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CLASS – 12 (ASSIGNMENT– 8)

SUBJECT – HINDI DATE : 26 MAY,2020


(TUESDAY)

पाठ (1) आत्मपरिचय (हरिवंश िाय बच्चन)

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(5) मैं िोया, इसको तुम कहाते हो गाना,


मैं फूट पडा, तुम कहते, छं द बनाना,
क्यों कवव कहकि संसाि मुझे अपनाए,
मैं दनु नया का हूूँ एक क्या दीवान”

मैं बीवानों का वेश लिए फफिता हूूँ


मैं मादकता ननद्भाशष लिए फफिता ही
जिसकी सुनकि ज़य शम, झुके; िहिाए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फफिता हूूँ |

शब्दार्थ:- फूट पडा - िोि से िोया। दीवाना-पागि। मादकता-मस्ती। नन:शेष-संपर्


ू ।थ
प्रसंग:-प्रस्तुत कावयांश हमािी पाठ्यपुस्तक ‘आिोह, भाग-2’ में संकलित कववता ‘आत्मपरिचय’ से उद्धत
ृ है । इसके
िचनयता प्रलसद्ध गीतकाि ‘हरिवंश िाय बच्चन’ िी हैं। इस कववता में कवव िीवन को िीने की अपनी शैिी
बताता है । सार् ही दनु नया से अपने द्वंद्वात्मक संबंधों को उिागि किता है ।
वयाख्या:- कवव कहता है फक प्रेम की पीडा के कािर् उसका मन िोता है अर्ाथत हृदय की वयर्ा शब्द रूप में
प्रकट हुई है । उसके िोने को संसाि गाना मान बैठता है । िब वेदना अधधक हो िाती है तो वह दख ु को शब्दों के
माध्यम से वयक्त किता है। संसाि इस प्रफिया को छं द बनाना कहती है । कवव प्रश्न किता है फक यह संसाि मझ ु े
कवव के रूप में अपनाने के लिए तैयाि क्यों है ? वह स्वयं को नया दीवाना कहता है िो हि जस्र्नत में मस्त िहता
है ।

समाि उसे दीवाना क्यों नहीं स्वीकाि किता। वह दीवानों का रूप धािर् किके संसाि में घूमता िहता है ।
उसके िीवन में िो मस्ती शेष िह गई है , उसे लिए वह घम
ू ता िहता है । इस मस्ती को सन
ु कि सािा
संसाि झूम उठता है । कवव के गीतों की मस्ती सुनकि िोग प्रेम में झुक िाते हैं तर्ा आनंद से झूमने
िगते हैं। मस्ती के संदेश को िेकि कवव संसाि में घम
ू ता है जिसे िोग गीत समझने की भूि कि बैठते
हैं।

ववशेष-

1. कवि मस्त प्रकृतत का व्यक्तत है । यह मस्ती उसके गीतों से फूट पड़ती है ।


2. खड़ी बोली का स्िाभाविक प्रयोग है ।
3. ‘मैं’ शैली के प्रयोग से कवि ने अपनी बात कही है ।

(ख) ददन िल्दी-िल्दी ढिता है ! (एक गीत)


(1) हो िाए न पर् में िात कहीं,
मंजिि भी तो है दिू नहीं-

यह सोच र्का ददन का पंर्ी भी िल्दी-िल्दी चिता हैं!


ददन िल्दी-िल्दी ढोिता हैं!

शब्दार्थ:- ढिता - समाप्त होता। पर्-िास्ता। मंजिि -िक्ष्य। पंर्ी - यात्री।


प्रसंग:-प्रस्तुत कावयांश हमािी पाठ्यपुस्तक ‘आिोह, भाग-2’ में संकलित गीत ‘ददन िल्दी-िल्दी ढिता है !’
से उद्धत
ृ है । इसके कवव “हरिवंशिाय बच्चन” िी हैं। इस गीत में कवव ने एक िवान की कंु ता तर्ा
प्रेम की वयाकुिता का वर्थन फकया है ।
वयाख्या:-कवव िीवन की वयाख्या किता हुआ कहता है फक शाम होते दे खकि यात्री तेिी से चिता है फक
कहीं िास्ते में िात न हो िाए। उसकी मंजिि समीप ही होती है इस कािर् वह र्कान होने के बाविदू
भी िल्दी-िल्दी चिता है । िक्ष्य-प्राजप्त के लिए उसे ददन िल्दी ढिता प्रतीत होता है । िात होने पि
पधर्क को अपनी यात्रा बीच में ही समाप्त किनी पडेगी, इसलिए र्के शिीि में भी उसका उल्िलसत,
तिं धगत औि आशाजववत मन उसके पैिों की गनत कम नहीं होने दे ता।

ववशेष-

1. कवि ने जीिन की क्षणभंगरु ता ि प्रेम की व्यग्रता को व्यतत ककया है ।


2. भाषा सरल, सहज और भािानुकूल है , क्जसमें खड़ी बोली का प्रयोग है ।
3. वियोग श्ंग
ृ ार रस की अनभ
ु तू त है ।

(2) बच्चे प्रत्याशा में होंगे,


नीडों से झाूँक िहे होंगे-
यह ध्यान पिों में धचड़डयों के भिता फकतनी चंचिता है !
ददन िल्दी-िल्दी ढिता है !

शब्दार्थ:- प्रत्याशा-आशा। नीड-घोंसिा। पि-पंख। चंचिता-अजस्र्िता।


प्रसंग:-प्रस्तत
ु कावयांश हमािी पाठ्यपस्
ु तक ‘आिोह, भाग-2’ में संकलित गीत ‘ददन िल्दी-िल्दी ढिता है !’
से उद्धत
ृ है । इस गीत के िचनयता “हरिवंश िाय बच्चन” िी हैं। इस गीत में कवव ने एकांकी िीवन की
कंु ठा तर्ा प्रेम की वयाकुिता का वर्थन फकया है ।

वयाख्या:-कवव प्रकृनत के माध्यम से उदाहिर् दे ता है फक धचड़डयाूँ भी ददन ढिने पि चंचि हो उठती हैं।
वे शीघ्रानतशीघ्र अपने घोंसिों में पहुूँचना चाहती हैं। उवहें ध्यान आता है फक उनके बच्चे भोिन आदद की
आशा में घोंसिों से बाहि झाूँक िहे होंगे। यह ध्यान आते ही उनके पंखों में तेिी आ िाती है औि वे
िल्दी-िल्दी अपने घोंसिों में पहुूँच िाना चाहती हैं।

ववशेष-

1. उक्त कावयांश में कवव कह िहा है फक वात्सल्य भाव की वयग्रता सभी प्राणर्यों में पाई िाती है ।
2. पक्षियों के बच्चों द्वािा घोंसिों से झाूँका िाना गनत एवं दृश्य बबंब उपजस्र्त किता है ।
3. भाषा सिि, सहि औि भावानुकूि है , जिसमें खडी बोिी का प्रयोग है ।

(3) मुझसे लमिने को कौन ववकि?


मैं होऊूँ फकसके दहत चंचिा?

यह प्रश्न लशधर्ि किता पद को, भिता उि में ववहविता हैं!


ददन िल्दी-िल्दी ढिता है !

शब्दार्थ:- ववकि-वयाकुि। दहत-लिए, वास्ते। चंचिा-फियाशीि। लशधर्ि-ढीिा। पद-पैि।


उि-हृदय। ववह्विता-बेचैनी, भाव आतुिता।
प्रसंग:-प्रस्तुत कावयांश हमािी पाठ्यपुस्तक ‘आिोह, भाग-2’ में संकलित गीत ‘ददन िल्दी-िल्दी ढिता है ’
से उद्धत
ृ है । इस गीत के िचनयता “हरिवंश िाय बच्चन” िी हैं। इस गीत में कवव ने एकांकी िीवन की
कंु ठा तर्ा प्रेम की वयाकुिता का वर्थन फकया है ।
वयाख्या:-कवव कहता है फक इस संसाि में वह अकेिा है । इस कािर् उससे लमिने के लिए कोई वयाकुि
नहीं होता, उसकी उत्कंठा से प्रतीिा नहीं किता, वह भिा फकसके लिए भागकि घि िाए। कवव के मन में
प्रेम-तिं ग िगने का कोई कािर् नहीं है । कवव के मन में यह प्रश्न आने पि उसके पैि लशधर्ि हो िाते
हैं। उसके हृदय में यह वयाकुिता भि िाती है फक ददन ढिते ही िात हो िाएगी। िात में एकांकीपन औि
उसकी वप्रया की ववयोग-वेदना उसे अशांत कि दे गी। इससे उसका हृदय पीडा से बेचैन हो उठता है ।

ववशेष:-
1. एकांकी िीवन बबताने वािे वयजक्त की मनोदशा का वास्तववक धचत्रर् फकया गया है ।
2. सिि, सहि औि भावानुकूि खडी बोिी का प्रयोग है ।
3. तत्सम-प्रधान शब्दाविी है जिसमें अलभवयजक्त की सििता है ।

ननम्नलिणखत प्रश्नों के उत्ति दीजिए:-

प्रश्न 1:- मैं औि, औि िग औि कहाूँ का नाता- पंजक्त में ‘औि’ शब्द की ववशेषता बताइए।

प्रश्न 2:- शीति वार्ी में आग’- के होने का क्या अलभप्राय हैं?

प्रश्न 3:- बच्चे फकस बात की आशा में नीडों से झाूँक िहे होंगे?

प्रश्न 4:- ददन िल्दी-िल्दी ढिता हैं- की आवनृ त से कववता की फकस ववशेषता का पता चिता हैं?

ASSIGNMENT (7) (ANSWER KEY)

प्रश्न(1):- कववता एक ओि िग-िीवन का भाि लिए घूमने की बात किती है औि दस


ू िी ओि ‘मैं कभी
न िग का ध्यान फकया किता हूूँ’-ववपिीत से िगते इन कर्नों का क्या आशय हैं ?
उत्ति:– िग-िीवन का भाि िेने से कवव का अलभप्राय यह है फक वह सांसारिक दानयत्वों का ननवाथह कि
िहा है । आम वयजक्त से वह अिग नहीं है तर्ा सख
ु -दख
ु , हानन-िाभ आदद को झेिते हुए अपनी यात्रा पूिी
कि िहा है । दस
ू िी तिफ कवव कहता है फक वह कभी संसाि की तिफ ध्यान नहीं दे ता। यहाूँ कवव
सांसारिक दानयत्वों की अनदे खी की बात नहीं किता। वह संसाि की ननिर्थक बातों पि ध्यान न दे कि
केवि प्रेम पि केंदित िहता है । आम वयजक्त सामाजिक बाधाओं से डिकि कुछ नहीं कि पाता। कवव
सांसारिक बाधाओं की पिवाह नहीं किता। अत: इन दोनों पंजक्तयों के अपने ननदहतार्थ हैं। ये एक-दस
ू िे के
वविोधी न होकि पूिक हैं।

प्रश्न(2):- िहाूँ पि दाना िहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं-कवव ने ऐसा क्यों कहा होगा ?
उत्ति:– नादान यानी मूखथ वयजक्त सांसारिक मायािाि में उिझ िाता है । मनुष्य इस मायािाि को
ननिर्थक मानते हुए भी इसी के चक्कि में फूँसा िहता है । संसाि असत्य है । मनुष्य इसे सत्य मानने की
नादानी कि बैठता है औि मोि के िक्ष्य को भि ू कि संग्रहववृ त्त में पड िाता है । इसके ववपिीत, कुछ ज्ञानी
िोग भी समाि में िहते हैं िो मोि के िक्ष्य को नहीं भूिते। अर्ाथत संसाि में हि तिह के िोग िहते हैं।

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