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घनानंद का काव्य

योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक (हहदी), दक्षिण क्षिहार कें द्रीय क्षिश्वक्षिद्यालय

घनानंद (1700 – 1757 इ.) हहदी के एक क्षिलिण कक्षि हैं | यों तो हहदी साक्षहत्य के
आक्षतहास में घनानंद को रीक्षतकाल की रीक्षतमुक्त धारा के ऄंतगगत रखा गया है पर हम आतना
तो जानते ही हैं कक साक्षहत्य का आक्षतहास िह दरिाजा है क्षजस से हम ईस साक्षहत्य की
दुक्षनया में दाक्षखल होते हैं | कु छ लोगों का ध्यान क्षसर्ग दरिाजे पर ही रह जाता है और िे
साक्षहत्य के भीतर प्रिेश ही नहीं कर पाते | हहदी साक्षहत्य का रीक्षतकाल आसी प्रकिया का
ईदाहरण है क्षजस पर न जाने कै से-कै से अरोप लगते रहे ! भक्षक्तकाल की कसौटी पर ईस का
मूलयांकन ककया जाता रहा और ईसे पतनोन्मुख साक्षहत्य के रूप में देखा-परखा गया | आस के
साथ-साथ रीक्षतकाल से एकरस होने की क्षशकायत भी की जाती रही है | यह एकरसता यह
है कक रीक्षतकाल का साक्षहत्य सामंतों की तुक्षि के क्षलए क्षलखा गया था और आस में नारी को
के िल भोग्या-रूप में प्रस्तुत ककया गया था | हम ऄपने ऄनुभि से जानते हैं कक ककसी भी
साक्षहत्य का कोइ भी काल कभी एकरस नहीं होता | हर काल ऄपने तरीके से िहुक्षिध होता
है | ईस काल में कइ धाराएँ एक-दूसरे को सहयोग देती और एक-दूसरे को काटती हुइ चलती
हैं | यह ठीक है कक भक्षक्तकाल की क्षिक्षिधता और रचनात्मकता ऄलग ककस्म की है और
रीक्षतकाल की ऄलग | पर यह भी है कक आन दोनों कालों में ऐसा भी नहीं है कक कोइ संिंध है
ही नहीं | घनानंद का काव्य रीक्षतकाल की क्षिक्षिधता और रचनात्मकता का ऄत्यंत सशक्त
प्रमाण है | ईन की रचनाओं में हमें पररपक्कि काव्य-दृक्षि, सहज सौंदयग की प्रस्तुक्षत और क्षिरह
की दशाओं को ऄक्षभव्यक्त करती रचनात्मक कलपना क्षमलती है |
घनानंद के काव्य को पढ़ने के िाद यह एहसास होता है कक ईन के पास एक पररपक्व
काव्य-दृक्षि थी | रीक्षतकाव्य के दूसरे कक्षियों के समानांतर ईन की काव्य-दृक्षि में
स्िाभाक्षिकता, सहजता और नइ संिेदनशीलता पर िल है | िे कहते हैं कक :
तीछन इछन िान िखान सो पैनी दसान लै सान चढ़ाित |
प्रानक्षन प्यासे, भरे ऄक्षत पाक्षनप, मायल घायल चोप िढ़ाित |
यौं घनअनँद छाित भाित जान-सजीिन-ओर तें अित |
लोग हैं लाक्षग कक्षित्त िनाित मोहह तौ मेरे कक्षित्त िनाित |
आस सिैये की अक्षिरी पंक्षक्त िहुत प्रक्षसद्ध है | आस का सीधा ऄथग तो यही है कक “सि लोग
लग कर कक्षित्त िनाते हैं और मुझे मेरे कक्षित्त ही िनाते हैं |” अधुक्षनक काल के कक्षि और
कथाकार प्राय: ऐसी िातें कहते रहे हैं कक ईन की कक्षिता या कहानी या कथा या कथा के
पात्र ईन की क्षगरफ्त से छू ट जाते हैं और िे ऄपने ऄनुसार रचना को क्षनयंक्षत्रत करने लगते हैं |
घनानंद भी कु छ आसी तरह की िात कर रहे हैं | पर घनानंद की खाक्षसयत यह है कक िे आस
की पूरी प्रकिया भी िताते हैं | आस सिैये की पहली तीन पंक्षक्तयों में आसी प्रकिया का िणगन
है | घनानंद कह रहे हैं कक “ िह तीक्ष्ण दृक्षि, िाणी का िखान और पैनी दशाओं को लेकर
सान चढ़ाता है | मेरे प्यासे प्राणों के क्षलए िह ‘पाक्षनप’ से भरा हुअ है | िह मुझ को खुद में
प्रिृत्त करता है, मुझे घायल करता है और मेरे भीतर ऄपने क्षलए ईत्कट चाहत िढ़ाता है | आस
प्रकार यह सारा कु छ जो जान की संजीिनी यानी सुजान की तरर् से ही हो रहा है िह मुझे
भाता भी है और मुझे अच्छाकदत भी कर लेता है | सि लोग लग कर कक्षित्त िनाते हैं और
मुझे मेरे कक्षित्त ही िनाते हैं |” यहाँ लग कर कक्षित्त िनाने का एक मतलि यह भी है कक
रीक्षतकाल के िाकी कक्षि क्षजस तरह से रूढ़ ईपमाओं और शैक्षलयों का प्रयोग ऄपनी कक्षिताओं
में कर रहे थे िे घनानंद को पसंद नहीं अए | ऄकारण नहीं है कक एक दूसरे कक्षि ठाकु र आस
िारे में स्पि घोषणा करते हैं कक लोग कु छ-कु छ ईपमाओं को सीख क्षलए हैं और सभाओं में
कक्षिता को ढेले की तरह र्ें कते रहते हैं | घनानंद ने कक्षिता के क्षलए ऄनुभूक्षतयों को तरजीह
दी | आसीक्षलए तो िे सार् कह रहे कक मुझे िह भाता भी है और अच्छाकदत भी कर लेता है |
जाक्षहर है कक आस प्रकिया में स्िाभाक्षिकता है | आस से यह भी पता चलता है कक घनानंद के
क्षलए कक्षिता का मतलि प्रेम है | ईन के सिैयों और कक्षित्तों में ईन का हृदय सच में सान पर
चढ़ा मालूम होता है | िास कर जि िे क्षिरह का िणगन करते हैं |
कोइ भी कक्षि कक्षिता मात्र को क्या समझता है ? ईसे ककस रूप में ग्रहण करता है ?
कक्षिता के प्रक्षत ईस की धारणा क्या है ? साथ ही यह भी महत्त्िपूणग है कक ईस के पाठकों या
पुराना ककतु व्यंजक शब्द लें भािक तो भािक के साथ ईस की कक्षिता का क्या ररश्ता िनता
है ? आन सि िातों का ईस की कक्षिता पर िहुत गहरा प्रभाि पड़ता है | घनानंद ऄपनी
कक्षिता और भािक के ररश्ते को ऄत्यंत कोमलता एिं सहृदयता से स्पि करते हैं | िे क्षलखते
हैं :
ईर-भौन में मौन को घूँघट कै दुरर िैठी क्षिराजक्षत िात-िनी |
मृदु मंजु पदारथ भूषन सों सु लसै हुलसै रस-रूप-मनी |
रसना-ऄली कान गली मक्षध ह्िै पधरािती लै क्षचत-सेज ठनी |
घनअनँद िूझक्षन-ऄंक िसै क्षिलसै ररझिार सुजान-धनी |
आस सिैये में घनानंद ने ऄपना पूरा काव्य-क्षििेक क्षनचोड़ कर रख कदया है | िे कक्षिता को
दुलहन की तरह और भािक को ईस के समझदार दूलहे के रूप में िर्णणत करते हुए कहते हैं कक
कक्षिता हृदय के भिन में मौन का घूघ ँ ट डाले ऄपने को क्षछपाए िैठी है | मृदु यानी कोमल
और मंजु ऄथागत् सुंदर पदाथग यानी पद और ऄथग ईस के गहने हैं | ये गहने रस रूपी मक्षण, जो
ईस ने धारण कर रखी है, ईसे दीप्त कर रहे हैं | ऄलंकारिादी िमा करें गे पर ऄलंकार की
सारी योजना तो रस के क्षलए ही है | रसना शब्द के यहाँ दो मतलि हैं | पहला तो जीभ |
घनानंद के जमाने में कक्षिता पाठ्य नहीं श्रव्य हुअ करती थी | आसक्षलए कक्षिता सुनाने के
क्षलए जीभ का महत्त्ि है | रसना का दूसरा मतलि होता है रस की ओर ले जानेिाली | यह
कक्षिता रसना यानी रस की ओर ले जानेिाली सखी के साथ कानों की गक्षलयों से होते हुए
क्षचत्त की सेज पर जाती है | क्षचत्त की सेज से तात्पयग सहृदयता से है | ऐसी कक्षिता सुजान
यानी समझदार, जो आस पर रीझा हुअ है, की समझ और रक्षसकता की गोद में क्षिलसती है |
घनानंद के यहाँ मौन कइ भंक्षगमाओं में अया है | कभी िे ‘मौन मक्षध पुकार’ की िात करते हैं
तो कभी ‘मौन िखान’ को देखने का क्षिि करते हैं | पूरी हहदी कक्षिता में ऄज्ञेय के पहले
घनानंद ने ही ‘मौन’ को िाणी दी है | मौन के घूँघट में क्षछपी कक्षिता का यह रूपक कक्षिता के
पाठक या भािक के साथ ईस के ररश्ते को ऄत्यंत कोमलता के साथ प्रस्तुत करता है |
उपर यह संकेत ककया गया है कक रीक्षतकाल में रूढ़ ईपमाओं की भी क्षस्थक्षत थी | प्रेम और
ईसकी दोनों दशाओं यानी संयोग और क्षियोग का िणगन सभी कक्षि करते थे पर ईन्होंने एक
शास्त्रीय प्रक्षतमान यह गढ़ रखा था कक ‘क्षिछु रक्षन मीन की औ क्षमलक्षन पतंग की |’ मतलि यह

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कक जैसे मीन पानी से क्षनकलते ही मर जाता है और पतंगा जैसे अग या शमा में कू द कर
ऄपने प्राण गँिा देता है ईसी प्रकार प्रेक्षमयों को भी करना चाक्षहए | प्रेम का यही अदशग था |
क्षियोग और संयोग की आन दोनों ऄिस्थाओं में मनुष्य की भािनाओं और संदभों को
निरऄंदाि ककया गया था | घनानंद आन दोनों प्रकार की तुलनाओं का खंडन करते हैं और
आस प्रकिया में िे मनुष्य के प्रेम की क्षिक्षशिता पर ध्यान कदलाते हैं | िे कहते हैं :
मररिो क्षिसराम गनै िह तौ यह िापुरो मीत तज्यौ तरसै |
िह रूप छटा न सहारर सकै यह तेज तिै क्षचतिै िरसै |
घनअनँद कौन ऄनोखी दसा मक्षत अिरी िािरी ह्िै थरसै |
क्षिछु रें क्षमलें मीन-पतंग-दसा कहा मो क्षजय की गक्षत कों परसै |
आस सिैये की पहली पंक्षक्त में घनानंद यह कहते हैं कक मीन जल से िाहर क्षनकलते ही मर कर
क्षिश्रांक्षत पा लेता है पर िेचारा मनुष्य तो क्षप्रय के द्वारा छोड़े जाने पर भी मरता नहीं िक्षलक
कर्र क्षमलने की अशा ईसे क्षजलाए रखती है | ठीक आसी तरह पतंगा दीपक या शमा के रूप
की छटा को सह नहीं पाता और ईसकी लपट में कू दकर ऄपने प्राण गँिा देता है | पर मनुष्य
ऄपने क्षप्रय के रूप के तेज में जल कर मर नहीं जाता िक्षलक ईस रूप की अँच को सहता है
और क्षिरह में लगातार अँसू िहाता रहता है | घनानंद कहते हैं कक यह ऐसी ऄनोखी दशा है
कक आस की तुलना हो ही नहीं सकती क्योंकक आस में व्याकु लता और पागलपन दोनों की
क्षस्थक्षत है | ऐसी हालत में मीन और पतंग की दशा मेरे जी की क्षस्थक्षत को छू भी नहीं सकती,
िरािरी करने की िात तो िहुत दूर है | आसी तरह का एक और सिैया है :
हीन भएँ जल मीन ऄधीन कहा कछु मो ऄकु लाक्षन समानै |
नीर सनेही कों लाय कलंक क्षनरास ह्िै कायर त्यागत प्रानै |
प्रीक्षत की रीक्षत सु क्यौं समझै जड़ मीत के पाक्षन परे कों प्रमानै |
या मन की जु दसा घनअनँद जीि की जीिक्षन जान ही जानै |
घनानंद का कहना है कक मीन जल से ऄलग होते ही मर जाता है | मतलि यह कक िह तभी
तक जीता है जि तक संयोग की क्षस्थक्षत हो | मेरी यानी मनुष्य की ऄकु लाहट और व्याकु लता
की िरािरी मीन की यह दशा कै से कर सकती है क्योंकक मनुष्य क्षप्रय से क्षिलग हो कर भी
आस ऄपार क्षिरह िेदना को सहता है और कर्र क्षमलने की ईम्मीद रखता है | दूसरी िात यह
कक मीन मर कर ऄपने प्रेमी को कलंक लगाता है क्योंकक िह क्षनराशा में प्राण त्याग देता है
जिकक मनुष्य यह महसूस करता है कक ‘किहँ क्षमक्षलिो किहँ क्षमक्षलिो’ | प्रीक्षत की िास्तक्षिक
रीक्षत मीन नहीं समझ सकता क्योंकक ईस का प्रेमी भी जड़ है | जाक्षहर है कक आस जड़ प्रेमी से
यह ईम्मीद नहीं की जा सकती है कक यह प्रेम की ऄनुभूक्षतयों को समझ सके गा | आस के
क्षिपरीत मेरा प्रेमी सजीि है | िह चेतन है | भले िह मुझ से क्षिमुख हो पर ईस में संभािना
है कक ईसे ऄपनी दशा िताइ जा सकती है | आसक्षलए मेरी हालत की तुलना मीन की क्षस्थक्षत
से िेकार है | ऐसा आसक्षलए भी कक जो मेरा प्रेमी है िही मुझे सहारा भी देता है | िही मेरे
प्राणों के क्षलए संजीिनी भी है | िही मुझे जानता है |
कक्षिता का सौंदयग से गहरा संिंध होता है | हर कक्षि ऄपने नजररए से आसे ऄपनी कक्षिता
में िरतता है | रीक्षतकाल के ऄन्य कक्षियों का सौंदयग िणगन ज्यादातर रूढ़ ईपमाओं, स्थूल
प्रस्तुक्षत और तय कलपनाओं में िँधा है | घनानंद का सौंदयग िणगन क्षिलकु ल ही ऄलग ककस्म
का है | ईन का सौंदयग िणगन नइ कलपनाओं, नइ ईपमाओं, सहजता, स्िाभाक्षिकता और

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रचनात्मकता से क्षनष्पन्न होता है | घनानंद की कलपना क्षिलकु ल ही अधुक्षनक प्रतीत होती
है | चाहे िे सौंदयग िणगन कर रहे हों या क्षिरह िणगन | यही कारण है कक रामधारी हसह
कदनकर ने क्षलखा है कक यकद घनानंद ने खड़ी िोली हहदी में कक्षिता क्षलखी होती तो िे
छायािाद के पूिग-पुरुष माने गए होते | सौंदयग िणगन में घनानंद कलपना के साथ-साथ निीन
हिि भी सामने लाते हैं | आस के एक-दो ईदाहरण ही पयागप्त होंगे | घनानंद का एक सिैया
है :
झलकै ऄक्षत सुंदर अनन गौर छके दृग राजत कानक्षन छ्िै |
हँक्षस िोलक्षन मैं छक्षि-र्ू लन की िरषा ईर-उपर जाक्षत है ह्िै |
लट लोल कपोल कलोल करै कल कं ठ िनी जलजािली द्वै |
ऄँग ऄंग तरं ग ईठै दुक्षत की पररहै मनौ रूप ऄिै धर च्िै |
प्रेक्षमका का ऄक्षतसुंदर मुख दीप्त हो कर झलक रहा है | अँखें िड़ी हैं, छकी हुइ यानी
मदोन्मत्त हैं | कक्षि का कमाल दूसरी पंक्षक्त में देक्षखए ! हम ने िोलचाल में यह सुन रखा है कक
ईस के िोलने में र्ू ल झरते हैं | आस मुहािरे का ऄथग होता है मीठे शब्द िोलना | पर घनानंद
ऄपने को यहीं तक नहीं सीक्षमत करते | िे ऄपनी कलपना के सहारे यह कहते हैं कक ईस के
हँस कर िोलने में सौंदयग के र्ू लों की िषाग होती है जो हृदय के उपर र्ै ल जाते हैं | िोलने में
ईस का मुखड़ा क्षहलता है आसक्षलए िालों की एक चंचल लट ईस के कपोलों पर खेल करती है
और ईस के गले में दो लक्षड़यों की मोती की माला भी क्षहचकोले खाने लगती है | ईस के
प्रत्येक ऄंग से दुक्षत की तरं ग ईठती है और ऐसा लगता है कक ऄि रूप िस चू ही पड़ेगा |
रीक्षतकाल में एक क्षिशेष िात यह हुइ थी कक लक्षलत कलाएँ और कक्षिता एक-दूसरे के िहुत
करीि अ गइ थीं | आस का कारण यह था कक दरिार में कक्षि ही नहीं होते थे िक्षलक
क्षचत्रकार, संगीतकार, गायक और नतगक-नतगकी भी होते थे | िे सि एक-दूसरे से प्रभाक्षित
होते थे, एक-दूसरे को प्रभाक्षित करते थे | ईपयुक्त ग सिैये में क्षचत्रात्मकता और संगीतात्मकता
एक ही साथ कदखाइ पड़ रही है | तीसरी पंक्षक्त एक क्षचत्र को सामने साकार कर देती है |
चौथी पंक्षक्त में ‘ऄँग ऄंग तरं ग’ के पाठ में ही संगीतात्मकता के कारण यह एहसास होता है
कक िह ‘तरं ग’ िमशः ईठ रही है | पूरा सिैया क्षचत्रात्मकता और संगीतात्मकता से लिरे ज
है | आस सिैये में िास िात आस में िरती गइ तुक भी है | घनानंद के यहाँ तु कें िहुत कोमल
और नाजुक होती हैं क्षजन का क्षनिागह िे ऄत्यंत रचनात्मकता से करते हैं |
घनानंद के रूप-िणगन या सौंदयग-क्षचत्रण में एक िात यह भी सामने अती है कक ईन में
स्िच्छंदता ऄपने ताजे रूप में ईपक्षस्थत है | यह ऐसा रूप है क्षजसे क्षिद्यापक्षत ने ‘ऄपरुप’ कहा
है और घनानंद ईसे ‘रािरे रूप की रीक्षत नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं क्षनहाररयै’ कह कर
संिोक्षधत करते हैं | जैस-े जैसे ईस रूप को क्षनहारा जाता है िह हर िार नया ही महसूस होता
है | यह निीनता आसक्षलए भी है कक घनानंद रूप िणगन में स्िाभाक्षिकता के साथ-साथ
कलपना-शक्षक्त का भी सजगनात्मक प्रयोग करते हैं | नीचे कदए जा रहे कक्षित्त को देक्षखए :

लाजक्षन लपेटी क्षचतिक्षन भेद-भाय-भरी,


लसक्षत लक्षलत लोल-चख-क्षतरछाक्षन मैं |
छक्षि को सदन गोरो िदन, रुक्षचर भाल,
रस क्षनचुरत मीठी मृद ु मुसक्याक्षन मैं |
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दसन-दमक र्ै क्षल क्षहयें मोती-माल होक्षत,
क्षपय सौं लड़कक प्रेम-पगी ितराक्षन मैं |
अनँद की क्षनक्षध जगमगक्षत छिीली िाल,
ऄंगक्षन ऄनंग-रं ग ढु रर मुरर जाक्षन मैं |
प्रेक्षमका लजा रही है | ईस की क्षचतिन रहस्यपूणग है क्योंकक ईस में गूढ़ भाि भरे हैं | ईस की
दृक्षि चंचल भी है और क्षतरछी भी | ईस का गोरा मुखड़ा सौंदयग का घर है | यह कलपना
ऄपने-अप में लािक्षणकता और स्िछंदता से युक्त है | ईस का ललाट शोभामय है | जि िह
मुस्कु राती है तो ईस की कोमल मुस्कान में रस क्षनचुड़ता है यानी रस टपकता है | रीक्षतकाल
के दूसरे कक्षि मक्षतराम ने प्रेक्षमका की मुस्कान को ‘क्षमठाइ’ कहा है क्षजस पर लोग क्षिना मोल
के ही क्षिक जाते हैं | घनानंद यहाँ मुस्कान से रस टपकने की िात कह रहे | आस से मतलि
यही क्षनकलता है कक प्रेक्षमका की मुस्कान रस से सरािोर है | प्रेक्षमका के हँस कर िोलने में
ईस की दाँतों की पंक्षक्तयाँ सामने अती हैं और ईनका प्रकाश िि पर मोक्षतयों की माला की
तरह हो जाता है | िह प्रसन्न है आसक्षलए क्षप्रय से ललक कर प्रेम में पगी िातें करती है | िह
अनंद का कोश है जो जगमगाती रहती है | जि िह मुड़ती है तो ऄनंग यानी कामदेि का रं ग
ढरकता है | जैसे क्षचत्र में कइ स्तर पर रं ग का आस्तेमाल होता है िैसे ही आस कक्षित्त में
कलपना के कइ स्तर हैं | पहले कक्षि सौंदयग के घर के रूप में प्रेक्षमका को देखता है, कर्र ऄगली
पंक्षक्त में रस क्षनचुड़ने को लक्षित करता है, कर्र दाँतों को मोक्षतयों की िैसी माला के रूप में
देखता क्षजनका प्रकाश िि पर र्ै ल रहा है और कर्र िह अनंद के कोश के रूप में प्रेक्षमका को
महसूस करता है | और ईस का मुड़ना ! क्या कहना ! ईसे कक्षि कामदेि के रं ग के क्षछटकने की
तरह िर्णणत करता है | यों तो ककसी का मुड़ना कोइ िहुत िड़ी या प्रभािी िात नहीं है पर
जयशंकर प्रसाद ने एक जगह क्षलखा है कक यथाथगिाद की क्षिशेषताओं में प्रधान है ‘लघुता की
ओर दृक्षिपात’| प्रसाद के ऄनुसार ‘लघुता’ का मतलि है व्यक्षक्तगत जीिन के दुख और ऄभािों
का िास्तक्षिक ईललेख | आस दृक्षि से देखने पर रीक्षतकाव्य को हम यथाथगिादी भले न मानें पर
आतना तो मान ही सकते हैं कक िहाँ भी यथाथग ही ऄक्षभव्यक्त हुअ है | पूरे रीक्षतकाव्य में छोटे -
छोटे प्रसंग भरे पड़े हैं | ये प्रसंग व्यक्षक्तगत जीिन के ही तो हैं ! क्षिहारी के साक्षहत्य में आन की
सि से ऄक्षधक ईपक्षस्थक्षत है | घनानंद के यहाँ ये प्रसंग निीन रचनात्मक रूप ले कर अते हैं |
घनानंद के िारे में ककिदंती है कक िे ककसी सुजान नामक राजनतगकी पर असक्त थे |
दरिार में ईन्हें गाने को कहा गया | िे तैयार नहीं हुए | लोगों ने कहा कक “ऄगर सुजान कहें
तो िे गा देंगे |” सुजान ने गाने के क्षलए कहा और घनानंद ने सुजान की ओर मुख और
िादशाह की ओर पीठ कर के गाया | आस पर िादशाह िहुत नाराि हुअ और घनानंद को
दरिार से क्षनकाल कदया | चलते समय घनानंद ने सुजान से भी चलने को कहा पर ईन्होंने
मना कर कदया | घनानंद को आस से ऄपार चोट पहुँची | िे क्षिरह के ददग में डू ि गए | घनानंद
की कक्षिता में प्रेम में क्षमलन के समय की क्षस्थक्षत और क्षिरह में व्याकु ल हालत का िहुत िणगन
क्षमलता है | ईदू-ग हहदी के प्रक्षसद्ध शायर क्षमिाग ग़ाक्षलि (1797 – 1869 इ.) का एक प्रक्षसद्ध
शेर है :
हमने माना कक तग़ाफ़ु ल न करोगे लेककन
िाक हो जाएँगे हम तुमको ििर होने तक

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घनानंद का क्षिरह िणगन आसी ‘िाक होने’ की प्रकिया का िणगन है | क्षिरह की प्रकिया में प्रेमी
संयोग के पलों को याद करता है और क्षियोग की हाहाकारी िेदना का िणगन करता है | क्षिरह
में ध्यान िस प्रेमी में ही लगा रहता है | घनानंद एक सिैये में क्षिरह की व्यापकता का िणगन
करते हुए ऄपनी रचनात्मक कलपना के प्रयोग से छायािादी संिेदनशीलता को स्पशग करते
जान पड़ते हैं | सिैया है :
भोर तें साँझ लौं कानन-ओर क्षनहारक्षत िािरी नेकु न हारक्षत |
साँझ तें भोर लौं तारक्षन ताककिो तारक्षन सों आकतार न टारक्षत |
जौ कहँ भाितो दीरठ परै घनअनँद अँसुक्षन औसर गारक्षत |
मोहन-सोहन जोहन की लक्षगयै रहै अँक्षखन के ईर अरक्षत |
सुिह से शाम तक क्षिरक्षहणी ईसी रास्ते को देखती रहती है क्षजस रास्ते से कृ ष्ण गए हैं | शाम
से सुिह तक िह ऄपनी अँखों की पुतक्षलयों को क्षिना झपकाए तारों को ताकती रहती है |
यकद कहीं िह मनभािन क्षप्रय कदख भी जाता है तो िह भािुकता और अनंद की ऄक्षधकता के
कारण अँसू िहाने लगती है क्षजस से क्षप्रय को जी भर के देखने का ऄिसर भी खो देती है |
मोहन को सामने देखने की लालसा ईसकी अँखों के हृदय में िनी ही रहती है | छायािादी
कक्षिता के मूलयांकन के प्रसंग में ‘प्रकृ क्षत के मानिीकरण’ पर िात होती रही है | क्या घनानंद
‘अँखों के हृदय’ की कलपना कर के यही काम कर रहे ? ‘प्रकृ क्षत का मानिीकरण’ होता हो या
न होता हो पर घनानंद की यह कलपना क्षिलिण है, आस में संदह े नहीं | आसी प्रकार एक
कक्षित्त में घनानंद क्षिरह-िेदना को क्षलखने में ऄसमथग ऄँगुली की चचाग करते हैं जो क्षिरह की
ज्िाला के कारण पंगु हो क्षचललाने लगती है | कक्षित्त है :
पाती-मक्षध छाती-छत क्षलक्षख न क्षलखाए जाहह,
काती लै क्षिरह घाती कीने जैसे हाल हैं |
अँगुरी िहकक तहीं पाँगुरी ककलकक होक्षत,
ताती राती दसक्षन के जाल ज्िाल-माल हैं |
जान प्यारे जौि कहँ दीक्षजयै सँदस े ो तौि,
ऄिा सम कीक्षजयै जु कान क्षतक्षह काल हैं |
नेह-भीजी िातैं रसना पै ईर-अँच लागैं,
जागैं घनअनँद ज्यौं पुंजक्षन-मसाल हैं |
क्षिरह में प्रेमी या प्रेक्षमका यह कह रही है कक क्षचट्ठी में छाती में लगे घािों को न तो क्षलखा जा
सकता है और न ही क्षलखिाया जा सकता है | घातक क्षिरह ने ऄपनी छु री से ऐसा ही हाल
कर कदया है | क्षलखते समय ऄँगल ु ी जैसे ही क्षिरह-िेदना के संपकग में अती है िैसे ही िह
क्षिरह-ज्िालाओं को सह नहीं पाती और क्षचललाती हुइ पंगु हो जाती है | ऄगर यह सोच कर
कक क्षलखने में कदक्कत है तो मौक्षखक संदश े ही भेज कदया जाए तो यह भी तभी संभि है जि
संदश े ले जाने िाला ऄपने कानों को अँिा की तरह िना ले | क्षिरह की दशाओं को कहने में
प्यार भरी िातें भी जीभ पर अने लगती हैं और ईन के कारण क्षिरह की ऄक्षि मशाल-पुंजों
के रूप में जलने लगती है | आस कक्षित्त में ‘ऄँगुली का क्षचललाना’ निीन कलपना तो है ही पर
आसे समग्र रूप देखने पर क्षिरह का हाहाकार और घनानंद की क्षिराट् िणगन िमता का पता
चलता है |

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एक श्रेष्ठ कक्षि पुराने भाि में भी नइ जान डाल देता है | िैसे भी साक्षहत्य और कला में
ईस तरह नया या पुराना नहीं होता जैसे अम जीिन में होता है | ठीक आसी तरह यह भी
समझने की िात है कक जो ‘अज’ का है िह साक्षहत्य और कला की दुक्षनया में ‘नया’ हो ही यह
भी जरूरी नहीं है | आसका ईलटा भी ईतना ही सच है | मतलि यह कक साक्षहत्य और कला
की दुक्षनया में जो ‘पुराना’ है िह ‘पुरातनपंथी’ हो ही यह भी अिश्यक नहीं है | भारतीय
कक्षिता का एक भाि यह है कक प्रेम की सघनता में ‘हार’(माला) भी ऄसह्य है और क्षिरह में
आतनी दूरी अ गइ है कक िीच में ‘पहार’(पहाड़) अ गए हैं | संस्कृ त से लेकर घनानंद तक के
कु ल चार कक्षियों ने आस भाि-भूक्षम पर कक्षिता रची है | संस्कृ त का कक्षि कहता है :
हारो नारोक्षपत: कण्ठे मयाक्षिश्लेषभीरुणा |
आदानीमाियोमगध्ये सररद्भूधरसागरा: |
हहदी साक्षहत्य के अकदकाल के कक्षि ऄब्दुरगहमान (लगभग 11 िीं शती ) ऄपनी रचना ‘संदश े
रासक’ में क्षलखते हैं :
तआया क्षनिडंत क्षणिेक्षसयाआं संगमआ जत्थु णहु हारो |
आक्षन्ह सायर-सररया क्षगरर-तरु दुग्गाआं ऄंतररया |
रहीम ( 1556 – 1626 इ.) ने एक दोहे को आस रूप में रचा है :
रक्षहमन एक कदन िे रहे िीच न सोहत हार |
िायु जु ऐसी िह गयी, िीचन परे पहार |
और ऄि घनानंद का प्रक्षसद्ध सिैया :
ति तौ छक्षि पीित जीित हे ऄि सोचन लोचन जात जरे |
क्षहय-पोष के तोष जु प्रान पले क्षिललात सु यों दुख-दोष-भरे |
घनअनँद प्यारे सुजान क्षिना सि ही सुख-साज-समाज टरे |
ति हार पहार से लागत हे ऄि अक्षन कै िीच पहार परे |
संस्कृ त का कक्षि यह कह रहा है कक क्षिश्लेष यानी ऄलग होने के डर से हार भी कं ठ पर
नहीं सुहाता था पर अज हम दोनों के िीच नदी, पहाड़ और सागर अ गए हैं | संस्कृ त
कक्षिता में प्रकृ क्षत का सूक्ष्म पयगिि
े ण हुअ है | िहाँ प्रकृ क्षत और मनुष्य की भािना का ऄद्भत
सामंजस्य देखने को क्षमलता है | यहाँ भी ईसी तरह की िात है | ऄत: हम कह सकते हैं कक
संस्कृ त की आस कक्षिता में प्रकृ क्षत का पयगिि
े ण सामने अ रहा है |
ऄब्दुरगहमान ऄपभ्रंश के कक्षि हैं | िे कहते हैं कक घने संगम के समय हार भी नहीं ऄच्छा
लगता था और ऄि हमारे िीच नदी, पहाड़ और समुद्र के साथ-साथ तरु और दुगग अ गए हैं |
दुगग का यहाँ प्रयोग ऄत्यंत व्यंजक है | ऐसा आसक्षलए कक ऄपभ्रंश की एक क्षिशेषता यह रही है
कक ईस के दोहों में प्रेम और युद्ध-भाि एकदम एकसाथ जुड़े होते हैं | ईदाहरण के क्षलए
‘प्रिंध-हचतामक्षण’ में संकक्षलत आस दोहे को देखा जा सकता है :
एहु जम्मु नग्गहं क्षगयई भड-क्षसरर खग्गु न भग्गु |
क्षतक्खाँ तुररय न माक्षणया गोरी गक्षल न लग्गु |
मतलि यह कक यह जन्म भी नागा यानी व्यथग गया | आस के तीन कारण हैं | पहला कारण तो
यह है कक ककसी योद्धा के क्षसर पर खड्ग से िार नहीं ककया | दूसरा कारण यह है कक तीखे
यानी ऄक्षड़यल घोड़े की सिारी नहीं की और तीसरा कारण यह है कक ककसी गोरी के गले
नहीं लगा ऄथागत् प्रेम नहीं ककया | जीिन के व्यथग होने के पहले दो कारण िीरता या युद्ध से
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संिद्ध हैं और तीसरा प्रेम से | आसक्षलए ऄब्दुरगहमान की रचना में ‘दुगग’ शब्द का प्रयोग आस
भाि को एक ऄलग मोड़ देता है |
रहीम चूँकक दुक्षनया की महकफ़लों में रचे-िसे भी थे और ईस की व्यथगता के प्रक्षत जागरूक
भी | दूसरी िात यह भी है कक रहीम भी दोहा ही क्षलख रहे हैं | रहीम की रचनात्मकता की
यह क्षिशेषता है कक िे ऄपने रचनात्मक दिाि के कारण हहदी का एक मुहािरा ‘हिा िदलने’
का आस्तेमाल करते हैं | ईनके ‘िायु जु ऐसी िह गयी’ में क्षिरह की पूरी प्रकिया की कलपना
पाठक या श्रोता कर सकता है | मुहािरे के प्रयोग के कारण रहीम की कक्षिता व्यंजक के
साथ-साथ मारक भी हो गइ है |
घनानंद सिैया क्षलख रहे हैं | आसक्षलए ईन के पास पूरा ऄिकाश है कक िे प्रेम में ति यानी
संयोग और ऄि यानी क्षियोग की पररक्षस्थक्षतयों का िणगन करें | आसक्षलए िे ईपयुक्त ग सिैये की
पहली तीन पंक्षक्तयों में ‘ति’ और ‘ऄि’ का ब्यान करते हैं | घनानंद के यहाँ ऐसे छंद ऄच्छी
संख्या में क्षमलते हैं क्षजन में ‘ति’ और ‘ऄि’ का िणगन ककया गया हो | घनानंद कहते हैं कक
संयोग के समय नेत्र सौंदयग को पी कर जी रहे थे और ऄि क्षिरह की हचताओं के कारण सोच
में जले जा रहे हैं | पहले मेरे प्राण प्रेम का पोषण पा कर पले थे और ऄि ये क्षिलला रहे हैं
यानी आन्हें कोइ पूछ नहीं रहा िक्षलक ये दुत्कारे भी जा रहे हैं | ईस समझदार क्षप्रय के सामने
न रहने के कारण मेरे सुख के सारे सरं जाम और आं तजाम परे हट गए हैं | और ऄंक्षतम पंक्षक्त में
जैसे ईदाहरण देते हुए कहते हैं कक ति हार भी पहार की तरह लगते थे और ऄि हमारे िीच
पहार अ गए हैं | आस क्षििेचन से यह स्पि है कक कक्षिता में एक ही भाि-भूक्षम होने पर भी
कक्षिता क्षिलकु ल ऄलग-ऄलग हो सकती है |
घनानंद का काव्य प्रेम की क्षिक्षभन्न दशाओं का स्िाभाक्षिक क्षचत्रण करता है | ईन के यहाँ
क्षसर्ग ऄक्षभव्यक्षक्त का कौशल नहीं िक्षलक िहुत गहरी ऄनुभूक्षत की ईपक्षस्थक्षत है | भाषा की
लािक्षणकता, रचनात्मकता ईस की व्यंजकता की ठोस िजह ईनकी यही ऄनुभूक्षत है | प्रेम
की ऄनन्यता ईन के यहाँ प्रधान है | घनानंद की कक्षिता हमारी ओर सहजता का हाथ िढ़ाती
है | ईन की कलपना ईन के हर छंद को ऄनोखेपन से भर देती है | ईन की कक्षिता हृदय की
अँखों से प्रेम की पीर को देखती है | यह स्िच्छंद कक्षि कक्षिता के संसार का सच्चा नागररक
है |

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