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एक पंडितजी के घर में उनकी पहली संतान का जन्म होने वाला था।

उनका नाम पंडित विष्णुदत्त शास्त्री था। पंडितजी ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने दाई से कह रखा था
कि जैसे ही बालक का जन्म हो नींबू प्रसूतिकक्ष से बाहर लुढ़का दे ना।

बालक जन्मा लेकिन बालक रोया नहीं तो दाई ने हल्की सी चपत उसके तलवों में दी और पीठ को मला और अंततः
बालक रोया।
दाई ने नींबू बाहर लुढ़काया और बच्चे की नाल आदि काटने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गई।

उधर पंडितजी ने गणना की तो उन्होंने पाया कि बालक की कंु डली में पितह
ृ ं ता योग है अर्थात उनके ही पुत्र के हाथों ही
उनकी मत्ृ यु का योग है ।

पंडितजी शोक में डूब गए और अपने पुत्र को इस लांक्षन से बचाने के लिए बिना कुछ कहे बताए घर छोड़कर चले गए।

सोलह साल बीते।

बालक अपने पिता के विषय में पूछता लेकिन बेचारी पंडिताइन उसके जन्म की घटना के विषय में सबकुछ बताकर
चुप हो जाती क्योंकि उसे इससे ज्यादा कुछ नहीं पता था।

अस्तु! पंडितजी का बेटा अपने पिता के पग चिन्हों पर चलते हुये प्रकांड ज्योतिषी बना।

उसी बरस राज्य में वर्षा नहीं हुई।

राजा ने डौंडी पिटवाई जो भी वर्षा के विषय में सही भविष्यवाणी करे गा उसे मुंहमांगा इनाम मिलेगा लेकिन गलत
साबित हुई तो उसे मत्ृ युदंड मिलेगा।

बालक ने गणना की और निकल पड़ा।

लेकिन जब वह राजदरबार में पहुंचा तो दे खा एक वद्ध


ृ ज्योतिषी पहले ही आसन जमाये बैठे हैं।

"राजन आज संध्याकाल में ठीक चार बजे वर्षा होगी।" वद्ध


ृ ज्योतिषी ने कहा।
बालक ने अपनी गणना से मिलान किया और आगे आकर बोला,"महाराज मैं भी कुछ कहना चाहूंगा।"

राजा ने अनुमति दे दी।

"राजन वर्षा आज ही होगी लेकिन चार बजे नहीं बल्कि चार बजे के कुछ पलों के बाद होगी।"

वद्ध
ृ ज्योतिषी का मँह
ु अपमान से लाल हो गया और उन्होंने दस
ू री भविष्यवाणी भी कर डाली।

"महाराज वर्षा के साथ ओले भी गिरें गे और ओले पचास ग्राम के होंगे।"

बालक ने फिर गणना की।

"महाराज ओले गिरें गे लेकिन कोई भी ओला पैंतालीस से अडतालीस ग्राम से ज्यादा का नहीं होगा।"

अब बात ठन चुकी थी।

लोग बड़ी उत्सक


ु ता से शाम का इंतजार करने लगे।

साढ़े तीन तक आसमान पर बादल का एक कतरा नहीं था लेकिन अगले बीस मिनिट में क्षितिज से मानो बादलों की
सेना उमड़ पड़ी।

अंधेरा सा छा गया। बिजली कड़कने लगी लेकिन चार बजने पर भी पानी की एक बूंद न गिरी।

लेकिन जैसे ही चार बजकर दो मिनिट हुये धरासार वर्षा होने लगी।

वद्ध
ृ ज्योतिषी ने सिर झक
ु ा लिया।

आधे घण्टे की बारिश के बाद ओले गिरने शुरू हुए।

राजा ने ओले मंगवाकर तुलवाये।

कोई भी ओला पचास ग्राम का नहीं निकला।

शर्त के अनुसार सैनिकों ने वद्ध


ृ ज्योतिषी को गिरफ्तार कर लिया और राजा ने बालक से इनाम मांगने को कहा।
"महाराज, इन्हें छोड़ दिया जाये।" बालक ने कहा।

राजा के संकेत पर वद्ध


ृ ज्योतिषी को मुक्त कर दिया गया।

"बजाय धन संपत्ति मांगने के तम


ु इस अपरिचित वद्ध
ृ को क्यों मक्
ु त करवा रहे हो।"

बालक ने सिर झक
ु ा लिया और कुछ क्षणों बाद सिर उठाया तो उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे।

"क्योंकि ये सोलह साल पहले मुझे छोड़कर गये मेरे पिता श्री विष्णुदत्त शास्त्री हैं।"

वद्ध
ृ ज्योतिषी चौंक पड़ा।

दोनों महल के बाहर चुपचाप आये लेकिन अंततः पिता का वात्सल्य छलक पड़ा और फफक कर रोते हुए बालक को
गले लगा लिया।

"आखिर तझ
ु े कैसे पता लगा कि मैं ही तेरा पिता विष्णद
ु त्त हूँ।"

"क्योंकि आप आज भी गणना तो सही करते हैं लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग नहीं करते।" बालक ने आंसुओं के मध्य
मुस्कुराते हुए कहा।

"मतलब"? पिता है रान था।

"वर्षा का योग चार बजे का ही था लेकिन वर्षा की बंद


ू ों को पथ्
ृ वी की सतह तक आने में कुछ समय लगेगा कि नहीं?"

"ओले पचास ग्राम के ही बने थे लेकिन धरती तक आते आते कुछ पिघलेंगे कि नहीं?"

"और..."

"दाई माँ बालक को जन्म लेते ही नींबू थोड़े फैंक दे गी, उसे कुछ समय बालक को संभालने में लगेगा कि नहीं और उस
समय में ग्रहसंयोग बदल भी तो सकते हैं और पितह
ृ ं ता योग पितरृ क्षक योग में भी तो बदल सकता है न?"

पंडितजी के समक्ष जीवन भर की त्रटि


ु यों की श्रंखला जीवित हो उठी और वह समझ गए कि केवल दो शब्दों के गण
ु के
अभाव के कारण वह जीवन भर पीड़ित रहे और वह थे--
'कॉमन सेंस'।
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[09:57, 5/5/2023] R P Shukla: 👇महाभारत में एक प्रसंग आता है जब धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में
पहुँचकर कहा, “हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है । मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ।
आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”

द्यूत... जुआ... यानि वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार बैठे थे। कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को
सिखाने लगे।

जिस बाहुबली के लिये रसोइये दिन रात भोजन परोसते रहते थे वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर स्वयं रसोइया
बन गया।

नकुल और सहदे व पशुओं की दे खरे ख करने लगे।

दासियों सी घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी... स्वयं एक दासी सैरंध्री बन गयी।

और वह धनुर्धर... उस युग का सबसे आकर्षक युवक, वह महाबली योद्धा, वह द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य, वह पुरुष
जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही यद्ध
ु का निर्णय हो जाता था, वह अर्जुन…
[09:57, 5/5/2023] R P Shukla: 👇महाभारत में एक प्रसंग आता है जब धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में
पहुँचकर कहा, “हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है । मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ।
आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”

द्यत
ू ... जआ
ु ... यानि वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार बैठे थे। कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को
सिखाने लगे।

जिस बाहुबली के लिये रसोइये दिन रात भोजन परोसते रहते थे वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर स्वयं रसोइया
बन गया।

नकुल और सहदे व पशओ


ु ं की दे खरे ख करने लगे।

दासियों सी घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी... स्वयं एक दासी सैरंध्री बन गयी।
और वह धनुर्धर... उस युग का सबसे आकर्षक युवक, वह महाबली योद्धा, वह द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य, वह पुरुष
जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही यद्ध
ु का निर्णय हो जाता था, वह अर्जुन पौरुष का प्रतीक अर्जुन, नायकों
का महानायक अर्जुन... एक नपुंसक बन गया।

एक नपुंसक?

उस युग में पौरुष को परिभाषित करने वाला अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली लगा कर, आंखों में काजल लगा
कर एक नपुंसक "बह्
ृ नला" बन गया।

यधि
ु ष्ठिर राजा विराट का अपमान सहते रहे ।
पौरुष के प्रतीक अर्जुन एक नपुंसक सा व्यवहार करते रहे ।
नकुल और सहदे व पशुओं की दे ख रे ख करते रहे ...
भीम रसोई में पकवान पकाते रहे ....
और द्रौपदी.. एक दासी की तरह महारानी की सेवा करती रही।

परिवार पर एक विपदा आयी तो धर्मराज अपने परिवार को बचाने हे तु कंक बन गया। पौरुष का प्रतीक एक नपुंसक
बन गया। एक महाबली साधारण रसोइया बन गया।

पांडवों के लिये वह सिर्फ अज्ञातवास ही नहीं था, बल्कि


अज्ञातवास का वह काल उनके लिये अपने परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।

वह जिस रूप में रहे , जो अपमान सहते रहे ... जिस कठिन दौर से गुज़रे ... उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ
नहीं था। अज्ञातवास का वह काल परिस्थितियों को दे खते हुये परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने का काल था!!

आज भी इस धरती में अज्ञातवास में जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा दिखाई दे ते हैं। कोई धन्नासेठ की नौकरी
करते हुये उससे बेवजह गाली खा रहा है क्योंकि उसे अपनी बिटिया की स्कूल की फीस भरनी है । बेटी के ब्याह के
लिये पैसे इकट्ठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर दर धक्के खाकर सामान बेचता दिखाई दे ता है । ऐसे असँख्य
पुरुष निरं तर संघर्ष से हर दिन अपना सुख दःु ख छोड़कर अपने परिवार के अस्तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं।

रोज़मर्रा के जीवन में किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू हों तो उसका आदर कीजिये, उसका सम्मान कीजिये। फैक्ट्री
के बाहर खड़ा गार्ड... होटल में रोटी परोसता वेटर... सेठ की गालियां खाता मुनीम... वास्तव में कंक... बल्लभ और
बह्
ृ नला के ही छोटे रूप हैं।
क्योंकि कोई भी अपनी मर्ज़ी से संघर्ष या पीड़ा नहीं चुनता है ।
वे सब यहाँ कर्म करते हैं। वे अज्ञातवास जी रहे हैं...!

परं तु वह अपमान के भागी नहीं हैं, वह प्रशंसा के पात्र हैं।


यह उनकी हिम्मत है ... उनकी ताकत है ... उनका समर्पण है कि विपरीत परिस्थितियों में भी वह डटे हुये हैं।

वह कमजोर नहीं हैं... उनके हालात कमज़ोर हैं...


उनका वक्त कमज़ोर है ।

याद रहे ...

अज्ञातवास के बाद बह्


ृ नला जब पन
ु ः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों का नाश कर दिया। पुनः अपना यश, अपनी
कीर्ति सारे विश्व में फैला दी।
वक्त बदलते वक्त नहीं लगता है , इसलिये जिसका वक्त खराब चल रहा हो, उसका उपहास और अनादर ना करें ।

उसका सम्मान करें , उसका साथ दें ।

क्योंकि एक दिन संघर्षशील, कर्मठ, ईमानदारी से प्रयास करने वालों का अज्ञातवास अवश्य समाप्त होगा। समय का
चक्र घूमेगा और बह्
ृ नला का छद्म रूप त्याग कर धनुर्धर अर्जुन इतिहास में ऐसे अमर हो जायेंगे... कि पीढ़ियों तक
बच्चों के नाम उनके नाम पर रखे जायेंगे। इतिहास बह्
ृ नला को भूल जायेगा। इतिहास अर्जुन को याद रखेगा।

हर संघर्षशील, लगनशील कर्मठ व्यक्ति में बह्


ृ नला को मत दे खिये, कंक को मत दे खिये, बल्लभ को मत दे खिये। हर
संघर्षशील व्यक्ति में धनुर्धर अर्जुन को दे खिये। धर्मराज युधिष्ठिर और महाबली भीम को दे खिये। उसका भरपरू
सहयोग करिए। उसके ईमानदार प्रयासों को सराहें ! क्योंकि याद रखना एक दिन हर संघर्षशील व्यक्ति का
अज्ञातवास खत्म होगा।

यही नियति है । यही समय का चक्र है ।


यही महाभारत की भी सीख है !
साभार

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