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पढ़ने के लिए समय कम है, जो बाहर जा कर Classes नहीं ले सकते | इसमें दिए गए Questions
इतने महत्वपूर्ण है कि इसे पढ़कर कोई भी अच्छे Marks से पास हो सकता है | इसकी Free Classes
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यह Notes मेरे द्वारा लिखें गयें है, इसलिए हिंदी मात्राओं की गलती के लिए मुझे क्षमा करें |
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The University of Delhi, informally known as Delhi University (DU), is a collegiate public central university
located in New Delhi, India. It was founded in 1922 by an Act of the Central Legislative Assembly and is
recognized as an Institute of Eminence (I
(IoE)
oE) by the University Grants Commission (UGC).
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case of brief quotations embodied in critical reviews and certain other noncommercial uses permitted
by copyright law.
अिु क्रम
इकाई-1
इकाई-2
इकाई-3
इकाई-4
क ानी मानव जीवन के हकसी एक घटना या मन िाव का र चक, कौतु ल पूणा हचत्रण ै । क ाहनयाँ मानव
सभ्यता के आहदकाल से ी मन रिं जन एविं आनिंद का साधन र ी ै । केवल मन रिं जन ी न ीिं, वरन् हशक्षा
प्रदान करने नीहत और उपदे श दे ने के हलए अच्छे साधन का काम करती ै । मारे दे ष में मन रिं जन के
हलए ज ाँ वृ त् कथा मिं जरी और कथासररतासागर सदृश र चक क ानी-ग्रन्थ हमलते ै , व ािं मानव -
व्यव ार सिंबिंधी नीहतपूणा, उपदे षात्मक क ाहनय िं के हलए पिंचतिंत्र एविं ह त पदे ष जैसी रचनाएँ िी हमलती ैं।
ैं । इस प्रकार क ानी व सरव, सरस, हप्रय एविं माध्यम ै हजसके द्वारा म ऊँची से ऊँची हशक्षा प्रदान
कर सकते ैं ।
मुिंशी प्रेमचन्द के अिु सार - “गल्प (क ानी) एक ऐसी गद्य रचना ै , ज हकसी एक अिंग या मन िाव क
प्रदहशात करती ै । क ानी के हवहिन्न चररत्र, क ानी की शैली और कथानक उसी एक मन िाव क पुष्ट
न िं दी क ािी का नवकास
इस धरती पर आधु हनक मानव के अवतरण,िाषा ले खन,और हचत्रकारी के हवकास के साथ साथ ी
कालािं तर में क ाहनय िं का िी जन्म हुआ। जब मनुष् िं ने धीरे धीरे स्थायी रूप से र ना आरम्भ कर हदया
हजससे पररवार,गाँ व और कबीले बने। साथ ी प्रादु िाा व हुआ कृहष का हजसने मनुष् िं की बुिुक्षा की
समस्या क बहुत द तक ल करने में सफलता हमली। इसी स्थाहयत्व ने िाषा और ले खन के हवकास क
िी बल हदया हजससे जन्म हुआ हकस्से क ाहनय िं का। ज्ूँ ज्ूँ मनुष् कायाशील ता गया ….तर तर की
हकस्से क ाहनय िं का िी पनपीिं और क ानी क ना तथा सुनना मानव का आहदम स्विाव बन गया। इसी
कारण से प्रत्ये क समाज में हवहिन्न तर की स्थानीय क ाहनयाँ आज़ िी प्रचहलत ैं।
आरम्भ में ले खन पद्धहत उतनी समृ द्ध न ीिं थी..ले हकन िाषा का हवकास अपेक्षाकृत उससे जल्दी गया।
हजसमें क ाहनय िं क अनुश्रुहतय िं के रूप में एक पीढी से दू सरी पीहढय िं में स्थानािं तररत करने की परिं परा
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शुरू हुई। आज़ िी ममें से ज़्यादातर ल ग िं क अपने बड़े बुजुगों द्वारा क ी गयी क ाहनयाँ याद ग
िं ी
ले हिन इसमें ध्यान दे ने य ग्य बात ये ै हक इनमें से ज़्यादातर क ाहनयाँ हलन्धखत अवस्था में न कर
अनुश्रुहतय िं के रूप में में याद ैं । इस तर से क ाहनयाँ में एक पीढी से दू सरी पीढी में अनुश्रुहतय िं के
रूप में हवरासत में हमली ैं ।
1) कथावस्तु
2)चररत्र हचत्रण
3)कथ पकथन
4)िाषशैली
5) उद्दे श्य
हबना इनके हकसी क ानी की रचना ी न ीिं सकती। ले हकन उपन्यास िं में िी लगिग इन्ीिं तत्व िं का
इस्ते माल हकया जाता ै ,ले हकन द न िं में मू ल हिन्नता य ै हक उपन्यास क ानी का एक हवस्तृ त रूप ता
प्राचीनकाल में सहदय िं तक वीर िं तथा राजाओिं के शौया , प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, सा स, समु द्री यात्रा, दु गाम
पवातीय प्रदे श िं में प्राहणय िं का अन्धस्तत्व आहद की प्रचहलत कथाएँ , हजनकी क ाहनयाँ घटनाओिं पर आधाररत
‘गुणढ्य’ की “वृ त्कथा” क , हजसमें ‘उदयि’, ‘वासवदत्ता’, समु द्री व्यापाररय ,िं राजकुमार तथा
जैसे अन्य काव्यग्रिंथ िं पर स्पष्ट रूप से पररलहक्षत ता ै । इसके पश्चात् छ टे आकार वाली “पिंचतिं त्र”,
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“न तोपदे श”, “बेताि पच्चीसी”, “नसिं ासि बत्तीसी”, “शुक सप्तनत”, “कथा सररत्सागर”,
“भोजप्रबन्ध” जैसी साह न्धत्यक एविं कलात्मक क ाहनय िं का युग आया। इन क ाहनय िं से श्र ताओिं क
मन रिं जन के साथ ी साथ नीहत का उपदे श िी प्राप्त ता ै । प्रायः क ाहनय िं में असत्य पर सत्य की,
ज ाँ तक ह िं दी में क ानी ले खन के हवकास की बात ै … मारे दे श में क ाहनय िं की बड़ी लिं बी और सम्पन्न
परिं परा र ी ै । ये गद्य ले खन की ी एक हवधा ै हजसका हवकास उन्नीसवीिं सदी में बड़ी ते ज़ी से हुआ। वेद ,िं
उपहनषद िं तथा ब्राह्मण िं में वहणात ‘यम-यमी’, ‘पुरुरवा-उवव शी’, ‘सौपणी िं-काद्रव’, ‘सित्कुमार-
िारद’, ‘गिंगावतरण’, ‘श्ृिंग’, ‘िहुष’, ‘ययानत’, ‘शकुन्तिा’ जैसे आख्यान क ानी के ी प्राचीन रूप
ैं ।
ध्रु पद की तान ै , हजसमें गायक म हफल शुरू ते ी अपनी सिंपूणा प्रहतिा हदखा दे ता ै , एक क्षण में हचत्त
व्यक्त हकए ैं – ‘क ानी एक रचना ै हजसमें जीवन के हकसी एक अिंग या हकसी एक मन िाव क
प्रदहशात करना ी ले खक का उद्दे श्य र ता ै । उसके चररत्र, उसकी शैली, उसका कथा-हवन्यास, सब
उसी एक िाव क पुष्ट करते ैं । उपन्यास की िाँ हत उसमें मानव-जीवन का सिंपूणा तथा बृ त रूप हदखाने
का प्रयास न ीिं हकया जाता। व ऐसा रमणीय उद्यान न ीिं हजसमें िाँ हत-िाँ हत के फूल, बेल-बूटे सजे हुए ैं,
बन्धि एक गमला ै हजसमें एक ी पौधे का माधु या अपने समु न्नत रूप में दृहष्टग चर ता ै।
ह िं दी क ाहनय िं के हवकास क वास्तहवक पर लगे 1910 से 1960 के दशक के बीच। सन 1900 से 1915
तक के कालखिंड क ह न्दी क ानी के हवकास का प्रारिं हिक चरण माना जा सकता ै । इस दौर में कई
ले खक िं की क ाहनयाँ प्रकाहशत हुई हजससे ह िं दी क ाहनय िं के आधु हनक हवकास के बारे में पता चलता ै।
प्रेमचिं द के आगमन से ह न्दी का कथा-साह त्य की हदशा कुछ द तक “आदशोन्मुख यथाथव वाद” की
ओर मु ड़ गई और “प्रसाद” के आगमन से “र मािं हटक यथाथा वाद” की ओर। सन 1922 में “उग्र” का
ह न्दी-कथा-साह त्य में प्रवेश हुआ। उग्र न त “प्रसाद” की तर र मैं हटक थे और न ी प्रेमचिं द की िाँ हत
िाषा-शैली में उजागर हकया। 1927 से 1928 आ आसपास जैनेन्द्र ने क ानी हलखना आरिं ि हकया। उनके
आगमन के साथ ी ह न्दी-क ानी का नए युग आरम्भ हुआ।
प्रगहतशीलता के तत्त्व का ज समावेश हुआ उसे युगधमा समझना चाह ए। “यशपाि” राष्टरीय सिंग्राम के
एक सहक्रय क्रािं हतकारी कायाकताा थे, अतः व प्रिाव उनकी क ाहनय िं में िी आया। “अज्ञेय” प्रय गवादी
कलाकार थे , उनके आगमन के साथ क ानी नई हदशा की ओर मु ड़ी। हजस आधु हनकता ब ध की आज
बहुत चचाा की जाती ै उसका श्रेय अज्ञेय क ी जाता ै। “अश्क” प्रेमचिं द परिं परा के क ानीकार ैं ।
अश्क के अहतररक्त वृिंदावनलाल वमाा , िगवतीचरण वमाा , इलाचन्द्र ज शी, अमृतलाल नागर आहद
उपन्यासकार िं ने िी क ाहनय िं के क्षे त्र में काम हकया ै । हकन्तु इनका वास्तहवक क्षे त्र उपन्यास ै क ानी
न ीिं। इसके बाद सन 1950 के आसपास से ह न्दी क ाहनयाँ नए दौर से गुजरने लगीिं। हजसमें आधु हनक
हवचारधारा की छाप नज़र आती ै ।
अब तो क ानियााँ अत्यिंत ी िोकनप्रय ो चु की ै …और लगिग प्रत्ये क पत्र पहत्रकाओिं में इनकी
आज़ के पररदृश्य की बात की जाए त अब क ाहनय िं में आधु हनकता का समावेश गया ै हजसमें हवज्ञान
ैं ।
ले हकन क ानी सहदय िं तक एक अनवरत चलनेवाली प्रहक्रया ै हजसमें कालािं तर में समयानुकूल बदलाव िी
ते र ें गे और इसके हवकास क एक नया आयाम हमलता र े गा।
उतर – एकािंकी
ह न्दी में एकािं की ज अिंग्रेजी वन एक्ट प्ले के हलए ह न्दी नाम ै , आधु हनक का में ह न्दी के अिंग्रेजी से सिंपका
का पररणाम ै , पर िारत के हलए य साह त्य रूप नया हबिुल न ीिं ै । इसीहलए प्र . अमरनाथ के इस
कथनएकािं की नाटक ह न्दी में सवाथा नवीनतम कृहत ै । इसका जन्म ह न्दी साह त्य में अिंग्रेजी के प्रिाव के
कुछ वषा पूवा ी हुआ ै ।" के हवर ध में डॉ.सरनाम हसिं का कथन ै हक य मानना हकतना भ्रामक गा
हक ह न्दी एकािं की के सामने क ई िारतीय आदशा ी न था।
एकािंकी का स्वरूप
एकािं की के आधु हनक स्वरूप का प्रारम्भ इिं ग्लैण्ड में 10वीिं शती के अिंत में कटे न रे जर से मानी जाती ै।
धीरे -धीरे व कटे न रे जर इतना अहधक प्रहसद्ध हुआ हक इसने एक स्वतिं त्र हवधा का ी स्थान ले हलया।
एकािं की का आधार एक मु ख्य हवचार अथवा सुहनहश्चत लक्ष्य ना चाह ए। उसमें अनेक स्थल िं, अनेक िाव िं
और अनेक हचत्रवृहत्तय िं के सन्धिश्रण से बचना चाह ए। य िी आवश्यक ै हक जीवन के हजस पक्ष , क्षण
अथवा समस्या क एकािं कीकार प्रस्तुत करना चा ता ै सिी पात्र , कथ पकथन और वातावरण उसकी
सफलता में स य ग दें । सेठ ग हवन्ददास के शब् िं में क ें त सारे नाटक पर एकता का वायुमण्डल ना
चाह ए।
एकािं की यथासिंिव सिंहक्षप्त ना चाह ए। 35-40 हमनट से अहधक के एकािं की अपना प्रिाव ख बैठते ैं।
इसमें सिंकलनत्रय का पूणा हनवाा ना चाह ए। इस सिंबिंध में सेठ ग हविंददास ने हलखा ै -"व ी सिंकलनत्रय
कुछ फेरफार के साथ एकािं की नाटक के हलए जरूरी चीज ै । सिंकलनत्रय में िी सिंकलन ऐक्य अथाा त्
नाटक का ी एक समय की घटना तक। पररहमत र ना तथा एक ी कृत्य के सिंबिंध में ना एकािं की के
हलए अहनवाया ै । एकािं की की। कथा गहतशील नी चाह ए और उसे श्रीप्रगहत से अपने चरमहबिंदु की ओर
बढना चाह ए। उसमें आश्चया , कौतू ल और हजज्ञासा की न्धस्थहत िी अहनवाया ै । पात्र सिंख्या में कम , परन्तु
सजाव ने चाह ए। कथ पकथन छ टे ,सरल और कथानक क आगे बढाने वाले ।िं अहिनेयता। हकसी िी
डॉ. राम कुमार वमाव - डॉ. राम कुमार वमाा जी ने एकािं की रचना क अपनी साह त्य साधना का लक्ष्य
बनाया और ह िं दी में एकािं की के अिाव की पूहता की उनका प ला एकािं की बादल की मृ त्यु सन १९३० में
प्रकाहशत हुआ था .वमाा जी ने शताहधक एकािं हकय िं की रचना की ै इन एकािं हकय िं के हवषय सामाहजक
और इअहत हसक द न िं ी प्रकार के ैं . डॉ.राम कुमार वमाा जी क ह िं दी एकािं की का जनक माना जाता ै
वे आधु हनक ह िं दी एकािं की के जनक क े जाते ैं ज हनहवावाद सत्य ै ।
िट्ट जी का प ला एकािं की सिंग्र अहिनव एकािं की के नाम से सन १९४० में प्रकाहशत हुआ था इसके पश्चात
िं े सामाहजक ,ऐहत ाहसक ,पौराहणक मन वैज्ञाहनक आहद अनेक हवषय िं पर सैकड़ िं एकािं हकय िं की
उन् न
िक्ष्मी िारायण नमश् - ह िं दी एकिंहककार िं में हमश्र जी का म त्वपूणा स्थान ै .उनके एकािं हकय में अश क
वन ,प्रलय के पिंख पर ,बल ीन ,स्वगा में हवप्लव आहद एकािं की उल्ले खनीय इनमें पौराहणक ,ऐहत ाहसक
उपेन्द्रिाथ अश्क - अश्क जी अपनी एकािं कीय िं में समाज की हवहवध समस्याओिं का सफलतापूवाक हचहत्रत
हकया ै अश्क जी ने द दजान से अहधक एकािं की सिंग्र प्रकाहशत चु के ैं लक्ष्मी का स्वागत ,स्वगा की
झलक ,पदाा उठाओिं पदाा हगराओ ,अहधकार का रक्षक आहद उनके उल्लेखनीय एकािं की ै .
सेठ गोनवन्ददास
सेठ जी ऐहत ाहसक ,पौराहणक ,राजहनहतक आहद हवहिन्न हवषय िं पर एकािं हकय िं की रचना की ै .सेठ जी के
एकािं हकय िं में ईद और ली ,स्पधाा ,मै त्री आहद अच्छे समस्यामू लक एकािं की ै इनकी िाषा शैली हशल्प
जगदीशचन्द्र माथु र - माथु र जी का प ला एकािं की मे री बािं सुरी सन 1936 ई. सरस्वती में प्रकाहशत हुआ
था इसके पश्चात उनके अनेक एकािं की प्रकाहशत हुए ,हजनमें ि र का तारा ,कहलिं ग हवजय,खिंड र ,घ स
िं ले
नवष्णु प्रभाकर - आधु हनक एकािं कीकार िं में हवष्णु प्रिाकर जी का म त्वपूणा स्थान ै .प्रिाकर जी ने
अन्य प्रनतभाओिं का आगमि - स्वतिंत्रता के पश्चात अनेक नयी प्रहतिाव िं ने एकािं की क्षे त्र में प्रवेश हकया
इनमें हवन द रस्त गी ,जय नाथ नहलन ,म न हसिं सेंगर ,लक्ष्मी नारायण लाल ,रामवृक्ष बेनीपुरी,धमा वीर
िारती आहद के नाम आदर के साथ हलए जा सकते ैं ह िं दी साह त्य क इस हवधा के रचनाकार िं में बहुत
आशायें ैं .
ह िं दी में एकािं की कला का हवकास नाटक िं के साथ साथ हुआ सामान्य रूप से दे खने पर नाटक और
एकािं की एक जैसे हदखाई दे ते ैं एकािं की के लघु आकार - प्रकार में नाटक के सिी तत्व हवद्यमान र ते ैं
हकन्तु य एक स्वतिं त्र नाट्य हवधा ै हकसी बड़े नाटक के एक अिंक क एकािं की न ीिं क ते नाटक में जीवन
का समग्र हचत्र प्रस्तु त हकया जाता ै ,जबहक एकािं की में जीवन की हकसी म त्वपूणा घटना,पररन्धस्थहत या
समस्या क एक ी अिंक में प्रस्तु त हकया जाता ै .एकािंकी के हवकास का हववरण इस प्रकार ै -
भारतें दु युग में एकािंकी का उद्भव - ह िं दी में एकािं की का प्रचलन नाटक के साथ िारतें दु युग में ी हुआ
स्वयिं िारतें दु ने सिंस्कृत परिं परा पर मौहलक एकािं हकय िं की रचना की ै अिंधेर नगरी , प्रेमय हगनी,वैहदकी
ह िं सा ह िं सा का िवहत उनके मौहलक प्र सन ै िारतें दु जी के एकािं हकय िं का नाट्य रूप त पहश्चम शैली का
ै ,हकन्तु उनमें प्रस्तुत की गई समस्याएिं सवाथा नवीन ै . िारतें दु जी के अहतररक्त इस युग में राधाचरण
ग स्वामी ,बालकृष्ण िट्ट ,बद्रीनारायण ,हकश रीलाल ग स्वामी ,अन्धम्बकादत्त व्यास राधाकृष्ण दास आहद के
हवहवध प्र सन िं तथा एकािं हकय िं की रचना की इन सब में सामाहजक बुराइय िं पर व्यिं ग हकया गया ै िारतें दु
युग प्र सन और एकािं की कला की दृहष्ट से परिं परावादी ते हुए िी हवषय की दृहष्ट से आधु हनक एकािं की के
हनकट ै .
निवे दी युग में एकािंकी का नवकास - हशल्प की दृहष्ट से हद्ववेदी युग िारतें दु युग से एक कदम आगे बढा.
इस युग में प्र सन और व्यिं ग की क हट में आने वाले अनेक एकािं हकय िं की रचना हुई इस प्रकार के
एकािं हकय िं में चुिं गी की उिीदवारी (बद्रीनारायण िट्ट ),रे शमी रुमाल ,हकसहमस (रामहसिं वमाा ) ,मु खा
मिं डली (रूपनारायण पाण्डे य ),शेर हसिं (मिं गला प्रसाद हवश्व कमाा ),कृष्णा (हसयारामशरण गुप्त)
नीला,दु गाा वती,पन्ना (ब्रजलाल शास्त्री),चार बेचारे (उग्र) आहद एकािं की उल्लेखनीय ै .
आधु हनक युग और एकािं कीआधु हनक शैली का प्रथम एकािं की श्री जयशिंकर प्रसाद का एक घुट माना जाता
ै .यदहप इस एकािं की में िी सिंस्कृत नाट्यकला की ओर झुकाव ै हफर िी इसमें आधु हनक एकािं की कला
का पूणा हनवाा हुआ ै .प्रसाद जी के बाद त डॉ रामकुमार वमाा ,िु नेश्वर प्रसाद हमश्र ,लक्ष्मी नारायण
हमश्र,उपेन्द्रनाथ अश्क ,उदय शिंकर िट्ट ,सेठ ग हवन्द दास आहद एकािं कीकार िं ने अपने एकािं हकय िं से ह िं दी
उतर – मेिे का ऊि
बािमुकिंु द गुप्त भारतें दु युग के परवती ले खक ैं । हशवशिंिु के हचढे , उदू ा बीबी के नाम हचट्ठी, ररदास,
न्धखलौना, खेलतमाशा, स्फुट कहवता आहद उनके प्रमु ख हनबिंध सिंग्र ैं । 'मे ले का ऊँट' उनका बहुचहचा त
हनबिंध ै हजसमें ऊँट का अतीत, वता मान और िहवष् पर प्रकाश डाला ै । इस हनबिंध में राजनीहतक
पराधीनता से मु क्त ने , अपने गौरव पूणा इहत ास से जुड़ने वाल िं एविं अपने दे श के ह त के बारे में स चने
बालमु कुिंद गुप्त के हनबिंध व्यन्धक्तपरक, व्यन्धक्तव्यिं जक और हववेचनात्मक रूप में हमलते ैं । उन् न
िं े अनेक
हनबिंध आत्माराम और हशवशम्भू शमाा नाम से हलखा। िारतें दु युग के अहधकतर ले खक पत्रकाररता से जुड़े
हुए थे , हद्ववेदी युग में गुप्त जी िी पत्रकाररता से जुड़े हुए थे , अनेक पत्र िं का सिंपादन उन् न
िं े हकया।
उनके हनबिंध िं में एक िी वाक्य या शब् अनावश्यक न ीिं हमले गा। नपे-तु ले शब् िं का प्रय ग उनके हनबिंध
में हदखाई दे ता ै । शब् िं के प्रहत काफी सचेत थे। अन्धस्थरता और अनन्धस्थरता शब् क ले कर बालमु कुिंद
गुप्त और म ावीर प्रसाद हद्ववेदी के बीच काफी हववाद चला था। ले हकन बाद में म ावीर प्रसाद हद्ववेदी ने
हलखा हक 'अच्छी ह िं दी बस एक आदमी हलखता था- बालमु कुिंद गुप्त। प्रस्तु त ै मे ले का ऊँट हनबिंध
म न- मे ले में आपका ध्यान एक-द पैसे की पूरी की तरफ गया। न जाने आप घर से कुछ खाकर गए थे
या य िं ी।एक पैसे की पूरी के दाम मे ले में द पैसे िं त आश्चया न ीिं करना चाह ए, चार पैसे िी सकते
थे । य क्या दे खने की बात थी? तु मने व्यथा बातें बहुत दे खीिं, काम की एक िी त दे खते । दाईिं ओर जाकर
तु म ग्यार सौ सतर िं का एक प स्टकाडा दे ख आए , पर बाई तरफ बैठा हुआ ऊँट िी तु म्हें हदखाई न हदया।
बहुत ल ग उस ऊँट की ओर दे खते और ँ सते थे । कुछ ल ग क ते थे हक कलकत्ते में ऊँट न ीिं ता , इसी
से म न मे ले वाल िं ने इस हवहचत्र जानवर का दशान कराया ै । बहुतसी शौकीन बीहवयाँ हकतने ी फूल-
बाबू ऊँट का दशान करके न्धखलते दाँत हनकालते चले गए। तब कुछ मारवाड़ी बाबू िी आए। और झुक-
झुककर उस काठ के घेरे में बैठे हुए ऊँट की तरफ दे खने लगे। एक ने क ा, 'ऊँटड़ ै ' दू सरा ब ला,
ििं ग की तरिं ग में मैं ने स चा हक ऊँट अवश्य ी मारवाड़ी बाबूओिं से कुछ क ता ै जी में स चा हक चल दे खें
हक व क्या क ता ै ? क्या उसकी िाषा मे री समझ में न आवेगी? मारवाहड़य िं की िाषा समझ ले ता हँ त
क्या मारवाड़ के ऊँट की ब ली समझ में न आवेगी? इतने में तरिं ग कुछ अहधक हुई। ऊँट की ब ली साफ-
साफ समझ में आने लगी। ऊँट ने उन मारवाड़ी बाबूओिं की ओर थू थनी करके क ा
'बेटा तु म बच्चे , तु म क्या जान गे? यहद मे री उमर का क ई ता त व जानता। तु म्हारे बाप के बाप
जानते थे हक मैं कौन हँ , क्या हँ। तुमने कलकत्ते के म ल िं में जन्म हलया, तुम प तड़ िं के अमीर । मे ले में
बहुत चीजें ैं , उनक दे ख । और यहद- तु म्हें कुछ फुरसत त ल सुन , सुनाता हँ । आज हदन तुम
हवलायती हफहटन, टमटम और ज हड़य िं पर चढकर नकलते , हजसकी कतार तु म मे ले के द्वार पर मील िं
य सब तु म्हारे साथ की जन्मी हुई ै। तु म्हारे बाप पचास साल के िी न िं े , इससे व िी मु झे िली-
ग
िािं हत न ीिं प चानते । ाँ , उनके िी बाप िं त मु झे प चानेंगे। मैं ने ी उनक पीठ पर लादकर कलकत्ते
हकतने ी फेरे हकए ैं। म ीन िं तु म्हारे हपता के हपता तथा उनके िी हपताओिं का घर-बार मे री पीठ पर
र ता था। हजन न्धस्त्रय िं ने तु म्हारे बाप और बाप के िी बाप क जना ै , वे सदा मे री पीठ क ी पालकी
समझती थीिं मारवाड़ में मैं सदा तु म्हारे द्वार पर ाहजर र ता था , पर य ाँ व मौका क ाँ ? इसी से इस मे ले
में मैं तु म्हें दे खकर आँ खें शीतल करने आया हँ । तु म्हारी िन्धक्त घट जाने पर िी मे रा वात्सल्य न ीिं घटता ै ।
घटे कैसे? मे रा-तु म्हारा जीवन एक ी रस्सी से बिंधा हुआ था। मैं ी ल चलाकर तु म्हारे खेत िं में अन्न
उपजाता था और मैं ी चारा आहद पीठ पर लादकर तुम्हारे घर पहुँ चता था। य ाँ कलकत्ते में जल की कलें
लादकर दू र-दू र ले जाते थे । जाते समय मे रे साथ पैदल जाते थे और लौटते हुए मे री पीठ पर चढे हुए
हफहटन में बैठकर िी वैसा आनन्द प्राप्त न ीिं कर सकते। मे री बलबला ट उनके कान िं क इतनी सुरीली
लगती थीिं हक तु म्हारे बागीच िं में तु म्हारे गवैय िं तथा तु म्हारी पसिंद की बीहवय िं के स्वर िी तु म्हें उतने अच्छे न
लगते ग
िं े। मे रे गले में घिंट िं का शब् उनक सब बाज िं से प्यारा लगता था। फ ग
िं के जिंगल में मु झे चरते
दे खकर वे उतने ी प्रसन्न ते थे हजतने तु म अपने बगीच िं में ििं ग पीकर, पेट िरकर और ताश खेलकर।
ििं ग की हनिंदा सुनकर मैं चौिंक पड़ा। मैं ने ऊँट से क ा, "बस, बिबिािा बिंद करो। य बावला श र न ीिं
ज तु म्हें परमे श्वर समझे। तुम पुराने त क्या तु म्हारी क ई कल सीधी न ीिं ै ज पेड़ िं की छाल और पत्त िं
से शरीर ढाँ पते थे , उनके बनाए कपड़ िं से सारा सिंसार बाबू बना हफरता ै । हजनके हपता स्टे शन से हसर
गठरी ढ ते थे , व ी प ले दजे के अमीर ैं , हजनके हपता स्टे शन से गठरी आप ढ कर लाते थे , उनके हसर
पर पगड़ी सँिालना िारी ै । हजनके हपता का क ई पूरा नाम न ले कर पुकारता था, व ी बड़ी-बड़ी
उपाहधधारी हुए ैं ।
सिंसार का जब य ी रिं ग ै , त ऊँट पर चढनेवाले सदा ऊँट पर ी चढे , य कुछ बात न ीिं। हकसी की
पुरानी बात मुँ ख लकर क ने से आजकल के कानून से तक-इज्जत जाती ै । तु म्हे खबर न ीिं हक
अब मारवाहड़य िं ने 'एस हसएशन' बना ली ै , अहधक बलबलाओगे त व ररज ल्यूशन पास करके तु म्हें
मारवाड़ से हनकलवा दें गे। अतः तु म उनका कुछ गुणगान कर हजससे व तु म्हारे पुराने ि क समझें
और हजस प्रकार लाडा कजान ने हकसी जमाने में 'ब्लै क ल' क उस पर लाठ बनवाकर उसे सिं गमरमर से
उसी प्रकार उसी मारवाड़ी तु म्हारे हलए मखमली काठी, जरी की गहद्दयाँ , ीरे पन्न िं की नकेल और स ने की
घिंहटयाँ बनवाकर तु म्हे बड़ा करें गे और अपने बड़ िं की सवारी का सिान करें गे।
प्रत्युत्पन्नमनत माि- खन्दक में जमा न अहधकारी क प चान ले ने के बाद ल नाहसिं ने हनणाय ले ने में
तहनक िी दे र न ीिं लगाई। वजीराहसिं क जगाकर सूबेदार क लौटा लाने के हलए तु रन्त िे ज हदया।
तहनक-सी दे री सारी खन्दक क उड़ा दे ती और सबके प्राण ले ले ती। उसने मू हछा त जमा न अफसर की जेब िं
की तलाशी ले कर सारे कागज िी हनकाल हलए।
कतव व्यनिष्ठ - ल नाहसिं की कताव्यहनष्ठा की प्रशिंसा की जानी चाह ए। खन्दक में खड़े कर ज ाँ एक
ओर व एक हसपा ी के कता व्य का हनवा न कर र ा था व ीिं दू सरी ओर बीमार साथी के प्रहत िी अपने
कता व्य का हनवाा कर र ा था। द -द घाव लगने के बाद िी व अपने कता व्य क न ीिं िूला । प्रेम के क्षेत्र
में िी उसने अपने कता व्य का हनवाा हकया। सूबेदारनी क उसने ज वचन हदया था उसे िी उसने पूरी
तर हनिाया। हनश्छल-प्रेमी- व प्रेम के सच्चे अथा क समझता था। बचपन में आठ वषा की लड़की से द -
तीन बार हमलने पर उसके हृदय में ज प्रेम प्रस्फुहटत हुआ था, व सच्चा प्रेम था। तिी त सम्भावना के
हवरुद्ध उत्तर सुनकर उस पर ज प्रिाव पड़ा व उसके सच्चे प्रेम का उदा रण ै । उसने बचपन के प्रेम
क अन्धन्तम समय तक हनिाया। य सूबेदारनी से हकये हुए प्रेम का ी पररणाम था हक उसने ब धाहसिं का
ध्यान रखा
त्यागी- ल नाहसिं के त्याग़ का बहुत अच्छा उदा रण ै -ब धाहसिं की रक्षा । खन्दक में ठण्ड ने पर
अपना कम्बल, ओवरक ट और जरसी तक ब धाहसिं क दे हदया। स्वयिं एक कुरते में ी खड़ा र ा। दू सरी
ओर उसने अपने प्रेम के हलए अपना जीवन दाँ व पर लगा हदया। सूबेदारनी ने ज चा ा था ल नाहसिं ने
व ी हकया।
सा सी- व बहुत सा सी था। जमा न अफसर ने ध खे से सूबेदार क खन्दक से दू र िे ज हदया। खन्दक में
केवल आठ-दसे हसपा ी र गये। जमा न हसपाह य िं के आक्रमण करने पर उसने अपना सा स न ीिं ख या ।
यद्यहप उसे द घाव लग गये थे हफर िी व खड़ा कर एक-एक जमा न क मार र ा था। व सत्तर जमा न
हसपाह य िं का सा स के साथ सामना करता र ा। उसके सा स का एक उदा रण बचपन में िी हमलता ै
जब एक लड़की क घ ड़े की टाँ ग िं के बीच से हनकालकर दू र खड़ा कर हदया था और स्वयिं उसमें फँस गया
था।
प्रश्न - "सदाचार का ताबीज' निबिंध भ्रष्टाचार की समस्या पर तीखी चोि करता ै । -इस कथि का
नवश्लेषण कीनजए।
'सदाचार का ताबीज़' परसाई जी की हवचारधारा और व्यिं ग्य कला का बे द सुन्दर उदा रण ै । सिंक्षेप में
इसकी कथा इस प्रकार ै
एक राज् में भ्रष्टाचार का ब लबाला था, प्रजा त्रस्त थी। बात राजा तक पहुँ ची। उसने अपने दरबाररय िं से
क ा हक मैं ने त भ्रष्टाचार दे खा ी न ीिं। तु ममें से हकसी क व हदखे त नमू ने के रूप में थ ड़ा-सा मे रे पास
िी ले आना।
चाटु कार दरबाररय िं ने क ा हक भ्रष्टाचार बारीक चीज ै ; आपकी हवराटता दे खते -दे खते आँ खें अब बारीक
सवात्र ै , राजा के हसिं ासन में िी ै । परे शान राजा उछलकर खड़ा गया। उसने इलाज पूछा। हवशेषज्ञ िं
ने क ा हक भ्रष्टाचार क्य िं ता ै , कैसे ता ै , इसे जानना और भ्रष्टाचार के मौके खत्म करना जरूरी ै ।
जैसे, ठे केदारी का चलन ै । ठे केदार गा त अपने नफे के हलए अहधकाररय िं क घूस दे गा; ल ग तिं ग ाल
िं े त घूस लें गे। छ टे और बड़े , सबके बीच भ्रष्टाचार के द प्रमु ख कारण ैं मुनाफा और तिं ग ाली।
ग
दरबारी क ते ैं हक अगर इस ररप टा के अनुसार चला जाये त सारी व्यवस्था में उलटफेर जायेगा। वे
हवचार िं से राजा और दरबारी क ई रास्ता हनकालने के फेर में थे एक हदन कुछ दरबारी एक साधु क पकड़
साधु ने बताया हक इस ताबीज़ क बाँ धते ी मनुष् की आत्मा से उठने वाली बुरी आवाज़ दब जाती ै ,
ताबीज़ से हनकलने वाली नेक आवाज ावी जाती ै और आदमी सदाचारी बन जाता ै । दरबारी सुझाव
दे ते ैं हक सारी प्रजा क ताबीज़ प नाने के हलए ताबीज़ िं का बड़े पैमाने पर उत्पादन ना चाह ए। राज्
एक हदन राजा िे स बदलकर य दे खने हनकले हक ताबीज़ िं का कुछ असर िी ै या न ीिं। म ीने की दू सरी
तारीख थी। कमा चारी ने फटकारा-'घूस ले ना पाप ै ।' राजा प्रसन्न! ले हकन कुछ हदन बाद उन् न
िं े द बारा
आजमाया। कमा चारी ने इस बार घूस ले हलया। राजा ने अपना असली पररचय दे ते हुए पूछा हक आज
ताबीज़ न ीिं बाँ धी ै क्या? कमा चारी ने क ा बाँ धी ै । राजा ने ताबीज़ में कान लगाकर सुना। य आवाज
म ादे वी वमाा के सिंस्मरणात्मक-रे खाहचत्र िं के सिंग्र ‘स्मृहत की रे खाएँ ' में सिंकहलत 'हबहबया' रे खाहचत्र 'ओज
प्रधान हवचारात्मक गद्य-रूप' में हलखा गया ै । वता मान में साह त्य-सिंसार के हवद्वान िं ने सिंस्मरण और
रे खाहचत्र क द हिन्न हवधाओिं के रूप में स्वीकार हकया ै । ले हकन तान्धत्त्वक दृहष्ट से दे खा जाए त इन द न िं
के तत्त्व एक-दू सरे की सीमाओिं का न केवल अहतक्रमण करते ैं वरन् कई बार रचना के हवषय में य तय
कर पाना मु न्धश्कल जाता ै हक व 'सिंस्मरण' ै अथवा 'रे खाहचत्र'। इसहलए हबहबया पर हवचार करने से
सिंस्मरण
सिंस्मरण में स्मृहतय िं के स ारे जीवन क हवशेष प्रिाहवत करने वाली घटनाओिं, वस्तु ओिं अथवा व्यन्धक्तय िं क
पुन:स्मरण कर हलहपबद्ध हकया जाता ै । इसमें वैयन्धक्तक सम्पको का अत्यहधक य ग र ता ै । सिंस्मरण में
सम्पू णा जीवन का हवस्तार न कर उसका क ई हचत्र या सम्पका पूणा उदात्तता और सुन्दरता के साथ
अहिव्यक्त हकया जाता ै । चूिं हक सिंस्मरण व्यन्धक्तगत अनुिव िं से सम्पृ क्त ता ै अतः इसमें सत्य का
हनव्याा ज आग्र र ता ै । हकन्तु ले खक के मन पर पड़े प्रिाव और प्रेरणा के कारण व घटना या हचत्र
अहधक सिंवेदनशील और मन रिं जक बन जाता ै । सिंस्मरण में समसामहयक जीवन तथा पररवेश का हचत्रण
उसे अहधक उपय गी बना दे ता ै । सिंस्मरण के मू ल में व्यन्धक्तगत सम्पका और अनुिूहत का ना आवश्यक
ै।
रे खानचत्र
य शब् हचत्रकला से हलया गया ै , इसका अथा ै हक ले खन में हकसी वस्तु स्थान या व्यन्धक्त की आकृहत
या प्रकृहत का सजीव हचत्रण कर हदया जाये । बहुत ज्ादा हवश्लेषण न करते हुए ले खक अपने पररचय,
सम्पका और अनुिूहत के स ारे एक सजीव आकार खड़ा कर दे ता ै हजससे पाठक उसे पढते ी उससे
एक पररचय प्राप्त कर ले ता ै । इसी प्रकार थ डे से शब् िं में ी वस्तु या स्थान का िी आकार गढ हलया
जाता ै । हकसी व्यन्धक्त के रे खाहचत्र में उसकी आकृहत, िावििं हगमा, चे ष्टाओिं, सिंवाद िं का हववरण बड़े
प्रिावशाली ढिं ग से प्रकट हकया जाता ै । सिंस्मरणात्मक शैली, हचत्र-हवधायी िाषा, छ टे -छ टे पैने वाक्य
स्वयिं म ादे वी वमाा का इस सम्बि में क ना ै हक - "रे खाहचत्र एक बार दे खे ए व्यन्धक्त का िी सकता
ै , हजसमें व्यन्धक्तत्व की क्षहणक झलक मात्र हमलती ै। इसके अहतररक्त इसमें ले खक तटस्थ िी र सकता
ै । मने हकसी क क्र ध की मु द्रा में दे खा और अन्य मुद्रा में दे खने का अवसर न ीिं हमला , ऐसी न्धस्थहत में
म तटस्थ िाव से उसकी क्र हधत मु द्रा का ी रे खाहचत्र दे सकेंगे और तटस्थ िी र सकेंगे ; परन्तु सिंस्मरण
मारी स्थायी स्मृहत से सम्बि रखने के कारण सिंस्मरण के पात्र से मारे ग रे पररचय की अपेक्षा रखता ै ।
हजसमें मारी अनुिूहत के क्षण िं का य गदान िी र ता ै।
इसी कारण स्मृहत में ऐसे क्षण िं का प्रत्यावत्ता न िी स ज जाता ै और मारा आत्मकथ्य िी आ जाता ै।"
सिंस्मरण और रे खाहचत्र हवधाओिं की इस जानकारी के उपरान्त 'हबहबया' का यहद हवश्लेषण हकया जाए त
अिंधेर नगरी की राजसत्ता क्या काल्पहनक ै या िारतें दु के समय के िारत का यथाथा ै ? अिंधेर नगरी की
कथा सामिं तशा ी राज् व्यवस्था के साथ सिंबद्ध ै । ले हकन नाटक की प्रस्तु हत ल कनाट्य शैली में ै । अिंग्रेज िं
का राज सामिं तशा ी राज् व्यवस्था से कुछ द तक हिन्न था। यद्यहप अब िी जनता अहधकार हव ीन थी ,
ले हकन राज् व्यवस्था का सिंचालन करने वाली व्यापक नौकरशा ी एक नयी बात थी। इसके उत्पीड़न की
क ीिं सुनवाई न ीिं थी। वे क्षे त्र ज सीधे अिंग्रेजी शासन के अधीन न ीिं थे , उन पर शासन करने वाले देशी
िारतें दु ने अिंधेर नगरी में अपने दौर के इस यथाथा क ी प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तु त हकया ै । िारतें दु के
हलए य आसान न ीिं था हक वे अिंग्रेजी राज् व्यवस्था की खुलकर आल चना करते ैं । ले हकन अिंधेर नगरी
में उन् न
िं े हवहिन्न अवसर िं पर किी स्पष्ट रूप से और किी सािं केहतक रूप में अपनी बात क ी ै। नाटक
के दू सरे दृश्य ज ाँ बाजार का दृश्य प्रस्तत हकया गया ै . व ाँ हवहिन्न सामग्री बेचने वाले ग्रा क िं क आकृष्ट
िारते न्दु के नाटक अपनी प्रासिंहगकता व समकाहलकता के कारण एक हवहशष्ट स्थान रखते ैं । उनका
‘अिंधेर नगरी’ नाटक िी इस तथ्य का अपवाद न ीिं ै । नाटक, कथानक, कथा-पात्र िं की पररकल्पना,
सिंवाद िं की बुनावट में समकाहलकता के इस तत्त्व क िली-िाँ हत दे खा जा सकता ै ।
अिंधेर नगरी में राज् व्यवस्था का ज चररत्र प्रस्तुत हकया गया ै , व आज िी उतना ी सच नज़र आ र ा
ै हजतना िारते न्दु के समय में । मनुष् की प चान आज प ले से िी ज़्यादा इसके पैसे से नापी जाती ै।
इसी प्रकार िारते न्दु जी ने आम आदमी पर टै क्स के िार क हदखाया ै , आज के सिंदिा में त य समस्या
नाटक में नौकरशा ी की असिंवेदनशीलता, अकमा ण्यता व उदासीनता क मु ख्य रूप से रे खािं हकत हकया
गया ै । नौकरशा ी से सिंबिंहधत ये सारी समस्याएँ आज की सच्चाई अहधक कठ र रूप में ै । िारते न्दु ने
आधु हनक ल कतािं हत्रक प्रणाली में नेताओिं आहद की अय ग्यता व मू खाता एक कड़वी सच्चाई ै। इसी प्रकार ,
इनके पास शन्धक्त त ै हकिंतु बुन्धद्ध और हववेक का अिाव ै । इस प्रवृहत्त क नाटक में प्रधान रूप से
उिारा गया ै -
निष्कषवतः म क सकते ैं हक अिंधेर नगरी समसामहयक सिंदिों का जीविंत नाटक ै । इसका सिंबिंध
हब्रहटश शासक वगा से ी न ीिं ै । नाटक में व्यक्त यथाथा सीहमत न ीिं ै , व व्यापक चे तना और गहतशील
यथाथा का वा क ै ।
प्रश्न – बूढी काकी क ािी में प्रेमचिंद िे बुजुगो की कारुनणक स्तथथत पर प्रकाश डािा ै ‘ इस कथि
मुिं शी प्रेमचन्द की क ाहनय िं में सामाहजक समस्याओिं क प्रमु खता से उठाया गया ै। बूढी काकी नामक
क ानी िी इसी क हट की क ानी ै , हजसमें वृद्धजन िं के प्रहत समाज में उपेक्षा की पनपती समस्या क
स्वािाहवक ढिं ग से हचहत्रत हकया गया ै । ले खक ने गिंिीरता के साथ बूढी काकी के साथ ने वाले हजस
उपेक्षापूणा व्यव ार क उठाया ै , व अकेली काकी के ी साथ न ीिं ैं , अहपतु समाज में ऐसे हकतने ी
वृद्ध ैं । पिंहडत बुन्धद्धराम जैसे लालची ल ग मीठी-मीठी बात िं में ब ला-फुसलाकर बूढ िं से उनकी सिंपहत्त
अपने नाम हलखवा ले ते ैं ।
खूब लम्बे-चै ड़े वायदे करते ैं , ले हकन बहुत जल्दी ी उनका हघनौना रूप सामने आ जाता ै । इसमें क ई
सन्दे न ीिं हक बुढापा आते ी मानव के स्विाव में बचपन के गुण आने लगते ैं । बूढी काकी के आचरण
स चनी चाह ए थी, जब व आश्वासन िं पर हवश्वास बूढी काकी ने डे ढ-द सौ रूपये प्रहतवषा की आय वाली
य ठीक ै हक बूढी काकी अपनी इच्छा पूरी न ते दे ख र ने -चीखने लगती थी, परन्तु इसके हसवा व कर
िी क्या सकती थी। क ानीकार क ता ै हक पिंहडत बुन्धद्धराम और उसकी पत्नी रूपा का व्यव ार एक दम
हुई ै । गाविं में हमली प्रहतष्ठा सिंपहत्त की आय के कारण ै , ले हकन हजसकी जायदाद ै उसके हलए िरपेट
ि जन तक िी न ीिं ै । भूख के कारण बूढी काकी की इच्छाएिं अतृ प्त र ती ै । साथ क ानीकार ने
ध्यान आकहषात हकया ै हक िू ख और जीि का स्वाद मनु ष् क क ािं तक हगरा सकता ै । मार खाती ै ,
अपमाहनत ती ै, िला-बुरा सुनती ै ; परन्तु मन में िूख की लालसा र -र कर उसे बेचैन करती र ती
ै । इसके पीछे मुिं शी प्रेमचन्द ने समाज में व्याप्त उस समस्या की ओर ध्यान खीिंचा ै , ज ािं बूढ िं की
िावनाओिं की कद्र न ीिं ती। आज की नयी पीढी वृद्ध िं क अपनी आधु हनकता के मागा में बाधक समझती
ै । य ािं तक हक उनका िद्दा मजाक िी उड़ाया जाता ै।
'बूढी काकी' क ानी में ले खक ने बुन्धद्धराम के लड़क िं द्वारा न केवल उसे हचढाया जाता ै , अहपतु उसके
ऊपर मुिं के जूठे पानी के कुल्ले करना आम बात ै। किी काकी क न चिं कर िाग जाते ैं त किी बाल िं
क खीिंचकर चले जाते ैं , ले हकन बुन्धद्धराम या उसकी पत्नी रूपा अपने लड़क िं क डािं टना त दू र, मना त
न ीिं करते । इस तर के व्यव ार से िी पररवार के वृद्धजन टू ट जाते ैं । य न्धस्थहत अकेली बूढी काकी की
न ीिं, अहपतु समू चे समाज की ै हजसमें युवाओिं द्वारा वृद्ध िं के प्रहत दु व्यव ार हकया जाता ै ।
इसी तर ले खक ने स्वयिं बुन्धद्धराम और उसकी पत्नी रूपा के व्यव ार क उस समय घृणास्पद बना हदया
रूपा एक तरफ त मे मान िं के इशार िं पर नाच र ी ै , व ीिं दू सरी तरफ कड़ा े के पास बूढी काकी क
सगाई-हववा समार िं में शाहमल कर आप आनन्द ले ना चा ते ैं , उसी प्रकार उन्ें क्य िं न ीिं शाहमल
करते । झूठा-प्रदशान करने से क ई लाि न ीिं। बा र से अहतहथय िं की त र इच्छा पूरी करने का प्रयास
हकया जाता ै ले हकन अपने घर के वृद्ध िं की उपेक्षा की जाती ै , ज हकसी िी तर उहचत न ीिं माना जा
सकता।
उतर –
ठे ले पर ह मालय डॉ० धमा वीर िारती द्वारा हलन्धखत यात्रावृत्तािं त श्रेणी का सिंस्मरणात्मक हनबिंध ै । इसमें
जीवन के उच्च हशखर िं तक पहुँ चने का ज सिं देश हदया ै , व िी अहिनिंदनीय ै । ले खक एक हदन जब
अपने गुरुजन उपन्यासकार हमत्र के साथ पान की दु कान पर खड़े थे तब ठे ले पर लदी बफा की हसन्धल्लय िं
क दे खकर उन्ें ह मालय पवात क ढके ह मराहश की याद आई क्य हिं क
क पास से दे खने के हलए ी ले खक अपनी पत्नी के साथ कौसानी गए थे । नैनीताल से रानीखेत व मझकाली
के ियानक म ड़ िं क पारकर वे क सी पहुँ चे। क सी में उन्ें उनके स यात्री शुक्ल जी व हचत्रकार सेन हमले
ज हृदय से बहुत सरल थे। क सी से कौसानी के हलए चलने पर उन्ें स मे श्वर घाटी के अद् िु त सौिंदया के
दशान हुए। ज बहुत ी सु ाने थे , परिं तु मागा में आगे बढते जाने पर य सुिंदरता ख ती जा र ी थी , हजससे
य ीिं की थी। कौसानी स मे श्वर घाटी की ऊँची पवातमाला के हशखर पर बसा हुआ ै , ज एक वीरान व
छ टा सा गाँ व था तथा व ाँ बफा के दशान क ीिं न ीिं थे । में ऐसा लगा जैसे मारे साथ ध खा हुआ ।
हजससे ले खक उदास गए और बेमन से बस से उतरे परिं तु व ज ाँ खड़े थे व ीिं जड़ गए। कौसानी
की पवातमाला में न्धस्थत कत्यू र की घाटी का अद् िुत सौिंदया उनके सामने हबखरा पड़ा था। ले खक क लगा
जैसे व दू सरे ल क में पहुँ च गए िं और इस धरती पर पाँ व क साफ करके आगे बढना चाह ए। ले खक
क हक्षहतज के धुिं धले पन में कुछ पवात िं का आिास हुआ हजसके पीछे बादल थे।
अचानक ले खक क बादल िं के बीच नीले , सफेद व रूप ले रिं ग का टु कड़ा हदखाई हदया ज कत्यू र घाटी में
न्धस्थत पवातराज ह मालय था। परिं तु एक क्षण बाद ी उसे बादल िं ने ढक हलया जैसे हकसी बच्चे क न्धखड़की
क दू र कर हदया था। शुक्ल जी शािं त थे जैसे क र े थे य ी ै कौसानी का जादू । धीरे -धीरे बादल िं के
क्या दशा थी उसका वणान करना असिंिव था अगर ले खक उसका वणान कर पाता त उसके मन में वणान
न कर पाने की पीड़ा न र गई ती।
ह मालय की शीतलता से अपने दु ःख िं क नष्ट करने के हलए ी तपस्वी य ाँ आकर साधना करते थे । सूरज
के अस्त के समय कत्यू र घाटी का सौिंदया अद् िुत था। रात में चाँ द के आगमन पर ऐसा लगा जैसे ह म हनद्रा
में मग्न ै । ह मालय के दशान से ले खक स्वयिं क कल्पना ीन और छ टा म सूस कर र ा था। उसे लगा
जैसे ह मालय उसे उसके समान ऊँचा उठने की चु नौती दे र ा । सेन एक मन रिं जक व्यन्धक्त था ज र
दृहष्टक ण से ह मालय क दे खना चा ता था। अगले हदन ले खक और उसके स यात्री १२ मील की यात्रा के
बाद बैजनाथ गए ज ाँ ग मती नदी अपनी मधु रता के साथ ब ती ै और हजसमें ह मालय अपनी छाया से
तै रता हुआ प्रतीत ता ै । आज िी ले खक क उसका स्मरण आता ै । ठे ले पर ह मालय क कर
कथासार
शामनाथ एक दफ्तर में काम करते ैं । अपनी तरक्की के हलए चीफ क प्रसन्न करने के उद्दे श्य से वे उन्ें
अपने घर दावत पर आमिं हत्रत करते ैं । उनके चीफ एक अमे ररकन व्यन्धक्त ैं अतः उन्ें प्रसन्न करने के
हलए घर का पूरा वातावरण उसी रूप में प्रस्तु त करने के हलए शामनाथ और उनकी पत्नी हनरन्तर लगे हुए
ैं । क ाँ , कब, कैसे क्या रखना, लगाना, सजाना ै । इसी तै यारी में पूरा समय व्यतीत र ा था हक
माँ बूढी गयी ै अतः चीफ के सिुख उनका 'पड़ना' हकसी िी दृहष्ट से उहचत न ीिं ै । किी क ठरी में ,
किी बरामदे में त किी उनकी स े ली के पास िे जे जाने के प्रस्ताव एक-एक करके नकारे जाते ैं ।
अिंततः हनश्चय हकया जाता ै हक माँ बेटे की पसन्द के कपड़े प नकर, जल्द ी खाना खाकर अपनी क ठरी
में चली जायें और साथ ी ध्यान रखें हक वे स यें न ीिं, क्य हिं क उनकी खराा टे ले ने की आदत ै ।
डरी, स मी-सी माँ बेटे की र बात क हसर झुकाकर स्वीकार करती ै । व गाँ व में र ने वाली एक
अनपढ औरत ै ज प्रत्ये क न्धस्थहत में बेटे का िला चा ती ै । शमीली , लजीली, धाहमा क हवचार िं वाली माँ
क कुसी पर ढिं ग से बैठने का तरीका िी हसखाया जाता ै , क्य हिं क अगर क ीिं गलती से सा ब का माँ से
सा ब और उनके सिी साथी लगिग आठ बजे तक पहुिं च गए। न्धिसकी का दौर चलने लगता। दफ्तर में
खाना खाने के हलए बैठक से बा र जा र े थे हक अचानक सामने कुसी पर बैठी, स ती हुई माँ सामने पड़
गई। माँ पर बेटे क बहुत क्र ध आया, पर मे मान िं के सामने कुछ िी न ीिं क पा र े थे । शामनाथ सा ब
िं े माँ से ाथ हमलाया, गाना सुना। हवदे शी सा ब के इस उन्मु क्त व्यव ार के कारण दे सी सा ब िी माँ
उन् न
क उसी दृहष्ट से दे खने लगे। पर माँ लज्जा के कारण अपने में हसमटती जा र ी थी। सा ब के क ने पर
उन् न
िं े एक पुरानी फुलकारी िी लाकर हदखाई। माँ के इस काया से प्रसन्न सा ब चा ते ैं हक माँ उनके
हलए एक नई फुलकारी बनाकर दें । ह चहकचाते हुए माँ उनके इस अनुर ध क स्वीकार करती ैं । बेटे की
ैं । वे त सब कुछ छ ड़कर ररद्वार जाना चा ती थीिं पर, इस पररन्धस्थहत में उन्ें अपना इरादा बदलना
पड़ा। इसके बाद शामनाथ हनहश्चत कर पत्नी के साथ अपने कमरे में चले गए और माँ िी चु पचाप अपनी
क ठरी में लौट गई।
(1) भाई आपकी दृनष्ट नगद्ध की सी ोिी चान ए, क्ोिं आप सम्पादक ैं , नकन्तु आपकी दृनष्ट नगद्ध
की सी ोिे पर भी उस भूखे नगद्ध की सी निकिी, नजसिे ऊाँचे आकाश में चढे -चढे भूनम पर गेहाँ
का एक दािा पडा हुआ दे खा, पर उसके िीचे जो जाि नबछ र ा था व उसे ि ी िं सूझा। य ााँ तक
प्रसिंग - प्रस्तु त अवतरण 'मे ले का ऊँट' हनबि से हलया गया ै । इस हनबि के ले खक बाबू बालमु कुन्द
गुप्त ैं । गुप्त जी िारते न्दु युग और हद्ववेदी युग के सिंहधकालीन हनबिकार ैं । ये मू लतः पत्रकार थे परन्तु
हनबि के क्षे त्र में िी इनकी प्रहतिा सरा नीय र ी ै । इनके हनबि िावप्रधान, व्यन्धक्तप्रधान और कथात्मक
ैं हजनमें परर ास, चु ल और तीखे व्यिं ग्य उिर कर सामने आते ैं । इनके जैसी हजन्दाहदली और
फक्कड़पन ह न्दी के अन्य हनबिकार िं से दु लाि ैं। प्रस्तु त हनबि िी उनका एक व्यिं ग्यात्मक ले ख ै । य ाँ
ले खक सम्पादक पर व्यिं ग्य करते हुए क र ा ै।
व्याख्या - ले खक ने 'म न मे ले' का वणान पढ कर अपनी प्रहतहक्रया व्यक्त करते हुए, सम्पादक क
हजस प्रकार हगद्ध आकाश में उड़ते हुए िी जमीन पर पड़े हुए अपने ि जन अथवा अन्न के दाने क दे ख
ले खक िारतहमत्र के सम्पादक पर व्यिं ग्य करते हुए क र ा ै हक आपकी दृहष्ट हगद्ध की सी ते हुए िी
उस हगद्ध की दृहष्ट हनकली हजसने जमीन पर पड़ा दाना त दे खा पर उसे फाँ सने के हलए ज जाल हबछाया
गया था व न ीिं दे खा। व दाना चु गने से प ले ी जाल में फिंस गया। इसी तर से अपने मे ले में अन्य
वस्तु ओिं क त दे खा एक पैसे की पूड़ी द पैसे में हमली त दे ख ली पर आपकी दृहष्ट मे ले के दशानीय पशु
'ऊँट' क न ीिं दे ख पाई। यानी आपकी दृहष्ट ते ज ते हुए िी हगद्ध की तर हववेक शून्य हनकली। जबहक
सम्पादक क त बहुत सतका ना चाह ए।
नवशेष-
(1) प्रस्तु त अवतरण की िाषा खड़ी ब ली गद्य िाषा ै । हजसमें सरलता, व्यिं ग्यात्मकता, समथाता,
सिंदभव - आधु हनक क ानीकार िं में िीष्म सा नी का म त्त्वपूणा स्थान ै । उनकी क ानी 'चीफ की दावत'
मध्यवगीय जीवन के एक माहमा क पक्ष का अिंकन करती ै । प्रस्तु त पिंन्धक्तय िं में बेटे के सा ब से हमलने के
बाद माँ की दबी घुटी िावनाओिं के एकािं त में फूट पड़ने का हचत्रण ै ।
व्याख्या - शामनाथ के बार-बार ह दायत दे ने के बाद िी जब माँ क कुसी पर बैठे-बैठे-नीिंद आ गई, तिी
सा ब ऊधर आ हनकले । पर सा ब "ने अपने व्यव ार से न केवल न्धस्थहत सिंिाली, बन्धि माँ क िू ल गई
तनाव समाप्त गया था। पर माँ इस पररवहता त और शािंत पररन्धस्थहत से तालमेल न ीिं हबठा पाई।
अवसर दे खकर व अपनी क ठरी में जाकर हबलख उठी। व चा ती थी हक आँ सू अहधक न ब ें , क्य हिं क
व्यक्त की थी। य क ई साधारण बात न ीिं थी। और साथ ी य इच्छा बेटे के चीफ की थी , हजसे प्रसन्न
इस नई न्धस्थहत में माँ क ीिं कुछ अस ज सी गई थी। अिंतर में बैठी िावनाएँ आँ सुओिं के माध्यम से
लगातार ब र ी थीिं। माँ ने बार-बार अपने क समझाने का प्रयत्न हकया हक इस प्रकार र ना ठीक न ीिं ै ।
नवशेष - प्रस्तु त प्रसिंग क ानी का एक म त्त्वपूणा अिंश ै इसमें माँ का मन वैज्ञाहनक हचत्रण ै । व एक
ऐसी नारी ै हजसने पररन्धस्थहतय िं के सामने हसर झुका हदया था, पर अचानक पाटी के समय चीफ के
सिुख आ जाने से सब कुछ बदल गया। बेकार की चीज अत्यिं त म त्त्वपूणा बन गई। इन पररन्धस्थहत में माँ
का अत्यिं त हृदयद्रावक हचत्रण ै। साथ ी बेकार, बूढी माँ के हचत्रण के माध्यम से बुजुगा पीढी की
प्रसिंग- प्रस्तु त अिंश प्रेमचिं द की क ानी 'बूढी काकी' से उदधृ त ै । क ानी के बीच-बीच में नीहतवाक्य िं
और सून्धक्तय िं का प्रय ग करते हुए तथ्य िं क अहधक प्रिावशाली बनाना प्रेमचिं द की क ानी कला की
इस समय घर की छ टी बच्ची लाड़ली, माँ से हछपाकर रखी गयी अपने ह स्से की पूहड़याँ ले कर काकी क
जाती ै , ज ाँ मे मान िं ने ि जन हकया था। उस स्थान पर हगरे बचे -सूखे-जूठे टु कड़े खाती काकी क
दे खकर ले खक का कथन ै
व्याख्या - क ानीकार ने मनुष् के मन के सिंत ष की तुलना बाँ ध से की ै । बाँ ध में आबद्ध पानी एक
हनहश्चत सीमा में र ता ै , पर बाँ ध टू टते ी व सिी सीमाएँ त ड़कर उच्छृ खल गहत से ब जाता ै । काकी
िी स्वाहदष्ट व्यिं जन िं की सुगिंध और स्वाद की कल्पना में डूबी उन्ें अिी पाने की आशा में सारा हदन हबता
दे ती ैं , पर रात में सबके स जाने पर उनकी आशा हनराशा में बदल जाती ै । हदन िर अपने मन पर काबू
हकये बैठी थीिं, पर अब उनका सिंत ष उनके मन की इच्छा पर हनयिंत्रण न ीिं रख पाता और वे ऐसा आचरण
हजस प्रकार हकसी शराबी व्यन्धक्त क शराब का स्मरण मात्र उसे अधीर बना दे ता ै और तत्काल उसे पाने
के हलए आतु र उठता ै , उसी प्रकार स्वाहदष्ट व्यिं जन िं के स्मरण से काकी की दबी हुई स्वाद-लालसा
नवशेष-
क ानी में आए सिं वाद एक और पात्र िं की चाररहत्रक हवशेषताओिं के द्य तक ते ैं तथा दू सरी ओर
कथावस्तु से हवकास में िी स ायक ते ैं । प्रस्तु त क ानी के सिं वाद क ानी की इन द न िं
आवश्यकताओिं की पू हता करते ैं । सिं हक्षप्तता, गहतशीलता, स्वािाहवकता तथा व्यिं ग्यात्मकता सिं वाद-
"माँ ाथ हमलाओ"
" ाउ डू यू डू"
इस रूप में सिंवाद िं में गहतशीलता और सरलता ै , इसीहलए सिंवाद सवात्र स्वािाहवक ैं । एक छ टे से प्रसिंग
में ले खक तीन िं पात्र िं के चररत्र की प्रायः सिी हवशेषताओिं क उिारने में सफल हुआ ै ।
प्रस्तु त क ानी के सिंवाद िं में नाटकीयता का गुण िी हवद्यमान ै । पात्र िं के वाताा लाप में उतार चढाव वैसा ी
दृहष्टग चर ता ै जैसे हक नाटक िं के सिंवाद िं में प्रायः पाया जाता ै । इसका एक कारण य िी ै हक
उसमें उत्तर-प्रत्यु त्तर की हवशेषता अहधक हवद्यमान ती ै
माँ धीरे से ब ली, "मैं क्या गाऊँगी बेटा मैं ने कब गाया ै ?"
इस प्रकार प्रस्तु त क ानी के सिंवाद सजीव और सारगहिा त ैं साथ ी माँ की मानहसक लचल उनके
सिंवाद िं के माध्यम से हुई ै । मन हवज्ञान का स ारा ले कर हलखे गए इन सिंवाद िं में सवात्र ी पात्रानुकूलता ै ।
(क) ररपोताव ज
ररप ताा ज फ्ािं सीसी िाषा का शब् ै और अिंग्रेजी शब् 'ररप टा ' से हमलता-जुलता ै । ले हकन समाचार पत्र िं
के सिंवाददाता हलखते ैं , ज तथ्य िं का सिंकलन मात्र ता ै , क्य हिं क उसका लक्ष्य पाठक िं क तथ्य िं से
पररहचत कराना ता ै । वास्तहवक घटना क ज् िं का त्य िं प्रस्तु त कर दे ना ररप टा ै अथाा त 'ररप टा '
सूचनात्मक ती ै । व ीिं साह न्धत्यक शैली में हलखा जाता ै । "इसमें साह न्धत्यकता, कल्पना, िावुकता,
सिंवेदना का पुट ता ै
न िं दी सान त्य कोष के अिु सार- "ररप टा के कलात्मक और साह न्धत्यक रूप क ी ररप ताा ज क ते
ैं ।ररप ताा ज में । िावना का आवेग ता ै । बाबू गुलाबराय ने हलखा ै - "ररप टा की िािं हत य घटना या
घटनाओिं का वणान त अवश्य ता ै हकन्तु उसमें ले खक के हृदय का हनजी उत्सा र ता ाँ ज वस्तु गत
सत्य पर हबना हकसी प्रकार का आवरण डाले उसक प्रिावमय बना दे ता ै
ह िं दी में इसे 'वृत्त-हनदे शन' या 'सूहचका' िी क ा जाता ै परिं तु वता मान में 'ररप ताा ज' नाम ी प्रचहलत ै ।
इस हवधा का प्रादु िाा व यूर प में 1936 ई. के आस-पास हद्वतीय हवश्वयुद्ध के समय हुआ था। हद्वतीय हवश्वयुद्ध
के समय ी यूर प के रचनाकार िं ने युद्ध के म चे से साह न्धत्यक ररप टा तै यार की। इन्ीिं ररप टों क ी बाद
में ररप ताा ज क ा गया। 'ररप ताा ज' के जनक के रूप में रूसी साह त्यकार इहलया ए रे नवगा क स्वीकार
हकया जाता ै ।
" ाल-ताज में ी घटी तथा ले खक द्वारा प्रत्यक्ष दे खी गई घटनाओिं का अिंतरिं ग अनुिव के साथ हकया गया
वणान ररप ताा ज ै डॉ. हवश्वम्भरनाथ उपाध्याय के अनुसार- "हकसी घटना की ररप टा के कलात्मक और
साह न्धत्यक रूप क ररप ताा ज क ा जाता ै । इसी क्रम में उन् न
िं े आगे हलखा ै हक, "हबना कल्पना क
अनुिव में बदले सफल ररप ताा ज न ीिं हलखे जा सकते और साथ ी अनुिव क कल्पना में पकाए हबना िी
ररप ताा ज का सफल ले खन न ीिं सकता
व ीिं डॉ. रामहवलास शमाा के अनुसार- "कल्पना के स ारे ररप ताा ज न ीिं हलखी जा सकती... ररप ताा ज
हलखने के हलए जनता से सच्चा प्रेम ना चाह ए डॉ. हवश्वम्भरनाथ उपाध्याय के शब् िं में - "उसका सिंबिंध
हसफा वता मान से ता ै हकिंतु उसका ले खक वता मान के उस हबिंदु पर ता ै , हजसमें िू तकालीन मू ल्य
और िावनाएिं र ती ैं और िहवष् के प्रहत उत्कट लालसा िी|
ररपोतावज की नवशेषताएिं
2. य घटना-प्रधान ने के साथ-साथ कथा तत्व से युक्त ता ै । क्य हिं क घटना का यथातथ्य वणान इसका
प्रमु ख लक्षण
6. सीहमत पररहध में अहधक तथ्य िं क प्रस्तु त करना इसका लक्ष्य ना चाह ए, परिं तु आकार का क ई बिंधन
न ीिं ता। व
छ टा या बड़ा सकता ै ।
न िं दी ररपोतावज का नवकास
ह िं दी में ररप ताा ज के जनक हशवदान हसिं चौ ान ैं । इनके ररप ताा ज 'लक्ष्मीपुरा' क ह िं दी का प ला
ररप ताा ज माना जाता ै । हजसका प्रकाशन सुहमत्रानिंदन पिंत के सिंपादन में हनकलने वाली 'रूपाि' पहत्रका
के हदसम्बर, 1938 ई. के अिंक में हुआ था। 'लक्ष्मीपुरा' में एक गाँ व के लचल िरे जीवन का सजीव हचत्र
ै । कुछ समय बाद ी ' िं स' पहत्रका में उनका दू सरा ररप ताा ज 'मौत के न्धखलाफ हज़न्दगी की लड़ाई'
इसके बाद 1944 ई. में 'नवशाि भारत' पहत्रका में रािं गेय राघव ने बिंगाल के अकाल (1941 ई.) पर
'अदम्य जीवन' शीषाक से एक ररप ताा ज हलखा ज 'तू फान िं के बीच' में सिंकहलत ै। 'तू फान िं के बीच'
ररप ताा ज के सिंदिा में अमृतराय ने हलखा ै हक, "ज ाँ तक मैं जानता हँ रािं गेय राघव के उन्ीिं ररप ताा ज िं से
ह िं दी में हलखने का चलन शुरू हुआ। मैं ने और दू सर िं ने ररप ताा ज हलखे , ले हकन ज बात रािं गेय राघव के
हलखने में थी व हकसी क नसीब न ीिं हुई।"[9]
फनीश्वरनाथ रे णु ने हवपुल मात्रा में ररप ताा ज हलखे हजसमें काफी अनु पलब्ध ैं । उनका प ला ररप ताा ज
'हवपादप नाच' ै ज साप्ताह क हवश्वाहमत्र में 1945 ई. में प्रकाहशत हुआ था। और अिंहतम 'पटना-जलप्रलय'
ै ज 1975 ई. में प्रकाहशत हुआ था। 'रे णु' ने 'ऋण जल धन जल' (1977 ई.) में 1966 ई. के हब ार के
ियिंकर सूखे और 1976 ई. में पटना की हवनाशकारी बाढ के सजीव हचत्र अिंहकत ैं। युद्ध पर 'रे णु' का
सबसे बड़ा ररप ताा ज 'नेपाली क्रािं हत-कथा' ै , ज हदनमान पहत्रका में प्रकाहशत हुआ था। इसमें प्रजातिं त्र की
स्थापना के हलए राणाशा ी के न्धखलाफ नेपाल में (1950 ई.) हुए सशस्त्र सिंघषा का वणान ै ।
धमा वीर िारती ने 'धमवयुग' पहत्रका के माध्यम से अनेक ररप ताा ज हलखे , हजसमें 'ब्रम्हापुत्र की म चाा बिंदी'
और 'दानव की । वृहत्त' चहचा त ैं । बािं ग्लादे श युद्ध यात्रा (1971 ई.) और िारत-पाक युद्ध यात्रा के आधार
पर िारती का 1972 ई. में 'युद्ध यात्रा' ररप ताा ज सिंग्र प्रकाहशत हुआ। हशवसागर हमश्र का ररप ताा ज-
'लड़ें गे जार साल' (1966 ई.) सन् 1965 ई. में हुए िारत-पाक युद्ध पर आधाररत ै ।
हववेकी राय ने 'जुिूस रुका ै ' और 'बाढ! बाढ!! बाढ!!!' नाम से ज ररप ताा ज हलखा हजसमें स्वातिं त्र्य तर
िारत के गािं व िं के दु ःख-ददा की अहिव्यन्धक्त हुई ै । महण मधु कर के ररप ताा ज सिंग्र 'हपछला प ाड़' और
'सूखे सर वर का िू ग ल' रे हगस्तान के जीवन से सिंबिंद्ध ैं । इनमें ले खक ने मरुिू हम के जीवन सिंघषों क
मानवीय स ानुिूहत के साथ उिारा ै । 'दे श की हमट्टी बुलाती ै ' अज्ञेय का ररप ताा ज सिंग्र ै हजसमें
'जापानी युद्ध बिंहदय िं के साथ चहचा त ररप ताा ज ै ।
ह न्दी उपन्यास के क्षे त्र में 'प्रेमचन्द' के आगमन से एक नयी क्रान्धन्त का सूत्रपात हुआ। इस
इस युग का प्रारम्भ प्रेमचन्द के 'सेवा सदन' नामक इस उपन्यास से हुआ हजसे सन् 1918
में हलखा गया था। वैसे त पूवा में मुिं शी प्रेमचन्द ने आदशावादी उपन्यास हलखे ले हकन बाद
स्थान हदया।
ह न्दी में चररत्र प्रधान उपन्यास हलखने में मुिं शी प्रेमचन्द की चचाा सबसे प ले ती ै।
टकर ज सामाहजक पररदृश्य उत्पन्न हुए उनसे ह न्दी उपन्यास हवधा क एक नई हदशा
हमली।
मिंशी प्रेमचन्द िे अपिे जीवि काि में तीि प्रकार के उपन्यास निखे।
इनकी प ली श्रेणी में आने वाले उपन्यास 'प्रहतज्ञा' और 'वरदान' ै हजन्ें इन् न
िं े प्रारन्धम्भक
काल में हलखा।
दू सरी श्रेणी के उपन्यास 'सेवा सदन', हनमा ला और गबन ै । इस श्रेणी के उन्यास िं में मुिं शी
तीसरी श्रेणी के उपन्यास- प्रेमाश्रय, रिं गिू हम कायाकल्प कमा िूहम और ग दान ै।
इस श्रेणी के उपन्यास िं में उपन्यास सम्राट मुिं शी प्रेमचन्द ने जीवन के एक अिंश न ीिं वरन सम्पू णा जीवन
क एक साथ दे खा ै ।
इनके ये सिी प्रकार के उपन्यास हकसी एक वगा - हवशेष तक सीहमत न ीिं वरन समाज
प्रेमचन्द के इन उपन्यास िं में क ीिं त द े ज प्रथा तथा वृद्धावस्था के हववा से उत्पन्न शिंका
इसी तर रिं गिू हम, कायाकल्प और कमा िूहम में िारत की तत्कालीन राजनीहत की स्पष्ट छाप
हदखायी दे ती ैं ।
इन उपन्यास िं की िाँ हत 'प्रेमाश्रय' जैसे उपन्यास तत्कालीन जमीदारी प्रथा और कृषक जीवन
'गोदाि', प्रेमचन्द जी का सवाा हधक ल कहप्रय उपन्यास ैं , हजसे हवद्वान िं ने ग्राम्य जीवन के
म ाकाव्य की सिंज्ञा दी ै । 'ग दान' क अगर म प्रेमचन्द युगीन िारत की प्रहतहनहध कृहत
क दें , त अहतशय न्धक्त न ीिं गी।
प्रेमचन्द युगीन उपन्यास िं में जयशिंकर प्रसाद का िी अपना एक म त्वपूणा स्थान ै । इन् न
िं े
मात्र उपन्यास ी न ीिं क ाहनयाँ िी हलखी, ले हकन इनकी सिी क ाहनयाँ आदशावादी
क ाहनयाँ ैं ; जबहक उपन्यास यथाथा के अत्यन्त सिं हनकट ै।
प्रसाद जी ने अपने जीवन काल में तीन उपन्यास हलखे। इन उपन्यास िं में हततली और
इनका 'किंकाल' नामक उपन्यास ग स्वामी के उपदे श िं के माध्यम से ह न्दु सिंगठन और धाहमा क तथ
सामाहजक आदे शों क स्थाहपत करने का प्रयत्न करता ै। इसी सिंदिा में इनका हततली उपन्यास
ग्रामीण जीवन की झाँ की और ग्रामीण समस्याओिं क प्रस्तु त करता ै । इरावती इनका ऐहत ाहसक
उपन्यास ज इनके आसामाहयक हनधन से अधू रा ी र गया।
माँ , और सिंघषा, इनके प्रहसद्ध उपन्यास ैं , त महणमाला और हचत्रशाला' इनके प्रहसद्ध क ानी
सिंग्र । 'माँ आपका सफलतम उपन्यास ै।
श्री सुदशान' का पूरा नाम पिंहडत बदरीनाथ िट्ट था। ये प ले उदू ा में हलखते थे और बाद में
ह न्दी कथा साह त्य में अवतीणा हुए। इनके 'अमर अहिलाषा' और 'िागवन्ती' अन्यन्त
'गढकुण्डार हवरादा की पहिनी, मृ ग नयनी, माधवजी हसन्धिया, म ारानी दु गाा वती, रामगढ की
रानी, मु साह बजू, लहलत हवक्रम और अह ल्याबाई जै से ऐहत ाहसक उपन्यास हलखे त कुण्डली
चक्र, स ना और सिंग्राम, किी न किी, टू टे काँटे, अमर बेल, कचनार जैसे उपन्यास िी ैं
हजनमें प्रेम के साथ साथ अनके सामाहजक समस्याओिं पर िी खुलकर हलखा गया ै।
'झाँ सी की रानी लक्ष्मीबाई इनका प्रहसद्ध ऐहत ाहसक उपन्यास ै हजसे ल कहप्रयता में हकसी
अन्य उपन्यास से कम न ीिं आिं का जा सकता।
श री जीवन पर अपनी ले खनी चलाने वाले मुिं शी प्रताप नारायण िी प्रेमचन्द युगीन
उपन्याकार िं के मध्य सदै व समादृत र े ैं ।
इन् न
िं े अपने जीवन काल में हवदा, हवकास, और हवलय, नाम तीन उपन्यास हलखे। मुिं शी
प्रताप नारायण श्रीवास्तव ने इन तीन िं उपन्यास िं में एक हवशेष सीमा में र कर स्त्री
स्वतन्त्रता का पक्ष हलया।
श्री हृदयेश एक सफल क ानी कार और उपन्यास र े ैं । इनके मिं गलप्रिात और 'मन रमा'
नामक द उपन्यास ैं । कहवत्व शैली में रची गई इनकी कृहतय िं में 'नन्दन हनकुिंज' और
'वनमाला "नामक द क ानी सिंग्र िी ैं । आपकी कथा शैली की तु लना अहधकािं श हवद्वान
पाण्डे य बेचन शमाा 'उग्र' प्रेमचन्द युगीन उपन्यासकार िं के मध्य में अपनी एक हवहशष्ट शैली
के हलए काफी चहचात र े । 'चन्द सीन िं के खतू त हदल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी,
शराबी, जीजीजी, घण्टा, फागुन के हदन चार आहद आपके म त्वपूणा हकन्तु चटपटे उपन्यास
ैं । आपने म ात्मा ईसा नामक एक नाटक और 'अपनी खबर नामक आत्म कथा हलखी ज
काफी चहचा त र ी।
जैनेन्द्र कुमार द्वारा उपन्यास के क्षे त्र में नयी शैली का सूत्रपात हकया गया। इनके उपन्यास िं
में मन वैज्ञाहनक हचत्रण की एक हवशेष शैली हदखायी पड़ती ै।
ताप िू हम, परख, सुनीता, सुखदा, त्यागपत्र, कल्याणी, मु न्धक्तब ध, हववरण, व्यतीत, 'जयवधा न, अनाम
दस से अहधक कथा-सिंकलन ,िं हचन्तनपरक हनबि िं तथा दाशाहनक ले ख िं से समृ द्ध हकया। स्त्री पुरुष
सम्बि ,िं प्रेम हववा और काम-प्रसिंग िं के सम्बि में आपके हवचार िं क ले कर काफी हववाद िी हुआ
जैनेन्द्र जी क िारत का ग की माना जाता ैं। आपकी कई रचनाओिं क पुरस्कृत िी हकया गया।
राजा राहधकारमण प्रसाद हसिं ने अपने जीवन काल में राम-र ीम' नामक व प्रहसद्ध उपन्यास हलखा
हजसकी कथा शैली ने सहृदय पाठक िं क इसकी और आकृष्ट हकया।
इसके अहतररक्त आपने चु म्बन और चाँ टा, पुरूष और नारी, तथा सिंस्कार जैसे उपन्यास हलखकर ह न्दी
उपन्यास हवधा क और समृ द्ध हकया।
प्रेमचन्द के युग मे ह न्दी उपन्यास हवहवध मु खी कर हनरन्तर हवकास उन्नत हशखर िं क स्पशा करने लगा।
इस युग में उपर क्त उपन्यासकार िं के अहतररक्त म ाप्राण हनराला, राहुल सािं कृत्यायन, चतु रसेन शास्त्री,
यशपाल, िगवती चरण वमाा , िागवती प्रसाद वाजपेयी आहद ले खक-कहवय िं ने उपन्यास ले खन प्रारम्भ
हकया, ले हकन प्रेमचन्द त्तर युग में ी इन्ें हवशेष प्रहसन्धद्ध हमली।
सिंस्मरण और रे खानचत्र परस्पर हमली-जुली आधु हनक गद्य हवधाएँ ैं । इन द न िं हवधाओिं में कई समानताएँ
की ग राई से जाँ च पड़ताल करें त मालू म पड़ता ै हक ये समानताएँ केवल आकार और प्रकृ हत की ैं ।
जबहक द न िं की अन्तः सत्ता में बहुत बड़ा अिंतर ै । साथ ी द न िं के िाव एविं रचना तन्त्र िी एक दू सरे से
सिंस्मरण हववरण प्रधान ते ैं और रे खाहचत्र हचत्रण प्रधान क्य हिं क रे खाहचत्रकार रे खाओिं के
माध्यम से ी वण्या हवषय का हचत्र खीिंचता ै।
सिंस्मरण में प्रसिंग िं और कथाओिं का उपय ग हकया जाता ै । पर रे खाहचत्र में रूप की
सिंस्मरण में वण्या -हवशेष के द्वारा िाव-हबम्ब खीिंचे जाते ैं और रे खाहचत्र में वण्या -हवषय का
सिंस्मरण में मु ख्य रूप से पुरानी बात िं क याद हकया जाता ै । ले हकन रे खाहचत्र में हकसी
व्यन्धक्त या वस्तु के जीवन का हचत्रण ता ै।
सिंस्मरण के हलए िावना तथा अनुिूहत का ना जरूरी ै । ले हकन रे खाहचत्र के हलए इसमे
सिंस्मरण में आत्मीय राग और हनजी हवहशष्टता नी जरूरी ै । रे खाहचत्र में केवल आत्मीय-
राग की जरूरत ती ै।
सिंस्मरण अनेक शशैहलय िं में हलखे जा सकते ैं , इसहलए उसमें हवहवधता ती ै। रे खाहचत्र
में सीहमत शैहलयाँ ती ै । इसहलए इसमें हशल्प वैहवध्य न ीिं ता ै।
सिंस्मरण के हलए हचत्रात्मक शैली अहनवाया ती ै । रे खाहचत्र के हलए हचत्रात्मक शैली
अहनवाया मानी जाती ै।