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जवाहर नवोदय िव ालय

िशवपुरी

िहं दी प रयोजना काय

या ा वृ तां त
छा का नाम :- िवनय ताप रघु वंशी

क ा :- १२ ‘अ’

अनु मां क :- १२१७


आभारो
म अपनी िश क ीमती मेनका बाई मीना के साथ साथ हमारे ि ंिसपल- ी र.कृ ा
के ित कृत ता का िवशे ष ध वाद करना चाहता ं िजसने मुझे इस
प रयोजना को िवषय पर करने का सुनहरा मौका िदया । इस प रयोजना ने मुझे
ब त सारे शोध करने म भी मदद की और मुझे इतनी सारी नई चीजों के बारे म
पता चला िक म वा व म उनके िलए आभारी ं।
दू सरा, म अपने मातािपता और दो ों को भी ध वाद दे ना चा ंगा िज ोंने इस -
प रयोजना को सीिमत समय सीमा के भीतर अंितम प दे ने म मेरी मदद की।

छा का नाम :- िवनय ताप रघुवंशी

क ा :- १२ ‘अ’

अनु मांक :- १२१७


माण प
यह मािणत िकया जाता ह की “या ा वृ तांत” नामक प रयोजना
काय िवनय ताप रघुवंशी क ा १२वी ‘अ’– जवाहर नवोदय
िव ालय िशवपुरी ारा ुत िकया गया ह जो की क ीय
मा िमक िश ा बोड की क ा १२वी, स २०२२-२३ की वािषक
परी ा का अंश ह l यह उसका मौिलक काय ह l

परी क
िवषय सूची

ा ह या ा वृतांत ५

या ा वृतांत का इितहास ६

िहंदी सािह म या ा वृतांत ९

या ा वृतांत के िस लेखक १०

ोत १६
ा ह या ा वृ तांत ?

या ा करना मानव की मूल वृि ह. हम अगर मानव इितहास पर नजर डाले तो


पाएगे िक मनु के िवकास की या ा म या ा का मह पूण योगदान ह. वह अपने
जीवन काल मे मानव कोई न कोई या ा के िलए कहीं न कहीं अव जाया करता
ह.

मगर कुछ सािह पसं द अपनी या ा के अनुभव व ान को पाठकों के िलए


कलमब कर या ा सािह म अपना योग दान दे ते ह. या ा वृतां तों के लेखन का
मूल उ े लेखक ारा या ा िकये गये थल के स म जानकारी दे कर उ
भी टे वल के िलए आकिषत करना होता ह.

ले खक अपने या ा वणन म अमु क थान की ाकृितक िविश ता, सामािजक संरचना,


समाज, लोगों के रहन सहन सं ृ ित, थानीय भाषा, आगंतुकों के ित उनकी सोच व
िवचारों को अपने सािह म थान दे ता ह. एक स े या ी के स म कहा गया
ह िक उस यायावर की कोई मं िजल नहीं होती ह.

वह मन की तरं गों के कथनानुसार आगे बढ़ता जाता ह तथा राह की किठनाइयों म


आन की अनुभूित को खोजता ह. िहं दी के िव ान् यायावर लेखक राकेश मोहन
या ा के स म कहते ह िक या ा को तट थ नज रयाँ दे ती ह. जो हम
दै िनक जीवन म दे खने को नहीं िमलती ह. एक नय वातावरण म जाकर
कुंठा मु हो जाता ह अपने िनकट वातावरण के दवाब से मु होकर, नय थानों,
नय लोगों से स थािपत करता ह l
या ा वृ तां त का इितहास

आरं िभक युग


िहं दी सािह म अ ग िवधाओं की भाँ ित ही भारतदु -युग से या ा-सािह का
आरं भ माना जा सकता है। उनके संपादन म िनकलने वाली पि काओं म ‘ह र ार’,
‘लखनऊ’, ‘जबलपुर’, ‘सरयूपार की या ा’, ‘वै नाथ की या ा’ और ‘जनकपुर की या ा’
आिद या ा-सािह कािशत आ। इन या ा-वृतांतों की भाषा ं पूण है और
शैली बड़ी रोचक और सजीव है । इस समय के या ा-वृतांतों म हम दामोदर शा ी
कृत ‘मेरी पूव िद ा ा’ (सन् 1885), दे वी साद ख ी कृत ‘रामे र या ा’ (सन्
1893) को मह पूण मान सकते ह िकंतु यह या ा-सािह प रचया क और
िकंिचत थूल वणनों से यु है।
बाबू िशव साद गु ारा िलखे गए या ा-वृतां त ‘पृ ी दि णा’ (सन् 1924) को हम
आरं िभक या ा-सािह म मह पू ण थान दे सकते ह। इसकी सबसे बड़ी िवशेषता
िच ा कता है। इसम संसार भर के अनेक थानों का रोचक वणन है। लगभग इसी
समय ामी स दे व प र ाजक कृत ‘मेरी कैलाश या ा’ (सन् 1915) तथा ‘मेरी
जमन या ा’ (सन् 1926) मह पू ण ह। इ ोंने सन् 1936 म ‘या ा िम ’ नामक पु क
िलखी, जो या ा-सािह के मह को थािपत करने का काम करती है। िवदे शी
या ा-िववरणों म क ैयालाल िम कृत ‘हमारी जापान या ा’ (सन् 1931), रामनारायण
िम कृत ‘यूरोप या ा के छः मास’ और मौलवी महे श साद कृत ‘मेरी ईरान या ा’
(सन् 1930) या ा-सािह के अ े उदाहरण ह।
ं त ता – पूव युग
या ा-सािह के िवकास म रा ल सां कृ ायान का योगदान अ ितम है। इितवृ -
धान शैली होने के बावजू द गुणव ा और प रमाण की ि से इनके या ा-वृतांतों
की तुलना म कोई दू सरा ले खक कहीं नहीं ठहरता है। ‘मेरी ित त या ा’, ‘मेरी
ल ाख या ा’, ‘िक र दे श म’, ‘ स म 25 मास’, ‘ित त म सवा वष’, ‘मेरी यूरोप
या ा’, ‘या ा के प े’, ‘जापान, ईरान, एिशया के दु गम खंडों म’ आिद इनके कुछ
मुख या ा-वृतांत ह। रा ल सां कृ ायन के या ा-सािह म दो कार की ि को
साफ दे खा जा सकता है। उनके एक कार के लेखन म या ाओं का केवल
सामा वणन है और दू सरे कार के या ा-सािह को शु सािह क कहा जा
सकता है। इस दू सरे कार के या ा-सािह म रा ल सांकृ ायन ने थान के साथ-
साथ अपने समय को भी िलिपब िकया है । सन् 1948 म इ ोंने ‘घु कड़ शा ’
नामक की रचना की िजससे या ा करने की कला को सीखा जा सकता है।
इनका अिधकांश या ा-सािह सन् 1926 से 1956 के बीच िलखा गया। l

ातं यो र युग
रा ल सांकृ ायन के बाद या ा-सािह म ब मुखी ितभा के धनी किव-कथाकार
अ ेय का नाम बड़े स ान से िलया जाता है। अ ेय अपने या ा-सािह को या ा-
सं रण कहना पसंद करते थे। इससे उनका आशय या ा-वृतांतों म सं रण का
समावेश कर दे ना था। उनका मानना था िक या ाएँ न केवल बाहर की जाती ह
ब वे हमारे अंदर की ओर भी की जाती ह। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ (सन्
1953) और ‘एक बूँद सहसा उछली’ (सन् 1960) उनके ारा िल खत या ा-सािह
की िस कृितयाँ ह। ‘अरे यायावर रहे गा याद’ म उनके भारत मण का वणन है
और दू सरी पु क ‘एक बूँद सहसा उछली म’ उनकी िवदे शी या ाओं को श ब
िकया गया है। अ ेय के या ा-सािह की भाषा ग भाषा के नए मुकाम तक ले
जाती है।
आज़ादी के बाद िहं दी सािह म ब तायत से या ा-सािह का सृजन आ। अनेक
गितशील लेखकों ने इस िवधा को समृि◌ दान की। रामवृ बेनीपुरी कृत ‘पैरों
म पंख बाँधकर’ (सन् 1952) तथा ‘उड़ते चलो उड़ते चलो’, य पाल कृत ‘लोहे की
दीवार के दोनों ओर’ (सन् 1953), भगवतशरण उपा ाय कृत ‘कलक ा से पेिकंग
तक’ (सन् 1953) तथा ‘सागर की लहरों पर’ (सन् 1959), भाकर माचवे कृत ‘गोरी
नज़रों म हम’ (सन् 1964) उ ेखनीय ह।
िहं दी या ा-सािह के सं दभ म मोहन राकेश तथा िनमल वमा को भी बड़े ह ा र
माना जाता है। इ ोंने या ा-सािह को नए अथ से सम त िकया। मोहन राकेश
ारा िल खत ‘आ खरी च ान तक’ (सन् 1953) म दि ण भारत का िव ार से वणन
िकया गया है। दि ण भारतीय जीवन प ित के िविवध िब ों को इसम लेखक ने
यथावत ुत कर िदया है । इनके या ा-सािह की सबसे बड़ी िवशेषता यह है िक
इसम कहानी की-सी रोचकता और नाटक का-सा आकषण दे खा जा सकता है।
िनमल वमा ने ‘चीड़ों पर चाँ दनी’ (सन् 1964) म यूरोपीय जीवन के िच ों को उकेरा
है। िनमल वमा के या ा-सािह म न केवल अपने समय का वणन रहता है ब
इितहास और सं ृ ित के अनेक िबंदुओं को भी इसम अिभ िमलती है।
िवदे शी संदभ को भी उनके ग की सहजता बोिझल नहीं होने दे ती।
कोई भी लेखक अ ा लेखक तभी बनता है जब वह जीवन को समीप से दे खता है
और जीवन को समीप से दे खने का सबसे सरल मा म या ा करना है◌ै।
रचना क लेखन करने वाला हर ले खक अपने सािह म िकसी न िकसी प म
या ा-सािह का सृजन अव करता है। हमने उपयु संि िववरण म दे खा
िक िहं दी म या ा िवषयक चु र सािह उपल है । िहं दी ग के साथ-साथ इसने
भी पया िवकास िकया है । अिधकांश लेखकों ने इस िवधा को अपनी अिभ
का मा म बनाया है।
िह ी सािह म या ा वृता
िह ी सािह म या ा वृता एक आधु िनक ग िवधा के प म ीकृत है। िह ी
म या ा-वृ ा िलखने की पर रा का सू पात भारते दु से माना जाता है। इनके
या ावृ िवषयक रचनाएँ किववचनसुधा म कािशत होती थीं। रा ल
सां कृ ायन, अ ेय और नागाजुन को आधुिनक िहं दी सािह का ‘घुम ड़ बृहत यी’
कहा जाता है।
भारते दु ने िविभ थलों की या ा की और अपने अनु भवों को साझा िकया। या ा
वृतां त के प म उनके कुछ सं रण ह- सरयू पार की या ा, लखनऊ की या ा,
ह र ार की या ा। भारतदु युग म ही कुछ लेखकों के ारा िवदे श या ा के वृतां त
भी िलखे गए। इसी कार ि वेदी युग म भी िविभ या ा वृता िलखे गए ीधर
पाठक की दे हरादू न , िशमला या ा। ामी स दे व प र ाजक की "मेरी कैलाश
या ा", अमे रका मण आिद। सबसे मह पूण या ावृता लेखक रा ल
सां कृ ायन माने जाते ह। उ ोंने िविभ दे शों की या ा की और या ा म आने वाली
कहािनयों को बताने के साथ-साथ उस थान िवशेष िक ाकृितक संपदा, सां ृ ितक
तथा ऐितहािसक घटनाओं को भी बारी-बारी से ुत िकया जैसे- िक र दे श म,
दािजिलंग प रचय, या ा के प े आिद। बाद म चलकर अ ेय ने अपनी या ा वृतां त
के ारा िवदे शी अनुभवों को भी एक भी एक कहानीकार की रोचकता और या ी
के रोमांचक के साथ ु त िकया है। "एक बूंद सहसा उछली" म यूरोप और
अमे रका की या ाओं को ुत िकया है। मोहन राकेश ने अपनी या ा वृता
"आ खरी च ान" म दि ण भारत की या ाओं का वणन िकया है। िनमल वमा ने
"चीड़ों पर चां दनी" नामक या ा वृतां त म अपने यूरोप या ा का वणन िकया है। इस
या ा वृतांग म वे वहां के इितहास, दशन और सं ृ ित से सीधा संवाद करते ह।
उनके या ा म संवेदनशीलता के साथ साथ बौ क गहराई का भी अनुभव होता ह
l
िस या ा वृ तांत ले खक

१. रा ल सां कृ ायन

रा ल सांकृ ायन (9 अ ैल 1893 – 14 अ ै ल 1963) िज महापंिडत की उपािध दी


जाती है िहं दी के एक मु ख सािह कार थे। वे एक िति त ब भाषािवद् थे और
बीसवीं सदी के पूवाध म उ ोंने या ा वृतांत/या ा सािह तथा िव -दशन के े म
सािह क योगदान िकए। वह िहं दी या ासािह के िपतामह कहे जाते ह। बौ
धम पर उनका शोध िहं दी सािह म युगा रकारी माना जाता है, िजसके िलए
उ ोंने ित त से लेकर ीलंका तक मण िकया था। इसके अलावा उ ोंने म -
एिशया तथा कॉकेशस मण पर भी या ा वृतां त िलखे जो सािह क ि से ब त
मह पूण ह।
21वीं सदी के इस दौर म जब संचार- ां ित (स ार ा ) के साधनों ने सम िव
को एक ‘ ोबल िवलेज’ म प रवितत कर िदया हो एवं इ रनेट ारा ान का
समूचा संसार ण भर म एक क पर सामने उपल हो, ऐसे म यह अनुमान
लगाना िक कोई दु लभ ों की खोज म हजारों मील दू र पहाड़ों व निदयों
के बीच भटकने के बाद, उन ों को ख रों पर लादकर अपने दे श म लाए,
रोमां चक लगता है, पर ऐसे ही थे भारतीय मनीषा के अ णी िवचारक, सा वादी
िच क, सामािजक ा के अ दू त, सावदे िशक ि एवं घुम ड़ी वृि के
महान पु ष रा ल सां कृ ायन।
रा ल सांकृ ायन के जीवन का मूलमं ही घुम ड़ी यानी गितशीलता रही है।
घुम ड़ी उनके िलए वृि नहीं वरन् धम था। आधु िनक िहं दी सािह म रा ल
सां कृ ायन एक या ाकार, इितहासिवद् , त ा ेषी, युगप रवतनकार सािह कार के
प म जाने जाते है।

रा ल सांकृ ायन के मुख या ा वृतांत -:

िक र के दे श म:-
'िक र दे श म' िहमाचल दे श म ित त सीमा पर सतलुज
नदी की उप का म बसे सुर इलाक़े िक ौर की या ा-
कथा है.
यह या ा उ ोंने साल 1948 म की थी. मूल श 'िक र'
है, इसिलए रा लजी सव इसी नाम का योग करते ह.
कभी बस और घोड़े के सहारे और कभी कई दफ़ा पैदल
भी की गई या ा का वणन करते ए रा लजी े के
इितहास, भूगोल, वन ित, लोक-सं ृ ित आिद अनेक
पहलुओं की जानकारी जुटाते ह.
िकताब का सबसे िदलच पहलू वह है जहां वे अपने जैसे घुम ड़ों की खोज
कर उनका संि जीवन-च रत भी िलखते ह.
उ एक ऐसा या ी िमला जो पां च बार कैलाश-मानसरोवर हो आया था. उसने
सै कड़ों या ाएं कीं और डाकुओं ही नहीं, मौत से दो-चार आ और बच आया.
पु क का अंितम िह ा सू चनाओं से भरा है, जहां वो िक ौर के अतीत, लोक-का
और उसका िहं दी अनुवाद, िक र भाषा का ाकरण और श ावली समझाते हl
वो ा से गंगा:-
वो ा से गंगा , रा ल सांकृ ायन की िस का िनक
कृित है। यह मातृ स ा क समाज म ी के बच की
बेजोड़ रचना हैl यह रा ल सांकृ ायन ारा िलखी गई
बीस का िनक कहािनयों का सं ह है। इसकी कहािनयाँ
आठ हजार वष तथा दस हजार िकलोमीटर की प रिध म
बँधी ई ह। इस कार हम कह सकते ह िक यह
कहािनयाँ भारोपीय मानवों की स ता के िवकास की पूरी
कड़ी को सामने रखने म स म ह। 6000 ई से .पू.1942
ईतक के कालखंड म मानव समाज के ऐितहािसक ., आिथक एवं राजनीितक
अ यन को रा ल सां कृ ायन ने इस कहानीसं ह म बाँधने का यास िकया है। -
हालांिक यह पूरी तरह का िनक हैl
२. स दानंद हीरानंद वा ायन 'अ ेय'

स दानंद हीरानंद वा ायन 'अ ेय' (7 माच, 1911 - 4 अ ैल, 1987) िह ी म


अपने समय के सबसे चिचत किव, कथाकार, िनब कार, प कार, स ादक, यायावर,
अ ापक रहे ह।[3] इनका ज 7 माच 1911 को उ र दे श के कसया, पुरात -
खु दाई िशिवर म आ।[4] बचपन लखनऊ, क ीर, िबहार और म ास म बीता।
बी.एससी. करके अं ेजी म एम.ए. करते समय ां ितकारी आ ोलन से जुड़कर बम
बनाते ए पकड़े गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन्1930 ई. के अ म
पकड़ िलये गये। अ ेय योगवाद एवं नई किवता को सािह जगत म िति त करने
वाले किव ह। अनेक जापानी हाइकु किवताओं को अ ेय ने अनूिदत िकया।
ब आयामी के धनी और खर किव होने के साथ ही साथ अ ेय की
फोटो ाफ़ी भी उ ा आ करती थी। और यायावरी तो शायद उनको दै व- द ही
थी ।
1930 से 1936 तक िविभ जेलों म कटे । 1936-37 म सैिनक और िवशाल
भारत नामक पि काओं का सं पादन िकया। 1943 से 1946 तक ि िटश सेना म रहे ;
इसके बाद इलाहाबाद से तीक नामक पि का िनकाली और ऑल इं िडया रे िडयो की
नौकरी ीकार की। दे शिवदे श की या ाएं कीं। िजसम उ ोंने- कैिलफोिनया
िव िव ालय से लेकर जोधपु र िव िव ालय तक म अ ापन का काम िकया। िद ी
लौटे और िदनमान सा ािहक, नवभारत टाइ , अं ेजी प वाक् और एवरीमस जैसी
िस प पि काओं का सं पादन-िकया। 1980 म उ ोंने व लिनिध नामक एक
ास की थापना की िजसका उ े सािह और सं ृ ित के े म काय करना
था। िद ी म ही 4 अ ैल 1987 को उनकी मृ ु ई। 1964 म आँ गन के पार
ार पर उ सािह अकादमी का पु र ार ा आ और 1978 म िकतनी नावों
म िकतनी बार पर भारतीय ानपीठ पुर ार।

स दानंद हीरानंद वा ायन 'अ ेय' के मुख या ा


वृतां त -:

अरे यायावर रहेगा याद? :-

अ े य की यह पु क इस मायने म एक कालातीत िमसाल


लगती है िक इसके बहाने ि तीय िव यु से लेकर पू रे
िहं दु ान की आजादी तक का वह भूगोल और कालखंड
सामने आते ह जहां िजतने अिधक सपने थे उतने ही यातनाओं
के मंजर िभया. यह पु क एक के िवपरीत नहीं, ब
सम एक नाग रक और उसके एक मनु होने की भी या ा-पु क है. अ ेय
अपने या ा म लाहौर, क ीर, पं जाब, औरं गाबाद, बंगाल, असम आिद दे शों की
कृित और भूिम से गुजरते ए अपनी कथा क शैली और भाषा की ताजगी से
िसफ सौंदय को ही नहीं रचते ब सिदयों हम िजनके गुलाम रहे उनके इितहास
के प े भी पलटते ह.

वै ािनकता और आधुिनकता के प र े म उनके िवकास, िव ार और िव ंस के


गिणत को हल करने का और अकथ उ म इस पु क को वायरल कृित
बनाते ह. पु क म एलुर, अिलफंता, क ाकुमारी, िहमालय आिद की या ा करते
िमथकों, तीकों और मू ितयों की रचना को अपने यथाथ और यथाथ के क म
दे खा-परखा गया ह जहां लेखक को पुराणों और इितहास की वह स ाई नजर
आती है जो युगों तक गाढे रं गों के पीछे रही. अनदे खे और अछूते को या ा की
अिभ और उसकी कला म मूत करना कोई सीखे तो अ ेय से सीखे. अ ेय
की यह ि ही थी िक या ा, मण के बजाय एक ऐसी घटना बन सकी िजसकी
ि या- िति या म अपना कुछ अगर खो जाता है तो ब त कुछ िमल भी जाता है.
अपना ब त कुछ खोने, पाने और सृजन करने का नाम है-‘अरे यायावर रहे गा याद?

एक बूंद सहसा उछली:-

एक बूँद सहसा उछली’ के लेखक की ि ऐसी ही है। वह दे श म नहीं, काल म


भी या ा करता है। जो दे श वह आपके सामने लाता है
उसका सां ृ ितक प रपा भी आपकी आँ खों के सामने प
ले लेता है। िजस च र को वह आपके स ुख खड़ा करता
है उसकी एक िचतवन म एक पूरे समाज के इितहास की
झाँकी आपको िमल जाती है। या ा-सािह िहं दी म यों भी
ब त अिधक नहीं है,पर ऐसी पु क तो अि तीय है। ले खक
सं ार से भारतीय है। मानव जाित से वह जो तादा
खोजता है, उसम वह केवल एक संयोग है; पर िविभ दे शों
के वणन और वृतांत की ओट म भारत और भारतीयता की
जो गौरवमयी ितमा वह उ ािपत करता है, वह उसकी कला ि और िश -
कला का माण तो दे ती ही है, उसकी वैचा रक िन ा का भी माण है।
ोत

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