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पहले आ प रचय
किव की िवचारधारा क पृ भूिम :
जब तक हमारा किव के िवचारों से प रचय न हो तब तक हम उसकी रचना के अथ, भाव और तीका क संदेश
तक नहीं प ं च सकते। अतः सबसे पहले हम ब न जी की िवचार-भूिम से प रिचत हो लेते ह।
ब न जी के का सृजन का समय िहं दी किवता के छायावादी युग के ठीक बाद का है । छायावादी किवता म जो
रोमानीपन है , भाषा म लािल के ित मोह है और जीवन के यथाथ के साथ जो िनरपे ता का भाव है , वह उन िदनों
ीण हो रहा था। किवता क नाओं के मनोरम संसार से ऊब कर जीवन की वा िवकता तक प ं चने के िलये
संघष कर रही थी।
दु िनया दो महायु ों की भीषण मारकाट और तबाही भोग चुकी थी। यु के कारण आम आदमी का दय बुरी तरह
िवकल था। आिथक संकटों का बोझ था। बाहर की िहं सा ने अंदर के मन को भी ल लुहान कर िदया था।
ब न जी की रचनाओं म गेयता का गुण अपनी धानता के साथ मौजूद है । हम रण रखना चािहये िक भारत
गीत, संगीत और रागों के ित अपनी गहरी आस रखने वाले इितहास का ामी है । मधुर लोकगीतों की पैठ
यहां के घरों म है । खेत म कठोर प र म करने वाला िकसान, िनधनता म जकड़ा आ िभ ुक और घरे लु कामकाज
म अपने को आकंठ डु बाये रखने वाली मिहलाओं के मुख से भी उनके काम के दौरान गीत झरा करते ह।
गीता क रचना की सं ेषणीयता अिधक होती है । यहां तुलसीदास की रामच रत मानस, सूरदास के पद और
कबीर, मीरां की रचनाय लोगों को जुबानी याद ह। वे उनका गायन करते ह। आ ा और मानस का गायन करने की
तो परं परा ही है । ब नजी ने भी गेयता की श म अपनी संवेदना को िपरोकर का रचनाएं कीं और उ किव
स ेलनों के ज रये लागों के मनों तक प ं चाने म अभूतपूव सफलता हािसल की थी।
उ ोंने अपने जीवन के यथाथ को किवता म ुत िकया और उसे आमजन का अनुभूत यथाथ बना िदया। उ ोंने
सूिफयाना भावभूिम को अपनाकर उसकी म ी और दाशिनकता को िहं दी किवता के संसार म वेश िदलाया।
ब न जी ने इस तरह िहं दी किवता के णयुग कहे जाने वाले ‘ गितवाद’ के िलये उवर ज़मीन तैयार की।
गीत का भाव प रचय :
किव की वैचा रक पृ भूिम को जान लेने के बाद आईये अब िजस किवता का हम पाठ और ा ा करने जा रहे ह,
उसका भाव प रचय ा कर ल। इससे हम रचना के और भी िनकट प ं च सकगे।
हम िजस संसार म जीवन जीते ह, उसका अपना तौर-तरीका होता हे । ब त से लोग उसी तौर-तरीके के आदी हा
जाते ह। उसी के वाह म बहते रहते ह। रचनाकार जो असल म सबसे पहले एक िवचारक होता है , वह संसार और
समाज की पारं प रक धारा के िव सोचता है । नया सेचता है । नया करना चाहता है । इसीिलये वह नया रचता ह
उसकी रचना म संसार से िभ धारा होने के कारण ही वह हमारे आकषण का कारण बनती है ।
इस तरह संसार म रहना भी किव के िलये आव क होता है और उससे िभ राह बनाना भी। यही भाव इस गीत का
धान र बनकर सामने आता है ।
संदभ िकसे कहते ह? : किवता अथवा ग के अंश को ा ा के िलये जहां से िलया गया है , उस पा -पु क
का नाम, पाठ का शीशक और उसके रचनाकार की जानकारी दे ना ही संदभ कहलाता है ।
संदभ : ुत का ां श हमारी पा -पु क ‘आरोह, भाग-2’ म संकिलत किवता ‘आ प रचय’ से िलया गया
है । इसके रचनाकार िव ात किव डॉ ह रवंष राय ब न ह।
संग िकसे कहते ह? : िजस अंश को ा ा के िलये िलया गया है , उसम कौन सा िवचार, भाव या घटना का
वणन है , इसकी जानकारी दे ना ही संग कहलाता है ।
ा ा िकसे कहते ह? : िकसी किवता अथवा ग के अंश म िवचारों और भावों को सरलतम िविध से
समझाना ही ा ा करना कहलाता है ।
ा ा : किववर ब न जी इस किवतां श म अपने और संसार के म के र ों की िववेचना करते ए कहते ह
िक यह संसार िजसम म आया आ ं , उसका जीवन जीने का और जीवन के साथ वहार करने का अपना एक
पारं प रक ढं ग है । म उसकी इस शैली को अपने िलये अनुकूल नहीं पाता, इसिलये वह मेरे िलये भार प ही है ।
जीवन जीने के बारे म मेरे अपने मौिलक िवचार ह, परं तु म सां सा रक तरीकों का िनषेध भी नहीं करता, िलहाजा
अपने िसर पा लादे चलने के िलये िववश ं । बावजूद इसके म अपने जीवन म उसके ित नफरत नहीं, ार ही
रखता ं । मेरा जीवन िजन सां सों पर िनभर है , उसे अपनी संवेदना से झंकृत कर दे ना वाला ‘कोई’ मधुर
भी मुझे इसी संसार से उपल आ है । उसने जीवन को संगीत की मधुरता से भर िदया है ।
किव अपना आ प रचय दे ते ए कहते ह िक म इसी ा ेम की शराब को िपया करता ं । इसका नशा मुझे
अलौिकक आनंद से सराबोर कर दे ता है । इसम डूबे रहने के कारण म दु िनया के बारे म सोचता तक नहीं। इसी
कारण से दु िनया ने मुझे उपेि त कर रखा है । संसार का ऐसा चलन है िक जो उसके राग म अपना राग िमलाना
जानते ह, संसार केवल उनका ही आदर िकया करता है । मुझे भी उसके आदर की कहां दरकार है , म तो अपने मन
के गीतों को ही गाने म म ं।
का सौ ंदय ा है ? : किवतां श म रस, अलंकार, भाषा, भाव आिद के चम ार को का सौंदय कहा जाता है ।
इसे पद सौंदय, पद लािल , पद सौ व भी कहते ह।
का सौ ंदय : 1 किवता की भाषा सरल और सहज है । इसी कारण वह सं ेषणीय भी है । सीधे दय तक प ं चती
है ।
2 किवता म शां त रस है ।
3 ‘ ेह-सुरा’, यहां पर किव ने ेम को ही षराब बनाकर ुम िकया है । इसी तरह ‘सां सों के दो तार’, म सां सों
को तार बना िदया है , अतः यहां पर पक अलंकार है ।
पक अलंकार िकसे कहते ह? : जहां पर उपमेय को ही उपमान बना िदया जाये वहां पर पक अलंकार होता है ।
उपमेय अथात िजसका वणन िकया जाये। यहां पर ‘ ेह’ का वणन िकया जा रहा है , तो वह आ उपमेय। उपमान
अथात िजसके साथ उसका प प रवतन कर जाये। यहां पर ‘सुरा’ उपमान है ।
धम या गुण िकसे कहते ह? : िजस गुण के आधार पर तुलना या समानता ि◌अखायी जा रही हो, उसे धम या गुण
कहते ह। जैसे िक यहां पर ेह और शराब म नशे समान गुण को दे खा गया है ।
िवशेष-
उ र : (क) ‘जगजीवन का भार िलए िफरने’ से किव का आशय यह है , िक संसार म रहने पर संसार के चलन को
सहना पड़ता है । आप अपनी तरह से एक कार का जीवन जीना चाहते ह, पर संसार का जीवन जीने का तरीका
उससे िभ होता है । दोनों म तालमेल नहीं बैठता और किव अपने को असहज महसूस करता है ।
इस पर भी किव संसार के ित अपने मन म कोई श ुता या नफरत नहीं रखता, वह अपने जीवन म ार िलये ए
घूमता है , तािक लोगों को ार दे सके।
न : (ख) ‘ ेह-सुरा’ से किव का ा आशय ह?
उ र : (ख) ‘ ेह-सुरा’ से किव का आशय यह है , िक लोग शराब पीकर मतवाले हो जाते ह, परं तु किव ेम के
नशे म डूबकर मतवाला बना आ है ।
उ र : (ग) ‘जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते’ का आशय है , िक जो लोग संसार के चलन के अनु प हो जाते
ह, यह संसार उ ीं का आदर-स ान करता है ।
न : (घ) ‘साँ सों के तार’ से किव का ा ता य ह? आपके िवचार से उ िकसने झंकृत िकया होगा?
उ र : (घ) ‘साँ सों के तार’ से किव का ता य है , जीवन को बनाये रखने वाली सां स। तार की तरह उनम िनरं तरता
होती है । हमारे िवचार से किव के जीवन म जब उनकी ेयसी के ेम ने वेष िकया होगा, तो वे वीणा के तार की
तरह झंकृत हो गयी होंगी।
2.
संदभ : ुत का ां श हमारी पा -पु क ‘आरोह, भाग-2’ म संकिलत किवता ‘आ प रचय’ से िलया गया
है । इसके रचनाकार िव ात किव डॉ ह रवंश राय ब न ह।
ा ा : किव के दय म उनके अपने मौिलक िवचार ह। वे उ करने के िलये ाकुल रहते ह। उनके
पास संसार को दे ने के िलये अनोखे और अनुपम उपहार ह, वे उ संसार को भट कर दे ने के िलये उ ाह से भरे
ए ह।
उनके सामने जैसा संसार है , उसम उ अधूरापन िदखायी दे ता है । इसी अधूरेपन के कारण यह दु िनया उ अ ी
नहीं लगती। वे उसके अधूरेपन को दू र करना चाहते ह। उनके मन म एक नये और संपूण संसार के बारे म ब त सी
क नाएं ह। किव चाहते ह िक अपनी क नाओं को साकार कर बेहतर दु िनया रच।
किव का कहना है िक अपूण संसार को दे खकर वे दु खी रहते ह। एक आग सी उनके अंदर सदै व जला करती है ।
इस आग को जलाने वाला कोई और नहीं, यं वही ह। अथात् चाहते तो जैसी दु िनया है , उसे वैसी ही ीकार कर
चैन से रह सकते थे, पर उसम बदलाव लाने की इ ाओं ने उ ाकुल कर रखा है । उनके जीवन म अ लोगों
की तरह ही सुख और दु ख दोनों ही ह, पर किव सुख म अहं कारी नहीं होते और दु ख म िवचिलत नहीं हो जाते। दोन
म ही एक कार की म ी का अनुभव करते ह।
वे कहते ह िक लोग संसार पी समु को पार करने के िलये नाव बनाना चाह तो बनाय। इससे मो पाना चाह तो
पाय। इससे छु टकारा पाना चाह तो इसके िलये वे तं ह। पर म तो इस संसार को, अपने िलये अनुकूल होने पर
भी, उसे स ही मानता ं । वह मेरे िलये िम ा नहीं है । इसीिलये म संसार की लहरों पर ही रहना चाहता ं । रहना
ही नहीं चाहता, ब लहरों पर रहकर अपने को म ी से भरा आ भी पाता ं ।
पद लािल :
1 इस का ां श म शां त रस है ।
2 ‘भव-सागर’ और ‘भव-मौजों’ म पक अलंकार है ।
3 किव की का -भाषा म वाह और भाव दोनों ही ह।
िवषेश : किव संसार को अधूरा अपने िलये अनुकूल महसूस नहीं करते, परं तु उससे मु भी नहीं पाना चाहते।
उ र : (ग) किव को संसार इसिलए अ ा नहीं लगता, ोंिक उसके ि कोण के अनुसार संसार अधूरा है । उसम
ब त सी असमानताएं , िनधनता और तकलीफ ह।
3.
म यौवन का उ ाद िलए िफरता ँ ,
उ ादों म अवसाद िलए िफरता ँ ;
जो मुझको बाहर हँ सा, लाती भीतर,
म, हाय, िकसी की याद िलए िफरता ँ !
संदभ : ुत का ां श हमारी पा -पु क ‘आरोह, भाग-2’ म संकिलत किवता ‘आ प रचय’ से िलया गया
है । इसके रचनाकार िव ात किव डॉ ह रवंश राय ब न ह।
ा ा : किव कहते ह िक वे अपने अंदर युवाव था की जो िवषेश उमंग होती है , दसे सदै व ही साथ िलये रहते ह।
पर उमंग म भी ेम की उदािसयां ह। इसके कारएा वे दु िनया को िदखाने के िलये खुया रहा करते ह, परं तु अंदर ही
अंदर रोया करते ह। इसका कारण है िक उनके दय म िकसी ि यजन की ृितयां बसी ई ह।
वे कहते ह िक इस संसार म जीवन के स को जानने की कोिशश कर-कर के लोग िमट गये, परं तु कोई भी स
को नहीं जान सका। असल म जहां पर अपने को ानी समझने वाले लोग होते ह, वही नादान भी होते ह। ऐसे म उस
संसार को मूख ही कहना चािहये, जो सीखने के यासों म लगा हो। म तो जो ान पा चुका ं उसे भी भुला दे ना
चाहता ं । आानी बने रहने म ादा सुकून है ।
पद सौ व
1 का ां श म ृंगार और शां त रस ह।
2. ‘उ ादों म अवसाद’, ‘बाहर हं सा, लाती अंदर’, ‘नादान वहीं ह, हाय, जहाँ पर दाना!’ और ‘म सीख रहा ँ ,
सीखा ान भुलाना!’ म िवरोधाभास अलंकार है ।
िवरोधाभास अलंकार िकसे कहते ह? िवरोधाभास अलंकार वहां होता है , जहां पर एक साथ दो पर र िवरोधी
िवचार िकये गये हों।
उ र : (क) किव म यौवन का उ ाद अथात् उमंग भरी ई है । दसका एक नशा सा है । कुछ नया कर गुजरने की
बेताबी है ।
उ र : (ख) किव की मनः थित ऐसी है िक वह अंदर से दु खी है और िदखावे के िलये उसे अपने को खुष दिशत
करना पड़ता है । यह एक िवरोधाभासी दशा है ।
उ र : (घ) किव संसार के बारे म कहता है िक यह संसार मूख है , ोंिक वह इस त के बावजूद सीखना चाहता
है िक जो ानी ह, असल म वही नादान लोग ह।
उ र : (ड) किव सीखे ान को इसिलये भुला रहा है , ोंिक उसके अनुसार सीखा आ ान ही, अ ानी बना रहा
है । िजसे हम ान समझे बैठे ह, वह अ ान है । सम ान ा है , अभी इसे ही जानना शेष है ।
4
म और, और जग और, कहाँ का नाता,
म बना-बना िकतने जग रोज िमटाता;
जग िजस पृ ी पर जोड़ा करता वैभव,
म ित पग से उस पृ ी को ठु कराता!
श ाथ : नाता = संबंध। वैभव = समृ । पग = पैर। रोदन = रोना। राग = ेम। आग = जोश। भूपों = राजाओं।
ासाद = महल। िनछावर = लुटाना। खडहर = इमारत । भाग = िह ा।
संदभ : ुत का ां श हमारी पा -पु क ‘आरोह, भाग-2’ म संकिलत किवता ‘आ प रचय’ से िलया गया
है । इसके रचनाकार िव ात किव डॉ ह रवंश राय ब न ह।
अथात् धन-दौलत के पीछे भागने वाली दु िनया किव को ीकार नहीं है । वह तो उसे ठु कराते रहते ह।
किव कहते है िक म जब दन करता ं , तब उसम म ेम की अिवरल धारा रहा करती है । मेरी वाणी भले ही षीतल
हो, िकंतु वह उन श ों का उ ारण करती है , िजनम आग होती है । संसार की िवसंगितयों को जला डालने की
उसम मता है । य िप मेरा दय एक इमारत की तरह है , िफर भी वह ऐसे ेम की इमारत है , िजस पर
स ाटों के आलीशान महल भी लुटाये जा सक। ता य यह िक ेम की ंस भी महल की तुलना म अिधक मू वान
है ।
पद सौ ंदय :
पुन काश अलंकार िकसे कहते ह? जहां पर एक ही श एक से अिधक बार , एक ही अथ म आये उसे
पुन काश अलंकार कहते ह।
यमक अलंकार िकसे कहते ह? जहां पर एक ही श की आवृि बार-बार हो, परं तु हर बार उसका अथ हो,
वहां पर यमक अलंकार होता है ।
उ र : (क) किव और संसार के बीच एक तरह का िवरोधाभासी संबंध है । वह संसार म रहकर भी संसार से
असहमत है ।
उ र : (ख) किव और संसार के बीच िवरोधी थित यह है िक जहां संसार सं ह की वृि से संचािलत है , वहीं
किव सं ह के खलाफ िवचार रखते ह।
प्◌ा न : (घ) किव के पास ऐसा ा है , िजस पर राजाओं के िवशाल महल भी ौछावर हों?
5.
म रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
म फूट पडा, तुम कहते, छं द बनाना;
ों किव कहकर संसार मुझे अपनाए,
म दु िनया का ँ एक नया दीवाना।
म दीवानों का वेश िलए िफरता ँ ,
म मादकता िनःशेष िलए िफरता ं ;
िजसको सुनकर ज़ग झूम, झुके, लहराए,
म मरती का संदेश िलए िफरता ं ।
संदभ : ुत का ां श हमारी पा -पु क ‘आरोह, भाग-2’ म संकिलत किवता ‘आ प रचय’ से िलया गया
है । इसके रचनाकार िव ात किव डॉ ह रवंश राय ब न ह।
ब न जी आगे कहते ह िक इस दु िनया म म दीवानों का वेश बनाये घूमता ं । म अपनी भावनाओं और िवचारों की
कभी भी ख न होने वाली मादकता िलये ं । म अपनी इसी म ी के ऐसे पैगाम लेकर िनकला ं , िजसे सुनकर
संसार झूमने लगेगा। मेरे संदेशों के सामने झुक जायेगा अथात् उनका ागत करे गा। और िफर उस म ी को
अपनाकर नाचेगा।
का सौ ंदय
2‘ ों किव कहकर संसार मुझे अपनाये’, म िनषेध है । ब न जी किव की बजाय एक दीवाना या कलंदर
कहलाना चाहते ह।
अनु ास अलंकार : जहां पर एक ही वण की आवृि दो या दो से अिधक बार हो, वहां पर अनु ास अलंकार होता
है ।
5 पदों म शां त रस है ।
उ र : (ख) किव यं को दीवाना कहलाना पसंद करता है , ोंिक उसकी किवताओं म म ी और सूिफयाना
दशन है ।
: (घ) किव संसार को ा संदेश दे ना चाहता ह? वह संसार पर उसकी कैसी िति या की आषा करता है ?
उ र : (घ) किव संसार को ेम की म ी का संदेश दे ना चाहता है । किव को आशा है िक इस संदेश से संसार झूम
उठे गा, आदर करे गा और आ क आनंद से लहरायेगा।
कैमरे म बंद अपािहज Class 12 Camera mai bandh Apahij रधुवीर सहाय
rajendra / September 11, 2018 / Aaroh Book class 12, aatmparichye poem, harivanshrai bacchan
/ aaroh aatmparichye poem class 12, CBSE, NCERT