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सावरकर

एक भऱ
ू े-बबसरे अतीत की गॉज

1883–1924

ववक्रम सम्पत

अनव
ु ाद : सॊदीप जोशी

2021

हहन्दी पॉकेट बुक्स


पें गई
ु न रे न्डम हाउस इॊडडया प्रा. लऱ.
चौथी मॊजजऱ, कैवपटऱ टावर 1, एम जी रोड,
गुरुग्राम - 122002, हररयाणा, भारत
विषय-सच
ू ी

प्रस्तावना
1. आरॊ लभक वषष
2. सॊक्रमण काऱ
3. एक क्राॊततकारी का उदय
4. शत्रु के खेमे में
5. तूफा न की आमद
6. इतत, ऱॊदन अध्याय
7. सावरकर प्रकरण
8. सज़ा-ए-काऱापानी
9. जेऱ वतृ ताॊत
10. राजनीततक रस्साकस्सी
11. हहन्द ू कौन है ?
12. वैचाररक वववेचन
पररलश ष्ट I: ‘ओ! हुतातमाओ’ का सॊपण
ू ष पाठ
पररलशष्ट II: ‘सॊकल्प एवॊ घोषणा पत्र, 1910’ का सॊपूणष पाठ
पररलशष्ट III: वी डी सावरकर की याचचकाएॉ
पररलशष्ट IV: क्या हहन्दस्
ु तान तन:शस्त्र है ?
सॊदभष
आभार
प्रस्तावना
वर्ष 2004 की बात है। सुदूर पोर्ट ब्लेयर में उठे एक विवाद से भारत के समाचार पत्र और
टेलिविजन चैनल अटे पड़े थे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में उस समय से ठीक पहले
की भारत सरकार ने पोर्ट ब्लेयर की कु ख्यात सेल्युलर जेल में सज़ा काट चुके एक स्वतंत्रता
सेनानी की याद में, उनके नाम और उद्धरण वाली पट्टिका स्थापित की थी। इस स्मारक को
इंडियन ऑयल फाउंडेशन ने स्थापित किया था। सरकारी और मीडिया हलकों में यह खुला
रहस्य था कि दिवंगत आत्मा को देर से मिली पहचान तत्कालीन वाजपेयी मंत्रिमंडल के
पेट्रोलियम मंत्री राम नाइक के अथक प्रयासों से संभव हुई है। लेकिन 2004 के आम चुनाव
में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) की अगुवाई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए)
ने वाजपेयी सरकार को पराजित कर दिया । सत्ता में आने के कु छ ही समय बाद, तेज
रफ्तार कार्रवाई के तहत, नई सरकार और उसके पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने वह
पट्टिका वहाँ से हटवा दी। साथ ही उस स्वतंत्रता सेनानी के संबंध में कई आपत्तिजनक
वक्तव्यों के साथ अय्यर ने पट्टिका हटाए जाने को उचित भी ठहराया। इसके बाद संसद के
दोनों सदनों में खूब हंगामा मचा और पूर्व सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी और महाराष्ट्र
की उसकी सहयोगी शिवसेना ने पट्टिका को पुनः स्थापित करने और मंत्री द्वारा माफी मांगे
जाने की मांग रखी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और विपक्ष को स्पष्ट शब्दों में कह दिया गया
कि यूपीए सरकार की ऐसी कोई मंशा नहीं है।
अनुचित विवाद में फँ से स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर में पहली बार उसी
समय मेरी रुचि जगी थी। बेशक मैंने पहले उनका नाम सुन रखा था, हालाँकि यह नाम
स्कू लों में हमारी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से नदारद रहता था। सीबीएसई (कें द्रीय
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) पाठ्यक्रमों से शिक्षा प्राप्त करने के बाद, मुझे महसूस हुआ कि
भारत की परवर्ती कें द्र सरकारें चाहती ही नहीं थीं कि भारत का युवावर्ग इस व्यक्ति के बारे
में जान पाए।
जैसे आदम और हव्वा के जमाने से वर्जित फल हमेशा से कौतूहल का विषय रहा है, उसी
तरह अगले कु छ वर्षों तक मेरे जिज्ञासु मस्तिष्क में सावरकर ही कें द्रीय विषय बने रहे। इसी
तरह भारत की विभक्त राजनीति में उठने वाले प्रत्येक मौजूदा विवाद में उनका नाम घसीटे
जाने पर भी मैं सचेत था। प्रश्न यह था कि 1966 में दिवंगत कोई व्यक्ति मौजूदा पीढ़ी में
इतनी मजबूत उत्कं ठा कै से उभार रहा था ? इस पर मैं हैरान था। और इसके बाद आरंभ
हुई सावरकर की जीवनयात्रा की मेरी खोज, जिन्हें नित नए रूप में मलिन किया जाता था।
हिन्दुत्व विचारधारा के बौद्धिक प्रेरणास्रोत होने के कारण, सावरकर निस्संदेह बीसवीं
सदी के सबसे विवादास्पद विचारक और नेता रहे हैं। उनके लंबे और तेज रफ्तार जीवन को
स्तुति-स्वरूप लेखनों या वैमनस्यपूर्ण आक्षेपों के बीच ही परखा गया है। और हमेशा की
तरह सत्य, इन दोनों के बीच ही कहीं है, जिसे दुर्भाग्यवश देश के लोगों को कभी नहीं
बताया गया।
धीरे-धीरे मुझे ज्ञात हुआ कि सावरकर विरोधाभासों का पुलिंदा और इतिहासकारों के
लिए पहेली की तरह थे। कई लोगों के लिए उनके विविध रूप हैं। एक कथित नास्तिक और
एक कट्टर राष्ट्रवादी जो वर्ण व्यवस्था और रूढ़ियों में जकड़ी हिन्दू मानसिकता का विरोध
करता है और गौपूजा को अंधविश्वास ठहराकर उसे खारिज करता है। समूचे स्वतंत्रता
संग्राम के दौरान सावरकर हिन्दू समुदाय के लिए सबसे ऊँ ची आवाज़ थे। सावरकर और
उनकी विचारधारा आमतौर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और विशेष तौर पर महात्मा गांधी
तथा उनके शांति एवं अहिंसा के दर्शन के खिलाफ सबसे मजबूत और उग्र विरोधी रही थी।
एक प्रतिष्ठित क्रांतिकारी जिसके विपुल बौद्धिक लेखन ने दशकों तक भारत में क्रांतिकारी
धारा को प्रेरित किया, सावरकर गहरे तथा संवेदनशील कवि, विपुल साहित्य लेखक एवं
नाटककार और आक्रामक वक्ता भी थे। आमतौर पर किसी व्यक्ति में कवि हृदय और
क्रांतिकारी मस्तिष्क का मेल दुर्लभ होता है। वहीं उनकी समाज सुधारक छवि ने
अस्पृश्यता एवं वर्णवाद के उन्मूलन और हिन्दू समाज के एकीकरण के लिए भी काम
किया।
भारतीय ‘दक्षिणपंथ’ के राजनीतिक शीर्ष पर पहुँचने के बाद, भारतीय राजनीति एवं
समाज में सावरकर और उनके विचार कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। चुनावी राजनीति में एक
ओर जहाँ सावरकर के विषय में व्यर्थ व्याख्यानों में कीमती न्यायिक समय बेकार जाता है
और फलस्वरूप, मानहानि के मुकदमों की फे हरिस्त लंबी होती जाती है, ऐसे में किसी भी
इतिहासकार का यह दायित्व बनता है कि वह प्रत्येक विचारशील पाठक के सामने तथ्य
प्रस्तुत करे ताकि वह उसमें छु पे सत्य को पहचान सके । सावरकर की दो खंडों की इस
जीवनी का यही प्रयास है।
2014 में स्थाई सरकार को चुनने के लिए भारत ने जबर्दस्त तरीके से बहुमत देकर काफी
शक्तिशाली रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से इतर एक अन्य सरकार का चुनाव किया। ऐसे में
बदलते राजनीतिक भाग्य के साथ, ऐसे अनेक राष्ट्रीय नेताओं के जीवन में लोगों की रुचि
जगने लगी, जिन्हें स्वातंत्र्योत्तर भारत की सरकारों द्वारा स्वतंत्रता संघर्ष के एकरंगी
विवरणों को लोकप्रिय बनाने के कारण अब तक उचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ था। आज
विद्वतजन नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल, भगत सिंह एवं अन्य
क्रांतिकारियों, लाल बहादुर शास्त्री, दीनदयाल उपाध्याय एवं श्यामा प्रसाद मुखर्जी से जुड़ी
नवीन सूचनाएँ सामने ला रहे हैं, जिसके जरिए आधुनिक भारतीय ऐतिहासिक विमर्श को
विविध इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
परंतु किसी कारणवश इस पुनर्आकलन से भी सावरकर को बाहर ही रखा गया। एक
ओर जहाँ उनके प्रशंसकों एवं जीवनीकारों ने उनकी महानता की स्तुति की, वहीं उनके
आलोचकों ने उन्हें कायर धोखेबाज, हत्यारा और साम्प्रदायिक कट्टरपंथी कहा। सावरकर,
उनके योगदान, उनके राजनीतिक दर्शन और उनकी विरासत को हमारे समक्ष उपलब्ध
दस्तावेजों और ऐतिहासिक तथ्यों के आईने में तथा स्वयं उनके विपुल लेखन के माध्यम से
पुनःआकलन और पुनःपरीक्षण करना चाहिए। उनका लेखन दुर्भाग्यवश अभी मुख्यधारा
तक नहीं पहुंचा है, क्योंकि वह अधिकांशतः मराठी में है। इस जीवनी में यही कार्य किया
गया है।
समकालीन भारतीय विमर्श में एक सर्वव्यापी शब्द है ‘हिन्दुत्व’। समालोचक और
राजनीतिज्ञ इसके गर्भ में छिपी राजनीतिक सूक्ष्मता को न समझते हुए, व्यापक रूप में
इसका इस्तेमाल करते हैं। हिन्दुत्व के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और
सावरकर के बीच मतभेद था। गांधी के हत्यारे गोडसे के उस इकबालिया बयान पर दशकों
तक पाबंदी रही जिसमें उसने सावरकर के ‘शान्तिपूर्ण’ हिन्दुत्व के साथ अपने मोहभंग की
बात की थी। यह तथ्य दर्शाता है कि सावरकर द्वारा 1923 में इसको प्रचलित किए जाने के
बाद के लंबे और विविधरूपी इतिहास में इस शब्द के कई अर्थ रहे।
सावरकर और उनके हिन्दुत्व के राजनीतिक दर्शन के आकलन के लिए 2019 के भारत
की परिस्थितियों को समझना ज़रूरी है जो उन्हीं मुद्दों और विवादों से जूझ रहा है, जिनके
बारे में उन्होंने लिखा या चेताया था। इसी तरह, उनकी कमियों और अज्ञानता का उनके
दृष्टिकोण एवं दर्शन के साथ आकलन करना आवश्यक है, क्योंकि बिना शक वह अपने
समय के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक विचारक थे। आखिर, जैसा अमेरिकी इतिहासकार
जॉन नोबल विल्फर्ड ने कहा हैः ‘इतिहास के सभी कार्य अंतरिम रपटें होती हैं। आखिर
लोगों ने अतीत में जो किया वह सजावट में संरक्षित नहीं हुआ. . .परवर्ती पीढ़ियों में वह
स्थिर पड़ा रहा। प्रत्येक पीढ़ी पीछे देखकर और अपने अनुभवों से उन आकृ तियों को
तराशती हैं, और ऐसे प्रतिरूप पाने के प्रयास में रहती है जो अतीत और वर्तमान दोनों को
रोशन कर सकें ’।
विपुल साहित्य के सर्जक सावरकर ने अपने जीवन के बारे में व्यापक रूप से लिखा है।
जहाँ उनके जीवन वृत्तांत में शुरुआती जानकारी विस्तारपूर्वक मिलती है, वहीं अपने
झंझावाती जीवन के कई अध्यायों का उन्होंने वर्णन किया ही नहीं। इस कारणवश उनकी
आत्मकथा अधूरी रहती है। स्वतंत्रता के निकट पहुँचकर राजनीतिक अभियान के चक्रवात
में शामिल होने और उसके बाद गांधी हत्या के मुकदमों में सह-अभियुक्त के तौर पर
उपस्थित होने तक यह समाप्त हो जाती है। जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने अपनी
उपलब्धियों को लिपिबद्ध करने के लिए समाचार पत्रों, डायरी टिप्पणियों एवं आलेखों के
इस्तेमाल का कार्य अपने सचिव बालाराव सावरकर को सौंपा था। बालाराव ने मराठी
लिखित खंडों रत्नागिरि पर्व
, हिन्दू महासभा पर्व
और अखंड हिन्दुस्तान लाधा पर्व
में इन्हें
सहेजा था। इन खंडों में 1924 से 1966 तक का विस्तृत लेखा-जोखा शामिल है।
1926 के अंत में मद्रास से सावरकर की पहली अंग्रेजी जीवनी द लाइफ ऑफ बैरिस्टर
सावरकर
प्रकाशित हुई जिसके लेखक का नाम ‘चित्रगुप्त’ था। भारतीय पौराणिक
कथाओं में चित्रगुप्त मृत्यु के देवता यम के लेखपाल का नाम है, जो प्रत्येक आत्मा के पाप
और पुण्य का लेखा-जोखा रखता है। पुस्तक का लेखक असल में कौन था, इसको लेकर
अनेक संके त उठे हैं - कांग्रेस नेता सी. राजगोपालाचारी, क्रांतिकारी वीवीएस अय्यर और
यहाँ तक कि छद्म नाम से सावरकर द्वारा खुद इसे लिखे जाने के भी कयास लगाए गए हैं।
परंतु आज तक उस लेखक की पहचान नहीं हो सकी। पुस्तक में लंदन में बिताए गए
विस्फोटक दिनों से लेकर उनकी गिरफ्तारी और सावरकर के भारत भेजने तक की कहानी
है।
इसके बाद, सदाशिव राजाराम रानाडे ने मराठी में उनकी एक छोटी जीवनी लिखी, जो
प्रकाशन के पंद्रह दिनों में ही बिक गई थी। 1943 में सावरकर की षष्ठीपूर्ति पर शिवरामपंत
करन्दीकर ने 600 पन्नों की एक वृहत जीवनी लिखी थी। उसमें उन्होंने समाचार पत्रों के
कई लेखों, निजी पत्रों, संस्मरणों, डायरियों एवं सावरकर के निकटवर्तियों के अनुभवों का
हवाला दिया था। पुस्तक के विवादास्पद विषय को देखते हुए, ब्रिटिश सरकार ने तुरंत
इसकी पाबंदी का आदेश दे दिया। यह प्रतिबंध 1947 तक लागू रहा। परंतु स्वतंत्रता के
पश्चात भी, गांधी हत्या के कारण सावरकर के बारे में बनाई गई नकारात्मक धारणा को
देखते हुए, लोगों ने स्वतंत्र भारत सरकार द्वारा प्रतिशोध के भय से, सावरकर और उनसे
जुड़ी किसी भी वस्तु से दूर रहना ही बेहतर समझा।
उनसे मामूली से संबंध के आधार पर कै से अनेक प्रतिष्ठित लोगों को नौकरियों,
जीवनयापन और प्रतिष्ठा से हाथ धोना पड़ा, इस संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।
कहा जाता है कि करन्दीकर कु छ इतने परेशान थे कि वह पुस्तक की सभी प्रतियाँ जला
देना चाहते थे। उन्हें ऐसा करने से मराठी लेखक एवं इतिहासकार बलवंत मोरेश्वर पुरंदरे
(लोकप्रिय नाम बाबासाहेब पुरंदरे) ने रोका था। पुरंदरे ने स्वयं घर-घर जाकर पुस्तक की
प्रतियाँ बेचने का कार्य किया था।
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1950 के दशक के अंत में, बंबई सरकार ने अपने अभिलेखागार से सावरकर द्वारा गठित
क्रांतिकारी दल अभिनव भारत से संबंधित कु छ गोपनीय दस्तावेज जारी किए थे। उसके
बाद किसी पहेली के हिस्सों की तरह, सावरकर के क्रांतिकारी जीवन के अन्य पक्ष और
प्रचंड समकालीन घटनाएँ आकार लेने लगी थीं। आरके पटवर्धन (नशीकचे दशाकतिल
शतकृ त्य
) और मुकुं द सोनपतकी (दरियापार
) की पुस्तकें भी प्रकाशित हो गई थीं।
सावरकर के बड़े भाई, गणेश दामोदर सावरकर की डीएन गोखले लिखित जीवनी से दोनों
भाइयों द्वारा झेली गई कठिनाइयों और पीड़ाओं का पता चलता है। वहीं अभिनव भारत
के
साथियों श्रीधर रघुनाथ वर्तक, दामोदर महादेव चंद्रात्रे और कृ ष्णजी महाबल के संस्मरणों
से भी सावरकर की उभरती छवि के नए आयाम रोशन हुए। लगातार सामने आ रही इन
सूचनाओं के साथ, उनके अनेक निजी साक्षात्कारों के संग्रहण का कार्य सावरकर के
विश्वासपात्र धनंजय कीर ने किया। अंग्रेजी में धनंजय कीर द्वारा लिखित सावरकर की
जीवनी में 1883 में भगूर में उनके जन्म से 1966 में उनकी मृत्यु तक ब्योरा शामिल है।
प्रशंसकों ने इस जीवनी की तारीफ और विरोधियों ने इसकी आलोचना की।
विभिन्न जीवनियों के शीर्षकों के मध्य, मौजूदा पुस्तक में दुनिया भर से मूल दस्तावेजों के
वृहत अभिलेखीय अनुसंधान और अब तक अप्रयुक्त मराठी दस्तावेजों के आधार पर
पाठकों के समक्ष सावरकर और उनके समकालीनों का वस्तुगत विश्लेषण करने का प्रयास
किया गया है।
उनकी जीवनगाथा दुनिया के सामने क्यों लाई जाए, इस संबंध में सावरकर का अपना
एक दार्शनिक पक्ष था। दस खंडों में एकत्रित उनकी आत्मकथा, सावरकर समग्र वांग्मय
का
आरंभ वह मनुष्य की भूल जाने की अद्भुत क्षमता को नमन् करते हुए करते हैं। उनका तर्क
है, कि यदि ऐसा न हो तो वर्तमान एवं पिछले जन्म की असहनीय यादें हमें हमेशा तंग
करेंगी ! उनके अनुसार, अतीत के दुःख वर्तमान और भावी परिदृश्य एवं संबंधों को
बिगाड़ने का काम करते हैं। याद रखने और भूलने के बीच बारीक संतुलन को देखते हुए
वह अटकल लगाते हैं कि संस्मरणों और आत्मकथाओं को लिखे जाने से पूर्व उन्हें उनके
महत्व से जुड़ी परीक्षा देनी होती है। निजी और पारिवारिक परिदृश्य से परे, यदि किसी की
कहानी देश और उसके भाग्य की रचना करने वाले अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के समूह को
उजागर करती है, तो ऐसी कहानी को दर्ज किया जाना आवश्यक है। फिर वह निश्चयपूर्वक
कहते हैं कि उनका जीवन देश, उसकी नियति और उसकी दो या तीन पीढ़ियों के वर्णनों से
जुड़ा है और वह उसे उनकी चिता में साथ नहीं जल जाने देंगे। इस मंतव्य के साथ उन्होंने
अपने संस्मरणों को दर्ज करना शुरू किया था।
स्वतंत्रता से पहले दमनकारी शासन और उसके बाद असहयोगपूर्ण स्वायत्त शासन के
चलते, सशस्त्र संघर्ष के संबंध में अल्पज्ञान को देखते हुए, उनका सोचना था कि उन छु पे
हुए तथ्यों और नायकों को सामने लाने वाली उनकी जीवनगाथा एक राष्ट्रीय कर्तव्य बन
चुकी है। हालाँकि, विशुद्ध तर्क वादी होने के नाते, सावरकर न के वल ख़ुद को बल्कि प्रत्येक
भावी जीवनीकार को भी सावधान करते हैं। आमजन की दृष्टि में व्यापक स्वीकृ ति प्राप्त
करने को लेकर बढ़-चढ़कर बोलने और प्रशंसाओं के पुल बांधने का प्रलोभन बना रहता है,
परंतु वह लेखन के दौरान नियंत्रण और सचेत अनासक्ति पर जोर देते हैं। उनके शब्दों में:
पूरे खिले गुलाब को व्याख्यायित करना अच्छा होता है, परंतु उससे जुड़े प्रत्येक पक्ष की
व्याख्या किए बिना वह अधूरा होगा - सभी आयामों से उस गुलाब के सौंदर्य की
अवधारणा परखने के लिए, उसकी जड़ों से लेकर, उसका तना, उसे धारण करने की
क्षमता देने वाली खाद और पौष्टिक आधार, ताजी और सूखी पत्तियों के साथ कांटों का
भी अवलोकन आवश्यक है। इसी तरह, किसी व्यक्ति के जीवनवृत्त में उसे वैसे ही
प्रस्तुत करना चाहिए जैसा ‘वह है’, वैसा नहीं, ‘जैसा उसे होना चाहिए’ - सिर से पांव
तक, न कम, न ज्यादा, यथार्थरूप की तरह पारदर्शी और सच्चा। जो भी कहा या
अनकहा हो, शर्मिंदा या तारीफ के लायक, को बिना किसी निषेध या भय के दर्ज किया
जाना चाहिए। बेशक सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ जिनमें मैं यह लिख रहा
हूँ, मेरी इच्छा के बावजूद, कु छ विवरणों को मामूली सा दबाया गया है। साथ ही, यह
उन प्रतिष्ठित लोगों के भरोसे का उल्लंघन भी होता, जिनसे अपने जीवन में मिलने और
विचार-विमर्श करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। फिर भी, मैं वादा करता हूँ कि अपनी
ओर से बिना किसी बहाने या पूर्वग्रह के जो बताया जाने लायक था, मैंने बताया है।
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व्यक्ति पूजा के विरोधी सावरकर ने इस बात पर भी जोर दिया कि यदि कु छ पीढ़ियों के
बाद भारत के लोगों को उनके संस्मरण व्यर्थ और कम महत्व के लगें तो वह उसे विस्मृति
के गर्त में धके ल देने को स्वतंत्र हैं। वह कहते हैं कि समय ही किसी व्यक्ति के महत्व का
सबसे बड़ा निर्णायक होता है। आखिरकार, ब्रह्मांड नए प्रभावों के लिए स्थान बनाने हेतु
पुराने चिन्हों को हटाने में पूर्णतः सक्षम है।
सूत्रधार के मुख से चले आ रहे दिशानिर्देशों के बाद मुझे के वल उनकी राय पर ध्यान से
अमल करना ही रह गया था - यानी मौजूद दस्तावेजों के आधार पर तस्वीर ‘जैसी है’ उस
रूप में, न कि ‘जैसा उसे होना चाहिए’ के प्रयास में प्रस्तुत करना। पुस्तक उनके प्रति
किसी ग्लानि भाव से नहीं लिखी गई, न ही यह एक राष्ट्रीय छवि के साथ हुई ऐतिहासिक
नाइंसाफी को सही करने के ऊँ चे उद्देश्य का संधान करती है। यदि ऐसा होता भी है तो यह
जानबूझकर नहीं, अपितु संयोगवश ही होगा। निजी पूर्वग्रहों को एक ओर रखते हुए,
अभिलेखों को उनकी कहानी खुद कहने देनी चाहिए। आखिर, बरसों तक एक जुनून की
तरह सवार विषय से सभी भावनात्मक संबंध तोड़ने की तकलीफदेह प्रक्रिया के बाद ही
पता चलता है कि प्रस्तुत विवरण वस्तुगत जीवनी है या स्तुतिपूर्ण संतचरित। मैं मानता हूँ
कि मैं वस्तुनिष्ठ मार्ग का चुनाव करने में सफल रहा हूँ और शेष निर्णय पाठकों के हाथ में
है।
इस बीच, 2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में लौटने के
बाद, सेल्युलर जेल से अपदस्थ पट्टिका को ग्यारह वर्षों बाद, 2015 में पुनः स्थापित कर
दिया गया। राम नाइक ने ही नई आधारशिला रखने का कार्य किया। इतिहास खुद को
दोहराता दिख रहा था। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नित बदलते चुनावी संयोग के
बीच, कोई भी इतिहासकार इतनी ही उम्मीद कर सकता है कि सावरकर और उनके जैसे
अन्य लोगों की विरासत को फिर सार्वजनिक तौर पर विद्वेषपूर्ण राजनीतिक उठापटक का
शिकार नहीं होना पड़ेगा।
डॉ. विक्रम सम्पत
बेंगलुरु, मार्च 2019
1
आरंभिक वर्ष
9 जुलाई 1879, पूना
भारत में नौकरशाह के तौर पर सर रिचर्ड टैम्पल का कार्यकाल काफी लंबा रहा था। उनके
गिने-चुने समकालीन ही देश और उसके जनमत के बारे उनका जैसा ज्ञान होने का दावा
कर सकते थे। 1847 से 1880 तक के अपने भारतीय कार्यकाल के दौरान, सर टैम्पल
पंजाब, कें द्रीय प्रांत और बंगाल में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। परंतु उनके असाधारण
कार्यकाल का गौरव शिखर 1877 से 1880 के दौरान बम्बई के गवर्नर के तौर पर उनकी
नियुक्ति रही। अपने व्यापक अनुभव के बावजूद, सर टैम्पल ने वायसरॉय लॉर्ड लिटन को
दो गोपनीय पत्र भी लिखे थे।
1
इन पत्रों में मौजूद अनेक वाक्य विन्यास एवं शाब्दिक
त्रुटियों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह पत्र सर टैम्पल ने जल्दबाजी में लिखे होंगे। उनकी
परेशानी का कारण भी वाजिब था, क्योंकि समस्या मुँह बाए खड़ी थीं। 1875 तक बॉम्बे
प्रेसिडेंसी के अहमदनगर, पूना, सतारा और सोलापुर जिलों में किसानों के कई उग्र
आन्दोलन हो चुके थे। 1876-77 में दक्कन भीषण सूखा और हैजा, प्लेग एवं चेचक जैसी
महामारियों की मार भी झेल चुका था। इसकी परिणति अंततः 1879 के दक्कन कृ षक
कल्याण कानून के रूप में सामने आई, जो एक जाँच समिति के गठन के बाद पारित किया
गया। उस कानून के अंतर्गत किसानों को उनके ऋण न चुका पाने की सूरत में गिरफ्तारी से
बचाने का प्रावधान था। परंतु यह कानून भी नाकाफी साबित हुआ। दक्कन में असंतोष की
भावना पहले ही गहरे से फै ल चुकी थी। वासुदेव बलवंत फड़के , जिन्हें सर टैम्पल ने एक
क्षुद्र ब्राह्मण ‘लुटेरा नेता’ कह कर संबोधित किया था, ने अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक विद्रोह
की अगुवाई की थी।
2
यह स्पष्ट था कि कथित अंग्रेजी सुशासन की नीवें हिल गई थीं और
जनता में विदेशी शासन के खिलाफ असंतोष की भावना गहरे में सुलग रही थी।
परंतु के वल यही हालिया घटनाएँ नहीं थीं जिनके बारे में सर टैम्पल ने लिटन को
सविस्तार लिखा था। इसके विपरीत, उन्होंने लिटन के समक्ष 1818 से इस क्षेत्र और उसके
बाशिंदों का एक समूचा ऐतिहासिक परिदृश्य पेश किया, यानी उस समय से जब अंग्रेजों ने
पेशवाओं के राज में प्रभुत्वशाली मराठा साम्राज्य की कमजोर रगों को खोज निकाला था।
टैम्पल ने लिखा है, ‘आमतौर पर ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों ने मुसलमानों को भारत के
शासकों के तौर पर पदच्युत किया था। यह के वल आंशिक सत्य है। संपूर्ण सत्य के निकट
जो तर्क बैठता है, वह यह कि उस समय सबसे बड़ी शक्ति मराठा थे जिन्हें हमने विस्थापित
किया था’।
3
1818 तक वृहद भारत में मराठा शक्ति के विस्तार और असर को देखते हुए
यह कथन सटीक दिखता है। सिखों के विपरीत, जिनकी युद्ध आकाँक्षा 1848-49 के दूसरे
आंग्ल-सिख युद्ध में मिली हार के बाद ठं डी पड़ चुकी थी और वह उस अपमान को लगभग
भुला बैठे थे, 1818 की पराजय स्वाभिमानी मराठों के हृदय में शूल की तरह चुभ रही थी।
जैसा कि सर टैम्पल ने स्पष्ट किया है कि यह हार, उस क्षेत्र के चितपावन ब्राह्मण समुदाय
को गहरे से आहत कर गई थी। परंतु कौन थे वे चितपावन ब्राह्मण, जिन्होंने अपने समय के
महान ब्रिटिश साम्राज्य की रातों की नींद उड़ा दी थी ?
चितपावन ब्राह्मणों के उद्भव का मिथकीय वर्णन भगवान परशुराम से जोड़ा जाता है,
जिनकी उपासना भगवान विष्णु के अवतार के तौर पर होती है। चितपावन ब्राह्मणों के गौर
वर्ण, हल्की नीली आँखें और भारत के पश्चिमी तट पर, विशेषकर रत्नागिरि में उनकी भारी
संख्या को देखकर लगता है कि वह कभी समुद्र मार्ग से ईरान से महाराष्ट्र पहुँचे होंगे।
4
चौदह पैतृक समूहों, या गोत्रों में संगठित चितपावन ब्राह्मणों का कोई औपचारिक जातिगत
नेतृत्व या उनके सामाजिक जीवन को संचालित करने वाले स्पष्ट प्रचलित दिषानिर्देश नहीं
थे। परंतु वह अपने धार्मिक नेता, संके श्वर के शंकराचार्य के प्रति निष्ठा रखते थे। पहले-
पहल पश्चिमी घाट पर पहाड़ी और आर्थिक तौर पर पिछड़ी कोंकण पट्टी पर आकर बसने
वाले चितपावन समुदाय को ‘कोंकणस्थ’ कहा गया जहाँ से वह पूर्वी दिशा में ‘देश’ या
मुख्यभूमि की ओर फै लने लगे। 1901 की जनगणना के अनुसार चितपावन समुदाय,
महाराष्ट्र की ब्राह्मण आबादी का 20 प्रतिशत था। पूर्वी क्षेत्रों में इनका सामना अपने ही
जातिगत बंधुओं, देशस्थ ब्राह्मणों से हुआ, जो संख्या में इनसे अधिक और क्षेत्र में
पारंपरिक तौर पर ऊँ चा स्थान रखते थे। अपने गृहक्षेत्र कोंकण में बुआई, पुरोहित कार्य
और छोटे व्यापारियों के तौर पर काम करने वाले चितपावन ब्राह्मण, नई जमीन पर
पहुँचकर जल्दी ही प्रशासक, राजनयिक और लड़ाकू योद्धाओं के तौर पर पहचान बनाने
लगे। उन्होंने शीघ्र ही राजनीतिक और आर्थिक विकास करने के लिए लगभग सभी ज़रूरी
आवश्यक हुनर अपना लिए जिसके बरक्स देशस्थ ब्राह्मण प्रशासनिक हलकों में निचले
स्तर पर या पुरोहित कार्य तक ही सीमित रह गए।
प्रशासन में चितपावन ब्राह्मणों का ऊँ चा स्थान 1680 में छत्रपति शिवाजी महाराज के
निधन के बाद और अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में पेशवा साम्राज्य के शासनकाल में मुखर
रूप में सामने आया। शिवाजी महाराज के वंशजों के प्रधानमंत्री पेशवा खुद भी चितपावन
ब्राह्मण थे। शिवाजी के अवसान के बाद वह असली राजनीतिक शक्ति बन बैठे थे, जबकि
शिवाजी के वंशज और प्रपौत्र शाहु महाराज ने सतारा का पुश्तैनी सिंहासन संभाला। 1713
में बालाजी विश्वनाथ भट्ट की नियुक्ति के बाद से, चितपावन ब्राह्मणों की सरकार के सभी
विभागों में पहचान बनने लगी थी। वह बड़ोदा, इंदौर और सांगली से लेकर, मिराज और
जामखंडी तक सभी मराठा राजकु मारों के साथ रहे। पेशवाओं ने प्रतिष्ठित चितपावनों को
बड़े-बड़े भूखंड दान में दिए। राजकु मारों से सरदारों तक, प्रशासक, राजनीतिज्ञ,
राजनयिकों से लेकर जमींदारों, बैंकरों, व्यापारियों और शक्तिशाली पेशवा सेना में
सिपहसालारों के रूप में यह समय चितपावन इतिहास का स्वर्णिम दौर था।
हालाँकि, 1818 में अकस्मात और बहुत नाटकीय तौर पर इसमें परिवर्तन आया। अंग्रेजों
की विजय के बाद पुराने शासक वर्ग के एकाधिकार का अंत हो गया और चितपावनों को
उनके आनुवांशिक विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ा था। अंग्रेजों द्वारा लागू प्रशासनिक
सेवाओं की नई नीतियों के अनुसार उसके लिए नए कौशल की जरूरत थी। इसके
बावजूद, परिवर्तनशील चितपावन ब्राह्मण इस चुनौती के समक्ष अपने में सुधार लाते हुए,
औपनिवेशिक अंग्रेजी भाषा से लाभ उठाने वाले वृहद समुदाय का अगुआ साबित हुआ,
जिसके बाद उसने प्रशासनिक सेवाओं की कमान संभाली। बॉम्बे सेवा में सबसे महत्वपूर्ण
पद ममलतदार (जिला राजस्व कलेक्टर) का होता था, और इस पद पर तीन-चैथाई कर्मी
चितपावन ब्राह्मण थे। लोक सेवा आयोग ने पाया कि बॉम्बे प्रेसिडेंसी में 41.25 प्रतिशत
डिप्टी कलेक्टर चितपावन ब्राह्मण थे। 1886 तक प्रेसिडेंसी में 104 में से 33 अधीनस्थ
न्यायाधीश चितपावन थे।
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अंग्रेजी राज के अंतर्गत व्यापक तौर पर चितपावन समुदाय की
तरक्की के बारे में सर टैम्पल ने लिटन को पत्र में लिखा कि यह प्रतिष्ठित स्थान उन्हें
राजकृ पा से नहीं बल्कि उनकी अपनी मेहनत से मिला है’।
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फिर यह सोचकर हैरानी होती
है कि अपने जीवनयापन के लिए सरकार, आश्रित इस समुदाय के मन में क्यों इतनी
कड़वाहट भरी थी ?
सर टैम्पल ने लिटन को लिखे पत्र में संक्षेप में बताया है, जिसमें उन्होंने मराठा ब्राह्मणों
की देश के अधिकांश क्षेत्रों में राजनीतिक और सैन्य प्रभुसत्ता के अतीत की ओर इशारा
किया है। जिस शक्ति के हाथ से निकल जाने पर उनमें 1820 के दशक से ही अंग्रेजों के
खिलाफ नफरत की भावना बहुत प्रबल थी। टैम्पल बताते हैं, ‘चितपावन समुदाय, राष्ट्रीय
भावना और के वल भारत को बांधे रखने की भावना से प्रेरित होता है... एक सच्चा
चितपावन... एक सैन्य कमांडर की सख्ती और ऊर्जा और एक राजनयिक के कौशल तथा
संबोधन से लैस होता है... शिक्षा, पारिश्रमिक या लोक सेवा में तरक्की से जुड़े पक्षों को
लेकर हम ऐसा कु छ भी नहीं कर सकते जो चितपावनों को संतुष्ट कर सके ... शिक्षा कु छ
मामलों में उन्हें हमारे निकट ला सकती है-कई मुद्दों पर वह हमारी भाषा के अनुसार ही
सोचते हैं ; वह हमारी विचारशैली का उपयोग करते हुए अपनी विचारशैली को दरकिनार
रखते हैं। दूसरी ओर, शिक्षा सचमुच उनके मस्तिष्क में तूफान पैदा कर रही है... वह तब
तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक देश में सर्वोच्च स्थान हासिल नहीं कर लेते, जैसा कि पिछली
सदी में उन्होंने किया था... मैंने भारत में कभी इतनी सतत, इतनी स्थाई, इतनी व्यापक
और हमारे द्वारा संतुष्ट न की जा सकने वाली ऐसी राष्ट्रव्यापी और राजनीतिक महत्वाकांक्षा
नहीं देखी जैसी पश्चिमी भारत के ब्राह्मणों, विशेषकर ऊपर बताये गए ‘कोंकणस्थ’ ब्राह्मणों
में देखी है’।
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महाराष्ट्र में महादेव गोविंद रानाडे, बाल गंगाधर तिलक से विष्णुशास्त्री कृ ष्णशास्त्री
चुपलूणकर, गणेश अगरकर और गोपालकृ ष्ण गोखले जैसे प्रतिष्ठित लेखक, शिक्षाविद,
समाज सुधारक और इतिहासकार चितपावन ब्राह्मण रहे जो अंग्रेजी शासन के घोर विरोधी
थे। यह तथ्य सर टैम्पल के आकलन की पुष्टि करता है। ऐसे ही एक राष्ट्रवादी चितपावन
ब्राह्मणों के परिवार में 1883 में विनायक दामोदर सावरकर का जन्म हुआ था।
भागुर, 1883
भागुर का छोटा सा कस्बा नासिक शहर से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रहन-सहन
के लिए उचित जलवायु और सुचारू जलस्रोत को देखते हुए अंग्रेजों ने भागुर से 4 कि.मी.
की दूरी पर देवलाली में अपनी छावनी स्थापित की थी। 1818 तक नासिक क्षेत्र मराठा संघ
का हिस्सा रहा था, इसे बाद में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के खानदेश और अहमदनगर जिलों के बीच
बांट दिया गया। नासिक जिला 1869 में वजूद में आया और 1901 की जनगणना के
अनुसार यहाँ की आबादी 816,504 थी - जिसमें 1891-1901 दशक के दौरान 3 प्रतिशत
की कमी देखी गई थी। प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों में से एक गोदावरी का
उद्भव नासिक के त्रयम्बके श्वर की पहाड़ियों से होता है और जिसके बाद यह पूर्वी जिले की
ओर बहती है। गोदावरी के किनारे भारत के सबसे पावन तीर्थ स्थलों में से एक - प्राचीन
त्रयम्बके श्वर मंदिर स्थित है, जिसकी गणना बारह पारंपरिक ज्योतिर्लिंगों या पौराणिक शिव
मंदिरों में होती है।
विनायक दामोदर के जन्म से सात या आठ पीढ़ियों पूर्व, पेशवाओं द्वारा परिवार को
जागीर दिए जाने के बाद सावरकर परिवार भागुर आया था। उनका उद्भव स्थल रत्नागिरी
जिले के तटवर्ती कोंकण क्षेत्र में गुहागर तालुका का पलशेत था। पलशेत में सावरी वृक्षों की
व्यापक पौध पाई जाती है। उनके मूल कु लनाम ओक या बापत थे, परंतु चूंकि वह सावरी
वृक्षों की जमीन पर बसते थे, इसलिए उन्हें ‘सावरवदिकर’ कहा गया, जो कालांतर में,
संक्षिप्त हो ‘सावरकर’ हो गया।
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विनायक के एक पूर्वज संस्कृ त के प्रकांड पंडित के तौर
पर जाने गए थे। पेशवा उनकी पांडित्य क्षमता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें एक
सोने की पालकी भेंट की थी। खंडोबा मंदिर में मौजूद जीर्ण पालकी के अवशेष उनकी इसी
पारिवारिक गाथा का अंश है। सावरकर समुदाय और उनके नातेदार धोपावकरों के भागुर
प्रवास और वहाँ जमींदार बनने के बाद, इस छोटे कस्बे के भाग्य का सितारा भी सोने की
पालकी वाले उनके पूर्वज की भांति चमक उठा। सावरकर परिवार, और विशेषकर उनके
एक पूर्वज, महादेव दीक्षित सावरकर को उनके नायकत्व के लिए, जागीर में एक पड़ोसी
गाँव राहौरी प्राप्त हुआ था। 1818 के युद्ध के दौरान उनके एक पूर्वज, परशुरामपंत
सावरकर ने भी पेशवाओं और अंग्रेजों के मध्य एक कु शल राजनयिक की भूमिका निभाई
थी।
चौदह प्रांगणों वाले भव्य सावरकर निवास से जुड़ी कहानियाँ एक से दूसरी पीढ़ी तक
सुनाई देती रहीं। यही नहीं, वर्षों बाद, जब भी अतीत का कोई जमींदोज ढाँचा किसी
उत्खनन में प्राप्त होता तो विनायक तुरंत उन चौदह प्रांगणों की गिनती करने लग जाते ;
परंतु गिनती सही न बैठने पर हर बार न्हें मन मसोस कर रह जाना पड़ता। सर्पों की
निगरानी में कहीं दबे पड़े विशाल खजाने से जुड़ी कहावतें भी इस परिवार का अपने सुनहरे
और सुदूर अतीत से रोमांस का हिस्सा थीं।
विनायक के पितामह को दो पुत्र और एक पुत्री थी। उनके पिता, दामोदरपंत या अन्नाराव,
दो भाइयों में छोटे थे। दोनों भाइयों में करीब पंद्रह वर्ष का अंतर था। उनके ताऊजी, जिन्हें
बापू काका पुकारा जाता, बलिष्ठ कद-काठी, शारीरिक सौष्ठव तथा व्यायाम के प्रेमी थे।
कानूनी पेशा भी उन्हें खूब भाता था और उनके कई वकील दोस्त थे। उनके कई बागान
और खलिहान थे, परंतु वह पारिवारिक सुखों से वंचित थे क्योंकि उनकी पत्नी संतानहीन
ही चल बसी थीं। बापू काका ने पुनर्विवाह नहीं किया था। हालाँकि उनके अपने भाई से
मधुर संबंध नहीं रहे थे, परंतु वह भतीजे-भतीजियों पर अपने ही बच्चों की तरह स्नेह
लुटाते। सावरकर बंधुओं की एकमात्र बहन का विवाह पड़ोसी कोठर के कनेटकर परिवार
में हुआ था। उनके पति और बापू काका व्यापारिक सहभागी थे।
वहीं दामोदरपंत अपनी ही दुनिया में रहते थे। वह मैत्रीपूर्ण स्वभाव वाले मृदुभाषी व्यक्ति
थे जिन्हें जब भी युवा जागीरदार के तौर पर संबोधित किया जाता तो वह झेंप उठते।
उन्होंने नासिक हाई स्कू ल से दसवीं कक्षा पास की और उनके शिक्षक उन्हें बुद्धिमान परंतु
नटखट बालक के तौर पर याद करते थे। एक बार अपने स्कू ल के प्रधानाचार्य पर गेंद
फें कने पर जरूर उन्हें बदनामी झेलनी पड़ी थी। दामोदरपंत कु छ कविमन भी थे जो संस्कृ त
और मराठी के महाकवियों की पंक्तियाँ याद कर उनका वाचन भी करते थे। उनका विवाह
राधाबाई से हुआ जो कोठर के ब्राह्मण बौद्धिक दीक्षित परिवार के मनोहर दीक्षित की
सुपुत्री थीं। दामोदर की तरह राधाबाई के भाई की भी काव्य में रुचि थी और साहित्यिक
अभिरुचि के कारण सावरकरों की अगली पीढ़ी भी इस क्षेत्र में सिद्धहस्त रही। शैशवकाल
में ही दो बच्चों के निधन के बाद, दम्पति को 13 जून 1879 को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। वह
शिशु जन्म के समय से ही बीमार था और जीवन भर कमजोर स्वास्थ्य से उसे जूझना पड़ा।
उनका नाम गणेश रखा गया परंतु प्यार से उन्हें ‘बाबाराव’ पुकारा जाता।
चार वर्ष बाद, 28 मई 1883 को, भागुर के पैतृक निवास में दामोदर और राधा के यहाँ
दूसरे पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम विनायक रखा गया, परंतु घर में सब उन्हें स्नेहपूर्वक
‘तात्या’ बुलाते थे। कमजोर और कृ शकाय राधाबाई को प्रजनन के दौरान गहरी पीड़ा से
गुजरना पड़ा था और ऐसा माना जा रहा था कि संभवतः उन्हें नवजात से हाथ धोना पड़ेगा।
1886 में राधाबाई ने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम मैना रखा गया। उन्हें सब ‘माई’
पुकारते थे। इसके दो वर्ष बाद उनके सबसे छोटे बच्चे, नारायण का जन्म हुआ। उन्हें ‘बल’
पुकारा जाता और वह सबके आकर्षण का कें द्र थे।
दामोदर का परिवार एक आदर्श परिवार था। युवा दम्पति रोज संध्या के दौरान दारना नदी
के किनारे टहलने जाते और उन्होंने कई खुशनुमा दोपहरें अपने बच्चों के साथ ताजे, रसीले
आम खाते हुए गुजारी थीं। युवा और संवेदनशील विनायक के लिए, स्थानीय खंडोबा और
गणपति के मंदिर, एक वृक्ष जिस पर से फल उतारते समय उनके पिता मूर्छित होकर गिर
पड़े थे, जीर्ण पड़ा एक मठ और दारना के किनारे स्थित बबूल के पेड़ जिसके फू ल खुली
बाहें पसारे पुकारते किसी नातेदार सरीखे लगते - यह सब स्थाई यादें बन कर रह गई थीं।
कई वर्षों बाद, अपनी मराठी कविता ‘गोमान्तक’ में उन्होंने अपने गाँव और उसके रमणीक
तथा यादगार दृश्यों से जुड़ी यादों को दोहराया था। वह सदा ही अपने विचारों और कल्पना
की उड़ानों में खोए रहते और उनमें से अधिकांश को कागज पर दर्ज करते।
अपने मित्रों के बीच विनायक सदा नायक की भांति रहते थे, एक रौबदार बालक जिसे
जनाकर्षण और प्रशंसा खासी लुभाती थी। ‘भागुर का छोटा जागीरदार’
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के तौर पर
मिलने वाला ‘आदर’ भी उन्हें बहुत पसंद आता और बचपन से ही वह अपनी ‘प्रजा’
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के
बीच बैठकर बनावटी अदालतें लगाया करते। गाँव-देहात से बैलगाड़ियों पर ताजा आम
और अन्य उपज लेकर आने वाले किसान भी इस युवा बालक का अभिवादन करना न
भूलते। वहीं, विनायक उनकी कड़ी मेहनत देख विभोर हो जाते और उन्हें छाँव में बैठाकर
उनके जलपान का प्रबंध करते। उन्हें ऐसा करते देख किसान डर जाते क्योंकि उन्हें लगता
कि अपने जागीरदार के घर में बैठा देखकर उन्हें सावरकर बंधुओं का कोपभाजन बनना
पड़ेगा। इस पर विनायक उनसे छाती ठोंककर कहते कि यदि किसी ने भी उन्हें धृष्टता करते
पकड़ा तो वह बेझिझक उसका नाम ले दें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। कु छ अवसरों पर
जब बापू काका वहाँ पहुँचे तो भयभीत किसान कहते कि तात्या ने उन्हें वहाँ बैठने को
मजबूर किया है। यह सुन बापू काका के चेहरे पर मुस्कान फै ल जाती और कहते, ‘अगर
छोटे जागीरदार ने तुम्हें अपने सम्मानित अतिथि के तौर पर यहाँ बैठने को कहा है तो मैं
तुम्हें यहाँ से हटाने की जुर्रत कै से कर सकता हूँ ? बैठो, बैठो, आनंद करो !’
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इतना कहते
ही वह चले जाते। ऐसे ही अवसरों से बालक की हिम्मत में वृद्धि होती।
दामोदर के नाना एक बहादुर योद्धा के तौर पर जाने जाते थे जिन्होंने कभी अश्वारोही
सेना की टुकड़ी का संचालन किया था। एक मौके पर उन्होंने डाकु ओं के एक समूह पर
हमला कर उन्हें हराया था जो अपने साथ आठ हाथों वाली ‘अष्टभुजा भवानी’
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की सुंदर
प्रतिमा ले जा रहे थे। दामोदर की माता इस प्रतिमा को अपने ससुराल ले आई थीं और उसे
वेदी पर स्थापित किया था। एक स्थानीय पुजारी के अनुसार देवी बहुत फल देने वाली थीं
और उन्हें प्रसन्न रखने के लिए प्रतिदिन पशु की बलि आवश्यक थी। सावरकर परिवार
ब्राह्मण होने के कारण विशुद्ध शाकाहारी था, इस कारण उन्होंने प्रतिमा को स्थानीय मंदिर
में स्थापित करा दिया ताकि दैनिक अनुष्ठान बिना रुके पूरे हो सकें । प्रतिवर्ष देवी की भव्य
यात्रा का आयोजन किया जाता। कई वर्षों बाद जब दामोदर ने नया निवास बनवाया, तो
उन्होंने पुजारियों की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए प्रतिमा को अपने घर पर कु लदेवी के
तौर पर स्थापित किया। 13
भवानी की प्रतिमा विनायक को बहुत आकर्षित करती और वह
कई पहर उसके सामने बैठकर मंत्रोच्चारण और उससे बातें किया करते। नवरात्रों केे
अवसर पर दामोदरपंत पूरी निष्ठा से व्रत रखते और प्रतिमा की साज-सज्जा और उस पर
भोज्य सामग्री, दीप, फू ल, धूप, नैवेद्य आदि चढ़ाते। इस अवसर पर विनायक शांत भाव से
उनके साथ बैठे रहते। दुर्गा सप्तशती
के पाठ के अवसर पर हर बार जब दामोदर उच्च स्वर
तथा विशुद्ध संस्कृ त में ‘नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः’ का उच्चारण करते, तो
विनायक रोमांचित हो उठते।
छह वर्ष की आयु में विनायक ने स्थानीय सरकारी विद्यालय में विधिवत शिक्षा लेनी
आरंभ की। इस दौरान, समाचार पत्रों से लेकर पुस्तकें तक पढ़ने में गहरी रुचि जिज्ञासु
बालक में घर करती गई थी। जल्दी ही उन्होंने खुद ही तीसरी कक्षा के स्तर की अंग्रेजी
सीखी ताकि वह घर में रखी किताबें पढ़ सके । उनके इस नैसर्गिक रुझान को उनके पिता ने
सहयोग दिया जो खुद अध्ययन में गहरी रुचि रखते थे। विनायक जब सात या आठ वर्ष के
थे, उस समय की एक अमिट याद उनके मन में बसी हुई थी। रात को खाने के बाद
दामोदरपंत सभी परिवारजनों को पास बुलाते। इसके बाद, रामायण, महाभारत से लेकर
मराठी तथा संस्कृ त के ग्रंथों जैसे राम विजय, हरि विजय, पांडव प्रताप, शिव लीलामृत,
जैमिनी अश्वमेध, भारत कथा संग्रह, के साथ-साथ शिवाजी, राणा प्रताप और पेशवाओं की
शौर्य कथाओं वाली भाखड़
(वृत्तांत) एवं पोवादस
(गाथाएं) का गहन पाठ आरंभ होता। इन
वाचनों से बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर अपनी धार्मिक और ऐतिहासिक चेतना की गहरी
समझ की छाप पड़ती। इसके पश्चात लंबा और गहरा विमर्श भी चलता जिसमें राधाबाई
और उनके चारों बच्चों को शामिल होकर अपने विचार रखने का मौका मिलता।
परंतु अपने बच्चों के मामले में दामोदरपंत कठोर अनुशासनवादी भी थे। वह बाबाराव को
अंग्रेजी पढ़ाते, जिसे समझना उनके लिए कठिन होता था। इस कारण दामोदरपंत कु छ
इतने नाराज हो जाते कि वह घर के आंगन में बाबाराव के कान पकड़ कर उन्हें दौड़ाते,
और तब तक उनसे शब्द याद करवाते जब कि वह उनका सही उच्चारण न कर दें। ऐसे में
तात्या हर बार अपने भाई की मदद को आगे आता। वह उन्हें पिता के कोप से बचाने के
लिए तुलसी के पौधे के पीछे छु पा दिया करता था। एक बार तात्या पर दामोदरपंत को कु छ
इतना क्रोध आया कि उन्होंने उसे अलमारी में बंद कर दिया। इसके बाद राधाबाई पूरे घर में
अपने बेटे की तलाश करते हुए बेहद परेशान रहीं और अंत में उन्हें तात्या अलमारी में
बेहोश मिला। यह देख उन्होंने अपने पति को बच्चों के साथ भविष्य में सख्ती न बरतने को
लेकर खरी-खरी सुनाई।
लेकिन खुशहाल परिवार की इस छवि को 1892 में अचानक चोट पहुँची। वह एक आम
दिन था जब समूचा परिवार अपने किसी पूर्वज का श्राद्ध कार्य कर रहा था। तीस की आयु
से कु छ ही अधिक राधाबाई को अचानक तेज बुखार ने आ घेरा। इसके बावजूद, उन्होंने
रसोईघर के अपने सभी कार्य पूरे किए, लेकिन उसके बाद वह तुरंत ही बेहोश हो गईं।
इसके बाद जल्दी ही उनकी नब्ज भी गिरती चली गई। जब दामोदरपंत नम आँखें लिए
उनके सिरहाने बैठे थे, राधाबाई ने अपने सभी बच्चों को बुलाया, उन्हें दुलारा और उनके
पिता को सांके तिक भाषा में उनका ध्यान रखने को कहा, और फिर जल्द ही, वह चल
बसीं।
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विनायक उस समय नौ वर्ष के थे और बाद में उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है
कि माँ के चेहरे की मद्धिम याद भी उनके जे़हन से मिट चुकी थी और यदि वह बाद में उनके
सामने सजीव भी आ खड़ी होतीं, तो संभवतः वह उन्हें नहीं पहचान पाते। भाग्य द्वारा
अपने और भाई-बहनों के साथ किए गए इस छल की गहनता को समझने के लिए भी वह
बहुत छोटे थे। माँ की अंत्येष्टि के बाद घर लौटते समय विनायक को याद आया कि एक
रिश्तेदार ने आलू की सब्जी बनाई है और उन्होंने उसे कु छ इतने स्वाद से खाया जो उन्हें
ताउम्र याद रहा। परंतु जाहिर था कि मातृशोक और उसके कारण किसी भी व्यक्ति के
जीवन में आने वाली रिक्तता चारों भाई-बहनों के जीवन में सदा बनी रही।
दामोदरपंत उस समय अपने परिवार के लिए एक तीन मंजिले भवन का निर्माण करा रहे
थे। उन्होंने उसे जल्दी पूरा कराया और पुराने घर में परेशान कर देने वाली यादों से दूर होने
के लिए जल्दी ही वहाँ चले गए। बापू काका पुराने घर में ही रहे। यह देखते हुए कि
दामोदरपंत अभी युवा हैं और उन पर चार बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी है,
हरेक शुभचिंतक उन्हें दोबारा विवाह करने की सलाह देता। परंतु वह इस विचार के घोर
खिलाफ थे और उन्होंने अपने बच्चों के लिए माता और पिता दोनों की भूमिका पूरी करने
का निर्णय किया ताकि बच्चे माँ की कमी महसूस न करें। व्यापार कार्य से लेकर रसोई
संभालना और बच्चों को सुलाने तक के कार्यों के लिए दामोदरपंत को अपनी दिनचर्या में
शीघ्र परिवर्तन लाना पड़ा। भाई-बहनों में सबसे बड़े होने के नाते बाबाराव को भी अपना
बचपन भुलाकर, इस कठिन दौर में जिम्मेदार वयस्क की भूमिका में आना पड़ा। वह प्रत्येक
कार्य में पूरी मेहनत से अपने पिता का हाथ बंटाते और खाना पकाने जैसे सभी कार्यों में
उनकी सहायता करते।
~
बचपन से ही, विनायक को हिन्दू समाज में फै ली जातिप्रथा की कु रीतियाँ कलंक समान
लगती थीं। अपने छोटे से स्तर पर उन्होंने कई बार इनका उल्लंघन भी किया। उच्चवर्ण
ब्राह्मण और जमींदार कु ल का होने के बावजूद, उनके सभी मित्र निर्धन और कथित निचली
जातियों से संबंध रखते थे। दर्जी समुदाय से आने वाले परशुराम दर्जी और राजाराम दर्जी
उनके घनिष्ठ मित्र थे। उनके पिता एक नौटंकी का संचालन करते थे जहाँ वह महिला पात्रों
की भूमिका निभाते और लावणी नामक मधुर गीत गाते। तीनों मित्र एक साथ खाना खाते
और उनके मित्रों की माता विनायक को अपने ही पुत्र की तरह स्नेह करतीं। स्थानीय भूमि
विभाग अधिकारी के पुत्र गोपालराव आनंदराव देसाई के अलावा, वामनराव धोपावकर,
बाबू कु लकर्णी, त्र्यम्बक दर्जी, बालू कु लकर्णी, भीखू बंजारी, सावलाराम सोनार, बापू और
नत्थू विनायक के अन्य निकटवर्ती मित्र और सहयोगी थे। एक काल्पनिक मंदिर का निर्माण
कर, उसमें अपने इष्टदेव को स्थापित करना और एक साथ उनकी पूजा में शामिल होना इन
बालकों का पसंदीदा शगल रहता। बाद में वह अपनी खिलौना पालकी की विधिवत यात्रा
भी निकालते। यह सभी बालक अपने प्रतिभाशाली मित्र विनायक में उभरती राजनीतिक
चेतना और क्रांति के फलते-फू लते बीज के भी साक्षी बने। विनायक अपनी आयु से कहीं
अधिक पढ़ाकू भी थे। अपने मित्रों के बीच बैठकर विनायक को अपने पसंदीदा समाचार
पत्रों और पुस्तकों को जोर-जोर से पढ़ने का भी शौक था ताकि सब एक साथ ज्ञानवर्धन
करें। अतः बहुत छोटी सी आयु से ही स्पर्धा की बजाय सामुदायिक रहन-सहन और
सामंजस्यता में प्रगति की भावना विनायक में गहरे घर कर गई थी।
तार्किक सोच का सहारा लेना और परंपराओं पर सवाल उठाना भी उन्होंने जल्दी ही
सीख लिया था। एक बार घर में एक रंग-बिरंगी पुस्तक हाथ लगते ही उन्होंने उसे पढ़ने की
ठानी, हालाँकि वह पुस्तक संस्कृ त में थी और उन्हें बहुत कम समझ आई। जब दामोदरपंत
को पता चला कि उनका बेटा आरण्यक
पढ़ रहा है तो वह कु पित हुए। उस समय यह
धारणा प्रबल थी कि घर में आरण्यक
पढ़ने वाले का भावी सामाजिक जीवन आहत होता
है, इसलिए उसे वन के एकांत में ही उसे पढ़ना चाहिए। इस सोच का विनायक पर गहरा
असर पड़ा। उन्हें हैरानी हुई कि उनके पिता जैसा बुद्धिमान पुरुष कै से अंधविश्वास में यकीन
रखता है ? इस भावना का उपहास करते हुए उन्होंने बिना किसी को बताए पुस्तक पढ़ना
जारी रखा और खुद को साबित किया कि यह के वल दकियानूसी और मनगढ़ंत बातें हैं।
बचपन से ही विनायक को इतिहास बहुत भाता था। पुस्तकों की अलमारी के शीर्ष में
रखी हुई ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड
उन्हें अपनी ओर ताकती दिखी तो उन्होंने लपक कर
उसे उठा लिया। दुर्भाग्यवश पुस्तक का पहला हिस्सा फटा हुआ था और अरब के इतिहास
से उसका आरंभ हो रहा था। इससे प्रत्येक सच्चे और व्यावहारिक इतिहासकार के समक्ष
आने वाली शाश्वत दुविधा उनके सामने भी आ खड़ी हुई। उनका युवा मस्तिष्क कु लबुलाने
लगा कि यदि इन विनष्ट पन्नों को पुनः जोड़ भी दिया जाए तो क्या फिर भी कथा के
‘आरंभ’ तक पहुँचा जा सकता है ? उन कथाओं का क्या होगा जो इस किताब में प्रकाशित
सभी घटनाओं से पहले घट चुकी थीं, और जिन्हें कभी लिखा नहीं जा सका ? क्या हम,
एक सभ्यता के तौर पर उन्हें हमेशा के लिए खो चुके हैं ? इतिहास-लेखन के प्रति उनके
इस दर्शन की झलक उनकी कविता ‘सप्तर्षि’ में मिलती है जिसमें वह पुरजोर तरीके से
कहते हैं कि यदि हमें विश्व इतिहास को समझना है तो उसका अंशमात्र ही मिलेगा, क्योंकि
उसका ‘आरंभ’ हमेशा के लिए विस्मृत रहेगा। ऐसे समय जब उनके अधिकांश सहपाठी
स्कू ली किताबों को पढ़ने के नाम से भी थर्राते थे, विनायक के युवा और उर्वर मस्तिष्क में
ऐसे विचार जड़ें बना रहे थे।
पुस्तकों की उसी अलमारी में उनके लिए कई और खजाने भी थे। 1874 से प्रकाशित हो
रही विष्णुशास्त्री कृ ष्णशास्त्री चिपलूणकर की मासिक निबंधमाला
ने उनका ध्यान अपनी
ओर खींचा। वह उनकी पसंदीदा पुस्तक साबित हुई। चिपलूणकर महाराष्ट्र में राष्ट्रवाद पर
जोर देने वाले मुखर प्रवक्ता थे। अपने इस प्रभावशाली कार्य के जरिये उन्होंने पूना के लोगों
को उनके गौरवशाली अतीत के बारे में बताकर अंग्रेजी शासन पर प्रश्न दागे थे। महाभारत
के अनुदित संस्करणों, के सरी समाचार के संस्करण, सद्धर्मदीप
नामक मासिक पत्रिका,
होमर के ग्रंथ इलियड
से लेकर मोरोपंत एवं वामन जैसे दिग्गज मराठी कवियों का काव्य
भी वहाँ था। विनायक ने पूरी निष्ठा से इन पुस्तकों का अध्ययन किया। यह सब कार्य उन्होंने
ग्यारह वर्ष की आयु से पहले ही कर लिए थे। उन्होंने समकालीन मुद्दों पर अपने निबंधों में
चिपलूणकर की शैली का अनुकरण किया।
विनायक के अंतर्मन में कविता का जन्म आठ वर्ष की आयु से होना शुरू हो गया था।
हालाँकि, उन्होंने मराठी के ओवी, फटका और आर्य काव्य छंदों का उपयोग किया परंतु
उन्हें सबसे अधिक मोरोपंत के आर्य छंद ने आकर्षित किया। दुर्भाग्यवश, उनके अध्यापकों
एवं स्कू ल हेडमास्टर ने उनकी काव्य प्रतिभा को नहीं समझा और उसे फितूर समझकर
खारिज कर दिया। हालाँकि एक शुरुआती हेडमास्टर जरूर विनायक की काव्य प्रतिभा के
प्रति संवेदनशील थे। वह एक ओर विनायक से अपने निजी काम कराते तो दूसरी ओर उन
पर गहरा विश्वास भी करते थे। विनायक को वह स्कू ल की मुहर का ध्यान रखने का सबसे
ज़रूरी कार्य सौंपते तो खुद दोपहर में झपकी लेने के लिए विनायक से स्कू ल की देखभाल
करने का हल्का-फु ल्का काम भी कराते। इसके बदले वह विनायक की आर्य छंद की
कविताएँ भी पूरे धैर्य के साथ सुनते थे। परंतु इनके बाद जो हेडमास्टर आए, वह स्वयं कवि
थे और विनायक के प्रति उन्हें विशेष विरक्ति भी थी। जब युवा बालक उनके पास अपनी
कविताएँ लेकर पहुँचा तो उन्हें एक नजर देख, उन्होंने उसे एक ओर फें क दिया और कहा
कि मात्र तुकबंदी से कोई कवि नहीं बन जाता। सावरकर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि
उन्हें जीवन भर इस बात का मलाल रहा कि काश, कोई स्नेहशील मार्गदर्शक इस दिशा में
उन्हें सही मार्ग दिखाता। परंतु हिम्मत न हार कर वह लिखते रहे और अपनी कविताओं को
विभिन्न समाचार पत्रों को भेजते रहे। उनके और पूरे परिवार के लिए वह क्षण बहुत
गौरवशाली था जब पहली बार उनकी कविता ‘स्वदेशी की फटकार’ समाचार पत्र जगत
हित्तेच्छु
में प्रकाशित हुई। यह पल उन सब को दिखने वाले आईने की तरह थी जो उनके
प्रयासों का उपहास करते थे। वहीं समाचार पत्र के संपादक इस तथ्य से अनजान थे कि
जिस कवि को उन्होंने प्रकाशित किया है, वह एक बारह वर्षीय बालक है !
धर्मग्रंथ, इतिहास, काव्य और महाकाव्यों को पढ़ने की अपनी आदत के कारण विनायक
कई बार अपने स्कू ली कार्य में पिछड़ जाते। परंतु इस समस्या से पार पाने के लिए उन्होंने
एक अनोखी विधि ईजाद की। जिस रोज स्कू ल का काम वह पूरा नहीं कर पाते, वह देर से
स्कू ल पहुँचते और सबसे पिछली सीट पर जा बैठते। जब तक उनकी बारी आती, वह कार्य
पूरा कर चुके होते, जबकि अन्य छात्र अभी अपने पर्चे जमा कराने की प्रक्रिया में ही होते।
विनायक अव्वल दर्जा हासिल कर अध्यापकों की वाहवाही बटोरते।
समाचार पत्र पढ़ने की विनायक की आदत ने उन्हें तत्कालीन महाराष्ट्र और देश भर के
घटनाक्रमों से अवगत कराया। वह खासा उथल-पुथल भरा समय था, जिसके प्रत्येक पक्ष
में उनकी गहरी रुचि थी।
महाराष्ट्र का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य
1818 के बाद महाराष्ट्र की जमीन पर जो महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय परिवर्तन आया, वह
था, पूर्ववर्ती पेशवा शक्ति की राजधानी पूना की लोक प्रतिष्ठा के मामले में आई कमी।
अनेक धनिक सावकर (बैंकर) परिवार, जिनके निजी कोष भरे रहते थे, का महत्व एकाएक
समाप्त हो गया था। छिन्न-भिन्न पेशवा सेना के सदस्य बेरोजगार हो गए थे। पूना के स्थान
पर, बंबई आधुनिक महानगरीय स्वरूप और आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण कें द्र बनकर
उभरने लगा। 1830 के दशक में शुरू हुए चीन के साथ अंग्रेजों के व्यापार के बाद, बंबई
लिवरपूल से लेकर के न्टन तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की वास्तविक जीवनरेखा का सेतु
साबित हुआ। यहाँ कपड़ा उद्योग की नींव पड़ी। सूत का पहला कारखाना 1851 में
कवासजी दावर ने स्थापित किया, 1880 तक कारखानों की संख्या 43 और 1885 तक यह
आंकड़ा 73 तक जा पहुँचा।
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महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि इस आर्थिक पुनरुद्धार के कर्ता-
धर्ता अधिकांशतः गैर-मराठा थे। अंग्रेज, पारसी, भाटिया और खोजा का बंबई के कपड़ा
उद्योग पर एकाधिकार था, जबकि मराठी भाषी कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों
तक ही सीमित रह गए थे, उनकी हालत बदतर हो चली थी। जब बंबई के गवर्नर
मॉनस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने शैक्षणिक संस्थानों के समूह की स्थापना की, तो शिक्षा क्षेत्र में भी
बंबई ने मोर्चा फतेह कर लिया था। बाद में, 1870 के दशक में जाकर पूना ने सामाजिक-
राजनीतिक परिदृश्य में हर दूसरे मुद्दे पर बंबई के बरक्स विकल्प स्थापित करने शुरू किए।
एक ओर जहाँ बंबई, विभिन्न मुद्दों पर प्रगतिशील, मुक्त और मध्यमार्गी विचार रखता था,
वहीं पूना में पारंपरिक और यहाँ तक कि अतिवादी सोच का बोलबाला दिखता था।
महाराष्ट्र की सांस्कृ तिक राजधानी की धुरी को पूना की ओर घुमाने में जिन प्रवर्तकों की
भूमिका रही, उनमें एक महत्वपूर्ण नाम न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901)
का था, जिन्होंने इस कार्य की बुनियाद अपने तबादले के बाद पूना में 1871 में रखी थी।
महादेव गोविंद रानाडे उदारपंथी थे और बंबई उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के तौर पर
कार्यरत थे और वह महिला शिक्षा तथा विधवा विवाह के संबंध में प्रचलित पुरातनवादी
विचारों को दूर करने में लंबे समय से प्रयासरत थे। अनेक सामाजिक, राजनीतिक और
सांस्कृ तिक संस्थाओं से जुड़ाव और अपने विस्तृत लेखन के दम पर उन्होंने सामाजिक
सुधार और अंग्रेजी शासन के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और स्वदेशी तथा देसी
प्रयासों से औद्योगिक एवं आर्थिक निवेष के पक्षधर थे। इसी दौरान, 1870 में पूना में गणेश
वासुदेव जोशी (लोकप्रिय नाम सार्वजनिक काका) के नेतृत्व में सार्वजनिक सभा की
स्थापना हुई जो पूना के बौद्धिक वर्ग, और उसके मार्फ त प्रेसिडेंसी की समूची मराठी भाषी
जनता की आवाज बनी। प्रशासन से लेकर अकाल राहत और समाज सुधार तक के कार्यों
में सरकार को निरंतर ज्ञापन देने वाली इस सभा ने महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में पूना
से जुड़ा नया अध्याय लिखा और रानाडे इसके अटूट अंग बन गए।
1880 में विष्णुशास्त्री कृ ष्णशास्त्री चिपलूणकर से प्रेरित युवा स्नातकों ने पूना में न्यू
इंग्लिश स्कू ल की स्थापना की। इसका प्रमुख लक्ष्य अंग्रेजी शिक्षा को समाज में सर्वसुलभ
बनाना था। वित्त की समस्या से पार पाने के लिए उन्होंने अनोखी विधि अपनाई।
अध्यापकों ने बिना मेहनताना लिए काम करना स्वीकार किया। डेक्कन स्टार
के संपादक
एमबी नामजोशी ने समाचार पत्र को स्कू ल के साथ जोड़ दिया। स्थानीय भाषी एक अन्य
समाचार पत्र भी उन्हें अपना सहयोग दे रहा था। समाचार पत्रों से होने वाले लाभ को स्कू ल
की गतिविधियों में सहयोग हेतु इस्तेमाल किया जाना था। 1881 के पूर्वाद्ध में, चिपलूणकर
जी के नेतृत्व में, बाल गंगाधर तिलक ने स्कू ल की गतिविधियों की अगुवाई की।
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एक
उत्साही युवा, गोपाल गणेश अगरकर भी जल्द ही उनसे आ जुड़े। उन्होंने दो समाचार पत्रों
- मराठा और के सरी
- का प्रकाशन आरंभ किया। कु छ ही समय में स्कू ल आर्थिक तौर पर
सफल और सक्षम हो गया। इससे इसके संस्थापकों को 1884 में डेक्कन एजुके शन
सोसाइटी और उसी वर्ष के अंत में फर्यग्युसन काॅलेज की स्थापना करने की प्रेरणा मिली।
हालाँकि जो विभूतियाँ शिक्षा प्रसार के व्यापक लक्ष्य को लेकर एक मंच पर आई थीं,
उनमें, विशेषकर तिलक और अगरकर के बीच वैचारिक मतभेद उभर कर सामने आने
लगे। जहाँ एक ओर के सरी
के आलेख समाज सुधार और हिन्दू समाज के प्रति सरकार को
कानून बनाने के पक्ष में कहते, वहीं उसी सप्ताह मराठा
में तिलक की लेखनी इसके ठीक
विपरीत आवाज़ बुलंद करती।
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प्रत्येक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे पर उनके विरोधी
पक्ष जनता के सामने होते। अंततः 1888 में, तंग आकर अगरकर ने एक अंग्रेजी भाषी
समाचार पत्र सुधारक
की शुरुआत की। इस कार्य में एक युवा सहयोगी, गोपालकृ ष्ण
गोखले उनके साथ थे जो 1886 में सभा से जुड़े थे। वैचारिक बहस से उपजी गर्मी के
कारण अगरकर ने कई तीखे पत्र लिखे जिसमें उन्होंने तिलक के बर्ताव की भर्त्सना करते
हुए उन पर ‘अनेक सामाजिक कार्यों, जन भावना, मैत्री, ईमानदारी और एकता की कीमत
पर स्वयं के महिमामंडन’ का आक्षेप लगाया।
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अंततः अब तक साथी रहे दोनों पुरोधाओं
के बीच की कटुता खुलकर सभा के सामने आ गई जिसमें इंदौर के होल्कर महाराजा द्वारा
सभा को दिए गए अनुदान के अगरकर द्वारा दुरुपयोग पर भी चर्चा हुई।
19
इस संबंध में
एक गर्मागर्म बैठक के बाद तिलक ने इस्तीफा दे दिया। सहयोगियों को अपने विचारों,
नेतृत्व और असर में लाने में असफल होने पर निराश होकर तिलक सभा से अलग हो गए।
परंतु जाते हुए वह अपने साथ दोनों समाचार पत्रों - मराठा
और के सरी
के अधिकार भी
लेते गए। ये दोनों समाचार पत्र उनके साथ धोखा करने वालों के खिलाफ मोर्चा खोलने में
उनके लिए अमूल्य औजार साबित हुए और इन्हीं के दम पर उन्होंने दक्कन की राजनीति में
अपनी राजनीतिक कु शलता और असर का लोहा भी मनवाया। इसके बाद, मध्यमार्गी,
उदारवादी और आत्मालोचक सुधारक तथा हिन्दू चेतना, उग्र राष्ट्रवादी और उग्रपंथी विचारों
वाले परस्पर विरोधी वैचारिक धड़ों के बीच युद्ध रेखाएं स्पष्ट हो गई।
अपने समाचार पत्रों और राजनीतिक गतिविधियों के दम पर, तिलक ने तत्कालीन समाज
में हिन्दू धर्म के साथ-साथ महाराष्ट्र की ऐतिहासिक विभूतियों को प्रासंगिकता दिलाने की
अनोखी युक्ति अपनाई। खुद को राष्ट्रवादी मूल्यों के प्रहरी के तौर पर रखते हुए, उनके
समाचार पत्रों ने हिन्दू समाज के पतनशील वर्तमान के समक्ष उसके समृद्ध अतीत को
रखते हुए, भविष्य की सुनहरी झलक की उम्मीद भी रखी। 1891 के विवादास्पद स्कोबल
कानून के विरोध की अगुवाई करने पर भी उनकी प्रसिद्धि फै ली थी। इस कानून, जिसे ‘द
एज ऑफ कन्सेंट एक्ट’ भी कहा जाता है, के अंतर्गत बारह वर्ष की आयु से पहले हिन्दू
लड़कियों का विवाह करना दंडनीय अपराध घोषित किया गया था। यह कानून रानाडे,
गोखले, अगरकर और अन्य के सुधार कार्यों का नतीजा था। तिलक का कहना था कि
इसकी संवेदनशीलता और पारंपरिक मराठी समाज में उसके असर को देखते हुए अंग्रेज
इसके माध्यम से हिंदुओं के सामाजिक और धार्मिक जीवन में दखल दे रहे हैं। इस आधार
पर उनकी प्रसिद्धि में भारी इजाफा हुआ।
तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति पूजन महोत्सव को भी अपना समर्थन दिया। 1818 में
पेशवाओं की हार के बाद, जन महोत्सव समाप्त हो गए थे, परंतु मंदिरों और घरों में ही
शांतिपूर्वक इनका आयोजन होता रहा था। उसके बाद, 1890 के दशक में विशाल
जनसमूहों के लिए इन आयोजनों का पुनर्संचार आरंभ हुआ जो दस वर्ष तक चला। पूना के
जाने-माने आयुर्वेदाचार्य भाऊसाहब लक्ष्मण जवले और उनके कु छ मित्रों, दग्धुसेठ हलवाई,
नानासाहेब खसगीवले, महर्षि अन्नासाहेब पटवर्धन, बालासाहेब नटु, गणपतराव घोरवड़ेकर
और लक्षुसेठ दंताले ने 1892 में पूना में एक छोटा सा पंडाल स्थापित कर गणपति उत्सव
का आयोजन आरंभ किया था। इस संगठन को भाऊ रंगरी गणपति मंडल का नाम दिया
गया। हिन्दू समुदाय को एकजुट करने के इस प्रयास को तिलक ने अपनी मंजूरी दी थी।
उन्होंने महोत्सव के बारे में अपने समाचार पत्रों में सूचना प्रकाशित करते हुए इसे व्यापक
स्तर प्रदान किया। इसके बाद वह गणेश महोत्सवों की सबसे जानी-मानी हस्ती बन गए।
1894 में तिलक ने विन्चर्क वाडा में अपने समाचार पत्र के सरी
के प्रेस के एक कोने में
विशाल गणपति महोत्सव का आरंभ किया। इसके आधार पर उन्हें धार्मिक महोत्सव के
बहाने, विशाल जनसमूह को एकत्र करने पर रोक लगाने वाले उस अंग्रेजी औपनिवेशिक
कानून से बचने और अपने विचार व्यक्त करने का भी रास्ता मिल गया। महोत्सव की
अधिकांश प्रतिमाओं में गणपति एक दैत्य का संहार करते हुए नायक की मुद्रा में दिखते।
धार्मिक इष्ट की प्रतिमा के इस माध्यम से ढका-छु पा राजनीतिक संदेश भी प्रसारित हो
जाता, जिसमें स्वतंत्रता के मार्ग में आ रही अड़चन को दूर करते हुए गणपति और संहारित
दैत्य को अंग्रेजों का मूर्तिमान रूप माना जाता।
परंतु उन्हीं दिनों, उदारवादी सुधारकों के संयमित अनुरोधों प्रतिनिधिमंडलों, भव्य
कार्यक्रमों और उग्र राष्ट्रवादी कृ त्यों से परे चुपचाप एक तीसरी राजनीतिक सोच भी
विकसित हो रही थी। यह समूह सशस्त्र क्रांति के बल पर अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फें कने
का पक्षधर था। उनकी जड़ें 1857 के कु चले गए सशस्त्र संघर्ष में दबी थीं और उनका
विश्वास था कि ब्रिटिश भारतीय सेना में विद्रोह ही देश को आज़ाद करने का एकमात्र रास्ता
है। उस दौरान महाराष्ट्र के राजनीतिक फलक पर सशस्त्र भारतीय विद्रोह के एक संस्थापक
के रूप में वासुदेव बलवंत फड़के (1845-83) का तेजी से उदय हुआ। वह रानाडे, गोखले
और तिलक की तरह ही चितपावन ब्राह्मण थे और समुचित अंग्रेजी शिक्षा के आधार पर
उन्होंने सरकारी नौकरी भी हासिल की थी। उन्होंने भारतीय तटवर्ती रेलवे के लेखा विभाग
में एक क्लर्क के तौर पर काम शुरू किया था और जल्दी ही उन्हें तरक्की देकर सैन्य लेखा
अधिकारी के अंतर्गत सैन्य वित्त कार्यालय में भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने पंद्रह वर्षों तक
काम किया। पूना में वह पहले रानाडे के अनुयायी और सार्वजनिक सभा के सदस्य के रूप
में स्वदेशी के सहयोगी थे। पूना में 1874 में पहले गैर-सरकारी स्कू ल के आरंभ से लेकर
दूर-दराज के अकाल प्रभावित क्षेत्रों में राहत पहुँचाने के लिए युवा एकता कै म्पों के
आयोजन करने तक, फड़के में राष्ट्रवाद की भावना कू ट-कू ट कर भरी थी। फड़के के
प्रभावशाली भाषणों में उनके राजनीतिक विचार सुनने के लिए पूना के लोग भारी संख्या में
पहुँचते।
परंतु 1876-77 के भीषण अकाल और इस विपदा के जवाब में अंग्रेजी सरकार की
निष्क्रियता और साथ ही राष्ट्रवादियों द्वारा सरकार पर इस बारे में समुचित जोर न दिए जाने
के कारण, फड़के राजनीतिक गतिविधियों से विमुख हो गए जिनमें वह अब तक पूरे
उत्साह से हिस्सा लेते थे। लेकिन उनके जीवन में असली मोड़ एक निजी त्रासदी के रूप में
तब सामने आया जब उनके अधिकारी ने उन्हें बीमार माँ को देखने के लिए उनके गाँव
शिरडन नहीं जाने दिया। लेकिन उस प्रतिबंध को धता बताते हुए वह अपने गाँव पहुँच गए।
परंतु उनके वहाँ पहुँचने से पहले ही उनकी माँ का निधन हो चुका था। उन्हें अहसास हुआ
कि ऐसी सेवा, निष्ठा और विवेकशीलता का क्या मूल्य जब वह अपने सबसे प्रिय व्यक्ति से
ही उसके अंतिम पलों में नहीं मिल सके ? अपनी शिकायत की किसी असरकारी सुनवाई
के अभाव और मातृशोक के फलस्वरूप उन्होंने एक गोपनीय क्रांतिकारी दल का गठन
किया। दल के एक कनिष्ठ सदस्य गंगाधर विष्णु जोशी ने संगठन की कार्यविधि का वर्णन
किया:
संगठन में चार समूह थे। पहला समूह स्कू लों से बाहर गुप्त स्थानों पर, अध्यापकों की
नजरें बचाकर स्कू ली बालकों की सभा आयोजित करता था। संगठन के इन आयोजनों
में प्रवक्ता आज़ादी का संदेश देता था। दूसरा समूह देशभक्ति के गीत गाता जिनमें
मुख्यतः संत तुकाराम और रामदास की प्रार्थनाएं होतीं। दिन के बीच में तीसरे समूह से
जुड़े उपदेशक विदेशी शासन के अंतर्गत देश की बदहाली पर व्यंग्यात्मक गीत गाते।
लोग अक्सर इन गायकों को सुनने के लिए उन्हें अपने घरों में भी बुलाते। चौथा समूह
क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न सक्रिय सदस्यों का था। संगठन के सदस्यों को
गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती थी, जिसमें वह कहते, ‘मैं राष्ट्र की पुकार का उत्तर
दूँगा, मातृभूमि के लिए अपना सबकु छ न्योछावर कर दूँगा।’ पूना शहर के बाहर स्थित
मंदिर के आगे वासुदेव द्वारा दिए जाने वाले तलवारबाजी का प्रशिक्षण लेने के लिए
प्रतिदिन साठ से सत्तर युवा रोज जमा रहते। इनमें विद्यार्थी, अध्यापक, सरकारी
कर्मचारी और जनसेवक होते। वासुदेव की दूसरी पत्नी, बाई साहेब फड़के भी संगठन
की सदस्य थीं और यहाँ तक कहा जाता है कि उस समय किशोरवय बाल गंगाधर
तिलक भी लगातार संगठन की गतिविधियों में शामिल होते थे।
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संगठन के सदस्य पूना में फर्ग्यूसन काॅलेज के निकट की पहाड़ी में अपनी क्षमताएं
आजमाने के लिए अस्त्र-शस्त्र और असलहा एकत्र कर छद्म युद्धाभ्यास करते। दुश्मन पर
हमला करने के लिए गुरिल्ला युद्धनीति अपनाने और आज़ाद देश की उनकी कल्पना में
शिवाजी महाराज उनके शाश्वत आदर्श थे। इसके बाद जल्दी ही फड़के ने अपने अभियान
के लिए पैसा बटोरने के लक्ष्य से महाराष्ट्र में कई राजनीतिक डकै तियों को अंजाम दिया,
जिसके लिए उन्होंने अनेक पिछड़ी जातियों जैसे रमोशी, कोली और ढांगर को एकजुट
किया था। उनके लक्ष्य धनी व्यापारी और वणिक वर्ग होते, हालाँकि वह महिलाओं को
आहत नहीं करते थे। मई 1879 में फड़के ने कोंकण क्षेत्र के नेरे, चिखली और पलस्पे में
अपना अभियान क्रियान्वित किया जिस दौरान उनके हाथ रुपये 150,000 से अधिक की
राशि आई। परंतु कोंकण से लौटते समय, मवाल प्रांत की तुलसी घाटी में एक गंभीर
मुठभेड़ के बाद मेजर डेनियल ने क्रांतिकारियों को पकड़कर उनकी राशि जब्त कर ली।
इस दौरान दल के नेता दौलतराव नायक को प्राण गंवाने पड़े। बाद में अंग्रेज सरकार ने
विभिन्न क्षेत्रों में फड़के को पकड़ने पर ईनाम की घोषणा की।
इसके जवाब में, फड़के ने बंबई के गवर्नर सर रिचर्ड टैम्पल, पूना के कलेक्टर और सेशन्स
जज का सिर काट कर लाने वाले को दोगुना ईनाम दिए जाने की घोषणा कर दी। उन्होंने
यह ऐलान स्वघोषित ‘पेशवाओं का नया प्रधान ’ के तौर पर किया। उन्होंने यह भी घोषित
किया कि उनके इस कार्य से देश भर में विद्रोह भड़क उठे गा और 1857 की क्रांति की
पुनरावृत्ति होगी। इस ऐलान को पूना की प्रमुख इमारतों और दीवारों पर चिपका दिया
गया। उसी समय, 13 मई, 1879 की रात को उनके क्रांतिकारियों ने पूना में दो बडे़
यूरोपियन बंगलों - विश्रामबाग वाडा और बुधवार वाडा को आग के हवाले कर दिया जिसमें
सरकारी दस्तावेज जलकर राख हो गए।
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इन घटनाओं पर लंदन और वहाँ की संसद तक
में हंगामा हुआ। सकते में आ गई वहाँ की प्रेस ने पूना में मार्शल लॉ लगाने की मांग की।
डेली टेलिग्राफ, माॅर्निंग पोस्ट, द टाइम्स, बॉम्बे गैजेट
और अन्य कई समाचार पत्रों के
अनुसार सरकार अपने सपनों की दुनिया में खोई थी जबकि समाज में असंतोष की भावना
गहरे सुलग रही है। बॉम्बे गैजेट
ने गहरी चिंता के साथ लिखा:
पिछले कु छ महीनों में पश्चिमी भारत के बारे में फै ली अफवाहों की अब बाकायदा पुष्टि
हो गई है। इन अफवाहों को कु छ लोगों की महत्वाकांक्षा से जोड़ा जा सकता है जो
पश्चिमी भारत में अतीत में प्रयुक्त शिवाजी की नीतियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास
कर रहे हैं, जिनके आधार पर वह उस समय के मजबूत मुगल साम्राज्य की चूलें हिला
देने में कामयाब हुए थे। ऐसे में एक छोटा सा मार्शल लॉ पूना के हित में ही होगा। विद्रोह
इतने भयावह रूप में इसलिए पहुँचा है क्योंकि हमने उसे शुरू में नजरअंदाज किया।
अब ऐसी गलती के लिए पूना में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
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वायसरॉय लिटन को 3 जुलाई 1879 को लिखे पत्र में सर रिचर्ड टैम्पल ने फड़के की इन
गतिविधियों का सविस्तार वर्णन किया है। सरकारी महकमे में नौकरी करता हुआ कोई
व्यक्ति सरकार के खिलाफ इतनी कड़वाहट से सशस्त्र विद्रोह पर उतर आए, यह सोचकर
अंग्रेजी सरकार की नींदें उड़ गई थीं। लंदन में भी यह झूठ सीधा सरकार के मुँह पर आ
गिरा जिसके अंतर्गत उसने भारत में सब ठीक होने का दावा ठोंका था। साथ ही, 1858 में
महारानी की उद्घोषणा और उसके बाद के प्रशासनिक ‘सुधार’ की भी पोल खुल गई थी।
फड़के इन असफलताओं की जीती-जागती मिसाल थे और उन पर हर हालत में काबू पाना
ज़रूरी हो गया था।
हालाँकि, इसके तुरंत बाद रमोशी समुदाय फड़के से अलग हो गया। अपनी डायरी के
कु छ पन्नों में फड़के बड़ी निराशा से उनके बारे में लिखते हैं:
पिछले दस दिनों की घटनाएँ देखकर मैं सोच रहा हूँ कि इसका अंत क्या होगा और मैं
ऐसे लोगों (रमोशियों) के साथ किसी लक्ष्य की प्राप्ति कै से कर पाऊँ गा जो डकै ती के
लिए पहले सबको लूटते हैं और फिर सब लूट लेकर भाग निकलते हैं और फिर अपने
हिस्से के बंटवारे के लिए जोर डालते हैं। जिसके बाद वह अपने घर पहुँचने की जल्दी
दिखाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में दो सौ लोगों को कै से एकत्र किया जा सकता है ?
...यदि मेरे साथ दो सौ लोग होते तो मैं खेद का खजाना लूट लेता, जहाँ आजकल
राजस्व इकट्ठा किया जा रहा है और यदि मेरे पास अधिक धन होता तो मैं 500 घोड़ों
का भी इस्तेमाल करता। निर्धनता में कोई घोड़े नहीं रख सकता। यदि मेरे पास
घुड़सवार होते तो वह भरोसेमंद होते, रमोशियों जैसे धोखेबाज नहीं... वह (रमोशी)
बंदूकों का सामना करने से डरते हैं और धन के घोर लोभी हैं।
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आसानी से हार न मानने वाले फड़के नेे लिंगायत योद्धाओं को, गोदावरी के रम्पा विद्रोहियों
को और दक्षिण के सभी राज्यों में अपने दूत भेजे। उन्होंने अपने भरोसेमंद साथी, भास्कर
ज्योतिषी को गुप्त अभियान पर बनारस भेजा और अरबों के नेता हैदराबाद के मौलवी
मोहम्मद साहब से और हैदराबाद के निजाम की सेवा में रहे सिखों तथा रोहिल्लों से सैन्य
मदद की गुहार की। भारत भर में एक साथ विद्रोह की चिंगारी फै लाने के लक्ष्य को मूर्तरूप
देने के लिए देश भर में फै ले अपने सभी साथियों को बुला भेजा। उनका लक्ष्य रेल और
डाक व्यवस्था को आहत करना और जेलें तोड़कर कै दियों को क्रांतिकारी जामा पहनाना
था। वह लिखते हैं:
एक सावकर से 5000 रुपये प्राप्त कर मैंने महीने भर पहले ही सभी दिशाओं में तीन या
चार व्यक्तियों को भेजने का प्रस्ताव रखा, ताकि वह छोटे गुट बना सकें और उससे
अंग्रेजों के मन में गहरा डर समा जाएगा। डाक व्यवस्था रुक जाएगी और रेलवे तथा
तार में भी रुकावट पहुँचेगी, ताकि एक से दूसरे स्थान तक संदेश न पहुँच सके । उसके
बाद जेलें तोड़ी जाएंगी ताकि लंबी सज़ा काट रहे कै दी मेरे साथ आ मिलें क्योंकि यदि
अंग्रेज सरकार रही तो वह कभी बाहर न आएंगे। यदि मैं 200 आदमियों को खड़ा कर
देता हूँ, तो मैं खजाना बेशक न लूट सकूं , मुजरिमों को बाहर निकालने की मेरी मंशा तो
सामने आ ही जाएगी। सेना कहां और कितनी संख्या में है, यह तो न पता चलेगा, परंतु
हजारों अशिक्षित व्यक्ति जरूर इकट्ठा हो जाएंगे। यह अच्छा होगा और मेरी मंशा पूरी
होगी... जब एक बच्चा जन्म लेता है, वह पानी की एक बूंद के समान होता है, बड़े होने
पर वह अपनी इच्छा पूरी करता है, परंतु क्या एक या पांच वर्ष के अरसे में ही वह ऐसा
कु छ कर पाता है ? किसी ‘दल’ के साथ भी ऐसा ही कु छ होता है ! बेशक वह छोटा हो,
यदि नींव ठीक है तो वह बढ़ेगा और इस निरंकु श सरकार से जीतेगा। लोगों में खिन्नता
(अंग्रेज सरकार के प्रति) गहरे पैठ कर गई है और यदि कु छ लोग मिलकर शुरुआत करें
तो भूखे पेट वाले इसमें जल्दी ही आ जुड़ेंगे। कई लोग इससे जुड़ना चाहते हैं और
इसका नतीजा अंततः अच्छा ही होगा।
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डेक्कन स्टार
और बोध सुधाकर
जैसे तत्कालीन समाचार पत्र वासुदेव बलवंत फड़के की
गतिविधियों को अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ कर देखने पर मजबूर हो गए थे। 13
दिसंबर 1879 में बोध सुधाकर में अफसोस जताया गया:
हमें विश्वास है कि जो लोग वाशिंगटन की प्रशंसा और वाहवाही करते हैं, वासुदेव
बलवंत के मामले में भी वे ऐसा ही करेंगे, परंतु भारत के बाशिंदे देशभक्ति के विचार से
ही विमुख हो चुके हैं और यहाँ ऐसा कोई नहीं जो उसकी तारीफ करे। वाशिंगटन की
नीति को उसके देशवासियों ने पूरी तरह से समझा था परंतु वासुदेव बलवंत की
योजनाएं उसके अनुयायियों की भी समझ से बाहर हैं... वासुदेव बलवंत एक संघीय
सरकार की नींव डालना चाहते हैं परंतु इस लक्ष्य की पूर्ति तब तक सरल नहीं है जब
तक कि लोग भी उसकी ही सोच वाले न हों।
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इसके बाद परिस्थितियाँ फड़के के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होती गईं। ब्रिटिश सरकार इस
समस्याजन्य ‘दस्यु’ को पकड़ने के लिए निकल पड़ी थी। सोलापुर-कर्नाटक की सीमा पर
गंगापुर में उन्हें चारों ओर से घेर लिया गया और अंततः वह गिरफ्तार कर लिए गए। एडन
के किले में उन पर मुकदमा चला और उम्रकै द की सज़ा सुनाई गई। उन्होंने निकल भागने
का असफल प्रयास किया और 17 फरवरी 1883 को भूख हड़ताल करते हुए उन्होंने दम
तोड़ दिया।
उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अमृत बाजार पत्रिका
के संपादक ने लिखा:
वासुदेव बलवंत फड़के में उन महान विभूतियों के कई गुण विद्यमान थे जिन्हें यदा-कदा
इस दुनिया में महान लक्ष्यों को पूरा करने हेतु भेजा जाता है... वाशिंगटन, टेल
(स्विटजरलैंड के नायक) और गैरीबाल्डी की उदात्त भावनाएं उनके सीने में समायी थीं...
उनका हृदय भारत प्रेम से छलक रहा था। अपने जीवन सहित उनके पास जो कु छ था,
वह उसे अपने देश पर न्योछावर करने को तैयार थे। संघीय राज्य का विचार ही उनके
मस्तिष्क की स्वार्थहीन मंशा को दर्शाता था। वह अपने तरीके का कोई राज स्थापित
नहीं करना चाहते थे... एक पल को भूल जाएँ कि फड़के ने डाकु ओं की टोली का नेतृत्व
किया और वह अंग्रेज सरकार को उखाड़ फें कना चाहते थे, तो भी वह आपको आम
मानव भीड़ से उतने ही ऊं चे नजर आएंगे जैसे सतपुड़ा पर्वतमाला के समक्ष हिमालय।
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फड़के किस तरह का ‘गणराज्य’ स्थापित करना चाहते थे, इसके बारे में पक्के तौर पर
कु छ नहीं कहा जा सकता। लेकिन तत्कालीन समाचार पत्रों के आधार पर निष्कर्ष निकाला
जा सकता है कि वह अमेरिकी गणराज्य से गहरे तौर पर प्रेरित थे और नए आज़ाद भारत
को उसी अनुरूप देखना चाहते थे। अतः यह के वल कोरी लूटपाट या डकै ती ही नहीं थी
जिसमें फड़के जैसे क्रांतिकारी शामिल थे। अंग्रेज सरकार को बलपूर्वक उखाड़ फें कने के
बाद उसके स्थान पर वह विकल्प के रूप में एक व्यापक ढांचा खड़ा करना चाहते थे।
बेशक फड़के का विद्रोह कु चल दिया गया, परंतु सशस्त्र क्रांति की भावना जीवित रही।
कु छ समय के लिए वह बेशक नेतृत्वहीन रही, परंतु चिन्गारी बुझी नहीं। भारत और
भारतीयों को हथियारबंद करके ही अंग्रेजों से सत्ता छीनी जा सकती है, यह विचार जोर
पकड़ रहा था। विचार को तिलक द्वारा मिले सहयोग और प्रेरणा से इस दिशा में लामबंदी
शुरू हो गई। 1894 तक महाराष्ट्र में नई भावना के साथ कई गुप्त संगठन सक्रिय हो गए थे।
इन विस्फोटक परिस्थितियों से जुड़ा एक निष्कर्ष अल्पसंख्यक अंग्रेजों के दिमाग में भी
उमड़ रहा था कि किसी भी तरह भारतीयों का दिल जीता जाए ताकि 1857 जैसी घटना
की पुनरावृत्ति न हो। एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम (1829-1912) ऐसे ही एक अंग्रेज प्रशासनिक
अधिकारी और नीति निर्माता थे। इटावा के कलेक्टर के तौर पर वह 1857 के विद्रोह की
भयावहता के साक्षी रहे थे। 1857 में अंग्रेज अधिकारियों को ढूंढ़ रहे रक्तपिपासु
क्रांतिकारियों से बचने के लिए चमड़ी पर काला रंग लगाना और साड़ी और बुरका पहन
कर बच निकलने की मजबूरी ने उन पर गहरा असर छोड़ा था। वह लॉर्ड लिटन के कटु
आलोचक भी थे जिनके निष्क्रिय कार्यकाल के अंत में विध्वंसकारी अकाल, सीमांत युद्ध
और प्रशासनिक अनिश्चितता ने अंग्रेजी सरकार के लिए चारों ओर मायूसी का माहौल पैदा
कर दिया था। उसी दौरान अपनी सेवानिवृत्ति के समय ह्यूम कु छ ऐसा करना चाहते थे
जिससे ‘अचानक होने वाली छिटपुट हिंसक आपराधिक घटनाएँ, घृणित लोगों की हत्या,
बैंक डकै तियाँ और बाजारों में लूटखसोट’ मिलजुल कर ‘राष्ट्रीय विद्रोह का रूप’ न लें,
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जैसी कि संभावना थी।
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उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि अंग्रेजी सरकार में ‘अपनी
जनता के प्रति यदि घृणा नहीं तो सोची-समझी और परिष्कृ त उदासीनता’ मौजूद थी।
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वह सरकार और प्रजा के मध्य एक सांगठनिक संवाद धारा को स्थापित किया जाना ज़रूरी
समझते थे। इसलिए यह विचार पेश किया गया कि देश भर में फै ले सार्वजनिक संगठनों,
जैसे रानाडे की सार्वजनिक सभा, फिरोजशाह मेहता, नाना शंकर सेठ, जस्टिस तैलंग और
बदरुद्दीन तैयबजी जैसे सदस्यों वाली बॉम्बे प्रेसिडेंसी एसोसिएशन और बंगाल में सुरेंद्रनाथ
बनर्जी की इंडियन नेशनल एसोसिएशन (आईएनए) को जोड़ कर एक अखिल भारतीय
मंच स्थापित किया जाए।
नतीजतन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ और 28 दिसंबर 1885 को बंबई में
उसका पहला सत्र आयोजित किया गया जिसमें 72 प्रतिनिधि शामिल हुए। ह्यूम को
महासचिव और कोलकाता के व्योमेश चंद्र बनर्जी को इसका अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस की
अंग्रेजी सरकार से आज़ादी मांगने की कोई मंशा नहीं थी, इसके विपरीत उसने ब्रिटिश
सिंहासन के प्रति निष्ठा की शपथ ली। उसकी मांगें भी विनम्र थीं - उच्च कार्यालयों में
भारतीयों की नियुक्ति, करों में कटौती, सरकार की सलाहकार समितियों में भारतीयों को
स्थान और कानून व्यवस्था में भारतीयों का आंशिक प्रवेश। इन ‘मांगों’ में से कु छेक की
मंजूरी के दम पर ही ब्रिटिश खुद को भारतीय जनमानस की उम्मीदों पर खरा उतरने का
श्रेय देने को तैयार थे और जनमानस से उम्मीद रखी जाती कि वह सदा इस दयालु और
सहभागी शासन के प्रति कृ तार्थ रहें। जैसा कि ह्यूम के जीवनीकार सर विलियम वेडरबर्न ने
लिखा है:
कांग्रेस से राजनीतिक भय का कोई कारण नहीं था... यह ब्रिटिश सरकार थी जिसने
ऐसी ताकतों को खुली छू ट दी कि जिन्हें यदि शीघ्र ही कु शलता से संचालित नहीं किया
जाता तो ऐसे भयावह परिणाम आते जिनकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी।
इसलिए अभी उन्हें सीमित कर काबू में करना और निर्देशित करने से समय था... और
इसी मकसद के लिए कांग्रेस का गठन किया गया था।
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लाहौर में 27 दिसंबर 1893 को आईएनसी के नवें वार्षिक सम्मेलन में कांग्रेस और उसके
आरंभिक नेताओं की मांगों और अभिप्राय को समझा जा सकता है जिन्हें दादाभाई नौरोजी
ने अपने भाषण में सविस्तार प्रस्तुत किया था:
यूनाइटेड किंगडम के लोगों के सहज प्रेम और साफगोई के बारे में हमारा विश्वास
अडिग है... सर्वप्रथम मैं ही ऐसे न्यायप्रिय और खुली मानसिकता के लोगों से संबंध
रखने में किसी तरह की आंशका नहीं रखूंगा। हमें इस संबंध में निश्चित रहना चाहिए कि
हम व्यर्थ ही कोई कार्य नहीं करेंगे। यही विश्वास सभी मुश्किलों के दौरान मेरा संबल
बना रहा है। ब्रिटिश चरित्र में मेरा विश्वास कभी डिगा नहीं है और मेरा हमेशा यकीन रहा
है कि वो समय आएगा कि जब ब्रिटिश राष्ट्र और उसके दयालु सम्राट की 1858 की ग्रेट
कै रेक्टर की उद्घोषणा ज़रूर फलीभूत होगी।
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स्वतंत्रता संग्राम के उन आरंभिक दिनों में ये शुरुआती नेता, हालाँकि उनमें राष्ट्रप्रेम या वैसे
इरादे की कमी नहीं थी, ब्रिटिश शासन की साफगोई और मंशा में अटूट विश्वास रखते थे।
उन्हें उम्मीद और भरोसा था कि इस तरह के मैत्रीपूर्ण आलाप, विनम्र ज्ञापनों और
अनुमोदनों से उन्हें ब्रिटिश प्रशासन से भारतीयों को जोड़ने में मदद मिलेगी।
~
वहीं सुदूर भागुर में मौजूद युवा विनायक महाराष्ट्र और भारत में तेजी से करवट ले रहे इन
उग्र घटनाक्रमों से जुड़ी व्यापकता और नाटकीयता को बहुत उत्सुकता के साथ देख रहे थे।
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संक्रमण काल
राधाबाई के निधन की त्रासदी के बाद 1896 का वर्ष सावरकर परिवार के लिए ख़ुशी लेकर
आया। बाबाराव जब सत्रह वर्ष के हुए तो उनका विवाह त्र्यम्बके श्वर के नानाराव फड़के की
भतीजी यशोदा से तय हुआ। वह विनायक से दो वर्ष छोटी थीं, इस कारण दोनों में
आजीवन प्रगाढ़ मैत्री बनी रही। अपने संस्मरणों में उन्होंने अपने देवर विनायक से पहली
मुलाकात का विवरण दिया है।
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अपनी होने वाली भाभी के संबंध में कौतुहल दबा न पाने के कारण एक दिन विनायक
अपने छोटे भाई बल के साथ यशोदा के काका नानाराव फड़के के घर जा पहुँचे। यशोदा
उस समय विवाहपूर्व के अनुष्ठानों में व्यस्त थी। इसके अलावा, वह नेत्र-षोथ (आँख आना)
से भी पीड़ित थीं। उसी दौरान उनके दरवाजे पर पहुँचे तेरह वर्षीय विनायक ने
आत्मविश्वास भरे स्वर में पूछा, ‘क्या यह फड़के निवास है ? हमारी भाभी कहाँ हैं ?’ वहाँ
मौजूद स्त्रियों ने मुस्कराते हुए पूछा कि वह कौन हैं और किस की भाभी के बारे में पूछ रहे
हैं। इस पर विनायक के बातूनी स्वभाव और हाजिरजवाबी ने सबका मन जीत लिया।
यशोदा की माता मथुरा ताई याद किया कि वह विनायक के स्नेहिल, आकर्षक और
कृ शकाय व्यक्तित्व को निहारते नहीं थक रही थीं।
त्र्यम्बके श्वर में सम्पन्न विवाह के बाद जब विदाई का समय आया तो यशोदा पिता का घर
छोड़कर जाने के विचार से रोने लगीं। उनकी माँ ने उन्हें चुप कराने का भरसक प्रयास
किया। परंतु उन्हें लगातार रोता देख विनायक आगे बढ़े और उन्होंने यशोदा की माँ को
यकीन दिलाया कि वह उनके नेत्र रोग के उपचार का उचित इंतजाम करेंगे। विनायक के
भोलेपन पर यशोदा सहित सभी जोर से हँस पड़े। उस रात, त्र्यम्बके श्वर से नासिक की
बैलगाड़ी की यात्रा के दौरान जहाँ एक ओर यशोदा नींद से जूझती रहीं, वहीं रास्ते भर
विनायक यशोदा को क्षेत्र के प्राकृ तिक सौंदर्य का वर्णन सुनाते रहे।
अपने वादे के मुताबिक, विनायक ने यशोदा के नेत्र-षोथ का उपचार कराया और वह
ठीक हो गई। लंबे समय से सावरकर निवास में किसी स्त्री की कमी थी, जो यशोदा के आने
से पूरी हुई और वह अपने दोनों देवरों के लिए माँ सरीखी साबित हुईं। हिन्दू रीति के
अनुसार विवाहोपरांत उनका नाम बदलकर सरस्वती रखा गया परंतु विनायक और बल
उन्हें जीवन भर येसु वहिनी (भाभी) ही कह कर बुलाते रहे। विनायक को जिस स्नेहिल
विश्वासपात्र की जरूरत थी, वह उन्हें मिल गई थी। विनायक ने अपनी भाभी को लिखना-
पढ़ना सिखाया और वे अपनी कविताएँ एवं आलेख उन्हें पढ़ने को देते। वहीं येसु ने
विनायक को अपने विशाल खजाने में से मराठी के कई गीत सिखाए, जिनमें देवी माँ को
प्रेषित मराठी के गजगौरी गीत प्रमुख थे।
विवाह के कु छ ही समय बाद, बाबाराव ने भागुर में अपनी मराठी की शिक्षा पूरी की,
जिसके बाद दामोदरपंत ने उन्हें अंग्रेजी की उच्च शिक्षा के लिए नासिक भेज दिया।
बाबाराव हमेशा से आध्यात्मिक अभिरुचि वाले युवा थे। नासिक में वह एक भिक्षुक के
संपर्क में आए, जिनसे उन्होंने योग एवं ध्यान की कई विधियां सीखीं। उन्होंने महीने भर
के वल घी और जल पर आश्रित रहने और देर रात तक जागते रहने की कई मितव्ययताओं
का अभ्यास शुरू किया। ऐसा कहा जाता है कि वह प्रतिदिन चौदह से पंद्रह घंटे यौगिक
क्रियाओं के अभ्यास में गुजारते थे। अपने छोटे भाई विनायक के विपरीत, बाबाराव पर देश
की राजनीतिक उथल-पुथल का कोई असर नहीं था और उन्हें उसकी चिंता तक नहीं थी।
कई वर्षों बाद जब वह अपने छोटे भाई से प्रेरणा लेकर राजनीतिक अखाड़े में कू दे, तो
पहले राजनीतिक मामलों से दूर रहने वाले व्यक्ति के लिए यह परिवर्तन आमूल-चूल था।
उसी दौरान बॉम्बे प्रेसिडेंसी के विभिन्न क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। गणपति
महोत्सव और उसके जुलूस अक्सर मुस्लिम क्रोध का शिकार बनते और झड़पें होतीं। इस
संबंध में मुस्लिम समुदाय के लोग अपने धार्मिक ग्रंथों का हवाला देते जिनमें शांतिमय
तरीके से प्रार्थना करने को कहा गया है - जिसकी शांति हिन्दू जुलूसों के संगीत के कारण
भंग होती थी। दंगा किस समुदाय के कारण फै ला है, इसका पता लगाना पहले मुर्गी आई
या अंडा आया वाली समस्या बन चुका था। 6 फरवरी 1894 को नासिक जिले के येओला
नामक छोटे से बुनकर कें द्र में स्थानीय मस्जिद में शूकर का कटा सिर फें के जाने से दंगा
भड़क उठा। इसकी सूचना मिलने पर, ममलतदार मस्जिद पहुँचा और उसने पाया कि ‘बीच
में से कटे हुए एक सूअर के दो हिस्से मस्जिद और उसके पास गिरे थे’।
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उसने एकत्र भीड़
से प्रार्थना की कि वह ‘प्रतिहिंसा का प्रयास न करें’।
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परंतु जल्दी ही ख़बर आई कि
‘मुसलमानों ने एक हिन्दू मंदिर में गाय को काट डाला’।
4
इसके बाद दंगा फिर भड़क उठा
और मदद के लिए सेना बुलाई गई। उसी रोज, बाद में ममलतदार को सूचना मिली कि
‘हिन्दू समुदाय के लोग जामा मस्जिद को फूँ क देने की योजना बना रहे हैं’।
5
अभी पुलिस
सुरक्षा पर कार्य चल ही रहा था कि सूचना मिली कि मुसलमानों ने ‘मुरलीधर मंदिर को
आग के हवाले कर दिया’।
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कई अन्य क्षेत्रों में, अनेक मस्जिदें और मंदिरों को भी नुकसान
पहुँचा या वे जला दिए गए। उन दंगों में चार लोग भी मारे गए थे।
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सरकारी अधिकारियों ने गौरक्षा अभियान में आई तेजी को हिंसा के लिए जिम्मेवार
ठहराया। यह अभियान हिन्दू सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती के आर्य समाज के
बुनियादी सिद्धांतों में से एक था। गौरक्षा समितियाँ पंजाब में 1882 से सक्रिय थीं। बंबई में,
गौशालाओं और गौ संरक्षण गृह के साधारण निर्माण लक्ष्यों के साथ 1887 से सींगधारी
मवेसी संरक्षण समितियाँ अस्तित्व में आ गई थीं। 1890 के दशक में गौरक्षा समितियों ने
दक्कन के अहमदनगर, बेलगाम, धारवाड़, पूना, सतारा, नासिक और येओला में भी ज़ोर
पकड़ लिया था।
दंगों का एक अन्य कारण, मस्जिदों के सामने हिन्दू जुलूसों के गीत-संगीत को भी
ठहराया गया। चूंकि इस्लाम में संगीत की मनाही है, इसलिए मुस्लिम मौलवियों को उनकी
इबादत के स्थान के सामने से जा रहे जुलूसों में गूँजने वाला संगीत नागवार गुजरता था,
जबकि हिन्दुओं का तर्क था कि वह जुलूस के लिए आम रास्ते का उपयोग करते हैं, जहाँ
उन पर कोई रोक नहीं है। 1859 में ही बंबई की एक सदर फौजदारी अदालत ने फै सला
सुनाया था कि मंदिरों में पूजा के संगीत का आदर होना चाहिए। हालाँकि, जुलूस के समय
सड़क पर गूँजने वाला संगीत, जो बुनियादी हिन्दू धार्मिक संगीत का अंश नहीं है, यदि
दूसरों की धार्मिक भावनाओं में अड़चन बने तो उसे रोक लेना चाहिए। इसलिए:
मस्जिदों में इबादत करना तब तक मुसलमानों का अधिकार है जब तक कि उनकी
इबादत किसी की परेशानी का सबब न बने, और हिंदुओं को उनके जुलूस का तब तक
अधिकार है जब तक कि उसका संगीत किसी अन्य के लिए परेशानी पैदा न करे ; परंतु
यदि वह किसी को तंग करता है, तो न्यायाधीशों का मानना है कि उस पर पाबंदी लगाई
जाए।
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तिलक ने के सरी
में बंबई प्रेसिडेंसी में सब ओर भड़के दंगों और गौहत्या के मामलों में
सरकार पर मुस्लिम संवेदनाओं के तुष्टिकरण का आरोप लगाया।
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जुलूस के संगीत का
मामला उनके लिए भी तकलीफदेह था जिसका जवाब उन्होंने गणपति महोत्सवों को पहले
की अपेक्षा और भव्य एवं चमकदार बनाकर दिया। महोत्सवों के दौरान शिवाजी की तरह
हिन्दुओं को सशस्त्र किए जाने और विदेशी सत्ता को उखाड़ फें कने के जोरदार नारे गूँजने
लगे। इन महोत्सवों को मेला अभियान के तौर पर मनाया जाता। मेले में विशेष वेषभूषाओं
में सजे, हाथों में लाठियां लिए, गीत, संगीत, परेड और तलवारबाजी का अभ्यास करते
युवाओं और विद्यार्थियों के समूह दिखते। प्रत्येक मेला एक विशेष गणपति समारोह से जुड़ा
होता और उत्सव के दस दिन पहले और बाद तक, वह शहर और देहात में जाता। इस मौके
पर लोग तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं के संदर्भ से जुड़े गीत और लोकप्रिय कविताएँ
सुनाते। इन्हीं गीतों पर मुस्लिम समुदाय ने आपत्ति की, जिस कारण सांप्रदायिकता की
अनिश्चित स्थिति उठ खड़ी हुई थी।
विनायक और उनके साथी महाराष्ट्र के विस्फोटक ध्रुवीकरण और खूनी दंगों के बारे में
जानकारियाँ के सरी, पुणे वैभव
तथा अन्य समाचार पत्रों से प्राप्त करते। जब भी वह
हिन्दुओं पर होने वाले हमले के बारे में पढ़ते तो उनका खून खौल उठता और वह सोचते
कि हिंदू समाज के लोग क्यों खुद को एकजुट करने में असमर्थ रहते हैं और शोषित होते हैं।
दंगों का जवाब देने के लिए, विनायक और उनके मित्रों ने भागुर में वीरान पड़ी एक मस्जिद
पर हमला करने की योजना बनाई। दिन ढलने पर, अपने नन्हें हथियारों से लैस बालकों की
इस टोली ने मस्जिद पर हमला बोला, उसमें कई स्थानों पर तोड़-फोड़ की और वहाँ से भाग
निकले। जब इसकी सूचना उनके मुस्लिम सहपाठियों तक पहुँची तो वे बहुत क्रोधित हुए
और दोनों गुटों में भिड़त हो गई। विनायक के नेतृत्व में अपने ‘हथियारों’ से लैस ‘हिन्दू
टोली’ प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ी। इसके बाद युद्धविराम घोषित हुआ जिसके बाद दोनों
पक्ष राज़ी हुए कि घटना के बारे में अध्यापकों को कु छ नहीं बताया जाएगा। हालाँकि, कु छ
मुस्लिम लड़के गुस्से से भरे हुए थे और उन्होंने बदला लेने के लिए ब्राह्मण बालक को मीट
चखाने की कसम खाई थी।
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हालाँकि, इन घटनाओं को बच्चों की शैतानी मानकर खारिज किया जा सकता है, परंतु
विनायक ने अपने संस्मरणों में माना है कि ऐसे अनुभवों ने उन्हें सिखाया हिन्दू समुदाय
कितना असंगठित और विभाजित है और उसे शिकार बनाना कितना आसान।
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हिन्दू
अपने आप में ही, विशेषकर जातिगत तौर पर स्थाई रूप से बंटे हुए हैं और इससे उन पर
हमला करना कहीं आसान हो जाता है। वह अपने लिए आत्मसंदेही और दूसरे के प्रति
शंकालु, और यदा-कदा ही ‘लक्ष्य’ को लेकर प्रतिबद्ध होते हैं। इसलिए अपने गुट को
अनुशासन, कठोरता और प्रतिबद्धता सिखाने के लिए विनायक ने एक तरह का ‘सैन्य
प्रशिक्षण स्कू ल’ स्थापित करने का निर्णय किया।
लड़के तीन गुटों में बंटे - कु छ हिन्दुओं की भूमिका में, जबकि अन्य मुस्लिम या अंग्रेजों के
रूप में। बंदूक की गोलियों के तौर पर नीम की बेरियां इस्तेमाल की गईं। जो बालक
गोलियों के हमले की परवाह न करते हुए, मैदान के बीचोंबीच मौजूद भगवा हिन्दू झंडे को
बचा लाते और दुश्मनों के हथियार छीन लेते, वह विजयी घोषित किए जाते। विनायक
लगभग हर बार हिन्दू पक्ष का नेतृत्व करते और उन्हें विजयश्री दिलाते। यदि कभी मुस्लिम
या अंग्रेज पक्ष जीतने लगता, तो वह उनसे ‘राष्ट्रीय हित’ को देखते हुए हार स्वीकारने का
कू टनीतिक आग्रह (चूँकि यह के वल खेल ही था) करते। आखिर उनकी इस क्रीड़ा में हिन्दू
कभी हार नहीं सकते थे। इन खेलों के बाद सभी बालक विजय गीत गाते हुए भागुर की
गलियों मंें घूमते। बाबाराव तीरंदाजी में निपुण थे और विनायक ने यह कला उनसे सीखनी
आरंभ की। दामोदरपंत के पास घर में एक तलवार और बंदूक थी, जिसे विनायक सदा
कौतुहल से देखते, छू ते और महसूस करते और उन्हें चलाना सीखने की सोचा करते थे।
ऐतिहासिक तौर पर सजग बालक विनायक 1896 में अपने नायक तिलक की नई पहल
के बारे में पढ़कर रोमांचित हो गए। 15 अप्रैल 1896 को तिलक ने गणपति महोत्सव की
तर्ज पर पूना के रायगढ़ में शिवाजी महोत्सव का शुभारंभ किया। इसका लक्ष्य रायगढ़ में
शिवाजी की समाधि के लिए धन एकत्र करना और उसके ज़रिए मराठियों के मन में
राष्ट्रवाद की भावना जगाना था। महोत्सव प्रतिवर्ष शिवाजी के राज्याभिषेक की तिथि के
अवसर पर आयोजित होता - जो अपने में यादगार मौका था, जिसके बाद भव्य मराठा
साम्राज्य की नींव पड़ी थी। शिवाजी और उनके प्रेरणादायी गुरुदेव रामदास जी के सम्मान
में गाथा-गीत या पोवादस रचे जाते, खेल प्रतियोगिताएं सम्पन्न होतीं, कीर्तन और नाटक
तथा मराठा इतिहास पर संभाषण आयोजित होते। अतः 3 मार्च 1896 को के सरी में
‘यथोचित समारोह’ हेतु तिलक के विस्तृत कार्यक्रम सूचना का प्रकाशन हुआ। यह ऐलान
रायगढ़ में 15 अप्रैल को राष्ट्रवादी लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया था:
शिवाजी और रामदास की छवियाँ समारोह में प्रमुखता से प्रदर्शित की जाएँगी... तीन
दिवसीय आयोजन में, संभाषण, प्रवचन, नाटकीय रूपांतरण (ऐंद्रिक अथवा वीभत्स
नहीं), ऐतिहासिक गीत-गाथाओं का गान... कार्यक्रम के प्रमुख अंश रहेंगे... विदेश में
निर्मित वस्तुएं, जैसे पेट्रोलियम, मोमबत्तियां, शीशे के बर्तन...पर समारोह में कड़ी
पाबंदी होगी और के वल गृह-निर्मित वस्तुएं लाने की ही मंजूरी होगी ...यहां, तक कि
सौंदर्याकर्षण के परित्याग की कीमत पर यह निर्णय लिया गया है। तीन दिनों के दौरान
दासबोध और शिवविजय
का निरंतर पाठ किया जाएगा ...अंतिम दिवस शिवाजी के
आदर में तैयार किया गया विशेष गीत गाया जाएगा और इस दौरान उनकी पताका
लहराएगी। गायन के दौरान मंकरी, कार्यकर्ता और स्वयंसेवक खड़े रहेंगे और गीत के
अंत में जोर से हर हर महादेव ! का उद्घोष करेंगे। इस स्तोत्र का गायन समारोह का
सबसे महत्वपूर्ण अंग होगा।
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1895 में उनकी मृत्यु होने तक, तिलक के वैचारिक विरोधी एवं दीर्घकालिक प्रतिद्वंद्वी,
गोपाल गणेश अगरकर और उनके पश्चात सीतारामपंत देवधर द्वारा संपादित मराठी
समाचार पत्र सुधारक
, राष्ट्रवादी लक्ष्यों के लिए प्रतीक के रूप में शिवाजी का इस्तेमाल
किए जाने का घोर विरोधी था। उनकी दलील थी कि शिवाजी की छवि महाराष्ट्र तक ही
सीमित है और ऐसे शासक के प्रतीक, जो विदेशी शासन के विरोध में देश को एकजुट न
कर पाया हो, को नायक के तौर पर प्रस्तुत किया जाना ऐसे समय अनुचित होगा जबकि
राष्ट्रीय एकता सर्वोपरि है। 29 मई 1899 को सुधारक
ने सवाल उठाया: ‘आखिर मुस्लिम
या बंगाली या फिर राजपूत वर्ग द्वारा शिवाजी को याद करने की क्या बाध्यता है ? स्पष्ट
है... महोत्सव में ऐसा कु छ नहीं जो उसे हिन्दुओं के बीच भी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला
सके ।’
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तिलक को सहयोग देने वाले मध्यमार्गी समाचार पत्रों ने भी महोत्सव के विशिष्ट
स्थानीय प्रयोजन पर प्रश्न उठाए। उदाहरणार्थ 25 अप्रैल 1898 को इंदु प्रकाश
ने विचार
रखा:
जहाँ भी हिन्दू धर्म है, शिवाजी का नाम आदर सहित लिया जाएगा और हैरानी नहीं
होनी चाहिए कि यदि अगले वर्ष हमें मद्रास में शिवाजी जन्मोत्सव मनाए जाने की
सूचना मिले। वह मूलतः सभी हिन्दुओं के नायक हैं और मराठा वर्ग यह सोचकर
आनंदित हो सकता है कि वह उनके यहाँ जन्मे थे। लिहाजा, यह स्वाभाविक ही है कि
मराठा वर्ग के बीच इन आयोजनों को लेकर असाधारण प्रफु ल्लता दिखती है...
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तिलक स्वयं इस मुद्दे को ज्यादा दूर तक ले जाने के प्रति सचेत थे। उन्होंने 9 अप्रैल 1899
को के सरी
में सावधानी से पक्ष रखा:
इसमें कोई हर्ज नहीं कि भारत के विभिन्न हिस्सों में वहाँ के नायकों को लेकर ऐसे
समारोह आयोजित हों। हालाँकि, प्रमुख लक्ष्य संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने का
है, इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि संपूर्ण भारतवर्ष छोटे-छोटे राष्ट्रों से
मिलकर बना है और विभिन्न क्षेत्रों की संप्रभुता उनके अपने दम पर अपरिहार्य है, और
समूचे देश की एकता से किसी भी मायने में अलग नहीं।
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उसी वर्ष, दोनों महोत्सवों की सफलता के आधार पर तिलक ने अपने दीर्घकालिक
विरोधियों रानाडे और गोखले को धता बताते हुए सार्वजनिक सभा पर अधिकार प्राप्त कर
लिया। इससे तिलमिलाकर इस्तीफा देते हुए रानाडे और गोखले ने तिलक और उनकी
नीतियों को अपमानित करने वाले कई लेख लिखे। परंतु तिलक की जीत अल्पकालिक ही
रही। 1897 में दक्कन में पड़े अकाल के दौरान तिलक के अधीन सार्वजनिक सभा की
अत्यधिक सक्रियता और किसानों को कर न चुकाए जाने के लिए उनके द्वारा दिए जा रहे
उकसावे से सरकार कु पित हो गई। उसने सभा को अमान्य घोषित करते हुए सरकारी
नीतियों पर सरकार को संबोधित करने के उसके किसी भी अधिकार को खारिज किया।
इससे तिलक का प्रभाव कु छ गति पकड़ने से पहले ही प्रभावहीन हो गया।
तिलक से प्रेरणा लेते हुए, विनायक और उनके साथियों ने भागुर में मारवाड़ी सेठ
बालमुकुं द मणिराम के घर पर शिवाजी जयंती महोत्सव का आयोजन किया। इस मौके पर
विनायक के प्रभावशाली संबोधन ने दामोदरपंत सहित सबको हैरान कर दिया।
दामोदरपंत चाहते थे कि विनायक भी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद बाबाराव के
साथ नासिक के प्रतिष्ठित शिवाजी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करे। अतः तेरह वर्षीय विनायक
शिक्षा और श्रेष्ठ लक्ष्य की तलाश में पहली बार अपने गृह नगर से अलग हुए। दोनों भाई
नासिक में कनाड्य मारुति मंदिर के पास एक साधारण से निवास में रहते थे। वह अपना
भोजन स्वयं पकाते, क्योंकि बाहर खाने का अर्थ था विशुद्ध ब्राह्मण के तौर पर अपवित्र
होना। परंतु विनायक ने इन सभी रूढ़ियों को दरकिनार कर दिया और निकटवर्ती गंगाराम
होटल की जलेबियां बड़े चाव से खाते रहे।
प्रत्येक पखवाड़े, दामोदरपंत अपने बेटों से मिलने नासिक आते थे। अपने पिता से बहुत
हिले-मिले होने के कारण विनायक बड़ी उत्सुकता से उनके आने की बाट जोहते और उनके
लौटने वाले दिन उदास हो जाते। नए सहपाठियों के कारण भी उनको घर की याद आने
लगी थी। उनमें से शायद ही कोई शिक्षा, समसामयिक मुद्दों या राजनीति के बारे में
विनायक जैसी गहराई से सोचता था। सभी बेसिरपैर के कामों में अपना समय नष्ट करते।
यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि स्कू ल में विनायक अपने सभी अध्यापकों के चहेते छात्र
थे। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि, अनुशासन, काव्य और लेखन क्षमता के कारण, वह उनकी आँखों
का तारा थे। यहाँ तक कि एक अध्यापक ने विनायक को उनका आलेख नासिक वैभव
समाचार पत्र में भेजने को प्रेरित किया। समाचार पत्र के संपादक को आलेख के विषय,
शैली और भाषाई प्रवाह को देखते हुए यकीन नहीं हुआ कि उसे एक स्कू ली छात्र ने लिखा
है। वह निबंध दो खंडों में प्रकाशित हुआ और उसे पूरे नासिक में प्रशंसा प्राप्त हुई।
लोक सेवा
नासिक का एक अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्र था। उसके संपादक और मालिक
प्रख्यात रंगकर्मी अनंत वामन बर्वे थे। समाचार पत्र तिलक के कार्यों का सच्चा पैरोकार था
और गणपति एवं शिवाजी महोत्सवों के संबंध में उनके अनेक देशभक्ति पूर्ण आलेख
प्रकाशित करता था। नासिक में गोदावरी के किनारे लगातार आयोजित होने वाले
कार्यक्रमों और उत्सवों में बर्वे राष्ट्रप्रेम के बड़े ही मधुर गीत गाते थे। एक ओर जहाँ विनायक
के अधिकांश सहपाठी नदी किनारे निरुद्देश्य घूमते रहते थे, वहीं वह खुद गोदवारी के
किनारे होने वाले इन आयोजनों में बिना बुलाए किंतु लगातार जाते थे। यहाँ उन्होंने कु छ
जोरदार भाषण और मधुर गीत सुने और उस सबको वह अपने मन में बसाते रहे। उनके
अध्यापकों ने विनायक को बर्वे से मिलवाया और इसके बाद उनका भावी आयोजनों में
जाना आसान हो गया। बर्वे ने विनायक से नासिक की वार्षिक वाद-विवाद प्रतियोगिता में
हिस्सा लेने को कहा। हालाँकि, उस समय तक आवेदन देने की अंतिम तिथि निकल चुकी
थी, परंतु बर्वे के कहने पर विनायक को प्रतियोगिता में स्थान मिल गया, जो मात्र तीन दिन
के बाद थी। प्रतियोगिता का विषय सभी छात्रों के लिए एक ही था, और क्योंकि विनायक
ने सबसे अंत में नामांकन भरा था, इसलिए उनको सबसे अंत में ही बोलना था। चूंकि
विषय के सभी पक्षों पर पहले बोलने वाले वक्ता बात कर चुके थे, इसलिए जब अंतिम
वक्ता मंच पर पहुँचा, तो दर्शकों ने ऊबकर उठना शुरू कर दर्शकगण दिया था। परंतु
विनायक के भाषण ने उन्हें शुरू से ही अपनी ओर खींच लिया और वह बैठे रहे। निर्णायकों
ने फै सला देने में देर नहीं की और विनायक को एकमत से विजेता चुना गया। हालाँकि,
निर्णायकों को विनायक के भाषण पर कु छ संदेह था। वह इस संदेह में थे कि एक चौदह
वर्षीय बालक कै से विषयों पर इतनी गंभीरता सोच और लिख सकता है। इसे स्पष्ट करने
की जिम्मेदारी बर्वे और विनायक के अध्यापकों पर आई। उन्होंने बताया कि बालक
सचमुच एक अच्छा लेखक और विचारक है। वक्ता के तौर पर यह विनायक का पहला
अनुभव था और उन्होंने उसे बिना किसी विशेष प्रयास के जीत लिया। इसके बाद नासिक
के लोग असाधारण वाचन क्षमता वाले इस युवा के बारे में बातें करने लगे।
अपनी स्वाभाविक प्रतिभा को तराशने के लिए विनायक जन संबोधन पर मराठी की
विभिन्न किताबें पढ़ने लगे। विषय के विभिन्न पक्षों का निर्माण, उनकी मजबूती और
समापन, आवाज का उतार-चढ़ाव, देहभाषा, स्वर शैली, भाषा पर पकड़ जैसे जन संबोधन
के विभिन्न पक्ष विनायक को बेहद भाने लगे। इन गुणों पर गहरी मेहनत के बाद वह जादुई
वक्ता के तौर पर सामने आए, यानी एक ऐसा वक्ता जो विशाल दर्शकदीर्घा को सम्मोहित
करने की क्षमता रखता था।
अपने शुरुआती वर्षों में, अध्ययन और विचार-विनिमय के कारण विनायक उस समय की
अनेक धारणाओं और रीति-रिवाजों पर सवाल खड़े करने लगे जिन्हें आँखें मूंदकर मान
लिया जाता था। ऐसे मामलों पर अक्सर उनकी बाबाराव से बहस भी होती। दुविधा और
संशय की इसी अग्नि से दर्शनशास्त्र और धर्म में उनकी रुचि गहरी हुई। वह धर्मग्रंथों और
वेदांत की कड़ी समीक्षा करते और आस्तिकता या नास्तिकता में गहरे विश्वास, धार्मिक
कर्मकांड तथा अंधविश्वास में फँ से लोगों के साथ बहस और विमर्श करते रहते। उधर
बाबाराव की आध्यात्मिक यात्रा उन्हें हर तरह के धर्मगुरु और संत तक ले जाती, जिनमें से
अधिकांश छद्म होते और उनके सीधेपन का लाभ उठाते। एक बार नासिक में बाबाराव
विनायक को एक साधु के पास ले गए जो पंचवटी में राम धर्मशाला में रुके हुए थे। उन्हें
बताया गया था कि साधु संत रामदास के अवतार हैं जिन्होंने शिवाजी को मुगलों के
खिलाफ अभियान हेतु प्रेरित किया था और उन्हें विनायक के भविष्य का आभास हुआ है,
इसलिए वह उनसे मिलना चाहते हैं। साधु से मिलने पर विनायक ने कहा कि उनकी
एकमात्र अभिलाषा सशस्त्र क्रांति द्वारा अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फें कने की है। इस पर
साधु ने ताड़ते हुए उन्हें ऐसे अपवित्र विचारों से दूर रहने की सलाह दी और कहा कि वह
उनके शिष्य बन जाएँ और उनकी निष्ठापूर्वक सेवा करें ताकि उन्हें दिव्यानुभूति हो सके ।
साधु ने दावा किया कि ईश्वर की इच्छा के बिना कु छ नहीं होता, और अंग्रेजी शासन भी
भारत और भारतीयों के लिए ईश्वर की इच्छा के ही कारण है। के वल ईश्वर ही बताएँगे कि
कब भारत अपनी स्वतंत्रता का स्वप्न देखना आरंभ करे।
ऐसे बेतुके बयान से विनायक को गुस्सा आया और साधु से उनकी लंबी बहस शुरू हो
गई। उन्होंने तर्क दिया कि चोरों और डकै तों का राज्य ईश्वर की मंशा कै से हो सकती है ?
और यदि ऐसा ही है तो उसे उखाड़ फें कने की कल्पना राक्षसी कै से हो सकती है ? क्या ऐसे
राज्य के अंत के प्रयास का उद्भव और क्रिया भी ईश्वरीय मंशा नहीं होगी ? आखिरकार
बाबाराव को बीच में आना पड़ा और वे अपने क्रु द्ध भाई को खींचकर घर ले गए। अतः
बचपन से ही विवेकपूर्ण और तार्किक बयान विनायक के व्यक्तित्व की पहचान थे। उन्होंने
पवित्र समझे जाने वाले धर्म और आस्था से जुड़े व्यक्तियों पर भी सवाल उठाए।
इस दौरान, 1896-97 में भारत और विशेषकर महाराष्ट्र में प्लेेग की महामारी ने दस्तक
दी। अंग्रेज अधिकारियों के पास रोग या उसके उपचार के संबंध में कोई योजना नहीं थी।
ऊपर से आत्मविश्वासी दिखने वाला यह प्रशासन अंदर से बेहद डरा हुआ था। बीमारी पर
किसी भी तरह काबू पाने के लिए फरवरी 1897 में स्पेशल प्लेग कमिटी (एसपीसी) के
अंश के तौर पर विशेष प्लेग अधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैंड और सर्जन कै प्टन डब्ल्यूडब्ल्यू
बेवेरिज को पूना भेजा गया। बंबई के गवर्नर लॉर्ड सैंडहस्र्ट ने अपने निजी सचिव जेजे
हीटन के जरिए बयान जारी किया कि पूना में, ‘सैनिकों के इस्तेमाल करने की योजना को
निरस्त किया जाना चाहिए। कोई भी सर्च पार्टी किसी प्रतिष्ठित स्थानीय प्रतिनिधि के बिना
न हो... लोगों के खिलाफ नहीं बल्कि उनको भरोसे में लेकर बेहद सचेत, व्यापक और
ईमानदार प्रयास होने चाहिए... मौजूदा नगरपालिका संस्थानों और मुहल्ला समितियों में भी
किसी न किसी प्रकार की सांगठनिक व्यवस्था बची हुई है’।
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गवर्नर के चेतावनीपूर्ण शब्दों के बावजूद, अंग्रेज समुदाय और विशेषकर वाॅल्टर रैंड
जल्दी ही प्लेग उन्मूलन करना चाहते थे क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हितों पर असर
पड़ता था। यूरोपीय देश भारतीय सीमा में निर्मित सामान लेने से मना कर रहे थे क्योंकि
उन्हें डर था कि इससे उनके यहाँ भी महामारी फै ल सकती है। भारत सरकार ने महामारी
अधिनियम, 1897 पारित किया जिससे प्रशासन को किसी भी कीमत पर प्लेग पर काबू
पाने का अधिकार मिल गया। विडंबना यह है कि 12 मार्च, 1897 को डाॅक्टरों और नर्सों की
बजाय, 893 अंग्रेज और भारतीय अधिकारी एवं आमजन को प्लेग ड्यूटी पर लगाया गया।
प्रत्येक घर के मुखिया का यह कर्तव्य था कि वह अपने परिवार में फै लने वाले प्लेग या
उसके कारण होने वाली मृत्यु की सूचना समिति को दे। अपने अभियान के दौरान रैंड और
उनके आदमियों ने प्लेग रोगियों की तलाश में निर्दयता से घरों की तलाशी लेनी शुरू की।
इस कार्य में वह पूजा स्थलों की तोड़-फोड़, वृद्धों से दुर्व्यवहार और महिलाओं के संग भी
अभद्रतापूर्वक पेश आने लगे। प्लेग के रोगियों को रातोंरात अपने घर छोड़, दूर कै म्पों में
जाना पड़ा। उनका सामान नष्ट किया या जला दिया गया। ऐसे समय जब रोगी को उपचार,
आराम और स्वास्थ्य लाभ करने की जरूरत होती है, उन्हें उनके घरों से खदेड़ दिया गया
और शहर को रोग मुक्त करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उनके सामान और उनकी
संपत्तियाँ जला दी गई। मृत्यु का पंजीकरण न किए जाने तक अंतयेष्टि करना गैरकानूनी
घोषित कर दिया गया। सैनिकों द्वारा लगातार उत्पीड़न से नफरत और आक्रोश की भावना
फै ल उठी। तिलक ने के सरी
में रैंड और उनके आदमियों के अमानवीय बर्ताव के खिलाफ
हुंकार भरी और प्लेग समिति के तौर-तरीकों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने लिखा,
‘सरकार को इस आदेश का पालन करने का जिम्मा रैंड जैसे शक्की, बदमिजाज और
निरंकु श अधिकारी को नहीं देना चाहिए था’।
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और फिर एक दिन, 22 जून 1897 को पूना शहर की आत्मा ही कांप उठी। वाॅल्टर रैंड
और उनके लेफ्टिनेंट चार्ल्स अयेर्स्ट पर किसी ने गोली चला दी। कु छ दिन जिंदगी और मौत
के बीच जूझने के बाद रैंड की मृत्यु हो गई, जबकि अयेर्स्ट ने मौके पर ही दम तोड़ दिया।
बाद में पता चला कि उनपर गोली चलाने वाले दो सगे भाई थे जिनका नाम दामोदर हरि
चापेकर और बालकृ ष्ण हरि चापेकर था। ऐसा लगता था कि उन्होंने रैंड द्वारा प्लेग पर
काबू पाने के लिए अपनाए गए दमनकारी व्यवहार का बदला लेने के लिए ऐसा किया था।
प्रश्न ये उठता है कि चापेकर बंधु कौन थे जिन्होंने वासुदेव बलवंत फड़के की मौत के बाद
शांत पड़ी क्रांति की मशाल को चिंगारी दिखा दी थी ?
तीन चापेकर बंधु - दामोदर, बालकृ ष्ण और वासुदेव-धर्म आधारित राष्ट्रवाद से प्रेरित
होकर क्रांतिकारिता की ओर उन्मुख हुए थे। 1885 के आसपास उनके पिता हरि भाऊ
अपने पैतृक स्थान, चिंचवाड़ से पूना आए थे। वह एक कीर्तनकार (धार्मिक गीत गाने वाले)
थे। उनके पुत्रों को नाम मात्र की ही शिक्षा मिली थी। चापेकर बंधु अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने
वालों का उपहास उड़ाते थे और तिलक एवं रानाडे को भी नहीं बख्शते थे। अपनी
आत्मकथा में दामोदर ने लिखा है, ‘मेरे पिता ने घर में ही मुझे पहली अंग्रेजी किताब पढ़ाई
थी। न्यू इंग्लिश स्कू ल में मैंने चार माह एक अन्य अंग्रेजी की किताब पढ़ी, परंतु इस दौरान
भाषा के प्रति उठी विरक्ति के कारण मैंने उसे पढ़ना छोड़ दिया’।
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युवा चापेकर बंधु, तिलक के गणपति एवं शिवाजी महोत्सवों के कारण उभरने वाली
राष्ट्रवादी भावना के साक्षी बने। वह महोत्सवों में स्वयंसेवक के रूप में काम करते और फिर
मेलों, कलाबाजी और सांस्कृ तिक कार्यक्रमों में सक्रिय तौर पर शामिल होते। परंतु जल्दी ही
वह इन महोत्सवों और भव्य आयोजनों से विमुख हो गए। इन महोत्सवों में ‘बड़ी बड़ी बातें’
उन्हें ‘कु पित’ करती थीं।
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उन्हें महसूस हुआ कि यदि शिवाजी जिंदा होते तो वह यहाँ
दिखने वाली चमक-दमक को नामंजूर कर देते। शिवाजी को असली श्रद्धांजलि उनके बारे
में ऐसे भव्य आयोजनों में बातें करना नहीं, बल्कि तलवार उठाकर राष्ट्र के लिए लड़ना है,
जैसा कि वह स्वयं करते थे। उन्होंने कांग्रेस के संवैधानिक तरीकों को ‘बातूनी इकाई’ कह
कर खारिज तो किया ही, साथ ही, वह तिलक की अतिवादी जन राजनीति से भी प्रेरित
नहीं हुए।
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दामोदर के दोनों छोटे भाई उनसे प्रेरित थे। दामोदर का अटूट विश्वास था कि अंग्रेजी
शिक्षा भारतीयों के नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार है और यह उन्हें उनके सांस्कृ तिक छोर
से तोड़कर दूर ले गई है। उनकी राय में अंग्रेजी शासन न के वल राजनीतिक दमन, बल्कि
सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृ तिक दमन का भी प्रतीक है। दामोदर के अनुसार:
अंग्रेजी का ऐसा अजीब सा असर है कि यदि कोई व्यक्ति इसे सीखने का प्रयास करता
है अथवा यदि कोई बालक इसकी वर्णमाला के दो या तीन अक्षर भी सीख जाता है, वह
अपने बुजुर्गों को महत्वहीन समझना शुरू कर देता है और अपने प्राचीन और सच्चे धर्म
से नफरत करना आरंभ कर देता है। यदि अंग्रेजी शिक्षा की महक का ऐसा असर है तो
हैरानी कै सी कि यदि कोई सदाचारी व्यक्ति इसे पूरा सीख ले तो वह सिर से पांव तक
अंग्रेज हो जाए और मदिरा का अनन्य प्रेमी ?
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...जब भारतीय प्रशासन में अंग्रेजी को अपनाया गया तो उनका मानना था कि हिंदुओं
को इस शिक्षा का नशा डालकर उनकी आत्मा को ही कु चल डाला जाए।
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एक धर्मनिष्ठ हिंदू होने के नाते, उन्होंने अपने धार्मिक और सांस्कृ तिक परिवेश में अंग्रेजी
दखल को कलंक स्वरूप माना। स्कोबल विधेयक ऐसा ही एक अंग्रेजी हस्तक्षेप था। अंग्रेज
सरकार द्वारा आमतौर पर मुस्लिमों का पक्ष लिया जाना, जिसमें मस्जिदों के बाहर जुलूस
के संगीत प्रतिबंध भी शामिल था, चापेकर बंधुओं को नागवार गुजरा। उसी दरम्यान वाॅल्टर
रैंड ने 1894 में वई में एक मस्जिद के बाहर हिन्दू जुलूस में संगीत बजाने के सरकारी नियम
तोड़ने पर कु छ हिन्दुओं को कड़ी सज़ा भी दी थी।
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चितपावन ब्राह्मणों को सरकारी सेवा और सेना से बाहर रखने की सरकारी नीति के
कारण खुद कई बार सेना में भर्ती होने में असफल रहने पर दामोदर चापेकर का कहना था:
पूरी दुनिया के किसी हिस्से में तलाश करने पर भी अंग्रेजों जैसा क्रू र शासन ढूंढ़े न
मिलेगा। इनसे तो यवन शासक ही बेहतर थे जो हाथ में तलवार उठाकर लोगों के सिर
ऐसे उतार देते थे, जैसे कि वे बकरियां हों। परंतु अंग्रेज विश्वासघाती हैं और मैं
ईमानदारी से कहता हूँ कि इस पृथ्वी पर उनसे बड़ा खलनायक और कोई न होगा और
दूसरों को दयालुता दिखाकर बर्बाद करने वाला भी उनके जैसा कोई नहीं... अब तक
भारत में कई क्रू र यवन शासक हुए परंतु उन्होंने भी हिन्दुओं को विशेष नियुक्तियों से न
रोकने या अपने पक्ष में रहने वालों की सीमा से जुड़े कोई नियम नहीं बनाए थे।
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दामोदर चापेकर ने सशस्त्र क्रांति के लक्ष्य को समर्पित सौ युवाओं का एक गुट बनाया था।
‘चापेकर क्लब’ को ‘राष्ट्र हितेच्छु मंडली’ या राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहन देने वाला समूह भी
कहा जाता था। इसका एक लक्ष्य हथियार एकत्र करना था जो अंग्रेजी क्षेत्र में कठिन कार्य
था, इसके लिए पड़ोस के हैदराबाद के निजाम के इलाके में जाना पड़ता। परंतु उनके पास
धन की सदा कमी रहती।
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क्लब की गतिविधियों के बारे में विस्तार से बताते हुए दामोदर
लिखते हैं:
हम कु श्ती दनपट्टा, काठी, भाला फें कना, ऊँ ची और लंबी कू द तथा बॉक्सिंग जैसे
व्यायाम पर जोर देते हैं। सायं 4 से 6 बजे तक का समय इसके लिए निर्धारित है... हमनें
योद्धाओं के ऐतिहासिक कार्यों से जुड़ी सामग्री एकत्र कर एक पुस्तकालय भी स्थापित
किया है... सायंकाल हम में से एक भाई ऐतिहासिक सामग्री का पाठ भी करता है।
प्राचीन इतिहास से कु छ घटनाएँ चुनकर हम उसे इस तरह सुनाते हैं, जिससे वे युवाओं
के मस्तिष्क पर असर छोड़ें और उन्हें अपने धर्म के प्रति प्रेम और आत्म-सम्मान की
भावना सिखाएं... अपने पाठ के दौरान जब भी मोर्चेबंदी, खंदक, गनिमिकवा और
चापा जैसे शब्द या भाव, और साथ ही हथियारों के नाम आते, तो हमारा प्रयास रहता
कि उन्हें पूरी स्पष्टता से समझाया जाए।
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इस समूह ने बंबई में महारानी विक्टोरिया की प्रतिमा पर तारकोल फें क कर उसे बदसूरत
करने का निर्णय किया। घटना को अंजाम देने के बाद दामोदर ने ठाणे के स्थानीय समाचार
पत्र सूर्योदय के संपादक को ‘दंडपाणि’ (अर्थात ‘हाथ में दंड या लाठी लिए व्यक्ति’) नाम
से भेजे संदेश में गुट के लक्ष्य और उद्देश्य साफतौर पर लिख भेजे।
हमने दंडपाणि नाम से एक संस्था का गठन किया है। हमारा स्थाई मंतव्य अपने धर्म की
खातिर मरना और मारना है। इसका पहला कार्य इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की
प्रतिमा को विरूपित करने से जुड़ा है जो स्थानीय लोगों और यूरोपियनों के बीच
भेदभाव करती हैं
...दंडपाणि संस्था किसी के असर में नहीं आएगी। महारानी हो या उनसे भी बड़ा कोई
और, जो भी अनैतिकता को प्रश्रय देगा, वह संस्था का शत्रु है।
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परंतु चापेकर बंधुओं द्वारा सबसे बड़ा कार्य राजनीतिक हत्या का रहा। वह महाभारत
और गीता के उपदेश से प्रेरित थे, जिसमें कहा गया है कि स्वधर्म या अपने विश्वास के लिए
एवं बुराई को अच्छाई की ताकत से समाप्त कर देना अनैतिक नहीं होता। 22 जून 1897
को पूना में महारानी विक्टोरिया की स्वर्ण जयंती का आयोजन चल रहा था। पिस्तौल से
लैस दामोदर और बालकृ ष्ण ने घुप अंधेरे में, गणेशखिंड मार्ग के निकट एक स्थान चुना
और अपने शिकार का इंतजार करने लगे। जब सरकारी भवन से बग्गी आती दिखी तो
दोनों भाइयों ने कू ट भाषा में एक दूसरे से कहा ‘गोंडया आला रे आला’ (हमारा शिकार आ
गया)। बालकृ ष्ण बग्गी पर लपका और उसके सवार को गोलियां दाग दीं। अगले ही पल
उसे अहसास हुआ कि जिसे उसने मारा, वह रैंड नहीं बल्कि उसका फौजी सहायक अयेर्स्ट
था। मार्ग पर बहुत अंधेरा था, इसलिए पीछे आ रही गाड़ी का चालक सामने की घटना नहीं
देख सका। बालकृ ष्ण ने फौरन दामोदर को इशारा किया, जो तुरंत हरकत में आया और
पीछे आ रही रैंड की बग्गी पर चढ़ गया और पीछे से सवार के सिर में गोलियां उतार दीं। रैंड
को ससून अस्पताल ले जाया गया जहाँ 3 जून 1897 को उसकी मौत हो गई। घटना को
अंजाम देकर दोनों भाई अंधेरे में फरार हो गए।
इस घटना से अंग्रेज सरकार सोते से जागी और हत्यारों की सूचना देने वाले को 20,000
रुपये का ईनाम देने की उसने घोषणा की। चापेकर बंधुओं के पूर्व सहयोगी, द्रविड़ बंधु
मुखबिर बन गए और उन्होंने सरकार को साजिश की सूचना दे दी। इसके अंतर्गत, चापेकर
बंधुओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत आरोप लगाते हुए उन्हें गिरफ्तार
किया गया। 8 अक्तू बर 1897 को प्रमुख प्रेसिडेंसी न्यायाधीश डब्ल्यूआर हेमिल्टन के सामने
दामोदर ने हमले की पृष्ठभूमि पर कु छ इस तरह प्रकाश डाला:
मैं पूना गया था.... वहाँ प्लेग की रोकथाम का अभियान चल रहा था.... प्लेग पीड़ित
घरों की तलाश में सिपाहियों द्वारा बेहद जुल्म किया जा रहा था। (वह) मंदिरों में पहुँच
जाते और महिलाओं को उनके घरों से घसीट लाते, मूर्तियाँ तोड़ते और पोथियां (धार्मिक
पुस्तकें ) जलाते, हम इसका बदला लेने को प्रतिबद्ध थे, लेकिन आम सिपाहियों को
मारने का कोई अर्थ न था, आला अधिकारी को मारा जाना ज़रूरी था। इसलिए हम श्री
रैंड को मारने के लिए प्रतिबद्ध थे।
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बालकृ ष्ण भागने में कामयाब हो गए परंतु एक बार फिर द्रविड़ बंधुओं ने मुखबिरी की और
सरकार ने उन्हें पकड़ लिया। चापेकर बंधुओं में सबसे छोटे भाई सदाशिव ने महादेव
विनायक रानाडे और खांडो विष्णु साठे के साथ मिलकर, द्रविड़ बंधुओं को उनके
विश्वासघात की सज़ा देने के लिए, उनके घर सदाशिव पेठ में 8 फरवरी 1899 को मार
डाला। हालाँकि बाद में सभी गिरफ्तार कर लिए गए।
18 अप्रैल 1898 को दामोदर हरि को फांसी दे दी गई। अगले वर्ष, वासुदेव, बालकृ ष्ण
और रानाडे को भी क्रमश: 8 मई, 10 मई और 12 मई को मृत्युदंड दिया गया।
इन राजनीतिक हत्याओं और उसके बाद चापेकर बंधुओं को मृत्यु की सज़ा दिए जाने से
समूची बॉम्बे प्रेसिडेंसी तनावग्रस्त थी। उनकी बहादुरी, मुकदमे का ब्योरा और फांसी के
तख्ते पर गीता के श्लोक पढ़ते हुए मृत्यु को गले लगाने की उनकी हिम्मत ने विनायक को
बहुत प्रेरित किया। परंतु जब कु छ समाचार पत्रों ने चापेकर बंधुओं को दिशाहीन और
आवेशपूर्ण युवा करार दिया, तो वह बहुत कु पित हुए। बेशक उनकी कार्यशैली में
योजनाबद्ध और नीतिगत कमियां थीं, परंतु विनायक यह कभी स्वीकार नहीं कर सकते थे
कि देश के लिए जान देने वाले शहीदों के लिए अपशब्द कहे जाएं। इसके बाद उनके रातों
की नीदें उड़ चुकी थीं। ऐसे ही संवेदनापूर्ण क्षणों में वह भागुर में अपने घर में स्थित
अष्टभुजा भवानी की प्रतिमा के सामने पहुँचे और अपने उद्गार व्यक्त किए। उन्होंने कु लदेवी
के सामने शपथ ली कि वह अपने जीवन को मातृभूमि को आज़ाद कराने हेतु सशस्त्र क्रांति
के लिए समर्पित करते हैं। उन्होंने देवी के समक्ष कहा, ‘शत्रुस मारता मारता मारे तो
झुंझेन!’ (मैं शत्रु के खिलाफ युद्ध करूं गा और अंतिम सांस तक उसे मारूं गा)। उन्हें इस
बात का अंदाजा ही नहीं था कि एक किशोर द्वारा ली जाने वाली इस प्रतिज्ञा के दूरगामी
परिणाम कितने ही लोगों के लिए खूनखराबे, हमलों, मृत्युदंड और कै द के रूप में सामने
आएंगे। परंतु उस रात कु लदेवी के सामने क्रांतिकारी विचार की नींव पड़ गई थी और इसके
बाद मुड़ कर देखने का कोई अर्थ ना था।
विनायक ने कु लदेवी के सम्मान में दुर्गा दस विजय
नामक एक कविता भी लिखी, जिसमें
उन्होंने माँ से वचन निभाने के लिए उन्हें शक्ति देने की प्रार्थना की। कई वर्षों बाद जब
पुलिस ने विनायक के घर छापा मारा तो उनके सहायकों ने इस कविता की प्रतियाँ जला दी
थीं, ताकि वह उनके हाथ न लगें। भागुर में क्रांति की मसाल जलाने के लिए विनायक ने
चापेकर बंधुओं पर वीरश्रीयुक्त
नाम से एक नाटक भी लिखा था जिसका मंचन करने में
रानो दर्जी नामकी स्थानीय नाटक मंडली ने रुचि भी दर्शाई थी, परंतु अंत समय में परिणाम
के डर से उसने हाथ खींच खींच लिए। विनायक की कविता ‘चापेकरंच फाटक’ कु छ इतनी
प्रसिद्ध हुई कि यह 1910 के दशक तक समूचे महाराष्ट्र में युवाओं को प्रेरित करती रही।
कविता का पाठ करने पर हर बार, विनायक भावविभोर हो जाते और क्रोध एवं दुःख से
उनकी आवाज़ भर्रा जाती।
अपने पुत्र में घर बना चुकी क्रांतिकारी भावना से दामोदरपंत बहुत चिंतित रहने लगे थे।
हालाँकि, विनायक में बहुत छोटी सी आयु से तिलक और उनके कार्यों के जरिए राष्ट्रप्रेम की
भावना का बीज उन्होंने ही बोया था। यह देखकर कि उनका पुत्र अल्पायु में ही इस विचार
से कितने गहरे से जुड़ गया है, वह उनके रूपांतरण पर गर्व भी करते थे। परंतु उनके द्वारा
निरंतर अंग्रेजों को मारने की बात करने, रातों को जागते रहने, उनकी व्याकु लता और
विचारमग्न रहने से वे परेशान रहा करते। एक रात, दामोदरपंत विनायक के कमरे में पहुँचे
और उसे कविता लिखते समय रोते हुए देखा। उन्होंने कागज उठा कर देखा तो विनायक
चापेकर बंधुओं पर कु छ लिख रहे थे। उन्होंने उनकी काव्य रचना की तारीफ की, परंतु फिर
बहुत स्नेह के साथ उनके मुँह को अपने हाथों में लिया और कहाः ‘तात्या, तुम हमारे
परिवार की एकमात्र उम्मीद हो, हमारे घर की धुरी हो और मेरा सहारा हो। अपने जीवन को
संकट में मत डालो। तुम्हें अंदाजा नहीं कि जिस रास्ते पर तुम चलने का प्रयास कर रहे हो,
उसके कितने भयंकर परिणाम होते हैं। कविता लिखना जारी रखो; खूब पढ़ो, बड़े आदमी
बनो और उसके बाद जो चाहे सो करना।’
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विनायक उस समय खामोश रहे परंतु उन्होंने
खुद से कहा कि कोई उनकी कसम को बदल नहीं सकता।
पूना और शेष बॉम्बे प्रेसिडेंसी में आम धारणा थी कि उग्र क्रांतिकारी घटनाएँ अलग-थलग
पड़े गुट ही अंजाम देते हैं। यहाँ तक कि के सरी
भी चापेकर बंधुओं के पक्ष में नहीं था और
तिलक ने राजनीतिक हत्याओं को ‘पूना की भयावह त्रासदी जिसकी हम सब निंदा करते
हैं’ कहा था। हालाँकि, उन्होंने प्लेग से निपटने के लिए औपनिवेशिक ज्यादतियों को
जिम्मेदार ठहराया, जिसके बाद हर तरफ ‘असंतोष की लहर’ थी।
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परंतु यह के वल शब्द-
क्रीड़ा थी। तिलक ने पुरजोर आवाज में सरकार की निंदा नहीं की और हिंसा की भी सतही
और हल्के तौर पर निंदा की थी। यह आम धारणा थी कि वह भीतर से चापेकर बंधुओं को
सहयोग करते थे।
परंतु यह अथक परिश्रमी शिवराम महादेव परांजपे (1864-1929) द्वारा संपादित
समाचार पत्र काल
था, जिसके संपादकीय ने कहा कि चापेकर बंधुओं ने जो किया वह
उनकी नजर में मानवीय कानून से ऊं चे, दैवीय कानून के अनुसार था।
31
परांजपे तिलक के
पुराने सहयोगी रहे थे। उनके उग्र लेखन के कारण, उन्हें बहिष्कृ त होना पड़ा। दादाभाई
नौरोजी ने कांग्रेस के किसी भी सत्र में शामिल होने पर उन पर पाबंदी लगा दी थी, जिस
कारण संस्था की ही बदनामी हुई।
क्रांतिकारी भावना दर्शाने वाले काल
के उग्र आलेखों का विनायक पर गहरा असर हुआ
और वह परांजपे और उनके समाचार पत्र के प्रशंसक बन गए। उनके अपने शब्दों में:
मैं जहाँ भी जाता, काल
पढ़ने पर ही जोर देता और दूसरों को भी पढ़कर सुनाता...
क्योंकि ऐसा कोई अन्य पत्र नहीं था जो (खुलकर) सशस्त्र संघर्ष की हिमायत करता
हो... (और) यदि (काल
) ने सीधे मेरे विचारों पर असर नहीं डाला, तो उसने मेरे ज्ञान,
समझबूझ, भाषाशैली और उत्साह पर तो असर किया ही था... यदि अपनी क्रांतिकारी
प्रेरणा के लिए किसी को मैं गुरु स्वरूप मानता हूं, तो वह निश्चित तौर पर कल
है।
32
चापेकर कांड का अप्रत्याशित नतीजा धारा 124ए के अंतर्गत, राजद्रोह के आरोप में
तिलक की गिरफ्तारी रूप में सामने आया। इस मामले में प्रमाण के तौर पर 1897 में
शिवाजी महोत्सव के दौरान उनके द्वारा दिया गया भाषण था जिसे राजनीतिक हत्याओं से
कु छ दिन पहले ही के सरी
में प्रकाशित किया गया था। बंबई सरकार का दावा था कि
तिलक और अन्य व्यक्तियों द्वारा शिवाजी महोत्सव में दिए गए भाषण की एक
अहस्ताक्षरित रपट और विषय, विचार और आलंकारिक नीतियों के अधीन छद्मनाम से
लिखी गई एक कविता ‘सरकार के प्रति विद्वेष’ भड़काने के काम में लाई गई थी।
33
‘शिवाजी का कथन’ (‘भवानी खड़ग चिन्ह’ नाम से लिखित) कविता के सरी
के
संपादकीय पन्नों पर प्रकाशित हुई थी। इसमें कविता का शीर्षक चरित्र भारत की दशा-दिशा
पर अस्पष्टता का बोध दर्शाने वाली भाषा में शोक दर्शाता है। इसकी आरंभिक पंक्तियाँ यूं
हैं: ‘दुष्टों को समाप्त कर मैंने विश्व को भारमुक्त किया। स्वराज्य स्थापित कर और धर्म की
रक्षा कर राष्ट्र को बचाया। अपने ऊपर छाई थकान को मैंने झटक कर दूर करने के लिए
सहारा लिया। मैं सोया हुआ था, मेरे मित्रो, फिर क्यों तुमने मुझे जगाया ?’
अहस्ताक्षरित रपट के अनुसार, 12 से 14 जून 1897 को आयोजित शिवाजी महोत्सव में
शामिल हुए प्रतिष्ठित लोगों में से एक, प्रोफे सर जिनसिनवाले ने अपने संभाषण में कहा,
‘यदि यूरोप में दो हजार हत्याएं करने वाले नेपोलियन को कोई दोषी नहीं मानता, यदि कई
बार, सीजर द्वारा गाॅल में निरुद्देश्य नरसंहार करने को दयालुता कहा जाता है तो एक या दो
व्यक्तियों को मारने के लिए श्री शिवाजी महाराज पर क्यों द्वेषपूर्ण हमले किए जाते हैं ?
फ्रांसीसी क्रांति में शिरकत करने वाले लोग इनकार करते हैं कि उन्होंने हत्याएं कीं और
जोर देकर कहते हैं कि वह अपने मार्ग के कांटे साफ कर रहे थे, तो फिर महाराष्ट्र पर यही
सिद्धांत क्यों लागू नहीं होता ‘?
34
उस आलेख में असाधारण किस्म की हिंसा के ऐसे कई उद्धरण देकर ध्यान खींचा गया,
जिनके आधार पर भारत में राजनीतिक हिंसा को बर्बरता और विश्व के अन्य हिस्सों में
बहादुरी कहा जाता है। तिलक के अनुसार:
एक बार मान लिया जाए कि शिवाजी ने अफ़ज़ल ख़ान की हत्या की योजना बनाई
और उसे क्रियान्वित भी किया। महाराजा का यह कृ त्य सही था या गलत ? यह ऐसा
प्रश्न है जिस पर सोचना होगा और इसे दंडसंहिता या मनु की स्मृतियों अथवा
याज्ञवल्क्य या फिर पश्चिमी एवं पूर्वी आचार संबंधी नैतिक पद्धति के आधार पर नहीं
देखा जाना चाहिए। समाज को बांधने वाले नियम, आप और मुझ जैसे साधारण लोगों
के लिए होते हैं। कोई भी किसी ऋषि की वंशावली के संबंध में छानबीन अथवा किसी
राजा को दोषी नहीं ठहरा सकता। महापुरुष नैतिकता के आम सिद्धांतों से ऊपर होते
हैं। यह सिद्धांत महापुरुषों की पीठिका तक पहुँचने से पहले ही धराशायी हो जाते हैं।
क्या शिवाजी ने अफ़ज़ल ख़ान को मारकर कोई अपराध किया था ? इस प्रश्न का उत्तर
स्वयं महाभारत से मिलता है। गीता में श्रीमत कृ ष्ण अपने गुरुओं (एवं) नातीदारों को
मारने की सलाह देते हैं। व्यक्ति को (कोई दोष नहीं दिया जाता) यदि (वह) फल प्राप्ति
(अपने कार्य की) की इच्छा बिना कार्य करता है। श्री शिवाजी महाराज ने अपने उदर
(अर्थात, अपने हितों) पूर्ति के छोटे लक्ष्य के लिए कोई कार्य नहीं किया था। उन्होंने
अफ़ज़ल ख़ान की हत्या दूसरों के भले के लिए की थी... अपने विचारों को कु एं में गिरे
मेढ़क की तरह सीमित न रखें ; दंडसंहिता से ऊपर उठकर श्रीमद भगवद्गीता के
उच्चालोक में प्रवेश करें और तत्पश्चात महापुरुषों के कार्य का आकलन करें।
35
वैचारिक सीमाओं को लांघते हुए, सेठ द्वारकादास, वाईवी नेने, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और
दादाभाई नौरोजी ने तिलक के समर्थन में आवाज उठाई। जैसा कि सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने
लिखा: ‘मेरे हृदय में तिलक के लिए पूरी संवेदना है, मेरी भावनाएं कारागार में उनके साथ
हैं। पूरा राष्ट्र इस घटना पर आंसू बहा रहा है’।
36
बंगाली राष्ट्रवादियों द्वारा तिलक को
वित्तीय सहायता भी दी गई, और उन्होंने तिलक डिफें स फं ड का भी गठन किया। उन्होंने
कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील एलपीई पुघ को अदालत में बचाव पक्ष में नियुक्त किया और
उनकी 10,000 रुपये की फीस भी भरी।
37
बंबई में मुकदमा छह दिन (8 से 14 सितंबर
1897) तक चला। तथापि, नौ सदस्यीय ज्यूरी को छह और तीन के अंतर से फै सले पर
पहुँचने में के वल चालीस मिनट लगे। ज्यूरी में छह अंग्रेज और तीन भारतीय थे। तिलक को
अठारह महीने की कड़ी सज़ा मिली, परंतु सज़ा पूरी होने से कु छ ही माह पूर्व उन्हें छोड़
दिया गया।
तिलक को सज़ा की घोषणा के बाद देश भर में उनके समर्थन में एक विराट लहर पैदा
हुई। 25 सितंबर 1897 को मध्यमार्गी समाचार पत्र बंगाली
ने सहयोग के रूप में अखबार
की सीमा पर काली पट्टी छापी (कलकत्ता के आनंद बाजार पत्रिका
और इंडियन मिरर
ने
भी ऐसा ही किया) और लिखा:
श्री तिलक के प्रति आदर एवं संवेदना स्वरूप बेंगाली
का यह अंक काली पट्टी के साथ
आया है। हमारा मानना है कि थोपे गए आरोपों से वह बेकसूर हैं। भारत का कोई भी
बाशिंदा, श्री तिलक जैसी समझबूझ और क्षमता वाला (और उनके शत्रु भी मानेंगे कि
वह असाधारण क्षमतावान व्यक्ति हैं), अंग्रेज सरकार के लिए वफादार के अतिरिक्त
कु छ और नहीं होगा।
38
इसी तरह मद्रास के मध्यमार्गी समाचार पत्र द हिंदू
ने 15 सितंबर 1897 को अफसोस
जताया:
श्री तिलक को मिली सज़ा ने पूरे देश को अवसाद में डाल दिया है। इस समाचार से
चारों ओर बेहद दुख और अपमान महसूस किया गया। ऐसा नहीं कि इससे कानून एवं
न्याय की नीति की जीत हुई हो, परंतु कु छ समय से देश के शत्रु जिस प्रतिक्रियात्मक
नीति की बात कर रहे थे, उसकी विजय हुई है।
39
इलाहाबाद से प्रकाशित एक अन्य मध्यमार्गी समाचार पत्र एडवोके ट
ने लिखा:
श्री तिलक को मिली सज़ा से समूचे देश में जो सनसनी फै ली, वह स्वाभाविक है...
राज्य द्वारा थोपे गए इस मुकदमे के बाद उनका नाम घर-घर में गूंज रहा है और यह
अतिशियोक्ति नहीं होगी कि हम यह कहें कि समाचार पत्र पढ़ने वाला प्रत्येक भारतीय,
या किसी अन्य माध्यम से जनमत की जानकारी रखने वाला उनके दुर्भाग्य पर गहराई
से सोच रहा होगा, जबकि ऐसे हज़ारों नहीं, लाखों लोग हैं जो उन्हें सच्चा राष्ट्रप्रेमी
मानते हैं।
40
~
एक ओर जहाँ देशप्रेम की भावना विनायक पर पूरी तरह से आच्छादित हो गई थी,
बाबाराव इससे अछू ते ही रहे। उन्होंने अंग्रेजी माध्यम से पांचवीं कक्षा पास की, परंतु इसके
बाद शिक्षा में उनकी रुचि कम होती गई। सातवीं कक्षा तक वे अपने पिता के भय के ही
कारण पहुँचे। बाबाराव असाधारण रूप से पूर्णतया विरोधाभासी लोगों के प्रति आकर्षित
थे - एक ओर वह बिखरे बालों और भभूत मले धर्म गुरुओं के पास जाते, तो दूसरी ओर रंगे
हुए चेहरों वाले रंगकर्मियों के पास। चाय और खानपान की वस्तुओं का स्वाद लेते हुए देर
रात तक नाटक, नृत्य और गायन पर चर्चा करना उन्हें बहुत भाता था। और दिन के समय
वह साधुओं के साथ भटकते हुए तंत्र के रहस्य को समझने का प्रयास करते। 1898-99 में
खबर फै ली कि स्वामी विवेकानंद मायावती आश्रम में उनके साथ रहने वाले को राजयोग
का सिद्धांत सिखाएंगे।
41
पहले ही पारिवारिक जीवन से विमुखता दिखा चुके बाबाराव
वहाँ जाकर उनके अधीन अपनी आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करना चाहते थे। यदि इस बार
महाराष्ट्र में उनके घर के निकट ही प्लेग महामारी ने एक बार फिर दस्तक न दी होती, तो
सावरकर परिवार बाबाराव को खो देता।
1899 में जब नासिक में प्लेग फै ला, तो दामोदरपंत ने बाबाराव और विनायक को कु छ
समय स्कू ली शिक्षा रोक कर भागुर लौट आने को कहा। विनायक की बहन मैना और
जीजा त्र्यम्बके श्वर में रहते थे, और जब महामारी ने वहाँ दस्तक दी तो दामोदरपंत ने उन्हें
भी भागुर आने की सलाह दी। परंतु यह नियति ही थी कि जब सब लोग भागुर पहुँचे, तब
तक प्लेग वहाँ भी फै ल गया था। सरकार की दमनकारी प्लेग नीति को देखते हुए लोग
अपने घर में प्लेग रोगियों की सूचना छु पाने लगे। मरे हुए चूहों को बिल्लियों द्वारा शिकार
बनाया हुआ बताया जाने लगा। सावरकर परिवार भी अपने अहाते में मृत चूहों को चुपचाप
दफनाता रहा। जल्दी ही उनके आस-पड़ोस में भी प्लेग फै ल चुका था। आसपास के घरों में
बीमारी से जूझ रहे पड़ोसियों की चीख-पुकार सुनते हुए विनायक रात भर खिड़की के पास
बैठे रहते। वह अपनी वसीयत अनुरूप लिखना चाहते थे कि यदि वह भी रोग का शिकार
होते हैं तो उनका समूचा काव्य, दुर्गा दस विजय, सर्वसार संग्रह
और अन्य कविताओं को
उनके मृत्योपरांत प्रकाशित किया जाए।
कई लोगों द्वारा मना किए जाने के बावजूद, कर्तव्यबोध और करुणा से प्रेरित दामोदरपंत
राहत कार्यों में व्यस्त रहे। एक शाम, प्लेग के शिकार अपने कु छ मित्रों के घर से लौटते
समय वह बहुत उद्विग्न दिख रहे थे। बिना किसी से एक भी शब्द कहे वह घर के ऊपरी तल
में जाकर लेट गए। आमतौर पर अपने पिता के साथ ही सोने वाले बल को उनके पास जाने
की कड़ी मनाही थी। उसके बजाय उन्होंने विनायक को बुलाया और नम आँखों से कहा कि
उनके जोड़ों में तेज दर्द है और शायद उन्हें भी प्लेग ने चपेट में ले लिया है। विनायक ने
अपने संस्मरणों में लिखा है कि बचपन से ही संकट की स्थिति का सामना होते ही वह
पाषाण-हृदय हो जाते और बिना भावुक हुए कर्मोन्मुख होकर सामने आई समस्या को
सुलझाने के उपाय सोचने लगते। वह तुरंत ही अपने पिता के लिए दवाइयाँ लाए और
परिवार ने मामले को गुप्त रखने का निर्णय लिया ताकि पुलिस उनसे घर खाली ना करा ले।
बल को मुख्यद्वार पर पहरे पर बैठाया गया ताकि कोई अंदर न आ सके ।
एक बार, जब विनायक ने बल को उसके स्थान से भटकते देखा तो वह क्रोध में चिल्ला
उठे । छोटा बालक अपने बड़े भाई के पास आया और रोते हुए बोला कि उसकी टांगों में भी
तेज दर्द है। बल को भी प्लेग ने घेर लिया था। भयाक्रांत विनायक ने अपनी भाभी येसु
वहिनी से बल की देखभाल करने को कहा, और वह स्वयं दामोदरपंत की तीमारदारी में लगे
रहे। विनायक और येसु उत्सुकता से बाबाराव की बाट जोह रहे थे जो अपनी बहन और
जीजा को लेने त्र्यम्बके श्वर गए थे। दामोदरपंत की हालत बिगड़ती जा रही थी। प्लेग के
कारण तेज प्यास लगती है, परंतु उन्हें पानी देना मना था, जिस कारण वह जोर से चिल्लाते
और कई बार हिंसक हो उठते। बाबाराव अगली सुबह वहाँ पहुँचे और घर की हालत
देखकर उन्होंने मैना और उनके पति को किसी अन्य स्थान पर रहने को कहा। 5 सितंबर
1899 की उस रात दामोदरपंत बहुत उत्तेजित हो रहे थे और उन्हें घर की ऊपरी मंजिल में
बंद रखा गया था। प्रातःकाल दरवाजा खोलने पर उन्होंने पाया उनके पिता गुजर चुके हैं।
सोलह वर्ष की अल्पायु में ही विनायक अनाथ हो गए।
परिवार अभी दामोदरपंत की मृत्यु का शोक नहीं मना सकता था क्योंकि बल की हालत
अस्थिर थी। दामोदरपंत की मृत्यु के बाद परिवार का उस मकान में रहना संभव नहीं था
क्योंकि सरकार उन्हें दूरदराज के कै म्पों में भेज सकती थी। एक पारिवारिक मित्र की मदद
से उन्होंने शहर से बाहर एक झोपड़ी का इंतजाम कर लिया। इस बीच, उन्हें कु छ दिन शहर
के महादेव और गणेश मंदिरों में भी गुजारने पड़े थे। छोटी सी उम्र में ही अपने माता-पिता
को खो चुके अपने भतीजों के पास उनके बापू काका आ पहुँचे थे। विनायक अपने
संस्मरणों में लिखते हैं कि यह संघर्ष शारीरिक और मानसिक तौर पर इतना थका देने वाला
था कि उन्हें लगता था कि वह किसी भी पल थकान से गिर पड़ेंगे। दुर्भाग्यवश, कु छ ही
दिनों में बापू काका भी प्लेग की चपेट में आ गए।
सावरकर परिवार के सामने खड़ी समस्या पहाड़ सरीखी थी। जिस स्थान पर उन्होंने
पनाह ली थी, वहाँ डाकु ओं का खतरा था। परिवार को डर था कि पुराने जमींदार होने के
नाते उन्हें लूटा जा सकता है। दूर-दराज के इस इलाके के निकट श्मशान घाट भी था; लोगों
के बिलखने की आवाजें, जलती लाशों की दुर्गंध और उल्लुओं तथा सियारों के रोने की
आवाज वहाँ डरावना माहौल पैदा करती थीं। विनायक को याद था कि उन डरावने दिनों में
कै से एक आवारा कु त्ता रात को उनके पास आ जाता और यदि रात के समय कोई अनजान
व्यक्ति उनके निकट आने का प्रयास करता, तो वह भौंक कर उसे भगा देता।
सावरकर परिवार के संकट की सूचना नासिक पहुँची। दामोदरपंत के एक मित्र रामभाऊ
दातर, उनके पूरे परिवार को नासिक ले आए। रामभाऊ दातर के पिता को प्लेग होने पर
कभी दामोदरपंत ने उनकी मदद की थी। परंतु कड़ी सरकारी छानबीन से बचते हुए एक
शहर से दूसरे शहर पहुँचना बहुत कठिन कार्य था। अपने आसपास के लोगों द्वारा ऐतराज
किए जाने पर कि प्लेग संक्रामक रोग है, उन्होंने सावरकर परिवार को अपने घर ही रखा।
दुर्भाग्यवश, नासिक पहुँचने और अपने भाई की मृत्यु के दस दिन बाद बापू काका का भी
निधन हो गया। प्रतिदिन दुःख की छाया लंबी होती जा रही थी।
बल अभी तक बीमारी की चपेट में था और उसे प्लेग अस्पताल में भर्ती कराया गया।
बाबाराव उसके पास ही रहते और पूरे दिन उसकी तीमारदारी में लगे रहते। अस्पताल में
एक यूरोपियन नर्स थी जिसका रोगियों के प्रति बर्ताव बहुत बुरा था। कई लोगों का मानना
था कि उसका दुर्व्यवहार और गैर-पेशेवराना रवैया झेलने की बजाय, बीमारी झेलना कहीं
आसान था। जब उसने बल के साथ भी ऐसा व्यवहार दिखाया, तो बाबाराव का उससे
झगड़ा हो गया। उन्होंने वरिष्ठ डाॅक्टर से शिकायत कर उसे वहाँ से निकलवा दिया। उसके
बाद, जब तक नर्स का विकल्प नहीं आ पहुँचा, बाबाराव ने अपनी सेहत की चिंता किए
बिना रोगियों की सेवा-सुश्रुषा की। उन्हें अस्पताल से वापस आने या किसी बाहरी व्यक्ति से
बात करने की अनुमति नहीं थी। दातर के घर के बाहरी हिस्से में के वल विनायक और येसु
वहिनी ही थे और प्रतिपल अस्पताल के हालात पर सोचते रहते। विनायक रोज़ अपने भाई
के लिए खाना ले जाकर बाहर ही इंतजार करते। संक्रामक रोग के खतरे को देखते हुए उन्हें
बाबाराव से मिलने की अनुमति नहीं होती। और एक दिन बाबाराव के बीमार पड़ने से जुड़ा
उनका डर सच हो ही गया। सूचना पाकर विनायक हतोत्साहित हो गए।
आखिरकार बाबाराव और बल रोगमुक्त हुए और तब तक नासिक में प्लेग का असर भी
धीमा हो गया था। दोनों घर लौट आए और कु छ ही महीनों में उनके स्वास्थ्य में भी सुधार
आ गया। इसके बाद परिवार ने नासिक में ही बस जाने का फै सला किया।
उस भयानक रात, जब बुखार में जल रहे नन्हे बल को लेकर सावरकर परिवार अस्तित्व
रक्षा के लिए इधर-उधर भागता फिर रहा था, विनायक ने भागुर को सदा के लिए अलविदा
कह दिया। अब नासिक में एक नया जीवन उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
3
एक क्रांतिकारी का उदय
नासिक, 1899
नासिक शहर से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं और इसकी प्राचीनता रामायण काल
से संबद्ध मानी जाती है। तब इसे पंचवट, यानी पांच वट वृक्षों की भूमि के नाम से पुकारा
जाता था। कहते हैं कि वनवास काल में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण यहाँ रहे थे। यही
वह स्थान है जहाँ लक्ष्मण ने असुर राजकु मारी सूर्पनखा की नाक काटी थी, जिसके बाद
इसका नाम नासिका पड़ा। संस्कृ त में नाक को नासिका कहते हैं। कई लोगों का यह भी
मानना है कि चूंकि यह नगर नौ पहाड़ियों (मराठी में शिखर) से घिरा है, इसलिए इसे नव-
शिखा कहते थे, जिसे कालांतर में नासिक पुकारा जाने लगा।
1
यहाँ हिन्दू मत से जुड़े कई
पवित्र स्थल हैं जिनमें एक है सीता गुफा, जहाँ सीता आराधना करती थीं ; भगवान राम के
नाम पर राम कुं ड है, कहा जाता है कि वह उसमें स्नान करते थे और यहीं राजा दशरथ की
अस्थियां आश्चर्यजनक रूप से विलीन हो गई थीं। प्रत्येक बारह वर्षों में एक बार नासिक में
महाकुं भ का आयोजन होता है, जिसमें देश भर से श्रद्धालु गोदावरी के पवित्र जल में स्नान
करने आते हैं। नासिक अनेक प्रतिष्ठित राजवंशों की नगरी भी रहा है। पेशवा बाजीराव
द्वितीय इसे अपनी राजधानी बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने यहाँ अठारहवीं सदी
के अंत में एक महल ‘पेशवा वाडा’ (बाद में सरकार वाडा के नाम से प्रचलित) का निर्माण
भी कराया था। विडंबना है कि अंग्रेज सरकार ने इस इमारत का इस्तेमाल स्वतंत्रता संग्राम
केे दौरान क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए किया।
जब सावरकर परिवार नासिक में स्थाई तौर पर बस गया, उस समय यह महाराष्ट्र के
सबसे पिछड़े कस्बों में से था। यहाँ के वल संकरी गलियां, तीर्थयात्रियों को तंग करने वाले
पंडे और धूल से सने रास्ते ही थे। हालाँकि, जिला मुख्यालय होने के कारण यहाँ अंग्रेजी
शिक्षा की बेहतर सुविधा थी, और इसी कारण दामोदरपंत ने बाबाराव और विनायक को
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए नासिक भेजा था।
दामोदरपंत के निधन से पूर्व के अपने नासिक प्रवास के दौरान सावरकर बंधु तिलबंधेश्वर
की संकरी गलियों में रहने चले गए थे, जहाँ निकट ही भगवान शिव का मंदिर भी था।
उन्होंने वर्तक परिवार के घर में सबसे ऊपर एक कमरा किराए पर लिया। उस समय
परिवार के मुखिया वर्तक जी का निधन हो चुका था, परंतु उनकी पत्नी, एक बेटी और तीन
बेटे - नाना, त्रिम्बक और श्रीधर उन्हें अपने ही परिवार का अंग मानते थे। 1899 में स्थाई
तौर पर नासिक में रहने के लिए परिवार ने तिलबंधेश्वर क्षेत्र का ही चुनाव किया जहाँ
रामाभाऊ दातार का घर स्थित था। रामाभाऊ के छोटे भाई, वामन शास्त्री भाऊ, जो बाद में
जाने-माने चिकित्सक ‘वैद्य भूषण’ बने, उस समय करीब विनायक के ही हमउम्र थे,
इसलिए दोनों अच्छे मित्र बने। सावरकर और दातर, एक ही परिवार की तरह एक ही रसोई
इस्तेमाल करते, और अपनी आय भी साझा करते थे। इस नई दुनिया में और भी कई लोग
थे जो विनायक के करीबी बने और उन्होंने उनकी राजनीतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई।
जिन दिनों बाबाराव और बल नगर के प्लेग अस्पताल में भर्ती थे, बाबाराव की भेंट
अस्पताल के एक कर्मचारी, त्रिम्बक राव महास्कर से हुई। महास्कर की आयु उन दिनों तीस
वर्ष से अधिक थी, वह बेहद निर्धन थे परंतु इसके बावजूद, वह दयालु और किसी भी
जरूरतमंद की मदद के लिए तैयार रहते थे। वह शिक्षित भी थे, इस कारण बाबाराव से
उनकी मैत्री हो गई, जो उनके अलावा अस्पताल में भर्ती रोगियों में एकमात्र शिक्षित थे।
सच्चा देशभक्त होने के कारण, महास्कर नासिक में जनसभाएं और उत्सव आयोजित
करते, फिर भी वह लोकप्रिय नहीं थे। वैसे बापूराव के तकर, दाजीराव के तकर,
लोकसेवाकर बर्वे, रायबहादुर वैद्य, कवि पारख और नासिक के अन्य जाने-माने नेता
महास्कर को भली-भांति जानते थे और उनकी सांगठनिक क्षमताओं के प्रशंसक थे।
वहीं उनके मित्र तथा सरकारी कर्मचारी, रावजी कृ ष्ण पागे, बिल्कु ल उनके उलट थे। जहाँ
महास्कर शर्मीले और अंतर्मुखी थे, पागे बड़बोले, आकर्षण का कें द्र बनने वाले और
हँसमुख स्वभाव के । महास्कर की तरह वह भी लगातार छोटे-छोटे विरोध प्रदर्शन
आयोजित करते थे। भारत के लिए सशस्त्र क्रांति के जरिए आज़ादी हासिल करने के
विचार से वह सहमत थे, परंतु इस लक्ष्य की प्राप्ति के संबंध में उनके पास स्पष्टता या
दूरदर्शिता की कमी थी। तिलक के कट्टर समर्थक के तौर पर उन्हें लगता था कि उत्सवों
और जन अभियान के जरिए जनता की एकजुटता ही राष्ट्रीय स्वाधीनता प्राप्ति का तरीका
है। उन्होंने विद्यार्थी संघ नामक एक संगठन भी तैयार किया था। बड़े भाई के रूप में
महास्कर ने विनायक को सलाह दी कि सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर आँखें मूंदकर चल देने की
बजाय उन्हें सतर्क और चैकन्ना रहना चाहिए। विनायक महास्कर और पागे से अपने मन
की बात साझा करते और उन्होंने एक गुप्त विद्यार्थी सभा का गठन करने की मंशा व्यक्त
की थी। उन्होंने कहा कि गणेश और शिवाजी महोत्सव आयोजित करने से कोई पुख्ता
नतीजा नहीं निकलेगा ; उन्हें जहरीले वृक्ष की जड़ों पर प्रहार करना होगा और ऐसा संपूर्ण
सशस्त्र क्रांति से ही संभव है। परंतु चापेकर घटना के नतीजों से उनके मन में डर समाया
हुआ था और कु छ समय तक वह शंका में ही रहे।
दातर और वर्तक परिवारों के समीप ही ढोंडोभट्ट विश्वामित्र नाम के एक पुजारी रहा करते
थे। वह गौरवर्ण, मोटे-ताजे और खुशमिजाज व्यक्ति थे जो अपनी मंदिर के काम के बाद
पान, तम्बाकू , चाय, लैमन सोडा और ताश खेलना पसंद करते थे। संक्षेप में, वह महफिलों
की जान थे। उनकी मराठा परिचारिका का पुत्र, आबा दारेकर, आठ वर्ष की आयु में लंबी
बीमारी के बाद अपंग हो गया था। लावणी गीत और एक नाटक लिखने वाला वह हँसमुख
स्वभाव का व्यक्ति था, जबकि उसकी माँ सारा दिन रोजी-रोटी के संघर्ष में घरों के काम
करती थीं। हालाँकि, आबा भी पतंगें, कागज निर्मित वस्तुएं, कागज की टोपियां और पालतू
जानवर बेचकर काफी पैसे कमा लेता था। वह अपने मुहल्ले के हुड़दंगी लड़कों की टोली
का अघोषित नेता भी था और रामाभाऊ, वामन, त्रिम्बक और अन्य लड़के भी उससे प्रेरित
रहते। अनपढ़ होने के बावजूद शिक्षित, उच्चवर्गीय और अंग्रेजी बोलने वाले लड़कों पर
उसका असर आश्चर्यजनक था।
आरंभ में आबा और उसके चेलों को विनायक अच्छा नहीं लगा और वह उसे किताबी
कीड़ा और पढ़ाकू कह कर नकारते रहे। आबा की टोली के कु छ लड़के विनायक की काव्य
प्रतिभा से चिढ़ते थे और उन्होंने इस बारे में आबा को बताया। आबा स्वयं भी टूटी-फू टी
कविताएँ रचता था। फिर भी, विनायक की बौद्धिक क्षमता और शब्द संपदा ने उस पर
असर डाला और वह उसकी लेखनी और वाचन क्षमता का रहस्य समझने को उत्सुक था।
विनायक की 1670 के ‘सिंहदाचा पोवादा’ या ‘सिंहाद का गीत’ ने आबा को आकर्षित
किया।
2
आखिरकार, पहल करते हुए वह विनायक के पास गया और लेखन में उनकी
मदद मांगी; विनायक इस संबंध में तुरंत राज़ी हो गए। व्याकरण, कविता और इतिहास के
पाठ ने आबा की सोई प्रतिभा को झकझोरा और वह आज़ादी की भावना से अत्यधिक
प्रेरित हो उठा। उसने ‘गोविंद’ नाम से लिखना शुरू किया और जल्दी ही उसकी गिनती
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध देशभक्तों और स्वातंत्र्य-कवियों में होने लगी। ‘रानावीन स्वातंत्र्य कोना
मिलाले’ (रक्तिम युद्ध के बिना किसने आज़ादी प्राप्त की है ?) उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता
है।
तिलभंदेश्वर की इन्हीं संकरी गलियों में भारत की पहली आधुनिक युवा क्रांतिकारियों की
गुप्त संस्था का गठन हुआ। नवंबर 1899 को, सोलह वर्षीय विनायक की निगरानी और
महास्कर एवं पागे जैसे सदस्यों वाले राष्ट्रभक्त समूह का गठन हुआ। तीनों युवाओं ने सशस्त्र
संघर्ष के ज़रिए भारत को आज़ाद कराने और ज़रूरी हुआ तो अपने प्राण तक देने की
शपथ खाई। इस गोपनीय संस्था के गठन और कार्यविधि से जुड़े कई विचार थाॅमस फ्रॉस्ट
की सीक्रे ट सोसाइटी ऑफ यूरोपियन रेवोल्यूशन, 1776-1876 से आए थे। फ्रॉस्ट ने ऐसी
सभाओं का अध्ययन कर कहा था कि ‘एक गुप्त संस्था को गोपनीयता और वफादारी की
शपथ, एक आरंभिक कार्यक्रम और चिन्ह, पासवर्ड, पकड़ आदि’ के अनुसार अन्य
संस्थाओं से अलग रखा जा सकता है।
3
तीनों मित्रों ने काल
के संपादक एसएम परांजपे को सलाहकार के तौर पर आमंत्रित
किया, जिनका लेखन और समाचार पत्र उनका प्रेरणास्रोत था। आरंभिक दौर में तिलक
जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता को संपर्क करना उचित नहीं समझा गया और फै सला हुआ कि
कु छ उपलब्धियों के बाद ही ऐसा किया जाए। चापेकर बंधुओं की फांसी के बाद, देवी के
सामने अपनी प्रतिज्ञा से प्रेरित विनायक अके ले ही कु छ कर गुजरने को तैयार थे। परंतु
महास्कर उन्हें सही दिशा की ओर प्रेरित करते रहे, क्योंकि उन्हें डर था कि विनायक
युवावस्था के जोश में कु छ गलत कर सकते हैं। तीनों ने संस्था को गुप्त रखने का निर्णय
किया और बाबाराव को भी इस बारे में नहीं बताया। उनका लक्ष्य कु छ युवाओं का चुनाव
और उचित प्रशिक्षण के बाद उन्हें सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित करना था। पागे पहले से
युवाओं से जुड़े थे और नवनिर्मित समूह ने अपने खोज अभियान को आगे बढ़ाने का निर्णय
लिया। तीनों ने सभा के लिए गुप्त शब्द ‘राम हरि’ रखा। अतः ‘आज राम हरि मिलेंगे’ का
अर्थ था कि समूह की गुप्त सभा होनी है।
विनायक ने सलाह दी कि उन्हें दोहरी संस्था की जरूरत है - महोत्सवों और मेलों जैसे
‘शांतिपूर्ण’ आयोजन करने वाली एक संस्था जिसकी व्यापक सामाजिक पहुँच हो और जो
राष्ट्रीय प्रेरणा एवं सांगठनिक क्षमता वाले युवाओं की पहचान कर सके । इस विधि से चुने
गए युवा, संस्था के कें द्र, गुप्त सशस्त्र क्रांति समूह का हिस्सा होंगे। इसलिए, 1 जनवरी
1900 को तीनों मित्रों ने ‘मित्र मेला’ का आरंभ किया जो राष्ट्रभक्त समूह का मुखौटा था।
धीरे-धीरे, बाबाराव, दातर बंधु, वर्तक बंधु, आबा दारेकर और अन्य युवा मित्र मेला से जुड़े।
प्रत्येक शनिवार और रविवार को उनकी मुलाकात होती; एक वाचक का चुनाव होता और
भाषण के बाद उसके प्रत्येक पक्ष पर चर्चा होती। पहले-पहल, विषय आम होते थे, परंतु
विनायक ने धीरे-धीरे राजनीति, समसामयिक मुद्दों और क्रांतिकारी जज्बे पर बात करनी
शुरू कर दी। मेले में उनके तेज-तर्रार भाषण सशस्त्र संघर्ष पर जोर देते। उनका मत था कि
जहरीले पेड़ के कु छ पत्ते काटने से कु छ नहीं होगा, उन्हें जड़ों पर वार कर उसे उखाड़ देना
चाहिए। ऐसे कार्य के लिए, कु ल्हाड़ी और अपनी जान देकर उसे चलाने वाले की जरूरत
है।
विनायक के अनुसार, कांग्रेस जहरीले वृक्ष की पत्तियाँ काटने और उस पर दूध (प्रार्थना
और ज्ञापन) चढ़ाने की बातें करती है। उनके अनुसार, कांग्रेस और गोखले का शांतिपूर्ण
ज्ञापन और प्रार्थनाओं का मार्ग कु छ भारतीयों को नौकरियां और आकर्षक पदवियां दिला
सकता है, परंतु देश को संपूर्ण स्वतंत्रता नहीं दिला सकता। विनायक ने मत रखा कि
तिलक की पहल और सविनय अवज्ञा का मार्ग भी कु छ ही लोगों को अधिकार दिलाएगा,
पूरी आज़ादी नहीं। उनका मानना था कि हालाँकि, तिलक और गोखले जैसे देशभक्तों के
गहरे राष्ट्रवाद और कार्य को छोटा कर के नहीं देखना चाहिए, बल्कि उनकी वैचारिकता का
उचित अध्ययन कर उस पर नया निर्माण किया जाना चाहिए। उनके अनुसार, एक ओर
जहाँ भारतीयों के दिलों में आज़ादी की लौ जलाने के लिए सब उनके ऋणी हैं, वहीं उनसे
आगे जाने की जरूरत है, फिर चाहे अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में सौ वर्ष और क्यों न लग
जाएं। मित्र मेला की बैठकों में विमर्श चाहे भाषा, साहित्य, अर्थव्यवस्था, इतिहास, व्यायाम,
गौरक्षा अथवा वेदांत पर हो, विनायक उसे घसीट कर राजनीतिक स्वतंत्रता और सशस्त्र
क्रांति तक ले ही आते।
सभा की शुरुआती बैठकें पागे या महास्कर के घरों में हुई। जल्दी ही उन्होंने उसका स्थान
बदल कर स्थायी तौर पर विश्वामित्र के घर के ऊपर स्थित आबा दारेकर के कमरे को बना
लिया। तिलभंदेश्वर की संकरी गलियों से, लकड़ी की पुरानी सीढ़ियों वाले पहली मंजिल पर
स्थित इस कमरे की खोज कठिन साबित हुई और इसी कारण यह उचित स्थान था। कमरे
में प्रमुख चित्र राजा रवि वर्मा द्वारा रचित शिवाजी महाराज का था। दीवारों पर नाना साहेब,
रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे जैसे 1857 के क्रांतिकारियों के अलावा, हालिया क्रांतिकारियों
वासुदेव बलवंत फड़के , चापेकर बंधुओं और महादेव विनायक रानाडे के चित्र भी टंगे थे।
यह देश के सशस्त्र क्रांतिकारी थे, और मित्र मेला के सदस्य इनके सच्चे वंशज। महास्कर ने
सलाह दी कि कमरे में ब्रिटिश राजा और रानी का भी चित्र लगा देना चाहिए क्योंकि यदि
कभी पुलिस का छापा पड़ा तो उसे शक न हो। परंतु विनायक ने इस विचार को खारिज
करते हुए कहा कि निरंकु श शासकों के चित्र दीवार पर टांग कर उसे अपवित्र करने से
गिरफ्तार होना बेहतर विकल्प है। अतः समझौते के तहत, क्रांतिकारी जज्बे को कु छ छु पाते
हुए हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र वहाँ टांगे गए।
हालाँकि, कमरा मुख्य मार्ग के बेहद निकट था और बाहरी आवाजें नहीं आती थीं, फिर
भी कोई उनकी बातें ना सुने या जासूसी न करे, यह देखने के लिए कु छ सदस्य बाहर
टहलते रहते। कमरे की आवाजें बाहर जाती थीं, परंतु शीघ्र ही सदस्य विषयांतर के लिए
कमरे में कू ट भाषा से संदेश भेजते। गैर-राजनीतिक विषयों पर सामग्री तैयार रहती, ताकि
छापा पड़ने की स्थिति में संस्था को बौद्धिक युवाओं का गैर-राजनीतिक मंच साबित किया
जा सके ।
‘हमारे देश के समग्र विकास के लिए’ जैसे उद्घोष से मित्र मेला के लक्ष्य भी अस्पष्ट रखे
गए थे। नए सदस्यों की पात्रता के संबंध में संतुष्ट होने के बाद ही पुराने सदस्य उनका चुनाव
करते। मेला सदस्यों की सूची शीर्षक के बिना तैयार करता ताकि पुलिस को उनकी
गतिविधियों पर शक ना हो। धीरे-धीरे, सरकार को उनकी गतिविधियों पर शंका होनी शुरू
हुई, इसलिए मेला ने आमतौर पर तैयार किए जाने वाले आय-व्यय ब्योरों सहित कु छ भी
लिखना बंद कर दिया।
नासिक में शिवाजी महोत्सव फीका ही रहता था, परंतु मित्र मेला के प्रेरित युवाओं के
कारण 1900 का महोत्सव, भव्य आयोजन बन गया। इस अवसर पर विनायक ने उत्तेजक
भाषण दिया:
अब तक महाराष्ट्र के लोग बोलते आए हैं कि शिवाजी उत्सव के वल एक ऐतिहासिक
आयोजन है और उसका राजनीतिक महत्व नहीं होता। परंतु नासिक में यह आयोजन
ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों है। के वल वह लोग, जिनमें शिवाजी महाराज की
तरह देश की आज़ादी के लिए लड़ने की क्षमता है, को उनकी याद में इस समारोह के
आयोजन और उसे मनाने का अधिकार है। लिहाजा, हमारा प्रमुख लक्ष्य औपनिवेशिक
शासन की बेड़ियों को काट फें कना होना चाहिए। यदि हमारा एकमात्र लक्ष्य विदेशी
शासन में आराम ढूँढ़ना, मोटी तनख्वाहें बटोरना, टैक्स कम कराना, छोटे-मोटे कानूनों
को कमजोर करना, पेंशन और सुविधाएँ प्राप्त करने जैसे महत्वहीन मुद्दों पर सरकार के
साथ शांतिपूर्ण बातचीत करना है तो यह उत्सव न आपके लिए है और न ही शिवाजी
का, परंतु यह अंतिम पेशवा बाजीराव का है जो अंग्रेजों की ताकत के सामने झुक गए
थे ! यहाँ हम क्रांति के देवता शिवाजी का आह्वान कर रहे हैं ताकि वह हम सब को
प्रेरित करें और शक्ति दें। परिस्थितियों पर निर्भरता के कारण हमारे साधन संभवतः
बदल जाएं, परंतु हमारा लक्ष्य अडिग रहेगा और वह है हमारी मातृभूमि के लिए पूर्ण
स्वतंत्रता।
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यह भाषण पूरे शहर में लोगों के दिमाग पर छा गया और मित्र मेला ने लोगों पर गहरा असर
छोड़ा। जल्दी ही गणपति उत्सव भी आ पहुँचा और इस अवसर पर मित्र मेला के सदस्यों ने
भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की। विनायक के भाषणों ने अपार भीड़ खींची। आबा
दारेकर ने जोशपूर्ण गीत लिखे और उन्हें संगीतमय प्रस्तुति दी। महोत्सव के दौरान नासिक
की गलियां, विनायक द्वारा दिए गए उद्घोष - स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय से गूँज उठीं।
साप्ताहिक बैठकों के लिए मित्र मेला सदस्यों को अपनी पसंद के विषयों का चुनाव, उन
पर शोध, विषय पर पुस्तकें पढ़ना, निबंध लिखना और फिर उनका भाषण स्वरूप वाचन
करना होता था। हालाँकि, कम ही सदस्य इसको गंभीरता से लेते थे। वह के वल बड़े
आयोजनों, उत्सवों, जुलूस या किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के आगमन पर ही पहुँचते। विनायक
का इस बात पर जोर था कि सब लोग बैठकों में शामिल हों जिससे उन्हें देश के अंदर और
बाहर चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष और क्रांति के इतिहास और अन्य संदर्भों का ज्ञान हो। इन
विषयों पर खुलेआम शैक्षणिक संस्थानों और आम स्थलों पर बात नहीं हो सकती थी,
इसलिए किसी बड़ी योजना के लिए खुद को तैयार करने हेतु अतीत की घटनाओं और
ज्ञानवर्द्धन के लिए मित्र मेला की बैठकें ही उचित स्थान था। क्रांति कार्य बिना सोचे-समझे
नहीं होता; उसके पीछे योजना और ज्ञान ज़रूरी है। उपस्थिति की परवाह न करते हुए
विनायक साप्ताहिक बैठकें करते गए। कई सदस्य, जिनमें बाबाराव भी थे, पहले राजनीति
में रुचि नहीं रखते थे, परंतु वह के वल अपने छोटे भाई की खातिर वहाँ जाते, और फिर वह
भी स्थाई तौर पर वहाँ पहुँचने लगे।
हालाँकि इन सब गतिविधियों का असर विनायक की शिक्षा पर नहीं पड़ा। 1899 के अंत
में वह ग्रेड पाँच से हाई स्कू ल में पहुँचे और कु छ ही महीने बाद परीक्षाओं में अच्छे प्रदर्शन
के बाद ग्रेड छह में भेजे गए। नासिक हाई स्कू ल के प्रधानाचार्य, आरबी जोशी प्रख्यात
विद्वान थे। वह गोपालकृ ष्ण गोखले के करीबी भी थे। वह और स्कू ल के अन्य अध्यापक
विनायक की विविध पाठ्येतर गतिविधियों से अवगत थे और इन सभी विकर्षणों के
बावजूद उनके अच्छे प्रदर्शन पर उन्हें सबसे होनहार छात्र मानते थे।
चूंकि मित्र मेला के अधिकांश सदस्य नवयुवक थे, विनायक नहीं चाहते थे कि समूह की
गतिविधियों के कारण उनकी शिक्षा पर विपरीत असर पड़े। इसलिए किसी विषय में
कमजोर साथियों की मदद के लिए विनायक और कु छ अन्य साथी आगे आते ताकि वह
परीक्षाओं में सफल हो सकें । विनायक के दिन अधिकतर देश-विदेश के राजनीतिक मुद्दों
की जानकारी के लिए अखबार पढ़ने और स्कू ली पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें पढ़ने में
बीतते। परंतु अर्ध-वार्षिक या वार्षिक इम्तेहान आते ही वह खुद को महीने-दो महीनेे के
लिए कमरे में बंद कर गंभीर अध्ययन करते। उनके अध्यापकों का मानना था कि स्कू ल में
उनकी अनियमितता के कारण वह असफल रहेंगे, परंतु उच्च श्रेणी में परीक्षाएं उत्तीर्ण कर
उन्होंने सबको हैरान कर दिया। अपने छोटे भाई की सफलता पर बाबाराव ने मुहल्ले भर में
मिठाइयां बांटी और प्रेम और गर्व से विनायक की पीठ थपथपाई - विनायक ने याद किया
है कि मेहनत के इससे बेहतर पारितोषिक की वह उम्मीद भी नहीं कर सकते थे।
दामोदरपंत की मृत्यु के बाद कई लोगों ने युवा और अनुभवहीन बाबाराव को धोखा दिया
और उनके परिवार की अधिकांश संपत्ति और जमीन हड़प ली। उन पर कई ऋण भी थे,
इसलिए बाबाराव सरकारी नौकरी प्राप्त करना चाहते थे। नौकरी के लिए उन्हें 500 रुपये
के दो सुरक्षा बॉण्ड पेश करने की ज़रूरत थी। यह काफी कठिन कार्य था परंतु अंततः वह
इसमें सफल रहे और उन्हें अकाल राहत विभाग में खजांची की नौकरी मिल गई। उन्हें कई
तकलीफें और अपमान भी झेलने पड़े, परंतु उन्होंने इसकी खबर कभी अपने छोटे भाइयों
को नहीं लगने दी। के वल अपनी पत्नी येसु वहिनी से वह इसकी चर्चा करते। कई अवसरों
पर जब घर में राशन समाप्त हो जाता, तो ऐसे में बाबाराव और येसु वहिनी अपने हिस्से का
भोजन विनायक और बल को देते थे। बाबाराव को अपने विभाग में गहरे तक पैठ बना
चुके भ्रष्टाचार का पता चला। उन्हांेने इसके खिलाफ आवाज उठाई और ऐसे तंत्र का
हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। नतीजतन, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया जबकि
कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। ऐसे में कर्ज चुकाने के लिए येसु ने अपने सारे गहने बेच
दिए, उस पारंपरिक नथ के अलावा जो विवाह के मौके पर उनकी माँ ने दी थी। परंतु जब
विनायक की फीस भरने की बारी आई तो बाबाराव ने उसे भी बेचने का प्रस्ताव रखा। चूंकि
यह उनके प्रिय देवर की शिक्षा का सवाल था, इसलिए बिना कु छ कहे येसु ने नथ भी
बाबाराव के हाथ पर रख दी। इसी कारण विनायक का अपनी भाभी से जुड़ाव बेहद गहरा
था। 1909 में उन पर एक कविता में विनायक ने लिखा:
ओ! मेरी प्यारी भाभी तुमने मुझे

मेरी माँ की कमी महसूस न होने दी


वीरता और बलिदान की मूरत,

तुम मेरी शाश्वत प्रेरणा हो !


उचित खुराक की कमी और अपना ध्यान न रख पाने के कारण येसु का एक बच्चा भी चल
बसा था। बाबाराव और येसु के लिए विनायक और उनका उज्ज्वल भविष्य ही एकमात्र
रोशनी की किरण थी।
बाबाराव बिल्कु ल भी दुनियादार आदमी नहीं थे और उनका कोई भी कर्जदार उन्हें धोखा
दे देता। दामोदरपंत द्वारा किसी को दिया गया उधार वसूलने वह भागुर गए। करंजकर
नामक व्यक्ति ने उनसे कहा कि नदी किनारे विशाल खजाना दबा है जिसे वह कु छ
कर्मकांड से प्राप्त कर उन्हें सौंप देंगे। उसने इस कार्य के लिए बाबाराव से कु छ सौ रुपये
मांगे जिसका इंतजाम उन्होंने दौड़भाग कर किया। उस रात उन्हें नदी किनारे मिलना था,
परंतु जैसा कि होना था, वह ठग नहीं पहुँचा। बाबाराव पूरी रात उसका इंतजार करते रहे
और बाद में भी यह मानने को तैयार नहीं हुए कि वह व्यक्ति झूठा था। वह इनसानों की
सहज अच्छाई में यकीन रखते थे और इसी अनाड़ीपन के कारण अक्सर धोखे का शिकार
होते।
विनायक बाबाराव की दयनीय हालत पर बहुत दुखी रहते और उनके द्वारा शिक्षा का खर्च
उठाने से जुड़ी चिंता उन्हें लगातार सताती थी। वह शिक्षा छोड़ काम करना चाहते थे ताकि
अपने भाई का हाथ बँटा सकें । एक बार विनायक को तेज बुखार आया और अर्द्धमूर्छित
अवस्था में उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखने से जुड़े विचार व्यक्त किए। यह सुन बाबाराव ने
उन्हें कस कर सीने से लगा लिया और कहा कि जब तक वह जिंदा हैं, उन्हें चिंता करने की
ज़रूरत नहीं। विनायक ने का
ल के संपादक एसएम परांजपे को, डेस्क पर किसी भी तरह
की एक नौकरी के लिए पत्र लिखा। महास्कर संपादक महोदय से परिचित थे, इसलिए वह
पत्र और विनायक की सिफारिश लेकर पहुँचे।
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बाबाराव को बिना बताए विनायक ने लोक
सेवा परीक्षा भी दी, जिसके आधार पर जिला कार्यालयों में 15 या 20 रुपये वेतन पर
युवाओं को हिसाब-किताब और लेखा रखने की नौकरियां मिलती थीं। वह परीक्षा में सफल
हुए परंतु बाबाराव जिद पर अड़े रहे कि विनायक को पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए और वह
अपने छोटे भाइयों की शिक्षा के लिए किसी भी मेहनत के लिए तैयार हैं।
1900-01 में नासिक में फिर प्लेग ने कहर ढाया। इस दौरान लोगों तक राहत कार्य
पहुँचाने में बाबाराव और रामभाऊ दातार आगे थे। वह लाशों को कं धों पर उठाकर श्मशान
पहुँचाने तक का कार्य कर रहे थे, क्योंकि कोई अन्य इसके लिए तैयार ना था। परंतु जब
महामारी दो महीने से ज्यादा चली तो विनायक के मामा, भीकाजी सखाराम माओहर ने
उन्हें नासिक छोड़ उनके साथ कोठूर चलने को कहा। बाबाराव लोगों की मदद को पीछे रह
गए, जबकि शेष परिवार कोठूर के बाहर जागीरदार अन्नाराव बर्वे के फार्महाउस में रहने
लगा। विनायक ने कोठूर में कई जोरदार भाषण दिए और जल्दी ही वहाँ मित्र मेला की
कोठूर शाखा की नींव पड़ी। अन्नाराव के पुत्र, वामन राव बर्वे और उनके चचेरे भाई बलवंत
राव भी उसके सदस्य बने। शीघ्र ही, भागुर शाखा भी अस्तित्व में आ गई जिसके सदस्यों ने
स्वतंत्रता केे लिए अपने जीवन की परवाह न करने की शपथ ली।
जब प्लेग का प्रकोप धीमा पड़ा और विनायक नासिक लौटे, तब तक महारानी
विक्टोरिया का निधन (22 जनवरी, 1901) हो गया था। इसके बाद, अफसोस और
धन्यवाद जताने वाले चापलूस भारतीयों का तांता लग गया। कै से भारत अपनी प्यारी माँ,
महारानी के निधन से अनाथ हो गया है, इस पर समाचार पत्रों में लंबे खुशामदी आलेख
और शोक समाचार प्रकाशित होने शुरू हुए। नए सम्राट एडवर्ड के जयगान गाए जाने लगे।
इसमें कु छ भी नया नहीं था। कई भारतीयों में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति चापलूसी इतनी
गहरी थी कि जब 1880 में लॉर्ड रिपन भारत के वायसरॉय बने, उस समय उनकी बग्गी
काशी के कई विद्वान पंडितों ने खींची थी।
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पागे और महास्कर की राय थी कि पुलिस का
शक दूर करने के लिए दिवंगत महारानी की याद में प्रार्थना सभा और नए सम्राट के प्रति
वफादारी व्यक्त की जाए। हालाँकि, मित्र मेला के गठन को डेढ़ वर्ष ही हुआ था, उसके द्वारा
आज़ादी की पुकार, उत्सव आयोजन और उसके कु छ सदस्यों, विशेषकर विनायक के
भाषण सरकार की नज़र में आ चुके थे। विनायक अपने साथियों की मंशा समझ रहे थे,
परंतु उनकी राय में संस्था को अभी से खुद को गैर-राजद्रोही साबित करने की कोई ज़रूरत
नहीं थी। उन्होंने महारानी के खिलाफ कठोर तर्क रखे और उसे 1857 में भारतीयों के
नरसंहार में संलिप्त बताया। आखिरकार प्रस्तावित प्रार्थना सभा उनकी उग्रता के कारण रद्द
हो गई।
जब एडवर्ड के राज्याभिषेक के सम्मान में उत्सव आयोजित किए जा रहे थे, उसी समय
मित्र मेला और उसके स्वयंसेवकों ने इन उत्सवों और उसके संचालकों को बुरा-भला कहते
हुए पूरे नासिक में पोस्टर चिपकाए। पोस्टरों पर ‘तुम उसका सम्मान क्यों करते हो जिसने
तुम्हारी माँ को गुलाम बनाया है ?’ जैसे उग्र वक्तव्य छपे थे। ऐसी ही एक उत्सव समिति के
प्रमुख ने जब एडवर्ड को अपना पिता बताया, तो उसका उपहास करते हुए मित्र मेला ने
पोस्टरों में पूछा कि सम्राट उसकी माता के क्या लगते हैं। यह पोस्टर विनायक और
बाबाराव के साले अन्ना फड़के ने चिपकाए थे।
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1901 में विनायक दर्जा छह उत्तीर्ण कर हाईस्कू ल में पहुँचे। हर गुजरते वर्ष के साथ
अध्ययन का उनका शौक बढ़ता जा रहा था। अब वह अतीत के विभिन्न विदेशी राज्यों के
इतिहास और अमेरिकी एवं यूरोपीय क्रांतिकारियों की जीवनियां पढ़ रहे थे। वह जो भी
पढ़ते, उसका सार तत्व जल्दी ही तैयार कर लेते, ताकि भावी निबंधों या बैठकों में उनका
संदर्भ दिया जा सके । विभिन्न पुस्तकों से एकत्रित यह सामग्री ही अपने आप में बहुत समृद्ध
बन गई और विनायक ने इसे सर्वसार संग्रह का नाम दिया। अफसोस कि यह संग्रह भी बाद
में पुलिस छापे का शिकार बन गया। मित्र मेला के लिए विनायक ने एक कुं जिका भी तैयार
की थी। वह उन लोगों के सामने ईरान के प्राचीन साम्राज्यों, स्पेन के मूरों, नीदरलैंड्स में डच
विद्रोह और गुसेपे मेजिनी और गुसेपे गैरीबाल्डी जैसे इतालवी क्रांतिकारियों पर धाराप्रवाह
बोलते जिन्होंने महाराष्ट्र के बाहर की दुनिया के बारे में बहुत कम सुना था। उन्होंने अपनी
डायरी में एक वर्ष में पढ़ी पुस्तकों की सूची, परिचितों के शब्द चित्र और बचपन की यादों
और अनुभवों को बहुत सलीके से लिखा था। अफसोस कि क्रांतिकाल और छापों के समय
यह डायरियां भी नष्ट हो गई।
नासिक पुस्तकालय में मौजूद उन पुस्तकों को, जिन्हें समझने के लिए बार-बार पढ़ना
ज़रूरी था, मिलाकर सभी पुस्तकें पढ़ डालने का कमाल भी विनायक ने कर दिखाया।
विनायक का युवा मस्तिष्क हर्बर्ट स्पेंसर की पुस्तक लिबरल यूटिलेटेरियनिज्म
का अभिप्राय
समझने के लिए संघर्षरत रहता। कई वर्षों बाद, इंग्लैंड में जब उन्होंने लोगों से पूछा कि
स्पेंसर की लेखनी से कौन परिचित है, उन्हें जानकर हैरानी हुई कि नासिक में पढ़े स्पेंसर के
मराठी अनुवाद का उनका ज्ञान, मूल पढ़ने वालों से कहीं अधिक है। पश्चिमी लेखकों को
भारतीय मनीषा के साथ जोड़कर देखने के लिए भी विनायक का उर्वर मस्तिष्क सदा
प्रयत्नशील रहता। उनका अटूट विश्वास था कि गीता या भागवत में भगवान श्रीकृ ष्ण के
उपदेश उन्हें उपयोगितावाद सिद्धांत का पहला प्रवर्तक साबित करते हैं। विनायक ने बीस
या तीस पुस्तकों की सूची तैयार की ताकि मित्र मेला के सदस्य विश्व इतिहास, नेपोलियन,
मेजिनी, विवेकानंद एवं अन्य और दुनिया की क्रांति की घटना के संबंध में जानकारी रख
सकें । साथ ही, का
ल पढ़ना भी ज़रूरी था, जिसके दो अंशों ‘तरुण इटली’ और ‘खेती-
किसानी’ में यूरोपीय क्रांतियों और अंतरराष्ट्रीय गुप्त समितियों के बारे में जानकारी होती
थी। इससे वह ना के वल अपना, बल्कि मित्र मेला के सदस्यों का भी ज्ञानवर्द्धन करते।
बौद्धिक प्रचुरता के अलावा, व्यायाम और शारीरिक स्वास्थ्य भी मित्र मेला के सदस्यों का
आवश्यक नियम था। उन्हें खुद को जेल में रहने, भूख, कोड़ों की मार और हाड़तोड़ मेहनत
जैसे संघर्षों के लिए भी तैयार रखना होता था। सभी सदस्य तैराकी, दौड़, लंबे समय तक
भूखा रहना, पहाड़ों और जंगलों का दुर्गम जीवन जीने आदि का अभ्यास करते। बचपन से
ही विनायक दुबली-पतली कदकाठी के थे और उस पर उन्होंने ब्राह्मण युवक की तरह सिर
मुड़वा कर चोटी रख ली थी। हालाँकि, बारह-तेरह वर्ष की आयु से ही शारीरिक व्यायाम
उनकी गहरी रुचि बन गई थी - वह लगातार योग, सूर्य नमस्कार, वजन उठाना और कई
बार डंड लगाते। उन्होंने मलखम्ब (पारंपरिक भारतीय जिम्नास्टिक्स) और कु श्ती जैसी युद्ध
कलाएं भी सीखीं।
प्लेग के कारण 1901 में महास्कर की अचानक और असामयिक मृत्यु से मित्र मेला को
आघात लगा। विष्णु महादेव भट्ट जिन्हें ‘भाऊ’ पुकारा जाता, विनायक के हमउम्र और
सावरकर परिवार के ममेरे भाई थे। वह विनायक के सबसे करीबी साथी बने। छोटी सी उम्र
में ही उन्होंने अपने पिताजी को खो दिया, जिसके बाद उनकी माँ ने बड़े संघर्षों से उन्हें
पाला था। अपनी तीक्ष्ण बौद्धिकता, वाचन क्षमता और व्यापक ज्ञान के आधार पर उन्होंने
मित्र मेला गतिविधियों को लाभ पहुँचाया। सखाराम दादाजी गोरे मेला के एक अन्य सदस्य
थे। वह बेहद हँसमुख, बहिर्मुखी और मिलनसार युवा थे, जिनके नाम दसवीं की परीक्षाओं
में कई बार असफल रहने का रिकाॅर्ड भी चस्पां था। अपने सहपाठियों से उम्र में बड़ा होने
के कारण, वह उन पर रौब गालिब करते। यहाँ तक कि अध्यापक भी कई बार उनके घमंडी
बर्ताव से चैकन्ने रहते थे। पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी और शोरगुल में अव्वल रहने वाले गोरे
कक्षा की सबसे पिछली सीट पर अपना पुश्तैनी अधिकार समझते थे। उनकी एक आँख
का तिरछापन उनके हंसोड़ व्यक्तित्व को चार चाँद लगा देता। वह अक्सर अपने भाई के
साथ तिलभंदेश्वर में आबा दारेकर के यहाँ ताश खेलने जाते थे और वहीं विनायक से उनकी
मुलाकात हुई। उन्होंने शुरुआती साप्ताहिक बैठकों में हिस्सा लिया और अपने चिर-परिचित
हंसोड़ अंदाज में बैठकों की शांति और गंभीरता को नष्ट कर दिया। परंतु जल्दी ही वह लक्ष्य
की गंभीरता को समझ उसके साथ कु छ ऐसे जुड़े कि देश की आज़ादी के लिए अपना
जीवन होम कर देने पर भी नहीं सोचा।
महास्कर और पागे के बाद मित्र मेला से जुड़ने वाले सदस्यों में खाडे बंधु, सरोडे, शंकर
गिर गोसावी, धनप्पा चिवडीवाला, देवसिंह परदेसी, खुशाल सिंह, गणपति मागर, मायादेव,
घनश्याम चिपलूणकर और अन्य थे। वह सब विनायक को अपना गुरु और मार्गदर्शक
मानते थे। वहीं विनायक उन्हें प्रत्येक मुद्दे पर सलाह देते और लक्ष्य के प्रति प्रेरित करते,
पठन सामग्री देते और उनके स्वास्थ्य पर नजर रखते थे।
मित्र मेला के सदस्य समाज के विभिन्न वर्गों से आते थे, इसलिए नासिक के पुरातन पंथी
ब्राह्मण उससे नफरत करते थे। ब्राह्मण, वणिक, किसान, मराठा, नाई, शूद्र, कायस्थ और
अन्य एक साथ बैठकर काम करते और खाते-पीते। जाति के आधार पर बँटे तत्कालीन
महाराष्ट्रीय समाज में यह वर्जित और अभिशाप सरीखा था।
उसी वर्ष, 1901 में, विनायक को अपनी दसवीं की परीक्षाएँ देनी थीं और हमेशा की तरह
उन्होंने अंतिम तीन महीने गहन अध्ययन के लिए रखे। परंतु उसी समय एक नई शुरुआत
उनकी राह देख रही थी। उनके मामा संदेश लिए आ पहुँचे कि उन्होंने विनायक का विवाह
पक्का कर दिया है। इससे विनायक के मन में तूफान उठ खड़ा हुआ कि क्या विवाह उनके
क्रांतिकारी जीवन की बाधा साबित होगा और यदि वह पकड़े गए और उन्हें फांसी हुई तो
एक मासूम लड़की का जीवन बर्बाद हो जाएगा। साथ ही, उनके भाई द्वारा उनकी शिक्षा
का खर्च उठाने की चिंता भी उनके सामने खड़ी थी।
दरअसल, मित्र मेला के कई युवाओं के विमर्श का यही विषय था - क्या क्रांतिकारी मार्ग
अपनाने वालों को विवाह करना चाहिए ? इस पर विनायक जोरदार दलील देते कि देश के
लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले राष्ट्रभक्त की संतान भी उसके जैसी ही दिलेर होनी
चाहिए। विवाह और बच्चों के कारण राष्ट्र सेवा के मार्ग में आने वाली अड़चन से जुड़ा
आत्मसंदेह नैसर्गिक है। परंतु यदि कोई क्रांतिकारी अपने माता-पिता, परिवार और अपना
जीवन बलि पर चढ़ा देने को तैयार है तो पत्नी तथा बच्चे उसके मार्ग में क्यों आएं ? इसके
विपरीत उसे अपनी पत्नी और बच्चों को भी इस दिशा में मोड़ कर किसी भी तरह की
संभाव्यता को स्वीकार करने लायक मजबूत बनाना चाहिए। यदि क्रांतिकारी जल्दी मर
जाता है, तो क्या उसके बीवी-बच्चों की देखभाल उस समाज की जिम्मेदारी नहीं जिस
समाज के लिए उसने प्राण गवाएं हैं ? यदि महिला युवा है और पुनः विवाह करना चाहती
है, तो उसे अनुमति क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? साथियों के सामने विनायक ऐसी दलीलें
रखते। उन्होंने अपनी कविता ‘कमला’ में भी ऐसे विचार रखे।
लड़की के पिता, रामचंद्र त्रिम्बक चिपलूणकर (लोकप्रिय नामा भाऊराव चिपलूणकर) का
जन्म 1863 में हुआ था और वह कोठूर में विनायक के ननिहाल के पुराने जानकार थे।
उनके परिवार की पिछली दो पीढ़ियों ने ठाणे के निकट जव्हार राज्य में काम किया था और
वह मौजूदा राजकु मार के दीवान (प्रधानमंत्री) के तौर पर काम करते थे। उनके पूर्वज,
त्र्यम्बके श्वर के निकट, हरिहरगढ़ के किलेदार के तौर पर काम करते थे। 1818 में पेशवाओं
के पतन के बाद उन्होंने अनेक छोटी रियासतों में पनाह ली। भाऊराव के दादा, बापूजी
गोविंद चिपलूणकर और पिता, त्रिम्बक बापूजी चिपलूणकर, ने जव्हार राज्य की सेवा की।
त्रिम्बक बापूजी ने, राज्य की बागडोर पतंग शाह को सौंपे जाने के मामले में महत्वपूर्ण
भूूमिका निभाई थी।
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राज्य ने चुपचाप अनेक क्रांतिकारियों की मदद की थी और तिलक
के कहने पर 1907 में नेपाल में हथियार और पिस्तौल बनाने का कारखाना लगवाने का
असफल प्रयास भी किया था।
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भाऊराव लंबे, गठीले, सुंदर नैन-नक्श वाले और देखने में राजशाही लगते थे। वह
घुड़सवारी और शिकार के अलावा, बंदूकबाजी, कु श्ती और जिमनास्टिक्स में भी पारंगत
थे। कई मामलों में मदद के लिए आने वाले लोगों से उनका घर हमेशा भरा रहता। उनके
दरवाजे पर सिपाही और घुड़सवार पहरा देते। जब भाऊराव को विनायक की शिक्षा से
संबंधित कठिन हालात का ज्ञान हुआ तो वह उनकी काॅलेज शिक्षा का भार उठाने को तैयार
हो गए। यह आश्वस्ति विनायक को रास आई और बाबाराव को भी जो कड़े आर्थिक संघर्ष
से गुजर रहे थे। शिक्षा के लिए श्वसुर के सहयोग के प्रति विनायक उनके ऋणी हो गए:
यदि प्रिय बाबा (गणेश सावरकर) के बाद कोई ऐसा परिवार है जिसके प्रति मैं सबसे
अधिक ऋणी हूँ और जिसके प्रश्रय और परवरिश के कारण मैं असाधारण अवसर तथा
इस दुनिया की सबसे बेहतर वस्तुएं प्राप्त कर सका, और अपनी साझा मातृभूमि के
लिए कु छ कर सका, तो वह व्यक्ति और परिवार उनका (चिपलूणकर) है।
9
अतः भाऊराव चिपलूणकर के आश्वासन के बाद, 1901 के माघ (जनवरी-फरवरी) महीने
में, विनायक का विवाह भाऊराव की ज्येष्ठ सुपुत्री यमुना के साथ हो गया। यमुना का जन्म
4 दिसंबर 1888 को हुआ था और वह उस समय के वल तेरह वर्ष की थीं।
विवाह के कु छ ही समय बाद विनायक ने परीक्षा के लिए पढ़ाई की रफ्तार तेज की और
फिर दसवीं की अंतिम परीक्षा के लिए बंबई रवाना हुए। वह उनकी पहली बंबई यात्रा थी
और वहाँ वह आंग्रेवाड़ी में अपने मित्र बालू बर्वे के यहाँ ठहरे थे। परीक्षाओं से एक महीना
पहले उन्होंने मित्र मेला सहित सभी कार्यों को एक ओर रख दिया और पूरा ध्यान अध्ययन
में लगाया।
उनके नासिक लौटने से पहले ही, एक बार फिर प्लेग फै ल चुका था, इस कारण परिवार
को कु छ समय के लिए कोठूर जाना पड़ा। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी और
अंग्रेज सरकार की लापरवाही के कारण प्लेग की पुनरावृति होती थी। हैजा और प्लेग जैसी
बीमारियों के कारण रोगियों को अलग-थलग रखने के अंतरराष्ट्रीय मानक अंग्रेज सरकार
की प्राथमिकता में नहीं थे। सरकार सावधानी की बजाय प्रतिक्रियात्मक नीति अपनाती
थी।
कोठूर स्थित ननिहाल के घर के शांत वातावरण में विनायक ने गोदावरी नदी की प्रशंसा में
‘गोदावाकिली’ नामक सुंदर कविता की रचना की। कई रंगकर्मियों के अनुरोध पर उन्होंने
गीत भी लिखे। ‘शराबी’ और ‘दो पत्नियों का पति’ एवं अन्य इसी दौर की रचनाएं हैं।
प्रख्यात उपन्यासकार हरि नारायण आप्टे द्वारा प्रकाशित मराठी पत्रिका करमनूक की
निबंध प्रतियोगिता के लिए उन्होंने एक निबंध भी लिखा। इसका शीर्षक था ‘महानतम
पेशवा कौन ?’ विनायक ने पेशवा माधव राव प्रथम पर एक उच्चस्तरीय आलेख भी लिखा
जिसे प्रथम पुरस्कार मिला। यह निबंध 1940 के दशक में बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा दसवीं
के पाठ्यक्रम के लिए प्रस्तावित भी किया गया था। कोठूर में विनायक की मौजूदगी ने वहाँ
मित्र मेला की विकासोन्मुख गतिविधियों को रफ्तार भी दी।
जल्दी ही परीक्षा के नतीजे घोषित हुए और विनायक बहुत अच्छी श्रेणी में पास हुए।
सावरकर परिवार तथा मित्र मेला के सहयोगियों के लिए यह बहुत खुशी का अवसर था।
ऐसे संशयवादी जो कहते थे कि विनायक की क्रांतिकारी गतिविधियों का उनकी शिक्षा पर
असर पड़ेगा, विनायक की शानदार सफलता उन लोगों को करारा जवाब थी। भाऊराव
चिपलूणकर के वित्तीय सहयोग के आधार पर विनायक उच्च शिक्षा प्राप्त करने को तैयार
थे। अब तक उनकी पहचान एक सशक्त वक्ता, वाचक, लेखक और कवि तथा ऐसी गुप्त
क्रांतिकारी संस्था के सिरमौर के तौर पर बन चुकी थी जो धीरे-धीरे नासिक जिले के अनेक
गाँवों और शहरों में फै ल चुकी थी।
पूना, जनवरी 1902
कला स्नातक विद्यार्थी के तौर पर 24 जनवरी 1902 को विनायक ने पूना के फर्ग्यूसन
काॅलेज में दाखिला लिया। बीसवीं सदी की शुरुआत तक पूना भारतीय राजनीति का प्रमुख
कें द्र बन गया था। 1901 में न्यायाधीश रानाडे का निधन हुआ था। हालाँकि, रानाडे
क्रांतिकारियों और उनके तौर-तरीकों के आलोचक थे, फिर भी विनायक ने दिवंगत आत्मा
की स्मृति में ‘माझी नामरा तकरार’ शीर्षक से एक प्रशस्ति गान की रचना की:
ओह प्रभु ! राष्ट्र की सतत सेवा के लिए निरंतर प्रयास करने वाले बहुत कम लोग हुए हैं।
न्यायाधीश रानाडे ऐसे ही एक अनमोल रत्न थे।

प्रिय भगवन, आपने उन्हें हमसे क्यों छीन लिया ?

इसीलिए आपसे मैं शिकायत कर रहा हूँ, नहीं, आपके समक्ष भावुक हूँ -

हमारे बीच से रानाडे जैसे अमूल्य लोगों न ले जाएँ !


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उधर चापेकर घटना के बाद तिलक की जेल से रिहाई से राष्ट्रवादियों में नया उत्साह था,
और स्वतंत्रता अभियान नए सिरे से प्रेरित हो उठा था। इसी अनुकू ल घड़ी में विनायक पूना
पहुँचे। पूना में सबसे पहला काम उन्होंने अपने नायक और आदर्श तथा का
ल के संपादक,
एसएम परांजपे से संपर्क साधने का किया। परांजपे के पुत्र श्रीकृ ष्ण विनायक की ही
आयुवर्ग के थे, अतः दोनों में मित्रता हो गई। उन्होंने तिलक से भी भेंट की, जिनके जीवन
और लेखन से वह भागुर में बचपन से ही प्रेरित रहे थे। कहा जाता है कि वैचारिक तौर पर
गोपालकृ ष्ण गोखले के उदारवाद का विरोधी होने के बावजूद विनायक उनसे भी कई बार
मिले थे।
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जल्दी ही, विनायक के आकर्षक व्यक्तित्व, गहरे ज्ञान और उग्र वाचन क्षमता ने अनेक
विद्यार्थियों को आकर्षित करना शुरू किया जिन्होंने ‘सावरकर समूह’ का गठन किया।
1902 में फर्ग्युसन काॅलेज की मित्र मेला शाखा का गठन हुआ और श्रीकृ ष्ण परांजपे,
एचबी भिडे, काका कालेलकर, दत्तोपंत तरखड़कर, तिलक के पुत्र विश्वनाथ तिलक,
अंत्रोलिकर, मोहोल्कर, रिस्बड, सोलापुर के रानाडे, जुन्नेर के जोगलेकर, अथनी, ओक,
गोडबोले, दाजी गणेश आप्टे और थट्टे, इसके आरंभिक सदस्य थे। बहुत ही कम समय में,
तिलभंदेश्वर की संकरी गलियों से यहाँ तक, मित्र मेला व्यापक संस्था बन गई थी। इसके
सदस्य फर्ग्युसन काॅलेज के पीछे की पहाड़ी या चतुश्रंगी के निकट स्थित टीले पर मिला
करते। मित्र मेला के कु छ दिवस-विद्यार्थियों ने अपने-अपने निवास के निकट भी संस्था की

शाखाएँ स्थापित कीं।


डेक्कन काॅलेज में, जूनियर बीए छात्रों को एक साथ एलएलबी (बेचलर ऑफ लॉ) की
शिक्षा का भी विकल्प दिया गया। 1903 में प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के बाद, विनायक ने
शाम के समय एलएलबी की कक्षाओं में जाना शुरू कर दिया। जल्दी ही डेक्कन काॅलेज में
भी मित्र मेला की शाखा स्थापित हुई जिसमें बाबासाहेब खापरडे,
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रणदिवे, पांडे, गुरुनाथ
बेवूर, देवभंकर और पांडुरंग महादेव बापट (लोकप्रिय नाम ‘सेनापति बापट’) शामिल थे।
फर्ग्युसन काॅलेज के विभिन्न छात्र क्लब अपनी पत्रिकाएं और साप्ताहिक प्रकाशित करते
थे। जिस क्लब से विनायक जुड़े थे वह हस्तलिखित आर्यन वीकली
का संचालन करता था।
इस साप्ताहिक के लिए विनायक ने इतिहास, राजनीति एवं राष्ट्रवाद से साहित्य और
विज्ञान पर आलेख लिखे। इनमें से कई आलेख पुणे के समाचार पत्रों में भी छपे।
‘सप्तपदी’ नामक एक आलेख में उन्होंने अधीनस्थ देश के विकास की सात श्रेणियों पर
चर्चा की जिसके बाद वह स्वतंत्र होता है। काॅलेज के दिनों में उन्होंने अपार काव्य रचना भी
की। भोपत्कर बंधुओं द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र भाला
में उनकी कविताओं का प्रकाशन
हुआ।
काॅलेज के भोजन कक्ष में शिवाजी की एक तस्वीर टंगी थी और प्रत्येक शुक्रवार, उनकी
प्रशंसा में एक कविता (1902 में विनायक द्वारा तैयार) का सस्वर पाठ होता। शिवाजी की
स्तुति में किसी के द्वारा तैयार की गई यह पहली आरती थी। गीत का आरंभ इस छंद से
होता है:
ओ शिवाजी ! इस आर्य भूमि पर निरंतर मलेच्छों के हमले होते रहे हैं

कृ पया जागो !

यह भूमि आपसे मदद की गुहार करती है।

क्या आपको अपनी मातृभूमि की पुकार नहीं सुनाई देती?

क्या यह आपके हृदय को नहीं भेदती ?


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1902 में का
ल में उनकी दार्शनिक कविता, ‘विश्वाथ आजावरी शाश्वत काय झाली ?’
(ब्रह्मांड में क्या स्थाई है ?) का प्रकाशन हुआ। इसका पहला छंद यूं है:
हा उन्नती अवनतीस समुद्र जातो
भास्वान रवीहि उदयास्त अखंड घेतो
उत्कर्ष आणि अपकर्ष समान ठे ले
विेशात आजवरि शोशत काय झाले?
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(जैसे समुद्र के लिए ऊं ची और नीची लहरें चक्रीय हैं ;

उदय और अस्त होना सूर्य का नित्य कार्य है ;

और जैसे प्रगति एवं प्रतिगमन जीवन के सिक्के के दो पक्ष हैं ;

तो इस ब्रह्मांड में स्थायी क्या है ?)


बंबई के हिन्दू यूनियन क्लब की शीतकालीन व्याख्यान श्रृंखला की ओर से नगर के
प्रतिष्ठित नागरिक सर बालचंद्र भाटवड़ेकर ने एक काव्य प्रतियोगिता की घोषणा की थी।
उसमें सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि के लिए 20 रुपये के पुरस्कार की घोषणा थी। क्रू र परंपराओं और
पुरानी रीतियों की मार झेल रही हिन्दू विधवाओं की हालत पर विनायक की हृदय विदारक
कविता ‘विध्वांची दुक्खे’ को सबसे उत्तम प्रविष्टियों में रखा गया और इसे एक अन्य
नवोदित कवि श्रीपद नारायण मजूमदार की कविता के साथ पुरस्कृ त किया गया। युवा
क्रांतिकारी होने के साथ-साथ, विनायक में ऐसे समाज सुधारक के गुण भी स्पष्ट नजर
आते थे जो पुरातनपंथी और जड़ जमा चुकी सामाजिक बुराइयों को चुनौती देने में पीछे
नहीं रहते। यह कविता 1904 में विविध ज्ञान विस्तार
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पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसका
आरंभिक छंद इस प्रकार है:
देतें का कोणी ओ अबलेच्या या मदीय हांके ला
बोला हो, बोला हो, धीराचा शब्द एक तरि बोला
साठीच्या जरठांनो, विधुरांनो, नव वधु खुशाल वरा
लग्नाच्या अष्टदिनीं विधवा परि अन्य ना वरो नवरा
हा न्याय कोण? कां हो विधवां-विधुरांत भेद हा असला?
कसल्या अपराधाचा अबलांना क्रु र दंड हा बसला?
(क्या कोई असहाय विधवाओं की दयनीय अपील का उत्तर देगा ?

कृ पया उत्तर दें ! मेरे प्रश्न का उत्तर देने का सामर्थ्य रखें !

वृद्ध, डगमगाते विधुर साठ वर्षीय पुरुषों को युवा वधुएं सहज प्राप्त हैं

परंतु अनेक युवा विधवाओं को वर नहीं मिलते,

क्या यह न्याय है ? विधवाओं और विधुरों में यह भेद क्यों ?

महिलाओं को ऐसे किस अपराध का दंड मिलता है ?)


1903 में उनकी कविता ‘स्वतंत्रता गीत’ ने जनता के बीच देशभक्ति की तेज लहर प्रवाहित
की थी, आज़ादी के बाद भी, इसे ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित किया जाता है। भारत भर
में ‘जयोस्तुते’ नामक गीत के रूप में यह आज तक प्रसिद्ध है। भारत कोकिला लता
मंगेशकर की आवाज में इसे असीम ऊं चाई प्राप्त हुई, जिसका संगीत उनके भाई हृदयनाथ
मंगेशकर ने तैयार किया है।
जयोऽस्तु ते श्रीमहन्मंगले। शिवास्पदे शुभदे
स्वतंत्रते भगवति! त्वामहं यशोयुतां वंदे ॥धृ॥
राष्ट्राचे चैतन्य मूर्त तूं, नीति संपदांची
स्वतंत्रते भगवति! श्रीमती राज्ञी तू त्यांची
परवशतेच्या नभांत तूंची आकाशी होशी
स्वतंत्रते भगवती! चांदणी चमचम लखलखशी॥१॥
(जयोस्तुते, जयोस्तुते, ओ ! सदा शुभ, उदार, स्वतंत्रता भगवती !

ओ ! स्वतंत्रता भगवती ! मुझे तुम्हारा आशीर्वाद प्राप्त हो।

तुम्हीं हमारी राष्ट्रीय आत्मा, नैतिकता और उपलब्धियों का साकार रूप हो।

तुम पवित्रता की रानी, ओ ! स्वतंत्रता भगवती!

पराधीनता के इस घटाटोप में, तुम ही उज्ज्वल प्रकाश स्तंभ और

आशा का नक्षत्र हो।) (1)


गालावरच्या कु सुमीं किंवा कु सुमांच्या गाली
स्वतंत्रते भगवती! तूच जी विलसतसे लाली
तूं सूर्याचे तेज उदधिचे गांभीर्यहि तूंची
स्वतंत्रते भगवती! अन्यथा ग्रहण नष्ट तेंची ॥२॥
(लोगों के गालों की लाली और लहलहाती धरा,

तुम्हीं विश्वास की लज्जा, ओ ! स्वतंत्रता भगवती !

तुम सूर्य का तेज और महासागरों का गांभीर्य !

ओ ! स्वतंत्रता भगवती ! परंतु तुम्हारे लिए, स्वतंत्रता का सूर्य ग्रसित है।

स्वतंत्रता भगवती ! तुम शाश्वत सुख और निस्तार का रूप हो। )(2)


मोक्ष मुक्ति हीं तुझींच रुपें तुलाच वेदांती
स्वतंत्रते भगवती! योगिजन परब्रम्ह वदती
जे जे उत्तम उदात्त उन्नत महन्मधुर तें तें
स्वतंत्रते भगवती! सर्व तव सहचारी होतें ॥३॥
(तभी हमारे शास्त्रों में ऋषि तुम्हें सर्वोच्च चेतना पुकारते हैं।

स्वतंत्रता भगवती ! जो भी आदर्श और सर्वोच्च, अद्वितीय और मधुर है !

के वल तुम्हारा ही अंश है।) (3)


हे अधम रक्त रंजिते । सुजन-पूजिते! श्री स्वतंत्रते
तुजसाठिं मरण तें जनन
तुजवीण जनन ते मरण
तुज सकल चराचर शरण ॥४॥
(दुष्टों के रक्त से सना जिनका तुमने संहार किया, सज्जनों का उद्धार किया !

जीवन तुम्हारे लिए न्योछावर होना ! मृत्यु तुम्हारे बिना जीवित रहना !

संपूर्ण जगत तुम में विश्राम पाता, ओ ! स्वतंत्रता भगवती !


16
) (4)
विनायक ने मराठी साहित्य विधा पोवादस या गाथा गीत में भी हाथ आजमाया और दो
मराठा नायकों, तानाजी और बाजी प्रभु पर प्रभावशाली गीत लिखे। तानाजी का गीत,
शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई के शब्दों से कु छ इस प्रकार आरंभ होता है:
गुलामगिरीची बेडी पायी तशीच धरता ना?।
गुलामगिरीच्या नरकामाजी तसेच पिचता ना?॥
स्वातंत्र्याच्या सुखनिमाजी जन्म स्वतंत्रांचे।
गुलामगिरीच्या उकिरड्यावरी गुलाम निपजायाचे॥
(पराधीनता की बेडियां जो तुम्हारे पैरों में दिख रही हैं;

इस नारकीय स्थिति के तुम स्नेहपाश में पड़ गए, लगता है ?

संदेह नहीं, अपनी इस अवस्था पर तुम न दुखी हो और न शर्मसार।

परंतु स्मरण रहे, यदि तुम मुक्त हो, तो तुम्हारी भावी पीढ़ियां भी आत्म-सम्मानपूर्ण
जीवन जिएंगी ;

परंतु यदि तुम पराधीनता स्वीकारते हो, तो तुम्हारे वंशज भी गिरते दिखेंगे )!
बाजी प्रभु पर पोवादा का प्रत्येक छंद टेक के साथ समाप्त होता है:
चला घालु स्वातंत्र्य संगरी रिवुघरी घालाअवचित गाठुनि ठकवुनि भुलवुनि कासहिं
खेंचवा (
17
)
इस स्वतंत्रता संघर्ष में आओ साथ होकर अपने शत्रु पर प्रहार करें।

उसे सोते में दबोचें, गुप्त विधि से वार करें अथवा उसे अचंभित कर

जैसा भी तुम्हें उचित लगे, परंतु वार करें अवश्य!


नासिक में बल ने अपने दो मित्रों, दत्तू और श्रीधर (जो बाद में प्रोफे सर दत्तोपंत के तकर
और एडवोके ट श्रीधरपंत वर्तक नाम से जाने गए) के साथ मिलकर दो पोवादस का मंचन
किया और उसके लिए काफी प्रशंसा प्राप्त की। 17 जून 1905 को एसएम परांजपे ने
शिवाजी महोत्सव में प्रदर्शन करने के लिए बल, वर्तक और गणपत रामचंद्र मागर को
निमंत्रित किया था।
18
तिलक ने यह प्रदर्शन देखा और उसकी सराहना की, तथा सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन के तौर पर प्रदर्शनकर्ताओं को स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। बाद में, मई 1906
में बाबाराव ने इन गाथा-गीतों को लघु अभिनव भारत माला
श्रृंखला में प्रकाशित किया।
जब तक अंग्रेज सरकार इन गीतों पर पाबंदी लगाती, ये गीत समूचे महाराष्ट्र में लोक गीतों
की तरह प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे।
उस समय विनायक का लिखा हुआ अधिकांश गद्य आज प्राप्त नहीं है। भूतपूर्व मराठा
साम्राज्य के प्रभावशाली राजनयिक और मंत्री नाना फड़नवीस की जन्मशती के अवसर पर
उन्होंने एक विचारोत्तेजक आलेख ‘ऐतिहासिक नायकों का उत्सव क्यों मनाया जाए ?’
लिखा। इसका अंत एक जोरदार दलील से होता है:
वे नायक जिनके लिए हम समूचे राष्ट्र के तौर पर कृ तज्ञ हैं, उन परोपकारी पुरुषों के
सम्मान एवं याद में इन उत्सवों का आयोजन होना चाहिए जिन्होंने संसार के लिए इतना
कु छ किया है। ऐसे आयोजनों को प्राचीन परंपरा का समर्थन भी प्राप्त है। ये ऐसे स्वच्छ
बादल हैं जिनसे मार्गदर्शन का अमृत बरसता है। ये सद्कार्यों के स्तंभ हैं जिनका
अनुसरण होना चाहिए। यह सकारात्मक मानवीय सोच और क्रिया के स्रोत हैं। यह ऐसी
ज्ञानधाराएं हैं जो युवाओं को सही मार्ग पर चलने का निर्देश देती हैं। यह हमारे सच्चे
नायकों के कार्यों का जीवित इतिहास है ...खासकर हम हिन्दुओं को, जिस मौजूदा
विकृ त अवस्था में हम पहुँच चुके हैं, उस से निकलने के लिए, विशेषकर आत्मसम्मान
और कर्तव्यनिष्ठा को ध्यान में रखते हुए, इन आयोजनों को अपनाना चाहिए। क्योंकि
राष्ट्र की आज़ादी और प्रगति का यह एकमात्र और विश्वसनीय मार्ग है।
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विनायक ने संस्कृ त के विख्यात नाटककारोें, कालिदास और भवभूति के नाटकों का भी
गहन अध्ययन किया था। एक निबंध में उन्होंने दोनों लेखकों की विपरीत शैलियों का
आकलन किया है। अंग्रेजी कवियों स्काॅट, सेक्सपियर और मिल्टन ने उन पर सबसे अधिक
असर डाला। मिल्टन का पैराडाइज लॉस्ट
उनकी सर्वप्रिय रचनाओं में से था और उसके कई
सर्ग उन्हें कं ठस्थ थे। उनके गहरे लेखन में उनके वृहत अध्ययन की झलक साफ दिखती है।
दो महान ग्रंथों, ‘रामायण और इलियड’ पर उनके तुलनात्मक आलेख को उनके प्रोफे सरों
सहित सब ने सराहा था। जेरेमी बैंथम, जाॅन स्टुअर्ट मिल और हर्बर्ट स्पेंसर के राजनीतिक
दर्शन ने उन पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ा। बैंथम और मिल के उपयोगितावादी दर्शन से वह
विशेष तौर पर प्रभावित थे। उन्होंने लिखा हैः ‘काॅलेज के दिनों में मैंने बैंथम और मिल को
पढ़ा ...उनके द्वारा बताए गए उपयोगितावादी सिद्धांतों के अनुसार मैंने अपनी नैतिक सोच
को मोड़ दिया ...इतना ही नहीं, अपने क्रांतिकारी संगठनों में भी मैं इन उपयोगितावादी
सिद्धांतों को पढ़ाता था।’
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विनायक ने बाद में नाटक लिखने भी शुरू किए, और फर्ग्युसन
काॅलेज में पढ़ते हुए उन्होंने दो नाटकों में अभिनय भी किया - 1902 में एक नाटक त्रटीक
में छोटी सी भूमिका और 1904 में ओथेलो
के मराठी संस्करण जुंजाराव
में इयागो की
भूमिका उन्होंने निभाई थी।
पूना के मित्र मेला की बैठकों में विनायक विश्व इतिहास और इटली, नीदरलैंड्स तथा
अमेरिका के महान क्रांतिकारियों के जीवन पर गहरे व्याख्यान देते। इसका लक्ष्य
क्रांतिकारी द्वारा झेले जाने वाले संघर्षों भरे जीवन से उनके युवा साथियों को अवगत
कराना होता। फर्ग्युसन काॅलेज में एक बार उन्होंने इटली पर एक सशक्त भाषण दिया। इस
सत्र की अध्यक्षता महाराष्ट्र के सबसे प्रख्यात इतिहासकारों और बौद्धिकों में से एक
‘इतिहासाचार्य’
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विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे ने की थी। वह युवा विनायक के ज्ञान, शोध
और वाचन क्षमता से बहुत प्रभावित हुए। चूंकि ऐसे भाषणों को राजद्रोह से जोड़ा जा
सकता था, इसलिए उन्होंने विनायक को इटली के इतिहास और उसके क्रांतिकारियों को
भारतीय राजनीति से जोड़ने या ऐसे भाषण देने के प्रति सतर्क किया।
1903 में काॅलेज के नए सत्र के आरंभ के अवसर पर जब विद्यार्थियों को संबोधन के लिए
विनायक को बुलाया गया तो समूचा हाॅल उनके सहपाठियों और चहेतों की तालियों से गूँज
उठा। इस अवसर पर उन्होंने भारत के गौरवपूर्ण अतीत और खो चुकी आज़ादी पर जोरदार
भाषण दिया। पूरा हाॅल भावुक था, जिसे देखते हुए सभाध्यक्ष प्रोफे सर सीजी भानु उठे
और कहा, ‘युवकों ! सावरकर को गंभीरता से मत लो। वह शैतान का रूप है !’
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अपने
सहपाठियों पर युवा सावरकर के ज्ञान और वाचन क्षमता का कु छ ऐसा प्रभाव था। विशिष्ट
काली टोपी, छोटे काॅलर का कोट, अपने खास चेहरे-मोहरे, उन्नत ललाट और भेदती आँखों
वाले विनायक को उनके ना चाहने वाले भी नजरअंदाज नहीं कर पाते थे।
विनायक के पूना जाने के बाद, नासिक में मित्र मेला की जिम्मेदारियां बाबाराव पर आ
गईं जो उससे कु छ वर्ष पहले दुनिया के सुख-दुःख छोड़कर स्वामी विवेकानंद का शिष्य
बनना चाहते थे। गहरे आंतरिक संघर्ष के बाद उन्होंने अपने छोटे भाई के लक्ष्य का समर्थन
करने का निर्णय लिया। आध्यात्मिक रुझान से क्रांतिकारिता की ओर अपने हृदय परिवर्तन
पर बाबाराव ने कहा है:
शाश्वत या ब्रह्म की खोज ही मेरा एकमात्र लक्ष्य था और है। अब मुझे अहसास हुआ कि
मेरे देशवासी भी ब्रह्म का ही एक रूप हैं। आवश्यक नहीं कि वैराग्य लेकर हिमालय की
चोटियों पर पहुँच कर ही ब्रह्म को पाया जा सकता है, इसका एक मार्ग अपने
देशवासियों की सेवा और उन्हें अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिला कर भी संभव है।
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मेला के सचिव के तौर पर उन्होंने तिलक, एसएम परांजपे, बंगाल से अरविंद, सैयद हैदर
रज़ा नगर के वकील बाबाराव देशपांडे, धूले के शंकर बालकृ ष्ण देव, वई के काशीनाथ
वामन लेले जैसे नेताओं के भाषणों का आयोजन करवाया। यह आयोजन विजयानंद और
ब्रह्मानन्द थियेटरों में किए जाते थे। अनुशासन प्रिय होने के कारण बाबाराव का जोर रहता
था कि भाषण ठीक समय पर आरंभ हों, इसलिए लोग शुरुआत से आधा घंटा पहले ही
पहुँच जाते। भाषणों से पहले देशभक्ति के गीत गाए जाते और दशहरा तथा शिवाजी जयंती
जैसे विशेष अवसरों पर नेताओं की सजी हुई प्रतिमाओं को पूरे उल्लास के साथ नासिक
शहर में घुमाया जाता।
1903 में युवा नारायण राव ने मित्र समाज नाम से एक साथी संस्था का गठन किया
जिसमें उनके हमउम्र करीब 200 स्कू ली बच्चे (किशोरवय की शुरुआत में) थे। इसके प्रमुख
सदस्यों में एसआर वर्तक, के बी महाबल, के पी भागवत, के तकर बंधु, वीएन बर्वे,
सीतारामपंत शउचे, विश्वनाथराव पटवर्धन, गोचिडे, दांडेकर, वैशम्पायन और के जी कर्वे थे।
वह डंड, जिमनास्टिक्स, तैराकी, मैराथन जैसी शारीरिक गतिविधियों का आयोजन करते।
उनका पसंदीदा कार्य नासिक के पास वीरान पड़े एक किले में रामदासी हादसम नामक
नाटक का मंचन था, जिसमें वह कल्पना करते कि किले के शीर्ष पर एक भगवा झंडा
लहरा रहा है और अपने राष्ट्र और धर्म के चिन्ह की रक्षा हेतु वह विभिन्न युद्ध कलाओं का
अभ्यास करते। कई अवसरों पर वह बहुत कम राशन-पानी के साथ, कठिन जीवन जीने के
अभ्यास के लिए किलों और अन्य दुरूह स्थलों पर भी जाते।
किशोरों ने क्रांतिकार्य और आज़ादी के विचार प्रचार के लिए हस्तलिखित अखबार भी
प्रकाशित किया। अपने भाई विनायक की तरह, बल भी भारत की आर्थिक अवस्था,
अकाल, भारतीयों के निशस्त्रीकरण और रजवाड़ों के उन्मूलन जैसे विषयों पर लेख लिखने
और भाषण देने लगे थे। विद्यार्थी इन भाषणों में गहरी रुचि लेते और पूरी तन्मयता से इन्हें
सुनते। जिन दिनों शेष भारत ऐसे विचारों से मीलों दूर था, संस्था के युवा अंग्रेज अफसरों
को संबोधित करते हुए भारत के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता की आवाज उठाते हुए ‘स्वातंत्र्य
लक्ष्मी की जय’ का उद्घोष करते। पुलिस को इन गतिविधियों की भनक पड़ी और उसने
स्कू लों पर लगातार नज़र रखी शुरू कर दी।
पीछे ना छू टते हुए, नासिक की महिलाओं ने भी 1905 के आसपास आत्मनिष्ठा युवती
संघ की स्थापना की। येसु वहिनी इसकी प्रमुख संगठनकर्ता थीं। किसी स्पष्ट क्रांतिकारी
कार्यक्रम के बिना पचास से साठ तक महिलाएं उस संगठन से जुड़ गई थीं। जानकीबाई
गोरे, लक्ष्मीबाई भट्ट, गोदुमाई खरे, लक्ष्मीबाई दातर, जानकीबाई दातर, पार्वतीबाई
गाडगिल, उमाबाई गाडगिल, लक्ष्मीबाई रहालकर और यमुनाबाई सावरकर इसकी प्रमुख
सदस्य थीं। तिलक की सुपुत्री, पार्वतीबाई के तकर भी इसकी प्रमुख सदस्य थीं और एक
अवसर पर उनकी माँ सत्यभामा बाई तिलक ने बैठक की अध्यक्षता भी की थी।
24
प्रत्येक
शुक्रवार को उस समूह की बैठक होती और साथ बैठकर अखबारों में प्रकाशित राजनीतिक
और सामाजिक मुद्दों के आलेख प्रमुखता से पढ़े जाते। इसके बाद सविस्तार चर्चा होती
और संभावित समाधानों पर गौर किया जाता। राष्ट्रीय हित के विषयों पर उन्होंने अपने दम
पर कई भाषण भी आयोजित किए। वह मंदिरों में चढ़ने वाले प्रसाद और अन्य सामग्री से
भी परहेज रखने लगीं क्योंकि उसमें विदेश-निर्मित चीनी का इस्तेमाल किया जाता था।
अपनी संगोष्ठियों में वह देशभक्ति के गीत गातीं और छोटे बच्चों को सिखातीं। शिवाजी
जयंती, रानी लक्ष्मीबाई जयंती, दशहरा और अन्य त्योहार भी साथ मिलकर मनाए जाते।
महाराष्ट्र भर में मित्र मेला की शाखाएं खुल गई थीं, इसलिए विनायक ने सभी सदस्यों की
सभा आयोजित करने का फै सला किया। 1903 में पहली बार, दो दिन तक एडवोके ट
रणदिवे के धुले स्थित घर में यह सभा आयोजित हुई। नासिक, पूना, कोठूर, भागुर, त्रिम्बक
और बेरार से सत्तर सदस्य इस बैठक में पहुँचे। यह आयोजन संस्था के लिए अपना क्षमता
जांचने और भविष्य की योजना तैयार करने का अवसर साबित हुआ।
अगले वर्ष, 1904 में नासिक में भगवत वाडा स्थित वीएम भट्ट के घर में आयोजित दूसरी
बैठक में मित्र मेला के 200 सदस्य शामिल हुए। राष्ट्रवादी उत्साह से भरे हुए युवा और
होनहार क्रांतिकारियों के सामने विनायक ने मेजिनी और इटली के बारे में व्याख्यान दिया।
इस बैठक के दौरान विनायक ने मित्र मेला के लिए एक नया नाम, अभिनव भारत का
प्रस्ताव रखा। आगे चलकर इसी समूह ने देश ही नहीं, विदेश में भी अंग्रेज सरकार की नाक
में दम किया था। तलवार उठाए छत्रपति शिवाजी महाराज की तस्वीर के सामने, सदस्यों ने
जो शपथ ली, वह इस प्रकार थी:

वंदे मातरम्

ईश्वर के नाम पर

भारत माता के नाम पर

भारत माता के लिए अपना रक्त समर्पित कर

चुके सभी शहीदों के नाम पर,

सभी पुरुषों एवं महिलाओं में जन्मसिद्ध प्रेम,

जिसे मैं अपनी मातृभूमि को समर्पित करता हूं,

जिसमें मेरे पूर्वजों की पवित्र अस्थियां मिली हैं,

और जो मेरे बच्चों का पालना है।

उन असंख्य माताओं के अश्रु,

उनके बच्चों के लिए जिन्हें विदेशियों ने गुलाम बनाया,

प्रताड़ित किया और मार डाला,

मैं......
दृढ़ निश्चय के साथ कि बिना पूर्ण स्वतंत्रता या स्वराज्य के मेरे देश को पृथ्वी के राष्ट्रों में
वह उच्च स्थान नहीं मिल सकता, जिसका वह हकदार है, और इस निश्चय के साथ कि
विदेशियों के खिलाफ अनवरत और रक्तिम युद्ध के बिना स्वराज्य प्राप्त नहीं होगा, मैं
सौगंध लेता हूँ कि इस पल से अपनी माँ के शीश पर स्वराज्य का मुकु ट पहनाने के लिए
आज़ादी के लिए यथाशक्ति युद्ध करूँ गा; और इसी लक्ष्य के साथ मैं हिन्दुस्तान की
क्रांतिकारी संस्था, अभिनव भारत से जुड़ता हूँ और शपथ लेता हूँ कि संस्था के प्रति
सच्चा और निष्ठावान रहूंगा और इसके आदेशों का पालन करूँ गा;
यदि मैं अपनी शपथ के प्रति पूर्ण अथवा आंशिक विश्वासघात करूं , अथवा संस्था या
इसके समान लक्ष्य हेतु काम कर रहे किसी के साथ धोखा करूं , तो मेरा अंत शपथ
तोड़ने वालेे का हो।
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तत्पश्चात, संस्था के वार्षिक सत्र स्थायी आयोजन बन गए। 1905 में अभिनव भारत की
बैठक कोठूर में हुई और उसके अगले वर्ष सियाॅन में। 1906 में दादाभाई नौरोजी द्वारा
कलकत्ता में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेषन की अध्यक्षता के अवसर पर बाबासाहेब खरे और
वीएम भट्ट ने वहाँ जाने का निर्णय किया। दरअसल, इस बहाने वह वहाँ युवा क्रांतिकारियों
की समानधर्मा गुप्त सभाओं जैसे अनुशीलन समिति, स्वाधीन भारत एवं अन्य के साथ
गठजोड़ बनाना चाहते थे। उनका मत था कि भारत भर में एक साथ सशस्त्र विद्रोह का
समय आ पहुँचा है।
अगले वर्ष, 1907 में बाबाराव और अभिनव भारत के करीब सौ कार्यकर्ताओं ने सूरत
कांग्रेस सत्र में हिस्सा लिया। इस अवसर पर बाबाराव की भेंट, अधिवेशन में आए एक
उत्साही युवा वीओ चिदम्बरम पिल्लई हुई। उन्होंने पिल्लई को अभिनव भारत की शपथ
दिलाई और मद्रास जाकर अन्य युवाओं को साथ जोड़ने को कहा। पिल्लई मद्रास में प्रमुख
क्रांतिकारी साबित हुए और तिरुनेलवेल्ली और तूतिकोरिन विद्रोह में उनका प्रमुख हाथ
रहा।
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सूरत में क्रांतिकारियों की गुप्त बैठक आयोजित की गई जहाँ बाबाराव और उनके
साथी बंगाली क्रांतिकारियों अरविंद घोष, उनके भाई बरिन्द्र और कांग्रेस नेता सुरेंद्रनाथ
बनर्जी से मिले।
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इसके बाद, अभिनव भारत का बंगाल के क्रांतिकारियों से स्थाई संबंध
बन गए। देश भर में ऐसी गुप्त सभाओं की स्थाई बैठकें होने लगी थीं। इसलिए, उग्रवादी
क्रांतिकर्मियों द्वारा बिना किसी योजना या नीति के हिंसा और राजनीतिक हत्याओं को
अंजाम देने से जुड़ी धारणाओं के विपरीत, सिर उठा रही क्रांतिकारी गतिविधियां
योजनाबद्ध, सोची-समझी और गहरी नीतियों से लैस थीं।
अतीत में भी, देश भर में फै ली विभिन्न गुप्त संस्थाओं की गतिविधियों के बीच
सामंजस्यता बनाने के प्रयास किए गए थे। यह प्रयास विशेष रूप से महाराष्ट्र और बंगाल में
हुए थे। 1904 में तिलक के अनन्य सहयोगी, दामू काका भिडे ने अभिनव भारत और
नागपुर तथा पूना की गुप्त संस्थाओं की एक बैठक बुलाई थाी। इस बैठक के लिए अभिनव
भारत की ओर से वामनराव जोशी, शामराव देशपांडे, दुर्रानी, पालेकर एवं विनायक, वीएम
भट्ट और विष्णु सीताराम रणदिवे मौजूद थे। हालाँकि, विनायक के पूर्ण स्वतंत्रता के
अलावा अन्य किसी स्थिति के लिए तैयार न होने के कारण यह बैठक बेनतीजा ही समाप्त
हो गई।
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अभिनव भारत का कोई भी सदस्य जहाँ भी जाता, वहाँ संस्था की एक शाखा ज़रूर
खोलता। 1906 के अंत तक, के वल नासिक जिले में ही, त्रिम्बक, भागुर, ओजर, कोठूर,
निप्हद, इगतपुरी, धोड़प, वानी और अन्य क्षेत्रों
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में इसकी शाखाएँ खुल चुकी थीं। जल्दी
ही, जुन्नार, बम्बई, पेन, सतारा, नागपुर, नागर, सोलापुर, धुले, कोल्हापुर, बड़ोदा, इंदौर,
ग्वालियर, औरंगाबाद, हैदराबाद और अन्य क्षेत्रों में भी इसकी शाखाएँ स्थापित हो गईं।
मराठे , बापत, कोल्हटकर, जोग एवं गोखले इसकी पेन शाखा से जुड़े थे ; जबकि तोन्पे,
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बर्वे, त्रिम्बकसेठ गुजराती, शवमसेठ सोनल और अनन्त कन्हेरे येओला शाखा से संबद्ध थे ;
हैदराबाद इकाई विनायक गोविंद तिखे
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; बंबई शाखा में वीएम भट्ट और बालासाहेब खेर
थे। खेर बाद में, 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत बंबई के मुख्यमंत्री भी बने
थे। डाॅ. गुने, व्हंदावरकर, मुर्देश्वर, डाॅ. सोनापर, साॅलिसिटर थट्टे, इंजीनियर घाटे,
चिपलूणकर एवं अन्य भी बंबई शाखा के सदस्य थे। वसई इकाई में डाॅ. पारुलकर, वाघ,
डाॅ. अथ्ल्ये अन्य थे, जबकि ग्वालियर शाखा में चालीस से पचास सदस्य थे।
बड़ौदा इकाई में बैरिस्टर देशपांडे, के लकर, सरदार मजुमदार और राजरत्न मणिकराव
सदस्यों के तौर पर शामिल थे। पूना के डेक्कन काॅलेज में विद्यार्थीकाल के दौरान जीवतराम
भगवानदास कृ पलानी, जिनका लोकप्रिय नाम आचार्य कृ पलानी था, भी अभिनव भारत
की ओर आकृ ष्ट हुए थे। आचार्य कृ पलानी 1947 में सत्ता हस्तांतरण के समय भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। अन्य प्रतिष्ठित सदस्यों में अहमदनगर के कुं दनमल फिरोदिया
जो बाद में महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर भी रहे, और भारतीय दर्शन पर अनेक पुस्तकें
लिखने वाले श्रीपद दामोदर सातवलेकर प्रमुख थे।
संगठन की प्रत्येक शाखा एक स्वतंत्र इकाई की तरह काम करती थी और उसके प्रमुख
एक दूसरे से संपर्क में रहते थे। इस तरह उन्होंने एक ही धुन और लक्ष्य के आधार पर गुप्त
संस्थाओं का विशाल नेटवर्क खड़ा कर दिया था। यह ढाँचा रूस और आयरलैंड में
सफलतापूर्वक काम कर चुकी गुप्त समितियों जैसा ही था। विश्व इतिहास और राजनीति
को गहराई से पढ़ने पर ही विनायक को ऐसी समितियों की जानकारी हुई थी और अभिनव
भारत को उन्होंने इसी अनुसार खड़ा किया। जैसा कि भट्ट बताते हैं, इसकी मदद से,
‘अनेक संस्थानों, हजारों सदस्यों और हथियारों के जखीरे’ को बचाने में मदद मिली थी।
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विनायक की उस समय की लेखनी और भाषणों से भी क्रांति के प्रति उनकी नीतियों और
दार्शनिक दृष्टिकोण का पता चलता है:
अभिनव भारत पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में है, जिसकी प्राप्ति के लिए सशस्त्र क्रांति
अनिवार्य तरीका है। परंतु क्या हमारी स्वतंत्रता की देवी रक्तपिपासु और नास्तिक देवी है
? नहीं, ऐसा नहीं है। उग्र राष्ट्रवाद की अति उतनी ही खतरनाक है जितना कि उसका
बिल्कु ल न होना। हमें अपनी साप्ताहिक बैठकों में हिंसा एवं अहिंसा, सत्य एवं असत्य
और राष्ट्रवाद एवं मानवीयता के युग्मों पर विचार करना होगा। उपयोगितावाद हमारी
जांच का आधार होना चाहिए - अधिकाधिक लोगों को अधिकाधिक लाभ। परंतु सत्य
सापेक्ष होता है तो हम कै से कह सकते हैं कि क्या सही है और क्या गलत ? साफ है कि
किसी चोर का छू ट जाना और साधु का फांसी पर चढ़ना, असत्य, अयोग्यता और अधर्म
कहलाएगा। और जब भी क्रू र शोषणकारी ताकतें सत्य का इस तरह से गला दबाएंगी
तो न्याय की ताकतों को एकजुट होकर उन्हें समाप्त कर देना चाहिए और इसके लिए
गोपनीय एवं योजनाबद्ध रूप से साथ आना हमारी धार्मिक जिम्मेदारी है। आखिर, कं स
को मारने के लिए भगवान कृ ष्ण ने भी नंद के घर में गोपनीयता साधी थी। यदि वह
सीधे ‘सत्य’ के सहारे ही चले गए होते तो कं स के असुर उन्हें मार डालते। इसी तरह,
औरंगजेब की कै द से शिवाजी भी गुप्त रूप से ही निकले थे। गोपनीयता अपने आप में
न अच्छी है, न बुरी, परंतु उपयोग के आधार पर इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक
चरित्र बनता है। यही मसला राष्ट्रीय संघर्ष का है। अधिकारों की बुनियाद पर
अधिकाधिक लोगों का अधिकाधिक भला हो जिसके लिए हिंसा आधारित संघर्ष उचित
विधि है, जबकि दूसरों की जमीन, संपत्ति और अधिकारों तथा उनके घरों को जला
डालने को सहयोग करना शैतानी कार्य है और इसे निरंकु शता से कु चल देना चाहिए।
राष्ट्र सदा अपने लोगों के भले के लिए हो।
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व्यापक मानवीयता आधारित पक्ष के लिए जोर देते हुए विनायक ने कहा कि उन्हें और
उनके सहयोगियों को अंग्रेजों से नफरत नहीं करनी चाहिए; उन्हें तभी तक शत्रु समझना
चाहिए जब तक कि उन्होंने भारतीयों को अवैध तरीके से अधीन किया है। परंतु एक बार
भारत के आज़ाद हो जाने के बाद उन्हें मित्रों और इंसानों की तरह गले लगाने में कोई हर्ज
नहीं। यही नहीं, यदि कल कोई अन्य देश इंग्लैंड पर इसी तरह गैरकानूनी और शोषणकारी
तरीके से कब्जा कर ले, तो भारतीयों को इंग्लैंड द्वारा स्वयं को आज़ाद कराने के संघर्ष में
सहयोगी के तौर पर सबसे आगे रहना चाहिए। मित्र मेला और अभिनव भारत में विनायक
ने कहा था कि उनकी सच्ची जाति और धर्म के वल मानवीयता है। विनायक लिखते हैं,
‘स्वतंत्रता का हमारा विचार, विराट और सर्वव्यापी है - पृथ्वी ही असली राष्ट्र और ईश्वर ही
सच्चा शासक है। परंतु आज के भारत में सभी नागरिक अधिकार और निजी आज़ादी बंद
पड़ी है। आध्यात्मिक आज़ादी के लिए भी, अपने मार्ग के अभ्यास से जुड़ी राजनीतिक
आज़ादी आवश्यक है।’
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वह मोक्ष के लिए आध्यात्मिक संघर्ष और आज़ादी के लिए
राजनीतिक संघर्ष के बीच कोई विसंगति नहीं मानते थे। उनके अनुसार, राजनीतिक संघर्ष
आध्यात्मिक यात्रा की पहली सीढ़ी होती है और यह अपने आप में कु छ गलत नहीं।
अभिनव भारत के प्रमुख लक्ष्यों में, राष्ट्र एवं व्यक्ति की भौतिक और आध्यात्मिक
जिम्मेदारियों को एकमेव कर पूर्ण स्वतंत्रता के व्यापक ध्येय का प्रयास करना था – यह
प्रयास अपने सभी आयामों में रामराज्य की परिकल्पना से जुड़ा था। राजनीतिक आज़ादी
के साथ-साथ इसका संबंध न के वल भौतिक विकास, बल्कि बौद्धिक, नैतिक और
आध्यात्मिक विकास से भी जुड़ा था। स्वतंत्रता का विचार दैवीय अर्थात देवी माँ से संबद्ध
था। इसलिए हैरानी नहीं कि अपनी प्रत्येक बैठक के आरंभ और अंत में सदस्य एक दूसरे
को ‘स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय’ से संबोधित करते।
क्रांति के रूमानी आदर्शों से प्रेरित होकर इसका हिस्सा बनने को उत्सुक युवाओं को वह
चेताते कि उन्हें भविष्य में कांटो भरे मार्ग के लिए तैयार रहना चाहिए:
आज सरल देशभक्ति का चलन चल पड़ा है जिसने कई लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर
पहुँचाया है, परंतु हमारे लिए राष्ट्रभक्ति के कदम सीधे फांसी के फं दे तक जाते हैं। यदि
सरकार तक जाने वाले सभी विनम्र निवेदन आज़ादी ले आते, तो हम सबसे अधिक
प्रसन्न होते। परंतु चूंकि यह असंभव है, इसलिए हम इस मार्ग पर चले हैं। ज्ञापनों और
निवेदनों का मार्ग ज़रूरी है और ज्यादा से ज्यादा आरंभिक कदम कहा जा सकता है।
परंतु अंतिम साधन के वल सशस्त्र संघर्ष ही है। परंतु यह रक्तिम मार्ग है और मैं अपने
साथियों को नीदरलैंड्स, आयरलैंड, इटली आदि की ऐसी ही राजनीतिक क्रांतियों की
गाथाएँ इसीलिए सुनाता हूं। आपकी सज़ा तिलक के जैसे कारावास की नहीं होगी।
आपको जमकर पीटा जाएगा, आँखें निकल आएंगी, आपको कई दिनों तक भूखा रखा
जाएगा, आपके माता-पिता, पत्नी और बच्चों को आपके सामने लाकर अपमानित
किया जाएगा। आप खुद पर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार का सामना
करने में सक्षम हों, परंतु परिवार को तकलीफ झेलते देखने के लिए अलग तरह की
हिम्मत की आवश्यकता होती है। आपकी हिम्मत, आपकी आत्मा, आपका दिल और
आपका संकल्प तोड़ने के लिए आक्रांता हरेक युक्ति अपनाएगा। अतीत में हिंदुओं या
प्रोटेस्टेंट्स ने जैसे कष्ट झेले, क्या आप में वैसी तकलीफ झेलने की हिम्मत है ? क्या
आपमें चिता पर सती की तरह जलकर भी जीवित रहने और फिर अपने देश के धर्म
योद्धा बनने का सामर्थ्य है ? यदि हां, तो यह मार्ग आपके लिए खुला है।
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बीस वर्ष की आयु से कु छ ही ऊपर के विनायक द्वारा लिखित तत्कालीन गद्य और पद्य
पढ़कर, उनके विचारों की स्पष्टता, लक्ष्य और दूरदर्शिता चकित करती है।
इसी दौरान, 25-26 अगस्त 1906 को अभिनव भारत की नासिक इकाई ने तिलक को
बैठक में आमंत्रित किया। राष्ट्रीय स्तर के नेता उनकी गतिविधियों पर सलाह लेने और उनसे
मिलने आ रहे हैं, यह जानकर चारों ओर खासा उत्साह था। इस अवसर पर आबा दारेकर
(अन्य नाम कवि गोविंद) ने गणमान्य अतिथि के सम्मान में ‘लोकामान्यान्ची भूपाली’
नामक काव्य संबोधन प्रस्तुत किया। नासिक इकाई के अध्यक्ष, हरि अनंत थट्टे ने गुप्त
समिति और हथियार संग्रहण के संबंध में सविस्तार बताया। शाम के समय, बाबाराव ने
अभिनव भारत के प्रमुख सदस्यों और तिलक के बीच एक गुप्त बैठक का आयोजन किया।
सभी निमंत्रित सदस्यों की गहन छानबीन के बावजूद, उपस्थित व्यक्तियों में एक भेदिया भी
मौजूद था। खुद को समर्पित सदस्य दर्शाने वाला नरेंद्र सिंह परदेसी, असल में पुलिस के
लिए काम कर रहा था। बाबाराव ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि के वल ज्ञापन देने
भर से भारत को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। उन्होंने विचार रखा कि क्रांतिकारी धारा को
इस लक्ष्य के लिए रूसी विधि अपनानी होगी। तिलक ने धैर्यपूर्वक युवाओं को सुना और
फिर उन्होंने सलाह दी:
अभिनव भारत के बुनियादी दृष्टिकोण में कु छ भी गलत नहीं है। परंतु जब तक
स्वतंत्रता प्राप्ति के निर्णायक मार्ग मौजूद हैं, तब तक के वल भावनाओं के आधार पर
उठाया गया जल्दबाजी का कोई भी कदम हमारे लक्ष्य के विरुद्ध होगा। आम साधनों से
कु छ प्राप्त नहीं होगा। हम इस प्रक्रिया को देख चुके हैं। अपने अनुभव के आधार पर मैं
आपको थोड़े धैर्यवान होने की सलाह देता हूँ और इस दौरान आप सतर्क भी रहें, जब
तक कि पूरी तरह तैयार न हो जाएं। जब सब तैयारियां पूर्ण हो जाएंगी, तब मैं आपकी
अगुवाई करूँ गा।
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बुजुर्ग राजनेता, जिन्होंने क्रांति अभियान, उसकी आत्मा और उसकी असफलताएं निकट
से देखी थीं, और जो इस बार सफल होना चाहते थे, की यह उचित सलाह थी।
1905 में गणपति महोत्सव के दौरान एसएम परांजपे को नासिक शाखा द्वारा आमंत्रित
किया गया था। इस अवसर पर उन्होंने छह विद्वतापूर्ण भाषण दिए और विनायक ने उन्हें
सम्मानित किया। तब तक अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन के घातक अभियान की खबरें
आनी शुरू हो गई थीं। विनायक कोठूर होते हुए पूना पहुँचे जहाँ उन्होंने इसकी कड़ी
आलोचना की और विरोध स्वरूप उन्होंने विदेशी वस्तुओं की होली जलाने का उग्र समर्थन
किया।
~
1905 और 1910 के समय को औपनिवेशिक शक्ति के परस्पर विरोधी स्वरूपों - सुधार
और शोषण - के बीच उपनिवेश विरोधी राजनीतिक अभियान के उभार का महत्वपूर्ण
समय माना जाता है। इस समय भारत के राजनीतिक परिदृश्य की धुरी में परिवर्तन देखा
गया। 1903 में जारी लिखित मसौदे के आधार पर शुरू हुई प्रक्रिया जिसे बोझिल और
संचालन के अयोग्य कहा गया था, का बहाना बनाकर अंग्रेज सरकार और विशेषकर
वायसरॉय लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल का साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारा कर दिया गया। यह
घटना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आंतरिक फू ट में ठोकी गई अंतिम कील भी साबित हुई।
1890 के दशक के अंत से ही कांग्रेस निष्क्रिय पड़ी थी। 1900 में महासचिव के पद से
इस्तीफा देते समय दिनशाॉ वाचा ने दादाभाई नौरोजी से कड़वे शब्दों में कहा था: ‘आपके
बड़े नेता आजकल कांग्रेस की बैठकों में आना ज़रूरी नहीं समझते, इसलिए हमारा यह
छोटा सा गुट है - जिसमें से अधिकांश बिना निर्णय और समझदारी के अपने हुक्म चलाते
हैं।’
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कर्जन भी कांग्रेस को असफल संगठन के रूप में देख रहे थे जो ‘गिरने से पहले
लड़खड़ा’ रही थी।
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परंतु गोखले जैसे बंबई के नेताओं ने बंगाल, मद्रास, मध्यवर्ती प्रांतों
और बेरार के तूफानी दौरों के दम पर संगठन के कर्मियों के बीच उत्साह फै लाने का प्रयास
किया।
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उस दौरान ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन और लेबर पार्टी के सरकार बनाने पर उन्हें
अपनी कु छ शर्तें मनवाने की उम्मीद दिखी। परंतु बंगाल से जुड़े प्रत्येक मामले में
आधिकारिक दखलंदाजी और पक्षपात के जरिए भारत सरकार ने बंबई और मद्रास
प्रेजिडेंसियों के नेताओं और बंगाल के बीच दुर्भावना पैदा करने का प्रयास किया।
इसका अंतिम नतीजा, 16 अक्तू बर 1905 को कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन के रूप में
सामने आया। पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को चतुराई से अलग किया गया, जिससे
कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे उच्चवर्गीय हिन्दू अल्पसंख्यकों ब्राह्मणों, बैद्यों और
कायस्थों का असर कम हो सके । इस घटना से पूरे बंगाल में रोष फै ल गया। कांग्रेस नेतृत्व
असमंजस की स्थिति में था। एक ओर वह सरकार के साथ सुधारों पर काम कर रहे थे,
जिसके लिए गोखले लंदन जाकर ब्रिटिश जनता के सामने अपना पक्ष रखने वाले थे। वहीं
दूसरी ओर, उनके ही साथी बंटवारे के विरोध में व्यापक बहिष्कार और हिंसक विद्रोह करने
पर आमादा थे। बिपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष जैसे नए नेता, जिनका बंगाल की
राजनीति में अब तक आंशिक या मामूली असर था, मौके का लाभ उठाकर सुरेंद्रनाथ
बनर्जी और भूपेंद्रनाथ बोस जैसे कांग्रेस के पुरोधाओं को दरकिनार कर विरोध की आवाज
बन बैठे थे।
बंगाल के कई कांग्रेसी नेता इस मुद्दे पर संगठन की स्पष्टता की तलाश में बेतरतीब हाथ-
पैर मार रहे थे। इसके लिए उन्होंने गोखले को लिखा, ‘कांग्रेस को स्पष्ट रूप में विचार व्यक्त
करना चाहिए कि क्या बहिष्कार संवैधानिक विरोध का और सांत्वना बटोरने का उचित
माध्यम है या नहीं’।
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उधर पंजाब में भी कांग्रेस के लिए हालात बहुत अच्छे नहीं थे
क्योंकि गोखले द्वारा सुझाए गए सुधारों के आधार पर सिखों और मुस्लिमों को व्यापक
अधिकार मिलने जा रहे थे जिससे हिंदू राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाते। यह
देखते हुए लाला लाजपत राय और अन्य नेताओं द्वारा बंबई गुट की सलाह के बरक्स
अधिक कड़े कदम उठाने की पैरवी की गई। लाजपत राय के अनुसार, ‘जो बंगाल ने किया,
अन्य प्रांतों को भी अपनी शिकायतों को प्रकट करने में ऐसा ही करना चाहिए’।
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स्थानीय
समस्याओं और कार्यविधियों के अंतर के बावजूद, उस समय एक अखिल भारतीय
राजनीतिक पहचान मूर्त रूप ले रही थी, जो देश के किसी भी हिस्से की समस्याओं के साथ
खुद को साझा करती और वैश्विक अनुभवों एवं विचारों से भी प्रेरणा लेती थी।
इस सब के बीच, तिलक ने खुद को एक विरल विकल्प के रूप में स्थापित किया जो
सभी समस्याग्रस्त धड़ों के हित में जोर देकर बोलते और वहीं उन्होंने महाराष्ट्र में अपनी
पारंपरिक पकड़ भी मजबूत की। विनायक और उनकी अभिनव भारत संस्था के युवा
क्रांतिकारियों और गुप्त संस्थाओं के सहयोग के दम पर, तिलक पहले ही भारत भर में
समानधर्मा संस्थाओं के साथ संपर्क साध चुके थे जिस कारण उन्हें अखिल भारतीय
सहयोग आसानी से प्राप्त था। भारत के विभिन्न हिस्सों में जनता की लामबंदी और
क्रांतिकारी गतिविधियां, इस समय की प्रमुख घटनाएँ थीं। उस दौरान ऐसी घटनाएँ विदेश में
भी देखने को मिलीं। परंतु भारत और विदेश में क्रांतिकारी कार्यों के इस महत्वपूर्ण
कालखंड में विनायक दामोदर सावरकर के योगदान पर यदा-कदा ही चर्चा हुई है या शोध
किया गया है।
1904-05 के कालखंड में रूस-जापान युद्ध छिड़ा और एक एशियाई देश द्वारा यूरोपीय
शक्ति को हराने का भारतीयों पर भी अनोखा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा था। भारत के
खुफिया विभाग के निदेशक ने चेताया था: ‘इससे (जापानी जीत) न के वल समूचा पूर्वी
गोलार्ध नई उम्मीद से भर उठा है... परंतु इससे भारत के लोगों को भी प्रेरणा मिली है कि
अब कु छ ही समय की बात है जब वह अपने देश में आज़ाद महसूस कर सकें गे।’
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भारत और कांग्रेस के आंतरिक हालात पर नजर रख रहे विनायक ने निर्णय किया कि
यह समय तिलक को समर्थन देकर उनके हाथ मजबूत करने का है। घटनाक्रम में और तेजी
लाने के लिए उन्होंने जोरदार भाषण दिए। 1 अक्तू बर 1905 को पूना स्थित सार्वजनिक
सभा के भवन में विनायक ने विचार रखा कि विदेशी कपड़ों की होली जलाई जानी चाहिए।
बैठक में एनसी के लकर और एसएम परांजपे मौजूद थे। बैठक की अध्यक्षता कर रहे एनसी
के लकर ने विनायक को मशविरा दिया कि कपड़ों को आग लगाने के स्थान पर बेहतर होगा
कि उन्हें गरीबों और जरूरतमंदों में वितरित किया जाए। विनायक ने विनम्रता से उत्तर
दिया कि वह के वल कपड़ों की होली नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों में आग
लगा रहे हैं, और होली की लपटें आज़ादी की राह का पहला कदम बनेंगी। उन्होंने कहा,
‘हम विदेशी (कपड़ों) को ही नहीं फूं क रहे, बल्कि विदेशी को ही आग लगा रहे हैं - यहाँ हम
विदेशियों से दुराग्रही जुड़ाव और उससे देश को होने वाले धोखे को आग लगा रहे हैं’।
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रोचक बात यह है कि के सरी
के तत्कालीन संपादक के लकर और काल
के संपादक
परांजपे के बीच गहरी प्रतिद्वंद्विता चलती थी। अगले दिन के सरी
ने खबर दी कि कपड़ों को
एकत्र कर गरीबों में वितरित किया जाएगा। यह देख विनायक को अफसोस हुआ कि
भ्रामक सूचना तो पूरे विचार को ही निरस्त कर देगी। वह शहर के विभिन्न छापाखानों में
गए, परंतु रविवार होने के कारण सभी बंद थे। इसके बाद वह परांजपे के घर दौड़े। काल
की मनोहर प्रेस उनके घर पर ही स्थित थी। दोनों साथ बैठे और अगले दिन के संस्करण का
मसौदा तैयार किया जिसमें कपड़ों को एकत्र करने का असल मकसद बताया गया था।
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तिलक के बंबई से पूना लौटने पर, विनायक उनसे मिले और उन्होंने उन्हें सलाह दी कि
पूना में विदेशी वस्तुओं और कपड़ों की होली जलानी चाहिए। तिलक ने विचार का स्वागत
किया और कहा कि इस अभियान के हिला देने वाले असर के लिए ज़रूरी है कि पहले
गाड़ी भर कपड़े इकट्ठे किए जाएं। विनायक ने तुरंत अभिनव भारत के सदस्यों को साथ
लेकर बड़ी संख्या में विदेशी कपड़े एकत्र किए। महाराष्ट्र विद्यालय के संचालक भोपटकर
बंधुओं ने उन्हें इस कार्य के लिए कई स्वयंसेवी विद्यार्थियों का सहयोग दिलाया।
विनायक के भाषणों से प्रेरित होकर, पूना के कई गुट एकजुट हुए। 2 अक्तू बर 1905 को
पूना के ओंकारेश्वर मंदिर में ब्राह्मण पुजारियों ने एक सभा में स्वदेशी के विचार को समर्थन
देते हुए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। 6 अक्तू बर 1905 को सरदार नाटू के महादेव
मंदिर में महिलाओं ने एक सभा की जिसमें विदेश निर्मित चूड़ियों, घासलेट, कांच का
सामान और अन्य घरेलू सामान के बहिष्कार का फै सला किया गया।
दशहरा पर्व तक, ढेर सारे कपड़े इकट्ठे हो गए और उन्हें गाड़ी में रखा गया। एक जुलूस
पांजरपोल के निकट महाराष्ट्र विद्यालय के पास से शुरू हुआ।
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जुलूस में परांजपे और
भास्कर भोपटकर थे और आधे रास्ते में चित्रशाला के निकट तिलक भी उनके साथ हो
लिए। जुलूस फर्ग्युसन काॅलेज के निकट समाप्त हुआ। वहाँ तिलक, परांजपे, विनायक और
कई अन्य नेताओं ने भाषण दिए। वीएम भट्ट, हरि अनंत थाटे, शंकर बी. मोघे, हरिभाऊ
रिस्बद और प्रसिद्ध कवि वीजी मायदेव
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और अन्य इस मौके पर मौजूद थे।
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इस अवसर
पर एक विद्यार्थी विष्णु गणेश पिंगले भी उपस्थित थे जिन्हें बाद में गदर पार्टी से प्रसिद्धि
मिली थी। रात नौ बजे लकड़ी पुल के निकट विशाल होलिका दहन के साथ मीटिंग समाप्त
हुई। जब लोगों ने परांजपे से बोलने को कहा तो उन्होंने एक अधजले कोट को उठाया,
उसकी खाली जेबों की तलाशी लेने का स्वांग भरा और उसे वापस आग में फें क दिया।
इसका अर्थ था कि अंग्रेज देश को लूटने वाले जेबकतरे हैं और अलाव उनके असर को
समाप्त करने का एक प्रयास।
तिलक की सलाह पर विनायक और उनके साथी तब तक अलाव को देखते रहे, जब तक
कपड़े जलकर राख नहीं हो गए। उसी दिन नासिक में बाबाराव ने भी कपड़ों की होली
जलाई। नासिक रेसकोर्स ‘गोराना हया देशातून हकाले जयील’ (अंग्रेजों को भारत से तुरंत
निकालो) के नारों से गूंज उठा।
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इस तरह, अचानक सुदूर बंगाल से जुड़े एक मामले ने
राष्ट्रवादियों को जोड़ दिया और कांग्रेस में ‘उग्रपंथी’ तत्वों के हाथ मजबूत हो गए। जबकि
उदारवादी धड़ा अभी तक प्रार्थनाओं, ज्ञापनों और शांतिप्रिय बातचीत के जरिए ही बंटवारे
को समाप्त करने की कोशिशों में लगा था। 10 अक्तू बर 1905 को कपड़ों की होली के बारे
में बॉम्बे समाचार
ने छापा:
फर्ग्युसन काॅलेज के एक विद्यार्थी श्री सावरकर ने अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई और पूना में पहले आयोजित एक बैठक में प्रस्ताव लेकर आए थे जिसमें उन्होंने
आमजन से सभी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की थी। इस अपील
का तुरंत असर हुआ और चारों ओर से टोपियां, छतरियां आदि एक साथ जमा होने
लगी थीं।
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अस्थाई तौर पर ही सही, बंग भंग के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश विरोधी उभार के कारण
स्वदेशी के पक्ष में ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा। वहीं शांतिपूर्ण विरोध की बातें
भी उठने लगी थीं। तिलक ने उदारवादियों के संवैधानिक सुधारों और वैधानिक सहभागिता
दृष्टिकोण के बरक्स अपना प्रस्ताव कु छ यूँ रखा:
यह बहिष्कार है और बहिष्कार को राजनीतिक औजार के तौर पर इस्तेमाल करने का
यही अर्थ है। हम उन्हें राजस्व एकत्र करने या शांति स्थापित करने में सहयोग नहीं देंगे।
हम उन्हें सीमाओं से बाहर या भारत से परे भारत के पैसे और रक्त के दम पर लड़ने
नहीं देंगे। हम उन्हें प्रशासन और न्याय चलाने नहीं देंगे। हमारी अपनी अदालते होंगी
और जब समय आएगा तो हम कर भी नहीं भरेंगे। क्या अपने प्रयासों से आप यह कर
सकते हैं ? यदि कर सकते हैं तो आप कल से आज़ाद हैं।
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इस अवसर पर उग्रपंथियों द्वारा हासिल जीत को लेकर तिलक के मराठा
और के सरी
समाचार पत्र हर्षोन्मत्त थे। उन्होंने उदारपंथी धड़े के गोखले और फिरोजशाह मेहता के बीच
मनमुटाव होने की खबरें भी प्रसारित की क्योंकि मेहता खुद को अलग-थलग पड़ा मान रहे
थे। ऐसी उफनती परिस्थितियों के बीच, गोखले की अध्यक्षता में, 1905 में बनारस में
कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। गोखले ने बहुत कु शलता से, संतुलन दिखाते हुए बंग भंग की
निंदा की। उन्होंने कहा कि यह बंटवारा, ‘हमारे बंगाली बंधुओं के साथ अन्याय, भारत में
नौकरशाही शासन का सबसे बुरा कृ त्य, जन भावनाओं की पूर्ण उपेक्षा, अपनी समझ को
उच्च मानने का मिथ्याभिमान, भारत के लोगों की सबसे प्रिय भावनाओं के प्रति
लापरवाहीपूर्ण उदासीनता और अपने आकाओं के हितों के प्रति सेवाभावों को प्राथमिकता
देना है’। पूरी तकरीर में सरकार या कर्जन की आलोचना नहीं की गई और फै सले को
के वल नौकरशाही निर्णय की भूल करार दिया गया। लेकिन उग्रवादी धड़े को हैरानी हुई जब
गोखले ने बहिष्कार अभियान का पक्ष लिया। उन्होंने कहाः ‘बेशक एक सिरे पर बहिष्कार
से जुड़े प्रदर्शन हैं, जो पूरी तरह वाजिब हैं, परंतु ऐसे अवसर बंगाल की तरह सभी धाराओं
को, एक ही प्रयोजन से साथ आने का काम करें, और सभी नेता अपने मतभेदों को भुला
दें...’ इसके तुरंत बाद उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में कहाः ‘हमें यह याद रखना होगा कि
शब्द बहिष्कार अपने उत्स के कारण नितांत अरुचिकर भावनाओं से जुड़ा है, और यह
सबसे पहले विचार पटल पर दूसरे को हानि पहुँचाने की भावना उभारता है। इंग्लैंड के साथ
संबंधों के प्रति हमारी ऐसी निरंतर मंशा विचारणीय ही नहीं होनी चाहिए।’
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उन्होंने बहुत
चतुराई से अपनी बात रखी और उसे कांग्रेस की मुख्यधारा बताया, तथा लाल-बाल-पाल
त्रयी (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल) को बाहरी या उग्रपंथी
कहा। इसके बाद, दोनों धड़ों के बीच संबंध विच्छेद लगभग पूरा हो गया था।
एक ओर जहाँ कांग्रेस की अंतर्क लह जारी थी, वही विनायक को विदेशी कपड़ों की होली
जलाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। फर्ग्युसन काॅलेज के प्रधानाचार्य, सर रघुनाथ
पुरुषोत्तम परांजपे आंग्ल प्रेमी थे और कै म्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित में पहले भारतीय
सीनियर रेंगलर भी। ऐसे अभियान में काॅलेज के एक विद्यार्थी द्वारा शामिल होने पर वह
हैरान थे। विनायक को 10 रुपये का जुर्माना और काॅलेज निवास से निष्कासन की सज़ा
मिली। इस तरह, विनायक न के वल विदेशी वस्तुओं की होली जलाने के अभियान की
अगुवाई करने वाले पहले भारतीय नेता बने, बल्कि राजनीतिक कार्यों के लिए सरकारी
शिक्षा संस्थान से निकाले जाने वाले पहले विद्यार्थी भी रहे। रहने का स्थान न होने के
कारण विनायक अपने मित्र गणपतराव जोगलेकर के घर पहुँचे, जो उनका जुर्माना भरने
को भी तैयार थे। परंतु तब तक विद्यार्थियों ने जुर्माने के लिए काफी पैसा बटोर लिया था।
विनायक ने जुर्माना अपनी जेब से भरा और शेष राष्ट्रीय कार्य को दे दिया। इसका बदला
लेते हुए, फर्ग्युसन काॅलेज ने विनायक की मदद करने के लिए जोगलेकर को भी निकाल
दिया। विनायक अपने मित्र हरिभाऊ रिस्बद के घर रहने लगे।
फर्ग्युसन काॅलेज की कार्रवाई की घोर निंदा हुई और विनायक को सब ओर से सहयोग
मिल रहा था। तिलक ने कु पित होकर ‘यह हमारे गुरु नहीं हैं’ शीर्षक से संपादकीय लिखे
जिसमें उन्होंने सर रघुनाथ परांजपे और फर्ग्युसन काॅलेज के प्रबंधन पर हमला बोला।
एसएम परांजपे की अध्यक्षता में सार्वजनिक सभा की बैठक हुई। पूना के प्रतिष्ठित
नागरिक भालाकार भोपटकर, हरेन्द्रनाथ मित्रा और घमेन्दबुवा ने विनायक के सहयोग में
आवाज उठाई और जुर्माना चुकाने के लिए पैसा इकट्ठा करने पर छात्रों की तारीफ की।
काल
के कटाक्षपूर्ण संपादकीय में एसएम परांजपे ने देश के एक नागरिक द्वारा दूसरे को
उसके देशप्रेम के लिए सज़ा दिए जाने को राष्ट्रीय अपमान कह कर निंदित किया। उन्होंने
अफसोस जताया कि शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा होना और भी घिनौनी बात है। परांजपे ने इसे
अफसोसजनक रोग की संज्ञा देते हुए कहा कि भारतीयों को एक दूसरे के खिलाफ करने
की यह जोड़-तोड़ अंग्रेजों की ताकत, सफलता और चतुराई को दर्शाती है।
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उसके करीब अड़तीस वर्ष बाद, अपने विद्यार्थी की स्वर्ण जयंती की अध्यक्षता करते
समय भी प्रधानाचार्य रेंगलर परांजपे कु छ शिकायत से भरे थे। उन्होंने कहा थाः ‘मैं जानता
हूँ कि युवावस्था में सावरकर गहरी बौद्धिकता, उत्सुक वाक्पटुता और अद्भुत लेखन क्षमता
तथा जादुई व्यक्तित्व से भरे थे। मुझे याद है उनका राष्ट्रप्रेम गहरा था, परंतु कु दरती तौर पर
जैसा कि युवाओं के साथ होता है, यह तर्क आधारित न होकर, भावनाओं पर आधारित
था।’
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इन उथल-पुथल भरे दिनों के बीच, बी.ए. की परीक्षाएं भी आ पहुँची थीं। अपनी आदत
के अनुसार, विनायक ने कु छ महीनों के लिए खुद को अलग कर गहन अध्ययन शुरू कर
दिया। 21 दिसंबर 1905 को नतीजे घोषित हुए और एक बार फिर उन्हें सफलता मिली।
उनके सहयोगियों और नासिक में उनके परिवार के बीच खुशी की लहर दौड़ गई। एक वर्ष
पूर्व, वह एलएलबी की पहली परीक्षा भी पास कर चुके थे। 1906 की शुरुआत में विनायक
एलएलबी की अंतिम परीक्षा देने बंबई पहुँचे। भट्ट भी उनके पीछे वहाँ पहुँचे और उन्होंने
विल्सन काॅलेज में दाखिला लिया। दोनों गिरगाम ट्रेन टर्मिनस के निकट सुख निवास लॉज
में साथ ही रहते थे।
उम्मीदों के मुताबिक ही, बंबई में भी विनायक बिना रुके अभिनव भारत का काम करते
रहे। संस्था के एक सदस्य, भास्कर विष्णु फड़के ने रामचंद्र नारायण मंडलीक और
बालकृ ष्ण नारायण फाटक के साथ मिलकर नए मराठी साप्ताहिक, विहारी
का प्रकाशन
शुरू किया। विनायक ने विहारी
में नियमित, तेजर्रार योगदान देना जारी रखा जो अभिनव
भारत का सच्चा प्रवक्ता साबित हो रहा था। विनायक साप्ताहिक के वास्तविक सह-
संपादक भी थे। मार्च 1906 में बंगाल में शुरू हुए युगांतर
की तरह इसका वितरण बहुत
जल्दी बढ़ना शुरू हुआ। बंबई में नए सदस्य बने और उन्हें शपथ दिलाई गई। सुख निवास
लॉज या शास्त्री हाॅल या चिखलावाडी चाल में नियमित बैठकें होने लगीं।
शहर के प्रतिष्ठित एलफिंस्टन काॅलेज, विल्सन काॅलेज, विक्टोरिया टेक्निकल इंस्टीट्यूट,
गुज्जर्स लैबोरेटरी, आर्ट स्कू ल, लॉ स्कू ल और अन्य मेडिकल काॅलेजों जैसे उच्च शिक्षा
संस्थानों से सदस्य बनाने के लिए गहन प्रचार शुरू हो गया। विनायक का मानना था कि
सरकारी सेवाओं से सदस्य बनाने के आधार पर उन्हें सरकार की आंतरिक गतिविधियों पर
नजर रखने में मदद मिलेगी। इस विचार के साथ ही उन्होंने रेलवे, डाक एवं तार विभागों,
कस्टम, बंबई उच्च न्यायालय, सचिवालय, मौसम विभाग आदि में पैठ बनानी शुरू की।
अभिनव भारत सचमुच एक शक्ति संपन्न ताकत के तौर पर रूपांतरित हो चुका था। संस्था
की नीति पर विनायक के विचारों को भट्ट ने संक्षेप में कु छ इस तरह उद्धृत किया:
यदि भारत भर में हथियार एकत्र करने की हमारी योजना निष्फल न रहती तो हम एक
ही साथ अंग्रेज अधिकारियों की हत्या और बम धमाके कर क्रांति के आगाज का डंका
बजा देते। अंग्रेज सरकार, विशेष कर उसके अधिकारियों को तंग करने के लिए हमने
समुचित हथियार इकट्ठा कर लिए थे। वसई का बम निर्माण कारखाना एक गोपनीय
स्कू ल था जहाँ भरोसेमंद क्रांतिकारियों को बम बनाना सिखाया जाता था।
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अतीत के क्रांतिकारियों, वासुदेव बलवंत फड़के या चापेकर बंधु, जो देशप्रेम या हिम्मत में
कम न होकर सोची-समझी योजनाओं में कमजोर थे, के मुकाबले विनायक का अभिनव
भारत, बिना सोचे-समझे अधिकारियों की हत्या या बम धमाके करने वाले दिशाहीन
युवाओं से कहीं बेहतर था। 1857 से प्रेरणा लेकर, अखिल भारतीय स्तर पर क्रांति की
शुरुआत करने से जुड़ी उनकी योजना स्पष्ट थी जिसकी लपटों में वह साम्राज्य को जला
डालना चाहते थे। विनायक के शब्दों में:
इटली में मेजिनी की नीतियां, या आयरलैंड के क्रांतिकारियों या 1857 में हमारे अपने
क्रांतिकारियों ने जो किया, उसे सफलता की बहुत बड़ी संभाव्यता के साथ फिर से लागू
किया जा सकता है। सेना और पुलिस में घुसपैठ, वृहद गुप्त सशस्त्र दल का गठन,
रूस, इटली, आयरलैंड एवं अन्य देशों के क्रांतिकारियों से संपर्क साधना, अंग्रेजी
प्रशासन के प्रमुख सूत्रधारों पर जोरदार हमले, जरूरत पड़ने पर तुरंत प्राप्ति के लिए
प्रांतों और सीमावर्ती क्षेत्रों में हथियार रखना, जब तक बड़े हमले की तैयारी न हो,
प्रशासन को व्यस्त रखने के लिए छोटे हमले जारी रखना, और सबसे ज़रूरी, अपनी
जान देने को तैयार रहना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना - भारत में सफल
क्रांति के लिए यह जरूरतें अवश्यंभावी रहेंगी। अंततः ब्रिटेन किसी अंतरराष्ट्रीय युद्ध में
जा फं सेगा और उसकी शक्तियाँ शिथिल पड़ जाएंगी और उस समय उस पर हमला कर
निस्संदेह उन्हें उखाड़ फें का जाएगा। मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि यहां-वहाँ कु छ
ब्रिटिश अधिकारियों को मार डालने से वह डरेंगे और भागेंगे नहीं। हमें यह भी पता है
कि 30 करोड़ भारतीय हम से नहीं जुड़ेंगे। परंतु यदि 2 लाख बहादुर लोग भी आ जाएं
तो भी बहुत होगा। जो लोग क्रांति को बचकाना और सोचहीन मानते हैं और के वल
चाटुकारितापूर्ण आवेदनों तक सीमित रहते हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि उनका रास्ता
गलत है और इससे हमारा लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं होगा। अभिनव भारत के मौजूदा चरण
में यह सोचना दुराग्रहपूर्ण और हास्यास्पद होगा कि हम ब्रिटिश साम्राज्य को हिला
सकते हैं। हम के वल दियासलाई हैं, परंतु याद रहे कि यदि हमने आग पकड़ ली तो हम
पूरी इमारत को जला सकते हैं। समूचे राष्ट्रों और साम्राज्यों को राख कर देने वाली ऐसी
दियासलाइयों से इतिहास भरा पड़ा है। 30 करोड़ भारतीयों के दिलों में साम्राज्य के
लिए विद्वेष पैदा करना हमारे लिए चारे के समान है और फिर इतना मात्र ही तोप के
गरज उठने के लिए काफी होगा। अस्तित्व के पहले दो वर्ष हमारे लिए, बेतरतीब हिंसक
वारदातों को अंजाम देने की बजाय, योजना को समझने, अनुमान लगाने और नीति-
निर्माण करने, साथियों को इस दिशा में मोड़ने और सशक्त करने, मार्ग तलाशने तथा
कार्यों की सही दिशा देने में जाएंगे। कथित उदारवादी और उग्र राष्ट्रवादियों से भी हमें
उनके श्रेष्ठ विचार और अभ्यास सीखने होंगे क्योंकि वह भी राष्ट्रप्रेमी हैं, और देश और
उसकी आज़ादी के बारे में सही भावनाएं रखते हैं।
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उन्हीं दिनों पूना के विद्यार्थियों ने बंबई में विनायक को एक व्यक्ति से मिलाने के लिए
आमंत्रित किया। अगम्य गुरु थे जो जोरदार भाषणों के लिए जाने जाते थे और देश की
आज़ादी के लिए छात्रों से चंदा बटोरने की भी अपील करते थे।
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उनके बारे में जानने के
कौतुहल के कारण, विनायक ने 23 फरवरी 1906 को उनसे मुलाकात की। बातचीत के
आरंभ में ही विनायक को अहसास हुआ कि यह व्यक्ति छद्म है क्योंकि वह अपनी
अलौकिक शक्तियों और भारत की स्वतंत्रता के लिए ईश्वर के सहयोग की बात करता था।

उनकी बात काटते हुए विनायक ने उनसे उनके राजनीतिक विचार स्पष्ट करने को कहा।
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बौखलाए गुरु ने कहा कि पहले वह विनायक से कु छ वित्तीय सहयोग चाहते हैं, उसके बाद
अपनी राजनीतिक योजना बताएंगे। दोनों का साक्षात्कार पच्चीस मिनटों में ही सिमट गया।
विनायक ने छात्रों से ऐसे ढोंगियों से बचने को कहा। उनका आकलन सही निकला, क्योंकि
दो वर्ष बाद 1908 में लंदन में गुरु एक अग्रेज युवती के साथ दुष्कर्म के प्रयास में पकड़ा
गया और वहाँ की एक जेल में चार माह कै द के बाद उसकी रिहाई हुई।
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इस महत्वहीन घटना से जुड़ा रोचक तथ्य यह है कि इसे 1918 में ‘द सेडिशन कमिटी
रिपोर्ट’ नामक गोपनीय दस्तावेज में स्थान मिला था। समिति की अध्यक्षता जज रॉलेट ने
की थी और उसमें प्रतिष्ठित जजों, अधिकारियों और गुप्तचर एजेंटों का सहयोग था। पूना में
विनायक सावरकर की गतिविधियों पर नजर रखे जाने से पता चलता है कि वह तब तक
अंग्रेज सरकार के गुप्तचर विभाग की नजर में आ चुके थे। परंतु समिति तथ्यात्मक तौर पर
कितनी गलत थी, यह रिपोर्ट के उद्धरण से साफ है:
भारत छोड़ने से पहले विनायक सावरकर 1905 के आरंभ में शुरू एक अभियान के
संपर्क में आए जिसे खुद को महात्मा कहने वाले श्री अगम्य गुरु परमहंस ने शुरू किया
था, जो देश भर में घूमकर सरकार के खिलाफ बेखौफ बोलते और श्रोताओं को सरकार
से न डरने की सलाह देते थे। अभियान के अंतर्गत, पूना में 1906 में कई विद्यार्थियों ने
एक सभा का गठन किया जिसने विनायक सावरकर को अपना नेता चुना और उन्हें
पूना में महात्मा से मिलने के लिए बुलाया। सावरकर 23 फरवरी की सभा में पहुँचे और
सलाह दी कि अभियान के लक्ष्य पूरे करने के लिए एक नौ सदस्यीय समिति बनाई
जाए। इसी अनुसार एक समिति गठित की गई, जिसके अधिकांश सदस्य कभी न कभी
पूना के फर्यग्युसन काॅलेज से जुड़े थे, जहाँ से विनायक ने शिक्षा प्राप्त की थी। महात्मा
ने बैठक में प्रस्ताव रखा कि सभा के लक्ष्य पूर्ण करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति से एक
आना चंदा बटोरा जाए और उचित राशि एकत्र होने के बाद वह उसके इस्तेमाल का
तरीका बताएंगे।
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गुप्तचरों के पीछे लगे होने का विनायक को पता था। 23 फरवरी 1906 को पूना के जोशी
भवन में वह शिवाजी के गुरु संत रामदास की सलाह को मानने से जुड़ा एक जोरदार
भाषण दे रहे थे कि उन्होंने श्रोताओं के बीच कु छ संदिग्ध व्यक्तियों को देखा। वह विदेशियों
से आज़ादी के लिए श्रोताओं से अपने हृदयों को भरा रखने के लिए कह रहे थे कि अपने
शब्दों पर रोेक लगाई ताकि जासूस उसे दर्ज न कर लें। उन्होंने कहा:
गुप्तचर यहाँ मौजूद हैं। मुझे खुशी है कि वह यहाँ सुनने और हमारे कार्य में मदद करने
आए हैं। लिहाजा, कहना न होगा कि परोक्ष रूप से यह लोग और यहाँ तक कि पुलिस
भी हमारी ओर है। हम रामदास के आदेश को याद रखें और अपने कार्य में उनका
अनुसरण करें। हमारा सबकु छ खो चुका है। अपने धर्म में भी हमारा विश्वास नहीं रहा।
भारत में उसकी पुनः स्थापना का प्रयास कीजिए। जो खो गया है उस पर आंसू न
बहाएं। खोए को पाने के लिए रक्त की बूंदें बहाएं।
60
1906 में सावरकर बंधुओं पर गुप्त फाइल बनी और 1908 में इसका नंबर 60 रखा गया।
61
एलेक्जेंडर माॅन्टगाॅमरी, आईसीएस, जो उस समय नासिक के प्रथम श्रेणी न्यायाधीश थे, ने
एक अन्य गुप्त रिपोर्ट में लिखा है, ‘सावरकर पहले ही उच्चकोटि के प्रखर वक्ता के रूप में
पहचान बना चुका है।’
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रोचक तथ्य है कि जोशी भवन की सभा की ही शाम को
माॅन्टगाॅमरी ने सभा की रिपोर्ट दर्ज की थी।
वह तेज बोलता है, वह बेहद उग्र है, शैली में बहुत आकर्षक और कई बार श्रोताओं की
वाहवाही में उत्तेजित होकर भूल जाता है कि वहाँ गुप्तचर मौजूद हैं ...मेरी राय में वह
अपने जीवन को बर्बाद कर रहा है क्योंकि वह अभी अल्पायु है और जैसे विचार वह
रखता है, उन्हें समझने के लायक वह स्वयं ही नहीं है और साथ ही युवाओं के मस्तिष्क
में ऐसेे विचार भर कर उनके जीवन से भी खेल रहा है ...आज सायं उसने विद्यार्थियों
की सभा की जिनका वह अध्यक्ष है ...उसने एक जनरल की तरह श्रोताआंे को
बेधड़क हमला करने के विषय में उन्हें संबोधित किया। वह करीब 35 मिनट बोला
...ऐसा लगता है कि पूना में जल्दी ही एक भारत-यूरोपीय अभियान की शाखा स्थापित
हो जाएगी।
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बंबई लौटने पर, विनायक को इंडियन सोशलॉजिस्ट
समाचार पत्र की एक घोषणा का पता
चला। पत्र के संपादक इंग्लैंड में रहने वाले पंडित श्यामजी कृ ष्ण वर्मा थे। प्रतिभाशाली और
राष्ट्रवादी युवा भारतीयों को विदेश में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजने हेतु श्यामजी ने कु छ
छात्रवृत्तियों की घोषणा की थी।
~
श्यामजी का जन्म कच्छ के मांडवी क्षेत्र में 4 अक्तू बर 1857 को कृ ष्णदास भानुशाली और
गोमतीबाई के घर हुआ था। उनके पिता बंबई में रहते थे परंतु बहुत कठिनता से परिवार का
पोषण कर पाते थे। जब श्यामजी ने छोटी आयु से ही शिक्षा में रुचि दिखाई तो उनकी माँ
उन्हें भुज के अंग्रेजी स्कू ल में शिक्षा के लिए ले गईं। परंतु उनकी शीघ्र मृत्यु के कारण,
श्यामजी के पिता उन्हें बंबई ले आए। परंतु कु दरत को कु छ और ही मंजूर था। अभी
श्यामजी मुश्किल से दस वर्ष के थे कि उनके पिता भी चल बसे। अपने रिश्तेदारों की मदद
से उन्होंने विल्सन हाई स्कू ल और बाद में एलफिंस्टन हाई स्कू ल में शिक्षा प्राप्त की, जहाँ से
वह उच्चश्रेणी में स्नातक हुए। स्कू ली शिक्षा के साथ ही वह विश्वनाथ शास्त्री द्वारा चालित
संस्कृ त पाठशाला में संस्कृ त भी सीखते थे। 1874 के आसपास, उनकी बंबई में
आध्यात्मिक गुरु और समाजसेवी स्वामी दयानंद सरस्वती से भेंट हुई जो आर्य समाज के
संस्थापक थे। उन्होंने हिन्दू समाज में फै ल गई कु रीतियों और वैदिक रीति को फिर से
जगाने के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी। श्यामजी आर्य समाज से औपचारिक रूप
से जुड़े पहले लोगों में से थे जिसके लिए उन्होंने कठोर श्रम किया। देश भर का दौरा करते
हुए वह समाज सुधार और हिन्दू धर्मग्रंथों की नवीन व्याख्या के लिए विशुद्ध संस्कृ त में
भाषण देते थे।
1875 में बंबई के धनी उद्योगपति सेठ छबीलदास लल्लूभाई की सुपुत्री भानुमती से
श्यामजी का विवाह संपन्न हुआ।
श्यामजी की संस्कृ त में विद्वता पर प्रोफे सर मोनियर विलियम्स की नजर गई जो उस
समय ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृ त के बोडेन प्रोफे सर (ईस्ट इंडिया कं पनी के पूर्व
ले. कर्नल जोसेफ बोडेन द्वारा दिए गए फं ड से स्थापित पद की वजह से इसे बोडेने प्रोफे सर
कहा जाता था) थे। वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने श्यामजी को ऑक्सफोर्ड में अपने
सहायक के तौर पर ले जाने का निर्णय किया। कृ ष्ण शास्त्री चिपलूणकर और न्यायाधीश
रानाडे ने श्यामजी की विद्वता के प्रमाण रूप में संदर्भ पत्र प्रोफे सर विलियम्स को दिए।
फलस्वरूप, 1879 में श्यामजी ऑक्सफोर्ड के लिए रवाना हुए और अगले चार वर्षों में
उन्होंने कई महान अकादमिक उपलब्धियां प्राप्त कीं। उनकी छात्रवृत्ति के लिए, बंबई के
तत्कालीन गवर्नर सर रिचर्ड टैम्पल ने कच्छ के महाराजा को लिखा जो अंततः उन्हें मिली
भी। वेदों और संस्कृ त पर उनके व्याख्यानों के आधार पर उन्हें 1881 में रॉयल एशियाटिक
सोसाइटी की सदस्यता मिली। उन्हें बर्लिन में आयोजित पांचवीं ओरियंटल कांग्रेस में देश
का प्रतिनिधित्व करने के लिए, तत्कालीन विदेश सचिव मार्की ऑफ हर्लिंग्टन के पास भी
भेजा गया। दो वर्ष बाद तत्कालीन भारत मंत्री अर्ल ऑफ किम्बरले ने ओरिएंटल कांग्रेस में
भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए श्यामजी को पुनः भेजा। ऐसी विद्वता और संपर्कों के
आधार पर वह स्नातक करने तक एम्पायर क्लब के सदस्य बन चुके थे जिसके सदस्यों में
गवर्नर, गवर्नर-जनरल्स और कमांडर-इन-चीफ होते थे।
बैरिस्टर बनने के बाद, 1885 में श्यामजी भारत लौटे और अगले बारह वर्षों तक यहाँ वह
रतलाम, उदयपुर और जूनागढ़ जैसे राज्यों के दीवान रहे। करीब तीन वर्षों तक उन्होंने
अजमेर में वकालत भी की। इसी दौरान वह तिलक के संपर्क में आए और उनके राष्ट्रवादी
विचारों से बहुत प्रभावित हुए। परंतु जूनागढ़ में विवादों और मुकदमों में घिरने के बाद
उनका मोहभंग हो गया और वहाँ से इस्तीफा देने के बाद 1897 में उन्होंने अपनी पत्नी के
साथ हमेशा के लिए भारत छोड़ने का फै सला कर लिया। ब्रिटिश प्रशासन में अपनी
अचानक अप्रसिद्धि को देखते हुए श्यामजी ने अगले सात से आठ वर्षों तक इंग्लैंड में
अपना दायरा सीमित रखा। उन्होंने स्टाॅक बाजार में निवेश किया और स्वतंत्र जीवन जीने
के लिए अच्छी-खासी व्यवस्था कर ली।
बंग भंग के बाद श्यामजी को यकीन हो गया कि उन्हें स्वदेश में चल रहे राजनीतिक
अभियान में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। वह भारतीयों के मस्तिष्क में तर्क वाद और
स्वतंत्रता से जुड़े नए विचारों के बीज बोने के पक्षधर थे। इसके लिए उन्होंने एक भारतीय
लेक्चरशिप की स्थापना का विचार किया जिसका ध्येय उनके आदर्श हर्बर्ट स्पेन्सर के
विचारों का प्रसार करना था। 1903 में स्पेन्सर की मृत्यु के बाद श्यामजी ने ऑक्सफोर्ड में
स्पेन्सर लेक्चरशिप स्थापित करने के लिए 1000 पाउंड्स का निजी अनुदान देने की
घोषणा की थी, जिसका लक्ष्य भारतीय विद्यार्थियोें के लिए दर्शनशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वानों
के लेक्चर संग्रहित करना था। यूरोप में भारतीय क्रांतिकारी प्रयासों पर गहरी नजर रखने के
साथ-साथ उन्होंने 1 जनवरी 1905 को ‘आज़ादी एवं राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक
सुधारों के मुखपत्र’ इंडियन सोशलॉजिस्ट
मासिक की शुरुआत की। उन्होंने न्यूयाॅर्क में
प्रतिष्ठित आयरिश-कै थोलिक समाचार पत्र गेलिक
अमेरिकन
से भी संपर्क साधा जिसके
मालिक एवं प्रकाशक आयरिश रिपब्लिकन पार्टी के जाॅन डेवाॅय थे।
64
परंतु श्यामजी ने
हिंसा के मार्ग का खंडन करते हुए ब्रिटिश आमजन के प्रति मैत्रीपूर्ण और गैर-प्रतिरोधक
रुझान रखा और विशुद्ध तर्क और न्याय के आधार पर ब्रिटिश समाचार पत्रों में आलेख
और पत्र लिखे।
65
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के पहले संपादकीय में श्यामजी ने प्रमुख सिद्धांतों
और कांग्रेस के उदारपंथी धड़े के प्रति अपनी निराशा प्रकट की:
उग्रता का विरोध के वल उचित ही नहीं बल्कि आवश्यक है। विरोधीहीनता परोपकारिता
और अहंभाव दोनों का नुकसान करती है ...इंग्लैंड और भारत के बीच राजनीतिक
संबंधों के अंतर्गत यूनाइटेड किंगडम में मौलिक भारतीय व्याख्याकार की आवश्यकता
है जो यह बताए कि अंग्रेजी राज में भारतीय कै से हैं और कै सा महसूस करते हैं। जहाँ
तक हमें ज्ञान है, ब्रिटिश जनता को भारत के लोगों की शिकायतों, मांगों और अपेक्षाओं
से वाबस्ता कराने का कोई सुनियोजित प्रयास भारतीयों की ओर से नहीं हुआ है। ग्रेट
ब्रिटेन और आयरलैंड के सामने, भारत और उसकी प्रतिनिधित्वहीन करोड़ों जनता के
पक्ष को रखने की यह जिम्मेदारी और विशेषाधिकार हमारा है।
66
एएम शाह इंडियन सोशलॉजिस्ट
की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि उसने ‘अंग्रेजी शासन
की हल्की आलोचना’ की तथा श्यामजी के उस वक्तव्य की ओर ध्यान दिलाया कि ‘भारत
और इंग्लैंड को शांतिपूर्ण संबंध विच्छेद कर मैत्रीवत अलग होना चाहिए’ ।
67
इसका ग्रेट
ब्रिटेन, भारत और संयुक्त राष्ट्र में व्यापक स्तर पर वितरण हुआ, हालाँकि 1907 से ब्रिटेन ने
इसके आयात पर रोक लगाने का प्रयास किया था।
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के दूसरे संस्करण के प्रकाशन के बाद श्यामजी ने लंदन में
भारतीयों के लिए भारतीयों की एक संस्था की नींव रखी। हालाँकि, संस्था आयरिश
क्रांतिकारी अभियान से प्रेरित थी, परंतु उनकी ‘इंडियन होम रूल सोसायटी’ ने
समझौतावादी मार्ग अपनाया। 18 फरवरी 1905 को लंदन के हाईगेट
68
स्थित उनके घर में
संस्था के उद्घाटन के लिए करीब बीस भारतीय एकत्र हुए। संस्था के प्रमुख लक्ष्यों में देश में
होम रूल की स्थापना, उसकी स्थापना तक यूनाइटेड किंगडम में सभी प्रायोगिक साधनों से
उसकी दिशा में काम और भारतीयों के बीच राष्ट्रीय एकता तथा आज़ादी से जुड़े लाभ के
संबंध में ज्ञान का वितरण था। श्यामजी के अतिरिक्त संस्था से सी. मुत्थू, जेएम पारिख, डाॅ.
डीई परेरा, परमेश्वर लाल, डाॅ. यूके दत्त, सरदारसिंह राणा, मंछेरशाह बरजोरजी गोदरेज
और अब्दुल्ला अल-ममून सोहरावर्दी जुड़े थे।
उस समय लंदन इंडियन सोसाइटी और ईस्ट इंडिया एसोसिएशन जैसी संस्थाएं भी काम
कर रही थीं जिनसे भारतीय और पूर्व ब्रिटिश गवनर्स, कमिश्नर्स, संसद सदस्य और प्रतिष्ठित
राजनेता सदस्यों के तौर पर जुड़े थे। इन्हें दादाभाई नौरोजी ने शुरू किया था परंतु ये
संस्थाएं अपनी ओर अधिक खिंचाव पैदा नहीं कर पाई थीं। श्यामजी सशस्त्र विद्रोह के
हिमायती नहीं थे, बल्कि वह तिलक, लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल की तरह सत्याग्रह
और बहिष्कार का समर्थन करते थे। परंतु उदारवादी और उग्रवादी श्यामजी द्वारा प्रचलित
‘होम रूल’ संज्ञा का इस्तेमाल नहीं करते थे क्योंकि इससे अंग्रेजों के लिए आयरिश होम
रूल आंदोलन की यादें ताजा हो आती थीं। बिपिन चंद्र की ‘स्वायत्त्ता’ या दादाभाई की
‘स्वः सरकार’, श्यामजी के होम रूल जैसे ही विचार थे, जिसमें कनाडा और ऑस्ट्रेलिया
की तरह ही ब्रिटेन के अधीन रहकर राज करने की आंतरिक आज़ादी प्राप्त होती। परंतु इस
शब्द का इस्तेमाल भी अभिशाप सरीखा था।
मई 1905 में श्यामजी ने एक नई घोषणा की:
लंदन में ‘इंडिया हाउस’ के नाम से जुलाई की शुरुआत में एक भवन या होस्टल खोलने
का प्रस्ताव है ताकि उनलोगों के रहने का इंतजाम किया जा सके जो भारतीय यात्रा
फे लोशिप के तहत यहाँ आ सकें या ऐसे भारतिय जो यहाँ रह सकने की योग्यता रखते
हों... हाईगेट (लंदन) में हाॅनर्सी की एक पूर्ण स्वामित्व अधिकार वाली संपत्ति खरीदी गई
है जो आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार लंदन का सबसे स्वस्थ क्षेत्र है और यहाँ मृत्यु
दर भी समूचे यूनाइटेड किंगडम में सबसे कम है। यह स्थान ट्राम्स के पास स्थित है, यह
तीन रेलवे स्टेशनों से कु छ ही दूरी पर है, तथा वाटरलू पार्क , हाइवे वुड्स एवं क्वीन्स
वुड्स से कु छ ही मिनटों की दूरी पर है।
भवन में... मौजूदा समय में पच्चीस युवाओं के लिए रहने की व्यवस्था है। बाद में
पचास विद्यार्थियों के लायक व्यवस्था तैयार की जाएगी। लेक्चर हाॅल, पुस्तकालय और
रीडिंग रूम एक ही तल पर हैं, जिससे अध्ययन एवं परस्पर संप्रेषण की सुविधा सके ।
मनोरंजन के लिए टेनिस कोर्ट्स, जिम्नेजियम आदि के लिए वहाँ उपयुक्त स्थान है।
संस्थान के रखरखाव की व्यवस्था के वल भारतीयों के हाथों में है ...परिसर में मद्यपान
की अनुमति नहीं होगी। यात्रा शिक्षावृत्ति प्राप्त व्यक्ति से रहने के लिए प्रति सप्ताह 16
रुपये लिए जाएंगे, जबकि अन्य को विशेष तौर पर निर्धारित नियम एवं शर्तों पर
स्वीकार किया जाएगा ...इस देश में भारत के सभी हिस्सों से आने वाले विद्यार्थियों के
लिए रिहायशी सुविधाएं देने का यह पहला प्रयास है।
इंडिया हाउस का उद्घाटन 1 जुलाई 1905 को हुआ। इस अवसर पर इंग्लैंड की सोशल
डेमोक्रे टिक पार्टी के नेता श्री हेनरी मायर्स हिंडमैन, पाॅजीटिविस्ट पार्टी के श्री स्वीनी,
जस्टिस पेपर
के संपादक श्री स्वेल्च, तथा भारतीय नेताओं में दादाभाई नौरोजी, लाला
लाजपत राय, मैडम भीकाजी रूस्तम कामा एवं अन्य उपस्थित थे। इस अवसर पर हेनरी
मायर्स हिंडमैन के संभाषण ने कई लोगों को सकते में डाल दिया:
ग्रेट ब्रिटेन के प्रति वफादारी भारत से छल है। मैं कई भारतीयों से मिला हूँ और अंग्रेजी
शासन के प्रति उनकी वफादारी देखी है, जिसे बहुसंख्य भारतीय घिनौना मानते हैं। या
तो वह निष्ठाहीन थे या अनजान ...अब तक भारतीय अपनी बेड़ियों को पूजते आए हैं।
और स्वयं इंग्लैंड की ओर से कोई उम्मीद नहीं दिखती। भारत की मुक्ति का कार्य
अनुदारवादी लोग, प्रतिबद्ध लोग और कट्टरवादी लोगों के हाथों ही होगा ...यह इंडिया
हाउस भारत के विकास और भारतीय आज़ादी की दिशा में बड़ा कदम है।
69
आने वाले वर्षों में यही इंडिया हाउस विनायक सहित अनेक भारतीय क्रांतिकारियों का
अड्डा बनने वाला था।
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के दिसंबर अंक में विनायक ने छात्रवृत्तियों से संबंधी सूचना पढ़ी
थी। श्यामजी के साथी, काठियावाड़ के सरदारसिंहजी रावजी राणा (लोकप्रिय नाम
एसआर राणा) द्वारा अतिरिक्त छात्रवृत्तियाँ घोषित की गई थीं। राणा लंदन में बैरिस्टरी की
शिक्षा के लिए गए थे, जहाँ से वह पेरिस पहुँचे और हीरे एवं अन्य कीमती नगों का व्यापार
करने लगे। वह श्यामजी के इंडियन होम रूल सोसाइटी के संस्थापकों में थे और उसके
उपाध्यक्ष थे। उन्होंने 1905 में एक अन्य क्रांतिकारी हस्ती, मैडम भीकाजी रूस्तम कामा के
साथ मिलकर पेरिस इंडियन सोसाइटी की भी नींव रखी थी। 2000 रूपये की तीन
छात्रवृत्तियाँ तीन भारतीय नायकों - मेवाड़ के महाराणा राणा प्रताप, शिवाजी महाराज और
मुगल सम्राट अकबर के नाम पर रखी गई थीं। चूंकि उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से
लंदन में शिक्षा प्राप्त की थी, राणा ने श्यामजी को बतायाः ‘यह मेरा कर्तव्य है कि मैं बदलेे
में अपने दो या तीन साथियों को स्वतंत्र देशों में बुलाऊं जिससे उन्हें राजनीतिक आज़ादी
का आस्वाद प्राप्त हो’।
70
छात्रवृत्तियाँ प्राप्त करने वालेे युवाओं को शपथ लेनी होती थी कि वह ब्रिटेन या भारत में
अंग्रेज सरकार की नौकरी नहीं करेंगे। रोचक तथ्य है कि उन्हें अनुबंध पर हस्ताक्षर के बाद
दस वर्ष के अरसे में 4 प्रतिशत सालाना की दर से पैसा लौटाना भी था। इसके अतिरिक्त,
भारत छोड़ने से पहले प्रत्याशी को जीवन बीमा (न्यूनतम 5000 रुपये का) भी खरीदना था।
प्रीमियम प्रत्याशी को ही देना था और उसे ‘दिए गए पैसे की सुरक्षा के तौर पर प्रीमियम की
किस्तें नियमित रूप से हस्ताक्षर करने वाले या वारिस को भेजनी थीं’।
71
जब विनायक छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करने की सोच रहे थे, तो उन्हें पता था कि इतने
पैसे इंग्लैंड में रहने के लिए नाकाफी होंगे। हालाँकि, उनके श्वसुर ने यकीन दिलाया कि कम
पड़ रहे पैसे की भरपाई वह करेंगे। इस आश्वासन के बाद, उन्होंने अपना आवेदन श्यामजी
के पास भेज दिया। पत्र में उन्होंने लिखा:
स्वतंत्रता और आज़ादी को मैं किसी भी राष्ट्र की नब्ज एवं श्वास मानता हूं। आदरणीय,
बाल्यकाल से युवावस्था तक, अपने देश की खोई हुई आज़ादी और उसको पुनः पाने
की संभावना एकमात्र विचार है जिसे मैं रातों को सपने में और सुबह विचारों में देखता
हूँ।
72
श्यामजी को 153 आवेदन मिले थे, परंतु विनायक का आवेदन और उसके साथ अनुशंसा
में तिलक एवं एसएम परांजपे के पत्रों ने उनका ध्यान आकृ ष्ट किया। तिलक ने श्यामजी को
लिखा:
जब ऐसी भगदड़ मची हो तोे विशेषकर आपको किसी की अनुशंसा के बारे में लिखने
का कोई अर्थ नहीं। परंतु फिर भी, मैं कहना चाहूंगा कि प्रत्याशियों में, बंबई के श्री
सावरकर हैं, जो पिछले ही वर्ष स्नातक हुए हैं और जिन्हें मैं स्वदेशी विचार से जुड़े हुए
बहुत ही उत्साही युवा के तौर पर जानता हूं। यहाँ तक कि उन्हें इसके लिए फर्ग्युसन
काॅलेज के प्रशासकों की नाराजगी का शिकार भी होना पड़ा था। सरकारी नौकरी प्राप्त
करने की उनकी कोई मंशा नहीं और उनका नैतिक चरित्र बहुत अच्छा है। 73
श्यामजी को 8 मार्च 1906 को अनुशंसा पत्र में एसएम परांजपे ने लिखा:
आपसे निजी तौर पर भेंट करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हो सका है। परंतु मुझे
आशा है कि हमारी मातृभूमि को दुनिया के राष्ट्रों के बीच सम्मानित स्थान दिलाने के
आपके द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित होम रूल सोसाइटी के सदस्य के तौर पर आपको
संभवतः मेरी याद होगी। परंतु मुझे प्रबल आशा है कि मेरी आपसे घनिष्ठता होगी और
इसलिए इस अवसर पर मैं अपने एक मित्र के संबंध में आपको एक निजी पत्र लिख
रहा हूं। उनका नाम विनायक दामोदर सावरकर है। उन्होंने इस वर्ष स्नातक परीक्षा
उत्तीर्ण की है और लंदन में कानून की शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। वह स्वयं इसका
खर्च उठाने में असमर्थ हैं, इसलिए कु छ बाहरी मदद ले रहे हैं। वह बहुत ऋणी रहेंगे यदि
उन्हें एक छात्रवृत्ति मिल जाए, जिसके संबंध में आपने अपने समाचार पत्र में
उदारतापूर्वक सूचित किया है। उनकी योग्यताओं के बारे में कह सकता हूँ कि वह
उत्साही वक्ता और गंभीर राष्ट्रप्रेमी हैं। अभी वह जोर-शोर से मातृभाषा में एक पत्र
प्रकाशित कर रहे हैं, परंतु गणपति एवं शिवाजी महोत्सवों में वह और भी उत्साहपूर्ण
कार्य कर चुके हैं। वह अलग से भी आपको प्रार्थनापत्र भेज रहे हैं और मैं मानूंगा कि
यह बेहतर रहेगा कि यदि एक छात्रवृत्ति उन्हें प्रदान की जाए।
74
रोचक बात यह है कि 1905 में विदेशी वस्तुओं की होली जलाने में शामिल होने पर
विनायक को निष्कासित करने वाले फर्ग्युसन काॅलेज के प्रधानाचार्य रेंगलर परांजपे ने भी
उनकी अनुशंसा में पत्र लिखा था।
75
मई 1906 केे आरंभ में विनायक को सूचना मिली कि उन्हें श्यामजी द्वारा शिवाजी
छात्रवृत्ति दी गई है। उन्हें 400 रुपये की पांच किस्तों में कु ल 2000 रुपये अदा किया जाना
था। प्रत्याशी को श्यामजी के साथ एक अनुबंध भी करना था कि छात्रवृत्ति समाप्त होने पर
वह कोई भी सरकारी नौकरी नहीं करेगा। विनायक ने श्यामजी को स्पष्ट किया कि वह
वकालत करना चाहते हैं जिसे नौकरी नहीं कहा जा सकता। छात्रवृत्ति प्राप्त करने वालों के
लिए इंडिया हाउस में रहने का खर्च 16 शिलिंग प्रति सप्ताह और अन्य के लिए 18 शिलिंग
एवं 6 पेंस था। 20 मई 1906 को विनायक ने अपने मित्र दाजी नागेश आप्टे और के सरी
के
उप-संपादक कृ ष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर की मौजूदगी में अनुबंध पर हस्ताक्षर किए और
पहली किस्त के रूप में तिलक से 400 रुपये प्राप्त किए। 25 मई को उन्होंने श्यामजी को
पत्र भेजा जिसमें घोषणा थी:
मैं अपने कथन और शपथ अनुसार घोषणा करता हूँ कि मैं अंग्रेज सरकार के अंतर्गत
किसी सेवा या किसी परिषद (नगरपालिका, जिला बोर्ड आदि) में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष
रूप से कोई पद या मानद कार्यालय, खिताब, लाभ या ओहदा प्राप्त नहीं करूं गा और
मैं किसी अन्य को भी किसी भी क्षमता में सरकारी नौकरी करने की राय नहीं दूँगा एवं
मैं उनसे किसी किस्म का मेहनताना भी स्वीकार नहीं करूं गा।
76
इंग्लैंड जाने से पहले, विनायक ने नासिक में अनेक भाषण दिए। 1 जनवरी 1906 को
उन्होंने ब्रह्मानन्द थियेटर में 200 से 300 लोगों की उपस्थिति में अपना भाषण दिया।
अभिनव भारत के एक सदस्य, वामन नरहर दानी पुलिस काॅन्स्टेबल थे जो विनायक के
कहे को दर्ज कर रहे थे। वाचन का विषय आने वाली मकर संक्रांति पर्व के दिन तिल-गुल
(तिल के बीज और गुड़) के वितरण से जुड़ा था। श्रोताओं को प्रोत्साहित करते हुए
विनायक बोले:
मैं आपसे कहूंगा कि बीज को विदेशी चीनी के साथ न मिलाएं और बेहतर होगा कि
स्वदेशी चीनी में बीज मिलाएं ...बहिष्कृ त विदेशी चीनी को हाथ भी नहीं लगाइए
...अवकाश के इन दिनों लोग कहेंगे ‘तिल-गुल लो और मीठे वचन बोलो’। जबकि हमें
कहना होगा ‘तिल-गुल लो और मीठे वचन न बोलो।’ चूंकि मीठे वचन बोलने के लिए
प्रत्येक हृदय को खुश होना चाहिए। जिसका दिल और दिमाग प्रसन्न नहीं वह मीठे
वचन कै से बोल सकता है ? ...हम हथियारों से रहित हैं। हालाँकि हम निहत्थे हैं, परंतु
यदि हमें कोई हथियार चाहिए तो हम कहीं से प्राप्त कर सकते हैं। इसका अर्थ, क्या हमें
तलवार की जरूरत है, जो तलवार या बंदूक सी दिखे, जो एक बंदूक हो ? नहीं, यदि
हम राज्य (सरकार का तख्तापलट) खोने (या पाने) के प्रति स्पष्ट हों तो किसी हथियार
की जरूरत क्यों ? क्या शस्त्रों के बिना और कोई मार्ग नहीं ? नहीं, कई मार्ग हैं। उन पर
यहाँ विस्तारपूर्वक बात करना आवश्यक नहीं। कई लोगों ने मेरा मंतव्य समझ लिया
होगा। अतः आपको एक बेहतर स्थान पर पहुँचना होगा, अर्थात् आपको अपनी
परिस्थिति में सुधार लाना होगा। हमारा देश इस बुरी अवस्था में इसलिए पहुँचा कि
हमने अपना धर्म छोड़ दिया, अपने उद्योग और अपने व्यापार छोड़ दिए जिसे दूसरों ने
कब्जा लिया। उन्होंने हमारे व्यापार पर एकाधिकार कर लिया जिससे उनका देश धनी
और हमारा गर्त में जा रहा है। नहीं, यह पहले ही जा चुका है। तो आइए इसे याद रखें
और उनसे अपने हथियारों से लड़ें, जो हैं, अपने धर्म पर अडिग रहना और व्यापार जारी
रखना, जो उनके हाथों में पहुँच गया है। इसका अर्थ हम अपने देश में निर्मित वस्तुएं
जैसे स्वदेशी चीनी, कपड़ा और अन्य स्वदेशी वस्तुएं उपयोग करें ...अतः मधुर शब्दों के
स्थान पर आपके हृदय में आग हो, जिसे वहाँ दहका दें।
77
21 और 22 अप्रैल 1906 को उन्होंने दो भाषण दिए - एक, नासिक के नाओ दरवाजा के
निकट रोकड्या मारुति स्थित अखाड़े के सामने और दूसरा, सुंदर नारायण मंदिर में। एक
बार फिर, पुलिस के गुप्तचर वामन नरहर ने उनके शब्दों को दर्ज किया और अपने
अधिकारियों को उस बारे में सूचित किया। संबोधनों में विनायक ने जनता से उनके
मस्तिष्क और शरीर दोनों को प्रशिक्षित करने को कहा। उन्होंने कहा कि वह अपने हृदय में
राष्ट्रभक्ति की भावना पैदा करें। मारुति (हनुमान) की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए
उन्होंने कहा कि भगवान अपने हाथ में गदा लिए पैरों से दानव को कु चल रहे हैं। उन्होंने
कहा कि यदि सब ध्यान से देखें तो दानव का रंग श्वेत अथवा रक्तिम है। पुलिस ने नतीजा
निकाला कि वक्तव्य का अर्थ सफे द चमड़ी वाले विदेशियों को शारीरिक शक्ति से मारने से
है।
78
28 मई 1906 को आबा दारेकर के घर और 31 मई 1906 को अमर सिंह परदेशी, जो
पुलिस मुखबिर थे, के घर विदाई दावतें आयोजित की गईं।
79
दावत के बाद आबा के घर
में, विनायक और उनके क्रांतिकारी साथियों की एक तस्वीर उतारी गई। इसे बाद में जब्त
कर विनायक और उनके साथियों पर चलाए गए मुकदमें में पेश किया गया।
80
28 मई 1906 को नासिक के भद्रकाली मंदिर में विनायक के लिए एक नागरिक
अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया। 400 लोगों की उपस्थिति में कार्यक्रम की
अध्यक्षता वैदिक विद्वान हरिहर शास्त्री गर्गे ने किया। आखिर तमाम कठिनाइयों से जूझते
हुए, नगर के एक बेटे ने अपनी पहचान बनाई थी और अब वह सात समंदर पार इंग्लैंड में
उच्च शिक्षा प्राप्त करने जा रहा था। इस खुशी के मौके पर, अनेक नगरजनों, परिवारजनों
एवं मित्रों ने विनायक की प्रशंसा की। कृ तज्ञ विनायक ने कहा कि वह अपने ऊपर मातृभूमि
के ऋण को उतारने के एकमात्र लक्ष्य के साथ इंग्लैंड जा रहे हैं। इंग्लैंड जाने का उनका
असली लक्ष्य वहाँ के लोगों को भारतीयों पर हो रहे शोषण और क्रांति की जरूरत से
अवगत कराना था। वह क्रांति के लिए शस्त्र संग्रहण और बम बनाने की विधि सीखना
चाहते थे, साथ ही, भारतीय स्वतंत्रता के उद्देश्य के लिए दुनिया भर में क्रांतिकारियों का
नेटवर्क भी तैयार करना चाहते थे।
81
इसी मीटिंग के दौरान, विनायक ने शिवाजी के गुरु
की पंक्तियाँ भी बोलींः ‘सकल लोक इक करावे, इक विचारे भरावे, कश्ते करुण घसरावे,
म्लेन्छानवरी’ (एकत्र हो और सबको संगठित करो, फिर प्रेरणा पाकर और तैयार होकर
विदेशियों को निकाल बाहर करने के लिए संघर्ष करो
82
)। अपने संवेदनशील भाषण में
विनायक ने कहा:
यदि धर्म का पालन होता है, तो यह देश जो हिन्दुओं और मुसलमानों का भी है, प्रगति
करेगा। यह उसका है जो यहाँ पैदा हुआ है, यह उसका है जो इसके उपजे अनाज पर
पलते हैं ; जिनके बच्चे भी इसी अनाज पर पलते हैं। समाज की अंतिम पांत में शूद्र हैं
क्योंकि लोगों का मानना है कि वह सेवा के लिए जन्में हैं। परंतु यदि वह सेवा के लिए
भी जन्में हैं तो किसकी सेवा ? यह उन गुलामों की सेवा नहीं हो सकती, जो आज हम
सब बन चुके हैं, परंतु वह अपने देश को अपनी सेवा देंगे... सबको बैठे हुए, बात करते
हुए, सोते ही नहीं बल्कि आँखें झपकाते हुए भी ‘स्वदेश भक्ति’ की याद रखनी चाहिए
जो देश के प्रति निष्ठा है।
83
विनायक को ज्ञान नहीं था कि 1906 में दिए गए इन पांचों भाषणों - चार नासिक में और
एक पूना - को कई वर्षों बाद ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा तैयार करने
के लिए उनके विरुद्ध इस्तेमाल किया जाएगा।
इसके बाद 9 जून 1906 को एसएस पर्शिया जहाज से इंग्लैंड रवाना होने के लिए
विनायक बंबई रवाना हुए। उन्हें विदा करने आए बाबाराव, विनायक की पत्नी यमुना और
उनके डेढ़ वर्षीय पुत्र प्रभाकर (विनायक द्वारा पूना में 1905 में होलिका दहन अभियान से
एक माह पूर्व सितंबर में उसका जन्म हुआ था) की आँखें नम थीं। प्रभाकर को यमुना के
हाथों से लेते हुए उन्होंने कहाः ‘त्याला देविचे इंजेक्षन दया, नहीतार तो देवाकादे जायील’
(इसे चेचक का टीका लगवाओ
84
, नहीं तो यह माता के पास चला जाएगा)।
85
विनायक ने
कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि दुर्भाग्यवश उनके असावधानीपूर्वक कहे शब्द एक दिन
सच हो जाएंगे।
अब अनुभवों और अवसरों की नई दुनिया विनायक की प्रतीक्षा कर रही थी। फिर भी
अपने प्रियजनों से बिछु ड़ने का दुःख उनके हृदय के तारों को झंकृ त कर रहा था। अपने
संस्मरणों में उन्होंने उस भावुक अनुभव के बारे में कु छ यूँ लिखा है:
मुझे लिए खुले सागर की ओर तैरता जहाज, बंबई के तट से रेंगता और आवाज करता
हुआ इंग्लैंड को रवाना हुआ। जल्दी ही मुझे अलविदा कहने आए, गोदी पर खड़े मेरे
संबंधी और मित्र आँखों से ओझल होने लगे। जैसे-जैसे किनारा दूर होता गया, मेरे
मस्तिष्क में बनी मेरे मित्रों और परिवार की छवियां मेरी आँखों के सामने नाचने लगीं।
अन्य यात्री, जिन्होंने भी अपने नातेदारों को विदा दी थी, अंदर जाकर अपने कमरे
तलाशने और सामान व्यवस्थित करने लगे। परंतु मैं एकटक किनारे की ओर देख रहा
था और मेरा मस्तिष्क, बिछोह से आहत मुझसे दयनीयता से पूछने लगाः ‘क्या मैं कम
से कम तीन वर्ष बाद सुरक्षित भारत आ सकूं गा ? क्या मैं उनसे दोबारा मिल सकूं गा ?’
86
4
शत्रु के खेमे में
एस. एस. पर्शिया जहाज पर, जून-जुलाई 1906
एस. एस. पर्शिया भारत भूमि से दूर हो रहा था, विनायक लंबे समय तक विचारमग्न डेक
पर खड़े रहे। डेक पर उनके सहयात्रियों की हँसी और आनंद की गूँज, जिनमें से अधिकांश
यूरोपीय थे, उनकी मनोदशा से सर्वथा विपरीत थी। अपने बीच एक ‘देसी’ व्यक्ति की
उपस्थिति के कारण उनकी आँखों में झलकते उपेक्षा भाव को वह महसूस कर सकते थे।
चूँकि यह उनकी पहली समुद्र यात्रा थी, विनायक को अंदाजा नहीं था कि अपना कमरा
कै से खोजें, और किसी भी यूरोपीय व्यक्ति से पूछने पर वह तिरस्कारपूर्ण तरीके से मुँह फे र
लेता। उन्हें अंततः एक के बिन अधिकारी मिला जिसने अपने भारतीय सहायक से उनकी
मदद को कहा। अपने के बिन में कदम रखते ही विनायक की नजर अपना सामान
व्यवस्थित करते एक नौजवान सिख पर पड़ी, जो आयु में उनसे करीब तीन वर्ष कम था।
गौर वर्ण, अच्छी कदकाठी और सुंदर नैन-नक्श वाले इस सिख युवक ने उन्हें देखते ही
राहत की सांस ली और पूछा कि क्या वह श्री सावरकर हैं। पहली समुद्री यात्रा होने के
कारण वह युवक भी संकोच महसूस कर रहा था और एक भारतीय साथी की तलाश में
था। उनके कमरे से कु छ आगे ही अन्य कु छ पंजाबी सहयात्रियों के भी के बिन थे।
वह सिख युवक अमृतसर निवासी हरनाम सिंह था। उसके पिता पंजाब के जिला
न्यायाधीश रहे थे, जिनकी मृत्यु के समय वह छोटा सा था और उसकी परवरिश उनकी माँ
ने की थी। स्नातक उत्तीर्ण कर चुके युवा का अठारह वर्ष की आयु में विवाह भी हो गया
था। नाभा के महाराजा उस युवक की बुद्धिमत्ता से प्रभावित हुए और उसे इंग्लैंड के
साइरेन्सेस्टर स्थित रॉयल एग्रिकल्चर काॅलेज में कृ षि विज्ञान पढ़ने के लिए वजीफा दिया
था।
1
एकमात्र सन्तान होने के कारण उसकी माँ उसे इतनी दूर नहीं भेजना चाहती थीं,
परंतु बाद में वह राजी हो गईं। उन दिनों समुद्र यात्रा के प्रति चौकन्ना रहना आम बात थी
और पुरातनपंथी हिन्दू तो इसे जाति भ्रष्ट होना मानते थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुरेंद्रनाथ
बनर्जी ने लिखा है कि 1874 में उनकी इंग्लैंड यात्रा को उनके परिवार और मित्रों से कु छ
इस तरह छु पाकर रखा गया था, जैसे कोई घृणित साजिश रची जा रही हो। उनके पिता के
अलावा किसी अन्य को इस योजना का पता नहीं था और जब यात्रा की पूर्व संध्या पर
उनकी माँ को इस बारे में बताया गया तो वह मूर्छित हो गई थीं। इंग्लैंड से लौटे लोगों की
अंग्रेजी आदतों से लोग सकते में रहते थे। उच्चवर्गीय ब्राह्मण परिवार का होने के कारण
बनर्जी को उनके समुदाय ने जाति बाहर ही कर दिया था, वह लिखते हैंः ‘...विभिन्न
अवसरों पर हमारे साथ खाने-पीने वाले लोगों ने हम से सब सामाजिक संपर्क ही तोड़ दिए
और हमें निमंत्रण देने से मना कर दिया था।’
2
विनायक और हरनाम की यात्रा के दौरान
हालात इतने बुरे नहीं थे, फिर भी शंकाएं बहुत थीं। दोनों युवकों में बातचीत शुरू हुई जो
घनिष्ठता की ओर चल पड़ी।
डेक पर चहलकदमी के दौरान विनायक की अन्य भारतीयों से पहचान हुई जिनके बारे में
हरनाम ने बताया था। जहाज पर करीब दस भारतीय थे। पंजाब से एक रईस युवक भी
उनमें था जिसका नाम जान-बूझकर विनायक ने अपने संस्मरणों में नहीं बताया और बहुत
रहस्यमयी ढंग से उसे ‘श्रीमान शिष्टाचारी’ कह कर पुकारा है। यूरोप की अनेक यात्राएं
करने के कारण उन्होंने पश्चिमी रहन-सहन अपना लिया था। उनका मानना था कि इंग्लैंड
जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों को पहनावे, खानपान, और सिगार या पाइप तथा मदिरा
सेवन जैसी यूरोपीय आदतें और रिवाज अपना लेने चाहिए। इसके बाद ही यूरोपीय उन्हें
अपनी तरह का मानेंगे। विनायक एक सीमा तक ही उनसे सहमत हुए। उनके अनुसार ऐसा
तभी मुनासिब था कि यदि अपमान का सामना न हो और तभी व्यक्ति को अपनी तथा गैर-
परंपरा की तुलना करने का भी अवसर मिलता है। चूँकि उनका इंग्लैंड जाना अचानक तय
हुआ था, इसलिए विनायक को अंग्रेजी तौर-तरीकों को जानने का अवसर नहीं मिला था।
ऐसे में ‘श्रीमान षिष्टाचारी’ ने उन्हें कपड़े और टाई पहनने तथा छु री, कांटे और चम्मचों से
खाने के कठिन कार्य सिखाने में मदद की पेशकश की। अब तक विशुद्ध शाकाहारी रहे
विनायक मांस सेवन से समझौता करने को भी तैयार थे। परंतु छु री और कांटे से खाने के
अभ्यास में उन्होंने खासी गड़बड़ की। कांटे की बजाय दाएँ हाथ में पकड़ी छु री को उन्होंने
मुँह में डाल लिया जिस कारण उनका होंठ कट गया। मछली सेवन तथा मांस को हड्डियों से
अलग करना और भी शर्मिंदा करने वाली दुखदायी क्रिया साबित हुई। वैसे भी जहाज पर
सफर करने वाले शाकाहारियों को अधिकांश समय भूखा ही रहना पड़ता था क्योंकि खाने
के विकल्प बहुत ही कम थे।
रंगीन पगड़ी पहने हरनाम सिंह जहाज के यूरोपियनों की नजरों में बने रहते। जब भी वह
ताजी हवा के लिए डेक पर जाते, अंग्रेजों के बच्चे उनकी ओर इशारा कर के हँसते। बच्चों
के अभिभावक, उन्हें चुप कराने की बजाय, मजाक बनाने में उनका साथ देते। यह देख
‘श्रीमान शिष्टाचारी’ को शर्मिंदगी होती थी और उन्होंने विनायक से कहा कि हरनाम को
वह पगड़ी पहनने से मना करे। परंतु विनायक ने विरोध किया। उन्होंने कहा:
हमारी कु छ रवायतें बेशक पुरानी हो चुकी हैं और उनके उन्मूलन के प्रस्ताव को लेकर मैं
आपसे भी आगे हूं। मैं मूलतः सुधारवादी हूं। परंतु कु छ अनभिज्ञ और घमंडी यूरोपियनों
द्वारा मजाक बनाने के कारण अपनी संस्कृ ति और परंपरा का त्याग मैं बिल्कु ल
कायरता समझता हूं। मैं सोचता हूँ कि उनकी टोपियां मुझे कू ड़ेदान लगती हैं जबकि
हमारी पगड़ियां रंगीन और सुंदर दिखती हैं। किसी सिख को पगड़ी पहनने से मना
करना देश का अपमान करने सरीखा है क्योंकि पगड़ी उनके धर्म से जुड़ी है। हम सब
क्यों नहीं पगड़ियां पहनते ताकि हमें इतनी बड़ी संख्या में देख वह उपहास करना ही
बंद कर दें ?
3
विनायक ने दलील दी कि गुलाम देश होने के कारण अंग्रेजी रिवाजों के बरक्स भारतीयों
को खुद को हीन समझना बिल्कु ल स्वाभाविक है। इसके बरक्स ईस्ट इंडिया कं पनी के उन
शुरुआती व्यापारियों पर सोचिये जिन्होंने नई ज़मीन पर खुद को कितना अलग महसूस
किया होगा और हमारे पुरखों ने भारतीय रिवाजों के प्रति अनभिज्ञता पर उनका मजाक
बनाया होगा। उन्होंने कहा, ‘परंतु यह अंग्रेज महिलाएं एवं पुरुष के वल हमारा मजाक
बनाने के लिए नहीं हंस रहे हैं। यह घमंड से भरे हैं और हमसे सचमुच नफरत करते हैं।
उनका मानना है कि वह शासक हैं और हम, गुलाम, इसलिए उनके रीति-रिवाज, परंपराएं
और संस्कृ ति हमसे कहीं ऊं ची हैं। समस्या यहाँ है।’
4
इस तरह, जहाज पर भी अपने
सहयात्रियों के बीच विनायक ने भारत के पक्ष में राजनीतिक और सांस्कृ तिक पक्ष, उसकी
मौजूदा गुलामी और आज़ादी की उसकी जरूरत के संबंध में वैचारिक आदान-प्रदान शुरू
कर दिया था।
जहाज ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया, अनेक यात्री सामुद्रिक ज्वर और घर की याद से
परेशान रहने लगे। विनायक को भी घर की याद सता रही थी। ऐसे अनेक अवसर आए जब
उन्हें अपने भाइयों, पत्नी, बेटे और भाभी के पास लौट जाने की गहरी टीस उठती। बचपन
में झेली त्रासदियों के कारण सावरकर भाई-बहनों के बीच बहुत स्नेह था। इस बीच,
बेतरतीब खानपान के कारण हरनाम सिंह बीमार पड़ गया। विनायक ने उनकी तीमारदारी
की तो वह उनका हाथ पकड़ कर रोते हुए कहने लगे कि अब बर्दाश्त करना उसके बस का
नहीं और वह इसी पल परिवार के पास लौटना चाहता है। विनायक ने उसे समझाया कि
कई बार जीवन के ऊं चे लक्ष्यों की तलाश में हमें उनके लिए तकलीफ उठानी पड़ती है
जिन्हें हम सबसे अधिक चाहते हैं। उन्होंने हरनाम में हिम्मत पैदा करने के लिए उन्होंने
सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन से जुड़ी घटनाएँ सुनाई। मुगल
क्रू रता का सामना करते हुए उन्होंने अपने सत्रह और तेरह वर्षीय बेटों, अजित सिंह और
जुझार सिंह को रणभूमि में खो दिया था। उनके दो छोटे बेटे भी इस्लाम ना कबूल करने के
कारण जिंदा दीवार में चिनवा दिए गए थे। वह खुद शहीद हुए थे। विनायक ने कहा कि यदि
गुरु गोबिंद सिंह और उनके बेटों ने उनकी तरह सोचा होता, तो वह भी बड़े लक्ष्य के लिए
लड़ने की हिम्मत न जुटा पाते।
उन दिनों भारत भेजे गए पत्रों का जवाब पाने में एक महीने का समय लगता था। परंतु
पिछली सदियों में, जब ईस्ट इंडिया कं पनी के अधिकारी भारत आते तो उन्हें अपने
परिवारों से संपर्क करने में छह महीने या उससे अधिक समय लगता था क्योंकि उन दिनों
इंग्लैंड से भारत आने वाले जहाज के प ऑफ गुड होप से घूमकर आते थे। परंतु उनके इरादे
दृढ़ थे क्योंकि उनका लक्ष्य भारत पर कब्जा कर के उसका शासक बनने का था। तो क्या
युवा भारतीयों को भी अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराने के लिए दृढ़ नहीं रहना चाहिए ?
विचार-विमर्श के अंत में, हरनाम पूरी तरह बदल चुका था। ऐडन पर उतरने का विचार
उसने छोड़ दिया और उसके बजाय विनायक से मातृभूमि के लिए अपनी भूमिका के बारे में
पूछा। विनायक की तर्क शक्ति कु छ ऐसी जादुई थी।
जहाज पर भारतीयों के बीच विनायक ने अपने साथ लाई मेजिनी की अंग्रेजी जीवनी
वितरित की। वह क्रांति के प्रति उनके विचार और रुझान को समझना चाहते थे। अनेक
युवा प्रेरित थे, परंतु उनके अनुसार ऐसे कार्यों का बीड़ा उठाना तिलक या लाला लाजपत
राय जैसे राष्ट्रीय नेताओं अथवा महाराजाओं का काम था। वह स्वयं, पैदल सैनिकों जैसे ही
हो सकते हैं। विनायक ने उन्हें बताया कि मेजिनी के ‘युवा इटली’ का आरंभ गिने-चुने
गुमनाम युवाओं के दम पर ही हुआ था। उन्होंने वासुदेव बलवंत फड़के और चापेकर बंधुओं
की भी उन्हें याद दिलाई जो गुमनाम थे, परंतु अपने हिस्से का काम कर गए थे।
उनमें से एक, जिसका नाम विनायक ने रहस्यमयी तरीके से ‘के शवानंद’ रखा है, सचमुच
प्रेरित था। उन्होंने कहा कि यदि ऐसी कोई गुप्त सभा भारत में होती, तो वह सहर्ष उससे
जुड़ते। इस अवसर पर विनायक ने अभिनव भारत और देश भर में उसकी गतिविधियों के
बारे में उन्हें बताया। हालाँकि, वह वकील बनने के लिए इंग्लैंड जा रहे थे, परंतु यह के वल
एक बहाना था। उनका असल उद्देश्य व्यापक स्तर पर प्रसार और इंग्लैंड के प्रतिष्ठित
नागरिकों को अपने पक्ष में करना था। वह सस्ते और असरदार बम बनाने के तरीके भी
सीखना चाहते थे। अंत में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांतिकारियों का नेटवर्क खड़ा कर भारत
में विद्रोह की आवाज उठाना उनकी योजना का हिस्सा था। यह सुनकर सहयात्री सकते में
थे। अगले ही दिन, के शवानंद और तुनुकमिजाज ‘श्रीमान शिष्टाचारी’ ने एस. एस. पर्शिया
जहाज पर ही अभिनव भारत की सदस्यता की शपथ ली। इस तरह, क्रांति के लिए
विनायक के जुनून ने इंग्लैंड पहुँचने का भी इंतजार नहीं किया।
इन व्यक्तियों ने लंदन में विनायक की मदद की परंतु खुद पुलिस के डर से अज्ञात ही रहे।
उदाहरण के लिए, ‘श्रीमान शिष्टाचारी’ ने विनायक के कई उग्र आलेखों को भारत
भिजवाने में भूमिका निभाई। उनका कपड़े का व्यापार था और वह कपड़ों के ढेर में
पांडुलिपियां छु पाकर भारत भेजते थे। इस कारण सदा चौकन्नी रहने वाली पुलिस या
गुप्तचर एजेंसियों को भनक भी नहीं लगी।
तीन सप्ताह की यात्रा ने न के वल विनायक को अभिनव भारत के लिए नए सदस्य दिए,
बल्कि उनके अंदर के कवि को भी ज़रूरी एकांत उपलब्ध कराया। वह खुली हवा में
सम्मोहित बैठे रहकर विशाल, सीमाहीन समुद्र और आकाश के असंख्य तारों को निहारा
करते। उन्होंने खगोल शास्त्र और समुद्र शास्त्र के बारे में पढ़ा था परंतु यह प्रत्यक्ष देखने का
मौका था। अपने संस्मरणों में, उस समय मस्तिष्क में घुमड़ने वाले विचारों के बारे में लिखा
है:
सृष्टि का अर्थ क्या है ? महासागरों और भूमि पर रहने वाले असंख्य जीव विलुप्त हो
जाएंगे, ताकतवर कमजोर का भक्षण कर लेगा। भूकं प, उल्काएं, बर्फ के तूफान और
अन्य विध्वंसकारी शक्तियाँ ईश्वर के कार्य हैं या शैतान के ? यदि यह सब ऊपर कहीं बैठे
किसी का खेल है जो सबकी तारें खींच रहा है तो इन सब के बीच इंसान कहा आता है
? ऐसा क्यों है कि रचनाकार कभी थकता नहीं और प्रत्येक विध्वंस के बाद फिर
सबकु छ बना देता है ?
5
उन्होंने यात्रा के दौरान कई कविताएँ लिखीं, जिनमें ‘ताराकं स पहुन’ (तारों को देखने के
बाद) जैसी आनंदप्रद कविता भी है। कविता का आरंभ आह्वान कराने वाली पंक्तियों से
होता है:
सुनिल नभ, सुंदर नभ हे, नभ हे अटल अहा !

सुनिल सागर, सुंदर सागर, सागर अतलची अहा !

नक्षत्राही तरंकित हे, नभ तरंकित भसे !

प्रतिबिंबहि तसा सागरही, तरंकित भसे !

नमझे लागे कु थे नभ कु थे जल सीमा होई

नबहत जल हे, जलत नभ हे संगमुनि जई


अर्थ: गहरा नीला, खूबसूरत और अनंत आसमान! गहरा नीला, सुंदर, गहरा और उछाल
मारता समुद्र!
सितारों और सौरमंडलों से भरा ये आसमान मोहक अंदाज में मुस्कु रा रहा है। ये समुद्र कहाँ
खत्म होता है और ये आसमान कहाँ शुरू होता है? विराट क्षितिज पर उनका मिलन कहाँ
होता है?
6
एस. एस. पर्शिया पर विनायक, हरनाम और अन्य ने जो नफरत और उपेक्षा झेली वह नई
नहीं थी। टाइम्स ऑफ लंदन
के संवाददाता सर वेलेंटाइन शिरॅल ने लंदन में रहने वाले
अनेक भारतीय विद्यार्थियों के ऐसे ही अनुभवों पर लिखा है:
कोई अंग्रेज़ जो कभी पूरब नहीं गया, उसके लिए एक विद्यार्थी और उसकी जीवनशैली
और उससे संबंधित अंतर को समझ पाना भी कठिन है जिससे वह. . .वह किसी कस्बे
के सरकारी या मिशनरी स्कू ल अथवा काॅलेज में आया होगा। परंतु इस तरह भी उसे
अंग्रेजी जीवनशैली के प्रति अंतर्दृष्टि नहीं मिलती थी. . .वह पूरब और पश्चिम के बीच
गहरी खाई का विचार लेकर ही इंग्लैंड आया होगा. . .अपनी प्रकृ ति में वह बहुत भावुक
होता है। जहाज पर वह और उसके साथी भारतीय एक साथ रहते हैं। गरम जलवायु में
कड़ी मेहनत के बाद थके -हारे अंग्रेज यात्रियों के बाद उनमें शांत पूरबवासियों की ओर
बढ़ने और संपर्क साधने की ऊर्जा नहीं बचती। इस कारण खाई और चौड़ी होती है. .
.उनमें से कु छ ऑक्सफोर्ड या कै म्ब्रिज जाते हैं। इन विश्वविद्यालयों में दस-पंद्रह वर्ष
पहले जा चुके कु छ भारतीयों से उसने वहाँ की रोचक जीवनशैली, मिलनसार
अंडरग्रेजुएट्स, मेहमाननवाज छात्रावासों के संबंध में सुना होता है. . .वहाँ जाकर उन्हें
अफसोस ही होता है. . .काॅलेज भी उन्हें दाखिला देने में अनिच्छु क रहते हैं। अंग्रेज
अंडरग्रेजुएट ऐसे किसी भी व्यक्ति को स्वीकारते हैं जो खेलकू द में अच्छा और
विश्वविद्यालयी जीवन से जुड़ने का इच्छु क है, परंतु किसी भी राष्ट्रीयता के ऐसे व्यक्ति
को नकारते हैं जिसे अंग्रेजी खेलों की जानकारी नहीं, या जो अपनी क्षमता प्रदर्शित
करने में संकोची या संवेदनशील है।
7
अदन से चलकर, जहाज लाल सागर से होता हुआ, फ्रांस में मार्से पहंुचने से पहले, सुएज
तट पर पहुँचा। विनायक की नजर में मार्से का खास आकर्षण था क्योंकि अत्याचार झेलने
के बाद इटली के क्रांतिकारी मेजिनी ने यहीं पनाह ली थी। एक स्थानीय गाइड के साथ
मिलकर उन्होंने वह स्थान खोजने की कोशिश की जहाँ, छु पे थे, परंतु प्रयास असफल रहा
क्योंकि किसी को उसका पता नहीं था। इस पुराने शहर की संकरी गलियांे में नासिक की
झलक दिखती थी। परंतु जल्दी ही उनके ट्रेन का वक्त हो गया और मार्से को अलविदा
कहने का समय आ गया। उस समय किसी को अंदाजा नहीं था कि कु छ वर्षों बाद भीषण
हालात में उन्हें इसी फ्रांसीसी शहर में पुनः आना पड़ेगा।
मार्से से विनायक ने पेरिस के लिए ट्रेन ली और वहाँ से कै ले शहर के लिए। फिर उन्होंने
जहाज से इंग्लिश चैनल पार किया और डोवर पहुँचे और फिर वहाँ से ट्रेन लेकर लंदन के
चैरिंग क्रॉस। अंततः वह 3 जुलाई 1906 को लंदन पहंुचे। श्यामजी कृ ष्णजी वर्मा के
इंडिया हाउस के कु छ निवासी उनके स्वागत के लिए स्टेशन पर मौजूद थे। विनायक की
सलाह पर हरनाम सिंह भी इंडिया हाउस में रहने को राज़ी हो गए।
रोचक बात यह है कि जब विनायक इंग्लैंड रवाना हुए, तो पूना से स्पेशल क्राइम ब्रांच ने
उनकी प्रस्तावित लंदन यात्रा के बारे में रिपोर्ट भेजी थी। भारत से यह गोपनीय पत्र 14 जून
1906 को एसडब्ल्यू वायरली ने लंदन की इंडिया ऑफिस क्रांइम ब्रांच के आर. रिची को
भेजा था। वायरली ने कहा था, कि ‘हालाँकि मेरी नजर में ज़रूरी नहीं है परंतु वह दामोदर
हरि चापेकर जैसे विचार रखते हैं जो 1897 में श्री रैंड की हत्या का जिम्मेदार था। संक्षेप में
कहा जाए, तो वह तेजतर्रार है।’
8
भारत और इंग्लैंड की गुप्तचर एजेंसियां विनायक की
प्रत्येक गतिविधि पर नजर रख रही थीं।
लंदन, जुलाई 1906
26 जुलाई 1906 को विनायक को कानून की शिक्षा के लिए द ऑनरेबल सोसाइटी ऑफ
ग्रेज़ इन्न में दाखिला दिलाया गया जिसे आमतौर पर ग्रेज़ इन्न पुकारा जाता था। यह लंदन में
बैरिस्टरों और जजों के चार विधि संस्थानों (इन्ज़ ऑफ कोर्ट) या पेशेवर संस्थानों में से एक
था। 1890 तक ग्रेट ब्रिटेन में 200 भारतीय विद्यार्थी पढ़ रहे थे जिनमें से अधिकांश इन्ज़
ऑफ कोर्ट में शिक्षा ले रहे थे।
9
विनायक के अतिरिक्त, भारतीय विद्यार्थियों में मोहनदास
करमचंद गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना और जवाहरलाल नेहरू भी उच्च शिक्षा के लिए ग्रेट
ब्रिटेन जा चुके थे। भारतीय विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत भी भिन्न रहते थे: ब्रिटेन में शिक्षा
प्राप्ति से मिलने वाली इज्जत, विदेश और घर से दूर रहने का रोमांच, और ‘अच्छी पृष्ठभूमि
और शिक्षा प्राप्त अंग्रेज सज्जन’ से संपर्क साधने की उम्मीद, साम्राज्यवादी समय के मूल
आकर्षण थे।
10
अधिकांश युवक इंग्लैंड के लिए एक ही समुद्र मार्ग चुनते और फिर गंतव्य तक ट्रेन से
पहुँचते थे। अक्सर देश से बाहर वह उनका पहला अनुभव होता, इसलिए आमतौर पर
तनावपूर्ण और उलझाऊ होता था। घर की यादों से उभरे दुःख के अलावा, रहने के लिए
स्थान और शाकाहारी भोजन की दुर्लभता अन्य समस्याएं थीं जिनसे उन्हें जूझना पड़ता।
पूर्णतया अजनबी संस्कृ ति में अके ले पड़ जाने के कारण, उनमें से कई ने एक-दूसरे और
नए आने वाले विद्यार्थियों की मदद के लिए स्थानीय समितियाँ बना ली थीं। द एडिनबरा
इंडियन एसोसिएशन (ईआईए) में वर्ष 1900 तक करीब 200 सदस्य थे और कै म्ब्रिज तथा
ऑक्सफोर्ड मजलिस भी ऐसी ही संस्थाएं थीं। इस संदर्भ में, श्यामजी की भारतीय
विद्यार्थियों के निवास और सामुदायिक कार्यों के लिए इंडिया हाउस की पहल बेहद ज़रूरी
कदम था।
ऐसा भी प्रतीत होता था कि ब्रिटेन में बैरिस्टर बनना अपेक्षाकृ त आसान था और यह
भारतीय विद्यार्थियों के लिए आकर्षक मौके की तरह था। जैसा कि गांधी जी ने बैरिस्टर
बनने की प्रक्रिया के संबंध अपने अनुभव साझा किए हैं:
वकालती पेशे में औपचारिक तौर पर शामिल किए जाने से पहले किसी भी विद्यार्थी को
दो शर्तें पूरी करनी होती थीं: ‘सत्र पूरा करना’, करीब तीन वर्ष के बराबर बारह सत्र
और परीक्षाएं पास करना। ‘सत्र पूरा करना’ का अर्थ सत्र के दौरान भोजन, अर्थात्, सत्र
की अवधि में चैबीस में से छह डिनर में उपस्थिति। खाने का अर्थ, डिनर स्वीकारना
नहीं, बल्कि नियत समय पर पहुँचना और डिनर के दौरान उपस्थित रहना।
11
उन्होंने रोमन कानून और सामान्य कानून की दो परीक्षाओं के संबंध में भी बताया है - जिन्हें
आसानी से पास किया जा सकता था। पहला ‘रोमन कानून पर कु छ ही हफ्तों में नोट्स
तैयार कर के और दूसरे विषय पर दो या तीन महीने में नोट्स पढ़ कर’।
12
संभव है, ऐसे
धीमे कार्यक्रमों को देखते हुए विनायक ने लंदन जाने के मूल लक्ष्य में वृद्धि के प्रयास किए
होंगे।
इन्न में दाखिले से पूर्व, विनायक ने 15 जुलाई 1906 को भारत मंत्री को पत्र लिखा जिसमें
उन्होंने लंदन की संसद के हाउस ऑफ काॅमन्स में 20 जुलाई को नियत बजट संभाषण
सुनने हेतु पास उपलब्ध कराने का अनुरोध किया था। 18 जुलाई को वह अपने पास लेने
के लिए प्रतिष्ठित सरकारी अधिकारी सर विलियम हट्ट कर्जन वाइली से मिले जो भारत
मंत्री लॉर्ड जाॅर्ज हेमिल्टन के सहायक थे। विली ने विनायक से भेंट को याद करते हुए उन्हें,
‘बुद्धिमान चेहरे और घबराए आचरण वाला छोटे कद का आदमी के रूप में देखा ...हम
एकमत थे कि उन्हें उनके इच्छानुसार अनुमति पत्र देने में कोई हर्ज नहीं था’। ब्रिटिश
साम्राज्य के हृदय और उसकी ताकत के कें द्र में संसद की कार्यवाही को देखना विनायक के
लिए अद्वितीय अनुभव था।
विनायक द्वारा भारत भेजी गई लंदनमी बातामीपत्री
नाम से जाने गए पत्रों की सूची में 17
अगस्त 1906 को पहले पत्र में उन्होंने ब्रिटिश संसद में भारत के बजट के विमर्श पर लिखा
है। उन्होंने इसे महज इस वित्त वर्ष में लूटे गए पैसे का दस्तावेजीकरण और अगले वर्ष के
लक्ष्यों के तौर पर वर्णित किया है। विनायक ने अफसोस जताया, ‘हमारे नेता पिछले दशक
से छू ट की भीख मांग रहे हैं। और उन्हें कल श्री मार्ले
13
के चतुर वक्तव्यों के अलावा क्या
मिला ? क्या उन्होंने नहीं कहा कि इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेता अफीमची हैं ? अरे
पथभ्रष्टों, तुम होश में कब आओगे ?’
14
1906 में उन्होंने राष्ट्रीय भारतीय सेना की ज़रूरत, गोखले और सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं की भीरुता पर तीखे व्यंग्य करते हुए भारत के संबंध में
ब्रिटिश संसद में विभिन्न बहसों और क्रांति की जरूरत पर कई पत्र सूचनाएं भेजीं। लंदन में
जारी विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी रखते हुए उन्होंने 28 सितंबर 1906
को लिखा:
भारत के कई लोग स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं तो सर हेनरी काॅटन
15
ने उन्हें उग्रवादी
कहा है। परंतु लंदन में एक अन्य राजनीतिक धारा चल रही है जिसे ‘उग्रवादी’ कहा जा
सकता है। उन्होंने हाल में हाइड पार्क में एक बड़ी सभा की। बड़ी संख्या में अंग्रेज
महिलाएं इस अभियान से जुड़ गई हैं। वह पुरुषों के बराबर अधिकार चाहती हैं (द
सफ्रागैट्ट मूवमेंट)। हाइड पार्क में सुश्री एमिलीन पैंकहस्र्ट ने वहाँ अपना भाषण दिया।
उन्होंने कहा, ‘हम जानते हैं कि इंग्लैंड में महिलाओं की यह दुर्दर्शा हमारी राजनीतिक
गुलामी के कारण है। हम राजनीतिक आज़ादी की मांग करते हैं और चाहते हैं पुरुष इस
मामले में हमें सहयोग दें। परंतु यदि वह हमें आज़ादी नहीं देंगे, तो भी हम इसे उनके
हाथों से खींच लेने की क्षमता रखते हैं। यदि हम चाहें तो हम एक ही दिन में इंग्लैंड में
चक्काजाम कर अपनी आज़ादी छीन सकते हैं।’ देशवासियों सुनो ! एक अंग्रेज महिला
यह बोल रही है और हम खुद को उदारवादी भारतीय पुरुष कहते हैं !! किसी भी देश
को फिर से गुलामी में नहीं पिसना है।
16
लंदन और इंडिया हाउस के अपने प्रवास के दौरान विनायक की मुलाकात अनेक प्रतिष्ठित
व्यक्तियों से हुई थी। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के यह ज्ञात एवं अज्ञात नायकों ने विनायक के
जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें लाला हरदयाल, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय,
सेनापति बापट, वीवीएस अय्यर, एमपीटी आचार्य, जेसी मुखर्जी, मदनलाल ढींगरा,
ज्ञानचंद वर्मा, भाई परमानन्द, सरदार सिंह राणा और मैडम भीकाजी कामा थीं। इन सबके
अपने संघर्षों और पीड़ाओं की कहानियाँ थीं और अलग-अलग दीवारों को लांघते हुए
नियति उन्हें कु छ समय के लिए एक साथ लंदन ले आई थी। आने वाले वर्षों में यह
कहानियाँ और प्रारब्ध विनायक की नियति से गहरे गुँथ गए थे।
लाला हरदयाल (1884-1939) विनायक के हमउम्र थे। उनका जन्म 4 अक्तू बर 1884 को
दिल्ली के उच्चवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। वह चार भाइयों में सबसे छोटे थे।
उन्होंने क्रिश्चियन मिशन स्कू लों में शिक्षा प्राप्त की थी, कै म्ब्रिज मिशन स्कू ल से शिक्षा पूरी
करने के बाद उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफें स कॉलेज से संस्कृ त में स्नातक की। युवावस्था में
वह यंग मैन्स क्रिश्चियन्स एसोसिएशन (वाईएमसीए) के सदस्य थे। इसके बाद उन्होंने
1905 में लाहौर में पंजाब विश्वविद्यालय से संस्कृ त में स्नातकोत्तर की।
17
दोनों बार वह
अपने बैच में शीर्ष पर रहे थे। यहाँ तक कि अंग्रेजों के आधिकारिक दस्तावेजों में भी उनकी
अकादमिक उपलब्धियों का जिक्र है। ‘अपने अकादमिक करियर में परीक्षाओं एवं
छात्रवृत्तियों में प्रथम रहने वाले वह असाधारण उपलब्धियों वाले विद्वान थे।’
18
हरदयाल
को ‘क्रांतिकारी अभियान की सबसे बुरी शख्सियत’ कहने वाले पंजाब के शत्रुतापूर्ण रवैया
रखनेवाले गवर्नर सर माइकल ओ’ड्वायर ने भी उनके ‘बेहतरीन अकादमिक करियर’ का
जिक्र किया है।
19
हिन्दूकृ त ‘राष्ट्रीय’ शिक्षा के पक्ष में आवाज उठाने और ईसाई संस्थानों में
हिन्दू छात्रों का धर्म परिवर्तन करने के मिशनरी प्रयासों को देखते हुए काॅन्वेन्ट शिक्षा से
हरदयाल का बहुत जल्दी मोहभंग हो गया था।
20
वह स्वामी दयानन्द सरस्वती और आर्य
समाज से गहरे से प्रेरित थे। अपने लाहौर प्रवास के दौरान वह भाई परमानन्द (1874-
1948) और लाला लाजपत राय से गहरे जुड़ गए।
परमानन्द भी पंजाब विश्वविद्यालय से कला स्नातकोत्तर की शिक्षा पाने के दौरान डीएवी
काॅलेज में इतिहास और राजनीति विज्ञान पढ़ा रहे थे। असाधारण इतिहासकार होते हुए
इंडिया हाउस में प्रवास के दौरान, उन्होंने विनायक के मार्गदर्शन में लंदन विश्वविद्यालय से
एमए डिग्री के लिए ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय में डेढ़ वर्ष के शोध के बाद ‘राइज़ ऑफ
ब्रिटिश पावर इन इंडिया’ नामक प्रबंध लिखा। किंग्स काॅलेज के उनके गाइड को वह प्रबंध
मौलिक नज़र आया, परंतु सरकार द्वारा ‘विरोधी तत्वयुक्त’ कहे जाने पर दबाव में उसे
अस्वीकार कर दिया गया। 1908 में परमानन्द लाहौर लौट आए और आर्य समाज के लिए
अध्यापन, लेखन और कार्य करने लगे।
इस दौरान, सेंट स्टीफें स काॅलेज में अध्यापन के समय हरदयाल को तीन वर्ष के लिए
200 पाउंड की छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने 1905 में इतिहास अध्ययन के लिए लंदन के
सेंट जाॅन्स काॅलेज में दाखिला ले लिया। लंदन पहुँचने पर उन्हें सर कर्जन वाइली को रिपोर्ट
कर अपनी पसंद के अध्ययन संस्थान के बारे में बताना था। श्यामजी की तरह ही हरदयाल
भी ऑक्सफोर्ड में 1907 में बोडेन स्काॅलर बने। सरकारी नौकरी की कोई उम्मीद न देखते
हुए हरदयाल भारतीय स्वतंत्रता के कार्य से जुड़ गए, परंतु उनके प्रयास गोखले और कांग्रेस
द्वारा प्रस्तावित उदारवादी नहीं थे। विनायक की तरह हरदयाल भी मेजिनी से प्रेरित थे और
साथ ही वह कार्ल मार्क्स के दर्शन एवं रूसी अराजकतावादी क्रांतिकारी और वामपंथी
अराजकतावादी मिखाइल बकु निन के भी प्रशंसक थे। लंदन प्रवास के दौरान हरदयाल
इंडिया हाउस में रहते थे और यहीं विनायक से उनकी भेंट हुई। दोनों के बारे में कहा जाता
है:
सावरकर और हरदयाल—पंडित श्यामजी कृ ष्ण वर्मा की जुड़वां आत्माएं. . .आने वाले
वर्षों में सक्रियता और आकर्षण का जादुई कें द्र बन गई थीं। यह जैसे तूफान और
बिजली का मूर्तरूप थीं, एक ओर, जहाँ यह अंग्रेजी शासन को बड़े झटके देती, दूसरी
ओर, देखने वालों को प्रतिभा से अभिभूत कर देती। यह तो नहीं कहा जा सकता कि
दोनों असाधारण देशभक्त श्यामजी कृ ष्ण वर्मा के तैयार किए हुए थे, परंतु वह उनकी
सरपरस्ती में जरूर थे। लाला लाजपत राय ने अपनी जीवनी में साफ कहा है। यह
कहना इन दोनों देशभक्तों की प्रवीणता की तौहीन होगी, जो खुद स्वतंत्रता के जन्मजात
भक्त थे, कि यह पंडित श्यामजी कृ ष्ण वर्मा के शिष्य थे।
21
हरदयाल तुरंत अभिनव भारत के साथ जुड़ गए और उन्होंने उसकी शपथ ले ली। विनायक
से मुलाकात के लगभग तुरंत बाद उनकी, ‘‘शिक्षा रुक गई’ और उन्होंने ‘उस घृणित नस्ल
की अंग्रेजी शिक्षा का परित्याग करते हुए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय छोड़ दिया जिसकी
ताकत को उन्होंने भारत से उखाड़ फें कने की प्रतिज्ञा की थी’
22
और ‘उसके बाद अपने
मेहनताने की अंतिम किस्त की यह कहते हुए बलि दे दी कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा को वह
नकारते हैं’।
23
अक्तू बर 1907 के इंडियन सोशलॉजिस्ट
ने उनके उदाहरण को मिसाल
बताया और कहा ‘जो लोग हमारे देश को दुनिया के सम्मानित देशों की सूची में उठता हुआ
देखना चाहते हैं, उन्हें भारत सरकार की छात्रवृत्तियों का नकारात्मक असर हमारे सबसे
अच्छे युवकों को विश्वविद्यालयों में दिए जाने वाले चारे की तरह महसूस होगा।’
24
फिर
हरदयाल भारत लौट आए और उन्हें गदर पार्टी के संस्थापक के तौर पर मशहूर हुए जिसने
अमेरिका और कनाडा में भारतीय क्रांति कार्य आगे बढ़ाया था।
इंडिया हाउस में विनायक ने वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (1880-1937) को भी साथ लिया
था। वह जाने-माने भाषाविद्, पूर्व प्रधानाचार्य और हैदराबाद के निजाम काॅलेज के विज्ञान
के प्रोफे सर डाॅ. अघोरी नाथ चट्टोपाध्याय की आठ संतानों में से दूसरे थे। 1903 में वीरेन्द्र ने
कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। वीरेन्द्र, जिन्हें इंडिया हाउस के
उनके साथी प्यार से ‘चट्टो’ पुकारते थे, भारत ‘कोकिला’ और कवयित्री सरोजिनी नायडु
के भाई थे। वह 1903 में भारतीय लोक सेवा (आईसीएस) के अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए
थे, परंतु दो बार असफल रहे। इसके बाद उन्होंने मिडिल टैम्पल इन्न में वकालत पढ़ने के
लिए दाखिला लिया। स्पष्ट था कि उनका ध्यान भारत की आज़ादी के लिए ‘गुप्त
अभियानों’ की तरफ था। ऐसा नहीं लगता कि इंडिया हाउस की गतिविधियों और विनायक
से मिलने के बाद उन्होंने शिक्षा जारी रखी होगी। स्वीडन में छोड़ आई पुस्तकों को देखते
हुए साफ लगता है कि उनका अध्ययन क्षेत्र वृहत और कई भाषाओं एवं विषयों के वह
जानकार थे। आजीविका के लिए वह स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर काम करते थे और उन्होंने
अनेक लेख लिखे। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा
में उनके बारे में लिखा है:
वह बहुत सक्षम और रोचक व्यक्ति थे। वह हमेशा तंगी में रहते, उनके कपड़े पहनने की
अवस्था में नहीं होते और दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने में भी उन्हें कठिनाई पेश
आती थी। परंतु उनकी मनोवृत्ति और खुशदिली ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। इंग्लैंड
में शिक्षा के दिनों में वह कु छ वर्ष मुझसे आगे थे। जब मैं हैरो में था तो वह ऑक्सफोर्ड
में थे। उन्हीं दिनों से वह कभी भारत नहीं लौटे और कभी-कभार घर की याद उन्हें जोर
देती थी और वह लौटने को बेताब हो उठाते। घर से उनके सभी संपर्क कब के टूट चुके
थे और बहुत साफ था कि यदि वह भारत लौटेंगे तो नाखुश और अलग पड़ जाएंगे. . .मैं
सोचता हूं, चट्टो, स्थायी कम्युनिस्ट नहीं थे, परंतु कम्युनिस्ट रुझान वाले व्यक्ति ज़रूर
थे।
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दिलचस्प यह है कि ऐसा कहते हैं प्रख्यात ब्रिटिश नाटककार और उपन्यासकार समरसेट
माॅम ने अपने लघु कथा संग्रह एसेन्डन: ओर द ब्रिटिश एजेंट
में एक भारतीय क्रांतिकारी
का चरित्र और विवरण वीरेन्द्रनाथ की गतिविधियों पर आधारित रखा है।
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उनकी एक
आयरिश युवती से मित्रता हुई जिसके साथ वह नाॅटिंग हिल में करीब पांच साल तक रहे।
बर्लिन में 1915 में उनसे मुलाकात के बाद बंगाली क्रांतिकारी चंद्र चक्रबर्ती ने लिखा है:
मेरी राय में चट्टो सबसे सक्षम क्रांतिकारियों में से रहे हैं। न के वल वह अंतरराष्ट्रीय
राजनीति को समझते थे, बल्कि भोज्य रसायन का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था, जिस बारे
में मेरे बर्लिन प्रवास के दौरान वह अक्सर भोजन की टेबल पर बातें किया करते थे।
जर्मन सरकार से उनके संबंध मधुर और मैत्रीपूर्ण थे। भारत के प्रतिनिधि के तौर पर
उन्होंने कभी राष्ट्रीय गरिमा तथा आत्मसम्मान को गिरने नहीं दिया।
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सेनापति या कमांडर-इन-चीफ बापट पुकारे जाने वाले पांडुरंग महादेव बापट (1880-
1967) का जन्म विनायक की ही तरह अहमदनगर जिले के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार
में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा उनके गृहक्षेत्र परनेर में हुई और बाद में अंग्रेजी शिक्षा
के लिए वह पूना के न्यू इंग्लिश स्कू ल में गए। 1899 में दसवीं करने के बाद उन्हें संस्कृ त में
असाधारण योग्यता के लिए प्रतिष्ठित जगन्नाथ शंकरसेठ छात्रवृत्ति प्राप्त हुई और उन्होंने
पूना के डेक्कन काॅलेज में दाखिला लिया। यहाँ उनकी भेंट दामोदर बलवंत भिडे से हुई जो
चापेकर गुट के सदस्य थे और वह क्रांतिकारिता के मार्ग पर चल पड़े। उस समय पूना के
गर्म राजनीतिक माहौल ने बापट के राष्ट्रवादी विचारों और दृष्टि को आकार दिया। स्नातक
करने के उपरांत उन्हें मंगलदास नत्थूभाई छात्रवृत्ति मिली जिसके बाद वह 1904 में
एडिनबरा के हेरियट-वाट काॅलेज में शिक्षा के लिए इंग्लैंड पहुँचे। काॅलेज के क्वीन्स
राइफल्स क्लब में उन्होंने बंदूक चलानी सीखी। राजनीति में रुचि और सक्रियता के कारण
वह अनेक ब्रिटिश लीडरों की राजनीतिक सभाओं में भी गए। ऐसी ही एक सभा में उनकी
भेंट समाजवादी नेता जाॅन डिंग्वाल से हुई जो लेबर पार्टी के अग्रणी सदस्य थे जिसे भारत
के स्वतंत्रता संघर्ष से हमदर्दी थी। अंग्रेजी राज में भारत की हालत पर उन्होंने गहन
अध्ययन किया जिसका डिंग्वाल पर गहरा असर हुआ।
विदेशी शासन में भारत की बदहाली पर बापट ने निर्भीक भाषण दिए। 1906 के अपने
लेख, ‘वाॅट शैल ऑवर कांग्रेस डू ?’ में उन्होंने कांग्रेसी नेताओं से ज्ञापनों और प्रार्थनाओं
की राजनीति छोड़ आंदोलन की राजनीति अपनाने को कहा। लेख के कारण उन्हें छात्रवृत्ति
से हाथ धोना पड़ा। अन्य कोई विकल्प न होने पर बापट इंडिया हाउस आ गए। यहाँ 1906
में उनकी मुलाकात विनायक से हुई और उनसे वह बहुत प्रभावित हुए। 1907 में उनका पत्र
‘इंडिया इन द ईयर 2007’ एडिनबरा में पढ़ा गया जिसमें न्याय और स्वतंत्रता के लिए
हिंसक मार्ग की पैरवी की गई थी। बापट ने कहा, ‘उच्चादर्शों की सुरक्षा और संरक्षण के
लिए मानवीय संहार पूरी तरह उचित है।’
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विनायक के अपने ऊपर असर पर बापट ने लिखा है:
विनायक से मिलने से पहले मैंने अपने लिए एक क्रांतिकारी कलमघसीट और लेक्चरर
का जीवन चुना था। उनसे मिलने के कु छ ही माह बाद मैंने अपनी योजना को नकारते
हुए पेरिस जाकर बम बनाना सीखने का विचार बनाया. . .इस परिवर्तन का मुख्य
कारण मेरे ऊपर सावरकर की उत्तम लेखनी और वक्तृ त्वकला का पड़ा असर था। वह
पैदाइशी क्रांतिकारी, लेखक और वाचक थे। मैंने खुद से कहा, बेहतर होगा कि मैं लेखन
छोड़ क्रांतिकारी कार्यों में लग जाऊँ ।
29
विनायक की सलाह पर, हेमचंद्र दास और मिर्जा अब्बास के साथ बापट, बम बनाने का
प्रशिक्षण लेने पेरिस गए। इस कार्य में उनके रूसी मित्रों ने मदद उनकी की थी। खास बात
यह है कि विनायक से घनिष्ठता और सशस्त्र क्रांति के मामले में एकमत होने के बावजूद
बापट कभी अभिनव भारत से नहीं जुड़े। इसका कारण कु छ स्पष्ट नहीं है।
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वीवीएस अय्यर (1881-1925) या वराहनेरी वेंकटेश सुब्रमण्य अय्यर का जन्म मद्रास
प्रेसिडेंसी के त्रिचिनोपल्ली के छोटे से गाँव वराहनेरी में हुआ था। उनके ब्राह्मण पिता का
छोटा सा बैंकिंग तथा सेल्स एवं क्रे डिट का व्यवसाय था जिसकी लेखा परीक्षण में
विशेषज्ञता थी। वह धर्मांतरण के लिए ईसाई मिशनरियों के जहरीले प्रचार से त्रस्त थे और
नतीजतन, उन्होंने नवीन धर्मांतरित लोगों को हिन्दू समुदाय में वापस लाने के लिए घर-घर
जाकर काम किया। उन्होंने धर्मांतरित लोगों को पुनः हिन्दू बनाने के लिए कांची कामकोटि
पीठम के पूजनीय शंकराचार्य से भी संपर्क साधा, परंतु असफल रहे। निराशा के बावजूद
वेंकटेश अय्यर ने मौखिक और पर्चे छापकर अपना अभियान जारी रखा। संस्कृ ति हृास से
जूझने और हिन्दू बच्चों में अपने धर्म के प्रति रुचि जगाने के लिए वह बच्चों को तमिलनाडु
के मंदिरों में ले जाकर उन्हें पुराणों की रोचक कहानियाँ सुनाते। एक प्रबुद्ध हिन्दू परिवार में
पैदा हुए सुब्रमण्य गहरे धार्मिक भी थे। 1895 में दसवीं की परीक्षा में समस्त प्रेसिडेंसी में
उनका पाँचवाँ स्थान था। उन्होंने त्रिचिनोपल्ली के सेंट जोसफ काॅलेज में शिक्षा प्राप्त की
और लैटिन में प्रथम स्थान के साथ 1899 में उच्चश्रेणी में स्नातक की परीक्षा पास की।
1902 में उन्होंने मद्रास में अधिवक्ता का इम्तेहान पास किया और फिर वह घरेलू जीवन
में व्यस्त हो गए।
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जल्दी ही उनकी पत्नी के भाई ने उन्हें रंगून (येंगोन) में वकालत करने
की सलाह दी। ‘समुद्र पार’ जाना वर्जित होने के बावजूद उनके पिता ने युवा सुब्रमण्य को
रंगून जाने की आज्ञा दे दी। रंगून में उनके मित्र टीएसएस राजन ने उनकी प्रतिभा देखकर
उन्हें लंदन में बैरिस्टरी की शिक्षा प्राप्त करने की सलाह दी। साथ ही, उन्होंने उनकी यात्रा
का खर्च उठाने का भी जिम्मा लिया। तदनुसार, वह 1907 के अंत में लंदन पहुँचे। लंदन में
सुब्रमण्य की शाकाहारी भोजन की खोज उन्हें इंडिया हाउस ले आई। यहाँ उनकी सर्वप्रथम
भेंट विनायक से हुई। विनायक ने उनके साथ हुई पहली भेंट का विवरण कु छ यूँ दिया है:
1907 में लंदन के इंडिया हाउस में जब हम खाना खाने के लिए नीचे आ रहे थे, तो वहाँ
की परिचारिका ने हमें एक पर्ची थमाई और बताया कि एक सज्जन मेहमानखाने में
हमारा इंतजार कर रहे हैं। उस समय दरवाजा पूरा खुला था और यूरोपियन कपड़ों में
सजे फै शनेबल दिखने वाले एक व्यक्ति ने हमसे उत्साहपूर्वक हाथ मिलाया। उन्होंने हमें
बताया कि वह रंगून में वकील रहे हैं और इंग्लैंड में पूर्ण बैरिस्टर बनने के लिए पधारे हैं।
वह तीस पार थे और हमें युवा देखकर हैरान थे। उन्होंने अंग्रेजी संगीत सीखने की मंशा
भी दर्शाई और हमें सुनिश्चित किया कि वह नृत्य का भी कु छ प्रशिक्षण लेना चाहते हैं।
जाहिर है, हमने हमेशा की तरह युवाओं के इन हल्के -फु ल्के समय व्यर्थ करने वाले
कृ त्यों के खिलाफ तर्क रखा जबकि बड़े मुद्दे अधर में लटक रहे हों। वह युवक, हमारी
बातों से सहमत न होते हुए भी, प्रभावित हुआ और हमसे संपर्क में रहने को कह कर
उसने विदा ली। वह श्रीयुत वीवीएस अय्यर थे।
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विनायक अय्यर की आयु के बारे में गलत थे ; वह के वल छब्बीस वर्ष के थे परंतु मजबूत
डील-डौल के कारण उम्र में बड़े लगते थे। इंडिया हाउस से जुड़ने से पहले अय्यर विनायक
के बारे में गहरे शंकालु और विरोधी थे और अपने कु छ मित्रों को कहा भी थाः ‘उस
तेजतर्रार व्यक्ति से मैं कोई संबंध नहीं रखना चाहता।’
33
परंतु इन्स ऑफ कोर्ट में, जहाँ
अकस्मात रूप से दोनों ने साथ काम किया, विनायक के संबंध में अपने आकलन की
गलती पर अय्यर को अहसास हुआ। वह दोनों फिर आजन्म मित्र बन गए। जल्द ही अय्यर
इंडिया हाउस में स्थायी निवासी के तौर पर रहने लगे और विनायक के प्रथम सहायक और
भरोसेमंद साथी बन गए। कु छ ही समय बाद, टीएसएस राजन भी रंगून से लंदन आए
इंडिया हाउस से जुड़े।
एमपी तिरुमला आचार्य एक तमिल विद्वान, पत्रकार एवं देशभक्त थे। उनका जन्म मद्रास
में 1887 को हुआ। उनके पिता एमपी नरसिंह अयंगर लोक कार्य विभाग में सुपरवाइजर
थे। उनके पूर्वज मैसूर के रहने वाले थे जो मद्रास आ बसे थे। राष्ट्रभक्ति के रंग में रंगे परिवार
से संबद्ध होने के कारण, युवा तिरुमला प्रसिद्ध तमिल कवि एवं राष्ट्रवादी सुब्रह्मण्य भारती
से जुड़े और इंडिया
नाम से एक साप्ताहिक पत्र शुरू किया। दक्षिण के किसी भी समाचार
पत्र में पहली बार राष्ट्रभक्ति से जुड़े संपादकीय और रोचक कार्टूनों के प्रकाशन के कारण
वह पत्र बहुत लोकप्रिय हुआ। इस कारण अंग्रेज सरकार का गुस्सा भी उसपर फू टा। उन्होंने
भारती को गिरफ्तार करने का फै सला लिया जिसके बाद तिरुमला फरार होकर फ्रांसीसी
काॅलोनी पाॅन्डिचेरी चले गए। अंग्रेज सरकार ने फ्रांस पर ‘राजद्रोही साहित्य’ पर पाबंदी
और ‘रिफ्यूजियों’ को उनके हवाले करने का बेहद दबाव बनाया।
इसके बाद आचार्य के जीवन में बड़ा परिवर्तन आया। उन्होंने अपनी पहचान छु पाने के
लिए पुरातनपंथी ब्राह्मणों वाली चुटिया काट और अपने बीमार पिता को भारी मन से विदा
देकर और देश के हित के लिए भारत छोड़ने का फै सला किया। एक छोटा सूटके स और
मात्र 300 रुपये के साथ तिरुमला को भविष्य की दिशा ज्ञात नहीं थी। वह पहले कोलम्बो
गए और वहाँ से इंग्लैंड पलायन कर गए। यात्रा के दौरान, चूँकि जहाज पर शाकाहारी
भोजन नहीं होता था, उन्होंने बाईस दिनों तक उपवास किया। पेरिस में वह मोनियर्स
विन्सन से मिले जो पेरिस विश्वविद्यालय में तमिल के प्रोफे सर थे। एक परिचित ने बताया
था कि संभवतः वह उन्हें पेरिस में आजीविका कमाने में कु छ मदद कर सकें गे। परंतु जब
प्रोफे सर ने मदद करने से इनकार कर दिया तो उन्हें गलती का अहसास हुआ। नए शहर में
जिंदा रहने का तरीका खोजने की तलाश में वह कु छ भारतीय क्रांतिकारियों से मिले,
जिनके साथ इंडिया के संपादन के दिनों से उनका पत्राचार था। उन्होंने उन्हें पेरिस छोड़ कर
लंदन में श्यामजी के इंडिया हाउस में पनाह लेने का मशविरा दिया। इंडिया हाउस में
आचार्य भी विनायक के सम्मोहन में आकर उनके अनुचर गए। विनायक के साथ जुड़ी
यादों पर उन्होंने कहा है:
उनका निजी आकर्षण ही ऐसा था कि के वल हाथ मिलाने भर से वीवीएस अय्यर और
हरदयाल जैसे व्यक्ति बदल गए थे - यही नहीं, बल्कि उनका सर्वश्रेष्ठ रूप भी सामने
आया। गंभीर व्यक्ति सदा उनसे प्रभावित रहते, चाहे वह उनसे एकमत हों या नहीं।
जीवन के आम पथ पर चलने वाले ही नहीं बल्कि ऊं ची पदवियों की मंशा रखने वाले
भी उनके लक्ष्य की शुद्धता को पहचानते, हालाँकि वह उनसे वैचारिक धरातल पर मीलों
दूर होते, राजनीतिक लक्ष्यों में उनके धुर विरोधी भी इस पक्ष में उनका लोहा मानते थे।
विरोधियों ने उनके प्रचार के लिए वित्तीय मदद भी दी थी। इसका अर्थ यह है कि हर
तरह के व्यक्तियों से पेश आने में सावरकर के पास दुर्लभ चातुर्य था। सावरकर की
मितव्ययता अपने आप में दूसरों के लिए अनुशासन जैसी थी, जिससे आरामतलब लोग
नफरत करते और दूर रहते। इंग्लैंड मनोरंजन की धरती था और अधिकांश लोग इसका
खुलकर लाभ उठाना चाहते थे।
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जेसी मुखर्जी को बंगाली ‘दादा’ (बड़ा भाई) पुकारा जाता था। वह आयु में अधिक थे और
लगातार महात्मा गांधी के इंडियन ओपिनियन
में लिखते थे। विनायक से मिलने के बाद
उनकी राजनीतिक सोच बदल गई और उन्होंने खुद को क्रांतिकारी कार्य को समर्पित कर
दिया।
इंडिया हाउस में विनायक के सबसे घनिष्ठ मदन लाल ढींगरा (1883-1909) थे। उनका
जन्म 18 सितंबर, 1883 को अमृतसर में हुआ था और सात भाइयों में से वह छठे थे। उनके
पिता अमृतसर के जाने-माने नेत्र विशेषज्ञ और सिविल सर्जन थे। मदन लाल के दो भाई
डाॅक्टर और दो बैरिस्टर थे। 1906 में मदन लाल यूनिवर्सिटी काॅलेज में सिविल इंजीनियरिंग
के डिप्लोमा की उच्चषिक्षा के लिए लंदन गए थे। लंबे, मजबूत कदकाठी और आकर्षक
ढींगरा खुशमिजाज और हंसमुख थे तथा युवा स्त्री एवं पुरुषों के आकर्षण का कें द्र बने रहते
थे। उनके मित्र भी उन्हीं की तरह शोर-शराबा मचाते और रूमानी गीत गाते थे। स्वतंत्रता या
क्रांति की बातों से ढींगरा मीलों दूर थे। परंतु उनमें भी विनायक के असर में आमूल
परिवर्तन आया। एक रविवार की दोपहर, विनायक इंडिया हाउस में भाषण दे रहे थे,
जबकि ढींगरा और उनके मित्र साथ वाले कमरे में हंगामा कर रहे थे। क्रु द्ध विनायक ढींगरा
के कमरे में पहुँचे और उनके गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार पर उन्होंने उन्हें जम कर लताड़ा।
विनायक ने कहा कि देश में लाखों लोग गुलामी में पिस रहे हैं, इस पर उन्हें सोचना चाहिए।
इन कड़े शब्दों से ढींगरा कु छ ऐसे शर्मिंदा हुए कि उन्होंने कई दिनों के लिए इंडिया हाउस
छोड़ दिया। बाद में हिम्मत बटोर कर, ढींगरा विनायक से माफी मांगने पहुँचे तो उनका
पहले सा सामान्य व्यवहार देखकर और शर्मिंदा हुए। इसके बाद उन्होंने भी खुद को क्रांति
कार्य से जोड़ दिया।
‘भारतीय क्रांतिकारियों की माता’ के तौर पर जानी जाने वाली मैडम भीकाजी रूस्तम
के आर कामा (1861-1936) को भारतीय राष्ट्रवाद की प्रमुख विभूति माना जाता है।
फ्रांसीसी अखबारों में उनकी तस्वीरें जॉन ऑफ आर्क की तस्वीर के साथ प्रकाशित होती
थीं। ब्रिटिश खुफिया रपटों के अनुसार उन्हें ‘हिन्दुओं द्वारा किसी देवी, संभवतः काली, का
अवतरण माना जाता था’। बंबई में एक धनी परिवार में जन्मी, भीकाजी की शिक्षा
एलेक्सेंड्रा पारसी गर्ल्स स्कू ल में हुई थी।
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बचपन से ही, नायकत्व और स्वतंत्रता संघर्ष की
गाथाएं उन्हें प्रेरित करतीं। उनका यह रुझान, उनके पिता सोराबजी फ्रे मजी पटेल को बहुत
चुभता था जिन्होंने फै सला किया कि इस रोग का सर्वश्रेष्ठ उपचार विवाह से हो सकता है।
लिहाजा, उन्होंने अपनी बेटी के लिए एक आकर्षक युवक, रूस्तम कामा का चुनाव किया
जो एक वकील और अंग्रेज समर्थक समाजसेवी थे। उनके पिता मशहूर प्राच्यविद् और
समाज सुधारक, प्रोफे सर खर्शीदजी रूस्तमजी कामा थे। छोटी सी लड़की के क्रांति और
आज़ादी से जुड़े पागलपन के ‘इलाज’ के लिए इस गठबंधन को अचूक, सांस्कृ तिक
पारिवारिक विधि माना गया। 3 अगस्त, 1885 को बहुत धूमधाम से उनकी शादी सम्पन्न
हुई। हालाँकि, सोराबजी की यह नीति असफल साबित हुई।
1896 में बंबई में प्लेग फै ला तो भीकाजी अपनी मर्जी से घर का आराम छोड़कर रोगियों
के उपचार हेतु झोपड़पट्टी इलाकों में गईं। उन्हें खुद भी रोकथाम का टीका नहीं लगा था,
लिहाजा, वह भी प्लेग की चपेट में आ गईं। उनके इस कदम और आज़ादी तथा सशस्त्र
क्रांति से जुड़े विचारों के कारण घर में दरार पड़ चुकी थी। 1901 में उनका विवाह टूट गया
और तंग आकर उन्होंने भारत छोड़ने का निर्णय किया। उनके पिता उन्हें स्वास्थ्य लाभ के
लिए लंदन भेजना चाहते थे। परंतु भीकाजी की योजनाएं अलग थीं। उन्होंने सीधे राजनीति
में छलांग लगाई। 1902 से 1907 तक वह लंदन में रहीं जहाँ उनकी भेंट श्यामजी कृ ष्ण
वर्मा से हुई। आरंभ में वह कांग्रेस के उदारवादी धड़े की पक्षधर थीं और दादाभाई नौरोजी
की निजी सचिव भी रही थीं। परंतु शीघ्र ही मेजिनी एवं अन्य क्रांतिकारियों की गाथाओं ने
असर डाला और वह लाल-बाल-पाल की उग्र त्रयी के पक्ष में चली गईं। इंडियन
सोशलॉजिस्ट
में उन्होंने निरंतर सहयोग दिया। भारतीय आज़ादी के पक्ष में उनके प्रचार के
कारण उन्हें 1907 में न्यूयाॅर्क जाना पड़ा। मार्था वाशिंगटन होटल में प्रवास के दौरान जब
उनसे राजनीतिक लक्ष्य के संबंध में पूछा गया, तो उन्होंने कहा:
स्वराज, अपनी सरकार। कोई सोच नहीं सकता कि हमारा कै सा शोषण हो रहा है। मैं
भारत नहीं लौट सकती. . .सबसे मददगार चीज हमारे लोगों के बीच फै ल रहा उत्साह
है। हम में से कई भूखे और अशिक्षित हैं, पिछले कु छ वर्षों से लाखों देशभक्त सामने
आए हैं। किसी दिन हमारे पास आज़ादी, बंधुत्व और समानता ज़रूर होगी। हम दस
वर्षों में आज़ाद होने की उम्मीद रखते हैं।
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मैडम कामा अभिनव भारत की सक्रिय सदस्य बनीं। भारत को सशस्त्र संघर्ष के दम पर
आज़ाद करने के अपने यकीन को इन शब्दों में बयान किया:
मैं प्रणाली के बारे में बात करना चाहती हूँ क्योंकि अब मैं खामोश नहीं रह सकती।
हमारे देश में ऐसी तानाशाही चल रही हो, प्रतिदिन कितने ही देश निकाले दिए जा रहे
हों, और शांति के सभी मार्ग हमारे लिए बंद कर दिए गए हों। आप में से कु छ का
सोचना होगा कि महिला होने के नाते मुझे हिंसा का प्रतिरोध करना चाहिए। आज़ादी
की कीमत चुकानी ही होगी। किस देश को यह बिना कीमत चुकाए मिली है ?
हिन्दुस्तानियों ! हमारी क्रांति पवित्र है। दुआ करो कि हमारा देश तेजी से आज़ाद हो
जाए। जीवन में मेरी एकमात्र उम्मीद देश को आज़ाद और संगठित देखने की है। आप
सभी युवाओं से मैं अनुरोध करती हूँ कि स्वराज के लक्ष्य के लिए सही दिशा में आगे
बढ़ें। नीति-वाक्य होना चाहिए: हम सब ‘भारत भारतीयों के लिए’ के पक्ष में हैं।
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विनायक के लंदन गुट में बंबई के डब्ल्यूपी फड़के भी थे जिन्होंने अभिनव भारत से जुड़ने
के लिए लोक सेवा की परीक्षाएं देने की योजना त्याग दी थी। के वीआर स्वामी, निरंजन
पाल, हेमचंद्र दास, सुखसागर दत्त, बापू जोशी, एमसी सिन्हा, हरिश्चंद्र कृ ष्णराव
कोरेगाँवकर, होतिलाल वर्मा, मिर्जा अब्बास, नाभा के आरएम खान, होम रूल सोसाइटी
के उपाध्यक्ष अब्दुल्ला सोहरावर्दी और सिकन्दर हयात खान जो बाद में पंजाब के
प्रधानमंत्री भी बने, विनायक के साथ थे।
इंडिया हाउस में रहने वालों और उससे जुड़े लोगों की पृष्ठभूमि के चरित्र विवरण से स्पष्ट
है कि यह स्थान विविधता में लघु भारत सरीखा था। वह युवा देश के भिन्न हिस्सों से आए
थे, सब बहुत उच्च शिक्षित और समझदार थे और उनका भविष्य उज्ज्वल था; इसके
बावजूद उन्होंने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लक्ष्य के लिए अपने करियर, परिवार और
जीवन को दांव पर लगा दिया था। और समूह नेता के रूप में विनायक के होते हुए, वह
प्रभुत्वशाली ब्रिटिश साम्राज्य की हृदयस्थली में गहरी चोट पहुँचाने के लिए खुद को तैयार
कर रहे थे।
हालाँकि, इस गुट में कु छ मुस्लिम युवा भी थे, ऐसे संके त भी मिले हैं कि श्यामजी और
इंडिया हाउस को कु छ मुस्लिम हलकों में शक की निगाह से देखा जाता था। इस दिशा में
इंडिया हाउस के एक मुस्लिम सहवासी अब्दुल्ला सोहरावर्दी को लंदन में शिक्षा लेने वाले
जियाउद्दीन के पत्र प्राप्त हुए थे, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वाइस
चांसलर भी नियुक्त हुए थे:
मुझे ज्ञात हुआ है कि श्री कृ ष्ण वर्मा ने ‘इंडिया होम रूल सोसाइटी’ नामक एक संस्था
की शुरुआत की है और आप उसके उपाध्यक्षों में से एक हैं। क्या आपको सच में लगता
है कि अगरचे भारत को होम रूल मिल गया तो उससे मुसलमानों का भला होगा।. .
.इसमें शक नहीं कि यह होम रूल अलीगढ़ नीति के खिलाफ है. . .जिसे मैं अलीगढ़
नीति कहता हूँ वह हकीकत में सभी मुसलमानों की नीति है-खासतौर पर ऊपरी भारत
के मुसलमानों की।
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विभिन्न पक्षों की शंका के बावजूद, विनायक ने भारत के विभिन्न हिस्सों से आए इन युवाओं
को एक संगठित शक्ति के रूप में साथ लाने के लिए इंग्लैंड में अभिनव भारत का एक
प्रारूप गठित करने फै सला लिया। लिहाजा, 1906 के अंत में इंडिया हाउस में ‘फ्री इंडिया
सोसाइटी’ का गठन हुआ। संस्था की नियमित बैठकें हुआ करती थीं। यह एक साथ
मिलकर दशहरा आदि पर्व मनाते और महान भारतीय नेताओं और आध्यात्मिक विभूतियों
जैसे शिवाजी, गुरु नानक, गुरु गोबिंद सिंह एवं अन्य की जयंती और पुण्यतिथियां भी
आयोजित करते। देश के मौजूदा राजनीतिक परिवेश पर नियमित विमर्श, तर्क -वितर्क और
उसके संभावित समाधानों पर भी बातचीत होती। सभा की साप्ताहिक रविवारी बैठकें
सबके लिए खुली होती थीं और इसमें काफी भीड़ जमा होती। इन बैठकों में विनायक ने
इटली, फ्रांस और अमेरिका और उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े कई उत्तम भाषण
दिए थे। उन्होंने अक्सर तर्क दिया ‘शांतिपूर्ण विकास का एक अर्थ और बोध होता है,
शांतिपूर्ण क्रांति का नहीं’।
39
जोरदार और ज्ञानवर्धक दलीलों से वह उन लोगों को भी
एकमत कर लेते जो उनसे असहमत होते थे।
अनेक युवा इन बैठकों से प्रभावित हुए और जल्दी ही सभा के सदस्य बन गए। विनायक
उन्हें गौर से परखते और जिन्हें वह इस लायक समझते, उन्हीं को अभिनव भारत के कें द्रीय
समूह में स्थान मिलता था। ‘जल्दी ही क्रांतिकारिता सिद्धांत के असर में कै म्ब्रिज,
ऑक्सफोर्ड, एडिनबर्ग, मैन्चेस्टर और अन्य शिक्षा संस्थानों के ’ अनेक भारतीय विद्यार्थी आ
गए।
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भारत में निम्नवर्ग से संबंध रखने वाला कानून का विद्यार्थी ज्ञानचंद वर्मा, फ्री
इंडिया सोसाइटी का सचिव बना। 29 दिसंबर 1908 को कै क्स्टन हाॅल में आयोजित गुरु
गोबिंद सिंह जी की जयंती का आयोजन वह भव्य अवसर था जिस दौरान उपस्थित
विनायक, लाला लाजतपत राय और बिपिन चंद्र पाल ने जोरदार व्याख्यान दिए थे।
~
बचपन से ही विनायक को इतालवी क्रांतिकारी ज्यूसेप्पे मेजिनी (1805-72) के जीवन और
संघर्ष ने प्रेरित किया था। मार्क्सवादी विचारधारा तक अपनी सोच को सीमित रखने की
बजाय विनायक ने मेजिनी को अपना आदर्श बनाया। मेजिनी के ही प्रयासों से, ऑस्ट्रिया
साम्राज्य के अधीन पहले भिन्न टुकड़ों में बंटा हुआ इटली एक संगठित इकाई बन कर
उभरा था। साथी क्रांतिकारी ज्यूसेप्पे गैरीबाल्डी (1807-82) के साथ मेजिनी का
पारस्परिक विमर्श विनायक के लिए युद्धकला को समझने का गहरा स्रोत साबित हुआ था।
ब्राजील और उरुग्वे से निर्वासन भुगतने के बाद लौटते हुए गैरीबाल्डी ने मेजिनी के साथ
सारडीनिया राज्य के लिए ऑस्ट्रियन साम्राज्य से लड़ने का समझौता किया था। उनके
आरंभिक प्रयासों के बावजूद, इटली में साम्राज्यवादी शासन का अंत न हो सका। बाद के
युद्धों से ही जाकर अंततः आज़ादी और एकता का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विनायक के मित्र मेला और अभिनव भारत की नींव मेजिनी के ‘युवा इटली’ आधार पर
ही रखी गई थी और उसकी कार्यविधि भारतीय स्वतंत्रता के लिए उसी आदर्श को अपनाती
थी। दरअसल, मेजिनी से अनेक भारतीय राष्ट्रवादी प्रेरित थे जिनमें लाला लाजपत राय,
बिपिन चंद्र पाल, एसएम परांजपे, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और मोहनदास करमचंद गांधी भी थे।

उन्होंने इतालवी राजनीतिज्ञ के दर्शन पर अनेक आलोचनात्मक लेख लिखे या भाषण भी
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दिए थे। परंतु उनमें से कई मेजिनी की क्रांतिकारिता या उग्र उत्साह को आचरण में उतारने
से रुक गए थे। जैसा कि बनर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है:
मैंने मेजिनी पर व्याख्यान दिया परंतु युवाओं से उनके क्रांतिकारी विचारों को त्यागने
और बलिदान की भावना तथा संवैधानिक विकास के मार्ग को अपनाने को कहा. .
.मेज्जीनी के तरीके हमारे देश के लिए विध्वंसकारी साबित होंगे। हमारे प्रयास कानूनी,
संवैधानिक और पूरी तरह शांतिपूर्ण होने चाहिए।
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परंतु विनायक को ऐसी कोई आशंका नहीं थी। फ्री इंडिया सोसाइटी के भाषणों में मेजिनी
और उनके क्रांतिकारी विचारों का खुलकर वर्णन होता था। आज़ादी के लिए छटपटा रहे
भारतीयों के लिए मेजिनी द्वारा ‘ऑस्ट्रियाई शासन द्वारा कार्यरत इतालवी सैनिकों को
आज़ादी के संघर्ष के लिए उकसाना, और देश की आज़ादी के लिए विभिन्न रजवाड़ों से
उनकी सांठगांठ’ सटीक उपचार की तरह था।
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बेशक ऐसे शंकालुओं की कमी नहीं थी
जो जानना चाहते थे कि इटली जैसा अग्रणी यूरोपियन देश जिसके लोग और रजवाड़े
आज़ादी को लेकर बेचैन थे और जिनके पास बेहिसाब हथियार भी थे, का प्रतिरूप भारत
में कै से तैयार हो सके गा। उनका मानना था कि भारत में इस तरह के सशस्त्र संघर्ष की
कल्पना अव्यावहारिक, हास्यास्पद और यहाँ तक कि आत्मघाती थी। इस पर विनायक ने
जवाब दिया:
अंग्रेज कमान के अंतर्गत भारतीय सैनिकों द्वारा उठाए गए हथियार हमारे हथियार हैं।
यह सच है कि हमारे भारतीय सैनिक अशिक्षित हैं, परंतु उनमें भी हमारे देश को स्वतंत्र
करने की कु छ भावना अवश्य होगी। आज़ादी की इस मुहिम को उनके बीच फै ला दो
और फिर देखो कि कै से यही सैनिक यही हथियार और असलहा लिए अंग्रेजों के
खिलाफ कै से उठ खड़े होते हैं।
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इंडिया हाउस पहुँचने के एक सप्ताह के भीतर ही व्याकु ल विनायक ने पुस्तकालय में
मेजिनी की आत्मकथा (लाइफ एंड राइटिंग्स ऑफ जोसेफ मेजिनी)
की उपलब्धता के बारे
मैनेजर श्री मुखर्जी से पूछा था।
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एक ही खंड प्राप्त होने के बाद, उन्होंने किसी तरह छह
खंडों में से तीन प्राप्त कर लिए थे। विनायक को महसूस हुआ कि जैसे कोई खजाना उनके
हाथ लग गया हो। एक ही सप्ताह में वह तीनों खंड पढ़ गए। उनकी प्रतिबद्धता से प्रभावित
होकर, श्री मुखर्जी ने उन्हें आत्मकथा के शेष खंड भी मंगवा दिए। अध्ययन के अंत में
विनायक को मेजिनी द्वारा सुझाए गए तरीकों और भारत में उनके अपने प्रयासों के बीच
असाधारण समानता नजर आई। इससे उनका आत्मविश्वास जागा कि वह ठीक मार्ग पर
हैं। उन्होंने लिखा है:
गुप्त सभाओं को दो मोर्चों पर काम करना चाहिए: प्रचार और कार्रवाई। कु छ कार्य गुप्त
रूप में और कु छ सार्वजनिक तौर पर करना चाहिए। बिना हथियारों की मदद से
स्वतंत्रता प्राप्ति असंभव है। फिर भी, जनता को क्रांति में उनकी भूमिका के लिए तैयार
करने हेतु शांतिमय तरीकों से प्रचार भी आवश्यक है। एशिया और यूरोप में ब्रिटेन के
शत्रुओं के साथ संगठित होना और अमेरिका में भी सहानुभूतिपूर्ण तत्वों की खोज
ज़रूरी है। ब्रिटिश ताकत के स्रोतों, उनके कें द्रों, उनके अफसरों पर गुरिल्ला विधि से
हमला करने की जरूरत है ; जब भी ब्रिटेन और किसी अन्य विदेशी शक्ति के बीच युद्ध
हो, अंग्रेजों द्वारा नौकरियों पर रखे गए सैनिकों को एक के बाद एक क्रांतिकारी
गतिविधियों को अंजाम के लिए विद्रोह करने को प्रेरित करना – यही मेरी कार्रवाई की
योजना थी। मैं अपने विचार सबके सामने लेकिन फिर भी कानून की सीमा के अंदर ही
रखता। मुझे जानकर हैरानी हुई कि मेजिनी ने भी अपने देश की आज़ादी के लिए यही
मार्ग अपनाया था. . .मुझे महसूस हुआ कि यदि मेरे मित्र और साथी मेजिनी के लेख पढ़ें
तो उनका हमारे तरीकों में विश्वास बढ़ सकता है। 1906 में मैं और मेरे अभिनव भारत
के साथी के वल बीस से बाईस वर्ष आयु के थे। हमारे उदारवादी और उग्रवादी नेताओं ने
हमारी गतिविधियों को ‘बचकाना’ माना था। वह उस समय हमारे समाज केे नेता थे।
परंतु मेजिनी और उनके साथी क्रांतिकारियों को भी 1830 के दशक में उनके
समकालीन बुजुर्गों ने भी ‘बचकाना’ और ‘बेतुका’ कह कर उपहास किया था। मेजिनी
ने अपने लेखों में इन उपहासों का उत्तर दिया है। रोचक बात यह है कि 1906 में
भारतीय नेता मेजिनी और गैरीबाल्डी को यह सोचे-समझे बिना ‘महान देशभक्त’ कह
कर पुकारते थे कि उनके समय में उन्हें ‘दुःसाहसी’ करार दिया जाता था। मेजिनी के
लेख हमारी कार्रवाई को मजबूत और भारत के लोगों के दिलों में भरोसा कायम करने
में सहयोग करने वाले थे।
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इसी निश्चय के साथ विनायक ने मेजिनी की आत्मकथा को मराठी में अनुवाद करने का
बीड़ा उठाया। उनका मंतव्य के वल एक बहुपठित ऐतिहासिक दस्तावेज लिखना ही नहीं,
बल्कि भारतीयों को मेजिनी के मार्ग पर चलने को प्रशस्त करना था। लिहाजा, उन्होंने
भारत और इटली के बीच की समानता दर्शाते हुए पुस्तक में एक प्रस्तावना जोड़ने का
प्रयास किया और यह भी बताया कि कै से भारतीय क्रांतिकारी मेजिनी की नीतियों को
अपने अनुसार ढाल कर उस पर अमल कर सकते हैं। इस जज़्बे से भरकर उन्होंने लंदन
पहुँचने के ढाई महीने बाद, यानी 28 सितंबर 1906 को अनुवाद तैयार किया जिसका
शीर्षक था जोसेफ मेजिनी यांचे आत्मचरित्र वा राजकरन
(जोसेफ मेजिनी की राजनीति
और आत्मकथा)। इसमें चुनिंदा नौ निबंध थे जो 300 पृष्ठों में फै ले थे। प्रस्तावना पच्चीस
पेज लंबी थी। उसमें विनायक ने मेजिनी के राजनीतिक दर्शन में कर्तव्य पर जोर दिया था।
विनायक के अपने राजनीतिक दर्शन में भी कर्तव्य बेहद महत्वपूर्ण पक्ष रहा है।
1848 के इतालवी विद्रोह का संदर्भ देते हुए विनायक ने भारतीयों को उनके 1857 के
विद्रोह के अनुभवों पर सोचने का अनुरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि मेजिनी की
अगुआई में इतालवी विद्रोह बेशक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाया था, परंतु उसे असफल
नहीं मानना चाहिए ; भारतीयों को भी अपनी गलतियों से सबक लेकर ब्रिटिश साम्राज्य के
खिलाफ भारत में अनवरत संघर्ष जारी रखना चाहिए। उन्होंने इतालवियों के संकल्प का
हवाला देते हुए कहा कि आज़ादी भिक्षा की तरह नहीं मांगी जाती। अतः, अन्य यूरोपियन
देशों के उदाहरणों को सामने रखते हुए उन्होंने युवाओं को क्रांतिकार्य के लिए तैयार करने
की जरूरत में गुप्त संस्थाओं के महत्व को आधार बनाया। विनायक ने लिखा, शस्त्रों की
कमी ने इटली को नहीं रोका था। इसकी बजाय, युवा इतालवी स्पेन, अमेरिका, जर्मनी,
पोलेंड और अन्य देशों में युद्धकला सीखने और हथियार बटोरने गए थे। अपनी प्रस्तावना में
विनायक ने बताया कि कै से सेना के बीच फै ली वैमनस्यता और अनेक सैनिकों द्वारा युवा
इटली की शपथ लेने के कारण, हथियार सीमा पार कर देश में लाए गए थे। प्रस्तावना में
प्रेषित अधिकांश विचार मेजिनी या इटली से कम और भारत एवं उसके क्रांतिकारियों के
लिए स्पष्ट नीति स्वरूप थे। इन विचारों कु छ ऐसी कू टभाषा का आवरण चढ़ा था कि कोई
उनके खिलाफ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजद्रोह का आक्षेप नहीं लगा सकता था। वहीं
पाठक भी लेखक के संदेश को ग्रहण करने में खासे चुस्त थे।
पुस्तक का प्रकाशन आसान नहीं था। इसके लिए विनायक ने भारत में अपने भाई
बाबाराव से संपर्क किया। उन्होंने अक्तू बर 1906 में उन्हें पुस्तक की पांडुलिपि भेजी। अब
तक, बाबाराव और नासिक में उनकी अभिनव भारत की गतिविधियां पुलिस की नजरों में
आ चुकी थीं। दशहरे के अवसर पर वन्दे मातरम के जोरदार नारे लगाने और ‘राजद्रोह की
पुकार’ न सुनने वाले पुलिस वालों के साथ हाथापाई करने के आरोप में उन्हें हवालात में
रखा गया था। रात भर उनसे पूछताछ की गई और प्रातः बाबाराव और उनके छोटे भाई
नारायण के साथ करीब 200 लोगों को गिरफ्तार किया गया। विडम्बना यह थी कि उनमें से
अधिकांश लोग घटना के समय नासिक में मौजूद ही नहीं थे ; स्पष्टतः यह प्रयास अभिनव
भारत के सदस्यों को डराने का था। इस संबंध में नासिक के विभिन्न इलाकों में, मालेगाँव
इकाई के प्रथमश्रेणी न्यायाधीश डब्ल्यू. प्लन्के ट के समक्ष एक वर्ष तक मुकदमा चला।
जल्दी ही मुकदमा ‘वन्दे मातरम ट्रायल के स’ के तौर पर प्रसिद्ध हुआ। हालाँकि, 8 मई
1907 को आए फै सले के बाद नारायण एवं अन्य कु छ सदस्यों को बरी कर दिया गया, परंतु
यह साफ था कि बाबाराव और अभिनव भारत अब गुप्तचर एजेंसियों के निशाने पर आ
चुके थे।
इसके बावजूद, लंदन से नारायण द्वारा भेजी गई पांडुलिपि बाबाराव को प्राप्त हुई और
उन्होंने उसे प्रकाशित करवाया। विनायक ने पुस्तक अपने दो परामर्शदाताओं - तिलक और
एसएम परांजपे को समर्पित की थी। बाबाराव ने तिलक की सलाह के लिए पांडुलिपि उन्हें
दिखाना ठीक समझा। पांडुलिपि के उग्र विषय वस्तु को देखकर तिलक चौंक गए और कहा
कि बाबाराव पांडुलिपि का क्या करते हैं, उन्हें कोई ऐतराज नहीं, परंतु ऐसी पुस्तक छापना
खतरनाक होगा। परंतु बाबाराव हताश नहीं हुए। हालाँकि, प्रकाशक खोजना कठिन कार्य
था। परंतु जगतहितेच्छु समाचार पत्र
के प्रकाशन में अभिनव भारत के कु छ सदस्यों का
दखल था, इस कारण, जून 1907 तक पुस्तक की 2000 प्रतियाँ प्रकाशित हो गई थीं।
पुलिस पूछताछ से बचने के लिए, बाबाराव पहले ही लघु अभिनव भारत माला
(छोटी
पुस्तकें एवं प्रचार पुस्तिकाएं), सिंहदाचा पोवादा
और बाजी प्रभुचा पोवादा
तथा गोविंद
कवि द्वारा लिखित शिवाजी द्वारा अफजल खान की हत्या का गाथा-गीत प्रकाशित कर
चुके थे। इसी अनुसार, थोराली अभिनव भारत माला
(पुस्तकें एवं जीवनी शृंखला) नाम से
एक नई प्रकाशन श्रृँखला आरंभ की गई जिसके अंतर्गत पहली पुस्तक मेजिनी की
आत्मकथा थी। पुस्तक का मूल्य 1.50 रुपये रखा गया। एक माह में ही इसका पहला
संस्करण बिक गया और कई पाठकों ने दूसरा संस्करण प्रकाशित होने से पहले ही प्रतियाँ
बुक करा ली थीं। इससे जन-भावनाओं का रुझान और विनायक की लेखनी, और साथ ही,
एक सुदूर और अनजान यूरोपियाई क्रांतिकारी की जीवनी पढ़ने के प्रति उत्सुकता का पता
चलता है। विभिन्न शहरों और कस्बों में लोग गुटों में और अभिनव भारत की सभाओं में
पुस्तक पढ़ते थे। काल
ने पुस्तक की उत्साहपूर्ण समीक्षा की:
देशभक्त सावरकर मराठी पाठकों के सुपरिचित हैं। उनके उत्साह, उग्र राष्ट्रप्रेम, बेहतरीन
आलेखों और वाचन क्षमता ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई है। बंबई विश्वविद्यालय से बीए
परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह हाल ही में कानून की शिक्षा के लिए लंदन गए हैं।
हालाँकि, वह बाहर गए हैं, परंतु अपने देश, उसके लोगों और अपनी भाषा को एक पल
के लिए भी नहीं भूले। इंग्लैंड की बड़ी-बड़ी इमारतें, बड़े कारखाने और बेहिसाब समृद्धि
ने भी उन्हें प्रभावित नहीं किया; परंतु वह हर समय अपने देश को गुलामी से मुक्त कराने
और अन्य देशों के बीच स्थान दिलाने पर सोचते रहे हैं. . .अंग्रेजी के हृदय में, इंग्लैंड में
रहते हुए सावरकर ने यह पुस्तक मराठी में लिखी है। हमारे लोगों के लाभ के लिए
इंग्लैंड में लिखी गई यह संभवतः पहली साहित्यिक कृ ति है। इसमें तीन पक्षों का अद्भुत
संगम है - स्वतंत्रता की देवी को समर्पित मेजिनी के आलेख, इंग्लैंड के उन्मुक्त
वातावरण में सावरकर का अनुवाद और महाराष्ट्र के उत्सुक पाठकों का उत्साह। पुस्तक
हमें दर्द से छु टकारा दिलाने का साहस रखती है। मेजिनी के आलेख अमृत धाराओं
सरीखे हैं। वेदों के मंत्रों की तरह, उनमें अपार शक्ति है. . .ऐसे आलेख उपलब्ध कराने
पर सावरकर को कोटि-कोटि धन्यवाद। अध्ययन में रुचि रखने वालों को ऐसे
साहित्यिक कार्यों को जरूर पढ़ना चाहिए। जो अशिक्षित हैं, वह भी इससे लाभ उठा
सकते हैं, यदि कोई उन्हें पढ़कर सुनाए।
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पुस्तक के प्रस्तावित दूसरे संस्करण से जुड़े विज्ञापनों के आते ही प्रशासन चौकन्ना हो गया
था। सरकार के सामने एक विकल्प पुस्तक को जब्त कर उसके लेखक और प्रकाशक पर
राजद्रोह का मुकदमा चलाने का था। परंतु विनायक ने इस बात का ध्यान रखा था कि देश
के किसी कानून का हनन न हो। उन्होंने के वल मेजिनी के विचारों का अनुवाद किया था
और उनमें कहीं भी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह का प्रचार नहीं किया गया
था। पुस्तक संबंधी एक गुप्त टिप्पणी में, बंबई सरकार के न्यायिक विभाग के तत्कालीन
एडवोके ट जनरल ने लिखा था:
मेरे सामने रखे साररूप के बारे में मैं बिना किसी झिझक के कह सकता हूँ कि
प्रस्तावना सीधे राजद्रोह की मंशा से लिखी गई है और इस देश का जो भी नागरिक इसे
पढ़ेगा, इसे समझ लेगा, परंतु इसके साथ ही, इसमें एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसके
बारे में कहा जा सके कि यह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ है. . .ऐतिहासिक पाठ पढ़ाने
के बहाने इसमें और कई अन्य आलेखों में राजद्रोह का नारा बुलंद किया गया है. .
.तथापि, मैं नहीं कह सकता कि ऐसे अभियोजन को सफलता मिलने की कोई उम्मीद
है. . .मैं सोचता हूँ कि यदि दोषी व्यक्ति का कु शलता से बचाव किया जाए, उसके छू ट
जाने के अच्छे आसार हैं।
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लिहाजा, यह जानते हुए कि अदालत में मामला नहीं टिक पाएगा, सरकार ने जुलाई 1907
में पुस्तक पर रोक लगाने का फै सला किया। प्रतियाँ जब्त करने के लिए घरों और दुकानों
की व्यापक तलाशी ली गई। लोगों ने पुरानी दीवारों की खोह और छेदों में अपनी प्रतियाँ
छिपाईं जिन पर बाद में पलस्तर कर दिया गया। किसी व्यक्ति के पास प्रति मिलने पर उसे
स्वतः ही क्रांतिकारी मान लिया जाता और उसकी निगरानी शुरू हो जाती। करीब चालीस
वर्ष बाद, 1946 में जाकर पुस्तक पर पाबंदी उठाई गई और दूसरे संस्करण के आधिकारिक
विमोचन के अवसर पर विनायक अध्यक्ष थे।
~
इस बीच अक्तू बर 1906 में लंदन में दो व्यक्तियों के बीच रोचक भेंट का अवसर आया था।
इसके बाद दोनों कई दशकों तक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बने और उनके परस्पर विरोधी
राजनीतिक विचारों ने देश के राजनीतिक तंत्र को स्थाई तौर पर बदल डाला। यह अवसर
इंडिया हाउस में मोहनदास करमचंद गांधी के आगमन का था जिनकी विनायक दामोदर
सावरकर से भेंट हुई थी।
1893 में चैबीस वर्षीय युवा वकील के तौर पर गांधी दक्षिण अफ्रीका गए थे। वह वहाँ
एक भारतीय व्यापारी के वाणिज्यिक विवाद को सुलझाने के लिए अस्थाई तौर पर पहुँचे
थे। उनके आगमन के एक वर्ष बाद अदालत ने उनके मुवक्किल के पक्ष में फै सला दिया।
जब वह भारत लौटने की तैयारी में थे, तो भारतीय व्यापारियों के एक समूह ने उनसे वहीं
रुककर ब्रिटिश काॅलोनी, नटाल असेंबली में एक विधेयक के खिलाफ संघर्ष करने को कहा
जिसमें भारतीयों को मताधिकार से वंचित किए जाने का प्रस्ताव था। फिर एक महीने की
अवधि में ही 10,000 हस्ताक्षर एकत्र कर उपनिवेश सचिव लॉर्ड रिपन के समक्ष रखे गए
थे। नतीजतन, विधेयक को अस्थाई तौर पर ठं डे बस्ते में डाल दिया गया, परंतु 1896 में
इसका कानून पारित कर गैर-यूरोपियाई मूल के लोगों का मताधिकार छीन लिया गया। इन
घटनाओं ने आकस्मिक तौर पर गांधी को मताधिकार से वंचित लोगों का अनौपचारिक
नुमाइंदा बना दिया था।
एक ओर श्यामजी गांधी के कार्यों से अवगत और उनके प्रशंसक थे, परंतु आंग्ल-बोर युद्ध
में गांधी की भूमिका के वे कटु आलोचक भी थे। 1899 में ब्रिटिश साम्राज्य और ट्रांसवाल
तथा ऑरेंज फ्री स्टेट के बोर लोगों के बीच युद्ध छिड़ गया। बोर या अफ्रीकानेर लोग,
दक्षिणी अफ्रीका में सर्वप्रथम पहुँचे डच निवासियों के वंशज थे। ब्रिटिश सेना के साथ
मुठभेड़ों के बाद बोर लोगों ने ट्रांसवाल और ऑरेंज फ्री स्टेट में अपने आज़ाद गणतंत्र
स्थापित कर लिए थे। वह अपने ब्रिटिश पड़ोसियों के साथ शांति से रहने लगे, परंतु उनके
क्षेत्र में सोना और हीरा मिलने से ब्रिटिश लालच ने सिर उठा लिया था। बोर लोगों ने नेटाल
और के प काॅलोनी में ब्रिटिश औपनिवेशिकों को कड़ी टक्कर दी। इसी दौरान, भारतीयों को
भी एक पक्ष चुनने को कहा गया। गांधी ने कहा कि उनकी ‘निजी संवेदनाएं बोर लोगों साथ
हैं’ परंतु ‘ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा के कारण युद्ध में वह ब्रिटिश पक्ष की ओर से
शामिल’ हुए थे। उनकी दलील थी:
मुझे महसूस हुआ, यदि मुझे बतौर ब्रिटिश नागरिक अपने अधिकार चाहिए, तो मेरा
कर्तव्य है कि मैं ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा में योगदान करूं । मेरी सोच थी कि ब्रिटिश
साम्राज्य के अधीन रहते हुए और उसके मार्फ त ही भारत पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर
सकता है। इसलिए मैंने जितना संभव हुआ, अपने साथियों को इकट्ठा किया और बहुत
संघर्ष के बाद एम्बुलेंस कोर के तौर पर उनकी सेवाओं को पारित कराया।
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इंडियन एम्बुलेंस कोर से 500 से अधिक भारतीय जुड़े और नेटाल के स्पिअनकोप में
घायल ब्रिटिश सैनिकों की तीमारदारी की। महारानी के पक्ष में निष्ठा और शौर्य के लिए
गांधी एवं अन्य को युद्ध मैडल भी मिले थे। जून 1903 में गांधी ने भारतीय समुदाय के
मुखपत्र के तौर पर इंडियन ओपिनियन
नामक साप्ताहिक पत्र आरंभ किया जिसे चार
भाषाओं (अंग्रेजी, हिन्दी, गुजराती एवं तमिल) में शुरू किया गया था।
ब्रिटिश प्रशासन के साथ अपने गैर-विरोधी व्यवहार के बावजूद, गांधी द्वारा स्थानीय बोर
लोगों के खिलाफ अंग्रेजों को दिए गए सहयोग के प्रति श्यामजी का रुख आलोचनात्मक
था। इंडियन सोशलॉजिस्ट
में अफ्रीकी ‘कालों’ से जुड़े गांधी के आलोचनात्मक और
रंगभेदी बयानों पर भी नाराजगी व्यक्त की गई। स्थानीय अफ्रीकी लोगों के लिए
अपमानजनक ‘काफिर’ का इस्तेमाल कर, गांधी ने डरबन के डाकघरों में गोरों और कालों
के लिए अलग प्रवेश द्वार बनाने का पक्ष लिया था और भारतीयों को दक्षिण अफ्रीकी कालों
के साथ जोड़कर देखे जाने पर एतराज जताया था। गांधी के शब्दों में:
यूरोपीय लोगों द्वारा हमारे ऊपर थोपी गई उस अधोगति के विरोध में हमारा सतत् संघर्ष
चल रहा है जिसके आधार पर वह हमें अपरिष्कृ त काफिर से जोड़ कर देखते हैं जिनका
पेशा शिकार करना है और जिनका एकमात्र लक्ष्य एक निश्चित संख्या में मेवेशी इकट्ठा
कर एक पत्नी प्राप्त करना और, तत्पश्चात्, निष्क्रियता तथा नंगेपन का जीवन जीना
होता है
50
. . .काफिर नैसर्गिक तौर पर असभ्य होते हैं. . .वह मुश्किल पैदा करने वाले,
बेहद गंदे और लगभग जानवरों सा जीवन जीते हैं।
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1906 में गांधी के इंडिया हाउस आगमन से कु छ ही पहले, बोर युद्ध के बाद जुलुओं द्वारा
अनुचित ब्रिटिश करों के विरोध में बम्बाथा विद्रोह शुरू हो गया था। इसमें हजारों जुलुओं
को निरंकु शता से मार डाला गया और अनेक जख्मी हुए थे। इस बार भी गांधी ने अंग्रेजों
का सहयोग किया और जुलुओं के खिलाफ लड़ने के लिए भारतीयों को ब्रिटिश सेना में
भर्ती करने का अनुरोध किया। इंडियन सोशलॉजिस्ट
के जुलाई 1906 के अंक में, जुलू
विद्रोहियों के दमन और नरसंहार को सहयोग देने में गांधी की भूमिका की कड़ी आलोचना
हुई।
विरोधी राजनीतिक विचारधारा के कारण श्यामजी से तनावपूर्ण संबंधों की इसी पृष्ठभूमि
में 20 अक्तू बर, 1906 को गांधी इंडिया हाउस पहुँचे थे। श्यामजी के बारे में गांधी ने लिखा
हैः
उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना अपने पैसे से की थी। कोई भी भारतीय विद्यार्थी बहुत
कम साप्ताहिक भुगतान कर वहाँ रह सकता था। सभी भारतीय, हिन्दू हों, मुस्लिम या
कोई और, वहाँ रह सकते हैं और रहते हैं। स्वच्छ परिवेश में स्थित इस स्थान का
वातावरण सचमुच बहुत अच्छा है। आगमन के पहले ही रोज़, श्री ऐले और मैं इंडिया
हाउस में रहने पहुँचे, और हमारा बहुत अच्छा ध्यान रखा गया। परंतु चूंकि अपने कार्य
के कारण हमें महत्वपूर्ण लोगों से मिलना था और इंडिया हाउस कु छ दूर पड़ता है, हमें
काफी भारी खर्च से उनके होटल में जाकर रहना पड़ा था।
52
इंडिया हाउस में गांधी के अल्प प्रवास के समय विनायक और गांधी के बीच भेंट या
अनुभवों का कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, परंतु हरिन्द्र श्रीवास्तव ने एक घटना
का आँखों देखा हाल बयान किया है जिसके साक्षी झांसी के क्रांतिकारी पंडित परमानन्द
जी थे। विनायक उस समय खाना बना रहे थे जब गांधी उनके पास राजनीतिक विमर्श
करने की मंशा से पहुँचे। उनकी बात काटते हुए, विनायक ने कहा कि पहले वह सबके
साथ खाना खाएं। एक चितपावन ब्राह्मण को मछली पकाता देख गांधी हैरान रह गए और
कट्टर शाकाहारी होने के कारण खाना खाने से इनकार कर दिया। उनका मज़ाक बनाते हुए
विनायक ने कहा, ‘यदि आप हमारे साथ खा नहीं सकते, तो हमारे साथ काम कै से करेंगे ?
और...यह के वल उबली हुई मछली है...जबकि हमें जरूरत है ऐसे लोगों की जो अंग्रेजों को
कच्चा खा जाएं।’
53
जाहिर है यह पहली मुलाकात आदर्श नहीं थी, और समय के साथ-
साथ उनके मतभेद बढ़ते गए।
~
सिखों का इतिहास भी विनायक में कु तूहल पैदा करता था। उन्होंने गुरुमुखी लिपि पढ़नी
सीखी और सिख धर्म की सभी पुस्तकें और मूल लेखनियां पढ़ डालीं जिनमें आदि ग्रंथ, पंथ
प्रकाश, सूर्य प्रकाश, विचित्र नाटक
और सिख समुदाय के गुरुओं की अन्य लेखनियां
शामिल थीं। उन्होंने इन पुस्तकों का सार तत्व निकाल कर अनेक प्रचार-पत्र और ‘खालसा’
श्रृँखला प्रकाशित की जो भारत और बाहर रहने वाले सिख समुदाय के बीच बेहद
लोकप्रिय हुई और उनमें राष्ट्रवाद की भावना जागृत की। उन्होंने श्रृँखला के अंतर्गत एक
प्रचार-पत्र भी प्रकाशित किया जिसमें सिख समुदाय से ब्रिटिश भारतीय सेना छोड़ने का
आह्वान किया गया था। इतना नहीं तो वह कम से कम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को
सहयोग तो कर ही सकते थे। बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में सिख समुदाय भारतीय सेना
का 20 प्रतिशत था। अतः, सिख समुदाय को सेना, खालसा पंथ, मुगलों से लोहा लेने वाले
उनके दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह के नाम पर संवेदनीय पुकार महत्वपूर्ण नीति थी। यह
देखते हुए ब्रिटिश सरकार तुरंत हरकत में आई और इंडिया पोस्ट एक्ट के तहत प्रचार-पत्रों
पर रोक लगा दी गई।
54
बड़ी संख्या में भारत के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशन के लिए भेजे जाने वाले प्रचार-
पत्रों के बारे में स्काॅटलैंड यार्ड ने भारत के अपराध सूचना विभाग को सूचित किया था।
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मेजिनी की जीवनी पूरी करने के बाद विनायक 1857 के भारतीय विप्लव पर लिखना
चाहते थे। यह अंग्रेजी काल में समग्र भारत में भड़का पहला क्रांतिकारी अभियान था
जिसने ईस्ट इंडिया कं पनी की जड़ों को हिलाकर रख दिया था। इंडिया हाउस के मददगार
मैनेजर श्री मुखर्जी ने विनायक को सर जाॅन विलियम के य की पुस्तक द हिस्ट्री ऑफ द
इंडियन म्यूटिनी
लाकर दी। विनायक को यह देखकर निराशा हुई कि पुस्तक में 1857 के
विभिन्न उग्र घटनाक्रमों या उसके नायकों जैसे मंगल पांडेय, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई,
नाना साहेब, तात्यां टोपे, मौलवी अहमद शाह या मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फर का बहुत
कम जिक्र था। उन्हें बाद में ज्ञात हुआ कि मेजिनी के लेखन की तरह यह भी छह खंडों में
कलमबद्ध ग्रंथ था जिसमें के य के हिस्ट्री ऑफ द सिपाॅय वार
को कर्नल जाॅर्ज मेलेसन की
लेखनी के साथ नत्थी कर 1890 में एक वृहत प्रबंध के रूप में तैयार किया गया था।
स्पष्टतः, बदले की भावना से तैयार किया गया यह ब्रिटिश नजरिया विनायक को नागवार
गुजरा।
उन्होंने उन घटनाओं पर स्वयं शोध करने का निर्णय लिया और मुखर्जी से मदद मांगी।
मुखर्जी उन्हें इंडिया हाउस ले गए जहाँ लंदन में भारत के मामलों की देखरेख की जाती थी,
और वहाँ अपार स्रोत, निजी पत्रों एवं पत्राचारों से भरापूरा पुस्तकालय था।
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यह
पुस्तकालय भारत-मंत्री (या भारत सचिव) के कार्यालय में स्थित था और यहाँ प्रवेश के
लिए विशेष अनुमति की जरूरत होती थी। मुखर्जी के संपर्कों के माध्यम से विनायक को
पुस्तकालय में रीडर पास मिल गया। कई गुप्त फाइलों तक पहुँच संभव करने हेतु
पुस्तकालयाध्यक्ष भरोसा जीतने के लिए वह 1857 के सिपाहियों की बर्बरता की बुराई
करते, जिन्हें पुस्तकाध्यक्ष भी अपशब्द कहता था। उनका शोध कई महीनों तक चला। इस
दौरान उन्होंने सर एडविन आर्नल्ड, डाॅ. एलेक्जेंडर डफ, सर जेम्स होप ग्रांट, मीडोज टेलर,
सर जाॅर्ज ट्रेवलिन एवं अन्य ब्रिटिश इतिहासकारों, आर्मी जनरलों और विद्वानों के कार्यों का
अध्ययन किया।
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विनायक को अहसास हुआ कि उनकी पुस्तक के सभी स्रोत विदेशी
लेखकों के लेखन थे, जिनके लिए ‘अपने पक्ष की बजाय, विपरीत पक्ष की बात उतनी
ईमानदारी और विस्तार से रखना असंभव रहा होगा’।
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जिन दिनों उनकी पुस्तक पर शोध चल रहा था, उन्हीं दिनों लंदन में एक नई घटना
आकार ले रही थी। मई की पहली तारीख को ब्रिटेन में 1857 ‘गदर’ में शहीद सैनिकों और
अफसरों की याद में थैंक्सगिविंग दिवस के रूप में मनाया जाता था। 1907 में यह दिवस
विशेष था क्योंकि यह स्वर्ण जयंती वर्ष था। लंदन के शीर्ष समाचार पत्रों ने इस अवसर पर
विशेष सुर्खियां प्रकाशित कीं। 6 मई 1907 के द डेली टेलिग्राफ
की सुर्खी थी: ‘पचास वर्ष
पहले, इसी सप्ताह, यह साम्राज्य वीरता के कृ त्यों से बचा था’। इस अवसर पर अंग्रेजों
द्वारा लिखित नाटकों, व्याख्यानों, संपादकीय एवं आलेखों का आयोजन हुआ जिसमें
भारतीय विद्रोहियों को हत्यारे और आततायी के तौर पर दिखाया गया था। 1857 के कु छ
बचे हुए लोगों या मरने वालों रिश्तेदारों के साक्षात्कार प्रकाशित किए गए। विभिन्न चर्चों
और सार्वजनिक स्थानों पर प्रार्थना सभाएं आयोजित हुईं। दिल्ली मिशन के संस्थापक,
रेवरेंड मिजले जाॅन हेनिंग्स की ‘शहादत’ को याद करते हुए लंदन की विक्टोरिया स्ट्रीट के
क्राइस्ट चर्च में एक विशाल सभा आयोजित की गई। चूंकि इस सभा की अध्यक्षता कै म्ब्रिज
के ट्रिनिटी काॅलेज के रेवरेंड डाॅ. बटलर ने की थी, अतः, इस अवसर पर एक प्रस्ताव पास
किया गया कि ‘बौद्धिक आकांक्षाओं की अपीलों, आध्यात्मिक एवं अज्ञात के प्रति अवज्ञा
के प्रलोभन के मध्य कै म्ब्रिज को ईसा मसीह के प्रति ऋण को नहीं भूलना चाहिए, और न
ही उनके “अन्य भेड़ों” को नकारना चाहिए जो ईसाइयत या यूरोपियन धर्मसंघ में नहीं हैं’।
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अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के द्वारा यह भी पुनःआश्वासन दिया गया कि ‘गदर’ के वल


एक भूल थी और ऐसी आपदाएं फिर नहीं दोहराई जाएंगी। यहाँ तक कि आईएनसी के
आरंभिक सदस्य और 1904 के बंबई सत्र के अध्यक्ष सर हेनरी काॅटन के शब्द कु छ इस
प्रकार से थे:
भारत की मौजूदा उथल-पुथल में किसी आम विद्रोह का कोई गंभीर खतरा नहीं है।
भारत के लोग निशस्त्र हैं और कहना न होगा कि उन्हें एकजुट करने वाली कोई संस्था
भी नहीं है, जो ऐसे किसी आम विद्रोह का संचालन करे। 1857 का विद्रोह के वल
सशस्त्र सिपाहियों का विद्रोह था। हमारे पास अब बहुत कम संख्या में सिपाही और
बहुत बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिक मौजूद हैं। इसलिए परेशान होने का लेशमात्र भी
कारण नहीं है। फिर भी, अशान्ति के कारण खोजने के लिए एक समझदार और सचेत
जांच किए जाने के पर्याप्त कारण हैं और जांच से जुड़े तथ्यों का ही बेहद लाभदायक
असर होगा।
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परंतु इंडिया हाउस के युवा लंदन और उसके आसपास जारी इन गतिविधियों को देख रहे
थे और इन्हें चुपचाप बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। विनायक की सरपरस्ती में उन्होंने
1857 के भारतीय शहीदों की याद में एक भव्य प्रतिपर्व मनाने का निर्णय किया। गौर करने
वाली बात है कि भारत में किसी भी राजनीतिक दल या गुट ने भारत के अतीत की इतनी
महत्वपूर्ण घटना की याद में कोई आयोजन नहीं किया और यह जिम्मेदारी लंदन में कु छ
भारतीय विद्यार्थियों के खाते में आ गई थी। इंडिया हाउस को बन्दनवार, गुलदस्तों, फू लों
और मेहराबों से सजाया गया। 1857 के नायकों और नायिकाओं के चित्र प्रदर्शित किए
गए। मुकुं द सोनपत्की की पुस्तक दरियापार
में आयोजन का निमंत्रण प्रकाशित किया गया
हैः ‘फ्री इंडिया लीग के तत्वावधान में 1857 के राष्ट्रभक्तिपूर्ण विप्लव का स्वर्ण जयंती
आयोजन करने का निर्णय लिया गया है। सभा का आयोजन शनिवार, 11 मई को स्वतंत्रता
घोषणा दिवस को किया जाएगा।’
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इंडिया हाउस के कार्यक्रम में 200 से अधिक लोग शामिल हुए जबकि श्यामजी के निकट
संबंधी नितिन सेन द्वारकादास के एक्टन स्थित घर (तिलक हाउस) में भी एक समांतर
आयोजन किया गया था। ‘ओ ! हुतात्माओ!’ नामक उद्बोधक भाषण में विनायक ने कहा
कि 1857 को घटना को ‘विप्लव’ या ‘गदर’ कहना बंद कर के , इसे ‘प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम’ पुकारा जाए। यह भारत में स्थायी युद्ध का अभ्यास के तौर पर था जो तब तक नहीं
थमेगा जब तक साम्राज्यवाद जड़ से नहीं उखड़ जाता। उन्होंने जोर दिया:
आज दस मई का दिन है ! आज ही के दिन, 1857 के उस यादगार दिवस, भारत की
युद्धभूमि में, भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का दरवाजा आपने खोला था, ओ
हुतात्माओ. . .आपको कोटि नमन्, ओ हुतात्माओ ; चूंकि वर्ण की रक्षा के लिए आपने
उस क्रांति की अग्नि परीक्षा की आहुति दी थी. . .आज का दिन. . .ओ हुतात्माओे, हम
आपकी प्रेरणास्पद याद को समर्पित करते हैं ! इसी रोज़ आपने लहराने के लिए नया
परचम उठाया था, आपने एक नए अभियान को शब्द दिए थे, पूर्ण करने के लिए एक
नया अभियान आरंभ किया था. . .हम आपकी पुकार उठाते हैं, आपके ध्वज को नमन
करते हैं, क्रांतिकारी युद्ध की पवित्र गर्जना ‘विदेशी को बाहर करो’ के आपके तेजोमय
अभियान को जारी रखने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। क्रांतिकारी, हाँ, वह एक क्रांतिकारी
युद्ध था. . .नहीं, क्रांतिकारी युद्ध कोई विराम नहीं जानता, स्वतंत्रता अथवा मृत्यु में एक
ही ! ओ हुतात्माओ, आपके रक्त का प्रतिशोध लिया जाएगा!. . .चूंकि 1857 का युद्ध
तब तक नहीं थमेगा जब तक क्रांति गुलामी को धूल में न मिला दे, सिंहासन तक
आज़ादी को न ले जाए। जब भी आमजन अपनी आज़ादी के लिए उठता है, जब भी
आज़ादी का वह बीज उनके पूर्वजों के रक्त में अंकु रित होता है, जब तक अपने पितरों
का प्रतिशोध लेने के लिए एक भी पुत्र जीवित रहता है, तब तक ऐसे युद्ध का अंत हो
नहीं सकता।
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इंडिया हाउस के भारतीय विद्यार्थियों के पहनने के लिए विनायक ने छोटे तमगे डिजाइन
किए थे जिन पर ‘1857 के शहीदों की याद में’ और ‘वन्दे मातरम’ प्रमुखता से अंकित था।
हरनाम सिंह और नाभा के एक अन्य विद्यार्थी रफीक मोहम्मद यह तमगे पहन कर
सिरेन्सेस्टर काॅलेज पहुँचे थे। यह देख सकते में आए प्रोफे सरों ने उनसे तमगे उतारने को
कहा। इस कारण हरनाम और काॅलेज के प्रधानाचार्य में बहस छिड़ गई जिसे लंदन के
समाचार पत्रों और बाद में इंडिया हाउस ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। हरनाम को काॅलेज
से निकाल दिया गया परंतु लंदन में इंडिया हाउस पहुँचने पर उनका नायकों सा स्वागत
हुआ। रफीक मोहम्मद पर भी निष्कासन का खतरा मंडराने लगा और कई अन्य की
छात्रवृत्तियाँ वापस ले ली गई। हालाँकि, मोहम्मद ने प्रधानाचार्य से माफी मांग ली और उन्हें
पुनः भर्ती कर लिया गया तथा इंडिया हाउस की निगरानी सूची से भी उन्हें हटा दिया गया।
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जैसे ही इंडिया हाउस के आयोजन और विनायक के भाषणों से जुड़ी खबरें समाचार पत्रों
में प्रकाशित होनी शुरू हुई, स्काॅटलैंड यार्ड की खुफिया एजेंसियां कु छ अतिरिक्त चैकन्नी हो
गई। इंडिया हाउस में भेजे गए एक भेदिये के कारण विनायक की 1857 पर लिखी गई
पुस्तक की पांडुलिपि के कु छ पन्ने भी प्रशासन के हाथ आ गए थे। इस कारण विनायक का
रीडर पास रद्द हो गया और पुस्तकालय में उनके प्रवेश पर रोक लग गई। परंतु सौभाग्यवश
पुस्तक के लिए अधिकांश शोध तब तक पूरा हो गया था। कु छ उद्धरणों के हवालों की जांच
जरूर की जानी थी, और इसके लिए वीवीएस अय्यर को जिम्मेदारी सौंपी गई जिन्होंने
सफलतापूर्वक कार्य पूरा किया।
विनायक की पुस्तक, द इंडियन वार ऑफ इंडिपेन्डेंस ऑफ 1857
(मराठी शीर्षक
अठाराशे सत्तावनछे स्वतंत्र समर
) इस मायने में अद्वितीय रही क्योंकि उसने अब तक
‘विद्रोह’ कही जाने वाली ऐतिहासिक घटना को उच्च स्तर प्रदान किया था। विनायक का
कहना था कि उन्होंने अपनी यात्रा का आरंभ एक खोजी इतिहासकार के तौर पर किया था
और उस समय के दस्तावेजों को खंगालने पर वह 1857 के गदर के भीतर चमक रहे
स्वतंत्रता संघर्ष की झलक को देखकर हैरान रह गए थे। नाटकीय ढंग से वह लिखते हैंः
‘...मृतकों की आत्माएं शहादत के बोझ से पवित्र हो गई दिखती थीं, और राख के ढेर से
प्रेरणा के स्रोत फू ट निकले थे।’
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प्रथम अध्याय में विनायक ने फ्रांस या हाॅलैंड जैसे देशों में
महान धार्मिक और राजनीतिक क्रांतियों के सिद्धांतों पर ध्यान कें द्रित किया है। परंतु भारत
के संदर्भ में इस मुद्दे को स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं:
प्रत्येक क्रांति का एक बुनियादी सिद्धांत होता है. . .क्रांति अभियान किसी हल्के या
क्षणिक कष्ट पर आधारित नहीं हो सकता। यह सदा एक समावेशी सिद्धांत के आधार
पर होता है जिसके लिए सैकड़ों और हजारों लोग लड़ते हैं. . .क्रांति की आंदोलित
आत्माएं उनके अंतर्निहित सिद्धांत पर निर्भर करती हैं कि वह पवित्र होंगी या अपवित्र. .
.इतिहास में, किसी व्यक्ति या राष्ट्र के कार्यों का निर्णय उसके प्रयोजन के चरित्र के
आधार पर होता है . . .किसी क्रांति का इतिहास दर्ज करने का मतलब उस क्रांति की
घटनाओं के सभी स्रोतों तक पहुँचना है - यानी प्रयोजन तक।
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विनायक ने तर्क दिया कि 1857 पर आमतौर पर इतिहास लेखन पश्चिमी विद्वानों ने किया
है और वह इस विप्लव के सही कारणों को समझने या पहचानने में असफल रहे हैं।
अधिकांश इतिहासकारों ने ऐसी विधियां अपनाई जिनमें ‘स्थानीय’ आवाजें अनसुनी ही
रहीं। विनायक के अनुसार, गाय और सूअर की चर्बी से युक्त कारतूसों का आरोप सतही
कारण था। युद्ध में इस तरह के ‘अस्थायी’ या ‘दुर्घटनास्पद’ कारणों पर जोर देते रहने से
क्रांति की ‘असल आत्मा’ की उपेक्षा होती है। उन्होंने अंग्रेज इतिहासकारों के बारे में लिखा
है:
उनमें से कु छ ने के वल घटनाओं का वर्णन करने से अधिक ज्यादा नहीं लिखा, परंतु
अधिकांश ने इतिहास को दुश्चरित्र तथा एकतरफा भावना से लिखा है। उनकी पूर्वाग्रही
आँखें क्रांति के असली कारणों को नहीं देख सकती थीं या देखना नहीं चाहती थीं। क्या
यह संभव है, क्या कोई सही सोच-समझ वाला व्यक्ति कह सकता है कि सब ओर से
उठने वाली क्रांति उसे संचालित करने वाले किसी सिद्धांत के बिना चली थी ? क्या
पेशावर से कलकत्ता तक उमड़ने वाले उस सैलाब ने किसी खास को अपनी चपेट में न
लेने की मंशा से रफ्तार पकड़ी थी ? क्या यह संभव है कि दिल्ली की घेराबंदी, कानपुर
का नरसंहार, साम्राज्य का झंडा, उसके लिए मरने वाले नायक, क्या ऐसा हो सकता था
कि ऐसे उदात्त और प्रेरणास्पद कार्य बिना किसी उदात्त और प्रेरणास्पद परिणाम के
संभव रहे हों ? गाँव का कोई छोटा सा हाट भी बिना किसी परिणाम, यानी लक्ष्य के
बिना अस्तित्व में नहीं आता ; तो फिर, हम कै से मान लें कि वह विराट मंडी किसी लक्ष्य
के बिना खुली और बंद हुई - वह बड़ा बाजार जिसकी दुकानें पेशावर से कलकत्ता तक
की सभी युद्धभूमियों में खुली थीं, जहाँ का साम्राज्य और राज्यों का कारोबार चल रहा
था, और जहाँ प्रचलित सिक्का था रक्त का सिक्का?
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उन्होंने माना कि युद्ध के दो छोर थे, स्वराज और स्वधर्म – अपने देश और धर्म के लिए प्रेम।
भारत एवं अन्यत्र, सभी क्रांतियों का मार्गदर्शक सिद्धांत यही रहा है। उन्होंने मुगल बादशाह
बहादुरशाह जफर की अपील उद्धृत की जिसमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों से अपनी
जमीन और मज़हब को बचाने के लिए एक साथ उठ खड़े होने की गुहार लगाई थी।
विनायक ने मेजिनी सहित अन्यत्र क्रांतियों के भी समान प्रक्षेपपथों की पहचान की।
इसलिए क्रांतियों के प्रति उनका विचार आम मार्क्सवाादी विचारों के विपरीत ठहरता है।
अतः, क्रांति को प्रेरित करने वाले सिद्धांतों पर अपने प्रबंध के बाद, विनायक ने पुरजोर
तरीके से विचार रखा कि राष्ट्रीय नीति के अंश के तौर पर क्रांतियों का इतिहास जरूर
लिखा जाना चाहिए। उनकी पुस्तक इसी प्रयास का एक हिस्सा थी और इसमें ‘युद्ध’ का
सटीक आकलन किया गया था, ‘विद्रोह’ का नहीं। उन्होंने बार-बार जोर दिया कि पुस्तक
लिखने का लक्ष्य देशवासियों के बीच विदेशी शासन के खिलाफ सुनियोजित सशस्त्र क्रांति
की इच्छा को तेज करना था। उनको उम्मीद थी कि यह ऐतिहासिक तथ्य क्रांतिकारियों के
बीच लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक कार्यक्रम, उसकी कार्यविधि और संगठन के प्रति एक प्रारूप
रख सके गा। पुस्तक में लक्ष्मीबाई, नाना साहेब, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, मंगल पांडे,
मौलवी अहमद शाह, कुं वर सिंह, राणा अमर सिंह, बेगम हज़रत महल एवं अन्य के रोचक
और नाटकीय शब्दचित्र और किस्से हैं। पुस्तक में दिल्ली से, अयोध्या, कानपुर, बिहार और
झांसी एवं बनारस, रोहेलखंड, इलाहाबाद, मेरठ, अलीगढ़, लखनऊ एवं अवध तक के क्षेत्र
में क्रांति के समूचे चित्रण को समेटा गया है। पुस्तक में प्रचुर ऐतिहासिक ब्यौरे और स्रोतों
के उद्धरण हैं और इसकी किस्सागोई में रवानगी है। उन्होंने आखिरी मुगल बादशाह
बहादुरशाह जफ़र को दिल्ली के दीवान-ए-ख़ास से अभियान को प्रतीकात्मक नेतृत्व देने के
प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया जिससे क्रांति के बीज की बुनियाद पड़ी थी। मुगलों की दुर्दशा
के प्रति सांत्वना दर्शाते हुए उन्होंने लिखा है:
दिल्ली के बादशाह से बादशाही छीन लेने भर तक अंग्रेज नहीं रुका, उसने हाल में
बाबर के वंशजों से बादशाह का खिताब तक छीन लेने का फै सला ले लिया था। ऐसी
हालत में पहुँच चुके बादशाह, और उनकी चहेती, चतुर और हिम्मती बेगम जीनत महल
ने पहले ही फै सला कर लिया था कि खोयी खोई हुई आन को वापस पाने के इस मौके
को निकलने नहीं देना चाहिए, और अगर मौत ही इसका एक आखिरी स्रोत बनता है,
तो उन्हें ऐसी मौत मरना होगा जो एक बादशाह और उनकी बेगम की शान के अनुरूप
हो।
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नाना साहेब के विचार से सहमत होते हुए विनायक ने भी माना कि 1857 ऐसा मंज़र था
जो हिन्दुओं और मुसलमानों को एक साथ ले आया था; हिन्दुस्तान ‘इसके बाद इस्लाम
और हिन्दू धर्म के अनुयायियों का साझा देश बन गया था’।
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उन्होंने बताया कि दोनों
समुदायों के बीच वैमनस्यता अतीत में शुरू हुई थी, जब मुसलमान आक्रांता थे और हिन्दू
विनम्र प्रजा। परंतु अब, अंग्रेज के रूप में दोनों का एक साझा दुश्मन था जो उनके शासन
और धर्म के लिए खतरा बन बैठा था। इसलिए अतीत की शत्रुता को दफना कर साझा हित
साधा गया था। लिहाजा, अपने-अपने स्वधर्म और स्वराज की रक्षा के लिए हिन्दुओं और
मुस्लिमों को साथ आना ज़रूरी था। इस बिंदु की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है:
जब तक मुस्लिम भारत में विदेशी शासकों के रूप में रहते रहे, तब तक उनके साथ
भाइयों की तरह रहना राष्ट्रीय कमजोरी सरीखा माना जाता रहा। लिहाजा, तब तक, यह
ज़रूरी था कि हिन्दू, मुसलमानों को विदेशी मानते रहें। इसके अलावा, मुसलमानों का
शासन, पंजाब में गुरु गोबिंद सिंह, राजपूताना में राणा प्रताप, बुंदेलखंड में छत्रसाल
और दिल्ली के तख़्त पर मराठों के आ बैठने भर से ही तबाह हो गया था ; और, सदियों
के संघर्ष के बाद, हिन्दू प्रभुता ने मुस्लिम शासन को हराकर समूचे भारत पर कब्जा
जमा लिया था। तब मुस्लिमों से हाथ मिलाने में कोई हर्ज नहीं था, बल्कि, इसके
विपरीत, यह सज्जनता का परिचायक होता। अतः अब, हिन्दुओं और मुसलमानों के
बीच मूल दुश्मनी अतीत में छू ट गई थी। उनका मौजूदा रिश्ता, राजा और प्रजा, विदेशी
और देशी का नहीं बल्कि भाइयों का था जिनके बीच एकमात्र अंतर धर्म का था। चूंकि
दोनों हिन्दुस्तान की मिट्टी के बच्चे थे। उनके नाम अलहदा थे, परंतु दोनों एक ही माँ की
संतान थे; भारतभूमि दोनों की साझी माँ थी, तो दोनों सहोदर हुए। नाना साहेब, दिल्ली
के बहादुर शाह, मौलवी अहमद शाह, खान बहादुर खान और 1857 के अन्य नेताओं ने
इस भाईचारे को कु छ हद तक महसूस किया, और स्वदेश के झंडे तले इकट्ठे हुए तथा
आपसी वैमनस्य भुला दिया जो उस समय गैर-वाजिब और बेवकू फाना होता। संक्षेप में,
नाना साहेब और अजीमुल्लाह की व्यापक योजना थी कि हिन्दू और मुसलमान कं धे से
कं धा मिलाकर देश की आज़ादी के लिए लड़ें और जब आज़ादी मिल जाए, तो भारतीय
शासकों और राजकु मारों के अधीन संयुक्त राज्य भारत का गठन किया जाए।
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उन्होंने ‘जेहाद’ के जज़्बे की भी तारीफ की जिसे ‘महान और संत प्रवृति’ वाले मौलवी
अहमद शाह ने लखनऊ और आगरा के कोने-कोने में बहुत चतुराई से फै ला दिया था। 11
मई 1857 को दिल्ली आज़ाद हो गई थी और 16 मई तक अंग्रेजी शासन के सभी चिन्ह
मिटा कर ज़फर को भारत का शाहंशाह घोषित कर दिया गया था। इस महान अवसर की
प्रशंसा में विनायक ने लिखा हैः ‘वह पांच दिन जब हिन्दुओं और मुसलमानों ने भारत को
अपना देश और खुद को भाई कहा था, उन दिनों हिन्दुओं और मुसलमानों ने एक साथ
दिल्ली में राष्ट्रीय आज़ादी का झंडा फहराया था। वह महान दिन हिन्दुस्तान के इतिहास में
हमेशा याद रखे जाएं।’
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उन्होंने जोर दिया कि कै से उस घटनाक्रम के दौरान सभी भारतीय जाति, समुदाय, धर्म
और क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठ गए थे। राष्ट्रीय एकता का यही वह पक्ष था जिसे वह
फिर से एकजुट कर ब्रिटिश शोषण के खिलाफ साझा संघर्ष छेड़ना चाहते थे।
एक भी व्यक्ति, एक भी वर्ग ऐसा नहीं जो देश की दुर्दशा देखकर दुखी न होगा। हिन्दू
और मुसलमान, ब्राह्मण और शूद्र, क्षत्रिय और वैश्य, राजा और रंक, महिला और पुरुष,
पंडित और मौलवी, सिपाही और पुलिस, शहरी और गंवई, व्यापारी और किसान -
विभिन्न धर्मों के लोग, भिन्न जातियों के लोग, अलग-अलग पेशों से जुड़े लोग - अपनी
मातृभूमि का उत्पीड़न बर्दाश्त न कर पाए और बेहद कम समय में प्रतिकार स्वरूप
उन्होंने क्रांति का बिगुल फूं क दिया।
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पुस्तक का अंत उन्होंने बहुत ही मार्मिक और सकारात्मक प्रसंग से किया है जो आखिरी
मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के दरबार का दृश्य है:
क्रांति के उत्तेजना भरे माहौल के दौरान उन्होंने (ज़फर) एक ग़ज़ल की रचना की थी।
जब किसी ने उनसे कहा:
दमदमे में दम नहीं खैर मांगो जान की,

ऐ ज़फर ठं डी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की।


बादशाह का जवाब था:
ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,

तख्ते-लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की।


71
विनायक के लिए उनके लेखन में भारत की ऐतिहासिक धरोहर बेहद महत्वपूर्ण पक्ष थी।
सुदूर अतीत से भारत की पहचान के लिए लेखन विशेष और आह्वान हेतु इतिहास को एक
औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। उन्हें उम्मीद थी अमेरिका (1776), फ्रांस
(1789) और इटली (1848-49) के क्रांतिकारियों की तरह ऐतिहासिक तौर पर सजग
भारतीय भी राष्ट्रीय गौरव और आगे बढ़ने की भावना से प्रेरित होगा।
मेजिनी की जीवनी की तरह, इस पुस्तक के प्रकाशन और बिक्री की भी जटिल कहानी
है। प्रकाशित होने तक इस पुस्तक की यात्रा, इसकी सामग्री और उससे जुड़े शोध जैसी ही
रोचक है। दरअसल, यह पहली पुस्तक रही जिस पर प्रकाशन से पहले ही रोक लगा दिया
गया था और इस तरह यह अपने आप में साहित्यिक रिकाॅर्ड भी साबित हुआ। 1907 तक,
इंडिया हाउस की गतिविधियों को लेकर ब्रिटिश सरकार को भारी शक था और उसने वहाँ
की लगातार सूचनाओं के लिए अनेक भेदिये स्थापित कर दिए थे। जैसा कि पहले बताया
गया कि विनायक की मराठी में लिखित 1857 पुस्तक के कु छ पन्ने गायब कर दिए गए थे।
वे पन्ने स्काॅटलैंड यार्ड के ब्रिटिश खुफिया मुख्यालय पहुँच चुके थे। इसके बावजूद, विनायक
और उनके साथी पांडुलिपि को भारतीय बंदरगाह की कड़ी कस्टम निगरानी से बचाकर,
लंदन से भारत भेजने में सफल रहे थे।
बाबाराव ने प्रकाशक ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की, परंतु कोई खतरा उठाना नहीं चाहता
था। साप्ताहिक स्वराज
के संपादक, सोलापुर के श्री लिमये पुस्तक छापने को राजी हुए,
परंतु प्रशासन को इसकी भनक मिल गई और छापा पड़ने के खतरे से बचने के लिए लिमये
पीछे हट गए। उसी दौरान महाराष्ट्र भर के कई छापेखानों पर पुलिस कार्रवाई हुई थी।
भारत में पुस्तक के लिए प्रकाशक मिलने में मुश्किल को देखते हुए बाबाराव ने पांडुलिपि
पेरिस भेज दी। यहाँ भी, जैसा कि विनायक ने लिखा है, ‘फ्रें च जासूस ब्रिटिश पुलिस के
साथ कं धे से कं धा मिलाकर. . .फ्रांस में क्रांतिकारी गतिविधियां रोकने में लगे थे, और उस
खतरे के कारण कोई भी फ्रांसीसी प्रकाशक इस इतिहास को छापने का खतरा नहीं उठा
सकता था।’
72
तत्पश्चात, पुस्तक को जर्मनी में छपवाने का निर्णय लिया गया। चूंकि जर्मनी भारतीय-
विद्या और संस्कृ त सिखाने का कें द्र था, वहाँ के छापाखानों में देवनागरी लिपि की संभावना
बनती थी। हालाँकि, वहाँ के अक्षर योजक मराठी से अनजान थे और उनका काम बेहद
खराब रहा। लंदन में अभिनव भारत के कु छ सदस्यों, कोरेगाँवकर, फड़के और कुं ते ने
व्यापक पाठकवर्ग तक पहुँचने के लिए, वीवीएस अय्यर की देखरेख में पुस्तक का अंग्रेजी
अनुवाद करने का फै सला किया। एक बार फिर, उन्होंने फ्रांस एवं जर्मनी में अंग्रेजी और
मूल संस्करण को प्रकाशित करवाने का प्रयास किया, परंतु असफल रहे। दोनों ही देश
ब्रिटेन से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते थे। जर्मन प्रकाशक ने पांडुलिपि को अपने वकील को
दिखाया जिसने सलाह दी ‘यदि उनकी कं पनी ऐसे कार्य हाथ में लेती है तो उनका व्यवसाय
नष्ट हो जाएगा।’
73
अंततः, पांडुलिपियां हाॅलैंड पहुँची जहाँ के छापेखाने को उनके प्रकाशन
के लिए राजी किया गया। क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश खुफिया विभाग और पुलिस को धोखे में
रखने के लिए अफवाह फै लाई कि पुस्तक फ्रांस में प्रकाशित हो रही है। और अंततः पुस्तक
छपी और वितरण के लिए तैयार हुई।
पुस्तक के बारे में ब्रिटिश खुफिया विभाग ने रिपोर्ट तैयार की और 14 दिसंबर 1908 को,
तत्कालीन वायसरॉय ने एक संक्षिप्त उत्तर भेजा: ‘मैं उम्मीद करता हूँ कि हम सावरकर की
गदर वाली पुस्तक को भारत पहुँचने से रोक सकते हैं।’
74
तदनुसार, अपराध खुफिया
विभाग के निदेशक के निजी सचिव जेसी कॅ र ने सलाह दी कि पुस्तक के आयात को रोकने
के लिए सागर सीमा शुल्क अधिनियम के अनुच्छेद
75
19 पर उसे ‘सर्वाधिक आपत्तिजनक
पुस्तक’ घोषित किया जाना चाहिए। हालाँकि, उन्होंने कहा कि जब तक पुस्तक की एक
प्रति प्राप्त कर उसके शीर्षक, सामग्री और रुझान की जांच ना की जाए, तब तक
सार्वजनिक तौर पर ऐसी घोषणा उचित नहीं होगी।
76
डाक विभाग अधिनियम का
वैकल्पिक मार्ग पर भी विचार किया गया, परंतु अपराध गुप्तचर विभाग के कार्यवाहक
निदेशक सीजे स्टीवेंसन-मूर ने उसे रोक दिया।
ब्रिटिश समाचार पत्रों ने ब्रिटिश शासित भारत में पुस्तक पर प्रतिबंध और भारत में उसकी
बिक्री पर रोक संबंधित खबरें छापीं। 9 अगस्त, 1909 के द होमवर्ड मेल फ्रॉम इंडिया,
चाइना एंड द ईस्ट
तथा 11 अगस्त, 1909 के टाइम्स
ने रिपोर्ट दी:
भारत से आने वाली डाक में 23 जुलाई को शिमला में घोषित निम्न अधिसूचना है -
‘सागर सीमा शुल्क अधिनियम 1878 के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत प्राधिकार के अंतर्गत,
गवर्नर-इन-काउंसिल विनायक दामोदर सावरकर द्वारा भारतीय विद्रोह पर मराठी में
लिखित पुस्तक अथवा प्रचार-पुस्तिका या उसके अंग्रेजी अनुवाद अथवा प्रारूप को
ब्रिटिश भारत में समुद्र या भूमि द्वारा लाए जाने पर रोक लगाने की घोषणा करते हैं।
77
पाबंदी को चुनौती देते हुए विनायक ने एक तीखा पत्र लिखा। पत्र द लंदन टाइम्स
में
प्रकाशित हुआः
प्रशासन ने स्वीकारा है कि उन्हें यह पता नहीं कि पांडुलिपि प्रकाशन के लिए गई भी है।
यदि ऐसा ही है तो सरकार को कै से पता है कि पुस्तक इतने खतरनाक तौर पर बगावती
होगी कि उन्होंने उस पर प्रकाशन से पहले पाबंदी लगा दी, या उसके छपाई से पूर्व ही ?
सरकार के पास या तो पांडुलिपि की प्रति है अथवा नहीं। यदि उनके पास प्रति है तो
उन्होंने मुझ पर राजद्रोह का मुकदमा क्यों दर्ज नहीं किया क्योंकि उनके पास यही एक
वैधानिक मार्ग शेष था ? इसके विपरीत, यदि उनके पास पांडुलिपि की प्रति नहीं है तो
वह पुस्तक के बगावती स्वभाव के बारे में कै से आश्वस्त है जिसके बारे में उनके पास
कु छ अस्पष्ट, एकतरफा और अप्रामाणिक रपटों के अलावा और कु छ नहीं ?
78
17 सितंबर 1909 को विनायक ने काल
में लिखा:
भारत सरकार द्वारा सीमा शुल्क अधिनियम के अंतर्गत आदेश के बाद मेरे द्वारा कथित
तौर पर लिखी गई पुस्तक ‘भारतीय विद्रोह का इतिहास’ को भारत में प्रवेश से रोके
जाने का मामला मेरे संज्ञान में लाया गया है। पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही उस पर
पाबंदी लगाना कानूनी होगा, परंतु न्यायसंगत कभी नहीं हो सकता। भारत के गवर्नर-
जनरल ने इस संबंध में बिना किसी जांच के मेरा नाम लिया है और नतीजतन खुद को
आक्षेपित किया है। यदि सरकार के हाथ में मौजूद साक्ष्य प्रामाणिक हैं तो उसे मुझ पर
आरोप लगाकर मेरा पक्ष सुनना चाहिए था। यदि उचित साक्ष्य नहीं है तो यह सरकार
की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह मुझ पर आरोप लगाने से पहले मुझे अपने पक्ष का
बचाव करने को कहती। परंतु ऐसा लगता है कि सरकार मुझ पर अकस्मात ही हमला
करना चाहती है। ऐसी परिस्थितियों में, मैं घोषित करता हूँ कि भारत सरकार के आदेशों
से इंगित ऐसी किसी पुस्तक से मेरा कोई संबंध नहीं है।
79
हालाँकि, अभिनव भारत के क्रांतिकारियों ने पुस्तक को भारत में लाने की युक्तियाँ खोज
निकाली थीं। प्रतियों को सीधे-सादे और जाली नामों वाली कलात्मक जिल्दों में लपेटा
जाता, जैसे, ‘द पाॅस्टमस पेपर्स ऑफ द पिकविक क्लब’,
80
‘स्काॅट्स वक्र्स’ और ‘डाॅन
क्विग्जट’। फर्जी नामों वाले बक्से इस्तेमाल किए गए और ऐसा ही एक बक्सा सिकं दर
हयात खान भारत लाए थे। हालाँकि, इंग्लैंड में पुस्तक की बिक्री पर रोक थी परंतु अनेक
स्थानों पर पुस्तक को गुप्त रूप से बेचा और वितरित किया जाता था। द स्कू ल ऑफ
ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (एसओएएस) और इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी (आईओएल)
के पास पहले संस्करण की प्रतियाँ थीं। पेरिस में प्रवास कर रहीं मैडम भीकाजी कामा ने
10 शिलिंग प्रति के मूल्य पर प्रतियाँ उपलब्ध कराई। उन्होंने फ्रांस में पुस्तक का दूसरा
संस्करण भी प्रकाशित कराया था। विनायक ने उन्हें मराठी की मूल पांडुलिपि सुरक्षित
रखने के लिए भी सौंपी थी जिसे उन्होंने पेरिस के एक बैंक लॉकर में रखवाया था।
हालाँकि, ऐसा माना जाता था कि प्रथम विश्वयुद्ध में वह बैंक तबाह हो गया और साथ में
पांडुलिपि भी। परंतु 1947 में सावरकर को अमेरिका से रामलाल वाजपेयी का पत्र मिला
जिसमें उन्होंने बताया था कि मूल पांडुलिपि उनके लंदनवासी मित्र डीडीएस कु टिन्हो के
पास सुरक्षित है। और दो वर्ष बाद अमेरिका के डाॅ. गोहोकर की मदद से उन्हें मूल प्रति
प्राप्त हुई थी।
81
पुस्तक का तीसरा संस्करण लाला हरदयाल और गदर पार्टी ने अमेरिका में
प्रकाशित कराया था। इसकी प्रतियाँ न्यूयाॅर्क में $2 सजिल्द और $1.50 पेपरबैक मूल्य पर
बेची गई थीं।
कु छ दशकों बाद महान क्रांतिकारी भगत सिंह ने गुप्त रूप से चौथा संस्करण भारत में
छपवाया था।
82
ऐसे साक्ष्य भी मिलते हैं कि भगत सिंह ने लाहौर के द्वारकादास
पुस्तकालय में अंग्रेजी में प्रकाशित सावरकर की छोटी सी जीवनी पढ़ी थी
83
जिससे वह
गहरे प्रभावित हुए थे। भगत सिंह सहित हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
(एचएसआरए) के सभी सदस्यों पर लाहौर षडयंत्र मामले (1928-31) में डाले गए छापे के
दौरान सभी के पास से पुस्तक की प्रतियाँ बरामद हुई थीं। 1976 में दुर्गा दास खन्ना द्वारा
दिए गए एक साक्षात्कार में इस तथ्य की पुष्टि हुई थी।
84
स्वतंत्र भारत में दुर्गादास खन्ना पंजाब विधान परिषद् के पूर्व अध्यक्ष रहे थे, परंतु
युवावस्था में वह क्रांतिकारी रह चुके थे। उन्होंने भगत सिंह और सुखदेव थापर से अपनी
पहली मुलाकात याद की थी जब 1920 के दशक में उन्होंने एचएसआरए की नींव रखी
थी। संगठन के लिए युवाओं की तलाश करते समय उनकी मुलाकात खन्ना से हुई थी। खन्ना
की राजनीतिक सोच-समझ का जायजा लेने के लिए दोनों ने उनसे राजनीति सहित कई
विषयों पर बात की और उन्हें पढ़ने के लिए कई पुस्तकें भी सुझाई थीं। इनमें निकोलाई
बुखारिन तथा एवगेनी प्रिओब्राजेंस्की की द एबीसी ऑफ कम्युनिज्म
(1920), डेनियल
ब्रीन की माई फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम
(1924) एवं चित्रगुप्त द्वारा लिखित लाइफ ऑफ
बैरिस्टर सावरकर
थीं। अतः, यह साफ है कि भगत सिंह और उनके साथी, एचएसआरए से
जुड़ने से पहले नए रंगरूटों से न के वल रूसी क्रांति और आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के
बारे में, बल्कि विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी पढ़ने की भी उम्मीद रखते थे।
1940 के दशक में, रास बिहारी बोस एवं नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे बड़े राष्ट्र नायकों ने
द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेन्स
1857 का एक संस्करण जापान में भी प्रकाशित कराया
था। नेताजी की आज़ाद हिन्द फौज (आईएनए) के एक प्रचार अधिकारी जयमणि
सुब्रह्मण्यम द्वारा संपादित पुस्तक के तमिल संस्करण की प्रतियाँ एक हमले के बाद जली
हुई अवस्था में प्राप्त हुई थीं।
लिहाजा, साढ़े तीन दशकों से भी लंबे समय तक यह पुस्तक क्रांतिकारियों के लिए
प्रेरणास्पद बाइबल रूपी रही थी। पुस्तक के मार्फ त, विनायक 1857 के शैशवकाल से
भारत की स्वतंत्रता तक क्रांतिकारियों की एक वंशावली तैयार करने में सफल रहे, जिसके
कें द्र में, सबसे महत्वपूर्ण बौद्धिक स्रोत रूप में वह स्वयं थे। गोष्ठी के संपादक सुब्बाराव ने
पुस्तक के बारे में लिखा है:
भारत में अंग्रेजी राज ने सावरकर को अपने अस्तित्व के लिए सबसे खतरनाक माना
था। इसलिए पुस्तक पर पाबंदी थी। परंतु हमारे देश के लाखों लोगों ने इसे पढ़ा जिनमें
मैं भी शामिल हूं। 1857 की घटनाओं को नई रोशनी में देखते हुए, जिसे रुचिकर
इतिहासकारों और प्रशासकों ने दशकों तक ‘भारतीय विद्रोह’ कहने में गुरेज नहीं
किया, उसे भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आकार देना बेशक कु छ हद तक विफल
प्रयास रहा हो, फिर भी यह किसी छद्मवेषी देशभक्त का कार्य नहीं है जिसने बुनियादी
विद्रोह को श्रेष्ठ क्रांतिकारी कार्य कहा हो। आज भी, यदि सावरकर का हस्तक्षेप नहीं
होता, तो सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फौज के प्रयासों को क्या कहा जाता ? यह सच
है कि 1857 और 1943 के दोनों ‘युद्ध’ हमारे देश के लिए असफल साबित हुए। परंतु
इनके पीछे के प्रयोजन - विद्रोह भर थे या स्वतंत्रता का युद्ध ? यदि सावरकर का
हस्तक्षेप 1857 और 1943 के बीच न होता तो मुझे यकीन है कि आज़ाद हिन्द फौज के
हालिया प्रयासों को हेय विद्रोह कह कर ब्रिटिश एवं कांग्रेस के पराक्रमी हाथों एवं
निशस्त्रता से कु चल दिया जाता। परंतु सावरकर की पुस्तक को धन्यवाद, जिससे
भारतीय ‘गदर’ अपने आप में क्रांतिकारिता में परिवर्तित हो गया। मैं सोचता हूँ कि अब
लॉर्ड वेवल भी बोस के प्रयासों को विद्रोह नहीं कह सकते। इस परिवर्तन का मुख्य श्रेय
सावरकर और के वल उन्हीं को जाना चाहिए। सावरकर की पुस्तक की सबसे बड़ी देन
है भारत को आज़ादी की मशाल थमाना जिसकी रोशनी में मैंने और हजारों अन्य
भारतीयों ने अपनी बेटियों का नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम पर रखा। यहाँ
तक कि नेताजी ने भी, कु छ प्रेरणास्पद पलों में झांसी की रानी सैन्य टुकड़ी का गठन
किया था। यदि सावरकर की खोज न होती, तो वह पराक्रमी नायिका, झांसी की रानी
उन्नीसवीं सदी की एक ‘विद्रोही’ घोषित कर कब की भुला दी जाती।
85
5
तूफान की आमद
लंदन, 1907
1857 केे शहीदों का स्मरणोत्सव, इंडिया हाउस में भाषण और इंडियन सोशलॉजिस्ट
में
आलेखों के प्रकाशन के चलते श्यामजी और उनके बोर्डिंग हाउस पर निगरानी रखी जाने
लगी तथा ब्रिटिश सरकार एवं प्रेस द्वारा निशाना साधा गया। 9 मई 1907 को लाला
लाजपत राय और सरदार अजित सिंह को कथित राजद्रोह के आरोप में, बिना मुकदमा
चलाए, बर्मा के मैंडले जेल में भेजने पर लंदन के भारतीयों में रोष फै ल गया। कार्रवाई की
भर्त्सना करते हुए इंडियन सोशलॉजिस्ट
ने दादाभाई नौरोजी, भीकाजी कामा जैसे कई
नेताओं के आलेख और पत्र प्रकाशित किए। जून 1907 को श्यामजी ने संपादकीय में
लिखा:
भारत की कर्मभूमि से ऐसी दुखदायक परिस्थितियों में लाला लाजपत राय के अचानक
गुम हो जाने से जो सदमा पहुँचा है, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उनकी
गिरफ्तारी के दिन ही हमें उनके द्वारा लिखित शोचनीय पत्र मिला था जिसमें उन्होंने
हमसे ‘पंजाबी’ मसले को यथाशक्ति ब्रिटिश जनता और विदेशी प्रेस के समक्ष रखने को
कहा था। उन्हें अनुमान नहीं था कि जब वह पत्र लिख रहे थे, उसके तीन सप्ताह से भी
कम समय में उन्हें तथाकथित भारत की सभ्य सरकार द्वारा के एक क्रू र और दमनकारी
नियम के अंतर्गत गिरफ्तार कर निर्वासित कर दिया जाएगा।
1
तत्पश्चात, 7 जून 1909 को इंडिया हाउस में भारतीयों की एक बैठक आयोजित हुई। इसमें
श्यामजी ने ‘तानाशाह और दमनकारी विदेशी भारतीय सरकार’ द्वारा एक अवैधानिक
निर्वासन की भर्त्सना करते हुए एक आम प्रस्ताव पारित किया।
2
भाषण में श्यामजी ने
कहाः ‘हम, जो भारतीयों के अग्रणी पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं, अंग्रेजों को भारत में रहने
का अधिकार देने से तुरंत इनकार करते हैं, और भारत की स्वतंत्रता को सब खतरे उठाकर
प्राप्त करने को तैयार हैं’। उन्होंने ऐलान किया कि ब्रिटिश सरकार में सेवारत सभी
भारतीयों को शक की दृष्टि से देखा जाए और उन्हें ब्रिटिश वादों पर भरोसा नहीं करना
चाहिए।
3
इसके बाद, समाचार पत्रों में प्रतिष्ठित ब्रिटिश सज्जनों के अपशब्दों से भरे आलेखों का
प्रकाशन शुरू हो गया। एक सेवानिवृत आईसीएस अधिकारी एफएफ स्कर्मी ने इंडिया
हाउस और श्यामजी की गतिविधियों पर आरोप लगाते हुए लिखा कि शिक्षा के लिए इंग्लैंड
आने वाले अनेक युवाओं को ‘इन बदमाशों ने बर्बाद किया है’, जिनके पास बेहिसाब धन है
4

और जो युवा साथियों को ट्यूशन तथा रहने के लिए सहयोग करते हैं। नेशनल रिव्यू
के
जून अंक में सर इवान जेम्स, के सीआईई ने ‘एम्बिशन एंड सिडीशन इन इंडिया’ नामक
लेख लिखा:
दिलचस्प है कि इंग्लैंड में भी एक प्रचंड भारतीय विद्रोही है, जिसका नाम श्री श्यामजी
कृ ष्ण वर्मा है जो 150 सदस्यीय इंडियन होम रूल सोसायटी के अध्यक्ष हैं, जिसकी
ब्रिटिश सरकार के नजरिए से कहा जाए तो इंग्लैंड में कानून एवं अन्य शिक्षा प्राप्त करने
के लिए आने वाले विद्यार्थियों पर अच्छी पकड़ है. . . ये बात कि भारत से अंग्रेजों को
बाहर कर देने की इच्छा को यहाँ वृहत तौर पर सिखाया जाता है, एक तथ्य है. . .यदि
एक बार उदारमना लाखों दिलों में अंग्रेजों के प्रति नफरत बैठ गई, तो हमारा राज
समाप्त हो जाएगा। हमारी सेना मजबूत होगी, परंतु हजारों-लाखों यदि हमें बाहर
निकालने को आमादा हो गए तो उन्हें रोकना असंभव होगा. . .राजनीतिक प्रचारकों की
पहरेदारी रुकनी चाहिए और राजद्रोह के भाषणों एवं आलेखों पर अभियोजन प्रक्रिया
पुनः आरंभ हो. . .हम भारत को स्वायत्त्ता दे सकते हैं, परंतु वह पूर्ण हो, क्योंकि हम
अपने गोरी सेना को स्थानीय शासकों द्वारा किराए के सैनिकों के तौर पर इस्तेमाल के
लिए नहीं छोड़ सकते।
5
प्रत्युत्तर में, श्यामजी ने खुद को ‘उत्साही भारतीय विद्रोही’ कहलाने और अपने देशवासियों
को ‘दमनकारी विदेशी दासता’ को उखाड़ फें कने की सलाह देने वाले के तौर पर चित्रित
किए जाने पर ख़ुद को गौरवान्वित बताया।
6
इंडिया हाउस और श्यामजी से जुड़ा मामला
ब्रिटिश संसद भी पहुँचा जहाँ हाउस ऑफ काॅमन्स के सदस्य श्री रीस ने भारत सचिव लॉर्ड
जाॅन मार्ले से पूछा कि क्या उन्हें भाषणों का, इंडियन सोशलॉजिस्ट
के संपादकीयों और
‘उत्साही भारतीय विद्रोही के रूप में गौरवान्वित’ महसूस करने जैसे वक्तव्यों का ज्ञान है।
उन्होंने सवाल किया कि क्या ‘इंग्लैंड आने पर बोर्डिंग हाउस में विकृ ति की ओर खिंचने
वाले भारतीय विद्यार्थियों’ के बारे में सरकार जानती है।
7
उन्होंने ‘महामहिम के वफादार
नागरिकों को पथभ्रष्ट करने के लिए एक अवांछनीय विदेशी के रूप में अंततः उनके
निष्कासन’ के लिए श्यामजी पर मुकदमा चलाने की पैरवी की।
8
मार्ले ने इन प्रश्नों को
दरकिनार कर दिया। परंतु लंदन का प्रेस इस विषय को लेकर पागल था। द डेली टेलिग्राफ
की सुर्खियां ‘राजा की पथभ्रष्ट जनता’ थी
9
जबकि स्टैंडर्ड
ने ‘ब्रिटिश शासन की
अवहेलना: इंग्लैंड पर भारत का कब्जा प्रस्तावित’
10
जैसे शीर्षक छापे। ग्लोब
ने इससे भी
आगे बढ़कर लिखा:
श्री रीस आज श्री मार्ले से पूछेंगे कि क्या श्यामजी कृ ष्ण वर्मा नामक एक सज्जन को
राजद्रोह के मामले में कठोरतम दंड मिलना चाहिए। वह लंदन में एक पत्र द इंडियन
सोशलॉजिस्ट
का संपादन करते हैं जो कटुता से लबरेज है। यहाँ तक कि उसके ग्राहकों
का कहना कि यदि यह एक लिमरिक (व्यंग्य कविता) प्रतियोगिता का आरंभ कर दे,
वही लंदन की जड़ें हिला देगी।
11
इंडियन सोशलॉजिस्ट
में जुलाई 1907 को प्रकाशित एक अन्य आलेख ने ब्रिटिश सरकार
के रोंगटे खड़े कर दिए थे। ‘भारत में ब्रिटिश वित्तीय बाजीगरी: भारत रुपये के प्रोनोटों से
सावधान’ के जरिए भारतीय बचत योजनाओं में संभावित निवेशकों को पैसा लगाने से
चेताया गया था।
12
जुलाई 1907 को पोस्ट ऑफिस अधिनियम (1898) की धारा 26 के
अंतर्गत भारत सरकार ने इंडियन सोशलॉजिस्ट
की भारत भेजी जाने वाली प्रतियों पर रोक
लगा दी। इंडियन सोशलॉजिस्ट
के अलावा एचएम हिंडमैन के जस्टिस एवं गेलिक
अमेरिकन
पर भी क्रांतिकारी रुझान के कारण रोक लगाई गई।
13
श्यामजी को अहसास होने लगा था कि लंदन के विपरीत वातावरण में वह अपना काम
जारी नहीं रख सकें गे। समस्या चरम बिंदु पर तब पहुँची जब स्काॅटलैंड यार्ड का एक
गुप्तचर ओ’ब्रायन आयरिश समर्थक और गेलिक अमेरिकन
कर्मचारी के रूप में इंडिया
हाउस पहुँचा। वह 1907 से ही जासूस के तौर पर इंडिया हाउस की बैठकों में शिरकत कर
रहा था। इस अवसर पर, उसने कु छ ऐसे अनगढ़ तरीके से श्यामजी से साक्षात्कार को कहा
कि वह चौकन्ने हो गए। इसके बाद श्यामजी ने 1907 में लंदन छोड़कर पेरिस जाने का
फै सला कर लिया।
14
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के अक्तू बर 1907 अंक में उसका पता
बदलकर: 10 एवेन्यू इन्ग्रेस, पेसी, पेरिस प्रकाशित किया गया। 1909 से पेरिस में
राजनीतिक तौर पर सक्रिय लगभग 250 भारतीय मौजूद थे।
15
यह पड़ताल करना भी उपयुक्त रहेगा कि क्यों पश्चिमी यूरोप उपनिवेशवाद विरोधी
गतिविधियों का कें द्र बनता जा रहा था। अनेक उपनिवेशवाद विरोधी जैसे हो ची मिन्ह और
जोमो के न्याटा (तथा गांधी एवं विनायक जैसे व्यक्ति) अपने देशों में स्वतंत्रता संघर्ष के
नायकों के तौर पर उभरे थे। निरंकु शता से शासित उपनिवेशों की बजाय यूरोपीय महानगरों
में अधिक उदारवादी कानूनों का पालन होता था। उपनिवेशवाद विरोधी इन्हीं कानूनों का
सहारा लेकर अपने देशों की औपनिवेशिक सरकारों से बचते थे। चूंकि यूरोपीय शक्तियाँ
एकीकृ त कानून के आधार पर नहीं जुड़ी थीं, इसका उन्हें लाभ मिलता था। लिहाजा,
उपनिवेशवाद विरोधी यहाँ गिरफ्तारी या राजद्रोह के आरोपों के डर से मुक्त होकर
राजनीतिक कार्य कर सकते थे। फ्रांस में ब्रिटेन विरोधी सामग्री का प्रकाशन आसान था
क्योंकि इस संबंध में कोई कानूनी रोक नहीं थी। रूसी क्रांतिकारी भी सफलतापूर्वक अपनी
सरकारों को धता बताते हुए स्विटजरलैंड में प्रचार सामग्री प्रकाशित कराते।
16
यूरोपीय
महाद्वीप बम और विस्फोटक सामग्री निर्माण सीखने के लिए भी सुरक्षित स्थान माना जाता
था। जैसा कि 6 दिसंबर 1910 की रिपोर्ट में एक अधिकारी ने कहा है कि दादाभाई नौरोजी
की प्रपौत्री, सुश्री पैरिन नौरोजी ने ‘हाल में पेरिस के एक फ्लैट में, एक-दो अन्य लोगों के
साथ, पोलिस इंजीनियर ब्रॉजेंस्की से बम निर्माण संबंधी प्रशिक्षण लिया था’।
17
साथ ही,
इन देशों से हथियार खरीद कर तस्करी के जरिए भारत भी भेजे जाते थे। इसके लिए नित
नई युक्तियाँ अपनाई जाती थीं। उदाहरण के लिए, 1910 में ‘क्रिसमस की भेंट के तौर पर’
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और मैडम कामा ने रिवाल्वरों का जखीरा भारत भेजा था।
18
प्रथम विश्व युद्ध से पहले उपनिवेशवाद विरोधी ब्रिटेन से फ्रांस जा पहुँचे थे और युद्ध के
दौरान फ्रांस से जर्मनी या स्विटजरलैंड की ओर। एक से दूसरे देश में उपनिवेशवाद
विरोधियों के आवागमन के कारण बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में देशों और महाद्वीपों के
बीच निगरानी तंत्र में भी भारी वृद्धि हुई थी। अपने विचारों को वृहत वैश्विक समुदाय तक
पहुँचाने के लिए उपनिवेशवाद विरोधियों ने स्थानीय मुक्ति अभियानों, गोरे राजनेताओं,
लेखकों, बुद्धिजीवियों और प्रेस के साथ भी गठजोड़ किए। इस प्रयास में वह विभिन्न
यूरोपियाई देशों में सशक्त राष्ट्रवादी संवेदनाओं और न्याय, मुक्ति तथा लोकतंत्र के प्रति
आकर्षण की पहचान मजबूत करने में सफल भी रहे।
श्यामजी के लंदन छोड़ने के बाद, इंडिया हाउस के प्रबंधन की जिम्मेदारी विनायक पर आ
गई थी। इस दौरान उन्होंने अधिकांशतः विदेशी प्रचार पर जोर दिया — जिसमें इंग्लैंड से
इतर देशों में भारतीय मुक्ति विषयक प्रचार और उनका सहयोग अर्जित करना शामिल था।
इस संबंध में आयरिश प्रेस ने लगातार समर्थन देते हुए उनके आलेख प्रकाशित किए।
न्यूयाॅर्क का गेलिक अमेरिकन
और उसके संपादक, जीएफ फ्रीमैन भी सहर्ष विनायक के
सहयोगी बने। जल्दी ही विनायक के आलेख फ्रांसीसी, जर्मन, पुर्तगाली, इतालवी और
रूसी समाचार पत्रों में अनुदित होकर छपने लगे और विश्व मंच पर भारतीय राजनीति की
आहट सुनाई देने लगी।
मध्य मार्च 1909 में, श्यामजी और विनायक के अनन्य समर्थक और घोषित वामपंथी,
गाई ए एल्ड्रेड इंडिया हाउस में एक महत्वपूर्ण रूसी क्रांतिकारी को विनायक से मिलवाने
लाए। इन बैठकों में मदन लाल ढींगरा भी मौजूद रहते थे। वह रूसी क्रांतिकारी और कोई
नहीं, व्लादीमीर इलिच लेनिन थे। दोनों के बीच क्या बातें हुई, यह ज्ञात नहीं, बल्कि
विनायक ने भी 1937 तक इस ब्योरे से पर्दा नहीं उठाया था।
विनायक की देखरेख में इंडिया हाउस का माहौल पूर्णतया बदल चुका था। हाउस की
कदाचित निष्कपट दीवारों के पीछे की गतिविधियों के बारे में अज्ञानता के कारण लंदन
प्रेस ने इसे ‘द हाउस ऑफ मिस्ट्री’ कहना शुरू कर दिया था। लंदन में रहने वाले एक युवा
आयरिश क्रांतिकारी, डेविड गार्नेट, जो पहले कई बार इंडिया हाउस आ चुके थे, ने 1909 में
वहाँ के माहौल के बारे में लिखा हैः
प्रवेश द्वार पर ही कु छ हैरत हुई। नानू (निरंजन पाल) आगे आए और उन्होंने मेरा
स्वागत किया तथा एक नौजवान जिसका नाम विनायक दामोदर सावरकर था, को
रोककर उन्होंने मुझसे परिचय कराया। वह वह नाटे से, दुबले-पतले और चौड़ी गालों
वाले, संवेदनशील शिष्ट मुखमंडल और बेहद झीनी त्वचा वाले थे, जो माथे और गालों
पर हाथी दांत जैसी और गड्ढों में स्याह दिखती थी। मेरे पहुँचते ही हम डाइनिंग रूम में
पहुँचे और सावरकर, अपने साथी से हिन्दी में बात कर, खड़े हुए और उन्होंने जोर से
पढ़ना शुरू कर दिया। मैं सावरकर की ओर देखते हुए सोच रहा था कि यह कमरे में
सबसे संवेदनशील चेहरा है. . .उन साँवले पुरुषों का दृश्य, कु छ लंबी टेबल के गिर्द बैठे
हुए, अन्य दीवारों का सहारा लिए, वक्ता की असंबद्ध आवाज को गौर से सुन रहे थे, यह
मेरे लिए बहुत अजीब सा अनुभव था. . .मैं गौर से सुनता रहा और समझा पाया कि यह
दास्तां एक भारतीय जनरल तात्या टोपे की थी जिसे अंग्रेजों और सिखों ने हराया था।
हालाँकि मैं उस समय नहीं जानता था कि सावरकर भारतीय विद्रोह पर अपनी बेहद
प्रचारित इतिहास पुस्तक द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
का एक अध्याय
पढ़ रहे थे. . .जब उन्होंने पढ़ना समाप्त किया, तो श्रोताओं में से कई बगल वाले कमरे
में गए और किसी ने ग्रामोफोन पर भारतीय संगीत का एक रिकाॅर्ड लगा दिया। वह था
‘वन्दे मातरम’।
19
दशक के अंत तक इंडिया हाउस की ‘राजद्रोही गतिविधियां’ और प्रचार-सामग्री लंदन प्रेस
और ब्रिटिश संसद में बहस का विषय बन चुकी थीं। संडे क्रॉनिकल
में कै म्पबेल ग्रीन ने 14
मार्च 1909 को लिखा:
इंडिया हाउस बहुत कु छ विद्यार्थियों के लिए एक होस्टल या लॉजिंग हाउस लगता है।
यह सच भी है। परंतु मौजूदा समय का सवाल है — क्या यह समूचा सच है या सच के
अलावा कु छ नहीं ? जो इस बारे में दावे के साथ कह सकते हैं, लंदन ही नहीं, कलकत्ता
और बंबई में भी, वह बताएंगे कि यह संपूर्ण सत्य नहीं है; और यह भी कि पूरा सच
कहीं दूर है!
20
जिन दिनों विनायक ने इंडिया हाउस की बागडोर संभाली थी, उन्हीं दिनों खबर आई कि
18 से 24 अगस्त 1907 को जर्मनी के स्टुटगार्ट में अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस का
आयोजन किया जाएगा। इस अवसर पर उपनिवेशवाद, सैन्य शासन, प्रवास एवं महिला
प्रताड़ना जैसे मुद्दों पर विचार साझा करने के लिए 900 से अधिक प्रतिनिधियों के हिस्सा
लेने की उम्मीद थी। आयोजन यूरोप की सामाजिक एवं लेबर पार्टियां कर रही थीं।
विनायक और उनके साथी इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। अपने लक्ष्य के
लिए वह दुनिया के श्रमजीवी वर्ग एवं अन्य समाजवादी दलों का सहयोग चाहते थे; विमर्श
के मुद्दों में उपनिवेशवाद के शामिल होने के कारण यह और भी ज़रूरी हो गया था। अतः,
निर्णय लिया गया कि भारतीय प्रतिनिधियों के तौर पर मैडम भीकाजी कामा और सरदार
सिंह राणा होंगे। विनायक ने स्वतंत्र भारत के लिए सबसे पहले ध्वज की परिकल्पना भी
तैयार की थी।
21
इसमें तीन समान चैड़ाई की क्षैतिज पट्टियां थीं, जिसके तीन रंग — ‘हरा
(मुसलमानों का पवित्र रंग), मध्यवर्ती पट्टी के सरी (बौद्धों एवं सिखों का पवित्र रंग) और
लाल रंग की अंतिम पट्टी हिंदुओं के लिए थे’।
22
इसके मध्य में सुनहरी पट्टी पर, मातृभूमि
को प्रणाम रूपी वन्दे मातरम्’
अंकित था। शीर्ष पट्टी पर एक पंक्ति में आठ सितारे थे, मध्य
में बाईं ओर सूर्य और दाईं ओर चँद्र। यह प्रतीक भारत के विभिन्न धर्मों और प्रांतों का
प्रतिनिधित्व करते थे।
1937 में पूना में इसकी वर्षगांठ के अवसर पर ध्वज के बारे में विनायक ने कहा थाः
‘राष्ट्रीय ध्वज को डिजाइन करते समय हमारी नज़र में दुनिया के विभिन्न देशों के ध्वज थे।
संयुक्त राज्य अमेरिका के ध्वज पर कई सितारे अंकित हैं। प्रत्येक सितारा उसके एक राज्य
का प्रतिनिधित्व करता है। अभिनव भारत सोसाइटी युवा भारतीय देशभक्तों द्वारा स्थापित
की गई थी। ध्वज में हरा रंग इसी भावना को इंगित करता है। के सरिया रंग वीरता और
विजय का प्रतीक है। लाल रंग शक्ति को उपलक्षित करता है।’
23
ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता, जेम्स रैम्जे मैकडोनाल्ड, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी
बने, ने मैडम कामा और राणा के प्रतिनिधि निमंत्रण रुकवाने का भरसक प्रयास किया।
परंतु फ्रांसीसी समाजवादी नेता ज्यां जाॅरे, जर्मन नेता ऑगस्ट बेबल, कार्ल लीबक्नेख्त एवं
रोज़ा लक्ज़्मबर्ग एवं समाजवादी डेमोक्रे टिक फे डरेशन के ब्रिटिश प्रतिनिधि एचएम हिंडमैन
जैसे मार्क्सवादी नेताओं का सहयोग भारतीय प्रतिनिधियों को प्राप्त था। आयोजन में
भाषण के दौरान हिंडमैन ने भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज भी उठाई:
भारत पर साम्राज्य का कब्जा स्वयं अंग्रेजों ने नहीं बल्कि भारतीय विसंगतियों का लाभ
उठाने वाले भारतीयों ने किया था जो अंग्रेजों के अधीन थे. . .यदि सभ्यता का मानदंड
विज्ञान, कला, स्थापत्य, उद्योग, दवा, कानून, दर्शन शास्त्र एवं साहित्य से होता है तो
उस समय की महान भारत भूमि की तुलना यूरोप के सबसे उत्तम और सांस्कृ तिक पक्षों
से की जा सकती है, और यूरोप का कोई भी शासक अकबर, शाहजहां, औरंगजेब या
शिवाजी से किसी भी मायने में ऊपर नहीं कहा जा सकता ; वहीं यूरोप का कोई भी
वित्त मंत्री हिन्दू राजाओं, टोडर मल और नाना फड़नवीस के समकक्ष नहीं रखा जा
सकता।
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सभी विरोधों एवं रुकावटों से पार पाते हुए, मैडम कामा ने 18 अगस्त 1907 को पूरे गर्व से
भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज फहराया। इसके विरोध में रैम्जे मैकडोनाल्ड के वाकआउट के
दौरान उन्होंने गरजते हुए कहा:
यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है। ध्यान से देखिए, यह जन्म ले चुका है। यह पहले ही
भारतीय युवाओं के रक्त से पवित्र हो चुका है। सज्जनों, मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि
खड़े हों और भारतीय स्वतंत्रता के ध्वज को सलाम करें। इस ध्वज के नाम पर मैं दुनिया
भर के स्वतंत्रता प्रेमियों से अपील करती हूँ कि दुनिया के पांचवें हिस्से की आबादी को
आज़ाद कराने में इस ध्वज के साथ सहयोग करें।
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अंग्रेजी में एक प्रस्ताव रखते हुए उन्होंने कहा:
भारतीयों के हितों के लिए ब्रिटिश शासन सचमुच विध्वंसकारी और बेहद ख़तरनाक है।
दुनिया भर के स्वतंत्रता प्रेमियों को दुनिया की जनसंख्या के पांचवें हिस्से को आज़ाद
कराने में सहयोग करना चाहिए जो एक शोषित मुल्क में रह रहे हैं, चूंकि एक उत्तम
सामाजिक राज्य की बुनियादी शर्त है कि उसका कोई भी नागरिक तानाशाह या
दमनकारी सरकार के अधीन नहीं रहेगा। यह कांग्रेस ब्रिटिश संसद के समाजवादी
सदस्यों से गुहार लगाती है कि वह भारतीयों को स्वशासन प्रदान करने के लिए अपनी
सरकार पर जोर डालें. . . आप हर समय उपनिवेशों पर विमर्श करते हैं, परंतु
पराधीनता का क्या ? न्याय का पक्ष उठाएँ और प्रत्येक समाजवादी कांग्रेस में भारत को
आगे रखने का कार्य करे।
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मैडम कामा के भाषण की सभी प्रतिनिधियों ने खूब प्रशंसा की और उन्हें भारत की जॉन
ऑफ आर्क कहा गया। वहीं लेबर पार्टी के प्रतिनिधियों ने कांग्रेस के समक्ष रखे गए प्रस्ताव
का पुरजोर विरोध किया। आंग्लप्रेमी सुश्री मकिलन ने पक्ष रखा कि ब्रिटिश शासन भारत
के लिए बेहद लाभदायक और ज़रूरी है। हालाँकि, हिंडमैन एवं अन्य भारत समर्थकों ने
इस विचार का कड़ा विरोध किया।
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समाजवादी कांग्रेस के कु छ महीने बाद, भारत की स्वतंत्रता के प्रचार और सहयोग प्राप्ति
के लिए, भीकाजी कामा ने अमेरिका का विस्तृत दौरा किया। अमेरिकन प्रेस ने उनके
अनेक साक्षात्कार लिए। वाशिंगटन के होटल मार्था में प्रवास के दौरान उन्होंने एक
साक्षात्कार में ब्रिटिश शासन से भारत की पूर्ण आज़ादी पर जोर दिया। 28 अक्तू बर 1907
को वाल्डर्ट एस्टोरिया होटल के मिनर्वा क्लब के सदस्यों के संबोधन में उन्होंने कहा:
यहाँ के लोग रूस के हालात के बारे में तो जानते हैं, परंतु मुझे नहीं लगता कि उन्हें
ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की परिस्थितियों के बारे में कु छ भी ज्ञान है। हमारे
सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों को देश निकाला या अपराधियों की तरह जेल में भेज दिया जाता है
और वहाँ उन्हें कोड़ों से मारा जाता है, ताकि वह जेल के अस्पतालों में पहुँच जाएं। हम
शांतिप्रिय लोग हैं, हम रक्त क्रांति नहीं चाहते, परंतु हम लोगों को उनके अधिकारों से
अवगत कराना चाहते हैं और निरंकु शता उखाड़ फें कना चाहते हैं।
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पूर्ण स्वतंत्रता के लिए ऐसी पुकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने ब्रिटिश शासन का
कड़वा सच भारत भूमि पर आईएनसी के धैर्यवान आवेदनों और आदरपूर्ण याचिकाओं के
बिल्कु ल विपरीत दिखता था। स्वतंत्रता के संबंध में बहस का कथ्य अचानक ही पूरी तरह
बदल गया था।
समाजवादी कांग्रेस की सफलता से उत्साहित विनायक और उनके साथियों ने भविष्य की
विस्तृत रूपरेखा तैयार की। योजना का प्रमुख कार्य, इंग्लैंड और बाहर से बंदूकें खरीदना
तथा बनाना और बाद में छु पाकर भारत भेजना था। भारतीय आयुध अधिनियम, 1879 के
अंतर्गत किसी भी भारतीय को बिना लाइसेंस के कोई भी हथियार रखने पर पाबंदी थी
और लाइसेंस प्राप्त करना अपने आप में बेहद जटिल प्रक्रिया थी। अभिनव भारत के
क्रांतिकारी रूस, चीन, आयरलैंड एवं मिस्र के क्रांतिकारियों से निरंतर संपर्क में रहते थे।
यही नहीं, तुर्की गणतंत्र की स्थापना के लिए संघर्षरत मुस्तफा कमाल (बाद में अतातुर्क के
नाम से मशहूर) की लंदन यात्रा के दौरान विनायक एवं वीवीएस अय्यर उनसे भी मिले थे।
उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में एक साथ सशस्त्र विद्रोह खड़ा करने की
योजना भी बनाई थी। मिस्र के क्रांतिकारियों की मदद से स्वेज नहर रोक कर अंग्रेजों की
शक्ति को सीमित कर देने की भी योजना बनाई गई। जैसा कि एमिलि ब्राउन ने लिखा है:
सावरकर को संयुक्त राज्य अमेरिका और अधिकांश यूरोपियन देशों से विद्यार्थियों एवं
समर्थकों का कीमती सहयोग प्राप्त था। इंडिया हाउस में कें द्रित इस अंतरराष्ट्रीय प्रचार
के महत्व को भारतीय याअंग्रेज़ 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने तक पूरी तरह
नहीं समझ सके थे।
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विनायक यह भी चाहते थे कि अभिनव भारत के सदस्य युद्धाभ्यास का अनुभव प्राप्त
करें। स्पेन और मोरक्को के बीच युद्ध छिड़ने पर उन्होंने अपने साथियों, एमपीटी आचार्य
एवं सुखसागर दत्त को औपनिवेशिक आक्रांता स्पेनियों के खिलाफ युद्ध कर रहे श्याम
वर्णी लोगों — रिफ्स ऑफ मूर्स का साथ देने को भेजा। उनके लिए बंदूकों के इंतजाम,
वर्दियां और प्रशिक्षण के लिए काफी पैसा खर्च किया गया था। दोनों साथियों को विनायक
एवं अय्यर ने भव्य विदाई दी। वह जर्मन फार ईस्ट जहाज ल्यूट्ज़ो से जिब्राल्टर रवाना हुए।
परंतु सात महीने बाद वह अस्त-व्यस्त और गंदी पोशाकों में, थके -मांदे और क्लांत वापस
आए। भारतीयों को अपने दुश्मन अंग्रेज़ों का भेदिया मानते हुए, मूर्स या स्पानियों में से कोई
अपने साथ नहीं रखना चाहता था। समूची कवायद का अंतिम नतीजा ‘तीन सौ पाउंड के
खर्च और स्वयंसेवकों द्वारा झेला गया शारीरिक कष्ट’ मात्र निकला।
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हिम्मत न हारते हुए विनायक ने इंडिया हाउस में ही बम निर्माण की प्रयोगशाला सरीखी
व्यवस्था स्थापित की। ऐसा कहा जाता है कि उन दिनों अभिनव भारत की बैठकों में
शामिल होने के अवसर पर उनके हाथों में पिक्रिक एसिड लगा होता था, जो बेहद
विस्फोटक रसायन होता है। विनायक ने लंदन पहुँचे बंगाल की अनुशीलन सभा के सदस्य
हेमचंद्र दास कानूनगो को सेनापति बापट एवं मिर्जा अब्बास के साथ पेरिस में ‘बम
मैनुअल’ प्राप्त करने भेजा था। पुस्तिका में बम निर्माण की सामग्री, उसे बनाने की प्रक्रिया
और इस्तेमाल के संबंध में पूरी जानकारी थी। एक साक्षात्कार में सेनापति बापट ने बताया
है कि उस समय वह पेरिस के दूर-दराज के बाहरी क्षेत्रों में रहते थे।
31
हेमचंद्र दास कु शल
फोटोग्राफर थे और कै बिनेट(लकड़ी की छोटी आलमारी या संदूकचा) बनाने की कला भी
जानते थे। उस दौरान राजनीतिक हत्या में लिप्त एक रूसी प्रोफे सर जो स्पेन फरार हो रहे
था, ने उन्हें एक गुप्त संस्था के संबंध में जानकारी उपलब्ध कराई, जिसे बापट ने परिश्रम से
दर्ज कर लिया था। वह एक रूसी दर्जी से मिले जिसने उन्हें ‘बम मैनुअल’ दिया। हेमचंद्र ने
तुरंत ही उस मैनुअल की पचास तस्वीरें खीचीं और लौटा दिया। कु छ लोगों के अनुसार,
उन्हें बम पुस्तिका देने वाले रूसी क्रांतिकारी निकोलस सेन्फ्रें स्की थे।
32
वह पुस्तिका रूसी भाषा में थी और तीनों में से कोई वह लिपि नहीं जानता था। लिहाजा,
रूसी दर्जी ने उन्हें दो रूसी युवतियों से मिलाया, जिनमें से एक एमए और दूसरी ने
एमबीबीएस पास की थी। डाॅक्टरी पढ़ चुकी युवती मिस अमाया ने उन्हें अपने यहाँ बर्लिन
आने को कहा ताकि वह अनुवाद में मदद कर सकें । बापट एवं अन्य ने पुस्तिका की तस्वीरें
छु पा दीं, और बैल्जियम एवं हाॅलैंड में कस्टम जांच से बचते हुए बर्लिन पहुँचे, जहाँ वह
पुलिस से बचने के लिए लगातार अपना आवास बदलते रहे और अंततः अमाया के पास
पहुँचे। युवती ने पुस्तिका के अनुवाद में काफी समय लिया और आखिरकार एक अनुदित
प्रति प्रकाशित कर लंदन भेजी गई। इस कथा एक विवरण यह भी है कि पुस्तिका का
अनुवाद बापट की जर्मन महिला मित्र अन्ना क्लॉस ने किया था, जो बर्लिन में रहती थीं और
रूसी भाषा जानती थीं।
33
साक्षात्कार में बापट ने बताया कि वह विनायक से मिले और ब्रिटिश संसद में बम धमाका
करने की मंशा जाहिर की थी, परंतु विनायक ने उन्हें रोका और कहा कि उन्हें पुस्तिका की
प्रति के साथ भारत जाना चाहिए जहाँ उसका बेहतर इस्तेमाल हो सके गा। अतः, बक्सों में
नकली तल जोड़कर प्रतियों को कस्टम से छु पाते हुए भारत भेजा गया।
बापट 26 मार्च 1908 को भारत पहुँचे, जहाँ उनकी महाराष्ट्र के अभिनव भारत के सदस्यों
से भेंट हुई। पुस्तिका की हजारों साइक्लोस्टैट प्रतियाँ अभिनव भारत के बंबई, पूना,
नासिक, कोल्हापुर, औंध, सतारा, ग्वालियर, बड़ौदा, अमरावती, यवतमाल, नागपुर एवं
अन्य स्थानों में वितरित की गईं। हेमचंद्र अपने साथियों बरिन एवं अरविंद घोष के पास
कलकत्ता लौट गए और पुस्तिका का इस्तेमाल बंगाल भर में बम बनाने के लिए किया जाने
लगा। अलीपुर बम कांड या ‘मनिकतला बम षड्यंत्र’ इन्हीं गतिविधियों का परिणाम था।
बंगाली क्रांतिकारियों के खिलाफ मुजफ्फरपुर में बम फें कने के खिलाफ यह मुकदमा
चलाया गया था। 30 अप्रैल 1908 को प्रफु ल्ल चाकी एवं खुदीराम बोस द्वारा अंजाम दिए
गए इस षडयंत्र की योजना गुप्त संस्था अनुशीलन समिति के अरविंद घोष, उनके भाई
बरिन घोष एवं अन्य युवा क्रांतिकारियों ने तैयार की थी। गुप्त संस्था के उन्नीस वर्षीय
सदस्य खुदीराम ने कलकत्ता के न्यायाधीश डगलस किंग्सफोर्ड की गलतफहमी में दो अंग्रेज
महिलाओं को ले जा रही बग्गी पर बम फें का था। तत्पश्चात, पुलिस द्वारा घेर लिए जाने पर
चाकी ने खुदकु शी कर ली और खुदीराम को बाद में फांसी दे दी गई। घटना के बाद भारत
सरकार ने जून 1908 में विस्फोटक पदार्थ अधिनियम और समाचार पत्र (अपराध के लिए
प्रोत्साहन) अधिनियम लागू किया। जिला न्यायाधीशों को अधिकार दिए गए कि वह
राजद्रोह उकसाने वाले समाचार पत्रों एवं छापेखानों को जब्त कर लें। प्रसंगवश, के सरी
में
प्रफु ल्ल चाकी और खुदीराम बोस की पैरवी करने के आरोप में तिलक पर राजद्रोह का
मुकदमा चला और उन्हें छह वर्ष की सज़ा सुनाई गई जिसे उन्हें बर्मा की मांडले जेल में
काटना था। यह भी कहा जाता है कि ‘बम मैनुअल’ उनके पास भी पहुँच चुका था।
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लिहाजा, इंडिया हाउस में शुरू हुई गतिविधियों की गूंज समूचे ब्रिटिश भारत में सुनाई देने
लगी थी।
19 जुलाई 1907 के एक पत्रालेख में विनायक ने तिलक और बाद में गांधी द्वारा
सैद्धांतिक तौर पर मान लिए गए ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ या सत्याग्रह के बरक्स सशस्त्र संघर्ष
का पक्ष रखा था। उन्होंने दलील दी कि फ्रांसीसियों ने शासन-प्रणाली के विविध रूपों को
अपनाया और अनेक राजनीतिक प्रयोग किए जिनमें – स्वतंत्र राजशाही, सीमित राजशाही
से अराजकता तक, जनता द्वारा नियुक्त राजशाही और लोकतंत्र शामिल हैं। उन्होंने
सत्याग्रह के विचार को अपनाने का भी प्रयास किया था। सत्याग्रह के जरिए फ्रांसीसी लोग
सरकार को सभी स्तरों पर सहयोग दिए बिना झुकाना चाहते थे। यह प्रतिरोध दक्षिणी फ्रांस
के अंगूर बागानों के किसानों ने किया था जो करों को लेकर सरकार के खिलाफ थे।
नारबॉन क्षेत्र में गिरजों के घंटों की आवाज पर वृहत समूह एकत्र होता और सुनियोजित
तरीके से सत्याग्रह की शुरुआत होती थी। इस अभियान में विद्यार्थियों, मजदूरों, नगर
पार्षदों से लेकर स्थानीय समितियों के नुमाइंदे, सैनिक और यहाँ तक कि संसद सदस्य भी
शामिल होते थे। परंतु जल्द ही सरकार ने मार्शल लॉ की घोषणा कर बल प्रयोग एवं
हथियारों से इस पर रोक लगा दी। इसके बाद, पलड़ा ताकत और हथियारों वाले पक्ष की
ओर झुक गया था। विनायक ने कहा कि बिना हथियारों के सत्याग्रह व्यर्थ है। उन्होंने
लिखा:
सत्याग्रह के प्रयोग से यह माना जाता है कि इंसान मूलतः शरीफ है। यह माना जाता है
कि सभी सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरियां छोड़ देंगे – यह के वल शुरुआती विचार है।
परंतु गरीबी से पिस रहे लोगों के पास सरकारी नौकरियों के बिना जिंदा रहने की ताकत
नहीं होती ; वह ऐसा करना चाहें तो भी नहीं। साथ ही यह भी सोचा जाता है कि शासक
वर्ग के लोग सज्जन होते हैं। यह माना जाता है कि वह मौजूदा कानूनों को तोड़कर
उनके स्थानों पर नए कानून नहीं लागू कर देंगे – यह सिद्धांत मात्र है। परंतु असंभव है।
जो शासक जन भावनाओं के खिलाफ जा सकता है वह नए कानून बनाने और वर्षों से
इस्तेमाल न किए गए कानूनों को लागू करने में भी समर्थ होता है।
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हथियार प्राप्त करने और उन्हें भारत भेजने के संचालन एवं व्यूह रचना में लगे विनायक,
विश्व इतिहास के विभिन्न उदाहरणों को सामने रखते हुए, उनके इस्तेमाल के लिए सशक्त
वैचारिक भूमि भी तैयार कर रहे थे।
इंडिया हाउस में विनायक और उनके साथियों को अंग्रेज़ कितना गंभीर खतरा समझते
थे, यह स्काॅटलैंड यार्ड द्वारा खर्च किए गए पैसे और निगरानी में लगाए समय से पता चलता
है। इंडिया हाउस के बाहर हर समय स्काॅटलैंड यार्ड का पुलिसवाला मौजूद रहता था।
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तत्कालीन औपनिवेशिक पुलिस एवं अधिकारियों के बीच पत्राचार से इंडिया हाउस पर की
जाने वाली निगरानी की व्यापकता का पता चला है।
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लेकिन सवाल यह है कि इंडिया हाउस और भारतीय विद्यार्थियों पर ब्रिटिश निगरानी की
असलियत क्या थी? जिसे अक्सर स्काॅटलैंड यार्ड कहा जाता है, वह महानगरीय पुलिस की
एक विशेष शाखा होती थी, जिसका काम ‘लंदन में मौजूद उपद्रवियों’ पर पैनी नजर रखने
का था।
38
बीसवीं सदी के आरंभ में इस शाखा में मात्र पच्चीस गुप्तचर थे।
इसका प्रतिरूप भारत में शिमला और कलकत्ता में डिपार्टमेंट ऑफ क्रिमिनल इंटेलिजेंस
(डीसीआई) की विशेष शाखा थी जो सूचना एकत्र करने के लिए गृह विभाग एवं अन्य
स्थानीय सरकारों के साथ काम करती थी।
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भारत में 1905 में बंग भंग के बाद क्रांतिकारी
गतिविधियों में आई तेजी को देखते हुए लॉर्ड मार्ले एवं लॉर्ड मिंटो 1903 स्थापित डीसीआई
के हाथ मजबूत करने पर राज़ी हुए थे। डीसीआई के तत्कालीन प्रमुख एचए स्टुअर्ट ने ऐसे
विभाग के गठन की ज़रूरत पर लिखा है:
भारत के कई प्रांतों में आधुनिक अपराधियों को देखते हुए, जो स्थानीय पुलिस की
पकड़ में नहीं आते थे, 1903 में क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की स्थापना को जायज
ठहराया गया. . .पेशेवर राजद्रोहियों की कार्यशैली किसी भी पेशेवर अपराधी से कहीं
बेहतर व्यवस्थित और ज्यादा आधुनिक थी. . .उनकी गतिविधियां इंग्लैंड, अमेरिका,
मिस्र एवं तुर्की तक फै ली थीं, और दुनिया में कहीं भी हमारे दुश्मनों से सांठगांठ करने
से उन्हें कोई हिचक नहीं थी।
40
भारत सरकार में डीसीआई के निदेशक का बहुत महत्व था और वह ताजातरीन
राजनीतिक हालात पर गृह मंत्रालय तथा स्थानीय सरकारों को साप्ताहिक रपटें उपलब्ध
कराता था। लेकिन उनका आरंभिक खर्च महज 12,000 रुपये था और छब्बीस व्यक्तियों
के मामूली स्टाफ से निगरानी का काम और अधिक कठिन हो जाता था।
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इसलिए स्टुअर्ट ने विभाग के भीतर ही एक ‘शाखा’ के गठन की पैरवी की जो विशेष तौर
पर ‘राजद्रोह’ को मामलों को देखे। साम्राज्य के खिलाफ लगने या दिखने वाला ऐसा कोई
कार्य या बोले गए अथवा प्रकाशित शब्द जो आपत्तिजनक लगें, राजद्रोह माने जाते थे।
साथ ही, राज्य को राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुँचाने के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी
समूह के साथ जुड़ता था, तो उसे षडयंत्र की श्रेणी में रखा गया था। क्रांतिकारियों द्वारा
अंजाम दी जा रही गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार अच्छी तरह अवगत थी। स्टुअर्ट के
अधीनस्थ, विभागाध्यक्ष सीजे स्टीवेन्सन-मूर ने लिखा है:
भारतीय राजनीतिक गतिविधियों के प्रमुख कें द्र कलकत्ता, लाहौर, पूना, न्यूयाॅर्क , लंदन,
पेरिस और संभवतः जापान हैं। इन स्थानों के प्रमुख आंदोलनकर्ता एक दूसरे से संपर्क
में भी हैं, इस कारण लंदन एवं डबलिन से प्राप्त पत्रों में अमेरिका एवं लंदन में खुफिया
एजेंटों की जरूरत पर जोर दिया गया था। पुराने प्रांत के कलकत्ता के हिस्से से नए प्रांत
में आंदोलन का संचालन किया जा रहा था। पंजाब से पैसा कलकत्ता भेजा जाता था
जिसे बाद में संभवतः पूर्वी बंगाल एवं असम के अग्रणी आंदोलनकारियों में वितरित
किया जाता था। कलकत्ता में उठने वाली अशांति के कारण मद्रास में भी उपद्रव फै ला,
वहीं पंजाब के लाहौर एवं रावलपिंडी एनडब्ल्यूएफपी के पेशावर में पैसा भेज रहे हैं
जिसका इस्तेमाल सीमावर्ती कबीलों को भड़काने के लिए किया जा रहा है। राजनीतिक
साधु अथवा स्वयंसेवक पूरे भारत, न्यूयाॅर्क एवं पेरिस जाते हैं; सेना और आमजन के
बीच असंतोष फै लाने वाले पत्रों का वितरण होता है; और लंदन में श्यामजी कृ ष्ण वर्मा
ऐसे लोगों को पुरस्कार एवं अन्य आकर्षण देने की घोषणा करते हैं जो भारत में हमारे
राज्य के विनाश के लिए आगे आएंगे।
42
विभिन्न महाद्वीपों से मिलने वाली ‘षड्यंत्र’ की सूचनाओं के बावजूद, दोनों संस्थान – लंदन
की विशेष शाखा और भारत की डीसीआई – एक दूसरे से कम ही संपर्क रखती थीं। 1909
में जाकर स्काॅटलैंड यार्ड नेे डीसीआई को भारतीय उपद्रवियों से जुड़ी साप्ताहिक सूचनाएं
भेजनी शुरू की थीं। वहीं, लंदन की विशेष शाखा की कथित अयोग्यता का डीसीआई
अक्सर उपहास बनाया करता था। यह खुला रहस्य था जिसके जिस पर सर्वोच्च स्तर पर
भारत सचिव लॉर्ड मार्ले एवं वायसरॉय लॉर्ड मिंटो के बीच विमर्श होता:
गृह विभाग एवं स्काॅटलैंड यार्ड के विशेषज्ञों ने संज्ञान दिलाया है कि भारतीय
षडयंत्रकर्ताओं के मामले में उनके कर्मचारी पूरी तरह से अयोग्य हैं। उनके पास कोई
माध्यम नहीं है जो हिन्दू और मुसलमान में या वर्मा (Varma) से वर्मा (Varma) के बीच
अंतर कर सके । समूचा भारतीय कार्यक्षेत्र ही भाषा, आदतों एवं अन्य बातों विभिन्नता
लिए हुए है। संक्षेप में, आप और मैं अच्छी तरह जानते हैं कि खुफिया शाखा सहित
पुलिस का आम काॅन्स्टेबल सुस्तचाल है और आपके चुस्त एशियाइयों का पीछा करने
में अनाड़ी रहता है।
43
आरंभ में, गोरे पुलिसवाले क्रांतिकारियों का पीछा करते थे। लेकिन ऑक्सफोर्ड, कै म्ब्रिज
एवं लंदन में रहने वाले भारतीयों का पीछा कर रहे गुप्तचर हैरल्ड ब्रस्ट को उन्होंने पीट
डाला था। ब्रस्ट ने बाद में बताया कि विशेष शाखा के अधिकांश सदस्य ‘इन युवाओं के
जज्बे की छु प कर तारीफ किया करते थे जो खुद को अपने “पिछड़े देश” का “रखवाला”
समझने की गलतफहमी में रहते थे।’
44
निगरानी रखने का पहला प्रयास मई 1907 में सामने आया जब स्काॅटलैंड यार्ड का एक
सदस्य इंडिया हाउस की बैठक में शामिल हुआ और उसने ‘राजद्रोही पर्चे बांटे जाने’ की
खबर दी।
45
एमपी तिरुमल आचार्य ने लिखा है कि इंडिया हाउस पहुँचने (संभवतः 1907
में) के कु छ ही दिनों में उन्हें पता चल गया था कि वहाँ के ‘सभी सहवासियों के पीछे
गुप्तचर लगे थे’।
46
वह स्थान ‘विप्लव का कें द्र’ माना जाता था।
47
उन्होंने इंडिया हाउस के
निवासियों एवं बाकी दूसरे विद्यार्थियों के बीच की दूरी पर अफसोस जताते हुए लिखा है,
‘उनसे कु ष्ठाश्रम जैसी दूरी रखी जाती थी’ जहाँ तक इंग्लैंड में रहने वाले भारतीयों का
विचार था ‘. . . देशभक्ति एवं राजद्रोह का एक ही अर्थ था।’
48
भारत में अंग्रेज गुप्तचरों से
बचकर इंग्लैंड आने पर आचार्य को कथित स्वतंत्र धरती पर वही हालात देखकर दुःख
हुआ। इंडिया हाउस से अलग रहने वाले विद्यार्थी उसके निवासियों से दूरी बनाकर रखते
थे। उन्हें डर था कि कहीं ब्रिटिश सरकार उन पर भी संदेह ना करें।
49
सितंबर 1908 को सूचना मिली कि भारतीय स्वतंत्रता के उद्देष्य को ‘समर्पित’, संयुक्त
राज्य अमेरिका में प्रकाशित होने वाला समाचार पत्र फ्री हिन्दुस्तान
बैठक में वितरित किया
जा रहा है।
50
हालाँकि, गुप्त सूचना एकत्र करने से जुड़ा कोई संगठित तरीका या घुसपैठ
की विधि के बारे में ब्योरा नहीं मिलता। गुप्त सूचना एकत्र करने की इस अनिश्चित विधि
और इंडिया हाउस के सदस्यों का उससे सामना करने पर आचार्य ने लिखा है:
अल्लसुबह गुप्तचर इंडिया हाउस के सामने खड़े हो जाते या घूमते रहते और वहाँ से
निकलने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पीछे लग जाते थे। पहले-पहल उनकी शक्लें देखने से
भी मुझे नफरत होती थी। मैं उनका इस्तेमाल अपने गाइड के तौर पर करता था। मैं
घूमने निकल जाता। करीब 50 गज पीछे एक गुप्तचर मेरे पीछे लगा रहता था। डाकघर
तक पहुँचने तक मैं चलता रहता। उसके बाद वापस लौट पड़ता। डाकघर के पास खड़ा
गुप्तचर मेरे लौटने का इंतजार करता रहता। अचानक, डाकघर के पास पहुँचकर मैंने
पूछा, ‘कृ पया बताएंगे कि डाकघर कहां है ?’ वह जवाब देता, ‘मुझे नहीं पता।’ मैंने
फिर उससे पूछा, ‘यदि आप डाकघर या अन्य स्थान खोजने में मेरी मदद नहीं कर
सकते, तो मेरा पीछा क्यों करते हैं ?’ वह बहुत व्यग्र और गुस्से में नजर आया। यह
तरीका मैंने अपने पीछे आने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर यह बताने के लिए अपनाया कि मैं
जानता हूँ वह कौन है। कभी-कभार, सावरकर और इंडिया हाउस के अन्य सदस्य
गुप्तचरों से पीछा छु ड़ाने का अनोखा तरीका अपनाते। वह किसी अके ली टैक्सी का
इंतजार करते और आते ही उसमें कू दकर भाग जाते, जबकि गुप्तचर वहाँ असहाय
टैक्सी के इंतजार में खड़ा रह जाता।
51
इंडिया हाउस में जासूस किस तरह तैनात किए जाते थे, उसके कु छ दस्तावेजी साक्ष्य प्राप्त
हुए हैं। उदाहरण के लिए, सुखसागर दत्त (सजनी रंजन बनर्जी का कल्पित नाम) नामक
एक भेदिया वहाँ रहता था। डीसीआई ने उसे अपने खबरी के तौर पर अक्तू बर 1909 से
जून 1913 तक वहाँ रखा था। खुफिया विभाग ने थाॅमस कु क एंड सन्स के जरिए उसके
रहन-सहन, शिक्षा आदि का पूरा इंतजाम किया था जिसमें कपड़े और यात्रा खर्च (£100),
वकालत शिक्षा में दाखिला शुल्क (£90), वकालत के लिए अंतिम सुनवाई शुल्क (£40),
पुस्तकों की खरीद (£10), अन्य पुस्तकें एवं सामान खरीद (£10), इम्पीरियल काॅलेज
ऑफ साइंस में शिक्षा प्राप्ति फीस (£124-10) और कोर्स की समाप्ति पर भारत लौटने का
खर्च (£42-2-8) शामिल था। इस अवधि के दौरान उसे पैंतालीस महीने तक अनुगामी
शुल्क £20 भी दिया गया था। इस तरह, इंडिया हाउस के सिर्फ एक मुखबिर पर लगभग
£1316 का खर्च आया था।
दत्त का दावा था कि वह पारिवारिक ऋण चुकाने के लिए मुखबिर बना था। वह विशेष
शाखा के सुपरिन्टेंडेंट पी. क्विन को सूचनाएं देता था। क्विन को लिखे 20 नवंबर 1912 के
पत्र में जिक्र है कि कै से लंदन के लिए रवाना होने से पहले निर्धारित किया गया था कि उसे
जुलाई 1913 तक वहाँ रहकर सूचनाएं देनी होंगी। उसके विज्ञान कोर्स को मंजूरी इसलिए
मिली थी जिससे वह भारतीय छात्रों के संपर्क में आएगा क्योंकि विज्ञान विषय को
‘अतिवादी प्रवृत्तियों वाले भारतीयों की पसंद’ माना गया था। परंतु शिक्षा के लिए निर्धारित
राशि उसे ना मिलने पर रॉयल काॅलेज ऑफ साइंस में उसकी शिक्षा कु छ ही समय बाद रुक
गई। इसके बाद इन्स ऑफ कोर्ट में शिक्षा लेने के बाद उसे बार ऑफ कोर्ट में बुलाया गया।
वह अधिक समय तक वहाँ रहने के लिए बकाया राशि प्राप्त करना चाहता था क्योंकि,
उसके शब्दों में ‘मेरे मित्र अगले जून तक मेरे यहाँ रहने पर शक कर सकते हैं, परंतु यदि मैं
किसी बैरिस्टर के चैम्बर से जुड़कर कु छ उपयोगी कार्य करता हूँ तो उनको जून 1913 तक
मेरे यहाँ ठहरने पर शंका नहीं होगी।’
52
उसने कहा कि यदि उसकी सेवाएं और अधिक
अवधि के लिए चाहिए तो वह ‘और तीन से छह माह तक उसे जारी’ रख सकता है।
तत्पश्चात, उसका मामला अवर सचिव सर थाॅमस डब्ल्यू. होल्डरनेस को यह कह कर प्रेषित
किया गया कि दत्त ‘बहुत मददगार’ साबित हुआ है और उसे ‘भारतीय षडयंत्रकर्ताओं का
अच्छा ज्ञान’ है। उसका आकलन ‘अपना महत्व बढ़ाने के लिए सनसनीखेज वक्तव्यों की
बजाय सच्चे तरीके से सूचना प्रदान करने वाले’ के तौर पर हुआ। दत्त स्वयं ‘यह जानने को
उत्सुक है कि भारत पहुँचने पर उसे अपराध सूचना विभाग के किसी अधिकारी के संपर्क में
रहना होगा। संभवतः वापस लौटने केे दौरान वह पेरिस में मैडम कामा और वीरेंद्रनाथ
चट्टोपाध्याय से मिलेगा और यदि सलाह होगी तो पांडिचेरी में वीवीएस अय्यर से भी
मिलेगा।’
53
दत्त ने अपना काम इतनी दक्षता से किया कि विनायक और उनके सहयोगियों
को अपने बीच जासूस की उपस्थिति का कभी पता नहीं चला।
हालाँकि, ब्रिटिश खुफिया विभाग द्वारा तैयार किए गए सभी जासूस इतने कु शल नहीं थे।
कीर्तिकर एक ऐसा ही व्यक्ति था। 1909 की गर्मियों की शुरुआत में, बिना पूर्व सूचना के
कीर्तिकर अपना सामान उठाए इंडिया हाउस पहुँचा था और अपनी धुली हुई मराठी के दम
पर विनायक का नज़दीकी बन बैठा। वह खुद को किसी कु लीन घराने से संबद्ध बताता
और लंदन में दंत चिकित्सा की शिक्षा के लिए आया था। परंतु यह छल था और उसे
भारतीय प्रशासन ने एक वर्ष का अवकाश दिया था। पहचान छु पाने के लिए वह लंदन के
एक अस्पताल से जुड़ा था। असल में कीर्तिकर अकर्मण्य एवं आलसी था, वह नाश्ते के
लिए देर से पहुँचता, अक्सर अस्पताल नहीं जाता और रात को देर से लौटता था। जल्दी ही
उसने इंडिया हाउस की एक अंग्रेज पारिचारिका से प्रेम संबंध बनाए तो मजबूर होेकर
विनायक को उसे काम से हटाना पड़ा। परंतु कीर्तिकर ने उस महिला को निकट ही रहने का
एक नया इंतजाम कर दिया और उससे अक्सर मिलने जाता। वह फ्री इंडिया सोसायटी की
बैठकों में नियमित तौर पर आता और प्रतिमाह उसके लिए एक पाउंड दान भी करता था।
जल्दी ही उसकी कार्यशैली पर शंका उठने लगी तो विनायक ने डाॅ. टीएसएस राजन से
अस्पताल में उसके बारे में सरसरी तौर पर पूछताछ करने को कहा। यह जानकर कि
दाखिले के बाद वह बमुश्किल एक सप्ताह की कक्षाओं में गया है, वह हैरान रह गए।
जाहिर था कि वह जासूस था और पढ़ने नहीं आया था। एक रात, जब कीर्तिकर अपनी
अंग्रेज महिला मित्र के साथ नाटक देखने गया था तो अय्यर ने मास्टर चाबी से उसके कमरे
का ताला खोला। वहाँ एक बक्से में उन्हें कीर्तिकर द्वारा तैयार की गई इंडिया हाउस की
साप्ताहिक रिपोर्ट मिली जिसे ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों को सौंपा जाना था। अतः, लौटने
पर उससे पूछताछ की ठानी गई। उसके लौटने पर अय्यर ने कमरा बंद कर दिया और भरी
हुई रिवाॅल्वर कीर्तिकर के सिर पर तान दी। कई बार नकारने के बाद आखिर कीर्तिकर ने
सच उगल दिया। वह अय्यर के पैरांे में गिरकर क्षमा मांगने लगा। विनायक ने निर्णय किया
कीर्तिकर को इंडिया हाउस में रहने दिया जाए परंतु सरकार को भेजी जाने वाली उसकी
सब रिपोर्ट पहले वह स्वयं देखेंगे। इस तरह अब अपने जासूस की मदद से विनायक और
उनके साथी अंग्रेजों को झूठी एवं मनगढ़ंत सूचनाएं भेजने लगे थे।
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स्काॅटलैंड यार्ड की अयोग्यता को देखते हुए लगता है कि उन्होंने कीर्तिकर को जासूसी के
लिए नहीं रखा था। लॉर्ड मार्ले का दावा था कि यार्ड Verma और Varma में अंतर करना
नहीं जानता था। फिर भी यार्ड की बुनियादी जानकारी के अभाव में इंडिया हाउस में मराठी
भाषी जासूस रखना जो विनायक के निकट पहुँच सके , बहुत सोची-समझी योजना थी,
और स्काॅटलैंड यार्ड से इतनी विस्तृत योजना बनाने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
दरअसल, 1909 के आरंभ में डीसीआई ने दो भारतीयों के साथ अपने एक रहस्यमयी
एजेंट ‘सी’ को इंडिया हाउस भेजा था। एजेंट सी की पहचान गुप्त रखी गई थी क्योंकि
डीसीआई को विशेष शाखा के अपने सहयोगियों पर ही भरोसा नहीं था। जून 1909 को
एजेंट सी ने ही गुप्त रिपोर्ट में सूचित किया था कि इंडिया हाउस के सदस्यों ने लंदन के
टाॅटेनहैम कोर्ट रोड के शूटिंग स्थल पर रिवाॅल्वर का अभ्यास तेज कर दिया है।
55
बहुत
संभव है कि एजेंट ‘सी’ कीर्तिकर ही हो। जैसा कि समय बीतने पर साबित हुआ कि उसके
द्वारा भेजी गई सूचना बहुत कारगर निकली थी।
इसके बाद विनायक ने स्काॅटलैंड यार्ड को गलत सूचनाएं देने के लिए अपने डबल एजेंट,
बाईस वर्षीय एमपी तिरुमल आचार्य को तैनात किया। पहले-पहल विनायक और अय्यर
तिरुमल आचार्य को लेकर कु छ चौकन्ने थे और उन्होंने आचार्य की गतिविधियों को दर्ज
किया। निष्ठा साबित होने के बाद ही उन्हें डबल एजेंट का कार्य सौंपा गया। आचार्य
मृदुभाषी थे और इंडिया हाउस का रसोई कार्य, किराने का सामान और अन्य ज़रूरी
सामान की खरीद-फरोख्त करते थे। वहीं गलत सूचना प्राप्त कर खुश और संतुष्ट स्काॅटलैंड
यार्ड से उन्हें अतिरिक्त पांच पाउंड भी मिलते थे।
भारत में भी अभिनव भारत के कई सदस्य डबल एजेंट की भूमिका में थे। बालकृ ष्ण
जनार्धन मराठे , भास्कर रामचन्द्र खरे, गंगाधर गणेश चितले, शंकर नारायण मोघे एवं
जीआर वैशाम्पायन कु छ सदस्य थे जिन्होंने भारत और इंग्लैंड के बीच क्रांतिकारियों की
गतिविधियों से जुड़े संदेश भेजने का काम किया था।
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इनमें से कई डाक विभाग से जुड़े
थे और तार सेवा में काम करते थे। समयांतर को देखते हुए, दोनों देशों के बीच संदेश
प्रसार, भारत से रात को किया जाता था। ऐसी संवेदनशील पाली के लिए अंग्रेज के वल
एंग्लो-इंडियन कर्मचारियों को ही लगाते थे। परंतु डबल एजेंट का काम कर रहे क्रांतिकारी
कर्मचारियों से दोस्ती गांठ कर उनका कार्यभार हल्का करते और कर्मचारी अपनी महिला
मित्रों के साथ समय व्यतीत करते ! उदाहरण स्वरूप, मोघे ने एक बार उपरोक्त विषय पर
कई संदेश प्राप्त किए। चूंकि वह संदेश लिप्यांतरण वाली कू टभाषा नहीं जानते थे, इसलिए
उन्होंने गुप्त तौर पर संदेश पढ़ने वाला बक्सा ही तोड़ डाला, फिर उन्होंने कू ट संदेशों को
पढ़ा। लॉर्ड मार्ले से लॉर्ड मिंटो को भेजा गया एक तार पढ़कर मोघे चकित रह गए जिसमें
मार्ले ने किसी ‘जीके ’ द्वारा उन्हें तिलक, सावरकर बंधुओं एवं बापट के बीच की नजदीकी
के बारे में बताया था। मार्ले के अनुसार उन पर नजर रखने की जरूरत थी। चूंकि उन दिनों
गोपालकृ ष्ण गोखले इंग्लैंड के दौरे पर थे और निरंतर मार्ले से मिल रहे थे, तो क्रांतिकारियों
ने निष्कर्ष निकाला कि ‘जी.के .’ वही हैं और ब्रिटिश को क्रांतिकारियों को सूचनाएं दे रहे
हैं। संयोगवश, इसके कु छ दिन बाद ही पुलिस ने बाबाराव पर लगातार निगरानी आरंभ
की। इस कारण पूना के क्रांतिकारी ब्रह्मगिरी बुवा, पलान्दे, परांजपे और शिध्ये कु पित हुए
कि कु छ ही दिनों बाद गोखले की हत्या का प्रयास किया गया। इसके काफी दिनों बाद
उन्होंने अपराध स्वीकारा और उन्हें सज़ा सुनाई गई।
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अभिनव भारत के लिए जासूसी का महत्वपूर्ण काम भास्कर रामचंद्र खरे भी कर रहे थे।
दसवीं कक्षा के बाद खरे ने एक यूरोपियन कं पनी में काम करना शुरू किया था जहाँ वह
टाइपिंग, शॉर्टहैंड में पारंगत हुए और एक प्रतिष्ठित बैरिस्टर जमनादास मेहता से मिले।
मेहता ने खरे को दोराबजी टाटा के पास भेजा जो अच्छे टाइपिस्ट एवं शॉर्टहैंड प्रशिक्षित
व्यक्ति की तलाश में थे। टाटा समूह में काम करते हुए खरे की पहुँच नई दिल्ली के
इम्पीरियल सचिवालय तक हो गई। अपने कार्य में दक्षता दिखाते हुए खरे को कई
पदोन्नतियाँ मिलीं जिनमें से एक संवेदनशील गृह विभाग के सर रेजिनेल्ड क्रे डॉक के साथ
काम करना भी थी। परंतु, इस पूरी अवधि में उनका एक ही लक्ष्य रहा – क्रांतिकारियों को
सूचनाएं पहुँचाना।
58
इस तरह, दोनों पक्ष, अपनी-अपनी योग्यतानुसार एक दूसरे पर नजर
रख रहे थे।
~
10 मई 1908 को, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बरसी के अवसर पर विनायक ने ‘ओ!
हुतात्माओ!’ नामकी प्रचार-पुस्तिका की प्रतियाँ वितरित की थीं। उम्मीदों के मुताबिक, एक
माह के भीतर ही, 8 जून 1908 को अपराध सूचना विभाग के सीजे स्टीवेन्सन-मूर ने
पुस्तिका के राजद्रोही और भड़काऊ कथ्य के बारे में गृह विभाग को लिख भेजा। गृह
विभाग ने आशंका जाहिर की कि संभव है पुस्तिका इंग्लैंड में ही प्रकाशित हुई हो क्योंकि
‘यहां जिन त्रुटियों के हम अभ्यस्त हैं उनकी अपेक्षा शब्द रचना कहीं बेहतर है’।
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रोचक
तथ्य यह है कि मदन मोहन मालवीय जैसे राष्ट्रभक्त ने भी पुस्तिका के बारे में, बिना
विनायक का नाम लिए, संयुक्त प्रांत सरकार के जेडब्ल्यू होज़ को सूचित किया था:
मैं बेहद उकसाने वाला लघुपत्र आपको भेज रहा हूं, जिसे मैंने कल ही अंग्रेजी डाक से
प्राप्त किया है। दरअसल, यह उसी मसौदे की प्रति है जिसके बारे में आदरणीय ने
राजनीतिक हालात के संबंध में अपनी टिप्पणी में कहा था। मैं इसे फाड़ कर फें कने
वाला था, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि यह किसी के हाथ भी पड़े; और जैसा कि मेरा
विचार था कि इसे सरकार को भी भेजने की जरूरत नहीं थी क्योंकि उसे इसके कथ्य
की पहले से जानकारी है। परंतु मुझे अहसास हुआ कि इसके बारे में आपको सूचित
करना चाहिए कि ऐसे विप्लवी लघुपत्र अभी तक इस देश में भेजे जा रहे हैं, ताकि
सरकार ऐसी विषाक्त सामग्री को वितरित होने से रोकने के लिए जो उचित हो, करे।
60
निगरानी के अलावा, ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन में रह रहे भारतीय विद्यार्थियों को ‘पहचान
प्रमाणपत्र’ वितरित करने का निर्णय लिया था। यह आम दस्तावेज थे जिनकी मदद से
सरकार को ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों का परिचयात्मक ब्योरा प्राप्त होता था। वहीं जरूरत
पड़ने पर इंडिया ऑफिस के पास देश में रह रहे प्रत्येक भारतीय का रिकाॅर्ड भी मौजूद
रहता। भारतीय विद्यार्थियों को यह प्रक्रिया जटिल, भेदभावपूर्ण और बेहद निंदनीय लगी।
राष्ट्रीयता के काॅलम में प्रत्याशियों को काली स्याही से ‘जन्म से ब्रिटिश नागरिक’ भरना
होता था। यह इस बात का परिचायक था कि भारतीय या भारतीयों की राष्ट्रीयता का कोई
अर्थ नहीं था। समूचे ब्रिटिश साम्राज्य में ऐसे दस्तावेजों का प्रचलन था। बीसवीं सदी के
आरंभ में ट्रांसवाल में ऐसे दस्तावेजों के बारे में गांधी ने कहा था कि यह भारतीयों को भारत
में ही ‘भंगियों’ जैसे भेदभाव की तरह एक अलग, प्रदूषित श्रेणी में रखने जैसा नियम है।
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बहुत संभव है कि ब्रिटेन पहुँचने वाले भारतीयों ने इन पहचान प्रमाणपत्रों को पुराने
नकारात्मक और नस्लीय भेदभावपूर्ण दस्तावेजों से जोड़कर देखा होगा।
1909 में, राजनीति एवं गोपनीय (पीएंडएस) विभाग के अपर सचिव विलियम ली वार्नर
की अगुआई में भारतीय विद्यार्थियों का एक सूचना ब्यूरो स्थापित किया गया। ऊपरी तौर
पर यह ब्यूरो ब्रिटेन आने वाले भारतीय विद्यार्थियों को करियर-संबंधी मशविरा देता था,
परंतु इस आधार पर वह उनसे जुड़ी सूचना प्राप्त करता था। हालाँकि, ब्यूरो इंडिया हाउस
में सेंध लगाने में असफल रहा, परंतु वह काफी हद तक नए विद्यार्थियों को क्रांतिकारी
मुहिम से जुड़ने या प्रेरित होने से रोकने में सफल रहा था।
यह जानते हुए कि वह निरंतर निगरानी में रहते हैं, इंडिया हाउस के अनेक सदस्य बंदूक
चलाना सीखना चाहते थे। लेकिन किसी भी शूटिंग रेंज में उन्हें सदस्यता नहीं मिलती थी।
14 जनवरी 1909 को गृह विभाग ने लंदन के इंडिया ऑफिस से कु छ चिंता जताते हुए
पूछा भी था कि इंडिया हाउस के निकट लॉर्ड रॉबर्ट एसोसिएशन को छोटी राइफल शूटिंग
रेंज की स्थापना की मंजूरी कै से मिल गई।
62
इस समस्या से पार पाने के लिए, डाॅ.
टीएसएस राजन ने लंदन के एक पाॅलीटेक्निक में दाखिला लिया जहाँ पाक कला, सैलून
सेवा, फोटोग्राफी और अन्य कार्य सिखाए जाते थे। एक होनहार विद्यार्थी के रूप में असर
डालने के बाद उन्होंने बंदूक चलाना सीखने का भी आवेदन दिया। बिना शक उस शिक्षण
संस्थान ने इसकी मंजूरी दे दी और जल्दी ही उन्होंने दूर एवं पास की रेंज में रिवाॅल्वर
चलाना सीख लिया। इस बीच, मिर्जा अब्बास और सिकं दर हयात खान ने पेरिस से प्राप्त
बीस ब्राउनिंग पिस्तौलें और हजारों कारतूस छु पाकर भारत भेज दिए थे। उन्हें एक बक्से के
नकली तले में, सफाई से छु पाकर इंडिया हाउस के रसोइये, चतुर्भुज अमीन की देखरेख में
भारत भेजा गया। अमीन लंदन से पाक कला और सिलाई कार्य में डिप्लोमा प्राप्त थे।
15 फरवरी 1909 को अमीन ने लंदन छोड़ा और गुप्तचरों तथा कस्टम अधिकारियों से
बचते हुए 6 मार्च 1909 को बंबई पहुँच गए।
63
यह पार्सल गोपालराव पाटनकर के हवाले
किया गया क्योंकि महाराष्ट्र के तत्कालीन अभिनव भारत प्रमुख हरि अनंत थट्टे निगरानी के
कारण वहाँ नहीं पहुँच सके थे। मार्च 1909 के अंत तक, सामान के सुरक्षित पहुँचने की
सूचना के साथ, अमीन लंदन लौट आए।
परंतु इस सूचना के साथ ही, विनायक को चेचक के कारण अपने चार वर्षीय पुत्र प्रभाकर
के निधन की खबर भी मिली। लंदन के लिए रवाना होते समय हँसी-मजाक में कहे गए
उनके शब्द–यदि प्रभाकर का टीकाकरण नहीं हुआ तो वह ईश्वर के घर चला जाएगा–
दुर्भाग्यवश सच साबित हुए। उस दौरान संवेदना के प्रवाह में उन्होंने एक अत्यंत मार्मिक
शोकगीत - ‘प्रभाकरास’ की रचना की थी। अचानक ही चारों ओर से दुर्भाग्य विनायक को
घेरे आ खड़ा हुआ था।
नासिक, 1909
कहावत है कि विपत्ति कभी अके ले नहीं आती। अपनी एकमात्र संतान के निधन की सूचना
से जूझते हुए विनायक को भारत से एक और चौंका देने वाली खबर मिली। 28 फरवरी
1909 को बाबाराव अपने मामा के पुत्र वीएम भट्ट से मिलने गिरगाम, बंबई गए थे कि तभी
घर के दरवाजे को पीटने की जोरदार आवाज हुई। पुलिस बाबाराव को ढूंढ़ती हुई वहाँ आ
पहुँची थी और उन्हें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 121 एवं 124ए के अंतर्गत
गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल, बाबाराव ने अपने एक मित्र को अमीन द्वारा लंदन से
लाई गई पिस्तौलों के बारे में बताया था। पुलिस को किसी तरह इसकी भनक लग गई और
उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकाल दिया गया। धारा 121 के अंतर्गत ब्रिटिश सम्राट के
खिलाफ द्रोह भड़काने और सहयोग देने का आरोप दायर किया जाता था, जिसकी पुष्टि
होने पर संपत्ति की जब्ती और फांसी अथवा ‘ताउम्र देशनिकाला’ जैसी सजाओं के
प्रावधान थे। इससे एक वर्ष पहले, 17 जून 1908 को भी बाबाराव को आईपीसी के
अंतर्गत धारा 151ए और बॉम्बे पुलिस अधिनियम के अंतर्गत, राजद्रोह के आरोप में बंदी
एसएम परांजपे को मुक्त कराने के लिए 500 से 600 लोगों के समूह को भड़काने के हल्के
आरोप में सज़ा दी गई थी। उस समय उनको एक माह कड़ी कै द हुई थी, जिसे उन्होंने बंबई
की डोंगरी जेल और बाद में ठाणे जेल में काटा था।
इस बार बाबाराव को पुलिस की गाड़ी में नासिक ले जाया गया और रास्ते भर उनसे
पूछताछ की गई। इससे पहले कि वह अपने छोटे भाई को घर पर रखी भड़काऊ लिखित
सामग्री को नष्ट करने या छु पाने को कहते, पुलिस ने 2 मार्च 1909 को उनके घर पर छापा
मारा। तलाशी में घर के छज्जों में छु पाई गई अंग्रेजी में प्रकाशित 60 पेजों की पांडुलिपि भी
मिली जो दरअसल, हेमचंद्र एवं बापट द्वारा प्राप्त ‘बम मैनुअल’ था। बंगाल के मानिकतला
मामले में भी खुफिया एजेंसियों को ऐसी ही प्रतियाँ प्राप्त हुई थीं। पुस्तिका में ‘लिखित
सामग्री को समझाने वाले बम, सुरंग और इमारतों की 45 छवियां भी अंकित थीं’।
64
उन्हें
फ्रॉस्ट की सीक्रे ट सोसाइटीज ऑफ यूरोपियन रिवोल्यूशन, 1776 टू 1876
की प्रतियाँ भी
मिलीं
65
जिसमें ‘छोटे वर्गों या खंडों में बंटे हुए रूसी विध्वंसवादी, जिसमें प्रत्येक सदस्य
के वल अपने समूह के सदस्य को ही पहचानता था’
66
का विस्तृत ब्योरा था – अभिनव
भारत की बनावट भी इसी अनुसार थी। बाबाराव द्वारा प्रकाशित, आबा दारेकर उर्फ कवि
गोविंद की चार कविताएँ भी जब्त की गई। इसमें दो मराठी कविताएँ थीं – उनमें से एक
‘बोधापुर पुरातन मौज’ अंग्रेजों पर भारत की विजय का रूपक गढ़तीं देवताओं और
दानवों की पौराणिक संदर्भ वाली कविता थी। अन्य कविता ‘शिवाकालीन लोकमनोवृत्ति’
में कवि नेे लोगों द्वारा भगवान गणेश से शिवाजी जैसे अवतार को जन्म देने की परिकल्पना
की।
डीसीआई के सीजे स्टीवेन्सन-मूर ने नासिक के पुलिस जिलाध्यक्ष श्री जेएफ गाइडर को
लिखा:
तटवर्ती डाकघर में द इंडियन सोशलॉजिस्ट
की एक प्रति के साथ तात्या (विनायक)
द्वारा लिखा गया एक अभियोगपूर्ण पत्र प्राप्त हुआ है। अब बम्बई पुलिस को उसके
भाई के घर में ज़रूरी सामग्री भी हाथ लगी है। इनमें एक मानिकतला का बम मैनुअल
है। कलकत्ता से बाहर प्राप्त यह इस मैनुअल की पहली प्रति है, जिसे संभवतः पीएम
बापट लाए थे। कलकत्ता में इसकी एकमात्र पूर्ण प्रति मौजूद है। क्या वह और बंबई की
प्रति एक ही व्यक्ति ने तैयार की है ? उपनिदेशक, कृ पया इस संबंध में छानबीन करें
और बताएं। यदि आवश्यक हो तो कलकत्ता और बंबई से पहले पृष्ठ की प्रति मंगा लें।
कोई भी मूल प्रति मौजूद नहीं है। सावरकरों के बारे में हमें प्रत्येक सूचना बंबई भेजनी
चाहिए, जो वहाँ नहीं होगी और उसके ऐवज में, जब तैयार हों, बयानों की प्रतियाँ
मंगानी चाहिए।
67
पुलिस को प्राप्त ‘अभियोगपूर्ण’ पत्र विनायक द्वारा बाबाराव को वन्दे मातरम निबन्ध
68
मंगवाने के संबंध में भेजा गया था। विनायक को ‘जाना-माना उच्चस्तरीय उग्रवादी’
69
माना जाता था और निर्णय हुआ कि उनके लंदन निवास, इंडिया हाउस की पूर्ण तलाशी
लेने की जरूरत है। 13 मई 1909 को विनायक द्वारा बाबाराव को लिखे आठ पत्र अनुवाद
के बाद इंडिया ऑफिस भेजे गए। स्टीवेन्सन-मूर ने खुद उन पत्रों को ‘सामान्य’ बताया है:
तात्या के पत्र अपने आप में कु छ अधिक नहीं हैं; इस संग्रह में सबसे आपत्तिजनक वन्दे
मातरम से जुड़ा असंयत वाक्य है; जो मेरी राय में, विनायक दामोदर सावरकर की कृ ति
बिल्कु ल नहीं है। यह नासिक से उनके भाई के घर से बरामद हुआ है और अनेक पत्रों में
विनायक ने उसे भेजने को कहा है। विनायक अधिकांशतः स्काॅटलैंड यार्ड के गुप्तचरों
और इंडिया हाउस में उसके कार्य तथा भाषणों के बारे में बताता है। प्रत्यक्षतः यह निजी
बैठकें होती हैं और मेरा सवाल है कि क्या बैचलर्स ग्रेज़ इन्न में इन रिपोर्ट को गंभीरता से
लिया जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि लंदन की एकमात्र सार्वजनिक सभा जिसमें
विनायक ने कु छ उग्रता दिखाई थी, वह 29 दिसंबर 1908 की गुरु गोबिंद सिंह वाली
सभा थी। परंतु मेरा प्रश्न है कि क्या कोई उग्र बयान उसके खिलाफ अधिक कु छ
बताएगा।
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विनायक के खिलाफ सबूतों की तलाश हो रही थी ताकि मामला तैयार कर और
गिरफ्तारी को वैध ठहरा कर उन्हें वापस भारत भेजा जा सके । परंतु सवाल उठता था कि
बाबाराव को तो ‘बम मैनुअल’ और अन्य क्रांतिकारी साहित्य के आधार पर हिरासत में
लिया गया था, परंतु क्या विनायक को संपर्क रखने के अपराध पर ही गिरफ्तार किया जाने
वाला था ? वहीं दूसरी ओर लंदन में कोर्स पूरा कर चुके विनायक को वकालत क्षेत्र में
दाखिल ना देने के लिए ग्रेज़ इन्न पर जोर बनाया जा रहा था। उपरोक्त पत्र में स्टीवेन्सन-मूर
ने इसी द्वंद पर विमर्श किया था।
बाबाराव के मुकदमे की शुरुआत नासिक के जिला कलेक्टर आर्थर मेसन टिपेट्स
जैक्सन के सामने हुई। वकील गोले अभियोजन पक्ष की ओर से थे और पुलिस उपाधीक्षक
उन्हें सहयोग कर रहे थे। सबसे छोटे सावरकर बंधु, नारायणराव ने बाबाराव के बचाव के
लिए वकील खोजने का भरसक प्रयास किया और मुकदमे की फीस के लिए उन्होंने 200
रूपये का इंतजाम भी कर लिया था। परंतु कोई भी वकील मामला हाथ में लेने को तैयार
ना था। अंततः, वह ठाणे के वकील थोसर के पास पहुँचे और मुश्किल घड़ी में उनसे मदद
की गुहार लगाई। द्रवित हो थोसर अपने साथी वकीलों प्रधान, साथ्ये, के तकर और गाद्रे के
साथ मदद के लिए तैयार हो गए। अभियोजन वकील गोले ने बाबाराव के घर से प्राप्त
विद्रोही कलेवर वाले साहित्य, ‘बम मैनुअल’, कवि गोविंद की क्रांतिकारी कविताएँ और
अभिनव भारत माला के अंतर्गत प्रकाशित पुस्तकें तथा प्रचार-पुस्तिकाओं पर अदालत का
ध्यान दिलाया।
अदालत को लिखित बयान में बाबाराव ने कहा:
मैंने यह सामग्री भारत की उत्तेजित परिस्थितियों को देखते हुए प्रकाशित की हैं, परंतु
इनकी बिक्री की ओर ध्यान देने का मेरे पास न समय था और न ही प्रवृत्ति। अपने किए
का जिम्मेदार के वल मैं खुद हूं। हालाँकि, मैंने ये पुस्तकें या कविताएँ नहीं लिखीं, परंतु
मुझे नहीं लगता कि यह सम्राट के खिलाफ द्रोह या लोगों को भड़काने के लिए लिखी
गई हैं. . . 12 मार्च 1909 को मेरे घर पर डाले गए छापे में प्राप्त कु छ सामग्री मेरी है।
अन्य सामग्री मेरे घर में पुलिस द्वारा रखी गई थी जो मेरे प्रति घृणा भाव रखती है।
क्योंकि गत तीन-चार वर्षों से पुलिस और मेरे बीच विद्वेष भाव रहा है और उन्होंने मेरे
खिलाफ यह झूठा मामला बनाया है।
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न्यायाधीश बीसी कै नेडी उस बयान से सहमत नहीं हुए और 8 जून 1909 को उन्होंने
फै सला सुनाया:
दंड संहिता ने मुझे सज़ा मुकर्रर किए जाने के संबंध में बहुत कम छू ट दी है। धारा 121
के अंतर्गत मैं गणेश दामोदर सावरकर को अंडमान समूह में ताउम्र निर्वासन की सज़ा
और उनकी समूची संपत्ति जब्त किए जाने की सज़ा देता हूं। धारा 124ए के अंतर्गत मैं
उन्हें दो वर्ष कठोर कारावास का दंड देता हूं। यह सज़ा धारा 121 के अंतर्गत सुनाई गई
सज़ा के साथ ही चलेगी।
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वह फै सला बाबाराव के परिवार के लिए गहरा आघात था। परंतु जैसा कि 15 जून 1909
के के सरी
ने लिखा, ‘बाबाराव ने भावहीन तरीके से वह भयावह दंड सुना’।
73
अंडमान का
कालापानी अपने भयानक रूप और यंत्रणा के लिए जाना जाता था। उस नारकीय स्थान से
बहुत कम अपराधी ही जीवित या स्वस्थ वापस लौट पाते थे। बाबाराव की पत्नी येसु
वहिनी के दो बच्चे बहुत कम उम्र में ही चल बसे थे और अब बाबाराव को उम्रकै द की सज़ा
के बाद उनका भविष्य अंधकार में था। इसके बावजूद, उन्होंने फै सले को बड़ी हिम्मत से
आत्मसात किया। पुलिस ने बर्तनों समेत उनका सब सामान जब्त कर लिया। ऐसा कहा
जाता है कि जब पड़ोसी आकर उनकी दारुण अवस्था पर आंसू बहाते तो वह स्थिरता से
उन्हें सांत्वना देतींः ‘रोओ मत ! जब हमारे जैसे कई घर नष्ट होंगे तभी जाकर देश खुशहाल
बनेगा!
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कई लोग येसु वहिनी की अवहेलना और उनके बारे में अपशब्द कहने लगे। उनकी राय में
वह अपराधी परिवार से संबंध रखती थीं। सभी सामाजिक उत्सवों से उन्हें बहिष्कृ त कर
दिया गया। यदि लोगों को उनके साथ बैलगाड़ी में कहीं जाना पड़ता तो वह या तो दूर हट
जाते या उन्हें उतार देते। उन्हें अक्सर सार्वजनिक तौर पर कायदयाची बायको
(अपराधी
की पत्नी) कह कर अपमानित किया जाता था। जब भी वह अपने पैतृक निवास पहुँचती
तो आसपास की महिलाएं उन्हें ‘अपने मायके पर बोझ’ कह उनका उपहास करतीं।
75
येसु
बहुत धैर्य के साथ इन अपशब्दों और अपमानों को बर्दाश्त करती थीं।
हालाँकि, अभिनव भारत के सदस्य और पारिवारिक मित्रों ने येसु वहिनी और
नारायणराव का ध्यान रखा। नारायणराव तब तक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मैडम भीकाजी
कामा ने प्रतिमाह परिवार के निर्वाह के लिए 30 रुपये भेजने शुरू किए। आबा दारेकर उर्फ
कवि गोविंद, सावरकर परिवार की हालत से इतना द्रवित हुआ कि वह उनके लिए पैसा
एकत्र करने और उनको हिम्मत देने का काम करने लगे। उन्होंने येसु वहिनी के लिए एक
कविता भी लिखी जिसमें वह अपने पति की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं – ‘संकटी
रक्षा मम कांत, कांत’ (मेरे पति की संकट से रक्षा करो!)। येसु वहिनी अक्सर यह प्रार्थना
गुनगुनाती थीं।
जेल भेजे जाने से पूर्व बाबाराव को अपमानित करने के लिए बेड़ियां और हथकड़ियां
पहनाकर घुमाया गया। उस समय उन्होंने कै दियों की पोशाक पहनी थी, उनकी पीठ पर
कपड़ों की छोटी सी पोटली, टूटी-फू टी प्लेट और पानी की बोतल थी। वह एक माह तक
नासिक जेल में रहे, और फिर उन्होंने नासिक तथा अपने परिवार को अलविदा कहा। इसके
बाद, उनको पूना की यरवदा जेल में कै दी नंबर 4193 बनाकर भेजा गया। अंडमान के आने
वाले कठोर दिनों के पूर्वाभास हेतु, मलहारी नामक एक सख्त जमादार या हवलदार उन्हें
प्रतिदिन 25 पाउंड अनाज पीसने को कहता था। इसे जल्दी ही बढ़ाकर 35 पाउंड कर दिया
गया।
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इसके बाद उन्हें ‘खड़ी हथकड़ी’ की सज़ा दी गई जिसमें दिन में छह घंटे और सायं
चार घंटे तक दीवार के सहारे हाथ टांगे खड़े रहना पड़ता था। यह सज़ा कई हफ्तों तक
चली। कई बार उन्हें रात भर खड़े रहना पड़ता और वैसे ही सोना पड़ता था। बाजरे या गेहूं
का अधपका खाना खाने से डायरिया की गंभीर शिकायत भी उन्हें हुई। अपराधियों को
अक्सर हाथ उठाकर खड़ी हुई अवस्था में ही विष्ठा त्याग करनी पड़ती थी। अपराध
कबूलवाने के लिए कई बार बाबाराव को बिजली के झटके भी दिए गए। यंत्रणाएं झेलते
हुए, छह सप्ताह में ही उनका शरीर जवाब दे गया और तेज बुखार ने आ घेरा। तत्पश्चात,
उन्हें उपचार के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया, जिसके बाद उन्हें सूत कातने का
हल्का काम सौंपा गया।
नारायणराव अपने भाई से मिलने आते और उन्हें ऐसा कठोर जीवन जीते देख बहुत दुखी
होते। उन्होंने उच्च अदालत में फै सले के खिलाफ अपील करने का फै सला लिया। परंतु 21
नवंबर 1909 को बंबई उच्च न्यायालय ने सज़ा बरकरार रखी। बाबाराव को कलकत्ता के
अलीपुर जेल ले जाया गया और वहाँ से उन्हें एसएस महाराजा जहाज द्वारा अंडमान भेजा
गया। बंदियों और अपराधियों को जहाज के तल में बंद रखा जाता था। दुर्गंध से बेहाल
और ठगों, हत्यारों, डाकु ओं एवं बलात्कारियों की संगत में कै द बाबाराव आखिरकार
अंडमान की बदनाम सेल्युलर जेल पहुँचे। बाबाराव नहीं जानते थे कि जल्दी ही इस
भयानक जेल में उन्हें एक साथी भी मिलेगा – उनका भाई विनायक।
लंदन, 1909
बाबाराव को उम्रकै द देकर अंडमान भेजे जाने की खबर प्राप्त कर विनायक के दुःख का
पारावार ना रहा। वह अपने परिवार के पास नासिक जाने को उद्विग्न हो उठे । परंतु लंदन में
ऐसी जिम्मेदारियां थीं जिन्हें वह छोड़ नहीं सकते थे। 20 जून को लंदन में एक सार्वजनिक
सभा मंे उन्होंने बाबाराव से किए गए बर्ताव को लेकर अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने का प्रण
किया।
77
और उनकी उम्मीदों के मुताबिक ही उनके क्रु द्ध भाषण के दो दिन बाद, 22 जून
को ग्रेज़ इन्न से सूचना मिली कि उन्हें वकील क्षेत्र में शामिल करने का निर्णय स्थगित कर
दिया गया है। मई 1909 से ही, ब्रिटिश प्रेस में विनायक को मिले नकारात्मक प्रचार और
उनके भाई की सज़ा के बाद वकालत समुदाय का उनके प्रति ऐसा व्यवहार अपेक्षित था।
वहीं, भारत का अंग्रेज प्रशासन विनायक को पकड़ने को आतुर था और प्रत्यर्पण चाहता
था। 8 मई 1909 को बंबई से अर्ध-सरकारी वक्तव्य में जेएच ड्यूबॉले ने लंदन में सर हैरल्ड
स्टुअर्ट को लिखा:
कु छ ही दिनों पूर्व मुझे इंडिया हाउस से सावरकर द्वारा नासिक में उसके भाई को लिखे
पत्र आपको भेजने का निर्देश प्राप्त हुआ, और साथ ही यह सलाह भी कि उन्हें राज्य
सचिव के संज्ञान में लाया जाए। आज प्रातः प्राप्त रॉयटर की 7 तारीख के टेलिग्राम के
अनुसार, एक विद्यार्थी जिसे वकालत बार में बुलाने के लिए झिझक की जा रही है, वह
इंडिया हाउस का मैनेजर है। हम जानते हैं कि सावरकर इंडिया हाउस का मैनेजर है
और यह भी कि उसे जल्दी ही कु छ परीक्षाएं भी देनी हैं। मुझे ऐसा लगता है कि इंडिया
ऑफिस को बताना उचित रहेगा कि आपके पास सावरकर और उसके भाई के बीच
सीधे संबंध से जुड़े दस्तावेज हैं। उसके भाई पर युद्ध भड़काने एवं राजद्रोह का मुकदमा
दर्ज है और बम बनाने एवं इस्तेमाल से जुड़े विस्तृत दस्तावेज भी बरामद हुए हैं। इसके
अलावा, बंगाल के विभिन्न हत्यारों की प्रशंसा में लिखा गया उग्र निबंध भी प्राप्त हुआ
है। यदि इंडिया ऑफिस उचित अफसरान के सामने यह सूचना रखे तो झिझक तोड़ते
हुए उनका निर्णय होगा कि वह विद्यार्थी सावरकर ही है, और इसके नतीजे बेहतरीन
होंगे। खैर जो भी हो, मैं सोचता हूँ कि आप इस मशविरे को धृष्टता नहीं समझेंगे।
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उनके निजी और पेशेवराना जीवन के उतार-चढ़ाव को देखते हुए, यह सूचना संभवतः
विनायक के जीवन में अवनति का सबसे बुरा दौर था। परंतु क्रांतिकारी अभियान से जुड़ा
होने के कारण वह ऐसी किसी भी दुर्गम चुनौती को झेलने को तैयार थे। प्रेस में इंडिया
हाउस को मिलने वाली तवज्जो से ध्यान भटकाने के लिए वह कु छ दिनों के लिए अन्य
स्थान पर चले गए। 3 अप्रैल को वह बिपिन चंद्र पाल के घर 140, सिंक्लेयर रोड पहुँचे।
विनायक के दाखिले के मामले में ग्रेज़ इन्न के निर्णय के पीछे जिन ताकतों का हाथ था
उनमें सर विलियम हट्ट कर्जन वायली (1848-1909) प्रमुख थे। वह ब्रिटिश भारतीय सेना
का अधिकारी रहते हुए लेफ्टिनेंट कर्नल पद तक पहुँचा थे। वह नेपाल और राजपूताना की
एक देसी रियासत में ब्रिटिश रेजिडेंट भी रह चुके थे। ब्रिटेन लौटने के बाद उन्हें भारत के
राज्य सचिव लॉर्ड जाॅर्ज हेमिल्टन के सहायक के तौर पर नियुक्त किया गया। उनके प्रमुख
कार्यों में से ब्रिटेन आने वाले उच्चस्तरीय भारतीयों पर निगरानी और साथ ही द्रोहपूर्ण
गतिविधियों में व्यस्त समूचे महाद्वीप पर निगाह रखना शामिल था। निगरानी की फे हरिस्त
में बड़ौदा के महाराजा, गायकवाड जैसे भारतीय रजवाड़े भी शामिल थे।
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ब्रिटेन आने
वाले भारतीयों की गतिविधियों पर, यात्रा के दौरान यूरोप में साधे गए संपर्कों और
यूरोपियन सरकारों द्वारा उन्हें दिए गए आधिकारिक सम्मान पर उनकी पैनी नजर रहती
थी।
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वायली ने अनेक भारतीय विद्यार्थियों से भी संपर्क बनाए। वह कई अवसरों पर खाने
अथवा अनौपचारिक बातचीत के लिए उन्हें अपने घर बुलाता और उनके शुभचिंतक जैसी
मुद्रा बनाकर बहुत चतुराई से सूचना प्राप्त करता था। यदि प्राप्त सूचना कु छ भी काम की
होती, तो वह तुरंत अपने अधिकारियों को सूचित करते।
81
1909 के अप्रैल अंत में, कर्जन वायली ने निजी तौर पर ग्रेज़ इन्न को लिखकर विनायक
और हरनाम सिंह को वकालती-बार में ना बुलाने की ताकीद की थी। मई 1909 के पूरे
महीने उन्होंने ग्रेज़ इन्न को कई पत्र लिखकर विनायक की ‘अप्रिय’ गतिविधियों की सूचना
दी और उन्हें विशेष तौर पर खतरनाक और द्रोही शक्ति करार दिया। हालाँकि, हरनाम सिंह
को वकालती-बार में बुलाया गया, परंतु विनायक के खिलाफ ‘राजहत्याओं का समर्थन,
क्रांति भड़काने और राष्ट्र के खिलाफ आंदोलन’ का आरोप लगाया गया।
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यह भी कहा
जाता है कि कर्जन वायली विनायक और इंडिया हाउस के साथियों के संबंध में सूचना
बटोरने फ्रांस भी गए थे। उन्होंने भारतीय विद्यार्थियों के लिए इंडिया ऑफिस द्वारा
प्रायोजित कु छ बोर्डिंग हाउस स्थापित करने के असफल प्रयास भी किए थे। उनका मानना
था कि इससे इंडिया हाउस की मौलिकता समाप्त होगी, और नए विद्यार्थी विनायक से
विमुख होंगे तथा युवा विद्यार्थियों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा जागेगी।
लंदन के कई भारतीय विद्यार्थियों के बीच क्रोध और विद्वेष की भावना चरम पर पहुँच
चुकी थी और उचित समय पर विस्फोटक रूप लेने वाली थी। 1 जुलाई 1909 को सायं
करीब 8 बजे, लंदन के बेज़वाटर क्षेत्र के 106 लैडबरी रोड पते वाले लॉजिंग हाउस की
पहली मंजिल के अपने कमरे से एक युवा और आकर्षक भारतीय विद्यार्थी बाहर निकला।
उस समय लंदन में नेशनल इंडियन एसोसिएशन (एनआईए) ब्रिटिश और भारतीयों के बीच
परस्पर संवाद को बढ़ावा देने के लिए नियमित दावत का आयोजन कर रही थी। इसका
आयोजन दक्षिण के न्सिंग्टन के इम्पीरियल इंस्टीट्यूट स्थित जहांगीर हाॅल में हुआ था।
एनआईए की मानद सचिव सुश्री बैक ने करीब साढ़े नौ बजे युवा छात्र के आगमन पर
उसका स्वागत किया। कु छ माह पूर्व ही सुश्री बैक की छात्र से मुलाकात हुई थी और उन्होंने
उससे उसकी शिक्षा संबंधी औपचारिक बातचीत की थी। उस नौजवान छात्र ने कहा कि
उसने यूनिवर्सिटी काॅलेज का कोर्स पूरा कर लिया है और भारत लौटने से पहले वह
अक्तू बर में द इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स (एएमआईसीई) के सहयोगी सदस्य चयन
संबंधी परीक्षा देगा। चूंकि वह दावत में कई लोगों से परिचित था, इसलिए उसने सुश्री बैक
से कहा कि वह उनसे मिलना चाहता है।
83
अतः उचित अवसर की तलाश में युवा छात्र पूरे
आत्मविश्वास के साथ वहाँ मौजूद रहा। रात्रि लगभग 11 बजे, एनआईए के मानद
कोषाध्यक्ष विलियम कर्जन वायली जहांगीर हाॅल पहुँचे। वह प्रसन्न भाव के साथ कु छ
भारतीय विद्यार्थियों से मिले और फिर उस युवा से बातचीत में व्यस्त हो गए। अचानक, उस
युवा ने एक छोटी कोल्ट पिस्तौल निकाली और नज़दीक से चार गोलियां कर्जन वायली की
आँखों में दाग दीं।
84
वायली गिरे और उसी समय उनके प्राण पखेरू उड़ गए। बंदूक के
पहले धमाके की आवाज सुनकर शंघाई से आए छयालीस वर्षीय डाॅक्टर कावस
लालकाका कर्जन वायली की मदद को आगे आए और दुर्घटनावश उन्हें भी एक गोली लगी
और दर्द से छटपटाते हुए वह भी गिर पड़े। अंततः, घावों के कारण उन्होंने दम तोड़ दिया।
नेशनल लिबरल क्लब के पत्रकार डगलस विलियम थोरबर्न एवं कई अन्य लोग उस युवा
की ओर लपके , और वह अधिक नुकसान ना कर सके , इसलिए उसे पकड़ कर कु र्सी के
साथ बांध दिया। हाथापाई के दौरान उसका सुनहरी फ्रे म वाला बड़ा चश्मा गिर पड़ा। युवा
ने अपनी कनपटी पर रिवॉल्वर लगाकर घोड़ा दबाया परंतु वह सब गोलियां पहले ही
इस्तेमाल कर चुका था। वहीं लोग उससे बंदूक छीनने के लिए संघर्षरत थे। इस
धक्कामुक्की के दौरान, एक मेहमान, सर लेसली प्रोबिन गिर पड़े और उनके नाक एवं
पसलियों में चोट लगी। थोरबर्न ने उस युवा से इस घृणित कृ त्य का कारण पूछा। युवा ने
उसकी ओर घूरा और भावहीनता से उत्तर दिया, ‘रुको, पहले मुझे मेरा चश्मा पहनने दो!’

वह बहुत सामान्य और बेखौफ दिख रहा था।
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द इवनिंग टेलिग्राफ
ने उसकी इस विशेषता का उल्लेख उस पर लिखी रिपोर्ट में भी किया
थाः ‘... वह ना के वल रिवाॅल्वर चलाने में कु शल, बल्कि त्रासदी के बाद कमरे में सबसे
स्थिर भाव वाला भी था, और शान्ति से अपने चश्मे के लिए पूछ रहा था।’
86
पार्टी में मौजूद
एक अन्य भारतीय, मदन मोहन सिन्हा ने उससे हिन्दी में सवाल किए, परंतु वह खामोश
रहा। सिन्हा को शक हुआ कि शायद वह युवा नशे की हालत में था, क्योंकि वह अधजगी
और स्वप्निल अवस्था में दिख रहा था। युवा को कस कर पकड़े हुए कै प्टन चार्ल्स रॉलेस्टन
ने उससे नाम पूछा तो अंततः वह चिल्लायाः ‘मदन लाल ढींगरा।’
पुलिस तुरंत ही पहुँच गई थी और ढींगरा को गिरफ्तार कर लिया गया। हवलदार फ्रे डरिक
निकल्स और डिटेक्टिव सार्जेंट फ्रें क ईडले ने बयान दिया कि ढींगरा के पास एक खंजर भी
था, छह चेम्बर वाला एक बेल्जियन रिवाॅल्वर और अतिरिक्त असला भी उसके पास था।
87
इन्स्पेक्टर ड्रेपर ने ढींगरा के लेडबरी रोड अपार्टमेंट की तलाशी ली जहाँ उन्हें सत्तर कारतूस
और एक अन्य मैग्जीन वाला रिवाॅल्वर बरामद हुआ। कर्जन वायली द्वारा ढींगरा को लिखा
गया एक पत्र भी उसकी टेबल पर रखा था। उस पर 13 अप्रैल की तारीख दर्ज थी और पत्र
में कहा गया था कि जरूरत पड़ने पर ढींगरा उनसे मिल सकते हैं। दरअसल, इंडिया हाउस
के सदस्यों से ढींगरा के मेलजोल का पता लगने पर उनके भाई ने कर्जन वायली से उन्हें
सलाह देने के लिए लिखा था। पत्र कु छ इस तरह का था:
प्रिय सर: आपके भाई, श्री के एल ढींगरा, जिनसे मुझे लंदन में परिचित होने का
सुअवसर प्राप्त हुआ, ने मुझे लिखकर बताया है कि आप लंदन में हैं, और उन्होंने कहा
है कि मैं आपकी किसी जरूरत में मदद कर सकूं । मेरे विदेश में रहने के आसार है. .
.परंतु लौटने पर आपसे इंडिया ऑफिस में मिलकर मुझे प्रसन्नता होगी, यदि आप 11 से
1 अथवा 2ः30 से 3ः30 के बीच संपर्क कर सकें तो।
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कर्जन वायली भारतीय विद्यार्थियों से मैत्रीभाव बनाने के लिए यही युक्ति अपनाते थे, जिस
आधार पर वह उनसे सूचनाएं बटोरते और वरिष्ठ अधिकारियों को भेजते थे। परंतु ढींगरा ने
उनके प्रस्तावों का जवाब नहीं दिया, और वह वायली को उनकी गतिविधियों पर निगाह
रखने वाले प्रशासन का प्रतीक मानते थे।
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तलाशी में ढींगरा की निशानेबाजी अभ्यास की
डायरी भी मिली थी।
90
परंतु प्रश्न उठता है कि इंडिया हाउस के आयोजनों में कभी ना शामिल होने वाले ढींगरा
बंदूक चलाकर राजनीतिक हत्या जैसे कृ त्य को अंजाम देने वाले प्रत्याशी कै से बन गए ?
वह इंडिया हाउस के भाषणों को ‘के वल बातचीत’ कहकर रद्द करते थे और विमर्श की
बजाए कार्रवाई पर जोर देते थे। जुगांतर समूह के क्रांतिकारी कनाईलाल दत्ता को वह
अपना आदर्श मानते थे। दत्ता ने साथी क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बोस के साथ मिलकर
नरेंद्रनाथ गोस्वामी की हत्या की थी जो अलीपुर बम मामले में अंग्रेज सरकार का गवाह बन
गया था। 31 अगस्त 1908 को दत्ता को फांसी हुई थी।
पंजाब में ढींगरा भुगतान विभाग में काम कर चुके थे जहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार और
अंग्रेजों के मुकाबले नस्ली तौर पर भेदभाव किया गया था। हरिश्चंद्र कृ ष्णराव कोरेगाँवकर
इंडिया हाउस के सदस्य और विनायक की 1857 पुस्तक के भरोसेमंद अनुवादक रहे थे।
दिसंबर 1909 में भारत पहुँचने पर उन्हें डीसीआई द्वारा बंबई में गिरफ्तार किया गया। वह
सरकारी गवाह बन गए और विनायक के खिलाफ मामला तैयार करने के लिए उनका
बयान इस्तेमाल किया गया। ढींगरा के खिलाफ मामले में कोरेगाँवकर ने बयान दिया:
अंग्रेजों के खिलाफ उनकी (ढींगरा की) नफरत गहरी थी। समय-समय पर भारतीयों के
खिलाफ अंग्रेजों के समाचार पत्रों में छपने वाले आलेखों से यह और गहराती गई। लंदन
ओपिनियन
में छपने वाले आलेख जैसे ‘काले व्यक्ति और अंग्रेज महिलाएं’ और
कै सल्स वीकली
में प्रकाशित ‘बाबू, ब्लैक शीप’ जैसे आलेखों को वह बार-बार पढ़ते
थे।
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ढींगरा ने हत्या की साजिश बहुत मेहनत से रची थी। 26 जनवरी 1909 को उन्होंने बंदूक
का लाइसेंस प्राप्त किया और फिर होल्बर्न के गैमेज्स लिमिटेड से £ 3.5 में एक
ऑटोमेटिक मैग्जीन कोल्ट पिस्तौल खरीदी। इसके बाद, वह तीन महीने तक 92 टाॅटेनहैम
कोर्ट रोड में, सप्ताह में तीन बार अभ्यास के लिए जाते रहे। चूंकि उनके पास वैध लाइसेंस
था, इसलिए शूटिंग रेंज में उनको प्रवेश मिल गया था। हर बार अभ्यास के दौरान वह बारह
गोलियां चलाते और उन्होंने जल्द ही ‘अच्छी महारत हासिल की’।
92
हत्या से पहले ढींगरा
अपने आप में बेहद आत्मविश्वास से भर चुके थे। हत्या से एक रात पूर्व वह विनायक को
ढूंढ़ते हुए बिपिन चंद्र पाल के घर पहुँचे थे। वहाँ उनसे मिलने वाले एमपीटी आचार्य ने
बताया कि ढींगरा ‘पक्षी की तरह चहक रहे थे। इंडिया हाउस में वह हमेशा विचारमग्न से
दिखते थे, परंतु वहाँ नहीं। यह सच है कि उन्होंने बहुत कम बात की थी, इसलिए नहीं कहा
जा सकता कि उनके दिमाग में क्या चल रहा था।’
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हत्या के दिन भी वह के न्सिंग्टन जाने
से पूर्व सायं 5ः30 बजे शूटिंग रेंज गए और अभ्यास में बारह गोलियां चलाई थीं, जिनमें से
ग्यारह निशाने पर लगी थीं।
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निषानेबाजी के अभ्यास को लेकर ढींगरा इतने तुनुकमिजाज क्यों थे, इसका भी एक
कारण है। उनका असली निशाना लॉर्ड मार्ले और बंगाल विभाजन के खलनायक लॉर्ड
कर्जन थे, जो ब्रिटेन लौट चुके थे।
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ढींगरा पहले भी एक बार दोनों की हत्या में असफल
रहे थे। हत्या की पूर्व संध्या पर उनके नायक और नेता, विनायक उन्हें विदा देने के लिए
नाॅटिंग हिल गेट स्टेशन पर मिले और उन्हें सख्त ताकीद की, ‘यदि इस बार असफल रहे तो
मुझे अपनी सूरत मत दिखाना!’
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ढींगरा की उनके प्रति अंधभक्ति के चलते उनसे
जल्दबाजी में यह काम कराने के लिए टीकाकारों ने विनायक की आलोचना की है। हमलों
के लिए अपने अनुगामियों को प्रेरित करने के बावजूद विनायक ने जीवन भर खुद कभी
अस्त्र नहीं उठाया। असफल होने पर अपनी सूरत कभी ना दिखाने से जुड़ी चेतावनी को
ढींगरा ने बेहद गंभीरता से लिया और वह हर कीमत पर सफल होना चाहते थे।
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दरअसल, प्रत्येक क्रांतिकारी संगठन की तरह अभिनव भारत को भी मजबूत बौद्धिक एवं
संचालक की जरूरत थी – विनायक यही भूमिका निभाते रहे और कार्यकर्ता उनकी
योजनाओं को अमल में लाते थे।
हत्या के बाद ढींगरा को मैरीलिबोन पुलिस स्टेशन ले जाया गया और औपचारिक
चार्जशीट दाखिल की गई। आरोप उन्हें पढ़ कर सुनाए गए और उन्होंने उसे स्वीकार कर
लिया।
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यह पूछे जाने पर कि क्या वह लंदन में अपने मित्रों से संपर्क करना चाहते हैं,
उन्होंने बेपरवाही से उत्तर दियाः ‘मुझे नहीं लगता आज रात इसकी जरूरत है, कल वह
मुझे पहचान लेंगे।’
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2 जुलाई को ढींगरा को वेस्टमिनस्टर पुलिस अदालत ले जाया गया।
हिरासत में सौंपे जाने से पहले उन्होंने न्यायाधीश से कहाः ‘मैं के वल इतना कहना चाहता हूँ
कि डाॅ. लालकाका की हत्या सोचा-समझा प्रयास नहीं थी; मैं उन्हें नहीं जानता था; जब
वह मुझे पकड़ने को बढ़े तो मैंने अपनी सुरक्षा के लिए गोली चलाई थी।’
100
न्यायाधीश ने
एक सप्ताह के लिए मामला मुल्तवी किया और ढींगरा को न्यायिक हिरासत में भेज दिया।
इस घटना ने लंदन को हिला कर रख दिया था। प्रेस में हत्या की सूचनाओं का सैलाब आ
गया था। अपराध के चश्मदीद गवाहों के बयानों और विस्तृत विवरणों से सभी प्रमुख
समाचार पत्र अटे पड़े थे। ढींगरा के पिता, साहिब दत्ता ढींगरा ने लॉर्ड मार्ले को तार भेजकर
सूचित किया कि परिवार ने बेटे से अपने सभी संबंध तोड़ लिए हैं। उन्होंने पायनियर
समाचार पत्र से कहा कि वह उनकी ओर से ‘परिवार के एक सज्जन मित्र के ना रहने पर
इस घृणित कार्य की भर्त्सना’ प्रकाशित करे।
101
ढींगरा के दो भाई, भजनलाल और
बिहारीलाल भी लंदन में थे और उन्होंने भी अपने पिता द्वारा अपने भाई से सभी संबंध
विच्छेद करने की पहल का समर्थन किया। ब्रिटिश साम्राज्य के सुदूर कोनों से सांत्वना
संदेश आ रहे थे। बनारस के राजा, सर प्रभु नारायण ने 14 जुलाई 1909 को एक गैर-
सरकारी संदेश में लिखा:
अपनी ओर से यह अनावश्यक और व्यर्थ है यह कहना कि लंदन में एक भारतीय
विद्यार्थी द्वारा अंजाम दिए गए जघन्य अपराध को लेकर मैं कितना बेचैन हूँ जिस
कारण भारत के दो अनन्य मित्रों की जानें गईं। कोई भी व्यक्ति जो इस देश का अंश है,
ऐसे मामलों में किसी और तरीके से सोच ही नहीं सकता। ऐसे अपराध जो एक या दो
वर्ष पहले इस देश में अपवाद स्वरूप थे, अब निरंतर होते दिख रहे हैं और मुझे हैरानी
होती है – बल्कि मैं क्षमा स्वरूप कहना चाहता हूँ – सहानुभूति, नहीं, यह एक शर्मनाक
बात है कि इस बुराई को हटाने के लिए कु छ किया नहीं जा रहा है. . .अपितु यह हमारे
लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न बन गया है। इंग्लैंड बेशक भारतीयों की परवाह करने के
संबंध में अधिक नहीं सोचता, परंतु हम भारतीय इंग्लैंड की सुरक्षा के बिना नहीं रह
सकते। हमारी संपदा, हमारी खुशी, हमारा स्थायित्व, यहाँ तक कि एक राष्ट्र के तौर पर
हमारा अस्तित्व इंग्लैंड पर निर्भर है और कै सा ही संताप का दिन होगा जब वह हमारे
देश को छोड़ने का निर्णय लेगा. . .सावरकर और उनके साथी खुलेआम हत्या से
संवेदना दिखा रहे हैं और वीरेंद्र नाथ चटर्जी जैसे व्यक्ति जनपत्रों में पत्र प्रकाशित कर
घोषणा कर रहे हैं कि ‘आने वाली हत्याओं की सूची संभवतः लंबी होगी. . .हत्या के
अराजक प्रयासों को भी हत्या जैसा ही मानना चाहिए और उससे संवेदना रखने वालों
को अपराधी समझना चाहिए। जब तक कम से कम एक या दो वर्षों तक ऐसे उग्र
प्रयासों को अभ्यास में नहीं लाया जाएगा, मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस तरह के अपराधों
में तीव्र वृद्धि होगी।
102
समूचे भारतीय समुदाय और उसके राजनीतिक नेताओं ने ढींगरा की भर्त्सना की। 3 जुलाई
को सुरेंद्रनाथ बनर्जी की और 4 जुलाई को गोपालकृ ष्ण की अध्यक्षता में बैठकों में घृणित
कार्य के लिए ढींगरा की आलोचना की गई। गोखले ने कहा कि इस कार्य से ‘भारत का
नाम कालिख में मिल गया और इसके लिए समूचे सभ्य जगत के सामने भारतीयांें को शर्म
से अपने सिर झुकाने पड़ेंगे।’
103
इसके प्रतिउत्तर में, मैडम कामा के वन्दे मातरम
ने ढींगरा की निंदा करने के लिए गोखले
के खिलाफ तीखे शब्द लिखे। 10 सितंबर 1909 के अंक में इसने लिखाः
अपने देशवासियों के आंसुओं और आहों का व्यापार करने वाले ऐसे अधम और कायर
राजनीतिज्ञों का दल जिनका नेतृत्व पूना के आत्माहीन चाटुकार गोखले करते हैं, अपनी
ओर से हमारे युवाओं को वक्तव्यों और लेखनी से पथभ्रष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं,
जो जितनी दिखावटी है उतनी ही कु टिल भी। यह सब छद्म-देशभक्त अपने देश की
बर्बादी के बीच में सरकार से सहयोग और अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित रखने का कार्य
करते हैं। यह देखना भी दिलचस्प होता है कि दंभ या निजी ईर्ष्या के कारण यह लालची
और असैद्धांतिक जघन्य लोग आपस में भी लड़ते हैं। यह हमारे लिए ही ठीक है। अपने
में ही विभक्त इमारत टिकी नहीं रह सकती और उदारपंथियों में एकता की कमी और
अंदरूनी विखंडन के चिन्ह दिख रहे हैं। गोखले लोगों के बीच कु छ अच्छे भाषण दे रहे
हैं: ऊं चे आदर्शों के लबादे में कु टिल अर्थहीनता के जुमले गढ़ने की कला का उन्हें अच्छा
तजुर्बा है . . .इस बीच सुरेंद्रनाथ बनर्जी ब्रिटिश लोगों के तलवे चाटने का काम कर रहे
हैं और दुनिया की नजरों में खुद को उपहास का पात्र बना रहे हैं।
104
5 जुलाई को लंदन के कै क्स्टन हाॅल में हत्या के प्रति संवेदना और ढींगरा की आलोचना
करने के लिए भारतीय समुदाय विशाल संख्या में एकत्र हुआ। 6 जुलाई के डेली टेलिग्राफ
ने लिखा कि अनेक पारसी महिलाएं ‘शोभनीय कपड़ों में सजी हुई आई थीं।’ महामहिम
आगा खान ने इस बैठक की अध्यक्षता की और कहा कि बैठक का कारण यह था कि कै से
वह ‘विद्रोह के इस नीचतापूर्ण कृ त्य के बाद साम्राज्य के साथी बाशिंदों के साथ मिल-
जुलकर रह पाते हैं’।
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इस अवसर पर वक्तव्य देने वाले प्रतिष्ठित भारतीयों में सर मंचेरजी
भोवनागरी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल और जीएस खपरडे शामिल थे। श्रोताओं में
भी कई गणमान्य व्यक्ति शामिल थे जिनमें कू च बिहार के महाराजकु मार, सर दिनॅशॉ पेटिट,
फजलभाॅय करीमभाॅय, सैयद हुसैन बिल्ग्रानी, के सी गुप्ता एवं अन्य थे। वक्ताओं ने ढींगरा
के लिए ‘वहशी’, ‘क्रू र’ एवं ‘विश्वासघाती’ से ‘कायरता’, ‘अक्षम्य’ एवं ‘अमानवीय’ जैसे
शब्दों का इस्तेमाल किया। सर भोवनागरी ने अपराध के संबंध में समुदाय की नाराजगी
और त्रास का प्रस्ताव रखा जिसे अमीर अली ने सहमति दी। उन्होंने लेडी वायली एवं
पीड़ित के परिवार के प्रति संवेदना भी व्यक्त की। प्रस्ताव का मसौदा कु छ इस प्रकार था:
भारत के सभी संप्रदायों के नुमाइंदों और ग्रेट ब्रिटेन के अधिकांश भारतीयों की यह
आम सभा पिछले बृहस्पतिवार को एक भारतीय युवा द्वारा किए गए अकथनीय
अपराध के प्रति संत्रास और रोष व्यक्त करती है जिसके वह एवं समूचे भारत के लोग
गवाह बने और जिसका नतीजा सर कर्जन वायली और साथ ही डाॅ. लालकाका की
दुःखद मौत में हुआ।
106
अलंकारिक वाचन शैली इस्तेमाल करते हुए भोवनागरी ने कहा कि इस भवन अथवा
ब्रिटिश इंडिया के विशाल भूभाग में ऐसा कोई भी सही सोच वाला व्यक्ति नहीं होगा जो इस
त्रासदी को राष्ट्रीय आपदा ना माने। उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि घटना के माध्यम
से, एक पथभ्रष्ट युवा ढींगरा ने, ब्रिटिश सरकार और विशेषकर लॉर्ड मार्ले के साथ
सफलतापूर्वक बातचीत कर रहे भारतीयों को जोरदार झटका दिया था। फिर भी, उन्होंने
उम्मीद जताई कि यह नुकसान अस्थाई होगा।
लेकिन उनके वक्तव्य के बाद कु छ नाटकीय सा घटित हुआ। इंडियन काउंसिल के एक
सदस्य, थियोडोर माॅरीसन मंच पर एक शर्मीले नौजवान को लेकर आए। धूसर रंग का
ढीला सा सूट और सुनहरा चश्मा लगाए वह युवा अवसाद और संकोच में दिखता था।
उसकी पहचान लंदन में ही रह रहे ढींगरा के छोटे भाई के तौर पर कराई गई। माॅरीसन ने
दावा किया कि उसी दिन वह युवा प्रातः उनके कार्यालय में आया था और उसने ढींगरा के
किए पर अपने परिवार की ओर से अफसोस व्यक्त किया था। माॅरीसन के अनुसार युवा ने
पूछा था कि वह अपने भाई के कृ त्य के प्रतिकू ल अपनी ओर से क्या कर सकता है।
माॅरीसन ने उसे कहा कि वह कै क्स्टन हाॅल में जाकर सार्वजनिक तौर पर अपनी भावनाओं
के बारे में बताए और उसे खुद एवं परिवार को अपराध से अलग कर लेना चाहिए। जैसा
कि डबलिन डेली एक्सप्रेस
ने खबर दीः ‘इस घटना की नाटकीय आकस्मिकता ने भवन में
खासी सनसनी पैदा कर दी थी और कई लोग द्रवित हो गए थे।’ युवा को एक शब्द भी
कहने नहीं दिया गया और माॅरीसन ने सभा को संबोधित किया जिस दौरान युवा घबराए
हुए सिर झुकाए खड़ा रहा। फिर उसे उसकी सीट पर ले जाया गया और सभा आगे बढ़ी।
फिर एक नया प्रस्ताव पारित हुआः
यह सभा ब्रिटिश जनता को सुनिश्चित करने हेतु मानती है कि ब्रिटिश साम्राज्य के
महानगर में घटित इस नृशंस कृ त्य की वह शर्मसार होकर निंदा करती है और आशा
करती है कि इसे एक कट्टर अथवा विक्षिप्त व्यक्ति का कार्य माना जाएगा, जिसने भारत
के लोगों में गहरा रोष फै लाया है।
107
जब बैठक प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करने और ढींगरा की उसके विक्षिप्त कार्य के
लिए भर्त्सना करने पर विचार कर रही थी, वह युवा खड़ा हुआ और निडरता से चिल्लायाः
‘नहीं! सर्वसम्मति से नहीं!’ लोग शांत और सकते की हालत में थे। वह जानना चाहते थे
कि यह दुःसाहसी दावा करने वाला कौन है। ऐसे समय जब उसका परिवार एवं मित्र स्वयं
को उससे अलग कर रहे थे, अपने मित्र और आश्रित, मदन लाल ढींगरा के सहयोग में आने
वाला वह युवा विनायक था। यह सुनकर सदमे की सी हालत में आ चुके लीडर ‘इसे पकड़
लो’, ‘इसे गिरा दो’ का शोर कर रहे थे कि लोग विनायक की ओर लपके जो हाथ बांधे और
सिर उठाए खड़े थे। इतने में एडवर्ड पार्क र नामक एक हट्टा-कट्टा अंग्रेज विनायक की तरफ
लपका और उनकी दाईं आँख पर प्रहार किया, विनायक का चश्मा टूट गया और उनकी
नाक फू ट गई।
108
उनके चेहरे पर खून फै ल आया, लेकिन फिर भी उनके मुँह से ‘सब ठीक
है’ निकला। विनायक अपनी कु र्सी से उछले और उन्होंने जोरदार आवाज में कहा कि वह
इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं और अपने खून की आखिरी बूंद तक वह इसका विरोध करेंगे।
वहाँ मौजूद एमपीटी आचार्य के हाथ में छड़ी थी जिसे उन्होंने ‘सहज ही उसके (पार्क र) के
सिर पर दे मारा’।
109
हालाँकि, हमलावरों ने विनायक को गिरा लिया और अंत में उन्हें
बाहर ले जाया गया। भवन में मौजूद वीवीएस अय्यर, एमपीटी आचार्य एवं ज्ञानचंद वर्मा
भी विनायक के पीछे बाहर गए। निहत्थे विनायक पर कायराना हमले के विरोध में
सुरेंद्रनाथ बनर्जी सभा छोड़कर चले गए और उस शाम का मलिन अंत देखकर आगा खान
भी दुखी थे।
विनायक और उनके साथी सिंक्लेयर रोड स्थित घर पहुँचे और उसी रात विनायक ने
टाइम्स
के नाम लंबा पत्र लिखा।
श्रीमान,
मेरे प्रति पूर्ण स्पष्टता के साथ क्या आप अपने प्रतिष्ठित पत्र में निम्न पंक्तियों को स्थान
देंगे ? सर कर्जन वायली की हत्या पर अफसोस जताने के लिए कै क्स्टन हाॅल में
आयोजित सभा में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद ऐसा महसूस हो रहा है कि मेरे व्यवहार
की गलत व्याख्या की जाएगी।
सच यह है कि जब अध्यक्ष नेे बैठक पूर्व प्रस्ताव सभा के समक्ष रखा और समर्थकों
को हाथ उठाने के लिए कहा तो उन्होंने अन्य सभी जनसभाओं के अभ्यास के अनुसार,
उपस्थित लोगों से उनकी पसंद के अनुसार मत देने को कहा था। प्रस्ताव के बारे में
उसके प्रस्तावकों और समर्थकों ने व्याख्या की थी, ताकि उससे हत्या के दोषी के
अपराध को पूर्ववत् ही मान लिया जाए। मुझे ऐसा लगता है कि अभी अदालत में
विचाराधीन मामले में किसी व्यक्ति को अपराधी करार दिया जाना, कानून एवं अदालतों
के अधिकारों का अतिक्रमण है। अतः, मेरी राय में प्रस्ताव में से ‘अपराध’ और
‘अपराधी’ जैसे शब्दों को हटाना न्यायसंगत एवं उचित होगा। चूंकि कार्यवाही इस दिशा
में काफी आगे तक बढ़ चुकी थी, तो मैंने के वल प्रस्ताव के विरोध में मत दिया और मैं
अध्यक्ष के संज्ञान में लाना चाहता था कि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित नहीं हुआ है। मैं
मतदाता के तौर पर अपने अधिकारों की सीमा में ही था और अध्यक्ष के लिए पक्ष एवं
विपक्ष के मतों को गिनकर ही नतीजे की घोषणा की जानी चाहिए थी। परंतु कु छ
उत्तेेजित आत्माएं आपे से बाहर हो गईं और ‘इसे बाहर निकालो’ आदि जैसे शोर के
साथ मुझे शारीरिक हिंसा से डराने का प्रयास किया गया। मैं बिना उत्तेजना फै लाए,
के वल अपने अधिकारों पर जोर देते हुए शांत खड़ा रहा था। कु छ मिनटों बाद, श्री
पार्क र नामक एक व्यक्ति उस स्थान पर पहुँचे जहाँ मैं खड़ा था और उन्होंने मुझ पर
हमला किया जबकि मैं साफ शब्दों में अपने विरोध का अर्थ स्पष्ट कर रहा था, मेरे शब्द
कु छ उत्साही लोगों की भीड़ में खो गए थे।
वह व्यक्ति जिसने अकारण उस व्यक्ति पर हमला किया जो खुद को सुने अथवा
निकाल दिए जाने के लिए कह रहा था, उसे जल्दी ही अदालत में लाया जाएगा। इस
बीच, मैं शीघ्रता से सभा में अपने व्यवहार को लेकर आपको यह पत्र लिख रहा हूँ ताकि
इस संबंध में किसी तरह की गलतफहमी या गलत व्याख्या से बचा जाए।
आपका धन्यवाद,
मैं,
भवदीय,
वीडी सावरकर
140, सिंक्लेयर रोड, 5 जुलाई
विनायक के पत्र का कथ्य और उनके द्वारा सुझाए गए कु शल कानूनी पक्ष के संदर्भ लंदन
के अनेक समाचार पत्रों ने उठाए। विनायक पर हमला करने वाले पार्क र ने 8 जुलाई को
टाइम्स
में लिखे प्रत्युत्तर में ब्रिटिश साम्राज्य की और भारत में अंग्रेजी शासन स्थापित करने
में सहयोग देने वाले उसके सभी पूर्वजों की महानता के बारे में लिखा। उसका दावा था कि
ब्रिटेन में रह रहे भारतीय ‘भले ब्रिटिश लोगों’ के सत्कार का आनंद ले रहे हैं और कै क्स्टन
हाॅल बैठक के प्रस्ताव को नामंजूर करने वाला उसकी चिंता का विषय नहीं है। उसने यह
भी आरोप लगाया कि विनायक के साथियों नेे कु र्सी पर खड़े होकर उस पर छड़ी से वार
किया था। उसने कहा कि इसी कारण उसने ‘सावरकर की आँखों के बीच जोरदार
बरतानवी घूंसा जड़ा था’
110
जिसका उसे लेशमात्र भी अफसोस नहीं है।
समाचारपत्रों ने उत्सुकता से यह भी बताया कि ग्रेज़ इन्न का निर्णय अभी लंबित है। डेली
डिस्पैच
ने विनायक के बारे में ‘उत्कट राष्ट्रवादी. . .बेहतरीन बौद्धिक. . .राजनीतिक
सिद्धांतवादी. . .राजनीतिक आज़ादी के साहित्य से गहरे परिचित’ और वकालती-बार में
उसे ना बुलाए जाने के संबंध में विलंब के लिए, ‘. . .हाउस ऑफ लॉर्ड्स के निर्णय के
इंतजार में जहाँ उन्होंने अपील दायर की है’
111
जैसी सूचनाएं प्रकाशित कीं। बोल्टन
इवनिंग
न्यूज ने भी कहा: ‘इस देश में भारतीय विद्यार्थियों के समुदाय के बीच सावरकर का
प्रमुख स्थान है और सभा के दौरान जो व्यवहार उन्होंने अपनाया, उनके जैसे व्यक्ति के
विचारों के लिए गुंजाइश जरूर रखनी चाहिए।’
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समाचारपत्र ने कानूनी हलकों में होने
वाली हलचल पर भी ध्यान दिलाया जो उन्हें वकालती-बार में बुलाए जाने के फै सले से जुड़े
ध्यान और उत्तेजना से उठ रही थी। ईस्टर के समय उनका अनुरोध पत्र ‘बड़ी संख्या में
सदस्यों की बैठक में के वल तीन मतों से अस्वीकार हुआ’ जो चौबीस सदस्यीय थी और
आगामी सप्ताह की बैठक में ‘प्रतिष्ठित सलाहकारों द्वारा प्रस्तावित’ उनके नए अनुरोध पत्र
पर विचार किया जाना था। परंतु कै क्स्टन हाॅल की हाथापाई के प्रत्यक्ष नतीजे के अनुसार
14 जुलाई को ग्रेज़ इन्न के सदस्यों की बैठक में विनायक को वकालती-बार के लिए अयोग्य
माना गया था।
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वहीं स्काॅटलैंड यार्ड को हत्या के आरोपी को इंडिया हाउस के सदस्यों से जोड़ने का
बहाना भी मिल गया था। षड्यंत्रकर्ताओं की तलाश में लंदन पुलिस ने प्रत्येक से पूछताछ
की। वह चाहती थी कि एमपीटी आचार्य एवं अन्य लंदन छोड़ दें।
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गुप्तचरों ने सैयद हैदर
रज़ा के जरिए आचार्य पर अमेरिका चले जाने का जोर डलवाया, परंतु उन्होंने साफ मना
कर दिया। प्रेस को कु छ सनसनीखेज सूचना देने से रोकने के लिए ही कई भारतीय
क्रांतिकारियों को अमेरिका भेज दिया गया था।
115
इस बीच, 10 जुलाई को ढींगरा के मुकदमे की पुनः शुरुआत हुई। इस मौके पर, पुलिस
कमिश्नर सर एडवर्ड हेनरी, जन अभियोजन के निदेशक सर चार्ल्स मैथ्यूज़ एवं अन्य
उपस्थित थे। पुलिस ‘घने बाल और गहरे गेहुएं रंग. . .बड़ा सुनहरा चश्मा...दुहरी परत का
काले और ग्रे सूट पहने’ पच्चीस वर्षीय ढींगरा को लेकर आई।
116
अभियोजन पक्ष की ओर
से अनेक गवाह पेश किए गए जिनमें कर्जन वायली का पोस्टमार्टम करने वाले डाॅ. थाॅमस
नेविल भी थे। उन्हें सीधी आँख में एक गोली का प्रवेश और गले से गोली बाहर निकलने के
जख्म मिले थे, बाईं आँख में दो घाव और गले की पिछली ओर घाव, एक घाव बाएं कान के
नीचे और अन्य घाव बाईं भौंह के ऊपर मिला था। गोलियां मृतक के सिर के अंदर पाई गई
थीं और मृत्यु का कारण मस्तिष्क में लगी चोट बताया गया।
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समूची कार्यवाही के दौरान
ढींगरा कटघरे के किनारे का सहारा लेकर खड़े थे, ‘उनका दायां हाथ पीछे और बायां एक
ओर लटका हुआ’ था।
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टिंडल एटकिन्सन ढींगरा के परिवार की ओर से वकील थे
जिन्होंने एक बार फिर कहा कि वह, ‘अपराध को बेहद घृणा भाव से देखते हैं, और जिन
विचारों या लक्ष्यों को देखते हुए यह अपराध किया गया है, वह उसके प्रति किसी भी
सांत्वना का जोरदार खंडन करते हैं’। ढींगरा के पिता और समस्त परिवार की ओर से
एटकिन्सन ने कहा कि ‘साम्राज्य के लिए उनसे अधिक वफादार प्रजा और कोई नहीं’ है।
119

तत्पश्चात, न्यायाधीश ने ढींगरा से पूछा कि वह अभियोजन पक्ष के जवाब में कु छ कहना


चाहते हैं तो उन्होंने बहुत बेपरवाही से कहा कि वह सभी गवाहों से सहमत हैं। अपने पक्ष में
वह कोई सबूत नहीं देना चाहते, परंतु वह अपना वक्तव्य जरूर पढ़ना चाहते हैं। मदन लाल
ढींगरा का ऐतिहासिक वक्तव्य इस तरह से था:
अपने किए को न्यायोचित ठहराने के अतिरिक्त मैं अपने बचाव में कु छ नहीं कहना
चाहता। मेरे लिए, अंग्रेजी कानून की किसी भी अदालत के पास मुझे गिरफ्तार करने या
पकड़ने अथवा मुझे फांसी की सज़ा देने का अधिकार नहीं है। इसी कारण अपने बचाव
के लिए मेरा कोई वकील नहीं है।
और मैं निश्चयपूर्वक कहना चाहता हूँ कि यदि जर्मनों द्वारा इस देश पर कब्जा करने
पर एक अंग्रेज की यह राष्ट्रभक्ति है कि वह उससे लड़े तो मेरे मामले में अंग्रेजों के
खिलाफ लड़ना और भी न्यायसंगत और राष्ट्रभक्तिपूर्ण हो जाता है। मैं दोहराता हूँ कि
पिछले पचास वर्षों में अंग्रेज लोग 8 करोड़ भारतीयों की मौत के जिम्मेदार रहे हैं और
प्रतिवर्ष वह भारत से £ 100,000,000 लेकर इस देश में आते हैं। मैं उन्हें अपने
राष्ट्रभक्त देशवासियों को फांसी और निष्कासित किए जाने का भी जिम्मेदार मानता हूं,
जिन्होंने वही किया था जो अंग्रेज लोग अपने देशवासियों को करने को कह रहे हैं। और
जो अंग्रेज भारत जाकर करीब £ 100 प्रतिमाह का वेतन लेता है, इसका अर्थ यही है
कि वह मेरे एक हजार गरीब देशवासियों की मौत का फरमान जारी करता है, क्योंकि ये
हजार लोग आसानी से £ 100 में जीवन व्यतीत कर सकते हैं, जिस पैसे को एक अंग्रेज
व्यर्थ कार्यों और व्यसनों पर खर्चता है।
जैसे जर्मनों को इस देश पर कब्जा करने का कोई हक नहीं, अंग्रेज लोगों को भी
भारत पर कब्जा करने का कोई अधिकार नहीं है, और हमारी पवित्र भूमि को प्रदूषित
कर रहे अंग्रेजों को मारने का हमें पूरा हक है। मैं अंग्रेज लोगों के भयानक पाखण्ड,
दोगलेपन पर हैरान हूं। कांगों के लोगों और रूस के लोगों के संबंध में वह शोषित
मानवता के मसीहा होने का दम भरते हैं – परंतु जब भारत के लोगों के भयानक शोषण
और भयावह अत्याचारों की बात आती है; उदाहरण के लिए, प्रतिवर्ष बीस लाख लोगों
की हत्या और हमारी महिलाओं पर जुल्म, तो उनकी जुबान सिल जाती है। यदि इस
देश पर जर्मनों का कब्जा हो जाए, और कोई अंग्रेज युवक, जर्मनों को लंदन की सड़कों
पर विजेताओं की सी निर्लज्जता सा घूमता हुआ देखे और एक या दो जर्मनों को मार
डाले, तो उस अंग्रेज युवक को यहाँ के लोग देशभक्त मान लेंगे, उसी तरह मैं अपनी
मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए तैयार हूँ।
अदालत के सामने मैं इस पत्र से और क्या कह सकता हूं। मैंने यह वक्तव्य अपने लिए
क्षमा या ऐसी ही किसी वस्तु के लिए नहीं दिया है। मेरी इच्छा है कि अंग्रेज लोग मुझे
मृत्युदंड दें, जिससे मेरे देशवासियों की बदले की भावना और प्रबल हो जाएगी। मैं इस
बयान को शेष विश्व, विशेषकर अमेरिका और जर्मनी के सामने अपने लक्ष्य के लिए
न्याय स्वरूप रख रहा हूँ।
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अदालत खामोश थी और कक्ष में सन्नाटा फै ला था। कानूनी मदद के लिए एक बार फिर
पूछे जाने पर क्रु द्ध ढींगरा ने कहा:
मैं आपसे कितनी ही बार कह चुका हूँ कि मैं इस अदालत के अधिकार को नहीं मानता।
आप जो करना चाहें कर सकते हैं। मुझे कोई ऐतराज नहीं। आप मुझे मृत्युदंड दे सकते
हैं। मुझे परवाह नहीं। तुम गोरे लोग सर्वशक्तिमान हो गए हो, लेकिन, याद रखना, जल्दी
ही हमारा समय आएगा और फिर हम जो चाहें करेंगे।
न्यायाधीश ने 17 अगस्त को ढींगरा को अपराध का दोषी मानते हुए फांसी की सज़ा
सुनाई। उनके मामले को ओल्ड बेली में सेशन्स कोर्ट में प्रमुख न्यायाधीश लॉर्ड एल्वर्टन के
अधीन भेजा गया। जब पुलिस उन्हें ले जा रही थी तो ढींगरा ने न्यायाधीश से कहाः
‘धन्यवाद, माई लॉर्ड। मुझे परवाह नहीं। अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए अपना जीवन
बलिदान करते हुए मुझे गर्व है।’
121
ढींगरा को ब्रिक्स्टन जेल में रखा गया जहाँ 22 जुलाई को विनायक उनसे मिलने गए।
उनके समूचे परिवार ने साथ छोड़ दिया था, परंतु विनायक ढींगरा के साथ थे। इस भावुक
मुलाकात के दौरान दोनों की आँखों से आंसू बह रहे थे। कहते हैं विनायक ने ढींगरा से कहा
था, ‘मैं एक महान देशभक्त और शहीद के दर्शन के लिए आया हूँ।’
122
जिस पर खुशी और
आभार के आंसुओं को आँखों में भरकर ढींगरा उनके पैरों पर गिर पड़े थे। इसके कु छ दिनों
बाद की मुलाकात के दौरान ढींगरा ने दो मांगें रखी थीं: उन्हें एक दर्पण चाहिए था जिसे
देखकर उन्हें पता चल सके कि वह हंसते हुए फांसी तक जा रहे हैं और उनका अंतिम
संस्कार हिन्दू रीति से किया जाए और कोई भी गैर-हिन्दू उनके शव को हाथ ना लगाए।
उन्होंने यह भी कहा कि उनका सामान और कपड़े बेचकर पैसे को राष्ट्रहित कार्य में
इस्तेमाल किया जाए।
निकट आती जा रही ढींगरा की फांसी की तारीख से परेशान विनायक ने अपने मित्र के
लिए एक और कार्य करने का प्रण किया। वह ढींगरा की आवाज को समाचार पत्रों में
प्रकाशित करवाने को प्रतिबद्ध थे ताकि इतिहास उन्हें एक हिंसक और पथभ्रष्ट युवा के तौर
पर ना याद करे, जैसा भारतीय समुदाय और उनके परिवार का पक्ष था। यह खतरनाक
और लगभग असंभव लक्ष्य था। परंतु विनायक ज़िद पकड़ चुके थे। ढींगरा अदालत में एक
और बयान पढ़ना चाहते थे परंतु पुलिस ने उसे जब्त कर ऐसा करने से रोक दिया था।
बयान की प्रति विनायक और उनके साथियों के हाथ लग चुकी थी। उन्होंने निर्णय किया
कि ढींगरा को सर्वश्रेष्ठ शृद्धांजलि, दूसरे वक्तव्य को प्रकाशित कर ही होगी। भारतीय संघर्ष
के प्रति संवेदना रखने वाले हिंडमैन जैसे अनेक ब्रिटिश लीडर हालाँकि ढींगरा के तरीके के
पक्ष में नहीं थे, परंतु उनका मानना था कि ढींगरा द्वारा ब्रिटिश सरकार पर लगाए गए
आरोप कड़वे और सच हैं। इस कारण, उनके वक्तव्य को वृहत ब्रिटिश जनता की नजरों के
सामने आना चाहिए। विनायक ने वक्तव्य की प्रतियाँ छपवाईं और उन्हें विभिन्न अमेरिकन
एवं आयरिश समाचार पत्रों को भेजने के लिए ज्ञानचंद वर्मा पेरिस रवाना हुए। ब्रिटिश
खुफिया विभाग का दावा था कि लिखे हुए कथ्य की शैली विनायक की लेखनी से इतनी
मिलती थी कि संभवतः वह उन्हीं ने लिखा था। विनायक ने डेली न्यूज
में काम करने वाले
अपने एक मित्र डेविड गार्नेट से वक्तव्य को छपवाने के लिए पूछा क्योंकि लंदन का कोई
अन्य समाचार पत्र उसे छापने को तैयार नहीं था। गार्नेट वक्तव्य अपने बॉस, रॉबर्ट लिंड के
पास ले गए जो ढींगरा की फांसी से एक दिन पहले – 16 अगस्त को विशिष्ट ‘स्कू प’
प्रकाशित करने को राजी हुए। ‘चुनौती’
123
शीर्षक से ढींगरा के वक्तव्य से पहले प्रस्तावना
के तौर पर संपादक की टिप्पणी थी:
एक प्रति हमारे हाथ आई है जिसे ढींगरा ने हत्या से पहले लिखा था ताकि वह उसे इस
तरह पढ़ सकें जैसे कि यह घटना के उपरांत लिखी गई हो। मुकदमे के दौरान कै दी ने
इस दस्तावेज का जिक्र किया था परंतु इसे जनता के सामने नहीं लाया गया। हम
बताना चाहेंगे कि इसकी प्रति कु छ समय से ढींगरा के साथियों के पास थी। यह वक्तव्य
निम्न है:
चुनौती
मैंने उस दिवस माना था कि राष्ट्रभक्त भारतीय युवाओं के निष्कासन और दुर्दांत
फांसियों के प्रतिशोध स्वरूप मैंने ब्रिटिश खून बहाने का प्रयास किया है।
मेरा मानना है कि विदेशी बंदूक के हत्थों के जोर से गुलाम बनाया गया देश सदा
युद्धावस्था में रहता है। चूंकि निहत्थी जनता खुलेआम युद्ध न करने को मजबूर रहती है,
इसलिए मैंने आकस्मिक हमला किया; चूंकि मुझे बड़ी बंदूकों की मनाही थी, ऐसे में मैंने
अपनी पिस्तौल निकाली और गोली दागी।
एक हिन्दू के तौर पर मेरा मानना है कि मेरे देश के साथ गलत व्यवहार ईश्वर का
अनादर है। स्वास्थ्य और बौद्धिक तौर पर निर्धन होने के कारण मेरे पास मेरी माता को
देने के लिए अपने रक्त के अलावा और कु छ नहीं, और इसलिए मैंने उसकी देहरी पर
यही भेंट चढ़ाई। मेरी माता का ध्येय भगवान राम का ध्येय है। उसकी सेवाएं भगवान
कृ ष्ण की सेवाएं हैं। भारत और इंग्लैंड के बीच स्वतंत्रता की लड़ाई तब तक जारी रहेगी
जब तक हिन्दू और अंग्रेज नस्ल मौजूद रहेंगे (यदि मौजूदा अस्वाभाविक संबंध नहीं
रुका तो)।
अब भारत में सीखने को एकमात्र पाठ यही है कि कै से मरा जाए और उसे सिखाने
का एकमात्र तरीका है, खुद मरकर दिखाना। अतः, मैं मर रहा हूँ और मेरी कामना है कि
मेरी शहादत की प्रतिष्ठा बनी रहे।
ईश्वर से मेरी एक ही प्रार्थना है: मैं इसी माता के घर जन्म लूं और इसी पवित्र लक्ष्य की
खातिर फिर मरूं जब तक कि लक्ष्य पूर्ण न हो जाए और माता मानवता की भलाई और
ईश्वर की महिमा में स्वतंत्र न दिखे।
वन्दे मातरम् !
कई दशकांे के बाद लॉयड जाॅर्ज ने ढींगरा की राष्ट्रभक्ति के प्रति अपनी प्रशंसा के बारे में
विन्स्टन चर्चिल को बताया था। ऐसा कहा जाता है कि चर्चिल ने कहा था, ‘राष्ट्रभक्ति के
नाम पर ढींगरा के अंतिम शब्द सबसे उत्कृ ष्ट हैं’ और उन्होंने ढींगरा की तुलना प्लूटार्क के
अमर नायकों से की।
124
17 अगस्त की सुबह, पेन्टनविल जेल के बाहर विशाल जनसमूह उपस्थित था।
उल्लेखनीय है कि ‘भीड़ में गिने-चुने ही भारतीय थे’।
125
नौ बजते ही ढींगरा ने सहर्ष और
पूरे आत्मविश्वास के साथ मौत को गले लगा लिया। उनका मानना था कि उनकी शहादत
भारत में उनके जैसे हजारों युवाओं को प्रेरित करेगी। ढींगरा की अंतिम इच्छा के बावजूद,
ब्रिटिश सरकार ने छल करते हुए अंतिम संस्कार के लिए शव देने से इनकार कर दिया और
आम चलन के अनुसार उन्हें जेल में ही दफना दिया। इसके बावजूद, ज्ञानचंद वर्मा ने
क्रियाकर्म संबंधी सभी संस्कार पूर्ण किए और अपना सिर भी मुंड़वाया था। दशकों बाद,
13 दिसंबर 1976 में इंदिरा गांधी की अगुवाई में तत्कालीन भारत सरकार ढींगरा की
अस्थियों को स्वदेश, उनके गृहनगर अमृतसर लेकर आई और उनकी याद में एक स्मारक
बनवाया गया था।
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ढींगरा की शहादत और उनके हृदयग्राही वक्तव्यों को अमेरिकन, यूरोपियन एवं आयरिश
प्रेस ने व्यापक तौर पर प्रकाशित किया था। हालाँकि, इन देशों के अधिकांश समाचार पत्रों
ने मुकदमे के दौरान ढींगरा की हिम्मत और आचरण की प्रशंसा की, ‘ब्रिटिश शिष्टता और
अपराध’ शीर्षक वाले न्यूयाॅर्क टाइम्स
के संपादकीय में लंदन में भारतीय विद्यार्थियों को
लेकर इंडिया हाउस और ब्रिटिश लापरवाही, दोनों की आलोचना की। संपादकीय ने लिखा:
परंतु इंडिया हाउस में कु छ और भी चल रहा था। प्रत्येक सप्ताह एक गुप्त सभा यहाँ
होती, जिसके सदस्य खुद को ‘द डिस्ट्रॉयर्स’ कहते थे। यह सभा श्री कृ ष्णवर्मा के
सिद्धांतों को अमलीजामा पहनाने के लिए तैयार की गई थी. . .ऐसा कहा जाता है कि
‘द डिस्ट्रॉयर्स’ ऐसे बिलौटे हैं जिन्हें प्यार से पुचकारना पड़ेगा, वे नियंत्रण में नहीं आने
वाले। उन्हें उनके गलत तरीकों के बारे में पुस्तकों और आलेखों के जरिए उनके देश में
ब्रिटिश शासन की शुभेच्छाओं का ज्ञान कराना होगा।
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आलोचना की चिंता ना करते हुए, विनायक के नेतृत्व में लंदन के भारतीय क्रांतिकारियों ने
‘हमारे शहीद मदन लाल ढींगरा की स्मृति में’ शीर्षक से प्रचार-पुस्तिकाएं प्रकाशित कीं।
17 अगस्त 1909 के इस दिन की सुबह, अपनी मातृभूमि से प्रेम करने वाले हर भारतीय
के हृदय में सुर्ख लफ्ज़ों में दर्ज रहेगी। इस सुबह हमारा महान शहीद, हमारा प्रिय
ढींगरा, पेन्टनविल जेल में फांसी की रस्सी में फं सी गर्दन से झूल रहा है। उनकी महान
आत्मा पृथ्वी पर उनके नश्वर शरीर से निकलकर उस ध्येय को आध्यात्मिक ऊं चाई
प्रदान कर रही है जिसकी वेदी पर वह शहीद हुए। यह महान शहीद अपने लौकिक
शरीर में हमारे साथ नहीं हैं, परंतु उनकी आत्मा हमारे साथ है, हमारे साथ रहेगी और
हमारी मातृभूमि की आज़ादी की लड़ाई में हमारा मार्गदर्शन करेगी और भारत के
इतिहास में लिखा उनका नाम भावी पीढ़ियों तक जाएगा। अपनी मातृभूमि पर विदेशी
राज का शोषण उनसे बर्दाश्त न हुआ और उन्होंने अभियान की मदद करने का निर्णय
लिया, जो था अपना जीवन देकर, मातृभूूमि को मुक्त कराना. . .‘मैं इस अदालत के
अधिकार को नहीं मानता। आप जो करना चाहें कर सकते हैं। मुझे कोई ऐतराज नहीं।
आप मुझे मृत्युदंड दे सकते हैं। मुझे परवाह नहीं। तुम गोरे लोग सर्वशक्तिमान हो गए
हो, लेकिन, याद रखना, जल्दी ही हमारा समय आएगा और फिर हम जो चाहें करेंगे’–
जब अपने भीतर हतोत्साहित महसूस कर रहे अंग्रेज जज ने उन्हें मृत्यु का फरमान
सुनाया होगा, तब यह उनके शब्द थे. . .और कै से हमारे दुश्मनों ने उन्हें मार दिया! परंतु
उन्हें याद रहे कि वह कभी इस अभियान को कु चल या समाप्त नहीं कर पाएंगे। तूफान
के इशारे पर मृदुल लहरों सी नैतिक शक्तियाँ पर्वतों और जमीनों को बहा देती हैं।
राष्ट्रभक्त का काम मानव समाज की नैतिक लहरों के तूफान सा होता है जो रुकावटों
को बहाता हुआ, सफलता के ध्येय को प्राप्त करता है।
128
लंदन के समाचार पत्र न्यू एज
ने महत्वपूर्ण विचार रखा: ‘भविष्य में भारत उसे (ढींगरा) पूरे
जिम्मेदार नायक के तौर पर मानेगा। हमारा मत है कि भारत ठीक है। हमारे विचार भी दर्ज
किए जाने चाहिए। यह भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत है।’
129
ढींगरा का मामला – ब्रिटिश जमीन पर उनके खिलाफ भारत के पहले निर्भीक हमले ने
दुनिया भर में और भारत में दहशत की लहरें दौड़ा दी थीं। सुब्रह्मण्य भारती द्वारा पांडिचेरी
से प्रकाशित इंडिया
में वीवीएस अय्यर के आलेखों ने भी खासी सनसनी पैदा की, जिसके
बाद समाचार पत्रों के मालिकों के साथ वैचारिक मतभेद के कारण भारती ने अपना पद
छोड़ दिया। फिर भी अय्यर, ‘देशभक्तन’, ‘भारत सेवकन्’ और ‘भारत प्रियन’ जैसे विभिन्न
छद्म नामों से समाचार पत्र में लिखते रहे थे। ढींगरा के मुकदमे के दिनों पर आलेख
प्रकाशित हुए, जेल में उनके आखिरी दिनों और एक शिष्ट कै दी का उनमें उल्लेख था और
यह भी कि कै से अंतिम दिनों के दौरान वह के वल आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते थे। 1908 से
1910 तक इंग्लैंड प्रवास में रहे राजनीतिक कार्यकर्ता, वकील एवं तिलक के निकटवर्ती
जीएस खापर्डे ने अपने साक्षात्कारों में ढींगरा की शहादत और भारत की स्वतंत्रता के लिए
उसके अर्थ के बारे में समझाया। डब्ल्यूएस ब्लंट के साथ एक बातचीत के दौरान उन्होंने
कहाः ‘यदि भारत 500 ऐसे बेखौफ व्यक्तियों को तैयार कर ले, तो वह स्वतंत्रता प्राप्त कर
सकता है. . .किसी भी शहीद द्वारा किसी धर्म विशेष के लिए दृढ़ता नहीं दिखाई गई है।
ऐसा स्नेह करने वाले पुत्रों के रहते, भारत माता को विजयी होना ही चाहिए’।
130
इस बीच कु छ समय से श्यामजी और इंडिया हाउस के युवा क्रांतिकारियों के बीच
समस्याएं उभर रही थीं। कर्जन वायली की हत्या के कारण ढींगरा की शहादत के बाद
श्यामजी की कठोर चुप्पी के कारण यह और भी गहरा गई थी। विनायक एवं अन्य द्वारा
लगातार विनती के कारण, हत्या के दस दिनों बाद आखिरकार उन्होंने चुप्पी तोड़ी। द
टाइम्स
को पेरिस से लिखे गए एक पत्र में उन्होंने इंडिया हाउस की तलाशी की कड़ी निंदा
की और साथ ही कहा कि वह ढींगरा को ना ही जानते थे और ना कभी मिले थे। वह उनके
पेरिस जाने के बाद इंडिया हाउस आए थे। श्यामजी ने कहाः
हालाँकि मेरा इस हत्या से कोई संबंध नहीं जिसे गत शनिवार पुलिस अदालती जांच के
दौरान श्री ढींगरा ने अपने राष्ट्रभक्तिपूर्ण और निर्भीक बयानों में पूरी तरह से राजनीति
आधारित कार्रवाई बताया है, मैं इस कार्रवाई के पूरी तरह से समर्थन में हूँ और बयान
के लेखक को भारतीय स्वतंत्रता के ध्येय का शहीद मानता हूं। मदनलाल ढींगरा का
नाम भविष्य में इस तरह याद किया जाएगा जो आदर्श के लिए वेदी पर चढ़ने तक
निष्ठावान रहे. . .न्यायाधीश के सामने उनका बयान और लंदन में ओल्ड बेली में मुकदमे
के दौरान उनकी घोषणा, दोनों अपनी हिम्मत, सत्य और राष्ट्रभक्ति के लिए ध्यान
खींचती हैं, और उन्हें दुनिया में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले आज़ाद नायकों की
शीर्ष श्रेणी में शामिल करते है।
131
हैरानी है कि जुलाई 1909 के इंडियन सोशलॉजिस्ट
के अंक में श्यामजी ने लिखा,
‘राजनीतिक वध हत्या नहीं होता. . .हमारे पास अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सहयोग है जिसके
अनुसार राजनीतिक दोषी नैसर्गिक नियमों के खिलाफ नहीं, बल्कि अप्रचलित कानूनों के
खिलाफ होते हैं, जैसा कि भारत में चल रहा है’।
132
संयोगवश राजनीतिक हत्याओं को
जायज ठहराने वाला आलेख कर्जन वायली की हत्या वाले महीने छपने के कारण श्यामजी
पर षडयंत्र का शक किया गया था। हालाँकि, उन्हें विनायक और ढींगरा की योजना की
जानकारी नहीं थी, श्यामजी ने उनसे सैद्धांतिक रूप से एकमत होते हुए भी दूरी बना ली
थी। युवा क्रांतिकारियों को यह कदम नागवार गुजरा और वह अपने आदर्श के हाथों ठगा
महसूस कर रहे थे। ढींगरा की वीरता और शहादत पर इंडियन सोशलॉजिस्ट
के अगस्त
1909 अंक में अनेक स्तुतिगान के बावजूद यह स्थितियाँ सामने आई थीं, जिनमें कहा गयाः
‘उनके वक्तव्य एवं उक्तियों में विश्वास की घोषणा. . .बिना शक भारतीय राष्ट्रवादियों के
बीच पवित्र शब्दों की तरह प्रसारित होंगे।’
133
श्यामजी ने ढींगरा की याद में चार
छात्रवृत्तियों की घोषणा की थी।
तथापि, विनायक और उनके साथी श्यामजी द्वारा सुझाए गए पूर्णतया सैद्धांतिक
अतिवाद से दूर रहते थे। राजनीतिक हिंसा और हत्याओं को लेकर श्यामजी के
विरोधाभासी विचारों से क्रांतिकारियों के बीच व्याकु लता बनी थी। जाहिर है ‘श्यामजी के
लेखन में नेतृत्व को लेकर स्वःमिथ्याभिमान और आडंबर के अतिरेक की नित बढ़ती मात्रा
को लेकर वह क्रु द्ध तथा उत्तेजित रहते थे’।
134
पेरिस से क्रांतिकारियों की कमान संभालने
पर कई लोगों ने आपत्ति जताई जिसका नतीजा अशिष्ट खुले वक्तव्यों में सामने आता था।
हालाँकि, विनायक श्यामजी के खिलाफ कोई बयान नहीं देते थे क्योंकि श्यामजी ने ही उन्हें
इंडिया हाउस में स्थापित किया था और छात्रवृत्ति के जरिए उनकी शिक्षा को सहयोग दिया
था।
135
फिर भी, व्याकु ल चित्त के वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जैसे नवयुवक को ऐसा करने में कोई
आपत्ति नहीं थी। उन्होंने श्यामजी के विरुद्ध द टाइम्स
में कठोर आरोप लगाएः ‘वह अपने
आप को चाहे कु छ भी कहें, लेकिन वह किसी भी तौर पर राष्ट्रवादी नहीं हैं। उन्हें भारत में
किसी छोटे से समूह ने भी कभी अपना नेता स्वीकार नहीं किया था, हालाँकि, इस देश में
सत्रह वर्ष रहने के बाद उन्होंने “राष्ट्रभक्ति की भेंटों” के आधार पर बहुत परिश्रम से उस
महान अभियान का अंश बनने का जज्बा बटोरा है जो पूर्णतया और स्पष्ट रूप से उनके
मार्गदर्शन को नकारता है।’
136
क्रांतिकारियों से खुद को दूर रखने के श्यामजी के दावे और उसके बावजूद राजनीतिक
हत्याओं को सैद्धांतिक रूप से सहयोग देने पर विनायक और उनके क्रांतिकारी साथी
निराश थे। द टाइम्स
को चट्टोपाध्याय ने एक और पत्र लिखाः ‘जिस दिन मैं राजनीतिक
हत्याओं और गोपनीय षड्यंत्रों की जरूरत के प्रति आश्वस्त हो जाऊं गा, लिखना छोड़ दूँगा।
उसके बाद मैं अपने देश लौटकर अपने सिद्धांतों को मूर्त रूप देने का प्रयास करूं गा। परंतु
मैं किसी यूरोपियन शहर की चारदीवारी में सुरक्षित आवास में ठिकाना तलाश नहीं
करूं गा।’
137
परंतु एक वर्ष बाद, अप्रैल 1910 में, चट्टोपाध्याय ने माफी मांगते हुए श्यामजी से सुलह
कर ली थी। उसके बाद 1930 में श्यामजी की मृत्यु तक उनके संबंध मधुर बने रहे।
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के जुलाई अंक में ढींगरा के पक्ष में श्यामजी के विचार प्रकाशित
करने के अपराध में समाचार पत्र के प्रकाशक, ऑर्थर फ्लैचर हाॅर्सले पर राजद्रोह का
मुकदमा दायर किया गया था, जिसकी सुनवाई ढींगरा पर किए गए मुकदमे के दिन ही थी।
प्रधान न्यायाधीश लॉर्ड एल्वर्सटन ने निर्णय सुनाया कि भविष्य में इस तरह के
आपत्तिजनक कथ्य लिखने या प्रकाशित करने वाले पर मुकदमा दर्ज किया जाएगा। 23
जुलाई को हाॅर्सले को भी चार महीने की सज़ा सुनाई गई। इसे देखते हुए, फ्री प्रेस के
हिमायती, प्रकाशक, घोषित अतिवादी और क्रांतिकारियों के पक्षधर, बाईस वर्षीय गाइ
एल्ड्रेड ने उस फरमान को तोड़ने की ठानी। उन्होंने अपने नाम से, इंडियन सोशलॉजिस्ट
में
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ और ढींगरा एवं अन्य भारतीय क्रांतिकारियों का पक्ष लेते
हुए एक लंबा और कड़वा लेख लिखा। अन्य बातों के साथ-साथ उन्होंने लिखा:
ढींगरा को फांसी के दंड की आड़ में वह आवरण सबके सामने ओढ़ा रखा जाएगा, उस
गुप्त भाषा का उच्चारण, उपनिवेशवाद की तलवार को छु पाए रखने वाला वह
औपचारिक नकाब जिसके मार्फ त हमें आधुनिक तानाशाही की अतृप्त प्रतिमा की भेंट
चढ़ाया जाता है, और क्रोमर, कर्जन तथा मोर्लें एंड कं पनी जिसके मंत्री हैं – जिसे वह
एक सरकारी नौकर की हत्या के मौके पर जघन्य अपराध कह कर हमारे सामने प्रस्तुत
करते हैं – वहीं किसी मेहनतकश के मरने पर, किसी राष्ट्रवादी, एक मिस्री फे लाहीन या
तानाशाही समाज की भूख की भेंट चढ़ चुके भुखमरी के शिकार की मौत पर उन्हें बिना
पछतावे या ग्लानि के अभ्यास में हम देखते हैं. . .तो फिर ढींगरा को फांसी क्यों दी जाए
? क्योंकि वह कोई सज़ा भुगत रहा हत्यारा न होकर एक राष्ट्रवादी देशभक्त है, जिसके
आदर्श हालाँकि उनके आदर्श नहीं हैं, पर वह अपनी जमीन के मेहनतकशों के लिए
आदर्श है जिन्हें भारत में राष्ट्रवादियों की भांति औपनिवेशिक रक्त-पिपासु, पूंजीवादी
परजीवियों की खुशामद करने से कु छ मिलने वाला नहीं।
138
25 अगस्त 1909 को गाइ को उनके 35, स्टैनलेक रोड, शैपड्र्स बुश स्थित निवास से
गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने इंडियन सोशलॉजिस्ट
के अगस्त संस्करण की 369
प्रतियाँ जब्त कीं। पूछताछ के दौरान गाइ ने 1500 प्रतियाँ प्रकाशित करने की बात कबूली
जिसमें से 1000 प्रतियाँ पेरिस में श्यामजी को भेज दी गई थीं। पुलिस को श्यामजी एवं
गाइ के बीच लिखे गए पत्र भी बरामद हुए। 28 जुलाई के एक पत्र में श्यामजी ने दृढ़ निश्चय
दिखाने के लिए गाइ की प्रशंसा करते हुए लिखा कि हाॅर्सले की गिरफ्तारी के बाद वह
इंडियन सोशलॉजिस्ट
के प्रकाशन का कार्य करते हुए ‘जरा भी नहीं डरते’।
139
10 अगस्त
के एक पत्र में श्यामजी ने गाइ से अनुरोध किया था कि संस्करण ढींगरा की फांसी से एक-
दो दिन पहले आ जाए, ताकि वह खुद पर श्यामजी के विचारों को ‘प्रकाशित रूप में देख
सकें ’।
140
गाइ की बकु निन प्रेस का नाम जाने-माने रूसी क्रांतिकारी के नाम पर रखा गया
था। गाइ पर 7 सितंबर को निचली अदालत में सुनवाई हुई और 10 सितंबर को न्यायाधीश
कोलरिज ने उन्हें दोषी ठहराया। उन पर ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के प्रचलित कानूनों के
खिलाफ आवाज उठाने, सम्राट के विरुद्ध मूल भारतीयों के दिमाग में विद्वेष पैदा करने,
शारीरिक शक्ति, हिंसा और अव्यवस्था फै लाने के आरोप लगे थे। इसके लिए उन्हें बारह
महीने सख्त कै द की सज़ा सुनाई गई।
141
न्यू स्काॅटलैंड यार्ड की मेट्रोपोलिटन पुलिस के डिटेक्टिव इन्सपेक्टर फ्रांसिस पाॅवेल के
अधीन पुलिस ने लंदन के हैमरस्मिथ में रहने वाले जेम्स टोचाटी का भी पता लगाया था।
टोचाटी पर गाइ का सहयोग करने का आरोप था जिनके पास बगावती इंडियन
सोशलॉजिस्ट
की प्रतियाँ थीं। यह भी पता चला कि टोचाटी पत्रिका का सितंबर संस्करण
प्रकाशित करने की तैयारी में है जिसकी टाइप भी तैयार हो चुकी है। इस कार्य में फ्रें क
किट्ज और पांच अन्य व्यक्ति उसके मददगार हैं। यह देखते हुए अदालत ने सभी व्यक्तियों
को गिरफ्तार कर पेश करने का आदेश दिया। लिहाजा, भारतीय क्रांतिकारियों के अलावा,
भारत की आज़ादी के लिए सहयोग कर रहे और भारतीयों के संघर्ष में उनके साथ खड़े
अंग्रेज और आयरिश व्यक्तियों ने भी कानून के बर्बर नतीजे भुगते थे।
ढींगरा के मामले की गूंज बहुत देर तक दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सुनाई देती रही।
अलीपुर बम मामले के बाद अरविंद घोष एवं उनके साथियों द्वारा कलकत्ता से निकाले
जाने वाले वन्दे मातरम् को दबा दिया गया था। इस कारण मैडम भीकाजी कामा एवं लाला
हरदयाल ने इसे द वन्दे मातरम् - भारतीय स्वतंत्रता की मासिक पत्रिका
के तौर पर पुनः
शुरू किया था। पेरिस में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों ने ‘पेरिस इंडिया सोसायटी’ की
भी शुरुआत की थी। जेनेवा से 10 सितंबर 1909 को प्रकाशित द वन्दे मातरम्
का पहला
अंक ढींगरा और उनकी याद को समर्पित था। ढींगरा को श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे गए
‘ढींगरा - द इम्मोर्टल’ में लिखा था:
युवा भारत ने एक और नायक को जन्म दिया है, जिनके शब्द और कार्य आने वाली
सदियों में पूरी दुनिया में याद किए जाएंगे। ढींगरा की उद्घोषणा राष्ट्रीय और वैश्विक
इतिहास में भावी पीढ़ियों के लिए विरासत के तौर पर संजो कर रखी जाएगी। अपने
मुकदमे के प्रत्येक चरण में ढींगरा ने प्राचीन काल के नायकों का सा व्यवहार किया था।
उन्होंने हमें मध्ययुगीन राजपूत और सिखों के इतिहास की याद दिलाई, जो मृत्यु से
नववधू सा स्नेह करते थे। इंग्लैंड को लगता है कि उसने ढींगरा को मार डालाः सच यह
है कि वह अमर हैं और उन्होंने भारत में इंग्लैंड की संप्रभुता पर मृत्यु-प्रहार किया है।
अमरत्व उनका है; कौन उसे उनसे छीन सकता है। सभी देशों ने ढींगरा का मुकदमा
थमी सांसों से देखा, और उन्हें लगा कि नई भारत-भूमि अजेय है क्योंकि वह ऐसे वीर
बेटों को जन्म दे सकती है।
इंग्लैंड के साथ आर-पार की लड़ाई की घोषणा कर चुकी भारतीय राष्ट्रभक्त पार्टी ने
अपना एक घोषणापत्र जारी किया है, जिसमें उसका कहना हैः ‘ढींगरा ने जीवन का
रहस्य खोज निकाला था; उन्होंने अमरत्व का मार्ग खोज लिया है। उन्होंने इंसान की
उच्चतम नियति को प्राप्त कर लिया है. . . उन्होंने खुद को आम आदमी के संघर्ष से
ऊपर उठाया और संतों एवं नायकों की संगत में जा मिले।’ अपने राष्ट्रभक्त-शहीद के
लिए यह शब्द भारत की सोच का सार बताते हैं।
आने वाले समय में, जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य राख में जा मिलेगा, ढींगरा के
स्मारक हमारे प्रमुख शहरों की शोभा बनेंगे, जो हमारे बच्चों को उनके श्रेष्ठ जीवन और
श्रेष्ठतम मृत्यु की याद दिलाएंगे जिसे उन्होंने अपने प्रिय लक्ष्य में विश्वास रखते हुए सुदूर
जमीन पर जान देकर गले लगाया था।
142
नवंबर 1909 में वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय द्वारा स्थापित तलवार
के प्रवेशांक में भी ढींगरा को
श्रद्धांजलि दी गई।
हालाँकि, ढींगरा की फांसी के बाद के आने वाले महीनों में उनके लिए जबरदस्त सहयोग
और प्रशंसा की जा रही थी, वहीं अनेक राजनीतिक पक्षों की ओर से उनके किए पर
भर्त्सना भी जारी थी। लंदन के भारतीय समुदाय के प्रतिष्ठित सदस्यों की तरह, भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी धड़े के लीडर तक ढींगरा के कृ त्य की आलोचना कर रहे थे।
उनके अनुसार इस घटना से ब्रिटिश सरकार के साथ व्यापक स्वायत्त्ता प्राप्ति के उनके
प्रयासों को धक्का पहुँचा है। मोहनदास करमचंद गांधी ने ढींगरा की कड़ी आलोचना करते
हुए लिखा:
सर कर्जन वायली की हत्या का पक्ष लेते हुए कहा जा है कि भारत की बर्बादी के
जिम्मेदार अंग्रेज़ हैं और यह भी कि यदि जर्मनी ब्रिटेन पर कब्जा करता है तो यह
प्रत्येक ब्रिटिश नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह प्रत्येक जर्मन को मारे, उसी तरह
अंग्रेज लोगों को मारना प्रत्येक भारतीय का अधिकार है। इस हत्या पर प्रत्येक भारतीय
को गहराई से सोचना चाहिए। इसने भारत को बहुत नुकसान पहुँचाया है; इससे
शिष्टमंडल के प्रयासों को भी धक्का पहुँचा है। परंतु उस पर सोचना अभी ज़रूरी नहीं
होगा। हमें अंतिम नतीजों पर सोचने की जरूरत है। श्री ढींगरा की पैरवी अस्वीकार्य है।
मेरी राय में उन्होंने एक कायर जैसा बर्ताव किया। जो भी हो, उन पर के वल दया की जा
सकती है। व्यर्थ की लेखनियां पढ़कर वह यह कार्य करने को प्रोत्साहित हुए। ऐसा
प्रतीत होता है कि उनका अपना बचाव प्रयास भी रटी-रटाई क्रिया रही। दरअसल,
जिन्होंने उन्हें ऐसा करने को उकसाया, सज़ा के हकदार वे लोग हैं। मेरी राय में, श्री
ढींगरा स्वयं निर्दोष हैं। हत्या को उन्मादी अवस्था में अंजाम दिया गया था। के वल मदिरा
या भांग ही किसी को नशे में नहीं लाती; उन्मादी विचार भी ऐसा कर सकता है। श्री
ढींगरा का मामला भी कु छ ऐसा ही रहा। जर्मनों और अंग्रेजों की उपमा भ्रांतिमूलक है।
यदि जर्मन हमला करेंगे, तो ब्रिटिश के वल आक्रांताओं को मारेंगे। वह प्रत्येक मिलने
वाले जर्मन की हत्या नहीं करेंगे। इसके अलावा, वह किसी निर्दोष जर्मन या किसी
अतिथि जर्मन को नहीं मारेंगे। यदि मैं किसी को बिना चेतावनी दिए अपने घर में मारता
हूँ – जिसने मेरा कु छ नुकसान नहीं किया – मुझे के वल कायर ही कहा जा सकता है।
अरब लोगों में एक प्राचीन प्रथा है कि वह किसी को अपने घर में नहीं मारते, फिर वह
उनका शत्रु ही क्यों न हो। वह उसे के वल घर से जाने और हथियार उठाने का पूरा मौका
देकर ही मारते हैं। हिंसा में विश्वास रखने वाले बहादुर कहलाएंगे यदि वह किसी को
मारने से पूर्व इन नियमों का पालन करें। अन्यथा, उन्हें कायर ही कहा जाएगा। श्री
ढींगरा के बारे में कहा जा सकता है कि सबके बीच जो उन्होंने किया, उन्हें मालूम था
कि वह भी मारे जाएंगे, इसके लिए उनकी हिम्मत को कम नहीं ठहराया जा सकता।
परंतु जैसा मैंने पहले कहा, व्यक्ति ऐसे कृ त्य नशे की हालत में कर सकता है, जब मृत्यु
का भय भी दूर हो जाता है। इस कार्य में जो भी हिम्मत है वह नशे के कारण है, व्यक्ति
का अपना गुण नहीं। किसी व्यक्ति की हिम्मत गहरे और लंबे समय तक यंत्रणा झेलने
पर दिखती है। वही वीरता का कृ त्य है, जिससे पूर्व गहन चिंतन होता है। मैं कहना
चाहूंगा कि जो लोग सोचते हैं कि ऐसी हत्याएं भारत के हित में हैं, वे सचमुच अनजान
लोग हैं। धोखाधड़ी का कोई कृ त्य देश को लाभ नहीं पहुँचा सकता। यदि ऐसी हत्याओं
के कारण अंग्रेज़ चले भी जाएं तो कौन उनके स्थान पर राज करेगा ? उत्तर एक ही हैः
हत्यारे। तो फिर कौन खुश होगा ? क्या अंग्रेज इसलिए बुरे हैं, क्योेंकि वह अंग्रेज है ?
क्या भारतीय चमड़ी वाला प्रत्येक व्यक्ति भला है?
143
यह संयोग नहीं कि क्रांतिकारी तरीकों की भर्त्सना के कारण ब्रिटिश सरकार 15 नवंबर
1909 को भारतीय परिषद अधिनियम लेकर आई जिसे मोर्ले-मिंटो सुधारों के नाम से भी
जाना जाता है। दरअसल, 1906 में वायसराय लॉर्ड मिंटो ने भारतीयों के बीच बढ़ते शिक्षा
के स्तर और जागरूकता को देखते हुए, शासन प्रणाली में उनकी आवाज सुने जाने के लिए
विस्तृत दलील पेश की थी। और जब क्रांतिकारी गतिविधियों ने रफ्तार पकड़ी और बम
धमाकों एवं राजनीतिक हत्याओं के सिलसिले ने भारत और ब्रिटेन को हिला डाला, तो
सुधारों की गुंजाइश कम रह गई थी। अंततः, अधिनियम के अंतर्गत विभिन्न विधान परिषदों
में भारतीयों के चुनाव को पहली बार वैधता मिली थी। सुधारों के अंतर्गत, 1906 में स्थापित
मुस्लिम लीग के तहत आने वाले विभिन्न मुस्लिम समूहों द्वारा उन्हें निर्वाचन क्षेत्र मुहैया
कराने को भी मंजूरी दी गई। यह पहल बहुत समय तक समस्या बनी रही और आखिरकार
उपमहाद्वीप के लिए त्रासदी के तौर पर सामने आई।
वस्तुतः गांधी ने भी इन प्रशासनिक सुधारों के कारणों को स्वीकार किया था। जब एक
साक्षात्कार में उनसे पूछा गया कि क्या क्रांतिकारियों के डर के कारण राज्य सचिव मार्ले के
सुधार सामने आए हैं, तो गांधी ने स्वीकार कियाः ‘इंग्लैंड भीरु और वीर दोनों तरह का राष्ट्र
है। मुझे लगता है कि इंग्लैंड आसानी से बारूद के असर में आ जाता है। यह संभव है कि
लॉर्ड मार्ले ने डर से इन सुधारों की मंजूरी दी है, परंतु डर के अधीन मिलने वाली छू ट, डर
कायम रहने तक ही रहती है।’
144
उत्तर के अंतर्विरोध से उलझन में आए साक्षात्कारकर्ता ने इसका उल्लेख किया:
क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आप अपने ही पक्ष के खिलाफ दलील दे रहे हैं ?
आपको पता है कि अंग्रेजों ने अपने देश में जो उपलब्धि हासिल की है, वह पशुबल के
आधार पर की है। आपने कहा है कि जो उन्होंने उपलब्ध किया है वह व्यर्थ है, परंतु
उससे मेरी दलील पर फर्क नहीं पड़ता। वह व्यर्थ चीजें चाहते थे और उन्हें वह मिलीं।
मेरा तर्क यह है कि उनकी इच्छा पूरी हुई। इससे क्या फर्क पड़ता है कि उन्होंने कै से
तरीके अपनाए? हम अपने लक्ष्य प्राप्त करने में अपने तरीके क्यों न अपनाएं, जो ठीक
भी हैं, बेशक उनमें हिंसा भी शामिल हो, जो उचित है? क्या अपने घर में चोर से निपटने
के लिए मुझे तरीकों पर सोचना होगा? मेरा काम उसे किसी भी तरह बाहर खदेड़ देना
होगा। आप यह मानते हैं कि याचिकाओं से हमें न कु छ मिला है और न कु छ मिलेगा।
तो फिर उसे क्यों न हम हिंसा के जरिए प्राप्त करें? और जो मिले उसे स्थायी बनाए
रखने के लिए, यदि ज़रूरी हो तो उचित सीमा में ताकत का इस्तेमाल क्यों न करें।
किसी बच्चे को उसका पैर आग में झोंकने से बचाने के लिए आप ताकत के इस्तेमाल
में कोई कमी नहीं खोज सकते। किसी भी तरह हमें अपनी उपलब्धि को बनाए रखना
है।
145
इसके जवाब में साक्षात्कारकर्ता को लंबे और उबाऊ तर्क , अंतर्विरोधी प्रवृत्ति वाले
आध्यात्मिक और दार्शनिक संदर्भों का हवाला मिला जिस कारण उसे अगला प्रश्न पूछना
पड़ा।
~
अक्तू बर 1906 में पहली मुलाकात के पूरे तीन साल बाद, 24 अक्तू बर 1909 को एक बार
फिर गांधी और विनायक की मुलाकात हुई। उस दौरान नवरात्रि के नौ दिनों बाद दशहरा
का मौका था और भारतीय समुदाय पर्व मनाने के लिए एकजुट हुआ था। ब्रिटिश निगरानी
से बचने के लिए अंग्रेजों को भी बुलाया गया था। इस अवसर पर करीब सत्तर भारतीय
मौजूद थे। बैठक की अध्यक्षता के लिए गांधी को बुलाया गया था। उनकी शर्त थी कि
किसी भी ‘विवादपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर बात नहीं होगी’
146
और उसकी बजाय वह
रामायण के महत्व पर बोलेंगे। वह पीछे से लंबा कोट और बंद कमीज पहने हुए थे। अपने
संबोधन में, गांधी ने कहा कि श्री रामचन्द्र जी की विजय एक अद्वितीय अवसर था और
एक ऐतिहासिक पुरुष के रूप में प्रत्येक भारतीय को उनका आदर करना चाहिए। उन्होंने
कहा:
प्रत्येक भारतीय, चाहे हिन्दू हो, मुस्लिम अथवा पारसी, को ऐसे देश का निवासी होने में
गर्व महसूस करना चाहिए जहाँ श्री रामचन्द्र जैसे व्यक्ति जन्मे थे। चूंकि वह एक महान
भारतीय थे, इसलिए प्रत्येक भारतीय को उनका सम्मान करना चाहिए। हिन्दुओं के
लिए तो वह भगवान हैं। यदि भारत फिर से रामचन्द्र, सीता, लक्ष्मण और भरत को
जन्म देता है तो वह बहुत जल्दी ही समृद्धि के सोपान चढ़ सकता है। बेशक यह भी
याद रखना चाहिए कि जन सेवा से पहले, रामचन्द्र ने 12 वर्ष का वनवास काटा था।
वह समय सीता ने बेहद कष्ट में काटा और लक्ष्मण ने निद्राहीन और ब्रह्मचर्य का पालन
करके वह समय बिताया था। जब भारतीय इस तरह जीवन जीना सीख जाएंगे, उस
समय से वह खुद को स्वतंत्र मान सकते हैं। भारत के पास प्रसन्नता तलाशने का अन्य
कोई मार्ग नहीं है।
147
अब विनायक के बोलने की बारी थी। परोक्ष रूप से गांधी की दलीलों को भेदते हुए उन्होंने
कहा कि यह याद रखना होगा कि विजयदषमी का पर्व माँ दुर्गा के नवरात्रों के व्रत के पश्चात
आता है जो शत्रु के संहार और युद्ध की प्रतीक हैं। गांधी से सहमत होते हुए कि भगवान
रामचन्द्र भारत की जीवनधारा और आत्मा हैं, उन्होंने श्रोताओं से अनुरोध किया कि वे याद
रखें कि राम राज्य की स्थापना निरंकु शता, उग्रता और अन्याय के पर्याय रावण का वध
करने के बाद ही हुई थी। यदि रामचन्द्र के वत व्रत धारण करते, तो उनका राज्य स्थापित
होता, इसकी संभावना भी नहीं थी। उन्होंने कहा:
हिन्दू हिन्दुस्तान का हृदय हैं। फिर भी, जैसे इन्द्रधनुष की सुंदरता उसके विभिन्न रंगों से
मिटने की बजाय और अधिक सुंदर दिखती है, उसी तरह, भावी आकाश से हिन्दुस्तान
तब और अधिक सुंदर नजर आएगा जब वह अपने अंक में मुस्लिम, पारसियों, यहूदियों
एवं अन्य सभ्यताओं को समेट लेगा।
148
श्रोताओं के बीच विनायक की जोरदार तकरीर को बहुत प्रशंसा प्राप्त हुई। अवसर पर
उपस्थित बैरिस्टर आसफ़ अली ने विनायक को ‘रक्तहीनता से पीड़ित किसी कन्या जैसे
कमजोर, पर्वतीय बौछार से अधीर और किसी टाॅरपीडो के मुख जैसा पैना’ की संज्ञा दी
थी। उन्होंने बाद में लिखा कि विनायक के बारे में कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि ‘जिन्हें
मैंने सुना है या जानता हूं, उनमें बहुत कम इतने असरदार हैं और यहाँ या इंग्लैंड में इस
श्रेणी के बहुत कम वाचक हैं जिन्हें सुनने का सौभाग्य मुझे मिला हो’।
149
मोहनदास करमचंद गांधी और विनायक दामोदर सावरकर की विचारधाराओं के बीच
टकराव अभी शुरू ही हुआ था।
~
कर्जन वायली की हत्या और ढींगरा मामले के बाद लंदन में मौजूद भारतीय विद्यार्थियों के
प्रति ब्रिटिश सरकार का व्यवहार सख्त हो गया था। यह घटना स्काॅटलैंड यार्ड और ब्रिटिश
गुप्तचर समुदाय के लिए बहुत शर्मनाक थी। लोग सोच रहे थे कि बिना किसी गुप्तचर को
पता चले, ढींगरा महीनों तक कै से राइफल शूटिंग का अभ्यास करते रहे। हत्या के बाद,
मार्ले एवं मिंटो के बीच पत्राचार में दोनों की कुं ठा झलकती है और विशेषकर मेट्रोपोलिटन
पुलिस के कमिश्नर सर एडवर्ड हेनरी के संबंध में दोनों ने अपनी निराशा जाहिर की। मार्ले ने
लिखा, ‘मुझे डर है कि हेनरी को उस परिस्थिति की कोई जानकारी नहीं है जिसमें वह
अचानक ही आ घिरे हैं. . .कु ल मिलाकर पुलिस की मानसिकता मुझे बेहद लापरवाह नजर
आती है; या तो वह बिना जरूरत शोर मचाती है या ज़रूरी मुद्दे पर आवाज भी नहीं
निकालती।’
150
संकट को देखते हुए स्काॅटलैंड यार्ड ने मार्ले एवं लॉर्ड कर्जन को सुरक्षा निगरानी में रख
लिया था। हत्या के तीन सप्ताह के भीतर ही तीन विशेष गुप्तचर इंडिया ऑफिस में काम के
पहले और बाद में मार्ले के साथ होते थे।
151
हालाँकि, ब्रिटिश सरकार, प्रेस एवं जनसामान्य
ने इन विशेष गुप्तचरों और निगरानी में वृद्धि को नितांत गैरज़रूरी बताया था।
कर्जन वायली की हत्या के बाद ब्रिटिश सरकार ने इंडिया हाउस को बंद करने के आदेश
दिए क्योंकि उसे क्रांतिकारी गतिविधियों के कें द्र के तौर पर देखा जा रहा था। इंडिया हाउस
बंद किए जाने से पहले, 4 जुलाई 1909 को वहाँ की अंतिम बैठक में विनायक ने ढींगरा
की बहादुरी की प्रशंसा में भाषण दिया था। हत्या के समय, ढींगरा के साथ रहने वाले
हरिष्चंद्र कृ ष्णराव कोरेगाँवकर के बारे में विनायक ने कहाः ‘एक व्यक्ति था जिसने पूरी
घटना देखी और उसका मार्गदर्शन किया और उनका कहना है कि ढींगरा शांत भाव से खड़े
अपने देश के दुश्मन वायली के औंधे मुँह पड़े शरीर पर गोलियां दाग रहे थे’।
152
21 जुलाई
1909 को नंबर 17, रेड लॉयन पैसेज, होल्बर्न के इंडियन रेस्तरां में विदाई पार्टी आयोजित
की गई जिसमें इंडिया हाउस में रहने वाले सारे लोग मौजूद थे। वह भारत रवाना होने वाले
कोरेगाँवकर को उनके योगदान के लिए धन्यवाद कहने के लिए इकट्ठा हुए थे। विनायक एवं
अन्य उन्हें विक्टोरिया स्टेशन छोड़ने के लिए गए।
अंग्रेज इस बात से वाकिफ थे कि इंडिया हाउस के बंद होने और पुलिस की बढ़ती
निगरानी के कारण, क्रांतिकारियों का शीघ्र पलायन हो सकता है। अधिकांश क्रांतिकारी
पेरिस जैसे अन्य यूरोपियन शहरों में सुरक्षित आश्रय खोजेंगे। अक्तू बर 1909 में संदेहास्पद
लगने वाले भारतीय विद्यार्थियों पर चैबीस घंटे नजर रखने के लिए सजनी रंजन बनर्जी उर्फ
सुखसागर दत्त को रखा गया था। उसकी जिम्मेदारी भारत में डीसीआई और लंदन में
स्काॅटलैंड यार्ड के बीच वाहक की थी। दो महाद्वीपों में फै ली इन दोनों संस्थाओं के बीच
आसानी से संदेश एवं संवाद के आदान-प्रदान के लिए भारतीय गुप्तचर सेवा गठित करने
का फै सला किया गया।
नई गुप्तचर सेवा के प्रमुख के तौर पर जाॅन आर्नल्ड वेलिंगर ने डीसीआई, स्काॅटलैंड यार्ड
और पेरिस पुलिस दल के बीच कार्य समन्वय का काम हाथ में लिया।
153
वेलिंगर पहले
बंबई पुलिस प्रमुख के तौर पर काम कर चुके थे और अनेक भारतीय भाषाओं पर उनकी
अच्छी पकड़ थी। अगले वर्ष विनायक के मामले में काम करते हुए उनकी नियुक्ति और
पेरिस पुलिस के साथ काम करने का नतीजा बहुत लाभदायक साबित हुआ था।
उधर इंडिया हाउस के बंद हो जाने पर विनायक बिपिन चंद्र पाल के घर रहने लगे थे।
परंतु ढींगरा की घटना के बाद, अचानक पाला बदल कर, ढींगरा की आलोचना करते हुए
पाल ने अपनी प्राथमिकताएं उदारवादियों से जोड़ ली थीं। इस कारण विनायक का उनके
घर आश्रय लेना कठिन हो गया। इसके बाद, पुलिस के दबाव के कारण उन्हें कई बार दिन
में दो-दो बार, एक से दूसरे लॉज में घूमते रहना पड़ा। ऐसे ही एक अवसर पर जब उन्होंने
दो ठिकाने बदल लिए थे और तीसरी लॉज में पहुँचकर आराम के लिए लेटना ही चाहते थे,
लॉज के मालिक ने उन्हें तुरंत वहाँ से चले जाने को कहा क्योंकि पुलिस उस स्थान के गिर्द
आ चुकी थी। थकान से चूर विनायक अब गिरने को थे। इस मौके पर ‘रेड लॉयन पैसेज के
एक बेहद छोटे और गंदे भारतीय रेस्तरां में’ एक जर्मन महिला ने उन्हें एक कमरे में आश्रय
दिया।
154
एक पुलिस अफसर ने दर्ज किया कि यह महिला ना के वल ‘जर्मन’ बल्कि ‘खुद
छोटी-मोटी अतिवादी थी’।
155
एक अवसर पर साथी भारतीयों के साथ बैठक के दौरान
विनायक को आसपास गुप्तचरों की मौजूदगी की चेतावनी देने पर उसका विरोधी रुझान
गुप्तचरों के सामने आया था। नतीजतन, गुप्तचरों का ध्यान भटकाने के लिए एक भारतीय
को बाहर भेजा गया और दूसरी चेतावनी पर बैठक ‘कु छ जल्दबाजी और हड़बड़ी में
स्थगित कर दी गई थी’।
156
रोचक तथ्य है कि इस दौरान विनायक, सुख सागर दत्त के साथ कमरा साझा कर रहे थे।
परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि दत्त पुलिस का वही भेदिया था या कोई अन्य व्यक्ति, ऐसी उम्मीद
की जाती है कि यह कोई अन्य साथी था।
गार्नेट ने बताया है कि विनायक और दत्त के कमरे की खिड़की से लंदन की सबसे गंदी
बस्ती की गली दिखती थी। उनके कमरे के सामने वाले कमरे में एक महिला अपने चार
बच्चों के साथ रहती थी जो ‘अधिकांशतः नशे में रहती थी’। परंतु विनायक नितांत शांत
भाव और ‘उसकी उपस्थिति के प्रति तटस्थ और परिवेष के प्रति बेपरवाह दिखते। वह
अपने विचारों में खोये दिखते थे’। और उनके विचार क्या थे, इस पर गार्नेट ने कु छ यूँ
अनुमान लगाया है:
भारत एक ज्वालामुखी है, जो गदर के दौरान जोर से फू टा था और यह फिर से फू ट
सकता है और जब तक कि भारतीय अपना पौरुष पुनः प्राप्त नहीं कर लेते और उनकी
मातृभूमि स्वतंत्रता नहीं पा लेती, आतंकवाद एवं हिंसा की प्रत्येक गतिविधि और
अधिक हिंसा तथा आतंकवाद को बढ़ावा देगी। इस मार्ग में झेली जाने वाली हरेक
तकलीफ उसके लिए समुचित बलि सरीखी है।
157
विनायक को अहसास था कि लंदन में उनके दिन अब गिनती के रह गए हैं।
दुर्भाग्यवश, विनायक के लिए बुरी खबरें रुक नहीं रही थीं। नवंबर, 1909 में वाइसरॉय
लॉर्ड मिंटो गुजरात के रजवाड़ों के दौरे पर थे और अहमदाबाद पहुँचने वाले थे। अंग्रेज
सरकार को डर था कि अभिनव भारत के सदस्य कु छ गड़बड़ कर सकते हैं, यह देखते हुए
उन्होंने वायसरॉय के यात्रा मार्ग के अंदर और बाहर सुरक्षा के कड़े इंतजाम कर दिए।
अभिनव भारत की पूना शाखा के ब्रह्मगिरि बुआ सचमुच वाइसरॉय के काफिले पर बम
फें कने की योजना बना चुके थे और इस बारे में वह बड़ौदा के गंगानाथ भारतीय विद्यालय
से निरंतर संपर्क में थे। कड़ी सुरक्षा के बावजूद, क्रांतिकारी वाइसरॉय के जुलूस पर बम
फें कने में सफल रहे, हालाँकि वह इस हमले में बच गए थे।
बम फें कने का प्रमुख आरोपी, मोहनलाल पांड्या, बरिन घोष और नारायणराव सावरकर
का करीबी था। नतीजतन, विनायक के सत्रह वर्षीय छोटे भाई को अपराध में शामिल होने
के शक में गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में हाई स्कू ल के प्रधानाचार्य के बयान पर
नारायणराव को छोड़ा गया था। प्रधानाचार्य के अनुसार धमाके वाले दिन नारायणराव पूना
में था। परंतु नारायणराव की गिरफ्तारी ने येसु वहिनी को हिला दिया था जो पहले ही
बाबाराव को अंडमान भेजे जाने के परिणाम भुगत रही थीं। लिहाजा, उन्होंने अपने अनन्य
मित्र और विश्वासपात्र विनायक को हृदयग्राही पत्र लिखकर परिस्थितियों के कारण उपजी
हताशा और दुःख के बारे में बताया। हालात जानकर विनायक का कवि मन मुखर हो उठा।
1909 का वर्ष उनके लिए विशेष तौर पर कठोर रहा था। पर उन्हें पता नहीं था कि आने
वाला वर्ष कहीं अधिक कड़ा होने वाला था। उन्होंने येसु को बेहद मार्मिक कविता
‘सांत्वना’ लिखी। इस मराठी कविता का अपरिष्कृ त अनुवाद निम्न है:
(1)

मेरा स्नेहिल प्रणाम तुम्हें, ओ मेरी बहिन !

जिसके प्रेम ने मुझे कितने स्नेह से संभाल कर

मुझे मेरी माँ की कमी महसूस न होने दी।

तुम्हारा आशीर्वाद रूपी पत्र प्राप्त कर, तुम्हारे लिखे को हृदय से महसूस किया

तुम्हारे पत्र ने मेरे हृदय को हर्षित किया और मैं सच में धन्य महसूस करता हूँ,

धन्य है हमारा यह परिवार जो प्रभु राम की सेवा और उनकी इच्छा का सेवक है !


(2)

कई पुष्प पल्लवित हुए और मुरझाए

किसने उनका लेखा रखा या गिना

परंतु देखो, गजेंद्र की सूंड़ से उठाया गया कँ वल का फू ल

और श्री हरि के चरणों में अर्पित और वहाँ कु म्हला गया

अमरत्व और पवित्र बना ; मोक्ष प्राप्ति

अतः हमारी मातृभूमि भारत पवित्र गजेंद्र की तरह मोक्ष मांगती है

उसे अपने बागान तक आने दें और अपने घने नील-श्यामवर्णी कँ वल प्रेषित करने दें

उसे डाल से तोड़ श्री राम के चरणों में समर्पित करने दें।

भाग्यशाली हैं हमारे वृक्ष, दिव्य स्पर्ष से सुषोभित

श्री राम की सेवा से गौरवान्वित


(3)

तो अपने शेष पुष्पों को भी डाल से टूटकर

श्री राम के चरणों में समर्पित होने दें

इस नश्वर शरीर को किसी सद्कार्य में लगने दें

अमर है वह वंश वृक्ष जिसने राष्ट्र कार्य में स्वयं को समर्पित किया

मानव कल्याण की उसकी सुगंध चारों ओर फै ली

ओ माँ, सभी पल्लवित पुष्पों का हार गूंथ लो

नवरात्र के लिए

नवीं महान संध्या के बीतने के बाद

और नवें हार के गूंथे जाने एवं समर्पित किए जाने के उपरांत

रौद्र काली अवतरित होंगी

और देंगी विजय अपने उपासकों को


(4)

बहिन! तुम सदा हौसले का प्रतीक रही हो,

मेरी प्रेरणा की स्रोत।

तुम हो राम के पवित्र अभियान की समर्पित और स्वीकृ त उपासिका

इस महान और पवित्र अभियान के प्रति तुम्हारा समर्पण

तुम को भी महान और पवित्र बनने का आह्वान करता है।

परंतु देखो ! एक ओर हैं अतीत के महान ऋषियों और संतों की दिवंगत आत्माएं

जो हमारे वर्ण से ही निकले हैं और दूसरी ओर

भावी पीढ़ियां अभी अजन्मी !

कर सकें गे हम अपने को आज मुक्त इस तरह से

जो इन दैवीय श्रोताओं से वैश्विक स्वीकृ ति पा सके ।


158
शारीरिक और भावनात्मक तौर पर थक और टूट चुके विनायक ने लंदन छोड़ा और तटवर्ती
शहर ब्राइटेन आ गए। 10 दिसंबर 1909 को वह अपने मित्र निरंजन पाल के साथ ब्राइटेन
के समुद्री तट पर बैठे थे। निरंजन बिपिन चंद्र पाल के पुत्र थे। उनके चारों ओर खुशनुमा
परिवार, अभिभावक, बच्चे खूबसूरत मौसम, तैराकी और रेत पर खेलकू द का मजा ले रहे
थे। यह देख विनायक मातृभूमि के लिए गहरी टीस और इच्छा से भर उठे । अचानक
सबकु छ बिखर सा गया था। उनकी पेशेवर और निजी जिंदगी टुकड़े-टुकड़े हो चुकी थी।
परंतु सबसे ज़रूरी तौर पर उन्हें महसूस हुआ कि वह अपने पवित्र अभियान, सशस्त्र संघर्ष
से मातृभूमि को आज़ाद कराने के कार्य में असफल रहे, जिसके लिए वह यहाँ आए थे।
ढींगरा की फांसी, और उसके बाद झेले जाने वाले निष्कासन और तिरस्कार का विनायक
के स्वास्थ्य पर असर दिखने लगा था।
निरंजन पाल ने इस मर्म-स्पर्शी समय को कु छ यूँ याद किया है:
इस समय में वह एक गीत गुनगुना रहे थे, उसकी रचना करते हुए वह गा भी रहे थे। यह
एक मराठी गीत था जो भारत की दयनीय दासता का वर्णन करता है। सबकु छ भूलकर
सावरकर गाते रहे. . .इस, समय आंसू उनके गालों पर ढुलक रहे हैं. . .उनकी आवाज
घुट रही थी। वह सुबक रहे थे. . .परंतु फिर भी गा रहे थे। गीत अधूरा रह गया. .
.फफकते हुए वह बच्चों की तरह रोने लगे।
159
भावप्रवणता के उस आवेग ने एक शाश्वत गीत के रूप में आकार लिया जिसने उस समय
से अनेक लोगों को भावातिरेक किया है – ने मजसी ने पारत मातृभूमिला, सागरा, प्राण
तळमळला
। यह शास्त्रीय कविता और उसका अनुवाद निम्न है:
ने मजसी ने पारत मातृभूमिला । सागरा, प्राण, तळमळला
भूमातेच्या चरणतला तुज धूतां । मी नित्य पाहिला होता
मज वदलासी अन्य देशिं चल जाऊं । सृष्टिची विविधता पाहूं
तइं जननी-हृद् विरहषंकितहि झालें । परि तुवां वचन तिज दिधलें
मार्गज्ञ स्वयें मीच पृष्ंिठं वाहीन । त्वरित या परत आणीन
विष्वस्लों या तव वचनीं । मी
जगदनुभव-योगें बनुनी । मी
तव अधिक षक्त उद्धरणीं । मी
येईन त्वरें कथुन सोडिलें तिजला । सागरा प्राण तळमळला
षुक पंजरिं वा हरिण षिरावा पाषीं । ही फसगत झाली तैषी
भूविरह कसा सतत साहुं या पुढती । दषादिषा तमोमय होती
गुण-सुमनें मीं वेचियलीं ह्या भावें । कीं तिनें सुगंधा ध्यावें
जरि उद्धरणीं व्यय न तिच्या हो साचा । हा व्यर्थ भार विद्येचा
ती आम्रवृक्षवत्सलता । रे
नवकु सुमयुता त्या सुलता । रे
तो बाल गुलाबहि आतां । रे
फु लबाग मला हाय पारखा झाला । सागरा प्राण तळमळला
नभिं नक्षत्रें बहुत एक परि प्यारा । मज भरतभूमिचा तारा
प्रासाद इथें भव्य परि मज भारी । आइची झोपड़ी प्यारी
तिजवीण नको राज्य, मज प्रिय साचा। वनवास तिच्या जरि वनिंचा
भुलविणें व्यर्थ हैं आतां । रे
बहु जिवलग गमतें चित्ता । रे
तुज सरित्पते । जी सरिता । रे
तद्विरहाची शपथ घालितों तुजला । सागरा प्राण तळमळला
या फे न-मिषें हंससि निर्दया कै सा । कां वचन भंगिसी ऐसा
तत्स्वामित्वा सांप्रत जी मिरवीते । भिउनि का आंग्लभूमीतें
मन्मातेला अबल म्हणुनि फसवीसी । मज विवासनाते देशीं
तरि आंग्लभूमी-भयभीता । रे
अबला न माझिही माता । रे
कथित हें अगस्तिस आतां । रे
जो आचमनिं एक क्षणिं तुज प्याला । सागरा, प्राण तळमळला।
ओ सागर, मुझे मेरी मातृभूमि ले चल ! मेरी आत्मा कितने कष्ट में है !
अपनी माँ के चरणों की उपासना में, मैंने सदा तुझे देखा है
चल अन्य भूमियों पर चलें, सृष्टि की विविधता पाएं
अपनी माँ के हृदय को शोक में देख, तुमने उन्हें एक पवित्र वचन दिया
अपनी पीठ पर मेरी वापसी की यात्रा, तुमने उनसे वचन दिया मेरे शीघ्र लौटने का
क्या तुम्हारे वचन पर विश्वास किया मैंने !
ऐसा दुनियादार समर्थ बना मैं
उनकी मुक्ति का वाहक बनूं मैं
वापस लौटने की कह कर, मैं उससे दूर हुआ
ओ सागर, मेरी आत्मा कितने कष्ट में है!1
पिंजरे में बंद पक्षी की तरह, जाल में फं से हिरण की तरह – ओ, मैं कै सा छला गया
सदा के लिए अपनी माँ से दूर, तिमिर से घिरा हुआ मैं
सद्कार्यों के फू ल चुने मैंने, जिनकी सुगंध से वह महक उठी,
उसकी मुक्ति के कार्य के प्रति उद्विग्न, मेरा ज्ञान व्यर्थ बोझ बना है,
उसके आमृवक्षों की वत्सलता, रे !
उसकी अंगूर लताओं का सौंदर्य, रे !
उसके सुमधुर गुलाब, रे !
ओह, सदा के लिए दूर हो गए उसके उद्यान मुझसे,
ओ सागर, मेरी आत्मा कितने कष्ट में है !2
गगन में कितने तारे हैं, परंतु के वल भारत-भूमि का सितारा प्रिय है मुझे !
यहां हैं भव्य प्रासाद न्यारे, परंतु अपनी माँ की झोंपड़ी प्यारी है मुझे
उसके बिना किसी राज्य की मुझे क्या इच्छा, उसके वनों में सदा वास होगा मेरा।
अब धोखा व्यर्थ है, कहता हूँ मैं
अब तुम भी न त्यागे जाओ, शपथ लेता हूँ मैं
अब तुम भी न यातना झेलो, रोता हूँ मैं
अपनी प्रिय नदियों से बिछड़कर !
ओ सागर, मेरी आत्मा कितने कष्ट में है !3
ओ, फे निल लहरों के वाहक, निर्दयता से तुम हंसे !
अपने वचन से क्यों पलटे , ओ !
मेरी असहाय माँ को क्यों छला,
ओ, मुझे निष्कासित क्यों किया !
क्या आंग्लभूमि से भयभीत थे
जो तुम पर इतना अधिकार रखती है ?
भयावह होगी आंग्लभूमि तो भी, ओ
मेरी माँ दुर्बल नहीं फिर भी
बताएगी ऋषि अगस्त्य के बारे में, तो
जिनने एक ही घूंट में तुम्हारा सब जल पीया था !
ओ सागर, मेरी आत्मा कितने कष्ट में है !4
160
यह कविता आधुनिक मराठी साहित्य की श्रेष्ठतम कृ तियों में से है। बाद में विनायक के
निकटवर्ती, संगीतकार और रचयिता हृदयनाथ मंगेशकर ने इसकी धुन तैयार की और लता
मंगेशकर, आशा भोंसले, मीना मंगेषकर एवं स्वयं हृदयनाथ मंगेशकर ने अपनी मधुर
आवाज दी। गीत हृदय के तारों को गहरे से छू ता है। कहना न होगा, इसे सुनने वाला कोई
भी इसके असर से अछू ता नहीं रह सकता।
विनायक जिस भावनात्मक आघात और पीड़ा से गुजरे, उसने उनके स्वास्थ्य पर असर
डाला। दिसंबर 1909 के आसपास, विनायक निमोनिया और ब्रांकाइटिस की चपेट में आ
गए थे। उनकी हालत कु छ ऐसी बिगड़ी कि उन्हें वेल्स के सेनिटोरियम में भर्ती कराना पड़ा,
जहाँ उनकी देखभाल भारतीय डाॅक्टर सी. मुत्थू ने की थी। उनके उपचार का खर्च श्यामजी
ने वहन किया।
परंतु जहाँ उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, वहीं भारत से कु छ और बुरी खबरें उनका
इंतजार कर रही थीं।
6
इति, लंदन अध्याय
नासिक, दिसंबर, 1909
उस दिवस का आयोजन संध्या उत्सव के तौर पर किया गया था। 21 दिसंबर 1909 को
नासिक के जिला कलेक्टर ऑर्थर मेसन ट्रिपेट्स जैक्सन को विदा देने के लिए नगर के
प्रमुख सदस्य एकत्र हुए थे। कलेक्टर 1888 से भारत में नियुक्त थे और अपने कार्यकाल के
दौरान नासिक के नागरिकों को कई बहलाने वाले किस्से सुनाते रहे थे। उनके अनुसार पूर्व
जन्म में वह एक विद्वान ब्राह्मण थे और इसी कारण उनसे गहरा जुड़ाव महसूस करते थे।
स्थानीय लोगों की नजरों में स्थान बनाने के लिए उन्होंने मराठी और संस्कृ त भी सीखी
जिसका असर ऐसा रहा कि कई लोग उन्हें ‘पंडित जैक्सन’ पुकारने लगे थे।
1
जैक्सन का स्थानांतरण कमिश्नर के तौर पर बंबई हो गया था, इस कारण नासिक के
विजयानंद थियेटर में एक सार्वजनिक आयोजन किया गया था। इस अवसर पर किर्लोस्कर
थियेटर समूह मराठी नाटक ‘शारदा’ का मंचन कर रहा था जिसके मध्यान्तर में जैक्सन को
धन्यवाद ज्ञापन और संभाषणों का आयोजन किया जाना था। नियत समय पर जैक्सन दो
महिलाओं एवं सहायक कलेक्टर श्री जाॅली के साथ वहाँ पहुँचे। थियेटर के मुख्यद्वार पर
उपस्थित स्वागतदीर्घा उन्हें ससम्मान भीतर ले जाने को उत्सुक थी।
जिस दौरान जैक्सन उपस्थित लोगों से नमस्ते-वार्तालाप कर रहे थे, करीब अठारह वर्षीय
एक युवक स्वागतदीर्घा में से निकला और अपने कोट की जेब से एक ब्राउनिंग पिस्तौल
निकाल कर उसने जैक्सन पर गोली चला दी। गोली उनके हाथ को छू ती हुई निकल गई।
इससे पहले कि जैक्सन और अन्य लोग कु छ समझ पाते, वह युवक तेजी से आगे आया
और उसने चार गोलियां जैक्सन के सीने में उतार दी। स्वागत दल के खोपकर नामक एक
प्रतिनिधि ने युवक से पिस्तौल छीन ली और आक्रोष में आए पानाशिकर नामक एक अन्य
व्यक्ति ने अपनी छड़ी युवक के सिर पर दे मारी, जिससे वह खून में लथपथ हो गया। वहीं
थियेटर के अंदर, जहाँ गणमान्य व्यक्तियों के लिए अग्रणी गैलरी थी, और टिकट का मूल्य
12 आना प्रति सीट था, जैक्सन के पहुँचने से काफी पहले दो युवक वहाँ बैठे थे। थियेटर से
बाहर मौजूद युवक के असफल रहने पर जैक्सन को मारने का काम उन दोनों युवकों का
था।
2
परंतु गोलियों की आवाज सुनने के बाद मची भगदड़ का लाभ उठाकर दोनों वहाँ से
निकल भागे।
गोली चलाने वाले युवक का नाम अनंतराव लक्ष्मण कन्हेरे था और थियेटर के अंदर
मौजूद उसके दोनों साथियों में से एक तेईस वर्षीय कृ ष्णजी गोपाल कर्वे और दूसरा
इक्कीस वर्षीय विनायक नारायण देशपांडे था। तीनों अभिनव भारत के सदस्य थे।
3
हालाँकि, नासिक के कई लोग पंडित जैक्सन से आकर्षित रहते थे, परंतु कु छ ऐसे भी थे
जिन्हें पता था कि जैक्सन का मैत्रीवत व्यवहार लोगों का विश्वास जीतकर उनसे सूचनाएं
प्राप्त करने से जुड़ा था। स्वतंत्रता प्राप्ति की मांग करने वाली किसी भी संस्था का वह घोर
विरोधी था। ऐसी खबरें भी गर्म थीं कि उसके एक अफसर ने गोल्फ बॉल को हाथ लगाने के
कारण कै से एक किसान को पीटकर मार डाला था, और जैक्सन ने उसे सज़ा देने की
बजाय, उसकी बदली कर के मामला रफा-दफा कर दिया था। इसके बाद नकली दस्तावेज
बनाकर किसान की मौत डायरिया के कारण बताई गई। एक अन्य अवसर पर, मेले से
लौटते समय ‘वन्दे मातरम्’ के नारे लगाते युवकों को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के अधीन
हिरासत में लिया गया था। युवकों के पक्ष में मुकदमा लड़ रहे, ईमानदार वकील बाबासाहेब
खरे को जैक्सन ने तंग किया, उनका वकालत करने का अधिकार छीना, उनकी संपत्ति
जब्त की और धारवाड़ जेल में कै द कर के रखा। खरे के लिए यह सदमा कु छ ऐसा रहा कि
वह मानसिक संतुलन खो बैठे थे। जैक्सन का अंतिम दुष्कार्य बाबाराव सावरकर की
गिरफ्तारी और मुकदमे से जुड़ा उसका उत्साह था। उसकी आज्ञा पर हथकड़ियों में कै द
बाबाराव को नासिक की गलियों में घुमाने के दृश्य से कई युवा क्रु द्ध थे। वह इसका बदला
लेने को बेताब थे। और उस संध्या को कन्हेरे ने इस योजना को अंजाम दिया।
1891 में खेद जिले के रत्नागिरी के अयानी मेटे गाँव में जन्मे कन्हेरे के दो भाई और एक
बहन थी। निज़ामाबाद में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, वह अंग्रेजी में सेकें डरी की
शिक्षा के लिए औरंगाबाद गए। उस दौरान गांठी मित्रताओं पर उन्होंने एक उपन्यास मित्र
प्रेम
भी लिखा था। उनके मित्रों में एक मारवाड़ी व्यापारी गंगाराम रूपचंद और गोपाल
गोविंद धड़प प्रमुख थे, जो अभिनव भारत की औरंगाबाद शाखा के कार्यकर्ता भी थे।
उनकी संगत में कन्हेरे भी क्रांतिकारी विचारों की ओर उन्मुख हुए और अपने देश को मुक्त
कराने की आग उनके सीने में दहक रही थी। वह भी संस्था के सदस्य बने और शपथ ली।
कन्हेरे बाबाराव सावरकर के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण क्रोध में थे और उसका
प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा की थी। संयोगवश, उन्हीं दिनों नासिक में अभिनव भारत के
हथियारों की देखरेख करने वाले गणेश बलवंत वैद्य (प्रचलित नाम गनु) औरंगाबाद आए
थे। निज़ाम के इलाके औरंगाबाद में हथियार प्राप्त करना अपेक्षाकृ त आसान काम था। गनु
गंगाराम के घर रुके जहाँ उन्हें खंजर, तलवारें, बंदूकें और अन्य तरह के हथियार दिखाए
गए। दोनों ने अभिनव भारत से संबंधित योजनाओं पर विचार किया। कन्हेरे दोनों की
बातचीत छु प कर सुन रहे थे और आधी रात को उन्होंने गनु को उठाकर बाबाराव की सज़ा
का बदला लेने की प्रतिज्ञा बताई। इस पर गनु ने तुरंत कु छ नहीं कहा और नासिक में अपने
साथियों से विचार करने का समय मांगा। वापस लौटकर उन्होंने अभिनव भारत के साथियों
से बात की जिन्होंने कन्हेरे को प्राथमिक बातचीत के लिए नासिक बुला भेजा।
4
19 सितंबर 1909 की उस बैठक के दौरान कन्हेरे को नासिक की अभिनव भारत शाखा
के सदस्यों से परिचित कराया गया: वहाँ विनायक नारायण देशपांडे, वामनराव नारायण
जोशी के अलावा शंकर रामचंद्र सोमन भी मौजूद थे जो अभिनव भारत जैसी ही एक गुप्त
संस्था संचालक थे। इक्कीस वर्षीय विनायक देशपांडे नासिक के पंचवटी विद्यालय में
सहायक अध्यापक थे और हथकरघा व्यवसाय भी करते थे। हथकरघा व्यवसाय की
इमारत की तीसरी मंजिल पर स्थित एक पुराने अंधेरे कमरे में अभिनव भारत की सभाएं
होती थीं। इसी कमरे में देशपांडे ने विस्फोटक सामग्री एकत्र कर रखी थी। वहीं देवलाली
स्थित देशपांडे के घर में गनु और देशपांडे सल्फ्यूरिक एसिड, नाइट्रिक एसिड और
कार्बोलिक एसिड मिलाकर विस्फोटक पिक्रिक एसिड का निर्माण करते थे। एहतियात के
लिए उन्हें जमीन में दबाकर रखा जाता था। देशपांडे से एक वर्ष छोटे जोशी पंचवटी
विद्यालय में उनके सहकर्मी थे जबकि अठारह वर्षीय सोमन अभी नासिक हाई स्कू ल के
विद्यार्थी ही थे। अपनी रसायन पत्रिकाओं की मदद से सोमन ने संस्था के सदस्यों को
विस्फोटक बनाने सिखाए थे।
जैक्सन की हत्या के प्रति कन्हेरे की प्रतिबद्धता के संबंध में उनसे अनेक प्रश्न पूछे गए
और अंततः उनकी मौलिकता के प्रति आश्वस्त होकर संस्था ने उन्हें साथ लिया था। वामन
उन्हें कु छ अवसरों पर जिला कार्यालय ले गए ताकि वह जैक्सन को देख लें और पहचान में
धोखा ना खाएं। इसके बाद विनायक देशपांडे ने उन्हें एक पिस्तौल दिया और नासिक से
बाहर सुनसान जगह पर दूर एवं पास के निशाने का अभ्यास कराया। कन्हेरे जानते थे कि
घटना के बाद वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहेंगे, इसलिए 22 सितंबर को वह अपने
सबसे उजले कपड़े पहनकर एक स्थानीय स्टूडियो पहुँचे। वह अपनी तस्वीर खिंचवाना
चाहते थे ताकि परिवार के पास उनकी कु छ यादगार रहे।
किसी कारणवश जैक्सन की हत्या का दिन लंबित होता गया। इस दौरान कन्हेरे
औरंगाबाद लौट गए क्योंकि उनका परिवार उन्हें अपने पास चाहता था। अपने साथ वह
अभ्यास के लिए एक छोटा ब्राउनिंग पिस्तौल भी ले गए थे। परंतु नासिक के साथियों ने
उनके भाई के नाम से झूठा तार देकर उन्हें वापस बुला लिया। तार में कहा गया था कि वह
बीमार है और उनकी मदद चाहता है। नासिक रोड स्टेशन पर उनकी मुलाकात देशपांडे,
सोमन, वामन जोशी और गनु से हुई, उनके साथ एक और युवा थे जिनका नाम कृ ष्णजी
गोपाल कर्वे था, जो अभिनव भारत की नासिक शाखा प्रमुख थे। तेईस वर्षीय कर्वे बीए
(ऑनर्स) स्नातक थे और बंबई में कानून की शिक्षा ले रहे थे। वह बम निर्माण कला से
परिचित थे और उसे सोमन एवं दामोदर महादेव चंद्रात्रे को भी सिखा चुके थे। मई-जून
1909 के आसपास उन्होंने विनायक द्वारा लंदन से भेजे गए सात ब्राउनिंग पिस्तौल, एक
रिवाॅल्वर और देसी पिस्तौल गोपालराव पाटनकर से प्राप्त किए थे, जिन्हें रसोइया चतुर्भुज
झावरभाई अमीन पाटीदार मार्च 1909 में लेकर आए थे। तब तक कर्वे जैक्सन की हत्या के
षडयंत्र से परिचित नहीं थे, पर वह कन्हेरे से मिलना चाहते थे। उस सांझ के घटाटोप में
युवकों ने अपनी योजना पर विमर्श किया। कन्हेरे द्वारा कार्य में एक मददगार की मांग को
समूह द्वारा नकार दिया गया और मतभेद के कारण सभा स्थगित हो गई। कर्वे एवं नासिक
शाखा के सदस्यों का कहना था कि वह हत्या को अंजाम देने को तैयार नहीं थे।
इसके बाद नवंबर 1909 में जैक्सन के नासिक से चले जाने की सूचना मिलने के बाद
समूह फिर एकजुट हुआ 21 दिसंबर को देशपांडे औरंगाबाद पहुँचे और कन्हेरे को साथ
लाए। इस दौरान औरंगाबाद से कु छ अन्य युवा, काशीनाथ हरि अंकु शकर और दत्तात्रेय
पांडुरंग जोशी (दत्तू) भी नासिक पहुँचे और गनु के यहाँ ठहरे थे।
कर्वे को दो ब्राउनिंग पिस्तौलें और हत्या के बाद खाने के लिए जहर की पुड़िया या खुद
को खत्म करने के लिए अतिरिक्त पिस्तौल भी दिया गया। निर्णय किया गया कि कन्हेरे के
असफल रहने पर, हथियारों से लैस कर्वे एवं देशपांडे विजयानंद थियेटर के आसपास रहेंगे
और मौका मिलते ही जैक्सन पर गोली चला देंगे।
घटना के तुरंत बाद कन्हेरे गिरफ्तार कर लिए गए और उन्होंने न्यायाधीश के सामने बयान
दिया कि उन्होंने जैक्सन को मारा है और उनका कोई साथी नहीं है। उनके पास से एक
पर्चा भी बरामद हुआ जिससे पुष्टि हुई कि जैक्सन की हत्या राजनीतिक कारणों से की गई
है। उसी रात, गनु और उनके साथी दांडेकर ने देवलाली में मौजूद विस्फोटकों और रसायनों
को जल्दी से छु पाने का प्रयास किया। परंतु अगले तीन-चार दिनों में पुलिस ने कर्वे,
देशपांडे, सोमन, वामन जोशी, गनु और दत्तू जोशी को हिरासत में ले लिया था। 23 दिसंबर
की आधी रात को अभिनव भारत की नासिक शाखा के साथ संबंध की संभावना के कारण
नारायण दामोदर सावरकर को भी गिरफ्तार किया गया और जेल में उन्हें यातना दी गई।
येओला के एक साहूकार (बैंकर) को भी षडयंत्रकर्ताओं को वित्तीय सहायता देने के आरोप
में गिरफ्तार किया गया। जनवरी 1910 के पहले सप्ताह तक इन सब ने प्रथम श्रेणी
न्यायाधीश श्री पल्सीकर के सामने अपने बयान दर्ज करा दिए थे।
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कन्हेरे के औरंगाबाद
निवास की तलाशी ली गई जहाँ नासिक के पते वाले पत्र के फटे टुकड़े बरामद हुए, जिससे
सुनिश्चित हुआ कि वह एक दूसरे के संपर्क में थे। पत्र के टुकड़ों को सहेजकर उसकी
अस्पष्ट भाषा के आधार पर नतीजा निकाला गया कि उनका इशारा किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति
की हत्या की ओर था।
29 मार्च 1910 को बंबई के मुख्य न्यायाधीश ने मुकदमे का फै सला सुनाया। कन्हेरे, कर्वे
और देशपांडे को फांसी की सज़ा हुई; सोमन, वामन जोशी और गनु को उम्रकै द; और दत्तू
जोशी को दो साल सख्त कै द की सज़ा सुनाई गई। नारायण सावरकर को छह महीने सख्त
कै द की सज़ा हुई। गनु और दत्तू द्वारा कानून से सहयोग किए जाने पर उनकी सज़ा माफ
हो गई थी।
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19 अप्रैल 1910 को कन्हेरे, कर्वे और देशपांडे को ठाणे जेल में प्रातः सात बजे फांसी दी
गई। हैरानी की बात थी कि उस समय वह बहुत शांत और आत्मविश्वास से भरे थे। सरकार
ने उनके परिवारों को मृत शरीर भी नहीं सौंपे। पुलिस ने उनके शवों का ठाणे खाड़ी के पास
अंतिम संस्कार किया और खुद उनकी अस्थियों को समुद्र में फें ककर उनके परिवारों को
अंतिम दर्शन भी नहीं करने दिए।
जैक्सन की हत्या और उसके बाद कन्हेरे एवं अन्य पर चला मुकदमा लंदन प्रेस में खूब
उछला। द टाइम्स
ने लिखा, ‘अपराध से उपजे दुःख और रोष को व्यक्त करना असंभव है।’

प्रेस ने हत्या को बाबाराव सावरकर की उम्रकै द से जोड़ा और कहा कि उनके ‘एक भाई ने
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लंदन में खूब कु ख्याति प्राप्त की है’।


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1909 की क्रांतिकारी गतिविधियों का संपूर्ण लेखा
बताते हुए टेलिग्राफ
ने एक बेहद निम्नस्तरीय अपमानजनक लेख प्रकाशित किया:
जाहिर है, ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ कोई साजिश हल्के में नहीं ली जा सकती,
और प्रस्तावों के पारित करने पर दरकिनार भी नहीं की जा सकती, जो ऐसे वीभत्स
अपराधों के खिलाफ, स्थानीय लोगों के साथ बैठकों के आधार पर, अपने में कम या
अधिक महत्व के हो सकते हैं। इन अपराधों के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। हमने इन
हिन्दुओं को पश्चिमी विचार उनके द्वारा सही विधि से इस्तेमाल करने से पहले ही सिखा
दिए, जिसका नतीजा जैसा कि खुद हमारे साथ होता है, अपनी मेहनत से बने एक
व्यक्ति के बच्चों को उसकी जायदाद मिलती है जिसके मूल्य का उन्हें भान नहीं होता,
क्योंकि वह उनकी मेहनत नहीं होती, और वह अक्सर अपनी संपत्ति के नशे में चूर गर्त
की ओर जाते हैं; इसके विपरीत, यदि उस द्रव्य के उपार्जन में उनकी मेहनत हो, अथवा
उन्हें इसे बर्बाद करने के स्थान पर इसके उचित इस्तेमाल का ज्ञान मिलता, उनकी
विरासत खुद उनके और मित्रों के लिए वरदान साबित होती। इसी तरह, लंदन की
समृद्धि से चैंधियाए भारतीय विद्यार्थी और संवैधानिक इतिहास पर अंग्रेजी
पाठ्यपुस्तकों की दलीलों से असंतुलित हुए उन्हें आत्मसात करने में असमर्थ, उनमें से
कु छ राष्ट्रवादिता के नाम पर ही सही, चाहे वह कितना ही उथला क्यों न हो, कु छ करने
को अग्रसर हो जाते हैं, जिसके सही या सच्चे अर्थ की उन्हें समझ नहीं रहती; वहीं, यदि
वह इस प्रश्न को गैर-पूर्वाग्रही नजरिए से देखें, अथवा उसे गंभीर या स्थितिप्रज्ञ दृष्टिकोण
से परखें तो वह उन्हें अलग नजर आएगा. . .इसके बजाय यदि इन हिन्दू विद्यार्थियों को
ब्रिटिश संवैधानिक इतिहास के कोर्स से जोड़ा जाए, जिसमें उन्हें उनके अपने देश और
उसकी सौ वर्ष पहले की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थितियों की तुलना आज के हालात
से करने को कहा जाए, तो वह अपनी सोच की बजाय हमारे राज के प्रति कृ तज्ञता
महसूस करेंगे. . .एक ही तर्क जिसकी यह कट्टरवादी इज्जत करते हैं, वह है ताकत,
जिसे नंगे हाथों इस्तेमाल किया जाना चाहिए था, ताकि कठघरे में खड़ा शैतान पहले ही
कु चल दिया जाता। हमारे अपनों की तरह, पूरब के बाशिंदों को शांतिपूर्ण तरीके रास
नहीं आते।
9
लंदन के क्रांतिकारियों द्वारा अपने साथियों को ब्राउनिंग पिस्तौलें उपलब्ध कराने की प्रशंसा
में लाला हरदयाल ने लिखा:
हम जानते हैं कि उस नायक के पास ब्राउनिंग पिस्तौल थी। यह पिस्तौलें भारत में नहीं,
बल्कि यूरोप में निर्मित होती हैं। तो क्रांतिकारियों ने इन्हें कै से स्वदेश भेजा ? स्पष्ट है कि
यह तर्क हमारे संगठन की दक्षता और हमारी कार्रवाई की गोपनीयता का प्रमाण है।
इसके अलावा, विदेशी हथियार एकमात्र वस्तु नहीं हैं जिन पर वह आश्रित हों। ब्रिटिश
सरकार के अंग्रेज या भारतीय अधम एजेंटों को खोंपने के लिए तीखे कीलों से खंजर
भी बनाए जा सकते हैं।
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आने वाले महीनों में, यही मुकदमा ब्रिटिश सरकार द्वारा विनायक को लंदन से भारत
प्रत्यर्पित करने का जरिया बनने वाला था।
पेरिस, 1910
लंदन में भारतीय विद्यार्थियों के खिलाफ और खासकर अपने विरुद्ध नाराजगी और विरोधी
भाव तथा अपने अस्थिर स्वास्थ्य को देखते हुए विनायक ने पेरिस जाने का निर्णय किया।
श्यामजी और मैडम कामा उन्हें लंबे समय से पेरिस स्थानांतरित होने को कह रहे थे।
आखिरकार, उन्होंने 5 जनवरी 1910 के आसपास यह निर्णय लिया। लंदन में अपने अंतिम
दिन उन्होंने ज्ञानचंद वर्मा से ‘कढ़ी-चावल खाने’ की इच्छा व्यक्त की।
11
उनके दुर्बल
स्वास्थ्य को देखते हुए वर्मा निजामुद्दीन रेस्तरां गए और उनके लिए भोजन तैयार कराया,
जिसे विनायक ने बहुत चाव से खाया। उसके बाद, विक्टोरिया स्टेशन पर वर्मा और अन्य
साथियों ने विनायक को विदाई दी।
श्यामजी, मैडम कामा और सरदार सिंह राणा ने खूब उत्साह से विनायक का स्वागत
किया। वह र्यू माॅन्टेन में मैडम कामा के घर ठहरे।
राजनीतिक हत्याओं के बाद भारत के राजनीतिक हालात पर श्यामजी ने इंडियन
सोशलॉजिस्ट
में लिखा था:
गत 21 दिसंबर को शाम करीब 5 बजे हमने श्री गणेश दामोदर सावरकर के निकटवर्ती
को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि बंबई उच्च न्यायालय ने उनके द्वारा
मलेच्छ सम्राट
12
के विरुद्ध ‘युद्ध छेड़ने’ के आरोप में आजीवन कारावास की सज़ा दिए
जाने के बारे में जानकर हमें बहुत दुःख पहुँचा है। सज़ा सुनाने वाले न्यायाधीशों में से
एक भारत का द्रोही है, जिसके द्वारा उनकी सारी संपत्ति जब्त किए जाने का आदेश
अत्यंत क्रू रतापूर्ण है। उनके परिवार के सदस्यों के प्रति संवेदना और वीर युवा द्वारा
हमारे देश की सेवा के आभार के प्रति हम उनके स्वीकार्य के लिए एक चेक भेज रहे हैं।
अगले दिवस, अर्थात् दिसंबर 22 को हम एक अंग्रेजी समाचार पत्र में तार पढ़ कर
चकित रह गए जिसमें नासिक के कलेक्टर श्री एएएमटी जैक्सन को पिछली रात्रि 10
बजने में पंद्रह मिनट पर अनंत लक्ष्मण कन्हेरे द्वारा गोली मारकर हत्या की गई थी,
जिनका कहना था कि ऐसा उन्होंने गत जून को गणेश दामोदर सावरकर को राजद्रोह
के अपराध में आजीवन कारावास दंड दिए जाने के प्रतिशोध हेतु किया। इस तरह यह
देखा जा सकता है कि पेरिस और नासिक के समयांतराल को देखते हुए श्री सावरकर
के परिवारजनों के प्रति हमारी संवेदना का तालमेल उनकी सज़ा के प्रतिशोध स्वरूप
की गई हत्या के मिनटों तक रहा था। इस कृ त्य में ‘एक ईश्वरीय न्याय’ की छवि
झलकती है, जो, बिना शक, हमारे पाठकों की कल्पनाशक्ति को उद्वेलित करेगी।
13
श्यामजी ने हेमचंद्र दास और गणेश दामोदर सावरकर के देश के प्रति योगदान के सम्मान में
दो अतिरिक्त छात्रवृत्तियों की घोषणा की। इंडियन सोशलॉजिस्ट
के इसी अंक में ब्रिटिश
सरकार द्वारा ब्राह्मणों और विशेषकर चितपावन ब्राह्मणों के खिलाफ कार्रवाइयों पर गहरी
निराशा जताई गई थी। उसमें टाइम्स
के एक लेख का भी उल्लेख था जिसमें ‘बंबई के
चितपावन ब्राह्मणों पर हमला’
14
करनेे को कहा गया था और साथ ही, गुप्त अधिकरण के
फै सलों पर समुदाय के साठ से अधिक सदस्य जेलों में बंद किए जाने पर भी अफसोस
जाहिर किया गया था।
रोगमुक्त होने के बाद विनायक पेरिस में स्थिर नहीं बैठे रहे। उन्होंने वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय
के सूचनापत्र तलवार
में लिखकर पेरिस में भारतीय समुदाय को जागरूक करने का प्रयास
किया, जिसमें फ्री इंडिया सोसायटी के लिए सदस्य बनाने की कोशिश भी शामिल थी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर किए गए शोध के दौरान उन्हें पंजाब के कू का समुदाय के
सशस्त्र संघर्ष का लघु तथ्य ज्ञात हुआ था। वह कू का अभियान के नेता गुरु राम सिंह पर
भाषण भी दे चुके थे, जिन्हें अंततः अंग्रेजों ने कु चल दिया था। सिख इतिहास और सिख
साहित्य की सामग्री के उनके संग्रह एवं विभिन्न सिख गुरुओं के प्रति उनकी दिलचस्पी की
चर्चा पहले ही की जा चुकी है। पेरिस में सेनिटोरियम में स्वास्थ्य लाभ करते समय विनायक
ने सिखों का इतिहास
नाम से एक पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक उनके पुत्र को समर्पित थी
जिसकी कु छ वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी थी। पुस्तक की पांडुलिपि की तीन प्रतियाँ बनाई गईं।
एक भारत भेजी गई, जो दुर्भाग्यवश या तो बीच रास्ते में खो गई अथवा ब्रिटिश सरकार
द्वारा जब्त कर ली गई थी। एक अन्य प्रति, उसे छु पाकर ले जाने को तैयार एक कलाकार
के हाथों भारत भेजी गई। परंतु सफर के दौरान उन्होंने देखा कि यात्रियों के सामान की
सख्त तलाशी ली जा रही है, अतः उन्होंने पकड़े जाने के डर से पांडुलिपि समुद्र में फें क दी।
तीसरी प्रति संभवतः मैडम कामा के पास थी।
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अफसोस, कि पांडुलिपि और उसकी सभी
प्रतियाँ खो गईं और पुस्तक कभी प्रकाशित नहीं हुई। इस पांडुलिपि का जिक्र के वल
विनायक के संस्मरणों में आता है।
पेरिस से विनायक ने भारत के रजवाड़ों के उन शासकों के नाम उत्तेजक संदेश लिखे
जिन्होंने अपनी सुविधाओं के लिए चुपचाप ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। यह
उनकी आत्मा के नाम एक अपील थी ताकि वह अपने देश के लिए खड़े हो सकें । इसका
शीर्षक उचित ही ‘चुनो, ओ’ भारत के राजकु मारो’ दिया था। अन्य बातों के अलावा, इसमें
कहा गया:
यदि इस स्पष्ट चेतावनी के बावजूद, गुप्त रूप से कार्यरत विराट शक्तियों को तुमने नहीं
पहचाना जिन्होंने पहले ही आधुनिक भारतीय विचारों को क्रांतिकारिता की ओर धके ल
दिया है, तुम अपने आप को शत्रु के साथ जोड़ने का या इस आग उगलते ज्वालामुखी
के मुहाने को अपने अंगूठों से बंद करने का कार्य करते हो, तो श्राप है तुम्हें ओ! भारत
के राजकु मारो ! जब इस क्रांति के शैशवकाल में ही सबसे बड़ा साम्राज्य कं पकपा रहा
हो तो तुम इसकी आगे बढ़ती रफ्तार उसी तरह नहीं रोक सकते जैसे तुम पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण अथवा उसकी धुरी नहीं बदल सकते. . .परंतु प्रत्येक वह व्यक्ति जिसने
अपने लोगों से धोखा किया, अपने पिताओं को त्यागा और अपनी माँ के विरुद्ध जाकर
अपने रक्त को दूषित किया, उसे कु चल कर रेत और राख में बदल दिया जाएगा और
उसे पतित, अवैध और पाखंडी कहा जाएगा. . .वही चुनो जो तुम्हारी इच्छा हो और तुम
जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे। चुनो कि तुम भारत के पहले देशद्रोही बनना चाहोगे
अथवा अंतिम राष्ट्रभक्त।
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जब वह ऐसे उत्तेजक लेख एवं प्रचारपत्र लिख रहे थे, विनायक को अपने खिलाफ नित उठ
रही आलोचनाओं का भी ज्ञान था। श्यामजी को भी ऐसी आलोचनाएं झेलनी पड़ रही थीं।
विशेष तौर पर ढींगरा के बाद यह बात उठने लगी थी कि कै से विनायक के वल भाषण देने
और दूसरों को उकसाने का काम करते हैं, वह खुद कभी आगे नहीं आते। संभवतः उनके
पेरिस पलायन को भी उनके परामर्शदाता श्यामजी की तरह स्थाई आश्रय की तलाश माना
गया होगा। इसी दौरान, विनायक को भारत और उनके शहर से खबरें प्राप्त हो रही थीं कि
कै से जैक्सन हत्या मुकदमे में उनके सदस्यों एवं अन्य युवाओं को गिरफ्तार कर प्रताड़ना दी
गई थी। उन्होंने सोचा कि अब पेरिस में बैठकर लेख लिखने से कु छ नहीं होगा।
पेरिस की एक उजली और चमकदार सुबह को डाॅक्टर की सलाह पर सैर करते हुए उन्हें
यह इल्हाम हुआ था।
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निकट तालाब में बतखें और हंस चहकते हुए तैर रहे थे, जल कु मुद
अभी खिले ही थे और नीलवर्णी आसमान स्वच्छ दिखता था। यह दृश्य किसी सुंदर चित्र
सरीखा था। वहीं एक ओर बेंच पर बैठे विनायक ने समाचार पत्र निकाला और कन्हेरे, कर्वे
एवं देशपांडे की फांसी की सज़ा के बारे में पढ़कर चैंक उठे । वह भावविह्वल हो उठे और
बगीचे में सैर करने के लिए खुद को कोसने लगे, जबकि उनके साथी भयावह पीड़ाएं भुगत
रहे हैं। जो व्यक्ति कहता था कि उन्हें आज़ादी के लिए सबकु छ छोड़ देना चाहिए, वह
अपनी ही निष्क्रियता पर घृणा से भर उठा। उदाहरण बनकर आगे आने और आकलन का
समय आ पहुँचा था। उन्होंने फै सला किया कि वह अपने जीवन और स्वतंत्रता की परवाह
ना करते हुए लंदन वापस जाएंगे।
विनायक के इस फै सले का एक और कारण था। उनका मानना था कि हालाँकि वह कर्वे,
कन्हेरे और देशपांडे को नहीं जानते परंतु, ‘लंदन में उन्हें अभियोगियों के पक्ष में आवाज
उठाने का उचित अवसर मिलेगा।’ उन्होंने सोचा, ‘लंदन अनेक क्रांतिकारियों की
आश्रयस्थली के तौर पर प्रसिद्ध रहा है। नेपोलियन तृतीय को गोली मारने वाले ओर्सिनी,
कार्ल मार्क्स. . .और कई अन्य बिना नुकसान उठाए लंदन में रहे हैं। लंदन मेरे लिए भी
सुरक्षित रहेगा।’
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वह तुरंत श्यामजी, मैडम कामा और सरदार सिंह राणा के पास पहुँचे और उन्हें अपना
निर्णय सुनाया। उन्होंने विनायक को ऐसा ना करने के लिए बहुत समझाया। ऐसा करने के
पीछे कारण भी था। जैक्सन हत्या मामले की छानबीन के सिरे धीरे-धीरे विनायक और
लंदन में उनकी गतिविधियों से जुड़ रहे थे। सरकार पहले ही उनके बारे में सचेत थी और
बाबाराव की गिरफ्तारी के बाद वह विनायक के खिलाफ मामला बनाकर उन्हें प्रत्यर्पित
करना चाहती थी। कई गवाहों के बयानों की मदद से सरकार विनायक के खिलाफ पुख्ता
मामला तैयार कर रही थी।
अक्तू बर 1907 से बंबई के नए गवर्नर नियुक्त और पूर्व ब्रिटिश सैन्य अधिकारी लॉर्ड जाॅर्ज
सिडैनहैम क्लार्क विनायक पर मुकदमा चलाने को प्रतिबद्ध थे, जिन्हें वह ‘भारत के सबसे
खतरनाक व्यक्तियों में से एक’ मानते थे।
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उनके आधिकारिक पत्राचार में उल्लेख हैः
‘सावरकर के खिलाफ मामला तैयार किया जाना चाहिए, हालाँकि वह बहुत पुख्ता नहीं
होगा। यदि उन्हें किसी षडयंत्र का अभियुक्त साबित कर दिया जाए तो अन्य मामला साबित
करना कठिन नहीं होगा। यदि वह बरी होता है तो बेशक पूरी दरख्वास्त ही रद्द हो जाएगी।’
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विनायक और उनकी लेखनी के संबंध में बहुत सी सूचना बटोरी गई परंतु अदालत में
उन्हें दोषी साबित करने के लिए वह नाकाफी थी। अतः, आधिकारिक पत्राचार में इस
संबंध में सावधान रहने को कहा गया और ऐसा मामला तैयार करने पर जोर दिया जिसके
बाद दूसरे मुकदमे की गुंजाइश ही ना रह जाए और वह पहली बार में ही दोषी साबित हों:
यह समझ लेना होगा कि हत्या के लिए उकसाने के मामले में छू टने का अंदेशा है, वहीं
पूरी उम्मीद है कि षडयंत्र के मामले में सज़ा आजीवन कारावास होगी, जो सभी अन्य
अभियोगों से अधिक की सज़ा होगी। यदि ऐसी सज़ा दी जाती है तो दूसरे मुकदमे में
क्षमा हेतु मानना पड़ेगा। ऐसे में दूसरे मुकदमे का राजनीतिक असर बेहद दुर्भाग्यपूर्ण
होगा, चूंकि सरकार पर बदला लेने की मंशा का आरोप थोपा जा सकता है।
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नासिक के विशेष न्यायाधीश लॉर्ड माॅन्टगोमरी को विनायक के खिलाफ प्रथमदृष्टया
मामला दर्ज करने के लिए साक्ष्य दर्ज करने और उन्हें प्रत्यर्पित करने का कार्यभार सौंपा
गया। इसके बाद, 17 जनवरी 1910 को विनायक के खिलाफ माॅन्टगोमरी की अदालत में
मामला दर्ज और 18 जनवरी 1910 को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के अंतर्गत पांच
अपराध लगाते हुए उनके खिलाफ वारंट जारी किया गया:
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1. सम्राट के खिलाफ युद्ध छेड़ने अथवा युद्ध उकसाने का मामला (यह मामला इंग्लैंड के
राजद्रोह जैसा नहीं होता, चूंकि युद्ध की कानूनी परिभाषा सरकार को गिराने की प्रच्छन्न
कार्रवाई मानी जाती है। अपराध का दंड आजीवन कारावास या उम्रकै द एवं संपत्ति
जब्त करना होता है
।)
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2. षडयंत्र, भारतीय दंड संहिता की धारा 121ए का उल्लंघन है जिसके कारण भारत पर
या उसके किसी अंश पर सम्राट के एकाधिकार का हनन होता है।
3. लंदन में 1908 में हथियार प्राप्ति एवं वितरण, जिसके फलस्वरूप, 21 दिसंबर 1909
को एक स्थानीय थियेटर में नासिक के कलेक्टर एमएमटी जैक्सन की हत्या की गई।
4. लंदन में 1908 में हथियारों की प्राप्ति एवं वितरण एवं अन्य अर्थों में लंदन से सम्राट के
विरुद्ध युद्ध छेड़ना।
5. भारत में जनवरी से मई 1906 के दौरान नासिक एवं पूना में, और लंदन में 1908 से
1909 के दौरान राजद्रोही भाषण देना। (यह आरोप पहले मामले में भी शामिल था
।)
विनायक के खिलाफ उनकी गैरहाजिरी में लंदन से 1881 के भगोड़ा अपराधी अधिनियम
(एफओए) के अंतर्गत वारंट जारी किया गया। एफओए के अंतर्गत किसी अपराध के
आरोपी पर गिरफ्तारी से बचने के लिए फरार होने का आरोप माना जाता है।
हालाँकि, लगाए गए अभियोगों में कई कानूनी खामियां भी थीं। पहला, भारत से ब्रिटेन
गए विनायक भगोड़े नहीं थे, ना ही उन पर फरारी, पहले कभी गिरफ्तार होने या पुराना
कोई मामला दर्ज था। वह किसी भी अन्य विद्यार्थी की तरह अपनी शिक्षा के लिए ब्रिटेन
आए थे जिसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति का सहयोग था। परंतु ब्रिटिश सरकार के अनुसार
विनायक के प्रत्यर्पण का एकमात्र तरीका भारत में किसी अनसुलझे और अलिखित
‘अपराध’ का आधार बनाकर ही संभव था। इसे कार्यान्वित करने के लिए सरकार, पांच
वर्ष पुराने उनके भाषण (राजद्रोही प्रवृति वाले) ही सामने ला सकी, जो उन्होंने ब्रिटेन जाने
से पहले लिखे थे। हालाँकि, उन भाषणों पर सरकार विनायक को पहले ही गिरफ्तार कर
सकती थी क्योंकि उस समय उन पर निगरानी रखी जाती थी। इसके विपरीत, उसने माफी
मांगने वाले गवाहों से जबरन प्राप्त बयानों के आधार पर भारत में राजद्रोह फै लाने का
अस्तित्वहीन मामला दर्ज किया। इसका एक कारण यह भी था कि यदि विनायक को भारत
में सज़ा सुनाई जाती है तो वह सबसे सख्त होगी, क्योंकि राजद्रोह कानून भारत में बेहद
सख्त था, वहीं ब्रिटेन में यह अप्रचलित हो चुका था। भारत में राजद्रोह के आधार पर ज्यूरी
से फै सला लेना कहीं आसान था, इसलिए प्रत्यर्पण का महत्व बड़ी जरूरत थी। जैसा कि
जानकी बाखले ने लिखा है:
राजद्रोह के मुकदमे अपने आप में जितने भारत में विस्फोटक होते हैं, उतने ही इंग्लैंड में
भी, परंतु इनके नतीजे के प्रति आश्वस्त जा सकता है क्योंकि ज्यूरी पर अपराधी के
संबंध में भरोसा हो सकता है। राजद्रोह की कानूनी परिभाषा कथनी एवं करनी, नीयत
एवं अमल, बयान एवं सत्य के बीच बड़ा भेद नहीं करती। भारत में, राजद्रोह प्रथम और
पूर्वव्यापी कानूनी यंत्र है जो औपनिवेशिक राज्य को किसी खतरनाक इरादे की भनक
मिलते ही, उससे जुड़े सभी विचारों, लेखन या भाषा को रोकने का अधिकार देता है।
साथ ही, राजद्रोह में घटना उपरांत उससे दूर का संबंध रखने वालों को घेरने एवं
गिरफ्तार करने का अधिकार होता है, जिसे सरकार के खिलाफ स्थानीय लोगों द्वारा
भड़काने के आरोप में लागू किया जाता है। इंग्लैंड में संकीर्णता के आरोप में इसके
अवसान के बाद, भारत में औपनिवेशिक गुलामी के साथ-साथ एक धाय के रूप में
राजद्रोह का पुनर्जन्म हुआ।
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लंदन भेजे गए एक टेलिग्राम में वर्णित विनायक के खिलाफ पांच आरोपों के आधार पर,
22 फरवरी 1910 को बॉ स्ट्रीट न्यायाधीश ने एक तात्कालिक गिरफ्तारी वारंट जारी किया।
वहीं वेलिंगर की मध्यस्थता से, ब्रिटिश प्रशासन को पेरिस पुलिस का भी सहयोग प्राप्त
हुआ। इन सभी तथ्यों से अवगत होने के बावजूद, विनायक ने लंदन जाने का निर्णय लिया।
उनके इस निर्णय को विभिन्न लेखकों ने अपने-अपने नजरिये के आधार पर ‘अविवेकपूर्ण’
या ‘आदरयोग्य’ जैसी संज्ञाएं दी हैं। कई स्थानों पर ब्रिटिश पुलिस द्वारा एक महिला, लॉरेंस
मार्ग्रेट के जरिए उन्हें पकड़ने के लिए आकर्षण जाल का भी उल्लेख आया है। हालाँकि,
इन आक्षेपों का कोई आधार नहीं और ऐसी किसी महिला के संबंध में कोई जानकारी नहीं
मिलती। दरअसल, यह भी विनायक के बारे में फै लाई गई अन्य कई बेसिरपैर की
विरोधाभासी बातों की तरह है, जिनमें कहा जाता है कि ‘वह वर्षों तक अफीम के आदी थे।
और हालाँकि उनके कु छ अनुचरों को ज्ञात भी था कि वह समलिंगी थे।’
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यह आक्षेप उन्हें
बदनाम करने की मंशा से निर्मित किए गए हैं, जिन्हें उनके निजी जीवन से जोड़कर उनके
कृ त्यों के खिलाफ राजनीतिक लाभ लेने की मंशा से स्थापित किया गया। जो भी हो, यह
कहना होगा कि उस समय विनायक इंग्लैंड के उदारवाद को कु छ ज्यादा ही आँक रहे थे
और एक विदेशी की बजाय अपनी एक घरेलू आतंकी की छवि को समझने में भूल कर बैठे
थे। श्यामजी ने उन्हें कई बार चेताया और इस संबंध में लिखा भीः
हमें महसूस हुआ कि वह अब इंग्लैंड में सुरक्षित नहीं हैं. . .और कई बार कहने के बाद
उन्होंने पेरिस आना स्वीकार किया और हम खुश थे कि आखिर हमारा युवा मित्र, अपने
निर्दयी शत्रु के शिकं जे से दूर हमारे बीच सुरक्षित है। अफसोस! कि हमारा उल्लास
अल्पावधि का था। कु छ माह पहले, हमारी गंभीर सलाह केे बावजूद, उन्हें इंग्लैंड लौटने
की धुन सवार हो गई थी। अन्य बातों के अतिरिक्त, हमने उनका ध्यान सामने खड़े एक
विशेष खतरे की ओर दिलाया। जबकि एक ओर उनके दो भाइयों को ब्रिटिश सरकार ने
जाल में फं सा लिया है, जिनमें एक उम्रकै द और दूसरे को भी सख्त सज़ा हुई है, तो
बहुत संभावना बनती है कि यह सोचकर कि ऐसा सक्रिय और सक्षम युवा प्रतिशोध के
मार्ग पर न निकल पड़े, हमारे देश में बैठे विदेशी आक्रांता उन्हें भी मार्ग से हटाने का
रास्ता खोज निकालेंगे।
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विक्टोरिया स्टेशन, लंदन, 13 मार्च 1910
लंदन जाने से पहले विनायक ने श्यामजी और अन्य से अंतिम मुलाकात का वादा किया
था, परंतु रविवार, 13 मार्च 1910 को उन्होंने आकस्मिक तौर पर ही फ्रांस छोड़ दिया।
अपने पीछे वह पत्र छोड़ गए थे जिसमें जाने से पहले उनसे ना मिल पाने का अफसोस
और उनकी उदारता के प्रति धन्यवाद दिया था।
विनायक पेरिस से कै ले ट्रेन से गए और वहाँ से इंग्लिश चैनल पार की। वहाँ से उन्होंने
लंदन के लिए न्यूहेवन पोर्ट से एक बोट ट्रेन पकड़ी। प्रातः 7 बजे जब बोट ट्रेन विक्टोरिया
स्टेशन पहुँची, विनायक को उनका पीछा किए जाने का अहसास हो गया था। रोचक यह
था कि लंदन में क्रांतिकारियों को बम बनाने में सहयोग देने वाली दादाभाई नौरोजी की
पौत्री सुश्री पेरिनबेन नौरोजी भी इस सफर के दौरान उनके साथ थीं। परंतु पुलिस ने उनकी
पहचान या गिरफ्तारी नहीं की। ज्यों ही विनायक रेल से बाहर निकले, गुप्तचरों और पुलिस
अधिकारियों का झुंड उन पर टूट पड़ा। मामला देख रहे स्काॅटलैंड यार्ड के चीफ इन्सपेक्टर
जाॅन मैकार्थी और इन्सपेक्टर ई. जाॅन पार्क र उत्तेजना से चिल्लाए: ‘यह रहा. . .यह रहा!’
विनायक धीमे से मुस्कराए और कहा, ‘हां, मैं हूं. . .मैं सावरकर हूं।’
इसके बाद उन्हें प्रतीक्षालय ले जाया गया जहाँ प्रत्यर्पण के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट का
गिरफ्तारी वारंट उन्हें पढ़कर सुनाया गया। वह मुस्कराये और कहा, ‘यस सर ! बेशक के स
बहुत रोचक बन पड़ेगा!’
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फिर उन्हें औपचारिक तौर पर बॉ स्ट्रीट पुलिस की हिरासत में दे
दिया गया। उनके बक्से की तलाशी के दौरान पुलिस को पुस्तक 1857 स्वतंत्रता समर
की
दो प्रतियां, ‘चुनो ओ! राजकु मारो’ प्रचारपत्र की सात प्रतियां, मेजिनी की जीवनी की एक
प्रति और अनेक समाचार पत्र आलेख बरामद हुए। हालाँकि, पुलिस स्टेशन में रात को
कड़ाके की सर्दी में गर्म कपड़ों के बिना, कु छेक बार उनकी नींद टूटी, परंतु फिर भी वह
निश्चिंतता से गहरी नींद सोए।
अगले दिन विनायक को बॉ स्ट्रीट पुलिस कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश सर एल्बर्ट डि रट्जेन
के समक्ष पेश किया गया। सुर्खियां बटोरने वाले मुकदमे की कार्यवाही देखने के लिए
अदालत भरी हुई थी। हालाँकि, घोषणा की गई थी कि कार्यवाही सादा रहेगी, परंतु
‘अदालत में कई लोग थे, जिनमें से कई शिष्ट कपड़ों में युवा भारतीय थे।’
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विनायक के
वकील, ग्रेज़ इन्न के रेजिनल्ड वाॅन ने अपने मुवक्किल की जमानत के लिए अनुरोध पत्र पेश
किया। वाॅन ने न्यायाधीश से कहाः ‘इस युवक को भारत भेजे जाने के मामले में बहुत
दुविधा है। हालाँकि, यह ऐसा सवाल है, जिस पर महामहिम बाद में विचार करेंगे। इस बीच
मैं इस व्यक्ति को जमानत प्रदान किए जाने का अनुरोध करता हूं. . .अपराध राजनीतिक
प्रवृत्ति का है, और वह कानून के अधीन है या नहीं, यह दूसरी बात है।’
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इस दौरान
वीवीएस अय्यर विनायक के साथ खड़े रहे थे और उन्होंने वाॅन को भी सहयोग दिया।
आरंभिक सुनवाई के बाद विनायक को जमानत देने से इनकार कर दिया गया। वाॅन ने
पूछा, ‘कोई जमानत नहीं ?’ जिस पर न्यायाधीश का जवाब था, ‘जब तक मैं मामले की
और जानकारी प्राप्त नहीं कर लेता।’
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18 मार्च को, भारत के सेक्रे टरी ऑफ स्टेट के अवर सचिव, एचबी सिम्प्सन ने इस संबंध
में एक आधिकारिक पत्र भेजा:
मुझे सचिव श्री डब्ल्यू. (विन्स्टन) चर्चिल द्वारा आपको भारत के राज्य सचिव की सूचना
से अवगत कराने को कहा गया है कि विनायक सावरकर को मेट्रोपोलिटन पुलिस की
सूचना पर 1881 के भगोड़ा अपराधी अधिनियम के अंतर्गत जारी वारंट के तहत
गिरफ्तार किया गया है, और उन्हें 14 तारीख को बॉ स्ट्रीट पुलिस के न्यायाधीश के
समक्ष पेश किया गया जिसके बाद उन्हें भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र में राजद्रोह एवं
हत्या के लिए उकसाने के आरोप में सात दिनों की रिमांड पर भेज दिया गया।
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इसके तुरंत बाद शिमला में वाइसरॉय के दफ्तर से लंदन के इंडिया ऑफिस को एक तार
भेजा गया:
सरकार सावरकर के विरुद्ध कार्रवाई करने को उत्सुक है। उनके भाई गणेश को
आईपीसी की धारा 121 के तहत सज़ा मिल चुकी है। हम मानते हैं कि यही वांछनीय
होगा और एक भारतीय पुलिस अधिकारी को लंदन भेजने का प्रस्ताव रखते हैं जिसे
षडयंत्र मामले की गहरी जानकारी हो। हमें सलाह दी गई है कि सावरकर के विरुद्ध
सर्वश्रेष्ठ प्रमाण सिखों से प्राप्त हो सकते हैं, अतः, हमने सिख डिप्टी सुपरिंटेंडेंट दयाल
सिंह ज्ञानी का चुनाव किया है। हम प्रस्ताव रखते हैं कि उन्हें 400 रुपया का पूरा वेतन
एवं मौजूदा खर्च 100 रुपया और साथ में यात्रा भत्ता एवं लंदन में रहने के लिए 10
शिलिंग प्रतिदिन का निर्वाह भत्ता मिलना चाहिए। इन शर्तों पर नियुक्ति के संबंध में हम
आपकी ओर से टेलिग्राफ से मंजूरी का आवेदन करते हैं।
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15 मार्च को और बाद में कई बार अय्यर विनायक से कारागार में मिले। वह उनके लिए
बाहरी दुनिया की ओर खुलने वाली खिड़की और संदेशवाहक थे। उसी दिन उन्होंने
श्यामजी को गिरफ्तारी का ब्योरा, आरंभिक सुनवाई और वकील के साथ उनके विमर्श के
बारे में सविस्तार लिख भेजा। उनके अनुसार विनायक को ‘बिना किसी शक के ’ निर्दोष
साबित किया जा सकता है। अय्यर ने लगभग भविष्यवाणी करते हुए लिखा कि विनायक
को उम्रकै द के लिए अंडमान भेजे जाने का खतरा है और उन्हें मिलकर जैसे हो, उनका
भारत प्रत्यर्पण रोकने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने विनायक से कारागार में भेंट पर
लिखा:
आज सुबह मैं विनायक से मिला और जेल की सलाखों के पीछे से बात करने की
मजबूरी के अलावा वह पहले जैसे ही थे। परंतु उन्हें अंग्रेजी जेल में बंद रहना पड़े, इस
बारे में गहरे - बहुत गहरे से महसूस करता हूं। शिकारी के लिए श्रम करता एक शेर !
उनका कहना है कि जेल सुपरिन्टेंडेंट आदि उनका सावधानीपूर्वक ध्यान रखते हैं और
इन परिस्थितियों में उन्हें कोई शिकायत नहीं है। मैं जानता हूँ कि आप और श्रीमती
श्यामजी जानने को उत्सुक हैं कि दो दिन पहले वह आपके साथ थे और आज!. . .अब
व्यर्थ पछताने का कोई अर्थ नहीं। हमें अपनी ओर से पूरी कोशिश करनी चाहिए कि
उन्हें भारत न भेजा जाए। यदि उन्हें भेज दिया गया, तो हम उन्हें कभी नहीं देख पाएंगे
और मातृभूमि के सबसे स्नेहिल और समर्पित सेनानियों में से एक मलेरिया ग्रसित द्वीप
की किसी कोठरी में सड़ता रहेगा। आज जो सावरकर ने कहा वह बहुत दुखी करने
वाला है, कि यदि उन्हें अंडमान भेजा गया तो अपने भाई को देखकर उन्हें खुशी होगी।
मैं उम्मीद करता हूँ कि ऐसी कड़वी खुशी उसके हिस्से न आए, और वह छू टेंगे और
अपनी सूझबूझ के अनुसार अपने देश की मुक्ति हेतु कार्य करेंगे।
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अय्यर ने विनायक के बचाव में चंदा जमा करने पर भी लिखा और कहा कि कानूनी प्रक्रिया
में £ 200 का व्यय हो सकता है। श्यामजी ने तुरंत उत्तर दिया और विनायक पर आई
मुश्किल पर व्याकु लता जताई जिसे उनकी सलाह के बावजूद उन्होंने खुद बुलाया था।
उन्होंने संकट की स्थिति में विनायक के लिए £10 का एक चेक भी भेजा। 20 मार्च को
विनायक को लंदन के जैब्ब एवेन्यू स्थित ब्रिक्स्टन जेल भेजा गया। अय्यर उनसे निरंतर
मिलते रहे। 1925 में अय्यर के निधन पर सांत्वना-स्वरूप रत्नागिरी में लिखे अपने संस्मरण
में विनायक ने ब्रिक्स्टन जेल में उनसे एक मुलाकात का जिक्र किया है:
1910 में. . .लंदन के दुर्जेय बंदीगृह ब्रिक्स्टन में, एक कै दी के रूप में मैं खड़ा था। वार्डर
ने आगंतुकों की सूची सुनाई; उत्सुकतावश बंदियों की पंक्ति में मैं विजिटिंग लॉज तक
पहुँचा। सलाखों के पीछे खड़ा मैं सोच रहा था कि कौन इस समय मिलने आएगा और
व्यर्थ ही लंदन पुलिस की अप्रिय नजरों में चढ़ेगा। चूंकि जेल की सलाखों के सामने बने
आगंतुक स्थल में अपने जानकार को मिलने पर अंततः वह निगरानी के दायरे में आ ही
जाते हैं। आगंतुकों को अंदर भेजा गया। वह जत्था हमारी खिड़कियों के सामने से
निकला। उसी दौरान एक गरिमामय व्यक्तित्व हमारे सामने के बक्स में आ पहुँचा। वह
वीवीएस अय्यर थे। उनकी दाढ़ी उनकी गर्दन तक झूल रही थी। वह अस्तव्यस्त दिखते
थे। अब वह साफ कपड़े पहने फै षनेबल जेन्टलमैन नहीं दिखते थे। जीवन के प्रति
किसी समर्पण के चलते उनकी समूची छवि ही बदल चुकी थी। ‘ओ लीडर!’ उन्होंने
भावपूर्ण तरीके से कहा। ‘तुमने पेरिस छोड़ा ही क्यों ?’ मैंने शांतभाव से कहा, ‘इस बारे
में यहाँ बात करने का क्या लाभ ?’ सही या गलत, मैं इस कारागार में बंद हूँ - और अब
बेहतर होगा यह सोचना कि आगे क्या किया जाए, वर्तमान को कै से झेला जाए। भावी
योजनाओं पर विस्तार से बात कर रहे थे कि घंटी बज उठी और दौड़ता हुआ पहरेदार
आते ही चिल्ला उठा, ‘समय समाप्त हुआ।’ भारी हृदय से हमने एक दूसरे की आँखों में
देखा। हम जानते थे कि इस जीवन में संभवतः हम एक दूसरे को आखिरी बार देख रहे
हैं। आंसू बह निकले। उन्हें दबाते हुए हमने कहा: ‘नहीं! नहीं! हम हिन्दू हैं। हमने गीता
पढ़ी है। इन असंवेदनशील लोगों के बीच हमें नहीं रोना चाहिए।’ हम हिन्दी में बात कर
रहे थे, जबकि कौतूहलपूर्ण अंग्रेज युवा भारतीय विद्रोही और उसके मित्र को देख रहे
थे। हमने विदा ली। जब तक वह आँखों से दूर नहीं हो गए, मैं उन्हें देखता रहा और फिर
मन में कहा, ‘फांसी या अंडमान, इन दोनों में से एक ही मेरी किस्मत है और दोनों ही
मेरे समक्ष फिर मेरे मित्रों को देखने की संभावना नहीं रखते।’
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हालाँकि, वह पेरिस में रहते थे, परंतु वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय करीब पंद्रह बार कारागार आए
थे। निरंजन पाल भी ब्रिक्स्टन में विनायक से मिले और यह जानते हुए कि लंदन में उन पर
क्या गुजरेगी, पेरिस छोड़ने की सबकी सलाह ना मानने पर उनसे नाराजगी व्यक्त की।
विनायक ने शांत उत्तर दिया कि, ‘नतीजे भुगतने के लिए उनके कं धे खासे मजबूत हैं।
उनके पास विश्वास की शक्ति है।’
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लंदन में कई भारतीय क्रांतिकारियों के मित्र बन चुके
डेविड गार्नेट भी विनायक के प्रशंसक थे और ब्रिक्स्टन में उनसे मिले। स्काॅटलैंड यार्ड के
इंस्पेक्टर पार्क र ने पहले उनसे लंबी पूछताछ की और उसके बाद ही विनायक से मिलने
दिया। गार्नेट ने विनायक से अपनी पहली मुलाकात के बारे में बताया है:
वह बिल्कु ल शांत और सहज थे। मैंने उनके बचाव पर चर्चा की और चंदा एकत्र करने
का प्रस्ताव रखा, और यह भी पूछा कि उनकी मदद को कु छ और हो जो मैं कर सकूं ।
उस समय वह के वल साफ काॅलर्स चाहते थे, उनके गले का माप 13 ½ था - एक स्कू ली
लड़के के माप जितना. . .मैं प्रति सप्ताह सावरकर से मिलने ब्रिक्स्टन गोल जाता था
और अपने साथ कु छ साफ काॅलर, एक रुमाल भी ले जाता, साथ ही उनके कानूनी
बचाव के लिए मैंने कु छ पाउंड भी जुटाए थे।
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जेल की चारदीवारी, जहाँ से फांसी या अंडमान की सज़ा निश्चित नजर आती थी, विनायक
ने एक लंबा और भावपूर्ण संकल्प और घोषणापत्र तैयार किया। यह येसु वहिनी को पत्र
स्वरूप लिखा गया था। उसमें विनायक ने बहुत मार्मिक तौर पर खुले आकाश और चाँदनी
रातों में बचपन और युवावस्था के उन दिनों को याद किया; एक माँ की तरह वह कै से उन
सबका ध्यान रखती थीं; बचपन में खेले गए खेल, और सुनी गई कहानियों से मिलने वाली
प्रेरणा का संकल्प में उल्लेख था। अभिनव भारत की शुरुआत अचानक सनक में शुरू हुई
घटना नहीं थी। उन्होंने, और उनके युवा साथियों ने पूरी समझ से माना था कि ‘जिनके
पास जीवन होगा, वह उन्हें गंवाना पड़ेगा’ और उसे अपनी मातृभूमि के लिए गंवाने से
बेहतर और क्या होगा। युवाओं के ऊपर खुद वह आशा की किरण सरीखे थे। स्थापना के
कु छ ही वर्षों में अभिनव भारत और उसके सदस्यों के साथ कितना कु छ हो गया था;
उनका पूरा परिवार अब जेल में था। विनायक के अनुसार यह हर्षित होने का पल था।
उनके ही कार्यों ने देश को झकझोर कर जगा दिया था - उसे सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित
किया था; ताकि ‘हाथों से भिक्षा का कटोरा छीन कर उसके हाथों में तलवार की मूठ थमा
दे’। अब, उनके संकल्प की परीक्षा की घड़ी आ पहुँची है। अनेकानेक भाषणों, वक्तव्यों,
लेखनियों और प्रतिज्ञाओं को अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। क्या कठोर समय में वह सब
शब्द औंधे मुँह के बल आ गिरेंगे या कठिन समय उन्हें और अधिक मजबूत बना देगा,
देखना बाकी था। विनायक ने दावा किया ‘तुम्हारी वेदी पर ही मैं अपने स्वास्थ्य और संपत्ति
का त्याग करूं गा। ना तो मेरे इंतजार में बैठी युवा पत्नी की नजरें, ना ही भुखमरी के लिए
अके ली रह गई भाभी की असहाय छवि मुझे तुम्हारी पुकार सुन कर रोक सके गी!’ उनके
दो भाइयों ने अपना सबकु छ न्योछावर कर दिया था क्योंकि वह अपने लक्ष्य में पूरी
पवित्रता से विश्वास करते थे। उनकी वंशावली संभवतः उनके साथ ही समाप्त हो जाएगी,
परंतु मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के सामने इसका क्या महत्व है ? एक
देशभक्त की पत्नी और दूसरे की भाभी होने के नाते विनायक ने येसु वहिनी के मन में शक्ति
संचार का प्रयास किया क्योंकि कठिन समय में अब उन्हें मजबूत बनने की दोहरी जरूरत
थी। उन्होंने अपनी पत्नी को स्नेह भेजते हुए अडिग रहने को कहा।
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ब्रिटिश सरकार भारत से विनायक के मुकदमे से जुड़े दस्तावेजों का इंतजार कर रही थी।
अंततः, दस्तावेज 1910 के अप्रैल मध्य में पहुँचे। विनायक के इंडिया हाउस के कु छ
साथियों से सरकार ने लंदन में बात की और उनमें से कु छ सरकार की मदद को तैयार हुए।
पच्चीस वर्षीय मराठा और इंजीनियर हरिश्चंद्र कृ ष्णराव कोरेगाँवकर ने बयान दिया कि वह
मई 1906 में इंजीनियरिंग के अध्ययन के लिए लंदन पहुँचे थे और वहाँ तीन साल से थे।
वह विनायक को पहले से नहीं जानते थे, परंतु नवंबर 1906 में ही उनसे परिचय हुआ था।
वह गुरु गोबिंद सिंह की जयंती के उपलक्ष्य में इंडिया हाउस गए थे और वहाँ अप्रैल 1907
के महीने भर रहे थे। उस समय ज्ञानचंद्र वर्मा और मदन लाल ढींगरा भी वहाँ रहते थे।
कोरेगाँवकर के अनुसार कर्जन वायली की हत्या के बाद उन्होंने इंडिया हाउस छोड़ दिया था
क्योंकि वहाँ रहना खतरनाक था। उन्होंने अन्य लोगों के साथ सशस्त्र संघर्ष के जरिए
स्वतंत्रता प्राप्ति की विनायक की बातों का हवाला दिया। उन्होंने 1908 के आरंभ में एक
विमर्श याद किया जिसका शीर्षक था ‘क्या हम सचमुच निहत्थे हैं ?’ इस अवसर पर
विनायक ने एक भाषण दिया था कि भारत निहत्था नहीं है और स्थानीय राज्यों में काफी
हथियार हैं जो भारत का एक-तिहाई क्षेत्र है। स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु उन्हें प्राप्त करने के लिए
के वल नवीन युक्तियों की आवश्यकता है।
‘भारत का भावी संविधान’ नामक एक अन्य बैठक की अध्यक्षता और संबोधन भी
विनायक ने किया था। उसमें विमर्श था कि आज़ाद भारत एक गणतंत्र होगा या संवैधानिक
राजशाही। विनायक की राय थी कि रजवाड़ों की सदस्यता वाला एक ऊपरी सदन हो और
चुने गए नुमाइंदों का एक निचला सदन। यह काफी कु छ ब्रिटिश संसद से मेल खाता था।
भाषण में विनायक का प्रस्ताव था कि स्वतंत्रता संघर्ष में सर्वाधिक मदद करने वाले
स्थानीय रजवाड़े को राजा बनाया जाए। अन्य सभी राज्यों को अपनी जनता को
संवैधानिक अधिकार देने होंगे। स्वतंत्र भारत की राजभाषा हिन्दी होगी।
कोरेगाँवकर ने ‘द लाइफ ऑफ मेजिनी’ पर एक बैठक की जानकारी दी, जिसमें अय्यर
ने भाषण दिया था, शिवाजी जयंती के दौरान शिवाजी पर और दिसंबर 1908 में गुरु गोबिंद
सिंह के सम्मान में क्रे क्स्टन हाॅल मीटिंग के बारे में भी बताया। अंतिम सभा में विनायक ने
भाषण के दौरान एक झंडा फहराया था, जिस पर लिखा था ‘देग, तेग, फतेह’, जिनका
अर्थ था – विश्वास से जुड़ी तलवार जीत दिलाती है। जो भारत के संबंध में स्वतंत्रता थी।
कोरेगाँवकर ने मई 1908 में 1857 के शहीदों की अभिनंदन सभा की भी जानकारी दी
जिसमें विनायक और अय्यर ने बादशाह बहादुरशाह जफर, मौलवी अहमद शाह, कुं वर
सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहेब एवं अन्य की याद में श्रद्धांजलि दी थी। उसमें खुद
कोरेगाँवकर ने आरंभ में ‘वन्दे मातरम’ गीत गाया था। उस दौरान ‘ओ! हुतात्माओ!’
नामक प्रचारपत्र भी वितरित किए गए थे। उन्होंने फ्री इंडिया सोसायटी के लिए £50-60
देने की बात स्वीकारी, हालाँकि संस्था की गतिविधियां और कार्यक्रम के बारे में उन्हें
विस्तारपूर्वक नहीं बताया गया था। विनायक ने बेल्जियम, अमेरिका, स्विट्जरलैंड और
मिस्र से हथियार प्राप्त कर उन्हें छु पाकर भारत भेजने की योजना, सैन्य प्रशिक्षण और
हथियार एवं विस्फोटक निर्माण की योजना पर भी बात की थी। चतुर्भुज अमीन के भाई
गोविंद अमीन कु छ ब्राउनिंग पिस्तौलें भी लाए थे जिनमें से एक टाॅटनहेम कोर्ट शूटिंग रेंज में
अभ्यास के लिए ढींगरा इस्तेमाल करते थे। प्रचारपत्रों को आमतौर पर जर्मनी या न्यूयाॅर्क
भेजा जाता, जहाँ से शक दूर करने के लिए उन्हें भारत भेजा जाता। कोरेगावंकर ने बताया
कि विनायक की संस्था की शाखाएं मिस्र, पेरिस, हैम्बर्ग, न्यूयाॅर्क , स्विट्जरलैंड, वैन्कू वर
और अन्य स्थानों पर थीं।
कोरेगाँवकर और ढींगरा करीबी दोस्त थे; वह एक ही जहाज से इंग्लैंड भी आए थे। यहाँ
तक कि, कर्जन वायली की हत्या के दिन भी ढींगरा रसेल स्क्वायर स्थित कोरेगाँवकर के
घर गए थे। उस समय वह बिल्कु ल भी उत्सुक या विचलित नहीं लग रहे थे। तब तक,
कोरेगाँवकर को विनायक और अय्यर की ओर से संदेश भी मिल चुका था कि उन्हें भी
ढींगरा के साथ रहना होगा, और ढींगरा के असफल होने पर काम उन्हें पूरा करना होगा।
उस रात जब कर्जन वायली कमरे में दाखिल हुए, कोरेगाँवकर ने ढींगरा को सचेत किया
था। जब ढींगरा कु छ हड़बड़ाए, तो कोरेगाँवकर ने सख्ती से कहा था, ‘आ जाओ ना, क्या
करते हो ?’
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कोरेगाँवकर ने बयान में बताया कि उस रात ढींगरा के पास अतिरिक्त
रिवाॅल्वर भी थे जिसका इस्तेमाल उन्हें अंधाधुंध तरीके से अंग्रेज पुरुषों और महिलाओं को
मारने के लिए करना था। यदि सर विलियम ली वार्नर वहाँ मौजूद होते तो उन्हें भी मारने की
साजिश थी। हत्या के बाद, कोरेगाँवकर ढींगरा से जेल में मिले थे। विनायक एक संदेश
कोरेगाँवकर के हाथ बंबई भेजना चाहते थे, थट्टे को उनकी 1857 स्वतंत्रता समर
पुस्तक
की प्रतियाँ सौंपना और पांडिचेरी में संभावित खरीददारों के पते से जुड़े संदेश भी थे।
कोरेगाँवकर एसएस ऑस्ट्रिया से 18 अगस्त 1909 में बंबई पहुँचे और वहाँ से ग्वालियर
रवाना हुए। दिसंबर 1909 को डीसीआई ने बंबई में उनसे पूछताछ की थी। उन्होंने इंडिया
हाउस के कई लोगों की पहचान की और विनायक की लिखाई भी पहचानी, क्योंकि उन्होंने
ही 1857 की आधी पुस्तक का मराठी से अंग्रेजी अनुवाद किया था। 1909 में हैदर रज़ा के
साथ अनबन के बाद उन्होंने विनायक के इंडिया हाउस छोड़ जाने के बारे में भी बताया।
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इसके बाद, विनायक के खिलाफ चन्जेरी रामा राव को गवाही देनी थी। यह पैंतीस वर्षीय
देशस्थ ब्राह्मण अगस्त 1909 में स्वच्छता विज्ञान की शिक्षा के लिए इंग्लैंड आया था और
इससे पहले वह रंगून नगर निगम में प्लेग निरीक्षक रहा था। 3 और 4 दिसंबर 1909 को
आयोजित परीक्षा के लिए वह इंग्लैड पहुँचे थे। 11 अपर एडिसन गार्डन्स में रहने वाले एक
मित्र के जरिए उनकी विनायक से मुलाकात हुई थी। इसके बाद वह फ्री इंडिया सोसायटी
की कु छ बैठकों में गए और शपथ ली। उनका दावा था कि क्योंकि उन्होंने बैठक में हिस्सा
लिया था, इसलिए विनायक ने उन्हें शपथ लेने को मजबूर किया था। वह जनवरी के पहले
सप्ताह में पेरिस चले गए थे, जहाँ वह तिरुमल आचार्य और इंडिया हाउस के रसोइये के
भाई गोविंद अमीन के साथ रहे। वह तिरुमल आचार्य के लिए अय्यर का पत्र भी ले गए थे।
पेरिस में वह मैडम कामा के घर विनायक से मिले थे। उनके आपत्ति करने पर मैडम कामा
और विनायक ने उन्हें 1857 स्वतंत्रता समर
की दस प्रतियाँ और एक रिवाॅल्वर साथ ले
जाने को कहा था। पुस्तकों को नकली तल वाले एक बक्से में छु पाया गया था। भारत जाने
से पहले राव को यह सामान सरदार सिंह राणा के घर से लेना था। गोविंद अमीन ने उन्हें
बताया बक्से में एक पिस्तौल और पचास कारतूस थे जिन्हें विनायक या अय्यर के भारत
पहुँचने पर उन्हें सौंपा जाना था।
उन्होंने यह भी बताया कि बम बनाने के लिए उचित स्थान की खोज में वह गोविंद अमीन
के साथ पेरिस में घूमे थे। विनायक ने कहा था कि उन्हें भी बम बनाना सीखना चाहिए और
यह काम सिखाने के लिए लंदन से कु छ लोग आने वाले हैं। उन्होंने ढींगरा की एक तस्वीर
भी उन्हें 1 शिलिंग में बेची और कहा कि फ्री इंडिया सोसायटी के प्रत्येक सदस्य के पास
शहीद की तस्वीर होनी चाहिए। राव ने दावा किया कि जब 10 जनवरी 1910 को वह ट्रेन
पकड़ने वाले थे, विनायक भागते हुए स्टेशन पहुँचे और ‘बम मैनुअल’ दिया जिसे ‘मुझे
कपड़ों में छु पाकर’ ले जाना था। कु छ प्रचारपत्र वह अपने जूते में छु पाकर भी ले गए थे।
उनमें से एक ‘वन्दे मातरम्’ कथित रूप से विनायक ने लिखा था। ‘भारतीय और अंग्रेज
अधिकारियों को भयभीत कर दो और फिर संपूर्ण तंत्र के गिरने में देर नहीं लगेगी। इस
योजना को स्थायी तौर पर कार्यान्वित करने की शुरुआत खुदीराम बोस, कनाईलाल दत्त
और अन्य शहीदों ने इतने यशस्वी तरीके से की है कि जल्दी ही भारत में अंग्रेज सरकार ढेर
हो जाएगी। अनेक राजनीतिक हत्याओं का तरीका नौकरशाही को ठप करने और लोगों को
जगाने की श्रेष्ठतम विधि है। क्रांति का आरंभिक दौर कई राजनीतिक हत्याओं की नीति से
संबद्ध था।’ चन्जेरी रामा राव जिस 1857 स्वतंत्रता समर
की प्रति लेकर गए, उसमें
प्रकाशक की टिप्पणी थी जो उनके अनुसार ‘ऐसी भाषा में लिखी गई थी जिसका बोध
आम पाठकों से इतर कु छ ही लोगों को था’ और यह ‘इशारा युवाओं की किसी व्यापक
गुप्त सभा की ओर’ था।
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वर्णन स्वरूप एक अनुच्छेद पढ़ा गया: ‘इंग्लैंड या फ्रांस में रहने
वाले अपने किसी भरोसेमंद युवा मित्र को अंतरराष्ट्रीय पोस्टल ऑर्डर भेजो। हम इन दोनों
देशों में सभी युवाओं से परिचित हैं. . .किसी भी हालत में यह पैसा किसी पुराने मित्र को
मत भेजना।’
41
राव को बंबई पहुँचने पर गिरफ्तार किया गया, उनके सामान की तलाशी हुई और बक्से
का नकली तला खोजा गया। उन्हें आयुध अधिनियम के अंतर्गत दो वर्ष सख्त कै द दी गई
और विनायक के खिलाफ गवाही के दौरान वह सज़ा भुगत रहे थे।
42
अय्यर की जीवनी में
दर्ज है कि विनायक की बजाय अय्यर ने राव को पिस्तौल एवं पुस्तकें ले जाने का जोर दिया
था, परंतु पुलिस प्रताड़ना से राव टूट गए और पुलिस निर्देश के अनुसार ही बयान दिया।
ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि किसी तरह साबित करे कि ‘नासिक में जैक्सन को गोली
मारे जाने में इस्तेमाल रिवाॅल्वर सावरकर ने भेजी थी। परंतु सबूत नाकाफी थे। ऐसे में रामा
राव काम आए. . .घोर झूठ और धोखे के लिए रामा राव की सज़ा माफ हुई और उन्हें
भारतीय पुलिस विभाग में नौकरी मिली।’
43
इस लांछन के पीछे जो भी सच रहा हो, कहना
ना होगा कि भारत सरकार ने विनायक के खिलाफ लंदन की अदालत को दस्तावेजों में
कु छ अटूट साक्ष्य भेजे थे।
इन सबूतों के साथ 23 अप्रैल 1910 को मामले पर पुनः सुनवाई आरंभ हुई। तत्कालीन
साॅलिसिटर जनरल रूफस इस्साक्स
44
ने श्री बॉडकिन और श्री रॉलेट के साथ विनायक पर
थोपे गए आरोपों की पैरवी की। श्री के सी पाॅवेल और श्री जेएम पारेख विनायक की ओर से
उपस्थित थे। कई लोगों के बयान दर्ज किए गए। आरंभ से ही, मामले की छानबीन नासिक
के अपराध जांच विभाग के उप-महानिरीक्षक जेम्स एडाॅल्फ्स गाइडर कर रहे थे। उनका
बयान था कि विनायक और बाबाराव एक गुप्त सभा के निर्माण के जिम्मेदार थे, जिसका
लक्ष्य भारत में ब्रिटिश सरकार का विनाश करना था।
45
गाइडर ने कहा कि 1 जनवरी
1906 से 28 मई 1906 तक विनायक ने पांच भाषण दिए थे, जिनमें चार नासिक और एक
पूना में था। भाषणों का साझा संदेश शिवाजी, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, मेजिनी एवं अन्य
का आह्वान कर सशस्त्र क्रांति के जरिए विदेशी शासन को उखाड़ फें कने का था। नासिक
के एक पुलिस निरीक्षक जफर अली का बयान था कि एक भाषण में विनायक ने कहा था,
‘हालाँकि हम निहत्थे हैं, फिर भी हमें हथियार चाहिए. . .सरकार को उखाड़ फें कने को
प्रतिबद्ध होने पर हमें हथियार चाहिए. . .आओ हथियार लेकर लड़ें। इसका अर्थ यह है कि
हमें अपने धर्म की रक्षा करनी चाहिए।’
46
अभियोजन पक्ष के अनुसार, तलाशी में प्राप्त,
विनायक द्वारा अपने भाई को लिखे गए सभी पत्र ‘स्वातंत्र्य लक्ष्मी की जय !’ से आरंभ
होते थे। उनके अनुसार, इससे साबित होता है कि विनायक ब्रिटिश राज से भारत को मुक्त
देखना चाहते थे।
30 अप्रैल 1910 को अगली सुनवाई के दौरान, जब चतुर्भुज अमीन और कोरेगाँवकर ने
अपने बयान दर्ज कराए तो विनायक हैरान रह गए। वकील पाॅवेल ने विनायक की पैरवी
और मित्र मेला के भाषणों पर कहा:
बयानों में मित्र मेला का संदर्भ आया है, जिसे सरकार को उखाड़ फें कने के लिए गठित
एक गुप्त संस्था कहा गया है। परंतु असल में यह चार देवताओं के त्योहारों को मनाने के
लिए गठित समूह था और सदस्य अपने देश में अपने धर्म के प्रति आस्था रखने को
कहते हैं। यह भाषण अपनी प्रकृ ति में पूरी तरह प्राच्य शैली का है और अंग्रेज लोग इन्हें
बेसिरपैर का कह सकते हैं। चुनावी गीतों की तरह गाए जाने की तरह इन पर कोई हर्ज
नहीं होना चाहिए, जिन्हें बच्चों को स्कू ल में सिखाया जाता है और ‘स्काॅट्स गीत’ या
‘एडवर्ड की बेड़ियां और गुलामी’ जैसे गीत गाने वालों की तरह इस पर ध्यान नहीं देना
चाहिए। पिस्तौलांें को भारत भेजे जाने के आरोप को, जिनका इस्तेमाल एक व्यक्ति
या युवा (कन्हेरे) ने जघन्य अपराध के लिए किया, सावरकर पूरे जोर से नकारते हैं।
47
सुनवाई 7 मई 1910 को बॉ स्ट्रीट न्यायाधीश डि रुटजेन के सामने जारी रही। परंतु
क्रांतिकारियों और बचाव पक्ष के वकीलों की पूरी कोशिश के बावजूद न्यायाधीश डि
रुटजेन ने 12 मई 1910 को विनायक को भारत भेजने और वहाँ उन पर मुकदमा चलाए
जाने का निर्णय सुनाया।
इस बीच, कई नेताओं ने विनायक के पक्ष में जन-समर्थन तैयार करने के प्रयास जारी रखे
थे। बिपिन चंद्र पाल ने लंदन डेली न्यूज
के संपादक को लिखे पत्र में कहा:
अब बदले हुए हालात के मद्देनजर, तीन, चार या पांच वर्ष बाद, अपेक्षाकृ त अमन और
शांति के समय दिए गए भाषणों को आपराधिक अभियोग का विषय बनाने में कोई तर्क
नहीं है, तब जबकि इनसे अमन चैन को खतरा होने का अंदेशा अधिक हो। यदि
उन्हांेने स्वयं ही भाषणों का अधिकृ त प्रारूप उचित समय पर प्रकाशित कराया होता,
तो मामले में विलंब किए जाने से अभियुक्त के पास अपने भाषणों से जुड़ी पुलिस
रिपोर्ट की कमियों पर ध्यान दिलाना लगभग असंभव हो जाएगा।
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निर्णय के खिलाफ विनायक के वकीलों ने किंग्स बैंच डिविजन के हाई कोर्ट ऑफ जस्टिस
के पास अपील की। तीन न्यायाधीशों की बेंच डिविजन ने ब्रिक्स्टन जेल में कार्यवाही शुरू
हुई। बैंच के न्यायाधीशों में इंग्लैंड के प्रमुख न्यायाधीश लॉर्ड एल्वरस्टोन, न्यायाधीश
विलियम पिक्फर्ड और न्यायाधीश बर्नार्ड जाॅन सेमूर कोलरिज़ थे। तथ्य रोचक है और
विडंबनापूर्ण भी कि युवावस्था में लॉर्ड एल्वरस्टोन भी एक गुप्त संस्था के सदस्य रहे थे,
जिसका नाम – रॉयल एंटिडिलूवियन ऑर्डर ऑफ बफै लोज़ था। कार्यवाही 25 मई 1910
को शुरू हुई जिसमें बचाव पक्ष ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हेबस कोर्पस) दायर कर
विनायक की गिरफ्तारी की वैधता पर प्रश्न उठाया। वकीलों का तर्क था कि जिन भाषणों के
आधार पर विनायक को बंदी बनाया गया है, उनका अनुवाद कमजोर है। उनमें राजद्रोह का
आशय ना होकर स्वदेशी अभियान की बात है, जो भारतीय दंड विधान में अपराध नहीं।
उन्होंने दलील पेश की कि यदि भाषणों में राजद्रोह की बू होती तो सरकार ने उन्हें उसी
समय गिरफ्तार क्यों नहीं किया, जब वह भारत में थे। अतः, सतही अभियोगों को देखते
हुए उन्होंने विनायक को तुरंत बरी किए जाने की मांग की। यह भी कहा कि यदि इंग्लैंड में
विनायक द्वारा लिखा हुआ राजद्रोह की श्रेणी में आता है तो उन पर यहीं मुकदमा चलाया
जाए, इसके लिए भारत प्रत्यर्पण का मामला नहीं बनता।
2 जून 1910 को पुनः सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष के वकील सर रूफस इस्साक्स
ने भारत में विनायक के भाषणों से प्राप्त प्रचुर सामग्री का उल्लेख किया। विनायक द्वारा
लिखित, ‘शिवाजी महाराज, महान राष्ट्रभक्त जिन्होंने विदेशी दासता से भारतभूमि को मुक्त
किया था’
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की ओर संके त किया गया। इस पर लॉर्ड एल्वरस्टोन ने व्यंग्यपूर्ण तरीके से
टिप्पणी की कि के वल स्वतंत्रता का विमर्श राजद्रोह नहीं होता। वहीं इस्साक्स की दलील
थी कि विनायक के भाषण के वल विमर्श भर नहीं, बल्कि उनके इंग्लैंड जाने से पहले
श्रोताओं को सशस्त्र अभियान की पुकार थी: ‘सब लोग बैठते, बात करते, सोते ही नहीं,
बल्कि आँखें झपकाते समय भी ‘स्वदेश भक्ति’ यानी देश के प्रति निष्ठा याद रखो. . .तुम
मेरी ही तरह गुलाम हो. . .जब हम सरकार को उखाड़ फें कने को प्रतिबद्ध होंगे, हमें
हथियारों की जरूरत होगी।’
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इस्साक्स ने चतुर्भुज अमीन का बयान, इंडिया हाउस की गतिविधियां, ब्राउनिंग पिस्तौलों
तथा ‘बम मैनुअल’ का निर्यात और भारत में उनके वितरण का मुद्दा सामने रखा। इन सब
प्रमाणों एवं आरोपों से पता चला कि इंग्लैंड में विनायक कु छ कृ त्यों के दोषी थे, जिसे,
कानून की भाषा में भारत और इंग्लैंड दोनों स्थानों पर अपराध माना जाता है। यह तथ्य
कानूनी तौर पर विनायक को एफओए के अनुच्छेद 2 के अंतर्गत प्रत्यर्पित करने के लिए
काफी था।
51
कानून के इस अनुच्छेद का इस्साक्स द्वारा जिक्र किए जाने का इंतजार करते पाॅवेल तुरंत
उठे और अपनी आपत्ति दर्ज कराई। कानून का अनुच्छेद 2 तभी वाजिब होता है जब
अभियोगी कानून की नजर में भगोड़ा हो। परंतु विनायक भारत से भागे नहीं थे; वह
मौलिक छात्रवृत्ति के आधार पर बतौर विद्यार्थी इंग्लैंड में थे। पाॅवेल ने कहा, ‘क्या मैं अपने
घर जाने के लिए टैम्पल में अपने चैम्बर्स से निकलने पर, या इस अदालत से अपीली
अदालत जाने पर भगोड़ा कहलाऊं गा ?’ उनकी दलील पर अदालत में ठहाका गूंज उठा।
52
जाहिर है इस्साक्स ने कानून के अनुच्छेद 2 का हवाला देकर ठीक नहीं किया क्योंकि
न्यायाधीश उनकी दलील से संतुष्ट नहीं हुए। इसके बाद वह एफओए के अनुच्छेद 33 पर
पहुँचे।
53
इसके अंतर्गत विनायक द्वारा किए गए अपराध आते थे। इस्साक्स जैसे चतुर
वकील ने पहली बार में अनुच्छेद 33 क्यों नहीं उठाया, इसका कारण यह था कि इसे
एफओए के अनुच्छेद 10 के साथ संयुक्त तौर पर प्रयुक्त किया जाना था, जबकि अनुच्छेद
2 स्वतंत्र था।
54
अनुच्छेद 10 में अभियुक्त को शक की बिनाह पर कु छ छू ट दिए जाने का
प्रावधान होता है, जिसे पूरी जानकारी की कमी या जिस देश में अपराध हुआ है, वहाँ से
दूरी और आमतौर पर संप्रेषणीय सुविधाओं में आने वाली रुकावटों के कारण लगाए गए
हल्के आरोपों से अमल में लाया जाता है। ऐसे मामलों में अभियुक्त जिस देश में पकड़ा गया
है, वहीं उस पर मुकदमा चलता है, और यदि अदालत चाहे तो उसे जमानत पर या पूरी
तरह बरी कर सकती है।
अब अदालत को यकीन दिलाने की जिम्मेदारी विनायक की थी कि भारत सरकार
सद्भावना दिखाते हुए वारंट जारी ना करे, चूंकि 1906 में दिए उनके भाषणों को राजद्रोह
मानने में उसे चार साल लगे थे। यदि उस समय उन पर मुकदमा चलता तो वह ज्यूरी
मुकदमा होता, जो अधिकार अब उनसे छीना गया था।
4 जून 1910 को जब अदालत फिर लगी तो प्रमुख न्यायाधीश लॉर्ड एल्वरस्टोन ने
एफओए की धारा 33 के अंतर्गत विनायक के प्रत्यर्पण को मंजूरी दे दी थी। उन्होंने डि
रुट्जेन के फै सले और नासिक के विशेष न्यायाधीश माॅन्टगोमरी के वारंट के आधार पर
एफओए का पक्ष लेने का निर्णय किया। उन्होंने संतोष प्रकट किया कि ‘प्रत्याशी
(विनायक) द्वारा कथित अपराध किए जाने के बारे में मजबूत या संभावित अनुमान जताने
के संबंध में’ साक्ष्य काफी होंगे।
55
पाॅवेल ने दलील जारी रखी कि प्रत्यर्पण का अर्थ होगा
विनायक को ज्यूरी की बजाय न्यायपीठ के सामने भेजना। यह उनके लिए ‘अनुचित’ और
‘दमनकारी’ होगा। अदालत ने इससे सहमति पेश की। जिसे देखते हुए पाॅवेल ने कहा कि
ऐसी सूरत में के स रद्द हो जाता है क्योंकि कानून लागू किए जाने पर उनके मुवक्किल के
पास उसी कानून के अनुच्छेद 10 का अवसर खुला है जिसके अनुसार मामले की अनुचित
और दमनकारी प्रवृत्ति को देखते हुए फै सला अभियुक्त के पक्ष में होता है। बचाव पक्ष की
इस दलील को लॉर्ड एल्वरस्टोन ने रद्द कर दिया।
हालाँकि, पहले न्यायाधीश कोलरिज़ फै सले के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष
किया था कि ‘सावरकर के गवाह भारत और इंग्लैंड में कहीं सामने नहीं आएंगे’।
56
संभवतः इशारा गवाहों को विनायक के खिलाफ गवाही देने की धमकी से जुड़ा था, जैसा
कि गद्दारी के लिए सरकारी गवाह (संभवतः रामा राव) की सज़ा माफी का मामला। परंतु
अंततः न्यायाधीश कोलरिज ने अन्य दोनों न्यायाधीशों के बहुसंख्य विचारों के प्रति आदर
रखते हुए निजी विचार वापस ले लिए।
इसके बाद, विनायक के वकीलों ने एक बार फिर अपीली अदालत में फै सले के खिलाफ
अपील दायर की। इस अदालत में तीन न्यायाधीश – लॉर्ड जस्टिस वाॅन विलियम्स, लॉर्ड
जस्टिस फ्लैचर मोल्टन और लॉर्ड जस्टिस बक्ले थे। सुनवाई 17 जून 1910 को शुरू हुई।
आपराधिक मामला होने के आधार पर इस्साक्स ने विनायक के अपीली अधिकार पर ही
आपत्ति दर्ज की।
57
अगले दिन, न्यायाधीश वाॅन विलियम्स ने अभियोजन पक्ष के संबंध में
फै सला दिया, हालाँकि, वह विनायक का मूल निवेदन सुनने को तैयार थे। तद्नुसार, 21
जून 1910 को पाॅवेल ने दलील दी कि सबसे पहले विनायक कोई भगोड़ा नहीं है, इसलिए
एफओए के अधीन उनका भारत प्रत्यर्पण अनुचित और दमनकारी होगा, चूंकि वह ज्यूरी
की बजाय न्यायपीठ के सामने पेश किए जाएंगे। पाॅवेल ने अपनी दलील के अंत में कहा
‘न्याय पक्ष को देखते हुए प्रत्याशी पर इसी देश में मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जहाँ वह
अपने पक्ष में कु छ सबूत पेश कर सके गा जो अन्यथा उसके पास उपलब्ध नहीं होंगे।’
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भारत प्रत्यर्पण के लिए कानून के अस्पष्ट और हास्यपूर्ण इस्तेमाल के खिलाफ विनायक
के वकीलों द्वारा तैयार मामले के बावजूद न्यायाधीश वाॅन विलियम्स ने दलील सुनने से
इनकार कर दिया। उनका फै सला था, ‘मेरी राय में भारत में राजद्रोह कानून के संबंध में
आरोपों और चूंकि लगभग सभी गवाह भी भारत में हैं, इसलिए कै दी पर भारत में मुकदमा
चलाए जाने के संबंध में प्रथम दृष्टया
उचित आधार बनता है।’
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वहीं उन्होंने विनायक के
खिलाफ लंदन में ही मुकदमा चलाए जाने के मामले में पाॅवेल की दलील से भी सहमति
जताई, यदि विनायक वहाँ कु छ लंबे समय से होते। परंतु वह शाही न्यायपीठ को नाराज
नहीं करना चाहते थे।
गाइ एल्ड्रेड जैसे विनायक समर्थकों ने जोरदार तरीके से फै सले का विरोध किया और
कहा कि उन्हें भारत भेजा जाना कानूनी एवं नैतिक उल्लंघन है। हैरल्ड ऑफ रिवोल्ट में
प्रकाशित अपने लेख में एल्ड्रेड ने कहा कि एफओए के अनुच्छेद 10 के अनुसार विनायक
पर लंदन में ही मुकदमा चलाने का अनुमति दी जानी चाहिए थी। उन्होंने दलील रखी कि
जिस गवाह से ‘साबित करना होगा कि उसके द्वारा बंदूकें देने की बात करने वाला व्यक्ति
झूठ कह रहा है, उसको भारत की बजाय लंदन में गवाही देना कहीं सुरक्षित होगा, भारत में
निष्पक्ष सुनवाई कठिन है।’
60
विनायक के पक्ष में भावुक दलील में एल्ड्रेड ने लिखा:
यदि सावरकर के गवाह इंग्लैंड या भारत में न भी गवाही देते, तो भी उन्हें भारत भेजना
अनुचित और दमनकारी है, क्योंकि इंग्लैंड में उन्हें अपने पक्ष में गवाही देने का हक
होता, जबकि भारत में अधिनियम 1908 के अंतर्गत ऐसा नहीं है। डिविजनल और
अपीली जजों का कहना है कि उन्हें इस अधिकार से वंचित किए जाने को अनुचित या
दमनकारी मानने की ‘जिम्मेदारी बहुत, बहुत भारी है’। दूसरे शब्दों में, सावरकर को
भारत भेजने के संबंध में ब्रिटिश जजों ने मौलिक कानून में कानूनी आश्रयता को नकारा
है, या कानून एवं कार्यप्रणाली के बीच कोई पुख्ता संबंध है और जिसके अंतर्गत साक्ष्य
या गवाही की कोई भूमिका है। हम दृढ़तापूर्वक कह सकते हैं कि मानवीयता के
अनुभव, न्यायशास्त्र का इतिहास और अन्य अवसरों पर इन जजों के दावे, इस विकट
इनकार को नकार. . . सावरकर द्वारा और एतराज भी जताए गए, जिनमें, वहाँ उनका
मामला तीन जजों द्वारा सुना जाएगा न कि इंग्लैंड में ज्यूरी जैसे, और वह किसी अपीली
कोर्ट में अपील दायर नहीं कर सकें गे। मुकदमों के अंतर के संबंध में सुनाया गया
फै सला अनुचित और दमनकारी था जिसने हमारे कानूनी दावों और परंपराओं का
मजाक बना दिया है, और साक्ष्य संबंधी कानूनों एवं न्यायशास्त्र स्थापित सिद्धांतों को
जड़ से उखाड़ फें का है।
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वहीं भारत में ‘सावरकर मुकदमे’ की सुनवाई के लिए एक विशेष कचहरी स्थापित की जा
रही थी, जिसका अर्थ, पूर्व कथनानुसार, बिना ज्यूरी और नतीजों के खिलाफ कोई अपील
ना कर पाना। यह सब 1908 के क्रिमिनल लॉ संशोधन अध्यादेश के प्रावधानों के अंतर्गत
किया गया था। इस नए कानून के तहत नागरिक के अधिकारों का जबरन हनन किया गया
था।
जिन दिनों इंग्लैंड में मुकदमा समाप्त होने को था, जून 1910 के अंत में, एक दिन,
ब्रिक्स्टन जेल में विनायक से मिलने डेविड गार्नेट आए। उन्होंने गलियारे में घूम रहे वार्डर के
कु छ दूर जाते ही विनायक से पूछा कि वह वहाँ से पलायन पर क्यों विचार नहीं करते।
उन्होंने इस संबंध में अपनी एक योजना का प्रस्ताव रखा। विनायक ने कहा कि वह भी इस
बारे में सोच रहे हैं, भारत जाते समय इस संबंध में अधिक अवसर मिल सकते हैं। परंतु यदि
गार्नेट के पास कोई योजना है तो वह खुशी से अमल करेंगे। इस पर गार्नेट ने विस्तार से
उनकी जेल दिनचर्या के बारे में पूछा। विनायक को प्रतिदिन पुलिस की ब्लैक मारिया गाड़ी
की बजाय टैक्सी में वापस भेजने के लिए बॉ स्ट्रीट ले जाया जाता। कोई एक गुप्तचर उनके
साथ होता था। प्रत्येक सप्ताह एक ही समय पर, एक या दो मिनट आगे-पीछे, बॉ स्ट्रीट
तक उनका साप्ताहिक दौरा नियमित हो गया था।
गार्नेट की योजना थी कि विनायक को जेलद्वार या उससे कु छ दूरी पर छु ड़ा लिया
जाएगा। बॉ स्ट्रीट तक टैक्सी उन्हें कब लाती है, इसका पता करने के लिए निगरानी लगाई
गई। फिर जेल तक आगंतुकों को लिए एक कार द्वार तक पहुँचेगी, जो गुप्तचर को दबोच
लेंगे और विनायक जल्दी से कार में बैठकर निकल जाएंगे। दो द्वारों पर पहरेदारी के कारण
जेल के भीतर से मदद जल्दी नहीं पहुँच सके गी। कार चलाने के लिए गार्नेट ने हैरल्ड नामक
एक आयरिश क्रांतिकारी का चुनाव किया और विनायक को छु ड़ाने के लिए लंदन में मौजूद
सिन फीन मूवमेंट के सदस्यों का इंतजाम करना श्रीमती ड्राइहस्र्ट का काम था।
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सब के
पास काली मिर्च के पैके ट होते थे। उन दिनों गाड़ियों में सफर करने वाली अधिकांश
महिलाओं की तरह, गाड़ी में लबादे के साथ-साथ छु पने के लिए महिला की मूरिंग टोपी
और नकाब भी रखे गए थे। पेरिस जाकर गाइ एल्ड्रेड कार्य में सहायक युवाओं को साथ
लाए जो विनायक को आज़ाद कराने के लिए खुशी से जेल जाने को भी तैयार थे। जब
गार्नेट ने विनायक को योजना सविस्तार बताई, तो उन्होंने कहा:
कोई जीते या हारे, कोई सफल हो या असफल, फर्क नहीं पड़ता। जब तक संघर्ष जारी
है, परिणाम की चिंता मत करो। एक ही चीज आवश्यक है और वह है जज़्बा। आपने
बेहतरीन काम किया और ऐसा करने की आपको आवश्यकता भी नहीं थी। आप मेरी
चिंता न करें, मैं किसी तरह पलायन कर जाऊं गा। यदि आपकी योजना असफल रहती
है तो मेरे पास पहले से ही एक योजना है।
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नियत दिन, गुप्तचर को लिए एक टैक्सी निकली जिसकी घात में वह बैठे थे। परंतु
अफसोस, टैक्सी में विनायक नहीं थे। उन्हें अंतिम निर्णय सुनाए जाने के लिए पहले ही
अदालत ले जाया जा चुका था जहाँ हथकड़ी में उन्हें भारत से आए दो गुप्तचरों के हवाले
किया जाना था। जाहिर था कि किसी के द्वारा पुलिस को सूचना दिए जाने के कारण
गार्नेट, एल्ड्रेड एवं अनेक आयरिश तथा फ्रांसीसी क्रांतिकारियों द्वारा भारतीय साथी को
छु ड़ाने की योजना असफल रही। विनायक को भारत भेजे जाने में अब कु छ ही समय
बाकी था।
जून 1906 को, मस्तिष्क में एक अभियान लेकर विनायक इंग्लैंड आए थे। चार वर्षों बाद,
इसी जून के महीने में, वह देश छोड़ रहे थे। उन्हें भारत में मिलने वाली सज़ा को लेकर
साथियों और अनुयायियों के मन में शोक के बावजूद, विनायक खुद शांत और स्थिर थे। 21
जून 1910 को ब्रिक्स्टन कारागार से ‘ऋषि’ सम्बोधन से अय्यर को लिखे पत्र जाहिर था
कि सब्र के साथ अपरिहार्य स्थिति के लिए तैयार थे। पत्र में उन्होंने अय्यर की दाढ़ी पर
मजाक भी किया हैः
प्रिय ऋषि, अब तक मैं यहाँ के भोजन और रहन-सहन के तरीके का आदी हो चुका हूं।
यह अच्छा है कि मैंने शुरू से ही विशेष भोजन की मांग नहीं रखी। अब आजीवन
कारावास पर भेजे जाने के लिए के वल कपड़ों की ही कमी है. . . मेरी सेहत बहुत
अच्छी है और वजन दो पाउंड बढ़ गया है (चार पाउंड वजनी दाढ़ी बढ़ाकर नहीं!). .
.पहले ही कई बार की तरह मुझे उदात्त पत्र लिखते रहना। जिनमें से एक मुझे अदालत
के पूर्व निश्चित निर्णय को सुनने जाते समय मिला था। इससे मैं हमारे बीच की दूरी भूल
गया था और लगा था कि मेरा ऋषि एक बैठक में या कमरे में मेरी तीमारदारी करता
हुआ या लोगों को उठाने की ऊं ची बातें, एक जाति के पुनर्जन्म या राव साहब की बातें
करता हुआ मेरे पास है।
64
29 जून 2010 को गृह राज्य सचिव विन्स्टन चर्चिल ने आदेश जारी किया कि एफओए के
अंतर्गत विनायक को भारत ले जाया जाएः ‘मैं, माननीय विन्स्टन लियाॅनर्ड स्पेन्सर चर्चिल,
उक्त भगोड़ा अपराधी अधिनियम द्वारा मुझे प्रदान की गई शक्तियों के आधार पर आदेश
देता हूँ कि विनायक दामोदर सावरकर को भारत साम्राज्य वापस भेजा जाए।’
65
इसके बाद, मेट्रोपोलिटन पुलिस के चीफ कमिश्नर सर एडवर्ड हैनरी ने फ्रांसीसी सरकार
की सोट’ या नागरी पुलिस बल को सूचित करने को लिखा कि 1 जुलाई को ‘एक
महत्वपूर्ण राजनीतिक कै दी’ को पेनिन्सुलर एंड ओरिएंटल (पीएंडओ) लाइनर एस.एस.
मोरिआ पर लंदन से भारत ले जाया जा रहा है ; कि जहाज 7 और 8 जुलाई को फ्रांस के
मार्से तट पर रुके गा। अंग्रेज़ जानते थे कि पेरिस में श्यामजी, मैडम कामा, सरदार सिंह
राणा, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और अन्य भारतीय क्रांतिकारी मौजूद हैं, जो बिना शक अपने
साथी को छु ड़ाने का प्रयास करेंगे। इसलिए, विदेश मामलों के राज्य सचिव सर एडवर्ड ग्रे ने
इन क्रांतिकारियों द्वारा किसी किस्म के हस्तक्षेप की सूरत में फ्रांसीसी मदद के लिए
अनुरोध किया। फ्रांसीसी घरेलू मामलों के मंत्री ने किसी संभावित पलायन के संबंध में
अपने अधीनस्थों को चेताया और निर्देशानुसार मोरिया कमांडर के अधीन फ्रांसीसी पुलिस
का एक दस्ता तैनात किया गया। 9 जुलाई को, पेरिस के सोट’ जनरल के निदेशक श्रीमान
हेनियन ने जवाब दिया कि कै दी की किसी भी पलायन योजना को रोकने के लिए दक्षिण
फ्रांस के विभाग को निर्देश दे दिया गया है।
फ्रांसीसी जल सीमा में जहाज पर विनायक की निगरानी ब्रिटिश पुलिस की जिम्मेदारी
थी। फ्रांसीसी प्रधानमंत्री एरिस्ट्राइड ब्रियांड ने ब्रिटिश अनुरोध स्वीकार किया। गाइ एल्ड्रेड ने
लिखा है:
हमें यह पूछने की जरूरत नहीं कि ब्रियांड को क्या प्रलोभन दिए गए होंगे। कु र्सी के
लिए फ्रांसीसी कर्मियों को धोखा देने वाला कु र्सी के बराबर लोभ के लिए फ्रें च स्वायत्त्ता
को भी बेचना चाहेगा। वह मंत्री जो अपने पुराने साथियों को उनके सिद्धांतों के प्रति
ईमानदारी के लिए कारागार भेज सकता है, वह सावरकर को राष्ट्रभक्ति के लिए क्यों
कालकोठरी में नहीं धके ल देगा। यह जानना बहुत रोचक रहेगा कि ब्रिटिश सरकार ने
उसकी सेवाएं क्यों लीं।
66
इंग्लैंड छोड़ कर जाते समय विनायक ने गत चार वर्षों से उनका साथ देने वाले और काम
करने वाले अपने मित्रों और साथियों के लिए बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता लिखी। वह
‘विदाई’ कविता यों है:
जिनके हृदय रेशमी डोर से बंधे हैं
मृदु मैत्री, जो अधिक मृदुलता में बंधती है,
दिव्य माँ के पंथ के ईश्वरीय प्रसार को बांटते हैंः
ओ बंधुओं! विदा!! स्नेही और स्वच्छ
जैसी प्रातः की सुगंध छोड़ती शबनम
बंधुओं! विदा! विदा!
हम अपने ईश्वरीय-विधान के पात्र खेलने को बिछड़ते हैं
आज सुलगती चट्टानों पर कै द किए और बंधे, अब डांवाडोल
कीर्ति की उफनती लहरों पर; अब दिखे, अब खोये
या विनम्र अथवा उन्नत - दिव्य की इच्छा से रखे गये
परिचारक, परंतु प्रेषित श्रेष्ठ, जैसे कि अके ले थे
हमारे जीवन का लक्ष्य है कर्म का संधान।
पूरबी उदात्त नाटक की तरह
सब पात्र, जीवित एवं मृत
जैसे मिलते हैं उपसंहार में
यथा पात्र हम सब अनेक मिलेंगे
इतिहास के विपुल मंच पर महतत्व के समक्ष
प्रशंसा करते मनुष्यजाति के श्रोता
जो कृ तकृ त्य हो ऊं ची-नीची ओर दृश्यमान होंगे
तब तक, ओ स्नेहिल बंधुओं, विदा! विदा!
जहां भी मेरी विनम्र अस्थियां गिरेंगी,
अंडमान की अवसादग्रस्त नदी में जिसका अश्रुपूर्ण प्रवाह
उसके रूखेपन पर एक जिह्वा या गंगा से पृथक हुई
एक पवित्र मणिभ धारा जिसमें सितारे
उनकी अर्धरात्री लय में नृत्यरत है -
वह अग्नि एवं तेज से द्रवित होगी
जब विजय की तुरही बजने को होगी
श्री राम ने अपने चुने लोगों के ललाट पर
सुनहरे हरित प्रतिष्ठित किए! दुष्टात्माएं विक्षेपित हुईं
दूर और खदेड़ी गईं गहरे में जहाँ से कभी
पहले उभरी थीं! और देखो! उनकी दिव्य आकृ ति
हमारी भारत माता, मानवता का मार्ग प्रशस्त करता प्रकाश स्तंभ
ओ शहीद संतों और सिपाहियों, जाग जाओ!
लड़ाई जीत रही जिसके लिए तुम लड़े और खेत रहे!
तब तक, ओ मित्रो! विदा! विदा!
निद्राहीन हो देखो हमारी माँ की उन्नति
और उसे गिनना सीखो, अनन्य श्रम से नहीं
कृ त अथवा आजमाए गए, परंतु कितना छले गए वह,
हमारे जन कितने बलिदान दे सके !
चूंकि कार्य एक मौका है और बलिदान एक विधान;
मजबूत नीवें हों तो उठता है भव्य उबार
राज्यों नए और पुरानों के !
परंतु शहीद की बिखरी अस्थियों का एकमात्र महत।
तो माँ की प्रतिष्ठा को कार्य करो जब तक दिव्य श्वास
रूपांतरित न हो उठो, ईश्वरीय विधान न हो जाए पूर्ण -
शहीद की पुष्पमाला या विजेता का मुकु ट न जीता जाए!
67
इस बीच ब्रिटिश सरकार ने विनायक को मुक्त कराने के विफल प्रयास में भूमिका के लिए
अय्यर के खिलाफ भी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया था। लंदन से पेरिस तक, और
ब्राजील तक भी, एक ‘दक्षिण भारतीय ब्राह्मण क्रांतिकारी’ के लिए तलाशी नोटिस जारी
कर दी गई थी। परंतु अय्यर उनसे कहीं चतुर निकले। पहले वह भूमिगत हुए और पुलिस के
खोज अभियान को धता बताया। उसके बाद सबसे कम पहरे वाले मार्ग की तलाश की जो
हाॅलैंड से होकर जाता था। खुली दाढ़ी वाले एक बलिष्ठ पंजाबी का भेस बनाकर उन्होंने
जहाज पर मौजूद गुप्तचर की आँखों में धूल झोंकी जो छोटे और भीरु दक्षिण भारतीय
ब्राह्मण की तलाश कर रहा था। पहचान पुख्ता करने के लिए, गुप्तचर ने डेक की कु र्सी पर
आराम कर रहे अय्यर के हाथ में एक टेलिग्राम पकड़ाया जो ‘श्री वीवीएस अय्यर’ के नाम
था। बिना पलकें झुकाए अय्यर टेलिग्राम लौटाते हुए बोले कि वह किसी श्री अय्यर के लिए
है, उनके लिए नहीं। हालाँकि, उनके साथ रखे सूटके स पर ‘वीवीएस’ लिखा था। गुप्तचर
को बक्से को घूरता देख वह मुस्कराए और कहा, ‘हां, मैं पंजाब से वीर विक्रम सिंह हूं’।
झेंपते हुए गुप्तचर ने माफी मांगी और लौट गया। 68
इसके बाद, अय्यर एम्स्टर्डम पहुँचे,
फिर वहाँ से पेरिस के लिए ट्रेन लेकर श्यामजी और मैडम कामा से जा मिले।
अब एक महत्वपूर्ण कार्ययोजना को मूर्तरूप देना था - मार्से में एक वादा निभाने और
मुलाकात की घड़ी आ पहुँची थी।
7
सावरकर प्रकरण
लंदन, अगस्त 1910
मेट्रोपोलिटन पुलिस के विभागीय जांच कक्ष में माहौल निराशापूर्ण था। क्रु द्ध चर्चिल ने
गलतियों का पता लगाने के लिए पूरी जांच के आदेश दिए थे। जिम्मेदारी के दायरे में
मेट्रोपोलिटन पुलिस निरीक्षक एडवर्ड जाॅन पार्क र एवं सीआईडी के उप-सर्वेक्षक चार्ल्स
जाॅन पावर थे। उन्हें विनायक को भारत वापस ले जाने वाले दल के साथ जाना था। 27 मई
1910 के पत्र में मेट्रोपोलिटन पुलिस कमिश्नर सर एडवर्ड हेनरी ने इन्सपेक्टर पार्क र को
स्काॅटलैंड यार्ड अधिकारी के तौर पर विनायक की लंदन गतिविधियों के बारे में प्रमाण
जुटाने का जिम्मा सौंपा जिनको भारत भेजा जाना था। पार्क र लंबे समय से विनायक की
गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे। 29 दिसंबर 1908 को गुरु गोबिंद सिंह जयंती के अवसर
पर कै क्सटन हाॅल में आयोजित बैठक में भी वह श्रोताओं में उपस्थित थे। विनायक के
इंडिया हाउस छोड़ने के बाद भी पार्क र ने उन पर कड़ी नजर रखी। मार्च 1910 को
विक्टोरिया स्टेशन पर विनायक की गिरफ्तारी के समय भी वह मौजूद थे और उन्होंने
विनायक के सामान की तलाशी लेकर क्रांतिकारी पुस्तकें और प्रचारपत्र बरामद किए।
इससे पहले, 10 अप्रैल 1910 को बंबई से उप-सर्वेक्षक सीजे पावर विनायक के मामले
के ज़रूरी कागजात लेकर लंदन पहुँचे थे। इनमें नासिक मुकदमे के गवाहों के बयान थे
जिन्हें उन्होंने बॉ स्ट्रीट पुलिस अदालत में जमा कराया। बंबई शहर और मुफ्फसिल पुलिस
की सेवा में पावर का बतौर अधिकारी सोलह वर्ष लंबा बेदाग रिकाॅर्ड था, जिनमें से तेरह में
उन्हें कु शल सेवा एवं पुरस्कार प्रविष्टियां प्राप्त हुई थीं। 1904 में उन्हें बंबई पुलिस के एक
अन्य अधिकारी के साथ शपूरजी कावसजी संजना के बंबई प्रत्यर्पण के लिए मनीला तैनात
किया गया था। उन्होंने कई प्रत्यर्पण संबंधी औपचारिकताओं के मार्ग में आने वाली
परेशानियों के बावजूद पूरी दृढ़ता से अपने कर्तव्य को अंजाम दिया था। अतः, भारत
सरकार ने फै सला किया कि ‘कु ख्यात’ विनायक को वापस लाने के लिए पावर सबसे
उपयुक्त अधिकारी होंगे।
लंदन में पावर स्काॅटलैंड यार्ड के इन्सपेक्टर मैकार्थी और इंडिया ऑफिस के
महालेखाकार से मिले। उन्हें अदालत में विनायक मामले की कार्यवाही की जिम्मेदारी लेने
और भारत लौटने से जुड़े उचित इंतजाम करने को कहा गया। जून माह के आरंभ में, पावर
ने पीएंडओ जहाज मर्मोरा में बुकिंग कराने के लिए अनेक सरकारी विभागों को लिखा था।
प्रभागीय अदालतों में अपीलें दायर किए जाने पर खिंच रहे मामले के कारण जहाज की
तारीख निकल गई जिसके बाद 24 जून 1910 को एसएस मोरिया में बुकिंग मिली। लंदन
रवाना होने से पहले, पावर को भारत में उनके विभागाध्यक्ष से सख्त नसीहत मिली कि
उनकी प्रमुख जिम्मेदारी ‘वापसी यात्रा पर बंदी की निगरानी करना’ होगा।
26 मार्च 1910 को पुलिस के उप-महानिरीक्षक एवं पावर के अधिकारी, गाइडर ने उन्हें
लिखा:
अगले सप्ताह तीन हवलदार मेसिडोनिया से रवाना होकर समुद्र मार्ग से लंदन तक
जाएंगे। पुलिस महानिरीक्षक चाहते हैं कि उनके पहुँचने पर आप उनसे मिलें और रहने
के स्थान के बारे में उन्हें बताएं. . . वापस आते समय बंदी पर नजर रखने के संबंध में
मैंने जो हिदायत दी थी, आपको याद होगी। आप नासिक के प्रमुख हवलदार को किसी
भी समय बंदी के साथ अके ला नहीं छोड़ेंगे। ऐसा करने के पीछे कु छ कारण हैं।
हालाँकि, प्रधान सिपाही को इस निषेधाज्ञा के बारे में नहीं बताना होगा, फिर भी
आपको ध्यान रखना है कि इस पर सख्ती से अमल हो। अपने प्रत्येक कार्य के संबंध में
प्रत्येक शुक्रवार को डायरी डिस्पैच माध्यम से मुझे सूचित करते रहें।
1
इस तरह पावर के कं धों पर बड़ी जिम्मेदारी थी। इसी कारण मोरिया पर उनकी लापरवाही
को विभाग ने गंभीरता से लिया। लंबी और थकाऊ जांच के दौरान, फ्रांस के मार्से के तट
पर लगे मोरिया पर उस दिन घटित घटनाक्रम को लेकर पावर और पार्क र ने अपना हवाला
सुनाया था।
मार्से, फ्रांस, 8 जुलाई 1910
1 जुलाई 1910 को टिल्बरी बंदरगाह से एसएस मोरिया रवाना हुआ जिसमें पावर एवं
पार्क र तथा दो भारतीय प्रमुख हवलदारों, पूना पुलिस के मुहम्मद सिद्दिक और नासिक
पुलिस के अमरसिंह सखाराम सिंह की निगरानी में विनायक थे। तीसरा अधिकारी, उस्मान
खान, जिसे विशेष रूप से भारत से विनायक की निगरानी के लिए भेजा गया था, की
इंग्लैंड में 14 जून 1910 को मृत्यु हो गई थी। अतः, पावर ने उसकी जिम्मेदारी सिद्दिक और
अमरसिंह को सौंप दी थी। 7 जुलाई की दोपहर के करीब वह मार्से पहुँचे।
मार्से पहुँचने से एक सप्ताह पहले तक, पावर और पार्क र ने कड़ी दैनिक दिनचर्या का
अभ्यास किया था। उनमें से एक को हर समय विनायक के साथ रहना होता था। जहाज
पर उन्होंने चार बर्थ (सीट) वाला अंदरूनी के बिन बुक कराया जिसमें पोर्टहोल या
खिड़कीनुमा स्थान नहीं था और जहाज के खजांची से प्राप्त चाबी से रात के समय दरवाजा
बंद कर कमरा सुरक्षित हो जाता था। चाबी दोनों में से एक अधिकारी के पास रहती थी।
पार्क र और विनायक ने निचली बर्थ ली जबकि पावर की बर्थ ठीक विनायक के ऊपर वाली
थी। पार्क र की बर्थ दरवाजे के समीप और विनायक के ठीक सामने थी। विनायक की बर्थ
के ऊपर की रोशनी को रात भर जलने दिया गया। मार्से पहुँचने तक विनायक ने हथकड़ी
नहीं पहनी थी। वह स्वेटर और घुटनों तक का दोहरा पायजामा पहने हुए थे।
2
प्रतिदिन आमतौर पर प्रातः 7 बजे के बिन परिचारक स्लेविन के कारण अधिकारियों को
उठना पड़ता। पावर और पार्क र कपड़े पहनकर तैयार हो जाते। स्नान के लिए एक ही जाता
और दूसरा उसके लौटने तक विनायक पर नजर रखता। दोनों के तैयार होने के बाद
विनायक को उठकर तैयार होने की छू ट मिलती। वह अपना स्नानादि के बिन में ही करते।
प्रातः 8 बजे शौचादि जाने के समय दोनों अधिकारी उन्हें भारतीय हवलदारों को सौंप देते
जो उस समय के बिन के बाहर ही रहते थे। वह उन्हें शौचालय ले जाते और दोनों को निर्देश
था कि दरवाजा भीतर से बंद ना हो बल्कि कु छ खुला रखा जाए। दोनों हवलदार शौचालय
के बाहर ही रहते, और उनमें से एक को खड़े रहकर दरवाजे के ऊपर से खिड़की पर नजर
रखनी पड़ती थी। शौचालय ले जाते समय आमतौर पर विनायक गाउन और चप्पल पहने
होते जिन्हें बाहर आते समय शौचालय के दरवाजे पर छोड़ना होता था। यात्रा के दौरान
हमेशा यही पद्धति अपनाई गई।
नाश्ते तक विनायक और दोनों अधिकारी के बिन में ही रहते। नाश्ते के लिए उन्हें डायनिंग
सैलून ले जाया जाता जहाँ विनायक दोनों के बीच बैठते। नाश्ते के बाद, कभी-कभार
अधिकारी धूम्रपान करते। एक-दो बार वह विनायक को ऊपरी डेक पर भी लेकर गए ताकि
वह कु छ व्यायाम कर सकें । परंतु उन्हें कभी अके ले चलने या बैठने नहीं दिया गया। इस
दौरान दोनों भारतीय हवलदार भी डेक पर मौजूद रह कर विनायक पर नजर रखते थे।
विनायक पढ़ने या झपकी लेने के लिए उन्हें अक्सर के बिन लौटने के लिए भी कहते थे।
हमेशा की तरह, पावर या पार्क र के बिन को भीतर से बंद कर वहाँ मौजूद रहते। दोपहर का
भोजन भी डायनिंग सैलून में किया जाता था। मध्यान्ह एवं अपरान्ह का समय लगभग एक
सा बीतता था। जहाज के किसी अन्य यात्री से विनायक को बात करने की इजाजत नहीं
थी। आमतौर पर वह सायं 9 बजे सोने जाते और 10 बजे दोनों हवलदारों को छु ट्टी मिलती
थी।
प्रतिदिन सुबह विनायक स्नान करते जिस दौरान वह दोनों हवलदारों की निगरानी में होते
थे। दरअसल, कई बार उन्हें मुहम्मद सिद्दिक की मौजूदगी में नहाना पड़ा था। एक दिन सीने
में दर्द की शिकायत करने पर पावर ने उन्हें नहाने से परहेज करने की सलाह दी। जहाज के
एक डाॅक्टर ने उनका मुआयना किया और उनके दाहिने फे फड़े में संक्रमण पाया, जिसके
लिए उन्होंने मालिस का लोशन दिया। विनायक के सोने से पहले मुहम्मद सिद्दिक ने उनके
सीने पर मालिस की थी।
7 जुलाई को जहाज के मार्से तट पर पहुँचने के समय, पावर बंद के बिन में विनायक की
निगरानी कर रहे थे। इस बीच, जहाज के गलियारे में मौजूद पार्क र विनायक को छु ड़ाने के
प्रयास के लिए आ पहुँचे भारतीय क्रांतिकारी की तलाश में थे। जहाज के रुकने पर पावर ने
दल को चैकन्ना रहने के सख्त निर्देश दिए। उन्हें या पार्क र को हर समय विनायक के साथ
रहना था। करीब 1 बजे उन्होंने दोपहर का भोजन किया और 4 बजे तक के बिन में ही रहे।
जहाज पर कोयला लादे जाने के कारण सभी खिड़कियां बंद थीं, जिस कारण असहनीय
गर्मी हो रही थी। यह देखते हुए तीनों ऊपर धूम्रपान कक्ष में चले गए। करीब 5 बजे
विनायक को हाथ-मुंह धोने के लिए नीचे ले जाया गया और फिर 7 बजे डायनिंग सैलून में
रात्रि भोजन तक वे वहीं रहे। रात्रि भोजन के बाद उन्हें चारों की निगरानी में एक घंटा
चलने-फिरने की छू ट दी गई। आमतौर पर, सायं 9 से 9ः30 तक विनायक को स्नान की
अनुमति थी। पावर ने उन्हें दोनों सिपाहियों के हवाले कर मुहम्मद सिद्दिक को बिना
खिड़की वाले अंदरूनी बाथरूम ले जाने को कहा। स्नान के बाद 11 बजे विनायक सो गए
और बाकी सब भी।
8 जुलाई की सुबह, विनायक ने प्रातः 6ः15 पर शौच जाने की असामान्य मांग की।
अधिकारी देर से सोए थे और पावर अभी तक सो रहे थे। उसने सुना और फिर करवट
बदल कर सो गए। पार्क र खुद ऊं घ रहा था और वही विनायक को शौचगृह तक ले गया।
पार्क र संकरे मार्ग पर उनके पीछे चल रहे थे। दूसरी ओर शौचालय के दरवाजे के निकट
दोनों सिपाही खड़े थे, जहाँ उन्होंने अपने सामान के बक्से रखे थे। वह अभी कपड़े पहन ही
रहे थे। उनींदे पार्क र ने शौचालय की खिड़की पर ध्यान दिए बिना विनायक को अंदर भेज
दिया। उसने यह भी गौर नहीं किया कि सिपाहियों ने उन्हें आते देखा या नहीं और सोच
लिया कि उन्होंने हमेशा की तरह कार्य का जिम्मा उठा लिया है।
कपड़े पहन कर, रोज की तरह कै दी को नित्य क्रिया कराने की सोचकर अमरसिंह के बिन
की ओर चल दिया। परंतु पार्क र ने के बिन लौटने से पहले सीटी बजाकर शौचालय की ओर
इशारा कर अमरसिंह से कहा, ‘वह यहाँ है।’ अमरसिंह दौड़कर शौचालय तक पहुँचा और
जल्दी ही मुहम्मद सिद्दिक भी उसके साथ हो लिया। तब तक विनायक ने शौचालय का
दरवाजा बंद किया और गलतफहमी का पूरा लाभ उठाया। उनका सौभाग्य था कि
शौचालय की खिड़की खुली थी और पार्क र ने उसे बंद नहीं किया था। विनायक को इसी
घड़ी का इंतजार था। अपनी पूरी हिम्मत बटोर कर उन्होंने, अपने दुबले-पतले शरीर को
बारह इंच व्यास वाली खिड़की से तोड़-मरोड़ कर बाहर निकाला और आज़ादी तथा न्याय
की उम्मीद बांधे समुद्र में छलांग लगा दी। करीब दस-बारह फीट तैरकर वह तट पर पहुँच
गए।
शौचालय के दरवाजे के ऊपर और नीचे तीन इंच का रिक्त स्थान था। अमरसिंह ने दरवाजे
में से झांककर देखा तो चप्पलें दिखने पर उन्होंने अनुमान लगाया विनायक वहीं बैठे हैं।
फिर भी, पूरी तरह आश्वस्त के लिए वह बाहरी चबूतरे पर चढ़ा और उसने अंदर झांका।
खिड़की में से विनायक को आधा बाहर निकला देख वह सकते में आ गया। उसने
चिल्लाकर विनायक को रुकने के लिए कहा। इस पर अमरसिंह ने दरवाजे को धक्का देकर
खोलना चाहा परंतु वह नहीं खुला, अलबत्ता दरवाजे के कांच के दो टुकड़े जरूर टूटे। तब
तक विनायक बाहर कू द चुके थे। दोनों हवलदार शोर मचाते हुए विनायक को पकड़ने बाहर
भागे। विनायक तब तक किनारे दौड़ पड़े थे। दोनों हवलदार उनके पीछे, ‘चोर ! चोर !
पकड़ो उसे !’ कहते हुए भाग रहे थे। जहाज के कु छ कर्मचारी उनके साथ हो लिए थे।
करीब 200 गज तक दौड़ चुके विनायक शारीरिक तौर पर पस्त दिखते थे। उन्होंने टैक्सी
को आवाज दी परंतु याद आया कि उनके पास पैसे नहीं हैं।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उस क्षेत्र से कु छ ही दूर अय्यर, मैडम कामा और
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय वहाँ तब पहुँचे जब विनायक फिर गिरफ्तार हो चुके थे। उन्हें रेलवे
के बंद फाटक, या चाय पीने, अथवा दोनों कारणों से देरी हुई थी।
3
हालाँकि, घटना के
अनेक वर्णन मिलते हैं, परंतु इस बात की पुष्टि करने के बहुत कम साक्ष्य हैं कि क्या उस
समय कोई भी भारतीय क्रांतिकारी वहाँ मौजूद था।
इस बीच, अफरातफरी को देखते हुए फ्रांसीसी अर्धसैनिक बल के ब्रिगेडियर पेस्क्यूई भी
पीछा करने वालों से जा मिले। और कु छ ही पलों में अर्धसैनिक बल ने विनायक को धर
दबोचा, जिन्होंने विशेष तौर से ब्रिगेडियर को कहा, ‘मुझे अपनी हिरासत में ले लो, मेरी
मदद करो; मुझे मैजिस्ट्रेट के सामने ले चलो।’ चूंकि वह अब फ्रांस की जमीन पर थे,
इसलिए विनायक का मानना था कि यदि उन पर मुकदमा चलेगा भी तो फ्रांसीसी नियमों से
क्योंकि वह क्षेत्र ब्रिटिश अधिकार से बाहर था। बतौर राजनीतिक कै दी उन्हें फ्रांस में शरण
मांगने का भी हक था। परंतु अफसोस कि तटरक्षक पेस्क्यूई अंग्रेजी नहीं समझते थे।
उन्होंने विनायक को हांफते हवलदारों के हवाले कर दिया जो उन्हें खींचते हुए मोरिया
पर
ले गए। और इस तरह विनायक का दुस्साहिक प्रयास विफल हो गया था।
बुरी तरह भीगे और थके हुए विनायक को के बिन में ले जाया गया जहाँ पावर अभी तक
सो रहा था और पार्क र शेव बनाने में व्यस्त था। घटना के बारे में सुनकर और अपनी
अनभिज्ञता से वह भयातुर हो उठे । विनायक को भली-बुरी सुनाकर हथकड़ियों में जकड़
दिया गया। के बिन के बाहर के गलियारे में एक पहर के लिए व्यायाम के अलावा उन्हें कहीं
जाने की इजाजत नहीं थी। यहाँ तक कि शौचालय में भी उनके साथ एक हवलदार मौजूद
रहता। इस चूक के कारण पहले ही अपने उत्कृ ष्ट करियर पर धब्बा लगवा चुके पावर और
पार्क र ऐसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होने देना चाहते थे।
खुद को आज़ाद कराने के अवसर में निराशा हाथ लगने पर भी विनायक बिल्कु ल परेशान
नहीं लग रहे थे। अफसरों को उन्हें गाली ना निकालने की चेतावनी देकर वह चुपचाप
के बिन में बैठे रहे, और कहते हैं कि इस दौरान वह एक कविता गुनगुना रहे थे जिसे उन्होंने
‘आत्मबल’ का शीर्षक दिया था। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं:

मेरे साथ ही आरंभ है और मेरे साथ ही अंत


इस सबके मध्य भी मैं ही हूं। मुझे समाप्त करने वाले शत्रु का अभी
जन्म होना शेष है।
शेष कविता का अनुवाद कु छ इस तरह है:

साहसी, धर्म का पालक


स्वयं मृत्यु को चुनौती देता, रणक्षेत्र में कू दा मैं।
एक तलवार मुझे काट नहीं सकती न अग्नि जला सकती है,
भीरु मृत्यु स्वयं मेरे डर से पलायन करेगी, सदा!
और फिर भी, ओ मूढ़ शत्रु!
मृत्यु के भय से मुझे डराना चाहते हो!
एक खूंखार शेर की मांद में जाकर
उसे झुककर आदेश पालक बना दिया, मैंने अवश्य!
उफनती ज्वाला के झोंके में फें का गया
उसे विनम्र दीप्ति में बदल दिया, मैंने अवश्य!
अपनी शक्तिपूर्ण, प्रशिक्षित, सशस्त्र सेना ले आओ,
तुम्हारे शस्त्र एवं मिसाइल वह प्राणघातक अग्नि फै लाने वाले!
हां! हलाहल पीने वाले भगवान शिव जैसे
पीकर पचा जाउंगा सब, मैं अवश्य!
9 जुलाई को मरम्मत कार्य करवा कर एसएस मोरिया
मार्से के तट से रवाना हुआ। वह 17
जुलाई को अदन के तट पर पहुँचा जहाँ ब्रिटिश दल और उनका राजनीतिक कै दी उतरे और
सेलसेट्ट नामक दूसरे जहाज पर पहुँचे। यहाँ विनायक को एक पिंजरेनुमा कमरे में रखा गया
जिसमें उनके उठने-बैठने और चलने के लिए के वल 4 फीट का स्थान था। यहाँ से, 22
जुलाई 1910 को बंबई पहुँचने तक उन्हें दिन-रात हथकड़ियों में रखा गया। वहाँ उन्हें
पुलिस महानिरीक्षक श्री कै नेडी और पुलिस सहायक महानिरीक्षक के विशेष सचिव जेए
गाइडर के हवाले कर दिया गया। उन्हें टैक्सी से विक्टोरिया टर्मिनस ले जाया गया, जहाँ से
उसी दोपहर नासिक ले जाकर जेल में बंद कर दिया गया था।
नासिक में गाइडर ने विनायक से मार्से में भाग निकलने के प्रयास पर बयान लिखाने के
कई प्रयास किए। परंतु गाइडर द्वारा प्रस्तावित कु छ भी लिखने या दर्ज करने के लिए वह
तैयार नहीं हुए। कारण था कि वह अपने पलायन से इनकार नहीं करते थे परंतु वह ‘कु छ
कहने को तैयार नहीं थे जिससे इंग्लैंड से उनके साथ आया कोई भी पुलिस अधिकारी
किसी पूर्वग्रह का शिकार हो’।
5
इस बीच, विभागीय जांच में पावर को लापरवाही का जिम्मेदार माना गया। उसका पद
घटाकर, अगले कु छ वर्षों तक 100 रुपये प्रतिमाह की देनदारी थोपी गई। इससे उसके
करियर को खासा नुकसान पहुँचा। 8 अक्तू बर 1910 को सरकार को प्रेषित, अपरसचिव
द्वारा हस्ताक्षरित जांच के नतीजे में कहा गया:
यात्रा के दौरान मार्से एकमात्र खतरे का स्थान था, और जाहिर है कि श्री पावर की
जिम्मेदारी थी कि वह वहाँ रुकने पर कै दी को सुरक्षित रखे जाने के संबंध में स्पष्ट
योजना तैयार करते, जिसमें कै दी को एक पल के लिए भी उनके या इंस्पेक्टर पार्क र की
नजरों से दूर नहीं होने दिया जाता, और साथ ही विस्तारपूर्वक सभी कार्यों की निगरानी
की जाती जिसमें खिड़की का बंद करना भी शामिल था। उनके द्वारा जारी किए गए
आम निर्देश इस जरूरत के अनुसार पूरे नहीं बैठते, और ऐसा भी प्रतीत नहीं होता कि
उन पर अमल करने के लिए उन्होंने ज़रूरी कदम उठाए हों। कै दी द्वारा पिछली रात को
स्नान करने की दरख्वास्त से ही श्री पावर को सचेत हो जाना चाहिए था और सरकार
का मानना है कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाने में बेहद लापरवाही बरती और उन्हें
ही कै दी के पलायन प्रयास का सीधा जिम्मेदार मानना चाहिए। इन दुर्भाग्यपूर्ण
परिस्थितियों के गंभीर लक्षण नहीं दिखते, परंतु अतीत में श्री पावर के असाधारण
रिकाॅर्ड को देखते हुए, हिज़ एक्सिलेंसी द गवर्नर-इन-काउंसिल का मानना है कि पुलिस
महानिरीक्षक द्वारा सुझाई गई सज़ा बहुत सख्त होगी। इसके अनुसार, श्री पावर के पद
को 1 अक्तू बर 1910 से डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस की दूसरी श्रेणी के अंतिम दर्जे
तक घटाया जाता है।
6
इस दौरान, फ्रांसीसी प्रेस और विशेषकर समाजवादी रुझान वाले पत्रों ने ब्रिगेडियर पेस्क्यूई
की कार्रवाई को राष्ट्रीय विवाद का रूप दे डाला था। उनकी दलील थी कि फ्रांसीसी भूमि
पर किसी राजनीतिक कै दी के उतरने के बाद उसे ब्रिटिश अधिकारियों के हवाले किया
जाना फ्रांसीसी स्वायत्त्ता का अपमान था। लगभग समूची फ्रांसीसी प्रेस – ल’ह्यूमेंते,
लि’क्लेयर, ल’माॅन्द, ल’तां और ल’मेतां
– ने फ्रांस से विनायक की गिरफ्तारी की निंदा
और राजनीतिक षरण के अधिकार का हनन बताया। समाजवादी नेता और कार्ल मार्क्स के
प्रपौत्र ज्यां लॉन्ग्वे विनायक के मुखर समर्थक बन गए थे। 12 जुलाई को उन्होंने अपने द्वारा
संपादित समाजवादी साप्ताहिक ल’ह्यूमेंते
में एक उग्र लेख लिखा:
शरण लेने के अधिकार का घिनौना क्षरण बहुत रहस्यमयी तरीके से किया गया है; यदि
कल (11 जुलाई) को पेरिस डेली मेल
में एक टेलिग्राम का प्रकाशन न हुआ होता तो हम
अभी तक घटना से अनभिज्ञ होते। परंतु मामले को यहीं शांत कर दिया जाना असंभव
है। मार्से अधिकारियों द्वारा एक राजनीतिक शरणार्थी को दूसरों के हवाले कर दिया
जाना – जिसे उन्होंने अपनी ही पहल बताया है – के आधार पर उन्होंने ऐसे कार्य को
अंजाम दिया है जिसकी सफाई जरूर मांगी जानी चाहिए और इस मामले में खुद
सरकार की स्वीकृ ति की आवश्यकता है।
7
मैडम भीकाजी कामा ने फ्रांसीसी समाचार पत्र ले’तां
को विरोध पत्र भेजे, जिसने 19
जुलाई 1910 के अपने संस्करण में लिखा:
अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार सावरकर को फ्रांस वापस लाया जाए और फ्रांसीसी
अधिकारियों को इस मामले में हस्तक्षेप का अधिकार होना चाहिए क्योंकि सर्वप्रथम
ब्रिटिश सरकार ने फ्रांसीसी सरकार को नहीं बताया था कि एक राजनीतिक बंदी को
मार्से के तट पर लाया जाएगा, और दूसरा कि सावरकर के फ्रांसीसी भूमि पर पलायन
किए जाने के बाद (ब्रिटिश) सरकार का उसके ऊपर अधिकार समाप्त हो गया था।
8
25 जुलाई 1910 को जर्नल द दिबेत
ने दलील दी कि इन परिस्थितियों में अंग्रेज सावरकर
को अपने अधीन नहीं रख सकते।
यदि वह इंग्लैंड से पलायन कर कै ले अथवा बोलोना पहुँच जाते तो उनके प्रत्यर्पण के
किसी अनुरोध पत्र पर विचार नहीं होता। इस तरह, ग्रेट ब्रिटेन एक फ्रांसीसी अर्धसैनिक
की गलती का लाभ नहीं उठा सकता और सावरकर को फ्रांस वापस भेजकर उनकी
आज़ादी को बहाल रखा जाए।
9
इस मामले पर फ्रांसीसी समाजवादियों ने अन्य देशों के समानधर्मियों से सहयोग मांगा।
जल्दी ही यह मामला एक अंतरराष्ट्रीय विवाद का विषय बन गया था। फ्रांस में मौजूद
भारतीय क्रांतिकारी फ्रांसीसी समाजवादी नेता श्री ज्यां जाॅरे के पास सहयोग के लिए
पहुँचे। डेली प्रेस
ने अफसोस जताया कि यदि सावरकर के ‘एक सतर्क साथी’ द्वारा
फ्रांसीसी सरकार और उसके राजनीतिक नेताओं को इस बारे में संज्ञान नहीं दिलाया जाता
कि शरण देने के सिद्धांत के हिमायती ग्रेट ब्रिटेन ने ही इस मामले में अवज्ञा की है, तो
किसी को समूचे घटनाक्रम की खबर भी ना होती। डेली प्रेस
ने लिखा, ‘लगाया गया आक्षेेप
कड़वाहट से भरा है। और इसे उस देश के खिलाफ छेड़ा गया जिसने एडिक्ट ऑफ नान्तेस
के खण्डन के अवसर पर प्रमुख भूमिका निभाई थी।’
10
लंदन डेली न्यूज
की रिपोर्ट में स्पष्ट हुआ है कि जाॅरे ने फ्रांसीसी सरकार पर समुचित
दबाव बनाया:
पुलिस की निगरानी में भारतीय क्रांतिकारी सावरकर को भारत ले जाने के दौरान मार्से
में जहाज से उनके पलायन के बाद गिरफ्तारी फ्रांसीसी न्याय मंत्री और ब्रिटिश सरकार
के बीच पत्राचार का विषय रही है। मंत्री ने समाजवादी नेता एम. जाॅरे को सूचित किया
कि फ्रांसीसी सरकार ने ब्रिटिश सरकार से इस संबंध में सभी दस्तावेज प्राप्त न होने
तक निर्णय को लंबित रखने का अनुरोध किया है। मामले पर फ्रांसीसी समाजवादी
दलील दे रहे हैं कि सावरकर के तैर कर किनारे पहुँचने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर
ब्रिटिश गुप्तचरों के हवाले करने वाले सार्जेंट ने गैरकानूनी कार्य किया है। द लिबर्ते
के
आज के सांध्य संस्करण के अनुसार फ्रांसीसी सरकार ने ब्रिटिश विदेश कार्यालय को
लिखा है कि सावरकर को छोड़ा जाए या फ्रांसीसी सरकार के हवाले किया जाए। द
लिबर्ते
ने कहा है, ‘अब तक, ब्रिटिश सरकार का मत है कि फ्रांसीसी अर्धसैनिकों द्वारा
मार्से के तट पर सावरकर को गिरफ्तार किया जाना बेशक गैरकानूनी है, परंतु इस
गैरकानूनी कृ त्य के नतीजों का उनसे कोई संबंध नहीं। हालाँकि, कानून के अनुसार,
फ्रांसीसी जमीन पर सावरकर को गिरफ्तार या उनका पीछा नहीं किया जा सकता था।
बतौर राजनीतिक कै दी, उनकी गिरफ्तारी और अंग्रेज गुप्तचरों के हवाले किया जाना
अर्धसैनिकों की गलती रही है। यह कहा जा सकता है कि समवर्ती मामलों में ब्रिटिश
सरकार हमेेशा अपने क्षेत्रीय सम्मान की मांग रखती है; और हमें भी ऐसी अपेक्षा करना
उचित होगा, सावरकर के व्यक्तित्व और भूमिका को देखते हुए, विदेश विभाग फ्रांसीसी
सरकार के सैद्धांतिक विरोध के प्रति उचित नजरिया रखेगा।
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इस विषय पर स्कॉटिश समाजवादी, राजनीतिज्ञ, ट्रेड यूनियनवादी तथा लेबर पार्टी के
संस्थापक जेम्स कीर हार्डी ने भी अपना सहयोग दिया। 1910 में कोपेनहेगन में आयोजित
समाजवादी कांग्रेस में ब्रिटिश उदारवादी परंपरा के पैरोकारों को याद दिलाया कै से उन्होंने
अतीत में उग्र ‘निष्कासितों’ को अक्सर सहयोग दिया था। उन्होंने गैरीबाल्डी, मेजिनी,
लाओस कोस्सथ और कार्ल मार्क्स के उदाहरण दिए। हार्डी के अनुसार यदि सावरकर का
मामला ब्रिटिश प्रशासन के अनुसार होने दिया जाए तो यह समूचे यूरोप में क्रांतिकारी कार्यों
के लिए एक खराब उदाहरण रखेगा। लिहाजा, उन्होंने सावरकर को फ्रांस के संरक्षण में
सौंपे जाने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ। रोचक है कि विनायक
मामले के अनन्य सहयोगी जाॅरे भी कोपेनहेगन कांग्रेस में मौजूद थे परंतु प्रस्ताव में मत
डालने के समय वह उपस्थित नहीं थे। कहा जाता है कि उस समय वह ‘तेज सिरदर्द के
कारण सैर पर गए हुए थे।’
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भारतीय क्रांतिकारी ‘सावरकर मामले से प्रसन्न थे. . .जिसने फ्रांसीसी, इंग्लैंड एवं अन्य
यूरोपियन देशों के प्रेस में इतनी उत्तेजना फै ला दी थी’। हालाँकि, वह इस बात से वाकिफ
थे कि सावरकर की मदद की बजाय राष्ट्रीय गौरव को लेकर फ्रांस इस मामले में रुचि ले रहा
है।
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वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय ने अपना ‘विश्वास व्यक्त किया कि कु छ ही समय में सावरकर
उनके बीच होंगे’ और पेरिस में भारतीयों ने स्पष्ट रूप से ‘सावरकर के लौटने पर स्वागत
समारोह की तैयारी कर ली थी’।
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18 अक्तू बर 1910 को इंग्लैंड में 200 भारतीय दशहरा महोत्सव के लिए लंदन में जमा
हुए। इस दौरान रामायण की छवियां प्रदर्शित की गईं जो भारत की अंग्रेजों पर जीत का
आशय देती थीं। इन छवियों में ‘श्वेत दास कन्याएं’ दिखाई गई थीं जिसका मंतव्य बहुत
उकसाऊ था। इस अवसर पर फ्रांसीसी गान मार्सले
गाया गया जिसे ‘भारी प्रोत्साहन’
मिला। इसका परोक्ष मंतव्य भी विनायक को स्वदेश बुलाने पर फ्रांसीसी सहयोग का
धन्यवाद देना था। इस अवसर पर मौजूद ब्रिटिश पुलिस को और भी अपमान झेलना पड़ा
जब ब्रिटिश राष्ट्रगान के प्रस्ताव को ‘अनुचित ठहराया’ गया।
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हालाँकि, कु ल मिलाकर, ब्रिटिश प्रेस ने इस घटना को छोटा सा हादसा कह कर नकार
दिया और अपने फ्रांसीसी साथियों को उनकी सीमा से बाहर जाने पर फटकार लगाई।
‘इवनिंग टेलिग्राफ
’ ने कहा कि विनायक को फ्रांस को सौंपने की सोचना भी असंभव है
क्योंकि ‘ऐसा करने का भारत में बहुत बुरा असर पड़ेगा और इसे भारत में क्रांतिकारियों
द्वारा ब्रिटिश प्रशासन की कमजोरी के तौर पर माना जाएगा’।
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लंदन में पहले ही प्रत्यर्पण मामले और अपीलों से गुजर चुके विनायक पर अब दो और
मामले चलने वाले थे – एक फ्रांस में उनके पुनः पकड़े जाने को लेकर द हेग मध्यस्थता से
जुड़ा मामला जिसने दो स्वायत्त देशों के बीच कू टनीतिक विवाद शुरू कर दिया था और
दूसरा, भारत में ‘नासिक षडयंत्र मामला’।
इंग्लैंड और फ्रांस सरकारों के अनेक विभाग ‘सावरकर घटना’ को लेकर सक्रिय थे। 18
जुलाई को फ्रांसीसी विदेश मंत्री श्री स्टीफन ज्यां-मेरी पिचां ने लंदन स्थित फ्रांसीसी
दूतावास को सूचित किया कि मार्से में विनायक के पलायन और पुनः पकड़े जाने की
सूचना आम होने के बाद, घटना पर राजनीतिक शोर-शराबा और मीडिया कवरेज बहुत बढ़
गई है। ज्यां जाॅरे ने प्रधानमंत्री ब्रियांड से कहा है कि वह इस मामले पर चेम्बर में गंभीर प्रश्न
पूछेंगे। उस समय, शर्मिंदगी से बचने के लिए फ्रांसीसी सरकार मामले पर पूरी जानकारी
की कमी का बहाना बना दिया था। परंतु ब्रिटिश सरकार के लिए यह आवश्यक था कि मुद्दे
की संवेदनशीलता और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के बीच में आने के कारण, जब तक दोनों
सरकारों के बीच मामला सुलझ ना जाए, तब तक कै दी पर भारत में मुकदमा ना चलाया
जाए।
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पांच दिन बाद, यानी 23 जुलाई को ब्रिटेन में फ्रांसीसी राजदूत पियेर पाॅल के म्बॉन ने
ब्रिटेन द्वारा विनायक को फ्रांस को प्रत्यर्पित करने को कहा क्योंकि ब्रिटेन ने उन्हें फ्रांस की
जमीन से बिना उसकी इजाजत पकड़ा था। यह मांग ब्रिटेन और फ्रांस के बीच 14 अगस्त
1874 के भगोड़ा अपराधी समर्पण समझौते पर आधारित थी।
भारत में ब्रिटिश राज्य सचिव लॉर्ड विस्काउंट मार्ले इन मांगों पर खासे नाराज थे। उन्होंने
26 जुलाई 1910 को विदेश विभाग एवं विदेश मामलों के राज्य सचिव सर एडवर्ड ग्रे को
लिखा कि भारत में चलने वाले कानूनी मामले पर कार्यकारिणी फै सला नहीं ले सकती; इस
मामले में निर्णय के वल न्यायपालिका के हाथ है। अतः इंडिया ऑफिस के लिए फ्रांस को
औपचारिक आश्वस्ति दी जा सकती कि दोनों देशों के बीच विषय सुलझ ना जाने तक
विनायक पर कानूनी मामला नहीं चलेगा। के वल इतना भर कहा जा सकता है कि बंबई
सरकार को अदालती मामला लंबित करने को कहा गया है और इसकी दशा-दिशा का
निर्णय न्यायाधीशों की समझ के अनुसार होगा।
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अतः नासिक मामला अस्थायी तौर पर
स्थगित हो गया, हालाँकि, गवर्नर का मानना था कि ‘विलम्ब कानूनी तौर पर असहज, और
राजनीतिक तौर पर बेहद प्रतिकू ल होगा।’
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मार्ले ने सलाह दी कि जिस हिसाब से विवाद तूल पकड़ रहा है, ऐसे में फ्रांस के लगातार
आवेदनों पर एक समुचित उत्तर देने के लिए इंडिया ऑफिस, गृह कार्यालय एवं विदेश
कार्यालय के बीच, और विन्स्टन चर्चिल, एडवर्ड ग्रे तथा उनके बीच बैठक होनी चाहिए।
इसके लिए मार्ले ने इंडिया ऑफिस की ओर से भारतीय परिषद के सदस्य सर विलियम
ली-वाॅर्नर तथा न्यायिक एवं जन विभाग सचिव सर हर्बर्ट रिसले को विवादित मुद्दे का
प्रतिनिधित्व करने को कहा।
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इस तरह, 29 जुलाई को अंतर्विभागीय समिति की बैठक हुई। विदेश कार्यालय के लुई
मैलेत ने दावा किया कि फ्रांस के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखने को देखते हुए, अंग्रेज़
विनायक को उन्हें सौंप सकते हैं। इसके बाद, भगोड़े अपराधी के प्रत्यर्पण के लिए ब्रिटिश
सरकार सामान्य प्रक्रिया अनुसार काम करेगी, जिसमें फ्रांस में राजदूत के जरिए गिरफ्तारी
वारंट की प्रति और अनुरोध पत्र सौंपना होगा। चर्चिल ने कहा कि ब्रिटेन द्वारा खुद को
अंतरराष्ट्रीय कानूनों के स्वीकार्यता से बढ़कर दिखाने से अधिक ‘और कु छ महत्वपूर्ण नहीं
होगा’। उन्होंने कहा, ‘एक अपराधी के पलायन की छोटी सी परेशानी को झेलना ज़रूरी
है।’
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परंतु इंडिया ऑफिस टस से मस नहीं हुआ। उसके अनुसार भारत में मामले की गंभीरता
को और विनायक द्वारा देश भर में राजद्रोह से जुड़े षडयंत्र की अगुवाई किए जाने को
देखते हुए, उन पर मामला चलाने से बेहतर और कोई विकल्प नहीं है। उसने कहा कि
फ्रांसीसी सरकार को कह दिया जाए कि अभियुक्त अब नासिक जेल में है और ब्रिटिश
सरकार कार्यवाही के निर्णय तक इंतजार करने को मजबूर है। अदालत पर कार्यकारिणी
का कोई आधिपत्य नहीं है और यह कह दिया जाना चाहिए कि न्यायिक अधिकार में आ
चुके एक अपराधी को भारतीय अदालत छोड़ने को तैयार नहीं। और यदि विनायक को
भारतीय अदालत बरी कर देती है तो प्रत्यर्पण का प्रश्न ही नहीं उठे गा, क्योंकि तब वह
आज़ाद होंगे। 7 मार्च 1815 के संधिपत्र के मसौदे का भी हवाला दिया गया जिसमें यूरोपीय
शक्तियाँ दूसरी सरकारों के अपराधियों को प्रत्यर्पित करने पर राजी हुई थीं। मामले से
मिलते-जुलते अतीत के अनेक उदाहरणों पर विमर्श और उनकी चीरफाड़ की गई।
समिति ने ब्रिटिश सरकार और फ्रें च खुफिया पुलिस के बीच पत्राचार कई बार पढ़ा
जिसमें मार्से के तट पर मोरिया
में एक ‘महत्वपूर्ण राजनीतिक कै दी’ के संबंध में फ्रें च
पुलिस को सूचित किया गया था। हालाँकि, सर एडवर्ड ग्रे ने कहा कि दो स्थानीय हवलदारों
ने कै दी को पकड़ने में बड़ी भूमिका निभाई थी और रिपोर्ट में पावर तथा पार्क र की निंदा की
गई है। उनकी रिपोर्ट को उचित ना मानते हुए, अफवाह कहकर रद्द कर दिया जाएगा,
क्योंकि पुलिस विभाग उन दोनों की जांच कर रहा है। इसके अलावा, विनायक को पकड़ने
के संबंध में दोनों भारतीय हवलदारों के बयानों ने भी फ्रांसीसी खीझ को बढ़ावा दिया और
लंदन में फ्रांसीसी राजनयिक एमिल डेशना का तर्क था कि ब्रिटिश सरकार ने फ्रांसीसी
पुलिस को उसका पूरा कार्य करने से रोका और उनके कार्य में रुकावट डाली। विचार किया
गया कि यदि यह साबित किया जा सके कि भारतीय हवलदार विनायक को दोबारा पकड़नेे
के मामले में अपनी ही बहादुरी का प्रदर्शन करना चाहते थे और असल में फ्रांसीसी
अर्धसैनिक बलों ने ही उनकी मदद की थी ? यदि घटना का यह पक्ष चतुराई से तैयार किया
जा सके , तो इसका उन्हें लाभ मिल सकता है। नए दृष्टिकोण ने पूरी समिति को परेशानी में
डाल दिया और भारत से पूरी जानकारी करने और कानून कार्यालय द्वारा मामले का
सविस्तार ब्योरा तैयार करने पर एकमत होकर बैठक बर्खास्त हुई।
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सर ग्रे को डर था कि घटना के पूरी तरह सार्वजनिक होने पर फ्रांसीसी सरकार निशाने पर
थी। 3 अगस्त को उन्होंने माफी मांगते हुए और विनायक के प्रत्यर्पण के संबंध में एक
टिप्पणी फ्रांस भेजी। माफी मांगने का आधार दो भारतीय हवलदारों की फ्रांसीसी जमीन
पर कार्रवाई के कारण फ्रांसीसी स्वायत्ता हनन की रिपोर्ट से जुड़ा था। आखिर वह फ्रांस में
शरण के लिए पहुँचने वाले भगोड़े के पीछे भागने या उसे पकड़ने वाले कौन होते थे ? यह
जानकर बौखलाए फ्रांसीसी विदेश कार्यालय ने कहा कि वह एक फ्रें च पुलिसवाला था जो
विनायक को पकड़ कर मोरिया
ले गया और पावर के हवाले किया। माना कि फ्रें च
पुलिसवाले की कार्रवाई बेवकू फाना और प्रत्यर्पण के प्रचलित मानकों के खिलाफ थी,
उसकी गलती को सुधारना ब्रिटिश सरकार का काम नहीं है। 18 जुलाई को जब फ्रांसीसी
विदेश मंत्री पिचां ने संबंधित पहला विरोध-पत्र पेश किया तो उन्होंने दोनों देशों के बीच
विवाद सुलझने तक अदालती कार्यवाही रोकने को कहा, प्रत्यर्पण के बारे में नहीं। उस
समय यदि प्रत्यर्पण से संबंधित अनुरोध प्रेषित किया जाता तो बहुत संभव है कि विनायक
वापसी की यात्रा पर होते। परंतु एक बार भारत पहुँचने पर, वह स्वतः ही अदालत के
अधीन थे और फै सला आने तक ब्रिटिश सरकार का उन पर कोई अधिकार नहीं था।
मामले पर एटॅर्नी जनरल सर विलियम एस. रॉबसन ने अपना विचार दिया:
1. कि सावरकर को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा फ्रांसीसी क्षेत्र में ले जाने से पूर्व उन्हें वहाँ
उन अधिकारियों की हिफाजत में रखे जाने हेतु फ्रांसीसी सरकार की अनुमति ले ली गई
थी;
2. कि ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस के बीच अनुबंध हो गया था कि ब्रिटिश हिफाजत से सावरकर
के पलायन को रोकने के लिए फ्रांसीसी अधिकारी ब्रिटिश अधिकारियों की मदद करेंगे;
3. कि ऐसी परिस्थितियों में अनुबंध के शर्तानुसार सावरकर को फ्रांसीसी जमीन पर
किसी भी तरह की शरण का अधिकार नहीं होना चाहिए; और
4. कि फ्रांसीसी पुलिस ने उसे गिरफ्तार करके उपरोक्त अनुबंध में निहित निर्देशों के
अनुसार उचित कार्रवाई की है।
भारतीय हवलदारों द्वारा पीछा किए जाने की प्रक्रिया के संबंध में उन्होंने छिद्रान्वेषण करते
हुए कहा किः ‘. . .अंतरराष्ट्रीय कानूनों में ऐसा कोई नियम नहीं है जो विदेश में किसी
विदेशी को एक पुलिस अफसर को गिरफ्तारी में मदद करने से रोके ।’ उनका मंतव्य था कि
दोनों हवलदार के वल फ्रांसीसी अर्धसैनिकों को सहयोग कर रहे थे; वह कु छ आगे बढ़ गए
थे, परंतु उसे फ्रांसीसी संप्रभुता का उल्लंघन नहीं समझना चाहिए। रॉबसन ने कहाः ‘अतः,
यह मामला प्रत्यर्पण संधि के उल्लंघन के अंतर्गत एक अपराधी को सौंपे जाने का नहीं है,
बल्कि फ्रांसीसी जमीन से एक घुसपैठिए को हटाए जाने का है, जहाँ उसे जाने का कोई
अधिकार नहीं था।’
23
वह सर एडवर्ड ग्रे द्वारा कै दी को फ्रांस को सौंपे जाने का वादा करना
ठीक नहीं मानते थे और ना ही, अदालती कार्यवाही के समय कार्यपालिका को
न्यायपालिका के काम में हस्तक्षेप करना उचित था।
इस बीच, बंबई सरकार मामले को अनावश्यक खिंचता देख व्याकु ल हो रही थी।
लिहाजा, गवर्नर ने 5 अगस्त 1910 को एक टेलिग्राम लंदन भेजा जिसमें उसने विदेश
कार्यालय के प्रस्तावित कथ्य का विरोधी मत प्रकट किया। तार में कहा गया:
जिस अर्धसैनिक के पास सावरकर पहुँचे, वह उसकी बात नहीं समझ सका; और
सावरकर (उनके अपने बयान के अनुसार) को पहले पीछा कर रहे हवलदारों ने पकड़ा
था, जिनके सहयोग को तुरंत अर्धसैनिक पहुँचे थे. . . दूसरे हवलदार का बयान था कि
अर्धसैनिक उनकी मदद को पहुँचे; और सावरकर की गिरफ्तारी उसके रुकने पर हुई
जो कु छ बंदरगाह के कर्मचारियों के रोकने और कु छ उसकी अपनी थकान के कारण
थी।
24
15 अगस्त को जवाबी तार में राज्य सचिव ने गवर्नर को चतुराई से तैयार कथ्य को खराब
करने के लिए हल्की डांट पिलाते हुए कहा, ‘यह बता देना आवश्यक है कि मार्से में जो हुआ
उस प्रश्न को दोनों सरकारों के बीच मंत्रणा के लिए छोड़ दिया जाए; और जैसा कि 5
तारीख के आपके टेलिग्राम के वर्णन का वक्तव्य यहाँ परेशानियां खड़ी करेगा, इससे
संबंधित विवरण को भारतीय अदालतों के संज्ञान से दूर ही रखना चाहिए।’
25
दोनों के बीच बाद के टेलिग्राम संदेशों में इस नए कथ्य को बढ़ावा दिया गया और दोनों
पुलिस अधिकारियों के पिछले बयान खुशी-खुशी रद्द कर दिए गए। उधर फ्रांसीसी
प्रधानमंत्री ब्रियान्ड की ब्रिटिश के साथ मिलीभगत के गाइ एल्ड्रेड के आरोप की पुष्टि करते
हुए फ्रांसीसी सरकार ने ब्रिगेडियर पेस्क्युई से बयान जारी कराया कि उन्होंने अके ले दाएं
हाथ से विनायक को पकड़ा था और हवलदारों की भूमिका बहुत कम थी। 31 अगस्त तक
राज्य सचिव ने बंबई के गवर्नर को सूचित कर दिया था कि मुकदमे को और लंबित किए
जाने की जरूरत नहीं है और वह फ्रांसीसी सरकार को सूचित कर देंगे कि कार्यवाही नहीं
रुक सकती और ज़रूरी हुआ तो भारतीय अदालत के फै सले के बाद विनायक को उन्हें
सौंप दिया जाएगा।
इस तरह, 10 सितंबर को विनायक पर न्यायाधीश द्वारा आईपीसी की धाराओं 121 एवं
121ए तथा धाराओं 109 एवं 302 के अंतर्गत हत्या के लिए उकसाने के आरोप में विशेष
ट्राइब्यूनल के अधीन मुकदमे के लिए भेज दिया गया। संयोगवश, बंबई में मुकदमा शुरू
होने के दिन ही, मीलों दूर कोपेनहेगन में आयोजित यूरोपीय समाजवादी काॅन्फ्रें स ने अपने
सत्र में विनायक को तुरंत फ्रांस भेजे जाने की मांग रखी थी।
सभी नए ‘प्रमाणों’ के साथ लैस सर एडवर्ड ग्रे के विवरण में 24 सितंबर 1910 को मार्से
की घटनाओं के नए साक्ष्य प्राप्त हुए। उन्हें पता चला कि 7 जुलाई को मोरिया
के तट पर
पहुँचने के बाद, बंदरगाह के वरिष्ठ अधिकारी श्री लेब्ले जहाज पर आए थे, वहाँ उन्होंने सर
ई. हेनरी और श्री हेनियन के बीच का पत्राचार पार्क र को दिखाया, और फिर के बिन में
विनायक को भी देखने गए थे। उसके बाद वह पार्क र को तट पर ले गए और उन्हें वहाँ के
प्रमुख अधिकारी से मिलवाया। वहाँ वर्दीधारी चार या पांच अर्धसैनिक उपस्थित थे। अपने
अफसरों को संबोधित करते हुए वरिष्ठ अधिकारी ने कहाः ‘मैं आपको एक अंग्रेज पुलिस
अधिकारी से मिलवाना चाहता हूँ जिनके कब्जे में जहाज पर एक भारतीय कै दी है। उन्हें
जो भी मदद चाहिए आप देंगे और ध्यान रखें कि कोई अनजान भारतीय लोग तट पर जमा
ना हों या जहाज पर जाने की कोशिश ना करें।’
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यह वर्णन सच था या ब्रिटिश विवरण को सहयोग करता, घटना के उपरांत गढ़ा गया झूठ,
इस पर सबकी भिन्न राय हो सकती है। दरअसल, मोरिया
पर मौजूद ब्रिटिश या भारतीय
पुलिस वालों ने विभागीय जांच के दौरान, पहले इस महत्वपूर्ण विवरण का जिक्र नहीं किया
था, इसलिए सोचना ज़रूरी हो जाता है कि सर एडवर्ड ग्रे को ऐसे ‘तथ्य’ कहां से प्राप्त
हुए। मार्से की घटना पर पूछे जाने के दौरान, 24 जुलाई 1910 को अपने सशपथ बयान में
इंस्पेक्टर पार्क र ने कहा, ‘मार्से पहुँचने और लंच के बीच में, मैं तटीय अधिकारियों से मिलने
के लिए पांच या दस मिनट के लिए किनारे पर गया था।’
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यह सरसरी बयान था, ना कि
सर ग्रे के जैसा गहरा और गढ़ा गया। अतः, अपने बयान में यात्रा की छोटी-छोटी जानकारी
देने वाले पार्क र ने इस महत्वपूर्ण घटना को छोड़ा होगा, यह विचार ही अविश्वसनीय है।
यह भी रोचक है कि ब्रिटिश सरकार के सामरिक निर्णय के बाद पार्क र ने भी मार्से पहुँचने
के समय को कें द्र में रखकर मनगढ़ंत विवरण जोड़ने शुरू किए। बंबई गवर्नर के 20 अगस्त
1910 के तार से पता चलता है कि कै से एक महीने से भी कम समय में, विभागीय जांच में
बयान देने के बाद, पार्क र को इतना कु छ याद आ गया था। उन्होंने अचानक ही तटीय वरिष्ठ
अधिकारी के जहाज पर आने और उनसे फ्रांसीसी भाषा में बात करने के बारे में बताया,
जिसे वह बहुत कम समझ सके थे। इसके बाद अधिकारी ने उन्हें पत्र भी दिखाए। उन्होंने
यह भी कहा कि जिन अर्धसैनिकों से उन्हें मिलवाया गया, ब्रिगेडियर पेस्क्युई भी संभवतः
उनमें थे, हालाँकि इस संबंध में उन्हें ‘पक्के तौर पर’ याद नहीं।
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कु ल मिलाकर यह
मनगढ़ंत तथ्यों का अच्छा-खासा उलटफे र था।
सर एडवर्ड ग्रे ने वह सबूत भी तैयार कराया जिसमें कहा गया था कि विनायक को
‘फ्रांसीसी अर्धसैनिक गिरफ्तारी के बाद “मोरिया” लेकर आया था। सावरकर को गिरफ्तार
करने के बाद “मोरिया” पर लाने तक इस अफसर ने उसका हाथ नहीं छोड़ा था।’
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इस
तरह अमरसिंह एवं सिद्दिक के बयानों को चतुराई से ढंक दिया गया। उनकी भूमिका पर
सर एडवर्ड ग्रे का कहना था:
जहाज के कारिन्दे और दो भारतीय हवलदार सावरकर के पलायन के बारे में सुनकर
उसका पीछा करने वालों में शामिल हो गए, जिसकी पूर्ण जांच से साबित हुआ है कि
यह समूची कवायद फ्रांसीसी पुलिस अधिकारी को सावरकर को मोरिया
पर वापस
लाने में सहयोग देने तक सीमित रह गई थी और इस तरह दावे के साथ कहा जा सकता
है इस कार्रवाई में कु छ भी गैरकानूनी या अनियमित नहीं था। प्रत्येक देश में नागरिकों
द्वारा पुलिस अधिकारियों की मदद करना आम घटना होती है, यदि उन्हें ऐसा लगता है
कि उनके कर्तव्य निर्वाह में उन्हें ऐसी किसी मदद की जरूरत है तो। किन्हीं भी
परिस्थितियों में इन व्यक्तियों की कार्रवाई ने मामले के अंतिम निष्कर्ष एवं अस्तित्व पर
असर नहीं डाला, जो था, एक फ्रांसीसी अधिकारी को दिया गया सहयोग जिसे उन्होंने
उस समय सहर्ष स्वीकार किया एवं जिसे यथार्थ अथवा मंशा के हिसाब से फ्रांसीसी
अधिकार के संबंध में अपमानजनक नहीं माना जा सकता।
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रोचक है कि इस विवरण के अनुसार हवलदारों ने के वल ‘पलायन के संबंध में सुना’ था
और खुद उसे नहीं देखा, जैसा कि उनका सशपथ बयान था। सर ग्रे ने दलील पेश की कि
राजदूत कै म्बन द्वारा विनायक को फ्रांस में रहने और शरण के अधिकार के अनुसार उनके
हवाले करने को खुद पेरिस और मार्से के अधिकारियों ने ही नकार दिया था। इसके
अलावा, यह अधिकार मांगने वाले विनायक फ्रांसीसी नागरिक नहीं थे और यह मांग अपने
स्वायत्त अधिकारों का हनन होता देख के वल फ्रांस ही रख सकता था। परंतु नए घटनाक्रम
के अनुसार यह संभावना भी बेअसर हो गई थी। उन्होंने 1866 में लमिरांडे के मामले का
उदाहरण दिया। बैंक ऑफ फ्रांस की पोइटिये शाखा का खजांची लमिरांडे भागकर कनाडा
चला गया था, जहाँ से फ्रांसीसी सरकार ने उसके प्रत्यर्पण की मांग रखी थी। इससे पहले
कि प्रत्यर्पण की कानूनी कार्यवाही पूरी हो पाती, फ्रांसीसी वकील ने ब्रिटिश गवर्नर जनरल
से कै दी को तुरंत फ्रांस प्रत्यर्पित करने के संबंध में अपील की। प्रत्यर्पण के संबंध में चल
रही कार्यवाही से अनजान गवर्नर जनरल ने वारंट जारी किया और कै दी को वापस भेज
दिया गया था। इससे पहले की गलती पकड़ी जाती, कै दी को फ्रांसीसी जहाज पर फ्रांस की
हिफाजत में सौंप दिया गया था, और तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ग्रे के अनुसार, यह
मामला ‘सावरकर मामले’ से बहुत मिलती-जुलता था। अपनी बात पूरी करते हुए ग्रे ने
कहा कि यदि फ्रें च प्रशासन मामले पर एकमत नहीं है, तो ब्रिटिश सरकार अंतरराष्ट्रीय
कानून के अनुसार मामले को मध्यस्थता हेतु भेजने को तैयार है।
इस दलील से फ्रांसीसी सरकार सकते में आ गई और उसे जवाब खोजे नहीं मिल रहा
था। राजदूत कै म्बन ने आनन-फानन में ब्रिटिश विदेश कार्यालय से संपर्क साधा और कहा
कि मंत्री पिचां पर फ्रें च चैम्बर में सवालों के हमले की संभावना बढ़ गई है। वह चाहते थे कि
भारत में मुकदमा स्थगित किया जाए। कै म्बन के अनुसार फ्रें च चैम्बर ब्रिटिश सरकार और
भारतीय सरकार के न्यायाधिकारों के बीच कोई फर्क नहीं करता। परंतु ब्रिटिश सरकार
झुकना नहीं चाहती थी, और ना ही अपने फ्रांसीसी समकक्षों को आश्वस्ति को तैयार थी।
31
इसके बावजूद, कोशिश ना छोड़ते हुए, लंदन में फ्रांसीसी राजनयिक एमिल डेषना
विनायक को भारत में फांसी ना दिए जाने की गोपनीय मौखिक आश्वस्ति थे। जिस पर
मार्ले का मशविरा था कि सर ग्रे औपचारिक आश्वस्ति दें, ‘सावरकर मामले का नतीजा कु छ
भी निकले, ‘अंतरराष्ट्रीय प्रश्न के समाधान से जुड़े ‘“अपूरणीय निष्कर्ष’” को अधूरा छोड़ने
से जुड़ा कोई कदम नहीं उठाया जाएगा’।
32
तद्नुसार, 4 एवं 5 अक्तू बर, 1910 को पत्राचार के बाद ब्रिटेन एवं फ्रांस के बीच मध्यथता
को लेकर मार्से घटना के संबंध में ‘एक ओर तथ्यों एवं कानून से जुड़े प्रश्न उठाए गए’ और
दूसरी ओर ‘सावरकर मामले में प्रत्यर्पण को लेकर फ्रें च गणराज्य सरकार की मांग रखी
गई’।
33
फिर 25 अक्तू बर को मध्यस्थता न्यायालय के गठन और उसके समक्ष रखे जाने
वाले प्रश्नों को लेकर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ। निम्न टिप्पणियां न्यायालय के लिए
तैयार की गई थीं:
1. क्या विनायक दामोदर सावरकर को अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुरूप हिज़ ब्रिटेनिक
मैजस्टी की सरकार द्वारा फ्रें च गणराज्य की सरकार को सौंपा जाना चाहिए ?
2. द हेग की स्थाई अदालत के सदस्यों में से पंच न्यायाधिकरण के गठन के लिए पांच
मध्यस्थ चुने जाने चाहिए। दोनों संविदाकारी पक्षों को ही न्यायाधिकरण के गठन को
तय करना चाहिए। दोनों मध्यस्थों में अपने एक नागरिक भी रख सकते हैं।
3. 6 दिसंबर 1910 को, दोनों संविदाकारी पक्ष स्थायी अदालत ब्यूरो में अपने मामलों की
पंद्रह प्रतियाँ जमा कराएंगे जिनमें सभी दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियाँ भी होंगी, जिन्हें
रखे जाने का प्रस्ताव है। तत्पश्चात, ब्यूरो बिना रुके उन्हें मध्यस्थों एवं प्रत्येक पक्ष को
सौंपेेगा; अर्थात् प्रत्येक मध्यस्थ को दो प्रतियाँ एवं प्रत्येक पक्ष को तीन प्रतियां। दो
प्रतियाँ ब्यूरो के अभिलेखागार में रहेंगी। 17 जनवरी 1911 को उच्च संविदाकारी पक्ष
इसी तरह प्रति-मुकदमे से संबंधित दस्तावेज जमा कराएंगे। इन प्रति-मुकदमों पर उत्तर
दिए जाने आवश्यक हैं जिन्हें प्रति-मुकदमों की सुपुर्दगी के पंद्रह दिनों के भीतर दिया
जाना आवश्यक होगा। दोनों उच्च संविदाकारी पक्षों के बीच आपसी रजामंदी के
आधार पर मामलों की, प्रति-मुकदमों एवं जवाबों के मौजूदा अनुबंध की तिथि को
बढ़ाया भी जा सकता है।
4. न्यायाधिकरण 14 फरवरी 1911 को द हेग में मिलेगा। प्रत्येक पक्ष का प्रतिनिधित्व
एक एजेंट करेगा जो उनके एवं न्यायाधिकरण के बीच मध्यस्थ का काम करेगा। यदि
आवश्यक होगा, तो मध्यस्थ न्यायाधिकरण, दोनों में से किसी भी एजेंट को मौखिक
अथवा लिखित स्पष्टीकरण देने के लिए बुला सकता है, जिस संबंध में उत्तर देना अन्य
पक्ष के एजेंट का अधिकार होगा। उसके पास गवाहों को मौजूद रखने से जुड़ा
अधिकार भी होगा।
5. दोनों पक्ष फ्रें च या अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कर सकते हैं। न्यायाधिकरण के सदस्य,
अपने चुनाव के आधार पर, फ्रें च अथवा अंग्रेजी भाषा चुन सकते हैं। न्यायाधिकरण के
निर्णय दोनों भाषाओं में तैयार किए जाएंगे।
6. जितना जल्दी संभव होगा न्यायाधिकरण का निर्णय दिया जाएगा, और, किसी भी
परिस्थिति में, द हेग की बैठक की तिथि के अथवा लिखित स्पष्टीकरण प्रेषण के तीस
दिनों के भीतर, जिसे उसके अनुरोध पर प्रस्तुत किया गया है। हालाँकि, यदि दोनों पक्ष
राजी होते हैं तो इस अवधि को न्यायाधिकरण के अनुरोध पर बढ़ाया भी जा सकता है।
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समझौते पर पाॅल गैम्बन एवं सर एडवर्ड ग्रे ने हस्ताक्षर किए। यह सहमति जताई गई कि
अनुबंध के अलावा यदि मध्यस्थता से संबंधित कोई अन्य बिंदु उभरते हैं तो उनका निर्धारण
18 अक्तू बर 1907 को द हेग में हस्ताक्षरित इंटरनेशनल कन्वेनशन फाॅर द पैसिफिक
सेटलमेंट ऑफ इंटरनेशनल डिस्प्यूट्स के प्रावधानों के अनुसार किया जाएगा। द हेग
न्यायाधिकरण जिसे पहले परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन कहा जाता था, का अस्तित्व
एक यूरोप आधारित समझौते के तहत किया गया था जो बाद में अंतरराष्ट्रीय कानून
नियमावली बन गए थे।
सावरकर मामले में न्यायाधिकरण संयोजन पर निम्न रूप से समझौता हुआः
1. श्री बीरनेर्त, ब्रसेल्स के राज्यमंत्री एवं बेल्जियन चेम्बर ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स के सदस्य
जो न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के तौर पर रहेंगे।
2. ब्रिटेन से, अर्ल ऑफ डेसार्ट, के सीबी, हिज़ मैजस्टी ट्रेजरी के पूर्व साॅलिसिटर जनरल,
दिवंगत सम्राट के प्रतिनिधि एवं अभियोजन पक्ष के निदेशक।
3. फ्रांस से, श्री लुइ रिनाॅल्ट, फ्रांसीसी विदेश मंत्रालय के कानूनी सलाहकार।
4. श्री ली याॅन्खी ए.एफ. दि सेवाॅना लोमैन, द हेग में पूर्व गृह मंत्री।
5. श्री ग्राम, नाॅर्वे के पूर्व राज्य मंत्री।
35
उपरोक्त सभी द हेग की स्थायी मध्यस्थता अदालत के सदस्य थे। आयर ए. क्रो ब्रिटिश
एजेंट के तौर पर वहाँ उपस्थित रहे। न्यायाधिकरण के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प ब्रिटेन और
फ्रांस के बीच मामले को विराम देकर भारत में मुकदमा चलाने का था। वैसे भी
न्यायाधिकरण के पास फरवरी-मार्च 1911 तक मामले का निपटारा करने का समय था।
लंदन प्रेस ने ब्रिटिश सरकार को इस मुश्किल में पड़ने के लिए फटकार लगाई थी। जैसा कि
द टाइम्स
के तीखे संपादकीय के शब्द थेः
बेशक यह बहुत अफसोस का विषय है कि भारतीय अदालतों में अपराधी ठहराए गए
एक कै दी के भाग्य का निर्णय अंतरराष्ट्रीय कानूनों के आधार पर किसी अन्य ट्राइब्यूनल
पर निर्भर हो जाए, जो, अपने आप में कितना भी महत्वपूर्ण हो, परंतु कै दी के अपराध
से पूर्णतया असंबद्ध हैं। परंतु इसके लिए, दुर्भाग्यवश के वल हमारे अपने अधिकारियों
की अयोग्यता जिम्मेदार है जिन्होंने सावरकर को किसी विदेशी तट पर लगने वाले
जहाज से भेजा जबकि इंग्लैंड से भारत तक सीधे जाने वाले भी कई जहाज मौजूद हैं;
और दूसरा, मोरिया
की यात्रा के दौरान जिन अधिकारियों पर सावरकर की जिम्मेदारी
थी, जाहिर है उनकी कल्पनातीत लापरवाही ने ही उसे पलायन करने का अवसर प्रदान
किया था।
36
होमवर्ड मेल फ्रॉम इंडिया, चाइना एंड द ईस्ट
ने खेद व्यक्त किया:
मार्से में सावरकर के पलायन और दोबारा पकड़े जाने का ब्योरा पढ़कर प्रत्येक
विचारशील व्यक्ति शर्म से भर उठा होगा। इस देश के प्रशासन को एक बार फिर भारी
अपमान का सामना करना पड़ रहा है। राजद्रोह एवं हत्या के लिए उकसाने के आरोपों
के अंतर्गत सावरकर हिरासत में थे। उनके अपराध या निर्दोषी होने का फै सला अदालत
को करना है; इसलिए वह बेहद संगीन अभियोग के तहत हिरासत में हैं इसके लिए हमें
सोचना बिल्कु ल ही अनावश्यक है। उन्हें मुकदमे के लिए बंबई लाना चार अधिकारियों
की जिम्मेदारी थी। उन्होंने अपने फर्ज का निर्वाह कै से किया ?. . . कोई कम अक्ल
व्यक्ति को भी यह समझ आ सकता है कि यदि सावरकर को पलायन करना ही था तो
मार्से ही वह स्थान हो सकता था।
37
एक ओर जहाँ द हेग में मध्यस्थता कार्यवाही जारी थी, उसी दौरान भारत में मुकदमा
चलाए जाने के कारण अनेक नेताओं, आन्दोलनकारियों एवं कानूनी विशेषज्ञों ने भी ब्रिटिश
सरकार के दोगले चरित्र पर सवाल उठाए। उदाहरण के लिए, लंदन स्थित अंतरराष्ट्रीय
मध्यस्थता एवं शांति समिति भारत में चल रहे मुकदमे को लेकर खासी नाराज थी। 27
अक्तू बर 1910 को उन्होंने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गयाः
यह समिति, एक ओर फ्रांसीसी जमीन पर सावरकर की गिरफ्तारी का द हेग कोर्ट द्वारा
संदर्भ उठाए जाने पर संतोष व्यक्त करती है, वहीं द हेग कोर्ट द्वारा निर्णय सुनाए जाने
से पहले मुकदमा आरंभ करने पर विरोध व्यक्त करती है। अतः, परिस्थितियों को देखते
हुए समिति ट्राइब्यूनल को बिना विलंब गठित करने पर जोर देती है।
38
भारत में मुकदमा शुरू किए जाने पर ल’ह्यूमेंते
ने समाचार पर चेतावनी जताईः ‘हम इन
न्यायाधीशों की निंदा करना चाहते हैं, जो, जारी बातचीत के नतीजों का इंतजार करने की
बुनियादी शिष्टता न दिखाते हुए. . . आगे बढ़े, और सबके बावजूद, सावरकर पर मुकदमा
शुरू कर दिया। यदि हम इस कार्यवाही को मुकदमा कह सकें तो।’
39
परंतु ब्रिटिश सरकार को इस मतभिन्नता की परवाह नहीं थी और वह नासिक षडयंत्र
मामले को रोकना नहीं चाहती थी। मुकदमे को रोकने की सभी सलाहों को दरकिनार कर
दिया गया। दूसरी ओर, बयानों को जल्दी सुनने एवं 1910 के अंत या जनवरी 1911 तक
मामले को समाप्त करने पर जोर दिया गया। विनायक को भारत की जेल में बंद रखना,
अंग्रेज सरकार के लिए बेहद खतरनाक था। जहाँ एक ओर अंतरराष्ट्रीय वार्ताएं सरगर्म थीं,
दिखावटी मुकदमे के कारण विनायक का भविष्य अधर में लटका था, क्योंकि मुकदमे का
फै सला पहले ही निश्चित हो चुका था।
बंबई, सितंबर 1910
बिना ज्यूरी और अभियुक्त द्वारा अपील ना किए जाने के अधिकार वाले विशेष
न्यायाधिकरण ने बंबई में सितंबर 1910 में अपना काम शुरू किया। इसमें बंबई उच्च
न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश सर बेसिल स्काॅट, न्यायाधीश गणेश चंदावरकर
40
एवं
न्यायाधीश हीटन थे। अभियोजन पक्ष में बंबई के एडवोके ट जनरल थे – जार्डिन, वेल्डन,
वेलिंकर – और निकल्सन सरकारी वकील थे। विनायक एवं उनके सह-अभियोगियों की
ओर से जोसेफ बैप्तिस्ता, गोविंदराव गाडगिल, चित्रे, सेठना, ठाकर एवं रांगेनेकर थे।
विनायक को नासिक जेल से पूना की यरवदा जेल और वहाँ से बंबई की डोंगरी जेल लाया
गया। विनायक को यहाँ तीन मुकदमों का सामना करना था।
पहला, नासिक षडयंत्र मामला था, जिसमें अड़तीस अन्य सह-अभियुक्त थे। अभियोजन
पक्ष ने जनवरी से अप्रैल 1910 के बीच 278 बयान तैयार किए थे। 15 सितंबर 1910 को
कार्यवाही आरंभ होने पर, विनायक की प्रसिद्धि को देखते हुए, उनको अतिरिक्त सुरक्षा में
एक विशेष वैन से वहाँ लाया गया। कहा जाता है कि उनके कठघरे में पहुँचते ही तालियांे
का शोर सुनाई दिया। श्रोताओं की खाली बैंचों और गैलरियों को देख वह हैरान थे कि
तालियां किसने बजाई हैं, तो पता चला कि यह उनसे निचले कठघरे में मौजूद सह-
अभियुक्तों का काम था। यहीं लंबे समय बाद विनायक ने अपने भाई नारायणराव को
देखा। दोनों भाइयों ने स्नेहभाव से एक दूसरे को देखा और बिना कु छ कहे हिम्मत बंधाई।
सरकार को इस मामले में चार समर्थक मिल गए थे – काशीनाथ अंकु शकर, दत्तात्रेय जोशी,
डब्ल्यू.आर. कु लकर्णी और चतुर्भुज अमीन।
41
कार्यवाही के आरंभ ने विनायक के वकील बैपतिस्ता ने गिरफ्तारी से जुड़े अंतरराष्ट्रीय
विवाद के मध्य मामला शुरू करने से जुड़ा बुनियादी सवाल उठाया। उन्होंने कहाः
बंबई लाए जाते समय, पीएंडओ लाइनर मोरिया
जब फ्रांसीसी जलसीमा में था, उस
समय सावरकर को किसी से बात करने की इजाजत नहीं थी। मार्से पहुँचने पर
सावरकर ने अपनी गिरफ्तारी को गलत बताते हुए उन्हें छोड़ देने का अनुरोध किया था।
बेशक, यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया था। इतना ही नहीं, मोरिया पर पहुँचे दो
फ्रांसीसी अधिकारियों को भी सावरकर से बात नहीं करने दी गई थी। इसके बाद वह
पलायन को उन्मुख हुए। किनारे पर पहुँचकर उन्होंने दो अंग्रेज गुप्तचरों एवं मोरिया
के
तीन अधिकारियों को पीछे आते देखा। वह 300 गज तक दौड़े परंतु पीछा करने वालों
ने उन्हें पकड़ लिया था। इसके बाद उन्होंने फ्रांसीसी अर्धसैनिकों से कहा कि उन्हें
स्थानीय पुलिस के पास ले जाया जाए। तभी गुप्तचर आ पहुँचे और उनमें से एक ने
सावरकर को गले से और दूसरे ने उनका बाजू थाम लिया था। इस बर्बर तरीके से उन्हें
जहाज पर ले जाकर, जंजीरों में जकड़ कर बंद कर दिया गया।
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जजों ने आपत्ति को तुरंत नकार दिया। 28 सितंबर के अपने निर्णय में अदालत ने कहा
चूंकि अभियोजन पक्ष को एक वृहत षडयंत्र का पर्दाफाश करना है, बेहतर होगा कि
याचिकाकर्ताओं पर अलग-अलग की बजाय एक साथ मुकदमा चलाया जाए। इसके
अलावा, गोपालकृ ष्ण गोखले एवं न्यायाधीश दिनशॉ दावर की हत्या के प्रयास का मामला
भी था। दावर ने 1908 में तिलक के खिलाफ राजद्रोह मामले में मध्यस्थता की थी।
लिहाजा, अदालत का मानना था कि संभावना से इतर मुकदमा कहीं व्यापक फलक पर
काम कर रहा था।
1 अक्तू बर 1910 को अदालत ने प्रत्यर्पण अधिनियम पर चर्चा की जिसके अंतर्गत
विनायक को भारत लाया गया था। विनायक से बार-बार पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह
अदालत को मान्य नहीं मानते, इसलिए यहाँ कु छ कहना उचित नहीं समझते। उन्होंने
न्यायपालिका का बहिष्कार करते हुए स्पष्ट कहा:
मेरे खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार हैं। मैं इंग्लैंड में भी मुकदमे की कार्यवाही का
हिस्सा रहा हूँ जहाँ उम्मीद की जाती है कि अदालतों में आपको इंसाफ मिलेगा। वहाँ
प्रशासन बर्बर शक्ति पर निर्भर नहीं रहता। वहीं भारतीय अदालतों के हालात बिल्कु ल
उलट हैं। इसलिए मैं भारतीय कानून की अदालत के प्रति उत्तरदायी नहीं हूँ। लिहाजा,
मैं कोई भी बयान देने या अपने बचाव में सबूत देने से इनकार करता हूं।
43
विनायक के खिलाफ पांच आरोप दायर किए गएः
44
1. सम्राट के खिलाफ युद्ध करने एवं युद्ध के लिए उकसाने का आरोप (आईपीसी, 121)।
2. सम्राट के खिलाफ युद्ध का षडयंत्र (आईपीसी, 121)।
3. सम्राट के खिलाफ युद्ध के लिए शस्त्र संग्रहण (आईपीसी, 121)।
4. राजद्रोह (आईपीसी, 122)।
5. हत्या करने के लिए उकसाना (आईपीसी 302 एवं 109)।
जैसे-जैसे मुकदमा आगे बढ़ा, इनमें से कु छ आरोप हटा लिए गए और कु छ में विस्तार
किया गया। उदाहरण के लिए, हत्या के लिए उकसाने के मामले को दो भागों में विभक्त
किया गया। पहले आरोप में, लंदन एवं अन्य स्थानों पर रहते समय विनायक भारत सरकार
के अधिकारियों की हत्या के लिए कु छ विशिष्ट एवं अन्य व्यक्तियों से मिले थे। इस षडयंत्र
को अंजाम देने के लिए उन्होंने फरवरी 1909 में बीस ब्राउनिंग पिस्तौलें लंदन से बंबई भेजी
थीं। इसका नतीजा, उसी वर्ष दिसंबर में नासिक में अनंत कन्हेरे द्वारा जैक्सन की हत्या के
रूप में सामने आया था। दूसरा आरोप, विनायक द्वारा विशिष्ट एवं अन्य व्यक्तियों के साथ
मिलकर ‘भारत सरकार को आपराधिक शक्ति दिखाना और आपराधिक शक्ति से
आतंकित करना’
45
और यह कार्य एक बार फिर ब्राउनिंग पिस्तौलें भेजकर किया गया था।
1906 और उससे पहले विनायक के भाषणों पर भी राजद्रोह का आरोप लगा। इन आरोपों
को ‘नासिक हत्या मामला’, ‘नासिक षडयंत्र मामला’ एवं ‘हत्या एवं राजद्रोह के लिए
उकसाना’ जैसे तीन मामलों के अंतर्गत रखा गया। नासिक हत्या मामले में कन्हेरे, कर्वे और
देशपांडे को पहले ही 19 अप्रैल 1910 को फांसी दी जा चुकी थी एवं अन्य आरोपियों पर
मुकदमा चलना शेष था।
नासिक षडयंत्र मामले में विनायक के साथ, नासिक, बंबई, पेन, पूना,
46
येओला,
औरंगाबाद, हैदराबाद एवं दक्कन के अन्य स्थानों से अड़तीस अभियुक्त थे। इनमें से एक
को छोड़, शेष सभी मुख्यतया चितपावन ब्राह्मण थे। सत्ताईस पर अपराध सिद्ध हुआ और
उन्हें विभिन्न श्रेणियों में सज़ा मिली।
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उनहत्तर दिनों तक चले इस मुकदमे में बयान देने के
लिए तीस गवाह लाए गए थे।
48
आरोपियों में से तीन - शंकर बलवंत वैद्य, विनायक
सदाशिव बर्वे एवं विनायक काशीनाथ फू लम्ब्रिकर गवाह बन गए और उन्हें छोड़ दिया गया।
49

जेए गाइडर के बयान के अनुसार, जैक्सन की हत्या की जांच के दौरान ही पुलिस को


‘विभिन्न किस्म के हथियारों की जानकारी’ से जुड़े बड़े नेटवर्क का पता चला और ‘भारत
के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फें कने में जुटी गुप्त सभाओं’
50
का
पर्दाफाश हुआ था। 23 दिसंबर 1909 को गनु वैद्य से बातचीत में इसके आरंभिक साक्ष्य
मिले थे। बाबाराव के घर की तलाशी के समय गाइडर को एक कागज के पर्चे पर के वल
हेमचंद्र दास का नाम मिला था। ब्रिटिश औपनिवेशिक आपराधिक संहिता एवं प्रणाली के
अनुसार उन्हें गिरफ्त में लेने के लिए इतना भर काफी था। वहीं महाराष्ट्र एवं बंगाल की गुप्त
संस्थाओं और क्रांतिकारियों के बीच संबंधों पर अंग्रेज सरकार गहरी चिंता में थी और
छापेमारी में संस्थाओं के नाम मिलने से वह और भी चिंतित हो गई थी।
अभिनव भारत के एक युवा सदस्य, रघुनाथ व्यंकटेश गोसावी ने भी विनायक के खिलाफ
गवाही दी। उसके अनुसार 1906 से पहले संस्था का लक्ष्य शांतिपूर्ण तरीकों से स्वतंत्रता
प्राप्ति के लिए काम करना था, परंतु बाद में युद्ध एवं हथियार संग्रहण इसका प्रमुख लक्ष्य
हो गया था। उसने बताया कि अभिनव भारत में कार्यकर्ताओं की तीन श्रेणियां हैं:
क्रांतिकारी (विनायक, बाबाराव, सखाराम दादाजी गोरे, आबा दारेकर और विष्णु महादेव
भट्ट), शारीरिक प्रशिक्षण, कु स्ती और तलवारबाजी सीखने वाले (विष्णु महादेव के लकर,
धनप्पा, परदेसी एवं गाडगिल), और वह जो उग्र भाषणों से दूसरों को साथ मिलाने का
कार्य करते थे (नारायणराव सावरकर, दामोदर महादेव चंद्रात्रे एवं बापू जोशी)। नए भर्ती
सदस्य की शुरुआत तीसरी श्रेणी से होती थी, जिसके बाद उसे पूरी तरह परखने के बाद
दूसरी श्रेणी में भेजा जाता। अंत में, शपथ के बाद उन्हें प्रथम श्रेणी, अर्थात् क्रांतिकारी के
तौर पर स्वीकार किया जाता था।
51
उन्होंने बाहरी लोगों के भी नाम बताए जो लगातार
अभिनव भारत में आते रहे थे, जिनमें एसएम परांजपे, सैयद हैदर रज़ा एवं बंगाल के
अरविंद घोष शामिल थे।
52
अन्य गवाहियों में सदस्यों के शारीरिक प्रशिक्षण, शुरुआती प्रक्रिया, हथियारों की प्राप्ति,
आपूर्ति एवं वितरण, विस्फोटकों का निर्माण, क्रांतिकारी साहित्य एवं उसका प्रसार तथा
अन्य विवरण थे। बापू जोशी ने बताया कि गिरफ्तारी के बाद बाबाराव ने नारायणराव से
गुप्त भाषा में कहा था कि गलती से वह छत के नीचे पांच रुपये का नोट और खिड़की में
खांसी की दवा रख आए हैं। उन्हें ना उठाया गया तो बिल्लियां खा जाएंगी। दरअसल,
उनका संके त उग्र साहित्य एवं प्रचारपत्रों की ओर था जो पुलिस के हाथ पड़ सकते थे।
पुलिस को यह निर्देश कु छ संदेहास्पद लगे तो छापे के दौरान उन्हें एक कागज में लिपटे हुए
विनायक के पत्र एवं ‘बम मैनुअल’ प्राप्त हुए।
53
मुकदमे का एक महत्वपूर्ण गवाह इंडिया हाउस का पच्चीस वर्षीय रसोइया चतुर्भुज
झवेरीभाई अमीन पटीदार था,
54
जो वहाँ 1907 से डेढ़ वर्ष तक रहा था। वह ‘महत्वपूर्ण
गवाह’ इसलिए था क्योंकि अभियोजन पक्ष के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य से आगे साबित
करना ज़रूरी था कि जैक्सन को मारने में इस्तेमाल की गई पिस्तौल विनायक द्वारा लंदन से
भेजे गए जखीरे का हिस्सा थी। यह मामले का महत्वपूर्ण मोड़ था और यहीं पर चतुर्भुज को
अभियोजन पक्ष के लिए ज़रूरी कड़ी का काम करना था। उसने इंडिया हाउस में विनायक
की अध्यक्षता में बैठकों और उनमें उनके भाषणों के आशय एवं कथ्य उपलब्ध कराए। एक
शाम विनायक, चतुर्भुज को अपने कमरे में ले गए और उन्हें शिवाजी की तस्वीर के निकट
चिमनी के पास बैठाया। वहाँ एक घी का दीया जल रहा था। उन्होंने चतुर्भुज की दायीं
हथेली में कु छ पानी डाला और दस मिनट तक संस्कृ त में मंत्रोच्चारण करते रहे, जिसके
बाद चतुर्भुज ने हिन्दी में अभिनव भारत की शपथ ली थी। चतुर्भुज ने बताया कि उन्हें
लेखन संबंधी बहुत कार्य करना पड़ता था, जिसमें नकली तल वाले बक्सों में प्रचार-
पुस्तिकाएं भर कर लंदन में और बाहरी लोगों को भेजना शामिल था। उन्होंने इंडिया हाउस
में विनायक के साथ वाले कमरे में रात दस बजे के बाद ‘ओ! हुतात्माओ!’ वाला प्रचारपत्र
भी छापा था जिसमें विनायक और अय्यर ने सहयोग दिया था। एक अन्य अवसर पर,
इंडिया हाउस में रहने वाले भट्टाचार्य की ली वार्नर से झड़प हुई थी और क्रांतिकारियों ने
वहाँ पड़ने वाले छापे को रोका था। विनायक ने चतुर्भुज से उन बोतलों को नष्ट करने को भी
कहा था जिन पर ‘एसिड’ लिखा था। इस तरह चतुर्भुज के बयान से इस धारणा को बल
मिला कि इंडिया हाउस में संभवतः विस्फोटक भी बनाए जाते थे।
फरवरी 1909 में भारत जाते समय चतुर्भुज ने विनायक से £5 उधार मांगे थे, जिस पर
विनायक ने कहा कि यदि वह अपने साथ पिस्तौलों का एक बक्स भारत ले जाए तो वह
उधार देंगे। परेशान और हक्के -बक्के चतुर्भुज को विनायक ने आश्वस्त किया और उन्हें
इतालवी जहाज से जाने की सलाह दी जहाँ तलाशी अपेक्षाकृ त हल्की थी। विनायक और
अय्यर ने खुद पिस्तौलें और 149 कारतूस नकली तल वाले बक्से में भरे थे। एक पत्र पर
हरि अनंत थट्टे, नं. 320, मिंट रोड, फोर्ट, बंबई का पता अंकित था। लिफाफे के दूसरी ओर
विष्णु महादेव भट्ट, तृतीय तल, माध्वाश्रम, गिरगाम, बंबई का पता लिखा था। पत्र थट्टे को
दिया जाना था, और यदि वह ना मिलें तो बक्सा भट्ट के पास छोड़ना था। भारत जाते समय
वह पेरिस रुका और उसने सरदार सिंह राणा से मुलाकात की थी। चतुर्भुज ने कस्टम से
बचते हुए, जिनोवा के रास्ते पिस्तौलें सफलतापूर्वक बंबई पहुँचाई। थट्टे तक पहुँचने में
असफल रहने पर, वह विनायक की सलाह अनुसार भट्ट के घर पहुँचे। उन्हें वहाँ शाम को
आने को कहा गया, जब भट्ट की मौजूदगी में पुलिन्दा गोपाल कृ ष्ण पाटनकर के सुपुर्द
किया गया था। पाटनकर ने बंबई के निकट एक स्थान पर पिस्तौलों को पहुँचाया और
अभिनव भारत के कार्यकर्ता विट्ठोबा मराठे को हिफाजत की जिम्मेदारी सौंपी। निगरानी के
कारण बाबाराव पिस्तौलों को नासिक नहीं लाना चाहते थे। परंतु चतुर्भुज के अनुसार,
बाबाराव की इच्छा विरुद्ध पिस्तौलें नासिक पहुँचाने का काम कर्वे ने किया, जिन्हें वह
पाटनकर से मिली थीं – चतुर्भुज के शब्दों में ‘जाहिर था, क्योंकि वह दोनों राष्ट्रीय मुद्दों पर
विमर्श करते थे।’
55
इस दौरान, स्काॅटलैंड यार्ड के एडवर्ड पार्क र के विरोधाभासी बयान के कारण बहस छिड़
गई थी। वह गवाही देने के लिए भारत रुके थे।
56
उसने माना कि वह इंडिया हाउस पर
निगरानी रखता था और उन्हें पता था कि विनायक के अलावा कोई और ब्राउनिंग पिस्तौलें
पेरिस ला रहा था। इस मुद्दे पर बैपतिस्ता ने उनसे सवाल किए। वह साबित करना चाहते थे
कि संभवतः चतुर्भुज विनायक के अलावा किसी और के कहने पर पिस्तौलें पेरिस लाए थे।
हालाँकि, जजों ने दलील को मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। पार्क र की गवाही ने
साफ किया कि लंदन की मेट्रोपोलिटन पुलिस की जांच के आधार पर पक्का नहीं कहा जा
सकता कि पिस्तौलों की खरीद विनायक के इशारे पर हुई थी। यानी एक ओर,
न्यायाधिकरण ने विनायक द्वारा ब्राउनिंग पिस्तौलें भेजने की चतुर्भुज की गवाही को माना,
परंतु दूसरी ओर, नासिक में वही पिस्तौलें ना लाए जाने की बाबाराव की इच्छा से जुड़े
चतुर्भुज के बयान को नकार दिया। न्यायाधिकरण के आदेशानुसार, पिस्तौलें भारत भेजने
का, ‘एक ही मकसद था, वह मकसद, जो विनायक सावरकर द्वारा प्रसारित लेखों में
दिखता है, उनके अनुसार जो षडयंत्रकर्ताओं के अंतिम लक्ष्य से प्रेरित है – भारत में ब्रिटिश
सरकार को समाप्त करना।’
57
चतुर्भुज ने कहा कि पुलिन्दा थमाकर वह अपने गृहस्थान विरसद से डेढ़ माह बाद बंबई
लौटा था। वहाँ उसकी मुलाकात, भट्ट, थट्टे और नारायणराव सावरकर से हुई। जो चाहते थे
कि वह लंदन लौटे और विनायक से भारत वापस आने को मना करे, अन्यथा उन्हें गिरफ्तार
कर लिया जाएगा। परंतु चतुर्भुज ने इनकार कर दिया। इसके बाद उन्हें बंबई के क्रॉफर्ड
बाजार से तेजाब खरीदने में मदद को कहा गया। दिसंबर 1909 में चतुर्भुज को उनके घर से
गिरफ्तार कर लिया गया था। चतुर्भुज ने ही विक्टोरिया टर्मिनस में पाटनकर की पहचान
पुलिस को दी थी।
इसके बाद, 31 दिसंबर 1909 और 7 जनवरी 1910 को दो विरोधाभासी बयान देने पर
बैपतिस्ता ने चतुर्भुज को घेरने का प्रयास किया। चतुर्भुज का जवाब था कि उस समय उसे
विवरण अच्छी तरह याद नहीं थे, बाद में गौर से सोचने पर उसकी याद ताजा हुई थी।
बैपतिस्ता ने सवाल किया कि जब लंदन से पेरिस और फिर जिनोवा से बंबई तक हथियार
छु पाकर लाना इतना कठिन था तो उसने पेरिस से ही हथियार प्राप्त करने की कोशिश क्यों
नहीं की। उसे पेरिस में मैडम कामा और सरदार सिंह राणा से मिलना था, तो क्या सीधे
उनसे पिस्तौलें लेना आसान नहीं था ? चतुर्भुज के पास कोई जवाब नहीं था। कई अन्य
गवाहों ने चतुर्भुज के बयानों को फर्जी और मनगढ़ंत बताया परंतु न्यायाधिकरण ने तुरंत
उन्हें रद्द किया और कहा, ‘चूंकि सभी तथ्य विनायक को ही पिस्तौलों का स्रोत बताते हैं तो
हम चतुर्भुज के बयान को सच मानते हैं।’
58
गोपाल कृ ष्ण पाटनकर ने गवाही देने से इनकार कर दिया क्योंकि उनकी राय में,
‘विनायक दामोदर सावरकर के खिलाफ अभियोजन पक्ष का मामला बदला लेने की नीयत
से बनाया गया है’ और उनकी ‘आत्मा उन्हें गवाही नहीं देती’ कि वह अपने ‘साथी
भारतीय’ के खिलाफ शपथ लें या कु छ कहें।
59
पहले गुप्त दल का सदस्य होने की बात मान चुके विनायक के मित्र बलवंत रामचंद्र बर्वे ने
अभियोजन पक्ष को खासा नुकसान पहुँचाया। उन्होंने कहा कि पुलिस ने उनका पिछला
बयान जबरदस्ती और प्रताड़ित कर के लिखवाया था:
वीडी सावरकर नेता के तौर पर एक बेहतरीन कवि, बेहतरीन लेखक और बेहतरीन
वाचक थे। जैसा कि मैं उन्हें बचपन से जानता था, मैं उनके यह अच्छे गुण देखता था
और नासिक में स्वदेशी पर उनके कई व्याख्यान भी सुने हैं। हमारी आयुवर्ग के युवाओं
में वह बेहद बुद्धिमान थे और जाहिर है मैं उन्हें प्रमुख नेता के तौर पर देखता था. . .
माइलॉड्र्स, यह मानना बिल्कु ल गलत होगा कि मित्र मेला कोई गुप्त राजनीतिक संस्था
थी। यह के वल गणपति महोत्सवों में धार्मिक गीत गाया जाने वाला मेला था। अभिनव
भारत नामक किसी भी राजनीतिक या गुप्त संगठन नामक कु छ भी नहीं था। अभिनव
भारत का गठन किसी कल्पना से निकला है, चूंकि अभिनव भारत माला नामक एक
पुस्तक शृंखला रही है और उसे मित्र मेला से जोड़ना पुलिस द्वारा गढ़ा गया सिद्धांत है
कि दक्कन में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फें कने से जुड़ा कोई वृहत ब्राह्मणवादी षडयंत्र
था।
60
इसी तरह 1 दिसंबर 1910 को सखाराम रघुनाथ काशीकर के उलट बयान ने अभियोजन
पक्ष को झटका दिया। पुलिस द्वारा अनेक अभियुक्तों को डरा-धमका कर बयान उगलवाने
के स्पष्ट चिन्ह नजर आ रहे थे।
61
अपने बयान में नारायणराव सावरकर ने कहाः
मैं किसी गुप्त संस्था से नहीं जुड़ा। मैं ऐसी किसी वस्तु के बारे में नहीं जानता। मेरी
समस्त शिक्षा नासिक में हुई है – मराठी एवं अंग्रेजी में। वर्ष 1906 में अपने सबसे बड़े
भाई गणेश के साथ ‘वन्दे मातरम मामले’ में मुझ पर अभियोग लगाया गया था, परंतु
बाद में छोड़ दिया गया। नासिक में शिक्षा पूरी करने के बाद मैं 1908 में बड़ौदा काॅलेज
गया। उस पूरे वर्ष, अवकाश के अलावा, मैं बड़ोदा ही रहा। 1909 के आरंभ में मेरे
सबसे बड़े भाई गणेश गिरफ्तार हुए, इसलिए मुझे काॅलेज छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा
क्योंकि उनके भोजन, कपड़ों एवं बचाव पक्ष के लिए मुझे ही काम करना था। जब मेरे
भाई लॉकअप में थे, तो मैं उनके लिए भोजनादि लेकर जाता था। जहाँ तक बक्से की
बात है, मैंने वह कभी नहीं देखा और जानता भी नहीं कि उसमें क्या था. . . 1909 के
पूरे वर्ष मैं अपने बड़े भाई के बचाव कार्य में व्यस्त रहा। जून में नासिक में उन्हें अपराधी
ठहराये जाने के बाद जुलाई में मैं उनके पक्ष में अपील करने बंबई आया। अपील पर
निर्णय आने तक मैं बंबई ही रहा। यह सच नहीं कि अप्रैल और मई में या किसी अन्य
महीने मैं चतुर्भुज से मिला था, क्योंकि मैंने उसे कभी नहीं देखा था। अपील पर फै सले
के बाद मैं अपने भविष्य पर सोच ही रहा था कि 8 दिसंबर 1909 को अहमदाबाद में
बम फें कने के आरोप में मुझे गिरफ्तार किया गया। मुझे अहमदाबाद, बंबई, बड़ोदा और
पूना ले जाया गया जिसके बाद 18 दिसंबर को मुझे छोड़ दिया गया। मैं अभी कु छ सोच
भी नहीं पाया था कि 23 दिसंबर को मुझे श्री जैक्सन की हत्या के आरोप में गिरफ्तार
कर लिया गया. . . मेरे घर की तलाशी हुई और वहाँ से कु छ नहीं मिला।
62
उनके बयानों के बेतरतीब वर्णनों के बावजूद, अभियोजन पक्ष का मामला बहुत हद तक
भूतपूर्व मित्र मेला एवं अभिनव भारत की विभिन्न गोपनीय एवं राजनीतिक गतिविधियों पर
निर्भर करता था - यानी साथियों के पास से बरामद विनायक द्वारा लिखी गई पुस्तकें एवं
प्रचार पुस्तिकाएं, शपथ लेने के विवरण, अभिनव भारत के भाषण एवं गतिविधियों पर।
मुकदमे के फै सले में यह भी वर्णित था कि कै से 21 दिसंबर 1909 को जैक्सन की हत्या
तक उन्होंने अपनी गतिविधियों को पुलिस से भी छु पाए रखा था। अभियोजन पक्ष साबित
करने में सफल रहा कि बेशक विभिन्न शहरों एवं कस्बों में मौजूद शाखाएं औपचारिक तौर
पर संगठित नहीं थीं, परंतु वह एक दल जैसे काम करते थे। उदाहरण के लिए, फै सले में
वर्णन था कि जब बाबाराव गिरफ्तार हुए, उस समय विट्ठोबा मराठे द्वारा पाटनकर को भेजा
गया विस्फोटक संबंधित पर्चा तुरंत नष्ट कर दिया गया था; जैक्सन की हत्या के बाद गनु
और देशपांडे ने नासिक में पिक्रिक एसिड बनाने वाली सामग्री छु पाई थी। यह सब घटनाएँ
एक ऐसी संस्था के सदस्यों की ओर इशारा करते हैं जिसका गठन राजद्रोह के मकसद से
किया गया था।
63
लम्बे बयानों एवं गवाही साक्ष्यों के आधार पर 23 दिसंबर 1910 को अदालत ने फै सला
सुनाया। नतीजा पहले से तय था, परंतु फिर भी अदालत में शांति व्याप्त थी। यह जानते
हुए कि निर्णय क्या होगा, विनायक ने एक संदेश लिखा जिसे उन्होंने ‘पहिला हप्ता’ शीर्षक
दिया। अपनी मातृभूमि को ऋण चुकाने की यह उनकी पहली किस्त सरीखा थाः
तुम प्रसन्न रहो माँ ! अपने बच्चों की
इस छोटी सेवा पर।
तुम्हारे लिए हमारा ऋण सीमाहीन है: तुमने हमें आशीर्वाद देने को चुना और
अपने सीने से लगाया!
ध्यान दो! हम आज इस समर्पित अग्नि की ज्वालाओं में उतर रहे हैं।
स्नेह के ऋण का वह पहला अंश हम चुकाते हैं।
और एक नया जन्म, वहाँ और उस पल हम खुद को झोंकते हैं
और फिर और फिर जब तक बलिदान का क्षुधित देवता
वैभव से तुम्हें परिपूर्ण और सुशोभित नहीं कर देता!
श्री कृ ष्ण तुम्हारे अजेय रथी हों
और श्री राम तुम्हारे आगे चलें,
और तुम्हारी पताका के तले तीस करोड़ सैनिक युद्धरत्त
नहीं रुके गी तुम्हारी सेना, हम चाहे गिरें!
परंतु बल से गिरेगी दुष्टता की शक्तियां
और तुम्हारा दायां हस्त, ओ! माँ! थामेगा परचम
तु
नैतिकता का
हिमालय की उद्दाम चोटियों पर!
64
उम्मीद के अनुसार, नासिक षडयंत्र मामले के सभी अभियुक्तों में से विनायक को सबसे
कड़ी सज़ा मिली।
हम अभियुक्त को प्रकाशित सामग्री के वितरण के आधार पर युद्ध के लिए, शस्त्र
उपलब्ध करा कर एवं विस्फोटकों के निर्माण संबंधित निर्देश प्रसारित कर युद्ध के लिए
उकसाने का दोषी मानते हैं। अतः, अभियुक्त भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के
अंतर्गत सज़ा प्राप्ति का दोषी है। हम अभियुक्त को अन्य अभियोगियों के साथ भारत
सरकार एवं स्थानीय सरकार के विरुद्ध आपराधिक विधि अथवा आपराधिक तरीके का
डर दिखाने का भी दोषी मानते हैं, एवं इस तरह उसे भारतीय दंड संहिता की धारा
121ए के तहत सज़ा का हकदार मानते हैं. . .विनायक दामोदर सावरकर, अदालत
आपको आजीवन कारावास का दोषी मानते हुए,
65
आपकी समस्त सम्पत्ति जब्त करने
का आदेश देती है।
66
अदालत पर जैसे शोक की चादर बिछ गई थी। बाबाराव को पहले ही अंडमान भेजा जा
चुका था। अब विनायक की वहाँ जाने की बारी थी। नारायणराव को छह महीने सख्त कै द
की सज़ा दी गई।
परंतु इतना भर ही काफी नहीं था। हत्या के लिए उकसाने का मामला अभी बाकी था।
यह अभियोग के वल विनायक पर ही था। 23 जनवरी 1911 को इसी न्यायाधिकरण ने
मामले की सुनवाई शुरू की। इस मामले पर फै सला सुनाने के दौरान शुरुआत में ही
न्यायाधिकरण को अहसास हुआ कि पिछले मामले में साबित हो चुका था कि विनायक ने
ही ब्राउनिंग पिस्तौलें भारत भेजी थीं और ‘संयोग से साबित हो चुका था कि उनमें से एक
पिस्तौल का इस्तेमाल नासिक में श्री जैक्सन की हत्या में हुआ था’।
67
न्यायाधिकरण ने
मित्र मेला और अभिनव भारत के समय से बाबाराव और विनायक के कार्यों का संदर्भ
उठाया, जब शहीदों के जीवन की प्रशंसा, उग्र व्याख्यान एवं प्रकाशन तैयार किए जाते थे –
जिनका लक्ष्य के वल विद्रोह को उकसाना था। अतः फै सला किया गया कि फरवरी 1906 में
पूना और 22 अप्रैल को नासिक में विनायक के भाषण इंग्लैंड जाने के उनके मकसद का
उल्लेख करते थे। लंदन के इंडिया हाउस में विनायक की गतिविधियां भी यही भाव दर्शाती
थीं।
अभिनव भारत के एक सदस्य काशीकर के पास से ‘राष्ट्रपुरुष’ नामक चित्र भी प्राप्त
हुआ जिसमें खुदीराम बोस, प्रफु ल्ल चाकी एवं चापेकर बंधुओं का कोलाज था।
न्यायाधिकरण का फै सला था कि ढींगरा के साथ विनायक की दोस्ती भी क्रांतिकारी तत्वों
के साथ उनके जुड़ाव और प्रेरणा का सबूत है। यह महत्वहीन था कि विनायक अनंत कन्हेरे
या कर्वे को नहीं जानते थे, क्योंकि उनकी ही गतिविधियों और लेखन से ही यह विचार
युवाओं के दिमाग में उपजे थे। विनायक द्वारा कथित तौर पर ‘वन्दे मातरम’ प्रचारपत्रों का
लिखा जाना जिसमें अंग्रेजों को डराने और रक्त बहाने की अपील की गई थी, और जिन्हें
चन्जेरी रामा राव द्वारा 28 जनवरी 1910 (जैक्सन हत्या के एक माह बाद) को भारत लाए
थे, को हत्या में विनायक का हाथ होने का सबूत माना गया।
इन कथित ‘सबूतों’ के आधार पर 30 जनवरी 1911 को न्यायाधिकरण ने अंततः फै सला
सुनाया कि हत्या के लिए उकसाने में विनायक का हाथ था और इसके लिए उन्हें एक और
उम्रकै द की सज़ा दी जा सकती है।
68
अंडमान की जेल में दो आजीवन कारावास की सजा,
यानी पचास वर्ष की कै द की घोषणा पर विनायक उठ खड़े हुए और कहा, ‘मैं बिना
शिकायत आपके कानूनों की सबसे सख्त सज़ा भोगने को इसलिए तैयार हूँ क्योंकि मेरा
विश्वास है कि कष्ट और बलिदान से ही हमारी मातृभूमि, शीघ्र नहीं तो निश्चित तौर पर
विजय की ओर अग्रसर होगी।’
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कोई अन्य व्यक्ति ऐसे समय गिड़गिड़ाने और क्षमा याचना की मुद्रा में होता परंतु अपराधी
द्वारा दो कड़े आजीवन कारावास की सज़ा को इस धैर्य से लिए जाने पर न्यायाधीश
भौंचक्के थे।
द हेग, फरवरी 1911
भारत में विनायक को एकाधिक अपराधों का दोषी मानने के तुरंत बाद इस उपहासपूर्ण
नाटक का पर्दा द हेग में गिरा। नियमानुसार, 14 फरवरी 1911 को मध्यस्थ अदालत का
सत्र आयोजित हुआ। मध्यस्थों ने दोनों देशों के नुमाइंदों को न्यायाधिकरण के पास जमा
कराए गए दस्तावेजों में निहित दलीलों का संक्षिप्त विवरण सुनाने को कहा। ब्रिटिश एजेंट
आयर क्रो ने कहा, ‘बेशक यह अनुरोध मेरे पास पूर्णतया अप्रत्याशित तौर पर आया है और
मैं असमंजस में था कि क्या मुझे आपत्ति नहीं उठानी चाहिए, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है
कि समझौते में इस प्रक्रिया के प्रावधानों पर विचार नहीं किया गया है।’
70
चूंकि पहले
फ्रांस द्वारा दलील रखी जानी थी, इसलिए उन्हें विस्तीर्ण दस्तावेज खंगालकर उनमें से
ब्रिटेन के पक्ष का सार रखने का अवसर मिल गया था।
16 फरवरी 1911 को फ्रांसीसी एजेंट श्री आंद्रे वीस ने फ्रांसीसी पक्ष का मजबूत
प्रतिनिधित्व किया। वह विदेश विभाग के सहायक कानूनी सलाहकार और पेरिस
विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफे सर थे। क्रो के अनुसार ‘नया कु छ प्रस्तुत नहीं किया गया’
और न्यायाधिकरण ने उन्हें धैर्य से सुना। अगले दिन क्रो ने अपनी प्रस्तुति रखी।
पेरिस अपील कोर्ट के वकील ज्यां लॉन्ग्वे, मैडम कामा की ओर से विनायक के पक्ष में
उपस्थित हुए। विनायक ने उन्हें द हेग में अपनी ओर से उपस्थित होने के लिए पावर ऑफ
अटाॅर्नी दी थी। अटाॅर्नी पर हस्ताक्षर, गवाह के तौर पर एक नोटरी एवं उनके वकील की
उपस्थिति में, 3 एवं 4 नवंबर 1910 को बंबई में किए गए थे। लॉन्ग्वे ने ट्राइब्यूनल को
विनायक के मामले के संबंध में एक विस्तृत पत्र लिखा था। उनका पक्ष था कि यदि ब्रिटिश
सरकार जानती थी कि विनायक अपराधी है और निगरानी के दौरान जनवरी 1910 में
पेरिस चला गया था, तो उसने विनायक के प्रत्यर्पण के संबंध में फ्रांसीसी सरकार से
अनुरोध क्यों नहीं किया ? लॉन्ग्वे के अनुसार, उसने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि ‘उसे
पता था कि फ्रांसीसी सरकार किसी भी हालत में इसे स्वीकार नहीं करेगी।’
71
मामले की जांच के लिए, लॉन्ग्वे और उनकी टीम 13, 14 एवं 15 जनवरी 1911 को मार्से
में उस स्थान पर गई थी। उन्होंने ब्रिगेडियर पेस्क्युई से बात की, साथ ही, सिविल इंजीनियर
चार्ल्स बैरन और मार्से नाविक संघ के महासचिव श्री रियाॅ से भी बात की। उन्होंने कहा कि
जहाज के मार्से तट पर लगने की षाम को ही मार्से में ब्रिटिश काउंसलर ने कमिश्नर लेब्ले से
जहाज की निगरानी कराने का अनुरोध किया था। यह तथ्य पत्रकार गेब्रियल एम. बैलिन
की खोज से मिलते-जुलते थे, जिसके आधार पर ब्रिटिश कथानक कि मोरिया
के मार्से
पहुँचते ही लेब्ले जहाज पर पहुँचे थे, की धज्जियां उड़ जाती थीं। 17 जुलाई, 1910 को
फ्रें च समाचार पत्र पेतीत प्रोविन्शियल
में बैलिन ने अपने लेख ‘एक हिन्दू क्रांतिकारी की
यात्रा’ में लिखा हैः
हाल में हमारे तट पर एक गिरफ्तारी की गई – इसे प्रकाश में न लाए जाने के लिए
दबाया गया, ताकि यह गुमनाम रह जाए – फ्रांसीसी चरित्र और वैयक्तिक आज़ादी के
संबंध में यह नीचा दिखने का कारण बनती यदि सामने न लाई जाती. . . पहले डेली
मेल
और फिर ह्यूमेंते
ने इस अभूतपूर्व घटना का ब्योरा दिया जिसकी गूंज सदन के
गलियारों में सुनाई देगी जहाँ इसे नागरिक सेदाने एवं वाॅरेज़ उठाएंगे; हमारी खोज ने
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की पुष्टि की है. . . इस मामले में, तटीय पुलिस ने एक व्यक्ति को
भागते देखा था जिसे उन्होंने कोई नाविक या स्थानीय टैक्सी ड्राइवर समझा, उस ओर
उनका ध्यान विशेष रूप से पीछे से आ रहे शोर, ‘रुको चोर!’ के बाद गया था। ब्रिटिश
पुलिस के साथ, सावरकर को पकड़ने के बाद उन्होंने एक पल को भी नहीं सोचा कि
उन्होंने कोई गैरकानूनी काम किया है। इसके विपरीत, यह सोचते हुए कि उन्होंने अपनी
सीमा में रहते हुए अपने निर्देषों का पालन किया है, विद्यार्थी को उनके सुपुर्द कर दिया।
हालाँकि, राजनीतिक अपराधों का आरोपी (विनायक) दामोदर सावरकर फ्रांस की
जमीन पर था और उसे फ्रांसीसी न्यायाधीश के सामने ले जाना चाहिए था, जिन्हें
पुलिस की अपेक्षा अंतरराष्ट्रीय कानून का अधिक ज्ञान होता। ऐसा लगता है कि यह
नहीं सोचा गया था, और उसके बाद पेरिस की हिन्दू काॅलोनी से विरोधी आवाजें उठीं;
जो तुरंत विदेश मंत्रालय तक पहुँचीं और, मामला श्री पिचां को सौंप कर, नागरिक
वाॅरेज एवं सेदाने को हस्तक्षेप के लिए कहा गया।’
72
चश्मदीद गवाहों और पेस्क्युई से बातचीत के बाद, ज्यां लॉन्ग्वे ने विनायक के खिड़की से
भाग निकलने के घटनाक्रम की पुनर्रचना की। वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशानुसार पेस्क्युई
तट पर मोरिया
की निगरानी कर रहे थे जब बाथसूट में एक व्यक्ति उनके पास पहुँचा और
पूछा, ‘आप फ्रें च पुलिस से हैं ?’ उनके द्वारा हां कहे जाने के बाद वह व्यक्ति भागा नहीं।
तब तक तीन व्यक्ति वहाँ शोर मचाते हुए पहुँचे और कई अन्य लोग चिल्ला रहे थेः ‘चोर,
चोर, पकड़ो उसे, पकड़ो उसे!’ तीनों व्यक्तियों – दो भारतीय हवलदारों और जहाज कर्मी
स्लेविन ने कै दी को पकड़ लिया था। शोरगुल और ‘चोर-चोर’ की आवाजों से पेस्क्युई उस
व्यक्ति को आम चोर समझा था, जो संभवतः जहाज से कोई चोरी कर भाग खड़ा हुआ था।
लिहाजा, उसने उस व्यक्ति का बायां हाथ पकड़ा; दोनों हवलदारों में से एक ने उसका दायां
हाथ एवं दूसरे ने गर्दन से पकड़ा और खींचते हुए मोरिया
तक ले गए। पेस्क्युई का बयान
था कि उसे उस व्यक्ति की पहचान नहीं थी और ना ही उस राजनीतिक कै दी को कभी
जहाज पर देखा था। 13 नवंबर 1910 के जर्नल ऑफ लॉ के संस्करण का संदर्भ देते हुए,
ज्यां लॉन्ग्वे ने अपने पत्र में दलील दी कि पेस्क्युई अधिकार सम्पन्न व्यक्ति था या ऐसे
हालात में शरण लेने के अधिकार का अर्थ समझने वाला, परंतु उसने के वल उत्तेजना तथा
सही मंशा से भाग रहे चोर को पकड़ा था। वहीं विनायक को फ्रांस लाए जाने के लिए
भावुक अपील के साथ ज्यां लॉन्ग्वे ने पत्र का अंत ब्रिटेन द्वारा अतीत में अन्य देशों के
क्रांतिकारियों को आश्रय देने से जुड़े दावों से किया। उनके अनुसार खुद ब्रिटेन की सत्ता को
चुनौती देने वाले एक क्रांतिकारी के साथ ऐसे बर्ताव ने ब्रिटेन के दोगले चरित्र की कलई
खोल दी थी।
जहां तक हिंसात्मक तरीके की बात है, यदि उनके कार्य उन्हें हत्यारे या अराजकतावादी
तरीकों के हिमायती दर्शाते, तो पिछली सदी में इंग्लैंड स्वयं को ‘निर्वासितों की जननी’
कहने का दंभ न भरता, यानी मेजिनी, कोस्सथ, कार्ल मार्क्स, गैरीबाल्डी, कम्यून या
रूसी क्रांति के रिफ्यूजियों और साथ ही फ्रांसीसी राजभक्तों एवं 1830, 1848 और
1870 की क्रांतियों से पदच्युत शासकों का स्वर्ग कहने का।
73
सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद, न्यायाधिकरण ने 24 फरवरी 1911 को अपना फै सला
सुनाया। उसने मार्से के तट पर लगे मोरिया में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कै दी के संबंध में
मेट्रोपोलिटन पुलिस एवं फ्रें च नागरी पुलिस के बीच पत्राचार एवं फ्रांसीसी पुलिस द्वारा
सहयोग देने के संबंध में लिखे गए पत्रों का संदर्भ उठाया। उसने अर्धसैनिक ब्रिगेडियर
पेस्क्युई के बयान को भी सामने रखा, जिसमें कहा गया था, ‘वह एक भगोड़ा था, जो
लगभग नग्न था, स्टीमर की खिड़की से निकल, समुद्र में कू दा और तैरता हुआ किनारे तक
पहुँचा. . .उसी समय जहाज से कु छ लोग, शोर मचाते और इशारे करते हुए पुल पार कर,
उसका पीछा करते हुए भागे आए. . .किनारे पर खड़े कई लोग भी चिल्ला रहे थे।’
74
ज्यां लॉन्ग्वे द्वारा प्रेषित साक्ष्य के बावजूद, भारतीय हवलदारों को दरकिनार करते हुए,
अर्धसैनिक को ही गिरफ्तारी का अके ला जिम्मेदार माना गया। बयानों एवं दस्तावेजों के
आधार पर, न्यायाधिकरण ने विदेशी जमीन पर शरण मांगने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार
करने या धोखाधड़ी का मामला होने से इनकार किया और कहा कि घटना से संबद्ध सभी
व्यक्तियों ने ‘अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई और किसी भी गैरकानूनी कृ त्य को
अंजाम नहीं दिया गया’।
75
रोचक है, न्यायाधिकरण ने माना कि ‘सावरकर की गिरफ्तारी
और उसे ब्रिटिश पुलिस को सौंपना अनियमितता के दायरे में आता है’, परंतु साथ ही कहा
कि ऐसे किसी अपराधी को हिरासत में रखने वाले देश को उसे सौंप देने संबंधी कोई
अंतरराष्ट्रीय कानून नहीं है। इस प्रकार, न्यायाधिकरण का निर्णय था, ‘हिज़ ब्रिटेनिक
मैजस्टी की सरकार को उपरोक्त विनायक दामोदर सावरकर को फ्रांसीसी गणराज्य की
सरकार को सौंपे जाने की आवश्यकता नहीं है’।
इस निर्णय की लंदन प्रेस के साथ, सभी स्थानों पर घोर भर्त्सना की गई। द डेली न्यूज
ने
फै सले की षरण लेने के अधिकार को सीमित करने पर आलोचना की। माॅर्निंग पोस्ट
के
अनुसार इसने ‘शरण लेने के अधिकार का क्षरण और अंतरराष्ट्रीय कानून का तमाशा’ बना
दिया है।
76
उस दौरान यूरोप प्रथम विश्व युद्ध के भारी संकट के मुहाने पर खड़ा था, जिसे
देखते हुए अनेक देशों ने तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार पक्ष लिया। फ्री कन्जर्वेटिव
सोसायटी के मुखपत्र एवं जर्मन राजनीति पर भारी असर रखने वाले बर्लिन पोस्ट
ने 25
फरवरी 1911 के उग्र संपादकीय में अपनी अप्रसन्नता जताई:
हमने कभी द हेग कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन की अधिक चिंता नहीं की – यानी उसकी
तटस्थता एवं न्याय के प्रति सम्मान की। सत्य यह है कि विभिन्न देशों के प्रतिनिधि,
अपने देशोें के हितों, राजनीतिक विचारों, उपयोगिता के आधार पर मत डालते हैं – और
हम जर्मनों से नैतिकता की उम्मीद रखते हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं कि यह
लोग अपने बेहतर निर्णय एवं अंतःकरण के आधार पर कार्य करते हैं। कु छ हद तक
अन्य देशों के पृथक और बेशक अधिक व्यावहारिक मूल्य हैं, जो उनके अपने देशों के
हितों एवं हमारे मध्य प्रचलित विशुद्ध न्याय की अवधारणा के बीच आश्चर्यजनक ढंग से
संतुलित दिखता है। राष्ट्रीय पूर्वग्रह एवं पक्षपात आरंभ से ही उनके फै सले को निर्धारित
करते हैं। तथापि, हम यह सोच भी नहीं सके कि सावरकर मामले की न्यायकर्ता
अदालत ऐसी मर्मस्पर्शी सरलता और ‘विशुद्ध मूढ़ता’ का प्रदर्शन करेगी। उसने मूक
रहकर सावरकर मामले के असल मुद्दे को नजरअंदाज कर दिया - जो था, एक
राजनीतिक बंदी, जो विदेशी बंदरगाह पर उस जहाज की कै द से भाग निकला जिसमें
उसे ले जाया जा रहा था और एक फ्रांसीसी पुलिसवाले ने एक अंग्रेज की मदद से
पकड़ लिया था, और जो पानी में नहीं था, हालाँकि, वह पहले ही विदेशी जमीन पर
पहुँच चुका था, जिसके बाद उसे बिना औपचारिक कार्यवाही के अंग्रेजी जहाज को
सौंप दिया गया। यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों का व्यापक हनन है, और इस बात का सबूत
भी कि गौरवशाली फ्रांस को किस हद तक इंग्लैंड के मातहत लाया गया है। अदालत
का निर्णय रहा कि किसी की क्षेत्रीयता का असामान्य रूप से उल्लंघन नहीं किया गया।
77

फै सले की निंदा करते हुए बेल्जियम की ल सोसीयते नाॅवेल


ने मार्च 1912 के अपने
संपादकीय में लिखा कि ‘इंग्लैंड का बदनाम साम्राज्य रक्त, घोर दमन और आधिकारिक
तौर पर स्वीकृ त सुनियोजित निरंकु शता पर टिका है’।
78
द हेग निर्णय से पेरिस में उन भारतीय क्रांतिकारियों को बड़ी निराशा हुई जो प्रत्यर्पण के
संबंध में उम्मीद लगाए बैठे थे। इस संबंध में मैडम कामा के समाचार पत्र बंदे मातरम्
में
अनेक लेख एवं संपादकीय प्रकाशित हुए। उन्होंने लिखा, ‘पेरिस में रहने वाले दुनिया भर
के हतोत्साहित लोग गहरी निराशा में डूब गए हैं’।
79
इस अवसर पर श्यामजी ने अपनी
मनोव्यथा पर लिखा:
द हेग के अंतरराष्ट्रीय ट्राइब्यूनल के निर्णय ने राजनीतिक रिफ्यूजियों के आमतौर पर
समझे जाने वाले अधिकारों के संबंध में सब विश्वास तोड़ दिया है और यह देखकर दुःख
होता है कि जो राष्ट्र अब तक स्वतंत्रता के पक्ष में प्रमुखता रखते थे, राजनीतिक तौर पर
आक्रांत होते ही इन अधिकारों को मानने में धीमी चाल चलते हैं। ल’ह्यूमेंते
का पक्ष इस
संबंध में सटीक था कि सावरकर संदर्भ को मध्यस्थों के हवाले करना फ्रांस की नीतिगत
गलती थी, तथा ब्रिटिश संसद के एक सदस्य जो हमारे मित्र हैं, ने बताया कि फ्रांस ने
जिस प्रकार से अपना पक्ष पेश किया, उसकी असफलता सुनिश्चित थी, चूंकि सभी
मजबूत दलीलें छोड़ दी गई थीं। अब हमारे पास के वल हमारे युवा मित्र एवं सहयोगी श्री
विनायक दामोदर सावरकर पर टूट पड़ी मुसीबत के लिए हार्दिक सांत्वना और संवेदना
ही रह गई है, जिसने उन्हें हमसे इसी पल छीन लिया है जब. . .हम जल्दी ही उन्हें अपने
मध्य देखने के प्रति विश्वस्त थे। हम उनके परिवार के प्रति अपनी गहन सहानुभूति
व्यक्त करते हैं, जिसने एक के बाद एक तीन भाइयों को सज़ा पाते देखा है, जिसमें से
दो को आजीवन कारावास का दंड दिया गया है।
80
इंग्लैंड में, इस संबंध में अथक प्रयास कर रहे और विनायक की मार्च 1910 में गिरफ्तारी के
समय से ‘सावरकर रिलीज कमिटी’ के संस्थापक गाइ एल्ड्रेड, ने भी निर्णय की आलोचना
की। उन्होंने ‘सावरकर रिलीज टूर’ का भी गठन किया जिसमें समूचे इंग्लैंड, स्काॅटलैंड और
वेल्स से उनकी रिहाई के लिए सहयोग मांगा गया।
81
‘वाइट टेरर इन इंडिया’ नामक एक
प्रचारपत्र में एल्ड्रेड ने जोरदार तरीके से कहाः
ब्रिटिश श्रमजीवी भारत में चल रहे दमन के प्रति संवेदनशील हो सकता है। वह ब्रिटिश
तानाशाही से सावरकर एवं गैरकानूनी तरीके से पकड़े गए अन्य की रिहाई आश्वस्त कर
सकता है – विद्रोह के जरिये. . . आपके पास आज़ादी के प्रति स्नेह, जो सावरकर की
गैरकानूनी गिरफ्तारी पर कराह रहा है. . . सावरकर की रिहाई की मांग करो और वह
मुक्त होगा।
इसी पत्र में उन्होंने दृढ़ता से कहा कि सावरकर के अपराध के वल इतने हैं कि उन्हें ‘ब्रिटिश
सरकार के सम्मान में अनुभवहीन विश्वास, उच्च साहित्यिक अभिरुचि और अपने साथी
देशवासियों को शिक्षित करने की अदम्य क्षमता थी कि वह कै से भारत में गोरे आतंकवाद
की समस्या से मुक्त हो सकते हैं’।
82
ज्यूरिख से जर्मन भाषा में प्रकाशित पाक्षिक दे वांदरर
ने एल्ड्रेड के संपादकीय का
सहयोग किया और उनके विचार को आगे बढ़ाया। एल्ड्रेड ने अके ले फ्रांसीसी प्रधानमंत्री
ब्रियांड को जिम्मेदार ठहराया क्योंकि उन्होंने, ‘स्वेच्छा से फ्रांस की संप्रभुता को धोखा
दिया’।
83
उल्लेखनीय है कि द हेग निर्णय के तीन दिन बाद ही ब्रियांड को इस्तीफा देना
पड़ा था। एक ओर, एल्ड्रेड सहित अनेक का दावा था कि उनका यह कदम ‘सावरकर
मामले’ के कारण लिया गया था, परंतु उस समय यूरोपीय महाद्वीप में बढ़ते राजनीतिक
तनाव और जर्मनी की बढ़ती सैन्य ताकत जैसे बड़े मुद्दे मुँह बाये खड़े थे। तीखी टिप्पणी
करते हुए एल्ड्रेड ने लिखाः
द हेग निर्णय फरवरी 1911 को दिया गया। इससे राजनीतिक शरण का अधिकार रद्द
और ब्रियांड की साजिश का पर्दाफाश हो गया। चेम्बर ऑफ डिप्यूटीज में जवाब देने की
बजाय उन्होंने तीन दिन बाद ही इस्तीफा दे दिया। परंतु उनके इस कार्य ने जो उदाहरण
सामने रखा है उसके अनुसार अंग्रेजी पुलिस के साथ काम कर रहे रूसी एजेंटों एवं
सरकार को ब्रिटिश लोगों या संसद को बताए बिना उन्हें रूसी शरणार्थियों को अगवा
कर साइबेरिया भेजने का अधिकार मिल गया। ब्रियांड की बहाली के लिए किसी
अंतरराष्ट्रीय कानून की मदद भी नहीं ली जा सकती।
84
वहीं यूरोप में जोर पकड़ रही भारतीय क्रांतिकारी धारा के लिए भी विनायक का मामला
बहुत बड़े धक्के के समान रहा था। इसने ब्रिटेन को किसी भी क्रांतिकारी कार्य के लिए
खतरनाक स्थान बना दिया था। इसलिए, पेरिस के भारतीयों ने विरोधी समझी जाने वाली
प्रकाशित सामग्री को फ्रांसीसी अंतः क्षेत्र पांडिचेरी भेजना शुरू कर दिया। जहाँ से उसे
चोरी-छिपे ब्रिटिश भारत भेजा जाता था। यह प्रक्रिया अगस्त 1909 से शुरू हो गई थी और
द हेग एवं भारत में विनायक मामले के एकतरफा फै सले के बाद इसमें तेजी आई। यह मार्ग
अय्यर ने तय किया जो विनायक के प्रत्यर्पण के बाद पांडिचेरी चले गए थे। वहाँ पहुँचने के
बाद उन्हें मैडम कामा से विनायक की पुस्तकें , प्रचारपत्र एवं हथियार प्राप्त होने लगे थे
जिसके बाद इन्हें समूचे भारत में वितरित किया जाता।
हालाँकि, विनायक मामले के बाद क्रांतिकारी संस्थाओं को जोड़नेवाली कड़ी टूट गई और
उसके कमजोर हिस्से भेदिये और गवाह बन गए थे। अपने साथियों की पहचान, मंशा और
रुझान को परखना एवं नए सदस्य बनाने में बहुत समय, प्रयास एवं स्रोत खर्च होते थे –
जबकि इस कीमती समय को अधिकाधिक राजनीतिक कार्यों में लगाया जाना चाहिए था।
अविश्वास का बीज पनप चुका था और एक दूसरे पर शंका की अंतर्धारा लंबी होती जा रही
थी। मुकदमे ने सर्वप्रिय राष्ट्रीय संप्रभुता से जुड़ी अंदरूनी विसंगतियों और सार्वजनिक
बहस को बढ़ावा देने के अलावा जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय सीमाएं पार कर सरकारी
अधिकारियों द्वारा सहयोग करने की मंशा को भी जाहिर किया था।
बंबई, मार्च 1911
इसके साथ ही, भिन्न महाद्वीपों में विनायक पर एक वर्ष से चल रहे मुकदमों का अंत हुआ।
मुकदमों के बाद पुलिस विनायक को बारी-बारी से बंबई में डोंगरी, बायकु ला और ठाणे की
विभिन्न जेलों में रखती रही।
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डोंगरी जेल में विनायक को द हेग निर्णय की खबर दी गई। कु टिल मुस्कान के साथ एक
पुलिस वाले ने उनसे कहाः ‘तुम्हें अब पचास वर्ष कारावास की सज़ा हुई है।’ ‘पचास’ शब्द
देर तक विनायक के कानों में गूंजता रहा। वह दिन अगली आधी सदी की यात्रा का पहला
दिन था। जब तक द हेग निर्णय नहीं पहुँचा, विनायक को भोजन और कपड़ों के लिहाज से
बाकायदा कै दी नहीं माना गया था। निर्णय के बाद, उन्हें अंग्रेज अधीक्षक द्वारा लाए गए
कपड़े पहनने पड़े। कपड़े पहनते समय विनायक के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। आखिर अब
उन्हें शेष जीवन इन्हीं कपड़ों में जो बिताना था।
उनकी तकलीफ को बढ़ाते हुए, एक सिपाही ने गले में पहनने के लिए लोहे का गोल
सरिया भी लाया था। उस पर ‘1960’ नंबर अंकित था जो जेल से उनके छू टने का वर्ष था।
इसे गले में पहनना हमेशा याद दिलाता कि आगे का जीवन क्या और कै सा था। विनायक
के चेहरे पर बदलते भाव को देखकर अधीक्षक हंसा और बोलाः ‘डरो मत, हिज़ मैजस्टी
की दयालु सरकार तुम्हें 1960 में जरूर छोड़ देगी।’ विनायक का प्रत्युत्तर थाः ‘मृत्यु
अधिक दयालु है, वह मुझे कहीं पहले मुक्त कर देगी!’ और दोनों इस पर हंस दिए थे।
अगले ही रोज़ से निश्चित दिनचर्या आरंभ हो गई थी। प्रातःकाल की शुरुआत अहाते में
चहलकदमी से होती। डोंगरी बंबई के बीचोंबीच स्थित है और टहलने के दौरान वह
निकटवर्ती घरों को भी देख पाते थे। अक्सर लोग छतों पर चढ़कर विनायक को देखने का
प्रयास करते। और वह उनकी श्रद्धा देखकर सिर झुका देते। चहलकदमी के दौरान वह
अक्सर पतंजलि का सम्पूर्ण योग सूत्र भी गुनगुनाते थे। योग सूत्र के 196 श्लोक व्यक्ति को
उसके मस्तिष्क, साधना एवं ध्यानाभ्यास कराने का प्राचीन शास्त्र है जिसके माध्यम से वह
अप्रासंगिक विचारों को अपनी चेतना से दूर कर शांति अनुभव करता है। जीवन के इस
चरण में विनायक की यही जरूरत थी। कोठरी में विनायक को ‘मोटा सन’ कातने का कार्य
सौंपा गया। जिस दौरान छोटे टुकड़ों में काटी गई घुमावदार रस्सियों को तोड़कर धागों में
बदलना होता था। अक्सर वह अपने ऊपर व्यंग्य भी करते, कि बैरिस्टर बनने चला था और
क्या बन बैठा। योग सूत्र के छंदों का धीमे-धीमे अभ्यास करते हुए वह अपने मस्तिष्क को
शांत रहने का आदेश देते। जबकि हाथों में साधारण कार्य थामे वह अक्सर दार्शनिक
नजरिये से सोचते कि संभवतः नियति उन्हें इस प्रकार जीवन का अर्थ सिखाना चाहती है।
आखिर, क्या समस्त जीवन पंचतत्वों के मिश्रण से नहीं बना, जिनमें से एक भी तत्व के
पृथक होने का परिणाम मृत्यु होता है ?
उन निराशाजनक क्षणों में भी विनायक ने लेखन में शांति तलाशने का प्रयास किया। वह
हमेशा ही एक महाकाव्य रचना चाहते थे। और शायद यही उनका अवसर था। वह अपनी
शाश्वत प्रेरणा और शहीदों में अग्रणी शूरवीर गुरु गोबिंद सिंह पर काव्य रचना करना चाहते
थे। वह इस तथ्य से बेखबर थे कि मोटा सन कातने से उनके हाथ घायल और रूखे हो रहे
थे। रात्रि भोजन के उपरांत, जब दरवाजे बंद हो जाते, वह सूत्र के अनुसार ध्यानाभ्यास
करते और फिर नौ बजे सो जाते। उनकी कोठरी में घोंसला बनाए बैठे दो कबूतर जरूर
मनोरंजन और ध्यान बंटाने का साधन थे। दिन-ब-दिन बड़ी होती जा रही इस बोझिलता पर
विनायक ने लिखा है:
यह एकांतिक जीवन, मिनट-प्रति-मिनट बंधी-बंधाई दिनचर्या, जिस दौरान मैंने अपने
मस्तिष्क को वैचारिक शक्ति एवं विसक्ति भाव से नियंत्रित करने का प्रयास किया, कई
बार कु छ इतनी असहनीय हो जाती है कि कु छ अवसरों पर मुझे महसूस हुआ कि मेरा
दुःख और व्यग्रता दुःस्वप्न की तरह मेरे सीने पर सवार हैं और अपनी गिरफ्त से मेरा
गला दबा रहे हैं। ऐसे पलों में मैं कठिनाई से सांस ले पाता; उस समय मुझे महसूस होता
कि यदि मैं इसे सह सकता हूं, यदि ऐसा हो तो मेरा कार्य मेरी पीड़ा से लाभान्वित होगा।
परंतु फिर. . .? तत्क्षण मैं उस नैराश्य से बाहर आया और अपने मूल स्वरूप में पहुँचा।
मस्तिष्क संतुलन की अवस्था में लौट आया, जैसा कि उस अंतराल में कु छ भी न हुआ
हो।
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कै द में भी बाहर की सूचनाएं विनायक तक पहुँच रही थीं। एक बार जेल के किसी कोने में
उनकी नजर के सरी
की कतरन पर पड़ी थी। उसमें आईएनसी के संस्थापकों में से एक सर
हैनरी काॅटन का जिक्र था जो 1904 के बंबई सत्र के अध्यक्ष भी थे। लंदन में भारतीयोें की
एक सभा में बोलते समय संयोगवश उनकी दृष्टि विनायक की तस्वीर पर पड़ी और उन्होंने
गहरी सांस छोड़ते हुए कहा कि अफसोस कि उज्ज्वल भविष्य वाला एक युवा एवं
प्रतिभाशाली व्यक्ति कितनी दयनीय स्थिति में पहुँच गया है। उन्हें उम्मीद थी कि द हेग
विनायक के पक्ष में फै सला देती और उन्हें फ्रांस प्रत्यर्पित किया जाता।
उसके बाद हंगामा उठ खड़ा हुआ, कटु आलोचना, विरोध प्रदर्शन और उनकी नाइटहुड
वापस लिए जाने की आवाजें गूंजने लगीं। कांग्रेस ने तुरंत अपने संस्थापक के बयानों से
खुद को अलग किया। उस वर्ष कांग्रेस सत्र के अध्यक्ष सर विलियम वैडरबर्न एवं सुरेंद्रनाथ
बनर्जी ने भी बयान जारी करते हुए कहा कि वह विनायक सावरकर जैसे व्यक्ति के लिए
सर काॅटन की संवेदना की पैरवी नहीं करते। विडंबना थी कि तिलक के के सरी
ने भी इसे
काॅटन का निजी विचार कहते हुए खुद को अलग कर लिया था।
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जहाँ यूरोपियन समाचार
पत्र विनायक को एक वीर देशभक्त कह रहे थे, भारतीय समाचार पत्र सहयोगी मुद्रा
अपनाते हुए डर रहे थे। उन पर अंतिम फै सला आने के बाद, द टाइम्स ऑफ इंडिया
के
आलेख का शीर्षक था: ‘धूर्त को उसके किए की सज़ा मिल गई’।
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डोंगरी जेल में एक दिन विनायक से कोई मिलने आया। यह सोचते हुए कि कौन हो
सकता है, वह आगंतुक दीर्घा में पहुँचे। सलाखों के पीछे अपनी युवा पत्नी और उसके भाई
को देखते ही उनका दिल बैठा रह गया। दोनों बमुश्किल अपने आंसू दबाए हुए डर से कांप
रहे थे। उन्होंने सलाखों के दूसरी ओर से उनके हाथ छू ने की भी कोशिश नहीं की। यह
उनकी अंतिम मुलाकात हो सकती थी। इसके बावजूद, एक सख्त, असंवेदनशील अंग्रेज
अधीक्षक की निगरानी में विदाई शब्द कहे जाने थे। माहौल को हल्का करने के लिए
विनायक ने अपनी पत्नी से कहा, ‘के वल कपड़े बदले हैं, मैं वही हूं! वैसे भी ठं डे मौसम में
यह कपड़े बचाव करते हैं’। यमुना फफक पड़ी। पत्नी को सांत्वना देते हुए विनायक ने
कहा, ‘चिड़ियां और पतंगे भी वैवाहिक जीवन, वंश-वृद्धि और घर बनाने का आनंद उठाते
हैं. . .हमने अपने खाना पकाने के बर्तन तोड़ डाले ताकि आने वाले समय में देश के हजारों
लोगों पर नियति प्रसन्न होगी’।
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उनकी बातचीत अभी समाप्त भी नहीं हुई थी कि समय समाप्ति की घोषणा हो गई। जाते
समय, यमुना के भाई ने भगवान कृ ष्ण को समर्पित एक मंत्र फु सफु सायाः ‘कृ ष्णाय
वासुदेवाय हरये परमात्मनेः, प्रणत क्लेषनाषाय गोविंदाय नमो नमः’ (भगवान कृ ष्ण को
मेरा प्रणाम, वासुदेव के सुपुत्र, जो अपने को समर्पित सभी की पीड़ाएं हरते हैं)। उन्होंने
विनायक को यह मंत्र प्रतिदिन जपने को कहा। और फिर वह बिना पीछे देखे चले गए।
विनायक अब तक जितनी भी पीड़ा और अवसाद को रोके बैठे थे, उसका बांध टूट पड़ा।
उन्होंने उसी समय अपनी कोठरी में घोंसला बनाए बैठे कबूतर के परिवार के बच्चों के शोर
को सुना। उनके लिए खाना बटोरने गई माँ गलती से जेलर की गोली का निशाना बन गई
थी। और अब वह भूखे-प्यासे अपनी स्नेहमयी माँ के बिना छटपटा रहे थे। ऐसी मार्मिक
परिस्थिति को बर्दाष्त करना विनायक जैसे संवेदनशील कवि के लिए असहनीय था।
असीम वेदना से उनकी रुलाई फू ट पड़ी। उसी समय वहाँ से गुजर रहा पहरेदार यह देखकर
रुका, अपनी छड़ी से उन्हें कु रेदा और समय व्यर्थ ना कर सन कातना जारी रखने का
आदेश सुना दिया।
कोठरी में एक महीना बीत चुका था। एक दिन अधीक्षक आया और उन्हें सामान समेटने
को कहा। विनायक ने सोचा कि अंडमान जाने का समय आ गया है। परंतु उन्हें एक जेल
वैन में ठूं स दिया गया, उसकी खिड़कियां बंद थीं और अंधेरे में वह कु छ नहीं देख पा रहे थे
– खुले दिन में भी वह अंधेरे में कै द थे। उन्हें के वल गाड़ी के हिचकोले महसूस हुए जो कु छ
देर बाद अचानक रुक गई थी। जब उन्हें बाहर खींचा गया, तेज रोशनी से उनकी आँखें
चुंधिया गई थीं। कनखियों से विनायक ने देखा कि वह बॉम्बे बायकु ला जेल के बाहर खड़े
थे।
यहां की कोठरी डोंगरी से बड़ी और ज्यादा सूनी थी। वहाँ बाहर की कु छ आवाजें और
झलकियां दिखती थीं, लेकिन यहाँ वह भी नहीं था। ऐसा लगता था कि उन्हें एकाकीपन की
ओर धके ला जा रहा था। वहाँ ना पढ़ने के लिए किताबें, ना कोई बातचीत, ना कोई
इनसानी मौजूदगी और रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं भी नहीं थीं - बायकु ला हर लिहाज
से शुष्क था। डोंगरी में विनायक को दूध और रोटी मिलती थी। यहाँ दूध बंद कर दिया गया
और उनको सूखी रोटी खानी पड़ती थी। उन्होंने जेलर से अनुरोध किया कि उन्हें दूध दिया
जाए, परंतु अनुरोध तुरंत खारिज हो गया। फिर उन्होंने जाॅन बन्यन की द पिल्ग्रिम्स प्रॉग्रेस
,
डब्ल्यू.टी. स्टीड की पुस्तकें एवं रूसी जनरल राजकु मार कु रोप्तकिन की पुस्तकों में से
किसी एक की मांग रखी।
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परंतु शाम को उन्हें अंग्रेजी बाइबल की एक प्रति दी गई। ईसा
मसीह का जीवन-चरित उस समय विनायक के लिए सबसे सामयिक कथा की तरह था।
उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह पर अपने महाकाव्य के कई छंद मन में ही तैयार कर लिए थे। साथ
ही, डोंगरी में शुरु की गई एक कविता ‘सप्तर्षि’ भी।
इस दौरान विनायक ने एक अर्जी भी दाखिल की थी कि क्या उनकी दो आजीवन
कारावास की सजा, पच्चीस वर्ष प्रत्येक, एक साथ चल सकती हैं। अपनी अर्जी के आधार
में उन्होंने आईपीसी की प्रासंगिक धाराओं का उल्लेख किया। उम्रकै द का अर्थ किसी
व्यक्ति के जीवनकाल का सक्रिय समय होता है। जहाँ इंग्लैंड में उम्रकै द चौदह वर्ष से
अधिक की नहीं होती, ब्रिटिश भारत में इसकी अवधि पच्चीस वर्ष थी। विनायक के
अनुसार, पचास वर्ष की सज़ा को देखते हुए, यह संभव नहीं था कि वह इतनी अवधि तक
जिंदा रहेंगे, और यह नियमावली के भी विरुद्ध था। अतः, एक साथ चौदह वर्षों की सज़ा
चलाना ही सबसे तार्किक और न्यायपूर्ण था।
सरकार ने 4 अप्रैल 1911 को यह अनुरोध रद्द कर दिया और कहा कि एक साथ कु ल
पचास वर्ष की ही सज़ा चलेगी। सरकार ने कहा, ‘दूसरे आजीवन कारावास को माफ करने
के सवाल के बारे में पहले आजीवन कारावास की सज़ा समाप्त होने पर ही सोचा जाएगा’।
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अंग्रेज अधीक्षक ने उपहासपूर्ण तरीके से यह सूचना विनायक को देते हुए कहा कि


सरकार ने पच्चीस वर्ष की उनकी पहली सज़ा और उसके बाद पच्चीस वर्ष की उनकी
दूसरी चलाने का फै सला किया है। अपनी चिर-परिचित हाजिरजवाबी और विनम्रता के
साथ विनायक ने कहाः ‘बहुत अच्छा! इस मामले में कम-से-कम ब्रिटिश सरकार ने
ईसाइयत के मृतोत्थान सिद्धांत का त्याग करते हुए हिन्दुओं के पुनर्जन्म का सिद्धांत तो
माना’। अधीक्षक के पास कोई जवाब ना था।
बहुत जल्द, उन्हें अन्य स्थान पर भेज दिया गया, जो ठाणे जेल थी। वहाँ अंडमान में
उम्रकै द की सज़ा पाने वाले बार-एट-लॉ, और खतरनाक आतंकी को देखने के लिए
खलबली मची थी। परंतु किसी भी कै दी को विनायक के पास जाने की इजाजत नहीं थी।
उनकी निगरानी ‘सबसे दुर्दांत पहरेदारों’ के जिम्मे थी – वे सब मुस्लिम थे और इस कार्य के
लिए ‘सबसे बुरे’ भी।
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खाने में आधे पके ज्वार और अधपकी सब्जियां मिलती जो कड़वी होती थीं। अक्सर रोटी
तोड़कर मुँह में डालकर उसे बिना चबाये या स्वाद लिए पानी से निगलना पड़ता था। संध्या
होते ही सब दरवाजे बंद हो जाते और चारों ओर गहरा सन्नाटा पसर जाता था। एक रात,
विनायक के दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई। एक पहरेदार, जिसे सबसे बुरा समझा जाता
था, भीतर आया और कहा कि वह उनकी हिम्मत के बारे में सुन चुका है और उनका
प्रशंसक है। वह एक अन्य कै दी का संदेश लाया था। इससे पहले कि विनायक सोच पाते
कि दूसरा कै दी कौन, पहरेदार ने पीठ पीछे से एक तख्ती निकाली। उस पर नारायणराव का
संदेश लिखा था। विनायक को पता नहीं था कि वह भी उसी जेल में थे। पहरेदार ने कहा
कि इस बारे में किसी को ना बताएं, अन्यथा उसे ही फांसी पर लटका दिया जाएगा।
अपने छोटे भाई के बारे में सोचकर विनायक एक नए भावावेश में पड़ गए। वह भाई जो
छोटी सी उम्र में ही अनाथ हो गया था और उसे उनके माता-पिता बड़े भाइयों की सरपरस्ती
में छोड़ गए थे। उन्हें अफसोस हुआ कि वह और उनके बड़े भाई इस जिम्मेदारी को ठीक से
निभा नहीं सके । लालटेन की झिलमिलाती रोशनी में उन्होंने तख्ती पर लिखा पढ़ने का
प्रयास किया। संदेश था कि विनायक हिम्मत बनाए रखें और उसका साथ ना छोड़ें; वह
उनके बारे में चिंता ना करें। दुःख, पछतावे या हारने जैसा एक भी शब्द संदेश में नहीं था।
बल्कि, अपने बड़े भाई को मौन आत्मविश्वास के जरिये उन्होंने समझाया था कि चाहे कु छ
हो जाए, वह अपने शपथ मार्ग से हटेंगे नहीं।
हालाँकि, विनायक को संदेश पर कु छ शक था; वह उन्हें समाप्त करने की चाल हो सकती
थी। इसके बावजूद, उन्होंने किसी नाम या कार्य योजना का नाम लिये बिना जवाब लिखा।
अन्य बातों के साथ विनायक ने लिखाः ‘मेरे बारे में मत सोचो, यह सोच कर आंसू न
बहाओ कि जीवन में तुम असफल रहे। भाप के इंजन में कु छ ईंधन जलता रहना चाहिए,
ताकि भाप उठे और इंजन आगे बढ़े। क्या हम ही वह ईंधन नहीं जिससे आग जलती है
और उसकी लपटें ऊपर और दूर तक जाती हैं ? जलना अपने आप में महान क्रिया है!’
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दो दिनों बाद उन्हें सूचना मिली कि नारायणराव को कहीं और भेज दिया गया है।
पहरेदार प्रमुख लगातार विनायक का मजाक बनाता और तंज़ कसता था, ‘ओह! देखो
शेर आ गया!’ विनायक के नहाते समय, उन्हें देखते हुए व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियां करता कि
कै से उनके जैसे सुंदर पुरुष को जेल में सड़ने की बजाय किसी अंग्रेज महिला के साथ होना
चाहिए। पूरा दिन विनायक की ओर इशारे करते हुए छिछले और भद्दे तरीके से नाचता
हुआ कहता कि कारागार से उनकी लाश ही बाहर जाएगी।
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उस वर्ष के अंत में सम्राट जाॅर्ज पंचम के दिल्ली दरबार का आयोजन किया जाना था।
अफवाहें गर्म थीं कि विनायक सहित कई राजनीतिक कै दियों को ‘दयालु राजा’ द्वारा
सर्वोच्च सद्भावना का प्रदर्शन दिखाते हुए शाही माफी दी जा सकती है। हालाँकि, ऐसा कु छ
नहीं हुआ। इसके विपरीत, विनायक का संदूक, पुस्तकें , कपड़े एवं अन्य साजो-सामान
नीलामी के लिए रख दिए गए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि मुकदमे के बाद उनकी सारी संपत्ति
जब्त करने के आदेश थे। प्राप्त राशि सरकारी खजाने में जानी थी। उनकी कु ल संपत्ति
मूल्य 27,000 रुपये और उनके श्वसुर की 6725 रुपये मूल्य की संपत्ति जब्त कर ली गई
थी। यहाँ तक कि खाना पकाने के बर्तन भी जब्त कर लिए गए थे।
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एक सुबह, हवलदार ने उन्हें उनका चश्मा और छोटी सी भगवत गीता
की प्रति भी त्यागने
को कहा। मार्मिक पलों की पराकाष्ठा में जेल के सबसे कठोर हृदय पहरेदारों की आँखें भी
नम हो आई। परंतु अंततः सरकार ने ‘बड़ा रहम’ दिखाते हुए एक आना कीमत वाली गीता
और चश्मा लौटा दिया गया जिन्हें उनको अब सरकारी संपत्ति के तौर पर इस्तेमाल करना
था।
एक दिन, विनायक को पता चला कि ठाणे जेल में बड़ी संख्या में अपराधी लाए जा रहे
हैं। कारागार की शब्दावली में उन्हें ‘चालान’ कहा जाता था। जेल के नीरस जीवन में जहाँ
सिर के ऊपर से पक्षी के गुजर जाने पर भी कै दियों में रोमांच दौड़ जाता है, यह अवसर
बेहद उत्सुकता और ऊर्जा से भरा था। आखिरकार, दोपहर के समय, जंजीरों और बेड़ियों
की खड़खड़ाहट के बीच देश के सबसे दुर्दांत अपराधियों का जत्था वहाँ आ पहुँचा। उनके
अपराधों की कहानियाँ सुनकर कई कै दियों के शरीर में झुरझुरी दौड़ जाती। विनायक को
अहसास हुआ कि अंडमान में इन्हीं लोगों के साथ उन्हें रहना होगा।
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25 जून 1911 को कई व्यग्र चेहरे ठाणे जेल के बार मौजूद थे। यह वह दिन था जब भारत
के वीर सपूत को मद्रास और वहाँ से अंडमान भेजा जाना था। इससे पहले विनायक को
एक समिति के सामने ले जाया गया जिसने अंडमान जाने के लिए उनके शारीरिक और
मानसिक स्वास्थ्य की जांच करनी थी। एक हमदर्द अधिकारी ने कहा कि यदि वह नहीं
जाना चाहते तो उनके बंबई में ही रखने के लिए वह अपना रसूख इस्तेमाल कर सकते हैं।
उनकी हमदर्दी के लिए अनेक आभार जताते हुए, विनायक ने शिष्टता से प्रस्ताव अस्वीकार
कर दिया। उस समय उन्हें तेज बुखार था, फिर भी वजन लेकर उन्हें भेजने के लिए स्वस्थ
घोषित किया गया और बर्तन एवं बिस्तर जैसी बुनियादी वस्तुएं सौंप दी गई। उन्हें
‘चालानों’ में से एक के साथ छोटी कोठरी मिली। दीवार पार से उन्हें उनकी ऊं ची आवाजें
और ठहाके सुनाई पड़ते। उनमें से अधिकांश मौजूदा पल में जीने वाले थे, आज का आनंद
उठाने वाले और अक्सर नशे में धुत होते थे। उस पल, गहरा विशाद विनायक के दिमाग पर
छा गया। लंदन का एक बैरिस्टर, देश के सबसे बदनाम अपराधियों के साथ, उपमहाद्वीप
की सबसे खतरनाक जेल की ओर जा रहा था – परिस्थिति की विडंबना विनायक की तीव्र
बुद्धि में गहरे बस गई थी।
उन्हें अपने बड़े भाई बाबाराव का ध्यान आया, जो संभवतः ऐसे ही ‘चालानों’ के साथ
वहाँ पहुँचे होंगे। जब एक वृद्ध पहरेदार ने उन्हें बताया कि सेल्युलर जेल भेजने से पहले
उनके भाई को भी उसी कोठरी में रखा गया था जिसमें वह हैं, उनकी भावनाएं और भी
उद्विग्न हो उठी थीं।
एक बनियान, उस पर एक पुराना कं बल और सिर पर लपेटा गुलूबन्द और हाथ में एक
छोटा प्याला और लोहे की तश्तरी पकड़े और बगल में कं बल तथा गद्दा दबाए विनायक
शराफत और दया की मूरत नजर आते थे। हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पहने जिसकी
डोर के अधिकारी के हाथ में होती थी। लंदन और मार्से में उनके साथ अनुभवों को देखते
हुए, पुलिस कोई खतरा नहीं उठाना चाहती थी। उन्हें कड़े पहरे वाली एक वैन में बैठाया
गया जो उन्हें सीधे मद्रास जाने वाली गाड़ी के डिब्बे तक ले गई। अधिकारी पूरा दिन उनके
साथ रहा और विनायक के शौचालय जाने के दौरान भी उन पर नजर रखता। उन दिनों
दक्षिण भारत की गर्मी असहनीय थी। मद्रास के निकट पहुँचने पर एक अंग्रेज अधिकारी ने
उनसे दिल्ली दरबार की शाही माफी पर उम्मीद बनाए रखने को कहा। उनका उत्तर थाः
‘आपकी सद्भावना का धन्यवाद। मेरे जख़्म बहुत कच्चे हैं. . .कोई उन्हें भर नहीं सकता।
ऐसी अर्थहीन उम्मीदें लगाए रखना गलती होगी’।
जब विनायक मद्रास पहुँचे, तिरुनलवेल्ली जिले के कलेक्टर रॉबर्ट विलियम डि’एस्कोर्ट
ऐश की वंचीनाथन नामक एक युवा क्रांतिकारी ने हत्या कर दी थी। विनायक को अहसास
हुआ कि यह कार्य उनके निकटवर्ती वीवीएस अय्यर के सिवा और किसी का नहीं हो
सकता। अय्यर द्वारा पांडिचेरी में पनाह लेने और वहाँ अभिनव भारत की मजबूत शाखा
स्थापित करने से जुड़े किस्से सुने जा रहे थे। इस हत्या के बारे में पुलिस ने विनायक से
पूछताछ की और कहना ना होगा, उन्होंने अनभिज्ञता का ढोंग रच दिया था।
जून 1906 में परिवार एवं मित्रों ने उन्हें लंदन के जहाज पर भेजते समय एक नायक
सरीखी विदाई दी थी। पांच वर्ष बाद, 27 जून 1911 को वह एक और जहाज पर जाने वाले
थे - विडंबनावश जिसका नाम एसएस महाराजा
था – परंतु इस बार उनकी यात्रा एक
खतरनाक अपराधी के तौर पर अंडमान द्वीप की डरावनी सेल्युलर जेल की ओर थी। जैसे
ही जहाज मद्रास से रवाना हुआ, गंदगी और पंक से भरी अपनी अंधेरी और छोटी कोठरी
में बैठे विनायक सोच रहे थे कि क्या वह फिर कभी अपनी मातृभूमि और परिवारजनों को
देख पाएंगे। इन अत्यंत कष्टदायी पलों के बारे में विनायक ने लिखा है:
आजीवन कारावास सज़ा के लिए रवाना होने जहाज पर चढ़ना किसी जीवित व्यक्ति
को उसके ताबूत में लिटाने जैसा है। इन वर्षों के दौरान हजारों-लाखों व्यक्ति अंडमान
गए होंगे और हजार में से दस भी लौटकर भारत नहीं आए! जहाज पर कदम रखने
वाले 18 वर्षीय युवा देखने में वृद्ध लगते हैं और मृत्यु की छाया उनके चेहरे नजर आती
है। जब किसी व्यक्ति को अर्थी पर रखा जाता है तो उसके संबंधी दुनिया से उसकी
विदाई मान लेते हैं और खाली आँखों से शव को ताकते रहते हैं। इसी तरह, हमें जहाज
पर चढ़ता देख रहे श्रोता हमें पीछे छू टी जा रही मातृभूमि के लिए मृत मान रहे हैं। इस
दृश्य को देख रहे लोग, इन्हीं भावों से मेरी ओर देख रहे हैं। बाहरी दुनिया के लिए मैं मृत
था – यह भावना उनके चेहरों पर अंकित थी। क्या सच में, मुझे मेरी अर्थी पर लिटाया
जा रहा था। के वल एक ही अंतर है कि परिस्थितियों का अंदाजा मुझे था, जबकि मेरा
शव संज्ञाहीन होता। इस अवसाद में मेरी ओर देखते हजारों विमुख और पूर्णतया शुष्क
थे। मेरी ओर देखना, निकट से जाने वाली किसी अर्थी को देखने जैसा ही था। पास से
जाने वाले किसी ने कहा, ‘बेचारा, यह तो मर गया!’ और अगले पल भूल गया। अपनी
ओर घूरते लोगों को देखना दुखद है – अपने ही देशवासियों द्वारा. . . यदि इनमें से एक
भी मेरा साथी मुझसे कहता, ‘जाओ, मेरे भाई, जाओ, मैं और मेरे जैसे अन्य भारत को
आज़ाद कराने की तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करेंगे’, तो मुझे लगता कि मेरी अर्थी मुझे
फू लों की सेज जैसी महसूस होती।
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सज़ा-ए-कालापानी
पोर्ट ब्लेयर, जुलाई 1911
एसएस महाराजा
जहाज के सबसे निचले के बिन में कदम रखते ही विनायक को अहसास
हुआ कि उन्हें वहाँ पचास अन्य उन कै दियों के साथ रहना होगा, जो देश के सबसे अस्त-
व्यस्त और मैले-कु चले वर्ग से आते थे और जमीन पर चारों ओर पसरे हुए थे। उनके सामने
पीपा जैसा कु छ रखा था जिससे गहरी दुर्गंध फै ल रही थी। बाद में, जब उन्होंने एक व्यक्ति
को उसे इस्तेमाल करते देखा तो उन्हें अहसास हुआ कि किस्मत के मारे वे यात्री उसका
कमोड की तरह इस्तेमाल करते थे। इस तरह के अमानवीय व्यवहार से पार पाने के लिए
फौलाद से संकल्प की जरूरत थी, और ऐसे समय में विनायक ने अनेक दार्शनिक कथाओं
से अपने को बहलाये रखा। कमरे में भेड़-बकरियों की तरह ठूसे गए यात्रियों के कारण
आराम से उठने-बैठने योग्य स्थान भी नहीं था। जहाज पर मौजूद कु छ यूरोपियन यात्री
विनायक के बारे में सुन चुके थे और उनके प्रति बहुत आदर भाव रखते थे। इसलिए उनमें
से कु छ ने, कप्तान की अनुमति से, विनायक के सम्मान में बेसमेंट के सभी कै दियों के लिए
भोजन का इंतजाम किया। भोजन में चावल, मछली और अचार था। दो दिन भूखा रहने,
और खाने को के वल उबले मटर एवं सूखे चना मात्र मिलने के बाद, कै दी इस भोजन को
पाकर खुश हो गए। उन्होंने विनायक को धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के कारण यह भोजन
प्राप्त हुआ था।
1
इस मलिन वातावरण में दस दिन बिताने के बाद, महाराजा
अंडमान में पोर्ट ब्लेयर पहुँचा।
अंडमान द्वीप-समूह में 184 द्वीप और 65 छोटे द्वीप हैं। इनके मध्य की लंबाई 355
किलोमीटर तक फै ली है। उत्तर से दक्षिण दिशा के बीच द्वीपों के पांच समूह फै ले हैं – उत्तरी
अंडमान (81 किलोमीटर लंबाई), मध्य अंडमान (71 किलोमीटर लंबाई), दक्षिण अंडमान
(84 किलोमीटर लंबाई) है। दक्षिण अंडमान के समांतर पूर्व में फै ला बारातांग (28
किलोमीटर लंबाई) और अंत में है रटलैंड (19 किलोमीटर लंबाई)।
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रटलैंड का क्षेत्र घने
और अंधेरे जंगलों से अटा है। दलदली और पानी से भरी जमीन के कारण अंडमान में
मलेरिया का बोलबाला रहता था। घने दलदलों के ऊपर भिनभिनाती मक्खियां फै ली रहती
हैं। द्वीपसमूह में जोंक और सांपों की भी बहुतायत है – इनमें भी जोंक अधिक खतरनाक
होती है। किसी इंसान के चिपक जाने पर उसे पक्षाघात का खतरा रहता है। अंडमान के
मूल आदिम निवासी नीग्रो जाति के थे, हालाँकि अंडमानियों के उद्भव के संबंध में बहुत
सारी बहसें चलती रहती हैं, परंतु द्वीपसमूह की निकटता से संभव है कि वह बर्मा के तटीय
इलाकों से यहाँ आए होंगे। द्वीप की कबीलों के नाम चेरियार, कोरा, टोबा, येरे, के डे, जुवाई,
कोल, बोजिग्याब, बालावा, बी, ओंगे और जारवा हैं। इनमें से कु छ मानवभक्षी भी थे।
यह प्रचलित कथानक कि अंडमान अंग्रेजों द्वारा अपराधियों को भेजने के लिए स्थापित
पहली और एकमात्र बस्ती थी, गलत है। अंग्रेजों की पहली ऐसी बस्ती इंडोनेशिया के
सुमात्रा में बेन्कोलेन में थी जिसकी स्थापना 1787 में हुई थी। यहाँ फोर्ट मार्लबोरो नामक
स्थान पर अपराधियों को रखा जाता था। हत्या, ठगी, धोखाधड़ी, जालसाजी और अन्य
अपराधों के अभियुक्तों को उनकी ‘बुरी आदतों से मुक्त करने के लिए’ इन स्थानों पर भेजा
जाता था।
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हालाँकि, इसके पीछे का असली कारण संभवतः बड़ी संख्या में निःशुल्क
श्रमिक प्राप्त करना था। 1820 के दशक में जब यह बस्ती समाप्त हुई, बंगाल और मद्रास
प्रसिडेंसियों से करीब 900-1000 कै दी वहाँ इमारतों का निर्माण और जंगल काटने का
कठोर कार्य कर रहे थे। 1825 में मार्लबोरो किला बंद कर दिया गया और नई बस्ती के लिए
पेनांग द्वीप का चुनाव हुआ। मलक्का, तेनास्सेरिम और सिंगापुर में भी बस्तियाँ बसाई गईं।
1830 के दौरान सिंगापुर में 1100-1200 भारतीय अपराधी रखे गए थे।
1789 से ही अंडमान में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कं पनी अपराधियों को ला रही थी। द्वीप-
समूह का सर्वेक्षण और वहाँ कै दी बस्ती बनाने की सिफारिश करने वाले लेफ्टिनेंट
आर्किबाल्ड ब्लेयर के नाम पर इस जगह का नाम रखा गया। परंतु सात वर्षों के दौरान ही,
हानिकारक जलवायु और ऊं ची मृत्यु दर के कारण यह स्थान खाली करनी पड़ी थी। 1857
के स्वतंत्रता संग्राम के बाद, अनेक ‘विद्रोहियों’ को अंडमान भेजने के साथ ही यह स्थान
फिर से जीवित हो उठा था। 10 मार्च 1858 को अंडमान के चेटम द्वीप में 733 स्वतंत्रता
सेनानियों का पहला जत्था पहुँचा।
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उस जत्थे में अलामा फज़ली हक़ खैराबादी और
मौलाना लियाकत अली जैसे महत्वपूर्ण नेता भी थे। उन्होंने कै द के दौरान ही दम तोड़ा था।
1860 के दशक से बस्ती का प्रशासनिक ढाँचा आकार लेने लगा और वहाँ जमीन की
बुआई, कर प्रणाली, करेंसी का इस्तेमाल और सेना एवं पुलिस दल स्थापित हुए। वाइपर
द्वीप में 1864-67 के दौरान पहली जेल और फांसी दिए जाने का स्थान निर्मित हुआ।
कारागार के पहले अधीक्षक और पहले आगरा जेल के वार्डर और सेना में डाॅक्टर रहे डाॅ.
जेम्स पेट्टिसन वाॅकर की निगरानी में एक ही दिन में अस्सी से अधिक स्वतंत्रता सेनानियों
को फांसी दी गई थी।
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कारागार के अधिकारी रॉस द्वीप में रहते थे जो अस्सी वर्षों से भी
अधिक समय तक इसका मुख्यालय रहा था। प्रचलित बोलचाल में इस स्थान को
‘कालापानी’ कहा जाता था। इससे न के वल इस स्थान के मुख्यभूमि से अलग होने का
पता चलता है, बल्कि यहाँ भेजे जाने वाले को जातिबदर एवं सामाजिक बहिष्कार का भी
सामना करना पड़ता था।
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बीसवीं सदी के आरंभ में विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों एवं जातियों के करीब 12,000 कै दी
अंडमान जेल में बंद थे।
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इनमें वहाबी अभियान से जुड़े 1857 संग्राम के 3000 स्वतंत्रता
सेनानी, वासुदेव बलवंत फड़के के अनुयायी और 1891 के आंग्ल-मणिपुर युद्ध के बाद
मणिपुर शाही खानदान के लोग भी शामिल थे। यह सभी समूह द्वीपों में अलग-अलग
बस्तियों में रहते थे। 1860 के बाद से महिला अपराधियों को भी यहाँ भेजा जाने लगा था।
अंडमान भेजे गए एक वहाबी अपराधी ने 1872 में यहाँ की यात्रा पर आए वाइसराय लॉर्ड
मेयो की चाकू घोंप कर हत्या कर दी थी।
1874 से यहाँ सुधार पद्धति भी लागू हो गई थी, जिसके आधार पर यदि उम्रकै द भुगत रहे
किसी अपराधी का व्यवहार सही होता, तो उसे बीस या पच्चीस वर्षों बाद छोड़ दिया जाता
था।
विनायक के मुकदमे से तीन वर्ष पहले, 1908 के अलीपुर बम मामले के अपराधियों को
अंडमान भेजा गया था। परंतु उनमें से अधिकांश को उम्रकै द की सज़ा नहीं मिली थी, और
1906 से ऐसे अपराधियों को वहाँ भेजा जाना बंद कर दिया गया था। परंतु 1910 से उनमें
से कु छ को सोच-समझकर अंडमान भेजने के लिए चुना गया ताकि वह मुख्यभूमि से दूर
रहकर अन्य क्रांतिकारियों पर असर ना डाल सकें । राजनीतिक कै दियों में विनायक के भाई
गणेश दामोदर सावरकर, वामन राव जोशी; अलीपुर बम धमाका (मणिकतला षडयंत्र) के
उल्लासकर दत्त, बरिन घोष, उपेंद्रनाथ बनर्जी, इंदु भूषण राय, हेमचंद्र दास, बिभूति भूषण
सरकार, हृषिके ष कांजीलाल, सुधीर कु मार सरकार, अबिनाष चंद्र भट्टाचार्जी और बीरेंद्र
चंद्र सेन थे; संयुक्त प्रांतों से स्वराज समाचार पत्र
से संबंधित राम हरि, नंद गोपाल एवं
होतिलाल वर्मा और युगांतर
से जुड़े राम चरण पाल थे। इनके अलावा, शचीन्द्रनाथ
सान्याल, पुलिन दास, नानि गोपाल एवं अन्य थे, जिन्हें मिलाकर राजनीतिक कै दियों की
संख्या लगभग 100 थी।
पीड़ा एवं प्रताड़ना की इसी रहस्यमयी और गूढ़ दुनिया से विनायक की अलसुबह भेंट हुई
थी। कारागार में उनका नाम 30 जून 1911 को दर्ज किया गया।
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उन्हें अफसर के साथ
आए एक सिपाही ने बुरी तरह झकझोर कर जगाया, शायद वह सोचता था कि विनायक
पर कठोरता दिखाकर वह पदोन्नति का हकदार बनेगा। भारी जंजीरों और हथकड़ी से लदे
हुए व्यक्ति को पोर्ट ब्लेयर की उस गर्मी में नंगे पांव चलना खासा मुश्किल काम था, जबकि
साथ चल रहा पहरेदार उन्हें चाल तेज करने पर जोर देता था। बेहद कष्टकारी और
श्रमसाध्य चढ़ाई के बाद वह खूंखार सेल्युलर जेल के मुख्यद्वार पर पहुँचे। मुख्यद्वार
चरमराता हुआ खुला और उस क्षण को विनायक कलमबद्ध किया, ‘मैं अंदर पहुँचा, और
वह मेरे पीछे बंद हो गया। मुझे महसूस हुआ कि मैं मौत के जबड़े में पहुँच गया हूं’।
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सात स्कं धों के जोड़ पर ऊं चे पर्यवेक्षण बुर्ज वाली अर्धव्यासनुमा दैत्याकार जेल कई
दिलेरों की हिम्मत पस्त कर देती थी। इसके तीन मंजिला सातों खंडों में कु ल 698 कोठरियां
थीं। सातों खंड व्यास रूप में साइकिल के पहिये की कमानों की तरह फै ले थे। टावर पर
खतरे की सूचना देने के लिए एक विशाल घंटा टंगा था। प्रत्येक कोठरी 13’ 6”(13 फु ट 6
इंच) गुणा 7’6”(7 फु ट 6 इंच) आकार की थी। जमीन से 9’8”(9 फु ट 8 इंच) की ऊं चाई
पर एक छोटा रोषनदान भी था। एकांत कारावास भुगत रहे कै दी एक दूसरे से बात ना कर
सकें , कोठरियों को इसी अनुसार बनाया गया था। इसका नाम भी ‘सेल्युलर जेल’ इसलिए
था क्योंकि यहाँ के वल कोठरियां थीं, सिपाहियों के कमरे नहीं। जेल के सात खंडीय
अर्धव्यासनुमा ढांचे में प्रत्येक खंड की अग्रिम कोठरी दूसरे खंड में खुलती थी। यह व्यवस्था
चार्ल्स जेम्स लायल एवं एसएस लेथब्रिज की सिफारिश पर की गई थी, जिनकी मंशा इस
जेल को सबसे सख्त सज़ा देने वाले इसके दंडरूपी चरित्र को बढ़ाने पर थी। सेल्युलर जेल
निर्माण अक्तू बर 1896 में आरंभ हुआ था। एक दशक बाद, यानी 1906 को यह बनकर पूरा
हुआ और इसकी निर्माण लागत लगभग 517,352 रुपये आई थी।
इस नारकीय माहौल में प्रवेश करते ही विनायक की नजर दीवार पर सजाई गई जंजीरों
और हथकड़ियों पर पड़ी। प्रताड़ना देने वाली पांव और हाथों की बेड़ियां एवं अन्य चीजों
को गर्व से युद्ध चिन्हों की तरह सजाया गया था। जेल के डरावने बाशिंदे, जेलर डेविड बैरी
से मिलने से पहले विनायक को वह वीभत्स विवरण दिखाने के लिए दो हवलदार ले गए थे।
प्रत्येक राजनीतिक कै दी के आगमन पर बैरी विशिष्ट ‘स्वागत भाषण’ दिया करता था।
अपनी सनक के लिए मशहूर और प्रताड़ना के नित नए तरीके खोजने वाले बैरी के नाम से
ही कै दी कांपते थे। क्रांतिकारी उपेंद्रनाथ बनर्जी ने उसे 5’3”(5 फु ट 3 इंच) लंबाई का
गुस्सैल और बुलडाॅग जैसा दिखने वाला बताया है जो प्रसिद्ध पुस्तक अंकल टाॅम्स के बिन
के पात्र मिस्टर लेग्री जैसा दिखता था। बनर्जी के वहाँ पहुँचने पर बैरी ने उनसे कहा था कि
यह वह स्थान है जहाँ उसने सबसे खूंखार शेरों को साधा है।
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विनायक जब कठोर भाव से
अपने चारों ओर रखे प्रताड़ना के उपकरणों का जायजा ले रहे थे, बैरी कमरे में पहुँचा और
रूखे स्वर में उसने सिपाही को बाहर जाने को कहा। उसकी नज़र में विनायक खूूंखार शेर
नहीं था। अपने हाथ में पकड़ी लंबी छड़ी दिखाते हुए उसने पूछा कि क्या मार्से में भागने का
प्रयास उन्होंने ही किया था। उसने कहा कि विनायक ने ऐसा विचार ही क्यों किया, क्योंकि
इससे वह अतिरिक्त मुसीबत में आ फं से थे।
युवावस्था में अपने साथियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में शिरकत करने वाला यह
आयरिश व्यक्ति सांत्वनापूर्ण स्वर में विनायक का भरोसा जीतने की कोशिश कर रहा था।
परंतु विनायक को उसकी राष्ट्रीयता से कोई मतलब नहीं था। उन्होंने शांत भाव से उत्तर
दियाः ‘परंतु एक अंग्रेज के तौर पर मैं आपसे नफरत नहीं करता। इंग्लैंड में मैंने अपने
जीवन के कु छ सर्वश्रेष्ठ वर्ष गुजारे हैं और मैं एक अंग्रेज व्यक्ति में निहित सदाचरणों का
सम्मान करता हूं’।
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बातचीत का रुख बदलते हुए बैरी ने कहा कि वह यह देखकर दुखी हैं
कि विनायक जैसा युवा, शिक्षित, सुसंस्कृ त और बौद्धिक व्यक्ति उनके सामने एक आम
अपराधी की तरह खड़ा है। परंतु बतौर जेलर उन्हें चेतावनी देना उसका कर्तव्य है कि यदि
उन्होंने नियम तोड़ने या भागने की कोशिश की तो उससे अधिक बुरा और कोई नहीं होगा।
उसने विनायक को बताया, कि यह स्थान आदमखोरों से भरा है और वह उनके ताजे मांस
को खाकर उनकी हड्डियां ककड़ी तरह चबा डालेंगे। उसने विनायक से पूछाः ‘तुम वकील
हो, और मैं साधारण आदमी हूं। मुझे बुनियादी शिक्षा ही मिली है। परंतु तुम कै दी हो और मैं
यहाँ का कारापाल। इसलिए मेरी सलाह को बेकार मत समझना। हत्या का अर्थ हत्या ही
है, और वह कभी आज़ादी नहीं लातीं’।
विनायक ने जवाब दियाः ‘बेशक, मैं जानता हूं। परंतु मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, आप
यह संदेश आयरलैंड में सिन्फे यरर्स को क्यों नहीं देते ? वैसे भी, आपसे किसने कहा कि मैं
हत्याओं का पक्षधर रहा हूँ ?’
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बैरी के पास कोई जवाब नहीं था।
बैरी के अधीन चार श्रेणियों में आदमी काम करते थे। पहरेदार, छोटे अधिकारी, टिंडल
और जमादार। ‘स्वागत संबोधन’ के बाद बैरी ने एक जमादार से विनायक को सबसे ऊपरी
मंजिल पर बैरक नंबर सात में ले जाने को कहा।
बैरक के रास्ते में पानी का एक कुं ड था। वहाँ जमादार ने विनायक से जल्दी नहा लेने को
कहा। वह चार-पांच दिन से नहाए नहीं थे और पसीने व मैल से सने थे। हालाँकि, उनके
पास बदलने को कपड़े नहीं थे। जमादार ने उन्हें एक छोटा सा कपड़ा दिया। इस तरह
सबके सामने नग्न होकर नहाना विनायक के लिए अप्रिय था। परंतु उनके सामने कोई अन्य
विकल्प ना था। वह सूर्य का ताप सेकने वाले न्यूडिस्ट लोगों के बारे में सोचने लगे जो
स्वास्थ्य लाभ के लिए ऐसा करते हैं। क्या संत रामदास भी एक छोटा सा कपड़ा नहीं
इस्तेमाल करते थे ? साथ ही, वह पचास वर्षों तक बिना स्नान किए तो नहीं रह सकते।
सबके सामने कपड़े उतारकर स्नान करना विनायक की दिनचर्या बन गई थी, और अन्य
कै दियों के भी यही हालात थे। बरिन घोष ने अपनी जीवनी में सारगर्भित तरीके से इस बारे
में लिखा हैः ‘यहां (जेल में) जेन्टलमैन जैसा कोई नहीं था, कोई इंसान तक भी नहीं था;
यहाँ के वल अपराधी थे।’ साहित्यिक शैली में वह लिखते हैं कि नहाने के लिए कपड़े
उतारते समय हर बार वह माता पृथ्वी से अनुरोध करते कि वह अपने द्वार खोल दे ताकि
वह उनकी सुपुत्री सीता की तरह उनमें समा जाएँ। वह लिखते हैंः
परंतु माता पृथ्वी अपना हृदय न खोलतीं और हम उसी अवस्था में स्नान करने को
उन्मुख होते। और यहाँ जो भी विनम्रता हमारे भीतर बची थी, हमें उसे भी त्यागना पड़ा।
नहाते समय पहनी जाने वाली लंगोटी किसी भी हालत में नाकाफी ही थी। अतः जब
हमें कपड़े बदलने होते तो हमारी हालत कौरवों की सभा में असहाय खड़ी द्रौपदी जैसी
होती थी। अपने भाग्य के आगे घुटने टेकना एकमात्र उपाय था। कहीं कोई मदद नहीं
थी। हम अपने सिर झुकाकर किसी तरह स्नान प्रक्रिया को पूरा करते।
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इस दौरान, एक मुस्लिम जमादार विनायक की मजबूरी पर मुस्कराता था। उनके कष्ट को
बढ़ावा देते हुए विनायक को खड़ा रहकर नहाने को कहा जाता। उन्हें झुककर, कुं ड से
बर्तन में पानी लेने के लिए झुकना पड़ता और फिर निर्देश मिलने पर ही उसे शरीर पर
डालने या फिर से पानी लेने का पालन करना पड़ता था। पानी को शरीर पर डालते ही
विनायक को तेज जलन महसूस होती। चुल्लू में लेकर पानी मुँह में डालते ही थूक देना
पड़ता क्योंकि वह समुद्र का दुर्गन्धित और नमकीन पानी होता था। जमादार इस तकलीफ
को देखकर ठहाका लगाता और कहताः ‘द्वीप पर क्या उम्मीद करते हो तुम ? मीठा पानी ?
अब जल्दी नहा लो!’ शरीर पर महसूस होने वाली चिपचिपाहट देखकर विनायक को
लगता कि वह बिना नहाए ही बेहतर हैं। लंदन और पेरिस में ‘तुर्की गुसल’ की याद करके
वह अपना दिल बहलाते और सोचते कि अब ‘अंडमानी संस्करण’ के अनुभव की बारी है।
उन्हें जेल पोशाक मिली – घुटनों तक पतलून, कु र्ता और सफे द टोपी, और उसके साथ ही
अपराधी नंबर 32778 का बिल्ला जिस पर रिहाई की तारीख भी दर्ज थी। ऊपरी मंजिल
पर वह अपनी कोठरी में पहुँचे। कोठरी पूरी खाली थी क्योंकि विनायक को वहाँ अके ले
कै दी के तौर पर रहना था। उनके कमरे से फांसी दिए जाने का स्थान साफ नजर आता था,
यह और भी कष्टदायी अनुभव था। अक्सर, चीखते-चिल्लाते व्यक्तियों को उनकी मौत से
मिलाने का नजारा एकमात्र दृश्य होता था।
कारागार में जो पहला अंतर नजर आता, वह था हिन्दू और गैर-हिन्दू कै दियों के बीच
उनकी धार्मिक परंपराओं को लेकर। कोठरी में जाते ही हिन्दू कै दी का यज्ञोपवीत काट
दिया जाता। वहीं मुस्लिम कै दी को दाढ़ी रखने की अनुमति थी, यही सुविधा सिखों को
उनके के शों को लेकर थी। बैरी द्वारा हिन्दुओं और मुस्लिमों को बीच वैमनस्य बढ़ाने की
मंशा से यह किया गया था। इसलिए हिन्दू कै दियों को सबसे कट्टर मुस्लिम पहरेदारों और
जमादारों की निगरानी में रखा जाता था। उनमें से अधिकांश सिंध और उत्तर-पश्चिम सीमांत
प्रांत के धर्मान्ध पठान, सिंधी और बलोच थे। हिन्दू काफिर को सज़ा देने में इन व्यक्तियों
को विशेष संतुष्टि प्राप्त होती थी। मद्रास, बंगाल या बंबई से आने वाले समानधर्मा व्यक्ति
को वह ‘आधा-काफिर’ कहकर बेइज्जत किया करते थे। उपहास करने की यह प्रक्रिया
अन्य क्षेत्रों से आने वाले मुस्लिम पहरेदारों को क्रू रता में पठानों को पीछे छोड़ने पर मजबूर
करती थी।
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नीचा दिखाने के लिए ऐसी तानेबाजी और गाली-गलौज के अलावा पठान
पहरेदार कै दियों को इच्छानुसार थप्पड़ भी जड़ देते थे। किसी भी आज्ञा उल्लंघन या सौंपे
गए काम में लापरवाही के मामले में तो अक्सर ऐसा होता। बरिन घोष ने अपनी जीवनी में
लिखा हैः
ऐसी सोच थी कि हिन्दू पहरेदार हमारे साथ सांत्वनापूर्ण या भाईचारगी से पेश आएंगे।
इसलिए हमारी किस्मत के नियंता छोटे अधिकारियों एवं पहरेदारों को हिन्दुस्तानी,
पंजाबी या पठान मुस्लिमों में से चुना गया था। एक पठान जिसे हम आमतौर पर
काबुली मेवा बेचने वाले के तौर पर जानते थे। परंतु पोर्ट ब्लेयर में वह यमराज के
अनुचर सरीखे थे। किसी व्यक्ति को पकड़ने के लिए कहा जाए, तो वह उसका सिर ले
आते। खुद आलसी, निष्क्रिय और भ्रष्ट होते हुए भी वह दूसरों से काम करवाने के
मामले में कट्टर हिंसक थे . . . .‘रामलाल पंक्ति में आड़ा होकर बैठा है, उसके गले पर दो
घूंसे जड़ो’, ‘उठ कर बैठने के आदेश को मुस्तफा ने तुरंत नहीं माना, उसकी मूंछें उखाड़
लो’, ‘बकु ल्ला ने शौचालय से आने में देर लगाई है, डंडे से उसके नितंबों का मांस ढीला
कर दो’ – ऐसी सौंदर्यपूर्ण कार्रवाइयों के दम पर वह कारागार में अनुशासन कायम
रखते थे।
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कोठरी में बंद विनायक को ईनाम की तरह बैरी ने यूरोपियनों के एक छोटे से समूह को
दिखाया था। 1857 के स्वतंत्रता समर पर बैरी और यूरोपियन आगंतुकों ने विवादास्पद
टिप्पणियां कर विनायक को भड़काने का प्रयास किया। उसके बाद, विनायक को दो दिनों
तक कोई काम नहीं सौंपा गया। जब उन्होंने किताबों की मांग रखी, तो कहा गया कि कु छ
महीने उनका आचार-व्यवहार देखने के बाद ही वह उन्हें दी जाएंगी। इस पर उन्होंने डोंगरी
में आरंभ किए अपने महाकाव्य के छंदों की रचना शुरू कर दी। चूंकि उन्हें कागज-कलम
उपलब्ध नहीं कराई गई थी, इसलिए वह कविताएँ याददाश्त में सहेजने लगे।
कारागार पहुँचने के चौथे या पांचवें दिन, वह सोये हुए थे कि अचानक कारागार की
सलाखों से एक पत्थर आकर टकराया। जैसे ही वह आगे बढ़े, एक हिन्दू पहरेदार द्वारा
फें का गया एक और पत्थर आ गिरा जिस पर कु छ लिपटा हुआ था। पहरेदार ने उन्हें इशारा
कर संदेश पढ़ने को कहा। इतने में दोपहर में झपकी ले रहा पठान चैकीदार आवाज के
कारण उठा और धड़धड़ाता हुआ आ पहुँचा। विनायक की भी पूरी तलाशी ली गई। उन्होंने
संदेश अपने मुँह में छु पा लिया था। पठान के जाने के बाद उन्होंने संदेश पढ़ा जिसमें उन्हें
सावधान रहने और किसी पर भरोसा ना करने की ताकीद थी। वहाँ बंद कई बंगाली कै दी
सरकारी गवाह बन चुके थे, इसलिए उन्हें हर समय चौकन्ना रहने की जरूरत थी।
दरअसल, सेल्युलर जेल की क्रू र सजाएं बर्दाश्त ना करने के कारण गवाहों ने सरकार की
मदद कर जेल में कु छ आराम से रहने के लिए ऐसा किया था। उनमें से कई अनेक षडयंत्र
मामलों में बखुशी सरकारी गवाह बने थे। हालाँकि, ऐसे लोगों का आकलन करना आसान
था, परंतु विनायक का विचार था कि जो प्रताड़नाएँ उन्होंने सही हैं, उनके आधार पर
समझा जा सकता है कि सबसे कठोर व्यक्ति भी कै से नैराश्य में जा गिरते हैं। हालाँकि, यह
बैरी द्वारा एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी के खिलाफ खड़ा करने, लिखित तौर पर
अपराध स्वीकारने एवं गहरे दबाव में बयान उगलवाने का चालाक तरीका था।
अपराधियों के बीच ‘राजनीतिक कै दी’ के अर्थ को लेकर बहुत कम जानकारी होती थी।
यहाँ तक कि बैरी भी, विनायक को बुलवाने के लिए अपने मातहतों को अस्पष्ट आदेश
देताः ‘उस बम-गोला वाला नंबर 7 को लेकर आओ’। हालाँकि, विनायक अपने साथियों
को समझाने का प्रयास करते कि प्रत्येक क्रांतिकारी बम नहीं फें कता। बेशक, कु छ लोग
पिस्तौलें और बम चलाते थे, परंतु अधिकांश और भी खतरनाक वस्तु का इस्तेमाल करते
थे, जो थी कलम – और उन्होंने अपने जीवन में बम देखा तक नहीं था। उन्होंने उन्हें देशज
भाषा में ‘राज कै दी’ शब्द इस्तेमाल करने को कहा, ताकि वह उसे बेहतर तरीके से समझ
सकें । इसके बाद यदि कोई विनायक या अन्य राजनीतिक कै दी को ‘बाबू’ कहकर
पुकारता, तो बैरी कु पित हो उठता। उसके अनुसार, वहाँ सभी ‘डी’ श्रेणी के कै दी थे – ‘डी’
यानी डेंजरस (खतरनाक)। यहाँ तक कि उनके कपड़ों पर भी ‘डी’ छापा गया था। परंतु
इस उपनाम पर उसके विरोध के बावजूद, आरंभिक दिनों से ही विनायक को बैरी एवं अन्य
‘बड़ा बाबू नंबर 7’ पुकारने लगे थे।
सेल्युलर जेल के बंदी जीवन का सबसे कठिन पक्ष वहाँ शौचालय की कमी थी – जिसे
किसी भी दृष्टि से इंसान की न्यूनतम जरूरत माना जाता है। कारागार से छू टने के बाद
विनायक ने अपने संस्मरण में इस अनुभव को अत्यंत कष्टदायी तरीके से याद किया हैः
कष्ट की व्याख्या कौन कर सकता है – दिमागी और शारीरिक वेदनाओं को ? इस
अभिप्राय को इंगित करता हुआ एक उदाहरण मैं दे सकता हूं। अंडमान की सेल्युलर
जेल में जीवन के सभी दुःखों – कमरतोड़ मेहनत, अल्प भोजन एवं कपड़े, कभी-कभार
पड़ने वाली मार और अन्य के अतिरिक्त - वहाँ शौचालयों एवं मूत्रालयों की कमी सबसे
खीझ देने वाला और गंदा पक्ष था। कै दियों को अपनी कोठरी में इसकी व्यवस्था कराने
के लिए घंटों वहाँ जाने से पहले रुकना पड़ता था। कै दियों को के वल सुबह, दोपहर और
शाम के निश्चित समय के दौरान ही वहाँ जाने की इजाजत थी। नियत समय के
अतिरिक्त जमादार से इस सुविधा के लिए कहना मुसीबत मोल लेना था। कै दियों को
सायं छह या सात बजे उनकी कोठरियों में बंद किया जाता और प्रातः छह बजे के बाद
ही दरवाजा खुलता था। इस कार्य के लिए उन्हें एक मिट्टी का पात्र दिया जाता था. . .
रात के बारह घंटे के दौरान पहरेदारों का आदेश था कि कै दियों को लघुशंका आदि के
लिए जाना ही नहीं है। दिया गया पात्र इतना छोटा होता कि उसे एक बार भी ठीक से
इस्तेमाल करना कठिन था। और पखाना जाने के लिए जमादार के सामने घुटने टेककर
अपील करनी पड़ती थी। फिर भी पहरेदार इसे माने या नहीं, उसकी मर्जी। उसे खुद
अपने अफसर का डर रहता था। इसलिए कै दी को सुबह तक के लिए रुकना पड़ता था।
यदि पहरेदार बात मानकर जमादार को भेजता तो जमादार कै दी को बेवक्त तंग करने
के लिए प्रताड़ित करता। वह कै दी की बात सुनने के लिए पहरेदार को भी फटकार
लगाता था।
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और यदि कै दी डायरिया जैसे रोग से पीड़ित होता, जिससे लगभग सभी कै दी जूझते थे,
तब हालत और भी गंभीर हो जाती थी। विनायक लिखते हैंः
वह (जमादार) अपनी मनमर्जी के अनुसार डाॅक्टर को रिपोर्ट करता या नहीं करता।
बीमारी पर डाॅक्टर की रिपोर्ट या तो बनती नहीं या फिर सौ में से एक बार ही बनती।
रिपोर्ट श्री बैरी के पास पहुँचती और वह अपनी इच्छानुसार ही उस पर कार्रवाई करते।
उस रात और लालफीताशाही के दौरान कै दी की हालत सोचिये, खासकर तब जबकि
हालत असामान्य और अचानक तबियत बिगड़ने से जुड़ी होती। सुबह, श्री बैरी उस पर
फै सला करता और पहरेदार एवं जमादार को उनकी लापरवाही पर कसकर फटकारता.
. . कै दी से भी श्री बैरी पूछताछ करता था। और यदि कै दी कहता कि वह शौच को नहीं
रोक सकता था, तो बैरी उसकी दूसरी ओर जाता और जोर से. . .‘तुम्हारे पास यह है ही
क्यों ?’ और यदि दयनीय प्राणी कहता कि ‘मेरे पास यह है, क्योंकि ऐसा ही होता है’,
जमादार उसे एक जोरदार तमाचा रसीद करता और धृष्ट उत्तर देने पर लताड़ता।
18
असहाय परिस्थितियों में अनेक कै दियों को उनकी कोठरियों में ही शौच से निवृत होना
पड़ता था। कोठरी का आकार और उसमें पड़ी विष्ठा और वहीं सुबह के इंतजार में रात भर
सोना, किसी नरक से कम नहीं था। कै दी द्वारा सफाई कर्मी से कोठरी साफ करने की
गुजारिश पर वह भी आनाकानी करता। तम्बाकू आदि की रिश्वत प्राप्त कर ही वह सफाई
करने को राजी होता। कै दी के इनकार करने पर शिकायत पहरेदार तक पहुँचती और वह
कै दी को कोठरी गंदी करने पर बुरी तरह पीटता और गाली-गलौज करता था। बैरी द्वारा
‘सीधे तनकर खड़ा रहने’ की सज़ा भी दी जाती थी। सज़ा सुबह छह से दस बजे के बीच
और दोपहर बारह से पांच बजे के बीच दी जाती थी। इस दौरान कै दी की जंजीरों को छत
पर बांध दिया जाता था। और इस अरसे में उसे शौचादि भी रोकने की इजाजत थी। कै दी
को आत्मसंयम सिखाने का यह बैरी का तरीका था! विनायक सहित सभी राजनीतिक
बंदियों पर यह तरीका अक्सर आजमाया जाता था। उन्हें एकांत कोठरी में बांधा जाता था
और नियत समय के अलावा शौचादि की मनाही थी।
बरिन घोष ने भी शौचादि जाने की बुनियादी इनसानी जरूरतों से जुड़े घृणित अनुभवों के
बारे में लिखा है जो बैरी के साम्राज्य में विकट और अपमानजनक थे:
शौच जाने का उपलक्ष्य भी इसी तरह पूरा किया जाता था। शौचालय के सामने पंक्ति में
जोड़ा बनाकर बैठना पड़ता, और आदेश होने पर, 8 या 10 के समूह में अंदर जाना
होता था। इस दौरान आपको आत्मसंयम का अभ्यास ज़रूरी था. . .
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हम शौच में बात
न करें, इसलिए वहाँ भी एक पहरेदार रहता था।
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नहाते समय लगभग नग्न रहने की मजबूरी के अलावा, ‘स्नान प्रक्रिया’ अपने आप में
खासी घृणित थी। एक निर्दयी पठान जमादार, खोयेदाद की मौजूदगी में हर बार सामूहिक
स्नान के अवसर पर होने वाली शर्मिंदगी पर बरिन घोष ने लिखा हैः
घंटी की आवाज के साथ ही कै दियों को खड़ा हो जाओ के आदेश पर उठकर तलाशी
के लिए कपड़े नीचे रखने होते। उठा लेओ आदेश पर कपड़ों को उठाना; बैठ जाओ पर
बैठने का आदेश होता था। परंतु नियम के पक्के खोयेदाद ने समूचे कार्य को कहीं
पेचीदा बना दिया था। पहला आदेश खड़ा हो जाओ का था, और उसके बाद सीधा एक
लाइन में खड़ा हो जाओ, फिर कपड़ा उतारो, फिर हाथ में रखो, फिर कदम उठाओ और
अंततः रख देओ का आदेश मिलता। पहले आदेश पर हम खड़े होते। दूसरे पर एक
साथ आकर पंक्ति बनाते। तीसरे पर अपने कु र्ते और टोपियां उतारते। चौथे पर अपने
हाथ आगे बढ़ाते, और पांचवें पर नृत्य की सी मुद्रा में एक टांग पर खड़े हो जाते। छठे
पर टांग आगे बढ़ाकर कपड़ों को जमीन पर रखते थे। यदि समूची प्रक्रिया बिना
दिक्कत के पूरी होती, तो खान साहब खुश हो जाते थे – उनके चेहरे पर उगी दाढ़ी में से
टेढ़े-मेढ़े दांत चमक उठते – और वह चिल्ला उठते, ‘बहुत खूब! जवानो!’ हम भी,
अपनी ओर से, अपनी सुरक्षा की चिंता में, धन्यवादनुमा मुस्कराते हुए इस उम्मीद में
दांत निकाल देते कि उनकी कृ पादृष्टि हमारे ऊपर बनी रहेगी।
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वहाँ परोसा जाने वाला सबसे उत्कृ ष्ट भोजन गंजी या कं जी था – यानी चिपचिपे दलिये
जैसा आधा-उबला पानी वाला चावल। कै दियों को इसका एक ही डब्बू दिया जाता था।
डब्बू एक नारियल के खोल का बना पुराने आकार का चम्मच होता है जिसे एक छड़ी के
हत्थे से पकड़ते हैं। नमकहीन गंजी बिल्कु ल बेस्वाद होता था। प्रत्येक कै दी को एक दिन में
एक ड्राम (3.54 ग्राम) नमक मिलता था जिसका इस्तेमाल गंजी या दाल तथा अधपकी
सब्जियों के साथ किया जा सकता था। इसलिए अधिकांश कै दी अपने रोज के भोजन को
सुस्वादु और गंजी को फीका खाना ही पसंद करते। कभी-कभार गंजी में घासलेट भी मिला
दिखता था।
गंजी पकाने के लिए रसोईघर में एक बड़ा बर्तन था। जो चावल और पानी से ऊपर तक
भरा रहता जिसे बड़े कड़छे से हिलाया जाता था। आमतौर पर यह काम सुबह-सवेरे ही
शुरू हो जाता था। रसोईघर में रोशनी कम थी और मरियल सी लालटेन की रोशनी में
अधजगा रसोइया कई बर्तनों में गलती से घासलेट डाल देता था। नतीजतन, अनेक रोटियां
भी जली या अधपकी रहती थीं। और वह पत्थर सी सख्त होती थीं। परंतु किसी भी कै दी ने
इसकी शिकायत कभी बैरी या अन्य अधिकारी से नहीं की। चूंकि शिकायत का परिणाम
कई दिनों तक भूखा रहकर चुकाना पड़ता, इसलिए भूखा रहने से अच्छा खराब खाना
स्वीकारना था।
कारागार के विशाल रसोईघर में 800 कर्मचारी थे। रसोइये गंदे और कई रोगों से भी
पीड़ित रहते। पकते भोजन में टपकते उनके पसीने और राल को कई बार कै दियों ने देखा,
परंतु वह कु छ ना कर पाने को मजबूर थे। आखिर जिंदा रहने के लिए कु छ खाना ज़रूरी
था।
बरिन घोष ने दैनिक राशन की सूची दी हैः ‘चावल 6 औंस, रोटी के लिए आटा - 5 औंस,
नमक - 1 ड्राम, तेल 3/4 ड्राम और सब्जी-8 औंस। यहाँ दो कै दियों के बीच कोई भेदभाव
नहीं था। विशालकाय पेटू कोयेला और मेरे जैसे टिड्डे को समान मात्रा में भोजन मिलता
था’।
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विनायक ने बताया है कि पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांतों से आने वाले
पठान जमादार और पहरेदार रसोईघरों को वितरित सब गेहूं निर्मित भोजन खा जाते थे।
इन क्षेत्रों से आने वाले लोगों का यह प्रमुख भोजन था। इस तरह कै दी उनके हिस्से के
भोजन से वंचित रह जाते और उन्हें उबले चावल खाकर ही रहना पड़ता था। यदि कोई
इसके अतिरिक्त कु छ और मांग लेता तो उसका जीवन दुश्वार हो जाता। मनगढ़ंत आरोप
लगाए जाते, झूठे मामले चलाकर अंततः उसे सख्त सज़ा मिलती थी। चूंकि अधिकांश कै दी
हिन्दू थे, इसलिए पठानों को उन्हें भोजन से वंचित रखकर खासा आनंद मिलता था।
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यहाँ तक कि चावल खाने वाले बरिन जैसे बंगाली के लिए भी भोजन असहनीय थाः
रंगून चावल और मोटी एवं सख्त रोटियां किसी तरह बर्दाश्त हो जाती थीं; परंतु अकाल
के इन दिनों में एक भी ऐसा भद्रलोग नहीं था जो रेत एवं बजरी तथा चूहे की विष्ठा
मिश्रित, एवं सभी प्रकार के डंठलों, पत्तियों और जड़ों तथा हरे के ले में पके हुए
लाजवाब कच्चू पर आंसू नहीं बहाता होगा।
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प्रतिदिन सुबह पहरेदारों के साथ कै दियों के एक समूह को जंगल से सब्जियां और बेलबूटे
लाने के लिए भेजा जाता था। पत्तियाँ और सब्जियां काट कर रसोई घर में भेजी जातीं,
जहाँ कु छ भी ध्यान से नहीं उबाला जाता था। नतीजा, कु छ कनखजूरे और छोटे सांप भी
भोजन के साथ मिल जाते थे। जब कै दियों ने भोजन में अधपके मांस के टुकड़ों की
शिकायत बैरी से की तो उसने उपहास बनाते हुए कहाः ‘ओह! यह तो बहुत स्वादिष्ट होता
है। इसे खाओ या भूखे रहो!’ इस तरह कै दियों के पास उन टुकड़ों को सालन से निकाल
फें कने के अलावा कोई चारा ना होता क्योंकि सड़े हुए, बदबूदार चावलों और अधपकी
रोटियों के साथ खाने को और कु छ नहीं था। जाहिर है, ऐसा अस्वास्थ्यवर्द्धक भोजन
खाकर पेट की दिक्कतें और डायरिया जैसी समस्याएं उठती जिससे अन्य रोग आ घेरते थे।
शिकायत करने पर बैरी किसी हिन्दू रसोइये या हिन्दू छोटे अधिकारी पर जिम्मेदारी डालता
और उसे कड़ी सज़ा देता। ऐसी परिस्थिति से बचने के लिए कै दी परोसा गया भोजन बिना
शिकायत खाने लगे थे।
कै दियों पर बर्बरता दिखाने का सबसे बड़ा जिम्मेदार, बैरी का दाहिना हाथ मिर्जा खान
था। वह बैरी के साथ उसके अंतरंग के तौर पर जेल में अकड़ कर चलता था। इस कारण
उसे ‘छोटा बैरी’ कहा जाने लगा। उसके आँख के इशारे पर कै दियों को दी गई रोटियों में से
दस-बारह रोटियां लाकर उसे दे दी जाती थी। उनकी मौजूदगी में वह उन्हें बड़े चाव से
खाता। प्रतिदिन भोजन वितरण की पांत में लगे कै दियों को दिए जाने वाले भोजन को वह
गौर से देखता। जरा सी मात्रा अधिक होने की गाज पहरेदार पर गिरती और भोजन छीन
लिया जाता। विनायक ने ऐसे एक अवसर पर लिखा हैः
प्रत्येक सप्ताह हरेक कै दी को आधा नारियल (खोल) भर दही मिलता था। छोटे
अधिकारियों और जमादारों के लिए यह उत्सव की तरह था क्योंकि वह वहीं पर दही के
कटोरे भर कर पी जाते थे। उसका एक कतरा भी कै दियों को परोसा नहीं जाता था।
उन्हें यदा-कदा उसकी एक बूंद ही मिली होगी। एक बार एक हिन्दू कै दी ने पहरेदार के
बांटने के स्थान पर चावलों पर गिरा दिया। इस बारे में जमादार को पता चला तो वह
उठकर कै दियों की खाना खाने वाली पांत में आया, टूटा हुआ खोल उठाकर उसे
दिखाते हुए बोला, ‘ओ! कमबख्त, तेरे पास ये टूटा हुआ खोल कै से आया?’ अंडमान के
कारागार नियमों में टूटा हुआ खोल इस्तेमाल करना जुर्म था। बलूची पहरेदार ने तुरंत
उसके बाल पकड़े और उसे लातें मारता रहा। उसके बाल बुरी तरह मुड़ गए थे और
पहरेदार बोलता गया, ‘काफिर, काफिर, बिखरे बालों वाला’, और खूब गाली-गलौज
करता रहा। कै दी शोर कर रहा था कि मिर्जा खान आ पहुँचा। उसने देखा कि विवाद
उसके एक कारिंदे बनाम हिन्दू कै दी के बीच है। वह कै दी को लेकर आरोप लगवाने के
लिए जेलर के पास पहुँच गया। मैं यह सब अपने स्थान से देख रहा था। मैंने कै दी को
कहा कि मुझे गवाह के तौर पर बुलवाये। और मुझे बुला भेजा गया। मैंने निर्णयकर्ता
अधिकारियों को आँखों देखी सुना दी। तत्पश्चात्, मिर्जा खान मुझ पर चिल्लाने लगा।
वह बोला, ‘साहब, यह बड़ा बाबू हमेशा मुसलमान पहरेदार के खिलाफ शिकायत
करता है और उनके खिलाफ झूठ बोलता है’। मैंने जेलर से कहा, ‘माना कि मैं हमेशा
गलत बयान करता हूं, इसलिए अब उसमें एक और बयान जोड़ूंगा। जाइये उस छप्पर
की तलाशी लीजिए जहाँ इसने चुराए हुए दही के कटोरे छु पाए हैं। मेरे साथ चलिए और
मैं खुद आपको दिखाउंगा’। जेलर मेरे साथ आने को राजी हो गया। वह उठा और मेरे
साथ छप्पर तक आया और वहाँ उसे छु पाए गए नारियल के खोल वाले कटोरे मिल
गए। मैंने आगे गवाही दी कि बलूची जमादार ने बिना किसी गलती के कै दी के बाल
खींचे, उसे काफिर कहा और निर्दयता से लातें मारी। यह सुनकर अधीक्षक क्रोध से
लाल हो उठा, उसने जमादार को बुलाया और बाकी सबको नसीहत देने के तौर पर,
उसकी पेटी उतार ली और नौकरी से निकाल दिया।
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कै दियों को भोजन के लिए नियत समय पर पंक्ति में रहने का आदेश था। काउंटर से भोजन
प्राप्त कर उन्हें उसी तरह पंक्ति में बैठ जाने का आदेश था। तेज गर्मी या बरसाती मौसम से
कोई फर्क नहीं पड़ता था – पंक्ति लगाई जानी ज़रूरी थी। कभी-कभार जब तेज गर्मी या
बरसात से बचने के लिए कै दी पंक्ति तोड़कर किसी ओट में जा पहुँचते, तो बुरी फटकार
और सज़ा मिलती। बरसात में भीगते हुए, गीले कपड़ों में कांपते हुए और भोजन में गिरती
बरसाती बूंदों में उन्हें उसे ही खाना पड़ता था। तिस पर, भोजन समाप्त करने के लिए उनके
पास समय भी बहुत कम होता था। इतने में छोटा अधिकारी चिल्ला पड़ताः ‘समय समाप्त
हुआ’ जिसके बाद प्लेटें छीन ली जातीं और बचाखुचा भोजन कू ड़ेदान के हवाले होता।
प्रताड़ना के लिए कई औजार आजमाए जाते थे। हथकड़ियां पहने कै दियों को सुबह 7 से
11 और दोपहर 12 से 5 बजे तक खड़ा रखा जाता था। जरा सा आराम की मुद्रा में आने
वाले कै दी को कड़ी सज़ा मिलती। उन्हें फिर जंजीरों और टखनों पर बांधी जाने वाली बेड़ी
पहनाई जाती थी। जंजीर की लंबाई करीब 2 फीट और वजन 3 पौंड था। सख्त और ना
मुड़ने वाले सरिये कै दियों की कमर से लटकते हुए पैरों से बंधे होते थे। सरिये सख्त थे और
सज़ा के दौरान कै दी अपनी टांगें मोड़ नहीं सकता था। एक सरिये से बनी अर्गल पट्टी वाली
बेड़ी टांगों को अलग रखने के लिए बनाई गई थी। इसमें टखनों पर बांधे जाने वाले छल्ले
होते थे। पट्टी की लंबाई 16 इंच और वजन करीब 2.5 पांउड का था। चलते, बैठते, काम
करने और सोते समय कै दी के टांगें और पैर खिंचे रहते थे। कई बार यह सज़ा हफ्तों तक
जारी रहती थी। सज़ा के लिए अक्सर बेंत, संगीन, जंजीर, मोटी रस्सियां और चमड़े के
हंटरों का भी इस्तेमाल किया जाता था।
विनायक के आगमन से पूर्व सभी राजनीतिक बंदियों को एक ही तल में पठान पहरेदारों
की निगरानी में रखा जाता था। उन्हें मोटा सन कातने का काम मिलता जो थकाने वाला
और उबाऊ होता था। कै दियों के अधिकांश कार्य थे – नारियल जटा की कु टाई कर उसमें
से रेशम प्राप्त करना और उस रेशम से रस्सियों का निर्माण करना, मशीन में सूखा नारियल
और सरसों से तेल निकालना, शंख से हुक्कों के लट्टू बनाना इत्यादि। अलसुबह धोती या
लंगोटियां पहनकर कै दी अपने काम पर लग जाते। प्रत्येक कै दी को बीस नारियलों की
सूखी भूसी सौंपी जाती जिन्हें पहले नरम करने के लिए लकड़ी के तख्ते पर रखकर हथौड़े
से कू टा जाता था। इसके बाद बाहरी छाल हटाई जाती, पानी में डुबोकर नम करके फिर
उसे कू टा जाता। लगातार कू टने से उनके अंदर की भूसी निकल जाती और के वल छाल रह
जाती थी। इन्हें इकट्ठा कर धूप में सुखाया जाता। प्रत्येक कै दी को रोजाना एक व्यक्ति के
कपड़ों के वजन (0.93 कि.ग्रा. या 2 पौंड) के बराबर छाल बनानी पड़ती थी। हल्का काम
करने वालों को कू टने का कठोर कार्य नहीं करना पड़ता था तथा वह के वल सूखी छाल की
रस्सियां बनाते थे। प्रत्येक कै दी को रोजाना 3 पाउंड रस्सी बनाने का लक्ष्य था। परंतु यह
कार्य कष्ट झेल रहे साथियों के साथ मिलकर करना होता था, इसलिए यह अपेक्षाकृ त
सहनीय था।
इस अनुभव के बारे में बरिन घोष लिखते हैं:
हमने अपने जीवन में रस्सी बनाने या छाल कू टने का कार्य नहीं किया था। संभवतः
हमारे चौदहवीं सदी के पूर्वज भी इन संज्ञाओं से परिचित नहीं रहे होंगे। इसके बावजूद,
हमने यह कार्य किया। पहले दिन हम सबको रस्सी बनाने का काम सौंपा गया। बंद
कोठरियों में हम सबके सामने नारियल-जटा का एक बंडल ‘रस्सी बाटो’ के आदेश के
साथ पटक दिया गया, जिसका अर्थ था, अच्छे बच्चे की तरह रस्सियां बनाओ। हमने
बंडल खोले, उन्हें सुलझाया और फिर मायूस होकर बैठ गए। उससे रस्सियां बनानी थीं
? ऐसा संभव भी था ? वहाँ चार पहरेदार थे। इस त्रासद कार्य के लिए वह हमारे निजी
शिक्षक बने। आइये अपने पाठकों के लिए यह सबक दोहरा दूँ। पहले रेशे को जमीन
पर लिटाकर दोनों हाथों से घुमाकर पलीतानुमा बनाओ। जब इस तरह पलीतों का ढेर
लग जाए तो उन्हें एक ओर रख दो। फिर दो पलीते उठाओ। दोनों पलीतों के एक-एक
सिरे को अपने पंजे के नीचे दबाकर दूसरे सिरों को मुट्ठियों में दबाओ। अंगुलियों का
कु शलतापूर्वक इस्तेमाल और दोनों सिरों को घुमाओ, जब तक कि एक छोटी रस्सी न
बन जाए। फिर अन्य दो पलीतों के सिरों को उसी प्रक्रिया से घुमाना होता था। यही
विधि बार-बार। रस्सी के लंबा होते जाने पर उसे पीछे फें ककर सिरे को पंजे के नीचे
दबाया जाता और फिर नए पलीते से जोड़ देकर उमेठा जाता। इसे कहते हैं रस्सी
बनाना।
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कै दियों को तेज धूप की बजाय छाँव में बैठकर एक अन्य कार्य भी करना होता था जो
अपेक्षाकृ त आसान था। गीली मिट्टी पीसने वाली चक्की से फु टबॉल आकार के गीली मिट्टी
के गोले लेकर आना जिनका ढेर उसके ढेलों को काटने वाले मिस्त्री के निकट लगाना होता
था। उल्लासकर दत्त अपने संस्मरणों में लिखते हैं, ‘पूरा दिन कीचड़ में काम करके हम
गंदले शूकरों के झुंड सरीखे नजर आते थे, जो अपने अवांछनीय कार्यक्षेत्र में गंदगी और
कीचड़ में चरमराते और लोट लगाते हुए खुश दिखते हैं’।
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इन परिस्थितियों के सर्वेक्षण के लिए कलकत्ता से एक उच्च पदाधिकारी आया और
उसके बाद अफरा-तफरी फै ल गई। उसने जोर देकर कहा कि राजनीतिक कै दियों को एक
साथ रखकर इतना ‘आसान कार्य’ कै से दिया जा सकता था ? नतीजतन, सभी राजनीतिक
कै दियों को अलग कर जेल के भिन्न खंड और कोनों में भेज दिया गया। यदि वह सांके तिक
भाषा में भी एक दूसरे से संपर्क करते तो उन्हें चाबुक से तथा कड़ी मार पड़ती। मोटा सन
कातने के साथ-साथ उनकी हिम्मत को कु चलने के लिए एक और व्यवस्था की गई – कोल्हू
से तेल निकालना।
यह सबसे कठिन कार्य था जिससे कु छ की मौत और अन्य कई कै दियों का मानसिक
संतुलन बिगड़ गया था। सेल्युलर जेल में तेल निकालने की प्रक्रिया अन्य मिलों में जैसी ही
थी जहाँ कोल्हू के सिरों पर बैलों को बांधकर गोल घुमाया जाता था। फर्क के वल इतना था
कि यहाँ बैलों की जगह राजनीतिक कै दी जोते जाते थे। यदि वह इनकार करते या तेज
कार्य या शारीरिक तौर पर शिथिल दिखते तो उन्हें कोल्हू के साथ बांधकर जबरदस्ती
घुमाया जाता था। खुले मैदान की तपती धूप में कराया जाने वाला यह कार्य उस बदनसीब
व्यक्ति के लिए बहुत भारी पड़ता। 30 पाउंड नारियल का तेल या 10 पाउंड सरसों का तेल
निकलने तक कै दी को कोल्हू चलाए रखना पड़ता था। सेल्युलर जेल में पहुँचने के एक माह
तक विनायक को मोटा सन कातने का कार्य दिया गया। इसके बाद, यह कहकर कि उनके
हाथ सख्त हो गए हैं, उन्हें कोल्हू का कार्य ‘सौंपा’ जाता है। उन्हें महीनों इस कार्य में लगाए
रखा गया। कठोरता की पराकाष्ठा पर विनायक लिखते हैंः
सोकर उठते ही, हमें कपड़े का एक पट्टा पहनने का आदेश मिलता, फिर हमारी
कोठरियों में बंद कर, कोल्हू को घुमाने में लगा दिया जाता था। नारियल के टुकड़े खाली
और खोखले हिस्से में डाले जाते जहाँ वह चक्की के नीचे पिसते, जिस कारण खाली
स्थान के भरने से उसका घूमना कठिन हो जाता था। सबसे मजबूत कु ली या बलिष्ठ
बदमाश की ताकत निचोड़ लेने के लिए कोल्हू के बीस चक्कर काफी थे। बीस वर्ष से
अधिक वाले किसी भी डकै त को इस काम पर नहीं लगाया जाता था। परंतु किसी भी
आयुवर्ग का राजनीतिक कै दी कार्य के लिए सक्षम था। और वहाँ का प्रधान डाॅक्टर
हमेशा प्रमाणित करता कि कै दी कार्य के लायक है! यह अंडमान की मेडिकल साइंस
थी जो डाॅक्टर का समर्थन करती थी! लिहाजा, बेचारे कै दी को कोल्हू का आधा चक्कर
हाथों से धके ल कर और शेष आधा चक्कर उसे पूरी ताकत से खींचकर पूरा करना
पड़ता था। नारियल के टुकड़ों से तेल निकालने के लिए कु छ ऐसी ही ताकत लगानी
पड़ती थी। बीस या कु छ अधिक आयु से अधिक के युवा, जिन्हें शारीरिक श्रम करने का
अनुभव नहीं था, उन्हें इस कार्य पर लगाया जाता था। वह सब पढ़े-लिखे और नाजुक
शारीरिक गठन के थे। प्रातः छह से दस बजे तक उन्हें कोल्हू में जोत दिया जाता जिसे
गोल-गोल घुमाकर उनकी सांस फू ल जाती। इस दौरान उनमें से कई अनेक बार बेहोश
भी हो जाते थे। उन्हें असहाय होकर और थकान से चूर बैठ जाना पड़ता। आमतौर पर
दस से बारह के बीच सब कार्य रोक दिया जाता। परंतु तेल कारखाने के इस ‘कोलू’ को
अनवरत चलना होता था। खाने की आवाज होने पर ही दरवाजा खुलता। एक आदमी
अंदर आता, खाने का बर्तन रखकर बाहर हो जाता और दरवाजा बंद। अगर हाथ धोने
के बाद शरीर का पसीना पोंछने की जरूरत महसूस होती तो, पहरेदारों में से सबसे
दुर्दांत, जमादार भद्दी गालियां निकालने लगता। हाथ धोने के लिए भी पानी नहीं था।
पीने का पानी भी जमादार की रजामंदी से ही नसीब होता था। ‘कोलू’ में जुतने पर
प्यास भी खूब लगती है। पानीवाला भी कु छ तम्बाकू की रिश्वत के बदले ही पानी देता
था। जमादार से बात करने पर वह कहता, ‘कै दी को दो कप पानी मिलता है और तुम
तीन कप पी चुके हो। और पानी कहां से लाऊं ? तुम्हारे बाप के पास से ?’ हम कोशिश
कर शिष्ट भाषा में जमादार को जवाब देते! यदि साफ-सफाई और पीने के लिए पानी
नहीं, तो नहाने के पानी का क्या कहा जा सकता था?
विनायक द्वारा कोल्हू चलाने के दौरान अनेक राजनीतिक कै दी उनकी मदद को आगे आते
थे। अफसरों के सख्त निर्देश के बावजूद वह उनके कपड़े धोने या जल और भोजन पात्र धो
देते थे। वहीं उन्हें बताए बिना विनायक उनके कपड़े धोते या कु छ अन्य मदद करते, जिस
पर वह आपत्ति जताते थे। कै दी विनायक को अपना नेता समझते थे और उनकी सेवाएं
लेना उन्हें स्वीकार नहीं था। कठिन परिस्थितियों में इन सहृदय और मैत्रीपूर्ण व्यक्तियों के
स्नेह से विनायक भाव विभोर हो जाते थे। वह लोग अक्सर सोने के तख्त को सीधे खिड़की
तक उठाकर, उस पर चढ़कर अपने से निचली कोठरी वालों से बातें करते थे। यदि इतने में
कोई जमादार या पहरेदार वहाँ से गुजरता तो वह बारह फु ट की ऊं चाई से कू द जाते।
बातचीत के लिए कै दी खाने की तश्तरियों से अपनी कोठरियों के सरिये बजाकर ध्वनि
करते; यह उनका कू टभाषिक ‘टेलीफोन सिस्टम’ था।
विनायक की जन्मशती के अवसर पर 1983 में सेल्युलर जेल में अपने भाषण में प्रसिद्ध
मराठी लेखक एवं हास्य-व्यंग्यकार पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे ने विनायक द्वारा झेले गए
कष्ट पर कहा था:
आपने मेरा आजीवन कारावास नामक उनकी पुस्तक में अंडमान में झेले गए उनके कष्ट
के बारे में पढ़ा होगा। हालाँकि, मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक में उन्होंने झेले गए कष्टों
का दस प्रतिशत भी वर्णन नहीं किया है, क्योंकि वह हमसे दया या संवेदना नहीं चाहते
थे, न ही वह लोगों से प्रतिक्रिया स्वरूप सुनना चाहते थे, ‘हे भगवान, सावरकर ने
कितने कष्ट झेले’। वह युवाओं से प्रतिक्रिया स्वरूप सुनना चाहते थे, ‘देश के लिए मैं
भी सावरकर जैसे कष्ट झेलने को तैयार हूं।’
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कै दियों को सायं पांच बजे से पहले ही रात्रि भोजन परोस दिया जाता था। उनके द्वारा उस
बेस्वाद भोजन को खाये जाते समय ही गलियारे में घूमता जमादार गालियां निकालता कि
यदि उन्होंने भोजन जल्दी समाप्त नहीं किया तो वह मुसीबत में होंगे। वह अपनी मुट्ठी
‘हमारे नाक पर रखकर उग्रता से धमकाते कि अगर हमने काम ठीक से नहीं किया तो घूंसों
से हमारी नाक चपटी कर दी जाएगी’।
29
दरअसल, सज़ा में जमादार की लाठियां खाने के
अलावा उसके घूंसे और लातें भी खानी पड़ती थीं। सज़ा के डर से ही अनेक कै दी खाना
छोड़ अपने काम में जुट जाते। सौ में से कोई एक समर्थ व्यक्ति ही प्रतिदिन के नारियल तेल
का कोटा निकाल पाता था। अधिकांश को इस कार्य में दो दिन लगते। दिन के अंत में,
वजन करने वाली मशीन को देखना खासा डरावना दृश्य होता था। निरपवाद रूप से,
उनका उत्पाद कम रहता और दिन का अंत जमादार द्वारा पिटाई से किया जाता।
अधिकांश कै दी आँखों में आंसू और दर्द में कराहते हुए अपनी कोठरियों में लौटते।
विनायक लिखते हैं, ‘मैं आज तक उनके अश्रुपूर्ण चेहरे देखता हूँ।
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वजन किए जाने के समय अक्सर बैरी वहाँ मौजूद होता था और कै दी को हुक्म सुनाता
कि उसे अपना रोजाना का कोटा पूरा करने के लिए रात को भी कोल्हू चलाना होगा। वह
अपनी कु र्सी लेकर उनके सामने बैठ जाता और उन्हें गिरता-पड़ता देख खूब आनंदित
होता। ऐसे अवसरों पर, बाकी जेल के शांत हो जाने पर भी, विनायक सहित कु छ
बदकिस्मत व्यक्तियों के लिए काम 8 या 9 बजे तक चलता रहता था। आधी नींद और
खर्राटों के बीच झूलता हुआ बैरी अक्सर आँखें खोलकर कै दियों को देखता और गालियां
निकालता, और कभी-कभार जमादार से सुस्त पड़े कै दियों पर बेंत बरसाने को कह देता।
बैरी अक्सर विनायक के पास पहुँच कर उन्हें कम तेल निकालने पर धिक्कारता। वह
कहता कि अन्य कै दियों के उत्पाद को देखकर उन्हें शर्म आनी चाहिए। इस पर विनायक
नाराजगी भरा जवाब देतेः
हां, ठीक कहा आपने, मुझे शर्म आनी चाहिए। पर कब ? अगर मैं बचपन से ही उसकी
तरह हाड़तोड़ मेहनत का आदी होता. . . उसे एक पहर में एक साॅनेट लिखने को
कहिये। मैं उसे आपके लिए आधे पहर में ही कर दूँगा। उस मामले में आपका उस कै दी
पर चिल्लाना उचित नहीं होगा, आप यह नहीं कह पाएंगे कि उसने काम नहीं किया।
वह कह देगा, ‘किसी ने मुझे बचपन से कविता लिखना नहीं सिखाया। इसलिए आप
मुझसे यह करने को नहीं कह सकते’। अपने दफ्तर में आप अनपढ़ किसानों, लुटेरों
और डकै तों से लिखने का काम कराते हैं। अगर वह आपकी तरह अंग्रेजी नहीं बोलते,
तो बेशक आप उन्हें कु छ नहीं कहते। और उन्हें उसका अफसोस भी नहीं। इसी तरह
मुझे भी अफसोस नहीं कि मैंने कोल्हू से अपने साथी कै दी जितना तेल नहीं निकाला।
शर्म उन्हें आनी चाहिए जो हम जैसे बौद्धिकों को कोल्हू में जोतकर दमन करते हैं और
मजदूरों से डेस्क पर काम कराते हैं। वह दोनों तरह से असफल रहते हैं, क्योंकि उन्हें
दोनों ओर से बेहतर काम नहीं मिलता।
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इस तरह के शारीरिक श्रम के अनभ्यस्त युवा बीमार पड़ते और ऐसे काम की बजाय मौत
मांगते दिखते थे। यदि वह बुखार की शिकायत करते तो उन पर बहाना बनाने का आरोप
लगता। उन्हें कोठरी में बंद कर दिया जाता और तेज बुखार के बावजूद अस्पताल नहीं
भेजा जाता था। तेज बुखार या डायरिया के बावजूद कोल्हू चलाना राजनीतिक कै दियों की
मजबूरी थी। डाॅक्टर भी बैरी से खौफ खाता था और अक्सर कै दी की असली हालत के बारे
में बताने से झिझकता। डाॅक्टर के संज्ञान के बावजूद कै दियों के गंभीर रोग भी छु पाए
जाते। कमरतोड़ काम से बचने के लिए, कई कै दी जान-बूझकर अन्य रोगों और संक्रमणों
की चपेट में आ जाते थे। जैसा कि विनायक ने लिखा हैः
‘मुझे बुखार या डायरिया की दवा दो!’ जब कोई कै दी धीमी आवाज और खिन्न मन से
ऐसी मांग रखता, तो उसका अर्थ इन रोगों से मुक्त होने की दवा मांगना नहीं, बल्कि
इनकी चपेट में आना होता था। ऐसा कहा जाता था कि कन्हेरी की जड़ें खाने से व्यक्ति
बुखार की चपेट में आ सकता था; एक अन्य ने मुझे बताया कि गंज नामक लाल बेर का
गूदा खाना खूनी पेचिष लाने का आसान तरीका था। किसी अन्य ने बताया यदि घाव
पर एक तरल में डुबोया हुआ धागा सिया जाए – मुझे उसका नाम याद नहीं – तो घाव
कच्चा और छह माह तक खुला रहता है। कै दखाने में यह बातें सरगर्म रहतीं। यदि मैं
इनकी पुष्टि जानना चाहता तो बताया जाता कि दवाएं इस्तेमाल की गईं और असरदार
रहीं। कोल्हू चलाने वाले या जंगल काटने वाले अथवा मोटा सन कात कर रस्सी बनाने
वाले कै दी इन कार्यों से इतने तंग और डरे हुए थे कि वह इनके अलावा कु छ भी करने
को तैयार थे। अतः, वह ऐसे खतरनाक झाड़ों, जड़ों और बेरियों की ओर चल दिए या
अपने पास रखे हंसिया जैसे औजार से पैरों पर जख्म कर फिर अस्पताल चले जाते।
जख्म में धागा पिरोकर उसे भरने से रोकते रहते। वह अपने गले के अंदर सुई चुभोकर
डाॅक्टर से कहते कि उनके थूक में और सीने से खून आता है। बंदी-जीवन में कठोर श्रम
से बचने के लिए वह ऐसी कोई भी युक्ति अपनाते रहते। अन्य कै दी पागलपन का ढोंग
करते और खुद को सचमुच पागल दर्शाने के लिए मल-मूत्र अपने चेहरे पर लेप लेते और
कभी उसे निगल भी जाते थे।
32
इसी कारागार में कै द बाबाराव भी कोल्हू चलाने के कारण ‘हेमिक्रे निया काॅन्टिन्यूआ’ रोग
की जटिल स्थिति से जूझ रहे थे – तेज और लगातार सिरदर्द तथा रोशनी से परेशानी इसके
लक्षण होते हैं। साथ ही, कारागार के भोजन के कारण वह गंभीर डायरिया की चपेट में थे
जिसका उपचार भी नहीं हो रहा था। उनके पेट और आंतों में पूरे दिन तेज दर्द रहता। इस
कारण अक्सर उनकी सारी कोठरी गंदी हो जाती और जमादार का कोप भी झेलना पड़ता।
इसके बावजूद, बैरी ने उनसे महीनों तेज धूप में काम कराया और स्वास्थ्य सेवा भी नहीं दी।
दिन के अंत में अपने हिस्से का तेल निकाल कर वह लड़खड़ाते हुए कोठरी में पहुँचते और
बिस्तरनुमा लकड़ी के तख्ते पर जा गिरते और रात भर दर्द से छटपटाते रहते।
वहीं, बंगाली क्रांतिकारी अबिनाश चंद्र भट्टचार्जी की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी।
दैनिक कार्य आरंभ करते ही करीब प्रातः 10 बजे वह थकान से खड़े नहीं रह पा रहे थे।
उनमें सबसे मजबूत इंदु भूषण रॉय गिर पड़े जो अबिनाश की मदद को आगे आते थे।
विडम्बना यह रही कि कै दियों पर किए जाने वाले अत्याचारों के कारण हिम्मत छोड़ देने
वालों में इंदु भूषण राय भी एक थे।
और जल्द ही कै दियों की पीड़ा और कष्ट सीमा से पार हो गई, जिसका विस्फोट पंजाब के
हृष्ट-पुष्ट क्रांतिकारी नंद गोपाल के विद्रोह में सामने आया। वह इलाहाबाद के स्वराज
समाचार पत्र के संपादक रह चुके थे।
33
यह घटना विनायक के वहाँ पहुँचने के कु छ माह
बाद की थी। सर्वप्रथम, जब नंद गोपाल को कोल्हू में जोतकर रफ्तार बढ़ाने को कहा गया
तो उन्होंने छोटे अधिकारी को घूरकर कहा, ‘माफ करना! इतना तेज कोल्हू चलाना मुझसे
नहीं हो सके गा, समझे!’ नतीजा, प्रातः 10 बजे तक उनका एक-तिहाई कार्य भी पूरा न हो
सका। उस समय तक अधिकांश राजनीतिक कै दी अपनी कोठरियों में जाकर, अपना
बेस्वाद भोजन गटक कर, फिर चक्की तक पहुँच जाते थे। परंतु नंद गोपाल ने आराम से
भोजन खाना जारी रखा। जब पहरेदार ने उन्हें जल्दी करने को कहा तो उन्होंने पहरेदार को
स्वास्थ्य एवं स्वच्छता पर लंबा भाषण देकर बहलाने का प्रयास किया। उन्होंने जल्दी
भोजन निगलने के नुकसान बताते हुए, उसे हजम करने के लिए अच्छी तरह चबाने की
उपयोगिता बताई। उन्होंने कहा कि इससे दांतों का भी अच्छा व्यायाम होता है। उन्होंने
कहा कि आखिर वह ‘दस वर्षों तक दयालु सरकार के मेहमान’ हैं और उनका स्वास्थ्य
बिगड़ने पर शाही सरकार की बदनामी होगी।’ इसलिए वह अतिरिक्त सावधानी ले रहे हैं।
भौंचक रह गए छोटे अधिकारी ने मामला तुरंत बैरी को सुनाया, जो फौरन वहाँ पहुँचा
और कै दी को गालियां देकर दंड देने की धमकी दी। मुस्कराते हुए नंद गोपाल ने वही
मेडिकल लेक्चर उसे भी सुना दिया। उन्होंने कहा कि जेल सारणी के अनुसार 10 से 12
मध्यान्ह तक का समय नियमानुसार भोजन का समय है और वह ऐसे उदार नियम का
उल्लंघन नहीं करना चाहते थे। यह सुनकर बैरी आगबबूला हो उठा। परंतु ऐसी गुस्ताखी
का आदी ना होने के कारण, भुनभुनाता हुआ वहाँ से चला गया। नंद गोपाल ने भोजन
समाप्त किया और झपकी लेने कोठरी के भीतर चला गया जबकि छोटा अधिकारी उनके
काम पर लौटने की उम्मीद बांधे था। कै सी भी गाली-गलौज या धमकी का उन पर असर
नहीं हुआ और सोने का दिखावा करने लगे। 12 मध्यान्ह पर उठ कर उन्होंने फिर एक घंटा
कोल्हू चलाया और आधे दिन का कोटा पूरा करने के बाद, शेष नारियल को पोटली में बांध
कर आराम से बैठ गए। जब उनसे पूछा गया बाकी काम कौन करेगा, तो उन्होंने लापरवाही
से उत्तर दियाः ‘जो करना चाहे सो करे। मैं कोई बैल नहीं जो पूरा दिन कोल्हू चलाऊं । जो
भोजन मुझे मिला है वह डेढ़ आना से अधिक का नहीं था, तो फिर 30 पौंड तेल कै से
निकाल सकता हूँ ?’
34
जब सकपकाये अधीक्षक ने देखा कि नंद गोपाल से और तेल
निकलवाने का कोई तरीका नहीं तो उसने उन्हें अग्रिम आदेश तक कोठरी में बंद कर दिया।
एक महीने तक यही सब चलता रहा। विद्रोही प्रवृत्ति के अन्य कै दी भी ऐसा ही सुर ना
पकड़ लें, यह सोच बैरी ने नंद गोपाल को अपने चेम्बर में बुलाया और समझौते की पेशकश
रखी। उन्हें कहा गया कि यदि वह चार दिनों तक बिना लापरवाही के पूरा काम करेगा तो
उसे कोल्हू से हटा लिया जाएगा। नंद गोपाल ने शर्त मान ली और उन्हें इस कार्य से हटा
लिया गया।
परंतु उनकी आज़ादी कु छ ही समय की रही। कु छ दिनों बाद उसे बड़ा कोल्हू चलाने को
कहा गया और मना करने पर, उन्हें बेड़ियां और एकांत कारावास भोगना पड़ा। इसके बाद,
आम आदेश प्रसारित हुआ कि सबको पूरे तीन दिनों तक तेल निकालना पड़ेगा।
राजनीतिक कै दियों का मानना था कि यदि उन्होंने आदेश माना तो पोर्ट ब्लेयर से उनकी
लाशें ही जाएंगी। लिहाजा, आदेश की व्यापक अवमानना प्रशासन के सामने आई – जेल
में पहली हड़ताल का बिगुल बज उठा।
परंतु बैरी ऐसी रुकावटों से झुकने वाला नहीं था। उसने अवमानना को निजी बेइज्जती के
तौर पर लिया। कै दियों को अहाते में बुलाकर उन्हें फटकार सुनाई:
सुनो, ओ कै दियो! ब्रह्माण्ड में एक ही भगवान है, और वह ऊपर स्वर्ग में रहता है। परंतु
पोर्ट ब्लेयर में दो भगवान हैंः एक, स्वर्ग वाला भगवान, और दूसरा, धरती का भगवान।
बेशक, पोर्ट ब्लेयर की धरती का भगवान मैं हूं। स्वर्ग का भगवान तुम्हें वहाँ पहुँचने पर
पुरस्कृ त करेगा। परंतु पोर्ट ब्लेयर का भगवान तुम्हें यहाँ और अभी ईनाम देगा।
इसलिए, ओ कै दियो, बर्ताव ठीक रखो। तुम किसी बड़े अधिकारी को मेरी शिकायत
कर सकते हो, परंतु बात मेरी ही ऊपर रहेगी; यहाँ मेरी चलती है। यह ध्यान रखना।
35
सजाएं और सख्त तथा भोजन के वल बेस्वाद गंजी तक ही सीमित रह गया था। उल्लासकर
दत्त, नंद गोपाल और होतिलाल को लगातार पंद्रह दिनों तक, प्रतिदिन दो बार एक पौंड
गंजी परोसा जाता रहा। हालाँकि, उसे सप्ताह में के वल चार बार ही दिए जाने के नियम थे।
इन सजाओं को कै दियों की ‘जेल टिकटों’ में दर्ज नहीं किया गया, ताकि इन प्रताड़नाओं
का कोई रिकाॅर्ड ही ना रहे।
हड़ताल के बाद, कु छ कै दियों को सरल कार्यों के लिए जेल के दूसरी ओर भेज दिया
गया। बरिन को एक राजमिस्त्री के अधीन मजदूर के तौर पर, उल्लासकर को ईंटें बनाने,
कु छ अन्य को वन विभाग में लकड़ियां चीरने एवं शेष को बांध बनाने के लिए भेजा गया।
कु छ किस्मत के मारे कै दियों का काम पोर्ट ब्लेयर में अधिकारियों की बग्गियां खींचने का
था। कई कै दियों का ख्याल था कि जेल के नारकीय माहौल से दूर रहना कु छ बेहतर होगा,
परंतु वह और भी दुखदायी साबित हुआ। उन्हें बारिश, तूफान, गर्मी और मानसून में अक्सर
निकल आने वाली जहरीली जोकों से जूझना पड़ता था। वहीं उनके बाहर रहने के दौरान
जेल के अधिकारी अक्सर उनके हिस्से का काफी भोजन चुरा लिया करते।
हड़ताल होने के बाद बैरी ने विनायक को लुभाने की कोशिश की। वह जानता था कि
क्रांतिकारी विनायक की इज्जत करते हैं। लिहाजा, उन्हें अपनी ओर रखने में अक्लमंदी
थी। एक को दूसरे के खिलाफ करने, विरोध पैदा करने और कु छ राजनीतिक कै दियों के
संबंध में सूचना प्राप्त करने की अपनी आम रणनीति पर काम करते हुए बैरी ने विनायक से
शिष्ट और मैत्रीपूर्ण तरीके से बर्ताव किया। अन्य कै दियांे के संबंध में उसने कहाः ‘मिस्टर
सावरकर, आप जैसे व्यक्ति को ऐसे लोगों से संबंध नहीं रखना चाहिए। वह सब नफरत के
लायक हैं। आप पढ़े-लिखे सज्जन पुरुष हैं। ये अभागे आठ या दस वर्ष की अपनी सज़ा
काट कर अपने घरों को लौट जाएंगे, और दुनिया इन्हें भूल जाएगी। परंतु आपके साथ ऐसा
नहीं होगा। आपको अपने जीवन के पूरे पचास वर्ष यहाँ बिताने होंगे; और आप के वल
राजनीतिक बंदी नहीं हैं। यदि आप इनसे जुड़ते हैं या इनसे सांत्वना रखते हैं तो आपका
बहुत नुकसान होगा। इनसे बात करना भी आपके भविष्य के लिए खतरनाक होगा। आप
जो भी करना चाहते हैं, खुद सोचें। अपनी सज़ा याद करके ध्यान रखिये। मेरी बात समझ
रहे हैं ?’
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ऐसा बर्ताव वह अक्सर अन्य कै दियों के साथ उन्हें नीचा दिखाने के लिए भी
करता था।
परंतु इस प्रयास का विनायक पर विपरीत प्रभाव पड़ा। उसके द्वारा विनायक की पचास
वर्ष की सज़ा का बार-बार उल्लेख उन्हें डराने के लिए किया जाता था। परंतु बैरी द्वारा
लगातार उल्लेख ने उन्हें और कठोर हृदय बना दिया था। विनायक ने याद किया हैः ‘यह
तोपखाने के सैनिक जैसा था जिसके लिए लगातार तोप के गूंजने की आवाज उसके डर
और इंद्रियों को सामान्य कर देती है।’
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बैरी के अनेक प्रयासों के बावजूद विनायक झुके नहीं, और ना ही उन्होंने किसी अन्य
साथी को झुकने दिया या उनसे संपर्क स्थगित किया। यह देख बैरी और कु पित हुआ।
नाराज बैरी के जाने के बाद, विनायक आक्षेप और गालियां सुनकर निरुत्साहित कै दियों का
हौसला बढ़ाते थे। उन्हांेने सलाह दी, ‘बैरी ने मेरी मौजूदगी में जो तुम्हें कहा, उसे सुनकर
दुखी मत हो। जो आज उसने तुमसे कहा है, कल वह मुझसे कहेगा। इस तरह वह तुम्हारी
या मेरी बेइज्जती नहीं करता हैः वह के वल अपनी बेइज्जती और खुद का हनन करता है।
हम आज असहाय हैं, दुनिया हमें कलंक समझती है, परंतु एक दिन जरूर आएगा जब वह
तुम्हें सम्मान देगी, शायद इस स्थान पर तुम्हारी मूर्तियाँ स्थापित हों, जहाँ वह तुम्हें बुरा-भला
कहते हैं, और हजारों लोग तुम्हें लक्ष्य की वेदी पर बलिदान देने के लिए श्रद्धांजलि देने
आएंगे।’
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नियमों को ताक पर रख, विनायक छिप कर अनेक राजनीतिक कै दियों से मिलते, उनका
उत्साह बढ़ाते, और उन्हें हिम्मत से प्रताड़ना झेलने को कहते। अनेक कै दी उन्हें श्रद्धाभाव
से अपने मार्गदर्शक और हमराज के तौर पर देखने लगे थे।
~
अंडमान में आजीवन कारावास के लिए पहुँचते ही, विनायक अपने भाई से मिलने को
उत्सुक थे, जो वहाँ 1909 से सज़ा काट रहे थे। सेल्युलर जेल पहुँचते ही उन्होंने कु छ दयालु
पहरेदारों एवं छोटे अधिकारियों से बाबाराव के बारे में जानकारी प्राप्त करने को कहा। उन्हें
बताया गया कि बैरी ने अपने अधिकारियों की ओर से आदेश भेजा है कि विनायक को यह
भी नहीं बताया जाए कि उनका भाई वहाँ है भी या नहीं। जेल का ढाँचा भी कु छ ऐसा था
कि वहाँ अन्य कौन कै द है, किसी को पता नहीं चल पाता था। अंततः, एक पहरेदार ने दोनों
की छोटी सी मुलाकात कराई। प्रतिदिन सबकी हाजिरी के समय उसने इस मुलाकात का
इंतजाम किया था। प्रतिदिन हाजिरी के समय सबको एक साथ उपस्थित ना कर, के वल
समूह और क्रम संख्या से बुलाया जाता। इन समूहों को बुलाने का जिम्मा पहरेदार की
समझ पर निर्भर रहता था। इसलिए बाबाराव के समूह की हाजिरी के दौरान ही उस
पहरेदार ने विनायक के समूह को अंदर भेजा।
जब विनायक उम्मीद और उत्कं ठा से अंदर पहुँचे तो बाबाराव अपना कार्य कर बाहर आ
रहे थे। उनकी आँखें मिलीं। उनकी पिछली मुलाकात 1906 में विनायक के लंदन जाते
समय हुई थी, जिस दौरान छोटे भाई के उज्ज्वल भविष्य को लेकर उनकी आँखें गर्व से
चमक रही थीं। और अब एक कै दी के रूप में दीन-हीन हालत में उन्हें देखकर बाबाराव पूरी
तरह टूट गए थे। उनके भाव और अधखुले होंठ जैसे उनसे उनका हालचाल पूछना चाहते
थे। पहरेदार ने तुरंत उन्हें अलग किया, अन्यथा भावविभोर होकर दोनों एक दूसरे से बात
करने लग जाते और जेल प्रशासन आपत्ति उठाता। पितृतुल्य बड़े भाई को ऐसी दयनीय
अवस्था में देख विनायक का दिल टूट गया। अचानक उठी भावनाओं ने मौजूदा अवस्था
को धैर्य से झेलने की उनकी हिम्मत को कु छ क्षण को हिला दिया था।
पहरेदार या अन्य किसी मदद के , दोनों भाइयों ने रद्दी कागज पर लिखे संदेश भी बांटे।
अपने संदेश में बाबाराव ने दुःख जाहिर किया। वह चाहते थे कि उनकी सज़ा के बाद
उनका प्रिय तात्या अभिनव भारत और मातृभूमि के लिए काम करना जारी रखता। वह उसे
वहाँ देखकर बहुत दुखी थे; उन्हें हैरानी थी कि वह वहाँ कै से पहुँच गया, जबकि उन्होंने
सुना था कि वह पेरिस में था। दरअसल, बाबाराव को विनायक का अपराधी ठहराये जाने
का ज्ञान नहीं था क्योंकि वहाँ घर से पत्राचार बहुत कम था। हालाँकि, उन्हें इस संबंध में
अंडमान भेजे गए वामनराव जोशी से कु छ जानकारी प्राप्त हुई थी। परंतु वह यही उम्मीद
करते थे कि विनायक सुरक्षित है, पर उस शाम उन्हें देखते ही उनकी उम्मीदें धराशायी हो
गई। वह सोच रहे थे कि अब अभिनव भारत और उनके छोटे भाई बल का कौन ध्यान
रखेगा ?
इस तरह के पत्र का क्या जवाब लिखें, विनायक सोच नहीं पा रहे थे। खुद को सहेज कर
अपने भाई को उत्साहित करने हेतु उन्होंने लिखाः
बाबा, सफलता और असफलता संयोग की बातें हैं। हम पहली लड़ाई हार गए तो इसमें
हमारा दोष नहीं। बल्कि, असफलता के बावजूद हम खड़े रहे, यह हमारा सौभाग्य है।
यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम उन कष्टों को झेल रहे हैं, जिन्हें झेलने के बारे में
हम दूसरों को नसीहत देते हैं। इस कै दखाने में शिथिल हो जाना अब हमारे जीवन का
लक्ष्य है और जरूरत पड़े तो उनकी गालियां झेलना भी, जिनके लिए हम कष्ट झेल रहे
हैं। बेशक स्वतंत्र रहना और लड़ते हुए प्रसिद्धि प्राप्त करना उत्तम कहलाता है, परंतु
अनजान मौत और गालियां झेलना भी उतना ही उत्तम है। अंतिम विजय के लिए के वल
लड़ना एवं लोकप्रिय होना नहीं बल्कि अज्ञात एवं अनजान मौत मरना भी आवश्यक है।
जहाँ तक हमारे लक्ष्य से भटक जाने का प्रश्न है, मैं के वल इतना ही कह सकता हूँ कि
हमारी अनुपस्थिति में स्वतंत्रता युद्ध थमेगा नहीं। असंख्य सेनानियों की सेना, जिनके
सारथी गौरवशाली श्री कृ ष्ण और श्री राम हैं, हमारी गैर-मौजूदगी में नहीं रुकें गे।
39
यहां पहुँचने के ग्यारहवें दिन, यानी 15 जुलाई 1911 को, विनायक को छह माह के लिए
एकांत कारावास की सज़ा दी गई। यदि मोटा सन कातना और कोल्हू चलाना शारीरिक तौर
पर सख्त था, छह माह तक किसी से बात ना करना या मानव संपर्क से वंचित रहने का
असर उन पर दिमागी तौर पर पड़ा। उन्होंने इसका मर्मस्पर्शी वर्णन किया हैः
किसी से न बोलना, न किसी से विचार करना, और दिन भर अपने जीर्ण, धूल से सने,
और कोल्हू में जुतकर पसीने में तर शरीर को देखना। वह कार्य जिसे दिन में अधिकांश
समय मुझे करना पड़ता था। देह पूरी तरह पसीने में भीगी रहती थी, घूमता कोल्हू
जिसमें तेल के लिए सूखे नारियल के टुकड़े पीसे जाते, धूल उठाता और उसमें अन्य
धूल मिल जाती – इस अनुभव से दिमाग घिन्न हो उठता था। पहर दर पहर, और दिन-
ब-दिन यह चलता रहा और कौन जाने यह महीनों-दर-महीनों तक चले और बरसों तक
जा पहुँचे। मैं खुद से घृणा करने लगा था।
40
परिस्थितियों को और दुश्वार बनाते हुए, कोल्हू पर जोतने से एक दिन पहले, 14 अगस्त
1911 को उन्हें बंबई विश्वविद्यालय से एक पत्र मिला। वह शिक्षा विभाग के सचिव की ओर
से था जिसके अनुसार भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 18 के तहत उन्हें दी गई
स्नातक की डिग्री रद्द की गई थी। नासिक षडयंत्र मामले में उन पर अपराध सिद्ध होने के
बाद 1 जुलाई 1911 को बंबई विश्वविद्यालय की सीनेट ने यह फै सला किया था। रोचक यह
है कि विनायक को सज़ा सुनाने वाले न्यायाधीशों की तीन सदस्यीय न्यायपीठ में से एक
न्यायाधीश चंदावरकर उस दौरान विश्वविद्यालय के उप-कु लपति भी थे और उन्होंने अपने
निर्णय की पुष्टि की थी। अनेक कष्टों के बाद जिस शिक्षा को उन्होंने कितनी कठिनाइयों के
बाद उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण किया था, वह इस निर्दयता से छीन ली गई।
41
इसका गहरा
असर उनके मनस पर पड़ा था।
~
1911 के अंत में अंग्रेजी प्रशासन दिल्ली दरबार के आयोजन में व्यस्त था। महोत्सव का
आयोजन 7 से 16 दिसंबर 1911 और ताजपोशी 12 दिसंबर को की जानी थी। इससे
पहले, 22 जून को जाॅर्ज पंचम् सम्राट पद पर आसीन हो गए थे। दिल्ली दरबार का
आयोजन उन्हें और उनकी पत्नी, महारानी मैरी को भारत के सम्राट और साम्राज्ञी के तौर
पर घोषित करने के लिए किया जा रहा था। इस अवसर पर, अपने नए शासकों के प्रति
निष्ठा जताने के लिए स्थानीय राज्यों के शासक, हजारों बड़े जमींदार और अन्य गणमान्य
व्यक्तियों को एकत्र होना था। ताजपोशी दरबार के आ पहुँचने पर अफवाहें तेज थीं कि इस
दौरान कई राजनीतिक कै दियों को भी माफ किया जाएगा। हालाँकि, इस संबंध में विनायक
को गहरी शंका थी क्योंकि अभी उनकी सज़ा शुरू हुए कु छ ही महीने हुए थे।
आधिकारिक षिष्टाचार के अनुसार सभी राजनीतिक कै दियों को दिल्ली दरबार से क्षमा
प्रार्थना के लिए सरकार को औपचारिक माफीनामा देना था। इसके अनुसार, विनायक
सहित सभी ने जेल प्रशासन को अपनी अर्जियां प्रेषित कीं। विनायक की अर्जी 30 अगस्त
1911 को प्राप्त की गई थी। हालाँकि, इस अर्जी की कोई प्रति मौजूद नहीं है, के वल ‘जेल
हिस्ट्री टिकट’ से इसकां संदर्भ प्राप्त होता है।
42
जबकि अधिकांश कै दियों को कोई जवाब
नहीं मिला, विनायक की अर्जी पर एक सप्ताह के अंदर ही जवाब आ पहुँचा था। 3 सितंबर
1911 को उन्हें सरकार की ओर से ‘आवेदन अस्वीकृ त’ का संक्षिप्त जवाब मिला।
43
इस
पर उन्हें कोई हैरानी नहीं हुई।
आधिकारिक घोषणा होने तक अन्य कै दी उम्मीदें बांधे रहे थे। अलीपुर बम मामले में जेल
में बंद बंगाली क्रांतिकारी बरिन घोष के भाई अरविंद घोष को जेल में श्री कृ ष्ण द्वारा दर्शन
देने के प्रचलित किस्से पर बंगाल के क्रांतिकारी विश्वास करते थे। उन्हें बाद में रिहा कर
दिया गया, जिसके बाद वह राजनीति एवं क्रांति मार्ग को त्याग फ्रांसीसी कालोनी पांडिचेरी
में आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करने लगे थे। उन्हें हुए भगवान कृ ष्ण के दर्शन और
उनके संदेश के आधार पर अरविंद घोष ने भविष्यवाणी की कि भगवान उनके जरिये संदेश
प्रसारित कर रहे हैंः ‘जाओ, ओ युवा, जाओ! तुम्हें आज दंड दिया गया है परंतु आज से
तीन वर्ष के उपरांत तुम लौट आओगे।’
44
यह अस्पष्ट मुहावरेनुमा डोर थाम कर, सेल्युलर
जेल में कै दी समझते कि अरविंद घोष की भविष्यवाणी सच साबित होगी और यदि ना हुई
तो उन्हें उस स्थिति में के वल तीन वर्ष ही और बिताने हैं। दिल्ली दरबार को वह अपना सच
होता हुआ सपना मान रहे थे। घर लौटते समय वह कौन सी गाड़ी लेंगे और साथी कै दियों
को भी साथ ले चलेंगे, जैसे हवाई किले बनाने लगे थे।
घोषणा की पूर्व संध्या पर मिर्ज़ा खान दौड़ता हुआ आया और बोला ‘बड़ा बाबू को रिहा
कर दिया गया है’। विनायक यह सुनकर सकते में थे क्योंकि आधिकारिक उत्तर उन्हें पहले
ही मिल चुका था। उनके साथी कै दी उत्साहित हो उनकी ओर लपके , उनके हाथ मिलाकर
उन्हें रिहाई की मुबारकबाद दी। सतर्क विनायक ने आधिकारिक घोषणा होने तक यह
मानने से इनकार कर दिया। अगली सुबह, सभी राजनीतिक कै दी कारागार के मुख्यद्वार के
निकट जमा थे, जहाँ घोषणा की जानी थी। अब उन्हें दरवाजा खुलना और उनका मुक्त
होना औपचारिकता भर नजर आ रही थी। तभी हाथ में सूची लिए बैरी आ पहुँचा और कहा
कि जिनके नाम लिये जाएंगे, उनकी सज़ा में वर्ष में एक माह की सज़ा कम की गई है।
पूर्ण क्षमा या रिहाई किसी को नहीं मिली। हालाँकि, उत्साह ठं डा पड़ गया था, परंतु
नारकीय स्थिति को देखते हुए साल में एक महीना सज़ा कम होना भी काफी दिखता था।
कई नाम पढ़े गए: बाबाराव का नाम उनमें था। इसका अर्थ था कि उनकी सज़ा में पच्चीस
महीने कम हो गए थे। हालाँकि, विनायक का नाम सूची में नहीं था। साफ था कि सरकार
उन्हें खतरनाक मानती थी और कु छ देर के लिए भी उन्हें सेल्युलर जेल से बाहर रखने का
खतरा नहीं उठा सकती थी। बैरी सांत्वनापूर्ण मुद्रा में विनायक के पास आया; सबसे लंबी
सज़ा काट रहे व्यक्ति को एक दिन की भी माफी नहीं मिली थी। विनायक याद करते हैं कि
यह कै दियों के लिए दुःख, डर और खिन्नता का सबसे अंधेरा दिन था। परंतु वह जानना
चाहते थे कि उन्हें कु छ ना मिलने पर भी ज़रूरी दिवस पर देश को क्या मिला था। वह
जानकर खुश हुए कि सरकार ने बंगाल विभाजन का प्रस्ताव वापस ले लिया था। विद्यार्थी
जीवन के दौरान पूना में वह इसी प्रस्ताव के खिलाफ प्रदर्शन भी कर चुके थे। दरबार में
ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली करने की घोषणा भी हुई थी।
~
जेल में छह महीने गुजारने के बाद अनेक कै दियों से बाहर का काम कराया जाता था। परंतु
विनायक के मामले में, उनके एकांत कारावास के 15 जनवरी 1912 को समाप्त होने के
बाद और जेल के सभी नियमों के पालन के बावजूद उन्हें बाहर नहीं निकाला गया। अपने
जीवन वृत्तांत में उन्होंने खुलकर माना है कि वह सज़ा की अवधि छोटी करवाना चाहते थे,
इसलिए उन्होंने अच्छा आचरण रखा था।
45
वह मानते थे जेल में अधिकारियों से वैमनस्य
बढ़ाना व्यावहारिक नहीं था क्योंकि परिस्थितियों का झुकाव उनके विरोध में था। अन्य
कै दी पहले से कु छ अधिक एक दूसरे से मिलजुल सकते थे; वह बात भी कर सकते थे।
परंतु विनायक को यह छू ट नहीं थी। उन्हें कोठरी से बाहर निकलने की अनुमति जरूर थी,
परंतु के वल सामने के गलियारे या दरवाजे के बाहर अके ले बैठने भर की। जब अन्य कै दी
जेल से बाहर जाते, तो विनायक को कोल्हू कार्य के लिए उपस्थित होना पड़ता था।
एक ऐसी ही गर्म दोपहरी को कोल्हू चलाते समय सांस फू लने पर वह बेहोश हो गए।
उनके पेट में मरोड़ उठे और शरीर दर्द से दोहरा हुआ जा रहा था। वह गिर पड़े और आँखें
मुंद गई थीं। कु छ मिनटों तक वह शून्यावस्था में थे। मृत्यु से निकटता के इस अवसर में उन्हें
महसूस हुआ कि दर्द और कष्ट झेलने से बेहतर होगा शरीर छोड़ देना। मार्से में पकड़े जाने
के दौरान जब उन्हें एडन में भट्टी जैसे गर्म के बिन में बंद किया गया था, उस दौरान उन्होंने
आत्महत्या करने पर सोचा था। उस रात अपना जीवन समाप्त कर, कष्ट से एक ही बार में
छु टकारा पाने की उत्कं ठा गहरी थी। वह जालीदार खिड़की से बाहर देखते रहे जिससे कई
हताश कै दियों ने लटक कर जानें दी थीं। मस्तिष्क में मृत्यु की इच्छा और संयम की पुकार
के बीच गहरे संघर्ष में संयम की जीत हुई। उन्होंने निर्णय किया कि यदि उन्हें मरना ही है तो
देश के एक शत्रु को मारकर मरेंगे, कायर की तरह नहीं।
कोल्हू पर काम करते हुए अक्सर उनका दूसरे कै दियों से विमर्श होता। वह पहरेदारों से
नजरें बचाकर अक्सर चोरीछु पे बात कर लेते। विनायक को अहसास हुआ कि अनेक युवा
क्रांतिकारी बहादुर और निडर हैं, परंतु उनमें राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र एवं अंतरराष्ट्रीय
मामलों की समझ का अभाव था। हालाँकि, इससे उनकी राष्ट्रीय भावना पर असर नहीं
पड़ता था, परंतु विनायक ने सोचा, चूंकि उन्होंने इन विषयों के अध्ययन में गहरा समय
लगाया है, इसलिए युवाओं को शिक्षित एवं सक्षम बनाना उनकी जिम्मेदारी बनती है ताकि
आज़ाद होने के बाद स्वतंत्रता के संघर्ष में अधिक कें द्रित और नीतिगत तरीके से कार्य कर
सकें । उनमें से अधिकांश हिम्मत छोड़ने लगे थे, इसलिए विनायक ने उन्हें इतिहास और
पौराणिक शास्त्रों की कथाओं से कु शल सलाह और प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।
आपस में गढ़ी गई सांके तिक भाषा के माध्यम से वह कु छ संपर्क भी करने लगे थे। जैसा
कि उन्होंने लिखा हैः
वह खुलकर बात करते, निडर होकर सोचते; भविष्य के मधुर सपनों में आनंदित होते;
और उन्होंने अपने मस्तिष्कों का संतुलन और आत्मा का सहारा प्राप्त कर लिया था।
प्रज्वलित रहने और सहन करने की उनकी इच्छा गहरा गई थी; उसके कुं द पड़े किनारों
पर फिर धार लग गई थी; और, जब वह अलग होते, अपनी कोठरियों में जाते, तो
आपस में प्रसन्न एवं स्नेहिल भाइयों जैसे विदा लेते। वहाँ मैंने उन्हें और उस स्थान के
अन्य कै दियों को अपने ‘अभिनव भारत’ का सदस्य बनाया था। यहीं पर उन्होंने शपथ
ली थी कि वह लक्ष्य के प्रति सच्चे रहेंगे और उसे अपने जीवन से सींचेंगे।
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पुस्तकों का न होना भी बड़ी समस्या थी। कै दियों को के वल रविवार को एक पुस्तक पढ़ने
को दी जाती। पहरेदार उन्हें सब्जी की तरह एक जालीदार बस्ते में रखकर लाता और
कोठरी में एक किताब फें क देता। उसी शाम पुस्तकें वापस बटोर ली जातीं। कै दियों के बीच
पुस्तक आदान-प्रदान की इजाज़त नहीं थी। नियमानुसार, कै दियों को शाम चार से छह बजे
तक पुस्तक पढ़ने की अनुमति थी। परंतु रोज के कार्य की थकान उन्हें पढ़ने लायक छोड़ती
ही नहीं थी। खुद अल्पशिक्षित पृष्ठभूूमि का होने के कारण बैरी किसी को पढ़ते या लिखते
देख नफरत से भर उठता और उन्हें कोल्हू कार्य में पुनः जुतवा देता।
धीरे-धीरे, कु छ पहरेदारों की मिलीभगत से विनायक साथी राजनीतिक कै दियों को
इतिहास, क्रांतिकारियों के जीवन, वैश्विक राजनीति एवं अन्य विषयों में शिक्षित करने लगे।
नंद गोपाल और उनके पश्चात कु छ हड़तालों के बाद, कै दियों की कु छ सभाओं को अनुमति
मिली थी। इससे विनायक की कक्षाएं और खुली एवं स्थायी हो गईं। राजनीतिक कै दी
भारत के नवीन घटनाक्रमों की जानकारी चाहते थे, परंतु उन्हें समाचार पत्र उपलब्ध नहीं
थे। इसके बावजूद, उन्होंने लोकल मेल
या लंदन टाइम्स
जैसे समाचार पत्रों को चोरी-छु पे
मंगवाने का इंतजाम कर लिया था। जेल से बाहर जाकर काम करने वाले कु छ कै दियों को
बस्तियों में रहने वाले भारतीयों से भी मिलने का मौका मिलता। वे लोग क्रांतिकारियों के
कार्यों से सहानुभूमि रखते थे, इसलिए नज़र बचाकर सूचना या समाचार पत्र भिजवा देते।
प्रत्येक कु छ महीनों बाद नए ‘चालान’ गुटों के आने पर भी मुख्य भूभाग से सूचनाएं मिलती
थीं।
चूंकि पट्टी या कागज उपलब्ध नहीं कराया जाता, इसलिए विनायक कोठरी की सफे द
दीवारों पर कांटों की मदद से लिखते। वह अपने ‘विद्यार्थियों’ से भी दिन में सीखे और
विमर्श किए गए विषयों के बारे में दीवारों पर लिखने को कहते थे। इससे कै दियों को उनके
शारीरिक परिश्रम एवं नारकीय जीवन की एकरसता से बच कर बौद्धिकता के कु छ पल
नसीब होते। विनायक दीवारों पर कविताएँ भी लिखा करते थे, और के वल उन्हें अपमानित
और कुं ठित करने की मंशा से बैरी दीवारों पर रंग करवा देता। परंतु उसे नहीं पता था कि
विनायक की याददाश्त बेहद मजबूत थी और सब छंद उन्हें याद रहते। विनायक के शब्दों
मेंः
कमरे में जाते और दरवाजा बंद होते ही, मैं पेंसिल (कांटों से निर्मित) से दीवार पर अपने
द्वारा खींची गई रेखाओं के बीच लिखना शुरू कर देता। 7वीं चाॅल की सब दीवारें
बेतरतीब लिखाई से अटी पड़ी थीं और मेरे लिए एक पुस्तक सरीखी थीं। उदाहरण के
लिए, रस्सी बनाने के लिए मुझे जिस कोठरी में कै द रखा गया था, उसमें स्पेंसर की
‘फर्स्ट प्रिंसिपल्स’ की समूची रूपरेखा लिखी गई थी। मेरी कविता ‘कमला’ पूर्ण रूप
से सातवें खंड की इसी दीवार पर लिखी गई थी। एक अन्य कविता पर मैंने विषय पर
मिल के कार्य से सीखी राजनीतिक अर्थव्यवस्था की परिभाषाएं लिखी थीं। मेरा लक्ष्य
था कि जब मैं यहाँ से जाऊं तो यहाँ आने वाला राजनीतिक कै दी इस विषय पर कु छ
जान ले, जो वह मुझसे पढ़ता है। कु छ व्यवस्था के साथ ऐसे किसी विद्यार्थी को इस
लॉॅकअप में लाया जा सकता है। फिर वह इसे, किसी अन्य कोठरी में जाने से पहले,
एक महीने में याद कर सकता है। जब मुझे एक से दूसरे खंड भेजा जा रहा था तो मैंने
निर्णय किया प्रत्येक खंड और उस खंड की प्रत्येक कोठरी की दीवारों पर मेरे
कामचलाऊ कलम से लिखा रहे। और छात्र बने राजनीतिक कै दी इन लिखी हुई पट्टियों
का पूरा लाभ उठाएं – किताबों के रूप में।
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पठन सामग्री या लिखने के लिए कागज की कमी के अलावा, कै दियों को उनके परिवारों
को वर्ष में एक बार पत्र लिखने की अनुमति थी। वह खुले पत्र की तरह होता, जिसे पहले
जेलर पढ़ता और कांट-छांट करता, उसके बाद एक अंग्रेज अधिकारी और उनकी अनुमति
के बाद ही वह भेजा जाता था। उन्हें चेतावनी थी कि पत्रों में जेल प्रशासन के खिलाफ कु छ
नहीं होना चाहिए। कभी-कभार, कोई न्यायाधीश कै दियों से उनके हालचाल पूछने आता
था। परंतु यहाँ भी, उनके साथ किए जाने वाले दुव्र्यवहार का एक शब्द या मंत्रणा अथवा
अर्जी में साफ बात करना असंभव था। सेल्युलर जेल में क्या चल रहा था, इसके बारे में
भारत के लोगों या क्रांतिकारियों को कु छ भी जानकारी ना थी।
जेल पहुँचने के अठारह महीने बाद विनायक ने अपने छोटे भाई नारायणराव को पहला
पत्र लिखा था। 15 दिसंबर 1912 के इस पत्र में उन्होंने लिखा कि जितना समय उन्होंने यह
पत्र लिखनेे में लगाया, हैरानी नहीं कि उस अरसे में वह लेखनकला ही भूल चुके हों।
विनायक को जानकर खुशी हुई कि नासिक षडयंत्र मामले में नारायणराव जेल से रिहा हो
चुके थे और अब कलकत्ता में दंत चिकित्सक की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनका पता था
98, प्रेमचंद बोराल स्ट्रीट, बॉ बाजार।
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विनायक ने मज़ाक में लिखा, उन्हें उम्मीद है कि
उनके छोटे भाई किसी बंगाली कन्या के प्रेमपाश में नहीं बंध जाएंगे, और साथ ही लिखा
कि वह अतरप्रांतीय विवाहों के पक्षधर हैं। ‘हमारे देश के मौजूदा हालात में यूरोपियन
लड़कियों से विवाह करने से बेहतर’ होगा बंगाली पत्नी होना।
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चूंकि बंदी जीवन के बारे
में विपरीत सूचना नहीं दी जा सकती थी, इसलिए विनायक ने सबकु छ ठीक बताते हुए
कहा कि यहाँ आने के बाद उन्हें गंभीर बीमारी नहीं हुई और वह शारीरिक एवं मानसिक
तौर स्वस्थ हैं। अपने एवं साथियों की दिनचर्या के बारे में भी उन्होंने जो दृश्य खींचा, वह
उनके संस्मरणों के सर्वथा विपरीत दिखता है। परंतु इन परिस्थितियों में भी, भारत एवं विश्व
के हालात जानने की उनकी इच्छा प्रबल दिखती हैः
अपने उत्तर में मुझे हमारी मातृभूमि के बारे में बताना। क्या कांग्रेस एकजुट है ? क्या
उसने प्रत्येेक वर्ष राजनीतिक कै दियों को छु ड़ाने संबंधित संकल्प बनाए रखा है, जैसा
उसने 1910 में किया था ? टाटा आयरन वर्क या स्टीम नेविगेशन कं पनी अथवा न्यू
मिल्स जैसे कोई नए विशिष्ट स्वदेशी उद्यम शुरू हुए ? चीन गणतंत्र कै सा है ? क्या यह
आदर्श राज्य सिद्ध होने जैसा नहीं है ? इतिहास का रोमांस। चीन का कार्य एक दिन में
होता नहीं लगता। नहीं, 1850 से वह कठोर प्रयास में है कि विश्व को पता न चले कि
उनके यहाँ सूरज कहाँ से निकला – जब तक वह उग न जाए, और फारस, पुर्तगाल
और मिस्र का भी हाल बताना ? और क्या दक्षिण अफ्रीकी भारतीय अपनी मांगें मनवाने
में सफल रहे ? सूचित करना कि क्या नई समितियों ने कु छ नए कानून भी पारित किए,
जैसे माननीय श्री गोखले का शिक्षा विधेयक। तिलक जी कब रिहा हो रहे हैं ?
50
उन्होंने साथी क्रांतिकारियों के संबंध में भी लिखा:
कारण स्पष्ट हैं कि मैं क्यों उनके नाम नहीं ले सकता, जिनकी यादों से मेरा दिल भरा है।
उन सबको कह देना कि मैं प्रत्येक का याद करता हूं। उन्हें भूल कै से सकता हूँ ? नहीं,
जेल में बंद कोई व्यक्ति नहीं भूल सकता। नए अनुभवों से वंचित व्यक्ति पुराने अनुभवों
को ही थामे रहता है, और कारागार में, जो सदा यादों में रहते हैं उन्हें भूलने से दूर और
जो भूल गए थे, वह भी स्नेहिल लगते हैंः मेरे प्यारे मित्रो, व्यक्ति रोता है और रोता है
और व्यर्थ ही किसी से आंसू पोंछने की बाट जोहता है – जो ममता और प्रेम के दो शब्द
सुनाए. . .उन सबको मेरा स्नेह और प्रेम देना जिन्हें तुम जानते हो, मेरे प्यारे साथी और
काॅमरेड और जीवन से भी प्यारे थे, और उन्हें जो अपना रक्त संबंध तोड़ने को तैयार
नहीं थे, और तुम्हारे साथ खड़े हैं, कहना कि मेरा गहरा आभार अभी चुका नहीं।
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एक ओर जहाँ अपने लिए नया लक्ष्य निर्धारित कर विनायक ने आत्महत्या करने की मंशा
पर रोक लगाई, सभी कै दी ऐसे मजबूत इरादे वाले नहीं थे। इंदु भूषण राय ऐसे ही कै दी थे।
उन पर मनिकतला बम मामले में अपराध सिद्ध हुआ था और 6 मई 1909 को अलीपुर के
सेशन्स जज ने उन्हें अंडमान में दस वर्ष सख्त कै द की सज़ा सुनाई थी। इंदु को कोल्हू कार्य
बेहद कष्टदायक लग रहा था और वह जेल से बाहर का कोई कार्य चाहते थे। दुर्भाग्यवश,
बाहरी कार्य और भी थकाऊ और अपमानजनक साबित हुआ। कई अवसरों पर तेज बुखार
और पेचिश में बाहर काम करने पर भी उन्हें डाॅक्टर के पास नहीं ले जाया जाता और शाम
को पैदल ही कोठरी लौटना पड़ता। जब उन्होंने बाहर काम करने से इनकार किया तो
नाराज बैरी ने उन्हें तुरंत कोल्हू में जोतने का हुक्म सुनाया।
विनायक ने इंदु के चेहरे पर नाउम्मीदी की इबारत लिखी साफ देखी। संक्षिप्त बातचीत में
इंदु ने बताया कि उनके लिए जीवन अर्थहीन हो चुका है। यह कह कर कि दस वर्ष जल्दी
बीत जाएंगे, विनायक ने उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया; खुद उन्हें पचास वर्ष की सज़ा
मिली है, जिसे वह प्रार्थना कर सहन कर रहे हैं। परंतु इंदु को हिम्मत बंधाने के सब प्रयासों
के बावजूद वह म्लान ही रहे। और एक शाम थकान से चूर, पूरे शरीर से पसीने की टपकती
बूंदें और यहाँ-वहाँ चिपकी नारियल की छाल के साथ वह दीनता भाव से लड़खड़ाते अपनी
कोठरी में पहुँचे।
29 अप्रैल 1912 की अगली सुबह जब अन्य कै दी कोल्हू कार्य के लिए पहुँचे, इंदु का
कहीं पता ना था। उसी समय, पहरेदार सीढ़ियों से शोर मचाता हुआ आता दिखा कि इंदु
ऊपरी खिड़की से लटका है। इंदु ने अपने कपड़े फाड़कर एक फं दा तैयार किया था। कोठरी
में पहुँचने पर पहरेदार को उनकी गर्दन टूटी, जुबान बाहर और पैर झूलते मिले थे। कारागार
में उदासी और निराशा का अंधेरा छा गया। ऐसी घटनाएँ अक्सर होने लगी थीं।
इंदु के गले में एक पर्चा भी बंधा मिला – वह उनका सुसाइड नोट था, जिसमें उन्होंने
अपना जीवन समाप्त करने का कारण कथित तौर पर जेल की प्रताड़ना को बताया था।
बैरी ने बहुत चतुराई से वह पर्चा नष्ट किया और जांच कमेटी को बताया कि इंदु की मृत्यु
पागलपन और साथी कै दियों के साथ झगड़े के कारण हुई थी। जेल अधिकारियों से भी
समिति को बयान दिलवाया कि उन्होंने इंदु को हंसमुख स्वभाव में देखा था और उन्हें
अंदाजा नहीं था कि वह जीवन का अंत कर लेगा।
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विनायक एवं अन्य कई कै दियों ने
बयान दिया कि इंदु दिमागी विक्षिप्त नहीं था और कारागार के असहनीय दुखों ने उसे ऐसा
करने पर मजबूर किया। उन्होंने अनुरोध किया कि उनकी शपथ की जांच के लिए एक
स्वायत्त इकाई हो जिसे बैरी डरा ना सके । यह भूमिका स्वराज
के संपादक नंद गोपाल को
मिली जो राजद्रोह की सज़ा भुगत रहे राजनीतिक कै दी थे। उन्होंने जांच आयोग के
अधिकारियों को साबित किया कि इंदु को जेल में प्रताड़ित किया गया था। बैरी ने इंदु द्वारा
छोड़ा गया एक फर्जी कागज भी बनवाया था जिसमें उन्होंने कथित तौर पर अपनी
आत्महत्या का एकमात्र जिम्मेदार साथी राजनीतिक कै दियों और उनके साथ झगड़े को
ठहराया था। उस शाम विनायक की बैरी से बात हुई और उन्होंने बैरी को दोषी ठहराया:
इस घटना से दो या तीन दिन पहले इंदु के साथ मेरी बातचीत मुझे याद है। मुझे याद है
कि इन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने अन्य कै दियों को क्या कहा था। उसने मुझे और
उन्हें कहा था कि ऐसे कठिन हालात में दस वर्ष रहने की उनकी कोई इच्छा नहीं। ऐसा
उसने कितनी ही बार दोहराया था और तुम यह कहने की जुर्रत करते हो कि उसने
पागलपन में आत्महत्या की ? माना कि ऐसा हुआ है, तो प्रश्न उठता है कि ऐसा मजबूत
और युवा व्यक्ति अचानक पागल कै से हो गया। वह प्रधान-षडयंत्रकर्ता था; उसने छल,
जेल सजा, आजीवन कारावास, बंदी जीवन की दुश्वारियाँ और अंत में शांत भाव से
फांसी और उपेक्षा झेली जिस दौरान उनके चेहरे पर मुस्कान ही थी। अपने मित्रों के
साथ उग्र विमर्श के दौरान उन्होंने कभी उत्तेजना नहीं दिखाई, और कभी विक्षिप्तावस्था
की हल्की झलक भी उनमें नहीं दिखी। राजनीतिक कै दी ऐसे विमर्शों और वैचारिक
मतभेद के आदी होते हैं, और इसके बावजूद, उनमें से किसी ने ऐसी कमजोरी नहीं
दिखाई थी। तो इसका असर इंदु भूषण के मस्तिष्क पर ही क्यों पड़ता ? इंदु भूषण
मजबूत अंतर्मन का व्यक्ति था। फिर उसका दिमाग इतना कमजोर क्यों हो गया ?
उसका क्या कारण था ? कारागार में किए गए सख्त बर्ताव के अलावा इसका और कोई
कारण नहीं हो सकता। उस पर कठोरता बरती गई; इसलिए, उसने बाहर काम करने
का चुनाव किया; वहाँ भी उसे कु छ प्रताड़ित और अपमानित किया गया। वह यहाँ
बीमार और जीर्ण अवस्था में लौटा था। तुमने उसे उसकी कोठरी में डाला और सीधा
कोल्हू पर काम करने को कह दिया। इसका असर उसकी कमजोर हालत पर पड़ा।
उसने खुलेआम कहा था कि वह इस जीवन से तंग आ चुका है और इसका अंत कर
लेगा। इसी कारण से उसने आत्महत्या की। जैसा कि तुमने कहा, यह कोई पागलपन में
आत्महत्या का मामला नहीं है। अगर उसने वही लिखा है जो तुमने कहा, तो उसके
पागलपन का कोई कारण रहा होगा।
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विनायक की निडर ईमानदारी से बैरी को नफरत हो गई थी। दूसरी ओर वह यह जानता था
कि इंदु की आत्महत्या का उसके करियर पर विपरीत असर पड़ सकता है। इसलिए, उसने
फर्जी पर्चे का विचार छोड़ दिया, परंतु कारागार से सूचना आने-जाने पर कड़ी पाबंदियां
लगा दीं।
कै दियों पर कड़ी पाबंदियों के बावजूद, दस वर्ष की सज़ा भुगत रहे होतिलाल वर्मा ने कु छ
कागजों का इंतजाम किया और वहाँ कै दियों की दयनीय अवस्था पर एक लंबा लेख लिखने
में सफल रहे थे। लेख उन्होंने अपने नाम से लिखने की हिम्मत दिखाई और अपनी कोठरी
का भी विवरण प्रस्तुत किया। यह आवश्यक था कि बाहरी दुनिया को कै दियों के साथ किए
जा रहे दुव्र्यवहार की जानकारी हो। दो या तीन विश्वासपात्र मित्रों के अलावा किसी अन्य
को नहीं पता था कि वह क्या करने जा रहे हैं। होतिलाल का लेख कारागार से चोरीछु पे
भारत पहुँचा, जहाँ वह बेंगाली
के संपादक सुरेंद्रनाथ बनर्जी को प्राप्त हुआ। लेख में
प्रकाशित भयावह विवरणों को पढ़ कर बनर्जी व्याकु ल हो उठे । उन्होंने उसे पूरा छापा,
जिसका गहरा असर हुआ। इस ‘अपराध’ के लिए बेंगाली
की प्रेस को सरकार ने जब्त कर
लिया। लाहौर के ट्रिब्यून
और अमृत बाजार पत्रिका
में भी यह विवरण प्रकाशित हुए थे।
सेल्युलर जेल के कै दियों के हालात की गूंज मैडम कामा के बन्दे मातरम
में भी सुनाई दीः
जेल में कई तरह के कार्य कराए जाते हैं, जिनमें सबसे कठिन है, हाथ या पैर से कोल्हू
चलाना। पैर से चलाने का अर्थ कि चार व्यक्तियों को कोल्हू के साथ बांधकर उन्हें बैल
की तरह गोल-गोल घूमना पड़ता है। उन्हें एक दिन में 30 पौंड तेल निकालना पड़ता है.
. .हाथ से चलाने वाले कोल्हू में दिन में एक पहिया गोल-गोल घुमाकर लगभग 30 पौंड
तेल का उत्पादन. . .नारियल की छाल एक अन्य तरह का काम है. . .जेल में सबसे
सरल कार्य रस्सी बनाने का होता है. . .कम काम करने की सज़ा पहले अपराध के लिए
सात दिनों तक हथकड़ियां; दूसरे अपराध के लिए एक सप्ताह तक हथकड़ियां और
चार दिनों तक गंजी। अगले अपराध के लिए एक या दो महीने तक बेड़ियां, फिर दस
दिनों तक क्रॉसबार और अपराध दोहराये जाने की सूरत में – छह महीने तक बेड़ियां
और एकांत कारावास. . .जेल से बाहर का कार्य और भी कठोर होता है। इस कार्य में
बड़े पेड़ों को काटना और उन्हें एक झुंड में बटोरना; गीली मिट्टी के बड़े ढेले बनाना और
उन्हें कारीगरों को सौंपना; एक दिन में 1200 ईंटें सेकना अथवा 40 गुणा 4 वर्ग गज के
चाय प्लाट की गुड़ाई करना; और यह सब प्रत्येक मौसम में करना होता है. . .यह
बताना भी उचित रहेगा कि भारतीय कारागार संहिता में कै दियों को प्रथम श्रेणी
अपराध में श्रेणीगत नहीं रखा जाता. . .इंदु भूषण राय, अलीपुर मामले में अंडमान में
सज़ा काट रहे राजनीतिक कै दियों में से एक ने आत्महत्या कर ली।
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आलेख के कारण उठी अफरातफरी की अधिकारियों के बीच पत्राचार में झलक स्पष्ट
दिखी। एमएसडी. बटलर ने 7 मई 1912 के पत्र में चिंता जताई, चूंकि इंग्लैंड में इंडिया
ऑफिस के आलोचक ट्रिब्यून
लगातार पढ़ते हैं, इसलिए तुरंत तथ्यों की जांच और जवाब
तैयार करना आवश्यक है। उन्होंने दावे के साथ कहा, ‘यह कहना कठिन है कि राजनीतिक
कै दियों को कोल्हू चलाने या राजगीरों के मददगार के तौर पर काम कराया जा रहा है’।
55
उत्तर में, ए. व्हीलर ने सहमति जताई और कहा कि लेख के अनुसार कै दियों के बुनियादी
मानवाधिकारों और सम्मान के हनन से ‘हाउस ऑफ काॅमन्स द्वारा इसका संज्ञान लिया जा
सकता है।’
56
भारत सरकार के गृह सदस्य सर रेजिनल्ड एच. क्रे डॉक समूचे शोर-शराबे को
नकार रहे थे। उनका मानना था कि तथ्यों की जानकारी प्राप्त करना अनावश्यक नहीं, परंतु
क्रांतिकारी ‘अंडमान में कठोर श्रम से बच नहीं सकते जो उनकी मेडिकल फिटनेस से
संबद्ध है’। आखिर, वह विध्वंस में विश्वास करते थे और ‘हत्या को लक्ष्य मानने वाले अपने
विचारों के नाम पर आम अपराधी से अधिक दुख नहीं पा रहे हैं’।
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वह के वल जानना
चाहते थे कि कै दियों से कै से कार्य कराए जाते हैं। उत्तर में अंडमान के मुख्य कमिश्नर ने
कै दियों की तकलीफों को न्यून बताया। उसने कोल्हू पर श्रम को भी कम आंकाः ‘लेख में
कै दियों को बड़े कोल्हू पर बांधे जाने की टिप्पणी गलत है। उन्हें किसी तरह बांधा नहीं
जाता, वह के वल बीच के खंभे से बंधे कोल्हू को गोल-गोल घुमाते हैं’।
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अंत में यह
साबित किया गया कि राजनीतिक कै दियों के साथ ‘अन्यथा व्यवहार नहीं हो रहा है जो
किसी शिकायत का कारण बने’। उसने अंत में कहाः
मुझे संशय नहीं कि बेंगाली
को सूचना देने वाले के अनुसार ‘राजद्रोहियों’ के लिए
एकमात्र श्रम, लेखा संबंधी कार्य होना चाहिए; हालाँकि, जाहिर है, इसकी अनुमति नहीं
दी जा सकती। संभव है कि अंडमान आने से पहले इनमें से किसी कै दी ने शारीरिक
श्रम या लिपिक या बौद्धिक कार्य नहीं किया और शायद लघु व्यापार का भी इन्हें
अनुभव नहीं है।
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सूचना बाहर निकलने के कारण बैरी क्रु द्ध था। वह सभी कै दियों पर चिल्लाया और आदेश
पारित किया कि सभी कै दी एक दूसरे से दस फीट की दूरी पर रहेंगे। एक साथ भोजन
करने पर भी कड़ी पाबंदी और नजर रखी जाने लगी। लेखक का नाम गोपनीय रखे जाने
पर वह और भी कु पित था। भारतीय प्रेस ने समझदारी दिखाते हुए लेखक का नाम छु पा
लिया था, हालाँकि लेखक ने अपना नाम भेजा था, परंतु नाम देने से कारागार में उनका
भविष्य असहनीय हो सकता था।
28 जुलाई 1912 को मराठा
ने इंदु की आत्महत्या पर गहरी पड़ताल की। लेख में मिलने
वाले विवरण और जेल से चोरी-छु पे भारत मुख्यभूमि और प्रेस तक पहुँच रही सूचना से
इसका स्पष्ट पता चलता हैः
इंदु भूषण ने आत्महत्या क्यों की ? यदि वह बंदी जीवन से तंग आ गए थे तो उम्मीद की
जा सकती है कि वह बहुत पहले ही आत्महत्या कर चुके होते; चूंकि उन्हें अंडमान में
तीन वर्ष से अधिक हो चुके थे। क्या हाल में ऐसा और कु छ नहीं हुआ जिसके कारण
उन्होंने इस अंतिम और घातक विकल्प का चुनाव किया ? क्या यह ऐसे हताश व्यक्ति
का कार्य नहीं था जिसका जीवन अपनी मौजूदा परिस्थितियों के समक्ष असहनीय हो
गया था ? क्या ऐसा था या नहीं, कि 28 अप्रैल की दोपहर, आत्महत्या से कु छ पहर
पूर्व, इंदु भूषण ने जेलर से मिलने की मंशा जाहिर की थी और उन्हें वहाँ ले जाया गया
था और क्या वहाँ उन्होंने बेहद विनय भाव से जेलर से उनका कार्य बदलने का अनुरोध
नहीं किया था, चूंकि वह ‘रामबांस’ पौधे से सफे द पटसन निकालने का कार्य करते थे ?
क्या उन्होंने जेलर से नहीं कहा था – या उनके शब्द यह इंगित नहीं करते थे – ‘देखिए,
मेरे हाथ ‘रामबांस’ के तरल से इतने फट गए हैं कि मैं अपनी उंगलियां भी नहीं हिला
सकता और दर्द के कारण रात में पल भर को भी नींद नहीं ले पाता। मैं भोजन भी
अपने मुँह तक नहीं ले जा सकता। ‘दाल’ के स्पर्श मात्र से ऐसा दर्द उठता है कि मेरी
आँखों से आंसू निकल आते हैं और भोजन बिना खाये ही छू ट जाता है। मैं दर्द और
भूख से मर जाऊं गा। कृ पया मेरा कार्य बदल दें या मुझे मेरी हथेलियों के उपचार के
लिए अस्पताल जाने दें।’ इतना कह कर, उन्होंने अपनी हथेलियां फै ला दीं, परंतु जेलर
से उन्हें झिड़की ही मिली। हम वह शब्द प्रकाशित नहीं करेंगे जो जेलर ने उनसे कहे थे।
ऐसा नहीं कि इंदु भूषण ने पुनः निजी तौर पर पेश होकर अपने हाथ मेडिकल अधीक्षक
को दिखाने का अनुरोध किया हो ? परंतु जेलर ने गरज कर कहाः ‘मेरे आदेश का
पालन करो।’ फिर कु छ मिनट सोचने के बाद कहा, ‘ठीक है, मैं तुम्हारा काम बदल
दूँगा’। और उसने अगले दिन से पहरेदार को इंदु से कोल्हू कार्य कराने का आदेश दिया।
यह सुन इंदु इतना डर गया था कि उसने कहा कि उन हाथों से कोल्हू कार्य करने से वह
मर ही जाएगा। परंतु जेलर अटल रहा और हमारी सूचना के अनुसार अपशब्दों की
बौछार में इंदु को वहाँ से जाना पड़ा। यह दुर्भाग्य की पराकाष्ठा थी और कु छ पहर के
बाद इंदु का मृत शरीर लटका हुआ मिला. . . हमें पता चला है कि समूची बस्ती में
राजनीतिक कै दी फै ले हुए हैं। यदि वह बीमार हो जाएं तो उन्हें निकटवर्ती अस्पताल में
नहीं ले जाया जाता, जो उसी क्षेत्र में है और सामान्य अवस्था में जहाँ उन्हें ले जाया
जाना चाहिए। उन्हें कारागार क्षेत्र के अस्पताल ले जाया जाना चाहिए, जहाँ कै प्टन
बार्क र मेडिकल अधीक्षक और जिला अधिकारी हैं।
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कै दी इस तथ्य से अनजान थे कि अखबारी आलेखों की रोशनी में सरकार ने इंदु भूषण राय
की आत्महत्या और कारागार के आम हालात के संबंध में एक विभागीय जांच शुरू कर दी
थी। हालाँकि, चीफ कमिश्नर बुरे बर्ताव को नकारते हुए अपनी रिपोर्ट सरकार को भेज
चुका था। समूचे घटनाक्रम को गढ़ा हुआ घोषित करते हुए उसने कहा:
29 अप्रैल की सुबह इंदु भूषण राय ने अपने कोट की तीन पट्टियों को फाड़, टुकड़ों को
जोड़कर, कोठरी के रोशनदान से बांधकर फांसी लगा ली थी; और मेरे आदेश पर तुरंत
उप-अधीक्षक द्वारा एक जांच गठित की गई जिसमें स्पष्ट रूप से साबित हुआ कि इंदु
भूषण राय मतिभ्रम से जूझ रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि दो अन्य राजद्रोही
कै दी, नोनिगोपाल मुखर्जी एवं गणेश दामोदर सावरकर, उनकी हत्या करना चाहते थे,
क्योंकि उनका मानना था कि इंदु भूषण राय ने उनके खिलाफ सरकार को सूचना दी है
और इसी कारण उन्होंने आत्महत्या की; उनके एकांत कारावास के समाप्त होने वाले
दिन की सुबह उसने आत्महत्या कर ली, जबकि आम परिस्थितियों में उसकी वही सज़ा
आगे भी बढ़ाई जा सकती थी, आत्महत्या के उपरोक्त कारण की इस तथ्य से पुष्टि हुई
थी। कारागार में गुजारे गए 2 वर्ष और 4 माह के अरसे में इंदु भूषण राय को मिली 3
महीने की एकांत कारावास की सज़ा एकमात्र दंड था. . .कलकत्ता के समाचार पत्रों में
छपने वाले पत्र का लेखक राय ही है।
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मामले को रफा-दफा करने और बैरी के दुर्व्यवहार पर पर्दा डालने वाला यह सोचे-समझे
झूठों का पुलिंदा था। उम्मीद के अनुसार घोषणा हुई, ‘मामले का आधिकारिक वर्णन,
जिसके आधार पर प्रशासनिक अधिकारियों को माफ किया जाता है और इस संबंध में
कोई कदम नहीं उठाया जाएगा’।
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परंतु अभी कु छ और होना बाकी था। मनिकतला बम मामले में अंडमान में उल्लासकर
दत्त सज़ा काट रहे थे। तेरह वर्षों के कठोर कारावास के बाद वह रिहा हुए। इस लंबे और
दुखदायी अनुभव पर उन्होंने विस्तृत रूप में लिखा। छह माह तक कोल्हू चलाने के भयावह
समय के बाद, उन्हें बाहर का काम सौंपा गया जहाँ तेज धूप में ईंटें बनाने की एक फै क्टरी
में काम करना होता था। एक कनिष्ठ मेडिकल अधिकारी का कहना था कि उल्लासकर धूप
में काम करने लायक नहीं हैं, परंतु यूरोपियन अधिकारी ने यह सलाह नकार दी।
हालाँकि, काम के दौरान दूध दिए जाने का प्रावधान था, परंतु दूध बांटे जाने के समय
जेल का छोटा अधिकारी उसे छीन लेता था। उल्लासकर द्वारा मामूली विरोध करने पर उन्हें
ऐसे कार्य में लगाया गया जहाँ दूध का प्रावधान नहीं था। उन्हें ‘एक सीधी चोटी पर चढ़कर,
कु एं से दो बाल्टी पानी निकालकर, उन्हें बांस के दोनों सिरों पर बांधकर उसे उठाकर
उतरना’ था, जिसे उन्हें कं धों पर ढोकर एक अधिकारी के बंगले तक पहुँचाना होता था।
यह कार्य पूरे दिन चलता। कई दिनों उपरांत, थक चुके उल्लासकर ने यह कार्य करने से
इनकार कर दिया। उनके खिलाफ असहयोग और काम से बचने के आरोप लगाए गए।
न्यायाधीश ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया परंतु वह अपने निर्णय पर अडिग रहे।
उल्लासकर ने लिखा हैः
हम, राजनीतिक कै दियों ने कारागार और बस्ती के नियम-कायदों का पालन करने के
लिए जो किया, उसके ऐवज में जेल प्रशासन ने हमसे जरा भी हमदर्दी नहीं दिखाई। तो
फिर हम उनकी इच्छा पर क्यों झुकें ? हम जितना श्रम करते, वह उससे भी अधिक श्रम
हमसे कराते। उन्हें हमारे साथ जो बुरा हो करने दो, अपनी आत्मा को मुक्त रखो। वह
मेरे शरीर पर अधिकार कर सकते हैं, परंतु अपनी आत्मा का मालिक मैं खुद हूं। मैं,
उन्हें, अपनी आत्मा को गुलाम नहीं बनाने दूँगा।
63
अंततः, उल्लासकर को पुनः बैरी के अधीन कारागार में भेजा गया। उनके लौटने पर बैरी
गुर्राया, ‘अगर तुमने अनुशासन तोड़ने का प्रयास किया, तो मैं अपनी बेंत से तुम्हारी पिटाई
करूं गा। तुम्हें तीस बेंत लगाए जाएंगे, जिनमें से हरेक तुम्हारी चमड़ी उधेड़ देगा।’ इसके
विरोध में उल्लासकर का जवाब था, ‘तुम मेरे शरीर के टुकड़े कर सकते हो। मैं अब यहाँ
काम नहीं करूं गा, क्योंकि मैं समझता हूँ कि तुम्हारे आदेश पर काम करना मेरी आत्मा के
विरुद्ध है’। गुस्से में भरे बैरी ने उनके हाथों में जंजीरें बांधकर एक सप्ताह के लिए कोठरी में
डाल देने का आदेश दिया। उल्लासकर मतिभ्रम का शिकार हो गए थे। उन्हें आभास हुआ
कि विनायक को बैरी के साथ द्वंद्वयुद्ध में भेजा गया और जोरदार द्वंद्व में विनायक ने उसे
बुरी तरह पछाड़ दिया। उल्लासकर का दिमागी संतुलन बिगड़ गया था। विनायक ने इस
विषय में लिखा हैः
लगातार हृदयविदारक रुदन से समूचा परिवेश आच्छादित था। मैंने कोठरी नं. 5 से
किसी व्यक्ति को खींचकर ले जाते देखा। दस व्यक्ति उसे उठाकर अस्पताल ले जाने का
प्रयास कर रहे थे। रुदन उसी का था। वह रोया और जमीन पर गिर पड़ा; वह सब हल्ला
कर रहे थे! मैं यह दूर से देख रहा था जब पहरेदार मेरे पास दौड़ा आया और
फु सफु साया, ‘उल्लासकर पागल हो गया है।’ हां! तेज धूप में 107 डिग्री बुखार में तपते
हुए; जंजीरों में और बंधा हुआ, दिमागी संतुलन खोने के अतिरिक्त और होना भी क्या
था ? दिमाग और शरीर, दोनों ही जो असीम बोझ से दबे जा रहे थे, अचानक टुकड़ों में
बिखर गए। वह पहले ही दिमागी तौर पर इतने कमजोर हो चुके थे कि आसानी से
उन्माद की ओर चल पड़े थे। उन्हें मतिभ्रम और छवियां दिखने लगी थीं। दिमाग काबू से
बाहर और शरीर कब्जे से बाहर हो चुका था। शरीर निरंतर दौरे और अकड़न झेल रहा
था, जिस पर दस व्यक्ति भी काबू नहीं कर पा रहे थे।
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समूचा कारागार उल्लासकर द्वारा अपनी माँ को याद करते हृदयविदारक रुदन से गूंज रहा
था। वह ‘अम्मा, अम्मा’ पुकारते रहते। यह जानने के लिए कि वह सचमुच विक्षिप्त हैं या
नहीं, जेल प्रशासन ने उन्हें बिजली के झटके का प्रबंध किया। उल्लासकर के अपने शब्दों
मेंः
अर्ध-जाग्रतावस्था और शरीर में तेज दर्द के दौरान भी मैं साफ देख सकता था कि
मेडिकल अधीक्षक ने मुझ पर बिजली छोड़ी, जिसके झटके झेलना मेरे लिए असंभव
था। बिजली का झटका मेरे + में तेजी से दौड़ गया। प्रत्येक नाड़ी, तंतु और मांसपेशी
फटती हुई लगी। और मेरे ओठों से ऐसे शब्द फू ट पड़े जैसे पहले कभी न निकले थे। मैं
पूरी गरज से चिल्ला उठा और अचानक बेहोशी के आगोश में पहुँच गया। बेहोशी की
हालत में मैं तीन दिन और रात लगातार रहा। होश में लौटने पर मेरे मित्रों ने मुझे यह
बताया।
65
चेतना संपन्न होने के आठ या दस दिनों बाद, उल्लासकर को दयनीयता से पुकारते अपने
नातेदारों की आवाजें सुनाई देने लगी थीं। वह उनके दुःख और परिवार की शर्मिंदा हालत
के लिए खुद को जिम्मेदार मानकर अवसादग्रस्त हो गए। दुःख से बोझिल होकर, उन्होंने
अपने कपड़े फाड़ डाले और एक रस्सी बनाकर इंदु भूषण राय की तरह पिछली खिड़की से
लटक जाने का प्रयास किया। इत्तेफाक से पहरेदार और सेवादार ने उन्हें देख लिया।
प्रतिदिन उनकी बिगड़ती हालत देख, जेल प्रशासन ने उन्हें मानसिक अस्पताल भेज दिया।
उन्हें दौरे और मरोड़ उठने जारी रहे और कभी-कभार उन्हें होश भी लौट आता। कु छ
सप्ताह बाद उन्हें मद्रास के एक अस्पताल में भेज दिया गया जहाँ वह करीब बारह वर्षों
तक रहे।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद विनायक की बैरी से बात हुई। घटना के करीब आठ माह
बाद तक बैरी कहता रहा कि काम से बचने के लिए उल्लासकर बीमारी का नाटक कर रहा
है। उसने उपहास करते हुए विनायक से पूछा कि क्या अब वह पागल होने की तैयारी कर
रहे हैं, जिस पर विनायक ने कहा, ‘बेशक, आपके बाद!’
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विनायक ने उससे कहा कि
राजनीतिक कै दियों के तौर पर उन्हें कु छ सम्मान मिलना चाहिए, या कम से कम, इंसानों
जैसा व्यवहार होना चाहिए। यदि उसका ऐसा ही बर्ताव रहा तो जल्दी ही जेल में और भी
हड़तालें होंगी। उनके शब्दों मेंः
याद है आपने इंदु भूषण के बारे में कहा था कि उसने फांसी इसलिए लगाई क्योंकि वह
विक्षिप्त हो गया था, न कि वह जेल के कठोर श्रम से पीड़ित था ? और फिर, मैंने
आपसे पूछा था कि उसकी विक्षिप्तावस्था का क्या कारण था। तो फिर उल्लास क्यों
विक्षिप्त हुआ ? क्या आप इसका कोई कारण बता सकते हैं ? साहस है तो कहो कि
बंदी-जीवन की कठोरता के अतिरिक्त कोई और कारण था ? यहाँ उनके सामने कोई
उम्मीद, भविष्य की कोई आशा और मौजूदा परिस्थिति में कोई सुकू न नहीं है। दिन-रात
वह हाड़तोड़ श्रम में लगे रहते हैं, दिन-रात उन्हें तुमसे और तुम्हारे आदमियों के हाथों
तिरस्कार और अपमान झेलना पड़ता है। वह इसे कै से बर्दाश्त करें ? तो क्या हैरानी कि
उनके दिमाग संतुलन खो रहे हैं ? अझेल कष्टों से विक्षिप्तावस्था उपजती है और यही
अवस्था आत्महत्या में तब्दील होती है। उल्लास और उसका जीवन इस बात के प्रमाण
हैं और आप उसे नकार नहीं सकते। आपने उसे बेड़ियों में बांधा, उसे कोठरी में आठ
दिनों तक खड़ा रखा; उसे दौरे पड़ने लगे और वह जोर से बिलखने लगा। इस कारण
वह अस्पताल पहुँचा और इसी कारण वह पागलपन की हद तक पहुँचा और आत्महत्या
का प्रयास किया. . .इसलिए हमारे साथ समुचित व्यवहार करें, राजनीतिक कै दियों सा
व्यवहार करें, या कम से कम, आम कै दियों जैसा। इस प्रताड़ना को बंद करो। अन्यथा
हड़ताल के अलावा हमारे पास और कोई चारा न बचेगा। हम तुम्हारे खिलाफ हमेशा
जीत नहीं सकते; तुम्हारे पास ताकत और प्रभुत्व का कवच है, इसलिए यह संघर्ष हमारे
खिलाफ जाएगा। परंतु हम अपने खिलाफ अन्याय का पर्दाफाश करेंगे और अपना
सम्मान बचाएंगे। और यह बेहद संतोषप्रद होगा।
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बैरी फिर भी कठोरता पर कायम रहा। उसने कहना जारी रखा कि उल्लासकर ने काम से
बचने के लिए पागलपन का स्वांग रचा था।
जेल हिस्ट्री टिकट नामक दस्तावेज में कै दियों को दिए गए दंड का ब्योरा दर्ज रहता है।
इसमें सबके रोजमर्रा के कार्य जैसे कोल्हू चलाना या मोटा सन कातना आदि का विवरण
नहीं होता। यहाँ दिए जाने वाले दंड को बेहद कम करके लिखा जाता था, अन्यथा वह
सरकार की नजरों में आ सकते थे। इस दौरान विनायक के जेल हिस्ट्री टिकट के अवलोकन
को देखकर पता चलता है कि वह कारागार में चल रहे असहयोग अभियान के सक्रिय
सहभागी थे।
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19 सितंबर 1912 को उनके पास किसी अन्य के नाम लिखा गया पत्र
बरामद हुआ। घटना का जिक्र उन्हांेंने अपने संस्मरणों में भी किया है, परंतु घटना की
तिथि ज्ञात नहीं। उन्होंने अन्य कै दियों के नाम मोडी लिपि में एक पत्र लिखा था जिसमें
कारागार में हड़ताल करने की विधि के संबंध में समझाया गया था। विनायक की कोठरी
की तलाशी पर इसे जब्त कर लिया गया। इस कारणवश, हाथों में हथकड़ी डालकर उन्हें
एक सप्ताह तक खड़े रहने का दंड मिला। इसी तरह, 23 नवंबर 1912 को एक अन्य पत्र
उनकी कोठरी से जब्त किया गया। इसके बाद उन्हें एक माह एकांत कारावास का दंड
मिला। कारागार में असहयोग अभियान जारी रखते हुए विनायक ने 30 दिसंबर 1912 से 2
जनवरी 1913 तक भूख हड़ताल की और भोजन-पानी नकार दिया। यह तमाम विवरण
कै दियों के खिलाफ हो रहे अत्याचार का प्रतिरोध करने में उनकी सक्रियता की पुष्टि करते
हैं। इस कारण बैरी उनसे नफरत करता था और उन्हें इन गड़बड़ियों के पीछे काम कर रहा
दिमाग माना जाता था।
इस बीच, राजनीतिक कै दियों ने जेल प्रशासन को याचिका देने का निर्णय किया और
इसके लिए चुने गए दो नुमाइंदों में विनायक एक थे। हालाँकि, कारागार में छह महीने काम
कर चुके कै दियों को बाहर कार्य करने की अनुमति मिलती थी, परंतु एक वर्ष बिताने के
बावजूद विनायक और बाबाराव को यह छू ट नहीं दी गई। ऐसा क्यों है, पूछे जाने पर कहा
गया कि सरकार द्वारा इसकी मनाही है। विनायक द्वारा लिखित याचिका में इसका जिक्र
था। याचिका में मांग थी कि राजनीतिक अपराधों के अभियुक्तों को राजनीतिक कै दी
मानना चाहिए, ना कि चोरी एवं अन्य अपराध करने वाले आम अपराधियों जैसा।
राजनीतिक कै दियों के तौर पर कु छ छू ट एवं सुविधाएं उनका हक हैं। उन्होंने मांग रखी कि
उचित भोजन दिया जाए, वह अमानवीय श्रम से मुक्त हों और एक दूसरे से बात करने की
इजाजत हो। याचिका में दलील थी कि राजनीतिक कै दियों को पत्र भेजने और प्राप्त करने,
नातेदारों एवं मित्रों से कभी-कभार मुलाकात या छोटा अधिकारी बनाए जाने जैसी अन्य
कै दियों सरीखी सुविधाएं भी नहीं दी गई। उन्हें आम कै दियों जैसी छू ट के बराबर हकदार
भी नहीं माना गया और न ही विशेष कै दियों जैसी कोई सुविधाएं प्राप्त हुई। यदि वह
राजनीतिक कै दियों के अधिकार मांगते तो उन्हें आम कै दियों द्वारा उनके साथ किए जा रहे
भेदभाव की शिकायत के बहाने टाल दिया जाता, इसलिए जेल प्रशासन ऐसा निर्णय नहीं
लेना चाहता था। उपसंहार स्वरूप, याचिका में कहा गया कि राजनीतिक कै दियों के कारण
वह भारत और अंडमान के बंदी जीवन की सब अयोग्यताओं के पात्र रहे हैं, जिस दौरान
उन्हें भारत और सेल्युलर जेल में आम कै दियों जैसी सुविधाओं की भी प्राप्ति नहीं हुई।
याचिका का अंत, गंभीर चेतावनी से हुआ कि राजनीतिक कै दियों के तौर पर वह जेल में
ऐसा व्यवहार बर्दाश्त नहीं करेंगे। मामले का अंतिम समाधान है – ‘आराम नहीं, छू ट नहीं,
तो कोई कार्य नहीं’। बैरी ने याचिका को पूर्णतः नकार दिया तो कै दियों ने दूसरी हड़ताल
का बिगुल फूं का। उन्होंने कोई भी काम करने से सख्त मना कर दिया, यहाँ तक कि, बैरी के
आने पर खड़ा होना तक बंद कर दिया था।
7 सितंबर से कै दियों ने भूख हड़ताल और काम करना बंद कर दिया, जिसकी शुरुआत
स्वराज
के पूर्व संपादक लद्धा राम ने की। इसके बाद, दूसरा प्रतिरोध, बंगाल के छिनसुरा के
सोलह या सत्रह वर्षीय राजनीतिक कै दी ननी गोपाल के रूप में सामने आया। उन्होंने एक
अंग्रेज अधिकारी की गाड़ियों के काफिले पर बम फें का था। ननी को कोल्हू कार्य में लगाया
गया था जिसे बाद में उन्होंने मना कर दिया। उन्हें जबरदस्ती टाट के बोरे के बने हुए कपड़े
पहनाए गए जो उमस भरे मौसम में बेहद तकलीफदेह होते हैं। नतीजतन, उन्होंने कपड़े
पहनना ही बंद कर दिया। छोटे अधिकारी उन्हें जबरन जमीन पर लिटाकर, उन्हें मोटे कपड़े
पहनाते और एक तरह से उन्हें शरीर पर सिल ही देते थे। परंतु वह रात को उन्हें फाड़ देते।
यह रोकने के लिए उन्हें जंजीरों में जकड़ा गया और हाथ-पांव बांध दिए गए। वह किसी भी
सवाल का जवाब नहीं देते और नहाने भी नहीं आते थे। इस पर उन्हें उठाकर पानी के कुं ड
पर लाया जाता और नारियल की छाल उनकी चमड़ी पर इतनी जोड़ से रगड़ी जाती कि
खून निकल आता था। ननी गोपाल पूर्णतः निर्वस्त्र रहने लगे, जिस कारण प्रशासन से
तनाव और बढ़ गया था। वह राजनीतिक कै दी का स्तर चाहते थे।
बैरी ने बेंत के सहारे ननी को सबक सिखाने का फै सला किया। विनायक ने उसे चेतावनी
दी कि ऐसे किसी भी प्रयास के गंभीर परिणाम होंगे और उन्हें इसके लिए तैयार रहना
चाहिए। यों भी, लॉर्ड मार्ले ने राजनीतिक कै दियों पर इस तरह की कठोरता लागू करने पर
रोक लगाई थी। इसे अनसुना करते हुए, प्रताड़ना का आदेश दिया गया जिससे ननी की
हालत गंभीर हो गई थी। जब तक पीटने वाले जेलर ने यह नहीं देखा कि अब वह दम तोड़
देंगे, वह दृढ़ता से प्रताड़ना झेलते रहे। उन्हें कु छ दिन वाइपर द्वीप के जिला कारागार में
भेजा गया ताकि वह राजनीतिक कै दियों के घातक असर से दूर रह सकें । परंतु यह जेल
प्रशासन की गलती थी।
वापसी पर, ननी ने भूख हड़ताल शुरू की। अधिकारियों ने उनके नाक में पाइप के रास्ते
दूध डालकर उन्हें जबरदस्ती भोजन देने का प्रयास किया। बैरी को महसूस हुआ कि इंदु की
आत्महत्या और उल्लासकर के पागल हो जाने के बाद, ननी की मृत्यु विवाद खड़ा कर
देगी। परंतु ननी जिद पर अड़े रहे और कु छ भी खाने से इनकार किया। विनायक ने भी उन्हें
इस तरह अपना जीवन देने से रोकने की भरसक कोशिश की, परंतु ननी की भूख हड़ताल
कई दिनों तक चली और उनका वजन तेजी से गिरने लगा।
इसी दौरान, अफवाह गर्म हुई कि बाहर काम कर रहे कै दियों ने छिपे हुए कारखाने में बम
बनाना आरंभ कर दिया है। कै दियों के काम करने के स्थान के निकट, बम निर्माण में काम
आने वाले ग्रामोफोन के पिन और कु छ लौह कण बरामद हुए थे। हालाँकि, अपने संस्मरणों
में बरिन घोष और उपेंद्रनाथ बनर्जी ने अफवाहों को अपने एक साथी कै दी, लालमोहन
साहा की शैतानी और मनगढ़ंत कहानी कह कर खारिज किया है। विनायक बताते हैं कि
एक सुबह सेल्युलर जेल में व्यापक धरपकड़ की गई और ‘कारण बताया गया कि
अधिकारियों को सूचना मिली है कि बस्ती में काम कर रहे राजनीतिक कै दियों ने बम बनाने
का कारखाना शुरू कर दिया है’। उन्होंने रहस्यमय ढंग से कहा है कि, ‘यह पूरी तरह
बेबुनियाद आरोप नहीं था। परंतु तलाशी और गिरफ्तारी से कु छ प्रमाण नहीं मिले।’
69
इससे पता चलता है कि उन्हें इसका ज्ञान या उनकी कोई भूमिका जरूर थी, परंतु कोई भी
इस संबंध में पुष्टि नहीं कर सकता। हालाँकि, अपनी सज़ा पर वह इसके असर को लेकर
चिंतित थे। उन्होंने लिखा हैः
मेरा भविष्य क्या होगा, यह सोच मैं व्यग्र था। एक षडयंत्र के मामले में पहले ही मैं बहुत
कु छ झेल चुका था, और डर था कि यह मामला किस ओर जाएगा। हम लोग पहले ही
आजीवन कारावास झेल रहे थे; मेरी उम्रकै द पचास वर्षों की थी। यह सज़ा जिस दैवी
कृ पा से मेरे हिस्से आई थी, नए आरोप में मुझे लिप्त कर देगी और कु छ और
अनिष्टकारी होकर रहेगा। मैं बाहर बस्ती में जाने की भी नहीं सोचता था। बम निर्माण
और नावें किराये पर लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। अधिकारी मेरे साथ बदतमीजी
करते और कहते कि मुझे सब भूल जाना चाहिए। उन्हें भारत सरकार की ओर से
आदेश था कि मुझे मेरी पचास वर्ष की पूरी सज़ा काटने से पहले या उससे पहले मर
जाने तक जेल से नहीं छोड़ना था।70
प्रमाण की कमी के कारण भारत सरकार ने किसी भी कै दी की जांच या उन पर आरोप न
लगाने का फै सला किया। परंतु इस पर पोर्ट ब्लेयर का प्रशासन खासा नाराज हुआ।
राजनीतिक कै दियों द्वारा नावें किराए पर लेकर अन्य को जेल से भागने में मदद करने
संबंधित कहानियाँ भी फै ल चुकी थीं। कारागार के हालात, कै दियों की आत्महत्या और
हड़तालें, और सबसे ज़रूरी, बम बनाने के प्रयासों की सूचना मुख्य भूमि भारत की प्रेस
तक पहुँच चुकी थीं। इम्पीरियल लैजिस्लेटिव काउंसिल में अंडमान की हलचल पर प्रश्न
उठने लगे थे। अब सरकार इस ओर से आँखें नहीं मूंद सकती थी। आखिरकार, अक्तू बर
1913 में भारत सरकार के गृह सदस्य सर रेजिनल्ड एच. क्रे डॉक ने सेल्युलर जेल जाकर
वहाँ के राजनीतिक कै दियों से उनकी शिकायतें सुनने का निर्णय किया। अंततः, असहयोग
गतिविधियाँ पूरी तरह व्यर्थ नहीं जा रही थीं।
9
जेल वृत्तांत
सेल्युलर जेल, अक्तू बर 1913
सर रेजिनल्ड एच. क्रे डॉक की पारिवारिक पृष्ठभूमि ब्रिटिश राज से गहरे से जुड़ी थी। उनके
पिता मेजर विलियम क्रे डॉक पहली गुरखा राइफल्स (अन्य नाम मलॉन रेजिमेंट और सम्राट
जाॅर्ज पंचम की गुरखा राइफल्स) में सर्जन रह चुके थे। ऑक्सफोर्ड स्नातक, रेजिनल्ड
क्रे डॉक तरक्की प्राप्त करते हुए भारत सरकार के गृह सदस्य के पद पर पहुँचे थे। बाद में
वह बर्मा के गवर्नर भी रहे। अक्तू बर 1913 को वह महत्वपूर्ण कार्य के लिए अंडमान द्वीप
समूह रवाना हुए। लंबे समय तक भारत सरकार अंडमान और सेल्युलर जेल को दूर
समझकर नजरअंदाज करती रही थी। परंतु विरोध एवं असंतोष की खबरें, और बाद में
कै दियों के साथ दुव्र्यवहार एवं बम बनाकर मुख्यभूमि भारत भेजे जाने की सूचनाओं पर
व्याप्त शोर से सरकार चौकन्नी हो गई। अतः, क्रे डॉक को पोर्ट ब्लेयर के मामले की गहरी
छानबीन करने, और जितने संभव हों, राजनीतिक कै दियों से मिलकर, सरकार को रिपोर्ट
देने का अधिकार दिया गया था। रोचक है, यद्यपि, सेल्युलर जेल में क्रे डॉक के आगमन की
खबर को जेल प्रशासन ने राजनीतिक कै दियों से गुप्त रखा था परंतु उनकी यात्रा के संबंध
में प्रशासन सवालों से घिर गया था। यह देख अधिकारी सतर्क हो गए। इससे यह भी
साबित होता था कि कड़ी निगरानी के बावजूद कै दियों को एक दूसरे और बाहरी दुनिया से
दूर रखना कठिन था। क्रे डॉक से मिलने कु छ कै दियों को बुलाया गया जिनमें विनायक,
हृषिके ष कांजीलाल, बरिन घोष, नंद गोपाल और सुधीर कु मार सरकार थे। कोठरियों को
निकट से देखने के दौरान क्रे डॉक ने बीरेंद्र सेन (सिल्हट क्रांतिकारी गुट के सदस्य), उपेंद्र
नाथ बनर्जी, होतिलाल वर्मा और पुलिन बिहारी (ढाका गुट के नेता) से भी बात की।
विनायक ने क्रे डॉक से बातचीत विवरण दिया है। क्रे डॉक ने बातचीत की शुरुआत युवा,
प्रतिभाशाली बैरिस्टर की हालत पर संवेदना व्यक्त कर की थी, यानी एक युवा जिसका
भविष्य कभी उज्ज्वल था। जवाब में विनायक ने कहा कि उनका जेल से बाहर जाना
के वल क्रे डॉक के हाथों में है। उन्होंने कहा कि भारत में जिन सुधारों की बात की जा रही है,
यदि वह सच हैं तो वह और उनके साथी जिन्हें क्रांतिकारी कहा गया है, शांति का मार्ग
अपना लेंगे। यहाँ विनायक 1909 के मार्ले-मिंटो प्रशासनिक सुधारों और गोपालकृ ष्ण
गोखले के शिक्षा विधेयक की बात कर रहे थे। 1910 से गोखले भारत में अनिवार्य
प्राथमिक शिक्षा लागू किए जाने पर प्रयासरत थे। बहुत दुविधा के बाद अंततः सरकार
राजी हुई। इस पहल को दिल्ली दरबार के दौरान सम्राट जाॅर्ज पंचम से 50 लाख रुपये के
अनुदान से अतिरिक्त प्रेरणा भी मिली। फलस्वरूप, सरकार ने गोखले की सिफारिशों को
मानते हुए 21 फरवरी 1913 में इस संबंध में कानून पारित किया। 15 दिसंबर 1912 को
पोर्ट ब्लेयर से लिखे पहले पत्र से साफ होता है कि सेल्युलर जेल में रहते हुए भी विनायक
को घटनाक्रम की जानकारी थी।
सरकार द्वारा सुधारों के सशक्त एवं समझौतारूपी रुझान पर विनायक के दावे के बावजूद
क्रे डॉक असहमत था कि क्रांतिकारी हिंसा का मार्ग छोड़ देंगे। उसने जोर देकर कहा कि
विनायक के अनुयायी अब तक उसके कदमों पर चलते हैं और भारत, यूरोप एवं उत्तरी
अमेरिका में गुप्त संगठन एवं क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न हैं। जब उनसे पूछा गया कि
क्या वह इन विचारों का समर्थन करने वाला एक पत्र लिखेंगे तो विनायक ने सहमति जताई
और कहा कि वह उनकी ओर से लिखा गया स्वतंत्र पत्र होगा, सरकारी पत्र नहीं। तो
क्रे डॉक ने ऐसा करने पर रोक लगा दी।
तत्पश्चात्, क्रे डॉक ने उनकी शिकायतों पर प्रश्न किया। जेल में उनके एवं अन्य द्वारा झेली
जा रही प्रताड़नाओं का सविस्तार ब्योरा विनायक ने दिया। बैठक में अंडमान एवं निकोबार
द्वीपसमूह के चीफ कमिश्नर एमडब्ल्यू डगलस भी मौजूद थे, जिन्होंने टोकते हुए पूछा कि
ब्योरे को शिकायत कै से समझा जा सकता है। सरकार को उखाड़ फें कने का प्रयास करने
वाले राजनीतिक कै दी एवं हत्यारे के लिए यही न्यायसंगत परिणाम है। उन्होंने कहा कि
यदि भारत पर रूस का शासन होता तो उन्हें साइबेरिया भेज दिया जाता अथवा पीठ पर
गोली मार दी जाती। यह उनका सौभाग्य है कि ब्रिटिश भारत पर राज कर रहे हैं और उनके
साथ नरमी बरती जा रही है। विनायक ने शांत भाव से उत्तर दियाः
मुझे पक्का विश्वास है, हालाँकि, रूस ने भारत को निशस्त्र नहीं किया होता। आज रूस
साइबेरिया के बाशिंदों और विदेशियों को अपनी सेना में भर्ती करता है और उन्हें
जिम्मेदार पद भी देता है। वह भारतीयों को भी ऐसे ही पद देता, और यदि वह हमारे
साथ आपके जैसा व्यवहार करता, तो हम उन्हें भी पछाड़ देते, जैसे हमने मुगल सम्राटों
को हराया था।
1
क्रे डॉक ने कहा कि अतीत के हिन्दू राजा विद्रोही को हाथी के पैरों तले कु चलवा देते।
विनायक ने विनयपूर्वक कहा कि वह अतीत में ना झांकें , क्योंकि विद्रोहियों पर इंग्लैंड की
बर्बरता दस्तावेजों में दर्ज है। क्रे डॉक को आईना दिखाते हुए उन्होंने कहाः
मैं जानता हूँ कि इंग्लैंड में बड़ा अपराध करने वाले को सड़कों पर खींचकर फांसी दिया
करते थे। परंतु यह अतीत की बातें हो गई जिस पर किसी को आज बात नहीं करनी
चाहिए। आज इंग्लैंड में चोर को फांसी नहीं दी जाती। सच यह है कि सभ्यता के लाभ,
वह जहाँ भी पनपे, से सब बराबर लाभान्वित होते हैं। अतीत में विद्रोही को हाथी के
पैरों तले कु चलवाया जाता था, परंतु राजा को हराने वाला उसे फांसी के तख्ते पर
पहुँचाता था। चार्ल्स प्रथम और अंग्रेजी बगावत इसके उदाहरण हैं। दोनों ओर अब
सभ्य विधियां अपनाने का नियम लागू है, और, जैसा कि आप हमसे सहमत हैं, हम
आपसे समुचित व्यवहार एवं बर्ताव की उम्मीद रखते हैं। यदि आप कहेंगे कि आपका
व्यवहार बर्बर रहेगा, तो हम परिस्थिति अनुसार सामना करेंगे।
2
इसके बाद विनायक को अपने मामले के संबंध में औपचारिक याचिका दायर करने को
कहा गया। सरकार को याचिका सौंपे जाने का यही विकल्प बरिन घोष, नंद गोपाल,
हृषिके ष कांजीलाल एवं सुधीर कु मार सरकार को भी दिया गया। सबने अपनी याचिकाएं
दायर की।
अंग्रेजी शासन के दौरान अदालत में राजनीतिक कै दियों के लिए वकील के जरिए अपनी
पैरवी जैसे ही याचिका दायर करना वैध तरीका था। और विनायक निरंतर याचिकाएं दायर
करते थे। अंडमान जेल में रहने और वहाँ आने से पहले वह विभिन्न मुद्दों पर दस से अधिक
याचिकाएं दायर कर चुके थे, जिसमें बायकु ला जेल में दूध एवं पुस्तकों की उपलब्धि
संबंधित याचिका भी थी। वकील के तौर पर विनायक कानून से वाकिफ थे और खुद को
रिहा कराने या जेल में बेहतर हालात के लिए सभी प्रावधानों का लाभ उठाने को तैयार
रहते थे। यों भी उम्रकै द की सज़ा काट रहा व्यक्ति सर्वप्रथम खुद को रिहा कराने के सभी
वैधानिक विकल्प खंगालता है। वह अक्सर विचार रखते कि क्रांतिकारी का प्राथमिक
उद्देश्य खुद को अंग्रेजी चंगुल से मुक्त कराकर स्वतंत्रता संघर्ष में लौटना होना चाहिए।
14 नवंबर 1913 की याचिका में विनायक ने अपने मामले के कई कानूनी पक्षों का
उल्लेख किया।
3
उन्होंने कहा कि जब वह सेल्युलर जेल पहुँचे थे, उस समय के वल वही
‘डी’ (डेंजरस) श्रेणी के कै दी थे। उन्हें छह महीने तक एकांत कारावास में रखा गया और
बेहद सख्त कार्य कराए गए। इस दौरान उनके ठीक व्यवहार के बावजूद उन्हें अन्य कै दियों
की तरह बाहर नहीं भेजा गया। यह स्थिति अठारह महीने तक रही। जब उन्होंने स्थिति में
सुधार के बारे में याचिका भेजी तो उन्हें कहा गया कि वह विशेष श्रेणी के कै दी हैं और यह
नहीं किया जा सकता। जब अन्य कै दियों ने बेहतर भोजन या अन्य को विशेष सुविधा की
मांग की तो कहा गया कि वह ‘आम कै दी’ हैं, इसलिए लाभ नहीं मिल सकते। उन्होंने
जानना चाहा कि एक ओर विशेष श्रेणी का दर्जा क्यों और सुविधा क्यों रोकी गई, वहीं
दूसरी ओर, कै दियों को विशेष श्रेणी का ना मानकर अच्छा भोजन या छू ट क्यों नहीं मिली।
उन्होंने हैरानी जताई कि दोनों ओर ऐसा कै से हो सकता है ? यदि वह किसी भारतीय जेल
में राजनीतिक कै दी होते तो उन्हें कु छ छू ट मिलती, परिवार को अधिक पत्र भेजने की
सुविधा एवं उनसे मिलने के अवसर मिलते।
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यदि वह के वल निर्वासित होते तो प्रचलित
मानकों के अनुसार उन्हें कु छ वर्षों बाद छोड़ दिया जाता या रिहा होने वाले होते।
5
परंतु
उन्हें भारतीय जेल एवं कै दी बस्ती के नियमों से जुड़ी सुविधाएं नहीं मिलीं, जिस कारण
दोनों ओर की असुविधाएं झेलनी पड़ रही हैं।
उन्हांेने सरकार से कहा कि वह ‘इस नियम-विरुद्ध प्रचलन को बंद करें. . .मुझे भारतीय
जेल में भेज कर या किसी भी अन्य कै दी की तरह निर्वासित मान कर। मैं बेहतर व्यवहार
नहीं मांग रहा हूं, हालाँकि मेरा मानना है कि बतौर राजनीतिक कै दी विश्व के स्वतंत्र राष्ट्रों के
सभ्य प्रशासनों में ऐसी उम्मीद भी की जा सकती है।’ अंग्रेज शासित भारत को असभ्य
कहने से जुड़ा यह परोक्ष उपहास था। विनायक ने भारतीय जेल में ले जाए जाने पर जोर
दिया जहाँ उन्हें कु छ छू ट प्राप्त हो सकती थी, जैसे प्रत्येक चार माह में परिवारजनों से
मिलना, अधिक पत्राचार, और चौदह वर्ष बाद रिहा होने का कानूनी नहीं तो नैतिक
अधिकार। उन्होंने कहा कि यदि उन्हें भारतीय जेल में नहीं भेजा जा सकता तो पोर्ट ब्लेयर
के अन्य कै दियों की तरह सेल्युलर जेल से बाहर जाने की अनुमति मिले, और अवकाश भी
मिलें, जिसके आधार पर परिवार उनसे मिलने आ सके एवं अन्य आम छू ट भी दी जाए।
तत्कालीन कानून के अंतर्गत उस समय के कै दियों के अंतर और उन्हें मिलने वाली
सुविधाओं के बारे में जानना ज़रूरी है। इसका ब्योरा 15 नवंबर 1913 को दायर नंद गोपाल
की याचिका से प्राप्त होता है। नंद गोपाल ने कोल्हू कार्य के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी और
अपने कानूनी अधिकार के अनुसार याचिका भी दायर की। उन्होंने बताया कि दो तरह के
कै दी हैं – एक भारतीय जेलों के कै दी और दूसरे जिन्हें पोर्ट ब्लेयर भेजा जाता है। निर्वासन
के लिए अनुचित समझे जाने वाले अपराधियों को अभी भारतीय जेलों में ही रखा जा रहा
है। भारतीय जेलों में बंद, उम्रकै दी को भी अनेक सुविधाएं प्राप्त हैंः
. .व्यक्ति अपने माता-पिता, मित्रों एवं अन्य नातेदारों को वर्ष में दो बार देख सकता है।
वह वर्ष में कम से कम दो पत्र लिख सकता है। सीएनडब्ल्यू एवं अपराधी-पहरेदार एवं
ओवरसियर श्रेणी में पहुँच कर उसे अधिक सुविधाएं मिलती हैं। जितने पत्र उसे प्राप्त
होते हैं, अधीक्षक की अनुमति से उतने ही उत्तर वह लिख सकता है, अनुमति लगभग
हमेशा प्राप्त होती है। जितनी पुस्तकें उसे भेजी जाती हैं, वह अपने साथ रख सकता है।
उसे तेज धूप या बरसात में काम करने को मजबूर नहीं किया जाता, जैसा कि यहाँ के
कै दियों के साथ होता है। उन्हें पोर्ट ब्लेयर के कै दियों के कठोर कार्य का आधा भी नहीं
करना पड़ता।
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नंद गोपाल ने स्पष्ट किया कि कै दियों की सबसे बड़ी शिकायत भारतीय जेलों में कै दियों को
अक्सर मिलने वाली छू ट का अभाव था। उन्हें विशेष तौर पर ‘मार्क -सिस्टम रिमिशन’ को
उद्धृत किया जिसके आधार पर उम्रकै द भोग रहे कै दी को चौदह वर्षों बाद रिहा करने का
प्रावधान था। उसके पास राजशाही जैसी असाधारण क्षमा के आधार पर दो या तीन वर्षों में
भी छू टने का मौका होता है। भारतीय जेलों के सभी राजनीतिक कै दियों को इसका
अधिकार था। उन्होंने लिखा कि पोर्ट ब्लेयर की कै दी बस्ती में प्रत्येक कै दी को सेल्युलर
जेल में छह माह का एकांत कारावास दिया जाता था। जिसके बाद उसे बाहर काम करने
एवं टिकट अवकाश प्राप्त होता। परंतु आम कै दी का दर्जा खो चुके राजनीतिक कै दियों से
यह सुविधा छीन ली गई थी।
बरिन घोष, नंद गोपाल, कांजीलाल एवं सरकार ने भी भारतीय जेलों में भेजे जाने एवं
संबंधित सुविधाएं पाने जैसी मिलती-जुलती याचिकाएं दायर कीं। याचिकाओं के अनुसार
यदि यह संभव नहीं था तो पोर्ट ब्लेयर में ही कै दियों को मिलने वाली सुविधाओं की मांग
रखी।
याचिका में विनायक ने सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया कि किसी उम्रकै दी की बजाय,
उन्हें वहाँ पचास वर्ष गुजारने हैं और उनके लिए ‘एकांत कारागार में गुजारने की नैतिक
ऊर्जा प्राप्त होनी कठिन है जबकि सबसे अधम कै दियों को दी जाने वाली छू ट की भी
मनाही है’।
7
उन्होंने कहा कि क्रे डॉक के साथ वह सरकार के संवैधानिक सुधारों एवं शिक्षा
पर बात कर चुके हैं, जबकि उनके द्वारा हथियार उठाने से पहले, 1909 से पूर्व ऐसा नहीं
था। उन्हांेने कहाः
इस तरह यदि सरकार अपनी बहुरूपी उदारता एवं दया कर मुझे छोड़ती है तो मैं
संवैधानिक सुधार एवं अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहूंगा. . .जब तक हम जेल में हैं,
तब तक सरकार के लिए असली खुशी एवं हर्ष एवं कृ तज्ञता नहीं हो सकती, जो दंड
देने एवं प्रतिशोध की बजाय माफ करना एवं सुधारना जानती है। साथ ही, मेरे द्वारा
संवैधानिक लीक पर चलना भारत एवं विदेश में मौजूद पथभ्रमित युवाओं को सही मार्ग
पर लाएगा जो कभी मुझमें अपना मार्गदर्शक देखते थे। मैं सरकार के लिए किसी भी
क्षमता में कार्य करने को तैयार हूं, चूंकि मेरा बदलाव शुद्ध अंतःकरणवाला है, तथा मुझे
यकीन है कि मेरा भावी आचरण भी वैसा ही होगा। मुझे जेल में रखने से कु छ प्राप्त
नहीं हो सकता, जो अन्यथा हो सकता है। शक्तिशाली ही दयालु हो सकता है और फिर
प्रायश्चितरत पुत्र सरकार के अभिभावक रूपी द्वार के अतिरिक्त कहां जाएगा।
एक ओर जहाँ एजी नूरानी ने जहाँ इस कदम को विनायक की ‘कायरता’ कहा है, और
उन्हें अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बन जाने की बात की है, वहीं धनंजय कीर जैसे
जीवनीकारों ने इसे वैसी ही सोची-समझी नीति करार दिया है, जैसे औरंगजेब को शिवाजी
द्वारा रिहाई के लिखे गए पत्रों को यथाशब्द नहीं लिया जा सकता।
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एक ऐतिहासिक चरित्र
का उसके समय एवं संदर्भ के अनुसार आकलन करना चाहिए, जिसके विपरीत दोनों पक्ष
अपने आकलन में अति निंदनीय या प्रशंसा रूपी हो जाते हैं। अक्सर, विनायक के विरोधी
सतही तौर पर इन याचिकाओं का ऐतिहासिक या पारिस्थितिजन्य संदर्भ ना लेकर आंशिक
जिक्र करते हैं, जिसके आधार पर वह मौजूदा राजनीतिक कथानक में अपने पक्ष में दलील
गढ़ते हैं। यह प्रयास ऐतिहासिक तौर पर त्रुटिपूर्ण सोच से जुड़ा है।
बाइबल के ‘प्रायश्चितरत पुत्र’ (प्राडिगल सन) संदर्भ को विनायक द्वारा उनके सज़ा
प्रदाताओं की धार्मिक भावनाओं को अपील करने का प्रयास भी माना जा सकता है।
उपरोक्त ‘दया याचिका’ के अध्ययन से दुविधा में पड़ा एक व्यक्ति नजर आता है जो रिहाई
के ऐवज में सरकार का वफादार बनना चाहता था, परंतु इससे पहले वह जो तार्किक पक्ष दे
रहे थे, वह इस ओर इशारा नहीं करते। विनायक जैसे विवादास्पद एवं निंदा के पात्र बनाए
गए ऐतिहासिक व्यक्तित्व का वस्तुनिष्ठ आकलन करते समय अनेक प्रश्न उठते हैं। क्या
उनका लंबा और विषिष्ट भावी राजनीतिक कार्यकाल अंग्रेजों के प्रति वफादारी निभाने की
उनकी मंशा को चरितार्थ करता है ? चूंकि वह गांधीजी के लोकप्रिय जनांदोलन के कु छ
पक्षों के खिलाफ थे, इस आधार पर यदि विरोधी पक्ष साबित करना भी चाहे कि ऐसा ही
था, तो क्या कांग्रेस के वैश्विक सिद्धांत का उनका विरोध देश के पक्ष में रहा या उससे
स्वतंत्रता आंदोलन को नुकसान पहुँचा, यह आकलन कम ही किया गया है। भविष्य की
बात छोड़ दें तो सेल्युलर जेल में ‘लचीली’ याचिकाओं के तुरंत बाद की घटनाएँ भी सरकार
की शर्तें मानने या सहयोग की मंशा से नहीं मिलतीं।
प्रश्न यह है कि क्या अंग्रेज उनकी कथित वफादारी पर भरोसा करते थे या उन्होंने उनकी
झुकने की मंशा को मान लिया था या वह विनायक द्वारा प्रेषित खतरों से हमेशा शक में रहे
? यदि वह सचमुच अंग्रेजों के प्यादे बन गए थे, तो क्यों अंग्रेज एक दशक और उसके बाद
भी उन पर शक करते रहे और भारत के सबसे खतरनाक व्यक्तियों में से मानते रहे ? इन
प्रश्नों के आधार पर यहाँ उनका आकलन किया जाएगा और इतिहास का पलड़ा उनकी
ओर झुकता दिखता है। 1913 की वह याचिका आज तक बहस का मुद्दा बनी हुई है
जिसके जरिए वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक आकलन की कई संभावनाएं बनती हैं। क्या सेल्युलर
जेल की प्रताड़नाओं ने उनकी हिम्मत तोड़ डाली थी ? बेशक ऐसा ही था, ऐसी
परिस्थितियों में वह किसी के साथ भी होता, विशेषकर आयु के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में।
अपने संस्मरणों में हिम्मत टूटने और आत्महत्या के प्रयास के संबंध में विनायक ने ही कई
बार लिखा है। परंतु क्या हिम्मत के टूटने पर वह अंग्रेजों की कठपुतली बन गए ? इसका
निश्चित उत्तर है, नहीं। इस अप्रिय एवं महत्वपूर्ण प्रश्न पर सच्चरित्र लेखकों की बजाय
ऐतिहासिक साक्ष्य ही उनकी पैरवी करते हैं।
एसएस महाराजा
पर, अंडमान से भारत की वापसी यात्रा के दौरान, क्रे डॉक ने कै दियों के
साथ बातचीत का सविस्तार रिपोर्ट में उल्लेख किया। उन्होंने बेंगाली
के आलेखों को
खारिज किया जिनमें, उनके अनुसार, राजनीतिक कै दियों को ‘पथभ्रष्ट राष्ट्रभक्त, आम
कै दियों की तरह दुव्यर्वहार के शिकार, जिन्हें रोग एवं पागलपन की ओर उकसाया जा रहा
है। बेशक यह सब गलत है। स्वर्गीय अधीक्षक कर्नल ब्राउनिंग के तहत, कै दियों के साथ
व्यवहार अपेक्षाकृ त कमजोर था’।
9
विनायक के साथ अपनी बातचीत पर क्रे डॉक ने साफ
लिखा है कि अपने करने पर, ‘उसने कोई खेद या पछतावा व्यक्त नहीं किया’। इसके
बावजूद, उसने अपने विचार बदले हैं और कहा कि ‘1906-1907 में भारतीयों की
निराशाजनक हालत देखकर वह षडयंत्र की ओर उन्मुख हुए थे’। परंतु जब भारत सरकार
ने समितियों, शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में समझौताकारी रुझान दिखाया तो, ‘क्रांतिकारिता का
विषय विलुप्त हो गया। उसने कहा कि उसके लिए दया, उन लोगों के लिए दिलासा होगी
जो अभी तक अंग्रेजी शासन के खिलाफ षडयंत्र करना चाहते हैं, और वह स्थानीय प्रेस को
अपने परिवर्तित विचारों के संबंध में एक खुला पत्र लिखेंगे’। क्रे डॉक ने कहा कि वह उन्हें
कु छ वादा या आश्वासन देना चाहते थे, जो जाहिर है नहीं दे सके ।
क्रे डॉक ने मत व्यक्त किया कि, ‘यहां उन्हें छू ट देना बेहद असंभव है और मैं सोचता हूँ कि
वह किसी भी भारतीय जेल से भाग सकता है। वह इतना महत्वपूर्ण नेता है कि यूरोपीय
धड़े के भारतीय अराजकतावादी उसके पलायन का काम कर सकते हैं जिसकी योजना
लंबे समय से तैयार होगी। यदि उसे अंडमान की सेल्युलर जेल से बाहर भेजा जाएगा, तो
उसका पलायन निश्चित है। उसके मित्र आसानी से किसी द्वीप से स्टीमर का इंतजाम कर
सकते हैं और स्थानीय स्तर पर एकत्र छोटी सी रकम शेष कार्य कर देगी।’ विनायक जैसे
व्यक्ति के लिए भी अनिश्चित काल तक कमरतोड़ मेहनत करना संभव नहीं है। क्रे डॉक ने
कहा, ‘उसके संबंध में, कु छ वर्षों के कठोर श्रम के बाद दंड प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है और
शेष अवधि के लिए यह सज़ा नहीं, बल्कि के वल कारागार दंड लागू होना चाहिए, क्योंकि
वह बाहरी समुदाय के लिए खतरा है।’ उन्होंने विनायक के बारे में भविष्यवाणी रूप में
अपने विचारों के साथ अवलोकन समाप्त किया कि ‘वह किस हद तक खतरनाक रहेगा या
नहीं, वह बाहरी परिस्थितियाँ एवं कारागार में उसके अपने व्यवहार पर निर्भर करेगा, और
कोई नहीं कह सकता कि 10, 15 अथवा 20 वर्षों में परिस्थितियाँ क्या होंगी।’
10
क्रे डॉक के जाने के बाद विनायक का जेल इतिहास
11
बताता है कि एक माह बाद ही, 16
दिसंबर 1913 को उन्होंने हड़ताल की और जिसके लिए उन्हें बिना कार्य या पुस्तकों के एक
माह का एकांत कारावास दिया गया। इसके बाद उन्हें रस्सी बनाने का काम सौंपा गया।
कु छ महीने बाद, 8 जून 1914 को उन्होंने फिर काम करने से इनकार किया। नतीजा, उन्हें
सात दिनों तक हथकड़ी बांध कर खड़े रखा गया। धृष्टता के लिए चार महीने वह बेड़ियों में
जकड़े रहे। सज़ा समाप्त होने के एक दिन बाद यानी 16 जून 1914 को उन्होंने फिर
हड़ताल कर दी। इस गुस्ताखी पर उन्हें चार महीने बेड़ियों में जकड़ा गया तो इस पर भी वह
शांत नहीं हुए और 18 जून 1914 को फिर हड़ताल शुरू कर दी। इस पर प्रशासन ने उन्हें
दस दिनों तक आड़ीडंडा/बेड़ी पर बांधा। कहना ना होगा कि क्रे डॉक के जाने के बाद उनकी
टिकट में दर्ज सजाएं देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह व्यक्ति अंग्रेजों से सहयोग या उनकी
कठपुतली बनने को तैयार था।
विनायक के साथ व्यवहार पर ब्रिटिश संसद में भी प्रश्न उठे ।
12
23 जून 1914 को संसद
सदस्य जोसाया सी. वेजवुड ने हाउस ऑफ काॅमन्स में सरकार से प्रश्न पूछा कि वह उस
व्यक्ति की याचिकाओं पर विचार क्यों नहीं कर रही, जबकि आयरलैंड में वैसे ही अपराध
करने वाले लोग पूर्णतया आज़ाद घूमते हैं। जवाब में, सरकार की ओर से सी. रॉबर्ट्स ने
कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं कि विनायक ने कारागार अनुशासन का उल्लंघन
किया है जिस कारण उन्हें अस्थायी तौर पर बेड़ियां पहनने की सज़ा मिली। यह के वल
विशिष्ट सज़ा है, प्रचलित मानक नहीं। राज्य सचिव ने कहा कि जैक्सन की हत्या के
उकसाने पर उच्च न्यायालय द्वारा दंडित किए जाने वाले व्यक्ति को विशेष छू ट दिए जाने
का प्रश्न ही नहीं उठता।
संस्मरणों में विनायक ने लिखा है कि क्रे डॉक के साथ मुलाकात का कु छ परिणाम
निकलने की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी।
अब तक ननी गोपाल की भूख हड़ताल को डेढ़ महीना हो चुका था और वह के वल
अस्थियों एवं चमड़ी का पिंजर भर नजर आते थे। भूख हड़ताल के बावजूद उन्हें एक
सप्ताह चेन एवं आड़ीडंडा/बेड़ी पर खड़ा रखा गया। इसी दौरान, जेल में चल रहे असहयोग
अभियान की रफ्तार तेज करने के लिए विनायक एवं अन्य ने काम करना रोक दिया। इसी
दौरान, वह भारत से पत्र का भी इंतजार कर रहे थे, परंतु वह उनसे दूर रखा गया। बाद में
उन्हें पता चला कि ऐसा उसमें ‘आपत्तिजनक सामग्री’ के कारण था। घर से आने वाला
एकमात्र पत्र ना मिलने पर विनायक ने हड़ताल तेज कर दी। दरअसल, पत्र में कथित
आपत्तिजनक सामग्री स्कॉटिश समाजवादी, राजनेता, ट्रेड यूनियनिस्ट एवं लेबर पार्टी के
संस्थापक जेम्स कीर हार्डी के विचार थे। हाउस ऑफ काॅमन्स में उन्होंने अंडमान में
विनायक को कै द किए जाने पर सरकार की आलोचना की थी। उनकी आलोचना का सार
था कि आयरलैंड में खुला विद्रोह या सेनाएं गठित करने वालों के खिलाफ सरकार ने कोई
कदम नहीं उठाए, वहीं के वल कु छ पिस्तौलें वितरित करने पर सावरकर को पचास वर्ष की
सज़ा देना अत्यंत अन्यायपूर्ण है। उन्होंने कहा कि बतौर राजनीतिक कै दी उन्हें इंग्लैंड के
मानकों की तरह प्रथम श्रेणी कै दियों जैसी सभी सुविधाएं मिलनी चाहिए। यदि ऐसा करना
बाधित है तो उन्हें आम कै दियों की श्रेणी में रखकर संबंधित सुविधाएं प्राप्त हों। बैरी ने यह
पत्र विनायक से दूर रखा ताकि इंग्लैंड से मिलने वाले सहयोग के कारण वह हड़ताल और
तेज ना कर दें।
इस बीच ननी गोपाल की स्थिति चिंताजनक हो गई थी; उन्हें किसी भी तरह बचाना
ज़रूरी था। इस संबंध में विनायक ने पहल की। उन्होंने कहा कि वह हमेशा ही भूख
हड़ताल कर आत्महत्या के विरोधी रहे हैं क्योंकि यह व्यक्ति एवं अभियान दोनों के लिए
नष्टकारी है। हालाँकि, अधिकांश हड़ताली समर्थन में थे, परंतु ननी गोपाल को मनाना
कठिन था। आखिरकार, विनायक ने ऐलान किया कि वह भी भूख हड़ताल कर रहे हैं और
उसे तब तक जारी रखेंगे जब तक ननी अपनी जिद नहीं छोड़ेंगे। विनायक ननी की कोठरी
में पहुँचे और उनके कान में फु सफु साया, ‘इस तरह दम ना तोड़ो, नायक की तरह लड़ते हुए
मरो। दुनिया छोड़ने से पहले अपने दुश्मन को मार दो।’ इसके बाद से सभी कै दी विनायक
के कथन का पालन कर दिन में दो बार भोजन और ढेर सारा नारियल खाने लगे। कै दियों
को दिया उनका मंत्र था, ‘जितना हो सके उनसे भोजन प्राप्त करो, स्वास्थ्य बनाओ, और
कोई काम न करो!’
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विरोध प्रदर्शन के बाद सरकार ने सेल्युलर जेल में प्रस्तावित परिवर्तन संबंधित सूचना
भेजी। छोटी अवधि की उम्रकै द काट रहे सभी कै दियों को भारत भेज कर उनकी शेष सज़ा
पर विचार किया जाएगा। आजीवन कारावास काट रहे कै दियों को चौदह वर्षों तक
सेल्युलर जेल में ही रहना था, जिसके बाद, अच्छे व्यवहार के प्रमाण पर उन्हें हल्के कार्यों
में लगाया जाएगा। इन चौदह वर्षों के दौरान कै दी को अच्छा भोजन एवं साफ कपड़े दिए
जाएंगे। सज़ा के पांच वर्ष बीतने के बाद, आजीवन कारावास काट रहे कै दी अपना भोजन
खुद पका सकें गे और उन्हें बारह आना से एक रुपया तक मासिक जेबखर्च भी मिलेगा। यह
सुनकर परेशान आत्माओं के कं ठ से राहत और हर्ष ध्वनि निकल पड़ी। बरसों का संघर्ष
आखिरकार रंग लाया था।
धीरे-धीरे अल्पावधि सज़ा काट रहे राजनीतिक कै दियों ने कारागार से जाना शुरू किया।
उन्होंने वादा किया कि भारत पहुँचकर वह जेल के हालात और वहाँ कष्ट झेल रहे साथियों
के बारे में व्यापक प्रसार करेंगे। बहुत कम अपराधी एवं उम्रकै द काटने वाले कै दी वहाँ रह
गए, जिनमें सावरकर बंधु भी थे। विनायक ने समाज सेवा एवं राष्ट्रीय दायित्व के बारे में
कै दियों को शिक्षित करना जारी रखा। विनायक द्वारा शिक्षित रिहा होने वाले या भारतीय
जेलों में भेजे जाने वाले कै दियों ने मिलते-जुलते समूह बनाकर ज्ञान की ज्योति जलाए रखी
थी। वह स्थानीय लोगों, व्यापारियों एवं अन्य को अपने द्वारा स्थापित शिक्षा निधि में
सहयोग करने और आमजन को देश के राजनीतिक हालात पर शिक्षित करने के कार्य में
जुट गए। वहीं सेल्युलर जेल में, विनायक ने कै दियांे के लिए स्लेटपट्टी, पेंसिलें एवं पुस्तकों
के लिए अभियान चलाया और सफल रहे।
बैरी के विरोध और पुस्तकें जला देने की धमकियों के बावजूद, विनायक ने अधीक्षक की
रजामंदी प्राप्त की और अंग्रेज, पंजाबी, हिन्दी, मराठी एवं संस्कृ त पुस्तकों का पुस्तकालय
स्थापित कर लिया। पुस्तकों की खरीद के लिए कै दियों ने भी अपनी नई आमदनी का एक
हिस्सा देना शुरू कर दिया था। पुस्तकें संवैधानिक इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र एवं
राजतंत्र के इतिहास जैसे विषयों पर थीं और विनायक द्वारा सुझाई जाती थीं। चीफ
कमिश्नर द्वारा लंबे विचार के बाद माॅडर्न रिव्यू
एवं इंडियन रिव्यू
जैसी पत्रिकाएं भी वहाँ
आनी शुरू हो गई थी। 2000 पुस्तकों के साथ सेल्युलर जेल का पुस्तकालय सभी भारतीय
कारागारों के लिए आदर्श बन गया था। समाज सुधारकों एवं बौद्धिकों जैसे राज राम मोहन
राय एवं ईश्वर चंद्र विद्यासागर की बंगाली जीवनियां, कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाएं,
महाभारत, रामायण एवं योग वशिष्ठ के संस्कृ त संस्करण विशेष तौर पर ध्यान आकृ ष्ट करते
थे। धर्म और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें , रामकृ ष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानंद के जीवन
एवं शिक्षाओं पर पुस्तकों का विशेष स्थान था। मराठी कवियों में संत ध्यानेश्वर से लेकर
मोरोपंत तक की रचनाएं संग्रह का हिस्सा थीं। संकलित अंग्रेजी पुस्तकों में फर्स्ट प्रिसिंपल्स
एवं सोशलॉजी एंड एथिक्स
सहित सिंथेटिक फिलॉसफी पर हर्बर्ट स्पेन्सर का संग्रह; जाॅन
स्टुअर्ट मिल, चार्ल्स डारविन, एल्डस हक्सले, विलियम टिंडेल एवं अर्नेस्ट हेकल के समग्र;
थाॅमस कार्लायल एवं आरडब्ल्यू इमरसन की रचनाएं; थाॅमस बेबिंग्टन मैकाॅले एवं एडवर्ड
गिबॉन जैसे इतिहासकारों की लेखनी; और विलियम सेक्सपियर, जाॅन मिल्टन एवं
एलेक्जेंडर पोप जैसे कवियों की रचनाएं प्रमुख थीं। पुस्तकालय में जाॅन एबट की लाइफ
ऑफ नेपोलियन
, बिस्मार्क , गैरीबाल्डी एवं मेजिनी की जीवनियां; मेजिनी समग्र; चार्ल्स
डिके न्स से लियो ताॅलस्ताय के उपन्यास; एवं पीटर क्रोपोत्किन की रचनाएं भी मौजूद थीं।
पुस्तकालय में विवेकानंद एवं राम तीर्थ की अंग्रेजी रचनाएं; जर्मन इतिहासकार हीनरिख
वाॅन त्रीत्सके ; और जर्मन दार्शनिक फ्रे डरिक नीत्से की रचनाएं। प्लेटो की रिपब्लिक
,
अरस्तु की पॉलिटिक्स
एवं ब्लंट्शली की थ्योरी ऑफ द स्टेट
और साथ ही रूसो की सोशल
काॅन्ट्रेक्ट
भी थी। अशिक्षित बैरी के अधीन प्रताड़ना के नरक से जेल अचानक ज्ञान के
मंदिर में बदल गया था। उदारवादी अधीक्षक को छोड़, बैरी सहित जेल का प्रत्येक व्यक्ति
पुस्तकालय को शक की निगाह से देखता था।
लिहाजा, 1914-15 से इस घिनौने जेल में बदलाव की बयार बहनी शुरू हो गई थी।
कै दियों को अपना भोजन खुद पकाने की इजाजत मिली जिससे उन्हें अच्छा पका खाना
मिलने लगा। उनमें से कु छ को प्रिंटिंग प्रेस में, पुस्तकालय एवं नक्शे बनाने के लिए भी
बुलाया जाने लगा। इन कार्यों से प्रत्येक व्यक्ति प्रति माह 10 रुपये कमाने लगा था, लंबे
समय से पैसा न देखने वालों के लिए यह वरदान सरीखा था।
हालाँकि, विनायक को मिलने वाला लाभ सीमित था, परंतु अपने मित्रों को बेहतर जीवन
जीता देख वह संतुष्ट थे। जल्द ही, वामनराव जोशी एवं बाबाराव को खाना पकाने के लिए
रसोईघर का कार्य सौंप दिया गया। जबकि विनायक एकांत कारावास – कोठरी नंबर 7 में
रहकर पुराना कार्य करते रहे। बैरी उन्हें ‘अंडमान में असंतोष का जनक’ मानता था,
इसलिए उन्हें कोई छू ट नहीं दी।
पुस्तकालय में अध्ययन हेतु मिलने वाले कु छ समय से विनायक संतुष्ट थे। एक पुस्तक भी
ऐसी नहीं थी जो उन्होंने पढ़ी नहीं। दस प्रमुख उपनिषद, योग वषिष्ठ, भगवत् गीता, द
बाइबल
एवं संस्कृ त कवि तथा नाटककार कालिदास की रचनाएं उन्होंने पढ़ डालीं। वह
दूसरों को भी पुस्तकें सुझाते एवं उनका साररूप तैयार करते। धीरे-धीरे उनकी रविवारी
वार्ताएं आयोजित होने लगीं, जो उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली पुस्तकों पर कें द्रित होती थीं।
विनायक कै दियों की कक्षाएं आयोजित करते और उन्हें भिन्न विषय पढ़ाते। सैद्धांतिक एवं
बौद्धिक पृष्ठभूमि से वंचित अनेक क्रांतिकारियों को इनका बहुत लाभ पहुँचा। उन्हें
विनायक अपने ‘नालंदा विहार’ के स्नातक पुकारते – जो ज्ञान के प्राचीन स्थल नालंदा
विश्वविद्यालय की याद दिलाता था।
विनायक की पसंदीदा पुस्तकों में से एक थाॅमस ए. के म्पिस की द इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट
थी। वह कु रान
भी पढ़ना चाहते थे और अंग्रेजी में पढ़ना शुरू किया तथा बाद में बंगाली
संस्करण भी पढ़ा। परंतु संतुष्ट ना होने पर उन्होंने एक मुस्लिम मित्र को मूल प्रति से मदद
मांगी। हाथ-पैर धोकर, विनायक पूरे श्रद्धाभाव के साथ धर्मग्रंथ पढ़ते, और अपने साथी से
पन्ना-दर-पन्ना, आयत-दर-आयत सुन कर हिन्दी में उनका तर्जुमा करते थे।
~
इस बीच, 1914 के मध्य तक में यूरोप में अशांति बढ़ गई थी। ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं सर्बिया
के बीच शुरू हुए विवाद, और ऑस्ट्रिया के आर्क ड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की सरायेवो में हत्या
से उपजे तनाव ने जल्द ही समूचे यूरोप और दुनिया को चार वर्षों के लिए सामरिक गतिरोध
और अभूतपूर्व नरसंहार की चपेट में ले लिया था। बीसवीं सदी के भूराजनीतिक इतिहास
की सबसे ऐतिहासिक घटना में कें द्रीय शक्तियांे (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं तुर्की) बनाम
मित्र राष्ट्रों (फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, इटली, जापान एवं 1917 में संयुक्त राज्य अमेरिका) के बीच
संघर्ष चला। इसके कारण चार औपनिवेशिक ताकतों (जर्मनी, रूस, ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं
तुर्की) का अंत हुआ और युद्ध के दौरान 1917 में रूसी बोल्शेविक क्रांति ने समूचे यूरोप को
अस्थिर कर दिया था। युद्ध ने विश्व स्तर पर अधिक व्यापक एवं विध्वंसकारी द्वंद्व की नींव
डाली।
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के उतरने के कारण, भारत सहित उसके उपनिवेशों के पास भी
इस द्वंद्व में उतरने के अलावा कोई चारा नहीं था। 5 अगस्त 1914 को ब्रिटिश युद्ध समिति
ने युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना एवं भारतीय सैनिकों के उतरने की पुष्टि कर दी थी।
भारतीय सेना पहले ही चीन, मिस्र, सूडान, पेराक (मलेशिया) एवं एबिसीनिया (आज का
इथियोपिया) के अनेक युद्धों में फं सी थी। हालाँकि, वर्णगत नीति के चलते भारतीयों को
बोर युद्ध जैसे द्वंद्वों में नहीं उतारा गया जिनमें ‘गोरे शत्रुओं’ की भरमार थी।
14
किसी भी
राष्ट्रीयता के ‘गोरे यूरोपियन’ को ‘काले भारतीय’ द्वारा मारे जाने की सोच भी अकल्पनीय
थी, क्योंकि डर था कि ऐसे उसमें स्वदेश में उपनिवेशी आकाओं के साथ समान व्यवहार
की हिम्मत आ सकती थी। यूं भी अंग्रेज सरकार 1857 के खौफ से मुक्त नहीं हुई थी।
इसके बावजूद, प्रतिदिन बढ़ते युद्ध और भारतीय सिपाहियों की जरूरत को देखते हुए
ब्रिटेन ने सेना में इस वर्णवादी श्रेणीक्रम की नीति को दरकिनार कर दिया।
1914 की सर्दियों तक भारतीय सैनिक पश्चिमी सीमा पर पहुँच चुके थे और येप्रस की
पहली लड़ाई में लड़े। उन्हें यूरोपीय युद्धभूमि में अतिरिक्त सैन्यबल के तौर पर रखा गया
और वह अधिकांश स्थानों पर लड़े थे, जिनमें गल्लिपोली एवं उत्तरी एवं पूर्वी अफ्रीका तथा
मेसोपोटामिया प्रमुख थे। मेसोपोटामिया, मिस्र, फ्रांस, पूर्वी अफ्रीका, गल्लिपोली,
सलोनिका, एडन एवं फारस की खाड़ी जैसे युद्धक्षेत्रों में करीब 1,215,318 भारतीय
सिपाही भेजे गए थे। करीब 15 लाख स्वेच्छा से युद्ध में गए। लगभग 47,746 हताहत या
गुमशुदा दर्ज किए गए, और करीब 65,000 घायल थे। हताहत भारतीय सिपाहियों की कु ल
संख्या 101,439 से अधिक थी। साथ ही, भारत के अंग्रेज अधिकारियों एवं छावनियों के
आम सैनिकों को £ 3.5 मिलियन पौंड की राशि ‘युद्ध उपदान’ के तौर पर वितरित की गई।
भारतीय राजस्व से £13.1 मिलियन की राशि युद्ध के लिए दी गई थी। समूचे प्रयास में,
भारत की ओर से ब्रिटेन को नगद एवं अन्य विधियों से लगभग £146.2 मिलियन राशि का
योगदान दिया गया था – जिसका मूल्य आज £50 अरब या अधिक बैठता है !
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देसी रियासतों एवं भारतीय राजनीतिक बुर्जुआ वर्ग ने इस अवसर को अपने हित साधने
के अवसर के तौर पर लपका। पहले से ही अंग्रेजी बोझ से दबे हुए भारतीय शासकों के
लिए खुद को औपनिवेशिक आकाओं की आँखों में उठाने का यह सुनहरा मौका था।
अनेक देसी रियासतों द्वारा वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग की सेवा में ‘द इम्पीरियल सर्विस ट्रूप्स’
के गठन के अलावा, मैसूर, जोधपुर, ग्वालियर के महाराजाओं एवं हैदराबाद के निजाम की
ओर से प्रचुर धनराशि और अन्य सहयोग सामग्री भिजवाई गई। भोज्य पदार्थ, कपड़े,
एम्बुलेंसें, घोड़े, मजदूर और मोटर कारें भी प्रदान की गईं। भारतीय सहयोग से अंग्रेज तक
अभिभूत हो गए थे। कई लोगों का मानना था कि ब्रिटेन के कठिनाई में फं सते ही भारत में
विद्रोह की आग भड़क उठे गी, क्योंकि जर्मन भी भारत ब्रिटिश विरोधी मुहिम को हवा देने
का प्रयास कर रहे थे।
हालाँकि, अक्तू बर 1914 के अंत में ब्रिटेन के खिलाफ तुर्की के ओटोमन साम्राज्य के
जर्मनी से मिल जाने पर कठिन साम्प्रदायिक मुद्दा उठ खड़ा हुआ था। ओटोमन साम्राज्य के
सुल्तान इस्लाम की सबसे बड़ी पदवी, खिलाफत का दर्जा रखते थे – जो एक खलीफा के
अधीन इस्लामिक राज्य, पैगम्बर मोहम्मद के राजनीतिक-धार्मिक उत्तराधिकारी और
वैश्विक मुस्लिम समुदाय या उम्मा के नेता के तौर पर होता है। मध्ययुग में भी रशिदुन,
उम्मैय्यद एवं अब्बासाइद जैसे खिलाफत साम्राज्य अस्तित्व में रह चुके हैं। इसी अनुसार,
1517 ई. में ओटोमन साम्राज्य ने चौथे खिलाफत साम्राज्य के अधिकार का दावा करते हुए
मक्का एवं मदीना के पवित्र शहरों पर कब्जा कर लिया था। जाहिर है, दक्षिण एशिया के
मुस्लिम भी ऐसी उच्च धार्मिक एवं राजनीतिक हस्ती को बहुत सम्मान देते थे। अंग्रेजों को
डर था कि भारतीय सेना में शामिल बड़ी संख्या में मुसलमान खलीफा के विरुद्ध युद्ध में
उनका साथ नहीं देंगे। अंग्रेजों को लगातार डर रहता था कि यदि उन्हें उनके तुर्क ‘बंधुओं’
के साथ युद्ध करने को मजबूर किया गया तो वह सेना छोड़ सकते हैं या जिहाद तक छेड़
सकते हैं। लिहाजा, इस डर को दूर करने के लिए मुस्लिम नेताओं एवं शासकों को
सार्वजनिक तौर पर अपने मुस्लिम नागरिकों एवं सैनिकों से ब्रिटिश युद्ध अभियानों के प्रति
पूरी निष्ठा रखने का वादा लेना पड़ा।
देसी रियासतों के साथ-साथ उस समय के राष्ट्रवादियों ने भी ब्रिटेन के युद्ध कार्य को
सहयोग दिया था। उनका सोचना था कि संकट के समय उन्मुक्त सहयोग से युद्धोपरांत
ब्रिटेन रियायतें देने की रफ्तार तेज कर सकता है। प्रचलित मंतव्य को उस समय के सबसे
बड़े राष्ट्रीय नेताओं, तिलक एवं एनी बेसेंट ने भी सहयोग दिया। इस महत्वपूर्ण समय
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटेन को खुला समर्थन दिया। युद्ध छिड़ने के समय गांधी इंग्लैैंड
में थे, जहाँ उन्होंने बोर युद्ध में अंग्रेजों को दिए गए सहयोग की तरह एक मेडिकल कोर
स्थापित करना आरंभ किया। 22 सितंबर 1914 के एक सर्कु लर में उन्होंने फील्ड एम्बुलेंस
ट्रेनिंग कोर में भर्ती की अपील की।
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साउथेम्प्टन एवं ब्राइटन के अस्पतालों में अनेक
भारतीय काम कर रहे थे, और गांधी ने भी अपनी पत्नी कस्तूरबा के सहयोग से नर्सिंग
प्रशिक्षण लेना शुरू किया। परंतु जल्दी ही वह श्वास रोग की चपेट में आ गए और जनवरी
1915 को भारत लौट आए।
गांधी जी ने आरंभ से ही ब्रिटिश प्रयासों को बिना शर्त सहयोग दिया था। उनकी सोच थी
कि यह इंग्लैंड को नीचा दिखाने या भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में उसकी कमजोर स्थिति से
फायदा उठाने का समय नहीं था। उन्होंने कहा था, ‘इंग्लैंड की जरूरत को हमारे लिए
अवसर में तब्दील नहीं करना चाहिए और जब तक युद्ध चले तब तक अपनी मांगें ना
मनवाने के संबंध में दूर की सोच रखनी चाहिए।’
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भारत लौटने पर उन्होंने ब्रिटिश
भारतीय सेना के लिए गुजरात जैसे स्थानों से भर्तियाँ कराए जाने के प्रयास किए, जो स्थान
पारंपरिक योद्धा जातियों के लिए नहीं जाना जाता। 1918 में अहिंसा के प्रचारक अपने
गृहक्षेत्र के सबसे अंदरूनी गाँवों में घूम कर, भर्ती कें द्रों में जनसमुदाय को संबोधित करते
हुए, युद्ध भरतियाँ कर रहे थे।
इस दौरान, तमाम हलचलों से दूर, सेल्युलर जेल में कै दियों को अपर्याप्त सूचना के
बावजूद विनायक घटनाक्रम पर पैनी नजर रख रहे थे। रोचक है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति
के गहन अध्येता होने के कारण, विनायक ने 1910 में ही यूरोप में जर्मनी एवं इंग्लैंड के
बीच आगामी दस वर्षों में युद्ध की घोषणा कर दी थी। तलवार
के पहले अंक में उनके
विचार लेख रूप में प्रकाशित हो चुके थे। 1927 में चीनी विद्यार्थियों को एक लेक्चर में
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय की पत्नी एग्नेस मेडले ने विनायक की भविष्यवाणी का जिक्र भी
किया था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के उल्लेख वाले इस भाषण को लाला लाजपत राय
ने प्रकाशित किया था। विनायक ने भाषण मराठी में अनुवाद किया जो दैनिक मराठा
में
प्रकाशित हुआ।
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1910 में विनायक ने तर्क रखा था कि वैश्विक युद्ध भारतीयों को सैन्य
तौर पर प्रशिक्षित होने का सुनहरा अवसर होगा और वह कमजोर ब्रिटेन से अपनी मांगें
मनवा सकें गे। वह निराश थे कि जब युद्ध हुआ तो वह ‘अंडमान में कै दी थे, और इतने
निस्सहाय थे कि सुदूर अतीत की अपनी योजना का लाभ नहीं उठा सकते थे।’
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वह अभी घटनाक्रम पर भारत के पक्ष में सामरिक नीति पर विचार कर ही रहे थे कि युद्ध
में तुर्की के उतर आने की सूचना आ पहुँची। ओटोमन साम्राज्य के युद्ध में शिरकत करने से
जुड़े खतरों और उससे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से विनायक अवगत थे। लिहाजा, उन्होंने
ब्रिटेन को पहुँचाए जाने वाले नुकसान की नीति से हटते हुए सेना में व्यापक भर्ती नीति पर
जोर दिया जो ‘उत्तर से भारत पर अफगानिस्तान एवं तुर्की की सेनाओं के हमले को रोके ।’
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जब मुझे पता चला कि तुर्की इस युद्ध में जर्मनी से जा मिला है, तो उस युद्ध को भारत
की स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्ष में इस्तेमाल करने की अपनी योजना को मुझे बदलना पड़ा।
जर्मनी के साथ तुर्की के गठजोड़ ने वैश्विक-इस्लामवाद के खतरे को बढ़ा दिया है और
इस कदम को मैं भारत के लिए भावी खतरा देख रहा हूं। मुझे लगता है कि इस युद्ध में
तुर्की ने जर्मनी की पहुँच भारत तक बढ़ानी संभव की है जिससे भारत में कठिन स्थिति
उत्पन्न हो गई है। यह बेशक, मेरी योजना अनुरूप स्थिति थी। क्योंकि तब इंग्लैंड भारत
को उसके सभी अधिकार देने पड़ते, या भारत स्वयं इंग्लैंड और जर्मनी की जर्जर
अवस्था के कारण उन्हें छीन लेता। चूंकि इस विध्वंसक मुकाबले में दोनों सशक्त
प्रतिद्वंदी टूट चुके होते, जीवन और मृत्यु में संघर्षरत दो विशालकाय हाथियों की तरह।
टूटे, घायल, खून से लथपथ और थके -मांदे, बिना किसी की जीत के रणभूमि में गिरे
मिलते जो उस अवस्था का फायदा उठाने वालों के लिए आदर्श स्थिति होती। परंतु मुझे
डर था कि इस विकट युद्ध में भारत के मुस्लिमों को उत्तर से मुस्लिम जत्थों को बुलाकर
भारत पर हमला और उसे जीतने का खतरनाक अवसर मिल जाता, जिसे उकसाने में
रूस का हाथ होता। अतः युद्ध के इन दूर और पास के नतीजों पर शांत भाव से सोचते
हुए, मैंने अपनी कार्यविधि निर्धारित की और उसके आरंभ में, मैंने भारत सरकार को
इस संबंध में एक लंबा पत्र भेजना तय किया।
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इस अनुसार, अक्तू बर 1914 में अंडमान के चीफ कमिश्नर को दायर याचिका में विनायक ने
कहा कि वह ‘स्वैच्छिक प्रयास देखकर प्रसन्न हैं’, अतः ‘भारत सरकार जैसा चाहे, मौजूदा
युद्ध में कोई भी स्वैच्छिक सेवा देने को तैयार हैं’। इसी याचिका में उन्होंने ‘भारत में
राजनीतिक अपराध करने वाले सभी राजनीतिक कै दियों को छोड़ने’ की आम अपील भी
की। ऐसा कई देशों में किया जा रहा था और आयरलैंड में भी। उनका मानना था कि ऐसे
कठिन समय में भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम से उसे अनेक भारतीयों की निष्ठा और
स्नेह प्राप्त होगा, जो खुद उनकी तरह सशस्त्र मार्ग पर चल पड़े थे। भारतीयों द्वारा
यूरोपियनों से लड़ने के संबंध में प्रचलित वर्णवादी अनुक्रम पर सूक्ष्म टिप्पणी में विनायक ने
कहा, ‘सुरक्षा के लिए किए जाने वाले प्रयास में व्यक्ति को अधिकार संपन्नता महसूस होती
है; और साम्राज्य के अन्य बाशिंदों के साथ मिलकर लड़ने में भारत की मौजूदा जनता को
बराबरी का अहसास होगा और बेशक उसके प्रति निष्ठा भी प्रबल होगी।’ अपनी ओर से
ऐसे प्रस्ताव को सरकार द्वारा नकार देने के डर को दूर करते हुए उन्होंने अंत में कहाः ‘यदि
सरकार को शक है कि प्रस्ताव के आधार पर मैं अपनी रिहाई चाहता हूँ तो मैं चाहूंगा कि
मेरे स्थान पर अन्य सभी को रिहा कर दिया जाए और स्वैच्छिक अभियान को जारी रहने
दिया जाए – मुझे यह देख प्रसन्नता होगी कि जैसे मुझे ही कोई सक्रिय भूमिका दी गई हो।’
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उम्मीद के अनुसार, सरकार ने 1 दिसंबर 1914 को उनके प्रस्तावों को नकार दिया।


23
हालाँकि, विनायक इसके बाद भी पोर्ट ब्लेयर की एक पत्रिका में लेख एवं कविताएँ भेजते
रहे (जो फिर उपलब्ध नहीं हो सके ) जिसकी युद्ध के लिए चंदा एकत्र करने की योजना थी।
इस दौरान, 22 सितंबर 1914 की रात कार्ल फ्रीडरिख मैक्स वाॅन म्यूलर की कमान में
जर्मन क्रू ज़ जहाज एसएमएस एम्डेन बंगाल की खाड़ी में दाखिल हो गया था। 3600 टन
वजनी एम्डेन का लक्ष्य व्यापारिक जहाजों को डुबोना था। मद्रास के बंदरगाह पर सुरक्षा
नहीं थी और अंग्रेजों ने युद्ध के भारत के तट तक आ पहुँचने की उम्मीद भी नहीं की थी।
बाईस भारी तोपों से लैस जहाज ने तट से 2500 मीटर पहले लंगर डाला। उससे होने वाली
गोलाबारी ने बर्मा ऑयल कम्पनी के टैंकरों को नुकसान पहुँचाया। कु छ देर में, रात के
समय, 500 टन कै रोसीन तेल से लदे हुए दो विशालकाय टैंकर लपटों के हवाले हुए। इसके
बाद कई इमारतों को भी नुकसान पहुँचा जिनमें मद्रास उच्च न्यायालय, पोर्ट ट्रस्ट, मद्रास
नौचालन क्लब का बोट हाउस और नए नेशनल बैंक ऑफ इंडिया इमारत का अग्रभाग
शामिल था। आधे घंटे चली गोलाबारी में एम्डेन से 130 गोले दागे गए जिसमें तट पर एक
व्यापारिक जहाज को नुकसान पहुँचा, पांच नाविक मरे और तेरह अन्य घायल हुए। जब
तक जवाबी कार्रवाई की जाती, एम्डेन वापसी को कू च कर चुका था, और उस पर दागे गए
नौ गोलों से उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचा।
घटना के बाद पोर्ट ब्लेयर में भी चारों ओर अफरातफरी मच गई क्योंकि खुफिया
सूचनाओं के अनुसार अगला हमला वहाँ हो सकता था। हमले की सूरत में द्वीपसमूह कभी
सैन्य तौर पर इतना रिक्त नहीं रहा था। कु छ ही दिनों में ब्रिटिश युद्धपोत अंडमान के गिर्द
मंडरा रहे थे। फ्रांसीसी पनडुब्बियां और रूसी जहाज भी पोर्ट ब्लेयर से आ लगे थे।
कलकत्ता को धन, हथियार एवं राशन की आपूर्ति के लिए भेजे जाने वाले वायरलेस संदेशों
को एम्डेन ने रोका और अंडमान को पैसा लेकर आने वाले जहाजों को मार्ग में लूटा था।
इस कारण कई महीनों तक कलकत्ता, रंगून एवं मद्रास से आपूर्ति नहीं पहुँच सकी थी।
सेल्युलर जेल के प्रशासन को डर था कि जर्मन की मदद से भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा
हमले की सूरत में कै दी उनके खिलाफ हो सकते थे।
ब्रिटिश एवं मित्र राष्ट्रों के युद्धपोतों के नौसेना अधिकारी भी कभी-कभार सेल्युलर जेल
जाते थे। रूसी पनडुब्बी के कप्तान ने विनायक से मुलाकात की और उन्हें बताया कि
यूरोपवासियों को अभी तक याद है कि वह अंडमान में कै द हैं। अफवाह गर्म थी कि
अंडमान पर हमला करने के लिए एम्डेन अभी तक उस क्षेत्र में सक्रिय था। विनायक
सोचकर हैरान रहते कि पोर्ट ब्लेयर बहुत महत्वपूर्ण नहीं था, इसलिए वह हमले का लक्ष्य
क्यों है।
उन्हें बाद में संदेश मिला कि अभिनव भारत एवं अन्य क्रांतिकारियों ने यूरोप में जर्मनी के
कै सर से संपर्क साधा है और एक पनडुब्बी को पोर्ट ब्लेयर भेजने का इंतजाम किया गया
था जिसका लक्ष्य जेल पर हमला कर क्रांतिकारियों, और विशेषकर विनायक को आज़ाद
कराना था। इस सूचना की पुष्टि 9 जनवरी 1918 को ब्रिटिश सरकार की टिप्पणी से भी हुई
जिसके अनुसार ‘अंडमान से छु ड़ाए जाने वाले कै दियांें में खासतौर पर उसका (विनायक)
नाम था और उसे दिसंबर 1915 में बंगाल पर जर्मन हमले की योजना में इस्तेमाल किया
जाना था’।
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इसके बाद क्रांतिकारियों ने बर्मा पहुँचकर, भारत सरकार के खिलाफ बर्मा
और बंगाल से सशस्त्र संघर्ष का आगाज़ करना था। 1918 की सेडिशन समिति रिपोर्ट ने
भी क्रांतिकारियों के इस प्रयास की पुष्टि की थी।
25
उन्हीं दिनों लाला हरदयाल, तारकनाथ दास, मोहम्मद बरकतुल्ला, चंद्र कांत चक्रबर्ती,
हेरम्ब लाल गुप्ता, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, डाॅ. मोरेश्वर गोविंदराव प्रभाकर, डाॅ. अब्दुल
हफीज़, डाॅ. चम्पकरमन पिल्लई, भूपेंद्र नाथ दत्त, एमपी तिरुमल आचार्य एवं जोध सिंह
महाजन एवं अन्य कई ने मिलकर ज्यूरिख में इंडियन नेशनल पार्टी का गठन किया था।
उन्होंने जर्मन जनरल स्टाफ के साथ गठबंधन किया और उनका मुख्यालय 28,
विलहेमस्ट्रेस, चार्ललॉटेनबर्ग में था और वह भारत पर बड़े हमले की तैयारी में थे।
26
इन
क्रांतिकारियों ने जर्मनी में ‘स्वतंत्र भारत’ के अर्ध-दूतावास भी स्थापित किए थे, जहाँ हेरम्ब
लाल गुप्ता भारतीय प्रतिनिधि थे।
युद्ध आरंभ होने पर अधिकांश क्रांतिकारी जर्मनी या अमेरिका में थे। के वल दो भारतीय –
कुं वर महेन्द्र प्रताप सिंह और हरीश चंद्र भारत से जाकर उनसे मिले थे। कुं वर महेन्द्र प्रताप
सिंह संयुक्त प्रांतों के मरसान के एक रजवाड़े में जन्में थे। जब युद्ध शुरू हुआ तो वह
अट्ठाईस वर्ष के थे। स्वास्थ्य लाभ करने और युद्ध के हालात का अध्ययन करने के बहाने
वह 12 दिसंबर 1914 को यूरोप रवाना हुए। उनके सचिव, हरीश चंद्र एक सप्ताह बाद
उनसे जा मिले थे। यूरोप में उनकी भेंट लाला हरदयाल और वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय से हुई।
वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय ने भारतीय स्वतंत्रता प्रयासों को गति देने के लिए ‘बर्लिन समिति’
या इंडियन इंडिपेंडेंस पार्टी का गठन किया था। वह प्रताप को कै सर से मिलवाने ले गए
और उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ द रेड ईगल’ से सम्मानित किया गया।
प्रताप का विवाह जींद के शाही खानदान में हुआ था और जींद, पटियाला एवं नाभा के
सीमांत इलाकों में उनके असर को देखते हुए जर्मन और क्रांतिकारी जानते थे कि इस
स्थान से ब्रिटिश भारत पर हमला किया जा सकता है। उन्होंने रूस में लेनिन से भी संपर्क
साधा। 1 दिसंबर 1915 को कुं वर प्रताप ने काबुल में भारत की पहली प्रवासी प्रान्तीय
सरकार का गठन किया जिसके राष्ट्रपति वह स्वयं थे और मौलवी अबेदुल्ला सिंधी गृह
मंत्री। उन्होंने ब्रिटिश के खिलाफ संयुक्त जेहाद का ऐलान किया। दरअसल, कुं वर प्रताप को
प्रमुखता से आगे कर, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय योजना एवं कार्यविधियों को अंजाम दे रहे थे।
जर्मनी द्वारा 1907 से ही भारतीय मामलों में रुचि लेने की प्रक्रिया को यहाँ कु छ ठहरकर
समझना उचित रहेगा। बेशक, इसका एक कारण मोटे तौर पर यूरोप में भारतीय
क्रांतिकारियों की गतिविधियों से जुड़ा था। परंतु, युद्ध छिड़ने के साथ ही जर्मन द्वारा
ब्रिटिश-विरोधी राष्ट्रवादियों को समर्थन देना सामान्य मानक बन गया था। उसने विद्रोह
उकसाने के लिए आयरिश राष्ट्रवादियों को सहयोग दिया जिससे ब्रिटिश सेना में आयरिश
सैनिक उस ओर आकर्षित होते और इस कारण ब्रिटेन को सेनाएं पश्चिमी मोर्चे पर भेजने
की बजाय आयरलैंड भेजनी पड़ती। इसी मंशा के तहत, जर्मनी में आयरिश युद्धबंदियों को
भर्ती करने के सर रॉजर के समेंट से सहयोग, आयरलैंड में आयरिश विद्रोहियों तक जर्मन
बंदूकें पहुँचाना और 1916 की ईस्टर राइजिंग में जर्मन दखल जैसी कार्रवाइयां अंजाम दी
गई थीं।
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उसी तरह, जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका के बोर विद्रोह का समर्थन किया था। बोर समुदाय
को जर्मन रसद मिलने का ही कारण था कि ब्रिटिश युद्ध के दूसरे वर्ष तक जर्मन शासित
दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका पर हमला नहीं कर पाए थे। दक्षिण अफ्रीका के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
में आंग्ल-अफ्रीकन सेनाओं का संचालन कर रहे कर्नल मेनी मार्टिज ने जर्मन क्षेत्र पर हमला
करने के आदेशों को नजरअंदाज किया। ऑरेंज नदी के पार ब्रिटिश स्थिति का जायजा ले
रही जर्मन घुसपैठ की सूचना ना देकर भी उन्होंने जर्मन इकाइयों को मदद पहुँचाई थी।
इसके अलावा, जर्मनी ने ब्रिटिश विरोधी मुद्रित सामग्री का प्रकाशन, ब्रिटेन और उसके
साथी देशों में राजनीतिक हत्याएं कराना और स्वेज नहर के गिर्द संदेश प्रसार में रुकावट
डालने के भी प्रयास किए।
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यूरोप एवं अमेरिका के भारतीय क्रांतिकारियों ने इन कार्यों में
उसकी मदद की।
ब्रिटेन के खिलाफ मुस्लिम विद्रोह को जर्मन सहयोग के मिलते-जुलते परिणाम थे, जिसमें
उसने मिस्र के राष्ट्रवादियों एवं तुर्की के सुल्तान की जेहाद के आह्वान को सहयोग दिया था।
मध्यपूर्व में जर्मन नुमाइंदों ने यहाँ तक दावा किया कि जर्मन सम्राट कै सर विल्हेम द्वितीय
(मुख्यतः लुथेरन-कै थोलिक साम्राज्य के नेता) मुस्लिम बन चुके हैं और इसलिए ब्रिटेन के
खिलाफ आदर्श सहयोगी हैं। हालाँकि, ओटोमन तुर्कों के खिलाफ अरब नफरत के चलते
अरब राष्ट्रवाद को हवा देने में ब्रिटिश अधिक सफल रहे, जैसा कि ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’
में दिखाया गया है।
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एक ओर जहां, ब्रिटेन और उसके साथियों ने कें द्रीय ताकतों के
खिलाफ चेख, पोलिश, अरब, सर्ब एवं अन्य राष्ट्रवादियों का इस्तेमाल किया, वहीं जर्मनी ने
भारतीय, मिस्री, बोर एवं अन्य क्रांतिकारियों का ब्रिटेन के खिलाफ इस्तेमाल किया था।
प्रतिस्पर्धी उपनिवेशवाद के इन अंतरराष्ट्रीय युद्धों के बीच काम करते हुए भारतीय
क्रांतिकारी, इनकी अंतर्निहित कमजोरियों को भारत के पक्ष में इस्तेमाल करने का प्रयास
कर रहे थे। प्रथम विश्व युद्ध की पूर्व संध्या, यानी जुलाई 1914 में कै सर विल्हेम द्वितीय ने
लिखा थाः ‘तुर्की और भारत में हमारे राजदूत. . .समूचे मुस्लिम समाज को प्रचंड विद्रोह के
लिए उकसायें. . .चूंकि यदि हमने खून में सन कर मरना है, तो कम से कम भारत से इंग्लैंड
का कब्जा हट जाए।’
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वह 1908 के अपने ही विचारों को दोहरा रहे थे, जब उन्होंने कहा
थाः ‘ब्रिटिश को समझना चाहिए कि जर्मनी से युद्ध का मतलब है भारत को खोना और
साथ ही अपनी वैश्विक प्रतिष्ठा भी।’
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जर्मनों को हमेशा ब्रिटिश साम्राज्य के वृहत
औपनिवेशिक फलक पर भारत के महत्व से ईर्ष्या रही थी। वह गौर से भारतीय
क्रांतिकारियों पर नजर रखते थे और उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा सताए जाने पर सहयोग भी
देते थे।
जर्मनों ने अमेरिका के गदर नेटवर्क के जरिए हथियार भारत में भेजने के भी बड़े प्रयास
किए थे। गदर अभियान की स्थापना अमेरिका में सिखों में असंतोष की भावना प्रबल कर
उन्हें भारत भेजकर बगावत कराने के लिए की गई थी और उस समय इसका जर्मनी से
संबंध नहीं था। हालाँकि, समय के साथ-साथ, हरदयाल की गदर पार्टी और जर्मनों ने
मिलकर काम किया। जर्मनी ने डच ईस्ट इंडीज़ को आधार बनाकर समुद्र से भारत पर
हमला करने, और सियाम (थाईलैंड), फारस एवं अफगानिस्तान के मार्ग से जमीनी हमला
करने की योजना बनाई थी। सुदूर पूर्व के कार्यों का संचालन शंघाई स्थित जर्मनी का
दूतावास कर रहा था और सियाम एवं बटाविया (जावा) में उनकी सक्रिय एजेंसियाँ थीं।
अप्रैल 1914 में सैन फ्रांसिस्को से जर्मन हथियार और 376 लोगों को लेकर जहाज
कोमागाटा मारु
रवाना हुआ परंतु कलकत्ता पहुँचने पर ब्रिटिश प्रशासन ने उसे जब्त कर
लिया। अगले महीने तोसा मारु
के साथ ऐसा ही एक और प्रयास किया गया, परंतु वह भी
असफल रहा। नवंबर 1914 में कोकोस की लड़ाई में रॉयल ऑस्ट्रेलियन नेवी के
एचएमएएस सिडनी
ने एसएमएस एम्डेन
को हरा दिया और वह डूब गया। उसके नाविकों
को गिरफ्तार कर सिंगापुर लाया गया। इसके बाद, जनवरी 1915 में सिंगापुर नौसेना
विद्रोह फू ट पड़ा था। इसे भी फ्रांसीसी, ब्रिटिश, रूसी एवं जापानी युद्धपोतों से
सफलतापूर्वक दबा दिया गया।
नवंबर 1914 में गदर क्रांतिकारी सत्येन्द्र सेन एवं विष्णु गणेश पिंगले एसएस सलामिस
पर अमेरिका से बंगाल की खाड़ी पहुँचे और उनका कार्य जर्मनी की मदद से बंगाल एवं
बर्मा के पूर्वी मोर्चे से सशस्त्र विद्रोह खड़ा करना था। कंेंद्रीय शक्तियों की मदद से भारत के
विभिन्न हिस्सों में क्रांतिकारियों द्वारा कार्य शुरू करने के यह कु छेक उदाहरण हैं।
जनवरी 1915 को दो जहाजों, एनी लार्सन
एवं एसएस मेवरिक
द्वारा भारत पर दोहरे
हमले का प्रयास किया गया। इसका लक्ष्य मेक्सिको तट से $140,000 लागत के ‘ग्यारह
गाड़ीभर’ हथियारों को पहुँचाना था। महीनों तक समुद्र में भटकने के बाद सितंबर में
मेवरिक
अंततः भारतीय समुद्री सीमा में दाखिल हुआ। उसे सुंदरबन पर हमला करना था।
वहाँ से, संयुक्त प्रांतों, पंजाब एवं बंगाल में अशांति फै लाने का कार्य रासबिहारी बोस एवं
जतिन्द्रनाथ मुखर्जी (लोकप्रिय नाम बाघा जतिन) जैसे क्रांतिकारियों को करना था। जतिन
बंगाल के क्रांतिकारी गुट जुगांतर से जुड़े थे। उनके पास पचास माउज़र पिस्तौलें और
46,000 राउंड असलहा था।
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जतिन ने वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के आदेश पर जर्मन
काउंसल से वित्तीय और हथियार सहयोग संबंधित सौदे को पूरा करने के लिए अपने एक
साथी नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य (बाद के प्रसिद्ध एमएन रॉय) को बटाविया रवाना किया।
हालाँकि, अंग्रेजों को इस योजना का पता चल गया और सितंबर 1915 में उड़ीसा के
बालासोर में जहाँ जतिन ठहरे हुए थे, घात लगाकर उन्हें मार डाला गया। एसएस मेवरिक
को डच अधिकारियों ने पकड़ लिया और उस पर मौजूद पांच भारतीयों को गिरफ्तार कर
फांसी दे दी गई।
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इन असफलताओं के बाद, दो प्रयास और किए गए: जून 1915 में, 7300 राइफलें ला
रहा हाॅलैंड-अमेरिकन जहाज जेम्बर
अंग्रेजों ने पकड़ लिया और इसी तरह, अगले महीने,
असलहों से लैस मनीला जा रहा जहाज हेनरी एस
. भी पकड़ लिया गया।
34
हार ना मानते
हुए, रासबिहारी बोस ने दिसंबर 1915 को तीसरे सशस्त्र जहाज से अंडमान पर हमला
कराने की तैयारी कराई थी। हमले से सभी राजनीतिक कै दियों को छु ड़ाकर बर्मा ले जाने
की योजना थी, जहाँ दो अन्य युद्धपोतों द्वारा हमला कराया जाना था। परंतु यह जहाज,
बड़े ब्रिटिश जहाज एचएमएस कॉर्नवाल
द्वारा डुबा दिया गया।
35
जमीनी हमलों में, सान फ्रांसिस्को की गदर पार्टी और जर्मनों के संयुक्त प्रयासों से तैयार
‘सियाम प्रोजेक्ट’ और ‘बटाविया प्लान’ उस अशांत समय की सबसे महत्वपूर्ण योजनाएं
थीं।
36
बाद में ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार किए गए दो व्यक्तियों से इस संबंध में विवरण
प्राप्त हुआ। इन दोनों में से एक, जर्मन खुफिया सेवा के लिए काम करने वाला यूरोपियन
था जो जुलाई 1915 (रहस्यमयी रूप से ‘एक्स’ पुकारा गया) को सिंगापुर में गिरफ्तार
हुआ, और दूसरा, अगस्त 1915 (‘ज़ेड’ नाम दिया गया) के अंत में बैंकाक में गिरफ्तार
किया गया एक पंजाबी युवक था। उनका विचार बर्मा-सियाम सीमा पर 10,000 आदमियों
को संगठित कर बर्मा पर हमला और फिर पूरे भारत पर हमला करना था। इन सशस्त्र
व्यक्तियों को प्रशिक्षण देने का काम एक जर्मन अधिकारी, जाॅर्ज पाॅल बोह्म को करना था,
जिसे अंग्रेजों ने 27 सितंबर 1915 को सिंगापुर से गिरफ्तार किया। जर्मनों द्वारा अंडमान
द्वीपों को कब्जा करने की एक योजना के बारे में ‘एक्स’ ने खुलासा किया था। योजना के
तहत एक व्यापारी के वेश में एजेंट वहाँ जर्मन स्रोतों द्वारा उपलब्ध कराए गए हथियार
लेकर पहुँचता, और वायरलेस सिस्टम ध्वस्त कर सेल्युलर जेल के क्रांतिकारियों से संपर्क
साध कर उन्हें आज़ाद करता और सियाम से होते हुए रंगून भेजता। इस समूह द्वारा
आज़ाद कराए जाने वाले कै दियों की एक सूची भी ‘एक्स’ के पास से बरामद हुई – सूची
के शीर्ष में सावरकर बंधुओं और मनिकतला मामले के सदस्यों के नाम थे। उसकेे अनुसार,
सूची बर्लिन के किसी डाॅ. हैदर ने लिखी थी परंतु लिखाई क्रांतिकारी भूपेन्द्र नाथ दत्त की
हस्तलिपि से मेल खाती थी। ‘एक्स’ के पास जेल की संपूर्ण तस्वीरों का सेट और अंडमान
बस्ती के अधिकारियों, सिपाहियों, पुलिस एवं पहरेदारों की पूरी सूचना थी। जाहिर था कि
सेल्युलर जेल के भीतर से ही कोई विदेश में क्रांतिकारियों को महत्वपूर्ण सूचना भेज रहा
था। अधिकारियों का शक विनायक पर जाना लाजिमी था। जेल के भीतर विनायक की
सभी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जाने लगी और समूचा जेल अभेद किले में तब्दील
हो गया। कलहपूर्ण समय के बारे में विनायक ने लिखा हैः
भारत में हमारे साथी हमें याद रखते हैं, हमारी यादों को ताजा रखते हैं, जब हम
अंडमान में कै द थे और दुनिया के लिए मृतप्राय थे, हमारे हृदय उनके लिए श्रद्धा से
नतमस्तक हो जाते हैं। और उस अंधेरे कारागृह में, बेहद कष्टदायी एवं भयावह
शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना वाली स्थितियों में, हमारी जिंदा याद हमें उम्मीद एवं
साहस प्रदान करती है, जिसे मेरा मानना है कि इन पन्नों में दर्ज किया जाना चाहिए।
प्रतिदिन हमें डर रहता है कि राजद्रोह एवं बड़े विप्लव का कोई मनगढ़ंत मामला हमारे
विरुद्ध दर्ज कर दिया जाएगा, जो इन युद्ध के दिनों में हमारे खिलाफ सोचे-समझे
अभियान के अंतर्गत चलाया जा रहा है. . .परंतु रोज के गहरे रहस्य और उत्कं ठा के
बावजूद, हम इस संबंध में प्रसन्न हैं कि युद्ध के चलते भारतीय प्रश्न अंतरराष्ट्रीय महत्व
का बन गया है। इस वैश्विक उथलपुथल से भारत के संबंध में हमारी भावनाएं पल्लवित
होंगी; कि भारत की मरुभूमि फिर से स्वर्ग की तरह मुस्काएगी – ऐसे विचार हमें
आनंदित करते हैं; परंतु एक विचार यह भी आया है कि युद्ध समूची दुनिया को मरुस्थल
बना देगा जिसमें भारत भी शामिल होगा।
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अनेक कारणों से क्रांतिकारियों एवं जर्मनों के प्रयास अपना लक्ष्य साधने में असफल रहे
थे। सियाम सरकार द्वारा तटस्थता का भाव, बर्मा की सरकार द्वारा निगरानी रखना और
मेम्यो की सैन्य पुलिस की सतर्क ता गदर पार्टी एवं जर्मन संयुक्त प्रयासों की असफलता के
कु छ प्रमुख कारण बने। हालाँकि, उनमें हिम्मत का अभाव नहीं था, परंतु कई अभियान
कमजोर तरीके से संगठित एवं आयोजित किए गए थे। सियाम एवं बटाविया में संपर्क एवं
संचालन में आई कमियों के कारण उन्हें नुकसान पहुँचा। सेडिशन कमिटी ने इस संबंध में
सख्त टिप्पणी की हैः ‘जर्मन शस्त्र योजना की हमारी जांच बताती है कि संबंधित
क्रांतिकारी कहीं अधिक आशावादी थे और जर्मन उस अभियान के संबंध में बेहद अनजान
थे जिसका लाभ उठाने का प्रयास उन्होंने किया।’
38
लगातार असफलताओं के कारण भारत में जर्मनी की रुचि मद्धिम पड़ती गई। अधिकांश
क्रांतिकारियों पर मुकदमे चलाए गए और उन्हें आजीवन कारावास के लिए मांडले भेजा
गया या अन्य सजाएं मिलीं। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, सेल्युलर जेल के
राजनीतिक कै दी जल्दी ही पलायन करने की बड़ी उम्मीदें बांधे बैठे थे। तथापि, विनायक
को छु ड़ाने और भारतीय राजतंत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने की एक और योजना फलीभूत
होने से रह गई थी।
~
पोर्ट ब्लेयर की सेल्युलर जेल के अंधेरे कोनों में हम विनायक को एक युवा एवं उग्र
क्रांतिकारी से अधिक गंभीर एवं नीतिगत योजनाकर्ता के रूप में परिवर्तित होता देखते हैं,
जिनका ध्यान हिन्दू समाज के लिए एक संगठन की ओर जा रहा था। इसके महत्वपूर्ण
कारकों में से एक जेल में उनके अनुभवों से जुड़ा था। जेल में शुरुआती दिनों से यानी
पुस्तकालय आरंभ करने से कहीं पहले, विनायक देखते आ रहे थे कि मुस्लिम पहरेदार
और जमादार हिन्दू कै दियों को उनके धर्मग्रंथ पढ़ने से रोकते थे। तुलसीदास की रामायण
सहित वह पुस्तकों में प्रकाशित चित्रों को देखते और उन्हें अशिष्ट ठहराते तथा ऐसी पुस्तकें
पढ़ने वाले समूह को तितर-बितर करने के अपने धार्मिक कर्तव्य का हवाला देते थे।
उच्चाधिकारियों को याचिका देकर, हिन्दू कै दियों ने अपनी धार्मिक पुस्तकें रखने का
अधिकार प्राप्त कर लिया था। एक ओर जहाँ हिन्दू कै दियों को त्योहारों की इक्का-दुक्का
या ना के बराबर छु ट्टी मिलती, वहीं यह सुविधा मुस्लिम कै दियों को पूरी तरह उपलब्ध थी।
39

परंतु विनायक के अनुसार मुद्दा एकतरफा व्यवहार से कहीं बड़ा था। अंडमान भेजे जाने
वाले कई कै दियों का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था और उन्होंने मुस्लिम नाम स्वीकार कर
लिए थे। आगंतुक ‘चालानों’ के साथ, सीधे-सादे एवं युवा हिन्दू कै दियों के साथ भेदभाव
किया जाता और मुस्लिम पहरेदार उनसे कठोर शारीरिक श्रम कराते और प्रताड़ना देते थे।
वहीं मिठाइयां एवं तम्बाकू तथा हल्के श्रम जैसे प्रलोभनों के चलते, युवा आरामदेह बंदी
जीवन के लिए धर्म परिवर्तन को तैयार हो जाते थे। तुरंत, उन्हें दूसरी ओर ले जाकर
मुस्लिम कै दियों के साथ खाना खिलाया जाता।
40
जेल में हिन्दुओं और मुस्लिमों के लिए
अलग रसोई और रसोइये थे। उन्हें खाना भी अलग ही खाना पड़ता था। ‘परिवर्तित’ होने
का अर्थ उन कै दियों को मुस्लिम कै दियों के साथ भोजन से होता, जहाँ उसे ‘मुस्लिम
भोजन परोसा जाता’
41
(संभवतः गोमांस) था। इसके बाद, हिन्दू भाइयों से उनका संबंध
विच्छेद हो जाता, जो उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते थे। उन्हें जल्दी ही मुस्लिम नाम
दिया जाता और धर्मांतरण की प्रक्रिया संपूर्ण होती। धर्मांतरण की समूची प्रक्रिया में कु रान
के अध्ययन, नमाज़ पढ़ने या खतना जैसे कार्य नहीं जोड़े जाते थे। कै दी अपने मुस्लिम नाम
ही पंजीकृ त कराते और समय के साथ वही उनकी पहचान बन जाते थे। धीरे-धीरे वह
इस्लाम के धार्मिक रीति-रिवाज अपनाकर पूरे मुस्लिम हो जाते थे। वापसी का कोई मार्ग ना
देख और अपने मूल समुदाय के तीव्र विरोध एवं निंदा को देखते हुए, नव-धर्मांतरित के पास
नए धर्म के साथ जुड़े रहने के सिवा कोई चारा नहीं बचता था। इसमें जमादार की कोई
कमी नहीं थी; हिन्दू समुदाय ही अपने दुराग्रहों और संकीर्ण सोच से सुनिश्चित कर देता था
कि धर्मांतरित व्यक्ति नए धर्म से ही जुड़ा रहे।
42
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने भारत के धार्मिक मामलों में ज्यादा हस्तक्षेेप
ना करने का फै सला किया था। हालाँकि, अन्य जेलों में ईसाई मिशनरी कै दियों का धर्म
परिवर्तन कर देते थे, परंतु विनायक ने गौर किया कि अंडमान में वह के वल उपासना करते
और धर्मांतरण का कोई अतिरिक्त प्रयास उन्होंने नहीं किया। परंतु यहाँ पठान जमादारों की
बात मानने और कम उत्पीड़न के लाभ को देखते हुए कई हिन्दू धर्म परिवर्तन को तैयार हो
जाते थे। विनायक लिखते हैंः ‘प्रत्येक सप्ताह या पखवाड़े मैं किसी एक हिन्दू कै दी को
उसके मुस्लिम साथियों के साथ बैठा देखता। यह दृश्य देखना मेरे लिए असंभव था। परंतु
मैं यहाँ के वल एक कै दी था; उनको बचाने के लिए क्या कर सकता था ? इस अपवित्र चलन
के खिलाफ हिन्दू कै दियों को भड़काने का मैं भरसक प्रयत्न करता। परंतु उन सब में मुझे
लापरवाही दिखी। उनमें से प्रत्येक कहता, ‘मुझे इससे क्या ?’ और ‘तो मैं क्या करूं ?’’
43
यहाँ तक कि कष्ट झेल रहे राजनीतिक कै दी भी, शोषक जमादारों द्वारा किए गए धर्म
परिवर्तन के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा पाते थे। ऐसे कार्यों के खिलाफ वह विनायक का
साथ देने के प्रति उदासीन थे। उनका तर्क था कि हिन्दू मत ऐसे लोगों के बिना कहीं बेहतर
रहेगा जो जबरदस्ती एवं प्रताड़ना के डर से धर्म बदलने को तैयार हो जाते हैं। विनायक ने
तर्क दिया है:
जिस व्यक्ति का तुम धर्म परिवर्तन करना चाहते हो, वह दुश्चरित्र, पापी या शराबी हो
सकता है। परंतु गहरे मनन के बाद हमें सामाजिक नियम ज्ञात हुआ है कि यदि आप
किसी को, वैध या अवैध विधि से ईसाई या मुसलमान बनाते हैं और उसका नाम
बदलते हैं, तो आप उसकी शक्ति में वृद्धि कर रहे हैं। उसके बच्चे भी नाम, जन्म एवं
साहचर्य से मुस्लिम और ईसाई बनेगे। और वह अपने अभिभावकों से बेहतर साबित
होंगे और उच्चकोटि, व्यवहारकु शल मुस्लिम नागरिकों के तौर पर श्रीवृद्धि करेंगे। उसके
बनिस्बत, हिन्दू समुदाय अपने अच्छे सदस्यों से वंचित रह जाएगा. . .
44
इस विचार से
प्रेरित रहकर, मैंने जेल में हिन्दू कै दियों को शिक्षित किया जिनमें विशेषकर राजनीतिक
कै दी थे, ताकि सबसे निकृ ष्ट हिन्दू कै दियों को इस्लाम के चंगुल से छु ड़ाया जा सके , उन्हें
पठान जमादारों की जोर-जबरदस्ती और खुशामदों से बचाया जा सके ।
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अंडमान पहुँचने के डेढ़ वर्ष में ही विनायक ने जबरन धर्मपरिवर्तन के खिलाफ
आधिकारिक शिकायत दर्ज कराई थी। उन्होंने जोर देकर कहा था कि यदि कोई व्यक्ति
अपनी मर्जी या वैचारिक परिवर्तन के कारण परिवर्तित होना चाहता है तो उन्हें कोई
ऐतराज नहीं होगा। परंतु स्पष्ट है कि जेल का चलन दोनों विचारों से दूर है। इस कारण,
विनायक को तंग किया गया और पठानों द्वारा जेल में उन पर जानलेवा हमले भी हुए,
जिसमें उन्हें विषाक्त भोजन देने का प्रयास भी था, परंतु बाबाराव की मुस्तैदी से वह प्रयास
विफल रहा।
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एक बार, जेल वार्डन की मिलीभगत से, विनायक को भोजन में जहर देने
के लिए विष की बोतल चोरीछु पे अंदर पहुँचाई गई थी। परंतु अधीक्षक के औचक निरीक्षण
के कारण तस्कर घबरा कर बोतल वापस ले गया। इस तरह, कई बार भाग्य के सहारे
विनायक की जान बची थी।
जेल प्रशासन के मुखबिर बन चुके कई कै दियों ने भी विनायक और बाबाराव पर ऐसे
हमलों में सहयोग किया था। प्रमुख भेदियों में से एक को सब ‘आईनेवाला बाबू’ कहकर
पुकारते थे। वह अक्सर सावरकर बंधुओं पर बेसिरपैर के आक्षेप लगाता था, जिनमें
बाबाराव पर एक जेल प्रहरी की हत्या करने का आरोप भी था। उसने बाबाराव की कोठरी
में हंसिया एवं अन्य हथियार छु पाए और बैरी को सूचना दी कि बाबाराव हथियार जमा कर
उसे मारने की योजना बना रहे हैं। परंतु हर बार, बाबाराव की सक्रियता से उसकी
चालबाजी नाकाम हो जाती। विनायक और खुद को समस्या से बचाने के लिए वह अक्सर
आईनेवाला बाबू द्वारा वितरित कू ट भाषा के संदेश भी प्राप्त कर पढ़ लेते थे। धर्मांतरण
विरोधी मुहिम के दौरान, एक बार जब वह नहाकर निकले तो उनके सिर पर जोर का प्रहार
भी किया गया था, जिस कारण काफी रक्त बहा था।
धर्मांतरण पर शिकायत सुन रहे अधीक्षक ने साफ तौर पर विनायक से पूछा कि वह उन्हें
पुनः हिन्दू धर्म में क्यों नहीं ले सकते। विनायक का जवाब था कि हिन्दू धर्म धर्मांतरण में
विश्वास नहीं करता, अतः यह असंभव था। परंतु तुरंत उनकी सोच स्वामी दयानंद सरस्वती
(1824-83) और आर्य समाज के विचारों तक पहुँची।
स्वामी दयानन्द हिन्दू धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए और उसके धार्मिक अभ्यासों को
मूल वैदिक उद्भव तक ले जाने के लिए संघर्षरत रहे थे। उन्होंने वैदिक हिन्दू धर्म के
एके श्वरवाद और मूर्ति रहित उपासना पर जोर दिया था। उन्होंने शुद्धि या हिन्दुओं को पुनः
मत में शामिल करने की विधि भी आरंभ की थी। परंतु उनके अवसान के बाद ही इस विधि
में तेजी आई थी।
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पंजाब एवं उत्तरी भारत के कई हिस्सों में शुद्धि समारोह आयोजित
होते थे। स्वामी दयानन्द के बाद, 1920 के दशक में स्वामी श्रद्धानन्द के अधीन शुद्धि
अभियान ने गति पकड़ी थी। विनायक ने अनेक धर्मांतरित कै दियों के लिए शुद्धि प्रक्रिया
इस्तेमाल करने का निर्णय किया। उन्हें नहाने को कहा जाता, नए वस्त्र धारण करना, पवित्र
तुलसी के पत्ते खाना, भगवत् गीता के श्लोक सुनना और उच्चारित करना और फिर
तुलसीदास की रामायण का एक अध्याय पढ़ना होता था। इसके साथ, पुनः धर्मांतरण की
सरल प्रक्रिया संपूर्ण होती जिसके अंत में मिष्ठान वितरित किया जाता था। वह अपने पुराने
हिन्दू नाम पुनः प्राप्त करते और विनायक एवं अन्य द्वारा बहुत समझाए जाने के बाद,
अपने धर्म-भाइयों के साथ खाना खाने बैठते थे।
परंतु हिन्दू पहरेदार एवं कै दी विनायक के ‘ईशनिंदा’ कृ त्य के गहरे विरोधी थे। उन्होंने
उनको ‘भंगी बाबू’ कहना शुरू किया या ऐसा व्यक्ति जो अपनी जाति छोड़ ‘अस्पृश्य’ बन
चुका था। परंतु ऐसे किसी आक्षेप का विनायक पर असर नहीं पड़ा। उन्होंने धर्मांतरित
व्यक्तियों द्वारा भोजन ‘प्रदूषित’ किए जाने जैसे हल्के विचारों पर तार्किक दृष्टिकोण दिया
और कहा कि इस सोच के कारण मामूली तम्बाकू या भोजन के सहारे दूसरों को उनके मत
में सेंध लगाना कितना आसान हो जाता है। धीरे-धीरे, जेल के भीतर ही नहीं, बल्कि बाहर
काम करने वालों या भारतीय जेलों में भेजे जाने वाले कै दियों के बीच इस अभ्यास ने गति
पकड़ी। अतः, समाज सुधार, अपने धर्म के प्रति प्रेम और लोभी प्रयासों से उसकी रक्षा का
बीज बोया जा चुका था। विनायक के शब्दों मेंः
यदि अंडमान में चले आंदोलन. . .ने हिन्दुओं की आत्मा में इस संभाव्यता को जगाया
कि एक मुसलमान को भी हिन्दू बनाया जा सकता है, तो मैं कु छ हासिल करने में सफल
रहा हूं। परंतु उस समय तक हमारे सामने प्रश्न होता, ‘एक हिन्दू तो मुसलमान बन
सकता है; इसमें शक नहीं; परंतु किसी मुसलमान को हिन्दू धर्म में कै से लाया जाए ?’
सैकड़ों हिन्दुओं ने मुझसे यह सवाल पूछा और उनका सच्चा मत था कि ऐसा नहीं हो
सकता। परंतु अब कोई प्रश्न हमारे समक्ष ऐसी पहेली नहीं खड़ी करता। चूंकि शुद्धि
अभियान ने साबित कर दिया है कि ऐसा हो सकता है और हमने यह कर दिखाया।
मुस्लिम के हाथ का बनाया भोजन हिन्दू खा सकता है, जिससे न तो उसका पेट फटेगा
और न ही उसकी जाति एवं धर्म भ्रष्ट होगा। हिन्दू धर्म इतना कमजोर नहीं; और
अंडमान के हिन्दुओं को यह आभास हो गया था, चूंकि ऐसा उन्होंने पहले नहीं किया
था। उस स्थान पर यह शुद्धि अभियान की महान विजय थी। चूंकि भारत में ऐसे
तथाकथित समझदार और आज़ादी पसंद हिन्दुओं की कट्टरवादी जमात भी है जो फिर
हमें ऐसे ही लालच से उलझाना चाहेंगे। अंडमान में यह जागृति कु छेक तक ही सीमित
नहीं रही बल्कि समूचे क्षेत्र में फै ली और इस नई भावना की जड़ें अंडमान की मिट्टी में
गहरे धँस चुकी हैं।
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कारागार में ही विनायक ने व्यापक हिन्दू संगठन या एकता सिद्धान्त पर जोर दिया था।
उन्होंने सिख, सनातनी (पारंपरिक हिन्दू), आर्य समाजी, जैन और बौद्ध मत के लोगों को
मिलाकर एक अखिल-भारतीय गठबंधन पर विचार किया। इंग्लैंड में उन्होंने, ‘हिन्दू’ होने
का अर्थ की परिभाषा भी निर्धारित की थी; वह धर्म के मानने वालों तक सीमित नहीं थी,
जिसे हिन्दू कहा जाता है। परंतु वहाँ उन्हें विचार को आकार देने का मौका नहीं मिला था।
सेल्युलर जेल में धर्मांतरण के दृश्य देख कर उन्हें यह विचार विकसित करने की प्रेरणा दी
थी। इसी विचार ने उन्हें, भिन्न वर्गों में बंटे हुए समुदाय को एकजुट करने की दिशा में भी
सक्रिय किया। बिखराव के कारण ही समय-समय पर समुदाय को नुकसान उठाना पड़ा
था। विनायक का मानना था, ‘हमारे देश को अपनी जन्मभूमि और धर्म मानने वाला व्यक्ति
हिन्दू है।’ उनकी राय में यह परिभाषा ‘समाज में और अलगाव को रोकने, हिन्दुओं को
भारत के लोगों का एक समुदाय बनाने में सशक्त रहेगी।’
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उन्होंने लिखा है:
व्यक्ति को मोक्ष उसके अपने ही धर्म में प्राण त्यागने पर मिलता है. . .हम अब किसी
हिन्दू लड़के या लड़की, पुरुष या स्त्री, चाहे वह कितने भी निचले स्तर पर हों, अन्य धर्म
में नहीं जाने देंगे, और हम उन्हें पुनःधर्मांतरित करने में भी पीछे नहीं रहेंगे जिन्हें तुम
धोखे से अपने मत में ले गए थे. . .यह प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह एक हिन्दू को
हिन्दू बने रहने की सीख दे। यह सिद्धांत उसके अपने समुदाय और संस्कृ ति के संरक्षण
एवं विकास के लिए आवश्यक है।
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1915 में पहले लाहौर षडयंत्र मामले में सज़ा पाकर बड़ी संख्या में आने वाले कै दियों के
आने के साथ ही दैवी कृ पा से विनायक के संगठन अभियान को तेजी मिली। यह मामला
सिख निर्वासितों (गदर पार्टी के सदस्य) एवं अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करने वाले
पंजाबियों से जुड़ा था। उनमें से एक भाई परमानन्द, आर्य समाज सुधारक के तौर पर
ब्रिटिश गिनी गए थे। जहाँ से वह संयुक्त राज्य अमेरिका पहुँचे और वहाँ दो वर्ष तक बर्क ले
में औषधि विज्ञान का कोर्स किया।
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वहाँ वह लाला हरदयाल के संपर्क में आए जिन्होंने
गदर अभियान की नींव रखी थी। भाई परमानन्द को 5000 गदर कार्यकर्ताओं के साथ
भारत आकर पेशावर और उत्तर-पश्चिम प्रांत के अन्य स्थानों में विद्रोह भड़काना था। परंतु
वह गिरफ्तार हो गए और 1915 में उन्हें मौत की सज़ा हुई।
वाइसरॉय ने हालाँकि, सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया और भाई परमानन्द,
लाहौर षडयंत्र मामले में सज़ा पाए सत्तर अन्य कै दियों के साथ अंडमान भेजे गए। सिख
कै दियों के आगमन पर विनायक को खुशी हुई क्योंकि वह हमेशा ही इस समुदाय को
स्वतंत्रता अभियान से जोड़ना चाहते थे। आगंतुक क्रांतिकारियों में से कई ने विनायक को
सम्मान दिया क्योंकि वह उनकी पुस्तकें पढ़ चुके थे। उन्होंने बताया कै से उनकी पुस्तकें
दुनिया भर में हजारों युवाओं को सशस्त्र संघर्ष के लिए प्रेरित कर रही हैं। यह सुनकर
विनायक हैरान हुए कि सेल्युलर जेल में उनको दी जाने वाली प्रताड़ना के बारे में अमेरिका
के समाचार पत्रों में भी छापा गया था और यह पढ़ उनमें से कई ने प्रेरणा प्राप्त की। जहाँ
एक व्यक्ति कोल्हू में जानवर की तरह जुता कष्ट झेल रहा है, ऐसे में स्वतंत्रता संघर्ष में
योगदान ना देने पर वह खुद पर शर्मिंदा भी हुए थे। यह जानकर विनायक को सुकू न मिला।
उनके श्रम ने अन्य को क्रांति मार्ग पर चलने को प्रेरित किया था। वह लिखते हैंः
जब भी अपने कमरे के एकांत में मैं कोल्हू चलाता और फिर थक कर चूर हो जाता, मैं
हमेशा खुद को इस विचार से सांत्वना देता था कि मैं यह सब बर्दाश्त कर लूंगा, यदि
इसकी सूचना बाहरी दुनिया में असंतोष की आग मंे तेल का काम करे, जो मैं जानता
हूँ पूरे देश में जल रही थी। परंतु उसके प्रति निराशा में था। मेरे कष्टों की गाथा कै से
उनके कानों तक पहुँचेगी जो मुझसे इतने दूर हैं ?. . .परंतु जब मेरे सिख मित्र ने मुझे
कहानी सुनाई, तो मैंने खुद से कहा, ‘हां, मुझे यह सब झेलना होगा, चूंकि यह व्यर्थ नहीं
जाएगा, समय पर इसका असर सामने आएगा।’ अग्नि में चर्बी डालकर उसे भड़काने
का यही एक तरीका है। कोई अभियान उसके लिए कष्ट झेलने वालों की दृढ़ता और
धैर्य पर ही अंततः सफल होता है। उसका सबूत सामने था। मेरे पहिया घुमाते ही नीचे
कु ण्ड में गिरने वाली तेल की हरेक बूंद की लकीर और कु आ जो सूखी नारियल गरी को
पीसता था, एक चिंगारी की तरह होता था जो देश भर में जल रही असंतोष की अग्नि
को जलाए रखता था। उसके असर का यह एक स्पष्ट प्रमाण था।
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पंजाबी और सिख कै दी बैरी के उत्पीड़न को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। कई बार, बैरी
की भद्दी गालियों पर उसे ही थप्पड़ पड़ जाते थे। इसके बाद कै दियों को बेंत मारने का दौर
चलता। इस तरह की उथल-पुथल आम होती जा रही थी।
कारागार में चलाए गए शुद्धि अभियान को भाई परमानन्द द्वारा दिए गए सहयोग को
विनायक ने ढके -छु पे संदर्भ में वर्णित किया है। पक्के आर्यसमाजी होने के नाते परमानन्द
शुद्धि दर्षन को समझते थे। विनायक की तरह, लम्बे समय बाद, जेल से रिहा होने पर
उन्होंने 1922 में जात-पात तोड़क के गठन के आधार पर जातिप्रथा उन्मूलन एवं हिन्दू
समुदाय के एकीकरण की दिशा में काम करना शुरू किया था। लिहाजा, विनायक ने शुद्धि
आंदोलन को सफल ठहराया और कहा कि इसने ‘लोगों को एकजुट करने में योगदान दिया
है, और उनके बीच के भेद को यदि दूर नहीं तो कम करने का काम किया और इस प्रांत,
जाति एवं रिवाज के हिन्दुओं को समाज रूप में एकीकृ त किया है।’
53
1915 और 1916 के दौरान विनायक के स्वास्थ्य में गिरावट आई। वर्षों तक मुकदमे, जेल
की सजा, भावनात्मक उद्वेग, शारीरिक श्रम एवं कारागार के दूषित माहौल ने असर
दिखाया था। उनके पाचनतंत्र को गहरा नुकसान पहुँचा और वह स्थायी पेचिश एवं बुखार
की चपेट में थे। कारागार के अरुचिकर भोजन ने हालात और भी बिगाड़ दिए थे। चलन के
अनुसार, उन्हें स्वास्थ्य सेवा प्राप्त नहीं हुई और बिगड़ी हालत के बावजूद उन्हें काम करना
पड़ता था। जब 1914 में बाबाराव को भोजन पकाने की अनुमति मिली, वह नारियल के
खोल में कु छ भोजन छु पाकर छोटे भाई के लिए ले आते।
हालाँकि, 28 अक्तू बर 1916 को विनायक को द्वितीय श्रेणी कै दी के तौर पर ‘प्रोन्नत’ कर
दिया गया था। परंतु इसका कु छ अर्थ नहीं था, जैसा कि उन्होंने नारायणराव को पत्र में
लिखा है:
तुमने पिछले पत्र में मुझसे पूछा था कि कारागार में द्वितीय श्रेणी का कै दी बनकर मुझे
क्या सुविधाएं मिलीं। अंडमान में किसी भी कै दी को पांच वर्ष बाद द्वितीय श्रेणी में और
दस वर्षों बाद प्रथम श्रेणी में शामिल किया जाता है, उस समय उसे निजी आवास
स्थापित किए जाने की अनुमति दी जाती है। तो क्या मैं जेल से बाहर जाने को मुक्त हो
गया ? नहीं। क्या मैं अपने भाई से बात करने या उसके साथ रहने को मुक्त हूँ ? नहीं।
क्या उन्होंने मुझे पहरेदार बना दिया; क्या उन्होंने मुझे लॉकअप में बंद करना छोड़ दिया
? नहीं। क्या मुझे परिवार को एक से अधिक पत्र लिखने की अनुमति है ? नहीं। क्या मैं
घर सेे कु छ सामान प्राप्त कर सकता हूँ ? नहीं। पांच वर्षों के बाद सभी अन्य कै दियों को
यह छू ट प्राप्त हुई हैं। परंतु मुझे, जो कारागार में अपना आठवां वर्ष बिता रहा है, ऐसी
कोई सुविधाएं प्राप्त नहीं हुई। तो तुम पूछ सकते हो कि श्रेणी दो वाक्य का क्या अर्थ है।
जिसके प्रति मेरा उत्तर होगाः मैं श्रेणी दो में हूँ क्योंकि मैं श्रेणी दो में हूं। न अधिक न
कम। न बेहतर न कमतर।
54
इसी पत्र में विनायक ने हैरानी जताई कि समाचार पत्रों द्वारा राजनीतिक कै दियों को छु ड़ाए
जाने की अपील के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने घोर चुप्पी क्यों साध ली है। अपने ‘खुले,
हवादार और सुसज्जित पंडालों’ में बैठकर कांग्रेस चुप है और ‘सांत्वना रूपी कोई प्रस्ताव
पारित नहीं करना चाहती. . .उनके पास बहाने को एक आंसू तक नहीं’। उन्होंने कहा कि
जबकि खुद उनके ‘दिल हमदर्दी से पिघले जा रहे हैं’ और उन्होंने युद्ध के दौरान कै द किए
गए बंदियों की रिहाई के लिए प्रस्ताव भी पारित किया था, जिन्हें युद्धोपरांत यूं भी छोड़ा
जाना था, तो क्यों कांग्रेस की प्राथमिकता में राजनीतिक कै दी नहीं हैं। कांग्रेस के ढुलमुल
जवाब पर विनायक ने कल्पना की:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य प्रतिष्ठा और परंपरा प्रेमी हैं और शासकों से डरते हैं।
और यही कठिनाई है। कै दियों पर बात करने में कोई खतरा नहीं; परंतु वह हम
क्रांतिकारियों के प्रति कोई शब्द नहीं कहेंगे। क्योंकि इससे वह शासकों के विपरीत
साबित होंगे, और यूरोपियनों के समक्ष प्रतिष्ठा आहत होगी। कांग्रेस का कार्य लोगों की
आवाज़ उठाना है, अपने कु छ बड़े ऊं घते हुए सदस्यों का मुखपत्र बनना नहीं। जब देश
के समाचार पत्रों एवं बैठकों ने हम जैसे राजनीतिक कै दियों को रिहा किए जाने की
मांग रखी, तो कांग्रेस के नेताओं द्वारा उस संबंध में एक भी शब्द न कहना, उसे राष्ट्रीय
संस्था या इकाई कहाने वाला नहीं हो सकता। दुनिया चाहती है कि भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस अपने नेताओं की रिहाई के संबंध में मांग उठाए; दुनिया चाहती है कि वह अपने
राजनीतिक कै दियों को छु ड़ाने और देश के संबंध में परिश्रम करे जैसा कि आयरलैंड,
दक्षिण अफ्रीका एवं ऑस्ट्रिया की मिलती-जुलती संस्थाओं ने किया है। यदि भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस ऐसा नहीं करती तो यह उसके पक्ष में नहीं जाएगा। कांग्रेस को मुखर
और उग्र होने के लिए हमें जोर देना चाहिए। यदि इस विचार पर उसके वरिष्ठ नेताओं
की टांगें कांपती हैं तो बेहतर होगा कि प्रस्ताव पारित होने के समय वह अनुपस्थित रहें।
क्योंकि कु छ व्यक्ति डरपोक हैं और देश को इस खामोशी का दाग नहीं उठाने देना
चाहिए।
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इस दौरान, लाहौर षडयंत्र मामले के एक दोषी सिख राजनीतिक कै दी भान सिंह का बैरी
और उसके आदमियों से जोरदार विवाद हो गया था जिस पर गुस्साए क्रु द्ध बैरी ने उसे खून
की उल्टियां किए जाने तक पीटते रहने का आदेश दिया। उसकी चीखें सुनकर पंजाब के
अन्य कै दी उसे बचाने कोठरी तक पहुँचे। उन्होंने बाद में हड़ताल करने का निर्णय किया।
बीमारी के कारण विनायक उनके साथ हड़ताल में शामिल नहीं हो सके , परंतु उन्होंने कहा
कि वह इसमें उनका मार्गदर्शन और उनकी ओर से एक ज्ञापन-पत्र पेश करने में मदद
करेंगे। इस अभूतपूर्व हड़ताल में सौ से अधिक कै दी शामिल थे। उस समय तक विनायक
को अस्पताल भेजना पड़ा था। वहाँ उनकी मुलाकात भान सिंह से हुई। प्रताड़ना के कारण
उन्हें गंभीर चोटें पहुँची थी और रह-रहकर खून थूकते थे। अंततः, चोटों से उनकी मौत हो
गई। सूचना से पूरे कारागार में सनसनी फै ल गई थी। एक साठ वर्षीय वृद्ध सरदार सोहन
सिंह और पंजाब के एक युवक, पृथ्वी सिंह ‘आजाद’ अनिश्चित भूख हड़ताल पर बैठ गए।
उनकी मांग थी कि भान सिंह की मौत के संबंध में उनके बयान दर्ज किए जाएं। पृथ्वी सिंह
छह महीने तक हड़ताल पर बैठे रहे और बाद में उन्होंने ननी गोपाल की तरह कपड़े पहनने
भी छोड़ दिए थे। वह अस्थियों और चमड़ी का ढाँचा भर रह गए थे। सैद्धांतिक तौर पर
आमरण अनशन के खिलाफ रहने वाले विनायक ने उन्हें इस तरह आत्महत्या करने के
खिलाफ समझाया जिस पर आखिरकार उन्होंने हड़ताल समाप्त कर दी। कई कै दी तेजी से
फै ल रहे क्षय रोग की चपेट में आ गए थे। विनायक के अनुसार ऐसी परिस्थिति में भूख
हड़ताल घातक होती। जेल में विनायक के अपने ऊपर असर के बारे में पृथ्वी सिंह ने लिखा
हैः
विनायक दामोदर सावरकर, जिन्हें मैं अपना गुरु मानता हूं, ने जेल में मुझे लंबा और
भावोत्तेजक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘तुम दिल और दिमाग पर अपना
असर खो रहे हो, तुम इतने कमजोर हो गए हो कि बचने की कोई उम्मीद नहीं है। जीवन
को इस तरह गंवा देने का क्या अर्थ है ? इसलिए भूख हड़ताल बंद करो।’ मैं इस पत्र
का उत्तर देने की हिम्मत या शब्द नहीं जुटा पाया था। उस समय एक मच्छर मुझे तंग
करता रहा। मैंने उसे अपने हाथों से मसलना चाहा। परंतु मैं इतना कमजोर था कि मैं
उसे नहीं मार सका। उस समय अपनी असमर्थता को लेकर सावरकर के पत्र का संदेश
मुझे समझ आया। अपनी कमजोरी के कारण मैं एक मच्छर भी न मार सका, तो
अंग्रेजों को खदेड़ने के बारे में कै से सोच सकता हूँ ? मैंने एक पेंसिल उठाई और उन्हें
लिखा कि मैं नैसर्गिक मौत ही मरूं गा, और मुझे किसी तरह भी मारा नहीं जा सके गा।
इसके बाद 5 महीने और 5 दिनों तक चली हड़ताल समाप्त हुई।
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हड़ताल के कारण जेल की हलचलों पर प्रशासन की नजर पड़ी थी। हालाँकि, भान सिंह के
साथ अमानवीय व्यवहार के बारे में बैरी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया, परंतु उसे कड़ी
फटकार पड़ी और एक विभागीय जांच उसके खिलाफ बैठाई गई। चारों ओर उसकी
बदनामी फै ली और अंडमान में लगातार हो रही उथल-पुथल के कारण सरकार उसे शक
की निगाह से देखने लगी थी।
~
प्रथम विश्व युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका था। मित्र राष्ट्र विजयी रहे थे।
राजशाहियां गिर गई थीं, राष्ट्रीय सीमाएं फिर से खींची जा रही थीं और विजेताओं के बीच
जर्मनी बंट रहा था। 1919 की पेरिस शांति वार्ता के दौरान, चार बड़े राष्ट्रों – ब्रिटेन, फ्रांस,
इटली एवं संयुक्त राज्य अमेरिका ने कई संधियों के अंतर्गत अपनी शर्तें मनवाई। युद्ध ने
भावी टकराव की जमीन तैयार कर दी थी जो कु छ दशकों बाद बड़े रूप में सामने आना
था।
युद्ध के अंत के निकट, ब्रिटिश सरकार भारत में सरकारी एवं प्रशासनिक सुधारों पर
विचार कर रही थी। जून 1917 में भारत के राज्य सचिव का पदभार संभालने वाले एडविन
सेम्युल मोंटेग्यू ने, भारत में स्वायत्त संस्थानों की स्थापना का प्रस्ताव ब्रिटिश मंत्रिमंडल के
समक्ष रखा जिसका लक्ष्य अंततः स्वशासन को लागू करने से जुड़ा था। बंगाल विभाजन
का प्रयास करने वाले विवादास्पद लॉर्ड कर्जन उस समय हाउस ऑफ लॉर्ड्स में सांसद थे।
उन्होंने विषय पर असहमति जताते हुए कहा कि स्वशासन पर अधिक जोर देने की बजाय,
जरूरत प्रशासन के प्रत्येक हलके में भारतीयों की शिरकत बढ़ाने पर होना चाहिए, जो
प्रयास बाद में स्वशासन की ओर पहुँचेगा। अतः, 1917 के अंत में मोंटेग्यू, प्रस्तावित
सीमित स्वशासन पर अपने विचार सुनिश्चित करने के लिए तत्कालीन वाइसरॉय लॉर्ड
चेम्सफोर्ड से मिलने भारत पहुँचे। सुधारों के मुद्दे पर मोंटेग्यू ने, भारत के विभिन्न धड़ों के
लोगों और विनायक सहित प्रमुख राजनीतिक कै दियों से विचार देने का निवेदन किया।
इसी अनुसार, 5 अक्तू बर 1917 को, विनायक ने विषय संबंधी विचारों की रूपरेखा की
याचिका मोंटेग्यू को भेजी। उन्होंने 1914 की अपनी याचिका का हवाला दिया जब लॉर्ड
हार्डिंग ने उन्हें किसी तरह की माफी दिए जाने को ‘असंभव’ कहा था। परंतु प्रथम विश्व
युद्ध के वर्षों के दौरान परिस्थितियों में कई बदलाव आए थे। उन्होंने कहा कि इंसान में नया
भाव प्रकट हुआ है, राष्ट्रों में नई दृष्टि और उम्मीदों ने जन्म लिया है जिनकी झलक उनके
राष्ट्राध्यक्षों की वाणी में दिखती है। विनायक ने अनुमान लगाया कि ऐसे परिदृश्य में, भारत
या ब्रिटिश साम्राज्य दोनों ही दुनिया में बह रही लोकतांत्रिक बयार से अछू ते नहीं रह सकते,
जिसमें पुरानी वर्ण आधारित प्रभुसत्ता धीरे-धीरे सहयोग और गणतांत्रिक रीति को स्थान दे
रही है। परिस्थितियों में परिवर्तन के प्रति उनका तर्क थाः
साम्राज्य के मंत्रिमंडल का संकें द्रक; उसमें उपनिवेशों के मंत्रियों की मौजूदगी और
बेशक नामांकित, भारत के दो प्रतिनिधि; भारतीय युवाओं के स्वयंसेवकों के तौर पर
भर्ती की मंजूरी; फौज में कमीशन पदों का खोला जाना; प्रधानमंत्री का बेहतरीन
भाषण जिसमें उन्होंने घोषणा की कि ब्रिटिश शासनकला इस बात पर निर्भर करेगी कि
वह लाखों भारतीयों को निर्भरता नहीं, अपितु ‘सच्ची सहभागिता’ का अहसास कराए;
और उस पर मौजूदा राज्य सचिव के इस महत्वपूर्ण, निश्चित एवं फै सलाकु न बयान से
और भी साफ हो गया कि यह के वल लक्ष्य ही नहीं, बल्कि भारतीय प्रशासन में फौरी
परंतु सीमित क्रियान्वयन के लिए है।
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उन्होंने तर्क दिया कि यदि अधिकांश सरकारी मुखपत्रों की घोषित स्थिति यह है तो यह
दरबारों, शाही इश्तिहारों, हाथी की सवारियों एवं आतिशबाजी के आधार पर नहीं बल्कि
भारत भर की जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कै दियों की रिहाई से संभव हो सके गा।
उन्होंने कहा, ‘भरोसा के वल भरोसा दिखाने से ही प्राप्त होता है’।
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अन्य देशों के
उदाहरण देते हुए विनायक ने कहा कि कनाडा में विद्रोह एवं विप्लव चल रहे थे। परंतु लॉर्ड
डर्हम
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जैसे भविष्यद्रष्टा राजनयिक द्वारा दिखाए गए विश्वास का असर था कि लड़ रहे
क्रांतिकारियों के नेता प्रपौत्र अब ब्रिटिश ओर से फ्लैंडर्स में लड़ रहे थे। अंग्रेजों ने युद्ध में
हराए गए बोर के संबंध में भी ऐसा ही विश्वास दिखाया था। क्या भारत किसी कम विश्वास
का हकदार है, जबकि इतिहास बताता है कि अधिक उदारता और सहज विश्वास उसकी
कमजोरी रही है ? अपनी याचिका में उन्होंने भारत और उसके लोगों के लिए स्वशासन के
अधिकार को इस दिशा में सही कदम बताया।
विनायक ने तर्क दिया कि यदि भारत को गणतंत्र में स्वायत्त साझीदार बनने की इजाजत
मिलती है और यदि निकट भविष्य में भारतीयों को वाइसरॉय की काउंसिल में बहुमत
मिलता है तो वह सामाजिक कार्य, एवं समाज के परिष्करण तथा शुद्धिकरण की दिशा में
काम करेंगे। उन्होंने बताया कि साम्राज्य के खिलाफ उनका और अन्य का विद्रोह किसी
कट्टरवाद या विध्वंसकारी विरोध के कारण नहीं उपजा था। उन्होंने माना ‘जब संविधान
नहीं था, उस समय संवैधानिक धाराओं की बात करना मज़ाक लगता था। परंतु यदि अब
संविधान अस्तित्व में आता है, जैसा कि स्वशासन होगा तो बेहिसाब राजनीतिक,
सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक कार्य करने होंगे जो संवैधानिक तरीके से ही किए जाएंगे
जिससे सरकार संतुष्ट हो सके गी कि राजनीतिक कै दियों में से कोई भी मन बहलाव के लिए
गुप्त गतिविधियों की ओर नहीं झुके गा।’ लिहाजा, राजनीतिक कै दियों की रिहाई, भारत के
प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए ब्रिटिश सरकार की गंभीरता भारतीयों में विश्वास पैदा
करेगी, बल्कि सरकार को इससे मदद के लिए राष्ट्रप्रेमियों के बाजू भी मिलेंगे जो परिवर्तन
की दिशा में काम करेंगे। उन्होंने सवाल उठाया, ‘उस जमीन पर शांति और आपसी भरोसा
कै से पनप सकता है जिसके हर दूसरे घर से भाई या बेटा या पति या प्रेमी या मित्र को छीन
लिया गया हो और वह कारागार में बंद हो ? यह मानवीय प्रवृत्ति के विरुद्ध है क्योंकि
मानवीय संबंध सबसे गहरे होते हैं।’
कु शल वकील की तरह एक बार फिर विनायक ने अपना पक्ष रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय
उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में राजनीतिक कै दी रिहा किए जा रहे
हैं। रूस, फ्रांस, आयरलैंड, ट्रांसवाल एवं ऑस्ट्रिया में आम माफी सामान्य सिद्धांत बन चुका
है। युद्ध छिड़ने के बाद इसमें और भी तेजी आई है। निजी तौर पर आगज़नी और दंगा
फै लाने के अभियुक्त ब्रिटेन के सफ्राजिस्टों को युद्ध शुरू होते ही तुरंत छोड़ दिया गया था।
यह तर्क कै से दिया जा सकता है कि दुनिया को लाभ पहुँचाने वाला कदम, भारत के लिए
घातक होगा ?
उनकी सोच थी कि जब तक देश के हजारों लोगों के नायक कै दखानों में रहेंगे, आज़ादी
को बंदी रखने वाले अधिकार का विरोध जारी रहेगा। वहीं यदि इनमें से कु छ नायकों को
शासन प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार मिलेगा, तो यह नायकों को आदर्श मानने वालों
के लिए उदाहरण होगा और भावी विद्रोह रुकें गे।
विनायक द्वारा याचिका का अंत निम्न तर्क से करना महत्वपूर्ण था:
यदि सरकार सोचती है कि मैं अपनी रिहाई के लिए यह लिख रहा हूं; अथवा यदि मेरा
नाम ऐसी आम माफी को लागू करने में रुकावट बनता है तो सरकार मेरा नाम माफी से
हटाकर अन्य सब को रिहा कर दे; वह मेरे लिए उतना ही संतोषप्रद होगा जितनी मेरी
रिहाई। यदि सरकार इस प्रश्न पर कभी विचार करती है तो आम माफी इतनी व्यापक हो
जिसमें भारत से निष्कासन झेल रहे व्यक्तियों को भी शामिल किया जाए और जिन्हें
जब तक उनकी अपनी धरती पर पराया घोषित किया जाता रहेगा वह भारत सरकार
के प्रतिरोधी रहेंगे, परंतु उनमें से कई, अगर वापस आने की अनुमति पाते हैं तो अपनी
मातृभूमि के लिए खुली एवं संवैधानिक लीक पर काम करना चाहेंगे, जब भी यह नया
और मौलिक संविधान यहाँ अस्तित्ववान होगा।
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जैसी कि उम्मीद थी, विनायक की याचिका सरकार ने रद्द कर दी।
परंतु मोटेग्यू द्वारा प्रस्तावित सुधारों ने रफ्तार पकड़ ली थी। अनेक मंत्रणाओं के बाद,
उसने भूपेन्द्रनाथ बोस, लॉर्ड रिचर्ड हेली-हचिसन, सिक्स्थ अर्ल ऑफ डाॅनोमोर, विलियम
ड्यूक और चार्ल्स रॉबर्ट्स
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के साथ मिलकर रिपोर्ट तैयार की। अंततः, 1919 के भारत
सरकार अधिनियम में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का विलयन हुआ।
इसके तहत द्विसदनीय वैधानिक इकाई का गठन किया गया – विधान सभा और राज्य
परिषद्। 145 सदस्यीय विधान सभा में 103 सदस्य चुनाव से और शेष नामांकित थे। 103
सदस्यों में से 51 आम निर्वाचन क्षेत्रों, 32 सामुदायिक/पृथक निर्वाचन क्षेत्रों से (बत्तीस
मुस्लिम क्षेत्रों और बीस सिख क्षेत्रों से), और जमींदारों, आंग्ल-भारतीय आदि जैसे विशेष
निर्वाचन क्षेत्रों से बीस सदस्य चुने जाने थे। राज्य परिषदों में साठ सदस्य होते थे – तीन चुने
गए और सत्ताईस गवर्नर-जनरल द्वारा निर्वाचित। कें द्रीय विधान सभा का कार्यकाल तीन
वर्ष और राज्य परिषद का पांच वर्ष होता था। विशेष अधिकार बढ़ाते हुए कें द्रीय एवं राज्य
परिषद को अधिक अधिकार दिए गए परंतु वाइसरॉय अभी तक लंदन के प्रति जवाबदेह
था।
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प्रांतीय स्तर पर, चुने गए बहुमत सदस्यों के आधार पर प्रांतीय विधान परिषद के गठन के
साथ व्यापक परिवर्तन आए। बंगाल, मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रांत, पंजाब, बिहार, मध्य प्रांत
एवं असम जैसे प्रमुख प्रांतों में गवर्नर का राज्य स्थापित हुआ। द्विशासन नामक तंत्र के
तहत, कें द्रीय एवं प्रांतीय सरकारों के अधिकारों की सीमा सख्ती से तय कर दी गई। कें द्रीय
या आरक्षित सूची के पास रक्षा, विदेश मामलों, टेलिग्राफ, रेलवे, डाक, विदेश व्यापार एवं
अन्य कार्याधिकार थे, जबकि प्रांतीय या हस्तांतरित सूची स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता,
सिंचाई, जेल, पुलिस, न्याय, लोक-निर्माण, राज्यकर, धार्मिक एवं पुण्यार्थ-निधि आदि
मामलों को देखती थी।
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भारत सरकार अधिनियम के प्रति जनता की प्रतिक्रिया आशानुरूप रही। पूर्णतया संतुष्ट
ना होने पर भी उदारवादियों ने नए सुधारों की रूपरेखा के अंतर्गत उन्हें सफल कराने के
लिए, उन्मुक्त सहयोग देना स्वीकार किया। वहीं एक अन्य मजबूत धड़ा उन्हें अस्वीकार
करने पर उतारू था। तिलक, जो 1915 में गोखले की मृत्यु के बाद से कांग्रेस पर हावी थे,
ने ‘उत्तरदायी सहयोग’ की नीति अपनाई जो सरकार को उसके प्रत्येक वादे पर खरा उतरने
पर निर्भर करती थी।
1919 के दिसंबर अंत में अमृतसर में आयोजित कांग्रेस के चौथे सत्र में चितरंजन दास
की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘सुधार अधिनियम अधूरा, असंतोषजनक और
निराशाजनक’ का प्रस्ताव पारित किया। उसने सरकार से शीघ्र ही स्वशासन के सिद्धांतों के
अनुसार पूरी तरह से जिम्मेदार सरकार स्थापित करने की दिशा में कदम उठाने को कहा।
दास सुधारों को खारिज करने के पक्ष में थे। इस सत्र में गांधी कांग्रेस पर महत्वपूर्ण असर
डालने में कामयाब हुए थे। यंग इंडिया
में उनके आलेख से गांधी के विचार पता चलते हैंः
‘सुधार अधिनियम. . . ब्रिटिश लोगों द्वारा भारत के प्रति न्याय करने का ईमानदार प्रयास है
और उस दिशा में इसे शंका दूर करनी चाहिए. . .अतः हमारा कार्य सुधारों में मीन मेख
निकाल कर आलोचना करना नहीं बल्कि बैठकर काम करना है ताकि वह सफल हो सकें ।’
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इस तरह, मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार ने कांग्रेस के अनेक लीडरों को विभाजित कर दिया


तथा एक और वैचारिक विभाजन की आशंका को देखते हुए चितरंजन दास एक समझौते
पर पहुँचे। प्रस्ताव को पुनः व्याख्यायित किया गयाः ‘कांग्रेस का विश्वास है कि जितना भी
संभव हो, वह सुधारों पर काम कर पूर्ण जिम्मेदार सरकार की शीघ्र स्थापना की दिशा में
प्रयास करे।’
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यह भी कहा गया कि कांग्रेस ‘प्रतिरोध, विशुद्ध, व्यापक प्रतिरोध के
खिलाफ नहीं है, यदि वही हमारे राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने में काम आए तो।’ यह
पक्ष तिलक की नीति ‘उत्तरदायी सहयोग’ के अनुरूप था। गांधी ने भी कहाः ‘. . .इसका
यह अर्थ नहीं कि हम हाथ पर हाथ रखे बैठ जाएं और अभी अपनी उम्मीद रख सकते हैं।
ब्रिटिश संविधान के अंतर्गत किसी को भी कड़े संघर्ष के बिना कु छ नहीं मिलता. . .हमें
कांग्रेस के अध्यक्ष की सलाह को याद रखना चाहिए कि हमें आंदोलन के बिना कु छ हासिल
नहीं होगा।’
66
~
उधर पोर्ट ब्लेयर में विनायक का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। नारायणराव को एक पत्र में
विनायक ने लिखा:
पिछले वर्ष मार्च में मेरा वजन 119 पाउंड था – इस वर्ष 98 पाउंड है! जो वजन यहाँ
पहुँचने के समय यहाँ होता है, उसे सामान्य माना जाता है. . .परंतु यहाँ आने के समय
मेरा वजन 111 पाउंड था। आरंभ में स्वास्थ्य उपचार न मिलने के कारण स्थायी पेचिश
से मैं अस्थिपंजर मात्र रह गया हूँ। आठ वर्षों तक मैंने बखूबी यह बोझ उठाया। अनेक
और अनजानी कठिनाइयों ने मेरे साहस को परखा और घुड़कियों एवं धमकियों तथा
खेद प्रकट करने वाले माहौल ने, हतोत्साही और निराश कर देने वाली दुर्गंध ने जीवन
के समधुर श्वास का गला घोंटने का प्रयास किया – परंतु ईश्वर ने मुझे खड़ा रहने और
खड़े रहकर इस सबको आठ वर्षों तक झेलने की हिम्मत दी। परंतु अब मुझे लगता है
कि मांस पर लगे घाव भरने वाले नहीं और दिन-ब-दिन उसे भेदते जा रहे हैं। हाल में,
मेडिकल अधीक्षक मेरी कमजोरी पर कु छ ज्यादा ध्यान दे रहा है और चूंकि मैं अभीे
‘कार्य’ पर हूं, यानी, काम पर, अस्पताल में नहीं, फिर भी मुझे अस्पताल का बेहतर
पका भोजन मिलता है और के वल चावल खाने की मंजूरी है, पर इस समय के वल दूध
एवं ब्रेड। कु छ बेहतर है और उम्मीद है सुधार होगा। परंतु संभावना है कि यह निरंतर
अशक्तता किसी जानलेवा रोग में तब्दील हो सकती है जो जेलों, विशेषकर अंडमान में
अनिवार्य तौर पर फै ली, थाइसिस है। एक ही चीज और के वल एक ही चीज मेरे स्वास्थ्य
लाभ में सहायक हो सकती है, और वह है परिवर्तन. . .बेहतर दिशा में परिवर्तन, किसी
भारतीय जेल के बेहतर परिवेश में।
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बाबाराव की हालत भी कु छ अच्छी नहीं थी। अगस्त 1918 में, उनका वजन 106 पाउंड
तक आ गिरा था और अतिसार की समस्या निरंतर बनी हुई थी। उनका पित्ताशय भी
समस्या देने लगा था। चलना-फिरना कठिन होने के कारण उन्हें लगभग रेंग कर अस्पताल
पहुँचना पड़ता। खांसी की जकड़ प्राण खींच लेने तक तकलीफदेह हो चुकी थी। डाॅक्टरों के
अनुसार उन्हें क्षय रोग था। इसके बावजूद, 100-102 बुखार में उन्हें अस्पताल ना भेजकर
काम कराया जाता था।
हालत बिगड़ने पर विनायक को जेल के अस्पताल भेज दिया गया। जानलेवा पेटदर्द और
तेज बुखार ने उन्हें दोहरा कर दिया था। कु छ भी हजम कर सकने मंे वह असमर्थ थे।
हालत बिगड़ती गई और वह मलेरिया की चपेट में आ गए। उनकी इंद्रियां धीरे-धीरे कर
शिथिल पड़ रही थीं। उनका पसंदीदा मनोविनोद – अध्ययन भी रोकना पड़ा क्योंकि उससे
जोर पड़ता था। इसके बावजूद, पूरा दिन आँखें बंद करके लेटे रहने से समय अनंत और
बोझिल हो जाता। खुद को मृत्यु शैय्या पर लेटा समझकर उनके अंतर्मन से एक कविता
फू ट पड़ी, जिसका शीर्षक था ‘मरणोन्मुख शैय्येवार
’। इसके आरंभिक छंद हैंः
आओ, मृत्यु! यदि तुम पहले ही आने के लिए चल दी हो - स्वागत!
यह पुष्प कांपते हुए मुरझा जाएंगे,
यह रसीले अंगूर सूख जाएंगे,
परंतु मुझे क्यों तुम्हारा डर हो ?
मेरे पास के वल अश्रुओं की धारा है जिसे प्याले में भर तुम्हें प्रेषित करता हूं
और जिसे मैंने सोचा अधिक पीना थकायेगा नहीं;
आओ यदि यह स्वीकार्य हो तुम्हें!
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स्वास्थ्य लाभ करने के लिए विनायक को अस्पताल में करीब एक वर्ष बिताना पड़ा। एक
बार फिर उस निकृ ष्ट माहौल में पहुँच कर गहरे अवसाद ने उन्हें घेर लिया। मस्तिष्क को हरा
देने वाले विचारों की छाया गहरी हो गई और फिर वह जीवन अंत करने की सोचने लगे।
परंतु एक बार फिर, शांत तर्क शीलता से उन्होंने खुद को रोका। लिखा हैः
कई बार मुझे लगता कि शरीर अब अधिक नहीं झेल पाएगा क्योंकि एक के बाद एक
रोग हमला कर रहे थे। मांस की बनी यह पोशाक अब पूरी तरह चिथड़े हो फट चुकी है
और आत्मा इसे पहने नहीं रह सकती। फिर कभी मुझे अपनी हालत में कु छ सुधार
महसूस होता है। परंतु कितने समय तक मैं ऐसे ही जूझता रहूंगा ? अब डेढ़ वर्ष बीत
चुका है। पेचिश, शौच में रक्त, बुखार और अन्य कोई तकलीफ आती रही और मैंने सब
झेला। इसलिए मैंने जीवन समाप्त करने की सोच ली थी। चूंकि मुझे कोई शक न रहा
था कि यह जेल और मेरा साथ कभी न छू टेगा, और जब तक ऐसा रहा, मेरा स्वास्थ्य
नहीं सुधरेगा। हम सब प्रसन्नता चाहते हैं और कोई भी सदा रोते हुए अंत तक कष्ट नहीं
उठा सकता। मैं जानना चाहता था कि कितने दिन मैंने कष्ट झेले और कितने दिन मैं
बिना कष्ट के रहा। इसलिए मैंने एक मासिक चार्ट बनाया जिसमें शरीर को उठाने में
प्रसन्नता और कब कष्ट रहा, चिन्हित किया। मैंने इसे दीवार पर टांगा, एक बीमारी से
दूसरी बीमारी तक की पीड़ा, और रोगहीन कोई दिन। यह प्रक्रिया दो माह चली और
मुझे गणना मिल गई। पता चला कि साठ में से पंद्रह दिन अपेक्षाकृ त बेहतर थे, और
शेष सब व्यर्थ। अतः, फै सला किया कि सबकु छ अंधकारमय नहीं था और मुझे
आत्महत्या का विचार एक ओर रखना चाहिए।
69
मई 1919 के अंतिम दो दिवस, यानी 30 एवं 31 मई, विनायक के लिए कु छ खुशखबरी
लेकर आए। आठ लंबे वर्षों के बाद उन्हें उनके परिवारजनों से मिलने की अनुमति मिली
थी। जहाँ अन्य कै दियों को प्रत्येक पांच वर्षों में अपने परिवार से मिलने और कु छ दिन
उनके साथ रहने का मौका मिलता था, विनायक को कभी ऐसी कोई छू ट नहीं मिली थी।
आखिरकार, सरकारी अनुमति के बाद, विनायक की पत्नी यमुना बाई और छोटे भाई
नारायणराव बंबई से कलकत्ता रवाना हुए और वहाँ से पोर्ट ब्लेयर पहुँचे।
कहना न होगा, कि यह बेहद भावपूर्ण पुनर्मिलन था। एक अन्य युवती को अपने भाई
और पत्नी के साथ आया देख विनायक विस्मित थे। वह नारायणराव की पत्नी शांता थीं।
1916 में ऐलोपेथी, होम्योपैथी एवं दंतचिकित्सा में उत्तीर्ण होने के बाद नारायणराव ने
गिरगाँव, बंबई में एक क्लिनिक शुरू किया था। उसी दौरान उनका विवाह हरिदिनि
(विवाहोपरांत नाम शांता) से हुआ था।
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मराठी समझने वाले एक पहरेदार की उपस्थिति
में भी सब बेफिक्री से बातें करते रहे। दोनों दिनों की मुलाकात एक पहर से कु छ अधिक
समय तक चली थीं। विनायक अपनी भाभी और हमदर्द येसु वहिनी को देखने के लिए
बहुत लालायित थे। परंतु नारायणराव ने सूचित किया कि उनकी भाभी का निधन हो चुका
है। वह बाबाराव और विनायक की वापसी बाट जोहती रही थीं। 1915 मंे, यमुना और
येसु वहिनी ने वायसरॉय हार्डिंग को क्रमश: 28 जुलाई और 11 अक्तू बर के लिखे पत्रों में
विनायक और बाबाराव की रिहाई की मांग की थी, जिसे सरकार ने खारिज कर दिया था।
नारायणराव के विवाह के बाद येसु वहिनी कु छ समय उनके साथ रही थीं। परंतु 1918 के
उत्तरार्ध में, गिरते स्वास्थ्य के कारण, वह नासिक में अपने मामा, वामनराव दांडेकर के यहाँ
चली गई थीं। अपना अंत निकट देख उन्होंने सरकार से अपने पति को आखिरी बार देखने
की विनती की। दुर्भाग्यवश, उसे भी खारिज कर दिया गया, परंतु उनकी हिम्मत अटूट थी।
मृत्यु से चार दिन पूर्व, जब उनकी पारिवारिक मित्र गोदुमई खरे उनसे मिलने आईं और
बिना चूड़ियों के उनके हाथ देखकर सवाल किया तो उन्होंने बेपरवाही से जवाब दियाः
‘गोदुमई, सूजन के कारण मेरे हाथों में चूड़ियाँ नहीं फँ सती, इसलिए मैंने उतार दीं। किसी ने
मुझे नई चूड़ियां दी थीं, परंतु क्योंकि वह विदेशी हैं, मैं उन्हें नहीं पहनती।’
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नासिक षडयंत्र मामले के एक अभियुक्त और अभिनव भारत के सदस्य, सखारामपंत
गोरे ने कारागार में दम तोड़ दिया था। इससे उनकी पत्नी जानकीबाई गोरे को गहरा आघात
पहुँचा जो स्वयं येसु वहिनी द्वारा स्थापित आत्मनिष्ठा युवती संघ की सदस्य रही थीं। वह
गहरे अवसाद की शिकार हो गई और उनकी जिंदा रहने की इच्छा जाती रही। जब समाज
ने जानकी को नजरअंदाज कर दिया तो अपने सीमित संसाधनों और वित्तीय तंगी के
बावजूद येसु वहिनी उन्हें अपने घर ले आईं और उन्होंने बहुत स्नेह से उनकी देखभाल की।
फिर भी जानकी बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहीं। उनकी मृत्यु का येसु वहिनी पर गहरा
असर पड़ा था। अपने प्रियजनों को देखे बिना मर जाने का डर उन्हें सताता रहता था।
उनका डर सच में बदल ही गया था। अंत समय से कु छ पहले उन्मादित अवस्था में उन्हें
बाबाराव और विनायक के लौट आने के दृश्य नजर आने लगे, जिसमें वह अपनी भाभियों
से आरती तैयार करने के लिए कहते थे। अधूरी इच्छा लिए, 5 फरवरी 1919 को येसु
वहिनी का निधन हुआ।
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इसे नियति का क्रू र मजाक ही कहेंगे कि उनकी मृत्यु के तीन
दिनों बाद, परिवार को अंडमान जाने की अनुमति मिली थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन
बाबाराव और विनायक के जीवन और खुशी के लिए होम कर दिया था। परंतु यह सूचना
पाकर विनायक और बाबाराव टूट गए थे।
21 सितंबर 1919 को नारायणराव को पत्र में येसु वहिनी की मृत्यु पर विनायक ने
व्याकु लता दर्शाई
कै सी भी रिहाई का आधा हर्ष यह सोच कर धूमिल हो गया है कि मैं उस घर पहुँचूंगा
जहाँ वह मेरे स्वागत में नहीं होंगी! मेरी सबसे पुरानी मित्र, मेरी बहिन, मेरी माँ और मेरी
काॅमरेड – सभी रूपों में, एक साथ सब, उन्हें सचमुच एक सती की मृत्यु प्राप्त हुई! क्या
उन्होंने अपनी शांत आत्मा को जलाया नहीं और वह भी हमारी मातृभूमि की वेदी पर ?
अह! जैसे कोई सच्चा शहीद अपनी मातृभूमि या धर्म के लिए मरता है, यह भारतीय
युवतियाँ आज अपने प्रियजनांे की वापसी की राह देखती छटपटाती, मुरझा जाती हैं
जिनसे उनका कभी मिलना न होेगा; शांत भाव से कष्ट झेलना, अज्ञात की सेवा,
उपेक्षित हो मूल्य चुकाना – अवश्य यह भारतीय युवतियाँ रोती हुई अपनी मातृभूमि,
अपने धर्म के लिए प्राण त्यागती हैं।
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उधर भारत सरकार की सुधारवादी नीतियों के साथ-साथ उसका दमनचक्र भी जारी था।
भारत में क्रांतिकारी अभियान की प्रकृ ति और व्यापकता का जायजा लेने के लिए दिसंबर
1917 में एक समिति नियुक्त की गई। ऐसे मामलों के संचालन में आने वाली दिक्कत का
आकलन करने का अधिकार भी समिति को था। हिज़ मैजस्टीज़ हाई कोर्ट ऑफ जस्टिस
की किंग्स बेंच डिविजन के न्यायाधीश एसएटी रॉलेट समिति के अध्यक्ष थे। सरकार के
अधीन समस्त सूचना तक समिति की पहुँच थी। इसे रॉलेट सेडिशन कमिटी नाम दिया गया
था।
समिति ने भारत के विभिन्न हिस्सों और बाहर क्रांतिकारी गतिविधियों के इतिहास और
उद्भव पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जिसमें विनायक की भूमिका का भी लंबा ब्योरा था।
1915 के भारत रक्षा अधिनियम को बदलकर समिति ने नए कानून की सिफारिश रखी थी।
इसके द्वारा लोगों की आज़ादी में कठोर पाबंदियां लगाने वाले कड़े कानून लाने के प्रयास
किए जा रहे थे। इन, के आधार पर दो विधेयक तैयार किए गए – 1919 का भारतीय
आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक नं. I और 1919 का आपराधिक कानून (आपात
अधिकार) विधेयक नं. II। दूसरे विधेयक को एनार्किकल एंड रेवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट,
1919 नाम से पारित कर कानून बनाया गया। इसके अंतर्गत उच्च न्यायालय के तीन जजों
की विशेष अदालतों में अपराधों की त्वरित सुनवाई करना सुनिश्चित किया गया था।
अभियोगी द्वारा अपील करने का अधिकार भी छीन लिया गया। शक होने पर व्यक्ति के घर
की तलाशी और उसे बिना वारंट के अनिश्चित अवधि तक गिरफ्तार किए जाने का
अधिकार प्रांतीय सरकारों को मिल गया था। सरकारें अपनी मर्जी से भी किसी के घर की
तलाशी ले सकती थीं। प्रतिबंधित साहित्य के प्रकाशन, वितरण एवं बिक्री को दबाने का
प्रावधान कानून में था।
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सरकार को रॉलेट एक्ट के अंतर्गत व्यापक आपात अधिकार मिलने का विरोध भारत की
सभी राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों ने किया। परंतु विधेयक पारित हो गया और 21
मार्च 1919 को कानून की किताब में शामिल कर लिया गया। इसके साथ सारा ध्यान गांधी
जी पर कें द्रित हो गया, जो अब तक पृष्ठभूमि में चम्पारण के नील उत्पादकों और
अहमदाबाद के मिल मजदूरों के लिए आन्दोलन कर रहे थे। नए कानूनों के खिलाफ
शांतिप्रिय विरोध या सत्याग्रह के लिए गांधी जी, वल्लभभाई पटेल और सरोजिनी नायडु
का छोटा तीन सदस्यीय गुट गठित किया गया। अभियान को रॉलेट सत्याग्रह का नाम
मिला। 24 फरवरी 1919 को उन्होंने संकल्प लिया कि ‘इन विधेयकों के कानून बनने और
उन्हें वापस लिए जाने तक, हम नियुक्त समिति के रूप में, जैसा उचित हो कानूनों और ऐसे
अन्य कानूनों को मानने से शिष्टतापूर्वक इनकार करते हैं. . .हम सत्य पर अडिग रहेंगे और
जीवन, व्यक्ति या संपत्ति से जुड़ी हिंसा से दूर रहेंगे’।
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गांधी जी की अध्यक्षता में 6 अप्रैल
1919 को एक सत्याग्रह सभा ने हड़ताल की घोषणा की। अखिल भारतीय स्तर पर पहले
बड़े अभियान पर चल निकले गांधी जी के नेतृत्व की यह बड़ी परीक्षा थी।
परंतु देश में बड़े पैमाने पर अस्थिरता फै ल चुकी थी, दंगे और आगज़नी के कारण जान-
माल का भारी नुकसान हुआ। इससे विक्षुब्ध होकर गांधी जी ने 18 अप्रैल को सत्याग्रह
द्वारा रफ्तार पकड़ने से पहले ही उसकी समाप्ति की घोषणा कर दी। परंतु पंजाब में
व्यापक उत्तेजना फै ली थी। यह देखते हुए सरकार ने गांधी जी के वहाँ जाने पर रोक लगा
दी। सरकार ने 11 अप्रैल 1919 को मार्शल लॉ घोषित कर दिया जिसकी कमान ब्रिगेडियर
जनरल रेजिनल्ड डायर के हाथ थी, हालाँकि 15 अप्रैल तक इसकी औपचारिक घोषणा
नहीं की गई थी। कानून लागू किए जाने से अनजान, अमृतसर के जलियांवाला बाग में 13
अप्रैल 1919 को एक आम सभा में 6000-10000 निहत्थे लोग जमा थे। सभा शुरू होने के
कु छ ही समय बाद, उपस्थित लोगों को बिना किसी पूर्व चेतावनी के डायर वहाँ पहुँच गया।
अपने सशस्त्र दल के साथ एक संकरे मार्ग से होता हुआ वह जलियांवाला बाग में दाखिल
हुआ और बाग के मुंहाने पर उसने दाएं और बाएं सैनिकों को तैनात कर दिया। चूंकि बाग
तक पहुँचने वाली सड़क संकरी थी, इसलिए बख्तरबंद गाड़ी अंदर नहीं जा सकी और
इस्तेमाल नहीं हुई। बाग के दरवाजे बंद कर दिए गए और सैनिक कु छ ऊं चाई पर तैनात थे।
फिर बिना किसी चेतावनी के डायर ने उपस्थित हुजूम पर अंधाधुंध गोली चलाने का आदेश
दे दिया। 1500 से अधिक राउंड गोलियां दागी गई, जिसकी चपेट में आने वाले स्त्री, पुरुष,
बच्चे और वृद्धजन शहीद हो गए। करीब 379 लोग मारे गए और 1200 (वास्तविक संख्या
कहीं ज्यादा थी) से अधिक घायल हुए थे।
अपनी पाशविकता पर डायर को बिल्कु ल भी ग्लानि नहीं थी, बल्कि वह उपलब्धि को
बढ़ा-चढ़ा कर बताया करता और उसे दयालु कार्य का नाम देता था। उसने माना था कि वह
बिना गोली चलाए भी भीड़ को हटा सकता था परंतु यह कानून एवं व्यवस्था के अधिकारी
के रूप में उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं होता। उसने माना कि अपने आत्म-सम्मान की
खातिर उसने गोली चलाई थीं। ऐसे समय जब सरकार प्रशासनिक सुधारों और सीमित
स्वशासन पर विचार कर रही थी, इस क्रू रता से भारत भर में सदमे की लहर दौड़ गई थी।
विडम्बना थी कि अंग्रेज डायर को नायक सरीखा मान रहे थे। लंदन में माॅर्निंग पोस्ट
ने और
भारत में मसूरी में उसके लिए एक कोष गठित किया गया जिसमें £ 20,000 इकट्ठा किए
गए थे।
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नरसंहार पर वाइसरॉय की प्रतिक्रिया सरकार के व्यवहार का परिचायक थीः
मैंने सुना है कि डायर ने अमृतसर में बहुत उचित तरीके से मार्शल लॉ लागू किया है और
वह बिल्कु ल भी निरंकु श तरीका नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में आप समझ सकें गे कि
क्यों कमांडर-इन-चीफ और मैं निर्णय में गलती के बारे में गहराई से सोचते हैं, जो अपने
नतीजों में क्षणिक थी, उन पर दंड के तौर पर नहीं थोपी जानी चाहिए जो अपराध के
समक्ष अतिरेक रूपी होगी और उसे उन उल्लेखनीय सेवाओं के समकक्ष होना चाहिए
जो उन्होंने ज़रूरी समय में प्रस्तुत की थीं।
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नरसंहार ने देश को हिला दिया था और पहली बार गांधी जी का अंग्रेजों पर यकीन समाप्त
हुआ। उन्होंने रक्तपात की गहरी जांच की मांग रखी। मामले की जांच के लिए हंटर
कमीशन नियुक्त हुआ। इसके बावजूद, गांधी जी सरकार के साथ सुधारों और सहयोग की
प्रक्रिया को नहीं रोकना चाहते थे। 21 जुलाई 1919 को उन्होंने वक्तव्य जारी किया कि
सरकार द्वारा सद्भावना दिखाए जाने और उनके कु छ मित्रों की सलाह पर, वह असहयोग
को जारी नहीं रखेंगे क्योंकि उनकी मंशा सरकार को नीचा दिखाने की नहीं है। इसके
विपरीत, उन्होंने सत्याग्रहियों को स्थानीय वस्तुओं को प्रोत्साहन देने और हिन्दू-मुस्लिम
एकता जैसे रचनात्मक कार्यों पर काम करने को कहा।
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उधर सेल्युलर जेल में, आरोपों की बौछार झेल रहा बैरी अब पहले जैसा शक्ति संपन्न नहीं
रह गया था। क्रोध में भरा हुआ, मुँह में लम्बी सिगार दबाए, वह अपने दफ्तर की कु र्सी पर
बैठकर धुएं के छल्ले उड़ाता रहता था। तनाव का भी उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ा था। वह
पीठ के तेज दर्द से पीड़ित था। वह तीन दशकों से पोर्ट ब्लेयर में था और सेवानिवृत्ति का
समय आ पहुँचा था। विनायक ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि बैरी के सख्त आचरण के
बावजूद, घर में वह अपने परिवार और मित्रों के साथ अलग दिखता था। उसकी पत्नी एवं
सत्रह वर्षीय पुत्री जो रंगून से दसवीं की परीक्षा पास कर अध्यापन का डिप्लोमा कर रही
थी, विनायक की इज्जत करती थीं। वह कारागार में उनसे मिलने जाती और कु छ देर बात
करती। कभी-कभार बगीचे से उनके लिए फल भी भेजती थीं।
पोर्ट ब्लेयर के शैतान का अपने घर आयरलैंड लौटने का समय आ पहुँचा था। उसकी
ज्यादतियों के कारण भारत भूमि पर पैर रखते ही कोई क्रांतिकारी उस पर बम फें क देगा,
इन अफवाहों से वह कु छ इतना डरा हुआ था कि उसने घर जाने के लिए अन्य मार्ग का
चुनाव किया। उसने विनायक के क्रांतिकारी साथियों के संबंध में उनसे बात भी की, जिस
पर विनायक ने कहाः ‘मुझे नहीं लगता। वह कौवों और चिड़ियों को मारने के लिए बम नहीं
फें कते। मुझे नहीं लगता कि आतंकियों में कोई ऐसा मूर्ख भी होगा जो बेचारे पंछियों पर
बारूद व्यर्थ करे, जबकि उससे वह शेर भी मार सकता है।’
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हजारों कै दियों की जिंदगियां बर्बाद करने वाला बैरी, उनकी बद्दुआएं, चीख और कष्टों की
यादों का बोझ लिए वहाँ से रवाना हुआ। उसकी हालत कु छ इतनी खराब थी कि पोर्ट
ब्लेयर से जाने वाले जहाज तक उसे दो आदमी उठाकर ले गए थे। परंतु बैरी घर ना पहुँच
सका। जहाज पर ही उसका निधन हो गया। इसके साथ ही सबसे क्रू र जेलरों की
निरंकु शता का दौर समाप्त हुआ।
बैरी के जाने के कु छ समय बाद ही उसके कट्टर सहायक मिर्ज़ा खान ने भी सेवानिवृत
होने का फै सला किया। वह भी उन दिनों शरीर में तेज दर्द से पीड़ित था जिसका कारण वह
विनायक द्वारा काला जादू बताता था। वह हाथ जोड़ विनायक से अपने पापों की क्षमा
मांगता और उसे दर्द से निजात दिलाने के लिए कहता। विनायक द्वारा समझाने पर कि
उन्होंने ऐसा कु छ नहीं किया और काला जादू में उनका कोई यकीन नहीं, का भी कोई
असर नहीं हुआ। अंततः, टूटी हुई हालत में सेल्युलर जेल से मिर्ज़ा खान की विदाई हुई।
कु छ अस्थायी नियुक्तियों के बाद, बैरी के बहनोई और आयरिश मूल के श्री डिगिन्स को
जेलर नियुक्त किया गया। कठोर नियम पालक होने के बावजूद वह अध्यात्मविद्या में
विश्वास करने वाले सुलझे हुए, सांस्कृ तिक एवं सुशिक्षित व्यक्ति था। कै दियों के प्रति
मानवीयता के पक्ष को वह कभी नहीं भूला।
एक ओर जहाँ कै दी बस्ती बदलाव के दौर से गुजर रही थी, उसी दौरान भारत सरकार
द्वारा भारतीय कारागार समिति (1919-20) के गठन और सेल्युलर जेल जाकर, वहाँ के
भविष्य का जायजा लेने की सूचना प्राप्त हुई। राजनीतिक कै दियों से याचिका प्राप्त होने के
बाद सरकार ने दो विशेषाधिकार प्रदान किए – प्रत्येक तीन महीने में एक पत्र लिखना और
धर्म की निशानी पवित्र धागे एवं अन्य पहचानों को बनाए रखना। समिति ने विनायक से
डेढ़ पहर बात की जिस दौरान उन्होंने शुरुआत से अपने और अन्य कै दियों के अनुभवों को
विस्तृत तौर पर बयान किया। उन्होंने वही ब्योरा लिखित में भी समिति के सामने रखा।
उनका मानना था कि प्रशासन का कार्य के वल कै दी को सज़ा देना नहीं बल्कि उसे सुधारना
होता है। इसलिए दंड प्रतिशोध का नहीं बल्कि के वल निवारक रूपी होना चाहिए। पीटना
और फांसी की सज़ा यदा-कदा दी जाए, आम चलन ना हो। उन्होंने मांग रखी कि सरकार
की नजर में उनका अपराध जैसा भी हो परंतु बाईस वर्ष से कम आयु के कै दियों में सुधार
की अपेक्षा का अंत नहीं मानना चाहिए। दंड का उद्देश्य उन्हें भावी नागरिक के तौर पर पुनः
सुधारना हो। समूचा अनुशासन इसी मंतव्य पर कें द्रित हो। उन्हें कार्य प्रशिक्षण भी मिले
ताकि रिहाई के बाद उनके पास किसी व्यवसाय का सहारा हो। वहीं मनोविनोद हेतु, सभी
कारागारों में सिनेमा या संगीत जैसी सुविधाएं हों, जो उन्हें मानवीय और जिम्मेदार नागरिक
बनाने में सहायक होगी।
विनायक ने दलील दी कि बेशक कारागार आरामदेह जीवन के लिए नहीं होता। कै दियों
को आराम, निष्क्रियता और मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि अपने अंदर कठोर
आत्मानुशासन पैदा करने के लिए समाज से अलग किया जाता है, ताकि उन्हें अहसास हो
सके कि जैसा जीवन उन्होंने अतीत में जिया, भविष्य में उसे जारी रखना वांछनीय या
उचित नहीं होगा। यदि वह आज़ादी चाहते हैं तो उन्हें वह अर्जित करनी होगी, और जितनी
जल्दी वह यह सबक सीख लें, उतना ही बेहतर होगा। कारागार सुधारगृह होते हैं, जांच एवं
प्रताड़ना के स्थान नहीं। वह बंदी जो अपने रुझान में असाधारण तौर पर क्रू र थे और
जिनके कार्य गंभीर रूप से समाज विरोधी रहे, उन्हें अंडमान में रह कर यहाँ की बस्ती और
द्वीपों के विकास कार्य में शामिल होना चाहिए। उनके सुधार में ऐसे सकारात्मक कार्यों का
गहरा असर पड़ेगा। इसलिए विनायक अंडमान की कै दी बस्ती को बंद करने के पक्ष में नहीं
थे। कारागार में मौजूदा क्रू रता और गुलामी के बरक्स, सुधारवादी दिशा की प्रक्रिया कहीं
सफल हो सकती है।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में सेल्युलर जेल के हालात पर गहरी निराशा व्यक्त की थी। उसने
कहा कि ‘कै दियों पर सुधार की दिशा में कभी कोई प्रयास नहीं किया गया’।
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विशेषतः
उन्होंने शिक्षा की कमी, धार्मिक अध्यापन का ना होना, उपासना स्थलों की स्थापना पर
पाबंदी या सामुदायिक त्योहार ना मनाए जाने पर ध्यान दिलाया। समिति के अनुसार जेल
का ‘नैतिक माहौल पूरी तरह अस्वस्थ था’।
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अतः, सेल्युलर जेल में सज़ा के दौरान विनायक का सबसे महत्वपूर्ण योगदान, वहाँ की
स्थितियों में सुधार कराने का रहा। हालाँकि, इस संबंध में जेल प्रशासन उनके विरोध में था।
वह पुस्तकालय स्थापित करने, अध्ययन की आदत एवं विमर्श को बढ़ावा देने और बंदी
सुधार में उसे समस्त भारतीय जेलों के मुकाबले आदर्श बनाने के दिशा में संघर्ष करते रहे।
कारागार सुधार के मामले में सुनियोजित नीति से जुड़ा यही उदाहरण सरकार के समक्ष
रखा गया।
1919 के अहम वर्ष के अंत में, सम्राट जाॅर्ज पंचम ने, शाही फरमान के जरिए भारत
सरकार अधिनियम (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों) की पुष्टि कर दी। घोषणा की धारा 6 के
अंतर्गत कहा गया कि जहाँ तक संभव हो, भारत सरकार और जनता के बीच फै ली कटुता
समाप्त करनी चाहिए। उन्होंने उम्मीद जताई कि जिन लोगों ने अतीत में कानून तोड़ा,
भविष्य में उसका सम्मान करेंगे। साथ ही, उम्मीद रखी कि कानून एवं व्यवस्था का पालन
करने वाले किसी तरह की ज्यादती को भी रोक सकें गे। उन्होंने जोर देकर कहा कि वह नए
युग में शासक एवं शासित के बीच एक ही लक्ष्य के प्रति सहयोग देखने की उम्मीद करते हैं।
सम्राट के शब्दों मेंः
अपने नाम और अपनी ओर से मैं वाइसरॉय को राजनीतिक अपराधियों को पूर्णतया
शाही माफी लागू करने की अनुमति देता हूँ जो उनके विवेक में आम सुरक्षा के अनुकू ल
होगी। मैं चाहता हूँ कि वह इसे उन व्यक्तियों पर, इन शर्तों के आधार पर लागू करें, जो
किसी विशेष या आपात कानून के अंतर्गत, राज्य के खिलाफ अपराध के लिए सज़ा या
प्रतिबंध झेल रहे हैं। मेरा मानना है कि यह उदारता इसका लाभ पाने वाले व्यक्तियों के
भावी चलन में दिखेगी और मेरी समस्त जनता ऐसे अपराधों के लिए इन कानूनों को
लागू किए जाने की अनावश्यक ज़रूरत दर्शा कर खुद को नीचा नहीं दिखाएगी।
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सम्राट द्वारा आम माफी दिए जाने के बाद, बरिन घोष, त्रैलोक्य चक्रवर्ती, हेमचंद्र दास और
परमानंद की सेल्युलर जेल से रिहाई हुई। कै दियों को लिखित वादा करना था कि वह
तयशुदा वर्षों तक राजनीति और क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर रहेंगे। यदि उन पर फिर
देशद्रोह का आरोप सिद्ध होता है तो उन्हें उनकी शेष सज़ा काटने के लिए अंडमान भेज
दिया जाएगा। उक्त शर्त पर हस्ताक्षर करने के लिए व्यापक मतभेद और मंत्रणा सामने
आई। परंतु विनायक ने उन्हें उनकी भावी रूपरेखा तय करने से पहले इसे मानने और
रिहाई सुनिश्चित करने पर राजी कराया। के वल तीस राजनीतिक कै दियों को छोड़, शेष
सभी को भारतीय जेलों में भेजा गया या स्थाई आज़ादी मिल गई। परंतु दुर्भाग्यवश,
बाबाराव और विनायक के मामले को कानूनी धारा के अधीन ना होने के बहाने आम माफी
से बाहर रखा गया।
फलस्वरूप, विनायक ने 20 मार्च 1920 को भारत सरकार को एक याचिका भेजी।
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सम्राट की शाही घोषणा का संदर्भ देकर उन्होंने कहा कि राजनीतिक प्रक्रिया की तत्परता
को देखते हुए उन्होंने सभी राजनीतिक कै दियों को माफी दी, और उनके एवं बाबाराव के
खिलाफ लगाए गए आरोप भी उसी श्रेणी में आते हैं। वह क्रांतिकारी मार्ग पर किसी निजी
दुर्भावना से नहीं बल्कि राजनीतिक लक्ष्य के कारण चले थे। उन्होंने दलील दी कि घोषणा
में प्रयोजन से परे, अपराध की प्रवृत्ति या कानून की किसी धारा का उल्लेख नहीं है। अतः,
यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि उनका सरकार में किसी से विद्वेष ना होकर राजनीतिक
था। वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि समान आरोप झेल रहे बरिन, हेमचंद्र दास,
शचिन्द्रनाथ सान्याल एवं अन्य को रिहा करने के लिए सरकारी मानक उन पर लागू क्यों
नहीं होता। कारागार में उनका बर्ताव किसी से बेहतर या कमतर नहीं रहा तो उन्हें यह
नुकसान उठाने के लिए अलग किया जाना अतार्किक है। उन्होंने 1914 और 1918 की
अपनी पुरानी याचिकाओं पर ध्यान खींचते हुए कहा जब उन्होंने देश की रक्षा हेतु ‘उत्तर-
पश्चिम से आने वाले कट्टर झुंडों के खिलाफ’ युद्ध में स्वैच्छिक कार्य करने का प्रस्ताव रखा
था।
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व्यापक प्रशासनिक सुधारों के चलते वह पहले ही राजनीति की संवैधानिक लीक पर
चलने की बात कह चुके हैं, चूंकि वह ‘वह किसी वर्ण या पंथ के लोगों से इसलिए नफरत
नहीं करते कि वह भारतीय नहीं है’। वह अन्य राजनीतिक व्यक्तियों की तरह निश्चित
अवधि तक राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने के लिए संकल्प लेने को भी तैयार थे। यह
उनके लिए ज़रूरी भी था क्योंकि लंबी सज़ा के कारण उनका स्वास्थ्य बेहद खराब हो चुका
था। यदि सरकार चाहती तो सावरकर बंधु अपनी गतिविधियों को एक क्षेत्र तक सीमित
करने को भी तैयार थे। समाज के विभिन्न तबकों एवं प्रतिष्ठित नेताओं द्वारा उनकी रिहाई
को लेकर उठ रही मांग को देखते हुए भी यदि उन्हें नहीं छोड़ा जाता तो शासक एवं शासित
के बीच कटुता को कम करने को लेकर, आम माफी का विचार ही ध्वस्त हो जाता। इसी
सोच के अंतर्गत, विनायक ने देश की अन्य जेलों में बंद राजनीतिक कै दियों की सशर्त
रिहाई की मांग भी रखी थी, क्योंकि उनका करियर पहले ही समाप्त कर दिया गया था,
इसलिए वह सरकार के प्रति कृ तज्ञ और भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी साबित
होंगे और रिहाई उनके लिए नए जीवन सरीखी होगी। अंत में उन्होंने लिखा, ‘अक्सर, जहाँ
शक्ति कारगर नहीं रहती, उदारता सफल होती है।’
उल्लेखनीय है कि कारागार में जहाँ विनायक ने अपनी याचिकाओं के जरिए
‘संविधानवाद’, ‘अहिंसा’ और ‘सुधारों’ के प्रति सहयोग जाहिर किया, वहीं रिहाई के कु छ
वर्षों बाद लिखी गई अपनी आत्मकथा ‘मेरा आजीवन कारावास
’ में उन्होंने पूर्णतया भिन्न
राजनीतिक विचार दिए हैं। उसमें उन्होंने गांधी जी द्वारा प्रस्तावित अहिंसक संघर्ष के प्रति
असम्मति दर्शाई है। हालाँकि, वह महात्मा गांधी की अहिंसक नीति के खिलाफ थे, परंतु
औपनिवेशिक शासन से माफी की दरकार या उसमें कमी की मांग करते हुए उन्होंने ‘हिंसा’
को अतीत की जरूरत और ‘संवैधानिक प्रक्रिया’ को अभ्यास में लाने वाली एकमात्र
राजनीतिक विचारधारा कहा है। संस्मरणों में उन्होंने तिलक द्वारा सुधारों के प्रति
‘उत्तरदायी सहयोग’ की नीति का समर्थन किया है। हालाँकि, उनकी याचिकाओं में इस
नीति या विचारों का कोई उल्लेख नहीं है। इन विरोधाभासी विचारों को जानकर ऐसा
लगता है कि याचिकाएं के वल आज़ाद होने के सामरिक औजार रूपी थीं और उसके बाद
ही भावी नीति तय की जानी थी। कारागार में बंद रहकर कु छ भी कर पाना असंभव था।
अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के चीफ कमिश्नर ने बाबाराव और विनायक की
याचिकाएं एवं जेल टिकट भारत सरकार (गृह विभाग) को सौंप दी। जेल टिकट में दर्ज
रिकाॅर्ड में, सज़ा के पहले पांच वर्षों में उनका व्यवहार आदर्श कै दियों जैसा नहीं था। इस
अरसे के दौरान कारागार में कई हड़तालें हुई जिनमें कई बार दोनों भाई आगे रहे थे। 1914
तक कारागार में बाबाराव का आचरण ‘खराब रहा और उन्हें कई बार काम ना करने और
वर्जित लेख रखने के आरोप में सजाएं दी गई थीं’। 1914 से 1919 तक बाबाराव का
‘आचरण बहुत अच्छा रहा’ – के वल 1917 के एक गैर-दर्ज आरोप के अलावा जिस पर
उन्हें चेतावनी दी गई थी।
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विनायक का जेल रिकाॅर्ड भी समान था: ‘1912, 1913 और
1914 के दौरान, काम ना करने और वर्जित लेख रखने के आरोप में आठ बार सज़ा दी
गई।’ 1914 के बाद के पांच वर्षों में विनायक का बर्ताव ‘बहुत अच्छा’ रहा।
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यह समय
क्रे डॉक के बाद आए सुधारों और पुस्तकालय स्थापना का था। रिपोर्ट के अनुसार, दोनों
भाई ‘मौजूदा व्यवहार’ में आदर्श कै दी थे। बाबाराव ने ‘आज्ञापालन के बावजूद कार्य में
मदद करने में कभी रुचि नहीं दिखाई, जैसी तीन बंगाली कै दी दिखाते थे।’ चीफ कमिश्नर ने
कहा कि वह बाबाराव (गणेश सावरकर) के निजी विचारों के बारे में अनिश्चित थे और
उन्होंने पुराने राजनीतिक विचार छोड़ दिए या नहीं, बताना कठिन था क्योंकि वह अधिक
बात नहीं करते थे। वहीं विनायक का ‘मौजूदा व्यवहार’ अपने भाई जैसा ही थाः ‘वह
हमेशा शिष्ट और विनम्र दिखते। अपने भाई की तरह उन्होंने भी सरकार की मदद में सक्रिय
रुचि नहीं दिखाई। मौजूदा समय में उनके राजनीतिक विचारों पर कु छ कहना कठिन
होगा।’
जवाब में, भारत सरकार के सचिव, सर जेएच ड्यूबले ने 29 मई 1919 को लिखा कि
बंबई सरकार की सहमति के बाद, सज़ा के एक मामले पर पुनर्विचार कर, एक अवधि को
कम किया जा सकता है।
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वहीं बाबाराव के मामले पर भी इसी तरह विचार किया जा
सकता है, यदि बंबई सरकार की रजामंदी हो तो भारत सरकार को उनकी शेष सज़ा माफ
करने में कोई ऐतराज नहीं।
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परंतु बंबई सरकार, सावरकर बंधुओं को माफी देने के खिलाफ अपनी सोच पर अडिग
थी। बंबई सरकार द्वारा पोर्ट ब्लेयर के अधीक्षक माॅरीसन को भेजे गए एक तार में कहा,
‘बंबई सरकार गणेश दामोदर सावरकर और विनायक दामोदर सावरकर की सज़ा में किसी
तरह की छू ट दिए जाने के पक्ष में नहीं है।’
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फाइल में इनकार से जुड़ी दो टिप्पणियां नत्थी
थीं। पहली टिप्पणी में माॅरीसन ने कहा कि वह बाबाराव को नहीं जानते, ‘. . .इसलिए नहीं
कह सकता कि वह सज़ा से पूरी तरह टूट चुके हैं या नहीं. . .परंतु मैं विनायक को जानता हूँ
और मुझे शक है कि छू ट दिए जाने पर वह सरकार के प्रति अपने राय बदलेंगे।’
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31 मई
1919 को दूसरी टिप्पणी में माॅरीसन ने कहा कि दक्कन अब शांत है और तिलक के इंग्लैंड
से लौटने के बाद, जहाँ उन्होंने टाइम्स ऑफ लंदन
के रिपोर्टर वेलेंटाइन शिरल के खिलाफ
मानहानि का दावा किया है, सावरकर बंधुओं को छोड़ना समस्याग्रस्त हो सकता है। बंबई
सरकार भारत सरकार के गृह विभाग से इस संबंध में एकमत थी कि खतरनाक अपराधियों
को आम माफी योजना से अलग रखना चाहिए और चूंकि वह इसी श्रेणी में आते हैं,
‘सावरकर बंधुओं को शाही माफी से बाहर रखना चाहिए।’
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1920 में, सेल्युलर जेल में लगभग दस वर्ष गुजारने के बाद भी साफ था कि भारत
सरकार और बंबई की सरकार विनायक को सार्वजनिक सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था के
लिए खतरनाक मानती थीं। भारत सरकार और बंबई सरकार के सचिवों, क्रमश: एच.
मैक्फर्सन और जे. क्रिरर के बीच के संदेशों में मैक्फर्सन लिखते हैंः
इसमें संभवतः कोई शक नहीं कि वह (जीडी सावरकर) दक्कन में मेलों का राजद्रोही
अभियान शुरू करने वाले युवाओं में से एक था, जो बाद में विध्वंसकारी अभियान में
बदला और जिसका मुख्यालय नासिक में था; परंतु उस अभियान का असली संस्थापक
उसका भाई विनायक था। विनायक के पास नेतृत्व और हिम्मत के वह गुण हैं जिनकी
उसके भाई मंे कमी है, हालाँकि वह विनायक की गैरहाजिरी में खुद को नेता मानने में
किसी भी तरह का विवाद स्वीकार नहीं करता है। योजनाएं विनायक के श्रेष्ठ मस्तिष्क
से उपजीं, जबकि गणेश सरकार के खिलाफ आपत्तिजनक सामग्री वितरित करने में
मदद और युवा विद्यार्थियों के मस्तिष्क दूषित करने का काम करता था।
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मैक्फर्सन के एक अन्य संदेश से पता चलता है कि सरकार के वल बाबाराव को क्षमा देने
की सोच रही थी जबकि विनायक ‘असली खतरनाक व्यक्ति है, और उसे रिहा करने से
जुड़ा ऐतराज़ उसके अपराध में ना होकर, उसके स्वभाव से जुड़ा है’। संदेश में कहा गया
था कि यदि बाबाराव बरी होते हैं और विनायक हिरासत में रहते हैं, तो वह सरकार के पास
बंधक की तरह होंगे। उस डर से बाबाराव कानून का पालन करेंगे और किसी विरोधी
गतिविधि में शामिल नहीं होंगे, अन्यथा उनके भाई की रिहाई कठिन हो जाएगी।
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एक युवा क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल ने 1913 में पटना की अनुशीलन समिति की
शाखा स्थापित की थी और वह गदर पार्टी की योजनाओं से भी गहरे संबद्ध थे। उन्हें भी
सेल्युलर जेल में बंदी बनाया गया था। कु छ समय बाद उन्हें छोड़ दिया गया और वह फिर
क्रांति मार्ग पर चल पड़े थे। बीसी चटर्जी के साथ बातचीत में उन्होंने हैरानी जताई कि
उन्होंने भी सरकार को सुधार कानून के अंतर्गत विनायक जैसा ही आश्वासन दिया, परंतु
उन्हें रिहा कर दिया गया और विनायक को नहीं। उनका अनुमान था कि विनायक,
बाबाराव और अभिनव भारत के अन्य सदस्यों की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र में क्रांतिकारी
अभियान ठं डा पड़ गया था और शांति स्थापित हो गई थी। सरकार चौंकन्नी थी विनायक
को छोड़ते ही महाराष्ट्र फिर से उबल पड़ेगा। ऐसी संभाव्यता और उनकी रिहाई को रोकने
के लिए वह बहाने खोजना और कानूनी दांवपेच चला रही थी।
94
इसी दौरान, बॉम्बे नेशनल यूनियन और उसके कु छ नेताओं ने भारतीय जेलों से
राजनीतिक कै दियों, विशेषकर सावरकर बंधुओं की रिहाई के लिए हस्ताक्षर याचिकाओं
का अभियान चलाया। जिस पर 75,000 से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। इस संबंध
में नारायणराव को 6 जुलाई 1920 के पत्र में विनायक ने लिखा है:
उन्होंने सरकार पर बेहद गहरा यद्यपि क्षुद्र सा दबाव डाल दिया है। जो भी हो इससे
राजनीतिक कै दियों के नैतिक स्तर में और उस लक्ष्य को भी लाभ पहुँचा है जिसके लिए
वह लड़े और गिरे। बेशक, अब हमारी रिहाई, अगर होती है, तो उसका कु छ अर्थ होगा;
जैसा कि लोगों ने हमें पुनः स्वीकारने की पुकार लगाई है। हम अपने देशवासियों को
उनकी सांत्वना और चिंता के लिए जितना भी धन्यवाद दें कम है. . .क्योंकि हम दोनों
को आम माफी के दायरे से बाहर रखा गया है और अभी तक जेल की कोठरी में सड़
रहे हैं, फिर भी हमारे सैकड़ों राजनीतिक काॅमरेड और साथ कष्ट झेलने वालों की रिहाई
ने हमें सुकू न दिया है और पिछले आठ वर्षों या इतने ही अरसे में की गई हड़तालों, पत्रों,
याचिकाओं, प्रेस, यहाँ और बाहर के मंच के माध्यमों से किए गए विरोधों की सफलता
की कीमत वसूल होती दिखी है।
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इन सब प्रयासों के बावजूद, विनायक के लिए आज़ादी की राह अभी लम्बी थी – ऐसा
लगता था कि संघर्ष अभी शुरू ही हुआ था।
10
राजनीतिक रस्साकस्सी
बंबई, जनवरी 1920
गिरगाँव स्थित अपने क्लिनिक से नारायणराव ने कु छ अकल्पनीय करने का निर्णय लिया
था। उन्होंने कलम उठाई और उस व्यक्ति को पत्र लिखा जो विचारधारा में उनके भाई के
धुर विरोधी थे, परंतु देश में प्रमुख राजनीतिक आवाज के तौर पर उभर रहे थे। वे थे
मोहनदास करमचंद गांधी। उन्हें लिखे छह पत्रों में से, 18 जनवरी 1920 के पहले पत्र में
नारायणराव ने शाही माफी ऐलान के अंतर्गत अपने भाइयों की रिहाई सुनिश्चित कराने के
लिए मदद और सलाह मांगी।
कल (17 जनवरी) मुझे सरकार की ओर से सूचना मिली कि रिहा किए जाने वालों में
सावरकर बंधुओं का नाम नहीं है. . . यह स्पष्ट है कि भारत सरकार ने उन्हें रिहा नहीं
करने फै सला लिया है। कृ पया आप मुझे बताएं कि ऐसे मामलों में क्या करना चाहिए।
वह पहले ही अंडमान में दस वर्षों की कठोर सज़ा काट चुके हैं और उनका स्वास्थ्य पूरी
तरह गिर चुका है। उनका वजन 118 पाउंड से घटकर 95-100 पाउंड रह गया है।
हालाँकि, इस समय उन्हें अस्पताल का भोजन दिया जा रहा है परंतु उनके स्वास्थ्य में
सुधार नहीं दिख रहा। कम से कम अच्छी जलवायु वाली कोई अन्य जेल बेहतर रहेगी।
एक से मुझे हाल में (एक माह पूर्व) पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें यह सब लिखा है। आप
इस मामले में क्या कर सकते हैं, उम्मीद है मुझे अवगत कराएंगे।
1
एक सप्ताह बाद, 25 जनवरी 1920 को गांधी जी ने उत्तर लिखा और उम्मीद के अनुसार
कहा कि इस संबंध में वह बहुत कम सहयोग कर सकते हैंः
प्रिय डाॅ. सावरकर, मुझे आपका पत्र मिला। आपको सलाह देना कठिन लग रहा है।
फिर भी, मेरी राय है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार कराएं जिसमें मामले के
तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह राजनीतिक
था। मैं यह सलाह इसलिए दे रहा हूँ कि इससे मामले पर जनसाधारण का ध्यान आकृ ष्ट
होगा। इस बीच, जैसा कि मैंने आपसे पिछले एक पत्र में कहा था कि मैं इस मामले को
अपने स्तर पर उठा रहा हूँ।
2
फिर भी, कई माह बाद, 26 मई 1920 को यंग इंडिया
में ‘सावरकर बंधु’ शीर्षक लेख में
गांधी जी ने सरकार द्वारा उनकी रिहाई पर आवाज उठाई:
भारत सरकार एवं प्रांतीय सरकारों के की वजह से सज़ा भुगत रहे कई व्यक्तियों को
शाही माफी का लाभ प्राप्त हुआ है। परंतु अभी तक कु छ ‘विषिष्ट दोषी’ हैं जिन्हें छोड़ा
नहीं गया है। इनमें मैं सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। वह उसी अर्थ में राजनीतिक दोषी
हैं, जिनको पंजाब में रिहा किया गया। और इसके बावजूद, दोनों भाइयों को आज़ादी
नहीं मिली जबकि फरमान जारी हुए पांच महीने बीत चुके हैं. . .कि श्री सावरकर
(वरिष्ठ) के खिलाफ दायर सभी आरोप आम प्रकृ ति के हैं। उन्होंने कोई हिंसा नहीं की
थी। वह विवाहित थे, उनकी दो पुत्रियां थीं जो अब नहीं रहीं, और उनकी पत्नी भी
अठारह महीने पूर्व दिवंगत हो गई थीं. . .अन्य भाई. . .लंदन में अपने कार्य के लिए
बेहतर जाने जाते हैं. . .उन पर 1911 में हत्या के लिए उकसाने का आरोप भी लगा था।
उनके खिलाफ भी हिंसा का कोई आरोप साबित नहीं हुआ।
दोनों भाइयों ने अपने राजनीतिक विचार जाहिर किए हैं और कहा है कि वह किसी
तरह के क्रांतिकारी विचारों के समर्थक नहीं हैं और यदि उन्हें छोड़ा गया तो वह सुधार
कानून के अंतर्गत काम करेंगे, क्योंकि उनका मानना है कि सुधार व्यक्ति को काम करने
को प्रेरित करते हैं जिसके जरिए भारत में राजनीतिक जिम्मेदारी प्राप्त की जा सकती
है। दोनों ने स्पष्टतः कहा है कि वह ब्रिटिश राज से आज़ादी नहीं चाहते। इसके विपरीत,
उनका मानना है कि ब्रिटिश के साथ जुड़कर भारत की नियति पर बेहतर विचार किया
जा सकता है। किसी ने उनकी निष्ठा या उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठाया, और
मेरी राय में उनके विचारों के प्रकाशित रूप को उसी अनुसार लेना चाहिए. . .
दोनों भाइयों की रिहाई को रोकने का एक कारण ‘सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा’ हो
सकता है, चूंकि, वाइसरॉय को महामहिम सम्राट ने राजनीतिक अपराधियों को शाही
माफी लागू करने का कार्य सौंपा है जो उनकी राय में सार्वजनिक सुरक्षा के अनुकू ल
होगा। इसलिए मेरा मत है कि जब तक ऐसा कोई सबूत न पेश किया जाए कि पहले ही
लंबी सज़ा काट चुके दोनों भाइयों की रिहाई, जिनका शारीरिक वजन बेहद कम रह
गया है तथा जो अपने राजनीतिक विचार भी रख चुके हैं, देश के लिए खतरा साबित
होंगे, वाइसरॉय को उन्हें रिहा करना ही होगा। जन सुरक्षा के वादे पर उन्हें रिहा करने
की शर्त पूरी हो रही है, तो यह वाइसरॉय के राजनीतिक अधिकार क्षेत्र में उसी तरह
अनिवार्य तौर पर निहित है, जैसे दोनों भाइयों को कानून के अनुसार न्यूनतम सज़ा देने
का अधिकार जजों के अधीन था। यदि उन्हें अब भी कारागार में रखा जाता है तो इस
संबंध में जनता को पूरा वक्तव्य जारी किया जाना चाहिए. . .
यह मामला भाई परमानन्द के मामले से कु छ फर्क नहीं है जिन्हें, पंजाब सरकार के
निर्णय के मुताबिक लम्बी सज़ा के बाद रिहा कर दिया गया। न ही उनके मामले को
सावरकर बंधुओं से इस आधार पर अलग किया जाना चाहिए कि भाई परमानन्द ने
खुद को निर्दोष बताया था. . .जनता को शाही माफी के बावजूद सावरकर बंधुओं को
कै दी रखे जाने के कारणों का पता चलना चाहिए, शाही घोषणापत्र उनके लिए कानून
जैसी ताकत रखता है।
3
अपने भाइयों की आज़ादी को लेकर नारायणराव अथक प्रयासरत थे। अंडमान से
सावरकर बंधुओं द्वारा भेजी जाने वाली याचिकाओं के अलावा 1918 में नारायणराव ने भी
एक याचिका भेजी थी। येसु वहिनी और यमुना भी एक-एक याचिका भेज चुकी थीं। और
सब खारिज हुई थीं। निराश ना होते हुए नारायणराव ने जन समर्थन और साथ ही प्रतिष्ठित
नागरिकों और विधान सभा सदस्यों को साथ लेने का प्रयास कर विभिन्न मंचों से आवाज
उठाने की कोशिश करते रहे।
12 जुलाई 1920 को विनायक और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के चीफ कमिश्नर
को सावरकर बंधुओं की 20 मार्च 1920 की याचिका पर भारत सरकार का उत्तर प्राप्त
हुआः ‘महामहिम वाइसरॉय उनको क्षमादान का लाभ देने के लिए तैयार नहीं हैं।’
4
सूचना
पाकर सावरकर परिवार पर जैसे अंधेरा छा गया था। विनायक इस संबंध में शंकाग्रस्त थे,
जैसा कि नारायणराव को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है। 1918, 1919 और 1920 के
पत्रों में उन्होंने क्रांतिकारी मार्ग से हटकर सरकार द्वारा सुझाए गए संवैधानिक सुधारवादी
पथ पर चलने की मंशा जताई थी। चूंकि डाक में भेजे जाने से पूर्व प्रत्येक पत्र जेल प्रशासन
द्वारा अच्छी तरह पढ़ा जाता था, इसलिए कहा नहीं जा सकता कि वह सचमुच यही चाहते
थे या रिहाई पर दृष्टि जमाकर खुद ही अपने विचारों में काट-छांट कर रहे थे। याचिका रद्द
होने से एक सप्ताह पहले 6 जुलाई 1920 को नारायणराव को भेजे पत्र में उन्होंने निराश
भाव से लिखा: ‘जहाँ तक हमारी रिहाई का प्रश्न है, कृ पया इस याचिका (20 मार्च 1920)
से अधिक उम्मीद ना रखें। हमने कभी अधिक उम्मीद नहीं लगाई और यदि रिहा नहीं होते
तो ज्यादा निराश नहीं होंगे। हम दोनों ही ओर से तैयार हैं।’
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निरुत्साहित नारायणराव नवंबर 1920 में दूसरी बार अपने भाइयों से मिले थे। कमजोरी
से जर्जर हो चुके विनायक पहचान में नहीं आते थे। मलिन आवाज में उन्होंने अपने भाई से
कहाः ‘बल! हमारे बारे में किसी भी दिन बुरी खबर सुनने को तैयार रहो। मुझे नहीं लगता
कि हम अधिक समय यह झेल पाएंगे। पर भूलना मत कि कभी-कभार अनपेक्षित घटित हो
जाता है। कौन जाने हम यहाँ से बच ही जाएं, परंतु उसकी उम्मीद बहुत कम है। इसे दुनिया
के इस ओर हमारी अंतिम मुलाकात ही समझो!’
6
हालाँकि, नारायणराव के प्रयासों से सावरकर बंधुओं की रिहाई का मुद्दा कई बार विधान
सभाओं में उठा था। 15 फरवरी 1921 को, विधायक मोहम्मद फै याज़ खान ने इलाहाबाद
के समाचार पत्र लीडर
में 2 दिसंबर 1920 को दोनों भाइयों पर किए गए अत्याचार से
संबंधित रपट के हवाले से प्रश्न उठाया। रपट में कहा गया था कि सावरकर बंधु पिछले
ग्यारह से बारह वर्षों से कठोर शारीरिक श्रम कर रहे हैं। गणेश दामोदर सावरकर को निरंतर
बुखार रहता है और उनका वजन भी बहुत गिर गया है। हालाँकि, वह क्षय रोग की चपेट में
थे, परंतु इलाज नहीं मिला और कोठरी में ही बंद रखा गया। फै याज़ खान ने जानना चाहा
कि क्या यह सरकार की मंजूरी से हो रहा है और इस नृशंसता को रोकने के लिए वह क्या
कर रही है तथा सावरकर बंधु अपने परिवार से कब मिल सकें गे।
भारत सरकार की ओर से एसपी ओ’डाॅनेल ने जवाब दिया कि उनसे कराए जा रहे श्रम
को कठोर नहीं कहा जा सकता। वह अपनी कोठरियों में आराम से सोते हैं और प्रतिदिन
खुले परिवेश में काम करते हैं। उन्हें गलियारे में या कार्यकाल के बाद अहाते में व्यायाम
करने की इजाज़त है। बड़े भाई, गणेश दामोदर सावरकर को चिकित्सा मिल रही है और
प्रतिदिन शाम को उनका तापमान 99 डिग्री तक रहता है। इसके अलावा, वह ठीक हैं।
उनके बुनियादी मापदंड भी ठीक हैं – सरकारी जानकारी में उनका वजन 110 पाउंड है जो
दस वर्ष पहले वहाँ पहुँचने के समय 113 पाउंड था। उनकी बीमारी को क्षय रोग नहीं कहा
जा सकता; उन्हें हल्की खांसी की शिकायत है जो रक्त संचय के कारण उठी है। फिर भी,
सावधानी के लिए वह कोठरियों के साथ बरामदे में कु छ समय बिताते हैं। विनायक ने रस्सी
बनाने से ज्यादा कोई सख्त कार्य नहीं किया और 1915 से दोनों भाइयों का कु छ समय के
लिए एकांत कारावास भी दिया जाता रहा है। वहाँ पहुँचने के समय विनायक का वजन
111 पाउंड था जो अब 106 पाउंड है। लिहाजा, वह हर लिहाज से ठीक हैं। 1 अप्रैल 1919
को विनायक के लिए विशेष आदेश जारी किया गया थाः ‘भोजन और उपचार के लिए
अस्पताल के रोगी के तौर होंगे, परंतु सबसे ऊं चे तल की अंतिम कोठरी (अर्थात् निजी
बरामदे वाली कोठरी) में ही रहेंगे।’
ओ’डाॅनेल ने कहा क्योंकि दोनों भाइयों को अभी कारागार में दस वर्ष ही हुए हैं, इसलिए
जब तक उन्हें जेल से बाहर ना किया जाए, उन्हें आत्मनिर्भर की श्रेणी में नहीं माना जा
सकता या वह अपने परिवारों को नहीं बुला सकते। वैसे किसी भी सूरत में सरकार उनकी
रिहाई को खतरनाक मानती है, हालाँकि, इस संबंध में उनकी याचिकाएं विचाराधीन हैं।
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वक्तव्य का अधिकांश ब्योरा जेल प्रशासन द्वारा रखे जा रहे दोनों भाइयों के रिकाॅर्ड से
सर्वथा विपरीत था।
विधान सभा में एक अन्य विधायक, विट्ठल भाई पटेल ने 24 फरवरी 1920 को एक
प्रस्ताव पेश किया जिसमें सावरकर बंधुओं एवं अन्य राजनीतिक कै दियों को माफी की
सिफारिश थी। जीएस खपर्डे एवं अन्य ने भी सरकार का ध्यान इस ओर आकृ ष्ट किया।
एक वर्ष बाद, 26 मार्च 1921 को विधायक रंगास्वामी अय्यंगर ने सावरकर बंधुओं की
रिहाई मांगने वाले 50,000 लोगों के हस्ताक्षरों वाले अभियान के प्रस्ताव को परिषद के
सामने रखा था। प्रस्ताव सावरकर बंधुओं की रिहाई हेतु गवर्नर जनरल के लिए सदन से
अनुशंसा चाहता था। इस संबंध में, सुधारवादी नीतियों के चलते, विनायक की याचिकाओं
और पत्रों से उनकी राजनीतिक सोच में बदलाव और हिंसा मार्ग छोड़ने का दावा करते हुए
अय्यंगर ने जोशपूर्ण पक्ष रखा। अय्यंगर ने कहा, ‘हम सावरकर पर कु छ भी आरोप लगा
सकते हैं, परंतु वह झूठे नहीं हैं और अपने जीवन के लिए भी अपनी सोच से उलट कु छ
नहीं कहेंगे। मौजूदा समय में उस व्यक्ति की यही सोच है जिसके लिए मैं माफी की गुहार
लगा रहा हूं।’ उन्होंने विनायक के 8 फरवरी 1920 के पत्र का हवाला दियाः ‘परिस्थितियों
के साथ-साथ, लोगों की सोच और तरीके भी बदलते हैं। इसलिए कोई भी नहीं – ना हमारे
मित्र, न ही हमारे शत्रुओं – को नए संवैधानिक और सशक्त युग को अपनी पूरी शक्ति और
सर्वश्रेष्ठ क्षमता से सफल बनाने के प्रति शक होना चाहिए।’ अय्यंगर ने दलील रखी कि
षडयंत्रों और हत्याओं से सीधे जुड़े लोगों को माफी मिल गई; जिनकी संपत्ति जब्त कर
उम्रकै द के लिए भेजा गया था, आज मंत्री पदों पर बैठे हैं। फिर भी सावरकर बंधु अंडमान
की कालकोठरी में सड़ रहे हैं। विषय पर परिषद में जोरदार बहस चली जिसमें अनेक
सदस्यों ने हिस्सा लिया।
परिषद के एक सदस्य, सीएन सेडन ने अय्यंगर का विरोधी पक्ष रखते हुए, यह बताने के
लिए दोनों भाइयों के मामलों के फै सले के अंश पढ़़े कि वह कितने खतरनाक हो सकते हैं।
उनका विचार था कि परिषद यह निर्णय भारत सरकार और सबसे ज़रूरी, बंबई सरकार
पर छोड़ दे, जो जनसुरक्षा के संबंध में उचित निर्णय लेगी। सर विलियम विन्सेंट ने मत रखा
कि दोनों भाइयों के कार्यों का अंतर परखा जाए। वह सबके प्रिय जैक्सन की हत्या को
उकसाने के कारण विनायक के लिए नरमी बरतने के पक्ष में नहीं थे। परंतु वह बाबाराव के
लिए सरकार से विमर्श को तैयार थे। चूंकि उनका अपराध राजद्रोह था, जो राजनीतिक
अपराध था और विनायक के हत्या आरोप से भिन्न था, इसलिए अन्य मानक लागू किए जा
सकते थे। परिषद के अन्य सदस्य, कर्नल सर उमर हयात खान ने अय्यंगर के प्रस्ताव का
कड़ा विरोध किया। उन्होंने मत रखा कि यदि सभी हत्यारों को छोड़ा जाना है तो जेलें बंद
कर दी जानी चाहिए। उन्होंने सावरकर बंधुओं की रिहाई को उस आग में तेल डालने जैसा
कार्य बताया जो पहले से देश में धधक रही थी। परिषद के सदस्य नवाब सर बहराम खान
ने भी प्रस्ताव का विरोध किया और कहा कि इस संबंध में निर्णय स्थानीय सरकार पर
छोड़ा जाए।
इस अवसर पर, अय्यंगर ने सावरकर की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए गारंटी और
सिक्योरिटी देने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने शाही फरमान में ‘माफी और क्षमा’ की नीति पर
ध्यान दिलाया। सर विलियम विन्सेंट ने कहा कि नीति का यह अर्थ नहीं कि जेलें खाली कर
सब कै दियों को छोड़ दिया जाए। प्रस्ताव के खिलाफ व्यापक विरोध के कारण निर्णय के
लिए गेंद फिर से बंबई सरकार के पाले में थी।
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उस वर्ष बाद में, गवर्नर जनरल ने कहा कि बंबई सरकार सावरकर बंधुओं को बंबई की
जेलों में स्वीकारने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे वहाँ हालात बिगड़ सकते हैं। निर्णय
पंजाब सरकार के फै सले से मिलता था जिसमें उसने सिख समुदाय में फै ले रोष को देखते
हुए गदर क्रांतिकारियों को पंजाब की जेलों में बुलाने से इनकार किया था। एक प्रांत के
राजनीतिक कै दियों को अन्य प्रांतों में भेजने पर उनकी सरकारों की आपत्ति जानने की भी
संभावना उठी थी। उदाहरणार्थ, बंबई सरकार को शर्मिंदा किए बिना सावरकर बंधुओं को
मद्रास प्रेसिडेंसी या संयुक्त प्रांतों की जेलों में भेजे जाने का प्रावधान। परंतु यह अलग
मामला था कि वह प्रांत कै दियों को स्वीकार करते या नहीं, उम्मीद थी कि वह आपत्ति
उठाते, परंतु दोनों सरकारों को ऐसा स्थानांतरण स्वीकार्य था या नहीं, यह जानना ज़रूरी
था।
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सर विलियम विन्सेंट का मत था कि सभी राजनीतिक कै दियों को अंडमान से भारतीय
जेलों में लाया जाना चाहिए। उनका विचार था कि सावरकर बंधुओं की बिगड़ती हालत से
बंबई सरकार पर जनमत को मानने और अंडमान से कै दियों को वापस बुलाने का दबाव
बनाना चाहिए। उन्हें विचार के विरोध का कोई कारण नजर नहीं आता था, क्योंकि बंबई के
उतने ही खतरनाक राजनीतिक कै दी और भी थे। सावरकर बंधुओं को अंडमान में लगातार
कै द रखना भारत सरकार की ‘न्यायोचित चरित्र की सख्त आलोचना’ के प्रति नीयत स्पष्ट
कर रहा था।
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उपरोक्त मशविरे के प्रति सभी सदस्य एकमत थे।
सेल्युलर जेल, जुलाई, 1920
अपनी रिहाई पर गर्मागर्म बहस से दूर, 4 नवंबर 1920 को विनायक को तेल उत्पाद
फोरमैन के रूप प्रोन्नत कर दिया गया था। छोटी परीक्षण अवधि के बाद उन्हें स्थायी
फोरमैन नियुक्त कर दिया गया। उन्हें मासिक 1 रुपये का अच्छा वेतन भी मिलने लगा!
नारियल के बागान और उनसे निकलने वाला तेल अंडमान का प्रमुख राजस्व स्रोत था।
सेल्युलर जेल में कै दियों द्वारा निकाले गए तेल के तीन भरे हुए कुं ड थे। तेल से भरे पीपे
कलकत्ता और रंगून रवाना होते जिसके ऐवज में सरकारी खजाने में हजारों रुपये का
राजस्व पहुँचता।
शुद्धि, संगठन एवं शिक्षा अभियान के अलावा, एक और विषय विनायक के हृदय के
निकट था, वह था हिन्दी का प्रसार। इंग्लैंड में 1906 से ही वह हिन्दी को भारतीय राष्ट्र
भाषा बनाने पर कार्यरत थे। जाहिर है भारत जैसे भाषा बहुल देश में एक भाषा का उत्थान
तनाव और अलगाव पैदा कर सकता था। परंतु विनायक का तर्क था कि यह राष्ट्रीय एकता
के लिए कारगर औजार है। आज़ाद भारत के लोकतंत्र में देवनागरी लिपि से लिखी जाने
वाली हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने का प्रण अभिनव भारत के सभी सदस्यों ने लिया था।
1906 के बाद, और शुरुआत में विचार रद्द किए जाने के बाद तिलक और गांधी जैसे राष्ट्रीय
नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिए जाने का समर्थन किया था। बनारस की नागरी
प्रचारिणी समिति और आर्य समाज द्वारा आंदोलन उपरांत उन्होंने विचार का समर्थन किया
था। दरअसल, हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने और उसमें राष्ट्रभक्ति पूर्ण लेखन करने का विचार
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने दिया था।
अंडमान में आरंभिक दिनों से ही विनायक लोगों को हिन्दी में बात करने के लिए कहते
थे। हिन्दी के दर्जे पर कई लोग पसोपेश में थे। क्या वह भाषा थी या अनेक बोलियों का
सम्मिश्रण ? क्या उसका कोई व्याकरण भी था ? क्या उसमें लिखा गया सशक्त साहित्य भी
है ? ऐसी अनेक शंकाएं थीं। बंगाल और मद्रास प्रेसिडेंसियों के कै दियों का मानना था कि
उनकी भाषाएं – बंगाली और तमिल – का इतना प्राचीन इतिहास और समृद्ध साहित्य है
कि इस गढ़ी गई भाषा की बजाय उनकी भाषाओं को राष्ट्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए।
विनायक का तर्क था कि कोई व्यक्ति अपनी भाषा से प्यार कर उसकी धरोहर को संजोए
रख सकता है, परंतु भारत की विविधता को सूत्रबद्ध करने वाली श्रृँखला की जरूरत थी।
यह एकीकरण सभी भारतीयों को राष्ट्रीय पहचान और एकता के धागे में पिरो सकता था।
चूंकि भारत के विशाल भूभाग में हिन्दी बोली जाती है, इसलिए उसे सामान्य भाषा तथा
राष्ट्र भाषा के तौर पर पहचान दिलाकर लोगों और देश को जोड़ा जा सकता है।
कारागार की शैक्षिक कक्षाओं में विनायक का जोर रहता कि प्रत्येक कै दी अपनी प्रांतीय
भाषा के अलावा कोई अन्य भाषा भी सीखे। सभी कै दियों के लिए उन्होंने उनकी अपनी
भाषा के बाद हिन्दी और उसके बाद किसी अन्य प्रांत की भाषा सीखे जाने का प्रस्ताव
रखा। यूं भी अंडमान में शिक्षा प्राप्ति अपने आप में एक दुर्लभ अवसर था। बंगाली कै दियों
को उन्होंने मराठी और हिन्दी सिखाई; महाराष्ट्र के कै दियों को हिन्दी और बांग्ला; और
पंजाब के कै दियों को, पंजाबी, हिन्दी और उनकी अपनी लिपि, गुरमुखी। सेल्युलर जेल में
गुजराती लोग कम थे, परंतु विनायक उन्हें हिन्दी वर्णमाला लिखना तथा पढ़ना सिखाने में
सफल रहे। चूंकि दक्षिण भारतीय भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम सिखाने
की क्षमता किसी कै दी में नहीं थी, इसलिए इन भाषाओं को सिखाने का इंतजाम नहीं हो
सका। विनायक ‘भाषाएं सिखाने के हमारे साझा कार्यक्रम की इस कमी के प्रति सचेत थे।’
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दस वर्षों तक विनायक हिन्दी प्रसार के लक्ष्य से जुड़े रहे और उन्हें साथियों का पूरा
सहयोग मिला।
उस समय तक, सरकारी रिकाॅर्ड उर्दू में दर्ज होते थे, और हिन्दी तक फारसी लिपि में
लिखी जाती थी। विनायक ने देवनागरी लिपि इस्तेमाल पर जोर दिया क्योंकि उसमें
उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन भाषा, संस्कृ त लिखी जाती थी। तेल संग्रहण के फोरमैन के
तौर पर स्थानीय व्यापारियों से मुलाकात के दौरान उन्होंने उनमें भी यह भावना जागृत की।
उनके प्रयासों से, अंडमान में शुरू किए गए एक कन्या विद्यालय में देवनागरी लिपि में
हिन्दी सिखाया जाना अनिवार्य किया गया था। हिन्दी में कई पुस्तकें मंगवाई गई जो घुमंतू
पुस्तकालय के जरिए कै दियों और स्थानीय निवासियों तक पहुँचाई जातीं। सब हिन्दी में
बात करते समय अपनी आदत अनुसार उर्दू इस्तेमाल ना करें, यह चुनौतीपूर्ण कार्य था और
विनायक काफी हद तक इस गतिरोध में सफल भी रहे थे।
विनायक अंडमान सहित भारत के अधिकांश विद्यालयों में उर्दू थोपे जाने के विरोध में थे।
यूं वह खुद उर्दू में पारंगत थे; हाल में अंडमान में उनकी हस्तलिखित तीन देशभक्तिपूर्ण उर्दू
ग़ज़लें भी अंडमान से मिली हैं। इन पर 1921 की तारीख दर्ज है, जब उन्होंने युवाओं को
अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। इनमें से ‘यही पाओगे’ नामक एक
ग़ज़ल शचिन्द्रनाथ सान्याल द्वारा काकोरी कांड के क्रांतिकारियों तक भी पहुँची थी।
क्रांतिकारी अक्सर उसे प्रेरणास्रोत के तौर पर गाते थे।
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एक ग़ज़ल में वह कहते हैं:
हमारे बहादुर योद्धा रावण के वधकर्ता, भगवान राम
हमारे गौरवशाली सारथी कर्म योग के प्रभु, भगवान कृ ष्ण
ओ भारत! कौन सा लश्कर तुम्हारा रथ रोक सकता है ?
यह देरी क्यों, उठो भाइयों, हम अपने रक्षक खुद हैं!
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उर्दू ग़ज़ल ‘पहला हफ्ता’ में भी मिलती-जुलती भावनाएं व्यक्त होती हैं, यह उन्होंने अंडमान
में भेजे जाने से पहले लिखी थीं – साबित होता है कि लंबी सज़ा का राष्ट्रप्रेम की भावना पर
कोई असर नहीं पड़ा था।
1 अगस्त 1920 को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु की सूचना प्राप्त हुई थी। यह
विनायक के लिए गहरा व्यक्तिगत नुकसान था। उन्होंने सदा तिलक को अपना राजनीतिक
गुरु माना था। अंडमान में शोक की लहर दौड़ गई और कै दियों ने दिवंगत नायक के सम्मान
में उस रोज़ रात्रि भोजन से इनकार कर दिया था।
अंडमान और कारागार में आमजन के जीवन में सुधार लाने की दिशा में अब विनायक ने
सबको मिलकर भोजन करने की दिशा में प्रयास आरंभ किया। हालाँकि, इसमें उन्हेें कट्टर
हिंदुओं का विरोध झेलना पड़ा, परंतु जिस जाति बंधन ने हिन्दू समाज को पंगु बनाकर
छिन्न-भिन्न कर दिया है, उसे तोड़ने के महत्व को विनायक उन्हें समझाने में सफल रहे थे।
दिवाली और दशहरा जैसे त्योहारों पर एक साथ बैठ रात्रि भोजन करना, इस सामाजिक
कु रीति की जड़ों को काटने का पहला प्रयास था। यह पहल, बाद में रत्नागिरी में विनायक
द्वारा बड़े स्तर पर किए गए कार्यों की बुनियाद साबित हुई थी।
बतौर फोरमैन अपनी आज़ादी और अधिकारों का लाभ उठाते हुए विनायक कै दियों में
शिक्षा के प्रसार पर बहुत जोर देते थे। इसके लिए, उन्होंने जेल में छोटी उम्र के कै दियों को
पढ़ाने के लिए पहली प्राथमिक पाठशाला आरंभ करने की अपील की और सफल रहे। एक
शिक्षित राजनीतिक कै दी को अध्यापक नियुक्त किया गया और विनायक ने पाठ्यक्रम एवं
शिक्षण पद्धति तैयार की। जेल सुधार के सच्चे अर्थों में उन्होंने कमउम्र कै दियों के लिए
बेहतर और राष्ट्रप्रेमी नागरिक बनने का मार्ग प्रशस्त किया। धर्मग्रंथ और हिन्दी भी
पाठ्यक्रम का हिस्सा थे। अशिक्षित कै दियों के लिए ऐसा ही एक विद्यालय तेल डिपो में भी
शुरू किया गया था। उसी वर्ष, 1920 में, पहली बार गुरु गोबिंद सिंह की जयंती जेल में
आयोजित की गई थी। विनायक ने गुरु जी और उनकेे महान योगदान पर भाषण दिया।
इस अवसर पर सिख कै दियों में एकता का संचार हुआ था। समय के साथ-साथ विनायक
के परिश्रम और प्रयासों से कै दियों में औसतन करीब 80 प्रतिशत साक्षरता दर प्राप्त हो गई
थी।
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दस वर्ष पहलेे जहाँ वह कै दियों को खाली समय पासा खेलने, जुआ खेलने या
झगड़ने में बिताते देखते थे, अब अधिकांश अपना समय अध्यापन, अध्ययन, आध्यात्मिक
उत्थान और किताबें पढ़ने में बिताते थे। इस संबंध में विनायक ने लिखा हैः
कारागार में सैकड़ों कै दी मुझे धन्यवाद देते थे। वह सब एक बात अच्छे से जानते थे कि
दस वर्षों में उनके साथ रहकर मैंने सेल्युलर जेल और उसके बाहर, उन्हें संगठित जीवन
दिलाने के लिए अनवरत प्रतिरोध किया था। मैंने प्रेस, याचिकाओं के जरिए, सविनय
विरोध, दिल्ली की शाही विधानसभा में, विरोध, पत्रों एवं निजी खतों के माध्यम से
भारत और उसकी कें द्र सरकार का ध्यान अंडमान की स्थिति की ओर खींचने का
प्रयास किया है। और मेरी दृढ़ता का कारण था जिससे मुद्दा जेल समिति के समक्ष
जीवित रहा। जो मेरा अभिनंदन करते हैं, उनसे कहता हूं, ‘आखिरकार अंडमान अब
कै दी बस्ती नहीं रही, सेल्युलर जेल समाप्त हो गया। यह परिवर्तन किसी एक के प्रयासों
से नहीं आया। यह दस वर्षों के निरंतर और सब ओर के विरोधों का, जिसकी सफलता
में आप सब, विशेषकर राजनीतिक कै दियों की पीड़ाओं और क्लेशों का असीम
योगदान है। और यदि यह आंशिक रूप में भी सफल रहा, तो सफलता आपकी है।’ मैंने
उनसे कहा और उन्हें अपनी ओर से सच्चा अभिनंदन पेश किया। मैंने कहा कि कितना
अच्छा होता कि श्री बैरी भी उस दिन जीवित होते। श्री बैरी मुझे ताना दिया करते थे कि
मेरे प्रयास व्यर्थ हैं और मैं अपना सिर पत्थर की दीवार पर मार रहा हूं, कि वह दीवार
नहीं टूटेगी, बल्कि मेरा सिर टूटेगा। मैं उस दिन उन्हें यह कह सकता था: ‘श्री बैरी,
आपके कारागार की दीवारों पर मारते हुए मेरे सिर पर कई चोटें आई। इसमें कोई शक
नहीं। परंतु देखिए! आपके कारागार की दीवार में दरार आ गई और यह जल्दी गिर
पड़ेगी। और इस घमासान में आई तमाम चोटों के बाद भी मैं जिंदा हूं।’
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जब सेल्युलर जेल को बंद किए जाने का प्रस्ताव उन्हें सुनाया गया, विनायक काफी निराश
हुए थे। वह कै दी बस्ती को शेष भारत के लिए आदर्श के रूप में बनाए रखना चाहते थे,
जहाँ सबसे खूंखार कै दियों को बेहतर इंसान बनाकर वापस भेजा जा सकता था। वह
चाहते थे कि सरकार उसे कै दियों की मुक्त बस्ती के तौर पर बनाए रखे जहाँ आजीवन
कारावास काट रहे कै दी भी विवाह कर गृहस्थी बसा सकें । दरअसल, वह खुद, यदि उन्हें
रिहा किया जाता तो अंडमान में ही बस जाने को तैयार थे।
~
‘खिलाफत नामक आफत’
उधर मुख्यभूमि भारत में एक नया अभियान आकार ले रहा था। इस मुद्दे को समझना
इसलिए ज़रूरी है कि क्योंकि इसके संदर्भ में ही विनायक ने हिन्दुत्व पर अपनी अद्वितीय
रचना और हिन्दू समाज को राजनीतिक तौर पर एकजुट होने की जरूरत पर बल दिया
था। दरअसल, हिन्दुत्व का विचार आज तक भारतीय राजनीति में विवादास्पद रहा है।
जैसा कि पहले बताया गया कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान तुर्की के ओटोमन साम्राज्य के
कें द्रीय ताकतों के साथ होने पर भारत के कई मुसलमानों के दिमाग में भी वैश्विक इस्लाम
की भावना ने घर कर लिया था। जाहिर तौर पर उनकी संवेदना तुर्की के सुल्तान से जुड़ी थी
जो खलीफा कहलाता था और उनका धर्म प्रमुख भी था। परंतु इस कारण उनमें ब्रिटिश
नागरिक के तौर पर द्वंद्व खड़ा हो गया। यह देखते हुए, युद्ध के अंत में ब्रिटिश सरकार ने
तुर्की से उनके साथ मानवीय व्यवहार किए जाने पर आश्वस्त किया। इस संबंध में ब्रिटिश
प्रधानमंत्री लॉयड जाॅर्ज और अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने आश्वस्ति थी। इस
कारण भारतीय मुसलमानों के मन में कु छ उम्मीद जगी थी।
हालाँकि, युद्ध के अंत और युद्धविराम की शर्तों के बाद ये उम्मीदें धराशायी हो गईं। तुर्की
का बंटवारा हो गया – थ्रेस का हिस्सा ग्रीस (यूनान) को मिला और एशिया का उसका
हिस्सा ‘शासनादेश’ के लिए ब्रिटेन और फ्रांस कब्जे में आया। मित्र राष्ट्र शक्तियों के हाई
कमीशन के अधीन सुल्तान की ताकत नाममात्र के शासनाध्यक्ष की रह गई। यह जानकर
भारत के मुस्लिम आक्रोश में थे जिन्हें धोखा महसूस हुआ और उनका क्रोध फू ट पड़ा।
मौलाना मोहम्मद अली जौहर (1878-1931) के अधीन एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल
1919 में इंग्लैंड गया जहाँ उन्होंने तुर्की के राष्ट्रवादी नेता मुस्तफा कमाल से खलीफा को
अपदस्थ ना करने की गुजारिश की। मौलाना ने 1920-21 में मुस्लिम राष्ट्रवादियों के साथ
मिलकर एक व्यापक मंच बना लिया था जिसमें उनके भाई शौकत अली, मौलाना अबुल
कलाम आजाद, हकीम अजमल खान, मुख्तार अहमद अंसानी एवं अन्य थे।
गांधी जी ने भी सत्याग्रह के आधार पर उन्हें सहयोग देने का निर्णय किया, क्योंकि
जलियांवाला बाग नरसंहार के कारण 1919 में उनके द्वारा शुरू किया गया असहयोग
आंदोलन अचानक रुक गया था। इस तरह 1920 में खिलाफत अभियान का आरंभ हुआ।
गांधी जी ने खिलाफत समस्या के समुचित समाधान के लिए वाइसरॉय को लिखा और
भारत में उसका राजनीतिक महत्व होम रूल के समकक्ष बताया। उन्होंने निष्कर्ष दियाः
‘ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा, उनके (मुस्लिम) राज्यों और उनके उपासना स्थलों के प्रति
संवेदना, और होम रूल के प्रति भारत के दावे के संबंध में आपके उचित एवं समयनिष्ठ
व्यवहार से जुड़ी है।’
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हैरानी नहीं कि 23 नवंबर 1919 को ऑल-इंडिया खिलाफत
काॅन्फ्रें स की बैठक में गांधी जी को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया था। काॅन्फ्रें स ने
मुसलमानों से गुजारिश की कि यदि अंग्रेज तुर्की समस्या नहीं सुलझाते तो भी उन्हें युद्ध से
दूर रहना है। गांधी जी ने खिलाफत मुद्दे को सुलझाने के लिए असहयोग के औजार से
ब्रिटिश सरकार को मजबूर करने को कहा। इस नियम के तहत मानद उपाधियों, शीर्षकों,
समितियों की सदस्यता को त्यागना, सरकारी ओहदों, पुलिस, सेना को छोड़ना और टैक्स
ना देना शामिल था।
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जैसा कि राष्ट्रवादी नेता भीमराव रामजी आम्बेडकर ने कहा हैः ‘अभियान मुसलमानों ने
शुरू किया था परंतु इसे गांधी ने जिस दृढ़ता और विश्वास से उसे उठाया, उसे देख कई
मुस्लिम भी हैरान रह गए थे।’
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आम्बेडकर और कई अन्य का मत था कि अभियान को
सहयोग करना व्यर्थ था क्योंकि जिन तुर्कों के पक्ष में यह जारी था, वह ‘स्वयं गणतंत्र के
पक्ष में थे और तुर्कों को राजशाही बनाए रखने पर जोर देना अनुचित था जो खुद गणतंत्र में
बदलना चाहते थे।’
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परंतु गांधी जी दृढ़ थे। यंग इंडिया
में उन्होंने 2 जून 1920 को लिखा:
यदि मुझे भारतीय मुसलमानों में रुचि न होती, तो मैं तर्कों की कु शलता के प्रति उसी
तरह रुचि न लेता जैसे कि ऑस्ट्रियाइयों या पोल लोगों के लिए। परंतु एक भारतीय के
तौर पर मैं साथी भारतीयों के कष्ट और पीड़ाओं से बंधा हुआ हूं. . .जिस सीमा में
हिन्दुओं को भी मुसलमानों के साथ हाथ मिलाने चाहिए. . .जो. . .एक सच्ची मुहिम में
मेरे मुस्लिम भाई को पीड़ा झेलना आवश्यक है तो मैं भी, उस मार्ग पर उसके साथ
यात्रारत रहूँ जब तक कि लक्ष्य प्राप्ति के उसके साधन उचित हैं।
आम्बेडकर बताते हैं कि प्रचलित धारणा कि कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया
था, गलत है। उनके अनुसार ‘असहयोग का उद्भव खिलाफत अभियान में निहित था, ना
कि कांग्रेस की स्वराज मुहिम मेंः कि वह तुर्की की मदद के लिए खिलाफत
आंदोलनकारियों ने शुरू की थी और उसे कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलनकारियों की मदद
के लिए स्वीकारा थाः कि स्वराज उसका प्रमुख लक्ष्य नहीं था, बल्कि उसका प्रमुख लक्ष्य
खिलाफत था और हिन्दुओं को शामिल करने के लिए स्वराज को दूसरे लक्ष्य के रूप में
जोड़ा गया था।’
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आम्बेडकर द्वारा वर्णित घटनाक्रम के अनुसार, 10 मार्च 1920 को कलकत्ता खिलाफत
कमेटी की बैठक हुई जिस दौरान गांधी जी की उपस्थिति में घोषणापत्र में असहयोग की
अवधारणा स्वीकार की गई। वहीं 30 मई 1920 को बनारस में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी
(एआईसीसी) की अंतरिम बैठक में गांधी जी के असहयोग को ना अपनाते हुए, तुर्की
समझौते की शर्तों पर रोष व्यक्त किया और ब्रिटिश सरकार से उसे बदलने को कहा था।
प्रस्ताव में जलियांवाला बाग, रॉलेट कानून वापस लेना और जनरल डायर और अन्य को
सज़ा देने जैसी मांगें भी शामिल थीं। इस बीच खिलाफत कमेटी ने वाइसरॉय को लिखा कि
यदि उनकी मांगें ना मानी गई तो वह 1 अगस्त से असहयोग आंदोलन आरंभ करेगी। गांधी
जी ने भी इस संबंध में वाइसरॉय को लिखा और बोर युद्ध एवं जुलू विद्रोह के दौरान उन्हें
मिले तमगे लौटाने की बात की थी। उन्होंने लिखाः ‘खिलाफत अभियान द्वारा आज
असहयोग आंदोलन शुरू किए जाने की योजना के अंतर्गत मैं यह तमगे लौटाने का साहस
कर रहा हूँ।’
21
गांधी जी के अलावा अभियान से कोई हिन्दू नेता नहीं जुड़ा था और कांग्रेस
की भूमिका भी अनिश्चित थी।
बाद में गांधी जी ने कांग्रेस से खिलाफत अभियान से जुड़ने की अपील की और 4 सितंबर
1920 को कांग्रेस के कलकत्ता सत्र में इसे स्वीकारा गया। सत्र में प्रस्ताव वाले भाषण में
उन्होंने कहाः
भारत के मुसलमान सम्मान्य और अपने पैगम्बर के मत के अनुयायी नहीं रह सकते,
जब तक कि वह उस सम्मान को न्यायसंगत न साबित कर दें। पंजाब के साथ क्रू रता
और अन्यायपूर्ण आचरण हुआ. . .और इन दो गलतियों को दूर करने के लिए. . .मैं देश
के समक्ष असहयोग की योजना रखने का साहस करता हूँ।
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हालाँकि, उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि जब मुस्लिम जगत का बड़ा वर्ग खिलाफत के
विघटन से विमुख था तो उसके पक्ष में आवाज उठाने की जिम्मेदारी भारतीय मुस्लिम वर्ग
को ही क्यों उठानी चाहिए। जब तुर्की स्वयं बदलाव के पक्ष में था, और जब उससे मुस्लिम
जगत में किसी को कम सम्मान्य या अशिष्ट नहीं माना जा रहा था तो भारतीय मुस्लिमांे
की ओर से ही ऐसे प्रयास क्यों हो रहे थे। यदि पंजाब के साथ अंग्रेजों ने ‘दुव्र्यवहार’ किया
था, तो 1919 में उसी अमृतसर शहर में, नरसंहार के कु छ ही महीनों बाद, सरकारी सुधारों
से सहयोग करने का प्रस्ताव कै से पारित हुआ था?
खिलाफत अभियान के साथ स्वराज को अनुलग्नक के तौर पर जोड़ा गया था। विडंबना
है कि, गांधी जी ने स्वयं अपने द्वारा नवंबर 1919 के कांग्रेस के अमृतसर सत्र में रखा गया
प्रस्ताव वापस ले लिया था जिसमें उन्होंने सुधार कानून से सहयोग की बात की थी। अब
उन्होंने पद त्यागना, सरकारी स्कू लों से बच्चों को निकालना, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार,
अंग्रेजी अदालतों का त्याग और अन्य मार्ग अपनाए थे।
प्रचलित धारणा यह है कि जलियांवाला बाग नरसंहार के कारण असहयोग आंदोलन
आरंभ हुआ था। परंतु तथ्यों के अनुसार, नरसंहार के मात्र पांच महीने बाद, 1919 की
अमृतसर कांग्रेस में, गांधी जी ने शाही मुनादी और 1919 के भारत सरकार अधिनियम की
रोशनी में अंग्रेजों के साथ पूर्ण सहयोग की पैरवी की थी। जलियांवाला बाग नरसंहार के
बाद सरकार आठ महीने तक चुप्पी साधे रही और उसे जांच आयोग गठित करने में भी
लंबा समय लगा। नवंबर 1919 तक अमृतसर के कांग्रेस सत्र तक सरकार की झिझक
सबके सामने थी। एक ही व्यक्ति द्वारा कांग्रेस के दो प्रस्तावों के बीच किए गए उलटफे र को
देेखते हुए और खिलाफत के अलावा कोई अन्य तथ्य ना होने पर, कु छ ही समय में कांग्रेस
की कार्यशैली पर गांधी जी का असर साफ नजर आने लगा था।
रोचक बात यह है कि गांधी जी ने अपने पसंदीदा असहयोग मंत्र को खिलाफत अभियान
में उठाकर उसकी पुष्टि कराई और फिर कांग्रेस को खिलाफत और साथ-साथ असहयोग
विचार का समर्थन करने पर राजी किया था। राजनीतिक तौर पर यह दूर की कौड़ी और
साहसिक कदम साबित हुआ था। कई दशकों से कांग्रेस, मुसलमानों का समर्थन जुटाने का
प्रयास कर रही थी। उनके मुद्दे पर कांग्रेस के सामने आने से, अस्थायी तौर पर ही सही, कई
मुस्लिम और उनके नेता एकजुट हो गए। इससे गांधी जी की छवि बतौर राष्ट्रीय नेता शीर्ष
पर जा पहुँची और कांग्रेस ऐसे गुट के तौर पर उभरी जो प्रस्तावों और बैठकों से इतर,
जमीनी स्तर पर काम करती थी। बेशक, भारतीय स्वतंत्रता के मुद्दे के संदर्भ में खिलाफत
अभियान को महत्व देने पर लंबा विमर्श चल सकता है। जैसा कि इतिहासकार आरसी
मजुमदार ने लिखा है:
खिलाफत को भारतीय मुसलमानों की जिंदगी और मौत से जोड़ने पर, घटनाक्रमों ने
जल्दी ही साबित कर दिया कि वह वाक्चातुर्य या अतिशियोक्ति थी और उसे गंभीर सत्य
नहीं माना जा सकता; चूंकि पांच वर्ष से भी कम अरसे में तुर्कों ने खलीफा के अधिकारों
में उतनी कटौती कर दी थी, जितना अंग्रेज कभी न कर पाए, और भारत से बाहर
मुस्लिम जगत में एक पत्ता भी नहीं फड़फड़ाया था। इसलिए, जब तक, हम यह न मान
लें कि भारतीय मुस्लिम ही पैगंबर के सच्चे वंशज हैं या वही मुस्लिम मुद्दे के सच्चे
पैरोकार हैं, तब तक खिलाफत अभियान को दी गई तरजीह को समझना कठिन होगा,
इसलिए मानना होगा कि यह एक वैश्विक मुस्लिम अभियान था जिसकी ओर भारतीय
मुसलमान उम्मीदों से देख रहा था ताकि हिंदू बहुसंख्यक के प्रभाव से बचा जा सके ,
जिसके साथ नियति ने दोनों को भारत में जोड़ दिया था।
23
गांधी जी भले ही भारत में जनांदोलन के नेता के तौर पर राजनीतिक करियर की शुरुआत
के लिए खिलाफत से जुड़े हों या असहयोग के सिद्धांत को अमल में लाने के लिए, लेकिन
उनके प्रयास ने कांग्रेस के घटते मनोबल को जरूर सहारा दिया था। परंतु आरसी मजुमदार
जैसे उनके आलोचकों के अनुसार ऐसी अपरदेशीय निष्ठा की पैरवी और ‘उनके अपने
अनुसार खिलाफत का सवाल भारतीय मुस्लिमों के लिए ज़रूरी था, गांधी ने माना कि
उन्होंने एक अलग देश बना लिया है; वह भारत ‘में’ थे, परंतु भारत ‘के ’ नहीं थे।’
24
भारत
से दूर के मुद्दे का विलयन और भारतीय आज़ादी के मसले को पृष्ठभूमि में धके लना,
अधिकांश भारतीयों, विशेषकर हिन्दुओं को पसंद नहीं आया।
बिपिन चंद्र पाल का मत है कि भारत में भी वैश्विक इस्लाम की भावना तेजी से जड़ें जमा
रही थी जो ‘सही मायनों में भारतीय राष्ट्रवाद का सच्चा शत्रु था’।
25
एनी बेसेंट ने भी
बताया कि कै से ‘खिलाफत हिन्दुओं के लिए पूर्णतया आकर्षक नहीं थी’।
26
खिलाफत
अभियान के लिए अपने आकलन में लाला लाजपत राय अधिक स्पष्ट दिखते हैं:
किसी की भावनाएं आहत करने का मेरा इरादा नहीं है, परंतु यदि मौजूदा परिस्थितियों
का उचित आकलन हो, तो पता चलेगा कि गत तीन वर्षों से सम्प्रदायवाद और संकीर्ण
कट्टरवाद बहुत बढ़ गया है। खिलाफत अभियान ने इसे मुस्लिमों में विशेष तौर पर
बढ़ाया है, जिसकी प्रतिक्रिया हिन्दू और सिखों की ओर से आई. . . भारत में राजनीति
की बजाय धार्मिक आधार पर खिलाफत का जोर पकड़ना दुर्भाग्यपूर्ण था. . .और यह
कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि महात्मा गांधी और खिलाफत के नेताओं ने अभियान में
मज़हब की भूमिका को इतनी तरजीह दी, जो दरअसल, बुनियादी तौर पर धार्मिक से
अधिक राजनीतिक था।
27
मध्य एशिया के मुस्लिम देशों और मिस्र की यात्रा तथा देसी मुस्लिम नेताओं के साथ
बातचीत के बाद लाजपत राय ने यह कहते हुए खतरे की घंटी बजाईः ‘भारतीय मुस्लिम
दुनिया के किसी अन्य देश के मुस्लिमों से अधिक सर्व-इस्लामी हैं, और यह तथ्य संयुक्त
भारत के निर्माण को और कठिन बना सकता है।’
28
कु छ संशयवादी हिन्दुओं के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम एकता की सच्ची भावना के लिए
प्रतिदान की नीति अपनाई जा सकती थी, जिसमें हिन्दुओं द्वारा मुस्लिम मत को पूर्ण
सहयोग और बदले में उनके द्वारा गोहत्या को त्यागने का प्रस्ताव था, जो हिन्दू बहुसंख्यकों
के लिए श्रद्धा का विषय थी और जिस कारण अतीत में कई बार साम्प्रदायिक तनाव फै ल
चुका था। गांधी जी ने इस विचार को अपने अनुसार रद्द कर दिया ‘दोस्ती का इम्तिहान बुरे
वक्त में साथ होता है, और वह भी, बिना शर्त के साथ. . . यदि मुसलमान हिन्दुओं की
भावनाओं की इज्जत करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं और गोहत्या रोकना चाहते हैं, वह कर
सकते हैं, फिर हिन्दू चाहे सहयोग करें या नहीं’।
29
खिलाफत अभियान के विरोधियों का तर्क था कि मुस्लिमों को एकजुट करने से अफगान
भारत पर हमला कर सकते थे और देश अंग्रेजी राज से मुस्लिम राज के अधीन पहुँच
जाएगा।
30
चितरंजन दास ने लाला लाजपत राय को लिखा कि वह भारत के सात करोड़
मुसलमानों से नहीं डरते, परंतु ‘हिन्दुस्तान के सात करोड़, जमा अफगानिस्तान, मध्य
एशिया, अरब, मेसोपोटामिया और तुर्की के हथियारबंद झुंड रोके ना रुकें गे’
31
और भारत
की राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ा खतरा बन जाएँगे। गांधी जी ने इस डर को यह कह कर
खारिज किया ‘हिन्दू मुसलमानों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार और उसके साथियों एवं
अफगानिस्तान के बीच किसी सशस्त्र संघर्ष को सहयोग या उसे लाने का कारण नहीं
बनेंगे। ब्रिटिश सेना भारतीय सीमा पर किसी भी हमले को रोकने के लिए बेहद अनुशासित
है’।
इस बीच मौलाना अब्दुल बारी ने कहा कि यदि खलीफा के साथ हो रहे अन्याय के प्रति
अंग्रेजों ने अपना हठ नहीं छोड़ा तो विरोध में मुसलमानों को मुस्लिम भूमि या दारुल-
इस्लाम – अफगानिस्तान चले जाना चाहिए।
32
उनके फतवे के बाद, 18,000 मुस्लिम
अपनी संपत्ति बेच अफगानिस्तान जाने को तैयार हो गए, हालाँकि, इसका उन्हें बहुत
नुकसान हुआ। रोचक यह है, कि इसकी निंदा करने की बजाय, खिलाफत के नेता गांधी
जी ने कहाः ‘मुसलमानों का पलायन रफ्तार पकड़ रहा है – मार्ग में उन्हें प्रोत्साहन मिल
रहा है। उनकी धार्मिक भावनाओं की परवाह न करने वाले देश को छोड़ना, जहाँ वह शाही
तौर-तरीके से रह सकते थे, भिक्षुकों का जीवन जीना ही उनके लिए बेहतर होगा’।
33
ऐसा
लगता था कि पाकिस्तान के बीज उसके अस्तित्व में आने से तीन दशक पहले रोपे जा चुके
थे।
आरंभ से ही मुस्लिम समुदाय की कई आवाजें इसे विनाशकारी कार्य कह रही थीं।
मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना खिलाफत अभियान के विरोधी थे।
34
3 अप्रैल 1920
को संयुक्त प्रांतों के बिजनौर जिले के नगीना में आयोजित अखिल भारतीय शिया काॅन्फ्रें स
ने ब्रिटिश सरकार के पक्ष में निष्ठा का प्रस्ताव पारित किया था।
35
खिलाफत समिति के
मानद सचिव बद्रुद्दीन कू र ने चेताया था:
यदि मुस्लिम (भारतीय) इस विध्वंसकारी रास्ते पर चलते रहेंगे तो मेरे ख्याल में हमें
खिलाफत विवाद समाप्त होने के लंबे समय बाद तक मुश्किल झेलनी पड़ेगी।
असहयोग की रिपोर्ट साफ कहती है कि भारतीय मुसलमान को हिंसा और रक्तपात से
दूर रहना चाहिए। परंतु जो मुसलमानों की प्रकृ ति से वाकिफ हैं और धार्मिक भावनाएं
उकसाने तथा उग्रता के मौजूदा भारतीय माहौल को देख रहे हैं, तो असहयोग के विचार
को जीवित रखने के लिए उक्त सलाह को अमल में लाने पर मुश्किल से ही यकीन
करेंगे। मुझे उम्मीद नहीं कि खिलाफत के सवाल पर ब्रिटेन और उसके साथियों की
उदासीनता अशिक्षित और बेहद संवेदनशील लोगों के वृहत और बेतरतीब समुदाय को
इतनी आसानी से निराशा और मायूसी में धके लेगी। लिहाजा, खतरा साफ है।
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विडम्बना है कि खिलाफत आंदोलन में उतरने से पहले, मोहम्मद अली ने खुद हिन्दुओं या
कांग्रेस के साथ किसी राजनीतिक मुद्दे पर मुस्लिमों के हाथ मिलाने का उपहास उड़ाया था।
अपने समाचार पत्र द काॅमरेड
के ‘द कम्युनल पेट्रियट’ नामक आलेख में उन्होंने त्रिपोली
और पर्शिया में मुस्लिमों पर अत्याचार के विरोध में भारतीय मुस्लिमों के कांग्रेस से गठजोड़
का मजाक बनाया था। उनके अनुसार ‘बाहर के मुस्लिम हालात से भारतीय मुस्लिमों की
स्थिति का क्या लेना-देना ?’ उनका मानना था कि किसी भी गठबंधन से पहले हिन्दू और
मुस्लिम समुदाय के बुनियादी मतभेदों को सुलझाना ज़रूरी है। उन्होंने तर्क दियाः ‘क्या
दोनों समुदायों को बांटने वाले सवालों के मतलब और दबाव खत्म हो चुके हैं ? अगर नहीं,
तो समस्या भारत की हालिया तारीख में जहाँ थी, वहीं है।’
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यह कहना कठिन है कि जिस
पहल का उन्होंने कु छ वर्ष पहले मज़ाक बनाया था, पलटकर वे उसके समर्थन में क्यों आ
गए थे। अली बंधुओं को छोड़, असहयोग तरीके के प्रति अनेक मुस्लिम नेताओं की शंका
पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा है:
मुझे बैठक याद है
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क्योंकि उससे मैं बिल्कु ल निराश था। शौकत अली बेशक, उत्साह
से लबरेज थे; परंतु अधिकांश अन्य नाखुश और असहज थे। उनमें असहमति दिखाने
की हिम्मत नहीं थी, परंतु फिर भी कु छ गलत करने की मंशा नहीं थी। मैंने सोचा, क्या
यही लोग अंग्रेजों को चुनौती देने के लिए क्रांतिकारी अभियान चलाने वाले थे ?
गांधीजी ने उन्हें संबोधित किया और उन्हें सुनने के बाद वह पहले से अधिक सहमे लग
रहे थे। अपने रौबदार अंदाज में उन्होंने अच्छा बोला था. . .उन्होंने कहा, यह एक सशक्त
प्रतिद्वंदी के खिलाफ कड़ा संघर्ष रहेगा. . .जब युद्ध छिड़ता है, मार्शल लॉ लगता है, और
यदि हमें जीतना है तो हमारे अहिंसक संघर्ष के पक्ष में तानाशाही और मार्शल लॉ भी
होना चाहिए. . .इन सैन्य उपमाओं और दृढ़ इंसानी ईमानदारी को सुनने वाले बेचैन हो
उठे . . .बैठक के बाद जब हम घर लौट रहे थे तो मैंने गांधीजी से पूछा कि क्या बड़े
संघर्ष की शुरुआत का यही तरीका है। मैंने उत्साह, उत्तेजक भाषा और चमकती आँखें
देखने की उम्मीद की थी; उसकी बजाय हमें भीरु और अधेड़ लोगों का नीरस जमावड़ा
दिखा था।
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स्वामी श्रद्धानंद के संस्मरणों में अली बंधुओं द्वारा अभियान से जुड़ने के बाद भी उनके प्रति
शंका का पता चलता है। पक्के आर्यसमाजी और शुद्धि कार्यकर्ता श्रद्धानंद ने 1919 के
अमृतसर सत्र से कांग्रेस के लिए काम करना शुरू किया था, जिसके वह अध्यक्ष थे। वह
रॉलेट कानून के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन से जुड़े और मौलानाओं से मिलकर दोनों
समुदायों के बीच सौहार्द स्थापित करने का प्रयास भी करते थे। सितंबर 1920 के कलकत्ता
सत्र में वह मंच पर शौकत अली के साथ बैठे थे कि उन्होंने अली को उनके निकट बैठे कु छ
लोगों से ऊं ची आवाज में बोलते सुनाः ‘महात्मा गांधी चतुर बनिया है। तुम उसका असल
मकसद नहीं जानते। तुम्हें अनुशासित करके वह तुम्हें गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार कर रहा
है। वह उतना बड़ा अहिंसावादी नहीं है जितना तुम समझते हो।’
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श्रद्धानंद लिखते हैंः
‘बड़े अली भाई से यह सुनकर मैं सकते में आ गया और उनसे आपत्ति जताई, जिसे उन्होंने
हँसी में टाल दिया।’
श्रद्धानंद ने गांधी जी को इस संभावना के प्रति चेताया कि उनके ‘मंतव्य की गलत
व्याख्या हो रही है’। परंतु सलाह को गंभीरता से नहीं लिया गया। नागपुर की खिलाफत
बैठक में, मौलानाओं ने कु रान की आयतें पढ़ीं जिनमें ‘काफिरों को मारने और उनके
खिलाफ’ हिंसक जेहाद के संदर्भ आ रहे थे। जब श्रद्धानंद ने गांधी जी का ध्यान इस ओर
खींचा, तो वह ‘मुस्कराए और कहाः ‘‘वह ब्रिटिश नौकरशाही का उल्लेख कर रहे हैं’’’।
उत्तर में श्रद्धानंद ने उनसे कहा ‘यह सब अहिंसा के विचार के खिलाफ है और जब
भावनाएं बदलेंगी, मुस्लिम मौलाना इन आयतों को हिन्दुओं के खिलाफ इस्तेमाल करने से
गुरेज नहीं करेंगे’। एक बार फिर गांधी जी ने विनम्रता से इसे नकार दिया।
41
चूंकि खिलाफत मोहम्मद अली के पंथ से जुड़ा था इसलिए विरोधाभासी निर्णय और
प्रतिरोध के बावजूद गांधी जी दृढ़ थे और कहा कि ‘खिलाफत के लिए अपनी जान भी दे
सकता हूं’। उन्हें उम्मीद थी कि यह सहयोग ‘मुसलमानों की चाकू से गाय की सुरक्षा करेगी,
जो मेरा धर्म है’।
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उन्होंने प्रत्येक बैठक के बाद, हिन्दुओं और मुस्लिमों द्वारा एक के बाद
एक, उच्चारित किए जाने वाले तीन नारे भी तैयार किएः ‘अल्लाहो अकबर, बंदे मातरम/
भारत माता की जय और हिन्दू मुसलमान की जय।’
43
मुस्लिम धर्म से जुड़े पहले नारे के
प्रति झिझक को देखते हुए उन्होंने विनती कीः ‘हिन्दू अरबी के शब्दों से तब नहीं झिझकते
जब उनका मतलब अप्रिय ना होकर उदात्त होता है। भगवान किसी ज़बान विशेष का प्रिय
नहीं है’।
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कराची में 22 जुलाई 1920 को हिन्दुओं को चेताया कि यदि उन्होंने संकट के
समय मुसलमानों की मदद नहीं की तो उनकी गुलामी निश्चित है।
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19 जनवरी 1921 को
गुजरात के वडतल की एक जनसभा में उन्होंने प्रार्थना कीः
मैं सभी हिन्दू साधुओं से कहूंगा कि यदि वह खिलाफत के लिए अपना सब कु छ
न्योछावर करते हैं, तो वह हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए महान कार्य करेंगे। आज प्रत्येक
हिन्दू का कर्तव्य इस्लाम को खतरे से बचाना है। यदि आप ऐसा करते हैं, तो ईश्वर खुद
उन्हें हिन्दुओं के प्रति मित्रता को प्रेरित करेगा और हिन्दू मुस्लिमों को मित्र मानेंगे।
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तथापि, जैसा कि संशयवादियों ने कहा था, असहयोग आंदोलन की शुरुआत के एक वर्ष
के अंदर मुस्लिम आतुर हो रहे थे। गांधी जी द्वारा किए गए वादे के विपरीत, इस मुद्दे पर
अंग्रेजों से स्वीकृ ति नहीं मिल रही थी। गांधी जी ने खुद माना ‘अपने आतुर आवेश में,
मुसलमान कांग्रेस और खिलाफत संगठनों से उग्र और त्वरित कार्रवाई को कह रहे थे।
मुसलमानों के लिए, स्वराज का अर्थ, जैसा कि होना चाहिए, खिलाफत मसले को सुलझाने
में भारत की असरकारी भूमिका है’।
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उन्होंने पैरवी की कि वह ‘खिलाफत के हितों को
तरजीह दे सकें तो इसके लिए खुशी से स्वराज गतिविधियों को स्थगित कर सकता हूं’।
14 मई 1920 को फकीर कयामुद्दीन और मोहम्मद अब्दुल बारी ने संयुक्त रूप से कें द्रीय
खिलाफत कमेटी के अध्यक्ष मियां मोहम्मद हाजी जान मोहम्मद चोटानी को लिखाः
सहनशीलता और धैर्य के सबक मुश्किल हैं। श्री गांधी को कह दीजिए कि मैं उनकी
सलाह पर चलता हूं, परंतु जल्दबाजी कर रहे लोगों को रोकने की कोशिश मैं नहीं
करूं गा, हालाँकि, मैं उन्हें उकसाऊं गा भी नहीं, चूंकि अलग चुनाव पर सोचने के
बावजूद, मैंने उनकी मर्जी से चलने का वादा किया है. . .परंतु यह भी जान लेना ज़रूरी
है कि हम उन पर यकीन कर बैठे नहीं रहेंगे, लेकिन उनकी सांत्वना के लिए शुक्रिया
जरूर कहते हैं, जिससे हमारी मज़हबी जिम्मेदारी पूरी होती है। यह मज़हबी फर्ज़ है
जिसमें बदलाव की गुंजाइश नहीं। इस फर्ज़ के निभाने में, के वल खुदा पर ही भरोसा
किया जा सकता है – जो भी, मुस्लिम या गैर-मुस्लिम, हमें ऐसा करने से रोके गा, उसे
भी दुश्मनों की फे हरिस्त में शामिल कर लिया जाएगा।
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अन्य मुस्लिम नेता भी, बिना पुख्ता नतीजों के , असहयोग की धैर्य और सहनशीलता की
सलाह को मानने के प्रति अनिच्छु क थे। उन्होंने वही किया जिसका उनसे भय था –
अफगानिस्तान के अमीर को वैश्विक इस्लामिक मुद्दे के लिए भारत पर हमले को आमंत्रित
करना। अपने मार्गच्युत उत्साह के चलते गांधी जी भी इसकी पैरवी कर रहे थेः ‘मैं, कु छ
हद तक, अफगानिस्तान के अमीर को भी मदद दूँगा, यदि वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ
युद्ध छेड़ते हैं। अर्थात, अपने देशवासियों से खुलकर कहूंगा कि ऐसी सरकार का साथ देना
गुनाह है जिसने सत्ता में रहने का भरोसा खो दिया है।’
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व्यावहारिकता या उपयोगिता से
दूर वक्तव्यों के चलते उनके सबसे उत्साही समर्थक भी खासे चकित थे।
इसके तुरंत बाद, 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस सत्र में पार्टी पर गांधी जी की
पकड़ मजबूत बनी। वहाँ उनके प्रिय कई विचारों को अपनाया गया जिनमें स्वदेशी प्रचार
या घर का सिला कपड़ा, शराबबंदी लागू करना, हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर और चरखे
की भारतीय स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में घोषणा। गांधी जी ने कांग्रेस से वादा किया कि
असहयोग के उनके संघर्ष के तरीके को अपनाकर एक वर्ष में स्वराज आ जाएगा। इससे
सभी सदस्यों का भरोसा जागा और उन्होंने भरसक प्रयत्न का निर्णय लिया। हालाँकि,
सबसे ज़रूरी यह था कि स्वराज के अर्थ को कभी सुस्पष्ट तरीके से व्याख्यायित नहीं किया
गया था। कोई भी व्यक्ति इस पर अपनी व्याख्या करने को स्वतंत्र था। कु छ इसे स्वराज
और पूर्ण स्वतंत्रता कहते, तो अन्य इसे ब्रिटिश नियंत्रण में सीमित स्वराज की संज्ञा देते,
जबकि खिलाफतवादी इसे अफगानी आक्रमण की ख्वाहिश से जोड़ते थे।
नागपुर सत्र ने गांधी जी की त्रिकोणीय बहिष्कार योजना का समर्थन किया - यानी
असहयोग अभियान के चलते विधानसभाओं, अदालतों तथा सरकार द्वारा संचालित या
चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों का बहिष्कार। प्रमुख नेताओं ने विद्यार्थियों से शैक्षणिक
संस्थानों को छोड़ने की अपील की और देश भर के युवाओं ने पूरा सहयोग दिया। अनेक
युवा, हिम्मती और लड़ाका तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवकों के रूप में संगठित हुए। अनेक
स्थानों पर, हड़ताल का जबरिया या कभी-कभार हिंसक स्वरूप, और शराब तथा विदेशी
सामान की बिक्री रुकवाने के लिए धरना आदि किया गया।
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सरकार से असहयोग के लिए, प्रशासनिक चक्का जाम करने की नीति से कांग्रेस ने
परिषदों से अपने प्रत्याशियों को हटा लिया। गांधी जी को उम्मीद थी कि कांग्रेस द्वारा
विधानसभाओं के बहिष्कार से मतदाताओं के दूर रहने से समूची मतदान प्रक्रिया ठप हो
जाएगी। गांधी जी ने कहा ‘यदि किसी नेता के निर्वाचन क्षेत्र का आधे से अधिक उसे खुद
को प्रत्याशी कहने से मना करे, तो क्या कोई उदारवादी नेता परिषद में दाखिल होगा ? मेरा
मानना है कि उसका ऐसा करना असंवैधानिक होगा।’
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परंतु वह गलत थे। एक-चैथाई या
उससे कम मतदाताओं ने कांग्रेस की पुकार पर ध्यान नहीं दिया और चुनाव लड़ने वाले गैर-
कांग्रेसी नेता सामने आए तथा परिषदों में पहुँच गए। बेशक वह आमजन के नुमाइंदों के
रूप में बेअसर रहे थे। कांग्रेस ने इस तुरुप के इक्के का यह कहकर लाभ उठाया कि सुधारों
के चलते आयोजित चुनाव को जनता का समर्थन नहीं था, लिहाजा वह असफल रहे थे।
यहाँ तक कि अंग्रेजों ने भी इसे अनिच्छा से माना, जैसा कि संयुक्त प्रांतों के गवर्नर सर फ्रें क
स्लाई ने 22 नवंबर 1924 के भाषण में कहाः ‘पहले चुनाव में, असहयोग आंदोलन के
असर में अधिकांश मतदाता मतदान से दूर रहे और ऐसे सदस्य विधान परिषदों में पहुँचे जो
जनता के नुमाइंदे होने के लायक नहीं थे, और उनमें से कु छ अपने पद की जिम्मेदारियां
उठाने योग्य नहीं थे।’
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अदालतों का भी बहिष्कार हुआ। मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास जैसे अदालती
बार के नेताओं ने त्याग स्वरूप में अपना कामकाज रोक दिया जिसकी कई लोगों द्वारा
पुनरावृति हुई। कई विद्यार्थियों ने अपने स्कू लों और काॅलेजों का बहिष्कार करते हुए
विरोधी तथा काले झंडे के जुलूस आदि निकाले। असहयोग अभियान के झंडे तले,
आधुनिक भारतीय इतिहास में पहली बार, पूर्णकालिक स्वतंत्रता सेनानियों का समर्पित
समूह तैयार हो गया था।
सरकार ने पहले उपेक्षा भाव अपनाया, परंतु कानून-व्यवस्था पर असर पड़ने के कारण
दमन पर उतारू हो गई। आखिरकार, 13 से 18 मई 1921 को शिमला में गांधी जी की
वाइसरॉय लॉर्ड रीडिंग से छह मुलाकातें हुई। बैठकों का मसौदा ज्ञात नहीं, परंतु असहयोग
आंदोलन के दौरान अली बंधुओं के कथित भड़काऊ भाषणों पर उनके द्वारा माफी मांगे
जाने के संबंध में वाइसरॉय ने गांधी जी से वादा जरूर लिया था।
उस दौरान सरकार ने एक टेलिग्राम रोका जो पारसी में था और जिसे कथित तौर पर
मोहम्मद अली ने लिखा था। इसमें अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर हमला करने और
अंग्रेजों के साथ समझौता ना करने के लिए कहा गया था। स्वामी श्रद्धानंद ने अपनी
आत्मकथा में इसका जिक्र किया है। मोहम्मद अली ने इस संबंध में अनजान होने का स्वांग
भरा और कहा कि वह पारसी या अरबी नहीं जानते थे और उन्हें के वल कर्तव्य निभाने के
आधार पर तब्लीग बनाया गया था। इलाहाबाद स्थित मोतीलाल नेहरू के घर आनंद भवन
पहुँचने पर मोहम्मद अली, पंडित श्रद्धानंद को एक ओर ले गए और अपने बस्ते से पर्चा
निकाल उन्हें थमाया जो एक तार का मसौदा था। श्रद्धानंद लिखते हैं ‘जब मैंने असहयोग
आंदोलन के जनक की हूबहू हस्तलिपि में लिखे हुए को पढ़ा तो मेरी हैरानी का पारावार ना
रहा!’
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अगले दिन जब गांधी जी आनंद भवन पहुँचे पर जब श्रद्धानंद ने उनसे इस संबंध
में पूछा तो उन्होंने ऐसे किसी टेलिग्राम के बारे में अनभिज्ञता जताई थी।
वाइसरॉय द्वारा शिमला बैठक में दी गई चेतावनी के बाद, गांधी जी अली बंधुओं से
माफीनामा प्राप्त करने में सफल रहे थे। इस कारण गांधी जी और अली बंधुओं के साथ-
साथ कु छ हद तक असहयोग आंदोलन की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा था। नेतागण अपने
विरोधियों से संधियां करते दिख रहे थे। शर्मिंदगी से बचने के लिए अली बंधुओं ने कई
बयान दिए कि माफीनामा के वल आकस्मिक था।
तत्पश्चात्, मौलवियों द्वारा जारी फतवों के आधार पर उन्होंने मुसलमानों को पैग़ाम
पहुँचाया कि अंग्रेजों के लिए काम करना मज़हब के खिलाफ होगा और इस कारण उन पर
मुकदमा चलाकर उन्हें दो वर्ष सख़्त कै द हुई। इसने असहयोग आंदोलन फिर से जीवित
कर दिया और उसे ऊर्जा प्राप्त हुई। राजकु मार एडवर्ड अष्टम की यात्रा और अन्य कार्यक्रमों
के विरोध में देश भर में, पूरे जोर-शोर से कई हड़तालें, विरोध प्रदर्शन और बहिष्कार हुए,
जिस कारण सरकारी दमन फिर शुरू हो गया। अभियान हिंसा से अछू ता ना रह सका।
नवंबर 1921 में, बंबई में, विरोध प्रदर्शन सामूहिक हिंसा और लूटपाट में बदल गए, तीन
दिन चले दंगों में पुलिसवालों को पीटा गया और करीब 58 लोग मारे गए तथा 400 घायल
हुए।
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गांधी जी ने हिंसा पर गहरा अफसोस व्यक्त किया।
स्वराज प्राप्ति की जो एक वर्ष की अवधि गांधी जी ने दी थी, वह समाप्त होने को थी।
इस दौरान गांधी जी और वाइसरॉय के बीच सेतु रूप में कांग्रेस के चितरंजन दास और
मदन मोहन मालवीय के साथ सौहार्दपूर्ण समझौते के प्रयास शुरू हुए। वाइसरॉय ने
साफतौर पर शर्तें रखीं। यदि कांग्रेस अभियान रोकने को राजी होती है तो सरकार
अभियान के दौरान पकड़े गए सभी राजनीतिक कै दियों को छोड़ेगी जिनमें अली बंधु भी
होंगे। साथ ही, भारत के भावी संविधान के लिए वह सरकार और कांग्रेस के बीच गोलमेज
सम्मेलन भी आयोजित करेगी। युवा स्वैच्छिक कार्यकर्ता और अभियान के दौरान गिरफ्तार
हुए सुभाष चंद्र बोस याद करते हैंः
सही हो या गलत, महात्मा गांधी ने एक वर्ष के भीतर स्वराज का वादा किया था। वर्ष
समाप्त होने को था। मात्र एक पखवाड़ा शेष था और इस अवधि में कांग्रेस की प्रतिष्ठा
बचाने और महात्मा के स्वराज संबंधित वादे के लिए कु छ करना ज़रूरी था। वाइसरॉय
की ओर से आया प्रस्ताव ईश्वर प्रदत्त था। यदि 31 दिसंबर तक कोई समझौता होता है
और सभी राजनीतिक कै दी आज़ाद होते हैं, इसे आमजन के बीच कांग्रेस की महान
सफलता माना जाएगा। गोलमेज़ सम्मेलन सफल होगा या नहीं, और यदि सफल नहीं
होता, तथा सरकार प्रमुख मांगे मानने से इनकार करती है – कांग्रेस अपना संघर्ष किसी
भी समय जारी कर सकती है, और जब ऐसा होगा, तो कांग्रेस को व्यापक प्रतिष्ठा एवं
जन समर्थन मिलेगा।
55
परंतु अली बंधुओं को रिहा करने पर गांधी जी की ज़िद के कारण समझौता असफल रहा।
वार्ताकार की भूमिका निभा रहे चितरंजन दास ‘खुद नाराज और खिन्न थे। उनके अनुसार,
एक सुनहरा अवसर हाथ से निकल गया था।’
इसके बाद, 1 फरवरी 1922 से गांधी जी ने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के सूरत जिले की एक छोटी
सी तहसील, बारदोली से व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। वाइसरॉय को
पत्र में गांधी जी ने लिखा कि सभी कै दियों को छोड़ने, प्रेस पर रोक हटाए जाने तक
आंदोलन जारी रहेगा। खिलाफत एवं पंजाब के मुद्दों को भी जोड़ा गया था। बेशक यह
साहसिक चेतावनी थी। बारदोली से उठी यह चिंगारी असम, बिहार, संयुक्त प्रांतों, मद्रास
प्रेसिडेंसी एवं देश के अन्य हिस्सों में जा फै ली। देश भर में कर ना देने, विदेशी वस्तुओं का
बहिष्कार तथा प्रदर्षनों से अंग्रेज सरकार की नींव हिल गई थीं।
हालाँकि, सरकार ने भी विरोध को हल्के में नहीं लिया। 6 फरवरी को, विरोध कु चलने की
मंशा से वाइसरॉय ने एक तरह से युद्ध का ऐलान कर दिया। उससे एक दिन पहले, संयुक्त
प्रांतों के गोरखपुर के निकट चौरी चौरा नामक छोटे से गाँव की घटना ने अनजाने में ही इस
गतिरोध को समाप्त करने की दिशा साफ कर दी थी। वहाँ पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर
गोलियां दागीं, और असला समाप्त होने पर खुद को थाने में बंद कर लिया। क्रु द्ध भीड़ ने
थाने को आग लगा दी जिस पर अफसर बाहर भागे आए, करीब बाईस पुलिसवालों को
तेज हथियारों से मार कर उनकी लाशों को जलती इमारत में फें क दिया। इसके बाद
घटनाक्रम तेजी से बदले। गांधी जी ने अभियान को समाप्त करने के लिए चौरी चौरा कांड
को बहाना बनाया और गोलमेज़ सम्मेलन को राज़ी हो गए। बेहद अपेक्षित और बहुप्रचारित
अभियान को बंद करते हुए बारदोली में 10 फरवरी को भाषण में गांधी जी ने आरोप
लगाया कि ‘देश में व्यापक तौर पर अहिंसा मार्ग को नहीं अपनाया है। अतः, मैं तुरंत
सविनय अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करता हूं’।
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दो दिन बाद, 12 फरवरी को कार्य
समिति ने भी अभियान को औपचारिक तौर पर समाप्त घोषित किया और एआईसीसी
द्वारा स्वीकार करने पर सविनय अवज्ञा इतिहास के पन्नों में जा चुका था।
इस बीच सुदूर पोर्ट ब्लेयर में विनायक, मुख्यभूमि भारत पर चल रहे व्यापक राजनीतिक
घटनाक्रमों पर नजरें जमाए हुए थे। उन्होंने खिलाफत को देश के लिए ‘आफत’ घोषित
किया और कहा कि इससे पूरे देश में कट्टरवाद की लहर फै लेगी और उसे गिरफ्त में ले
लेगीः
लोकमान्य तिलक की मृत्यु से भारत में ऐसे अभियानों को प्रेरणा मिली है। हमारे बीच
यह विचार प्रबल है कि जब कोई महापुरुष प्रस्थान करता है तो प्रकृ ति भी वह शोक
झेलने में कमजोर साबित होती है और तूफानों तथा चक्रवातों का दौर आता है,
महामारियों एवं रोगों के अपशकु न दुनिया को आ घेरते हैं। लोकमान्य तिलक जैसे
सशक्त
व्यक्तित्व के भारतभूमि से जाने से खिलाफत जैसे दूषित प्रदर्शनों और एक वर्ष
में स्वराज दिलाने वाले चरखा संप्रदाय से गठबंधन करने की प्रेरणा मिली. . .दोनों
सिद्धांतों पर आधारित स्वराज के लिए असहयोग आंदोलन शक्तिहीन अभियान है जो
देश की ऊर्जा को समाप्त कर देगा। यह एक मरीचिका है, एक विभ्रम, किसी अंधड़
जैसा जो जमीन पर उसे बर्बाद करने के लिए उतरता है। यह पागलपन, एक महामारी
और तीव्र महत्वाकांक्षा है।
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अभियान के सहसा अंत ने हजारों लोगों को बेहद निरुत्साहित कर दिया था जो पहले
उत्तेजित थे। जैसा कि अनेक इतिहासकारों एवं टिप्पणीकारों का मत है, इस कदम ने
आज़ादी को दशकों नहीं तो, कई वर्ष आगे धके ल दिया था। देश की लोक-सम्मत धारणा
पर सुभाष बोस ने लिखा हैः
उस समय तानाशाह का आदेश मान लिया गया था, परंतु कांग्रेस खेमे में विद्रोह चल
रहा था। कोई नहीं समझ सका कि चौरी चौरा की अके ली घटना पर महात्मा ने देश भर
में चल रहे अभियान का क्यों गला दबा दिया था। आमफहम रोष और भी अधिक था
क्योंकि महात्मा ने विभिन्न प्रांतों के नुमाइंदों से मंत्रणा नहीं की और देश भर में सविनय
अवज्ञा अभियान की सफलता को लेकर अधिकाधिक उत्साह था। जब जन उत्साह पूरे
उफान पर हो, उस समय पीछे हटने का आदेश देना राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं था।
महात्मा के प्रमुख सिपहसालार, देशबन्धु दास, पंडित मोतीलाल नेहरू और लाला
लाजपत राय, जेल में थे और जनता की खिन्नता से सहमत थे. . .देशबन्धु. . .महात्मा
गांधी की लगातार विफलता पर क्रोध और दुःख से भरे हुए थे। वह दिसंबर की गलती
को भूलने ही लगे थे कि जब बारदोली का निर्णय सामने आया। लाला लाजपत राय के
भी यही विचार थे और सुना है कि नाराजगी में उन्होंने जेल से महात्मा को सत्तर पेज
का पत्र लिखा था।
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यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू के अनुसार वह भी यह जानकर नाराज थे कि ‘हमारे
संघर्ष को ऐसे समय रोक दिया गया जब हमारी स्थिति मजबूत हो रही थी और सभी मोर्चों
पर आगे थे. . .युवा और भी गुस्साए हुए थे। हमारी ऊं ची उम्मीदें जमीन पर आ गिरी थीं
और ऐसी प्रतिक्रिया अपेक्षित थी।’ उन्हें बुरा लगा कि दूरदराज का एक गाँव ‘स्वतंत्रता के
राष्ट्रीय अभियान’ को समाप्त करने पर उतारू था।
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जैसा कि रोम्यां रोलां ने स्पष्ट किया
हैः
यह खतरनाक है कि देश की सभी ताकतों को एकजुट कर, और हांफते देश को, नियत
क्षण पर हाथ उठाकर अंतिम आदेश देते हुए, और अंतिम क्षण, हाथ गिरा लिया जाए
जब सशक्त हुजूम कार्रवाई को तैयार रहा हो। इससे गति रोक कर वेग को पंगु बनाने
का खतरा उठता है।
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गांधी जी का कांग्रेस पर प्रभुत्व कम होता देख, सरकार हरकत में आई। सरकार के प्रति
असंतोष फै लाने के आरोप पर उन पर 18 मार्च 1922 को अहमदाबाद में मुकदमा चला।
उन्होंने अपराध स्वीकारा और बताया कि वह ब्रिटिश निष्ठावादी से असम्मत असहयोगी
क्यों बने। निचली अदालत के जज ने उन्हें छह वर्ष की सज़ा सुनाई। इसके साथ ही, एक
व्यक्तित्व के सहारे एक अभियान को पुनर्जीवित करने का मौका असफल हो गया। कांग्रेस
भी विभक्त हुई और दुखी मन से चितरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं ने पार्टी
से इस्तीफा देते हुए स्वराज पार्टी नामक नया दल गठित किया।
सेल्युलर जेल, मई 1921
जब देश उबाल के दौर से गुजर रहा था, उन दिनों विनायक को बंबई सरकार से एक पत्र
प्राप्त हुआ। विनायक को पत्र सौंपते हुए जमादार ने मुस्कराते हुए कहा कि उनके लिए
अच्छी खबर है। बंबई सरकार सावरकर बंधुओं को सेल्युलर जेल से अपनी एक जेल में
स्थानांतरित करने को राजी हो गई थी। इसका कारण उनकी याचिकाओं की स्वीकार्यता
नहीं था, बल्कि सरकार सेल्युलर जेल को बंद करने का विचार कर रही थी। पहले भी
उनकी रिहाई या स्थानांतरण के बारे में गलत सूचनाएं प्राप्त कर विनायक कु छ निरुत्साही
थे। उन्हें कारागार में दस वर्ष हो चुके थे और वह ‘टिकट’ की दरख्वास्त करने की सुविधा
के इंतजार में थे जिसे आमतौर पर तीन वर्ष बीतने पर दिया जाता था। इसके आधार पर
कै दी को परिवार के साथ जेल से बाहर रहने और आजीविका कमाने के विकल्प मिलते थे।
इतने लंबे समय बाद भारतीय जेल भेजे जाने पर विनायक हैरान थे। वह सोच में डूबे थे कि
पोर्ट ब्लेयर में दस वर्ष बिताने के बाद क्या नए कारागार में उन्हें कु छ अन्य सुविधाएं प्राप्त
होंगी।
अगली सुबह उन्हें जेलर से मिलने को कहा गया, जिसने उन्हें प्रस्थान के लिए तैयार रहने
को कहा। विनायक के मन में मिले-जुले भाव थे। सेल्युलर जेल में उनके भाई साथ थे,
जबकि भारत में जरूर उन्हें अलग-अलग कारागार मिलेंगे। मित्र, साथी कै दी और स्थानीय
लोग उन्हें विदाई देने के लिए जमा हुए। कमाई हुई अल्प राशि से वह अपने ‘बड़ा बाबू’ के
लिए मिठाइयां, फू ल, फल, बिस्कु ट और अन्य उपहार लेकर आए। वह उनके जीवन को
बेहतर बनाने के अथक प्रयासों से अभिभूत थे, बेशक इसके लिए विनायक ने कष्ट झेले।
एक मंत्र दोहराते हुए उन्होंने अन्य को भी उच्चारित करने को कहा, और विनायक ने उस
कोठरी को विदा दी जो एक दशक तक उनका घर थीः
एक ईश्वर, एक राष्ट्र, एक उम्मीद,
एक जाति, एक जीवन, एक भाषा,
हम इसके साथ हैं।
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सेल्युलर जेल के दरवाजे जो उनके लिए 1911 में खुले थे, फिर से खुल रहे थे। बाबाराव
और विनायक बाहर निकले। विनायक अपने भाई से फु सफु सायेः ‘यह दहलीज जीवन और
मृत्यु के बीच की सीमा है। मृत्यु से हम दहलीज लांघ कर जीवन की ओर जा रहे हैं। हां!
हमने उसे पार किया और सजीव भूमि पर आ गए हैं। और अब ? हमें कु छ फर्क नहीं
पड़ता। भविष्य को उसकी दिशा निर्धारित करने दो।’
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जमादार के ओहदे पर पहुँचा, और जल्दी ही आज़ादी प्राप्त करने वाला एक मराठा कै दी
कु शब, सावरकर बंधुओं का पहरा कर रहे रक्षकों के घेरे को तोड़ता हुआ ताजे चंपक फू लों
की माला लिए विनायक की ओर बढ़ा। एक पुलिस अधिकारी ने उसे रोकने की कोशिश
की, परंतु विनायक को इस उपहार में उनके प्रयासों की पुष्टि और देशवासियों का विशुद्ध
प्रेम नजर आया। उन्हें धन्यवाद देते हुए, वह एसएस महाराजा
जहाज की ओर बढ़े जो उन्हें
पोर्ट ब्लेयर लाया था। इस बार उन्हें पागल कै दियों के साथ एक गंदे कमरे में बंद कर दिया
गया। बुखार में जल रहे बाबाराव झुंड में फं से थे। बहुत कहा-सुनी के बाद उन्हें कु छ बेहतर
स्थान पर ले जाया गया। भारत पहुँचने पर विनायक को देश की मुख्यभूमि पर कदम रखने
का अकथनीय रोमांच हो आया था।
कलकत्ता/रत्नागिरी, मई 1921
26 मई 1921 को जहाज कलकत्ता तट पर लगा और उन्हें अलीपुर जेल ले जाया गया।
जैसा कि विनायक को आशंका थी, उन्हें और बाबाराव को अलग कोठरियां मिलीं।
विनायक अक्सर बाबाराव को दयनीय भाव से घूमते, लगातार खांसते हुए देखते और उन्हें
महसूस होता कि शायद वह कभी एक दूसरे को नहीं देख पाएंगे।
सावरकर बंधुओं के अलीपुर पहुँचने के दिन ही, वहाँ के प्रतिष्ठित आंग्ल-भारतीय समुदाय
द्वारा प्रकाशित कै पिटल
नामक कलकत्ता के एक नियतकालिक पत्र ने ‘डिचर्स डायरी’ नाम
लेख प्रकाशित किया। लेख में कहा गया था कि बाबाराव बेतार संदेश भेजने में पारंगत हैं;
उन्होंने ही अंडमान में रहते हुए जर्मन वायरलेस नेटवर्क के माध्यम से साथी क्रांतिकारियों
को सुमात्रा द्वीपों पर हमला करने हेतु संदेश भेजा था। राष्ट्र हित में उनकी सज़ा जारी रखने
को सही ठहराया गया था। अपने वकीलों, मणिलाल एवं खेर के जरिए नारायणराव ने
पत्रिका पर मानहानि का दावा ठोंका। जिस पर कै पिटल
के 28 जुलाई 1921 के संस्करण
में ऐसे बेसिरपैर और मिथ्या लेख छापने पर अफसोस जाहिर किया गया और सावरकर
बंधुओं से बिना शर्त माफी मांगी।
इस बीच अलीपुर जेल में विनायक ने रात को उन पर निगरानी करने वाले दो सिपाहियों
के बीच रोचक वार्तालाप सुना। दोनों बेहद उत्साहित होकर एक दूसरे से बात कर रहे थेः
हमें दो महीने में स्वराज मिल जाएगा। गांधी नामक एक शक्तिशाली योगी ने सरकार से
लड़ाई शुरू की है। अंग्रेज उसके सामने मजबूर हैं क्योंकि उस पर गोली का भी असर
नहीं होता। यदि कारागार में रखा जाए तो वह उससे बाहर निकलना जानते हैं। उसके
पास ऐसी जादुई शक्तियाँ हैं। वह कोठरी से गायब होकर बाहरी दीवार के पार खड़ा
दिखता है। कु छ ऐसा है उसका जादू। ऐसा कई बार हो चुका है।
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जेल भेजे जाने पर हर बार जल्दी छू ट जाने से गांधी जी के संबंध में ऐसे मिथक प्रचलित
थे। कु छ ऐसी ही किंवदंतियाँ विनायक के संबंध में भी प्रचलित थीं। मार्से घटना के संबंध में
सिपाही ने उनसे पूछा था कि वह कितने दिन समुद्र में तैरते रहे थे। जब उन्होंने बताया कि
किनारे तक पहुँचने के लिए उन्हें मात्र दस मिनट लगे तो सिपाही सन्न रह गया और
विनायक की जादुई शक्तियों में उसका विश्वास टूटता दिखा! विनायक याद करते हैंः ‘मार्से
के संबंध में सच कहने के कारण मेरी कई मैत्रियां टूटी और उनका मेरे प्रति आदर समाप्त
हुआ।’
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एक सप्ताह बाद, विनायक को रेल से कलकत्ता से बंबई रवाना किया गया। वहाँ से उन्हें,
रत्नागिरी के जिला कारागार में कै दी नं. 558 के बतौर भेजा गया। बाबाराव को उत्तरी
कर्नाटक के बीजापुर कारागार ले जाया गया था। रत्नागिरी में पहले कु छ सप्ताह विनायक
के लिए कष्टदायी थे। अंडमान में अंतिम कु छ महीनों में उन्हें बेहतर पका भोजन और दूध
मिल रहा था जिससे उनका बिगड़ता स्वास्थ्य कु छ संभला था। परंतु रत्नागिरी में एक बार
फिर दूध बंद कर, के वल अधपकी रोटी ही मिलती थी। साथ ही उन्हें एकांत कारावास में
रखा गया और अंडमान में मिलने वाली कपड़े, कठोर श्रम से छू ट, पढ़ना, कागज या स्लेट
पर लिखना और साथी कै दियों से मुलाकात जैसी सुविधाएं रोक दी गई। पोर्ट ब्लेयर भेजे
जाने से पूर्व जो पोशाक उन्होंने पहनी थी, वही दी गई, जिस पर आज़ादी के वर्ष 1960 का
लोहे का बिल्ला टंगा था। उन्हें महसूस हुआ कि जैसे वह शुरुआत से अपनी सज़ा भुगतने
जा रहे हैं। उन्हें सूत कातने का काम मिला और पढ़ने के लिए पुस्तकों की मनाही थी।
कड़वाहट एक बार फिर आ पसरी और वह गंभीरता से आत्महत्या पर सोचने लगे। अपने
मस्तिष्क से जूझते हुए वह खुद को कायरता से दूर हटने एवं दृढ़ता से सबकु छ झेलने और
संघर्ष जारी रखने की हिम्मत देते। वह दिमाग में कविताएँ तैयार करना और उन्हें स्मरण
रखने के पुराने निश्चय की ओर लौटे। अके लेपन और निराशा की वेदना के बीच दिमाग को
व्यस्त रखने का यह सबसे अच्छा तरीका था।
अपने भाइयों की बिगड़ती स्थिति से नारायणराव परेशान थे। 15 सितंबर 1921 को
उन्होंने गांधी जी के निकटवर्ती और यंग इंडिया
के संपादकीय प्रभारी जमनादास
द्वारकादास को हस्तक्षेप करने के लिए लिखा। नारायणराव ने आईपीसी की धारा 55 का
हवाला दिया जिसमें उम्रकै द काट रहे प्रत्येक कै दी के लिए चौदह वर्षों बाद, सरकार की
ओर से, उसकी मंजूरी से या अन्यथा, सज़ा में परिवर्तन किया जाता है। उन्होंने न्यायिक
विभाग के 12 अक्तू बर 1905 के प्रस्ताव (नं. 5308) पर भी ध्यान दिलाया जिसमें
उम्रकै दियों को चौदह वर्षों बाद, माफी के साथ, रिहा किए जाने की छू ट थी। उन्होंने बताया
कि बाबाराव के मामले में 9 जून 1921 को बारह वर्ष की सज़ा पूरी हो चुकी है। दिल्ली
दरबार के दौरान उन्हें क्षमा भी प्राप्त हुई थी जिसका योग पच्चीस महीने का था। इस
हिसाब से कु ल सज़ा चौदह वर्षों की बनती है, जिससे उक्त नियमानुसार वह रिहाई के
अधिकारी हैं। प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा को देखते हुए उन्होंने जमनादास से सरकार पर
अपने भाइयों की आज़ादी के लिए दबाव बनाने को कहा। उन्होंने कहा:
आप सहयोगवादी हैं या असहयोगवादी; आप तिलकवादी हों, गांधीवादी या कोई
बसंतवादी; आप निष्ठावादी हों या राजद्रोहवादी, ऐसे दो व्यक्ति जिन्हें सरकार अपनी
प्रजा मानती है, उनके प्रति सरकार की बदलापूर्ण नीति को तिरस्कार रूप में देखना ही
होगा। और यह तब है जबकि मेरे भाइयों ने नए सुधारों को स्वीकारने और भविष्य में
संवैधानिक तरीके से काम करने को कहा है; और जबकि राज्य परिषद के एक सदस्य
श्री ए. रंगास्वामी अय्यंगर ने सरकारी मांग के अनुसार सुरक्षा राशि भी देने का वादा कर
लिया है। प्रिय जमनादास जी, मुझे उम्मीद है कि इस तरह का निजी अत्याचार देखते
हुए कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति उससे नफरत करेगा – क्योंकि सच्चे न्याय में क्षमा
सम्मिश्रित होती है।
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13 अक्तू बर 1921 के उत्तर में जमनादास ने कहा कि उन्होंने सरकार से बात की है और वह
सोचते हैं ‘मामले में कु छ भी नहीं किया जा सकता। भारत सरकार ने जून में ही प्रश्न पर
विचार किया था और मौजूदा दौर में वह उस पर पुनः विचार करने को तैयार नहीं।’
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विनायक ने 19 अगस्त 1921 को सरकार को एक और याचिका भेजी।
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याचिका का
मसौदा, अंडमान से भेजी याचिकाओं से अलग था और इसमें एक टूटे और उदास व्यक्ति
का अहसास होता था। यह कुं ठा रत्नागिरी जिला कारागार की बुरी हालत से उपजी थी,
जबकि वह अंडमान में दस वर्ष गुजारने के बाद और वहाँ किए अच्छे कार्यों के बाद बेहतर
भविष्य की उम्मीद लगाए थे। पहली बार उन्होंने अपने क्रांतिकारी अतीत पर ‘अफसोस’
जताया – जैसा उन्होंने अपनी पुरानी याचिकाओं में दरकिनार रखते हुए कभी स्पष्ट तौर पर
नहीं कहा था। उन्होंने माना कि वह दोषसिद्धि के दिनों वाले व्यक्ति नहीं हैं और ‘उन्हें
अफसोस है कि वह राजनीतिक उन्माद की आंधी में बह निकले और अपने अच्छे करियर
को बर्बाद कर दिया।’ परंतु भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत शुरू किए गए सुधारों
और संभावित अफगानी हमले (जिसे वह ‘एशियाई झुंड’ कहते थे) को देखते हुए ‘वह
सुनिश्चित हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य के साथ निकटवर्ती और निष्ठापूर्ण सहयोग दोनों के लिए
अपरिहार्य और बेहतर रहेगा।’ उन्होंने बरिन घोष, हेमचंद्र दास और प्यारा सिंह जैसे
क्रांतिकारियों की रिहाई पर ध्यान दिलाया जिन्हें समान अपराधों की सज़ा मिली थी। यदि
कोई उन्हें बलि का बकरा बनाने के लिए उनकी याचिकाओं के संबंध में सरकार के कान
भर रहा है, तो ऐसे उपद्रवी कृ त्यों से उसे बचना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक जीवन त्यागने
की शपथ ली। विनायक ने कहा ‘मेरी गिरती सेहत और लंबे कष्टों ने उन्हें किसी अन्य
स्थिति की अपेक्षा दृढ़ कर दिया है कि वह सब कु छ छोड़ना चाहते हैं और सरकार द्वारा
जारी की जाने वाली इस अथवा किसी अन्य निश्चित या यथोचित शर्त को मानने को तैयार
हैं।’ यह नितांत अतार्किक है कि ‘याचिकाकर्ता के पहले और बाद में सज़ा पाए राजद्रोहियों
में से कोई भी याचिकाकर्ता एवं उसके भाई की तरह जेल में नहीं हैं (वह जेल में हैं जबकि
अन्य उम्रकै दियों को कब का रिहा किया जा चुका है)’।
यदि उनका दुर्भाग्य जारी रहता है और सरकार उनकी याचिका ठुकराती है तो वह अपनी
शिकायतों को पुनः सुधारना चाहते हैं। यदि वह ग्यारह वर्ष किसी भारतीय जेल में रहते तो
स्वतः ही उन्हें दो या तीन वर्ष की माफी मिल जाती। यदि वह अंडमान में होते, उनके पास
टिकट का आश्रय होता और परिवार को साथ रख सकते थे। परंतु उन्हें यहाँ कोई लाभ नहीं
मिले; अपितु, दोनों ओर से निकृ ष्टतम हानि पहुँची थी। अतः वह जेल नियामकों के अनुसार
दो या तीन वर्ष की छू ट अथवा टिकट के आधार पर परिवार के साथ अंडमान जाने की
अनुमति मांगते हैं – जिससे वह लंबे समय से जुदा हैं। विनायक ने वादा किया ‘यदि यह
अनुमति मिलेगी तो वह खुशी से सेवानिवृत्त और निजी जीवन जीना चाहेंगे, दुनिया को और
उसकी यादों से विस्मृत होकर पारिवारिक जीवन – उस दुनिया से दूर जो उस अभागे,
नाउम्मीद और टूटे व्यक्ति से अपनी सुरक्षा को लेकर इतनी चिंतित है।’
उन्होंने उम्मीद जताई कि असहयोग और खिलाफत प्रदर्शनों का सरकार के निर्णय पर
कोई असर नहीं पड़ेगा। अंडमान में भी उन्होंने शाही मुनादी के बाद अन्य कै दियों को मिली
आम माफी पर उनसे ‘वचन लेने को कहा था कि वह राजनीति और क्रांतिकारी
गतिविधियों से निश्चित वर्षों तक दूर रहेंगे।’ अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैंः ‘अपने
मित्रों को मेरी राय थी कि उसमें कु छ बुरा नहीं, क्योंकि यह भावी संभाव्यता और राष्ट्रीय
हित में है।’
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1921 की याचिका में उन्होंने यही सिद्धांत अपने लिए प्रयोग किया था।
उसी दौरान, विनायक की पत्नी यमुनाबाई ने भी बंबई के गवर्नर सर जाॅर्ज लॉयड को
याचिका भेजकर बाबाराव रिहाई की अपील की।
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उन्होंने भी नारायणराव द्वारा
जमुनादास को पत्र में भेजी गई शर्तों को आधार बनाते हुए अपील की थी। उन्होंने उम्मीद
जताई कि भाइयों को इस बीच एक मासिक पत्र या मुलाकात एवं सरकार द्वारा निषिद्ध
नहीं की गई पुस्तकें तथा समाचार पत्र पढ़ने की अनुमति प्राप्त होगी।
23 नवंबर 1921 को बंबई सरकार ने विनायक की याचिका का जवाब देते हुए उसे
खारिज कर दिया और कहा ‘अंडमान से लौटे कै दियों को माफी देने का मामला सरकार के
पास विचाराधीन है’।
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हालाँकि, दोनों भाइयों को पुस्तकें और समाचार पत्र पढ़ने तथा
साथी कै दियों से बातचीत की अनुमति मिल गई थी।
विनायक ने इस अवसर का लाभ उठाकर, अंडमान में शुरू किए गए शुद्धि अभियान को
आगे बढ़ाया क्योंकि जबरन या प्रेरित कर धर्मांतरित किए गए मामले मिलते-जुलते थे।
उन्होंने शौच के लिए कारागार में बदइंतजामी पर भी विरोध प्रकट किया। एक ही पंक्ति में
बने शौचालयों के बीच कोई दीवार या दरवाजा नहीं होता था और कै दियों को एक दूसरे के
साथ कं धे टकराते हुए बैठना पड़ता था। कै दियों को सब मौसमों में बिना छत के खुले
शौचालय इस्तेमाल करने पड़ते थे। उन्हें अंदर पानी ले जाने की अनुमति नहीं थी और बाद
में उन्हें कु छ दूरी पर नल से पानी इस्तेमाल करना पड़ता था। विनायक और उनके द्वारा
प्रेरित किए गए कु छ कै दियों के लगातार विरोध पर जेल प्रशासन ने इस संबंध में परिवर्तन
किए।
लेखन की मंजूरी मिलने पर, विनायक विभिन्न चरणों में चल रही तीन कविताओं
‘कमला’, ‘गोमान्तक’ और ‘सप्तर्षि’ को पूरा करने में सफल रहे। उन्होंने ‘विरहोश्वास’
नामक मिश्रित कविता संग्रह की भी रचना की। नारायणराव ने इन कविताओं के संपूर्ण
संस्करण प्रकाशित कराए। चूंकि अब पुस्तकों तक पहुँच थी, विनायक ने रामदास के
दासबोध
को बार-बार पढ़ा। बचपन से ही उन्हें यह पुस्तक आकृ ष्ट करती थी, और ऐसे
समय जब मनोबल नीचा था, प्रेरणा प्राप्त करने के लिए उन्होंने यह विधि अपनाई।
उन्हें नारायणराव से ज्ञात हुआ कि बाबाराव बीजापुर जेल में हैं। दिसंबर 1921 में जब
नारायणराव, बाबाराव से मिलने गए तो वह खादी पहने थे। जेल प्रशासन ने कहा कि अपने
बड़े भाई से मिलने के लिए उन्हें पहले कपड़े बदलने होंगे। उन्हें यह अपमानजनक महसूस
हुआ और नारायणराव द्वारा विरोध करने पर मुलाकात रद्द हो गई। बाबाराव का पहले से
कमजोर स्वास्थ्य बीजापुर की सीली, घुटन भरी और अलग-थलग कोठरी में और नीचे जाने
लगा था। एकांत कारावास में उन्हें प्रतिदिन 35 पाउंड गेहूं
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पीसने का काम सौंपा गया।
इस कारण बाबाराव पागलपन के कगार पर जा पहुँचे और सिरदर्द, डायरिया और पेट के
मरोड़ की समस्या फिर उभर आई थी। उनके घुटने जवाब दे गए और वह गठिया की
समस्या से जूझने लगे जिसने उन्हें ताउम्र परेशान रखा। कु छ चहकती चिड़ियों को वह दाना
डालते और वही उनकी मित्र थीं। कु छ ही समय बाद, जेल प्रशासन ने उन्हें भी उड़ा दिया।
खटमल, मच्छर और बिच्छु ओं ने उस अंधेरी कोठरी को नरक में बदल दिया था।
द बॉम्बे क्रॉनिकल
के संपादक और अंग्रेज पत्रकार, बेंजामिन गाइ हर्नीमैन के साथ
मिलकर नारायणराव ने बाबाराव को बीजापुर जेल से हटाने का सक्रिय अभियान चलाया।
आखिरकार, जनवरी 1922 में सरकार ने उन्हें अहमदाबाद में साबरमती कारागार में भेज
दिया। परंतु यहाँ भी लम्बे समय तक उन्हें उपचार नहीं मिला और काफी बाद उन्हें कारागार
के अस्पताल भेजा गया। बाबाराव का अंत निकट दिख रहा था। उन्होंने 4 जुलाई 1922 को
याचिका में अपना मुद्दा रखा और प्राप्त क्षमा का भी उल्लेख किया।
साबरमती में एकांत कारावास था, परंतु उन्हें शाम को सैर के लिए ले जाया जाता। ताजी
हवा, धूप और चहकते पंछियों से उन्हें कु छ आराम महसूस हुआ। यहाँ उनकी मुलाकात,
पुराने खिलाफतवादी नेता मौलाना हसरत मोहानी से हुई, जो कै द थे। मौलाना से बातचीत
के दौरान उन्हें खिलाफत अभियान के अनेक छु पे पक्षों की जानकारी हुई जिसमें
सुनियोजित अफगान आक्रमण भी शामिल था। गांधी जी और अफगानिस्तान के अमीर के
बीच तथाकथित ‘गांधी-अमानुल्ला संधि’ से जुड़ी अफवाहें भी गर्म थीं। जानकारी से
बाबाराव परेशान हो उठे और सोचने लगे कि यदि वह मुक्त होते तो देश में घूमकर लोगों को
इन सच्चाइयों के प्रति जागृत करते। यही वह समय था जब वह गांधी जी और उनके दर्शन
के कटु आलोचक बने थे। वह चरखा कातना, जेलें भरना, असहयोग आंदोलन और स्कू लों
तथा दफ्तरों के बहिष्कार को भ्रमजाल मानते थे। हालाँकि, वह गांधी जी द्वारा
आत्मनिर्भरता के रूप में चरखे की स्वीकार्यता की तारीफ करते थे, परंतु मशीनी युग में इसे
व्यर्थ भी समझते थे।
हालाँकि, दमन और कै द भुगतना आज़ादी की लड़ाई का स्वाभाविक फल था, परंतु वह
उन दिनों वह देश के इस चलन को समझने में असफल रहे कि मात्र जेल जाना ही
राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन चुका था। कारागारों की कमी नहीं थी और क्रांतिकारियों को ठूं सने
के लिए नए कारागारों का निर्माण भी हो सकता था। परंतु उनका मानना था कि व्यक्ति
बाहर रहकर देश के लिए बेहतर कार्य कर सकता है। उनकी सोच थी कि यदि जरूरत पड़े
तो देश के लिए लड़ने हेतु जेल से भागना भी अनुचित नहीं था। विनायक की तरह उनकी
भी सोच थी कि आँखें बंद कर सहयोग या असहयोग के रास्ते पर चलने का लाभ नहीं
होगा। सरकार की प्रतिक्रिया देखकर ही राजनीतिक दशा-दिशा जांचना ठीक रहेगा,
इसलिए ‘उत्तरदायी सहयोग’ की नीति बेहतर विकल्प है।
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इस बीच नारायणराव को सूचना मिली कि उनके भाई का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है, तो वह
तुरंत साबरमती पहुँचे। बाबाराव की देखरेख कर रहे सरकारी डाॅक्टर ने कहा कि कु छ ही
दिनों के मेहमान हैं। आखिरकार सरकार ने उनकी हालत का संज्ञान लिया क्योंकि वह नहीं
चाहती थी कि बाबाराव हिरासत में दम तोड़ें। उन्हें रिहा कर दिया गया। जून 1909 में
कारागार पहुँचने के तेरह वर्षों बाद, सितंबर 1922 को स्ट्रेचर पर बाबाराव कारागार से रिहा
हुए। कारागार का भयावह जीवन उनके लिए समाप्त हो गया था। परिवार के स्नेह एवं
ईश्वरीय कृ पा से उनको स्वास्थ्य लाभ हुआ और डाॅक्टर की भविष्यवाणी गलत निकली।
इस दौरान, रत्नागिरी कारागार के अंधेरों में विनायक ने अपने राजनीतिक दर्शन के
अप्रतिम ग्रंथ की रचना शुरू की। इसमें ‘हिन्दू राष्ट्रीय चरित्र’ पर उनके विचार निहित थे।
ग्रंथ में अंडमान और रत्नागिरी कै दखानों में धर्मांतरण से जुड़े उनके अनुभव, शुद्धि एवं
संगठन के प्रयासों और खिलाफत आंदोलन पर देश में चल रही उग्र बहस का निचोड़ था।
समकालीन भारत में जिस शब्द को सबसे अधिक राजनीतिक लोकप्रियता मिल रही है
और जिसे उन्होंने प्रसिद्ध बनाया, वह था ‘हिन्दुत्व’।
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हिन्दू कौन है ?
रहीमतुल्ला एम. सयानी समृद्ध खोजा सम्प्रदाय से संबंध रखते थे जो आगा खान का
अनुयायी वर्ग था। कांग्रेस के गठन के समय से ही वह उससे जुड़े थे। बदरुद्दीन तैय्यबजी के
बाद वह कांग्रेस के दूसरे मुस्लिम अध्यक्ष बने और 1896 में कलकत्ता के बारहवें वार्षिक
सत्र की अध्यक्षता की थी। अपने सुस्पष्ट अध्यक्षीय भाषण में सयानी ने अन्य मुद्दों के साथ-
साथ, भारतीय मुस्लिमों में विरक्ति की भावनाओं पर बात की और अपने विचार भी व्यक्ति
किए। सयानी ने कहा कि अंग्रेजों के आनेे सेे पहले मुस्लिम इस देश के शासक थे और
उनके पास शासकवर्ग की सभी सुविधाएं थीं। सम्राट से लेकर दरबारी तक और जमींदारों
से अधिकारियों तक मुस्लिम थे; आधिकारिक भाषा उन्हीं की थी; उन्हें भरोसा और
जिम्मेदारी पूर्ण पद मिलते जिनके साथ मेहनताना और रसूख उनका नैसर्गिक अधिकार
होता था। हिंदू, हालाँकि तत्कालीन राज्यतंत्र का हिस्सा तो थे, लेकिन वे, मुसलमानों के
‘अधिकारहीन किरायेदार’ होते थे, जो मुसलमानों से नीचे और उनके रौब में रहते थे।
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परंतु किस्मत के फे र ने उन्हें हिन्दुओं के बराबर लाकर रख दिया था। ‘बेहद संवेदनशील
कौम’ होने के नाते मुसलमानों को यह नागवार गुजरा और वह अपने नए आकाओं तथा
अब तक अधीन रहे, साथी अवाम से कोई संबंध नहीं चाहते थे।
देश में अंग्रेजी शिक्षा के आगमन पर, मुस्लिम शासकों के समय से ही विदेशी भाषा
सीखने में पारंगत हिन्दुओं ने अंग्रेजी की नैसर्गिक विधि और आसानी से सीख ली। परंतु
मुस्लिम अभी तक ऐसा कु छ सीखने में पीछे थे ‘जिसमें कड़ी मेहनत और उपयोगिता की
जरूरत थी, खासकर जिसमें उन्हें अपने पुराने अवाम, हिन्दुओं से अधिक मेहनत करनी
पड़े’। अपने से नीचे समझे जाने वालों से मुकाबला उनको रास नहीं आया। नतीजा यह
हुआ कि हालात बदल गए। हिन्दू ऊपरी श्रेणी में पहुँच गए और धीरे-धीरे मुस्लिम ‘अपनी
ही जमीन और कार्य-व्यापार से बेदखल हो गए; दरअसल उनका सबकु छ खो गया था,
प्रतिष्ठा बचाने के लिए. . .जल्दी ही वह घोर गरीबी की चपेट में आ गए। अज्ञान और
उदासीनता ने उन्हें आ घेरा जबकि अतीत की खोयी शान उनके दिलों में धधक रही थी’।
वहाँ मौजूद सदस्य सयानी के दावे सेे रजामंद थे। 1867 तक 88 हिन्दुओं ने बीए और एमए
की परीक्षाएं उत्तीर्ण की जबकि उसमें मुस्लिम एक भी नहीं था।
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भारत के वृहत मुस्लिम समुदाय, विशेषकर लीडरों और धार्मिक नेताओं के बीच
अके लेपन और अलगाव की भावना से जुड़े इतिहास को समझना ज़रूरी है। यह विचार
विनायक के हिन्दुत्व दर्शन के संदर्भ में प्रस्तावना के तौर पर स्थापित हुआ। राजनीतिक
हालात और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को देखते हुए उन्होंने रत्नागिरी की कोठरी से इस सिद्धांत
का प्रतिपादन किया था। हिन्दू समाज में नेतृत्व की कमी और उसे गैरज़रूरी एवं दिशाहीन
मुद्दों की ओर धके लना, तथा जाति एवं वर्ण में बंटे उसके ताने-बाने को बौद्धिक आधार की
आवश्यकता थी। अपने प्रबंध के आधार पर विनायक यह कार्य करना चाहते थे।
इससे जुड़े अनेक विरोधाभास भी थे। विनायक ने सेल्युलर जेल से अपनी याचिका में
जिन संवैधानिक सुधारों का समर्थन किया था, उसके आधार पर अलग मुस्लिम निर्वाचन
क्षेत्र बनाने की प्रस्तावना की गई थी। बेशक इस पहल ने बाद में धार्मिक संबंध में भारतीय
राजनीति के सुदृढ़ीकरण में भूमिका निभाई थी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद, जिसमें बहादुरशाह ज़फ़र को भारत
का शहंशाह बनाना प्रमुख लक्ष्य था, 1857-58 के वहाबी आंदोलन के नेता इनायत अली ने
1857 के नेताओं के साथ गठजोड़ नहीं किया था। वह भारत में धार्मिक इस्लामिक शासन
या दारुल-इस्लाम की स्थापना के लिए लड़े थे। इस लम्बे वहाबी संघर्ष से हिन्दू पूरी तरह
विमुख थे। इसके बाद, मुस्लिम समुदाय ने आईएनसी सहित, किसी भी राजनीतिक संगठन
में शिरकत नहीं की थी। 1857 के प्रमुख षडयंत्रकारी माने जाने के कारण समुदाय अंग्रेजों
की निगाहों में भी गिरा और उस पर चारों ओर अवसाद फै ल गया था। ऐसे समय सर
सैय्यद उम्मीद की किरण के तौर पर उभरे। उन्होंने मुस्लिम समुदाय और अंग्रेजों के बीच
खाई पाटने की जिम्मेदारी उठाई और समुदाय को आधुनिक शिक्षा से भी रूबरू किया।
यहाँ तक कि उन्होंने द लॉयल मोहमडन्स ऑफ इंडिया
नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें
बताने का प्रयास किया कि क्यों मुस्लिम वर्ग भारत का भरोसेमंद समुदाय है और ईसाइयों
के साथ पक्की दोस्ती रख सकता है। उन्होंने कहा कि ये भारत के मुसलमान हैं, जो उनके
घनिष्ठ मित्र और वफादार साबित हो सकते हैं। उनके द्वारा 1877 में अलीगढ़ में स्थापित
मुस्लिम आंग्ल-प्राच्य काॅलेज का यही घोषित लक्ष्य था जिसके जरिए अंग्रेजों के बीच
वफादारी मजबूत करने का प्रयास किया गया था। उलेमा हों या कांग्रेसी लीडर, वह उन
सभी लोगों के खिलाफ थे, जो अंग्रेजों के खिलाफ थे। सैय्यद के अनुसार, कांग्रेस ब्रिटिश
लीक पर चुनिंदा सरकार हेतु संघर्षरत है – ऐसी सरकार जिसमें बहुसंख्यकों की आवाज
सुनी जाएगी, जिस कारण मुसलमानों सहित जनसंख्या के चौथाई हिस्से को कम तवज्जो
मिलेगी। उन्होंने इस तथ्य पर कभी जोर नहीं दिया कि भारत अनेक संप्रदायों का समुच्चय
है जिसमें मुस्लिम विशिष्ट भूमिका रखते हैं। एक भाषण में उन्होंने साफ कहा था:
भारत जैसा देश, जहाँ किसी भी क्षेत्र (राष्ट्रीयता, धर्म, जीवनशैली, रीतियां, आचार-
विचार, संस्कृ ति और ऐतिहासिक परंपराएं) में एकरूपता नहीं है, चुनी गई सरकार कोई
बेहतर नतीजे नहीं ला सकती; उसके कारण इस ज़मीन की शांति और तरक्की में
ख़लल ही पड़ेगा. . .भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्य और लक्ष्य इतिहास और मौजूदा
हालात के प्रति अनभिज्ञता पर आधारित हैं; वह इस तथ्य पर विचार नहीं करती कि
भारत में अनेक वर्गों के लोग रहते हैं; भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जो प्रयोग करना चाहती
है, मेरी राय में वह खतरे से भरपूर और भारत के सभी वर्गों, विशेषकर मुस्लिमों के लिए
मुश्किल हालात पैदा करेगा। मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, परंतु बहुत संगठित अल्पसंख्यक
हैं। जब बहुसंख्यक उन पर अत्याचार करते हैं, तब तो कम से कम वह तलवार उठा लेते
हैं। यदि ऐसा हुआ, तो वह 1857 के दौरान घटित घटनाओं से भी बड़ी त्रासदी होगी। .
.कांग्रेस मुस्लिमों के विचारों, आदर्शों और इच्छाओं की नुमाइंदगी करने का तार्किक
दावा नहीं पेश कर सकती।
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अलीगढ़ अभियान का जोर हिन्दुओं और मुस्लिमों को विशिष्ट दृष्टिकोण, अलग सरोकारों
और एक तरीके से अलग राष्ट्रीयता वाले समुदाय साबित करने पर था। दरअसल, वह
‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ के पहले प्रणेता थे। वह सिद्धांत जिससे भारत को भविष्य में बुरे नतीजे
देखने को मिले। सर सैय्यद के शब्दों में:
भारतीय साम्राज्य और प्रशासन किसके हाथों में सुरक्षित रहेगा ? फर्ज़ कीजिए, सब
अंग्रेज, समूची अंग्रेजी फौज, भारत से चली जाए, और अपने साथ तोपें और बेहतरीन
हथियार तथा शेष सब ले जाएं, तो भारत का शासक कौन होगा ? क्या यह मुमकिन है
कि ऐसे हालात में दो राष्ट्रीयताएं – हिन्दू और मुस्लिम – एक ही तख़्त पर बैठें और
बराबर सत्ता संभालें ? यकीनन नहीं। ज़रूरी है कि वे एक दूसरे पर विजय प्राप्त करे
और उसे पछाड़ दे। उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, नामुमकिन और कल्पनातीत
होगा।
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कांग्रेस की मांग कि वाइसरॉय की समिति का एक अंश लोगों द्वारा चुना जाए, पर सर
सैय्यद ने विचार दियाः
मान लीजिए कि वाइसरॉय की समिति इस अनुसार बन गई। और उससे पहले, फर्ज
कीजिए, हमारे पास अमेरिका की तरह सार्वजनिक मताधिकार की व्यवस्था है और
सबके पास वोट हैं। और फर्ज कीजिए सभी मुस्लिम मतदाता मुस्लिम प्रत्याशी को वोट
देते हैं और हिन्दू मतदाता हिन्दूू प्रत्याशी को, और अब गिनती कीजिए कि मुस्लिम
प्रत्याशी के पास कितने वोट हैं और हिन्दू प्रत्याशी के पास कितने। निश्चित है कि हिन्दू
प्रत्याशी के पास चार गुना वोट होंगे, क्योंकि उनकी आबादी चार गुना अधिक है. . .
और फिर मुस्लिम कै से अपने हितों की रक्षा कर सकता है ?
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इसीलिए प्रतिस्पर्धा पर आधारित लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व या नियुक्तियाँ मुस्लिम अपकार
का कारण बनेंगी और उसमें हिन्दू भूमिका प्रबल होगी। सर सैय्यद का मानना था कि
समुदाय के हित के लिए अंग्रेजी राज बना रहे और उसे विरोध करने वाले हिन्दुओं की
बजाय राजनीतिक विरोध से दूर रहना चाहिए। आरंभिक वर्षों में कांग्रेस में मुस्लिम
प्रतिनिधित्व की भारी कमी थी, इस विषय पर यदा-कदा ही बात हुई है। 1885 से 1905 के
पहले इक्कीस वर्षों में से पहले पांच सत्रों में मुस्लिम प्रत्याशियों औसत हाजिरी 15 प्रतिशत
रही; जो बाद के पंद्रह सत्रों में गिरकर 5 प्रतिशत जा पहुँची थी।
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इलाहाबाद, लखनऊ,
मेरठ, लाहौर, मद्रास एवं अन्य स्थानों के मुस्लिमों ने कांग्रेस की आलोचना करते हुए
प्रस्ताव पारित किए थे। मोहम्मडन ऑब्जर्वर, विक्टोरिया पेपर, द मुस्लिम हेरल्ड, रफीक-ए-
हिन्द
एवं इम्पीरियल
पेपर जैसे समाचार पत्र एक सुर में कांग्रेस के खिलाफ थे, साथ ही,
उत्तरी भारत का सशक्त मुस्लिम मुखपत्र – अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गैजेट
भी।
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दोनों समुदायों
के बीच गोहत्या तथा मस्जिदों के सामने जुलूस के संगीत को लेकर दंगे भी भड़कते थे,
जिनका लाभ अंग्रेजों ने उठाया।
उदाहरण के तौर पर, पहले-पहल बंग भंग का विरोध करने वाले मुस्लिमों को लॉर्ड कर्ज़न
ने यह कह कर मनाया कि बंटवारा उनके हित में था। ढाका के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम
नेता, नवाब सलीमुल्ला अंग्रेजों की ओर हो गए। कई मुस्लिमों को पूर्वी बंगाल और असम
प्रांतों के गठन में अलीगढ़ अभियान का चरमबिन्दु नजर आया, यानी भारत में एक अलग
मुस्लिम इकाई का गठन। 30 दिसंबर 1906 को प्रतिष्ठित मुस्लिम लीडरों ने बंग भंग के
समर्थन मंें एक प्रस्ताव पारित किया और उसके खिलाफ चल रहे स्वदेशी अभियान की
भर्त्सना की।
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अंग्रेजों ने सरकारी सेवाओं में समुदाय को उचित अनुपात देने, उसके लिए सेवाओं में
दाखिले हेतु भर्ती परीक्षाओं का उन्मूलन, प्रत्येक उच्च न्यायालय एवं प्रमुख न्यायालय में
मुस्लिम जजों की नियुक्ति, विधान परिषदों के लिए मुस्लिम निर्वाचन काॅलेजों एवं नगर
निगम के लिए साम्प्रदायिक या अलग निर्वाचन क्षेत्रों के लिए प्रमुख मुस्लिम नेताओं को
याचिकाएं भेजने को प्रेरित किया। वाइसरॉय लॉर्ड मिंटो, कर्नल डनलप स्मिथ तथा मुस्लिम
नेताओं के बीच पत्राचार से यह साफ पता चलता है, जहाँ अन्य बातों के साथ, वाइसरॉय ने
समूची योजना बेहद ध्यान से बनाई थीः
परंतु इस मामले में मैं पर्दे के पीछे रहना चाहता हूँ और इसकी शुरुआत आपकी ओर से
आनी चाहिए। आप जानते हैं कि मैं मुसलमानों के कल्याण को लेकर कितना उत्सुक
हूं, अतः, पूरी तरह से मदद करना चाहूंगा। आपके लिए संबोधन मैं तैयार कर सकता
हूं। यदि इसे बंबई में बनाया जाएगा तो मैं उसे दोहरा सकता हूँ क्यांेकि याचिकाओं को
अच्छी भाषा में लिखना मुझे आता है। परंतु नवाब साहब याद रखिए, यदि कम समय में
कोई अच्छी और असरदार कार्रवाई करनी है, तो आपको जल्दी करनी होगी।
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‘व्यवस्थित’ दल ने अपना ज्ञापन लॉॅर्ड मिंटो को सौंपा जिसने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।
इंग्लैंड के भावी प्रधानमंत्री रैम्से मैक्डाॅनल्ड ने भी याद किया हैः ‘मुस्लिम नेता कु छ खास
आंग्ल-भारतीय नेताओं से प्रेरित थे और चूंकि इन नेताओं ने शिमला एवं लंदन में अपने
पक्ष के लिए जोर डाला था, और मुस्लिमों को विशेष सुविधाएं देकर हिन्दूू एवं मुस्लिम
समुदायों के बीच पहले से द्वेष के बीज बो दिए गए थे’।
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ब्रिटिश प्रेस ने भी इस मुद्दे को
उठाते हुए देश में सरोकारों के विभाजन पर जोर दिया और कहा कि मुस्लिम समुदाय
विशिष्टता के कारण अलग पहचान बनाने का हकदार है।
सरकार द्वारा पक्ष लिए जाने पर मुस्लिम नेतृत्व हर्षित था, और मुस्लिम नेताओं को
अपनी मांग रखने वाली एक राजनीतिक संस्था की जरूरत महसूस हुई जो कांग्रेस के
खिलाफ होती। मुस्लिमों की कोई अखिल भारतीय संस्था नहीं थी; उनके पास के वल
कमजोर सी स्थानीय इकाइयां एवं नवाबों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों के समूह थे। ढाका के
नवाब सलीमुल्ला ने कें द्रीय मुस्लिम समिति के गठन का प्रस्ताव रखा जिसके मुख्य लक्ष्य
अंग्रेज सरकार को सहयोग तथा मुस्लिमों के अधिकारों एवं हितों की देखरेख था। साथ ही
वह कांग्रेस से बचाव का भी कार्य करती। योजना स्वीकार हुई और 30 दिसंबर 1906 ऑल
इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना का संकल्प लिया गया। 29 दिसंबर 1907 को कराची में
एक बैठक में लीग के लक्ष्य निर्धारित किए गए – जिसमें ब्रिटिश सरकार का समर्थन और
उसके प्रति मुस्लिमों में वफादारी फै लाना, भारत के मुस्लिमों के अधिकार एवं हितों की रक्षा
तथा उपरोक्त उद्देश्यों के प्रति पूर्वग्रहों के बिना, अन्य समुदायों से विद्वेष फै लने से रोकना
था।
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चूंकि वह मुगल साम्राज्य के खिलाफ लड़े थे, इसलिए शिवाजी को हिन्दू नेता घोषित
करने वाले उत्सवों का विरोध किया जाता था, और उन्हें राष्ट्रीय नायक मानना असंभव था।

लीग के सचिव का बयान थाः
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हम हिन्दुओं और मुस्लिमों की सामाजिक एकता के विरोधी नहीं हैं. . . परंतु यह अन्य


किस्म की एकता (राजनीतिक) साझा राजनीतिक उद्देश्यों से साधी जाती है। कांग्रेस के
साथ हमारी इस तरह की एकता संभव नहीं क्योंकि हमारे और कांग्रेस वालों के साझा
राजनीतिक उद्देश्य नहीं हैं। वह सुनियोजित तौर पर ब्रिटिश सरकार को कमजोर बनाने
का कार्य कर रहे हैं। वह चुनी गई सरकार चाहते हैं, जिसका अर्थ है मुस्लिमों की मौत।
वह सरकारी सेवाओं के लिए प्रतियोेगी परीक्षाएं चाहते हैं जिसका मतलब है मुसलमानों
को सरकारी नौकरियों से दूर रखना। लिहाजा, हमें राजनीतिक एकता (हिन्दुओं के
साथ) के निकट जाने की जरूरत नहीं। लीग का लक्ष्य सरकार के सामने मुस्लिम मांगों
को आदरसूचक आवेदन में रखने का है। उन्हें कांग्रेसियों की तरह बहिष्कार का शोर,
भड़काऊ भाषण और समाचारपत्रों में गैरज़रूरी लेख लिखने की जरूरत नहीं और न
ही अपनी दयालु सरकार के प्रति जन भावनाओं और व्यवहार को भड़काने के लिए
मीटिंग करनी चाहिए।
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पहले हम गहरे अविश्वास और फू ट के इसी संदर्भ में ज़ियाउद्दीन अहमद का पत्र देख चुके
हैं, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कु लपति भी बने थे। वह पत्र उन्होंने लंदन
के इंडिया हाउस में अब्दुल्ला सोहरावर्दी को श्यामजी, विनायक एवं अन्य क्रांतिकारियों की
गतिविधियों से दूर रहने के लिए लिखा था। सर सैय्यद द्वारा उनके समुदाय को हिन्दुओं
और कांग्रेस से दूर रहने के लिए ब्रिटिश के प्रति निष्ठा घोषित करने की पहल, कु छेक को
छोड़ अधिकांश नेताओं में लंबे समय तक बनी रही। अधिकांशतः पूर्वी भारत में लोक सेवा
के लिए काम करने वाले, प्रतिष्ठित व्यापारी सर पर्सीवल जोसेफ ग्रिफिथ्स ने लिखा हैः
‘मुस्लिम लीग की स्थापना के अन्य जो भी असर रहे हों, उसने मुस्लिम सोच को रूप दिया
कि उसके हितों को हिन्दुओं के हितों से बिल्कु ल अलग मानना चाहिए और दोनों समुदायों
में कोई भी मेल संभव नहीं है।’
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दिसंबर 1908 में अमृतसर के सालाना सत्र में मुस्लिम लीग ने बंग भंग के निर्धारित मुद्दे
को अशांत करने के ‘दुष्ट प्रयासों’ का कड़ा विरोध किया।
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1910 की इम्पीरियल
काउंसिल में जब भूपेन्द्र नाथ बोस ने बंग भंग को उलटने का प्रस्ताव रखा तो बंगाल के
शम्स-उल-हुदा और बिहार के मज़हर-उल-हक़ ने विचार का सख्त विरोध किया था। उन्होंने
चेतावनी दी कि यदि सरकार इस कदम से छेड़छाड़ करती है ‘तो वह बहुत बड़ी गलती
करेगी तथा उससे वहाँ अशांति एवं असंतोष फै लेगा जहाँ अब तक शांति रही है।’
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1923
मेें कांग्रेस प्रमुख के तौर पर मोहम्मद अली के भाषण से साफ पता चलता है कि प्रमुख
मुस्लिम नेताओं के इस विषय पर विचार अपरिवर्तनीय रहे। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज
सरकार से मुस्लिमों के अलगाव का कारण बंग भंग को उलटने की सरकारी नीति थी।
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1907 और 1908 के दौरान वाइसरॉय लॉर्ड मिंटो की रजामंदी से मुस्लिम नुमाइंदों के
महत्व के आधार पर भिन्न निर्वाचन क्षेत्र संबंधित बहस जोरों पर थी। मुस्लिम नेतृत्व का मत
था कि दोनों समुदायों के बीच वृहत सामाजिक, सांस्कृ तिक एवं धार्मिक अंतर के कारण
हिन्दू बहुसंख्यक समुदाय उनके साथ उपयुक्त तरीके से बर्ताव या निष्पक्ष नुमाइंदगी नहीं
कर पाएगा। यह भी कहा गया कि विभिन्न परिषदों में मुस्लिमों को बेहतर नुमाइंदगी मिले
जो देश में उनकी आबादी के अनुसार हो। इस संबंध में प्रेषित तर्क कु छ विकृ त था।
नुमाइंदों का तर्क था कि अंग्रेजों के आने से पहले 700 वर्षों तक मुसलमानों ने भारत पर
राज किया था, इसलिए बेहतर ‘राजनीतिक महत्व’ उनका नैसर्गिक हक है, जो परिषदों में
दिखना चाहिए। यह भी दावा किया गया कि समुदाय ने देश की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई हैं, इसलिए उसका महत्व और बढ़ जाता है।
1909 के मार्ले-मिंटो सुधारों ने ना के वल अलग मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र उपलब्ध कराए,
बल्कि समितियों में उनकी संख्या आबादी के हिसाब से कहीं अधिक थी। अतः, स्वतंत्रता
संघर्ष के आरंभ से पहले ही फू ट के बीज और दो अलग राष्ट्रों के विचार की नींव पड़ चुकी
थी। गोपालकृ ष्ण गोखले ने खेद व्यक्त करते हुए लिखा हैः
भारतीय राजनीति की आम बात है कि जब तक दोनों समुदायों के बीच सहयोग की
जिम्मेदार भावना प्रबल नहीं होती, भारत का कोई भविष्य नहीं हो सकता. . . कहना न
होगा कि सभी समुदायों की एकता ही हमारा मकसद है, परंतु इससे इनकार नहीं किया
जा सकता कि देश में आज यह नहीं दिख रहा है और जब यह न हो, आगे बढ़ने का
कोई अर्थ नहीं. . .
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भारत के वृहत क्षेत्र में दोनों समुदायों को विद्वेष विरासत में मिला
है, जो यूं तो निष्क्रिय पड़ा रहता है, परंतु जरा से उकसाने पर सक्रिय हो उठता है। यही
वह परंपरा है जिस पर काबू पाना ज़रूरी है।
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मतभेद को भुलाकर और उसके अस्तित्व की ओर से आँखेें मूंदकर, मुस्लिम सहयोग से
एक संयुक्त मोर्चा बनाने की हिन्दू नेताओं की उकताहट को मुस्लिम नेतृत्व ने अपने फायदे
के लिए इस्तेमाल किया। 1908 के वार्षिक सत्र में मुस्लिम लीग ने स्थानीय इकाइयों में
सामुदायिक शिरकत के सिद्धांत में विस्तार पर जोर दिया, साथ ही, प्रिवी काउंसिल में एक
हिन्दू और एक मुस्लिम की नियुक्ति तथा सभी राज्य सेवाओं में मुस्लिमों को वाजिब
अधिकार दिए जाने पर जोर दिया।
दिसंबर 1916 में लखनऊ में आयोजित कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संयुक्त सत्र में, दोनों
दल परिषदों एवं समितियों में मुसलमानों के अधिक प्रतिनिधित्व पर राजी हुए थे। जिसके
बदले में, मुस्लिम लीडर भारतीय स्वायत्त्ता के कांग्रेस अभियान से जुड़ने को एकमत हुए।
‘लखनऊ पैक्ट’ नाम से प्रसिद्ध इस समझौते में कांग्रेस की ओर से तिलक और मुस्लिम
लीग से मोहम्मद अली जिन्ना प्रमुख थे। इसमें मांग थी कि प्रांतीय एवं कें द्रीय परिषदों का
4/5वां हिस्सा व्यापक मताधिकार से चुना जाएगा और कार्यकारी परिषदों के आधे सदस्य
भारतीय होंगे जो खुद परिषदों द्वारा ही चुने जाएंगे। इनमें से अधिकांश प्रस्ताव भारत
सरकार अधिनियम, 1919 में समाहित किए गए। आरंभिक विरोध के बाद, कांग्रेस प्रांतीय
परिषद चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों पर राजी हो गई और हिन्दू तथा
सिख अल्पसंख्यकों को संज्ञान में लेकर, पंजाब तथा बंगाल के अलावा सभी प्रांतों में
उनकी जनसंख्या से अधिक की नुमाइंदगी पर भी राजी हुई। इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के
ज्योतिपुंज की तरह घोषित किया गया। इस पहल से खिलाफत अभियान का रास्ता
नैसर्गिक तौर पर साफ हुआ, जिसमें कु छ देर को दोनों समुदाय साथ आए थे।
मालाबार के मोपलों द्वारा खूनी अत्याचार खिलाफत अभियान की सबसे बड़ी त्रासदी के
रूप में 1921 में सामने आया था। कट्टर मुसलमानों का एक समूह जो अक्सर आर्थिक या
धार्मिक कारणों से हिंसक हो उठता था, हिन्दू ज़मींदारों या जेनमी के यहाँ उनकी मर्जी
अनुसार कार्य करता था और जोती गई जमीनों पर अधिक कर लिए जाने पर उनसे गहरी
नफरत से भरा रहता था। खिलाफत अभियान की धार्मिक पुकार और अली बंधुओं के
भाषण सुनकर, मोपलों ने फै सलाकु न हड़ताल करने का निर्णय लिया। दरअसल, मोपलों
की कृ षि शिकायतें इस तबाही का पूरा सच बयान नहीं करती; हिंसा को धार्मिक मंजूरी
मिली थी। कृ षि शिकायतों के बावजूद मैनचेस्टर गार्डियन
ने सत्य उद्घाटित कियाः
...एक सुनिश्चित पक्ष उग्र धार्मिक कट्टरवाद का है. . . भारत मोपला वर्ग द्वारा रक्तिम
संहार को देखकर सहमा उठा है, जिससे पता चलता है कि मुस्लिम कट्टरवादियों के
हाथों हिन्दू किस तरह पिसते हैं। आमजन अप्रत्यक्ष रूप से परंतु सही तौर पर, हिन्दू
दू तु दू
जिंदगियों और संपत्ति की आहुतियों को खिलाफत के नारेबाजों से जोड़कर देखते हैं
और सोचते हैं कि घमंडी अंग्रेज का शासन किसी भी शासन के न होने से बेहतर है।
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हालाँकि, खिलाफत आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध था, परंतु पुरानी कितनी ही शिकायतें
विस्फोटक परिस्थितियों में आ मिली थीं। जल्दी ही आकार लेने वाले इस्लामिक राज्य की
घोषणा के लिए हथियार जुटाना और अन्य तैयारियां की गई। एक मुस्लिम नेता, अली
मुस्लियार को राजा घोषित किया गया, खिलाफत के झंडे लहराये गए और एर्नाड एवं
वल्लूवनाड को खिलाफत राज्य घोषित कर दिया गया। दुर्भाग्यवश, वहाँ सरकार की
बजाय, वो मालाबार का हिन्दू समुदाय था जिसे यह कोप झेलना पड़ा। अंग्रेजी फौज द्वारा
काबू पाए जाने तक हिन्दू परिवारों की सामूहिक हत्याएं, परिवारजनों के सामने महिलाओं
से दुष्कर्म, गर्भवती महिलाओं की हत्या, मंदिरों का विध्वंस, गोहत्या, जबरन धर्म परिवर्तन,
डकै ती, आगज़नी और लूटपाट चलती रही। मालाबार की महिलाओं ने लेडी रीडिंग को भेजे
एक शोकपूर्ण स्मारक में लिखा हैः
यह संभव है कि आपको दुष्ट विद्रोहियों द्वारा किए गए अत्याचारों एवं भयावहता से
अवगत न कराया गया हो; क्योंकि अनेक कु एं और पोखरें विकृ त, परंतु अक्सर अधमरी
लाशों से अटी पड़ी थीं, हमारे निकटवर्तियों और प्रियजनों के शव जिन्होंने हमारे पुरखों
के धर्म को छोड़ने से इनकार किया; गर्भवती महिलाओं के शव जो टुकड़ों में काट दी
गई और सड़क किनारे फें क दी गई थीं और जंगलों में, जिनकी क्षत-विक्षत लाशों में
अजन्मे बच्चे उभरे दिख रहे थे; हमारे मासूम और असहाय बच्चे जिन्हें हमारी बाहों से
छीना गया और हमारी आँखों के सामने मौत के हवाले कर दिया गया और हमारे पति
और पिताओं को दी गई प्रताड़ना, कोड़े मारना और जिंदा जलाना; हमारी बदनसीब
बहनें जिन्हें उनके नातेदारों के बीच से उठाकर ले जाया गया और हर तरह का अपमान
और अत्याचार उन्होंने बर्दाश्त किया जिस पर यह अमानवीय नारकीय पिशाच सोच भी
नहीं सकते; हमारे हजारों घर जिन्हें पूर्ण वहशीपन और बर्बादी की अनियंत्रित भावना
के साथ भस्म स्तूपों में बदल दिया गया; हमारे उपासना गृह जिन्हें उजाड़ा और नष्ट
किया गया और हमारे इष्ट देवों की मूर्तियाँ का अपमान किया गया, जहाँ उनके सामने
फू ल मालाएं होती हैं, वहाँ गायों की आंतें फें की गई, अन्यथा उन्हें तोड़ दिया गया. . .हमें
याद है कै से हम अपने पुश्तैनी गाँवों से खदेड़े गए थे, भटकते हुए, भूखे और प्यासे,
जंगलों और वनों में।
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जीवित हिन्दुओं की चमड़ी उतारने और उनकी हत्या से पहले उनसे कब्रें खुदवाने जैसे
अनेक अत्याचारों को शंकरन नायर ने दर्ज किया है।
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आरंभ में कांग्रेसी नेताओं ने मालाबार की घटनाओं पर विश्वास करने से इनकार कर दिया
था और गांधी जी ने भी ‘बहादुर खुदा से डरने वाले मोपला’ की बात की और उन्हें देशभक्त
घोषित किया जो ‘जिसे धर्म मानते हैं उसके लिए लड़ रहे हैं, और उस तरह जिसे वह
धार्मिक मानते हैं’।
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उन्होंने आगे कहाः ‘हिन्दुओं को मोपला कट्टरवाद का कारण खोजना
चाहिए। उन्हें पता चलेगा कि दोष उनका भी है। उन्होंने अब तक मोपलों की कदर नहीं
की। अब मोपला वर्ग या आम मुसलमानों से नाराज होने से कु छ नहीं होगा।’
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विडंबना है
कि उनके साथी खिलाफतवादियों ने मोपला वर्ग को उनके नायकत्व पर बधाई देते हुए
प्रस्ताव पारित किए। गांधी जी के अजीबोगरीब कदम पर शंकरन नायर ने लिखा हैः
इसके दो संभावित उत्तर हो सकते हैं। पहला और सर्वाधिक संभव, कि उनके अंदर के
राजनीतिज्ञ ने कु छ देर के लिए उनके संत को सम्मोहित कर दिया था – उनका लक्ष्य
हिन्दू-मुस्लिम संधि को जिंदा रखने का था; दूसरा, संत ने आम पुरुष पर काबू कर लिया
था: शैतानी अंग्रेजी राज के अंतर्गत कानून और व्यवस्था की बजाय भयावह धार्मिक
अराजकता को अधिक वरीयता दी जाती।
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आम्बेडकर ने गांधी जी के निर्णय की आलोचना में लिखा हैः
कोई भी व्यक्ति कह सकता था कि यह हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए चुकाई गई बड़ी
कीमत थी। परंतु श्री गांधी हिन्दू-मुस्लिम एकता की स्थापना को लेकर इतने आसक्त थे
कि वह उन्हें बधाई दे रहे मोपलों और खिलाफतवादियों के किए को हल्के में लेने को
तैयार थे. . . मोपला अत्याचारों पर मुस्लिम चुप्पी पर श्री गांधी ने हिन्दुओं से कहाः
हिन्दुओं के पास हिम्मत होनी चाहिए कि वह ऐसे कट्टरवादी विस्फोटों के खिलाफ
अपने धर्म की रक्षा कर सकें गे। मोपला पागलपन पर मुसलमानों का मौखिक
अस्वीकार्य मुसलमानों की दोस्ती का इम्तिहान नहीं है। जाहिर है, मुसलमानों को
जबरन धर्मांतरण और लूटखसोट से जुड़े मोपला व्यवहार पर सोचना होगा, और उन्हें
इस तरह शांत भाव से काम करना चाहिए जिससे ऐसा व्यवहार उनके बीच सबसे
कट्टरवादियों के लिए भी करना असंभव हो जाए।
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धीरे-धीरे जब राष्ट्रीय फलक पर मोपला त्रासदी की छवि अधिक साफ हुई, और गांधी जी
द्वारा प्रस्तावित एकता का ताना-बाना तार-तार हो गया, कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने
मोपला वर्ग की हल्की आलोचना करते हुए एक कमजोर प्रस्ताव पारित कियाः
यद्यपि मोपला वर्ग द्वारा हिंसा की आलोचना की जाती है, कार्यकारी समिति चाहती है
कि उसके पास जो साक्ष्य उपस्थित हैं उनमें दिखता है कि मोपला वर्ग को उकसाया
गया था. . . कार्यकारी समिति को यह जानकार अफसोस हुआ है कि मोपला वर्ग में
कु छ कट्टरवादियों द्वारा कथित जबरन धर्मांतरण के मामले आए, परंतु जनता को वह
इसे मानने से चेताती है, जो सरकारी एवं उत्प्रेरित रूपांतरणों में दिख रहे हैं।
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राष्ट्रीय तौर पर हास्यास्पद एकता को बनाए रखने दिखावे के लिए, त्रासदी की व्यापकता
एवं असर को कम कर दिखाना बेहद शर्मनाक प्रयास था। जहाँ चौरीचौरा के एक छोटे से
हादसे ने गांधी जी को तेजी से चल रहे अभियान को रोकने को प्रेरित किया, तो सोचकर
हैरानी होती है कि उससे कहीं अधिक घृणित घटना कोई असर क्यों नहीं छोड़ सकी।
मुस्लिम लीग ने भी मोपला अत्याचार को अंग्रेजों के खिलाफ धर्मयुद्ध की संज्ञा दी, जिसमें,
औपनिवेशिक आकाओं की मदद करते दिख रहे हिन्दू दोनों वर्गों के बीच फं स गए थे।
1923 में कोकानाडा में आयोजित खिलाफत सत्र में मोपला ‘शहीदों’ के साथ समन्वय
दिखाया गया। शौकत अली ने प्रत्येक मुसलमान से एक मोपला अनाथ बच्चे के रखरखाव
वाला प्रस्ताव पारित किया और कहा कि वह और उनके भाई इसमें पहल करेंगे। यह प्रयास
सरकार द्वारा पूरी शक्ति से मोपला विद्रोह को कु चलने के बाद सामने आया था।
मोपला वर्ग की बर्बरता और इस संबंध में कांग्रेस को उसके अभियान के बचाव के लिए
भीरुता दिखाने की विनायक ने कड़ी आलोचना की। उन्होंने खिलाफत और वैश्विक मुस्लिम
अभियान के खतरे और सच्चाई दिखाते हुए अनेक निबंध और लेख लिखे, जिनमें
अधिकांश उनकी रिहाई के बाद प्रकाशित हुए थे। उन्होंने प्रश्न किया कि इस अभियान से
जुड़ने या ना जुड़नेे केे लिए देश के हिन्दू समुदाय से क्यों नहीं पूछा गया, और सबसे ज़रूरी,
क्या उन्हें इसके फायदे-नुकसान का पता है।
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उन्होंने खेद जताया कि अधिकांश हिन्दू
राजनीतिक इस्लाम या उसके धर्मशास्त्र से परिचित नहीं हैं। हैरानी नहीं कि उनमें से कई
लोगों ने खलीफा को भारत आने का निमंत्रण भेज दिया था, जहाँ उन्हें भारतीय मुस्लिमों
का अनौपचारिक धार्मिक-राजनीतिक नेता मान लिया जाएगा। विनायक ने सवाल किया
कि यह कै सा आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण कदम है ?
उन्होंने शिया और सुन्नी मुस्लिमों के बीच खिलाफत का अंतर भी भारतीयों को समझाया।
शिया पवित्र पैगम्बर के परिवार से आने वाले व्यक्ति को खलीफा मानते हैं। परंतु सुन्नियों
को ऐसा कोई मलाल नहीं; खलीफा का कु रेश समुदाय से होना भर उनके लिए काफी है,
जिस समुदाय से खुद पैगम्बर साहब थे। शिया वर्ग के अनुसार उपाधि पाने वाला व्यक्ति
बेहद पवित्र और आध्यात्मिक शक्तियों से परिपूर्ण होता है, जबकि सुन्नी समुदाय की राय में
खलीफा कितना भी नाकारा या भ्रष्ट क्यों ना हो, उसे हटाना असंभव है। दोनों संप्रदायों के
बीच धार्मिक परिवर्तन को देखते हुए, दोनों का एक ही खलीफा को मानना या एक मस्जिद
में इबादत करना असंभव था। विनायक ने तर्क दिया, भारत के मुस्लिम धर्मशास्त्री और
लीडर जानते हैं कि धार्मिक अनुमति के आधार पर पूरी दुनिया के मुसलमानों का एक
होकर खलीफा नियुक्त करना कोई विकल्प नहीं है। इसके बावजूद, उनमें एकता और
प्रभुत्व का दावा कर, उन्होंने इसे संभव कहकर विचार के चारों ओर घूूमते हुए हिन्दुओं को
ठगा है। विनायक ने हैरानी जताई कि भारतीय मुसलमान, जो अपने ही देश में आज़ाद
नहीं, और जिसकी आवाज या इच्छा अंग्रेज ही नहीं सुनते, वृहत मुस्लिम जगत कै से
सुनेगा। मोहम्मद अली द्वारा डंके की चोट पर कहने के बावजूद कि वह पहले मुस्लिम और
बाद में भारतीय हैं, उपरोक्त सच कायम था।
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विनायक ने अपने साथियों को भारत पर संभावित विदेशी हमले के संबंध में चेताया या
उनके अनुसार भारत में सत्ता के आवंटन उपरांत छोटे तथा स्वायत्त मुस्लिम कें द्रों का
निर्माण हो जाएगा। उन्होंने संभावना जताई कि अफगानिस्तान का अमीर, जो खुद अपने
पूर्ववर्ती का कत्ल करके तख्तनशीं हुआ था, लंबे समय से भारत पर हमले की योजना बना
रहा है। उनके अनुसार, दुर्भाग्यवश, कांग्रेस और हिन्दू इन साजिशों का खिलौना बन रहे थे,
जबकि साइबेरिया में इस्लामी धार्मिक लड़ाकों के प्रशिक्षण प्राप्त करने की खबरें आ रही
थीं। उन्होंने चेतावनी दी कि भारत पर आने वाली मुसीबत के सामने मोपला दंगे एक
झलकी भर थे।
रत्नागिरी जेल में, बिगड़ते स्वास्थ्य और बंदीगृह की कठिनाइयों के बावजूद, विनायक ने
उस समय के सामाजिक-राजनीतिक हालात, हिन्दू पहचान और एकता से जुड़े चिंतनीय
सवालों पर बौद्धिक विमर्श तैयार किया था। मराठी की उनकी पिछली पुस्तकों की बजाय
यह पुस्तक अंग्रेजी में थी। प्रत्यक्षतः, उनके दिमाग में पुस्तक का पाठक मराठीभाषी समाज
से आगे जाकर पूरे देश में फै ला था। जिस तरह की बंदिशें वह झेल रहे थे, विनायक ने
पुस्तक ‘एक मराठा’ उपनाम से लिखी। इसे चोरी-छु पे कारागार से निकाला गया और
नारायणराव ने प्रकाशित कराया।
बचपन से ही विनायक को बेहिसाब जातियों एवं अन्य पेचीदगियों में फं से हुए हिन्दू
समाज के बारे में एकता और सांगठनिक क्षमता की कमी का अफसोस रहा था। और ऐसे
वक्त, ‘हिन्दू कौन है ?’ प्रश्न का उत्तर खोजना उन्हें उपयुक्त लगा। जेल की चारदीवारी के
बीच से वह गांधी जी द्वारा खिलाफत आंदोलन में हिन्दू समाज को बहकाया जाना देख रहे
थे। जनसंख्या गणना के अनुसार मुस्लिम आबादी में अपेक्षाकृ त वृद्धि और बतौर हिन्दू
गणना हेतु अस्पृष्य जातियों एवं जनजातियों की अनिश्चित स्थिति के कारण भी हिन्दू होने
की परिभाषा को सामने लाना आवश्यक था।
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एक बार फिर, अपने अस्तित्व, गर्व और संबद्धता को पुख्ता करने के लिए विनायक ने,
अपनी 1857 स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक की तरह इतिहास माध्यम का सहारा लिया। परंतु
पुस्तक को विशेषकर मुस्लिमों के बारे में लगातार विद्वेष रूपी कसीदा कहे जाने पर
इतिहासकार जानकी बाखले का कहना हैः
सावरकर को भारतीय इतिहास में वृहत तौर पर नफरत का प्रचारक कह कर बुरा-भला
कहा जाता है; हिन्दुत्व को पढ़ने के बाद मेरी राय में उन्हें ठुकराया हुआ प्रेमी कहना
ठीक रहेगा. . . हिन्दुत्व ने अपने समय में हिन्दू समुदाय को याद दिलाया था कि यदि
गांधी भी राजनीतिक परिवेश छोड़ जाते, तो भी चिंता की बात नहीं थी। एक
राजनीतिक हिन्दू और सच्चा राष्ट्रभक्त भारत की कमान संभालने को तैयार था, बेशक
जेल की चारदीवारी के भीतर से ही। हिन्दुत्व गांधी के विरुद्ध राजनीति के अखाड़े में
राष्ट्रीय नेतृत्व के संबंध में आजमाया गया बल था।
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राष्ट्रीयतावादी परियोजना में हिन्दू पहचान की अवधारणा का लंबे समय से प्रयास चल रहा
था। अक्सर हमलों, प्रवास या औपनिवेशिक कब्जे के दौरान इसे राजनीतिक मंच पर
प्रमुखता से उठाया गया। दुनिया के अनेक गुटों की तरह, भारतीय इतिहास में भी अनेक
समूहों ने, प्रयोजनवाद की दृष्टि से अपने अतीत और धर्म ग्रंथों में झांका है। बाहरी दबावों
के दौरान यह प्रयास अपने अस्तित्व के प्रति विश्वास पैदा करता है जिसे अक्सर अपनाया
और तर्क संगत ठहराया गया। आदि शंकराचार्य, रामानुज, माधवाचार्य जैसे प्राचीन संतों से
लेकर, मध्ययुगीन भक्ति एवं सूफी कवियों से होते हुए आधुनिक समाज सुधारक जैसे
दयानन्द सरस्वती, रामकृ ष्ण परमहंस, विवेकानंद, तिलक, अरबिंद घोष और महात्मा गांधी
तक, भारतीय मूल्यों और सांस्कृ तिक पहचान के पुनरुत्थान की पुकार सदा लगाई जाती
रही है।
हालाँकि, यह विनायक थे जिन्होंने ‘हिन्दुत्व’ शब्द को राजनीतिक अवलंबन से आगे
बढ़ाकर सजातीय राष्ट्रवाद से जोड़ा। उनके द्वारा लिखी गई छोटी पुस्तक, ना के वल खुद
उनके समय में कारगर साबित हुई, बल्कि मौजूदा राजनीतिक विमर्श में भी वैसी ही
पहचान रखती है। कु छ लोग इसे भारतीय आदर्शों और पहचान की गहरी जरूरत को
पुनःसशक्त करने का जरिया माना और मानते हैं, वहीं दूसरी ओर कई लोग इसे राजनीतिक
अलगाववाद को हवा देने का कारण मानते थे और हैं। फिर भी, यह भारतीय सांस्कृ तिक
और राजनीतिक संस्था के तौर पर भारतीय पहचान पर विमर्श करने वाला महत्वपूर्ण
दस्तावेज साबित हुई। पुस्तक के महत्व पर जानकी बाखले विवरण में कहती हैंः
हिन्दुत्व किसी भी भारतीय राष्ट्रवादी द्वारा लिखे गए कु छेक प्रबंधों में सेे है जो भारतीय
इतिहास के मौजूदा हिन्दू समय और स्वतंत्रता पूर्व औपनिवेशिक समय को जोड़ता है।
गांधी द्वारा 1920 के दशक में लिखे हुए प्रबंध भी, जिन्हें अकादमिक पढ़ते हैं,
समयांतराल को पाटने का दावा कर सकते हैं। तथापि, हिन्दू का असर बिना विवाद के
नहीं रहा। रचना के पांच दशकों के बाद, यह उग्र और अलगाववादी हिन्दू राष्ट्रवाद की
बाइबल सरीखा हो गया है जो अपने प्रमुख शत्रु के तौर पर भारत के मुस्लिम समुदाय
को मानता है। पुस्तक ने सावरकर की समूची लेखकीय कृ ति को संक्षिप्त और दृष्टांत
रूप में इस्तेमाल किया है और आधुनिक भारतीय इतिहास की धारा पर नाटकीय रूप
से असर डाला है।
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पुस्तक, काव्यमय, कु शलता से तैयार और रूमानी साहित्यिक अलंकरणों से सजी है। परंतु
इसके मार्फ त, विनायक शब्द ‘हिन्दू’ को तार्किक स्थापना देने में सफल हुए हैं। वह कहां से
आया ? उसका अर्थ क्या है ? किसके लिए ? और कब से ?
अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों की रुचि जगाने के लिए वह पुस्तक का आरंभ सेक्सपियर के
नाटक रोमियो एंड जूलियट
की प्रसिद्ध उक्ति ‘वाॅट्स इन ए नेम ?’ (नाम में क्या रखा है ?)
से करते हैं। यहाँ नाम का संदर्भ (मौजूदा संदर्भ में ‘हिन्दू’) बहुत मायने रखता है जिसको
उन्होंने सेक्सपियर तर्क से इतर, भारतीय पहचान की पहली परत के तौर पर स्थान
दिलाया। बेशक, भिन्न लोगों के लिए इनके भिन्न अर्थ हैं, परंतु पुस्तक में उन्होंने परिणाम
निकाला कि इतिहास में इस नाम की पुनरोक्ति से ही भारतीय लोगों को उनकी पहचान
स्पष्ट हुई है। इसी आधार पर उन्हें हिन्दू को देश के नाम हिन्दुस्तान से जोड़ने के पहले
युक्तिवाक्य की सुविधा मिली थी।
पुस्तक लिखने के लिए विनायक द्वारा अपनाई गई नीति पर जानकी बाखले ने लिखा हैः
...सावरकर द्वारा अपनाई गई चार आलंकारिक नीतियाँ रहींः राजनीतिक नामोल्लेख,
सूचीबद्ध काव्यमयता, क्षेत्रीयता का मोह, और प्रभाव का प्रबंधन एवं पुकार। उक्त
नीतियों से उन्होंने मिथकीय हिन्दू समुदाय के अस्तित्व, उसके द्वारा निवास हेतु प्रयुक्त
विलक्षण भूमि, और इस भूमि के प्रति आकर्षण से उपजे उग्र प्रेम का आह्वान किया।
हिन्दुत्व में सावरकर ने अनेक दस्तावेजों का प्रयोग किया है जो सैद्धान्तिक तथा
आलंकारिक से लेकर विवादात्मक तक है, परंतु अक्सर वह काव्यात्मक संदर्भों का
इस्तेमाल करते हैं।
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सर्वप्रथम, विनायक के अनुसार ‘हिन्दुत्व’ के रूप में व्याख्यायित ‘हिन्दू’ होने का मूलतत्व,
हिन्दू धर्म से संबद्ध धार्मिक निहितार्थों से सर्वथा भिन्न है। प्रसंगवश, माना जाता है कि
‘हिन्दुत्व’ शब्द का पहला प्रयोग चंद्रनाथ बसु ने अपनी 1892 की बांग्ला पुस्तक हिन्दुत्व –
हिन्दूर प्राकृ त इतिहास (हिन्दुत्व – एक प्रामाणिक इतिहास)
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में किया था – इसकी
व्युत्पत्ति संस्कृ त के नवनिर्मित शब्द रूप में थी। परंतु यह सावरकर थे जिन्होंने कु छ ही
समय में इसे लोकप्रियता दिलाई।
उनका मानना है ‘नाम (हिन्दुत्व) के चारों ओर घूमते विचार और आदर्श, व्यवस्थाएं एवं
समाज, विचार एवं संवेदनाएं कु छ इतनी विविध एवं समृद्ध, इतनी सशक्त एवं सूक्ष्म हैं,
इतनी मायावी परंतु फिर भी इतनी वृहत हैं’ कि उनके रूपांतरण में सदियां लगीं। विनायक
का हिन्दुत्व, शब्द मात्र ना होकर इस जमीन और उसके लोगों का इतिहास था। संबंधित
शब्द ‘हिन्दूधर्म’ के वल ‘हिन्दुत्व का यौगिक, एक भाग तथा अंशमात्र है’। उन्होंने तर्क दिया
कि इस अंतर को समझने की अयोग्यता के कारण ‘हमारी हिन्दू सभ्यता के अपार और
साझा कोश की विरासत प्राप्त करने वाले समुदायों के साथ गलतफहमी और आपसी शंका
में बेहद वृद्धि हुई है’। हिन्दुत्व एक सर्व-समावेशी दर्शन था, जिसे समझने के लिए वह
‘शब्द’ हिन्दू और मानव इतिहास में सबसे लंबे समय तक अनेक योद्धाओं पर पकड़ बनाने
वाले इसके आकर्षण में गहरे तक उतरे। उनके शब्दों मेंः
नाम में क्या रखा है ? आह! अयोध्या को होनोलूलु , या उसके अमर राजकु मार पूह बाह
का नाम बदलिए, अमरीकियों को कहिए कि वाशिंगटन को चंगेज खान पुकारें या किसी
मुस्लिम को खुद को यहूदी बुलाने पर राज़ी करिए, और जल्दी ही आप पाएंगे कि ‘खुल
जा सिमसिम’ अपनी तरह का इकलौता शब्द नहीं है। इस श्रेणी की संज्ञाएं जो
मानवीयता के लिए जीवन और प्रेरणा का सूक्ष्म स्रोत रही हैं, में ‘हिन्दुत्व’ आता है,
जिसके महत्व की तात्विक प्रकृ ति की जांच हमें करनी है. . . हिन्दू धर्म के वल हिन्दुत्व
का यौगिक, एक भाग तथा अंशमात्र है। जब तक यह न स्पष्ट हो कि हिन्दुत्व का क्या
अर्थ है, पूर्ववर्ती शब्द अस्पष्ट और धुंधला ही रहेगा। इस अंतर को समझने की
अयोग्यता के कारण हमारी हिन्दू सभ्यता के अपार और साझा कोश की विरासत प्राप्त
करने वाले समुदायों के साथ गलतफहमी और आपसी शंका में बेतहाशा वृद्धि हुई है. . .
जिसे आमतौर पर हिन्दू धर्म कहा जाता, हिन्दुत्व उसके समरूप नहीं है। आमतौर पर
किसी भी ‘वाद’ से आध्यात्मिक या धार्मिक जड़ता अथवा व्यवस्था से जुड़ेे किसी
सिद्धांत या संके त को समझा जाता है। परंतु जब हम हिन्दुत्व के मूल अभिप्राय को
समझने का प्रयास करते हैं तो हम प्रमुखतः बिल्कु ल भी किसी विशिष्ट धर्मशास्त्रीय या
धार्मिक रूढ़ि अथवा मत की बात नहीं करते. . .हिन्दुत्व हमारी हिन्दू जाति की सोच
और गतिविधियों से जुड़े सम्पूर्ण अस्तित्व को समाहित करता है।
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उनकी पुस्तक में आर्य आक्रमण सिद्धांत, नस्लीय रक्तसंबंध और विदेशी शासन जैसे
समकालीन संवादों को भी स्थान मिला है। उन्होंने हिन्दू अस्तित्व में अंशदान देने वाले
वैचारिक आभासों की जांच की, इतिहास से उन दृढ़ कथनों का तार्किक परिणाम (कभी-
कभार अतिशियोक्तिपूर्ण) निकालकर, एक साझा सम्मिलन स्थल स्थापित करने का प्रयास
किया।
विनायक ने प्राचीन हिन्दू अतीत को पुकार लगाई, जिसे अखंड हिन्दू पहचान के तौर पर
सोचा और व्याख्यायित किया गया था, जो हमारे पौराणिक एवं समयातीत हिन्दू राष्ट्र के
साथ भू-सांस्कृ तिक तौर पर जुड़ा था। यह राष्ट्र ऐतिहासिक और राजनीतिक परिवर्तनों को
लांघकर भी अस्तित्व में रहा। उन्होंने अपना ऐतिहासिक कथ्य बिल्कु ल ‘आरंभ’ से शुरू
किया जो उनके अनुसार सिंधु नदी के किनारे विभिन्न स्थानों पर पहले आर्यों के ‘आ बसने’
से शुरू होता है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि आर्य आक्रमण सिद्धांत (एआईटी) पर विवादपूर्ण बहसें
आज भी जारी हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, करीब 1500 ईसा पूर्व घुमंतू मध्य एशियाई
जातियाँ उपमहाद्वीप पहुँची और उन्होंने यहाँ के विकसित, श्यामवर्णी द्रविड़ बाशिंदों को
हराया तथा सिंधु घाटी संस्कृ ति को जन्म दिया। अनेक विद्वानों ने इस सिद्धांत को गलत
बताया है, जिसका आधार वैज्ञानिक एवं जेनेटिक अध्ययन और मानव-जाति के सबसे
पुरातन ग्रंथ, ऋग्वेद का अध्ययन रहा है जिसकी रचना उसी समय हुई थी।
तथापि, विनायक कु छ हद तक आर्य आक्रमण सिद्धांत के पक्ष में रहते हैं और मानते हैं
कि आर्य फारस या उसके आसपास से आए थे। उन्होंने अनुमान निकाला कि यहाँ की
जमीन पर पहुँचने पर उन्हें नदी के साथ अपनेपन और संबद्धता का अहसास हुआ। उन्होंने
इस नदी को सप्त सिंधु या सात नदियों वाली भूमि कहा जिसकी प्रमुख नदी सिंधु थी। भूमि
पर रहने वाले लोगों को सिंधु पुकारा गया जो संस्कृ त के शब्दों के अशुद्ध उच्चारण के
कारण धीरे-धीरे ‘हिन्दू’ में बदल गया। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने ज़ेंद अवेस्ता
का हवाला
दिया, जहाँ लोगों को हप्त हिन्दू कहा गया है – यहाँ भी अक्षर ‘स’ का उच्चारण ‘ह’
दिखता है। इस हिस्से में रहने वाले लोगों को वहाँ के समकालीन प्राचीन पारसी इसी तरह
पुकारते थे।
उस बहादुर जाति ने जल्दी ही अपने क्षेत्र का विस्तार किया – वन गिराए गए, कृ षि फै ली,
नगर उठे , राज्यों ने उन्नति की। समय के साथ-साथ, भूमि के लिए भारत, भारतवर्ष,
भारतखंड, आर्यावर्त, ब्रह्मवर्त, दक्षिणपथ एवं अन्य नाम भी प्रचलित हुए। बाद में बेशक,
सिंधु के साथ जुड़ी नाभि रज्जु भुला दी गई, परंतु वह जुड़ी रही। आगंतुक विदेशी, चाहे
अवेस्ताई फारसी हों, यहूदी हों या यूनानी, इस भूमि के लोगों को हिन्दू कहते रहे। यहाँ तक
कि, सातवीं सदी में विशाल भारत भूभाग में घूमने वाला चीनी बौद्ध संत ह्वेन-सांग भी यहाँ
के लोेगों को ‘शिंतु’ या ‘हिन्तू’ कहने पर दृढ़ रहा। अतः, विनायक के लिए नाम
‘हिन्दुस्तान’, हमारे वैदिक पूर्वजों की इच्छाओं की पूर्ति अनुरूप था जो उनकी पहली पसंद
था।
उन्होंने प्रचलित धारणा का विरोध किया कि उपमहाद्वीप आपस में लड़ने वाले अलग-
अलग राज्यों और राष्ट्रीयताओं की भूमि भर था और अंग्रेजों ने आकर इसे देश के तौर पर
एकजुट किया। हिन्दू धर्म के प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथ, अठारह पुराणों में से एक, विष्णु
पुराण
के संदर्भ से उन्होंने बतायाः ‘एकजुट जाति के तौर पर अपनी पहचान बताने का
प्रयास विष्णु पुराण
के इस छोटे से छंद से बेहतर नहीं हो सकता, ‘‘समुद्र से उत्तर की ओर
तथा हिमालय से दक्षिण की ओर भूमि का नाम ‘भारत’ है, जिस पर भारत के वंशज
निवास करते हैं।’’’
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रोचक तथ्य है कि वैचारिक विरोधी होने के बावजूद, गांधी जी और विनायक ने अंग्रेजों से
पूर्व एवं यहाँ तक कि इस्लाम आगमन से भी पहले, राष्ट्र राज्य की इकाई और उसके
अस्तित्व की संगठित प्रकृ ति को खोजने का प्रयास किया है। हिन्द स्वराज
में गांधी जी
1909 में भारत पर अपने विचारों का घोषणापत्र लिखा थाः
अंग्रेजों ने हमें सिखाया कि पहले कोई राष्ट्र नहीं था और एक राष्ट्र बनने के लिए हमें
सदियां लगेंगी। यह आधारहीन तर्क है। उनके भारत आने से पहले ही हम एक राष्ट्र थे।
एक ही विचार हमें प्रेरणा देता था। हमारी जीवनशैली एक थी। चूंकि हम एक राष्ट्र थे,
इसलिए वह अपना एक राज्य स्थापित कर सके । तत्पश्चात्, उन्होंने हमें बांट दिया. . . मैं
यह नहीं कहता कि एक राष्ट्र के तौर पर हमारे बीच अंतर नहीं थे, परंतु तर्क प्रस्तुत
किया जाता है कि हमारे नायक संपूर्ण भारत घूमे. . .उन्होंने एक दूसरे की भाषाएं
सीखीं. . .उन्होंने देखा कि भारत प्रकृ ति प्रदत्त अविभक्त भूमि है। अतः, उन्होंने निष्कर्ष
निकाला कि यह एक राष्ट्र होगा। यह विचारते हुए उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में
देवालय स्थापित किए, और लोगों के बीच राष्ट्रीयता की ऐसा विचार प्रज्वलित किया जो
दुनिया के अन्य हिस्सों में सुना भी न गया था। कोई भी दो भारतीय किन्हीं दो अंग्रेजों
की बजाय कहीं ज़्यादा समान हैं।
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प्रत्यक्षतः, गांधी जी के अहिंसा दर्शन का खंडन करते हुए विनायक ने कहा कि भारत में
बौद्ध धर्म का पतन सिर्फ वैदिक धर्म से दार्शनिक अंतर या आंतरिक क्लेश के कारण ही
नहीं हुआ। अपितु, विनायक के अनुसार समस्या राजनीतिक स्तर पर थी। बौद्ध मत का
विस्तार, राष्ट्रीय पौरुष एवं भारत के अस्तित्व के लिए संकटपूर्ण था। यह उसकी अंतिम
अधोगति नहीं; मूल रूप में अपने आरंभ से ही, अहिंसा के दर्शन पर चलने के कारण बौद्ध
धर्म राष्ट्रीयता के विचार के अयोग्य था। अहिंसा की बहुतायत का अर्थ यह था कि भारतीय
राष्ट्र हूणों जैसी योद्धा जातियों का आसान शिकार बन सकता था। उनके अनुसार, बौद्ध
धर्म हिंसा के खिलाफ कु छ नहीं बताता और इसी कारण भारतीयों को युद्ध लायक लौह
निर्माण हेतु वैदिक ‘अग्नि’ की ओर लौटना पड़ा।
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उनके अनुसार, अहिंसा उनके खिलाफ
बेमानी रहती है जो ‘भाषा, धर्म, दर्शनशास्त्र, दया एवं अन्य मानवीय उद्गारों में भारतीयों से
हीन हैं. . .परंतु अग्नि और लौह शक्ति में बढ़कर हैं’।
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विनायक के लिए भारतीय इतिहास उसका राजनीतिक इतिहास है, जिसमें हिंसक और
निर्णयात्मक युद्धों से भारतीय राष्ट्र को पौरुष प्राप्त हुआ। सदियों के इतिहास के स्थूल
अवलोकन के साथ विनायक जोर देते हैं कि विभिन्न सदियों के विजय और अशांति,
आक्रमणों, बौद्ध धर्म के विदेश में प्रसार, वर्णों और समुदायों के आपसी मिलन तथा एक
सार्वभौमिक इकाई के प्रकट होने तक ‘हिन्दू’ शब्द किसी तरह अस्तित्व में रहा। इस
लिहाज से, हिन्दुत्व साझा इतिहास है जिसके पीछे असंख्य कार्रवाइयां, संघर्ष, घुलना-
मिलना और सहयोग दिखता है। इसका संबंध धार्मिक, आध्यात्मिक या धर्मशास्त्रीय कानून
संहिताओं से नहीं है। अक्सर यूरोपियन राष्ट्रवाद की तरह, हिन्दुओं के लिए ‘वर्णवादी
शुद्धता’ के संबंध में गढ़े गए मिथकों की आलोचना के चलते, गौर से उनके लेखन का
अध्ययन करने पर वर्ण विचार सापेक्षिक और व्यक्तिपरक रूप में ज्यादा व्यावहारिक नजर
आता हैः
आखिरकार दुनिया भर में, जहाँ तक इंसान की बात है, एक ही वर्ण है – मानवजाति
एक ही रक्त पर जीवित रही है, मानवीय रक्त पर। अन्य सारी बातें तात्कालिक, अस्थायी
और के वल सापेक्षिक तौर पर ही सच हैं. . . रक्त के सम्मिश्रण को रोकना रेत पर
निर्माण करने सरीखा है। यौन आकर्षण सभी पैगम्बरों के सारे उपदेशों से अधिक
शक्तिशाली साबित होता है। ऐसा ही है तो, अंडमान की आदिम जातियों की धमनियों में
भी कथित आर्य रक्त और प्रतिकू ल सत्य दौड़ रहा होगा।
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‘हिन्दुत्व एट वर्क ’ सर्ग में वह घोषणा करते हैं कि शब्द ‘हिन्दू’ और/या ‘हिन्दुस्तान’ को
समर्थ बनाने में मित्र और शत्रुओं की बराबर भूमिका रही तथा यह शब्द इस भूमि और
इसके लोगों से जुड़ी सभी परिभाषाओं एवं पदवियों से व्यापक सफल रहे। उनके अनुसार,
‘शत्रु हिन्दुओं के रूप में, एटक से कटक तक खिलने वाले लोगों एवं वर्णों, पंथों एवं
जातियों से घृणा करता था जिन्हें अचानक एक सत्ता के तौर पर मान लिया गया था।’
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‘राज-निकाय’ के शरीर में रीढ़ की तरह दौड़ने वाला यही हिन्दुत्व था जिसके कारण
‘कश्मीर के ब्राह्मणों की व्यथा पर मालाबार के नायर आंसू बहाते थे’। वह आगे लिखते हैंः
‘हमारे राजकवियों ने हिन्दुओं के पतन पर विलाप किया, हमारे साधुओं ने हिन्दुओं की सोई
भावनाओं को जगाया, हमारे नायकों ने हिन्दू युद्ध लड़े, हमारे संतों ने हिन्दुओं के प्रयासों
को आशीर्वाद दिया, हमारे राजनयिकों ने हिन्दुओं की नियति को बदला, हमारी माताएं
घावों पर रोईं और हिन्दुओं की सफलताओं पर गौरवान्वित हुई थीं।’
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पहचान की अभिन्नता की प्रकृ ति को वह बीती सदियों के कवियों एवं प्राचार्यों के कार्यों
के हवाले से पुख्ता करते हैं। बारहवीं सदी के राजस्थानी राजा पृथ्वीराज चैहान पर कवि
चंद वरदाई द्वारा लिखित पृथ्वीराज रासो
से; सत्रहवीं सदी के बुंदेला राजा छत्रसाल का
महिमागान करने वाले कवि भूषण तक; गुरु दादाजी कोंडके द्वारा शिवाजी महाराज को
दीक्षित करने से लेकर; सिख गुरुओं, तेग बहादुर तथा गुरु गोबिंद सिंह तक। उनके द्वारा
‘हिन्दू’, ‘हिन्दवान’ या ‘हिन्द’ जैसे शब्दों के प्रयोग और उसके लिए संघर्ष करना।
विनायक के अनुसार, वह सब अलग-अलग स्थान और काल में रहे, परंतु उनका लक्ष्य और
उनकी प्रतिबद्धता, ‘हिन्दू’ लक्ष्य के लिए लड़ना था – जो धार्मिक ना होकर, राष्ट्रीय पहचान
से जुड़ा था। यही जज़्बा मराठों में भी रहा, जिन्होंने अखिल-भारतीय दृष्टिकोण के अंतर्गत
अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में देश को एकजुट किया और फिर ईस्ट इंडिया
कम्पनी की शक्ति से परास्त हो गए थे।
इस ऐतिहासिक कथ्य के साथ विनायक ने यह स्थापना रखीः
कभी सिमटने, कभी विस्तार लेने वाला भौगोलिक तात्पर्य यहाँ प्रमुख है, जो यदि
अधिक नहीं तो लगभग 5000 वर्ष गुजरने के बाद भी निरंतर शब्द हिन्दू और हिन्दुस्थान
से जुड़ा है। हिन्दुस्थान सिंधु से सिंधु तक – सिंधु से सागरों तक एक महाद्वीपीय देश
माना गया है। लोगों के बीच संबद्धता, मजबूती एवं एकजुटता लाने वाला पक्ष इससे
प्रबल होता है कि आंतरिक तौर पर उनके पास सुसंगठित और सुनिर्धारित ‘स्थानीय
आवास’ है और एक ‘नाम’ जो अपने उल्लेख मात्र से मातृभूमि और अतीत की स्नेहिल
यादों की छवियां जिंदा कर देता है। मजबूत एवं एकजुट राष्ट्र के लिए दोनों महत्वपूर्ण
आवश्यक वस्तुएं प्राप्त कर हम खुद को धन्य मानते हैं। हमारी भूमि अन्य भूूमियों से
इतनी व्यापक और फिर भी इतनी कु शलता से बुनी हुई और साथ ही सुनिर्धारित तथा
कु छ इतनी सुरक्षित है कि प्रकृ ति की अंगुलियों ने शायद ही अन्य किसी देश को इतनी
कु शलता से कम या विवेचना से पार एक भौगोलिक इकाई के रूप में बनाया होगा
जैसा कि नाम हिन्दुस्थान या हिन्दू के साथ रहा है। बिना शक मातृभूमि के नाम पर जो
पहली छवि हमारे दिमाग में बनती है वह इसके भौगोलिक एवं भौतिक प्रारूपों की है
जो इसे सजीव कर मूर्तरूप प्रदान करती है. . . अमेरिका और साथ ही फ्रांस में शब्द
‘हिन्दू’ को बिना किसी धार्मिक अथवा सांस्कृ तिक तात्पर्य वाले भारतीय के अनुसार
समझा जाता है। और यदि हिन्दू शब्द इसके प्राथमिक अभिप्राय को समझाने मात्र के
लिए होता, जो सिंधु से उत्पन्न अन्य सभी शब्दों का समान तत्व था, तब इसका अर्थ
सचमुच भारतीय होता, जैसा कि हिन्दी शब्द का अर्थ है, हिन्दुस्थान का नागरिक।
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हिन्दुत्व की पहली आवश्यकता भौगोलिक है और वह विधि जिसके अनुसार लोग अपनी
पहचान स्थापित करते हैं, जोे कार्य शेष विश्व अपने अनुसार करता है। यह ‘हिन्दुओं की
भूमि’ या हिन्दुस्तान था। यहाँ धर्म का पालन मात्र करने वाला ‘हिन्दू’ नहीं कहलाता; वह
इस भूमि को मातृभूमि समझने वाले अपने पूर्वजों के जरियेे अथवा अपने दम पर सर्वप्रथम
एक नागरिक है। विनायक के अनुसार, इस विशाल भूभाग के भौगोलिक रूप से विविध
परिदृश्य को जिन कारकों ने एकसूत्र में बांधा, वे थे, रक्त की समानता, समान संस्कृ ति,
समान महाकाव्य, समान कानून एवं रीतियां, संस्कृ त भाषा, समान पर्व एवं त्योहार तथा
कला एवं संस्कृ ति की साझा विरासत। अतः, सहस्राब्दियों से अटूट चला आनेे वाला,
सांस्कृ तिक अखंडता आधारित राष्ट्रवाद, ‘हिन्दू-वाद’ का महत्वपूर्ण अंश था।
विनायक का मानना था कि मातृभूमि के लिए स्नेह की भावना के कारण हिन्दू भारतीय
राज्य के नागरिक मात्र ही नहीं थे; इसका कारण उनमें रक्त की समानता है। वह के वल एक
राष्ट्र या देश ना होकर, एक जाति (वर्ण) हैं। इस अनुसार वह विभिन्न जातियों केे वैवाहिक
संबंधों को बुरा नहीं मानते – जो अपने समय से बहुत आगे का विचार था। कर्ण, बभ्रुवाहन,
घटोत्कच, विदुर एवं अन्य से लेकर एक ब्राह्मण से विवाह कर बिंदुसार का पिता बनने वाले
चंद्रगुप्त मौर्य, एक वैश्य से विवाह करने वाले अशोक तथा स्वयं वैश्य होनेे के बावजूद एक
क्षत्रिय से अपनी पुत्री का ब्याह करनेे वाले हर्षवर्धन जैसे ऐतिहासिक पात्रों के उदाहरणों से
उन्होंने समाज में जाति प्रथा के प्रवाह और उसकी नम्यता को दिखाने का प्रयास किया।
व्यक्ति अपने कर्मों के कारण बहिष्कृ त हो अवनति को प्राप्त होता था, इसमें उसकी
सामाजिक पृष्ठभूमि की कोई भूमिका नहीं थी। धर्मग्रंथों के उद्धरण देकर विनायक ने यह
समझाने का प्रयास किया। अर्थात कर्मों के आधार पर शूद्र ब्राह्मण की श्रेणी में पहुँच
सकता था एवं कोई उदाहरण इसके उलट भी हो सकता था। जाति प्रथा के लचीलेपन या
उसमें हो रहे प्रवाह को दर्शाने के लिए के लिए उन्होंने एक संस्कृ त श्लोक उद्धृत कियाः
‘परिवार को ही परिवार नहीं कहा जाता; परिपाटियां एवं रीति-रिवाज परिवार कहे जाते हैं।
अपने कर्तव्य निभाने वाले को पृथ्वी एवं स्वर्ग में प्रशंसा प्राप्त होती है।’ उन्होंने अनेक
योद्धा क्षत्रियों के उदाहरण रखे जो कृ षि अथवा ऐसे पेशे अपनाकर सम्मान खो बैठे , जो
उनके लायक नहीं थे, तथा इसी तरह, अन्य बहिष्कृ त जातियां, जो के वल अपने कार्यों के
आधार पर क्षत्रिय या ब्राह्मण श्रेणी में आ बैठी थीं। महाकाव्यों, रामायण एवं महाभारत के
रचयिता – वाल्मीकि एवं व्यास क्रमश: निम्न जातियों से संबंध रखने वालेे थे, परंतु अपनी
कार्य शक्ति के माध्यम से उन्हें संतों तथा अमर रचनाकारों का आदरणीय स्थान प्राप्त हुआ।
विनायक के अनुसार, ऐसी प्रवाहमयता गैर-वैदिक समुदायों में भी प्रचलित थी। अतः,
किसी परिवार में बौद्ध पिता, वैदिक माता एवं जैन मतावलंबी पुत्र दिखना आम बात थी।
गुजरात में जैन एवं वैष्णवों के बीच, पंजाब में सिख तथा सनातनियों में तथा सिंध में भी
ऐसे ही वैवाहिक संबंध देखने को मिलते थे। इसलिए, विनायक के लिए ‘हिन्दू’ शब्द
दरअसल, भारतीयों के बीच वर्णवादी एकता का परिचायक था। श्रेष्ठ कवि की तरह, पद
एवं अनुप्रास अलंकरणों का प्रयोग करते हुए उन्होंने निम्न सिद्धांत प्रतिपादित कियाः
हम में से कु छ आर्य थे और कु छ अनार्य; अय्यर एवं नायर – हम सब हिन्दू थे और
हमारा रक्त एक था। कु छ ब्राह्मण थे और कु छ नमोशूद्र या पंचम्मा; परंतु ब्राह्मण हो या
चांडाल – हम सब हिन्दू थे और हमारा रक्त एक था। हम में से कु छ दक्षिणात्य थे और
कु छ गौड़; परंतु गौड़ हो या सारस्वत – हम सब हिन्दू थे और रक्त एक था। हम में से
कु छ राक्षस थे और कु छ यक्ष; परंतु राक्षस हों या यक्ष – हम सब हिन्दू थे और रक्त एक
था। हम में से कु छ वानर थे कु छ किन्नर; परंतु वानर हों या नर – हम सब हिन्दू थे और
रक्त एक था। हम में से कु छ जैन थे और कु छ जंगम – हम सब हिन्दू थे और रक्त एक
था। हम में से कु छ एके श्वरवादी थे, कु छ सर्वेश्वरवादी कु छ आस्तिक और कु छ नास्तिक।
परंतु एके श्वरवादी हों या नास्तिक – हम सब हिन्दू थे और रक्त एक था। हम के वल एक
राष्ट्र नहीं, एक जाति हैं, नैसर्गिक भ्रातृत्व। और कु छ मायने नहीं रखता, आखिर यह
हृदय से उपजी भावनाओं का प्रश्न है। हम मानते हैं कि राम एवं कृ ष्ण, बुद्ध एवं
महावीर, नानक एवं चैतन्य, बासव एवं माधव, रोहिदास एवं तिरुवल्लूवर की धमनियों
में बहे उस प्राचीन रक्त का हिन्दूधारा की प्रत्येक शिरा और प्रत्येक हृदय में स्फु रण होता
है। हमारा मानना है कि हम एक जाति हैं, रक्त की स्नेहिल धारा से बंधा एक वर्ण, अतः,
यही होना भी चाहिए।
44
इस ऐलान के साथ उन्होंने भारतीय समाज को उसकी प्राणशक्ति से वंचित रखने वाली
सदियों पुरानी जातिवादी व्यवस्था की मृत्यु का बिगुल फूँ क दिया। जैसा कि उनके आगामी
लेखन एवं रत्नागिरी के कार्यों में दिखाई देता है, विनायक ने जीर्ण जाति व्यवस्था और
अस्पृष्यता के विरुद्ध सक्रिय अभियान चलाए थे। उनका विचार था कि गैर हिन्दू से विवाह
करने वाले हिन्दू पुरुष अथवा स्त्री जाति बहिष्कृ त (उनकी दृष्टि में अमान्य) हो सकते हैं,
परंतु अपना हिन्दुत्व कभी नहीं खो सकते, जिसकी सीमाएं वृहत हैं। हिन्दू किसी भी
सैद्धांतिक या दार्शनिक या सामाजिक व्यवस्था, पुरातनपंथी अथवा विधार्मिक व्यवस्था में
यकीन रखता हो, उसका हिन्दुत्व कभी दूषित नहीं होता। उनके पास सप्त सिंधु के समान
रक्त की धरोहर है।
सभी हिन्दुओं में उन्होंने सभ्यतागत समानता भी खोजी। विनायक ने व्यक्ति को उपलब्ध
सामग्री के प्रयोग और उसके मस्तिष्क की अभिव्यक्ति के आधार पर ‘सभ्यता’ को
पारिभाषित किया। उनके अनुसार ‘किसी राष्ट्र की सभ्यता उसके विचारों, कार्यों, एवं
उसकी उपलब्धियों की गाथा होती है। साहित्य एवं कला उसके विचार; इतिहास एवं
संस्थान उसके कृ त्यों तथा उपलब्धियों का बखान करते हैं।’
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उनकी मान्यता थी कि
हमारा साझा इतिहास तथा कला एवं स्थापत्य के विरासत रूपी कार्य हमें राष्ट्र के रूप में
बांधते हैं। स्थानीय स्तर पर विविधताओं के बावजूद, देश भर में रीतियों, पर्वों, उत्सवों एवं
संस्कार पद्धतियाँ इस वर्ण की एकता को इंगित करती हैं। प्रत्येक ‘हिन्दू’ अपने पूर्वजों से
इन रत्नों को विरासत मेें प्राप्त करता है। मौजूदा सभी भाषाओं की जननी संस्कृ त की
प्रशंसा में उन्होंने लिखाः
हमारे इष्ट संस्कृ त में वार्तालाप करते थे; हमारे ऋषि संस्कृ त में विचारते थे, हमारे कवि
संस्कृ त में लिखते थे। हमारे भीतर जो कु छ श्रेष्ठ है – श्रेष्ठ चिन्तन, श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ
पंक्तियाँ – सहज रूप में संस्कृ त के ही आवरण में लिपटे दिखते हैं। लाखों के लिए यह
अभी तक देवभाषा है; अन्य के लिए उनके पूर्वजों की भाषा है; सब के लिए यह
अद्वितीय भाषा है; एक साझी विरासत, एक साझा कोश जो हमारे सभी भाषा परिवारों
को समृद्ध करती है।
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सनातनी, आर्य समाजी, बौद्ध, जैन एवं सिख जैसे ‘हिन्दू’ धर्मों का साझा प्रारूप,
भारतीय उपमहाद्वीप में उभरने वाले समानधर्मी मतों का बेहद चतुराई एवं विचारपूर्वक
तरीके से बनाया गया सामाजिक गठजोड़ था। प्रश्न यह था कि हिन्दू-वाद की इस
परिकल्पना में मुस्लिम (या ईसाई) कहाँ आते थे ? ‘विदेशी आक्रांता’ नामक एक अध्याय में
विनायक ने देश को लूटने के लिए आने वाले इस्लामिक आक्रांताओं के अनेक जत्थों पर
लिखा और उसे सभ्यता संघर्ष की संज्ञा दी। उन्होंने अफसोस जताया कि ‘एक साझा शत्रु
के डर’, तथा किसी साझे उद्देश्य के प्रति जैसी एकता दिखनी चाहिए, सिंधुस्तान कभी आगे
बढ़ ‘उस रोज़ अविभक्त समूह के रूप में एकजुट नहीं हुआ, जब मूर्तिभंजकों ने सिंधु पार
की थी’।
47
उन्होंने दुख प्रकट किया कि कै से उसके बाद सदियों तक फतह चलती रही। विनायक
बताते हैं, ‘अरब में अरब गुण समाप्त हो गया। ईरान, नेस्तनाबूत हुआ, मिस्र, सीरिया,
अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, तातार – ग्रेनाडा से ग़ज़नी तक – राष्ट्र और सभ्यताएं
अमनपरस्त इस्लाम की तलवार के सामने ढेर हो गए!’ वह लिखते हैं कि भारत को अनेक
लुटेरों का शिकार होना पड़ा, जिनमें अरब, फारस, पठान, बलोच, तातार, तुर्क और मुगल
थे। विनायक एक ‘नैतिक राष्ट्रवादी भारतीय’ और ‘गैर-राष्ट्रवादी भारतीय’ के बीच भी
अंतर करते हैं। अकबर, दारा शिकोह एवं मौलवी अहमद शाह (जैसा उनकी पुस्तक 1857
स्वतंत्रता समर
में दिखाया गया) पहली श्रेणी में आते हैं, जबकि औरंगजेब दूसरी में।
विनायक के विचारों का सारतत्व उनके द्वारा रचित सुंदर संस्कृ त श्लोक में आया जिसे
उन्होंने और उनकी राजनीतिक विचारधारा वाले परवर्ती अनुयायियों ने हिन्दू पहचान का
निश्चित गुण माना हैः
आसिन्धु सिन्धु पर्यन्तः यस्य भारत भूमिका
पितृभु पुण्यभूषछैव सः वयः हिन्दूरीति स्मृतिः।
जो इस भारत नामक विस्तृत भूभाग पर विचरता है
सिन्धु से पुनः सिन्धु तक (सिन्धु से सागरों तक)
अपने पितृस्थान के रूप में (अथवा अपने पूर्वजों की भूमि के रूप में) और पवित्र भूमि रूप
में
उसे ही हिन्दू कहा और उस अनुसार याद रखा जाएगा।
उपरोक्त परिभाषा में प्रचलित गांधीवादी दर्शन के अनुसार पवित्र माने जा रहे खिलाफत
अभियान जैसे मुद्दों के संबंध में परोक्ष चुनौती भी निहित है, जो सिंधु से सागरों तक के
इसके धार्मिक भूगोल की यथावत रूपरेखा दर्शाती है।
जाहिर है कि विनायक द्वारा प्रस्तावित मानकों में सभी तरह के हिन्दू धर्मों का गठबंधन
पूर्णतया खरा उतरता था। विनायक के अनुसार हिन्दू की परिकल्पना एक ऐसे व्यक्ति से
जुड़ी थी जो इस भूमि को अपने पूर्वजों की पवित्र भूमि मानता हो; जिसे विरासत में सप्त
सिंधु वर्णों का रक्त मिला हो; जो शास्त्रीय भाषा संस्कृ त से साझा संबंध घोषित करता है,
अर्थात् साझा तौर पर इतिहास, संस्कृ ति, कला, कानून, न्याय-शास्त्र, रस्म, रिवाज,
समारोह, धर्मविधियां और त्योहार मनाने वाला। साझा देश, साझी जाति और साझा
संस्कृ ति हिन्दुत्व के निश्चित चिन्ह हैं। चूंकि इसकी बनावट खुद को हिन्दूधर्म सहित सभी
धर्मों से दूर रखती है, इसलिए यह धर्मनिरपेक्ष आदर्श है। उन्होंने भारत राष्ट्र को स्थानिक
एकता वाले सुदूर समुदायों, क्षेत्रों और प्रांतों को जोड़ने वाली हिन्दू पहचान के तौर पर
माना। इसी आदिकालीन हिन्दू राष्ट्र के दायरे में, राज्य को विदेशी अतिक्रमण से अपनी
पवित्र मातृभूमि (भारत माता) की एकता और अखंडता की रक्षा करनी चाहिए।
विनायक ने तर्क रखा कि आदर्श जगत में, पहले मानक, भूगोल के आधार पर भारत के
बाशिंदे को ‘हिन्दू’ कहना काफी होगा। वह कहते हैं, कि ऐसा हो सकता है जब
‘सांस्कृ तिक और धार्मिक कट्टरता पूर्णतया तितर-बितर हो जाएगी. . .और धर्म ‘वाद’
बनना छोड़ देंगे तथा के वल शाश्वत नियमों के समुच्चय भर रह जाएंगे जिनकी साझी
बुनियाद पर मानवीयता एक विहंगम अंदाज और स्थिरता से विश्राम करती है।’
48
अतः,
उनकी परिभाषा में सभ्यता एवं संस्कृ ति की साझी धरोहर में एक ही रक्त और सम्मान का
अतिरिक्त मानक ज़रूरी है। विनायक के लिए राष्ट्र सभ्यता के समकक्ष है।
उपरोक्त परिभाषा के आधार पर विनायक का मत है कि मुस्लिम और ईसाई साथी,
जिनके पूर्वज मूलतः हिन्दू थे और जिनका जबरन धर्मांतरण किया गया, भारत की
पितृभूमि उन्हें भी विरासत में प्राप्त हुई है। कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह उनके
पूर्वजों की भी धरती है और उनकी पितृभूमि है।
49
साझी भाषा, संस्कृ ति, कानून, रीति-
रिवाज, लोककथाएं और इतिहास की थाती उनकी भी है। हालाँकि, विनायक के अनुसार,
वह हिन्दुस्तान उनके लिए भी पवित्र भूमि है या नहीं, यही विवाद का विषय है। यह अनुमान
लगाते समय विनायक के मन में खिलाफत और विदेशी निष्ठा प्रदर्शन का विचार गहरा रहा
होगा, परंतु फिर भी उन्होंने निष्पक्षता से कहाः
चूंकि हिन्दुस्तान किसी भी अन्य हिन्दू के लिए उसकी पितृभूमि है, फिर भी, यह उनके
लिए पवित्र भूमि नहीं है। उनकी पवित्र भूमि दूर कहीं अरब या फलस्तीन में है। उनकी
पुराण कथाएं एवं महापुरुष, विचार एवं नायक इस जमीन की संतानें नहीं हैं।
फलस्वरूप, उनके नाम और दृष्टिकोण विदेशी मिट्टी से उपजे लगते हैं। उनका प्रेम बंटा
हुआ है। नहीं, यदि उनमें से कु छ सोचते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए, तो इसमें दोराय
नहीं - उन्हें, अपनी पवित्र भूमि को पितृभूमि से ऊपर रखना चाहिए। यही नैसर्गिक
विधि है। हम निन्दा नहीं कर रहे, न ही अफसोस कर रहे हैं। हम तथ्यों को उनकी पूरी
स्पष्टता में बयान कर रहे हैं।
50
परंतु क्या यह परिभाषा मुस्लिमों और ईसाइयों को ‘हिन्दुत्व’ के दायरे में शामिल करने से
इनकार करती है ? दरअसल, यहाँ विनायक अपनी ही परिकल्पना के प्रति विरोधाभास
व्यक्त करते हुए ‘हिन्दू’ संस्कृ ति के प्रति प्रेम को ‘पसंद का निर्णय’ बताते हैं जिसके आधार
पर कोई इसका हिस्सा बन सकता हैः
आप वेदांती हैं - एके श्वरवादी हैं - सर्वेश्वरवादी - एक नास्तिक - एक अविश्वासी ? ओह
आत्मा! यहाँ स्थान अपार है! तुम जो भी हो, इस मंदिरों के देवालय में अपने पूर्ण संतोष
और आकार तक बढ़ो और प्रेम करो. . . वे, जो वर्ण से, रक्त से, संस्कृ ति से, राष्ट्रीयता से
हिन्दुत्व के सभी आधारभूत तत्त्वों से समाहित है. . . जिन्होंने हम सबकी माँ से अपनी
पूर्ण भावना से प्रेम किया और न के वल उसे पितृभू माना अपितु पुण्यभू भी स्वीकारा है,
उनका हिन्दू-वृत्त में परम स्वागत किया जाएगा। यह निर्णय है जिसे हमारे देशवासी और
हमारे परिचित एवं संबंधी, बोहरा, खोजा, मेमन एवं अन्य मुस्लिम तथा ईसाई समुदाय
लेने के लिए आज़ाद हैं – ऐसा निर्णय जो प्रेम आधारित निर्णय हो।
51
राष्ट्रवाद को एकमात्र अपने देश के साथ, प्रेम के चुनाव और अभिव्यक्ति से जोड़ा गया। यह
प्रेम की पराकाष्ठा थी जिसके समक्ष इंसान के बीच उसके अन्य सभी प्रारूप बौने लगते थे।
उन्होंने दो ईसाइयों, सिस्टर निवेदिता और ऐनी बेसेंट के उदाहरण रखे जो भारत और
उसके राष्ट्रवाद के ध्येय से जुड़ी थीं। सिस्टर निवेदिता का जन्म नाम मार्ग्रेट एलिजाबेथ
नोबेल था और वह एक आयरिश अध्यापिका, लेखिका तथा समाजसेवी थीं जो बाद में
स्वामी विवेकानंद की प्रिय शिष्या बन गई थीं। रामाकृ ष्ण मिशन में उन्होंने महिला साक्षरता
तथा उद्धार के संबंध में अथक कार्य किया। ऐनी बेसेंट अंग्रेज समाजवादी, अध्यात्मवादी,
महिला अधिकार कार्यकर्ता तथा आयरिष एवं भारतीय स्वशासन की घोर समर्थक थीं। हम
ऐसे लोगों को किस श्रेणी में रखेंगे जिन्होंने इस देश और उसके लोगों के लिए अपना
सर्वस्व दांव पर लगा दिया ? उन्होंने सिस्टर निवेदिता के बारे में लिखाः
हमारी देशभक्त और नेकहृदया बहिन ने सिंधु से सागरों तक की हमारी भूमि को अपनी
पितृभूमि स्वीकार किया। वह सचमुच इससे इतना स्नेह करती थीं, और यदि हमारा राष्ट्र
स्वतंत्र होता तो ऐसी पुण्यात्माओं को हम सर्वप्रथम नागरिकता का अधिकार प्रदान
करते। तो कु छ हद तक, पहली जरूरत उनके पक्ष में सद्भाव की है। दूसरी जरूरत हिन्दू
अभिभावकों के साझा रक्त की है, जो आवश्यक रूप में ऐसे मामलों में नदारद रहती है।
हिन्दू से वैवाहिक संबंधों की पवित्रता में बंधना, जो दो को एक कर देता है, और वैश्विक
मान्यता रखता है, संभवतः इस कमी की भरपाई कर सकता था। परंतु चूंकि यह दूसरी
अनिवार्यता असफल रही, फिर भी उनके प्रति सद्भाव रखते हुए, हिन्दुत्व के संबंध में
तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष उन्हें हिन्दू बनने का अधिकारी मानता है। चूंकि, उन्होंने हमारी
संस्कृ ति अपनाई और हमारी भूमि को अपनी पवित्र भूमि का सा स्नेह दिया। उन्हें
महसूस हुआ कि वह हिन्दू हैं जो अन्य सभी पक्षों से इतर, सच्चा और सबसे महत्वपूर्ण
इम्तिहान होता है। परंतु हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमें हिन्दुत्व के सारतत्व को उस
विधि में परखना है जिसमें इस शब्द को बहुसंख्य लोग प्रयोग करते हैं। फलतः, हम कह
सकते हैं कि किसी गैर-हिन्दू अभिभावकत्व से हिन्दुत्व में बदलकर मौलिक हिन्दू बना
जा सकता है, यदि व्यक्ति हमारी भूमि को अपने राष्ट्र के रूप में अपनाए और एक हिन्दू
से विवाह करे एवं हमारी भूमि की पुण्यभू स्वरूप आराधना करे। ऐसे संबंध से उत्पन्न
संतानें जो होंगी, अन्य समान पक्षों के साथ-साथ, पूर्ण प्रभावी हिन्दू कहलाएंगी।
52
1923 के विनायक के बीजकार्य के बाद देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर विविध
असर दिखते हैं। उनमें से एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना थी जिसने
उनकी हिन्दुत्व विचारधारा और उद्देश्य को अपनाया।
इस बीच, कारागार से मुक्ति के बाद, बाबाराव ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद, हिन्दू
महासभा की गतिविधियों में सक्रिय हिस्सा लेना शुरू किया।
53
यह 1915 में स्थापित, हिन्दू
हितों की रक्षा तथा उसका प्रतिनिधित्व करने वाली व्यापक इकाई थी।53
उन्होंने युवा
हिन्दुओं का सहयोग तथा उन्हें राजनीतिक तौर पर प्रबल करने के लिए एक अन्य गुट,
तरुण हिन्दू सभा का गठन किया। आगामी चार से पांच वर्षों में उन्होंने 500 युवाओं के
साथ मिलकर अनेक यात्राएं की और पच्चीस से तीस शाखाएं स्थापित की। अभिनव भारत
की तरह, तरुण हिन्दू सभा के युवा भी शारीरिक व्यायाम एवं जिम्नास्टिक्स के साथ-साथ,
शुद्धि समारोह एवं जातिप्रथा उन्मूलन के कार्यों के लिए काम करते थे।
1924 के अंत में, बाबाराव सभा के लिए सहयोग प्राप्त करने नागपुर पहुँचे। वहाँ वह
अपने मित्र एवं दूर के नातेदार विश्वंतराव के लकर के यहाँ रुके । के लकर के जरिए उनकी
भंेट एक युवा एवं उत्साही मेडिकल डाॅक्टर, डाॅ. के शव बलिराम हेडगेवार से हुई जो
कलकत्ता के नेशनल मेडिकल काॅलेज में विद्यार्थी जीवन में क्रांतिकारी अनुशीलन समिति
के सदस्य रहे थे। बाद में मेडिकल प्रैक्टिस की बजाय हेडगेवार ने अपना समय राष्ट्रीय
कार्यों में लगाया। 1919 में उन्होंने युवाओं की संस्था नेशनल यूनियन की स्थापना की और
बाद में हिन्दू महासभा से भी जुड़े।
बाबाराव के साथ बातचीत के दौरान उन्होंने निर्णय किया कि हिन्दू एकता के एक ही मुद्दे
पर काम करने वाली अनेक संस्थाओं की कोई आवश्यकता नहीं। हेडगेवार हिन्दुओं के
लिए और उनके द्वारा अखिल-भारतीय स्तर पर एक स्वयंसेवक संस्था स्थापित करने को
लेकर उत्साहित थे। अतः, 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के शुभ दिन, बाबाराव और
डाॅ. बीएस मूंजे, डाॅ. एलवी परांजपे तथा डाॅ. बीबी थोल्कर जैसे हिन्दू नेताओं को लेेकर
उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।
54
इस अवसर पर नागपुर के महल इलाके
के सलुभाई मोहिते वाडा में हिन्दू किशोरों एवं युवाओं की शाखा एकत्र हुई। आरएसएस के
संस्थापकों के साथ इस अवसर पर बाबाराव भी उपस्थित थे। कहते हैं कि हेडगेवार ने
बाबाराव से भगवा झंडे का डिजाइन तथा नव-निर्मित संस्था की शपथ तैयार करने को कहा
था। भारतीय राजतंत्र में संभवतः वह प्रथम अवसर था जब शपथ में हिन्दू राष्ट्र शब्दों का
प्रयोग किया गया था। हालाँकि, विनायक उनके लक्ष्य के प्रति सहानुभूति रखते थे, परंतु
आरएसएस की राजनीति एवं वैश्विक दृष्टिकोण के प्रति उनके विचार अलग थे।
जानकी बाखले ने हिन्दुत्व के समय एवं महत्व का सार तत्व प्रस्तुत किया हैः
हिन्दुत्व काव्यात्मक बहीखाते में दर्ज एक राजनीतिक दलील है। यह गांधी का नाम
लिए बिना उनके पक्ष की एवं विरोधी दलील है, ऐसे समय जब लेखक को राजनीति में
समाप्त मान लिया गया था। हिन्दुत्व चारदीवारी के भीतर से गूंजी राजनीतिक पुकार
थी, जिसने बाहरी दुनिया को याद दिलाया कि यदि गांधी भी राजनीतिक परिदृश्य में
नहीं दिखते, तो सावरकर लौट आए हैं। वह अभी भी एक नेता थे, राष्ट्रवादी समुदाय को
एकजुट करने की क्षमता रखने वाले राजनीतिज्ञ। परंतु गांधी से इतर, वह हिन्दू-वाद का
विचार दे रहे थे, जो अधिक मौलिक एवं अंततः, महात्मा के राष्ट्रवाद से कहीं असरकारी
रहेगा। उनके समय का चौंकाने वाला परिवर्तन था, सावरकर का यह बताना कि धर्म ने
हिन्दुओं को हिन्दू नहीं बनाया। यदि गांधी ने धर्म एवं राजनीति के मिलन का कर्तव्य
पूर्ण किया था, और खिलाफत नेता मज़हब के प्रतीकों का इस्तेमाल एक समुदाय को
धोखा देने के लिए कर रहे थे, तो सावरकर का तर्क था कि हिन्दू समुदाय को नाम और
स्थान एकजुट करता है, धर्म नहीं. . . हिन्दुत्व का मूल (नकारात्मक) योगदान राष्ट्रवादी
संवाद हेतु एक नया शब्द गढ़ने का रहा, जो आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष था, यदि उसे
धार्मिक पहचान के लिए धर्मनिरपेक्ष विचार से परखा जाता। धर्म के स्थान पर योग्यता
के धार्मिक स्वरूप से उन्होंने विपुल हिन्दू राजनीतिक नेताओं को धर्मनिरपेक्ष बनाया।
इस प्रयास में उन्होंने निर्जीव धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं किया, बल्कि उसके
विपरीत कार्य में सफल रहे। उन्होंने जादुई जमीन पर काल्पनिक समुदाय को रखकर
उसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद से मंत्रमुग्ध किया था

55
12
वैचारिक विवेचन
हिंदुत्व पर पुस्तक पूरी करने के बाद, अगले बारह से तेरह वर्षों के दौरान विनायक ने
विभिन्न विषयों पर बहुत कु छ लिखा – इनमें जाति व्यवस्था और उसके उन्मूलन,
सामाजिक कु रीतियों, गोरक्षा एवं अंतरराष्ट्रीय मामलों से लेकर ईश्वर पर उनके विचार और
भारत के लिए मशीनी एवं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर उनका चिंतन मिलता है। आलेखों,
निबंधों एवं प्रचार-पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित इस सामग्री ने उनके राजनीतिक दर्शन
तथा सामाजिक दृष्टिकोण की दशा-दिशा निर्धारित की और उनकी भावी राजनीति की
जमीन तैयार की थी। उनके लेखन के कु छ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं, इनमें से कु छ प्रथम पुरुष में
है और अन्य व्याख्या रूप में।
जाति व्यवस्था पर
पुरातनपंथी एवं धार्मिक चितपावन ब्राह्मण समुदाय में पैदा होने के बावजूद, विनायक को
बचपन से ही जाति व्यवस्था से घृणा थी। इसका पता विभिन्न जाति एवं समुदाय के बच्चों
से उनकी मैत्री से चलता था, जिनके घर वह खाना भी खाते थे। ऐसे समय जब उनके
समुदाय के अधिकांश लोगों ने जाति भ्रष्ट होने के डर से समुद्र यात्रा पर जाना रोका हुआ
था, विनायक गिने-चुने ब्राह्मणों में से थे जो शिक्षा प्राप्त करने लंदन गए। अपने समकालीन
अधिकांश ब्राह्मणों के विपरीत, उन्होंने मांसाहार भोजन से भी परहेज नहीं किया। सज़ा के
लम्बे वर्षों के दौरान राजनीतिक विचारों में आई परिपक्वता के कारण उन्होंने घृणित जाति
व्यवस्था एवं अस्पृश्यता पर निबंध लिखे और बताया कि कै से इस कारण देश से उसकी
जिजीविशा छिन गई। ऐसे समय जब यह विचार गांधी या आम्बेडकर द्वारा भी राजनीतिक
संवाद का हिस्सा नहीं बनाए गए थे, उनके पूर्ण और बिना शर्त उन्मूलन की आवाज
उठाकर, जातिहीन भारत की कल्पना करने वाले वह पहले व्यक्ति थे।

हिन्दू समाज की सात बेड़ियां


1
चतुरवर्ण नामक चार वर्णों (श्रेणियां) की व्यवस्था जो कालांतर में जातियों में तब्दील हुई,
आधुनिक समाज में अर्थहीन है। महार जाति, जिसका अर्थ ‘निम्न जाति’ से लगाया जाता
है, उसमें हमें चोखा मेला जैसे महान संत और डाॅ. आम्बेडकर जैसे महान विचारक मिले,
जिनकी पुण्यता और बौद्धिकता अनेक ब्राह्मणों को भी पीछे छोड़ती है। उत्तरी भारत में
पीढ़ी दर पीढ़ी ब्राह्मण समुदाय कृ षि से जुड़ा रहा और इस कारण अनपढ़ रहा। यह
व्यवस्था उनकी जाति के स्वभाव के विरुद्ध जाती है, जिस आधार पर उन्हें बौद्धिक संभ्रांत
माना जाता है। इसी तरह, ब्राह्मण स्वर्णकार, दर्जी, चर्मकार और अन्य पेशे भी अपना रहे
हैं, जबकि (गैर-ब्राह्मण) समुदाय के लोगों ने शिक्षा अपनाई और आईसीएस तथा एमए
जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाएं उत्तीर्ण की। राजपूत, जाटों से इतनी नफरत करते थे कि यदि जाट
उनके घोड़ों पर बैठ जाते, तो उन्हें पीटकर निष्कासित कर दिया जाता। परंतु वही जाट जब
सिख बना तो उसे क्षत्रियों के बराबर समझा जाता है। देश के कई हिस्सों में क्षत्रियों के साथ
शूद्रों सा व्यवहार होता है, परंतु इस समुदाय से विवेकानंद, अरविंद, बिपिन चंद्र पाल,
सुभाष बोस एवं अन्य हुए हैं जिनकी बौद्धिकता, जोश और जीवंतता स्पष्टतः किसी भी
बंगाली ब्राह्मण से अधिक है।
उपरोक्त पेशेवराना अंतर्मिश्रण से व्यक्ति के कार्य समाज में उसकी श्रेष्ठता का कारक नहीं
रहे। अतः जाति व्यवस्था जिस प्रासाद से शक्ति ग्रहण करती थी, वही कमजोर पड़ चुका है
और समाज के लिए इसका प्रभाव गैरज़रूरी तथा हानिकारक है। यह उदाहरण बताते हैं
कि प्रतिभा एवं बौद्धिकता के मानक जिन्हें प्रचलित धारणा पर आनुवांशिकता आधारित
माना जाता है, गलत है, और परिवेश ही व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण को बनाता है।
योग्यता छोड़ के वल जन्म के आधार पर यश का दावा बेहद गलत एवं व्यर्थ है – बल्कि इसे
राष्ट्रीय मूर्खता ही कहा जाएगा। वहीं, धर्मग्रंथों के आदेेशों पर स्वयं को रूढ़िवाद में धके ल
देना एक अन्य तरह की मूर्खता है। अक्सर अंतर्विरोधी दिखने वाली, इनसानों द्वारा तैयार
यह धर्म पुस्तकें , किसी विशेष संदर्भ एवं विषिष्ट समाज में प्रासंगिक होती थीं। पूरी श्रद्धा के
साथ कहना होगा कि समाज के उत्थान के साथ उन्हें अलग कर दिया जाए, और
समकालीन समय के अनुसार नए कानूनों तथा नियमों को तैयार किया जाए। किसी समाज
के शिथिल और मृतप्राय ना होकर जोशपूर्ण रहने का यही लक्षण है। हालाँकि, यह धर्मग्रंथ
अपने रचनाकाल के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक संके त-चिन्ह हैं और उन्होंने उस समय के
भारतीय समाज की दशा-दिशा निर्धारित की थी। अतः, हमारी सभ्यता के उत्थान के
पुरालेखीय दस्तावेजों के तौर पर उन पर हमारी पूर्ण श्रद्धा है। इसलिए, मैं श्रुतियों, स्मृतियों,
पुराणों एवं इतिहास के विशाल हिमालयी संस्कृ त साहित्य संग्रह के समक्ष श्रद्धाभाव से
शीश नवाता हूँ परंतु उन्हें अपने पांव की बेड़ी बनने और आधुनिकता की ओर प्रगति यात्रा
में रुकावट की अनुमति नहीं दे सकता, हालाँकि, उनसे आधुनिक तथा वैज्ञानिक मंतव्यों में
प्रेरणा प्राप्त कर आगे बढ़ना चाहूंगा।
अतीत की जिन हिदायतों पर हम आँखें मूंद कर आगे बढ़े, और जिसे अब इतिहास के
कू ड़ेदान के हवाले करना चाहिए, वह है जड़ जातिवाद। इस व्यवस्था ने हमारे हिन्दू समाज
को इतने महीन टुकड़ों में बांट दिया है, जो सदा एक दूसरे से युद्धरत दिखते हैं। मंदिरों,
गलियों, घरों, नौकरियों, ग्राम सभाओं से लेकर कानून तथा विधान सभाओं के संस्थानों
तक, इसने के वल दो हिन्दुओं के बीच संघर्ष की काली छाया को ही विस्तरित किया है; इस
कारणवश बाहरी खतरों के सामने एकजुट खड़े होने की हमारी एकता और दृढ़ता कमजोर
पड़ी। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा में यह सबसे बड़ी अड़चन है। अमेरिका हो या यूरोप, दुनिया
भर के देशों की आज़ादी और एकता, लोगों के बीच इसी तरह के गलत विभाजन को दूर
कर स्थापित हुई थी। हमारे देश के लिए भी यही पद्धति क्यों नहीं अपनाई जा सकती ?
परंतु इससे पहले कि हम कु छ विघटित करें, कु छ देर रुक कर यह जान लें कि हम खुद
को किससे मुक्त करना चाहते हैं। बेशक विदेशी राज्य की दासता से हम अपनी आज़ादी
प्राप्त करना चाहते हैं। तथापि, मेरी राय में ‘स्वदेशी’ जं़जीरें या स्व-निर्मित बेड़ियों की
संख्या सात गुना है। प्रत्येक भारतीय को निम्न लिखित सात बेड़ियों सेे खुद को आज़ाद
करना चाहिए। उसके बाद ही राष्ट्र की संयुक्त चेतना और उसके लोग इस संबंध में प्रगति
कर सकें गे। यह सात बेड़ियां इस प्रकार हैंः
1. वेदोक्तबंदी:
के वल ब्राह्मण समुदाय की वैदिक साहित्य एवं रीति-रिवाजों तक पहुँच को
तुरंत समाप्त होना चाहिए। वैदिक साहित्य सम्पूर्ण मानवजाति के लिए सभ्यता का ज्ञान
और मानवीयता को भारत की अनोखी भेंट है। कोई समूह मात्र इस ज्ञान पर अपने
स्वामित्व का दावा कै से कर सकता है ? के वल भारत ही नहीं बल्कि बाहर भी, सभी
समुदायों के बीच इसके अध्ययन एवं समावेशन से जुड़ा सक्रिय प्रसार तुरंत आरंभ होना
चाहिए।
2. व्यवसायबंदी:
व्यक्ति के रुझान और क्षमता के अनुसार उसे अपने योग्य रोजगार चुनने
का अधिकार होना चाहिए। के वल किसी कु टुम्ब विशेष में पैदा होने पर उसके कार्य से
जुड़ना व्यक्ति एवं पेषे दोनों का अहित करता है। कु ल से बाहर कोई पेशा अपनाकर उस
व्यक्ति को बहिष्कृ त किए जाने के खतरे आज भी हैं और यह उतना ही बुरा है। बिना
चुनौती एवं प्रतिस्पर्धा के , या रुझान के अभाव में, के वल अपने पिता या दादा द्वारा
चलाए गए पेशे को संभालने से व्यक्ति लापरवाह और अनुत्पादक बनता है। यहाँ तक
कि किसी हिन्दू पुजारी को भी के वल आनुवांशिक तौर पर वह कार्य नहीं अपनाना
चाहिए। उसे किसी भी अन्य पेशे की तरह परीक्षा देकर तरक्की की सीढ़ियां चढ़नी
चाहिए। के वल तभी वह शिक्षित पुजारी के तौर पर जाना जाएगा, ना कि पालने में
सिखाए गए श्लोंकों को बड़बड़ाने वाला! हिन्दू समाज की उच्चतम कोटि, पंडा या
पुजारी और निम्नतम स्तर, भंगी या मेहतर, आनुवांशिक तौर पर बिल्कु ल ना बनें। मैं
जानता हूँ कि यह बहुत क्रांतिकारी विचार है, परंतु जब तक हम आरंभ नहीं करेंगे,
अपना लक्ष्य कै से प्राप्त कर सकें गे ? डाॅ. आम्बेडकर माहर जाति से संबद्ध हैं जो मृत
जानवरों की चमड़ी उतारते हैं। यदि अपनी आनुवांशिकता के आधार पर, डाॅ.
अम्बेडकर के वल यही कार्य करते, क्या हमारा देश एक असाधारण विचारक और
बौद्धिक से वंचित ना रह जाता ? आप किस लायक हैं, इसका पता जाति कै से लगा
सकती है ? यह अर्थहीन परंपरा है जो ना के वल हमारे हिन्दू राष्ट्र की व्यक्तिगत
प्रतिभाओं एवं रचनात्मकता को रोकती है बल्कि उसकी उत्पादकता को भी कमजोर
करती है, इसलिए इसे समाप्त होना ही होगा।
3. स्पर्शबंदी:
अस्पृश्यता पाप है, मानवीयता के नाम पर धब्बा और इसे किसी भी प्रकार
सही नहीं ठहराया जा सकता। के वल अस्पृश्यता ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है,
कोई अन्य मनुष्य नहीं। यह मूर्खतापूर्ण बेड़ी टूटेगी तो करोड़ों हिन्दू भ्राता मुख्यधारा में
शामिल होंगे। वह विभिन्न क्षमताओं में देश की सेवा और उसके गौरव की रक्षा करेंगे।
4. समुद्रबंदी:
जिस दिवस हमने समुद्र पार कर विदेशी भूमि जाने पर रोक लगाई और
उसे जाति भ्रष्ट होने से जोड़ा था, विभिन्न दिशाओं में हमारा पतन हुआ था। कभी
माॅस्को से मिस्र तक फै ला विराट हिन्दू साम्राज्य आज कै सा सिकु ड़ गया है। हमारे
विदेशी वाणिज्यिक एवं व्यापारिक अवसर धूमिल पड़ गए। सांस्कृ तिक एवं शैक्षणिक
आदान-प्रदान तथा निकट प्रभाव रुक गए। कभी विश्व में गर्व का प्रतीक रही हमारी
नौसेना रेत की तरह ढह गई और इस कारणवश विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में आए
जिन्होंने हमें आसानी से हरा दिया। इस सब ने एक सिमटे हुए समाज को बढ़ावा दिया
जो अपनी ही दुनिया में संतुष्ट था, दुनिया भर में चल रहे कार्यों से पूर्णतया विमुख।
अधिकाधिक विद्यार्थियों, हिन्दू संगठनवादियों और युवा भारतीयों को बिना जाति भ्रष्ट
होने के भय से समुद्र पार करना चाहिए ताकि वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विचार हमारे
समक्ष ला सकें और भारत एवं उसकी संस्कृ ति की महक विश्व के प्रत्येक कोने में फै ले।
5. शुद्धिबंदी:
हिन्दू पंथ में पुनः धर्मांतरण को मंजूरी ना मिलना आत्मघाती है। इस्लाम या
ईसाइयत में धर्मांतरित हुए हिन्दुओं को कितनी आसानी से अपनाया जाता है। इसके
बावजूद, किसी गैर-हिन्दू को यह सुविधा उपलब्ध नहीं कि जो उत्सुकता से अपने पंथ
में लौटना या हिन्दू पंथ को अपनाना चाहे। यह अड़चन हमारी संख्या को निरंतर कम
करती है और हिन्दू समाज धर्मांतरण तंत्र का शिकार बनता है जो हमेशा अपनी संख्या
बढ़ाने का कार्य देखती हैं, कई बार तो कपट एवं लोभ की मदद से। जो के वल दृढ़
विश्वास के बल पर धर्मांतरित होते हैं, मैं उनके खिलाफ नहीं हूं। परंतु ऐसे उदाहरण
दुर्लभ होते हैं। हिन्दू पंथ में पुनः प्रवेश को मंजूरी नहीं को धता बताते हुए क्यों नहीं हम
ऐसे किसी अप्रचलित विचार के आधार पर अपनी संख्या बढ़ाने का कार्य करते, जिसे
धर्मग्रंथों की भी मान्यता प्राप्त ना हो ?
6. रोटीबंदी:
खुद को इस विचारहीन बेड़ी से आज़ाद करना कि विजातीय के साथ भोजन
करने से जाति भ्रष्ट होती है – हम समाज के तौर पर मुक्त होंगे। सूखे के दौरान ईसाई
मिशनरियों के हाथों भोजन प्राप्त करने या दंगों के दौरान जबरन गोमांस खिलाए जाने
पर लाखों हिन्दुओं को उनकी जाति एवं पंथ से हाथ धोना पड़ा था। क्या इससे अधिक
मूर्खतापूर्ण विचार हो सकता है ? दरअसल, शुद्धिबंदी और समुद्रबंदी जैसी कु रीतियाँ
रोटीबंदी से ही जन्मी हैं। जो भोजन आपकेे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, उसी पर
रोक होनी चाहिए। किसी अन्य इंसान के साथ खाना या पीना, किसी भी रूप में धर्म
जैसी निजता का हनन नहीं कर सकता। इस पर बहुत गौर से विचारने एवं
आत्मविष्लेषण की जरूरत है। पंथ हृदय, आत्मा एवं प्राण में है; पेट में नहीं! किसी
भोजन पर पाबंदी नहीं। जो भी स्वास्थ्यवर्द्धक, पौष्टिक एवं स्वादिष्ट है, खुले दिल और
खुशी से स्वीकारना चाहिए, यह सोचे बिना कि वह किसने पकाया और कहां से आया।
पूरी दुनिया ने हमें लूटा और हमारा अनाज खाया – क्या वह सब हिन्दू बन गए ? तो
फिर हिन्दू के मुस्लिम के साथ खाने पर उसकी जाति भ्रष्ट कै से हो जाएगी ?
7. बेटीबंदी:
अंतरजातीय विवाह की प्रथा को रोकने के प्रयासों ने हमारे हिन्दू समाज का
बहुत नुकसान किया है। मैं यह नहीं कह रहा कि प्रत्येक ब्राह्मण एवं क्षत्रिय को अपने
लिए महार अथवा भंगी पत्नी लानी चाहिए। यह अपने आप में अतिवाद और दबाव के
आधार पर किया कृ त्य होगा। परंतु यदि किसी युगल के गुण, चरित्र, मनोदशा, दिल एवं
दिमाग मिलते हैं तोे हिन्दू वृत्त की भिन्न जातियों से संबद्ध होने के बावजूद, क्या उन्हें
जीवन साझा करने से रोेकना चाहिए ? ऐसे विवाहों को बुरा ठहराने की बजाय, उनका
आदर हो। इससे हिन्दू समाज और वृहत हिन्दू राष्ट्र मजबूत होता है। किसी भी जाति के
होनेे के बावजूद आप हिन्दू हैं। तोे किसी अन्य हिन्दू से विवाह पर पाबन्दी कै से हो
सकती है ?

जाति व्यवस्था सनातन धर्म का हिस्सा नहीं


2
आज जाति व्यवस्था पर किसी भी तरह के विमर्श से लगता है कि यह प्रथा हमारी भूमि पर
प्राचीन सनातन धर्म का अभिन्न एवं महत्वपूर्ण अंश रही है। इसलिए विषय पर बौद्धिक एवं
तार्किक विमर्श से पहले ऐसे मिथक को तोड़ देना आवश्यक है। धर्म शब्द के अनेक अर्थ
हैं। इसका एक अर्थ ‘नियम’ है। परंतु यहाँ भी नियमों की अनेक श्रेणियां हैं। गुरुत्वाकर्षण
का नियम तथा तरल के नियम से तो सब परिचित हैं। ब्रह्माण्ड के नियमों की खोज से धर्मों,
संप्रदाय, दर्शन का जन्म हुआ जिनकी अपनी नियमावलियां बनीं। इनके अपने कई
अधीनस्थ नियम बने जो गहरे से हमारे दैनिक जीवन से जुड़ेे हैं और उन्होंने अनेक धार्मिक
रीतियों एवं रिवाजों को जन्म दिया। अधिकांश लोगों का मानना है कि यह नियम ईश्वर
प्रदत्त हैं और उन्हें ज्यों-का-त्यों माना जाना चाहिए। इसके अलावा, राजनीतिक कानून हैं
जो राष्ट्रों तथा समाजों को व्यवस्थित रखते हैं।
सनातन उन्हीं समयातीत विचारों एवं मान्यताओं का संदर्भ देता है, जो स्वयंसिद्ध तथा
अनश्वर हैं। हमारे वेदों, उपनिषदों या भगवद्गीता में यही अवधारणाएं उपजी हैं। यदि
मानवजाति समाप्त भी हो जाए, यह विचार बने रहेंगे – मान्यताओं का बुनियादी महत्व
कु छ इतना प्रबल है। कभी-कभी मुझे महसूस होता है कि स्वयं ईश्वर भी इन्हें अपदस्थ नहीं
कर सकता।
सनातन के ऐसे निराकार एवं महत्वपूर्ण वैचारिक पक्ष को अस्पष्ट रूप से धर्म से जोड़कर
मानवनिर्मित रिवाजों एवं परिपाटियों से नत्थी करना, उस शाश्वत सत्य के प्रति छल करना
है। समाज में समय-समय पर उभरी जाति व्यवस्था, या विधवा पुनर्विवाह, या फिर
शाकाहारवाद जैसी सामाजिक क्रियाओं को शाश्वत सत्य जैसी अनश्वरता के साथ कै से
जोड़ सकते हैं ? यह समय के साथ छिन्न-भिन्न हो जाएंगी और इसलिए ‘सनातन’ की
आवश्यक सूची में इन्हें कभी नहीं गिना जा सकता। जाति व्यवस्था के खिलाफ निष्पक्ष
दलील रखते हुए यह अंतर समझना ज़रूरी हो जाता है। अतीत में, संन्यास तथा नियोग
(किसी ऋषि द्वारा किसी महिला को गर्भधारण कराना) पवित्र एवं सर्वोत्कृ ष्ट माना जाता
था। समाज के विकास करने पर इन प्रथाओं को खारिज कर दिया गया। तो क्या इसका
अर्थ कि सनातन धर्म का विनाश हो गया ? इसका अर्थ यह नहीं कि हिन्दू समाज ने
परिवर्तन के अवसरों को हाथ से निकल जाने दिया। अन्य मतों के विपरीत, जो रूढ़िवादी
होकर एक पुस्तक से दृढ़ता से जुड़े रहे, हम लगातार विकसित और पनप रहे हैं, और इसी
से हमारा पंथ और समाज जोशपूर्ण और जीवित दिखता है। किसी भी तरह के सामाजिक
सुधार सनातन धर्म के इस सुरक्षित ढांचे को पृथ्वी पर नहीं गिरा सकता, इसलिए, व्यक्ति में
अपने अंदर भरोसा तथा आत्मविश्वास होना चाहिए।
गीता में भगवान श्रीकृ ष्ण का संदेश है: चतुर्वर्णयम् माया सृष्टम्
या ‘यह मैं हूँ जिसने चारों
वर्ण बनाए हैं’। ‘वर्ण’ का एक अन्य अर्थ रंग भी होता है। स्पष्टतः, भिन्न लोगों में विविध
गुण तथा अच्छाइयां होती हैं। कृ ष्ण के वल इतना भर कह रहे हैं कि मैं ही भिन्न प्रकृ ति,
चरित्र, गुणों तथा मूल्यों वाले लोगों की रचना करता हूँ – वह अच्छे हों या बुरे, सब मेरी
रचनाएं हैं। इस कथन में वह कहीं नहीं कहते कि मैं उन गुणों को व्यक्ति की परवर्ती पीढ़ियों
की बपौती हेतु तैयार करता हूं! जब लोकमान्य तिलक ने के सरी
समाचार पत्र के बोर्ड ऑफ
ट्रस्टीज़ तैयार किए थे तो क्या इसका अर्थ था कि वह स्थान ट्रस्टियों को आनुवांशिक तौर
पर प्राप्त हो गया ? जब यह सत्य किसी साधारण समाचार पत्र के लिए उचित नहीं, तो
मानवीय अस्तित्व के लिए कै से सच हो सकता है ? हम सब जन्मगत् शूद्र हैं या जन्मना
जायते शूद्र:
का विचार माना जाता रहा है। जब जीवन आगे बढ़ता है तब हम उत्कृ ष्टता,
शिक्षा एवं गुणों को प्राप्त कर चेतना एवं विचार के विभिन्न स्तरों तक पहुँचते हैं – चार वर्ण
व्यवस्था के पीछे यही बुनियादी विचार काम करता है।
यदि यह वर्ण हमारी सभ्यता का मूल हैं और यदि हम उन पदों में विश्वास रखते हैं जिनके
अनुसार और अधिक श्रेणियां नहीं हो सकतीं, तो फिर इस सिद्धांत को धता बताते हुए
हमने अस्पृश्यों की पाँचवीं श्रेणी की रचना कै से कर दी ? हमारी भूमि के लाखों लोगों को
जानवरों से भी बदतर हालात में धके ल देने से अधिक अमानवीय कार्य और नहीं हो
सकता। अपने यहाँ एक कु त्ते को पालना उचित प्रतीत होता है, परंतु डाॅ. आम्बेडकर जैसे
विद्वान को छू ने भर सेे आपकी जाति भ्रष्ट हो जाएगी ? यह कै सी मूर्खतापूर्ण सोच है ?
अतः, जिन लोगों ने अस्पृश्यता के पांचवें वर्ण की रचना कर पहले ही चतुरवर्ण व्यवस्था को
नष्ट कर दिया है, वर्ण व्यवस्था के समाप्त होने का डर देखते हुए सनातन धर्म के पतन का
शोर मचा रहे हैं। इससे बड़़ी विडम्बना और क्या होगी ?
यदि बहस की दृष्टि से हम मान भी लें कि चारों वर्ण सचमुच शाश्वत हैं, तो क्या यह नहीं
मानना होगा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार ही श्रेणियां हैं। तो फिर मात्र ब्राह्मणों में
ही कै से इतनी उप-जातियाँ आ गई ? प्रांत, मान्यताएं एवं यहाँ तक कि खुद इंसान जितनी
ही जातियाँ दिखती हैं ? यदि वह सब एक ही वर्ण से हैं, तो ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के इन छोटे
उप-संप्रदायों के बीच वैवाहिक या भोजन करने के संबंध क्यों नहीं बनते ? क्या यह लोगों
द्वारा कथित भगवान श्रीकृ ष्ण की रचना का ही उल्लंघन नहीं ? यदि हम मान लें कि वर्ण के
बीच ‘बेटीबंदी’ सनातन धर्म का हिस्सा थी, तो भी वर्ण के बीच ‘रोटीबंदी’ कहां से आ गई
? जब भगवान राम ने एक निम्न जाति की स्त्री शबरी के घर फल खाए तो क्या उससे हमारे
महान सनातन धर्म का घोर नुकसान हुआ था ? या फिर जब भगवान श्रीकृ ष्ण वृन्दावन के
अनपढ़ ग्वालों के घर भोजन करते हैं तो क्या हमारे सनातन धर्म का ढाँचा आ गिरा था ?
यदि हमारेे इष्टदेव ऐसे उदाहरण रखते हैं, तो हम पुरातन मान्यताओं के साथ क्यों चिपके हैं
जो हमारे समाज को पंगु बनाती हैं और वृहत हिन्दू समाज के हितों के लिए नुकसानदेह है
? ऐसे प्रचलनों में सुधार तथा उनके उन्मूलन का विरोध करने वाला ही सनातन धर्म एवं
हिन्दू राष्ट्र का सबसे बड़ा विरोधी है। हमें जन्म या आनुवांशिकता आधारित नहीं बल्कि
विशेषताओं एवं गुणों वाली जाति व्यवस्था की जरूरत है।
हानिकारक सामाजिक कु रीतियों के उन्मूलन या उनमें सुधार करने वाले किसी भी
सामाजिक कार्यकर्ता को सबसे पहले उसकी लोकप्रियता में गिरावट से जूझना पड़ता है।
उसे बदनाम, बर्बाद और उखाड़ फें कने के प्रयास किए जाएंगे। उसे इसके लिए तैयार रहना
होगा। बहुसंख्यक जब उनके खिलाफ हो गए थे, ईसा मसीह के कहे का यही अर्थ थाः ‘तुम
उनके बुत बनाते हो जिन्हें तुम्हारे पूर्वजों ने पत्थरों से मार डाला!’ उनका उपहास या
अस्वीकार करने के सदियों बाद, आज वही ईसा या बुद्ध या मोहम्मद लाखों लोगों के इष्ट
और पैगम्बर हैं। परंतु उनके समकालीनों का उनके प्रति क्या व्यवहार रहा, इसे देखकर
कोई भी बता सकता है कि उन्हें उस समय आज जैसा स्तर प्राप्त नहीं हुआ था। ईसा को
सलीब पर टांग दिया गया था; बुद्ध पर जानलेवा हमला हुआ था; पैगम्बर मोहम्मद को
पलायन करना पड़ा था, वह युद्ध में जख़्मी हुए और उन्हें कायर कहा गया था।
अतः, सुधारक यथास्थिति को चुनौती देते हैं, बदनाम होते हैं, सामाजिक संतुलन को
आंदोलित करते हैं, धार्मिक भावनाओं पर प्रहार करते हैं, बहुसंख्य समुदाय की ओर पीठ
करते हैं, तार्किक दृष्टिकोण से सोचकर उसके अनिवार्य परिणामों को झेलते हैं। अपनी
परिभाषा से ही समाज सुधार सामाजिक कु रीतियों को उखाड़ने और समाज में सुनिर्मित
विचारों को स्थापित करने का प्रयास है। जाहिर है, सदियों पुरानी धार्मिक प्रथाओं एवं
अभ्यासों में सुधार के लिए खड़े होने वाला व्यक्ति अलोकप्रिय होगा और उसे घृणा से देखा
जाएगा। वहीं एक व्यक्ति जिसने लोकप्रियता को अपना धंधा बनाया है, भय के कारण
लोकप्रिय पथ पर ही चलेगा। एक सच्चा सामाजिक या धर्म सुधारक के वल वृहत समाज
का भला करने की मंशा से ही चलता है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं लोकप्रियता एवं आमजन
के लाभ के बीच के चुनाव में पिसा नहीं हूं, मैंने अपने मस्तिष्क में बैठा लिया हैः वरम्
जनहितम् ध्येयम् के वलः नः जनस्तुति (आमजन के लाभ के लिए सोचना ही उचित है,
उससे प्रशंसा प्राप्त करना नहीं)।

गोरक्षा पर: गाय दिव्य नहीं


3
हमारे जैसे कृ षि प्रधान देश में, गाय एवं बैल बहुत लाभदायी पशु हैं। गाय जैसे आज्ञाधीन,
अहिंसक तथा असहाय जानवर बहुत कम होते हैं, इसलिए उनके प्रति अत्यधिक स्नेह और
ममता भाव प्राकृ तिक रूप में उभरता है। माँ के दूध के बाद, सब लोग गाय के दूध का ही
सेवन करते हैं। इस दूध से बनने वाली खान-पान की अन्य वस्तुएं तथा मिठाइयां भी सभी
के द्वारा पसंद की जाती हैं। अतः, गाय को बचाना एवं पालन-पोषण करना हमारी निजी
और पारिवारिक जिम्मेदारी बनती है। कम से कम, हिन्दुस्तान के मामले में तो यह हमारा
राष्ट्रीय कर्तव्य है। विविध तरीकों से लाभकारी एक पशु के प्रति कृ तज्ञता भाव उभरना भी
स्वाभाविक है। गाय के प्रति कृ तज्ञता का यह भाव, अन्य सभी जीवों के प्रति करुणा की
हिन्दू विशेषता से जुड़ा है। अपने किसी परिवारजन की ही तरह उस दुधारू पशु की
देखभाल करना बिना शक मानवीयता की उदार विशेषताओं से संबद्ध है।
तथापि, हर बार जब मैं गोपूजा करने वालों से प्रश्न करता हूं, वह मुझे उसके द्वारा मिलने
वाले लाभ गिना देते हैं, दूध से लेकर गोबर तक। उसकी उपयोगिता ही उसकी उपासना का
कारण है। परंतु सोचिये, यदि वह पौष्टिक दूध की बजाय सर्प जैसा जहर उगलती या
चुपचाप, एक कोने में खड़ी रहने की बजाय शेर की तरह हमारे ऊपर झपटती। क्या तब भी
हम उसे माँ सरीखा पूजते ? यदि पूजते, तो वह उपासना डर से उपजती, ना कि प्रेम या
कृ तज्ञता से। अतः, मेरी स्थापना है कि यह उपासना उसकी उपयोगिता और उसके प्रति
हमारी कृ तज्ञता से उपजती है।
गाय एवं भैंस जैसे मवेसी तथा बरगद एवं पीपल जैसे पेड़ इंसान के लिए उपयोगी हैं,
इसीलिए हम उन्हें पसंद करते हैं; इसी कारण हम उन्हें पूजने लायक भी मानते हैं। उनका
संरक्षण, पोषण और रख-रखाव हमारी जिम्मेदारी है; मात्र इसलिए यह हमारा धर्म या
कर्तव्य है ! क्या तब ऐसा नहीं होता जब किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यह जानवर या वृक्ष
मानवजाति के लिए समस्या बन जाते हैं, तो यह पोषण अथवा संरक्षण किए जाने लायक
नहीं रहते, और तब उनका नष्ट किया जाना मानव या राष्ट्रीय धर्म बन जाता है ? जब
मानवीय सरोकार पूरे नहीं होते और गाय द्वारा उनका अहित होता है और मानवीयता
शर्मिंदा होती है, ऐसे में आत्मघाती गोरक्षा को नकारा जाना चाहिए।
हालाँकि, मुझे इस सुंदर जीव को बचाने में कोई ऐतराज नहीं दिखता, परंतु मैं इसकी देवी
सरीखी उपासना नहीं कर सकता। हमें ‘ईश्वर’ या ‘देवी’ जैसे शब्दों को आसानी से किसी
जीव के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए। अनेकानेक अज्ञानी लोगों के बीच कु छ ही
ज्ञानीजन आदर योग्य होते हैं। जब वह चेतना के उच्च स्तरों पर पहुँचते हैं तो हम उन्हें देव
या दिव्य जनों की श्रेणी में रखते हैं। ऐसे परिदृश्य में एक ऐसा पशु, जो बेशक अपने आप
में मधुर और बेहद उपयोगी हो, परंतु जिसमें सबसे अज्ञानी लोगों जितने व्यावहारिक ज्ञान
की भी कमी हो, उसे ईश्वर कै से माना जा सकता है ? ऐसा पशु जो कू ड़ा खाए तथा कहीं भी
और कभी भी विष्ठा त्यागे, उसे देवी की श्रेणी में रखना, मेरी नजर में मानवीयता और
दिव्यता दोनों का अनादर है। एक ओर हम आम्बेडकर जैसेे बौद्धिकों तथा चोखा मेला जैसे
संतों को उनकी जाति के आधार पर अपवित्र मानते हैं; परंतु दूसरी ओर, किसी पशु का मूत्र
हमारे लिए आत्मा को पवित्र करने का साधन बनता है! क्या यह झूठ और विरोधाभास
नहीं!
हमारे पूर्वजों ने उसकी रक्षा की जिम्मेदारी का अहसास हमारे अंदर भरने के लिए गाय
को दिव्य श्रेणी में रखा होगा, परंतु हमने उसे यथाशब्द ले लिया। हमें याद रखना चाहिए कि
गाय इंसान के लिए उपयोगी पशु है और इसके अलावा कु छ नहीं। ऐसा करना इंसान की
साख गिराता है। उपासना का प्रयोजन उपासक से बड़ा होना चाहिए। इसी तरह, एक
राष्ट्रीय प्रतीक को देश के अनुकरणीय पराक्रम, प्रतिभा और अपेक्षा जगाते हुए लोगों को
उच्च सोपान की ओर ले जाना चाहिए। शुक्र है कि किसी भी ज्ञानी पुरुष ने गोपूजा के
संबंध में संस्कृ त के दर्जन भर श्लोक नहीं लिखे हैं। अन्यथा हमारेे सामने प्रतिदिन उपासना
के लिए अपनी गायों को खूबसूरत साड़ियां पहनाकर, उन्हें उठाकर घूमने वालों के
हास्यास्प्रद दृश्य दिखाई देते!
इतिहास ऐसे उदाहरणों से अटा है कि कै से गायों को युद्धों में ढाल बनाकर, हमारे शत्रुओं
और आक्रांताओं ने इस अबोध भावना को हमारेे खिलाफ इस्तेमाल किया। शत्रु सेनाओं के
समक्ष बड़ी संख्या में गायों को देख हिन्दू हथियार रख देते थे, क्योंकि वह गोहत्या का भागी
नहीं बनना चाहते थे। मुस्लिम हमलावरों को हमारे समाज की इस कमजोरी का पता था
और उन्होंने इतिहास में कई बार इसका लाभ उठाया जिसके बयान उनके इतिहास लेखकों
ने खुद दर्ज किए हैं। उन्हें हमारे पूजा स्थलों को दूषित करने के लिए मूर्तियों पर गोमांस
फें कने की जरूरत होती थी, जिसके बाद उनके टुकड़े कर दिए जाते। कु छ मंदिरों, गिने-चुने
ब्राह्मणों और गायों को बचाने के लिए हमने अपने देश को विदेशी ताकतों के सामने बलि
चढ़ा दिया। क्या ऐसा किसी भी राष्ट्र के लिए शुभ होता ? इस कु रीति में डूबी, अतार्किक,
आत्मघाती सोच ने राष्ट्रीय और धार्मिक कायरता को जन्म दिया जिसने हमें सदियों तक
डुबोये रखा। जब हिन्दू फौजों ने मुल्तान को कू च किया था, मुसलमानों ने वहाँ के प्रसिद्ध
सूर्य मंदिर को तोड़ने की धमकी दी थी। जब मराठा प्रमुख, मल्हार राव होल्कर ने काशी को
मुक्त कराने का प्रण लिया, मुसलमानों ने वहाँ हिन्दुओं की सब पवित्र वस्तुओं को दूषित
करने का भय दिखाया था। मंदिरों के गिराए जाने, ब्राह्मणों के मारे जाने और गोहत्या का
कारण ना बनने के कारण ऐसे अवसरों पर पवित्र हिन्दू पीछे हट गए।
यदि ढाल के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली उन गायों को हिन्दुओं ने ही मारकर पीछे
खड़े शत्रु को समाप्त कर दिया होता, तो क्या भावी पीढ़ियों के लिए हजारों गायों और
मंदिरों की रक्षा ना होती ? सबसे ज़रूरी, क्या हमारे हिन्दुस्तान को जीत लिया जाता ?
लिहाजा, मेरी दलील है कि मानवीय हितों की कीमत पर गोरक्षा खतरनाक है, जैसा कि
इतिहास ने हमें साबित किया है।
हिन्दुत्व का प्रतीक गाय नहीं बल्कि नरसिंह है। ईश्वर के गुण उसके उपासक में व्याप्त हो
जाते हैं। गाय को दिव्य तथा पूजनीय मानकर उसने समूचे हिन्दू राष्ट्र को ही गाय की तरह
विनम्र बना दिया है। उसने घास खानी शुरू कर दी। यदि हमें अपने देश को किसी पशु के
नाम से ही जोड़ना है, तो वह शेर होना चाहिए। अपने तेज पंजों की मदद से, शेर अपने
विरोधी को गिराकर जख्मी कर डालता है। हमें ऐसे नरसिंह की उपासना करनी चाहिए।
अब से गाय नहीं, शेर हिन्दुत्व का असली प्रतीक रहे। शोषित और मन-मुताबिक मारकर
खा जाने वाली, गाय मौजूदा समय की कमजोरी की आदर्श प्रतीक है। परंतु आखिर, कल
के हिन्दू राष्ट्र का प्रतीक दयनीय नहीं होगा।
क्या अनंत काल से अश्व और श्वान (कु त्ता) मनुष्य के विश्वासपात्र साथी नहीं रहे ? कु त्ते
अपने मालिक को पूर्ण और बिना शर्त प्रेम देते हैं, शिकार में उनके सहायक बनते हैं, घर की
सुरक्षा और अपनी अंतिम सांस तक वफादारी निभाते हैं। इसके बावजूद, हम अप्रिय लोगों
के लिए ‘कु त्ता’ शब्द निन्दास्वरूप इस्तेमाल करते हैं ! हम कु त्ते की उपासना क्यों नहीं
करते और गाय के पक्ष में ही पक्षपात क्यों, के वल इसलिए कि वह हमें दूध देती है ? यदि
उपयोगिता ही हमारी उपासना का आधार है तो क्या कु त्ते या घोड़े की उपयोगिता कु छ कम
है ? अपने देश के दुश्मनों के खिलाफ युद्धों में घोड़ों, खच्चरों एवं गदहों ने भी महत्वपूर्ण
भूमिकाएं निभाई हैं। तो क्या हमें इन जीवों की उपासना की श्रृँखला भी तैयार करनी
चाहिए, या इनकी सुरक्षा हेतु एक श्रमसाध्य तंत्र स्थापित करना ही काफी होगा ?
अमेरिका जैसे देश की ओर देखते हैं तो हमें पता चलता है कि दिव्य भावों को एक ओर
रखकर गाय जैसे मवेसी से लाभ उठाने के कितने उपाय हो सकते हैं। बड़े फार्म और मवेसी
पालन की आधुनिक तकनीकों से दुग्ध उत्पादन इतना बढ़ा है कि देश का कोई बच्चा बिना
दूूध के ना रहे और इस कार्य में गोरक्षा का तत्व भी निहित है। यह उपयोगी जीव रोगों और
संक्रमणों से दूर रहे और इसकी संतानें भी स्वस्थ हों, इस संबंध में प्रत्येक देखरेख
आवश्यक है। यही कृ ष्ण का वह गोकु ल है जिसके संबंध में हमारे धर्मग्रंथ बताते हैं।
अमेरिका में बड़े रैंच हैं जहाँ मवेसी मजे में घूम सकते हैं। जबकि हमारे देश में, जहाँ हम
गोमूत्र को दिव्य समझकर सेवन करते हैं, क्या ऐसी संस्थाएं दिखती हैं जो गोधन की
सुरक्षा, कल्याण तथा विकास की बात करती हों ? क्या यह विषय से जुड़ी विडंबना नहीं ?
गोपूजा की हमारी प्रथा चाहे कै से ही अज्ञान से जुड़ी हो, परंतु वह क्रू र नहीं। परंतु गाय से
नफरत करने वाली उन गैर-हिन्दुओं की धार्मिक क्रू रता ना के वल अज्ञानमय है, बल्कि
क्रू रता की हद तक कट्टर है। उन्हें हिन्दुओं का उपहास बनाने का कोई हक नहीं। गैर-
हिन्दुओं को गाय के प्रति अपनी नफरत समाप्त कर राष्ट्रीय एकता एवं आर्थिक प्रगति के
लिए खुद को गोरक्षा से जोड़ना चाहिए। बेशक, यदि ज़रूरी हो तो चारों ओर खुल आए
कसाईखानों का विरोध करो; गोरक्षा करो, परंतु उसकी उपासना में खुद को मूर्ख मत
बनाओ।
मुझे विश्वास है कि मेरा यह विचार अनेक गो-उपासकों को नाराज करेंगे और मैं उनकी
नाराजगी झेलने को तैयार हूँ ! परंतु गौर से सोचने पर उन्हें मेरी दलील का सच समझ
आएगा। जो मेरे विचारों को ईशनिंदा से जोड़ते हैं, उनको बता दूँ कि तैंतीस करोड़ देवी-
देवताओं को एक बेचारे पशु के रूप में मानकर आप ईषनिंदा के पात्र बनते हैं !
मैं गाय का शत्रु नहीं। मैंने के वल गोपूजा के रूप में उग आई ऊं ची घास जैसी भ्रांतियों
और विधियों की आलोचना की है ताकि गोरक्षा के असली लक्ष्य को समझ कर उसे प्राप्त
किया जा सके । बिना धार्मिक अंधविश्वास फै लाये, आइये गोरक्षा अभियान को पूर्णतः
सीधे-सादे आर्थिक एवं वैज्ञानिक सिद्धांतों से जोड़ें। उसके बाद ही हम अमेरिकनों की तरह
गोरक्षा कर पाएंगे। उपासना रूपी व्यवहार बिना शक संरक्षण से जुड़ा है। परंतु गोरक्षा के
कर्तव्य को भूलकर के वल उसकी पूजा से जुड़ जाना अव्यावहारिक है। ‘के वल’ शब्द यहाँ
महत्वपूर्ण है। पहले गाय की रक्षा करो और फिर यदि आपको ज़रूरी लगे, इच्छा हो तो
उसकी उपासना भी करो !

मुस्लिमों का आधुनिकीकरण
4
जैसा कि मेरा कर्तव्य हिन्दू राष्ट्र को यह बताना है कि वह अपनी नादान धार्मिक रिवायतों,
विधियों एवं विचारों को विज्ञान के इस युग में छोड़ें, उसी प्रकार मैं मुस्लिम समाज से भी
कहना चाहूंगा, जो हिन्दुस्तानी राष्ट्र का अपरिहार्य अंग है, कि वह अपने भले के लिए,
तकलीफ देने वाली आदतें और धार्मिक कट्टरता छोड़े – ऐसा उसे के वल हिन्दुओं के लिए
नहीं करना है, और ना ही इसलिए कि हिन्दू उसकी धार्मिक कट्टरता से डरते हैं, परंतु
इसलिए कि यह अभ्यास उसके अपने समुदाय पर धब्बा हैं और यदि ऐसी पुरातन रीतियों
से जुड़े रहेंगे तो विज्ञान के इस युग में कु चले जाएँगे।
आप कु रान के प्रति बेहद सम्मान रखते हैं तो भी आपको यह विश्वास छोड़ना होगा कि
कु रान के एक भी शब्द पर सवाल नहीं उठ सकता क्योंकि यह अल्लाह का शाश्वत संदेश
है। घरेलू संघर्ष के दौरान पिस रहे अरब के शोषित परंतु पिछड़े लोगों के लिए मुफीद लगने
वाले मानकों को शाश्वत नहीं माना जा सकता; आधुनिक समय में जो प्रासंगिक है, उसके
साथ बने रहने की आदत डालनी चाहिए।
ओह मुस्लिमों! जरा सोचो कि बाइबल के शिकं जे से मुक्त होने के बाद यूरोपियनों के
सामने तुम क्या हो, जिन्होंने हमारेे समय के लाभकारी विज्ञान पर महारत हासिल की है।
तुम्हें स्पेन से खदेड़ दिया गया, तुमने नरसंहार झेले, और ऑस्ट्रिया, हंगरी, सर्बिया तथा
बुल्गारिया में कु चल दिए गए। मुगल शासित भारत से तुम्हारा कब्जा छीन लिया गया। वह
अरब, मेसोपोटामिया, इराक और सीरिया में तुम पर शासन कर रहे हैं।
जैसे हमारे यज्ञ, प्रार्थनाएं, वेद, पवित्र पुस्तकें , प्रायश्चित, श्राप यूरोपियनों का नुकसान नहीं
कर सकते, उसी तरह तुम्हारी कु रान, शहादतें, नमाज, गंडे-तावीज़ों से उन्हें कोई फर्क नहीं
पड़ता। जैसे सेनाओं को युद्ध पर भेजने वाले मौलवियों का यह मानना था कि अल्लाह के
नाम पर लड़ने वाले कभी नहीं हारते, उसी तरह आराम से बैठ एक लाख बार राम नाम
जपते हमारे पंडित थे। परंतु इस सबका यूरोपियनों पर कोई असर ना हुआ। अपने
आधुनिक हथियारों से उन्होंने ना के वल मुस्लिम सेनाओं को नष्ट किया बल्कि, खुदा के
परचम का उपहास किया।
और इसी कारण मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सभी धार्मिक कानूनों की बेड़ियों को तोड़ा
जिनकी वजह से तुर्क देश पिछड़ा था। उन्होंने स्विट्जरलैंड, फ्रांस और जर्मनी से नागरी
कानून, आपराधिक कानून और सैन्य कानून उद्धृत किए और उन्हें कु रान के कानून से
बदला। कु रान में जो लिखा है, उसका उसी तरह पालन करना अब मायने नहीं रखता।
आज का एकमात्र सवाल है, आधुनिक विज्ञान की रोशनी में राष्ट्रीय विकास के लिए ज़रूरी
कार्य करना। आज तुर्की यूरोप के सामने खड़ा हो सकता है तो इसलिए क्योंकि कमाल ने
देश में आधुनिक विज्ञान को प्रधानता दी है। यदि तुर्की कु रान की जिल्द में कै द होता, जैसा
वह के माल सुल्तान या खलीफा के राज में था, तो तुर्क आज भी यूरोपियनों के जूते
चमकाते दिखते, जैसा आज भारतीय मुसलमान दिखता है। यदि तुर्क के लोगों जैसी
तरक्की चाहते हो, तो भारतीय मुस्लिमों को एक हजार वर्षों से चली आ रही धार्मिक
कट्टरता छोड़नी होगी, और आधुनिक विज्ञान को स्वीकारना पड़ेगा।

मशीनी युग और वैज्ञानिक सोच पर


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हमारा देश आज उस युग में कदम रख रहा है जहाँ यूरोप दो सौ वर्ष पूर्व पहुँचा था। इसका
अर्थ है कि हम यूरोप से 200 वर्ष पीछे हैं। अर्थशास्त्रियों ने इस युग को मशीनी युग की संज्ञा
दी है। परंपरावादियों एवं यथास्थिति बनाए रखने के पैरोकारों से जो विरोध देखने को मिल
रहा है, यूरोप में वही अनुभव 200 वर्ष पहले लिए जा चुके हैं। जब आधुनिक विज्ञान
पारंपरिक मान्यताओं और मूल्यों को चुनौती देगा, यही स्थिति अनिवार्य तौर पर दिखेगी।
यूरोप में औद्योगिक एवं मशीनी युग आने पर, व्यापक तौर पर भय दिखाया गया कि
शैतानी मशीनें धर्म का ह्रास करेंगी, इंसान मशीन जैसे संवेदनाहीन हो जाएंगे और हम
अपनी कला एवं संस्कृ ति से हाथ धो देंगे तथा व्यापक बेरोजगारी फै ल जाएगी। मान्यता थी
कि मशीनें जिस समृद्धि को लाने का दावा करती हैं, उनके आने से उसी समृद्धि का नाश
होगा। यूरोप में भावी विनाश की कर्क श चेतावनियां सुनाई देने लगीं और साथ ही ‘प्रकृ ति
की ओर लौटो’ का आह्वान किया गया।
भारत में भी धार्मिक नेताओं ने अभी तक हमें मशीनों को स्वीकारने से रोके रखा है।
अठारहवीं सदी में लिस्बन में प्रलयंकारी भूकम्प आया था। यूरोप के धार्मिक नेताओं ने
घोषित किया कि भूकम्प रोमन कै थोलिकों के खिलाफ प्रोटेस्टेंट साजिश के कारण आया
था। यह ईश्वर द्वारा मानव को सज़ा देने का तरीका था क्योंकि प्रोटेस्टेंट विवाह समारोह
महिलाओं द्वारा आयोजित किए जाते हैं, क्योंकि प्रोटेस्टेंट पुजारियों को विवाह करने की
इजाज़त है, और पोप के उपदेश को अपरिहार्य नहीं माना जाता। और समाज की इन
बेसिरपैर के धार्मिक ऐलानों पर क्या प्रतिक्रिया थी ? प्रोटेस्टेंट्स को समाप्त करने का
धर्मयुद्ध शुरू कर के ।
ऐसी धर्मांध आत्माएं भूकम्प के भौतिक एवं वैज्ञानिक पक्षों को कै से समझ सकें गी,
बल्कि क्या उन्हें भूकम्प विज्ञान का इस्तेमाल कर ऐसी मशीनों का निर्माण नहीं करना
चाहिए जो शायद भूकम्प के झटकों की पूर्व चेतावनी या उससे होने वाले नुकसान को
रोकने में तो कु छ मदद करे ? अंततः, ऐसी सरल धार्मिक मान्यताएं को वैज्ञानिक सोच से
समाप्त करने पर ही यूरोप मशीनी युग को स्वीकार सका था।
हालाँकि, यह भारत का दुर्भाग्य है कि हाल में बिहार के विनाशकारी भूकम्प को गांधी जी
जैसे प्रभावी व्यक्ति ने अपनी ‘अंदरूनी आवाज’ के आधार पर बर्बर जाति व्यवस्था पर
ईश्वर का प्रकोप बताया! मैं अभी तक यह सुनने के इंतजार में हूँ कि उनकी ‘अंदरूनी
आवाज’ क्वेटा के भूकम्प पर क्या कहती है ! जैसे कि राजनीतिक नेता काफी नहीं थे,
हमारे धार्मिक नेता भी ऐसी धारणाएं फै लाने में पीछे नहीं दिखते। शंकराचार्य और अन्य
धार्मिक नेताओं ने धर्मग्रंथों की सौगंध लेकर हमें बताने का प्रयास किया कि यह भूकम्प
जाति प्रथा को समाप्त करने के प्रयासों का नतीजा था। तर्क कै से दोनों ओर कार्य करता है,
यह अपने में हास्यास्पद है ! वैज्ञानिक विषयों पर जब प्रभावशाली राजनीतिक नेता ऐसे
अंधविश्वासी तथा सीधे विचार रखेंगे तो आमजन के बारे में क्या कहा जा सकता है ?
जाहिर है वह ईश्वर और उसकी रचना के समक्ष व्यर्थ और अबोध भय से डरे रहते हैं जो
उन्हें प्रत्येक भौतिक दृश्य में दिखता है। क्या मानसून में कमी रह गई ? तो आओ ऋग्वेद
का मंडक सूत्र
पढ़ो, मेढ़कों का आह्वान करो, जो टर्राकर वर्षा करा देंगे ! क्या बाढ़ के
कारण नावें डूब जाती हैं ? आइये वरुण सूक्त पढ़िये और महासागरों के ईश्वर को नारियल
चढ़ाइये। क्या प्लेग महामारी फै ली थी ? इसका सबसे सरल रामबाण बकरी की बलि देना
होगा। ईद पर मासूम जानवरों और गायों की बलि चढ़ाओ, और जादू ! ऊपर बैठा आपका
ईश्वर अचानक आपसे बेहद खुश हो जाएगा ! क्या ईश्वर भी हमारे माननीय कलेक्टर का
जैसा भ्रष्ट और आत्ममुखी है कि जिसे जब तक दर्जन बढ़िया आम नहीं चढ़ाए जाएंगे, वह
काम नहीं करेगा ? क्या ऐसे सीधे और सरल भावों को कोई औचित्य या तर्क सहयोग दे
सकता है ?
परंतु विज्ञान और वैज्ञानिक सोच के वल तर्क और विचार शक्ति पर चलता है। यह भौतिक
घटनाएँ हैं जिन्हें सीमित परिस्थितियों में अनुभव किया या दोहराया जा सकता है। यदि
पानी को निश्चित तापमान पर उबाला जाए, वह वाष्प बनेगा, और ऐसा आपके ईश्वर की
इच्छा या मंत्र अथवा नमाज़ पढ़ने में आपकी असफलता के बावजूद होगा ! जिस इष्ट से
आप इतना डरते हैं, उसे मनाने में असफल रहने पर मशीन आपको सज़ा नहीं देती। मशीनी
युग और मशीनीकरण की बुनियाद और आधारशिला वैज्ञानिक सोच-समझ है, जो भारत
को प्रगति के मार्ग पर लेकर जाएगी।
मशीनें उदार हैं या विपत्ति ? मशीनों को विपत्ति मानने वालों को याद रखना चाहिए कि
हमारी प्रत्येक मानवीय इंद्री किसी मशीन से कहीं अधिक प्रबल है। मशीन व्यक्ति के चाकर
की तरह कार्य करती है। यदि उसे विध्वंसक कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, वह
व्यापक तबाही फै ला सकती हैं। हालाँकि, उसी मशीन को नेक तथा समझदार मानव
मस्तिष्क कु शलता से इस्तेमाल कर सकते हैं। अतः, बहस का मुद्दा मशीन और उसके गुण
नहीं बल्कि मानवता है। बेरोजगारी का कारण मशीनीकरण नहीं बल्कि स्रोतों और पूंजी का
अनुचित वितरण है, इस संबंध में दोष सामाजिक ढांचे और बुराइयों का है। यदि उनमें
संशोधन होता है तो यह समस्याएं स्वतः ही दूर हो जाएंगी।
यदि कोई देश अपने खाद्यान्न एवं कपड़ा निर्माण में मशीनीकरण की मदद से
सफलतापूर्वक वृद्धि करना चाहता है, और उसके बावजूद वहाँ के लोग भूखे और नंगे रहते
हैं, तो क्या दोष हम निर्माणकर्ता मशीनों के सिर मढ़ेंगे ? के वल विज्ञान, आधुनिक सोच
और औद्योगिकरण की मदद से हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि भारत के प्रत्येक पुरुष तथा
स्त्री के पास काम हो, खाने को रोटी और पहनने को कपड़ा हो तथा वह खुशहाल जीवन
जीये।

सिनेमा पर विचार
6
‘फिल्में 20वीं सदी की सबसे सुंदर रचनाओं में से हैं। यह मशीनी युग है। हम मशीनों द्वारा
निर्मित वस्तुओं से घिरे हुए हैं। मनोरंजन की दुनिया भी इसका अपवाद नहीं हो सकती।
कृ पया यह समझिये कि मैं तकनीक में हो रही वृद्धि की आलोचना करने से इनकार करता
हूं। मैं चाहता हूँ कि आधुनिक मशीनों का विस्तार हो जिससे समूची मानव जाति को लाभ
मिले।
‘मनुष्य के उन्नतिशील मस्तिष्क पर किसी तरह की रोक को नापसंद करता हूं। ऐसा
इसलिए कि आधुनिक प्रगति और आधुनिक संस्कृ ति नवीकरण के कारण ही अस्तित्व में
आई है। पिछले अनेक वर्षों में मानव समाज में दिखने वाली विज्ञान और ज्ञान की प्रगति
की झलक समकालीन सिनेमा में देखने को मिल सकती है। फिल्मों से अधिक आधुनिक
तकनीक का कोई बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता, और इसलिए मैं उन पर कभी कोई
रुकावट नहीं चाहूंगा।’
महात्मा गांधी द्वारा फिल्मों के प्रति तिरस्कारपूर्ण शब्द कहे जाने पर वीर सावरकर ने यह
तीखा उत्तर दिया था। जब मैंने सावरकर जी से पूछा कि क्या गांधी जी की परोक्ष
आलोचना कर रहे हैं, तो उन्होंने कहाः ‘क्या गांधी और मुझमें कु छ समान है ?’
उन्होंने आगे कहाः ‘लंदन में विद्यार्थी जीवन के दौरान मैंने पहली मूक फिल्म देखी थी,
जो मुझे बेहद पसंद आई थी। मैंने कु छ सवाक फिल्में भी देखीं, परंतु बहुत अधिक नहीं।
थियेटर फिल्मों से प्रतिस्पर्धा कर सकता है, इस पर मुझे शक है। वह एक कोने में कहीं
दिखेगा, ठीक उसी तरह जैसे आज गाँवों में लोक कलाएं बमुश्किल जीवित हैं। परंतु उसका
गौरवकाल बीत चुका है। इस संबंध में कु छ बुरा मानने की जरूरत भी नहीं। ट्रैक्टरों के
जमाने में लकड़ी के हल की क्या कीमत ? प्रकृ ति की ओर लौटने वाली चरखा नीति का मैं
घोर विरोधी हूं। फिल्में उपन्यासों से भी बेहतर हैं। शिवाजी, प्रताप या रंजीत पर लिखी
जीवनियां कितनी भी रोचक हों, परंतु इसमें शक नहीं कि वह पर्दे पर अधिक रोचक और
असरकारी लगेंगी। फिल्मों का इस्तेमाल युवाओं की शिक्षा हेतु भी किया जा सकता है। पर्दे
पर जीवन को हम बहुत अच्छे से प्रतिबिंबित होता देखते हैं।
‘कु छ ना होने से बेहतर है कि उत्तम वस्तु उधार ली जाए। परंतु आँखें मूंदकर दूसरों के
कार्यों की नकल नहीं करनी चाहिए। अन्य सब क्षेत्रों की तरह, ज़रूरी है कि सिनेमा में भी
हमारे लोग राष्ट्रवादी हों। शेष सबकु छ उसके बाद आता है। फिल्म उद्योग को भी सोचना
चाहिए कि वह देश की प्रगति के लिए हर संभव प्रयत्न करेगी। हमारी फिल्मों को देश के
सकारात्मक पक्ष को दिखाते हुए, नकारात्मक पक्ष को दूर रखना चाहिए और अपनी
विजयों पर वह गर्व करती दिखें। किसी राष्ट्रीय हार या हमारी असफलताओं पर फिल्म
निर्माण का कोई औचित्य नहीं। उन्हें भूल जाना चाहिए। हमारा युवा ऐसी फिल्मों से प्रेरणा
ले, जो सदा सकारात्मक दिशा की ओर देखती हैं।’
यरवदा जेल, 1923
1923 में विनायक को रत्नागिरी जिला कारागार से पूना के यरवदा कें द्रीय कारागार में भेज
दिया गया था। वह 1910 में वहाँ बंद रहे थे और वहाँ पहुँच कर उन्हें गुजर चुके लंबे,
घटनाओं सेे भरपूर और कठोर दशक की यादें ताजा हो आई। यहाँ उन्हें सेल्युलर जेल के
पुराने साथी मिले जिन्हें भारतीय मुख्यभूमि पर वापस स्वदेश भेजा गया था। इनमें लाहौर
षडयंत्र मामले के क्रांतिकारी भी थे। हालाँकि, यरवदा में भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी
विभिन्न विचारधाराओं का अनोखा संगम आ मिला था – क्रांतिकारी बंदियों के अलावा,
गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रही, असहयोग कार्यकर्ता तथा खिलाफतवादी। विनायक ने
अहिंसावादियों पर लिखा हैः
असहयोगवादियों और खिलाफतवादियोें नेे दो वर्ष का कारागार भी नहीं झेला था। वह
कच्चे और दंभी पुरुष थे जो अंडमान की सेल्युलर जेल में दस या अधिक वर्ष काट चुके
व्यक्तियों के सामने भी अपने कष्टों को बढ़-चढ़ा कर बोलने से नहीं चूकते थे – उन
बहादुर सिखों के सामने भी जिन्होंने कठिनतम परिस्थितियों में जरा सी आवाज भी न
की थी! वह इन आतंकियों के समक्ष अपने व्यर्थ ‘सत्याग्रह’ और अल्पकालिक सज़ा
की डींगें हांकते और उनसे नफरत करते थे! मैंने वहाँ गांधी के अनुयायियों की कड़ी
आलोचना करनी शुरू की ताकि उनकी आँखें खुल सकें . . . वह हिन्दू संगठन के नाम
को ही राष्ट्र अहितकर मानते थे। मैं इन ईमानदार परंतु जिद्दी विचारों को काटता था। मैं
एक वृक्ष पर चढ़ जाता, अन्य लोग सामने के अहाते में इकट्ठा होते और राजनीतिक
कै दी उनके गिर्द की सामरिक स्थिति पर नजर रखते थे। इस तरह हम रोज-ब-रोज
राजनीति पर विमर्श किया करते। इसके बाद मुझे अहाते में ही स्थानांतरित कर दिया
गया जहाँ एक दिन छोड़कर बैठकें होतीं और राजनीति के प्रति इन अनाड़ियों के
मोहभंग के लिए विमर्श चलता। मैंने अंडमान में अपनाई युक्ति ही यहाँ आजमाई –
बैठकें करना, भाषण देना और विमर्श चलाना। धीरे-धीरे वह सब उससे आ जुड़े। चरखे
से स्वराज जीतना, खिलाफत अभियान को सहयोग हिन्दुओं का कर्तव्य और अहिंसा
की हास्यास्पद परिभाषाएं, मैंने अडिग तर्क और इतिहास के संदर्भ देकर सबकी
धज्जियां उड़ाई। और आखिरकार यह युवा ईमानदार देशप्रेमी अपनी असफल
राजनीति, तथा अपने चारों ओर पसरी अनुभवहीनता एवं अज्ञानता से टूटकर हमारी
ओर आ मिले।
7
असहयोग आंदोलन और मुकदमे के बाद, गांधी जी भी उसी जेल में बंद थे – विनायक के
साथ वाली कोठरी में। विनायक खुले तौर पर गांधी जी के तरीकों की आलोचना करते,
जिसे वह अपने अनुयायियों से सुनते थे। अनेक अवसर आए जब विनायक के , सत्य एवं
सत्याग्रह का आदर्श मानने वाले असहयोग समर्थकों से गंभीर वैचारिक मतभेद हुए।
अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि अंडमान की तरह, रत्नागिरी में भी राजनीतिक
कै दी अखबारों की कतरनें जुटाते और उन्हें छु पाकर पढ़ते थे। असहयोग आंदोलन से जुड़े
लोग इस तरीके पर आपत्ति उठाते थे, क्योंकि उनके अनुसार सत्य को छु पाना पाप था।
इसलिए गांधी जी के दर्शन को हास्यास्पद तौर पर शब्दश: मानने वालों को शर्मिंदा करने
का वह कोई मौका नहीं छोड़ते थे। एक ऐसा ही अनुयायी जेल के रसोइये की खुशामद कर
अतिरिक्त रोटी प्राप्त करता था। एक संध्या, खाने के दौरान जब वह व्यक्ति अतिरिक्त रोटी
लेकर खाने बैठा तो विनायक और उनके साथियों ने अधीक्षक द्वारा तलाशी लिए जाने का
शोर मचा दिया। वह गांधीवादी तुरंत अपनी अतिरिक्त रोटी को छु पाने में जुट गया। यह देख
पूरा समूह हंस पड़ा और लोगों ने उसका उपहास उड़ाया। उन्होंने पूछा, क्या सत्य के प्रति
उसका समर्थन उसे चुराने की अनुमति देता है ? उस व्यक्ति के एक सहयोगी ने कहा कि
चोरीछु पे अतिरिक्त रोटी खाना सत्य का उल्लंघन नहीं। परंतु चोरीछु पे समाचार पत्र अंदर
लाना सत्य का उल्लंघन और राष्ट्रीय लक्ष्य का नुकसान करता है। विनायक अक्सर ऐसी
बेतुकी दलीलों से नाराज रहते और लिखा है कि जेल में गांधी जी के अनेक अनुयायियों एवं
खिलाफतवादियों में कई ऐसी ही सोच-समझ के थे।
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यरवदा जेल में विनायक की बदली, और मेजर मरे की वहाँ नियुक्ति संयोगवश हुई थी।
उससे पहले वह सेल्युलर जेल के अधीक्षक और पंजाब कारागारों के इंस्पेक्टर जनरल रह
चुके थे। वह उदार विचारों और मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति थे। मरे ने विनायक
को जेल की कु नीन फै क्टरी का प्रमुख नियुक्त किया। अंडमान की तरह, उन्हें यहाँ भी युवा
कै दियों की शिक्षा और एक पुस्तकालय स्थापित करने की छू ट मिली। सेल्युलर एवं
रत्नागिरी जेल में विनायक ने शुद्धि कार्यों को भी आगे बढ़ाया।
मुस्लिम कै दियों से अनुरोध किए जाने के बावजूद कि नमाज़ की ऊं ची आवाज़ से
कारागार में सबको ना जगाया जाए, वह उसे अपने मत का अभिन्न हिस्सा मानने पर जोर
देते थे। इसके उत्तर स्वरूप, विनायक के नेतृत्व में, अनेक हिन्दू कै दी ऊं ची आवाज में
रामायण की चैपाइयां और भक्ति गीत गाने लगे। यदि जेल प्रशासन इस पर ऐतराज करता
तो विनायक तुरंत कहतेः ‘आप उसकी प्रार्थना पर ऐतराज क्यों करते हैं ? या तो सबको
रोकिये अथवा सबको उनके अनुसार प्रार्थना करने दीजिए।’
9
अंततः, कारागार में कै दियों
द्वारा प्रातःकाल की प्रार्थनाओं का चलन बंद हो गया। विनायक ने लिखा हैः
एक रुकावट ने दूसरी को रोका। जिसे दंड न रोक सका, जवाबी गुंडागर्दी ने शांत कर
दिया। एक खिलाफतवादी संपादक-कै दी को इसी तरह की जवाबी कार्रवाई से रोका।
वह हिन्दुओं के लिए आरक्षित पानी में से यह कहकर लेता कि मुस्लिम भी उन्हीं जैसे
इंसान हैं। इस विषय पर मैं उनसे पूरी तरह सहमत था और मैंने एक अस्पृश्य और
सफाईकर्मी को उसका प्याला धोने और मुस्लिमों के लिए पानी में सेे एक प्याला पानी
लेने को कहा। अब तक वृहत मानवतावादी सिद्धांत बघारने वाला वह खिलाफतवादी
तुरंत उस अस्पृश्य के पास पहुँचा और उसे यह कहकर पानी लेने से मना किया कि वह
नमाज के लिए अपवित्र हो जाएगा। जब दो-तीन बार मैंने उनका पर्दाफाश किया तो वह
चुपचाप (गैर) हिन्दू पानी वाले बर्तन से पानी लेने लगा और हिन्दुओं के लिए आरक्षित
पानी को हाथ लगाना उसने बंद कर दिया।
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साथी कै दियों को प्रेरित करने के लिए विनायक मदन लाल ढींगरा सहित क्रांतिकारी संघर्ष
के अनेक शहीदों पर भाषण आयोजित करते थे।
इस दौरान, बम्बई के गवर्नर, सर जाॅर्ज लॉयड, विनायक से विस्तृत बातचीत के लिए
कारागार पहुँचे थे। एक दशक पहले सर रेजिनल्ड क्रे डॉक के साथ अंडमान में हुई मुलाकात
की तरह, विनायक को यह भेंट भी व्यर्थ उद्यम महसूस हुई थी। उन्होंने गवर्नर से सुस्पष्ट
कहा थाः
मैं क्रांतिकारी और एक षडयंत्रकर्ता की भूमिका में तब आया जब मैंने यह देख लिया था
कि अपनी दृष्टि में रखे गए लक्ष्यों को शांतिपूर्ण या संवैधानिक तरीके से प्राप्त करने का
मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। परंतु यदि मौजूदा सुधार हमारी उम्मीदों को शांतिपूर्ण
तरीके से आगे बढ़ाने के लिए कारगर साबित होते हैं तो हम संवैधानिक विधि को सहर्ष
अपनाने और उत्तरदायी सहयोग के सिद्धांत पर रचनात्मक तरीके से काम करने को
तैयार हैं। हमें क्रांतिकारी कहा गया है, परंतु अन्य माध्यम अपनाने वालों का दावा करने
वालों की तरह हमारी नीति भी उत्तरदायी सहयोग से उतनी ही संबद्ध है। इस सिद्धांत
का अनुसरण और समान लक्ष्य को नजर में रखते हुए हम मौजूदा सुधारों का पूर्ण
इस्तेमाल करेंगे। राष्ट्रीय हित हमारा एकमात्र लक्ष्य था और यदि शांतिपूर्ण तरीकों से यह
पूरा होता है, तो पुराने तरीकों से जुड़े रहने का कोई कारण नहीं बनता।
11
गवर्नर ने गौर से उनकी बात सुनी और फिर वह चले गए। परंतु बंबई सरकार 1922 से ही
विनायक की रिहाई पर गंभीरता से विचार करने लगी थी। जल्दी रिहाई के संबंध में
आधिकारिक विचार उन पर कड़ी पाबंदी लगाने या उन्हें राजनीतिक गतिविधियों से दूर
रखने से जुड़े थे। सर्शत रिहाई के तौर पर सरकार की एक अन्य चिंता उनके निवास स्थान
से जुड़ी थी। संवेदनशीलता को देखते हुए, बंबई, पूना और नासिक जैसे शहरों को निवास
हेतु मना कर दिया गया। आखिरकार, सरकार उन्हें जेल से रिहा करने पर राजी हुई और
तमाम राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगाते हुए, रत्नागिरी की सीमा में ही रहने की
इजाजत दी गई। यह नारायणराव द्वारा वर्षों से अपने भाई की रिहाई के लिए किए गए
प्रयासों का फल था।
रोचक है कि मराठी समाचार पत्र ‘स्वातंत्र्य
’ में विनायक की रिहाई की मांग करने वाला
एक लेख प्रकाशित हुआ था। 13 सितंबर 1923 को प्रकाशित ‘सावरकर - आज़ादी के
पुरोधा’ नामक लेख में लेखक ने लिखाः
विनायक की नीति है कि विदेशी शक्ति, ब्रिटिश हो या मुस्लिम, का उन्मूलन होना चाहिए
. . .ओ महाराष्ट्र-उठो! अपने मस्तिष्क में विनायकराव के विचारों को उभारो!! ओ
जनस्थान (नासिक) उठो! विनायकराव तुम्हारे हैं, इसलिए जोर लगाओ कि वह रिहा हों.
. .परंतु यदि सरकार उन्हें रिहा नहीं करती तो हम उन्हें दोष देंगे और उन्हें रिहा कराने
का हर संभव प्रयास करेंगे।
12
अंतिम धमकी के सरकारी निर्णय पर असर पड़ने का कोई कारण नहीं था और यूं भी इस
कारण यदि सरकार चाहती तो एक दशक से खतरनाक समझे जाने वाले व्यक्ति की रिहाई
रोक सकती थी।
अंततः, 4 जनवरी 1924 को, बंबई सरकार के गृह विभाग विनायक की रिहाई की शर्तों
पर तैयार हुआ। बंबई गृह विभाग के सचिव, एलेग्जेंडर माॅन्टगोमरी को कार्य सम्पन्न करना
था। रोचक है कि चौदह वर्ष पहले, विनायक के मुकदमे के दौरान माॅन्टगोमरी कु छ समय
के लिए नासिक के जिला न्यायाधीश रहे थे। उन्होंने लिखा हैः
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर, 1898 की धारा 401 द्वारा प्रदत्त शक्ति को प्रयोग करते
समय, परिषद के अंतर्गत सरकार विनायक दामोदर सावरकर की आजीवन कारावास
की सज़ा की असमाप्त अवधि को सशर्त क्षमा करती है। अपराधी की सशर्त रिहाई के
आदेश की प्रति यरवदा कें द्रीय कारागार के अधीक्षक तक ले जाई जाएगी, जो आदेश
में निहित शर्तों पर अपराधी से रजामंदी प्राप्त करेंगे और उसेे इंस्पेक्टर-जनरल ऑफ
प्रिजन्स के मार्फ त सरकार को प्रेषित करेंगे, और साथ ही एक रिपोर्ट भी देंगे कि आदेश
के अनुसार कै दी को रिहा कर दिया गया है।
13
इसके बाद सरकार एवं विनायक के बीच बातचीत की श्रृँखला चली और विनायक ने रिहाई
की शर्तों से रजामंदी जताते हुए हस्ताक्षर किए। शर्तें अपने आप में असामान्य नहीं थी,
परंतु असाधारण थी वह अवधि जिसके लिए उन्हें लागू किया गया था – यानी 1924 से
1937 तक तेरह वर्षों की अवधि। सर्वप्रथम, शर्तें पांच वर्ष की अवधि के लिए लगाई गई,
परंतु फिर दो बार उनमें वृद्धि की गई। रिहाई की शर्तें निम्न थीं:
1. कि विनायक दामोदर सावरकर परिषद के बंबई गवर्नर द्वारा संचालित रत्नागिरी जिले
के निर्धारित क्षेत्र में ही रहेंगे और बिना सरकारी मंजूरी या जिला न्यायाधीश की मंजूरी
के आपात परिस्थिति के अलावा जिले के बाहर नहीं जा सकें गे।
2. कि वह सरकारी मंजूरी के बिना पांच वर्षों तक सार्वजनिक या निजी तौर पर किसी भी
राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं ले सकें गे, यह प्रतिबंध उक्त अवधि के समाप्त होने
के बाद सरकार की समझ के अनुसार बढ़ाया जा सकता है।
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रिहाई की शर्तों को ना मानने पर होने वाली प्रतिक्रिया का विनायक को अंदाज था। उन्होंने
लिखा हैः ‘यदि मैं उन शर्तों या उनके किसी एक अंश को मानने में असफल रहता हूं. . .मुझे
बिना वारंट के पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया जा सकता है, अपनी असमाप्त सज़ा
की शेष अवधि के लिए हवालात लौटना पड़ेगा।’
15
यदि वह अपराध करते जिस कारण
उन्हें गिरफ्तार किया जाता, उन्हें कम से कम पच्चीस वर्ष आजीवन कारावास की एक और
अवधि काटनी पड़ती।
5 जनवरी 1924
वह विनायक की लंबी और थकाऊ जेल यात्रा की अंतिम रात थी। हालाँकि, उन्हें इस संबंध
में प्रातः काल तक नहीं बताया गया था। उस रात उन्हें अंदाजा नहीं था कि अगले दिन वह
‘खिड़की से आ रही चाँद की रोशनी वाले एक कमरे में पलंग पर होंगे और बाहर गलियारे
में पहरेदार भी नहीं होगा’ उनकी नींद में खलल डालने के लिए।
16
बेमौसम बरसात होने
पर जनवरी की तेज सर्दी और बढ़ गई थी। कोठरी की ऊपरी खिड़की से पानी गिर रहा था
और उनके कपड़े पूरी तरह भीग चुके थे। इस रूखे मौसम से दो खुरदुरे कम्बल उन्हें बचाने
के लिए नाकाफी थे। उन्होंने सोने के लिए खुद को तैयार किया और सोचते रहे कि यह
परेशानी कितना समय और रहेगी।
अगली सुबह उन्हें अधीक्षक के कमरे में बुलाकर शुभ सूचना दी गई। अविश्वास से वह ठगे
रह गए थे। मार्च 1910 से, जब से वह लंदन जेल पहुँचे थे, भिन्न महाद्वीपों की एक से दूसरी
जेलें उनका ठिकाना रही थीं। अब उस सबका अंत होने जा रहा है, यह विश्वास करना
कठिन था। राजनीतिक कै दी खुश थे और बधाइयां दे रहे थे। सिख क्रांतिकारियों ने उन्हें
स्नेहपूर्वक गले लगाया और विनती की कि वह उन्हें भूलें नहीं। उनकी उत्कं ठा से द्रवित
होकर विनायक ने जाने से पूर्व कहाः
मेरे भाइयो, आप को इस बात को स्वीकार करना होगा कि पीड़ा के अधीन चौदह वर्षों
तक अंडमान में और यहाँ आज के अंतिम दिन तक, मैं अपने जीवन में जो कु छ कहता
रहा उससे कभी विमुख नहीं हुआ या पलटा नहीं। मैंने आपको अपने सब शहीदों की
कहानियाँ सुनाई और सलाह दी कि हिंसक प्रतिवाद के अपने सिद्धांत से पीछे न हटें
यदि परिस्थितियाँ उसे हमारे ऊपर थोपती हैं। मैंने अपने झंडे को सदा फहराये रखा है।
जब चौदह वर्ष पहले मैंने सज़ा देने वाले शब्द सुने थे, उस समय भी मेरे ओठों पर वही
शब्द थे, जो आज हैं। मैंने उन्हें उस समय कहा था, कारागार में लंबे अरसे तक रहने के
दौरान कहा, और आज भी वह मेरे मुँह पर हैं, जो आपके दिल और दिमाग पर दर्ज हो
जाएं और आपके कानों में देर तक गूूंजते रहें। आइए सब मिल कर बोलें, ‘स्वातंत्र्य देवी
की जय; भारत माता की जय।’
17
अपने ही शरीर हिस्सा बन चुकी अपनी जेल पोशाक छोड़ दूसरे कपड़े बदलते हुए,
विनायक के मन में निराशा मिश्रित खुशी के मिले-जुले भाव थे। मरे ने उनसे हाथ मिलाए
और उन्हें बधाई दी। उन्होंने कहा ‘भविष्य का ध्यान रखो।’ कारागार के बड़े लौह गेट
चरमराते हुए खुल रहे थे। तेज धूप में विनायक को आँखें खोले रखनी कठिन हुई। बाहर
उनका परिवार उनके इंतजार में खड़ा था, उनके चेहरों पर खुशी फै ली दिख रही थी।
विनायक की लम्बी जेल सज़ा बेशक समाप्त हो गई थी, परंतु मातृभूमि को स्वतंत्र कराने,
और हिन्दुत्व के सिद्धांत तथा सामाजिक सुधार की यात्रा अभी शुरू हो रही थी, जिसकी
अवधारणा वह कारागार की चारदीवारी में तैयार कर रहे थे। उन्होंने गहरी सांस ली, बहती
हवा को अपनी सांसों में भरा और कु छ तेज चाल तथा भविष्य की योजनाओं के साथ,
विनायक जीवन के अगले महत्वपूर्ण मील के पत्थर की ओर बढ़ गए थे।

परिशिष्ट
परिशिष्ट I
‘ओ! हुतात्माओ’ का संपूर्ण पाठ
आज़ादी की लड़ाई का पहला कदम
पिता से पुत्र तक पहुंचती कमान
अक्सर हारी पर सदा जीती बाज़ी !!


ज 10 मई का दिन है! इसी दिन, सदा स्मरणीय 1857 के वर्ष को, भारत की
रणभूमि पर, ओ हुतात्माओ, तुमने स्वतंत्रता के लिए युद्ध के पहले अभियान का
मार्ग प्रशस्त किया था। मातृभूमि, ने अपनी अपमानजनक पराधीनता से जागकर,
तलवार म्यान से निकाली और बेडियां तोड़ते हुए आज़ादी और अपने सम्मान के लिए
पहला वार किया था। इसी दिन हजारों कं ठ से मारो फिरंगी को
का युद्धघोष गूंजा था। इसी
दिन घोर विप्लव को उठ खड़े हुए मेरठ के सिपाहियों ने दिल्ली कू च किया था, जहां
चमकती धूप में जगमगाती जमुना के पानी को देखते हुए, एक ऐतिहासिक स्मारक के
निकट नए युग के आरंभ की आहट से साक्षात्कार किया था, और कु छ ही पलों में उन्हें एक
नया नेतृत्व, एक ध्वज और एक लक्ष्य प्राप्त हुआ, जिसने गदर को एक राष्ट्रीय एवं धर्मयुद्ध
में बदल दिया था।
पूर्ण गौरव तुम्हारा, ओ हुतात्माओ; चूंकि आपने अपनी जाति के लिए क्रांति के तेजोमय
कष्ट को झेला, जब जन्मभूमि की धार्मिक मर्यादाएं जबरन एवं राक्षसी परिवर्तनों के कारण
खतरा झेल रही हों, जब दोगले चरित्र ने मित्रता का लबादा उतार फें का हो और
विश्वासघाती शत्रुता की नग्न नृशंसता में संधियां तोड़ डाली गई हों, ताज तोड़कर जंजीरों में
बदल दिए हों, और प्रत्येक वस्तु का उपहास बना हो, जबकि हमारी दयालु माँ सत्यनिष्ठा से
गोरे आदमी के छल पर विश्वास करती रही हो, तो तुमने, ओ 1857 के शहीदो, माँ को
जगाया, माँ को प्रेरित किया और माँ के सम्मान के लिए युद्धभूमि की ओर दौड़े, जहां तुम्हारे
ओठों पर ‘मारो फिरंगी को’ का युद्धघोष प्रबलता और आवेग से छाया था, और ‘भगवान
एवं हिन्दुस्तान’ का पवित्र नारा तुम्हारी पताका पर लहरा रहा था! विप्लव छेड़ कर तुमने
अच्छा किया! चूंकि अन्यथा तुम्हारा जीवन बेशक बख्श दिया जाता, परंतु खुशामद का दंश
बेहद गहरा होता, जिसके साथ हतोत्साही धैर्य की अभिशप्त जंजीर में एक और कड़ी जुड़
जाती, और संसार घृणा से हमारी भूमि की ओर देखता हुआ फिर से कहता ‘पराधीनता
इसकी नियति है, यह पराधीनता में ही प्रसन्न है!’ चूंकि 1857 में भी इसने अपने हितों एवं
सम्मान की रक्षा के लिए एक अंगुली भी न उठाई थी।
इस दिवस को, ओ हुतात्माओ, हम तुम्हारी प्रेरणाप्रद याद को समर्पित करते हैं ! इसी
दिवस को तुमने एक नया ध्वज फहराने को उठाया था, एक अभियान पूर्ण करने का स्वर
भरा था, एक दृष्टिकोण को सत्य करने की ओर देखा था, एक राष्ट्र के जन्म का उद्घोष
किया था!
हम तुम्हारी पुकार पर उठे , हमने तुम्हारे ध्वज का सम्मान किया, कथित क्रांतिकारी युद्ध
में ‘फिरंगी को बाहर करो’! के तुम्हारे उद्घोष को हम आगे ले जाने को प्रतिबद्ध हैं –
क्रांतिकारी, हां, वह क्रांतिकारी युद्ध था। चूंकि 1857 का युद्ध तब तक थमेगा नहीं, जब
तक क्रांति दस्तक नहीं देती, दासता को धूल में नहीं मिला देती, आजादी को सिंहासन पर
स्थापित नहीं कर देती। जब तक आमजन उसकी स्वतंत्रता के लिए उठते रहेंगे, जब तक
उसके शहीदों के रक्त में आजादी के बीज अंकु रित होते रहेंगे और जब तक अपने पूर्वजों के
रक्त का प्रतिशोध लेने के लिए एक पुत्र भी जिंदा रहेगा, तब तक ऐसे किसी युद्ध का अंत
हो नहीं सकता। नहीं, क्रांति युद्ध, युद्धविराम नहीं, स्वतंत्रता अथवा मृत्यु को जानता है !
हम तुम्हारी याद से प्रेरित हैं और 1857 में तुम्हारे द्वारा शुरू किए गए संघर्ष को आगे ले
जाने को प्रतिबद्ध हैं, हम संधि को युद्धविराम नहीं मानते; हम तुम्हारी लड़ाइयों को पहले
अभियान की लड़ाइयां मानते हैं – जिसमें मिली हार युद्ध की हार नहीं हो सकती। क्या ?
क्या विश्व को कहने दें कि भारत ने हार को अंतिम मान लिया है ? क्या 1857 का रक्त व्यर्थ
ही बहा था ? क्या हिन्द के बेटों ने अपने पिताओं की सौगंध के साथ धोखा किया ? नहीं,
हिन्दुस्तान की शपथ, नहीं ! भारत-भूमि की ऐतिहासिक धारा मार्गच्युत नहीं हुई है। 10 मई
1857 को शुरू हुए युद्ध का 10 मई 1908 को अंत नहीं हो गया और न ही आने वाली 10
मई को होगा, जब तक कि नियति प्राप्त नहीं हो जाती, जब तक खूबसूरत हिन्द का
राज्याभिषेक नहीं होता, विजय के प्रकाश से या फिर शहादत के तेज से।
परंतु, ओ महान हुतात्माओ, अपने पुत्रों के पवित्र संघर्ष में मदद करो ! ओ, अपनी
प्रेरणाशील उपस्थिति से मदद करो ! अपने क्षुद्र स्वार्थ में बंटे हुए हम, अपनी माँ के विराट
पूर्णत्व से अनजान हैं। तो हमारे कानों में गुनगुना दो, वह रहस्य, जिससे तुमने उस महान
एकता को संजोया था। कै से हिन्दुओं और मुसलमानों की आपसी रजामंदी से फिरंगी
शासन के टुकड़े हुए और स्वदेशी सिंहासन स्थापित हुए थे। कै से माँ के प्रति उद्दात प्रेम ने
विभिन्न वर्णों तथा जातियों को जोड़ा, कै से आदरणीय एवं श्रद्धेय बहादुरशाह ने समूचे
भारत में गोहत्या पर रोक लगाई थी, कै से श्रीमंत नाना साहेब ने, दिल्ली के शहंशाह की
शान में सलामी के तौर पर दागी गई पहली तोप के बाद – दूसरी अपने लिए आरक्षित रखी
थी ! कै से तुमने माँ के झंडे तले एकजुट होकर पूरी दुनिया को विचलित कर अपने दुश्मन
को कहने पर मजबूर किया था ‘इतिहासकारों और प्रशासकों को भारतीय विद्रोह जो
सबक देता है उनमें से इस चेतावनी से महत्वपूर्ण और कोई नहीं जिनमें ब्राह्मणों और शूद्रों,
मुसलमानों और हिन्दुओं का हमारे खिलाफ एकजुट होना था और यह सोचना भी ठीक
नहीं कि विभिन्न जातियों से आच्छादित अनेक धर्मों वाले महाद्वीप के कारण ही हमारे
प्रभुत्व का स्थायित्व और शांति निर्भर करती है, चूंकि वह एक दूसरे को समझते और आदर
करते हैं तथा एक दूसरे के तौर-तरीकों एवं कार्यशैली से परिचित हैं।’ धर्म और देशभक्ति के
गठजोड़ के इस माहात्मय से हमें अवगत कराओ - सच्चा धर्म जो हमेशा राष्ट्रभक्ति के पक्ष
में रहता है, सच्ची राष्ट्रभक्ति धर्म की स्वतंत्रता को आश्वस्त करती है !
और हमें उस असीम ऊर्जा, हिम्मत और गोपनीयता का रहस्य दो जिसके साथ तुमने इस
विराट ज्वालामुखी को संगठित किया था; हरी सतह के नीचे छु पे हुए ज्वालामुखी के उस
लावे को हमें दिखाओ, जिसके ऊपर शत्रु को छद्म सुरक्षा अहसास में रखा जाता है; हमें
बताओ कै से वह चपाती - भारत की सूचना वाहक, एक से दूसरे गांव, एक से दूसरी घाटी
तक पहुंची, और पूरे देश के बौद्धिक पटल को अपने अस्पष्ट संदेश से अग्निपिंड में बदल
डाला था, जिसके बाद हमें उस ज्वालामुखी के विस्फोट का भीषण कराल सुनाई दिया जो
पूर्ण विध्वंसक शक्ति संपन्न, दौड़ता, कु चलता, जलाता और अपने में समाहित करता जलते
लावे का विकराल बहाव था ! इसके एक ही माह के भीतर, रेजिमेंट-दर-रेजिमेंट, शासक-
दर- शासक, शहर-दर-शहर, सिपाही, पुलिस, जमींदारों, पंडितों, मौलवियों की इस
बहुआयामी क्रांति ने बिगुल फूं क दिया था और मंदिरों एवं मस्जिदों मंे ‘मारो फिरंगी को!’
का नारा बुलंद हो उठा था। ‘फिरंगी को बाहर करो!’ मेरठ जागा, दिल्ली जागी, जागा
बनारस, आगरा, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद, जदगेरपुर, झांसी, बांदा, इंदौर – पेशावर से
कलकत्ता तक और नर्मदा से हिमालय तक, ज्वालामुखी अचानक, एक साथ और सर्वग्राही
दाह जैसा उबल पड़ा था।
तो फिर, ओ हुतात्माओ, हमें हमारे लोगों के बीच छोटी और बड़ी कमियों के बारे में
बताओ, जिसे आपने अपने महान प्रयोग से समझा था। परंतु सबसे आवश्यक, राष्ट्र के पिंड
में निहित उन अनर्थकारी भौतिक कमियों की ओर संके त करो, जिसने तुम्हारे सब प्रयासों
को असफल कर दिया था – कु त्सित लोभी दृष्टिहीनता, जो राष्ट्र के उद्देश्य के साथ जुड़ने से
इनकार करती है। कहो, कि हिन्दुस्तान के हारने का एकमात्र कारण स्वयं हिन्दुस्तान ही था;
सदियों की निद्रा के बाद माँ अपने शत्रु पर प्रहार कर रही थी और जब उसका दाहिना हाथ
फिरंगी को मार रहा था, बायां हाथ रुक गया था। आह! वह शत्रु नहीं, परंतु उसका अपना
मस्तक था! तो वह लड़खड़ाई और 50 वर्षों की अपरिहार्य निद्रा में जा पहुंची!
50 वर्ष बीत गए हैं, परंतु ओ 1857 की असंतुष्ट आत्माओ, हम अपने हृदय के रक्त से
तुमसे वादा करते हैं कि तुम्हारी स्वर्ण जयंती तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुए बिना पूर्ण नहीं होगी!!
तुम्हारी आवाज हमने सुनी है और उससे साहस बटोरा है। बेहद सीमित संसाधनों से तुमने
युद्ध किया, न के वल अत्याचार के विरुद्ध परंतु अत्याचार और कपट के विरुद्ध एकसाथ।
एक ही मोर्चे पर, दोआब और अयोध्या साथ आए और न के वल समूचे ब्रिटिश साम्राज्य के
खिलाफ युद्ध छेड़ा, परंतु शेष भारत के खिलाफ भी; और इसके बावजूद तुम तीन वर्षों तक
लड़ते रहे, और तुमने लगभग हिन्दुस्तान का राजमुकु ट छीन ही लिया था और विदेशी राज
के खोखले अस्तित्व को तोड़ डाला था। कितना महान प्रोत्साहन है यह! जो दोआब और
अयोध्या ने एक माह में किया, भारत का एकसाथ, त्वरित एवं प्रतिबद्ध उदय उसे एक दिन
में कर दिखाएगा! यह उम्मीद हमारे दिलों को आशा और सफलता की आश्वस्ति देती है।
अतः हम घोषित करते हैं कि 1917 का तुम्हारा स्वर्ण जयंती वर्ष दुनिया के नक्शे पर हिन्द
के विजयी पुनरुत्थान के बिना न बीतेगा।
चूंकि, कब्र के भीतर से बहादुरशाह की अस्थियां प्रतिशोध की पुकार कर रही हैं ! चूंकि,
निर्भीक लक्ष्मी का रक्त क्रोध से उबल रहा है ! चूंकि, साजिश पर से पर्दा न उठाने के
अपराध में फांसी पर चढ़ने जा रहे पटना के पीर अली ने फिरंगी के कान में भविष्यवाणी
स्वरूप अवज्ञा के शब्दों में कहा था, ‘तुम बेशक मुझे आज फांसी दे रहे हो, तुम मुझ जैसों
को रोज फांसी दे सकते हो, परंतु हजारों मेरे स्थान पर उठें गे – तुम्हारा मकसद कभी
कामयाब नहीं होगा।’
भारतीयों, इन शब्दों को सच बनाना ही होगा! ओ हुतात्माओ, तुम्हारे रक्त का प्रतिशोध
लिया जाएगा!!!
वन्दे मातरम्!
परिशिष्ट II
‘संकल्प एवं घोषणापत्र, 1910’ का संपूर्ण पाठ
(1)
वह बैसाख का महीना था: ऊपर आकाश और पांव तले छत चाँद की खूबसूरत रोशनी में
धुली और स्पंदित लग रही थी। बल द्वारा रोजाना पोशित की जाने वाली जय लता सुगंधित
पुष्पों में झेंपती और खिली नजर आ रही थी।
वह गर्मियों की छु ट्टियों के दिन थे और दोस्त एवं काॅमरेड, सभी प्रियजन और निकटवर्ती
एक ही छत के नीचे आ जुटे थे। लोकप्रियता उन नेक युवाओं के गुट की बाट जोह रही थी
और वीरता का आभामंडल उनके गिर्द पारदर्शी स्वच्छता और युवा दमक के साथ
आच्छादित था।
उनके हृदय ताजा स्नेह से उमड़ रहे थे और वह उच्चाकांक्षाओं तथा शौर्यमय संकल्पों के
नेक समीर से भरे हुए वातावरण में सांस ले रहे थे। युवा और झीनी लताएं उन सुमधुर तथा
नित खिलते वृक्षों पर झूलती थीं, बाशिंदे जिस मनोहर बगीचे को ‘धर्मशाला’ पुकारते।
तुमने भोजन परोसे; रसीले पकवान थे और तुम्हारा परोसना सब को आकृ ष्ट किए दे रहा
था। ऊपर चँद्र सलोना दिखता था और हम सब मित्र एवं परिवार साथ बैठे , विचारमग्न, तो
कभी उत्तेजक एवं स्फू र्तिदायक विमर्शों में खो जाते। अब हमने सुनी अयोध्या से
राजकु मारों के निर्वासन की कथा या इतालिया को मुक्त कराने वाले उत्तेजक संघर्ष की
गाथा। कभी तो हम तानाजी या चित्तौड़ के या बाजीे और भाऊ एवं नाना के अमर किस्से
सुनतेः पनीली आंखों से अपनी व्यथित माँ के पतन के कारणों का आकलन तैयार होता
था; वह अतिशय एवं सतर्क संश्लेषण जो उसकी निर्णयात्मक मुक्ति में काम आया; वह
अथक गतिविधि जिसने हमारी माँ के घाव अनावृत किए और सैकड़ों सशक्त युवाओं की
कल्पना को झकझोरा और उभारा और उच्चादर्शों को उन्मुख किया।
प्रियजनों के साथ वाले वह दिन, वह चाँदनी रातें, रूमानी अभिलाषाएं, वह उदार संकल्प
और सबसे ऊपर सबको सूचित एवं प्रेरित करने वाला दिव्य आदर्श जिसने सबको उनका
सलीब उठा उसके पीछे आने को कहा था!
तुम्हें जरूर याद होगा यह सब ? तुम्हें जरूर याद होंगे वह आपस में प्रबंधित कठोर वचन
और पवित्र शपथ और उसकी सेनाओं से जुड़े सैकड़ों नेक युवा ? लड़ने के लिए सौगंध लेते
युवा और बाजी के साथ ही गिरते - कौतुहल में दिखती नवयुवतियां, उत्साहित, और मृत्यु
को प्राप्त हुई, जैसे मरती थीं चित्तौड़ की कु मारियां !
वह अंधभक्ति नहीं थी जो हमें उस पथ पर ले गई! नहीं! हम उस मार्ग पर तर्क एवं
इतिहास तथा मानव प्रकृ ति की रोशनी के पूरे तेज में चले थे, यह जानते हुए कि जिनके
पास जीवन है, उन्हें वह खोना होगा, हमने अपनी सलीब उठाई और जानते-बूझते लक्ष्य के
पीछे चल दिए थे!
(2)
हमारे द्वारा अपने प्रिय साथियों और मित्रों के साथ दृढ़तापूर्वक लिए गए उन प्रवित्र संकल्पों
और कड़ी प्रतिज्ञाओं को सर्वप्रथम याद करते हुए, तुम अपनी दृष्टि वर्तमान पर रखो! कोई
दर्जन भर वर्ष भी नहीं गुजरे होंगेः और फिर भी कितनी उपलब्धि प्राप्त हुई! दृष्टिकोण
सचमुच हर्ष देने वाला है! समूचे देश का चप्पा-चप्पा उठ खड़ा हुआ है। माता ने भिक्षा का
कटोरा त्याग कर अपना हाथ तलवार की मूठ पर जमा लिया है! हजारों की संख्या में दृढ़
श्रद्धालु माता के मंदिर में चले आ रहे हैं और पवित्र अग्नि की ज्वालाओं की क्रु द्ध लपटें
उनकी बलि वेदी पर धधक रही हैं।
परीक्षा आ पहुंची है, ओ हां! जिसने तुम्हारे शब्दों को दोहराते हुए महान बलिदान पूर्ण
करने हेतु पवित्र संकल्प और कड़ी प्रतिज्ञा ली थीः कौन, वह! सर्वप्रथम इस धधकती
ज्वाला में गिरकर स्वयं को वेदी पर न्योछावर करेगा ताकि दुष्ट शक्तियों पर अच्छाई को
विजय प्राप्त हो!
ज्यों ही श्रीराम द्वारा अपने समर्थकों को चेताया गया, हमारा कु ल भी तैयार था। ओ, नेक
बहिन! स्वैच्छिक मन से आगे आए और प्रार्थना की ‘ओ प्रभु! हम तुम्हारे समक्ष हैं। हमें उन
धधकती ज्वालाओं में होम कर कृ तज्ञ करें!!’
हम सत्य परायणता के हित और सुरक्षा में काम कर प्राण त्यागेंगे – इसी अनुसार हमने
शब्द प्रतिज्ञा की थी। देखो, हम ज्वालाओं में उतरते हैं! हमने अपना वचन रखा!
माँ के ध्वज तले हमने उसे अपने प्राणों की कीमत पर पुनः स्वतंत्रता दिलाने के लिए जो
दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, वह पूर्ण हुई। कितना सुख है इसमें! सचमुच सौभाग्यशाली हैं हम जिन्हें
उसने स्वयं हमारी आंखों के समक्ष जल कर भस्म हो जाने की शक्ति प्रदान की। हमने लक्ष्य
की सेवा की और युद्ध किया। इतना मात्र हमारा उद्देश्य था!
(3)
हम तुम्हें अपने विचार समर्पित करते हैं; अपनी वाणी और अपनी वाकपटुता तुमको
समर्पित, ओ माँ! मेरी वीणा तुम्हारे ही गीत गाती हैः मेरी कलम तुम्हारे ही शब्द लिखती है,
ओ माँ!
तुम्हारी वेदी पर मैंने अपना स्वास्थ्य और संपत्ति न्योछावर की थी। ना तो मेरी वापसी की
बाट जोहती अपनी युवा पत्नी की ललकती दृष्टि, ना ही अपने प्रिय सुकु मारों की हंसी के
मोती, ना ही व्यथित और भुखमरी को छोड़ दी गई भाभी की विवशता मुझे तेरी तुरही की
आवाज के पीछे जाने से रोक सकी!
मेरे बड़े भाई – कितने वीर, कितने दृढ़प्रतिज्ञ, और फिर भी कितने स्नेहिल – तेरी वेदी पर
होम हुए। सबसे छोटा – कितना प्रिय, कितना युवा – वह भी बड़े के पीछे अग्नि में दाखिल
हुआ; और अब मैं हूँ, ओ माँ! तेरे बलिदानी स्तंभ पर बंधा! तो क्या हुआ! यदि तीन के
स्थान पर हम सात होते तो मैं उन सबको न्योछावर कर देता – तुम्हारे ध्येय में!
तुम्हारा ध्येय पवित्र है! तुम्हारे ध्येय को मैं ईश्वरीय ध्येय मानता हूं! और जानता हूं कि
उसकी सेवा ईश्वर की सेवा है!
तीस करोड़ बच्चे हैं उसके ! उनमें वह जो इस दिव्य कामना से भरे अपना जीवन होम
करेंगे, सदा जीवित रहेंगे! और हमारा वंश वृक्ष, ओ बहिन्! उसकी जड़ें उखड़ गई हों परंतु
फिर गहरे उतरेंगी और अमर रूप में खिल उठे गा।
(4)
तो क्या हुआ यदि वह खिलेगा नहीं और शेष सब लौकिक वस्तुओं की तरह कु म्हला कर
विस्मृति की गर्त में जा मिलेगा! हमने अपने संकल्प पूर्ण किए और आत्म को दबाकर
असत्य पर सत्य की जीत हासिल की। हमारे लिए वही काफी है। बलिदान हमारे लिए
सफलता है।
प्रभु ने हमें जो भी आशीर्वाद दिया हमने आज तुम्हें समर्पित कर दिया! और यदि वह कु छ
अन्य भी हमें अर्पित करना चाहेगा, वह भी तुम्हारे चरणों में समर्पित किया जाएगा!
अतएवः, तुम्हारे विचारों को बूझकर, विभेद से परे, हमारे परिवार की परंपराओं को
निभाती हुई प्रिय वहिनी और मनोरथ के साथ पूर्ण निष्ठा से खड़ी है। हिमाच्छादित हिमालय
में तीव्र संयम झेलती हुई उमा और ओठों पर खेलती मुस्कान के साथ धधकती ज्वालाओं
को सीने से लगाती चित्तौड़ की कु मारियां।
यह तुम्हारे आदर्श हैं! तुम हो नायकों की अर्धांगिनियाँ! तुम्हारा जीवन ऐसे नायकत्व से
भरा रहे जिसे कभी हिन्द की कु मारियों ने चमकदार पराक्रम और आत्मिक शक्ति से
जीवित किया था, जो आज तक मद्धिम या बुझी नहीं है।
यह तुम्हें मेरे अंतिम शब्द हैं; मेरा संकल्प और घोषणापत्र। अलविदा, प्रिय वहिनी,
अलविदा! मेरी पत्नी को स्नेह और यह शब्द कहना:
यह अंधभक्ति नहीं थी जिसने हमें इस पथ पर धके ला! नहीं! हम तर्क और इतिहास और
मानव प्रकृ ति के पूर्ण प्रकाश में इसमें दाखिल हुए थेः यह जानते हुए कि पथिक की यात्रा
उसे मृत्यु मार्ग तक ले जाती है, हमने अपनी सलीब उठाई और जानते-बूझते हुए ‘उसके ’
पीछे चल दिए थे!
परिशिष्ट III
वीडी सावरकर की याचिकाएँ
1. भारत सरकार के गृह सदस्य रेजिनल्ड क्रे डॉक को वीडी सावरकर (कै दी नंबर 32778)
द्वारा प्रेषित याचिका, दिनांक 14 नवंबर 1913
मैं आपके विचारार्थ निम्न बिंदु रखना चाहता हूँ:
1. जब मैं जून 1911 में यहां आया था, मुझे अपने दल के अन्य सभी अपराधियों के साथ
चीफ कमिश्नर के कार्यालय ले जाया गया था। वहां मुझे श्रेणी ‘डी’ अर्थात् डेंजरस
घोषित किया गया। उसके बाद मुझे पूरे छह माह एकांत कारावास में बिताने पड़े। अन्य
अपराधियों को यह नहीं भुगतना पड़ा। उस दौरान मुझे नारियल जटा छीलने का काम
मिला जिसमें मेरे हाथ खून से भरे रहते थे। उसके बाद मुझे कोल्हू में जोत दिया गया –
कारागार में सबसे कठिन श्रमकार्य। हालांकि, इस अरसे में कारागार में मेरा आचरण
असाधारण तौर पर अच्छा रहा, फिर भी, छह माह के अंत के बाद मुझे कारागार से
बाहर नहीं भेजा गया; मेरे साथ आए अन्य कै दी बाहर जाते थे। उस समय से आज के
दिन तक मैंने अपने व्यवहार को हर संभव तरीके से अच्छा बनाए रखा है।
2. जब मैंने अपने स्तर में वृद्धि की अपील की तो मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का
कै दी हूं और मुझे प्रोन्नति नहीं दी जा सकती। जब हम बेहतर भोजन या अन्य कोई
विशेष सुविधा मांगते तो हमें कहा जाता ‘तुम साधारण कै दी हो और वही खाना होगा
जो अन्य खाते हैं।’ अतः सर, योर ऑनर देखेंगे कि विशेष असुविधाओं के लिए ही हमें
विशिष्ट कै दी का दर्जा दिया गया है।
3. जब अधिकांश कै दियों को कार्य के लिए बाहर भेजा गया तो मैंने भी छू ट की मांग
रखी। परंतु, मुझे कदाचित दो या तीन बार सख्ती से पीटा गया, और जिन्हें बाहर भेजा
गया उनमें से कु छ को तो दर्जन या कु छ अधिक बार, फिर भी मुझे उनके साथ बाहर
नहीं भेजा गया क्योंकि मैं उनके मामले से संबद्ध था। परंतु जब अंततः, मुझे बाहर
निकालने का आदेश दिया गया और फिर ज्यों ही बाहर कार्यरत कु छ राजनीतिक
कै दियों को किसी क्लेश के कारण लाया गया तो मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया
क्योंकि मैं उनके मामले से संबद्ध था।
4. यदि मैं भारतीय जेल में होता तो अब तक मुझे काफी छू ट मिल गई होती, कई पत्र घर
भेज चुका होता, परिजनों से मुलाकात होती। यदि मैं यहां भेजा गया साधारण अपराधी
होता तो अब तक इस जेल से छू ट गया होता और टिकट-रिहाई आदि के इंतजार में
होता। परंतु सच यह है कि मुझे किसी भारतीय जेल या इस कै दी बस्ती के नियमों का
लाभ प्राप्त नहीं; हालांकि दोनों की असुविधाएं झेलनी आवश्यक हैं।
5. अतः, योर ऑनर, मुझे जिस नियम-विरुद्ध स्थिति में रखा गया है, उसे समाप्त करने
की कृ पा करें, इसके लिए मुझे या तो किसी भारतीय जेल में भेजा जाए या मेरे साथ
किसी भी अन्य भेजे गए कै दी जैसा व्यवहार किया जाए। मैं किसी विशेष सुविधा के
लिए नहीं कह रहा हूँ, हालांकि मेरा मानना है कि बतौर राजनीतिक कै दी, दुनिया के
स्वतंत्र राष्ट्रों के सभ्य प्रशासन में उसकी भी अपेक्षा रखी जा सकती है; तो के वल उतनी
छू ट एवं अनुमतियां भर दी जाएं जो सबसे दुर्दांत और खतरनाक अपराधियों को मिलती
हैं ? मुझे कोठरी में लगातार बंद रखने की योजना, मुझे किसी तरह के जीवन या उम्मीद
को जिंदा रखने की संभावना से भी वंचित करती है। सीमित सजा वाले कै दियों का
विषय अलग है, परंतु सर, अगले 50 वर्ष मुझे सीधे घूर रहे हैं! मैं उन्हें बिताने का नैतिक
साहस कै से जुटा सकता हूँ जबकि सबसे खतरनाक कै दियों को मिलने वाली छू ट से भी
मुझे वंचित रखा जाएगा ? या तो मुझे किसी भारतीय जेल में भेज दिया जाए जहां मैं
(क) छू ट प्राप्त कर सकूं ; (ख) मेरे परिजन प्रत्येक चार महीने में मुझसे मिल सकें , चूंकि
जेल में रहने वाले जानते हैं कि जब-तब अपने प्रियजनों को देखना कितनी बड़ी राहत
होता है! (ग) और सबसे बड़ा, 14 वर्षों में कानूनी नहीं तो रिहाई के नैतिक अधिकार का
हकदार होना; (घ) साथ ही अधिक पत्र एवं कु छ अन्य सुविधाएं। अथवा यदि मुझे
भारत नहीं भेजा जा सकता तो मुक्त कर, अन्य कै दियों की तरह इस उम्मीद के साथ
बाहर भेजा जाए, कि 5 वर्ष बाद परिजन मुझे मिल सकें , टिकट छू ट मिल सके और
परिवार को यहां बुला सकूं । यदि यह अनुमति मिलती है तो के वल एक शिकायत रह
जाती है कि मुझे मेरे ही अपराधों का जिम्मेदार माना जाए, अन्य का नहीं। अफसोस है
कि मुझे यह कहना पड़ रहा है – यह किसी भी इंसान का बुनियादी अधिकार है! चूंकि
जहां एक ओर 20 राजनीतिक कै दी – युवा, सक्रिय एवं उद्विग्न हैं, और दूसरी ओर कै दी
बस्ती के नियामक, जो अपनी प्रकृ ति के अनुसार ही विचार एवं अभिव्यक्ति को
निम्नतम स्तर पर ले आते हैं; यह बहुत संभव है कि उनमें से कोई कभी किसी एक या
दूसरे नियम को तोड़ने का जिम्मेदार ठहराया जाएगा और मौजूदा चलन के अनुसार
यदि उन सबको इसका जिम्मेदार माना गया – मेरे बाहर रहने की उम्मीद भी बहुत कम
हो जाती है।
अंत में, मैं योर ऑनर को याद दिलाना चाहूंगा कि 1911 में मेरे द्वारा भेजी गई क्षमा
याचिका को संज्ञान में लें और उसे भारत सरकार को भेजने के लिए पारित करें। भारतीय
राजनीति के नवीन घटनाक्रम तथा सरकार की समझौतावादी नीति ने एक बार फिर
संवैधानिक सुधारों की दिशा प्रशस्त की है। अब भारत और मानवीयता के प्रति सद्भाव
रखने वाला कोई व्यक्ति कांटों भरी राह नहीं चुनना चाहेगा, जिस पर उत्तेजित होकर और
भारत में 1906-07 में नाउम्मीदी ने हमें शांति और प्रगति के मार्ग से दिग्भ्रमित कर दिया
था। अतः, यदि सरकार अपनी बहुरूपी उदारता और दया के आधार पर मुझे रिहा करती है
तो मैं संवैधानिक सुधारों तथा अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहूंगा, जो उस प्रगति की
सर्वप्रथम शर्त होगी। जब तक हम जेलों में हैं, तब तक भारत में सैकड़ों तथा हजारों घरों में
असली खुशी एवं उल्लास नहीं हो सकता जो हिज़ मैजस्टी के वफादार हैं, चूंकि रक्त संबंध
सर्वोपरि होते हैं; परंतु यदि हमें मुक्त किया जाता है तो लोग तुरंत सरकार के प्रति हर्ष एवं
आभार व्यक्त करेंगे, जो प्रतिकार और दण्ड देने की बजाय, क्षमा करना और भूलना जानती
है। साथ ही, संवैधानिक लीक पर मेरे चलने से भारत और बाहर पथभ्रमित वह अनेक युवा
भी लौट आएंगे जो कभी मुझमें अपना मार्गदर्शक देखते थे। सरकार जिस क्षमता में चाहे मैं
उसके लिए काम करने को तैयार हूं, चूंकि मेरा परिवर्तन शुद्ध अंतःकरणवाला है, अतः मुझे
उम्मीद है कि मेरा भावी आचरण भी वैसा ही रहेगा। मुझे जेल में रखने से कु छ प्राप्त नहीं
हो सकता, जो अन्यथा हो सकता है। शक्तिशाली ही दयालु हो सकता है और फिर
प्रायश्चितरत पुत्र सरकार के अभिभावक रूपी द्वार के अतिरिक्त कहां जाएगा।
उम्मीद है योर ऑनर उपरोक्त बिंदुओं को संज्ञान में लेंगे।
2. अंडमान द्वीपसमूह के चीफ कमिश्नर को अक्तू बर 1914 को वीडी सावरकर द्वारा भेजी
गई याचिका का संपूर्ण कथ्यः

माननीय चीफ कमिश्नर,


सर,
अधोहस्ताक्षरी पूर्ण विनम्रता से निम्न याचिका इस उम्मीद के साथ प्रेषित करना चाहता है
कि इसे भारत सरकार तक भेजा जाएगा।
1. जब से विश्व को हिला देने वाला युद्ध यूरोप में आरंभ हुआ है, प्रत्येक भारतीय राष्ट्रभक्त
के हृदय में इससे अधिक उम्मीद और उत्साह नहीं उपजा कि भारतीयों को भी देश एवं
साम्राज्य की साझा रक्षा के लिए शत्रु के समक्ष हथियार उठाने का अवसर प्राप्त होगा।
व्यक्ति जिस वस्तु की रक्षा का हकदार होता है, उसके प्रति उसे मन में स्वामित्व का
अधिकार होता है; तथा साम्राज्य के अन्य नागरिकों के साथ, कं धे से कं धा मिलाकर
लड़ने पर, भारत की नवीन पीढ़ी को बराबरी का अहसास होगा और उसके प्रति वह
गंभीर वफादारी भी महसूस करेगी।
2. इस तथ्य में यकीन करते हुए कि समस्त राजनीतिक विज्ञान एवं अभ्यास का आदर्श
एक वैश्विक राज्य में होना चाहिए; इसलिए मानवीयता उच्च देशभक्ति है, अतः, परस्पर
विरोधी वर्णों एवं राष्ट्रों को, एक की तरक्की पर दूसरे की प्रधानता को निष्प्रभ करे बिना
सामंजस्यपूर्ण एकसूत्र में पिरोना, इस आदर्श प्राप्ति की दिशा में बड़ा कदम हैः
स्वैच्छिक अभियान की सफलता देख मैं प्रसन्न हूं और लॉर्ड हार्डिंग के प्रशासन की
मेलमिलाप एवं भरोसा जीतने वाली सुदुरदर्शी एवं सच्ची शाही नीति की अंतिम
सफलता को देख इस विश्वास से परिपूर्ण हूं। यदि सरकार इसे जारी रखती है, यदि
साम्राज्य के अन्य नागरिकों के साथ इस देश के पौरुष को यश एवं जिम्मेदारियां उठाने
का पूरा मौका दिया जाता है, तो प्रत्येक धारा एवं विचार वाले भारतीय देशभक्त शुद्ध
अंतःकरण से उसी वफादारी से भर उठे गा जैसा कोई अपनी मातृभूमि के लिए महसूस
करता है।
3. अतः, मैं स्वयं को मौजूदा युद्ध में स्वयंसेवक के तौर पर किसी भी कार्य हेतु प्रस्तुत
करता हूं, भारतीय सरकार जैसा चाहे उपयुक्त समझे, मैं जानता हूं कि साम्राज्य मेरे
जैसे मामूली व्यक्ति की मदद पर निर्भर नहीं, परंतु मैं जानता हूं कि कोई कितना भी
मामूली हो, साम्राज्य की रक्षा के लिए स्वैच्छिक रूप में अपने श्रेष्ठ प्रयास से उत्तरदायी
है। मैं यह भी निवेदन करना चाहता हूं कि राजनीतिक अपराधों के लिए कै द किए गए
भारतीय लोगों को रिहा कर उनमें वफादारी की भावना फै लाने एवं सशक्त करने का
बेहतर उपाय नहीं हो सकता। ऐसे समय यह कदम विदेशियों के उस भ्रम को भी तोड़ेगा
कि चूंकि भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत समान अधिकार मांगते हैं, अतः, उन्हें पूरी तरह
किनारे कर दिया जाए या उससे भी बुरा, अन्य को बुलाकर उनका स्थान दिया जाए,
दूसरा, यह कि अपराधी उस शक्ति से तब भी जुड़े रहेंगे जो अन्य परिस्थितियों में दंड
देने का कार्य करती है, परंतु क्षमा एवं धैर्य रखने में अधिक सशक्त साबित होगीः और
फिर जब लॉर्ड हार्डिंग द्वारा संवैधानिक सफलता का शाही मार्ग इस रूप में खोल दिया
गया हो, तो कौन पथभ्रष्ट या कट्टरवादी रक्त एवं अपराध के कं टीले मार्ग पर चलना
चाहेगा ? परंतु ऐसे नाजुक समय आम रिहाई भारतीय लोगों के मन में कृ तज्ञता का
भाव इतना सशक्त करेगी जिसे कोई दरबार अथवा युद्धोपरांत कार्य नहीं कर सकते,
और यह तथ्य साबित करेगा कि साम्राज्यवादी रक्षा के लिए अंग्रेज एवं भारतीय सुपुत्रों
को एक दूसरे का पूर्ण विश्वास प्राप्त है।
4. यदि सरकार को मेरे लिखे पर शंका है कि मैं अपनी रिहाई सुनिश्चित करना चाहता हूं,
तो मैं कहना चाहूंगा कि मुझे रिहा ना किया जाए, परंतु मेरे बदले में शेष अन्य को छोड़
दिया जाए, स्वयंसेवी अभियान चलता रहे, और मैं यह सोच प्रसन्न रहूंगा मानो मुझे ही
उसमें सक्रिय भूमिका अदा करने का अवसर दिया गया हो। उचित कार्य करने हेतु
गंभीर इच्छा के चलते मैंने यह सुस्पष्ट एवं मुखर याचिका आपके विनीत विचार हेतु
लिखने का साहस किया है।
आपका, आदि
वीडी सावरकर
3. भारत सरकार को वीडी सावरकर द्वारा 5 अक्टूबर 1917 को प्रेषित याचिका का संपूर्ण
कथ्यः
सेवा में,
हिज़ ऑनर, भारत सरकार के सचिव
गृह विभाग
माननीय महोदय!
कोई तीन वर्ष पहले, 1914 में मैंने भारत सरकार को निम्न बिंदुओं पर एक याचिका भेजी
थी; एवं लॉर्ड हार्डिंग ने उदारता से मुझे सूचित किया कि यह ‘असंभव’ था – ऐसा नहीं
था कि सरकार तत्कालीन परिस्थितियों में मेरे प्रस्तावों पर कार्य करने हेतु इच्छु क नहीं
थी।
युद्ध एवं उससे जुड़े प्रत्येक पक्ष ने सब लोगों एवं राज्यों के बीच सभी राजनीतिक संबंधों
को निर्णयात्मक एवं भौतिक तौर पर बदल दिया है। इंसान में नई आत्मा का अभ्युदय
हुआ है और सभी राष्ट्र नवीन अवलोकन एवं नई उम्मीदों से भर गए हैं, जिन्हें गणतंत्रों के
राष्ट्राध्यक्षों एवं साम्राज्यों के मंत्रियों के उद्गारों में जिम्मेदार एवं उत्साही भाव प्राप्त हुए हैं।
भारत और ब्रिटिश साम्राज्य विश्व की इस लोकतांत्रिक उथल-पुथल से समूचे तौर पर
अछू ते नहीं रह सकते थे। उनमें भी वर्ण-निरंकु शता एवं वर्ण-पराधीनता आपसी सहयोग
एवं गणतंत्र को स्थान दे रही है। साम्राज्य-मंत्रिमंडल का कें द्र; उसमें उपनिवेशों के मंत्रियों
एवं भारत के मनोनीत परंतु दो नुमाइंदों की मौजूदगी; भारतीय युवाओं को स्वयंसेवी के
तौर पर भर्ती होने की मंजूरी; सेना में कमीशन स्तर के पदों का खोला जाना; और
प्रधानमंत्री का भाषण जिसमें उन्होंने लाखों भारतीयों को निर्भर नहीं बल्कि ‘सच्ची
सहभागिता’ का अहसास दिलाना ब्रिटिश शासनकला की सर्वोपरि परीक्षा बताया; और
मौजूदा सेक्रे टरी ऑफ स्टेट द्वारा राजशाही के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण, निश्चित और दृढ़
बयान जो ना के वल उसके लक्ष्य परंतु भारतीय प्रशासन में तात्कालिक, अलबत्ता सीमित
बोध पर ध्यान दिलाता है; यह सब तथ्य दर्शाते हैं कि अब भारत सरकार ना के वल
भारतीय जनमानस के हित में निरंतर कार्यरत है, परंतु प्रगति के पहले सिद्धांत को भी
पहचानती है जो स्वयं जनमानस हैं। इसलिए जिस ओर लॉर्ड हार्डिंग ने ध्यान दिलाया है,
परिस्थितियां बेहतर हैं या उस ओर विकासरत हैं।
अतः, मैं ध्यान दिलाना चाहता हूं कि प्रत्येक स्थान पर सफल रहने वाली सहयोग तथा
गणतंत्र नीति को यदि भारतीय प्रशासन में प्रयुक्त किया जाना है तो उसके शुभारंभ में जो
कार्य दरबार एवं आतिशबाजी के माध्यम से होता है, भारतीय राजनीतिक कै दियों की
तुरंत रिहाई भी कर सकती है ? अपने नातेदारों की रिहाई से अधिक कोई शाही इश्तेहार
और गजयात्रा, विचारों ही नहीं, बल्कि भारतीय लोगों के दिलों को छू सकती है। कनाडा
में विद्रोह एवं बगावतों का आम चलन थाः लॉर्ड डरहम जैसे निर्भीक राजनेता उठे और
आत्मविश्वास दिखाया - और अब उन विद्रोही नेताओं के प्रपौत्र ब्रिटिश ओर से फ्लैंडर्स में
लड़ रहे हैं। बोरों ने युद्ध किया और परास्त हुए; परंतु अंग्रेजों ने परिस्थितियों की गंभीरता
को समझा और अमेरिका तथा के प कालोनी के इतिहास को याद कर वैसा बर्ताव किया
जैसे विजेता को करना चाहिए और उन्हें स्वायत्त्ता प्रदान की और परिणाम कि ड्यूइट ने
विद्रोह किया, परंतु वहां दबाने के लिए के वल ड्यूइट ही थे, बोथा नहीं! या फिर ब्रिटिश
लोगों के उन्मुक्त तथा गंभीर व्यवहार के जवाब में भारत कम विश्वासी और कम उदार
नजर आता है?
इतिहास बताता है कि भारत की गलती, यदि ही गलती थी तो इतनी ही कि वह बेहद
उदार और बेहद विश्वासी रहा है। यदि होम रूल की सुविधा हमारे लोगों को पूर्णतया
प्रदान होती है तो हमारे लोग, अपने हितों के लिए, सभी उपनिवेशों की बजाय साम्राज्य
के साथ घनिष्ठता से जुड़ेंगे, जब तक कि हमारे हित इसके जरिए और इससे सधते हैं।
दूसरा, मैं, और उनके बारे में भी कह सकता हूं जिन्हें मैं जानता हूं, साम्राज्य से उसके
अस्तित्व के कारण हम लेश मात्र भी वैर भाव नहीं रखेंगे। नहीं; जैसा कि मेरा मानना है
समूचे राजनीतिक विज्ञान और राजनीतिक कला का आदर्श, मानवीय अवस्था होनी
चाहिए; सभी राष्ट्रों को प्रगति के अवसरों एवं आजादी के सिद्धांत पर समाहित करना जो
दूसरांे में अपना सम्मान तलाशती हो – ऐसे साम्राज्य के प्रति मेरे मन में के वल सांत्वना
भाव है जो मानवता के वृहत अंश को एकसूत्र में बांधे और हमें उस आदर्श के निकट ले
चले। यदि भारत को इस राष्ट्रमंडल का स्वायत्त साझीदार बनाया जाता है और निकट
भविष्य में भारतीयों के लिए वाइसरीगल परिषद् में बहुमत सुनिश्चित किया जाता है तो
हमारे पास समाज के परिष्करण और स्वच्छ करने के लिए बहुत कु छ होगा और हमारी
समस्त ऊर्जा उपलब्धियों को सशक्त करने में व्यतीत होगी। साम्राज्य के विरुद्ध वह कोई
कट्टर विरोध नहीं था, ‘विध्वंसकारी’ तो बिल्कु ल नहीं, के वल एक बोध था - जो भूमि पर
प्रगति के सभी मार्गों पर ‘घुसपैठियों पर कार्यवाही की जाएगी’ सरीखे दिखने वाले
नैराश्य के संजीदा और मारक बोध से उपजा था, जिसने हमें राजनीतिक जीवन के
खतरनाक उपमार्ग पर डाल दिया था। जब कोई संविधान नहीं था, संवैधानिक अभियानों
के संबंध में बात करना मजाक था। परंतु यदि संविधान अस्तित्व में आता है और होम
रूल जिस अनुरूप है, तो बेहिसाब राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक कार्य
किया जाना है और संवैधानिक विधि अनुसार किया जा सकता है जिसे सरकार, यह
जानकर आश्वस्त हो सकती है कि कड़ी सजा झेलने वाले किसी भी मौजूदा राजनीतिक
कै दी ने भूमिगत कार्य किसी रोमांच के लिए नहीं किया था! इसलिए राजनीतिक कै दियों
की रिहाई ना सिर्फ प्रशासनिक सुधारों का शुभारंभ कर ब्रिटिश सरकार और साम्राज्य के
प्रति भारत भर में भरोसा पैदा करेगी, बल्कि साथ ही, इस सद्कार्य से भविष्य में उसे
कोई नुकसान पहुंचने की आशंका नहीं है।
तीसरा, जब तक राज्य के सुदूरदर्शी सुधार कार्यक्रम साथ नहीं होंगे, भारतीयों में असंतोष
की जड़ें के वल कै दियों की रिहाई से ही दूर नहीं होंगी, इसी तरह, उन सुधारों की कोई
किस्त भी तब तक संतोष प्रदान कर दिलों को जीतेगी नहीं, जब तक उनके साथ कै दियों
को रिहाई नहीं मिलेगी। किसी भूमि पर शांति और आपसी विश्वास तथा स्नेह कै से हो
सकता है जब तक कि उसके हजारों परिवार पूरी तरह टूट हो चुके हों और हर दूसरे घर
का एक भाई या एक बेटा या पति या प्रेमी या एक मित्र उसके हृदय से छीन लिया गया हो
और कारागारों में बंद हो ? यह मानवीय प्रकृ ति के खिलाफ है क्योंकि रक्त संबंध बहुत
घनिष्ठ होते हैं।
चौथा, दुनिया भर में जेलें उनके लिए खोल दी गई हैं जिन्हें राजनीतिक सिद्धांतों की
खातिर उनमें भरा गया था। रूस, फ्रांस, आयरलैंड तथा ट्रांसवाल का जिक्र करना गलत
ना होगा। यहां तक कि जब युद्ध मुंह बाए खड़ा था, ऑस्ट्रिया भी अपने राजनीतिक
कै दियों की रिहाई को ना रोक सका था। यह भी नहीं कहा जा सकता कि रिहा कै दियों
पर ‘के वल आम शिरकत’ का आरोप था, चूंकि सफ्राजिस्टों के मामले में, श्री बोनार लॉ
के शब्दों में, करीब सभी कै दियों पर ‘व्यक्तिगत कार्रवाई’ का आरोप था और युद्ध छिड़ते
ही उन्हें छोड़ दिया गया था। इसलिए दुनिया के सभी राष्ट्रों के लिए लाभकारी रहे कदम
के वल भारत में ही नुकसानदेह रहेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
पांचवां, जब तक ऐसे लोग जेल में रहेंगे जिनके नाम, गलत या सही तरीकों से ही सही,
हजारों लोगों द्वारा लिए जाते हैं और जिन्हें मौजूदा परिस्थितियों में शत्रु के तौर पर देखा
जाता है, तब तक प्रशासन के विरोध की परंपरा अपने ही श्रद्धालुओं और अंधभक्तों को
सामने लाती रहेगी। परंतु यदि यही लोग अथवा इनमें से कु छ ही वापस लौटें और
निष्ठापूर्वक मान लें कि उनके राष्ट्र का हित ब्रिटिश लोगों के साथ सहयोग से खतरे में नहीं,
उस संबंध में प्रचार करते हुए उदाहरण स्थापित करें तो उन्हें आदर्श स्वरूप देखने वाले
लोग भी मानेंगे कि नया सवेरा हो गया है और ताजी हवा तथा रोशनी में नए मार्ग पर
चलना होगा, और अतीत के अंधकारमय अभियान को त्यागना होगा।
छठा, अधिकांश भारतीय कै दी षडयंत्रों की सजा झेल रहे हैं, जिनमें व्यक्ति को अपने
साथ दूसरों के अपराधों का भी दंड भोगना पड़ता है और दूसरा, उनमें से कु छ 10 वर्ष, 9
या 8 बिता चुके हैं और कु छ ने निराशाजनक दासता में दो वर्ष से कम अवधि कड़ी
मेहनत में गुजारी है। उनमें से कई, जिन्हें अब तक समय और स्वास्थ्य की बुनियाद पर ही
रिहा कर दिया जाता, भारतीय जेल तंत्र के अधीन होने का अधिकार रखते हैं।
उपरोक्त सभी कारणों की वजह से मैंने यह याचिका आपके समक्ष पूरी साफगोई के
साथ, अपनी सोच और उम्मीद के अनुसार रखी है और मेरा विश्वास और उम्मीद है कि
इसे यहां आने पर भारत के राज्य सचिव के समक्ष रखा जाएगा।
अंत में, पूरी गंभीरता के साथ मैं जोड़ना चाहता हूं, यदि सरकार को लगता है कि अपनी
रिहाई के लिए मैं यह लिख रहा हूं; या यदि माफी देने के लिए मेरा नाम मुख्य अड़चन
बनता है तो सरकार मेरा नाम हटाकर शेष सबको रिहा कर दे; वह पहल मुझे अपनी ही
रिहाई जितनी संतोषप्रद होगी। यदि सरकार कभी इस प्रश्न पर विचार करती है तो
माफीनामा इतना व्यापक होना चाहिए कि उसमें भारतीय प्रवासी भी समाहित रहें और
जिन्हें उनकी अपनी ही भूमि में अजनबी मान लिया गया है और वह भारत सरकार के
कटु विरोधी हैं, परंतु उनमें से अधिकांश को यदि लौटने की अनुमति मिलती है तो वह
मातृभूमि और संवैधानिक सुधारों के हित में काम करना चाहेंगे, जब नया एवं मौलिक
संविधान यहां लागू होगा।
आशा है कि योर ऑनर मुझे मेरे मंतव्य को राज्य सचिव के समक्ष रखने की संतुष्टि को
अन्यथा नहीं लेंगे, चूंकि एक कै दी का जनहित पर जोर देना अभी तक अनिश्चितता के
दायरे में है।
मैं,
आपका आज्ञाकारी
वीडी सावरकर
कै दी नं. 32778

4. भारत सरकार को वीडी सावरकर द्वारा प्रेषित याचिका का संपूर्ण कथ्य, दिनांक 20
मार्च 1920
भारत सरकार के गृह विभाग के माननीय सदस्य का हालिया बयान ‘कि सरकार किसी
भी व्यक्ति के पत्रों पर विचार करने को तैयार है, और यदि उसके समक्ष लाए जाते हैं तो
उस पर अपना श्रेष्ठ मनन करेगी’; और कि ‘जैसे ही सरकार को यह स्पष्ट होगा कि व्यक्ति
को रिहा किया जाना राजहित के लिए खतरा नहीं है, सरकार उस व्यक्ति को शाही माफी
के दायरे में लाएगी’, अधोहस्ताक्षरी बेहद विनम्रता से निवेदन करता है, इससे पहले कि
कीमती समय नष्ट हो, उसे उसका पक्ष रखने का अंतिम मौका दिया जाए। महोदय, आप,
किसी भी कारण मुझे यह याचिका महामहिम भारत के वाइसरॉय के समक्ष रखने पर
आपत्ति नहीं करेंगे, विशेषकर जब यह सरकार के निर्णय से इतर, के वल मुझे सुने जाने से
जुड़ा संतोष प्रदान करती हो।
I शाही मुनादी में बेहद उदार मन से कहा गया है कि शाही माफीनामे के दायरे में वह सब
आते हैं जो ‘राजनीतिक प्रक्रिया के लिए अपनी उत्सुकता’ के कारण कानून तोड़ने के
अपराधी पाए गए हैं। मेरा और मेरे भाई का मामला विशेष तौर पर इस श्रेणी में आता
है। मेरे और मेरे परिवार के किसी सदस्य को किसी निजी कारण से सरकार के प्रति
कोई शिकायत नहीं रही है। मेरे समक्ष उत्कृ ष्ट करियर था जिसे ऐसे खतरनाक मार्ग पर
चलकर सब कु छ खोने और कु छ भी प्राप्त ना होने का ही विकल्प बचता था। 1913 में
गृह विभाग के माननीय सदस्यों द्वारा मुझे कहे शब्दों में कह देना भर उपयुक्त होगा, ‘. .
.ऐसी शिक्षा और अध्ययन. . .आप हमारी सरकार में सर्वोच्च पद हासिल कर सकते
थे।’ इस बयान के बाद भी यदि मेरी मंशा के प्रति कोई शक रहता है तो मैं ध्यान
दिलाना चाहता हूं, कि वर्ष 1909 तक मेरे परिवार के किसी भी सदस्य के खिलाफ
कोई अभियोग नहीं था; जबकि मेरे मामले में मेरी जो गतिविधियां एकत्र की गई हैं, वह
भी उस वर्ष से पहले ही कार्यान्वित हुई थीं। अभियोजन पक्ष, न्यायाधीशों एवं रॉलेट
रिपोर्ट, सबने कहा है कि वर्ष 1899 से वर्ष 1909 के बीच मेजिनी की जीवनी एवं अन्य
पुस्तकें लिखीं, साथ ही विभिन्न सभाओं का संगठन किया तथा यहां तक कि बंदूकें भी
मेरे भाइयों को गिरफ्तार करने से पहले भेजी गई थीं या मुझे मेरी निजी शिकायत दर्ज
करने के अवसर से पहले (देखें रॉलेट रिपोर्ट पृष्ठ 6 एवं सी.) का कार्य है। परंतु क्या
कोई अन्य हमारे मामले को इस दृष्टि से देखता है ? भारतीय जनमानस द्वारा भेजी गई
वृहत याचिका में 5000 से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किए थे, और उसमें मेरा नाम
विशेष तौर पर दर्ज था। मुझे अदालत में ज्यूरी सुविधा नकारी गई थीः और अब समूचे
देश की ज्यूरी का मत है कि मेरे कृ त्यों के पीछे राजनीतिक प्रगति की मेरी तीव्र उत्कं ठा
थी जिस कारण कानून तोड़ने का अफसोसजनक कार्य मुझसे हुआ।
II. हत्या को उकसाने का दूसरा मामला मुझ पर थोपकर मुझे शाही माफी से दूर नहीं
रखा जा सकता, क्योंकि
क. घोषणा अपराध की मंशा से इतर उसकी प्रकृ ति या किसी अनुभाग या न्यायिक
अदालत की विशिष्टता का जिक्र नहीं करती है। वह के वल मंशा पर जोर देती है और
मांग करती है कि यह निजी ना होकर राजनीतिक हो।
ख. दूसरा, सरकार ने भी इसे समान तरीके से व्याख्यायित किया है तथा बरिन एवं हेसु
तथा अन्य रिहा हो चुके हैं। इन व्यक्तियों ने कबूला था कि उनके षडयंत्रों का एक
उद्देश्य ‘प्रतिष्ठित सरकारी अधिकारियों की हत्या’ था और इसके लिए उन्होंने लड़कों
को न्यायाधीशों आदि की हत्या के लिए भेजा था। न्यायाधीश महोदय ने अन्य के
साथ, पहले ‘बन्दे मातरम्’ समाचार पत्र मामले में बरिन के भाई अराबिंदा (अरविंद)
पर अभियोग चलाया था। इसके बावजूद, बरिन को उचित ही, गैर-राजनीतिक हत्यारे
के तौर पर नहीं देखा गया। मेरे मामले में आपत्ति बहुत कमजोर है। चूंकि अभियोजन
पक्ष ने उचित ही कहा है कि मैं इंग्लैंड में था और मुझे श्री जैक्सन की हत्या की
योजना या विचार के संबंध में कु छ ज्ञान नहीं था और हथियारों का पुलिंदा भाई की
गिरफ्तारी से पहले भेजा था और इसलिए उनमें से किसी भी अधिकारी के खिलाफ
तनिक भी निजी द्वेष नहीं हो सकता। परंतु हेम ने वह बम बनाया था जिससे कै नेडी
मारे गए और उन्हें गंतव्य का भी पूर्ण ज्ञान था। (रॉलेट रिपोर्ट, पृष्ठ 33)। उसके
बावजूद हेम को इस आधार पर भी माफी के दायरे से बाहर नहीं रखा गया। यदि
बरिन एवं अन्य पर उकसाने के लिए मामला दर्ज नहीं किया गया तो इसलिए क्योंकि
उनको पहले ही मृत्युदंड की सजा सुनाई जा चुकी थी; और मुझ पर विशिष्ट मामला
चला क्यांेंकि मेरे ऊपर ऐसा मुकदमा नहीं चला था और यदि मुझे फ्रांस प्रत्यर्पित
करना पड़ता तो उससे जुड़े अंतरराष्ट्रीय कारणों से भी ऐसा किया गया। अतः, मेरा
सरकार से विनम्र निवेदन है कि बरिन एवं हेम की तरह मुझे भी माफी के दायरे में
लाया जाए, जो हत्या को उकसाने में अपनी भूमिका स्वीकार कर चुके हैं और वह
कहीं गहरी थी। चूंकि अपराध का इरादा किसी वर्ग से कहीं बड़ा होता है। मेरे भाई के
संबंध में यह प्रश्न नहीं उठता क्योंकि किसी हत्या आदि से उनके मामले का कोई
संबंध नहीं।
III. अतः बरिन, हेम आदि के संबंध में सरकार द्वारा क्षमादान की व्याख्या किए जाने के
उपरांत, मैं और मेरे भाई भी ‘पूरी तरह’ शाही माफी के हकदार हैं। परंतु क्या यह
सार्वजनिक सुरक्षा के लिए मुफीद होगी ? मैं कहता हूं कि ऐसा है, क्योंकि
क. मैं जोर देकर यह कहना चाहूंगा कि गृह सचिव के कथन के विपरीत हम
‘अराजकतावाद के सूक्ष्मजीवी’ नहीं हैं। जहां तक युद्धरत विचारधारों का प्रश्न है तो
मैं कु रोप्तिकन या टाॅलस्टाॅय के शांतिप्रिय और दार्शनिक अराजकतावाद में भी
विश्वास नहीं रखता। और जहां तक मेरे अतीत के क्रांतिकारी कार्यों का प्रश्न है: यह
के वल अब क्षमा प्राप्ति के लिए ही नहीं बल्कि वर्षों पहले मैंने अपनी याचिकाओं
(1914, 1918) में संविधान के प्रति अपने मंतव्य को स्पष्ट किया था और उस पर
कायम हूं, जब श्री मोंटेग्यू द्वारा उसे तैयार करने की प्रक्रिया आरंभ हुई थी। तब से
सुधार और उसके बाद घोषणा के प्रति मेरे विचार पुख्ता हुए हैं और हाल में मैंने
संवैधानिक विकास के साथ दृढ़ तौर पर खड़े रहने के लिए सार्वजनिक रूप से अपना
मत और तैयारी खुलकर स्वीकारी है। आज हमारे देश को उत्तर की ओर से आने
कट्टरवादी झुंडों से जो खतरा है, और जो पहले भी शत्रु के तौर पर विपदा रूपी थे,
और भविष्य में भी रहेंगे क्योंकि अब वह मित्र रूप में आना चाहते हैं, यह देख मेरा
मानना है कि प्रत्येक बुद्धिशाली भारत प्रेमी को भारत के हित में ब्रिटिश लोगों के
साथ सदिच्छा और निष्ठापूर्वक सहयोग करना चाहिए। इसीलिए 1914 में युद्ध आरंभ
होने पर, जब भारत पर जर्मन-तुर्क -अफगान हमले का खतरा बढ़ गया था, मैंने स्वयं
को स्वयंसेवी के रूप में प्रस्तुत किया था। आप विश्वास करें या नहीं, संवैधानिक पथ
पर चलने के प्रति मैं अपनी इच्छा पूर्ण ईमानदारी से व्यक्त कर रहा हूं और ब्रिटिश
राज्य के प्रति स्नेह और आदर तथा आपसी मदद का हाथ बढ़ाता हूं। शाही घोषणा
के अनुरूप दिखने वाले साम्राज्य के प्रति मेरी गहरी निष्ठा है। चूंकि असल में मैं किसी
वर्ण या मत या लोगों से मात्र भारतीय ना होने के कारण नफरत नहीं करता!
ख. परंतु यदि सरकार अतिरिक्त सुरक्षा की अपेक्षा रखती है तो मैं और मेरे भाई
सरकार द्वारा निर्देषित अवधि के लिए निश्चित और उचित तौर पर राजनीति से दूर
रहने का संकल्प ले सकते हैं। चूंकि ऐसे किसी संकल्प के बिना और मेरे गिरते
स्वास्थ्य के बावजूद तथा घर का मधुर सुख जिससे मैं वंचित रहा हूं, मुझे वर्षों तक
शांत और सेवानिवृत्त जीवन जीने को उन्मुख कर रही है जिसके बाद कु छ भी मुझे
राजनीति में उतरने को प्रेरित नहीं कर सके गा।
ग. यह या अन्य कोई शपथ, उदाहरणार्थ, किसी प्रांत विशेष या हमारी रिहाई के
उपरांत पुलिस को निश्चित समय के लिए हमारी गतिविधि सूचित करने का कार्य -
राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस तरह की वाजिब शर्तें मैं और मेरे भाई
द्वारा सहर्ष स्वीकार की जाती हैं। अंततः, मैं कहना चाहूंगा, भारी बहुमत में वह लोग,
जिन्हें हमसे सुरक्षित रखा जाना है, जैसे आदरणीय एवं वरिष्ठ उदारवादी नेता श्री
सुरेंद्रनाथ से लेकर आम राहगीर तक, प्रेस और मंच, हिन्दू और मुस्लिम - पंजाब और
मद्रास से - लगातार हमारी तुरंत एवं संपूर्ण रिहाई की मांग कर रहे हैं, जिससे यह
उनकी सुरक्षा के हित में साबित होती है। यह निहित ‘कटुता’ का तत्व ही है जिसे
घोषणा दूर करने का लक्ष्य रखती है। अतः, घोषणा का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता और
कटुता बनी रहती है, तो आमजन की ओर से चेताता हूं कि जब तक हम दोनों और
अन्य को इस उदार क्षमा का हिस्सा नहीं बनाया जाता।
IV. हमारे मामले में सजा के सभी उद्देश्य पूर्ण कर लिए गए हैं। चूंकि
क. हमें जेल में 10 से 11 वर्षों तक रखा गया है, जबकि श्री सान्याल, जो उम्रकै दी थे,
उन्हें 4 वर्ष बाद छोड़ दिया गया और दंगा फै लाने वालों को एक वर्ष में;
ख. हमने कठोर श्रम किया, चक्की, कोल्हू और अन्य सबकु छ, जो भी हमें भारत और
यहां दिया गया;
ग. हमारा व्यवहार रिहा किए जा चुके व्यक्तियों से बिल्कु ल अलग नहीं रहा; उन्हें, पोर्ट
ब्लेयर में भी गहरी साजिश के तहत जेल में बंद किया गया था। इसके विपरीत, हम
दोनों को आज तक अतिरिक्त कठोर अनुशासन के तहत रखा गया है और गत छह
वर्षों या उतनी अवधि से हमारे खिलाफ आम अनुशासन से जुड़ा भी कोई मामला
नहीं है।
V. अंत में, मैं अंडमान से सैकड़ों राजनीतिक कै दियों को रिहा किए जाने के प्रति
धन्यवाद देता हूं और इसके लिए मेरी 1914 एवं 1918 की याचिकाओं पर विचार करने
पर भी। यदि महामहिम शेष कै दियों को भी रिहा कर दें, यह उम्मीद करना गैरवाजिब
नहीं होगा क्योंकि वह भी मेरे और मेरे भाई के समान आधार पर यहां हैं। विशेषकर तब
जबकि गत कई वर्षों से महाराष्ट्र किसी भी तरह की उपद्रवी उथल-पुथल से दूर रहा है।
यहां, हालांकि, मैं निवेदन करना चाहूंगा कि पहले छोड़े जा चुके अन्य कै दियों या किसी
अन्य की तरह सशर्त हमें रिहा ना किया जाए क्योंकि हमें क्षमा से वंचित रखना और
किसी अन्य के अपराध की सजा देना निरर्थक होगा।
VI. इन आधार पर मेरा विश्वास है कि सरकार किसी व्यावहारिक शपथ के लिए मेरी
तैयारी और मौजूदा एवं वादानुसार किए जाने वाले सुधारों के साथ और उत्तर से तुर्क -
अफगानी कट्टरवादियों के खतरे को देखते हुए मैं दोनों देशों के हितों के संबंध में
निष्ठापूर्ण सहयोग देता हूं और यह मेरी रिहाई और निजी कृ तज्ञता का आधार होगी।
मेरे आरंभिक जीवन के अवसर जल्दी ही मुरझा गए थे जिस कारण मैं इतने अफसोस
में रहा हूं कि रिहाई मुझे नया जीवन देगी और हृदय को आनंदित करेगी, संवेदनीय
और विनम्र, यह मुझे निजी तौर पर प्रेरित कर राजनीतिक तौर पर लाभकारी होगी।
चूंकि अक्सर जहां शक्ति असफल रहती है, उदारता सफल होती है।
आशा करता हूं कि चीफ कमिश्नर को उनके कार्यकाल में मेरे द्वारा दिए गए सम्मान की
याद होगी और यह भी कि किस तरह उस समय मुझे नाउम्मीदी का सामना करना पड़ता
था, परंतु वह मुझे मेरी निराशा से बाहर निकलने का अंतिम अवसर देना चाहेंगे जिन्हें मैं
उनको अपनी सिफारिशों के साथ प्रेषित कर रहा हूं – महामहिम भारत के वाइसराय की
सेवा में।
मैं
सर
आपका आज्ञाकारी सेवक,
वीडी सावरकर
कै दी नं. 32778
5. भारत के गवर्नर-जनरल रफस डेनियल इस्साक्स, अर्ल ऑफ रीडिंग को वीडी सावरकर
की प्रेषित याचिका, रत्नागिरी जिला कारागार, दिनांक 19 अगस्त, 1921:
सेवा में,
महामहिम भारत के गवर्नर-जनरल, इन काउंसिल;
मार्फ त महामहिम बंबई के गवर्नर-जनरल, इन काउंसिल
विनायक दामोदार सावरकर, कै दी नं. 558, रत्नागिरी जिला कारागार की विनम्र याचिका,
एतदद्वारा यह दर्शाती है कि -
1. याचिकाकर्ता जिस पर 1910 में अपराध सिद्ध हुआ था, 1911 में अंडमान भेजा गया,
इस वर्ष भारतीय जेल में लाया गया है। इस तरह उसने कारागार में 11 वर्ष बिताए हैं।
यदि वह किसी भारतीय जेल में होता तो उसे 2 से 3 वर्ष की छू ट प्राप्त होती चूंकि उसे
फोरमैन (प्रथम श्रेणी कै दी अधिकारी) के तौर प्रोन्नत किया गया है। इस तरह
व्यावहारिक तौर पर उसने 14 वर्ष की सजा काटी है, जो सर्वाधिक सजा है, और
मौजूदा अभ्यास के अंतर्गत अपराधी की सशर्त रिहाई के लिए उसके मामले पर विचार
करने का अधिकार बनता है।
2 क. इसके अलावा, महामहिम प्रिंस ऑफ वेल्स की प्रस्तावित यात्रा को लेकर कै दी को
उम्मीद बंधी है कि अंततः अब महामहिम वाइसरॉय और विशेष तौर पर महामहिम
बंबई के गवर्नर उसके अप्रिय अतीत को माफ कर माफीनामे से लाभान्वित करेंगे
जिससे उसे अभी तक वंचित रखा गया है।
ख. इस विस्तार के लिए वह शाही माफी की नवीन व्याख्या की मांग नहीं कर रहा है,
चूंकि याचिकाकर्ता से भी अधिक गंभीर अपराध करने वालों को माफी मिली है,
उदाहरणार्थ, बरिन घोष जिन्हांेने हत्या का आदेश देने का अपराध कबूला और
हेमदास जिन्होंने बम बनाया और उन्हें गंतव्य (संदर्भ रॉलेट रिपोर्ट) की जानकारी थी;
साथ ही पंजाब से प्यारासिंह एवं अन्य जिन पर डकै ती एवं संबंधित कार्रवाई की गई
थी। यह कार्रवाई जो तकनीकी तौर पर ‘राज्य अपराधों’ से बाहर हैं, परंतु उनके
कारण ही अंजाम दिए जाते हैं, को भी माफी पर रिहा किया गया।
ग. याचिकाकर्ता महामहिम को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह अपने अपराध सिद्ध
होने के दिनों वाला व्यक्ति नहीं रहा। उस समय वह एक बालक मात्र था। उस समय से
वह ना के वल आयु में बल्कि अनुभव में भी बड़ा हुआ है; और अफसोस के साथ
कहता है कि वह राजनीतिक अंधड़ की भेंट चढ़ा और अपने उत्कृ ष्ट करियर को नष्ट
कर बैठा। उसके बाद, माननीय श्री मोंटेग्यू की भारत यात्रा के बाद से उसने
(सावरकर) ने सुधारों में अपना विश्वास जताया है और सरकार को प्रेषित अपनी
पिछली याचिकाओं में भी उसने (सावरकर) ने यह वादा किया है। एशियाई लड़ाकों
की छाया अब सीमांत क्षेत्रों पर पड़ने लगी है और यह भारत के लिए आनुवांशिक
अभिशाप रहा है - किसी भी तरह गैर-मुस्लिम भारत - उसे विश्वास दिलाता है कि
ब्रिटिश साम्राज्य के साथ निकटवर्ती सहयोग और निष्ठा दोनों के लिए अपरिहार्य होगी
- और वह उम्मीद करता है कि यह दीर्घकालिक तथा लाभकारी रहे।
घ. परंतु यदि कोई किसी मंशा से दोष आरोपित कर रहा है तब याचिकाकर्ता कहना
चाहता है कि ऐसी जानकारियों पर भरोसा ना कर, उनकी अपनी स्पष्ट एवं पूर्ण
स्वीकरोक्ति पर ही विश्वास किया जाए। उसका अतीत गवाही देता है कि जिस धारणा
पर उसका यकीन नहीं, वह उसे स्वीकार नहीं करता। सरकार को प्रसन्न करने हेतु
अति उत्साही या अति व्यग्र व्यक्ति जो अतीत के अपने कृ त्यों पर क्रु द्ध रहते हैं, ने
अक्सर याचिकाकर्ता के बारे में शब्दों या कार्यों से जुड़े आरोप लगाकर बलि का बकरा
बनाने का प्रयास किया है।
ङ. परंतु सरकारी हलकों में शेष किसी भी प्रकार की शंका को दूर करने के लिए
याचिकाकर्ता अपना दृढ़ वचन देता है कि वह किसी भी प्रकार की राजनीतिक
कार्रवाई से दूर रहेगा। उसका जीर्ण स्वास्थ्य और लम्बे कष्टों की श्रृँखला, तथा ऐसे
अन्य कारणों से वह सेवानिवृत्त और निजी जीवन जीने को प्रतिबद्ध है, इसलिए वह
यह या ऐसी किसी भी अन्य वाजिब शर्त मानने को तैयार है जिसे सरकार सामने
रखना चाहे।
च. उपरोक्त तथा अन्य कारण बताते हैं कि याचिकाकर्ता से पहले और बाद में सजा
पाने वाले हजारों राजद्रोहियों में से कोई भी इतने लम्बे समय से जेल में नहीं है, जितने
समय से याचिकाकर्ता और उनके भाई (दोनों जेल में हैं जबकि उनके साथ सजा पाने
वाले उम्रकै दी छोड़ दिए गए), यह देख उन्हें विश्वास होता है कि महामहिम राजकु मार
की यात्रा उनके कष्टों का अंत करेगी और उन्हें तथा उनके भाई जीडी सावरकर
(जिनके संबंध में उपरोक्त तथ्य कहीं अधिक सटीक बैठते हैं) रिहा होंगे।
3. परंतु यदि क्षमा याचना दबाए जाने के संबंध में याचिकाकर्ता का दुर्भाग्य जारी रहता है
तो अंतिम विकल्प के तौर पर उसकी प्रार्थना है कि अंडमान से यहां भेजे जाने के संबंध
में विशेष शिकायतों पर पुनर्विचार किया जाएः यदि वह 11 वर्षों तक भारतीय जेल में
होता तो उसे न्यूनतम 2 वर्ष या कु छ अधिक की छू ट का अधिकार होता। यदि वह सजा
के अंत तक अंडमान में रहता तो अब तक, वहां के चलन के अनुसार, उसे छु ट्टी का
अधिकार प्राप्त होता और अपने परिवार को वहां ले जा सकता था। परंतु उसे यहां दोनों
सुविधाओं से वंचित रखा गया है। लिहाजा, वह दोनों सुविधाओं की मांग करता हैः
क. याचिकाकर्ता को 2 या 3 वर्षों की छू ट प्रदान की जाए, अथवा
ख. उसे परिवार को साथ रखकर छु ट्टी के अधिकार के साथ अंडमान वापस भेज दिया
जाए। यहां तक कि अंडमान में 9 वर्ष बिताने के बाद सबसे दुर्दांत अपराधियों को भी
छु ट्टी टिकट के आधार पर निजी जीवन जीने का अधिकार है और 11 वर्ष अंडमान
और जेलों में गुजारने तथा 7 वर्ष अच्छे व्यवहार में गुजारने के बाद यदि याचिकाकर्ता
इतने भर की उम्मीद रखता है तो यह अधिक नहीं होना चाहिए। यदि उसे इतने भर की
सुविधा दी जाती है तो वह दुनिया को भुलाकर घरेलू जीवन के सुख में सेवानिवृत्त और
निजी जीवन जीना चाहेगा – ताकि समाज याचिकाकर्ता जैसे दयनीय, आशाहीन और
जीर्ण व्यक्ति से भयभीत समाज सुरक्षित रह सके ।
4. अंत में याचिकाकर्ता विनम्रता से कहना चाहता है कि इस विरोध प्रदर्शन का जारी
रहना या भारत में चल रहे प्रदर्शनों को याचिकाकर्ता के विरुद्ध पूर्वाग्रहों के तौर पर ना
लिया जाए। प्रेस और समाज में जनता के वक्तव्यों को देखते हुए यह कहना आवश्यक
हो जाता है परंतु अन्यथा वह इस संबंध में राय नहीं रखता। लाखों लोगों के किए पर
उसकी कोई रोक नहीं और उसे तथा उसके भाई को ‘प्रशासनिक आधार’ पर अधिक
सजा के लिए रखना, उन्हें दूसरों के किए की सजा देना, जिस पर उसकी कोई रोक
नहीं।
5. याचिकाकर्ता को विश्वास है कि यह याचिका महामहिम गवर्नर-जनरल और महामहिम
बम्बई गवर्नर को याचिकाकर्ता और उसके भाई को तुरंत रिहा किए जाने के संबंध में
रजामंद करने में सफल होगी – ऐसे दयालु कार्य के लिए वह महामहिम सज्जनों की
दीर्घायु और सफलता की कामना करता है।
6. गणेश दामोदर सावरकर द्वारा साबरमती जेल से 4 जुलाई 1922 को प्रेषित याचिका का
संपूर्ण कथ्य
सेवा में
महामहिम,
गवर्नर बम्बई, इन काउंसिल

महामहिम को ज्ञात हो:


मुझे 8 जून 1909 आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, जिसका कु छ समय
भारतीय जेलों में बीता और परंतु अधिकांश 1910 से 1921 तक पोर्ट ब्लेयर में। नियमों
के अधीन, आजीवन कारावास काटने वाला कै दी 14 वर्षों बाद रिहाई का अधिकारी होता
है, जिसमें क्षमा का प्रावधान भी है और भारतीय कारागार समिति की सिफारिश के
अनुसार आजीवन कारावास वाले अपराधियों को 10 वर्ष बाद छू ट सहित छोड़े जाने को
कहा है, मैं रिहाई का हकदार बनता हूं।
दिसंबर 1919 में आम माफी की घोषणा के दौरान, मुझे और मेरे भाई विनायक डी.
सावरकर को अन्यायपूर्ण ढंग से इस लाभ से वंचित रखा गया और जब मेरे भाई ने हम
दोनों के बारे में मामला महामहिम वाइसरॉय के समक्ष रखा तो हमें सूचित किया गया कि
महामहिम ‘मौजूदा समय में उनको आम माफी का लाभ देने के लिए तैयार नहीं हैं’। हमें
लाभच्युत किए जाने का निर्णय अंतिम नहीं था, जैसा कि आधिकारिक जवाब की भाषा
से स्पष्ट होता है। अतः मैं उम्मीद कर सकता हूं कि इतना समय बीत जाने पर भी हम
दोनों भाइयों को रिहा किया जाएगा, जिसकी उम्मीद हमें 1919 में भी थी। परंतु इसके
अतिरिक्त, यदि तृतीय श्रेणी, द्वितीय श्रेणी तथा प्रथम श्रेणी अपराधी की विभिन्न
क्षमताओं की मेरी छू ट जोड़ी जाए तो रिहाई के लिए मेरा दावा 14 वर्षों की सजा के बाद
से विलंबित है। जून 1921 में मुझे 14 वर्ष पूरे हो जाएंगे और मेरे भाई जुलाई 1922 में
यह अवधि पूरी कर लेंगे। हम इस मुहिम के उचित और ईमानदार अधिकारी हैं जिससे
हमें अभी तक वंचित रखा गया है। पोर्ट ब्लेयर में रहने के दौरान हमें निरंतर सेल्युलर जेल
में रखा गया, कठोर श्रम कराया गया और सभी भारतीय जेलों में कराए जाने वाले कठोर
श्रम के अनुपात में हमारा बंदी जीवन, आम प्रवासी कै दियों से पूरी तरह अलग था। परंतु
पोर्ट ब्लेयर में कै द के दौरान हमें वहां कै द में प्राप्त अधिकारों से भी वंचित रखा गया,
जैसे, आत्मनिर्भर रहने का टिकट जो 10 वर्ष पूरे होने पर मिलता है और अन्य लाभ।
और अब हमें भारतीय जेल में कड़ी सजा से प्राप्त होने वाले अधिकारों से भी वंचित
किया जा रहा है। विजयपुर जेल में इंस्पेक्टर जनरल ऑफ प्रिजन्स के दौरे के समय
उन्होंने मेरे मौखिक आवेदन पर सूचित किया था कि मुझे और मेरे भाई को छू ट दिए जाने
के मामले पर शीघ्र निर्णय लिया जाएगा और गत मार्च मेरी लिखित याचिका के उत्तर में
भी उन्होंने कहा था कि मामला सरकार के पास विचाराधीन है। मैं आदरपूर्वक कहना
चाहता हूं कि दोनों तरह की सजाओं में प्राप्त होने वाले लाभ से हमें वंचित किया जाना
बहुत अन्यायपूर्ण है। पोर्ट ब्लेयर के अनुसार मुझे करीब 950 दिन और मेरे भाई को 840
दिनों की छू ट का अधिकार मिलता है और 14 वर्षों के बाद मुझे तुरंत रिहा किया जाना
चाहिए, छू ट सहित मेरे 14 वर्ष 1921 में ही समाप्त हो चुके हैं।
भारतीय जेल समिति की सिफारिशों के अनुसार हमें छू ट सहित 10 वर्षों बाद रिहा होने
अधिकार है और चूंकि मैं चालू सजा के 13 वर्ष बिता चुका हूं और मेरे भाई 111/2 वर्ष
बिता चुके हैं, इसलिए हम तुरंत रिहाई के अधिकारी हैं। सरकार नासिक हत्या और
षडयंत्र मामले के सभी अन्य कै दियों को छोड़ चुकी है, अतः मुझे और मेरे भाई को इससे
अलग रखने को अत्यधिक कठोरता मानते हैं।
जेल में मेरा व्यवहार 1914 से यानी 8 वर्षों से बहुत अच्छा रहा है और इस अरसे में मुझे
एक भी दंड नहीं दिया गया। पोर्ट ब्लेयर के अन्य राजनीतिक कै दियों की अपेक्षा मेरे भाई
का व्यवहार भी बहुत अच्छा रहा है और 1913 या 14 से उन्हें भी 111/2 वर्षों के दौरान
एक या दो ही सजाएं मिली हैं। किसी भी दशा में, यरवदा जेल में 1909 और 1910 में
मिली सजा, जो 35 पाउंड अनाज ना पीस पाने के कारण थी, वह कार्य मेरे बूते से बाहर
था क्योंकि उस दौरान मेरा वजन बहुत गिर गया था। पोर्ट ब्लेयर में मिली सजा हमें दिए
गए बेहद कठिन श्रम के कारण थी जिस दौरान मैंने अन्य राजनीतिक कै दियों के साथ
मिलकर शोषण का विरोध किया था, जो शारीरिक तौर पर असहनीय था। परंतु 1914 के
बाद से मैंने ऐसी किसी हड़ताल कार्रवाई में हिस्सा नहीं लिया जिसमें अन्य लोग शामिल
थे। कारागार के पिछले 8 वर्षों में, पोर्ट ब्लेयर और भारत में मैंने किसी जेल अधिकारी
को अपने खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का मौका नहीं दिया और यहां तक
कि अंडमान के चीफ कमिश्नर भी ‘मेरे अच्छे व्यवहार की प्रशंसा’ की गवाही दे सकते हैं।
मुझे बीजापुर में आधिकारिक तौर पर सूचित किया गया था कि चीफ कमिश्नर ने सरकार
को मेरी अनुशंसा भेजी है। इसलिए मैं आदरपूर्वक अपने और मेरे भाई की तुरंत रिहाई
की गुजारिश करता हूं।
1. मेरे भाई को भेजे जवाब में महामहिम ने आम माफी पर भविष्य में विचार करने पर
कहा है।
2. 14 वर्षों बाद रिहाई संबंधित आम नियम एवं छू ट, तथा,
3. भारतीय जेल समिति द्वारा 10 वर्ष बिताने के बाद रिहाई संबंधित अनुशंसा। अतः मैं
याचिका पर शीघ्र और अनुकू ल विचार किए जाने की गुजारिश करता हूं।
मैं
महामहिम का याचिकाकर्ता
(हस्ताक्षर)
साबरमती जेल
दिनांक, 4 जुलाई 1922
7. बम्बई के गवर्नर सर जाॅर्ज लॉयड को सई. यमुनाबाई विनायक सावरकर द्वारा प्रेषित
याचिका का पूर्ण कथ्य, बम्बई (1921-22)ः
सेवा में,
महामहिम सर जाॅर्ज लॉयड,
गवर्नर बम्बई,
बम्बई,

आदरणीय सर,
मैं, अधोहस्ताक्षरी, गणेश दामोदर सावरकर की भाभी, जिन्हें पूर्ववत अंडमान भेजा गया
था और अब यहां लाकर अहमदाबाद जेल में रखा गया है, महामहिम द्वारा अनुकू ल
विचार किए जाने के संबंध में निम्न पंक्तियां रखना चाहती हूँ।
2. जेल समिति की सिफारिशों के आधार पर महामहिम की सरकार 10 वर्षों से अधिक
की सजा काट चुके 700 कै दियों को रिहा कर चुकी है। उन कै दियों में एक श्री वीएन
जोशी थे, जिन्हें जैक्सन हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई थी, और
उनको भी छोड़ दिया गया। मेरे जेठ को के वल कु छ कविताओं वाली पुस्तक प्रकाशित
करने पर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, जो अपराध उल्लिखित श्री वीएन
जोशी की तुलना में नगण्य था। इसके अतिरिक्त, मेरे जेठ ने कारागार में 13 वर्ष का
अरसा बिता लिया है, और उनका आचरण आदर्श रहा है। अतः, यदि श्री जोशी
अनुशंसाओं के आधार पर रिहाई के हकदार हैं, तो मेरे जेठ भी हैं। इसलिए, मैं
महामहिम से अपील करती हूं कि वह इन तथ्यों का संज्ञान लेते हुए श्री जोशी की तरह
उन्हें भी रिहा करें।
3. एक अन्य कारण से भी मेरे जेठ जी की रिहाई यथोचित है। भारतीय दंड विधान, धारा
55 के अंतर्गत किसी भी कै दी को चौदह वर्षों से अधिक कारागार में नहीं रखा जा
सकता। इस मियाद में सरकारी प्रस्ताव संख्या 5308 (न्यायिक विभाग) दिनांक 12-
10-1905 के अनुसार, कै दी द्वारा अर्जित छू ट भी शामिल है। मेरे जेठ को उनकी सजा
की षुरुआत (9 जून, 1909) से लगातार, अंडमान सहित कारागार में रखा गया है। इस
अनुसार उन्होंने अपनी सजा के 13 वर्ष कठोर कारागार में बिताए हैं। इसे देखते हुए,
किसी भारतीय जेल में उन्हें जो छू ट मिलनी चाहिए थी - और कारागार में प्रत्येक कै दी
को सालाना दो महीने छू ट मिलती है - मेरा मानना है उनके चौदह वर्ष पूरे हो चुके हैं
और मैं उम्मीद करती हूं कि इस आधार पर भी अब सच में उनकी रिहाई होनी चाहिए।
मैं उम्मीद करती हूं कि उपरोक्त किसी भी आधार पर उन्हें रिहा किया जाना चाहिए।
4. मेरी प्रार्थना है कि उनकी रिहाई तक उन्हें वे सब सुविधाएं प्रदान की जाएं जो प्रथम
श्रेणी अपराधी के तौर पर अंडमान में मिलती थीं, जो हैं,
1. प्रतिमाह एक पत्र या परिजन से मुलाकात।
2. सरकार द्वारा प्रतिबंधित ना की गई पुस्तक।
3. सरकार द्वारा स्वीकृ त समाचार पत्र।
5. अंत में, मैं कहना चाहूंगी कि मेरे जेठ जी के साथ प्रतिकू ल व्यवहार किया गया है।
1. अंडमान में उन्हें प्रवासी कै दी से जुड़ी अपेक्षाकृ त छू ट से वंचित रखा गया था। उन्हें
वहां लगातार तेरह वर्षों तक कठोर कारावास में रखा गया, और एक आम आजीवन
कै दी की तरह कभी बाहर नहीं भेजा गया।
2. दूसरा, मेरे जेठ जी के साथ कभी कठोर कारावास काट रहे कै दी जैसा व्यवहार नहीं
किया गया, जो कि आजीवन कै दी के तौर पर वह काट रहे थे। इस तरह, भारतीय दंड
विधान की धारा 55 के अंतर्गत, उन्हें 21/2 वर्ष की छू ट मिलनी चाहिए थी, और वह
रिहाई के भी हकदार थे।
3. तीसरा, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, उन्हें जेल समिति की अनुशंसाओं की सुविधाएं
प्राप्त नहीं हुई, और हालांकि वह श्री जोशी से अधिक रिहाई के हकदार थे, उन्हें रिहा
नहीं किया गया। अतः, आजीवन सजा के कै दी, या कठोर कारावास काट रहे कै दी के
अनुसार, रिहाई के सब अवसरों से उन्हें आज तक वंचित रखा गया है!
अतः, मेरी प्रार्थना है कि न्याय प्रक्रिया के अनुसार उन्हें जल्दी रिहा किया जाए।
मैं
सर,
आपकी अति आज्ञाकारी सेवक
(हस्ताक्षर - देवनागरी में)
पताः द्वारा डाॅ. एनडी सावरकर
गिरगांव, बम्बई
8. बम्बई के गवर्नर सर जाॅर्ज लॉयड को वीडी सावरकर की धर्मपत्नी, यमुनाबाई सावरकर
द्वारा प्रेषित याचिका का कथ्य (1921-22)
सेवा में,
महामहिम सर जाॅर्ज लॉयड
गवर्नर, बम्बई
बम्बई.

मैं, अधोहस्ताक्षरी, श्री विनायक दामोदर सावरकर की धर्मपत्नी, जिन्हें पूर्ववत अंडमान में
आजीवन कारावास के लिए भेजा गया तथा अब रत्नागिरी कारागार में रखा गया है,
महामहिम के समक्ष अनुकू ल विचार किए जाने हेतु कु छ पंक्तियां रखना चाहती हूं।
2. जेल समिति की सिफारिशों के आधार पर महामहिम की सरकार 10 वर्षों से अधिक
की सजा काट चुके 700 कै दियों को रिहा कर चुकी है। उन कै दियों में एक श्री वीएन
जोशी थे, जिन्हें जैक्सन हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई थी, और
उनको छोड़ भी दिया गया। मेरे पति को श्री जोशी की अपेक्षा कहीं छोटे अपराध के
लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई, श्री जोशी की श्री जैक्सन की हत्या में
लिप्तता थी, जबकि मेरे पति की नहीं। इसके अतिरिक्त, मेरे पति ने कारागार में श्री
जोशी की तरह 111/2 वर्ष का अरसा बिता लिया है, और उनका आचरण आदर्श रहा
है। अतः, यदि श्री जोशी को अनुशंसाओं के आधार पर रिहाई के हकदार हैं, तो मेरे पति
भी हैं। इसलिए, मैं महामहिम से अपील करती हूं कि वह इन तथ्यों का संज्ञान लेते हुए
श्री जोशी की तरह उन्हें भी रिहा करें।
3 एक अन्य कारण से भी मेरे पति की रिहाई यथोचित है। भारतीय दंड विधान, धारा 55
के अंतर्गत किसी भी कै दी को चौदह वर्षों से अधिक कारागार में नहीं रखा जा सकता।
इस मियाद में सरकारी प्रस्ताव संख्या 5308 (न्यायिक विभाग) दिनांक 12-10-1905
के अनुसार, कै दी द्वारा अर्जित छू ट भी शामिल है। मेरे पति को उनकी सज़ा की
शुरुआत (24 दिसम्बर, 1910) से लगातार, अंडमान सहित कारागार में रखा गया है।
इस अनुसार उन्होंने अपनी सजा के 11 वर्ष और 6 महीने कठोर कारागार में बिताए हैं।
इसे देखते हुए, किसी भारतीय जेल में उन्हें जो छू ट मिलनी चाहिए थी - और कारागार
में प्रत्येक कै दी को सालाना दो महीने छू ट मिलती है - मेरा मानना है उनके चौदह वर्ष
पूरे हो चुके हैं और मैं उम्मीद करती हूं कि इस आधार पर भी अब उनकी सच में उनकी
रिहाई होनी चाहिए। मैं उम्मीद करती हूं कि उपरोक्त किसी भी आधार पर उन्हें रिहा
किया जाना चाहिए। मुझे बताने की जरूरत नहीं कि जेल समिति की सिफारिशों के
अनुसार भी उनकी रिहाई की मीयाद बीत चुकी है। मेरी प्रार्थना है कि उन्हें उपरोक्त
किसी भी आधार पर रिहा किया जाए।
4. मेरी प्रार्थना है कि उनकी रिहाई तक उन्हें वह सब सुविधाएं प्रदान की जाएं जो प्रथम
श्रेणी अपराधी के तौर पर अंडमान में मिलती थीं, जो हैं,
1. प्रतिमाह एक पत्र या परिजन से मुलाकात।
2. सरकार द्वारा प्रतिबंधित ना की गई पुस्तक।
3. सरकार द्वारा स्वीकृ त समाचार पत्र।
5. अंत में, मैं कहना चाहूंगी कि मेरे पति के साथ प्रतिकू ल व्यवहार किया गया है।
1. अंडमान में उन्हें प्रवासी कै दी से जुड़ी अपेक्षाकृ त छू ट से वंचित रखा गया था। उन्हें
वहां लगातार ग्यारह वर्षों तक कठोर कारावास में रखा गया, और एक आम आजीवन
कै दी की तरह कभी बाहर नहीं भेजा गया।
2. दूसरा, मेरे पति के साथ कभी कठोर कारावास काट रहे कै दी जैसा व्यवहार नहीं
किया गया, जो आजीवन कै दी के तौर पर वह काट रहे थे। इस तरह, भारतीय दंड
विधान की धारा 55 के अंतर्गत, उन्हें 21/2 वर्ष की छू ट मिलनी चाहिए थी, और वह
रिहाई के भी हकदार थे।
3. तीसरा, जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, उन्हें जेल समिति की अनुशंसाओं की सुविधाएं
प्राप्त नहीं हुई, और हालांकि वह श्री जोशी से अधिक रिहाई के हकदार थे, उन्हें रिहा
नहीं किया गया। अतः, आजीवन सजा के कै दी, या कठोर कारावास काट रहे कै दी के
अनुसार, रिहाई के सब अवसरों से उन्हें आज तक वंचित रखा गया है!
अतः, मेरी प्रार्थना है कि न्याय प्रक्रिया के अनुसार उन्हें जल्दी रिहा किया जाए।
मैं,
आपकी आज्ञाकारी सेवक
(देवनागरी में हस्ताक्षर)
परिशिष्ट IV
क्या हिन्दुस्तान नि:शस्त्र है? 1

हमारे हृदयों पर छाया हुआ सम्मोहन


हमारी कार्य करने की शक्ति को सम्मोहित करते हुए इससे अधिक और कु छ वस्तु पीड़ा
नहीं पहुंचा सकती कि हम बरतानिया के कानून को उखाड़ फें कने के लिए सफलतापूर्वक
एक क्रांति का आगाज भी न कर सकें । ऐसे कई व्यक्ति हैं, देश. गोखले. भी, जिनका कहना
है, ‘हम अंग्रेजी शासन से प्रेम नहीं करते; हमें पता है कि पूर्ण स्वतंत्रता ही हिन्दुस्तान का
तार्किक लक्ष्य है; उसके लिए हम एक खुला युद्ध भी कर सकते हैं। परंतु लड़ने वाले बाजू
कहां हैं ? हम उनकी बड़ी बंदूकों और तेज गोली दागने वाली एवं रिपीटिंग राइफलों से कै से
लड़ सकते हैं ? हम उनकी नौसेना के खिलाफ कै से लड़ सकते हैं ?’ और यह मानते हुए कि
उन्होंने क्रांति के खिलाफ अनुत्तरित आपत्तियां एवं अनिवार्य दलीलें उठाई हैं, उन्होंने राष्ट्र
को सलाह दी है कि इस कारण युद्ध की सोचना और अंग्रेजी दासता को उखाड़ फें कना
असंभव, बुद्धिहीन और आत्मघाती होगा। हमारे देश का एक वर्ग यह गलत तर्क स्वीकार
कर अपनी नपंुसकता से उपजी निराशा से भरा बैठा है जो क्रांति की आगे बढ़ती शक्ति
का अवरोध करता है।
यह हतोत्साह के सबसे बुरे लक्षण हैं जो हमारे बीच गुलामी के लंबे वर्षों और पश्चिमी
‘शिक्षा’ के कारण आ पसरे हैं जिनके कारण हमारे लोग इस यंत्र को पूजनीय मानने लगे
हैं। वह भूल जाते हैं कि व्यक्ति ही यंत्र की स्थापना करता है, यंत्र व्यक्ति को नहीं बनाता।
उनका मानव मस्तिष्क की असीमित क्षमता से विश्वास उठ गया है और भौतिकतावादी तंत्र
से डरे मान बैठे हैं कि मशीनों में राष्ट्रीय क्रांति के नित बढ़ते कदमों को रोकने की क्षमता
होती है। वह भूल गए हैं कि यदि शत्रु के पास मशीनी बंदूकें हैं तो हम भी, यदि चाहें तो,
उनका निर्माण कर सकते हैं, या उन्हें विश्व बाजारों से खरीद सकते हैं अथवा खुद शत्रु से ही
छीन सकते हैं। उनका ध्यान अभी उन हथियारों पर भी नहीं गया जो देश भर में बिखरे हैं
और हमारी आजादी की लक्ष्य प्राप्ति के लिए उन्हें के वल इस्तेमाल करना बाकी है। आह,
श्री राम एवं श्री कृ ष्ण, अर्जुन एवं भीम, गाज़ियों एवं अकालियों, नाना साहेब एवं ख़ान
बहादुर के वंशजों को दुकानदारों की एक अदना जमात के आगे कांपते देखना कितना
अफसोसजनक नजारा है क्योंकि निस्संदेह, यह आधुनिक बंदूकों और तोपों से लैस हैं और
हम नहीं! कहां गया हमारा नायकत्व, लड़ने के प्रति हमारी चाहत का क्या हुआ ? क्या
अपने स्रोत गुम हो गए और खुद में विश्वास खत्म हो गया और हमारी नियति की प्रभुता ?
क्या हम इतने दृष्टिहीन हो गए कि देश में मौजूद बड़ी मात्रा में हथियारों पर हमारी नजर
नहीं जाती और उन्हें बढ़ाने के अवसरों पर भी ? इस पर विश्वास नहीं होता, परंतु यह सच
है कि हमारे कई देशवासी सोचते हैं कि हम युद्धभूमि में अंग्रेज शत्रु का सामना करने
लायक नहीं हैं। इसलिए, यह जरूरी है कि हम अपने देश की स्थिति का सही आकलन कर
इसके कारण अपने दिलों पर छायी अज्ञानता को दूर कर इस अनभिज्ञता और कमजोरी
एवं भीरुता को समाप्त कर दें।
क्या हम सचमुच निहत्थे हैं?
यह बेशक सच है कि 1879 में कायर बरतानवियों ने घृणित ‘आयुध अधिनियम’ पारित
किया जो आज हमारी कानूनी किताबों में है, और हमारे लोगों को लुटेरों या जंगली
जानवरों से रक्षा तक के लिए बंदूक रखने का अधिकार नहीं है। यह भी सच है कि हमें
बिना लाइसेंस के बंदूक या तलवार या रिवाल्वर रखने का अधिकार नहीं है, जिससे
व्यवस्थित ढंग से सच्चे हिन्दुस्तानियों को वंचित कर दिया गया है। परंतु यह न भूलें कि
‘आयुध अधिनियम’ रजवाड़ा राज्यों में लागू नहीं होता। वहां हरेक व्यक्ति यदि चाहे तो
अपने पास हथियारों का जखीरा रख सकता है। उन राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को हथियार
रखने के बुनियादी अधिकार पर कोई रोक नहीं है। और धन्य थी 1857 की क्रांति, जिसके
कारण समूचे हिन्दुस्तान पर एक ही कानून नहीं थोपा गया, और राज्यों के क्षेत्र छोटे नहीं
हैं। देश का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा इन राज्यों में आता है जहां रहने वाले 6 करोड़
लोगों को अपनी पसंद के हथियार खरीदने की आजादी है। और यह रियासतें किसी एक
स्थान पर नहीं बल्कि समूचे महाद्वीप में फै ली हैं, जिससे अंग्रेजों द्वारा सताया गया कोई भी
क्षेत्र किसी हिन्दुस्तानी रियासत से कु छ ही पहर की दूरी पर स्थित है।
बेशक दुश्मन द्वारा इन राज्यों के शासकों को उनके क्षेत्रों में हथियारों की सीमा तय करने
से जुड़े कानून के लिए मान-मनौव्वल या जबरदस्ती की जा रही है। अब तक शासकों ने
इसका विरोध किया है और इसे मान लेना उनके लिए आत्मघाती होगा। और निकट
भविष्य में ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती कि योद्धाओं के वंशज और योद्धाओं पर
शासन करने वाले हमारे ये शासक, खासकर फिरंगी के कहने पर यह मान लेंगे। वाइसराय
ने एक बार जयपुर के महाराजा से पूछा था कि क्या वह अपने क्षेत्र में ‘आयुध अधिनियम’
लागू करना चाहेंगे। कहते हैं महाराजा ने अपनी तलवार वाइसराय को सौंपते हुए दुःखी
भाव से कहा, कि वह गुलाम हैं, और निजी तौर पर अपनी तलवार वाइसराय को सौंपते हैं,
परंतु अपने सरदारों और प्रजा से ऐसा करने के लिए कहना उनके अधिकार में नहीं।
निजाम को भी चतुराई से प्रस्ताव भेजा गया था कि उन्हें उनकी स्थायी सेना में बढ़ोतरी की
‘इजाज़त’ होगी यदि वह अपने अस्थायी सैनिकों को सीमित करें और राज्य में हथियारों के
इस्तेमाल को रोकने संबंधित उपाय करें। परंतु निजाम फिरंगी की शरारत समझ गए और
प्रस्ताव पर विचार करने से मना कर दिया। और मौजूदा समय में शत्रु शासकों को ऐसे
मामलों पर दबाव देने से डरा हुआ है जो उनके लिए संवेदनशील हों।
और फिर हमारे यहां देश के हरेक हिस्से के गांवों में तलवारें और पुरानी बंदूकें , बरछे और
भाले मिलते हैं। हरेक तालुके में पुलिस के पास बंदूकें और अन्य हथियार हैं, जिन्हें लड़ने
की शुरुआत करने पर प्राप्त करना लोगों के लिए कहीं आसान होगा। और तब पता चलेगा
कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों का न होना
के वल व्यर्थ अंधविश्वास भर है।
पश्चिमी देशों के लोगों के पास भी बेहतर हथियार नहीं
हमें मानना होगा, एक बार नहीं कई बार कि जिन हथियारों के बारे में ऊपर बात हुई, उनकी
दुश्मन के हाथों में मौजूद हथियारों से तुलना नहीं की जा सकती। परंतु सबसे जरूरी सच
भी हमें नहीं भूलना है कि अपनी शासक सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले दुनिया के
कहीं के भी लोगों के पास समुचित हथियार नहीं रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘स्वतंत्रता
का घोषणापत्र’ में हथियार रखना और लेकर चलना नागरिकता का अभिन्न अधिकार है,
और प्रत्येक अमेरिकी अपने पास रिवाल्वर या बंदूक रख सकता है। फ्रांस एवं बेल्जियम
तथा स्विट्जरलैंड एवं इंग्लैंड में भी लोगों पर हथियार रखने के संबंध में रोक नहीं है। परंतु
क्या कोई कह सकता है कि जहां तक इन लोगों की हथियारों तक मौजूदा पहुंच की बात है,
यह अपनी सरकारों के खिलाफ किसी रक्तिम संघर्ष का हिस्सा बन सकते हैं ? तोपें और
मैक्सिम बंदूकें एवं हाॅविट्जर सरकारों के हाथों में हैं और कु छ रिवाल्वरों एवं शिकारी
बंदूकों के दम पर वह भी हिन्दुस्तान के लोगों से कु छ बेहतर स्थिति में नहीं हैं। इसके
बावजूद, यदि इन देशों में हिन्दुस्तान में होने वाले अन्याय एवं अत्याचार का दसवां हिस्सा
भी होता, तो वहां के लोग हथियारबंद होने या न होने की परवाह न करते हुए तूफान की
तरह उठते और अपनी मैक्सिमों और माउज़रों से सरकार पर छा जाते!
परिस्थितियां सदा लोगों के विरुद्ध
सच तो यह है कि जब दुनिया की सभी क्रांतियां प्रस्फु टित हुई तो क्या लोगों के पास
अत्याचारी की ताकत का मुकाबला करने के लिए कभी समुचित हथियार थे ? शोषक और
शोषित के बीच संबंध ही कु छ ऐसा होता है कि फौज और नौसेना तथा हमले और रक्षा के
सभी साधन शोषक के पास ही होते हैं, और उनका इस्तेमाल आजादी के सबसे छोटे
लक्षणों को दबाने के लिए करता है, जो लोगों में दिखाई देता है। शोषक शोषितों में
आजादी की भावना, आत्मनिर्भरता, शक्ति एवं हिम्मत के छोटे से प्रदर्शन को भी
हतोत्साहित करता है – वह ऐसे किसी व्यक्ति का उसके क्षेत्र में अकड़ कर चलना सहन
नहीं कर सकता। वह अपने खरीदे हुए सिपाहियों को आमजन से दूर रखता है और दोनों के
बीच संवाद नहीं बनने देता। और वह बहुत सावधानी से अपनी प्रजा को हथियारों के
इस्तेमाल से वंचित रखता है। इसके बावजूद, क्रांतियां उठ खड़ी हुईं और दुनिया भर में
क्रांतियां आज तक सफल भी रही हैं।
फ्रांसीसी क्रांति का उदाहरण
महान फ्रांसीसी क्रांति की ओर देखो। जब दो प्रचंड ज्वालामुखी फटे थे, उस समय लोग
पूर्णतया निहत्थे थे। उनके बीच नागरिकता जैसा एकीकृ त विचार ही नहीं था। सब कोई
खुद को प्रोवेंक्ल या परीशियन, ब्रेटन या नाॅर्मन मानते थे, और कोई खुद को फ्रांसीसी नहीं
सोचता था। तोपखाना राजा और राजशाही के हाथों में था और सिंहासन की आड़ में खूनी
शोषक लोगों का खून बहाता था। सेना जर्मनों एवं स्विस एवं ऑस्ट्रियाइयों से मिलकर बनी
थी और एक इशारे पर लोगों का खून बहाने को तैयार रहती थी। लोगों के पास इस
शैतानियत से लड़ने के लिए बरछे और बरमे, लाठियां एवं पत्थर भर थे। और नतीजा क्या
रहा ? 14 जुलाई 1789 को, आधुनिक यूरोपीय महाद्वीप पर पहली बार स्वतंत्रता का उदय
हुआ, जिससे कु छ देर पहले शैतान अपने सिंहासन पर बैठा थर्राया था और लोगों को
पहली जीत एवं शक्ति का युवा अहसास हुआ था – आमजन राजशाही के खूब सुरक्षित
किले बेस्टील के खिलाफ उठे और कु छ ही पहर में उस पर कब्जा कर लिया था। बेशक,
वह अपने बरछों और बरमों के दम पर बेस्टील पर कब्जा नहीं कर सकते थे और न ही ऐसा
हुआ। सरकार के पास होटेल द इन्वेलिदेज़ में तोपखाना और अन्य हथियारों का जखीरा
था। इससे पहले कि राजा के खरीदे हुए सिपाहियों में 30000, जो बेसेन्वाॅ के अधीन मात्र 6
फर्लांग दूर शेम्प्स द मार्स में थे, उन तक चले आने वाले लोगों को रोकते, लोगों ने 12 तोपें
और 32000 बंदूकें छीन लीं और उस घृणित इमारत को घेर लिया था। यह था क्रांति का
स्रोत ! बेस्टील पर कब्जा महान क्रांति की के वल एक घटना मात्र थी।
भारत की क्रांतियां
फ्रांस में जो 18वीं सदी में हुआ, वह भारत में 17वीं सदी में हो चुका था। यहां भी देश
मुगलों के अधीन था जिन्होंने उस पर हथियारों के और हिन्दू राज्यों की आपसी फू ट के दम
पर कब्जा कर रखा था। देश का उच्च-प्रशिक्षित शौर्य विदेशी आक्रांताओं के साथ हो लिया
था, जो अपनी प्रत्यक्ष शक्ति में अजेय प्रतीत हो रहा था। बल्कि पूरा हिन्दुस्तान भी आक्रांता
के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ था। के वल उस समय के दो सबसे तिरस्कृ त लोगों ने सोचा था
कि हिन्दुस्तान को स्वराज चाहिए और आक्रमणकारी को इस भूमि का सरपरस्त नहीं
बनना है। जो हथियार उनके पास थे, उनके बारे में कम बोलना ही काफी होगा। तोपें एवं
तोपखाना, हल्के और भारी हथियार सब मुगलों के पास थे। परंतु उनके क्रांतिकारी जज़्बे ने
खुद ही हथियार खोजे और न तो उसका तोपखाना एवं न ही शक्तिशाली साथी मुगल
साम्राज्य को उसकी नियति से बचा सके थे।
छह तेजस्वी दिन मिलान के
इटली हमें हमारा अंतिम चित्रण उपलब्ध कराएगा। 1848 की बात है जब मिलान शहर ने
सोचा था कि उसे इटली को दिखाना होगा कि ऑस्ट्रिया से कै से लड़ा जाए। ‘लीडरों’ ने
आमजन को सलाह दी थी कि शहर राडेट्स्की के 60,000 सुप्रशिक्षित सैनिकों से नहीं लड़
सकता। परंतु लोगों की प्रवृत्ति ‘लीडरों’ की गणना से कहीं सच्चा निकली। वह अपने
लीडरों को नकारते हुए, घोर विरोधी परिस्थितियों के बावजूद लड़ने को प्रतिबद्ध थे। एक ही
रात में लोगों ने नगर के सभी द्वारों पर अवरोध खड़े कर दिए थे। दुश्मन के बढ़े चले आ रहे
रेले के खिलाफ लोगों ने मेज़ें, कु र्सियां, डेस्क, अन्य असबाब के साथ रुकावटें खड़ी कर दी
थीं। और राडेट्स्की के तोपखाने के जवाब में उनके पास क्या था ? के वल पुरानी बंदूकें एवं
चाकू एवं लाठियां एवं टूटी तलवारें भर ! इनके साथ लोगों ने छह दिन तक दुश्मन को रोके
रखा, और वीरता की सबसे बेहतरीन मिसाल पेश की थी और सातवें दिन राडेट्स्की को
अपनी बची-खुची सेना लेकर लौटना पड़ा ! उसका तोपखाना और न ही संख्या किसी काम
आए !
आधुनिक हथियारों की अपराजेयता एक अंधविश्वास
यह अभिप्राय भी व्यक्त किया जाएगा कि पिछले कु छ वर्षों में विध्वंसकारी हथियारों की
क्षमता में कई गुना सुधार हुआ है। परंतु सबसे पहले, कई गुना सुधार का यह मुहावरा
अतिशियोक्ति का शिकार है। यह पूंजीवादी वर्ग के हित में है – उस ऑक्टोपस ने दुनिया
भर में कुं डली जमा ली है और हजारों रूप एवं हजारों विधियों से उसका रक्त चूस रहा है,
और यह अपना दुष्कर्म जारी रखेगा जब तक कि इसके शिकार लोग इसकी सर्व-शक्ति के
लगातार एवं स्थाई दबाव में न रहें–पूंजीवादी वर्ग के हितों में है लोगों को यकीन दिलाना कि
मैक्सिम बंदूकें अजेय हैं, कि हाॅविट्जर्स सर्वशक्तिशाली हैं, और यदि लोगों ने मौजूदा
स्थितियों के खिलाफ उठने का प्रयास किया तो उन्हें राख और धूल में मिला दिया जाएगा।
परंतु सत्य कहीं कु छ और है। दुनिया के हालिया युद्धों में हताहतों को देखकर पता चलता है
कि आधुनिक बंदूक की बनावटी शक्ति कितनी बढ़ा-चढ़ा कर बताई गई है। बलक्लावा में
चार्ज ऑफ द लाइट ब्रिगेड को देखिये। याद है, कै से वह डेढ़ मील चलकर सीधे उन पर
गरज रही तोप के मुहाने पर जा पहुंचे थे। उसका हमला तेज और पूरे वेग से बरस रहा था,
फिर भी वह तोप तक पहुंचे, आधी ब्रिगेड उसे खामोश करने के लिए वहां पहुंचे थे और
उसका मुंह दुश्मन की तरफ मोड़ दिया था ! बोर युद्ध और रूसी-जापानी युद्ध का अध्ययन
करें–उसमें मारे गए सैनिकों की संख्या पिछली सदी के युद्धों से ज्यादा नहीं रही। बस्तर की
पिछली लड़ाई का इतिहास भी हमें यही सबक सिखाता है। और अगर मैक्सिम बंदूकें
सर्वशक्तिशाली ही होतीं तो ब्रिटेन सोमाली मुल्ला क्षेत्र से दुम दबाए कु त्ते की तरह क्यों भाग
खड़ा होता ? लिहाजा, इस मुद्दे पर कु छ ठहर कर सोचने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह
साफ है कि आधुनिक हथियारों की ताकत को बढ़ा कर बताया जाता है। दूसरी ओर, लोगों
के हाथों में मौजूद हथियार भी पैरी पासु (समरूप) जैसे बढ़े हैं। पूंजीपति, अपनी आदत के
अनुसार, अपनी पुरानी पड़ी बंदूकें भी नहीं तज सकता। और वाणिज्य के प्राकृ तिक
खिंचाव के अनुसार फौज से वापस ली जाने वाली बंदूकें आमजन के हाथों में ही पहुंचती
हैं। अतः, आज के पहले हमले के समय लोगों के हाथों में जो हथियार दिखेंगे, वह आक्रांता
के हाथों में चमकने वालेे हथियारों से कम नहीं होंगे, जैसे पिछले संघर्षों में लोगों के
हथियार उस समय के निरंकु शों के हथियारों से कमतर नहीं थे। लिहाजा, हमें हथियारों की
बढ़ती गुणवत्ता से उभरने वाली कथित समस्या पर अधिक विचार नहीं करना चाहिए।
नौसेना हमारे समक्ष निर्बल
जहां तक हमें नुकसान पहुंचाने के लिए शत्रु की नौसेना का प्रश्न है, तो हमें के वल हैदर
अली खान की मुनादी के वह शब्द याद रखने चाहिए जिन्हें हमने अपने पिछले संस्करण में
पूरा छापा था, ‘जहां तक उनके जहाजों का सवाल है, वह हमारे तटवर्ती क्षेत्रों में कु छ
नुकसान पहुंचा सकते हैं, फिर भी वह नुकसान तोप के गोले की सीमा से अधिक दूरी का
नहीं होगा।’ और हिन्दुस्तान के उस सच्चे सपूत के शब्द आज भी उतने ही सच हैं, जितने
1781 में थे।
शत्रु का भय और उसका अर्थ
शत्रु के भय से ही हम में से उनकी आंखें खुल जानी चाहिए जो इस सत्य को नहीं समझ
पाए कि आधुनिक हथियार और ‘महानतम’ नौसेना ही सबकु छ नहीं होती। दमन की नीति,
जिसे फिरंगी ने हमारे खिलाफ अपनाया है, उस सत्य को इंगित करता है जिसमें उसे
अहसास होता है कि उसके हथियार और सेना और नौसेना उस दिन बेकार होगी जब
के वल 1000 हिन्दुस्तानी ही उससे लोहा लेने के लिए उठ खड़े होंगे। और हिन्दुस्तान जैसे
देश में क्या नहीं हो सकता ? हम उनकी टेलिग्राफ तारें तोड़ सकते हैं, वायरलेस उपकरणों
को ध्वस्त कर सकते हैं, उनकी रेलें और रेल के डिब्बों को तोड़ना जिससे वह अपनी
सेनाओं को तेजी से न भेज सकें गे। बमों और बारूद के माध्यम से हम उनकी छावनियों
और मैग्जीनों पर और उनकी बंदूकों एवं तोपों को कब्जाकर खुद सशस्त्र हो सकते हैं। और
फिर कितना आसान है इन हथियारों की नकल करना ! हमारे देश के लुहार, अपनी
नैसर्गिक समझबूझ और ऊर्जा के बिना किसी दिक्कत के सबसे जटिल मशीनगनों की
नकल तैयार कर सकते हैं। और हमारे विशाल समुद्रतट से हम हजारों की तादाद में
हथियार छु पाकर ला सकते हैं – यदि हम ऐसा करने की सोच लें तो इंग्लैंड की समूची
नौसेना भी इसे न रोक सके गी।
हमले का लाभ हमारे पास
और फिर न भूलो कि एक और सुविधा हमारे पास है। युद्ध कब आरंभ हो, इसका समय
हम निर्धारित कर सकते हैं। शत्रु, परिस्थितियों के अनुसार युद्ध का आरंभ खुद कर ही नहीं
सकता। हम हमला कर के पहली गोली दाग सकते हैं। वह के वल रक्षात्मक मुद्रा में रहेगा।
समय और स्थान का चुनाव हमारे हाथ में होगा और कोई बच्चा भी जानता है कि पहले
गोली चलाने के लाभ क्या होते हैं।
और शुरुआत गुरिल्ला युद्ध से
और फिर दुश्मन के साथ घमासान करके हमें युद्ध की शुरुआत नहीं करनी है। हमें पहले
गुरिल्ला समूह गठित करने होंगे जो पूरे देश में छानबीन करें, जहां शत्रु सबसे संवेदनशील
है, वहां वार करें और जैसे ही वह अपनी पहली पंक्ति तैयार करे, दूसरे स्थान पर भाग जाएं,
उसकी रसद आपूर्ति को आहत करें, उसके रसद विभाग का नुकसान करें, उसके पीछे रह
कर, उसकी संचार प्रणाली को नष्ट कर दें, और भेड़िये की तरह, उसके प्रत्येक असुरक्षित
स्थान पर प्रहार कर उसे हमारी रफ्तार की तेजी और अनिश्चितता से उलझा डालें; यानी उसे
देश के सब हिस्सों में थका डालें जब तक कि हम आमने-सामने के युद्ध लायक सषक्त नहीं
हो जाते। युद्ध की यह विधि, स्वतंत्रता की तलाश कर रहे सभी देशों को सर्वप्रथम अपनानी
चाहिए। युद्ध की इसी विधि को शिवाजी एवं गुरु गोबिंद सिंह ने, मौलवी अहमद शाह एवं
तात्या टोपे एवं कुं वर सिंह, गैरीबाल्डी एवं कोस्सथ ने, वाशिंगटन एवं विलियम ऑफ ऑरेंज
ने – संक्षेप में कहें तो अपने देश की आज़ादी के लिए सभी देशभक्त योद्धाओं ने अपनाया
था। हम अपनी मौजूदा क्रांति के लिए इसे पहले ही अपना चुके हैं। ब्रिटिश सरकार के बैंकों
और दफ्तरों को लूटने वाले और हिन्दुस्तान की आजादी के लिए स्वदेशी शत्रुओं पर हमला
करने वाले ये युवा लोग गुरिल्ला समूह नहीं तो और क्या होंगे ? शत्रु इन्हें अपनी सुविधा के
लिए डकै त कहता है, जैसे ’89 के क्रांतिकारियों को लुटेरा कहा गया था, जैसे मराठों को
लुटेरा और बटमार बोला गया। परंतु इतिहास इन युवाओं को हमारी क्रांति का अगुवा
कहेगा, फिरंगी की ताकत और रीढ़ तोड़ने वाले तथा हमारे दिमाग पर छाई दुश्मन की
ताकत और साधनों का सम्मोहन तोड़ने वाले पहले युवा गोरिल्ला। एक जगह से दूसरे
जगहों पर जाना और नए जगहों की खोज करते रहना, गुरिल्लों की प्रधान कला – हमारे
लिए नई नहीं है। हमारे शिकारी और खोजी, हमारे बंजारे और फकीर, हमारे कल्लर और
मारवाड़ पैदायशी खोजी होते हैं और उनकी खोजकला अतुलनीय है। और हमारे ग्रामीण
भी हर संभव तरीके से हमारी मदद करेंगे – फिरंगियों के प्रति उनकी नफरत कु छ ऐसी है।
हमारे शत्रु ने माना है कि ’57 के महान संघर्ष में कै से लोगों ने क्रांतिकारियों का साथ
निभाया था। चार्ल्स बाल के अनुसार, ‘और विद्रोहियों के यह सब समूह (हमारे देशभक्त,
जिन्हें फिरंगी वृत्ति से उसने विद्रोही कहा) जिनको उनके देशवासियों की सांत्वना स्वरूप
असीम प्रोत्साहन और शक्ति प्राप्त हुई। वह बिना रसद के सफर करते, चूंकि लोग उन्हें
खाना खिलाते थे। अपना सामान बिना सुरक्षा के छोड़ देते, क्योंकि लोग उसे लूटते नहीं थे।
अपनी और अंग्रेजों की स्थिति का उन्हें ज्ञान रहता था क्योंकि लोग उन्हें निरंतर खबरें
लाकर देते थे। और कोई योजना उनसे दूर नहीं थी क्योंकि छु पकर सहानुभूति रखने वाले
प्रत्येक पंगत के गिर्द और हरेक अंग्रेजी खेमे में इंतजार करते थे। चमत्कार के बिना कोई
आष्चर्य सिद्ध न होता था, और अफवाहें, एक से दूसरे मुंह होती हुई हमारी घुड़सवार सेना
को भी पछाड़ देती थीं।’ और आज, जो भी हो, ढीठ और बर्बर फिरंगी को हराने के लिए
लोग फिर हमारे साथ होंगे।
सत्य और नेकी की जीत
अतः, हमारे गुरिल्ला समूह दुश्मन को छकाएंगे और बड़ी संख्या में शत्रु के असलहे पर
कब्जा कर अपने शस्त्रागार में वृद्धि करेंगे, और आखिरकार वे एक बड़ी सेना में प्रगट होंगे।
और फिर, स्वतंत्रता एवं एक सिद्धांत के लिए लड़ने वालों तथा साम्राज्य एवं तुच्छ धनार्जन
के लिए लड़ने वालों के बीच एक ही मुद्दा रह जाएगा – सिद्धांत की जीत और नृशंसकारी
साम्राज्य का अंत।
इसलिए, हिन्दुस्तान के भाइयों और बहनों, आइये इस मिथ्या भ्रम को दूर कर लें कि हम
नि:शस्त्र हैं! आइये युद्धभूमि में चलें और हमें बांधने वाली बेड़ियों को तोड़ फें कें । कल्कि -
स्वधर्म और स्वराज का नया आदर्श – पहले ही हमारे बीच जन्म ले चुका है, चूंकि धर्म
मृत्यु-शैय्या पर है और अधर्म का बोलबाला है! आइये नए अवतार के स्तर के अनुसार
एकत्र हों और शोषक को रण में उलझाएं! आइये जिस सिद्धांत के लिए हम लड़ें उसमें
हमारा विश्वास अटूट हो! आइये खुद को अपने पूर्वजों के अभिमानी प्राणतत्व से भरकर
मृत्यु तक धर्म की रक्षा करें! और काली प्रस्थान करेगी, फिर हिन्दुस्तान और विश्व के लिए
एक नए युग का उदय होगा! – चूंकि पश्चिम की वह क्रीड़ानारी हिन्दुस्तान पर राज न करते
हुए पृथ्वी पर अत्याचार नहीं करेगी!
संदर्भ
प्रस्तावना
1
.बाबासाहेब पुरंदरे के साथ डॉ सुबोध नाइक के साक्षात्कार से निकाली गई सूचना, 11 नवंबर 2018, पुणे
2
.वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड1(लेखक द्वारा अनुवाद), नई दिल्ली, प्रभात प्रकाशन

अध्याय 1: आरंभिक वर्ष


1
. वायसराय को लिखा आर टेम्पले का पत्र(लिटन): 3 जुलाई 1879 और 9 जुलाई 1879 (मिस यूर एफ 86/5: 1877-
1880), इंडिया ऑफस रिकॉर्ड्स और निजी दस्तावेज, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
2
. वहीँ। ठीक पिछला संदर्भ।
3
. वहीं। ठीक पिछला संदर्भ।
4
. वीएन मांडलिक, ‘प्रीलिमनरी ऑब्जर्वेशन्स ऑन ए डॉक्यूमेंट गिविंग एन अकाउंट ऑफ द इस्टेब्लिशमेंट ऑफ ए न्यू
विलेज नेम्ड मुरुदा, इन साउदर्न कोकण’, जर्नल ऑफ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, खंड- VIII,
(1864-66), पेज-3; जे विल्सन, इंडियन कास्ट, खंड-II (बांम्बे, इडिनबर्ग और लंदन, 1877) पेज- 20-21; I कर्वे, ‘द
परशुराम मिथ’, जर्नल ऑफ द यूनिवर्सिटी ऑफ बाम्बे, खंड-1,(जुलाई 1932)
5
. ई. ई मैकडोनाल्ड, द मोडर्नाइजिंग ऑफ कम्यूनिके शन: वर्नाकु लर पब्लिशिंग इन 19थ सेंचुरी महाराष्ट्र, एशियन सर्वे
8.7(1968) पेज-596
6
. आर. टेम्पल टु वायसराय(लिटन): 3 जुलाई 1879, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
7
. Mss Eur F86/5: 1877–80, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन
8
. बाबाराव सावरकर की मराठी जीवनी में उनकी पारिवारिक वंशावली का संदर्भ, डीएन गोखले, क्रांतिवीर बाबाराव
सावरकर, खंड-2, (श्रीविद्या प्रकाशन, पूना, 1979), पृ—2-3
9
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पृ-126-27
10
. वहीं। ठीक पिछला संदर्भ
11
. ठीक पिछला संदर्भ
12
. बाबाराव की जीवनी में एक अलग कहानी का जक्र है कि कै से वह मूर्ति उनके एक पूर्वज विसाजी हरि द्वारा लाई गई
थी जिन्होंने मालवा के मकरानी जनजाति से लड़ाई लड़ी थी और उनसे यह मूर्ति जब्त की थी। उसके बाद यह मूर्ति
पीढ़ियों से उनके पास रहती आई थी।
13
. यहां भी विनायक और बाबाराव अलग-अलग कहानी कहते हैं। डीएन गोखले लिखित बाबाराव की जीवनी
में(पेज-7), गोखले कहता हैं कि एक बार वह मूर्ति खंडोवा मंदिर के पुजारी को दे दी गई थी। लेकिन उसे डरावने सपने
आने लगे, एक सांप आकर उसे आतंकित करता था। उसने डरकर वह मूर्ति सावरकर परिवार को लौटा दी। ऐसे में वह
मूर्ति परिवार से बहुत दिनों तक दूर नहीं रही। पता नहीं इसमें से कौन सी कहानी सही है।
14
. हिंदी शक वर्ष 1814 में राधाबाई का निधन हो गया, अषाढ़ का महीना था, शुद्ध प्रतिपदा, सुबहके 6 बजे(डीएन
गोखले, क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर), खंड-2, 1979, पृ-11
15
. वाईडी फड़के , विसय शटकाटिल महाराष्ट्र, खंड-1(श्रीविद्या प्रकाशन, पूना, 1980), पृ-8
16
. एनसी के लकर, लोकमान्य तिलकयांची चरित्र, (रिया पब्लिके ळन, कोल्हापुर, 2012) पृ-120
17
. स्टेनले वालपर्ट, तिलक एंड गोखले: रिवोल्यूशन एंड रिफॉर्म इन द मेकिंग ऑफ मॉडर्न इंडिया(यूनिवर्सिटी ऑफ
कै लिफोर्निया प्रेस, बर्क ले, 1961), पेज-36
18
. अगरकर टु तिलक, 25 दिसंबर 1888, तिलक पेपर्स, के सरी ऑफिस, पूना
19
. एनसी के लकर, लोकमान्य तिलकयांची चरित्र, पेज-221
20
. वीएस जोशी, वासुदेव बलवंत फड़के : फर्स्ट इंडियन रिबेल एगेंस्ट द ब्रिटिश रूल, पृ-40-41
21
. फड़के द्वारा लिए गए बदले का संदर्भ, देखें- जे के लॉक, महादेव गोविंद राणाडे(कलकत्ता, 1926); लेटर ऑफ
टेम्पल टु लिटन फ्रॉम ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन एंड जीआरजी हैम्बली, ‘मराठा नेशनलिज्म बिफोर तिलक’, जर्नल ऑफ
द रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी, 49:2(1962) पृ-144-60
22
. बंबई गजेट्स, 15 मई 1879, महाराष्ट्र स्टेट आर्काइव्स, मुम्बई
सो र्श मै टे रि फॉ हि ट्री ऑ फ्री में डि ई टे ब्लि के ई
23
. सोर्श मैटेरियल फॉर ए हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड-1(बंबई स्टेट पब्लिके शन, बंबई 1957) पृ-89
24
. ठीक पिछला संदर्भ, पृ-86
25
. ठीक पिछला संदर्भ, पृ-128
26
. अमृत बाजार पत्रिका, 15 नवंबर 1879
27
. नॉर्थब्रूक को ह्यूम का पत्र, 1 अगस्त 1872, नॉर्थब्रुक पेपर्स
28
. ठीक पिछला संदर्भ
29
. ठीक पिछला संदर्भ, पृ-
30
. विलियम बार्ट वेडरबर्न, एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम, सी.बी.: फादर ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस, 1829-1912(लंदन,
1913)
31
. 1893 का अध्यक्षीय भाषण, वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पृ-37, 90

अध्याय 2 संक्रमण काल


1
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पृ- 309-12
2
. कमिश्नर इन चार्ज पूना, ‘राइट्स एट नासिक बिटविन हिंदूज एंड मुहम्मडन्स’ (16 फरवरी 1894), कमिश्नर के साथ
जीसी विदवर्ट को इनक्लोज्ड, सरकार के एक्टिंग सेकरेटरी, जुडिशियल डिपार्टमेंट(15 मार्च 1894), बंबई आरकाइव्स,
जुडिशियल डिपार्टमेंट(इसे यहां के बाद BAJD कहा जाएगा), खंड-284. कोम्प नंबर 545, भाग-III(1894)
3
. ठीक पिछला संदर्भ
4
. ठीक पिछला संदर्भ
5
. ठीक पिछला संदर्भ
6
. ठीक पिछला संदर्भ
7
. इन हिंदू-मुस्लिम उपद्रवों के संदर्भ के लिए देखें- शबनम तजानी की म्यूजिक, मॉस्क एंड कस्टम: लोकल कं फ्लिक्ट
एंड कम्यूनलिज्म इन ए महाराष्ट्रियन वीविंग टाऊन, 1893-1894, जर्नल ऑफ साउथ एशियन स्टडीज, 30: 2,
पेज-223-40
8
. जीसी विदहर्ट के विभागीय पत्र(15 मार्च 1894) के साथ सरकारी वकील के पत्र में फै सले की कॉपी, BAJD,
खंड-284, नंबर-545, भाग-III(1894)
9
. बंबई सरकार को बंबई के इंस्पेक्टर जनरल का पत्र, 15 जुलाई 1899, इनक्लोजर 2, होम पब्लिक ए, सितंबर 1899,
नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली, पेज-5
10
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पृ-151-55
11
. ठीक पिछला संदर्भ। पेज-152
12
. प्राची देशपांडे, नैरेटिव ऑफ प्राइड: हिस्ट्री एंड रीजलन आईडेंटिटी इन महाराष्ट्र, इंडिया, सी. 1870-1960(टफ्स
यूनिवर्सिटी, 2002), पेज 156, अप्रकाशित डेजर्टेशन
13
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 151
14
. ठीक पिछला संदर्भ
15
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 152
16
. जेजे हीटॉन, गवर्नर के प्राइवेट सेकरेटरी, डेमी-ऑफिसियल, 10 मार्च 1897, जीआरजीडी के साथ जिसका जिक्र
13 नंबर में ऊपर किया गया है; रैंड का पत्र सेकरेटरी को, जीडी, नंबर 752, 1 मार्च 1897, 9 मार्च 1897 के
जीआरजीडी नंबर 1272/765-पी के साथ, प्लेग संग्रह नंबर 127, जीडी प्लेग, खंड-75 1897 का। महाराष्ट्र स्टेट
आरकाइव्स, मुंबई
17
. मैरेन जे इचेनबर्ग, प्लेग पोर्ट्स: द ग्लोबल अर्बन इम्पैक्ट ऑफ बुबौनिक प्लेग, 1894-1901(न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी प्रेस,
न्यूयॉर्क , 2007) पेज-66-68
18
. ए हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड-II की स्रोत सामग्री के लिए दामोदर चापेकर की आत्मकथा(बंबई
सरकार, 1958) पृ-954-65
19
. ठीक पिछला संदर्भ
20
. ठीक पिछला संदर्भ
21
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज-964
ठी पि र्भ पे
22
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज-1002
23
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज-1000-10
24
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज- 998
25
. अनाम व्यक्ति, ऐसा कहा जाता है कि तिलक गुप्त रूप से चापेकर बंधुओं की वित्तीय मदद करते थे। वैसा ही
साहूजी महाराज करते थे। ऐसा तिलक की वाईडी फडके लिखित मराठी जीवनी लोकमान्य आनी क्रातिकारक और
प्रतिभा रानाडे लिखित इनान कोशकार गणेश रंगो भिडे में है। साहू महाराज के पास कोल्हापुर में एक क्रांतिकारी क्लब
था जिसका नाम शिवाजी क्लब था। कहते हैं कि ऐसा चापेकर ने यरवदा जेल में अपने संस्मरण में ये जानते हुए लिखा
कि इस पर नजर रखी जाएगी, उन्होंने इस बाबत तिलक को बचाने की भी कोशिश की, कई बार तो इसके लिए उन्होंने
उनकी कटु आलोचना तक की।
26
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज-975-76
27
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 1001
28
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 348
29
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 177
30
. विश्वनाथ प्रसाद वर्मा, द लाइफ एंड फिलोस्फी ऑफ लोकमान्य तिलक (लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, एनडी,)
पेज 518
31
. कल, 17 मार्च 1899
32
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 179-80
33
. एसएस सेटलर और के जी देशपांडे, ए फु ल एंड ऑथेंटिक रिपोर्ट ऑफ द ट्रायल ऑफ द ऑनरेबुल मिस्टर बाल
गंगाधार तिलक, बीए, एलएलबी, एट फोर्थ क्रिमिनल सेसन्स 1897 ( द एजुके शन सोसाइटी प्रेस, बायकु ला 1897)
पेज-69
34
. ठीक पिछला संदर्भ, परिशिष्ट ए, पेज 4
35
. ठीक पिछला संदर्भ, परिशिष्ट ए पेज 5
36
. स्टेनले वोलपर्ट, तिलक एंड गोखले: रिवोल्यूशन एंड रिफॉर्म इन द मेकिंग ऑफ मोडर्न इंडिया(यूनिवर्सिटी ऑफ
कै लिफोर्निया प्रेस, बर्क ले, 1961) पेज 101
37
. विश्वनाथ प्रसाद वर्मा, द लाइफ एंड फिलोस्फी ऑफ लोकमान्य तिलक (लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, एनडी,)
पेज 99-106
38
. द लाइफ एंड फिलोस्फी ऑफ लोकमान्य तिलक (लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, एनडी,) पेज, पृ-126
39
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 124
40
. एसएस सेटलर एंड के जी देशपांडे, ए फु ल एंड ऑथेंटिक रिपोर्ट ऑफ द ट्रायल ऑफ द ऑनरेबुल मिस्टर बाल
गंगाधार तिलक, बीए, एलएलबी, एट फोर्थ क्रिमिनल सेसन्स 1897 ( द एजुके शन सोसाइटी प्रेस, बायकु ला 1897)
एपेंडिक्स डी, पेज 40
41
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 182

अध्याय 3: एक क्रांतिकारी का उदय


1
. नासिक के अतीत को ज्यादा जानने के लिए देखें गौतमी जो कई विद्वानों के लेखों का संग्रह/स्मारिक है जिसे नासिक
और त्र्यम्बके श्वर के इतिहास समालोचन मंडल ने प्रकाशित किया है। इसके मुताबिक पौराणिक कृ तयुग में नासिक को
पद्मपुरा कहा जाता था। रामायण काल में यहीं पर खर, दूषण और त्रिशरा जैसे राक्षस-राक्षसियों का भगवान राम ने
बध किया था। इसीलिए इसे त्रिकं टक भी कहा गया। भगवान कृ ष्ण के युग में इसे जन्मस्थान कहा गया और बाद में
यह दंडकारण्य के नाम से जाना गया(पेज 21)। यह दूसरी शताब्दी में(106-30) सम्राट गौतमीपुत्र सातकर्णी के अधीन
रहा जिसने इसे क्षत्रपों से छीना था। 17वीं सदी में पूरे नासिक में शिवाजी ने कई किले बनवाए, जिसे बाद में अंग्रेजों ने
नष्ट कर दिया। उनके गुरु संत रामदास ने नासिक के निकट ही तकील में तपस्या की थी(पेज 53)। सन् 1722 में पेशवा
माधव राव ने यहाँ एक टकसाल की स्थापना की(पेज 22)। औरंगजेब के काल में शहर का नाम बदलकर गुलशनाबाद
कर दिया गया। 1869 तक नासिक, अहमद नगर जिल का हिस्सा था। उसी साल अंग्रेजों ने इसे अलग जिला बनवाया
और 19 अप्रैल 1888 को कै प्टन ब्रिज ने इस पर कब्जा कर लिया(पेज 22)। यह सदियों से मशहूर औद्यौगिक नगर
रहा है।
ई के नि सिं के कि ले में री की को शि जी जी रे औ
2
. यह लड़ाई पूना के निकट सिंहगढ़ के किले में 4 फरवरी 1670 की रात को शिवाजी कमांडर तानाजी मालुसारे और
जय सिंह-I के अधीन किले का रखवाला उदय भान राठौड के बीच हुई। जय सिंह मुगल सेना में अहम पद पर थे। उस
भयानक लड़ाई और मालुसारे की शहादत से किला मराठों के पास रहा और महाराष्ट्र की बहादुर लोकगाथा का अभिन्न
अंग बन गया।
3
. थॉमस फ्रोस्ट, द सीक्रे ट सोसाइटीज ऑफ द यूरोपियन रिवोल्यूशन, 1776-1876, खंड-1 और 2, लंदन, टिन्सले,
1876, खंड-1, पेज-xi
4
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 224
5
. वामन कृ ष्ण परांजपे, कल करते शिवराम पंथ परांजपे जीवन, प्रथम संस्कर, 1945(आरएस देशपांडे द्वारा प्रकाशित),
पेज-x
6
. अपने संस्मरण सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 240 में सावरकर काशी के पंडितों के बारे में इस प्रकरण का संदर्भ देते
हैं.
7
. चिपलूणकरों और जॉवहर स्टेट के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए देखें वीएस जोशी की क्रांति कल्लोल(बंबई:
मनोरमा प्रकाशन, 1985)
8
. ऐसा विष्णु पंत छात्रे ने किया था जिन्हें त्र्यंवक बापूजी ने राजा की सेवा में एडीसी के तौर पर लगवाया था।
9
. धनंजय कीर, वीर सावरकर(बंबई: पॉपुलर प्रकाशन, 1950) पेज 13
10
. एसजी माल्शे(संपादित) सावरकरंचा अपरासिद्धा कविता(बंबई: मराठी समशोधन मंडल, 1969), पेज-13-14
11
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 69
12
. दादासाहब खपार्डे के पुत्र, जो तिलक के नजदीकी थे।
13
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 68
14
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 69
15
. विविध ज्ञान विस्तार, एडिशन नंबर 34, पेज- 85-94
16
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 295
17
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 76
18
. वाईडी फडके , लोकमान्य तिलक आनी क्रातिकरक( बंबई: श्रीविद्या प्रकाशन, एनडी) पेज 63
19
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, 1950, पेज 22
20
. सावरकर समग्र वांगमय, खंड-1, पेज 148
21
. इतिहास के विद्वान को दी गई एक उपाधि
22
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 16
23
. डीएन गोखले, क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर, खंड-2, पेज-46
24
. विश्वास विनायक सावरकर, अथवानी अंगरचाया, तीसरा संस्करण(पुणे: स्नेहल प्रकाशन, 2001), पेज 140
25
. EPP 1/46 ‘कार्ड विद पोर्ट्रेट एंड टेक्स्ट ऑफ ओथ ऑफ अभिनव बारत’, इंडिया, ऑफिस रिकॉर्ड्स (ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन)
26
. डीएन गोखले, क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर, खंड-2, पजे-79
27
. ठीक पिछला संदर्भ
28
. वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनी क्रांतिकारक, पेज-56-57
29
. अभिनव भारत की शाखा कहाँ कहाँ पनप आई थी, उसकी पूरी सूची विनायक के ममेरे भाई बलवंत रामकृ ष्ण बर्वे
की पुलिस द्वारा पूछताछ में सामने आई—सतारा, मुर्तिजापुर, पोलादपुर, हरने बंदर, उमरगांव, कल्याण, भिवंडी, ठाणे,
वसई, पेन, दहानू, भयंदर, अहदमनगर, बड़ौदा, इंदौर, कलकत्ता, नागपुर, भिंगर, शोलापुर, बेलगांव, कोल्हापुर,
डोंडैचा, पूना, खेड़, चिंचवाड़, धूले, इगतपुरी, रत्नगिरि, बंबई, जलगांव, पनवेल, कराद, येओला, औरंगाबाद और
एर्नडोल। देखें वाईडी फड़के की लोकमान्य तिलक, पेज 53
30
. वह एक सुनार और साहूकार थे जिन्होंने अनंत लक्ष्मण कन्हेरे को शपथ दिलवाई जिसने बाद में जैक्शन की हत्या
की। जांच के बाद टोपे की पूरी संपत्ति जिसमें कई किलो सोना और चांदी थे, उसे अंग्रेजों ने जब्त कर लिया और उनके
परिवार को कभी नहीं लौटाया। उनके परिवार वाले देश के स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में टोपे का नाम शामिल
करवाने की असफल लड़ाई लड़ते रह गए।

छो ई ति यी जि ने ति औ हे दि की ने र्म्स फै री
31
. उनका छोटा भाई तिलक का अनुयायी था जिसने तिलक और काका साहेब खादिलकर की नेपाल आर्म्स फै क्टरी
स्थापित करने की उनके असफल प्रयासों में मदद की।
32
. वीएम भट, अभिनव भारत अथवा सावरकरांची क्रातिकारी गुप्त संस्था(मुम्बई: जीपी परचुरे प्रकाशन मंदिर, 1950),
पेज 32
33
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज-292-94
34
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 294
35
. पिछला संदर्भ, पेज 299-300
36
. एसआर वर्तक, भारतीय स्वतंत्रयाचे रनजुंजार, एनडी, पेज 39-40; वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनि
क्रातिकारक, पेज 66; डीएन गोखले क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर, खंड-2, पेज 52
37
. नौरोजी को वाचा का पत्र, 16 फरवरी 1901(नौरोजी पेपर्स, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली)
38
. हेमिल्टन को कर्जन का पत्र, 18 नवंबर 1900, कर्जन पेपर्स, MSS EUR F 111/159, इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
39
. नतेसन को गोखले का पत्र, 19 मई 1904; कृ ष्णस्वामी अय्यर क गोखले का पत्र, 11 जुलाई 1904 और 2 अगस्त
1904, गोखले पेपर्स, रील 5, नेशलन आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
40
. गोखले को रे एंड अन्य का पत्र 27 दिसंबर 1905, गोखले पेपर्स, रील 3, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया
41
. हिंदुस्तान रिव्यू, अक्टूबर-नवंबर 1905, पेज 355
42
. टीएन सरीन, जापान एंड द इंडियन नेशनल आर्मी(दिल्ली: अगम पब्लिके शन 1986), पेज -1, भारतीय मनोदशा पर
युद्ध के संपूर्ण प्रभाव को समझने के लिए देखें के पी दुआ की, द इम्पैक्ट ऑफ रसो-जैपनीज वार(1905) ऑन इंडियन
पॉलटिक्स(दिल्ली: एस चंद एंड कं पनी, 1966)
43
. चित्रगुप्त, लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर(मद्रास: बीजी पॉल एंड कं पनी पब्लिशर्स, 1926), पेज 23, 16-27, ये भी
देखें- वामन कृ ष्ण परांजपे, कल कर्ते शिवाराम पंथ परांजपे जीवन . पहला संस्करण(आरएस देशपांडे द्वारा 1945 में
प्रकाशित)
44
. वीएस जोशी, क्रं ति कल्लोल, पेज-81-82
45
. वामन कृ ष्ण परांजपे, कल कर्ते शिवाराम पंथ परांजपे जीवन, प्रथम संस्कर, पेज 127
46
. समकालीन भारतीय राजनीतिज्ञ प्रकाश आम्बेडकर के प्रपितामह
47
. विश्वास विनायक सावरकर, अथवाणी अंगारचाया, तीसरा संस्करण, पेज 90
48
. वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनि क्रांतिकारक, पेज 64
49
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 85
50
. बीजी तिलक, बाल गंगाधार तिलक: हिज राइटिंग्स एंड स्पीचेज(मद्रास: गणेश एंड कं पनी, 1922), पेज 49-50
51
. जीडी कर्वे और डीवी आम्बेकर(संपादित) स्पीचेज एंड राइटिंग्स ऑफ गोपाल कृ ष्ण गोखले, खंड-2(पूना; एशिया
पब्लिशिंग हाउस, 1966), पेज 196-97
52
. वामन कृ ष्ण परांजपे, कल कर्ते शिवाराम पंथ परांजपे जीवन, पेज 128
53
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 21
54
. वीएम भट्ट, अभिनव भारत अथवा सावरकराँची क्रांतिकारी गुप्त संस्था, पेज 49
55
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, पेज 302-04
56
. अगम्य गुरु को निर्विकल्प योगेंद्र और लतास्वामी भी कहा जाता था। वह एक कश्मीरी सारस्वत ब्राह्मण थे और
पंजाब विश्वविद्यालय के स्नातक थे। पहले उन्होंने उप-न्यायाधीश के तौर पर भी काम किया था। यूरोप, अमेरिका और
जापान से यात्रा कर लौटने के बाद वे पहले पहल कलकत्ता में 11 जून 1905 को प्रकट हुए। वह ड्यूक ऑफ मैनचेस्टर
के गुरु थे। ऐसी अफवाह थी कि उनका एक शादीशुदा यूरोपीय महिला मिसेज स्टैनर्ड से संबंध था और वे साथ रहते
थे। उन्होंने वेदों के अनुवाद के लिए उम्बरगांव में एक आश्रम की स्थापना की। लेकिन उनकी कु छ गतिविधियाँ और
भाषण ब्रिटिश सरकार की निगाह में आ गए थे, तो उन्हें वहां से निकाल दिया गया और फिर उन्होंने 17 फरवरी 1906
को पूना की राह ली। (स्रोत: वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक आनि क्रांतिकारक, पेज 65)
57
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 24-25, जयवंत डी जोगेलकर, वीर सावरकर: फादर ऑफ हिंदू नेशनलिज्म,
2006, पृ-43
58
. अगम्य गुरु की कै द के संदर्भ के लिए देखें धनंजय कीर की वीर सावरकर, पेज 24-25
सेडि मे टी रि पो र्ट पे
59
. सेडिशन कमेटी रिपोर्ट 1918(भारत सरकार प्रकाशन 1918) पेज 5
60
. हरि नारायण पिंपल खरे की गवाही; सावरकर के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेश्चन ऑफ इक्स्ट्राडिशन इन के स
ऑफ फे ल्योर एट द हेग, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911,
IOR/L/PJ/6/1069
, फाइल नंबर. 778, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
61
. वाईडी फडके , शोध सावरकरांचा(बंबई: श्रीविद्या प्रकाशन, 1984), पेज 1
62
. धनंजय कीर, वीर सावरकर पेज 25
63
. ए मोंटेगमोरी की रिपोर्ट, सावरकर के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेश्चन ऑफ इक्स्ट्राडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर
एट द हेग, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर. 778, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
64
. गेलिक अमेरिकन एक प्रमुख आयरिश-कै थोलिक अखबार था जिसका मालिकाना हक आयरिश राष्ट्रवादी जॉन
डिवॉय के पास था जो भारतीय आजादी आन्दोलन का समर्थक था और कभी-कभी इंडियन सोशियलॉजिस्ट का सार
प्रकाशित करता रहता था। अपने अखबार में एक सम्मानित पद हासिल होने की वजह से एक महात्वाकांक्षी इंडिया
हाउस प्लांट को खासी सुरक्षा मिल जाती थी। आरवी कॉमरफोर्ड ‘डिवॉय जॉन(1842-1928), लॉरेंस गोल्डमैन
(संपादित) ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी(ऑक्सफोर्ड: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2004) में।
65
. निकोलस ओवेन, द ब्रिटिश लेफ्ट एंड इंडिया: मेट्रोपोलिटन एंटी इम्पेरियलिज्म, 1885-1947(न्यूयॉर्क : ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस, 2007) पेज 67
66
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जनवरी 1905, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
67
. एएम शाह, द इंडियन सोशियॉलॉजिस्ट, 1905-14, 1920-22, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 41.31
(2006), पेज 3437
68
. अब 65 क्रॉमवेल एवेन्यू, लंदन एन 6
69
. वीडी सावरकर, शत्रुच्या शिविरात(उत्कर्ष प्रकाशन, 2019), पृ-38
70
. श्यामजी को राणा का पत्र, 12 नवंबर 1905, इंदुलाल याज्ञनिक, श्यामजी कृ ष्ण वर्मा : लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एन
इंडियन रिवोल्यूशनरी(बंबई: लक्ष्मी पब्लिके शन, 1950) पेज-152-53
71
. ये तथ्य की वो बजीफा मुफ्त नहीं था, बल्कि पुनर्अदायगी के आधार पर था, वो शायद ही कभी प्रकाश में आया हो।
इसका जिक्र सर कर्जन वायली के एक नोट में हुआ है; विदेश विभाग, इंटर्नल बी, मई 1906, #306, नेशनल
आरकाइव ऑफ यूके , लंदन
72
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 25
73
. श्यामजी को तिलक का पत्र, के सरी वाडा, पूना
74
. सावरकर स्मारक मुम्बई के सौजन्य से प्राप्त पत्र
75
. सन् 1919 में अंग्रेजी अदालत में एक मुकदमे में जहाँ उन्होंने सर वेलेनटाइन चिरोल पर मानहानि का दावा किया
था, लेकिन वो के स हार गए थे। उसमें तिलक की विनायक जैसे क्रांतिकारी की अनुशंसा करने के लिए खिंचाई की गई
थी। यहीं पर उन्होंने इस बात का खुलासा किया कि पहला अनुमोदन पत्र तो रैंगलर परांजपे की तरफ से आया था जो
भारी अंग्रेजीदां थे। वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल पेज 99
76
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 26
77
. वामन नरहरि दानी द्वारा दी गई रिपोर्ट का अनुवाद, कं स्टेबल तृतीय श्रेणी, नासिक सिटी के बकल नंबर 739 से
नासिक के मुख्य कं स्टेबल को भेजी गई रिपोर्ट जिसमें विनायक राव सावरकर के भाषणों का जिक्र था। सावरकर
के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेशचन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर एक द हेग, 9 दिसंबर 1910 से लेकर
23 फरवरी 1911 IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर 778, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
78
. ठीक पिछला संदर्भ
79
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 104; वाईडी फड़के , लोकमान्य तिलक अनि क्रांतिकारक, पेज 66
80
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 104
81
. वीडी सावरकर , शत्रुच्या शिविरात, पेज 22-23; वीएम भट्ट, अभिनव भारत अथवा सावरकरांची क्रांतिकारी गुप्त
संस्था, पेज 51
82
. डीएन गोखले, क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर, खंड-2, पेज 51

टे वि त्रे की रि पो र्ट सि के ची टे को के
83
. कांस्टेबुल विठ्ठल दत्तात्रेय की रिपोर्ट, बक्कल नंबर 493, नासिक के चीफ कांस्टेबल को। सावरकर के स; ट्रायल एंड
कं विक्शन; क्वेशचन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर एक द हेग, 9 दिसंबर 1910 से लेकर 23 फरवरी
1911 IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर 778, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
84
. मराठी में स्मॉलपॉक्स को ‘देवी’ कहते हैं।
85
. वीएस जोशी, क्रांति कल्लोल, पेज 105
86
. वीडी सावरकर, शत्रुच्या शिविरात, पेज 1

अध्याय 4: शत्रु के खेमे में


1
.‘इंडियन स्टूडेंट्स एट किरेनसेस्टर कॉलेज’, 1908, पब्लिक एंड जुडिशियल डिपार्टमेंट, IOR/L/PJ/6/897 3787,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
2
. एसएन बनर्जी, द नेशन इन द मेकिंग: बीईंग द रेमिनिसेंस ऑफ फिफ्टी ईयर्स ऑफ पब्लिक लाइफ(लंदन:
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1925), पेज 26
3
. वीडी सावरकर, इनसाइड द इनेमी कै म्प, http://savarkar.org/en/encyc/2018/

3/23/Download-section.html
4
. ठीक पिछला संदर्भ
5
. ठीक पिछला संदर्भ
6
. ऑनलाइन प्राप्त हुआ http://savarkar.org/mr/pdfs/savarkaranchi-kavit

amr-v002.pdf.
7
. सर वेलेंनटाइन चिरोल, इंडियन अनरेस्ट(लंदन, मैकमिलन एंड कं पनी लिमिटेड, 1910) पेज-348-49
8
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टॉर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन(नई दिल्ली: अलाइड पब्लिशर्स, 1983), पेज 12
9
. शोम्पा लाहिड़ी, इंडियन्स इन ब्रिटेन: एंग्लो-इंडियन इनकाउंटर्स, रेस एंड आइडेंटिटी, 1880-1930 (लंदन एंड
पोर्टलैंड: ओर फ्रैं क के स 2000) पेज 5
10
. ठीक वहीं संदर्भ
11
. मोहनदास करमचंद गेंधी, एन ऑटोबायोग्राफी या द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ(अहमदाबाद:
नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, 1996) पेज 66
12
. वहीं पिछला संदर्भ, पेज 67
13
. लॉर्ड मार्ले, भारत मंत्री और एक उदारवादी नेता
14
. वीडी सावरकर, न्यूजलेटर्स फ्रॉम लंदन, http://satyashodh.com/Savarkar%20Newsletters1A.htm#one
15
. सेवनिवृत आईसीएस ऑफिसर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक संस्थापिक सदस्य
16
. वीडी सावरकर, न्यूजलेटर्स फ्रॉम लंदन, http://satyashodh.com/Savarkar%20Newsletters1A.htm#two
17
. लाला हरदयाल प्राइवेट पेपर्स, सूची नंबर 77, Acc. No. 427, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली; भारत
सरकार के डाइरेक्टर ऑफ क्रिमिनिल इंटेलिजेंस द्वारा तैयार ‘हिस्ट्री शीट ऑफ हर दयाल ऑफ देलही’ जुडिशियल
एंड पब्लिक डिपार्टमेंट, होम प्रोसीडिंग्स, खंड-817, 2507/07, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन; लाला लाजपत राय.
यंग इंडिया: एन इंटरप्रेटेशन एंड ए हिस्ट्री ऑफ द नेशनलिस्ट मूवमेंट फ्रॉम विदिन(न्यूयॉर्क : बीडब्ल्यू ह्यूबैक, 1916),
पेज- 195; धर्म वीर, ‘डॉ हर दयाल’ एनबी सेन द्वारा संपादित पंजाब्स एमिनेंट हिंदूज(लाहौर: न्यू बुक सोसाइटी,
1953), पृ-57
18
. भारत सरकार के डाइरेक्टर ऑफ क्रिमिनिल इंटेलिजेंस द्वारा तैयार ‘हिस्ट्री शीट ऑफ हर दयाल ऑफ देलही’
जुडिशियल एंड पब्लिक डिपार्टमेंट, होम प्रोसीडिंग्स, खंड-817, 2507/07, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन
19
. सर माइके ल फ्रांसिस ओ डॉयर. इंडिय एज आई न्यू इट(लंदन: कं स्टेबल एंड कं पनी लिमिटेड, 1925), पेज 185
20
. देखें गदर पार्टी के न्यूजलेटर्स: ‘द विक्डनेस प्रैक्टिस्ड बाई इंग्लिश मिशनरीज’ 7 अप्रैल 1917 और ‘द वेस्ट
इनडेवरिंग टु क्रिश्चियनाइज द ईस्ट’, 15 अप्रैल 1917
21
. बालशास्त्री हरदास, आर्म्ड स्ट्रगल फॉर फ्रीडम: नाइनटी ईयर्स वार ऑफ इंडेपेंडेस, 1857-1947(पूना: कल प्रकाशन,
1958) पेज 191
22
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 196
सेडि मे टी रि पो र्ट पे में शि रि पो र्ट
23
. सेडिशन कमेटी रिपोर्ट, 1918, पेज 61(सन् 1918 में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित गुप्त रिपोर्ट)
24
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, खंड-3, अक्टूबर 1907, पेज 38
25
. चंद्र चक्रवर्ती, न्यू इंडिया एंड इट्स ग्रोथ एंड प्रोब्लेम्स(कलकत्ता: विजय कृ ष्ण ब्रदर्स, 1951), पेज 25-26
26
. वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय प्राइवेट पेपर्स, पीए एसीसी, नंबर 236, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली।
27
. चंद्र चक्रवर्ती, न्यू इंडिया एंड इट्स ग्रोथ एंड प्रोब्लेम्स(कलकत्ता: विजय कृ ष्ण ब्रदर्स, 1951), पेज 25-26
28
. श्रीपद शंकर नवारे, सेनापति(बंबई: मौज प्रकाशन, 1976), पेज 30
29
. द मराठा, 27 मई 1938
30
. श्रीपद शंकर नवारे, सेनापति(बंबई: मौज प्रकाशन, 1976), पेज 28
31
. एक वकील अपने मुवक्किल की तरफ से अदालत में याचिका दायर करता है।
32
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर(नई दिलली: 1980) , पेज 12
33
. एमपीटी आचार्य, रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, वीडी यादव द्वारा संपादित(नई दिल्ली: अनमोल
पब्लिके शन्स, 1991), पेज 12
34
. एमपीटी आचार्य, द मराठा, 27 मई 1938
35
. हिस्ट्री शीट ऑफ मैडम भीकाजी कामा, क्रिमिनल इंटेलिजेस ऑफिस द्वारा तैयार, अगस्त 1913, नंबर 61, , एसी
बोस, इंडियन रिवोल्यूशनरीज़ अब्रोड: 1905-1927. सेलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, नई दिल्ली: नॉदर्न ब्रुक सेंटर 2002, पेज 64
36
. हिस्ट्री शीट ऑफ मैडम भीकाजी कामा का सार; बंबई पुलिस कमिश्नर ऑफिस, फाइल नंबर 3218/एच; बुल्लू रॉय
चौधरी. मैडम काम: ए शॉर्ट लाइफ स्के च(नई दिल्ली: पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, 1977), इडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स,
MSS EUR F341/108
37
. बुल्लू रॉय चौधरी. मैडम काम: ए शॉर्ट लाइफ स्के च, पेज 6-7
38
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट न इंडिया(कलकत्ता: फर्मा के एल मुखोपाध्याय, 1962) पेज 235
39
. चित्रगुप्त, लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर, मद्रास, 1926, पेज 66
40
. ठीक पिछला संदर्भ 67
41
. ज्यादा जानकारी के लिए देखें गीता श्रीवास्तव की मैजिनी एंड हिज इम्पैक्ट ऑन द डियन नेशनल
मूवमेंट(इलाहाबाद; चुग पब्लिके शन्स, 1982)
42
. एसएन वनर्जी, द नेशन इन द मेकिंग: बीईंग द रेमिनीसेंसेंज ऑफ फिफ्टी ईयर्स फ पब्लिक लाइफ(लंदन:
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1925) पेज 40
43
. वीडी सावरकर, इनसाइड द इनेमी कै म्प http://savarkar.org/en/encyc/2018/3/23/Download-section.html
44
. ठीक पिछला संदर्भ
45
. जोसेफ मेजिनी, लाइफ एंड राइटिंग्स ऑफ जोसेफ मेजिनी, नया संस्करण, 6 खंडों में, (लंदन: स्मिथ, इल्डर एंड
कं पनी, 1890).
46
. वीडी सावरकर, इनसाइड द इनेमी कै म्प, http://savarkar.org/en/
encyc/2018/3/23/Download-section.html
47
. ठीक पिछला संदर्भ
48
.‘ओपिनियन ऑफ द ऑनरेबुल एडवोके ट जेनवर इन रिगार्ड टु प्रीफे स टु ए ट्रांसलेशन ऑफ जोसेफ मेजिनीज
ऑटोबायोग्राफी’, जुडिशियल डिपार्टमेंट, कं फिडेंसियल प्रोसीडिंग्स, अक्टूबर 1907, पेज- 31-34, महाराष्ट्र स्टेट
आरकाइव्स, मुम्बई
49
. मोहनदास करमचंद गांधी, माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ, http://www.
arvindguptatoys.com/arvindgupta/gandhiexperiments.pdf
50
. मोहनदास करमचंद्र गांधी, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-1,
https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatmagandhi-collected-works-
volume-1.pdf (इसका जिक्र बंबई में दिए सन् 1896 के एक भाषण में भी हुआ है)
51
. ठीक पिछला संदर्भ। खंड-8 https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-
gandhi-collected-works-volume-8.pdf
52
. ठीक पिछला संदर्भ, खंड-5, https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-
gandhi-collected-works-volume-5.pdf.
53
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टॉर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 29
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54
. क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट के नोट्स। स्टीवेंसन मूर का 13 जनवरी 1909(पॉलिटिकल ए) फरवरी 1909, के
नोट्स, #204: ‘इनरसेप्शन ऑफ द खालसा(खालसा) सिरीज ऑफ पैम्पलेट्स’ नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई
दिल्ली
55
. यह अब लंदन में ब्रिटिश लाइब्रेरी का हिस्सा है, जो यूस्टन रोड पर है।
56
. इस किताब की पूर्ण बिबलियोग्राफी के लिए देखें वीडी सावरकर की द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
http://savarkar.org/en/pdfs/the_indian_war_of_independence_1857_with_publishers_note.v001.pd
f
57
. ठीक पिछला संदर्भ
58
. लिचफील्ड मरकरी, 17 मई 1907; कर्टसी ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव, लंदन.
59
. न्यूजपेपर लीड्स मरकरी, 13 मई 1907, साभार- ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव, लंदन
60
. वीडी सावरकर की द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
http://savarkar.org/en/pdfs/the_indian_war_of_independence_1857_with_publishers_note.v001.pd
f
61
. ‘ओ मार्टर्स!’ का पूर्ण टेक्स्ट देखने के लिए देखें परिशिष्ट
62
.‘इंडियन स्टूडेंट्स एट किरेनसेस्टर कॉलेज’, 1908, पब्लिक एंड जुडिशियल डिपार्टमेंट, IOR/L/PJ/6/897 3787,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
63
. वीडी सावरकर की द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस ऑफ 1857
http://savarkar.org/en/pdfs/the_indian_war_of_independence_1857_with_publishers_note.v001.pd
f
64
. ठीक पिछला संदर्भ
65
. ठीक पिछला संदर्भ
66
. ठीक पिछला संदर्भ
67
. ठीक पिछला संदर्भ
68
. ठीक पिछला संदर्भ
69
. ठीक पिछला संदर्भ
70
. ठीक पिछला संदर्भ
71
. ठीक पिछला संदर्भ
72
. ठीक पिछला संदर्भ
73
. एमपीटी आचार्य, रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, पेज 91
74
. होम/13-13ए/1909/एन इंटरसेप्शन ऑफ ए बुक ऑर पैम्पलेट, लेटर 14, दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ
इंडिया, न्यू देलही
75
. यह कानून अंग्रेजी सरकार ने समुद्री व्यापार और समुद्र पर(आयात-निर्यात) नियंत्रण करने के लिए बनाया था जो
भारत से होता था।
76
. होम/13-13ए/1909/एन इनटरसेप्शन ऑफ बुक ओर पैम्पलेट, लेटर 14, दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ
इंडिया, नई दिल्ली, लेटर 18, दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया
77
. ब्रिटिश नेशनल आरकाइव्स(बीएनए) लंदन से साभार
78
. हरिद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 101
79
. वीकली एक्ट्रैक्ट, पैराग्राफ 26, नेटिव पेपर्स होम(स्पेशल) की रिपोर्ट्स से। 60सी-/1908-10: वीडी सावरकर: बुक
इनटाइटल्ड “ इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेस ऑफ 1857” बाई एन इंडियन नेशनलिस्ट’ महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स,
मुम्बई.
80
. जेम्स कै म्पबेल कीर, पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडिया: 1907-1917(नई दिल्ली: ओरियंट लौंगमैन, 1973), पेज 242
81
. वीडी सावरकर, इनसाइड इनेमी कै म्प http://savarkar.org/en/encyc/2018/3/23/Download-section.html.
82
. जीएम जोशी, ‘द स्टोरी ऑफ दिस हिस्ट्री’ इन वीडी सावरकर, द इंडियन वार ऑफ इंडेपेंडेंस 1857 (बंबई:
फीनिक्स पब्लिके शन्स, 1947), पेज xvi
83
. हमसराजा राहबारा, भगत सिंह एंड हिज थाउट(दिल्ली: मानक पब्लिके शन्स, 1990), पेज 90
84
. ओरल आरकाइव में रिकॉर्ड—नेहरु मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी(एनएमएमएल) नई दिल्ली में साक्षात्कार
फ्री हिं स्पे ई
85
. फ्री हिंदुस्तान, स्पेशल नंबर 28 मई 1846

अध्याय 5: तूफान की आमद


1
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जून 1907, पेज 22
2
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 28
3
.(गुप्त) प्रोग नंबर 144. DCI, 24.8.1907, B. अगस्त 1907, नंबर 135-45, एसी बोस, इंडियन रिवोल्यूशनरी अब्रोड:
1905-27, सेलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, नई दिल्ली, नॉदर्न बुक सेंटर, 2002, पेज 15
4
. द टाइम्स, 17 मई 1907, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव्स(बीएनए)
5
. नेशनल रिव्यू, जून 1907, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव्स(बीएनए)
6
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जून 1907, पेज 25
7
. ठीक पिछला संदर्भ, सितंबर 1907, पेज 35
8
. ठीक पिछला संदर्भ
9
. द डेली टेलीग्राफ, साभार ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव्स
10
. द स्टैंडर्ड, साभार, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव्स
11
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जुलाई 1907, पेज 35
12
. एसी बोस, इंडियन रिवॉल्यूशनरीज़ अब्रोड: 1905-27. सलेक्ट डॉक्यूमेंट्स. नई दिल्ली: नॉदर्न बुक सेंटर 2002, पेज
15
13
. होम(पोलिटिकल) 1908, नंबर-1: ‘डायरी ऑफ पॉलिटिकल इवेंट्स, 1907’, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई
दिल्ली
14
. डाइरेक्टर ऑफ क्रिमिनल इंटेलीजेंस की साप्ताहिक रिपोर्ट, 30 सितंबर 1907, पोएएस 3094, ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन, रिचर्ड पॉपलवेल, द सरविलांस ऑफ इंडियन रिवोल्यूशनरीज इन ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑन द कं टिनेंट, 1905-14’,
इंटेलिजेंस एंड नेशनल सेक्यूरिटीज. 3.1(1998): 56-76, पेज 59. ओ ब्रेन न्यूयॉर्क के गेलिक अमेरिकन के स्टाफ का
अभिनय कर रहा था, एचडी(बी) में साप्ताहिक रिपोर्ट 28 सितंबर 1907 के लिए; अक्टूबर 1907, नंबर 40-49
15
. 23 जनवरी 1909 की साप्ताहिक रिपोर्ट एचडी(बी); फरवरी 1909, नंबर 2-11 रिचर्ड पॉपलवेल से। द सरविलांस
ऑफ इंडियन रिवोल्यूशनरीज इन ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑन द कं टिनेंट, 1905-14’, इंटेलिजेंस एंड नेशनल सेक्यूरिटीज.
3.1(1998): 56-76, पेज 135
16
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट को मैडम कामा का पत्र, होम डिपार्टमेंट की प्रोसीडिंग्स में उद्धरित, जुलाई 1913, नोट्स-
पोलिटिकल-ए, जुलाई 1913, पीपी 4, OIOC, POS 6052, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
17
. डीसीआई की साप्ताहिक रिपोर्ट, 6 दिसंबर 1910, OIOC, POS 6052, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
18
. डीसीआई की साप्ताहिक रिपोर्ट, 12 दिसंबर 1910, OIOC, POS 6052, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
19
. डेविड गर्नेट्ट, द ग्लोबल इको; खंड-1(न्यूयॉर्क : हरकोर्ट, ब्रेस एंड कं पनी, 1954), पेज 143-44
20
. साभार ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
21
. कु छ लोगों का मत है कि यह ध्वज हेमचंद्र कानूनगों ने बनाया था। देखें के वी सिंह की ऑवर नेशनल फ्लैग(दिल्ली:
पब्लिके शन्स डिवीजन, भारत सरकार, 1991), पेज 30-32;अरुं धती विरमानी, ए नेशनल फ्लैग फॉर डिया: रिचुअल्स,
नेशनलिज्म एंड द पॉलिटिक्स ऑफ सेंटिमेंट(रानीखेत: परमानेंट ब्लैक, 2008), पेज 61-62
22
. इमिली सी ब्राऊन, हर दयाल: हिंदू रिवोल्यूशनरी एंड रैशनलिस्ट(नई दिल्ली: मनोहर बुक सर्विस, 1975) पेज 68
23
. द मराठा, 29 अक्टूबर 1937, उनके भाषण में रंग और समुदायों के बीच के संबंध का कोई जिक्र नहीं है।
24
. हरिन्द्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 67
25
. बुलु रॉय चौधरी. मैडम कामा: ए शॉर्ट लाइफ स्के च, पेज 15-16
26
. एसी बोस, इंडियन रिवोल्यूशनरीज एब्रोड; 1905-27, सलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, पेज 15-17
27
. ठीक पिछला संदर्भ
28
. हिस्ट्री शीट ऑफ मैडम भीकाजी कामा, क्रिमिनल इंटेलिजेंस ऑफिस द्वारा तैयार-अगस्त 1913, नंबर 61, एसी
बोस. इंडियन रिवोल्यूशनरीज अब्रोड: 1905-27. सलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, 2002, पेज 63
29
. इमिली सी ब्राउन, हर दयाल: हिंदू रिवोल्यूशनरी एंड रैशनलिस्ट, 1975, पेज 62
30
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर(नई दिल्ली: नेशनल बुक ट्रस्ट, 1980) पेज 20
ओ क्रि ऑ ने मे मोरि जि ब्रे री दि ली
31
. ओरल आरकाइव्स: ट्रांसक्रिप्ट्स ऑफ इंटरव्यूज एट नेहरु मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी(एनएमएल), दिल्ली
32
. बाईडी फड़के , सेनापति बापट(दिल्ली: नेशनल बुक ट्रस्ट, 1993) पृ- 14
33
. ठीक पिछला संदर्भ
34
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 15. इस किताब का मूल संदर्भ भी एक सेनापति बापट का लेख है जो मराठी अखबार
डेली नवकाल में 22 जुलाई 1956 को छपा था।
35
. वीडी सावरकर, न्यूजलेटर फ्रॉम लंदन, 19 जुलाई 1907
http://satyashodh.com/Savarkar%20Newsletters1A.htm#d14
36
. डेविड गर्नेट्ट, द गोल्डेन इको, खंड-1, पेज 157, जानकी बाखले की सावरकर(1883-1996), सेडिशन एंड
सर्विलांस; द रूल ऑफ लॉ इन ए कॉलोनियल सिचुएशन’ भी देखें। सोशल हिस्ट्री 35.1(2010): 51-75
37
. होम(पोलिटिकल) दिसंबर 1908, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली एंड आईओआर फाइल्स, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
38
. रिचर्ड पॉपलवेल, ‘ द सर्विलांस ऑफ इंडियन रिवोल्यूशनरीज इन ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑन द कं टिनेंट, 1905-14’
इंटेलिजेंस एंड नेशनल सेक्यूरिटी. 3.1(1998): 56-57, पेज 57
39
. इसे सीआईडी या क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट के नाम से भी जाता है।
40
. सीआईडी के डाइरेक्टर एचए स्टुअर्ट के नोट, 13 जून 1907, होम(पोलिटिकल), मई 1908, नंबर-1: प्रपोज्ड
फोर्मेशन ऑफ ए पोलिटिकल सर्विस अंडर द कं ट्रोल ऑफ द क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट टु फर्निश इनफोर्मेशन
अबाउट द स्प्रेड ऑफ सेडिशन’, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
41
. J&P, 826/04 in L/PJ/6/670; ‘द इस्टेब्लिशमेंट ऑफ ए सेंट्रल क्रिमिनल इनवेस्टीगेशन डिपार्टमेंट इन इंडिया’,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
42
. नोट ऑफ सीजे स्टीवेंसन-मूर, ऑफिसिएटिंग डाइरेक्टर, क्रिमिनल इंटेलिजेंस, 13 मई 1908, होम(पोलिटिकल),
मई 1908, नंबर 1, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
43
. भारत मंत्री मार्ले का निजी पत्राचार, 1908, प्राइवेट मेनुस्क्रिप्ट्, IOR/MSS/EUR/D/1090/2, ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन
44
. हैरोल्ड ब्रस्ट, आई गार्डेड किग्स(नईयॉर्क : हिलमैन-कर्ल, इनक, 1936) पेज 106-08
45
.‘आंतरिक पत्रचार’, 1907, पब्लिक एंड जुडिशियल डिपार्टमेंट, IOR/L/PJ/6/994, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
46
. एमपीटी आचार्य, रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी: बीडी यादव द्वारा संपादित(नई दिल्ली: अनमोल
पब्लिके शन्स, 1991), पेज-83
47
. ठीक पिछला संदर्भ
48
. ठीक पिछला संदर्भ
49
. ठीक पिछला संदर्भ, पेज 84
50
.‘सववर्सिव स्पीचेज एट इंडिया हाउस’. देखें पॉल स्के फल की एम्पायर एंड एसेसिनेशन: इंडियन स्टुडेंट्स “ इंडिया
हाउस” एंड इनफोरमेशन गैदरिंग इन ग्रेट ब्रिटेन, 1898-1911’. अप्रकाशित प्रबंध, वेजलेयन यूनिवर्सिटी, 2012, पेज
94
51
. एमपीटी आचार्य, रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी: बीडी यादव द्वारा संपादित(नई दिल्ली: अनमोल
पब्लिके शन्स, 1991), पेज-86-87
52
. IOR/L/PS/8/67; सितंबर 1909-1913; एम्प्लॉयमेंट एंड एक्सपेंसेसज ऑफ इंडियन इनफोरमेंट, सजनी रंजन
बनर्जी उर्फ सुखसागर दत्त टु वाच इंडियन स्टुडेंट्स इन लंदन; ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
53
. ठीक पिछला संदर्भ, 26 अगस्त 1913
54
. इंडिया हाउस में क्रितिकर की उपस्थिति के बारे में कोरेगांवकर की गवाही से पता चला। उसी काल में वह बाखले के
सर्विलांस के विवरण में नजर आता है। वह पद्मनाभन(पेज 36-41), धनंजय कीर और हरिंद्र श्रीवास्तव के विवरणों में
भी नजर आता है। हालाँकि वह सुनियोजित तरीके से पॉपलवेल के विवरण से नदारद है जो प्रसंगवश एक ‘सी’
नामके एजेंट का जिक्र करता है जिसने सफलतापूर्वक इंडिया हाउस में प्रवेश पा लिया था। ये मालूम नहीं हो सका कि
वहीं ‘सी’ क्रितिकर है या कोई दूसरा।
55
. रिचर्ड पॉपलवेल, ‘द सर्विलांस ऑफ इंडियन रिवोल्यूशनरीज इन ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑन कं टिनेट , 1905-14’ पेज 67
56
. श्रीधर रघुनाथ वर्तक, स्वातंत्रवीर सावरकरांची प्रभावल(नासिक: एसआर वर्तक, 1972), पेज 76
वी भि ची ति री ई जी पी रे दि
57
. वीएम भट्ट, अभिनव भारत अथवा सावरकरांची क्रांतिकारी गुप्त संस्था(मुंबई: जीपी परचुरे प्रकाशन मंदिर, 1950),
पेज 87
58
. वर्तक श्रीधर रघुनाथ, स्वातंत्रवीर सावरकरांची प्रभावल(नासिक: एसआर वर्तक, 1972), पेज-79
59
. होम(पोलिटिकल)/ दिसंबर 1908, 8 जून 1908, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
60
. होम डिपार्टमेंट/पोलिटिकल 60ए, 23 अगस्त 1908, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
61
. राधिका सिंह, सेटल, मोबिलाइज, वेरिफाइ: आईडेंटिफिके शन प्रैक्टिस इन कॉलोनियल इंडिया, स्टडीज इन हिस्ट्री,
16.2(2000): 151-98. जैसा कि सिंह जिक्र करते हैं, भंगी वे लोग थे जो बस्तियों से गंदगी साफ करते थे- जिन्हें
भारत में सामाजिक रूप से काफी हीन समुदाय माना जाता था और उन्हें एक खास तरह का कपड़ा पहने को मजबूर
किया जाता था।
62
. IOR/L/PJ/6/920; ‘इस्टेब्लिशमेंट ऑफ ए मिनिएचर राइफल रैंज एट इंडिया हाउस’ हाईगेट, ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन
63
. सेडिशन कमेटी रिपोर्ट 1918, सीक्रे ट रिपोर्ट भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पेज 31
64
. वहीं संदर्भ
65
. थॉमस फ्रॉस्ट, द सीक्रे ट सोसाइटीज ऑफ यूरोपीयन रिवोल्यूशन 1776-1876, खंड-1 और 2(लंदन, टिंसले, 1876)
66
. वहीं संदर्भ, पेज 32
67
. होम डिपार्टमेंट(पोलिटिकल 1909, इम्पोर्टेंट डॉक्यूमेंट एट गणेश दामोदर सावरकर्स हाउस, नेशनल आरकाइव ऑफ
इंडिया, नई दिल्ली।
68
. होम डिपार्टमेंट(पोलिटिकल 1909-60ए, एस-21, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली।
69
. वहीं संदर्भ
70
. वहीं संदर्भ। 27 मई 1909 का पत्र, सीजे स्टीवेंशन-मूर, क्रिमिनिल इंटेलिजेंस के तत्कालीन डाइरेक्टर
71
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-v003.pdf,
p. 21.
72
. वहीं, पेज 22
73
. वहीं
74
. वहीं पेज 31
75
. डिटेल्स एबाउट द इनसल्ट येसु वहिनी फ्रॉम उत्तरा सहस्रबुद्धे, भारतीय स्वातंत्र्यलाध्यातील स्त्रीया(पुणे: मेहता
पब्लिशिंग हाउस, एनडी)
76
. इंग्लिश ट्रांसलेशन ऑफ बायोग्राफी ऑफ बाबाराव सावरकर http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-
v003.pdf, p. 24
77
. CID सर्कु लर नंबर 11, 28 अक्टूबर 1909, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन पेज 7
78
. होम पोलिटिकल, मई 1910, नंबर 1 नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
79
. डेनियल ब्रकनहाउस, द ट्रांसनेशनल सर्विलांस ऑफ एंटी कॉलोनियलिस्ट मूवमेंट इन वेस्टर्न यूरोप, 1905-45,
अप्रकाशित प्रबंध, येल यूनिवर्सिटी, 2011, पेज-57
80
. फोरेन डिपार्टमेंट की प्रोसीडिंग, फरवरी 1906, प्रो नंबर 44, पेज-1-4, नेशनल आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
81
. फोरेन डिपार्टमेंट नोट्स, इंटर्नल बी, फरवरी 1910, नंबर 9-10, पेज 1
82
. होम पोलिटिकल, मई 1910, नंबर 1, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
83
. मिस बेक से हुई पूछताछ से, प्रोसीडिंग्स ऑफ सेंट्रल क्रिमिनल कोर्ट, 19 जुलाई 1909; मदन लाल ढींगरा का
मुकदमा, CRIM, 1/1135, नेशनल आरकाइव ऑफ यूके , लंदन
84
. वहीं, पत्रकार डगलस विलियम थोरबर्न की गवाही
85
. वहीं
86
. डूंडी इवनिंग टेलीग्राफ 6 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव
87
. कांस्टेबल फ्रे डरिक निकोलस एंड डिटेक्सिटव सार्जेंट फ्रै क इडली की गवाही डूंडी इवनिंग टेलीग्राफ में भी, 6 जुलाई
1909 को, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव
88
. द टाइम्स 6 जुलाई 1909, पेज 10

वी ढीं रि वो री में ई दि ली वि ब्लि शिं


89
. वीएन दत्ता, दत्ता मदन लाल ढींगरा एंड द रिवोल्यूशनरी मूवमेंट( नई दिल्ली: विकास पब्लिशिंग हाउस, 1986)
पेज-46-51
90
. डूंडी इवनिंग टेलीग्राफ, 6 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव
91
. इनफोरमेशन अबाउट द रिवोल्यूशनरी पार्टी इन लंदन फ्रॉम एच के कोरेगांवकर ऑफ इंडिया हाउस, 1909,
पॉलिटिकल डिपार्टमेंट, इंडियन स्टेट्स, IOR/R/R/1/1/10, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन, शोम्पा लाहिरी भी इस बारे में
बात करती है, खासकर ‘उन कच्चे और नस्लभेदी लेखों के बारे में जो भारतीयों के बारे में घटिया यौन विचलनकारी
के तौर पर बात करते हैं’ शोम्पा लाहिड़ी, इंडियन्स इन ब्रिटेन: एंग्लो-इंडियन इनकाउंटर्स, रेस, एंड आइडेंटिटी, 1880-
1930 (लंदन: पोर्टलैंड ओआर फ्रै क कै स 2000) पेज 89
92
. हेनरी स्टेंटन मूर्ले की गवाही, जो ऑटोमेटिक मशीन और शूटिंग रेंज की प्रदर्शनी का मालिक था।
93
. एमपीटी आचार्य रेमिनिसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी पेज 92
94
. वहीं
95
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 52
96
. वहीं, ज 53
97
. इस तरह के तर्क एजी नूरानी ने दिए हैं. सावरकर एंड हिंदुत्व: द गोडसे कनेक्शन( नई दिल्ली: लेफ्टवुड बुक्स,
2002), पेज 14-15
98
. सुपरिटेंडेंट अल्फ्रे ड इसाक की गवाही, नेशनल आरकाइव्स ऑफ यूके , लंदन
99
. सब-डिविजनल इंस्पेक्टर चार्ल्स ग्लास की गवाही, नेशनल आरकाइव्स ऑफ यूके , लंदन
100
. इस्पेक्टर अलबर्ट ड्रेपर की गवाही, नेशनल आरकाइव्स ऑफ यूके , लंदन
101
. डूंडी इवनिंग टेलीग्राफ, 7 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
102
. IOR/L/PJ/6/961: फाइल्स रिलेटेड टु मर्डर ऑफ कर्जन वाइली, ब्रटिश लाइब्रेरी, लंदन
103
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 155
104
. EPP 2/1, बंदे मातरम्, 10 सितंबर 1909, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
105
. डबलिन डेली एक्सप्रेस गजट, 6 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
106
. बर्मिंघम डेली गजट, 6 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
107
. ठीक पिछला संदर्भ
108
. एमपीटी आचार्या ने उन्हें ‘मिस्टर पालमर’ के नाम से अपनी किताब रेमनीसेंसेज ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी
में उद्धृत किया है। पेज 94
109
. ठीक पिछला संदर्भ
110
. द टाइम्स, 8 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए); लंदन इवनिंग स्टैंडर्ड, 8 जुलाई 1909, ब्रिटिश
न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
111
. द डेली डिसपैच और नॉर्थम्पटन क्रॉनिकल एंड इको, 7 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
112
. द बॉल्टन इवनिंग न्यूज, 13 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
113
. द होमवार्ड मेल फ्रॉम इंडिया, चाइना एंड द ईस्ट, 19 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
114
. द मराठा, 3 सितंबर 1937
115
. पांडुरंग सदाशिव खानखोजे का संस्मरण, फाइल नंबर 1, पीएस खानखोजे कलेक्शन
116
. द टेलीग्राफ, 12 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
117
. डॉ थामस निवेली की गवाही, ट्रायल ऑफ मदन लाल ढींगरा, नेशनल आरकाइव ऑफ यूके , लंदन
118
. द टेलीग्राफ, 12 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
119
. द ट्रायल ऑफ मदन लाल ढींगरा, नेशनल आरकाइव ऑफ यूके , लंदन
120
. ठीक पिछला संदर्भ
121
. ठीक पिछला संदर्भ
122
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 56
123
. डेली न्यूज, 16 अगस्त 1909, बीएनए
124
. डब्ल्यू. एस. ब्लंट, माई डायरीज, बीईंग ए पर्सनल नैरेटिव ऑफ इवेंट्स, 1884-1914, खंड-2, (न्यूयॉर्क : Knopf,
1921), पेज 288
डे ली ब्रि टि पे बी
125
. द डेली न्यूज, 18 अगस्त 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
126
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 170
127
. पॉल स्के फे ल. ‘एम्पायर एंड एसेसिनेशन: इंडियन स्टूडेट्स, “ इंडिया हाउस”, एंड इनफोरमेशन गैदरिंग इन ग्रेट
ब्रिटेन, 1898-1911’, अप्रकाशित प्रबंध, वेजलियन यूनिवर्सिटी, 2012, पेज 87
128
. वही संदर्भ, पेज 170-71
129
. पी एंड जे डिपार्टमेंट, 1909, नंबर 956, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
130
. डब्ल्यू एस ब्लंट, सीक्रे ट हिस्ट्री ऑफ द इंग्लिश ऑक्यूपेशन ऑफ इजिप्ट, खंड-II(लंदन, 1907) पेज 267-68
131
. द टाइम्स, 10 जुलाई 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
132
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जुलाई 1909
133
. ठीक पिछला संदर्भ, अगस्त 1909
134
. इंदुलाल याज्ञनिक, श्यामजी कृ ष्ण वर्मा: लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, पेज 263
135
. वहीं संदर्भ
136
. द टाइम्स, 1 मार्च 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
137
. वहीं संदर्भ, 19 मार्च 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
138
. इंडियन सोशयिलॉजिस्ट, अगस्त 1909
139
. वही संदर्भ
140
. वही संदर्भ
141
. के स/ट्रायल डिटेल्स: ट्रायल ऑफ ए गाय ए. अल्फ्रे ड; CRIM 1/114/4, नेशनल आरकाइव्स ऑफ यूके , लंदन
142
. द बंदे मातरम्, सितंबर 1909, जिनेवा, स्विटजरलैंड से भीकाजी कामा द्वारा प्रकाशित; ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन(
यहां लोके शन के तौर पर ‘पोस्ट रेस्टेंटे’ का नाम दिया गया है। यह कोई सही आवासीय पता नहीं है, बल्कि एक संदेश
है जिसमें कहा गया है ‘ ‘मुझे स्थानीय डाकघर के पते पर पत्र भेजिए, न कि मेरे घर के पते पर। वहाँ से मैं पत्र संग्रह
कर लूंगा’। यह अपने घर के पते को छु पाने का एक तरीका था।
143
. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-9, 23 जुलाई 1908 से लेकर 4 अगस्त 1909, पेज 428-29.
https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literatur

e/mahatma-gandhi-collected-works-volume-9.pdf
144
. ठीक वही संदर्भ। खंड-10, 5 अगस्त 1909-9 अप्रैल 1910, पेज 258
https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collectedworks-
volume-10.pdf
145
. ठीक वही संदर्भ, पेज 259
146
. ठीक वही संदर्भ, पेज 195
147
. ठीक वही संदर्भ, पेज 190
148
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 186-87
149
. चित्रगुप्त, लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर, पेज 126
150
. भारत मंत्री मार्ले का निजी पत्राचार, जुलाई 1909, प्राइवेट मैनुस्क्रिप्ट्स, IOR/MSS/EUR/D/573/21, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
151
. रिचर्ड पॉपलवेल, ‘ द सर्विलांस ऑफ इंडियन रिवोल्यूशनरीज इन ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑन द कं टीनेंट, 1905-14’,
इंटेलिजेंस एंड नेशनल सेक्युरिटी. 3.1(1998): 56-76, पेज 62
152
. एसी बोस, इंडियन रिवोल्यूशनरीज अब्रोड: 1905-1927. सलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, पेज 55
153
. वही संदर्भ, पेज 70
154
. डेविड गर्नेट, द गोल्डेन इको, खंड-1, पेज 148
155
. डीसीआई की साप्ताहिक रिपोर्ट, 23 अक्टूबर 1909, OIOC, POS 3094, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
156
. वही संदर्भ, 25 दिसंबर 1909, OIOC, POS 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
157
. डेविड गर्नेट, द गोल्डेन इको, खंड-1, पेज 148-49

की जी नी ग्रे जी
158
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-
v003.pdf पेज 34–35
159
. मराठा में प्रकाशित, 27 मई 1938
160
. अनुरुपा सिनार का अनुवाद http://anurupacinar.net/wp-content/uploads

/2013/09/Sagaras-Translation.pdf

अध्याय 6: इति लंदन अध्याय


1
. बिमानबिहारी मजूमदार, मिलिटेंट नेशनलिज्म इन इंडिया एंड इट्स सोशियो-रिलीजियस बैकग्राउंड, 1897-
1917(कलकत्ता: जेनरल प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, 1966),च पेज 94
2
. विश्वनाथ कृ ष्ण काले की गवाही
3
. जैक्शन हत्याकांड का पूरा प्रकरण कोर्ट कार्यवाही के विस्तृत मूल स्रोतों, गवाहियों और सुनवाइयों के आधार पर
फिर से तैयार किया गया है। स्रोत सामग्रीग: ‘सावरकर के स; ‘ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेशचन ऑफ एक्सट्राडिक्शन
इन के स ऑफ फे ल्योर एट द हेग’ , 9 दिसंबर 1910 से लेकर 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या
778
4
. गणेश बलवंत वैद्य की गवाही
5
. नासिक ट्रायल जजमेंट: कर्वे, देशपांडे, सोमनस वामन जोशी गनु और दत्तो जोशी को क्रमश: 24, 23, 30,22 और
22 दिसंबर 1909 को गिरफ्तार किया गया। उन्होंने 6, 6, 3, 4, 2 और 5 जनवरी 1910 को अपनी गवाहियाँ दीं।
6
. स्रोत: आरोपितों की गवाहियाँ ‘सावरकर के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्स्ट्राडिशन इन के स ऑफ
फे स्योर एट द हेग’ से ली गई। 9 दिसंबर 1910-23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर 778
7
. अबरदीन प्रेस एंड जर्नल और द टाइम्स, 23 दिसंबर 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
8
. डेली टेलीग्राफ, 23 दिसंबर 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
9
. बेलफास्ट टेलीग्राफ, 31 दिसंबर 1909, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
10
. इमिली सी ब्राउन, हर दयाल: हिंदू रिवोल्यूशनरी एंड रैशनलिस्ट, पेज 79
11
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 200
12
. मलेच्छा का अर्थ है एक गैर-आर्य समुदाय के लोग, भारत में बसने वाला एक ग्रीक, उस लिहाज से एक गैर-
भारतीय, इस प्रकार से एक विदेशी, इस मामले में एक अंग्रेज।
13
. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट, जनवरी 1910
14
. वही संदर्भ
15
. ऐसा एस एल करांदिकर की किताब सावरकर चरित्र कथन(पुणे: मॉडर्न बुक डिपो प्रकाशन, 1947) में कहा गया है।
पेज 332
16
. सावरकर के स; ट्रायल एंड कं विक्शन; क्वेश्चन ऑफ इस्ट्रैडिशन इन के स ऑफ फे ल्योर एट द हेग, 9 दिसंबर 1910-
23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल नंबर 778
17
. यह घटना जयवंत डी जोगेलकर द्वारा कही गई है: ‘वीर सावरकर: फादर ऑफ हिंदू नेशनलिज्म’(एनपी 2006) और
हरिंद्र श्रीवास्तव की फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन में भी।
18
. आरए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर, पेज 73
19
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 207
20
. होम डिपार्टमेंट/ पोलिटिकल/नोट्स, 60-बी, 1910, नेशनल आरकाइव, नई दिल्ली, पेज 269
21
. वही संदर्भ, पेज 271
22
. सावरकर कं स्पिरेसी, हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, अक्टूबर 1912 अंक(गाय अल्ड्रेड, लंदन)
23
. गाय अल्ड्रेड द्वारा की गई टिप्पणी, इटेलिक में
24
. जानकी बाखले, सावरकर(1883-1966), सेडिशन एंड सर्विलांस: द रूल ऑफ लॉ इन ए कॉलोनियल सिचुएशन’,
सोशल हिस्ट्री 35.1(2010): 51-75, पेज-68-69
25
. लैरी कॉलिंस एंड डोमिनिक लैपियर, फ्रीडम एट मिडनाइट(नोएडा: विकास पब्लिशिंग हाउस, 2016), पेज 361

नि जी र्मा ऑ डि रि वो री पे
26
. इंदुलाल याज्ञनिक, श्यामजी कृ ष्ण वर्मा; लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एन इंडियन रिवोल्यूशनरी, पेज 286-87
27
. डेली टेलीग्राफ, 19 मार्च 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
28
. विलेस्डन क्रॉनिकल, 25 मार्च 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
29
. ग्लोब, 14 मार्च 1910, ब्रटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
30
. डेली टेलीग्राफ, 15 मा4च 1910, एलेज्ड इंडियन सेडिशन: मर्डर एबेटमेंट चार्ज, ब्रिटिश न्यूजपेपर
आरकाइव(बीएनए)
31
. IOR/J&P 847-1910: 189/349/2, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
32
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 219
33
. वही संदर्भ, पेज 220-21. 81 क्लेरेंडन रोड, नॉर्थ के नसिंगटन(वेस्ट) से श्यामजी को अय्यर का पत्र, दिनांक 15 मार्च
1910
34
. वही संदर्भ, पेज 222-23
35
. धनंजय कीर, वीर सावरकर, पेज 67
36
. डेविड गर्नेट, द गोल्डन इको, खंड-1, पेज 151-52
37
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 224-27. विल और टेस्टामेंट के पूर्ण पाठ के लिए
देखें एपेंडिक्स II
38
. बोस, ए.सी. इंडियन रिवोल्यूशनरीज अब्रोड: 1905-1927. सेलेक्ट डॉक्यूमेंट्स, पेज 33
39
. IOR/L/PJ/6/1069: ‘सावरकर के स: ट्रायल एंड कं विक्शन,’ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से कोरेगांवकर की गवाही,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
40
.‘जजमेंट ऑफ द स्पेशल ट्रिब्यूनल के सेज नंबर 2,3 एंड 4 ऑफ 1910, पेज 8-9, IOR/L/PJ/6/1069: ‘सावरकर
के स: ट्रायल एंड कं विक्शन,’ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से कोरेगांवकर की गवाही, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से
41
. वही संदर्भ
42
. IOR/L/PJ/6/1069: ‘सावरकर के स: ट्रायल एंड कं विक्शन,’ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से कोरेगांवकर की गवाही,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन से चंजेरी राव की गवाही
43
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर, पेज-80
44
. सॉलिसीटर जनरल सर रफर इसाक बाद में भारत के वायसराय बने जिन्हें लोग लॉर्ड रीडिंग के नाम से जानते हैं।
45
. द टाइम्स 25 अप्रैल 1910
46
. वही संदर्भ। यहाँ विनायक 1878 के आर्म्स एक्ट का संदर्भ दे रहे हैं और उसे भारतीयों के लिए बंदूक या किसी भी
अन्य हथियार की मनाही को गैर-कानूनी करार दे रहे हैं।
47
. द टाइम्स, 2 मई 1910
48
. लंदन डेली न्यूज, 10 मई 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव
49
. द टाइम्स, 3 जून 1910
50
. वही संदर्भ
51
. FOA की धारा 2 कहती है: ‘अगर कोई व्यक्ति महामहिम सम्राट के राज्य क्षेत्र किसी भी भाग में कोई अपराध
करता है(जहाँ कानून का यह हिस्सा लागू है), और अगर ऐसा व्यक्ति को(इस एक्ट के तहत उस हिस्से का फ्यूजिव
कहा जाएगा), महामहिम सम्राट के राज्य क्षेत्र के दूसरे हिस्से में पाया जाता है, तो उसे पकड़कर इस एक्ट के तहत ही
राज्य के उसी हिस्से में भेजा जा सकता है जहाँ पर उसने अपराध किया है’।
52
. लंदन डेली न्यूज, 3 जून 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आरकाइव(बीएनए)
53
. FOA की धारा 33: इस कानून के तहत कोई आरोपी या अन्यथा जिस पर मुकदमा चला हो या महामहिम के राज्य
क्षेत्र के एकाधिक हिस्से में किए गए अपराध के संबंध में, तो ऐसे व्यक्ति के लिए सम्राट के राज्य क्षेत्र के किसी हिस्से में
वारंट जारी किया जा सकता है, जहाँ अगर वो मौजूद है, तो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है और इस कानून का
हर हिस्सा लागू कर सकते हैं, मानो अपराध सम्राट के इसी इलाके में हुआ हो जहाँ वारंट जारी हुआ है और इस कानून
के तहत ऐसे व्यक्ति को पकड़ा और लौटाया जा सकता है, जरूरी नहीं कि उसी क्षेत्र में जहाँ उसे गिरफ्तार किया गया
है। किसी भी अदालत में उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है।
54
. FOA की धारा 10: ‘ जहाँ सुप्रीम कोर्ट को ये लगता हो कि के स की जटिल प्रकृ ति की वजह से या अगर ऐसा लगे
कि अपराधी को लौटाने से न्याय का या अन्यथा अच्छा माहौल नहीं बनता हो, तो ऐसे में दूरी का ख्याल रखते हुए,
की वि औ के की री रि स्थि ति यों के द्दे धी को रे लौ जै
संचार की सुविधा और के स की अन्य सारी परिस्थितियों के मद्देनजर अपराधी को दूसरे जगह लौटाना अत्याचार जैसा
होगा या अत्यधिक कठोर होगा या एक खास अवधि बीत जाने के बाद अदालत अपराधी को मुक्त करल सकती है-
चाहे पूर्ण तरीके से या जमानत पर और ऐसा आदेश दे सकती है कि उसे उस आदेश में वर्मित समय तक लौटाया नहीं
जा सके गा या कोई ऐसा आदेश दे सकती है जो कोर्ट परिसर में उसे न्यायपूर्ण लगे।
55
. द टाइम्स, 4 जून 1910
56
. द सावरकर कं स्पिरेसी, हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, खंड-2, नंबर 10, लंदन, अक्टूबर 1912, IOR/L/PJ/6/1198; फाइल
3899, ‘प्रपोज्ड प्रोहिबिशन ऑफ द “सावरकर इशू” ऑफ हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट’ , ब्रटिश लाइब्रेरी, लंदन
57
. द टाइम्स , 17 जून 1910
58
. द टाइम्स 21 जून 1910
59
. वही संदर्भ, 22 जून 1910
60
. द सावरकर कं स्पिरेसी, हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, खंड-2, नंबर 10, लंदन, अक्टूबर 1912, IOR/L/PJ/6/1198; फाइल
3899, ‘प्रपोज्ड प्रोहिबिशन ऑफ द “सावरकर इशू” ऑफ हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट’ , ब्रटिश लाइब्रेरी, लंदन
61
. वही संदर्भ
62
. वाम विचार की एक आयरिश रिपब्लिकन पार्टी जो आयरलैंड और उत्तरी आयरलैंड दोनों गणराज्यों में सक्रिय थी।
इसकी स्थापना 28 नवंबर 1905 को ऑर्थर ग्रिफिथ ने की थी। इसकी भारतीय क्रांतिकारियों से नजदीकी थी जिसमें
श्यामजी, मैडम कामा और विनायक सावरकर शामिल थे।
63
. डेविड गर्नेट, द गोल्डन इको, खंड-I, पेज 157
64
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 234
65
. गवर्नमेंट ऑफ बंबई, होम डिपार्टमेंट(स्पेशल) 60-B/1910, 18/195, महाराष्ट स्टेट आरकाइव, मुंबई
66
. हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, अक्टूबर 1912, पेज 99
67
. हरिंद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टोर्मी ईयर्स: सावरकर इन लंदन, पेज 235-36
68
. आर ए पद्मनाभन, वीवीएस अय्यर, पेज-85-86

अध्याय 7: सावरकर प्रकरण


1
.‘सावरकर्स के सः कं डक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशियल्स’. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च, 1910 से
25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन.
2
. इस पूरे घटनाक्रम को कई पत्रों के आधार पर फिर से बनाया गया है, जो अधिकारियों और विभागीय जांच रिपोर्ट के
बीच आदान-प्रदान के रूप में थे जिनमें इस घटना में सभी प्रमुख लोगों की गवाही शामिल है. स्रोतः सावरकर्स के सः
कं डक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशियल्स’. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च, 1910 से 25 जनवरी
1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन.
3
. हरींद्र श्रीवास्तव, फाइव स्टॉर्मी इयर्सः सावरकर इन लंदन, पृ. 247.
4. अनुरूपा सिनार का अनुवाद, http://anurupacinar.net/wp-content/uploads/2013/09/Atmabal-
Translation.pdf
5
. मि. गाइडर का बयान, सावरकर्स के सः कं डक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशियल्स’. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या
284, 26 मार्च, 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन.
6
. 1910 की संख्या 5730, न्यायिक विभाग. सावरकर्स के सः कं डक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशियल्स’.
IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च, 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन.
7
. वही, पृ. 253
8
. पेरिस में ब्रिटिश दूतावास के एल.डी. कार्नेगी के पत्र को उद्धृत किया गया है जो उन्हें विदेश मंत्री सर एडवर्ड ग्रे को
लिखा था. ‘वी.डी. सावरकरः अरेस्ट ऐंड एक्स्ट्राडिशन; इस्के प ऐंड रिकै प्चर एट मार्सिल्स’ IOR/L/PJ/6/994. ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
9
. डेली गजट में उद्ऋत, 25 जुलाई 1910, ब्रिटिश न्यूपेपर आर्काइव (बीएनए)
10
. डेली प्रेस, 21 जुलाई 1910, ब्रिटिश न्यूपेपर आर्काइव (बीएनए)
11
. लंदन डेली न्यूज, 20 जुलाई, 1910, ब्रिटिश न्यूपेपर आर्काइव (बीएनए)

डी सी की हि रि पो र्ट सि औ ओ ओ सी पीओ
12
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 27 सितंबर 1910 और 11 अक्तू बर 1910 पृ. 2, ओआइओसी, पीओएस 3095,
ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
13
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 23 अगस्त, 1910 ओआइओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
14
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 16 अगस्त, ओआइओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
15
. डीसीआइ की साप्ताहिक रिपोर्ट, 8 नवंबर 1910, ओआइओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
16
.‘शॉल ही बी गिवेन अप?’, इवनिंग टेलिग्राफ, 25 जुलाई 1910, बीएनए.
17
. संख्या 26218/10 और संख्या 280 (26255) आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर 284, 26, मार्च 1910 से
25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
18
. जे ऐंड पी. 2395. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी, 1911 ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन
19
. बॉम्बे के गवर्नर का टेलीग्राम, 23 जुलाई 1910, IOR/L/PJ/6/1058,फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
20
. जे. एंड पी. 2521, आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी, 1911, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन.
21
. 29 जुलाई 1910, #1441063, राष्ट्रीय अभिलेखागार, लंदन के कार्यवृत्त पर टिप्पणी.
22
. अंतर्विभागीय कमिटी की बैठक का कार्यवृत्त, IOR/L/PJ/6/1058 फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन.
23
. अनुलग्नक 2-सावरकर के मामले पर अटॉर्नी जनरल की राय की प्रति. आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर
284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
24
. बॉम्बे के गवर्नर का टेलीग्राम, 5 अगस्त 1910, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
25
. गृह सचिव की तरफ से बॉम्बे के गवर्नर को किया गया टेलिग्राम, 15 अगस्त, 1910, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल
नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन।
26
. अनुलग्नक २-विदेश कार्यालय का विवरण दिनांक 24 सितंबर 1910, आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर
284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
27
.‘सावरकर के सः कं डक्ट ऑफ द पुलिस ऑफिशियल्स, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से
25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
28
. बॉम्बे के गवर्नर से टेलीग्राम, 20 अगस्त 1910, IOR/L/PJ/6/1058, फाइल नंबर 284, 26 मार्च 1910 से 25
जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
29
. अनुलग्नक २-विदेश कार्यालय का विवरण दिनांक 24 सितंबर 1910, आईओआर/एल/पीजे/6/1058, फाइल नंबर
284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
30
. वही
31
. एफ.ए. कैं पबेल का पत्र दिनांक 30 सितंबर 1910, ‘सावरकर के स: हेग में कार्यवाही (परिणाम सहित)’,
आईओआर/एल/पीजे/6/1077, फाइल नं. 1131, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन।
32
. जे ऐंड पी 3317. IOR/L/PJ/6/1058, फाइल संख्या 284, 26 मार्च 1910 से 25 जनवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी,
लंदन।
33
. एफओ 881/9746 ‘सावरकर आर्बिट्रेशन के स’, नैशनल आर्काइव्स, लंदन
34
. वही. अनुलग्नक.
35
.‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंड कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे लियर ऐट द हेग’,
IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 778, 9 दिसंबर 1910 से
23 फरवरी 1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
36
. द टाइम्स, 7 अक्टूबर 1910, ब्रिटिश न्यूजपेपर आर्काइव (बीएनए)।
37
. होमवार्ड मेल फ्रॉम इंडिया, चाइना एंड द ईस्ट, १५ अगस्त १९१०, ब्रिटिश न्यूजपेपर आर्काइव (बीएनए)

के रे फ्रें र्बि ट्रे सि से री


38
.‘सावरकर के सः रेफ्रें स टू आर्बिट्रेशन’, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 3823, 30. सितंबर 1910 से 10 फरवरी
1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन।
39
. लंदन डेली न्यूज, 23 अगस्त 1910, बीएनए।
40
. 2 दिसंबर 1855 को जन्मे नारायण गणेश चंदावरकर एक सारस्वत ब्राह्मण थे। उन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज में दक्षिणा
फे लो के रूप में कार्य किया और 1881 में कानून की डिग्री हासिल की। 1885 में, उन्हें इंग्लैंड भेजा गया था: भारतीय
आम चुनावों की वकालत करने के लिए तीन सदस्यीय समिति का हिस्सा बनाकर ब्रिटेन भेजा गया. अपनी वापसी पर,
वे 28 दिसंबर 1885 को कांग्रेस में शामिल हुए और 1900 में लाहौर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष बने. 1901 में, वे
बंबई उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किए गए. अपनी वफादारी और सेवा के लिए ब्रिटिश ने उन्हें 1910 में नाइट
की उपाधि दी. असल में, राजद्रोह के मामले में जिस जज ने तिलक को सजा दी थी, जस्टिस डावर, उन्हें सजा सुनाने
के ठीक बाद नाइट की उपाधि दी गई थी. (स्रोत: एम.सी. छागला. रोज़ेज़ इन डिसेंबर: एन ऑटोबायोग्राफी [बॉम्बे:
भारतीय विद्या भवन, 1975])। उन्हें मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के बाद बॉम्बे विधान सभा के पहले गैर-राजनीतिक
अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था. आज भी उनकी प्रतिमा बॉम्बे विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह हॉल में है
और उनका चित्र बॉम्बे हाईकोर्ट में लगा हुआ है. जब जवाहरलाल नेहरू हैरो में पढ़ रहे थे, उनके पिता मोतीलाल नेहरू
ने उन्हें सलाह देते हुए चंदावरकर की तस्वीर के साथ एक पत्र भेजा और उनको अपना आदर्श बनाने के लिए कहा.
(स्रोत: बी.आर. नंदा. द नेहरूज: मोतीलाल एंड जवाहरलाल [लंदन: एलन ऐंड अनविन, 1962]).
41
.‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंज कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्स्ट्राजिशन इन के ऑफ फे लियर ऐट द हेग’, 9 दिसंबर
1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 778.
42
. हरींद्र श्रीवास्तव. फाइव स्टॉर्मी इयर्स: सावरकर इन लंदन, पृ.. 265-66.
43
. वही. पृ. 267
44
. जैसा कि नासिक, बॉम्बे प्रेसीडेंसी के लिए प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विनायक के विरुद्ध जारी गिरफ्तारी वारंट
दिनांक 8 फरवरी 1910 में सूचीबद्ध है. ‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंज कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्स्ट्राजिशन इन के
ऑफ फे लियर ऐट द हेग’, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 778.
45
. वही. मामले का फै सला.
46
. पूना शाखा का नेतृत्व के शव श्रीपाद चंदवाडकर ने किया, जो ब्रह्मगिरी बुआ के नाम से लोकप्रिय थे.
47
. राजद्रोह समिति की रिपोर्ट, सरकार द्वारा प्रकाशित गुप्त रिपोर्ट भारत, 1918, पृ. 32.
48
. मामले में मुख्य गवाह रघुनाथ वेंकटेश गोसावी, वामन नरहरि दानी, हरि नारायण पिंपल, के शव सखाराम सिंधकर,
के शवी रावजी गोंधलेकर, रामचंद्र अप्पाजी बल्लाड, काशीनाथ शामरासो फाटक, चतुर्भुज झावेरीभाई अमीन
पाटीदार, हरिश्चंद्र कृ ष्णराव कोरेगांवकर, चंजेरी रामा राव, गोपाल कृ ष्ण पाटनकर, गणेश बलवंत वैद्य, त्र्यंबक कृ ष्णा
बुरकु ले, दत्तात्रेय पांडुरंगा जोशी, कृ ष्णाजी रावजी लेले, शेख लाल, ई.जे. पार्क र, जे.ए. गाइड और अन्य थे. उनकी
विस्तृत मौखिक गवाही ‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंज कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्स्ट्राजिशन इन के ऑफ फे लियर ऐट
द हेग’, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 778 में दर्ज है।
49
. वही
50
. जे.ए. गाइडर की गवाही. वही.
51
. आर.वी. गोसावी की गवाही, वही.
52
. संयोग से, सदस्यों को आरंभ करने का तरीका और शपथ लेने की प्रक्रिया बिल्कु ल वैसी ही थी जैसी मैजिनी ने ‘यंग
इटली’ अपने लिए सदस्यों की भर्ती की, साथ ही, यह कार्बोनारी जैसे अन्य इतालवी गुप्त समाजों की प्रक्रियाओं से भी
मिलता-जुलता था.
53
. बापू जोशी की गवाहीः ‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंज कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्स्ट्राजिशन इन के ऑफ फे लियर
ऐट द हेग’, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल संख्या 778
54
. चतुर्भुज अमीन की गवाही. वही.
55
. पाटनकर की गवाही. वही.
56
. ई. पार्क र की गवाही. वही.
57
. नासिक षड्यंत्र मुकदमे का फै सला. वही. पृ. 12.
58
. वही
59
. गोपाल कृ ष्ण पाटनकर की गवाही, वही.
र्वे की ही ही
60
. बर्वे की गवाही. वही.
61
. काशिकर की गवाही. वही.
62
. नारायण राव दामोदर सावरकर की गवाही. वही.
63
. नासिक षड्यंत्र मुकदमे का फै सला. वही. पृ. 12.
64
. हरींद्र श्रीवास्तव. फाइव स्टॉर्मी इयर्सः सावरकर इन लंदन, पृ. 269
65
. इसका मतलब था पचीस साल का कारावास
66
. नासिक षड्यंत्र मुकदमे का फै सला. वही. पृ. 13, 29, ‘सावरकर के सः ट्रायल ऐंज कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ
एक्स्ट्राडिशन इन के स ऑफ फे लियर ऐट द हेग’, 9 दिसंबर 1910 से 23 फरवरी 1911, IOR/L/PJ/6/1069, फाइल
संख्या 778
67
. एंपरर वर्सेज विनायक दामोदर सावरकर, के स संख्या 1/ 1911, फै सला. वही.
68
. अन्य अभियुक्तों के लिए निम्नलिखित दंड मिले: के शवी श्रीपाद चंदवाडकर (पंद्रह वर्ष); गोपाल कृ ष्ण पाटनकर,
त्र्यंबकी गंगाधर मराठे और कृ ष्णजी गोपाल खरे (दस वर्ष प्रत्येक); व्यंकटेश पराश्रम नागपुरकर (सात वर्ष); विष्णु
महादेव भट, सखाराम दादाजी गोरहे, पुरुषोत्तम लक्ष्मण दांडेकर, दामोदर महादेव चंद्रत्रे और गोपाल गोविंद धरप
(प्रत्येक में पांच वर्ष); श्रीधर वासुदेवी शिधाये, रघुनाथ विद्याधर भावे, दामोदर चिंतामन परांजपे और वामन काशीनाथ
पलांडे (प्रत्येक चार वर्ष); विष्णु गणेश के लकर, काशीनाथ दाजी टोंपे, पराश्रम वामन गोखले, अनंत विष्णु कोंकड़ और
विश्वास बलवंत डावरे (प्रत्येक तीन वर्ष); विनायक गोविंद तिखे, बलवंत रामचंद्र बर्वे और सखाराम रंगनाथ काशीकर
(दो वर्ष प्रत्येक); नारायण दामोदर सावरकर, विनायक वासुदेव मनोहर, गंगाराम रूपचंद और रघुनाथ चिंतामन
अम्बेडकर (कठोर कारावास) 6 महीनो के लिए)। विनायक काशीनाथ गैधानी, रामचंद्र बाबाजी काठे , गोविंद सदाशिव
बापट, हरि अनंत थट्टे, शंकर पांडुरंग महाजन, मुकुं द पांडुरंग मोघे, के शव गणेश परांजपे, और त्र्यंबकी विनायक जोग
को बरी कर दिया गया और उन्हें छु ट्टी दे दी गई. एस.वी. वैद्य, वी.एस. बर्वे और वी.के . फु लमरीकर को मुकदमे की
शुरुआती अवधि में ही छु ट्टी दे दी गई थी. फै सले ने अभिनव भारत के लिए एक आभासी मौत की घंटी बजा दी, जैसा
कि अधिकांश इसके महत्वपूर्ण सदस्यों को जेल में डाल दिया गया और अपमान और भय की वजह से सभी मौजूदा
मौजूदा और भावी सदस्यों को भी खो दिया। (स्रोत: नासिक षड्यंत्र मुकदमे का फै सला. वही. पृ. 13, 29, ‘सावरकर
के सः ट्रायल ऐंज कन्विक्शन; क्वेश्चन ऑफ एक्स्ट्राडिशन इन के स ऑफ फे लियर ऐट द हेग’, फाइल संख्या जे.ऐंड पी.
448/1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन)
69
. हरींद्र श्रीवास्तव. फाइव स्टॉर्मी इयर्स: सावरकर इन लंदन, पृ. 283-84.
70
. आइरे ए. क्रो का सर एडवर्ड ग्रे को पत्र, 15 फरवरी 1911. ‘सावरकर के सः प्रोसिडिंग्स ऐट द हेग (फै सला समेत)’
आईओआर/एल/पीजे/6/1077, फाइल नंबर 1131, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
71
. जीन लोंगुएट का पत्र, ‘सावरकर के स: प्रोसीडिंग्स एट द हेग’ (फै सले सहित), IOR/L/PJ/6/1077, फाइल नंबर
1131, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
72
. वही
73
. वही
74
. हेग में दिया गया पुरस्कार, ‘सावरकर के स: प्रोसीडिंग्स एट द हेग’ (परिणाम सहित), आईओआर/एल/
पीजे/6/1077, फाइल नंबर 1131, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
75
. वही
76
. हरींद्र श्रीवास्तव. फाइव स्टॉर्मी इयर्स: सावरकर इन लंदन, पृ. 296
77
. वही, पृ. 294-95
78
. वही, पृ. 296-97
79
. डीसीआई की साप्ताहिक रिपोर्ट, 10 अक्टूबर 1911, ओआईओसी, पीओएस 3095 ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
80
. इंदुलाल याज्ञनिक. श्यामजी कृ ष्ण वर्मा: लाइफ ऐंड टाइम्स ऑफ एन इंडियन क्रांतिकारी, पृ. 292
81
. डीसीआई की साप्ताहिक रिपोर्ट, 30 अगस्त 1910 और 11 अक्टूबर 1910, ओआईओसी, पीओएस 3095, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन
82
. गाइ एल्ड्रेड, ‘द व्हाइट टेरर इन इंडिया’, अगस्त 1910, ईपीपी 1/3, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
83
. हेराल्ड ऑफ रिवोल्ट, मार्च 1911
84
. वही, अक्टूबर 1912
वि मो र्ण यो बॉ बे में री को लि के रे में
85
. विनायक दामोदर सावरकर का वर्णनात्मक ब्योरा बॉम्बे में 9 फरवरी, 1911 को लिया गया. उनके बारे में
निम्नलिखित व्यक्तिगत विवरण हैं: आज की तारीख में 26 वर्ष, लंबाई: 5’-2”, गोरा रंग, मध्यम आकार, छाती का
माप: 32 इंच; विशेष चिह्न: चौड़ा माथा, ऊँ ची गाल की हड्डियाँ, बाएं ललाट पर एक निशान (1/2 “x 1/8”), दाहिनी भौं
के आंतरिक छोर के ऊपर निशान (3/4 “x1/8”), (बाईं भौं के मध्य से ऊपर 1/2”x1/8”). दूरदृष्टिदोष है, और चश्मा
पहनता है. इस पर पुलिस उप महानिरीक्षक, आपराधिक जांच विभाग, बॉम्बे 10 फरवरी 1911 को द्वारा हस्ताक्षर
किए गए थे. (स्रोत: ‘सावरकर के स: ट्रायल एंड कनविक्शन: क्वेश्चन ऑफ एक्सट्राडिशन इन के स ऑफ फे लियर ऐट द
हेग’, फाइल नंबर जे एंड पी. 448/1911, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.)
86
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 15.
87
. कांग्रेस और तिलक के के सरी के संदर्भ के लिए, वही, पृ. 15-16
88
. हरिंद्र श्रीवास्तव. फाइव स्टॉर्मी इयर्स: सावरकर इन लंदन, पृ. 297.
89
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 18.
90
. वही, पृ. 6, 19
91
. भारत सरकार के न्यायिक विभाग द्वारा ज्ञापन, गृह विभाग, पत्र सं. 1555 सी, 28 फरवरी 1911, बॉम्बे, फाइल,
60डी(ए)/1919: ‘पॉलिटिकल प्रिजनर्स’, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई. इस ज्ञापन में सरकार के पत्र सं. 2022
का संदर्भ उपलब्ध है.
92
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 25
93
. वही, पृ. 27
94
. वही, पृ. 28-30
95
. धनंजय कीर. वीर सावरकर, पृ. 99.
96
. प्रेसीडेंसी के सभी दोषियों में सबसे कठोर अपराधी, शातिर हत्यारों, बलात्कारी, बेरहम डकै त और अन्य, जिन्हें देश
की किसी भी जेल में बंद रहने के लिए अयोग्य समझा जाता था, उन्हें स्टीमर में ठूं सकर अंडमान द्वीप में सेलुलर जेल
में भेज दिया गया.
97
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 43

अध्याय 8: सज़ा-ए-कालापानी
1
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf
2
. द्वीपों और बस्तियों के बारे में सभी विवरण यहां से प्राप्त हुए: आर.सी. मजूमदार पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स
(नई दिल्ली: गजेटियर्स यूनिट, संस्कृ ति विभाग, शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय, 1975, पृ. 1-2); वी.डी.
सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, (http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-Veer-
Savarkar.pdf) बरिंद्रनाथ घोष, द टेल ऑफ माइ एक्साइल (पांडिचेरी: आर्य कार्यालय, 1922); उल्लास्कर दत्त.
ट्वेल्व इयर्स ऑफ प्रिजन लाइफ (कलकत्ता: एन.पी. 1924); सचिंद्रनाथ सान्याल. बंदी जीवन (नई दिल्ली: आत्मा राम
एंड संस, 1963). सेलुलर जेल मेमोरियल, पोर्ट ब्लेयर के क्यूरेटर डॉ रशीदा इकबाल के साथ लेखक का साक्षात्कार.
3
. बेनकोलेन के गवर्नर सर स्टैमफोर्ड रैफल्स का भारत सरकार को 1818 में लिखा पत्र, जिसमें उन्होंने यह भी खेद
व्यक्त किया कि यह नीति अपराधियों को बदलने का वांछित उद्देश्य की अपने मकसद पूरा नहीं करती.
4
. एल.पी. माथुर. हिस्ट्री ऑफ अंडमान ऐंड निकोबार आइलैंड्स, 1856-1966 (दिल्ली: स्टर्लिंग पब्लिशर्स, 1968)
5
. आर.सी. मजूमदार. पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स पृ. 62-63; साथ ही पोर्ट ब्लेयर के सेलुलर जेल में डॉ रशीदा
इकबाल के साथ इंटरव्यू.
6
. एलिसन बैशफोर्ड और कै रोलिन स्ट्रेंज. आइसोलेशनः प्लेसेस ऐंड प्रैक्टिसेस ऑफ एक्सक्लूजन (लंदन: टेलर ऐंड
फ्रांसिस, 2004), पृ. 37.
7
. आर.सी. मजूमदार. पीनल सेटलमेंट इन द अंडमान्स, 1975 पृ. 119
से जे में वे सि जे हो सि से जो औ नि को द्वी के
8
. सेलुलर जेल में दस्तावेज़, 4 सितंबर 1914 जे. होप सिम्पसन से, जो अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के
कार्यवाहक मुख्य आयुक्त और भारत सरकार के सचिव, गृह विभाग के पोर्ट ब्लेयर अधीक्षक थे, जो विनायक को
मिली सजा और उनके जेल में बिताए दौर का वर्णन करते हैं. दस्तावेज़ सौजन्य डॉ रशीदा इकबाल, सेलुलर जेल, पोर्ट
ब्लेयर.
9
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 63.
10
. उपेंद्रनाथ बनर्जी. निर्वासित आत्मकथा. एनपी, एनडी, पृ 72.
11
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 64-65
12
. वही, पृ 65.
13
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ 53
14
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 68-69
15. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ 66-67
16
. वही, पृ. 84
17
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 86.
18
. वही
19
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ 68.
20
. वही, पृ. 100.
21
. वही, पृ. 71-72
22
. वही, पृ. 160
23
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 139.
24
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ. 80.
25
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 140.
26
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल, पृ. 60-61.
27
. उल्लास्कर दत्त. ट्वेल्व इयर्स ऑफ प्रिज़न लाइफ, पृ. 49.
28
. प्रेम वैद्य का मूल लेख तुम्हारी अहमी अपान सागलेच में प्रकाशित, एक मराठी द्विमासिक (21 फरवरी-6 मार्च,
2000), पुणे के अविनाश धर्माधिकारी द्वारा संपादित. साभार: सावरकर स्मारक, मुंबई।
29
. बरिंद्र कु मार घोष. द टेल ऑफ माइ एक्साइल, पृ. 86.
30
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 82
31
. वही. पृ. 102.
32
. वही, पृ. 149.
33
. नंद गोपाल के प्रतिरोध का यह संस्करण बरिन्द्र कु मार घोष द्वारा प्रस्तुत किया गया है, द टेल ऑफ़ माई एक्ज़ाइल,
पृ. 88-93.
34
. वही, पृ. 90.
35
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 90.
36
. वही, पृ. 96-97
37
. वही, पृ. 101
38
. वही, पृ. 96.

की जी नी ग्रे जी ऑ से कि
39
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद ऑनलाइन एक्सेस किया गया
http://savarkar.org/en/pdfs/babaro-savarkar-v003, पृष्ठ 47.
40
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 103.
41
. धनंजय कीर. वीर सावरकर, पृ. 115.
42
. जेल इतिहास टिकट एक ऐसा दस्तावेज था, जो किसी कै दी को दी गई सजा की सूची बनाकर रखता था. इसमें
किसी को सौंपा गया नियमित कार्य शामिल नहीं था, जैसे तेल मिल पर काम करना या ओकम चुनना. और भी दी गई
सजाओं को बहुत कम आंका गया और रिपोर्ट किया गया, ताकि यह यह पकड़ में न आ जाए और सरकार का ध्यान न
जाए.
43
.‘जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ वी.डी सावरकर’ [1911-1921], भारत सरकार,गृह विभाग (विशेष), 60(डी)-एफ/1921,
महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई. विनायक के जेल हिस्ट्री टिकट में एक याचिका का उल्लेख किया गया है, जो
उन्होंने 29 अक्टूबर 1912 को दी थी: ‘याचिकाकर्ता [अनुरोधित] ने सेलुलर से रिहा करने का अनुरोध किया गया
क्योंकि वह सोलह महीने जेल में रहा है और उसका आचरण बेहतर रहा है.’ उन्होंने सेलुलर जेल से पीनल कॉलोनी में
रिहा होने की मांग की जहां ‘साधारण’ कै दी बेहतर परिस्थितियों में रहते थे. 29 अक्टूबर की उस याचिका को 4 नवंबर
1912 को खारिज कर दिया गया था.
44
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉ लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पृ. 133.
45
. वही. पृ 148.
46
. वही. पृ 106.
47
. वही. पृ 114-15
48
.‘जेल टिकट’ में उल्लेख है कि उन्हें यह जानकारी 18 दिसम्बर 1912 को दी गई थी
49
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान, पूना: वीनस बुक स्टॉल, 1947, पृ. 13.
50
. वही, पृ 14-15
51
. वही, पृ 15.
52
. वी.डी. सावरकर, माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. १५२.
53
. वही, पृ 152-53
54
. ईपीपी 2/11, बंदे मातरम, जुलाई 1912, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
55
. आर.सी. मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स, पृ. 172
56
. वही
57
. वही, पृ 173.
58
. वही, पृ 175.
59
. वही
60
. महरत्ता, 28 जुलाई 1912, सावरकर स्मारक, मुंबई के सौजन्य से.
61
. डी.ओ. संख्या 18, 30 मई 1912, होम. पोल. डिपार्ट. कॉन्स. 1912, नंबर 1. में उद्धृत आर.सी. मजूमदार. पीनल
सैटलमेंट इन द अंडमान्स पृ. 181-82.
62
. चिकित्सा अधीक्षक, जिला जेल, पोर्ट ब्लेयर, एफ.ए. बेकर का पत्र, गृह विभाग के उप सचिव, एम.एस.डी. बटलर;
आर.सी. मजूमदार में उद्धृत. पीनल सेटलमेंट इन अंडमान्स. पृ. 182-83
63
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 155.
64
. वही. पृ. 156
65
. वही. पृ. 157.
66
. वही. पृ. 159
67
. वही

जे हि ट्री टि ऑ वी डी से वि वि वि शे
68
.‘जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ वी.डी. सावरकर’ [1911-1921] से विवरण, भारत सरकार का, गृह विभाग (विशेष),
60(डी)-एफ/1921, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
69
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 170. 70. वही. पृ. 171

अध्याय 9: जेल वृतांत


1
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 174.
2
. वही.
3
. वी.डी. सावरकर की याचिका (दोषी संख्या 32778) भारत सरकार के गृह विभाग को, 14 नवंबर 1913. भारत
सरकार, गृह विभाग (पॉलिटिकल ए), फरवरी 1915, #68–160, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली
4
. समवन ट्रांसपोर्टेड फॉर लाइफ
5
. छु ट्टी का टिकट सेटलमेंट में सीमित आजादी देता था, जहां दोषियों को अधिकारी छह महीने का भत्ता देते थे ताकि
खुद आत्मनिर्भर बन सकें . यह आशा की जाती थी कि सेल्फ सपोर्ट्स खुद को नौकरीशुदा स्वतंत्र वासी के तौर पर पेश
करें. समय के साथ, सेल्फ सपोर्टरों को अंडमान में मुक्त रूप से रहने का क्षमादान दे दिया जाता था.
6
. भारत सरकार के गृह विभाग को नंद गोपाल (कै दी संख्या 32240) की याचिका, 15 नवंबर 1913, आर.सी.
मजूमदार पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स, पृ. 209 में उद्धृत.
7
. भारत सरकार के गृह विभाग को वी.डी. सावरकर (दोषी संख्या 32778) की याचिका, 14 नवंबर 1913,
(पॉलिटिकल ए, फरवरी 1915, #68–160, भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार. नई दिल्ली
8
. ए.जी. नूरानी, सावरकर ऐंड हिंदुत्वः द गोडसे कनेक्शन पृ. 51–55; धनंजय कीर. वीर सावरकर पृ. 150–53.
9
. गृह विभाग, पॉल. ए. फरवरी 1915, संख्या. 68–160, आर.सी. मजूमदार के पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स, पृ.
202–03 मे उद्धृत.
10
. वही, पृ. 204–05, 221–22.
11
.‘जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ वी.डी. सावरकर’ [1911–1921], भारत सरकार, गृह विभाग
(विशेष), 60(D)-F/1921, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
12
. IOR/L/PJ/1314. फाइल संख्या 2286, 12 जून 1914–24 सितंबर 1914, ‘ वी.डी. सावरकर पर रिपोर्ट, भारत में
हथियारों के आयात के लिए कै द; ट्रीटमेंट इन प्रिजन इन द अंडमान्स’; ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
13
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 178.
14
. पहला बोअर युद्ध 1880-1881 और दूसरा बोअर युद्ध 1899-1902.
15
. शशि थरूर. एन एरा ऑफ डार्क नेसः द ब्रिटिश अंपायर इन इंडिया (नई दिल्ली: आलेप बुक कं पनी, 2016), पृ. 87–
88.
16
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड14, पृ. 291–92, https://www.
gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-14.pdf
17
. वेदिका कांत. इंडिया ऐंड द फर्स्ट वर्ल्ड वॉरः ‘इफ आइ डाइ हेयर, हू विल रिमेंबर मी ?’ (नई दिल्लीः रोली बुक्स,
2014).
18
. हिमानी सावरकर. तेजस्वी तारे (मुंबई: सावरकर स्मारक, n.d.)
19
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 230.
20
. वही., पृ. 232.
21
. वही., पृ. 230–31.
22
. अंडमान द्वीप के चीफ कमिश्नर को भेजी गयी वी.डी. सावरकर की याचिका, अक्तू बर 1914, भारत सरकार, गृह
विभाग (पॉलिटिकल ए), भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली. परिशिष्ट III में पूरा पाठ.
23
.‘जेल हिस्ट्री टिकट ऑफ वी.डी. सावरकर’ [1911–1921], भारत सरकार, गृह विभाग (विशेष), 60(D)-F/1921,
महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.

पीटि ऑ वी डी रिं नो
24
.‘पीटिशन ऑफ वी.डी. सावरकर’ का कवरिंग नोट, IOR/L/PJ/6/1525, फाइल संख्या. 806; अक्तू बर 1917–
March 1918, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
25
. राजद्रोह समिति रिपोर्ट, पृ. 119–25. गुप्त रिपोर्ट, जिसे भारत सरकार ने 1918 में प्रकाशित किया
26
. जेम्स कैं पबेल के र. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917 (नई दिल्लीः ओरिएंट लॉन्गमैन, 1973), पृ. 241–
42.
27
. एलन जे. वार्ड. द ईस्टर राइजिंगः रिवॉल्यूशन ऐंज आइरिश नेशनलिज्म (वीलिंग, IL: हार्ले डेविडसन, 1980), पृ. 4,
99–102.
28
. जेम्स कैं पबेल के र. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917, पृ. 246–47.
29
. पीटर हॉपकिर्क . लाइक हिडेन फायरः द प्लॉट टू ब्रिंग डाउन द ब्रिटिश अंपायर (न्यू यॉर्कः कोडान्शा, 1994).
30
. यह जार का संक्षिप्त नोट टेलिग्राम पर सेंट पीटर्सबर्ग में जर्मन राजदूत से मिला, जिसे फ्रित्ज फिशर ने उद्धृत किया
है, Griff nach der Weltmacht: die Kriegszielpolitik des kaiserlichen Deutschland 1914–18 (दसांदोर्फ :
द्रोस्त, 2002) (मूल प्रकाशन 1962), पृ. 110.
31
. जार का बर्नार्ड हेनरिख कार्ल मार्टिन वॉन बुला पर 11 अगस्त, 1908 को टिप्पणी, जो एक जर्मन राजनेता था और
जो तीन साल तक विदेश मंत्री के पद पर रहा था और उसके बाद 1900 से 1909 तक वह जर्मन साम्राज्य का चांसलर
रहा था. यह उद्धरण निरोद बरुआ ने किया है. इंडिया ऐंड द ऑफिशियल जर्मनी, 1886–1914. (फ्रैं कफर्टः पीटर लांग,
1977), पृ. 59.
32
. जेम्स कैं पबेल के र.. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917, पृ. 252.
33
. R21088-2, 114, Nieuws van den Dag की क्लीपिंग, जो नादोल्नी में रिपोर्ट की गई थी, 3 सितंबर 1915,
Politisches Archiv des Auswa r¨tigen Amts, बर्लिन.
34
. 21084-2, 94–5, पापेन टू फॉरेन ऑपिस, 31 मई 1916; Politisches Archiv des Auswa r¨tigen Amts,
बर्लिन.
35
. सचींद्रनाथ सान्याल. बंदी जीवन. पृ. 136–38.
36
.‘सियाल प्रोजेक्ट’ और ‘बटाविया प्लान’ का ब्योरा जो जेम्स कैं पबेल के र. ने लिखा है पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः
1907-1917, pपृ. 259–65.
37
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, pपृ. 246–47.
38
. वही., पृ. 125.
39
. वही., पृ. 181.
40
. वही., pपृ. 198–99.
41
. वही., पृ. 199.
42
. वही., पृ. 199.
43
. वही., पृ. 194.
44
. वही., पृ. 196.
45
. वही., पृ. 198.
46
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar. org/en/pdfs/babarao-savarkar-
v003.pdf, पृ. 53–54.
47
. जे.ई. लेवेलिन. द आर्य समाज ऐज अ फं डामेंटलिस्ट मूवमेंटः अ स्टडी इन कॉम्प्रेटिव फं डामेंटलिज्म (नई दिल्लीः
मनोहर, 1993), पृ. 99; यह भी देखें, के नेथ डब्ल्यू जोन्स ‘द आर्य समाज इन ब्रिटिश इंडिया, 1875-1947’, रिलीजन
इन मॉडर्न इंडिया. रॉबर्ट बेयर्ड (सं.) (नई दिल्लीः मनोहर, 1976).
48
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 218–19.
49
. वही., पृ. 317–18.
50
. वही. पृ. 283–85.
51
. जेम्स कैं पबेल के र.. पॉलिटिकल ट्रबल इन इंडियाः 1907-1917, पृ. 372.

वी डी पो र्टे फॉ
52
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 252.
53
. वही., पृ. 210.
54
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 55.
55
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 270.
56
. ओरल आर्काइव्स-पृथ्वी सिंह आजाद के साक्षात्कार का लिप्यांतरण, नेहरू मेमोरियल म्युजियम ऐंड लाइब्रेरी
(एनएमएमएल), नई दिल्ली
57
. वी.डी. सावरकर की याचिका, IOR/L/PJ/6/1525, फाइल संख्या 806; अक्तू बर 1917–मार्च 1918, ब्रिटिश
लाइब्रेरी, लंदन. अनुलग्नक III में पूरा पाठ.
58
. वही.
59
. जॉन जॉर्ज लंबटन, डरहम का पहला अर्ल
60
. वही.
61
. विलियम मैकनील डिक्सन. समरी ऑफ कॉन्स्टिट्यूशनल रिफॉर्म्स फॉर इंडियाः बीइंग प्रोपोजल्स ऑफ गृह सचिव
मोंटागु एंड वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड. (न्यू यॉर्क : जी.जी. वुडवार्क , एन.डी.), पृ. 24.
62
. शेन रोलां. ‘एडविन मोंटागू इन इंडियाः पॉलिटिक्स ऑफ द मोंटागू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट’. साउथ एशियाः जर्नल ऑफ
साउथ एशियन स्टडीज, (2011), पृ. 79–92.
63
. फिलिप वुड्स. ‘द मोंटागू-चेम्सफोर्ड रिफॉर्म्स (1919): ए रि-असेसमेंट’. साउथ एशियाः जर्नल ऑफ साउथ एशियन
स्टडीज, पृ. 25–42.
64
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी. खंड 19, https://www. gandhiashramsevagram.org/gandhi-
literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-19.pdf, पृ. 197–98.
65
. इंडियन एनुअल रजिस्टर, 1920, भाग I, पृ. 379–84. (भारत सरकार द्वारा प्रकाशित.)
66
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी. खंड 19, https://www. gandhiashramsevagram.org/gandhi-
literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-19.pdf, पृ. 197–98.
67
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 56.
68
. वही. पृ. 70.
69
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 288–89.
70
. हिंदू परंपरा में स्त्री अपना नाम त्याग देती है और वह नाम अपना लेती है जो उसके पति के घरवाले उसे देते हैं.
71
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-v003.pdf,
पृ. 37–38.
72
. उनके जन्मदिन का संदर्भ उत्तरा सहस्रबुद्धे. भारतीय स्वातंत्र्यालाध्यातिल स्त्रियां. उनके निधन की एक अन्य तारीख
कु छ अन्य़ लेखकों ने 20 अप्रैल 1919 बताई है.
73
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 63.
74
. IOR/L/PJ/6/1594, फाइल संख्या. 3132; फरवरी 1919–अगस्त 1920, द रॉलेट बिल्स ऐंड डिस्टर्बेसेंज इन
इंडियाः हाउस ऑफ कॉमन्स क्वेश्चन्स ऐंड रिप्लाईज, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन.
75
. आर.सी. मजूमदार. हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड3 (कलकत्ता: फिर्मा के .एल. मुखोपाध्याय, 1962),
पृ. 15.
76
. वही., पृ. 41–42.
77
. नाइजल कोलेट. द बूचर ऑफ अमृतसरः जनरल रेगिनाल्ड डायर (लंदन: हैंब्लेडन, 2005),

पृ. 323.
78
. कं प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी. खंड 18, पृ. 219–22, https://www.
gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-18.pdf
79
. वी.डी. सावरकर. माइ ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My- Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf, पृ. 300.
ती जे मि टी रि पो र्ट
80
. भारतीय जेल कमिटी रिपोर्ट, पृ. 145–52. भारत सरकार प्रकाशन, 1919-1920.
81
. वही. पृ. 276.
82
.‘रॉयल प्रोक्लेमेंशन’ जो ‘रिजॉल्यूशन रेकोमेंडिग रॉयल एमनेस्टी टू द पॉलिटिकल प्रिजनर्स, द सावरकर ब्रदर्स, बांबे’,
पार्लियामेंट्री क्वेश्चन्स, IOR/L/PJ/6/1677, फाइल संख्या 3153, मई 1920–जून 1921, ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
83
. 60D(b)/1919: ‘पॉलिटिकल प्रिजनर्सः प्रोपोज्ड रिलीज ऑफ गणेश सावरकर ऐंज विनायक सावरकर इन व्यू
ऑफ रॉयल एमनेस्टी,’ पृ. 63–73, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
84
. अनुलग्नक III देखें.
85
. चीफ कमिश्नर, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह द्वारा लिखा गया पत्र, भारत सरकार, गृह विभाग, 20 मई 1919,
फाइल 60D(a)/1919: पॉलिटिकल प्रिजनर्स, 7, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई. इस पत्र से यह स्पष्ट नहीं है कि
गुप्त सामान क्या थे.
86
. बाम्बे सरकार, गृह विभाग, F. #60D(a)/1919, 7, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
87
. भारत सरकार की टिप्पणियां, न्यायिक विभाग, 29 मई 1919, अनु. 2, 60D(a)/1919, 17, महाराष्ट्र राज्य
अभिलेखागार, मुंबई.
88
. डुबोल भारत सरकार के पत्र #1555C, 28 फरवरी 1919 के अनुच्छेद 4 के उपबंध (iii) को उद्धृत कर रहे थेः
‘ब्रिटिश भारत में दोषी करार दिए गए लोगों के संदर्भ में, और जिनको इंडियन पीनल कोड के अध्याय VI के तहत
सजा दी गई हो, जो राज्य के खिलाफ अपराध हो या अपराधों में आता हो या जो विशेष कानूनों के तहत दोष हो,
उदाहरण के लिए न्यूजपेपर्स (अपराधों के लिए उकसाना) अधिनियम या ऐसे कानूनी प्रावधानों के तहत जिसमें
सरकार के किसी अंग को अभियोजन की जरूरत हो, इसमें निम्नलिखित सिद्धांतो को पर्याप्त मानने का सुझाव दिया
जा रहा हैः[. . .] (iii) जिन लोगों को हत्या या हत्या के प्रयास या हत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया गया है, उन्हें
एक आजीवन कारावास से अधिक की सजा दी गई है.’
89
. टेलिग्राम #4438 मॉरीसन से, बॉम्बे सरकार से पोर्ट ब्लेयर के सुपरिटेंडेंट को (मई 1919).
90
. मॉरीसन, आंतरिक टिप्पणी, बॉम्बे सरकार, 30 मई 1919, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
91
. मोंटगुमरी का गोपनीय पत्र, बॉम्बे सरकार, न्यायिक विभाग, बॉम्बे, 19 जून 1920 से एच. मैकफर्सन, भारत सरकार
के सचिव. गृह विभाग, F# 60 D(b)/1919, 85 में. गृह विभाग की अनुशंसाएं टेलिग्राम #1439 में की गईं, भारत
सरकार, 8 दिसंबर 1919. महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
92
. भारत सरकार का पत्र, गृह (राज.) से जे. क्रे रर, सचिव का बॉम्बे सरकार को. दिल्ली, 24 फरवरी 1920, F#
60D(b)/1919: ‘पॉलिटिकल प्रिजनर्सः प्रोपोज्ड रिलीज ऑफ गणेश सावरकर ऐंड विनायक सावरकर इन व्यू ऑफ
रायल एमनेस्टी अनाउंन्स्ड इन डिसेंबर 1919’, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई.
93
. डेमी-ऑफिशियल नंबर 1193, 20 मई 1920, एच. मैकफर्सन, सचिव, भारत सरकार, गृह विभाग (राज.), शिमला
से जे. क्रे रार, सचिव, बॉम्बे सरकार, पॉलिटिकल डिपार्टमेंट, बॉम्बे 59-61, F# 60D(b)/1919, महाराष्ट्र राज्य
अभिलेखागार, मुंबई.
94
. सचींद्रनाथ सान्याल, बंदी जीवन, पृ. 226.
95
. वी.डी. सावरकर. एन इको फ्रॉम अंडमान्स, पृ. 65.

अध्याय 10: राजनीतिक रस्साकस्सी


1
. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 19, https://www.gandhiashra

msevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-colle

ctedworks-volume-19.pdf पेज. 348


2
. वही संदर्भ। वह शुरुआती पत्र जिसका गांधी जिक्र कर रहे थे, वह कलेक्टेड वर्क ऑफ महात्मा गांधी में नहीं मिलता।
3
. मोहनदास करमचंद गांधी, यंग इंडिया: 1919-1922, बीआर प्रसाद(संपादित), दूसरा संस्करण(मद्रास: एस गणेशण,
1924) पेज-94-98
4
. सी ई ग्वाइने से टेलीग्राम #2845 जो भारत सरकार में डिपुटी सेकरेटरी थे, होम डिपार्टमेंट(शिमला), 12 जुलाई
1920. ये पत्र अंडमान-निकोबार के चीफ कमिश्नर भेजा गया था, 60(डी) बी/1919, 93 नेशनल आरकाइव्स ऑफ
इंडिया, नई दिल्ली
5
. वीडी सावरकर, एन इको फ्राम अंडमान, पेज 69
वी डी ई पो र्टे फॉ
6
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/My

Transportation-for-Life-Veer-Savarkar.pdf पेज 353.


7
. क्वेश्चन रिगार्डिंग सावरकर ब्रदर्स इन एसेंबली—होम डिपार्टमेंट, 403-407 एंड के . डब्ल्यू. 1921 पार्ट ए, नेशनल
आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
8
.‘रिलीज ऑन मेडिकल ग्राउंड ऑफ गणेश सावरकर, सेंटेस्ड इन 1909 टु ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ फॉर सेडिशन’, से
काउंसिल प्रोसीडिंग की डिटेल IOR/L/PJ/6/1819, फाइल नंबर 4701, सितंबर 1922 ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन
9
. सीई ग्वाइने के नोट, डिपुटी सेकरेटरी ऑफ इंडिया, भारत सरकार, गृह विभाग, 10 फरवरी 1921, होम पोलिटिकल,
1921 ए 6ए-83 एंड के डब्ल्यू, पॉलिटिकल प्रिजनर इन अंडमान्स, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
10
. वही संदर्भ
11
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/MyTra

nsportation-for-Life-Veer-Savarkar.pdf पेज 326


12
. रामदुलारे त्रिवेदी, काकोरी के दिलजले(दिल्ली: प्रवीण, 1992) पेज 112
13
. सावरकर स्मारक मुंबई के सौजन्य से और विनायक दामोदार सावरकर के भतीजे के पोते रंजीत सावरकर से लेखक
की बातचीत
14
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ, http://savarkar.org/en/pdfs/MyTransportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 342
15
. वही संदर्भ, पेज 343-44
16
. पट्टाभि सीतारमैया, हिस्ट्री ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस(1885-1947) (नई दिल्ली: एस चांद, 1988), पेज 1189
17
. इंडियन एनुअल रजिस्टर, भारत सरकार प्रकाशन, 1921, भाग 1, पेज 103
18
. बीआर आम्बेडकर, पाकिस्तान ओर द पार्टिशन ऑफ इंडिया(दिल्ली: सम्यक प्रकाशन, 2013), पेज 165-66
19
. वही संदर्भ, पेज 165
20
. बीआर आम्बेडकर, पाकिस्तान ओर द पार्टिशन ऑफ इंडिया(दिल्ली: सम्यक प्रकाशन, 2013), पेज 167
21
. इंडियन एनुअल रजिस्टर, भारत सरकार प्रकाशन, 1921, भाग 1, पेज 206
22
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड-III(कलकत्ता: फर्मा के एल मुखोपाध्याय, 1962),
पेज 122
23
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड-III(कलकत्ता: फर्मा के एल मुखोपाध्याय, 1962),
पेज 58
24
. वही संदर्भ
25
. बिपिन चंद्र पाल, नेशनलिटी एंड एम्पायर: ए रनिंग स्टडी ऑफ सम करेंट इंडियन प्रोब्लेम(कलकत्ता: थाकर एंड
स्पिंक, 1916), पेज 372-73, 390
26
. एनी वुड बेसेंट, द फ्यूचर ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स: ए कं ट्रीब्यूशन टु द अंडरस्टैंडिंग ऑफ प्रजेंड डे प्रॉब्लेम्स(मद्रास:
थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस, 1922) पेज 250
27
. बीआर नंदा, द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ लाला लाजपत राय, खंड-2(नई दिल्ली: मनोहर पब्लिके शन्स, 2008) पेज
144
28
. वही। पेज 165
29
. यंग इंडिया, 10 दिसंबर 1919
30
. सचिन सेन, द बर्थ ऑफ पाकिस्तान(कलकत्ता: जेनलर प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, 1955) पेज 73
31
. वही संदर्भ
32
. फिरंगी महल लखनऊ के एक मुस्लिम विद्वान और खिलाफत मूवमेंट एक सक्रिय सदस्य
33
. कम्पलीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-XVII, 21 जुलाई 1920 ,
https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi collectedworks-
volume-17.pdf; यंग इंडिया, पेज 76-77
34
. शरदिंदु मुखर्जी, खिलाफत मूवमेंट इंडिया, 19191924(नई दिल्ली: इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन, 2015), पेज 12
35
. होम पॉलिटिकल, जून 1920, 196-197, पार्ट बी, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली

हो पॉलि टि सी क्रे ने ऑ डि ई दि ली ये भी दे खें दिं


36
. होम पॉलिटिकल, जून 1920, सीक्रे ट नंबर 112, नेशनल आरकाइव्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली, ये भी देखें- शरदिंदु
मुखर्जी की ’खिलाफत मूवमेंट इन इंडिया, 1919-1924, पेज 10
37
. स्टीफे न हे, सोर्सेज ऑफ इंडियन ट्रेडिशन(कोलंबिया: कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 1958), पेज 777
38
. यह खिलाफत नेताओं के साथ एक अनौपचारिक बैठक थी जो 1-2 जून 1920 को इलाहाबाद में बुलाई गई थी। यह
तब हुआ था जब गांधी कांग्रेस कमेटी को इस बात पर राजी करने में नाकाम रहे थे कि खिलाफत वालों के साथ एक
असहयोग गठबंधन किया जाए। गांधी और खिलाफत वालों के साथ मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, सी
राजगोपालाचारी, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल और अन्य नेता थे।
39
. जवाहर लाल नेहरू, नेहरू ऑन गांधी: सलेक्शन्स फ्रॉम राइटिंग्स एंड स्पीचेज(न्यूयॉर्क : द जॉन डे कं पनी, 1948),
पेज 52-53
40
. स्वामी श्रद्धानंद, इनसाइड कांग्रेस(बंबई, फीनिक्स पब्लिके शन्स, 1946) पेज 122
41
. वही संदर्भ
42
. सी संकरन नायर, गांधी एंड एनार्की (मद्रास: टैगोर प्रेस, 1923), पेज 38; इंडियन एनुअल रजिस्टर, भारत सरकार
प्रकाशन, 1922-23, खंड-2, पेज 43
43
. यंग इंडिया, 8 सितंबर
44
. वही
45
. कम्प्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-XVIII, https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-
literature/mahatma-gandhi-collectedworks-volume-18.pdf पेज 80-81
46
. वही, खंड-XIX, पेज 254
47
. यंग इंडिया, 4 मई 1921
48
. सरदिंदु मुखर्जी, खिलाफत मूवमेंट इंडिया, 1919-1924, पेज 10
49
. यंग इंडिया, 4 मई 1921
50
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्राडं मूवमेंट इन इंडिया, खड-3, पेज 105-06
51
. इंडियन एनुअल रजिस्टर, 1924, II, पेज 205, भारत सरकार प्रकाशन
52
. रिपोर्ट ऑफ द सिविल डिसओबेडिएंस इंक्वायरी कमेटी, जिसे कांग्रेस ने 1922 में स्थापित और प्रकाशित किया था।
पेज 70
53
. स्वामी श्रद्धानंद, इंडियन कांग्रेस , पेज 126
54
. सैंडर्सन बेक, वर्ल्ड पीस एफर्ट्स सिंस गांधी(सांता बारबरा, सी: वर्ल्ड पीस कम्यूनिके शन्स) 2006
55
. सुभाष चंद्र बोस, द इंडियन स्ट्रगल: 1920-42,खंड-2(क्रिएट स्पेश इंडेपेंडेट पब्लिशिंग प्लेटफॉर्म 2017) पेज -99-
101
56. वही संदर्भ
57
. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-V https://www.gandhiashramsevagram.org/gandhi-
literature/mahatma-gandhi-collected-works-volume-22.pdf पेज 22, 377.
58
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/MyTransportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 350.
59
. सुभाष चंद्र बोस, द इंडिया स्ट्रगल: 1920-42, खंड-II, पेज 108
60
. जवाहरलाल नेहरू, नेहरू ऑन गांधी: सलेक्शन फ्रॉम राइटिंग्स एंड स्पीचेज, पेज 38-39
61
. आरजी प्रधान, इंडियाज स्ट्रगल फॉर स्वराज(मद्रास: जीए नतेसन एंड कं पनी, 1930)

पेज 196
62
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/MyTransportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 356.
63
. वहीं
64
. वहीं, पेज 362
65
. वहीं पेज 363
66
. होम डिपार्टमेंट, पोलिटिकल, फाइल नंबर 354, 1921, ‘लेटर रिगार्डिंग रिलीज ऑफ सावरकर ब्रदर्स’, नेशनल
आरकाइव ऑफ इंडिया, नई दिल्ली
हीं
67
. वहीं
68
. F.# 60D(d)/21–23, महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई। देखें पूरा टेक्स्ट एपेंडिक्स III में
69
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/MyTransportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 318.
70
. F. #60D(d)/21–23, 89-93 और F #60D(d)/21–23, 95–99, महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई, पूरा टेक्स्ट देखें
एपेंडिक्स III में
71
. 23 नवंबर 1921 को रत्नगिरि के जिला जेल अधीक्षक डीडी कामत को बंबई सरकार के सचिव, गृह, जी वाइल्स का
पत्र। F# 60-D(d)/1921–23: ‘कं विक्ट्स, पोर्ट ब्लेयर: रिमीशन ऑफ सेंटेंस टु कं विक्ट्स ट्रांसफर्ड फ्रॉम अंडमान:
सावरकर, वीडी एंड सावरकर जीडी’
72
. बाबाराव सावरकर की जीवनी का इंग्लिश अनुवाद http://savarkar.org/en/pdfs/babarao-savarkar-v003.pdf
पेज 60.
73
. वहीं, पेज 73

अध्याय 11: हिंदू कौन है?


1
. अमृत बाजार पत्रिका, 12 अगस्त 1869, जेसी बागल की भारतबरसेर स्वाधिनाता (एनपी एनडी) पेज 177 पर
उद्धृत। आरसी मजूमदार भी देखें- हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 443-45
2
. अमृत बाजार पत्रिका, 12 अगस्त 1869, जेसी बागल की भारतबरसेर स्वाधिनाता (एनपी एनडी) पेज 177 पर
उद्धृत।
3
. सैयद अहमद खान, आखिरी मदामिन(उर्दू), पेज 46-50, स्टीफे न हे द्वारा अंग्रेजी में अनुदित। सोर्श ऑफ इंडियन
ट्रेडिशन, पेज 746-47
4
. सैयद अहमद खान, सर सैयद अहमद ऑन द प्रजेंट स्टेट ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स: कं स्टिस्टिंग ऑफ स्पीचेज एंड
लेटर्स(इलाहाबाद: द पॉयनियर प्रेस, 1888) पेज 37
5
. एसएम इकराम, इंडियन मुस्लिम एंड पार्टीशन ऑफ इंडिया(अटलांटिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 1995) पेज 44-
45
6
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिय, पेज 431
7
. लाल बहादुर, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री, एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 4
8
. वही, पेज 66
9
. राजेंद्र प्रसाद, इंडिया डिवाइडेड(नई दिल्ली: पेंगुइन 2017) पेज 112-13
10
. जेम्स रेम्जे मैकडोनाल्ड, द अवेकनिंग ऑफ इंडिया(लंदन: होडडर एंड स्टॉगटन, 1910)

पेज 176
11
. लाल बहादुर, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री, एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 43
12
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिय, पेज 223
13
. अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गजट, 14 अगस्त 1907, पेज 7-8, बहादुर लाल में उद्धृत, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री,
एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 43
14
. सर परसिवल ग्रिफिथ्स, द ब्रिटिश इम्पैक्ट ऑन इंडिया( लंदन: मैकडोनाल्ड, 1952) , पेज 309-10
15
. बहादुर लाल, द मुस्लिम लीग: इट्स हिस्ट्री, एक्टिविटीज एंड एचीवमेंट्स(लाहौर बुक ट्रेडर्स, 1979) पेज 66
16
. लोवेट फ्रे जर, इंडिया अंडर कर्जन एंड आफ्टर(लंदन: एच होल्ट, 1911) पेज 391-92
17
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 211
18
. गोपाल कृ ष्ण गोखले, स्पीचेज ऑफ गोपाल कृ ष्ण गोखले, जीए नतेसन(संपादित)(मद्रास: जीए नतेसन, 1920),
पेज 209, 1137
19
. वही, पेज 1136
20
. मेंचेस्टर गार्डियन, 1 सितंबर 1921-12 दिसंबर 1921
21
. सी संकरन नायर, गांधी एंड एनार्की (मद्रास: टैगोर प्रेस, 1923), एपेंडिक्स V
22
. वही, पेज 40
23
. आरसी मजूमदार, हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 195
24
. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड-22, https://www.gandhiashr

amsevagram.org/gandhi-literature/mahatma-gandhi-collec

tedworks-volume-22.pdf पेज 269.


25
. सरदिंदु मुखर्जी, खिलाफत मूवमेंट इन इंडिया, 1919-1924, पेज 18
26
. बीआर आम्बेडकर, पाकिस्तान ओर पार्टीशन ऑफ इंडिया, पेज 177-78
27
. वही, पेज 178-79
28
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, पेज 600-15
29
. विनायक्स क्लेम ऑन मोहम्मद अली: वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, पेज 607
30
. ज्ञानेंद्र पांडेय, रूटीन वायोलेंस: नेशन, फ्रै गमेंट्स, हिस्ट्री(कै लिफोर्निया: स्टैफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 2006) पेज 108
31
. जानकी बाखले, ‘कं ट्री फर्स्ट? विनायक दामोदर सावरकर(1883-1966) एंड द राइटिंग ऑफ इसेंसियल्ल ऑफ
हिंदुत्व’ पब्लिक कल्चर, 22.1(2010), पेज 149-86
32
. वही, पेज 151
33
. वही, पेज 157
34
. अमिय सेन, हिंदू रिवावलिज्म इन बेंगाल, 1872-1905(दिल्ली: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1993), पेज 210
35
. वीडी सावरकर, हिंदुत्व(मुंबई: स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक, 1999) पेज 2-3
36
. वही, पेज 8
37
. एंथनी परेल(संपादित), हिंद स्वराज (कै म्ब्रिज: कै म्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1997) पेज 48-49
38
. वीडी सावरकर, हिंदुत्व, पेज 11-12
39
. वही, पेज 13
40
. वही, पेज 56
41
. वही पेज 28
42
. वही
43
. वही, पेज 51
44
. वही, पेज 55-56
45
. वही, पेज 58
46
. वही, पेज 60
47
. वही, पेज 26
48
. वही, पेज 52
49
. ये सोचना ठीक नहीं होगा कि सावरकर ने राष्ट्र की कल्पना एक आक्रामक और पौरुषपूर्ण ‘पृतृभू’ के तौर पर की थी
जैसा कि उनकी तुलना यूरोप के फासीवादी आन्दोलनों से करने के लिए की जाती है। उनके लिए बचपन से ही राष्ट्र का
अर्थ देवी या मां या किसी दैवीय शक्ति की के रूप में था। यहां पितृभूमि का अर्थ है पितरों या पूर्वजों की भूमि जिनके
प्रति हिंदू समाज के लोग हर साल पितृपक्ष में अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं और पूजा-उपासन करते हैं।
50
. वीडी सावरकर, हिंदुत्व, पेज 71
51
. वही, पेज 71-72
52
. वही, पेज 81
53
. मार्ले-मिटों रिफॉर्म और मुस्लिम लीग के जन्म के बाद जो मुस्लिम गोलबंदी हुई, तो ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुओं के
प्रतिनिधित्व के लिए एक संस्था की जरूरत आ पड़ी। ऐसा आखिरकार 1915 में हुआ, इसका नाम सार्वदेशिक हिंदू
सभा(बाद में अखिल भारत हिंदू महासभा, 1920 में) रखा गया। इसकी बैठक बाद में कुं भ मेला के दौरान हुई जिसकी
अध्यक्षता कासिम बाजार के मनिंद्रचंद्र नंदी ने की। उस सभा में कई अहम व्यक्तियों ने शिरकत की जिसमें मदन मोहन
मालवीय, स्वामी श्रद्धानंद और तेज बहादुर सप्रू जैसे लोग शामिल थे। इस संगठन के उद्देश्य थे: 1. हिंदू समाज के
सभी वर्गों के प्रति एकता की भावना का संचार करना और उन्हें हर संभव एक इकाई के तौर पर संगठित करना। 2.
हिंदू समुदाय के हर वर्ग में शिक्षा का प्रसार करना 3. हिंदू समाज के हर वर्ग की स्थिति को सुधारना और मजबूत करना
4 जहाँ कहीं भी संभव हो हिंदू हितों को बढ़ावा देना और संरक्षित करना। 5. हिंदुओं और अन्य समुदायों के बीच में

सौ को दे औ के दो के यो की
सौजन्यता को बढ़ावा देना और उनके साथ दोस्ताना भाव रखना व सरकार के साथ सहयोक की भावना रखना. 6.
आमतौर पर समुदाय की धार्मि, नौतिक, समाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक समुदाय की रक्षा करना।
54
. एमजे अकबर, इंडिया: द सीज विदिन: चैलेंजेज टु ए नेशन्स यूनिटी(नई दिल्ली: रोली बुक्स, 2017) पेज 306
55
. जानकी बाखले, ‘कं ट्री फर्स्ट? विनायक दामोदर सावरकर(1883-1966) एंड राइटिंग ऑफ इसेंशियल्स ऑफ
हिंदुत्व’ पब्लिक लेक्चर, 22.1 (2010): पेज 149-86, रेखांकित किया जाना लेखक द्वारा।

अध्याय 12: वैचारिक विवेचन


1
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-7, पेज 76-84(लेखक का अनुवाद)
2
. वही, पेज 33-36
3
. वही, पेज 433-45
4
. पत्रिका मनोहर में मई 1934 अंक में मराठी लेख, सावरकर स्मारक मुंबई से लिया गया, मूल अनुवाद निरंजन
राज्यध्यक्ष का. मिंट में 20 मार्च 2016 को प्रकाशित
5
. वीडी सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-3, पेज 496-517(लेखक का अनुवाद)
6
. एक मराठी पत्रकार को दिए इस अनाम तिथि के साक्षात्कार में विनायक ने आधुनिक सिनेमा के गुणों की चर्चा की। ये
उनकी किताब विविध लेखा में प्रकाशित है। मूल मराठी से निरंजन राज्यध्यक्ष का अनुवाद जो 20 मार्च 2016 के मिंट
में प्रकाशित हुआ।
7
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf पेज 374–75.
8
. वही, पेज 368
9
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-
Veer-Savarkar.pdf में विनायक का अपना फर्स्ट हैंड विवरण, पेज 369
10
. माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transpo

rtation-for-Life-Veer-Savarkar.pdf
11
. वही, पेज 378
12
. F# 143-K (d)/1928: द इंडियन स्टेबिलिटी कमीशन, 1923: मूवमेंट्स ऑफ ए सबवर्सिव कै रेक्टर: 1) कम्यूनिज्म,
2) प्रेस एंड प्लेटफॉर्म(रिवोल्यूशनरी)’ महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई
13
. ए मोंटेगमेरी, सेकरेटरी टु द गवर्नमेंट ऑफ बंबई, होम डिपार्टमेंट, रिजोल्यूशन #724, बंबई कै सल, 4 जनवरी 1924,
F# 60-D (e)/l923-24,होम स्पेशल: ‘कं विक्ट(लाइफ: रिलीज ऑफ विनायक दामोदर सावरकर’ महाराष्ट्र स्टेट
आरकाइव्स, मुंबई
14
. 60-D (e)/1923-24, होम स्पेशल, महाराष्ट्र स्टेट आरकाइव्स, मुंबई
15
. वही
16
. वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ वीडी सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ
http://savarkar.org/en/pdfs/My-Transportation-for-Life-Veer-Savarkar.pdf पेज 382
17
. वही, पेज 383

परिशिष्ट IV
1. विनायक सावरकर का एक लेख जो ब्रलिन स छपने वाली द तलवार पत्रिका के अप्रैल-मई 1910 अंक में खंड 1 में
प्रकाशित हुआ। EPP 2/22, इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन
2. शायद इसका अर्थ है देशभक्त गोखले। यह गोपालकृ ष्ण गोखले के संदर्भ में है।
आभार
यह पुस्तक वर्षों की कड़ी मेहनत का परिणाम है जिस अरसे के दौरान अनेक दस्तावेजों के
समुद्र में डूबना-उतरना पड़ा। इस लंबी यात्रा के दौरान कई लोगों ने अपना सहयोग दिया
और उन सब के प्रति मैं हार्दिक धन्यवाद प्रेषित करता हूं।
मुंबई स्थित स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के अध्यक्ष श्री रंजीत विक्रम सावरकर
के प्रति मेरा हार्दिक आभार। विनायक दामोदर सावरकर के पोते(ग्रैंड नेफ्यू) के तौर पर
एक भव्य धरोहर को आगे ले जाने की जिम्मेदारी उनके कं धों पर है और वह, स्मारक और
उसके शिष्ट सदस्य पूरी तन्मयता के साथ यह कार्य कर रहे हैं। श्री सावरकर के साथ,
स्वादिष्ट महाराष्ट्रियन व्यंजनों का स्वाद लेने के दौरान मैंने पुस्तक के प्रमुख पात्र से जुड़ी
कई वार्ताओं का आनंद लिया। स्मारक द्वारा संजोयी गई अनेक दुर्लभ सूचनाओं और अपने
पूर्वजों की तरह तार्किक सोच-समझ के मालिक, श्री सावरकर का उत्साह सहज ही उनकी
ओर आकर्षित करता है। मौन भाव से कर्मठता से काम कर रही उनकी टीम के सदस्य,
विषेषकर श्री धनंजय बालकृ ष्ण शिंदे को मेरा विषेष तौर पर धन्यवाद जिन्होंने बहुत कम
समय में मुझे दस्तावेज उपलब्ध कराये।
इस शोध कार्य को आगे बढ़ाने के लिए मुझे 2018-20 तक सीनियर रिसर्च फै लोशिप
प्रदान करने के लिए मैं नई दिल्ली स्थित नेहरू मेमोरियल संग्रहालय एवं पुस्तकालय
(एनएमएमएल) के प्रति भी गहरा आभार और सम्मान व्यक्त करता हूँ। इस कार्य के दौरान
एनएमएमएल के निदेशक श्री शक्ति सिन्हा की मौजूदगी प्रेरणादायक और वैचारिक तौर पर
सशक्त रही।
भारत के नवीन सांस्मृतिक एवं एतिहासिक विवरण के क्षेत्र में द इंडिक अकादमी और श्री
हरिकृ ष्ण वदलामानी नवयुगीन और पुनरुत्थानात्मक कार्य को अंजाम दे रहे हैं। मुझमें
भरोसा रखने और यूनाइटेड किंगडम में मेरे शोध को वित्तीय सहयोग देने के लिए मैं उनके
प्रति मैं बेहद शुक्रगुजार हूं।
यदि मुंबई के डॉ सुबोध नायक के अथक प्रयासों का सहयोग ना होता तो विभिन्न दुर्लभ
स्रोतों से प्राप्त जानकारी को एक चतुर जासूस की तरह पुस्तक के कथानक में पिरोकर
उसका अलंकरण संभव नहीं होता। सावरकर के अनन्य प्रशंसक डॉ नायक का मानना था
कि सावरकर की कहानी जरूर और पूरी रोचकता के साथ लिखी जानी चाहिए। उनकी
इस दलील ने कई बार मुझे आत्मसंदेह में भी डाल दिया था। अपने नायक के बारे में हर
बार नम आंखों से बात करते उन्हें देखना बेहद मार्मिक दृश्य होता था।
मेरे मित्र अकिल बख्शी ने कई बार बारीकी से पुस्तक की पांडुलिपियों को पढ़ा और ऐसी
कई कमियां सामने रखीं जो इस तरह की व्यापक रचना के दौरान अक्सर सामने आ जाती
हैं। यों भी, गहरे सावरकर विरोधी होने के कारण उनके विचार बेहद जरूरी थे, क्योंकि मैं
जानता था कि पुस्तक का सावरकर विरोधियों और उनके अनन्य प्रशंसकों द्वारा गहन
विश्लषण किया जाएगा। मैं उम्मीद करता हूं कि पुस्तक के मसौदों को कई बार पढ़ने के
बाद, आंशिक तौर पर ही सही, अकिल के विचारों में कु छ परिवर्तन आया होगा।
मैं अपने मित्र कणाद मांडके और उनके कज़िन विष्णु मधुसूदन का भी आभारी हूं
जिन्होंने पुस्तक के अनेक अध्याय पढ़े और अपने दुर्लभ विचारों से अवगत कराया; श्रीमती
शेफाली वैद्या का भी आभार जिन्होंने मराठी के कई दस्तावेजों के अनुवाद में मेरा सहयोग
किया; श्री नितिन आप्टे, श्री आदिनाथ मंगेशकर और श्री फ्रांसिस नीलम को महत्वपूर्ण
सूचनाएं उपलब्ध कराने के लिए आभार, और व्यापक संपर्क उपलब्ध कराने के लिए श्री
संजय आनंदराम एवं श्री अनिरुद्ध जोशी का धन्यवाद; इस यात्रा के दौरान पुस्तक और मेरे
लिए कठिन समय पर सदा उपस्थित रहने वाली मेरी मित्र एवं प्रतिष्ठित लेखिका-स्तंभकार
श्रीमती शोभा डे का भी धन्यवाद।
मैं भाग्यशाली रहा कि अपनी शोध यात्राओं के दौरान प्रत्येक शहर और कस्बे में मुझे
सावरकर के प्रशंसक मिले। उन्होंने अपने पास संरक्षित दस्तावेजों और सूचनाओं का
ख़ज़ाना जिस उदारता के साथ खोला, उसके लिए मैं उनका बेहद आभारी हूं। दशकों से
ब्रिटेन में सावरकर की धरोहर को सहेजने का कार्य वहां बेडफर्ड में रहने वाले डॉ वासुदेव
गोडबोले कर रहे हैं। विदेशी ज़मीन पर महाराष्ट्रियन पोहा और अदरक की चाय के बेहतरीन
भोजन पर उनसे और उनकी स्नेहिल धर्मपत्नी से मिलना सचमुच विशेष अवसर था। मेरे
शोधकार्य में सेल्युलर जेल (पोर्ट ब्लेयर) की डॉ रशीदा इकबाल, लंदन में श्री संके त
कु लकर्णी और श्री राजा पुंडालिक का अमूल्य सहयोग रहा। मैं उनके प्रति बेहद शुक्रगुज़ार
हूं।
वे अनेक संस्थान जहां शोध के दौरान मुझे जाना पड़ा, बहुत उदार और मददगार रहे।
उनको (किसी विशेष क्रम में नहीं) और उनके कर्मचारियों को मेरा हृदय से धन्यवाद: द
नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी, नई दिल्ली; स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक,
मुंबई; भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली; महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार, मुंबई; उप-
महानिरीक्षक कार्यालय, मुंबई; द ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन; बंबई उच्च न्यायालय; द नेशनल
आर्काइव्ज़ ऑफ यूनाइटेड किंगडम, क्यू; बो स्ट्रीट कोर्ट रिकाड्र्स, लंदन; द सेल्युलर जेल,
पोर्ट ब्लेयर; के सरी वाडा तिलक ट्रस्ट, पुणे; और द सावरकर मेमोरियल, नासिक।
प्रतिष्ठित प्रोफे सरों, लेखकों और विद्वानों को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने पुस्तक के
प्रकाशन से पूर्व उसके पुनरीक्षण के लिए अपनी स्वीकृ ति दी: प्रो. फ्रांसिस रॉबिन्सन, प्रो.
फ़ै ज़ल देवजी, प्रो. सुगत बोस, प्रो. अमिताभ मट्टू, प्रो. मकरंद देशपांडे, प्रो. लवण्या
वेमसानी, प्रो. मीनाक्षी जैन, प्रो. सरदिन्दु मुखर्जी, इमाम मोहम्मद तौहीदी, गवर्नर तथागत
रॉय, लॉर्ड मेघनाद देसाई, श्री संजीव सान्याल, श्री टीवी मोहनदास पई, श्री अशोक मलिक
और श्री शेखर गुप्ता का दिल से आभार।
शोधकार्य के दौरान निजी तौर पर हुई बड़ी क्षति झेली -- मेरे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण
स्थान रखने वाली मेरी माँ, श्रीमती नागमणि सम्पत की असामयिक मृत्यु ने इस यात्रा पर
अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी थी। इस यात्रा के आरंभिक चरण में, उन्हीं के साथ मैं
अपने कार्य की रूपरेखा के संबंध में विमर्श किया करता था। विषय के फै लाव को देखते
हुए मैंने उनसे इसे कर पाने से जुड़े अपने संशय का जिक्र भी किया था। ‘माउंट एवरेस्ट पर
चढ़ते समय, चोटी को ना देखो, ना उस पर सोचो। छोटे-छोटे कदम उठाते जाओ और
जल्दी ही तुम खुद को शिखर पर पाओगे’ -- उनके ये शब्द मेरे मार्गदर्शन का आधार
साबित हुए। उन्हें इस कार्य में मेरे ‘सहायक शोधकर्ता’ की कमान संभालनी थी, लेकिन
दुर्भाग्यवश किस्मत को कु छ और ही मंजूर था। जब मैं इस त्रासदी से संभलने की कोशिश
कर रहा था, उस दौरान जिस व्यक्ति के प्रति मैं पूरी कृ तज्ञता और स्नेह का महसूस करता
हूं, वह हैं मेरे पिता सम्पत श्रीनिवासन, जिनके प्रेम ने मुझे काम पर लौटने में मदद की। मेरी
आंटी रूपा मधुसूदन, अंकल मधुसूदन, जयंती अक्का, निर्मल आंटी, श्रीलक्ष्मी आंटी, मेरे
प्रिय मित्र आशीष अरोड़ा, करण अरोड़ा, मधु नटराज, सुलिनी नायर, शीला बजाज,
सोमदत्त राय, राजीब और बंधना सरमा, अविजित चैधरी, वत्सला हाली, अर्जुन सिंह
कादियान और निखिल खुराना भी इस कठिन समय में शक्ति स्तंभ के तौर पर रहे। उनकी
सहृदय और निर्मल उपस्थिति के लिए मैं सदा उनका ऋणी रहूँगा, साथ ही अपने प्यारे
लियो का भी, जिसने मेरे जीवन में फिर से खुशियाँ भरीं!
मुझमें और इस कार्य में अपना भरोसा कायम रखने के लिए मैं अपने प्रकाशक पेंग्विन
रेंडम हाउस इंडिया और मेरु गोखले को धन्यवाद देता हूं। पुस्तक का पूरी कर्मठता से
संपादन करने और उसके प्रकाशन संबंधित सारणी बनाने के लिए मैं अपनी मित्र और
संपादक प्रमांका गोस्वामी को मेरा हार्दिक धन्यवाद देता हूं और साथ ही, बेहद कु शलता के
साथ प्रस्तुत खंड के कॉपी संपादन कार्य के लिए शांतनु रॉय रॉय चौधरी का भी धन्यवाद।
मैं इस किताब के हिंदी अनुवाद के लिए संदीप जोशी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ
जिनके कु शल अनुवाद की वजह से यह किताब आपके समक्ष है। मैं इस पुस्तक के
संपादन के लिए पेंगुइन की हिंदी संपादकीय टीम का भी दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
सबसे जरूरी, मैं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हूं, जिनके आशीर्वाद के बिना एक शब्द भी
लिखा जाना संभव नहीं था।

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