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जीिन पररचय- गोस्िामी तुलसीदास का जन्म बााँदा वजले के राजापुर गााँि में सन 1532 में हुआ था। कु छ लोग
इनका जन्म-स्थान सोरों मानते हैं। इनका बचपन कष्ट में बीता। बचपन में ही इन्हें माता-वपता का वियोग सहना
पडा। गुरु नरहररदास की कृ पा से इनको रामभवि का मागग वमला। इनका वििाह रत्नािली नामक युिती से
हुआ। कहते हैं कक रत्नािली की फटकार से ही िे िैरागी बनकर रामभवि में लीन हो गए थे। विरि होकर ये
काशी, वचत्रकू ट, अयोध्या आकद तीथों पर भ्रमण करते रहे। इनका वनधन काशी में सन 1623 में हुआ।
रचनाएाँ- गोस्िामी तुलसीदास की रचनाएाँ वनम्नवलवित हैं-
रामचररतमानस, कवितािली, रामलला नहछु , गीतािली, दोहािली, विनयपवत्रका, रामाज्ञा-प्रश्न, कृ ष्ण
गीतािली, पािगती–मांगल, जानकी-मांगल, हनुमान बाहुक, िैराग्य सांदीपनी। इनमें से ‘रामचररतमानस’ एक
महाकाव्य है। ‘कवितािली’ में रामकथा कवित्त ि सिैया छांदों में रवचत है। ‘विनयपवत्रका’ में स्तुवत के गेय पद
हैं।
काव्यगत विशेषताएाँ- गोस्िामी तुलसीदास रामभवि शािा के सिोपरर कवि हैं। ये लोकमांगल की साधना के
कवि के रूप में प्रवतवित हैं। यह तथ्य न वसर्फग उनकी काव्य-सांिेदना की दृवष्ट से, िरन काव्यभाषा के घटकों की
दृवष्ट से भी सत्य है। इसका सबसे बडा प्रमाण यही है कक शास्त्रीय भाषा (सांस्कृ त) में सजगन -क्षमता होने के
बािजूद इन्होंने लोकभाषा (अिधी ि ब्रजभाषा) को सावहत्य की रचना का माध्यम बनाया।
तुलसीदास में जीिन ि जगत की व्यापक अनुभूवत और मार्मगक प्रसांगों की अचूक समझ है। यह विशेषता उन्हें
महाकवि बनाती है। ‘रामचररतमानस’ में प्रकृ वत ि जीिन के विविध भािपूणग वचत्र हैं, वजसके कारण यह हहांदी
का अद्वतीय महाकाव्य बनकर उभरा है। इसकी लोकवप्रयता का कारण लोक-सांिेदना और समाज की नैवतक
बनािट की समझ है। इनके सीता-राम ईश्वर की अपेक्षा तुलसी के देशकाल के आदशों के अनुरूप मानिीय
धरातल पर पुनः सृष्ट चररत्र हैं।
भाषा-शैली- गोस्िामी तुलसीदास अपने समय में हहांदी-क्षेत्र में प्रचवलत सारे भािात्मक तथा काव्यभाषायी
तत्िों का प्रवतवनवधत्ि करते हैं। उनमें भाि-विचार, काव्यरूप, छांद तथा काव्यभाषा की बहुल समृद्ध वमलती है।
ये अिधी तथा ब्रजभाषा की सांस्कृ वत कथाओं में सीताराम और राधाकृ ष्ण की कथाओं को सावधकार अपनी
अवभव्यवि का माध्यम बनाते हैं। उपमा अलांकार के क्षेत्र में जो प्रयोग-िैवशष्य कावलदास की पहचान है, िही
पहचान साांगरूपक के क्षेत्र में तुलसीदास की है।
कविताओं का प्रवतपादय एिां सार
प्रवतपादय-कवित्त में कवि ने बताया है कक सांसार के अच्छे-बुरे समस्त लीला-प्रपांचों का आधार ‘पेट की आग’ का
दारुण ि गहन यथाथग है, वजसका समाधान िे राम-रूपी घनश्याम के कृ पा-जल में देिते हैं। उनकी रामभवि पेट
की आग बुझाने िाली यानी जीिन के यथाथग सांकटों का समाधान करने िाली है, साथ ही जीिन-बाह्य
आध्यावत्मक मुवि देने िाली भी है।
सार-कवित्त में कवि ने पेट की आग को सबसे बडा बताया है। मनुष्य सारे काम इसी आग को बुझाने के उद्देश्य से
करते हैं चाहे िह व्यापार, िेती, नौकरी, नाच-गाना, चोरी, गुप्तचरी, सेिा-टहल, गुणगान, वशकार करना या
जांगलों में घूमना हो। इस पेट की आग को बुझाने के वलए लोग अपनी सांतानों तक को बेचने के वलए वििश हो
जाते हैं। यह पेट की आग समुद्र की बडिानल से भी बडी है। अब के िल रामरूपी घनश्याम ही इस आग को बुझा
सकते हैं।
पहले सिैये में कवि अकाल की वस्थवत का वचत्रण करता है। इस समय ककसान िेती नहीं कर सकता, वभिारी
को भीि नहीं वमलती, व्यापारी व्यापार नहीं कर पाता तथा नौकरी की चाह रिने िालों को नौकरी नहीं
वमलती। लोगों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। िे वििश हैं। िेद-पुराणों में कही और दुवनया की
देिी बातों से अब यही प्रतीत होता है कक अब तो भगिान राम की कृ पा से ही कु शल होगी। िह राम से प्राथगना
करते हैं कक अब आप ही इस दररद्रता रूपी रािण का विनाश कर सकते हैं।
दूसरे सिैये में कवि ने भि की गहनता और सघनता में उपजे भि-हृदय के आत्मविश्वास का सजीि वचत्रण
ककया है। िे कहते हैं कक चाहे कोई मुझे धूतग कहे, अिधूत या जोगी कहे, कोई राजपूत या जुलाहा कहे, ककां तु मैं
ककसी की बेटी से अपने बेटे का वििाह नहीं करने िाला और न ककसी की जावत वबगाडने िाला हाँ। मैं तो के िल
अपने प्रभु राम का गुलाम हाँ। वजसे जो अच्छा लगे, िही कहे। मैं मााँगकर िा सकता हाँ तथा मवस्जद में सो सकता
हाँ ककां तु मुझे ककसी से कु छ लेना-देना नहीं है। मैं तो सब प्रकार से भगिान राम को समर्पगत हाँ।
प्रवतपादय- यह अांश ‘रामचररतमानस’ के लांकाकाांड से वलया गया है जब लक्ष्मण शवि-बाण लगने से मूर्चगछत
हो जाते हैं। भाई के शोक में विगवलत राम का विलाप धीरे -धीरे प्रलाप में बदल जाता है वजसमें लक्ष्मण के प्रवत
राम के अांतर में वछपे प्रेम के कई कोण सहसा अनािृत्त हो जाते हैं। यह प्रसांग ईश्वरीय राम का पूरी तरह से
मानिीकरण कर देता है, वजससे पाठक का काव्य-ममग से सीधे जुडाि हो जाता है। इस घने शोक-पररिेश में
हनुमान का सांजीिनी लेकर आ जाना कवि को करुण रस के बीच िीर रस के उदय के रूप में कदिता है।
सार- युद्ध में लक्ष्मण के मूर्चगछत होने पर राम की सेना में हाहाकार मच गया। सब िानर सेनापवत इकट्ठे हुए
तथा लक्ष्मण को बचाने के उपाय सोचने लगे। सुषेण िैद्य के परामशग पर हनुमान वहमालय से सांजीिनी बूटी
लाने के वलए चल पडे। लक्ष्मण को गोद में वलटाकर राम व्याकु लता से हनुमान की प्रतीक्षा करने लगे। आधी रात
बीत जाने के बाद राम अत्यवधक व्याकु ल हो गए। िे विलाप करने लगे कक तुम मुझे कभी भी दुिी नहीं देि पाते
थे। मेरे वलए ही तुमने िनिास स्िीकार ककया। अब िह प्रेम मुझसे कौन करेगा? यकद मुझे तुम्हारे वियोग का
पता होता तो मैं तुम्हें कभी साथ नहीं लाता। सांसार में सब कु छ दुबारा वमल सकता है, परांतु सहोदर भाई नहीं।
तुम्हारे वबना मेरा जीिन पांिरवहत पक्षी के समान है। अयोध्या जाकर मैं क्या जिाब दूाँगा? लोग कहेंगे कक पत्नी
के वलए भाई को गिा आया। तुम्हारी मााँ को मैं क्या जिाब दूाँगा? तभी हनुमान सांजीिनी बूटी लेकर आए। िैद्य
ने दिा बनाकर लक्ष्मण को वपलाई और उनकी मूच्छी ठीक हो गई। राम ने उन्हें गले से लगा वलया। िानर सेना
में उत्साह आ गया। रािण को यह समाचार वमला तो उसने परेशान होकर कुां भकरण को उठाया। कुां भकरण ने
जगाने का कारण पूछा तो रािण ने सीता के हरण से युद्ध तक की सारी बात बताई तथा बडे -बडे िीरों के मारे
जाने की बात कही। कुां भकरण ने रािण को बुरा-भला कहा और कहा कक तुमने साक्षात ईश्वर से िैर वलया है
और अब अपना कल्याण चाहते हो! राम साक्षात हरर तथा सीता जी जगदांबा हैं। उनसे िैर लेना कभी
कल्याणकारी नहीं हो सकता।
(क) कवितािली
शब्दाथग-ककसबी-धांधा। कु ल- पररिार। बवनक- व्यापारी। भाट- चारण, प्रशांसा करने िाला। चाकर- घरेलू
नौकर। चपल- चांचल। चार- गुप्तचर, दूत। चटकी- बाजीगर। गुनगढ़त- विवभन्न कलाएाँ ि विधाएाँ सीिना। अटत-
घूमता। अिटकी- वशकार करना। गहन गन- घना जांगल। अहन- कदन। करम-कायग। अधरम- पाप। बुझाड-
बुझाना, शाांत करना। घनश्याम- काला बादल। बडिावगतें- समुद्र की आग से। आग येट की- भूि।
प्रसांग- प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘कवितािली’ के ‘उत्तरकाांड’ से उद्धृत
है। इसके रचवयता तुलसीदास हैं। इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामावजक ि आर्थगक दुरािस्था का
यथाथगपरक वचत्रण ककया है।
व्याख्या- तुलसीदास कहते हैं कक इस सांसार में मजदूर, ककसान-िगग, व्यापारी, वभिारी, चारण, नौकर, चांचल
नट, चोर, दूत, बाजीगर आकद पेट भरने के वलए अनेक काम करते हैं। कोई पढ़ता है, कोई अनेक तरह की कलाएाँ
सीिता है, कोई पिगत पर चढ़ता है तो कोई कदन भर गहन जांगल में वशकार की िोज में भटकता है। पेट भरने के
वलए लोग छोटे-बडे कायग करते हैं तथा धमग-अधमग का विचार नहीं करते। पेट के वलए िे अपने बेटा-बेटी को भी
बेचने को वििश हैं। तुलसीदास कहते हैं कक अब ऐसी आग भगिान राम रूपी बादल से ही बुझ सकती है,
क्योंकक पेट की आग तो समुद्र की आग से भी भयांकर है।
विशेष-
(i) समाज में भूि की वस्थवत का यथाथग वचत्रण ककया गया है।
(ii) कवित्त छांद है।
(iii) तत्सम शब्दों का अवधक प्रयोग है।
(iv) ब्रजभाषा लावलत्य है।
(v) ‘राम घनस्याम’ में रूपक अलांकार तथा ‘आवग बडिावगतें..पेट की’ में व्यवतरेक अलांकार है।
(vi) वनम्नवलवित में अनुप्रास अलांकार की छटा है-
‘ककसबी, ककसान-कु ल’, ‘वभिारी, भाट’, ‘चाकर, चपल’, ‘चोर, चार, चेटकी’, ‘गुन, गढ़त’, ‘गहन-गन’, ‘अहन
अिेटकी ‘, ‘ बचत बेटा-बेटकी’, ‘ बडिावगतें बडी ‘
(vii) अवभधा शब्द-शवि है।
प्रश्न
(क) पेट भरने के वलए लोग क्या-क्या अनैवतक काय करते हैं ?
(ि) कवि ने समाज के ककन-ककन लोगों का िणगन ककया है ? उनकी क्या परेशानी है ?
(ग) कवि के अनुसार, पेट की आग कौन बुझा सकता है ? यह आग कै से है ?
(घ) उन कमों का उल्लेि कीवजए, वजन्हें लोग पेट की आग बुझाने के वलए करते हैं ?
उत्तर-
(क) पेट भरने के वलए लोग धमग-अधमग ि ऊांचे-नीचे सभी प्रकार के कायग करते है ? वििशता के कारण िे अपनी
सांतानों को भी बेच देते हैं ?
(ि) कवि ने मज़दूर, ककसान-कु ल, व्यापारी, वभिारी, भाट, नौकर, चोर, दूत, जादूगर आकद िगों का िणगन
ककया है। िे भूि ि गरीबी से परेशान हैं।
(ग) कवि के अनुसार, पेट की आग को रामरूपी घनश्याम ही बुझा सकते हैं। यह आग समुद्र की आग से भी
भयांकर है।
(घ) कु छ लोग पेट की आग बुझाने के वलए पढ़ते हैं तो कु छ अनेक तरह की कलाएाँ सीिते हैं। कोई पिगत पर
चढ़ता है तो कोई घने जांगल में वशकार के पीछे भागता है। इस तरह िे अनेक छोटे-बडे काम करते हैं।
2.
शब्दाथग-बवल- दान-दवक्षणा। बवनक- व्यापारी। बवनज- व्यापार। चाकर- घरेलू नौकर। चाकरी- नौकरी। जीविका
वबहीन- रोजगार से रवहत। सदयमान-दुिी। सोच- हचांता। बस- िश में। एक एकन सों- आपस में। का करी- क्या
करें। बेदहाँ- िेद। पुरान- पुराण। लोकहाँ- लोक में भी। वबलोककअत- देिते हैं। सााँकरे- सांकट। रािरें-
आपने। दाररद- गरीबी। दसानन- रािण। दबाढ़- दबाया। दुनी- सांसार। दीनबांध-ु दुवियों पर कृ पा करने
िाला। दुररत- पाप। दहन-जलाने िाला, नाश करने िाला। हहा करी-दुिी हुआ।
प्रसांग-प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘कवितािली’ के ‘उत्तरकाांड’ से उद्धृत है।
इसके रचवयता तुलसीदास हैं। इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामावजक ि आर्थगक दुरािस्था का यथाथगपरक
वचत्रण ककया है।
व्याख्या- तुलसीदास कहते हैं कक अकाल की भयानक वस्थवत है। इस समय ककसानों की िेती नष्ट हो गई है। उन्हें
िेती से कु छ नहीं वमल पा रहा है। कोई भीि मााँगकर वनिागह करना चाहे तो भीि भी नहीं वमलती। कोई बवल
का भोजन भी नहीं देता। व्यापारी को व्यापार का साधन नहीं वमलता। नौकर को नौकरी नहीं वमलती। इस
प्रकार चारों तरफ बेरोजगारी है। आजीविका के साधन न रहने से लोग दुिी हैं तथा हचांता में डू बे हैं। िे एक-
दूसरे से पूछते हैं-कहााँ जाएाँ? क्या करें ? िेदों-पुराणों में ऐसा कहा गया है और लोक में ऐसा देिा गया है कक
जब-जब भी सांकट उपवस्थत हुआ, तब-तब राम ने सब पर कृ पा की है। हे दीनबांधु! इस समय दररद्रतारूपी
रािण ने समूचे सांसार को त्रस्त कर रिा है अथागत सभी गरीबी से पीवडत हैं। आप तो पापों का नाश करने िाले
हो। चारों तरफ हाय-हाय मची हुई है।
विशेष-
प्रश्न
उत्तर-
(क) कवि ने ककसान, वभिारी, व्यापारी, नौकरी करने िाले आकद िगों के बारे में बताया है कक ये सब
बेरोजगारी से परेशान हैं।
(ि) लोग बेरोजगारी से हचांवतत हैं। िे सोच रहे हैं कक हम कहााँ जाएाँ क्या करें ?
(ग) िेदों और पुराणों में कहा गया है कक जब-जब सांकट आता है तब-तब प्रभु राम सभी पर कृ पा करते हैं तथा
सबका कष्ट दूर करते हैं।
(घ) तुलसीदास ने दररद्रता की तुलना रािण से की है। दररद्रतारूपी रािण ने पूरी दुवनया को दबोच वलया है
तथा इसके कारण पाप बढ़ रहे हैं।
3.
धूत कहो, अिधूत कहों, रजपूतु कहीं, जोलहा कहों कोऊ।
कह की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहकी जावत वबगार न सौऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु हैं राम को, जाको रुच सो कहें कछु आोऊ।
मााँग कै िैबो, मसीत को सोइबो, लेबोको एकु न दैबको दोऊ।।
शब्दाथग- धूत- त्यागा हुआ। अिधूत– सांन्यासी। रजपूत-ु राजपूत। जलहा- जुलाहा। कोऊ- कोई। काह की- ककसी
की। ब्याहब- ब्याह करना है। वबगार-वबगाडना। सरनाम- प्रवसद्ध। गुलामु- दास। जाको- वजसे। रुच- अच्छा
लगे। आोऊ- और। िैबो- िाऊाँगा। मसीत- मसवजद। सोढ़बो- सोऊाँगा। लैंबो-लेना। िैब-देना। दोऊ- दोनों।
प्रसांग- प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘कवितािली’ के ‘उत्तरकाांड’ से उद्धृत
है। इसके रचवयता तुलसीदास हैं। इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामावजक ि आर्थगक दुरािस्था का
यथाथगपरक वचत्रण ककया है।
व्याख्या- कवि समाज में व्याप्त जावतिाद और धमग का िांडन करते हुए कहता है कक िह श्रीराम का भि है। कवि
आगे कहता है कक समाज हमें चाहे धूतग कहे या पािांडी, सांन्यासी कहे या राजपूत अथिा जुलाहा कहे, मुझे इन
सबसे कोई र्फकग नहीं पडता। मुझे अपनी जावत या नाम की कोई हचांता नहीं है क्योंकक मुझे ककसी के बेटी से
अपने बेटे का वििाह नहीं करना और न ही ककसी की जावत वबगाडने का शौक है। तुलसीदास का कहना है कक मैं
राम का गुलाम हाँ, उसमें पूणगत: समर्पगत हाँ, अत: वजसे मेरे बारे में जो अच्छा लगे, िह कह सकता है। मैं मााँगकर
िा सकता हाँ, मवस्जद में सो सकता हाँ तथा मुझे ककसी से कु छ लेना-देना नहीं है। सांक्षेप में कवि का समाज से
कोई सांबांध नहीं है। िह राम का समर्पगत भि है।
विशेष-
(i) कवि समाज के आक्षेपों से दुिी है। उसने अपनी रामभवि को स्पष्ट ककया है।
(ii) दास्यभवि का भाि वचवत्रत है।
(iii) ‘लैबोको एकु न दैबको दोऊ’ मुहािरे का सशि प्रयोग है।
(iv) सिैया छांद है।
(v) ब्रजभाषा है।
(vi) मवस्जद में सोने की बात करके कवि ने उदारता और समरसता का पररचय कदया है।
(vii) वनम्नवलवित में अनुप्रास अलांकार की छटा है-
‘कहौ कोऊ’, ‘काह की’, ‘कहै कछु ’।
प्रश्न
उत्तर-
(क) कवि धमग, जावत, सांप्रदाय के नाम पर राजनीवत करने िाले ठे केदारों पर व्यांग्य करता है, क्योंकक समाज के
इन ठे केदारों के व्यिहार से ऊाँच-नीच, जावत-पााँवत आकद के द्वारा समाज की सामावजक समरसता कहीं िो गई
है।
(ि) कवि स्ियां को रामभि कहने में गिग का अनुभि करता है। िह स्ियां को उनका गुलाम कहता है तथा समाज
की हाँसी का उस पर कोई प्रभाि नहीं पडता।
(ग) कवि समाज से कहता है कक समाज के लोग उसके बारे में जो कु छ कहना चाहें, कह सकते हैं। कवि पर
उनका कोई प्रभाि नहीं पडता। िह ककसी से कोई सांबांध नहीं रिता।
(घ) कवि वभक्षािृवत्त से अपना जीिनयापन करना चाहता है। िह मवस्जद में वनवित होकर सोता है। उसे ककसी
से कु छ लेना-देना नहीं है। िह अपने सभी कायों के वलए अपने आराध्य श्रीराम पर आवश्रत है।
1.
प्रश्न
(क) कवि तथा कविता का नाम बताइए?
(ि) हनुमान ने भरत जी को क्या आश्वासन कदया ?
(ग) हनुमान ने भरत सो क्या कहा ?
(घ) हनुमान भरत की ककस बात से प्रभावित हुए ?
(ङ) हनुमान ने सकट में धैयग नहीं िोया। िे िीर एिां धैयि
ग ान थे-स्पष्ट कीवजए।
उत्तर-
(क) कवि-तुलसीदास।
कविता-लक्ष्मण-मूच्छी और राम का विलाप।
(ि) हनुमान जी ने भरत जी को यह आश्वासन कदया कक “हे नाथ! मैं आपका प्रताप हृदय में रिकर तुरांत
सांजीिनी बूटी लेकर लांका पहुाँच जाऊाँगा। आप वनवित रवहए।”
(ग) हनुमान ने भरत से कहा कक “हे नाथ! मैं आपके प्रताप को मन में धारण करके तुरांत जाऊाँगा।”
(घ) हनुमान भरत की रामभवि, शीतल स्िभाि ि बाहुबल से प्रभावित हुए।
(ङ) मेघनाथ का बाण लगने से लक्ष्मण घायल ि मूर्चगछत हो गए थे। इससे श्रीराम सवहत पूरी िानर सेना
शोकाकु ल होकर विलाप कर रही थी। ऐसे में हनुमान ने विलाप करने की जगह धैयग बनाए रिा और सांजीिनी
लेने गए। इससे स्पष्ट होता है कक हनुमान िीर एिां धैयगिान थे।
2.
शब्दाथग- उहााँ-िहााँ। लवछमनवह- लक्ष्मण को। वनहारी- देिा। मनुज- मनुष्य। अनुसारी- समान। अध-
आधी। रावत- रात। कवप- बांदर (हनुमान)। आयउ-आया। अनुज- छोटा भाई, लक्ष्मण। उर- हृदय। सकटु-
सके । दुवित- दुिी। मोह- मुझे। काऊ- ककसी प्रकार । ति- तेरा। मृदल ु - कोमल। सुभाऊ– स्िभाि। मम-
मेरे। वहत- भला। तजहु- त्याग कदया। सहेहु- सहन ककया। वबवपन- जांगल। वहम- बफग । आतप- धूप। बाता- हिा,
तूर्फान। सो- िह। अनुराग- प्रेम। िच- िचन। वबकलाह- व्याकु ल। जों- यकद। जनतेऊाँ- जानता। वबछोह- वबछडना,
वियोग। मनतेऊाँ– मानता। अगेह- उस।
प्रसांग- प्रस्तुत काव्याांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘लक्ष्मण-मूच्छा और राम का
विलाप’ प्रसांग से उद्धृत है। यह प्रसांग रामचररतमानस के लांकाकाांड से वलया गया है। इसके रचवयता
कवि तुलसीदास हैं। इस प्रसांग में लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के करुण विलाप का िणगन ककया गया है।
व्याख्या- लक्ष्मण को वनहारते हुए श्रीराम सामान्य आदमी के समान विलाप करते हुए कहने लगे कक आधी रात
बीत गई है। अभी तक हनुमान नहीं आए। उन्होंने लक्ष्मण को उठाकर सीने से लगाया। िे बोले कक “तुम मुझे
कभी दुिी नहीं देि पाते थे। तुम्हारा स्िभाि सदैि कोमल ि विनम्र रहा। मेरे वलए ही तुमने माता-वपता को
त्याग कदया और जांगल में ठां ड, धूप, तूर्फान आकद को सहन ककया। हे भाई! अब िह प्रेम कहााँ है? तुम मेरी
व्याकु लतापूणग बातों को सुनकर उठते क्यों नहीं। यकद मैं यह जानता होता कक िन में तुम्हारा वियोग सहना
पडेगा तो मैं वपता के िचनों को भी नहीं मानता और िन में नहीं आता।
विशेष-
(i) राम का मानिीय रूप एिां उनके विलाप का मार्मगक िणगन है।
(ii) दृश्य हबांब है।
(iii) करुण रस की प्रधानता है।
(iv) चौपाई छांद का कु शल वनिागह है।
(v) अिधी भाषा है।
(vi) वनम्नवलवित में अनुप्रास अलांकार की छटा है-
‘बोले बचन’, ‘दुवित देवि’, ‘बन बांधु वबछोह’, ‘बच वबकलाई’।
प्रश्न
उत्तर-
(क) रात अवधक होते देि राम व्याकु ल हो गए। उन्होंने लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा वलया।
(ि) राम ने लक्ष्मण की वनम्नवलवित विशेषताएाँ बताई-
(ग) लक्ष्मण ने राम के वलए अपने माता-वपता को ही नहीं, अयोध्या का सुि-िैभि त्याग कदया। िे िन में राम के
साथ रहकर नाना प्रकार की मुसीबतें सहते रहे।
(घ) ‘सो अनुराग’ कहकर राम ने अपने और लक्ष्मण के बीच स्नेह की तरफ सांकेत ककया है। ऐसा प्रेम दुलगभ होता
है कक भाई के वलए दूसरा भाई अपने सब सुि त्याग देता है। राम भी लक्ष्मण की मूच्छी मात्र से व्याकु ल हो जाते
हैं।
3.
शब्दाथग- वबत-धन। नारर- स्त्री, पत्नी। होहहां- आते हैं। जावह- जाते हैं। जग- सांसार। बारहेवंंां बार- बार-
बार। अस- ऐसा, इस तरह। वबचारर- सोचकर। वजय- मन में। ताता- भाई के वलए सांबोधन। सहोदर– एक ही मााँ
की कोि से जन्मे। भ्राता- भाई। जथा- वजस प्रकार। वबनु- के वबना। दीना-दीन-हीन। मवन- नागमवण। फवन- फन
(यहााँ-सााँप)। कररबर- श्रेि हाथी। कर- सूांड। हीना- से रवहत। मम- मेरा। वजिन- जीिन। बांध-ु भाई। तोही-
तुम्हारे। जौं-यकद। जड- कठोर। िैि- भाग्य। वजआिै- जीवित रिे। मोही- मुझ।े जैहऊाँ- जाऊाँगा। किन-
कौन। मुहु-ाँ मुि। हेत-ु के वलए। गिाड- िोकर। बरु- चाहे। अयजस- अपयश। सहतेऊाँ- सहन करता। माह-
में। वबसेष- िास। छवत- हावन, नुकसान।
प्रसांग- प्रस्तुत काव्याांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘लक्ष्मण-मूच्छी और राम का
विलाप’ प्रसांग से उद्धृत है। यह प्रसांग रामचररतमानस के लांकाकाांड से वलया गया है। इसके
रचवयता तुलसीदास हैं। इस प्रसांग में लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के विलाप का िणगन है।
व्याख्या- श्रीराम व्याकु ल होकर कहते हैं कक सांसार में पुत्र , धन, स्त्री, भिन और पररिार बार-बार वमल जाते हैं
और नष्ट हो जाते हैं, ककां तु सांसार में सगा भाई दुबारा नहीं वमलता। यह विचार करके , हे तात, तुम जाग जाओ।
हे लक्ष्मण! वजस प्रकार पांि के वबना पक्षी, मवण के वबना सााँप, साँड के वबना हाथी अत्यांत दीन-हीन हो जाते हैं,
उसी प्रकार तुम्हारे वबना मेरा जीिन व्यथग है। हे भाई! तुम्हारे वबना यकद भाग्य मुझे जीवित रिेगा तो मेरा
जीिन भी पांिविहीन पक्षी, मवण विहीन सााँप और साँड विहीन हाथी के समान हो जाएगा। राम हचांता करते हैं
कक िे कौन-सा मुाँह लेकर अयोध्या जाएाँग? े लोग कहेंगे कक पत्नी के वलए वप्रय भाई को िो कदया। मैं पत्नी के िोने
का अपयश सहन कर लेता, क्योंकक नारी की हावन विशेष नहीं होती।
विशेष-
प्रश्न
उत्तर-
(क) इस काव्याांश में राम का आम आदमी िाला रूप कदिाई देता है। िे लक्ष्मण के प्रवत स्नेह ि प्रेमभाि को व्यि
करते हैं तथा सांसार के हर सुि से ज्यादा सगे भाई को महत्ि देते हैं।
(ि) राम ने भ्रातृ-प्रेम की तुलना में पुत्र, धन, स्त्री, घर और पररिार सबको हीन माना है। उनके अनुसार, ये
सभी चीजें आती-जाती रहती हैं, परांतु सगा भाई बार-बार नहीं वमलता।
(ग) राम को लक्ष्मण के वबना अपना जीिन उतना ही हीन लगता है वजतना पांि के वबना पक्षी, मवण के वबना
सााँप तथा साँड के वबना हाथी का जीिन हीन होता है।
(घ) इस कथन से श्रीराम का कतगव्यबोध झलकता है। िे अपनी वजम्मेदारी पर लक्ष्मण को अपने साथ लाए थे,
परांतु िे अपना कतगव्य पूरा न कर सके । अत: िे अयोध्या में अपनी जिाबदेही से डरे हुए थे।
4.
सोरठ
शब्दाथग- अपलोकु -अपयश। सहाह- सहन कर लेगा। वनदुर- कठोर। उर- हृदय। वनज- अपनी। जननी-
मााँ। कु मारा- पुत्र। तात-वपता। तासु-उसके । प्रान अधारा- प्राणों के आधार। सााँयवे स- सौपा था। मोह- मुझ।े गवह-
पकडकर। यानी- हाथ। वहत- वहतैषी। जानी- जानकर। उतरु- उत्तर। काह- क्या। तेवह-उसे। ककन- क्यों
नहीं। स्त्रित- चूता है। सवलल- जल। रावजि- कमल। गवत- दशा। प्रलाप- तकग हीन िचन-प्रिाह। विकल-
परेशान। वनष्कर- समूह। वजवम- जैसे। माँह– में।
प्रसांग- प्रस्तुत काव्याांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘लक्ष्मण-मूच्छ और राम का
विलाप’ प्रसांग से उद्धृत है। यह प्रसांग रामचररतमानस के लांका काांड से वलया गया है। इसके
रचवयता तुलसीदास हैं। इस प्रसांग में लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के विलाप ि हनुमान के िापस आने का िणगन
ककया गया है।
व्याख्या- लक्ष्मण के होश में न आने पर राम विलाप करते हुए कहते हैं कक मेरा वनिु र ि कठोर हृदय अपयश
और तुम्हारा शोक दोनों को सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र हो तथा उसके प्राणों के
आधार हो। उसने सब प्रकार से सुि देने िाला तथा परम वहतकारी जानकर ही तुम्हें मुझे सौंपा था। अब उन्हें मैं
क्या उत्तर दूाँगा? तुम स्ियां उठकर मुझे कु छ बताओ। इस प्रकार राम ने अनेक प्रकार से विचार ककया और उनके
कमल रूपी सुांदर नेत्रों से आाँसू बहने लगे। वशिजी कहते हैं-हे उमा ! श्री रामचांद्र जी अवद्वतीय और अिांड हैं।
भिों पर कृ पा करने िाले भगिान ने मनुष्य की दशा कदिाई है। प्रभु का विलाप सुनकर िानरों के समूह व्याकु ल
हो गए। इतने में हनुमान जी आ गए। ऐसा लगा जैसे करुण रस में िीर रस प्रकट हो गया हो।
विशेष-
प्रश्न
उत्तर-
(क) व्याकु ल श्रीराम आपना दुि प्रकट करते हुए कहते हैं कक िे कठोर हृदय से लक्ष्मण के वियोग ि अपयश को
सहन कर लेंगे, परांतु अयोध्या में सुवमत्रा माता को क्या जिाब देंगे।
(ि) श्रीराम सुवमत्रा माता के विषय में हचांवतत हैं, क्योंकक उन्होंने राम को हर तरह से वहतैषी मानकर लक्ष्मण
को उन्हें सौंपा था। अत: िे उन्हें लक्ष्मण की मृत्यु का जिाब कै से देंगे। िे लक्ष्मण से ही इसका जिाब पूछ रहे हैं।
(ग) इसका अथग यह है कक राम ने मानिरूप में जन्म वलया। उन्हें धरती पर होने िाली हर घटना का पूिग ज्ञान
है, परांतु िे लक्ष्मण-मूच्छा पर साधारण मानि की तरह व्यिहार कर रहे हैं।
(घ) हनुमान के आगमन से िानर सेना में उत्साह आ गया। ऐसा लगा जैसे करुण रस के प्रसांग में िीर रस का
सांचार हो गया।
5.
शब्दाथग- हरवष-िुश होकर। भेटेउ- गले लगाकर प्रेम प्रकट ककया। अवत- बहुत अवधक। कृ तग्य- आभार। सुजाना-
अच्छा ज्ञानी, समझदार। बैद- िैद्य। कीवन्ह- ककया। भ्राता– भाई। हरषे- िुश हुए। सकल- समस्त। ब्रता- समूह,
झांड। युवन- दुबारा। तावह- उसको। लद्ध आिा- लेकर आए थे।
प्रसांग- प्रस्तुत काव्याांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘लक्ष्मण-मूच्छ और राम का
विलाप’ प्रसांग से उद्धृत है। यह प्रसांग रामचररतमानस के लांकाकाांड से वलया गया है। इसके
रचवयता तुलसीदास हैं। इस प्रसांग में लक्ष्मण के स्िस्थ होकर उठने तथा सभी की प्रसन्नता का िणगन है।
व्याख्या- हनुमान के आने पर राम ने प्रसन्न होकर उन्हें गले से लगा वलया। परम चतुर और एक समझदार व्यवि
की तरह भगिान राम ने हनुमान के प्रवत अपनी कृ तज्ञता प्रकट की। िैद्य ने शीघ्र ही उपचार ककया वजससे
लक्ष्मण उठकर बैठ गए और बहुत प्रसन्न हुए। लक्ष्मण को राम ने गले से लगाया। इस दृश्य को देिकर भालुओं
और िानरों के समूह में िुशी छा गई। हनुमान ने िैद्यराज को िहीं उसी तरह पहुाँचा कदया जहााँ से िे उन्हें लेकर
आए थे।
विशेष-
(i) लक्ष्मण के ठीक होने पर िानर सेना ि राम की िुशी का िणगन है।
(ii) अिधी भाषा है।
(iii) चौपाई छांद है।
(iv) ‘प्रभु परम’, ‘तबहहां तावह में’।
(v) घटना क्रम में तीव्रता है।
प्रश्न
उत्तर-
(क) हनुमान के आने पर राम प्रसन्न हो गए तथा उन्हें गले से लगाया। उन्होंने हनुमान के प्रवत कृ तज्ञता व्यि
की।
(ि) सुषेण िैद्य ने सांजीिनी बूटी से लक्ष्मण का उपचार ककया। पररणामस्िरूप उनकी मूच्छाग टूटी और लक्ष्मण
हाँसते हुए उठ बैठे।
(ग) लक्ष्मण के ठीक होने पर प्रभु राम ने उन्हें गले से लगा वलया। इस दृश्य को देिकर सभी बांदर, भालू ि
हनुमान प्रसन्न हो गए।
(घ) इसका अथग यह है कक हनुमान वजस तरीके से सुषेण िैद्य को उठाकर लाए थे, उसी प्रकार उन्हें उनके स्थान
पर पहुाँचा कदया।
6.
शब्दाथग- बृताांत-िणगन। वबषाद-दुि। वसर धुनऊ े -पछताया। पहहां- पास। वबवबध-अनेक। जतन- उपाय,
प्रयास। करर- करके । तावह- उसे। जगािा-जगाया। वनवसचर-राक्षस अथागत कुां भकरण। कालु- मौत। देह-
शरीर। धरर- धारण करके । बैंसा- बैठा। बूद्धा- पूछा। कहु-कहो। काहे-क्यों। ति- तेरा। सुिाद्रग- सूि रहे हैं।
प्रसांग- प्रस्तुत काव्याांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘लक्ष्मण-मूच्छा और राम का
विलाप’ प्रसांग से उद्धृत है। यह प्रसांग रामचररतमानस के लांकाकाांड से वलया गया है। इसके
रचवयता तुलसीदास हैं। इस प्रसांग में कुां भकरण के जागने का िणगन ककया गया है।
व्याख्या- जब रािण ने लक्ष्मण के ठीक होने का समाचार सुना तो िह दुि से अपना वसर धुनने लगा। व्याकु ल
होकर िह कुां भकरण के पास गया और कई तरह के उपाय करके उसे जगाया। कुां भकरण जागकर बैठ गया। िह
ऐसा लग रहा था मानो यमराज ने शरीर धारण कर रिा हो। कुां भकरण ने रािण से पूछा-कहो भाई, तुम्हारे
मुि क्यों सूि रहे हैं?
विशेष-
प्रश्न
उत्तर-
(क) रािण ने लक्ष्मण की मूच्छी ाँ टूटने का समाचार सुना। यह सुनकर िह अत्यांत दुिी हो गया तथा वसर पीटने
लगा।
(ि) रािण कुां भकरण के पास गया तथा अनेक तरीकों से उसे नींद से जगाया।
(ग) कुां भकरण जागने के बाद ऐसा लग रहा था मानो यमराज शरीर धारण करके बैठा हो।
(घ) कुां भकरण ने रािण से पूछा, ‘कहो भाई, तुम्हारे मुि क्यों सूि रहे हैं? अथागत तुम्हें क्या कष्ट है? ”
7.
दोहा
शब्दाथग- कथा-कहानी। तेहहां- उस। जवह- वजस। हरर- हरण करके । आन- लाए। कवपन्ह- हनुमान आकद
िानर। महा महा– बडे-बडे। जोधा- योद्धा। सांधारे- सांहार ककया। दुमि ु - एक राक्षस का नाम। सुरररयु- देिताओं
का शत्रु (इां द्रजीत)। मनुज अहारी- नराांतक। भट- योद्धा। अवतकाय- एक राक्षस का नाम। आयर- दूसरा। महोदर-
एक राक्षस का नाम। आकदक- आकद। समर- युद्ध। मवह- धरती। रनधीर- रणधीर। दसकां धर- रािण। वबलिान-
दुिी होकर रोने लगा। जगदांबा- जगत-जननी। हरर- हरण करके । आवन- लाकर। सठ- मूिग। कल्यान- कल्याण,
शुभ।
प्रसांग- प्रस्तुत काव्याांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में सांकवलत ‘लक्ष्मण-मूच्छा और राम का
विलाप’ प्रसांग से उद्धृत है। यह प्रसांग रामचररतमानस के लांकाकाांड से वलया गया है। इसके
रचवयता तुलसीदास हैं। इस प्रसांग में कुां भकरण ि रािण के िातागलाप का िणगन है।
व्याख्या- अवभमानी रािण ने वजस प्रकार से सीता का हरण ककया था उसकी और उसके बाद तक की सारी कथा
उसने कुां भकरण को सुनाई। रािण ने बताया कक हे तात, हनुमान ने सब राक्षस मार डाले हैं। उसने महान-महान
योद्धाओं का सांहार कर कदया है। दुमुगि, देिशत्रु, नराांतक, महायोद्धा, अवतकाय, अकां पन और महोदर आकद अनेक
िीर युद्धभूवम में मरे पडे हैं। रािण की बातें सुनकर कुां भकरण वबलिने लगा और बोला कक अरे मूिग, जगत-
जननी जानकी को चुराकर अब तू कल्याण चाहता है ? यह सांभि नहीं है।
विशेष-
(i) रािण की व्याकु लता तथा कुां भकरण की िाक्पटुता का पता चलता है।
(ii) अिधी भाषा का प्रयोग है।
(iii) चौपाई तथा दोहा छांद हैं।
(iv) िीर रस विद्यमान है।
(v) ‘महा महा’ में पुनरुवि प्रकाश अलांकार है।
(vi) सांिाद शैली है।
(vi) ‘कथा कही’, ‘अवतकाय अकप्पन अनुप्रास अलांकार है।
प्रश्न
उत्तर-
(क) रािण ने कुां भकरण से सीता-हरण से लेकर अब तक के युद्ध और उसमें मारे गए अपनी सेना के िीरों के बारे
में बताया ।
(ि) रािण की सेना के दुमुगि, अवतकाय, अकां पन, महोदर, नराांतक आकद िीर मारे गए।
(ग) हनुमान ने अनेक बडे-बडे िीरों को मारकर रािण की सेना को गहरी क्षवत पहुाँचाई थी। रािण कुां भकरण को
हनुमान की िीरता, अपनी वििशता और पराजय की आशांका के बारे में बताता है।
(घ) रािण की बात सुनकर कुां भकरण वबलिने लगा। उसने कहा, ‘हे मूिग, जगत-जननी का हरण करके तू
कल्याण की बात सोचता है? अब तेरा भला नहीं हो सकता।”
(क) कवितािली
1.
प्रश्न
उत्तर-
(क) इस समाज में वजतने भी प्रकार के काम हैं, िे सभी पेट की आग से िशीभूत होकर ककए जाते हैं।’पेट की
आग’वििेक नष्ट करने िाली है। ईश्वर की कृ पा के अवतररि कोई इस पर वनयांत्रण नहीं पा सकता।
(ि) पेट की आग भगिान राम की कृ पा के वबना नहीं बुझ सकती। अथागत राम की कृ पा ही िह जल है , वजससे
इस आग का शमन हो सकता है।
(ग)
• पेट की आग बुझाने के वलए मनुष्य द्वारा ककए जाने िाले कायों का प्रभािपूणग िणगन है।
• काव्याांश कवित्त छांद में रवचत है।
• ब्रजभाषा का माधुयग घनीभूत है।
• ‘राम घनश्याम’ में रूपक अलांकार है। ‘ककसबी ककसान-कु ल’, ‘चाकर चपल’, ‘बेचत बेटा-बेटकी’ आकद में
अनुप्रास अलांकार की छटा दशगनीय है।
2.
प्रश्न
(क) ककसन, व्यापारी, वभिारी और चाकर ककस बात से परेशन हैं?
(ि) बेदहाँ पुरान कही …… कृ पा करी ‘ – इस पांवि का भाि-सौंदयग स्पष्ट कीवजए।
(ग) कवि ने दररद्रता को ककसके समान बताया हैं और क्यों ?
उत्तर-
(क) ककसान को िेती के अिसर नहीं वमलते, व्यापारी के पास व्यापार की कमी है, वभिारी को भीि नहीं
वमलती और नौकर को नौकरी नहीं वमलती। सभी को िाने के लाले पडे हैं। पेट की आग बुझाने के वलए सभी
परेशान हैं।
(ि) के सुभ ह लता हैऔसांसारमेंबाह देता गया है कभगिान श्रवमक कृ पादृष्टपड्नेरह वद्वता दूर होती है।
(ग) कवि ने दररद्रता को दस मुि िाले रािण के समान बताया है क्योंकक िह भी रािण की तरह समाज के हर
िगग को प्रभावित करते हुए अपना अत्याचार-चक्र चला रही है।
1.
प्रश्न
उत्तर-
(ि) काव्याांश में सरस, सरल अिधी भाषा का प्रयोग है। इसमें दोहा छद का प्रयोग है।
(ग) काव्याांश में हनुमान द्वारा भरत के बाहुबल, शील-स्िभाि तथा प्रभु श्री राम के चरणों में उनकी अपार
भवि की सराहना का िणगन है।
2.
प्रश्न
उत्तर-
(क) विष्णु भगिान के अितार भगिान श्री राम का मनुष्य के समान व्याकु ल होना और राम, लक्ष्मण एिां भरत
का यह परस्पर भ्रातृ-प्रेम हमारे वलए प्रेरणा का स्रोत है।
(ि) दोनों भाइयों में अगाध प्रेम था। श्री राम अनुज से बहुत लगाि रिते थे तथा दोनों के बीच वपता-पुत्र-सा
सांबांध था। लक्ष्मण श्री राम का बहुत सम्मान करते थे।
(ग) भगिान श्री राम के अनुसार सांसार के सब सुि भाई पर न्यौछािर ककए जा सकते हैं। भाई के अभाि में
जीिन व्यथग है और भाई जैसा कोई हो ही नहीं सकता। आज के युग में यह सीि अनेक सामावजक कष्टों से मुि
करिा सकती है।
3.
प्रश्न
उत्तर-
(क) भाषा-प्रयोग की दो विशेषताएाँ हैं-
(ि) काव्याांश में लक्ष्मण के मूर्चगछत होने पर श्री राम एिां िानरों की शोक-सांिेदना एिां दुि का िणगन है। उसी
बीच हनुमान के आ जाने से दुि में हषग के सांचार हो जाने का िणगन है, क्योंकक उनके सांजीिनी बूटी लाने से अब
लक्ष्मण के प्राण बच जाएाँगे।
(ग) ‘विकल भए िानर वनकर’ में अनुप्रास तथा ‘आइ गयउ हनुमान, वजवम करुना महाँ िीर रस’ में उत्प्रेक्षा
अलांकार है।
4.
प्रश्न
उत्तर-
(क) इसमें राम-भि हनुमान की बहादुरी ि कमगठता का, लक्ष्मण के स्िस्थ होने का श्री राम सवहत भालू और
िानरों के समूह के हर्षगत होने का बहुत ही सजीि िणगन ककया गया है।
(ि) हनुमान जी की िीरता और कमगवनिा ऐसी है कक िे दुि में व्याकु ल नहीं होते और हषग में कतगव्य नहीं भूलते।
इसीवलए लक्ष्मण के मूर्चगछत होने पर उन्होंने बैठकर रोने के स्थान पर सांजीिनी लाये और काम होते ही िैद्य
को यथास्थान पहुाँचाया।
(ग)
(i) काव्याांश सरल, सहज अिधी भाषा में है, वजसमें चौपाई छांद है।
(ii) अनुप्रास अलांकार की छटा है।
(iii) भाषा प्रिाहमयी है।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
1. ‘कवितािली’ में उद्धृत छांदों के आधार पर स्पष्ट करें कक तुलसीदास को अपने युग की आर्थगक विषमता की
अच्छी समझ है।
अथिा
उत्तर-
तुलसीदास अपने युग के स्रष्टा एिां द्रष्टा थे। उन्होंने अपने युग की प्रत्येक वस्थवत को गहराई से देिा एिां अनुभि
ककया था। लोगों के पास चूाँकक धन की कमी थी इसवलए िे धन के वलए सभी प्रकार के अनैवतक कायग करने लग
गए थे। उन्होंने अपने बेटा-बेटी तक बेचने शुरू कर कदए ताकक कु छ पैसे वमल सकें । पेट की आग बुझाने के वलए
हर अधमी और नीचा कायग करने के वलए तैयार रहते थे। जब ककसान के पास िेती न हो और व्यापारी के पास
व्यापार न हो तो ऐसा होना स्िाभाविक है।
2. पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भवि का मेघ ही कर सकता है-तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय
का भी युग सत्य है ? तकग सांगत उत्तर दीवजए।
उत्तर-
दीवजए/ पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भवि का मेघ ही कर सकता है-तुलसी का यह काव्य-सत्य कु छ हद
तक इस समय का भी युग-सत्य हो सकता है ककां तु यकद आज व्यवि वनिा भाि, मेहनत से काम करे तो उसकी
सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। वनिा और पुरुषाथग-दोनों वमलकर ही मनुष्य के पेट की आग का शमन
कर सकते हैं। दोनों में एक भी पक्ष असांतुवलत होने पर िाांवछत फल नहीं वमलता। अत: पुरुषाथग की महत्ता हर
युग में रही है और आगे भी रहेगी।
3.
उत्तर-
तुलसीदास जावत-पााँवत से दूर थे। िे इनमें विश्वास नहीं रिते थे। उनके अनुसार व्यवि के कमग ही उसकी जावत
बनाते हैं। यकद िे काह के बेटासों बेटी न ब्याहब कहते हैं तो उसका सामावजक अथग यही होता कक मुझे बेटा या
बेटी ककसी में कोई अांतर नहीं कदिाई देता। यद्यवप मुझे बेटी या बेटा नहीं ब्याहने , लेककन इसके बाद भी मैं बेटा-
बेटी का कद्र करता हाँ।
4. धूत कहीं ’ िाले छांद में ऊपर से सरल ि वनरीह कदिाई पडने िाले तुलसी की भीतरी असवलयत एक
स्िावभमानी भि हृदय की हैं। इससे आप कहााँ तक सहमत हैं ?
अथिा
‘धूत कहीं ……’ ‘छांद के आधार पर तुलसीदास के भि-हृदय की विशेषता पर रटप्पणी कीवजए।
उत्तर-
तुलसीदास ने इस छांद में अपने स्िावभमान को व्यि ककया है। िे सच्चे रामभि हैं तथा उन्हीं के प्रवत समर्पगत हैं।
उन्होंने ककसी भी कीमत पर अपना स्िावभमान कम नहीं होने कदया और एकवनि भाि से राम की अराधना की।
समाज के कटाक्षों का उन पर कोई प्रभाि नहीं है। उनका यह कहना कक उन्हें ककसी के साथ कोई िैिावहक सांबांध
स्थावपत नहीं करना, समाज के मुाँह पर तमाचा है। िे ककसी के आश्रय में भी नहीं रहते। िे वभक्षािृवत्त से अपना
जीिन-वनिागह करते हैं तथा मवस्जद में जाकर सो जाते हैं। िे ककसी की परिाह नहीं करते तथा ककसी से लेने -देने
का व्यिहार नहीं रिते। िे बाहर से सीधे हैं, परांतु हृदय में स्िावभमानी भाि को वछपाए हुए हैं।
5. व्याख्या करें-
(क)
मम वहत लावग तजेहु वपतु माता। सहेहु वबवपन वहम आतप बाता।
जौं जनतेऊाँ बन बांधु वबछोह। वपता बचन मनतेऊाँ नहहां ओह।
(ि)
जथा पांि वबनु िग अवत दीना। मवन वबनु फवन कररबर कर हीना।
अस मम वजिन बांधु वबनु तोही। जों जड दैि वजआिै मोही।
(ग)
मााँवग के िैबो, मसीत को सोइबो,
लैबोको एकु न दैबको दोऊ।
(घ)
ऊाँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करर,
पेट को ही पचत, बेचत बेटा-बेटकी ।
उत्तर-
(क) मेरे वहत के वलए तूने माता-वपता त्याग कदए और इस जांगल में सरदी-गरमी तूर्फान सब कु छ सहन ककया।
यकद मैं यह जानता कक िन में अपने भाई से वबछु ड जाऊाँगा तो मैं वपता के िचनों को न मानता।
(ि) मेरी दशा उसी प्रकार हो गई है वजस प्रकार पांिों के वबना पक्षी की, मवण के वबना सााँप की, साँड के वबना
हाथी| की होती है। मेरा ऐसा भाग्य कहााँ जो तुम्हें दैिीय शवि जीवित कर दे।
(ग) तुलसीदास जी कहते हैं कक मैंने तो मााँगकर िाया है मस्ती में सोया हाँ ककसी का एक लेना नहीं है और दो
देने नहीं अथागत् मैं वबल्कु ल वनवित प्राणी हाँ।
(घ) तुलसी के युग में लोग पैसे के वलए सभी तरह के कमग ककया करते थे। िे धमग-अधमग नहीं जानते थे के िल पेट
भरने की सोचते। इसवलए कभी-कभी िे अपनी सांतान को भी बेच देते थे।
6. भ्रातृशोक में हुई राम की दशा को कवि ने प्रभु की नर-लीला की अपेक्षा सच्ची मानिीय अनुभूवत के रूप में
रचा है। क्या आप इससे सहमत हैं ? तकग पूणग उत्तर दीवजए।
उत्तर-
लक्ष्मण के मूर्चगछत होने पर राम को वजस तरह विलाप करते कदिाया गया है, िह ईश्वरीय लीला की बजाय
आम व्यवि का विलाप अवधक लगता है। राम ने अनेक ऐसी बातें कही हैं जो आम व्यवि ही कहता है, जैसे-यकद
मुझे तुम्हारे वियोग का पहले पता होता तो मैं तुम्हें अपने साथ नहीं लाता। मैं अयोध्या जाकर पररिारजनों को
क्या मुाँह कदिाऊाँगा, माता को क्या जिाब दूाँगा आकद। ये बातें ईश्वरीय व्यवित्ि िाला नहीं कह सकता क्योंकक
िह तो सब कु छ पहले से ही जानता है। उसे कायों का कारण ि पररणाम भी पता होता है। िह इस तरह शोक
भी नहीं व्यि करता। राम द्वारा लक्ष्मण के वबना िुद को अधूरा समझना आकद विचार भी आम व्यवि कर
सकता है। इस तरह कवि ने राम को एक आम व्यवि की तरह प्रलाप करते हुए कदिाया है जो उसकी सच्ची
मानिीय अनुभूवत के अनुरूप ही है। हम इस बात से सहमत हैं कक यह विलाप राम की नर-लीला की अपेक्षा
मानिीय अनुभूवत अवधक है।
7. शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अितरण को करुण रस के बीच िीर रस का आविभि क्यों कहा गया हैं?
उत्तर-
जब सभी लोग लक्ष्मण के वियोग में करुणा में डू बे थे तो हनुमान ने साहस ककया। उन्होंने िैद्य द्वारा बताई गई
सांजीिनी लाने का प्रण ककया। करुणा के इस िातािरण में हनुमान का यह प्रण सभी के मन में िीर रस का
सांचार कर गया। सभी िानरों और अन्य लोगों को लगने लगा कक अब लक्ष्मण की मूच्र्छा टूट जाएगी। इसीवलए
कवि ने हनुमान के अितरण को िीर रस का आविभागि बताया है।
8. जैहउाँ अिध किन मुहुाँ लाई। नारर हेतु वप्रय भाइ गिाई।
बरु अपजस सहतेऊाँ जग माहीं। नारर हावन वबसेष छवत नाहीं।
भाई के शोक में डू बे राम के इस प्रलाप-िचन में स्त्री के प्रवत कै सा सामावजक दृवष्टकोण सांभावित हैं?
उत्तर-
भाई के शोक में डू बे राम ने कहा कक मैं अिध क्या मुाँह लेकर जाऊाँगा? िहााँ लोग कहेंगे कक पत्नी के वलए वप्रय
भाई को िो कदया। िे कहते हैं कक नारी की रक्षा न कर पाने का अपयशता में सह लेता, ककन्तु भाई की क्षवत का
अपयश सहना मुवश्कल है। नारी की क्षवत कोई विशेष क्षवत नहीं है। राम के इस कथन से नारी की वनम्न वस्थवत
का पता चलता है।उस समय पुरुष-प्रधान समाज था। नारी को पुरुष के बराबर अवधकार नहीं थे। उसे के िल
उपभोग की चीज समझा जाता था। उसे असहाय ि वनबगल समझकर उसके आत्मसम्मान को चोट पहुाँचाई जाती
थी।
पाठ के आस-पास
1. कावलदास के ‘रघुिश
ां ’ महाकाव्य में पत्नी (इां दम
ु त) के मृत्यु-शोक पर अज तथा वनराला की ‘सरोज-स्मृवत’ में
पुत्री (सरोज) के मृत्यु-शोक पर वपता के करुण उद्गार वनकले हैं। उनसे भ्रातृशोक में डू बे राम के इस विलाप की
तुलना करें।
उत्तर-
रघुिांश महाकाव्य में पत्नी की मृत्यु पर पवत का शोक करना स्िाभाविक है। ‘अज’ इां दम ु ती की अचानक हुई मृत्यु
से शोकग्रस्त हो जाता है। उसे उसके साथ वबताए हर क्षण की याद आती है। िह वपछली बातों को याद करके
रोता है, प्रलाप करता है। यही वस्थवत वनराला जी की है। अपनी एकमात्र पुत्री सरोज की मृत्यु होने पर वनराला
जी को गहरा आघात लगता है। वनराला जी जीिनभर यही पछतािा करते रहे कक उन्होंने अपनी पुत्री के वलए
कु छ नहीं ककया। उसका लालन-पालन भी न कर सके । लक्ष्मण के मूर्छगत हो जाने पर राम का शोक भी इसी
प्रकार का है। िे कहते हैं कक मैंने स्त्री के वलए अपने भाई को िो कदया, जबकक स्त्री के िोने से ज्यादा हावन नहीं
होती। भाई के घायल होने से मेरा जीिन भी लगभग ित्म-सा हो गया है।
2. ‘पेट ही को यचत, बेचत बेटा-बेटकी’तुलसी के युग का ही नहीं आज के युग का भी सत्य हैं/ भुिमरी में
ककसानों की आत्महत्या और सांतानों (िासकर बेरटयों) को भी बेच डालने की हृदय-विदारक घटनाएाँ हमारे देश
में घटती रही हैं। ितमान पररवस्थवतयों और तुलसी के युग की तुलना करें।
उत्तर-
गरीबी के कारण तुलसीदास के युग में लोग अपने बेटा-बेटी को बेच देते थे। आज के युग में भी ऐसी घटनाएाँ
घरटत होती है। ककसान आत्महत्या कर लेते हैं तो कु छ लोग अपनी बेरटयों को भी बेच देते हैं। अत्यवधक गरीब ि
वपछडे क्षेत्रों में यह वस्थवत आज भी यथाित है। तुलसी तथा आज के समय में अांतर यह है कक पहले आम व्यवि
मुख्यतया कृ वष पर वनभगर था, आज आजीविका के वलए अनेक रास्ते िुल गए हैं। आज गरीब उद्योग-धांधों में
मजदूरी करके जब चल सकता है पांतुकटु सब बाह है ककगबकीदता में इस यु” और िातगमान में बाहु अांत नाह
आया हैं ।
3. तुलसी के युग की बेकारी के क्या कारण हो सकते हैं ? आज की बेकारी की समस्या के कारणों के साथ उसे
वमलाकर कक्षा में पररचचा करें।
उत्तर-
तुलसी युग की बेकारी का सबसे बडा कारण गरीबी और भुिमरी थी। लोगों के पास इतना धन नहीं था कक िे
कोई रोजगार कर पाते। इसी कारण लोग बेकार होते चले गए। यही कारण आज की बेकारी का भी है। आज भी
गरीबी है, भुिमरी है। लोगों को इन समस्याओं से मुवि नहीं वमलती, इसी कारण बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।
4. राम कौशल्या के पुत्र थे और लक्ष्मण सुवमत्रा के । इस प्रकार िे परस्पर सहोदर (एक ही मााँ के पेट से जन्मे)
नहीं थे। कफर, राम ने उन्हें लक्ष्य करके ऐसा क्यों कहा—‘वमलह न जगत सहोदर भ्राता’2 इस पर विचार करें।
उत्तर-
राम और लक्ष्मण भले ही एक मााँ से पैदा नहीं हुए थे, परांतु िे सबसे ज्यादा एक-दूसरे के साथ रहे। राम अपनी
माताओं में कोई अांतर नहीं समझते थे। लक्ष्मण सदैि परछाई की तरह राम के साथ रहते थे। उनके जैसा त्याग
सहोदर भाई भी नहीं कर सकता था। इसी कारण राम ने कहा कक लक्ष्मण जैसा सहोदर भाई सांसार में दूसरा
नहीं वमल सकता।
5. यहााँ कवि तुलसी के दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित, सिैया-ये पााँच छद प्रयुि हैं। इसी प्रकार तुलसी सावहत्य
में और छद तथा काव्य-रूप आए हैं। ऐसे छदों ि काव्य-रूपों की सूची बनाएाँ।
उत्तर-
तुलसी सावहत्य में अन्य छांदों का भी प्रयोग हुआ है जो वनम्नवलवित है-बरिै, छप्पय, हररगीवतका।
तुलसी ने इसके अवतररि वजन छांदों का प्रयोग ककया है उनमें छप्पय, झूलना मतांगयद, घनाक्षरी िरिै,
हररगीवतका, चौपय्या, वत्रभांगी, प्रमावणका तोटक और तोमर आकद के नाम उल्लेिनीय हैं। काव्य रूप-तुलसी ने
महाकाव्य, प्रबांध काव्य और मुिक काव्यों की रचना की है। इसीवलए अयोध्याहसांह उपाध्याय वलिते हैं कक
“कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।”
अन्य हल प्रश्न
लघूत्तरात्मक प्रश्न
अथिा
उत्तर-
लक्ष्मण को मूर्चगछत देिकर राम भाि-विहिल हो उठते हैं। िे आम व्यवि की तरह विलाप करने लगते हैं। िे
लक्ष्मण को अपने साथ लाने के वनणगय पर भी पछताते हैं। िे लक्ष्मण के गुणों को याद करके रोते हैं। िे कहते हैं
कक पुत्र, नारी, धन, पररिार आकद तो सांसार में बार-बार वमल जाते हैं, ककां तु लक्ष्मण जैसा भाई दुबारा नहीं
वमल सकता। लक्ष्मण के वबना िे स्ियां को पांि कटे पक्षी के समान असहाय, मवणरवहत सााँप के समान तेजरवहत
तथा साँडरवहत हाथी के समान असक्षम मानते हैं। िे इस हचांता में थे कक अयोध्या में सुवमत्रा मााँ को क्या जिाब
देंगे तथा लोगों का उपहास कै से सुनेंगे कक पत्नी के वलए भाई को िो कदया।
2. बेकारी की समस्या तुलसी के जमाने में भी थी, उस बेकारी का िणगन तुलसी के कवित्त के आधार पर
कीवजए।
अथिा
तुलसी ने अपने युग की वजस दुदगशा का वचत्रण ककया हैं, उसका िणगन अपने शब्दों में कीवजए।
उत्तर-
तुलसीदास के युग में जनसामान्य के पास आजीविका के साधन नहीं थे। ककसान की िेती चौपट रहती थी।
वभिारी को भीि नहीं वमलती थी। दान-कायग भी बांद ही था। व्यापारी का व्यापार ठप था। नौकरी भी लोगों को
नहीं वमलती थी। चारों तरफ बेरोजगारी थी। लोगों को समझ में नहीं आता था कक िे कहााँ जाएाँ क्या करें ?
6. क्या तुलसी युग की समस्याएाँ ितमान में समाज में भी विद्यमान हैं? अपने शब्दों में वलविए।
उत्तर-
तुलसी ने लगभग 500 िषग पहले जो कु छ कहा था, िह आज भी प्रासांवगक है। उन्होंने अपने समय की
मूल्यहीनता, नारी की वस्थवत, आर्थगक दुरिस्था का वचत्रण ककया है। इनमें अवधकतर समस्याएाँ आज भी
विद्यमान हैं। आज भी लोग जीिन-वनिागह के वलए गलत-सही कायग करते हैं। नारी के प्रवत नकारात्मक सोच
आज भी विद्यमान है। अभी भी जावत ि धमग के नाम पर भेदभाि होता है। इसके विपरीत, कृ वष, िावणज्य,
रोजगार की वस्थवत आकद में बहुत बदलाि आया है। इसके बाद भी तुलसी युग की अनेक समस्याएाँ आज भी
हमारे समाज में विद्यमान हैं।
उत्तर-
(क) काव्याांश में प्रयुि भाषा सरस, सरल अिधी तथा छद चौपाई है।
(ि) काव्याांश में अनुप्रास अलांकार है। इसके दो उदाहरण हैं
(ग) काव्याांश में लक्ष्मण को मूर्चगछत देिकर राम की व्याकु लता एिां दुि का िणगन है। िे जगत में सहोदर भाई
कफर न वमल पाने की बात कहकर उठ जाने के वलए कह रहे हैं।
9. कुां भकरण के द्वारा पूछे जाने पर रािण ने अपनी व्याकु लता के बारे में क्या कहा और कुां भकरण से क्या सुनना
पडा?
उत्तर-
कुां भकरण के पूछने पर रािण ने उसे अपनी व्याकु लता के बारे में विस्तारपूिगक बताया कक ककस तरह उसने माता
सांकण ककया कक उसे बताया कक हानुमान ने सिागस मारडले हैं औ महान यथाओं का साहार कर कदया है।
उसकी ऐसी बातें सुनकर कुां भकरण ने उससे कहा कक अरे मूिग! जगत-जननी को चुराकर अब तू कल्याण चाहता
है। यह सांभि नहीं है।