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Hindi Project
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SHARAD JOSHI
शरद जोशी एक हिंदी कवि, लेखक, व्यंग्यकार और हिंदी फिल्मों और टीवी में एक संवाद और पटकथा
लेखक है . उन्होंने कहा कि 1990 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. उनकी कहानियों सब टीवी शो
Lapataganj में तब्दील कर दिया गया है . [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]
उन्होंने कहा कि ये जो है ज़िंदगी, और विक्रम Aur Vetal, जैसे 1980 के दशक की कॉमेडी टीवी धारावाहिकों
के लिए अपने संवादों के लिए सबसे अधिक जाना जाता है . [प्रशस्ति पत्र की जरूरत] उन्होंने यह भी
उत्सव (1984) और दिल है की मानता नहीं (जैसे हिंदी फिल्म के संवाद लिखा है 1991). उन्होंने कहा कि
मुंबई में 5 सितंबर 1991 को निधन हो गया.
सामग्री [छिपाने]
1 जीवनी
1.2 कैरियर
1.3 नाटकों
2 लिगेसी
3 इन्हें भी दे खें
4 सन्दर्भ
5 बाहरी लिंक
शरद जोशी श्रीनिवास और सैंटी जोशी, दो बेटों और चार बेटियों के परिवार में एक दस
ू रे बच्चे को उज्जैन,
मध्य प्रदे श 21 मई 1931 को हुआ था, शरद सही अपने बचपन से लेखन में रुचि थी. [1]
उन्होंने अपने बी.ए. प्राप्त की होलकर कॉलेज, इंदौर से. [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]
शरद जोशी उन्होंने कहा कि वह बाद में शादी करने के लिए किया गया था जिसे Irfana सिद्दीकी से
मुलाकात की, जहां इंदौर में समाचार पत्र और रे डियो के लिए अपने कैरियर लेखन शुरू कर दिया. [प्रशस्ति
पत्र की जरूरत]
उनकी छोटी व्यंग्य लेख Nayi dunia, Dharmyug, Ravivar, साप्ताहिक हिंदस्
ु तान, कादं बरी और Gyanoday
सहित प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किए गए थे. उनका दै निक कॉलम नवभारत
टाइम्स में "Pratidin" सात साल के लिए प्रकाशित और अखबार का प्रचलन बढ़ गया था. [प्रशस्ति पत्र की
जरूरत]
उनकी पुस्तक, जीप बराबर Sawar Illian ("जीप सवारी Leeches"), अपने सरकारी वाहनों में सवार सरकारी
अधिकारियों पर एक हास्य व्यंग्य है . [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]
तीन में परिक्रमा, Kisi Bahane, Tilasm, जीप बराबर Sawar Illian, राहा किनारे Baith, मेरी Shreshth
Rachnaye, Dusri Satah, Yatha समभाव, यात्रा टाट्रा सर्वत्र, Yatha Samay, हाम Bhrashtan के Bhrasht हमारे
दो, और Pratidin: सभी में उन्होंने चौदह पस्
ु तकें लिखी भागों. [प्रशस्ति पत्र की जरूरत]
अंधों का हाथी
एक था गधा उर्फ़ Aladat खान. इस व्यंग्य नाटक पिछले दशक की सबसे लोकप्रिय नाटकों में से एक था.
आर एस सहित निदे शकों Vikal, अरविंद गौड़ और Mustak काक (श्री राम सेंटर) इसे प्रस्तुत किया है .
[प्रशस्ति पत्र की जरूरत]
क्षितिज (1974)
छोटी सी बात (1975)
गोधुलि (1979)
चोरनी (1982)
उत्सव (1984)
नाम (1986)
उड़ान (1997)
2.PREMCHAND MUNSHI
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी से लगभग चार मील दरू लमही
नामक ग्राम में हुआ था. इनका संबंध एक गरीब कायस्थ परिवार से था. इनके पिता
अजायब राय श्रीवास्तव डाकमुंशी के रूप में कार्य करते थे. प्रेमचंद ने अपना बचपन
असामान्य और नकारात्मक परिस्थितियों में बिताया. जब वह केवल आठवीं कक्षा में
ही पढ़ते थे, तभी इनकी माता का लंबी बीमारी के बाद दे हांत हो गया. माता के
निधन के दो वर्ष बाद प्रेमचंद के पिता ने दस
ू रा विवाह कर लिया. लेकिन उनकी नई
मां उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करती थीं. पंद्रह वर्ष की छोटी सी आयु में प्रेमचंद
का विवाह एक ऐसी कन्या से साथ करा दिया गया. जो ना तो दे खने में संद
ु र थी,
और ना ही स्वभाव की अच्छी थी. परिणामस्वरूप उनका संबंध अधिक समय तक ना
टिक सका और टूट गया.
लेकिन अपना पहला विवाह असफल होने और उसके बाद अपनी पूर्व पत्नी की
दयनीय दशा दे खते हुए, प्रेमचंद ने यह निश्चय कर लिया था कि वह किसी विधवा से
ही विवाह करें गे. पश्चाताप करने के उद्देश्य से उन्होंने सन 1905 के अंतिम दिनों में
शिवरानी दे वी नामक एक बाल-विधवा से विवाह रचा लिया. गरीबी और तंगहाली के
हालातों में जैसे-तैसे प्रेमचंद ने मैट्रिक की परीक्षा पास की. जीवन के आरं भ में ही
इनको गांव से दरू वाराणसी पढ़ने के लिए नंगे पांव जाना पड़ता था. इसी बीच उनके
पिता का दे हांत हो गया. प्रेमचंद वकील बनना चाहते थे. लेकिन गरीबी ने उन्हें तोड़
दिया. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य, पर्सियन और इतिहास
विषयों से स्नातक की उपाधि द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की थी.
प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में दे श-प्रेम की यह स्थिति प्रचुर मात्रा में दिखायी
दे ती है . गांधी की प्रेरणा से सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे ने के बाद प्रकाशित उनके
‘प्रेमाश्रम’, ‘रं गभमि
ू ’, ‘कर्मभमि
ू ’ आदि उपन्यासों में गांधी के हृदय-परिवर्तन, सत्याग्रह,
ट्रस्टीशिप, स्वदे शी, सविनय अवज्ञा, राम-राज्य, औद्योगीकरण का विरोध तथा कृषि
जीवन की रक्षा, ग्रामोत्थान एवं अछूतोद्धार, अहिंसक आन्दोलन, हिन्द-ू मस्लि
ु म एकता,
किसानों-मजदरू ों के अधिकारों की रक्षा आदि का विभिन्न कथा-प्रसंगों तथा पात्रों के
संघर्ष में चित्रण हुआ है .
MUNSHI PREMCHAND -2
मँश
ु ी प्रेमचन्द का जीवन परिचय | Premchand's Biography
जन्म
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन ् १८८० को बनारस शहर से चार मील दरू समही गाँव में हुआ
था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामल ू ी नौकर के तौर पर काम
करते थे।
जीवन
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी
और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया।
आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत दे खी तो मेरा खून
सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले
पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं
तो गिरे ही, साथ में मझ
ु े भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके
पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का दे हान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का
बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो
बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनम
ु ान इस घटना से लगाया जा
सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पस्
ु तकें बेचनी पड़ी। एक दिन
ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पस् ु तकों को लेकर एक बक ु सेलर के पास पहुंच गए। वहाँ
एक हे डमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियक्ु त किया।
शिक्षा
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरं भ में
आप अपने गाँव से दरू बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का
दे हान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़
दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यश
ू न पकड़
लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच
रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते
रहे । इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन
की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के
साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने
उपन्यास पढ़ना आरं भ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और
उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बक
ु सेलर की दक
ु ान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़
गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि
के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे।
आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू
वाले से दोस्ती करली और उसकी दक
ु ान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरं भ कर दिया था। शरु
ु में आपने कुछ नाटक
लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरं भ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शरु
ु
हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।
प्रेमचन्द की दस
ू री शादी
सन ् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई
फिर वह कभी नहीं आई। विच्छे द के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा
भेजते रहे । सन ् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी दे वी से शादी कर ली। शीवरानी दे वी
एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दस
ू री शादी के पश्चात ् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और
आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई
तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खश
ु हाली के जमाने में आपकी पाँच
कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और
कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे । इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा
जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परे शानियों को लेकर उन्होंने एक बार मश
ंु ी दयानारायण
निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है - खब
ू दिल लगाकर खेलना- खब
ू
जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे।
किन्तु हारने के पश्चात ् - पटखनी खाने के बाद, धल
ू झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल
ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सरू दास कह गए हैं, "तम
ु जीते
हम हारे । पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हं सोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं
भरे जीवन में हं सोड़ होना एक बहादरु का काम है । इससे इस बात को भी समझा जा सकता है
कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए
सहानुभति
ू का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस -
चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदरू ों को दे दिये। मेरे
नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले
मजदरू भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई
लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गज
ु ारा। बाहर से बिल्कुल
साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी
किसी ने दे खा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दरू रहते थे।
जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापरु
ु षों की
तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी
ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार
उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त
बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"
प्रेमचन्द की कृतियाँ
प्रेमचन्द ने अपने नाते के mama के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना
लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े
हो गए। सन ् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की।
सन ् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दस
ू रा उपन्यास
जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन ् १९०४-०५ में "हम खुर्मा
व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या
का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढं ग से किया।
जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का
दख
ु दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालम
ू होता है , इसमें दे श प्रेम और दे श को
जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तत
ु किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक
मालम
ू हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की
खोज शरु
ु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बल ु ाया गया। उस दिन आपके
सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का
बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि
वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मश
ुं ी दयानारायण निगम ने
पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
"सेवा सदन", "मिल मजदरू " तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त
रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक
अंतिम उपन्यास लिखना आरं भ किया। दर्भा
ु ग्यवश मंगलसत्र
ू को अधरू ा ही छोड़ गये। इससे पहले
उन्होंने महाजनी और पँज
ू ीवादी युग प्रवत्ति
ृ की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक
लेख भी लिखा था।
मत्ृ यु
सन ् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील
लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के
कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका दे हान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ
गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
सूर्यकान्त त्रिपाठी
चित्र:Nirala.jpg
सर्य
ू कान्त त्रिपाठी 'निराला'
उपनाम: 'निराला'
मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल, भारत
राष्ट्रीयता: भारतीय
भाषा: हिन्दी
विषय: गीत, कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध
साहित्यिक छायावाद व
आन्दोलन: प्रगतिवाद
हस्ताक्षर:
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी १८९९[1] - १५ अक्तूबर १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख
क
स्तंभों[ ] में से एक माने जाते हैं। अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम
लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है । वे हिन्दी में मुक्तछं द के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।
अनक्र
ु म
[छुपाएँ]
1 जीवन परिचय
2 कार्यक्षेत्र
3 प्रमुख कृतियाँ
4 समालोचना
5 संदर्भ
6 यह भी दे खें
7 बाह्यसत्र
ू
जीवन परिचय
हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों मे से एक सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म बंगाल की रियासत
महिषादल (जिला मेदिनीपरु ) में माघ शुक्ल एकादशी संवत १९५५ तदनुसार २१ फरवरी सन १८९९ में हुआ था। उनकी
कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि २१ फरवरी १८९९ अंकित की गई है ।[2] वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने
की परं परा १९३० में प्रारं भ हुई।[3] उनका जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंण्डित
रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर
प्रदे श के उन्नाव जिले का गढ़कोलानामक गाँव के निवासी थे।
निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी
नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान
के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का
होते-होते पिता का दे हांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के
बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा दे वी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी दे हांत हो गया। शेष
कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता।
निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते
का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में
स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में १५ अक्तूबर १९६१ को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त
की।[4]
कार्यक्षेत्र
सर्य
ू कांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियक्ति
ु महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक यह नौकरी की।
उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवत्ृ त हुए। १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से
प्रकाशित समन्वय का संपादन किया, १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बादलखनऊ में
गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध
रहे । १९३५ से १९४० तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद १९४२ से मत्ृ यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह
कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में ,
पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्तब
ू र १९२० में मासिक
पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादे वी वर्मा के साथ हिन्दी
साहित्य में छायावाद के प्रमख
ु स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति
विशेषरुप से कविता के कारण ही है ।
प्रमुख कृतियाँ
काव्यसंग्रह: अनामिका, परिमल, गीतिका, द्वितीय अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नये
पत्ते, अर्चना, आराधना, गीत कंु ज, सांध्य काकली, अपरा।
पुराण कथा- महाभारत
समालोचना
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल। आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत के
दृश्य-रूप, संगीतात्मक ध्वनियां हो या रं ग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य, सभी अलग-अलग लगनेवाले
तत्त्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला
के मर्म तक पहुँच सकता है । निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है । इसलिए
उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है । इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण
अक्सर निराला की कविताऐं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते विचारक लोग उन पर दरू
ु हता आदि का
आरोप लगाते हैं। उनके किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने
की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को दे खते हुए उनके मर्म को पहचानना और उन विशिष्ट वस्तुओं को ही
चित्रण का विषय बनाना, निराला के यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है । निराला पर अध्यात्मवाद और रहस्यवाद
जैसी जीवन-विमुख प्रवत्ति
ृ यों का भी असर है । इस असर के चलते वे बहुत बार चमत्कारों से विजय प्राप्त करने और
संघर्षों का अंत करने का सपना दे खते हैं। निराला की शक्ति यह है कि वे चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य नहीं बैठ जाते
और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आँखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के
विपरीत चलते हैं। हर ओर प्रकाश फैला है , जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है , इत्यादि ऐसी ही बातें हैं। लेकिन
यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभंगुर ही साबित होता है । अनेक बार निराला शब्दों,
ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। इन खिलवाड़ों को कला की संज्ञा दे ना कठिन काम है । लेकिन सामान्यत: वे
इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं. इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि वे विषय या
भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं। निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस
और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने यग
ु के कवियों में अलग और विशिष्ट
बनाती है ।[5]
4.सच्चिदानंद वात्स्यायन
http://hi.wikipedia.org/s/6ky2
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
उपनाम: अज्ञेय
जन्म: ७ मार्च १९११
दिल्ली, भारत
राष्ट्रीयता: भारतीय
भाषा: हिन्दी
विधा: कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध
विषय: सामाजिक, यथार्थवादी
साहित्यिक नई कविता,
आन्दोलन: प्रयोगवाद
हस्ताक्षर:
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (७ मार्च, १९११- ४ अप्रैल, १९८७) को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य
को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दे नेवाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है ।
इनका जन्म ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदे श के दे वरिया जिले के कुशीनगरनामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ।
[1]
[छुपाएँ]
1 शिक्षा
2 कार्यक्षेत्र
3 प्रमुख
कृतियां
4 संदर्भ
5 बाहरी
कडियाँ
शिक्षा
कार्यक्षेत्र
१९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों में कटे । १९३६-३७ में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया।
१९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे ; इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रे डियो की
नौकरी स्वीकार की। दे श-विदे श की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकरजोधपुर
विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी
पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की
स्थापना की जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही ४ अप्रैल १९८७ को उनकी मत्ृ यु
हुई। १९६४ में आँगन के पार द्वार पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और १९७९ में कितनी नावों में कितनी
बार पर भारतीय ज्ञानपीठ परु स्कार
प्रमख
ु कृतियां
कहानी-संग्रह: विपथगा, परं परा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप |
उपन्यास: शेखर: एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।
संस्मरण: स्मति
ृ लेखा
डायरियां: भवंती, अंतरा और शाश्वती।
नाटक: उत्तरप्रियदर्शी
उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध
सर्जना और सन्दर्भ तथा केंद्र और परिधि नामक ग्रंथो में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ
अज्ञेय ने तारसप्तक, दस
ू रा सप्तक, और तीसरा सप्तक जैसे यग
ु ांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया
तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध- संग्रहों के भी
संपादक हैं। प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय ने यद्यपि कहानियां कम ही लिखीं और एक समय के बाद कहानी लिखना
बिलकुल बंद कर दिया, परं तु हिन्दी कहानी को आधुनिकता की दिशा में एक नया और स्थायी मोड़ दे ने का श्रेय भी उन्हीं
को प्राप्त है ।[2] निस्संदेह वे आधनि
ु क साहित्य के एक शलाका-परू
ु ष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतें द ु के बाद एक दस
ू रे
आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।
रामधारी सिंह दिनकर (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) भारत में हिन्दी
१][२]
के एक प्रमुखलेखक. कवि, निबंधकार थे।[ राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक यु
ग के श्रेष्ठ वीर रस के कविके रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगस
ु राय
जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर कीजन्मस्थली है । इन्होंने इतिहास, द
र्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटनाविश्वविद्यालय से की। सा
हित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहनअध्ययन
किया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता।
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पर्व
ू के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए
और स्वतंत्रता केबाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे । वे छायावादोत्तर
कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे।एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रो
ह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है , तो दस
ू री ओरकोमल श्रग
ँृ ारिक भावनाओं
की अभिव्यक्ति है । इन्हीं दो प्रवत्ति
ृ यों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्रऔर उव
र्शी में मिलता है ।
जीवन परिचय
इनका जन्म २३ सितंबर १९०८ को सिमरिया, मग
ुं ेर, बिहार में हुआ था। पट
ना विश्वविद्यालयसे बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्या
लय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७तक बिहार सरकार की सेवा में स
ब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपिनदे शक पदों पर कार्यकिया। १९५० से
वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सर
कार के हिन्दीसलाहकार बने। उन्हें पदमविभूषण की से भी अलंकृत किया
ु तक संस्कृति के चारअध्याय [ ] के लिये आपको साहित्य अकादमी
३
गया। पस्
पनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहें गे।
प्रमख
ु कृतियाँ
ऊर्वशी को छोड़कर, दिनकरजी की अधिकतर रचनाएं वीर रस से ओतप्रोत है
साद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजीगैर-हिंदीभाषियों के बीच हिंदी के सभी
कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रतिय थे. उन्होंने कहा किदिनकरजी अपनी मा
तभ
ृ ाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे. हरिवंश राय बच्चन ने कहा किदिन
करजी को एक नहीं, चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा
कि उन्हें गद्य,पद्य, भाषा और हिंदी भाषा की सेवा के लिए अलग-अगल ज्ञ
ानपीठ परु स्कार दिया जाना चाहिए.रामवक्ष
ृ बेनीपरु ी ने कहा कि दिनकरज
नकरजी अपने युग के सचमच
ु सूर्य थे. प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र यादव नेक
हा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया. प्रसिद्ध रचनाकार
काशीनाथ सिंह नेकहा कि दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि
थे. उन्होंने सामाजिक और आर्थिकसमानता और शोषण के खिलाफ कविता
ओं की रचना की. एक प्रगतिवादी और मानववादी कविके रूप में उन्होंने ऐ
तिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना
दिया.. ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम,
वासना और संबंधोंके इर्द-गिर्द धूमती है . उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अपसर
दस
ू रे विश्वयद्ध
ु के बाद लिखी गई. वहीं सामधेनीकी रचना कवि के सामाजि
कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक दे श
है , क्योंकि सारीविविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है . दिनकरजी
की रचनाओं के कुछ अंश-
रे रोक यधि
ु ष्ठर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव
गदा, लौटा दे अर्जुनभीम वीर (हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भज
ु ंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दं तहीन
विषहीन विनीत सरलहो (कुरूक्षेत्र)
पत्थर सी हों मांसपेशियां लौहदं ड भज
ु बल अभय नस-नस में हो लहर आग
की, तभी जवानी पातीजय (रश्मिरथी
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लट
ू ने हम जाते हैं दध
ू -दध
ू ओ वत्स तम्
ु हारा
दध
ू खोजने हम जातेहै.
सच पछ
ू ो तो सर में ही बसती दीप्ति विनय की संधि वचन संपज्
ू य उसी का
जिसमें शक्ति विजयकी सहनशीलता क्षमा दया को तभी पज
ू ता जग है बल
के दर्प चमकता जिसके पीछे जब जगमगह
सम्मान
दिनकरजी को उनकी रचना कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उ
त्तरप्रदे श सरकारऔर भारत सरकार सम्मान मिला. संस्कृति के चार अध्या
नित किया. भागलपरु विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति औरबिहार
चड़
ू ामणि से सम्मानित किया. वर्ष 1972 में काव्यरचना उर्वशी के लिए उन्हें
ज्ञानपीठ सम्मानित किया गया.
1952 में वे राज्यसभा के लिए चन
ु ेगए और लगातार तीन बार राज्यसभा के
सदस्य रहे .
मरणोपरांत सम्मान
30 सितंबर 1987 को उनकी 79 वीं पुण्यतिथि पर तात्कालीन राष्ट्रपति शंक
र दयाल शर्मा नेउन्हें श्रद्धांजलित दी.
1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मति
ृ में डाक टिकट जारी किए. दिनकर
जी की स्मति
ृ में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरं जन दास मुंशी ने उ
नकी जन्म शताब्दी केअवसर, रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृति
त्व पस्
ु तक का विमोचन किया. इस किताबकी रचना खगेश्वर ठाकुर ने की
और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने इसका प्रकाशन किया.उनकी जन ्
म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य
प्रतिमा काअनावरण किया और उन्हें फूल मालाएं चढाई. कालीकट विश्वविद्
यालय में भी इस अवसर को दोदिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया.
दो न्याय अगर तो आधा दो, और, उसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
लेकिन दर्यो
ु धन
दर्यो
ु धन वह भी दे न सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे , हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान ् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दर्यो
ु धन! बाँध मुझे।
यह दे ख, गगन मझ
ु में लय है , यह दे ख, पवन मझ
ु में लय है ,
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
मत
ृ कों से पटी हुई भू है ,
पहचान, कहाँ इसमें त ू है ।
रे णक
ु ा, द्वंद्वगीत, हुँकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, नीलकुसम
ु , पर
शुराम की प्रतीक्षा, धूपछाँह आदि दिनकर की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। एक
कवि से पथ
ृ क भी दिनकर को गद्यकार एवं बालसाहित्यकार के रूप में
जाना जाता है । दिनकर की गद्य रचनाओं में उजली आग (गद्य-
काव्य), संस्कृति के चार अध्याय (संस्कृति इतिहास), अर्ध-
नारीश्वर, मिट्टी की ओर, रे ती के फूल, पंत प्रसाद और निराला (निबंध व
आलोचना) आदिप्रमुख हैं। बाल साहित्य में चित्तौड का साका, सूरज का
व्याह, भारत की सांस्कृतिक कहानी, धूप छाँह, मिर्च का मजा आदि
प्रमख
ु हैं।
मल
ू रूप से दिनकर ओजस्वी अभिव्यक्ति के अमर कवि है । दिनकर
की भाषा विषय के अनुरूप है जिसमें कहीं कोमलकांत पदावली है तो
कहीं ओजपूर्ण शब्दों का प्रयोग मिलता है । भाषा में प्रवाह लाने के लिये
उन्होंने उर्दू-फारसी तथा दे शज शब्दों का भी प्रचुर प्रयोग किया है ।
दिनकर की रचनाओं के सामाजिक सरोकारों से आन्दोलित हुए बिना नहीं
रहा जा सकता। एक ओर जहाँ जातिवाद का विरोध करते हुए वे लिखते
हैं:-
रामधारी सिंह दिनकर (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) भारत में हिन्दी
१][२]
के एक प्रमख
ु लेखक. कवि, निबंधकार थे।[ राष्ट्र कवि दिनकर आधनि
ु क यु
ग के श्रेष्ठ वीर रस के कविके रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय
जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर कीजन्मस्थली है । इन्होंने इतिहास, द
र्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटनाविश्वविद्यालय से की। सा
हित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहनअध्ययन
किया था। ज्ञानपीठ परु स्कार विजेता।
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए
और स्वतंत्रता केबाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे । वे छायावादोत्तर
कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे।एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रो
ह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है , तो दस
ू री ओरकोमल श्रग
ँृ ारिक भावनाओं
की अभिव्यक्ति है । इन्हीं दो प्रवत्ति
ृ यों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्रऔर उव
र्शी में मिलता है ।
जीवन परिचय
इनका जन्म २३ सितंबर १९०८ को सिमरिया, मग
ुं ेर, बिहार में हुआ था। पट
ना विश्वविद्यालयसे बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्या
लय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७तक बिहार सरकार की सेवा में स
ब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपिनदे शक पदों पर कार्यकिया। १९५० से
वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सर
कार के हिन्दीसलाहकार बने। उन्हें पदमविभष
ू ण की से भी अलंकृत किया
पनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहें गे।
प्रमख
ु कृतियाँ
ऊर्वशी को छोड़कर, दिनकरजी की अधिकतर रचनाएं वीर रस से ओतप्रोत है
साद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजीगैर-हिंदीभाषियों के बीच हिंदी के सभी
कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रतिय थे. उन्होंने कहा किदिनकरजी अपनी मा
तभ
ृ ाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे. हरिवंश राय बच्चन ने कहा किदिन
करजी को एक नहीं, चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा
कि उन्हें गद्य,पद्य, भाषा और हिंदी भाषा की सेवा के लिए अलग-अगल ज्ञ
ानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए.रामवक्ष
ृ बेनीपुरी ने कहा कि दिनकरज
नकरजी अपने युग के सचमच
ु सूर्य थे. प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र यादव नेक
हा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया. प्रसिद्ध रचनाकार
काशीनाथ सिंह नेकहा कि दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि
थे. उन्होंने सामाजिक और आर्थिकसमानता और शोषण के खिलाफ कविता
ओं की रचना की. एक प्रगतिवादी और मानववादी कविके रूप में उन्होंने ऐ
तिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना
दिया.. ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम,
वासना और संबंधोंके इर्द-गिर्द धूमती है . उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अपसर
दस
ू रे विश्वयद्ध
ु के बाद लिखी गई. वहीं सामधेनीकी रचना कवि के सामाजि
क चिंतन के अनरु
ु प हुई है . संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी नेकहा
कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक दे श
है , क्योंकि सारीविविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है . दिनकरजी
की रचनाओं के कुछ अंश-
गदा, लौटा दे अर्जुनभीम वीर (हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दं तहीन
विषहीन विनीत सरलहो (कुरूक्षेत्र)
की, तभी जवानी पातीजय (रश्मिरथी
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं दध
ू -दध
ू ओ वत्स तुम्हारा
दध
ू खोजने हम जातेहै.
सच पछ
ू ो तो सर में ही बसती दीप्ति विनय की संधि वचन संपज्
ू य उसी का
जिसमें शक्ति विजयकी सहनशीलता क्षमा दया को तभी पज
ू ता जग है बल
के दर्प चमकता जिसके पीछे जब जगमगह
सम्मान
दिनकरजी को उनकी रचना कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उ
त्तरप्रदे श सरकारऔर भारत सरकार सम्मान मिला. संस्कृति के चार अध्या
नित किया. भागलपरु विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति औरबिहार
चड़
ू ामणि से सम्मानित किया. वर्ष 1972 में काव्यरचना उर्वशी के लिए उन्हें
ज्ञानपीठ सम्मानित किया गया.
1952 में वे राज्यसभा के लिए चुनेगए और लगातार तीन बार राज्यसभा के
सदस्य रहे .
मरणोपरांत सम्मान
30 सितंबर 1987 को उनकी 79 वीं पण्
ु यतिथि पर तात्कालीन राष्ट्रपति शंक
र दयाल शर्मा नेउन्हें श्रद्धांजलित दी.
1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मति
ृ में डाक टिकट जारी किए. दिनकर
जी की स्मति
ृ में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरं जन दास मुंशी ने उ
नकी जन्म शताब्दी केअवसर, रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृति
त्व पस्
ु तक का विमोचन किया. इस किताबकी रचना खगेश्वर ठाकुर ने की
और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने इसका प्रकाशन किया.उनकी जन ्
म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य
प्रतिमा काअनावरण किया और उन्हें फूल मालाएं चढाई. कालीकट विश्वविद्
यालय में भी इस अवसर को दोदिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया.
दो न्याय अगर तो आधा दो, और, उसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
लेकिन दर्यो
ु धन
दर्यो
ु धन वह भी दे न सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे , हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान ् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मझ
ु े,
हाँ, हाँ दर्यो
ु धन! बाँध मझ
ु े।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मझ
ु ी में आते हैं।
मत
ृ कों से पटी हुई भू है ,
पहचान, कहाँ इसमें तू है ।
सन
ु ँू क्या सिंधु मैं गर्जन तम्
ु हारा, स्वयं यग
ु धर्म का हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव की टं कार हूँ मैं..
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा की, दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू जग को संभाले,व प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं..
रे णुका, द्वंद्वगीत, हुँकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, नीलकुसुम, पर
शरु ाम की प्रतीक्षा, धप
ू छाँह आदि दिनकर की प्रमख
ु काव्य कृतियाँ हैं। एक
कवि से पथ
ृ क भी दिनकर को गद्यकार एवं बालसाहित्यकार के रूप में
जाना जाता है । दिनकर की गद्य रचनाओं में उजली आग (गद्य-
काव्य), संस्कृति के चार अध्याय (संस्कृति इतिहास), अर्ध-
नारीश्वर, मिट्टी की ओर, रे ती के फूल, पंत प्रसाद और निराला (निबंध व
आलोचना) आदिप्रमुख हैं। बाल साहित्य में चित्तौड का साका, सूरज का
व्याह, भारत की सांस्कृतिक कहानी, धूप छाँह, मिर्च का मजा आदि
प्रमख
ु हैं।
मल
ू रूप से दिनकर ओजस्वी अभिव्यक्ति के अमर कवि है । दिनकर
की भाषा विषय के अनुरूप है जिसमें कहीं कोमलकांत पदावली है तो
कहीं ओजपूर्ण शब्दों का प्रयोग मिलता है । भाषा में प्रवाह लाने के लिये
उन्होंने उर्दू-फारसी तथा दे शज शब्दों का भी प्रचरु प्रयोग किया है ।
दिनकर की रचनाओं के सामाजिक सरोकारों से आन्दोलित हुए बिना नहीं
रहा जा सकता। एक ओर जहाँ जातिवाद का विरोध करते हुए वे लिखते
हैं:-
चल्
ु लू भर पानी से बझ
ु ाने आग गाँव की
चल पडी टोलियाँ अमीर उमराव की..
6.YASHPAL
[छुपाएँ]
1 जीवनी
2 अंग्रेजी राज और यशपाल
जी
3 साहित्य और यशपाल जी
4 प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ
5 बाहरी कड़ियां
जीवनी[संपादित करें ]
यशपाल का जन्म 3 दिसंबर, 1903 को पंजाब में , फ़ीरोज़पुर छावनी में एक साधारण
खत्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदे वी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल
में अध्यापिका थीं। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे।
उनका पैतक
ृ गाँव रं घाड़ था, जहाँ कभी उनके पूर्वज हमीरपरु से आकर बस गए थे।
पिता की एक छोटी-सी दक
ु ान थी और उनके व्यवसाय के कारण ही लोग उन्हें
‘लाला’ कहते-पक
ु ारते थे। बीच-बीच में वे घोड़े पर सामान लादकर फेरी के लिए
आस-पास के गाँवों में भी जाते थे। अपने व्यवसाय से जो थोड़ा-बहुत पैसा उन्होंने
इकट्ठा किया था उसे वे, बिना किसी पुख़्ता लिखा-पढ़ी के, हथ उधारू तौर पर सूद
पर उठाया करते थे। अपने परिवार के प्रति उनका ध्यान नहीं था। इसीलिए
यशपाल की माँ अपने दो बेटों—यशपाल और धर्मपाल—को लेकर फ़िरोज़पुर छावनी
में आर्य समाज के एक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बारे में
कुछ अधिक ही सजग थीं। यशपाल के विकास में ग़रीबी के प्रति तीखी घण ृ ा आर्य
समाज और स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उपजे आकर्षण के मल
ू में उनकी माँ और
इस परिवेश की एक निर्णायक भमि
ू का रही है । यशपाल के रचनात्मक विकास में
उनके बचपन में भोगी गई ग़रीबी की एक विशिष्ट भूमिका थी।
अंग्रेजी राज और यशपाल जी[संपादित करें ]
अपने बचपन में यशपाल ने अंग्रेज़ों के आतंक और विचित्र व्यवहार की अनेक
कहानियाँ सन
ु ी थीं। बरसात या धप
ू से बचने के लिए कोई हिन्दस्
ु तानी अंग्रेज़ों के
सामने छाता लगाए नहीं गज़
ु र सकता था। बड़े शहरों और पहाड़ों पर मख्
ु य सड़कें
उन्हीं के लिए थीं, हिन्दस्
ु तानी इन सड़कों के नीचे बनी कच्ची सड़क पर चलते थे।
यशपाल ने अपने होश में इन बातों को सिर्फ़ सुना, दे खा नहीं, क्योंकि तब तक
अंग्रेज़ों की प्रभुता को अस्वीकार करनेवाले क्रांतिकारी आंदोलन की चिंगारियाँ जगह-
जगह फूटने लगी थीं। लेकिन फिर भी अपने बचपन में यशपाल ने जो भी कुछ
दे खा, वह अंग्रेज़ों के प्रति घण
ृ ा भर दे ने को काफ़ी था। वे लिखते हैं, ‘‘मैंने अंग्रेज़ों
को सड़क पर सर्व साधारण जनता से सलामी लेते दे खा है । हिन्दस्
ु तानियों को
उनके सामने गिड़गिड़ाते दे खा है , इससे अपना अपमान अनम
ु ान किया है और
उसके प्रति विरोध अनभ
ु व किया...’ (सिंहावलोकन-1, संस्करण 1956, प.ृ 42)
दस
ू री घटना कुछ इसके बाद की है । तब यशपाल की माँ यक्
ु तप्रांत में ही नैनीताल
ज़िले में तिराई के क़स्बे काशीपरु में आर्य कन्या पाठशाला में मुख्याध्यापिका थीं।
शहर से काफ़ी दरू , कारखाने़ से ही संबध
ं ी को बड़ा-सा आवास मिला था और
यशपाल की माँ भी वहीं रहती थी। घर के पास ही ‘द्रोण सागर’ नामक एक तालाब
था। घर की स्त्रियाँ प्रायः ही वहाँ दोपहर में घम
ू ने चली जाती थीं। एक दिन वे
स्त्रियाँ वहाँ नहा रही थीं कि उसके दस
ू री ओर दो अंग्रेज़ शायद फ़ौजी गोरे , अचानक
दिखाई दिए। स्त्रियाँ उन्हें दे खकर भय से चीख़ने लगीं और आत्मरक्षा में एक-दस
ू रे
से लिपटते हुए, भयभीत होकर उसी अवस्था में अपने कपड़ेउठाकर भागने लगीं।
यशपाल भी उनके साथ भागे। घटित कुछ विशेष नहीं हुआ लेकिन अंग्रेज़ों से इस
तरह डरकर भागने का दृश्य स्थायी रूप से उनकी बाल-स्मति
ृ में टँ क गया...‘अंग्रज़
े
से वह भय ऐसा ही था जैसे बकरियों के झुंड को बाघ दे ख लेने से भय लगता
होगा अर्थात ् अंग्रेज़ कुछ भी कर सकता था। उससे डरकर रोने और चीख़ने के
सिवाय दस
ू रा कोई उपाय नहीं था...’ (वही, प.ृ 44)
आर्य समाज और कांग्रेस वे पड़ाव थे जिन्हें पार करके यशपाल अंततः क्रांतिकारी
संगठन की ओर आए। उनकी माँ उन्हें स्वामी दयानंद के आदर्शों का एक तेजस्वी
प्रचारक बनाना चाहती थीं। इसी उद्देश्य से उनकी आरं भिक शिक्षा गरु
ु कुल कांगड़ी में
हुई। आर्य समाजी दमन के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया के बीज उनके मन की धरती पर
यहीं पड़े। यहीं उन्हें पन
ु रुत्थानवादी प्रवत्ति
ृ यों को भी निकट से दे खने-समझने का
अवसर मिला। अपनी निर्धनता का कचोट-भरा अनुभव भी उन्हें यहीं हुआ। अपने
बचपन में भी ग़रीब होने के अपराध के प्रति वे अपने को किसी प्रकार उत्तरदायी
नहीं समझ पाते। इन्हीं संस्कारों के कारण वे ग़रीब के अपमान के प्रति कभी
उदासीन नहीं हो सके।
कांग्रेस यशपाल का दस
ू रा पड़ाव थी। अपने दौर के अनेक दस
ू रे लोगों की तरह वे
भी कांग्रेस के माध्यम से ही राजनीति में आए। राजनैतिक दृष्टि
से फ़िरोज़परु छावनी एक शांत जगह थी। छावनी से तीन मील दरू शहर के लेक्चर
और जलसे होते रहते थे। खद्दर का प्रचार भी होता था। 1921 में , असहयोग
आंदोलन के समय यशपाल अठारह वर्ष के नवयव
ु क थे—दे श-सेवा और राष्ट्रभक्ति
के उत्साह से भरपरू , विदे शी कपड़ों की होली के साथ वे कांग्रेस के प्रचार-अभियान
में भी भाग लेते थे। घर के ही लुग्गड़ से बने खद्दर के कुर्त्ता-पायजामा और गांधी
टोपी पहनते थे। इसी खद्दर का एक कोट भी उन्होंने बनवाया था। बार-बार मैला हो
जाने से ऊबकर उन्होंने उसे लाल रँगवा लिया था। इस काल में अपने भाषणों में ,
ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आँकड़ों के स्रोत के रूप में , वे दे श-दर्शन नामक जिस
पुस्तक का उल्लेख करते हैं वह संभवतः 1904 में प्रकाशित सखाराम गणेश
दे उस्कर की बाङ्ला पस्
ु तक दे शेरकथा है , भारतीय जन-मानस पर जिसकी छाप
व्यापक प्रतिक्रिया और लोकप्रियता के कारण ब्रिटिश सरकार ने जिस पर पाबंदी
लगा दी थी।
सके लक्ष्यों पर टप्पणी करते हुए यशपाल लिखते हैं, ‘नौजवान भारत सभा का
कार्यक्रम गाँधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति की आलोचना करके जनता को
उस राजनैतिक कार्यक्रम की प्रेरणा दे ना और जनता में क्रांतिकारियों और महात्मा
गाँधी तथा गाँधीवादियों के बीच एक बनि
ु यादी अंतर की ओर संकेत करना उपयोगी
होगा। लाला लाजपतराय की हिन्दव
ू ादी नीतियों से घोर विरोध के बावजूद उनपर
हुए लाठी चार्ज के कारण, जिससे ही अंततः उनकी मत्ृ यु हुई, भगतसिंह और उनके
साथियों ने सांडर्स की हत्या की। इस घटना को उन्होंने एक राष्ट्रीय अपमान के
रूप में दे खा जिसके प्रतिरोध के लिए आपसी मतभेदों को भल
ु ा दे ना जरूरी था।
भगतसिंह द्वारा असेम्बली में बम-कांड इसी सोच की एक तार्कि क परिणति थी,
लेकिन भगतसिंह, सुखदे व और राजगुरु की फाँसी के विरोध में महात्मा गाँधी ने
जनता की ओर से व्यापक दबाव के बावजूद, कोई औपचारिक अपील तक जारी
नहीं की।
अपने पहले उपन्यास दादा कॉमरे ड की भूमिका में उन्होंने लिखा, ‘कला के प्रेमियों
को एक शिकायत मेरे प्रति है कि (मैं) कला को गौण और प्रचार को प्रमुख स्थान
दे ता हूँ। मेरे प्रति दिए गए इस फ़ैसले के विरुद्ध मुझे अपील नहीं करनी। संतोष है
अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाता हूं...(दादा कॉमरे ड, संस्करण’ 59, प.ृ 4) अपने
लेखकीय सरोकारों पर और विस्तार से टिप्पणी करते हुए बाद में उन्होंने लिखा,
‘मनष्ु य के पर्ण
ू विकास और मक्ति
ु के लिए संघर्ष करना ही लेखक की सार्थकता
है । जब लेखक अपनी कला के माध्यम से मनष्ु य की मक्ति
ु के लिए परु ानी
व्यवस्था और विचारों में अंतर्विरोध दिखाता है और नए आदर्श सामने रखता है तो
उस पर आदर्शहीन और भौतिकवादी होने का लांछन लगाया जाता है । आज के
लेखक की जड़ें वास्तविकता में हैं, इसलिए वह भौतिकवादी तो है ही परं तु वह
आदर्शहीन भी नहीं है । उसके आदर्श अधिक यथार्थ हैं। आज का लेखक जब अपनी
कला द्वारा नए आदर्शों का समर्थन करता है तो उस पर प्रचारक होने का लांछन
लगाया जाता है । लेखक सदा ही अपनी कला से किसी विचार या आदर्श के प्रति
सहानभ
ु ति
ू या विरोध पैदा करता है । साहित्य विचारपर्ण
ू होगा।
जो और जैसी दनि
ु या बनाने के लिए यशपाल सक्रिय राजनीति से साहित्य की ओर
आए थे, उसका नक्शा उनके आगे शुरू से बहुत कुछ स्पष्ट था। उन्होंने किसी
युटोपिया की जगह व्यवस्था की वास्तविक उपलब्धियों को ही अपना आधार
बनाया था। यशपाल की वैचारिक यात्रा में यह सूत्र शुरू से अंत तक सक्रिय दिखाई
दे ता है कि जनता का व्यापक सहयोग और सक्रिय भागीदारी ही किसी राष्ट्र के
निर्माण और विकास के मख्
ु य कारक हैं। यशपाल हर जगह जनता के व्यापक हितों
के समर्थक और संरक्षक लेखक हैं। अपनी पत्रकारिता और लेखन-कर्म को जब
यशपाल ‘बल
ु ेट की जगह बल
ु ेटिन’ के रूप में परिभाषित करते हैं तो एक तरह से वे
अपने रचनात्मक सरोकारों पर ही टिप्पणी कर रहे होते हैं। ऐसे दर्ध
ु र्ष लेखक के
प्रतिनिधि रचनाकर्म का यह संचयन उसे संपूर्णता में जानने-समझने के लिए प्रेरित
करे गा, ऐसा हमारा विश्वास है । वर्षों 'विप्लव' पत्र का संपादन-संचालन। समाज के
शोषित, उत्पीड़ित तथा सामाजिक बदलाव के लिए संघर्षरत व्यक्तियों के प्रति
रचनाओं में गहरी आत्मीयता। धार्मिक ढोंग और समाज की झूठी नैतिकताओं पर
करारी चोट। अनेक रचनाओं के दे शी-विदे शी भाषाओं में अनव
ु ाद। 'मेरी तेरी उसकी
बात' नामक उपन्यास पर साहित्य अकादमी परु स्कार।
प्रमख
ु प्रकाशित कृतियाँ[संपादित करें ]
दिव्या, दे शद्रोही, झठ
ू ा सच, दादा कामरे ड, अमिता, मनष्ु य के रूप, मेरी तेरी उसकी
बात (उपन्यास), पिंजड़े की उड़ाना, फूलों का कुर्ता, भस्मावत
ृ चिंगारी, धर्मयद्ध
ु , सच
बोलने की भल
ू (कहानी-संग्रह) तथा चक्कर क्लब (व्यंग्य-संग्रह)।
उपन्यास
दिव्या
दे शद्रोही
ज्क्जि*झूठा सच
दादा कामरे ड
अमिता
मनुष्य के रूप
तेरी मेरी उसकी बात
कहानी संग्रह
पिंजरे की उड़ान
फूलों का कुर्ता
धर्मयुद्ध
सच बोलने की भूल
भस्मावत
ृ चिंगारी
व्यंग्य संग्रह
चक्कर क्लब