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ओ३म्

मै समूलर ारा वेद का


िवकृ ितकरण
या, य और कै से?
डॉ. के . वी. पालीवाल

मै समूलर ने अपनी बहअथ लेखनी क आड़ म आजीवन वेद को िव िपत िकया, िफर भी


वह अपने को िह दू धम का िहतैषी होने का ढ ग रचता रहा। इस बात के इतने प के , स चे और
आ यजनक माण ह िक कोई भी तक उसे वेद के िवकृ तीकरण के दोष से बचा नह सकता।

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िनवेदन
यह पु तक “िह दू राईटस फोरम” से साभार है ।
कृ पया इस पु तक क अिधकािधक ित िन न पते से मँगवाकर अिधकािधक
मा ा म िवत रत कर ।
िजससे सम त अ तराि य दु चार , छल , भयानक िम याओं के गहनतम
अ धकार को भेदकर स याथ का सूय दय हो सके और स य का काश जन-
जन तक फै ल सके ।
- “ मनु ”

हमारा पता
िह दू राईटस फोरम
129, बी. एम. आई. जी. ,
राजौरी गाडन,
नई िद ली – 110027
www.hinduwritersforum.org
िवषय-सू ची
 ०१. यह पु तक य
 ०२. एक मै समू लर क खोज य ?
 ०३. यूरोप म सं कृ त सािह य म िच य ?
 ०४. मै समू लर ारा ही वेद भा य य ?
 ०५. या मै समू लर वेद भा य करने यो य था?
 ०६. मै समू लर के वेद भा य पर मैकॉले का भाव
 ०७. मै समू लर ारा वेद का िवकृ तीकरण य ?
 ०८. मै समू लर ारा वेद का िवकृ तीकरण कै से?
 ०९. मै समू लर ने वेद म या िवकृ त िकया
 १०. मै समू लर एक ईसाई धम चारक
 ११. मै समू लर का असली चेहरा
 १२. संदभ ं थ

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०१. यह पु तक य
भारत के लोग को े ड रक मै समू लर का प रचय कराने क आव यकता नह ह य िक ि िटश शासनकाल म ि िटश
राजनीित , शासक और कू टनीित ने उसे एक सदी (१८४६-१९४७) तक लगातार िह दुओ ं का एक अिभ न िम
और वेद के महान िव ान के प म तुत िकया है, पर तु स य इसके िवपरीत है। वा तव म वह िह दु ओं और िह दू
धमशा का एक महान शखु था। लेिकन दु भा य से, उस समय के ही नह , बि क आज के िह दू भी उसके उद्दे य व
काय के दू रगामी भाव को समझने म असफल रहे ह य िक मै समू लर ने अपनी लेखनी क चतुराई ाराअपने वा तिवक
व प और वेद भा य के िवकृ तीकरण के उद्दे य को बड़े योजनाब तरीके से िछपाए रखा, यहाँ तक िक उसके िनधन के
बाद सन् १९०१ म कािशत विलिखत जीवनी म भी उसे उजागर नह िकया।

इस स दभ म ी द भारती ने अपनी पु तक 'मै समू लर-ए लाइफ ल ग मा करेड' म इस कार िलखा हैः

"Max Muller's effectiveness as the arch enemy of Hinduism lay dangerously hidden in his
subtle equivocations and in his ability, which seemed congenital, successfully to pass a
counterfeit coin without being caught while performing the feat. His capacity to look honest and
sound sincere on surface was prodigious. the Hindus, of the nineteenth century failed to discover
and understand Max Muller and his Max Mullerism, because, by and large, being, too gullible,
they believed whatever max Muller wrote and said. "Since he had been, in addition, convertly
supported and encouraged by the Englishmen who then ruled Hindustan, he was able to mount
his veiled attacks on Hinduism again and again from behind the convenient cover of philological
research."

(p. 194)

अथात् ''मै समू लर क िह दूधम के ित कट् टर श ु ता का भावीपन उसक लेखनी क बहअथ शैली म भयंकर प
से िछपा हआ है। इस सफलता का रह य उसक इस यो यता से भी आसानी से समझा जा सकता है, जैसे कोई चालाक
यि खोटे िस के को चला देने पर भी पकड़ा नह जाता है। उसका ऊपर से िह दू धम शा - वेद आिद के ित स चा
और िन ावान िदखलाई देना उसक आ यजनक रह यमयी लेखनशैली क मता का प रचायक है। उ नीसवी सदी के
िह दू मै समू लर और उसके मै समू लरवाद को पहचानने और समझने म पू री तरह असफल रहे ह य िक िह दु ओ ं के
आमतौर पर अ यंत सीधे -सादे होने के कारण उ ह ने उसे ही सच मान िलया जो िक मै समू लर ने कहा और िलखा। इसके
अित र उसे आजीवन अ य प् से अं जे का पू ण समथन और सहयोग िमलता रहा जो िक उस समय भारत के
शासक थे। इसी कारण वह भाषा िव ान-शोध क आड़ म िछपकर लगातार िह दू धम एवं वेद पर हार करता रहा।''

(पृ. १९४)

इसी के साथ-साथ अं जे शासक लगातार यही चार करते रहे िक मै समूलर तो वेद का महान िव ान और िह दू
धम तथािह दुआअ का शु भिचं तक है। वे इस कथन क पु ि इस बात से करते ह िक उसने ऑ सफोड यूिनविसटी म
१८४६ से १९०० तक वेद और िह दू धमशा पर एक िवशाल सािह य वं य िलखा तथा अपने जैसे सहयोगी लेखक
ारा िलखवाकर उसे वयं संपािदत िकया।

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मै समू लर ने अपनी बहअथ लेखनी क आड़ म आजीवन वेद को िव िपत िकया, िफर भी वह अपने को िह दू धम
का िहतैषी होने का ढ ग रचता रहा। इस बात के इतने प के , स चे और आ यजनक माण ह िक कोई भी तक उसे वेद
के िवकृ तीकरण के दोष से बचा नह सकता।
मै समू लर क दू सरी जीवनी म असली व प

इसके िलए हम बाहर के िकसी दूसरे माण क आव यकता नही◌े◌ं है य िक मै समू लर ारा िलिखत सािह य
और अपने िम , प रवारीजन आिद को िलखे उसके प म ही या साम ी िमलती है। हालांिक मै समू लर क
विलिखत जीवनी १९०१ म ही कािशत हई थी, पर तु उसक प नी जोिजना मै समू लर ने उसके फौरन बाद १९०२, म
उसक एक और जीवनी ''दी लाइफ ए ड लैटस ऑफ दी आनरे िबल े ड रक मै समू लर'' के नाम से कािशत क । इसम
अ य िववरण के सिहत मै समू लर ारा िलख प का सं कलन भी है। उसके काशन का उद्दे य प करते हए ीमती
जोिजना नपे पु तक क भू िमका म िलखाः
"It may be thought that the publication of these volumes is superfluous after two works 'Auld
Lang Syne' and the 'Autobiography (2 Vols.) written by Max Muller himself. But it seemed that
something more wanted to show the innermost character of the real man…. The plan pursued
throughout these volumes has been to let Max Muller's letters and the testimony of friends to his
mind and character speak for themselves, whilst the whole is connected by a slight thread of
necessary narrative. The selection from the letters has been made with a view to bring the man
rather the scholar before the world."

(preface to November,1902, New York Edition; Bharti, p. IX).


अथात् ''ऐसा सोचा जा सकता है िक वयं मै समू लर ारा िलिखत ''औ ड लग सायने'' और ''आ मजीवनी'' (२
खंड म) कािशत हो जाने के बाद, इन खंड के काशन क कोई आव यकता नह है। लेिकन मु झे ऐसा तीत हआ िक
उस मनु य के आ त रक च र क वा तिवकताको िदखाने के िजए कु छ और अिधक करने क आव यकता है। इन खंड
म जो योजन लगातार अपनाई गई है वह मै समू लर के प और उसके िम के माण व प् िदए गए कथन, उस मनु य
क सोच और च र को वयं उजागर करते ह, जबिक सम त साम ी आव यक आ मकथा के धागे से बां ◌ी हई ह। यहाँ
उ त प का चु नाव इस उद्दे य से िकया गया है तािक िव के सामने एक िव ान क अपे ा उस मनु य का सही व प
तुत िकया जा सके ।''

( यूयाक सं करण, १९०२, ा कथन पृ. ग्)


इसिलए यहाँ हमारा उद्दे य यह समझने का है िक या वह वा तव म वेद और िह दू धम शा का शंसक और
भारत का िम था? या वह वेद , उपिनषद , दशन आिद के उदा , ेरणादायक और आ याि मक िचं तन से भािवत
था, और उ ह वह अं जे ी मा यम से िव भर म फै लाना चाहता था? या वह भारतीय धमशा का िज ासु था? या
उसने ऋ वेद का भा य भारतीय ाचनी या क य-पािणनीय प ित के अनुसार िकया था? उसने सायण-भा य को ही
आधार य माना? या उसने सायण के सभी मापद ड को अपनाया? यिद नह , तो यो? आिखर उसे वेद म या
िमला?

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या वह तुलना मकभाषा िव ान और गाथावाद के शोध क आड़ म एक प पाती, पू वा ही और छद्मवेशी
सै यू लर ईसाई िमशनरी था? जो वेद और िह दू धम शा के ामक अथ करके िह दू धम को समू ल न करना चाहता
था। कया वह वेद को बाईिबल से िनचले तर का िदखाकर भारतीय को ईसाईयत म धमा त रत करना और भारत म
ि िटश राज को सु ढ़ करना चाहता था? आिखर उसने वेद और भारत के ाचीन इितहास के बारे म अनेक कपोल-
कि पत मा यताएं य थािपत क ? इसके अलावा ई ट इंिडया कं पनी ने भी अं ेजी और सं कृ त दोन ही भाषाओं के
ान म अधकचरे, चौबीस वष य, अनु भवहीन गैर-ि िटश, जमन युवक मै समू लर को ही वेदभा य के िलए य चुना?

उसने वेद का िवकृ तीकरण या, य और कै से िकया? इ ह कु छ को यहाँ सं पे म िव ेषण िकया जाएगा
तािक अधकचरे ानी िह दू और सै यूलरवादी , जो उसके िवकृ त सािह य के आधार पर समय-समय पर िह दू धम क
िनं दा करते रहते ह, उसक वा तिवकता तथा उसके िनिहत उद्दे य को समझ सक। इसके िलए हम त कालीन ि िटश
शािसत भारत क धािमक व राजनैितक ि थितय को समझना होगा, िजनके कारण उ ह एक मै समू लर क तलाश करनी
पड़ी।

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०२. एक मै समू लर क खोज य ?
उ नीसव सदी म ई ट इंिडया क पनी के सामने ऐसी कौन सी िवव ताएं थ जो उ ह अं जे ी और सं कृ त दोन ही
भाषाओं के ान म अधकचरे , अनु भवहीन, चौबीस वष य, िवदेशी जमन िनवासी मै समू लर को वेद भा य के िलए चु नना
पड़ा? या वे १७५७ म थािपत ि िटश शासन को िह दू धमशा का गहन अ ययन कर यहाँ िह दू धम शा ानु सार
शासन चलाना चाहते थे? या इसके िवपरीत या वे िह दू धम शा को िवकृ त और िह दूसं कृ ित को हेय िस करके
िह दुओं को ईसाईयत म धमा त रत करना चाहते थे ? तािक भारत सदैव के िलए एक ईसाई रा य हो सके ।

भारत म ईसाईय क गितिविधयाँ

ईसाईयत एक धम आधा रत सा ा यवादी आ दोलन हैा, और ार भ से ही भारत ईसाई िमशन रय के िनशाने पर रहा है।
ईसाईयत छल, कपट, धोखा, जालसाजी और लोभन आिद के ारा गैर-ईसाईय के धमा तरण के िलए िवखयात रही है।
भारत म ऐसा आज भी सै यूल र म क आड़ म और तेज गित से हो रहा है; और लगभग १००० िह दू ितिदन
धमा त रत हो रहे ह। भारत म ि िटश शासन क थापना के पहले भी पु तगाल से स हव सदी म, से ट जोिवयर, और
इटली से रोबट डी नोबली (१५७७-१६५६) यहाँ आए थे िज ह ने छल-कपट से अनेक िह दूओ ं का धमा तरण िकया।

ईसाई िमशन रय ने 'गोवा इ वीजीशन' के दौरान (१५८०-१८१२), हजार िह दु ओ ं को िज दा जलाया, क ल िकया और


उ ह अनेक कार से तािड़त िकया (ि योलकर)। नोबली ने अपने को इटली का रोमन ा ण बताया और १५७८ म,
'एजुरवेदम्' के नाम से एक नकली वेद क रचना क । लेिकन रोबट नोबली के छल-कपट क कलई १८४० म पू री तरह
खुल गई। तब तक, उसके धोखे से, अनेक िह दू ईसाई बन चुके थे।

इसी कार एक दूसरा जैसु आइट िमशनरी अ बे डु बोइस भी अठाहरव सदी म भारत आया। लेिकन कनाटक के िह दु ओं
ने उसक एक न सुनी य िक डु बोइस एक धोखेबाज था। (नटराजन, पृ ट प्)। इसके बाद, १७९३ म, इंगलड से बेपिट ट
चच का एक दल रे व. िविलयम कै री के नेतृ व म भारत आया िजसने कलक ा के पास, १७९९ म सीरमपु र िमशन
थािपत िकया। कै री और उसके साथी माशमैन ने भी िह दु ओं के धमा तरण के िलएधोखाधड़ी का सहारा िलया। लेिकन
त कालीन बंगाल के सु िस समाज सु धारक एवं का ड िव ान राजा राममोहन रॉय (१७७२-१८३३) क िव ता, तक
शैली और अकाट् य माण के सामने ईसाईय क एक दाल न गली। १८१५ से १८३३ तक कलक ा म, जहाँ िक उस
समय ई ट इंिडया क पनी का मु खय कायालय था, ी रॉय का यहाँ के बौि क वग म अ छा खासा भाव था।

पादरी एडम ारा िह दू धम वीकारने क िति या

१८२१ म, कलक ा म एक ऐसी अिव सनीय और सनसनीखेज घटना घटी िजसक िति या के कारण ि िटश
सा ा य और ईसाईयत क भारत म िह दू धम स ब धी काय म, योजनाओं और यु नीितय पर यापक भाव पड़ा।

हआ यह िक १९ माच १८१८ को िमशन सोसाइटी, लंदन का रेव . िविलयम एडम नामक एक ईसाई िमशनरी सीरमपु र
के से सि मिलत हआ और उसे राजा राम मोहन रॉय को ईसाईयत म धमा त रत करने का उ रदािय व स पा गया। इस
काय भार को पू रा करने के िलए पादरी एडम ी रॉय के अिधक स पक म आने लगा और अनेक बार वे आपस म
धािमक वाद-िववाद म भी उलझने लगे। एक बाद पादरी एडम ने बाइिबल के 'ि िनटी िस ा त यानी 'तीन दैवीशि याँ'-
िपता, पु और पिव आ मा', तीन एक ही ह और एक म ही तीन ह, इस िवषय पर चचा क । जबिक ी रॉय ने वेद
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और उपिनषद के आधार पर माण देते हए िह दुओ ं के एके रवाद के प म तक िदए तथा वेद क े ता और उनक
तकसं गित को थािपत िकया। रॉय के िवचार से सहमित जताते हए एडम ने ७ मई १८२१ को अपने िम एन. ाइट को
अपने प म इस कार िलखाः-

"It is several months since I began to entertain some doubts respecting the deity of Jesus Christ,
suggested by frequent discussions with Ram Mohan Roy, whom I was trying to bring over to the
belief of that doctrine, and in which I was joined by Mr. Yates, who also professed to experience
difficulties on the subject…..I do not hesitate to confess that I am unable to remove the weighty
objections which present themselves against the doctrine……the objections against it, compared
with the arguments for it, appear to me like a mountain compared with a mole hill."

(Life and Letters of Ram Mohan Roy, p.68; Bharti, p.3).


अथात् ''मनेराजा मोहन रॉय से कई महीन तक उनके जीजस सं बधं ी सं दहे को दू र करने के उद्दे य से अनेक बार
बातचीत क िजसम म जीजस ाइ ट के िस ा त को मनवाने के िलए य नशील था। इस काय म मेरा साथ ी येट्स भी
दे रहे थे। पर तु इ ह भी जीजस के िस ा त क पु ि करने म किठनाई अनु भव हई है। म यह वीकारने म नह िहचक रहा
हँ िक म रॉय के जीजस के िस ा त को वीकारने के िवरोध म दी गई तक व आपि य को दू र करने म असफल रहा हँ,
जो िक मु झे ईसाई िस ा त को न मानने क आपि य और उनके समथन म िदए गए तक पहाड़ के सामने ितल समान
तीत हो रहे ह।''

(लाइफ ए ड लैटस ऑफ राममोहन रॉय, पृ. ६८; भारती,


पृ. ३)।
वह ी रॉय से इतना भािवत हआ िक उसने ईसाई मत याग कर िह दू धम वीकार कर िलया। इस कार एक ईसाई
पादरी के तीन साल के भीतर बाईिबलीय 'ि िनटी' को यागने और वैिदक एके रवाद म आ था लाने क घटना ने लंदन
ईसाई िमशन म यकायक एक अ यािशत भू चाल ला िदया। अमरीका के िमशन े म भी अभू तपूव िति या हई और
हड़क प आ गया। रेवरे ड एडम के ईसाईयत को यागने और िह दू धम को वीकारने से ईसाई िमशन और िमशन रय को
जबरद त ध का पहँचा िजससे उनक भारत म न व िहल गई। इसीिलए आज भी चच 'ि िनटी' पर अिधक बल नह देता
है।
इसक िति या म िमशन सोसायटी लंदन ने अपनी, २० जून १८२२ क वािषक रपोट म रेव. िविलयम एडम के बारे म
यह घोषणा क ः
"We mention with deep regret that Mr. Adam, late one of their member had embraced opinions
derogatory to the honour of the Saviour, denying the proper divinity of 'Our god Jesus Christ' in
consequence of which the connection between him and the society has been dissolved."

(Bharti, p. 4)

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'हम अ य त दु ःख के साथ सू िचत करते ह िक अपने एक पूव सद य िम. एडम ने उ ारक जीजस के िव अपमानजनक
िवचार य िकए ह और हमारे 'देव जीजस ाइ ट' के समु िचत देव व को नकारा है। इसके प रणाम व प उसके और
लंदन सोसायटी के बीच सभी कार के सं बधं समा कर िदए गए ह।''

(भारती, .4)

रे व. िविलयम एडछम, िजसे चच ने अिव ासी घोिषत कर, िन कािसत कर िदया, वही सोिसिनयम पादरी अब राम मोहन
रॉय के साथ वैिदक धम के एके रवाद का चारक हो गया।

उपरो घटना म के आघात के प रणाम व प ि िटश कू टनीिता◌ो◌ं और िमशन रय को अपनी मू ल योजनाओं और


यु नीितय को बदलने के िलए िववश होना पड़ा। अब िमशनरी जगत ने ईसाइयत के मु खय िस ा त और सम याओं
पर िवचार करना ारं भ िकया और वे सब इस नतीजे पर पहँचे िक रॉय को 'ि िनटी' सं बधं ी आपि य का के वल इसी
आधार पर उ र िदया जा सकता है िक वे कोई ऐसा यि ढूढं सक जो सं सार के सामने यह िस कर दे िक वेद म भी
बहदेवतावाद है और वे भी अनेक देवताओं क उपासना क िश ा देते ह। अतः इन घटनाओं ने ि िटश शासक को एक
ऐसे यि को खोजने के िलए िववश कर िदया जो िह दू धमशा क ऐसी ामक व िव िपत याखया कर सके िजसके
प रणाम व प िमशनरी िह दू धम क िनदां कर सक और वे िह दुओं को ईसाइयत म आसानी से धमा तरण करने , तथा
ईसाईय क िह दू धम म वािपसी को रोकने म समथ हो सके ।

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०३. यू रोप म सं कृ त सािह य म िच य ?
यू रोप म सोलहव सदी तक सं कृ त सािह य के ित कोई िच न थी। स हव सदी के म य म हेन रथ रॉथ(१६२०-१६६८) नामक जमन
जैसु आइट पादरी आगरा आया और िमशनरी काय के िलए सबसे पहले उसे सं कृ त सीखी एवं १६६२ म सं कृ त याकरण पर पु तक
िलखी। यहाँ सं कृ त सािह य के ित ती िज ासा और वैचा रक उ कं ठा अठाहरव सदी के अं त और उ नीसव सदी के ार भ म भारत म
धािमक और राजनैितक कारण से उ प न हई। १७५७ म पलासी के यु के बाद भारत म अं ेज का रा य थािपत हो गया। तब गवनर
वारे न हेि टं ज ने शासिनक और कानू नी ि से भारतीय के रीित रवाज और धािमक आ था जानने के िलए ि िटश अिधका रय को
सं कृ त सीखने क ेरणा दी। प रणाम व प यहाँ कॉलेज खोले गए और १७८४ म कलक े म 'एिशयािटक सोसायटी ऑफ बंगाल ' क
थापना क गई। चा स िबि क स पहला अं ेज अिधकारी था िजसने बनारस म सं कृ त भाषा सीखी और १७८५ म ी मद्भागवद् गीता,
१७८७ म िहतोपदेश और १७९५ म महाभारत के शाकु तलोपखयान का अं ेजी म अनु वाद कािशत िकया। जब१७६३ म िविलयम
जो स को ि िटश सेिटलमट का मु खय यायाधीश िनयु िकया गया तो उसने सं कृ त सीखी और१७८९ म महाकिव कालीदास के
अिभ ानशाकु तलम् और १७९४ म मनु मृ ित का अं ेजी म अनु वाद िकया। इसी समय(१८०२) दारािशकोह के फारसी म, उपिनषद का
च लेखक ए वे रल डू पेरोन (१७२१-१८०५) ारा िकया गया लेिटन अनु वाद कािशत हआ। इन सािहि यक और दाशिनक ं थ ने
यू रोप, और िवशेषकर जमनी म, सं कृ त भाषा और सािह य के ित अभू तपू व जागृ ित एवं िज ासा पैदा कर दी।

आग त िवलहेम े गल, (बोन यू नीविसटी) जमनी, म पहला सं कृ त ोफे सर िनयु हआ और उसका छोटा भाई े ड रक े गल दोन ही
भारतीय दशन व सािह य के अन य शंसक थे। एक दू सरे जमन सं कृ त िव ान िव हेम ह बो ड और ऑग ट ेगल ने िमलकर भगवद्
गीता का जमन म भा य कािशत िकया। तीसरे िस जमन दाशिनक अथर शोपेन७हावर ने उपिनषद को ''मानव बु ि म ा क सव म
कृ ित एवं 'अितमानवीय िच तन' कहा। उसने आगे िलखा'' "It is the most satisfying and elevating reading of
Upanishads which is possible in the world: it has been the solace of my life and will be the
solace of my death." अथात् जीवन म इनका (उपिनषद का) पढ़ना अ यं त सं तोषजनक और ेरणादायक है।ये मेरे जीवन म
सा तवनादायी ह और मृ यु म भी सा वनाकारी रहगे।

सं कृ त अ ययन के िविभ न उद्दे य

इतने ेरणादायक उद्गार को पढ़कर १९व सदी के जमनी, ां स, ि टेन आिद देश के अनेक िव ान ने भारत के ाचीन सं कृ त सािह य
के अ ययन एवं शोध् म अपना सारा जीवन लगा िदया। परं तु इन िव ान के अ ययन और लेखन के उद्दे य िविभ न थे । इ ह मु खयतया
तीन वग म बांट ा जा सकता हैः १. भारतीय धमशा , दशन और सािह य के िन प िज ासु , २. अिधकां शतः ईसाई िमशनरी वग और
३. धम एवं राजनीित से े रत ि िटश वग और भारत म उनके शासक और िमशनरी वग।

पहले वग के लोग ने भारतीय सािह य को भाषा िव ान ारा िन प एवं वै ािनक ि से देखा और दाशिनक िवचार को ेरणादायक
माना इस वग म मु खयतया ऑग त े गल (१७६७-१८४५), े ड रक श्◌ेलगल (१७७२-१८२९), ा ज बाप (१७९१-१८६७),
डो क रॉथ (१८२१-१८९५) हरमैन ोरवोस (१८०६-१९०७) योडर बेनफे (१८०९-१८८१) आिद मु खय थे। दू सरे वग के िव ान ने

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िमशनरी भावना से े रत होकर वैिदक देवतावाद का तु लना मक गाथावाद, िवकासवाद और मानवइितहास क ि से प पातपूण
अनु वाद कर िवशाल सािह य िलखा। इनम ओ डन वग (१८५४-१९२०), अल ेट वेबर (१८२५-१९०१), े ड रक रोजन (१८०५-
१८३७), अल े ड लु डिवग (१८३२-१९१२), जाज बुहलर (१८३७-१८९८), यु िलयस जौली (१८४९-१९३२), ओटोवॉन बोथिलंगम
(१८१५-१९०४), मौ रस िवं टरिनट्स (१८६३-१९३७), अन ट कु हन (१८४६-१९२०) आिद थे। तीसरे वग म ि टेन म एच.एच. िव सन
(१७८६-१८६०), े ड रक मै समू लर (१८२३-१९००), मौिनयर िविलय स, अथन ऐंथोनी मै डोनल (१८५४-१९३०, ए.बी. क थ
(१८७९-१९४४) आिद थे। भारत म शासन से जु ड़े िव ान म चा स िवलसन, िविलयम जो स (१७४६-१७९४), कॉल ु क (१७६५-
१८३६), टीवसन, ि िफथ आिद मु खय थे।

(Agnes- German Indologists. pp.1-151)


ि टेन के िव ान ने अपने राजनैितक और िमशनरी िहत क ि से तु लना मक भाषावाद, गाथावाद , मानव ऐितहािसकता एवं अ य
अनेक नवीन वाद क क पनाऐं क । १८४६ म, ऑ सफोड यू नीविसटी म, मै समूलर के आने के बाद ि टेन का , िह दू धम शा सं बं धी
सम त सािह य, असं गत य न हो। मगर गैर-ि िटश लेखक ने या तो ईसाई िमशनरी भावना से या वेदािद के मौिलक ान के अभाव से या
सं कृ त को यू रोपीय भषाओं से स बि धत करने के दु रा ह के कारण िविभ न अथ िकए। ये सभी ि टेन क तरह प पाती नह थे। मगर तना
अव य है िक सभी पा ा य िव ान भलीभां ित जानते थे िक वेद, भारतीय धम, दशन और सं कृ ित के मू ल आधार ह और इनक समु िचत
याखया िन व पािणिन याकरण के आधार पर ही हो सकती है। पर तु िकसी भी पा ातय िव ान ने भारतीय वेद भा य प ित को नह
अपनाया िजसका िक इसी समय म महिष दयान द सर वती (१८२५-१८८२) ने अपने वदे भा य म योग कर उदाहरण तु त िकया था।
भारतीय ाचीन पर परा इसी शैली को ामािणक मानती है।

इं लड म सं कृ त िश ा के िलए बोडेन चेयर क थापना

१८१० ए.डी. तक, इं लड म सं कृ त िश ा क कोई यव था नह थी। सबसे पहले इं लड म , १८११ म ऑ सफोड यू नीविसटी म सं कृ त
भाषा क िश ा के िलए यव था क गई। इसके िलए एक कट् टर ईसाई सामने आया। वह था कनल जोसेफ बोडन जो िक ई ट इंिडया
क पनी क सेना म ब बई म लेि टनट-कनल रहा था। इसने अवकाश हण करने के बाद, अपनी सम त स पि , जो उस समय लगभग
प चीसहजार प ड थी, क वसीयत ऑ सफोड िव िव ालय म सं कृ त- ोफे सर के एक पद क थापना के िकए कर दी; और
िव िव ालय ने भी कृ त ता व प इसना नाम 'बोडेन चेयर ऑफ सं कृ त रख िदया।

बोडेन चेय र का उद्दे य

बोडेन चेयर का उद्दे य, भारत के गु कु ल क तरह, के वल सािहि यक ि से सं कृ त भाषा का पढ़ना-पढ़ाना नह था, बि क ि टेन के
राजैितक और ईसाई िमशन रय के धािमक िहत क पू ित के िलए था। कनल बोडेन ने अपनी वसीयत, जो िक १५ अग त १८११ को
कटरबरी, यू.के . के यायालय म रिज टड क गई, उसके मु खय अं श और उद्दे य इस कार ह:

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"I do hereby give and bequeath all and singular my said residuary estate and effects with the
accumulations thereof if any and the stocks nmds and securities whereon the same shall have
been laid out and invested tmto the University of Oxford to be by that Body appropnated in and
towards the erection and endowment of a Professorship in the Sanskrit Language at or in any or
either of the Colleges in the said University being of opinion that a more general and critical
knowledge of that language will be a means of enabling my Countrymen to proceed in the
conversion of Natives of India to the Christian Religion by disseminating a knowlidge of the
Sacred Scriptures amongst them 1ill:.0re effectually than all other means whatsoever."
(Bharti, pp. 249-50)

अथात् ''म अपनी सम त ऑ सफोड िव िव ालय को दान देता हँ। वे इसे िव िव ालय या िकसी
कॉलेज म, जहाँ वे उिचत समझ योग कर तािक उसके देश(इं लड) वािसय को सं कृ त भाषा का समुिचत
ान हो सके , जो भारत के मूल िनवािसय के धम ं थ को समझने और उनके ईसाईयत म धमा तरण म
सहायक हो सक।''
(भारती पृ. २४९-२५०)

इस कार १८११ म, ऑ सफोड िव िव ालय म सं कृ त चेयर क थापना हो तो गई थी लेिकन उस


समय इसके िलए कोई मनचाहा यि न िमल सका। बोडेन चेयर पर िति त होने वालो सबसे पहला
यि एच.एच. िवलसन (१७८६-१८६०) था। वह भारत म मेडीकल ोफे शन के एक सद य के प म,
१८०८ म आया तथा १८३२ तक यहाँ रहा। भारत िनवास के इस काल म उसने सं कृ त भाषा सीखी, इस
आशा और उद्दे य से िक शायदयह भाषा ान उसे िह दू धम शा ा◌ो◌ं को समझने और आव यकता
होने पर िवकृ त आथ करने और भारतीय को ईसाईयत म धमा त रत करने म सहायक हो सके । इस सं कृ त
◌ा◌ान के आधार पर ही िवलसन को, १८३२ म, ऑ सफोड िव िव ालय म सं कृ त क बोडेन चेयर
का थम अिध ाता बनाया गया। यहाँ उसने सबसे पहले िमशन रय के िलए ''दी रलीजन ए ड
िफलोसोिफकल िस टम ऑफ दी िह दूज'' नामक पु तक िलखी। इस पु तके के िलखने के उद्दे य के िवषय
म उसने कहाः
"These lectures were written to help candidates for a prize of £ 200/= given by John
Muir, a well known Haileybury (where candidates were prepared for Indian Civil
Services) man and great Sanskrit scholar, for the best refutation of the Hindu
Religious Systems." (Bharti, p.9)

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अथात् ''यह लेखमाला उन यि य क सहायता के िलए िलखी गई ह जो िक यू ारा थािपत दो स
प ड के पु र कार के िलए याशी ह और जो िह दू धम थ का सव म कार से खंडन कर सक। ''
(भारती, पृ. ९)

बोडेन चेयर का दू सरा अिध ाता


१८६० म, ो. िवलसन के िनधन के बाद,बोडेन चेयर का दूसरा अिध ाता मौिनयर िविलय स हआ।
१८१९ म ब बई म ज मा मौिनयर एक कट् टर ईसाई था। यह िह दू धम को न करने को और भी अिधक
वचनब था जैसािक उसने अपनी पु तक 'ए सं कृ त-इं ि लश िड शनरी' क भू िमका म िलखाः
"In explanation I must draw attention to the fact that I am only the second
occupant of the Boden Chair, and that its founder, Col. Boden, stated most explicitly
in his will (dated August 15, 1811) that the special object of his munificent bequest
was to promote the translation of the Scripture in Sanskrit so as to enable his
countrymen to procet'd in the conversion of the natives of India to the Christian
religion."
"It was on this account that, when my distinguished predecessor and teacher,
Professor H. H. Wilson, was a candidate for the Chair in 1832, his lexicographical
labours were put forward as his principal claim to election."
"Surely it" need not be thought surprising, if following in the footsteps of my
venerated master, I have made it the chief aim of my professional life to provide
facilities for the translation of the Sacred Scriptures in Sanskrit and for the promotion
of a better knowledge of the religions and customs of India, as the best key to a
knowledge of the religious needs of our great Eastern Dependency. My very first
public lecture delivered after my election in 1860 was on "The Study of Sanskrit in
Relation to Missionary Work in India" (published in 1861). (Pref. to the New
Edition of Sanskrit English Dictionary by M.M. Williams pp.IX-X)
अथात् ''म, इस त य क ओर यान आकिषत करना चाहँगा िक म तो के वल बोडेन-चेयर का दू सरा
अिध ाता हँ और उसके सं थापक कनल बोडेन ने अपनी वसीयत (१५ अग त १८११) म सबसे अिधक
प ता के साथ िलखा है िक उसक वसीयत का िवशेष उद्दे य सं कृ त धमशा का अनु वाद करना है
तािक उसके देश (इं लड) वासी भारत के मू ल िनवािसय का ईसाईयत म धमा त रत करने के यो य हो सक।''
''इस ही कारण जब मेरे िश क और सु िस पू व अिधकारी ो.एच.एच. िवलसन, जो िक १८३२ म इस
चेयर के याशी थे, तो उनके लेखन काय के कारण उनको उस पद के मुखय दावेदार के प म तु त िकया
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गया था।'' ''िन य ही इसे आ यजनक न समझा जाए िक यिद मेरे ेय गु जी के चरण िच ह पर चलते
हए मने अपने यवसाियक जीवन का मु खय उद्दे य भारतीय के धम ं थ का अं ेजी म भा य करने के
िलए सु िवधा दान करना है तथा भारत के धम और रीित रवाज क अ छी जानकारी को बढ़ावा देना है।''
''१८६० म, बोडेन चेयर के िलए चु ने जाने के बाद अपनी पु तक ''दी टडी ऑफ सं कृ त इन रलेशन टू
िमशनरी वक इन इं िडया'' (१८६१)'' इसम उसने एक िमशनरी क तरह प कहाः
"When the walls of the mighty fortress of Hinduism are encircled, undermined and
finally stormed by the soldiers of the Cross, the victory to Christianity must be signal
and complete."
(p.262)
अथात् ''जब िह दू धम के मजबू त िकल क दीवार को घेरा जाएगा, उन पर सुरं गे िबछाई जाऐंगी और अंत
म ईसामसीह के सैिनक ारा उन पर धावा बोला जाएगा तो ईसाईयत क िवजय अि तम और पू री तरह
होगी''
(वही पृ. २६२)
इन उपरोि य से सु प है िक बोडेन चेयर के दोन अिध ाताओं ने सं कृ त िश ा के नाम पर ऑ सफोड
िव िव ालय के अपने अिधका रक पद का ईसाईयत के िहत के िलए पू री तरह से दु पयोग िकया। उ ह ने
ा यिव ाओं के शोध क आड़ म अपने िमशनरी उद्दे य क पू ित के िलए लगातार यास िकया।
मै समू लर ने भी १८४७ से ही बोडेन चेयर के उद्दे य क पू ित के िलए अथाह प र म िकया; ऋ वेद का
िवकृ त भा य और बोडेन चेयर पाने के िलए चु नाव भी लड़ा। मगर अं ेज मोिनयर िविलय स के प म ८८३
वोट के िव , ६१० वोट पाने के कारण वह हार गया (िम ा, पृ. १६) य िक वह एक गैर-ि िटश था। इस
सं दभ म ऐ साई लोपीिडया ि टेिनका (रं व. XVII पृ. ९२७) बतलाता हैः
''मै समू लर के जीवन क यह एक बहत बड़ी िनराशा थी िजसका उसके ऊपर बहत समय तक भाव रहा।''
मगर िफर भी वह िह दू धम शा के िवकृ तीकरण और भारतीय धािमक नेताओं का ईसाईयत म धमा तरण
के िलए यास करता रहा।

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०४. मै समू लर ारा ही वेद भा य य ?
इस का उ र ढू ँढने से पहले, यह जान लेना उपयोगी होगा िक यह मै समू लर कौन था? जमन े ड रक मै समू लर का
ज म ६ िदस बर १८२३ को डेसो नगर म हआ।उसके िपता िवलहे म यूलर (१७९४-१८२७) एक पु तकालया य थे।
उसने १८४१ म िनकालाई कू ल िलिपिजग से, हाई कू ल और अठारह महीन से भी कम समय म िसत बर १८४३ को
'भाषा िव ान' म िलिपिजग िव िव ालय से डॉ टरे ट क िड ी ा क (चौधरी, पृ. ३३)। उसे अ यापक हरमैन ोरवोस
(१८०६-१८७७) ने उसे और अिधक सं कृ त पढ़ने क ेरणा दी। परं तु उसके वैिदक या लौिकक सं कृ त के उ च ान
ा करने के कोई माण नह िमलते ह।
अ ैल १८४४ म, वह ा ज़ बाप से तुलना मक याकरण एवं भाषािव ान और े ि क ेगल से दशन शा पढ़ने के
िलए बिलन िव िव ालय गया तथा १० माच १८४५ को पे रस म ोफे सर यूगोन बन फ (चौधरी, पृ. ४५) के पास ऋ वेद
पढ़ने गया। यहाँ उसने बन फ के सायण भा य आधा रत वेद पर याखयान सु ने। उसे यहाँ े च भाषा न आने के कारण
किठनाई रही तथा जीिवका के िलए ा यिवद के िलए सं कृ त के ाचीन थ का, िमलान करता था (चौधरी, पृ. ४७)।
इधर इसी समय इं लड म ो. एच.एच. िव सन को एक युवा सं कृ त िव ान क आव यकता थी, और बन फ ने इसके
िलए मै समू लर का नाम सु झाया। बेरोन जे. बान बुनसन, जोलंदन म पू ्रिशयन िमिन टर तथा भावशाली यि था, ने
मै समू लर को िपता समान सं र ण िदया। उसने 'ि ि यिनटी ए ड मैनकाइंड ' पु तक भी िलखी थी। उसके सहयोग से
मू लन जून १८४५ को लंदन पहँच गया तथा जीवन भर िविभ न पद पर ऑ सफोड यूनीविसटी से जुड़ा रहा , जहाँ उसने
िवशाल सािह य िलखा।
(तािलका १)

तािलका-१. मै समू लर ारा रिचत सािह य

वष पु तक का नाम

१८४४ िहतोपदेश (जमन भाषा म अनु वाद)


१८४७ मेघदूत (किवता म जमन भाषा म अनु वाद)
१८४७ बं गाली का भारत क जनजातीय भाषाओं से स ब ध
१८४९-७३ ऋ वेद ए ड सायणाज़ कम ी
१८५३ ऐसेज ऑन टु रािनयन ल वेिज़ज़
१८५३ ऐसेज़ ऑन इि डयन लौिजक
१८५४ पोजल फॉर ऐ यू नीफाम िमशनरी ए फाबेट
१८५४ ल वेज् ऑफ दी सीट ऑफ पॉवर
१८५६ ऐसेज ऑन क पेरेिटव माईथोलोजी
१८५७ ड् य ेलीबे (१४ वाँ सं करण, १९०१, जरमन म)

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१८५७ बु ि ट िपलि स
१८५९ जमन लािस स
१८५९ दी िह ी ऑफ ऐंिशए ट सं कृ त िलटरे चर
१८६१ ले चरस ऑन दी साइंस ऑफ ल वेज, खं ड (१४ वाँ सं करण,
१८८६)
१८६२ ऐंिशए ट िह दू ऐ ोनौमी
१८६४ ले चस ऑन दी साइं सऑफ ल वेज, खं ड-२
१८६६ िहतोपदेश टैसट्स-नोट्स
१८६६ सं कृ त ामर
१८६७-७५ िच स ॉम ए जमन वकशॉप, (४ खं ड)
१८६८ टे्रिटिफके शन ऑफ ल वेज
१८६९ ऋ वेद ा सलेखन (खं ड १)
१८६९ वेद ाितशा य
१८७० ध मपद अनु वाद
१८७१ लैटस ऑन वार
१८७३ ऋ वेद इन सं िहता ए ड पद टै स्टस
१८७३ डारिव स िफलॉसफ ऑफ ल वेज़
१८७३ इ ोड शन टू सां इस ऑफ रजीजन
१८७५ जे.बी. वासडोव (जमन म)
१८७५ िशलस ीफवेचलन (जमन म)
१८७६ ऑन पैिलं ग
१९७६ म यू नीविसटी से अवकाश ाि के बाद
१८७८ िहबट ले चस
१८७९ उपिनषद्स ा सलेशन
१८८१ सेलेि टड ऐसैज़
१८८१ का ट् स ि िटक, ा सलेशन
१८८२ इि डया, हाट के न इट टीच अस! (सात ले चस)
१८८४ बायो ािफकल ऐसेज़
१८८७ साइं स ऑफ थॉट
१८८७ ला का रटा ऑफ ऐंिड़या डेल सारटो
१८८८ बायो ाफ ज ऑफ वड् स
१८८८ साइं स ऑफ थॉट, (तीन ले चस)
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१८८८-९२ ि फोड ले चस (तीन)
१८८९ साइं स ऑफ ल वेज (तीन ले चस)
१८९०-९२ ऋ वेद ( यू एडीशन)
१८९३ आप त ब सू (अनु वाद)
१८९४ िच स ॉम ए जरमन वकशॉप (४ खं ड रवाइ ड)
१८९७ साइं स ऑफ माइथोलौजी (२ खं ड)
१८९८ औ ड लगिसने (खं ड १, जमन म)
१८९८ रामकृ ण
१८९९ औ ड लग िसने (खं ड-२, जमन म)
१८९९ िस स िस ट स ऑफ इं िडयन िफलॉसफ
१८९९ डास फरडेवलु ी (जमन म)
१९०० ा सवाल वार
१९०१ ऑटोबायो ाफ ए ड ला ट ऐसेज़
(२ खं ड- मरणोपरा त कािशत)

अब उठता है िक ि िटश सरकार को वेद भा य, वह भी मै समू लर ारा ही कराने क आव यकता य हई?


वे कौन सी प रि थयाँ और िववशताऐं थ िजनके कारण ि िटश शासक और ई ट इंिडया क पन को १८४७ म ऋ वेद के
अं जे ी म भा य कराने क आव यकता हई?

1. वे कौन सी प रि थितयाँ और िववशताएँ थी िजनके कारण ि िटश शासक और ई ट इंिडया क पनी को १८४७ म
ऋ वेद के अं ेजी म भा य कराने क आवप यकता हई ?

2. या उस समय ऋ वेद के , सायण के अलावा, अ य िव ान के भा य नह थे?

3. मै समू लर जैसे सं कृ त और अं जे ी दोन ही भाषाओं म अ प को, ऋ वेद जैसे रह यमय और जिटल थं का


अनु वाद करने को य चु ना गया? जबिक ऑ सफोड एवं जमनी म अनेक अिधक िव ान उपल ध थे।

4. ि िटश सरकार ने मै समू लर और उसके भा य का इतना यापक चार य िकया? उसे िह दुओं और िह दू धम शा
का परम िहतैषी और वेदां का महान िव ान कहकर इतना मान-स मान और खयाित य दी?

इन का उ र िन निलिखत त य एवं प रि थितय के आधार पर ढू ँढा जा सकता हैः

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(1) ऋ वेद एक िवशाल गं◌्रथ है। इसम दस मं डल, १०२८ सू , १०५८० मं और ाचीन वैिदक सं कृ त के लगभग
१५३८२६ श द ह। इसके अं ेजी म अनु वाद, स पादन और काशन करने के िलए एक सि य िव ान को कम से कम
८-१० वष तक लगगे। अतः उ ह एक ऐसा यि चािहए था जो इस काय के िलए इतना समय लगा सके , भले ही वह
िकसी व र यि क अपे ा कम यो यता वाला हो।

(2) वह यि गैर-ि िटश हो य िक उस समय भारत म ि िटश के िव भारी आ ोश, असं तोष और िवरोध था।

(3) वह यि ि िटश, ईसाई िमशन , िमशन रय , कू टनीित और ऑ सफोड यूिनविसटी क नीितय और योजनाओ ं
के अनु सार ऋ वेद का अं जे ी म भा य करने को तैयार हो।

अब मै समू लर क यो यताओं को ऊपर िलख शत और प रि थितय क ि से देिखएः

(१) िन य ही ो. िव सन मै समू लर क अपे ा कह अिधक यो य था। लेिकन सव थम तो वह काफ अिधक आयु


(६० वष) का था; दूसरे वह एक अं जे था , और उस कौम का था, जो पहले ही भारत को गुलाम बना चु क थी और अब
उसके लोग -िह दुओ ं को ईसाई बनाना चाहता थाऔर तीसरे वह पहले से ही सं कृ त - ोफे सर क बोडन येचर पर आसीन
था। इसिलए िकसी ने भी इस सं भावना को नह माना िक इस पद पर रहते हए ोफे सर िवलसन वेदभा य के िलए पया
समय िनकाल सकगे। एक दू सरे अं जे सं कृ त िव ान जोन यूर था जो पहले से ही ई ट इंिडया क पनी क सेवा म था।
उसके पास इस काय के िलए समय नह था।

इनके अलावा गैर-ि िटश म से पै रकस म यू गौन बन फ पहले से ही ोफे सर था और इस का के िलए काफ बड़ी उ
का भी था। जमनी म उस समय ां ज बॉप (१७९१-१८६७) पहले से ही 'औ रयंटल और जमन िफलोसफ ' को ोफे सर
था एवं ५६ वष का था। इसी कार मै समू लर आ सं कृ त िश क े ड रक अन ड ोरवौस (१८०६-१८७७) िलिपिजग
िव िव ालय म सं कृ त का ोफे सर था तथा ओटो बोथिलंग (१८१५-१९०४) से टपीटसबग म ोफे सर था। इन िव ान
के अलावा डो फ वॉन रॉथ (१८२१-१८८१) और योडोर गो ड टकर (१८२१-१८७२) मै समू लर के समकालीन थे
फल व प इनम से कोई भी कं पनी ारा नह चुना गया।

इन सब कारण के फल व प ित पधा के मैदान म के वल मै समू लर ही रह गया। अ त म ई ट इंिडया क पनी


के डाइरे टर ने अपने उद्दे य क पू ित के िलए मै समू लर को चु ना। इन कारण के अलावा, मै समू लर को एक मन पसं द
नौकरी क अ यंत
आव यकता थी। साथ ही मै समू लर भी एक कट्टर ईसाई था जो िक ाइ ट के िलए, अपनी अ तरा मा के िव मन
मसोस कर भी, िकसी हद तक जाने को तैयार हो सकता था।

क पनी ारा चयन पर असीम स नता

ई ट इंिडया क पनी ने , १५ अ ैल १८४७ को, अपनी नीितय और योजनाओं के अनु सार मै समू लर ारा ऋ वेद का
अं जे ी म भा य कराने का िनणय िलया। इस िनणय के दूसरे ही िदन मै समू लर ने अपनी माँ को एक प िलखा िजससे
उसक स नता और उ जे ना गट होती हैः

"April 15, 1847-5, Newman's Row, Lincoln Inn, Fields-At last the long conflict is decided,
and I have carried off, so to speak, the prize ! I can yet hardly believe that I have at last got what
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I have struggled for so long, entire independence, and I am filled with the thought of how much
more I have gained than I deserved I am to hand over to the Company, ready for the press, fifty
sheets each year-the same I had promised to Samter in Germany; for this I have asked £ 200
a year, £ 4 a sheet. They have been considering the matter since December, and it was. only
yesterday that it was officially settled. I have to read the corrections, and shall have plenty of
time left to devote to my studies As the work will be above 400 sheets, I have a certain position
for the next eight years and the work is really so light I could take another post with it. This, in
fact, has been already offered to me, i.e. a place as librarian at the British Museum with £150 a
year. But on Bunsen's advice I have refused this and now what do you say, dearest mother? Is it
not more than I could have ever expected ? But only think, I had not a penny left, and that in
spite of even) effort to make a little money. I should have had to return to Germany had not
Bunsen stood by me and helped by word and deed."

(LLMM, Vol. 1, pp. 60-61)

अथात् ''१५ अ ैल १८४७, यूमैनस रौ, िलंकन इन, फ डस; आिखर म उस ल बे सं घष पर फै सला हो गया और
मने बाजी मार दी यानी मु झे पु र कार िमल गया।मु झे अब भी यक न नह होता ◌ेि◌ अंत म मु झे वह सब िमल गया
िजसके किलए मने लंबे समय से सं घष िकया, सं पू ण आजादी और मेरा मन इस िवचार से भर गया है िक मु झे उससे
िकतना यादा िमला है, िजतने के िलए म यो य हँ........ मुझे क पनी को ेस के िलए तैयार पचास शीट ित वष देनी
ह गी.......... इसके िलए मने दो सौ प ड ितवष मांगे थे यानी चार प ड ित शीट। वे इस िवषय पर िदस बर (१८४६) से
िवचार कर हे थे और के वल कल ही मु झे आिधका रक प से पता चला है िक मामला (मेरे प म) तय हो गया है। मु झे
गलितय को पढ़कर सु धारना है। अतः मेरे पास अपने अ ययन के िलए पया समय बचेगा........ य िक सारा काम ४००
शीट से अिधक का होगा। अतः मु झे अगले आठ वष तक के िलए िनि त काम िमल गया है और वा तव म काय इतना
ह का है िक इसके साथ म एक और पद सं भाल सकता हँ और ि िटश यूिजयम म लाय े रयन का पद एक सौ पचास
प ड ित वष का मु झे िमल भी गया है। लेिकन बु नसन के परामश पर मने वह काम अ वीकार कर िदया है......... मेरी
सबसे यारी माँ, अब तुम इस पर या कहती हो? .........लेिकन जरा सोचोमेरे पास एक पैनी भी नह बची थी, वह भी
जरा-सा भी धन कमाने के हर सं भव यास करने पर भी। यिद बुनसन मेरे साथ वचन और कम से खड़ा न होता और
सहायता न करता तो मु झे िववश होकर जमनी लौटना पड़ता।

(जी.प. खंड १, पृ. ६०-६१)।

उपरो प से सु प है िक मै समू लर वं य मानता है िक (१) उसे अपनी यो यता और आशा से कह अिधक िमला
है; (२) ऋ वेद का भा य एक ह का-फु का काम है। य िक शायद उसने िवचारा हो िक उसके भा य को जाँचने और
मू यांकन करने वाला कोई अ य नह है, इसिलए उसका िलखा सब कु छ वीकाय होगा। लेिकन टु अट िपगौट के
अनु सार

"The Rigveda is a curious document…… The language is elaborated and self


consciously literary, and the composition, based on syllabic verseform is often
extremely complicated-it is a laborious and complicated anthology."

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19
(Prehistoric India, pp. 256-68)
अथात् ''ऋ वेद एक रह यमय ं थ है........ इसक भाषा प र कृ त, िववेकपू ण एवं सािहि यक है और
उसक रचना छ दमयी होने के कारण अ सर अ य त जिटल है''
( ीिह टो रक इंिडया, पृ. २५६-६८)

के वल िपगौट ही नह बि क ाचीन काल से अब तक सभी ा य िवद् इस बात पर सहमत ह िक ऋ वेद क


सं िवरचना अ यंत पेचीदा है और इसके शु अनु वाद के िलए वैिदक याकरण और ाचीन भारतीय पर पराओं के ान
सिहत वैिदक सं कृ त भाषा के गहन अ ययन क आव यकता है जबिक िव ा मै समू लर के पास कभी भी नह थी।
लेिकन मै समू लर जैसे ढ गी व धोखेबाज अनु वादक और छद्मवेशी लेखक के िलए यह काम िन य ही ह का-फु का हो
सकता है।

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०५. या मै समू लर वेद भा य करने यो य था?
ई ट इंिडया क पनी ने मै समू लर को ऋ वेद का अं ेजी म भा य करने के िलए यह िव ास करके चु ना िक
वह वैिदक सं कृ त का िव ान है जबिक स चाई यह है िक वह न वैिदक सं कृ त जानता था और न अं ेजी
ही; य िक उसक मातृभाषा तो जमन थी। मै समूलर ने वयं वीकारा है िक इं लड आने से पहले जब
१८४५ म पै रस म था तो वह भारतीय िव ान रवी नाथ टेगौर के दादा ा रकानाथ टेगौर के पास अपनी
अं ेजी सु धारने के िलए ितिदन उसके होटल म जाया करता था (चौधरी, पृ. ५०); और जब वह लं दन म
रहने लगा तो अपनी मकान मालिकन अं ेज मिहला से बातचीत करते हए उसे अ सर किठनाई होती थी
(माईओटो-बायो ाफ , पृ. ९९, ११६)। इं लड म आने के बाद म उसने चार वष तक अं ेजी सीखी और
१८५१ म, ाइ ट चच कॉलेज, लं दन ने उसे एम.ए. क मानद िड ी दी (चौधरी, पृ. ५०)। लेिकन लं दन
आकर भी उसने सं कृ त नह सीखी।
मै समू लर का वैिदक सं कृ त ान

मू लर न सं कृ त बोल सकता था और न िलख सकता था, के वल लौिकक सं कृ त पढ़ सकता था। इस सं दभ म िनराद


चौधरी िलखता है िक ''१८५४ म नीलकं ठ गोरह नामक एक भारतीय ऑ सफोड म मै समू लर से िमलने आया और उसने
सं कृ त म कु छ िकए िज ह मू लर न समझ सका और अं जे ी म पू छा िक तु म िकस भाषा म बोल रहे हो?'' गोह ने कहा
'' या तुम सं कृ त नह समझते हो? तो मू लर ने जबाब िदया 'नह ' मने कभी िकसी को सं कृ त बोलते नह सु ना''। ''हम
सं कृ त के वल पढ़ते ह।'' (वही, पृ. २९२)। इसके ४४ वष बाद भी मै समू लर सं कृ त बोलने व िलखने यो य न हो सका।
उसने अपने सं कृ त ान के बारे म १८९८ म, नेपाल के सं कृ त िव ान छिवलाल को एक प म िलखाः

"Norhan Gards, Oxford, 28th September, 1898. Pandit Chhavilal, Dear Sir, Accept my best
thanks for your Natakas, Sundara Charita and Kushalavodaya, the Vrithalankara, and the
Sanskrit verses addressed to me. As soon as I find time I hope to read your two plays, but I am
getting so old (75) and have still so much to do, that I have but little leisure left to me. I am
surprised at your familiarity with Sanskrit. We, in Europe, shall never be able to rival you in
that. We have to read but never to write Sanskrit. To you it seems as easy as English or Latin is
to us. You see, we chiefly want to know what INDIA is and has been-we care for its literature,
its philosophy, etc., and that takes up so much time, that we never think of practising
composition, that we care admire all the more because we cannot rival, and I certainly was filled
with admiration when I read but a few pages of your Sundara Charita."

"And now a question. Mr. Byramji Malabari is publishing at Bombay (India


Spectator) translation of my Hibbert Lectures in Marnt/zi, Bengali, Gujarati, Tamil, etc. He is
very anxious to find a scholar to translate them into Sanskrit. One translation was made, but it
was too imperfect."

"Would you lmdertake that work? Of course, you would be paid for your trouble. Or could
you recommend any friend of yours, who is competent to undertake such a work ? And would

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you write direct to B. Malabari, India Spectator Office, Bombay, inform him of what oouId be
done in Nepal." "Thanking you once more for your valuable presents, I remain, yours faithfully-
F. Max Muller".

(Vritalankar, 1900; Bharti, pp. 93-94)

अथात् ''नौरहम गाडस, ऑ सफोड, २८ िसमबा, १८९८ : ीमान पं िडत छिवलाल। मेरा हािदक ध यवाद आपने
अपने नाटक, सु दर च रत और कु ालवोदय, वृहद अलंक ार और सं कृ त छं द जो मेरे िलए िलखे ह, िमले। जैसे ही मु झे
समय िमलेगा, मु झे आ ा◌ा है, िक म आपके दोन नाटक को पढँ◌ूगा। लेिकन अब म इतना बूढ़ा (७५ वष) हो चला हँ
और काम अभी बहत बाक है िक मु झे िव ाम के िलए बहत थोड़ा समय िमलता है। मु झे आपके सं कृ त ान पर आ य
है। यूरोप म हम लोग कभी भी इस िवषय म आपक बराबरी नह कर सकगे। हम को सं कृ त पढ़ना पड़ताहै, परं तु कभी
िलखना नह पड़ता। ऐसा तीत होता है िक तु ह सं कृ त ऐसी लगती है जैसी िक हम अं जे ी या लैिटन। तु म ऐसा मानो िक
हम मु खयता यह जानना चाहते ह िक भारत या है- और या था? हम के वल उसके सािह य, उसके दशन आिद क ओर
यान देते ह और इसी म इतना समय लग जाता है िक हम कभी िलखने व रचना आिद के अ यास क सोचते भी नह ह।
हम इसिलए आपक शंसा करते ह। य िक हम आपक बराबरी नह कर सकते और म िन य ही आपक शं सा म
फु ि लत हो जाता हँ, जब भी म आपके 'सु दरच रत' नाटक के के वल कु छ प ने पढ़ता हँ।''

''अब एक है। िम. बेरामजी मालाबारी बं बई म (इंिडया पे टेटर) मेरे िहबट ले चर का अनु वाद कराके मराठी,
बंगाली, गुजराती, तिमल आिद भाषाओं म छाप रहे ह। वे एक ऐसे िव ान के खोजने म अित उ सु क ह जो इनका सं कृ त
म अनु वाद कर सके । एक ऐसा अनु वाद िकया भी गया था, मगर वह सं तोषजनक नह था। या आप इस काम को करना
चाहोगे? िनःसं दहे इसके िलए आपको पा र िमक िदया जाएगा अथवा या आप इसके िलए अपने िकसी िम क
िसफा रश कर सकते हो? और या आप सीधे मालाबारी को इं िडया पे टेटर ऑिफस, बंबई के पते पर िलखगे; तथा कु छ
नेपाल म िकया जा सकता है उसके बारे म सू िचत करग?

आपका मह वपूण उपहार के िलए एक बार पु नः ध यवाद। म आपका िव ासपा - एफ. मै समू लर''
(भारती, पृ. ९३-९४)

मै समू लर के सं कृ त ान के िवषय, उवसके समकालीन वैिदक सं कृ त के का ड िव ान एवं वेद के भा यकार


वामी दयान द सर वती (१८२५-८२) ने अपने थ स याथ काश म इस कार िलखा हैः ''जो लोग कहते ह िक जमनी
देश म सं कृ त िव ा का बहत चार है और िजतना सं कृ त मो मू लर साहब पढ़े ह, उतना कोई नह पढ़ा, यह बात कहने
मा है, य िक ''यि म देशे मोनाि त व रै डो िप मायते'' अथात् िजस देश म कोई वृ नह होता, उसे देश म एर ड
ही को बड़ा वृ मान लेते ह।'' वैसे ही यूरोप देश म सं कृ त िव ा का चार न होने से जमन लोग और मो मू लर साहब ने
थोड़ा-सा पढ़ा, वही उस देश के िलए अिधक है। परं तु आयावत देश क ओर देख तो उनक बहत यू न गणना है। य िक
मने जमनी िनवासी के एक ि सीपल के प से जाना िक जमनी देश म सं कृ त-िचट् ठी को अथ कने वाले भी बहत कम
ह।''

( ., 261)

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वा तव म मै समू लर को लौिकक सं कृ त का ारि भक ान था, न िक वैिदक सं कृ त का, जो िक पािणनीय
याकरण और िन के आधार पर प क जाती है िजसे िक वह नह जानता था, और न उसने कभी जानने का यास
ही िकया।
मै समू लर ने वं य अपना सं कृ त ान अपया माना

मै समू लर, िजसे ऋ वेद का भा य करना एक ह का-फु का काम लगा था, पहले दो खंडो को (१९४९, १९५४ म)
कािशत करने के बाद ही उसे वह काम अित किठन, बड़ा और उबाऊ लगने लगा जबिक दूसरे खंड म जमनी के
िविलयम आचर ने उसक सहायता क थी। अब वह उस काय से ऊबने लगा य िक वह वेद को समझने और उसका
भा य करने के िलए पू णतया अयो य था। इसीिलए वह भारत आना चाहता था तािक वैिदक सं कृ त का समु िचत ान ा
कर सके जैसा िक उसके बुनसन को नीचे िलखे प से सु प हैः

“55 St. John Street, Oxford, August 25, 1856……”Whether I shall be able to do this is
doubtful, for without my love for antiquity and the past, my dreams for the future return again
and again, and I feel somewhat drawn to India—a desire difficult to resist in the end. Only I do
not know have to get there; but my life here seems so aimless and unfruitful that I shall not be
able to bear it for very much longer. I thought the other day whether I could not manage to go to
India with the Maharaja Dhulip Singh. He is very well spoken of, and he returns next year after
having learnt in England what good things he would do some day for his fatherland in India. It
seems to me it would form the natural nucleus of a small Indo Christian colony, and it is only
necessary to create such a centre in order to exercise one’s power of attraction on all
sides. After the last annexation the territorial conquest of India ceases—what follows next is the
struggle in the realm of religion and of spirit, in which, of course, centre the interests of the
nations.

...

India is much ripe for the Christianity than Rome or Greece were at the time of St. Paul. The
rotten tree has for some time had artificial supports, because its fall would have been
inconvenient for the government. But if the Englishmen come to see that the tree mast fall.
Sooner or later, then the thing is done, and he will mind no sacrifice either down my life, or at
least to lend my hand to bring about this struggle I should like to lay down my life, or at least to
lend my hand to bring about this struggle, like to go to India not as a missionary, that makes one
dependent on the persons, nor do I care to go as a Civil Servant, as that would make me
dependent on the government. I should like to live for ten years quietly and learn the language,
try to make friends, and then mischief of Indian priestcraft could be overthrown and the way
opened for the entrance of simple Christian teaching, that entrance which this teaching finds
into every human heart, which is free from the enslaving powers of priests and from the
obsecuring influence of philosophers. Whatever finds root in India soon overshadows the whole
of Asia, and nowhere could the vital power of Christianity more gloriously realize itself than if

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the world saw it spring up there for a second time, in very different form than in the West, but
still essentially the same.

“Much more could be said about this; a wide world opens before one… for which it is
well worth while to give one’s life. And what is to be done here? Here in England?
Here in Oxford?—nothing but to help polish up a few ornaments on a cathedral which
is rotten at the base”….
(LLMM, Vol. 11, pp. 190-92).

''५५ से ट जॉन ीट, ऑ सफोड, अग त २५, १८५६;............ िकसी तरह म यह (वेद भा य का काय) कर भी
पाऊँ गा, सं दहे जनक है य िक ाचीनता और अतीत के ित मेरे ेम के िबना मेरे भिव य के िलए सपने बार-बार लौटते ह
और म भारत क ओर कु छ िखंचा अनु भव करता हँ एक ऐसी इ छा िजसे अंत म दबाना मु ि कल है। म के वल यही नह
जानता िक म वहाँ कै से पहँचूं । लेिकन यहाँ मेरा जीवन इतना ल यहीन और यथ तीत होता है िजसे िक म बहत अिधक
समय तक सहन न कर पाऊँ गा।'' अभी हाल ही म मने सोचा िक या ऐसा सं भव नह िक म महाराजा धु लीप िसं ह के साथ
भारत जा सकू ँ । वह यि सु िवखयात है और इं लड म िश ा समा करवह अगले वष भारत लौटेगा और भारत म अपने
िपतृ देश के िलए िकतना अ छा काम कर सके गा। मु झे ऐसा तीत होता है िक वह एक वाभािवक छोटी-सी इंडो-
ि ि यन कॉलोनी का के बन जाएगा और ऐसे एक के को बनाने क आव यकता है तािक वह सब तरह से आकषण
का के बन सके । सं पू ण भारतीय े को अपने अिधकार म लाने के बाद अगला काम धम और रा ीय िहत के िलए
सं घष करना है।''
''आज भारत ईसाईयत के िलए उससे कह यादा उपयु है िजतने िक सट पॉल के समय म रोम या ीस थे। इस गले-सड़े
वृ के पास कु छ समय के िलए बनावटी सहारा था य िक तब उसका पतन सरकार के िलए असु िवधा जनक हा◌ो।
लेिकन यिद अं ेज लोग यह देखना चाहते ह िक वह पेड़ थोड़ा आगे पीछे चलकर िगर जाए तो यह काम हो जाएगा और
वह इसके िलए देश छोड़ने एवं अपना जीवन बिलदान करने म भी नह िहचिकचाएगा। इस सं घष क सफलता के िलए, म
अपना जीवन बिलदान करना चाहँगा अथवा कम से कम उस सं घष को ारं भ करने के िलए म अपना पू रा सहयोग दूगं ा।''
''म भारत, एक ईसाई िमशनरी के प म जाना िब कु ल नह चाहता हँ य िक इससे ईसाई पाद रय पर िनभर होना पड़ेगा,
और न मै। एक िसिवल सेवके के प म जाना चाहता हँ, इससे मु झे सरकार पर िनभर होना पड़ेगा। म वहाँ शाि त से दस
वष रहकर भाषा (सं कृ त) सीखना एवं नए िम बनाना चाहता हँ और उसके बाद देखू गँ ा िक म यह काय(वेद भा य)
करने के यो य हँ भी िक नह िजसके ारा भारतीय पु रोिहत के दु कृ य को उखाड़ फका जाए और िफर ईसाईयत क
सीधी-सादी व सरल िश ाओं का ार खोला जा सके । ऐसी िश ाऐं, जो िक येक मनु य के दय म वेश कर, जो िक
पु रोिहत क गु लाम बनाने वाली शि य और दाशिनक के दुब ध िवचार के भाव से मु ह । भारत म जो कु छ भी
िवचार ज म लेता है शी ही वह सारे एिशया म फै ल जाता है और कह भी दूसरी जगह ईसाईयत क महानशि अिधक
शान से नह समझी जा सकती िजतनी िक दु िनया वहाँ दूसरी बात पनपते देख,े पि म से िब कु ल िविभ न कार से,
लेिकन िफर भी मू ल प वही हो।'' ''इसके बारे म बहत कु छ कहा जा सकता है, काय करने वाले के िलए एक िवशाल े
है िजसके िलए यिद िकसी को जीवन भी देना पड़े तो भी उिचत है। और यहाँ या िकया जाए?यहाँ इं लड म? यहाँ

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ऑ सफोड म?........... कु छ नह , इसके अलावा िक उस काय म कु छ आभू षण को चमका िदया जाए िजसक न व गल
चु क है।''

(जी.प., खंड , २, पृ. १९०-१९२)

उपरो प से पाठक समझ गए ह गे िक मै समू लर भारत म आकर िह दू धम को समू ल न करने के िलए अपना जीवन
भी बिलदान करने को तैयार था। वह दस वष तक सं कृ त भी सीखना चाहता था इससे सु प है िक वह सं सकृ त म
नौिसिखया व धमा तरणकारी मा था तथा वेद भा य करने के िलए उसे वैिदक सं कृ त के गहन अ ययन क आव यकता
थी। बुनसन को िलखे इस प म मै समू लर ने अपने िव ासपा िम के सामने दय खोलकर रख िदया है और एक
धमा तरणकारी ईसाई-जैसा अपना असली चेहरा उजागर कर िदया है। वह गले-सड़े िह दू धम के वृ को न करने के
िलए अपने जीवन को भी बिलदान करने को तैयार है। अिधकां श ईसाई िमशन रय क तरह, वह भी यही समझता था िक
भारत ईसाईयत के िलए बहत उपयु है।

खेद है िक मै समू लर ारा ऊपर दी गई वीकारोि य के बाद भी, कु छ भारतीय, िवशेषकर सै यूलरवादी, इसे िह दू धम
का िम और शु भिच तक मानते ह १ माच १९७२ को आकाशवाणी नागपु र के से एक भाषण सा रत हआ था िजसे
िक नागपु र टाइ स (६ माच) ने छापा। इसम डॉ. एम. टी. सह बु े ने कहाः

“The lofty figure of this great European friend of India, and a veteran scholar of
Sanskrit Linguistics and Philosophy should inspire us to use our own priceless
treasures. Though a foreigner, he was full of love for India and its heritage.”
(Bharti, p.53).
''सं कृ त भाषा और दशन शा के का ड िव ान यह (मै समू लर) भारत के िम ह। इस यूरोपीय िव ान के महान
यि व और जीवन से हम अपनी अमू य धरोहर का योग करने क ेरणा लेनी चािहए। िवदेशी होते हए भी वह भारत
और इसक ाचीन धरोहर का ेमी है।'' (भारती पृ. ५३) काश! ऐसे लोग ने मै समू लर क जीवनी व प को पढ़ा होता
और ाचीन वेद भा य णाली पर आधा रत महिष दयानंद के वेद भा य क मै समू लर के भा य से तु लना क होती तो
उनक आँख खुल जात ।
पा ा य वेद भा यकार का सं कृ त ान

सभी पा ा य िव ान ने वेद भा य लौिकक सं कृ त के ान के आधार से ारं भ िकया जोिक वेद भा य के िलएअपया


था तथा वहाँ पािणनीय याकरण से सं कृ त िश ा क यव था नह थी। उ ह के वल लौिकक सं कृ त का ारि भक ान
था। यूरोपीय िव ान के सं कृ त ान के िवषय म जमन दाशिनक शोपेनहर िलखता है-

“….Our Sanskrit scholars do not understand their text much better than the higher class boys
their Greek or Latin.”

( Bharti, p. 78).

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अथात् ''हमारे सं कृ त िव ान उनके सं कृ त ं थ को इससे यादा नह जानते ह िजतनेिक हमारे हाय सैिक ी क ा के
िव ाथ लैिटन अथवा ीक भाषा को जानते ह''।

(भारती, . 178)

वैिदक सं कृ त क अपनी अ ानता के अित र मै समू लर यह भी भली-भां ित जानता था, िक सं कृ त याकरण के िलए
पािणनीय याकरण सव े है। वह िलखता है-

“The science of phonetics rose in India at a time when writing was unknown,….. I believe I
shall not be contradicted by Hemlboltz, or Ellis, or other representatives of phonetic science, if I
say that, to the present day, the phoneticians of India of the 5th century B.C. are unsurpassed in
their analysis of the elements of language. In grammar, I challenge any scholar to produce from
any language a more comprehensive collection and classification of all the facts of a language
than what we find in Panini’s Sutras.”

(The Lectures on the Origin and Growth of Religion. P.146).


अथात् '' विन िव ान का ज म भारत म उस समय हआ जबिक लेखन शैली अ ात थी.... मेरा िव ास है िक मेरे मत का
हे म हॉ टज, एिलस तथा अ य उपि थत विन िव ानी भी इसका िवरोध नह करगे, यिद म यह कहँ िक भाषा िव ेषण
म कोई भी विन िव ानी आज तक ईसा पूव पाँचवी सदी के भारतीय विन िव ािनय से आगे नह बैठ सका है।
याकरण के ख े म म िव ान को चुनौती देता हँ िक वे िकसी भी भाषा म ऐसा कोई िव ान बताव िजसने सभी त य का
इतना गहन अ ययन और वग करण िकया हो िजतना िक हम पािणनीय के सू म देखते ह।'' (लै चस ऑन दी ओ रिजन
ए ड ोथ ऑफ ल वेज, पृ. १४६) अतः अनेक पा ा य िव ान ने पािणनी और पातञ्जिल के याकरण थं क अ यं त
शं सा क है, और वेदभा य के िलए इनक उपयोिगता मानी है।
इस संदभ म ो. ए. एच.सायसी ने मै समू लर क पु तक 'सां इस ऑफ ल वेज' म िलखा है िक पािणनी, िव क सभी
भाषाओं और सभी काल के वैयाकरण म सव म थाः
“The native grammarians of India had at an early period analysed both the phonetic sounds
and vocabulary of Sanskrit with astonishing precisian, and drawn up a far more scientific system
of grammar than the philogogists of Alexandria or Roma had been able to attain. The Devnagri
alphabet is a splendid monument of phonological accuracy, and lont before the time of Sandia
and Khayug, the Hindu “Vaiyakaranas” or grammarians, had not only discovered that roots are
the ultimate elements of language but had traced all the words of Sanskrit to a limited number of
roots. Their grammatical system and nomenclature of inductive reasoning, and though based on
the phenomena of a single language, show a scientific insight into the nature of speech which
has never been surpassed.”
(Introduction to “The Science of Language”, by Max, Mullar, Vol. 1, p. 38; Bharti, p. 83-
84).
इसी कार अ य िव ान ने भी पािणनी क अ ा ययी के िवषय म कहाः
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(i) “The grammar of Panini is one of the most remarkable literary works that the world has
ever seen, and no other country can produce any grammatical system at all comparable to it
either for originality of plan or analytical subtlety. His Sutras are a perfect miracle of
condensation.”

(Indian Wisdom, p. 172; Bharti,p.82).


अथात् ''पािणनी का याकरण एक महान सािहि यक रचनाओं म से एक है िजसे िक िव म िकसी ने देखा है और
कोई भी देश, इसक तुलतना म, कोई वैयाकरणीय यव था िवकिसत नह कर सका है, मौिलकता अथवा िव ेषण
दोन क ि से उसके सू सं ेषण के पू ण चम कार ह।''

(इंिडयन िव डम, पृ. १७२)


इसी कार सर ड लू हंटर भारत के इं पी रयल गजट म िलखता हैः

(ii) “The grammar of Panini stands supreme among the grammars of the world, alike for
its precision of statement and for its thorough analysis of the roots of the language and the
formative principle of words. By applying an analytical terminology, it attains a sharp
succinctness unrivalled in brevity but at times enigmatical. It arranges in logical harmony
the whole phenomena which language presents and stands forth as one of the most splendid
achievements of human invention and industry.”
(Sir W Hunter in Imperial Gazette of India p.214; Bharti. P. 82-83).

(iii) “We pass at once into the magnificient edifice which bears the name of the Panini as
its architect, and which justly commands the wonder and admiration of every one who
enters, and which by the very fact of its sufficing for all the phenomena which language and
his profound penetration of the entire material of the language.”
(Indian Literature, p.216).

(iv) “Patanjali’s Mahabhashaya is one of the most wonderful grammatical works that the genius
of any country has ever produced.”
(Indian Wisdom; Bharti, p.83).

(v) “In philology, the Hindus have, perhaps, excelled both the ancients(Greeks and
Romans) and the moderns.”
(Mythology of the Hindus by W. Ward; Bharti, p. 83).

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अथात्''भारतीय वैयाकरण ने अित ाचीन काल म ही सं कृ त क श दावली और फोनोटीय ( वनीय) विन का
आ यजनक शु ता के साथ िव ेषण िकया है। इ ह ने अल जि या अथवा रोम के भाषा िव ािनय से कह
अिधक वै ािनकता के साथ वैयाकरणीय यव था दी है। देवनागरी के अ र एवं उनका म विन िव ान क
शु ता म एक महान मृित त भ है और जो सािदया और ख यू ग से बहत पहले के ह। इन िह दू वैयाकरण ने न
के वल यह खोजा है िक भाषा के मू ल त व धातुऐ ं ही होती ह बि क उ ह ने सं कृ त क उन सीिमत सभी धातुओ ं को
भी खोज िनकाला िजन पर सं कृ त के सभी श द आधा रत ह। उनक याकरणीय और ेरक तक आधा रत
उ चारण यव था, हालां िक एक ही भाषा पर आधा रत है, वह एक वै ािनक अ त ि वाणी के वभाव को गट
करती है िजसका कभी अित मण नह िकया जा सका है।''
(भू िमका, सां ईस ऑफ ल वेज, पृ. ३८)
मै समू लर के पािणनीय याकरण के ित इतने उ च िवचार होते हए भी, उसने इस महान वैयाकरण का अपने
वेदभा य म योग के वल इसिलए नह िकया य िक वह अि तीय िव ान पािणनी को समझ ही नह सका, और
शायद कोई उसे समझा न सका या उसने जानबूझकर उसक अनदेखी क ।
अतः स चाई तो यही है िक मै समू लर ऋ वेद के भा य करने के अनु बधं के िलए पूणतया अयो य था, िजसके िलए
पािणनी अ ा यायी, पातं जिल महाभा य और या क के िन जैसे सं कृ त याकरण के थं के गहन ान क
आव यकता होती है। वा तव म वह इन सबसे पू री तरह अनजान था। इसीिलए वह भारत आकर दसा वष तक
वैिदक सं कृ त सीखना चाहता या जैसा िक उसने बुनसन को अपने प म सु प िलखा था। मगर ि टेन को
राजनैितक व धािमक कारण से स चे वैिदक ान क आव यकता कम, और वेद के िव पीकरण ारा भारत के
ईसाईकरण क ती लालसा और आव यकता अिधक थी।

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०६. मै समू लर के वेद भा य पर मैकॉले का भाव
भारत के िवषय म ि िटश क नीितयाँ

उस समय इं लड म, भारतीय के ित तीन कार क िवचारधारा के वग थेः (१) उपयोिगतावादी, (२) ईसाई धमवादी
और (३) उदारवादी। मगर ये सभी वग िह दुओं क आ थाओ ं और रीित रवाज को िढ़वादी और गितहीन मानते थे। वे
िह दू स यता को भी मानने को तैयार नह थे। जै स िमल ने अपनी पु तक 'िह ी ऑफ ि िटश इंिडया' (१८१७)म इस
िवचार क भी आलोचना क िक 'िह दू कभी स य थे ' (चौधरी, पृ. १३२)। इसका मैकाले पर यापक भाव था। इस
चार म मै समू लर के सहायक रहे, िविलयम आचर ने अपनी पु तक ''इंिडया ए ड दी यू चर'' (१९१७) म यह
अ वीकारा िक ''यूरोपीय ि से भारत कभी स य था'' िजसका ी अरिब द ने िवरोध िकया।
(चौधरी, वही, पृ. १३३)
इस संदभ म चौधरी िलखता हैः

"By the end of the nineteenth century the Englishmen had formulated his Thirty-nine
Articles of dogma regarding Indians, and the first and second Articles were of course that they
were all liars and the dishonest. These assumptions were communicated in advance to any
Englishmen who was going to India as an administrator or in any other capacity. Generally
speaking they were accepted even before the Englishman saw the country and its people. So the
English came with a prefabricated hostility.”

(ibid, p. 303).

यानी ''उ नीसव सदी के अ त तक उ ह ने भारतीय के बारे म नीित बना ली थी िक वे सब झूठे और बेईमान होते ह।
येग अं जे जो शासकया अ य िकसी हैिसयत से भारत आता था, उसके मन म ये धारणाऐं पहले ही से िबठा दी जाती
थ । सामा यता िकसी अं ेज के भारत आने और यहाँ के लोग को िमलने से पहले ही ये बात उसे वीकृ त करा दी जाती
थ । इस कार सभी अं जे पू वकि पत षे भाव के साथ आते थे।''

(वही पृ. ३०३)


इस बात म लेशमा भी सं दहे नह है िक ि िटश कू टनीित थॉमस बैिबं गटन मैकॉले का न के वल मै समू लरके िह दू
धम सं बधं ी सािह य और वेदभा य पर बि क भारतीय िश ा प ित पर भी यापक भाव पड़ा है। वह न के वल एक
कट् टर ईसाई व ि िटश कू टनीित था, बि क िह दू धम, सं कृ ित एवं सं कृ त भाषा को हेय ि से देखता था।

१८०० ई. म ज म टी.बी. मैकॉले के दादा रेव. जोन मैकॉले ि बटे रयन चच के पादरी थे और उसके िपता जाचरी
मैकॉले िवलिलयम िबिवरफोस के साथी थे, जो एविजकल पाट (का फाम स दाय) के सद य थे। इसीिलए मैकॉले क
ारि भक िश ा ेि बटे रयन चच के कठोर अनु शासन म हई थी िजसके कारण मैकॉले म धािमक कट् टरता बचपन से ही
कू ट-कू ट कर भरी थी। इसके अलावा राजनैितक ि से वह लीड् स चुनाव े का ितिनिध भी था। इतना ही नह , जब
१८३३ म, ई ट इंिडया क पनी के चाटर का पु नगठन िकया गया तो, भारत के िलए, सु ीम काउं िसल के चौथे सद य का
पद मैकॉले के िलए िवशेष प से सु रि त रखा गया और उसे कानू नी सलाहकार िनयु िकया गया। इसके िलए उसे दस
हजार प ड ितवष क िवशाल रािश, वेतन के प म दी गई। वह १० जून १८३४ को म ास पहँचा और २ फरवरी
१८३५ को इसने सभी भारतीय कू ल म अं जे ी को िश ा का मा यम अपनाए जाने क िसफा रश कर दी तथा साथ ही

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इ ह न मानने क ि थित म उसने काउं िसल क सद यता से यागप देने क धमक भी दी। अ त म माच १८३५ से
अं जे ी को, िश ा के मा यम के प म, भारतीय िश ा प ित पर बड़ी िनरं कुशता के साथ थोप िदया गया।

अपने िनणय के समथन और सं कृ त भाषा के िवरोध म उसने २ फरवरी १८३५ क कायवाही म िलखाः

"I have no knowledge of either Sanskrit or Arabic. But I have done what I could to form a
correct estimate of their value. I have read translations of the most celebrated Arabic and
Sanskrit works. I have conversed both here and at home with men distinguished by their
proficiency in the Eastern tongues. I am quite ready to take the Oriental learning at the valuation
of the Orientalists themselves. I have never found one among them who could deny that a single
shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia. The
intrinsic superiority of Western Literature is, indeed, fully admitted by those members of
Committee who support the Oriental plan of education…It is, I believe, no exaggeration to say
that all the historical information which has been collected from all the books written in the
Sanskrit Language is less valuable than what may be found in the most paltry abridgements used
at preparatory schools in England. In every branch of physical or moral philosophy the relative
position of the two nations is nearly the same.”

(Chaudhuri , p. 133).

अथात् ''मु झे सं कृ त अथवा अरबी भाषा का कोई ान नह है लेिकन मने उनका सही मू यांकन करने के िलए जो
कु छ कर सकता था, िकया है। मने अरबी और सं कृ तक सबसे िवखयात रचनाओं के अनु वाद को पढ़ा है। मने इन पू व
भाषाओं के भारत तथा ि टेन दोन के सु िवखयात िव ान से बात क है। म वयं ा यिव ान के मू यांकन के आधार
पर ाचीन भाषाओं क िश ा लागू करने के िलए िब कु ल तैयार हँ। मगर मने इन िव ान म से िकसी एक को भी नह
पाया जो इस बात को नकारता हो िक एक अ छी यूरोपीय लाय ेरी क एक शै फ सम त भारत और अरे िबया के
सािह य के बराबर है।''

''पि मी सािह य क े ता को, वा तव म उन सद य क कमेटी ने पू री तरह वीकारा है जो िक ा य भाषाओं क


िश ा योजना क पु ि करते ह।.............. म मानतू हँ िक इस कथन म कोई अित योि नह है िक ऐितहािसक साम ी
जो िक सं कृ त क सम त पु तक म से इकट्ठी क गई है, वह उसके बराबर नह है जो िक इं लड के ाथिमक कू ल म
योग क जाने वाली सामा य पु तक म है। िश ा के सम त भौितक और नैितक दशन म भी दोन देश क तु लना मक
ि थित लगभग वैसी है।''

(चौधरी, पृ. १३३)


मैकाले का भारत के ाचीन सं कृ त सािह य के ित इतना घृणा मक भाव होना अ वाभािवकनह है य िक
पराधीन क सं कृ ित िवजेताओं से े तर कै से हो सकती है, िवशेषकर जब उ ह उन रा राज करना हो? अतः उसने आगे
कहाः

"……I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person
who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values,

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people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country unless we break
the very backbone of this nation which is her spiritual and cultural heritage and therefore. I
propose that we replace the old and ancient education system, her culture, for if the Indians think
that all that is foreign, and English is good and greater than there own, they will loose their own
self esteem their nature culture and they will become what we want them a truly dominated
nation.”

(2 Feb. 1835 Proc. On education).


अथात् ''मने सारे भारत का मण िकया है और मने एक ◌ी◌ा◌ी आदमी को चोर और क भी को िभखारी नह
पाया है। मने इस देश म इतनी स पदा देखी है तथा इतने उ चनैितक आदश देख ह और इतने उ च यो यता वाले लोग
देख ह िक म नह समझता िक हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक िक इसके मू ल आधार को ही न न कर द जो िक इस
देश क आ याि मक और सां कृ ितक धरोहर है; और इसीिलए म तािवत करता हँ िक हम उसक ाचीन और पु रानी
िश ा प ित और उक स सं कृ ित को बदल द य यिद भारतीय यह सोचने लग िक जो कु छ िवदेशी और अं जे ी है, वह
उनक अपनी सं कृ ित से अ छा और उ मतर है तो वे अपना वािभमान एवं भारतीय सं कृ ित को खो दगे और वे वैसे ही
हो जावगे जैसािक हम चाहते ह, पू री तरह एक पराधीन रा ।''

(२ फरवरी १८३५, ोसी, िश ा)

''उसने स चाई से वीकारा भी िक भारत म अं जे ी मा यम के कू ल क थापना का उद्दे य वा तव म, ऊँ ची


जाितय के िह दु ओ ं को ईसाईयत म धमा त रत करने का था और ऐसा ही उसने कलक ा से, १२ अ टू बर १८३६ को,
अपने िपता को एक प म िलखा भी थाः
“Our English schools are flourishing wonderfully. We find it difficult,--indeed, in some
places impossible,-- to provide instructions for all who want it. At the single town of Hoogly
fourteen hundred boys are learning English. The effect of this education on the Hindoos is
prodigious. No Hindoos, who has received an English education, ever remains sincerely
attached in his religion. Some continue to profess it as a matter of policy; but many profess
themselves pure Deists, and some embrace Christianity. It is my firm belief that if, our plans of
education are followed up, there will not be a single idoiater among the respectable classes in
Bengal thrity years hence. And this will be effectetd without any efforts to proselytise; without
the smallest interference with religious liberty; merely by the natural operation of knowledge
and reflection. I heartily rejoice in the prospects…”

Within half a year after the time when you read this we shall be making arrangements for our
return…… I feel as if I never could be unhappy in my own country; as if so exist on English
ground and among English people, seeing the old familiar sights and hearing the sound of my
mother tongue, would be enough for me…… Ever Yours Most Affectionately, T.B. Macaulay.”

(Life and Letters of Lord Macaulay. Pp. 329-30; Bharti, pp. 46-47).

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अथात् ''हमारे अं ेजी कू ल आ यजनक गित से बढ़ हे ह। िनसं दहे कु छ जगह पर ऐसा होना मु ि कल होरहा है, कु छ
जगह पर हम उन सबक िश ा दे पाना असं भव हो रहा है जो िक ऐसा चाहते ह। हगली शहर म चौदह स लड़के अं जे ी
सीख रहे ह। इस िश ा का िह दुओ ं पर आ यजनक भाव पड़ रहा है। कोई भी िह दू िजसने अं जे ी मा यम से िश ा
ा कर ली है, वह िन ापू वक िह दू धम से जुड़ा हआ नह रहता है। कु छ एक, औपचा रकता के प म, नाम मा को
िह दू धम से जुड़े िदखाई देते ह। लेिकन अनेक वयं को 'शु देववादी' कहते ह तथा कु छ ईसाईमत अपना लेते ह। यह
मेरा पू रा िव ास है यिद हमारी िश ा क योजनाएँ चलती रह तो तीस साल बाद बं गाल के स ा त प रवार म एक भी
मू ितपू जक नह रहेगा और ऐसा िकसी कार के चार एवं धमा तरण िकए बगैर हो सके गा। िकसी धािमक आजादी म
यूनतम ह त पे न करते हए ऐसा हो सके गा। ऐसा वाभािवक ानदेने क ि या ारा हो जाएगा। म दय से उस योजना
के प रणाम से स न हँ।'' आपका अ य त ि य टी.बी. मैकॉले

(लाड मैकॉले क जीवनी और प , पृ. ३२९; भारती पृ. ४६-४७)

मैकॉले के िवचारां क पु ि करते हए''पादरी ि लफोड ने ईमानदारी से यह वीकारा है.........''

“Every Christian missionary will claim that the mission school in India has a definite
purpose. He may be specific and say that the funcgtion of mission schools in India is to lead
boys and girls to lesus Christ.”

(Christianity in a Changing India, p. 147).


अथात् '' येक ईसाई िमशनरी यह दावा करेगा िक भारत म िमशन कू ल का एक िनि त उद्दे य है। वह िवशेषकर
यह भी कह सकता है िक भारत म िमशन कू ल का काय लड़के और लड़िकय को जीजस ाइ ट क ओर ले जाने का
है।''

(ि ि यिनटी इन चिजंग इंिडया , पृ. १४७)

उ नीसव सदी के ार भ से ही ि िटश शासक सभी राजनैितक, शासिनक व कू टनीितक तरीक से भारत म एक
महान टे ि टेन बनाने क अ यिधक कोिशश कर रहे थे जबिक भारतीय सामािजक व धािमक नेता जैसे राजाराम
मोहनरॉय, के शवच द सेन, वामी दयान द सर वती, वामी िववेकान द आिद के नेतृ व मं अनेका ाि तकारी यु वक
भारत के िविभ न भाग म ि िटश राज के िव सं घष कर रहे थे। इस आं दोलन को कु चलने के िलए ि िटश शासन न
के वल हिथयार का ही योग कर रहे थे बि क सभी कार क िन न तर क कू टनीित अपना रहे थे। जैसे 'बां टो और राज
करो', 'िमशन रय ारा िह दु ओ ं का धमा तरण', 'अं जे ी िश ा मा यम ारा िह दू धम एवं सं कृ ित के ित घृणा पैदा
करना', 'िह दुधम शा को िव िपत करना, उनके ित घृणा उ प न करने वाला सािह य रचना' आिद।

यह टी.बी. मैकॉले ही था जो भारत आने से पहले ही, ि िटश पािलयामट म िह दुओं के धम और सं कृ ित को न -


करने के िलए भारतीय कू ल म अं जे ी िश ा मा यम के मह व और उसक उपादेयता पर बल दे रहा था। यह
मैकॉले ही था िजसने मै समूलर पर १८५५ म िह दू धम शा के िवकृ त अनु वाद कर उ ह अप करने क नीित
अपनाने पर दबाब डाला था और उसे ऐसा करने के िलए िववश िकया था।
मै समू लर क ऑ सफोड िव िव ालय म ऋ वेद का अं जे ी म भा य करने के िलए(१८४७) म िनयुि हो जाने के
बाद, उसने इं लड म भारतीय भाषाओं के अ ययन-अ यापन क आव यकता पर बार-बार बल िदया जो िक उस समय
के सहायक मं ी (खजाना) सर चा स एडवड ेिविलयन (१८०७-१८६६) को िलखे प से गट होता हैः
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“It is undoubtedly high time that something should be done in encourage the study of
Oriental languages in England. At the very outset of this war, it has been felt how much this
branch of studies---in emergencies like the present so requisite, has been neglected in the system
of our education. In all other countries which have any political, commercial, or religious
connections with the East, provision has been made by the Government, or otherwise, to
encourage youngmen to devote themselves to this branch of studies. Russia has always been a
most liberal patron of Oriental philology. In the Academy of St. Petersburg there is a Chair for
every branch of Oriental literature. The French Government has founded a school. “L’ecole
pour les langues orientales vivantes.” At Vinna, there is an Oriental Seminary, Prussia finds it
expedient to give encouragement to young Oriental scholars, employed afterwards with
advantages as consuls and interpreters. In England alone, where the most vital interests are
involved in a free intercourse with the East, hardly anything is done to faster Oriental studies.”

(LLMM, Vol., p. 119)

''िनःसं दहे यह सही समय है िक इं लड म ा य भाषाओं के अ ययन को ो साहन िदया जाए'' (जीवनी एवं प , खं.
१ पृ. ११९)। इसक पु ि म उसने स, ां स, ि वटजरलड, जमनी आिद देश म सं कृ त भाषाओं के अ ययन यव था
होने के उदाहरण िदए। इसी बात को उसने १८५१ म मैकॉले से िमलते व कही और १८५५ म िफर इसे दोहराया। लेिकन
इसी बीच जू न १८५५ को मै समू लर को भारत म िसिवल सेवाओं के िलए यािशय क परी ाओं के िलए थािपत
कमीशन का सद य और एक परी क भी बना िदया गया था। इससे मैकॉले िन सािहत हआ था। िदस बर १८५५ को
अलबेन ी म मै समू लर- मैकाले भट के बारे म भारती िलखते ह:

“Macaulay first pretended to discuss with Max Muller the new regulations for Indian Civil
Service, so far as they related to the teaching of Oriental subjects and languages”. Max Muller
who still suffered for his youthful zeal and carried at least within his heart a genuine love for
Sanskrit had gone to meet Macaulay enthusiastically prepared and fully armed with all the
arguments that he could command to plead the case for Oriental languages. But little did he
realize that in Macaulay, he was going to face a mulish Christian and a rabid enemy of Oriental
languages and literature. Nor perhaps was he sufficiently conscious of the historical fact, and its
Christian background, that it was Macaulay who had imposed on the Indian people English
language with the covert purpose of language being used as a vehicle for converting people to
Christianity.”

(Bharti, p. 35)
अथात् ''मैकॉले ने ार भ म मै समू लर से भारत के िलए इंिडयन िसिवल सिवस के नए िनयम , जहाँ तक िक ा य
भाषाओं और िवषय क िश ा से सं बिं धत िवषय पर िवचार-िविनमय करने का बहाना िकया।मै समू लर, जो िक युवा
होने के कारण उ साह पू ण था और कम से कम सं कृ त भाषा के िलए उसके मन म स ची िन ा और यार था, एवं उसके
िलए सब कार क सािम ी एवं तक सिहत तैयार होकर मैकॉले से िमलने गया था तािक वह ा य भाषाओं के प को
बलपू वक तुत कर सके । लेिकन उसने यह जरा भी नह सोचा होगा िक उसका पाला एक िजद्दी ईसाई और ा य
भाषाओं और उनके सािह य के कट् टर िवरोधी से पड़ा है। शायद वह न इस ऐितहािसक स य से पू ण प से प रिचत था
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िक वह मैकाले ही था िजसने अं जे ी को िश ा का मा यम के प म भारतीय लोग पर इसिलए थोप िदया तािक
भारतीय को अं जे ी भाषा के मा यम से िह दू धम थ और सं कृ ित को हेय बताकर उ ह ईसा ईयत म धमा त रत िकया
जा सके ।''

(भारती, पृ. ३५)

मै समू लर का िदस बर १८५५ म मैकॉले से िमलने सं बधं ी िववरण और उसके भाव को उसने १८९८ म कािशत
अपनी पु तक 'लग सायने' म िदया है। भारती िलखते ह िक इस मीिटं ग म मैकॉले न के वल अिधकां श समय तक बोलता
ही रहा बि क अ त म उसने मै समू लर को इस ढं ग से िबदा िकया जो िक बड़ा बा यकारी भी थाऔर इस बात क और
भी यादा स भावना है िक मैकॉले ने सं कृ त मे ी जमन िव ान मै समू लर को अपने वाभािवक ितर कारपू ण हठ धिमता
से उसके साथ यवहार िकया हो। अपनी माँ को िलखे प म मै समू लर ने इस बदनाम सा ा कार का वणन िकया है।
उसने दु िखत मन से िलखाः
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young
men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went
back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.”

(LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).


इस बार म लंदन म मैकाले से िमला और उसके साथ इस िवषय पर ल बी बातचीत हई िक भारत भेजे जाने वाले
युवक को या पढ़ाया जाने क आव यकता है। वह एक बहत ही चालाक मि त क वाला वाक् पटृ यि है........ म
और अिधक दुःखी होकर ऑ सफोड वािपस लौटा, और शायद, अिधक समझदार मनु य बनकर''

(जी.प.खं. १, पृ. १६२)

मैकॉले से िमलने के बाद अपनी माँ को िलखे प से अपमािनत मै समू लर का आ ोश साफ नजर आता है। तीत
होता है िक मै समू लर को यह बता िदया गया होगा िक भारतीयिव ाओं के अ ययन से भारत म ईसाईयत के चार को
ित हो सकती है। वह अिधक 'समझदार' हो गया य िक शायद उसे सबसे पहली बार पता चला होगा िक िह दूधम
शा का भा य या उन पर कु छ िलखते समय इस बात का यान रखना है िक िकस कार ि टेन के धािमक-राजनैितक
िहत क र ा हो सकती है। मैकॉले के ऐसे परामश मानने पर ही उसके सां सा रक आिथक िहत क भी पू ित हो सकेगी।
मैकॉले ने एक ही बार म उसक सम त अि तीय यो यता और लेखनी क वतं ता क धि जयाँ उखेद द । इस अवसर से
पहले मै समू लर भले ही सं कृ त और भाषा िव ान का शु भ िच तक रहा हो जैसा िक उसने ईसाई िमशन के सामने
बतलाया था, मगर मैकॉले से िमलने के बाद वह 'शोक त था' य िक अब उसक आ मा क वतं ता समा कर दी
गई थी। जो िक िमशनरी िहत के िलए िगरवी रख दी गई थी और वह इस दयनीय ि थित से पू री तरह अवगत था िजससे
िबना नु कसान उठाए िनकलने का अब उसके पास अ य कोई रा ता नह बचा था। वा तव म मै समू लर को ई ट इंिडया
क पनी से लाभ कम और हािन अिधक उठानी पड़ी य िक थोड़े से आिथक लाभ के बदले उसे आजीवन अपनी आ मा
क आवाज को दबाकर जीना और िलखना पड़ा

कु छ भी हा◌ो, मगर सच ज र है िक मैकॉले के १८५५ के सा ा कार ने मै समूलर क सोच और उसके यु वा


मि त क को अ यिधक भािवत िकया। लूथरन ईसाई होने के कारण मै समू लर भी मैकाले से कम कट् टर ईसाई नह था।
मगर मैकॉले उस कौम का अंग था िजसका भारत पर राज था। वह धम के मामल म मै समू लर से कम सिह णु और

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अिधक हठधम था। इसी का प रणाम था िक मै समू लर के १८५५ के बाद के सािह य म महान प रवतन हआ। उसम
बाईिबल, जीजस और ईसाईयत क शं सा क धानता िदखाई देती है। यिद मै समू लर िदस बर १८५५ म मैकॉले से न
िमला होता तो स भव है िक वह िह दू धम का इतना कट् टर िवरोधी न होता।

हालां िक ऋ वेद का भा य १८४९ से कािशत होना ारं भ हो गया था, लेिकन उसका भारत सं बधं ी अिधकां श
सािह य १८५५ के बाद का ही है। िजस पर मैकॉले क छाप साफ नजर आती है। वह एक सै यू लर पादरी का लबादा
ओढ़ने पर भी मैकाले- भाव एवं ईसाई-कट् टरता क छाप से अपने का बचा न सका।
मै समू लर का ईसाईयत से मोह, और वेद से घृणा, ऑ सफोड आने के ३९ महीने बाद बुनसन को िलखे प से साफ
नजर आती है। वह िलखता हैः

“Your Excellency,--With regard to Empson’s and Dr. Wilson’s letter, it is difficult to


advise. I have no doubt whatever, that something can be written about the Veda which would
reach even the dullest ears. Whether Dr. Wilson can undertake that task is another
question. You know the dry hard shell in which the Veda is presented to us, and which seems
still harder and more wooden in the English translation. Nevertheless I of course shall be glad if
the Rigveda is dealt with in the Edinburg Review, and if Wilson would write from the standpoint
of a missionary, and would show how the knowledge and bringing into light of the Veda would
upset the whole existing system of Indian theology, it might become of the real interest.”

(LLMM. Vol. 1 p. 117).

'' ीमान्- डा. िव सन और ए सन के प के सं बधं म परामश देना किठन है। लेिकन इसम मु झे जरा भी स देह नह है
िक वेद के बारे म अव य कु छ िलखा जा सकता है जो िक बहरे कान तक को भी सु नाई देगा। यह एक दूसरी बात है िक
डा.िव सन वयं ही यह काम कर। आप जानते हो िक हम वेद, सू खे और कड़े खोल के प म िमला है और िजसका
अं जे ी भाषा म अनु वाद करना और भी किठन है। िफर भी म व तुतः स न होऊँ गा िक यिद ऋ वेद पर एक लेख को
'ईिडनबरा र यू' म कािशत िकया जाए और ो. िव सन ईसाई िमशनरी ि कोण से िलख और िदखाव िक यह ान
और वेद को काश म लाने से भारतीय धम शा क स पू ण यव था न - हो जाएगी, तो वा तिवक िदलच पी का
िवषय होगा।''

(जी.प., खं १ पृ. ११७)

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०७. मै समू लर ारा वेद का िवकृ तीकरण य ?
इस का कु छ उ र तो ऑ सफोड िव िव ालय के सं कृ त िवभाग म बोडेन चेयर क थापना के उद्दे य से ही
सु प है, िजसके िलए १८४७ म मै समू लर क ऋ वेद के स पादन एवं अं जे ी भा य करने के िलए िनयुि क गई थी।
इसी नीित के अ तगत उसने १८४९ और १८५४ म ऋ वेद के दो खंडो का काशन भी िकया। पर तु १८५५ म मैकॉले से
िमलने के बाद उसक िह दू धम शा के ित िच तन क िदशा ही बदल गई। अब उसने वेद के अित र अ य िह दू
धम शा क आलोचना क ओर िवशेष यान िदया तथासं कृ त को मृत एवं हेय भाषा िस करने का यास िकया।
इसके ही फल व प उसने १८५६ म 'ऐसेज ऑन क परेिटव मायथोलौजी', १९५९, म 'दी िह ी ऑफ ऐंिशए ट सं कृ त
िलटरे चर', और १८६१ और १८६४ म 'साइंस ऑफ ल वेिजज' (दो खंडो म) आिद गं◌्रथ क रचना क ।
(तािलका १)।
मै समू लर ने ऋ वेद के भा यकार के प म ारि भक ल ण को गट करना शु कर िदया था। इसीिलए वह चाहता था
िक बोडेन-चेयर पर िवराजमान ो. िवलसन वेद पर ईसाई ि कोण से कु छ िलख तािक उनके िवचार को वह अपने िलए
माग दशक के प म योग कर सक।

बोडेन चेयर पाने का यास

मै समू लर ने ार भ से ही लगातार बोडेन चेयर के उद्दे य क पू ित के िलए जी जान से प र म िकया। उसने इस काल
ख ड (१८४७-१८६०) म अपने आप को ईसाईयत के ु सेडर (धम यो ा) और िह दू धम के िव वं सक के प म पू री
तरह साि◌िपत कर िलया था और जब १८६० म बोडेन चेयर पर आसीन ोफे सर डा. िवलसन क मृ यु हो गई तो उसने
बोडेन चेयर के पद को अिथयाने का हर स भव यास िकया। भारत िक िमशन रय ने उसक ईसाई िहतकारी सेवाओं क
भू र-भू र शं सा करते हए उसे बोडेन चेयर के िलए अपना मनचाहा सव म याशी माना जैसा िक उनके नीचे िदए प
से सु प है। कलक ा के िबशप ी काटन ने िलखाः

“Revenswood, Simla, July 13, 1860, My dear Sir, When I heard of the great loss
which Sanskrit literature had sustained by the death of Professor Wilson, my thoughts
naturally turned to you as his obvious successor, and it wil give me great pleasure to
hear that the University make an election which is certainly expected and will be
approved by every one to whom I have spoken on the subject in this country.”
“I feel considerable interest in the matter, because I am sure that it is of the
greatest importance for our missionaries to understand Sanskrit, to study the
philosophy and Sacred books of the Hindus, and to be able to meet the Pundits on
their own ground.”
“Among the means to this great end, none can be more important than your edition
and Professor Wilson’s transalation of the Rigveda. (Max Muller did the translation
on Sayana’s basis which was published in Wilson’s name as he was the Librarian and
Incharge of Publications). It would be most fitting in my opinion for the great
Christian University to place in its Sanskrit Chair the scholar who has made the
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Sanskrit scriptures accessible to the Christian missionary.”….You are at liberty to
make any use that you please of this letter.” “With every wish for your success. I
remain, my dear, Your’s very sincerely. (G.E.L. Cotton)”.
(LLMM, Vol. 1, pp. 236-37).
रोिव सवुड िशमला, जुलाई १३, १८६०; ''ि यवर महोदय! जब मु झे ोफे सर िव सन, िजसने सं कृ त रचना को गित दी,
के िनधन का बड़ा दुःखद समाचार िमला तो मेरा यान, उनके वाभािवक उ रािधकारी के प म, अपने आप ही आपक
तरफ गया और मेरे िलए यह अित स नता का िवषय होगा िक िव िव ालय यह चुनाव, जो िक िन य ही होगा, उस
यि के प म हो िजसके बारे म मैने इस देश (भारत) म सबको बतलाया है।''
''म इस िवषय म काफ िदलच पी रखता हँ य िक मु झे आशा है यह हमारे िमशन रय को सं कृ त जानने और िह दु ओं
के धमशा तथा दशन को समझने और िह दू पं िडत से उनक ही धरती पर उ ह चुनौती देने के िलए अ य त मह वपूण
है।''
''इस उद्दे य क पू ित के िलए अनेक साधन म से डा. िव सन के माग दशन म आपके ारा ऋ वेद का स पादन एवं
भा य से यादा अ य कोई काय उपयोगी न हो सके गा। मेरे िवचार से यहसबसे उिचत होगा िक इस महान ईसाई
िव िव ालय (ऑ सफोड) के िलए (बोडेन क ) सं कृ त-चेयर उस िव ान को दी जाए िजसने सं कृ त धमशा को
ईसाई िमशन रय के िलए सु ा बनाया है, आप मेरे इस प को जैसे चाह उस काय के िलए योग कर ल। आपक
सफलता क कामनाओं सिहत- आपका ि य जी. ई. एल. काटन,''
(जी.प.खं. १, पृ. २३६-२३७)।
इसी कार ऑ सफोड आ दोलन से जुड़े एक दूसरे सि य सद य और िमशनरी डॉ . ई. बी. पू सी ने मै समू लर को िलखाः

“Christ Church, June 2, 1860, My Dear Professor—On the first election to the Sanskrit
Chair, you will have heard that we were divided before two great names. Professor Wilson,
whose first-rate Sanskrit knowledge was in the mouth of every one, and Dr. Mill who, many of
us thought, might fulfil the object of the founder better by giving to the Professorship a direct
missionary turn. The same thought would naturally recur to us now, and I have kept myself in
suspense since our sudden loss of Professor Wilson. My first impression, however, is my
abiding conviction, that we should be best promoting the intentions of the founder, by electing
yourself, who have already done so much to make us fully acquainted with the religious system
of those whom we wish to win to the Gospel…..I cannot but think gthat your lecturers on the
Vedas….are the greatest fits which have been berstowed on those who would win to Christianity
the subtle and thoughtful minds of the cultivated Indians. We owe you every much for the past,
and we shall ourselves gain greatly by placing you in a position in which you can give our
undivided attention to those labours by which we have already so much profited.
“…….Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India, and
Oxford will have reason to be thankful for that by giving you a home it will have
facilitated a work of such primary and lasting importance for the conversation of
India and which by anabling us to compare that early false religion with the true,
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illustrates the more than blessedness of what we enjoy. Your very faithfully, E.B.
Pusey.”
(LLMM Vol. 1 pp. 237-38).
'' ाइ ट चच, जून २, १८६०, मेरे ि य ोफे सर-सं कृ त (बोडेन) चेयर के िलए सबसे पहले चुनाव म तुमने सुना होगा िक
हम दो बड़े नाम के बीच म िवभािजत थे। ोफे सर िव सन, िजसके सं कृ त ान के ित आदर के कारण सभी के मु ँह पर
उ ह का नाम था, और दूसरे थे , डॉ. िमल िजनके बारे म हममे से कु छ यह सोचते थेिक एक िमशनरी को सीधे ोफे सर का
पद देने से वे चेयर के सं थापक (बोडेन) के उद्दे य क पू ित अिधक अ छी तरह कर सकगे और िन य ही यही िवचार
अब हमारे मन म िफर से आएगा; और डॉ. िव सन क अचानक मृ यु के बाद से ही म बड़ी दुिवधा म हँ। िफर भी मेरी
ाथिमकता यह है िक इस पद के िलए आपको चु नने से हम चेयर के सं थापक क भावनाअ का सबसे अिधकआदर कर
सकगे, य आपने हम सबको उनक (िह दुओं) क धम यव था से पू री तरह प रिचत कराया है िजन तक हम गोि पल
(बाइिबल) को ले जाना चाहते ह। म इसके अलावा और कु छ नह सोच सकता िक आपके वेद पर भाषण उन लोग के
िलए सबसे अिधक उपयोगी ह गे जो िवचारवान और ती बुि वाले स य भारतीय को ईसाईयत के िलए जीतने म
सि य ह। हम सब आपके िपछले काय के ित आभारी ह और हम सब आपको इस स माननीय पद पर िति त करके
और अिधक लाभाि वत ह गे। तब आप हमारा स पू ण यान उन यास क तरफ और अिधक ख च सकगे िजससे हम
पहले ही काफ लाभाि वत हए ह।''
''आपका काय भारतीय को ईसाई बनाने के य न म नवयुग लाने वाला होगा और ऑ सफोड िव िव ालय को अपने
को ध य समझने का अवसर होगा िजसने आपको आ य देकर भारत को ईसाई बनाने के ाथिमक और दूरगामी भाव
के मह वपू ण काय को सु गम बना िदया। साथ ही यह आपका काय हम तुलना मक ि से समथ बनाएगा िक हम पु राने
(िह दू) धम को स चे (ईसाई) धम के साथ तु लना का आन द उठाऐं। आपका यह काय उससे भी बड़ा औरआशीषपू ण है
जो िक हम ा है। आपका - ई.बी. पू सी।
उपरो दोन प से सु प और स चाई के साथ मािणत होता है िक मै समू लर का सािह य भारत को ईसाईयत म
धमा त रत करने के काय को सु गम बनाएगा और यिद वह िव सन का उ रािधकारी चु ना जाता है तो इससे कनल बाडेन
के उद्दे य क पू ित और अिधक भावी ढं ग से िकए जाने क स भावना हो सके गी। इन प से यह भी मािणत होता है
िक डॉ. मै समू लर अ य िकसी सं कृ त के िव ान क अपे ा भारत म गोि पल (बाइिबल) के िहत म भारतीय के पिव
थं को उन तक पहँचा कर पहले ही अिधक काय कर चु का है और उसके चुनाव से उसे और अिधक काय करने का
अवसर िमलेगा। वह वतमान सं कृ त िव ान एवं बोडेन चेयर के यािशय म सव म है। लेिकन तीत होता है िक
मै समू लर को पू वानुमान थ िक चुनाव का प रणाम उसके िव होगा, जैसा िक उसने अपनी माँ को िलखे प से गट
होता हैः
''मेरी यारी माँ: मेरा काफ समय चु नाव काय म लग जाता है और कभी-कभी लगता है िक म चु नाव क न सोचता। इसम
मेरा िदस बर (१८६०) तक का समय लग जाएगा और यिद म सफल नह होताहँ तो बड़ा दुःखी होऊँ गा। जरा उन चार
हजार चयनकताओं क सोच जो िक सारे इं लड म िबखरे हए ह और येक को प भी िलखा जाना चािहए।''
(जी.प. खं. १, पृ. २३८)
अ त म मै समू लर २७३ (८३३/६१०) मत से चुनाव हार गया। मु खयतया इसिलए िक वह एक गैर-ि िटश था। इससे वह
काफ िनराश हआ। ऐ साइ लोपीिडया ि टेिनका (खंड XVII पृ. ९२७-२८) बतलाता है िक ''यह (चु नाव म हारना)
मै समू लर के जीवन क एक बड़ी िनराशा थी िजसका उसके ऊपर बहत समय तक भाव रहा।''
मै समू लर के वेद भा य का उद्दे य

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हालां िक १८६० म बोडेन चेयर के िलए मै समू लर का चयन नह हआ िफर भी वह बोडेन के उद्दे य क पू ित के िलए
योजनाब तरीके से लगातार यास करता रहा। मगर यहाँ यह है िक एक सं कृ त के िव ान होने के नाते उसका
वेदभा य के ित या ि कोण था? वेदभा य करने म उसका या उद्दे य था? या वह मैकॉले जैसे सं कृ त एवं भारत के
कट् टर िवरोधी का अनु यायी था या एक उदारवादी िवचारक था?
मू लर के जीवनी लेखक िनराद चौधरी का मत है िक 'उसने म यम माग अपनाया', (वही. पृ. १३४), या यह किहए िक
उसने एक बह िपया जैसा खेल खेला िजससेिक ि िटश के राजनैितक उद्दे य क भी पू ित होती रह और भारतीय को
भी श द जाल म बहकाए रखा? मै समू लर एक अ तमु खी यि था िजसने ऋ वेद के भा य करने के पीछे अपने स चे
मनोभाव और उद्दे य को अपने जीवन भर कभी भी सावजिनक प से उजागर नह िकया। मगर अपने दय क
भावनाओं को १५ िदस बर १८६६ को के वल अपनी प नी को िलखे प म अव य य िकया। उसके ये मनोभाव एवं
उद्दे य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके िनधन के बाद, १९०२ म उसक प नी जोिजना मै समू लर ने
उसक जीवनी व प को स पािदत कर दो ख ड म एक दूसरी जीवनी कािशत क । यिद ीमती जोिजना उसे
अ कािशत प को कािशत न करती तो िव उस छद्मवेशी यि के असली चेहरे को आज तक भी नह जान पाता।
अपनी प नी को िलखे इस प म मै समू लर ने अपने वेद भा य के उद्दे य को पहली बार िदल खोलकर उजागर िकया।
वह िलखता हैः

“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see
it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great
extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is
the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only
way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अथात् ''मु झे आशा है िक म इस काम को (स पादन-भा य आिद) पू रा कर दूं गा और मु झे िन य है िक य िप म उसे
देखने के िलए जीिवत न रहँगा तो भी मेरा ऋ वेद का यह सं करण और वेद का अनुवाद भारत के भा य और लाख
भारतीय क आ माओं के िवकास पर भाव डालने वाला होगा। यह (वेद) उनके धम का मू ल है और मू ल को उ ह िदखा
देना जो कु छ उससे िपछले तीन हजार वष म िनकला है, उसको मू ल सिहत उखाड़ फकने का सबसे उ म तरीका है।''

(जी.प.,खं. १, ३२८)
उपरो प को पढ़ने के बाद पाठक को और अिधक माण क शायद आव यकता नह रहेगी। यहाँ मै समू लर
वयं स चाई वीकारता है िक उसके वेद भा य का उद्दे य या था। वह प कहता है िक उसके वेद और उससे िनकले
िह दू धम शा के भा यािद का उद् दे य िह दू धम को जड़ से उखाड़फकने का ह भले ही वेद म िकतना ही े ान य
न हो। यिद वह इतना प पाती और पू वा ही है, तो उसके सािह य को पढ़ना और मानना ही यथ है।

इसका अथ यह भी हआ िक जो कोई आज मै समू लर के वेद भा य को ामािणक मानता है तथा वैसा चार करता
है, वह भी िह दू धम को जड़ से उखाड़ कर फक देना चाहता हँ जैसा िक हम ईसाई िमशन रय एवं क युिन के सािह य
व चार काय म देखते ह।

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०८. मै समू लर ारा वेद का िवकृ तीकरण कैसे?
वेद भा य के आधार- मै समू लर ने ऋ वेद का स पादन और अं जे ी म भा य करने के िलए सायणाचाय के भा य को
अपना आधार बनाया जबिक सायण से पहले भी अनेक आचाय ने ऋ वेद का सं कृ त म भा य िकया था। भगव के
अनु सार ऋ वेद के िन निलिखत भा यकार मु ख थे (वेद के भा यकार, पृ. २१-९३)। सभी का रचनाकाल एडी म िदया
गया है।

क द वामी, नारायण, उद्गीथ, (लगभग ६३०;) ह तमलक (७००), वकटमाधव (१०५०), उ वट (१०५०),
भट् टभा कर (११व सदी), ल मण (११व सदी), आन दतीथ (११९८-१२७८), धनु य वा (१३व सदी),
आ मान दध (१२५०), भट् टगोिव द (१३१०), सायण(१३१५-१३८७), मुद् गल (१४१३-१४२२), रावण (१४५०),
चतुवद वामी (१६व सदी) एवं वामी दयान द सर वती (१८२५-१८८२) जो िक मू लर के समकालीन थे। उसी समय
वामी दयान द का सं कृ त व िह दी म तथा ब बई से एक दू सरा वेदभा य अं ेजी म कािशत हो रहा था।

वामी दयान द ने या क और पािणनी आधा रत ाचीन वेदभा य णाली का पु न ार िकया जो िक आज भी सव म


णाली मानी जाती है। मगर मै समू लर ने अपने पाठक को वामी दयान द का वेद भा य न पढ़ने का परामश िदया। मूलर
शायद यह नह जानता था िक वेद क उ पि , ान और अथ के िवषय म िस ा तः सायण और दयान द दोन एक मत
ह। वामी दयान द और सायण के वेद भा य णाली क तुलना करते हए डॉ. िवमला िलखती ह: ''दोन भा यकार
(दयान द और सायण) के िस ा तानु सारः

(१) 'वेद ई रीय ान, वतः माण, िन य और अपौ षेय ह (पृ. ६७); (२) दोन भा यकार के अनु सार वेद के श द,
अथ और ान ई रीय ह। िक तु वह ान अि न, वायु, आिद य, और अं िगरा- इन चार ऋिषय के मा यम से मनु य तक
पहँचा है।' (पृ. ६६), (३)''दोन ही आचाय या क क नै ि कशैली के अनु यायायी थे।'' (पृ. ९६)।

इतना सब समान होते हए भी सायण के भा य पर म यकालीन चिलत थाओं का भाव िदखाई देता है। सायण के
भा य क मु ख शैली आिधयाि क, ऐितहािसक और पौरािणक है। वह वेद म कम का ड को धानता देते िदखाई देता
है। डॉ. िवमला िलखती ह, ''सायण अिधकांश मं के अथ याि क कमका ड या पौरािणक आखयाियकाओं और
इितहास के ढां चे म डालना चाहते ह। इसी हेतु दोन भा यकार के वेद स ब धी िस ा त म बहलां शतः समता होने पर भी
इनके अि तम प और िन कष म अ तर है।''
(वही, पृ. 96)

इस यावहा रक िविभ नता का कारण यह तीत होता है िक सायण िवजयनगर रा य का धानमं ी भी था। अपनी
राजक य य तता के काराण उसने वेदभा य म अ य िव ान का सहयोग िलया हो जैसा िक पं. भगव ने सं केत िदया है
(वही, पृ. ७१) शायद इसीिलए सायण का भा य त कालीन पौरािणक पं िडत के भाव से अछू ता नह रह सका है।

सायणाचाय क भी उपे ा

मै समू लर ने ऋ वेद का अं जे ी भा य करते समय सायणाचाय के उपरो तीन िस ा त को नह अपनाया, बि क


सायण क य ीय, कमका डीय शैली को औरभी िव िपत करके वेद भा य िकया। उसने अनेक श द के अथ सायण से
भी िभ न िकए। अतः मै समू लर ने अपने वां िछत उद्दे य क पू ित के िलए एक मनघड़ त अनौखी वेदभा य शैली
िवकिसत क । उसने सायण क य ीय शैली का लाभ तो उठाया, पर तु उसके मू ल िस ा त क जानबूझकर उपे ा क
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और सायण से भी िभ न वैिदक श द के मन माने अथ करके एक नई शैली को ज म िदया िजसम ऐितहािसक,
िवकासवाद, गाथावाद और तु लना मक भाषावाद का िम ण है। उसने अपनी भी शैली को समान प से सारे ऋ वेद म
नह अपनाया था बि क येक मं के िलए एक िवशेष चयना मक शैली को अपनाया। इसीिलए उसके भा य म
एक पता नह है।

मै समू लर ने सायण भा य को स भवतः इसिलए चु ना तीत होता है िक उसके कु छ मं के अथ म कमका डीय णाली
का भाव है िजसे िक मै समू लर ने अपनी िमशनरी गितिविवधय के िलए उपयोगी पाया हो। लेिकन वा तव म ऋ वेद
मु खयतया एक आ याि मकवादी गं◌्रथ है िजसक िक उसने उपे ा क । सायण ने वेद के अथ आ याि मक,
आिधदैिवक और आिधभौितक- तीन कार से करने का िवधान माना है और आ याि मक िविध को धानता दी।
पर तु िफर भी उसका भा य चौदहव सदी क सामािजक थाओं से अछू ता न रह सका।

मै समू लर क वेद भा य शैली

हालां िक मै समू लर ने सायण भा य शैली को आधार बनाया पर तु उसक आिधदैिवक, आिधभौितक और आ याि मक
शैिलय म से िकसी को न अपनाकर अपनी नई शैली िवकिसत क । उस शैली का आधार या था? इस िवषय म वह वं य
अपने १८७८ के एक िहबट भाषण म बतलाता है िक उसने वैिदक श द के अथ िकस कार िकए ह। वह वयं
वीकारता हैः

“All we can do is to find, if possible the original focus of thought , and then follow the
various directions taken by the rays that proceeded from it. This is what I have endeavoured to
do, and if in doing so, I may seem to have put a new garment upon old, all I can do is that. I see
no other way, unless we all agree to speak not only Sanskrit, but Vedic Sanskrit.”

(Lectures on the Origin and Growth of Religion, pp. 245-246).

अथात् ''हम जो कु छ कर सकते ह, वह यिद स भव हो सके तो वेद के मू ल वैचा रक िवषय पर अपने को के ि त कर


और िफर उस काश िकरण क िविभ न िदशाओंपर यानद जो उसने िनकली ह। यही कु छ करने का मैने यास िकया है
और ऐसा करते हए यिद मने उस ाचीन को नया व पहना िदया हो या नई िदशा दे दी हो तो म यही कर सकता हँ। म
और कोई रा ता नह देखता, जब तक िक हम इस बात से एक मत न ह िक हम के वल लौिकक सं कृ त नह बि क
वैिदक सं कृ त क बात कर रहे ह''।

(लै चस ऑन दी ओ रिजन ए ड ोथ ऑफ रलीजन, पृ. २४५-२४६)


अतः मै समू लर ने सायण शैली को भी पू री तरह से नह अपनाया बि क मं के िकसी एक िवशेष श द को अपनी
इ छा से चु नकर, उसके चार तरफ लौिकक सं कृ त के आधार पर, वेदाथ का महल खड़ा कर िदया। उसने ऋिष के बताए
मं के देवता यानी मू ल िवषय क उपे ा करके अपना चयना मक तरीका अपनाया। इसी िलए उसके वेद भा य म अनेक
िवसं गितयां ह। काश! उसने मं के साथ िदए गए 'देवता' यानी 'उसके मु खय िवषय' को मं ाथ का आधार बनाकर या क
क नै ि य िविध से, िजसका महिष दयान द ने उ ार िकया, भा य िकया होता तो उसके वेदाथ म िवसं गितयां नह
होत । मगर जो यि वेद भा य करने के पहले से ही प पाती और वेद को जड़ से उखाड़ने के िलए संक पब हो
तोउसके वेदाथ म वैिदक स य के दशन कै से ह गे? ऐसे म तो वेदाथ का िवकृ तीकरण होना वाभािवक है। अतः मै समू लर
ने जानबूझ कर मं का िवकृ त अथ करके अपने पाठक को वेद का ामक स देश िदया।
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सायण-मै समू लर शैली क आलोचना

वेद के का ड िव ान महिष दयान द सर वती मै समू लर के समकालीन थे और उसी समय भारत म उनका सं कृ त
व िह दी म ऋ वेद का भा य एक मािसक पि का म कािशत हो रहा था। तब तक ो. िव सन क देख-रे ख म, जो उस
समय ऑ सफोड िव िव ालय का पु तकालया य भी था, मै समू लर के दो ख ड ई.आई.सी. ारा कािशत हो चु के
थे। इन खंड ◌े वेद भा य को दखेकर महिष दयान द ने अपने थं ऋ वेदा रभा य भू िमका म (पृ. ८५-९१) उदाहरण देकर
सायण क य ीय और मै समू लर के वेद भा य शैली क आलोचना क । मै समू लर के सं कृ त ान एवं वेदभा य के
िवषय म वामी जी ने अपने ं थ 'स याथ काश' (समु. ११, पृ. २६१-२६३) म िलखा है िक- ''मो मू लर साहब के
सं कृ त सािह य और थोड़ी-सी वेद क याखया देखकर मु झको िविदत होता है िक मो मू लर साहब ने इधर-उधर
आयवत य लोग क हई टीकादेखकर कु छ-कु छ यथा-तथा िलखा है।'' जैसािक ''युञ् जि तमै घं चर तं प रत थुषः।
रोच ते राचनािदिव'' (ऋ. १.६.१)। इस मं म ( घं) का अथ घोड़ा िकया है। इससे तो जो सायणाचाय ने 'सूय' अथ िकया
है, सो अ छा है। पर तु इसका ठीक अथ 'परमा मा' है- इतने से जान लीिजए िक जमनी देश और मो मू लर साहब म
सं कृ त-िव ा का िकतना पां िड य है।'' इस कार वामी जी ने सायण और मै समू लर दोन के वेद भा य क कटु
आलोचना क है।

इसीिलए मै समू लर ने बैरामजी मालबारी को िलखे प म दयान द के भा य को एक 'दुःखदायी आधार' कहाः


वामी जी और मै समू लर का आपस म कभी िमलना नह हआ य िक न मै समू लर क ◌ा◌ी भारत आए और न
वामी जी कभी इं लड गए। इतना ही नह मै समू लर, वामी जी के जीवन काल म उसक आलोचना का उ र न दे सका।
पर तु वामी जी के अचानक िनधन के बाद अपनी िति या म कहाः

“From what has come to light after Dayanand Saraswati’s death, I am afraid that he was not
simple minded and straightforward in his work as a reformer as I imagined.”

(Chips from a German Workshop, Vol.11, p. 182).

अथात् ''दयान द सर वती के िनधन के बाद जो कु छ काश म आया है, उससे तीत होता है िक वह अपने समाज
सु धार के काय म सीधा-साधा और प व ा नह था, जैसा िक म समझता था''

(िच स ाम ए जरमन वकशॅप, खंड २, पृ. १८२)


मै समू लर का यह कहना िक दयान द प व ा नह था, सरासर अस य है, य िक वामी जी जैसा प व ा तो
िव इितहास म नह िमलेगा। वामी जी ने मै समू लर के वेदभा य तथा ईसाईत और बाइिबल क अपने थं 'स याथ
काश' के यारहव और तेरहव समु लास म सतक सु प आलोचना क है। मै समू लर क तरह, वी स कालेज, बनारस
के ि सीपल डॉ फ हानेरी, िजससे वामी जी क १८६७ म भट हई, ने वामी जी के वेदभा य का िह दुओं पर भाव के
िवषय म िलखाः
“He (Dayanand) may possibly convinced the Hindus that there modern Hinduism is
altogether in opposition to the Vedas….I if once they are become thoroughly convinced of this
redical error, they will not doubt abandon Hinduism at once…They cannot go back to their
Vedic state; that is dead and gone, and will never revive; something more or less new must

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follow. We hope it may be Christianity “(The Christian Intelligencer, Calcutta, March 1870, p.
79).
अथात् ''वह (दयान द) स भवतः भले ही िह दुओं को िव त कर द िक उनका वतमान िह दू धम वेद से िब कु ल
िभ न है....... यिद वे एक बार इस भयंकर भू ल से िव त हो भी जाते ह, तो िन य ही वे एकदम िह दूधम को याग
दगे........ वे िफर वैिदक यव था म वािपस नह जा सकते य िक वह धम तो मर एवं लु हो चु का है और िफर कभी
वािपस नह आएगाः कु छ न कु छ नया अव य आना चािहए। हम आशा है िक वह ईसाईयत ही हो सकती है'' (दी
ि ि यन इ टेलीजसर, कलक ा, माच, १८७०, पृ. ७९)। पर तु भारत के िह दुओं ने वामी जी के वैिदक धम को दय से
वीकारा और वेद के कट्टर समथक और वािभमानी िह दू हो गए, तथा ईसाई मत को नह अपनाया जैसी िक डो फ
को आशा थी।
सायण क वेदभा य शैली का वामी दयान द ने ही नह , बि क अनेक भारतीय िव ान ने भी कटु आलोचना क है
जैसेः अिवनाशच बोस िलखते ह ''सायण जैसे भारतीय िव ान के बहमू य भा य म एक ग भीर दोष है िक धम के
िवषय म वे अपने काल के संद भ् म कहते ह और इसीिलए वे बहधा ाि तपू ण होते ह।''

(दी काल ऑफ दी वेदाज, पृ. १३)

योगी ी अरिब द ने अपने थं ''वेद रह य'' म िलखा हैः ''यूरोप के सव थम वैिदक िव ान ने सायण क
याखयाओं म यु ि यु ा क िवशेष प से शं सा क है तो भी, वेद वा अथ के िलए भी यह स भव नह है िक सायण
क णाली का या उसके प रणाम का िबना बड़े से बड़े सं कोच के अनु सरण िकया जाये।'' .......सायण णाली क
के ीय ु िट यह है िक वह सदा कमका ड िविध म ही सत रहता है और िनर तर वेद के आशय को बलपू वक कमका ड
के संकुिचत सांचे म ढालकर वैसा ही प देने का य न करता है .... सायण सव इसी िवचार (कमका ड) के काश म
य न करता है। इसी सांचे के अ दर वह वेद क भाषा को ठ क-पीटकर ढालता है, इसके िविश श द के समु दाय को
भोजन, पु रोिहत, दि णा देने वाला, धन-दौलत, तु ित, ाथना, य , बिलदान इन कमका ड परक अथ का प देता है।''

''सायण के भा य ने पु रानी िम या धारणाओ ं पर ामािणकता क मु हर लगा दी जो कई शताि दय तक तोड़ी नही


जासकती।''
''प रणामतः सायण भा य ारा ऋिषय का, उनके िवचार का, उनक सं कृ ित का, उनक अभी साओं का एक ऐसा
ितिनिध व हआ है जो उतना सं कुिचत और दा र योपहत है िक यिद उसे वीकार कर िलया जाए तो वह वेद के स ब ध
म ाचीन पू जा भाव को, इसक पिव ामािणकता को, इसक िद य खयाित को िब कु ल अबुि ग य कर देता है।''

(वेद रह य, पू वा , पृ. ५५-५८)

इतना ही नह , ी अरिब द ने योरोपीय िव ान , िजसम मै समूलर मु ख था, के वेदभा य पर अपनी िति या इस


कार य क ः
''सायण से अंगीकृ त ऐितहािसक त व को उसने (मै समू लर) तुरनत हण कर िलया और मं म आए सं ग के नए
अथ और नयी याखाऐं करके उसे िव तृत प दे िदया। ये नए अथ और नयी याखयाऐं इस बल अिभलाषा को लेकर
िवकिसत क गई थी िक वे मं उन बबर जाितय के ारि भक इितहास, रीित- रवाज और सं थाओ ं का पता देने वाले
िस हो सक।'' ....वेद के िवषय म आधु िनक (पा ा य) िस ा त इस िवचार से ार भ होता है िक वेद एक ऐसे आिदम,

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जंगली और अ यिधक बबर समाज क ोत-सं िहता थे, िजसक सामािजक रचना अस य थी और अपने चार ओर के
जगत् के िवषय म िजसका ि कोण िब कु ल ब च का सा था। इस िवचार के िलए उ रदायी है सायण।''

(वेद रह य, पू वा , पृ. ६०)।

ी अरिब द ने न के वल सायण और मै समू लर क वेदभा य शैली क आलोचना क बि क महिष दयान द क


भा य शैली को अ य त तकसं गत और वा तिवक माना। योगी जी िलखते ह:

“In the matter of Vedic interpretation, I am convinced that whatever may be the final
complete interpretation, Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right
clues. Amidst the chaos and obscurity of old ignorance and age long misunderstanding, his was
the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He
has found the keys of the doors that time had closed and rent asunder the seals of the
imprisioned fountains.”

(‘Dayanand and Veda’, Vedic Magazine, Lahore, November. 1916).


यानी ''वैिदक याखया के िवषय म मेरा यह िव ास है िक वेद क स पू ण अि तम याखया कोई भी हो, ऋिष
दयान द को यथाथ िनदश के थम आिवभावक के प म सदा स मािनतिकया जाएगा। पु राने अ ान और बीते युग क
िम या ान क अ यव था और अ प ता के बीच म यह उसक ऋिष ी ही थी िजसने स चाई को ढू ं ढ िनकाला और
उसे वा तिवकता के साथ बाँध िदया। समय ने िजन ार को ब द कर रखा था, उनक चािबय को उसी ने पा िलया और
ब द पड़े हए ोत क मु हर को उसी ने तोड़कर परे फक िदया।''

(दयान द और वेद, वैिदक मैगजीन, नव. १९१६, लाहौर; वेद का यथाथ व प, पृ. ५८)।

उपरो उ रण से सु प है िक मै समू लर ने वेद भा य तीन कार से िवकृ त िकया- पहला उसने भारतीय ारा
अमा य सायण शैल◌ ् ी को जानबूझकर अपनाया; और उसे भी पू री तरह नह अपनाया। दूसरे असने वैिदक सं कृ त भाषा
के श द को लौिकक सं कृ त भाषा के आधार पर ख च तान कर अथ िकए य िक वह िन व पािणनीय याकरण नह
जानता था; तीसरे उसक उद्दे य ही वेद भा य को िव िपत कर ि िटश सरकार के राजनैितक एवं धािमक (ईसाईयत) िहत
क पू ित के िलए िह दूधम को जड़ से उखाड़ फे कना था। तो िफर ऐसे पू वा ही और प पाती लेखक से कोई ऋ वेद के
स याथ क आशा कै से कर सकता है? इसीिलए मै समू लर ने वामीदयान द ारा उसक आलोचना का उ र देने का भी
कभी साहस नह िकया।
इसके अित र वेद भा य करते हए, मै समू लर का उद्दे य वेद के मौिलक स देश को उजागर करना नह था बि क
अपने उद्दे य क पू ित के िलए पू वा ह से सत होकर वैिदक सं कृ ित व धम के िवषय म ऐितहािसकता एवं वैचा रक
िवकासवाद िस कर करना था। इस सं दभ म मै समू लर का जीवनी लेखक िनराद चौधरी िलखता हैः
“The primary objective of Muller’s Sanskrit studies was neither philology nor literature as
such but the evaluation of religious and philosophical thought…Mentioning the fact that all later
Sanskrit books on religion, law and philosophy refer back to one early and unique authority
called by the comprehensive name of the Veda”.

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(ibid. p. 65)

अथात् ''मै समू लर के सं कृ त सािह य के अ ययन का उद्दे य न भारतीय के भाषा िव ान को जानने का था, और
न सािह य समझने का बि क उसका उद्दे य भारतीय के धािमक और दाशिनक िच तन के िवकास म को िस करना
था। उसने सु प कहा िक वेद के बाद भारतीय ारा िलखे गए धम, िविध एवं दशन सं बधं ीसभी सं कृ त गं◌्रथ उसी
ाचीन और अि तीय ामािणक ं थ िजसे िक एक यापक नाम वेद के ारा जाना जाता है, क ओर इंिगत करते ह।''

(वही, पृ. 165)

उपरो उ रण से सु प है िक मै समू लर मानता था िक िह दु ओ कें सभी धािमक ं थ वेद को ाचीनतम और


ामािणक मानते ह। यिद वेद म िकसी कार िवकासवाद िस हो जाए तो वेद क े ता वं य समा हो जाएगी। इसी
उद्दे य से उसने २९ जनवरी १८८२ क बैराम मालबारी को िन निलिखत प िलखाः
“As I told you on a former occasion, my thoughts while writing these lectures (the Hibbert)
were with the people of India. I wanted to tell those few at least whom I might hope to reach in
English what the true historical value of their ancient religion is, as looked upon, not from an
exclusively European or Christian, but from an historical point of view. I wished to warn against
two dangers, that of undervaluing or despising the ancient national religion, as is done so often
by your half – European youths and that of overvaluing it, and interpreting it as it was never
meant to be interpreted of which you may see a painful instance in Dayanand Saraswati’s
labours on the Veda.

“Accept the Veda as an ancient historical document, containing thoughts in accordance with
the character of an ancient and simple mined race of men, and you will be able to admire it, and
to retain some of it, particularly the teaching of the Upanishads, even in these modern days, But
disocover in it ‘ steam engines and electricity, and European philosophy and morality, ‘ and you
deprive it of its true character, you destroy its real value, and you break the historical continuity
that ought to bind the present to the past. Accept the past as a reality, study it and try to
understand it, and you will then have less difficulty in finding the right way toward the
future”.

(LLMM, Vol. 2, pp. 115-116).

अथात् ''जैसा िक मने तु ह एक दूसरे अवसर पर बतलाया था िक िहबट भाषण को िलखते समय मेरे िवचार का
ल य भारत के लोग के बारे म था। मै। उन थोड़े से लोग को बताना चाहता हँ िजन तकम कम से कम अं जे ी भाषा के
मा यम से उन तक पहँचने क आ ा◌ा करता हँ िक उनके ाचीन धम का स च ऐितहािसक मू य या है जैसा िक देखा
जाता है, न के वल यूरोपीय अथवा ईसाई ि से, बि क एक ऐितहािसक ि कोण से देखा जाता ह म दो खतर के ित
सावधान करना चाहता हँ; पहला भारत के ाचीन धम क उपे ा या उसका अवमू यन करना, जैसा िक तु हारे आ
यूरोपीय यु वक ारा िकया जाता है और दू सरा उस धम का अित मू यां कन करना या ऐसी याखया करना जो िक पहले
कभी नह क गई और इसका तुम एक दुःखदायी उदाहरण दयान द सर वती का वेद पर िकए गए प र म म देख सकते
हो।''
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''तु वेद को एक ाचीन ऐितहािसक द तावेज के प म वीकार , िजसम िक एक ाचीन और सीधे-साधे च र
वाली जाित के लोग के िवचार का वणन है, जतब तु म इसक शं सा कर सक गे और इसम से कु छ को वीकार करने
ये य हो सकोगे िवशेषकर आज के युग म भी उपिनषद क िश ओं को लेिकन तुम इसम ढू ं ढो, भाप के इंजन और
िबजली, यूरोपीय दशन और नैितकता, और तुम इसके स चे व प को, इससे अलग कर दो, तुम इसके वा तिवक मू य
को न कर दो और तु म इसक ऐितहािसक िनरं तरता को न - कर दो जो िक वतमान को इसके अतीत से जोड़ती चली
आ रही है। अतीत को एक वा तिवकता के प वीकारो, उसका अ ययन करो और उसे समझने का य न करो और
िफर तब तुमको भिव य के िलए अपना अगला सही कदम उठाने म कम किठनाई होगी।''

(जी.प. खंड , पृ. ११५-११६)

इसके अित र वेदभा य के िवषय म उसने वीकार िकया िक वेद-वैिदक सं कृ त म ह, न िक लौिकक सं कृ त म।


इसीिलए इनका स य अथ करना किठन ह। इस स य को उसने ऋ वेद के छः ख ड म भा य कािशत करने के ४३ वष
बाद यानी अपने जीवन के अिनतम चरण म वीकारते हए १८९० म कािशत अपनी पु तक, 'वैिदक िह स' क भू िमका
म िलखाः

“No one who knows anything of the Veda, would think of attempting, a translation of it at
present. A translation of the Rigveda is a task for the next century. “

(Vedic Hymes Vol. 1, Max Mullar and H. Oldenberg, 1890, Introduction, p. IX).
यानी ''जो कोई वेद के बारे म थोड़ा भी जानता हैा, वह वतमान म उसके भा य करने के यास क भी नह सोचेगा।
ऋ वेद के भा य का काम अगली सदीका है।'' उसने यहाँ तक िलखाः
“If by translation we mean a complete and satisfactory of final translation of the whole of
the Regveda, I shall be feel inclined to go even further then Prof. Von Roth. Not only shall we
wait till the next century for such a work, but I doubt whether we shall ever obtained it”.

(ibid. p. ix)
अथात् ''यिद भा य करने से हमारा ता पय ऋ वेद का स पू ण और स तोषजनक सही अनु वाद करने से है तो म
ोफे सर वान रॉथ से भी आगे जाना चाहँगा। हम न के वल अगली शता दी तक ती ा करनी होगी बि क मु झे सनह है
िक हम कभी भी ऐसा कर पावग''

(मै समू लर एवं औि डनबग, वैिदक िह स, खंड एक, भू िमका। ग्, १८९०)

मै समू लर ने उपरो श द तब िलखे ज बवह १८७६ म ऑ सफोड िव िव ालय से पदमु हो चु का था। १८८२ म
वेद पर याखयान दे चुका था जो 'इंिडया हाट के न इट टीच अस' पु सतक म छपे। इतने पर भी उसने अपने िपछले छः
खंड के ऋ वेद भा य म कोई सुधार लाने क इ छा नह जताई और न यह कहा िक मेरे ये वेद भा य अ ामािणक या
अस तोषजनक ह। उने बह िपएपन क एक पोल और खोलदू ँ िक उसने १८८७ म से ट जो स कॉलेज म भाषण देते हए
कहा िक ''मेरा काम ईसाई िमशन रय को धमा तरण काय म मदद करना है''। अतः मै समू लर अपने आ त रक दय से
िह दुओ ं के धम शा के ित िह दुओ ं म हेय भावना जगाकर उनह ईसाईयत म धमानत रत करने के उद् दे य से आजीवन
यास करता रहा। मगर उसी सभी मा यताएँ अनु िचत, यथाथ से परे अैर हठ धिमता से भरी होने के कारण अब िनर त हो
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चु क ह। पर तु िह दू िवरोधी िमशनरी और माि स ट मै समू लर क उ ह िघसी िपटी बात को मीिडया म उछालते रहते
ह।
मै समू लर के ऋ वेद एवं अ य िह दू धम शा के मू ल स देश को चयना मक आधार पर तोड़ मरोड़ कर तु त करने
का उद्दे य यही था िक भारतीय को ईसाईयत म धमा त रत करके ि िटश रा य को सु ढ़ बनाया जा सके । १८८७ म
सै ट ज स कॉलेज म भाषण देते हए उसने कहा, ''जब मने यूनीविसटी ेस के िलए इन अ यिधक मह वपू ण पिव पु तक
के अनु वाद का काम ार भ िकया, तो अनेक म से मेरा एक उद्दे य िमशन रय को सहायकता करना था।'' ''हम उस
िमशनरी के बारे म या सोचेग जो हमधमा त रत करने तो आया है पर तु उसने कभी हमारी बाइिबल नह पढ़ी......
लेिकन ऐसा कहा जाएगा, िक तु म इस बात से इ कार नह कर सकते हो िक िह दू बहदेवतावादी ह और वे मू ितय क पू जा
रकते ह लेिकन हम उनक अपनी बाइिबल-वेद जो िक भारत क िकसी भी पु तक से पहले क ह िनःस देह हम वहाँ ऐसी
दैवी शि के अनेक नाम पाते ह, अनेक देवता, जैसा िक हम कहने के आदी ह, लेिकन वहाँ ऐसे भी उ रण ह िजनम िक
ई र का एक व सु पट है।''
(जी.प. खं. १, भू िमका पृ. ४५)

यहाँ यह कहना उिचत होगा िक िह दू धम स ब धी िजतना भी सािह य त कालीन (१८४९-१९४७) ि टेन या भारत
म रहने वाले अं जे एवं ऑ सफोड िव िव ालय म िशि त अं जे और भारतीय लेखक ने िलखा है उस सब पर
मै समूलर के िह दू धम िवरोध क छाया प िदखाई देती है। आ य तो यह है िक ि टेन का िह दू धम िवरोध तो भारत
म ि िटश राज समा होने और अंगजे के चले जाने के बाद भी समा नह हआ और आज भी चला आ रहा है। अभी
२००९ म कािशत ऐ सा लोपीिडया ि टेिनका (ले० अथर लेबेिननन बाशम, जे.ए.बी. यूटीिनन और बडी डोनीगर-
टू डे टस होम एडीशन) म िलखा है िक-

(i) “Krishna was worshipped with his adulterous consort Radha.”

(ii) “Vishnu often acts deceitfully, selfishly or helplessely”.


(iii) About Shiva Lingam “It says, “ yet another epiphany is that of the ligam,
an upright rounded post usually of stone, respresenting a phallus in which
form he is worshipped throughout India.”
(i)अथात् ''कृ ण अपनी यिभचा रणी ेयसी राधा के साथ पूजा जाता था''

(ii) िव णु अ सर कपटता, वाथपरता, या िववशता से यवहार करता है।''

(iii) ''सारे भारत म िशव-िलंग क पू जा होती है'' आिद।


यहाँ यान देने क बात यह है िक ऐ सा लोपीिडया के ब धक को िह दू धम के बारे म िलखवाने के िलए कोई
िन ावान िह दू िव ान नह िमला बि क उ ह ने िह दू िवरोधी ि िटश लेखक से जानबूझकर िह दू धम शा के
बारे म िलखवाया तािक भारत म चच का धमा तरण का काम आसान हो सके । अतः मै समू लर ारा थािपत
िह दू धम शा के िवकृ तीकरण का आ दोलन ि टेन म आज तक चला आ रहा है।

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०९. मै समू लर ने वेद म या िवकृ त िकया
िनःस देह मै समू लर ने वेद के िविभ न िवषय पर ि िटा सरकार ओर ईसाईयत के िहत क पू ित के िलए यापक सािह य
िलखा। इसम वेद का रचनाकाल, एवं रचनाकार, वेद म मानव इितहास, वैिदक देवतावाद, बहदेवतावाद, वैिदक
कमका ड, भाषा का इितहास, िवकासवाद एवं धम के िविभ न िवषय पर अपनी िति ा य क तथा अनेक मनघड़ त
नवीन अवधारणाओं को ज म िदयाजो िक पर परागत वैिदक मा यताओं के पू णतया िव ह।

इसीिलए हम यहाँ पहले वेद के मु खय िवषय पर भारतीय ि कोण तुत करगे और िफर इस क समी ा करगे िक
मै समू लर ने या और िकस तरह वेद को िवकृ त िकया िजसे िक ि िटश सरकार ने यापक प से भारत तथा अ य देश
म चा रत िकया।

िह दू सं कृ ित म वेद का मह व

वेद का अथ है ान, या वह िव ा िजससे सभी सांसा रक, अिधभौितक ओर आ याि मक िव ाओं का ान होता है। वेद
ई रीय ान है। वेद का ान शा त् सावदैिशक सवाकािलक एवं मानवमा के िलए सामन प से कलयाणकारी है।
ई रीय ान होने के कारण वेद- ान मू ल है। वेद िन य ह। लय हो जाने पर भी वे ई र के ान म रहते ह।वेद, वैिदक धम
क आ मा है। ऐसा सभी िह दू धम शा मानते ह। वेद वतः माण ह अ य िह दू धमशा जैसे ा ण ं थ, आर यक,
उपिनषद, मृितयां, पु राण, आगम-िनगम, रामायण-महाभारत वेदानु कूल होने पर ही ामािणक ह, अ यथा नह । वेद-
िन िह दु ओं को मा य नह ह।

चार वेद के चार मु ख िवषय ह- ऋ वेद का मु खय िवषय ान, यजुवद का कम, सामवेद का उपासना, और अथव का
िवषय िव ान है। वेद म मनु य को लगातार अिधकतम सवागीण िवकास करने क ेरणा दी गई है। वेद स पू ण ान के
मू लमं ह। वेद म मू ल प से सभी िव ाऐं ह। वेद स य िव ाओं का पु तक होने के कारण येक वैिदक धम को वदे
का पढ़ना-पढ़ाना अिनवा है। इसीिलए िह दु ओं के सभी सं कार एवं कमका ड वेकल वेदमं ख,◌ारा िकए जाते ह। वेद
िह दू धम का आधार और आ था के के ह। इसीिलए कहा गया है 'वेदो िखलो धम मू लम्' (मनु. २◌ः ६) 'नाि त
वेदा परं शा ां' यानी 'वेद से बढ़कर अ य कोई शा नह है' (म.भा. अनु प. १०५.६५)। वेद म मानव इितहास नह है।
पर तु सभी नाम वेद से िलए गए ह।

सं पे म मिह दुओं के धम , दशन, सं कृ ित, आचार सं िहता एवं नैितक मू य का मू ल आधार वेद ही ह। इसीिलए ि िटश
शासक ने भी िह दुओं को ईसाईयत म धमा त रत करने और भारत म अपना थायी रा य थािपत करने के उद् दे य से
ऋ वेद व अ य िह दू धमशा को िवकृ त करने के िलए मै समू लर को अनु बिं धत िकया।

मै समू लर ने भी मानाः

“I think I may say that there really is no trace whatever of any foreign influencein
the language, the religion or the ceremonial of the ancient Vedic literature of
India…It presents us with a homegrown poetry and a home grown religion.”
(India. P. 128)

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"In these very books (Vedic literature), in the Laws of Manu, in the Mahabhaat
and in Puranas, the Veda is everywhere proclaimed as the highest authority in all
matters of religion."
(India, p. 130)
अथात् ''म मानता हँ िक वा तव म भारत के ाचीन वैिदक सािह य, भाषा, धम और कमका ड पर िकसी तरह का
कोई बाहरी भाव नह है.... यह का य और धम पू णतया भारतीय है। इसी िलए वैिदक सािह य मनु मृित महाभारत
औरपु राण म, सभी जगह धम के िवषय म वेद को सव े ामािणक गं ◌्रथ कहा गया है।''

(वही, पृ. १२८)

मै समू लर वेदा ययन को अनेक कारण से मह वपू ण और अिनवाय मानता है। वह िलखता हैः

"I maintain then that for a study of man, or, if you like, for a study of Aryan
humanity, there is nothing in the world equal in importance with the Veda. I maintain
that to every body who cares for himself, for his ancestors, for his history, or for his
intellectual development, a study of vedic literature is indispensable; and that, as an
element of liberal education, it is for more important and far more improving, than the
reigns of Babylonian and Persian kings, aye even the, dates and deeds of many, of the
kings of ludah and Israel.
(India, pp. 102-103)
अथात् ''आय लोग , यहाँ तक िक मनु यमा के िवकास के अ ययन के िलए िव म वेद के समान अ य कोई
मह वपू ण नह है। म यह भी मानता हँ िक कोई यि वयं अपने, अपने अपूवज , अपने इितहास अथवा अपने बौि क
िवकास के बारे म जानने के िज ासा रखता है,उसके िलए वैिदक सािह य का अ ययन न के वल अप रहाय है और बि क
उदार ि से अ ययन के िलए यह बैबीलोिनयाई अथवा परिसयन राजाओं, यहाँ तक िक बाइिबल के जुडाह और
इज़राइल के इितहास और उन राजाओं के कारनाम जानने से भी अिधक मह वपू ण है।''

(इंिडया, वही पृ. १०२-१०३)

अतः मै समूलर आय जाित ही नह , बि क मानव इितहास को जानने के िलए वेद के अ ययन को


परमाव यक मानता है। इसिलए िह दुओं के आचार -िवचार, रीित- रवाज सं कार व सं कृ ित जानने के िलए
वेद का अ ययन अ य त मह वपू ण है। वेद देववाणी है। अतः उसके स याथ को समझने के िलए ाचीन
या क क नै य वेद भा य शैली को अपनाना चािहए िजसका िक उ नीसव सदी म महिष दयान द
सर वती ने पु र ार िकया है।
मै समू लर क ि म वेद का थान

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एक कट् टर ईसाई होने के कारण मै समू लर वेद को बाइिबल से िनचली णे ी का मानता है। कै थोिलक कौमनवे थ
को िदए गए एक सा ा कार म यह पू छे जाने पर िक िव म कौन-सा ं थ सव म है, तो उसने कहाः
“……there is no doubt, however, that ethical teachings is far more prominent in the Old and
New Testament than in any other Sacred Book.” “He also said “ It may sound prejudiced, but
taking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its
moral teachings, is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would
follow…..according to my opinion the Old Testament, the Southern Buddhist Tripitika….the
Veda and the Avesta.”

(LLMM. Vol. 11. pp. 322-323).

अथात् ''इसम कोई स देह नह िक य िप, िकसी भी अ य 'पिव पु तक' क अपे ा (ईसाईय के धम थं ) ओ ड
अैर यू अै टामट म नैितक िश ऐं मु खता से िव मान ह। उसने यह भी कहा यह भले ही िकसी को प पातपू ण लगे
लेिकन सभी ि य से म कहता हँ िक यू टे टामट (सव म ) है। इसके बाद, म कु रान को कहँगा जो िक अपनी नैितक
िश ाओं म यू टे टामट के नवीन सं करण के लगभग समीप है। उसके बाद... मेरे िवचार से ओ ड टे टामट (यहिदय का
धम ं थ), दी सदन बुि ट ि िपिटका, (बौ का धम ◌ं ्रथ) वेद और अवे ता (पारिसय का थं ) है''।

(जी. प., ख. 2, पृ. 322-323)


अतः मै समू लर ईसाईय के धम थं बाइिबल को सबसे े और वेदको कु रान से िनचले और अवे ता से उ म णे ी
का मानता है। इससे अिधक हठधम व प पात और या हो सकता है? स ाईस पु तक एवं अनेक लेखक ारा िलखी
गई, हजार िवरोधाभास से पू ण, ५ वोट क अिधकता से चु नी गई, औिथक क िसल म ३९७ ईसवी म वीकृ त- यू
टे टामट, भला ेरणादायक व स य ान से ओत- ोत वेद से उ म कै से हो सकती है? यू अै टामट के वतमान व प को
तो १५४६ म वैधता दान क गई।

(एल. गाडनर, लड ऑफ दी होली ल


े , पृ. ५०)

या मै समू लर बाइिबल स ब धी उपरो त य से अनजातना था या उसने जानबूझकर वेद को िन न तर का


कहा?
वेद का रचना काल

िह दू धम क मा यता है िक ई र ने वेद क रचना सृि यानी ाणी मा आिद क रचना के साथ क और वैिदक
काल गणना के आधार पर आज (२००९ सदी तक) वेद क रचना हए एक अरब िछयानवे करोड़ आठ लाख ितरेपन
हजार एक सौ दस (१,९६,०८,५३,११०) वष हो गए ह। आधु िनक िव ान भी मानव रचना को लगभग इतना ही मानता
है। िह दु ओं के कमफल िस ा त क वैधािनकता इसी बात पर आधा रत है िक मनु य को उसके कम और उसे फल व
द ड को मनु यके जनम के साथ ही उसे बता िदया जाए। अतः परमा मा ने मनु य क सृि के साथ ही उसके िलए वेद के
प म अपेि त ान का काश िकया। अतः वेद आिद सृि काल से ह।

इस स य को मानते हए मै समू लर िलखता है िकः

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“If there is a God who has created heaven and earth, It will be unjust on His part if
He deprives millions of His souls, born before Moses of His devine that God gives
His Divine knowledge from his first appearance on earth.”
(Science and Religion).
अथात् ''यिद धरती और काश का रचियता कोई परमे र है तो उसके िलए यह अ यायपूण होगा िक वह मोिजज से
पू व उ प न लाख पु ख को अपने ान से वं िचत रखे। तक और धम का तु लना मक अ ययन दोन घोिषत करते ह िक
परमे र सृि के आिद म ही अपना ान मनु य को देता है।''

(साइंस और रलीजन)

िह दू धम के िलए गौरव क बात है िक वेद भी इस बात क पुि करते ह:


ऋतञ्च स यञ्चािभ तपसो यजायत् (ऋ. १०.१९०.१) यानी ''परमा मा ने अपने ान बल से, ऋत और
स य के नाम से, स पू ण िविध-िवधान का िनमाण िकया।'' इसी क पु ि म महाभारत म वेद यासिलखते ह:-
अनािद िनधना िन या वागु सृ◌ृ ा वय भुवा।

आदौ वेदमयी िद या यतः सवाः व यः(शां. प. २३२◌ः २४)

यानी ''सृि के आिद म वय भू परमा मा से ऐसी िद य वाणी (वेद) का ादु भाव हआ जो िन य और िजससे सं सार
क वृि याँ-, (गितिविधयाँ, कमािद) चले। मनु मृित के अनु सार ''सब पदाथ के नाम, िभ न-िभ न कम और यव थाऐं,
सृि के ार भ म, वेद के श द से ही बनाई गई है।''

(१◌ः२१)
अतः वेद का रचनाकाल सृि के आिद से ह। वेद के रचनाकाल के सं बधं म मै समू लर अपनी पु तक 'िह ी ऑफ
एि शए ट सं कृ त िलटरेच र' (१८५९) म िलखता है िक "We may arrive at 1200 to 1000 B.C. as the
initial period of the Vedic poetry" यानी ''वैिदक किवता का ारि भक काल १२०० से १००० ई.
पू. तक के प म माना जा सकता है।'' उसी का अनु सरण करते हए अिधकां श पा ा य लेखक ने वेद का
रचनाकाल २००० ई.पू. तक माना हैः
(१) ड लू डी ि हटनी- १२०० ई.पू. (ओ रयं टल ए ड िलं ि व ट टडीज, १८७२)
(२) एल. वोन ोडर- २००० ई.पू. (इि डयन िलटरे चर ए ड क चर)
पर तु जैकोबी ने ४५०० वष ई.पू. माना (उबेर डास आ टर डस ऋ वेद) तथा दीनानाथ चु नैट ने वेद क
रचना को तीन लाख वष पु राना माना (वेद काल िनणय)।

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मै समू लर ने जहाँ १८५९ म, वेद का रचनाकाल १२०० ई.पू. माना वह १८९० म अपनी पु तक
'Physical Religion' पृ , १८ पर कहाः "We could not hope to be able to lay down any
terminus a quo. Whether the Vedic hyms were composed in 1000 or 1500 or 2000 or
3000 BC, no power on earth could ever fix." यानी ''हम (वेद के आिवभाव) क कोई अि तम
सीमा िनधा रत कर सकने क आशा नह रख सकते ह। वैिदक सू १००० ई.पू. या १५००, २००० या
३००० ई.पू. म, सं सार क कोई शि नह जो िक इसक ितिथ िनि त कर सके ।''
इसी का समथन करते हए िबं टरिनट्ज़ ने अपनी पु तक 'The Age of the veda' (pp 10-11) म
कहा "We must, however, guard against giving any definite figures where such a
possibility is, by the nature of the case excluded"
अथात् ''हम कोई िनि त सं खया देने से बचना होगा जबिक यह िवषय ही ऐसा है िजसम कोई िनि त
ितिथ देने क स भावना नह है।''
इसी कार '' रलीजन ऑफ दी वेदाज'' का लेखक मौ रस लूमफ ड िलखताहैः
“Anyhow, we must not be beguiled by that kind of conversation which merely salves the
conscience into thinking that there is better proof for any later date such as , 1500, 1200 or 1000
B.C. rather than the earlier date of 2000 B.C. Once more frankly we do not know”.

अथात् ''कु छ भी हो हम इस कार क अनुदारता के धोखे म नह आना चािहए जे अपनी आ मा को के वल स तु


कर लेती है िक १५००, १२०००, १००० ई.पू. को मानने के िलए क अपे ा २००० ई.पू. के अिधक अ छे माण ह-
''एक बार िफर यिद प वािदता से कहना हो तो हम कहगे िक हम नह जानते।''

( पृ. 19)

अब हम इस िवषय क समी ा नोिबल पु र कार िवजेता मैटरिलंक क िट पणी के साथ समा करते ह। अपनी पु तक
'' टे सी े ट'' म वह िलखता हैः
“As for the sources of the primary source(of Veda), it is almost impossible to re-discover
them. Here we have only the assertions of the occultist tradition, which seem, here and there, to
be confirmed by historical discoveries. This tradition attributes to the vast reserviour of the
wisdom that somewhere took shape simultaneously with the origin of man… to more spiritual,
entitles, to begins less entangled in matter.”

(prelog p. 6).

इसका सारां श यह है ''िक (वेद के ) आिद ोत को िफर से खोज लेना असं भव ाय है। यहाँ हम अ या मवादी पर परा
के वचन िमलते ह िजनक कही-कह ऐितहािसक अनु सा धान से भी पु ि होती है। इस पर परा के अनुसार ान के
िवशाल भं डार का आिवभाव मनु य क उ पि के साथ अिधक आ याि मक और कृ ित म अनास यि य पर हआ''

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( टे सी े ट, ीलोग पृ. ६)। इसी स दभ म मैटरिलंक ने िस ज न पु रात ववे ा हालेड के कथन को उ त िकया िक
'' ाचीन शा (वेद) कम से कम स र लाख (७०,०००,००) वष पु राने है''। इन उदाहरण से वेद के रचनाकाल क अित
ाचीनता िस होती है।
वेद के रचनाकार

िह दू धम क पर परगत मा यता है िक मनु य के सवागीण िवकास के िलए मू ल ान क आव यकता होती है। अिद
मू ल ान को मनु य नह बना सकता है। उसे के वल सं सार का सृि कता सव परमे र ही दे सकता है। मनु य मू ल ना को
िवकिसत, सु प एवं यावहारयो य बना सकता है। िकसी भी ान के ई रीय होने के िलए यह आव यकहै ि◌ कवह
ान मानव सृि के आिद म िदय गया हो। वह मानव इितहास, राजा-रािनय क कहािनय , राजनैितक यु आिद के
वणन से मु हो, न िक जैसा हम इितहास, रामायण, महाभारत, बाइिबल व कु रान म देखते ह। वह ान, स य, तकसं गत,
िववेकपूण , िवकासो मु ख, मानव क याणकारी, सबके िलए एक समान, सविहतकारी एवं प पात रिहत हो। वह ान
जाितभेद, िलंगभेद , वगभेद, भाषाभेद से मु हो। वह ान सावदेिशक, सावकािलक, सव-समान, एवं मत, पं थ और
स दाय के प पात से मु हो। वह वै ािनक, सृि िनयम के अनु कूल और िवरोधाभास से मु हो। वह ान पू णतया
समता, ममता और मानवतावादी हो।

िह दुओं के िलए यह गौरव क बात है िक िव धमगं ◌्रथ म से के वल उनके धम थं वेद म ही ये सभी ल ण


िव मान ह। मनु यकृ त कोई धम जैस-े ईसाईयत, इ लाम आिद इन ल ण क पू ित नह कर सकता है। इसीिलए वेद
ई रीय ान है। ऐसा वयं वेद से भी सु प हैः
(१) 'अपूवणेिषता वाच ता वदि त यथायथम् । वद तीय ग छि त तदाह ा णं महत्'॥

(अथव. १०.०८.३३)
''उस कारण रिहत परमा मा ने अपार कृ पा करके सृि के आिद म मनु य के िलए ा ान का उपदेश िदया िजससे
हम यथाथ ान ा होता है''
(२) 'त मा ा सववहत ऋचः सामािन जि रे, । छ दां िस िज रे त मा जु त मादजायत'॥

(यजु. ३.१७)

''हे मनु य ! उस पू ण अ य त पू जनीय, िजसके िलए सब लोग सम त पदाथ समपण करते ह, उसी परमा मा से ऋ वेद,
यजुवद, सामवेद और अथववेद उ पनन हए।''
(३) या मा चो, पात न् यजु य माद याकान्,। सामािन य य लोमा यथवा गरसो मु खम्॥

(अथव. १०.७.२०)

''जो सवशि मान् परमे र ह उसी से ऋ वेद, यजुवद, सामवेद और अथववेद उ प न हए। उसी को तु म वेद का क ा
मानो।''

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वेद के इ ह ल ण के कारण वेद के का ड िव ान् महिष दयान द ने कहा ''सब स यिव ा और जो पदाथ िव ा
से जाने जाते ह, उनका आिद मू ल परमे र है। वेद सब स य िव ाओं का पु तक है।'' वामी िववेकान द ने भी ान को
शा त माना हैः

“All these vedantists also believe the Vedas to be the revealed word of God. The
Vedas are expression of knowledge of God and as God is eternal. His knowledge is
eternally with Him and so are the Vedas eternal."
(Complete Works of Swami Vivekanand Vol. 2, p 239).
अथात् ''वेद ई र क वाणी है। ये ई री ान क अिभ यि है य िक ई र शावत् है। इसिलए वेद ान भी शा त्
ह।

( वामी िववेकान द ं थमाला, खं. २, पृ. २३९)

अतः चार वेद म जो आिद ान है, उसका रचनाकार परमे र ही है।


मं ा ऋिष

वेद के वतमान सं करण म येक वेद मं या मं समूह के चार िवशेष ल ण िदए गए ह- ऋिष, देवता, वर और
छ द। यहाँ मं के ऋिष का भाव है- मं के रह य को सु प करने वाला, देवता-मं का मु खय िवषय व के िब दु, वर-
उ चारण िविध और छ द-उसी ग -प म रचना िवशेष है। पर तु मै समू लर आिद लेखक ने वेद मं के साथ िलखे
िव ािम , अंिगरा, भार ाज आिद ऋिष को उस मं िवशेष का रचनाकार मानाः "Rishi or Seer means no more
than the subject or the author of a hymn" (India ibid, p. 134), जो िक वैिदक पर परा के पू णतया िवपरीत
है। वैिदक पर परा के अनु सार मं का ऋिष उस मं ख का रचनाकार नह बि क उस मं के रह य का सा ा कार एवं
याखया करने वाला और उसका थम टा है 'ऋषयो मं ारः' (िन . २ : ११) अथात्या काचाय कहता है ''िजस-
िजस मं का दशन िजस-िजस ऋिष ने सव थम िकया और वह स य-मं ार्◌ाि◌ उसने दूसर को पढ़ाया। इस इितहास
क सु र ा के िलए आज तक मं के साथ इस मं ाथ ा ऋिष का नाम मरणाथ् िलखा जाता है'।'

(िन : १ : २०)

इसीिलए तै रीय सं िहता, ऐतेरय ा ण, का व सं िहता, शतपथ ा ण एवं सवानु मणी म मं के ाओं को ही
ऋिष नाम से स बोिधत िकया गया है तथा अनेक माण िदए ह। अतः मं के साथ िलखे ऋिष का नाम उस मं का
लेखक नह , परनतु उसका स याथ ा एवं थम चारक है। ऐसी ही वैिदक पर परा है। मै समू लर आिद पा ा य िव ान
का मं के ऋिष को उस मं का रचनाकार कहना एक म और अवैिदक पर परा है।
वेद क मौिलकता

वेद के आिवभाव को करोड़ वष हो गए। पर तु वे आज भी उसी मैिलक प म ह। उनम मं तो या श द व मा ा


तक का अ तर नह हआ है। इनम पु राण व मृितय क तरह कोई बाहरी िमलावट नह हो सक है। ऐसा य नह हो
सका? वेद को ु ित भी कहते ह। वेद के आिद ऋिष ने, ई रीय ान वेद अपने िश य को श द-अथ सिहत सुनाकर उ ह
यादकराया। सु नकर दय म धारण िकए जाने के कारण इनह ु ित भी कहते ह। ऋिषय ने वेद क मौिलकता एवं
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ामािणकता को सु रि त रखने के उद्दे य से मं को िविभ न कार से दय म धारण िकया। जैसे मं के श द को िबना
म बदले सीधे-सीधे ( कृ ित पाठ) और िविभ न कार से उलट-फे र (िवकृ ित पाठ) करके याद िकया और गु -िश य
पर परा से यह यव था हजार वष तक चलती रही। ये मं पाठ िविधयां कम से कम तेरह ह। पाँच कृ ित पाठ जैसे-
सं िहता, पद, यु म, म डु लु त और म पाठ, तथा आठ िवकृ ित पाठ िविधयाँ ह जैस-े जटा, माला, िशखा, रे खा, वज,
द ड, रथ और घन। अतः इन तेरह कार से वेद के मं को मरण करके इ ह मौिलक व प म रखा गया। (पालीवाल,
वेद प रचाियका, पृ. २७-२८) मै समू लर ने भी माना िक ''वेद के पाठ हमारे पास इतनी शु ता से पहँचाए गए ह िक
किठनाई से कोई पाठ भेद अथवा वर भेद तक स पू ण ऋ वेद म िमल सक''

(ओ रिजन ऑफ रलीजन, पृ. १३१)


“The texts of the Veda have been handed down to us with such accuracy that there is hardly
a various reading in the proper sense of the word or even an uncertain accent in the whole of
Rigveda.”

(Origin of Religion. P.131).

यही बात ो. मै डोनल और डॉ. के गी ने कही है। अतः वेद म कोई िकसी कार क िमलावट नह है। इसीिलए वेद
के स देश आज भी स य, मोिलक और ामािणक ह। ऐसा येक िह दू िव ास करता है।
वैिदक देवतावाद

वेद म 'देव' और 'देवता' दोन श द का यापक योग हआ है। दोन श द एकाथक ह। पर तु अिधकां श पा ा य
िव ान दोन श द का अथ 'गॉड' या परमे र करते है॥ जबिक दोन श द के अथ, िवषयानु सार, ई र के अित र और
भी होते ह। सब जगह एक समान परमे र नह ।

वेद म येक मं , मं समू ह अथवा सू के साथ उसका देवता, िलखा होता है। यहाँ देवता श द का अथ है- ''मं
का ितपा िवषय'' या 'मं को के िब दु' (तेन वा येन यत् ितपा ं वसतु या देवता- वेदाथ दीिपका) यह देवता या
मु खय िवषय, परमे र एवं अ य, कु छ भी हो सकता है। ऋिषय ने मं के साथ उसका देवता इसीिलए िलखा है तािक
पाठक व भा यकार उस मं का अथ मु खय िवषय या उसक देवता के अनु सार कर; न िक िकसी श दिवशेष को के
िब दु बनाकर या उस श द के अथ क ख चातानी करके मं ाथ कर। जैसा िक मै समू लर जैसे अनेक पा ा य िव ान ने
िकया है।

वेद म मं के देवता अि न, वायु, इ , म त, िवषणु, सू य आिद श द ारा य िकए गए ह। ऐसे देवता एक से


लेकर छः हजार (ि वेदी, वैिदक दशन, पृ. १२२) तक कहे गए ह। मगर वेद के मु खय देवता तेतीस ह। ये ८ वसु, ११ ,
१२ आिद य, इ और जापित (परमे र) िमलाकर तेतीस ह। पर तु मै समू लर ने इनक पि नयाँ भी बता द (इंिडया,
वही पृ. १३२) जबिक वेद मं वसु, व आिद य क पि नय का सं केत भी नह है। वेद मं के हजार देवता होने का
अथ यही है िक वेद के िविभ न िवषय ह। तथा आिधदैिवक, अिधभौितक और आ याि मक प से मं के अथ करने पर
उनके अनेक िवषय हो जाते ह।
देव/देवता का अथ

िन के अनु सार, ''देवो दानाद् वा दीपनाद वा ोतनाद् वा ु थानो भवतीित वा''। ''यो देवः सा देवता''
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(िन ७.१५)

इसके अनु सार ान, काश, शाि त, आन द तथा सु ख देनेवाली सब व तु को देव या देवता के नाम से कहा जा
सकता है। इसीिलए यजु० (१४.२०) म कहा हैिकः
अि नदवता वातो देवता सूय देवता च मा देवता वसवो देवता दा देवतािद या देवता म तो देवता िव े
देवा देवता बृ ह पितदव ोदेवता व णो देवता।

(यजु. १४.२०)

अतः जो परोपकारी, दानदाता वयं काशमान एवं अ य को ान एवं काश देने वाला और ौलोक म थित हो,
देव या देवता है। इसीिलए िद यगुण से यु होने के कारण परमा मा देव है , आधार देने से पृ वी, ऊजा, काश व जीवन
देने से सू य, शाि त देने से च मा और ाणवायु देने के कारण वायु, देवता है।
भारतीय पर परा के अनु सार वैिदक श द के अथ, कम से कम- आिधभौितक, आिधदैिवक और आ याि मक तीन
कार से िकए जाते ह। उदाहरण के िलए महिष दयान द ारा िकए गए ऐसे कु छ देवताओं के अथ यहाँ िदए गए ह। पर तु
वामी जी मानते थे िक परमे र ने मनु य को वेद उसके क याण और दैिनक जीवन म यवहार म लाने के िलए िदए ह।
इसिलए उ ह ने अपने वेद भा य म एक चौथा यावहा रक अथ भी िदया है। वामी जी के अनु सार कु छ वैिदक देवताओं
के िविभ न अथ िन निलिखत ह:

(रामनाथ, पृ. १०१-१०३)

पारमािथक अथ यवहा रक अथ

देवता का नाम अ या म ई र- अ या म शरीर-परक अिधदैवत अिधभू त


परक
१. अि न परमे र जीवा मा जठराि न पािथव अि न िव ान, सभा य , राजा,
िव तु , सू य सेनापित, वै , योगी,
यायाधीश, अ यापक,
उपदेशक, नेता
२. सू य परमे र ाण, -जीवा मा सू य, वायु, - राजा, िव ान, सेना य , वै
िव तु ्
३. आपः परमे र ाण जल, त मा ाएं माताएं, क याएं, आ जाएं
४. इ परमे र जीवा मा, ाण सू य, वायु, िव तु ् स ाट, शूरवीर, िव ान, सेनापित,
िश पी, गृहपित, धिनक,
िववािहत, पित, अ यापक,
उपदेशक, कृ षक, वै
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५. जातवेदाः परमे र जीवा मा सू य, अि न, िव ान्, सभा य , राजा
६. बृह पित परमे र सू य, वायु, िव ान्, राजा, राजपु ष
िव तु ् चारी, अितिथ, िश पी,
वै य, सेनापित

७. म तः ाण वायु मनु य, अ यापक, शूरवीर,


िश पी
८. िम परमे र ाण सू य, वायु सु त, राजा, सेनेश, िव ान्
९. यम परमे र योगाङ् ग वायु, िव तु ् , सू य िनय तावीर, यायकारी राजा,
सेनेश
१०. परमे र ाण, जीव अि न, वायु, राजा, सेनापित, वीर, िव ान,
समि ाण वै , तोता, ४४ वष का
ह्मचारी।
११. व ण परमे र ाण, अपान,उदान वायु, जल, च , सेनापित, सिचव, राजा, िव ान
सू य, अि न,
िव तु ् , समु
१२. वायु परमे र ाण, अ तःकरण, पवन, सेनेश, मनु य, योगी, िश य,
इि यां राजा सेनापित, गृह-पित, िश पी

१३. िव णु परमे र ाण, य िव तु ् , सू य सेनापित, योगीराज, गृहपित,


िश पी
१४. िव णु परमे र ाण, य िव तु , सू य सेनापित, योगीराज, गृहपित,
िश पी
१५. वै ानर परमे र जठराि न अि न, िव तु ् , राजा, पर ोपासक, उपदेशक
सू य
१६. सिवता परमे र सू य, वायु, िव तु ् राजा, सभा य , िव ान,
गृहपित

ई र एक-नाम अनेक

मै समू लर ने वेद मं के साथ िलखे देवता श द-अि न, वायु, इ , पृ वी आिद तथा साथ ही ऋिष का नाम देखकर
यह चा रत कर िदया िक वेद के लेखकर न के वल बहदेवतावादी ह, पर तु वे भौितक य जड़ शि य जैसे सू य, च ,
पृ वी, आिद के पू जक भी ह। पर तु वह इस यास म सफल न हो सका। य िक पहले तो चार वेद म एक ही देव परमे र
को पू जा-अचना- ाथना करने का उपदेश िदया गया है। दू सरे उस परमे र अजर, अमर, अभय, अनु पम, अन त, अनािद,

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पिव , कमफल दाता, िनराकार, िनिवकार, यायकारी, सवशि मान, सव यापक,सवाधार, सव र, सवा तयामी,
सृि क ा आिद िवशेषण ारा कहा गया है। तीसरे यह भी सु प िकया गया है िक उसी एक परमे र के अनेक नाम ह।
वही एक परमे र व ण है, वही अि न, अयमा, यम, महादेव आिद नाम से जाना जाता है। वही परमे र इ और वही
िम , व सू य है और वही म त, ता र ा है। उसी एक परम परमे र को िव ान लोग िविभ न गुण के कारणा अनेक
नाम से पु कारते ह, और िविभ न प म देखते ह।

येक िह दू इसी भावना से उसी एक ही सवशि मान परमे र क िविभ न नाम एवं िविभ न प म अचना करता
है। वेद सु प कहते ह-
१. 'देवो देवामिस' (ऋ. १.९४.१३)। 'देव के देव तुम ही हो।'

२. 'य एको, अि त दंसना महां उ ो अिभ तेः (ऋ. ८.१.२७) 'जो अपनी तेजि वता के कारण परमे र है, वह
एक ही है।'
३. 'स एष एक-एक वृ देक एव- (अथव. ३.४.२०) 'वह परमा मा एक है, एक होकर सव यापक है। वह एक ही है।'

४. 'अज एक पात्' (यजु. ३४.५३) 'वह परमे र अज मा है।'

५. इ ं िम ं व णमि न माहपरथो िद यः स सुपण ग मान्। एकं सद् िव ाबहधा वदि त अि नं यमं


मा र ान माहः॥

(ऋ १◌ः १६४ : ४६)


''वहपरमा मा एक है, ानी लोग उसे िविभ न नाम से पुकारते ह। उसी को इ िम , व ण, अि न, सु पणा। और
ग मान् कहते ह।''
६. 'स धाता स िवध ा स वायु नभ उिच तम्। सो यमा स व णः स ः स महादेवः। सो ि न स ३ सूयः
स ३ एव महायमः

(अथव : १३ : ४ : ३-५)

''वही परमे र, धाता, िवध ा, वायु, अयमा, व ण, , महादेव, अि न, सू य एवं महायम है। यानी ये िविभ न नाम
उसी परमे र के ह।''
७. ''न ि तीय तृ तीय तु थ ना यु यते। न पञ्चमो न ष ः स को ना यु यते। ना मो न नवमो दशमो
ना यु यते।'' (अथव. १३◌ः ४◌ः१६-१८)

''वह (परमे र एक ही है, उसे दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवां, छठा, सातवां, आठवां, नौवां दशवां नह कहा जा
सकता।''
८. ''तू ही इ , िव णु, , ण पित; व ण, िम अयमा, , पूषा, िवणोदा, सिवता, देव और भग
है।''

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(ऋ. २◌ः १◌ः ३, ४, ६, ७)
९. ''वही एक वयप होने से अि न, अिवनाशी होने से आिद य, संसार को गित देने के कारण वायु,
आन दायक होने से च मा, शु व प होने से शु , सबसे बड़ा होने से , सव यापक होने से आपः और
सारी जाओं ( ािणय ) का पालक होने से जापित ह।''

(यजु. ३२ : १)

ो. ि जदास द के अनुसार ऋ वेद के ार भ से लेकर अ त तक अनेक मं म एके रवाद सु प है जैस-े


१-२१-३. ४, ५,६,७,८,९; २- ३- ८; २-१२-५, ८, ९; २-१३-६; २-१६-१, २; २-१७-५; २-३५-२; २-३८-९; २-
४४-१६, १७; ३-१६-२; ३-५१-४; ३-५३-८; ४-१७-५; ४-३२-७; ५-३२-९; ५-४०-५; ५ ८५-६; ६-१८-२; ६-२२-
१; ६-३०-१; -३६-४; ६-४५-२; ६-४७-१८; ७-२३-५; ७-९८-६; ८-२-४; ८-१३-९; ८-१५-३ ८-२४-१९; ८-३०-
१०; ८-५८-२; ८-७०-५; ८-९०-२, ३, ४; ८-११४-४; १०-५-१; १०-३१-७८; १०-३२-३; १०-१२१-१२, ३, ८.
आिद (ऋ वेद अनवी ड, पृ. १८४)

हीनोथीज़म
जब मै समू लर परमे र के िलए यु िविभ न नाम म न तो एक व ही देख सका और न बहदेवतावाद िस कर
सका, तो उसने वैिदक दवे तुित प ित के िलए एक नय श द क नोथी म या हीनाथी म गढ़ा था वह िलखता हैः

“If therefore there must be a name for the religion of Rig Veda, polytheism would
seem at first sight the most appropriate.’ The vedic polytheism differs from the
Greek and Roman polytheism….” It was necessary, therefore, for the purpose of
accurate reasoning to have a name, different occupying for a time supreme position,
and I proposed for it the name of Kathenothesim, that is a worship of the one god
after another, or a Henothesim, the worship of single god.”
(India pp. 132-133)
''इसीिलए यिद ऋ वेद के धम के िलए कोई नाम देना चाह तो थम ि म ही उसके िलए बहदेवतावाद कहना सबसे
अिधक उपयु होगा''... साथ ही कहता है िक ''वैिदक बहदेवतावाद ीक और रोमन बहदेवतावाद से िभ न है...''
इसिलए इसका सबसे तकयु व सही नम होने के िलए बहदेवतावाद से िभ न नाम देना आव यक था तािक एक ही समय
म सव म देवता क पू जा क भावना य क जा सके । इसके िलए जो नाम मैने तािवत िकया, वह था क नोथी म
अथवा हीनाथी म यानी िक एक समय म एक के बाद अके ले दूसरे देवता क पू जा करना।''

(इंिडया, वही. पृ. १३२-१३३)


वैिदक बहदेवतावाद के िलए इस मन कि पत अनु पयु श द हीनाथी म क ी अरिवनछ एवं अ य िव ान ने कड़ी
सटीक आलोचना क । ी अरिव द ने िलखाः

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“What is the main positive issue in this matter? An interpretation of Veda must
stand or fall by its central conception of the Vedic religion and the amount of support
given to it by the intrinsic evidence of the Veda itself.
Here Dayanand’s view is quite clear, its foundation inexpugnable. The Vedic
hymns are chanted to the One Diety under many names, names which are used and
even designed to express His Qualities and Powers. Was this conception of
Dayananda’s arbitrary concept fetched out of his own too ingenuous imagination?
Not at all; it is the explicit statement of the Veda itself.
One existent ‘sages-not the ignorant, mind you, but the seers, the men of
knowledge-speak of in may ways, as Indra, as Yama, as Maharishwan , as Agni. ‘The
Vedic Rishis ought surely to have known some thing about their own religion, more,
let us hope than Roth or Maxmuller and this is what they knew.
We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn,
they say was a later production. This loftier idea which it expresses with so clear a
force, rose up some how in the later Aryan mind or was borrowed by those ignorant
fire-worshippers, sun-worshippers, sky-worshippers from their cultured and
philosophic-Dravidian enemies. But throughout the Veda we have confirmatory
hymns and expressions. Agni or Indra or another is expressly hymned as one with all
the other gods. Agni contains all other divine powers within himself, the aruts are
described as all the gods. One deity is addressed by the names of others as well as his
own, or most commonly, he is given as Lord and king of the universe, attributes only
appropriate to the Supreme Diety. Ah, but that can not mean, ought not to mean,
most not mean the worship of one; let us invent a new word, call it henotheism, and
suppose that the Rishis did not really believe Indra or Agni to be the Supreme Diety,
but treated any god or every god as such for the once, perhaps that he might feel the
more flattered and lend a more gracious ear for so hyper-bolic a compliment! But
Why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism? Rather than
this new fangled monstrosity of henotheism. Well, because primitive barbarians
could not possibly have risen to such high conceptions and if you allow them to have
so risen you imperil our theory of the evolutionary stages of the human development
and you destroy our whole idea about the sense of the Vedic hymns and their place in
the history of mankind. Truth must hide herself, common sense disappear from field
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so that a theory may flourish ! I ask on this point and it is the fundamental point, who
deals most straight forwardly with the text, Dayanand or the Western Scholars?
(Dayanand and the Veda by Shri Arvind, P. 17-18)
इस मह वपूण उ रण का ता पय यह है िक 'इस िवषय म सबसे मु खय िवचारणी चीज कौन सी है? वेद क िकसी भी
याखया क सफलता व असफलता इस बात पर आि त है िक उसम वेद- ितपािदत धम क के ीय भावना या है व
वेद ारा ितपािदत करण उस भावना क कहाँ तक पु ि करते ह। यहाँ पर दयान द के िवचार अख डनीय ह। उनका
आधार ढ़ एवं ि थर है। वेद क ऋचाओ ं म एक ही परम देव के अनेक नाम ारागीत गाए गए ह- जो उस परमदेव के
अनेक गुण व शि य के दशन के अिभ ाय से यु िकये गये ह। या दयान द ने अपनी पाि ड यपू ण वछ द क पना
से इनका योग िकया? कदािप नह , यह तो वयं वेद का प वचन हैः
'एवं सद् िव ा बहधा वद यि नं यमं मात र ानमाहः।'

(ऋ. १ : १६४◌ः ४६)

अथात् ''उस एक ही परमे र के त वदश ऋिष- इ , अि न, यम, मात र ा आिद अनेक नाम से पु कारते ह। अतः
हम इतनी आशा तो अव य करनी चािहए िक ऋिष, अपने धम के िवषय म रॉथ या मै समू लर आिद से अिधक जानते थे
और यह है स य िजसे वे जानते थे।''

''हम यह पता है िक आधु िनक (पा ा य) िव ान् इस माण से तोड़-मरोड़ कर कै से बचते ह। उनका कहना है िक इतने
उ नत िवचार वाले मं उस समय के आय के िवचार म कभी नह आ सकते थे, िजनम इतनी ढ़ता के साथ एके रवाद
का भाव गट िकया गया है। यह बाद क रचना है। यह भी स भव है िक यह िवचार उन अ ानी, अि नपूजक, सू यपू जक,
आकाशपू जक आय के मन म ही पैदा न हआ हो अिपतु इस िवचार को उ ह ने अपने सु स य तथा दाशिनक श ु िवड़
के दशन से अपना िलया हो। पर तुइस िवचार के पोषक माण वेद के सम त थल म ा होते ह। ऋचाओं म इस कार
के अनेक वणन ापत हेते ह िक अि न अथवा इ या अ य देव एक ही महादेव के ती ह। अि न अपने अ दर अ य सब
देव क शि रखता है- म त् का सवदेवमय वणन अनेक थान म उपल ध होता है। एक देव जहाँ अपने नाम ारा
स बोिधत होता है- वहाँ अ य अनेक नाम ारा भी उस का आह्वान होता है। ायः ऐसा देखा गया है िक एक-एक देव
को िव का पित या राजा मानकर उसक तुित आिद क गई ळै। उसके िलए उन सब िवशेषण का योग िकया गया है
जो परमदेव के िलए ही होते ह। ओह! पर तु ऐसा नह हो सकताः ऐसा अथ नह होना चािहए। इसका अथ यह िब कु ल
नह होना चािहए िक एक ही ई र क पू जा क जाए। आओ, हम इसके िलए एक नया श द घड़ ल और यह क पना कर
िक वैिदक ऋिष वा तव म अि न, इ आिद को परम देव नह मानते थे। िक तु वे येक देव को उस समय के िलए ही
(जब उसक तुित क जा रही हो) परम देव मान लेते थे तािक स भवतः वह अपनी खुशामद को पाकर इन
अितशयोि पू ण तुितय को यान से सु ने। पर तु वैिदक िवचार को वाभािवक एके रवाद य न माना जाए? इस
नवकि पत हीनोथी म के भू त क या आव यकता है? हाँ, य िक आिदकाल के लोग अस य थे और उनम इस कार
के िवचार का पैदा होना अस भव था। यिद हम उन अस य लोग को इतना िवकिसत मान ल तो तो िवकासवाद का
िस ा त न - हो जाता है िजस पर पा ा य िव ान ने संसार का अपना िमक िवकास घोिषत िकया है। स य को
चािहए ि◌ कवह अपने को िछपा ले, सामा य बुि भी उनके माग से अलग हो जाए िजससे उनके िस ा त सं सार म
सफल हो सक। यहाँ पर मेरा मू ल यह है िक मू ल वेद के साथ, िबना िकसी उलझन के सीधी और साफ तौर पर कौन
चल रहा है- दयान द वा पा ा य िव ान।''

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(दयान द और वेद- ी अरिब द, पृ. १७-१८)

सु िस िवचारक और योगी ी अरिब द क हीनोथी म क यह युि यु आलोचना बहत ही भावो पािदनी है।
इसत स देह नह हो सकता इसी कार ि ज दास द ने हीनोथी म क आलोचना म िलखाः

“As a Maxmuller’s charge of Henotheism or worship of many ‘signle gods’ a


number of independent deities, it represents the Rishis as flattering sycophants or
cowardly liars, who could call each single god as the one Supreme Being, only to
avert the wrath of the god, knowing at the same time, that he was not telling the
truth. We ask the reader himself to judge whether when the rishi addresses
India 'निह वद यो' िगरवरणोिगरः सघत्' (Rig 1057-8) “Thou who are the sole object of
my praise, none but Thee shall receive my praise ! or whether when the rishi
addresses Indra 'न यावॉ अ यो िद यो न पािथव न जातो न जािन यते ' (Rig 7. 32; 22) i.e.
neither in heaven nor in the earth, has appeared or shall appear any one like Thee; the
Rishi is a honotheist, a base lying, a base lying flatterer of Indra, or a true monotheist
declaring like Muhammad ‘La elaha III Allah, or sharikalahu”.
(Rigveda Unveiled, p. 140-141).
अथात् '' ो. मै समू लर के हीनोथी म िवषयक आरोप के िवषय म िजसका ता पय कई वत देव का अथवा
पृथक-पृथक समान देव का है, हमारा कथन यह है िक इससे ऋिषय को खुशामदी टट् टू दास अथवा भी
अस यवादी के प म मानना पड़ता है जो येक अलग-अलग देव को एक सव कृ परमे र कह सकते थे इसिलए िक
उस देव के ोध से वे बच सक जबिक वे यह जानते थे िक वे स य नह कर रहे। हम वयं पाठक से पू छना चाहते ह ि◌
कवे इसका िनणय कर िक जब ऋिष इ को स बोिधत करते हए कहता है ''निह वद यो िगवणो िगरः सघत् (ऋ.
१.५७.८)'' अथात् 'तेरे अित र मेरी तुित का पा और कोई नह ' अथवा जब ऋिष कहता है ''न वावां अ योिद यो
न पािथवी न जातो न जिन यते।'' (ऋ. ७.३२.२२) अथात् 'न आकाश म और न पृ वी म कोई है या होगा जो तेरे
समान हो।' ऋिष, हीनोथी म को मानने वाला अथवा सीधे श द म, इ का एक, नीच, झूठा खुशामदी है अथवा स चा
एके रवादी है जो मुह मद के समान ही यह घोषणा करता है िक 'परमे र एक और अनु पम है।' ''

(ऋ वेद अनवी ड, पृ. १४०-१४१)

जब मै समू लर के हीनोथी म क कड़ी आलोचना हई तो वह 'देव' श द के अथ के काशमान पदाथ से िवकासवाद


ारा िद य, दयालु व शि मान आिद अथ मानने लगा। वह िलखता हैः

“Deva meant originally bright and nothing else, meaning bright, it was constantly
used of sky, the states, the sun, the dawn, the day, the spring, the rivers, the earth.
And when a poet wished to speak to all these by one and the same word-by what we
should call a general term-he called them the Devas. When that had been done, Deva
did no logner mean the Bright ones, but the name comprehended of all the qualities
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which the sky and the sun and the dawn shared in common excluding only those that
were peculiar to each. Here you see how, by the simplest process, the Devas the
bright ones, might become and did become the Devas, the heavenly, the kind, the
powerful, the invisible, the immortal"
(India p. 196)
अथात् ''देव का ारि भक अथ काशमान था और कु छ नह । इसी अथ को लेकर इसका योग आकाश, तारे, सू य,
ऊषा, िदन, बस त ऋतु, नदी, भू िम इ यािद के िलए िकया जाता था। जब िकसी किव ने इन सबके िलए कोई बात सामा य
प से कहनी होती थी तो वह देव श द का योग करता था। अब देव का के वल काशमान इतना ही अथ नह रह गया।
इन सबके अ दर जो सामा य गुण थे (िवशेष गुण को छोड़कर) उनका हण, देव श द से हो जाता था। इस कार मशः
देव को िद य, दयालु, शि शाली, अ य और अमर माना जाने लगा, इ यािद।''

(इंिडया, वही. पृ. १९६)

मै समू लर का िवकासवाद ारा यह िन कष िनकालना अनु िचत एवं िम या है कय िक देव व देवता आिद का अ य
अथ, जीव, स य, र क, कमनीय, सं गमनीय, आिद भी है (धमदेव, वही. पृ. २०५)। देव और देव के अथ म िवकासवाद
ढू ं ढना मै समू लर क एक मनघड़ त धारणा है।

इस कार १८५९ म उसने िहबट ले चर देते समय वैिदक 'एके रवाद' और 'बहदेवतावाद' के बीच का एक नया नाम
हीनोथी म सु झाया। इसक भारते म कड़ी आलोचना हई तो प रणाम व प प ह साल बाद ४ फरवरी १८७५ को डयूक
ऑफ आ यालय को िलखे प म वीकारा िक आय का धम शु एके रवाद है। वह िलखता हैः

"The earliest known religious form of the Aryan race is, as nearly as possible, a
pure monotheism-yes, that is perfectly true. But it was an undoubting monotheism, in
one sense perhaps the happiest monotheism - yet not safe against doubts and
negation. Doubt and negation followed, it may be by necessity, and the unconscious
defenceless monotheism gave way to polytheism".
(Bharti, MMLM p. 140)
उसने िलखा ''आय जाित का सबसे अिधक ात धम का प प स भवतः शु एके रवाद के सबसे करीब है- हाँ,
यह पू री तरह से स य है। लेिकन यह एक िन ा त एके र था, एक ि से शायद सबसे स नतादायक एके रवाद- िफर
भी स देह और अ वीकारता के सामने सु रि त न था। संदहे और अ वीकारता बढ़ती गई। शायद आव यकता और
अनजानी सु र ा के कारण एके रवाद, बहदेवतावाद म बदल गया।''

(भारती, वही पृ. १४०)

अतः मै समू लर ने माना िक ार भ म वैिदक धम एके रवादी था। इतना ही नह , मै समू लर ने अपनी अि तम
(१८९९) पु तक 'दी िस स िस टमस ऑफ िफलॉ फ ' म िलखाः

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"Whatever may bl' the age when the collection of (llir Rigveda Sanhita was
finished, it was before that age, that tlw l'I !llCl'ption had been formed that there is
but One Being neitlwr II1,Ill' nor female, a being raised high above all the conditions
and limit,lIions of personality and of human nature and nevertheless 11ll' Iking that
was really meant by all such names as Indra, Angi, Milt rishW,IIl and by the name of
Prajapati-Lord of creatures." They thus .HriVl'd at the conviction that above the great
multitude of gods, then' mllst be one supreme personality and after a time they
declarl'd that there was behind all the gods that one (Tad E Kam) of which thl' gods
were but various names."
अथात् ''ऋ वेद सं िहता के सं कलन का समय कभी भी पू रा हआ हो लेिकन उस काल से पहले यह अवधारणा प क
बन चुक थी िक सभी प रि थितय और सीमाओं के होते हए भी एक सव े स ा है, वह न ी है और न पु ष। उसी
स ा को इ , अि न, मात र न् जापित आिद नाम से स बोिधत िकया गया है।''

इससे एक बात तो साफ िस होती है िक जब तक मै समूलर ऑ सफोड िव िव ालय म सेवारत (१८७६) रहा
और ऋ वेद का सायणाचाय आधा रत भा य का अं ेजी अनु वाद करता रहा, वह िह दुओ ं को बहदेवतावादी कहता रहा
और जब देशी-िवदेशी वैिदक िव ान ने उसके हीनोथी म क आलोचना क तो जीवन के अि तम वष म वेद म उसने
शु एके रवाद को वीकारा पर तु िफर भी अपने वेद स ब धी िवचार को पहले कािशत ं थ म शु करने का न कोई
यास हीिकया, और न कोई ऐसा आदेश िदया और न अपने िवचार का खं डन िकया बि क मरते दम तक िह दुओं को
ईसाई बनाने का यास करता रहा।
वेद म मानव इितहास एवं िवकासवाद

िह दुओं का अटू ट िव ास है िक वेद का आिवभाव मानव सृि से पहले हआ। इसिलए वेद म मानव इितहास नह
है। इसम रामायण व महाभारत क तरह िक ह राजा-रािनय , मनु य तथा ऋिषय के नाम देख कर लोग को वेद म
इितहास का म हो जाता है। पर तु वासतव म वेद के श द यौिगक ह और संसार के मनु य व निदय आिद के नाम वेद
से ही िलए गए ह (मनु मृित १.२१)। पं. िशवशंकर ने अपने गं ◌्रथ 'वैिदक इितहासाथ िनणय' (पृ. १२२-१२३) म वेद
म इितहास होने का िव तार से खंडन िकया है। आिद शंकराचाय सू म मानते ह िकः
नाम पे च भू तानां कमणाञ्च व नाम्।

वेद श दे य एवादौ िन भ म स महे रः (१◌ः३◌ः२८)

ऋषीणां नामघेयािन या वेदेषु यः।

शव यते सूतानां ता येवै योददा यजः (१◌ः३◌ः३०)

अतः ''सृि के पहले भी ई र म श द िव मान थे। वे ही श द इस जगत म भी ऋिषय ारा ा हए ह। अतः


वैिदकश द िन य ह। अिन य यि का वणन या इितहास इसम (वेद) नह आ सकता है।''

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इसी कार वेद म िवकासवाद नह है। वेद म शा त् एवं स य िव ाओं के मू ल सू िव मान ह। इ ह के आधार पर
वैिदक सं कृ ित एवं वैिदक िव ान क उ नित हई है। साथ ही वेद म इस नैमेि क ान के आधार पर सब कार के
सां सा रक सु ख देने वाले यं , तकनीक एवं दशन के िवकास क ेरणा दी गई है तािक मानव ही नह सभी ािणय का
क याण हो सके ।

पर तु मै समू लर ने वेद म बार-बार इितहास एवं िवकासवाद ही देखा है। वेद क ाचीनता, िवकास एवं इितहास के
िवषय म मै समू लर िलखता हैः

"The Veda may be called primitive, becilw,( Ihe'I'l' is no other literary document
more primitive than it : bul the language, the mythology, the religion and philosophy
that meet us in the Veda open vistas of the past which no one would measure in years.
Nay, they contain, by the side of simple. natural, childish thoughts, many ideas which
to us sound modern or secondary and tertiary as I called them but which
neverthehless are older than any other literary document and give us trustworthy
informations of a period in the history of human thought of which we knew
absolutely nothing before the discovery of the Vedas." (India, ibid p. 109)
He further writes; "But if we mean by primitve the people who have been the first
of the Aryan race to leave behind literary relics of their existence on earth, then I say
the Vedic poets are primitive, the Vedic language is primitive, the Vedic religion is
primitive, and taken as a whole, more primitive than anything else that we are ever
like to recover in the whole history of our race, " (India, ibid p. 114)
ता पय है िक : (१) मै समू लर वेद को सबसे ाचीन सािह य मानता है तथा इनक भाषा, गाथावाद, धम और दशन
नए आयाम को खोलते ह।
(२) वैिदक धम पर िकसी िवदेशी धम या सं कृ ित का भाव नह है य िक यह मानव जाित क आिद कालीन
सं कृ ित है।

(३) वैिदक किव आिद कालीन है; वैिदक भाषा आिद कालीन है; वैिदक धम आिद कालीन है। मानवजाित के िकसी
भी िवषय म वैिदक धम सबसे आिद कालीनहै आिद आिद।

(इंिडया, वही. पृ. ११४)

मै समू लर वेद को मानव मि त क का बचपन या ारि भक युग मानता हैः

"Childish age of the Human mind."; (ibid p. 99) वह आगे िलखता हैः
"Now it is exactly this period in the growth of ancient religion, which was always
presupposed or postulated, but was absent anywhere else, that is clearly put before us
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in the hymns of Rig Veda. It is this ancient chapter to the history of human mind
which has been preserved to us in Indian literature, while we look for it in vain in
Greece or Rome or elsewhere"
(ibid p. 99-100)
Further he says, "I simply say that in the Veda we have a nearer approach to a
beginning, and an intelligible beginning, than in the wild invocations of Hottentots or
Bushmen."
(ibid, p. 101)
अतः मै समूलर वेद ान को मानव जाित का ारि भक इितहास मानता है जो िक अ य िकसी ं थ या
सं कृ ित म नह है। वह वेद को समझ नह पाता है या उनक िन दा करना चाहता है, इसीिलए कहता हैः
Large number of Vedic hyms are Childish in the extreme, tedious, low and common
place."
(Chips from a German Workshop, p. 27)
अथात् ''वेद क अिधकां श ऋचाय अ य त बचपनी, किठन और िन न तर क ह'' और ज बवह ऋ वेद के
अि तम मं डल को देखता है िजनम दशन, िव क याण क भावना, सावभौिमक समता, एकता एवं
समानता के सू सु प पाता है तो मन मानकर िलखता है िक 'कु छ ऋचाय दाशिनक ह'':
"Now what do we find in the Veda? No doubt here and there a few philosophical
hymns which have been quoted so often that people have begun to imagine that the
Veda is a kind of collection of Orphic hymns. We also find some purely mythological
hymns in which the Devas or gods have assumed nearly as much dramatic personality
as in the Homeric hymns."
(India, pp. 98-99)
मै समू लर क जीवनी लेखक िनराद चौधरी उसक मानिसकता एवं वेदा यन के उद्दे य को इस कार
य करता है-
(i) "The primary object of Muller's Sanskrit studies was thus neither philology nor
literature as such, but the evolution of religious and philosophical thought. Indeed, to
his history of ancient Sanskrit literature he added the qualification 'so far as
it illustrates the primitive religion of the Brahmans'. Therefore he was bound to
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specialize in Vedic literature. Mentioning the fact that all later Sanskrit books on
religion, law and philosophy refer back to one early and unique authority called by
the comprehensive name of the Veda". Muller writes:
"It is with the Veda, therefore, the Indian philosophy ought to begin if it is to
follow a natural and historical course. So great an influence has the Vedic age (the
historical period to which we are justified in referring the formation of the sacred
texts) exercised upon and succeeding periods of Indian history, so closely in every
branch of literature connected with Vedic tradition, so deeply haw the religious and
moral ideas of that primitve era taken root in thl' mind of the Indian nation, so
minutely has almost every privah' and public act of Indian life been regulated by old
traditionary precepts, that it is impossible to find the right point of view for judging of
Indian religion, morals, and literature without a knowledge of the literary remains of
the Vedic age.
(Chaudhuri, p. 135)
(ii) "It is different, he declared, with the ancient literature of India, the literature
dominated by the Vedic and the Buddhist I religions. That literature opens to us a
chapter in what has been I called the 'Education of the Human Race,' to which we can
find no I parallel anywhere else." He further said, that anybody who cared for the
origins of language, thought, religion, philosophy, or law and many other human
creations, 'must in future pay the same attention to the literature of Vedic period as to
the literature of Greece and Rome and Germany."
(ibid. p. 290)
(iii) "But he derived from the English Orientalists his conviction of the practical
importance of Sanskrit for British administrators as well as for contemporary
Hindus."
(India, ibid p. 134)
(iv) In "A History of Ancient Sanskrit Literature' Max Muller writes, "If then, it is
the aim of Sanskrit Philology to supply one of the earliest and most important links in
the history of mankind, we must go to work historically; that is we must begin, as far
as we can, with the beginning, and then trace gradually the growth of the Indian mind
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in its various manifestations as far as the remaining monuments allow us to follow the
course,"
(Chaudhuri, ibid, p. 135)
(v) "He imposed his ideas of India and of Hindu Religion in its most ancient form
on the religious life of the Hindus of his time. His picture, which he put before the
Indians and Europeans alike was built up with the help of selective principle applied
to the entire body of Sanskrit literature, and the principle led him to formulate his
peculiar view of the historical development of this literature."
(ibid pp. 288- 289)
अतः मै समूलर के सं कृ त अ ययन का उद्दे य था : (१) भारतीय के दाशिनक एवं धािमक िवचार
म िवकासवाद िस करना; (२) वैिदक पर पराऐं अित ाचीन ह जो िक सभी भारतीय सािह य म िबखरी हई
है;ु ं (३) भारतीय सािह य वैिदक और बु मत के िवचार से भरा पड़ा है जो िक मानवजाित क िश ा क
ओर सं केत करता है; (४) वैिदक सािह य को ीस, रोम और जमनी के सािह य के समान ऐितहािसक ि
से देखा; (५) सं कृ त भाषा के अ ययन ारा िजतना हम जा सक उतने गहरे तक िवकासवाद क ि से
देख; (६) मै समू लर ने सम त वैिदक एवं भारतीय सं कृ त सािह य को अपनी चु न दा िविध के िस ा त क
सहायता से देखा और उ ह चु नी हई बात को भारतीय एवं यू रोपीयन को बतलाया। इसी िवशेष चु न दा
नीित के आधार पर उसने वेद म इितहासवाद क न व रखी।
जब िनराद चौधरी जैसा िव ान मै समूलर को िह दू धम स ब धी िस ा त के बारे म अपनी 'चु नी हई
नीित' के आधार पर खड़ा देखता है तो कोई अ य उससे और अिधक या प कह सकता है? अतः
मै समू लर ने जो कु छ भी िलखा वह उसक िनजी 'चु न दा नीित' पर आधा रत था; िन प िववेचन पर नह ।
मै समू लर एवं अनेक पा ा य लेखक ने वेद को अपनी धािमक आ था और ि टेन के राजनैितक
उद्दे य क पू ित के िलए जान बू झकर िवकृ त िकया िजसका महिष दयान द सर वती, ी अरिव द, पं.
धमान द, पं. भगवद्द , वामी िव ान द सर वती जैसेअनेक भारतीय िव ान ने इसक स माण आलोचना
क एवं भारतीय पर परा को पु न थािपत िकया। सार प म समझने क बात यह है िक यिद वैिदक ऋचाऐं
बचपनी और िन न तर क ह तो सं सार भर के राजनीित ने िमलकर एक वर से सं यु रा सं गठन एवं
मानव अिधकार सं गठन ने वेद का 'िजयो और जीने दो' का िस ा त कै से माना? सावभौिमक एक रा क
वैिदक प रक पना, मानवता, समानता, समतावादी यवहार आिद को य वीकारा? िव शाि त के वैिदक
स देश को य अपनाया? वेद का स देश हैः
(१) ''मनु य मा म कोई छोटा बड़ा नह है, सब बराबर के भाई ह।''
(ऋ. ५.६०.५)
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(२) ''हम समाज के िकसी भाई बिहन के साथ ेष, घृणा, ऊँ च नीच व भेदभाव न कर।''
(ऋ. ३.३०.१)
(३) ''समाज के सभी लोग एक साथ िमलकर खाएं-िपएं व उपासना कर एवं मै ी भाव से रह।''
(ऋ. ३.३०.६)
(४) ''हे मनु य ! तु म सब पर पर एक िवचार से िमलकर रहो, ेम से वातालाप करो। तु म लोग का मन
समान होकर ान ा कर एवं ेम से पर पर यवहार करो।''
(ऋ. १०. १९१. २)
(५) ''हे मनु य ! म तु म सबको एक-सा ान देता हँ। तु म सभी सामािजक व रा ीयसम याओं पर
िहतकारी िनणय से एक मत होकर अपनी सवागीण उ नित करो।''
(ऋ. १०. १९१. ३)
(६) ''हे मनु य ! तु म सबका सं क प एक जैसा हो। तु हारा दय व मन समान हो।''
(ऋ. १०. १९१. ४)
''सं ग छ वं सं वद वं सं वो मनांिस जानताम्।''
''समानो मं ः सिमितः समानी समानं मनः सहिच मेषाम्।''
''समानी व आकू तीः समाना दयािन वः'' (ऋ. १०◌ः १९१◌ः २-३)
अतः वेद क समतावादी और मानवतावादी आदश यव था इतनी े है िजस पर आज भी िन प
िच तक को असीम ा है। इसके िवपरीत आज का तथाकिथत स य समाज भी उस वेदिनिद आदश व
समतावादी ि थित को नह पहँचा पाया है। हम िवकास क ओर नह बि क अधोगित क ओर जा रहे ह।
यिद, हम वेद क समता, ममता, वतं ता, विववेक एवं िव बं धु व क अवधारणाओं को समाज म ला
पाते तो अनेक यु , लाख ािणय क ह या और धम के नाम पर घृणा, यु और आतं कवाद नह फै लता।
यिद वैिदक िश ाऐं रा क सीमाओं को लां घकर मानव क याण के िलए अपनाई जात तो आज रं ग-भेद,
वणभेद, न ल भेद, जाित भेद, रा भेद के नाम पर िहं सा और अशां ित क वाला म लाख मनु य नमारे
जाते। अतः वेद म इितहास एवं िवकासवाद नह है। बि क एक आदश यव था बतलाई गई है िजस पर
मनु य अभी तक नह पहँच पाया है। उस मानव क याणकारी ि थित तक वेद ारा ही पहँचा जा सकता है
न िक इ लामी आतं कवाद या ईसाई ू सेड ारा।

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१०. मै समू लर एक ईसाई धम चारक
िनःसं देह मै समूलर एक धमा ध धम चारक था िजसने ईसाईयत के िलए अपनी धािमक लड़ाईयाँ भाषा
िव ान ओर वेदभा य क आड़ म लड़ी। उसने ई ट इं िडया क पनी और ि िटश कू टनीित के धािमक व
राजनैितक िहत के िलए न के वल वेद एवं िह दू धम शा के िव िपत भा य िकए बि क अपने भाषण म
िमशन रय को िसखाया िक वेद और िह दू धम शा क िनं दा िकस कार क जाए तािक िह दुओं का
ईसाईयत म धमा तरण का काय सरल हो सके य िक उसके वेद भा य का उद्दे य ही यही था।

उसने जीवन भर ि िटश शासक य मशीनरी का िह दुओं के धमा तरण के िलए यापक प से योग
िकया। इसी सं दभ म १६ िदस बर १८६८ को उसने भारत के िलए से े टरी ऑफ टेट ड् यू क ऑफ आगायल
को िलखाः
"...As for more than twenty years my principal work has been devoted to the
ancient literature of India, I cannot but feel a deep as real sympathy for all that
concerns the higher interests of the people of that country. Though I have never been
in India, I have many friends there, both among the civilians and among the natives,
and I believe I am not mistaken in supposing that the publication in England of the
ancient Sacred writings of the Brahmans, which had never been published in India,
and other contributions from different European scholars towards a better knowledge
of the ancient literature and religion of India, have not been without some effect on
the intellectual and religious movement that is going on among the more thoughtful
members of Indian society.
I have sometimes regretted that I am not an Englishman and able to help more
actively in the great work of educating and improving the natives. But I do rejoice
that this great task of governing and benefiting India should have fallen to one who
knows the greatness of the task and all its opportunities and responsibilities, who
thinks not only of its political and financial bearings, but has a heart to feel for the
moral welfare of those millions of human beings that are, more or less, directly,
committed to his charge.
"India has been conquered once, but India must be conquered again, and this second
conquest should be a conquest of education. Much has been done for education of late, but if the
funds were tripled and quadrupled, that would hardly be enough.

"The results of the educational work carried on during the last twenty years are
palpable everywhere. They are good and bad, as was to be expected. It is easy to find
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fault with what is called young Bengal, the product of English ideas grafted on the
Indian mind. But young Bengal, with all its faults, is full of promise. Its bad features
are apparent everywhere, its good qualities are naturally hidden from the eyes of
careless observers...India can never be anglicized, but it can be reinvigorated...
"...The missionaries have done far more than they themselves seem to be aware
of, nay, much of th~ work which is theirs they would probably disclaim. The
Christianity of our nineteenth century will hardly be the Christianity of India. But the
ancient religion of India is. doomed and if Christianity does not step in, whose fault
will it be ?"
(LLMM., Vol. 1, p. 357-58).
''मेरा िपछले बीस वष म मुखय काम भारत के ाचीन सािह य पर के ि त रहा है। उस देश के लोग के
िहत के बारे म मेरी गहरी और स ची सहानु भू ित रही है हालां िक म कभी भारत नह गया हँ। मगर मेरे ि िटश
और वहाँ के थानीय, दोन ही कार के लोग म से अनेक िम ह। म मानता हँ िक यिद मुझे यह सोचने म
कोई गलती न करे िक भारत के ा ण क ाचीन पिव पु तक जो िक इं लड अथवा अ य यू रोपीय देश
म कािशत हई जो पहले कभी भारत म भी नह हई थी, उनका वहाँ के बौि क जगत और धािमक
आ दोलन पर कु छ भाव िकए बगैर नह रहगी। यह भाव उन लोग पर भी अव य होगा जो िक भारतीय
समाज के िच तनशील वग के ह। मुझे कभी-कभी खेद हआ िकम एक अं ेज नह हँ जो िक भारत के
थानीय लोग को सु धारने और िशि त करने के महान काय म अिधक सि यता के साथ सहायक हो
सकता था। िफर भी म अित स न होता यिद यह भारत पर शासन करने और भारत को लाभ पहँचाने का
काम उसको िदया जाता जो इसके मह व को पहचानता हो तथा इसके असर और उ रदािय व के मह व
को समझता हो। वह के वल इसके राजनैितक और आिथक लाभ को ही नह देखता बि क उसका दय उन
लाख करोड़ आ माओं के ित नैितकता क ि से भी उ रदायी हो।''
''भारत एक बार जीता जा चु का है लेिकन भारत को िफर से दुबारा जीता जाना चािहए और यह दूसरी
जीत (ईसाई धम) िश ा के ारा होनी चािहए। अभी हाल म (ईसाई) िश ा के िलए काफ िकया जा चु का है
लेिकन यिद यह धनरािश ितगु नी या चौगु नी कर दी जाए तो ऐसा करना मुि कल न होगा।''
''भारत का पू री तरह से अं ेजीकरण नह िकया जा सकता है मगर इसम िफर से जान डाली जा सकती
है... िमशन रय ने उससे कह अिधक सफलता पाई है िजतनी िक उ ह आशा थी और उनके अिधकां श
काम क उपे ा क जा सकती है।''
''भारत क ईसाईयत शायद हमारी उ नीसव सदी जैसी ईसाईयत भले ही न हो। लेिकन भारत का
ाचीन धम यहाँ डू ब चु का है िफर भी यिद वहाँ ईसाईयत नह फै लती है, तो इसम िकसका दोष होगा।?''

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(जी.प. खं ड १, पृ. ३५७-३५८)
इतना ही नह , मै समू लर ने वयं प यवहार ारा भारत के त कालीन धािमक नेताओं को ईसाईयत म
धमा त रत करने का लगातार अथक यास िकया य िक यहाँ ही राजाराम मोहन रॉय ने ईसाईयत के ि िनटी
िस ा त क जड़े उखड़ी थ और पादरी एडम को १८२१ म, िह दू धम म दीि त िकया था जो िक ी रॉय
को ईसाईयत म धमा त रत करने के िलए इं लड से भारत आया था।
राजा राम मोहन रॉय ने उस समय (१८२१ म) ईसाईय ारा धमा तरण के िलए जो तरीके अपनाए जाते
थे उ ह अपनी ' ा णीकल मै जीन' के तीसरे (१८२१) अं क म इस कार िलखाः
"During the last twenty years a body of English gentlemen who are called
missionaries have been publicly endeavouring in several ways to convert Hindus and
Muhammadans of this country into Christianity. The first way is that publishing and
distributing among the natives various books, large and small, reviling both religions
and abusing and ridiculing the Gods and saints of the former (Hindus) : the second
way is that of standing in front of the doors of the natives or in public roads to preach
the excellency of their own religion and the debasedness of that of others; the third
way is that if any natives of low origin become Christian from the desire of gain or
from any other motives, these gentlemen employ and maintain them as a necessary
encouragement to others to follow their example.
It is true that the apostle of Jesus Chrust used to preach the superiority. of the
Christian religion to the natives of different countries; but we must recollect that they
were not of the rulers of those countries where they preached. Were the missionaries
likewise to preach the Gospel and distribute books, in countries not conquered by the
English such as Turkey and Persia etc : which are much nearer England they would
be esteemed a body of men truly zealous in propagating religion and in following the
example of the founders of Christianity. In Bengal where the English are the sale
rulers and the mere name of Englishman is sufficient to frighten people an
encroachment upon the rights of her poor timid and humble inhabitants and upon
their religion can not be viewed in the eyes of God or pubilc as a justifiable act, for
wise and good men always feel disinclined to hurt those that are of much less strength
than themselves and if such weak creatures be dependent on them and subject to their
authority they can never attempt even in thought to mortify their feelings"
(Christ-A, Myth by Varma pp. 61-62)

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ता पय यह है िक ''ईसाई िमशनरी सािह य बां टकर, सावजिनक जगह पर ईसाईयत क शं सा करके
और िह दू धम एवं इ लाम क िन दा करके और िपछड़े लोग को लोभन देकर उनका धमा तरण करते ह।
ऐसा करना और भी सरल होता है जबिक अं ेज उस समय भारत के शासक है।'' ईसाई िमशनरी आज भी
काँ ेस के राजनैितक सं र ण म उपरो तरीक से भारत म िह दुओ ं का धमा तरण कर रहे ह जैसा िक १८०
साल पहलेराजा राम मोहन रॉय के समय म करते थे।
यहाँ यान देने यो य बात यह है िक १८व और १९व सदी म बं गाल म िह दू भि आ दोलन व अ य
उपाय से पु नजागरण क एक बल लहर के बीच से गु ज़र रहा था तथा ई र च िव ासागर, राजा मोहन
रॉय, के शव च द सेन, तापच द मजूदार आिद समाजी नेता िह दू समाज म धािमक एवं सामािजक
सु धार लाने म सि य थे। मै समूलर ने समजा के नेताओं को ईसाईयत अपनाने के िलए अपने तक एवं
सु झाव सिहत अनेक प िलख:
"On 3rd August 1881, he wrote to Majoomdar... : "My Dear Mr. Protap Chunder
Majoomdar,...I must tell them all what I told you when we parted at Oxford, if you
really want me, I shall always be ready...I have watched your struggles in India for
many years, and I have often pleaded your cause in England with friends who were
frightened by what they heard about Keshub Chunder Sen. Yet I trusted in you and in
the goodness of cause, and remained silent, at least in
public."
(Bharti, p. 149)
पहला प -

३ अग त १८८१ को मजूमदार को िलखे प म मै समूलर ने कहाः''मने तु हारे भारत म सं घष व समाज


सु धार को अनु क वष से देखा है। मैने तु हु ारे प म इं लड म दलील दी ह जो िक वे के शवच द सेन के
कथन से भयभीत थे। िफर भी म तु होरे उद् दे य को े होने के कारण तु म पर भरोसा करके चु प रहा
(भारती पृ. ४९)। अपनी मृ यु से लगभग १६ महीने पू व जनवरी १८९९ को उसने मजूमदार को िफर एक
ल बा प िलखा। िजसके कु छ अंश इस कार ह:
"My dear friend, you know how many years. I have watched your efforts to purify the
popular religion of India, and thereby to bring it nearer to the purity and perfection of
other religions, particularly Christianity. You know also that I have paid close
attention to the endeavours of those who came before you, of men like Rammohun
Roy, Debendranath Tagore, Keshub Chunder Sen, and others, in whose footsteps you
have boldly followed, and whose work you have faithfully carried on, as far as
circumstances allowed you to do so. What I have much admired, both in yourself and
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your noble predecessors and fellow workers, is the patience and the even temper with
which you have prosecuted your religious and social reforms."
"Now it seems to me that the first things you have to do is to try to remove the
differences that still exist among yourselves, and to settle how much of your ancient
religion you are willing to give up, if not as utterly false, still as antiquated. You have
given up a great deal, polytheism, idolatry, and your elaborate sacrificial worship.
You have surrendered also, as far as I can judge, the claim of divine revelation which
had been so carefully formulated by your ancient theologians in support of the truth
of the Vedas. These were great sacrifices, for whatever may be thought of your
ancient traditions, to give up what we have been taught by our fathers and mothers,
requires a very strong conviction, and a very strong will. But though this surrender
has brought you much nearer to us, there still remain many minor points on which
you differ among yourselves in your various samajees or congregations. Allow me to
say that these differences seem to me to have little to do with real religion, still they
must be removed, because they prevent united action on your part...If you are once
united among yourselves, you need no longer trouble about this or that missionary,
whether he comes !E0m London, Rome, Geneva, or Moscow. They all profess to
bring you the Gospel of Christ. Take then the New Testament and read it for
yourselves, and judge for yourselves whether the words of Christ, as contained in it,
satisfiy you or not.
"I know that you yourself, as well as Rammohun Roy and Keshub Chunder Sen,
have done that. I know one countryman of yours who wrote a searching criticism on
the Old and New Testaments, and then joined the Christian Church, as established in
England, because there was something in the teaching and life of Christ, which he
could not withstand. I know this is not an argument, yet it is something to reflect on.
"Christ comes to you as He comes to us in the only trustworthy records preserved
of Him in the Gospels. We have not even the right to dictate our interpretation of
these Gospels to you, particularly if we consider how differently we interpret them
ourselves. If you accept His teachings, as there recorded, you are a Christian. There is
not necessacity whatever of your being formally received into the membership of one
or the other sect of the Christian Church, whether reformed or unreformed. That will
only delay the growth of Christianity in India."

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..... You would be surprised if you know how many honest Christians feel exactly
what you feel about the Atonement, and that in this case also, those who compass sea
and land to make one proselyte, are the very p'eople who prevent you from becoming
proselytes, from coming to Christ and to us.
..."I have told you already that Keshub Chunder Sen, in intimate conversation, told
me that to all intents and purposes he was a disciple of Christ, and when I wrote to
you, and when I think of you, I cannot resist the feeling that you too are a true
follower of Christ....
"Tell me some of your chief difficulties that prevent you and your countrymen from
openly following Christ. I shall do my best to explain how I and many who agree
with me have met them, fnd solved them. I do not hesitate to say that on some of
these points we may have to learn from you more than we can teach you, and I say
this honestly, and from personal experience. That too will be a lesson difficult to learn
for our bishops and missionaries, but in Christian humility they will have to learn it.
From my point of view, India, at least the best partof it, is already converted to
Christianity. You want no persuasion to become a follower of Christ. Then make up
your mind to act for yourselves. Unite your flock, and put up a few folds to hold them
together, and to prevent them from straying. The bridge has been built for you by
those who came before you. Steep boldly forward, it will not break under you, and
you will find many friends to welcome you on the other shore, and among them none
more delighted than your old friend and fellow labourer. F. Max. Muller,"
(LLMM, Vol. 2, pp. 411-416)

दू सरा प -
अथात् ''मेरे ि य िम - तु म जानते हो िक म िकतने वष से तु हारे भारत के धम को सु धारने के यास को
देख रहा हँ िजसके ारा तु म इसे अ य धम , िवशेषकर ईसाईयत, क पिव ता और पू णता के समीप लाने का
यास कर रहे हो।'' .....''तु मने काफ कु छ याग िदया है जैसे बहदेवतावाद, मूितपू जा और िव तृत बिलदानी
पू जा। जहाँ तक म समझ सका हँ िक तु मने वेदां का ान ई रीय होने का दावा भी तयाग िदया है िजसक िक
ाचीन धमशाि य ने बड़ी सावधानी से वेद के स य के समथन म थािपत िकया था।''
''यिद तु म एक बार आपस म इकठ्ठा हो जाओ (यानी ईसाई हो जाओ, लेखक) तो तु माके इस बात क
िच ता करने क आव यकता नह है िक यह या वह िमशनरी लं दन, रोम, िजनेवा अथवा मा को से आया है।
वे सब तु ह ाइ ट के सु समाचार तक ले जाने का ही यास करते ह। िफर तु म- यू टे टामट उठाओं और

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अपने आप पढ़ां और वयं जाँच करो िक जीजस के वचन, जैसे िक उसम िदए गए ह, तु ह स तु करते ह या
नह ।''
''जीजस ाइ ट तु हारे पास उसी कार आता है जैसे िक वह हमारे पास आता है य िक गोि पल म उसके
िव सनीय वचन सुरि त ह.... यिद तु म उसक िश ाओं को वीकार करते हो, जैसी िक वे वहाँ दी गई ह,
तो तु म एक ईसाई हो।''
''आपको और आपके देशवािसय को खुले तौर पर ईसा मसीह क शरण म आने म जो किठनाईयाँ ह उ ह
मुझे बताओं और जब म उनके बारे म तु ह िलखूँगा तो बतालाऊँगा िक मने और अ य अनेक , जो मुझसे
सहमत ह ने, उ ह िकस तरह हल िकया है। म कहने म िहचिकचाता नह हँ िक इनम से कु छ बात के बारे म
हम तु मसे सीखना है, उससे अिधक जो हम िसखा सकते ह और यह सब म स चाई से और अपने अनु भव
के आधार पर कह रहा हँ। वह सब हमारे िमशन रय और िबशप को भी सीखना मुि कल होगा। मगर उनको
सीखना पड़ेगा।''
''मेरे ि कोण से तो भारत, कम से कम इसका सव म भाग, ईसाई मत म प रवितत हो चु का है। आपको
ईसाई बनने के िलए ेरणा देने क भी आव यकता नह है। साहसपू वक बस अब आगे बढ़ने के िलए मन
प का क रए। अपने लोग को इकठ् ठा करो औरउनको सं गिठत बने रखने का ब ध करो। उ ह भटकने से
बचने के िलए यास करो। तु हारे आने के िलए तु मसे पहले आने वाल ने पु ल बना िदया है। साहसपू वक
आगे बिढ़ए। यह (पु ल) तु हारे बोझ से टू टेगा नह और आप देखगे िक दूसरे िकनारे पर आपका वागत कने
के िलए अ य के साथ आपका पु राना साथी और िम भी उपि थत होगा िजससे अिधक खुश कोई और न
होगा,'' एफ. मै समू लर।
(जी.प. खं ड २ पृ. ४११-४१६)
मजूमदार ने इसक िति या म एक भारतीय अखबार म इस कार िलखा हैः
"So we must either renounce our own national temperament …or renounce Christ---
or reembody our faith and aspirations under a new name, form and spirit. We have
taken this third course"
(LLMM, Vol. 2, p. 394)
तीसरा प -
यानी ''अतः हम या तो अपनी रा ीय मानिसकता याग देनी चािहए या हम ाइ ट तो याग द या हम
अपने धम और आकां ाओं के एक नए नाम के अ तरगत उसे नया व प और तेजि वता दान कर। हमरे
इस तीसरे िवक प को अपनाया है।''
(जी.प. खं. २ पृ. ३९४)

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कु छ िदन बाद मजूमदार ने , उसके जून १८९९ के प के र म ईसाईयत के ित कु छ उदारता िदखाई और
िलखा-
"A wholesale accptance of the Christian name by Brahmo-Samaj is neither
possible nor desireable, within reasonable time; it would lead to misconception,
which would do only harm. But acceptance of the Christ spirit, or, as you term it, "the
essential religion of Christ", is not only possible, but an actual fact at the present
moment. Liberal souls in christendom will' have to rest content with that, at least
now; and then let the name take care of itself'
(LLMM, Vol. 2, p. 419)
चौथा प -
'' समाज ारा िकसी ईसाई नाम को पू री तरह अभी िनकट भिव य म वीकारना न तो स भव ही है,
और न वां छनीय। उससे एक गलत सं केत जाएगा जो िक के वल हािनकारक होगा। लेिकन ाइ ट क भावना
वीकारना या जैसा िक तु म इसे ' ाइ ट का सारभू त धम' कहते हो ने के वल स भव है बि क वतमान म एक
स चाई भी है। ईसाई त म उदार आ माओं को कम से कम अभी तो, इतने पर ही स तोष करना पड़ेगा।
और िफर नाम अपने आप उभरकर आ जाएगा।''
(जी पं. खं. २ पृ. ४१९)
उपरो प से ो सािहत होकर मै समू लर ने नव बर१८९९ को मजूमदार को इस कार िलखाः
"...of course, I have been abused by the Indian papers and by the journals in
England. Let me answer one point in your very kind letter. The name to be adopted
by your own reformed Hinduism would be merely geographical expression.
Hinduism as a religion would mean the religion of the Hindus or of India, and this
would comprise every variety of religion practised in India, Durga worship,
Buddhism, Mohammedanism, etc. It would be the name of a mere congeries. You
object to anything like Christian, even Christian Brahmos is not satisfactory to you.
But surely you owe much to Christ and Christianity, your very movement would not
exist without Christianity. One must be above public opinion in these matters, and
trust to truth which is stronger than public opinion. However, the name is a small
matter. Only I thought that truth and gratitude would declare in favour of Christian
Brahmos, or Christian Aryas."
(LLMM, Vol. 2, p. 397)
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पाँचवां प -

अथात् ''वा तव म भारतीयऔर इं लड के प म मेरी िन दा क गई है। पर तु हारे सु धारे हए नए िह दू


धम का नाम ऐसा हो जो िक के वल भौगोिलक भावनओं का प रचायक हो। उस िह दु म का , धम के प म,
मतलब होगा िह दुओं का या भारत का धम और इत तरह उसम वे सभी कार के मत ह गे जो िक भारत म
चिलत ह जैसे दुगा पू जा, बौ मत, मुह मदी मत आिद। इस कार का नाम उन सब मत का सि म ण नाम
होगा। तु ह ईसाईयत जैसे नाम पर आपि है अथवा ि ि यन ोज भी पस द नह है। लेिकन िन य ही
तु म ाइ ट और ईसाईयत के ित आभारी हो, तु हारा यह आ दोलन ईसाईयत के िबना जीिवत न रह
सके गा..... िफर भी नाम एक छोटा-सा मामला है। मने सोचा िक स चाई ओर कृ त ता के फल व प तु म
ि ि यन- ोज या ि ि यन-आयाज नाम के प म िनणय लोगे''।
(जी. प., खं. २, पृ. ३९७)
मै समू लर के ि ि यन ोज या ि ि यन आयाज नाम पर िमशन रय क आपि याँ होने पर भी,
उसने पी.सी. मजूमदार को ११ माच १९०० को िफर एक प इस कार िलखाः
"My dear friend, you ought to know me enough to know that I am not trying to
convert you and your friends to Christianity. If you are not a Christian, you must not
call yourself a Christian. But I confess when I judge from Keshub Chunder Sen's
writings, I thought that he was, and you were, more of a Christian than many who call
themselves so. And if that is so, then the name of Brahmos or Hindus seemed to me a
mere misnomer, and so far not quite honest..."
"I do not want you to join any existing Church or sect, I only wish you to give
honour to the name of Christ, to whom you owe the best part of your present religion.
If you have more truth to bring into the Christian Church, do so by all means. Tell me
what doctrines you wish to profess, and it would not be difficult to tell you whether
they are compatible with Christianity or not. But you will have to speak definitely, so
that we may understand each other..."
"Do not be afraid, do not leave things unsaid which you hold to be true, but which
will not be popular in India. There is great work open to you, and work that must be
done, and which many include Brahmans and Mohammedans as well as Christians.
But to do that work well will require perfect sincerity, we require men like Keshub
and like yourself.

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"I wish I were younger and stronger, but as long as I can I shall fight for religion
in the true sense of the word." Religion should unite us, not seperate us...
(LLMM vol. 2, pp. 28-29)
छठा प -

''मेरे ि य िम - तु म मुझे काफ जानते हो, तो यह भी जानो िक म तु ह और तु हारे सािथय को ईसाईयत


म धमा त रत करने क कोिशश नह कर रहा हँ। यिद तु म ईसाई नही हो तो तु ह अपने को ईसाई नह कहना
चािहए। लेिकन म वीकारता हँ जब म के शवच सेन को उसके लेख के आधार पर रखता हँ, तो मु झे
लगता है िक वह एक ईसाई है और तु म भी उन सबसे अिधक ईसाई हो जो िक अपने को ईसाई होने का दावा
करते ह। और ऐसा है, तो ोज या िह दू नाम देना मुझे अनु पयु तीत होता है, और अब तक यह
ईमानदारी नह रही.... म नह चाहता िक तु म िकसी वतमान स दाय या यच को अपना लो। म तो के वल
इतना चाहता हँ िक तु म जीजस ाइ ट के नाम का स मान करोिजसके ित तु हारे स दाय का अिधकां श
समिपत है।''
(जी.पं., खं. २, प. २८-२९)
मै समू लर ने देवे नाथ टेगौर और के शवच सेन और थम भारतीय आई.सी. एस. स ये नाथ टेगौर
को भी ईसाईयत म धमा त रत करने का◌ा यास िकया पर तु वह सफल न हो सका। मगर अपनी िनराशा
को उसने इस कार य िकया।
''मेरी कामना है िक म और अिधक यु वा और शि शाली होता। िफर भी जब तक म कर सकता हँ, म
अपने धम के िलए स ची िन ा से सं घष करता रहँगा।
(जी.प. खं. २, पृ. २८-२९)
मै समू लर क भारतीय को ईसाईयत म धमा त रत करने क िकतनी ती उ कं ठा थी, इसका अनु मान,
२३
नव बर १८९८ को, अपनी रोग श या से, सर हेनरी ऑकलड को िलखे प से लगाया जा सकता हैः
"I have not much faith in missionaries, medical or otherwise. If we set such men
again in India as Ram Mohan Roy, or Keshub Chand Sen, and if we get an archbishop
at Calcutta who knows what Christianity is, India will be Christianised in all that is
essential in the twinkling of an eye. On this too, we must be hopeful, but not too
sanguine."
(LLMM, Vol. 2, p. 398)
Page
80
सातवाँ प -

''मुझे िमशन रय , चाह वे मैडीकल के ह या अ य, मुझे अिधक िव ास नह है। यिद हम राजाराम


मोहन रॉय या के शवच सेन जैसे लोग दु बारा भारत भेज सक और कलक ा के िलए एक भरोसा
आकिबशप िमल सके जो यह जानता हो िक ईसाईयत या है तो सारा भारत पलक मारते ही ईसाईयत के
उस सब जो िक आव यक है, म धमा त रत हो जाएगा। इस पर भी हम, आशावान रहना चािहए, लेिकन
बहत अिधक आशावादी नह ।''
(जी. पं. खं २, पृ. ३९८)
उपरो प के बाद भी या िकसी को मै समूलर के एक कट् टर ईसाई धम चारक होने म सं देह रह
जाता है जो भारत म िह दू धम को पू री तरह समा कर यहाँ ईसाईयत थािपत करना चाहता था।

से े ड बु स ऑफ दी ई ट सीरीज़ (पू व क पिव पु ताक क ं थमाला)

मै समू लर ने स पू ण ऋ वेद के छः ख ड म अं ेजी भा य कािशत(१८४९-७४) करने और १८७६ म


ऑ सफोड िव िव ालय से भाषा िव ान के ोफे सर पद से रटायर हो जाने के बाद ई ट इं िडया क पनी
और ि िटश शासक के सहयोग से के वल भारत ही नह बि क िव भर म ईसाईयत को फै लाने के उद्दे य
से एक बहतमह वाकां ी और दूरगामी भावशाली योजना बनाई। इसका मू ल उद्दे य सभी िव धम म
ईसाईयत को सव े िस करना था। िफर भी इसे तु लना मक धमशा अ ययन नह का जा सकता य िक
कह भी सीधे-सीधे तुलना मक अ ययन तु त नह िकया गया है। पर तु इतना अव य है िक ये सब गैर-
ईसाई धम ं थ ह। इन मुखय धमगं ◌्रथ क सीरीज क ईसाईयत-समथक याखया और इनका स पादन
करने तथा इनके िलए मन चाहे िव ान ढूं ढने का काम मै समूलर को स पा गया। लगभग बीस िव ान ,
िजनम से अनेक जमनी के थे, ने लगभग तीस वष तक (१८७९-१९१०) अथक प र म करके िव के सात
धम के मुख धम ं थ के अं ेजी अनु वाद को पचास खं ड म तैयार िकया(तािलका -२)। इनम से जमनी के
कु छ िव ान ने मै समूलर को ऋ वेद भा य म भी सहयोग िदया था।
तािलका २. मै समू लर ारा स पािदत से े ड बु स ऑफ दी ई ट
(पचास खं ड म; : काशन वष को म ह।)

खं ड सं खया एवं काशन वष पु तक एवं लेखक का नाम

१, १५ (१८८४, १८९०) उपिनषद (२ खं ड) - मै समूलर'


Page
81
२, १४ (१८७९, १८८२) से े ड लॉज़ ऑफ दी आय स (२ खं ड) - जॉजबु हलर'

३, १६, २७, २८, ३९, ४० से े ड बु स ऑफ चाइना ( ६ खं ड) - जै स लगे।


(१८७९, १८८२, १८८५, १८८५,
१८९१, १८९१)
४, २३, ३१ (१८८२, १८८७, िज देव ता (३ खं ड)- जे स डरमे टर ए ड एल.एच. िम स
१८८७)
५, १८, २४, ३७, ४७ (१८८०, पहलवी टै सट् स (५ खं ड)- ई. ड लू वे ट
१८८२, १८८५, १८९२, १८९७)
६, ९ (१८८०) कु रान (२ खं ड) ई.एच. पालमर
७ (१८८०) इ टीट्यू टस् ऑफ िव णु- यु िलयस जौली'
८ (१८८२) भगवद गीता-सिहत सन ु जातीय ए ड दी अनु गीता- काशीनाथ
ि य बक तेलं ग
१० (१८८१) ध मपद ए ड सु िनप - एफ. मै समू लर' ए ड वी. फौसबौल
११ (१८८१) बु सु ास- टी. ड लू-राइस डेिवड् स
१२, २६, ४१, ४३, ४४ शतपथ ा ण (५ खं ड)- यु िलयस ऐगिलं ग'
(१८८२, १८८५, १८९४, १८९५,
१९००)
१३, १७, २० िवनय टै सट् स (३ खं ड)-टी.ड यू-राइस डैिवड् स ए ड हरमन
(१८८२, १८८५, १८८५) औि डनबग'
१९ (१८८३) फो-शो िहं ग-सान-िकं ग-स यू न बील
२१ (१८८४) सद्धम पुं ड रका या लोटस ऑफ दी टू लॉज- एच.कन
२२, ४५ (१८८४, १८९५) जैन सू ाज़ (दो खं ड)- हरमन जैकोबी
२५ (१८८६) दी लॉज़ ऑफ मनु (मनु मृित)- जाज बु हलर'
२९, ३० (१८८६, १८९२) गृ सू ाज़(२ खं ड) हरमनऔि डनबग' ए ड एफ. मै समू लर'
३२, ४६ (१८९१, १८९७) वैिदक िह स (२ खं ड) एफ. मै समू लर' ए ड हरमन औि डनबग'
३३ (१८८९) माइनर लॉ बु स- यू िलयस जौली'
३४, ३८ (१९०४) वेदा त सू ाज़ िवद शं कराचायाज़ कमै ी (२ खं ड) जी. िथबौट'
३५, ३६ (१८९०, १८९४) वे स ऑफ िकं ग िमिल द (२ खं ड) टी. ड यू राइज़ डैिवड्स
४२ (१८९७) िह स ऑफ दी अथववेद- एम. लू मफ ड
४८ (१९०४) वेदा त सू ाज िवद रामानु जाज ी भा य- जी. िथबौट'
४९ (१८९४) बु ि ट महायान टै सट्स- ई.बी. कॉवेल, एफ. मै समू लर' ए ड जे.
टाकाकु सु
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82
५० (१९१०) इ डै स- एम. िव टरिनट् ज'

काशक- मोतीलाल बनारसीदास, िद ली।' ये सभी लेखक जरमन थे।


इन धमशा म िह दूधम, बौ मत, जैनमत, इ लाम, पारसी मत (जोराि यिन म) पहलवी, टाओवाद
व अ य चनी मत के मु खय गं ◌्रथ सि मिलत ह। इन पचास खं ड म से सबसे अिधक२१ ं थ, िह दू धम के
ह िजनम वेद, उपिनषद, गीता, मनु मृित, िव णु पु राण, शतपथ ा ण, गृ सू , वेदा त एवं अ य मृितयां
आिद ह। इसके बाद बौ मत पर दस, जैन मत पर दो, चीनी मत पर छः खं ड ह। अि तम खं ड म इन सब ं थ
क िवषय सू ची है। जोिकमै समूलर ने िनधन के बाद छपी थी। ऑ सफोड िव िव ालय ने पहले ये सभी
खं ड ई ट इं िडया क पनी क आिथक सहायता से कािशत िकए िज ह भारत म १९६४ से लगातार यू ने को
और भारत सरकार क सहायता से, मोतीलाल बनारसीदास, िद ली ारा छापा जा रहा है। यहाँ यान देने
यो य बात यह है िक मै समूलर ने वयं अपनी सम त शि और यान िह दू धम के वेद , उपिनषद, दशन
शा , गृ सू व सं कृ त सािह य के इितहास म लगाया। एक और समझने क बात यह है िक ये वेद
स ब धी खं ड (३२ व ४६) १८९१ और १८९७ म कािशत हए िजनम कु छ मुखय चु ने वैिदक देवताओं
स ब धी मं ह पर तु उसने यहाँ इनम शु ऐके रवाद के अनु सार याखया नह क िजससे उसका िह दू धम
के ित प पात एवं हेय भाव झलकता है।

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११. मै समू लर का असली चेहरा
िनःसं दहे मै समू लर कलम का धनी, प िलखने क कला म िस ह त एवं िम बनाने क ि या म पारं गत था िजसके
सहारे िवदेशी होते हए भी ि टेन के भावशाली यि य व राजनीित म उसक गहरी पैठ थी। इसीिलए उसके एक नह
अनेक चेहरे थे। एक तरफ वह ि िटश के राजनैितक और ईसाईयत के िहत को मु खतादेता है तो दूसरी ओर भारतीय को
वेद , वैिदक भाषा, धम और दशन को िव का ाचीनत सािह य कहकर उनका मह व बढ़ाता है, आिदम िव सं कृ ित
के िवकास व इितहास के अ ययन के िलए वेद को अप रहाय बताता है। इससे कु छ अधकचरे ान वाले भारतीय गद्गद
हो जो ह। पर तु साथ ही वह वेद को बचपना व उनम कह -कह ग भरी िच तन के िच ह पाता है है। यिद वह िह दुओं का
स चा िहतैषी होता तो ऋ वेद के वरा य सू (१ : ८० : १-१६) पर बल देकर भारतीय को वरा य पाने क ेरणा
देता। मगर उसने वैसा नह िकया बि क भारतीय को श द जाल म बहकाकर उनक सहानुभू ित लेता रहा। एक तीसरा
चेहरा ऐसा है िजसम वह प ारा भारतीय धािमक नेताओं को सु धारवाद के नाम पर जीवन के आिखरी समय (माच
१९००) तक उनको ईसाईयत म धमा त रत करने का यास करता रहा।

मै समू लर क िव ता क स चाई को ए साइ लोपीिडया ि टेिनका (खंड ट प् , पृ. ९२७-२८, १९११, सं करण) ने इस
कार उजागर िकया है-

"Though undoubteldy a great scholar, Max Mullar did not so much represent
scholarship pure and simple as her hybrid typesthe scholar-author and scholar-
courtier. In the former capacity though manifestingly little of the originality of
genius, he rendered vast service by popularizing high truths among high minds. In his
public and social character, he represented Oriental studies with a brilliancy, and
conferred upon them a distinction, which they had not peviously enjoyed in Great
Britain. There were drawbacks in both respects: the author was too prone to build
upon insecure foundations, and the man of the world incurred censure for failings
which may perhaps be best indicated by the remark that he seemd to much of
a diplomatist."
(Vol. XVII p. 927-28)
अथात् ''हालां िक िनःसं दहे वह एक महान िव ान था, मगर मै समू लर उस िव ता के सरल और शु प का उतना
ितिनिध व नह करता है िजतना िक उस वणसं कर वग यानी िव ान-लेखक और िव ान-राजदरबारी का िम ण''। पहली
ेणी म हालां िक एक मेधावी क मौिलकता कत है तथा उसने उ च स य को उ च वग म लोकि य बनाने म महान या
िकया। वह सावजिनक और सामािजक जीवन म, ा य िव ाओं को तेजि वता के साथ य करता है और उनको े ता
देता है जो िक टे ि टेन के लोग ने पहले नह देखी थी। मगर इन दोन कार के च र म कु छ िु टयां ह। लेखक एक
असु रि त न व पर िवशाल भवन बनाना चाहता है और सां सा रक मनु य क भू ल से डरता तीत होता है िजसके
प रणाम व प वह एक राजनीिता जैसा बहत अिधक हो जाता है।''

इनके अलावा उसका एक चौथा चेहरा भी है। उसने त कालीन भावशाली ि िटश जैसे कायायल, सैलर, ाड, सर
ए. ां ट और अ य के साथ प ाचार िकया। मगर वे सब प जला िदए गए। ीमती जोिजना मानती ह िक ''यह दु ःख क

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बात है िक काफ मू यवान प यवहार न कर िदया गया है।'' (जी. प. ीफे स)। इससे सु प है ये प ाचार जोिजना ने
नह बि क वयं मै समू लर ने मरने से पहले न िकए ह गे तािक भावी इितहास को उसक असिलयत का पता न चल
सके । स भव है िक उन प म उसक कायिविध व िन कष क कड़ी आलोचना क गई हो। स चाई तो यही है िक
मै समू लर ने धन और अपने नाम के चार के बदले म अपनी कलम और आ मा को ई. आई. सी. और ि िटश को
िगरवी रखकर भारी क मत चुकाई। उसने पाया कम, खोया यादा। भारतीय क आलोचना के बाद जब मै समू लर क
कलई खुली तो वयं अपने देश जमनी म भी बड़ा अपमान झेलना पड़ा। उसने वयं देखाः

"So angry was the German public that'the Leipzig branch of the Pan-Germanic League (the
All-Destscher Vernin) drew up a solemn protest against Max Muller's apologia for England. The
protest closed with the words, 'you have no longer the right to call yourself a German; and one
Newspaper expressed its wish to see 'Max Muller hanged on the same gallows with Chamberlain
and Rhodes; and the Aasvogel (vultures) picking his wicked ones."

(LLMM, Vol, II, p. 408)

अथात् ''जमनी क पि लक मै समू लर के ि िटशिहत के िलए समपण से इतनी नाराज थी िक 'पैन-जमन लीग' क
लीिपिजग शाखा ने ती िवरोध दिशत िकया। यह िवरोध इस नारे के साथ समा हआ िक ''तुम को जमन कहलाने का
और अिधक अिधकार नह रह गया है'' और एक अखबार ने तो अपनी यह इ छा गट क िक 'मै समू लर के चै बरलेन
और रोडेस के समान फाँसी दे दी जाए।

(जी. प. खं. २, पृ. ४०८)

मै समू लर के यि तव के बारे म ी भारती ने िलखा हैः


''मै समू लर एक अनेकाथवादी व ा था उसने अपने ोताओं के सामने ऐसी भाषा म बोलता था िक उसका अपनी
मानिसकता, व सु िवधानु सार मन चाहे कु छ भीअथ लगा सकते थे। मै समू लर िमशन रय के सामने बौि क कलाबाजी म
स नता से भाग लेता था और ोताओं के अनु प बोलता था। वह जानता था िक अिधकांश ोताओं म आ यक
बौि क मता नह है तािक वे स याथ का पता लगा सक। सं पे म वह गोलमाल भाषा म बोलता था'' (भारती, पृ. ६७)
भारती जी आगे िलखते ह: ''ई. आई. सी. और लंदन का ि ि यन िमशन इस जमन िव ान के सही यि व को गु ही
रखना चाहते थे। इनम से कोई भी नह चाहता था िक दुिनया, िवशेषकर िह दू, यह जान िक वह एक सै यूलर िमशनरी क
तरह, ईसाई िमशन रय के साथ िमलकर भारत के िह दुओं को ईसाईयत म धमा त रत करने के िलए काय कर रहा है। जैसे
कोई ह यारा, ह या कने क योजना बनाने म सदैव पू ण कु शल व सफल ही नह हो पाता है, वैसे ही वे भी इस भेद को
बहत िदन तक िछपाए न रख सके और मै समू लर क मृ यु के बाद ीमती जोिजना ारा स पािदत उसक जीवनी के
काशन के बादवह पू री तरह नं गा हो गया और अब दुिना जान गई है िक वह न वेद का िव ान था और न भारत का
शु भिच तक बि क एक बह िपया ईसाई िमशनरी था।''
मै समू लर ने वयं वीकारा है िक उसने ऋ वेद के मा यम से ि िटश िहत के िलए काम िकया है। १३ मई १८७५ को
डीन टेनली को िलखे प म उसने चाहा िक- ''इं लड क माहरानी यह जाने के िजस काम के िलए म, १८४६ म, इं लड
आया था, वह काम मने पू रा कर िदया है। ( य िक १८७४ तक ऋ वेद के सभी खंड छप चु के थे) इं लड वािपस आने पर
मु झे एक प िमला िजसम लाड सैिलसबरी ने मेरी ऋ वेद स ब धी सेवाओं के स मान म मेरे काम के िलए अनुदान रािश
बढ़ाने का ताव िकया है।''
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85
(जी. प., खं. १, पृ. ५१६)

"...I should like the Queen to know that I have now fulfilled the task which
brought me to England in 1846 ! On my return to England I found a letter the Lord
Salibury had proposed that a further grant should be paid to me in recognition of my
services in editing the Rig-veda."
(LLMM vol. 1 : p. 516)
उपरो प म मै समू लर ारा वयं वीकृ ती के बाद भी िकसी को िकसी कारका स देह बाक रह जाएगा िक उसने,
जानबूझकर िह दू धम क जड़े उखाड़ने के िलए, ऋ वेद के भा य का िवकृ तीकरण नह िकया है?

इसी कार १६ िदस बर १८८२ को ई. ड यू. कॉलवेल को िलखे प म उसने कहाः


''यिद मेरे भाषण को सुनकर और ढ़ ित होकर देख तो पाएं गे िक ि िटश लोग जीते हए देश पर बौि क िवजय
ा करने के िलए िकसी और को मौका नह दगे तथा वा तव म मु झे इसम अित स नता होगी और म अनु ी◌ाव करता
हँ िक मने उस कृ त ता के भारी कज का बदला चु का िदया है, भले ही कम मा ा म, जो मु झ पर मेरे ारा अपनाए देश,
इं लड, ( य िक वह जमन था) का, और उसके कु छ राजनीित (जैसे लेड टोन, बुनसन, पामरसन, ड् यूक ऑफ
ऑरगायल आिद, ले.) िज ह ने मु झे यहाँ कु छ करने, यानी ऋ वेद क पां डु िलिप का काशन, स पादन और उसका
अं जे ी भा य, और अब 'सै े ड बु स ऑफ दी ई ट' के अनु वाद के स पादन करने का, सपना पू रा करने का अवसर
िदया।

(इंिडया, वही पृ.

XXV-XXVI)

"If some of the young candidates for the Indian Civil Service who listened to my Lectures,
quitely made up their minds that such a reproach shall be wiped out, if a few of them at least
determined to follow in the footsteps of Sir William Jones, and to show to the world that
Englishman who have been able to achieve my pruck, by perseverance, and by real political
genius the material conquest of India, do not mean to leave the laurels of its intellectual conquest
entirely to other countries, then I shall indeed rejoice, and feel that I have paid back, in however
small a degree, the large debt of gratitude which I owe to my adopted countnJ and to some of its
greatest statesmen, who have given me the opportunity which I could find nowhere else of
realising the dreams of my life,-the publication of the text and commentary of the Rigveda, the
most ancient book of Sanskrit, aye of Aryan literature and now the edition of the translation of
the Sacred. Books of the East." (India, What Can It Teach Us ? by Max Muller, fp. XXV-XXVI)
उपरो समपण प म मै समू लर १८८२ म 'ऋ वेद' और 'से े ड बु स ऑफ दी ई ट' (अ य धम के थं )
के स पादन आिद के िलए अं ेजी के ित कृ त ता बार-बार गट करता है।

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86
''अं जे ने मै समू लर क यि गत आव यकताओं क पू ित क ; इसके बदले म मै समू लर ने अपनी आ मा का ही
बिलदान िदया।''
आ म िनरी ण का अवसर

हालां िक मै समू लर के िनधन को आज १०९ वष हो गए ह और अं जे का रा य भी भारत म समा हो गया है। इस


काल खंड म मै समू लर के सभी िस ा त क धि जयाँ उड़ा दी गई ह। पर तु िफर भी के वल थोड़े से ही भारतीय
मै समू लर के असली चेहरे को भली-भां ित जानते ह गे। अिधकांश बु ि जीवी, जो उसके काय से सुप रिचत होने का
दावा करते ह। वे अ सर कही-सु नी अ ामािणक जानकारी पर द भ करते ह जो िक सामा यतया िव िपत होती है पर तु
िह दू िवरोधी से यूलरवादी आज भी योजनाब ढं ग से उसे ही चा रत कर रहे ह। प रणाम व प वे जाने-अनजाने िम
और श ु म भेद करने म असफल रहे ह।

स चाई तो यह िक मै समू लर एक बह िपये क तरह भारत और भारतीय का स चा शु भिच तक बने रहने का


ढ गकरता रहा जबिक वा तव म वह अपने नाम, दाम और ईसाईयत क खाितर जीवन भर वेद और िह दू धमशा को
िवकृ तकरिह दु ओं को ईसाईयत म धमा त रत करने का यास करता रहा िजसे िक ि िटश रा य का पू ण समथन िमला।
खेद का िवषय है िक उसके सािह य को आज आजादी के बाद भी पहले ही क तरह समथन िमल रहा है, जा िक सवथा
या य एवं िन दनीय है।

मै समू लर बेनकाब
मै समू लर को ि िटश योजनाओं और नीितय के अनु सार िनयु िकया
गया और उसे यह काम स पा गया िजसे उसने पूरा करने के िलए अपने को
स चाई के साथ बचन-ब अनु भव िकया। वह ई ट इं िडया क पनी के
िनदेशक के बोड को िदए गए, इन वचन के ित स चा िस करना
चाहता था िक, वह वेद के िवकृ तीकरण और भारत से िह दू धम क जड़
से उखाड़ने और उसक जगह ाइ ट के धम-ईसाईयत को जमाने को पू रा
यास करे गा। उसने जीवन क अि तम घड़ी तक वेद के
िन नीकरण, अवनितकरण एवं िवकृ तीकरण, तथा उसक जगह जीज़स
ाइ ट और ईसाईयत को जमाने, उसक शं सा करने और इ ह िति त
करने के िलए स चाई के साथ जी-जान से यास िकया। यह एक दूसरी
बात रही िक वह अपनी अिभलाषा पू री करने म वयं भी पू री तरह से
बेनकाब हो गया।

Page
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