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हिंदी परियोजना कार्य

विषय:फणिश्वर नाथ रेणु


व्यक्तिव एवं कृ तित्व
छात्र विवरण:

नाम:बेदिका दोले
कक्षा: बारहवीं (से)
रोल नंबर:४
घोषणा पत्र
बेदिका‌दोले
मैं .................... यह घोषणा करता हूँ कि यह परियोजना कार्य मेरे द्वारा
किया गया है । इस परियोजना कार्य की संबन्धित शिक्षक से पूर्वानुमति प्राप्त कर
ली गयी है । इस परियोजना में लिए गए चित्र इंटरनेट, पुस्तक, समाचार-पत्र,
पत्रिकाओं से प्राप्त किए गए हैं । यह परियोजना कार्य पूर्णत: मौलिक है ।

बेदिका दोले
हस्ताक्षर
प्रमान पत्र
फणीश्वर नाथ रेणु व्यक्तिव विषय
प्रमाणित किया जाता है कि
कृविषय
तित्व...........................................................नामक
बेदिका‌दोले परियाजना कार्य
विद्यार्थी .............‌.... द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो कि कें द्रीय विद्यालय संगठन
दिल्ली संभाग की वार्षिक पूरक परीक्षा 2020 के लिए है |
१५/०९/२०२१
दिनांक ................

हस्ताक्षर शिक्षक हस्ताक्षर उप-प्राचार्य

परीक्षक
जन्म

रनाथ रेणु एक सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार थे। हिन्दी


साहित्य के महत्त्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का
मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले के
सगंज के निकट औराही हिंगना ग्राम में हुआ था ।
अनुक्रमणिका
•जन्म
•शिक्षा
•फणीश्वर नाथ रेणु ‘व्यक्तित्व'
•फणीश्वर नाथ रेणु ‘कृ तित्व'
•लेखन शैली
•लेखन कार्य
•फिल्म ‘तीसरी कसम'
•साहित्यिक कृ तियां
•उपन्यास
•संवदिया
•निधन
शिक्षा
प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद इन्होने मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के
विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की । इन्होने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय से 1942 में की जिसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कू द पङे । बनारस में रेणु ने 'स्टुडेंट
फे डरेशन' के कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया। आगे चलकर रेणु समाजवाद से प्रभावित हुए। 1938 ई०
में सोनपुर, बिहार में 'समर स्कू ल ऑफ पॉलिटिक्स' में रेणु शामिल हुए। इस स्कू ल के प्रिंसिपल जयप्रकाश
नारायण थे और कमला देवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, अशोक मेहता जैसे
लोगों ने इस स्कू ल में शिक्षण कार्य किया था। इसी स्कू ल में भाग लेने के बाद रेणु समाजवाद और 'बिहार
सोशलिस्ट पार्टी' से जुड़ गए। समाजवाद के प्रति रुझान पैदा करने वाले लोगों में रेणु रामवृक्ष बेनीपुरी का
भी नाम लेते हैं।बाद में 1950 में उन्होने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया जिसके
परिणामस्वरुप नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई । उन्होने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी ।
फणीश्वर नाथ रेणु ‘व्यक्तित्व'
फणीश्वर नाथ रेणु ‘कृ तित्व'
लेखन शैली
इनकी लेखन-शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से
किया होता था । पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव
मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कु छ नहीं होता था । इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से
प्रधान होती थी । एक आदिम रात्रि की महक इसका एक सुंदर उदाहरण है । इनकी लेखन-शैली प्रेमचंद से
काफी मिलती थी और इन्हें आजादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है । अपनी कृ तियों में
उन्होने आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है । अगर आप उनके क्षेत्र से हैं (कोशी), तो ऐसे शब्द, जो
आप निहायत ही ठेठ या देहाती समझते हैं, भी देखने को मिल सकते हैं आपको इनकी रचनाओं में ।
लेखन कार्य
फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कु छ कहानियाँ
प्रकाशित भी हुई थीं, किं तु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार
होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व
कहानी लिखी। 'बटबाबा' 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की
दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में
रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या
63 है। 'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी
मिली। 'ठु मरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी',
'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
फिल्म ‘तीसरी कसम'

उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम' ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलवाई।
इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था। 'तीसरी क़सम' को
बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। यह फ़िल्म हिंदी
सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और
रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कु छ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। 'ऋणजल धनजल',
'वन-तुलसी की गंध', 'श्रुत अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला पर', 'आत्म परिचय' उनके संस्मरण हैं। इसके
अतिरिक्त वे 'दिनमान पत्रिका' में रिपोर्ताज भी लिखते थे। 'नेपाली क्रांति कथा' उनके रिपोर्ताज का उत्तम
उदाहरण है।
साहित्यिक कृ तियां
रेणु को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली, उसकी मिसाल मिलना
दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर
दिया। कु छ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी
देर नहीं की। हालाँकि विवाद भी कम नहीं खड़े किये उनकी प्रसिद्धि से जलनेवालों ने. इसे सतीनाथ
भादुरी के बंगला उपन्यास 'धोधाई चरित मानस' की नक़ल बताने की कोशिश की गयी। पर समय के
साथ इस तरह के झूठे आरोप ठन्डे पड़ते गए।

रेणु के उपन्यास लेखन में मैला आँचल और परती परिकथा तक लेखन का ग्राफ ऊपर की और जाता है
पर इसके बाद के उपन्यासों में वो बात नहीं दिखी।
उपन्यास
•मैला आंचल •प्रसिद्ध कहानियाँ

•परती परिकथा •मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम)

•दीर्घतपा •एक आदिम रात्रि की महक

•जूलूस •लाल पान की बेगम

•कितने चौराहे •पंचलाइट

•पलटू बाबू रोड •तबे एकला चलो रे

•ठेस
संवदिया

तीसरी कसम पर इसी नाम से राजकपूर और वहीदा रहमान की मुख्य भूमिका में प्रसिद्ध फिल्म बनी
जिसे बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया और सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र इसके निर्माता थे। यह फिल्म हिंदी
सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। हीरामन और हीराबाई की इस प्रेम कथा ने प्रेम का एक अद्भुत
महाकाव्यात्मक पर दुखांत कसक से भरा आख्यान सा रचा जो आज भी पाठकों और दर्शकों को लुभाता
है।
निधन
दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे 'रेणु' ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53
के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव
साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास 'मैला आंचल' प्रकाशित हुआ। मैला आंचल
उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।
जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपातकाल
का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद
उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी
पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात स्थिति हटी तो उनका संघर्ष सफल हुआ।
परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था। इसी
समय रेणु ने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच' की स्थापना की। इस समय तक रेणु को ‘पैप्टिक अल्सर'
की गंभीर बीमारी हो गई थी। लेकिन इस बीमारी के बाद भी रेणु ने 1977 इं में नवगठित जनता पार्टी के लिए
चुनाव में काफी काम किया। 11 अप्रैल 1977 इं को रेणु उसी पैप्टिक अक्सर से की बीमारी के कारण चल
बसे।
निष्कर्ष
अंत में,मैं इस ‘फणीश्वर नाथ रेणु व्यक्तित्व एवं कृ तित्व' परियोजना को करते हुए अपना
अनुभव साझा करना चाहूंगी। मैंने दिए गए एक विषय के बारे में कई सारे नई बातें सीखी।
सबसे अच्छी बात यह है कि मैंने इस विषय में अधिक रुचि विकसित की है।
इस परियोजना ने मुझे 'फणीश्वर नाथ' जी के विषय में वास्तविक जानकारी प्रदान की है।
हमारे इस तरह के लक्ष्य निर्धारित करने के लिए डॉ. परमानंद(सार) को बोहुत बोहूत
धन्यवाद। मैंने इस परियोजना में करने वाले हर एक कार्य का आनंद लिया।
धन्यवाद।

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