You are on page 1of 5

Interna tional Jo urna l o f Applied Research 2021 ; 7 (6 ): 253 -25 7

ISSN Print: 2394-7500


ISSN Online: 2394-5869
Impact Factor: 8.4 परशुराम की प्रतीक्षा की प्रासंविकता
IJAR 2021; 7(6): 253-257
www.allresearchjournal.com
Received: 22-04-2021
Accepted: 24-05-2021 डॉ. मीनू कु मारी
डॉ. मीनू कु मारी
हिन्दी हिभाग, मैत्रेयी प्रस्तािना
महाविद्यालय, नई ददल्ली, कवि रामधारी ससंह दिनकर अपने समय के सशक्त कवि, आलोचक ि िद्यकार रहे। यूूँ तो
भारत
इनको उत्तर छायािािी कवि कहा जाता है, दकन्तु उत्तर छायािाि से पूिव और पश्चात्
इनके काव्य का प्रिाह वनरं तर दिखाई िेता है। उनका रचनाकाल बारिोली विजय
(1928) से प्रारं भ होकर संचवयता, दिनकर के िीत और दिनकर की डायरी (1973) पर
विराम पाता है। उनके संपूर्व सावहत्य का आकलन कर पाना अत्यंत कठिन कायव है। प्रेम,
सौन्ियव, युद्ध, इवतहास, राजनीत और आलोचना कु छ भी उनकी कलम से अछू ता नहीं
रहा है। रामधारी ससंह दिनकर एक ही समय में कवि भी हैं और लेखक भी, इवतहासकार
भी हैं, और आलोचक भी। जीिन के अपार संघर्षों से जूझने के बाि भी इनके प्रखरबुवद्ध ने
इनके वलए उपलवधधयों के अंबार लिा दिए हैं। इतना ही नहीं इनकी शैवक्षक उन्नवत के
पठरर्ामस्िरूप इन्हें उच्च वशक्षा संस्थानों में उच्च पि प्राप्त हुए। इनकी सावहत्य सेिा के
फलस्िरूप इन्हें सावहत्य अकािमी पुरस्कार, पद्मभूर्षर् सम्मान, सावहत्य चूड़ामवर् ि
ज्ञानपीि पुरस्कार से भी सम्मावनत दकया िया। िेश वििेश की यात्राएूँ भी इन्होंने की है।
रामधारी ससंह दिनकर की रचनाओं में िेशप्रेम, अतीत के प्रवत प्रेम स्पष्ट रूप से िृवष्टित
होता है। उन्होंने समसामवयक प्रसंिों को पौरावर्क कथाओं ि पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत
करने का सफल प्रयास दकया है। वजसकी शुरूआत प्रर्-भंि से ही हो जाती है। एक परतंत्र
िेश में एक सच्चे कवि के वलए अपने आप को अवभव्यक्त करने की पीड़ा को भली भाूँवत
समझा जा सकता है। कवि दिनकर के साथ भी यही हुआ। भारत की िुिश व ा से व्यवक्त
उनका हृिय आहत पड़ा हुआ था। उनका आक्रोश पूर्व स्िर ‘प्रर्भंि’ (1929) ि हुंकार
(1939) में ककं वचत रूप से फू टता दिखाई पड़ा। िेश की िठरद्रता से िे कु छ इस प्रकार
िुखी हुए दक ‘हुंकार’ के एक-एक शधि से सचंिारी फू ट पड़ी। यही आि 1946 में ‘कु रुक्षेत्र’
में बरसी, जो वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् रचा िया, और वजसे ‘युद्धकाव्य’ की संज्ञा वमली।
Corresponding Author: उनकी रचनाओं के क्रम से हम यह पाते हैं दक िेश की पठरवस्थवतयों के अनुसार उन्होंने
डॉ. मीनू कु मारी एक कवि के िावयत्िबोध को बखूबी समझा है। डॉ. प्रवतमा जैन ने अपनी रचना ‘दिनकर
हिन्दी हिभाग, मैत्रेयी
काव्य कला और िशवन’ में वलखा है- ‘‘महान कलाकार युि प्रवतवनवध कवि सम्प्रवतक युि
महाविद्यालय, नई ददल्ली,
पठरिेश की यथाथवता का प्रवतवनवधत्ि करते हुए उसे अपनी कला कृ वतयों में अवभव्यवक्त
भारत
~ 253 ~
International Journal of Applied Research http://www.allresearchjournal.com

तो िेता ही है, साथ ही उज्ज्िल भविष्य वनमावर् के वलए धूँस जायेिी यह धरा, अिर चाहेंिे।
दिशा वनिेश भी करता है।1 ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की तूफान हमारे इं वित पर िहरें िे,
रचना 1963 में हुई। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ भारत और हम जहाूँ कहेंिे, मेघ िहीं घहरें िे।3
चीन युद्ध (1962) पर आधाठरत है, वजसमें भारत को
पराजय का सामना करना पड़ा। इस पराजय का कारर् दिनकर युििृष्टा रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं का सूक्ष्म
बहुत हि तक सरकार की शांवतिािी नीवतयों को माना अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है दक दिनकर के िल
िया। पं. जिाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे। राष्ट्रकवि ही नहीं थे अवपतु भारतीय संस्कृ वत के बहुत बड़े
रामधारी ससंह दिनकर ि नेहरू जी की वमत्रता जि वहमायती भी हैं। अपनी एक पुस्तक में इन्होंने सभ्यता
और संस्कृ वत का अंतर बखूबी समझाया है। इन्होंने सम्यता
जावहर थी। दिनकर रवचत ‘संस्कृ वत के चार अध्याय’ की
को भौवतक उपािान और संस्कृ वत को जीिन जीने की
भूवमका पं. जिाहरलाल नेहरू ने ही वलखी थी। यह
शैली मानते हैं। दिनकर भी सत्य, असहंसा, क्षमा िया में
पुस्तक अपने आप में वहन्िी सावहत्य में एक कीर्तव स्तंभ है।
दिनकर ने लोकिेि नेहरू नामक से भी एक पुस्तक वलखी विश्वास रखते हैं। दकन्तु यदि कोई हमारी असहंसात्मक
जो पंवडत जी पर आधाठरत थी। दिनकर ने कई स्थानों पर प्रिृवत्त को कोई हमारी कमजोरी मानने लिे तो उसे पौरुर्ष
नेहरू जी की प्रशंसा की। उन्होंने अपनी ‘डायरी’ में भी का पाि पढ़ाना भी यह बहुत अच्छे से जानते हैं। ‘कु रुक्षेत्र’
नेहरू जी के साथ अपने घवनष्ठ संबंधों को स्िीकार दकया में उन्होंने यह स्पष्ट रूप से वलखा है।
है।
नेहरू जी के साथ इतने घवनष्ठ संबंधों के बािजूि भी ‘छीनता हो स्ित्ि कोई और तू
दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की रचना कर एक कवि त्याि तप से काम ले, यह पाप है
के िावयत्ि का वनिावह दकया है। ऐसी बेबाक अवभव्यवक्त पुण्य है विवच्छन्न कर िेना उसे
हमें अन्यत्र नहीं वमलती-
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।’4

‘‘नेता वनमग्न दिन-रात शावन्त-वचन्तन में, दिनकर को इवतहास और पुरार्ों से विशेर्ष मोह था।
कवि कलाकार ऊपर उड़ रहे ििन में। 1961 में ये ‘उिवशी’ की रचना कर चुके थे, जो पुरुर्ष और
यज्ञावग्न वहन्ि में सवमध नहीं पाती है, प्रकृ वत का अद्भुत प्रेम काव्य है। उन्होंने उिवशी में
पौरुर्ष की ज्िाला रोज बुझी जाती है।’’2 कामाध्यात्म की स्थापना कर प्रेम की पराकाष्ठा को
व्यंवजत दकया। दकन्तु चीन भारत युद्ध में भारत की
िास्ति में 1962 का युद्ध चीन की ओर से दकया िया एक पराजय के पश्चात् कवि अपने आप को रोक न सके , और
विश्वासघात था। चीन ने शांवत समझौता भंि करके अपने क्रोध के पारािार को उिलने के वलए उन्होंने
अनपेवक्षत रूप से भारत पर आक्रमर् दकया। धोखे से दकए भारतीय संस्कृ वत के प्रख्यात ऋवर्ष योद्धा ‘परशुराम’ को
िए इस आक्रमर् ने यह सावबत कर दिया दक के िल शांवत चुना। और वहन्िी सावहत्य में ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ जैसे
और असहंसा अपनाने से राष्ट्र को सुरवक्षत नहीं रखा जा प्रज्ज्िवलत काव्य की रचना हुई।
सकता। इस विश्वासघात के बाि भी भारत शांवत का राि
अलापता रहा। दिनकर को यही बात सबसे अवधक खली।
ऐसे प्रशासवनक अवधकाठरयों और िेशद्रोवहयों के प्रवत िे ‘‘विक्रमी रूप नूतन अजुवन-त्रेता का,
विद्रोही रूख अपनाते हैं जो िेशप्रेम का दिखािा करते हुए आ रहा स्ियं िह परशुराम त्रेता का।
िेश को ही वनबवल बनाते हैं। ऐसे लोि सत्य जानते हुए भी यह उत्तेवजत, साकार, क्रुद्ध भारत है,
प्रलोभन के कारर् सत्य कहने से कतराते हैं। युिाओं में यह और नहीं कोई विशुद्ध भारत है।’’5
िीरता और पौरुर्ष के भाि को जिाते हुए दिनकर उस
शवक्त को जुटाने की बात कहते हैं, वजससे पौरुर्ष की आि दिनकर परशुराम को एक ऐसे िीर चठरत्र के रूप में िेखते
और भी उद्दीप्त हो जाए। हैं जो ऋवर्ष होने के साथ-साथ योद्धा भी है। इनका
पौरावर्क चठरत्र आधुवनक संिभों में बल प्रिान करता है।
बाूँहों से हम अम्बुवध अिाध थाहेंिे, परशुराम शास्त्र-विद्या के साथ-साथ शस्त्र विद्या में भी
~ 254 ~
International Journal of Applied Research http://www.allresearchjournal.com

वनपुर् थे। दिनकर ने इन्हें नए भारत के भाग्य पुरुर्ष के ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ एक कालजयी रचना है वजसका
रूप में स्िीकार दकया है। इनके परशुराम न धमव त्यािते हैं महत्त्ि अपने रचनाकाल के समय ही नहीं अवपतु सिैि
न धन के वनवमत्त धमव का त्याि करत हैं। जरूरत पड़ने पर रहेिा। भारतीय आंतठरक पठरवस्थवतयों पर यदि िृवष्ट डालें
ये ऋवर्ष होते हुए भी युद्ध में बम िोले िािने की क्षमता तो पूरे प्रयासों के बािजूि भी भारत में आर्थवक संसाधनों
रखते हैं। परशुराम के प्रतीकात्मक वमथक िारा राष्ट्रीय का के न्द्रीयकरर् कु छ वनजी हाथों में रहता है। जनमानस
चेतना अवभव्यक्त हुई है। दिनकर का मानना है दक जब के वलए होने िाले कायव के िल पन्नों में ही वसमट कर रह
राष्ट्र आहत होता है तब के िल क्षमा और असहंसा से बात जाते हैं। कर के बोझ ने आम जीिन को तोड़ा डाला है।
नहीं बनती। भारत चीन युद्ध में इसी शांवतिािी नीवत के तकनीक का विस्तार तो बढ़ा दकन्तु उसके प्रसार से हम
कारर् मुूँह की खानी पड़ी। युद्ध का तार्कव क िर्वन करते अपनी संस्कृ वत को खोते जा रहे हैं। िैवश्वक स्तर पर होने
हुए इन्होंने अपने क्रांवतकारी विचारों को िार्ी प्रिान की। िाले समझौते हमारे िेश में रोजिार के अिसर तो अिश्य
धमव के सैद्धांवतक पक्ष की अपेक्षा व्यािहाठरक पक्ष पर जोर बढ़ाते हैं दकन्तु उसकी तुलना में भारत भारत न रहकर
दिया है। युिीन पठरवस्थवतयों को िेखते हुए इन्होंने इस इं वडया बनता जा रहा है। हम उत्पािन करने के स्थान पर
बात की ओर संकेत दकया है दक अिर शत्रु िार पर खड़े िस्तुओं का आयात करना ज्यािा पसंि करते हैं। रसोई से
होकर ललकारता है, हमारे आत्म-सम्मान को चोट लेकर बाजार तक, बाजार से लेकर ऑदफस तक, ऑदफस
पहुूँचाता है तो ऐसे में धमव के नाम पर वनवष्क्रय रहने से से लेकर राज्य तक और राज्य से लेकर िेश की सीमा तक
के िल पराजय हाथ लिती है। परशुराम ऐसे ही कमवि हम तन और मन से वििेशी विरफ्त में हैं। खाने को वििेशी
चठरत्र का प्रवतवनवधत्ि करते हैं। इन्होंने भारतीय सभ्यता
नकल (चाउमीन, नूडल, पीजा, मोमोज) पहनने के वलए
के सांस्कृ वतक वमथक िारा ऐसे िीर-पुरुर्ष के आिमन की
प्रतीक्षा की है वजसके पौरुर्ष से समस्त अन्याय का िमन वििेशी ब्रैंड, प्रयोि करने के वलए वििेशी उत्पाि, बोलने
दकया जा सके । परशुराम की प्रतीक्षा में एक स्थान पर के वलए वििेशी बोली, जीने के वलए वििेशी जीिन शैली।
दिनकर ने कहा है- यदि कोई वििेशी यहाूँ आ जाए तो उसे लिता ही नहीं दक
िह भारत में है।
‘‘यह िज्र िज्र के वलए, सुमों का सुम है; इन सब के वलए वजम्मेिार हैं, हमारी नीवतयाूँ, हमारे
यह और नहीं कोई के िल हम तुम हैं। कानून, हमारी वशक्षा पद्धवत और विकृ त लोकतांवत्रक
यह नहीं जावत का, न तो िोत्र-बन्धन का प्रर्ाली। ऐसे में परशुराम की ये पंवक्तयाूँ याि आती हैं-
आ रहा वमत्र भारत-भर के जन जन का।’’6
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
इतना ही नहीं दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में भारत या आि सुलिती रही प्रजा के मन में,
के उन महान सपूतों को भी याि दकया वजन्होंने मातृभूवम तामस बढ़ता यदि िया ढके ल प्रभा को
के वलए अपने प्रार्ों तक की परिाह नहीं की। महारार्ा वनबवन्ध पन्थ यदि वमला नहीं प्रवतभा को
प्रताप, िुरु िोविन्ि ससंह, वशिाजी महाराज, बंिा फकीर, ठरपु नहीं, यही अन्याय हमें मारे िा,
महारानी लक्ष्मीबाई, टीपू सुल्तान, अशफ़ाक उसमान और अपने घर में ही दफर स्ििेश हारे िा।8
भित ससंह हमारे िेश की िे महान हवस्तयाूँ हैं वजन्होंने
समय के प्रिाह को रोक कर हिाओं का रुख ही बिल के िल आर्थवक समृवद्ध के वलए वििेशी उत्पाि का पेटेंट
दिया था। लेकर हमारे ही िेश के लोि उसे बेचते हैं, और शो-रूम में
वििेशी िाने बजाने के वलए मजबूर हैं। के िल पैसे के वलए
खोजो, टीपू सुलतान कहाूँ सोये हैं? मडवर होना बहुत आम हो िया है। अथव संचय के वलए
अशफ़ाक और उसमान कहाूँ सोये हैं? मानि अंि व्यापार, मानि तश्करी जैसे वघनौने काम दकए
बमिाले िीर जिान कहाूँ सोये हैं? जाते हैं। स्ियं भारतीय जनता भारतीयता से नजरें चुरा
रही है। पूरा िेश एक वििेशी आिरर् से वघरा जा रहा है।
िे भितससंह बलिान कहाूँ सोये हैं?7
वशक्षा संस्कृ वत, सभ्यता व्यापार सब वििेशी रं ि में रं िे जा
रहे हैं।

~ 255 ~
International Journal of Applied Research http://www.allresearchjournal.com

राजनैवतक िलों का ऐसा वघनौना रूप िेखने को वमलता है उन्होंने यह स्िीकार भी दकया है। उनकी इसी अनूिी शैली
दक रातों रात सरकार बनाने या विराने के वलए नेता के कारर् ही दकशोरी िास िाजपेयी ने वलखा है ‘‘महाकवि
खरीिे जाते हैं। संसिीय प्रर्ाली के होते हुए िेश में दिनकर अपने ढंि के एक ही थे। मुझे कोई अन्य कवि
लोकतंत्र से विश्वास उि रहा है। िेश िंिों, हड़तालों और सावहत्यकार बहुत ढू ूँढ़ने पर भी ऐसा दिखाई नहीं िेता,
धरनों का अड्डा बन चुका है। वजसका नाम उनके साथ वलया जा सके । तुलसीिास के
ऐसे में दिनकर की एक कविता एना की याि आती है जो
साथ सूरिास, पंत के साथ वनराला और हठरऔद्य के साथ
‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में संकवलत है।
श्री मैवथली िुप्त का नाम स्ितः आ जाता है, परन्तु
‘दिनकर’ के साथ रखने के वलए कोई नाम नहीं
और छात्र बड़े पुरजोर हैं,
कावलजों में सीखने को आये तोड़ फोड़ हैं। वमलता।’’11
कहते हैं, पाप है समाज में
वधक हम पे! जो कभी पढ़ें इस राज में। वनष्कर्षवतः ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ आज भी प्रासंविक है।
अभी पढ़ने का क्या सिाल है? यह कालजयी रचना है। इसवलए जब जनसामान्य में
नकारात्मकता फै लेिी, तब तब हमें ‘परशुराम की प्रतीक्षा’
अभी तो हमारा धमव एक हड़ताल है।9
का स्मरर् होता रहेिा। दिनकर ने इवतहास को स्िर िेकर
जनता में सुप्त िौरि की भािना को पुनः जाग्रत दकया।
सीमा वििाि पर यदि िृवष्ट डालें तो भारत-चीन-सीमा
अतीत के िौरि की स्मृवत दिलाकर कवि जनता को
वििाि िर्षों से चला आ रहा है। िोनों िेशों के सैवनक आिे
विजयपथ पर अग्रसर होने की प्रेरर्ा िेते हैं। भारत ऋवर्ष
बढ़ते हैं और िुल्हनों की माूँिे सूनी हो जाती हैं असंख्य
मुवनयों का िेश है। उसे अनेक प्रकार की ऋवद्ध-वसवद्धयाूँ
माताओं की िोि उजड़ जाती है। िैवश्वक स्तर पर वनवश्चत
प्राप्त हैं। भारत के संस्कार शुद्ध है। कमिव ता इसका धमव है।
रूप से यह ज्ञात नहीं दकया जा सकता दक कौन हमारा
दिनकर आधुवनकता और परं परा का िरर् एक साथ
वमत्र है और कौन िुश्मन सब समय आने पर अपने वनजी
करना चाहते हैं। िे उन रूढ़ परं पराओं को ढ़ोते रहने में
स्िाथों में वलप्त हो जाते हैं। भारत की वििेशी खरीि
फरोख्त के चलते हमने कु छ ऐसे सामान बनाने छोड़ दिए कतई विश्वास रखते जो मर चुकी हैं, समय के प्रिाह में
हैं, जो हम पहले बनाते थे, क्योंदक िे सामान हमें चीन से वजनकी कोई आिश्यकता नहीं है। दिनकर आकाश पर
बहुत सस्ते िामों पर वमल रहे हैं। पर इससे हमारे घरे लू िृवष्ट रखने में विश्वास करते हैं, पर जमीन में हमारी जड़ें
उद्योिों पर बुरा असर भी पड़ा है और उत्पािन को लेकर मजबूत होनी चावहए। इसवलए उन्होंने परशुराम जैसे
चीन पर हमारी वनभवरता भी बढ़ िई है। दिनकर ने सशक्त पौरावर्क पात्र को 1963 में काव्य रचना करते
एनाकी कविता में यही स्पष्ट दकया है दक विश्व में कौन समय चुना। परशुराम के माध्यम से उन्होंने भारतीय
हमारा वमत्र है और कौन वमत्र होने का स्िांि करता है। जनता के अंतमवन को झकझोरा है। उसे अपनी शवक्त का
िेश में अराजकता की वस्थवत है। िेश के अंिर पनप रहे स्मरर् कराया है।
चीनी समथकों का जायजा भी दिनकर ले चुके थे। उन्होंने
कहा है- संिभव ग्रंथ सूची
1. डॉ. प्रवतमा जैन, दिनकर काव्य कला और िशवन:
िोस्त ही है, िेख के डरों नहीं।
प्रस्तािना, पृष्ठ 5
कम्युवनस्ट कहते हैं चीन से लड़ों नहीं।
2. दिनकर, परशुराम की प्रतीक्षा, वितीय संस्करर्, पृष्ठ
वचन्तन में सोशवलस्ट िकव है,
11
कम्युवनस्ट और काूँिरे सी में क्या फकव है?
जनसंघी भारतीय शुद्ध हैं। 3. दिनकर, परशुराम की प्रतीक्षा, वितीय संस्करर्, पृष्ठ

इसीवलए आज महािीर बड़े क्रुद्ध हैं।10 14


4. दिनकर, कु रुक्षेत्र, पृष्ठ 16
दिनकर की अवभव्यवक्त की इस बेबाकी के सब कायल थे। 5. दिनकर, परशुराम की प्रतीक्षा, पृष्ठ 21
िे जो कहते थे मुक्त स्िर में कहते थे। शधिों को तोड़ना
6. दिनकर: परशुराम की प्रतीक्षा, पृष्ठ 21
मरोड़ना उन्होंने नहीं सीखा चक्रिाल की भूवमका में
~ 256 ~
International Journal of Applied Research http://www.allresearchjournal.com

7. दिनकर: परशुराम की प्रतीक्षा, पृष्ठ 16


8. दिनकर: परशुराम की प्रतीक्षा, पृष्ठ 13
9. दिनकर: परशुराम की प्रतीक्षा, एनाकी कविता, पृष्ठ
64
10. दिनकर: परशुराम की प्रतीक्षा, एनाकी कविता, पृष्ठ
65
11. संपािक कन्हैया लाल फू लफिर, शेर्ष वनःशेर्षः अपनी
बात, पृष्ठ 48

~ 257 ~

You might also like