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CCL Chapter
NCERT Solution for Class 1 to 12 Students

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(i) आत्म पिरचय (ii) एक


गीत Class 12 Hindi
सप्रसंग व्याख्या / Vyakhya
– आरोह भाग 2 NCERT
Solution

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NCERT Solution of Class 12 Hindi आरोह


भाग 2 (i) आत्म पिरचय (ii) एक गीत सप्रसंग
व्याख्या for Various Board Students such
as CBSE, HBSE, Mp Board, Up Board,
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Question Answer are available.

Also Read: – Class 12 Hindi आरोह भाग 2


NCERT Solution

1. Also Read – Class 12 Hindi आरोह


भाग 2 Solution in Videos
2. Also Read – Class 12 Hindi
अिभव्यिक्त और माध्यम Solution in
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3. Also Read – Class 12 Hindi िवतान
भाग 2 Solution in Videos

NCERT Solution of Class 12th Hindi


Aroh Bhag 2 / आरोह भाग 2 (i) आत्म पिरचय
(ii) एक गीत / (i) Aatam Parichay (ii) Ek
Geet Kavita ( किवता ) Vyakhya / सप्रसंग
व्याख्या Solution.

(i) आत्म पिरचय (ii) एक गीत


Class 12 Hindi Chapter 1
सप्रसंग व्याख्या
(i) Aatam Parichay (ii) Ek Geet Class
12 Vyakhya with Important Points.

किवता 1 आत्म पिरचय (हिरवंशराय बच्चन)


सप्रसंग व्याख्या

1. मैं जग-जीवन का भार िलए िफरता है,


िफर भी जीवन में प्यार िलए िफरता है ।
कर िदया िकसी ने झंकृत िजनको छूकर
मैं सॉसों के दो तार िलए िफरता हूँ ।

शब्दाथर्- जग-जीवन – सांसािरक जीवन । झंकृत –


बजाना। छूकर – स्पशर् करके। सॉसों के दो तार –
प्राण रूपी दो तार ।

संदभर् :- प्रस्तुत पंिक्तयों में किव हिरवंश राय बच्चन


जी ने अपने प्रेममय जीवन पर प्रकाश डाला है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

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व्याख्या- किव कहता है िक मैं इस संसार में अपनी
सामािजक िजम्मेदारी के साथ साथ बाधाओं और
कष्टों को साथ लेकर अपना जीवन जी रहा हूं। किव
कहता है िक यद्यिप मेरा जीवन चाहे िकतनी ही
मुसीबतों से क्यों ना भरा हो, िफर भी मैं अपने जीवन में
िकसी का गहरा प्रेम, िनस्वाथर् स्नेह लेकर जी रहा हूं।
अपने मनोभाव व्यक्त करता हुआ किव कह रहा है िक
अचानक उसके जीवन में प्रेम का प्रवेश हुआ और
उसकी िप्रया ( पत्नी ) ने किव के ह्रदय के तारों को
छूकर झंकृत कर िदया था, िजसके कारण किव की
सांसो रूपी तारों से मधुर संगीत की ध्विन िनकलने
लगी। किव इसी प्रेम की झंकार व मधुर संगीत की
ध्विन के साथ लीन रहने लगा। सांसािरक बोझ, कष्ट,
बाधा चाहे किव के सामने अपना सीना ताने क्यों ना
खड़ी रहे परंतु इनकी परवाह न करके प्रेम के सहारे
अपना जीवन इस संसार में सुखपूवर्क जी रहा हूं।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष :-

किव ने अपने प्रेम को मुक्त भाव से स्वीकार


िकया है।
अपनी पत्नी के िनस्वाथर् प्रेम को उजागर
िकया है।
किव के मन में िकसी भी प्रकार के जैसे
ईष्यार्, द्वे ष, छल कपट, मोह माया के भाव
जागृत नहीं होते।

कला पक्ष:-

भाषा सहज, सरल, प्रवाह युक्त व संगीत


आत्मक भाव से भरी हुई है।
प्रस्तुत अंश में श्रृंगार रस का सुंदर िचत्र
अंिकत िकया है।
प्रस्तुत गीत पर उमर खय्याम की रुबाइयों का
स्पष्ट प्रभाव है
‘सांसों के तार’ में रूपक अलंकार का प्रयोग
िकया है।

2. मैं स्नेह-सुरा का पान िकया करता है,


मैं कभी न जग का ध्यान िकया करता हूँ ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान िकया करता है!

शब्दाथर्- स्नेह-सुरा – प्रेम रूपी शराब। जग –


संसार। गान – बखान, कहना। गान करना – बताना
या सुनाना।

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संदभर् :- प्रस्तुत पंिक्तयों में किव ने आत्म पिरचय पर


प्रकाश डाला है।

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प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- प्रस्तुत काव्यांश में कभी अपने िवचार व्यक्त


करते हुए कह रहा है िक स्नेह अथार्त प्रेम की ( प्रेम
रूपी ) मिदरा का पान करता रहता हूं। कहने का भाव
यह है िक मैं इसी प्रेम रूपी मिदरा को पीकर इसी की
मस्ती में िदन-रात डूबा रहता हूं। किव कह रहा है िक
मैं िसफर् अपने मन की सुनता हूं और इसी में मगन
रहता हूं। इस संसार की मुझे कोई िचं ता ही नहीं है
क्योंिक मैं कभी भी इस अपूणर् संसार का ध्यान नहीं
करता। किव को यह संसार अपूणर् के साथ-साथ
स्वाथीर् भी लग रहा है। कहने का भाव यह है िक यह
संसार तो केवल उसको ही पूछता रहता है जो संसार
की गाते रहते हैं अथार्त संसार का बखान करते रहते हैं
और इस जग के अनुकूल ही कायर् करते रहते हैं।
अगली पंिक्तयों में किव अपने मनोभावों प्रकट करते
हुए कह रहे हैं िक मैं तो केवल अपनी मस्ती में डूब कर
अपने मन की सुनकर अपने भावों के गीत गाता रहता
हूं। कहने का भाव यह है िक किव अपने मन की
भावनाओं व संवेदना को ही गीतों के रूप में गुनगुनाता
रहता है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव केवल अपने मन की सुनता है।


किव को यह संसार स्वाथीर् लगता है
संसार केवल उन्हीं की गाता है जो संसार के
सच्चे झूठे का गान करते िफरते हैं।

कला पक्ष :-

भाषा सहज, सरल, सरल और खड़ी बोली


है।
स्नेह सुरा में रूपक अलंकार का सुंदर प्रयोग
िकया है।
संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रयोग
िकया है।
रूपक अलंकार के साथ-साथ अनुप्रास
अलंकार का साथर्क प्रयोग हुआ है।
माधुयर् गुण है।

3. मैं िनज उर के उद्गार िलए िफरता हूँ ,


मैं िनज उर के उपहार िलए िफरता है,
है यह अपूणर् संसार न मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार िलए िफरता हूँ ।

शब्दाथर्- िनज – अपना। उर – हृदय। उद्गार – भाव।


भाता – अच्छा लगता।

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संदभर् :- प्रस्तुत काव्यांश में किव ने अपने हृदय के
भावों को बड़ी ही रोचक शैली में प्रस्तुत िकया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- किव कह रहा है िक मैं अपने हृदय के भावों


के साथ इस संसार में अपना जीवन यापन कर रहा हूं।
अथार्त कभी अपने मन में उत्पन्न भावों को, िवचारों को
उपहार के रूप में स्वीकार करता है। किव इन्हीं भावों,
िवचारों रूपी उपहारों के साथ अपना जीवन यापन कर
रहा है। किव को यह संसार अपूणर् लगता है। इस
संसार को अपूणर् मानते हुए किव मुक्त भाव से कहता
है िक इस संसार की अपूणर्ता मुझे कभी भी नहीं
भाती। किव अपूणर् संसार को अनदेखा करके अपने
सपनों में संसार को बनाता है और उसी सपनों रुपी
संसार को लेकर किव इस जग में जी रहा है। किव
आिखरकार कहता है िक मैं तो अपने ही सपनों के
संसार में मस्त रहता हूं।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

कभी अपने हृदय के उद्गार को उपहार मानता


है।
किव संसार को स्वाथीर् के साथ-साथ अपूणर्
भी मानता है।
किव संसार की स्वाथर् िप्रयता व अपूणर्ता से
तंग आकर अपने सपनों की दुिनया में ही एक
पूणर् संसार का िनमार्ण करता है।

कला पक्ष:-

गीित शैली का प्रयोग िकया है।


शांत रस है।
प्रसाद गुण है।
संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का
साथर्क प्रयोग िकया है।
भाषा प्रवाह युक्त है।

4. मैं जला हृदय में अिग्न, दहा करता हूं,


सुख-दु ःख दोनों में मग्न रहा करता हूं,
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
में भव मौजों पर मस्त बहा करता हूं।

शब्दाथर्- अिग्न – आग। दहा – जलना। भव-सागर


– संसार रूपी सागर। मौजों पर – लहरों पर।

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संदभर् :- प्रस्तुत अवतरण में किव ने आत्मपिरचय का
िचत्रण करते हुए सुख-दुख की अवस्था में एक समान
रहने की प्रेरणा दी है।

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प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- किव कह रहा है िक मेरे हृदय में प्रेम के


िवयोग की अिग्न जल रही है और उसी िवयोग रूपी
अिग्न में मैं िदन-रात लगातार जल रहा हूं। परंतु िफर
भी किव आशावादी िवचारों से भरा हुआ है और स्वयं
पर िनयंत्रण रखते हुए दोनों यानी सुख और दुख की
अवस्था में मगन रहता है। कभी कह रहा है िक मैं न तो
सुख आने पर अत्यािधक खुश होता हूं और न ही दुख
आने पर अत्यािधक दुखी होता हूं। दोनों ही अवस्था में
एक समान भाव से रहता हूं और ग्रहण करता हूं। किव
सांसािरक मनुष्य के िवचारों पर प्रकाश डालता हुआ
कह रहा है िक इस जगत में रहने वाले मनुष्य इस
संसार रूपी सागर को पार करने के िलए िदन-रात नाव
का िनमार्ण करने में लगे रहते हैं परंतु किव अपने
िवचार प्रस्तुत करता हुआ कह रहा है िक मेरी ऐसी
कोई भी अिभलाषा नहीं है। मैं तो संसार को एक
सागर के रूप में मानता हूं और सागर में उठने वाली
लहरों पर मस्ती में रहना चाहता हूं। अथार्त कहने का
भाव यह है िक इस संसार में रहने वाले व्यिक्त मोक्ष
प्रािप्त के िलए नाम के रूप में िकसी अन्य के सहारे की
आवश्यकता को अनुभव करते हैं परंतु किव को ऐसे
िकसी भी सहारे की आवश्यकता नहीं है। किव मग्न
और मस्त होकर इस संसार की लहरों पर ही िवचरण
करना चाहता है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव ने सुख और दुख में समभाव रहने की


सीख दी है।
किव ने इस संसार को एक सागर के रूप में
िचित्रत िकया है।
किव के हृदय में िवयोग रूपी अिग्न िनरंतर
जल रही है।

कला पक्ष:-

भव-सागर में रूपक अलंकार है।


भाषा सरल, स्पष्ट, साधारण, सरस, खड़ी
बोली है।
माधुयर् गुण का साथर्क प्रयोग िकया है।
िवयोग श्रृंगार का प्रयोग िकया है।
िबं ब योजना साथर्क है।

5. मैं यौवन का उन्माद िलए िफरता हूं,


उन्मादों में अवसाद िलए िफरता हूँ ,
जो मुझको बाहर हँ सा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, िकसी की याद िलए िफरता हूँ ,

शब्दाथर्- यौवन – युवावस्था, जवानी। उन्माद –


मस्ती, उमंग, जोश। अवसाद – गहरा दुख। बाहर –
ऊपरी, बाह्य रूप। भीतर – अंदर, मन में, आं तिरक
रूप। हाय – दुख में पीड़ा के समय मुंह से िनकलने
वाले शब्द।

संदभर् :- इस काव्यांश में किव हिरवंशराय बच्चन जी


ने अपने हृदय व जीवन की आं तिरक पीड़ा का वणर्न
िकया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- प्रस्तुत पंिक्तयों में किव अपने िवचार व्यक्त


करते हुए अपने जीवन में आने वाली पीड़ा का वणर्न
करते हुए कहते हैं िक मेरे जीवन में मेरी जवानी का
जोश अब भी भरा हुआ है। कहने का भाव यह है िक
किव चाहे अपनी अधेड़ अवस्था में पहुंच चुका है परंतु
िफर भी अपनी जवानी के जोश के साथ अपना जीवन
जी रहा है। किव बच्चन जी कह रहे हैं िक मेरे जवानी
वाले जीवन के जोश में अनेक गहरे दुख समाए हुए हैं
अथार्त अनेकों पीड़ा छाई हुई हैं। किव अपने मनोभाव
व्यक्त करते हुए कह रहा है िक उसके यौवन काल में
िकसी ने उसके जीवन में प्रेम भर िदया, कहने का भाग
है किव ने अपनी युवावस्था में अपनी पत्नी से गहरा
प्रेम िकया और उसकी यादों को अपने हृदय में धारण
कर िलया। किव आज उन्हीं प्रेम भरी यादों के साथ
अपना जीवन जी रहा है। अगली पंिक्त में किव
स्वीकार करता हुआ कहना चाहता है िक यह प्रेम भरी
यादें उसको बाहर से हंसाती रहती हैं परंतु अंदर से
पीड़ा पहुंच जाती है और यही पीड़ा उसको अंदर से
रुलाती है। आिखरकार किव आज भी अपने जीवन में
आने वाले सुखद प्रेम और मीठी यादों को अनुभव
करता है जो उसको कभी हंसा देती है और कभी
आं तिरक पीड़ा पहुंचाती हैं। किव की िप्रयसी की यादें
आज भी उसे सताती रहती हैं।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

कभी जवानी के उन्माद के साथ अपना जीवन


जी रहा है
किव के जीवन में उन्माद के साथ-साथ दुखद
यादें भी जुड़े हैं।

कला पक्ष:-

प्रतीकात्मक शैली का उिचत प्रयोग िकया है।


अनुप्रास, पद मैत अलंकारों की शोभा है।
संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का उिचत
प्रयोग िकया है।
आं तिरक पीड़ा का प्रितपादन िकया है।

6. कर यत्न िमटे सब, सत्य िकसी में जाना ?


नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना !
िफर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ?
मैं सीख रहा है, सीखा ज्ञान भुलाना !

शब्दाथर्- यत्न – प्रयास, जतन। नादान – नासमझ,


मासूम। दाना – अक्लमंद, समझदार, बुिद्धमान। मूढ़
– मूखर्, जड़ बुिद्ध। जग – संसार, दुिनया।

संदभर् :- प्रस्तुत काव्यांश में किव ने सत्य के महत्व पर


प्रकाश डाला है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- किव कहना चाहता है िक इस संसार में बड़े


बड़े ज्ञानवान महापुरुषों ने, िसद्ध पुरुषों ने सत्य को
जानने का प्रयास िकया लेिकन सत्य को कोई भी नहीं
जान पाया। इसी सत्य की खोज करते-करते सब के
प्रयास धरे के धरे रह गए और सब अपना जीवन चक्र
पूरा करके समाप्त होते चले गए। किव अपने िवचार
व्यक्त करते हुए कह रहा है िक इस संसार में
अकलमंद मनुष्यों के साथ नादान व्यिक्त भी रहते हैं।
कहने का भाव यह है िक नादान व्यिक्त धन दौलत,
ऐश्वयार्, मोह माया के बंधन में फंस जाते हैं परंतु
बुिद्धमान व्यिक्त हमेशा इन सब से दू र रहते हैं और जन
कल्याण के कायर् करते रहते हैं। किव सत्य को
उजागर करते हुए कहना चाहते हैं िक इस संसार में
रहने वाले मनुष्य सब जानते हैं पर वह मूखर् हैं जो सत्य
से अनजान बने हुए हैं। किव सांसािरक मनुष्यों को
भूले हुए ज्ञान को सीखने व स्वयं भी इसका अनुसरण
करना चाहता है। किव आिखर में कहता है िक इस
परम अटल सत्य को कोई भी नहीं जान पाया है।

काव्य-सौंदयर्:–

भाव पक्ष:-

किव सीधे, स्पष्ट रूप से परमिपता परमेश्वर


की बात कर रहा है।
संसार में जहां समझदार व्यिक्त रहते हैं वहां
नादान और मूखर् भी रहते हैं।
सत्य की खोज में अनेकों महापुरुषों ने अपना
जीवन गमा िदया पर सत्य को नहीं जान
पाए।

कला पक्ष:-

किव की रहस्यवादी चेतना का िचत्रण िकया


गया है।
शांत रस है।
प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग िकया है।
प्रश्नवाचक अलंकार का उिचत प्रयोग िकया
है।

7. मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,


मैं बना-बना िकतने जग रोज िमटाता;
जग िजस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
में प्रित पग से उस पृथ्वी को ठु कराता!

शब्दाथर्- वैभव – धन-दौलत, ऐश्वयर्। नाता – िरश्ता,


संबंध। प्रित पग – प्रत्येक कदम। रोज – प्रितिदन।
पग – पैर, चरण।

संदभर् :- किव अपने और संसार के नाते को अस्वीकार


कर रहा है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- किव अपने िवचार अिभव्यक्त करते हुए


कह रहे हैं िक मेरा और इस संसार का कोई भी नाता
नहीं है क्योंिक संसार में रहने वाले व्यिक्तयों और मेरी
िवचारधारा में बड़ा अंतर है। किव ऐसे संसार को तो
प्रितिदन अपनी कल्पना शिक्त से बना बना कर रोज
समाप्त यानी िमटा देता है। किव अगली पंिक्त में
अपने भाव व्यक्त करते हुए कह रहा है िक यह संसार
धन दौलत, ऐश्वयार् के मोह में फंसकर इस पृथ्वी पर
तमाम ऐसो आराम के साधन जोड़ता रहता है। किव
ऐसे संसार को अपने पग से ठोकर मार कर िगरा देता
है यानी वह ऐसे संसार को ठु कराता रहता है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव को सांसािरक धन दौलत, ऐश्वयार्,


मोह-माया का कोई भी बंधन जकड़ नहीं
पाया है।
किव की कल्पना शिक्त संसार के
यथाथर्वादी दृिष्टकोण पर प्रकाश डालती है।
प्रस्तुत पंिक्तयों में किव ने अपने िवचार
प्रस्तुत करते हुए वणर्नात्मक, आत्मपरक व
तुलनात्मक शैिलयों का प्रयोग िकया है

कला पक्ष:-

‘बना बना’ में पुनरुिक्त प्रकाश अलंकार है।


‘और’ शब्द में यमक अलंकार का सफल
प्रयोग िकया है।
भाषा सहज, सरल, व परवाहयुक्त है।

8. मैं िनज रोदन में राग िलए िफरता है,


शीतल वाणी में आग िलए िफरता हूँ ,
हो िजस पर भूपों के प्रसाद िनछावर,
मैं वह खंडहर का भाग िलए िफरता हूँ ।

शब्दाथर्- िनज – स्वयं, अपना। रोदान – रोना, गहरा


दुःख। शीतल – शांत, ठं डी। भूपो के – राजाओं के।
प्रासाद – महल, राजभवन। िनछावर – अपर्ण करना,
त्याग देना। वाणी – आवाज, ध्विन। खंडहर –
अवशेष, भाग, टू टा हुआ भवन।

संदभर् :- प्रस्तुत पंिक्तयों में किव ने वेदना की ओर


संकेत करते हुए प्रेम व मस्ती को िदया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- प्रस्तुत काव्यांश में किव अपने हृदय के


भावों को अपनी वाणी का रूप देते हुए कह रहा है िक
मेरे रोने में भी प्रेम का पिवत्र भाव झलक रहा है। कहने
का आशय है िक किव के रोने में राग का गीत है। किव
अपने गीतों में गाते समय प्रेम के आं सुओ ं से रो रहा है।
किव की वाणी कोमल, शीतल है, लेिकन इस शीतल,
कोमल वाणी में प्रेम की गहन इच्छा, जोश व ताकत
समाई हुई है। किव मानता है िक उसका प्रेम भरा
जीवन िनराशा के कारण खंडहर सा है। परंतु िफर भी
इस खंडहर में गहरा आकषर्ण, िविचत्र लगाव भरा हुआ
है। किव कहता है िक ऐसे अद्भुत प्रेम पर तो बड़े बड़े
नामी, प्रिसद्ध व्यिक्त अपने तमाम ऐश्वयार् धन दौलत
से भरे हुए राज महलो को बड़ी खुशी के साथ अपर्ण
कर देते हैं। अंत में किव कहता है िक उसके मन में
अपने अमूल्य प्रेम के िलए गहरी अनुभूितयां समाई हुई
है। किव की पत्नी का प्रेम उसके जीवन में अमूल्य है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव का हृदय एक प्रेमी का हृदय हैं।


कभी अपने प्रेम के िलए अपना सब कुछ
अपर्ण कर देना चाहता है।

कला पक्ष:-

श्रृंगार रस में िवयोग रस का सफल प्रयोग


िकया है।
भाषा सरल, सरस व प्रवाहयुक्त है।
अिभधा व लक्षणा शब्दशिक्त का प्रयोग
िकया है।
‘खंडहर-सा’ में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
िवरोधाभास अलंकार का भी प्रयोग िकया है।
प्रेम को अमूल्य रूप से स्वीकृत िकया है।

9. मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,


मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छं द बनाना,
क्यों किव कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दु िनया का हूँ एक नया दीवाना !

शब्दाथर्- रोया – रोना, िवलाप। फूट पड़ा – जोर से


रोना। छं द बनाना – किवता िलखना, गीत िलखना।
दीवाना – मनमौजी, मस्त।

संदभर् :- प्रस्तुत काव्यांश में संसार के लोगों द्वारा उस


पर की जाने वाली प्रितिक्रया की ओर संकेत िकया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- किव कहता है िक प्रेम की िवरह वेदना के


कारण मैं जब पीड़ा से भरा हुआ रोने लगा और रोते
हुए अपने गहरे दुख को अपनी किवता में व गीतों में
शब्दों के माध्यम से प्रकट िकया तब इस जगत में रहने
वाले मनुष्यों ने कहा िक किव तो गीत गा रहा है। किव
जब िवरह वेदना के कारण फूट-फूट कर रोने लगा तो
लोगों ने कहना आरंभ कर िदया िक किव तो सुंदर
सुंदर छं द बना रहा है। किव कहता है िक यह संसार
केवल मुझे एक किव के रूप में ही जानता है और
अपनाता है जबिक मैं तो अपने आप को इस संसार
का एक मनमौजी व मस्त प्रेमी मानता हूं।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव ने अपनी िवरह वेदना को अपनी काव्य


भाषा का रूप िदया है।
किव ने अपने आपको मनमौजी कह कर
अपना पिरचय कराया है।

कला पक्ष:-

‘क्यों किव कहकर’ में अनुप्रास अलंकार है।


करुण व िवयोग श्रृंगार रस पर प्रकाश डाला
है।
भाषा सरल, स्पष्ट व भावयुक्त है।
माधुयर् गुण का समावेश हुआ है।

10. मैं दीवानों का वेश िलए िफरता हूं,


में मादकता िनःशेष िलए िफरता हूं,
िजसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश िलए िफरता है ।

शब्दाथर्- दीवाना – पागल। वेश- पहनावा।


मादकता- नशा, मस्ती। िन:शेष – पूण,र् संपूणर्।

संदभर् :- प्रेम और मस्ती का संदेश देने का वणर्न िकया


है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या- प्रस्तुत काव्यांश में किव कहता है िक वह


इस संसार में मनमौजी, मस्त प्रेमी का रूप धारण
करके घूमता रहता है। वह जहां भी जाता है वहां के
वातावरण को प्रेममय व मादक बना देता है। किव के
िवचारों में प्रेम एवं मस्ती छाई रहती है। किव द्वारा गाए
जाने वाले प्रेम में मस्ती भरे गाने को सुनकर सब
भाविवभोर होकर प्रेम से भर जाते हैं। अंत में किव कह
रहा है िक मैं अपने गीतों में मस्ती का संदेश िलए
िफरता हूं, जो सुनने वालों को भी मस्त कर देता है
तथा उसे आनंद की प्रािप्त हो जाती है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव प्रेम दीवानी का रूप लेकर िफर रहा है।


प्रेम के नशे में संपूणर् संसार डूब जाता है।

कला पक्ष:-

झूम- झुके मैं अनुप्रास अलंकार है।


श्रृंगार रस का प्रयोग हुआ है।
भाषा सरल, सहज व प्रवाहयुक्त है।
प्रसाद गुण का समावेश है।

किवता 1 एक गीत (हिरवंशराय बच्चन)


सप्रसंग व्याख्या

1. िदन जल्दी-जल्दी उलता है!


हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंिजल भी तो है दू र नहीं –
यह सोच थका िदन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता
है!
िदन जल्दी-जल्दी बलता है।

शब्दाथर्- बलता है – अस्त होता है, पथ- रास्ता,


मंिजल – लक्ष्य। िदन का पंधी – सूयर्, राहगीर।

संदभर् :- इसमें किव ने समय के बीत जाने के साथ-


साथ पिथक के मंिजल तक पहुंचने के जज्बे का वणर्न
िकया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या:- किव कहता है िक िदन और रात लगातार


चलते रहते हैं। िदन बहुत अिधक शीघ्रता से अस्त
होता है। जो राहगीर अपनी मंिजल के िलए िनकले
होते हैं उनको इस बात का डर लगा रहता है िक कहीं
रास्ते में अंधकार / रात न हो जाए। राहगीर को पता है
िक अब उसका लक्ष्य ज्यादा दू र नहीं बचा है इसीिलए
यही बात सोचते हुए राहगीर और अिधक तेजी से
चलने लगता है। िदन बहुत अिधक शीघ्रता से अस्त
हो रहा है। किव के कहने का अिभप्राय यह है िक
मनुष्य जीवन बहुत छोटा होता है। मनुष्य रूपी पिथक
को यही िचं ता लगी रहती है िक कहीं उसके जीवन का
लक्ष्य प्राप्त होने से पहले उसके जीवन में अंधकार ना
हो जाए। क्योंिक मनुष्य का जीवन जल्दी-जल्दी ढल
रहा है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव ने मनुष्य के जीवन का वणर्न िकया है।


मनुष्य को लक्ष्य प्रािप्त की हमेशा िचं ता लगी
रहती है।

कला पक्ष:-

भाषा खड़ी बोली, सरल और प्रवाहमयी है।


तत्सम और तद्भव शब्दावली का प्रयोग हुआ
है।
प्रसाद गुण और शांत रस िवद्यमान है।
पुनरुिक्त प्रकाश अलंकार का बेहतरीन
प्रयोग हुआ है।

2. बच्चे प्रत्याशा में होंगे,


नीड़ों से झाँक रहे होंगे
यह ध्यान परों में िचिड़यों के भरता िकतनी चंचलता
है।
िदन जल्दी-जल्दी बोलता है।

शब्दाथर्- प्रत्याशा – आशा / उम्मीद। नीड़ों से –


घाँसलों से। परों में – पंखों में।

संदभर् :- इसमें किव ने अपनी मंिजल के रास्ते पर गए


हुए पिक्षयों के अपने बच्चों के प्रित प्रेम और िचं ता के
भाव को प्रकट िकया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या:- किव कहता है िक पक्षी अपनी मंिजल पर


गए हुए हैं। अब पिक्षयों को अपने बच्चों की िचं ता
सताने लगती है उनको लगता है िक बच्चे हमारे आने
की उम्मीद में होंगे और हमारे आने के इं तजार में
घोंसलों से बाहर देख रहे होंगे। जब यह बात िचिड़यों
को याद आती है तो वह उनके अंदर चंचलता पर देती
है। उनके पंख और अिधक गितशील हो जाते हैं।
अथार्त िचिड़या तेजी से उडने लगती है । किव कहता
है िक िदन बहुत ही शीघ्रता से बीत रहा है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

इसमें िचिड़या का उसके बच्चों के प्रित प्रेम


भाव का िचत्रण िकया गया है।

कला पक्ष:-

खड़ी बोली भाषा सरल और सहज है।


अनुप्रास, पुनरुिक्त प्रकाश अलंकारों की
शोभा िनराली है।
प्रसाद गुण और वात्सल्य रस िवद्यमान है।
तत्सम और तद्भव शब्दावली का प्रयोग हुआ
है।

3. मुझसे िमलने को कौन िवकल ?


मैं होऊँ िकसके िहत चंचल ?
यह प्रश्न िशिथल करता पद को, भरता उर में
िवहवलता है।
िदन जल्दी-जल्दी इलता है।

शब्दाथर्- िवकल – व्याकुल। िहत – के िलए।


िशिथल करना – सुस्त करना। पद – पैर। उर –
हृदय। िवह्वलता – व्याकुलता।

संदभर् :- इसमें किव ने प्रािणयों की व्याकुलता का


वणर्न िकया है।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी िहं दी की पाठ्यपुस्तक


‘आरोह भाग 2’ में से संकिलत किवता ‘आत्मपिरचय’
से अवतिरत िकया गया है। इस किवता के रचियता
का नाम श्री हिरवंश राय बच्चन जी है।

व्याख्या:- किव कहता है िक मुझसे िमलने को कोई


भी व्याकुल नहीं है। कोई भी उसको चाहने वाला नहीं
है तो िफर वह अपनी मंिजल की तरफ जाने को,
िकसके िलए गितशील बने। जब किव के मन में यह
सवाल उठता है तो यह सवाल उसके पैरों को कमजोर
कर देता हैं, उसको सुस्त बना देता है तथा उसके हृदय
में व्याकुलता को भर देता है। किव कहता है िक िदन
बहुत अिधक शीघ्रता से बीत रहा है।

काव्य-सौंदयर्:-

भाव पक्ष:-

किव ने प्रािणयों की व्याकुलता को प्रकट


िकया है।

कला पक्ष:-

भाषा सरल और सहज है।


पुनरुिक्त प्रकाश और अनुप्रास अलंकारों का
प्रयोग हुआ है।
तत्सम शब्दावली का प्रयोग हुआ है।

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14 thoughts on “(i) आत्म पिरचय (ii) एक


गीत Class 12 Hindi सप्रसंग व्याख्या /
Vyakhya – आरोह भाग 2 NCERT
Solution”

Ashish
at

Osm…

Reply

Ashish
at

Sir i need all ch.like that

Reply

Bhanu
at

Reply

Rehana
at

Very well done

Reply

Dinesh
at

Aap bhi 12th class me ho


Right chapter ki vyakhya

Reply

Kanvra Ram siyag


at

Very good

Reply

Ankit
at

Very well done

Reply

Diksha parmar
at

Tysm

Reply

DivyaRani
at

Bahut acha ji

Reply

Simran
at

Question a Ans. Provide kare

Reply

Vishal
at

Mensan karo

Reply

Sumit
at

Right dear

Sir please provide important


question and answers this lesson
Plzz

Reply

Dilkesh
at

Please sir

Reply

Himanahu
at

Hi sir kya app mujhe hindi k


kvitae pdha sakte ho please

Reply

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