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Hindi C 4th Semester
Hindi C 4th Semester
Answers के रूप में दिया गया है | जो खासतौर पर उन लोगो के लिए बनाया गया है जिनके पास
पढ़ने के लिए समय कम है, जो बाहर जा कर Classes नहीं ले सकते | इसमें दिए गए Questions
इतने महत्वपूर्ण है कि इसे पढ़कर कोई भी अच्छे Marks से पास हो सकता है | इसकी Free Classes
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यह Notes मेरे द्वारा लिखें गयें है, इसलिए हिंदी मात्राओं की गलती के लिए मुझे क्षमा करें |
1
The University of Delhi, informally known as Delhi University (DU), is a collegiate public central university
located in New Delhi, India. It was founded in 1922 by an Act of the Central Legislative Assembly and is
recognized as an Institute of Eminence (I
(IoE)
oE) by the University Grants Commission (UGC).
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by copyright law.
अिु क्रम
इकाई-1
इकाई-2
2. ब ादु र (अमरकान्त)
इकाई-3
इकाई – 4
उतर - प्रनतपाद्य
गिंगा स्नान करने चल गे ? सिंस्मरण हवश्वनाथ हत्रपाठी द्वारा हलखखत ै । इस सिंस्मरण में हत्रपाठी जी ने आचायण
जारीप्रसाद हद्ववेदी के साथ अपने हवद्याथी-जीवन में हबताये गये हदन िं सह त हद्ववेदी की हदनचयाण , उनकी
हवद्वता एविं ज्ञान का वणणन हकया ै । ले खक बताते ैं हक हद्ववेजी जी 30 वर्ण की आयु में ी सुहवख्यात हवद्वान
माने जाने लगे थे । परिं तु उनके व्यखित्व की हवशेर्ता य थी हक वे अन्य हवद्वान िं के प्रहत पूज्य -िाव रखते
थे । सन् 1956 के आसपास सहदण य िं में , शाम के समय एक हदन करीब सात बजे हद्ववेदी जी ने ले खक क
क ा हक-गिंगा स्नान करने चल गे? हद्ववेदी जी, गमी के हदन िं में किी-किार गिंगा स्नान के हलए जाते थे। साथ
में हत्रपाठी जी क िी ले जाते थे । ले हकन सहदण य िं में और व िी शाम क , गिंगा स्नान की बात क हत्रपाठीजी
समझ न ीिं पाए। परन्तु उनके मन में य
सवाल कौिंधा हक गुरुजी सदी के मौसम में , व िी रात क , गिंगा स्नान की बात क र े ैं ? हत्रपाठी जी ने
दे खा हक गुरुजी हवश्वहवद्यालय के एक छ र पर जैन हवद्वान पिं. सुखलाल के घर पहिं च गए। गुरु ने अपने
प ले कम से कम तीन घिंटे प ले ि जन कर हलया कर ।" लौटते हए रास्ते में हद्ववेदी जी ने अपने हशष्य क
क ा-“ गया न गिंगा स्नान"।
हद्ववेदी जी सिंस्कृत, प्राकृत, अपभ्रिं श, बािं ग्ला कई िार्ाओिं के ममण ज्ञ हवद्वान थे । वे रचना का एकदम नवीन एविं
साथण क हववेचन करते । कई बार कक्षा में यहद क ई हवद्याथी रचना के हकसी नवीन अथण की ओर सिंकेत
करता त गुरुजी उस हवद्याथी क बडी तारीफ करते । अपने हशष्य िं क पढ़ने के हलए प्रेररत करते ,
हवशेर्कर सिंस्कृत िार्ा क । वे हवद्वता की सीमा िी खूब जानते थे । वे अक्सर क ा करते थे “हवद्वान ने से
क्या ता ै ! पचास हकताबें पढ़ ले त क ई िी व्यखि हवद्वान जाये। मनुष्य बनने की साधना करना बडी
बात ै ।" हद्ववेदी ज िारतीय समाज हवशेर्कर ल कजीवन में रचे -पचे थे , वे ल कगीत िं और सामवेद क
ऋचाओिं में समानता (गायन-शैली क ) बताते । हद्ववेदी जी र घिंटे चाय और र पिंद्र हमनट के अिंतराल पर
पान खाते थे ।
कक्षा में हद्ववेदी का पाठ्यक्रम किी समाप्त न ीिं ता था। कक्षा में , वे बडे हवस्तार से पाठ्य हबिंदुओिं की
व्याख्या करते थे । एक बार ऐसा हआ जब ले खक एम.ए. अिंहतम वर्ण में थे तब हद्ववेदीजी हविागाध्यक्ष थे ।
अपनी व्यस्तताओिं के चलते कक्षा में वे पाठ्यक्रम पूरा न ीिं करा पाए। ऐसे में गुरुजी ने अहतररि कक्षा ली,
पेपर िं की दृहि से म त्त्वपूणण प्रश् िं पर व्याख्यान हदया। परिं तु हजन प्रश् िं क गुरुजी ने तन्मयता से समझाया,
उनमें से क ई िी प्रश् परीक्षा में न ीिं आया।
हद्ववेदी जी जब घर पर र ते त पढ़ते र ते , चाय पीते र ते , पररणामस्वरूप आूँ खें सूज जाती। घर वाल िं क
उन्हें कुछ ब लकर हलखवाना ता त वे अपने आदे श क त डते हए स्वयिं आवाज़ लगा दे ते–'बाबूजी घर में
न ीिं ै , चले जाओ।' एक हदन जब ले खक हलखने के हलए पहूँ चा त गुरुजी ब ले 'खाना खा लें'। खाना खाते
हए ब ले 'पच्चीस वर्ों से य जना बना र ा हूँ कम खाऊूँ-तु म क्य िं कम खा र े ?' खाना खाने के बाद जब
हद्ववेदी जी घर से तै यार कर हनकलते ले हकन पान खाते त कुताण पान क पीक से खराब जाता। ऐसे में
गिंिीर जाते । 1960 में जब काशी ह न्दू हवश्वहवद्यालय ने उन्हें नौकरी से हनकाल हदया त परे शान र ने
लगे। हसर पर उूँ गहलयाूँ और मूिं छ िं पर किंघी करने लगे। ले खक क दे खकर क ने लगे"नौकरी हमल जाएगी
तब दे खना हकतना टनन-मन्नन र ता हूँ ।" नौकरी से हनकाले जाने पर सब ल ग क टण गए, अपने अहधकार
के हलए ले हकन हद्ववेदी जी क टण न ीिं गए। ले खक ने हद्ववेदी के स्विाव के हवर्य में बताया ै हक वे सुख-
दु ख और हकसी हववाद की खथथहत में मौन धारण कर ले ते थे ।
3. रवीन्द्रनाथ ठाकुर, मदनम न मालवीय, गाूँ धी जी और जवा रलाल ने रू के बारे में ल्की बात करे ।
हत्रपाठी जी के अनुसार िविू हत क हद्ववेदीजी बडा मानते थे परन्तु कालीदास से क ई बडा क दे त उन्हें
बदाण श्त न ीिं ता था। वे साह खत्यक ब स न ीिं करते थे। गुस्से में वे गुस्से का अनुिव कम, थकान का
अनुिव अहधक करते थे । वे प्राचीन और नवीन द न िं थे ।
हद्ववेदी जी का नाथ-पिंथ और हनगुणण सिंत साह त्य पर हवशेर् काम था। हद्ववेदी जी मौखखक रूप से हकसी क
िी प्रशिंसा कर दे ते थे । इससे उनके हमत्र और पररहचत िं क बहत अजीब लगता था। वे उनसे पूछते थे हक वे
आचायण नरे न्द्रदे व, स्ताहलन और ग लवलकर की िी प्रसिंशा क्य िं करते ैं । व चा े उनकी हवचारधारा से
हवपरीत ी क्य िं न ता था। इस बारे में उनका क ना था-'तारीफ कर दे ने से क्या हबगड जाता ै । रचना
की समीक्षा थ डे ी ै , िाई मैं ने सम्महत दी ै । सम्महत त हमठाई बािं टना ै। ' य ाूँ हद्ववेदी के हलए एक
उदारवादी व्यखित्व का पता चलता ै । वे अच्छे और शािं त मानवीय गुण िं से िरपूर इिं सान थे ।
हद्ववेदी जी आधु हनक जीवन की जहटलताओिं क झेलते हए िी मध्यकालीन सिंत िं की िािं हत आचरण करते
थे । उन्हें असत्य और मानवीयता की शखि अजेय लगती थी। क्य हिं क नौकरशा ी, राजसत्ता के व्यव ार ने
उनके मन में िय पैदा कर हदया था। यद्यहप बाद में उन्हें बहत सम्मान हमला, उच्चतर पद िी हमले। परिं तु
उन्ह न
िं े व्यवथथा का द मुिं ापन िी दे खा था, हजसे वे िुला न ीिं पाये। वे हबना हलखे -पढ़े र न ीिं पाते थे ।
उन्ह न
िं े अपने हशष्य ,िं हमत्र ,िं प्रशिंसक िं एविं पाठक िं क बहत कुछ हदया परन्तु 72 वर्ण की आयु में हद्ववेदी जी
हदविंगत गए।
इस तर गिंगा स्नान करने चल गे ? सिंस्मरण से हद्ववेदीजी की हवद्वता, उनक हदनचयाण और उनकी रुहच-
अहिरुहच के साथ-साथ अपने छात्र िं के साथ उनकी सहृदयता का पता चलता ै । इन सबके साथ-साथ इस
म ान् व्यखित्व में सिंघर्ण न करने की प्रवृहत्त और उसके केंद्र में हनह त कारण िं क िी सिंस्मरणकार ने
की ज बात क ी ै , य ज्ञान की गिंगा में िु बकी लगाने से ै । उनकी इसी बात से उनका व्यखित्व म ान
त बनता ी ै , उनका साह खत्यक आल चना के क्षे त्र में कद और िी ऊूँचा जाता ै ।
दु श्मि मािे िाते थे । अलग ैं तब भी दु श्मि ैं । दु श्मिी का मा ौल िैसे सच्चाई ै , बानक सब झूठ
सिंदभभ -
प्रस्तु त पिंखियाूँ हवष्णु प्रिाकर के प्रहसद्ध एकािं क 'वापसी' से उद् धृत ै । प्रस्तु त एकाक जीवन मू ल्य की
दृहि से धमण , मज ब, रािर और िार्ा के कारण हकए जाने वाले हविाजन की मू लिू त मान्यता पर जबदण स्त
प्र ार करता ै । ऐसे हविाजन हविाहजत ल ग िं के मन से उनकी जन्मिू हम, उनके गाूँ व, वतन का म न ीिं
हमटा पाते ैं । जब किी ऐसे ल ग अपने मू ल थथान पर आते ैं तब य म उनके मन में प्रबल वेग से फूट
पडता ै । असगर जैसे ी िारत-िू हम पर पाूँ व रखता ै उसे पुराने खण्ड र, मीनार, मखिदें आहद याद
आने लगती ैं । पाहकस्तान जाते समय चौधरी सा ब ने उससे क ा था हक वे द स्त ैं द स्त ी र ें गे। प्रस्तु त
पिंखिय िं में चौधरी क दे खते ी असगर के मानहसक द्वन्द्र क व्यि हकया गया ै।
व्याख्या -
असगर स चता ैं हक हजस हदन उसने ह िं दुस्तान क छ डा था तब चौधरी और सारे गाूँ व के ल ग हमलकर
र ये थे और उन्ह न
िं े य क ा था हक म द स्त ैं। हकन्तु आज युद्ध के कारण द दे श िं के बीच, व ाूँ के
हनवाहसय िं के बीच उत्पन्न ने वाली दरार ने इन्सान क अन्दरूनी रूप से त ड हदया ै । आज म द स्त
न ीिं एक दू सरे के दु श्मन ैं । आज साम्प्रदाहयकता का हवर् समाज की जड िं में समा चु का ै । मारे हदल िं
में एक प्रकार का िय और अहवश्वास घर कर गया ै । आज ऐसे लगता ै जैसे व्यखि-व्यखि के बीच हसफण
छ डकर एक दू सरे से प्रेम से र ें । क्या म एक दू सरे से प्यार न ीिं कर सकते ? इस प्रकार असगर अपने
बचपन के साहथय िं क प चानकर बहत त्रस्त ै। असगर के अन्तद्वण न्द्व क इन पिंखिय िं में उिारा गया ै ।
नवशेष -
सन्दभभ-
प्रस्तु त गद्यािं श मारी पाठ्य-पुस्तक 'गद्य गररमा' में 'रामवृक्ष बेनीपुरी' द्वारा हलखखत हनबन्ध 'गेहूँ बनाम
गुलाब' नामक शीर्णक से हलया गया ै |
प्रसिंग-
प्रस्तु त अवतरण में ले खक ने स्पि हकया ै हक मनुष्य अपने जीवन में केवल शारीररक आवश्यकताओिं की
पूहतण ी न ीिं चा ता, वरन् व मानहसक, बौखद्धक और आखत्मक आवश्यकताओिं की सन्तु हि के हलए िी
प्रयास करता ै ।
व्याख्या- सवणप्रथम मानव अपनी िू ख हमटाने के हलए प्रयासरत हआ । हजस प्रकार काली रात के व्यतीत
जाने के बाद मनुष्य प्रात:काल की लाहलमा और सौन्दयण के प्रहत आकहर्णत ता ै , उसी प्रकार पेट की
उल्लास और प्रसन्नता से उछल पडा | आकाश में गरजती-चमकती श्यामल घटाओिं क दे खकर
आहदमानव केवल इसीहलए प्रसन्न न ीिं हआ हक ये घटाएूँ बरसकर तथा खेत िं में अन्न उगाकर उसके पेट क
िर दे गी, वरन् प्रकृहत के अहद्वतीय और अनुपम सौन्दयण से आकहर्णत कर ी उसका मनरूपी मयुर
नाचने लगा । इसी प्रकार आकाश में सतरिं गे इन्द्रधनुर् के हबिंब क हन ारकर िी मानव-मन उल्लास से िर
गया । तात्पयण य ै हक मनुष्य ने केवल अपनी िू ख ी न ीिं हमटाई, वरन् उसने प्रकृहत के सौन्दयण क िी
हन ारा । उसने केवल शारीररक तृ खप्त ी न ीिं प्राप्त की, वरन् उसका मन िी तृ प्त हआ
नवशेष
(1) प्रस्तु त पिंखिय िं में मनुष्य के सौन्दयण ब ध क एक अलौहकक गुण के रूप में हचहत्रत हकया गया ैं
(2) य सच ै हक िू ख या कि की अवथथा में सौन्दयण ब ध का उल्लास प्रिाहवत न ीिं करता, परन्तु जब पेट
गजाधर बाबू पैतीस वर्ों तक रे ल की नौकरी करके अवकाश प्राप्त हए थे। वे अपने घर वापस लौटने की
तै यारी में लगे हए थे। सारा सामान बिंध चु का था। उस समय उनके मन में ज ाूँ एक ओर अपने पररवार के
बीच जाने की उत्सुकता थी व ी दू सरी ओर अपने पड हसय िं ,कमण चाररय िं का स्ने उन्हें हवर्ाद से िर दे र ा
था। गणेशी गजाधर बाबू का बडा ख्याल रखता था। व उनके हलए बेसन का लि् िू बना हदया था।
अमर और क्रािं हत की शादी कर चु के थे। द बच्चे ऊूँची कक्षाओिं में पढ़ र े थे । बच्च िं की पढ़ाई के कारण
पत्नी अहधकतर श र में र ती थी और उन्हें अकेला र ना पडता था। उन्हें इस बात की अत्यिंत खुशी थी हक
अब वे अपने पररवार के साथ सुख से र सकेंगे।
गजाधर बाबू स्ने ी व्यखि थे । अपने आस - पास के ल ग िं से उनका मधु र व्यव ार था। बीच-बीच में जब
पररवार उनके साथ र ता था त व समय उनके हलए असीम सुख का ता था। छु ट्टी से लौटकर बच्च िं का
ूँ सना - ब लना ,पत्नी का द प र में दे र तक उनके खाने के हलए प्रतीक्षा करना और उसका सजल मु स्कान
सब कुछ याद करते हए उनकी उदासी और बढ़ जाती थी। बहत सारे अरमान हलए गजाधर बाबू अपने घर
पहिं चे। इतवार का हदन था। गजाधर बाबू के सिी बच्चे इकठ्ठा कर घर में नाश्ता कर र े थे । बच्च िं की
िं सी सुनकर वे प्रसन्न हए और हबना खािं से अन्दर चले गए। हपता क दे खते ी नरें द चु पचाप बैठ गया ,बह
घर में प्रायः बैठक में ी र ते थे क्य हिं क मकान छ टा था। गजाधर बाबू घर की ाल चाल दे खकर पत्नी क
घर खचण कम करने की सला दी परन्तु पत्नी द्वारा उन्हें स ानुिूहत न ीिं हमली। उन्हें अब य म सूस ने
लगा हक जैसे पररवार की सिी परे शाहनय िं की व ी हजम्मेदार ैं ।
गजाधर बाबू के ह दायत पर बह खाना बनाने गयी पर चौका खुला छ ड दी हजससे हबल्ली ने दाल हगरा दी।
बसिंती ने खाना त बनाया पर ऐसा हजसे क ई खा न सके। नरें द्र ने खाना न ीिं खाया और अपनी खीज
गजाधर बाबू पर उतारने लगा। शीला के घर न जाने की मना ी पर बसिंती उनसे रुि गयी और अब
उनके सामने जाने से कतराने लगी। पुत्री के इस व्यव ार से उनकी आत्मा दु खी उठी। उन्हें इस बात से
न ीिं जैम पाती थी। दू सरे हदन जब वे घूमकर आये त दे खा हक बैठक से उनकी खाट उठाकर छ टी क ठरी
में रख दी गयी ै ।
अब गजाधर बाबू क ऐसा ए सास ने लगा जैसे हक पररवार में उनकी क ई उपय हगता न ीिं ै । इस
घटना के बाद वे चु पचाप र ने लगे हकन्तु हकसी ने उनकी चु प्पी का कारण न ीिं पूछा। उन्हें अब अपनी
पत्नी के व्यव ार में स्वाथण परता की बू आने लगी। उन्हें अब पररवार के ह ताथण हकसी कायण के हलए उत्सा न
र ा। इसी बीच गजाधर बाबू ने एक हदन अपने घरे लू नौकर क काम से टा हदया। इसे सुनकर नरें द्र आग
अवकाश प्राखप्त के बाद रामजी हमल वाल िं ने उन्हें अपनी चीनी की हमल में नौकरी का प्रस्ताव हदया था
ले हकन उन्ह न
िं े पररवार के साथ र ने की कल्पना के कारण स्वीकार न ीिं हकया था। अब उन्ह न
िं े उसके हलए
उतर - मूल-सिंवेदिा
म ादे वी वमाण द्वारा रहचत 'घ सा' अत्यिं त ममण स्पशी रे खाहचत्र ै हजसमें गिंगा पार झूसी के खिंि र और उसके
नजदीक के गाूँ व िं के प्रहत म ादे वी वमाण का आकर्णण बना र ता था। गाूँ व में घूमते -हफरते दे खते हए
ले खखका का ध्यान जाता ै हक व ाूँ के दहलत एविं हनधण न बच्च िं क पढ़ाना चाह ए। म ादे वी वमाण सप्ता में
एक हदन नदी के पार बच्च िं क पढ़ाने के हलए जाने लगी। उन्हीिं बच्च िं में घीसा िी था। घ सा एक हवधवा
स्त्री का बेटा था। घीसा के पैदा ने से प ले ी हपता क ै जे से मृ त्यु चु की थी। घीसा क माूँ अपने
आस-पड स में लीपा-प ती का काम करके अपना और अपने बेटे का जीवन-हनवाण करती थी। घर में क ई
सदस्य न ने के कारण माूँ काम के समय घीसा क िी अपने साथ ले जाया करती थी व ाूँ घ सा जमीन
पर हघसट-हघसट कर माूँ के चार िं और घूमता-हफरता र ता था। इसी कारण उसका नाम घीसा पड गया
था। घीसा के जन्म के समय माूँ क समाज की अनचा ी बात िं का सामना करना पडा।
इसका प्रिाव घीसा के स्कूल में दाखखला के समय दे खने क हमला अथाण त् गाूँ ववाल िं का हवर ध घीसा और
माूँ क झेलना पडा। इसका पररणाम य हआ हक म ादे वी वमाण ने घ सा क स्कूल में िती हकया और घीसा
क पढ़ाने का क्रम िी रखा। म ादे वी गाूँ व के बच्च िं क म ीने में केवल चार हदन ी पढ़ा पाती थीिं अन्य
हदन िं में व अपने कायों में व्यस्त र ती थीिं। घीसा का पढ़ाई के प्रहत लगाव, सादगी और गुरु के प्रहत
िखि-िावना क दे ख म ादे वी का मन हपघलने लगा था। घीसा की आज्ञाकारी प्रवृहत उन्हें बे द आकहर्णत
करती र ी। म ादे वी वमाण ने इस रे खाहचत्र में अनेक सिंदिो द्वारा घीसा के चररत्र की हवशेर्ताओिं का पक्ष
रखा ै ।
उप ारस्वरूप तरबूज िें ट में दे ता ै । इस उप ार क जुटाने में घ सा क अपने नये कुरते का त्याग िी
करना पडता ै । ले खखका क जब इस बात का पता चलता ै त व द्रहवत जाती ैं। अपनी बीमारी के
तु रिंत ठीक ते म ादे वी वमाण जब वापस लौटती ै त दे खती ैं हक घीसा अब इस सिंसार में न ीिं ै
अथाण त् उसकी मृ त्यु चु की ै।
प्रश्न- रामवृ क्ष बेिीपुरी का िीवि-पररचय दे ते हुए इिकी कृनतयोिं का उल्लेि कीनिए
प्रहसद्ध साह त्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म हब ार के हजला मु जफ्फरपुर के बेनीपु र' नामक गाूँ व में 23
हदसम्बर, सन् 1899 ई० क हआ था। इनके हपता फूलवन्त हसिं एक साधारण कृर्क थे ।अल्पायु में ी
रामवृक्ष माता-हपता के वात्सल्य से विंहचत गए थे । इनका पालन-प र्ण इनकी मौसी की छत्र-छाया में
हआ। इनकी प्रारखिक हशक्षा इनकी नहन ाल में हई ।ये गाूँ धी जी के अस य ग आन्द लन से बहत
प्रिाहवत हए; अत: मैहटर क की परीक्षा उत्तीणण करने के बाद पढ़ाई छ डकर स्वतन्त्रता सिंग्राम में कूद पडे ।
स्वाध्याय के बल पर ी इन्ह न
िं े ह न्दी साह त्य की 'हवशारद' परीक्षा उत्तीणण की। रािर-सेवा के साथ ी
साह त्य के इस पुजारी ने स्वाध्याय व साह त्यसृजन का क्रम जारी रखा। अनेक बार इनक जेल यातना िी
पन्द्र वर्ण की अवथथा में ये पत्र-पहत्रकाओिं के सम्पादन में य गदान करने लगे थे । इसी से साह त्य के प्रहत
प्रेम इनके मन में उत्पन्न हआ। इनके साह त्य में इनके उच्च हवचार िं एविं ग न अनुिूहतय िं की स्पि झलक
हदखाई दे ती ै । इन्ह न
िं े हवशेर् रूप से हनबन्ध व रे खाहचत्र हवधा के क्षे त्र में अपना म त्वपूणण य गदान हदया।
स्वतन्त्रता व साह त्य का य प्रेमी 9 हसतम्बर, सन् 1968 ई० में हचर-हनद्रा में हवलीन गया।
हनबन्ध और रे खाहचत्र-गेहूँ और गुलाब, वन्दे वाणी हवनायकौ, मशाल, (हनबन्ध) माटी की मू रतें , लाल तारा
रे खाहचत्र)
िाटक-सीता की माूँ , अम्बपाली, रामराज्य आहद रािरप्रेम क उजागर करने वाले नाटक ैं ।
िीविी- कार्ल्ण माक्सण, जयप्रकाश नारायण, म ाराणा प्रताप हसिं आहद जीवहनयाूँ ैं ।
यात्रावृ त्त- 'पैर िं में पिंख बाूँ धकर' तथा 'उडते चलें ' इनके लहलत यात्रा-वृत्तान्त िं के सिंग्र ैं ।
आलोचिा- 'हवद्यापहत पदावली' और 'हब ारी सतसई की सुब ध टीका' इनकी आल चनात्मक प्रहतिा का
पररचय दे ते ैं |
पत्र-पनत्रकाएाँ (सम्पादि)- तरुण िारती, युवक, ह मालय, नई धारा, कैदी, जनता, य गी, बालक, हकसान
हमत्र, चु न्नू-मु न्नू, तू फान, कमण वीर आहद अनेक पत्र-पहत्रकाओिं का इन्ह न
िं े बडी कुशलतापूवणक सम्पादन हकया
था |
उत्तर - भाषा-शैली-बेनीपुरी जी ने प्राय: व्याव ाररक िार्ा का प्रय ग हकया ै । सरलता, सुब धता और
सजीवता से युि बेनीपुरी जी की िार्ा का अपना अलग ी प्रिाव ै । इनका शब्द-चयन चमत्काररक ै ।
िाव, प्रसिंग व हवर्य के अनुरूपये तत्सम, तद्भव, दे शज, उदू ण , फारसी आहद शब्द िं का ऐसा सटीक प्रय ग
करते ैं हक पाठक आश्चयणचहकत उठता ै । इनकी इस हवशेर्ता के कारण इन्हें शब्द िं का जादू गर क ा
जाता ै । बेनीपुरी जी ने अपनी रचनाओिं में मु ावर िं व क ावत िं का खुलकर प्रय ग हकया ै ।इनके द्वारा
प्रयुि िार्ा में लाक्षहणकता, व्यिं ग्यात्मकता, प्रतीकात्मकता और अलिं काररकता हवद्यमान ै । इनके छ टे -
छ टे वाक्य ग री अथण -व्यिं जना के कारण बडी तीखी च ट करते ैं ।
बेनीपुरी जी की रचनाओिं में में हवर्य के अनुरूप हवहवध प्रकार की शैहलय िं के दशणन ते ैं । हकसी वस्तु
अथवा घटना का वणणन करते समय बेनीपुरी जी ने वणणनात्मक शैली का प्रय ग हकया ै । जीवनी, क ानी,
यात्रावृत्त, हनबन्ध िं और सिंस्मरण िं में इनकी इसी शैली के दशणन ते ैं । बेनीपुरी जी की रचनाओिं की प्रधान
शैली िावात्मक ै । इसमें िाव िं का प्रबल वेग, हृदयस्पशी माहमण कता और अलिं काररक सौन्दयण हवद्यमान ै
। रे खाहचत्र िं में बेनीपुरी जी ने शब्दहचत्रात्मक शैली का प्रय ग हकया ै ।
क ाहनय िं और लहलत हनबन्ध िं में िी क ीिं-क ीिं इस शैली के दशणन जाते ैं ।। बेनीपुरी जी सीधे -सीधे
बात न क कर उसे प्रायः प्रतीक िं के माध्यम से ी व्यि करते ैं ; अत: इनके हनबन्ध िं में प्रतीकात्मक शैली
का प्रय ग अहधक हआ ै गेहूँ बनाम गुलाब', 'नीिंव की ईिंट' आहद लहलत हनबन्ध इनके द्वारा प्रयुि
प्रतीकात्मक शैली के सुन्दर उदा रण ैं । शैली के इन प्रमु ख रूप िं के अहतररि बेनीपुरी जी ने हब ारी
और हवद्यापहत की समीक्षाओिं में आल चनात्मक शैली अपनाई ै ।इनकी रचनाओिं में िायरी शैली, सिंवाद
शैली, सूखि शैली आहद के दशणन िी ते ैं ।
सच्ची वीरता हनबिंध का सारािं श, सच्ची वीरता क्या ै , सच्चे वीर पुरुर् की हवशेर्ताएिं , मिं सूर की वीरता,
म ाराज रणजीत हसिं ने अपने फौज क कैसे उत्साह त हकया, वीरता हकस रूप में प्रकट ती ै , सच्ची
वीरता हनबिंध से क्या प्रेरणा हमलती ै , सच्ची । वीरता हनबिंध के प्रहतपाद्य, सच्ची वीरता हनबिंध के ले खक
सरदार पूणण हसिं का जीवन पररचय, सरदार पूणण । हसिं जापान क्य िं गये , क्या सरदार पूणण हसिं सिंन्यासी बन
गये थे , सरदार पूणण हसिं हकस म ात्मा से प्रिाहवत थे ।
सिी की आवाजें बिंद जाती ै । य ािं ले खक सच्चे वीर पुरुर् की हवशेर्ताएिं बताते हए में वीरता के साथ
अपने कतण व्य पालन की प्रेरणा दी ै । सच्चे वीर पुरुर् कहठनाइय िं और सिंकट िं से तहनक िी हवचहलत न ीिं
ते । वे शािं त और दृढ़ सिंकल्प ले कर अपने काम में तल्लीन र ते ैं । हफर क्या ै ? वे आकाश में सूयण की
तर ते ज चमकते ैं ।
सत्वगुण के समु द्र में हजनका अिंतःकरण हनमग्न गया, वे म ात्मा गये। व ीिं वीर और साधू क े जाते ैं।
उनके हलए कुछ िी अगम्य न ीिं ै । वे ज ािं चा े , जा सकते ैं । व ीिं सबके मन पर राज करते ैं । व ीिं
सबके मन मीत िी बनते ैं ।
बातचीत ई। व गुलाम कैदी हदल से आजाद था। व गुलाम कैदी से बाद शा ने क ा, "मैं तु मक अिी
जान से मार िालूिं गा। तु म क्या कर सकते । गुलाम ब ला, ािं ,मैं फािं सी पर चढ जाऊिंगा पर तु म्हारा
हतरस्कार तब िी कर सकता हिं। इस गुलाम ने बादशा की द हदखला दी। बस इतने ी ज र और इतनी
ी तल्खी पर य झूठे राजा मारपीट कर कायर ल ग िं क िराते ैं । ल ग शरीर क अपने जीवन का केंद्र
समझते ैं । इसहलए ज ािं हकसी ने उनके शरीर पर जरा ज र से ाथ लगाया व ीिं वे िर के मारे अधमरे
जाते ैं । केवल शरीर रक्षा के हनहमत्त य ल ग इन राजाओिं की ऊपरी मन से पूजा करते ैं । सच्चे वीर
अपने प्रेम के ज र से ल ग िं के हदल िं क सदा के हलए बािंध दे ते ैं।
मिं सूर ने अपनी मौज में क ा, मैं खुदा हिं । दु हनयावी बादशा ने क ा, य काफीर ै । मगर मिं सूर ने अपनी
कलाम बिंद न ीिं हकया। पत्थर मार-मार कर दु हनया ने उसके शरीर की बुरी दशा कर दी। परन्तु , उस मदण
के मुिं से र बार य ी शब्द हनकला अन लक अथाणत मैं ी ब्रह्म हिं। मिं सूर का सूली पर चढ़ना उसके हलए
हसफण एक खेल था।
म ाराजा रणजीत हसिं ने ़िौज से क ा, अटक के पार जाओ। अटक चढ़ी हई थी और ियिंकर ल रें उठ
र ी थी। फौज ने कुछ उत्सा प्रकट न ीिं हकया त उस वीर क ज श आ गया। म ाराजा ने अपना घ डा
दररया में िाल हदया। क ा जाता ै हक अटक सूख गई और सब पार हनकल गए। दे खखए उत्सा और ज श
का कमाल। सच्ची वीरता के सामने उफनती दररया कैसे मागण बदल दे ती ै । इसी तर जब श्रीराम ने समु द्र
के ऊपर अपना बाण तान हदया त समु द्र िी त्राह -त्राह करते हए ाथ ज डकर मागण दे हदया था।
एक बार की बात ै । लाख आदमी मरने मरने क तै यार थे । धु आिंधार ग हलयािं बरस र ी थी। आल्प्स पवणत
के प ाड िं पर फौज ने ज्य हिं चढ़ना आरिं ि हकया, उनकी ह म्मत टू ट गई। वीर नेप हलयन क ज श आ
गया। उसने क ा, आल्प्स ै ी न ीिं। फौज क हनश्चय गया हक आल्प्स ै ी न ीिं। और सिी प ाड के
पार गये।
एक िे ड चराने वाली और सत्वगुण में िूबी युवती कन्या के हदल में ज श आते ी फ्ािं स एक िारी हशकस्त
से बच गया। य बात जग प्रहसद्ध ै ।
वीरता की अहिव्यखि कई प्रकार से ती ै। किी वीरता की अहिव्यखि लडने मरने में , खून ब ाने में ,
तलवार के सामने जान गवाने में ती ै त किी जीवन के मू ल तत्व और सत्य की तलाश में बुद्ध की तर ।
जैसे बुद्ध जैसे राजा ने राजपाट से हवरि कर तपस्या के हलए हनकल जाने का ह म्मत हदखाया। वीरता
एक प्रकार की अिंतःप्रेरणा ै । जब किी इसका हवकास हआ एक नया कमाल नजर आया। वीरता मे शा
हफर उस वीर पुरुर् के लाख िं अनुयाई जाते ैं । उसका मन और हवचार सबके मन और हवचार बन जाते
ैं ।
ले खक सरदार पूणण हसिं क ते ैं , वीर िं के बनाने का क ई कारखाना न ीिं ता। वे त दे वदार वृक्ष की तर
जीवन के जिंगल में खुद ब खुद जन्मे और हवकहसत ते ैं । उन्हें क ई दे खिाल न ीिं करता, क ई पानी न ीिं
हपलाता। वे एक हदन तै यार कर दु हनया के सामने खडे जाते ैं ।
वीर पुरुर् का हनश्चय अटल ता ै। उनका शरीर साधन मात्र ता ै । और य साधन समस्त शखिय िं का
ििं िार ता ै । कुदरत का य अनम ल उप ार ह ल न ीिं सकता। सूयण और चिं द्रमा ह ल जाय परन्तु उनका
अटल हनश्चय न ह लता ै ।
पररखथथहतय िं से हवचहलत जाय, व सच्चा वीर पुरुर् न ीिं ता। वीर र पररखथथहत में अचल और अहिग
र ते ैं । वीर िं की हवशेर्ताएिं सुनकर म सब के अन्दर िी वीरता का ज श आता ै परन्तु व थथायी न ीिं
ता, आता ै और कुछ ी हदन िं में चला िी जाता ै । में टीन की तर न ीिं बखल्क मजबूत और म टे
चट्टान की तर अटल और अहिग बनकर र ना चाह ए। तिी म वीरता के साथ जीवन का सच्चा आनिंद
ले सकते ैं ।
उत्तर-वेद प्राचीनतम साह त्य ै । आयण हनष्कपट और उदार थे । उनके इस हनष्कपट व्यव ार और उदारता
क म वेद िं में िी दे खते ैं । आयण न त मनु और याज्ञवल्क्य जैसे ऋहर्य िं की िाूँ हत समाज की उन्नहत-
काहलदास, िविू हत और र्ण जैसे सिंस्कृत के म ान रचनाकार िं की तर हचत्रण करते थे । आयण सीधे सादे
थे , इसहलए उन्ह न
िं े सूयण के ते ज से अहििू त उसे दे वता मान हलया, पहक्षय िं के कलरव क प्रिात वन्दना
स्वीकार हकया, वायु की प्रबलता क अनुिव कर उसे िी दे वता की श्रेणी में रख हदया। उस समय
राजनीहतक तौर पर दे श शान्त था इसहलए वेद िं में राजनीहत की कुहटलता न ीिं आई।
कृनत्रमता (बिावट) हकसी िी क्षे त्र में न ीिं थी। धमण में िी उदारता थी। धमण में ज आज सिंकीणणता और
अ िं कार ै व उस समय न ीिं था। 'हसधाई, ि लापन और उदार िाव' आयों के समाज और साह त्य की
केन्द्रीिू त प्रवृहत्त ै।
उत्तर-प्राकृहतक पदाथों क उनके मौहलक रूप में दे खकर, उनक शखि क अनुिव कर आयों ने ईश्वर
की पररकल्पना क , उन्हें साह त्य में व्यि हकया ज उपहनर्द् क लाए। समाज के हवस्तार के साथ ी
ल ग िं के व्यव ार में पररवतण न और अलगाव आया। हकन्तु एक सूत्र में आबद्ध कर िी िावनात्मक स्तर
पर हबना हकसी क ठे स पहूँ चाए हनयम बनाए गए। ये हनयम हजन पुस्तक िं में ैं वे स्मृहत साह त्य के नाम से
जाने जाते ैं । मनु , अहत्र, ारीत, याज्ञवल्क्य आहद ने अपनी पुस्तक िं में हवहवध प्रकार के धाहमण क हवचार िं क
व्यि हकया।
‘ब ादु र प्रहसद्ध क ानीकार श्री अमरकान्त द्वारा रहचत एक मन वैज्ञाहनक हवधान क ानी ै । इसकी
कथावस्तु आधु हनक मध्यवगीय समाजहदखावटी मानहसकता से ग्र ण की गई ै । क ानी में य बताया गया
ै हक आज का मध्यमवगीय पररवार स्वयिं क समाज में उच्चवगीय और प्रहतहित व्यखि हदखाने के हलए
नौकर रखते ैं , जबहक उनकी आहथण क खथथहत इसकी इजाजत न ीिं दे ती । पररवार में नौकर के आ जाने पर
नौकर िं के प्रहत उनका व्यव ार हकतना असभ्य और क्रूर जाता ै हक व मानवता की सारी दें पार कर
जाता ै । आल च्य क ानी की कथावस्तु के केन्द्र में एक ऐसे ी प ाडी नौकर ब ादु र की क ानी ै ।
कथावस्तु में इस बात क िी मु ख्य हवर्य के रूप में उठाया गया ै हक नौकर की िी अपनी मान प्रहतिा
और िावना ती ै , िले ी व बालक क्य िं न
और उसने एक मध्यमवगीय पररवार में नौकरी कर ली। ब ादु र बडे पररश्रम से घर में काम करने लगा ।
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16
गृ स्वाहमनी हनमण ला उसके काम से बहत खुश थी । हनमणला ने उसका नाम ‘ब ादु र रखा । ब ादु र की
मे नत के कारण मकान साफ - सुथरा र ने लगा और घर में सिी सदस्य िं के कपडे साफ र ने लगे ।
ब ादु र दे र रात तक काम करता और सुब जल्दी उठकर काम में जुट जाता । व इसी में खुश था और
र समय ूँ सता र ता था । व रात क स ते समय प ाडी िार्ा में क ई गीत गुनगुनाता र ता था । ूँ सना
और ूँ साना मान उसकी आदत बन गई थी।
का समथण क था । उसने अपने सारे काम ब ादु र क सौिंप हदए थे । यहद ब ादु र उसके काम में तहनक - सी
पीटता िी था । हपटकर ब ादु र एक क ने में चु पचाप खडा जाता और कुछ दे र बाद घर के कायों में
पूवणवत् जुट जाता । एक हदन हकश र ने ब ादु र क सूअर का बच्चा क हदया । ब ादु र इस गाली क स न
न कर सका , उसका स्वाहिमान जाग गया और उसने उसका काम करने से इनकार कर हदया । जब
हनमण ला के पहत ने िी उसे िाूँटा त उसने क ा -
"बाबूिी, भैया िे मेरे मरे बाप को क्ोिं लाकर िडा नकया ?"
इतिा क कर व रो पडा।
प्रारि में हनमण ला ब ादु र क बहत प्यार से रखती थी तथा उसके खाने – पीने बहत ध्यान रखती थी, ले हकन
कुछ हदन िं के बाद उसका व्यव ार िी बदल गया । उसने ब ादु र की र टी सेंकना बन्द कर हदया ।अब घर
गाहलय िं के कारण ब ादु र से गलहतयाूँ और िू लें अहधक ने लगीिं । एक रहववार क हनमण ला के ररश्तेदार
अपनी पत्नी और बच्च िं के साथ हनमणला के घर आए । नाश्ता करने के बाद बात िं की जले बी छनने लगी।
अचानक उस ररश्तेदार की पत्नी नीचे फशण पर झुककर दे खने लगी और चारपाई पर कमरे के अन्दर िी
छानबीन करने लगी। पूछने पर उसने बताया हक उसके ग्यार रुपये ख गए ैं , ज उन्ह न
िं े चारपाई पर ी
हनकालकर रखे थे । इसके बाद सबने ब ादु र पर सन्दे हकया।
अचानक उस ररश्तेदार की पत्नी नीचे फशण पर झुककर दे खने लगी और चारपाई पर कमरे के अन्दर िी
छानबीन करने लगी। पूछने पर उसने बताया हक उसके ग्यार रुपये ख गए ैं , ज उन्ह न
िं े चारपाई पर ी
हनकालकर रखे थे । इसके बाद सबने ब ादु र पर सन्दे हकया। ब ादु र से पूछा गया। उसने रुपये उठा ले ने
से इनकार कर हदया । उसे खूब पीटा िी गया और पुहलस के सुपुदण करने की धमकी िी दी गई । हनमण ला ने
स्वीकार कर ले गा, ले हकन जब उसने रुपये हलए ी न ीिं त व कैसे क ता हक रुपये उसने उठाए थे । इस
घटना के बाद से घके सिी सदस्य ब ादु र क सन्दे की दृहि से दे खने लगे और उसे कुत्ते की तर
दु त्कारने लगे।
उस हदन के बाद से ब ादु र बहत ी खखन्न र ने लगा और एक हदन द प र क अपना हबस्तर, प नने के
कपडे , जूते आहद सिी सामान छ डकर घर से चला गया। हनमण ला के पहत शाम क जब दफ्तर से लौटे त
उन्ह न
िं े हनमण ला क हसर पर ाथ रखे परे शान दे खा । आूँ गन गन्दा पडा था , बतण न हबना मूँ जे पडे थे और घर
का सामानिं अस्त - व्यस्त था । कारण पूछने पर पता चला हक ब ादु र अपना सामान छ डकर घर से चला
गया। हनमण ला , उसके पहत और हकश र क उसकी ईमानदारी पर हवश्वास गया था। उन्ह न
िं े क ा हक
ररश्तेदार िं के रुपये िी उसने न ीिं चु राए थे हनमण ला, उसका पहत और हकश र सिी ब ादु र पर हकए गए
अत्याचार िं के हलए पश्चात्ताप करने लगे।
प्रश्न – दो बेलो की कथा में लेिक या पात्र के द्वारा समू या पूरी िानत का नचत्रण कीनिए ?
अतः इस क ानी में झूरी, उसकी पत्नी, नौकर, झूरी का साला गया, बहधक चौकीदार इत्याहद पात्र िं के साथ-
साथ ीरा और म ती द न िं मु ख्य पशु -पात्र िं के शील-हनरूपण क अत्यिं त स्तरीय और स्वािाहवक ी क ा
जाएगा। िारतवाहसय ,िं गध ,िं सािंि ,िं कुत्त िं आहद के हवर्य में िी क ानीकार क हटप्पहणयाूँ अत्यिं त सटीक
और चु िती हई ैं । आचायण म ावीर प्रसाद हद्ववेदी ने बैल िं के हवर्य में एक कहवता में ऐसे ी पैने -तीखे
कटाक्ष हकए थे ।
वास्तव में कथा-सम्राट मुिं शी प्रेमचिं द की अन्य क ाहनय िं की ी तर से य िी एक स द्दे श्य क ानी क ी
जाएगी। श्री द्वारकाप्रसाद हमश्र ने अपने 'कृष्णायन' में हलखा ै -
गया, कािं जी- ाउस के चौकीदार, बहधक, मटर के खेत िं के स्वामी, हकसान िं और आरिं ि में झूरी की पत्नी
जैस िं के द्वारा प्रदहशणत व्यव ार के आल क में ी रा य हनष्कर्ाण त्मक हटप्पणी करता ै हक-" मारी जान
क क ई जान न ीिं समझता।''
समग्रतः य क ानी मु ख्यतः पशुओिं के प्रहत दया-िाव बनाये रखने के हलए मानव मात्र क उपदे श करने
के हलए ी हलखी गई जान पडती ै । गौण रूप से बैल िं के माध्यम से प्रेमचिं द ने उन्हीिं सरीखें िारतवाहसय िं
क अपनी स्वतिं त्रता के हलए सिंघर्ण करने और अपने जन्महसद्ध अहधकार िं के हलए लडने -मरने का म ान्
सिंदेश दे िाला ै । वस्तु तः य क ानी द बैल िं क ी कथा न ीिं, वरन् िारतीय िं और अिंग्रेज िं इन द जाहतय िं
क िी एक व्यिं जनामयी कथा बन गई ै ।
स्वतिं त्रता-प्राखप्त से पूवण अिंग्रेज िं के द्वारा िी ि ले -िाव वृर्ि-सरीखे िारतवाहसय िं पर ऐसे ी हनममण
अत्याचार हकए जाते थे , जैसे हक इस क ानी में हनरी द बैल िं ीरा और म ती पर हकए गए ैं । हजस प्रकार
इन द न िं बैल िं के मन िं में हवद्र क हचनगाररयाूँ सुलगती र ती ैं , उसी प्रकार किी िारतीय िं के मन िं में
िी सुलगा करती थीिं। इस प्रकार य क ानी पशुओिं के हचत्र उलीकती-उलीकती पशुवत् व्यव ार करने
वाले अिंग्रेज िं के िी 'व्यिं ग्य-हचत्र' उत्कीणण करने लग जाती ै । इस अथण में य रचना उियाथण कता से सिंपन्न
िारतें दु युग ी आधु हनककालीन साह त्यरूपी हवशाल िवन की आधारहशला ै । हवद्वान िं में िारत िारतें दु
युग की समय-सीमा सन् 1857 से सन् 1900 तक स्वीकार की ै , िाव, िार्ा, शैली आहद सिी दृहिय िं से
इस य ग में ह िं दी साह त्य की उन्नहत हई । ह िं दी साह त्य के आधु हनककालीन िारतें दु युग प्रवतण क के रूप
में िारतें दु ररश्चिंद्र का नाम हलया जाता ै । य रािरीय जागरण के अग्रदू त थे । उनके युग में रीहतकालीन
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पररपाटी की कहवता का अवसान रािरीय एविं समाज सुधार िावना की कहवता का उदय हआ। उन्ह न
िं े
प्रथम स्वतिं त्रता सिंग्राम के पररणामस्वरुप िारतवाहसय िं में स ई हई आत्मशखि के जागरण के साथ ी
राजनीहतक अहधकार िं के प्रहत लालसा बढ़ी, हजससे उनमें रािरीयता के िाव का उदय ना स्वािाहवक था।
इसका प्रिाव इस युग की रचनाओिं पर िी पडा। इस युग के रचनाकार िं की रचनाओिं में दे शिखि का स्वर
हवशेर् रूप से गुिंजायमान
िारतें दु युग का साह त्य पुराने ढािं चे से सिंतुि न ीिं ै वे उनमें बदलाव कर य सुधार कर उसमें नयापन
लाने का प्रयास हकये ै इस काल का साह त्य केवल राजनीहतक स्वाधीनता का साह त्य ना कर मनुष्य
की एकता, समानता और िाईचारे का िी साह त्य ै ।
इस य ग में प्राय: सिी रचनाकार िं की रचनाओिं में ास्य- व्यिं ग्य का पुट हमलता ै । अिंधहवश्वास ,िं रूहढ़य ,िं
छु आछूत, अिंग्रेजी शासन, पाश्चात्य सभ्यता के अिंधानुकरण आहद पर व्यिं ग्य करने के हलए इन रचनाकार िं ने
हवर्य एविं शैली के नए-नए प्रय ग हकए ज इनकी रचनाओिं में लहक्षत ै
इस य ग के अहधकािं श कहवय िं ने अपने काव्य में प्रकृहत क हवर्य के रूप में ग्र ण हकया ै । उनके
िारतें दु युग की सबसे म त्वपूणण दे न ै गद्य व उसके अन्य हवधाओिं का हवकास। इस युग में पद्य के साथ
गद्य हवधा प्रय ग में आयी हजससे मानव के बौखद्धक हचिं तन का िी हवकास हआ। क ानी, नाटक ,आल चना
आहद हवधाओिं के हवकास की पृििू हम का िी य ी य ग र ा ै ।
िारतें दु ने जातीय सिंगीत का गािं व िं में प्रचार के हलए ग्राम्य छिं द -िं कजरी, ठु मरी, लावनी, क रवा तथा चै ती
आहद क अपनाने पर ज र हदया। कहवत्त सवैया ,द ा जैसे परिं परागत छिं द िं के साथ-साथ इनका िी
जमकर प्रय ग हकया गया।
िारतीय सभ्यता और सिंस्कृहत की अपेक्षा पहश्चमी सभ्यता और सिंस्कृहत क उच्च बताने वाल िं के हवरुद्ध
व्यिं ग्य और ास्यपूणण रचनाएिं हलखी गयीिं। िारत के गौरवमय अतीत क िी कहवता का हवर्य बनाया गया।
निष्कषभ
िारतें दु युग की रचनाओिं की सबसे बडी हवशेर्ता ै प्राचीन और नवीन का समन्वय। िारतें दुयुगीन
साह त्यकार कहवता ब्रजिार्ा और गद्य में खडी ब ली के पक्षपाती थे। ब्रज िार्ा में वे एक साथ िखि और
श्रृिंगार की कहवता हलखकर प्राचीन कहवय िं की क टी मैं पहिं चते ैं और नवीन ढिं ग की दे शिखि तथा समाज
सुधार की कहवताएिं हलखकर न ीिं कहवय िं का नेतृत्व करते ैं ।
ह न्दी क उत्तराहधकार रूप में सिंस्कृत तथा प्राकृत की प्रचु र नाट्य-साह त्य की सिंपहत्त प्राप्त थी, हकन्तु
इसका प्रय ग अनेक कारण िं से उन्नीसवीिं शताब्दी से पूवण न सका। इसहलए ह न्दी-नाट्य-परिं परा का
हवकास हवलिं ब से हआ। मु सलमान िं के आक्रमण िं के कारण राजनैहतक अशािं हत और उथल-पुथल र ी ।
इस्लाम-धमण के प्रहतकूल ने के कारण नाटक िं क मु गलकाल में उस प्रकार का क ई प्र त्सा न न ीिं हमला
हजस तर का प्र त्सा न अन्य कलाओिं क मु गल-शासक िं से प्राप्त हआ।
का सवणथा ल प ी गया। अहिनयशालाओिं के अिाव में नाटक िं का हवकास हकस प्रकार सकता था?
य ी कारण ै :
हक िारते न्दु जी से पूवण ह न्दी नाट्य-कला अहवकहसत ी र ी। इसके अहतररि नाटकीय कथ पकथन के
समु हचत हवकास के हलए हजस हवकहसत गद्य की जरूरत थी, उसका िी इस युग में अिाव था। ह न्दी-
नाट्य-परिं परा का हवकास हदखाने के हलए उसका काल-हविाजन हनम्न प्रकार कर सकते ैं :
पूवभ भारते न्दु युग- िारत में अिंग्रेजी का प्रिु त्व थथाहपत ने पर उन्ह न
िं े अपनी सुहवधा के हलए य ाूँ अनेक
हथयेटर सन् 1795 ई. में 'लेफेि फेअर' नाम से खुला था। इसके बाद सन् 1812 ई. में 'एथीनियम' और
दू सरे वर्ण 'चौरिं गी' हथयेटर खुला। इस प्रकार पाश्चात्य-नाट्यकला के सिंपकण में सबसे प ले बिंगाल आया और
उसने उनके हथयेटर के अनुकरण पर अपने नाटक िं के हलए रिं गमिं च क नया रूप हदया।
िारते न्दु -युग से पूवण के नाटक िं क नाटकीय दृहि से सफल न ीिं क ा जा सकता। य कुछ कहवय िं का
नाटक हलखने का प्रयास-मात्र था, ले हकन वे पद्य-बद्ध कथ पकथन के अहतररि कुछ न ीिं क े जा सकते ।
इन नाटक िं में कुछ अनूहदत और कुछ मौहलक थे । अनूहदत नाटक िं में कुछ त नाटकीय काव्य ैं तथा कुछ
गद्य-पद्य हमहश्रत नाटक । बनारसीदास जैन द्वारा अनूहदत 'समयसार' नाटक और हृदयराम द्वारा अनूहदत
' िु मन्नाटक' आहद नाटकीय काव्य ैं । मौहलक नाटकीय काव्य िं में प्राणचिं द्र चौ ान कृत 'रामायण
म ानाटक' तथा 'कृष्णजीवन', लक्ष्मीराम-कृत करुणािरण' आहद की गणना की जाती ै । प्रायः दे खा गया
ै हक र साह त्य में नाटक िं की उत्पहत्त इसी प्रकार नाटकीय काव्य िं से हई।
कलात्मक दृनष्ट से तत्कालीि अनूहदत नाटक िं में 'प्रब ध चिं द्र दय' का सवणप्रथम थथान ै । इसका अनुवाद
सन् 1643 ई. में हआ था। दू सरा नाटक ‘आनिंद रघुनिंदन' ै । इसका रचनाकाल सन् 1700 ई. में माना
जाता ै । कला की दृहि से य उच्चक हट की रचना न ीिं ै । इन सिी मौहलक और अनूहदत नाटक िं की
िार्ा ब्रजिार्ा ै । इन सिी नाटक िं क नाटक न क कर नाटकीय-काव्य क ा जा सकता ै । इसी
परिं परा में आगे चलकर सन् 1841 ई. में िारते न्दु के हपता ग पालचिं द्र का 'नहर्' और सन् 1861 ई. में राजा
लक्ष्मणहसिं -कृत 'शकुिंतला' उल्लेखनीय ैं । ‘नहर्' में नाटकीय तत्व अवश्य हमलते ैं । अतः ह न्दी नाटक िं
का आरिं ि य ीिं से मानना चाह ए । उपयुणि हववेचन से स्पि ै हक ह न्दी-नाटक िं का सूत्रपात सिंस्कृत की
परिं परा से हआ। आगे चलकर ह न्दी-नाट्य-साह त्य के इहत ास में िारते न्दु -युग आरिं ि ने पर जब ह न्दी-
नाटक िं का सिंपकण अिंग्रेजी नाटक िं से थथाहपत हआ, तब सिंस्कृत की नाट्य परिं परा के थथान पर अिंग्रेजी नाट्य
परिं परा ने अपना थथान बना हलया।
भारते न्दु युग- ह न्दी-नाटक िं की अहवखच्छन्न परिं परा िारते न्दु जी से शुरू ती ै । आपके नाटक अहिनेय
ते थे । इस समय नाटक की प्राचीन परिं पराओिं का त्याग ने लगा था। िारतेन्दु ने अपने हपता के
लक्षण िं के अनुकूल ी हलखने का प्रयत्न हकया था, पर उनके नाटक िं पर स्पितः बिंगला तथा फारसी नाटक-
शैली की छाप ै। उन्ह न
िं े इन शैहलय िं क जान-बूझकर ग्र ण हकया ऐसी बात न ीिं ै , पर इतना त
अवश्य ै हक वे हकसी न हकसी रूप में उनसे प्रिाहवत अवश्य र े और उसी दृहि से उन्ह न
िं े अपने नाटक िं
क रिं गमिं च के उपयुि बनाने का प्रयत्न हकया ।
पररणामस्वरूप नाटक िं की िारतीय परिं परा िारते न्दु के नाटक िं में पाश्चात्य परिं परा से अछूती न र सकी ।
इस प्रकार उनके नाटक िं ने सामहयक बनकर परवती नाटककार िं के सामने आधु हनक ह न्दी-नाटक िं की
रूपरे खा प्रस्तु त की और उस हदशा में दू सर िं क बढ़ने के हलए प्रेररत हकया। इस युग में अिंग्रेजी, बिंगला और
सिंस्कृत के नाटक िं के सफल अनुवाद हए। िारते न्दु जी ने सन् 1925 ई. में प्रथम अनूहदत नाटक 'हवद्या
सुिंदर' ह न्दी क हदया। इसके पश्चात् मौहलक नाटक ‘वैहदकी ह िं सा ह िं सा न िवहत', 'प्रेम योनगिी', 'सत्य
ररश्चिंद्र', 'चिंद्रावली', 'िारत दु दणशा', 'नीलदे वी', 'अिंधेर नगरी' आहद तथा अनूहदत नाटक 'हवद्या सुन्दर',
'मु द्राराक्षस' आहद नाटक िारते न्दु जी ने हलखे।;
िारते न्दु जी के समकालीन ले खक िं में बद्रीनारायण 'प्रेमधन' का ‘िारत सौिाग्य'; प्रतापनारायण हमश्र के
‘कनल प्रभाव', 'गौ-सिंकट', 'हत्रया ते ल मीर ठ चढ़े न दू जी बार' राधाकृष्णदासजी के 'म ारानी पद्मावती'
तथा 'म ाराणा प्रताप' केशव िट्ट के 'सज्जादसम्बुज' 'समवाद सौसन' आहद नाटक उल्लेखनीय ैं । इनके
अहतररि श्रीहनवासदास के 'प्रणयी प्रणय', 'मयिंक मिं जरी': साहलगराम का ‘माधवानल कामकिंदला' आहद
नाटक िी पयाण प्त ख्याहत प्राप्त कर चु के ैं। इनमें से अहधकािं श नाटक िं का कलात्मकता की दृहि से क ई
मू ल्य न ीिं ै ।
िारते न्दु -युग में सिंस्कृत के प्रायः सिी अच्छे नाटक िं के अनुवाद हए । िविू हत कृत 'उत्तर
रामचररत','मालती माधव' तथा 'म ावीर चररत' का ह न्दी में अनुवाद हआ । सन् 1898 ई. में लाला
सीताराम ने काहलदास के ‘मालहवकाहग्न हमत्र' का ह न्दी-अनुवाद हकया। इसके अलावा 'वे णी सिं ार',
'मृच्छकनटक', 'रत्नावली' तथा 'िागाििं द' के िी ह न्दी अनुवाद हए। इन सिंस्कृत के नाटक िं के अहतररि
बिंगला से िी नाटक िं के अनुवाद हए । माइकेल मधु सूदन कृत 'पद्मावती' तथा 'कृष्णा मु रारी' आहद के
सफल अनुवाद सामने आये। इसी समय अिंग्रेजी से िी अनुवाद् की परिं परा चल पडी । शेक्सनपयर के
मचेन्ट ऑफ वे निस' का 'दु लभभ बिंधु', 'वे निस िगर का सौदागर' तथा 'वे निस िगर का व्यापारी',
'कमेडी ऑफ एरसभ' का भ्रमिालक', 'एि यू लाइक इट' का ‘मन िावना' तथा 'र हमय एिं ि जूहलयट'
का 'प्रेम-लीला', 'मै कबैथ' का 'सा सेंद्र सा स' के नाम से अनुवाद हआ।
इस तर नाटक-हनमाण ण की दृहि से िारते न्दु -युग में नाटक िं के प्राचीन हवर्य िं की पुनरावृहत्त ी न ीिं हई,
अहपतु कहतपय ऐसे नवीन हवर्य िं क िी जन्म हदया गया, ज िावी ह न्दी-नाटककार िं के हलए पथ-प्रदशणक
बन गये। इसमें सिंदे न ीिं हक कई कारण िं से य काल नाटक-रचना के हलए क्षहणक ी हसद्ध हआ और
अगले दस वर्ों में हकसी म त्वपूणण नाटक की रचना न सकी, हफर िी इसी काल ने प्रसाद-युग क जन्म
हदया और यहद य क ा जाये हक िारते न्दु -काल में ी प्रसाद जी हवद्यमान थे त अत्यु खि न गी;
प्रश् िं क ले कर समस्त दे श में रािरीय-आिं द लन हए। इसका नाट्य-साह त्य पर पयाण प्त प्रिाव पडा। इन दस-
ग्यार वर्ों का नाट्य-साह त्य िारते न्दु -युग के नाट्य-साह त्य से कई बात िं में हिन्न गया। इसका स्पि
प्रिाव ऐहत ाहसक, प्रेम-प्रधान तथा समस्यामू लक नाटक िं पर पडा। कला की दृहि से नाटक िं में हकसी तर
की हवशेर्ता न आ सकी ।
पौराहणक कथानक िं क ले कर ज नाटक हलखे गये , उनमें म ावीरहसिं कृत 'नलदमयिंती', जयशिंकर प्रसाद
कृत 'करुणालय' और बद्रीनाथ िट्ट कृत 'कुरुविद ि' अपना प्रमु ख थथान रखते ैं । ऐहत ाहसक नाटक िं
में शाहलगराम कृत 'कुरु-नवक्रम', वृिंदावनलाल वमाण कृत 'सेनापहत उदाल' और बद्रीनाथ िट्ट कृत
'चिं द्रगुप्त' और 'तुलसीदास' अहधक प्रहसद्ध ैं । इन नाटक िं में ऐहत ाहसक घटनाओिं के साथ िारते न्दु -युग
की अपेक्षा ऐहत ाहसक वातावरण का हचत्रण अहधक सफलता से हकया गया । समस्या-प्रधान नाटक
सामाहजक और रािरीय हवचार िं का समन्वय ले कर उपखथथत हए। नाटक िं में हमश्र-बिंधुओिं की सन् 1915 ई.
की 'नेत्र न्मीलन' रचना म त्वपूणण ै । प्र सन िं में बद्रीनाथ िट्ट कृत 'चुिं गी की उम्मीदवारी' अहधक प्रहसद्ध
ै।
इस सिंक्रािं हत युग में अनूहदत नाटक िं की परिं परा िी चलती र ी। अिंग्रेजी, बिंगला और सिंस्कृत से सफल
सिंस्कृत तथा बिंगला से अनुप्राहणत र े थे , उसी समय रिं गमिं च के क्षे त्र से पारसी नाटक मारे सामने आए
पारसी नाटक किंपहनय िं ने आकर्णक और मन रिं जक बनाकर मारे सामने अपने नाटक उपखथथत हकये। ये
नाटक साह त्य और सिंस्कृहत की दृहि से ऊिंचे न थे , तथाहप उनमें नाट्यकला का आकर्णण त था ी। ह न्दी
नाट्य-कला िी इस ओर झुकी । ह न्दी में इस प्रकार के नाटक उपखथथत करने का श्रेय नारायण प्रसाद
बेताब, पिं. राधे श्याम कथावाचक और रे कृष्ण जौ र क ै।
सिंक्रािं हत-युग में नाटक िं के क्षे त्र में क ई हवशेर् उन्नहत त न ीिं हई पर िार्ा की दृहि से खडी ब ली का
प्रचलन गया। हवर्य-वस्तु में धाहमण कता का थथान सामाहजकता और ऐहत ाहसकता ने ले हलया।
नाटककार िं का दृहिक ण यथाथण वाद से प्रिाहवत हआ। इस प्रकार सिंहध-काल के नाट्य-साह त्य में ऐसा
पररवतण न हआ ज आगे चलकर प्रसाद-युग क म त्वपूणण बनाने में स ायक सका।
प्रसाद-युग- प्रसादिी िे न न्दी-नाटक िं क एक नई हदशा तथा नई गहत प्रदान की। उनके मौहलक
नाटक िं ने न केवल ल ग िं के बिंगला के प्रहत आकर्णण का ी शमन हकया वरन् उच्चक हट का नाट्य-साह त्य
िी ह न्दी क हदया। प्रसाद-युग नाट्य साह त्य की कई धाराओिं क ले कर सामने आया। इस प्रकार िारते न्दु
काल में हजन नाटकीय प्रवृहत्तय िं का बीजार पण हआ था, वे सिंहधकाल में अिंकुररत कर प्रसाद-युग में
कहतपय नवीन चे तनाओिं और नवीन हवचारधाराओिं क ले कर आगे बढ़ीिं । प्रसाद-युग में नाटक िं पर
शेक्सहपयर की नाट्य-कला का हवशेर् प्रिाव पडा। ह न्दी के नाटककार िं क प्रारिं ि में सिंस्कृत नाट्य-
साह त्य से ज प्रेरणा हमली, व िारते न्दु काल में पाश्चात्य नाट्य-कला से आिं हशक रूप में प्रिाहवत कर
प्रसाद-युग में एकदम बदल गई।
प्रसाद-युग में कई पौराहणक नाटक हलखे गये। मै हथलीशरण गुप्त का 'हतल त्तमा', कौहशक का 'िीष्म तथा
ग हवन्दबल्लि पिंत का वरमाला' हवशेर् म त्वपूणण ैं । ऐहत ाहसक नाटक िं के अहतररि बेचन शमाण 'उग्र'
तथा सेठ ग हवन्ददास का ‘ र्ण' उल्लेखनीय ैं । रािरीय धारा में प्रेमचिं द का ‘सिंग्राम' उत्कृि नाटक ै ।
समस्या-प्रधान नाटक िं में लक्ष्मीनारायण हमश्र के 'सन्यासी', 'राक्षस का मिं हदर' और 'मु खि का र स्य' नवीन
चे तना क ले कर उपखथथत हए । वतण न युग की उलझती हई समस्याओिं के कारण य परिं परा हवकहसत ी
ती चली गई। में प्रसाद अनुवाद िी हए ।
सत्यनारायण ने िविू हत कृत 'मालती माधव' और गुप्त जी ने िास के 'स्वप्नवासवदत्ता' का अनुवाद हकया।
अिंग्रेजी नाटक िं में शेक्सहपयर के 'ओथे ल ' का अनुवाद हआ। रूसी ले खक टॉलस्टाय के तीन नाटक िं के
अनुवाद 'तलवार की करतू त', 'अिं धेरे में उिाला' और 'हजिंदा लाश' के नाम से प्रकाहशत हए। बेखियम
के प्रहसद्ध कहव माररस मे टरहलिं क की द छ टी नाहटकाओिं का ह न्दी-अनुवाद पदु मलाल पुन्नालाल बख्शी -
युग ने हकया।
प्रसादजी स्वयिं एक युग-सृिा थे। उनके नाटक िं का हवर्य बौद्धकालीन-स्वहणणम अतीत ै । उनके नाटक िं में
हद्वजेन्द्रलाल राय और रहव बाबू की सी दाशणहनकता और िावुकता हमलती नाटक ऐहत ाहसक और
सािं स्कृहतक दृहि से हवशेर् म त्व रखते ैं। नाटकीय हवधान में प्रसाद जी ने अपने नाटक िं क सवणथा
प्राच्य और पाश्चात्य नाट्य-कला का समन्वय पाते ैं। नाटक-रचना की दृहि से िारते न्दु युग की अपेक्षा
प्रसाद युग ज्यादा सफल ै। प्रसाद र ा।
िारते न्दु जी ज ािं अपने युग के नेता थे , व ािं प्रसाद जी अपने युग के नेता न सके, उनकी नाट्य-कला
अपने समकालीन नाटककार िं क समान रूप से प्रिाहवत न कर सकी। वैज्ञाहनक सुधार िं और राजनीहतक
लचल िं के कारण प्रसाद-युग का कलाकार स्वतिं त्र चेता गय था । प्रसाद जी की रचनाएिं व्यखिगत
साधना का पररणाम थी, इसहलए प्रसाद अपने क्षे त्र में अकेले ी र े ।
प्रसादोत्तर युग (आधु निक काल) - सन् 1934 ई. से ह न्दी नाट्य-साह त्य के आधु हनक युग का प्रारिं ि
ता ै । इस युग में नाट्य-साह त्य के नवीन प्रय ग हए । फ्ायि के हसद्धािं त िं की धूम मची हई थी। इस
समय पाश्चात्य साह त्य में एक नवीन युग का प्रारिं ि हआ। ऑस्कर वाइल्ड, वजीहनया वुल्फ, एच.जी. वेर्ल्,
गार्ल्वदी आहद की रचनाओिं में प्रत्ये क समस्या बुखद्धवाद तथा उपय हगतावाद की कसौटी पर कसी गई ।
नाट्य-साह त्य में इव्सन के समस्या-प्रधान नाटक िं की धूम थी। ये सिी प्रिाव आधु हनक काल में ह न्दी
नाट्य-कला पर पडे । सबसे प ले लक्ष्मीनारायण हमश्र ने इन प्रिाव िं क अपने समस्या-प्रधान नाटक िं में
ग्र ण हकया। उनके नाटक िं में नारी समस्या क प्रमु ख थथान हमला।
आधु निक युग के प्रथम उत्थाि-काल (सि् 1934-1942 ई) में पौराहणक धारा के अिंतगणत िी हलखे गये
उदयशिंकर िट्ट की 'राधा' इस क्षे त्र में हवहशि रचना ै । अन्य पौराहणक आख्यान िं पर आधाररत उदयशिंकर
िट्ट कृत 'अिंबा', 'सागर हवजय', 'मत्स्यगिंधा' और 'हवश्वाहमत्र' उल्लेखनीय ैं । कला की दृहि से उग्र जी का
'गिंगा का बेटा' म त्वपूणण नाटक ै । ऐहत ाहसक क्षेत्र में ररकृष्ण प्रेमी ने अहधकारपूणण नाटक हलखे ।
अन्य ऐहत ाहसक नाटक िं में उदयशिंकर िट्ट का 'दा र' ग हविंदवल्लि पिंत के 'राजमु कुट' और 'अिं त:पुर का
का सिंग्र 'कारवािं ' के नाम से प्रकाहशत हआ । रामकुमार वमाण कृत 'पृथ्वीराज की आिं खें',रे शमी टाई तथा
'चारुहमत्रा', उदयशिंकर िट्ट कृत, अहिनव एकािं की' तथा 'स्त्री हृदय' और अश्क जी कृत 'दे वताओिं की
छाया में' हवशेर् रूप से म त्वपूणण ैं ।
नद्वतीय उत्थाि काल (सि् 1942 से) में नाटक के क्षे त्र में ऐहत ाहसक और सामाहजक नाटक िं की रचना
हवशेर् रूप से हई। स्वतिंत्रता प्राप्त ने पर कहतपय रािरीय िावना प्रधान नाटक िी हलखे गये। इस हदशा में
सेठ ग हवन्ददास के 'पाहकस्तान' और 'हसद्धािं त स्वातिं त्र्य हवशेर् म त्व के ैं । ऐहत ाहसक नाटक िं में प्रेमी जी
के 'नमत्र', 'नवष-पाि', 'उद्धार' तथा 'शपथ' लक्ष्मीनारायण हमश्र का ‘गरुडध्वि', 'वत्सराि' तथा
'दशाश्वमेघ', बेिीपुरी का ‘सिंघनमत्रा' और 'नसिं लनविय', वृिंदावनलाल वमाण का पूवण की ओर', 'बीरबल',
'झािं सी की रानी', 'कश्मीर का कािंटा', 'हशवाजी', चतु रसेन शास्त्री का ‘अजीतहसिं ' तथा ''राजहसिं ' आहद
प्रहसद्ध ैं । बाल-साह त्य में अच्छे एकािं की नाटक िं की रचना हई । रे हिय में िी प्राय: एकािं की नाटक
प्रसाररत ते र ते ैं । हशक्षा-सिंथथाओिं और सािं स्कृहतक आय जन िं के अवसर पर ह न्दी रिं ग-मिं च की बढ़ती
हई मािं ग के कारण मारा एकािं की नाट्य-साह त्य पयाणप्त हवकहसत ता जा र ा ै ।
िीवि पररचय
आचायण रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 4 अक्टू बर 1884 ई. में उत्तरप्रदे श राज्य के बस्ती हजले के अगौना नामक
गाूँ व में हआ था । इनकी मृ त्यु 2 फरवरी 1941 ई. क हई। उनकी औपचाररक हशक्षा हसफण मै हटर क तक ी
पाई थी, परन्तु अपने स्वाध्याय से शुक्ल जी ने ह न्दी, अिंग्रेजी , बिंगला , सिंस्कृत आहद का अच्छा ज्ञान प्राप्त
कर हलया था । इनके हपता का नाम पिंहित चिं द्रबली शुक्ल था। वे हमजाण पुर में सदर कानूनग के पद पर
कायणरत थे । इनकी माताजी का नाम हनवासी दे वी था। 9 वर्ण की उम्र में उनकी माता का स्वगणवास गया।
हफर हपता ने दू सरी शादी की। अपनी हवमाता से इन्हें बहत दु ःख हमला।
इनके हपता चा ते थे हक शुक्ल जी कच री में जाकर काम करें , हकिंतु शुक्ल जी पढ़ना चा ते थे । हपता ने
वकालत करने के हलए उन्हें इला ाबाद िे ज हदया । परिं तु वकालत में रुहच न ीिं ने के कारण वे उसमें
अनुत्तीणण र े । उनकी रुहच साह त्य के क्षेत्र में थी। अतः वे हलखने लगे। उनके ले ख पत्र-पहत्रकाओिं में
प्रकाहशत ने लगे और धीरे -धीरे उनकी ले खनी का जादू चार िं तरफ फैल गया।
बाबू श्यामसुन्दर दास ने इन्हें ह न्दी शब्द सागर के सम्पादन के हलए काशी नागरी प्रचाररणी सिा से
सम्बद्ध कर हलया तथा इस कायण क अत्यन्त हनिा एविं य ग्यता से सम्पन्न हकया । ह न्दी साह त्य का
भाषागत नवशेषता
रामचन्द्र शुक्लजी की िार्ा शुद्ध , पररष्कृत एविं मानक ह न्दी थी। िार्ा पर उनका हवलक्षण अहधकार था।
उनका वाक्य गठन बेज ड था, हजसमें से एक शब्द क िी इधर से उधर कर पाना सिव न ीिं ै । उनकी
हनबन्ध शैली हवर्य के अनुरूप बदलती र ी। वणणनात्मक , हववेचनात्मक , िावात्मक, आल चनात्मक ,
ास्य - व्यिं ग्यात्मक, आलिं काररक आहद अनेक शैहलय िं का प्रय ग उनके आलिं काररक हनबन्ध िं में हआ।
शुक्लजी के हनबन्ध ह न्दी हनबन्ध कला के हनकर् ैं । उनमें हृदय एविं बुखद्ध का सन्तु हलत समन्वय ै ।
हचन्तामहण में सिंकहलत हनबन्ध द प्रकार के ैं - िाव या मन हवकार सम्बन्धी हनबन्ध तथा समीक्षात्मक
हनबन्ध । शुक्लजी अपने हवचार िं क इस कुशलता के साथ व्यि करते थे हक पाठक िं क उनके हनष्कर्ों से
स मत ना ी पडता ै । पररष्कृत , प्रािं जल साह खत्यक िार्ा का प्रय ग करने के साथ - साथ उनका शब्द
चयन , वाक्य हवन्यास एविं सादृश्य हवधान िी अनुपम था।
उनके हनबिंध “शैली ी व्यखित्व ै " के उदा रण माने जा सकते ैं । इन हनबिंध िं में शुक्ल जी का व्यखित्व
पूणणत: आत्मसात हदखाई पडता ै । शुक्लजी के हनबन्ध हचन्तामहण िाग -1 एविं िाग -2 में सिंकहलत ैं ।
इसके अहतररि इनके हनबन्ध हवचारवीथी में िी सिंकहलत ैं । ' रस मीमािं सा िी इनका हनबन्ध सिंकलन ै ।
का सम्पादन करने के साथ - साथ शुक्लजी ने जायसी ग्रन्थावली का सम्पादन एक हवस्तृ त िू हमका के साथ
हकया । ह न्दी साह त्य का इहत ास ' ( 1929 ई.) इनके द्वारा हलखा गया एक श्रेि ग्रन्थ ै , हजसकी मान्यताएिं
आज िी यथावत ग्र ण की जाती ैं।
उपसिं ार
आचायण रामचिं द्र शुक्ल ह न्दी साह त्य के एक प्रहसद्ध िारतीय इहत ासकार हए, हजन्हें एक वैज्ञाहनक प्रणाली
में ह िं दी साह त्य के इहत ास का प ला सिंश धक माना जाता ै । वे ह िं दी साह त्य के श्रेि आल चक िं में से
एक माने जाते ैं। उन्ह न
िं े आल चना के स्तर क उन्नत कर उसे गररमा पूणण बना हदया।
ह न्दी उपन्यास के क्षे त्र में 'प्रेमचन्द' के आगमन से एक नयी क्राखन्त का सूत्रपात हआ। इस
युग के उपन्यासकार िं ने जीवन के यथाथण क प्रस्तु त करने कायण हकया।
इस युग का प्रारि प्रेमचन्द के 'सेवा सदन' नामक इस उपन्यास से हआ हजसे सन् 1918
में हलखा गया था। वैसे त पूवण में मुिं शी प्रेमचन्द ने आदशणवादी उपन्यास हलखे ले हकन बाद
में ये यथाथण वादी उपन्यास हलखने लगे। इन्ह न
िं े अपने उपन्यास िं में सामाहजक समस्याओिं क
थथान हदया।
उपन्यासकार ह न्दी उपन्यास हवधा क आगे बढ़ाने लगे। इनमें कुछ यथाथण वादी उपन्यासकार
थे त कुछ आदशणवादी।
ह न्दी में चररत्र प्रधान उपन्यास हलखने में मुिं शी प्रेमचन्द की चचाण सबसे प ले ती ै।
मिंशी प्रेमचन्द िे अपिे िीवि काल में तीि प्रकार के उपन्यास नलिे।
इनकी प ली श्रेणी में आने वाले उपन्यास 'प्रहतज्ञा' और 'वरदान' ै हजन्हें इन्ह न
िं े प्रारखिक
दू सरी श्रेणी के उपन्यास 'सेवा सदन', हनमण ला और गबन ै । इस श्रेणी के उन्यास िं में मुिं शी
प्रेमचन्द द्वारा सामाहजक समस्याओिं क उिारा गया ै।
तीसरी श्रेणी के उपन्यास- प्रेमाश्रय, रिं गिू हम कायाकल्प कमण िूहम और ग दान ै।
इस श्रेणी के उपन्यास िं में उपन्यास सम्राट मुिं शी प्रेमचन्द ने जीवन के एक अिंश न ीिं वरन सम्पू णण जीवन
क एक साथ दे खा ै ।
इनके ये सिी प्रकार के उपन्यास हकसी एक वगण - हवशेर् तक सीहमत न ीिं वरन समाज
इसी तर रिं गिू हम, कायाकल्प और कमण िूहम में िारत की तत्कालीन राजनीहत की स्पि छाप
हदखायी दे ती ैं ।
इन उपन्यास िं की िाूँ हत 'प्रेमाश्रय' जैसे उपन्यास तत्कालीन जमीदारी प्रथा और कृर्क जीवन
'गोदाि', प्रेमचन्द जी का सवाण हधक ल कहप्रय उपन्यास ैं , हजसे हवद्वान िं ने ग्राम्य जीवन के
म ाकाव्य की सिंज्ञा दी ै । 'ग दान' क अगर म प्रेमचन्द युगीन िारत की प्रहतहनहध कृहत
प्रेमचन्द युगीन उपन्यास िं में जयशिंकर प्रसाद का िी अपना एक म त्वपूणण थथान ै । इन्ह न
िं े
मात्र उपन्यास ी न ीिं क ाहनयाूँ िी हलखी, ले हकन इनकी सिी क ाहनयाूँ आदशणवादी
प्रसाद जी ने अपने जीवन काल में तीन उपन्यास हलखे। इन उपन्यास िं में हततली और
इनका 'किंकाल' नामक उपन्यास ग स्वामी के उपदे श िं के माध्यम से ह न्दु सिंगठन और धाहमण क तथ
सामाहजक आदे शों क थथाहपत करने का प्रयत्न करता ै। इसी सिंदिण में इनका हततली उपन्यास
ग्रामीण जीवन की झाूँ की और ग्रामीण समस्याओिं क प्रस्तु त करता ै । इरावती इनका ऐहत ाहसक
उपन्यास ज इनके आसामाहयक हनधन से अधू रा ी र गया।
माूँ , और सिंघर्ण , इनके प्रहसद्ध उपन्यास ैं , त महणमाला और हचत्रशाला' इनके प्रहसद्ध क ानी
श्री सुदशणन' का पूरा नाम पिंहित बदरीनाथ िट्ट था। ये प ले उदू ण में हलखते थे और बाद में
ह न्दी कथा साह त्य में अवतीणण हए। इनके 'अमर अहिलार्ा' और 'िागवन्ती' अन्यन्त
'गढ़कुण्डार हवरादा की पहद्मनी, मृ ग नयनी, माधवजी हसखन्धया, म ारानी दु गाण वती, रामगढ़ की
रानी, मु साह बजू, लहलत हवक्रम और अह ल्याबाई जै से ऐहत ाहसक उपन्यास हलखे त कुण्डली
चक्र, स ना और सिंग्राम, किी न किी, टू टे काूँ टे, अमर बेल, कचनार जैसे उपन्यास िी ैं
हजनमें प्रेम के साथ साथ अनके सामाहजक समस्याओिं पर िी खुलकर हलखा गया ै।
'झाूँ सी की रानी लक्ष्मीबाई इनका प्रहसद्ध ऐहत ाहसक उपन्यास ै हजसे ल कहप्रयता में हकसी
अन्य उपन्यास से कम न ीिं आिं का जा सकता
श री जीवन पर अपनी ले खनी चलाने वाले मुिं शी प्रताप नारायण िी प्रेमचन्द युगीन
इन्ह न
िं े अपने जीवन काल में हवदा, हवकास, और हवलय, नाम तीन उपन्यास हलखे। मुिं शी
प्रताप नारायण श्रीवास्तव ने इन तीन िं उपन्यास िं में एक हवशेर् सीमा में र कर स्त्री
स्वतन्त्रता का पक्ष हलया।
श्री हृदयेश एक सफल क ानी कार और उपन्यास र े ैं । इनके मिं गलप्रिात और 'मन रमा'
नामक द उपन्यास ैं । कहवत्व शैली में रची गई इनकी कृहतय िं में 'नन्दन हनकुिंज' और
'वनमाला "नामक द क ानी सिंग्र िी ैं । आपकी कथा शैली की तु लना अहधकािं श हवद्वान
पाण्डे य बेचन शमाण 'उग्र' प्रेमचन्द युगीन उपन्यासकार िं के मध्य में अपनी एक हवहशि शैली
के हलए काफी चहचणत र े । 'चन्द सीन िं के खतू त हदल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी,
शराबी, जीजीजी, घण्टा, फागुन के हदन चार आहद आपके म त्वपूणण हकन्तु चटपटे उपन्यास
ैं । आपने म ात्मा ईसा नामक एक नाटक और 'अपनी खबर नामक आत्म कथा हलखी ज
काफी चहचण त र ी।
जैनेन्द्र कुमार द्वारा उपन्यास के क्षे त्र में नयी शैली का सूत्रपात हकया गया। इनके उपन्यास िं
ताप िू हम, परख, सुनीता, सुखदा, त्यागपत्र, कल्याणी, मु खिब ध, हववरण, व्यतीत, 'जयवधण न, अनाम
जैसे क ानी सिंग्र िी प्रकाहशत हए। आने ह न्दी साह त्य क लगिग एक दजणन उपन्यास ,िं
दस से अहधक कथा-सिंकलन ,िं हचन्तनपरक हनबन्ध िं तथा दाशणहनक ले ख िं से समृ द्ध हकया। स्त्री पुरुर्
सम्बन्ध ,िं प्रेम हववा और काम-प्रसिंग िं के सम्बन्ध में आपके हवचार िं क ले कर काफी हववाद िी हआ
जैनेन्द्र जी क िारत का ग की माना जाता ैं । आपकी कई रचनाओिं क पुरस्कृत िी हकया गया।
राजा राहधकारमण प्रसाद हसिं ने अपने जीवन काल में राम-र ीम' नामक व प्रहसद्ध उपन्यास हलखा
हजसकी कथा शैली ने सहृदय पाठक िं क इसकी और आकृि हकया।
इसके अहतररि आपने चु म्बन और चाूँ टा, पुरूर् और नारी, तथा सिंस्कार जैसे उपन्यास हलखकर ह न्दी
उपन्यास हवधा क और समृ द्ध हकया।
प्रेमचन्द के युग मे ह न्दी उपन्यास हवहवध मु खी कर हनरन्तर हवकास उन्नत हशखर िं क स्पशण
करने लगा। इस युग में उपर ि उपन्यासकार िं के अहतररि म ाप्राण हनराला, राहल
सािं कृत्यायन, चतु रसेन शास्त्री, यशपाल, िगवती चरण वमाण , िागवती प्रसाद वाजपेयी आहद ले खक-
कहवय िं ने उपन्यास ले खन प्रारि हकया, ले हकन प्रे मचन्द त्तर युग में ी इन्हें हवशेर् प्रहसखद्ध
हमली।
म ादे वी वमाभ
एक िारतीय ह न्दी िार्ा की कवहयत्री, हनबिंधकार, रे खाहचत्र कथाकार और ह न्दी साह त्य की प्रख्यात
स्ती ैं । उन्हें ह िं दी साह त्य में छायावादी युग के चार प्रमु ख स्तिं ि िं में से एक माना जाता ै। व उन
कहवय िं में से एक थीिं हजन्ह न
िं े िारत के व्यापक समाज के हलए काम हकया। कहव हनराला ने एक बार उन्हें
“ह िं दी साह त्य के हवशाल मिं हदर की सरस्वती” िी क ा था। न केवल उनकी कहवता बखल्क उनके
सामाहजक उत्थान कायण और मह लाओिं के बीच कल्याणकारी हवकास क िी उनके ले खन में ग राई से
हचहत्रत हकया गया था। प्रारिं हिक और पाररवाररक जीवन म ादे वी का जन्म 26 माचण 1907 क प्रातः 8 बजे
़िरुणखाबाद उत्तर प्रदे श में हआ। उनके पररवार में लगिग 200 वर्ों या सात पीहढ़य िं के बाद प ली बार
पुत्री का जन्म हआ था। अतः दादा बाबू बाूँ के हव ारी जी र्ण से झूम उठे और उन्हें घर की दे वी मानते हए
उनका नाम म ादे वी रखा।
उनके हपता श्री ग हविंद प्रसाद वमाण िागलपु र के एक कॉले ज में प्राध्यापक थे । उनकी माता का नाम ेमरानी
दे वी था। े मरानी दे वी बडी धमण परायण, कमण हनि, िावुक एविं शाका ारी मह ला थीिं। ऐसा माना जाता ै
हक अपनी मािं के द्वारा ी म ादे वी वमाण में सिंगीत के प्रहत रूहच जागी। अपने बचपन की जीवनी “मे रे
बचपन के हदन” वमाण ने हलखा ै हक व एक उदार पररवार में पैदा ने के हलए बहत िाग्यशाली थीिं, ऐसे
समय में जब एक लडकी क पररवार पर ब झ माना जाता था। उनके दादा की कहथत तौर पर उन्हें एक
हवद्वान बनाने की म त्वाकािं क्षा थी, ले हकन 9 साल की उम्र में ी उनकी शादी स्वरूप नारायण वमाण से कर
दी जाती ै । नारायण जी उस समय 10वीिं के छात्र थे। म ादे वी का हववा जब हआ था तब वे हववा का
मतलब िी न ीिं समझती थीिं।
उनक ये िी पता न ीिं था हक उनका हववा र ा ै । मानस बिंधुओिं में सुहमत्रानन्दन पन्त एविं हनराला का
नाम हलया जा सकता ै , ज उनसे जीवन पयणन्त राखी बूँ धवाते र े । हनराला जी से उनकी अत्यहधक
हनकटता थी, उनकी कलाइय िं में म ादे वी जी लगिग चालीस वर्ों तक राखी बाूँ धती र ीिं। हशक्षा और
कररयर म ादे वी वमाण क मू ल रूप से एक कॉन्वेंट स्कूल में िती कराया गया था, ले हकन हवर ध और
द्वारा उनकी हछपी हई कहवताओिं की ख ज के बाद, उनकी हछपी साह खत्यक प्रहतिा का खुलासा हआ।
जबहक दू सरे ल ग बा र खेलते थे , मैं और सुिद्रा एक पेड पर बैठते थे और मारे रचनात्मक हवचार िं क
एक साथ ब ने दे ते थे ... व खारीब ली में हलखती थी, और जल्द ी मैं ने िी खारीब ली में हलखना शुरू कर
हदया |
व और सुिद्रा साप्ताह क पहत्रकाओिं जैसे प्रकाशन िं में िी कहवताएूँ िे जते थे और उनकी कुछ कहवताएूँ
प्रकाहशत ने में सफल र ीिं। द न िं नव हदत कहवय िं ने कहवता सिंग हिय िं में िी िाग हलया, ज ाूँ वे प्रख्यात
1930 में , हन ार, 1932 में , रखश्म, 1933 में , नीरजा की रचना उनके द्वारा की गई थी। 1935 में , सिंध्यागीत
नामक उनकी कहवताओिं का सिंग्र प्रकाहशत हआ था। 1939 में , यम शीर्णक के त त उनकी कलाकृहतय िं
हशक्षा के क्षे त्र में एक क्रािं हतकारी कदम माना जाता था। वे इसकी प्राचायण िी र चु की ैं । 1923 में , उन्ह न
िं े
मह लाओिं की प्रमु ख पहत्रका चािं द क सिंिाला। 1955 में वमाण ने इला ाबाद में साह खत्यक सिंसद की थथापना
म ादे वी बौद्ध धमण से बहत प्रिाहवत थीिं। म ात्मा गािं धी के प्रिाव में , उन्ह न
िं े एक सावणजहनक सेवा की ओर
रूख हकया और िारतीय स्वतिंत्रता सिंग्राम के हलए झािं सी में काम हकया। 1937 में , म ादे वी वमाण ने नैनीताल
से 25 हकमी दू र उमागढ़, रामगढ़, उत्तराखिंि नामक गाूँव में एक घर बनाया। उन्ह न
िं े इसका नाम मीरा
हवशेर् रूप से मह लाओिं की हशक्षा और उनकी आहथण क आत्महनिण रता के हलए बहत काम हकया। आज
इस बिंगले क म ादे वी साह त्य सिंग्र ालय के नाम से जाना जाता ै । प्रयास िं की श्रृिंखला में , व मह लाओिं
की मु खि और हवकास के हलए सा स और दृढ़ सिंकल्प क बढ़ाने में सक्षम थी। हजस तर से उन्ह न
िं े
सामाहजक रूहढ़वाहदता की हनिंदा की ै , उससे उन्हें एक मह ला मु खिवादी के रूप में जाना जाता ै ।
मह लाओिं के प्रहत हवकास कायण और जनसेवा और उनकी हशक्षा के कारण उन्हें समाज सुधारक िी क ा
जाता था और इसी तर उन्ह न
िं े अपना सिंपूणण जीवन साह त्य और समाहजक कायों में समहपणत कर हदया।
साह त्य में म ादे वी वमाण का उदय हकसी क्रािं हत से कम न ीिं था। उन्ह न
िं े ह िं दी कहवता में ब्रजिार्ा क मलता
का पररचय हदया, ज उस समय बहत बडी बात थी। में िारतीय दशणन क हदल से स्वीकार करने वाले
गीत िं का ििं िार, म ादे वी वमाण द्वारा ी प्राप्त हआ ै। अपनी कृहतय िं के जररए उन्ह न
िं े िार्ा, साह त्य और
दशणन के तीन क्षे त्र िं में एक म त्वपूणण कायण हकया हजसने बाद में एक पूरी पीढ़ी क प्रिाहवत हकया।
छायावादी कनवता की सफ़लता में उिका योगदाि बहुत म त्वपूणभ ै । ियशिंकर प्रसाद िे
छायावादी कनवता को प्रकृनतकरण नदया, सूयभकािंत नत्रपाठी निराला िे उसमें मुखि को मूतभ रूप
नदया और सुनमत्राििं दि पिंत िे िािुकता की कला लाई, व ी िं वमाभ िे छायावादी कनवता को िीवि
नदया। आज िी म ादे वी छायावादी युग के एक प्रमु ख स्तिं ि के रूप में हवख्यात ैं।
म ादे वी ने सिंपूणण जीवन साह त्य की साधना की और आधु हनक काव्य जगत क अपने य गदान से
आल हकत हकया। उनके काव्य में उपखथथत हवर वेदना और िावनात्मक ग नता के चलते ी उन्हें
आधु हनक युग की मीरा क ा गया।
म ादे वी वमाभ
आधु हनक ह िं दी साह त्य में स्त्री वेदना क हचहत्रत करने वाली म ादे वी वमाण की कहवता मैं नीर िरी दु ख की
बदली की य आखखरी पिंखियािं य बताने के हलए पयाणप्त ैं हक, उन्हें आधु हनक युग की मीरा क्य िं क ा
जाता ै । क्या आप जानते ैं हक म ादे वी का जन्म सिंय ग से ली के हदन हआ था। न जाने हलका का
असर था या म ादे वी की हनयती थी, व जीवन िर वेदना की आिं तररक अहग्न में जलती र ीिं। बीन िी हिं , मैं
तु म्हारी राहगनी िी हिं ' कहवता में व अपनी मन दशा का इज ार कुछ यूिं करती ैं
प्रमुि कृनतयािं
म ादे वी ने साह त्य जगत क कई मनम क कृहतयािं प्रदान की ैं । वमाण एक कहव ने के साथ-साथ एक
प्रहतहित गद्य ले ख उनकी प्रमु ख रचनाएूँ इस प्रकार ैं
काव्य सिंग्
म ादे वी वमाण ने कई काव्य सिंग्र िं की रचना की ैं , हजनमें नीचे दी गई रचनाओिं से कई चयहनत गीत िं का
सिंकलन हकया गर उनके प्रमु ख काव्य सिंग्र ैं -
हन ार (1930)
रखश्म (1932)
नीरजा (1933)
सिंध्यागीत (1935)
सप्तपणाण (1959)
दीपहशखा (1942)
अहग्नरे खा (1988)
मे रा पररवार (1972)
सिंस्कारन (1943)
सिंिासन (1949)
श्रीिंखला के कररये (1972)
स्किंधा (1956)
ह मालय (1973
अन्य
ठाकुरजी ि ले ैं
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