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Savarkar (Vikram Sampath)
Savarkar (Vikram Sampath)
एक भऱ
ू े-बबसरे अतीत की गॉज
ू
1883–1924
ववक्रम सम्पत
अनव
ु ाद : सॊदीप जोशी
2021
प्रस्तावना
1. आरॊ लभक वषष
2. सॊक्रमण काऱ
3. एक क्राॊततकारी का उदय
4. शत्रु के खेमे में
5. तूफा न की आमद
6. इतत, ऱॊदन अध्याय
7. सावरकर प्रकरण
8. सज़ा-ए-काऱापानी
9. जेऱ वतृ ताॊत
10. राजनीततक रस्साकस्सी
11. हहन्द ू कौन है ?
12. वैचाररक वववेचन
पररलश ष्ट I: ‘ओ! हुतातमाओ’ का सॊपण
ू ष पाठ
पररलशष्ट II: ‘सॊकल्प एवॊ घोषणा पत्र, 1910’ का सॊपूणष पाठ
पररलशष्ट III: वी डी सावरकर की याचचकाएॉ
पररलशष्ट IV: क्या हहन्दस्
ु तान तन:शस्त्र है ?
सॊदभष
आभार
प्रस्तावना
वर्ष 2004 की बात है। सुदूर पोर्ट ब्लेयर में उठे एक विवाद से भारत के समाचार पत्र और
टेलिविजन चैनल अटे पड़े थे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में उस समय से ठीक पहले
की भारत सरकार ने पोर्ट ब्लेयर की कु ख्यात सेल्युलर जेल में सज़ा काट चुके एक स्वतंत्रता
सेनानी की याद में, उनके नाम और उद्धरण वाली पट्टिका स्थापित की थी। इस स्मारक को
इंडियन ऑयल फाउंडेशन ने स्थापित किया था। सरकारी और मीडिया हलकों में यह खुला
रहस्य था कि दिवंगत आत्मा को देर से मिली पहचान तत्कालीन वाजपेयी मंत्रिमंडल के
पेट्रोलियम मंत्री राम नाइक के अथक प्रयासों से संभव हुई है। लेकिन 2004 के आम चुनाव
में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) की अगुवाई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए)
ने वाजपेयी सरकार को पराजित कर दिया । सत्ता में आने के कु छ ही समय बाद, तेज
रफ्तार कार्रवाई के तहत, नई सरकार और उसके पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने वह
पट्टिका वहाँ से हटवा दी। साथ ही उस स्वतंत्रता सेनानी के संबंध में कई आपत्तिजनक
वक्तव्यों के साथ अय्यर ने पट्टिका हटाए जाने को उचित भी ठहराया। इसके बाद संसद के
दोनों सदनों में खूब हंगामा मचा और पूर्व सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी और महाराष्ट्र
की उसकी सहयोगी शिवसेना ने पट्टिका को पुनः स्थापित करने और मंत्री द्वारा माफी मांगे
जाने की मांग रखी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और विपक्ष को स्पष्ट शब्दों में कह दिया गया
कि यूपीए सरकार की ऐसी कोई मंशा नहीं है।
अनुचित विवाद में फँ से स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर में पहली बार उसी
समय मेरी रुचि जगी थी। बेशक मैंने पहले उनका नाम सुन रखा था, हालाँकि यह नाम
स्कू लों में हमारी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से नदारद रहता था। सीबीएसई (कें द्रीय
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) पाठ्यक्रमों से शिक्षा प्राप्त करने के बाद, मुझे महसूस हुआ कि
भारत की परवर्ती कें द्र सरकारें चाहती ही नहीं थीं कि भारत का युवावर्ग इस व्यक्ति के बारे
में जान पाए।
जैसे आदम और हव्वा के जमाने से वर्जित फल हमेशा से कौतूहल का विषय रहा है, उसी
तरह अगले कु छ वर्षों तक मेरे जिज्ञासु मस्तिष्क में सावरकर ही कें द्रीय विषय बने रहे। इसी
तरह भारत की विभक्त राजनीति में उठने वाले प्रत्येक मौजूदा विवाद में उनका नाम घसीटे
जाने पर भी मैं सचेत था। प्रश्न यह था कि 1966 में दिवंगत कोई व्यक्ति मौजूदा पीढ़ी में
इतनी मजबूत उत्कं ठा कै से उभार रहा था ? इस पर मैं हैरान था। और इसके बाद आरंभ
हुई सावरकर की जीवनयात्रा की मेरी खोज, जिन्हें नित नए रूप में मलिन किया जाता था।
हिन्दुत्व विचारधारा के बौद्धिक प्रेरणास्रोत होने के कारण, सावरकर निस्संदेह बीसवीं
सदी के सबसे विवादास्पद विचारक और नेता रहे हैं। उनके लंबे और तेज रफ्तार जीवन को
स्तुति-स्वरूप लेखनों या वैमनस्यपूर्ण आक्षेपों के बीच ही परखा गया है। और हमेशा की
तरह सत्य, इन दोनों के बीच ही कहीं है, जिसे दुर्भाग्यवश देश के लोगों को कभी नहीं
बताया गया।
धीरे-धीरे मुझे ज्ञात हुआ कि सावरकर विरोधाभासों का पुलिंदा और इतिहासकारों के
लिए पहेली की तरह थे। कई लोगों के लिए उनके विविध रूप हैं। एक कथित नास्तिक और
एक कट्टर राष्ट्रवादी जो वर्ण व्यवस्था और रूढ़ियों में जकड़ी हिन्दू मानसिकता का विरोध
करता है और गौपूजा को अंधविश्वास ठहराकर उसे खारिज करता है। समूचे स्वतंत्रता
संग्राम के दौरान सावरकर हिन्दू समुदाय के लिए सबसे ऊँ ची आवाज़ थे। सावरकर और
उनकी विचारधारा आमतौर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और विशेष तौर पर महात्मा गांधी
तथा उनके शांति एवं अहिंसा के दर्शन के खिलाफ सबसे मजबूत और उग्र विरोधी रही थी।
एक प्रतिष्ठित क्रांतिकारी जिसके विपुल बौद्धिक लेखन ने दशकों तक भारत में क्रांतिकारी
धारा को प्रेरित किया, सावरकर गहरे तथा संवेदनशील कवि, विपुल साहित्य लेखक एवं
नाटककार और आक्रामक वक्ता भी थे। आमतौर पर किसी व्यक्ति में कवि हृदय और
क्रांतिकारी मस्तिष्क का मेल दुर्लभ होता है। वहीं उनकी समाज सुधारक छवि ने
अस्पृश्यता एवं वर्णवाद के उन्मूलन और हिन्दू समाज के एकीकरण के लिए भी काम
किया।
भारतीय ‘दक्षिणपंथ’ के राजनीतिक शीर्ष पर पहुँचने के बाद, भारतीय राजनीति एवं
समाज में सावरकर और उनके विचार कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। चुनावी राजनीति में एक
ओर जहाँ सावरकर के विषय में व्यर्थ व्याख्यानों में कीमती न्यायिक समय बेकार जाता है
और फलस्वरूप, मानहानि के मुकदमों की फे हरिस्त लंबी होती जाती है, ऐसे में किसी भी
इतिहासकार का यह दायित्व बनता है कि वह प्रत्येक विचारशील पाठक के सामने तथ्य
प्रस्तुत करे ताकि वह उसमें छु पे सत्य को पहचान सके । सावरकर की दो खंडों की इस
जीवनी का यही प्रयास है।
2014 में स्थाई सरकार को चुनने के लिए भारत ने जबर्दस्त तरीके से बहुमत देकर काफी
शक्तिशाली रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से इतर एक अन्य सरकार का चुनाव किया। ऐसे में
बदलते राजनीतिक भाग्य के साथ, ऐसे अनेक राष्ट्रीय नेताओं के जीवन में लोगों की रुचि
जगने लगी, जिन्हें स्वातंत्र्योत्तर भारत की सरकारों द्वारा स्वतंत्रता संघर्ष के एकरंगी
विवरणों को लोकप्रिय बनाने के कारण अब तक उचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ था। आज
विद्वतजन नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल, भगत सिंह एवं अन्य
क्रांतिकारियों, लाल बहादुर शास्त्री, दीनदयाल उपाध्याय एवं श्यामा प्रसाद मुखर्जी से जुड़ी
नवीन सूचनाएँ सामने ला रहे हैं, जिसके जरिए आधुनिक भारतीय ऐतिहासिक विमर्श को
विविध इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
परंतु किसी कारणवश इस पुनर्आकलन से भी सावरकर को बाहर ही रखा गया। एक
ओर जहाँ उनके प्रशंसकों एवं जीवनीकारों ने उनकी महानता की स्तुति की, वहीं उनके
आलोचकों ने उन्हें कायर धोखेबाज, हत्यारा और साम्प्रदायिक कट्टरपंथी कहा। सावरकर,
उनके योगदान, उनके राजनीतिक दर्शन और उनकी विरासत को हमारे समक्ष उपलब्ध
दस्तावेजों और ऐतिहासिक तथ्यों के आईने में तथा स्वयं उनके विपुल लेखन के माध्यम से
पुनःआकलन और पुनःपरीक्षण करना चाहिए। उनका लेखन दुर्भाग्यवश अभी मुख्यधारा
तक नहीं पहुंचा है, क्योंकि वह अधिकांशतः मराठी में है। इस जीवनी में यही कार्य किया
गया है।
समकालीन भारतीय विमर्श में एक सर्वव्यापी शब्द है ‘हिन्दुत्व’। समालोचक और
राजनीतिज्ञ इसके गर्भ में छिपी राजनीतिक सूक्ष्मता को न समझते हुए, व्यापक रूप में
इसका इस्तेमाल करते हैं। हिन्दुत्व के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और
सावरकर के बीच मतभेद था। गांधी के हत्यारे गोडसे के उस इकबालिया बयान पर दशकों
तक पाबंदी रही जिसमें उसने सावरकर के ‘शान्तिपूर्ण’ हिन्दुत्व के साथ अपने मोहभंग की
बात की थी। यह तथ्य दर्शाता है कि सावरकर द्वारा 1923 में इसको प्रचलित किए जाने के
बाद के लंबे और विविधरूपी इतिहास में इस शब्द के कई अर्थ रहे।
सावरकर और उनके हिन्दुत्व के राजनीतिक दर्शन के आकलन के लिए 2019 के भारत
की परिस्थितियों को समझना ज़रूरी है जो उन्हीं मुद्दों और विवादों से जूझ रहा है, जिनके
बारे में उन्होंने लिखा या चेताया था। इसी तरह, उनकी कमियों और अज्ञानता का उनके
दृष्टिकोण एवं दर्शन के साथ आकलन करना आवश्यक है, क्योंकि बिना शक वह अपने
समय के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक विचारक थे। आखिर, जैसा अमेरिकी इतिहासकार
जॉन नोबल विल्फर्ड ने कहा हैः ‘इतिहास के सभी कार्य अंतरिम रपटें होती हैं। आखिर
लोगों ने अतीत में जो किया वह सजावट में संरक्षित नहीं हुआ. . .परवर्ती पीढ़ियों में वह
स्थिर पड़ा रहा। प्रत्येक पीढ़ी पीछे देखकर और अपने अनुभवों से उन आकृ तियों को
तराशती हैं, और ऐसे प्रतिरूप पाने के प्रयास में रहती है जो अतीत और वर्तमान दोनों को
रोशन कर सकें ’।
विपुल साहित्य के सर्जक सावरकर ने अपने जीवन के बारे में व्यापक रूप से लिखा है।
जहाँ उनके जीवन वृत्तांत में शुरुआती जानकारी विस्तारपूर्वक मिलती है, वहीं अपने
झंझावाती जीवन के कई अध्यायों का उन्होंने वर्णन किया ही नहीं। इस कारणवश उनकी
आत्मकथा अधूरी रहती है। स्वतंत्रता के निकट पहुँचकर राजनीतिक अभियान के चक्रवात
में शामिल होने और उसके बाद गांधी हत्या के मुकदमों में सह-अभियुक्त के तौर पर
उपस्थित होने तक यह समाप्त हो जाती है। जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने अपनी
उपलब्धियों को लिपिबद्ध करने के लिए समाचार पत्रों, डायरी टिप्पणियों एवं आलेखों के
इस्तेमाल का कार्य अपने सचिव बालाराव सावरकर को सौंपा था। बालाराव ने मराठी
लिखित खंडों रत्नागिरि पर्व
, हिन्दू महासभा पर्व
और अखंड हिन्दुस्तान लाधा पर्व
में इन्हें
सहेजा था। इन खंडों में 1924 से 1966 तक का विस्तृत लेखा-जोखा शामिल है।
1926 के अंत में मद्रास से सावरकर की पहली अंग्रेजी जीवनी द लाइफ ऑफ बैरिस्टर
सावरकर
प्रकाशित हुई जिसके लेखक का नाम ‘चित्रगुप्त’ था। भारतीय पौराणिक
कथाओं में चित्रगुप्त मृत्यु के देवता यम के लेखपाल का नाम है, जो प्रत्येक आत्मा के पाप
और पुण्य का लेखा-जोखा रखता है। पुस्तक का लेखक असल में कौन था, इसको लेकर
अनेक संके त उठे हैं - कांग्रेस नेता सी. राजगोपालाचारी, क्रांतिकारी वीवीएस अय्यर और
यहाँ तक कि छद्म नाम से सावरकर द्वारा खुद इसे लिखे जाने के भी कयास लगाए गए हैं।
परंतु आज तक उस लेखक की पहचान नहीं हो सकी। पुस्तक में लंदन में बिताए गए
विस्फोटक दिनों से लेकर उनकी गिरफ्तारी और सावरकर के भारत भेजने तक की कहानी
है।
इसके बाद, सदाशिव राजाराम रानाडे ने मराठी में उनकी एक छोटी जीवनी लिखी, जो
प्रकाशन के पंद्रह दिनों में ही बिक गई थी। 1943 में सावरकर की षष्ठीपूर्ति पर शिवरामपंत
करन्दीकर ने 600 पन्नों की एक वृहत जीवनी लिखी थी। उसमें उन्होंने समाचार पत्रों के
कई लेखों, निजी पत्रों, संस्मरणों, डायरियों एवं सावरकर के निकटवर्तियों के अनुभवों का
हवाला दिया था। पुस्तक के विवादास्पद विषय को देखते हुए, ब्रिटिश सरकार ने तुरंत
इसकी पाबंदी का आदेश दे दिया। यह प्रतिबंध 1947 तक लागू रहा। परंतु स्वतंत्रता के
पश्चात भी, गांधी हत्या के कारण सावरकर के बारे में बनाई गई नकारात्मक धारणा को
देखते हुए, लोगों ने स्वतंत्र भारत सरकार द्वारा प्रतिशोध के भय से, सावरकर और उनसे
जुड़ी किसी भी वस्तु से दूर रहना ही बेहतर समझा।
उनसे मामूली से संबंध के आधार पर कै से अनेक प्रतिष्ठित लोगों को नौकरियों,
जीवनयापन और प्रतिष्ठा से हाथ धोना पड़ा, इस संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।
कहा जाता है कि करन्दीकर कु छ इतने परेशान थे कि वह पुस्तक की सभी प्रतियाँ जला
देना चाहते थे। उन्हें ऐसा करने से मराठी लेखक एवं इतिहासकार बलवंत मोरेश्वर पुरंदरे
(लोकप्रिय नाम बाबासाहेब पुरंदरे) ने रोका था। पुरंदरे ने स्वयं घर-घर जाकर पुस्तक की
प्रतियाँ बेचने का कार्य किया था।
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1950 के दशक के अंत में, बंबई सरकार ने अपने अभिलेखागार से सावरकर द्वारा गठित
क्रांतिकारी दल अभिनव भारत से संबंधित कु छ गोपनीय दस्तावेज जारी किए थे। उसके
बाद किसी पहेली के हिस्सों की तरह, सावरकर के क्रांतिकारी जीवन के अन्य पक्ष और
प्रचंड समकालीन घटनाएँ आकार लेने लगी थीं। आरके पटवर्धन (नशीकचे दशाकतिल
शतकृ त्य
) और मुकुं द सोनपतकी (दरियापार
) की पुस्तकें भी प्रकाशित हो गई थीं।
सावरकर के बड़े भाई, गणेश दामोदर सावरकर की डीएन गोखले लिखित जीवनी से दोनों
भाइयों द्वारा झेली गई कठिनाइयों और पीड़ाओं का पता चलता है। वहीं अभिनव भारत
के
साथियों श्रीधर रघुनाथ वर्तक, दामोदर महादेव चंद्रात्रे और कृ ष्णजी महाबल के संस्मरणों
से भी सावरकर की उभरती छवि के नए आयाम रोशन हुए। लगातार सामने आ रही इन
सूचनाओं के साथ, उनके अनेक निजी साक्षात्कारों के संग्रहण का कार्य सावरकर के
विश्वासपात्र धनंजय कीर ने किया। अंग्रेजी में धनंजय कीर द्वारा लिखित सावरकर की
जीवनी में 1883 में भगूर में उनके जन्म से 1966 में उनकी मृत्यु तक ब्योरा शामिल है।
प्रशंसकों ने इस जीवनी की तारीफ और विरोधियों ने इसकी आलोचना की।
विभिन्न जीवनियों के शीर्षकों के मध्य, मौजूदा पुस्तक में दुनिया भर से मूल दस्तावेजों के
वृहत अभिलेखीय अनुसंधान और अब तक अप्रयुक्त मराठी दस्तावेजों के आधार पर
पाठकों के समक्ष सावरकर और उनके समकालीनों का वस्तुगत विश्लेषण करने का प्रयास
किया गया है।
उनकी जीवनगाथा दुनिया के सामने क्यों लाई जाए, इस संबंध में सावरकर का अपना
एक दार्शनिक पक्ष था। दस खंडों में एकत्रित उनकी आत्मकथा, सावरकर समग्र वांग्मय
का
आरंभ वह मनुष्य की भूल जाने की अद्भुत क्षमता को नमन् करते हुए करते हैं। उनका तर्क
है, कि यदि ऐसा न हो तो वर्तमान एवं पिछले जन्म की असहनीय यादें हमें हमेशा तंग
करेंगी ! उनके अनुसार, अतीत के दुःख वर्तमान और भावी परिदृश्य एवं संबंधों को
बिगाड़ने का काम करते हैं। याद रखने और भूलने के बीच बारीक संतुलन को देखते हुए
वह अटकल लगाते हैं कि संस्मरणों और आत्मकथाओं को लिखे जाने से पूर्व उन्हें उनके
महत्व से जुड़ी परीक्षा देनी होती है। निजी और पारिवारिक परिदृश्य से परे, यदि किसी की
कहानी देश और उसके भाग्य की रचना करने वाले अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के समूह को
उजागर करती है, तो ऐसी कहानी को दर्ज किया जाना आवश्यक है। फिर वह निश्चयपूर्वक
कहते हैं कि उनका जीवन देश, उसकी नियति और उसकी दो या तीन पीढ़ियों के वर्णनों से
जुड़ा है और वह उसे उनकी चिता में साथ नहीं जल जाने देंगे। इस मंतव्य के साथ उन्होंने
अपने संस्मरणों को दर्ज करना शुरू किया था।
स्वतंत्रता से पहले दमनकारी शासन और उसके बाद असहयोगपूर्ण स्वायत्त शासन के
चलते, सशस्त्र संघर्ष के संबंध में अल्पज्ञान को देखते हुए, उनका सोचना था कि उन छु पे
हुए तथ्यों और नायकों को सामने लाने वाली उनकी जीवनगाथा एक राष्ट्रीय कर्तव्य बन
चुकी है। हालाँकि, विशुद्ध तर्क वादी होने के नाते, सावरकर न के वल ख़ुद को बल्कि प्रत्येक
भावी जीवनीकार को भी सावधान करते हैं। आमजन की दृष्टि में व्यापक स्वीकृ ति प्राप्त
करने को लेकर बढ़-चढ़कर बोलने और प्रशंसाओं के पुल बांधने का प्रलोभन बना रहता है,
परंतु वह लेखन के दौरान नियंत्रण और सचेत अनासक्ति पर जोर देते हैं। उनके शब्दों में:
पूरे खिले गुलाब को व्याख्यायित करना अच्छा होता है, परंतु उससे जुड़े प्रत्येक पक्ष की
व्याख्या किए बिना वह अधूरा होगा - सभी आयामों से उस गुलाब के सौंदर्य की
अवधारणा परखने के लिए, उसकी जड़ों से लेकर, उसका तना, उसे धारण करने की
क्षमता देने वाली खाद और पौष्टिक आधार, ताजी और सूखी पत्तियों के साथ कांटों का
भी अवलोकन आवश्यक है। इसी तरह, किसी व्यक्ति के जीवनवृत्त में उसे वैसे ही
प्रस्तुत करना चाहिए जैसा ‘वह है’, वैसा नहीं, ‘जैसा उसे होना चाहिए’ - सिर से पांव
तक, न कम, न ज्यादा, यथार्थरूप की तरह पारदर्शी और सच्चा। जो भी कहा या
अनकहा हो, शर्मिंदा या तारीफ के लायक, को बिना किसी निषेध या भय के दर्ज किया
जाना चाहिए। बेशक सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ जिनमें मैं यह लिख रहा
हूँ, मेरी इच्छा के बावजूद, कु छ विवरणों को मामूली सा दबाया गया है। साथ ही, यह
उन प्रतिष्ठित लोगों के भरोसे का उल्लंघन भी होता, जिनसे अपने जीवन में मिलने और
विचार-विमर्श करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। फिर भी, मैं वादा करता हूँ कि अपनी
ओर से बिना किसी बहाने या पूर्वग्रह के जो बताया जाने लायक था, मैंने बताया है।
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व्यक्ति पूजा के विरोधी सावरकर ने इस बात पर भी जोर दिया कि यदि कु छ पीढ़ियों के
बाद भारत के लोगों को उनके संस्मरण व्यर्थ और कम महत्व के लगें तो वह उसे विस्मृति
के गर्त में धके ल देने को स्वतंत्र हैं। वह कहते हैं कि समय ही किसी व्यक्ति के महत्व का
सबसे बड़ा निर्णायक होता है। आखिरकार, ब्रह्मांड नए प्रभावों के लिए स्थान बनाने हेतु
पुराने चिन्हों को हटाने में पूर्णतः सक्षम है।
सूत्रधार के मुख से चले आ रहे दिशानिर्देशों के बाद मुझे के वल उनकी राय पर ध्यान से
अमल करना ही रह गया था - यानी मौजूद दस्तावेजों के आधार पर तस्वीर ‘जैसी है’ उस
रूप में, न कि ‘जैसा उसे होना चाहिए’ के प्रयास में प्रस्तुत करना। पुस्तक उनके प्रति
किसी ग्लानि भाव से नहीं लिखी गई, न ही यह एक राष्ट्रीय छवि के साथ हुई ऐतिहासिक
नाइंसाफी को सही करने के ऊँ चे उद्देश्य का संधान करती है। यदि ऐसा होता भी है तो यह
जानबूझकर नहीं, अपितु संयोगवश ही होगा। निजी पूर्वग्रहों को एक ओर रखते हुए,
अभिलेखों को उनकी कहानी खुद कहने देनी चाहिए। आखिर, बरसों तक एक जुनून की
तरह सवार विषय से सभी भावनात्मक संबंध तोड़ने की तकलीफदेह प्रक्रिया के बाद ही
पता चलता है कि प्रस्तुत विवरण वस्तुगत जीवनी है या स्तुतिपूर्ण संतचरित। मैं मानता हूँ
कि मैं वस्तुनिष्ठ मार्ग का चुनाव करने में सफल रहा हूँ और शेष निर्णय पाठकों के हाथ में
है।
इस बीच, 2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में लौटने के
बाद, सेल्युलर जेल से अपदस्थ पट्टिका को ग्यारह वर्षों बाद, 2015 में पुनः स्थापित कर
दिया गया। राम नाइक ने ही नई आधारशिला रखने का कार्य किया। इतिहास खुद को
दोहराता दिख रहा था। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नित बदलते चुनावी संयोग के
बीच, कोई भी इतिहासकार इतनी ही उम्मीद कर सकता है कि सावरकर और उनके जैसे
अन्य लोगों की विरासत को फिर सार्वजनिक तौर पर विद्वेषपूर्ण राजनीतिक उठापटक का
शिकार नहीं होना पड़ेगा।
डॉ. विक्रम सम्पत
बेंगलुरु, मार्च 2019
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आरंभिक वर्ष
9 जुलाई 1879, पूना
भारत में नौकरशाह के तौर पर सर रिचर्ड टैम्पल का कार्यकाल काफी लंबा रहा था। उनके
गिने-चुने समकालीन ही देश और उसके जनमत के बारे उनका जैसा ज्ञान होने का दावा
कर सकते थे। 1847 से 1880 तक के अपने भारतीय कार्यकाल के दौरान, सर टैम्पल
पंजाब, कें द्रीय प्रांत और बंगाल में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। परंतु उनके असाधारण
कार्यकाल का गौरव शिखर 1877 से 1880 के दौरान बम्बई के गवर्नर के तौर पर उनकी
नियुक्ति रही। अपने व्यापक अनुभव के बावजूद, सर टैम्पल ने वायसरॉय लॉर्ड लिटन को
दो गोपनीय पत्र भी लिखे थे।
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इन पत्रों में मौजूद अनेक वाक्य विन्यास एवं शाब्दिक
त्रुटियों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह पत्र सर टैम्पल ने जल्दबाजी में लिखे होंगे। उनकी
परेशानी का कारण भी वाजिब था, क्योंकि समस्या मुँह बाए खड़ी थीं। 1875 तक बॉम्बे
प्रेसिडेंसी के अहमदनगर, पूना, सतारा और सोलापुर जिलों में किसानों के कई उग्र
आन्दोलन हो चुके थे। 1876-77 में दक्कन भीषण सूखा और हैजा, प्लेग एवं चेचक जैसी
महामारियों की मार भी झेल चुका था। इसकी परिणति अंततः 1879 के दक्कन कृ षक
कल्याण कानून के रूप में सामने आई, जो एक जाँच समिति के गठन के बाद पारित किया
गया। उस कानून के अंतर्गत किसानों को उनके ऋण न चुका पाने की सूरत में गिरफ्तारी से
बचाने का प्रावधान था। परंतु यह कानून भी नाकाफी साबित हुआ। दक्कन में असंतोष की
भावना पहले ही गहरे से फै ल चुकी थी। वासुदेव बलवंत फड़के , जिन्हें सर टैम्पल ने एक
क्षुद्र ब्राह्मण ‘लुटेरा नेता’ कह कर संबोधित किया था, ने अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक विद्रोह
की अगुवाई की थी।
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यह स्पष्ट था कि कथित अंग्रेजी सुशासन की नीवें हिल गई थीं और
जनता में विदेशी शासन के खिलाफ असंतोष की भावना गहरे में सुलग रही थी।
परंतु के वल यही हालिया घटनाएँ नहीं थीं जिनके बारे में सर टैम्पल ने लिटन को
सविस्तार लिखा था। इसके विपरीत, उन्होंने लिटन के समक्ष 1818 से इस क्षेत्र और उसके
बाशिंदों का एक समूचा ऐतिहासिक परिदृश्य पेश किया, यानी उस समय से जब अंग्रेजों ने
पेशवाओं के राज में प्रभुत्वशाली मराठा साम्राज्य की कमजोर रगों को खोज निकाला था।
टैम्पल ने लिखा है, ‘आमतौर पर ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों ने मुसलमानों को भारत के
शासकों के तौर पर पदच्युत किया था। यह के वल आंशिक सत्य है। संपूर्ण सत्य के निकट
जो तर्क बैठता है, वह यह कि उस समय सबसे बड़ी शक्ति मराठा थे जिन्हें हमने विस्थापित
किया था’।
3
1818 तक वृहद भारत में मराठा शक्ति के विस्तार और असर को देखते हुए
यह कथन सटीक दिखता है। सिखों के विपरीत, जिनकी युद्ध आकाँक्षा 1848-49 के दूसरे
आंग्ल-सिख युद्ध में मिली हार के बाद ठं डी पड़ चुकी थी और वह उस अपमान को लगभग
भुला बैठे थे, 1818 की पराजय स्वाभिमानी मराठों के हृदय में शूल की तरह चुभ रही थी।
जैसा कि सर टैम्पल ने स्पष्ट किया है कि यह हार, उस क्षेत्र के चितपावन ब्राह्मण समुदाय
को गहरे से आहत कर गई थी। परंतु कौन थे वे चितपावन ब्राह्मण, जिन्होंने अपने समय के
महान ब्रिटिश साम्राज्य की रातों की नींद उड़ा दी थी ?
चितपावन ब्राह्मणों के उद्भव का मिथकीय वर्णन भगवान परशुराम से जोड़ा जाता है,
जिनकी उपासना भगवान विष्णु के अवतार के तौर पर होती है। चितपावन ब्राह्मणों के गौर
वर्ण, हल्की नीली आँखें और भारत के पश्चिमी तट पर, विशेषकर रत्नागिरि में उनकी भारी
संख्या को देखकर लगता है कि वह कभी समुद्र मार्ग से ईरान से महाराष्ट्र पहुँचे होंगे।
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चौदह पैतृक समूहों, या गोत्रों में संगठित चितपावन ब्राह्मणों का कोई औपचारिक जातिगत
नेतृत्व या उनके सामाजिक जीवन को संचालित करने वाले स्पष्ट प्रचलित दिषानिर्देश नहीं
थे। परंतु वह अपने धार्मिक नेता, संके श्वर के शंकराचार्य के प्रति निष्ठा रखते थे। पहले-
पहल पश्चिमी घाट पर पहाड़ी और आर्थिक तौर पर पिछड़ी कोंकण पट्टी पर आकर बसने
वाले चितपावन समुदाय को ‘कोंकणस्थ’ कहा गया जहाँ से वह पूर्वी दिशा में ‘देश’ या
मुख्यभूमि की ओर फै लने लगे। 1901 की जनगणना के अनुसार चितपावन समुदाय,
महाराष्ट्र की ब्राह्मण आबादी का 20 प्रतिशत था। पूर्वी क्षेत्रों में इनका सामना अपने ही
जातिगत बंधुओं, देशस्थ ब्राह्मणों से हुआ, जो संख्या में इनसे अधिक और क्षेत्र में
पारंपरिक तौर पर ऊँ चा स्थान रखते थे। अपने गृहक्षेत्र कोंकण में बुआई, पुरोहित कार्य
और छोटे व्यापारियों के तौर पर काम करने वाले चितपावन ब्राह्मण, नई जमीन पर
पहुँचकर जल्दी ही प्रशासक, राजनयिक और लड़ाकू योद्धाओं के तौर पर पहचान बनाने
लगे। उन्होंने शीघ्र ही राजनीतिक और आर्थिक विकास करने के लिए लगभग सभी ज़रूरी
आवश्यक हुनर अपना लिए जिसके बरक्स देशस्थ ब्राह्मण प्रशासनिक हलकों में निचले
स्तर पर या पुरोहित कार्य तक ही सीमित रह गए।
प्रशासन में चितपावन ब्राह्मणों का ऊँ चा स्थान 1680 में छत्रपति शिवाजी महाराज के
निधन के बाद और अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में पेशवा साम्राज्य के शासनकाल में मुखर
रूप में सामने आया। शिवाजी महाराज के वंशजों के प्रधानमंत्री पेशवा खुद भी चितपावन
ब्राह्मण थे। शिवाजी के अवसान के बाद वह असली राजनीतिक शक्ति बन बैठे थे, जबकि
शिवाजी के वंशज और प्रपौत्र शाहु महाराज ने सतारा का पुश्तैनी सिंहासन संभाला। 1713
में बालाजी विश्वनाथ भट्ट की नियुक्ति के बाद से, चितपावन ब्राह्मणों की सरकार के सभी
विभागों में पहचान बनने लगी थी। वह बड़ोदा, इंदौर और सांगली से लेकर, मिराज और
जामखंडी तक सभी मराठा राजकु मारों के साथ रहे। पेशवाओं ने प्रतिष्ठित चितपावनों को
बड़े-बड़े भूखंड दान में दिए। राजकु मारों से सरदारों तक, प्रशासक, राजनीतिज्ञ,
राजनयिकों से लेकर जमींदारों, बैंकरों, व्यापारियों और शक्तिशाली पेशवा सेना में
सिपहसालारों के रूप में यह समय चितपावन इतिहास का स्वर्णिम दौर था।
हालाँकि, 1818 में अकस्मात और बहुत नाटकीय तौर पर इसमें परिवर्तन आया। अंग्रेजों
की विजय के बाद पुराने शासक वर्ग के एकाधिकार का अंत हो गया और चितपावनों को
उनके आनुवांशिक विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ा था। अंग्रेजों द्वारा लागू प्रशासनिक
सेवाओं की नई नीतियों के अनुसार उसके लिए नए कौशल की जरूरत थी। इसके
बावजूद, परिवर्तनशील चितपावन ब्राह्मण इस चुनौती के समक्ष अपने में सुधार लाते हुए,
औपनिवेशिक अंग्रेजी भाषा से लाभ उठाने वाले वृहद समुदाय का अगुआ साबित हुआ,
जिसके बाद उसने प्रशासनिक सेवाओं की कमान संभाली। बॉम्बे सेवा में सबसे महत्वपूर्ण
पद ममलतदार (जिला राजस्व कलेक्टर) का होता था, और इस पद पर तीन-चैथाई कर्मी
चितपावन ब्राह्मण थे। लोक सेवा आयोग ने पाया कि बॉम्बे प्रेसिडेंसी में 41.25 प्रतिशत
डिप्टी कलेक्टर चितपावन ब्राह्मण थे। 1886 तक प्रेसिडेंसी में 104 में से 33 अधीनस्थ
न्यायाधीश चितपावन थे।
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अंग्रेजी राज के अंतर्गत व्यापक तौर पर चितपावन समुदाय की
तरक्की के बारे में सर टैम्पल ने लिटन को पत्र में लिखा कि यह प्रतिष्ठित स्थान उन्हें
राजकृ पा से नहीं बल्कि उनकी अपनी मेहनत से मिला है’।
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फिर यह सोचकर हैरानी होती
है कि अपने जीवनयापन के लिए सरकार, आश्रित इस समुदाय के मन में क्यों इतनी
कड़वाहट भरी थी ?
सर टैम्पल ने लिटन को लिखे पत्र में संक्षेप में बताया है, जिसमें उन्होंने मराठा ब्राह्मणों
की देश के अधिकांश क्षेत्रों में राजनीतिक और सैन्य प्रभुसत्ता के अतीत की ओर इशारा
किया है। जिस शक्ति के हाथ से निकल जाने पर उनमें 1820 के दशक से ही अंग्रेजों के
खिलाफ नफरत की भावना बहुत प्रबल थी। टैम्पल बताते हैं, ‘चितपावन समुदाय, राष्ट्रीय
भावना और के वल भारत को बांधे रखने की भावना से प्रेरित होता है... एक सच्चा
चितपावन... एक सैन्य कमांडर की सख्ती और ऊर्जा और एक राजनयिक के कौशल तथा
संबोधन से लैस होता है... शिक्षा, पारिश्रमिक या लोक सेवा में तरक्की से जुड़े पक्षों को
लेकर हम ऐसा कु छ भी नहीं कर सकते जो चितपावनों को संतुष्ट कर सके ... शिक्षा कु छ
मामलों में उन्हें हमारे निकट ला सकती है-कई मुद्दों पर वह हमारी भाषा के अनुसार ही
सोचते हैं ; वह हमारी विचारशैली का उपयोग करते हुए अपनी विचारशैली को दरकिनार
रखते हैं। दूसरी ओर, शिक्षा सचमुच उनके मस्तिष्क में तूफान पैदा कर रही है... वह तब
तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक देश में सर्वोच्च स्थान हासिल नहीं कर लेते, जैसा कि पिछली
सदी में उन्होंने किया था... मैंने भारत में कभी इतनी सतत, इतनी स्थाई, इतनी व्यापक
और हमारे द्वारा संतुष्ट न की जा सकने वाली ऐसी राष्ट्रव्यापी और राजनीतिक महत्वाकांक्षा
नहीं देखी जैसी पश्चिमी भारत के ब्राह्मणों, विशेषकर ऊपर बताये गए ‘कोंकणस्थ’ ब्राह्मणों
में देखी है’।
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महाराष्ट्र में महादेव गोविंद रानाडे, बाल गंगाधर तिलक से विष्णुशास्त्री कृ ष्णशास्त्री
चुपलूणकर, गणेश अगरकर और गोपालकृ ष्ण गोखले जैसे प्रतिष्ठित लेखक, शिक्षाविद,
समाज सुधारक और इतिहासकार चितपावन ब्राह्मण रहे जो अंग्रेजी शासन के घोर विरोधी
थे। यह तथ्य सर टैम्पल के आकलन की पुष्टि करता है। ऐसे ही एक राष्ट्रवादी चितपावन
ब्राह्मणों के परिवार में 1883 में विनायक दामोदर सावरकर का जन्म हुआ था।
भागुर, 1883
भागुर का छोटा सा कस्बा नासिक शहर से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रहन-सहन
के लिए उचित जलवायु और सुचारू जलस्रोत को देखते हुए अंग्रेजों ने भागुर से 4 कि.मी.
की दूरी पर देवलाली में अपनी छावनी स्थापित की थी। 1818 तक नासिक क्षेत्र मराठा संघ
का हिस्सा रहा था, इसे बाद में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के खानदेश और अहमदनगर जिलों के बीच
बांट दिया गया। नासिक जिला 1869 में वजूद में आया और 1901 की जनगणना के
अनुसार यहाँ की आबादी 816,504 थी - जिसमें 1891-1901 दशक के दौरान 3 प्रतिशत
की कमी देखी गई थी। प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों में से एक गोदावरी का
उद्भव नासिक के त्रयम्बके श्वर की पहाड़ियों से होता है और जिसके बाद यह पूर्वी जिले की
ओर बहती है। गोदावरी के किनारे भारत के सबसे पावन तीर्थ स्थलों में से एक - प्राचीन
त्रयम्बके श्वर मंदिर स्थित है, जिसकी गणना बारह पारंपरिक ज्योतिर्लिंगों या पौराणिक शिव
मंदिरों में होती है।
विनायक दामोदर के जन्म से सात या आठ पीढ़ियों पूर्व, पेशवाओं द्वारा परिवार को
जागीर दिए जाने के बाद सावरकर परिवार भागुर आया था। उनका उद्भव स्थल रत्नागिरी
जिले के तटवर्ती कोंकण क्षेत्र में गुहागर तालुका का पलशेत था। पलशेत में सावरी वृक्षों की
व्यापक पौध पाई जाती है। उनके मूल कु लनाम ओक या बापत थे, परंतु चूंकि वह सावरी
वृक्षों की जमीन पर बसते थे, इसलिए उन्हें ‘सावरवदिकर’ कहा गया, जो कालांतर में,
संक्षिप्त हो ‘सावरकर’ हो गया।
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विनायक के एक पूर्वज संस्कृ त के प्रकांड पंडित के तौर
पर जाने गए थे। पेशवा उनकी पांडित्य क्षमता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें एक
सोने की पालकी भेंट की थी। खंडोबा मंदिर में मौजूद जीर्ण पालकी के अवशेष उनकी इसी
पारिवारिक गाथा का अंश है। सावरकर समुदाय और उनके नातेदार धोपावकरों के भागुर
प्रवास और वहाँ जमींदार बनने के बाद, इस छोटे कस्बे के भाग्य का सितारा भी सोने की
पालकी वाले उनके पूर्वज की भांति चमक उठा। सावरकर परिवार, और विशेषकर उनके
एक पूर्वज, महादेव दीक्षित सावरकर को उनके नायकत्व के लिए, जागीर में एक पड़ोसी
गाँव राहौरी प्राप्त हुआ था। 1818 के युद्ध के दौरान उनके एक पूर्वज, परशुरामपंत
सावरकर ने भी पेशवाओं और अंग्रेजों के मध्य एक कु शल राजनयिक की भूमिका निभाई
थी।
चौदह प्रांगणों वाले भव्य सावरकर निवास से जुड़ी कहानियाँ एक से दूसरी पीढ़ी तक
सुनाई देती रहीं। यही नहीं, वर्षों बाद, जब भी अतीत का कोई जमींदोज ढाँचा किसी
उत्खनन में प्राप्त होता तो विनायक तुरंत उन चौदह प्रांगणों की गिनती करने लग जाते ;
परंतु गिनती सही न बैठने पर हर बार न्हें मन मसोस कर रह जाना पड़ता। सर्पों की
निगरानी में कहीं दबे पड़े विशाल खजाने से जुड़ी कहावतें भी इस परिवार का अपने सुनहरे
और सुदूर अतीत से रोमांस का हिस्सा थीं।
विनायक के पितामह को दो पुत्र और एक पुत्री थी। उनके पिता, दामोदरपंत या अन्नाराव,
दो भाइयों में छोटे थे। दोनों भाइयों में करीब पंद्रह वर्ष का अंतर था। उनके ताऊजी, जिन्हें
बापू काका पुकारा जाता, बलिष्ठ कद-काठी, शारीरिक सौष्ठव तथा व्यायाम के प्रेमी थे।
कानूनी पेशा भी उन्हें खूब भाता था और उनके कई वकील दोस्त थे। उनके कई बागान
और खलिहान थे, परंतु वह पारिवारिक सुखों से वंचित थे क्योंकि उनकी पत्नी संतानहीन
ही चल बसी थीं। बापू काका ने पुनर्विवाह नहीं किया था। हालाँकि उनके अपने भाई से
मधुर संबंध नहीं रहे थे, परंतु वह भतीजे-भतीजियों पर अपने ही बच्चों की तरह स्नेह
लुटाते। सावरकर बंधुओं की एकमात्र बहन का विवाह पड़ोसी कोठर के कनेटकर परिवार
में हुआ था। उनके पति और बापू काका व्यापारिक सहभागी थे।
वहीं दामोदरपंत अपनी ही दुनिया में रहते थे। वह मैत्रीपूर्ण स्वभाव वाले मृदुभाषी व्यक्ति
थे जिन्हें जब भी युवा जागीरदार के तौर पर संबोधित किया जाता तो वह झेंप उठते।
उन्होंने नासिक हाई स्कू ल से दसवीं कक्षा पास की और उनके शिक्षक उन्हें बुद्धिमान परंतु
नटखट बालक के तौर पर याद करते थे। एक बार अपने स्कू ल के प्रधानाचार्य पर गेंद
फें कने पर जरूर उन्हें बदनामी झेलनी पड़ी थी। दामोदरपंत कु छ कविमन भी थे जो संस्कृ त
और मराठी के महाकवियों की पंक्तियाँ याद कर उनका वाचन भी करते थे। उनका विवाह
राधाबाई से हुआ जो कोठर के ब्राह्मण बौद्धिक दीक्षित परिवार के मनोहर दीक्षित की
सुपुत्री थीं। दामोदर की तरह राधाबाई के भाई की भी काव्य में रुचि थी और साहित्यिक
अभिरुचि के कारण सावरकरों की अगली पीढ़ी भी इस क्षेत्र में सिद्धहस्त रही। शैशवकाल
में ही दो बच्चों के निधन के बाद, दम्पति को 13 जून 1879 को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। वह
शिशु जन्म के समय से ही बीमार था और जीवन भर कमजोर स्वास्थ्य से उसे जूझना पड़ा।
उनका नाम गणेश रखा गया परंतु प्यार से उन्हें ‘बाबाराव’ पुकारा जाता।
चार वर्ष बाद, 28 मई 1883 को, भागुर के पैतृक निवास में दामोदर और राधा के यहाँ
दूसरे पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम विनायक रखा गया, परंतु घर में सब उन्हें स्नेहपूर्वक
‘तात्या’ बुलाते थे। कमजोर और कृ शकाय राधाबाई को प्रजनन के दौरान गहरी पीड़ा से
गुजरना पड़ा था और ऐसा माना जा रहा था कि संभवतः उन्हें नवजात से हाथ धोना पड़ेगा।
1886 में राधाबाई ने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम मैना रखा गया। उन्हें सब ‘माई’
पुकारते थे। इसके दो वर्ष बाद उनके सबसे छोटे बच्चे, नारायण का जन्म हुआ। उन्हें ‘बल’
पुकारा जाता और वह सबके आकर्षण का कें द्र थे।
दामोदर का परिवार एक आदर्श परिवार था। युवा दम्पति रोज संध्या के दौरान दारना नदी
के किनारे टहलने जाते और उन्होंने कई खुशनुमा दोपहरें अपने बच्चों के साथ ताजे, रसीले
आम खाते हुए गुजारी थीं। युवा और संवेदनशील विनायक के लिए, स्थानीय खंडोबा और
गणपति के मंदिर, एक वृक्ष जिस पर से फल उतारते समय उनके पिता मूर्छित होकर गिर
पड़े थे, जीर्ण पड़ा एक मठ और दारना के किनारे स्थित बबूल के पेड़ जिसके फू ल खुली
बाहें पसारे पुकारते किसी नातेदार सरीखे लगते - यह सब स्थाई यादें बन कर रह गई थीं।
कई वर्षों बाद, अपनी मराठी कविता ‘गोमान्तक’ में उन्होंने अपने गाँव और उसके रमणीक
तथा यादगार दृश्यों से जुड़ी यादों को दोहराया था। वह सदा ही अपने विचारों और कल्पना
की उड़ानों में खोए रहते और उनमें से अधिकांश को कागज पर दर्ज करते।
अपने मित्रों के बीच विनायक सदा नायक की भांति रहते थे, एक रौबदार बालक जिसे
जनाकर्षण और प्रशंसा खासी लुभाती थी। ‘भागुर का छोटा जागीरदार’
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के तौर पर
मिलने वाला ‘आदर’ भी उन्हें बहुत पसंद आता और बचपन से ही वह अपनी ‘प्रजा’
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के
बीच बैठकर बनावटी अदालतें लगाया करते। गाँव-देहात से बैलगाड़ियों पर ताजा आम
और अन्य उपज लेकर आने वाले किसान भी इस युवा बालक का अभिवादन करना न
भूलते। वहीं, विनायक उनकी कड़ी मेहनत देख विभोर हो जाते और उन्हें छाँव में बैठाकर
उनके जलपान का प्रबंध करते। उन्हें ऐसा करते देख किसान डर जाते क्योंकि उन्हें लगता
कि अपने जागीरदार के घर में बैठा देखकर उन्हें सावरकर बंधुओं का कोपभाजन बनना
पड़ेगा। इस पर विनायक उनसे छाती ठोंककर कहते कि यदि किसी ने भी उन्हें धृष्टता करते
पकड़ा तो वह बेझिझक उसका नाम ले दें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। कु छ अवसरों पर
जब बापू काका वहाँ पहुँचे तो भयभीत किसान कहते कि तात्या ने उन्हें वहाँ बैठने को
मजबूर किया है। यह सुन बापू काका के चेहरे पर मुस्कान फै ल जाती और कहते, ‘अगर
छोटे जागीरदार ने तुम्हें अपने सम्मानित अतिथि के तौर पर यहाँ बैठने को कहा है तो मैं
तुम्हें यहाँ से हटाने की जुर्रत कै से कर सकता हूँ ? बैठो, बैठो, आनंद करो !’
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इतना कहते
ही वह चले जाते। ऐसे ही अवसरों से बालक की हिम्मत में वृद्धि होती।
दामोदर के नाना एक बहादुर योद्धा के तौर पर जाने जाते थे जिन्होंने कभी अश्वारोही
सेना की टुकड़ी का संचालन किया था। एक मौके पर उन्होंने डाकु ओं के एक समूह पर
हमला कर उन्हें हराया था जो अपने साथ आठ हाथों वाली ‘अष्टभुजा भवानी’
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की सुंदर
प्रतिमा ले जा रहे थे। दामोदर की माता इस प्रतिमा को अपने ससुराल ले आई थीं और उसे
वेदी पर स्थापित किया था। एक स्थानीय पुजारी के अनुसार देवी बहुत फल देने वाली थीं
और उन्हें प्रसन्न रखने के लिए प्रतिदिन पशु की बलि आवश्यक थी। सावरकर परिवार
ब्राह्मण होने के कारण विशुद्ध शाकाहारी था, इस कारण उन्होंने प्रतिमा को स्थानीय मंदिर
में स्थापित करा दिया ताकि दैनिक अनुष्ठान बिना रुके पूरे हो सकें । प्रतिवर्ष देवी की भव्य
यात्रा का आयोजन किया जाता। कई वर्षों बाद जब दामोदर ने नया निवास बनवाया, तो
उन्होंने पुजारियों की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए प्रतिमा को अपने घर पर कु लदेवी के
तौर पर स्थापित किया। 13
भवानी की प्रतिमा विनायक को बहुत आकर्षित करती और वह
कई पहर उसके सामने बैठकर मंत्रोच्चारण और उससे बातें किया करते। नवरात्रों केे
अवसर पर दामोदरपंत पूरी निष्ठा से व्रत रखते और प्रतिमा की साज-सज्जा और उस पर
भोज्य सामग्री, दीप, फू ल, धूप, नैवेद्य आदि चढ़ाते। इस अवसर पर विनायक शांत भाव से
उनके साथ बैठे रहते। दुर्गा सप्तशती
के पाठ के अवसर पर हर बार जब दामोदर उच्च स्वर
तथा विशुद्ध संस्कृ त में ‘नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः’ का उच्चारण करते, तो
विनायक रोमांचित हो उठते।
छह वर्ष की आयु में विनायक ने स्थानीय सरकारी विद्यालय में विधिवत शिक्षा लेनी
आरंभ की। इस दौरान, समाचार पत्रों से लेकर पुस्तकें तक पढ़ने में गहरी रुचि जिज्ञासु
बालक में घर करती गई थी। जल्दी ही उन्होंने खुद ही तीसरी कक्षा के स्तर की अंग्रेजी
सीखी ताकि वह घर में रखी किताबें पढ़ सके । उनके इस नैसर्गिक रुझान को उनके पिता ने
सहयोग दिया जो खुद अध्ययन में गहरी रुचि रखते थे। विनायक जब सात या आठ वर्ष के
थे, उस समय की एक अमिट याद उनके मन में बसी हुई थी। रात को खाने के बाद
दामोदरपंत सभी परिवारजनों को पास बुलाते। इसके बाद, रामायण, महाभारत से लेकर
मराठी तथा संस्कृ त के ग्रंथों जैसे राम विजय, हरि विजय, पांडव प्रताप, शिव लीलामृत,
जैमिनी अश्वमेध, भारत कथा संग्रह, के साथ-साथ शिवाजी, राणा प्रताप और पेशवाओं की
शौर्य कथाओं वाली भाखड़
(वृत्तांत) एवं पोवादस
(गाथाएं) का गहन पाठ आरंभ होता। इन
वाचनों से बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर अपनी धार्मिक और ऐतिहासिक चेतना की गहरी
समझ की छाप पड़ती। इसके पश्चात लंबा और गहरा विमर्श भी चलता जिसमें राधाबाई
और उनके चारों बच्चों को शामिल होकर अपने विचार रखने का मौका मिलता।
परंतु अपने बच्चों के मामले में दामोदरपंत कठोर अनुशासनवादी भी थे। वह बाबाराव को
अंग्रेजी पढ़ाते, जिसे समझना उनके लिए कठिन होता था। इस कारण दामोदरपंत कु छ
इतने नाराज हो जाते कि वह घर के आंगन में बाबाराव के कान पकड़ कर उन्हें दौड़ाते,
और तब तक उनसे शब्द याद करवाते जब कि वह उनका सही उच्चारण न कर दें। ऐसे में
तात्या हर बार अपने भाई की मदद को आगे आता। वह उन्हें पिता के कोप से बचाने के
लिए तुलसी के पौधे के पीछे छु पा दिया करता था। एक बार तात्या पर दामोदरपंत को कु छ
इतना क्रोध आया कि उन्होंने उसे अलमारी में बंद कर दिया। इसके बाद राधाबाई पूरे घर में
अपने बेटे की तलाश करते हुए बेहद परेशान रहीं और अंत में उन्हें तात्या अलमारी में
बेहोश मिला। यह देख उन्होंने अपने पति को बच्चों के साथ भविष्य में सख्ती न बरतने को
लेकर खरी-खरी सुनाई।
लेकिन खुशहाल परिवार की इस छवि को 1892 में अचानक चोट पहुँची। वह एक आम
दिन था जब समूचा परिवार अपने किसी पूर्वज का श्राद्ध कार्य कर रहा था। तीस की आयु
से कु छ ही अधिक राधाबाई को अचानक तेज बुखार ने आ घेरा। इसके बावजूद, उन्होंने
रसोईघर के अपने सभी कार्य पूरे किए, लेकिन उसके बाद वह तुरंत ही बेहोश हो गईं।
इसके बाद जल्दी ही उनकी नब्ज भी गिरती चली गई। जब दामोदरपंत नम आँखें लिए
उनके सिरहाने बैठे थे, राधाबाई ने अपने सभी बच्चों को बुलाया, उन्हें दुलारा और उनके
पिता को सांके तिक भाषा में उनका ध्यान रखने को कहा, और फिर जल्द ही, वह चल
बसीं।
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विनायक उस समय नौ वर्ष के थे और बाद में उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है
कि माँ के चेहरे की मद्धिम याद भी उनके जे़हन से मिट चुकी थी और यदि वह बाद में उनके
सामने सजीव भी आ खड़ी होतीं, तो संभवतः वह उन्हें नहीं पहचान पाते। भाग्य द्वारा
अपने और भाई-बहनों के साथ किए गए इस छल की गहनता को समझने के लिए भी वह
बहुत छोटे थे। माँ की अंत्येष्टि के बाद घर लौटते समय विनायक को याद आया कि एक
रिश्तेदार ने आलू की सब्जी बनाई है और उन्होंने उसे कु छ इतने स्वाद से खाया जो उन्हें
ताउम्र याद रहा। परंतु जाहिर था कि मातृशोक और उसके कारण किसी भी व्यक्ति के
जीवन में आने वाली रिक्तता चारों भाई-बहनों के जीवन में सदा बनी रही।
दामोदरपंत उस समय अपने परिवार के लिए एक तीन मंजिले भवन का निर्माण करा रहे
थे। उन्होंने उसे जल्दी पूरा कराया और पुराने घर में परेशान कर देने वाली यादों से दूर होने
के लिए जल्दी ही वहाँ चले गए। बापू काका पुराने घर में ही रहे। यह देखते हुए कि
दामोदरपंत अभी युवा हैं और उन पर चार बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी है,
हरेक शुभचिंतक उन्हें दोबारा विवाह करने की सलाह देता। परंतु वह इस विचार के घोर
खिलाफ थे और उन्होंने अपने बच्चों के लिए माता और पिता दोनों की भूमिका पूरी करने
का निर्णय किया ताकि बच्चे माँ की कमी महसूस न करें। व्यापार कार्य से लेकर रसोई
संभालना और बच्चों को सुलाने तक के कार्यों के लिए दामोदरपंत को अपनी दिनचर्या में
शीघ्र परिवर्तन लाना पड़ा। भाई-बहनों में सबसे बड़े होने के नाते बाबाराव को भी अपना
बचपन भुलाकर, इस कठिन दौर में जिम्मेदार वयस्क की भूमिका में आना पड़ा। वह प्रत्येक
कार्य में पूरी मेहनत से अपने पिता का हाथ बंटाते और खाना पकाने जैसे सभी कार्यों में
उनकी सहायता करते।
~
बचपन से ही, विनायक को हिन्दू समाज में फै ली जातिप्रथा की कु रीतियाँ कलंक समान
लगती थीं। अपने छोटे से स्तर पर उन्होंने कई बार इनका उल्लंघन भी किया। उच्चवर्ण
ब्राह्मण और जमींदार कु ल का होने के बावजूद, उनके सभी मित्र निर्धन और कथित निचली
जातियों से संबंध रखते थे। दर्जी समुदाय से आने वाले परशुराम दर्जी और राजाराम दर्जी
उनके घनिष्ठ मित्र थे। उनके पिता एक नौटंकी का संचालन करते थे जहाँ वह महिला पात्रों
की भूमिका निभाते और लावणी नामक मधुर गीत गाते। तीनों मित्र एक साथ खाना खाते
और उनके मित्रों की माता विनायक को अपने ही पुत्र की तरह स्नेह करतीं। स्थानीय भूमि
विभाग अधिकारी के पुत्र गोपालराव आनंदराव देसाई के अलावा, वामनराव धोपावकर,
बाबू कु लकर्णी, त्र्यम्बक दर्जी, बालू कु लकर्णी, भीखू बंजारी, सावलाराम सोनार, बापू और
नत्थू विनायक के अन्य निकटवर्ती मित्र और सहयोगी थे। एक काल्पनिक मंदिर का निर्माण
कर, उसमें अपने इष्टदेव को स्थापित करना और एक साथ उनकी पूजा में शामिल होना इन
बालकों का पसंदीदा शगल रहता। बाद में वह अपनी खिलौना पालकी की विधिवत यात्रा
भी निकालते। यह सभी बालक अपने प्रतिभाशाली मित्र विनायक में उभरती राजनीतिक
चेतना और क्रांति के फलते-फू लते बीज के भी साक्षी बने। विनायक अपनी आयु से कहीं
अधिक पढ़ाकू भी थे। अपने मित्रों के बीच बैठकर विनायक को अपने पसंदीदा समाचार
पत्रों और पुस्तकों को जोर-जोर से पढ़ने का भी शौक था ताकि सब एक साथ ज्ञानवर्धन
करें। अतः बहुत छोटी सी आयु से ही स्पर्धा की बजाय सामुदायिक रहन-सहन और
सामंजस्यता में प्रगति की भावना विनायक में गहरे घर कर गई थी।
तार्किक सोच का सहारा लेना और परंपराओं पर सवाल उठाना भी उन्होंने जल्दी ही
सीख लिया था। एक बार घर में एक रंग-बिरंगी पुस्तक हाथ लगते ही उन्होंने उसे पढ़ने की
ठानी, हालाँकि वह पुस्तक संस्कृ त में थी और उन्हें बहुत कम समझ आई। जब दामोदरपंत
को पता चला कि उनका बेटा आरण्यक
पढ़ रहा है तो वह कु पित हुए। उस समय यह
धारणा प्रबल थी कि घर में आरण्यक
पढ़ने वाले का भावी सामाजिक जीवन आहत होता
है, इसलिए उसे वन के एकांत में ही उसे पढ़ना चाहिए। इस सोच का विनायक पर गहरा
असर पड़ा। उन्हें हैरानी हुई कि उनके पिता जैसा बुद्धिमान पुरुष कै से अंधविश्वास में यकीन
रखता है ? इस भावना का उपहास करते हुए उन्होंने बिना किसी को बताए पुस्तक पढ़ना
जारी रखा और खुद को साबित किया कि यह के वल दकियानूसी और मनगढ़ंत बातें हैं।
बचपन से ही विनायक को इतिहास बहुत भाता था। पुस्तकों की अलमारी के शीर्ष में
रखी हुई ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड
उन्हें अपनी ओर ताकती दिखी तो उन्होंने लपक कर
उसे उठा लिया। दुर्भाग्यवश पुस्तक का पहला हिस्सा फटा हुआ था और अरब के इतिहास
से उसका आरंभ हो रहा था। इससे प्रत्येक सच्चे और व्यावहारिक इतिहासकार के समक्ष
आने वाली शाश्वत दुविधा उनके सामने भी आ खड़ी हुई। उनका युवा मस्तिष्क कु लबुलाने
लगा कि यदि इन विनष्ट पन्नों को पुनः जोड़ भी दिया जाए तो क्या फिर भी कथा के
‘आरंभ’ तक पहुँचा जा सकता है ? उन कथाओं का क्या होगा जो इस किताब में प्रकाशित
सभी घटनाओं से पहले घट चुकी थीं, और जिन्हें कभी लिखा नहीं जा सका ? क्या हम,
एक सभ्यता के तौर पर उन्हें हमेशा के लिए खो चुके हैं ? इतिहास-लेखन के प्रति उनके
इस दर्शन की झलक उनकी कविता ‘सप्तर्षि’ में मिलती है जिसमें वह पुरजोर तरीके से
कहते हैं कि यदि हमें विश्व इतिहास को समझना है तो उसका अंशमात्र ही मिलेगा, क्योंकि
उसका ‘आरंभ’ हमेशा के लिए विस्मृत रहेगा। ऐसे समय जब उनके अधिकांश सहपाठी
स्कू ली किताबों को पढ़ने के नाम से भी थर्राते थे, विनायक के युवा और उर्वर मस्तिष्क में
ऐसे विचार जड़ें बना रहे थे।
पुस्तकों की उसी अलमारी में उनके लिए कई और खजाने भी थे। 1874 से प्रकाशित हो
रही विष्णुशास्त्री कृ ष्णशास्त्री चिपलूणकर की मासिक निबंधमाला
ने उनका ध्यान अपनी
ओर खींचा। वह उनकी पसंदीदा पुस्तक साबित हुई। चिपलूणकर महाराष्ट्र में राष्ट्रवाद पर
जोर देने वाले मुखर प्रवक्ता थे। अपने इस प्रभावशाली कार्य के जरिये उन्होंने पूना के लोगों
को उनके गौरवशाली अतीत के बारे में बताकर अंग्रेजी शासन पर प्रश्न दागे थे। महाभारत
के अनुदित संस्करणों, के सरी समाचार के संस्करण, सद्धर्मदीप
नामक मासिक पत्रिका,
होमर के ग्रंथ इलियड
से लेकर मोरोपंत एवं वामन जैसे दिग्गज मराठी कवियों का काव्य
भी वहाँ था। विनायक ने पूरी निष्ठा से इन पुस्तकों का अध्ययन किया। यह सब कार्य उन्होंने
ग्यारह वर्ष की आयु से पहले ही कर लिए थे। उन्होंने समकालीन मुद्दों पर अपने निबंधों में
चिपलूणकर की शैली का अनुकरण किया।
विनायक के अंतर्मन में कविता का जन्म आठ वर्ष की आयु से होना शुरू हो गया था।
हालाँकि, उन्होंने मराठी के ओवी, फटका और आर्य काव्य छंदों का उपयोग किया परंतु
उन्हें सबसे अधिक मोरोपंत के आर्य छंद ने आकर्षित किया। दुर्भाग्यवश, उनके अध्यापकों
एवं स्कू ल हेडमास्टर ने उनकी काव्य प्रतिभा को नहीं समझा और उसे फितूर समझकर
खारिज कर दिया। हालाँकि एक शुरुआती हेडमास्टर जरूर विनायक की काव्य प्रतिभा के
प्रति संवेदनशील थे। वह एक ओर विनायक से अपने निजी काम कराते तो दूसरी ओर उन
पर गहरा विश्वास भी करते थे। विनायक को वह स्कू ल की मुहर का ध्यान रखने का सबसे
ज़रूरी कार्य सौंपते तो खुद दोपहर में झपकी लेने के लिए विनायक से स्कू ल की देखभाल
करने का हल्का-फु ल्का काम भी कराते। इसके बदले वह विनायक की आर्य छंद की
कविताएँ भी पूरे धैर्य के साथ सुनते थे। परंतु इनके बाद जो हेडमास्टर आए, वह स्वयं कवि
थे और विनायक के प्रति उन्हें विशेष विरक्ति भी थी। जब युवा बालक उनके पास अपनी
कविताएँ लेकर पहुँचा तो उन्हें एक नजर देख, उन्होंने उसे एक ओर फें क दिया और कहा
कि मात्र तुकबंदी से कोई कवि नहीं बन जाता। सावरकर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि
उन्हें जीवन भर इस बात का मलाल रहा कि काश, कोई स्नेहशील मार्गदर्शक इस दिशा में
उन्हें सही मार्ग दिखाता। परंतु हिम्मत न हार कर वह लिखते रहे और अपनी कविताओं को
विभिन्न समाचार पत्रों को भेजते रहे। उनके और पूरे परिवार के लिए वह क्षण बहुत
गौरवशाली था जब पहली बार उनकी कविता ‘स्वदेशी की फटकार’ समाचार पत्र जगत
हित्तेच्छु
में प्रकाशित हुई। यह पल उन सब को दिखने वाले आईने की तरह थी जो उनके
प्रयासों का उपहास करते थे। वहीं समाचार पत्र के संपादक इस तथ्य से अनजान थे कि
जिस कवि को उन्होंने प्रकाशित किया है, वह एक बारह वर्षीय बालक है !
धर्मग्रंथ, इतिहास, काव्य और महाकाव्यों को पढ़ने की अपनी आदत के कारण विनायक
कई बार अपने स्कू ली कार्य में पिछड़ जाते। परंतु इस समस्या से पार पाने के लिए उन्होंने
एक अनोखी विधि ईजाद की। जिस रोज स्कू ल का काम वह पूरा नहीं कर पाते, वह देर से
स्कू ल पहुँचते और सबसे पिछली सीट पर जा बैठते। जब तक उनकी बारी आती, वह कार्य
पूरा कर चुके होते, जबकि अन्य छात्र अभी अपने पर्चे जमा कराने की प्रक्रिया में ही होते।
विनायक अव्वल दर्जा हासिल कर अध्यापकों की वाहवाही बटोरते।
समाचार पत्र पढ़ने की विनायक की आदत ने उन्हें तत्कालीन महाराष्ट्र और देश भर के
घटनाक्रमों से अवगत कराया। वह खासा उथल-पुथल भरा समय था, जिसके प्रत्येक पक्ष
में उनकी गहरी रुचि थी।
महाराष्ट्र का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य
1818 के बाद महाराष्ट्र की जमीन पर जो महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय परिवर्तन आया, वह
था, पूर्ववर्ती पेशवा शक्ति की राजधानी पूना की लोक प्रतिष्ठा के मामले में आई कमी।
अनेक धनिक सावकर (बैंकर) परिवार, जिनके निजी कोष भरे रहते थे, का महत्व एकाएक
समाप्त हो गया था। छिन्न-भिन्न पेशवा सेना के सदस्य बेरोजगार हो गए थे। पूना के स्थान
पर, बंबई आधुनिक महानगरीय स्वरूप और आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण कें द्र बनकर
उभरने लगा। 1830 के दशक में शुरू हुए चीन के साथ अंग्रेजों के व्यापार के बाद, बंबई
लिवरपूल से लेकर के न्टन तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की वास्तविक जीवनरेखा का सेतु
साबित हुआ। यहाँ कपड़ा उद्योग की नींव पड़ी। सूत का पहला कारखाना 1851 में
कवासजी दावर ने स्थापित किया, 1880 तक कारखानों की संख्या 43 और 1885 तक यह
आंकड़ा 73 तक जा पहुँचा।
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महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि इस आर्थिक पुनरुद्धार के कर्ता-
धर्ता अधिकांशतः गैर-मराठा थे। अंग्रेज, पारसी, भाटिया और खोजा का बंबई के कपड़ा
उद्योग पर एकाधिकार था, जबकि मराठी भाषी कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों
तक ही सीमित रह गए थे, उनकी हालत बदतर हो चली थी। जब बंबई के गवर्नर
मॉनस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने शैक्षणिक संस्थानों के समूह की स्थापना की, तो शिक्षा क्षेत्र में भी
बंबई ने मोर्चा फतेह कर लिया था। बाद में, 1870 के दशक में जाकर पूना ने सामाजिक-
राजनीतिक परिदृश्य में हर दूसरे मुद्दे पर बंबई के बरक्स विकल्प स्थापित करने शुरू किए।
एक ओर जहाँ बंबई, विभिन्न मुद्दों पर प्रगतिशील, मुक्त और मध्यमार्गी विचार रखता था,
वहीं पूना में पारंपरिक और यहाँ तक कि अतिवादी सोच का बोलबाला दिखता था।
महाराष्ट्र की सांस्कृ तिक राजधानी की धुरी को पूना की ओर घुमाने में जिन प्रवर्तकों की
भूमिका रही, उनमें एक महत्वपूर्ण नाम न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901)
का था, जिन्होंने इस कार्य की बुनियाद अपने तबादले के बाद पूना में 1871 में रखी थी।
महादेव गोविंद रानाडे उदारपंथी थे और बंबई उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के तौर पर
कार्यरत थे और वह महिला शिक्षा तथा विधवा विवाह के संबंध में प्रचलित पुरातनवादी
विचारों को दूर करने में लंबे समय से प्रयासरत थे। अनेक सामाजिक, राजनीतिक और
सांस्कृ तिक संस्थाओं से जुड़ाव और अपने विस्तृत लेखन के दम पर उन्होंने सामाजिक
सुधार और अंग्रेजी शासन के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और स्वदेशी तथा देसी
प्रयासों से औद्योगिक एवं आर्थिक निवेष के पक्षधर थे। इसी दौरान, 1870 में पूना में गणेश
वासुदेव जोशी (लोकप्रिय नाम सार्वजनिक काका) के नेतृत्व में सार्वजनिक सभा की
स्थापना हुई जो पूना के बौद्धिक वर्ग, और उसके मार्फ त प्रेसिडेंसी की समूची मराठी भाषी
जनता की आवाज बनी। प्रशासन से लेकर अकाल राहत और समाज सुधार तक के कार्यों
में सरकार को निरंतर ज्ञापन देने वाली इस सभा ने महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में पूना
से जुड़ा नया अध्याय लिखा और रानाडे इसके अटूट अंग बन गए।
1880 में विष्णुशास्त्री कृ ष्णशास्त्री चिपलूणकर से प्रेरित युवा स्नातकों ने पूना में न्यू
इंग्लिश स्कू ल की स्थापना की। इसका प्रमुख लक्ष्य अंग्रेजी शिक्षा को समाज में सर्वसुलभ
बनाना था। वित्त की समस्या से पार पाने के लिए उन्होंने अनोखी विधि अपनाई।
अध्यापकों ने बिना मेहनताना लिए काम करना स्वीकार किया। डेक्कन स्टार
के संपादक
एमबी नामजोशी ने समाचार पत्र को स्कू ल के साथ जोड़ दिया। स्थानीय भाषी एक अन्य
समाचार पत्र भी उन्हें अपना सहयोग दे रहा था। समाचार पत्रों से होने वाले लाभ को स्कू ल
की गतिविधियों में सहयोग हेतु इस्तेमाल किया जाना था। 1881 के पूर्वाद्ध में, चिपलूणकर
जी के नेतृत्व में, बाल गंगाधर तिलक ने स्कू ल की गतिविधियों की अगुवाई की।
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एक
उत्साही युवा, गोपाल गणेश अगरकर भी जल्द ही उनसे आ जुड़े। उन्होंने दो समाचार पत्रों
- मराठा और के सरी
- का प्रकाशन आरंभ किया। कु छ ही समय में स्कू ल आर्थिक तौर पर
सफल और सक्षम हो गया। इससे इसके संस्थापकों को 1884 में डेक्कन एजुके शन
सोसाइटी और उसी वर्ष के अंत में फर्यग्युसन काॅलेज की स्थापना करने की प्रेरणा मिली।
हालाँकि जो विभूतियाँ शिक्षा प्रसार के व्यापक लक्ष्य को लेकर एक मंच पर आई थीं,
उनमें, विशेषकर तिलक और अगरकर के बीच वैचारिक मतभेद उभर कर सामने आने
लगे। जहाँ एक ओर के सरी
के आलेख समाज सुधार और हिन्दू समाज के प्रति सरकार को
कानून बनाने के पक्ष में कहते, वहीं उसी सप्ताह मराठा
में तिलक की लेखनी इसके ठीक
विपरीत आवाज़ बुलंद करती।
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प्रत्येक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे पर उनके विरोधी
पक्ष जनता के सामने होते। अंततः 1888 में, तंग आकर अगरकर ने एक अंग्रेजी भाषी
समाचार पत्र सुधारक
की शुरुआत की। इस कार्य में एक युवा सहयोगी, गोपालकृ ष्ण
गोखले उनके साथ थे जो 1886 में सभा से जुड़े थे। वैचारिक बहस से उपजी गर्मी के
कारण अगरकर ने कई तीखे पत्र लिखे जिसमें उन्होंने तिलक के बर्ताव की भर्त्सना करते
हुए उन पर ‘अनेक सामाजिक कार्यों, जन भावना, मैत्री, ईमानदारी और एकता की कीमत
पर स्वयं के महिमामंडन’ का आक्षेप लगाया।
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अंततः अब तक साथी रहे दोनों पुरोधाओं
के बीच की कटुता खुलकर सभा के सामने आ गई जिसमें इंदौर के होल्कर महाराजा द्वारा
सभा को दिए गए अनुदान के अगरकर द्वारा दुरुपयोग पर भी चर्चा हुई।
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इस संबंध में
एक गर्मागर्म बैठक के बाद तिलक ने इस्तीफा दे दिया। सहयोगियों को अपने विचारों,
नेतृत्व और असर में लाने में असफल होने पर निराश होकर तिलक सभा से अलग हो गए।
परंतु जाते हुए वह अपने साथ दोनों समाचार पत्रों - मराठा
और के सरी
के अधिकार भी
लेते गए। ये दोनों समाचार पत्र उनके साथ धोखा करने वालों के खिलाफ मोर्चा खोलने में
उनके लिए अमूल्य औजार साबित हुए और इन्हीं के दम पर उन्होंने दक्कन की राजनीति में
अपनी राजनीतिक कु शलता और असर का लोहा भी मनवाया। इसके बाद, मध्यमार्गी,
उदारवादी और आत्मालोचक सुधारक तथा हिन्दू चेतना, उग्र राष्ट्रवादी और उग्रपंथी विचारों
वाले परस्पर विरोधी वैचारिक धड़ों के बीच युद्ध रेखाएं स्पष्ट हो गई।
अपने समाचार पत्रों और राजनीतिक गतिविधियों के दम पर, तिलक ने तत्कालीन समाज
में हिन्दू धर्म के साथ-साथ महाराष्ट्र की ऐतिहासिक विभूतियों को प्रासंगिकता दिलाने की
अनोखी युक्ति अपनाई। खुद को राष्ट्रवादी मूल्यों के प्रहरी के तौर पर रखते हुए, उनके
समाचार पत्रों ने हिन्दू समाज के पतनशील वर्तमान के समक्ष उसके समृद्ध अतीत को
रखते हुए, भविष्य की सुनहरी झलक की उम्मीद भी रखी। 1891 के विवादास्पद स्कोबल
कानून के विरोध की अगुवाई करने पर भी उनकी प्रसिद्धि फै ली थी। इस कानून, जिसे ‘द
एज ऑफ कन्सेंट एक्ट’ भी कहा जाता है, के अंतर्गत बारह वर्ष की आयु से पहले हिन्दू
लड़कियों का विवाह करना दंडनीय अपराध घोषित किया गया था। यह कानून रानाडे,
गोखले, अगरकर और अन्य के सुधार कार्यों का नतीजा था। तिलक का कहना था कि
इसकी संवेदनशीलता और पारंपरिक मराठी समाज में उसके असर को देखते हुए अंग्रेज
इसके माध्यम से हिंदुओं के सामाजिक और धार्मिक जीवन में दखल दे रहे हैं। इस आधार
पर उनकी प्रसिद्धि में भारी इजाफा हुआ।
तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति पूजन महोत्सव को भी अपना समर्थन दिया। 1818 में
पेशवाओं की हार के बाद, जन महोत्सव समाप्त हो गए थे, परंतु मंदिरों और घरों में ही
शांतिपूर्वक इनका आयोजन होता रहा था। उसके बाद, 1890 के दशक में विशाल
जनसमूहों के लिए इन आयोजनों का पुनर्संचार आरंभ हुआ जो दस वर्ष तक चला। पूना के
जाने-माने आयुर्वेदाचार्य भाऊसाहब लक्ष्मण जवले और उनके कु छ मित्रों, दग्धुसेठ हलवाई,
नानासाहेब खसगीवले, महर्षि अन्नासाहेब पटवर्धन, बालासाहेब नटु, गणपतराव घोरवड़ेकर
और लक्षुसेठ दंताले ने 1892 में पूना में एक छोटा सा पंडाल स्थापित कर गणपति उत्सव
का आयोजन आरंभ किया था। इस संगठन को भाऊ रंगरी गणपति मंडल का नाम दिया
गया। हिन्दू समुदाय को एकजुट करने के इस प्रयास को तिलक ने अपनी मंजूरी दी थी।
उन्होंने महोत्सव के बारे में अपने समाचार पत्रों में सूचना प्रकाशित करते हुए इसे व्यापक
स्तर प्रदान किया। इसके बाद वह गणेश महोत्सवों की सबसे जानी-मानी हस्ती बन गए।
1894 में तिलक ने विन्चर्क वाडा में अपने समाचार पत्र के सरी
के प्रेस के एक कोने में
विशाल गणपति महोत्सव का आरंभ किया। इसके आधार पर उन्हें धार्मिक महोत्सव के
बहाने, विशाल जनसमूह को एकत्र करने पर रोक लगाने वाले उस अंग्रेजी औपनिवेशिक
कानून से बचने और अपने विचार व्यक्त करने का भी रास्ता मिल गया। महोत्सव की
अधिकांश प्रतिमाओं में गणपति एक दैत्य का संहार करते हुए नायक की मुद्रा में दिखते।
धार्मिक इष्ट की प्रतिमा के इस माध्यम से ढका-छु पा राजनीतिक संदेश भी प्रसारित हो
जाता, जिसमें स्वतंत्रता के मार्ग में आ रही अड़चन को दूर करते हुए गणपति और संहारित
दैत्य को अंग्रेजों का मूर्तिमान रूप माना जाता।
परंतु उन्हीं दिनों, उदारवादी सुधारकों के संयमित अनुरोधों प्रतिनिधिमंडलों, भव्य
कार्यक्रमों और उग्र राष्ट्रवादी कृ त्यों से परे चुपचाप एक तीसरी राजनीतिक सोच भी
विकसित हो रही थी। यह समूह सशस्त्र क्रांति के बल पर अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फें कने
का पक्षधर था। उनकी जड़ें 1857 के कु चले गए सशस्त्र संघर्ष में दबी थीं और उनका
विश्वास था कि ब्रिटिश भारतीय सेना में विद्रोह ही देश को आज़ाद करने का एकमात्र रास्ता
है। उस दौरान महाराष्ट्र के राजनीतिक फलक पर सशस्त्र भारतीय विद्रोह के एक संस्थापक
के रूप में वासुदेव बलवंत फड़के (1845-83) का तेजी से उदय हुआ। वह रानाडे, गोखले
और तिलक की तरह ही चितपावन ब्राह्मण थे और समुचित अंग्रेजी शिक्षा के आधार पर
उन्होंने सरकारी नौकरी भी हासिल की थी। उन्होंने भारतीय तटवर्ती रेलवे के लेखा विभाग
में एक क्लर्क के तौर पर काम शुरू किया था और जल्दी ही उन्हें तरक्की देकर सैन्य लेखा
अधिकारी के अंतर्गत सैन्य वित्त कार्यालय में भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने पंद्रह वर्षों तक
काम किया। पूना में वह पहले रानाडे के अनुयायी और सार्वजनिक सभा के सदस्य के रूप
में स्वदेशी के सहयोगी थे। पूना में 1874 में पहले गैर-सरकारी स्कू ल के आरंभ से लेकर
दूर-दराज के अकाल प्रभावित क्षेत्रों में राहत पहुँचाने के लिए युवा एकता कै म्पों के
आयोजन करने तक, फड़के में राष्ट्रवाद की भावना कू ट-कू ट कर भरी थी। फड़के के
प्रभावशाली भाषणों में उनके राजनीतिक विचार सुनने के लिए पूना के लोग भारी संख्या में
पहुँचते।
परंतु 1876-77 के भीषण अकाल और इस विपदा के जवाब में अंग्रेजी सरकार की
निष्क्रियता और साथ ही राष्ट्रवादियों द्वारा सरकार पर इस बारे में समुचित जोर न दिए जाने
के कारण, फड़के राजनीतिक गतिविधियों से विमुख हो गए जिनमें वह अब तक पूरे
उत्साह से हिस्सा लेते थे। लेकिन उनके जीवन में असली मोड़ एक निजी त्रासदी के रूप में
तब सामने आया जब उनके अधिकारी ने उन्हें बीमार माँ को देखने के लिए उनके गाँव
शिरडन नहीं जाने दिया। लेकिन उस प्रतिबंध को धता बताते हुए वह अपने गाँव पहुँच गए।
परंतु उनके वहाँ पहुँचने से पहले ही उनकी माँ का निधन हो चुका था। उन्हें अहसास हुआ
कि ऐसी सेवा, निष्ठा और विवेकशीलता का क्या मूल्य जब वह अपने सबसे प्रिय व्यक्ति से
ही उसके अंतिम पलों में नहीं मिल सके ? अपनी शिकायत की किसी असरकारी सुनवाई
के अभाव और मातृशोक के फलस्वरूप उन्होंने एक गोपनीय क्रांतिकारी दल का गठन
किया। दल के एक कनिष्ठ सदस्य गंगाधर विष्णु जोशी ने संगठन की कार्यविधि का वर्णन
किया:
संगठन में चार समूह थे। पहला समूह स्कू लों से बाहर गुप्त स्थानों पर, अध्यापकों की
नजरें बचाकर स्कू ली बालकों की सभा आयोजित करता था। संगठन के इन आयोजनों
में प्रवक्ता आज़ादी का संदेश देता था। दूसरा समूह देशभक्ति के गीत गाता जिनमें
मुख्यतः संत तुकाराम और रामदास की प्रार्थनाएं होतीं। दिन के बीच में तीसरे समूह से
जुड़े उपदेशक विदेशी शासन के अंतर्गत देश की बदहाली पर व्यंग्यात्मक गीत गाते।
लोग अक्सर इन गायकों को सुनने के लिए उन्हें अपने घरों में भी बुलाते। चौथा समूह
क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न सक्रिय सदस्यों का था। संगठन के सदस्यों को
गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती थी, जिसमें वह कहते, ‘मैं राष्ट्र की पुकार का उत्तर
दूँगा, मातृभूमि के लिए अपना सबकु छ न्योछावर कर दूँगा।’ पूना शहर के बाहर स्थित
मंदिर के आगे वासुदेव द्वारा दिए जाने वाले तलवारबाजी का प्रशिक्षण लेने के लिए
प्रतिदिन साठ से सत्तर युवा रोज जमा रहते। इनमें विद्यार्थी, अध्यापक, सरकारी
कर्मचारी और जनसेवक होते। वासुदेव की दूसरी पत्नी, बाई साहेब फड़के भी संगठन
की सदस्य थीं और यहाँ तक कहा जाता है कि उस समय किशोरवय बाल गंगाधर
तिलक भी लगातार संगठन की गतिविधियों में शामिल होते थे।
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संगठन के सदस्य पूना में फर्ग्यूसन काॅलेज के निकट की पहाड़ी में अपनी क्षमताएं
आजमाने के लिए अस्त्र-शस्त्र और असलहा एकत्र कर छद्म युद्धाभ्यास करते। दुश्मन पर
हमला करने के लिए गुरिल्ला युद्धनीति अपनाने और आज़ाद देश की उनकी कल्पना में
शिवाजी महाराज उनके शाश्वत आदर्श थे। इसके बाद जल्दी ही फड़के ने अपने अभियान
के लिए पैसा बटोरने के लक्ष्य से महाराष्ट्र में कई राजनीतिक डकै तियों को अंजाम दिया,
जिसके लिए उन्होंने अनेक पिछड़ी जातियों जैसे रमोशी, कोली और ढांगर को एकजुट
किया था। उनके लक्ष्य धनी व्यापारी और वणिक वर्ग होते, हालाँकि वह महिलाओं को
आहत नहीं करते थे। मई 1879 में फड़के ने कोंकण क्षेत्र के नेरे, चिखली और पलस्पे में
अपना अभियान क्रियान्वित किया जिस दौरान उनके हाथ रुपये 150,000 से अधिक की
राशि आई। परंतु कोंकण से लौटते समय, मवाल प्रांत की तुलसी घाटी में एक गंभीर
मुठभेड़ के बाद मेजर डेनियल ने क्रांतिकारियों को पकड़कर उनकी राशि जब्त कर ली।
इस दौरान दल के नेता दौलतराव नायक को प्राण गंवाने पड़े। बाद में अंग्रेज सरकार ने
विभिन्न क्षेत्रों में फड़के को पकड़ने पर ईनाम की घोषणा की।
इसके जवाब में, फड़के ने बंबई के गवर्नर सर रिचर्ड टैम्पल, पूना के कलेक्टर और सेशन्स
जज का सिर काट कर लाने वाले को दोगुना ईनाम दिए जाने की घोषणा कर दी। उन्होंने
यह ऐलान स्वघोषित ‘पेशवाओं का नया प्रधान ’ के तौर पर किया। उन्होंने यह भी घोषित
किया कि उनके इस कार्य से देश भर में विद्रोह भड़क उठे गा और 1857 की क्रांति की
पुनरावृत्ति होगी। इस ऐलान को पूना की प्रमुख इमारतों और दीवारों पर चिपका दिया
गया। उसी समय, 13 मई, 1879 की रात को उनके क्रांतिकारियों ने पूना में दो बडे़
यूरोपियन बंगलों - विश्रामबाग वाडा और बुधवार वाडा को आग के हवाले कर दिया जिसमें
सरकारी दस्तावेज जलकर राख हो गए।
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इन घटनाओं पर लंदन और वहाँ की संसद तक
में हंगामा हुआ। सकते में आ गई वहाँ की प्रेस ने पूना में मार्शल लॉ लगाने की मांग की।
डेली टेलिग्राफ, माॅर्निंग पोस्ट, द टाइम्स, बॉम्बे गैजेट
और अन्य कई समाचार पत्रों के
अनुसार सरकार अपने सपनों की दुनिया में खोई थी जबकि समाज में असंतोष की भावना
गहरे सुलग रही है। बॉम्बे गैजेट
ने गहरी चिंता के साथ लिखा:
पिछले कु छ महीनों में पश्चिमी भारत के बारे में फै ली अफवाहों की अब बाकायदा पुष्टि
हो गई है। इन अफवाहों को कु छ लोगों की महत्वाकांक्षा से जोड़ा जा सकता है जो
पश्चिमी भारत में अतीत में प्रयुक्त शिवाजी की नीतियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास
कर रहे हैं, जिनके आधार पर वह उस समय के मजबूत मुगल साम्राज्य की चूलें हिला
देने में कामयाब हुए थे। ऐसे में एक छोटा सा मार्शल लॉ पूना के हित में ही होगा। विद्रोह
इतने भयावह रूप में इसलिए पहुँचा है क्योंकि हमने उसे शुरू में नजरअंदाज किया।
अब ऐसी गलती के लिए पूना में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
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वायसरॉय लिटन को 3 जुलाई 1879 को लिखे पत्र में सर रिचर्ड टैम्पल ने फड़के की इन
गतिविधियों का सविस्तार वर्णन किया है। सरकारी महकमे में नौकरी करता हुआ कोई
व्यक्ति सरकार के खिलाफ इतनी कड़वाहट से सशस्त्र विद्रोह पर उतर आए, यह सोचकर
अंग्रेजी सरकार की नींदें उड़ गई थीं। लंदन में भी यह झूठ सीधा सरकार के मुँह पर आ
गिरा जिसके अंतर्गत उसने भारत में सब ठीक होने का दावा ठोंका था। साथ ही, 1858 में
महारानी की उद्घोषणा और उसके बाद के प्रशासनिक ‘सुधार’ की भी पोल खुल गई थी।
फड़के इन असफलताओं की जीती-जागती मिसाल थे और उन पर हर हालत में काबू पाना
ज़रूरी हो गया था।
हालाँकि, इसके तुरंत बाद रमोशी समुदाय फड़के से अलग हो गया। अपनी डायरी के
कु छ पन्नों में फड़के बड़ी निराशा से उनके बारे में लिखते हैं:
पिछले दस दिनों की घटनाएँ देखकर मैं सोच रहा हूँ कि इसका अंत क्या होगा और मैं
ऐसे लोगों (रमोशियों) के साथ किसी लक्ष्य की प्राप्ति कै से कर पाऊँ गा जो डकै ती के
लिए पहले सबको लूटते हैं और फिर सब लूट लेकर भाग निकलते हैं और फिर अपने
हिस्से के बंटवारे के लिए जोर डालते हैं। जिसके बाद वह अपने घर पहुँचने की जल्दी
दिखाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में दो सौ लोगों को कै से एकत्र किया जा सकता है ?
...यदि मेरे साथ दो सौ लोग होते तो मैं खेद का खजाना लूट लेता, जहाँ आजकल
राजस्व इकट्ठा किया जा रहा है और यदि मेरे पास अधिक धन होता तो मैं 500 घोड़ों
का भी इस्तेमाल करता। निर्धनता में कोई घोड़े नहीं रख सकता। यदि मेरे पास
घुड़सवार होते तो वह भरोसेमंद होते, रमोशियों जैसे धोखेबाज नहीं... वह (रमोशी)
बंदूकों का सामना करने से डरते हैं और धन के घोर लोभी हैं।
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आसानी से हार न मानने वाले फड़के नेे लिंगायत योद्धाओं को, गोदावरी के रम्पा विद्रोहियों
को और दक्षिण के सभी राज्यों में अपने दूत भेजे। उन्होंने अपने भरोसेमंद साथी, भास्कर
ज्योतिषी को गुप्त अभियान पर बनारस भेजा और अरबों के नेता हैदराबाद के मौलवी
मोहम्मद साहब से और हैदराबाद के निजाम की सेवा में रहे सिखों तथा रोहिल्लों से सैन्य
मदद की गुहार की। भारत भर में एक साथ विद्रोह की चिंगारी फै लाने के लक्ष्य को मूर्तरूप
देने के लिए देश भर में फै ले अपने सभी साथियों को बुला भेजा। उनका लक्ष्य रेल और
डाक व्यवस्था को आहत करना और जेलें तोड़कर कै दियों को क्रांतिकारी जामा पहनाना
था। वह लिखते हैं:
एक सावकर से 5000 रुपये प्राप्त कर मैंने महीने भर पहले ही सभी दिशाओं में तीन या
चार व्यक्तियों को भेजने का प्रस्ताव रखा, ताकि वह छोटे गुट बना सकें और उससे
अंग्रेजों के मन में गहरा डर समा जाएगा। डाक व्यवस्था रुक जाएगी और रेलवे तथा
तार में भी रुकावट पहुँचेगी, ताकि एक से दूसरे स्थान तक संदेश न पहुँच सके । उसके
बाद जेलें तोड़ी जाएंगी ताकि लंबी सज़ा काट रहे कै दी मेरे साथ आ मिलें क्योंकि यदि
अंग्रेज सरकार रही तो वह कभी बाहर न आएंगे। यदि मैं 200 आदमियों को खड़ा कर
देता हूँ, तो मैं खजाना बेशक न लूट सकूं , मुजरिमों को बाहर निकालने की मेरी मंशा तो
सामने आ ही जाएगी। सेना कहां और कितनी संख्या में है, यह तो न पता चलेगा, परंतु
हजारों अशिक्षित व्यक्ति जरूर इकट्ठा हो जाएंगे। यह अच्छा होगा और मेरी मंशा पूरी
होगी... जब एक बच्चा जन्म लेता है, वह पानी की एक बूंद के समान होता है, बड़े होने
पर वह अपनी इच्छा पूरी करता है, परंतु क्या एक या पांच वर्ष के अरसे में ही वह ऐसा
कु छ कर पाता है ? किसी ‘दल’ के साथ भी ऐसा ही कु छ होता है ! बेशक वह छोटा हो,
यदि नींव ठीक है तो वह बढ़ेगा और इस निरंकु श सरकार से जीतेगा। लोगों में खिन्नता
(अंग्रेज सरकार के प्रति) गहरे पैठ कर गई है और यदि कु छ लोग मिलकर शुरुआत करें
तो भूखे पेट वाले इसमें जल्दी ही आ जुड़ेंगे। कई लोग इससे जुड़ना चाहते हैं और
इसका नतीजा अंततः अच्छा ही होगा।
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डेक्कन स्टार
और बोध सुधाकर
जैसे तत्कालीन समाचार पत्र वासुदेव बलवंत फड़के की
गतिविधियों को अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ कर देखने पर मजबूर हो गए थे। 13
दिसंबर 1879 में बोध सुधाकर में अफसोस जताया गया:
हमें विश्वास है कि जो लोग वाशिंगटन की प्रशंसा और वाहवाही करते हैं, वासुदेव
बलवंत के मामले में भी वे ऐसा ही करेंगे, परंतु भारत के बाशिंदे देशभक्ति के विचार से
ही विमुख हो चुके हैं और यहाँ ऐसा कोई नहीं जो उसकी तारीफ करे। वाशिंगटन की
नीति को उसके देशवासियों ने पूरी तरह से समझा था परंतु वासुदेव बलवंत की
योजनाएं उसके अनुयायियों की भी समझ से बाहर हैं... वासुदेव बलवंत एक संघीय
सरकार की नींव डालना चाहते हैं परंतु इस लक्ष्य की पूर्ति तब तक सरल नहीं है जब
तक कि लोग भी उसकी ही सोच वाले न हों।
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इसके बाद परिस्थितियाँ फड़के के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होती गईं। ब्रिटिश सरकार इस
समस्याजन्य ‘दस्यु’ को पकड़ने के लिए निकल पड़ी थी। सोलापुर-कर्नाटक की सीमा पर
गंगापुर में उन्हें चारों ओर से घेर लिया गया और अंततः वह गिरफ्तार कर लिए गए। एडन
के किले में उन पर मुकदमा चला और उम्रकै द की सज़ा सुनाई गई। उन्होंने निकल भागने
का असफल प्रयास किया और 17 फरवरी 1883 को भूख हड़ताल करते हुए उन्होंने दम
तोड़ दिया।
उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अमृत बाजार पत्रिका
के संपादक ने लिखा:
वासुदेव बलवंत फड़के में उन महान विभूतियों के कई गुण विद्यमान थे जिन्हें यदा-कदा
इस दुनिया में महान लक्ष्यों को पूरा करने हेतु भेजा जाता है... वाशिंगटन, टेल
(स्विटजरलैंड के नायक) और गैरीबाल्डी की उदात्त भावनाएं उनके सीने में समायी थीं...
उनका हृदय भारत प्रेम से छलक रहा था। अपने जीवन सहित उनके पास जो कु छ था,
वह उसे अपने देश पर न्योछावर करने को तैयार थे। संघीय राज्य का विचार ही उनके
मस्तिष्क की स्वार्थहीन मंशा को दर्शाता था। वह अपने तरीके का कोई राज स्थापित
नहीं करना चाहते थे... एक पल को भूल जाएँ कि फड़के ने डाकु ओं की टोली का नेतृत्व
किया और वह अंग्रेज सरकार को उखाड़ फें कना चाहते थे, तो भी वह आपको आम
मानव भीड़ से उतने ही ऊं चे नजर आएंगे जैसे सतपुड़ा पर्वतमाला के समक्ष हिमालय।
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फड़के किस तरह का ‘गणराज्य’ स्थापित करना चाहते थे, इसके बारे में पक्के तौर पर
कु छ नहीं कहा जा सकता। लेकिन तत्कालीन समाचार पत्रों के आधार पर निष्कर्ष निकाला
जा सकता है कि वह अमेरिकी गणराज्य से गहरे तौर पर प्रेरित थे और नए आज़ाद भारत
को उसी अनुरूप देखना चाहते थे। अतः यह के वल कोरी लूटपाट या डकै ती ही नहीं थी
जिसमें फड़के जैसे क्रांतिकारी शामिल थे। अंग्रेज सरकार को बलपूर्वक उखाड़ फें कने के
बाद उसके स्थान पर वह विकल्प के रूप में एक व्यापक ढांचा खड़ा करना चाहते थे।
बेशक फड़के का विद्रोह कु चल दिया गया, परंतु सशस्त्र क्रांति की भावना जीवित रही।
कु छ समय के लिए वह बेशक नेतृत्वहीन रही, परंतु चिन्गारी बुझी नहीं। भारत और
भारतीयों को हथियारबंद करके ही अंग्रेजों से सत्ता छीनी जा सकती है, यह विचार जोर
पकड़ रहा था। विचार को तिलक द्वारा मिले सहयोग और प्रेरणा से इस दिशा में लामबंदी
शुरू हो गई। 1894 तक महाराष्ट्र में नई भावना के साथ कई गुप्त संगठन सक्रिय हो गए थे।
इन विस्फोटक परिस्थितियों से जुड़ा एक निष्कर्ष अल्पसंख्यक अंग्रेजों के दिमाग में भी
उमड़ रहा था कि किसी भी तरह भारतीयों का दिल जीता जाए ताकि 1857 जैसी घटना
की पुनरावृत्ति न हो। एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम (1829-1912) ऐसे ही एक अंग्रेज प्रशासनिक
अधिकारी और नीति निर्माता थे। इटावा के कलेक्टर के तौर पर वह 1857 के विद्रोह की
भयावहता के साक्षी रहे थे। 1857 में अंग्रेज अधिकारियों को ढूंढ़ रहे रक्तपिपासु
क्रांतिकारियों से बचने के लिए चमड़ी पर काला रंग लगाना और साड़ी और बुरका पहन
कर बच निकलने की मजबूरी ने उन पर गहरा असर छोड़ा था। वह लॉर्ड लिटन के कटु
आलोचक भी थे जिनके निष्क्रिय कार्यकाल के अंत में विध्वंसकारी अकाल, सीमांत युद्ध
और प्रशासनिक अनिश्चितता ने अंग्रेजी सरकार के लिए चारों ओर मायूसी का माहौल पैदा
कर दिया था। उसी दौरान अपनी सेवानिवृत्ति के समय ह्यूम कु छ ऐसा करना चाहते थे
जिससे ‘अचानक होने वाली छिटपुट हिंसक आपराधिक घटनाएँ, घृणित लोगों की हत्या,
बैंक डकै तियाँ और बाजारों में लूटखसोट’ मिलजुल कर ‘राष्ट्रीय विद्रोह का रूप’ न लें,
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जैसी कि संभावना थी।
28
उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि अंग्रेजी सरकार में ‘अपनी
जनता के प्रति यदि घृणा नहीं तो सोची-समझी और परिष्कृ त उदासीनता’ मौजूद थी।
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वह सरकार और प्रजा के मध्य एक सांगठनिक संवाद धारा को स्थापित किया जाना ज़रूरी
समझते थे। इसलिए यह विचार पेश किया गया कि देश भर में फै ले सार्वजनिक संगठनों,
जैसे रानाडे की सार्वजनिक सभा, फिरोजशाह मेहता, नाना शंकर सेठ, जस्टिस तैलंग और
बदरुद्दीन तैयबजी जैसे सदस्यों वाली बॉम्बे प्रेसिडेंसी एसोसिएशन और बंगाल में सुरेंद्रनाथ
बनर्जी की इंडियन नेशनल एसोसिएशन (आईएनए) को जोड़ कर एक अखिल भारतीय
मंच स्थापित किया जाए।
नतीजतन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ और 28 दिसंबर 1885 को बंबई में
उसका पहला सत्र आयोजित किया गया जिसमें 72 प्रतिनिधि शामिल हुए। ह्यूम को
महासचिव और कोलकाता के व्योमेश चंद्र बनर्जी को इसका अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस की
अंग्रेजी सरकार से आज़ादी मांगने की कोई मंशा नहीं थी, इसके विपरीत उसने ब्रिटिश
सिंहासन के प्रति निष्ठा की शपथ ली। उसकी मांगें भी विनम्र थीं - उच्च कार्यालयों में
भारतीयों की नियुक्ति, करों में कटौती, सरकार की सलाहकार समितियों में भारतीयों को
स्थान और कानून व्यवस्था में भारतीयों का आंशिक प्रवेश। इन ‘मांगों’ में से कु छेक की
मंजूरी के दम पर ही ब्रिटिश खुद को भारतीय जनमानस की उम्मीदों पर खरा उतरने का
श्रेय देने को तैयार थे और जनमानस से उम्मीद रखी जाती कि वह सदा इस दयालु और
सहभागी शासन के प्रति कृ तार्थ रहें। जैसा कि ह्यूम के जीवनीकार सर विलियम वेडरबर्न ने
लिखा है:
कांग्रेस से राजनीतिक भय का कोई कारण नहीं था... यह ब्रिटिश सरकार थी जिसने
ऐसी ताकतों को खुली छू ट दी कि जिन्हें यदि शीघ्र ही कु शलता से संचालित नहीं किया
जाता तो ऐसे भयावह परिणाम आते जिनकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी।
इसलिए अभी उन्हें सीमित कर काबू में करना और निर्देशित करने से समय था... और
इसी मकसद के लिए कांग्रेस का गठन किया गया था।
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लाहौर में 27 दिसंबर 1893 को आईएनसी के नवें वार्षिक सम्मेलन में कांग्रेस और उसके
आरंभिक नेताओं की मांगों और अभिप्राय को समझा जा सकता है जिन्हें दादाभाई नौरोजी
ने अपने भाषण में सविस्तार प्रस्तुत किया था:
यूनाइटेड किंगडम के लोगों के सहज प्रेम और साफगोई के बारे में हमारा विश्वास
अडिग है... सर्वप्रथम मैं ही ऐसे न्यायप्रिय और खुली मानसिकता के लोगों से संबंध
रखने में किसी तरह की आंशका नहीं रखूंगा। हमें इस संबंध में निश्चित रहना चाहिए कि
हम व्यर्थ ही कोई कार्य नहीं करेंगे। यही विश्वास सभी मुश्किलों के दौरान मेरा संबल
बना रहा है। ब्रिटिश चरित्र में मेरा विश्वास कभी डिगा नहीं है और मेरा हमेशा यकीन रहा
है कि वो समय आएगा कि जब ब्रिटिश राष्ट्र और उसके दयालु सम्राट की 1858 की ग्रेट
कै रेक्टर की उद्घोषणा ज़रूर फलीभूत होगी।
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स्वतंत्रता संग्राम के उन आरंभिक दिनों में ये शुरुआती नेता, हालाँकि उनमें राष्ट्रप्रेम या वैसे
इरादे की कमी नहीं थी, ब्रिटिश शासन की साफगोई और मंशा में अटूट विश्वास रखते थे।
उन्हें उम्मीद और भरोसा था कि इस तरह के मैत्रीपूर्ण आलाप, विनम्र ज्ञापनों और
अनुमोदनों से उन्हें ब्रिटिश प्रशासन से भारतीयों को जोड़ने में मदद मिलेगी।
~
वहीं सुदूर भागुर में मौजूद युवा विनायक महाराष्ट्र और भारत में तेजी से करवट ले रहे इन
उग्र घटनाक्रमों से जुड़ी व्यापकता और नाटकीयता को बहुत उत्सुकता के साथ देख रहे थे।
2
संक्रमण काल
राधाबाई के निधन की त्रासदी के बाद 1896 का वर्ष सावरकर परिवार के लिए ख़ुशी लेकर
आया। बाबाराव जब सत्रह वर्ष के हुए तो उनका विवाह त्र्यम्बके श्वर के नानाराव फड़के की
भतीजी यशोदा से तय हुआ। वह विनायक से दो वर्ष छोटी थीं, इस कारण दोनों में
आजीवन प्रगाढ़ मैत्री बनी रही। अपने संस्मरणों में उन्होंने अपने देवर विनायक से पहली
मुलाकात का विवरण दिया है।
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अपनी होने वाली भाभी के संबंध में कौतुहल दबा न पाने के कारण एक दिन विनायक
अपने छोटे भाई बल के साथ यशोदा के काका नानाराव फड़के के घर जा पहुँचे। यशोदा
उस समय विवाहपूर्व के अनुष्ठानों में व्यस्त थी। इसके अलावा, वह नेत्र-षोथ (आँख आना)
से भी पीड़ित थीं। उसी दौरान उनके दरवाजे पर पहुँचे तेरह वर्षीय विनायक ने
आत्मविश्वास भरे स्वर में पूछा, ‘क्या यह फड़के निवास है ? हमारी भाभी कहाँ हैं ?’ वहाँ
मौजूद स्त्रियों ने मुस्कराते हुए पूछा कि वह कौन हैं और किस की भाभी के बारे में पूछ रहे
हैं। इस पर विनायक के बातूनी स्वभाव और हाजिरजवाबी ने सबका मन जीत लिया।
यशोदा की माता मथुरा ताई याद किया कि वह विनायक के स्नेहिल, आकर्षक और
कृ शकाय व्यक्तित्व को निहारते नहीं थक रही थीं।
त्र्यम्बके श्वर में सम्पन्न विवाह के बाद जब विदाई का समय आया तो यशोदा पिता का घर
छोड़कर जाने के विचार से रोने लगीं। उनकी माँ ने उन्हें चुप कराने का भरसक प्रयास
किया। परंतु उन्हें लगातार रोता देख विनायक आगे बढ़े और उन्होंने यशोदा की माँ को
यकीन दिलाया कि वह उनके नेत्र रोग के उपचार का उचित इंतजाम करेंगे। विनायक के
भोलेपन पर यशोदा सहित सभी जोर से हँस पड़े। उस रात, त्र्यम्बके श्वर से नासिक की
बैलगाड़ी की यात्रा के दौरान जहाँ एक ओर यशोदा नींद से जूझती रहीं, वहीं रास्ते भर
विनायक यशोदा को क्षेत्र के प्राकृ तिक सौंदर्य का वर्णन सुनाते रहे।
अपने वादे के मुताबिक, विनायक ने यशोदा के नेत्र-षोथ का उपचार कराया और वह
ठीक हो गई। लंबे समय से सावरकर निवास में किसी स्त्री की कमी थी, जो यशोदा के आने
से पूरी हुई और वह अपने दोनों देवरों के लिए माँ सरीखी साबित हुईं। हिन्दू रीति के
अनुसार विवाहोपरांत उनका नाम बदलकर सरस्वती रखा गया परंतु विनायक और बल
उन्हें जीवन भर येसु वहिनी (भाभी) ही कह कर बुलाते रहे। विनायक को जिस स्नेहिल
विश्वासपात्र की जरूरत थी, वह उन्हें मिल गई थी। विनायक ने अपनी भाभी को लिखना-
पढ़ना सिखाया और वे अपनी कविताएँ एवं आलेख उन्हें पढ़ने को देते। वहीं येसु ने
विनायक को अपने विशाल खजाने में से मराठी के कई गीत सिखाए, जिनमें देवी माँ को
प्रेषित मराठी के गजगौरी गीत प्रमुख थे।
विवाह के कु छ ही समय बाद, बाबाराव ने भागुर में अपनी मराठी की शिक्षा पूरी की,
जिसके बाद दामोदरपंत ने उन्हें अंग्रेजी की उच्च शिक्षा के लिए नासिक भेज दिया।
बाबाराव हमेशा से आध्यात्मिक अभिरुचि वाले युवा थे। नासिक में वह एक भिक्षुक के
संपर्क में आए, जिनसे उन्होंने योग एवं ध्यान की कई विधियां सीखीं। उन्होंने महीने भर
के वल घी और जल पर आश्रित रहने और देर रात तक जागते रहने की कई मितव्ययताओं
का अभ्यास शुरू किया। ऐसा कहा जाता है कि वह प्रतिदिन चौदह से पंद्रह घंटे यौगिक
क्रियाओं के अभ्यास में गुजारते थे। अपने छोटे भाई विनायक के विपरीत, बाबाराव पर देश
की राजनीतिक उथल-पुथल का कोई असर नहीं था और उन्हें उसकी चिंता तक नहीं थी।
कई वर्षों बाद जब वह अपने छोटे भाई से प्रेरणा लेकर राजनीतिक अखाड़े में कू दे, तो
पहले राजनीतिक मामलों से दूर रहने वाले व्यक्ति के लिए यह परिवर्तन आमूल-चूल था।
उसी दौरान बॉम्बे प्रेसिडेंसी के विभिन्न क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। गणपति
महोत्सव और उसके जुलूस अक्सर मुस्लिम क्रोध का शिकार बनते और झड़पें होतीं। इस
संबंध में मुस्लिम समुदाय के लोग अपने धार्मिक ग्रंथों का हवाला देते जिनमें शांतिमय
तरीके से प्रार्थना करने को कहा गया है - जिसकी शांति हिन्दू जुलूसों के संगीत के कारण
भंग होती थी। दंगा किस समुदाय के कारण फै ला है, इसका पता लगाना पहले मुर्गी आई
या अंडा आया वाली समस्या बन चुका था। 6 फरवरी 1894 को नासिक जिले के येओला
नामक छोटे से बुनकर कें द्र में स्थानीय मस्जिद में शूकर का कटा सिर फें के जाने से दंगा
भड़क उठा। इसकी सूचना मिलने पर, ममलतदार मस्जिद पहुँचा और उसने पाया कि ‘बीच
में से कटे हुए एक सूअर के दो हिस्से मस्जिद और उसके पास गिरे थे’।
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उसने एकत्र भीड़
से प्रार्थना की कि वह ‘प्रतिहिंसा का प्रयास न करें’।
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परंतु जल्दी ही ख़बर आई कि
‘मुसलमानों ने एक हिन्दू मंदिर में गाय को काट डाला’।
4
इसके बाद दंगा फिर भड़क उठा
और मदद के लिए सेना बुलाई गई। उसी रोज, बाद में ममलतदार को सूचना मिली कि
‘हिन्दू समुदाय के लोग जामा मस्जिद को फूँ क देने की योजना बना रहे हैं’।
5
अभी पुलिस
सुरक्षा पर कार्य चल ही रहा था कि सूचना मिली कि मुसलमानों ने ‘मुरलीधर मंदिर को
आग के हवाले कर दिया’।
6
कई अन्य क्षेत्रों में, अनेक मस्जिदें और मंदिरों को भी नुकसान
पहुँचा या वे जला दिए गए। उन दंगों में चार लोग भी मारे गए थे।
7
सरकारी अधिकारियों ने गौरक्षा अभियान में आई तेजी को हिंसा के लिए जिम्मेवार
ठहराया। यह अभियान हिन्दू सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती के आर्य समाज के
बुनियादी सिद्धांतों में से एक था। गौरक्षा समितियाँ पंजाब में 1882 से सक्रिय थीं। बंबई में,
गौशालाओं और गौ संरक्षण गृह के साधारण निर्माण लक्ष्यों के साथ 1887 से सींगधारी
मवेसी संरक्षण समितियाँ अस्तित्व में आ गई थीं। 1890 के दशक में गौरक्षा समितियों ने
दक्कन के अहमदनगर, बेलगाम, धारवाड़, पूना, सतारा, नासिक और येओला में भी ज़ोर
पकड़ लिया था।
दंगों का एक अन्य कारण, मस्जिदों के सामने हिन्दू जुलूसों के गीत-संगीत को भी
ठहराया गया। चूंकि इस्लाम में संगीत की मनाही है, इसलिए मुस्लिम मौलवियों को उनकी
इबादत के स्थान के सामने से जा रहे जुलूसों में गूँजने वाला संगीत नागवार गुजरता था,
जबकि हिन्दुओं का तर्क था कि वह जुलूस के लिए आम रास्ते का उपयोग करते हैं, जहाँ
उन पर कोई रोक नहीं है। 1859 में ही बंबई की एक सदर फौजदारी अदालत ने फै सला
सुनाया था कि मंदिरों में पूजा के संगीत का आदर होना चाहिए। हालाँकि, जुलूस के समय
सड़क पर गूँजने वाला संगीत, जो बुनियादी हिन्दू धार्मिक संगीत का अंश नहीं है, यदि
दूसरों की धार्मिक भावनाओं में अड़चन बने तो उसे रोक लेना चाहिए। इसलिए:
मस्जिदों में इबादत करना तब तक मुसलमानों का अधिकार है जब तक कि उनकी
इबादत किसी की परेशानी का सबब न बने, और हिंदुओं को उनके जुलूस का तब तक
अधिकार है जब तक कि उसका संगीत किसी अन्य के लिए परेशानी पैदा न करे ; परंतु
यदि वह किसी को तंग करता है, तो न्यायाधीशों का मानना है कि उस पर पाबंदी लगाई
जाए।
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तिलक ने के सरी
में बंबई प्रेसिडेंसी में सब ओर भड़के दंगों और गौहत्या के मामलों में
सरकार पर मुस्लिम संवेदनाओं के तुष्टिकरण का आरोप लगाया।
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जुलूस के संगीत का
मामला उनके लिए भी तकलीफदेह था जिसका जवाब उन्होंने गणपति महोत्सवों को पहले
की अपेक्षा और भव्य एवं चमकदार बनाकर दिया। महोत्सवों के दौरान शिवाजी की तरह
हिन्दुओं को सशस्त्र किए जाने और विदेशी सत्ता को उखाड़ फें कने के जोरदार नारे गूँजने
लगे। इन महोत्सवों को मेला अभियान के तौर पर मनाया जाता। मेले में विशेष वेषभूषाओं
में सजे, हाथों में लाठियां लिए, गीत, संगीत, परेड और तलवारबाजी का अभ्यास करते
युवाओं और विद्यार्थियों के समूह दिखते। प्रत्येक मेला एक विशेष गणपति समारोह से जुड़ा
होता और उत्सव के दस दिन पहले और बाद तक, वह शहर और देहात में जाता। इस मौके
पर लोग तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं के संदर्भ से जुड़े गीत और लोकप्रिय कविताएँ
सुनाते। इन्हीं गीतों पर मुस्लिम समुदाय ने आपत्ति की, जिस कारण सांप्रदायिकता की
अनिश्चित स्थिति उठ खड़ी हुई थी।
विनायक और उनके साथी महाराष्ट्र के विस्फोटक ध्रुवीकरण और खूनी दंगों के बारे में
जानकारियाँ के सरी, पुणे वैभव
तथा अन्य समाचार पत्रों से प्राप्त करते। जब भी वह
हिन्दुओं पर होने वाले हमले के बारे में पढ़ते तो उनका खून खौल उठता और वह सोचते
कि हिंदू समाज के लोग क्यों खुद को एकजुट करने में असमर्थ रहते हैं और शोषित होते हैं।
दंगों का जवाब देने के लिए, विनायक और उनके मित्रों ने भागुर में वीरान पड़ी एक मस्जिद
पर हमला करने की योजना बनाई। दिन ढलने पर, अपने नन्हें हथियारों से लैस बालकों की
इस टोली ने मस्जिद पर हमला बोला, उसमें कई स्थानों पर तोड़-फोड़ की और वहाँ से भाग
निकले। जब इसकी सूचना उनके मुस्लिम सहपाठियों तक पहुँची तो वे बहुत क्रोधित हुए
और दोनों गुटों में भिड़त हो गई। विनायक के नेतृत्व में अपने ‘हथियारों’ से लैस ‘हिन्दू
टोली’ प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ी। इसके बाद युद्धविराम घोषित हुआ जिसके बाद दोनों
पक्ष राज़ी हुए कि घटना के बारे में अध्यापकों को कु छ नहीं बताया जाएगा। हालाँकि, कु छ
मुस्लिम लड़के गुस्से से भरे हुए थे और उन्होंने बदला लेने के लिए ब्राह्मण बालक को मीट
चखाने की कसम खाई थी।
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हालाँकि, इन घटनाओं को बच्चों की शैतानी मानकर खारिज किया जा सकता है, परंतु
विनायक ने अपने संस्मरणों में माना है कि ऐसे अनुभवों ने उन्हें सिखाया हिन्दू समुदाय
कितना असंगठित और विभाजित है और उसे शिकार बनाना कितना आसान।
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हिन्दू
अपने आप में ही, विशेषकर जातिगत तौर पर स्थाई रूप से बंटे हुए हैं और इससे उन पर
हमला करना कहीं आसान हो जाता है। वह अपने लिए आत्मसंदेही और दूसरे के प्रति
शंकालु, और यदा-कदा ही ‘लक्ष्य’ को लेकर प्रतिबद्ध होते हैं। इसलिए अपने गुट को
अनुशासन, कठोरता और प्रतिबद्धता सिखाने के लिए विनायक ने एक तरह का ‘सैन्य
प्रशिक्षण स्कू ल’ स्थापित करने का निर्णय किया।
लड़के तीन गुटों में बंटे - कु छ हिन्दुओं की भूमिका में, जबकि अन्य मुस्लिम या अंग्रेजों के
रूप में। बंदूक की गोलियों के तौर पर नीम की बेरियां इस्तेमाल की गईं। जो बालक
गोलियों के हमले की परवाह न करते हुए, मैदान के बीचोंबीच मौजूद भगवा हिन्दू झंडे को
बचा लाते और दुश्मनों के हथियार छीन लेते, वह विजयी घोषित किए जाते। विनायक
लगभग हर बार हिन्दू पक्ष का नेतृत्व करते और उन्हें विजयश्री दिलाते। यदि कभी मुस्लिम
या अंग्रेज पक्ष जीतने लगता, तो वह उनसे ‘राष्ट्रीय हित’ को देखते हुए हार स्वीकारने का
कू टनीतिक आग्रह (चूँकि यह के वल खेल ही था) करते। आखिर उनकी इस क्रीड़ा में हिन्दू
कभी हार नहीं सकते थे। इन खेलों के बाद सभी बालक विजय गीत गाते हुए भागुर की
गलियों मंें घूमते। बाबाराव तीरंदाजी में निपुण थे और विनायक ने यह कला उनसे सीखनी
आरंभ की। दामोदरपंत के पास घर में एक तलवार और बंदूक थी, जिसे विनायक सदा
कौतुहल से देखते, छू ते और महसूस करते और उन्हें चलाना सीखने की सोचा करते थे।
ऐतिहासिक तौर पर सजग बालक विनायक 1896 में अपने नायक तिलक की नई पहल
के बारे में पढ़कर रोमांचित हो गए। 15 अप्रैल 1896 को तिलक ने गणपति महोत्सव की
तर्ज पर पूना के रायगढ़ में शिवाजी महोत्सव का शुभारंभ किया। इसका लक्ष्य रायगढ़ में
शिवाजी की समाधि के लिए धन एकत्र करना और उसके ज़रिए मराठियों के मन में
राष्ट्रवाद की भावना जगाना था। महोत्सव प्रतिवर्ष शिवाजी के राज्याभिषेक की तिथि के
अवसर पर आयोजित होता - जो अपने में यादगार मौका था, जिसके बाद भव्य मराठा
साम्राज्य की नींव पड़ी थी। शिवाजी और उनके प्रेरणादायी गुरुदेव रामदास जी के सम्मान
में गाथा-गीत या पोवादस रचे जाते, खेल प्रतियोगिताएं सम्पन्न होतीं, कीर्तन और नाटक
तथा मराठा इतिहास पर संभाषण आयोजित होते। अतः 3 मार्च 1896 को के सरी में
‘यथोचित समारोह’ हेतु तिलक के विस्तृत कार्यक्रम सूचना का प्रकाशन हुआ। यह ऐलान
रायगढ़ में 15 अप्रैल को राष्ट्रवादी लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया था:
शिवाजी और रामदास की छवियाँ समारोह में प्रमुखता से प्रदर्शित की जाएँगी... तीन
दिवसीय आयोजन में, संभाषण, प्रवचन, नाटकीय रूपांतरण (ऐंद्रिक अथवा वीभत्स
नहीं), ऐतिहासिक गीत-गाथाओं का गान... कार्यक्रम के प्रमुख अंश रहेंगे... विदेश में
निर्मित वस्तुएं, जैसे पेट्रोलियम, मोमबत्तियां, शीशे के बर्तन...पर समारोह में कड़ी
पाबंदी होगी और के वल गृह-निर्मित वस्तुएं लाने की ही मंजूरी होगी ...यहां, तक कि
सौंदर्याकर्षण के परित्याग की कीमत पर यह निर्णय लिया गया है। तीन दिनों के दौरान
दासबोध और शिवविजय
का निरंतर पाठ किया जाएगा ...अंतिम दिवस शिवाजी के
आदर में तैयार किया गया विशेष गीत गाया जाएगा और इस दौरान उनकी पताका
लहराएगी। गायन के दौरान मंकरी, कार्यकर्ता और स्वयंसेवक खड़े रहेंगे और गीत के
अंत में जोर से हर हर महादेव ! का उद्घोष करेंगे। इस स्तोत्र का गायन समारोह का
सबसे महत्वपूर्ण अंग होगा।
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1895 में उनकी मृत्यु होने तक, तिलक के वैचारिक विरोधी एवं दीर्घकालिक प्रतिद्वंद्वी,
गोपाल गणेश अगरकर और उनके पश्चात सीतारामपंत देवधर द्वारा संपादित मराठी
समाचार पत्र सुधारक
, राष्ट्रवादी लक्ष्यों के लिए प्रतीक के रूप में शिवाजी का इस्तेमाल
किए जाने का घोर विरोधी था। उनकी दलील थी कि शिवाजी की छवि महाराष्ट्र तक ही
सीमित है और ऐसे शासक के प्रतीक, जो विदेशी शासन के विरोध में देश को एकजुट न
कर पाया हो, को नायक के तौर पर प्रस्तुत किया जाना ऐसे समय अनुचित होगा जबकि
राष्ट्रीय एकता सर्वोपरि है। 29 मई 1899 को सुधारक
ने सवाल उठाया: ‘आखिर मुस्लिम
या बंगाली या फिर राजपूत वर्ग द्वारा शिवाजी को याद करने की क्या बाध्यता है ? स्पष्ट
है... महोत्सव में ऐसा कु छ नहीं जो उसे हिन्दुओं के बीच भी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला
सके ।’
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तिलक को सहयोग देने वाले मध्यमार्गी समाचार पत्रों ने भी महोत्सव के विशिष्ट
स्थानीय प्रयोजन पर प्रश्न उठाए। उदाहरणार्थ 25 अप्रैल 1898 को इंदु प्रकाश
ने विचार
रखा:
जहाँ भी हिन्दू धर्म है, शिवाजी का नाम आदर सहित लिया जाएगा और हैरानी नहीं
होनी चाहिए कि यदि अगले वर्ष हमें मद्रास में शिवाजी जन्मोत्सव मनाए जाने की
सूचना मिले। वह मूलतः सभी हिन्दुओं के नायक हैं और मराठा वर्ग यह सोचकर
आनंदित हो सकता है कि वह उनके यहाँ जन्मे थे। लिहाजा, यह स्वाभाविक ही है कि
मराठा वर्ग के बीच इन आयोजनों को लेकर असाधारण प्रफु ल्लता दिखती है...
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तिलक स्वयं इस मुद्दे को ज्यादा दूर तक ले जाने के प्रति सचेत थे। उन्होंने 9 अप्रैल 1899
को के सरी
में सावधानी से पक्ष रखा:
इसमें कोई हर्ज नहीं कि भारत के विभिन्न हिस्सों में वहाँ के नायकों को लेकर ऐसे
समारोह आयोजित हों। हालाँकि, प्रमुख लक्ष्य संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने का
है, इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि संपूर्ण भारतवर्ष छोटे-छोटे राष्ट्रों से
मिलकर बना है और विभिन्न क्षेत्रों की संप्रभुता उनके अपने दम पर अपरिहार्य है, और
समूचे देश की एकता से किसी भी मायने में अलग नहीं।
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उसी वर्ष, दोनों महोत्सवों की सफलता के आधार पर तिलक ने अपने दीर्घकालिक
विरोधियों रानाडे और गोखले को धता बताते हुए सार्वजनिक सभा पर अधिकार प्राप्त कर
लिया। इससे तिलमिलाकर इस्तीफा देते हुए रानाडे और गोखले ने तिलक और उनकी
नीतियों को अपमानित करने वाले कई लेख लिखे। परंतु तिलक की जीत अल्पकालिक ही
रही। 1897 में दक्कन में पड़े अकाल के दौरान तिलक के अधीन सार्वजनिक सभा की
अत्यधिक सक्रियता और किसानों को कर न चुकाए जाने के लिए उनके द्वारा दिए जा रहे
उकसावे से सरकार कु पित हो गई। उसने सभा को अमान्य घोषित करते हुए सरकारी
नीतियों पर सरकार को संबोधित करने के उसके किसी भी अधिकार को खारिज किया।
इससे तिलक का प्रभाव कु छ गति पकड़ने से पहले ही प्रभावहीन हो गया।
तिलक से प्रेरणा लेते हुए, विनायक और उनके साथियों ने भागुर में मारवाड़ी सेठ
बालमुकुं द मणिराम के घर पर शिवाजी जयंती महोत्सव का आयोजन किया। इस मौके पर
विनायक के प्रभावशाली संबोधन ने दामोदरपंत सहित सबको हैरान कर दिया।
दामोदरपंत चाहते थे कि विनायक भी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद बाबाराव के
साथ नासिक के प्रतिष्ठित शिवाजी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करे। अतः तेरह वर्षीय विनायक
शिक्षा और श्रेष्ठ लक्ष्य की तलाश में पहली बार अपने गृह नगर से अलग हुए। दोनों भाई
नासिक में कनाड्य मारुति मंदिर के पास एक साधारण से निवास में रहते थे। वह अपना
भोजन स्वयं पकाते, क्योंकि बाहर खाने का अर्थ था विशुद्ध ब्राह्मण के तौर पर अपवित्र
होना। परंतु विनायक ने इन सभी रूढ़ियों को दरकिनार कर दिया और निकटवर्ती गंगाराम
होटल की जलेबियां बड़े चाव से खाते रहे।
प्रत्येक पखवाड़े, दामोदरपंत अपने बेटों से मिलने नासिक आते थे। अपने पिता से बहुत
हिले-मिले होने के कारण विनायक बड़ी उत्सुकता से उनके आने की बाट जोहते और उनके
लौटने वाले दिन उदास हो जाते। नए सहपाठियों के कारण भी उनको घर की याद आने
लगी थी। उनमें से शायद ही कोई शिक्षा, समसामयिक मुद्दों या राजनीति के बारे में
विनायक जैसी गहराई से सोचता था। सभी बेसिरपैर के कामों में अपना समय नष्ट करते।
यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि स्कू ल में विनायक अपने सभी अध्यापकों के चहेते छात्र
थे। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि, अनुशासन, काव्य और लेखन क्षमता के कारण, वह उनकी आँखों
का तारा थे। यहाँ तक कि एक अध्यापक ने विनायक को उनका आलेख नासिक वैभव
समाचार पत्र में भेजने को प्रेरित किया। समाचार पत्र के संपादक को आलेख के विषय,
शैली और भाषाई प्रवाह को देखते हुए यकीन नहीं हुआ कि उसे एक स्कू ली छात्र ने लिखा
है। वह निबंध दो खंडों में प्रकाशित हुआ और उसे पूरे नासिक में प्रशंसा प्राप्त हुई।
लोक सेवा
नासिक का एक अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्र था। उसके संपादक और मालिक
प्रख्यात रंगकर्मी अनंत वामन बर्वे थे। समाचार पत्र तिलक के कार्यों का सच्चा पैरोकार था
और गणपति एवं शिवाजी महोत्सवों के संबंध में उनके अनेक देशभक्ति पूर्ण आलेख
प्रकाशित करता था। नासिक में गोदावरी के किनारे लगातार आयोजित होने वाले
कार्यक्रमों और उत्सवों में बर्वे राष्ट्रप्रेम के बड़े ही मधुर गीत गाते थे। एक ओर जहाँ विनायक
के अधिकांश सहपाठी नदी किनारे निरुद्देश्य घूमते रहते थे, वहीं वह खुद गोदवारी के
किनारे होने वाले इन आयोजनों में बिना बुलाए किंतु लगातार जाते थे। यहाँ उन्होंने कु छ
जोरदार भाषण और मधुर गीत सुने और उस सबको वह अपने मन में बसाते रहे। उनके
अध्यापकों ने विनायक को बर्वे से मिलवाया और इसके बाद उनका भावी आयोजनों में
जाना आसान हो गया। बर्वे ने विनायक से नासिक की वार्षिक वाद-विवाद प्रतियोगिता में
हिस्सा लेने को कहा। हालाँकि, उस समय तक आवेदन देने की अंतिम तिथि निकल चुकी
थी, परंतु बर्वे के कहने पर विनायक को प्रतियोगिता में स्थान मिल गया, जो मात्र तीन दिन
के बाद थी। प्रतियोगिता का विषय सभी छात्रों के लिए एक ही था, और क्योंकि विनायक
ने सबसे अंत में नामांकन भरा था, इसलिए उनको सबसे अंत में ही बोलना था। चूंकि
विषय के सभी पक्षों पर पहले बोलने वाले वक्ता बात कर चुके थे, इसलिए जब अंतिम
वक्ता मंच पर पहुँचा, तो दर्शकों ने ऊबकर उठना शुरू कर दर्शकगण दिया था। परंतु
विनायक के भाषण ने उन्हें शुरू से ही अपनी ओर खींच लिया और वह बैठे रहे। निर्णायकों
ने फै सला देने में देर नहीं की और विनायक को एकमत से विजेता चुना गया। हालाँकि,
निर्णायकों को विनायक के भाषण पर कु छ संदेह था। वह इस संदेह में थे कि एक चौदह
वर्षीय बालक कै से विषयों पर इतनी गंभीरता सोच और लिख सकता है। इसे स्पष्ट करने
की जिम्मेदारी बर्वे और विनायक के अध्यापकों पर आई। उन्होंने बताया कि बालक
सचमुच एक अच्छा लेखक और विचारक है। वक्ता के तौर पर यह विनायक का पहला
अनुभव था और उन्होंने उसे बिना किसी विशेष प्रयास के जीत लिया। इसके बाद नासिक
के लोग असाधारण वाचन क्षमता वाले इस युवा के बारे में बातें करने लगे।
अपनी स्वाभाविक प्रतिभा को तराशने के लिए विनायक जन संबोधन पर मराठी की
विभिन्न किताबें पढ़ने लगे। विषय के विभिन्न पक्षों का निर्माण, उनकी मजबूती और
समापन, आवाज का उतार-चढ़ाव, देहभाषा, स्वर शैली, भाषा पर पकड़ जैसे जन संबोधन
के विभिन्न पक्ष विनायक को बेहद भाने लगे। इन गुणों पर गहरी मेहनत के बाद वह जादुई
वक्ता के तौर पर सामने आए, यानी एक ऐसा वक्ता जो विशाल दर्शकदीर्घा को सम्मोहित
करने की क्षमता रखता था।
अपने शुरुआती वर्षों में, अध्ययन और विचार-विनिमय के कारण विनायक उस समय की
अनेक धारणाओं और रीति-रिवाजों पर सवाल खड़े करने लगे जिन्हें आँखें मूंदकर मान
लिया जाता था। ऐसे मामलों पर अक्सर उनकी बाबाराव से बहस भी होती। दुविधा और
संशय की इसी अग्नि से दर्शनशास्त्र और धर्म में उनकी रुचि गहरी हुई। वह धर्मग्रंथों और
वेदांत की कड़ी समीक्षा करते और आस्तिकता या नास्तिकता में गहरे विश्वास, धार्मिक
कर्मकांड तथा अंधविश्वास में फँ से लोगों के साथ बहस और विमर्श करते रहते। उधर
बाबाराव की आध्यात्मिक यात्रा उन्हें हर तरह के धर्मगुरु और संत तक ले जाती, जिनमें से
अधिकांश छद्म होते और उनके सीधेपन का लाभ उठाते। एक बार नासिक में बाबाराव
विनायक को एक साधु के पास ले गए जो पंचवटी में राम धर्मशाला में रुके हुए थे। उन्हें
बताया गया था कि साधु संत रामदास के अवतार हैं जिन्होंने शिवाजी को मुगलों के
खिलाफ अभियान हेतु प्रेरित किया था और उन्हें विनायक के भविष्य का आभास हुआ है,
इसलिए वह उनसे मिलना चाहते हैं। साधु से मिलने पर विनायक ने कहा कि उनकी
एकमात्र अभिलाषा सशस्त्र क्रांति द्वारा अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फें कने की है। इस पर
साधु ने ताड़ते हुए उन्हें ऐसे अपवित्र विचारों से दूर रहने की सलाह दी और कहा कि वह
उनके शिष्य बन जाएँ और उनकी निष्ठापूर्वक सेवा करें ताकि उन्हें दिव्यानुभूति हो सके ।
साधु ने दावा किया कि ईश्वर की इच्छा के बिना कु छ नहीं होता, और अंग्रेजी शासन भी
भारत और भारतीयों के लिए ईश्वर की इच्छा के ही कारण है। के वल ईश्वर ही बताएँगे कि
कब भारत अपनी स्वतंत्रता का स्वप्न देखना आरंभ करे।
ऐसे बेतुके बयान से विनायक को गुस्सा आया और साधु से उनकी लंबी बहस शुरू हो
गई। उन्होंने तर्क दिया कि चोरों और डकै तों का राज्य ईश्वर की मंशा कै से हो सकती है ?
और यदि ऐसा ही है तो उसे उखाड़ फें कने की कल्पना राक्षसी कै से हो सकती है ? क्या ऐसे
राज्य के अंत के प्रयास का उद्भव और क्रिया भी ईश्वरीय मंशा नहीं होगी ? आखिरकार
बाबाराव को बीच में आना पड़ा और वे अपने क्रु द्ध भाई को खींचकर घर ले गए। अतः
बचपन से ही विवेकपूर्ण और तार्किक बयान विनायक के व्यक्तित्व की पहचान थे। उन्होंने
पवित्र समझे जाने वाले धर्म और आस्था से जुड़े व्यक्तियों पर भी सवाल उठाए।
इस दौरान, 1896-97 में भारत और विशेषकर महाराष्ट्र में प्लेेग की महामारी ने दस्तक
दी। अंग्रेज अधिकारियों के पास रोग या उसके उपचार के संबंध में कोई योजना नहीं थी।
ऊपर से आत्मविश्वासी दिखने वाला यह प्रशासन अंदर से बेहद डरा हुआ था। बीमारी पर
किसी भी तरह काबू पाने के लिए फरवरी 1897 में स्पेशल प्लेग कमिटी (एसपीसी) के
अंश के तौर पर विशेष प्लेग अधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैंड और सर्जन कै प्टन डब्ल्यूडब्ल्यू
बेवेरिज को पूना भेजा गया। बंबई के गवर्नर लॉर्ड सैंडहस्र्ट ने अपने निजी सचिव जेजे
हीटन के जरिए बयान जारी किया कि पूना में, ‘सैनिकों के इस्तेमाल करने की योजना को
निरस्त किया जाना चाहिए। कोई भी सर्च पार्टी किसी प्रतिष्ठित स्थानीय प्रतिनिधि के बिना
न हो... लोगों के खिलाफ नहीं बल्कि उनको भरोसे में लेकर बेहद सचेत, व्यापक और
ईमानदार प्रयास होने चाहिए... मौजूदा नगरपालिका संस्थानों और मुहल्ला समितियों में भी
किसी न किसी प्रकार की सांगठनिक व्यवस्था बची हुई है’।
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गवर्नर के चेतावनीपूर्ण शब्दों के बावजूद, अंग्रेज समुदाय और विशेषकर वाॅल्टर रैंड
जल्दी ही प्लेग उन्मूलन करना चाहते थे क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हितों पर असर
पड़ता था। यूरोपीय देश भारतीय सीमा में निर्मित सामान लेने से मना कर रहे थे क्योंकि
उन्हें डर था कि इससे उनके यहाँ भी महामारी फै ल सकती है। भारत सरकार ने महामारी
अधिनियम, 1897 पारित किया जिससे प्रशासन को किसी भी कीमत पर प्लेग पर काबू
पाने का अधिकार मिल गया। विडंबना यह है कि 12 मार्च, 1897 को डाॅक्टरों और नर्सों की
बजाय, 893 अंग्रेज और भारतीय अधिकारी एवं आमजन को प्लेग ड्यूटी पर लगाया गया।
प्रत्येक घर के मुखिया का यह कर्तव्य था कि वह अपने परिवार में फै लने वाले प्लेग या
उसके कारण होने वाली मृत्यु की सूचना समिति को दे। अपने अभियान के दौरान रैंड और
उनके आदमियों ने प्लेग रोगियों की तलाश में निर्दयता से घरों की तलाशी लेनी शुरू की।
इस कार्य में वह पूजा स्थलों की तोड़-फोड़, वृद्धों से दुर्व्यवहार और महिलाओं के संग भी
अभद्रतापूर्वक पेश आने लगे। प्लेग के रोगियों को रातोंरात अपने घर छोड़, दूर कै म्पों में
जाना पड़ा। उनका सामान नष्ट किया या जला दिया गया। ऐसे समय जब रोगी को उपचार,
आराम और स्वास्थ्य लाभ करने की जरूरत होती है, उन्हें उनके घरों से खदेड़ दिया गया
और शहर को रोग मुक्त करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उनके सामान और उनकी
संपत्तियाँ जला दी गई। मृत्यु का पंजीकरण न किए जाने तक अंतयेष्टि करना गैरकानूनी
घोषित कर दिया गया। सैनिकों द्वारा लगातार उत्पीड़न से नफरत और आक्रोश की भावना
फै ल उठी। तिलक ने के सरी
में रैंड और उनके आदमियों के अमानवीय बर्ताव के खिलाफ
हुंकार भरी और प्लेग समिति के तौर-तरीकों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने लिखा,
‘सरकार को इस आदेश का पालन करने का जिम्मा रैंड जैसे शक्की, बदमिजाज और
निरंकु श अधिकारी को नहीं देना चाहिए था’।
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और फिर एक दिन, 22 जून 1897 को पूना शहर की आत्मा ही कांप उठी। वाॅल्टर रैंड
और उनके लेफ्टिनेंट चार्ल्स अयेर्स्ट पर किसी ने गोली चला दी। कु छ दिन जिंदगी और मौत
के बीच जूझने के बाद रैंड की मृत्यु हो गई, जबकि अयेर्स्ट ने मौके पर ही दम तोड़ दिया।
बाद में पता चला कि उनपर गोली चलाने वाले दो सगे भाई थे जिनका नाम दामोदर हरि
चापेकर और बालकृ ष्ण हरि चापेकर था। ऐसा लगता था कि उन्होंने रैंड द्वारा प्लेग पर
काबू पाने के लिए अपनाए गए दमनकारी व्यवहार का बदला लेने के लिए ऐसा किया था।
प्रश्न ये उठता है कि चापेकर बंधु कौन थे जिन्होंने वासुदेव बलवंत फड़के की मौत के बाद
शांत पड़ी क्रांति की मशाल को चिंगारी दिखा दी थी ?
तीन चापेकर बंधु - दामोदर, बालकृ ष्ण और वासुदेव-धर्म आधारित राष्ट्रवाद से प्रेरित
होकर क्रांतिकारिता की ओर उन्मुख हुए थे। 1885 के आसपास उनके पिता हरि भाऊ
अपने पैतृक स्थान, चिंचवाड़ से पूना आए थे। वह एक कीर्तनकार (धार्मिक गीत गाने वाले)
थे। उनके पुत्रों को नाम मात्र की ही शिक्षा मिली थी। चापेकर बंधु अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने
वालों का उपहास उड़ाते थे और तिलक एवं रानाडे को भी नहीं बख्शते थे। अपनी
आत्मकथा में दामोदर ने लिखा है, ‘मेरे पिता ने घर में ही मुझे पहली अंग्रेजी किताब पढ़ाई
थी। न्यू इंग्लिश स्कू ल में मैंने चार माह एक अन्य अंग्रेजी की किताब पढ़ी, परंतु इस दौरान
भाषा के प्रति उठी विरक्ति के कारण मैंने उसे पढ़ना छोड़ दिया’।
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युवा चापेकर बंधु, तिलक के गणपति एवं शिवाजी महोत्सवों के कारण उभरने वाली
राष्ट्रवादी भावना के साक्षी बने। वह महोत्सवों में स्वयंसेवक के रूप में काम करते और फिर
मेलों, कलाबाजी और सांस्कृ तिक कार्यक्रमों में सक्रिय तौर पर शामिल होते। परंतु जल्दी ही
वह इन महोत्सवों और भव्य आयोजनों से विमुख हो गए। इन महोत्सवों में ‘बड़ी बड़ी बातें’
उन्हें ‘कु पित’ करती थीं।
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उन्हें महसूस हुआ कि यदि शिवाजी जिंदा होते तो वह यहाँ
दिखने वाली चमक-दमक को नामंजूर कर देते। शिवाजी को असली श्रद्धांजलि उनके बारे
में ऐसे भव्य आयोजनों में बातें करना नहीं, बल्कि तलवार उठाकर राष्ट्र के लिए लड़ना है,
जैसा कि वह स्वयं करते थे। उन्होंने कांग्रेस के संवैधानिक तरीकों को ‘बातूनी इकाई’ कह
कर खारिज तो किया ही, साथ ही, वह तिलक की अतिवादी जन राजनीति से भी प्रेरित
नहीं हुए।
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दामोदर के दोनों छोटे भाई उनसे प्रेरित थे। दामोदर का अटूट विश्वास था कि अंग्रेजी
शिक्षा भारतीयों के नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार है और यह उन्हें उनके सांस्कृ तिक छोर
से तोड़कर दूर ले गई है। उनकी राय में अंग्रेजी शासन न के वल राजनीतिक दमन, बल्कि
सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृ तिक दमन का भी प्रतीक है। दामोदर के अनुसार:
अंग्रेजी का ऐसा अजीब सा असर है कि यदि कोई व्यक्ति इसे सीखने का प्रयास करता
है अथवा यदि कोई बालक इसकी वर्णमाला के दो या तीन अक्षर भी सीख जाता है, वह
अपने बुजुर्गों को महत्वहीन समझना शुरू कर देता है और अपने प्राचीन और सच्चे धर्म
से नफरत करना आरंभ कर देता है। यदि अंग्रेजी शिक्षा की महक का ऐसा असर है तो
हैरानी कै सी कि यदि कोई सदाचारी व्यक्ति इसे पूरा सीख ले तो वह सिर से पांव तक
अंग्रेज हो जाए और मदिरा का अनन्य प्रेमी ?
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...जब भारतीय प्रशासन में अंग्रेजी को अपनाया गया तो उनका मानना था कि हिंदुओं
को इस शिक्षा का नशा डालकर उनकी आत्मा को ही कु चल डाला जाए।
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एक धर्मनिष्ठ हिंदू होने के नाते, उन्होंने अपने धार्मिक और सांस्कृ तिक परिवेश में अंग्रेजी
दखल को कलंक स्वरूप माना। स्कोबल विधेयक ऐसा ही एक अंग्रेजी हस्तक्षेप था। अंग्रेज
सरकार द्वारा आमतौर पर मुस्लिमों का पक्ष लिया जाना, जिसमें मस्जिदों के बाहर जुलूस
के संगीत प्रतिबंध भी शामिल था, चापेकर बंधुओं को नागवार गुजरा। उसी दरम्यान वाॅल्टर
रैंड ने 1894 में वई में एक मस्जिद के बाहर हिन्दू जुलूस में संगीत बजाने के सरकारी नियम
तोड़ने पर कु छ हिन्दुओं को कड़ी सज़ा भी दी थी।
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चितपावन ब्राह्मणों को सरकारी सेवा और सेना से बाहर रखने की सरकारी नीति के
कारण खुद कई बार सेना में भर्ती होने में असफल रहने पर दामोदर चापेकर का कहना था:
पूरी दुनिया के किसी हिस्से में तलाश करने पर भी अंग्रेजों जैसा क्रू र शासन ढूंढ़े न
मिलेगा। इनसे तो यवन शासक ही बेहतर थे जो हाथ में तलवार उठाकर लोगों के सिर
ऐसे उतार देते थे, जैसे कि वे बकरियां हों। परंतु अंग्रेज विश्वासघाती हैं और मैं
ईमानदारी से कहता हूँ कि इस पृथ्वी पर उनसे बड़ा खलनायक और कोई न होगा और
दूसरों को दयालुता दिखाकर बर्बाद करने वाला भी उनके जैसा कोई नहीं... अब तक
भारत में कई क्रू र यवन शासक हुए परंतु उन्होंने भी हिन्दुओं को विशेष नियुक्तियों से न
रोकने या अपने पक्ष में रहने वालों की सीमा से जुड़े कोई नियम नहीं बनाए थे।
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दामोदर चापेकर ने सशस्त्र क्रांति के लक्ष्य को समर्पित सौ युवाओं का एक गुट बनाया था।
‘चापेकर क्लब’ को ‘राष्ट्र हितेच्छु मंडली’ या राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहन देने वाला समूह भी
कहा जाता था। इसका एक लक्ष्य हथियार एकत्र करना था जो अंग्रेजी क्षेत्र में कठिन कार्य
था, इसके लिए पड़ोस के हैदराबाद के निजाम के इलाके में जाना पड़ता। परंतु उनके पास
धन की सदा कमी रहती।
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क्लब की गतिविधियों के बारे में विस्तार से बताते हुए दामोदर
लिखते हैं:
हम कु श्ती दनपट्टा, काठी, भाला फें कना, ऊँ ची और लंबी कू द तथा बॉक्सिंग जैसे
व्यायाम पर जोर देते हैं। सायं 4 से 6 बजे तक का समय इसके लिए निर्धारित है... हमनें
योद्धाओं के ऐतिहासिक कार्यों से जुड़ी सामग्री एकत्र कर एक पुस्तकालय भी स्थापित
किया है... सायंकाल हम में से एक भाई ऐतिहासिक सामग्री का पाठ भी करता है।
प्राचीन इतिहास से कु छ घटनाएँ चुनकर हम उसे इस तरह सुनाते हैं, जिससे वे युवाओं
के मस्तिष्क पर असर छोड़ें और उन्हें अपने धर्म के प्रति प्रेम और आत्म-सम्मान की
भावना सिखाएं... अपने पाठ के दौरान जब भी मोर्चेबंदी, खंदक, गनिमिकवा और
चापा जैसे शब्द या भाव, और साथ ही हथियारों के नाम आते, तो हमारा प्रयास रहता
कि उन्हें पूरी स्पष्टता से समझाया जाए।
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इस समूह ने बंबई में महारानी विक्टोरिया की प्रतिमा पर तारकोल फें क कर उसे बदसूरत
करने का निर्णय किया। घटना को अंजाम देने के बाद दामोदर ने ठाणे के स्थानीय समाचार
पत्र सूर्योदय के संपादक को ‘दंडपाणि’ (अर्थात ‘हाथ में दंड या लाठी लिए व्यक्ति’) नाम
से भेजे संदेश में गुट के लक्ष्य और उद्देश्य साफतौर पर लिख भेजे।
हमने दंडपाणि नाम से एक संस्था का गठन किया है। हमारा स्थाई मंतव्य अपने धर्म की
खातिर मरना और मारना है। इसका पहला कार्य इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की
प्रतिमा को विरूपित करने से जुड़ा है जो स्थानीय लोगों और यूरोपियनों के बीच
भेदभाव करती हैं
...दंडपाणि संस्था किसी के असर में नहीं आएगी। महारानी हो या उनसे भी बड़ा कोई
और, जो भी अनैतिकता को प्रश्रय देगा, वह संस्था का शत्रु है।
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परंतु चापेकर बंधुओं द्वारा सबसे बड़ा कार्य राजनीतिक हत्या का रहा। वह महाभारत
और गीता के उपदेश से प्रेरित थे, जिसमें कहा गया है कि स्वधर्म या अपने विश्वास के लिए
एवं बुराई को अच्छाई की ताकत से समाप्त कर देना अनैतिक नहीं होता। 22 जून 1897
को पूना में महारानी विक्टोरिया की स्वर्ण जयंती का आयोजन चल रहा था। पिस्तौल से
लैस दामोदर और बालकृ ष्ण ने घुप अंधेरे में, गणेशखिंड मार्ग के निकट एक स्थान चुना
और अपने शिकार का इंतजार करने लगे। जब सरकारी भवन से बग्गी आती दिखी तो
दोनों भाइयों ने कू ट भाषा में एक दूसरे से कहा ‘गोंडया आला रे आला’ (हमारा शिकार आ
गया)। बालकृ ष्ण बग्गी पर लपका और उसके सवार को गोलियां दाग दीं। अगले ही पल
उसे अहसास हुआ कि जिसे उसने मारा, वह रैंड नहीं बल्कि उसका फौजी सहायक अयेर्स्ट
था। मार्ग पर बहुत अंधेरा था, इसलिए पीछे आ रही गाड़ी का चालक सामने की घटना नहीं
देख सका। बालकृ ष्ण ने फौरन दामोदर को इशारा किया, जो तुरंत हरकत में आया और
पीछे आ रही रैंड की बग्गी पर चढ़ गया और पीछे से सवार के सिर में गोलियां उतार दीं। रैंड
को ससून अस्पताल ले जाया गया जहाँ 3 जून 1897 को उसकी मौत हो गई। घटना को
अंजाम देकर दोनों भाई अंधेरे में फरार हो गए।
इस घटना से अंग्रेज सरकार सोते से जागी और हत्यारों की सूचना देने वाले को 20,000
रुपये का ईनाम देने की उसने घोषणा की। चापेकर बंधुओं के पूर्व सहयोगी, द्रविड़ बंधु
मुखबिर बन गए और उन्होंने सरकार को साजिश की सूचना दे दी। इसके अंतर्गत, चापेकर
बंधुओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत आरोप लगाते हुए उन्हें गिरफ्तार
किया गया। 8 अक्तू बर 1897 को प्रमुख प्रेसिडेंसी न्यायाधीश डब्ल्यूआर हेमिल्टन के सामने
दामोदर ने हमले की पृष्ठभूमि पर कु छ इस तरह प्रकाश डाला:
मैं पूना गया था.... वहाँ प्लेग की रोकथाम का अभियान चल रहा था.... प्लेग पीड़ित
घरों की तलाश में सिपाहियों द्वारा बेहद जुल्म किया जा रहा था। (वह) मंदिरों में पहुँच
जाते और महिलाओं को उनके घरों से घसीट लाते, मूर्तियाँ तोड़ते और पोथियां (धार्मिक
पुस्तकें ) जलाते, हम इसका बदला लेने को प्रतिबद्ध थे, लेकिन आम सिपाहियों को
मारने का कोई अर्थ न था, आला अधिकारी को मारा जाना ज़रूरी था। इसलिए हम श्री
रैंड को मारने के लिए प्रतिबद्ध थे।
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बालकृ ष्ण भागने में कामयाब हो गए परंतु एक बार फिर द्रविड़ बंधुओं ने मुखबिरी की और
सरकार ने उन्हें पकड़ लिया। चापेकर बंधुओं में सबसे छोटे भाई सदाशिव ने महादेव
विनायक रानाडे और खांडो विष्णु साठे के साथ मिलकर, द्रविड़ बंधुओं को उनके
विश्वासघात की सज़ा देने के लिए, उनके घर सदाशिव पेठ में 8 फरवरी 1899 को मार
डाला। हालाँकि बाद में सभी गिरफ्तार कर लिए गए।
18 अप्रैल 1898 को दामोदर हरि को फांसी दे दी गई। अगले वर्ष, वासुदेव, बालकृ ष्ण
और रानाडे को भी क्रमश: 8 मई, 10 मई और 12 मई को मृत्युदंड दिया गया।
इन राजनीतिक हत्याओं और उसके बाद चापेकर बंधुओं को मृत्यु की सज़ा दिए जाने से
समूची बॉम्बे प्रेसिडेंसी तनावग्रस्त थी। उनकी बहादुरी, मुकदमे का ब्योरा और फांसी के
तख्ते पर गीता के श्लोक पढ़ते हुए मृत्यु को गले लगाने की उनकी हिम्मत ने विनायक को
बहुत प्रेरित किया। परंतु जब कु छ समाचार पत्रों ने चापेकर बंधुओं को दिशाहीन और
आवेशपूर्ण युवा करार दिया, तो वह बहुत कु पित हुए। बेशक उनकी कार्यशैली में
योजनाबद्ध और नीतिगत कमियां थीं, परंतु विनायक यह कभी स्वीकार नहीं कर सकते थे
कि देश के लिए जान देने वाले शहीदों के लिए अपशब्द कहे जाएं। इसके बाद उनके रातों
की नीदें उड़ चुकी थीं। ऐसे ही संवेदनापूर्ण क्षणों में वह भागुर में अपने घर में स्थित
अष्टभुजा भवानी की प्रतिमा के सामने पहुँचे और अपने उद्गार व्यक्त किए। उन्होंने कु लदेवी
के सामने शपथ ली कि वह अपने जीवन को मातृभूमि को आज़ाद कराने हेतु सशस्त्र क्रांति
के लिए समर्पित करते हैं। उन्होंने देवी के समक्ष कहा, ‘शत्रुस मारता मारता मारे तो
झुंझेन!’ (मैं शत्रु के खिलाफ युद्ध करूं गा और अंतिम सांस तक उसे मारूं गा)। उन्हें इस
बात का अंदाजा ही नहीं था कि एक किशोर द्वारा ली जाने वाली इस प्रतिज्ञा के दूरगामी
परिणाम कितने ही लोगों के लिए खूनखराबे, हमलों, मृत्युदंड और कै द के रूप में सामने
आएंगे। परंतु उस रात कु लदेवी के सामने क्रांतिकारी विचार की नींव पड़ गई थी और इसके
बाद मुड़ कर देखने का कोई अर्थ ना था।
विनायक ने कु लदेवी के सम्मान में दुर्गा दस विजय
नामक एक कविता भी लिखी, जिसमें
उन्होंने माँ से वचन निभाने के लिए उन्हें शक्ति देने की प्रार्थना की। कई वर्षों बाद जब
पुलिस ने विनायक के घर छापा मारा तो उनके सहायकों ने इस कविता की प्रतियाँ जला दी
थीं, ताकि वह उनके हाथ न लगें। भागुर में क्रांति की मसाल जलाने के लिए विनायक ने
चापेकर बंधुओं पर वीरश्रीयुक्त
नाम से एक नाटक भी लिखा था जिसका मंचन करने में
रानो दर्जी नामकी स्थानीय नाटक मंडली ने रुचि भी दर्शाई थी, परंतु अंत समय में परिणाम
के डर से उसने हाथ खींच खींच लिए। विनायक की कविता ‘चापेकरंच फाटक’ कु छ इतनी
प्रसिद्ध हुई कि यह 1910 के दशक तक समूचे महाराष्ट्र में युवाओं को प्रेरित करती रही।
कविता का पाठ करने पर हर बार, विनायक भावविभोर हो जाते और क्रोध एवं दुःख से
उनकी आवाज़ भर्रा जाती।
अपने पुत्र में घर बना चुकी क्रांतिकारी भावना से दामोदरपंत बहुत चिंतित रहने लगे थे।
हालाँकि, विनायक में बहुत छोटी सी आयु से तिलक और उनके कार्यों के जरिए राष्ट्रप्रेम की
भावना का बीज उन्होंने ही बोया था। यह देखकर कि उनका पुत्र अल्पायु में ही इस विचार
से कितने गहरे से जुड़ गया है, वह उनके रूपांतरण पर गर्व भी करते थे। परंतु उनके द्वारा
निरंतर अंग्रेजों को मारने की बात करने, रातों को जागते रहने, उनकी व्याकु लता और
विचारमग्न रहने से वे परेशान रहा करते। एक रात, दामोदरपंत विनायक के कमरे में पहुँचे
और उसे कविता लिखते समय रोते हुए देखा। उन्होंने कागज उठा कर देखा तो विनायक
चापेकर बंधुओं पर कु छ लिख रहे थे। उन्होंने उनकी काव्य रचना की तारीफ की, परंतु फिर
बहुत स्नेह के साथ उनके मुँह को अपने हाथों में लिया और कहाः ‘तात्या, तुम हमारे
परिवार की एकमात्र उम्मीद हो, हमारे घर की धुरी हो और मेरा सहारा हो। अपने जीवन को
संकट में मत डालो। तुम्हें अंदाजा नहीं कि जिस रास्ते पर तुम चलने का प्रयास कर रहे हो,
उसके कितने भयंकर परिणाम होते हैं। कविता लिखना जारी रखो; खूब पढ़ो, बड़े आदमी
बनो और उसके बाद जो चाहे सो करना।’
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विनायक उस समय खामोश रहे परंतु उन्होंने
खुद से कहा कि कोई उनकी कसम को बदल नहीं सकता।
पूना और शेष बॉम्बे प्रेसिडेंसी में आम धारणा थी कि उग्र क्रांतिकारी घटनाएँ अलग-थलग
पड़े गुट ही अंजाम देते हैं। यहाँ तक कि के सरी
भी चापेकर बंधुओं के पक्ष में नहीं था और
तिलक ने राजनीतिक हत्याओं को ‘पूना की भयावह त्रासदी जिसकी हम सब निंदा करते
हैं’ कहा था। हालाँकि, उन्होंने प्लेग से निपटने के लिए औपनिवेशिक ज्यादतियों को
जिम्मेदार ठहराया, जिसके बाद हर तरफ ‘असंतोष की लहर’ थी।
30
परंतु यह के वल शब्द-
क्रीड़ा थी। तिलक ने पुरजोर आवाज में सरकार की निंदा नहीं की और हिंसा की भी सतही
और हल्के तौर पर निंदा की थी। यह आम धारणा थी कि वह भीतर से चापेकर बंधुओं को
सहयोग करते थे।
परंतु यह अथक परिश्रमी शिवराम महादेव परांजपे (1864-1929) द्वारा संपादित
समाचार पत्र काल
था, जिसके संपादकीय ने कहा कि चापेकर बंधुओं ने जो किया वह
उनकी नजर में मानवीय कानून से ऊं चे, दैवीय कानून के अनुसार था।
31
परांजपे तिलक के
पुराने सहयोगी रहे थे। उनके उग्र लेखन के कारण, उन्हें बहिष्कृ त होना पड़ा। दादाभाई
नौरोजी ने कांग्रेस के किसी भी सत्र में शामिल होने पर उन पर पाबंदी लगा दी थी, जिस
कारण संस्था की ही बदनामी हुई।
क्रांतिकारी भावना दर्शाने वाले काल
के उग्र आलेखों का विनायक पर गहरा असर हुआ
और वह परांजपे और उनके समाचार पत्र के प्रशंसक बन गए। उनके अपने शब्दों में:
मैं जहाँ भी जाता, काल
पढ़ने पर ही जोर देता और दूसरों को भी पढ़कर सुनाता...
क्योंकि ऐसा कोई अन्य पत्र नहीं था जो (खुलकर) सशस्त्र संघर्ष की हिमायत करता
हो... (और) यदि (काल
) ने सीधे मेरे विचारों पर असर नहीं डाला, तो उसने मेरे ज्ञान,
समझबूझ, भाषाशैली और उत्साह पर तो असर किया ही था... यदि अपनी क्रांतिकारी
प्रेरणा के लिए किसी को मैं गुरु स्वरूप मानता हूं, तो वह निश्चित तौर पर कल
है।
32
चापेकर कांड का अप्रत्याशित नतीजा धारा 124ए के अंतर्गत, राजद्रोह के आरोप में
तिलक की गिरफ्तारी रूप में सामने आया। इस मामले में प्रमाण के तौर पर 1897 में
शिवाजी महोत्सव के दौरान उनके द्वारा दिया गया भाषण था जिसे राजनीतिक हत्याओं से
कु छ दिन पहले ही के सरी
में प्रकाशित किया गया था। बंबई सरकार का दावा था कि
तिलक और अन्य व्यक्तियों द्वारा शिवाजी महोत्सव में दिए गए भाषण की एक
अहस्ताक्षरित रपट और विषय, विचार और आलंकारिक नीतियों के अधीन छद्मनाम से
लिखी गई एक कविता ‘सरकार के प्रति विद्वेष’ भड़काने के काम में लाई गई थी।
33
‘शिवाजी का कथन’ (‘भवानी खड़ग चिन्ह’ नाम से लिखित) कविता के सरी
के
संपादकीय पन्नों पर प्रकाशित हुई थी। इसमें कविता का शीर्षक चरित्र भारत की दशा-दिशा
पर अस्पष्टता का बोध दर्शाने वाली भाषा में शोक दर्शाता है। इसकी आरंभिक पंक्तियाँ यूं
हैं: ‘दुष्टों को समाप्त कर मैंने विश्व को भारमुक्त किया। स्वराज्य स्थापित कर और धर्म की
रक्षा कर राष्ट्र को बचाया। अपने ऊपर छाई थकान को मैंने झटक कर दूर करने के लिए
सहारा लिया। मैं सोया हुआ था, मेरे मित्रो, फिर क्यों तुमने मुझे जगाया ?’
अहस्ताक्षरित रपट के अनुसार, 12 से 14 जून 1897 को आयोजित शिवाजी महोत्सव में
शामिल हुए प्रतिष्ठित लोगों में से एक, प्रोफे सर जिनसिनवाले ने अपने संभाषण में कहा,
‘यदि यूरोप में दो हजार हत्याएं करने वाले नेपोलियन को कोई दोषी नहीं मानता, यदि कई
बार, सीजर द्वारा गाॅल में निरुद्देश्य नरसंहार करने को दयालुता कहा जाता है तो एक या दो
व्यक्तियों को मारने के लिए श्री शिवाजी महाराज पर क्यों द्वेषपूर्ण हमले किए जाते हैं ?
फ्रांसीसी क्रांति में शिरकत करने वाले लोग इनकार करते हैं कि उन्होंने हत्याएं कीं और
जोर देकर कहते हैं कि वह अपने मार्ग के कांटे साफ कर रहे थे, तो फिर महाराष्ट्र पर यही
सिद्धांत क्यों लागू नहीं होता ‘?
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उस आलेख में असाधारण किस्म की हिंसा के ऐसे कई उद्धरण देकर ध्यान खींचा गया,
जिनके आधार पर भारत में राजनीतिक हिंसा को बर्बरता और विश्व के अन्य हिस्सों में
बहादुरी कहा जाता है। तिलक के अनुसार:
एक बार मान लिया जाए कि शिवाजी ने अफ़ज़ल ख़ान की हत्या की योजना बनाई
और उसे क्रियान्वित भी किया। महाराजा का यह कृ त्य सही था या गलत ? यह ऐसा
प्रश्न है जिस पर सोचना होगा और इसे दंडसंहिता या मनु की स्मृतियों अथवा
याज्ञवल्क्य या फिर पश्चिमी एवं पूर्वी आचार संबंधी नैतिक पद्धति के आधार पर नहीं
देखा जाना चाहिए। समाज को बांधने वाले नियम, आप और मुझ जैसे साधारण लोगों
के लिए होते हैं। कोई भी किसी ऋषि की वंशावली के संबंध में छानबीन अथवा किसी
राजा को दोषी नहीं ठहरा सकता। महापुरुष नैतिकता के आम सिद्धांतों से ऊपर होते
हैं। यह सिद्धांत महापुरुषों की पीठिका तक पहुँचने से पहले ही धराशायी हो जाते हैं।
क्या शिवाजी ने अफ़ज़ल ख़ान को मारकर कोई अपराध किया था ? इस प्रश्न का उत्तर
स्वयं महाभारत से मिलता है। गीता में श्रीमत कृ ष्ण अपने गुरुओं (एवं) नातीदारों को
मारने की सलाह देते हैं। व्यक्ति को (कोई दोष नहीं दिया जाता) यदि (वह) फल प्राप्ति
(अपने कार्य की) की इच्छा बिना कार्य करता है। श्री शिवाजी महाराज ने अपने उदर
(अर्थात, अपने हितों) पूर्ति के छोटे लक्ष्य के लिए कोई कार्य नहीं किया था। उन्होंने
अफ़ज़ल ख़ान की हत्या दूसरों के भले के लिए की थी... अपने विचारों को कु एं में गिरे
मेढ़क की तरह सीमित न रखें ; दंडसंहिता से ऊपर उठकर श्रीमद भगवद्गीता के
उच्चालोक में प्रवेश करें और तत्पश्चात महापुरुषों के कार्य का आकलन करें।
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वैचारिक सीमाओं को लांघते हुए, सेठ द्वारकादास, वाईवी नेने, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और
दादाभाई नौरोजी ने तिलक के समर्थन में आवाज उठाई। जैसा कि सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने
लिखा: ‘मेरे हृदय में तिलक के लिए पूरी संवेदना है, मेरी भावनाएं कारागार में उनके साथ
हैं। पूरा राष्ट्र इस घटना पर आंसू बहा रहा है’।
36
बंगाली राष्ट्रवादियों द्वारा तिलक को
वित्तीय सहायता भी दी गई, और उन्होंने तिलक डिफें स फं ड का भी गठन किया। उन्होंने
कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील एलपीई पुघ को अदालत में बचाव पक्ष में नियुक्त किया और
उनकी 10,000 रुपये की फीस भी भरी।
37
बंबई में मुकदमा छह दिन (8 से 14 सितंबर
1897) तक चला। तथापि, नौ सदस्यीय ज्यूरी को छह और तीन के अंतर से फै सले पर
पहुँचने में के वल चालीस मिनट लगे। ज्यूरी में छह अंग्रेज और तीन भारतीय थे। तिलक को
अठारह महीने की कड़ी सज़ा मिली, परंतु सज़ा पूरी होने से कु छ ही माह पूर्व उन्हें छोड़
दिया गया।
तिलक को सज़ा की घोषणा के बाद देश भर में उनके समर्थन में एक विराट लहर पैदा
हुई। 25 सितंबर 1897 को मध्यमार्गी समाचार पत्र बंगाली
ने सहयोग के रूप में अखबार
की सीमा पर काली पट्टी छापी (कलकत्ता के आनंद बाजार पत्रिका
और इंडियन मिरर
ने
भी ऐसा ही किया) और लिखा:
श्री तिलक के प्रति आदर एवं संवेदना स्वरूप बेंगाली
का यह अंक काली पट्टी के साथ
आया है। हमारा मानना है कि थोपे गए आरोपों से वह बेकसूर हैं। भारत का कोई भी
बाशिंदा, श्री तिलक जैसी समझबूझ और क्षमता वाला (और उनके शत्रु भी मानेंगे कि
वह असाधारण क्षमतावान व्यक्ति हैं), अंग्रेज सरकार के लिए वफादार के अतिरिक्त
कु छ और नहीं होगा।
38
इसी तरह मद्रास के मध्यमार्गी समाचार पत्र द हिंदू
ने 15 सितंबर 1897 को अफसोस
जताया:
श्री तिलक को मिली सज़ा ने पूरे देश को अवसाद में डाल दिया है। इस समाचार से
चारों ओर बेहद दुख और अपमान महसूस किया गया। ऐसा नहीं कि इससे कानून एवं
न्याय की नीति की जीत हुई हो, परंतु कु छ समय से देश के शत्रु जिस प्रतिक्रियात्मक
नीति की बात कर रहे थे, उसकी विजय हुई है।
39
इलाहाबाद से प्रकाशित एक अन्य मध्यमार्गी समाचार पत्र एडवोके ट
ने लिखा:
श्री तिलक को मिली सज़ा से समूचे देश में जो सनसनी फै ली, वह स्वाभाविक है...
राज्य द्वारा थोपे गए इस मुकदमे के बाद उनका नाम घर-घर में गूंज रहा है और यह
अतिशियोक्ति नहीं होगी कि हम यह कहें कि समाचार पत्र पढ़ने वाला प्रत्येक भारतीय,
या किसी अन्य माध्यम से जनमत की जानकारी रखने वाला उनके दुर्भाग्य पर गहराई
से सोच रहा होगा, जबकि ऐसे हज़ारों नहीं, लाखों लोग हैं जो उन्हें सच्चा राष्ट्रप्रेमी
मानते हैं।
40
~
एक ओर जहाँ देशप्रेम की भावना विनायक पर पूरी तरह से आच्छादित हो गई थी,
बाबाराव इससे अछू ते ही रहे। उन्होंने अंग्रेजी माध्यम से पांचवीं कक्षा पास की, परंतु इसके
बाद शिक्षा में उनकी रुचि कम होती गई। सातवीं कक्षा तक वे अपने पिता के भय के ही
कारण पहुँचे। बाबाराव असाधारण रूप से पूर्णतया विरोधाभासी लोगों के प्रति आकर्षित
थे - एक ओर वह बिखरे बालों और भभूत मले धर्म गुरुओं के पास जाते, तो दूसरी ओर रंगे
हुए चेहरों वाले रंगकर्मियों के पास। चाय और खानपान की वस्तुओं का स्वाद लेते हुए देर
रात तक नाटक, नृत्य और गायन पर चर्चा करना उन्हें बहुत भाता था। और दिन के समय
वह साधुओं के साथ भटकते हुए तंत्र के रहस्य को समझने का प्रयास करते। 1898-99 में
खबर फै ली कि स्वामी विवेकानंद मायावती आश्रम में उनके साथ रहने वाले को राजयोग
का सिद्धांत सिखाएंगे।
41
पहले ही पारिवारिक जीवन से विमुखता दिखा चुके बाबाराव
वहाँ जाकर उनके अधीन अपनी आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करना चाहते थे। यदि इस बार
महाराष्ट्र में उनके घर के निकट ही प्लेग महामारी ने एक बार फिर दस्तक न दी होती, तो
सावरकर परिवार बाबाराव को खो देता।
1899 में जब नासिक में प्लेग फै ला, तो दामोदरपंत ने बाबाराव और विनायक को कु छ
समय स्कू ली शिक्षा रोक कर भागुर लौट आने को कहा। विनायक की बहन मैना और
जीजा त्र्यम्बके श्वर में रहते थे, और जब महामारी ने वहाँ दस्तक दी तो दामोदरपंत ने उन्हें
भी भागुर आने की सलाह दी। परंतु यह नियति ही थी कि जब सब लोग भागुर पहुँचे, तब
तक प्लेग वहाँ भी फै ल गया था। सरकार की दमनकारी प्लेग नीति को देखते हुए लोग
अपने घर में प्लेग रोगियों की सूचना छु पाने लगे। मरे हुए चूहों को बिल्लियों द्वारा शिकार
बनाया हुआ बताया जाने लगा। सावरकर परिवार भी अपने अहाते में मृत चूहों को चुपचाप
दफनाता रहा। जल्दी ही उनके आस-पड़ोस में भी प्लेग फै ल चुका था। आसपास के घरों में
बीमारी से जूझ रहे पड़ोसियों की चीख-पुकार सुनते हुए विनायक रात भर खिड़की के पास
बैठे रहते। वह अपनी वसीयत अनुरूप लिखना चाहते थे कि यदि वह भी रोग का शिकार
होते हैं तो उनका समूचा काव्य, दुर्गा दस विजय, सर्वसार संग्रह
और अन्य कविताओं को
उनके मृत्योपरांत प्रकाशित किया जाए।
कई लोगों द्वारा मना किए जाने के बावजूद, कर्तव्यबोध और करुणा से प्रेरित दामोदरपंत
राहत कार्यों में व्यस्त रहे। एक शाम, प्लेग के शिकार अपने कु छ मित्रों के घर से लौटते
समय वह बहुत उद्विग्न दिख रहे थे। बिना किसी से एक भी शब्द कहे वह घर के ऊपरी तल
में जाकर लेट गए। आमतौर पर अपने पिता के साथ ही सोने वाले बल को उनके पास जाने
की कड़ी मनाही थी। उसके बजाय उन्होंने विनायक को बुलाया और नम आँखों से कहा कि
उनके जोड़ों में तेज दर्द है और शायद उन्हें भी प्लेग ने चपेट में ले लिया है। विनायक ने
अपने संस्मरणों में लिखा है कि बचपन से ही संकट की स्थिति का सामना होते ही वह
पाषाण-हृदय हो जाते और बिना भावुक हुए कर्मोन्मुख होकर सामने आई समस्या को
सुलझाने के उपाय सोचने लगते। वह तुरंत ही अपने पिता के लिए दवाइयाँ लाए और
परिवार ने मामले को गुप्त रखने का निर्णय लिया ताकि पुलिस उनसे घर खाली ना करा ले।
बल को मुख्यद्वार पर पहरे पर बैठाया गया ताकि कोई अंदर न आ सके ।
एक बार, जब विनायक ने बल को उसके स्थान से भटकते देखा तो वह क्रोध में चिल्ला
उठे । छोटा बालक अपने बड़े भाई के पास आया और रोते हुए बोला कि उसकी टांगों में भी
तेज दर्द है। बल को भी प्लेग ने घेर लिया था। भयाक्रांत विनायक ने अपनी भाभी येसु
वहिनी से बल की देखभाल करने को कहा, और वह स्वयं दामोदरपंत की तीमारदारी में लगे
रहे। विनायक और येसु उत्सुकता से बाबाराव की बाट जोह रहे थे जो अपनी बहन और
जीजा को लेने त्र्यम्बके श्वर गए थे। दामोदरपंत की हालत बिगड़ती जा रही थी। प्लेग के
कारण तेज प्यास लगती है, परंतु उन्हें पानी देना मना था, जिस कारण वह जोर से चिल्लाते
और कई बार हिंसक हो उठते। बाबाराव अगली सुबह वहाँ पहुँचे और घर की हालत
देखकर उन्होंने मैना और उनके पति को किसी अन्य स्थान पर रहने को कहा। 5 सितंबर
1899 की उस रात दामोदरपंत बहुत उत्तेजित हो रहे थे और उन्हें घर की ऊपरी मंजिल में
बंद रखा गया था। प्रातःकाल दरवाजा खोलने पर उन्होंने पाया उनके पिता गुजर चुके हैं।
सोलह वर्ष की अल्पायु में ही विनायक अनाथ हो गए।
परिवार अभी दामोदरपंत की मृत्यु का शोक नहीं मना सकता था क्योंकि बल की हालत
अस्थिर थी। दामोदरपंत की मृत्यु के बाद परिवार का उस मकान में रहना संभव नहीं था
क्योंकि सरकार उन्हें दूरदराज के कै म्पों में भेज सकती थी। एक पारिवारिक मित्र की मदद
से उन्होंने शहर से बाहर एक झोपड़ी का इंतजाम कर लिया। इस बीच, उन्हें कु छ दिन शहर
के महादेव और गणेश मंदिरों में भी गुजारने पड़े थे। छोटी सी उम्र में ही अपने माता-पिता
को खो चुके अपने भतीजों के पास उनके बापू काका आ पहुँचे थे। विनायक अपने
संस्मरणों में लिखते हैं कि यह संघर्ष शारीरिक और मानसिक तौर पर इतना थका देने वाला
था कि उन्हें लगता था कि वह किसी भी पल थकान से गिर पड़ेंगे। दुर्भाग्यवश, कु छ ही
दिनों में बापू काका भी प्लेग की चपेट में आ गए।
सावरकर परिवार के सामने खड़ी समस्या पहाड़ सरीखी थी। जिस स्थान पर उन्होंने
पनाह ली थी, वहाँ डाकु ओं का खतरा था। परिवार को डर था कि पुराने जमींदार होने के
नाते उन्हें लूटा जा सकता है। दूर-दराज के इस इलाके के निकट श्मशान घाट भी था; लोगों
के बिलखने की आवाजें, जलती लाशों की दुर्गंध और उल्लुओं तथा सियारों के रोने की
आवाज वहाँ डरावना माहौल पैदा करती थीं। विनायक को याद था कि उन डरावने दिनों में
कै से एक आवारा कु त्ता रात को उनके पास आ जाता और यदि रात के समय कोई अनजान
व्यक्ति उनके निकट आने का प्रयास करता, तो वह भौंक कर उसे भगा देता।
सावरकर परिवार के संकट की सूचना नासिक पहुँची। दामोदरपंत के एक मित्र रामभाऊ
दातर, उनके पूरे परिवार को नासिक ले आए। रामभाऊ दातर के पिता को प्लेग होने पर
कभी दामोदरपंत ने उनकी मदद की थी। परंतु कड़ी सरकारी छानबीन से बचते हुए एक
शहर से दूसरे शहर पहुँचना बहुत कठिन कार्य था। अपने आसपास के लोगों द्वारा ऐतराज
किए जाने पर कि प्लेग संक्रामक रोग है, उन्होंने सावरकर परिवार को अपने घर ही रखा।
दुर्भाग्यवश, नासिक पहुँचने और अपने भाई की मृत्यु के दस दिन बाद बापू काका का भी
निधन हो गया। प्रतिदिन दुःख की छाया लंबी होती जा रही थी।
बल अभी तक बीमारी की चपेट में था और उसे प्लेग अस्पताल में भर्ती कराया गया।
बाबाराव उसके पास ही रहते और पूरे दिन उसकी तीमारदारी में लगे रहते। अस्पताल में
एक यूरोपियन नर्स थी जिसका रोगियों के प्रति बर्ताव बहुत बुरा था। कई लोगों का मानना
था कि उसका दुर्व्यवहार और गैर-पेशेवराना रवैया झेलने की बजाय, बीमारी झेलना कहीं
आसान था। जब उसने बल के साथ भी ऐसा व्यवहार दिखाया, तो बाबाराव का उससे
झगड़ा हो गया। उन्होंने वरिष्ठ डाॅक्टर से शिकायत कर उसे वहाँ से निकलवा दिया। उसके
बाद, जब तक नर्स का विकल्प नहीं आ पहुँचा, बाबाराव ने अपनी सेहत की चिंता किए
बिना रोगियों की सेवा-सुश्रुषा की। उन्हें अस्पताल से वापस आने या किसी बाहरी व्यक्ति से
बात करने की अनुमति नहीं थी। दातर के घर के बाहरी हिस्से में के वल विनायक और येसु
वहिनी ही थे और प्रतिपल अस्पताल के हालात पर सोचते रहते। विनायक रोज़ अपने भाई
के लिए खाना ले जाकर बाहर ही इंतजार करते। संक्रामक रोग के खतरे को देखते हुए उन्हें
बाबाराव से मिलने की अनुमति नहीं होती। और एक दिन बाबाराव के बीमार पड़ने से जुड़ा
उनका डर सच हो ही गया। सूचना पाकर विनायक हतोत्साहित हो गए।
आखिरकार बाबाराव और बल रोगमुक्त हुए और तब तक नासिक में प्लेग का असर भी
धीमा हो गया था। दोनों घर लौट आए और कु छ ही महीनों में उनके स्वास्थ्य में भी सुधार
आ गया। इसके बाद परिवार ने नासिक में ही बस जाने का फै सला किया।
उस भयानक रात, जब बुखार में जल रहे नन्हे बल को लेकर सावरकर परिवार अस्तित्व
रक्षा के लिए इधर-उधर भागता फिर रहा था, विनायक ने भागुर को सदा के लिए अलविदा
कह दिया। अब नासिक में एक नया जीवन उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
3
एक क्रांतिकारी का उदय
नासिक, 1899
नासिक शहर से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं और इसकी प्राचीनता रामायण काल
से संबद्ध मानी जाती है। तब इसे पंचवट, यानी पांच वट वृक्षों की भूमि के नाम से पुकारा
जाता था। कहते हैं कि वनवास काल में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण यहाँ रहे थे। यही
वह स्थान है जहाँ लक्ष्मण ने असुर राजकु मारी सूर्पनखा की नाक काटी थी, जिसके बाद
इसका नाम नासिका पड़ा। संस्कृ त में नाक को नासिका कहते हैं। कई लोगों का यह भी
मानना है कि चूंकि यह नगर नौ पहाड़ियों (मराठी में शिखर) से घिरा है, इसलिए इसे नव-
शिखा कहते थे, जिसे कालांतर में नासिक पुकारा जाने लगा।
1
यहाँ हिन्दू मत से जुड़े कई
पवित्र स्थल हैं जिनमें एक है सीता गुफा, जहाँ सीता आराधना करती थीं ; भगवान राम के
नाम पर राम कुं ड है, कहा जाता है कि वह उसमें स्नान करते थे और यहीं राजा दशरथ की
अस्थियां आश्चर्यजनक रूप से विलीन हो गई थीं। प्रत्येक बारह वर्षों में एक बार नासिक में
महाकुं भ का आयोजन होता है, जिसमें देश भर से श्रद्धालु गोदावरी के पवित्र जल में स्नान
करने आते हैं। नासिक अनेक प्रतिष्ठित राजवंशों की नगरी भी रहा है। पेशवा बाजीराव
द्वितीय इसे अपनी राजधानी बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने यहाँ अठारहवीं सदी
के अंत में एक महल ‘पेशवा वाडा’ (बाद में सरकार वाडा के नाम से प्रचलित) का निर्माण
भी कराया था। विडंबना है कि अंग्रेज सरकार ने इस इमारत का इस्तेमाल स्वतंत्रता संग्राम
केे दौरान क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए किया।
जब सावरकर परिवार नासिक में स्थाई तौर पर बस गया, उस समय यह महाराष्ट्र के
सबसे पिछड़े कस्बों में से था। यहाँ के वल संकरी गलियां, तीर्थयात्रियों को तंग करने वाले
पंडे और धूल से सने रास्ते ही थे। हालाँकि, जिला मुख्यालय होने के कारण यहाँ अंग्रेजी
शिक्षा की बेहतर सुविधा थी, और इसी कारण दामोदरपंत ने बाबाराव और विनायक को
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए नासिक भेजा था।
दामोदरपंत के निधन से पूर्व के अपने नासिक प्रवास के दौरान सावरकर बंधु तिलबंधेश्वर
की संकरी गलियों में रहने चले गए थे, जहाँ निकट ही भगवान शिव का मंदिर भी था।
उन्होंने वर्तक परिवार के घर में सबसे ऊपर एक कमरा किराए पर लिया। उस समय
परिवार के मुखिया वर्तक जी का निधन हो चुका था, परंतु उनकी पत्नी, एक बेटी और तीन
बेटे - नाना, त्रिम्बक और श्रीधर उन्हें अपने ही परिवार का अंग मानते थे। 1899 में स्थाई
तौर पर नासिक में रहने के लिए परिवार ने तिलबंधेश्वर क्षेत्र का ही चुनाव किया जहाँ
रामाभाऊ दातार का घर स्थित था। रामाभाऊ के छोटे भाई, वामन शास्त्री भाऊ, जो बाद में
जाने-माने चिकित्सक ‘वैद्य भूषण’ बने, उस समय करीब विनायक के ही हमउम्र थे,
इसलिए दोनों अच्छे मित्र बने। सावरकर और दातर, एक ही परिवार की तरह एक ही रसोई
इस्तेमाल करते, और अपनी आय भी साझा करते थे। इस नई दुनिया में और भी कई लोग
थे जो विनायक के करीबी बने और उन्होंने उनकी राजनीतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई।
जिन दिनों बाबाराव और बल नगर के प्लेग अस्पताल में भर्ती थे, बाबाराव की भेंट
अस्पताल के एक कर्मचारी, त्रिम्बक राव महास्कर से हुई। महास्कर की आयु उन दिनों तीस
वर्ष से अधिक थी, वह बेहद निर्धन थे परंतु इसके बावजूद, वह दयालु और किसी भी
जरूरतमंद की मदद के लिए तैयार रहते थे। वह शिक्षित भी थे, इस कारण बाबाराव से
उनकी मैत्री हो गई, जो उनके अलावा अस्पताल में भर्ती रोगियों में एकमात्र शिक्षित थे।
सच्चा देशभक्त होने के कारण, महास्कर नासिक में जनसभाएं और उत्सव आयोजित
करते, फिर भी वह लोकप्रिय नहीं थे। वैसे बापूराव के तकर, दाजीराव के तकर,
लोकसेवाकर बर्वे, रायबहादुर वैद्य, कवि पारख और नासिक के अन्य जाने-माने नेता
महास्कर को भली-भांति जानते थे और उनकी सांगठनिक क्षमताओं के प्रशंसक थे।
वहीं उनके मित्र तथा सरकारी कर्मचारी, रावजी कृ ष्ण पागे, बिल्कु ल उनके उलट थे। जहाँ
महास्कर शर्मीले और अंतर्मुखी थे, पागे बड़बोले, आकर्षण का कें द्र बनने वाले और
हँसमुख स्वभाव के । महास्कर की तरह वह भी लगातार छोटे-छोटे विरोध प्रदर्शन
आयोजित करते थे। भारत के लिए सशस्त्र क्रांति के जरिए आज़ादी हासिल करने के
विचार से वह सहमत थे, परंतु इस लक्ष्य की प्राप्ति के संबंध में उनके पास स्पष्टता या
दूरदर्शिता की कमी थी। तिलक के कट्टर समर्थक के तौर पर उन्हें लगता था कि उत्सवों
और जन अभियान के जरिए जनता की एकजुटता ही राष्ट्रीय स्वाधीनता प्राप्ति का तरीका
है। उन्होंने विद्यार्थी संघ नामक एक संगठन भी तैयार किया था। बड़े भाई के रूप में
महास्कर ने विनायक को सलाह दी कि सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर आँखें मूंदकर चल देने की
बजाय उन्हें सतर्क और चैकन्ना रहना चाहिए। विनायक महास्कर और पागे से अपने मन
की बात साझा करते और उन्होंने एक गुप्त विद्यार्थी सभा का गठन करने की मंशा व्यक्त
की थी। उन्होंने कहा कि गणेश और शिवाजी महोत्सव आयोजित करने से कोई पुख्ता
नतीजा नहीं निकलेगा ; उन्हें जहरीले वृक्ष की जड़ों पर प्रहार करना होगा और ऐसा संपूर्ण
सशस्त्र क्रांति से ही संभव है। परंतु चापेकर घटना के नतीजों से उनके मन में डर समाया
हुआ था और कु छ समय तक वह शंका में ही रहे।
दातर और वर्तक परिवारों के समीप ही ढोंडोभट्ट विश्वामित्र नाम के एक पुजारी रहा करते
थे। वह गौरवर्ण, मोटे-ताजे और खुशमिजाज व्यक्ति थे जो अपनी मंदिर के काम के बाद
पान, तम्बाकू , चाय, लैमन सोडा और ताश खेलना पसंद करते थे। संक्षेप में, वह महफिलों
की जान थे। उनकी मराठा परिचारिका का पुत्र, आबा दारेकर, आठ वर्ष की आयु में लंबी
बीमारी के बाद अपंग हो गया था। लावणी गीत और एक नाटक लिखने वाला वह हँसमुख
स्वभाव का व्यक्ति था, जबकि उसकी माँ सारा दिन रोजी-रोटी के संघर्ष में घरों के काम
करती थीं। हालाँकि, आबा भी पतंगें, कागज निर्मित वस्तुएं, कागज की टोपियां और पालतू
जानवर बेचकर काफी पैसे कमा लेता था। वह अपने मुहल्ले के हुड़दंगी लड़कों की टोली
का अघोषित नेता भी था और रामाभाऊ, वामन, त्रिम्बक और अन्य लड़के भी उससे प्रेरित
रहते। अनपढ़ होने के बावजूद शिक्षित, उच्चवर्गीय और अंग्रेजी बोलने वाले लड़कों पर
उसका असर आश्चर्यजनक था।
आरंभ में आबा और उसके चेलों को विनायक अच्छा नहीं लगा और वह उसे किताबी
कीड़ा और पढ़ाकू कह कर नकारते रहे। आबा की टोली के कु छ लड़के विनायक की काव्य
प्रतिभा से चिढ़ते थे और उन्होंने इस बारे में आबा को बताया। आबा स्वयं भी टूटी-फू टी
कविताएँ रचता था। फिर भी, विनायक की बौद्धिक क्षमता और शब्द संपदा ने उस पर
असर डाला और वह उसकी लेखनी और वाचन क्षमता का रहस्य समझने को उत्सुक था।
विनायक की 1670 के ‘सिंहदाचा पोवादा’ या ‘सिंहाद का गीत’ ने आबा को आकर्षित
किया।
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आखिरकार, पहल करते हुए वह विनायक के पास गया और लेखन में उनकी
मदद मांगी; विनायक इस संबंध में तुरंत राज़ी हो गए। व्याकरण, कविता और इतिहास के
पाठ ने आबा की सोई प्रतिभा को झकझोरा और वह आज़ादी की भावना से अत्यधिक
प्रेरित हो उठा। उसने ‘गोविंद’ नाम से लिखना शुरू किया और जल्दी ही उसकी गिनती
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध देशभक्तों और स्वातंत्र्य-कवियों में होने लगी। ‘रानावीन स्वातंत्र्य कोना
मिलाले’ (रक्तिम युद्ध के बिना किसने आज़ादी प्राप्त की है ?) उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता
है।
तिलभंदेश्वर की इन्हीं संकरी गलियों में भारत की पहली आधुनिक युवा क्रांतिकारियों की
गुप्त संस्था का गठन हुआ। नवंबर 1899 को, सोलह वर्षीय विनायक की निगरानी और
महास्कर एवं पागे जैसे सदस्यों वाले राष्ट्रभक्त समूह का गठन हुआ। तीनों युवाओं ने सशस्त्र
संघर्ष के ज़रिए भारत को आज़ाद कराने और ज़रूरी हुआ तो अपने प्राण तक देने की
शपथ खाई। इस गोपनीय संस्था के गठन और कार्यविधि से जुड़े कई विचार थाॅमस फ्रॉस्ट
की सीक्रे ट सोसाइटी ऑफ यूरोपियन रेवोल्यूशन, 1776-1876 से आए थे। फ्रॉस्ट ने ऐसी
सभाओं का अध्ययन कर कहा था कि ‘एक गुप्त संस्था को गोपनीयता और वफादारी की
शपथ, एक आरंभिक कार्यक्रम और चिन्ह, पासवर्ड, पकड़ आदि’ के अनुसार अन्य
संस्थाओं से अलग रखा जा सकता है।
3
तीनों मित्रों ने काल
के संपादक एसएम परांजपे को सलाहकार के तौर पर आमंत्रित
किया, जिनका लेखन और समाचार पत्र उनका प्रेरणास्रोत था। आरंभिक दौर में तिलक
जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता को संपर्क करना उचित नहीं समझा गया और फै सला हुआ कि
कु छ उपलब्धियों के बाद ही ऐसा किया जाए। चापेकर बंधुओं की फांसी के बाद, देवी के
सामने अपनी प्रतिज्ञा से प्रेरित विनायक अके ले ही कु छ कर गुजरने को तैयार थे। परंतु
महास्कर उन्हें सही दिशा की ओर प्रेरित करते रहे, क्योंकि उन्हें डर था कि विनायक
युवावस्था के जोश में कु छ गलत कर सकते हैं। तीनों ने संस्था को गुप्त रखने का निर्णय
किया और बाबाराव को भी इस बारे में नहीं बताया। उनका लक्ष्य कु छ युवाओं का चुनाव
और उचित प्रशिक्षण के बाद उन्हें सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित करना था। पागे पहले से
युवाओं से जुड़े थे और नवनिर्मित समूह ने अपने खोज अभियान को आगे बढ़ाने का निर्णय
लिया। तीनों ने सभा के लिए गुप्त शब्द ‘राम हरि’ रखा। अतः ‘आज राम हरि मिलेंगे’ का
अर्थ था कि समूह की गुप्त सभा होनी है।
विनायक ने सलाह दी कि उन्हें दोहरी संस्था की जरूरत है - महोत्सवों और मेलों जैसे
‘शांतिपूर्ण’ आयोजन करने वाली एक संस्था जिसकी व्यापक सामाजिक पहुँच हो और जो
राष्ट्रीय प्रेरणा एवं सांगठनिक क्षमता वाले युवाओं की पहचान कर सके । इस विधि से चुने
गए युवा, संस्था के कें द्र, गुप्त सशस्त्र क्रांति समूह का हिस्सा होंगे। इसलिए, 1 जनवरी
1900 को तीनों मित्रों ने ‘मित्र मेला’ का आरंभ किया जो राष्ट्रभक्त समूह का मुखौटा था।
धीरे-धीरे, बाबाराव, दातर बंधु, वर्तक बंधु, आबा दारेकर और अन्य युवा मित्र मेला से जुड़े।
प्रत्येक शनिवार और रविवार को उनकी मुलाकात होती; एक वाचक का चुनाव होता और
भाषण के बाद उसके प्रत्येक पक्ष पर चर्चा होती। पहले-पहल, विषय आम होते थे, परंतु
विनायक ने धीरे-धीरे राजनीति, समसामयिक मुद्दों और क्रांतिकारी जज्बे पर बात करनी
शुरू कर दी। मेले में उनके तेज-तर्रार भाषण सशस्त्र संघर्ष पर जोर देते। उनका मत था कि
जहरीले पेड़ के कु छ पत्ते काटने से कु छ नहीं होगा, उन्हें जड़ों पर वार कर उसे उखाड़ देना
चाहिए। ऐसे कार्य के लिए, कु ल्हाड़ी और अपनी जान देकर उसे चलाने वाले की जरूरत
है।
विनायक के अनुसार, कांग्रेस जहरीले वृक्ष की पत्तियाँ काटने और उस पर दूध (प्रार्थना
और ज्ञापन) चढ़ाने की बातें करती है। उनके अनुसार, कांग्रेस और गोखले का शांतिपूर्ण
ज्ञापन और प्रार्थनाओं का मार्ग कु छ भारतीयों को नौकरियां और आकर्षक पदवियां दिला
सकता है, परंतु देश को संपूर्ण स्वतंत्रता नहीं दिला सकता। विनायक ने मत रखा कि
तिलक की पहल और सविनय अवज्ञा का मार्ग भी कु छ ही लोगों को अधिकार दिलाएगा,
पूरी आज़ादी नहीं। उनका मानना था कि हालाँकि, तिलक और गोखले जैसे देशभक्तों के
गहरे राष्ट्रवाद और कार्य को छोटा कर के नहीं देखना चाहिए, बल्कि उनकी वैचारिकता का
उचित अध्ययन कर उस पर नया निर्माण किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, एक ओर
जहाँ भारतीयों के दिलों में आज़ादी की लौ जलाने के लिए सब उनके ऋणी हैं, वहीं उनसे
आगे जाने की जरूरत है, फिर चाहे अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में सौ वर्ष और क्यों न लग
जाएं। मित्र मेला की बैठकों में विमर्श चाहे भाषा, साहित्य, अर्थव्यवस्था, इतिहास, व्यायाम,
गौरक्षा अथवा वेदांत पर हो, विनायक उसे घसीट कर राजनीतिक स्वतंत्रता और सशस्त्र
क्रांति तक ले ही आते।
सभा की शुरुआती बैठकें पागे या महास्कर के घरों में हुई। जल्दी ही उन्होंने उसका स्थान
बदल कर स्थायी तौर पर विश्वामित्र के घर के ऊपर स्थित आबा दारेकर के कमरे को बना
लिया। तिलभंदेश्वर की संकरी गलियों से, लकड़ी की पुरानी सीढ़ियों वाले पहली मंजिल पर
स्थित इस कमरे की खोज कठिन साबित हुई और इसी कारण यह उचित स्थान था। कमरे
में प्रमुख चित्र राजा रवि वर्मा द्वारा रचित शिवाजी महाराज का था। दीवारों पर नाना साहेब,
रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे जैसे 1857 के क्रांतिकारियों के अलावा, हालिया क्रांतिकारियों
वासुदेव बलवंत फड़के , चापेकर बंधुओं और महादेव विनायक रानाडे के चित्र भी टंगे थे।
यह देश के सशस्त्र क्रांतिकारी थे, और मित्र मेला के सदस्य इनके सच्चे वंशज। महास्कर ने
सलाह दी कि कमरे में ब्रिटिश राजा और रानी का भी चित्र लगा देना चाहिए क्योंकि यदि
कभी पुलिस का छापा पड़ा तो उसे शक न हो। परंतु विनायक ने इस विचार को खारिज
करते हुए कहा कि निरंकु श शासकों के चित्र दीवार पर टांग कर उसे अपवित्र करने से
गिरफ्तार होना बेहतर विकल्प है। अतः समझौते के तहत, क्रांतिकारी जज्बे को कु छ छु पाते
हुए हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र वहाँ टांगे गए।
हालाँकि, कमरा मुख्य मार्ग के बेहद निकट था और बाहरी आवाजें नहीं आती थीं, फिर
भी कोई उनकी बातें ना सुने या जासूसी न करे, यह देखने के लिए कु छ सदस्य बाहर
टहलते रहते। कमरे की आवाजें बाहर जाती थीं, परंतु शीघ्र ही सदस्य विषयांतर के लिए
कमरे में कू ट भाषा से संदेश भेजते। गैर-राजनीतिक विषयों पर सामग्री तैयार रहती, ताकि
छापा पड़ने की स्थिति में संस्था को बौद्धिक युवाओं का गैर-राजनीतिक मंच साबित किया
जा सके ।
‘हमारे देश के समग्र विकास के लिए’ जैसे उद्घोष से मित्र मेला के लक्ष्य भी अस्पष्ट रखे
गए थे। नए सदस्यों की पात्रता के संबंध में संतुष्ट होने के बाद ही पुराने सदस्य उनका चुनाव
करते। मेला सदस्यों की सूची शीर्षक के बिना तैयार करता ताकि पुलिस को उनकी
गतिविधियों पर शक ना हो। धीरे-धीरे, सरकार को उनकी गतिविधियों पर शंका होनी शुरू
हुई, इसलिए मेला ने आमतौर पर तैयार किए जाने वाले आय-व्यय ब्योरों सहित कु छ भी
लिखना बंद कर दिया।
नासिक में शिवाजी महोत्सव फीका ही रहता था, परंतु मित्र मेला के प्रेरित युवाओं के
कारण 1900 का महोत्सव, भव्य आयोजन बन गया। इस अवसर पर विनायक ने उत्तेजक
भाषण दिया:
अब तक महाराष्ट्र के लोग बोलते आए हैं कि शिवाजी उत्सव के वल एक ऐतिहासिक
आयोजन है और उसका राजनीतिक महत्व नहीं होता। परंतु नासिक में यह आयोजन
ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों है। के वल वह लोग, जिनमें शिवाजी महाराज की
तरह देश की आज़ादी के लिए लड़ने की क्षमता है, को उनकी याद में इस समारोह के
आयोजन और उसे मनाने का अधिकार है। लिहाजा, हमारा प्रमुख लक्ष्य औपनिवेशिक
शासन की बेड़ियों को काट फें कना होना चाहिए। यदि हमारा एकमात्र लक्ष्य विदेशी
शासन में आराम ढूँढ़ना, मोटी तनख्वाहें बटोरना, टैक्स कम कराना, छोटे-मोटे कानूनों
को कमजोर करना, पेंशन और सुविधाएँ प्राप्त करने जैसे महत्वहीन मुद्दों पर सरकार के
साथ शांतिपूर्ण बातचीत करना है तो यह उत्सव न आपके लिए है और न ही शिवाजी
का, परंतु यह अंतिम पेशवा बाजीराव का है जो अंग्रेजों की ताकत के सामने झुक गए
थे ! यहाँ हम क्रांति के देवता शिवाजी का आह्वान कर रहे हैं ताकि वह हम सब को
प्रेरित करें और शक्ति दें। परिस्थितियों पर निर्भरता के कारण हमारे साधन संभवतः
बदल जाएं, परंतु हमारा लक्ष्य अडिग रहेगा और वह है हमारी मातृभूमि के लिए पूर्ण
स्वतंत्रता।
4
यह भाषण पूरे शहर में लोगों के दिमाग पर छा गया और मित्र मेला ने लोगों पर गहरा असर
छोड़ा। जल्दी ही गणपति उत्सव भी आ पहुँचा और इस अवसर पर मित्र मेला के सदस्यों ने
भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की। विनायक के भाषणों ने अपार भीड़ खींची। आबा
दारेकर ने जोशपूर्ण गीत लिखे और उन्हें संगीतमय प्रस्तुति दी। महोत्सव के दौरान नासिक
की गलियां, विनायक द्वारा दिए गए उद्घोष - स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय से गूँज उठीं।
साप्ताहिक बैठकों के लिए मित्र मेला सदस्यों को अपनी पसंद के विषयों का चुनाव, उन
पर शोध, विषय पर पुस्तकें पढ़ना, निबंध लिखना और फिर उनका भाषण स्वरूप वाचन
करना होता था। हालाँकि, कम ही सदस्य इसको गंभीरता से लेते थे। वह के वल बड़े
आयोजनों, उत्सवों, जुलूस या किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के आगमन पर ही पहुँचते। विनायक
का इस बात पर जोर था कि सब लोग बैठकों में शामिल हों जिससे उन्हें देश के अंदर और
बाहर चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष और क्रांति के इतिहास और अन्य संदर्भों का ज्ञान हो। इन
विषयों पर खुलेआम शैक्षणिक संस्थानों और आम स्थलों पर बात नहीं हो सकती थी,
इसलिए किसी बड़ी योजना के लिए खुद को तैयार करने हेतु अतीत की घटनाओं और
ज्ञानवर्द्धन के लिए मित्र मेला की बैठकें ही उचित स्थान था। क्रांति कार्य बिना सोचे-समझे
नहीं होता; उसके पीछे योजना और ज्ञान ज़रूरी है। उपस्थिति की परवाह न करते हुए
विनायक साप्ताहिक बैठकें करते गए। कई सदस्य, जिनमें बाबाराव भी थे, पहले राजनीति
में रुचि नहीं रखते थे, परंतु वह के वल अपने छोटे भाई की खातिर वहाँ जाते, और फिर वह
भी स्थाई तौर पर वहाँ पहुँचने लगे।
हालाँकि इन सब गतिविधियों का असर विनायक की शिक्षा पर नहीं पड़ा। 1899 के अंत
में वह ग्रेड पाँच से हाई स्कू ल में पहुँचे और कु छ ही महीने बाद परीक्षाओं में अच्छे प्रदर्शन
के बाद ग्रेड छह में भेजे गए। नासिक हाई स्कू ल के प्रधानाचार्य, आरबी जोशी प्रख्यात
विद्वान थे। वह गोपालकृ ष्ण गोखले के करीबी भी थे। वह और स्कू ल के अन्य अध्यापक
विनायक की विविध पाठ्येतर गतिविधियों से अवगत थे और इन सभी विकर्षणों के
बावजूद उनके अच्छे प्रदर्शन पर उन्हें सबसे होनहार छात्र मानते थे।
चूंकि मित्र मेला के अधिकांश सदस्य नवयुवक थे, विनायक नहीं चाहते थे कि समूह की
गतिविधियों के कारण उनकी शिक्षा पर विपरीत असर पड़े। इसलिए किसी विषय में
कमजोर साथियों की मदद के लिए विनायक और कु छ अन्य साथी आगे आते ताकि वह
परीक्षाओं में सफल हो सकें । विनायक के दिन अधिकतर देश-विदेश के राजनीतिक मुद्दों
की जानकारी के लिए अखबार पढ़ने और स्कू ली पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें पढ़ने में
बीतते। परंतु अर्ध-वार्षिक या वार्षिक इम्तेहान आते ही वह खुद को महीने-दो महीनेे के
लिए कमरे में बंद कर गंभीर अध्ययन करते। उनके अध्यापकों का मानना था कि स्कू ल में
उनकी अनियमितता के कारण वह असफल रहेंगे, परंतु उच्च श्रेणी में परीक्षाएं उत्तीर्ण कर
उन्होंने सबको हैरान कर दिया। अपने छोटे भाई की सफलता पर बाबाराव ने मुहल्ले भर में
मिठाइयां बांटी और प्रेम और गर्व से विनायक की पीठ थपथपाई - विनायक ने याद किया
है कि मेहनत के इससे बेहतर पारितोषिक की वह उम्मीद भी नहीं कर सकते थे।
दामोदरपंत की मृत्यु के बाद कई लोगों ने युवा और अनुभवहीन बाबाराव को धोखा दिया
और उनके परिवार की अधिकांश संपत्ति और जमीन हड़प ली। उन पर कई ऋण भी थे,
इसलिए बाबाराव सरकारी नौकरी प्राप्त करना चाहते थे। नौकरी के लिए उन्हें 500 रुपये
के दो सुरक्षा बॉण्ड पेश करने की ज़रूरत थी। यह काफी कठिन कार्य था परंतु अंततः वह
इसमें सफल रहे और उन्हें अकाल राहत विभाग में खजांची की नौकरी मिल गई। उन्हें कई
तकलीफें और अपमान भी झेलने पड़े, परंतु उन्होंने इसकी खबर कभी अपने छोटे भाइयों
को नहीं लगने दी। के वल अपनी पत्नी येसु वहिनी से वह इसकी चर्चा करते। कई अवसरों
पर जब घर में राशन समाप्त हो जाता, तो ऐसे में बाबाराव और येसु वहिनी अपने हिस्से का
भोजन विनायक और बल को देते थे। बाबाराव को अपने विभाग में गहरे तक पैठ बना
चुके भ्रष्टाचार का पता चला। उन्हांेने इसके खिलाफ आवाज उठाई और ऐसे तंत्र का
हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। नतीजतन, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया जबकि
कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। ऐसे में कर्ज चुकाने के लिए येसु ने अपने सारे गहने बेच
दिए, उस पारंपरिक नथ के अलावा जो विवाह के मौके पर उनकी माँ ने दी थी। परंतु जब
विनायक की फीस भरने की बारी आई तो बाबाराव ने उसे भी बेचने का प्रस्ताव रखा। चूंकि
यह उनके प्रिय देवर की शिक्षा का सवाल था, इसलिए बिना कु छ कहे येसु ने नथ भी
बाबाराव के हाथ पर रख दी। इसी कारण विनायक का अपनी भाभी से जुड़ाव बेहद गहरा
था। 1909 में उन पर एक कविता में विनायक ने लिखा:
ओ! मेरी प्यारी भाभी तुमने मुझे
इसीलिए आपसे मैं शिकायत कर रहा हूँ, नहीं, आपके समक्ष भावुक हूँ -
कृ पया जागो !
वृद्ध, डगमगाते विधुर साठ वर्षीय पुरुषों को युवा वधुएं सहज प्राप्त हैं
जीवन तुम्हारे लिए न्योछावर होना ! मृत्यु तुम्हारे बिना जीवित रहना !
परंतु स्मरण रहे, यदि तुम मुक्त हो, तो तुम्हारी भावी पीढ़ियां भी आत्म-सम्मानपूर्ण
जीवन जिएंगी ;
परंतु यदि तुम पराधीनता स्वीकारते हो, तो तुम्हारे वंशज भी गिरते दिखेंगे )!
बाजी प्रभु पर पोवादा का प्रत्येक छंद टेक के साथ समाप्त होता है:
चला घालु स्वातंत्र्य संगरी रिवुघरी घालाअवचित गाठुनि ठकवुनि भुलवुनि कासहिं
खेंचवा (
17
)
इस स्वतंत्रता संघर्ष में आओ साथ होकर अपने शत्रु पर प्रहार करें।
उसे सोते में दबोचें, गुप्त विधि से वार करें अथवा उसे अचंभित कर
वंदे मातरम्
ईश्वर के नाम पर
मैं......
दृढ़ निश्चय के साथ कि बिना पूर्ण स्वतंत्रता या स्वराज्य के मेरे देश को पृथ्वी के राष्ट्रों में
वह उच्च स्थान नहीं मिल सकता, जिसका वह हकदार है, और इस निश्चय के साथ कि
विदेशियों के खिलाफ अनवरत और रक्तिम युद्ध के बिना स्वराज्य प्राप्त नहीं होगा, मैं
सौगंध लेता हूँ कि इस पल से अपनी माँ के शीश पर स्वराज्य का मुकु ट पहनाने के लिए
आज़ादी के लिए यथाशक्ति युद्ध करूँ गा; और इसी लक्ष्य के साथ मैं हिन्दुस्तान की
क्रांतिकारी संस्था, अभिनव भारत से जुड़ता हूँ और शपथ लेता हूँ कि संस्था के प्रति
सच्चा और निष्ठावान रहूंगा और इसके आदेशों का पालन करूँ गा;
यदि मैं अपनी शपथ के प्रति पूर्ण अथवा आंशिक विश्वासघात करूं , अथवा संस्था या
इसके समान लक्ष्य हेतु काम कर रहे किसी के साथ धोखा करूं , तो मेरा अंत शपथ
तोड़ने वालेे का हो।
25
तत्पश्चात, संस्था के वार्षिक सत्र स्थायी आयोजन बन गए। 1905 में अभिनव भारत की
बैठक कोठूर में हुई और उसके अगले वर्ष सियाॅन में। 1906 में दादाभाई नौरोजी द्वारा
कलकत्ता में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेषन की अध्यक्षता के अवसर पर बाबासाहेब खरे और
वीएम भट्ट ने वहाँ जाने का निर्णय किया। दरअसल, इस बहाने वह वहाँ युवा क्रांतिकारियों
की समानधर्मा गुप्त सभाओं जैसे अनुशीलन समिति, स्वाधीन भारत एवं अन्य के साथ
गठजोड़ बनाना चाहते थे। उनका मत था कि भारत भर में एक साथ सशस्त्र विद्रोह का
समय आ पहुँचा है।
अगले वर्ष, 1907 में बाबाराव और अभिनव भारत के करीब सौ कार्यकर्ताओं ने सूरत
कांग्रेस सत्र में हिस्सा लिया। इस अवसर पर बाबाराव की भेंट, अधिवेशन में आए एक
उत्साही युवा वीओ चिदम्बरम पिल्लई हुई। उन्होंने पिल्लई को अभिनव भारत की शपथ
दिलाई और मद्रास जाकर अन्य युवाओं को साथ जोड़ने को कहा। पिल्लई मद्रास में प्रमुख
क्रांतिकारी साबित हुए और तिरुनेलवेल्ली और तूतिकोरिन विद्रोह में उनका प्रमुख हाथ
रहा।
26
सूरत में क्रांतिकारियों की गुप्त बैठक आयोजित की गई जहाँ बाबाराव और उनके
साथी बंगाली क्रांतिकारियों अरविंद घोष, उनके भाई बरिन्द्र और कांग्रेस नेता सुरेंद्रनाथ
बनर्जी से मिले।
27
इसके बाद, अभिनव भारत का बंगाल के क्रांतिकारियों से स्थाई संबंध
बन गए। देश भर में ऐसी गुप्त सभाओं की स्थाई बैठकें होने लगी थीं। इसलिए, उग्रवादी
क्रांतिकर्मियों द्वारा बिना किसी योजना या नीति के हिंसा और राजनीतिक हत्याओं को
अंजाम देने से जुड़ी धारणाओं के विपरीत, सिर उठा रही क्रांतिकारी गतिविधियां
योजनाबद्ध, सोची-समझी और गहरी नीतियों से लैस थीं।
अतीत में भी, देश भर में फै ली विभिन्न गुप्त संस्थाओं की गतिविधियों के बीच
सामंजस्यता बनाने के प्रयास किए गए थे। यह प्रयास विशेष रूप से महाराष्ट्र और बंगाल में
हुए थे। 1904 में तिलक के अनन्य सहयोगी, दामू काका भिडे ने अभिनव भारत और
नागपुर तथा पूना की गुप्त संस्थाओं की एक बैठक बुलाई थाी। इस बैठक के लिए अभिनव
भारत की ओर से वामनराव जोशी, शामराव देशपांडे, दुर्रानी, पालेकर एवं विनायक, वीएम
भट्ट और विष्णु सीताराम रणदिवे मौजूद थे। हालाँकि, विनायक के पूर्ण स्वतंत्रता के
अलावा अन्य किसी स्थिति के लिए तैयार न होने के कारण यह बैठक बेनतीजा ही समाप्त
हो गई।
28
अभिनव भारत का कोई भी सदस्य जहाँ भी जाता, वहाँ संस्था की एक शाखा ज़रूर
खोलता। 1906 के अंत तक, के वल नासिक जिले में ही, त्रिम्बक, भागुर, ओजर, कोठूर,
निप्हद, इगतपुरी, धोड़प, वानी और अन्य क्षेत्रों
29
में इसकी शाखाएँ खुल चुकी थीं। जल्दी
ही, जुन्नार, बम्बई, पेन, सतारा, नागपुर, नागर, सोलापुर, धुले, कोल्हापुर, बड़ोदा, इंदौर,
ग्वालियर, औरंगाबाद, हैदराबाद और अन्य क्षेत्रों में भी इसकी शाखाएँ स्थापित हो गईं।
मराठे , बापत, कोल्हटकर, जोग एवं गोखले इसकी पेन शाखा से जुड़े थे ; जबकि तोन्पे,
30
बर्वे, त्रिम्बकसेठ गुजराती, शवमसेठ सोनल और अनन्त कन्हेरे येओला शाखा से संबद्ध थे ;
हैदराबाद इकाई विनायक गोविंद तिखे
31
; बंबई शाखा में वीएम भट्ट और बालासाहेब खेर
थे। खेर बाद में, 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत बंबई के मुख्यमंत्री भी बने
थे। डाॅ. गुने, व्हंदावरकर, मुर्देश्वर, डाॅ. सोनापर, साॅलिसिटर थट्टे, इंजीनियर घाटे,
चिपलूणकर एवं अन्य भी बंबई शाखा के सदस्य थे। वसई इकाई में डाॅ. पारुलकर, वाघ,
डाॅ. अथ्ल्ये अन्य थे, जबकि ग्वालियर शाखा में चालीस से पचास सदस्य थे।
बड़ौदा इकाई में बैरिस्टर देशपांडे, के लकर, सरदार मजुमदार और राजरत्न मणिकराव
सदस्यों के तौर पर शामिल थे। पूना के डेक्कन काॅलेज में विद्यार्थीकाल के दौरान जीवतराम
भगवानदास कृ पलानी, जिनका लोकप्रिय नाम आचार्य कृ पलानी था, भी अभिनव भारत
की ओर आकृ ष्ट हुए थे। आचार्य कृ पलानी 1947 में सत्ता हस्तांतरण के समय भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। अन्य प्रतिष्ठित सदस्यों में अहमदनगर के कुं दनमल फिरोदिया
जो बाद में महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर भी रहे, और भारतीय दर्शन पर अनेक पुस्तकें
लिखने वाले श्रीपद दामोदर सातवलेकर प्रमुख थे।
संगठन की प्रत्येक शाखा एक स्वतंत्र इकाई की तरह काम करती थी और उसके प्रमुख
एक दूसरे से संपर्क में रहते थे। इस तरह उन्होंने एक ही धुन और लक्ष्य के आधार पर गुप्त
संस्थाओं का विशाल नेटवर्क खड़ा कर दिया था। यह ढाँचा रूस और आयरलैंड में
सफलतापूर्वक काम कर चुकी गुप्त समितियों जैसा ही था। विश्व इतिहास और राजनीति
को गहराई से पढ़ने पर ही विनायक को ऐसी समितियों की जानकारी हुई थी और अभिनव
भारत को उन्होंने इसी अनुसार खड़ा किया। जैसा कि भट्ट बताते हैं, इसकी मदद से,
‘अनेक संस्थानों, हजारों सदस्यों और हथियारों के जखीरे’ को बचाने में मदद मिली थी।
32
विनायक की उस समय की लेखनी और भाषणों से भी क्रांति के प्रति उनकी नीतियों और
दार्शनिक दृष्टिकोण का पता चलता है:
अभिनव भारत पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में है, जिसकी प्राप्ति के लिए सशस्त्र क्रांति
अनिवार्य तरीका है। परंतु क्या हमारी स्वतंत्रता की देवी रक्तपिपासु और नास्तिक देवी है
? नहीं, ऐसा नहीं है। उग्र राष्ट्रवाद की अति उतनी ही खतरनाक है जितना कि उसका
बिल्कु ल न होना। हमें अपनी साप्ताहिक बैठकों में हिंसा एवं अहिंसा, सत्य एवं असत्य
और राष्ट्रवाद एवं मानवीयता के युग्मों पर विचार करना होगा। उपयोगितावाद हमारी
जांच का आधार होना चाहिए - अधिकाधिक लोगों को अधिकाधिक लाभ। परंतु सत्य
सापेक्ष होता है तो हम कै से कह सकते हैं कि क्या सही है और क्या गलत ? साफ है कि
किसी चोर का छू ट जाना और साधु का फांसी पर चढ़ना, असत्य, अयोग्यता और अधर्म
कहलाएगा। और जब भी क्रू र शोषणकारी ताकतें सत्य का इस तरह से गला दबाएंगी
तो न्याय की ताकतों को एकजुट होकर उन्हें समाप्त कर देना चाहिए और इसके लिए
गोपनीय एवं योजनाबद्ध रूप से साथ आना हमारी धार्मिक जिम्मेदारी है। आखिर, कं स
को मारने के लिए भगवान कृ ष्ण ने भी नंद के घर में गोपनीयता साधी थी। यदि वह
सीधे ‘सत्य’ के सहारे ही चले गए होते तो कं स के असुर उन्हें मार डालते। इसी तरह,
औरंगजेब की कै द से शिवाजी भी गुप्त रूप से ही निकले थे। गोपनीयता अपने आप में
न अच्छी है, न बुरी, परंतु उपयोग के आधार पर इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक
चरित्र बनता है। यही मसला राष्ट्रीय संघर्ष का है। अधिकारों की बुनियाद पर
अधिकाधिक लोगों का अधिकाधिक भला हो जिसके लिए हिंसा आधारित संघर्ष उचित
विधि है, जबकि दूसरों की जमीन, संपत्ति और अधिकारों तथा उनके घरों को जला
डालने को सहयोग करना शैतानी कार्य है और इसे निरंकु शता से कु चल देना चाहिए।
राष्ट्र सदा अपने लोगों के भले के लिए हो।
33
व्यापक मानवीयता आधारित पक्ष के लिए जोर देते हुए विनायक ने कहा कि उन्हें और
उनके सहयोगियों को अंग्रेजों से नफरत नहीं करनी चाहिए; उन्हें तभी तक शत्रु समझना
चाहिए जब तक कि उन्होंने भारतीयों को अवैध तरीके से अधीन किया है। परंतु एक बार
भारत के आज़ाद हो जाने के बाद उन्हें मित्रों और इंसानों की तरह गले लगाने में कोई हर्ज
नहीं। यही नहीं, यदि कल कोई अन्य देश इंग्लैंड पर इसी तरह गैरकानूनी और शोषणकारी
तरीके से कब्जा कर ले, तो भारतीयों को इंग्लैंड द्वारा स्वयं को आज़ाद कराने के संघर्ष में
सहयोगी के तौर पर सबसे आगे रहना चाहिए। मित्र मेला और अभिनव भारत में विनायक
ने कहा था कि उनकी सच्ची जाति और धर्म के वल मानवीयता है। विनायक लिखते हैं,
‘स्वतंत्रता का हमारा विचार, विराट और सर्वव्यापी है - पृथ्वी ही असली राष्ट्र और ईश्वर ही
सच्चा शासक है। परंतु आज के भारत में सभी नागरिक अधिकार और निजी आज़ादी बंद
पड़ी है। आध्यात्मिक आज़ादी के लिए भी, अपने मार्ग के अभ्यास से जुड़ी राजनीतिक
आज़ादी आवश्यक है।’
34
वह मोक्ष के लिए आध्यात्मिक संघर्ष और आज़ादी के लिए
राजनीतिक संघर्ष के बीच कोई विसंगति नहीं मानते थे। उनके अनुसार, राजनीतिक संघर्ष
आध्यात्मिक यात्रा की पहली सीढ़ी होती है और यह अपने आप में कु छ गलत नहीं।
अभिनव भारत के प्रमुख लक्ष्यों में, राष्ट्र एवं व्यक्ति की भौतिक और आध्यात्मिक
जिम्मेदारियों को एकमेव कर पूर्ण स्वतंत्रता के व्यापक ध्येय का प्रयास करना था – यह
प्रयास अपने सभी आयामों में रामराज्य की परिकल्पना से जुड़ा था। राजनीतिक आज़ादी
के साथ-साथ इसका संबंध न के वल भौतिक विकास, बल्कि बौद्धिक, नैतिक और
आध्यात्मिक विकास से भी जुड़ा था। स्वतंत्रता का विचार दैवीय अर्थात देवी माँ से संबद्ध
था। इसलिए हैरानी नहीं कि अपनी प्रत्येक बैठक के आरंभ और अंत में सदस्य एक दूसरे
को ‘स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय’ से संबोधित करते।
क्रांति के रूमानी आदर्शों से प्रेरित होकर इसका हिस्सा बनने को उत्सुक युवाओं को वह
चेताते कि उन्हें भविष्य में कांटो भरे मार्ग के लिए तैयार रहना चाहिए:
आज सरल देशभक्ति का चलन चल पड़ा है जिसने कई लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर
पहुँचाया है, परंतु हमारे लिए राष्ट्रभक्ति के कदम सीधे फांसी के फं दे तक जाते हैं। यदि
सरकार तक जाने वाले सभी विनम्र निवेदन आज़ादी ले आते, तो हम सबसे अधिक
प्रसन्न होते। परंतु चूंकि यह असंभव है, इसलिए हम इस मार्ग पर चले हैं। ज्ञापनों और
निवेदनों का मार्ग ज़रूरी है और ज्यादा से ज्यादा आरंभिक कदम कहा जा सकता है।
परंतु अंतिम साधन के वल सशस्त्र संघर्ष ही है। परंतु यह रक्तिम मार्ग है और मैं अपने
साथियों को नीदरलैंड्स, आयरलैंड, इटली आदि की ऐसी ही राजनीतिक क्रांतियों की
गाथाएँ इसीलिए सुनाता हूं। आपकी सज़ा तिलक के जैसे कारावास की नहीं होगी।
आपको जमकर पीटा जाएगा, आँखें निकल आएंगी, आपको कई दिनों तक भूखा रखा
जाएगा, आपके माता-पिता, पत्नी और बच्चों को आपके सामने लाकर अपमानित
किया जाएगा। आप खुद पर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार का सामना
करने में सक्षम हों, परंतु परिवार को तकलीफ झेलते देखने के लिए अलग तरह की
हिम्मत की आवश्यकता होती है। आपकी हिम्मत, आपकी आत्मा, आपका दिल और
आपका संकल्प तोड़ने के लिए आक्रांता हरेक युक्ति अपनाएगा। अतीत में हिंदुओं या
प्रोटेस्टेंट्स ने जैसे कष्ट झेले, क्या आप में वैसी तकलीफ झेलने की हिम्मत है ? क्या
आपमें चिता पर सती की तरह जलकर भी जीवित रहने और फिर अपने देश के धर्म
योद्धा बनने का सामर्थ्य है ? यदि हां, तो यह मार्ग आपके लिए खुला है।
35
बीस वर्ष की आयु से कु छ ही ऊपर के विनायक द्वारा लिखित तत्कालीन गद्य और पद्य
पढ़कर, उनके विचारों की स्पष्टता, लक्ष्य और दूरदर्शिता चकित करती है।
इसी दौरान, 25-26 अगस्त 1906 को अभिनव भारत की नासिक इकाई ने तिलक को
बैठक में आमंत्रित किया। राष्ट्रीय स्तर के नेता उनकी गतिविधियों पर सलाह लेने और उनसे
मिलने आ रहे हैं, यह जानकर चारों ओर खासा उत्साह था। इस अवसर पर आबा दारेकर
(अन्य नाम कवि गोविंद) ने गणमान्य अतिथि के सम्मान में ‘लोकामान्यान्ची भूपाली’
नामक काव्य संबोधन प्रस्तुत किया। नासिक इकाई के अध्यक्ष, हरि अनंत थट्टे ने गुप्त
समिति और हथियार संग्रहण के संबंध में सविस्तार बताया। शाम के समय, बाबाराव ने
अभिनव भारत के प्रमुख सदस्यों और तिलक के बीच एक गुप्त बैठक का आयोजन किया।
सभी निमंत्रित सदस्यों की गहन छानबीन के बावजूद, उपस्थित व्यक्तियों में एक भेदिया भी
मौजूद था। खुद को समर्पित सदस्य दर्शाने वाला नरेंद्र सिंह परदेसी, असल में पुलिस के
लिए काम कर रहा था। बाबाराव ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि के वल ज्ञापन देने
भर से भारत को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। उन्होंने विचार रखा कि क्रांतिकारी धारा को
इस लक्ष्य के लिए रूसी विधि अपनानी होगी। तिलक ने धैर्यपूर्वक युवाओं को सुना और
फिर उन्होंने सलाह दी:
अभिनव भारत के बुनियादी दृष्टिकोण में कु छ भी गलत नहीं है। परंतु जब तक
स्वतंत्रता प्राप्ति के निर्णायक मार्ग मौजूद हैं, तब तक के वल भावनाओं के आधार पर
उठाया गया जल्दबाजी का कोई भी कदम हमारे लक्ष्य के विरुद्ध होगा। आम साधनों से
कु छ प्राप्त नहीं होगा। हम इस प्रक्रिया को देख चुके हैं। अपने अनुभव के आधार पर मैं
आपको थोड़े धैर्यवान होने की सलाह देता हूँ और इस दौरान आप सतर्क भी रहें, जब
तक कि पूरी तरह तैयार न हो जाएं। जब सब तैयारियां पूर्ण हो जाएंगी, तब मैं आपकी
अगुवाई करूँ गा।
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बुजुर्ग राजनेता, जिन्होंने क्रांति अभियान, उसकी आत्मा और उसकी असफलताएं निकट
से देखी थीं, और जो इस बार सफल होना चाहते थे, की यह उचित सलाह थी।
1905 में गणपति महोत्सव के दौरान एसएम परांजपे को नासिक शाखा द्वारा आमंत्रित
किया गया था। इस अवसर पर उन्होंने छह विद्वतापूर्ण भाषण दिए और विनायक ने उन्हें
सम्मानित किया। तब तक अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन के घातक अभियान की खबरें
आनी शुरू हो गई थीं। विनायक कोठूर होते हुए पूना पहुँचे जहाँ उन्होंने इसकी कड़ी
आलोचना की और विरोध स्वरूप उन्होंने विदेशी वस्तुओं की होली जलाने का उग्र समर्थन
किया।
~
1905 और 1910 के समय को औपनिवेशिक शक्ति के परस्पर विरोधी स्वरूपों - सुधार
और शोषण - के बीच उपनिवेश विरोधी राजनीतिक अभियान के उभार का महत्वपूर्ण
समय माना जाता है। इस समय भारत के राजनीतिक परिदृश्य की धुरी में परिवर्तन देखा
गया। 1903 में जारी लिखित मसौदे के आधार पर शुरू हुई प्रक्रिया जिसे बोझिल और
संचालन के अयोग्य कहा गया था, का बहाना बनाकर अंग्रेज सरकार और विशेषकर
वायसरॉय लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल का साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारा कर दिया गया। यह
घटना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आंतरिक फू ट में ठोकी गई अंतिम कील भी साबित हुई।
1890 के दशक के अंत से ही कांग्रेस निष्क्रिय पड़ी थी। 1900 में महासचिव के पद से
इस्तीफा देते समय दिनशाॉ वाचा ने दादाभाई नौरोजी से कड़वे शब्दों में कहा था: ‘आपके
बड़े नेता आजकल कांग्रेस की बैठकों में आना ज़रूरी नहीं समझते, इसलिए हमारा यह
छोटा सा गुट है - जिसमें से अधिकांश बिना निर्णय और समझदारी के अपने हुक्म चलाते
हैं।’
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कर्जन भी कांग्रेस को असफल संगठन के रूप में देख रहे थे जो ‘गिरने से पहले
लड़खड़ा’ रही थी।
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परंतु गोखले जैसे बंबई के नेताओं ने बंगाल, मद्रास, मध्यवर्ती प्रांतों
और बेरार के तूफानी दौरों के दम पर संगठन के कर्मियों के बीच उत्साह फै लाने का प्रयास
किया।
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उस दौरान ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन और लेबर पार्टी के सरकार बनाने पर उन्हें
अपनी कु छ शर्तें मनवाने की उम्मीद दिखी। परंतु बंगाल से जुड़े प्रत्येक मामले में
आधिकारिक दखलंदाजी और पक्षपात के जरिए भारत सरकार ने बंबई और मद्रास
प्रेजिडेंसियों के नेताओं और बंगाल के बीच दुर्भावना पैदा करने का प्रयास किया।
इसका अंतिम नतीजा, 16 अक्तू बर 1905 को कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन के रूप में
सामने आया। पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को चतुराई से अलग किया गया, जिससे
कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे उच्चवर्गीय हिन्दू अल्पसंख्यकों ब्राह्मणों, बैद्यों और
कायस्थों का असर कम हो सके । इस घटना से पूरे बंगाल में रोष फै ल गया। कांग्रेस नेतृत्व
असमंजस की स्थिति में था। एक ओर वह सरकार के साथ सुधारों पर काम कर रहे थे,
जिसके लिए गोखले लंदन जाकर ब्रिटिश जनता के सामने अपना पक्ष रखने वाले थे। वहीं
दूसरी ओर, उनके ही साथी बंटवारे के विरोध में व्यापक बहिष्कार और हिंसक विद्रोह करने
पर आमादा थे। बिपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष जैसे नए नेता, जिनका बंगाल की
राजनीति में अब तक आंशिक या मामूली असर था, मौके का लाभ उठाकर सुरेंद्रनाथ
बनर्जी और भूपेंद्रनाथ बोस जैसे कांग्रेस के पुरोधाओं को दरकिनार कर विरोध की आवाज
बन बैठे थे।
बंगाल के कई कांग्रेसी नेता इस मुद्दे पर संगठन की स्पष्टता की तलाश में बेतरतीब हाथ-
पैर मार रहे थे। इसके लिए उन्होंने गोखले को लिखा, ‘कांग्रेस को स्पष्ट रूप में विचार व्यक्त
करना चाहिए कि क्या बहिष्कार संवैधानिक विरोध का और सांत्वना बटोरने का उचित
माध्यम है या नहीं’।
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उधर पंजाब में भी कांग्रेस के लिए हालात बहुत अच्छे नहीं थे
क्योंकि गोखले द्वारा सुझाए गए सुधारों के आधार पर सिखों और मुस्लिमों को व्यापक
अधिकार मिलने जा रहे थे जिससे हिंदू राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाते। यह
देखते हुए लाला लाजपत राय और अन्य नेताओं द्वारा बंबई गुट की सलाह के बरक्स
अधिक कड़े कदम उठाने की पैरवी की गई। लाजपत राय के अनुसार, ‘जो बंगाल ने किया,
अन्य प्रांतों को भी अपनी शिकायतों को प्रकट करने में ऐसा ही करना चाहिए’।
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स्थानीय
समस्याओं और कार्यविधियों के अंतर के बावजूद, उस समय एक अखिल भारतीय
राजनीतिक पहचान मूर्त रूप ले रही थी, जो देश के किसी भी हिस्से की समस्याओं के साथ
खुद को साझा करती और वैश्विक अनुभवों एवं विचारों से भी प्रेरणा लेती थी।
इस सब के बीच, तिलक ने खुद को एक विरल विकल्प के रूप में स्थापित किया जो
सभी समस्याग्रस्त धड़ों के हित में जोर देकर बोलते और वहीं उन्होंने महाराष्ट्र में अपनी
पारंपरिक पकड़ भी मजबूत की। विनायक और उनकी अभिनव भारत संस्था के युवा
क्रांतिकारियों और गुप्त संस्थाओं के सहयोग के दम पर, तिलक पहले ही भारत भर में
समानधर्मा संस्थाओं के साथ संपर्क साध चुके थे जिस कारण उन्हें अखिल भारतीय
सहयोग आसानी से प्राप्त था। भारत के विभिन्न हिस्सों में जनता की लामबंदी और
क्रांतिकारी गतिविधियां, इस समय की प्रमुख घटनाएँ थीं। उस दौरान ऐसी घटनाएँ विदेश में
भी देखने को मिलीं। परंतु भारत और विदेश में क्रांतिकारी कार्यों के इस महत्वपूर्ण
कालखंड में विनायक दामोदर सावरकर के योगदान पर यदा-कदा ही चर्चा हुई है या शोध
किया गया है।
1904-05 के कालखंड में रूस-जापान युद्ध छिड़ा और एक एशियाई देश द्वारा यूरोपीय
शक्ति को हराने का भारतीयों पर भी अनोखा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा था। भारत के
खुफिया विभाग के निदेशक ने चेताया था: ‘इससे (जापानी जीत) न के वल समूचा पूर्वी
गोलार्ध नई उम्मीद से भर उठा है... परंतु इससे भारत के लोगों को भी प्रेरणा मिली है कि
अब कु छ ही समय की बात है जब वह अपने देश में आज़ाद महसूस कर सकें गे।’
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भारत और कांग्रेस के आंतरिक हालात पर नजर रख रहे विनायक ने निर्णय किया कि
यह समय तिलक को समर्थन देकर उनके हाथ मजबूत करने का है। घटनाक्रम में और तेजी
लाने के लिए उन्होंने जोरदार भाषण दिए। 1 अक्तू बर 1905 को पूना स्थित सार्वजनिक
सभा के भवन में विनायक ने विचार रखा कि विदेशी कपड़ों की होली जलाई जानी चाहिए।
बैठक में एनसी के लकर और एसएम परांजपे मौजूद थे। बैठक की अध्यक्षता कर रहे एनसी
के लकर ने विनायक को मशविरा दिया कि कपड़ों को आग लगाने के स्थान पर बेहतर होगा
कि उन्हें गरीबों और जरूरतमंदों में वितरित किया जाए। विनायक ने विनम्रता से उत्तर
दिया कि वह के वल कपड़ों की होली नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों में आग
लगा रहे हैं, और होली की लपटें आज़ादी की राह का पहला कदम बनेंगी। उन्होंने कहा,
‘हम विदेशी (कपड़ों) को ही नहीं फूं क रहे, बल्कि विदेशी को ही आग लगा रहे हैं - यहाँ हम
विदेशियों से दुराग्रही जुड़ाव और उससे देश को होने वाले धोखे को आग लगा रहे हैं’।
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रोचक बात यह है कि के सरी
के तत्कालीन संपादक के लकर और काल
के संपादक
परांजपे के बीच गहरी प्रतिद्वंद्विता चलती थी। अगले दिन के सरी
ने खबर दी कि कपड़ों को
एकत्र कर गरीबों में वितरित किया जाएगा। यह देख विनायक को अफसोस हुआ कि
भ्रामक सूचना तो पूरे विचार को ही निरस्त कर देगी। वह शहर के विभिन्न छापाखानों में
गए, परंतु रविवार होने के कारण सभी बंद थे। इसके बाद वह परांजपे के घर दौड़े। काल
की मनोहर प्रेस उनके घर पर ही स्थित थी। दोनों साथ बैठे और अगले दिन के संस्करण का
मसौदा तैयार किया जिसमें कपड़ों को एकत्र करने का असल मकसद बताया गया था।
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तिलक के बंबई से पूना लौटने पर, विनायक उनसे मिले और उन्होंने उन्हें सलाह दी कि
पूना में विदेशी वस्तुओं और कपड़ों की होली जलानी चाहिए। तिलक ने विचार का स्वागत
किया और कहा कि इस अभियान के हिला देने वाले असर के लिए ज़रूरी है कि पहले
गाड़ी भर कपड़े इकट्ठे किए जाएं। विनायक ने तुरंत अभिनव भारत के सदस्यों को साथ
लेकर बड़ी संख्या में विदेशी कपड़े एकत्र किए। महाराष्ट्र विद्यालय के संचालक भोपटकर
बंधुओं ने उन्हें इस कार्य के लिए कई स्वयंसेवी विद्यार्थियों का सहयोग दिलाया।
विनायक के भाषणों से प्रेरित होकर, पूना के कई गुट एकजुट हुए। 2 अक्तू बर 1905 को
पूना के ओंकारेश्वर मंदिर में ब्राह्मण पुजारियों ने एक सभा में स्वदेशी के विचार को समर्थन
देते हुए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। 6 अक्तू बर 1905 को सरदार नाटू के महादेव
मंदिर में महिलाओं ने एक सभा की जिसमें विदेश निर्मित चूड़ियों, घासलेट, कांच का
सामान और अन्य घरेलू सामान के बहिष्कार का फै सला किया गया।
दशहरा पर्व तक, ढेर सारे कपड़े इकट्ठे हो गए और उन्हें गाड़ी में रखा गया। एक जुलूस
पांजरपोल के निकट महाराष्ट्र विद्यालय के पास से शुरू हुआ।
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जुलूस में परांजपे और
भास्कर भोपटकर थे और आधे रास्ते में चित्रशाला के निकट तिलक भी उनके साथ हो
लिए। जुलूस फर्ग्युसन काॅलेज के निकट समाप्त हुआ। वहाँ तिलक, परांजपे, विनायक और
कई अन्य नेताओं ने भाषण दिए। वीएम भट्ट, हरि अनंत थाटे, शंकर बी. मोघे, हरिभाऊ
रिस्बद और प्रसिद्ध कवि वीजी मायदेव
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और अन्य इस मौके पर मौजूद थे।
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इस अवसर
पर एक विद्यार्थी विष्णु गणेश पिंगले भी उपस्थित थे जिन्हें बाद में गदर पार्टी से प्रसिद्धि
मिली थी। रात नौ बजे लकड़ी पुल के निकट विशाल होलिका दहन के साथ मीटिंग समाप्त
हुई। जब लोगों ने परांजपे से बोलने को कहा तो उन्होंने एक अधजले कोट को उठाया,
उसकी खाली जेबों की तलाशी लेने का स्वांग भरा और उसे वापस आग में फें क दिया।
इसका अर्थ था कि अंग्रेज देश को लूटने वाले जेबकतरे हैं और अलाव उनके असर को
समाप्त करने का एक प्रयास।
तिलक की सलाह पर विनायक और उनके साथी तब तक अलाव को देखते रहे, जब तक
कपड़े जलकर राख नहीं हो गए। उसी दिन नासिक में बाबाराव ने भी कपड़ों की होली
जलाई। नासिक रेसकोर्स ‘गोराना हया देशातून हकाले जयील’ (अंग्रेजों को भारत से तुरंत
निकालो) के नारों से गूंज उठा।
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इस तरह, अचानक सुदूर बंगाल से जुड़े एक मामले ने
राष्ट्रवादियों को जोड़ दिया और कांग्रेस में ‘उग्रपंथी’ तत्वों के हाथ मजबूत हो गए। जबकि
उदारवादी धड़ा अभी तक प्रार्थनाओं, ज्ञापनों और शांतिप्रिय बातचीत के जरिए ही बंटवारे
को समाप्त करने की कोशिशों में लगा था। 10 अक्तू बर 1905 को कपड़ों की होली के बारे
में बॉम्बे समाचार
ने छापा:
फर्ग्युसन काॅलेज के एक विद्यार्थी श्री सावरकर ने अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई और पूना में पहले आयोजित एक बैठक में प्रस्ताव लेकर आए थे जिसमें उन्होंने
आमजन से सभी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की थी। इस अपील
का तुरंत असर हुआ और चारों ओर से टोपियां, छतरियां आदि एक साथ जमा होने
लगी थीं।
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अस्थाई तौर पर ही सही, बंग भंग के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश विरोधी उभार के कारण
स्वदेशी के पक्ष में ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा। वहीं शांतिपूर्ण विरोध की बातें
भी उठने लगी थीं। तिलक ने उदारवादियों के संवैधानिक सुधारों और वैधानिक सहभागिता
दृष्टिकोण के बरक्स अपना प्रस्ताव कु छ यूँ रखा:
यह बहिष्कार है और बहिष्कार को राजनीतिक औजार के तौर पर इस्तेमाल करने का
यही अर्थ है। हम उन्हें राजस्व एकत्र करने या शांति स्थापित करने में सहयोग नहीं देंगे।
हम उन्हें सीमाओं से बाहर या भारत से परे भारत के पैसे और रक्त के दम पर लड़ने
नहीं देंगे। हम उन्हें प्रशासन और न्याय चलाने नहीं देंगे। हमारी अपनी अदालते होंगी
और जब समय आएगा तो हम कर भी नहीं भरेंगे। क्या अपने प्रयासों से आप यह कर
सकते हैं ? यदि कर सकते हैं तो आप कल से आज़ाद हैं।
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इस अवसर पर उग्रपंथियों द्वारा हासिल जीत को लेकर तिलक के मराठा
और के सरी
समाचार पत्र हर्षोन्मत्त थे। उन्होंने उदारपंथी धड़े के गोखले और फिरोजशाह मेहता के बीच
मनमुटाव होने की खबरें भी प्रसारित की क्योंकि मेहता खुद को अलग-थलग पड़ा मान रहे
थे। ऐसी उफनती परिस्थितियों के बीच, गोखले की अध्यक्षता में, 1905 में बनारस में
कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। गोखले ने बहुत कु शलता से, संतुलन दिखाते हुए बंग भंग की
निंदा की। उन्होंने कहा कि यह बंटवारा, ‘हमारे बंगाली बंधुओं के साथ अन्याय, भारत में
नौकरशाही शासन का सबसे बुरा कृ त्य, जन भावनाओं की पूर्ण उपेक्षा, अपनी समझ को
उच्च मानने का मिथ्याभिमान, भारत के लोगों की सबसे प्रिय भावनाओं के प्रति
लापरवाहीपूर्ण उदासीनता और अपने आकाओं के हितों के प्रति सेवाभावों को प्राथमिकता
देना है’। पूरी तकरीर में सरकार या कर्जन की आलोचना नहीं की गई और फै सले को
के वल नौकरशाही निर्णय की भूल करार दिया गया। लेकिन उग्रवादी धड़े को हैरानी हुई जब
गोखले ने बहिष्कार अभियान का पक्ष लिया। उन्होंने कहाः ‘बेशक एक सिरे पर बहिष्कार
से जुड़े प्रदर्शन हैं, जो पूरी तरह वाजिब हैं, परंतु ऐसे अवसर बंगाल की तरह सभी धाराओं
को, एक ही प्रयोजन से साथ आने का काम करें, और सभी नेता अपने मतभेदों को भुला
दें...’ इसके तुरंत बाद उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में कहाः ‘हमें यह याद रखना होगा कि
शब्द बहिष्कार अपने उत्स के कारण नितांत अरुचिकर भावनाओं से जुड़ा है, और यह
सबसे पहले विचार पटल पर दूसरे को हानि पहुँचाने की भावना उभारता है। इंग्लैंड के साथ
संबंधों के प्रति हमारी ऐसी निरंतर मंशा विचारणीय ही नहीं होनी चाहिए।’
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उन्होंने बहुत
चतुराई से अपनी बात रखी और उसे कांग्रेस की मुख्यधारा बताया, तथा लाल-बाल-पाल
त्रयी (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल) को बाहरी या उग्रपंथी
कहा। इसके बाद, दोनों धड़ों के बीच संबंध विच्छेद लगभग पूरा हो गया था।
एक ओर जहाँ कांग्रेस की अंतर्क लह जारी थी, वही विनायक को विदेशी कपड़ों की होली
जलाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। फर्ग्युसन काॅलेज के प्रधानाचार्य, सर रघुनाथ
पुरुषोत्तम परांजपे आंग्ल प्रेमी थे और कै म्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित में पहले भारतीय
सीनियर रेंगलर भी। ऐसे अभियान में काॅलेज के एक विद्यार्थी द्वारा शामिल होने पर वह
हैरान थे। विनायक को 10 रुपये का जुर्माना और काॅलेज निवास से निष्कासन की सज़ा
मिली। इस तरह, विनायक न के वल विदेशी वस्तुओं की होली जलाने के अभियान की
अगुवाई करने वाले पहले भारतीय नेता बने, बल्कि राजनीतिक कार्यों के लिए सरकारी
शिक्षा संस्थान से निकाले जाने वाले पहले विद्यार्थी भी रहे। रहने का स्थान न होने के
कारण विनायक अपने मित्र गणपतराव जोगलेकर के घर पहुँचे, जो उनका जुर्माना भरने
को भी तैयार थे। परंतु तब तक विद्यार्थियों ने जुर्माने के लिए काफी पैसा बटोर लिया था।
विनायक ने जुर्माना अपनी जेब से भरा और शेष राष्ट्रीय कार्य को दे दिया। इसका बदला
लेते हुए, फर्ग्युसन काॅलेज ने विनायक की मदद करने के लिए जोगलेकर को भी निकाल
दिया। विनायक अपने मित्र हरिभाऊ रिस्बद के घर रहने लगे।
फर्ग्युसन काॅलेज की कार्रवाई की घोर निंदा हुई और विनायक को सब ओर से सहयोग
मिल रहा था। तिलक ने कु पित होकर ‘यह हमारे गुरु नहीं हैं’ शीर्षक से संपादकीय लिखे
जिसमें उन्होंने सर रघुनाथ परांजपे और फर्ग्युसन काॅलेज के प्रबंधन पर हमला बोला।
एसएम परांजपे की अध्यक्षता में सार्वजनिक सभा की बैठक हुई। पूना के प्रतिष्ठित
नागरिक भालाकार भोपटकर, हरेन्द्रनाथ मित्रा और घमेन्दबुवा ने विनायक के सहयोग में
आवाज उठाई और जुर्माना चुकाने के लिए पैसा इकट्ठा करने पर छात्रों की तारीफ की।
काल
के कटाक्षपूर्ण संपादकीय में एसएम परांजपे ने देश के एक नागरिक द्वारा दूसरे को
उसके देशप्रेम के लिए सज़ा दिए जाने को राष्ट्रीय अपमान कह कर निंदित किया। उन्होंने
अफसोस जताया कि शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा होना और भी घिनौनी बात है। परांजपे ने इसे
अफसोसजनक रोग की संज्ञा देते हुए कहा कि भारतीयों को एक दूसरे के खिलाफ करने
की यह जोड़-तोड़ अंग्रेजों की ताकत, सफलता और चतुराई को दर्शाती है।
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उसके करीब अड़तीस वर्ष बाद, अपने विद्यार्थी की स्वर्ण जयंती की अध्यक्षता करते
समय भी प्रधानाचार्य रेंगलर परांजपे कु छ शिकायत से भरे थे। उन्होंने कहा थाः ‘मैं जानता
हूँ कि युवावस्था में सावरकर गहरी बौद्धिकता, उत्सुक वाक्पटुता और अद्भुत लेखन क्षमता
तथा जादुई व्यक्तित्व से भरे थे। मुझे याद है उनका राष्ट्रप्रेम गहरा था, परंतु कु दरती तौर पर
जैसा कि युवाओं के साथ होता है, यह तर्क आधारित न होकर, भावनाओं पर आधारित
था।’
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इन उथल-पुथल भरे दिनों के बीच, बी.ए. की परीक्षाएं भी आ पहुँची थीं। अपनी आदत
के अनुसार, विनायक ने कु छ महीनों के लिए खुद को अलग कर गहन अध्ययन शुरू कर
दिया। 21 दिसंबर 1905 को नतीजे घोषित हुए और एक बार फिर उन्हें सफलता मिली।
उनके सहयोगियों और नासिक में उनके परिवार के बीच खुशी की लहर दौड़ गई। एक वर्ष
पूर्व, वह एलएलबी की पहली परीक्षा भी पास कर चुके थे। 1906 की शुरुआत में विनायक
एलएलबी की अंतिम परीक्षा देने बंबई पहुँचे। भट्ट भी उनके पीछे वहाँ पहुँचे और उन्होंने
विल्सन काॅलेज में दाखिला लिया। दोनों गिरगाम ट्रेन टर्मिनस के निकट सुख निवास लॉज
में साथ ही रहते थे।
उम्मीदों के मुताबिक ही, बंबई में भी विनायक बिना रुके अभिनव भारत का काम करते
रहे। संस्था के एक सदस्य, भास्कर विष्णु फड़के ने रामचंद्र नारायण मंडलीक और
बालकृ ष्ण नारायण फाटक के साथ मिलकर नए मराठी साप्ताहिक, विहारी
का प्रकाशन
शुरू किया। विनायक ने विहारी
में नियमित, तेजर्रार योगदान देना जारी रखा जो अभिनव
भारत का सच्चा प्रवक्ता साबित हो रहा था। विनायक साप्ताहिक के वास्तविक सह-
संपादक भी थे। मार्च 1906 में बंगाल में शुरू हुए युगांतर
की तरह इसका वितरण बहुत
जल्दी बढ़ना शुरू हुआ। बंबई में नए सदस्य बने और उन्हें शपथ दिलाई गई। सुख निवास
लॉज या शास्त्री हाॅल या चिखलावाडी चाल में नियमित बैठकें होने लगीं।
शहर के प्रतिष्ठित एलफिंस्टन काॅलेज, विल्सन काॅलेज, विक्टोरिया टेक्निकल इंस्टीट्यूट,
गुज्जर्स लैबोरेटरी, आर्ट स्कू ल, लॉ स्कू ल और अन्य मेडिकल काॅलेजों जैसे उच्च शिक्षा
संस्थानों से सदस्य बनाने के लिए गहन प्रचार शुरू हो गया। विनायक का मानना था कि
सरकारी सेवाओं से सदस्य बनाने के आधार पर उन्हें सरकार की आंतरिक गतिविधियों पर
नजर रखने में मदद मिलेगी। इस विचार के साथ ही उन्होंने रेलवे, डाक एवं तार विभागों,
कस्टम, बंबई उच्च न्यायालय, सचिवालय, मौसम विभाग आदि में पैठ बनानी शुरू की।
अभिनव भारत सचमुच एक शक्ति संपन्न ताकत के तौर पर रूपांतरित हो चुका था। संस्था
की नीति पर विनायक के विचारों को भट्ट ने संक्षेप में कु छ इस तरह उद्धृत किया:
यदि भारत भर में हथियार एकत्र करने की हमारी योजना निष्फल न रहती तो हम एक
ही साथ अंग्रेज अधिकारियों की हत्या और बम धमाके कर क्रांति के आगाज का डंका
बजा देते। अंग्रेज सरकार, विशेष कर उसके अधिकारियों को तंग करने के लिए हमने
समुचित हथियार इकट्ठा कर लिए थे। वसई का बम निर्माण कारखाना एक गोपनीय
स्कू ल था जहाँ भरोसेमंद क्रांतिकारियों को बम बनाना सिखाया जाता था।
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अतीत के क्रांतिकारियों, वासुदेव बलवंत फड़के या चापेकर बंधु, जो देशप्रेम या हिम्मत में
कम न होकर सोची-समझी योजनाओं में कमजोर थे, के मुकाबले विनायक का अभिनव
भारत, बिना सोचे-समझे अधिकारियों की हत्या या बम धमाके करने वाले दिशाहीन
युवाओं से कहीं बेहतर था। 1857 से प्रेरणा लेकर, अखिल भारतीय स्तर पर क्रांति की
शुरुआत करने से जुड़ी उनकी योजना स्पष्ट थी जिसकी लपटों में वह साम्राज्य को जला
डालना चाहते थे। विनायक के शब्दों में:
इटली में मेजिनी की नीतियां, या आयरलैंड के क्रांतिकारियों या 1857 में हमारे अपने
क्रांतिकारियों ने जो किया, उसे सफलता की बहुत बड़ी संभाव्यता के साथ फिर से लागू
किया जा सकता है। सेना और पुलिस में घुसपैठ, वृहद गुप्त सशस्त्र दल का गठन,
रूस, इटली, आयरलैंड एवं अन्य देशों के क्रांतिकारियों से संपर्क साधना, अंग्रेजी
प्रशासन के प्रमुख सूत्रधारों पर जोरदार हमले, जरूरत पड़ने पर तुरंत प्राप्ति के लिए
प्रांतों और सीमावर्ती क्षेत्रों में हथियार रखना, जब तक बड़े हमले की तैयारी न हो,
प्रशासन को व्यस्त रखने के लिए छोटे हमले जारी रखना, और सबसे ज़रूरी, अपनी
जान देने को तैयार रहना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना - भारत में सफल
क्रांति के लिए यह जरूरतें अवश्यंभावी रहेंगी। अंततः ब्रिटेन किसी अंतरराष्ट्रीय युद्ध में
जा फं सेगा और उसकी शक्तियाँ शिथिल पड़ जाएंगी और उस समय उस पर हमला कर
निस्संदेह उन्हें उखाड़ फें का जाएगा। मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि यहां-वहाँ कु छ
ब्रिटिश अधिकारियों को मार डालने से वह डरेंगे और भागेंगे नहीं। हमें यह भी पता है
कि 30 करोड़ भारतीय हम से नहीं जुड़ेंगे। परंतु यदि 2 लाख बहादुर लोग भी आ जाएं
तो भी बहुत होगा। जो लोग क्रांति को बचकाना और सोचहीन मानते हैं और के वल
चाटुकारितापूर्ण आवेदनों तक सीमित रहते हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि उनका रास्ता
गलत है और इससे हमारा लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं होगा। अभिनव भारत के मौजूदा चरण
में यह सोचना दुराग्रहपूर्ण और हास्यास्पद होगा कि हम ब्रिटिश साम्राज्य को हिला
सकते हैं। हम के वल दियासलाई हैं, परंतु याद रहे कि यदि हमने आग पकड़ ली तो हम
पूरी इमारत को जला सकते हैं। समूचे राष्ट्रों और साम्राज्यों को राख कर देने वाली ऐसी
दियासलाइयों से इतिहास भरा पड़ा है। 30 करोड़ भारतीयों के दिलों में साम्राज्य के
लिए विद्वेष पैदा करना हमारे लिए चारे के समान है और फिर इतना मात्र ही तोप के
गरज उठने के लिए काफी होगा। अस्तित्व के पहले दो वर्ष हमारे लिए, बेतरतीब हिंसक
वारदातों को अंजाम देने की बजाय, योजना को समझने, अनुमान लगाने और नीति-
निर्माण करने, साथियों को इस दिशा में मोड़ने और सशक्त करने, मार्ग तलाशने तथा
कार्यों की सही दिशा देने में जाएंगे। कथित उदारवादी और उग्र राष्ट्रवादियों से भी हमें
उनके श्रेष्ठ विचार और अभ्यास सीखने होंगे क्योंकि वह भी राष्ट्रप्रेमी हैं, और देश और
उसकी आज़ादी के बारे में सही भावनाएं रखते हैं।
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उन्हीं दिनों पूना के विद्यार्थियों ने बंबई में विनायक को एक व्यक्ति से मिलाने के लिए
आमंत्रित किया। अगम्य गुरु थे जो जोरदार भाषणों के लिए जाने जाते थे और देश की
आज़ादी के लिए छात्रों से चंदा बटोरने की भी अपील करते थे।
56
उनके बारे में जानने के
कौतुहल के कारण, विनायक ने 23 फरवरी 1906 को उनसे मुलाकात की। बातचीत के
आरंभ में ही विनायक को अहसास हुआ कि यह व्यक्ति छद्म है क्योंकि वह अपनी
अलौकिक शक्तियों और भारत की स्वतंत्रता के लिए ईश्वर के सहयोग की बात करता था।
उनकी बात काटते हुए विनायक ने उनसे उनके राजनीतिक विचार स्पष्ट करने को कहा।
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बौखलाए गुरु ने कहा कि पहले वह विनायक से कु छ वित्तीय सहयोग चाहते हैं, उसके बाद
अपनी राजनीतिक योजना बताएंगे। दोनों का साक्षात्कार पच्चीस मिनटों में ही सिमट गया।
विनायक ने छात्रों से ऐसे ढोंगियों से बचने को कहा। उनका आकलन सही निकला, क्योंकि
दो वर्ष बाद 1908 में लंदन में गुरु एक अग्रेज युवती के साथ दुष्कर्म के प्रयास में पकड़ा
गया और वहाँ की एक जेल में चार माह कै द के बाद उसकी रिहाई हुई।
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इस महत्वहीन घटना से जुड़ा रोचक तथ्य यह है कि इसे 1918 में ‘द सेडिशन कमिटी
रिपोर्ट’ नामक गोपनीय दस्तावेज में स्थान मिला था। समिति की अध्यक्षता जज रॉलेट ने
की थी और उसमें प्रतिष्ठित जजों, अधिकारियों और गुप्तचर एजेंटों का सहयोग था। पूना में
विनायक सावरकर की गतिविधियों पर नजर रखे जाने से पता चलता है कि वह तब तक
अंग्रेज सरकार के गुप्तचर विभाग की नजर में आ चुके थे। परंतु समिति तथ्यात्मक तौर पर
कितनी गलत थी, यह रिपोर्ट के उद्धरण से साफ है:
भारत छोड़ने से पहले विनायक सावरकर 1905 के आरंभ में शुरू एक अभियान के
संपर्क में आए जिसे खुद को महात्मा कहने वाले श्री अगम्य गुरु परमहंस ने शुरू किया
था, जो देश भर में घूमकर सरकार के खिलाफ बेखौफ बोलते और श्रोताओं को सरकार
से न डरने की सलाह देते थे। अभियान के अंतर्गत, पूना में 1906 में कई विद्यार्थियों ने
एक सभा का गठन किया जिसने विनायक सावरकर को अपना नेता चुना और उन्हें
पूना में महात्मा से मिलने के लिए बुलाया। सावरकर 23 फरवरी की सभा में पहुँचे और
सलाह दी कि अभियान के लक्ष्य पूरे करने के लिए एक नौ सदस्यीय समिति बनाई
जाए। इसी अनुसार एक समिति गठित की गई, जिसके अधिकांश सदस्य कभी न कभी
पूना के फर्यग्युसन काॅलेज से जुड़े थे, जहाँ से विनायक ने शिक्षा प्राप्त की थी। महात्मा
ने बैठक में प्रस्ताव रखा कि सभा के लक्ष्य पूर्ण करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति से एक
आना चंदा बटोरा जाए और उचित राशि एकत्र होने के बाद वह उसके इस्तेमाल का
तरीका बताएंगे।
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गुप्तचरों के पीछे लगे होने का विनायक को पता था। 23 फरवरी 1906 को पूना के जोशी
भवन में वह शिवाजी के गुरु संत रामदास की सलाह को मानने से जुड़ा एक जोरदार
भाषण दे रहे थे कि उन्होंने श्रोताओं के बीच कु छ संदिग्ध व्यक्तियों को देखा। वह विदेशियों
से आज़ादी के लिए श्रोताओं से अपने हृदयों को भरा रखने के लिए कह रहे थे कि अपने
शब्दों पर रोेक लगाई ताकि जासूस उसे दर्ज न कर लें। उन्होंने कहा:
गुप्तचर यहाँ मौजूद हैं। मुझे खुशी है कि वह यहाँ सुनने और हमारे कार्य में मदद करने
आए हैं। लिहाजा, कहना न होगा कि परोक्ष रूप से यह लोग और यहाँ तक कि पुलिस
भी हमारी ओर है। हम रामदास के आदेश को याद रखें और अपने कार्य में उनका
अनुसरण करें। हमारा सबकु छ खो चुका है। अपने धर्म में भी हमारा विश्वास नहीं रहा।
भारत में उसकी पुनः स्थापना का प्रयास कीजिए। जो खो गया है उस पर आंसू न
बहाएं। खोए को पाने के लिए रक्त की बूंदें बहाएं।
60
1906 में सावरकर बंधुओं पर गुप्त फाइल बनी और 1908 में इसका नंबर 60 रखा गया।
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एलेक्जेंडर माॅन्टगाॅमरी, आईसीएस, जो उस समय नासिक के प्रथम श्रेणी न्यायाधीश थे, ने
एक अन्य गुप्त रिपोर्ट में लिखा है, ‘सावरकर पहले ही उच्चकोटि के प्रखर वक्ता के रूप में
पहचान बना चुका है।’
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रोचक तथ्य है कि जोशी भवन की सभा की ही शाम को
माॅन्टगाॅमरी ने सभा की रिपोर्ट दर्ज की थी।
वह तेज बोलता है, वह बेहद उग्र है, शैली में बहुत आकर्षक और कई बार श्रोताओं की
वाहवाही में उत्तेजित होकर भूल जाता है कि वहाँ गुप्तचर मौजूद हैं ...मेरी राय में वह
अपने जीवन को बर्बाद कर रहा है क्योंकि वह अभी अल्पायु है और जैसे विचार वह
रखता है, उन्हें समझने के लायक वह स्वयं ही नहीं है और साथ ही युवाओं के मस्तिष्क
में ऐसेे विचार भर कर उनके जीवन से भी खेल रहा है ...आज सायं उसने विद्यार्थियों
की सभा की जिनका वह अध्यक्ष है ...उसने एक जनरल की तरह श्रोताआंे को
बेधड़क हमला करने के विषय में उन्हें संबोधित किया। वह करीब 35 मिनट बोला
...ऐसा लगता है कि पूना में जल्दी ही एक भारत-यूरोपीय अभियान की शाखा स्थापित
हो जाएगी।
63
बंबई लौटने पर, विनायक को इंडियन सोशलॉजिस्ट
समाचार पत्र की एक घोषणा का पता
चला। पत्र के संपादक इंग्लैंड में रहने वाले पंडित श्यामजी कृ ष्ण वर्मा थे। प्रतिभाशाली और
राष्ट्रवादी युवा भारतीयों को विदेश में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजने हेतु श्यामजी ने कु छ
छात्रवृत्तियों की घोषणा की थी।
~
श्यामजी का जन्म कच्छ के मांडवी क्षेत्र में 4 अक्तू बर 1857 को कृ ष्णदास भानुशाली और
गोमतीबाई के घर हुआ था। उनके पिता बंबई में रहते थे परंतु बहुत कठिनता से परिवार का
पोषण कर पाते थे। जब श्यामजी ने छोटी आयु से ही शिक्षा में रुचि दिखाई तो उनकी माँ
उन्हें भुज के अंग्रेजी स्कू ल में शिक्षा के लिए ले गईं। परंतु उनकी शीघ्र मृत्यु के कारण,
श्यामजी के पिता उन्हें बंबई ले आए। परंतु कु दरत को कु छ और ही मंजूर था। अभी
श्यामजी मुश्किल से दस वर्ष के थे कि उनके पिता भी चल बसे। अपने रिश्तेदारों की मदद
से उन्होंने विल्सन हाई स्कू ल और बाद में एलफिंस्टन हाई स्कू ल में शिक्षा प्राप्त की, जहाँ से
वह उच्चश्रेणी में स्नातक हुए। स्कू ली शिक्षा के साथ ही वह विश्वनाथ शास्त्री द्वारा चालित
संस्कृ त पाठशाला में संस्कृ त भी सीखते थे। 1874 के आसपास, उनकी बंबई में
आध्यात्मिक गुरु और समाजसेवी स्वामी दयानंद सरस्वती से भेंट हुई जो आर्य समाज के
संस्थापक थे। उन्होंने हिन्दू समाज में फै ल गई कु रीतियों और वैदिक रीति को फिर से
जगाने के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी। श्यामजी आर्य समाज से औपचारिक रूप
से जुड़े पहले लोगों में से थे जिसके लिए उन्होंने कठोर श्रम किया। देश भर का दौरा करते
हुए वह समाज सुधार और हिन्दू धर्मग्रंथों की नवीन व्याख्या के लिए विशुद्ध संस्कृ त में
भाषण देते थे।
1875 में बंबई के धनी उद्योगपति सेठ छबीलदास लल्लूभाई की सुपुत्री भानुमती से
श्यामजी का विवाह संपन्न हुआ।
श्यामजी की संस्कृ त में विद्वता पर प्रोफे सर मोनियर विलियम्स की नजर गई जो उस
समय ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृ त के बोडेन प्रोफे सर (ईस्ट इंडिया कं पनी के पूर्व
ले. कर्नल जोसेफ बोडेन द्वारा दिए गए फं ड से स्थापित पद की वजह से इसे बोडेने प्रोफे सर
कहा जाता था) थे। वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने श्यामजी को ऑक्सफोर्ड में अपने
सहायक के तौर पर ले जाने का निर्णय किया। कृ ष्ण शास्त्री चिपलूणकर और न्यायाधीश
रानाडे ने श्यामजी की विद्वता के प्रमाण रूप में संदर्भ पत्र प्रोफे सर विलियम्स को दिए।
फलस्वरूप, 1879 में श्यामजी ऑक्सफोर्ड के लिए रवाना हुए और अगले चार वर्षों में
उन्होंने कई महान अकादमिक उपलब्धियां प्राप्त कीं। उनकी छात्रवृत्ति के लिए, बंबई के
तत्कालीन गवर्नर सर रिचर्ड टैम्पल ने कच्छ के महाराजा को लिखा जो अंततः उन्हें मिली
भी। वेदों और संस्कृ त पर उनके व्याख्यानों के आधार पर उन्हें 1881 में रॉयल एशियाटिक
सोसाइटी की सदस्यता मिली। उन्हें बर्लिन में आयोजित पांचवीं ओरियंटल कांग्रेस में देश
का प्रतिनिधित्व करने के लिए, तत्कालीन विदेश सचिव मार्की ऑफ हर्लिंग्टन के पास भी
भेजा गया। दो वर्ष बाद तत्कालीन भारत मंत्री अर्ल ऑफ किम्बरले ने ओरिएंटल कांग्रेस में
भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए श्यामजी को पुनः भेजा। ऐसी विद्वता और संपर्कों के
आधार पर वह स्नातक करने तक एम्पायर क्लब के सदस्य बन चुके थे जिसके सदस्यों में
गवर्नर, गवर्नर-जनरल्स और कमांडर-इन-चीफ होते थे।
बैरिस्टर बनने के बाद, 1885 में श्यामजी भारत लौटे और अगले बारह वर्षों तक यहाँ वह
रतलाम, उदयपुर और जूनागढ़ जैसे राज्यों के दीवान रहे। करीब तीन वर्षों तक उन्होंने
अजमेर में वकालत भी की। इसी दौरान वह तिलक के संपर्क में आए और उनके राष्ट्रवादी
विचारों से बहुत प्रभावित हुए। परंतु जूनागढ़ में विवादों और मुकदमों में घिरने के बाद
उनका मोहभंग हो गया और वहाँ से इस्तीफा देने के बाद 1897 में उन्होंने अपनी पत्नी के
साथ हमेशा के लिए भारत छोड़ने का फै सला कर लिया। ब्रिटिश प्रशासन में अपनी
अचानक अप्रसिद्धि को देखते हुए श्यामजी ने अगले सात से आठ वर्षों तक इंग्लैंड में
अपना दायरा सीमित रखा। उन्होंने स्टाॅक बाजार में निवेश किया और स्वतंत्र जीवन जीने
के लिए अच्छी-खासी व्यवस्था कर ली।
बंग भंग के बाद श्यामजी को यकीन हो गया कि उन्हें स्वदेश में चल रहे राजनीतिक
अभियान में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। वह भारतीयों के मस्तिष्क में तर्क वाद और
स्वतंत्रता से जुड़े नए विचारों के बीज बोने के पक्षधर थे। इसके लिए उन्होंने एक भारतीय
लेक्चरशिप की स्थापना का विचार किया जिसका ध्येय उनके आदर्श हर्बर्ट स्पेन्सर के
विचारों का प्रसार करना था। 1903 में स्पेन्सर की मृत्यु के बाद श्यामजी ने ऑक्सफोर्ड में
स्पेन्सर लेक्चरशिप स्थापित करने के लिए 1000 पाउंड्स का निजी अनुदान देने की
घोषणा की थी, जिसका लक्ष्य भारतीय विद्यार्थियोें के लिए दर्शनशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वानों
के लेक्चर संग्रहित करना था। यूरोप में भारतीय क्रांतिकारी प्रयासों पर गहरी नजर रखने के
साथ-साथ उन्होंने 1 जनवरी 1905 को ‘आज़ादी एवं राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक
सुधारों के मुखपत्र’ इंडियन सोशलॉजिस्ट
मासिक की शुरुआत की। उन्होंने न्यूयाॅर्क में
प्रतिष्ठित आयरिश-कै थोलिक समाचार पत्र गेलिक
अमेरिकन
से भी संपर्क साधा जिसके
मालिक एवं प्रकाशक आयरिश रिपब्लिकन पार्टी के जाॅन डेवाॅय थे।
64
परंतु श्यामजी ने
हिंसा के मार्ग का खंडन करते हुए ब्रिटिश आमजन के प्रति मैत्रीपूर्ण और गैर-प्रतिरोधक
रुझान रखा और विशुद्ध तर्क और न्याय के आधार पर ब्रिटिश समाचार पत्रों में आलेख
और पत्र लिखे।
65
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के पहले संपादकीय में श्यामजी ने प्रमुख सिद्धांतों
और कांग्रेस के उदारपंथी धड़े के प्रति अपनी निराशा प्रकट की:
उग्रता का विरोध के वल उचित ही नहीं बल्कि आवश्यक है। विरोधीहीनता परोपकारिता
और अहंभाव दोनों का नुकसान करती है ...इंग्लैंड और भारत के बीच राजनीतिक
संबंधों के अंतर्गत यूनाइटेड किंगडम में मौलिक भारतीय व्याख्याकार की आवश्यकता
है जो यह बताए कि अंग्रेजी राज में भारतीय कै से हैं और कै सा महसूस करते हैं। जहाँ
तक हमें ज्ञान है, ब्रिटिश जनता को भारत के लोगों की शिकायतों, मांगों और अपेक्षाओं
से वाबस्ता कराने का कोई सुनियोजित प्रयास भारतीयों की ओर से नहीं हुआ है। ग्रेट
ब्रिटेन और आयरलैंड के सामने, भारत और उसकी प्रतिनिधित्वहीन करोड़ों जनता के
पक्ष को रखने की यह जिम्मेदारी और विशेषाधिकार हमारा है।
66
एएम शाह इंडियन सोशलॉजिस्ट
की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि उसने ‘अंग्रेजी शासन
की हल्की आलोचना’ की तथा श्यामजी के उस वक्तव्य की ओर ध्यान दिलाया कि ‘भारत
और इंग्लैंड को शांतिपूर्ण संबंध विच्छेद कर मैत्रीवत अलग होना चाहिए’ ।
67
इसका ग्रेट
ब्रिटेन, भारत और संयुक्त राष्ट्र में व्यापक स्तर पर वितरण हुआ, हालाँकि 1907 से ब्रिटेन ने
इसके आयात पर रोक लगाने का प्रयास किया था।
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के दूसरे संस्करण के प्रकाशन के बाद श्यामजी ने लंदन में
भारतीयों के लिए भारतीयों की एक संस्था की नींव रखी। हालाँकि, संस्था आयरिश
क्रांतिकारी अभियान से प्रेरित थी, परंतु उनकी ‘इंडियन होम रूल सोसायटी’ ने
समझौतावादी मार्ग अपनाया। 18 फरवरी 1905 को लंदन के हाईगेट
68
स्थित उनके घर में
संस्था के उद्घाटन के लिए करीब बीस भारतीय एकत्र हुए। संस्था के प्रमुख लक्ष्यों में देश में
होम रूल की स्थापना, उसकी स्थापना तक यूनाइटेड किंगडम में सभी प्रायोगिक साधनों से
उसकी दिशा में काम और भारतीयों के बीच राष्ट्रीय एकता तथा आज़ादी से जुड़े लाभ के
संबंध में ज्ञान का वितरण था। श्यामजी के अतिरिक्त संस्था से सी. मुत्थू, जेएम पारिख, डाॅ.
डीई परेरा, परमेश्वर लाल, डाॅ. यूके दत्त, सरदारसिंह राणा, मंछेरशाह बरजोरजी गोदरेज
और अब्दुल्ला अल-ममून सोहरावर्दी जुड़े थे।
उस समय लंदन इंडियन सोसाइटी और ईस्ट इंडिया एसोसिएशन जैसी संस्थाएं भी काम
कर रही थीं जिनसे भारतीय और पूर्व ब्रिटिश गवनर्स, कमिश्नर्स, संसद सदस्य और प्रतिष्ठित
राजनेता सदस्यों के तौर पर जुड़े थे। इन्हें दादाभाई नौरोजी ने शुरू किया था परंतु ये
संस्थाएं अपनी ओर अधिक खिंचाव पैदा नहीं कर पाई थीं। श्यामजी सशस्त्र विद्रोह के
हिमायती नहीं थे, बल्कि वह तिलक, लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल की तरह सत्याग्रह
और बहिष्कार का समर्थन करते थे। परंतु उदारवादी और उग्रवादी श्यामजी द्वारा प्रचलित
‘होम रूल’ संज्ञा का इस्तेमाल नहीं करते थे क्योंकि इससे अंग्रेजों के लिए आयरिश होम
रूल आंदोलन की यादें ताजा हो आती थीं। बिपिन चंद्र की ‘स्वायत्त्ता’ या दादाभाई की
‘स्वः सरकार’, श्यामजी के होम रूल जैसे ही विचार थे, जिसमें कनाडा और ऑस्ट्रेलिया
की तरह ही ब्रिटेन के अधीन रहकर राज करने की आंतरिक आज़ादी प्राप्त होती। परंतु इस
शब्द का इस्तेमाल भी अभिशाप सरीखा था।
मई 1905 में श्यामजी ने एक नई घोषणा की:
लंदन में ‘इंडिया हाउस’ के नाम से जुलाई की शुरुआत में एक भवन या होस्टल खोलने
का प्रस्ताव है ताकि उनलोगों के रहने का इंतजाम किया जा सके जो भारतीय यात्रा
फे लोशिप के तहत यहाँ आ सकें या ऐसे भारतिय जो यहाँ रह सकने की योग्यता रखते
हों... हाईगेट (लंदन) में हाॅनर्सी की एक पूर्ण स्वामित्व अधिकार वाली संपत्ति खरीदी गई
है जो आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार लंदन का सबसे स्वस्थ क्षेत्र है और यहाँ मृत्यु
दर भी समूचे यूनाइटेड किंगडम में सबसे कम है। यह स्थान ट्राम्स के पास स्थित है, यह
तीन रेलवे स्टेशनों से कु छ ही दूरी पर है, तथा वाटरलू पार्क , हाइवे वुड्स एवं क्वीन्स
वुड्स से कु छ ही मिनटों की दूरी पर है।
भवन में... मौजूदा समय में पच्चीस युवाओं के लिए रहने की व्यवस्था है। बाद में
पचास विद्यार्थियों के लायक व्यवस्था तैयार की जाएगी। लेक्चर हाॅल, पुस्तकालय और
रीडिंग रूम एक ही तल पर हैं, जिससे अध्ययन एवं परस्पर संप्रेषण की सुविधा सके ।
मनोरंजन के लिए टेनिस कोर्ट्स, जिम्नेजियम आदि के लिए वहाँ उपयुक्त स्थान है।
संस्थान के रखरखाव की व्यवस्था के वल भारतीयों के हाथों में है ...परिसर में मद्यपान
की अनुमति नहीं होगी। यात्रा शिक्षावृत्ति प्राप्त व्यक्ति से रहने के लिए प्रति सप्ताह 16
रुपये लिए जाएंगे, जबकि अन्य को विशेष तौर पर निर्धारित नियम एवं शर्तों पर
स्वीकार किया जाएगा ...इस देश में भारत के सभी हिस्सों से आने वाले विद्यार्थियों के
लिए रिहायशी सुविधाएं देने का यह पहला प्रयास है।
इंडिया हाउस का उद्घाटन 1 जुलाई 1905 को हुआ। इस अवसर पर इंग्लैंड की सोशल
डेमोक्रे टिक पार्टी के नेता श्री हेनरी मायर्स हिंडमैन, पाॅजीटिविस्ट पार्टी के श्री स्वीनी,
जस्टिस पेपर
के संपादक श्री स्वेल्च, तथा भारतीय नेताओं में दादाभाई नौरोजी, लाला
लाजपत राय, मैडम भीकाजी रूस्तम कामा एवं अन्य उपस्थित थे। इस अवसर पर हेनरी
मायर्स हिंडमैन के संभाषण ने कई लोगों को सकते में डाल दिया:
ग्रेट ब्रिटेन के प्रति वफादारी भारत से छल है। मैं कई भारतीयों से मिला हूँ और अंग्रेजी
शासन के प्रति उनकी वफादारी देखी है, जिसे बहुसंख्य भारतीय घिनौना मानते हैं। या
तो वह निष्ठाहीन थे या अनजान ...अब तक भारतीय अपनी बेड़ियों को पूजते आए हैं।
और स्वयं इंग्लैंड की ओर से कोई उम्मीद नहीं दिखती। भारत की मुक्ति का कार्य
अनुदारवादी लोग, प्रतिबद्ध लोग और कट्टरवादी लोगों के हाथों ही होगा ...यह इंडिया
हाउस भारत के विकास और भारतीय आज़ादी की दिशा में बड़ा कदम है।
69
आने वाले वर्षों में यही इंडिया हाउस विनायक सहित अनेक भारतीय क्रांतिकारियों का
अड्डा बनने वाला था।
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के दिसंबर अंक में विनायक ने छात्रवृत्तियों से संबंधी सूचना पढ़ी
थी। श्यामजी के साथी, काठियावाड़ के सरदारसिंहजी रावजी राणा (लोकप्रिय नाम
एसआर राणा) द्वारा अतिरिक्त छात्रवृत्तियाँ घोषित की गई थीं। राणा लंदन में बैरिस्टरी की
शिक्षा के लिए गए थे, जहाँ से वह पेरिस पहुँचे और हीरे एवं अन्य कीमती नगों का व्यापार
करने लगे। वह श्यामजी के इंडियन होम रूल सोसाइटी के संस्थापकों में थे और उसके
उपाध्यक्ष थे। उन्होंने 1905 में एक अन्य क्रांतिकारी हस्ती, मैडम भीकाजी रूस्तम कामा के
साथ मिलकर पेरिस इंडियन सोसाइटी की भी नींव रखी थी। 2000 रूपये की तीन
छात्रवृत्तियाँ तीन भारतीय नायकों - मेवाड़ के महाराणा राणा प्रताप, शिवाजी महाराज और
मुगल सम्राट अकबर के नाम पर रखी गई थीं। चूंकि उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से
लंदन में शिक्षा प्राप्त की थी, राणा ने श्यामजी को बतायाः ‘यह मेरा कर्तव्य है कि मैं बदलेे
में अपने दो या तीन साथियों को स्वतंत्र देशों में बुलाऊं जिससे उन्हें राजनीतिक आज़ादी
का आस्वाद प्राप्त हो’।
70
छात्रवृत्तियाँ प्राप्त करने वालेे युवाओं को शपथ लेनी होती थी कि वह ब्रिटेन या भारत में
अंग्रेज सरकार की नौकरी नहीं करेंगे। रोचक तथ्य है कि उन्हें अनुबंध पर हस्ताक्षर के बाद
दस वर्ष के अरसे में 4 प्रतिशत सालाना की दर से पैसा लौटाना भी था। इसके अतिरिक्त,
भारत छोड़ने से पहले प्रत्याशी को जीवन बीमा (न्यूनतम 5000 रुपये का) भी खरीदना था।
प्रीमियम प्रत्याशी को ही देना था और उसे ‘दिए गए पैसे की सुरक्षा के तौर पर प्रीमियम की
किस्तें नियमित रूप से हस्ताक्षर करने वाले या वारिस को भेजनी थीं’।
71
जब विनायक छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करने की सोच रहे थे, तो उन्हें पता था कि इतने
पैसे इंग्लैंड में रहने के लिए नाकाफी होंगे। हालाँकि, उनके श्वसुर ने यकीन दिलाया कि कम
पड़ रहे पैसे की भरपाई वह करेंगे। इस आश्वासन के बाद, उन्होंने अपना आवेदन श्यामजी
के पास भेज दिया। पत्र में उन्होंने लिखा:
स्वतंत्रता और आज़ादी को मैं किसी भी राष्ट्र की नब्ज एवं श्वास मानता हूं। आदरणीय,
बाल्यकाल से युवावस्था तक, अपने देश की खोई हुई आज़ादी और उसको पुनः पाने
की संभावना एकमात्र विचार है जिसे मैं रातों को सपने में और सुबह विचारों में देखता
हूँ।
72
श्यामजी को 153 आवेदन मिले थे, परंतु विनायक का आवेदन और उसके साथ अनुशंसा
में तिलक एवं एसएम परांजपे के पत्रों ने उनका ध्यान आकृ ष्ट किया। तिलक ने श्यामजी को
लिखा:
जब ऐसी भगदड़ मची हो तोे विशेषकर आपको किसी की अनुशंसा के बारे में लिखने
का कोई अर्थ नहीं। परंतु फिर भी, मैं कहना चाहूंगा कि प्रत्याशियों में, बंबई के श्री
सावरकर हैं, जो पिछले ही वर्ष स्नातक हुए हैं और जिन्हें मैं स्वदेशी विचार से जुड़े हुए
बहुत ही उत्साही युवा के तौर पर जानता हूं। यहाँ तक कि उन्हें इसके लिए फर्ग्युसन
काॅलेज के प्रशासकों की नाराजगी का शिकार भी होना पड़ा था। सरकारी नौकरी प्राप्त
करने की उनकी कोई मंशा नहीं और उनका नैतिक चरित्र बहुत अच्छा है। 73
श्यामजी को 8 मार्च 1906 को अनुशंसा पत्र में एसएम परांजपे ने लिखा:
आपसे निजी तौर पर भेंट करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हो सका है। परंतु मुझे
आशा है कि हमारी मातृभूमि को दुनिया के राष्ट्रों के बीच सम्मानित स्थान दिलाने के
आपके द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित होम रूल सोसाइटी के सदस्य के तौर पर आपको
संभवतः मेरी याद होगी। परंतु मुझे प्रबल आशा है कि मेरी आपसे घनिष्ठता होगी और
इसलिए इस अवसर पर मैं अपने एक मित्र के संबंध में आपको एक निजी पत्र लिख
रहा हूं। उनका नाम विनायक दामोदर सावरकर है। उन्होंने इस वर्ष स्नातक परीक्षा
उत्तीर्ण की है और लंदन में कानून की शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। वह स्वयं इसका
खर्च उठाने में असमर्थ हैं, इसलिए कु छ बाहरी मदद ले रहे हैं। वह बहुत ऋणी रहेंगे यदि
उन्हें एक छात्रवृत्ति मिल जाए, जिसके संबंध में आपने अपने समाचार पत्र में
उदारतापूर्वक सूचित किया है। उनकी योग्यताओं के बारे में कह सकता हूँ कि वह
उत्साही वक्ता और गंभीर राष्ट्रप्रेमी हैं। अभी वह जोर-शोर से मातृभाषा में एक पत्र
प्रकाशित कर रहे हैं, परंतु गणपति एवं शिवाजी महोत्सवों में वह और भी उत्साहपूर्ण
कार्य कर चुके हैं। वह अलग से भी आपको प्रार्थनापत्र भेज रहे हैं और मैं मानूंगा कि
यह बेहतर रहेगा कि यदि एक छात्रवृत्ति उन्हें प्रदान की जाए।
74
रोचक बात यह है कि 1905 में विदेशी वस्तुओं की होली जलाने में शामिल होने पर
विनायक को निष्कासित करने वाले फर्ग्युसन काॅलेज के प्रधानाचार्य रेंगलर परांजपे ने भी
उनकी अनुशंसा में पत्र लिखा था।
75
मई 1906 केे आरंभ में विनायक को सूचना मिली कि उन्हें श्यामजी द्वारा शिवाजी
छात्रवृत्ति दी गई है। उन्हें 400 रुपये की पांच किस्तों में कु ल 2000 रुपये अदा किया जाना
था। प्रत्याशी को श्यामजी के साथ एक अनुबंध भी करना था कि छात्रवृत्ति समाप्त होने पर
वह कोई भी सरकारी नौकरी नहीं करेगा। विनायक ने श्यामजी को स्पष्ट किया कि वह
वकालत करना चाहते हैं जिसे नौकरी नहीं कहा जा सकता। छात्रवृत्ति प्राप्त करने वालों के
लिए इंडिया हाउस में रहने का खर्च 16 शिलिंग प्रति सप्ताह और अन्य के लिए 18 शिलिंग
एवं 6 पेंस था। 20 मई 1906 को विनायक ने अपने मित्र दाजी नागेश आप्टे और के सरी
के
उप-संपादक कृ ष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर की मौजूदगी में अनुबंध पर हस्ताक्षर किए और
पहली किस्त के रूप में तिलक से 400 रुपये प्राप्त किए। 25 मई को उन्होंने श्यामजी को
पत्र भेजा जिसमें घोषणा थी:
मैं अपने कथन और शपथ अनुसार घोषणा करता हूँ कि मैं अंग्रेज सरकार के अंतर्गत
किसी सेवा या किसी परिषद (नगरपालिका, जिला बोर्ड आदि) में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष
रूप से कोई पद या मानद कार्यालय, खिताब, लाभ या ओहदा प्राप्त नहीं करूं गा और
मैं किसी अन्य को भी किसी भी क्षमता में सरकारी नौकरी करने की राय नहीं दूँगा एवं
मैं उनसे किसी किस्म का मेहनताना भी स्वीकार नहीं करूं गा।
76
इंग्लैंड जाने से पहले, विनायक ने नासिक में अनेक भाषण दिए। 1 जनवरी 1906 को
उन्होंने ब्रह्मानन्द थियेटर में 200 से 300 लोगों की उपस्थिति में अपना भाषण दिया।
अभिनव भारत के एक सदस्य, वामन नरहर दानी पुलिस काॅन्स्टेबल थे जो विनायक के
कहे को दर्ज कर रहे थे। वाचन का विषय आने वाली मकर संक्रांति पर्व के दिन तिल-गुल
(तिल के बीज और गुड़) के वितरण से जुड़ा था। श्रोताओं को प्रोत्साहित करते हुए
विनायक बोले:
मैं आपसे कहूंगा कि बीज को विदेशी चीनी के साथ न मिलाएं और बेहतर होगा कि
स्वदेशी चीनी में बीज मिलाएं ...बहिष्कृ त विदेशी चीनी को हाथ भी नहीं लगाइए
...अवकाश के इन दिनों लोग कहेंगे ‘तिल-गुल लो और मीठे वचन बोलो’। जबकि हमें
कहना होगा ‘तिल-गुल लो और मीठे वचन न बोलो।’ चूंकि मीठे वचन बोलने के लिए
प्रत्येक हृदय को खुश होना चाहिए। जिसका दिल और दिमाग प्रसन्न नहीं वह मीठे
वचन कै से बोल सकता है ? ...हम हथियारों से रहित हैं। हालाँकि हम निहत्थे हैं, परंतु
यदि हमें कोई हथियार चाहिए तो हम कहीं से प्राप्त कर सकते हैं। इसका अर्थ, क्या हमें
तलवार की जरूरत है, जो तलवार या बंदूक सी दिखे, जो एक बंदूक हो ? नहीं, यदि
हम राज्य (सरकार का तख्तापलट) खोने (या पाने) के प्रति स्पष्ट हों तो किसी हथियार
की जरूरत क्यों ? क्या शस्त्रों के बिना और कोई मार्ग नहीं ? नहीं, कई मार्ग हैं। उन पर
यहाँ विस्तारपूर्वक बात करना आवश्यक नहीं। कई लोगों ने मेरा मंतव्य समझ लिया
होगा। अतः आपको एक बेहतर स्थान पर पहुँचना होगा, अर्थात् आपको अपनी
परिस्थिति में सुधार लाना होगा। हमारा देश इस बुरी अवस्था में इसलिए पहुँचा कि
हमने अपना धर्म छोड़ दिया, अपने उद्योग और अपने व्यापार छोड़ दिए जिसे दूसरों ने
कब्जा लिया। उन्होंने हमारे व्यापार पर एकाधिकार कर लिया जिससे उनका देश धनी
और हमारा गर्त में जा रहा है। नहीं, यह पहले ही जा चुका है। तो आइए इसे याद रखें
और उनसे अपने हथियारों से लड़ें, जो हैं, अपने धर्म पर अडिग रहना और व्यापार जारी
रखना, जो उनके हाथों में पहुँच गया है। इसका अर्थ हम अपने देश में निर्मित वस्तुएं
जैसे स्वदेशी चीनी, कपड़ा और अन्य स्वदेशी वस्तुएं उपयोग करें ...अतः मधुर शब्दों के
स्थान पर आपके हृदय में आग हो, जिसे वहाँ दहका दें।
77
21 और 22 अप्रैल 1906 को उन्होंने दो भाषण दिए - एक, नासिक के नाओ दरवाजा के
निकट रोकड्या मारुति स्थित अखाड़े के सामने और दूसरा, सुंदर नारायण मंदिर में। एक
बार फिर, पुलिस के गुप्तचर वामन नरहर ने उनके शब्दों को दर्ज किया और अपने
अधिकारियों को उस बारे में सूचित किया। संबोधनों में विनायक ने जनता से उनके
मस्तिष्क और शरीर दोनों को प्रशिक्षित करने को कहा। उन्होंने कहा कि वह अपने हृदय में
राष्ट्रभक्ति की भावना पैदा करें। मारुति (हनुमान) की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए
उन्होंने कहा कि भगवान अपने हाथ में गदा लिए पैरों से दानव को कु चल रहे हैं। उन्होंने
कहा कि यदि सब ध्यान से देखें तो दानव का रंग श्वेत अथवा रक्तिम है। पुलिस ने नतीजा
निकाला कि वक्तव्य का अर्थ सफे द चमड़ी वाले विदेशियों को शारीरिक शक्ति से मारने से
है।
78
28 मई 1906 को आबा दारेकर के घर और 31 मई 1906 को अमर सिंह परदेशी, जो
पुलिस मुखबिर थे, के घर विदाई दावतें आयोजित की गईं।
79
दावत के बाद आबा के घर
में, विनायक और उनके क्रांतिकारी साथियों की एक तस्वीर उतारी गई। इसे बाद में जब्त
कर विनायक और उनके साथियों पर चलाए गए मुकदमें में पेश किया गया।
80
28 मई 1906 को नासिक के भद्रकाली मंदिर में विनायक के लिए एक नागरिक
अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया। 400 लोगों की उपस्थिति में कार्यक्रम की
अध्यक्षता वैदिक विद्वान हरिहर शास्त्री गर्गे ने किया। आखिर तमाम कठिनाइयों से जूझते
हुए, नगर के एक बेटे ने अपनी पहचान बनाई थी और अब वह सात समंदर पार इंग्लैंड में
उच्च शिक्षा प्राप्त करने जा रहा था। इस खुशी के मौके पर, अनेक नगरजनों, परिवारजनों
एवं मित्रों ने विनायक की प्रशंसा की। कृ तज्ञ विनायक ने कहा कि वह अपने ऊपर मातृभूमि
के ऋण को उतारने के एकमात्र लक्ष्य के साथ इंग्लैंड जा रहे हैं। इंग्लैंड जाने का उनका
असली लक्ष्य वहाँ के लोगों को भारतीयों पर हो रहे शोषण और क्रांति की जरूरत से
अवगत कराना था। वह क्रांति के लिए शस्त्र संग्रहण और बम बनाने की विधि सीखना
चाहते थे, साथ ही, भारतीय स्वतंत्रता के उद्देश्य के लिए दुनिया भर में क्रांतिकारियों का
नेटवर्क भी तैयार करना चाहते थे।
81
इसी मीटिंग के दौरान, विनायक ने शिवाजी के गुरु
की पंक्तियाँ भी बोलींः ‘सकल लोक इक करावे, इक विचारे भरावे, कश्ते करुण घसरावे,
म्लेन्छानवरी’ (एकत्र हो और सबको संगठित करो, फिर प्रेरणा पाकर और तैयार होकर
विदेशियों को निकाल बाहर करने के लिए संघर्ष करो
82
)। अपने संवेदनशील भाषण में
विनायक ने कहा:
यदि धर्म का पालन होता है, तो यह देश जो हिन्दुओं और मुसलमानों का भी है, प्रगति
करेगा। यह उसका है जो यहाँ पैदा हुआ है, यह उसका है जो इसके उपजे अनाज पर
पलते हैं ; जिनके बच्चे भी इसी अनाज पर पलते हैं। समाज की अंतिम पांत में शूद्र हैं
क्योंकि लोगों का मानना है कि वह सेवा के लिए जन्में हैं। परंतु यदि वह सेवा के लिए
भी जन्में हैं तो किसकी सेवा ? यह उन गुलामों की सेवा नहीं हो सकती, जो आज हम
सब बन चुके हैं, परंतु वह अपने देश को अपनी सेवा देंगे... सबको बैठे हुए, बात करते
हुए, सोते ही नहीं बल्कि आँखें झपकाते हुए भी ‘स्वदेश भक्ति’ की याद रखनी चाहिए
जो देश के प्रति निष्ठा है।
83
विनायक को ज्ञान नहीं था कि 1906 में दिए गए इन पांचों भाषणों - चार नासिक में और
एक पूना - को कई वर्षों बाद ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा तैयार करने
के लिए उनके विरुद्ध इस्तेमाल किया जाएगा।
इसके बाद 9 जून 1906 को एसएस पर्शिया जहाज से इंग्लैंड रवाना होने के लिए
विनायक बंबई रवाना हुए। उन्हें विदा करने आए बाबाराव, विनायक की पत्नी यमुना और
उनके डेढ़ वर्षीय पुत्र प्रभाकर (विनायक द्वारा पूना में 1905 में होलिका दहन अभियान से
एक माह पूर्व सितंबर में उसका जन्म हुआ था) की आँखें नम थीं। प्रभाकर को यमुना के
हाथों से लेते हुए उन्होंने कहाः ‘त्याला देविचे इंजेक्षन दया, नहीतार तो देवाकादे जायील’
(इसे चेचक का टीका लगवाओ
84
, नहीं तो यह माता के पास चला जाएगा)।
85
विनायक ने
कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि दुर्भाग्यवश उनके असावधानीपूर्वक कहे शब्द एक दिन
सच हो जाएंगे।
अब अनुभवों और अवसरों की नई दुनिया विनायक की प्रतीक्षा कर रही थी। फिर भी
अपने प्रियजनों से बिछु ड़ने का दुःख उनके हृदय के तारों को झंकृ त कर रहा था। अपने
संस्मरणों में उन्होंने उस भावुक अनुभव के बारे में कु छ यूँ लिखा है:
मुझे लिए खुले सागर की ओर तैरता जहाज, बंबई के तट से रेंगता और आवाज करता
हुआ इंग्लैंड को रवाना हुआ। जल्दी ही मुझे अलविदा कहने आए, गोदी पर खड़े मेरे
संबंधी और मित्र आँखों से ओझल होने लगे। जैसे-जैसे किनारा दूर होता गया, मेरे
मस्तिष्क में बनी मेरे मित्रों और परिवार की छवियां मेरी आँखों के सामने नाचने लगीं।
अन्य यात्री, जिन्होंने भी अपने नातेदारों को विदा दी थी, अंदर जाकर अपने कमरे
तलाशने और सामान व्यवस्थित करने लगे। परंतु मैं एकटक किनारे की ओर देख रहा
था और मेरा मस्तिष्क, बिछोह से आहत मुझसे दयनीयता से पूछने लगाः ‘क्या मैं कम
से कम तीन वर्ष बाद सुरक्षित भारत आ सकूं गा ? क्या मैं उनसे दोबारा मिल सकूं गा ?’
86
4
शत्रु के खेमे में
एस. एस. पर्शिया जहाज पर, जून-जुलाई 1906
एस. एस. पर्शिया भारत भूमि से दूर हो रहा था, विनायक लंबे समय तक विचारमग्न डेक
पर खड़े रहे। डेक पर उनके सहयात्रियों की हँसी और आनंद की गूँज, जिनमें से अधिकांश
यूरोपीय थे, उनकी मनोदशा से सर्वथा विपरीत थी। अपने बीच एक ‘देसी’ व्यक्ति की
उपस्थिति के कारण उनकी आँखों में झलकते उपेक्षा भाव को वह महसूस कर सकते थे।
चूँकि यह उनकी पहली समुद्र यात्रा थी, विनायक को अंदाजा नहीं था कि अपना कमरा
कै से खोजें, और किसी भी यूरोपीय व्यक्ति से पूछने पर वह तिरस्कारपूर्ण तरीके से मुँह फे र
लेता। उन्हें अंततः एक के बिन अधिकारी मिला जिसने अपने भारतीय सहायक से उनकी
मदद को कहा। अपने के बिन में कदम रखते ही विनायक की नजर अपना सामान
व्यवस्थित करते एक नौजवान सिख पर पड़ी, जो आयु में उनसे करीब तीन वर्ष कम था।
गौर वर्ण, अच्छी कदकाठी और सुंदर नैन-नक्श वाले इस सिख युवक ने उन्हें देखते ही
राहत की सांस ली और पूछा कि क्या वह श्री सावरकर हैं। पहली समुद्री यात्रा होने के
कारण वह युवक भी संकोच महसूस कर रहा था और एक भारतीय साथी की तलाश में
था। उनके कमरे से कु छ आगे ही अन्य कु छ पंजाबी सहयात्रियों के भी के बिन थे।
वह सिख युवक अमृतसर निवासी हरनाम सिंह था। उसके पिता पंजाब के जिला
न्यायाधीश रहे थे, जिनकी मृत्यु के समय वह छोटा सा था और उसकी परवरिश उनकी माँ
ने की थी। स्नातक उत्तीर्ण कर चुके युवा का अठारह वर्ष की आयु में विवाह भी हो गया
था। नाभा के महाराजा उस युवक की बुद्धिमत्ता से प्रभावित हुए और उसे इंग्लैंड के
साइरेन्सेस्टर स्थित रॉयल एग्रिकल्चर काॅलेज में कृ षि विज्ञान पढ़ने के लिए वजीफा दिया
था।
1
एकमात्र सन्तान होने के कारण उसकी माँ उसे इतनी दूर नहीं भेजना चाहती थीं,
परंतु बाद में वह राजी हो गईं। उन दिनों समुद्र यात्रा के प्रति चौकन्ना रहना आम बात थी
और पुरातनपंथी हिन्दू तो इसे जाति भ्रष्ट होना मानते थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुरेंद्रनाथ
बनर्जी ने लिखा है कि 1874 में उनकी इंग्लैंड यात्रा को उनके परिवार और मित्रों से कु छ
इस तरह छु पाकर रखा गया था, जैसे कोई घृणित साजिश रची जा रही हो। उनके पिता के
अलावा किसी अन्य को इस योजना का पता नहीं था और जब यात्रा की पूर्व संध्या पर
उनकी माँ को इस बारे में बताया गया तो वह मूर्छित हो गई थीं। इंग्लैंड से लौटे लोगों की
अंग्रेजी आदतों से लोग सकते में रहते थे। उच्चवर्गीय ब्राह्मण परिवार का होने के कारण
बनर्जी को उनके समुदाय ने जाति बाहर ही कर दिया था, वह लिखते हैंः ‘...विभिन्न
अवसरों पर हमारे साथ खाने-पीने वाले लोगों ने हम से सब सामाजिक संपर्क ही तोड़ दिए
और हमें निमंत्रण देने से मना कर दिया था।’
2
विनायक और हरनाम की यात्रा के दौरान
हालात इतने बुरे नहीं थे, फिर भी शंकाएं बहुत थीं। दोनों युवकों में बातचीत शुरू हुई जो
घनिष्ठता की ओर चल पड़ी।
डेक पर चहलकदमी के दौरान विनायक की अन्य भारतीयों से पहचान हुई जिनके बारे में
हरनाम ने बताया था। जहाज पर करीब दस भारतीय थे। पंजाब से एक रईस युवक भी
उनमें था जिसका नाम जान-बूझकर विनायक ने अपने संस्मरणों में नहीं बताया और बहुत
रहस्यमयी ढंग से उसे ‘श्रीमान शिष्टाचारी’ कह कर पुकारा है। यूरोप की अनेक यात्राएं
करने के कारण उन्होंने पश्चिमी रहन-सहन अपना लिया था। उनका मानना था कि इंग्लैंड
जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों को पहनावे, खानपान, और सिगार या पाइप तथा मदिरा
सेवन जैसी यूरोपीय आदतें और रिवाज अपना लेने चाहिए। इसके बाद ही यूरोपीय उन्हें
अपनी तरह का मानेंगे। विनायक एक सीमा तक ही उनसे सहमत हुए। उनके अनुसार ऐसा
तभी मुनासिब था कि यदि अपमान का सामना न हो और तभी व्यक्ति को अपनी तथा गैर-
परंपरा की तुलना करने का भी अवसर मिलता है। चूँकि उनका इंग्लैंड जाना अचानक तय
हुआ था, इसलिए विनायक को अंग्रेजी तौर-तरीकों को जानने का अवसर नहीं मिला था।
ऐसे में ‘श्रीमान षिष्टाचारी’ ने उन्हें कपड़े और टाई पहनने तथा छु री, कांटे और चम्मचों से
खाने के कठिन कार्य सिखाने में मदद की पेशकश की। अब तक विशुद्ध शाकाहारी रहे
विनायक मांस सेवन से समझौता करने को भी तैयार थे। परंतु छु री और कांटे से खाने के
अभ्यास में उन्होंने खासी गड़बड़ की। कांटे की बजाय दाएँ हाथ में पकड़ी छु री को उन्होंने
मुँह में डाल लिया जिस कारण उनका होंठ कट गया। मछली सेवन तथा मांस को हड्डियों से
अलग करना और भी शर्मिंदा करने वाली दुखदायी क्रिया साबित हुई। वैसे भी जहाज पर
सफर करने वाले शाकाहारियों को अधिकांश समय भूखा ही रहना पड़ता था क्योंकि खाने
के विकल्प बहुत ही कम थे।
रंगीन पगड़ी पहने हरनाम सिंह जहाज के यूरोपियनों की नजरों में बने रहते। जब भी वह
ताजी हवा के लिए डेक पर जाते, अंग्रेजों के बच्चे उनकी ओर इशारा कर के हँसते। बच्चों
के अभिभावक, उन्हें चुप कराने की बजाय, मजाक बनाने में उनका साथ देते। यह देख
‘श्रीमान शिष्टाचारी’ को शर्मिंदगी होती थी और उन्होंने विनायक से कहा कि हरनाम को
वह पगड़ी पहनने से मना करे। परंतु विनायक ने विरोध किया। उन्होंने कहा:
हमारी कु छ रवायतें बेशक पुरानी हो चुकी हैं और उनके उन्मूलन के प्रस्ताव को लेकर मैं
आपसे भी आगे हूं। मैं मूलतः सुधारवादी हूं। परंतु कु छ अनभिज्ञ और घमंडी यूरोपियनों
द्वारा मजाक बनाने के कारण अपनी संस्कृ ति और परंपरा का त्याग मैं बिल्कु ल
कायरता समझता हूं। मैं सोचता हूँ कि उनकी टोपियां मुझे कू ड़ेदान लगती हैं जबकि
हमारी पगड़ियां रंगीन और सुंदर दिखती हैं। किसी सिख को पगड़ी पहनने से मना
करना देश का अपमान करने सरीखा है क्योंकि पगड़ी उनके धर्म से जुड़ी है। हम सब
क्यों नहीं पगड़ियां पहनते ताकि हमें इतनी बड़ी संख्या में देख वह उपहास करना ही
बंद कर दें ?
3
विनायक ने दलील दी कि गुलाम देश होने के कारण अंग्रेजी रिवाजों के बरक्स भारतीयों
को खुद को हीन समझना बिल्कु ल स्वाभाविक है। इसके बरक्स ईस्ट इंडिया कं पनी के उन
शुरुआती व्यापारियों पर सोचिये जिन्होंने नई ज़मीन पर खुद को कितना अलग महसूस
किया होगा और हमारे पुरखों ने भारतीय रिवाजों के प्रति अनभिज्ञता पर उनका मजाक
बनाया होगा। उन्होंने कहा, ‘परंतु यह अंग्रेज महिलाएं एवं पुरुष के वल हमारा मजाक
बनाने के लिए नहीं हंस रहे हैं। यह घमंड से भरे हैं और हमसे सचमुच नफरत करते हैं।
उनका मानना है कि वह शासक हैं और हम, गुलाम, इसलिए उनके रीति-रिवाज, परंपराएं
और संस्कृ ति हमसे कहीं ऊं ची हैं। समस्या यहाँ है।’
4
इस तरह, जहाज पर भी अपने
सहयात्रियों के बीच विनायक ने भारत के पक्ष में राजनीतिक और सांस्कृ तिक पक्ष, उसकी
मौजूदा गुलामी और आज़ादी की उसकी जरूरत के संबंध में वैचारिक आदान-प्रदान शुरू
कर दिया था।
जहाज ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया, अनेक यात्री सामुद्रिक ज्वर और घर की याद से
परेशान रहने लगे। विनायक को भी घर की याद सता रही थी। ऐसे अनेक अवसर आए जब
उन्हें अपने भाइयों, पत्नी, बेटे और भाभी के पास लौट जाने की गहरी टीस उठती। बचपन
में झेली त्रासदियों के कारण सावरकर भाई-बहनों के बीच बहुत स्नेह था। इस बीच,
बेतरतीब खानपान के कारण हरनाम सिंह बीमार पड़ गया। विनायक ने उनकी तीमारदारी
की तो वह उनका हाथ पकड़ कर रोते हुए कहने लगे कि अब बर्दाश्त करना उसके बस का
नहीं और वह इसी पल परिवार के पास लौटना चाहता है। विनायक ने उसे समझाया कि
कई बार जीवन के ऊं चे लक्ष्यों की तलाश में हमें उनके लिए तकलीफ उठानी पड़ती है
जिन्हें हम सबसे अधिक चाहते हैं। उन्होंने हरनाम में हिम्मत पैदा करने के लिए उन्होंने
सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन से जुड़ी घटनाएँ सुनाई। मुगल
क्रू रता का सामना करते हुए उन्होंने अपने सत्रह और तेरह वर्षीय बेटों, अजित सिंह और
जुझार सिंह को रणभूमि में खो दिया था। उनके दो छोटे बेटे भी इस्लाम ना कबूल करने के
कारण जिंदा दीवार में चिनवा दिए गए थे। वह खुद शहीद हुए थे। विनायक ने कहा कि यदि
गुरु गोबिंद सिंह और उनके बेटों ने उनकी तरह सोचा होता, तो वह भी बड़े लक्ष्य के लिए
लड़ने की हिम्मत न जुटा पाते।
उन दिनों भारत भेजे गए पत्रों का जवाब पाने में एक महीने का समय लगता था। परंतु
पिछली सदियों में, जब ईस्ट इंडिया कं पनी के अधिकारी भारत आते तो उन्हें अपने
परिवारों से संपर्क करने में छह महीने या उससे अधिक समय लगता था क्योंकि उन दिनों
इंग्लैंड से भारत आने वाले जहाज के प ऑफ गुड होप से घूमकर आते थे। परंतु उनके इरादे
दृढ़ थे क्योंकि उनका लक्ष्य भारत पर कब्जा कर के उसका शासक बनने का था। तो क्या
युवा भारतीयों को भी अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराने के लिए दृढ़ नहीं रहना चाहिए ?
विचार-विमर्श के अंत में, हरनाम पूरी तरह बदल चुका था। ऐडन पर उतरने का विचार
उसने छोड़ दिया और उसके बजाय विनायक से मातृभूमि के लिए अपनी भूमिका के बारे में
पूछा। विनायक की तर्क शक्ति कु छ ऐसी जादुई थी।
जहाज पर भारतीयों के बीच विनायक ने अपने साथ लाई मेजिनी की अंग्रेजी जीवनी
वितरित की। वह क्रांति के प्रति उनके विचार और रुझान को समझना चाहते थे। अनेक
युवा प्रेरित थे, परंतु उनके अनुसार ऐसे कार्यों का बीड़ा उठाना तिलक या लाला लाजपत
राय जैसे राष्ट्रीय नेताओं अथवा महाराजाओं का काम था। वह स्वयं, पैदल सैनिकों जैसे ही
हो सकते हैं। विनायक ने उन्हें बताया कि मेजिनी के ‘युवा इटली’ का आरंभ गिने-चुने
गुमनाम युवाओं के दम पर ही हुआ था। उन्होंने वासुदेव बलवंत फड़के और चापेकर बंधुओं
की भी उन्हें याद दिलाई जो गुमनाम थे, परंतु अपने हिस्से का काम कर गए थे।
उनमें से एक, जिसका नाम विनायक ने रहस्यमयी तरीके से ‘के शवानंद’ रखा है, सचमुच
प्रेरित था। उन्होंने कहा कि यदि ऐसी कोई गुप्त सभा भारत में होती, तो वह सहर्ष उससे
जुड़ते। इस अवसर पर विनायक ने अभिनव भारत और देश भर में उसकी गतिविधियों के
बारे में उन्हें बताया। हालाँकि, वह वकील बनने के लिए इंग्लैंड जा रहे थे, परंतु यह के वल
एक बहाना था। उनका असल उद्देश्य व्यापक स्तर पर प्रसार और इंग्लैंड के प्रतिष्ठित
नागरिकों को अपने पक्ष में करना था। वह सस्ते और असरदार बम बनाने के तरीके भी
सीखना चाहते थे। अंत में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांतिकारियों का नेटवर्क खड़ा कर भारत
में विद्रोह की आवाज उठाना उनकी योजना का हिस्सा था। यह सुनकर सहयात्री सकते में
थे। अगले ही दिन, के शवानंद और तुनुकमिजाज ‘श्रीमान शिष्टाचारी’ ने एस. एस. पर्शिया
जहाज पर ही अभिनव भारत की सदस्यता की शपथ ली। इस तरह, क्रांति के लिए
विनायक के जुनून ने इंग्लैंड पहुँचने का भी इंतजार नहीं किया।
इन व्यक्तियों ने लंदन में विनायक की मदद की परंतु खुद पुलिस के डर से अज्ञात ही रहे।
उदाहरण के लिए, ‘श्रीमान शिष्टाचारी’ ने विनायक के कई उग्र आलेखों को भारत
भिजवाने में भूमिका निभाई। उनका कपड़े का व्यापार था और वह कपड़ों के ढेर में
पांडुलिपियां छु पाकर भारत भेजते थे। इस कारण सदा चौकन्नी रहने वाली पुलिस या
गुप्तचर एजेंसियों को भनक भी नहीं लगी।
तीन सप्ताह की यात्रा ने न के वल विनायक को अभिनव भारत के लिए नए सदस्य दिए,
बल्कि उनके अंदर के कवि को भी ज़रूरी एकांत उपलब्ध कराया। वह खुली हवा में
सम्मोहित बैठे रहकर विशाल, सीमाहीन समुद्र और आकाश के असंख्य तारों को निहारा
करते। उन्होंने खगोल शास्त्र और समुद्र शास्त्र के बारे में पढ़ा था परंतु यह प्रत्यक्ष देखने का
मौका था। अपने संस्मरणों में, उस समय मस्तिष्क में घुमड़ने वाले विचारों के बारे में लिखा
है:
सृष्टि का अर्थ क्या है ? महासागरों और भूमि पर रहने वाले असंख्य जीव विलुप्त हो
जाएंगे, ताकतवर कमजोर का भक्षण कर लेगा। भूकं प, उल्काएं, बर्फ के तूफान और
अन्य विध्वंसकारी शक्तियाँ ईश्वर के कार्य हैं या शैतान के ? यदि यह सब ऊपर कहीं बैठे
किसी का खेल है जो सबकी तारें खींच रहा है तो इन सब के बीच इंसान कहा आता है
? ऐसा क्यों है कि रचनाकार कभी थकता नहीं और प्रत्येक विध्वंस के बाद फिर
सबकु छ बना देता है ?
5
उन्होंने यात्रा के दौरान कई कविताएँ लिखीं, जिनमें ‘ताराकं स पहुन’ (तारों को देखने के
बाद) जैसी आनंदप्रद कविता भी है। कविता का आरंभ आह्वान कराने वाली पंक्तियों से
होता है:
सुनिल नभ, सुंदर नभ हे, नभ हे अटल अहा !
जैसे ही इंडिया हाउस के आयोजन और विनायक के भाषणों से जुड़ी खबरें समाचार पत्रों
में प्रकाशित होनी शुरू हुई, स्काॅटलैंड यार्ड की खुफिया एजेंसियां कु छ अतिरिक्त चैकन्नी हो
गई। इंडिया हाउस में भेजे गए एक भेदिये के कारण विनायक की 1857 पर लिखी गई
पुस्तक की पांडुलिपि के कु छ पन्ने भी प्रशासन के हाथ आ गए थे। इस कारण विनायक का
रीडर पास रद्द हो गया और पुस्तकालय में उनके प्रवेश पर रोक लग गई। परंतु सौभाग्यवश
पुस्तक के लिए अधिकांश शोध तब तक पूरा हो गया था। कु छ उद्धरणों के हवालों की जांच
जरूर की जानी थी, और इसके लिए वीवीएस अय्यर को जिम्मेदारी सौंपी गई जिन्होंने
सफलतापूर्वक कार्य पूरा किया।
विनायक की पुस्तक, द इंडियन वार ऑफ इंडिपेन्डेंस ऑफ 1857
(मराठी शीर्षक
अठाराशे सत्तावनछे स्वतंत्र समर
) इस मायने में अद्वितीय रही क्योंकि उसने अब तक
‘विद्रोह’ कही जाने वाली ऐतिहासिक घटना को उच्च स्तर प्रदान किया था। विनायक का
कहना था कि उन्होंने अपनी यात्रा का आरंभ एक खोजी इतिहासकार के तौर पर किया था
और उस समय के दस्तावेजों को खंगालने पर वह 1857 के गदर के भीतर चमक रहे
स्वतंत्रता संघर्ष की झलक को देखकर हैरान रह गए थे। नाटकीय ढंग से वह लिखते हैंः
‘...मृतकों की आत्माएं शहादत के बोझ से पवित्र हो गई दिखती थीं, और राख के ढेर से
प्रेरणा के स्रोत फू ट निकले थे।’
63
प्रथम अध्याय में विनायक ने फ्रांस या हाॅलैंड जैसे देशों में
महान धार्मिक और राजनीतिक क्रांतियों के सिद्धांतों पर ध्यान कें द्रित किया है। परंतु भारत
के संदर्भ में इस मुद्दे को स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं:
प्रत्येक क्रांति का एक बुनियादी सिद्धांत होता है. . .क्रांति अभियान किसी हल्के या
क्षणिक कष्ट पर आधारित नहीं हो सकता। यह सदा एक समावेशी सिद्धांत के आधार
पर होता है जिसके लिए सैकड़ों और हजारों लोग लड़ते हैं. . .क्रांति की आंदोलित
आत्माएं उनके अंतर्निहित सिद्धांत पर निर्भर करती हैं कि वह पवित्र होंगी या अपवित्र. .
.इतिहास में, किसी व्यक्ति या राष्ट्र के कार्यों का निर्णय उसके प्रयोजन के चरित्र के
आधार पर होता है . . .किसी क्रांति का इतिहास दर्ज करने का मतलब उस क्रांति की
घटनाओं के सभी स्रोतों तक पहुँचना है - यानी प्रयोजन तक।
64
विनायक ने तर्क दिया कि 1857 पर आमतौर पर इतिहास लेखन पश्चिमी विद्वानों ने किया
है और वह इस विप्लव के सही कारणों को समझने या पहचानने में असफल रहे हैं।
अधिकांश इतिहासकारों ने ऐसी विधियां अपनाई जिनमें ‘स्थानीय’ आवाजें अनसुनी ही
रहीं। विनायक के अनुसार, गाय और सूअर की चर्बी से युक्त कारतूसों का आरोप सतही
कारण था। युद्ध में इस तरह के ‘अस्थायी’ या ‘दुर्घटनास्पद’ कारणों पर जोर देते रहने से
क्रांति की ‘असल आत्मा’ की उपेक्षा होती है। उन्होंने अंग्रेज इतिहासकारों के बारे में लिखा
है:
उनमें से कु छ ने के वल घटनाओं का वर्णन करने से अधिक ज्यादा नहीं लिखा, परंतु
अधिकांश ने इतिहास को दुश्चरित्र तथा एकतरफा भावना से लिखा है। उनकी पूर्वाग्रही
आँखें क्रांति के असली कारणों को नहीं देख सकती थीं या देखना नहीं चाहती थीं। क्या
यह संभव है, क्या कोई सही सोच-समझ वाला व्यक्ति कह सकता है कि सब ओर से
उठने वाली क्रांति उसे संचालित करने वाले किसी सिद्धांत के बिना चली थी ? क्या
पेशावर से कलकत्ता तक उमड़ने वाले उस सैलाब ने किसी खास को अपनी चपेट में न
लेने की मंशा से रफ्तार पकड़ी थी ? क्या यह संभव है कि दिल्ली की घेराबंदी, कानपुर
का नरसंहार, साम्राज्य का झंडा, उसके लिए मरने वाले नायक, क्या ऐसा हो सकता था
कि ऐसे उदात्त और प्रेरणास्पद कार्य बिना किसी उदात्त और प्रेरणास्पद परिणाम के
संभव रहे हों ? गाँव का कोई छोटा सा हाट भी बिना किसी परिणाम, यानी लक्ष्य के
बिना अस्तित्व में नहीं आता ; तो फिर, हम कै से मान लें कि वह विराट मंडी किसी लक्ष्य
के बिना खुली और बंद हुई - वह बड़ा बाजार जिसकी दुकानें पेशावर से कलकत्ता तक
की सभी युद्धभूमियों में खुली थीं, जहाँ का साम्राज्य और राज्यों का कारोबार चल रहा
था, और जहाँ प्रचलित सिक्का था रक्त का सिक्का?
65
उन्होंने माना कि युद्ध के दो छोर थे, स्वराज और स्वधर्म – अपने देश और धर्म के लिए प्रेम।
भारत एवं अन्यत्र, सभी क्रांतियों का मार्गदर्शक सिद्धांत यही रहा है। उन्होंने मुगल बादशाह
बहादुरशाह जफर की अपील उद्धृत की जिसमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों से अपनी
जमीन और मज़हब को बचाने के लिए एक साथ उठ खड़े होने की गुहार लगाई थी।
विनायक ने मेजिनी सहित अन्यत्र क्रांतियों के भी समान प्रक्षेपपथों की पहचान की।
इसलिए क्रांतियों के प्रति उनका विचार आम मार्क्सवाादी विचारों के विपरीत ठहरता है।
अतः, क्रांति को प्रेरित करने वाले सिद्धांतों पर अपने प्रबंध के बाद, विनायक ने पुरजोर
तरीके से विचार रखा कि राष्ट्रीय नीति के अंश के तौर पर क्रांतियों का इतिहास जरूर
लिखा जाना चाहिए। उनकी पुस्तक इसी प्रयास का एक हिस्सा थी और इसमें ‘युद्ध’ का
सटीक आकलन किया गया था, ‘विद्रोह’ का नहीं। उन्होंने बार-बार जोर दिया कि पुस्तक
लिखने का लक्ष्य देशवासियों के बीच विदेशी शासन के खिलाफ सुनियोजित सशस्त्र क्रांति
की इच्छा को तेज करना था। उनको उम्मीद थी कि यह ऐतिहासिक तथ्य क्रांतिकारियों के
बीच लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक कार्यक्रम, उसकी कार्यविधि और संगठन के प्रति एक प्रारूप
रख सके गा। पुस्तक में लक्ष्मीबाई, नाना साहेब, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, मंगल पांडे,
मौलवी अहमद शाह, कुं वर सिंह, राणा अमर सिंह, बेगम हज़रत महल एवं अन्य के रोचक
और नाटकीय शब्दचित्र और किस्से हैं। पुस्तक में दिल्ली से, अयोध्या, कानपुर, बिहार और
झांसी एवं बनारस, रोहेलखंड, इलाहाबाद, मेरठ, अलीगढ़, लखनऊ एवं अवध तक के क्षेत्र
में क्रांति के समूचे चित्रण को समेटा गया है। पुस्तक में प्रचुर ऐतिहासिक ब्यौरे और स्रोतों
के उद्धरण हैं और इसकी किस्सागोई में रवानगी है। उन्होंने आखिरी मुगल बादशाह
बहादुरशाह जफ़र को दिल्ली के दीवान-ए-ख़ास से अभियान को प्रतीकात्मक नेतृत्व देने के
प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया जिससे क्रांति के बीज की बुनियाद पड़ी थी। मुगलों की दुर्दशा
के प्रति सांत्वना दर्शाते हुए उन्होंने लिखा है:
दिल्ली के बादशाह से बादशाही छीन लेने भर तक अंग्रेज नहीं रुका, उसने हाल में
बाबर के वंशजों से बादशाह का खिताब तक छीन लेने का फै सला ले लिया था। ऐसी
हालत में पहुँच चुके बादशाह, और उनकी चहेती, चतुर और हिम्मती बेगम जीनत महल
ने पहले ही फै सला कर लिया था कि खोयी खोई हुई आन को वापस पाने के इस मौके
को निकलने नहीं देना चाहिए, और अगर मौत ही इसका एक आखिरी स्रोत बनता है,
तो उन्हें ऐसी मौत मरना होगा जो एक बादशाह और उनकी बेगम की शान के अनुरूप
हो।
66
नाना साहेब के विचार से सहमत होते हुए विनायक ने भी माना कि 1857 ऐसा मंज़र था
जो हिन्दुओं और मुसलमानों को एक साथ ले आया था; हिन्दुस्तान ‘इसके बाद इस्लाम
और हिन्दू धर्म के अनुयायियों का साझा देश बन गया था’।
67
उन्होंने बताया कि दोनों
समुदायों के बीच वैमनस्यता अतीत में शुरू हुई थी, जब मुसलमान आक्रांता थे और हिन्दू
विनम्र प्रजा। परंतु अब, अंग्रेज के रूप में दोनों का एक साझा दुश्मन था जो उनके शासन
और धर्म के लिए खतरा बन बैठा था। इसलिए अतीत की शत्रुता को दफना कर साझा हित
साधा गया था। लिहाजा, अपने-अपने स्वधर्म और स्वराज की रक्षा के लिए हिन्दुओं और
मुस्लिमों को साथ आना ज़रूरी था। इस बिंदु की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है:
जब तक मुस्लिम भारत में विदेशी शासकों के रूप में रहते रहे, तब तक उनके साथ
भाइयों की तरह रहना राष्ट्रीय कमजोरी सरीखा माना जाता रहा। लिहाजा, तब तक, यह
ज़रूरी था कि हिन्दू, मुसलमानों को विदेशी मानते रहें। इसके अलावा, मुसलमानों का
शासन, पंजाब में गुरु गोबिंद सिंह, राजपूताना में राणा प्रताप, बुंदेलखंड में छत्रसाल
और दिल्ली के तख़्त पर मराठों के आ बैठने भर से ही तबाह हो गया था ; और, सदियों
के संघर्ष के बाद, हिन्दू प्रभुता ने मुस्लिम शासन को हराकर समूचे भारत पर कब्जा
जमा लिया था। तब मुस्लिमों से हाथ मिलाने में कोई हर्ज नहीं था, बल्कि, इसके
विपरीत, यह सज्जनता का परिचायक होता। अतः अब, हिन्दुओं और मुसलमानों के
बीच मूल दुश्मनी अतीत में छू ट गई थी। उनका मौजूदा रिश्ता, राजा और प्रजा, विदेशी
और देशी का नहीं बल्कि भाइयों का था जिनके बीच एकमात्र अंतर धर्म का था। चूंकि
दोनों हिन्दुस्तान की मिट्टी के बच्चे थे। उनके नाम अलहदा थे, परंतु दोनों एक ही माँ की
संतान थे; भारतभूमि दोनों की साझी माँ थी, तो दोनों सहोदर हुए। नाना साहेब, दिल्ली
के बहादुर शाह, मौलवी अहमद शाह, खान बहादुर खान और 1857 के अन्य नेताओं ने
इस भाईचारे को कु छ हद तक महसूस किया, और स्वदेश के झंडे तले इकट्ठे हुए तथा
आपसी वैमनस्य भुला दिया जो उस समय गैर-वाजिब और बेवकू फाना होता। संक्षेप में,
नाना साहेब और अजीमुल्लाह की व्यापक योजना थी कि हिन्दू और मुसलमान कं धे से
कं धा मिलाकर देश की आज़ादी के लिए लड़ें और जब आज़ादी मिल जाए, तो भारतीय
शासकों और राजकु मारों के अधीन संयुक्त राज्य भारत का गठन किया जाए।
68
उन्होंने ‘जेहाद’ के जज़्बे की भी तारीफ की जिसे ‘महान और संत प्रवृति’ वाले मौलवी
अहमद शाह ने लखनऊ और आगरा के कोने-कोने में बहुत चतुराई से फै ला दिया था। 11
मई 1857 को दिल्ली आज़ाद हो गई थी और 16 मई तक अंग्रेजी शासन के सभी चिन्ह
मिटा कर ज़फर को भारत का शाहंशाह घोषित कर दिया गया था। इस महान अवसर की
प्रशंसा में विनायक ने लिखा हैः ‘वह पांच दिन जब हिन्दुओं और मुसलमानों ने भारत को
अपना देश और खुद को भाई कहा था, उन दिनों हिन्दुओं और मुसलमानों ने एक साथ
दिल्ली में राष्ट्रीय आज़ादी का झंडा फहराया था। वह महान दिन हिन्दुस्तान के इतिहास में
हमेशा याद रखे जाएं।’
69
उन्होंने जोर दिया कि कै से उस घटनाक्रम के दौरान सभी भारतीय जाति, समुदाय, धर्म
और क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठ गए थे। राष्ट्रीय एकता का यही वह पक्ष था जिसे वह
फिर से एकजुट कर ब्रिटिश शोषण के खिलाफ साझा संघर्ष छेड़ना चाहते थे।
एक भी व्यक्ति, एक भी वर्ग ऐसा नहीं जो देश की दुर्दशा देखकर दुखी न होगा। हिन्दू
और मुसलमान, ब्राह्मण और शूद्र, क्षत्रिय और वैश्य, राजा और रंक, महिला और पुरुष,
पंडित और मौलवी, सिपाही और पुलिस, शहरी और गंवई, व्यापारी और किसान -
विभिन्न धर्मों के लोग, भिन्न जातियों के लोग, अलग-अलग पेशों से जुड़े लोग - अपनी
मातृभूमि का उत्पीड़न बर्दाश्त न कर पाए और बेहद कम समय में प्रतिकार स्वरूप
उन्होंने क्रांति का बिगुल फूं क दिया।
70
पुस्तक का अंत उन्होंने बहुत ही मार्मिक और सकारात्मक प्रसंग से किया है जो आखिरी
मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के दरबार का दृश्य है:
क्रांति के उत्तेजना भरे माहौल के दौरान उन्होंने (ज़फर) एक ग़ज़ल की रचना की थी।
जब किसी ने उनसे कहा:
दमदमे में दम नहीं खैर मांगो जान की,
द इवनिंग टेलिग्राफ
ने उसकी इस विशेषता का उल्लेख उस पर लिखी रिपोर्ट में भी किया
थाः ‘... वह ना के वल रिवाॅल्वर चलाने में कु शल, बल्कि त्रासदी के बाद कमरे में सबसे
स्थिर भाव वाला भी था, और शान्ति से अपने चश्मे के लिए पूछ रहा था।’
86
पार्टी में मौजूद
एक अन्य भारतीय, मदन मोहन सिन्हा ने उससे हिन्दी में सवाल किए, परंतु वह खामोश
रहा। सिन्हा को शक हुआ कि शायद वह युवा नशे की हालत में था, क्योंकि वह अधजगी
और स्वप्निल अवस्था में दिख रहा था। युवा को कस कर पकड़े हुए कै प्टन चार्ल्स रॉलेस्टन
ने उससे नाम पूछा तो अंततः वह चिल्लायाः ‘मदन लाल ढींगरा।’
पुलिस तुरंत ही पहुँच गई थी और ढींगरा को गिरफ्तार कर लिया गया। हवलदार फ्रे डरिक
निकल्स और डिटेक्टिव सार्जेंट फ्रें क ईडले ने बयान दिया कि ढींगरा के पास एक खंजर भी
था, छह चेम्बर वाला एक बेल्जियन रिवाॅल्वर और अतिरिक्त असला भी उसके पास था।
87
इन्स्पेक्टर ड्रेपर ने ढींगरा के लेडबरी रोड अपार्टमेंट की तलाशी ली जहाँ उन्हें सत्तर कारतूस
और एक अन्य मैग्जीन वाला रिवाॅल्वर बरामद हुआ। कर्जन वायली द्वारा ढींगरा को लिखा
गया एक पत्र भी उसकी टेबल पर रखा था। उस पर 13 अप्रैल की तारीख दर्ज थी और पत्र
में कहा गया था कि जरूरत पड़ने पर ढींगरा उनसे मिल सकते हैं। दरअसल, इंडिया हाउस
के सदस्यों से ढींगरा के मेलजोल का पता लगने पर उनके भाई ने कर्जन वायली से उन्हें
सलाह देने के लिए लिखा था। पत्र कु छ इस तरह का था:
प्रिय सर: आपके भाई, श्री के एल ढींगरा, जिनसे मुझे लंदन में परिचित होने का
सुअवसर प्राप्त हुआ, ने मुझे लिखकर बताया है कि आप लंदन में हैं, और उन्होंने कहा
है कि मैं आपकी किसी जरूरत में मदद कर सकूं । मेरे विदेश में रहने के आसार है. .
.परंतु लौटने पर आपसे इंडिया ऑफिस में मिलकर मुझे प्रसन्नता होगी, यदि आप 11 से
1 अथवा 2ः30 से 3ः30 के बीच संपर्क कर सकें तो।
88
कर्जन वायली भारतीय विद्यार्थियों से मैत्रीभाव बनाने के लिए यही युक्ति अपनाते थे, जिस
आधार पर वह उनसे सूचनाएं बटोरते और वरिष्ठ अधिकारियों को भेजते थे। परंतु ढींगरा ने
उनके प्रस्तावों का जवाब नहीं दिया, और वह वायली को उनकी गतिविधियों पर निगाह
रखने वाले प्रशासन का प्रतीक मानते थे।
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तलाशी में ढींगरा की निशानेबाजी अभ्यास की
डायरी भी मिली थी।
90
परंतु प्रश्न उठता है कि इंडिया हाउस के आयोजनों में कभी ना शामिल होने वाले ढींगरा
बंदूक चलाकर राजनीतिक हत्या जैसे कृ त्य को अंजाम देने वाले प्रत्याशी कै से बन गए ?
वह इंडिया हाउस के भाषणों को ‘के वल बातचीत’ कहकर रद्द करते थे और विमर्श की
बजाए कार्रवाई पर जोर देते थे। जुगांतर समूह के क्रांतिकारी कनाईलाल दत्ता को वह
अपना आदर्श मानते थे। दत्ता ने साथी क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बोस के साथ मिलकर
नरेंद्रनाथ गोस्वामी की हत्या की थी जो अलीपुर बम मामले में अंग्रेज सरकार का गवाह बन
गया था। 31 अगस्त 1908 को दत्ता को फांसी हुई थी।
पंजाब में ढींगरा भुगतान विभाग में काम कर चुके थे जहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार और
अंग्रेजों के मुकाबले नस्ली तौर पर भेदभाव किया गया था। हरिश्चंद्र कृ ष्णराव कोरेगाँवकर
इंडिया हाउस के सदस्य और विनायक की 1857 पुस्तक के भरोसेमंद अनुवादक रहे थे।
दिसंबर 1909 में भारत पहुँचने पर उन्हें डीसीआई द्वारा बंबई में गिरफ्तार किया गया। वह
सरकारी गवाह बन गए और विनायक के खिलाफ मामला तैयार करने के लिए उनका
बयान इस्तेमाल किया गया। ढींगरा के खिलाफ मामले में कोरेगाँवकर ने बयान दिया:
अंग्रेजों के खिलाफ उनकी (ढींगरा की) नफरत गहरी थी। समय-समय पर भारतीयों के
खिलाफ अंग्रेजों के समाचार पत्रों में छपने वाले आलेखों से यह और गहराती गई। लंदन
ओपिनियन
में छपने वाले आलेख जैसे ‘काले व्यक्ति और अंग्रेज महिलाएं’ और
कै सल्स वीकली
में प्रकाशित ‘बाबू, ब्लैक शीप’ जैसे आलेखों को वह बार-बार पढ़ते
थे।
91
ढींगरा ने हत्या की साजिश बहुत मेहनत से रची थी। 26 जनवरी 1909 को उन्होंने बंदूक
का लाइसेंस प्राप्त किया और फिर होल्बर्न के गैमेज्स लिमिटेड से £ 3.5 में एक
ऑटोमेटिक मैग्जीन कोल्ट पिस्तौल खरीदी। इसके बाद, वह तीन महीने तक 92 टाॅटेनहैम
कोर्ट रोड में, सप्ताह में तीन बार अभ्यास के लिए जाते रहे। चूंकि उनके पास वैध लाइसेंस
था, इसलिए शूटिंग रेंज में उनको प्रवेश मिल गया था। हर बार अभ्यास के दौरान वह बारह
गोलियां चलाते और उन्होंने जल्द ही ‘अच्छी महारत हासिल की’।
92
हत्या से पहले ढींगरा
अपने आप में बेहद आत्मविश्वास से भर चुके थे। हत्या से एक रात पूर्व वह विनायक को
ढूंढ़ते हुए बिपिन चंद्र पाल के घर पहुँचे थे। वहाँ उनसे मिलने वाले एमपीटी आचार्य ने
बताया कि ढींगरा ‘पक्षी की तरह चहक रहे थे। इंडिया हाउस में वह हमेशा विचारमग्न से
दिखते थे, परंतु वहाँ नहीं। यह सच है कि उन्होंने बहुत कम बात की थी, इसलिए नहीं कहा
जा सकता कि उनके दिमाग में क्या चल रहा था।’
93
हत्या के दिन भी वह के न्सिंग्टन जाने
से पूर्व सायं 5ः30 बजे शूटिंग रेंज गए और अभ्यास में बारह गोलियां चलाई थीं, जिनमें से
ग्यारह निशाने पर लगी थीं।
94
निषानेबाजी के अभ्यास को लेकर ढींगरा इतने तुनुकमिजाज क्यों थे, इसका भी एक
कारण है। उनका असली निशाना लॉर्ड मार्ले और बंगाल विभाजन के खलनायक लॉर्ड
कर्जन थे, जो ब्रिटेन लौट चुके थे।
95
ढींगरा पहले भी एक बार दोनों की हत्या में असफल
रहे थे। हत्या की पूर्व संध्या पर उनके नायक और नेता, विनायक उन्हें विदा देने के लिए
नाॅटिंग हिल गेट स्टेशन पर मिले और उन्हें सख्त ताकीद की, ‘यदि इस बार असफल रहे तो
मुझे अपनी सूरत मत दिखाना!’
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ढींगरा की उनके प्रति अंधभक्ति के चलते उनसे
जल्दबाजी में यह काम कराने के लिए टीकाकारों ने विनायक की आलोचना की है। हमलों
के लिए अपने अनुगामियों को प्रेरित करने के बावजूद विनायक ने जीवन भर खुद कभी
अस्त्र नहीं उठाया। असफल होने पर अपनी सूरत कभी ना दिखाने से जुड़ी चेतावनी को
ढींगरा ने बेहद गंभीरता से लिया और वह हर कीमत पर सफल होना चाहते थे।
97
दरअसल, प्रत्येक क्रांतिकारी संगठन की तरह अभिनव भारत को भी मजबूत बौद्धिक एवं
संचालक की जरूरत थी – विनायक यही भूमिका निभाते रहे और कार्यकर्ता उनकी
योजनाओं को अमल में लाते थे।
हत्या के बाद ढींगरा को मैरीलिबोन पुलिस स्टेशन ले जाया गया और औपचारिक
चार्जशीट दाखिल की गई। आरोप उन्हें पढ़ कर सुनाए गए और उन्होंने उसे स्वीकार कर
लिया।
98
यह पूछे जाने पर कि क्या वह लंदन में अपने मित्रों से संपर्क करना चाहते हैं,
उन्होंने बेपरवाही से उत्तर दियाः ‘मुझे नहीं लगता आज रात इसकी जरूरत है, कल वह
मुझे पहचान लेंगे।’
99
2 जुलाई को ढींगरा को वेस्टमिनस्टर पुलिस अदालत ले जाया गया।
हिरासत में सौंपे जाने से पहले उन्होंने न्यायाधीश से कहाः ‘मैं के वल इतना कहना चाहता हूँ
कि डाॅ. लालकाका की हत्या सोचा-समझा प्रयास नहीं थी; मैं उन्हें नहीं जानता था; जब
वह मुझे पकड़ने को बढ़े तो मैंने अपनी सुरक्षा के लिए गोली चलाई थी।’
100
न्यायाधीश ने
एक सप्ताह के लिए मामला मुल्तवी किया और ढींगरा को न्यायिक हिरासत में भेज दिया।
इस घटना ने लंदन को हिला कर रख दिया था। प्रेस में हत्या की सूचनाओं का सैलाब आ
गया था। अपराध के चश्मदीद गवाहों के बयानों और विस्तृत विवरणों से सभी प्रमुख
समाचार पत्र अटे पड़े थे। ढींगरा के पिता, साहिब दत्ता ढींगरा ने लॉर्ड मार्ले को तार भेजकर
सूचित किया कि परिवार ने बेटे से अपने सभी संबंध तोड़ लिए हैं। उन्होंने पायनियर
समाचार पत्र से कहा कि वह उनकी ओर से ‘परिवार के एक सज्जन मित्र के ना रहने पर
इस घृणित कार्य की भर्त्सना’ प्रकाशित करे।
101
ढींगरा के दो भाई, भजनलाल और
बिहारीलाल भी लंदन में थे और उन्होंने भी अपने पिता द्वारा अपने भाई से सभी संबंध
विच्छेद करने की पहल का समर्थन किया। ब्रिटिश साम्राज्य के सुदूर कोनों से सांत्वना
संदेश आ रहे थे। बनारस के राजा, सर प्रभु नारायण ने 14 जुलाई 1909 को एक गैर-
सरकारी संदेश में लिखा:
अपनी ओर से यह अनावश्यक और व्यर्थ है यह कहना कि लंदन में एक भारतीय
विद्यार्थी द्वारा अंजाम दिए गए जघन्य अपराध को लेकर मैं कितना बेचैन हूँ जिस
कारण भारत के दो अनन्य मित्रों की जानें गईं। कोई भी व्यक्ति जो इस देश का अंश है,
ऐसे मामलों में किसी और तरीके से सोच ही नहीं सकता। ऐसे अपराध जो एक या दो
वर्ष पहले इस देश में अपवाद स्वरूप थे, अब निरंतर होते दिख रहे हैं और मुझे हैरानी
होती है – बल्कि मैं क्षमा स्वरूप कहना चाहता हूँ – सहानुभूति, नहीं, यह एक शर्मनाक
बात है कि इस बुराई को हटाने के लिए कु छ किया नहीं जा रहा है. . .अपितु यह हमारे
लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न बन गया है। इंग्लैंड बेशक भारतीयों की परवाह करने के
संबंध में अधिक नहीं सोचता, परंतु हम भारतीय इंग्लैंड की सुरक्षा के बिना नहीं रह
सकते। हमारी संपदा, हमारी खुशी, हमारा स्थायित्व, यहाँ तक कि एक राष्ट्र के तौर पर
हमारा अस्तित्व इंग्लैंड पर निर्भर है और कै सा ही संताप का दिन होगा जब वह हमारे
देश को छोड़ने का निर्णय लेगा. . .सावरकर और उनके साथी खुलेआम हत्या से
संवेदना दिखा रहे हैं और वीरेंद्र नाथ चटर्जी जैसे व्यक्ति जनपत्रों में पत्र प्रकाशित कर
घोषणा कर रहे हैं कि ‘आने वाली हत्याओं की सूची संभवतः लंबी होगी. . .हत्या के
अराजक प्रयासों को भी हत्या जैसा ही मानना चाहिए और उससे संवेदना रखने वालों
को अपराधी समझना चाहिए। जब तक कम से कम एक या दो वर्षों तक ऐसे उग्र
प्रयासों को अभ्यास में नहीं लाया जाएगा, मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस तरह के अपराधों
में तीव्र वृद्धि होगी।
102
समूचे भारतीय समुदाय और उसके राजनीतिक नेताओं ने ढींगरा की भर्त्सना की। 3 जुलाई
को सुरेंद्रनाथ बनर्जी की और 4 जुलाई को गोपालकृ ष्ण की अध्यक्षता में बैठकों में घृणित
कार्य के लिए ढींगरा की आलोचना की गई। गोखले ने कहा कि इस कार्य से ‘भारत का
नाम कालिख में मिल गया और इसके लिए समूचे सभ्य जगत के सामने भारतीयांें को शर्म
से अपने सिर झुकाने पड़ेंगे।’
103
इसके प्रतिउत्तर में, मैडम कामा के वन्दे मातरम
ने ढींगरा की निंदा करने के लिए गोखले
के खिलाफ तीखे शब्द लिखे। 10 सितंबर 1909 के अंक में इसने लिखाः
अपने देशवासियों के आंसुओं और आहों का व्यापार करने वाले ऐसे अधम और कायर
राजनीतिज्ञों का दल जिनका नेतृत्व पूना के आत्माहीन चाटुकार गोखले करते हैं, अपनी
ओर से हमारे युवाओं को वक्तव्यों और लेखनी से पथभ्रष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं,
जो जितनी दिखावटी है उतनी ही कु टिल भी। यह सब छद्म-देशभक्त अपने देश की
बर्बादी के बीच में सरकार से सहयोग और अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित रखने का कार्य
करते हैं। यह देखना भी दिलचस्प होता है कि दंभ या निजी ईर्ष्या के कारण यह लालची
और असैद्धांतिक जघन्य लोग आपस में भी लड़ते हैं। यह हमारे लिए ही ठीक है। अपने
में ही विभक्त इमारत टिकी नहीं रह सकती और उदारपंथियों में एकता की कमी और
अंदरूनी विखंडन के चिन्ह दिख रहे हैं। गोखले लोगों के बीच कु छ अच्छे भाषण दे रहे
हैं: ऊं चे आदर्शों के लबादे में कु टिल अर्थहीनता के जुमले गढ़ने की कला का उन्हें अच्छा
तजुर्बा है . . .इस बीच सुरेंद्रनाथ बनर्जी ब्रिटिश लोगों के तलवे चाटने का काम कर रहे
हैं और दुनिया की नजरों में खुद को उपहास का पात्र बना रहे हैं।
104
5 जुलाई को लंदन के कै क्स्टन हाॅल में हत्या के प्रति संवेदना और ढींगरा की आलोचना
करने के लिए भारतीय समुदाय विशाल संख्या में एकत्र हुआ। 6 जुलाई के डेली टेलिग्राफ
ने लिखा कि अनेक पारसी महिलाएं ‘शोभनीय कपड़ों में सजी हुई आई थीं।’ महामहिम
आगा खान ने इस बैठक की अध्यक्षता की और कहा कि बैठक का कारण यह था कि कै से
वह ‘विद्रोह के इस नीचतापूर्ण कृ त्य के बाद साम्राज्य के साथी बाशिंदों के साथ मिल-
जुलकर रह पाते हैं’।
105
इस अवसर पर वक्तव्य देने वाले प्रतिष्ठित भारतीयों में सर मंचेरजी
भोवनागरी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल और जीएस खपरडे शामिल थे। श्रोताओं में
भी कई गणमान्य व्यक्ति शामिल थे जिनमें कू च बिहार के महाराजकु मार, सर दिनॅशॉ पेटिट,
फजलभाॅय करीमभाॅय, सैयद हुसैन बिल्ग्रानी, के सी गुप्ता एवं अन्य थे। वक्ताओं ने ढींगरा
के लिए ‘वहशी’, ‘क्रू र’ एवं ‘विश्वासघाती’ से ‘कायरता’, ‘अक्षम्य’ एवं ‘अमानवीय’ जैसे
शब्दों का इस्तेमाल किया। सर भोवनागरी ने अपराध के संबंध में समुदाय की नाराजगी
और त्रास का प्रस्ताव रखा जिसे अमीर अली ने सहमति दी। उन्होंने लेडी वायली एवं
पीड़ित के परिवार के प्रति संवेदना भी व्यक्त की। प्रस्ताव का मसौदा कु छ इस प्रकार था:
भारत के सभी संप्रदायों के नुमाइंदों और ग्रेट ब्रिटेन के अधिकांश भारतीयों की यह
आम सभा पिछले बृहस्पतिवार को एक भारतीय युवा द्वारा किए गए अकथनीय
अपराध के प्रति संत्रास और रोष व्यक्त करती है जिसके वह एवं समूचे भारत के लोग
गवाह बने और जिसका नतीजा सर कर्जन वायली और साथ ही डाॅ. लालकाका की
दुःखद मौत में हुआ।
106
अलंकारिक वाचन शैली इस्तेमाल करते हुए भोवनागरी ने कहा कि इस भवन अथवा
ब्रिटिश इंडिया के विशाल भूभाग में ऐसा कोई भी सही सोच वाला व्यक्ति नहीं होगा जो इस
त्रासदी को राष्ट्रीय आपदा ना माने। उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि घटना के माध्यम
से, एक पथभ्रष्ट युवा ढींगरा ने, ब्रिटिश सरकार और विशेषकर लॉर्ड मार्ले के साथ
सफलतापूर्वक बातचीत कर रहे भारतीयों को जोरदार झटका दिया था। फिर भी, उन्होंने
उम्मीद जताई कि यह नुकसान अस्थाई होगा।
लेकिन उनके वक्तव्य के बाद कु छ नाटकीय सा घटित हुआ। इंडियन काउंसिल के एक
सदस्य, थियोडोर माॅरीसन मंच पर एक शर्मीले नौजवान को लेकर आए। धूसर रंग का
ढीला सा सूट और सुनहरा चश्मा लगाए वह युवा अवसाद और संकोच में दिखता था।
उसकी पहचान लंदन में ही रह रहे ढींगरा के छोटे भाई के तौर पर कराई गई। माॅरीसन ने
दावा किया कि उसी दिन वह युवा प्रातः उनके कार्यालय में आया था और उसने ढींगरा के
किए पर अपने परिवार की ओर से अफसोस व्यक्त किया था। माॅरीसन के अनुसार युवा ने
पूछा था कि वह अपने भाई के कृ त्य के प्रतिकू ल अपनी ओर से क्या कर सकता है।
माॅरीसन ने उसे कहा कि वह कै क्स्टन हाॅल में जाकर सार्वजनिक तौर पर अपनी भावनाओं
के बारे में बताए और उसे खुद एवं परिवार को अपराध से अलग कर लेना चाहिए। जैसा
कि डबलिन डेली एक्सप्रेस
ने खबर दीः ‘इस घटना की नाटकीय आकस्मिकता ने भवन में
खासी सनसनी पैदा कर दी थी और कई लोग द्रवित हो गए थे।’ युवा को एक शब्द भी
कहने नहीं दिया गया और माॅरीसन ने सभा को संबोधित किया जिस दौरान युवा घबराए
हुए सिर झुकाए खड़ा रहा। फिर उसे उसकी सीट पर ले जाया गया और सभा आगे बढ़ी।
फिर एक नया प्रस्ताव पारित हुआः
यह सभा ब्रिटिश जनता को सुनिश्चित करने हेतु मानती है कि ब्रिटिश साम्राज्य के
महानगर में घटित इस नृशंस कृ त्य की वह शर्मसार होकर निंदा करती है और आशा
करती है कि इसे एक कट्टर अथवा विक्षिप्त व्यक्ति का कार्य माना जाएगा, जिसने भारत
के लोगों में गहरा रोष फै लाया है।
107
जब बैठक प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करने और ढींगरा की उसके विक्षिप्त कार्य के
लिए भर्त्सना करने पर विचार कर रही थी, वह युवा खड़ा हुआ और निडरता से चिल्लायाः
‘नहीं! सर्वसम्मति से नहीं!’ लोग शांत और सकते की हालत में थे। वह जानना चाहते थे
कि यह दुःसाहसी दावा करने वाला कौन है। ऐसे समय जब उसका परिवार एवं मित्र स्वयं
को उससे अलग कर रहे थे, अपने मित्र और आश्रित, मदन लाल ढींगरा के सहयोग में आने
वाला वह युवा विनायक था। यह सुनकर सदमे की सी हालत में आ चुके लीडर ‘इसे पकड़
लो’, ‘इसे गिरा दो’ का शोर कर रहे थे कि लोग विनायक की ओर लपके जो हाथ बांधे और
सिर उठाए खड़े थे। इतने में एडवर्ड पार्क र नामक एक हट्टा-कट्टा अंग्रेज विनायक की तरफ
लपका और उनकी दाईं आँख पर प्रहार किया, विनायक का चश्मा टूट गया और उनकी
नाक फू ट गई।
108
उनके चेहरे पर खून फै ल आया, लेकिन फिर भी उनके मुँह से ‘सब ठीक
है’ निकला। विनायक अपनी कु र्सी से उछले और उन्होंने जोरदार आवाज में कहा कि वह
इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं और अपने खून की आखिरी बूंद तक वह इसका विरोध करेंगे।
वहाँ मौजूद एमपीटी आचार्य के हाथ में छड़ी थी जिसे उन्होंने ‘सहज ही उसके (पार्क र) के
सिर पर दे मारा’।
109
हालाँकि, हमलावरों ने विनायक को गिरा लिया और अंत में उन्हें
बाहर ले जाया गया। भवन में मौजूद वीवीएस अय्यर, एमपीटी आचार्य एवं ज्ञानचंद वर्मा
भी विनायक के पीछे बाहर गए। निहत्थे विनायक पर कायराना हमले के विरोध में
सुरेंद्रनाथ बनर्जी सभा छोड़कर चले गए और उस शाम का मलिन अंत देखकर आगा खान
भी दुखी थे।
विनायक और उनके साथी सिंक्लेयर रोड स्थित घर पहुँचे और उसी रात विनायक ने
टाइम्स
के नाम लंबा पत्र लिखा।
श्रीमान,
मेरे प्रति पूर्ण स्पष्टता के साथ क्या आप अपने प्रतिष्ठित पत्र में निम्न पंक्तियों को स्थान
देंगे ? सर कर्जन वायली की हत्या पर अफसोस जताने के लिए कै क्स्टन हाॅल में
आयोजित सभा में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद ऐसा महसूस हो रहा है कि मेरे व्यवहार
की गलत व्याख्या की जाएगी।
सच यह है कि जब अध्यक्ष नेे बैठक पूर्व प्रस्ताव सभा के समक्ष रखा और समर्थकों
को हाथ उठाने के लिए कहा तो उन्होंने अन्य सभी जनसभाओं के अभ्यास के अनुसार,
उपस्थित लोगों से उनकी पसंद के अनुसार मत देने को कहा था। प्रस्ताव के बारे में
उसके प्रस्तावकों और समर्थकों ने व्याख्या की थी, ताकि उससे हत्या के दोषी के
अपराध को पूर्ववत् ही मान लिया जाए। मुझे ऐसा लगता है कि अभी अदालत में
विचाराधीन मामले में किसी व्यक्ति को अपराधी करार दिया जाना, कानून एवं अदालतों
के अधिकारों का अतिक्रमण है। अतः, मेरी राय में प्रस्ताव में से ‘अपराध’ और
‘अपराधी’ जैसे शब्दों को हटाना न्यायसंगत एवं उचित होगा। चूंकि कार्यवाही इस दिशा
में काफी आगे तक बढ़ चुकी थी, तो मैंने के वल प्रस्ताव के विरोध में मत दिया और मैं
अध्यक्ष के संज्ञान में लाना चाहता था कि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित नहीं हुआ है। मैं
मतदाता के तौर पर अपने अधिकारों की सीमा में ही था और अध्यक्ष के लिए पक्ष एवं
विपक्ष के मतों को गिनकर ही नतीजे की घोषणा की जानी चाहिए थी। परंतु कु छ
उत्तेेजित आत्माएं आपे से बाहर हो गईं और ‘इसे बाहर निकालो’ आदि जैसे शोर के
साथ मुझे शारीरिक हिंसा से डराने का प्रयास किया गया। मैं बिना उत्तेजना फै लाए,
के वल अपने अधिकारों पर जोर देते हुए शांत खड़ा रहा था। कु छ मिनटों बाद, श्री
पार्क र नामक एक व्यक्ति उस स्थान पर पहुँचे जहाँ मैं खड़ा था और उन्होंने मुझ पर
हमला किया जबकि मैं साफ शब्दों में अपने विरोध का अर्थ स्पष्ट कर रहा था, मेरे शब्द
कु छ उत्साही लोगों की भीड़ में खो गए थे।
वह व्यक्ति जिसने अकारण उस व्यक्ति पर हमला किया जो खुद को सुने अथवा
निकाल दिए जाने के लिए कह रहा था, उसे जल्दी ही अदालत में लाया जाएगा। इस
बीच, मैं शीघ्रता से सभा में अपने व्यवहार को लेकर आपको यह पत्र लिख रहा हूँ ताकि
इस संबंध में किसी तरह की गलतफहमी या गलत व्याख्या से बचा जाए।
आपका धन्यवाद,
मैं,
भवदीय,
वीडी सावरकर
140, सिंक्लेयर रोड, 5 जुलाई
विनायक के पत्र का कथ्य और उनके द्वारा सुझाए गए कु शल कानूनी पक्ष के संदर्भ लंदन
के अनेक समाचार पत्रों ने उठाए। विनायक पर हमला करने वाले पार्क र ने 8 जुलाई को
टाइम्स
में लिखे प्रत्युत्तर में ब्रिटिश साम्राज्य की और भारत में अंग्रेजी शासन स्थापित करने
में सहयोग देने वाले उसके सभी पूर्वजों की महानता के बारे में लिखा। उसका दावा था कि
ब्रिटेन में रह रहे भारतीय ‘भले ब्रिटिश लोगों’ के सत्कार का आनंद ले रहे हैं और कै क्स्टन
हाॅल बैठक के प्रस्ताव को नामंजूर करने वाला उसकी चिंता का विषय नहीं है। उसने यह
भी आरोप लगाया कि विनायक के साथियों नेे कु र्सी पर खड़े होकर उस पर छड़ी से वार
किया था। उसने कहा कि इसी कारण उसने ‘सावरकर की आँखों के बीच जोरदार
बरतानवी घूंसा जड़ा था’
110
जिसका उसे लेशमात्र भी अफसोस नहीं है।
समाचारपत्रों ने उत्सुकता से यह भी बताया कि ग्रेज़ इन्न का निर्णय अभी लंबित है। डेली
डिस्पैच
ने विनायक के बारे में ‘उत्कट राष्ट्रवादी. . .बेहतरीन बौद्धिक. . .राजनीतिक
सिद्धांतवादी. . .राजनीतिक आज़ादी के साहित्य से गहरे परिचित’ और वकालती-बार में
उसे ना बुलाए जाने के संबंध में विलंब के लिए, ‘. . .हाउस ऑफ लॉर्ड्स के निर्णय के
इंतजार में जहाँ उन्होंने अपील दायर की है’
111
जैसी सूचनाएं प्रकाशित कीं। बोल्टन
इवनिंग
न्यूज ने भी कहा: ‘इस देश में भारतीय विद्यार्थियों के समुदाय के बीच सावरकर का
प्रमुख स्थान है और सभा के दौरान जो व्यवहार उन्होंने अपनाया, उनके जैसे व्यक्ति के
विचारों के लिए गुंजाइश जरूर रखनी चाहिए।’
112
समाचारपत्र ने कानूनी हलकों में होने
वाली हलचल पर भी ध्यान दिलाया जो उन्हें वकालती-बार में बुलाए जाने के फै सले से जुड़े
ध्यान और उत्तेजना से उठ रही थी। ईस्टर के समय उनका अनुरोध पत्र ‘बड़ी संख्या में
सदस्यों की बैठक में के वल तीन मतों से अस्वीकार हुआ’ जो चौबीस सदस्यीय थी और
आगामी सप्ताह की बैठक में ‘प्रतिष्ठित सलाहकारों द्वारा प्रस्तावित’ उनके नए अनुरोध पत्र
पर विचार किया जाना था। परंतु कै क्स्टन हाॅल की हाथापाई के प्रत्यक्ष नतीजे के अनुसार
14 जुलाई को ग्रेज़ इन्न के सदस्यों की बैठक में विनायक को वकालती-बार के लिए अयोग्य
माना गया था।
113
वहीं स्काॅटलैंड यार्ड को हत्या के आरोपी को इंडिया हाउस के सदस्यों से जोड़ने का
बहाना भी मिल गया था। षड्यंत्रकर्ताओं की तलाश में लंदन पुलिस ने प्रत्येक से पूछताछ
की। वह चाहती थी कि एमपीटी आचार्य एवं अन्य लंदन छोड़ दें।
114
गुप्तचरों ने सैयद हैदर
रज़ा के जरिए आचार्य पर अमेरिका चले जाने का जोर डलवाया, परंतु उन्होंने साफ मना
कर दिया। प्रेस को कु छ सनसनीखेज सूचना देने से रोकने के लिए ही कई भारतीय
क्रांतिकारियों को अमेरिका भेज दिया गया था।
115
इस बीच, 10 जुलाई को ढींगरा के मुकदमे की पुनः शुरुआत हुई। इस मौके पर, पुलिस
कमिश्नर सर एडवर्ड हेनरी, जन अभियोजन के निदेशक सर चार्ल्स मैथ्यूज़ एवं अन्य
उपस्थित थे। पुलिस ‘घने बाल और गहरे गेहुएं रंग. . .बड़ा सुनहरा चश्मा...दुहरी परत का
काले और ग्रे सूट पहने’ पच्चीस वर्षीय ढींगरा को लेकर आई।
116
अभियोजन पक्ष की ओर
से अनेक गवाह पेश किए गए जिनमें कर्जन वायली का पोस्टमार्टम करने वाले डाॅ. थाॅमस
नेविल भी थे। उन्हें सीधी आँख में एक गोली का प्रवेश और गले से गोली बाहर निकलने के
जख्म मिले थे, बाईं आँख में दो घाव और गले की पिछली ओर घाव, एक घाव बाएं कान के
नीचे और अन्य घाव बाईं भौंह के ऊपर मिला था। गोलियां मृतक के सिर के अंदर पाई गई
थीं और मृत्यु का कारण मस्तिष्क में लगी चोट बताया गया।
117
समूची कार्यवाही के दौरान
ढींगरा कटघरे के किनारे का सहारा लेकर खड़े थे, ‘उनका दायां हाथ पीछे और बायां एक
ओर लटका हुआ’ था।
118
टिंडल एटकिन्सन ढींगरा के परिवार की ओर से वकील थे
जिन्होंने एक बार फिर कहा कि वह, ‘अपराध को बेहद घृणा भाव से देखते हैं, और जिन
विचारों या लक्ष्यों को देखते हुए यह अपराध किया गया है, वह उसके प्रति किसी भी
सांत्वना का जोरदार खंडन करते हैं’। ढींगरा के पिता और समस्त परिवार की ओर से
एटकिन्सन ने कहा कि ‘साम्राज्य के लिए उनसे अधिक वफादार प्रजा और कोई नहीं’ है।
119
तुम्हारा आशीर्वाद रूपी पत्र प्राप्त कर, तुम्हारे लिखे को हृदय से महसूस किया
तुम्हारे पत्र ने मेरे हृदय को हर्षित किया और मैं सच में धन्य महसूस करता हूँ,
उसे अपने बागान तक आने दें और अपने घने नील-श्यामवर्णी कँ वल प्रेषित करने दें
उसे डाल से तोड़ श्री राम के चरणों में समर्पित करने दें।
अमर है वह वंश वृक्ष जिसने राष्ट्र कार्य में स्वयं को समर्पित किया
नवरात्र के लिए
प्रेस ने हत्या को बाबाराव सावरकर की उम्रकै द से जोड़ा और कहा कि उनके ‘एक भाई ने
7
समझौते पर पाॅल गैम्बन एवं सर एडवर्ड ग्रे ने हस्ताक्षर किए। यह सहमति जताई गई कि
अनुबंध के अलावा यदि मध्यस्थता से संबंधित कोई अन्य बिंदु उभरते हैं तो उनका निर्धारण
18 अक्तू बर 1907 को द हेग में हस्ताक्षरित इंटरनेशनल कन्वेनशन फाॅर द पैसिफिक
सेटलमेंट ऑफ इंटरनेशनल डिस्प्यूट्स के प्रावधानों के अनुसार किया जाएगा। द हेग
न्यायाधिकरण जिसे पहले परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन कहा जाता था, का अस्तित्व
एक यूरोप आधारित समझौते के तहत किया गया था जो बाद में अंतरराष्ट्रीय कानून
नियमावली बन गए थे।
सावरकर मामले में न्यायाधिकरण संयोजन पर निम्न रूप से समझौता हुआः
1. श्री बीरनेर्त, ब्रसेल्स के राज्यमंत्री एवं बेल्जियन चेम्बर ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स के सदस्य
जो न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के तौर पर रहेंगे।
2. ब्रिटेन से, अर्ल ऑफ डेसार्ट, के सीबी, हिज़ मैजस्टी ट्रेजरी के पूर्व साॅलिसिटर जनरल,
दिवंगत सम्राट के प्रतिनिधि एवं अभियोजन पक्ष के निदेशक।
3. फ्रांस से, श्री लुइ रिनाॅल्ट, फ्रांसीसी विदेश मंत्रालय के कानूनी सलाहकार।
4. श्री ली याॅन्खी ए.एफ. दि सेवाॅना लोमैन, द हेग में पूर्व गृह मंत्री।
5. श्री ग्राम, नाॅर्वे के पूर्व राज्य मंत्री।
35
उपरोक्त सभी द हेग की स्थायी मध्यस्थता अदालत के सदस्य थे। आयर ए. क्रो ब्रिटिश
एजेंट के तौर पर वहाँ उपस्थित रहे। न्यायाधिकरण के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प ब्रिटेन और
फ्रांस के बीच मामले को विराम देकर भारत में मुकदमा चलाने का था। वैसे भी
न्यायाधिकरण के पास फरवरी-मार्च 1911 तक मामले का निपटारा करने का समय था।
लंदन प्रेस ने ब्रिटिश सरकार को इस मुश्किल में पड़ने के लिए फटकार लगाई थी। जैसा कि
द टाइम्स
के तीखे संपादकीय के शब्द थेः
बेशक यह बहुत अफसोस का विषय है कि भारतीय अदालतों में अपराधी ठहराए गए
एक कै दी के भाग्य का निर्णय अंतरराष्ट्रीय कानूनों के आधार पर किसी अन्य ट्राइब्यूनल
पर निर्भर हो जाए, जो, अपने आप में कितना भी महत्वपूर्ण हो, परंतु कै दी के अपराध
से पूर्णतया असंबद्ध हैं। परंतु इसके लिए, दुर्भाग्यवश के वल हमारे अपने अधिकारियों
की अयोग्यता जिम्मेदार है जिन्होंने सावरकर को किसी विदेशी तट पर लगने वाले
जहाज से भेजा जबकि इंग्लैंड से भारत तक सीधे जाने वाले भी कई जहाज मौजूद हैं;
और दूसरा, मोरिया
की यात्रा के दौरान जिन अधिकारियों पर सावरकर की जिम्मेदारी
थी, जाहिर है उनकी कल्पनातीत लापरवाही ने ही उसे पलायन करने का अवसर प्रदान
किया था।
36
होमवर्ड मेल फ्रॉम इंडिया, चाइना एंड द ईस्ट
ने खेद व्यक्त किया:
मार्से में सावरकर के पलायन और दोबारा पकड़े जाने का ब्योरा पढ़कर प्रत्येक
विचारशील व्यक्ति शर्म से भर उठा होगा। इस देश के प्रशासन को एक बार फिर भारी
अपमान का सामना करना पड़ रहा है। राजद्रोह एवं हत्या के लिए उकसाने के आरोपों
के अंतर्गत सावरकर हिरासत में थे। उनके अपराध या निर्दोषी होने का फै सला अदालत
को करना है; इसलिए वह बेहद संगीन अभियोग के तहत हिरासत में हैं इसके लिए हमें
सोचना बिल्कु ल ही अनावश्यक है। उन्हें मुकदमे के लिए बंबई लाना चार अधिकारियों
की जिम्मेदारी थी। उन्होंने अपने फर्ज का निर्वाह कै से किया ?. . . कोई कम अक्ल
व्यक्ति को भी यह समझ आ सकता है कि यदि सावरकर को पलायन करना ही था तो
मार्से ही वह स्थान हो सकता था।
37
एक ओर जहाँ द हेग में मध्यस्थता कार्यवाही जारी थी, उसी दौरान भारत में मुकदमा
चलाए जाने के कारण अनेक नेताओं, आन्दोलनकारियों एवं कानूनी विशेषज्ञों ने भी ब्रिटिश
सरकार के दोगले चरित्र पर सवाल उठाए। उदाहरण के लिए, लंदन स्थित अंतरराष्ट्रीय
मध्यस्थता एवं शांति समिति भारत में चल रहे मुकदमे को लेकर खासी नाराज थी। 27
अक्तू बर 1910 को उन्होंने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गयाः
यह समिति, एक ओर फ्रांसीसी जमीन पर सावरकर की गिरफ्तारी का द हेग कोर्ट द्वारा
संदर्भ उठाए जाने पर संतोष व्यक्त करती है, वहीं द हेग कोर्ट द्वारा निर्णय सुनाए जाने
से पहले मुकदमा आरंभ करने पर विरोध व्यक्त करती है। अतः, परिस्थितियों को देखते
हुए समिति ट्राइब्यूनल को बिना विलंब गठित करने पर जोर देती है।
38
भारत में मुकदमा शुरू किए जाने पर ल’ह्यूमेंते
ने समाचार पर चेतावनी जताईः ‘हम इन
न्यायाधीशों की निंदा करना चाहते हैं, जो, जारी बातचीत के नतीजों का इंतजार करने की
बुनियादी शिष्टता न दिखाते हुए. . . आगे बढ़े, और सबके बावजूद, सावरकर पर मुकदमा
शुरू कर दिया। यदि हम इस कार्यवाही को मुकदमा कह सकें तो।’
39
परंतु ब्रिटिश सरकार को इस मतभिन्नता की परवाह नहीं थी और वह नासिक षडयंत्र
मामले को रोकना नहीं चाहती थी। मुकदमे को रोकने की सभी सलाहों को दरकिनार कर
दिया गया। दूसरी ओर, बयानों को जल्दी सुनने एवं 1910 के अंत या जनवरी 1911 तक
मामले को समाप्त करने पर जोर दिया गया। विनायक को भारत की जेल में बंद रखना,
अंग्रेज सरकार के लिए बेहद खतरनाक था। जहाँ एक ओर अंतरराष्ट्रीय वार्ताएं सरगर्म थीं,
दिखावटी मुकदमे के कारण विनायक का भविष्य अधर में लटका था, क्योंकि मुकदमे का
फै सला पहले ही निश्चित हो चुका था।
बंबई, सितंबर 1910
बिना ज्यूरी और अभियुक्त द्वारा अपील ना किए जाने के अधिकार वाले विशेष
न्यायाधिकरण ने बंबई में सितंबर 1910 में अपना काम शुरू किया। इसमें बंबई उच्च
न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश सर बेसिल स्काॅट, न्यायाधीश गणेश चंदावरकर
40
एवं
न्यायाधीश हीटन थे। अभियोजन पक्ष में बंबई के एडवोके ट जनरल थे – जार्डिन, वेल्डन,
वेलिंकर – और निकल्सन सरकारी वकील थे। विनायक एवं उनके सह-अभियोगियों की
ओर से जोसेफ बैप्तिस्ता, गोविंदराव गाडगिल, चित्रे, सेठना, ठाकर एवं रांगेनेकर थे।
विनायक को नासिक जेल से पूना की यरवदा जेल और वहाँ से बंबई की डोंगरी जेल लाया
गया। विनायक को यहाँ तीन मुकदमों का सामना करना था।
पहला, नासिक षडयंत्र मामला था, जिसमें अड़तीस अन्य सह-अभियुक्त थे। अभियोजन
पक्ष ने जनवरी से अप्रैल 1910 के बीच 278 बयान तैयार किए थे। 15 सितंबर 1910 को
कार्यवाही आरंभ होने पर, विनायक की प्रसिद्धि को देखते हुए, उनको अतिरिक्त सुरक्षा में
एक विशेष वैन से वहाँ लाया गया। कहा जाता है कि उनके कठघरे में पहुँचते ही तालियांे
का शोर सुनाई दिया। श्रोताओं की खाली बैंचों और गैलरियों को देख वह हैरान थे कि
तालियां किसने बजाई हैं, तो पता चला कि यह उनसे निचले कठघरे में मौजूद सह-
अभियुक्तों का काम था। यहीं लंबे समय बाद विनायक ने अपने भाई नारायणराव को
देखा। दोनों भाइयों ने स्नेहभाव से एक दूसरे को देखा और बिना कु छ कहे हिम्मत बंधाई।
सरकार को इस मामले में चार समर्थक मिल गए थे – काशीनाथ अंकु शकर, दत्तात्रेय जोशी,
डब्ल्यू.आर. कु लकर्णी और चतुर्भुज अमीन।
41
कार्यवाही के आरंभ ने विनायक के वकील बैपतिस्ता ने गिरफ्तारी से जुड़े अंतरराष्ट्रीय
विवाद के मध्य मामला शुरू करने से जुड़ा बुनियादी सवाल उठाया। उन्होंने कहाः
बंबई लाए जाते समय, पीएंडओ लाइनर मोरिया
जब फ्रांसीसी जलसीमा में था, उस
समय सावरकर को किसी से बात करने की इजाजत नहीं थी। मार्से पहुँचने पर
सावरकर ने अपनी गिरफ्तारी को गलत बताते हुए उन्हें छोड़ देने का अनुरोध किया था।
बेशक, यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया था। इतना ही नहीं, मोरिया पर पहुँचे दो
फ्रांसीसी अधिकारियों को भी सावरकर से बात नहीं करने दी गई थी। इसके बाद वह
पलायन को उन्मुख हुए। किनारे पर पहुँचकर उन्होंने दो अंग्रेज गुप्तचरों एवं मोरिया
के
तीन अधिकारियों को पीछे आते देखा। वह 300 गज तक दौड़े परंतु पीछा करने वालों
ने उन्हें पकड़ लिया था। इसके बाद उन्होंने फ्रांसीसी अर्धसैनिकों से कहा कि उन्हें
स्थानीय पुलिस के पास ले जाया जाए। तभी गुप्तचर आ पहुँचे और उनमें से एक ने
सावरकर को गले से और दूसरे ने उनका बाजू थाम लिया था। इस बर्बर तरीके से उन्हें
जहाज पर ले जाकर, जंजीरों में जकड़ कर बंद कर दिया गया।
42
जजों ने आपत्ति को तुरंत नकार दिया। 28 सितंबर के अपने निर्णय में अदालत ने कहा
चूंकि अभियोजन पक्ष को एक वृहत षडयंत्र का पर्दाफाश करना है, बेहतर होगा कि
याचिकाकर्ताओं पर अलग-अलग की बजाय एक साथ मुकदमा चलाया जाए। इसके
अलावा, गोपालकृ ष्ण गोखले एवं न्यायाधीश दिनशॉ दावर की हत्या के प्रयास का मामला
भी था। दावर ने 1908 में तिलक के खिलाफ राजद्रोह मामले में मध्यस्थता की थी।
लिहाजा, अदालत का मानना था कि संभावना से इतर मुकदमा कहीं व्यापक फलक पर
काम कर रहा था।
1 अक्तू बर 1910 को अदालत ने प्रत्यर्पण अधिनियम पर चर्चा की जिसके अंतर्गत
विनायक को भारत लाया गया था। विनायक से बार-बार पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह
अदालत को मान्य नहीं मानते, इसलिए यहाँ कु छ कहना उचित नहीं समझते। उन्होंने
न्यायपालिका का बहिष्कार करते हुए स्पष्ट कहा:
मेरे खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार हैं। मैं इंग्लैंड में भी मुकदमे की कार्यवाही का
हिस्सा रहा हूँ जहाँ उम्मीद की जाती है कि अदालतों में आपको इंसाफ मिलेगा। वहाँ
प्रशासन बर्बर शक्ति पर निर्भर नहीं रहता। वहीं भारतीय अदालतों के हालात बिल्कु ल
उलट हैं। इसलिए मैं भारतीय कानून की अदालत के प्रति उत्तरदायी नहीं हूँ। लिहाजा,
मैं कोई भी बयान देने या अपने बचाव में सबूत देने से इनकार करता हूं।
43
विनायक के खिलाफ पांच आरोप दायर किए गएः
44
1. सम्राट के खिलाफ युद्ध करने एवं युद्ध के लिए उकसाने का आरोप (आईपीसी, 121)।
2. सम्राट के खिलाफ युद्ध का षडयंत्र (आईपीसी, 121)।
3. सम्राट के खिलाफ युद्ध के लिए शस्त्र संग्रहण (आईपीसी, 121)।
4. राजद्रोह (आईपीसी, 122)।
5. हत्या करने के लिए उकसाना (आईपीसी 302 एवं 109)।
जैसे-जैसे मुकदमा आगे बढ़ा, इनमें से कु छ आरोप हटा लिए गए और कु छ में विस्तार
किया गया। उदाहरण के लिए, हत्या के लिए उकसाने के मामले को दो भागों में विभक्त
किया गया। पहले आरोप में, लंदन एवं अन्य स्थानों पर रहते समय विनायक भारत सरकार
के अधिकारियों की हत्या के लिए कु छ विशिष्ट एवं अन्य व्यक्तियों से मिले थे। इस षडयंत्र
को अंजाम देने के लिए उन्होंने फरवरी 1909 में बीस ब्राउनिंग पिस्तौलें लंदन से बंबई भेजी
थीं। इसका नतीजा, उसी वर्ष दिसंबर में नासिक में अनंत कन्हेरे द्वारा जैक्सन की हत्या के
रूप में सामने आया था। दूसरा आरोप, विनायक द्वारा विशिष्ट एवं अन्य व्यक्तियों के साथ
मिलकर ‘भारत सरकार को आपराधिक शक्ति दिखाना और आपराधिक शक्ति से
आतंकित करना’
45
और यह कार्य एक बार फिर ब्राउनिंग पिस्तौलें भेजकर किया गया था।
1906 और उससे पहले विनायक के भाषणों पर भी राजद्रोह का आरोप लगा। इन आरोपों
को ‘नासिक हत्या मामला’, ‘नासिक षडयंत्र मामला’ एवं ‘हत्या एवं राजद्रोह के लिए
उकसाना’ जैसे तीन मामलों के अंतर्गत रखा गया। नासिक हत्या मामले में कन्हेरे, कर्वे और
देशपांडे को पहले ही 19 अप्रैल 1910 को फांसी दी जा चुकी थी एवं अन्य आरोपियों पर
मुकदमा चलना शेष था।
नासिक षडयंत्र मामले में विनायक के साथ, नासिक, बंबई, पेन, पूना,
46
येओला,
औरंगाबाद, हैदराबाद एवं दक्कन के अन्य स्थानों से अड़तीस अभियुक्त थे। इनमें से एक
को छोड़, शेष सभी मुख्यतया चितपावन ब्राह्मण थे। सत्ताईस पर अपराध सिद्ध हुआ और
उन्हें विभिन्न श्रेणियों में सज़ा मिली।
47
उनहत्तर दिनों तक चले इस मुकदमे में बयान देने के
लिए तीस गवाह लाए गए थे।
48
आरोपियों में से तीन - शंकर बलवंत वैद्य, विनायक
सदाशिव बर्वे एवं विनायक काशीनाथ फू लम्ब्रिकर गवाह बन गए और उन्हें छोड़ दिया गया।
49
जब मुझे पता चला कि तुर्की इस युद्ध में जर्मनी से जा मिला है, तो उस युद्ध को भारत
की स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्ष में इस्तेमाल करने की अपनी योजना को मुझे बदलना पड़ा।
जर्मनी के साथ तुर्की के गठजोड़ ने वैश्विक-इस्लामवाद के खतरे को बढ़ा दिया है और
इस कदम को मैं भारत के लिए भावी खतरा देख रहा हूं। मुझे लगता है कि इस युद्ध में
तुर्की ने जर्मनी की पहुँच भारत तक बढ़ानी संभव की है जिससे भारत में कठिन स्थिति
उत्पन्न हो गई है। यह बेशक, मेरी योजना अनुरूप स्थिति थी। क्योंकि तब इंग्लैंड भारत
को उसके सभी अधिकार देने पड़ते, या भारत स्वयं इंग्लैंड और जर्मनी की जर्जर
अवस्था के कारण उन्हें छीन लेता। चूंकि इस विध्वंसक मुकाबले में दोनों सशक्त
प्रतिद्वंदी टूट चुके होते, जीवन और मृत्यु में संघर्षरत दो विशालकाय हाथियों की तरह।
टूटे, घायल, खून से लथपथ और थके -मांदे, बिना किसी की जीत के रणभूमि में गिरे
मिलते जो उस अवस्था का फायदा उठाने वालों के लिए आदर्श स्थिति होती। परंतु मुझे
डर था कि इस विकट युद्ध में भारत के मुस्लिमों को उत्तर से मुस्लिम जत्थों को बुलाकर
भारत पर हमला और उसे जीतने का खतरनाक अवसर मिल जाता, जिसे उकसाने में
रूस का हाथ होता। अतः युद्ध के इन दूर और पास के नतीजों पर शांत भाव से सोचते
हुए, मैंने अपनी कार्यविधि निर्धारित की और उसके आरंभ में, मैंने भारत सरकार को
इस संबंध में एक लंबा पत्र भेजना तय किया।
21
इस अनुसार, अक्तू बर 1914 में अंडमान के चीफ कमिश्नर को दायर याचिका में विनायक ने
कहा कि वह ‘स्वैच्छिक प्रयास देखकर प्रसन्न हैं’, अतः ‘भारत सरकार जैसा चाहे, मौजूदा
युद्ध में कोई भी स्वैच्छिक सेवा देने को तैयार हैं’। इसी याचिका में उन्होंने ‘भारत में
राजनीतिक अपराध करने वाले सभी राजनीतिक कै दियों को छोड़ने’ की आम अपील भी
की। ऐसा कई देशों में किया जा रहा था और आयरलैंड में भी। उनका मानना था कि ऐसे
कठिन समय में भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम से उसे अनेक भारतीयों की निष्ठा और
स्नेह प्राप्त होगा, जो खुद उनकी तरह सशस्त्र मार्ग पर चल पड़े थे। भारतीयों द्वारा
यूरोपियनों से लड़ने के संबंध में प्रचलित वर्णवादी अनुक्रम पर सूक्ष्म टिप्पणी में विनायक ने
कहा, ‘सुरक्षा के लिए किए जाने वाले प्रयास में व्यक्ति को अधिकार संपन्नता महसूस होती
है; और साम्राज्य के अन्य बाशिंदों के साथ मिलकर लड़ने में भारत की मौजूदा जनता को
बराबरी का अहसास होगा और बेशक उसके प्रति निष्ठा भी प्रबल होगी।’ अपनी ओर से
ऐसे प्रस्ताव को सरकार द्वारा नकार देने के डर को दूर करते हुए उन्होंने अंत में कहाः ‘यदि
सरकार को शक है कि प्रस्ताव के आधार पर मैं अपनी रिहाई चाहता हूँ तो मैं चाहूंगा कि
मेरे स्थान पर अन्य सभी को रिहा कर दिया जाए और स्वैच्छिक अभियान को जारी रहने
दिया जाए – मुझे यह देख प्रसन्नता होगी कि जैसे मुझे ही कोई सक्रिय भूमिका दी गई हो।’
22
परंतु विनायक के अनुसार मुद्दा एकतरफा व्यवहार से कहीं बड़ा था। अंडमान भेजे जाने
वाले कई कै दियों का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था और उन्होंने मुस्लिम नाम स्वीकार कर
लिए थे। आगंतुक ‘चालानों’ के साथ, सीधे-सादे एवं युवा हिन्दू कै दियों के साथ भेदभाव
किया जाता और मुस्लिम पहरेदार उनसे कठोर शारीरिक श्रम कराते और प्रताड़ना देते थे।
वहीं मिठाइयां एवं तम्बाकू तथा हल्के श्रम जैसे प्रलोभनों के चलते, युवा आरामदेह बंदी
जीवन के लिए धर्म परिवर्तन को तैयार हो जाते थे। तुरंत, उन्हें दूसरी ओर ले जाकर
मुस्लिम कै दियों के साथ खाना खिलाया जाता।
40
जेल में हिन्दुओं और मुस्लिमों के लिए
अलग रसोई और रसोइये थे। उन्हें खाना भी अलग ही खाना पड़ता था। ‘परिवर्तित’ होने
का अर्थ उन कै दियों को मुस्लिम कै दियों के साथ भोजन से होता, जहाँ उसे ‘मुस्लिम
भोजन परोसा जाता’
41
(संभवतः गोमांस) था। इसके बाद, हिन्दू भाइयों से उनका संबंध
विच्छेद हो जाता, जो उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते थे। उन्हें जल्दी ही मुस्लिम नाम
दिया जाता और धर्मांतरण की प्रक्रिया संपूर्ण होती। धर्मांतरण की समूची प्रक्रिया में कु रान
के अध्ययन, नमाज़ पढ़ने या खतना जैसे कार्य नहीं जोड़े जाते थे। कै दी अपने मुस्लिम नाम
ही पंजीकृ त कराते और समय के साथ वही उनकी पहचान बन जाते थे। धीरे-धीरे वह
इस्लाम के धार्मिक रीति-रिवाज अपनाकर पूरे मुस्लिम हो जाते थे। वापसी का कोई मार्ग ना
देख और अपने मूल समुदाय के तीव्र विरोध एवं निंदा को देखते हुए, नव-धर्मांतरित के पास
नए धर्म के साथ जुड़े रहने के सिवा कोई चारा नहीं बचता था। इसमें जमादार की कोई
कमी नहीं थी; हिन्दू समुदाय ही अपने दुराग्रहों और संकीर्ण सोच से सुनिश्चित कर देता था
कि धर्मांतरित व्यक्ति नए धर्म से ही जुड़ा रहे।
42
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने भारत के धार्मिक मामलों में ज्यादा हस्तक्षेेप
ना करने का फै सला किया था। हालाँकि, अन्य जेलों में ईसाई मिशनरी कै दियों का धर्म
परिवर्तन कर देते थे, परंतु विनायक ने गौर किया कि अंडमान में वह के वल उपासना करते
और धर्मांतरण का कोई अतिरिक्त प्रयास उन्होंने नहीं किया। परंतु यहाँ पठान जमादारों की
बात मानने और कम उत्पीड़न के लाभ को देखते हुए कई हिन्दू धर्म परिवर्तन को तैयार हो
जाते थे। विनायक लिखते हैंः ‘प्रत्येक सप्ताह या पखवाड़े मैं किसी एक हिन्दू कै दी को
उसके मुस्लिम साथियों के साथ बैठा देखता। यह दृश्य देखना मेरे लिए असंभव था। परंतु
मैं यहाँ के वल एक कै दी था; उनको बचाने के लिए क्या कर सकता था ? इस अपवित्र चलन
के खिलाफ हिन्दू कै दियों को भड़काने का मैं भरसक प्रयत्न करता। परंतु उन सब में मुझे
लापरवाही दिखी। उनमें से प्रत्येक कहता, ‘मुझे इससे क्या ?’ और ‘तो मैं क्या करूं ?’’
43
यहाँ तक कि कष्ट झेल रहे राजनीतिक कै दी भी, शोषक जमादारों द्वारा किए गए धर्म
परिवर्तन के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाते थे। ऐसे कार्यों के खिलाफ वह विनायक का
साथ देने के प्रति उदासीन थे। उनका तर्क था कि हिन्दू मत ऐसे लोगों के बिना कहीं बेहतर
रहेगा जो जबरदस्ती एवं प्रताड़ना के डर से धर्म बदलने को तैयार हो जाते हैं। विनायक ने
तर्क दिया है:
जिस व्यक्ति का तुम धर्म परिवर्तन करना चाहते हो, वह दुश्चरित्र, पापी या शराबी हो
सकता है। परंतु गहरे मनन के बाद हमें सामाजिक नियम ज्ञात हुआ है कि यदि आप
किसी को, वैध या अवैध विधि से ईसाई या मुसलमान बनाते हैं और उसका नाम
बदलते हैं, तो आप उसकी शक्ति में वृद्धि कर रहे हैं। उसके बच्चे भी नाम, जन्म एवं
साहचर्य से मुस्लिम और ईसाई बनेगे। और वह अपने अभिभावकों से बेहतर साबित
होंगे और उच्चकोटि, व्यवहारकु शल मुस्लिम नागरिकों के तौर पर श्रीवृद्धि करेंगे। उसके
बनिस्बत, हिन्दू समुदाय अपने अच्छे सदस्यों से वंचित रह जाएगा. . .
44
इस विचार से
प्रेरित रहकर, मैंने जेल में हिन्दू कै दियों को शिक्षित किया जिनमें विशेषकर राजनीतिक
कै दी थे, ताकि सबसे निकृ ष्ट हिन्दू कै दियों को इस्लाम के चंगुल से छु ड़ाया जा सके , उन्हें
पठान जमादारों की जोर-जबरदस्ती और खुशामदों से बचाया जा सके ।
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अंडमान पहुँचने के डेढ़ वर्ष में ही विनायक ने जबरन धर्मपरिवर्तन के खिलाफ
आधिकारिक शिकायत दर्ज कराई थी। उन्होंने जोर देकर कहा था कि यदि कोई व्यक्ति
अपनी मर्जी या वैचारिक परिवर्तन के कारण परिवर्तित होना चाहता है तो उन्हें कोई
ऐतराज नहीं होगा। परंतु स्पष्ट है कि जेल का चलन दोनों विचारों से दूर है। इस कारण,
विनायक को तंग किया गया और पठानों द्वारा जेल में उन पर जानलेवा हमले भी हुए,
जिसमें उन्हें विषाक्त भोजन देने का प्रयास भी था, परंतु बाबाराव की मुस्तैदी से वह प्रयास
विफल रहा।
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एक बार, जेल वार्डन की मिलीभगत से, विनायक को भोजन में जहर देने
के लिए विष की बोतल चोरीछु पे अंदर पहुँचाई गई थी। परंतु अधीक्षक के औचक निरीक्षण
के कारण तस्कर घबरा कर बोतल वापस ले गया। इस तरह, कई बार भाग्य के सहारे
विनायक की जान बची थी।
जेल प्रशासन के मुखबिर बन चुके कई कै दियों ने भी विनायक और बाबाराव पर ऐसे
हमलों में सहयोग किया था। प्रमुख भेदियों में से एक को सब ‘आईनेवाला बाबू’ कहकर
पुकारते थे। वह अक्सर सावरकर बंधुओं पर बेसिरपैर के आक्षेप लगाता था, जिनमें
बाबाराव पर एक जेल प्रहरी की हत्या करने का आरोप भी था। उसने बाबाराव की कोठरी
में हंसिया एवं अन्य हथियार छु पाए और बैरी को सूचना दी कि बाबाराव हथियार जमा कर
उसे मारने की योजना बना रहे हैं। परंतु हर बार, बाबाराव की सक्रियता से उसकी
चालबाजी नाकाम हो जाती। विनायक और खुद को समस्या से बचाने के लिए वह अक्सर
आईनेवाला बाबू द्वारा वितरित कू ट भाषा के संदेश भी प्राप्त कर पढ़ लेते थे। धर्मांतरण
विरोधी मुहिम के दौरान, एक बार जब वह नहाकर निकले तो उनके सिर पर जोर का प्रहार
भी किया गया था, जिस कारण काफी रक्त बहा था।
धर्मांतरण पर शिकायत सुन रहे अधीक्षक ने साफ तौर पर विनायक से पूछा कि वह उन्हें
पुनः हिन्दू धर्म में क्यों नहीं ले सकते। विनायक का जवाब था कि हिन्दू धर्म धर्मांतरण में
विश्वास नहीं करता, अतः यह असंभव था। परंतु तुरंत उनकी सोच स्वामी दयानंद सरस्वती
(1824-83) और आर्य समाज के विचारों तक पहुँची।
स्वामी दयानन्द हिन्दू धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए और उसके धार्मिक अभ्यासों को
मूल वैदिक उद्भव तक ले जाने के लिए संघर्षरत रहे थे। उन्होंने वैदिक हिन्दू धर्म के
एके श्वरवाद और मूर्ति रहित उपासना पर जोर दिया था। उन्होंने शुद्धि या हिन्दुओं को पुनः
मत में शामिल करने की विधि भी आरंभ की थी। परंतु उनके अवसान के बाद ही इस विधि
में तेजी आई थी।
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पंजाब एवं उत्तरी भारत के कई हिस्सों में शुद्धि समारोह आयोजित
होते थे। स्वामी दयानन्द के बाद, 1920 के दशक में स्वामी श्रद्धानन्द के अधीन शुद्धि
अभियान ने गति पकड़ी थी। विनायक ने अनेक धर्मांतरित कै दियों के लिए शुद्धि प्रक्रिया
इस्तेमाल करने का निर्णय किया। उन्हें नहाने को कहा जाता, नए वस्त्र धारण करना, पवित्र
तुलसी के पत्ते खाना, भगवत् गीता के श्लोक सुनना और उच्चारित करना और फिर
तुलसीदास की रामायण का एक अध्याय पढ़ना होता था। इसके साथ, पुनः धर्मांतरण की
सरल प्रक्रिया संपूर्ण होती जिसके अंत में मिष्ठान वितरित किया जाता था। वह अपने पुराने
हिन्दू नाम पुनः प्राप्त करते और विनायक एवं अन्य द्वारा बहुत समझाए जाने के बाद,
अपने धर्म-भाइयों के साथ खाना खाने बैठते थे।
परंतु हिन्दू पहरेदार एवं कै दी विनायक के ‘ईशनिंदा’ कृ त्य के गहरे विरोधी थे। उन्होंने
उनको ‘भंगी बाबू’ कहना शुरू किया या ऐसा व्यक्ति जो अपनी जाति छोड़ ‘अस्पृश्य’ बन
चुका था। परंतु ऐसे किसी आक्षेप का विनायक पर असर नहीं पड़ा। उन्होंने धर्मांतरित
व्यक्तियों द्वारा भोजन ‘प्रदूषित’ किए जाने जैसे हल्के विचारों पर तार्किक दृष्टिकोण दिया
और कहा कि इस सोच के कारण मामूली तम्बाकू या भोजन के सहारे दूसरों को उनके मत
में सेंध लगाना कितना आसान हो जाता है। धीरे-धीरे, जेल के भीतर ही नहीं, बल्कि बाहर
काम करने वालों या भारतीय जेलों में भेजे जाने वाले कै दियों के बीच इस अभ्यास ने गति
पकड़ी। अतः, समाज सुधार, अपने धर्म के प्रति प्रेम और लोभी प्रयासों से उसकी रक्षा का
बीज बोया जा चुका था। विनायक के शब्दों मेंः
यदि अंडमान में चले आंदोलन. . .ने हिन्दुओं की आत्मा में इस संभाव्यता को जगाया
कि एक मुसलमान को भी हिन्दू बनाया जा सकता है, तो मैं कु छ हासिल करने में सफल
रहा हूं। परंतु उस समय तक हमारे सामने प्रश्न होता, ‘एक हिन्दू तो मुसलमान बन
सकता है; इसमें शक नहीं; परंतु किसी मुसलमान को हिन्दू धर्म में कै से लाया जाए ?’
सैकड़ों हिन्दुओं ने मुझसे यह सवाल पूछा और उनका सच्चा मत था कि ऐसा नहीं हो
सकता। परंतु अब कोई प्रश्न हमारे समक्ष ऐसी पहेली नहीं खड़ी करता। चूंकि शुद्धि
अभियान ने साबित कर दिया है कि ऐसा हो सकता है और हमने यह कर दिखाया।
मुस्लिम के हाथ का बनाया भोजन हिन्दू खा सकता है, जिससे न तो उसका पेट फटेगा
और न ही उसकी जाति एवं धर्म भ्रष्ट होगा। हिन्दू धर्म इतना कमजोर नहीं; और
अंडमान के हिन्दुओं को यह आभास हो गया था, चूंकि ऐसा उन्होंने पहले नहीं किया
था। उस स्थान पर यह शुद्धि अभियान की महान विजय थी। चूंकि भारत में ऐसे
तथाकथित समझदार और आज़ादी पसंद हिन्दुओं की कट्टरवादी जमात भी है जो फिर
हमें ऐसे ही लालच से उलझाना चाहेंगे। अंडमान में यह जागृति कु छेक तक ही सीमित
नहीं रही बल्कि समूचे क्षेत्र में फै ली और इस नई भावना की जड़ें अंडमान की मिट्टी में
गहरे धँस चुकी हैं।
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कारागार में ही विनायक ने व्यापक हिन्दू संगठन या एकता सिद्धान्त पर जोर दिया था।
उन्होंने सिख, सनातनी (पारंपरिक हिन्दू), आर्य समाजी, जैन और बौद्ध मत के लोगों को
मिलाकर एक अखिल-भारतीय गठबंधन पर विचार किया। इंग्लैंड में उन्होंने, ‘हिन्दू’ होने
का अर्थ की परिभाषा भी निर्धारित की थी; वह धर्म के मानने वालों तक सीमित नहीं थी,
जिसे हिन्दू कहा जाता है। परंतु वहाँ उन्हें विचार को आकार देने का मौका नहीं मिला था।
सेल्युलर जेल में धर्मांतरण के दृश्य देख कर उन्हें यह विचार विकसित करने की प्रेरणा दी
थी। इसी विचार ने उन्हें, भिन्न वर्गों में बंटे हुए समुदाय को एकजुट करने की दिशा में भी
सक्रिय किया। बिखराव के कारण ही समय-समय पर समुदाय को नुकसान उठाना पड़ा
था। विनायक का मानना था, ‘हमारे देश को अपनी जन्मभूमि और धर्म मानने वाला व्यक्ति
हिन्दू है।’ उनकी राय में यह परिभाषा ‘समाज में और अलगाव को रोकने, हिन्दुओं को
भारत के लोगों का एक समुदाय बनाने में सशक्त रहेगी।’
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उन्होंने लिखा है:
व्यक्ति को मोक्ष उसके अपने ही धर्म में प्राण त्यागने पर मिलता है. . .हम अब किसी
हिन्दू लड़के या लड़की, पुरुष या स्त्री, चाहे वह कितने भी निचले स्तर पर हों, अन्य धर्म
में नहीं जाने देंगे, और हम उन्हें पुनःधर्मांतरित करने में भी पीछे नहीं रहेंगे जिन्हें तुम
धोखे से अपने मत में ले गए थे. . .यह प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह एक हिन्दू को
हिन्दू बने रहने की सीख दे। यह सिद्धांत उसके अपने समुदाय और संस्कृ ति के संरक्षण
एवं विकास के लिए आवश्यक है।
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1915 में पहले लाहौर षडयंत्र मामले में सज़ा पाकर बड़ी संख्या में आने वाले कै दियों के
आने के साथ ही दैवी कृ पा से विनायक के संगठन अभियान को तेजी मिली। यह मामला
सिख निर्वासितों (गदर पार्टी के सदस्य) एवं अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करने वाले
पंजाबियों से जुड़ा था। उनमें से एक भाई परमानन्द, आर्य समाज सुधारक के तौर पर
ब्रिटिश गिनी गए थे। जहाँ से वह संयुक्त राज्य अमेरिका पहुँचे और वहाँ दो वर्ष तक बर्क ले
में औषधि विज्ञान का कोर्स किया।
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वहाँ वह लाला हरदयाल के संपर्क में आए जिन्होंने
गदर अभियान की नींव रखी थी। भाई परमानन्द को 5000 गदर कार्यकर्ताओं के साथ
भारत आकर पेशावर और उत्तर-पश्चिम प्रांत के अन्य स्थानों में विद्रोह भड़काना था। परंतु
वह गिरफ्तार हो गए और 1915 में उन्हें मौत की सज़ा हुई।
वाइसरॉय ने हालाँकि, सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया और भाई परमानन्द,
लाहौर षडयंत्र मामले में सज़ा पाए सत्तर अन्य कै दियों के साथ अंडमान भेजे गए। सिख
कै दियों के आगमन पर विनायक को खुशी हुई क्योंकि वह हमेशा ही इस समुदाय को
स्वतंत्रता अभियान से जोड़ना चाहते थे। आगंतुक क्रांतिकारियों में से कई ने विनायक को
सम्मान दिया क्योंकि वह उनकी पुस्तकें पढ़ चुके थे। उन्होंने बताया कै से उनकी पुस्तकें
दुनिया भर में हजारों युवाओं को सशस्त्र संघर्ष के लिए प्रेरित कर रही हैं। यह सुनकर
विनायक हैरान हुए कि सेल्युलर जेल में उनको दी जाने वाली प्रताड़ना के बारे में अमेरिका
के समाचार पत्रों में भी छापा गया था और यह पढ़ उनमें से कई ने प्रेरणा प्राप्त की। जहाँ
एक व्यक्ति कोल्हू में जानवर की तरह जुता कष्ट झेल रहा है, ऐसे में स्वतंत्रता संघर्ष में
योगदान ना देने पर वह खुद पर शर्मिंदा भी हुए थे। यह जानकर विनायक को सुकू न मिला।
उनके श्रम ने अन्य को क्रांति मार्ग पर चलने को प्रेरित किया था। वह लिखते हैंः
जब भी अपने कमरे के एकांत में मैं कोल्हू चलाता और फिर थक कर चूर हो जाता, मैं
हमेशा खुद को इस विचार से सांत्वना देता था कि मैं यह सब बर्दाश्त कर लूंगा, यदि
इसकी सूचना बाहरी दुनिया में असंतोष की आग मंे तेल का काम करे, जो मैं जानता
हूँ पूरे देश में जल रही थी। परंतु उसके प्रति निराशा में था। मेरे कष्टों की गाथा कै से
उनके कानों तक पहुँचेगी जो मुझसे इतने दूर हैं ?. . .परंतु जब मेरे सिख मित्र ने मुझे
कहानी सुनाई, तो मैंने खुद से कहा, ‘हां, मुझे यह सब झेलना होगा, चूंकि यह व्यर्थ नहीं
जाएगा, समय पर इसका असर सामने आएगा।’ अग्नि में चर्बी डालकर उसे भड़काने
का यही एक तरीका है। कोई अभियान उसके लिए कष्ट झेलने वालों की दृढ़ता और
धैर्य पर ही अंततः सफल होता है। उसका सबूत सामने था। मेरे पहिया घुमाते ही नीचे
कु ण्ड में गिरने वाली तेल की हरेक बूंद की लकीर और कु आ जो सूखी नारियल गरी को
पीसता था, एक चिंगारी की तरह होता था जो देश भर में जल रही असंतोष की अग्नि
को जलाए रखता था। उसके असर का यह एक स्पष्ट प्रमाण था।
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पंजाबी और सिख कै दी बैरी के उत्पीड़न को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। कई बार, बैरी
की भद्दी गालियों पर उसे ही थप्पड़ पड़ जाते थे। इसके बाद कै दियों को बेंत मारने का दौर
चलता। इस तरह की उथल-पुथल आम होती जा रही थी।
कारागार में चलाए गए शुद्धि अभियान को भाई परमानन्द द्वारा दिए गए सहयोग को
विनायक ने ढके -छु पे संदर्भ में वर्णित किया है। पक्के आर्यसमाजी होने के नाते परमानन्द
शुद्धि दर्षन को समझते थे। विनायक की तरह, लम्बे समय बाद, जेल से रिहा होने पर
उन्होंने 1922 में जात-पात तोड़क के गठन के आधार पर जातिप्रथा उन्मूलन एवं हिन्दू
समुदाय के एकीकरण की दिशा में काम करना शुरू किया था। लिहाजा, विनायक ने शुद्धि
आंदोलन को सफल ठहराया और कहा कि इसने ‘लोगों को एकजुट करने में योगदान दिया
है, और उनके बीच के भेद को यदि दूर नहीं तो कम करने का काम किया और इस प्रांत,
जाति एवं रिवाज के हिन्दुओं को समाज रूप में एकीकृ त किया है।’
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1915 और 1916 के दौरान विनायक के स्वास्थ्य में गिरावट आई। वर्षों तक मुकदमे, जेल
की सजा, भावनात्मक उद्वेग, शारीरिक श्रम एवं कारागार के दूषित माहौल ने असर
दिखाया था। उनके पाचनतंत्र को गहरा नुकसान पहुँचा और वह स्थायी पेचिश एवं बुखार
की चपेट में थे। कारागार के अरुचिकर भोजन ने हालात और भी बिगाड़ दिए थे। चलन के
अनुसार, उन्हें स्वास्थ्य सेवा प्राप्त नहीं हुई और बिगड़ी हालत के बावजूद उन्हें काम करना
पड़ता था। जब 1914 में बाबाराव को भोजन पकाने की अनुमति मिली, वह नारियल के
खोल में कु छ भोजन छु पाकर छोटे भाई के लिए ले आते।
हालाँकि, 28 अक्तू बर 1916 को विनायक को द्वितीय श्रेणी कै दी के तौर पर ‘प्रोन्नत’ कर
दिया गया था। परंतु इसका कु छ अर्थ नहीं था, जैसा कि उन्होंने नारायणराव को पत्र में
लिखा है:
तुमने पिछले पत्र में मुझसे पूछा था कि कारागार में द्वितीय श्रेणी का कै दी बनकर मुझे
क्या सुविधाएं मिलीं। अंडमान में किसी भी कै दी को पांच वर्ष बाद द्वितीय श्रेणी में और
दस वर्षों बाद प्रथम श्रेणी में शामिल किया जाता है, उस समय उसे निजी आवास
स्थापित किए जाने की अनुमति दी जाती है। तो क्या मैं जेल से बाहर जाने को मुक्त हो
गया ? नहीं। क्या मैं अपने भाई से बात करने या उसके साथ रहने को मुक्त हूँ ? नहीं।
क्या उन्होंने मुझे पहरेदार बना दिया; क्या उन्होंने मुझे लॉकअप में बंद करना छोड़ दिया
? नहीं। क्या मुझे परिवार को एक से अधिक पत्र लिखने की अनुमति है ? नहीं। क्या मैं
घर सेे कु छ सामान प्राप्त कर सकता हूँ ? नहीं। पांच वर्षों के बाद सभी अन्य कै दियों को
यह छू ट प्राप्त हुई हैं। परंतु मुझे, जो कारागार में अपना आठवां वर्ष बिता रहा है, ऐसी
कोई सुविधाएं प्राप्त नहीं हुई। तो तुम पूछ सकते हो कि श्रेणी दो वाक्य का क्या अर्थ है।
जिसके प्रति मेरा उत्तर होगाः मैं श्रेणी दो में हूँ क्योंकि मैं श्रेणी दो में हूं। न अधिक न
कम। न बेहतर न कमतर।
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इसी पत्र में विनायक ने हैरानी जताई कि समाचार पत्रों द्वारा राजनीतिक कै दियों को छु ड़ाए
जाने की अपील के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने घोर चुप्पी क्यों साध ली है। अपने ‘खुले,
हवादार और सुसज्जित पंडालों’ में बैठकर कांग्रेस चुप है और ‘सांत्वना रूपी कोई प्रस्ताव
पारित नहीं करना चाहती. . .उनके पास बहाने को एक आंसू तक नहीं’। उन्होंने कहा कि
जबकि खुद उनके ‘दिल हमदर्दी से पिघले जा रहे हैं’ और उन्होंने युद्ध के दौरान कै द किए
गए बंदियों की रिहाई के लिए प्रस्ताव भी पारित किया था, जिन्हें युद्धोपरांत यूं भी छोड़ा
जाना था, तो क्यों कांग्रेस की प्राथमिकता में राजनीतिक कै दी नहीं हैं। कांग्रेस के ढुलमुल
जवाब पर विनायक ने कल्पना की:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य प्रतिष्ठा और परंपरा प्रेमी हैं और शासकों से डरते हैं।
और यही कठिनाई है। कै दियों पर बात करने में कोई खतरा नहीं; परंतु वह हम
क्रांतिकारियों के प्रति कोई शब्द नहीं कहेंगे। क्योंकि इससे वह शासकों के विपरीत
साबित होंगे, और यूरोपियनों के समक्ष प्रतिष्ठा आहत होगी। कांग्रेस का कार्य लोगों की
आवाज़ उठाना है, अपने कु छ बड़े ऊं घते हुए सदस्यों का मुखपत्र बनना नहीं। जब देश
के समाचार पत्रों एवं बैठकों ने हम जैसे राजनीतिक कै दियों को रिहा किए जाने की
मांग रखी, तो कांग्रेस के नेताओं द्वारा उस संबंध में एक भी शब्द न कहना, उसे राष्ट्रीय
संस्था या इकाई कहाने वाला नहीं हो सकता। दुनिया चाहती है कि भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस अपने नेताओं की रिहाई के संबंध में मांग उठाए; दुनिया चाहती है कि वह अपने
राजनीतिक कै दियों को छु ड़ाने और देश के संबंध में परिश्रम करे जैसा कि आयरलैंड,
दक्षिण अफ्रीका एवं ऑस्ट्रिया की मिलती-जुलती संस्थाओं ने किया है। यदि भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस ऐसा नहीं करती तो यह उसके पक्ष में नहीं जाएगा। कांग्रेस को मुखर
और उग्र होने के लिए हमें जोर देना चाहिए। यदि इस विचार पर उसके वरिष्ठ नेताओं
की टांगें कांपती हैं तो बेहतर होगा कि प्रस्ताव पारित होने के समय वह अनुपस्थित रहें।
क्योंकि कु छ व्यक्ति डरपोक हैं और देश को इस खामोशी का दाग नहीं उठाने देना
चाहिए।
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इस दौरान, लाहौर षडयंत्र मामले के एक दोषी सिख राजनीतिक कै दी भान सिंह का बैरी
और उसके आदमियों से जोरदार विवाद हो गया था जिस पर गुस्साए क्रु द्ध बैरी ने उसे खून
की उल्टियां किए जाने तक पीटते रहने का आदेश दिया। उसकी चीखें सुनकर पंजाब के
अन्य कै दी उसे बचाने कोठरी तक पहुँचे। उन्होंने बाद में हड़ताल करने का निर्णय किया।
बीमारी के कारण विनायक उनके साथ हड़ताल में शामिल नहीं हो सके , परंतु उन्होंने कहा
कि वह इसमें उनका मार्गदर्शन और उनकी ओर से एक ज्ञापन-पत्र पेश करने में मदद
करेंगे। इस अभूतपूर्व हड़ताल में सौ से अधिक कै दी शामिल थे। उस समय तक विनायक
को अस्पताल भेजना पड़ा था। वहाँ उनकी मुलाकात भान सिंह से हुई। प्रताड़ना के कारण
उन्हें गंभीर चोटें पहुँची थी और रह-रहकर खून थूकते थे। अंततः, चोटों से उनकी मौत हो
गई। सूचना से पूरे कारागार में सनसनी फै ल गई थी। एक साठ वर्षीय वृद्ध सरदार सोहन
सिंह और पंजाब के एक युवक, पृथ्वी सिंह ‘आजाद’ अनिश्चित भूख हड़ताल पर बैठ गए।
उनकी मांग थी कि भान सिंह की मौत के संबंध में उनके बयान दर्ज किए जाएं। पृथ्वी सिंह
छह महीने तक हड़ताल पर बैठे रहे और बाद में उन्होंने ननी गोपाल की तरह कपड़े पहनने
भी छोड़ दिए थे। वह अस्थियों और चमड़ी का ढाँचा भर रह गए थे। सैद्धांतिक तौर पर
आमरण अनशन के खिलाफ रहने वाले विनायक ने उन्हें इस तरह आत्महत्या करने के
खिलाफ समझाया जिस पर आखिरकार उन्होंने हड़ताल समाप्त कर दी। कई कै दी तेजी से
फै ल रहे क्षय रोग की चपेट में आ गए थे। विनायक के अनुसार ऐसी परिस्थिति में भूख
हड़ताल घातक होती। जेल में विनायक के अपने ऊपर असर के बारे में पृथ्वी सिंह ने लिखा
हैः
विनायक दामोदर सावरकर, जिन्हें मैं अपना गुरु मानता हूं, ने जेल में मुझे लंबा और
भावोत्तेजक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘तुम दिल और दिमाग पर अपना
असर खो रहे हो, तुम इतने कमजोर हो गए हो कि बचने की कोई उम्मीद नहीं है। जीवन
को इस तरह गंवा देने का क्या अर्थ है ? इसलिए भूख हड़ताल बंद करो।’ मैं इस पत्र
का उत्तर देने की हिम्मत या शब्द नहीं जुटा पाया था। उस समय एक मच्छर मुझे तंग
करता रहा। मैंने उसे अपने हाथों से मसलना चाहा। परंतु मैं इतना कमजोर था कि मैं
उसे नहीं मार सका। उस समय अपनी असमर्थता को लेकर सावरकर के पत्र का संदेश
मुझे समझ आया। अपनी कमजोरी के कारण मैं एक मच्छर भी न मार सका, तो
अंग्रेजों को खदेड़ने के बारे में कै से सोच सकता हूँ ? मैंने एक पेंसिल उठाई और उन्हें
लिखा कि मैं नैसर्गिक मौत ही मरूं गा, और मुझे किसी तरह भी मारा नहीं जा सके गा।
इसके बाद 5 महीने और 5 दिनों तक चली हड़ताल समाप्त हुई।
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हड़ताल के कारण जेल की हलचलों पर प्रशासन की नजर पड़ी थी। हालाँकि, भान सिंह के
साथ अमानवीय व्यवहार के बारे में बैरी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया, परंतु उसे कड़ी
फटकार पड़ी और एक विभागीय जांच उसके खिलाफ बैठाई गई। चारों ओर उसकी
बदनामी फै ली और अंडमान में लगातार हो रही उथल-पुथल के कारण सरकार उसे शक
की निगाह से देखने लगी थी।
~
प्रथम विश्व युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका था। मित्र राष्ट्र विजयी रहे थे।
राजशाहियां गिर गई थीं, राष्ट्रीय सीमाएं फिर से खींची जा रही थीं और विजेताओं के बीच
जर्मनी बंट रहा था। 1919 की पेरिस शांति वार्ता के दौरान, चार बड़े राष्ट्रों – ब्रिटेन, फ्रांस,
इटली एवं संयुक्त राज्य अमेरिका ने कई संधियों के अंतर्गत अपनी शर्तें मनवाई। युद्ध ने
भावी टकराव की जमीन तैयार कर दी थी जो कु छ दशकों बाद बड़े रूप में सामने आना
था।
युद्ध के अंत के निकट, ब्रिटिश सरकार भारत में सरकारी एवं प्रशासनिक सुधारों पर
विचार कर रही थी। जून 1917 में भारत के राज्य सचिव का पदभार संभालने वाले एडविन
सेम्युल मोंटेग्यू ने, भारत में स्वायत्त संस्थानों की स्थापना का प्रस्ताव ब्रिटिश मंत्रिमंडल के
समक्ष रखा जिसका लक्ष्य अंततः स्वशासन को लागू करने से जुड़ा था। बंगाल विभाजन
का प्रयास करने वाले विवादास्पद लॉर्ड कर्जन उस समय हाउस ऑफ लॉर्ड्स में सांसद थे।
उन्होंने विषय पर असहमति जताते हुए कहा कि स्वशासन पर अधिक जोर देने की बजाय,
जरूरत प्रशासन के प्रत्येक हलके में भारतीयों की शिरकत बढ़ाने पर होना चाहिए, जो
प्रयास बाद में स्वशासन की ओर पहुँचेगा। अतः, 1917 के अंत में मोंटेग्यू, प्रस्तावित
सीमित स्वशासन पर अपने विचार सुनिश्चित करने के लिए तत्कालीन वाइसरॉय लॉर्ड
चेम्सफोर्ड से मिलने भारत पहुँचे। सुधारों के मुद्दे पर मोंटेग्यू ने, भारत के विभिन्न धड़ों के
लोगों और विनायक सहित प्रमुख राजनीतिक कै दियों से विचार देने का निवेदन किया।
इसी अनुसार, 5 अक्तू बर 1917 को, विनायक ने विषय संबंधी विचारों की रूपरेखा की
याचिका मोंटेग्यू को भेजी। उन्होंने 1914 की अपनी याचिका का हवाला दिया जब लॉर्ड
हार्डिंग ने उन्हें किसी तरह की माफी दिए जाने को ‘असंभव’ कहा था। परंतु प्रथम विश्व
युद्ध के वर्षों के दौरान परिस्थितियों में कई बदलाव आए थे। उन्होंने कहा कि इंसान में नया
भाव प्रकट हुआ है, राष्ट्रों में नई दृष्टि और उम्मीदों ने जन्म लिया है जिनकी झलक उनके
राष्ट्राध्यक्षों की वाणी में दिखती है। विनायक ने अनुमान लगाया कि ऐसे परिदृश्य में, भारत
या ब्रिटिश साम्राज्य दोनों ही दुनिया में बह रही लोकतांत्रिक बयार से अछू ते नहीं रह सकते,
जिसमें पुरानी वर्ण आधारित प्रभुसत्ता धीरे-धीरे सहयोग और गणतांत्रिक रीति को स्थान दे
रही है। परिस्थितियों में परिवर्तन के प्रति उनका तर्क थाः
साम्राज्य के मंत्रिमंडल का संकें द्रक; उसमें उपनिवेशों के मंत्रियों की मौजूदगी और
बेशक नामांकित, भारत के दो प्रतिनिधि; भारतीय युवाओं के स्वयंसेवकों के तौर पर
भर्ती की मंजूरी; फौज में कमीशन पदों का खोला जाना; प्रधानमंत्री का बेहतरीन
भाषण जिसमें उन्होंने घोषणा की कि ब्रिटिश शासनकला इस बात पर निर्भर करेगी कि
वह लाखों भारतीयों को निर्भरता नहीं, अपितु ‘सच्ची सहभागिता’ का अहसास कराए;
और उस पर मौजूदा राज्य सचिव के इस महत्वपूर्ण, निश्चित एवं फै सलाकु न बयान से
और भी साफ हो गया कि यह के वल लक्ष्य ही नहीं, बल्कि भारतीय प्रशासन में फौरी
परंतु सीमित क्रियान्वयन के लिए है।
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उन्होंने तर्क दिया कि यदि अधिकांश सरकारी मुखपत्रों की घोषित स्थिति यह है तो यह
दरबारों, शाही इश्तिहारों, हाथी की सवारियों एवं आतिशबाजी के आधार पर नहीं बल्कि
भारत भर की जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कै दियों की रिहाई से संभव हो सके गा।
उन्होंने कहा, ‘भरोसा के वल भरोसा दिखाने से ही प्राप्त होता है’।
58
अन्य देशों के
उदाहरण देते हुए विनायक ने कहा कि कनाडा में विद्रोह एवं विप्लव चल रहे थे। परंतु लॉर्ड
डर्हम
59
जैसे भविष्यद्रष्टा राजनयिक द्वारा दिखाए गए विश्वास का असर था कि लड़ रहे
क्रांतिकारियों के नेता प्रपौत्र अब ब्रिटिश ओर से फ्लैंडर्स में लड़ रहे थे। अंग्रेजों ने युद्ध में
हराए गए बोर के संबंध में भी ऐसा ही विश्वास दिखाया था। क्या भारत किसी कम विश्वास
का हकदार है, जबकि इतिहास बताता है कि अधिक उदारता और सहज विश्वास उसकी
कमजोरी रही है ? अपनी याचिका में उन्होंने भारत और उसके लोगों के लिए स्वशासन के
अधिकार को इस दिशा में सही कदम बताया।
विनायक ने तर्क दिया कि यदि भारत को गणतंत्र में स्वायत्त साझीदार बनने की इजाजत
मिलती है और यदि निकट भविष्य में भारतीयों को वाइसरॉय की काउंसिल में बहुमत
मिलता है तो वह सामाजिक कार्य, एवं समाज के परिष्करण तथा शुद्धिकरण की दिशा में
काम करेंगे। उन्होंने बताया कि साम्राज्य के खिलाफ उनका और अन्य का विद्रोह किसी
कट्टरवाद या विध्वंसकारी विरोध के कारण नहीं उपजा था। उन्होंने माना ‘जब संविधान
नहीं था, उस समय संवैधानिक धाराओं की बात करना मज़ाक लगता था। परंतु यदि अब
संविधान अस्तित्व में आता है, जैसा कि स्वशासन होगा तो बेहिसाब राजनीतिक,
सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक कार्य करने होंगे जो संवैधानिक तरीके से ही किए जाएंगे
जिससे सरकार संतुष्ट हो सके गी कि राजनीतिक कै दियों में से कोई भी मन बहलाव के लिए
गुप्त गतिविधियों की ओर नहीं झुके गा।’ लिहाजा, राजनीतिक कै दियों की रिहाई, भारत के
प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए ब्रिटिश सरकार की गंभीरता भारतीयों में विश्वास पैदा
करेगी, बल्कि सरकार को इससे मदद के लिए राष्ट्रप्रेमियों के बाजू भी मिलेंगे जो परिवर्तन
की दिशा में काम करेंगे। उन्होंने सवाल उठाया, ‘उस जमीन पर शांति और आपसी भरोसा
कै से पनप सकता है जिसके हर दूसरे घर से भाई या बेटा या पति या प्रेमी या मित्र को छीन
लिया गया हो और वह कारागार में बंद हो ? यह मानवीय प्रवृत्ति के विरुद्ध है क्योंकि
मानवीय संबंध सबसे गहरे होते हैं।’
कु शल वकील की तरह एक बार फिर विनायक ने अपना पक्ष रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय
उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में राजनीतिक कै दी रिहा किए जा रहे
हैं। रूस, फ्रांस, आयरलैंड, ट्रांसवाल एवं ऑस्ट्रिया में आम माफी सामान्य सिद्धांत बन चुका
है। युद्ध छिड़ने के बाद इसमें और भी तेजी आई है। निजी तौर पर आगज़नी और दंगा
फै लाने के अभियुक्त ब्रिटेन के सफ्राजिस्टों को युद्ध शुरू होते ही तुरंत छोड़ दिया गया था।
यह तर्क कै से दिया जा सकता है कि दुनिया को लाभ पहुँचाने वाला कदम, भारत के लिए
घातक होगा ?
उनकी सोच थी कि जब तक देश के हजारों लोगों के नायक कै दखानों में रहेंगे, आज़ादी
को बंदी रखने वाले अधिकार का विरोध जारी रहेगा। वहीं यदि इनमें से कु छ नायकों को
शासन प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार मिलेगा, तो यह नायकों को आदर्श मानने वालों
के लिए उदाहरण होगा और भावी विद्रोह रुकें गे।
विनायक द्वारा याचिका का अंत निम्न तर्क से करना महत्वपूर्ण था:
यदि सरकार सोचती है कि मैं अपनी रिहाई के लिए यह लिख रहा हूं; अथवा यदि मेरा
नाम ऐसी आम माफी को लागू करने में रुकावट बनता है तो सरकार मेरा नाम माफी से
हटाकर अन्य सब को रिहा कर दे; वह मेरे लिए उतना ही संतोषप्रद होगा जितनी मेरी
रिहाई। यदि सरकार इस प्रश्न पर कभी विचार करती है तो आम माफी इतनी व्यापक हो
जिसमें भारत से निष्कासन झेल रहे व्यक्तियों को भी शामिल किया जाए और जिन्हें
जब तक उनकी अपनी धरती पर पराया घोषित किया जाता रहेगा वह भारत सरकार
के प्रतिरोधी रहेंगे, परंतु उनमें से कई, अगर वापस आने की अनुमति पाते हैं तो अपनी
मातृभूमि के लिए खुली एवं संवैधानिक लीक पर काम करना चाहेंगे, जब भी यह नया
और मौलिक संविधान यहाँ अस्तित्ववान होगा।
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जैसी कि उम्मीद थी, विनायक की याचिका सरकार ने रद्द कर दी।
परंतु मोटेग्यू द्वारा प्रस्तावित सुधारों ने रफ्तार पकड़ ली थी। अनेक मंत्रणाओं के बाद,
उसने भूपेन्द्रनाथ बोस, लॉर्ड रिचर्ड हेली-हचिसन, सिक्स्थ अर्ल ऑफ डाॅनोमोर, विलियम
ड्यूक और चार्ल्स रॉबर्ट्स
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के साथ मिलकर रिपोर्ट तैयार की। अंततः, 1919 के भारत
सरकार अधिनियम में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का विलयन हुआ।
इसके तहत द्विसदनीय वैधानिक इकाई का गठन किया गया – विधान सभा और राज्य
परिषद्। 145 सदस्यीय विधान सभा में 103 सदस्य चुनाव से और शेष नामांकित थे। 103
सदस्यों में से 51 आम निर्वाचन क्षेत्रों, 32 सामुदायिक/पृथक निर्वाचन क्षेत्रों से (बत्तीस
मुस्लिम क्षेत्रों और बीस सिख क्षेत्रों से), और जमींदारों, आंग्ल-भारतीय आदि जैसे विशेष
निर्वाचन क्षेत्रों से बीस सदस्य चुने जाने थे। राज्य परिषदों में साठ सदस्य होते थे – तीन चुने
गए और सत्ताईस गवर्नर-जनरल द्वारा निर्वाचित। कें द्रीय विधान सभा का कार्यकाल तीन
वर्ष और राज्य परिषद का पांच वर्ष होता था। विशेष अधिकार बढ़ाते हुए कें द्रीय एवं राज्य
परिषद को अधिक अधिकार दिए गए परंतु वाइसरॉय अभी तक लंदन के प्रति जवाबदेह
था।
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प्रांतीय स्तर पर, चुने गए बहुमत सदस्यों के आधार पर प्रांतीय विधान परिषद के गठन के
साथ व्यापक परिवर्तन आए। बंगाल, मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रांत, पंजाब, बिहार, मध्य प्रांत
एवं असम जैसे प्रमुख प्रांतों में गवर्नर का राज्य स्थापित हुआ। द्विशासन नामक तंत्र के
तहत, कें द्रीय एवं प्रांतीय सरकारों के अधिकारों की सीमा सख्ती से तय कर दी गई। कें द्रीय
या आरक्षित सूची के पास रक्षा, विदेश मामलों, टेलिग्राफ, रेलवे, डाक, विदेश व्यापार एवं
अन्य कार्याधिकार थे, जबकि प्रांतीय या हस्तांतरित सूची स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता,
सिंचाई, जेल, पुलिस, न्याय, लोक-निर्माण, राज्यकर, धार्मिक एवं पुण्यार्थ-निधि आदि
मामलों को देखती थी।
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भारत सरकार अधिनियम के प्रति जनता की प्रतिक्रिया आशानुरूप रही। पूर्णतया संतुष्ट
ना होने पर भी उदारवादियों ने नए सुधारों की रूपरेखा के अंतर्गत उन्हें सफल कराने के
लिए, उन्मुक्त सहयोग देना स्वीकार किया। वहीं एक अन्य मजबूत धड़ा उन्हें अस्वीकार
करने पर उतारू था। तिलक, जो 1915 में गोखले की मृत्यु के बाद से कांग्रेस पर हावी थे,
ने ‘उत्तरदायी सहयोग’ की नीति अपनाई जो सरकार को उसके प्रत्येक वादे पर खरा उतरने
पर निर्भर करती थी।
1919 के दिसंबर अंत में अमृतसर में आयोजित कांग्रेस के चौथे सत्र में चितरंजन दास
की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘सुधार अधिनियम अधूरा, असंतोषजनक और
निराशाजनक’ का प्रस्ताव पारित किया। उसने सरकार से शीघ्र ही स्वशासन के सिद्धांतों के
अनुसार पूरी तरह से जिम्मेदार सरकार स्थापित करने की दिशा में कदम उठाने को कहा।
दास सुधारों को खारिज करने के पक्ष में थे। इस सत्र में गांधी कांग्रेस पर महत्वपूर्ण असर
डालने में कामयाब हुए थे। यंग इंडिया
में उनके आलेख से गांधी के विचार पता चलते हैंः
‘सुधार अधिनियम. . . ब्रिटिश लोगों द्वारा भारत के प्रति न्याय करने का ईमानदार प्रयास है
और उस दिशा में इसे शंका दूर करनी चाहिए. . .अतः हमारा कार्य सुधारों में मीन मेख
निकाल कर आलोचना करना नहीं बल्कि बैठकर काम करना है ताकि वह सफल हो सकें ।’
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मुस्लिमों का आधुनिकीकरण
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जैसा कि मेरा कर्तव्य हिन्दू राष्ट्र को यह बताना है कि वह अपनी नादान धार्मिक रिवायतों,
विधियों एवं विचारों को विज्ञान के इस युग में छोड़ें, उसी प्रकार मैं मुस्लिम समाज से भी
कहना चाहूंगा, जो हिन्दुस्तानी राष्ट्र का अपरिहार्य अंग है, कि वह अपने भले के लिए,
तकलीफ देने वाली आदतें और धार्मिक कट्टरता छोड़े – ऐसा उसे के वल हिन्दुओं के लिए
नहीं करना है, और ना ही इसलिए कि हिन्दू उसकी धार्मिक कट्टरता से डरते हैं, परंतु
इसलिए कि यह अभ्यास उसके अपने समुदाय पर धब्बा हैं और यदि ऐसी पुरातन रीतियों
से जुड़े रहेंगे तो विज्ञान के इस युग में कु चले जाएँगे।
आप कु रान के प्रति बेहद सम्मान रखते हैं तो भी आपको यह विश्वास छोड़ना होगा कि
कु रान के एक भी शब्द पर सवाल नहीं उठ सकता क्योंकि यह अल्लाह का शाश्वत संदेश
है। घरेलू संघर्ष के दौरान पिस रहे अरब के शोषित परंतु पिछड़े लोगों के लिए मुफीद लगने
वाले मानकों को शाश्वत नहीं माना जा सकता; आधुनिक समय में जो प्रासंगिक है, उसके
साथ बने रहने की आदत डालनी चाहिए।
ओह मुस्लिमों! जरा सोचो कि बाइबल के शिकं जे से मुक्त होने के बाद यूरोपियनों के
सामने तुम क्या हो, जिन्होंने हमारेे समय के लाभकारी विज्ञान पर महारत हासिल की है।
तुम्हें स्पेन से खदेड़ दिया गया, तुमने नरसंहार झेले, और ऑस्ट्रिया, हंगरी, सर्बिया तथा
बुल्गारिया में कु चल दिए गए। मुगल शासित भारत से तुम्हारा कब्जा छीन लिया गया। वह
अरब, मेसोपोटामिया, इराक और सीरिया में तुम पर शासन कर रहे हैं।
जैसे हमारे यज्ञ, प्रार्थनाएं, वेद, पवित्र पुस्तकें , प्रायश्चित, श्राप यूरोपियनों का नुकसान नहीं
कर सकते, उसी तरह तुम्हारी कु रान, शहादतें, नमाज, गंडे-तावीज़ों से उन्हें कोई फर्क नहीं
पड़ता। जैसे सेनाओं को युद्ध पर भेजने वाले मौलवियों का यह मानना था कि अल्लाह के
नाम पर लड़ने वाले कभी नहीं हारते, उसी तरह आराम से बैठ एक लाख बार राम नाम
जपते हमारे पंडित थे। परंतु इस सबका यूरोपियनों पर कोई असर ना हुआ। अपने
आधुनिक हथियारों से उन्होंने ना के वल मुस्लिम सेनाओं को नष्ट किया बल्कि, खुदा के
परचम का उपहास किया।
और इसी कारण मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सभी धार्मिक कानूनों की बेड़ियों को तोड़ा
जिनकी वजह से तुर्क देश पिछड़ा था। उन्होंने स्विट्जरलैंड, फ्रांस और जर्मनी से नागरी
कानून, आपराधिक कानून और सैन्य कानून उद्धृत किए और उन्हें कु रान के कानून से
बदला। कु रान में जो लिखा है, उसका उसी तरह पालन करना अब मायने नहीं रखता।
आज का एकमात्र सवाल है, आधुनिक विज्ञान की रोशनी में राष्ट्रीय विकास के लिए ज़रूरी
कार्य करना। आज तुर्की यूरोप के सामने खड़ा हो सकता है तो इसलिए क्योंकि कमाल ने
देश में आधुनिक विज्ञान को प्रधानता दी है। यदि तुर्की कु रान की जिल्द में कै द होता, जैसा
वह के माल सुल्तान या खलीफा के राज में था, तो तुर्क आज भी यूरोपियनों के जूते
चमकाते दिखते, जैसा आज भारतीय मुसलमान दिखता है। यदि तुर्क के लोगों जैसी
तरक्की चाहते हो, तो भारतीय मुस्लिमों को एक हजार वर्षों से चली आ रही धार्मिक
कट्टरता छोड़नी होगी, और आधुनिक विज्ञान को स्वीकारना पड़ेगा।
सिनेमा पर विचार
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‘फिल्में 20वीं सदी की सबसे सुंदर रचनाओं में से हैं। यह मशीनी युग है। हम मशीनों द्वारा
निर्मित वस्तुओं से घिरे हुए हैं। मनोरंजन की दुनिया भी इसका अपवाद नहीं हो सकती।
कृ पया यह समझिये कि मैं तकनीक में हो रही वृद्धि की आलोचना करने से इनकार करता
हूं। मैं चाहता हूँ कि आधुनिक मशीनों का विस्तार हो जिससे समूची मानव जाति को लाभ
मिले।
‘मनुष्य के उन्नतिशील मस्तिष्क पर किसी तरह की रोक को नापसंद करता हूं। ऐसा
इसलिए कि आधुनिक प्रगति और आधुनिक संस्कृ ति नवीकरण के कारण ही अस्तित्व में
आई है। पिछले अनेक वर्षों में मानव समाज में दिखने वाली विज्ञान और ज्ञान की प्रगति
की झलक समकालीन सिनेमा में देखने को मिल सकती है। फिल्मों से अधिक आधुनिक
तकनीक का कोई बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता, और इसलिए मैं उन पर कभी कोई
रुकावट नहीं चाहूंगा।’
महात्मा गांधी द्वारा फिल्मों के प्रति तिरस्कारपूर्ण शब्द कहे जाने पर वीर सावरकर ने यह
तीखा उत्तर दिया था। जब मैंने सावरकर जी से पूछा कि क्या गांधी जी की परोक्ष
आलोचना कर रहे हैं, तो उन्होंने कहाः ‘क्या गांधी और मुझमें कु छ समान है ?’
उन्होंने आगे कहाः ‘लंदन में विद्यार्थी जीवन के दौरान मैंने पहली मूक फिल्म देखी थी,
जो मुझे बेहद पसंद आई थी। मैंने कु छ सवाक फिल्में भी देखीं, परंतु बहुत अधिक नहीं।
थियेटर फिल्मों से प्रतिस्पर्धा कर सकता है, इस पर मुझे शक है। वह एक कोने में कहीं
दिखेगा, ठीक उसी तरह जैसे आज गाँवों में लोक कलाएं बमुश्किल जीवित हैं। परंतु उसका
गौरवकाल बीत चुका है। इस संबंध में कु छ बुरा मानने की जरूरत भी नहीं। ट्रैक्टरों के
जमाने में लकड़ी के हल की क्या कीमत ? प्रकृ ति की ओर लौटने वाली चरखा नीति का मैं
घोर विरोधी हूं। फिल्में उपन्यासों से भी बेहतर हैं। शिवाजी, प्रताप या रंजीत पर लिखी
जीवनियां कितनी भी रोचक हों, परंतु इसमें शक नहीं कि वह पर्दे पर अधिक रोचक और
असरकारी लगेंगी। फिल्मों का इस्तेमाल युवाओं की शिक्षा हेतु भी किया जा सकता है। पर्दे
पर जीवन को हम बहुत अच्छे से प्रतिबिंबित होता देखते हैं।
‘कु छ ना होने से बेहतर है कि उत्तम वस्तु उधार ली जाए। परंतु आँखें मूंदकर दूसरों के
कार्यों की नकल नहीं करनी चाहिए। अन्य सब क्षेत्रों की तरह, ज़रूरी है कि सिनेमा में भी
हमारे लोग राष्ट्रवादी हों। शेष सबकु छ उसके बाद आता है। फिल्म उद्योग को भी सोचना
चाहिए कि वह देश की प्रगति के लिए हर संभव प्रयत्न करेगी। हमारी फिल्मों को देश के
सकारात्मक पक्ष को दिखाते हुए, नकारात्मक पक्ष को दूर रखना चाहिए और अपनी
विजयों पर वह गर्व करती दिखें। किसी राष्ट्रीय हार या हमारी असफलताओं पर फिल्म
निर्माण का कोई औचित्य नहीं। उन्हें भूल जाना चाहिए। हमारा युवा ऐसी फिल्मों से प्रेरणा
ले, जो सदा सकारात्मक दिशा की ओर देखती हैं।’
यरवदा जेल, 1923
1923 में विनायक को रत्नागिरी जिला कारागार से पूना के यरवदा कें द्रीय कारागार में भेज
दिया गया था। वह 1910 में वहाँ बंद रहे थे और वहाँ पहुँच कर उन्हें गुजर चुके लंबे,
घटनाओं सेे भरपूर और कठोर दशक की यादें ताजा हो आई। यहाँ उन्हें सेल्युलर जेल के
पुराने साथी मिले जिन्हें भारतीय मुख्यभूमि पर वापस स्वदेश भेजा गया था। इनमें लाहौर
षडयंत्र मामले के क्रांतिकारी भी थे। हालाँकि, यरवदा में भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी
विभिन्न विचारधाराओं का अनोखा संगम आ मिला था – क्रांतिकारी बंदियों के अलावा,
गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रही, असहयोग कार्यकर्ता तथा खिलाफतवादी। विनायक ने
अहिंसावादियों पर लिखा हैः
असहयोगवादियों और खिलाफतवादियोें नेे दो वर्ष का कारागार भी नहीं झेला था। वह
कच्चे और दंभी पुरुष थे जो अंडमान की सेल्युलर जेल में दस या अधिक वर्ष काट चुके
व्यक्तियों के सामने भी अपने कष्टों को बढ़-चढ़ा कर बोलने से नहीं चूकते थे – उन
बहादुर सिखों के सामने भी जिन्होंने कठिनतम परिस्थितियों में जरा सी आवाज भी न
की थी! वह इन आतंकियों के समक्ष अपने व्यर्थ ‘सत्याग्रह’ और अल्पकालिक सज़ा
की डींगें हांकते और उनसे नफरत करते थे! मैंने वहाँ गांधी के अनुयायियों की कड़ी
आलोचना करनी शुरू की ताकि उनकी आँखें खुल सकें . . . वह हिन्दू संगठन के नाम
को ही राष्ट्र अहितकर मानते थे। मैं इन ईमानदार परंतु जिद्दी विचारों को काटता था। मैं
एक वृक्ष पर चढ़ जाता, अन्य लोग सामने के अहाते में इकट्ठा होते और राजनीतिक
कै दी उनके गिर्द की सामरिक स्थिति पर नजर रखते थे। इस तरह हम रोज-ब-रोज
राजनीति पर विमर्श किया करते। इसके बाद मुझे अहाते में ही स्थानांतरित कर दिया
गया जहाँ एक दिन छोड़कर बैठकें होतीं और राजनीति के प्रति इन अनाड़ियों के
मोहभंग के लिए विमर्श चलता। मैंने अंडमान में अपनाई युक्ति ही यहाँ आजमाई –
बैठकें करना, भाषण देना और विमर्श चलाना। धीरे-धीरे वह सब उससे आ जुड़े। चरखे
से स्वराज जीतना, खिलाफत अभियान को सहयोग हिन्दुओं का कर्तव्य और अहिंसा
की हास्यास्पद परिभाषाएं, मैंने अडिग तर्क और इतिहास के संदर्भ देकर सबकी
धज्जियां उड़ाई। और आखिरकार यह युवा ईमानदार देशप्रेमी अपनी असफल
राजनीति, तथा अपने चारों ओर पसरी अनुभवहीनता एवं अज्ञानता से टूटकर हमारी
ओर आ मिले।
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असहयोग आंदोलन और मुकदमे के बाद, गांधी जी भी उसी जेल में बंद थे – विनायक के
साथ वाली कोठरी में। विनायक खुले तौर पर गांधी जी के तरीकों की आलोचना करते,
जिसे वह अपने अनुयायियों से सुनते थे। अनेक अवसर आए जब विनायक के , सत्य एवं
सत्याग्रह का आदर्श मानने वाले असहयोग समर्थकों से गंभीर वैचारिक मतभेद हुए।
अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि अंडमान की तरह, रत्नागिरी में भी राजनीतिक
कै दी अखबारों की कतरनें जुटाते और उन्हें छु पाकर पढ़ते थे। असहयोग आंदोलन से जुड़े
लोग इस तरीके पर आपत्ति उठाते थे, क्योंकि उनके अनुसार सत्य को छु पाना पाप था।
इसलिए गांधी जी के दर्शन को हास्यास्पद तौर पर शब्दश: मानने वालों को शर्मिंदा करने
का वह कोई मौका नहीं छोड़ते थे। एक ऐसा ही अनुयायी जेल के रसोइये की खुशामद कर
अतिरिक्त रोटी प्राप्त करता था। एक संध्या, खाने के दौरान जब वह व्यक्ति अतिरिक्त रोटी
लेकर खाने बैठा तो विनायक और उनके साथियों ने अधीक्षक द्वारा तलाशी लिए जाने का
शोर मचा दिया। वह गांधीवादी तुरंत अपनी अतिरिक्त रोटी को छु पाने में जुट गया। यह देख
पूरा समूह हंस पड़ा और लोगों ने उसका उपहास उड़ाया। उन्होंने पूछा, क्या सत्य के प्रति
उसका समर्थन उसे चुराने की अनुमति देता है ? उस व्यक्ति के एक सहयोगी ने कहा कि
चोरीछु पे अतिरिक्त रोटी खाना सत्य का उल्लंघन नहीं। परंतु चोरीछु पे समाचार पत्र अंदर
लाना सत्य का उल्लंघन और राष्ट्रीय लक्ष्य का नुकसान करता है। विनायक अक्सर ऐसी
बेतुकी दलीलों से नाराज रहते और लिखा है कि जेल में गांधी जी के अनेक अनुयायियों एवं
खिलाफतवादियों में कई ऐसी ही सोच-समझ के थे।
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यरवदा जेल में विनायक की बदली, और मेजर मरे की वहाँ नियुक्ति संयोगवश हुई थी।
उससे पहले वह सेल्युलर जेल के अधीक्षक और पंजाब कारागारों के इंस्पेक्टर जनरल रह
चुके थे। वह उदार विचारों और मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति थे। मरे ने विनायक
को जेल की कु नीन फै क्टरी का प्रमुख नियुक्त किया। अंडमान की तरह, उन्हें यहाँ भी युवा
कै दियों की शिक्षा और एक पुस्तकालय स्थापित करने की छू ट मिली। सेल्युलर एवं
रत्नागिरी जेल में विनायक ने शुद्धि कार्यों को भी आगे बढ़ाया।
मुस्लिम कै दियों से अनुरोध किए जाने के बावजूद कि नमाज़ की ऊं ची आवाज़ से
कारागार में सबको ना जगाया जाए, वह उसे अपने मत का अभिन्न हिस्सा मानने पर जोर
देते थे। इसके उत्तर स्वरूप, विनायक के नेतृत्व में, अनेक हिन्दू कै दी ऊं ची आवाज में
रामायण की चैपाइयां और भक्ति गीत गाने लगे। यदि जेल प्रशासन इस पर ऐतराज करता
तो विनायक तुरंत कहतेः ‘आप उसकी प्रार्थना पर ऐतराज क्यों करते हैं ? या तो सबको
रोकिये अथवा सबको उनके अनुसार प्रार्थना करने दीजिए।’
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अंततः, कारागार में कै दियों
द्वारा प्रातःकाल की प्रार्थनाओं का चलन बंद हो गया। विनायक ने लिखा हैः
एक रुकावट ने दूसरी को रोका। जिसे दंड न रोक सका, जवाबी गुंडागर्दी ने शांत कर
दिया। एक खिलाफतवादी संपादक-कै दी को इसी तरह की जवाबी कार्रवाई से रोका।
वह हिन्दुओं के लिए आरक्षित पानी में से यह कहकर लेता कि मुस्लिम भी उन्हीं जैसे
इंसान हैं। इस विषय पर मैं उनसे पूरी तरह सहमत था और मैंने एक अस्पृश्य और
सफाईकर्मी को उसका प्याला धोने और मुस्लिमों के लिए पानी में सेे एक प्याला पानी
लेने को कहा। अब तक वृहत मानवतावादी सिद्धांत बघारने वाला वह खिलाफतवादी
तुरंत उस अस्पृश्य के पास पहुँचा और उसे यह कहकर पानी लेने से मना किया कि वह
नमाज के लिए अपवित्र हो जाएगा। जब दो-तीन बार मैंने उनका पर्दाफाश किया तो वह
चुपचाप (गैर) हिन्दू पानी वाले बर्तन से पानी लेने लगा और हिन्दुओं के लिए आरक्षित
पानी को हाथ लगाना उसने बंद कर दिया।
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साथी कै दियों को प्रेरित करने के लिए विनायक मदन लाल ढींगरा सहित क्रांतिकारी संघर्ष
के अनेक शहीदों पर भाषण आयोजित करते थे।
इस दौरान, बम्बई के गवर्नर, सर जाॅर्ज लॉयड, विनायक से विस्तृत बातचीत के लिए
कारागार पहुँचे थे। एक दशक पहले सर रेजिनल्ड क्रे डॉक के साथ अंडमान में हुई मुलाकात
की तरह, विनायक को यह भेंट भी व्यर्थ उद्यम महसूस हुई थी। उन्होंने गवर्नर से सुस्पष्ट
कहा थाः
मैं क्रांतिकारी और एक षडयंत्रकर्ता की भूमिका में तब आया जब मैंने यह देख लिया था
कि अपनी दृष्टि में रखे गए लक्ष्यों को शांतिपूर्ण या संवैधानिक तरीके से प्राप्त करने का
मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। परंतु यदि मौजूदा सुधार हमारी उम्मीदों को शांतिपूर्ण
तरीके से आगे बढ़ाने के लिए कारगर साबित होते हैं तो हम संवैधानिक विधि को सहर्ष
अपनाने और उत्तरदायी सहयोग के सिद्धांत पर रचनात्मक तरीके से काम करने को
तैयार हैं। हमें क्रांतिकारी कहा गया है, परंतु अन्य माध्यम अपनाने वालों का दावा करने
वालों की तरह हमारी नीति भी उत्तरदायी सहयोग से उतनी ही संबद्ध है। इस सिद्धांत
का अनुसरण और समान लक्ष्य को नजर में रखते हुए हम मौजूदा सुधारों का पूर्ण
इस्तेमाल करेंगे। राष्ट्रीय हित हमारा एकमात्र लक्ष्य था और यदि शांतिपूर्ण तरीकों से यह
पूरा होता है, तो पुराने तरीकों से जुड़े रहने का कोई कारण नहीं बनता।
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गवर्नर ने गौर से उनकी बात सुनी और फिर वह चले गए। परंतु बंबई सरकार 1922 से ही
विनायक की रिहाई पर गंभीरता से विचार करने लगी थी। जल्दी रिहाई के संबंध में
आधिकारिक विचार उन पर कड़ी पाबंदी लगाने या उन्हें राजनीतिक गतिविधियों से दूर
रखने से जुड़े थे। सर्शत रिहाई के तौर पर सरकार की एक अन्य चिंता उनके निवास स्थान
से जुड़ी थी। संवेदनशीलता को देखते हुए, बंबई, पूना और नासिक जैसे शहरों को निवास
हेतु मना कर दिया गया। आखिरकार, सरकार उन्हें जेल से रिहा करने पर राजी हुई और
तमाम राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगाते हुए, रत्नागिरी की सीमा में ही रहने की
इजाजत दी गई। यह नारायणराव द्वारा वर्षों से अपने भाई की रिहाई के लिए किए गए
प्रयासों का फल था।
रोचक है कि मराठी समाचार पत्र ‘स्वातंत्र्य
’ में विनायक की रिहाई की मांग करने वाला
एक लेख प्रकाशित हुआ था। 13 सितंबर 1923 को प्रकाशित ‘सावरकर - आज़ादी के
पुरोधा’ नामक लेख में लेखक ने लिखाः
विनायक की नीति है कि विदेशी शक्ति, ब्रिटिश हो या मुस्लिम, का उन्मूलन होना चाहिए
. . .ओ महाराष्ट्र-उठो! अपने मस्तिष्क में विनायकराव के विचारों को उभारो!! ओ
जनस्थान (नासिक) उठो! विनायकराव तुम्हारे हैं, इसलिए जोर लगाओ कि वह रिहा हों.
. .परंतु यदि सरकार उन्हें रिहा नहीं करती तो हम उन्हें दोष देंगे और उन्हें रिहा कराने
का हर संभव प्रयास करेंगे।
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अंतिम धमकी के सरकारी निर्णय पर असर पड़ने का कोई कारण नहीं था और यूं भी इस
कारण यदि सरकार चाहती तो एक दशक से खतरनाक समझे जाने वाले व्यक्ति की रिहाई
रोक सकती थी।
अंततः, 4 जनवरी 1924 को, बंबई सरकार के गृह विभाग विनायक की रिहाई की शर्तों
पर तैयार हुआ। बंबई गृह विभाग के सचिव, एलेग्जेंडर माॅन्टगोमरी को कार्य सम्पन्न करना
था। रोचक है कि चौदह वर्ष पहले, विनायक के मुकदमे के दौरान माॅन्टगोमरी कु छ समय
के लिए नासिक के जिला न्यायाधीश रहे थे। उन्होंने लिखा हैः
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर, 1898 की धारा 401 द्वारा प्रदत्त शक्ति को प्रयोग करते
समय, परिषद के अंतर्गत सरकार विनायक दामोदर सावरकर की आजीवन कारावास
की सज़ा की असमाप्त अवधि को सशर्त क्षमा करती है। अपराधी की सशर्त रिहाई के
आदेश की प्रति यरवदा कें द्रीय कारागार के अधीक्षक तक ले जाई जाएगी, जो आदेश
में निहित शर्तों पर अपराधी से रजामंदी प्राप्त करेंगे और उसेे इंस्पेक्टर-जनरल ऑफ
प्रिजन्स के मार्फ त सरकार को प्रेषित करेंगे, और साथ ही एक रिपोर्ट भी देंगे कि आदेश
के अनुसार कै दी को रिहा कर दिया गया है।
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इसके बाद सरकार एवं विनायक के बीच बातचीत की श्रृँखला चली और विनायक ने रिहाई
की शर्तों से रजामंदी जताते हुए हस्ताक्षर किए। शर्तें अपने आप में असामान्य नहीं थी,
परंतु असाधारण थी वह अवधि जिसके लिए उन्हें लागू किया गया था – यानी 1924 से
1937 तक तेरह वर्षों की अवधि। सर्वप्रथम, शर्तें पांच वर्ष की अवधि के लिए लगाई गई,
परंतु फिर दो बार उनमें वृद्धि की गई। रिहाई की शर्तें निम्न थीं:
1. कि विनायक दामोदर सावरकर परिषद के बंबई गवर्नर द्वारा संचालित रत्नागिरी जिले
के निर्धारित क्षेत्र में ही रहेंगे और बिना सरकारी मंजूरी या जिला न्यायाधीश की मंजूरी
के आपात परिस्थिति के अलावा जिले के बाहर नहीं जा सकें गे।
2. कि वह सरकारी मंजूरी के बिना पांच वर्षों तक सार्वजनिक या निजी तौर पर किसी भी
राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं ले सकें गे, यह प्रतिबंध उक्त अवधि के समाप्त होने
के बाद सरकार की समझ के अनुसार बढ़ाया जा सकता है।
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रिहाई की शर्तों को ना मानने पर होने वाली प्रतिक्रिया का विनायक को अंदाज था। उन्होंने
लिखा हैः ‘यदि मैं उन शर्तों या उनके किसी एक अंश को मानने में असफल रहता हूं. . .मुझे
बिना वारंट के पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया जा सकता है, अपनी असमाप्त सज़ा
की शेष अवधि के लिए हवालात लौटना पड़ेगा।’
15
यदि वह अपराध करते जिस कारण
उन्हें गिरफ्तार किया जाता, उन्हें कम से कम पच्चीस वर्ष आजीवन कारावास की एक और
अवधि काटनी पड़ती।
5 जनवरी 1924
वह विनायक की लंबी और थकाऊ जेल यात्रा की अंतिम रात थी। हालाँकि, उन्हें इस संबंध
में प्रातः काल तक नहीं बताया गया था। उस रात उन्हें अंदाजा नहीं था कि अगले दिन वह
‘खिड़की से आ रही चाँद की रोशनी वाले एक कमरे में पलंग पर होंगे और बाहर गलियारे
में पहरेदार भी नहीं होगा’ उनकी नींद में खलल डालने के लिए।
16
बेमौसम बरसात होने
पर जनवरी की तेज सर्दी और बढ़ गई थी। कोठरी की ऊपरी खिड़की से पानी गिर रहा था
और उनके कपड़े पूरी तरह भीग चुके थे। इस रूखे मौसम से दो खुरदुरे कम्बल उन्हें बचाने
के लिए नाकाफी थे। उन्होंने सोने के लिए खुद को तैयार किया और सोचते रहे कि यह
परेशानी कितना समय और रहेगी।
अगली सुबह उन्हें अधीक्षक के कमरे में बुलाकर शुभ सूचना दी गई। अविश्वास से वह ठगे
रह गए थे। मार्च 1910 से, जब से वह लंदन जेल पहुँचे थे, भिन्न महाद्वीपों की एक से दूसरी
जेलें उनका ठिकाना रही थीं। अब उस सबका अंत होने जा रहा है, यह विश्वास करना
कठिन था। राजनीतिक कै दी खुश थे और बधाइयां दे रहे थे। सिख क्रांतिकारियों ने उन्हें
स्नेहपूर्वक गले लगाया और विनती की कि वह उन्हें भूलें नहीं। उनकी उत्कं ठा से द्रवित
होकर विनायक ने जाने से पूर्व कहाः
मेरे भाइयो, आप को इस बात को स्वीकार करना होगा कि पीड़ा के अधीन चौदह वर्षों
तक अंडमान में और यहाँ आज के अंतिम दिन तक, मैं अपने जीवन में जो कु छ कहता
रहा उससे कभी विमुख नहीं हुआ या पलटा नहीं। मैंने आपको अपने सब शहीदों की
कहानियाँ सुनाई और सलाह दी कि हिंसक प्रतिवाद के अपने सिद्धांत से पीछे न हटें
यदि परिस्थितियाँ उसे हमारे ऊपर थोपती हैं। मैंने अपने झंडे को सदा फहराये रखा है।
जब चौदह वर्ष पहले मैंने सज़ा देने वाले शब्द सुने थे, उस समय भी मेरे ओठों पर वही
शब्द थे, जो आज हैं। मैंने उन्हें उस समय कहा था, कारागार में लंबे अरसे तक रहने के
दौरान कहा, और आज भी वह मेरे मुँह पर हैं, जो आपके दिल और दिमाग पर दर्ज हो
जाएं और आपके कानों में देर तक गूूंजते रहें। आइए सब मिल कर बोलें, ‘स्वातंत्र्य देवी
की जय; भारत माता की जय।’
17
अपने ही शरीर हिस्सा बन चुकी अपनी जेल पोशाक छोड़ दूसरे कपड़े बदलते हुए,
विनायक के मन में निराशा मिश्रित खुशी के मिले-जुले भाव थे। मरे ने उनसे हाथ मिलाए
और उन्हें बधाई दी। उन्होंने कहा ‘भविष्य का ध्यान रखो।’ कारागार के बड़े लौह गेट
चरमराते हुए खुल रहे थे। तेज धूप में विनायक को आँखें खोले रखनी कठिन हुई। बाहर
उनका परिवार उनके इंतजार में खड़ा था, उनके चेहरों पर खुशी फै ली दिख रही थी।
विनायक की लम्बी जेल सज़ा बेशक समाप्त हो गई थी, परंतु मातृभूमि को स्वतंत्र कराने,
और हिन्दुत्व के सिद्धांत तथा सामाजिक सुधार की यात्रा अभी शुरू हो रही थी, जिसकी
अवधारणा वह कारागार की चारदीवारी में तैयार कर रहे थे। उन्होंने गहरी सांस ली, बहती
हवा को अपनी सांसों में भरा और कु छ तेज चाल तथा भविष्य की योजनाओं के साथ,
विनायक जीवन के अगले महत्वपूर्ण मील के पत्थर की ओर बढ़ गए थे।
परिशिष्ट
परिशिष्ट I
‘ओ! हुतात्माओ’ का संपूर्ण पाठ
आज़ादी की लड़ाई का पहला कदम
पिता से पुत्र तक पहुंचती कमान
अक्सर हारी पर सदा जीती बाज़ी !!
आ
ज 10 मई का दिन है! इसी दिन, सदा स्मरणीय 1857 के वर्ष को, भारत की
रणभूमि पर, ओ हुतात्माओ, तुमने स्वतंत्रता के लिए युद्ध के पहले अभियान का
मार्ग प्रशस्त किया था। मातृभूमि, ने अपनी अपमानजनक पराधीनता से जागकर,
तलवार म्यान से निकाली और बेडियां तोड़ते हुए आज़ादी और अपने सम्मान के लिए
पहला वार किया था। इसी दिन हजारों कं ठ से मारो फिरंगी को
का युद्धघोष गूंजा था। इसी
दिन घोर विप्लव को उठ खड़े हुए मेरठ के सिपाहियों ने दिल्ली कू च किया था, जहां
चमकती धूप में जगमगाती जमुना के पानी को देखते हुए, एक ऐतिहासिक स्मारक के
निकट नए युग के आरंभ की आहट से साक्षात्कार किया था, और कु छ ही पलों में उन्हें एक
नया नेतृत्व, एक ध्वज और एक लक्ष्य प्राप्त हुआ, जिसने गदर को एक राष्ट्रीय एवं धर्मयुद्ध
में बदल दिया था।
पूर्ण गौरव तुम्हारा, ओ हुतात्माओ; चूंकि आपने अपनी जाति के लिए क्रांति के तेजोमय
कष्ट को झेला, जब जन्मभूमि की धार्मिक मर्यादाएं जबरन एवं राक्षसी परिवर्तनों के कारण
खतरा झेल रही हों, जब दोगले चरित्र ने मित्रता का लबादा उतार फें का हो और
विश्वासघाती शत्रुता की नग्न नृशंसता में संधियां तोड़ डाली गई हों, ताज तोड़कर जंजीरों में
बदल दिए हों, और प्रत्येक वस्तु का उपहास बना हो, जबकि हमारी दयालु माँ सत्यनिष्ठा से
गोरे आदमी के छल पर विश्वास करती रही हो, तो तुमने, ओ 1857 के शहीदो, माँ को
जगाया, माँ को प्रेरित किया और माँ के सम्मान के लिए युद्धभूमि की ओर दौड़े, जहां तुम्हारे
ओठों पर ‘मारो फिरंगी को’ का युद्धघोष प्रबलता और आवेग से छाया था, और ‘भगवान
एवं हिन्दुस्तान’ का पवित्र नारा तुम्हारी पताका पर लहरा रहा था! विप्लव छेड़ कर तुमने
अच्छा किया! चूंकि अन्यथा तुम्हारा जीवन बेशक बख्श दिया जाता, परंतु खुशामद का दंश
बेहद गहरा होता, जिसके साथ हतोत्साही धैर्य की अभिशप्त जंजीर में एक और कड़ी जुड़
जाती, और संसार घृणा से हमारी भूमि की ओर देखता हुआ फिर से कहता ‘पराधीनता
इसकी नियति है, यह पराधीनता में ही प्रसन्न है!’ चूंकि 1857 में भी इसने अपने हितों एवं
सम्मान की रक्षा के लिए एक अंगुली भी न उठाई थी।
इस दिवस को, ओ हुतात्माओ, हम तुम्हारी प्रेरणाप्रद याद को समर्पित करते हैं ! इसी
दिवस को तुमने एक नया ध्वज फहराने को उठाया था, एक अभियान पूर्ण करने का स्वर
भरा था, एक दृष्टिकोण को सत्य करने की ओर देखा था, एक राष्ट्र के जन्म का उद्घोष
किया था!
हम तुम्हारी पुकार पर उठे , हमने तुम्हारे ध्वज का सम्मान किया, कथित क्रांतिकारी युद्ध
में ‘फिरंगी को बाहर करो’! के तुम्हारे उद्घोष को हम आगे ले जाने को प्रतिबद्ध हैं –
क्रांतिकारी, हां, वह क्रांतिकारी युद्ध था। चूंकि 1857 का युद्ध तब तक थमेगा नहीं, जब
तक क्रांति दस्तक नहीं देती, दासता को धूल में नहीं मिला देती, आजादी को सिंहासन पर
स्थापित नहीं कर देती। जब तक आमजन उसकी स्वतंत्रता के लिए उठते रहेंगे, जब तक
उसके शहीदों के रक्त में आजादी के बीज अंकु रित होते रहेंगे और जब तक अपने पूर्वजों के
रक्त का प्रतिशोध लेने के लिए एक पुत्र भी जिंदा रहेगा, तब तक ऐसे किसी युद्ध का अंत
हो नहीं सकता। नहीं, क्रांति युद्ध, युद्धविराम नहीं, स्वतंत्रता अथवा मृत्यु को जानता है !
हम तुम्हारी याद से प्रेरित हैं और 1857 में तुम्हारे द्वारा शुरू किए गए संघर्ष को आगे ले
जाने को प्रतिबद्ध हैं, हम संधि को युद्धविराम नहीं मानते; हम तुम्हारी लड़ाइयों को पहले
अभियान की लड़ाइयां मानते हैं – जिसमें मिली हार युद्ध की हार नहीं हो सकती। क्या ?
क्या विश्व को कहने दें कि भारत ने हार को अंतिम मान लिया है ? क्या 1857 का रक्त व्यर्थ
ही बहा था ? क्या हिन्द के बेटों ने अपने पिताओं की सौगंध के साथ धोखा किया ? नहीं,
हिन्दुस्तान की शपथ, नहीं ! भारत-भूमि की ऐतिहासिक धारा मार्गच्युत नहीं हुई है। 10 मई
1857 को शुरू हुए युद्ध का 10 मई 1908 को अंत नहीं हो गया और न ही आने वाली 10
मई को होगा, जब तक कि नियति प्राप्त नहीं हो जाती, जब तक खूबसूरत हिन्द का
राज्याभिषेक नहीं होता, विजय के प्रकाश से या फिर शहादत के तेज से।
परंतु, ओ महान हुतात्माओ, अपने पुत्रों के पवित्र संघर्ष में मदद करो ! ओ, अपनी
प्रेरणाशील उपस्थिति से मदद करो ! अपने क्षुद्र स्वार्थ में बंटे हुए हम, अपनी माँ के विराट
पूर्णत्व से अनजान हैं। तो हमारे कानों में गुनगुना दो, वह रहस्य, जिससे तुमने उस महान
एकता को संजोया था। कै से हिन्दुओं और मुसलमानों की आपसी रजामंदी से फिरंगी
शासन के टुकड़े हुए और स्वदेशी सिंहासन स्थापित हुए थे। कै से माँ के प्रति उद्दात प्रेम ने
विभिन्न वर्णों तथा जातियों को जोड़ा, कै से आदरणीय एवं श्रद्धेय बहादुरशाह ने समूचे
भारत में गोहत्या पर रोक लगाई थी, कै से श्रीमंत नाना साहेब ने, दिल्ली के शहंशाह की
शान में सलामी के तौर पर दागी गई पहली तोप के बाद – दूसरी अपने लिए आरक्षित रखी
थी ! कै से तुमने माँ के झंडे तले एकजुट होकर पूरी दुनिया को विचलित कर अपने दुश्मन
को कहने पर मजबूर किया था ‘इतिहासकारों और प्रशासकों को भारतीय विद्रोह जो
सबक देता है उनमें से इस चेतावनी से महत्वपूर्ण और कोई नहीं जिनमें ब्राह्मणों और शूद्रों,
मुसलमानों और हिन्दुओं का हमारे खिलाफ एकजुट होना था और यह सोचना भी ठीक
नहीं कि विभिन्न जातियों से आच्छादित अनेक धर्मों वाले महाद्वीप के कारण ही हमारे
प्रभुत्व का स्थायित्व और शांति निर्भर करती है, चूंकि वह एक दूसरे को समझते और आदर
करते हैं तथा एक दूसरे के तौर-तरीकों एवं कार्यशैली से परिचित हैं।’ धर्म और देशभक्ति के
गठजोड़ के इस माहात्मय से हमें अवगत कराओ - सच्चा धर्म जो हमेशा राष्ट्रभक्ति के पक्ष
में रहता है, सच्ची राष्ट्रभक्ति धर्म की स्वतंत्रता को आश्वस्त करती है !
और हमें उस असीम ऊर्जा, हिम्मत और गोपनीयता का रहस्य दो जिसके साथ तुमने इस
विराट ज्वालामुखी को संगठित किया था; हरी सतह के नीचे छु पे हुए ज्वालामुखी के उस
लावे को हमें दिखाओ, जिसके ऊपर शत्रु को छद्म सुरक्षा अहसास में रखा जाता है; हमें
बताओ कै से वह चपाती - भारत की सूचना वाहक, एक से दूसरे गांव, एक से दूसरी घाटी
तक पहुंची, और पूरे देश के बौद्धिक पटल को अपने अस्पष्ट संदेश से अग्निपिंड में बदल
डाला था, जिसके बाद हमें उस ज्वालामुखी के विस्फोट का भीषण कराल सुनाई दिया जो
पूर्ण विध्वंसक शक्ति संपन्न, दौड़ता, कु चलता, जलाता और अपने में समाहित करता जलते
लावे का विकराल बहाव था ! इसके एक ही माह के भीतर, रेजिमेंट-दर-रेजिमेंट, शासक-
दर- शासक, शहर-दर-शहर, सिपाही, पुलिस, जमींदारों, पंडितों, मौलवियों की इस
बहुआयामी क्रांति ने बिगुल फूं क दिया था और मंदिरों एवं मस्जिदों मंे ‘मारो फिरंगी को!’
का नारा बुलंद हो उठा था। ‘फिरंगी को बाहर करो!’ मेरठ जागा, दिल्ली जागी, जागा
बनारस, आगरा, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद, जदगेरपुर, झांसी, बांदा, इंदौर – पेशावर से
कलकत्ता तक और नर्मदा से हिमालय तक, ज्वालामुखी अचानक, एक साथ और सर्वग्राही
दाह जैसा उबल पड़ा था।
तो फिर, ओ हुतात्माओ, हमें हमारे लोगों के बीच छोटी और बड़ी कमियों के बारे में
बताओ, जिसे आपने अपने महान प्रयोग से समझा था। परंतु सबसे आवश्यक, राष्ट्र के पिंड
में निहित उन अनर्थकारी भौतिक कमियों की ओर संके त करो, जिसने तुम्हारे सब प्रयासों
को असफल कर दिया था – कु त्सित लोभी दृष्टिहीनता, जो राष्ट्र के उद्देश्य के साथ जुड़ने से
इनकार करती है। कहो, कि हिन्दुस्तान के हारने का एकमात्र कारण स्वयं हिन्दुस्तान ही था;
सदियों की निद्रा के बाद माँ अपने शत्रु पर प्रहार कर रही थी और जब उसका दाहिना हाथ
फिरंगी को मार रहा था, बायां हाथ रुक गया था। आह! वह शत्रु नहीं, परंतु उसका अपना
मस्तक था! तो वह लड़खड़ाई और 50 वर्षों की अपरिहार्य निद्रा में जा पहुंची!
50 वर्ष बीत गए हैं, परंतु ओ 1857 की असंतुष्ट आत्माओ, हम अपने हृदय के रक्त से
तुमसे वादा करते हैं कि तुम्हारी स्वर्ण जयंती तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुए बिना पूर्ण नहीं होगी!!
तुम्हारी आवाज हमने सुनी है और उससे साहस बटोरा है। बेहद सीमित संसाधनों से तुमने
युद्ध किया, न के वल अत्याचार के विरुद्ध परंतु अत्याचार और कपट के विरुद्ध एकसाथ।
एक ही मोर्चे पर, दोआब और अयोध्या साथ आए और न के वल समूचे ब्रिटिश साम्राज्य के
खिलाफ युद्ध छेड़ा, परंतु शेष भारत के खिलाफ भी; और इसके बावजूद तुम तीन वर्षों तक
लड़ते रहे, और तुमने लगभग हिन्दुस्तान का राजमुकु ट छीन ही लिया था और विदेशी राज
के खोखले अस्तित्व को तोड़ डाला था। कितना महान प्रोत्साहन है यह! जो दोआब और
अयोध्या ने एक माह में किया, भारत का एकसाथ, त्वरित एवं प्रतिबद्ध उदय उसे एक दिन
में कर दिखाएगा! यह उम्मीद हमारे दिलों को आशा और सफलता की आश्वस्ति देती है।
अतः हम घोषित करते हैं कि 1917 का तुम्हारा स्वर्ण जयंती वर्ष दुनिया के नक्शे पर हिन्द
के विजयी पुनरुत्थान के बिना न बीतेगा।
चूंकि, कब्र के भीतर से बहादुरशाह की अस्थियां प्रतिशोध की पुकार कर रही हैं ! चूंकि,
निर्भीक लक्ष्मी का रक्त क्रोध से उबल रहा है ! चूंकि, साजिश पर से पर्दा न उठाने के
अपराध में फांसी पर चढ़ने जा रहे पटना के पीर अली ने फिरंगी के कान में भविष्यवाणी
स्वरूप अवज्ञा के शब्दों में कहा था, ‘तुम बेशक मुझे आज फांसी दे रहे हो, तुम मुझ जैसों
को रोज फांसी दे सकते हो, परंतु हजारों मेरे स्थान पर उठें गे – तुम्हारा मकसद कभी
कामयाब नहीं होगा।’
भारतीयों, इन शब्दों को सच बनाना ही होगा! ओ हुतात्माओ, तुम्हारे रक्त का प्रतिशोध
लिया जाएगा!!!
वन्दे मातरम्!
परिशिष्ट II
‘संकल्प एवं घोषणापत्र, 1910’ का संपूर्ण पाठ
(1)
वह बैसाख का महीना था: ऊपर आकाश और पांव तले छत चाँद की खूबसूरत रोशनी में
धुली और स्पंदित लग रही थी। बल द्वारा रोजाना पोशित की जाने वाली जय लता सुगंधित
पुष्पों में झेंपती और खिली नजर आ रही थी।
वह गर्मियों की छु ट्टियों के दिन थे और दोस्त एवं काॅमरेड, सभी प्रियजन और निकटवर्ती
एक ही छत के नीचे आ जुटे थे। लोकप्रियता उन नेक युवाओं के गुट की बाट जोह रही थी
और वीरता का आभामंडल उनके गिर्द पारदर्शी स्वच्छता और युवा दमक के साथ
आच्छादित था।
उनके हृदय ताजा स्नेह से उमड़ रहे थे और वह उच्चाकांक्षाओं तथा शौर्यमय संकल्पों के
नेक समीर से भरे हुए वातावरण में सांस ले रहे थे। युवा और झीनी लताएं उन सुमधुर तथा
नित खिलते वृक्षों पर झूलती थीं, बाशिंदे जिस मनोहर बगीचे को ‘धर्मशाला’ पुकारते।
तुमने भोजन परोसे; रसीले पकवान थे और तुम्हारा परोसना सब को आकृ ष्ट किए दे रहा
था। ऊपर चँद्र सलोना दिखता था और हम सब मित्र एवं परिवार साथ बैठे , विचारमग्न, तो
कभी उत्तेजक एवं स्फू र्तिदायक विमर्शों में खो जाते। अब हमने सुनी अयोध्या से
राजकु मारों के निर्वासन की कथा या इतालिया को मुक्त कराने वाले उत्तेजक संघर्ष की
गाथा। कभी तो हम तानाजी या चित्तौड़ के या बाजीे और भाऊ एवं नाना के अमर किस्से
सुनतेः पनीली आंखों से अपनी व्यथित माँ के पतन के कारणों का आकलन तैयार होता
था; वह अतिशय एवं सतर्क संश्लेषण जो उसकी निर्णयात्मक मुक्ति में काम आया; वह
अथक गतिविधि जिसने हमारी माँ के घाव अनावृत किए और सैकड़ों सशक्त युवाओं की
कल्पना को झकझोरा और उभारा और उच्चादर्शों को उन्मुख किया।
प्रियजनों के साथ वाले वह दिन, वह चाँदनी रातें, रूमानी अभिलाषाएं, वह उदार संकल्प
और सबसे ऊपर सबको सूचित एवं प्रेरित करने वाला दिव्य आदर्श जिसने सबको उनका
सलीब उठा उसके पीछे आने को कहा था!
तुम्हें जरूर याद होगा यह सब ? तुम्हें जरूर याद होंगे वह आपस में प्रबंधित कठोर वचन
और पवित्र शपथ और उसकी सेनाओं से जुड़े सैकड़ों नेक युवा ? लड़ने के लिए सौगंध लेते
युवा और बाजी के साथ ही गिरते - कौतुहल में दिखती नवयुवतियां, उत्साहित, और मृत्यु
को प्राप्त हुई, जैसे मरती थीं चित्तौड़ की कु मारियां !
वह अंधभक्ति नहीं थी जो हमें उस पथ पर ले गई! नहीं! हम उस मार्ग पर तर्क एवं
इतिहास तथा मानव प्रकृ ति की रोशनी के पूरे तेज में चले थे, यह जानते हुए कि जिनके
पास जीवन है, उन्हें वह खोना होगा, हमने अपनी सलीब उठाई और जानते-बूझते लक्ष्य के
पीछे चल दिए थे!
(2)
हमारे द्वारा अपने प्रिय साथियों और मित्रों के साथ दृढ़तापूर्वक लिए गए उन प्रवित्र संकल्पों
और कड़ी प्रतिज्ञाओं को सर्वप्रथम याद करते हुए, तुम अपनी दृष्टि वर्तमान पर रखो! कोई
दर्जन भर वर्ष भी नहीं गुजरे होंगेः और फिर भी कितनी उपलब्धि प्राप्त हुई! दृष्टिकोण
सचमुच हर्ष देने वाला है! समूचे देश का चप्पा-चप्पा उठ खड़ा हुआ है। माता ने भिक्षा का
कटोरा त्याग कर अपना हाथ तलवार की मूठ पर जमा लिया है! हजारों की संख्या में दृढ़
श्रद्धालु माता के मंदिर में चले आ रहे हैं और पवित्र अग्नि की ज्वालाओं की क्रु द्ध लपटें
उनकी बलि वेदी पर धधक रही हैं।
परीक्षा आ पहुंची है, ओ हां! जिसने तुम्हारे शब्दों को दोहराते हुए महान बलिदान पूर्ण
करने हेतु पवित्र संकल्प और कड़ी प्रतिज्ञा ली थीः कौन, वह! सर्वप्रथम इस धधकती
ज्वाला में गिरकर स्वयं को वेदी पर न्योछावर करेगा ताकि दुष्ट शक्तियों पर अच्छाई को
विजय प्राप्त हो!
ज्यों ही श्रीराम द्वारा अपने समर्थकों को चेताया गया, हमारा कु ल भी तैयार था। ओ, नेक
बहिन! स्वैच्छिक मन से आगे आए और प्रार्थना की ‘ओ प्रभु! हम तुम्हारे समक्ष हैं। हमें उन
धधकती ज्वालाओं में होम कर कृ तज्ञ करें!!’
हम सत्य परायणता के हित और सुरक्षा में काम कर प्राण त्यागेंगे – इसी अनुसार हमने
शब्द प्रतिज्ञा की थी। देखो, हम ज्वालाओं में उतरते हैं! हमने अपना वचन रखा!
माँ के ध्वज तले हमने उसे अपने प्राणों की कीमत पर पुनः स्वतंत्रता दिलाने के लिए जो
दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, वह पूर्ण हुई। कितना सुख है इसमें! सचमुच सौभाग्यशाली हैं हम जिन्हें
उसने स्वयं हमारी आंखों के समक्ष जल कर भस्म हो जाने की शक्ति प्रदान की। हमने लक्ष्य
की सेवा की और युद्ध किया। इतना मात्र हमारा उद्देश्य था!
(3)
हम तुम्हें अपने विचार समर्पित करते हैं; अपनी वाणी और अपनी वाकपटुता तुमको
समर्पित, ओ माँ! मेरी वीणा तुम्हारे ही गीत गाती हैः मेरी कलम तुम्हारे ही शब्द लिखती है,
ओ माँ!
तुम्हारी वेदी पर मैंने अपना स्वास्थ्य और संपत्ति न्योछावर की थी। ना तो मेरी वापसी की
बाट जोहती अपनी युवा पत्नी की ललकती दृष्टि, ना ही अपने प्रिय सुकु मारों की हंसी के
मोती, ना ही व्यथित और भुखमरी को छोड़ दी गई भाभी की विवशता मुझे तेरी तुरही की
आवाज के पीछे जाने से रोक सकी!
मेरे बड़े भाई – कितने वीर, कितने दृढ़प्रतिज्ञ, और फिर भी कितने स्नेहिल – तेरी वेदी पर
होम हुए। सबसे छोटा – कितना प्रिय, कितना युवा – वह भी बड़े के पीछे अग्नि में दाखिल
हुआ; और अब मैं हूँ, ओ माँ! तेरे बलिदानी स्तंभ पर बंधा! तो क्या हुआ! यदि तीन के
स्थान पर हम सात होते तो मैं उन सबको न्योछावर कर देता – तुम्हारे ध्येय में!
तुम्हारा ध्येय पवित्र है! तुम्हारे ध्येय को मैं ईश्वरीय ध्येय मानता हूं! और जानता हूं कि
उसकी सेवा ईश्वर की सेवा है!
तीस करोड़ बच्चे हैं उसके ! उनमें वह जो इस दिव्य कामना से भरे अपना जीवन होम
करेंगे, सदा जीवित रहेंगे! और हमारा वंश वृक्ष, ओ बहिन्! उसकी जड़ें उखड़ गई हों परंतु
फिर गहरे उतरेंगी और अमर रूप में खिल उठे गा।
(4)
तो क्या हुआ यदि वह खिलेगा नहीं और शेष सब लौकिक वस्तुओं की तरह कु म्हला कर
विस्मृति की गर्त में जा मिलेगा! हमने अपने संकल्प पूर्ण किए और आत्म को दबाकर
असत्य पर सत्य की जीत हासिल की। हमारे लिए वही काफी है। बलिदान हमारे लिए
सफलता है।
प्रभु ने हमें जो भी आशीर्वाद दिया हमने आज तुम्हें समर्पित कर दिया! और यदि वह कु छ
अन्य भी हमें अर्पित करना चाहेगा, वह भी तुम्हारे चरणों में समर्पित किया जाएगा!
अतएवः, तुम्हारे विचारों को बूझकर, विभेद से परे, हमारे परिवार की परंपराओं को
निभाती हुई प्रिय वहिनी और मनोरथ के साथ पूर्ण निष्ठा से खड़ी है। हिमाच्छादित हिमालय
में तीव्र संयम झेलती हुई उमा और ओठों पर खेलती मुस्कान के साथ धधकती ज्वालाओं
को सीने से लगाती चित्तौड़ की कु मारियां।
यह तुम्हारे आदर्श हैं! तुम हो नायकों की अर्धांगिनियाँ! तुम्हारा जीवन ऐसे नायकत्व से
भरा रहे जिसे कभी हिन्द की कु मारियों ने चमकदार पराक्रम और आत्मिक शक्ति से
जीवित किया था, जो आज तक मद्धिम या बुझी नहीं है।
यह तुम्हें मेरे अंतिम शब्द हैं; मेरा संकल्प और घोषणापत्र। अलविदा, प्रिय वहिनी,
अलविदा! मेरी पत्नी को स्नेह और यह शब्द कहना:
यह अंधभक्ति नहीं थी जिसने हमें इस पथ पर धके ला! नहीं! हम तर्क और इतिहास और
मानव प्रकृ ति के पूर्ण प्रकाश में इसमें दाखिल हुए थेः यह जानते हुए कि पथिक की यात्रा
उसे मृत्यु मार्ग तक ले जाती है, हमने अपनी सलीब उठाई और जानते-बूझते हुए ‘उसके ’
पीछे चल दिए थे!
परिशिष्ट III
वीडी सावरकर की याचिकाएँ
1. भारत सरकार के गृह सदस्य रेजिनल्ड क्रे डॉक को वीडी सावरकर (कै दी नंबर 32778)
द्वारा प्रेषित याचिका, दिनांक 14 नवंबर 1913
मैं आपके विचारार्थ निम्न बिंदु रखना चाहता हूँ:
1. जब मैं जून 1911 में यहां आया था, मुझे अपने दल के अन्य सभी अपराधियों के साथ
चीफ कमिश्नर के कार्यालय ले जाया गया था। वहां मुझे श्रेणी ‘डी’ अर्थात् डेंजरस
घोषित किया गया। उसके बाद मुझे पूरे छह माह एकांत कारावास में बिताने पड़े। अन्य
अपराधियों को यह नहीं भुगतना पड़ा। उस दौरान मुझे नारियल जटा छीलने का काम
मिला जिसमें मेरे हाथ खून से भरे रहते थे। उसके बाद मुझे कोल्हू में जोत दिया गया –
कारागार में सबसे कठिन श्रमकार्य। हालांकि, इस अरसे में कारागार में मेरा आचरण
असाधारण तौर पर अच्छा रहा, फिर भी, छह माह के अंत के बाद मुझे कारागार से
बाहर नहीं भेजा गया; मेरे साथ आए अन्य कै दी बाहर जाते थे। उस समय से आज के
दिन तक मैंने अपने व्यवहार को हर संभव तरीके से अच्छा बनाए रखा है।
2. जब मैंने अपने स्तर में वृद्धि की अपील की तो मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का
कै दी हूं और मुझे प्रोन्नति नहीं दी जा सकती। जब हम बेहतर भोजन या अन्य कोई
विशेष सुविधा मांगते तो हमें कहा जाता ‘तुम साधारण कै दी हो और वही खाना होगा
जो अन्य खाते हैं।’ अतः सर, योर ऑनर देखेंगे कि विशेष असुविधाओं के लिए ही हमें
विशिष्ट कै दी का दर्जा दिया गया है।
3. जब अधिकांश कै दियों को कार्य के लिए बाहर भेजा गया तो मैंने भी छू ट की मांग
रखी। परंतु, मुझे कदाचित दो या तीन बार सख्ती से पीटा गया, और जिन्हें बाहर भेजा
गया उनमें से कु छ को तो दर्जन या कु छ अधिक बार, फिर भी मुझे उनके साथ बाहर
नहीं भेजा गया क्योंकि मैं उनके मामले से संबद्ध था। परंतु जब अंततः, मुझे बाहर
निकालने का आदेश दिया गया और फिर ज्यों ही बाहर कार्यरत कु छ राजनीतिक
कै दियों को किसी क्लेश के कारण लाया गया तो मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया
क्योंकि मैं उनके मामले से संबद्ध था।
4. यदि मैं भारतीय जेल में होता तो अब तक मुझे काफी छू ट मिल गई होती, कई पत्र घर
भेज चुका होता, परिजनों से मुलाकात होती। यदि मैं यहां भेजा गया साधारण अपराधी
होता तो अब तक इस जेल से छू ट गया होता और टिकट-रिहाई आदि के इंतजार में
होता। परंतु सच यह है कि मुझे किसी भारतीय जेल या इस कै दी बस्ती के नियमों का
लाभ प्राप्त नहीं; हालांकि दोनों की असुविधाएं झेलनी आवश्यक हैं।
5. अतः, योर ऑनर, मुझे जिस नियम-विरुद्ध स्थिति में रखा गया है, उसे समाप्त करने
की कृ पा करें, इसके लिए मुझे या तो किसी भारतीय जेल में भेजा जाए या मेरे साथ
किसी भी अन्य भेजे गए कै दी जैसा व्यवहार किया जाए। मैं किसी विशेष सुविधा के
लिए नहीं कह रहा हूँ, हालांकि मेरा मानना है कि बतौर राजनीतिक कै दी, दुनिया के
स्वतंत्र राष्ट्रों के सभ्य प्रशासन में उसकी भी अपेक्षा रखी जा सकती है; तो के वल उतनी
छू ट एवं अनुमतियां भर दी जाएं जो सबसे दुर्दांत और खतरनाक अपराधियों को मिलती
हैं ? मुझे कोठरी में लगातार बंद रखने की योजना, मुझे किसी तरह के जीवन या उम्मीद
को जिंदा रखने की संभावना से भी वंचित करती है। सीमित सजा वाले कै दियों का
विषय अलग है, परंतु सर, अगले 50 वर्ष मुझे सीधे घूर रहे हैं! मैं उन्हें बिताने का नैतिक
साहस कै से जुटा सकता हूँ जबकि सबसे खतरनाक कै दियों को मिलने वाली छू ट से भी
मुझे वंचित रखा जाएगा ? या तो मुझे किसी भारतीय जेल में भेज दिया जाए जहां मैं
(क) छू ट प्राप्त कर सकूं ; (ख) मेरे परिजन प्रत्येक चार महीने में मुझसे मिल सकें , चूंकि
जेल में रहने वाले जानते हैं कि जब-तब अपने प्रियजनों को देखना कितनी बड़ी राहत
होता है! (ग) और सबसे बड़ा, 14 वर्षों में कानूनी नहीं तो रिहाई के नैतिक अधिकार का
हकदार होना; (घ) साथ ही अधिक पत्र एवं कु छ अन्य सुविधाएं। अथवा यदि मुझे
भारत नहीं भेजा जा सकता तो मुक्त कर, अन्य कै दियों की तरह इस उम्मीद के साथ
बाहर भेजा जाए, कि 5 वर्ष बाद परिजन मुझे मिल सकें , टिकट छू ट मिल सके और
परिवार को यहां बुला सकूं । यदि यह अनुमति मिलती है तो के वल एक शिकायत रह
जाती है कि मुझे मेरे ही अपराधों का जिम्मेदार माना जाए, अन्य का नहीं। अफसोस है
कि मुझे यह कहना पड़ रहा है – यह किसी भी इंसान का बुनियादी अधिकार है! चूंकि
जहां एक ओर 20 राजनीतिक कै दी – युवा, सक्रिय एवं उद्विग्न हैं, और दूसरी ओर कै दी
बस्ती के नियामक, जो अपनी प्रकृ ति के अनुसार ही विचार एवं अभिव्यक्ति को
निम्नतम स्तर पर ले आते हैं; यह बहुत संभव है कि उनमें से कोई कभी किसी एक या
दूसरे नियम को तोड़ने का जिम्मेदार ठहराया जाएगा और मौजूदा चलन के अनुसार
यदि उन सबको इसका जिम्मेदार माना गया – मेरे बाहर रहने की उम्मीद भी बहुत कम
हो जाती है।
अंत में, मैं योर ऑनर को याद दिलाना चाहूंगा कि 1911 में मेरे द्वारा भेजी गई क्षमा
याचिका को संज्ञान में लें और उसे भारत सरकार को भेजने के लिए पारित करें। भारतीय
राजनीति के नवीन घटनाक्रम तथा सरकार की समझौतावादी नीति ने एक बार फिर
संवैधानिक सुधारों की दिशा प्रशस्त की है। अब भारत और मानवीयता के प्रति सद्भाव
रखने वाला कोई व्यक्ति कांटों भरी राह नहीं चुनना चाहेगा, जिस पर उत्तेजित होकर और
भारत में 1906-07 में नाउम्मीदी ने हमें शांति और प्रगति के मार्ग से दिग्भ्रमित कर दिया
था। अतः, यदि सरकार अपनी बहुरूपी उदारता और दया के आधार पर मुझे रिहा करती है
तो मैं संवैधानिक सुधारों तथा अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहूंगा, जो उस प्रगति की
सर्वप्रथम शर्त होगी। जब तक हम जेलों में हैं, तब तक भारत में सैकड़ों तथा हजारों घरों में
असली खुशी एवं उल्लास नहीं हो सकता जो हिज़ मैजस्टी के वफादार हैं, चूंकि रक्त संबंध
सर्वोपरि होते हैं; परंतु यदि हमें मुक्त किया जाता है तो लोग तुरंत सरकार के प्रति हर्ष एवं
आभार व्यक्त करेंगे, जो प्रतिकार और दण्ड देने की बजाय, क्षमा करना और भूलना जानती
है। साथ ही, संवैधानिक लीक पर मेरे चलने से भारत और बाहर पथभ्रमित वह अनेक युवा
भी लौट आएंगे जो कभी मुझमें अपना मार्गदर्शक देखते थे। सरकार जिस क्षमता में चाहे मैं
उसके लिए काम करने को तैयार हूं, चूंकि मेरा परिवर्तन शुद्ध अंतःकरणवाला है, अतः मुझे
उम्मीद है कि मेरा भावी आचरण भी वैसा ही रहेगा। मुझे जेल में रखने से कु छ प्राप्त नहीं
हो सकता, जो अन्यथा हो सकता है। शक्तिशाली ही दयालु हो सकता है और फिर
प्रायश्चितरत पुत्र सरकार के अभिभावक रूपी द्वार के अतिरिक्त कहां जाएगा।
उम्मीद है योर ऑनर उपरोक्त बिंदुओं को संज्ञान में लेंगे।
2. अंडमान द्वीपसमूह के चीफ कमिश्नर को अक्तू बर 1914 को वीडी सावरकर द्वारा भेजी
गई याचिका का संपूर्ण कथ्यः
4. भारत सरकार को वीडी सावरकर द्वारा प्रेषित याचिका का संपूर्ण कथ्य, दिनांक 20
मार्च 1920
भारत सरकार के गृह विभाग के माननीय सदस्य का हालिया बयान ‘कि सरकार किसी
भी व्यक्ति के पत्रों पर विचार करने को तैयार है, और यदि उसके समक्ष लाए जाते हैं तो
उस पर अपना श्रेष्ठ मनन करेगी’; और कि ‘जैसे ही सरकार को यह स्पष्ट होगा कि व्यक्ति
को रिहा किया जाना राजहित के लिए खतरा नहीं है, सरकार उस व्यक्ति को शाही माफी
के दायरे में लाएगी’, अधोहस्ताक्षरी बेहद विनम्रता से निवेदन करता है, इससे पहले कि
कीमती समय नष्ट हो, उसे उसका पक्ष रखने का अंतिम मौका दिया जाए। महोदय, आप,
किसी भी कारण मुझे यह याचिका महामहिम भारत के वाइसरॉय के समक्ष रखने पर
आपत्ति नहीं करेंगे, विशेषकर जब यह सरकार के निर्णय से इतर, के वल मुझे सुने जाने से
जुड़ा संतोष प्रदान करती हो।
I शाही मुनादी में बेहद उदार मन से कहा गया है कि शाही माफीनामे के दायरे में वह सब
आते हैं जो ‘राजनीतिक प्रक्रिया के लिए अपनी उत्सुकता’ के कारण कानून तोड़ने के
अपराधी पाए गए हैं। मेरा और मेरे भाई का मामला विशेष तौर पर इस श्रेणी में आता
है। मेरे और मेरे परिवार के किसी सदस्य को किसी निजी कारण से सरकार के प्रति
कोई शिकायत नहीं रही है। मेरे समक्ष उत्कृ ष्ट करियर था जिसे ऐसे खतरनाक मार्ग पर
चलकर सब कु छ खोने और कु छ भी प्राप्त ना होने का ही विकल्प बचता था। 1913 में
गृह विभाग के माननीय सदस्यों द्वारा मुझे कहे शब्दों में कह देना भर उपयुक्त होगा, ‘. .
.ऐसी शिक्षा और अध्ययन. . .आप हमारी सरकार में सर्वोच्च पद हासिल कर सकते
थे।’ इस बयान के बाद भी यदि मेरी मंशा के प्रति कोई शक रहता है तो मैं ध्यान
दिलाना चाहता हूं, कि वर्ष 1909 तक मेरे परिवार के किसी भी सदस्य के खिलाफ
कोई अभियोग नहीं था; जबकि मेरे मामले में मेरी जो गतिविधियां एकत्र की गई हैं, वह
भी उस वर्ष से पहले ही कार्यान्वित हुई थीं। अभियोजन पक्ष, न्यायाधीशों एवं रॉलेट
रिपोर्ट, सबने कहा है कि वर्ष 1899 से वर्ष 1909 के बीच मेजिनी की जीवनी एवं अन्य
पुस्तकें लिखीं, साथ ही विभिन्न सभाओं का संगठन किया तथा यहां तक कि बंदूकें भी
मेरे भाइयों को गिरफ्तार करने से पहले भेजी गई थीं या मुझे मेरी निजी शिकायत दर्ज
करने के अवसर से पहले (देखें रॉलेट रिपोर्ट पृष्ठ 6 एवं सी.) का कार्य है। परंतु क्या
कोई अन्य हमारे मामले को इस दृष्टि से देखता है ? भारतीय जनमानस द्वारा भेजी गई
वृहत याचिका में 5000 से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किए थे, और उसमें मेरा नाम
विशेष तौर पर दर्ज था। मुझे अदालत में ज्यूरी सुविधा नकारी गई थीः और अब समूचे
देश की ज्यूरी का मत है कि मेरे कृ त्यों के पीछे राजनीतिक प्रगति की मेरी तीव्र उत्कं ठा
थी जिस कारण कानून तोड़ने का अफसोसजनक कार्य मुझसे हुआ।
II. हत्या को उकसाने का दूसरा मामला मुझ पर थोपकर मुझे शाही माफी से दूर नहीं
रखा जा सकता, क्योंकि
क. घोषणा अपराध की मंशा से इतर उसकी प्रकृ ति या किसी अनुभाग या न्यायिक
अदालत की विशिष्टता का जिक्र नहीं करती है। वह के वल मंशा पर जोर देती है और
मांग करती है कि यह निजी ना होकर राजनीतिक हो।
ख. दूसरा, सरकार ने भी इसे समान तरीके से व्याख्यायित किया है तथा बरिन एवं हेसु
तथा अन्य रिहा हो चुके हैं। इन व्यक्तियों ने कबूला था कि उनके षडयंत्रों का एक
उद्देश्य ‘प्रतिष्ठित सरकारी अधिकारियों की हत्या’ था और इसके लिए उन्होंने लड़कों
को न्यायाधीशों आदि की हत्या के लिए भेजा था। न्यायाधीश महोदय ने अन्य के
साथ, पहले ‘बन्दे मातरम्’ समाचार पत्र मामले में बरिन के भाई अराबिंदा (अरविंद)
पर अभियोग चलाया था। इसके बावजूद, बरिन को उचित ही, गैर-राजनीतिक हत्यारे
के तौर पर नहीं देखा गया। मेरे मामले में आपत्ति बहुत कमजोर है। चूंकि अभियोजन
पक्ष ने उचित ही कहा है कि मैं इंग्लैंड में था और मुझे श्री जैक्सन की हत्या की
योजना या विचार के संबंध में कु छ ज्ञान नहीं था और हथियारों का पुलिंदा भाई की
गिरफ्तारी से पहले भेजा था और इसलिए उनमें से किसी भी अधिकारी के खिलाफ
तनिक भी निजी द्वेष नहीं हो सकता। परंतु हेम ने वह बम बनाया था जिससे कै नेडी
मारे गए और उन्हें गंतव्य का भी पूर्ण ज्ञान था। (रॉलेट रिपोर्ट, पृष्ठ 33)। उसके
बावजूद हेम को इस आधार पर भी माफी के दायरे से बाहर नहीं रखा गया। यदि
बरिन एवं अन्य पर उकसाने के लिए मामला दर्ज नहीं किया गया तो इसलिए क्योंकि
उनको पहले ही मृत्युदंड की सजा सुनाई जा चुकी थी; और मुझ पर विशिष्ट मामला
चला क्यांेंकि मेरे ऊपर ऐसा मुकदमा नहीं चला था और यदि मुझे फ्रांस प्रत्यर्पित
करना पड़ता तो उससे जुड़े अंतरराष्ट्रीय कारणों से भी ऐसा किया गया। अतः, मेरा
सरकार से विनम्र निवेदन है कि बरिन एवं हेम की तरह मुझे भी माफी के दायरे में
लाया जाए, जो हत्या को उकसाने में अपनी भूमिका स्वीकार कर चुके हैं और वह
कहीं गहरी थी। चूंकि अपराध का इरादा किसी वर्ग से कहीं बड़ा होता है। मेरे भाई के
संबंध में यह प्रश्न नहीं उठता क्योंकि किसी हत्या आदि से उनके मामले का कोई
संबंध नहीं।
III. अतः बरिन, हेम आदि के संबंध में सरकार द्वारा क्षमादान की व्याख्या किए जाने के
उपरांत, मैं और मेरे भाई भी ‘पूरी तरह’ शाही माफी के हकदार हैं। परंतु क्या यह
सार्वजनिक सुरक्षा के लिए मुफीद होगी ? मैं कहता हूं कि ऐसा है, क्योंकि
क. मैं जोर देकर यह कहना चाहूंगा कि गृह सचिव के कथन के विपरीत हम
‘अराजकतावाद के सूक्ष्मजीवी’ नहीं हैं। जहां तक युद्धरत विचारधारों का प्रश्न है तो
मैं कु रोप्तिकन या टाॅलस्टाॅय के शांतिप्रिय और दार्शनिक अराजकतावाद में भी
विश्वास नहीं रखता। और जहां तक मेरे अतीत के क्रांतिकारी कार्यों का प्रश्न है: यह
के वल अब क्षमा प्राप्ति के लिए ही नहीं बल्कि वर्षों पहले मैंने अपनी याचिकाओं
(1914, 1918) में संविधान के प्रति अपने मंतव्य को स्पष्ट किया था और उस पर
कायम हूं, जब श्री मोंटेग्यू द्वारा उसे तैयार करने की प्रक्रिया आरंभ हुई थी। तब से
सुधार और उसके बाद घोषणा के प्रति मेरे विचार पुख्ता हुए हैं और हाल में मैंने
संवैधानिक विकास के साथ दृढ़ तौर पर खड़े रहने के लिए सार्वजनिक रूप से अपना
मत और तैयारी खुलकर स्वीकारी है। आज हमारे देश को उत्तर की ओर से आने
कट्टरवादी झुंडों से जो खतरा है, और जो पहले भी शत्रु के तौर पर विपदा रूपी थे,
और भविष्य में भी रहेंगे क्योंकि अब वह मित्र रूप में आना चाहते हैं, यह देख मेरा
मानना है कि प्रत्येक बुद्धिशाली भारत प्रेमी को भारत के हित में ब्रिटिश लोगों के
साथ सदिच्छा और निष्ठापूर्वक सहयोग करना चाहिए। इसीलिए 1914 में युद्ध आरंभ
होने पर, जब भारत पर जर्मन-तुर्क -अफगान हमले का खतरा बढ़ गया था, मैंने स्वयं
को स्वयंसेवी के रूप में प्रस्तुत किया था। आप विश्वास करें या नहीं, संवैधानिक पथ
पर चलने के प्रति मैं अपनी इच्छा पूर्ण ईमानदारी से व्यक्त कर रहा हूं और ब्रिटिश
राज्य के प्रति स्नेह और आदर तथा आपसी मदद का हाथ बढ़ाता हूं। शाही घोषणा
के अनुरूप दिखने वाले साम्राज्य के प्रति मेरी गहरी निष्ठा है। चूंकि असल में मैं किसी
वर्ण या मत या लोगों से मात्र भारतीय ना होने के कारण नफरत नहीं करता!
ख. परंतु यदि सरकार अतिरिक्त सुरक्षा की अपेक्षा रखती है तो मैं और मेरे भाई
सरकार द्वारा निर्देषित अवधि के लिए निश्चित और उचित तौर पर राजनीति से दूर
रहने का संकल्प ले सकते हैं। चूंकि ऐसे किसी संकल्प के बिना और मेरे गिरते
स्वास्थ्य के बावजूद तथा घर का मधुर सुख जिससे मैं वंचित रहा हूं, मुझे वर्षों तक
शांत और सेवानिवृत्त जीवन जीने को उन्मुख कर रही है जिसके बाद कु छ भी मुझे
राजनीति में उतरने को प्रेरित नहीं कर सके गा।
ग. यह या अन्य कोई शपथ, उदाहरणार्थ, किसी प्रांत विशेष या हमारी रिहाई के
उपरांत पुलिस को निश्चित समय के लिए हमारी गतिविधि सूचित करने का कार्य -
राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस तरह की वाजिब शर्तें मैं और मेरे भाई
द्वारा सहर्ष स्वीकार की जाती हैं। अंततः, मैं कहना चाहूंगा, भारी बहुमत में वह लोग,
जिन्हें हमसे सुरक्षित रखा जाना है, जैसे आदरणीय एवं वरिष्ठ उदारवादी नेता श्री
सुरेंद्रनाथ से लेकर आम राहगीर तक, प्रेस और मंच, हिन्दू और मुस्लिम - पंजाब और
मद्रास से - लगातार हमारी तुरंत एवं संपूर्ण रिहाई की मांग कर रहे हैं, जिससे यह
उनकी सुरक्षा के हित में साबित होती है। यह निहित ‘कटुता’ का तत्व ही है जिसे
घोषणा दूर करने का लक्ष्य रखती है। अतः, घोषणा का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता और
कटुता बनी रहती है, तो आमजन की ओर से चेताता हूं कि जब तक हम दोनों और
अन्य को इस उदार क्षमा का हिस्सा नहीं बनाया जाता।
IV. हमारे मामले में सजा के सभी उद्देश्य पूर्ण कर लिए गए हैं। चूंकि
क. हमें जेल में 10 से 11 वर्षों तक रखा गया है, जबकि श्री सान्याल, जो उम्रकै दी थे,
उन्हें 4 वर्ष बाद छोड़ दिया गया और दंगा फै लाने वालों को एक वर्ष में;
ख. हमने कठोर श्रम किया, चक्की, कोल्हू और अन्य सबकु छ, जो भी हमें भारत और
यहां दिया गया;
ग. हमारा व्यवहार रिहा किए जा चुके व्यक्तियों से बिल्कु ल अलग नहीं रहा; उन्हें, पोर्ट
ब्लेयर में भी गहरी साजिश के तहत जेल में बंद किया गया था। इसके विपरीत, हम
दोनों को आज तक अतिरिक्त कठोर अनुशासन के तहत रखा गया है और गत छह
वर्षों या उतनी अवधि से हमारे खिलाफ आम अनुशासन से जुड़ा भी कोई मामला
नहीं है।
V. अंत में, मैं अंडमान से सैकड़ों राजनीतिक कै दियों को रिहा किए जाने के प्रति
धन्यवाद देता हूं और इसके लिए मेरी 1914 एवं 1918 की याचिकाओं पर विचार करने
पर भी। यदि महामहिम शेष कै दियों को भी रिहा कर दें, यह उम्मीद करना गैरवाजिब
नहीं होगा क्योंकि वह भी मेरे और मेरे भाई के समान आधार पर यहां हैं। विशेषकर तब
जबकि गत कई वर्षों से महाराष्ट्र किसी भी तरह की उपद्रवी उथल-पुथल से दूर रहा है।
यहां, हालांकि, मैं निवेदन करना चाहूंगा कि पहले छोड़े जा चुके अन्य कै दियों या किसी
अन्य की तरह सशर्त हमें रिहा ना किया जाए क्योंकि हमें क्षमा से वंचित रखना और
किसी अन्य के अपराध की सजा देना निरर्थक होगा।
VI. इन आधार पर मेरा विश्वास है कि सरकार किसी व्यावहारिक शपथ के लिए मेरी
तैयारी और मौजूदा एवं वादानुसार किए जाने वाले सुधारों के साथ और उत्तर से तुर्क -
अफगानी कट्टरवादियों के खतरे को देखते हुए मैं दोनों देशों के हितों के संबंध में
निष्ठापूर्ण सहयोग देता हूं और यह मेरी रिहाई और निजी कृ तज्ञता का आधार होगी।
मेरे आरंभिक जीवन के अवसर जल्दी ही मुरझा गए थे जिस कारण मैं इतने अफसोस
में रहा हूं कि रिहाई मुझे नया जीवन देगी और हृदय को आनंदित करेगी, संवेदनीय
और विनम्र, यह मुझे निजी तौर पर प्रेरित कर राजनीतिक तौर पर लाभकारी होगी।
चूंकि अक्सर जहां शक्ति असफल रहती है, उदारता सफल होती है।
आशा करता हूं कि चीफ कमिश्नर को उनके कार्यकाल में मेरे द्वारा दिए गए सम्मान की
याद होगी और यह भी कि किस तरह उस समय मुझे नाउम्मीदी का सामना करना पड़ता
था, परंतु वह मुझे मेरी निराशा से बाहर निकलने का अंतिम अवसर देना चाहेंगे जिन्हें मैं
उनको अपनी सिफारिशों के साथ प्रेषित कर रहा हूं – महामहिम भारत के वाइसराय की
सेवा में।
मैं
सर
आपका आज्ञाकारी सेवक,
वीडी सावरकर
कै दी नं. 32778
5. भारत के गवर्नर-जनरल रफस डेनियल इस्साक्स, अर्ल ऑफ रीडिंग को वीडी सावरकर
की प्रेषित याचिका, रत्नागिरी जिला कारागार, दिनांक 19 अगस्त, 1921:
सेवा में,
महामहिम भारत के गवर्नर-जनरल, इन काउंसिल;
मार्फ त महामहिम बंबई के गवर्नर-जनरल, इन काउंसिल
विनायक दामोदार सावरकर, कै दी नं. 558, रत्नागिरी जिला कारागार की विनम्र याचिका,
एतदद्वारा यह दर्शाती है कि -
1. याचिकाकर्ता जिस पर 1910 में अपराध सिद्ध हुआ था, 1911 में अंडमान भेजा गया,
इस वर्ष भारतीय जेल में लाया गया है। इस तरह उसने कारागार में 11 वर्ष बिताए हैं।
यदि वह किसी भारतीय जेल में होता तो उसे 2 से 3 वर्ष की छू ट प्राप्त होती चूंकि उसे
फोरमैन (प्रथम श्रेणी कै दी अधिकारी) के तौर प्रोन्नत किया गया है। इस तरह
व्यावहारिक तौर पर उसने 14 वर्ष की सजा काटी है, जो सर्वाधिक सजा है, और
मौजूदा अभ्यास के अंतर्गत अपराधी की सशर्त रिहाई के लिए उसके मामले पर विचार
करने का अधिकार बनता है।
2 क. इसके अलावा, महामहिम प्रिंस ऑफ वेल्स की प्रस्तावित यात्रा को लेकर कै दी को
उम्मीद बंधी है कि अंततः अब महामहिम वाइसरॉय और विशेष तौर पर महामहिम
बंबई के गवर्नर उसके अप्रिय अतीत को माफ कर माफीनामे से लाभान्वित करेंगे
जिससे उसे अभी तक वंचित रखा गया है।
ख. इस विस्तार के लिए वह शाही माफी की नवीन व्याख्या की मांग नहीं कर रहा है,
चूंकि याचिकाकर्ता से भी अधिक गंभीर अपराध करने वालों को माफी मिली है,
उदाहरणार्थ, बरिन घोष जिन्हांेने हत्या का आदेश देने का अपराध कबूला और
हेमदास जिन्होंने बम बनाया और उन्हें गंतव्य (संदर्भ रॉलेट रिपोर्ट) की जानकारी थी;
साथ ही पंजाब से प्यारासिंह एवं अन्य जिन पर डकै ती एवं संबंधित कार्रवाई की गई
थी। यह कार्रवाई जो तकनीकी तौर पर ‘राज्य अपराधों’ से बाहर हैं, परंतु उनके
कारण ही अंजाम दिए जाते हैं, को भी माफी पर रिहा किया गया।
ग. याचिकाकर्ता महामहिम को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह अपने अपराध सिद्ध
होने के दिनों वाला व्यक्ति नहीं रहा। उस समय वह एक बालक मात्र था। उस समय से
वह ना के वल आयु में बल्कि अनुभव में भी बड़ा हुआ है; और अफसोस के साथ
कहता है कि वह राजनीतिक अंधड़ की भेंट चढ़ा और अपने उत्कृ ष्ट करियर को नष्ट
कर बैठा। उसके बाद, माननीय श्री मोंटेग्यू की भारत यात्रा के बाद से उसने
(सावरकर) ने सुधारों में अपना विश्वास जताया है और सरकार को प्रेषित अपनी
पिछली याचिकाओं में भी उसने (सावरकर) ने यह वादा किया है। एशियाई लड़ाकों
की छाया अब सीमांत क्षेत्रों पर पड़ने लगी है और यह भारत के लिए आनुवांशिक
अभिशाप रहा है - किसी भी तरह गैर-मुस्लिम भारत - उसे विश्वास दिलाता है कि
ब्रिटिश साम्राज्य के साथ निकटवर्ती सहयोग और निष्ठा दोनों के लिए अपरिहार्य होगी
- और वह उम्मीद करता है कि यह दीर्घकालिक तथा लाभकारी रहे।
घ. परंतु यदि कोई किसी मंशा से दोष आरोपित कर रहा है तब याचिकाकर्ता कहना
चाहता है कि ऐसी जानकारियों पर भरोसा ना कर, उनकी अपनी स्पष्ट एवं पूर्ण
स्वीकरोक्ति पर ही विश्वास किया जाए। उसका अतीत गवाही देता है कि जिस धारणा
पर उसका यकीन नहीं, वह उसे स्वीकार नहीं करता। सरकार को प्रसन्न करने हेतु
अति उत्साही या अति व्यग्र व्यक्ति जो अतीत के अपने कृ त्यों पर क्रु द्ध रहते हैं, ने
अक्सर याचिकाकर्ता के बारे में शब्दों या कार्यों से जुड़े आरोप लगाकर बलि का बकरा
बनाने का प्रयास किया है।
ङ. परंतु सरकारी हलकों में शेष किसी भी प्रकार की शंका को दूर करने के लिए
याचिकाकर्ता अपना दृढ़ वचन देता है कि वह किसी भी प्रकार की राजनीतिक
कार्रवाई से दूर रहेगा। उसका जीर्ण स्वास्थ्य और लम्बे कष्टों की श्रृँखला, तथा ऐसे
अन्य कारणों से वह सेवानिवृत्त और निजी जीवन जीने को प्रतिबद्ध है, इसलिए वह
यह या ऐसी किसी भी अन्य वाजिब शर्त मानने को तैयार है जिसे सरकार सामने
रखना चाहे।
च. उपरोक्त तथा अन्य कारण बताते हैं कि याचिकाकर्ता से पहले और बाद में सजा
पाने वाले हजारों राजद्रोहियों में से कोई भी इतने लम्बे समय से जेल में नहीं है, जितने
समय से याचिकाकर्ता और उनके भाई (दोनों जेल में हैं जबकि उनके साथ सजा पाने
वाले उम्रकै दी छोड़ दिए गए), यह देख उन्हें विश्वास होता है कि महामहिम राजकु मार
की यात्रा उनके कष्टों का अंत करेगी और उन्हें तथा उनके भाई जीडी सावरकर
(जिनके संबंध में उपरोक्त तथ्य कहीं अधिक सटीक बैठते हैं) रिहा होंगे।
3. परंतु यदि क्षमा याचना दबाए जाने के संबंध में याचिकाकर्ता का दुर्भाग्य जारी रहता है
तो अंतिम विकल्प के तौर पर उसकी प्रार्थना है कि अंडमान से यहां भेजे जाने के संबंध
में विशेष शिकायतों पर पुनर्विचार किया जाएः यदि वह 11 वर्षों तक भारतीय जेल में
होता तो उसे न्यूनतम 2 वर्ष या कु छ अधिक की छू ट का अधिकार होता। यदि वह सजा
के अंत तक अंडमान में रहता तो अब तक, वहां के चलन के अनुसार, उसे छु ट्टी का
अधिकार प्राप्त होता और अपने परिवार को वहां ले जा सकता था। परंतु उसे यहां दोनों
सुविधाओं से वंचित रखा गया है। लिहाजा, वह दोनों सुविधाओं की मांग करता हैः
क. याचिकाकर्ता को 2 या 3 वर्षों की छू ट प्रदान की जाए, अथवा
ख. उसे परिवार को साथ रखकर छु ट्टी के अधिकार के साथ अंडमान वापस भेज दिया
जाए। यहां तक कि अंडमान में 9 वर्ष बिताने के बाद सबसे दुर्दांत अपराधियों को भी
छु ट्टी टिकट के आधार पर निजी जीवन जीने का अधिकार है और 11 वर्ष अंडमान
और जेलों में गुजारने तथा 7 वर्ष अच्छे व्यवहार में गुजारने के बाद यदि याचिकाकर्ता
इतने भर की उम्मीद रखता है तो यह अधिक नहीं होना चाहिए। यदि उसे इतने भर की
सुविधा दी जाती है तो वह दुनिया को भुलाकर घरेलू जीवन के सुख में सेवानिवृत्त और
निजी जीवन जीना चाहेगा – ताकि समाज याचिकाकर्ता जैसे दयनीय, आशाहीन और
जीर्ण व्यक्ति से भयभीत समाज सुरक्षित रह सके ।
4. अंत में याचिकाकर्ता विनम्रता से कहना चाहता है कि इस विरोध प्रदर्शन का जारी
रहना या भारत में चल रहे प्रदर्शनों को याचिकाकर्ता के विरुद्ध पूर्वाग्रहों के तौर पर ना
लिया जाए। प्रेस और समाज में जनता के वक्तव्यों को देखते हुए यह कहना आवश्यक
हो जाता है परंतु अन्यथा वह इस संबंध में राय नहीं रखता। लाखों लोगों के किए पर
उसकी कोई रोक नहीं और उसे तथा उसके भाई को ‘प्रशासनिक आधार’ पर अधिक
सजा के लिए रखना, उन्हें दूसरों के किए की सजा देना, जिस पर उसकी कोई रोक
नहीं।
5. याचिकाकर्ता को विश्वास है कि यह याचिका महामहिम गवर्नर-जनरल और महामहिम
बम्बई गवर्नर को याचिकाकर्ता और उसके भाई को तुरंत रिहा किए जाने के संबंध में
रजामंद करने में सफल होगी – ऐसे दयालु कार्य के लिए वह महामहिम सज्जनों की
दीर्घायु और सफलता की कामना करता है।
6. गणेश दामोदर सावरकर द्वारा साबरमती जेल से 4 जुलाई 1922 को प्रेषित याचिका का
संपूर्ण कथ्य
सेवा में
महामहिम,
गवर्नर बम्बई, इन काउंसिल
आदरणीय सर,
मैं, अधोहस्ताक्षरी, गणेश दामोदर सावरकर की भाभी, जिन्हें पूर्ववत अंडमान भेजा गया
था और अब यहां लाकर अहमदाबाद जेल में रखा गया है, महामहिम द्वारा अनुकू ल
विचार किए जाने के संबंध में निम्न पंक्तियां रखना चाहती हूँ।
2. जेल समिति की सिफारिशों के आधार पर महामहिम की सरकार 10 वर्षों से अधिक
की सजा काट चुके 700 कै दियों को रिहा कर चुकी है। उन कै दियों में एक श्री वीएन
जोशी थे, जिन्हें जैक्सन हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई थी, और
उनको भी छोड़ दिया गया। मेरे जेठ को के वल कु छ कविताओं वाली पुस्तक प्रकाशित
करने पर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, जो अपराध उल्लिखित श्री वीएन
जोशी की तुलना में नगण्य था। इसके अतिरिक्त, मेरे जेठ ने कारागार में 13 वर्ष का
अरसा बिता लिया है, और उनका आचरण आदर्श रहा है। अतः, यदि श्री जोशी
अनुशंसाओं के आधार पर रिहाई के हकदार हैं, तो मेरे जेठ भी हैं। इसलिए, मैं
महामहिम से अपील करती हूं कि वह इन तथ्यों का संज्ञान लेते हुए श्री जोशी की तरह
उन्हें भी रिहा करें।
3. एक अन्य कारण से भी मेरे जेठ जी की रिहाई यथोचित है। भारतीय दंड विधान, धारा
55 के अंतर्गत किसी भी कै दी को चौदह वर्षों से अधिक कारागार में नहीं रखा जा
सकता। इस मियाद में सरकारी प्रस्ताव संख्या 5308 (न्यायिक विभाग) दिनांक 12-
10-1905 के अनुसार, कै दी द्वारा अर्जित छू ट भी शामिल है। मेरे जेठ को उनकी सजा
की षुरुआत (9 जून, 1909) से लगातार, अंडमान सहित कारागार में रखा गया है। इस
अनुसार उन्होंने अपनी सजा के 13 वर्ष कठोर कारागार में बिताए हैं। इसे देखते हुए,
किसी भारतीय जेल में उन्हें जो छू ट मिलनी चाहिए थी - और कारागार में प्रत्येक कै दी
को सालाना दो महीने छू ट मिलती है - मेरा मानना है उनके चौदह वर्ष पूरे हो चुके हैं
और मैं उम्मीद करती हूं कि इस आधार पर भी अब सच में उनकी रिहाई होनी चाहिए।
मैं उम्मीद करती हूं कि उपरोक्त किसी भी आधार पर उन्हें रिहा किया जाना चाहिए।
4. मेरी प्रार्थना है कि उनकी रिहाई तक उन्हें वे सब सुविधाएं प्रदान की जाएं जो प्रथम
श्रेणी अपराधी के तौर पर अंडमान में मिलती थीं, जो हैं,
1. प्रतिमाह एक पत्र या परिजन से मुलाकात।
2. सरकार द्वारा प्रतिबंधित ना की गई पुस्तक।
3. सरकार द्वारा स्वीकृ त समाचार पत्र।
5. अंत में, मैं कहना चाहूंगी कि मेरे जेठ जी के साथ प्रतिकू ल व्यवहार किया गया है।
1. अंडमान में उन्हें प्रवासी कै दी से जुड़ी अपेक्षाकृ त छू ट से वंचित रखा गया था। उन्हें
वहां लगातार तेरह वर्षों तक कठोर कारावास में रखा गया, और एक आम आजीवन
कै दी की तरह कभी बाहर नहीं भेजा गया।
2. दूसरा, मेरे जेठ जी के साथ कभी कठोर कारावास काट रहे कै दी जैसा व्यवहार नहीं
किया गया, जो कि आजीवन कै दी के तौर पर वह काट रहे थे। इस तरह, भारतीय दंड
विधान की धारा 55 के अंतर्गत, उन्हें 21/2 वर्ष की छू ट मिलनी चाहिए थी, और वह
रिहाई के भी हकदार थे।
3. तीसरा, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, उन्हें जेल समिति की अनुशंसाओं की सुविधाएं
प्राप्त नहीं हुई, और हालांकि वह श्री जोशी से अधिक रिहाई के हकदार थे, उन्हें रिहा
नहीं किया गया। अतः, आजीवन सजा के कै दी, या कठोर कारावास काट रहे कै दी के
अनुसार, रिहाई के सब अवसरों से उन्हें आज तक वंचित रखा गया है!
अतः, मेरी प्रार्थना है कि न्याय प्रक्रिया के अनुसार उन्हें जल्दी रिहा किया जाए।
मैं
सर,
आपकी अति आज्ञाकारी सेवक
(हस्ताक्षर - देवनागरी में)
पताः द्वारा डाॅ. एनडी सावरकर
गिरगांव, बम्बई
8. बम्बई के गवर्नर सर जाॅर्ज लॉयड को वीडी सावरकर की धर्मपत्नी, यमुनाबाई सावरकर
द्वारा प्रेषित याचिका का कथ्य (1921-22)
सेवा में,
महामहिम सर जाॅर्ज लॉयड
गवर्नर, बम्बई
बम्बई.
मैं, अधोहस्ताक्षरी, श्री विनायक दामोदर सावरकर की धर्मपत्नी, जिन्हें पूर्ववत अंडमान में
आजीवन कारावास के लिए भेजा गया तथा अब रत्नागिरी कारागार में रखा गया है,
महामहिम के समक्ष अनुकू ल विचार किए जाने हेतु कु छ पंक्तियां रखना चाहती हूं।
2. जेल समिति की सिफारिशों के आधार पर महामहिम की सरकार 10 वर्षों से अधिक
की सजा काट चुके 700 कै दियों को रिहा कर चुकी है। उन कै दियों में एक श्री वीएन
जोशी थे, जिन्हें जैक्सन हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई थी, और
उनको छोड़ भी दिया गया। मेरे पति को श्री जोशी की अपेक्षा कहीं छोटे अपराध के
लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई, श्री जोशी की श्री जैक्सन की हत्या में
लिप्तता थी, जबकि मेरे पति की नहीं। इसके अतिरिक्त, मेरे पति ने कारागार में श्री
जोशी की तरह 111/2 वर्ष का अरसा बिता लिया है, और उनका आचरण आदर्श रहा
है। अतः, यदि श्री जोशी को अनुशंसाओं के आधार पर रिहाई के हकदार हैं, तो मेरे पति
भी हैं। इसलिए, मैं महामहिम से अपील करती हूं कि वह इन तथ्यों का संज्ञान लेते हुए
श्री जोशी की तरह उन्हें भी रिहा करें।
3 एक अन्य कारण से भी मेरे पति की रिहाई यथोचित है। भारतीय दंड विधान, धारा 55
के अंतर्गत किसी भी कै दी को चौदह वर्षों से अधिक कारागार में नहीं रखा जा सकता।
इस मियाद में सरकारी प्रस्ताव संख्या 5308 (न्यायिक विभाग) दिनांक 12-10-1905
के अनुसार, कै दी द्वारा अर्जित छू ट भी शामिल है। मेरे पति को उनकी सज़ा की
शुरुआत (24 दिसम्बर, 1910) से लगातार, अंडमान सहित कारागार में रखा गया है।
इस अनुसार उन्होंने अपनी सजा के 11 वर्ष और 6 महीने कठोर कारागार में बिताए हैं।
इसे देखते हुए, किसी भारतीय जेल में उन्हें जो छू ट मिलनी चाहिए थी - और कारागार
में प्रत्येक कै दी को सालाना दो महीने छू ट मिलती है - मेरा मानना है उनके चौदह वर्ष
पूरे हो चुके हैं और मैं उम्मीद करती हूं कि इस आधार पर भी अब उनकी सच में उनकी
रिहाई होनी चाहिए। मैं उम्मीद करती हूं कि उपरोक्त किसी भी आधार पर उन्हें रिहा
किया जाना चाहिए। मुझे बताने की जरूरत नहीं कि जेल समिति की सिफारिशों के
अनुसार भी उनकी रिहाई की मीयाद बीत चुकी है। मेरी प्रार्थना है कि उन्हें उपरोक्त
किसी भी आधार पर रिहा किया जाए।
4. मेरी प्रार्थना है कि उनकी रिहाई तक उन्हें वह सब सुविधाएं प्रदान की जाएं जो प्रथम
श्रेणी अपराधी के तौर पर अंडमान में मिलती थीं, जो हैं,
1. प्रतिमाह एक पत्र या परिजन से मुलाकात।
2. सरकार द्वारा प्रतिबंधित ना की गई पुस्तक।
3. सरकार द्वारा स्वीकृ त समाचार पत्र।
5. अंत में, मैं कहना चाहूंगी कि मेरे पति के साथ प्रतिकू ल व्यवहार किया गया है।
1. अंडमान में उन्हें प्रवासी कै दी से जुड़ी अपेक्षाकृ त छू ट से वंचित रखा गया था। उन्हें
वहां लगातार ग्यारह वर्षों तक कठोर कारावास में रखा गया, और एक आम आजीवन
कै दी की तरह कभी बाहर नहीं भेजा गया।
2. दूसरा, मेरे पति के साथ कभी कठोर कारावास काट रहे कै दी जैसा व्यवहार नहीं
किया गया, जो आजीवन कै दी के तौर पर वह काट रहे थे। इस तरह, भारतीय दंड
विधान की धारा 55 के अंतर्गत, उन्हें 21/2 वर्ष की छू ट मिलनी चाहिए थी, और वह
रिहाई के भी हकदार थे।
3. तीसरा, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, उन्हें जेल समिति की अनुशंसाओं की सुविधाएं
प्राप्त नहीं हुई, और हालांकि वह श्री जोशी से अधिक रिहाई के हकदार थे, उन्हें रिहा
नहीं किया गया। अतः, आजीवन सजा के कै दी, या कठोर कारावास काट रहे कै दी के
अनुसार, रिहाई के सब अवसरों से उन्हें आज तक वंचित रखा गया है!
अतः, मेरी प्रार्थना है कि न्याय प्रक्रिया के अनुसार उन्हें जल्दी रिहा किया जाए।
मैं,
आपकी आज्ञाकारी सेवक
(देवनागरी में हस्ताक्षर)
परिशिष्ट IV
क्या हिन्दुस्तान नि:शस्त्र है? 1
छो ई ति यी जि ने ति औ हे दि की ने र्म्स फै री
31
. उनका छोटा भाई तिलक का अनुयायी था जिसने तिलक और काका साहेब खादिलकर की नेपाल आर्म्स फै क्टरी
स्थापित करने की उनके असफल प्रयासों में मदद की।
32
. वीएम भट, अभिनव भारत अथवा सावरकरांची क्रातिकारी गुप्त संस्था(मुम्बई: जीपी परचुरे प्रकाशन मंदिर, 1950),
पेज 32
33
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज-292-94
34
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 294
35
. पिछला संदर्भ, पेज 299-300
36
. एसआर वर्तक, भारतीय स्वतंत्रयाचे रनजुंजार, एनडी, पेज 39-40; वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनि
क्रातिकारक, पेज 66; डीएन गोखले क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर, खंड-2, पेज 52
37
. नौरोजी को वाचा का पत्र, 16 फरवरी 1901(नौरोजी पेपर्स, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली)
38
. हेमिल्टन को कर्जन का पत्र, 18 नवंबर 1900, कर्जन पेपर्स, MSS EUR F 111/159, इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
39
. नतेसन को गोखले का पत्र, 19 मई 1904; कृ ष्णस्वामी अय्यर क गोखले का पत्र, 11 जुलाई 1904 और 2 अगस्त
1904, गोखले पेपर्स, रील 5, नेशलन आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
40
. गोखले को रे एंड अन्य का पत्र 27 दिसंबर 1905, गोखले पेपर्स, रील 3, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया
41
. हिंदुस्तान रिव्यू, अक्टूबर-नवंबर 1905, पेज 355
42
. टीएन सरीन, जापान एंड द इंडियन नेशनल आर्मी(दिल्ली: अगम पब्लिके शन 1986), पेज -1, भारतीय मनोदशा पर
युद्ध के संपूर्ण प्रभाव को समझने के लिए देखें के पी दुआ की, द इम्पैक्ट ऑफ रसो-जैपनीज वार(1905) ऑन इंडियन
पॉलटिक्स(दिल्ली: एस चंद एंड कं पनी, 1966)
43
. चित्रगुप्त, लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर(मद्रास: बीजी पॉल एंड कं पनी पब्लिशर्स, 1926), पेज 23, 16-27, ये भी
देखें- वामन कृ ष्ण परांजपे, कल कर्ते शिवाराम पंथ परांजपे जीवन . पहला संस्करण(आरएस देशपांडे द्वारा 1945 में
प्रकाशित)
44
. वीएस जोशी, क्रं ति कल्लोल, पेज-81-82
45
. वामन कृ ष्ण परांजपे, कल कर्ते शिवाराम पंथ परांजपे जीवन, प्रथम संस्कर, पेज 127
46
. समकालीन भारतीय राजनीतिज्ञ प्रकाश आम्बेडकर के प्रपितामह
47
. विश्वास विनायक सावरकर, अथवाणी अंगारचाया, तीसरा संस्करण, पेज 90
48
. वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनि क्रांतिकारक, पेज 64
49
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 85
50
. बीजी तिलक, बाल गंगाधार तिलक: हिज राइटिंग्स एंड स्पीचेज(मद्रास: गणेश एंड कं पनी, 1922), पेज 49-50
51
. जीडी कर्वे और डीवी आम्बेकर(संपादित) स्पीचेज एंड राइटिंग्स ऑफ गोपाल कृ ष्ण गोखले, खंड-2(पूना; एशिया
पब्लिशिंग हाउस, 1966), पेज 196-97
52
. वामन कृ ष्ण परांजपे, कल कर्ते शिवाराम पंथ परांजपे जीवन, पेज 128
53
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 21
54
. वीएम भट्ट, अभिनव भारत अथवा सावरकराँची क्रांतिकारी गुप्त संस्था, पेज 49
55
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 302-04
56
. अगम्य गुरु को निर्विकल्प योगेंद्र और लतास्वामी भी कहा जाता था। वह एक कश्मीरी सारस्वत ब्राह्मण थे और
पंजाब विश्वविद्यालय के स्नातक थे। पहले उन्होंने उप-न्यायाधीश के तौर पर भी काम किया था। यूरोप, अमेरिका और
जापान से यात्रा कर लौटने के बाद वे पहले पहल कलकत्ता में 11 जून 1905 को प्रकट हुए। वह ड्यूक ऑफ मैनचेस्टर
के गुरु थे। ऐसी अफवाह थी कि उनका एक शादीशुदा यूरोपीय महिला मिसेज स्टैनर्ड से संबंध था और वे साथ रहते
थे। उन्होंने वेदों के अनुवाद के लिए उम्बरगांव में एक आश्रम की स्थापना की। लेकिन उनकी कु छ गतिविधियाँ और
भाषण ब्रिटिश सरकार की निगाह में आ गए थे, तो उन्हें वहां से निकाल दिया गया और फिर उन्होंने 17 फरवरी 1906
को पूना की राह ली। (स्रोत: वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनि क्रांतिकारक, पेज 65)
57
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 24-25, जयवंत डी जोगेलकर, वीर सावरकर: फादर ऑफ हिंदू नेशनलिज्म,
2006, पृ-43
58
. अगम्य गुरु की कै द के संदर्भ के लिए देखें धनंजय कीर की वीर सावरकर, पेज 24-25
सेडि मे टी रि पो र्ट पे
59
. सेडिशन कमेटी रिपोर्ट 1918(भारत सरकार प्रकाशन 1918) पेज 5
60
. हरि नारायण पिंपल खरे की गवाही; सावरकर के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेश्चन ऑफ इक्स्ट्राडिशन इन के स
ऑफ फे ल्योर एट द हेग, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911,
IOR/L/PJ/6/1069
, फाइल नंबर. 778, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
61
. वाईडी फडके , शोध सावरकरांचा(बंबई: श्रीविद्या प्रकाशन, 1984), पेज 1
62
. धनंजय कीर, वीर सावरकर पेज 25
63
. ए मोंटेगमोरी की रिपोर्ट, सावरकर के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेश्चन ऑफ इक्स्ट्राडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर
एट द हेग, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर. 778, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
64
. गेलिक अमेरिकन एक प्रमुख आयरिश-कै थोलिक अखबार था जिसका मालिकाना हक आयरिश राष्ट्रवादी जॉन
डिवॉय के पास था जो भारतीय आजादी आन्दोलन का समर्थक था और कभी-कभी इंडियन सोशियलॉजिस्ट का सार
प्रकाशित करता रहता था। अपने अखबार में एक सम्मानित पद हासिल होने की वजह से एक महात्वाकांक्षी इंडिया
हाउस प्लांट को खासी सुरक्षा मिल जाती थी। आरवी कॉमरफोर्ड ‘डिवॉय जॉन(1842-1928), लॉरेंस गोल्डमैन
(संपादित) ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी(ऑक्सफोर्ड: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2004) में।
65
. निकोलस ओवेन, द ब्रिटिश लेफ्ट एंड इंडिया: मेट्रोपोलिटन एंटी इम्पेरियलिज्म, 1885-1947(न्यूयॉर्क : ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस, 2007) पेज 67
66
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जनवरी 1905, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
67
. एएम शाह, द इंडियन सोशियॉलॉजिस्ट, 1905-14, 1920-22, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 41.31
(2006), पेज 3437
68
. अब 65 क्रॉमवेल एवेन्यू, लंदन एन 6
69
. वीडी सावरकर, शत्रुच्या शिविरात(उत्कर्ष प्रकाशन, 2019), पृ-38
70
. श्यामजी को राणा का पत्र, 12 नवंबर 1905, इंदुलाल याज्ञनिक, श्यामजी कृ ष्ण वर्मा : लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एन
इंडियन रिवोल्यूशनरी(बंबई: लक्ष्मी पब्लिके शन, 1950) पेज-152-53
71
. ये तथ्य की वो बजीफा मुफ्त नहीं था, बल्कि पुनर्अदायगी के आधार पर था, वो शायद ही कभी प्रकाश में आया हो।
इसका जिक्र सर कर्जन वायली के एक नोट में हुआ है; विदेश विभाग, इंटर्नल बी, मई 1906, #306, नेशनल
आरकाइव ऑफ यूके , लंदन
72
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 25
73
. श्यामजी को तिलक का पत्र, के सरी वाडा, पूना
74
. सावरकर स्मारक मुम्बई के सौजन्य से प्राप्त पत्र
75
. सन् 1919 में अंग्रेजी अदालत में एक मुकदमे में जहाँ उन्होंने सर वेलेनटाइन चिरोल पर मानहानि का दावा किया
था, लेकिन वो के स हार गए थे। उसमें तिलक की विनायक जैसे क्रांतिकारी की अनुशंसा करने के लिए खिंचाई की गई
थी। यहीं पर उन्होंने इस बात का खुलासा किया कि पहला अनुमोदन पत्र तो रैंगलर परांजपे की तरफ से आया था जो
भारी अंग्रेजीदां थे। वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल पेज 99
76
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 26
77
. वामन नरहरि दानी द्वारा दी गई रिपोर्ट का अनुवाद, कं स्टेबल तृतीय श्रेणी, नासिक सिटी के बकल नंबर 739 से
नासिक के मुख्य कं स्टेबल को भेजी गई रिपोर्ट जिसमें विनायक राव सावरकर के भाषणों का जिक्र था। सावरकर
के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेशचन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर एक द हेग, 9 दिसंबर 1910 से लेकर
23 फरवरी 1911 IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर 778, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
78
. ठीक पिछला संदर्भ
79
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 104; वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक अनि क्रांतिकारक, पेज 66
80
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 104
81
. वीडी सावरकर , शत्रुच्या शिविरात, पेज 22-23; वीएम भट्ट, अभिनव भारत अथवा सावरकरांची क्रांतिकारी गुप्त
संस्था, पेज 51
82
. डीएन गोखले, क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर, खंड-2, पेज 51
टे वि त्रे की रि पो र्ट सि के ची टे को के
83
. कांस्टेबुल विठ्ठल दत्तात्रेय की रिपोर्ट, बक्कल नंबर 493, नासिक के चीफ कांस्टेबल को। सावरकर के स; ट्रायल एंड
कं विक्शन; क्वेशचन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर एक द हेग, 9 दिसंबर 1910 से लेकर 23 फरवरी
1911 IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर 778, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
84
. मराठी में स्मॉलपॉक्स को ‘देवी’ कहते हैं।
85
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 105
86
. वीडी सावरकर, शत्रुच्या शिविरात, पेज 1
3/23/Download-section.html
4
. ठीक पिछला संदर्भ
5
. ठीक पिछला संदर्भ
6
. ऑनलाइन प्राप्त हुआ http://savarkar.org/mr/pdfs/savarkaranchi-kavit
amr-v002.pdf.
7
. सर वेलेंनटाइन चिरोल, इंडियन अनरेस्ट(लंदन, मैकमिलन एंड कं पनी लिमिटेड, 1910) पेज-348-49
8
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टॉर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन(नई दिल्ली: अलाइड पब्लिशर्स, 1983), पेज 12
9
. शोम्पा लाहिड़ी, इंडियन्स इन ब्रिटेन: एंग्लो-इंडियन इनकाउंटर्स, रेस एंड आइडेंटिटी, 1880-1930 (लंदन एंड
पोर्टलैंड: ओर फ्रैं क के स 2000) पेज 5
10
. ठीक वहीं संदर्भ
11
. मोहनदास करमचंद गेंधी, एन ऑटोबायोग्राफी या द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ(अहमदाबाद:
नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, 1996) पेज 66
12
. वहीं पिछला संदर्भ, पेज 67
13
. लॉर्ड मार्ले, भारत मंत्री और एक उदारवादी नेता
14
. वीडी सावरकर, न्यूजलेटर्स फ्रॉम लंदन, http://satyashodh.com/Savarkar%20Newsletters1A.htm#one
15
. सेवनिवृत आईसीएस ऑफिसर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक संस्थापिक सदस्य
16
. वीडी सावरकर, न्यूजलेटर्स फ्रॉम लंदन, http://satyashodh.com/Savarkar%20Newsletters1A.htm#two
17
. लाला हरदयाल प्राइवेट पेपर्स, सूची नंबर 77, Acc. No. 427, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली; भारत
सरकार के डाइरेक्टर ऑफ क्रिमिनिल इंटेलिजेंस द्वारा तैयार ‘हिस्ट्री शीट ऑफ हर दयाल ऑफ देलही’ जुडिशियल
एंड पब्लिक डिपार्टमेंट, होम प्रोसीडिंग्स, खंड-817, 2507/07, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन; लाला लाजपत राय.
यंग इंडिया: एन इंटरप्रेटेशन एंड ए हिस्ट्री ऑफ द नेशनलिस्ट मूवमेंट फ्रॉम विदिन(न्यूयॉर्क : बीडब्ल्यू ह्यूबैक, 1916),
पेज- 195; धर्म वीर, ‘डॉ हर दयाल’ एनबी सेन द्वारा संपादित पंजाब्स एमिनेंट हिंदूज(लाहौर: न्यू बुक सोसाइटी,
1953), पृ-57
18
. भारत सरकार के डाइरेक्टर ऑफ क्रिमिनिल इंटेलिजेंस द्वारा तैयार ‘हिस्ट्री शीट ऑफ हर दयाल ऑफ देलही’
जुडिशियल एंड पब्लिक डिपार्टमेंट, होम प्रोसीडिंग्स, खंड-817, 2507/07, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन
19
. सर माइके ल फ्रांसिस ओ डॉयर. इंडिय एज आई न्यू इट(लंदन: कं स्टेबल एंड कं पनी लिमिटेड, 1925), पेज 185
20
. देखें गदर पार्टी के न्यूजलेटर्स: ‘द विक्डनेस प्रैक्टिस्ड बाई इंग्लिश मिशनरीज’ 7 अप्रैल 1917 और ‘द वेस्ट
इनडेवरिंग टु क्रिश्चियनाइज द ईस्ट’, 15 अप्रैल 1917
21
. बालशास्त्री हरदास, आर्म्ड स्ट्रगल फॉर फ्रीडम: नाइनटी ईयर्स वार ऑफ इंडेपेंडेस, 1857-1947(पूना: कल प्रकाशन,
1958) पेज 191
22
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 196
सेडि मे टी रि पो र्ट पे में शि रि पो र्ट
23
. सेडिशन कमेटी रिपोर्ट, 1918, पेज 61(सन् 1918 में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित गुप्त रिपोर्ट)
24
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, खंड-3, अक्टूबर 1907, पेज 38
25
. चंद्र चक्रवर्ती, न्यू इंडिया एंड इट्स ग्रोथ एंड प्रोब्लेम्स(कलकत्ता: विजय कृ ष्ण ब्रदर्स, 1951), पेज 25-26
26
. वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय प्राइवेट पेपर्स, पीए एसीसी, नंबर 236, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली।
27
. चंद्र चक्रवर्ती, न्यू इंडिया एंड इट्स ग्रोथ एंड प्रोब्लेम्स(कलकत्ता: विजय कृ ष्ण ब्रदर्स, 1951), पेज 25-26
28
. श्रीपद शंकर नवारे, सेनापति(बंबई: मौज प्रकाशन, 1976), पेज 30
29
. द मराठा, 27 मई 1938
30
. श्रीपद शंकर नवारे, सेनापति(बंबई: मौज प्रकाशन, 1976), पेज 28
31
. एक वकील अपने मुवक्किल की तरफ से अदालत में याचिका दायर करता है।
32
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर(नई दिलली: 1980) , पेज 12
33
. एमपीटी आचार्य, रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, वीडी यादव द्वारा संपादित(नई दिल्ली: अनमोल
पब्लिके शन्स, 1991), पेज 12
34
. एमपीटी आचार्य, द मराठा, 27 मई 1938
35
. हिस्ट्री शीट ऑफ मैडम भीकाजी कामा, क्रिमिनल इंटेलिजेस ऑफिस द्वारा तैयार, अगस्त 1913, नंबर 61, , एसी
बोस, इंडियन रिवोल्यूशनरीज़ अब्रोड: 1905-1927. सेलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, नई दिल्ली: नॉदर्न ब्रुक सेंटर 2002, पेज 64
36
. हिस्ट्री शीट ऑफ मैडम भीकाजी कामा का सार; बंबई पुलिस कमिश्नर ऑफिस, फाइल नंबर 3218/एच; बुल्लू रॉय
चौधरी. मैडम काम: ए शॉर्ट लाइफ स्के च(नई दिल्ली: पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, 1977), इडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स,
MSS EUR F341/108
37
. बुल्लू रॉय चौधरी. मैडम काम: ए शॉर्ट लाइफ स्के च, पेज 6-7
38
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट न इंडिया(कलकत्ता: फर्मा के एल मुखोपाध्याय, 1962) पेज 235
39
. चित्रगुप्त, लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर, मद्रास, 1926, पेज 66
40
. ठीक पिछला संदर्भ 67
41
. ज्यादा जानकारी के लिए देखें गीता श्रीवास्तव की मैजिनी एंड हिज इम्पैक्ट ऑन द डियन नेशनल
मूवमेंट(इलाहाबाद; चुग पब्लिके शन्स, 1982)
42
. एसएन वनर्जी, द नेशन इन द मेकिंग: बीईंग द रेमिनीसेंसेंज ऑफ फिफ्टी ईयर्स फ पब्लिक लाइफ(लंदन:
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1925) पेज 40
43
. वीडी सावरकर, इनसाइड द इनेमी कै म्प http://savarkar.org/en/encyc/2018/3/23/Download-section.html
44
. ठीक पिछला संदर्भ
45
. जोसेफ मेजिनी, लाइफ एंड राइटिंग्स ऑफ जोसेफ मेजिनी, नया संस्करण, 6 खंडों में, (लंदन: स्मिथ, इल्डर एंड
कं पनी, 1890).
46
. वीडी सावरकर, इनसाइड द इनेमी कै म्प, http://savarkar.org/en/
encyc/2018/3/23/Download-section.html
47
. ठीक पिछला संदर्भ
48
.‘ओपिनियन ऑफ द ऑनरेबुल एडवोके ट जेनवर इन रिगार्ड टु प्रीफे स टु ए ट्रांसलेशन ऑफ जोसेफ मेजिनीज
ऑटोबायोग्राफी’, जुडिशियल डिपार्टमेंट, कं फिडेंसियल प्रोसीडिंग्स, अक्टूबर 1907, पेज- 31-34, महाराष्ट्र स्टेट
आरकाइव्स, मुम्बई
49
. मोहनदास करमचंद गांधी, माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ, http://www.
arvindguptatoys.com/arvindgupta/gandhiexperiments.pdf
50
. मोहनदास करमचंद्र गांधी, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-1,
https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatmagandhi-collected-works-
volume-1.pdf (इसका जिक्र बंबई में दिए सन् 1896 के एक भाषण में भी हुआ है)
51
. ठीक पिछला संदर्भ। खंड-8 https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-
gandhi-collected-works-volume-8.pdf
52
. ठीक पिछला संदर्भ, खंड-5, https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-
gandhi-collected-works-volume-5.pdf.
53
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टॉर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 29
क्रि मि टे लि जें डि र्ट में के नो टी वें री पॉलि टि री के
54
. क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट के नोट्स। स्टीवेंसन मूर का 13 जनवरी 1909(पॉलिटिकल ए) फरवरी 1909, के
नोट्स, #204: ‘इनरसेप्शन ऑफ द खालसा(खालसा) सिरीज ऑफ पैम्पलेट्स’ नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई
दिल्ली
55
. यह अब लंदन में ब्रिटिश लाइब्रेरी का हिस्सा है, जो यूस्टन रोड पर है।
56
. इस किताब की पूर्ण बिबलियोग्राफी के लिए देखें वीडी सावरकर की द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
http://savarkar.org/en/pdfs/the_indian_war_of_independence_1857_with_publishers_note.v001.pd
f
57
. ठीक पिछला संदर्भ
58
. लिचफील्ड मरकरी, 17 मई 1907; कर्टसी ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव, लंदन.
59
. न्यूजपेपर लीड्स मरकरी, 13 मई 1907, साभार- ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव, लंदन
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. वीडी सावरकर की द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
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. ‘ओ मार्टर्स!’ का पूर्ण टेक्स्ट देखने के लिए देखें परिशिष्ट
62
.‘इंडियन स्टूडेंट्स एट किरेनसेस्टर कॉलेज’, 1908, पब्लिक एंड जुडिशियल डिपार्टमेंट, IOR/L/PJ/6/897 3787,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
63
. वीडी सावरकर की द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
http://savarkar.org/en/pdfs/the_indian_war_of_independence_1857_with_publishers_note.v001.pd
f
64
. ठीक पिछला संदर्भ
65
. ठीक पिछला संदर्भ
66
. ठीक पिछला संदर्भ
67
. ठीक पिछला संदर्भ
68
. ठीक पिछला संदर्भ
69
. ठीक पिछला संदर्भ
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. ठीक पिछला संदर्भ
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. ठीक पिछला संदर्भ
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73
. एमपीटी आचार्य, रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, पेज 91
74
. होम/13-13ए/1909/एन इंटरसेप्शन ऑफ ए बुक ऑर पैम्पलेट, लेटर 14, दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ
इंडिया, न्यू देलही
75
. यह कानून अंग्रेजी सरकार ने समुद्री व्यापार और समुद्र पर(आयात-निर्यात) नियंत्रण करने के लिए बनाया था जो
भारत से होता था।
76
. होम/13-13ए/1909/एन इनटरसेप्शन ऑफ बुक ओर पैम्पलेट, लेटर 14, दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ
इंडिया, नई दिल्ली, लेटर 18, दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया
77
. ब्रिटिश नेशनल आरकाइव्स(बीएनए) लंदन से साभार
78
. हरिद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 101
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. वीकली एक्ट्रैक्ट, पैराग्राफ 26, नेटिव पेपर्स होम(स्पेशल) की रिपोर्ट्स से। 60सी-/1908-10: वीडी सावरकर: बुक
इनटाइटल्ड “ इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेस ऑफ 1857” बाई एन इंडियन नेशनलिस्ट’ महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स,
मुम्बई.
80
. जेम्स कै म्पबेल कीर, पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडिया: 1907-1917(नई दिल्ली: ओरियंट लौंगमैन, 1973), पेज 242
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. वीडी सावरकर, इनसाइड इनेमी कै म्प http://savarkar.org/en/encyc/2018/3/23/Download-section.html.
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. ठीक वही संदर्भ। खंड-10, 5 अगस्त 1909-9 अप्रैल 1910, पेज 258
https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collectedworks-
volume-10.pdf
145
. ठीक वही संदर्भ, पेज 259
146
. ठीक वही संदर्भ, पेज 195
147
. ठीक वही संदर्भ, पेज 190
148
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 186-87
149
. चित्रगुप्त, लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर, पेज 126
150
. भारत मंत्री मार्ले का निजी पत्राचार, जुलाई 1909, प्राइवेट मैनुस्क्रिप्ट्स, IOR/MSS/EUR/D/573/21, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
151
. रिचर्ड पॉपलवेल, ‘ द सर्विलांस ऑफ इंडियन रिवोल्यूशनरीज इन ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑन द कं टीनेंट, 1905-14’,
इंटेलिजेंस एंड नेशनल सेक्युरिटी. 3.1(1998): 56-76, पेज 62
152
. एसी बोस, इंडियन रिवोल्यूशनरीज अब्रोड: 1905-1927. सलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, पेज 55
153
. वही संदर्भ, पेज 70
154
. डेविड गर्नेट, द गोल्डेन इको, खंड-1, पेज 148
155
. डीसीआई की साप्ताहिक रिपोर्ट, 23 अक्टूबर 1909, OIOC, POS 3094, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
156
. वही संदर्भ, 25 दिसंबर 1909, OIOC, POS 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
157
. डेविड गर्नेट, द गोल्डेन इको, खंड-1, पेज 148-49
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158
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-
v003.pdf पेज 34–35
159
. मराठा में प्रकाशित, 27 मई 1938
160
. अनुरुपा सिनार का अनुवाद http://anurupacinar.net/wp-content/uploads
/2013/09/Sagaras-Translation.pdf
नि जी र्मा ऑ डि रि वो री पे
26
. इंदुलाल याज्ञनिक, श्यामजी कृ ष्ण वर्मा; लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, पेज 286-87
27
. डेली टेलीग्राफ, 19 मार्च 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
28
. विलेस्डन क्रॉनिकल, 25 मार्च 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
29
. ग्लोब, 14 मार्च 1910, ब्रटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
30
. डेली टेलीग्राफ, 15 मा4च 1910, एलेज्ड इंडियन सेडिशन: मर्डर एबेटमेंट चार्ज, ब्रिटिश न्यूजपेपर
आरकाइव(बीएनए)
31
. IOR/J&P 847-1910: 189/349/2, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
32
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 219
33
. वही संदर्भ, पेज 220-21. 81 क्लेरेंडन रोड, नॉर्थ के नसिंगटन(वेस्ट) से श्यामजी को अय्यर का पत्र, दिनांक 15 मार्च
1910
34
. वही संदर्भ, पेज 222-23
35
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 67
36
. डेविड गर्नेट, द गोल्डन इको, खंड-1, पेज 151-52
37
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 224-27. विल और टेस्टामेंट के पूर्ण पाठ के लिए
देखें एपेंडिक्स II
38
. बोस, ए.सी. इंडियन रिवोल्यूशनरीज अब्रोड: 1905-1927. सेलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, पेज 33
39
. IOR/L/PJ/6/1069: ‘सावरकर के स: ट्रायल एंड कं विक्शन,’ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से कोरेगांवकर की गवाही,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
40
.‘जजमेंट ऑफ द स्पेशल ट्रिब्यूनल के सेज नंबर 2,3 एंड 4 ऑफ 1910, पेज 8-9, IOR/L/PJ/6/1069: ‘सावरकर
के स: ट्रायल एंड कं विक्शन,’ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से कोरेगांवकर की गवाही, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से
41
. वही संदर्भ
42
. IOR/L/PJ/6/1069: ‘सावरकर के स: ट्रायल एंड कं विक्शन,’ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से कोरेगांवकर की गवाही,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से चंजेरी राव की गवाही
43
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर, पेज-80
44
. सॉलिसीटर जनरल सर रफर इसाक बाद में भारत के वायसराय बने जिन्हें लोग लॉर्ड रीडिंग के नाम से जानते हैं।
45
. द टाइम्स 25 अप्रैल 1910
46
. वही संदर्भ। यहाँ विनायक 1878 के आर्म्स एक्ट का संदर्भ दे रहे हैं और उसे भारतीयों के लिए बंदूक या किसी भी
अन्य हथियार की मनाही को गैर-कानूनी करार दे रहे हैं।
47
. द टाइम्स, 2 मई 1910
48
. लंदन डेली न्यूज, 10 मई 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव
49
. द टाइम्स, 3 जून 1910
50
. वही संदर्भ
51
. FOA की धारा 2 कहती है: ‘अगर कोई व्यक्ति महामहिम सम्राट के राज्य क्षेत्र किसी भी भाग में कोई अपराध
करता है(जहाँ कानून का यह हिस्सा लागू है), और अगर ऐसा व्यक्ति को(इस एक्ट के तहत उस हिस्से का फ्यूजिव
कहा जाएगा), महामहिम सम्राट के राज्य क्षेत्र के दूसरे हिस्से में पाया जाता है, तो उसे पकड़कर इस एक्ट के तहत ही
राज्य के उसी हिस्से में भेजा जा सकता है जहाँ पर उसने अपराध किया है’।
52
. लंदन डेली न्यूज, 3 जून 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
53
. FOA की धारा 33: इस कानून के तहत कोई आरोपी या अन्यथा जिस पर मुकदमा चला हो या महामहिम के राज्य
क्षेत्र के एकाधिक हिस्से में किए गए अपराध के संबंध में, तो ऐसे व्यक्ति के लिए सम्राट के राज्य क्षेत्र के किसी हिस्से में
वारंट जारी किया जा सकता है, जहाँ अगर वो मौजूद है, तो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है और इस कानून का
हर हिस्सा लागू कर सकते हैं, मानो अपराध सम्राट के इसी इलाके में हुआ हो जहाँ वारंट जारी हुआ है और इस कानून
के तहत ऐसे व्यक्ति को पकड़ा और लौटाया जा सकता है, जरूरी नहीं कि उसी क्षेत्र में जहाँ उसे गिरफ्तार किया गया
है। किसी भी अदालत में उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है।
54
. FOA की धारा 10: ‘ जहाँ सुप्रीम कोर्ट को ये लगता हो कि के स की जटिल प्रकृ ति की वजह से या अगर ऐसा लगे
कि अपराधी को लौटाने से न्याय का या अन्यथा अच्छा माहौल नहीं बनता हो, तो ऐसे में दूरी का ख्याल रखते हुए,
की वि औ के की री रि स्थि ति यों के द्दे धी को रे लौ जै
संचार की सुविधा और के स की अन्य सारी परिस्थितियों के मद्देनजर अपराधी को दूसरे जगह लौटाना अत्याचार जैसा
होगा या अत्यधिक कठोर होगा या एक खास अवधि बीत जाने के बाद अदालत अपराधी को मुक्त करल सकती है-
चाहे पूर्ण तरीके से या जमानत पर और ऐसा आदेश दे सकती है कि उसे उस आदेश में वर्मित समय तक लौटाया नहीं
जा सके गा या कोई ऐसा आदेश दे सकती है जो कोर्ट परिसर में उसे न्यायपूर्ण लगे।
55
. द टाइम्स, 4 जून 1910
56
. द सावरकर कं स्पिरेसी, हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, खंड-2, नंबर 10, लंदन, अक्टूबर 1912, IOR/L/PJ/6/1198; फाइल
3899, ‘प्रपोज्ड प्रोहिबिशन ऑफ द “सावरकर इशू” ऑफ हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट’ , ब्रटिश लाइब्रेरी, लंदन
57
. द टाइम्स , 17 जून 1910
58
. द टाइम्स 21 जून 1910
59
. वही संदर्भ, 22 जून 1910
60
. द सावरकर कं स्पिरेसी, हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, खंड-2, नंबर 10, लंदन, अक्टूबर 1912, IOR/L/PJ/6/1198; फाइल
3899, ‘प्रपोज्ड प्रोहिबिशन ऑफ द “सावरकर इशू” ऑफ हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट’ , ब्रटिश लाइब्रेरी, लंदन
61
. वही संदर्भ
62
. वाम विचार की एक आयरिश रिपब्लिकन पार्टी जो आयरलैंड और उत्तरी आयरलैंड दोनों गणराज्यों में सक्रिय थी।
इसकी स्थापना 28 नवंबर 1905 को ऑर्थर ग्रिफिथ ने की थी। इसकी भारतीय क्रांतिकारियों से नजदीकी थी जिसमें
श्यामजी, मैडम कामा और विनायक सावरकर शामिल थे।
63
. डेविड गर्नेट, द गोल्डन इको, खंड-I, पेज 157
64
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 234
65
. गवर्नमेंट ऑफ बंबई, होम डिपार्टमेंट(स्पेशल) 60-B/1910, 18/195, महाराष्ट स्टेट आरकाइव, मुंबई
66
. हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, अक्टूबर 1912, पेज 99
67
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 235-36
68
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर, पेज-85-86
डी सी की हि रि पो र्ट सि औ ओ ओ सी पीओ
12
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 27 सितंबर 1910 और 11 अक्तू बर 1910 पृ. 2, ओआइओसी, पीओएस 3095,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
13
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 23 अगस्त, 1910 ओआइओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
14
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 16 अगस्त, ओआइओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
15
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 8 नवंबर 1910, ओआइओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
16
.‘शॉल ही बी गिवेन अप?’, इवनिंग टेलिग्राफ, 25 जुलाई 1910, बीएनए.
17
. संख्या 26218/10 और संख्या 280 (26255) आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर 284, 26, मार्च 1910 से
25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
18
. जे ऐंड पी. 2395. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी, 1911 ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन
19
. बॉम्बे के गवर्नर का टेलीग्राम, 23 जुलाई 1910, IOR/L/PJ/6/1058,फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
20
. जे. एंड पी. 2521, आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी, 1911, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन.
21
. 29 जुलाई 1910, #1441063, राष्ट्रीय अभिलेखागार, लंदन के कार्यवृत्त पर टिप्पणी.
22
. अंतर्विभागीय कमिटी की बैठक का कार्यवृत्त, IOR/L/PJ/6/1058 फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन.
23
. अनुलग्नक 2-सावरकर के मामले पर अटॉर्नी जनरल की राय की प्रति. आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर
284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
24
. बॉम्बे के गवर्नर का टेलीग्राम, 5 अगस्त 1910, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
25
. गृह सचिव की तरफ से बॉम्बे के गवर्नर को किया गया टेलिग्राम, 15 अगस्त, 1910, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल
नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन।
26
. अनुलग्नक २-विदेश कार्यालय का विवरण दिनांक 24 सितंबर 1910, आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर
284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
27
.‘सावरकर के सः कं डक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशियल्स, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से
25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
28
. बॉम्बे के गवर्नर से टेलीग्राम, 20 अगस्त 1910, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
29
. अनुलग्नक २-विदेश कार्यालय का विवरण दिनांक 24 सितंबर 1910, आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर
284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
30
. वही
31
. एफ.ए. कैं पबेल का पत्र दिनांक 30 सितंबर 1910, ‘सावरकर के स: हेग में कार्यवाही (परिणाम सहित)’,
आईओआर/एल/पीजे/6/1077, फाइल नं. 1131, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन।
32
. जे ऐंड पी 3317. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन।
33
. एफओ 881/9746 ‘सावरकर आर्बिट्रेशन के स’, नैशनल आर्काइव्स, लंदन
34
. वही. अनुलग्नक.
35
.‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंड कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे लियर ऐट द हेग’,
IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 778, 9 दिसंबर 1910 से
23 फरवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
36
. द टाइम्स, 7 अक्टूबर 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आर्काइव (बीएनए)।
37
. होमवार्ड मेल फ्रॉम इंडिया, चाइना एंड द ईस्ट, १५ अगस्त १९१०, ब्रिटिश न्यूजपेपर आर्काइव (बीएनए)
अध्याय 8: सज़ा-ए-कालापानी
1
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf
2
. द्वीपों और बस्तियों के बारे में सभी विवरण यहां से प्राप्त हुए: आर.सी. मजूमदार पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स
(नई दिल्ली: गजेटियर्स यूनिट, संस्कृ ति विभाग, शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय, 1975, पृ. 1-2); वी.डी.
सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, (http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-Veer-
Savarkar.pdf) बरिंद्रनाथ घोष, द टेल ऑफ माइ एक्साइल (पांडिचेरी: आर्य कार्यालय, 1922); उल्लास्कर दत्त.
ट्वेल्व इयर्स ऑफ प्रिजन लाइफ (कलकत्ता: एन.पी. 1924); सचिंद्रनाथ सान्याल. बंदी जीवन (नई दिल्ली: आत्मा राम
एंड संस, 1963). सेलुलर जेल मेमोरियल, पोर्ट ब्लेयर के क्यूरेटर डॉ रशीदा इकबाल के साथ लेखक का साक्षात्कार.
3
. बेनकोलेन के गवर्नर सर स्टैमफोर्ड रैफल्स का भारत सरकार को 1818 में लिखा पत्र, जिसमें उन्होंने यह भी खेद
व्यक्त किया कि यह नीति अपराधियों को बदलने का वांछित उद्देश्य की अपने मकसद पूरा नहीं करती.
4
. एल.पी. माथुर. हिस्ट्री ऑफ अंडमान ऐंड निकोबार आइलैंड्स, 1856-1966 (दिल्ली: स्टर्लिंग पब्लिशर्स, 1968)
5
. आर.सी. मजूमदार. पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स पृ. 62-63; साथ ही पोर्ट ब्लेयर के सेलुलर जेल में डॉ रशीदा
इकबाल के साथ इंटरव्यू.
6
. एलिसन बैशफोर्ड और कै रोलिन स्ट्रेंज. आइसोलेशनः प्लेसेस ऐंड प्रैक्टिसेस ऑफ एक्सक्लूजन (लंदन: टेलर ऐंड
फ्रांसिस, 2004), पृ. 37.
7
. आर.सी. मजूमदार. पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स, 1975 पृ. 119
से जे में वे सि जे हो सि से जो औ नि को द्वी के
8
. सेलुलर जेल में दस्तावेज़, 4 सितंबर 1914 जे. होप सिम्पसन से, जो अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के
कार्यवाहक मुख्य आयुक्त और भारत सरकार के सचिव, गृह विभाग के पोर्ट ब्लेयर अधीक्षक थे, जो विनायक को
मिली सजा और उनके जेल में बिताए दौर का वर्णन करते हैं. दस्तावेज़ सौजन्य डॉ रशीदा इकबाल, सेलुलर जेल, पोर्ट
ब्लेयर.
9
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 63.
10
. उपेंद्रनाथ बनर्जी. निर्वासित आत्मकथा. एनपी, एनडी, पृ 72.
11
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 64-65
12
. वही, पृ 65.
13
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ 53
14
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 68-69
15. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ 66-67
16
. वही, पृ. 84
17
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 86.
18
. वही
19
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ 68.
20
. वही, पृ. 100.
21
. वही, पृ. 71-72
22
. वही, पृ. 160
23
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 139.
24
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ. 80.
25
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 140.
26
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ. 60-61.
27
. उल्लास्कर दत्त. ट्वेल्व इयर्स ऑफ प्रिज़न लाइफ, पृ. 49.
28
. प्रेम वैद्य का मूल लेख तुम्हारी अहमी अपान सागलेच में प्रकाशित, एक मराठी द्विमासिक (21 फरवरी-6 मार्च,
2000), पुणे के अविनाश धर्माधिकारी द्वारा संपादित. साभार: सावरकर स्मारक, मुंबई।
29
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ माइ एक्साइल, पृ. 86.
30
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 82
31
. वही. पृ. 102.
32
. वही, पृ. 149.
33
. नंद गोपाल के प्रतिरोध का यह संस्करण बरिन्द्र कु मार घोष द्वारा प्रस्तुत किया गया है, द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल,
पृ. 88-93.
34
. वही, पृ. 90.
35
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 90.
36
. वही, पृ. 96-97
37
. वही, पृ. 101
38
. वही, पृ. 96.
की जी नी ग्रे जी ऑ से कि
39
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद ऑनलाइन एक्सेस किया गया
http://savarkar.org/en/pdfs/babaro-savarkar-v003, पृष्ठ 47.
40
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 103.
41
. धनंजय कीर. वीर सावरकर, पृ. 115.
42
. जेल इतिहास टिकट एक ऐसा दस्तावेज था, जो किसी कै दी को दी गई सजा की सूची बनाकर रखता था. इसमें
किसी को सौंपा गया नियमित कार्य शामिल नहीं था, जैसे तेल मिल पर काम करना या ओकम चुनना. और भी दी गई
सजाओं को बहुत कम आंका गया और रिपोर्ट किया गया, ताकि यह यह पकड़ में न आ जाए और सरकार का ध्यान न
जाए.
43
.‘जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ वी.डी सावरकर’ [1911-1921], भारत सरकार,गृह विभाग (विशेष), 60(डी)-एफ/1921,
महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई. विनायक के जेल हिस्ट्री टिकट में एक याचिका का उल्लेख किया गया है, जो
उन्होंने 29 अक्टूबर 1912 को दी थी: ‘याचिकाकर्ता [अनुरोधित] ने सेलुलर से रिहा करने का अनुरोध किया गया
क्योंकि वह सोलह महीने जेल में रहा है और उसका आचरण बेहतर रहा है.’ उन्होंने सेलुलर जेल से पीनल कॉलोनी में
रिहा होने की मांग की जहां ‘साधारण’ कै दी बेहतर परिस्थितियों में रहते थे. 29 अक्टूबर की उस याचिका को 4 नवंबर
1912 को खारिज कर दिया गया था.
44
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 133.
45
. वही. पृ 148.
46
. वही. पृ 106.
47
. वही. पृ 114-15
48
.‘जेल टिकट’ में उल्लेख है कि उन्हें यह जानकारी 18 दिसम्बर 1912 को दी गई थी
49
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान, पूना: वीनस बुक स्टॉल, 1947, पृ. 13.
50
. वही, पृ 14-15
51
. वही, पृ 15.
52
. वी.डी. सावरकर, माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. १५२.
53
. वही, पृ 152-53
54
. ईपीपी 2/11, बंदे मातरम, जुलाई 1912, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
55
. आर.सी. मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स, पृ. 172
56
. वही
57
. वही, पृ 173.
58
. वही, पृ 175.
59
. वही
60
. महरत्ता, 28 जुलाई 1912, सावरकर स्मारक, मुंबई के सौजन्य से.
61
. डी.ओ. संख्या 18, 30 मई 1912, होम. पोल. डिपार्ट. कॉन्स. 1912, नंबर 1. में उद्धृत आर.सी. मजूमदार. पीनल
सैटलमेंट इन द अंडमान्स पृ. 181-82.
62
. चिकित्सा अधीक्षक, जिला जेल, पोर्ट ब्लेयर, एफ.ए. बेकर का पत्र, गृह विभाग के उप सचिव, एम.एस.डी. बटलर;
आर.सी. मजूमदार में उद्धृत. पीनल सेटलमेंट इन अंडमान्स. पृ. 182-83
63
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 155.
64
. वही. पृ. 156
65
. वही. पृ. 157.
66
. वही. पृ. 159
67
. वही
जे हि ट्री टि ऑ वी डी से वि वि वि शे
68
.‘जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ वी.डी. सावरकर’ [1911-1921] से विवरण, भारत सरकार का, गृह विभाग (विशेष),
60(डी)-एफ/1921, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
69
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 170. 70. वही. पृ. 171
पीटि ऑ वी डी रिं नो
24
.‘पीटिशन ऑफ वी.डी. सावरकर’ का कवरिंग नोट, IOR/L/PJ/6/1525, फाइल संख्या. 806; अक्तू बर 1917–
March 1918, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
25
. राजद्रोह समिति रिपोर्ट, पृ. 119–25. गुप्त रिपोर्ट, जिसे भारत सरकार ने 1918 में प्रकाशित किया
26
. जेम्स कैं पबेल के र. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917 (नई दिल्लीः ओरिएंट लॉन्गमैन, 1973), पृ. 241–
42.
27
. एलन जे. वार्ड. द ईस्टर राइजिंगः रिवॉल्यूशन ऐंज आइरिश नेशनलिज्म (वीलिंग, IL: हार्ले डेविडसन, 1980), पृ. 4,
99–102.
28
. जेम्स कैं पबेल के र. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917, पृ. 246–47.
29
. पीटर हॉपकिर्क . लाइक हिडेन फायरः द प्लॉट टू ब्रिंग डाउन द ब्रिटिश अंपायर (न्यू यॉर्कः कोडान्शा, 1994).
30
. यह जार का संक्षिप्त नोट टेलिग्राम पर सेंट पीटर्सबर्ग में जर्मन राजदूत से मिला, जिसे फ्रित्ज फिशर ने उद्धृत किया
है, Griff nach der Weltmacht: die Kriegszielpolitik des kaiserlichen Deutschland 1914–18 (दसांदोर्फ :
द्रोस्त, 2002) (मूल प्रकाशन 1962), पृ. 110.
31
. जार का बर्नार्ड हेनरिख कार्ल मार्टिन वॉन बुला पर 11 अगस्त, 1908 को टिप्पणी, जो एक जर्मन राजनेता था और
जो तीन साल तक विदेश मंत्री के पद पर रहा था और उसके बाद 1900 से 1909 तक वह जर्मन साम्राज्य का चांसलर
रहा था. यह उद्धरण निरोद बरुआ ने किया है. इंडिया ऐंड द ऑफिशियल जर्मनी, 1886–1914. (फ्रैं कफर्टः पीटर लांग,
1977), पृ. 59.
32
. जेम्स कैं पबेल के र.. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917, पृ. 252.
33
. R21088-2, 114, Nieuws van den Dag की क्लीपिंग, जो नादोल्नी में रिपोर्ट की गई थी, 3 सितंबर 1915,
Politisches Archiv des Auswa r¨tigen Amts, बर्लिन.
34
. 21084-2, 94–5, पापेन टू फॉरेन ऑपिस, 31 मई 1916; Politisches Archiv des Auswa r¨tigen Amts,
बर्लिन.
35
. सचींद्रनाथ सान्याल. बंदी जीवन. पृ. 136–38.
36
.‘सियाल प्रोजेक्ट’ और ‘बटाविया प्लान’ का ब्योरा जो जेम्स कैं पबेल के र. ने लिखा है पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः
1907-1917, pपृ. 259–65.
37
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, pपृ. 246–47.
38
. वही., पृ. 125.
39
. वही., पृ. 181.
40
. वही., pपृ. 198–99.
41
. वही., पृ. 199.
42
. वही., पृ. 199.
43
. वही., पृ. 194.
44
. वही., पृ. 196.
45
. वही., पृ. 198.
46
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar. org/en/pdfs/babarao-savarkar-
v003.pdf, पृ. 53–54.
47
. जे.ई. लेवेलिन. द आर्य समाज ऐज अ फं डामेंटलिस्ट मूवमेंटः अ स्टडी इन कॉम्प्रेटिव फं डामेंटलिज्म (नई दिल्लीः
मनोहर, 1993), पृ. 99; यह भी देखें, के नेथ डब्ल्यू जोन्स ‘द आर्य समाज इन ब्रिटिश इंडिया, 1875-1947’, रिलीजन
इन मॉडर्न इंडिया. रॉबर्ट बेयर्ड (सं.) (नई दिल्लीः मनोहर, 1976).
48
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 218–19.
49
. वही., पृ. 317–18.
50
. वही. पृ. 283–85.
51
. जेम्स कैं पबेल के र.. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917, पृ. 372.
वी डी पो र्टे फॉ
52
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 252.
53
. वही., पृ. 210.
54
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 55.
55
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 270.
56
. ओरल आर्काइव्स-पृथ्वी सिंह आजाद के साक्षात्कार का लिप्यांतरण, नेहरू मेमोरियल म्युजियम ऐंड लाइब्रेरी
(एनएमएमएल), नई दिल्ली
57
. वी.डी. सावरकर की याचिका, IOR/L/PJ/6/1525, फाइल संख्या 806; अक्तू बर 1917–मार्च 1918, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन. अनुलग्नक III में पूरा पाठ.
58
. वही.
59
. जॉन जॉर्ज लंबटन, डरहम का पहला अर्ल
60
. वही.
61
. विलियम मैकनील डिक्सन. समरी ऑफ कॉन्स्टिट्यूशनल रिफॉर्म्स फॉर इंडियाः बीइंग प्रोपोजल्स ऑफ गृह सचिव
मोंटागु एंड वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड. (न्यू यॉर्क : जी.जी. वुडवार्क , एन.डी.), पृ. 24.
62
. शेन रोलां. ‘एडविन मोंटागू इन इंडियाः पॉलिटिक्स ऑफ द मोंटागू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट’. साउथ एशियाः जर्नल ऑफ
साउथ एशियन स्टडीज, (2011), पृ. 79–92.
63
. फिलिप वुड्स. ‘द मोंटागू-चेम्सफोर्ड रिफॉर्म्स (1919): ए रि-असेसमेंट’. साउथ एशियाः जर्नल ऑफ साउथ एशियन
स्टडीज, पृ. 25–42.
64
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी. खंड 19, https://www. gandhiashramsevagram.org/gandhi-
literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-19.pdf, पृ. 197–98.
65
. इंडियन एनुअल रजिस्टर, 1920, भाग I, पृ. 379–84. (भारत सरकार द्वारा प्रकाशित.)
66
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी. खंड 19, https://www. gandhiashramsevagram.org/gandhi-
literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-19.pdf, पृ. 197–98.
67
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 56.
68
. वही. पृ. 70.
69
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 288–89.
70
. हिंदू परंपरा में स्त्री अपना नाम त्याग देती है और वह नाम अपना लेती है जो उसके पति के घरवाले उसे देते हैं.
71
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-v003.pdf,
पृ. 37–38.
72
. उनके जन्मदिन का संदर्भ उत्तरा सहस्रबुद्धे. भारतीय स्वातंत्र्यालाध्यातिल स्त्रियां. उनके निधन की एक अन्य तारीख
कु छ अन्य़ लेखकों ने 20 अप्रैल 1919 बताई है.
73
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 63.
74
. IOR/L/PJ/6/1594, फाइल संख्या. 3132; फरवरी 1919–अगस्त 1920, द रॉलेट बिल्स ऐंड डिस्टर्बेसेंज इन
इंडियाः हाउस ऑफ कॉमन्स क्वेश्चन्स ऐंड रिप्लाईज, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
75
. आर.सी. मजूमदार. हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड3 (कलकत्ता: फिर्मा के .एल. मुखोपाध्याय, 1962),
पृ. 15.
76
. वही., पृ. 41–42.
77
. नाइजल कोलेट. द बूचर ऑफ अमृतसरः जनरल रेगिनाल्ड डायर (लंदन: हैंब्लेडन, 2005),
पृ. 323.
78
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी. खंड 18, पृ. 219–22, https://www.
gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-18.pdf
79
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 300.
ती जे मि टी रि पो र्ट
80
. भारतीय जेल कमिटी रिपोर्ट, पृ. 145–52. भारत सरकार प्रकाशन, 1919-1920.
81
. वही. पृ. 276.
82
.‘रॉयल प्रोक्लेमेंशन’ जो ‘रिजॉल्यूशन रेकोमेंडिग रॉयल एमनेस्टी टू द पॉलिटिकल प्रिजनर्स, द सावरकर ब्रदर्स, बांबे’,
पार्लियामेंट्री क्वेश्चन्स, IOR/L/PJ/6/1677, फाइल संख्या 3153, मई 1920–जून 1921, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
83
. 60D(b)/1919: ‘पॉलिटिकल प्रिजनर्सः प्रोपोज्ड रिलीज ऑफ गणेश सावरकर ऐंज विनायक सावरकर इन व्यू
ऑफ रॉयल एमनेस्टी,’ पृ. 63–73, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
84
. अनुलग्नक III देखें.
85
. चीफ कमिश्नर, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह द्वारा लिखा गया पत्र, भारत सरकार, गृह विभाग, 20 मई 1919,
फाइल 60D(a)/1919: पॉलिटिकल प्रिजनर्स, 7, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई. इस पत्र से यह स्पष्ट नहीं है कि
गुप्त सामान क्या थे.
86
. बाम्बे सरकार, गृह विभाग, F. #60D(a)/1919, 7, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
87
. भारत सरकार की टिप्पणियां, न्यायिक विभाग, 29 मई 1919, अनु. 2, 60D(a)/1919, 17, महाराष्ट्र राज्य
अभिलेखागार, मुंबई.
88
. डुबोल भारत सरकार के पत्र #1555C, 28 फरवरी 1919 के अनुच्छेद 4 के उपबंध (iii) को उद्धृत कर रहे थेः
‘ब्रिटिश भारत में दोषी करार दिए गए लोगों के संदर्भ में, और जिनको इंडियन पीनल कोड के अध्याय VI के तहत
सजा दी गई हो, जो राज्य के खिलाफ अपराध हो या अपराधों में आता हो या जो विशेष कानूनों के तहत दोष हो,
उदाहरण के लिए न्यूजपेपर्स (अपराधों के लिए उकसाना) अधिनियम या ऐसे कानूनी प्रावधानों के तहत जिसमें
सरकार के किसी अंग को अभियोजन की जरूरत हो, इसमें निम्नलिखित सिद्धांतो को पर्याप्त मानने का सुझाव दिया
जा रहा हैः[. . .] (iii) जिन लोगों को हत्या या हत्या के प्रयास या हत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया गया है, उन्हें
एक आजीवन कारावास से अधिक की सजा दी गई है.’
89
. टेलिग्राम #4438 मॉरीसन से, बॉम्बे सरकार से पोर्ट ब्लेयर के सुपरिटेंडेंट को (मई 1919).
90
. मॉरीसन, आंतरिक टिप्पणी, बॉम्बे सरकार, 30 मई 1919, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
91
. मोंटगुमरी का गोपनीय पत्र, बॉम्बे सरकार, न्यायिक विभाग, बॉम्बे, 19 जून 1920 से एच. मैकफर्सन, भारत सरकार
के सचिव. गृह विभाग, F# 60 D(b)/1919, 85 में. गृह विभाग की अनुशंसाएं टेलिग्राम #1439 में की गईं, भारत
सरकार, 8 दिसंबर 1919. महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
92
. भारत सरकार का पत्र, गृह (राज.) से जे. क्रे रर, सचिव का बॉम्बे सरकार को. दिल्ली, 24 फरवरी 1920, F#
60D(b)/1919: ‘पॉलिटिकल प्रिजनर्सः प्रोपोज्ड रिलीज ऑफ गणेश सावरकर ऐंड विनायक सावरकर इन व्यू ऑफ
रायल एमनेस्टी अनाउंन्स्ड इन डिसेंबर 1919’, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
93
. डेमी-ऑफिशियल नंबर 1193, 20 मई 1920, एच. मैकफर्सन, सचिव, भारत सरकार, गृह विभाग (राज.), शिमला
से जे. क्रे रार, सचिव, बॉम्बे सरकार, पॉलिटिकल डिपार्टमेंट, बॉम्बे 59-61, F# 60D(b)/1919, महाराष्ट्र राज्य
अभिलेखागार, मुंबई.
94
. सचींद्रनाथ सान्याल, बंदी जीवन, पृ. 226.
95
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 65.
msevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-colle
पेज 196
62
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/MyTransportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 356.
63
. वहीं
64
. वहीं, पेज 362
65
. वहीं पेज 363
66
. होम डिपार्टमेंट, पोलिटिकल, फाइल नंबर 354, 1921, ‘लेटर रिगार्डिंग रिलीज ऑफ सावरकर ब्रदर्स’, नेशनल
आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
हीं
67
. वहीं
68
. F.# 60D(d)/21–23, महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई। देखें पूरा टेक्स्ट एपेंडिक्स III में
69
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/MyTransportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 318.
70
. F. #60D(d)/21–23, 89-93 और F #60D(d)/21–23, 95–99, महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई, पूरा टेक्स्ट देखें
एपेंडिक्स III में
71
. 23 नवंबर 1921 को रत्नगिरि के जिला जेल अधीक्षक डीडी कामत को बंबई सरकार के सचिव, गृह, जी वाइल्स का
पत्र। F# 60-D(d)/1921–23: ‘कं विक्ट्स, पोर्ट ब्लेयर: रिमीशन ऑफ सेंटेंस टु कं विक्ट्स ट्रांसफर्ड फ्रॉम अंडमान:
सावरकर, वीडी एंड सावरकर जीडी’
72
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का इंग्लिश अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-v003.pdf
पेज 60.
73
. वहीं, पेज 73
पेज 176
11
. लाल बहादुर, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री, एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 43
12
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिय, पेज 223
13
. अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गजट, 14 अगस्त 1907, पेज 7-8, बहादुर लाल में उद्धृत, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री,
एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 43
14
. सर परसिवल ग्रिफिथ्स, द ब्रिटिश इम्पैक्ट ऑन इंडिया( लंदन: मैकडोनाल्ड, 1952) , पेज 309-10
15
. बहादुर लाल, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री, एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 66
16
. लोवेट फ्रे जर, इंडिया अंडर कर्जन एंड आफ्टर(लंदन: एच होल्ट, 1911) पेज 391-92
17
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 211
18
. गोपाल कृ ष्ण गोखले, स्पीचेज ऑफ गोपाल कृ ष्ण गोखले, जीए नतेसन(संपादित)(मद्रास: जीए नतेसन, 1920),
पेज 209, 1137
19
. वही, पेज 1136
20
. मेंचेस्टर गार्डियन, 1 सितंबर 1921-12 दिसंबर 1921
21
. सी संकरन नायर, गांधी एंड एनार्की (मद्रास: टैगोर प्रेस, 1923), एपेंडिक्स V
22
. वही, पेज 40
23
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 195
24
. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-22, https://www.gandhiashr
amsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collec
सौ को दे औ के दो के यो की
सौजन्यता को बढ़ावा देना और उनके साथ दोस्ताना भाव रखना व सरकार के साथ सहयोक की भावना रखना. 6.
आमतौर पर समुदाय की धार्मि, नौतिक, समाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक समुदाय की रक्षा करना।
54
. एमजे अकबर, इंडिया: द सीज विदिन: चैलेंजेज टु ए नेशन्स यूनिटी(नई दिल्ली: रोली बुक्स, 2017) पेज 306
55
. जानकी बाखले, ‘कं ट्री फर्स्ट? विनायक दामोदर सावरकर(1883-1966) एंड राइटिंग ऑफ इसेंशियल्स ऑफ
हिंदुत्व’ पब्लिक लेक्चर, 22.1 (2010): पेज 149-86, रेखांकित किया जाना लेखक द्वारा।
rtation-for-Life-Veer-Savarkar.pdf
11
. वही, पेज 378
12
. F# 143-K (d)/1928: द इंडियन स्टेबिलिटी कमीशन, 1923: मूवमेंट्स ऑफ ए सबवर्सिव कै रेक्टर: 1) कम्यूनिज्म,
2) प्रेस एंड प्लेटफॉर्म(रिवोल्यूशनरी)’ महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई
13
. ए मोंटेगमेरी, सेकरेटरी टु द गवर्नमेंट ऑफ बंबई, होम डिपार्टमेंट, रिजोल्यूशन #724, बंबई कै सल, 4 जनवरी 1924,
F# 60-D (e)/l923-24,होम स्पेशल: ‘कं विक्ट(लाइफ: रिलीज ऑफ विनायक दामोदर सावरकर’ महाराष्ट्र स्टेट
आरकाइव्स, मुंबई
14
. 60-D (e)/1923-24, होम स्पेशल, महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई
15
. वही
16
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ
http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-Veer-Savarkar.pdf पेज 382
17
. वही, पेज 383
परिशिष्ट IV
1. विनायक सावरकर का एक लेख जो ब्रलिन स छपने वाली द तलवार पत्रिका के अप्रैल-मई 1910 अंक में खंड 1 में
प्रकाशित हुआ। EPP 2/22, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन
2. शायद इसका अर्थ है देशभक्त गोखले। यह गोपालकृ ष्ण गोखले के संदर्भ में है।
आभार
यह पुस्तक वर्षों की कड़ी मेहनत का परिणाम है जिस अरसे के दौरान अनेक दस्तावेजों के
समुद्र में डूबना-उतरना पड़ा। इस लंबी यात्रा के दौरान कई लोगों ने अपना सहयोग दिया
और उन सब के प्रति मैं हार्दिक धन्यवाद प्रेषित करता हूं।
मुंबई स्थित स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के अध्यक्ष श्री रंजीत विक्रम सावरकर
के प्रति मेरा हार्दिक आभार। विनायक दामोदर सावरकर के पोते(ग्रैंड नेफ्यू) के तौर पर
एक भव्य धरोहर को आगे ले जाने की जिम्मेदारी उनके कं धों पर है और वह, स्मारक और
उसके शिष्ट सदस्य पूरी तन्मयता के साथ यह कार्य कर रहे हैं। श्री सावरकर के साथ,
स्वादिष्ट महाराष्ट्रियन व्यंजनों का स्वाद लेने के दौरान मैंने पुस्तक के प्रमुख पात्र से जुड़ी
कई वार्ताओं का आनंद लिया। स्मारक द्वारा संजोयी गई अनेक दुर्लभ सूचनाओं और अपने
पूर्वजों की तरह तार्किक सोच-समझ के मालिक, श्री सावरकर का उत्साह सहज ही उनकी
ओर आकर्षित करता है। मौन भाव से कर्मठता से काम कर रही उनकी टीम के सदस्य,
विषेषकर श्री धनंजय बालकृ ष्ण शिंदे को मेरा विषेष तौर पर धन्यवाद जिन्होंने बहुत कम
समय में मुझे दस्तावेज उपलब्ध कराये।
इस शोध कार्य को आगे बढ़ाने के लिए मुझे 2018-20 तक सीनियर रिसर्च फै लोशिप
प्रदान करने के लिए मैं नई दिल्ली स्थित नेहरू मेमोरियल संग्रहालय एवं पुस्तकालय
(एनएमएमएल) के प्रति भी गहरा आभार और सम्मान व्यक्त करता हूँ। इस कार्य के दौरान
एनएमएमएल के निदेशक श्री शक्ति सिन्हा की मौजूदगी प्रेरणादायक और वैचारिक तौर पर
सशक्त रही।
भारत के नवीन सांस्मृतिक एवं एतिहासिक विवरण के क्षेत्र में द इंडिक अकादमी और श्री
हरिकृ ष्ण वदलामानी नवयुगीन और पुनरुत्थानात्मक कार्य को अंजाम दे रहे हैं। मुझमें
भरोसा रखने और यूनाइटेड किंगडम में मेरे शोध को वित्तीय सहयोग देने के लिए मैं उनके
प्रति मैं बेहद शुक्रगुजार हूं।
यदि मुंबई के डॉ सुबोध नायक के अथक प्रयासों का सहयोग ना होता तो विभिन्न दुर्लभ
स्रोतों से प्राप्त जानकारी को एक चतुर जासूस की तरह पुस्तक के कथानक में पिरोकर
उसका अलंकरण संभव नहीं होता। सावरकर के अनन्य प्रशंसक डॉ नायक का मानना था
कि सावरकर की कहानी जरूर और पूरी रोचकता के साथ लिखी जानी चाहिए। उनकी
इस दलील ने कई बार मुझे आत्मसंदेह में भी डाल दिया था। अपने नायक के बारे में हर
बार नम आंखों से बात करते उन्हें देखना बेहद मार्मिक दृश्य होता था।
मेरे मित्र अकिल बख्शी ने कई बार बारीकी से पुस्तक की पांडुलिपियों को पढ़ा और ऐसी
कई कमियां सामने रखीं जो इस तरह की व्यापक रचना के दौरान अक्सर सामने आ जाती
हैं। यों भी, गहरे सावरकर विरोधी होने के कारण उनके विचार बेहद जरूरी थे, क्योंकि मैं
जानता था कि पुस्तक का सावरकर विरोधियों और उनके अनन्य प्रशंसकों द्वारा गहन
विश्लषण किया जाएगा। मैं उम्मीद करता हूं कि पुस्तक के मसौदों को कई बार पढ़ने के
बाद, आंशिक तौर पर ही सही, अकिल के विचारों में कु छ परिवर्तन आया होगा।
मैं अपने मित्र कणाद मांडके और उनके कज़िन विष्णु मधुसूदन का भी आभारी हूं
जिन्होंने पुस्तक के अनेक अध्याय पढ़े और अपने दुर्लभ विचारों से अवगत कराया; श्रीमती
शेफाली वैद्या का भी आभार जिन्होंने मराठी के कई दस्तावेजों के अनुवाद में मेरा सहयोग
किया; श्री नितिन आप्टे, श्री आदिनाथ मंगेशकर और श्री फ्रांसिस नीलम को महत्वपूर्ण
सूचनाएं उपलब्ध कराने के लिए आभार, और व्यापक संपर्क उपलब्ध कराने के लिए श्री
संजय आनंदराम एवं श्री अनिरुद्ध जोशी का धन्यवाद; इस यात्रा के दौरान पुस्तक और मेरे
लिए कठिन समय पर सदा उपस्थित रहने वाली मेरी मित्र एवं प्रतिष्ठित लेखिका-स्तंभकार
श्रीमती शोभा डे का भी धन्यवाद।
मैं भाग्यशाली रहा कि अपनी शोध यात्राओं के दौरान प्रत्येक शहर और कस्बे में मुझे
सावरकर के प्रशंसक मिले। उन्होंने अपने पास संरक्षित दस्तावेजों और सूचनाओं का
ख़ज़ाना जिस उदारता के साथ खोला, उसके लिए मैं उनका बेहद आभारी हूं। दशकों से
ब्रिटेन में सावरकर की धरोहर को सहेजने का कार्य वहां बेडफर्ड में रहने वाले डॉ वासुदेव
गोडबोले कर रहे हैं। विदेशी ज़मीन पर महाराष्ट्रियन पोहा और अदरक की चाय के बेहतरीन
भोजन पर उनसे और उनकी स्नेहिल धर्मपत्नी से मिलना सचमुच विशेष अवसर था। मेरे
शोधकार्य में सेल्युलर जेल (पोर्ट ब्लेयर) की डॉ रशीदा इकबाल, लंदन में श्री संके त
कु लकर्णी और श्री राजा पुंडालिक का अमूल्य सहयोग रहा। मैं उनके प्रति बेहद शुक्रगुज़ार
हूं।
वे अनेक संस्थान जहां शोध के दौरान मुझे जाना पड़ा, बहुत उदार और मददगार रहे।
उनको (किसी विशेष क्रम में नहीं) और उनके कर्मचारियों को मेरा हृदय से धन्यवाद: द
नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी, नई दिल्ली; स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक,
मुंबई; भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली; महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई; उप-
महानिरीक्षक कार्यालय, मुंबई; द ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन; बंबई उच्च न्यायालय; द नेशनल
आर्काइव्ज़ ऑफ यूनाइटेड किंगडम, क्यू; बो स्ट्रीट कोर्ट रिकाड्र्स, लंदन; द सेल्युलर जेल,
पोर्ट ब्लेयर; के सरी वाडा तिलक ट्रस्ट, पुणे; और द सावरकर मेमोरियल, नासिक।
प्रतिष्ठित प्रोफे सरों, लेखकों और विद्वानों को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने पुस्तक के
प्रकाशन से पूर्व उसके पुनरीक्षण के लिए अपनी स्वीकृ ति दी: प्रो. फ्रांसिस रॉबिन्सन, प्रो.
फ़ै ज़ल देवजी, प्रो. सुगत बोस, प्रो. अमिताभ मट्टू, प्रो. मकरंद देशपांडे, प्रो. लवण्या
वेमसानी, प्रो. मीनाक्षी जैन, प्रो. सरदिन्दु मुखर्जी, इमाम मोहम्मद तौहीदी, गवर्नर तथागत
रॉय, लॉर्ड मेघनाद देसाई, श्री संजीव सान्याल, श्री टीवी मोहनदास पई, श्री अशोक मलिक
और श्री शेखर गुप्ता का दिल से आभार।
शोधकार्य के दौरान निजी तौर पर हुई बड़ी क्षति झेली -- मेरे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण
स्थान रखने वाली मेरी माँ, श्रीमती नागमणि सम्पत की असामयिक मृत्यु ने इस यात्रा पर
अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी थी। इस यात्रा के आरंभिक चरण में, उन्हीं के साथ मैं
अपने कार्य की रूपरेखा के संबंध में विमर्श किया करता था। विषय के फै लाव को देखते
हुए मैंने उनसे इसे कर पाने से जुड़े अपने संशय का जिक्र भी किया था। ‘माउंट एवरेस्ट पर
चढ़ते समय, चोटी को ना देखो, ना उस पर सोचो। छोटे-छोटे कदम उठाते जाओ और
जल्दी ही तुम खुद को शिखर पर पाओगे’ -- उनके ये शब्द मेरे मार्गदर्शन का आधार
साबित हुए। उन्हें इस कार्य में मेरे ‘सहायक शोधकर्ता’ की कमान संभालनी थी, लेकिन
दुर्भाग्यवश किस्मत को कु छ और ही मंजूर था। जब मैं इस त्रासदी से संभलने की कोशिश
कर रहा था, उस दौरान जिस व्यक्ति के प्रति मैं पूरी कृ तज्ञता और स्नेह का महसूस करता
हूं, वह हैं मेरे पिता सम्पत श्रीनिवासन, जिनके प्रेम ने मुझे काम पर लौटने में मदद की। मेरी
आंटी रूपा मधुसूदन, अंकल मधुसूदन, जयंती अक्का, निर्मल आंटी, श्रीलक्ष्मी आंटी, मेरे
प्रिय मित्र आशीष अरोड़ा, करण अरोड़ा, मधु नटराज, सुलिनी नायर, शीला बजाज,
सोमदत्त राय, राजीब और बंधना सरमा, अविजित चैधरी, वत्सला हाली, अर्जुन सिंह
कादियान और निखिल खुराना भी इस कठिन समय में शक्ति स्तंभ के तौर पर रहे। उनकी
सहृदय और निर्मल उपस्थिति के लिए मैं सदा उनका ऋणी रहूँगा, साथ ही अपने प्यारे
लियो का भी, जिसने मेरे जीवन में फिर से खुशियाँ भरीं!
मुझमें और इस कार्य में अपना भरोसा कायम रखने के लिए मैं अपने प्रकाशक पेंग्विन
रेंडम हाउस इंडिया और मेरु गोखले को धन्यवाद देता हूं। पुस्तक का पूरी कर्मठता से
संपादन करने और उसके प्रकाशन संबंधित सारणी बनाने के लिए मैं अपनी मित्र और
संपादक प्रमांका गोस्वामी को मेरा हार्दिक धन्यवाद देता हूं और साथ ही, बेहद कु शलता के
साथ प्रस्तुत खंड के कॉपी संपादन कार्य के लिए शांतनु रॉय रॉय चौधरी का भी धन्यवाद।
मैं इस किताब के हिंदी अनुवाद के लिए संदीप जोशी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ
जिनके कु शल अनुवाद की वजह से यह किताब आपके समक्ष है। मैं इस पुस्तक के
संपादन के लिए पेंगुइन की हिंदी संपादकीय टीम का भी दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
सबसे जरूरी, मैं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हूं, जिनके आशीर्वाद के बिना एक शब्द भी
लिखा जाना संभव नहीं था।