You are on page 1of 16

बी०ए० प्रथम वर्ष

DSC-1B

SKT- DSC- 102

संस्कृ त गद्य काव्य


शुकनासोपदेश
शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश), कादम्बरी का ही एक अंश है। गीता की तरह
शुकनासोपदेश का भी स्वतंत्र महत्व है। यह एक ऐसा उपदेशात्मक ग्रंथ है जिसमें जीवन
दर्शन का एक भी पक्ष बाणभट्ट की दृष्टि से ओझल नहीं हो सका।
इसमें राजा तारापीड का नीतिनिपुण एवं अनुभवी मन्त्री शुकनास राजकु मामार चन्द्रापीड
को राज्याभिषेक के पूर्व वात्सल्य भाव से उपदेश देते हैं और रूप, यौवन, प्रभुता तथा
ऐश्वर्य से उद्भूत दोषों से सावधान रहने की शिक्षा देते हैं। यह प्रत्येक युवक के लिए
उपादेय उपदेश है।
चन्द्रापीड को दिये गये शुकनासोपदेश में कवि की प्रतिभा का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है।
कवि की लेखनी भावोद्रेक में बहती हुई सी प्रतीत होती है। शुकनासोपदेश में ऐसा प्रतीत
होता है मानो सरस्वती साक्षात मूर्तिमती होकर बोल रही हैं। इसमें बाणभट्ट की शब्दचातुरी
प्रदर्शित हुई है।
'शुकनासोपदेश', कादम्बरी का प्रवेशद्वार माना जाता है। इसमें लक्ष्मी की ब्याजस्तुति ब्याज
निन्दा का अत्यन्त मनोरम वर्णन है। ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति’ इस उक्ति को चरितार्थ
करने वाला यह साहित्य है। इसके अध्ययन से काव्यात्मक तत्व का तो ज्ञान होता ही है,
साथ में तत्कालीन सामाजिक ज्ञान भी प्राप्त होता है।
युवाओं के लिए दीक्षांत भाषण

• शुकनासोपदेश का नायक राजकु मार चन्द्रापीड है, जो सत्व, शौर्य और


आर्जव भावों से युक्त है।
• शुकनास एक अनुभवी मन्त्री हैं जो चन्द्रापीड को राज्याभिषेक के पूर्व
वात्सल्यभाव से उपदेश देते हैं। वे उसे युवावस्था में सुलभ रूप, यौवन,
प्रभुता एवं ऐश्वर्य से उद्भूत दोषों के विषय में सावधान कर देना उचित
समझते हैं।
• इसे युवावस्था में प्रवेश कर रहे समस्त युवकों को प्रदत्त ‘दीक्षान्त
भाषण’ कहा जा सकता है।
कादम्बरी
• कादम्बरी संस्कृ त साहित्य का महान उपन्यास है। इसके रचनाकार वाणभट्ट हैं। यह विश्व का प्रथम उपन्यास
कहलाने का अधिकारी है। इसकी कथा सम्भवतः गुणाढ्य द्वारा रचित बड्डकहा (वृहद्कथा) के राजा सुमानस
की कथा से ली गयी है।
• यह ग्रन्थ बाणभट्ट के जीवनकाल में पूरा नहीं हो सका। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र भूषणभट्ट (या
पुलिन्दभट्ट) ने इसे पूरा किया और पिता द्वारा लिखित भाग का नाम 'पूर्वभाग' एवं स्वयं द्वारा लिखित भाग
का नाम 'उत्तरभाग' रखा।
• जहाँ हर्षचरितम् आख्यायिका के लिए आदर्शरूप है वहाँ गद्यकाव्य कादम्बरी कथा के रूप में। बाण के ही
शब्दों में इस कथा ने पूर्ववर्ती दो कथाओं का अतिक्रमण किया है। अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया निबद्धेय-
मतिद्वयी कथा-कदम्बरी। सम्भवतः ये कथाएँ गुणाढ्य की बृहत्कथा एवं सुबन्धु की वासवदत्ता थीं।
• ऐसा प्रतीत याते
होता दिवं
है किपितरि
बाण तद्वचसैव सार्धसम्पूर्ण किए बिना ही दिवंगत हुए जैसा कि उनके पुत्र ने कहा है:
इस कृ ति को
विच्छे दमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः।
दुःखं सतां यदसमाप्तिकृ तं विलोक्य
प्रारण्य एव स मया न कवित्वदर्पात्॥

पुलिन्द अथवा भूषणभट्ट ने इस कथा को सम्पूर्ण किया।


कादम्बरी के लेखक बाणभट्ट
• बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृ त गद्य लेखक और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के आस्थान
कवि थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का
जीवन-चरित्र था और कादंबरी दुनिया का पहला उपन्यास था।

• कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट जी का देहांत हो गया तो उपन्यास पूरा करने का काम
उनके पुत्र भूषणभट्ट ने अपने हाथ में लिया। दोनों ग्रंथ संस्कृ त साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते
है ।
बाणभट्ट का जीवन परिचय
• बाण संस्कृ त के कु छ गिने-चुने लेखकों में से एक हैं जिनके जीवन एवं काल के विषय में निश्चित रूप से ज्ञात है।
कादम्बरी की भूमिका में तथा हर्षचरितम् के प्रथम दो उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक सूचना दी
है।
• सोन नदी (प्राचीन हिरण्यबाहु) के तट पर स्थित प्रीतिकू ट नाम के ग्राम में वात्स्यायनगोत्रीय विद्वद्ब्राह्मण कु ल में बाणने
जन्म लिया। बाण अपने वंश का उद्भव सरस्वती तथा दधीचि के पुत्र सारस्वत के भाई वत्स से बतलाते हैं। वत्स का वंशज
कु बेर था जिसका चतुर्थ पुत्र पाशुपत बाण का प्रपितामह था। बाण के पितामह का नाम अर्थपति था जिनको ग्यारह पुत्र
हुए।
• बाण के पिता का नाम चित्रभानु था। बाण के शैशवकाल में ही उनकी माता राज्यदेवी की मृत्यु हो गई। उनका पालन-
पोषण उनके पिता के द्वारा ही हुआ। बाण अभी चौदह वर्ष के ही थे कि उनके पिता उनके लिए कापफी सम्पत्ति छोड़कर
चल बसे।
• यौवन का प्रारम्भ एवं सम्पत्ति होने के कारण, बाण संसार को स्वयं देखने के लिए घर से चल पड़े।
• कई देशों का भ्रमण करके वह अपने स्थान प्रीतिकू ट लौटा। वहां रहते हुए उन्हें हर्षवर्धन के चचेरे भाई
कृ ष्ण का एक सन्देश मिला कि कु छ चुगलखोरों ने राजा से बाण की निन्दा की है इसलिए वे तुरन्त
ही राजा से मिलने गए और दो दिन की यात्रा के पश्चात् अजिरावती के तट पर राजा को मिले।
• प्रथम साक्षात्कार में बाण को बहुत निराशा हुई क्योंकि सम्राट के साथी मालवाधीश ने कहा
‘अयमसौभुजंगः’ (यह वही सर्प (दुष्ट) है) अस्तु, बाण ने अपनी स्थिति का स्पष्टीकरण किया और
सम्राट् उससे प्रसन्न हुए सम्राट के साथ कु छ मास रहकर बाण वापिस लौटा और उन्होंने प्रस्तुत
हर्षचरित के रूप में हर्ष की जीवनी लिखनी प्रारम्भ की।
• बाण की आत्मकथा यहां समाप्त हो जाती है और बाण के अन्तिम समय के विषय में हमें कु छ भी ज्ञात
नहीं है
कादम्बरी की कथावस्तु
कादम्बरी की कथा संक्षेप में इस प्रकार है:
इसमें एक काल्पनिक कथा है जिसमें चन्द्रापीड तथा पुण्डरीक के तीन जन्मों का उल्लेख है। कथानुसार विदिशा नरेश शूद्रक के दरबार में अतीव सुन्दरी चाण्डाल कन्या
वैशम्पायन नामक तोते को लेकर आती है। यह तोता मनुष्य की बोली बोलता है।

राजा के प्रश्नोत्तर में तोता बताता है कि उसकी (तोते की) माता मर चुकी है और उसके पिता को आखेटक ने पकड़ लिया तथा उसे जाबालि मुनि के शिष्य पकड़ कर
आश्रम में ले गये। इसी के बीच ऋषि जाबालि द्वारा राजा चन्द्रापीड तथा उसके मित्र वैशम्पायन की कथा है।उज्जयिनी में तारापीड नाम का एक राजा था जिसका शुकनास
नाम का एक बुद्धिमान मंत्री था। राजा को चन्द्रापीड नाम के एक पुत्र की प्राप्ति हुई और मंत्री के पुत्री का नाम वैशम्पायन था।

दिग्विजय के प्रसंग में चन्द्रापीड एक सुन्दर अच्छोदसरोवर पर पहुँचा जहाँ असमय में दिवंगत प्रेमी पुण्डरीक की प्रतीक्षा करती हुई कामपीड़ित कु मारी महाश्वेता नाम की
एक सुन्दरी उसे मिली। महाश्वेता ने अपनी सखी कादम्बरी के विषय में चन्द्रापीड को बताया और उसके कादम्बरी के पास ले गयी।

प्रथम दर्शन से ही कादम्बरी और चन्द्रापीड का प्रेम हो गया। तभी चन्द्रापीड के पिता ने उसे वापिस बुलाया और अपनी पत्रलेखा नाम की परिचारिका को कादम्बरी के पास
छोड़कर चन्द्रापीड वापस आ गया। पत्रलेखा ने भी कादम्बरी-विषयक सूचना को भेजते हुए चन्द्रापीड को प्रसन्न रखा। बाण की कृ ति यहाँ समाप्त हो जाती है।
कादम्बरी का कथानक
• जहां तक कथानक का सम्बन्ध है, बाणभट्ट बृहत्कथा के ऋणी हैं। सोमदेव द्वारा रचित बृहत्कथा के संस्कृ त
संस्करण में उपलब्ध सोमदेव एवं कमरन्द्रिका की कथा चन्द्रापीड एवं कादम्बरी की कथा से साम्य रखती हैं।
परन्तु शुकनास का चरित्र-चित्रण वैशम्पायन तथा महाश्वेता की प्रेमकथा इत्यादि बाण की कल्पना है।
• कथानक के आविष्कार के लिए बाण को यश प्राप्त नहीं हुआ बल्कि उदात्त चरित्र-चित्रण, विविध वर्णन,
मानवीय भावों के चित्रण तथा प्रकृ ति सौन्दर्य के कारण ही बाण को कवियों में उच्च स्थान की प्राप्ति हुई है।
शुकनासोपदेश का सार
• कादम्बरी कथान्तर्गत शुकनासोपदेश अत्यन्त महत्वपूर्ण शिक्षाप्रद अंश है। इसमें तारापीड के पुत्र राजकु मार
चन्द्रापीड को मंत्री शुकनास के द्वारा राज्याभिषेक होने के पूर्व उपदेश दिया गया है।
• राजकु मार चन्द्रापीड विधिवत् विद्याध्ययन कर राजभवन को वापस लौट आते हैं तथा राज्याभिषेक की तैयारी
में वह एक दिन महामंत्री शुकनास के दर्शन के लिए उनके घर पहुँच जाते हैं। महामंत्री शुकनास युवराज
चन्द्रापीड के जीवन में स्वाभाविक रूप से आने वाले दोषों तथा उत्तरदायित्वों को समझाने का उपयुक्त अवसर
जान कर राजकु मार को जो उपदेश देते हैं, वही शुकनासोपदेश है ।
शुकनास का चन्द्रापीड को उपदेश
• हे तात चन्द्रापीड! आप सभी शास्त्रों, विद्याओं तथा कलाओं का विधिवत् ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं। अब आपको कोई भी विषय अज्ञात नहीं है अतः वास्तव में
मुझे आपसे कु छ कहना नहीं है, पर यौवन में स्वाभाविक रूप से ऐसा अन्धकार उत्पन्न होता है जो कि सूर्य के प्रकाश, रत्नों के आलोक तथा प्रदीपों की
प्रभा से भी दूर नहीं हो सकता है। लक्ष्मी का दारुण मद शान्ति का विनाश कर देता है।
• ऐश्वर्य के कारण आँखों में छायी हुई तिमिरान्धता अंजनवर्तिका से भी नहीं मिटाई जा सकती है। दर्पहाज्वर की गर्मी किसी भी शीतोपचार (चन्दनांगरागादि
लेप) से नहीं दूर की जा सकती है। विषयरूपी विषास्वाद से उत्पन्न हुआ मोह मंत्रों तथा औषधियों के उपचार से भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।
रागरूपी मल का लेप इतना गाढ़ा चढ़ जाता है कि वह स्नान तथा स्वच्छ बनाने वाली क्रियाओं से भी स्वच्छ नहीं होता है। राज्य सुख से उत्पन्न हुई घोर
निद्रा रात्रि समाप्त होने पर भी समाप्त नहीं होती है।
• शास्त्र रूपी जल से स्वच्छ (निर्मल) बनायी गयी बुद्धि भी युवावस्था आने पर कलुषित हो जाती है। जन्मजात प्रभुता, अभिनव यौवन, अनुपम सुन्दरता
तथा असाधारण शक्ति यह प्रत्येक अनर्थ मूल हैं तो फिर इनके समुदाय का कहना ही क्या? कामिनी तथा कांचन की आसक्ति मनुष्य को पथभ्रष्ट कर देती
है। गुरुजनोपदेश आप सदृश निर्मल बुद्धि वाले व्यक्ति ही ग्रहण कर सकते हैं। साधारण व्यक्ति को दिया गया यह उपदेश शूल जैसा लगता है।
• गुरुजनों द्वारा दी गयी शिक्षा सम्पूर्ण दोषों को भी गुणों में परिवर्तित कर देती है। वह एक ऐसा दिव्य प्रकाश है जिसकी ज्योति सूर्य-चन्द्रादि से भी अधिक है।
प्रथम तो भय से कोई राजाओं को उपदेश देने का साहस ही नहीं करता है। फिर वे उपदेशवचनों को सुनते भी नहीं हैं अथवा सुनकर भी राजमद से आँखे
मींच लेते हैं। राजलक्ष्मी राज्याभिमानरूपी विष चढ़ा कर मूर्च्छा उत्पन्न कर देती है।
• हे राजकु मार! आप का कल्याण हो। आप सर्वप्रथम लक्ष्मी को ही देख लें। समुद्र मंथन से जब यह उत्पन्न हुई तो क्षीर सागर
के पारिजात पल्लवों से राग, चन्द्रमा से वक्रता, उच्चैःश्रवा से संचलता, कालकू ट से मोहनशक्ति, मदिरा से मादकता, कौस्तुभ
मणि से कठोरता ग्रहण कर उन-उन वस्तुओं के विरह में अपने मनोरंजन के लिए उनके चिह्नों के साथ बाहर निकली।
• जन्मकाल में मथनी रूपी मन्दराचल के घूमने से क्षीर सागर में जो भंवर पड़ गयी उसकी भ्रामकता लक्ष्मी में आज भी
विद्यमान है। यह निःस्पृह तथा बड़ी चंचल है। दृढ़ता से बांधकर रखने पर भी चली जाती है। यह किसी से जान पहचान नहीं
रखती है तथा कु ल-शीलादि का भी विचार नहीं करती है।
• अपने विविध मायावी रूपों को दिखाने के लिए ही लक्ष्मी ने विराट् पुरुष विष्णु भगवान् का आश्रय लिया है। यह मूर्खों के
पास निवास करती है तथा सरस्वती के उपासकों से सदा दूर रहती है। इसने अपने विरोधी चरित्र का संसार में एक जाल-
सा बिछा रखा है। देखिये न, जल से उत्पन्न होने पर भी लक्ष्मी तृष्णा को बढ़ाती है। उन्नत होकर भी स्वभाव में नीचता
लाती है।
• अमृत की सहोदरा होकर भी कडु का फल देती है। यह चंचला लक्ष्मी जैसे-जैसे चमकती है वैसे-वैसे दीपशिखा की भाँति
मलिन काजल रूपी कर्म उत्पन्न करती है। यह शास्त्ररूपी नेत्रों के लिए अज्ञानरूपी रतौंधी है, शिष्टाचार को हटाने के लिए
बेंत की छड़ी है, धर्मरूपी चन्द्रमा को ग्रसन करने के लिए राहु की जीभ है।
• इस प्रकार यह दुष्टा लक्ष्मी राजाओं द्वारा ग्रहण किये जाने पर भी उन्हें छोड़ देते है। लक्ष्मी के
कु प्रभाव से राजा लो ग अनेक प्रकार के अविनयों के घर बन जाते हैं।
• राज्याभिषेक के मंगल कलशों के जल के अभिषेक से राजाओं की चतुरता धुल जाती है। रेशमी
पगड़ी बाँधते ही आने वाले बुढ़पे को वे भूल जाते हैं। श्वेतछत्र धारण करते ही उन्हें परलोक दिखाई
नहीं पड़ता है। लक्ष्मी के प्रलोभन में पड़ राजा लोग ऐसा ज्ञात होता है जैसे किसी दुष्ट ग्रह ने उन्हें
पकड़ लिया हो। कामगणों से आहत वे विविध भाव-भंगिमाएँ करते हैं। सप्तपर्ण के वृक्ष की भाँति
रजोविकारों से वे निकटवर्ती लोगों में शिरदर्द उत्पन्न कर देते हैं।
• मरणासन्न व्यक्ति के समान वे सगे संबंधियों तक को नहीं पहचानते हैं। अहंकार रूपी खम्भे से बँधे
दुष्ट हाथी के समान उपदेश वचनों की वे उपेक्षा करते हैं। तृष्णा रूपी विषवेला से लिपटे रहने के
कारण वे संसार को कनकमय ही देखते हैं।
• असमय में खिले हुए फू लों के समान वे संसार का नाश करने को उतारू हो जाते हैं। श्मशान-वह्नि
की भाँति उनकी सम्पत्ति भी भयानक होती है। सैकड़ों दुर्व्यसनों में कसे हुए वे बांवी के ऊपर जमी
घास से टपके हुए जल बिन्दुओं के समान अपने पतन को भी नहीं जान पाते हैं।
• इसी प्रकार की उलटी बातों से राजाओं को वंचित कर उन्हें कु मार्ग पर डालते हैं। वे राजाओं को ठग कर मन ही मन
उनको हँसी उड़ाते हैं।
• वे उनकी ऐसी झूठी प्रशंसा करते हैं कि साक्षात् विष्णु तथा शिव का अवतार राजा अपने को मान बैठते हैं एवं विचित्र
अवांछित चेष्टाएँ करने लगते हैं, लोगों को दर्शन देना उन पर कृ पा करना, किसी से बात करना उन्हें पुरस्कार देना,
अपनी आज्ञा को उनके लिए वरदान मानते हैं। वे मंत्रियों के हितकर वचनों की अवहेलना करते हैं, अपने झूठे प्रशंसकों
को निकट बिठलाते हैं।
• निष्करुण कौटिल्य शास्त्र को ही वह प्रमाण मानते हैं, पशुबलि कराने वाले पुरोहितों को ही अपना गुरु मानते हैं। धूर्त
मंत्री जिनके उपदेश हैं, अनेक राजाओं के द्वारा उपभोग कर छोड़ दी गयी राजलक्ष्मी में जिसकी आसक्ति रहती है ऐसे
राजाओं में उचित तथा अनुचित का ज्ञान कहा?
• हे राजकु मार! अति कु टिल, कष्टकदायक, सैकड़ों चेष्टाओं से भीषण राजतंत्र के विषय में तथा
अत्यन्त मोहक इस युवावस्था में आप ऐसा व्यवहार करें कि लोग आपकी हँसी न कर सकें , गुरुजनों
की फटकार आपको न सुननी पड़े, आपके व्यवहार से विद्वान् दुःखी न हों। आप ऐसा उपाय करें
जिससे नीच पुरुष आपका धन न लूट सकें , कामनियाँ आपको अपने रूप-जाल में न फँ सा सकें ,
लक्ष्मी आपका स्वभाव न बिगाड़ सकें तथा सुख को अभिलाषा आपको कु मार्ग पर अग्रसर न कर
सके ।
• हे राजकु मार! मैं भलीभाँति जानता हूँ कि आप स्वभाव से धीर तथा शास्त्रीय संस्कारों से युक्त है।
• राजमद की गन्ध आपको छू तक नहीं गयी है, पर आपकी गुण ग्राहता से सन्तुष्ट होकर ही मैं इस
प्रकार कह रहा हूँ।
• आप राज्याभिषेक के बाद अपने पिताजी के द्वारा जीती गयी सप्तदीपों वाली पृथ्वी को पुनः विजित
करें, क्योंकि जो राजा आरम्भ में अपना प्रभाव जमा लेता है उसकी की आज्ञाएँ सिद्ध पुरुषों के
वचनों के समान अमोघ होती है।

You might also like