना दुबल नह हो सकता जो मेरी इ छा के िबना
बलात संयोग का यास करे । सबसे अिधक मुझे अपने ऊपर िव ास है।’’
रावण ने एक दीघ िन ास ली िफर बोला -
‘‘अपनी कुिटया तो इस समय मुझे भी ात नह । अ यमन क सा पता नह कहाँ-कहाँ
भटकता हआ आपके पास पहँच गया था। शायद िनयित ही मुझे वहाँ ख च कर ले गयी थी। िक तु
म खोज लँग ू ा, आप िचंता न कर।’’ कहते हये रावण ने च हास उठाया। उसने उसे पकड़े -पकड़े
ही हाथ जोड़ िदये और आ म से बाहर िनकल आया।
थोड़े से यास से ही रावण अपने थान पर पहँच गया। रात हो गई थी िक तु परू ा िखला
हआ चं मा पया काश दे रहा था। रावण आ कर िबछावन पर लेट गया। उसका आज कुछ भी
खाने का मन नह हआ।
रात भर उसे न द नह आई।
61. नारद क ती ा
कैकेयी के ासाद म तीन महारािनयाँ उपि थत थ । दािसय को बाहर भेज िदया गया
था अत: पण
ू एका त था।
‘‘जीजी! नारद मुिन ने तो पलट कर दशन ही नह िदये।’’ कैकेयी बोली।
‘‘हाँ बहन! उ कंठा तो मुझे भी हो रही है। आगे क या योजना है जान!’’
‘‘अरे आप लोग यथ िचंितत ह। कुमार को बड़ा तो होने दीिजये। अभी पाँच बरस क
वय म ही या रावण से यु करने भेज देना चाहती ह?’’ यह सुिम ा थी, सबसे छोटी महारानी।
सुिम ा को महाराज सबसे कम समय दे पाते थे। इसका उसे कोई दु:ख नह था।
व तुत: इसक उसने कभी अपे ा ही नह क थी। उसके िवचार से तो दशरथ ने उसे
नह आयावत के एक चिचत सौ दय को अपने रिनवास म थान िदया था - िकसी व तु के
समान। और उसने भी यह स ब ध वीकार िकया था अपनी काशी क जा क ाणर ा के
िलये। वह तो सदैव मानती आयी थी िक कोशल म उसे उसक अपे ाओं से कह अिधक ा हआ
था। मा स तानहीनता दीघकाल तक कह कचोटती रही थी। ि थितयाँ बदली थ नारद के
आगमन के उपरा त। पु क लालसा म पुन: एक बार महाराज ने कुछ काल उसे भी अपने
साि न य का सुख िदया था। िवधाता ने उस पर एक बार पुन: कृपा क थी और उसे एक नह दो-
दो स तान का सुख ा हआ था। पु जब तक पालने म रहे , महाराज रािनय के
क म िनयिमत झांकते रहे िक तु पु के एक बार माताओं के क के बाहर िनकलने के साथ
ही महाराज का भी आना सीिमत हो गया। अब तो पु ही िपता के पास पहँच जाते थे और महाराज
का संसार पु के चतुिदक ही केि त होकर रह गया था।
वह िवदुषी और अ पभािषणी थी। साथ ही उसक िनरी णशि अ यंत ती ण थी -
पारदश । त य के सारे आवरण को बेध कर तल को पश करने क साम य थी उसक । यही
कारण था िक वह जब भी अपना मंत य कट करती थी, शेष दोन रािनयाँ उसे स पण
ू ग भीरता
और एका ता से हण करने का यास करती थ ।
‘‘सुिम े! िठठोली क बात नह है यह।’’ कैकेयी ने उसे ेम से िझड़का। ‘‘िकतना बड़ा
दािय व डाल गये ह मुिनवर हमारे ऊपर। पता नह कैसे या करना होगा।’’
‘‘छोिड़ये जीजी! मुिनवर उिचत समझगे तब वयं आयगे या संदेश भेजगे।’’
‘‘यह भी ठीक ही है।’’ कौश या ने कहा। ‘‘वैसे ये कुमार ह कहाँ? हम तीन तो यह ह
िफर ये चार कहाँ िकस ासाद म ह?’’ यह िवचार आते ही तीन उ कंिठत हो उठ । कैकेयी ने
फौरन ताली बजायी - ‘‘कोई है?’’
एक दासी तुर त आ कर उपि थत हो गयी - ‘‘आ ा महारानी जी!’’
‘‘अरे ये कुमार कहाँ ह? देर से नह िदखाई पड़ रहे ?’’
‘‘महारानी जी चार कुमार को देवालय से ही महाराज के साथ जाते देखा था। िकधर
गये यह नह ात।’’
‘‘महाराज साथ थे न?’’ कैकेयी ने पुन: सच
ू ना को प का करने के िलये पछ
ू ा।
‘‘जी महारानी जी!’’
‘‘जाओ अ छा’’
दासी चली गयी।
‘‘महारानी यिद अनुमित हो तो या मंथरा वेश कर सकती है?’’
‘‘अरे मंथरे ! आज बड़ी सल ज बन गयी हो, या बात है?’’
‘‘ या यह ार पर खड़े -खड़े बात करनी होगी?’’ मंथरा ने चुहल क ।
‘‘मुझे ात है तुम मानने वाली नह हो, आ जाओ अब अिभनय छोड़ कर।’’
मंथरा ने लंगड़ाते हये वेश िकया और तीन महारािनय को झुक कर अिभवादन करने
के बाद कौश या से बोली -
‘‘बड़ी महारानी जी बताइये या म अिभनय करती हँ? ये सदैव मुझ पर िम या
दोषारोपण करती रहती ह।’’
तीन रािनयाँ उसके अिभनय पर बुरी तरह हँस रही थ ।
‘‘मने कहा अब अिभनय छोड़ो और सीधी बात करो।’’ कैकेयी ने पेट दबा कर हँसते हये
कहा।
‘‘देिखये बड़ी महारानी जी!!’’ मंथरा ने िशकायती लहजे म िफर कौश या को बीच म
डाला।
‘‘अरी छोड़ भी अब! बहत हो गया।’’ कौश या ने भी बड़े जोर से हँसते हये कहा। -
‘‘बता या बात है?’’
‘‘महारानी! वह नारद मुिन ...’’
‘‘कहाँ ह नारद मुिन?’’ कैकेयी उसक बात काटते हये एकदम से हड़बड़ा कर बोली
और फौरन उठ कर बाहर क ओर लपक । शेष दोन रािनयाँ भी उठने का उप म करने लग ।
‘‘अरे आये नह ह नारद मुिन। म तो यही पछ
ू ना चाह रही थी िक कब आ रहे ह वे?’’
ू े तो इस भाँित कहा िक म समझी िक सचमुच आ ही गये मुिनराज।’’
‘‘ओह! तन
‘‘नह महारानी।’’
‘‘अरे हम लोग को तुझसे अिधक िचंता है उनके आगमन क । अभी हम तीन यही चचा
कर रही थ ।’’
‘‘कह भलू तो नह गये वे? हमारी जान यहाँ साँसत म डाल कर वयं इधर-उधर मण
कर रहे ह गे।’’
‘‘भलू तो नह सकते वे। अपने दािय व के ित सदैव सचेत रहते ह। लोक-क याण के
िलए एकमा वही तो ह जो सदैव उ ोगरत रहते ह। मा एक ही आदत बुरी है उनक , रह य
बनाये रखते ह। परू ी बात एक बार म नह बता सकते।’’
‘‘नह कैकेयी! उनक येक बात के पीछे कुछ कारण अव य होता है। भले ही हम
समझ नह आये, िक तु होता अव य है।’’ कौश या ने कहा।
‘‘चिलये आप कहती ह तो मानना ही पड़े गा।’’ हँसते हये कैकेयी ने इस कार कहा जैसे
उसे िव ास तो न हो िक तु जीजी कह रही ह इसिलये बात काट नह सकती। तीन िफर हँसने
लग ।
‘‘वैसे जीजी! चार कुमार बड़े चंचल हो गये ह।’’
‘‘सो तो है!’’ कौश या ने िवमु ध मन से कहा जैसे चार कुमार उसके सामने ही खड़े
हो और वह उनक बाल-सुलभ लीलाएँ देख कर आनंिदत हो रही हो।
‘‘यही तो आनंद है ब च का। सबका मन हर लेते ह।’’ कैकेयी बोली।
‘‘जीजी! थोड़े िदन म कुमार गु कुल चले जायगे!’’ अचानक सुिम ा बोल पड़ी- ‘‘तब
कैसे कटेगा समय?’’
तीन रािनयाँ गंभीर हो गय । जैसे कुमार अभी गु कुल चले गये ह और वे अकेली पड़
गयी ह ।
‘‘हाँ जायगे तो। जाना ही होगा! इस संकट से तो बचने का कोई उपाय ही नह है।
गु कुल नह जायगे तो यो य कैसे बनगे, समथ कैसे बनगे।’’ दीघ िनः ास के साथ कैकेयी
बोली।
‘‘हाँ! भिव य म यिद बड़ा उ रदािय व िनभाना है तो सभी कार से यो य तो बनना ही
होगा उ ह। तुम लोग अभी से मन को समझाने लगो िक बस अभी कुछ िदन ही वे तु हारे ह। जैसे
ही वे एक बार गु कुल गये तो समझ लेना वे सम मानवता के हो गये। कभी भा य से वे देखने
को िमल जाय तो उतने से ही मन को समझा लेना।’’ कौश या ने उसका समथन िकया।
‘‘हाँ जीजी! गु कुल िफर यह बह- तीि त रावण-नाश का अिभयान। और उसके बाद
भी रा य संचालन के जाने या- या दािय व रहगे। िफर िववाह भी तो ह गे उनके! उनके पास
समय ही कहाँ होगा माताओं के िलये!’’
कौश या के इस कथन म बाक दोन ने भी सहमित म िसर िहलाया। उ फु ल मन
अचानक इस िबछोह क आशंका से िवत हो उठा था जैसे िकसी आकाश म उ मु िवचरते
िकसी प ी पर िनदय याध ने बाण चला िदया हो।
62. सुमाली का ताड़का से स पक
कुबेर पर अिभयान से लौटते ही सुमाली ने अपनी योजनाओं क समी ा क । कुबेर
अिभयान म लंका को अपार स पदा ा हई थी। अब िकसी भी योजना को ि याि वत करने के
िलये धन क सम या नह थी। वैसे भी रावण के यास से लंका का मत ृ हो चुका यावसाियक
ढांचा पुन: खड़ा हो चुका था। लंका पुन: वैभव क ओर अ सर थी।
िव द्- वधन दि णावत म िनरं तर आगे बढ़ रहे थे। लगभग स पण ू दि णावत म
उनक पैठ हो चुक थी। िक तु अब उनका अिभयान पण ू त: गु नह रह गया था। देव ारा
थािपत ऋिषय के गु कुल से उनका कई बार टकराव हो चुका था। िक तु यिद आगे बढ़ना था
तो ऐसे टकराव का सामना तो करना ही था। िफर भी अभी तक दोन ही प दूसरे प क
रणनीित नह समझ पाये थे। दोन ही अभी इन टकराव को सामा य टकराव समझकर कोई
िवशेष मह व नह दे रहे थे।
उधर मुि क ने भी इन वष म अपना काय बखबू ी िकया था। यव ीप, बाली ीप आिद
सम त दि ण-पवू ीप म र सं कृित के समथक क सं या िनरं तर बढ़ रही थी। अब
भिू मका तैयार हो चुक थी बस इन े को अपने आिधप य म लेने क आव यकता थी।
प रि थितयाँ अनुकूल थ तो िवल ब क कोई आव यकता भी नह थी।
तेज वी अ यंत कमठ िस हआ था। नौसैिनक बेड़ा तैयार हो चुका था। सुमाली उसका
परी ण भी कर चुका था। जब इन लोग ने लंका को अिध हीत िकया था तब वहाँ सेना का
अभाव सा था िक तु इतने िदन म ही सुमाली ने एक िवशाल सै य का िनमाण करने म सफलता
ा कर ली थी। यह भले ही अभी िव क सव े सेना नह थी िक तु े सेना अव य बन
चुक थी। सैिनक के िश ण पर सुमाली वयं परू ा यान देता था। कुबेर से यु के काल के
अित र वह सदैव िन य सैिनक के म य अपना कुछ समय यतीत करता था। इससे सैिनक
के म य वह अ यंत लोकि य हो गया था। लंका के सैिनक मा वेतन के िलये लड़ने वाले नह
थे। सुमाली उनम देशभि का वार उभारने म सफल रहा था और र सं कृित का
जनरं जनकारी व प बड़े य न से उनके स मुख तुत कर रहा था। वह जानता था िक जा
जब तक मन और आ मा से राजा से नह जुड़ती तब तक रा य सु ढ़ नह हो पाता। ... और वह
अपने यास म सफल हो रहा था। जा के मिृ तपटल से कुबेर क छिव मश: धँुधली होकर
उसके थान पर रावण क छिव अ यंत ती ता से अंिकत हो रही थी।
‘‘रावण के लौटने से पवू ही इन दि ण-पवू ीप पर आिधप य कर लेना उिचत रहे गा।
उसके आने म अभी ाय: एक वष शेष है और वहाँ कोई ऐसा िवकट ितरोध भी नह है िजससे
िनपटने के िलये रावण जैसे िव के मध ू य यो ा क आव यकता हो।’’ सुमाली ने अपने क म
बैठे व मुि , िव रथ, तेज वी आिद को स बोिधत करते हये कहा।’’
‘‘आपका कहना स य है मातामह!’’ िव रथ बोला - ‘‘इनम से िकसी भी ीप म कोई
सु यवि थत स ा नह है। ाय: कबीले है जो सब आपस म लड़ते रहते ह। ाकृितक प से ही ये
लोग अतीव शि शाली ह। ये यिद एक स ा के अधीन आ जाय तो अ यंत साथक सै य का गठन
हो सकता है।’’
‘‘तो िफर िवलंब िकस बात का है िपत ृ य?’’ व मुि ने उतावली से कहा।
‘‘व मुि तु ह मने बार-बार चेताया है िक उतावली अ छी नह होती। अिधक त
भोजन मँुह भी जला देता है। भली-भाँित समझ कर तब कोई सलाह देना उिचत होता है।’’
‘‘वह काय तो आप कर ही चुके ह िपत ृ य। हमम से कोई भी आपसे अिधक साम यवान
या िचंतनशील नह है।’’
‘‘म िनणय ले चुका होता तो तु ह आदेिशत करता। तुम सब को तो मने सम त
प रि थितय का स यक िव े षण करने हे तु ही यहाँ आमि त िकया है। एक यि िकसी भी
िवषय का सांगोपांग िव े षण नह कर सकता िजतना कई यि िमलकर कर सकते ह। एक
क ि से यिद कुछ छूटता है तो दूसरा उसे देख सकता है।’’
‘‘िपत ृ य! िव े षण तो िव रथ ने कर िलया। ीप क ओर गये समहू इनके सीधे
स पक म ह। इनसे अिधक सटीक िव े षण और कौन कर सकता है? और इ ह ने कारा तर से
अपनी सलाह दे ही दी है िक इ ह एक स ा के अधीन लाये जाने क आव यकता है। यह स ा
लंका के अित र और कौन हो सकती है?’’
सुमाली मंद-मंद मु कुराता रहा। सीख रहा है व मुि उसने सोचा। कट म बोला -
‘‘तो िफर सबक स मित यही है िक इन ीप को ह तगत कर िलया जाय?’’
‘‘जी!’’

कोई किठनाई नह आई इस अिभयान म सुमाली को। एक माह से भी कम समय म उन


सारे ीप म लंका का शासन थािपत हो गया था।

इस अिभयान से िनव ृ होकर उसने दूसरी ओर सोचना आरं भ िकया।


दूसरी ओर िव द्- वधन भी काफ आगे बढ़ गये थे। उ ह के मा यम से उसे ताड़का
क सच ू ना ा हयी थी। ‘‘ताड़का को सहजता से र सं कृित से जोड़ा जा सकता है।’’ उसने
िवचार िकया - ‘‘अ यंत उपयोगी िस होगी वह।’’
िव द्- वधन तक सच
ू ना भेज दी गयी िक ताड़का से भट करने सुमाली वयं आयेगा।
अगले माह िविजत ीप म शासन क उिचत यव था बनाकर सुमाली पु पक पर
सवार होकर सुंदरवन क ओर उड़ चला। व मुि और िव रथ के अित र इस बार उसके साथ
िव पा भी था। िनधा रत थल पर िव द् और वधन भी इनसे िमल गये।

‘‘ वािमनी से िनवेदन करो िक लंके र रावण के मातामह सुमाली उनके दशन करना
चाहते ह।’’ सुमाली ने ताड़का के ासाद के ार पर उपि थत ारपाल से कहा- ‘‘ या वे ासाद
म उपि थत ह?’’
रावण और सुमाली के नाम ने ारपाल को भािवत िकया था। िफर माण व प
पु पक उनके सामने खड़ा हआ था। ‘‘हाँ उपि थत ह। अभी सच
ू ना करता हँ।’’ कहते
हये एक ारपाल अिवलंब भीतर थान कर गया।
शेष ने स मान से इन सबके बैठने क यव था क ।
सच
ू ना करने गये ारपाल को लौटने म अिधक समय नह लगा।
‘‘आइये महामिहम! वािमनी ती ा कर रही ह।’’
‘‘मलद और का ष क वािमनी को सुमाली का णाम!’’ ताड़का के स मुख पहँचते
ही सुमाली ने िवन ता ओढ़ते हये कहा। ताड़का इ ह अपने क के ार पर ही िमल गयी थी।
‘‘ थम मुझे णाम करने दीिजये महामिहम! आपके दशन ा कर ताड़का ध य हो
गयी। उसने तो व न म भी नह सोचा था िक वयं महामिहम उसके कुटीर को ध य करगे।’’
ताड़का ने िविधवत णाम िनवेिदत करते हये सबको आसन दान िकया। तभी मारीच
और सुबाह भी आ गये। उनके चेहरे उ ेजना से लाल हो रहे थे। सच म कुबेर पर िवजय के साथ ही
रावण का थान आय और देवेतर जाितय के िलये नायक का हो गया था। दोन ने परू ी ा से
सुमाली के चरण म झुक कर णाम िनवेिदत िकया।
औपचा रक प रचय के उपरांत ताड़का ने कुछ चर को जलपान क यव था करने हे तु
आदेिशत िकया।
‘‘अरे इसक या आव यकता थी?’’ सुमाली ने औपचा रकता का िनवाह िकया।
ू हई या महामिहम या आप भी आय क भाँित शु ता-अशु ता के
‘‘हमसे कोई भल
यामोह से त ह।’’ ताड़का ने हँसते हये कहा।
‘‘दोन ही बात नह है। िक तु ऐसा य कहा आपने?’’ सुमाली ने आ य से कहा।
िक तु अगले ही पल यंजना उसक समझ म आ गयी - ‘‘लाओ भाई, अव य लाओ। िक तु मा
जलपान नह भोजन का समय हो रहा है, भोजन के िलये ही कह दीिजये।’’
ताड़का और उसके दोन पु स न हो उठे ।
‘‘महामिहम आदेश क िजये कैसे क िकया?’’
‘‘देवी! ये आय अपने िसवा अ य सबको अ यंत हीन समझते ह। ये सम त आयतर
सं कृितय से घण ृ ा करते ह जबिक हमारी सं कृितयाँ इस आय सं कृित से े तर ही ह।’’
‘‘स य कह रहे ह आप। ये र और दै य का उ लेख इस कार करते ह मान वे कोई
अ यंत कु प, घिृ णत िहं पशु ह । आय भल ू जाते ह िक उनके अित र अ य भी उ ह के
समान मानव ह। मुझे ही देिखये, म भी कभी अ यंत सुंदरी युवती थी िक तु आज ... मुझे वयं
अपनी सरू त देखते भय लगता है। यह िकसने िकया? उसी आय अग य ने ही न! इससे तो
अ छा उसने मुझे भी मेरे पित के साथ मार डाला होता - ऐसा नारक य जीवन तो नह जीना
पड़ता।’’
‘‘धैय रख देवी। इसीिलये तो लंके र र सं कृित के उ नयन का अिभयान चला रहे ह
तािक इन आय को दपण िदखाया जा सके।’’
‘‘िजन देव क ये पज ू ा करते ह, िज ह ये ह य समिपत करते ह उनके आचरण कभी
देखे ह?’’ मारीच ने वातालाप म ह त ेप करते हये कहा - ‘‘इ के आचरण देख कर तो िघन
आती है।’’
‘‘िचंता मत करो व स! कुबेर का मानभंग हो ही गया, अब शी ही इ क भी बारी
आने ही वाली है। लंके र यासरत ह। सच पछ ू ो तो आपके पास म इसी उ े य से आया हँ। म
चाहता हँ िक आप भी हमारी र सं कृित म दीि त होकर हम मान दान कर।’’
‘‘अरे महामिहम! आपने तो मेरे मन क बात कह दी।’’ ताड़का उ साह से बोली - ‘‘ये
आय तो हम वैसे ही रा स कह कर बुलाते ह। इस कार हम तो िबना दीि त हये ही र ह। हम
सब सहष आपके साथ सि मिलत होने को त पर ह। य मारीच?’’
‘‘जी माता! जब और जैसे महामिहम आदेश कर, हम सब त पर ह।’’
‘‘तो िनि त हआ। आप द डक वन के इस िसरे पर आज से लंके र क ितिनिध के
प म शासन क िजये। आज ही म आपको र सं कृित म दीि त करता हँ।’’
इसी बीच भोजन क सच
ू ना आ गयी।
भोजनोपरांत उसी िदन सायंकाल सुमाली ने ताड़का के नेत ृ व म उसके सम त
अनुयाियय को र सं कृित म दीि त कर िदया।
उसके हाथ एक और बड़ी सफलता लग चुक थी। उसे लग रहा था िक अब सम त
द डकार य े उसके भाव े म आ गया है। अग य का चुपचाप चल रहा मह र काय अभी
उसक िनगाह म नह आया था। अग य क ओट म चल रहे देव के गु कुल उसक िनगाह म
आये तो थे िक तु उनका वा तिवक उ े य अभी वह नह समझ सका था। इसी कार उसक
सफलताएँ भी अभी देव क िनगाह म नह आई ं थ । दोन ही प अभी यही समझ रहे थे िक बाजी
उनके हाथ है। दूसरा प अभी इस े के मह व को आँक नह पाया है और इसिलए अभी इस
े म सि य नह हआ है।
63. रावण क आसि
रावण क दुिनया जैसे वेदवती के ही चार ओर केि त होकर रह गयी थी। अपनी सारी
संक पशि समेट कर वह अपने िचंतन को दूसरी ओर मोड़ने का यास करता, पर िचंतन था
िक घमू -िफर कर वह आकर अटक जाता था। वेदवती क छिव उसक आँख म रह-रह कर क ध
जाती थी। मन छटपटाने लगता था। बड़े यास से वह कई िदन तक अपने को रोके रहा पर िफर
एक िदन वह िदमाग को भटकाने क नीयत से जंगल म िनकल गया। पता नह कब तक घम ू ता
रहा।
‘‘अरे वै वण! इतने िदन तक दशन ही नह िदये!’’ वेदवती के उलाहने भरे वर से
उसक तं ा भंग हई। उसे लगा सपना देख रहा है। उसने सर झटका। वह तो वेदवती से अपने मन
को दूर ले जाने के यास म िनकला था।
‘‘ या बात है? कुछ अनमने से लग रहे ह?’’ पुन: वेदवती के वर ने उसे परू ी तरह
चैत य िकया। नह यह सपना नह था। कोई अ य शि जैसे अनजाने ही उसे वेदवती के आ म
तक ख च लाई थी।
आज उसने सफेद धोती लपेट रखी थी। हाँ लपेट ही रखी थी। कायदे से पहनना िसखाने
वाला शायद कोई िमला ही नह था। इस अनगढ़ ढं ग से पहनी हई धोती ने उसके यौवन को और
भी घातक बना िदया था। रावण सुध-बुध भल
ू कर उसे एकटक िनहारता रह गया।
‘‘ या देख रहे ह? मुझे कुछ िभ न सी तीित हो रही है।
‘‘अ.... अ... आपक धोती ... असुिवधाजनक है कुछ?’’ आज जीवन म पहली बार रावण
हकलाया था।
‘‘नह ! ऐसा भी नह है, िक तु ऐसा भाव मने पवू म कभी अनुभव नह िकया।’’ वेदवती
के कपोल आर हो गये थे, िफर भी उसने कह िदया।
‘‘ओह! म तो आशंिकत हो गया था िक आपको असुिवधा हई। या क ँ इस प रधान म
आप इतनी सु दर लग रही ह िक ने अिनयंि त हो गये थे।’’
‘‘अरे यह! कभी-कभी पास क िकसी ब ती से कुछ कृपालु ि याँ आ जाती ह। उ ह
लगता है िक म उ ह आशीवाद दे दँूगी तो उनके क दूर हो जायगे। बेचारी भोली ि याँ! वे ही
आ म क कुछ यव थाएँ भी कर जाती ह। अभी परस भी दो मिहलाएँ आ गयी थ । मुझे तो यान
नह वे ही बता रही थ िक िपछली बार जब वे आई थ तो मझ ृ े मग
ृ छाला लपेटे देख गयी थ , वही
ू िविध से ऐसी ही धोती पहने थ , बड़ी सुंदर लग रही थ । मुझे
ये दे गयी ह। वे लोग बड़े सु िचपण
तो बाँधनी ही नह आती। उ ह क छिव याद करके पहनने का यास िकया है। बुरी लग रही है
न?’’
‘‘नह बहत सु दर लग रही है।’’ रावण बुरी कैसे कह देता इस धोती ने तो उसक
देहयि क मादकता को अनजाने ही और उभार िदया था। वह झीनी सी धोती वेदवती के उभार
को छुपाने से अिधक उभार रही थी।
‘‘उस िदन के बाद से आप कहाँ िवलु हो गये थे? म तो िन य आपक ती ा करती
थी।’’
‘‘िवलु कहाँ हो जाऊँगा, आ म पर ही था।’’
‘‘िफर आये य नह इधर?’’
‘‘आपने ही तो विजत कर िदया था।’’
‘‘मने?’’ वेदवती के वर म अपार आ य था ‘‘मने कब विजत िकया आपको? य
झठ
ू ा लांछन लगा रहे ह।’’
‘‘आप ही ने तो कहा था िक आप िव णु क वा द ा ह।’’
‘‘तो? ... इसम वजना कहाँ है?’’
‘‘छोिड़ये इसे। बताइये आपक साधना कैसी चल रही है?’’
‘‘नह चल पा रही!’’ वेदवती ने कुछ अनमने से वर म कहा।
‘‘नह चल पा रही, ता पय?’’
‘‘ यान लगाने का यास करती हँ तो यान म आप आ जाते ह। एक बात बताऊँ? मुझे
अब आपके िवषय म सब कुछ ात है। ा जी का वरदान, िफर आपका मंदोदरी से िववाह। िफर
कुबेर पर िवजय। िफर िशव से भट .... सब कुछ।’’ वेदवती ने िकसी ब ची क सी सरलता से
अपनी उपलि ध िगनाई।
‘‘क् ... क् ... कैसे? िकसने बताया आपको???’’ रावण के वर म असीम आ य था।
‘‘और कौन बतायेगा? कहा तो मने यान म आप आ जाते थे। और कौन रखा है यहाँ
बताने को?’’
‘‘आप यान म इतनी पारं गत ह? लगता तो नह ?’’ रावण को अभी भी आ य था।
‘‘लो! पैदा हई तब से और कर ही या रही हँ। पर पता नह य जैसे यान म मने
आपको घेर िलया वैसे िव णु को नह घेर पाती। पहले तो झलक िमलती भी थी, उस िदन के बाद
से तो वह भी नह िमलती।’’ वेदवती के वर म िफर उदासी सी आ गयी थी।
‘‘ऐसा य ???’’
‘‘नह पता!’’
‘‘तो अब या करगी?’’
‘‘ यास करती रहँगी और या कर सकती हँ।’’
‘‘अ छा एक बात बताइये, अगर िव णु नह आते तो आप या करगी?’’
‘‘आयगे कैसे नह ? उ ह आना ही पड़े गा।’’
‘‘मान लीिजये नह आते!!’’
‘‘कहा न मुझे नह पता। कोई और बात नह है आपके पास। आपके आने से िकतनी
स नता हई थी मुझे और आप वही दुखती रग छे ड़ने लगे।’’
‘‘अ छा चिलये नह करता। तो या बात क ँ ?’’
‘‘कुछ भी। आपसे वाता करना मुझे अ छा लगता है।’’
‘‘सच!’’ रावण को जैसे मँुहमांगी मुराद िमल गई हो। जैसे अ धे को आँख िमल गई ह ,
उसका चेहरा िखल उठा वह आगे बोला - ‘‘मुझे तो लगा था िक मेरे आने से आपका यान भंग
होगा, इसीिलये बचता था। म िन य आऊँगा अब।’’
‘‘यह हई ना िम वाली बात। आप बहत अ छे ह।’’
‘‘आप भी बहत अ छी ह। बहत सु दर। सच म मने ऐसा सौ दय पहले नह देखा।’’
‘‘अब लगे चापलस
ू ी करने।’’
‘‘म चापलस ू ी नह कर रहा। रावण इ के समान ल पट नह है िक तु आपसे िमलने
के बाद से मेरा मन अपने वश म नह है। बहत चाहता हँ यान को दूसरी ओर लगाऊँ िक तु नह
लगता। ित ण आपक छिव मेरी आँख म न ृ य करती रहती है।’’
‘‘स य?’’ वेदवती ने उ साह से कहा।
रावण को भय था िक इस बात का वेदवती बुरा न मान जाये पर वह तो चहक उठी थी,
िखल उठी थी। रावण उसके च र का िव े षण करने का यास कर रहा था पर उलझ कर रह
जाता था। उसने उ र िदया -
‘‘उतना ही स य िजतना सय
ू और च ह।’’
‘‘तब तो हम दोन एक ही पथ के पिथक ह। मुझे यान म आप िदखाई देते ह और
आपको म। कहते हये वेदवती हँस पड़ी। उ मु हँसी। जैसे रावण क सम त चेतना को रमिझम
ने सराबोर कर िदया हो। वह भी हँस पड़ा।
64. श बक

अयो या म धोिबय के मुिखया धमदास के िपता का ा था। ा कम तो पुरोिहत को
करवाना था िक तु भोज के िलये वह नाक रगड़ कर जाबािल से भी िनवेदन कर गया था।
जाबािल ने वीकार भी कर िलया था। शू क ब ती म उ र क ओर धोिबय के घर थे। अ छी
खासी ब ती थी - करीब ढाई सौ घर क । घर क औरत ितिदन सायंकाल ि ज के घर म
जाकर व ले आती थ और दूसरे िदन पु ष उ ह सरयू तट पर बने धोबी घाट पर धो लाते थे।
बदले म उ ह जीवन यापन के िलये पया साम ी िमल जाती थी। यह ेता युग था। इसम
किलयुग के म यकाल या उ र म यकाल क भाँित शू को अपमानजनक ि थित म नह जीना
पड़ता था। ि ज को उनक छाया से कोई परहे ज नह था। यहाँ तक िक अितव ृ शू के अनुभव
और वयस को उिचत स मान िमलता था। माग म कोई व ृ शू आ रहा होता था तो युवा और ौढ़
ि ज उसे स मान से माग दे देते थे। बंधन था तो मा इतना ही िक उ ह अ ययन क अनुमित
नह थी। उ ह भिू म पर अिधकार नह था। उ ह खेती करने क अनुमित नह थी। सेवा ही उनक
जीिवका थी।
क कारी ि थित जो थी वह थी िक याय यव था उनके ित अ यंत कठोर थी। िकसी
ि ज के ित, िवशेष कर िकसी ा ण के ित अपराध करने पर कठोर दंड का ावधान था। यह
दंड म ृ युदंड तक हो सकता था - छोटे-छोटे अपराध तक म भी। दूसरी ओर ि ज ारा उनके ित
अपराध िकये जाने पर अपे ाकृत अ यंत यन ू दंड थे। ा ण को तो दंड से िवशेष छूट थी।
म ृ युदंड तो उ ह िदया ही नह जा सकता था।
धमदास धोिबय का मुिखया था। राज-प रवार म उसक िजजमानी थी। राजा, पुरोिहत,
मं ी आिद प रवार के व धोने का काम उसके प रवार का था। इन सम ृ प रवार से ितकर
भी अ छा िमलता था। कुल िमला कर बहत अ छे से जीवन यापन हो रहा था।
भोज के िदन यथासमय आमा य जाबािल आ गये। उनके साथ दो ा ण और थे। पहले
धमदास और उसके पीछे परू े प रवार ने तीन ा ण को सा ांग दंडवत कर उ ह णाम िकया।
जाबािल सिहत सबने स न मन से उ ह आशीष िदया तदुपरांत एक सोलह वष य िकशोर ने
उनके पैर धोकर उ ह आम क लकड़ी क बनी िबलकुल नई पीिठकाओं पर आसन हण करने
का िनवेदन िकया। गोबर से िलपे बड़े से क चे आँगन म, रसोई के बाहर ही इन लोग के बैठने
क यव था थी। तीन के सामने वैसी ही नई िक तु थोड़ी सी ऊँची पीिठकाएँ और रखी थ । उन
पर केले के प पर उ ह सु वादु भोजन परोसा गया। भोजन य िप सादा था िक तु िन:संदेह
वािद था जो घर क गहृ िणय क कुशलता का प रचायक था। भोजनोपरांत यथाशि दि णा
समिपत कर पुन: सबने उ ह सा ांग दंडवत िकया।
जाबािल इस परू े आयोजन म उस िकशोर के आचरण से अ यंत भािवत हये थे। उसक
िश ता, उसका बात करने का मधुर ढं ग, उसके सलीके से पहले हये व छ व सबने उ ह
उसक ओर आकिषत िकया था।
भोजनोपरांत वे शेष दोन ा ण से बोले -
‘‘आप लोग चिलये मुझे धमदास से कुछ वाता करनी है।’’
जब वे लोग चले गये तो जाबािल हाथ जोड़े खड़े धमदास क ओर मुड़े और उस िकशोर
क ओर इंिगत कर पछ
ू ा-
‘‘यह तु हारा पु है धम?’’
‘‘जी अ नदाता। यह बड़ा है, इसके बाद दो पु और तीन पुि याँ और ह।’’
‘‘ या करता है यह?’’
‘‘धोबी का बेटा या करे गा मािलक, वही पा रवा रक काय करता है।’’
‘‘इसे पढ़ने य नह भेजते?’’
‘‘मािलक शू के बेटे के भा य म कह पढ़ाई होती है! कौन पढ़ायेगा इसे?’’
‘‘इसक इ छा है पढ़ने क ?’’
‘‘जी गु देव! बहत इ छा है।’’ यह आवाज शंबक
ू क थी।
‘‘यह तो मािलक ाय: िकसी न िकसी गु कुल के बाहर घम ू ता रहता है। चारी जब
बाहर िनकलते ह तो उनके पीछे लग लेता है। उनक हर कार सेवा करता है और उनसे बातचीत
का यास करता है।’’ धमदास ने पु क बात को और आगे बढ़ाते हये कहा।
‘‘तो िफर भेजो इसे मेरे पास - इसी एकादशी को इसका उपनयन कर इसे म दीि त
क ँ गा।’’ जाबािल ने धमदास से कहा िफर शंबक ू क ओर मुड़ कर बोले - ‘‘आओगे?’’
ू पुन: उनके पैर मे पड़ गया था ‘‘ य नह आऊँगा! आप
‘‘जी गु देव अव य!’’ शंबक
तो भगवान ह हमारे , भगवान का आदेश भला टाला जा सकता है!’’
धमदास क आँख से आँसू बहने लगे थे। उसे समझ म नह आ रहा था या कहे । यह तो
ऐसी ि थित उ प न हो गयी थी िजसक उसने सपने म भी क पना नह क थी। आँसुओ ं को
प छता भरे कंठ से वह बोल पड़ा -
‘‘कोई सम या तो नह उठ खड़ी होगी अ नदाता?’’ वयं आमा य जाबािल के
आ ासन के बाद भी आशंकाएँ उसे घेरे थ , आयावत म शू का अ ययन अक पनीय बात थी।
जाबािल जो पैर म पड़े शंबक
ू को उठा रहे थे उसक इस बात पर हँस पड़े । बोले -
‘‘सम या? सम या कैसे उठे गी धम? उठे गी भी तो वह जाबािल क सम या होगी न िक
तु हारी या शंबक
ू क ।’’
‘‘अ नदाता यह तो नादान है। यह अभी िवधान के बारे म कुछ नह जानता। पर आप तो
जानते ही ह गे। शू का िव ा पढ़ना तो बड़ा अपराध िगना जायेगा। कह इसक जान पर ही न
बन आये!’’
‘‘तु ह या लगता है धम, या गु देव विश और जाबािल क सहमित के िबना भी
कोई दंड िनधारण हो सकता है?’’ उसी भाँित हँसते हए जाबािल बोले - ‘‘तुम िचंता मत करो। म
वयं तो आमं ण दे ही रहा हँ और िष विश भी कूप मंडूक नह ह। एकादशी को ात: ही
इसे मेरे पास भेज देना। वह मेरे गु कुल म ही िवधान से इसका य ोपवीत सं कार स प न
होगा।’’
‘‘जी आमा य।’’ हाथ जोड़े धमदास ने कृत ता से गीली आँख क कोर को प छते हये
कहा।
जाबािल चले गये िक तु उ ह पता नह मालम
ू था या नह , िक वे िकतनी बड़ी कलह
का कारण छोड़े जा रहे ह धमदास के घर म। उनके जाते ही शंबक ू क माता िबगड़ उठी। उसे
शंबकू का गु कुल जाना िकसी क मत पर वीकाय नह था। उसे असं य आशंकाएँ थ ा ण
क ओर से। महामा य कहाँ-कहाँ उनके साथ खड़े रहगे। ा ण और अ य ि ज का िवरोध हर
जगह झेलना पड़े गा उ ह। और िफर समाज! उसका या ख होगा? कह समाज ने उ ह
बिह कृत कर िदया तो कैसे िजयगे वे? या करगे? या उसम भी महामा य उ ह ाण िदला
पायगे? िफर महाराज या ि कोण अपनायगे इस िवषय म। सबसे बड़े दंडािधकारी तो वे ही ह।
वे तो परं पराओं के भ ह। वे कैसे अनुमित दगे?
यह बहस, यह झगड़ा एकादशी को शंबक ू के थान तक चलता ही रहा। यिद शंबक ू
क माता अिडग थी अपनी बात पर तो अिडग धमदास और शंबक ू भी थे। उनके कुल म पहली बार
िकसी को वेदा ययन का सौभा य ा हो रहा था। यिद शंबक ू वेद पढ़ गया तो उनक सारी
पीिढ़याँ तर जायगी। कैसे छोड़ द ऐसे अवसर को। दुबारा या ऐसा अवसर िमलेगा भी? और िफर
यिद शंबकू ने मना कर िदया तो महामा य या सोचगे? वे इसे अपना अपमान नह समझगे?
ू के
िबरादरी म इस मसले पर दो गुट हो गये थे। कुछ लोग थे जो धमदास और शंबक
ि कोण से सहमत थे िक तु अिधकतर तो िवरोध म ही थे। मिहलाएँ तो जैसे सारी क सारी ही
िवरोध म थ । अ छी बात एक ही थी िक पंच अिधकांश धमदास से सहमत थे इसिलये िबरादरी से
बाहर िकये जाने का भय नह था।
जब शंबक ू क माँ िकसी भी तरह नह मानी तो धमदास ने अपने पु ष व का योग
िकया। उसने दशमी क रात को उसक खबू ढं ग से पज ू ा कर दी। सारे ब चे सहमे-सहमे, आँसू
बहाते खड़े देखते रहे । िकसी क िह मत नह पड़ी बीच म कुछ बोलने क । पड़ोिसय को इससे
कुछ भी लेना-देना नह था। धमदास के यहाँ भले ही यह कमका ड बहत कम ही होता था िक तु
शेष शू के यहाँ तो यह आव यक िन य कम ही था। आज भी तो है।
इस कमका ड ने एक आ यजनक काय िकया। पड़ोस क तमाम ि याँ बड़ी स न
थ । धमदास क औरत भी िपट गयी इससे उ ह अपार संतोष िमला था। मरद, मरद होता है।
उसक बात तो माननी ही होती है। एक बार गलत हो तब भी माननी पड़ती है िफर ये तो सही ही
कह रहा है। वे अ यािशत प से अचानक शंबकू के गु कुल जाने क प धर बन गय ।
ू अपने िव ाजन के अिभयान पर िनकल ही पड़ा।
अंतत: एकादशी को शंबक
65. वे दवती से णय
‘‘आप यह कृपाण सदैव अपने साथ ही रखते ह, कभी वयं से पथ
ृ क नह करते?’’
वेदवती ने िठठोली करते हये रावण से िकया।
‘‘यह कोई साधारण कृपाण नह है। यह च हास है, वयं भु िशव ने मुझे दान क है।
इसके साथ िठठोली रावण को स नह है।’’
ू ा म सजा कर य नह रख देते?’’
‘‘ऐसा या? तो इसे कुिटया म पज
ू क नह है। उसके िशव
‘‘च हास रावण का आभषू ण है। रावण आय क तरह मिू त पज
मिू तय म नह , उसके दय म िनवास करते ह और उनका साद सदैव उसके साथ रहता है।’’
रावण और वेदवती के म य का आरं िभक संकोच समा हो गया था। दोन अब खुल कर
बात करते थे, हँसी-मजाक करते थे। इस िनजन वन- ांत म वे दोन ही एक दूसरे के सखा थे,
सहचर थे। दोन के कठोर साधना- त िशिथल हो गये थे। एक दूसरे के साथ समय िबताना दोन
को अ छा लगने लगा था। आज भी ऐसे ही दोन आपस म िठठोली करते हये वन म िवचर रहे थे।
‘‘अ छा उस िदन आप कह रहे थे िक इसके एक ही वार से आप परू ा व ृ िगरा सकते
ह?’’
‘‘ठीक ही कह रहा था।’’
‘‘तो िगरा कर िदखाइये!’’ वेदवती ने चुनौती के वर म कहा।
‘‘बताइये कौन सा?’’
‘‘वो ... वो वाला, जो सबसे ऊँचा िदखाई दे रहा है।’’ वेदवती ने एक खबू ऊँचे साल के
व ृ क ओर संकेत करते हये कहा।
रावण चं हास को थाम कर ढ़ कदम से धीरे -धीरे उस व ृ क ओर बढ़ा। उसने यान
से व ृ को देखा। च हास य िप बहत ल बी थी, एक सामा य ी क ऊँचाई से कुछ ही कम,
िफर भी व ृ का घेरा उससे पया बड़ा था। रावण ने ि से ही उसे नापा िफर झुकाव क िवपरीत
िदशा म जाकर खड़ा हो गया।
‘‘दूर हट जाओ या आकर इधर मेरे पीछे खड़ी हो जाओ।’’
‘‘म पया दूर हँ।’’ वेदवती को िव ास नह था िक इतने िवशाल घेरे वाला व ृ कृपाण
के एक वार से िगराया जा सकता था। िफर भी वह थोड़ा और पीछे हट गई।
रावण ने चं हास उठाई और जोर से हंकारी भरते हये दाय से बाय भरपरू वार कर िदया।
चं हास तने के आर-पार हो गयी थी िक तु िफर भी तने का व ृ के झुकाव क तरफ का लगभग
एक हाथ िह सा जो चं हास के वार क प रिध से बाहर रहा था िहलगा रह गया था।
‘‘नह िगरा!’’ वेदवती ने िवजेता के से वर म ताली बजायी।
रावण को वेदवती क आवाज ही सुनाई दी। उसके और वेदवती के बीच म वह िवशाल
व ृ था। उसने चरमराते हये व ृ म पीछे से एक भरपरू ध का िदया तो व ृ झटके से नीचे झुकता
चला गया। चड़-चड़ क आवाज सुन कर वेदवती च क और झुकते हये व ृ को देख कर पीछे
भागी िक तु व ृ क ऊँचाई उसके अनुमान से काफ अिधक थी। खड़ा हआ व ृ उतना ल बा
समझ नह आ रहा था िजतना िक वा तव म वह था। वेदवती परू ी शि से भागने के बाद भी
िकसी दै याकार ग ण के डैन सी फै ली उसक ल बी-ल बी डािलय क चपेट म आ ही गयी।
एक जोर क चीख सुनकर रावण उसक ओर भागा। वेदवती व ृ क डािलय -प के
नीचे दबी था। रावण को लगा जैसे उसक साँस क जा रही हो। पास जाकर जब उसने देखा िक
गनीमत हई थी, वेदवती िकसी मोटी डाल क चपेट म नह आई थी। िफर भी प और पतली-
पतली टहिनय ने उसके परू े शरीर पर चाबुक क तरह वार िकया था। पर पैर म अिधक चोट
होनी चािहये। एक अपे ाकृत मोटी टहनी दोन पैर पर से होते हये उसे दाबे थी। रावण ने एक
हाथ से डािलय को उचका िदया और उसे बाहर िनकलने का इशारा िकया। वेदवती ने कमर से
उचक कर हथेिलयाँ जमीन पर िटकाई ं और जोर लगाकर िनकलने का यास िकया पर इस
यास म ही उसक चीख िनकल गई। रावण ने अपने दूसरे हाथ से झुककर उसक भुजा पकड़ी
और पकड़ कर बाहर ख च िलया। वेदवती क चीख क उसने परवाह नह क ।
अब वेदवती व ृ से बाहर थी।
‘‘तु ह मरने क िवशेष शी ता है या?’’ दोन म से िकसी ने यान नह िदया िक आज
पहली बार रावण के मुख से उसके िलये अनायास तुम िनकल गया है।
वेदवती ने आँसुओ ं से भीगा मुख उठाकर कातर ि से उसे िनहारा। रावण का सारा
गु सा उसके आँसुओ ं के साथ बह गया। इस बार वह कोमलता से बोला -
‘‘कभी शेर के आगे कूद जाती हो, कभी िगरते व ृ के नीचे लेट जाती हो भला या है
यह? मने कहा था तुमसे िक दूर हट जाओ।’’ उसके वर म झुंझलाहट अभी भी थी - ‘‘देखो िफर
से िकतनी चोट लगा ली।’’
‘‘म तो दूर ही थी िक तु व ृ ही िगरते-िगरते दूना ल बा हो गया।’’
ू सा जवाब सुनकर रावण के मुख पर अनायास ि मत खेल गई। उसने
उसका मासम
हाथ बढ़ा कर उसक हथेली थाम ली और ख चते हये बोला-
‘‘उठने का यास करो।’’
वेदवती क िफर चीख िनकल गई। वह रावण के जोर से खड़ी तो हो गयी िक तु खड़े
होते ही दोन हाथो से रावण क कमर को कस कर पकड़ कर हाँफने लगी - ‘‘नह ! म नह
खड़ी हो पाऊँगी।
रावण ने अपनी भुजाओं क पकड़ उसक पीठ पर कसते हए उसे थाम िलया। िफर बोला
-
‘‘देखा िशव के च हास का अपमान करने का प रणाम!’’
वेदवती कुछ नह बोली बस आँसुओ ं से भीगी आँख उठाकर रावण क आँख म झाँका।
वह कस कर रावण से िलपटी हाँफ रही थी। िलपटी या, वह एक तरह से रावण क भुजाओं म
ू रही थी। उसके पैर ढीले पड़े था, शायद वे अपना वजन नह सहन कर पा रहे थे।
झल
‘‘ वयं को ि थर करो’’ कहते हये रावण ने अपनी पकड़ जैसे ही जरा सी ढीली क वह
िफर कराह कर नीचे िफसलने लगी।
‘‘मुझे िबठाल दो, म खड़ी नह हो पाऊँगी।’’
रावण ने उसे आिह ता से नीचे बैठा िदया। िफर उसने उसके पैर को एिड़य के पास से
पकड़ कर एक-एक कर ऊपर नीचे िकया। हर बार वह तड़प कर कराह उठी पर पैर मुड़ रहे थे,
सीधे भी हो रहे थे।
‘‘कोई गंभीर बात नह है। कोई टूट-फूट नह है। बस ऊपरी चोट है, आसानी से ठीक हो
जायेगी।’’ रावण ने उसे िदलासा दी।
‘‘िक तु अपार क हो रहा है। अभी तुमने जब पैर िहलाये तो जैसे जान ही िनकल गयी
थी।’’
वेदवती आज भी वही धोती पहने थी जो इस सब म अ त- य त हो गयी थी। कई जगह
से फट गयी थी। पैर मोड़ने के म म वह घुटन के बहत ऊपर आधी जंघाओं तक आ गई थी। उस
धोती के पीछे से उसका वार क भाँित उफनता यौवन झाँक रहा था। वेदवती को संभवत: पीड़ा
के चलते अपने व क अ त- य त ि थित का भान नह था पर उनसे बाहर िनकलने को
छटपटाता उसका यौवन रावण के संयम क जैसे परी ा ले रहा था। उसने अपनी िनगाह उसके
चेहरे पर केि त कर दी।
कुछ पल वह यँ ू ही सा वना क बात करता रहा। वेदवती क साँस क गित धीरे -धीरे
सामा य हो चली थी।
‘‘चलो अब उठने का यास करो।’’
‘‘नह ! म नह उठ पाऊँगी।’’ वेदवती जैसे उठने के नाम से ही भयभीत हो गई थी, उसने
िसर िहलाते हये कहा।
‘‘उठना तो पड़े गा ही। उठो ...’’ उसने खड़े होते हये अपना हाथ बढ़ा िदया। वेदवती ने
हाथ पकड़ िलया तो रावण ने हाथ ख च कर उसे खड़ा कर िदया। वह िफर जोर से कराह उठी।
रावण ने उसे बगल से पकड़ कर थाम िलया िफर धीरे से उसका वजन उसी के पैर पर छोड़ते हये
कहा - ‘‘पैर पर भार सहने का यास करो।’’
वेदवती इस बार कराहती हई अपने पैर पर िटक गयी। उसने अपने ओंठ कराह रोकने
के िलये दाँत से दबाये हये थे। उसका िसर वयमेव रावण के व पर िटक गया और वह जोर-
जोर से साँस लेने लगी।
रावण ने अपना बायाँ हाथ बगल से िनकाला और सामने से दूसरी तरफ लाते हये उसक
बाय भुजा थाम ली। वह दूसरी ओर झुकने लगी, वैसे ही रावण ने अपनी दाय भुजा उसक पीठ
पर से ले जाते हये उसक दािहनी भुजा पकड़ कर उसे थाम िलया - ‘‘चलो, अब पैर बढ़ाने का
यास करो।’’
‘‘मुझसे नह होगा।’’ उसने िफर कराहते हये कहा।
‘‘तो या यह बैठे रहने का इरादा है?’’
‘‘जब नह चला जाता तो या क ँ ?’’ इस बार वेदवती भी झुंझला पड़ी।
‘‘अरे यास तो करो, कुिटया तक कैसे चलोगी?’’
‘‘उस िदन कैसे ले गये थे?’’
‘‘उस िदन तो तुम अचेत थ !’’
‘‘आज भी हई जाती हँ।’’ इस पीड़ा म भी उसने शोखी से कहा और आँख बंद कर अपने
शरीर को ढीला छोड़ िदया।
रावण हँस पड़ा। उसने एक ण सोचा िफर धीरे से उसे गोद म उठा िलया। उसे एक हाथ
से ही साध कर धीरे से दूसरे हाथ से चं हास थाम िलया और कदम बढ़ा िदये।
कुछ कदम बढ़ते ही वेदवती ने आँख खोल द । बोली -
‘‘मुझे बचपन म जब चोट लग जाती थी तो िपता भी ऐसे ही गोद म उठा लेते थे और ...’’
कहते हये उसने अपनी बाह रावण के गले म िपरो द - ‘‘म ऐसे उनके गले म बाह डाल देती थी।’’
‘‘तो म तु हारा िपता हँ?’’ रावण ने तुनकते हये कहा।
‘‘मुझे नह पता िक तुम मेरे या हो? िक तु मुझे तुम अ छे लगते हो।’’
‘‘िफर या करते थे तु हारे िपता? रा ते म कह पटक देते ह गे िक चल अब अपने पैर
पर!’’
‘‘पटक य देते भला?’’ ितरछी नजर से रावण को देखते हये वेदवती बोली - ‘‘वे तो
यार से मेरे कपोल पर चु बन ले लेते थे।’’
‘‘ऐसे?’’ रावण ने उसके कपोल पर चु बन लेते हये कहा।
‘‘िबलकुल ऐसे ही!’’
‘‘एक ही ओर लेते थे?’’
‘‘नह !’’ कहते हये उसने दूसरा गाल भी सामने कर िदया।
रावण ने दूसरे गाल का भी एक गाढ़ चु बन ले िलया।
कुछ देर वह रावण क आँख म आँख डाले अजीब सी िनगाह से देखती रही िफर
अचानक उसने अपनी बाह रावण के गले म कस द और अपने ओंठ रावण के ओंठ पर रख िदये।
कुिटया पर पहँच कर रावण ने उसे िलटा कर खोज कर बिू टय का लेप बना कर उसके
पैर पर लगा िदया। जब वह कुछ सामा य हई तो रावण लौटने को उ त हआ तो वेदवती ने उसे
रोक िलया।
और िफर उस रात कृित का पु ष से िमलन हो ही गया।
66. मंगला का पलायन
उसी िदन से िजस िदन वेद ने िपता से मंगला के महामा य जाबािल के यहाँ पढ़ने जाने
क बात क थी घर म उथल-पुथल मची हई थी। जैसा अपेि त था वैसा ही हआ था, बि क उससे
भी बुरा। उसी ण से अ मा ने मंगला के हाथ पीले करने क अिनवायता क घोषणा कर दी थी।
मंगला, वेद और उनक भाभी तीन ही डाँट-फटकार क आशा कर रहे थे। उनके दय म कह
एक आशा क िकरण भी साँस ले रही थी िक शायद बाबा अ मा को भी राजी कर ही ल। बाबा
ोिधत तो हये थे िक तु यह समझाये जाने पर िक यह ताव वयं महामा य ने िदया है, वे
थोड़ा नरम पड़ गये थे। उ ह ने अ मा से बात करने का आ ासन दे िदया था।
उ ह ने अपने कहे अनुसार ही अ मा से बात भी क थी और बात करते ही अ मा फट
पड़ी थ । उ ह ने उसी ण घोषणा कर दी थी िक बस अब और नह , त काल कोई वर खोज कर
मंगला का िववाह कर िदया जाये। यह घोषणा मा घोषणा ही नह थी, आदेश था बाबा और मंगला
के सबसे बड़े भाई के िलये। भाई का मत भी इस िवषय म पण ू त: अ मा के ही साथ था। मंगला
बहत रोई थी िक तु अ मा ने एक नह सुनी थी। वे बस इतना ही बोली थ ‘‘िनणय हो गया सो हो
गया। हम अपने कुल क नाक नह कटवानी। कुल के आचार क र ा का भार हमारी सास हम
स प कर गयी ह और हम अपने ाण रहते इसे आँच नह आने दे सकत ।’’ इतना कहकर वे
मंगला को रोता छोड़ कर चली गय थ और उस िदन देर रात तक काम के नाम पर बतन को
पटकने क आवाज आती रही थ । मंगला ने िवरोध म रात म खाना भी नह खाया था िक तु
इससे अ मा के िनणय पर कोई असर नह पड़ा था। िपता ने रात म पछ ू ा भी था िक मंगला ने
खाना खा िलया अथवा नह िक तु अ मा ने यह कहते हये िक पड़ी रहने दो, एक जन ू भखू ी
रहने से मर नह जायेगी, बात का पटा ेप कर िदया था। दूसरे िदन भाभी ने समझा-बुझा कर उसे
खाना िखला िदया था।
उस िदन के बाद से अ मा चाहे कुछ भी भलू जाय िन य भोर बाबा को वर तलाशने क
याद िदलाना और रात म तलाश िकतनी कामयाब हई इसक जानकारी लेना नह भल ू ती थ ।
बाबा को मंगला से सहानुभिू त थी, वे िकसी न िकसी बहाने बात को टालने का य न करते थे
नतीजे म रोज दोन क झड़प होती थी और बाबा चुपचाप खाना खाकर बाहर िनकल जाते थे।
भाई क मंगला से कोई दु मनी नह थी िक तु उसे प रवार क नाक अिधक यारी थी।
एक माह बीतते न बीतते उसने मंगला क बात एक जगह प क भी कर दी थी। लड़के का नाम
ल मीदास था। उसका िपता अ यंत स प न विणक था। ल मीदास को िमलाकर वे छ: भाई थे
िजनम ल मी का म तीसरा था। बड़े दोन भाइय के िववाह हो चुके थे। उनक औलाद भी थ ।
जैसे ही भाई ने घर पर सच ू ाघर म जाकर भोलेनाथ के चरण म
ू ना दी थी, अ मा ने पज
िसर रख िदया था और फौरन साद चढ़ाकर परू े मोह ले म बाँटा था। मंगला ने साद लौटा िदया
था। उसने भी प घोषणा कर दी थी िक उसे यह िववाह नह करना। केवल बाबा और भाभी ने
ही उसक ओर देखा था, कुछ समझाना भी चाहा था िक तु अ मा के भय से दोन को ही साहस
नह हआ था। अ मा ने तो उसक बात पर कान ही नह िदया था।
इस बात को आज तीसरा िदन था। मंगला ने उस िदन से खाना भी नह खाया था। बस
पानी पी रही थी। भाभी िकसी तरह िदन म एक दो-बार उसे मना कर, अपनी सौगंध देकर, खुद
भी न खाने का वा ता देकर, दूध िपलाने म अव य सफल हो गई थी िक तु उसे समझ नह आ
रहा था िक यह कब तक चल पायेगा। अ मा तो जैसे मंगला क श ु ही हो गयी थ । वे अकेले म
तो छुप कर रो लेती थ िक तु सामने उनका चेहरा हर समय तना ही रहता था। ऐसा लगता था
जैसे मंगला के िनराहार रहने से उ ह कोई फक नह पड़ता था।
आज साँझ को जैसे ही बाबा लौटे थे, अ मा ने उ ह पानी देते हये सवाल दाग िदया था -
‘‘पंिडत जी से बात हई?’’
‘‘वेद क अ मा! य इतनी उतावली मचाये हो। उसक याह क आयु तो हो जाने दो।
उसे मन तो बना लेने दो।’’
‘‘और कब होगी याह लायक, बुढ़ापे म? बारह वष क तो हो गयी है।’’
‘‘बारह वष क आयु भी कह िववाह क आयु होती है? िफर मन से तो वह अभी िनरीह
क या ही है।’’
‘‘तो या हो गया? देख नह रहे कैसी ताड़ ऐसी बढ़ रही है? अ छा वर िमल रहा है,
शी ता से ितिथ तय करो और याह दो। जब तक ये यहाँ रहे गी, यही कलेस मचाये रहे गी।’’
मंगला जो अब तक कमरे म थी यह वाता सुनकर िनकल आई थी। आते ही वह बीच म
बोल पड़ी -
‘‘मुझे नह करना है िववाह।’’
‘‘तो या सारे जीवन हमारी छाती पर मँग
ू दलेगी?’’ अ मा चीख पड़ ।
‘‘म ऐसे यि से ही िववाह क ँ गी जो पढ़ा-िलखा हो, जो मुझे भी पढ़ा सके या पढ़ने
म सहायता कर सके।’’
‘‘तू समझती य नह बेटा? ऐसा नह हो सकता’’ िपता ने िफर समझाना चाहा।
‘‘ य नह हो सकता बाबा? या परू े समाज म कोई भी ऐसा लड़का नह िमलेगा जो
मेरी बात को समझ सके?’’
‘‘ये ऐसे नह मानेगी। लात के भतू बात से नह मानते।’’ कहते हये मंगला क माँ ने
उसक चोटी पकड़ ली और झकझोरने लगी - ‘‘अब जो एक बार भी मँुह से न िनकली तो काट
कर गाड़ दँूगी।’’ कहने के साथ ही उनक आँख म आँसू आ गये। मंगला क यह हठ उ ह बहत
अखर रही थी। उ ह बार-बार ोध आ रहा था। हालांिक समझ खुद मंगला को भी नह आ रहा था
िक उसम इतनी िह मत कहाँ से आ गयी, जो वह इस तरह से सबके सामने डट कर खड़ी हो
सक है।
‘‘अरे रे रे रे ...! यह या कर रही हो? बड़ी हो गयी है िबिटया, उसे धीरे से समझाओ।’’
मंगला के िपता अपनी प नी क इस हरकत से अचकचा गये, उ ह ने अपनी प नी का हाथ
पकड़ते हये कहा।
‘‘आप तो रहने ही दीिजये। आप ही ने तो िसर चढ़ाया है इसे जो ऐसी अनोखी टेक िलये
बैठी है। अभी वो ब ची थी अब बड़ी हो गयी है।’’
बड़ी मुि कल से मंगला के िपता मंगला को उसक माँ से छुड़ा पाये।
‘‘तो िफर आप ही समझाइये इसे िक टेक छोड़ दे। जैसा यह चाहती है वैसा लड़का
कोशल म तो कह नह िमलेगा।’’
‘‘तो मत क िजये न मेरा िववाह। म ऐसे ही रह लँग
ू ी।’’
‘‘म ऐसे ही रह लँग
ू ी और सारी िबरादरी म हम थुकवायेगी। नह करना िववाह तो मर
जाके कह । जीवन भर तो तुझे िबठा कर नह िखला सकते हम।’’
‘‘ या कह रही हो मंगला क माँ? तु ह तिनक भी संकोच नह िक तुम अपनी पु ी से
बात कर रही हो! अ छा अब तुम चुप करो और जाओ भीतर। मेरी बेटी मेरे िलये बोझ नह है। म
िखला लँग
ू ा उसे जीवन भर।’’ कहते हये िपता ने मंगला को अपनी बाह म समेट िलया। उनक
आँख म भी आँसू झलक आये थे।
‘‘हाँ िबठाये रखो, कटवाओ नाक परू े नगर म।’’ कहती हई माँ तमतमा कर रोती हई
दूसरे क म चली गयी। मंगला क भाभी भी, जो चुपचाप सारा वातालाप सुन रही थी, उ ह के
साथ चली गयी। िपता-पु ी अकेले रह गये क म।
‘‘बाबू जी आप रो रहे ह। बहत दुःख दे रही हँ म आपको?’’ मंगला बोली। अभी तक
उसके मन म िपता के िलये जो आ ोश था िक उ ह ने उसे पढ़ने नह िदया, उनके आँसुओ ं के
साथ िपघल कर बह गया था।
‘‘अपनी िववशता पर रो रहा हँ बेटा। म तो वयं चाहता हँ िक अपनी बेटी को िजतना वह
चाहे पढ़ने दँू िक तु मनीिषय ने तो ि य का पढ़ना िनषेध कर रखा है। बता म या क ँ ?
सबके िव तो नह जा सकता न म! इन प रि थितय म कौन गु पढ़ायेगा तुझे। जो भी तुझे
पढ़ायेगा उसे उसके शेष िश य छोड़ नह जायगे? और िफर सारा समाज भी तो उसके िव
खड़ा हो जायेगा। उसका अपने का जीना मुहाल हो जायेगा।’’
‘‘बाबा महामा य कह तो रहे ह िक वे मुझे पढ़ायगे। कोशल म महामा य का िकतना
स मान है या आप नह जानते?’’
‘‘िबिटया तो य उनका भी स मान न करने पर तुली है। िजस िदन से वे तुझे दी ा
दगे, नगर म उनका स मान भी न हो जायेगा।’’
‘‘आप भी बाबा अ मा क ही भाषा म बोलने लगे। महामा य का स मान य न हो
जायेगा भला? सारी दुिनया तो अ मा के जैसे ही नह सोचती होगी।’’
‘‘सोचती है पु ी। तू हठ छोड़ दे, म िकसी तरह से तेरी अ मा को समझा लँग
ू ा, अभी तेरा
िववाह नह होने दँूगा।’’
‘‘म या कोई अनुिचत हठ िकये हँ? जाने िकतने लड़िकयाँ मेरे समान पढ़ना चाहती
ह गी! जाने िकतने िपता आपक तरह अपनी क याओं को पढ़ाना चाहते ह गे! समाज और
ा ण के भय से वे साहस नह कर पाते। आज महामा य हम सहारा देने को त पर है, महामा य
के होते कोई कुछ नह कह पायेगा। म बढ़ँ गी तो सारी लड़िकय क राह खुल जायेगी।’’
ू े जगत यवहार देखा नह है इसिलये आशावादी है। तुझे
‘‘बेटी! तू अभी ब ची है। तन
पढ़ाना आरं भ करते ही महामा य भी अकेले पड़ जायगे। कुछ नह कर पायगे वे। वे अकेले ह गे
और सारा ा ण समुदाय एक ओर होगा। ा ण ही य , ा ण से भी पहले हमारे ही अपने
लोग हमारे िव ह गे। या पता कल पंचायत हम िबरादरी से बाहर ही कर दे। सब कुछ सोचना
पड़ता है िबिटया।’’
मंगला कुछ नह बोली, बस बैठी िससकती रही।
‘‘आज तक ऋिष क याओं को अथवा राजक याओं को छोड़कर कोशल म िकसी क या
ने गु कुल का मुख नह देखा। मनु महाराज ने यह िनषेध य लगाया था मुझे नह ात। इसके
िव उ ह ने िकसी द ड का भी िवधान िकया है या नह मुझे नह ात। िक तु हमारा समाज
अंधा-बहरा है। वह न कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न समझता है, उसने तो बस बंद आँख से
एक बार जो र जु (र सी) पकड़ ली है, बस उसे ही पकड़े अँधेरे म चला जा रहा है। वह न तो वयं
उस र जु से अलग माग खोजने को त पर है न िकसी अ य को ऐसा करने देता है, िफर भले ही
सब कुएँ म िगर या खाई ं म।’’
इतने म ही अ मा िफर वापस आ गय । आते ही वे इस बार अपे ाकृत शांत वर म बोल
-
‘‘समझा िलया अपनी दुलारी को? आया कुछ समझ म?’’
िकसी ने कोई उ र नह िदया तो अ मा पुन: बोल -
‘‘एक बात आप भी समझ ल और यह भी समझ ले, आती सहालग म इसका िववाह होना
है और इसी लड़के से होना है। िफर इसके ससुराल वाले इसे पढ़ाएँ चाह कुएँ म झ क द, हम नह
कुछ कहना।’’
‘‘ या अनगल बात करत हो तुम भी वेद क अ मा? शांित से समझा तो रहा हँ म,
समझ जायेगी। तुम अपने मन को समझाओ और शांित से सोओ जाकर।’’
ू े, मने कुछ कहा?’’ अ मा मंगला क ठोढ़ी िहलाते हये बोल । िफर अपने पित
‘‘सुना तन
से बोली-
‘‘ये कुछ नह समझने वाली, इसक मित िफर गई है।’’
‘‘अ छा तुम जाओ अब।’’ िपता ने कुछ तेज वर म कहा।
‘‘म तो जा रही हँ िक तु इतना समझ लो यिद भली लड़िकय के जैसे मानी नह िववाह
के िलये तो िफर इसके िलये कोई थान नह है मेरे घर म। जहाँ इ छा हो मरे जाकर।’’ कहते-
कहते वे िफर रोने लग - ‘‘िवधाता! िकस जनम के पाप का फल िदया हम ऐसी बेटी देकर?’’
मंगला के िपता ने कुछ कहा नह , बस ोध से उ ह घरू कर देखने लगे। पता नह उस
ि को समझ कर या अपने आप ही अ मा उठ और प लू से आँसू प छते हये चली गय ।
दूसरे िदन घर म हाहाकार मच गया। मंगला कह नह िमल रही थी। रात म पता नह
िकस समय वह चुपचाप कह िनकल गयी थी। यह ऐसा मसला था िजसके िवषय म िकसी से कुछ
कहा भी नह जा सकता था। सारे नगर म चुपचाप सुराग िलया गया िक तु उसका कह कोई
िच ह नह था।
67. च नखा-िव ुि ज ह
‘‘इतना िवल ब कर िदया आने म! जाओ म तुमसे बात नह करती।’’ यह च नखा थी।
उसका यौवन उसके भीतर िहलोर मार रहा था। अब वह कुछ वष पहले वाली कोई अ हढ़ बािलका
नह रही थी, पण ू यौवना हो गयी थी। भाइय का अंकुश उस पर था नह । एक भाई वष से लंका से
दूर था, दूसरा महाआलसी, सदैव नशे क सनक म रहता था और तीसरे को अपने धम-कम और
राज-काज से ही अवकाश नह था। भािभय को उसक गितिविधय का पता ही नह चलता था,
चलता भी तो वह उनका अंकुश मानने को त पर ही कहाँ थी। मातामह और मातुल कभी लंका म
तो कभी रावण के साथ। लंका म होते भी थे तो उनक अपनी इतनी य तताएँ होती थ िक वे उस
पर कोई यान नह दे पाते थे। िफर वह सबक िवशेष दुलारी भी तो थी, उ ह लगता ही नह था
िक वह इतनी बड़ी हो गयी है िक उसक यौवन क उमंग उछाल मारने लगी ह। िफर र म आय
क तरह कुमा रय पर कोई बंधन भी तो नह थे। वह व छं द रमण करती थी। इस समय वह
कालकेय िव िु ज ह के साथ थी। उसे वह बहत अ छा लगता था। िन य ासाद के बाहर के
िवशाल उपवन म उनका िमलन होता था।
‘‘कहाँ िवल ब कर िदया, म तो समय से ही आया हँ। देखो व ृ क छायाएँ उतनी ही
बड़ी ह अभी िजतनी कल थ ।’’ िव िु ज ह ने सफाई देते हये कहा।
‘‘नह ! कल से बड़ी हो गयी ह आज।’’ च नखा ने भी उतनी ही िढठाई से अपनी बात
रखी।
‘‘अ छा चलो मान ली गलती, राजकुमारी जी! देखो कान पकड़ िलये मने, अब तो माफ
कर दो।’’
च नखा दौड़ कर उससे िलपट गयी। िफर उसक आँख म झांकती हयी कृि म
उपाल भ के वर म बोली -
‘‘बड़े नाटक हो। कभी ोध करने का मन हो तो करने ही नह देते।’’
‘‘अरे ! ोध करने के िलये तु हारे अधीन इतने अ य यि ह तो, िफर इस सेवक पर
ोध य करना चाहती हो? इसे अपने ोध के ताप से बचा ही रहने दो ना मेरी यारी!’’ उसने
च नखा को बाह म बाँध कर उठा िलया। च नखा उसके गले म बाह डाले अधर म झल ू ती रही
िफर उसने उसके कंधे पर िसर रख िदया और आँख ब द कर बोली -
‘‘जाओ मा कर िदया।’’
‘‘कह ऐसे मा िकया जाता है?’’
‘‘लो!’’ च नखा ने अपने अधर उसके अधर पर रख िदये और एक गाढ़ चु बन के
बाद बोली - ‘‘ स न?’’
‘‘इतना थोड़ा सा!’’ िव िु ज ह ने ब च क तरह ठुनकते हये कहा।
‘‘हाँ! अभी इतना सा ही। अभी तो स पण
ू िनशा शेष है।’’
‘‘अ छा थोड़ा सा और!’’
‘‘नह !! अ छा नीचे उतारो मुझे। इतना कस कर पकड़ते हो िक सब पसिलयाँ चरमरा
जाती ह।’’ रोष का अिभनय करती हई च नखा बोली।
‘‘जैसा आदेश मेरे दय क महारानी का!’’ अिभनय पवू क कहते हये िव िु ज ह ने उसे
नीचे उतार िदया। िफर एक व ृ क ओर इशारा करता हआ बोला- ‘‘आओ वहाँ बैठते ह।’’
दोन बैठ गये तो च नखा उसक गोद म सर रख कर लेट गयी। िव िु ज ह उसक
लट से खेलने लगा -
‘‘ये दुरा ही अलक मेघ क भाँित मेरे च मा को बार-बार ढाँक य लेती ह?’’
‘‘ये मेघ नह नािगन ह। िजसे डस लेती ह वह पानी भी नह माँग पाता।’’ च नखा
हँसते हये बोली।
‘‘अ छा? लो मने इ ह पकड़ कर िकनारे कर िदया। इ ह ने तो नह डसा मुझे।’’
ु , तु ह कैसे डसगी।’’ उसने िफर िव त
‘‘तु हारी तो पालतू ह ये िव त ु के गले म बाह
डाल कर उसे झुकाया और िफर उसके अधर पर अपने अधर रख िदये।
‘‘मन करता है िक अहोरा म ऐसे ही तु हारी बाह म लेटी रहँ।’’ चु बन के प ात वह
बोली।
‘‘तो लेटी रहो, िकसने रोका है।’’
‘‘घर तो जाना ही होगा। नह तो भािभयाँ यथ बात सुनायगी।’’
‘‘तो आओ िववाह कर ल िफर चलो मेरे साथ रसातल लोक।’’
‘‘ या? ये चलने क बात कैसे क तुमने?’’ च नखा च क कर उठ बैठी।
‘‘हाँ च ! जाना होगा। िपता का संदेशा आया है।’’
‘‘ य ? ऐसा या हो गया। तुम तो अभी बहत िदन तक कने वाले थे?’’
‘‘ य तो अभी मुझे भी नह पता। िक तु कुछ बहत आव यक है। संदेशवाहक ने कहा है
िक िपता ने अिवल ब बुलाया है और कारण उसे भी नह बताया, कहा िक मुझे ही बताएँ गे।’’
‘‘िफर! जाकर कह आ ही नह पाये तुम?’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? िव त
ु अपनी च के िबना भला जी सकता है?’’
‘‘नह ! मेरा मन जाने कैसा होने लगा है। मेरी धड़कन बढ़ गयी ह, देखो ...’’ उसने
िव त
ु का हाथ पकड़ कर अपने व पर रख िलया।’’
‘‘तो कह तो रहा हँ िक चलो मेरे साथ।’’
‘‘पर िबना भाई क अनुमित के कैसे चल सकती हँ?’’
‘‘तु हारे भाई तो अ त यान ही हो गये ह। िकतना तो समय हो गया आये ही नह ।’’
‘‘हाँ! शेष सभी लोग लौट आये, बस वे वयं ही पता नह कहाँ क गये ह। मातामह
बता रहे थे िक कैलाश े म एकाक तप या कर रहे ह।’’
अब तप या क कौन सी आव यकता पड़ गयी उ ह। इस समय तो उ ह सा ा य क
यव था देखनी चािहये थी। तप या करनी ही थी तो बुढ़ापे म करते रहते।
‘‘ या पता, कौन सा माद हो गया उ ह। िक तु उनक अनुमित के िबना म तु हारे
साथ जा भी तो नह सकती।’’
‘‘तो ऐसा करते ह िक िववाह अभी कर लेते ह, जब तु हारे भइया आ जाय तब उनसे
अनुमित लेकर आ जाना मेरे पास।’’
‘‘कब जाना है तु ह? तुम तो कह रहे हो िक िपता ने अिवल ब बुलाया है?’’
‘‘बस कल सायं अथवा परस ात: िनकल जाऊँगा। कल कुछ यहाँ क यव थाएँ ठीक
करनी ह।’’
‘‘िफर! कल-कल म कैसे हो जायेगा िववाह? वह भी भइया के िबना! िकतना यार
करते ह भइया मुझसे, िकतनी ठे स लगेगी उ ह? िकतनी धम
ू -धाम से करना चाहते ह वे अपनी
अकेली बहन का िववाह!’’
ू धाम से करगे तो तब जब वे आयगे? उनके आने के तो कोई ल ण ही नह
‘‘पर धम
िदखाई देते।’’
‘‘मातामह ही बता रहे थे िक उ ह ने एक वष का समय माँगा है। उसम से आधा तो
बीतने को भी आया।’’
‘‘िफर भी अभी आधे वष से अिधक का समय तो है ही और मुझे तो परस ही जाना है।’’
‘‘सो तो है, िफर भी ...’’
‘‘अब भी िफर भी? जब तक तु हारे भइया को अवकाश िमलेगा तब तक हम हो जायगे
ू े । िफर हो चुका िववाह!’’ हँसते हये िव त
बढ़ ु ने कहा।
‘‘कैसी बात करते हो? इस समय भी तु ह िठठोली सझ ू रही है।’’ च नखा ँ आसी हो
ु क छाती पर कई मु के जड़ िदये।
आई। उसने रोते-रोते िव त
‘‘तो या क ँ म, पकड़ कर ला तो सकती नह भइया को।’’
‘‘तो करो यह िक चलो हम अभी गंधव िववाह कर ल। िफर जब भइया आ जाय तो उनक
अनुमित से धम
ू धाम से भी कर लगे। जब तुम कहोगी तब आकर म तु ह िलवा जाऊँगा।’’
दोन राि म माला पहने ासाद म पहँचे। देखते ही म दोदरी च क गयी। बोली -
‘‘यह या है च नखे?’’
‘‘भाभी मने िव िु ज ह से िववाह कर िलया है।’’
‘‘ऐसे अचानक िकसी से कुछ पछ
ू ा भी नह , िकसी को कुछ बताया भी नह ? ऐसे होता
है िववाह?’’
‘‘मेरी माँ ने भी तो ऐसे ही िकया था।’’
‘‘माँ क बात दूसरी थी, तब तु हारे मातामह लोग िव णु से भयभीत छुपे-छुपे घम
ू ते थे।
िक तु तुम तो लंका के स ाट क दुलारी बहन हो। तु ह छुप कर िववाह करने क या
आव यकता आन पड़ी?’’
‘‘खबू कही भइया क आपने भी! उ ह जब तक िवजय से अवकाश िमलेगा तब तक तो
म बढ़ ू ी हो जाऊँगी। और तब पता नह वे मेरे िलये कौन सा ि लोक िवजयी लड़का खोजने लग।
मुझे तो मा िव त ु से ेम है सो मने इससे िववाह कर िलया।’’
‘‘कर िलया तो अब कर ही िलया। ठीक है, बैठो चल कर मेरे क म। म तु हारा क
नविववािहत युगल के अनु प यवि थत करवाती हँ। तु हारे िलये आभषू ण और व आिद क
यव था करवाती हँ, आओ! भीतर चलो।’’
‘‘नह भाभी! म क नह सकता, िपता ने अिवल ब बुलाया है। म अपनी अमानत
आपको स पे जा रहा हँ उिचत समय पर आकर ले जाऊँगा। तब तक सहे ज कर रिखयेगा, नह तो
लड़ाई हो जायेगी मेरी आपसे।’’
‘‘चले जाना, पर अभी भीतर चलो।’’
‘‘नह भाभी, िपता का आदेश ...’’
‘‘जब तुमने च नखा से िववाह कर ही िलया है तो अब म तु हारे गु जन क ेणी म
हँ’’ म दोदरी िव िु ज ह क बात काटते हये बोली - ‘‘अभी म य हँ, मेरा आदेश मानो िफर
िपता का आदेश मानना, म नह रोकँ ू गी।’’
िववश िव िु ज ह ने च नखा के साथ भीतर वेश िकया।
‘‘ नान करो पहले। म तब तक तु हारे िलये व ाभषू ण िनकलवाती हँ। यहाँ से तुम
रावण के बहनोई के अनु प मयादा से ही िवदा होगे।’’ म दोदरी ने नानगहृ क ओर संकेत
करते हये कहा। िफर च नखा से बोली -
‘‘तुम च िकसी अ य क के नानगहृ म नान कर लो। म तु हारे भी व ाभषू ण
िनकलवाती हँ। उिचत रीित से िवदा करना अपने पित को।’’
दोन को आदेिशत कर मंदोदरी चली गयी।
कुछ ही देर म उसने दोन क म लंका क नव-िववािहता क या और दामाद के
अनु प बहमू य व ाभषू ण रखवा िदये और बाहर से ही दोन को इसक सच
ू ना दे दी।
कुछ देर बाद लंका म उपि थत सारा कुटुंब सभा क म उपि थत था। च नखा और
िव िु ज ह क छटा देखते ही बन रही थी। कैकसी ने जी भर के दोन क दुआएँ ल । मंदोदरी,
व वाला और सरमा ने िविधपवू क तीन क आरती उतारी और ितलक िकया। परू े आडं बर के
बाद िव त
ु ि ज ह को जाने क अनुमित िमल पाई।
68. श बक
ू जाबािल का िश य
ू जाबािल के ासाद के ार पर था।
िनि त िदन, िनि त समय पर श बक
‘‘म श बक
ू ! महामा य को ....’’ ार खोलने आये प रचर क वाचक ि के उ र
म श बक ू ने उ र िदया। प रचर को स भवत: उसके आगमन क स भावना से अवगत करा
ू का वा य परू ा होने से पवू ही उसे साथ आने का संकेत
िदया था जाबािल ने, अत: उसने श बक
िकया ‘‘आओ।’’
जाबािल के आवास का मु य भवन मनु य के बराबर ऊँची एक पीिठका पर िनिमत एक
िवशाल ासादवत िनमाण था िजसम सम त सुिवधाएँ उपल ध थ । सम त सुख को याग कर
तप या करना जाबािल को अभी न था। वे ानी थे, ानिपपासु थे िक तु ान ाि के िलये
सुख-सुिवधाओं के याग के थान पर सुख-सुिवधाओं के ित आसि को यागने के प धर थे।
भोग म रहते हये भी उनके ित उदासीन रहने के आ ही थे। उनका मानना था िक कृित ने
भोग क उ पि उनके उपभोग के िलये ही क है। उ ह याग देना उनक ि म मख ू ता के
अित र और कुछ नह था।
मु य भवन के चार ओर उपवन था। मु य ार से भवन के ार तक आने के िलये
उ ह लगभग ढाई सौ पद क दूरी तय करनी पड़ी थी। प रचर मु य भवन के पास पहँचकर
दािहनी ओर घम ू गया और भवन के साथ-साथ बने माग पर चलता हआ, भवन क प र मा कर
िपछवाड़े के िवशाल उ ान म पहँच गया। शंबक
ू उसका अनुसरण कर रहा था। उ ान के ार पर
एक वटुक ने उसका वागत िकया। प रचर यह से वापस लौट गया।
वटुक के वागत म कह एक िहचक को शंबक ू ने प ल य िकया िक तु वह िबना
कुछ बोले उसका अनुसरण करता चला गया। िपछवाड़े का यह उ ान कम से कम एक बीघे म
फै ला हआ था। चार ओर िविभ न कार के लता गु म म मुकुिलत सुमन अपनी सुरिभ िबखेर
रहे थे। आम, अशोक, नीम, पीपल और भी न जाने िकतने कार के व ृ चार ओर अपनी छाया
िबखेर रहे थे। कुल िमला अ यंत सुरिभत और मनोरम वातावरण था।
उ ान के अंत म कुटीर जैसे आवास थे। कुटीर के पहले एक र थान था िजसके
म य म बने य कु ड म लकिड़याँ और सिमधा-साम ी अभी भी सुलग रही थी।
वटुक शंबक
ू को उ ह म से एक कुिटया म ले गया।
कुिटया म एक कुशासन पर जाबािल बैठे हये थे। उनके सामने तीन आसन और पड़े थे।
एक पर श बकू के मागदशक वटुक के समान ही एक वटुक बैठा था। र दोन आसन प है
एक श बकू के िलये था और दूसरा उसके मागदशक के िलये।
ू कुिटया के ार पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसके साथ आये वटुक ने
श बक
अपना आसन हण कर िलया था।
‘‘भीतर आओ व स!’’ जाबािल ने कहा।
ू ने वेश कर जाबािल के पैर पर सर रख कर णाम िकया।
श बक
‘‘आशीवाद! यश वी भव!’’ जाबािल ने आशीवाद िदया। िफर र आसन क ओर
संकेत करते हये बोले -
‘‘बैठो!’’
ू िझझकता हआ बैठ गया। उसके बगल म बैठा बटुक थोड़ा दूसरी ओर को िसमट
श बक
गया।
‘‘िसमटने क आव यकता नह है व स वेद ! अब तो यह िन य तु हारे साथ बैठेगा,
कहाँ तक िसमटोगे?’’ जाबािल ने उसे िझड़कते हये कहा। िफर वे आगे बोले -
‘‘आओ तु हारा पर पर प रचय करावा दँू - यह श बक ू है। अब से यह भी तु हारे साथ
िव ाजन करे गा। ... श बक
ू यह है वेद , और यह जो तु ह साथ लेकर आया है यह है िज ासु।’’
श बकू ने दोन क ओर हाथ जोड़ िदये। उ ह ने िसर िहला कर उसके अिभवादन को
मौन सहमित दी।
‘‘वेद और िज ासु! तुम दोन यह भलीभाँित समझ लो िक इस आ म के भीतर वण-
यव था नह चलती। यहाँ सभी िव ाथ ह। सभी एक समान ह। प हो गया न?’’
‘‘जी आचाय!’’ दोन ने कहा अव य िक तु वर म कोई उ साह नह था। प है िक
उ ह उसके शू होने के संबंध म ात था।
‘‘व स! सहज नह होगा तु हारा िव ाजन। धधकती अि न म वेश करने जा रहे हो।
कटार क धार पर चलना पड़े गा। यिद िटके रहे तो इितहास-पु ष बन जाओगे। तु हारा साहस
और धैय आयावत के सम त शू हे तु उ नित के ार खोल देगा। िक तु यिद तुम बाधाओं से
िवचिलत हो गये तो यह ार पुन: सह ाि दय के िलये बंद हो जायेगा। इितहास तु ह एक
पलायनकता कापु ष के प म याद करे गा।’’
‘‘यिद आपके आशीष का स बल मेरे साथ है तो म कदािप पलायन नह क ँ गा। बाधाएँ
मुझे िमटा भले ही द, पलायन के िलये े रत नह कर पायगी।’’
‘‘ई र करे तु हारी यह ढ़ता इसी भाँित बनी रहे । कल तु हारा य ोपवीत सं कार
स प न होगा।’’
जाबािल क बात सही थी। य ोपवीत के अगले ही िदन वेद और िज ासु के िपताओं ने
जाबािल से स पक िकया। ये दोन ही ा ण बालक थे। इनके िपताओं को अपने पु के साथ
एक शू के बैठने पर आपि थी। जाबािल ने उनक आपि को िसरे से नकार िदया। िज ासु के
िपता इससे असंतु होकर उसे अपने साथ वापस िलवा ले गये।
‘‘आचाय! यिद मेरे कारण अ य िव ािथय म असंतोष उ प न हो रहा है तो ...’’
‘‘तो या?’’ जाबािल ने उसका वा य परू ा नह होने िदया - ‘‘पहली परी ा म ही
अनु ीण हो रहे हो। मने पहले िदन ही या कहा था - धधकती अि न म वेश करने जा रहे हो।
अभी तो यह आरं भ है, अभी देखो और िकतने यवधान आते ह। इस सबके बीच तु हारा एक ही
कत य है िक अपने ल य के ित एकिन बने रहो। िव ाजन करते रहो। शेष यवधान के
िवषय म सोचने का काय मुझ पर छोड़ दो। वह तु हारा िवषय नह है।’’
‘‘िक तु आचाय िज ासु ...’’
‘‘उसके िलये सभी गु कुल के ार खुले ह। उसक कोई िचंता नह है। तु हारे िलये
यहाँ के िसवा कोई आ य नह है, और अयो या का महामा य अयो या क अिधसं य जनसं या
के थम ितिनिध को िव ा से िवरत नह रख सकता। समझ गये? अब इस िवषय म कोई शंका
या मुझे वीकार नह है।’’
‘‘जी आचाय!’’
दूसरे िदन श बक ू का आचाय क प नी से सामना हआ। उसने ा से उनके चरण
पश करने चाहे तो उ ह ने उसे दूर ही रोक िदया और आशीवाद दे िदया।
‘‘इनके यवहार से आहत मत होना व स! ये दय से तु ह नेह करती ह िक तु अपने
सं कार से िववश ह। स नाता ह इस समय तुम इ ह पश नह कर सकते।’’ जाबािल ने हँसते
हये बात सँभाली। ‘‘सहज भाव से इनके आशीवाद का साद हण करो। वह भिव य म तु हारे
बहत काम आयेगा।’’
‘‘जी आचाय!’’
आचाय प नी के दय म यिद कोई अ यथा िवचार थे भी तो उ ह ने उ ह कट नह
होने िदया था। पता नह यह पित का दबाव था अथवा पित के ित उनक िन ा। िक तु जो भी
था श बकू का िव ाजन चलने लगा।
एक माह भी नह बीता था िक नगर के ा ण ने महाराज के स मुख इस संग को
लेकर ितवाद तुत कर िदया। महाराज य िप महामा य के इस कृ य से संतु नह थे िक तु
िफर भी उ ह ने सीधे कुछ नह कहा बस करण गु विश को स प िदया िक वे इस िवषय म
जो भी स मित दगे वही मा य होगी।
‘‘मुझे महामा य के इस यास पर कोई आपि नह है। अिपतु म तो उनक इस पहल
का शंसक हँ। म देखना चाहता हँ िक महामा य का यह यास या प रवतन लाता है। मेरी
सम त शुभकामनाएँ महामा य के साथ ह।’’ गु देव ने जाबािल के प म अपनी सं तुित दे दी।
‘‘गु देव मा शुभकामनाएँ नह , जाबािल को आपके आशीवाद क भी आव यकता
है।’’
‘‘वह भी सदैव आपके साथ है महामा य! मेरी दय से यही कामना है िक आप अपने
उ े य म पणू सफल ह ।’’
यह अ जब िन फल हो गया तो ा ण ने दूसरे अ का उपयोग िकया। वे श बक ू
के िपता का कोई शारी रक अिहत करने क ि थित म नह थे, य िक उसे वयं महामा य का
संर ण ा था। वे अिहंसक, वेदपाठी ा ण थे अत: वयं तो आ मण कर नह सकते थे उनके
कहे से अ य जो कोई भी ऐसा यास करता वह िन य ही राजदंड का भागी बनता। अंतत:
उ ह ने श बक ू के िपता के िजजमान को भड़काना आरं भ िकया। यह यास बहत सफल हआ।
कुछ ही िदन म उ ह लगभग आधी िजजमािनय से हाथ धोना पड़ गया। यह आिथक आघात था
िक तु यह भी उनके िन य को भािवत नह कर पाया। ऐसे समय म िबरादरी मौन प से उसके
ू के िव ाजन क बल िवरोधी थी, अब उसे
साथ खड़ी हो गयी। वही िबरादरी जो पहले श बक
िबरादरी के गौरव के प म देख रही थी।
एक बार माग म कुछ ि य बालक ने श बक ू पर आ मण भी िकया। पया चोट भी
आई उसे। िक तु इस आघात ने उसके िन य को और ढ़ कर िदया। उन बालक क पहचान हो
गयी थी। जाबािल ने उ ह दंिडत नह िकया िक तु उनके अिभभावक को राजसभा म बुलवाकर
कड़ी फटकार लगायी और चेतावनी दी िक ऐसी घटना क पुनराविृ होने पर कठोर द ड िदया
जायेगा। िश ा के े म भेदभाव और िव ेष को पनपने नह िदया जा सकता।
सारे अ िवफल हो जाने पर परं परावादी ा ण ने ती ा करने का िनणय िलया।
जाबािल या अमतृ पान िकये हये ह। इनके उपरांत देख लगे।
इस कार संकट कटा नह था, बस टल गया था।
सारे िवरोध के बावजदू वयं महामा य जाबािल, श बक
ू और उसका िपता ढ़ता से
खड़े हये थे। उनक ढ़ता से अ य कई शू भी अपने बालक को भी गु कुल भेजने के िवषय म
सोचने लगे थे िक तु अभी साहस नह कर पा रहे थे। उहापोह म पड़े थे वे। उनके उहापोह के
साथ-साथ उनके बालक भी पढ़ने के ित उ साही नह थे।
िफर भी अगले वष एक और लुहार बालक ‘‘म डलीक’’ ने जाबािल के आ म म वेश
िलया। उसके आने के कुछ ही िदन म वेद ने भी आ म याग िदया। िक तु जाबािल को िचंता
नह थी। योित जल चुक थी। एक से दो हो गये थे... आगे और बढ़गे, उ ह िव ास था। न भी
होता तो वे उिचत कम को याग देने वाल म नह थे।
69. रावण-सुमाली-वे दवती
सुमाली ठीक एक वष बाद वह पहँच गया जहाँ उसने रावण को छोड़ा था। उसके साथ
ह त और व मुि भी थे। रावण उस कुिटया म नह था। उ ह ने चार ओर खोजा, थोड़ी ही दूर
पर एक दूसरी कुिटया के बाहर बैठा रावण उ ह िदख गया। वहाँ पहँचते ही वे च क कर रह गये।
रावण क गोद म एक छोटी से क या थी जो उसक छाती म दूध खोजने क यथ चे ा कर रही
थी। सामने एक िचता जल रही थी। रावण का मँुह उतरा हआ था जैसे उसका सब कुछ लुट गया
हो। बाल िबखरे हये, आँख लाल जैसे कई िदन से सोया ही न हो। बस शू य नजर से शू य म
ताक रहा था।
‘‘पु ! पु ! या हआ? या है यह सब?’’ सुमाली ने उसे झकझोरा।
रावण पर उसका कोई असर नह पड़ा। वह वैसे ही शू य म ताकता रहा। तो सुमाली ने
उसे और जोर से झकझोरा -
‘‘ या बात है व स? कुछ तो उ र दो।’’
इस बार रावण ने चेहरा घुमाकर उसक ओर देखा पर बोला कुछ नह बस ताकता रहा
जैसे पहचान ही न रहा हो।
सुमाली ने िफर झकझोरा िफर व मुि से बोला -
‘‘व मुि देखो कह से जल लेकर आओ।’’
सुमाली रावण को चैत य करने का यास करने लगा तब तक व मुि कुिटया से एक
पा म जल लेकर आ गया। सुमाली ने परू ा पा रावण के िसर पर उलट िदया।
रावण एकदम च क कर खड़ा हो गया। क या को सुमाली ने धीरे से उसके हाथ से
िनकाल िलया, वह बरबस रो उठी। सुमाली ने उसे ह त के हाथ म पकड़ा िदया। रावण उसे देख
कर अजीब से वर म कह उठा -
‘‘मातामह!’’
सुमाली ने उसे सीने से लगा िलया। उसके उलझे बाल को सहलाता हआ बोला -
‘‘ या हआ है पु ? कुछ बताओ तो सही!’’
‘‘वह चली गयी मातामह!’’ रावण ने वैसे ही वर म उ र िदया।
रावण क ि थित देख कर सबक आँख गीली हो गयी थ ।
‘‘कौन चली गयी? यह िचता िकसक है?’’
‘‘वे...वेद...वेदवती चली गयी, उसी क िचता है यह ...’’ रावण ने िचता क ओर हाथ
उठाते हये कहा। िफर हठाथ झटके से उसका हाथ िगर गया। उसक आँख से बहकर आँसू
कपोल को गीला करने लगे।
‘‘और यह क या िकसक है?’’
रावण को एकदम जैसे होश आया। उसने पहले अपने हाथ क ओर देखा िफर च क कर
चार ओर देखने लगा। ह त के हाथ म क या देख कर उसने झपट कर उससे ले ली।
‘‘यह क या िकस क है पु ?’’
‘‘हमारी मातामह! मेरी और वेदवती क !’’
‘‘ओह! अ छा चलो कुछ िव ाम कर लो।’’
‘‘नह ! अब कुछ नह बचा।’’
‘‘लाओ क या मुझे दे दो।’’ उसने रोती हई क या को उससे लेने का यास करते हये
कहा।
रावण ने थोड़ा िहचक िदखाई पर सुमाली ने उसके हाथ से क या ले ही ली। िफर वह उसे
बलपवू क ख च कर कुिटया म ले आया और िलटा िदया। यह वेदवती क कुिटया थी। िफर
व मुि और ह त को वन म जाकर कुछ फल आिद ले आने को कहकर वयं पु पक क ओर
चला गया।
लौट कर आकर उसने कोई बटू ी एक प थर पर िघसी और पानी म िमला कर रावण को
देते हये बोला -
‘‘लो इसे पी लो।’’
रावण ने कोई नह िकया, चुपचाप पा हाथ म ले कर पीने लगा।
थोड़ी देर वह ती ा करता रहा। रावण अब भी वैसे ही शू य म ताक रहा था। सुमाली
जैसे अपने आप से ही बोला ‘‘इतने समय म तो असर हो जाना चािहये था।’’
िफर उसने एक बार और वह बटू ी जल म िमलाकर रावण को िपलाई। थोड़ी देर म रावण
क आँख मँुदने लग ।
इसी बीच ह त और व मुि फल लेकर आ गये। व मुि एक िहरन का ब चा भी
बगल म दबाये था।
‘‘यह अ छा िकया व । रावण तो अभी बहत देर सोयेगा। सोयेगा तभी कुछ व थ होगा।
ऐसा करो एक जना देखो बाहर गाय बँधी है, थोड़ा सा दु ध यिद हो सके तो िनकाल लाओ।
क या को आव यकता तीत होती है। और िफर भोजन क यव था करो।’’
दोन अपने-अपने काम म लग गये और सुमाली क या को चुप कराने का य न करने
लगा। तभी ह त दूध लेकर आ गया। सुमाली ने थोड़ा सा पानी और थोड़ा सा दूध िमलाया िफर
ह त से बोला -
‘‘देखो पु पक म चालक क म कपास होगी थोड़ी सी ले आओ।’’
कपास ( ई) क सहायता से वह धीरे -धीरे परू े धैय से दूध क या के मुख म टपकाने
लगा। थोड़ी देर म वह सो गयी। सुमाली ने उसे धीरे से चटाई पर िलटा िदया। इससे िनव ृ होकर
वह व मुि क ओर घम ू ा और बोला -
तस ली से भन
ू ो मग
ृ -शावक को। आन द आ जायेगा इसे खाने म।

शाम हो गयी थी रावण को जागते-जागते। अब वह कुछ व थ तीत होता था।


सुमाली ने धीरे से मेघनाद के िक से छे ड़ िदये - उसक शैनािनयाँ, उसक तोतली भाषा,
उसक डगमग चाल और वह िकस तेजी से गित कर रहा है। पु के िक स ने रावण को उस
िवषाद से बाहर िनकालने म काफ सहायता क । तब सुमाली ने उिचत अवसर जान कर कहा -
‘‘और पु यहाँ या- या गितिविधयाँ-उपलि धयाँ रह तु हारी?’’
मेघनाद क बात से बाहर आते ही रावण िफर से अ यमन क सा हो गया। सुमाली ने
पुन: उसे सँभालने का यास िकया - ‘‘रावण को तो ि लोक िवजय करना है, यिद ऐसे वह
अवसाद म जायेगा तो कैसे कर पायेगा? वयं को सँभालो, अभी तो ऐसे जाने िकतने अवसर
आयगे जब तु ह अपन को खोना पड़े गा। एक िदन तु हारा यह मातामह भी िवदा होगा इस संसार
से, यिद ऐसे अवसर पर तुम धैय खोने लगोगे तो या होगा लंका का? या होगा लंका के
िनवािसय का? स ाट् को अपने प रवार से भी पहले अपने नाग रक का यान रखना पड़ता
है।’’
‘‘ या बताऊँ मातामह? यास तो कर रहा हँ व थ होने का िक तु मेरा वश नह है
अपनी भावनाओं पर!’’ अचानक जैसे उसे याद आ गया - ‘‘वह ... वह कहाँ है?’’
‘‘वह वहाँ सो रही है!’’ सुमाली समझ गया िक वह क या को पछ
ू रहा है, उसी क ओर
इशारा करते हये उसने उ र िदया - ‘‘िकतनी शांत है देखो, िकतनी सु दर! ... अ छा इसक
माता के बारे म बताओ।’’
‘‘ या बताऊँ मातामह? वह तो चली गई मुझे छोड़ कर - अपराध बोध को उ भर झेलने
के िलये।’’
‘‘परू ी कहानी बताओ अपने मातामह को, उससे तु हारे दय का बोझ भी कम होगा।
िफर हम दोन िमलकर िनणय करगे िक आगे या िकया जाये। स ाट् अपने उ रदािय व से
कभी िवरत नह रह सकता। और अब तो सा ा य के दािय व के अित र मेघनाद और इस
क या का दािय व भी तु हारे ही ऊपर है। इसके िहत के िलये ही सही अपनी इस िवषादाव था से
बाहर आने का य न करो।’’
रावण कुछ देर सोचता रहा िफर उसने धीरे -धीरे वेदवती से प रचय से लेकर उस रात
थम िमलन तक सब कुछ बता डाला। वह िफर शांत हो गया जैसे मिृ तय म खो गया हो।
‘‘िफर? ... िफर या हआ? उसक म ृ यु कैसे हई?’’
‘‘ य याद िदलाते ह उस घड़ी क मातामह?’’
‘‘बताओ तो पु ! दुःख कह देने से ह का हो जाता है।’’
‘‘वह सदैव कहती थी िक वह िव णु क वा द ा है। उसके िपता कहते थे िक उसका
िववाह मा िव णु से ही हो सकता है। इसीिलये वह िव णु क आराधना कर रही थी - तप या कर
रही थी।’’
‘‘िफर?’’
‘‘उस िदन जो हआ उससे उसे लगा िक वह अपने िपता क अपराधी हो गयी है, वह
िव णु क भी अपराधी हो गयी है। वह अ यंत यिथत थी। वह तो उसी िदन िचता म वेश करने
को उ त हो गयी थी। कहने लगी िक अब िकस मँुह से म िव णु के ित वयं को समिपत
क ँ गी, अब तो म उनके यो य रही ही नह । अब तो म क या रही ही नह । िफर बोली िक उसक
तप या फलवती अव य होगी, इस ज म म नह तो अगले ज म म वह िव णु को ा करे गी। बड़ी
किठनाई से मने समझा-बुझा कर बल योग कर उसे रोका। कुछ ही िदन म मने ल य िकया िक
वह गभवती है। तब मने उसे समझाया िक अभी िचतारोहण से अकारण तुम पर एक ह या का पाप
लगेगा। वह िव णु के यो य नह रही तो या पता उसक बेटी ही िव णु का वरण कर सके
इसिलए उसे प ृ वी पर आने का अवसर देना ही चािहये। उसने बात मान ली। वह इस क या के
ज म क ती ा करने लगी। िक तु उस िदन के बाद से वह मुझसे दूर-दूर रहने लगी थी। वह
यार मुझे करती थी, इसे िछपाती भी नह थी िक तु उसके मन म यह बात बैठ गयी थी िक वह
िव णु के िसवा और िकसी का वरण नह कर सकती। मेरे साथ रमण कर उसने अपने िपता और
िव णु से िव ासघात िकया है। और एक बात जानते ह आप मातामह?’’
‘‘ या? मुझे तुम बताओगे तभी तो जानँग
ू ा म?’’
‘‘अनेक देव, य , गंधव, मनु य उसका हाथ माँगने उसके िपता के पास आते थे िक तु
वे सबको मना कर देते थे। ऐसे ही िकसी यि ने उनक सोते समय ह या कर दी थी। िपता क
म ृ यु के बाद उसक माता उसी िचता म उनके साथ सती हो गयी थी। उसे लगता था िक उसने
अपने िपता के बिलदान के साथ िव ासघात िकया है।’’
‘‘ओह! िफर?’’
‘‘िफर यह क या हई। िकतनी सु दर है न मातामह, िबलकुल अपनी माँ जैसी! बस
क या को ज म देकर, उसे एक बार अपना दूध िपला कर िफर वह कैसे भी नह क । म रोता
रहा, यह स ज मी क या रोती रही िक तु उसने िचतारोहण कर िलया। मुझे रोते देख कर वह भी
रोने लगी। बोली - मत रोओ रावण, या मुझे रोते हये िवदा करोगे? ऐसे िवदा करोगे मुझे तो म
म ृ यु के बाद भी तु ह कैसे भल
ू पाऊँगी? बस यही उसके अि तम श द थे। उसके बाद तो बस
राख ही शेष बची थी।’’
रावण के आँसू उसके सारे चेहरे को िभगो गये थे। सुमाली क आँख भी गीली हो गयी थ
िक तु वह ढ़ था। उसे रावण को इस मनि थित से बाहर िनकालना ही था।
उसने राि म रावण को एक बार और औषिध िपला दी। थोड़ी देर म वह सो गया।
70. हनुमान
इ अपने गु कुल का िनरी ण करने आये थे। सभी देव अपने गु कुल का िनरी ण
करने आते ही रहते थे। इन िनरी ण म यव थाएँ देखने और आव यकतानुसार िनदश देने के
अित र यिद समय िनकल आता था तो कुछ िश ण काय भी कर लेते थे। सय ू देव भी इ के
साथ ही चले आये थे। िन य यह हआ था िक बाद म इ सय ू देव के साथ उनके गु कुल म
चलगे। मु य ार से वेश करते ही सयू देव ने कुछ खोये-खोये से भाव से कहा -
‘‘देवराज! अब तो अपने पु बड़े हो गये ह गे?’’
‘‘िनि त ही। या िमलने क इ छा हो रही है?’’
अभी बालरिव क मरीिचय ने धरातल को पश करना आर भ ही िकया था। गु कुल
का यह वा े अभी सुनसान पड़ा था। िव ािथय के आने म अभी िवल ब था। दि णापथ के
गु कुल म मा दूर थ े के कुछ िव ाथ ही गु कुल म िनवास करते थे। ऋिषगण गु कुल
के म यभाग म िनवास करते थे। वे अभी अपने ात: कम म य त थे।
‘‘ वाभािवक ही है देवराज! भला कौन िपता अपने पु को देखना नह चाहे गा? िकतने
तो वष हो गये, बस यह सच ू ना ा हई थी िक महिष गौतम ने दोन बालक को ऋ राज को
स प िदया है। उसके उपरांत कोई सचू ना ही नह है।’’
‘‘सच कहते ह आप। ... ह गे तो यह िकसी गु कुल म ही। संभव है हर बार हम उनसे
िमलते भी ह िक तु पहचान न पाते ह ।’’
‘‘स य है। ... पता नह महिष गौतम ने ऋ राज को उनके ज म का स य बताया था
अथवा नह ?’’
‘‘न भी बताया हो तो या हआ? ऋ राज को यह तो पता ही होगा िक वे बालक महिष
ू ते ह िक महिष गौतम के आ म से
गौतम से उ ह ा हये थे। सीधे चल कर ऋ राज से ही पछ
आये बालक कौन ह?’’
‘‘नह संभवत: यह उिचत नह होगा। ऋ राज ने उ ह अपने बालक के समान पाला
ू ने से उनके मन म आशंका उ प न हो सकती है। आशंका नह भी होती है तो भी
होगा। हमारे पछ
उ ह यह तो याद आ ही जायेगा िक वे व तुत: उनके अपने पु नह ह। यह उिचत नह होगा।’’
‘‘िफर या कर?’’
ू ते ह िक ऋ राज के पु कौन से ह। हमारा योजन तो इतने
‘‘सीधे गु कुल म ही पछ
मा से ही िस हो जायेगा। इसम िकसी कार क शंका उ प न होने क संभावना भी नह है।
राजा के पु को पहचानने क िज ासा तो िकसी म भी हो सकती है। िफर हम तो इस गु कुल
के अिध ाता ह।’’
तभी एक बालक उधर से आता हआ िदखाई पड़ा। सय
ू देव ने उसे पुकारा -
‘‘अरे बालक! इधर तो आओ तिनक।’’
‘‘बालक! या नाम है तु हारा?’’ बालक जब िनकट आ गया तो उ ह ने पछ
ू ा।
‘‘ य ? या योजन है?’’ बजरं ग अभी नव वेशी ही था गु कुल म, वह इ ह पहचानता
नह था। वैसे भी वभावत: ही वह िनडर और उ त था।
‘‘कोई योजन नह , मा िज ासा है।’’
‘‘ योजन जाने िबना म कुछ नह बताने वाला।’’
‘‘यह तो उ ं डता हई।’’
‘‘हई तो हआ करे । िकतु पहले अपना योजन बताइये तभी म अपना नाम बताऊँगा।’’
‘‘चलो मत बताओ नाम। हम महाराज ऋ राज के पु से िमलना है। या तुम हम उनसे
िमलवा सकते हो?’’
‘‘पहले योजन बताओ, अ यथा अपनी राह लो।’’
‘‘अ यंत ध ृ बालक है!’’ इ को ोध आने लगा था- ‘‘जानते नह हम कौन ह?’’
‘‘कोई भी ह । इससे मुझे या योजन? व ांग डरता नह है िकसी से।’’
‘‘अ छा तो व ांग हो तुम? िन य ही उ ं ड हो।’’
‘‘म तो जो भी हँ सो हँ िक तु तुम लोग िन य ही दंभी हो। दुबारा यिद व ांग के िलये
अपश द योग िकये तो हाथ-पैर तुड़वा कर ही जा पाओगे यहाँ से।’’ व ांग अब त-ू तड़ाक पर आ
गया था।
‘‘उजड्ड बालक! बहत हो िलया। देवराज इ से इस कार बात करने का साहस
ि लोक म िकसी का नह है।’’
‘‘अ छा तो तू है इ ! दु , कामी, लं पट। तेरा साहस कैसे हआ इस पिव आ म म
वेश करने का। िनकल जा अभी का अभी। अ यथा ...’’
ू देव के मुख से सहसा िनकला।
‘‘अ यथा या करे गा त?ू ’’ सय
दोन देव बड़ी देर से व ांग क उ ं डता सहन कर रहे थे। अब उनका ोध फूट ही पड़ा।
व तुत: उ ह अ यास ही नह था िकसी से समानता के तर पर बात करने का। बड़े -बड़े ऋिष-
मुिन और स ाट् इ के स मुख दंडवत रहते थे। सभी उनक चापलसू ी म लगे रहते थे। व ांग
क प अिभ यि वे कैसे सहन कर पाते। इ का हाथ सहसा अपने व पर चला गया। सय ू
देव ने उनका हाथ पकड़ िलया। एक बालक पर व का योग उनक ि म भी उिचत नह था।
‘‘अ छा अब तू जा यहाँ से। तेरे जैसे उ ं ड और अस य बालक के िलये थान नह है इस
गु कुल म।’’
‘‘व ांग कह नह जा रहा। जाना तो तुम दोन को होगा। िनकलो यहाँ से।’’
अब सयू देव से सहन नह हआ। उ ह ने व ांग को चाँटा मारने के िलये हाथ उठा िदया।
िक तु उनका हाथ व ांग को पश नह कर सका। व ांग ने उसे बीच म ही पकड़ कर उ टा
उनके मँुह पर एक मु का जड़ िदया। इस बालक म इतनी शि होगी और वह इतना दु साहस
कर जाएगा इसका व न म भी दोन देव को अनुमान नह था। आयु क ि से िवकराल शरीर
देख कर उ ह ने यही सोचा था िक बस फूला हआ है।
व ांग के मु के से असावधान सय ू देव लड़खड़ा गये। उ ह ने सँभल कर इस बार परू ी
शि से हार िकया। िक तु व ांग ने झुक कर वार बचा िलया और झुके-झुके ही िकसी उ त
बछड़े के समान उनके पेट म ट कर मार कर उ ह िगरा िदया। दोन गु थम-गु था हो गये। सय ू
देव स पणू यास के बाद भी उसे पलट नह पा रहे थे। इ मँुह बाये यह देख रहे थे। उ ह
िव ास नह हो रहा था िक िकसी मनु य म, वह भी एक बालक म इतनी भी शि हो सकती है।
व ांग सय ू देव को दबाये िनरं तर उनके चेहरे पर मु क का हार िकये जा रहा था। सय
ू देव को
बेदम होता देख कर इ ने पीछे से व ांग क पीठ पर मु के का हार िकया।
इस हार से व ांग ने सय
ू देव को छोड़ कर िबफर कर अपने कंधे का िवकट हार इ
पर कर िदया। हार इतना ती था िक इ भी लड़खड़ा गये। सय ू देव क हालत वे देख ही रहे थे।
उ ह ने भागने म ही भलाई समझी। व ांग अब सयू देव को छोड़ कर उठ गया था। इ को भागते
देख कर वह िचंघाड़ते हये ोिधत गजराज के समान उनके पीछे दौड़ा। वह िच लाता जा रहा था
-
‘‘ठहर जा दु ! मातामही अह या के साथ दुराचार करने वाले, तुझे तो म जीिवत नह
छोड़ँ गा।’’
उसक िवकट ललकार सुनकर इ और भी भयभीत हो गये। उ ह लगा िक व ांग क
गित उनसे ती है। यिद उसने उ ह पकड़ िलया तो उनक गित भी सय ू देव के समान ही होगी।
उ ह कोई माग नह सझ ू े और व का हार कर ही िदया।
ू रहा था। वे घम
व के भीषण हार से व ांग पछाड़ खा कर िगरा। उसक ठोड़ी पर गहरा आघात हआ
था। वह अचेत हो गया था। इ ने अपना व उठाया। अब तक सयू देव भी सचेत हो गये थे। दोन
व ांग को वैसे ही छोड़ कर चुपचाप भीतर म य भाग क ओर बढ़ गये। इस हठी व ांग को चेत
आये उससे पवू ही भीतर स पण
ू घटना म को सँभाल िलया जाए अ यथा यथ का िववाद
उ प न हो सकता है।
पता नह िकतनी देर अचेत पड़ा रहा व ांग। उसक ठोड़ी से बुरी तरह र ाव हो रहा
था। तभी इ को खोजते हये पवन देव आ िनकले। माग के िकनारे पड़े आहत बालक को देख
कर वे िवचिलत हो उठे । उ ह ने बढ़कर देखा तो बालक क ि थित गंभीर थी। उ ह ने नाड़ी
परी ण िकया, नाड़ी अ यवि थत थी। यिद इसे अिवल ब िचिक सक य सहायता न िमली तो
इसक म ृ यु भी हो सकती है। समय नह था। उ ह ने बालक को उठाया और अपनी ती तम गित
से मु य आ म क ओर बढ़ गये। मु य आ म के ार पर ही इ और सय ू देव ऋिषय से वाता
कर रहे थे। संभवत: वे अभी पहँचे थे। पवन देव ने ि थित क क पना कर ली िक तु कुछ कहा
नह । उ ह ने ऋिषय से अिवल ब बालक के उपचार का आ ह िकया।
‘‘हाँ ऋिषवर! आप लोग बालक के उपचार क यव था क िजये। तब तक हम सय ू देव
के गु कुल तक हो कर आते ह। हमारी यहाँ उपि थित से यथ आपका काय बािधत होगा।’’ इ
ने थान हे तु उ त होते हये कहा।
‘‘ िकये देवराज! आप भी िकये सय
ू देव। अपना काय छोड़ कर य जा रहे ह?’’
पवन देव बोले।
‘‘नह पवनदेव! बालक क ि थित गंभीर है। इसका उपचार पहले आव यक है। पता
नह िकस िनदयी ने इस पर ऐसा भीषण हार िकया है। आप भी आइये, ऋिषय को अपना काय
करने दीिजये।’’
‘‘आप लोग चिलये। म तो बालक के व थ होने तक यही कँ ू गा।’’ कहते हये पवनदेव
उपे ा से पीछे मुड़ गये। िफर वे कुलपित से स बोिधत हये -
‘‘शी ता क िजये ऋिषवर! हनुमान क नाड़ी छूटने ही वाली है।’’ पवनदेव ने व ांग के
नाम से प रिचत न होने के कारण उसे हनुमान (ठोड़ी म चोट वाला) कह कर स बोिधत िकया
था।
‘‘िचंता न कर मा त! हम लोग अपना दािय व समझ रहे ह।’’ कहते हए कुलपित ने
अ य ऋिषय को यथा आव यक िनदश देना आरं भ कर िदया।
थोड़ी ही देर म िव ािथय का आना आरं भ हो गया। जो आता व ांग क सच
ू ना िमलते
ही उसे देखने क उ कंठा म वह िसमट आता। व ांग के आसपास बड़ी किठनाई से भीड़ को
रोक पा रहे थे ऋिषगण। अंतत: एक ऋिष ने डाँट कर सबको क ाओं क ओर खदेड़ िदया। यह
ि थित देख कर कुलपित ने िनदश िदया -
‘‘उपचार करने वाले ऋिषय के अित र आप सभी ऋिषगण कृपया क ाओं को सँभाल
जाकर अ यथा यहाँ छा समहू लगा ही रहे गा। बालक म हनुमान को देखने क उ सुकता
वाभािवक ही है।’’ िफर वे पवन देव से स बोिधत हए -
‘‘म त! या आप इस बालक को जानते ह?’’
‘‘नह ऋिषवर! मुझे तो यह माग म पड़ा िदखाई िदया तो म इसे उठा लाया।’’
‘‘इसका नाम अिभलेख म अंिकत करना होगा। इसके प रवार को सच
ू ना भेजनी
होगी।’’
‘‘अभी इसका नाम हनुमान ही अंिकत कर लीिजये। ... और इसे चेत म आने दीिजये,
वयं ही प रचय देगा। संभव है तब तक कोई अ य बालक इसे पहचान ले।’’
‘‘अिभलेख म इसके िपता का नाम भी िलखना होगा।’’
‘‘ओह कुलपित! हनुमान क जीवन र ा इन सम त औपचा रकताओं से अिधक
आव यक है। अभी आप िपता के थान पर मेरा ही नाम िलख लीिजये, बाद म सही नाम अंिकत
कर दीिजयेगा। अभी उसके उपचार पर परू ा यान कि त क िजये।’’
‘‘वह तो िज ह करना है, वे कर ही रहे ह।’’
पवनदेव ने कोई उ र नह िदया। ये सब बात इस समय उनम खीज उ प न कर रही
थ । उनका परू ा यान हनुमान क ओर ही था।

बािल और सु ीव जैसे ही गु कुल म पहँचे ब च ने उ ह सचू ना दी िक व ांग के बहत


चोट लग गयी है। वह अचेत है और उसके पास गु जी िकसी को कने नह दे रहे ह। सुनते ही
दोन को तगड़ा झटका लगा। सीधे भागकर वहाँ पहँचे जहाँ हनुमान पड़ा था।
‘‘व ांग!’’ बािल का वर आँसा सा हो उठा था।
‘‘ या हआ इसे गु जी!’’ सु ीव ने पछ
ू ा
पवन देव ने हाथ फै लाकर इन दोन को हनुमान तक पहँचने से पहले ही रोक िलया।
‘‘ को व स! भय क कोई बात नह है, वह अब ठीक है। मुहत भर से पवू ही व थ हो
जाएगा।’’
‘‘िक तु आप हम रोके य ह? हम उसके पास जाना है।’’ बािल ने कहा।
‘‘आओ बािल-सु ीव! म त इ ह आने दीिजये, ये दोन महाराज ऋ राज के पु ह।’’
कुलपित ने िनवेदन िकया।
दोन व ांग के पास बैठ गये आकर।
‘‘ या हआ है हमारे बजरं ग को गु जी?’’ सु ीव ने पछ
ू ा।
‘‘बजरं ग! इसे जानते हो तुम बािल?’’
‘‘जी! यह दीदी अंजना का पु है, बजरं ग। हम इसके मातुल ह।’’ एक पल मौन के
उपरांत बािल ने पुन: िकया-
‘‘िक तु आपने बताया नह .. इसे हआ या है?’’
‘‘कुछ नह बस दौड़ते म कुछ चोट लग गयी है। अभी चेत म आता है। ... तु हारी दीदी
तो संभवत: ासाद म ही रहती ह - तुम लोग के साथ ही?’’
‘‘जी गु देव!’’
‘‘पवन देव यह बालक महिष गौतम और देवी अह या का दौिह है। देवी अंजना और
सेनापित केसरी का पु ।’’ कुलपित ने पवनदेव को व ांग का प रचय िदया।
‘‘अ छा बािल-सु ीव! पवनदेव को णाम तो िकया ही नह तुमने, यही तु हारे व ांग
को लेकर आये थे। यिद ये िवलंब कर देते तो इसका जीवन बचना किठन था।’’
दोन ने पवनदेव को णाम िकया। िफर एक दूसरे को कोहनी से क चते हये मु कुराने
लगे। इसे कुलपित ने भी लि त िकया। आिखर उ ह ने पछ
ू ही िलया -
‘‘कुछ िवशेष बात है बािल?’’
‘‘न..नह गु देव!’’
‘‘तुमने यह िम या-भाषण कब से सीख िलया? कुछ न कुछ बात तो अव य है।’’
‘‘गु देव! वह या है िक यह अ यंत ती गित से दौड़ता है। हम लोग भी इसे नह पकड़
पाते। इसिलये हम लोग इसे हँसी म पवनपु कहते ह।’’ बािल तो सोचता ही रहा िक या उ र दे
िक तु सु ीव ने कुछ लजाते हये स य उ ािटत कर ही िदया।’’
उसक बात सुनकर कुलपित और पवनदेव दोन ही हँस पड़े ।
‘‘लीिजये पवनदेव अब तो अिभलेख का अंकन स य ही हो गया।’’ पवन देव
मु कुराकर रह गये।
‘‘गु देव! बलशाली भी बहत है व ांग! कई बार तो इतनी सी अव था म ही म लयु म
हम भी परा त कर देता है।’’ सु ीव उ सुकता से व ांग क शि का बखान कर रहा था।
‘‘तब तो यह िन य ही पवनदेव का पु है। ये भी बड़े -बड़े व ृ को उखाड़ कर फक देते
ह।’’ कुलपित ने खुलकर हँसते हये कहा .... ‘‘और सुनो बािल! पवनदेव ने इसका नया
नामकरण भी कर िदया है - ‘‘हनुमान’’। अ छा है न?’’
‘‘जी गु देव! ... हनुमान’’ दोन ने दोहराया।
‘‘अब तो इसके तीन-तीन नाम हो गये’’ सु ीव ताली बजाता हआ बोला - ‘‘बजरं ग,
पवनपु और हनुमान।’’
सभी हँस पड़े । तभी हनुमान ने भी आँख खोल द और उठ बैठा।
71. सीता का याग
‘‘दोन बाहर आओ जरा। कुछ वाता करनी है।’’ रावण के सो जाने पर सुमाली ने
व मुि और ह त से कहा।
दोन कुिटया से िनकल आये। जो मंथन सुमाली के मि त क म चल रहा था वही इनके
मि त क म भी चल रहा था। रावण क मनि थित लंका के सवनाश क ोतक थी। रावण क
अनुपि थित म िव णु के िलये उ ह पुन: समा करना ब च का खेल ही था। िव णु के िलये उन
पर आ मण करने के िलये कुबेर के साथ िकया घात ही पया कारण था। और देखो तो यहाँ भी
िव णु का संग आ गया है। कैसे भी हो रावण को चैत य करना ही होगा।
कुिटया से थोड़ी दूर आकर, इतनी दूर िक रावण यिद औषिध के भाव से मु भी हो
जाये तो इनक बात न सुन पाये और इतनी पास भी िक अनजाने म कोई जंगली जानवर कुिटया
क ओर ख न कर पाये ये लोग खड़े हो गये।
‘‘ या िकया जाये?’’
‘‘कर भी या सकते ह हम? बस रावण को शी ाितशी लंका ले चलने क यव था
करनी है। वहाँ चल कर इसे चैत य करने का यास करना है।’’ मारीच बोला।
‘‘म इस ब ची क बात कर रहा हँ, मख
ू ! यह हमारे सवनाश का कारण बनने वाली
है।’’
‘‘वह न ही सी जान भला या कर लेगी?’’
‘‘कई बात ह जो उसके िबना िकये ही हो जायगी।’’
‘‘म नह समझा, प किहये।’’
‘‘पहली तो उसके शारी रक ल ण कह रहे ह िक वह िपतक
ृ ु ल के िलये महािवनाश साथ
म लेकर आई है।’’
‘‘ या?’’ सब च क पड़े - ‘‘आपने ठीक से तो देखा।’’
‘‘ब चा नह हँ म जो इतनी मह वपण
ू बात म कोई चक
ू कर जाऊँ! न ही रावण क
भाँित उ माद म हँ।’’
‘‘िफर?’’
‘‘जब तक यह ब ची सामने रहे गी यह रावण को उस वेदवती क याद िदलाती रहे गी,
उसके िलये बहत किठन होगा सामा य ि थित म आना। पर उसक कोई बहत अिधक िचंता नह
है, समय सारे घाव भर देता है। मुझे तो िचंता इस बात क है िक कह इस मनि थित म वह िव णु
से जाकर न उलझ जाये। म नह चाहता िक अभी वह िव णु के साथ कोई झगड़ा पाले।’’
‘‘आप ठीक कह रहे ह।’’
‘‘सोचो सब लोग, सोचो! इस क या से कैसे छुटकारा पाया जाये। यह जीिवत रही तो
सवनाश िनि त है।’’
‘‘इसे कैसे मार सकते ह? रावण का या होगा? रावण या करे गा?’’
‘‘यही तो कंटक है पु ! नह तो इसे समा कर ही िदया होता। इसे समा करने का
यास करते ही कह रावण हमारे ही िव न खड़ा हो जाये तो ....’’ सुमाली ने िसर झटकते हये
बात अधरू ी छोड़ दी।
‘‘कैसी ि थित है? एक जरा सी जान िजसे एक फँ ू क म उड़ा सकते ह, हम उसका कुछ
नह कर पा रहे ।’’
‘‘काश कोई व य-पशु आकर इसे उठा ले जाये और काम तमाम कर दे इसका!’’ ह त
ल बी सांस छोड़ते हये बोला।
ू ही रहोगे सदैव ह त! रावण के होते या ऐसा संभव है? और रावण के पीछे
‘‘तुम मख
हमने ऐसा कुछ होने िदया तो वह हम ही दोषी मानेगा। रावण के एक ण के आवेग ने सब न
कर िदया। िफर उसके ल ण कह रहे ह िक हम उसका कुछ नह िबगाड़ पायगे। वह जीिवत रहे गी
और हमारे िसर पर तलवार क भाँित लटकती रहे गी।’’
बहत देर तक िवचार िवमश चला पर कोई कारगर उपाय नह सझ
ू ा। अंतत: ात: कोई
फै सला करने का िन य कर सब कुिटया म आकर सो गये।
रात म सुमाली को एक कमजोर ही सही पर युि सझ ू ही गयी। उसने यास करने का
िन य िकया। सुबह दैिनक ि याओं से िनव ृ होते ही वह रावण के पास जाकर बैठ गया। आज
रावण अपे ाकृत सामा य था। सुमाली समझ रहा था िक उसके दय म आग जल रही है पर
उसने अपनी भावनाओं के वार पर काबू पा िलया था।
‘‘पु एक पछ
ू ू ँ ?’’
‘‘पिू छये मातामह?’’ रावण ने िसर झुकाये-झुकाये ही उ र िदया। वह बेटी के बदन पर
हाथ फेर रहा था।
‘‘तुम कह रहे थे िक वेदवती क इ छा थी िक वह िव णु को ा करे ।’’
‘‘हाँ!’’
‘‘म ृ यु के समय उसने कहा था िक अब उसक बेटी िव णु को ा करे गी।’’
‘‘हाँ! वह बोली िक ‘‘मेरी तप या फलीभत
ू अव य होगी। अब मेरी बेटी िव णु को ा
करे गी।’’
‘‘िक तु पु ! या तु हारी पु ी का िव णु से िववाह िकसी भी कार संभव है?’’
इस पर रावण मौन हो गया। अब वह सोचने-समझने क ि थित म आ चुका था,
क गंभीरता वह अनुभव कर रहा था। सुमाली धैय से उसके बोलने क ती ा करता रहा।
ल बे मौन के बाद आिखर रावण बोला-
‘‘नह मातामह! देव के साथ जो श ुता के स ब ध बन गये ह उनके चलते न तो म
अपनी क या को इसक अनुमित दे सकता हँ और यिद दे भी दँू तो िव णु तो कदािप ऐसे िकसी
भी ताव को वीकार नह करे गा। म जानता हँ अभी मने देव का कुछ भी अिहत नह िकया है
िक तु िफर भी वे मुझे अपना सबसे बड़ा श ु मानते ह। म श ुता याग भी दँू, वे नह यागगे।
उनक कुिटलता का कोई पार नह । और िव णु ... वह तो सारे देव से अिधक कुिटल है।’’
‘‘तो या तु हारी वेदवती क अंितम इ छा अधरू ी रह जायेगी? अ यंत शुभल णी है यह
क या! म देख रहा हँ इसे दीघायु का योग है। म देख रहा हँ िक यह िकसी परम तापी यि का
वरण करे गी।’’
‘‘वह परम तापी या िव णु होगा?’’
‘‘हो भी सकता है। यह तो क या के भा य और उसक माता के ढ़ िव ास पर िनभर
करता है।’’
‘‘यह भी है। पता नह कौन सी शि है जो सब कुछ िनयंि त करती है? मुझे पता हो
जाता तो म उससे लड़ कर इसके भा य म िव णु का वरण िलखवा लाता। वेदवती क अंितम इ छा
परू ी करने के िलये म सबसे लड़ सकता हँ।’’
‘‘यिद तुम एक बड़ा याग करने को त पर हो जाओ तो यह संभव हो सकता है।’’
‘‘ या मातामह?’’ रावण ने इतनी देर म पहली बार नजर उठाय - ‘‘ या िव णु मेरी
ाथना वीकार कर लेगा?’’
‘‘नह पु ! वह कदािप नह वीकार करे गा।’’
‘‘िफर मातामह? िफर यथ क आशा य िदलाते ह?’’ रावण के वर म िफर हताशा आ
गयी थी।’’
‘‘यिद कोई यह जाने ही नह िक यह तु हारी क या है। यिद यह िकसी कार िकसी
ऐसे यि क क या हो जाये िजससे िव णु को कोई वैमन य न हो, तो ऐसा हो सकता है।’’
‘‘पर यह तो मेरी क या है, मातामह! िकसी दूसरे क क या कैसे हो सकती है?’’ रावण
क समझ म सुमाली क बात नह आई थी। सुमाली चाहता भी नह था िक वह एकदम से सारी
बात समझ जाये।
‘‘यह अभी से चुपचाप िकसी ऐसे यि के पास पहँच जाये।’’
‘‘कैसे पहँच जायेगी मातामह, और वह य कर इसे वीकार ही कर लेगा। जो भी िव णु
के भले ह वे सब तो रावण के बैरी ह।’’
‘‘उसके सं ान म आये िबना िक यह तु हारी क या है। बस तु ह एक बड़ा याग करना
होगा, इसे वयं से पथ
ृ क करना होगा। कभी भी इससे इसका िपता बन कर नह िमलना होगा।’’
‘‘मातामह! या म अपनी क या यँ ू ही िकसी के भी पास डाल दँूगा? आिखर यह रावण
क क या है।’’
‘‘सब हो जायेगा! यह आयावत के सबसे े नरे श के पास जायेगी। ऐसे नरे श के पास
िजसका सब स मान करते ह, िजसका कोई भी श ु नह है।’’
‘‘ऐसा तो एक ही यि है मातामह! िवदेहराज।’’
‘‘ठीक समझे।’’
‘‘मातामह िक तु वे तो िवदेहराज है, सहज, सरल, स यव ा ... वे कैसे िछपायगे यह
रह य िक यह रावण क क या है। उनके पास यिद यह रहे गी तो म इससे िबछोह भी वीकार कर
लँग
ू ा।’’
‘‘उ ह यह ात ही नह होगा िक यह रावण क पु ी है।’’
‘‘कैसे होगा यह?’’
‘‘यह मुझ पर छोड़ दो। िवदेहराज का रा य थोड़ी दूर पर ही है और हमारे माग म भी है।’’
‘‘िफर भी मातामह कैसे होगा यह? मुझे तो कोई माग नह िदखाई दे रहा।’’
‘‘तुम तो पु एक वष से सारी दुिनया से कटे रहे हो। तु ह पता ही या है।’’
‘‘ठीक ह आप, पर इससे या अ तर पड़ता है?’’
‘‘पु िवदेहराज कल ात: वयं महारानी के साथ य के िलये य भिू म हल से जोत
कर समतल करगे। बस वह यह क या एक मंजषू ा म उ ह ा हो जायेगी। वे सहज ही इसे
अपनी पु ी के प म वीकार करगे, परू ा यार दगे।’’
‘‘दगे! कोई शंका नह इसम। िवदेहराज पर रावण को परू ा भरोसा है। आय म वे ही तो
एक स जन ह।’’
‘‘तब िफर बात प क रही?’’
‘‘मातामह! िकतने ू र ह आप! वेदवती चली गई और अब आप उसक मिृ त भी मुझसे
छीन लेना चाहते ह।’’
‘‘ या और कोई माग है पु ? हो तो मुझे बताओ।’’
‘‘नह है मातामह।’’
‘‘िफर तु ह बताओ!’’
‘‘तो अब मुझे मेरी क या के साथ अकेला छोड़ दीिजये। आज राि पयत कोई न आये
हमारे म य।’’
‘‘ऐसा ही होगा पु िक तु दैिनक ि याओं से तो िनव ृ हो लो।’’
‘‘नह आज कुछ नह करे गा रावण। केवल अपनी पु ी से बात करे गा। पता नह िविध
पुन: इससे बात करने का सौभा य देगी भी रावण को या नह !’’
‘‘चलो तु हारी बात ही सही।’’
‘‘िक तु मातामह देिखये इसे मंजषू ा म कोई असुिवधा न हो, इसे चोट लगने का कोई
भय न हो - सारी यव थाएँ देख लीिजयेगा। और हाँ इसे तभी मंजषू ा म रिखयेगा जब आप उस
थान पर पहँच जाय और हाँ इसके िलये मंजषू ा म दूध का बंध कैसे करगे - यिद इसे भख
ू लग
आई तो? और यह अपने आप िपयेगी कैसे? और ...’’
‘‘अरे पु या तु ह अपने मातामह पर भरोसा नह ? या तु हारी पु ी सुमाली क कुछ
नह है? सुमाली के िलये तो यह सिृ का सबसे अनमोल र न है। सुमाली को यह सिृ म सबसे
ि य है - उसके रावण से भी अिधक।’’ कहते हये सुमाली हँस पड़ा। उसके सीने से बहत बड़ा
प थर हट गया था। िफर भी वह सोच रहा था िक काश इस क या से परू ी मुि पाने का कोई
माग होता?
रावण भी इस बात पर मु कुरा उठा। िफर बोला -
‘‘िफर भी मातामह परू ी सावधानी रिखयेगा।’’

और हल चला रहे जनक के हल क नोक से उ ािटत बािलका सीता (हल क नोक से


िखंची हई रे खा) के नाम से िस हई। जनक ने उसे अपनी पु ी के प म वीकार िकया।
अ ात कुल-गो क यह बािलका अयोिनजा और भिू म-पु ी के प म जानी गयी।

मश: ...

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