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1.

संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है


एक बार जब स्वामी विवे कानन्द जी विदे श गए… तो उनका भगवा वस्त्र और पगड़ी दे ख कर लोगों ने पूछा, - आपका
बाकी सामान कहाँ है ? स्वामी जी बोले …. ‘बस यही सामान है ’…. तो कुछ लोगों ने ब्यं ग्य किया कि… ‘अरे ! यह कैसी
सं स्कृति है आपकी ? तन पर केवल एक भगवा चादर लपे ट रखी है …….कोट – पतलून जै सा कुछ भी पहनावा नहीं है ?
इस पर स्वामी विवे कानं द जी मु स्कुराए और बोले , – ‘हमारी सं स्कृति आपकी सं स्कृति से भिन्न है …. आपकी सं स्कृति का
निर्माण आपके दर्जी करते हैं … जबकि हमारी सं स्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है .

दे ने का आनंद अधिक होता


उन दिनों स्वामी विवे कानं द अमरीका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे , जहां अपना खाना वे खु द बनाते थे । एक दिन वे
भोजन करने जा रहे थे कि कुछ भूखे बच्चे पास आकर खड़े हो गए। स्वामी विवे कानं द ने अपनी सारी रोटियां उन बच्चों
में बांट दी। यह दे ख महिला ने उनसे पूछा, ‘आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डालीं। अब आप क्या खाएं गे?’
उन्होंने मु स्कुरा कर जवाब दिया, ‘रोटी तो पे ट की ज्वाला शांत करने वाली चीज है । इस पे ट में न सही, उस पे ट में ही
सही। दे ने का आनं द पाने के आनं द से बड़ा होता है ।’

सामना करो अपने डर का


एक बार बनारस में एक मं दिर से निकलते हुए विवे कानं द को बहुत सारे बं दरों ने घे र लिया। वे खु द को बचाने के लिए
भागने लगे , ले किन बं दर उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे । पास खड़े एक वृ द्ध सं न्यासी ने उनसे कहा, ‘रुको और उनका
सामना करो!’ विवे कानं द तु रंत पलटे और बं दरों की तरफ बढऩे लगे । उनके इस रवै ये से सारे बं दर भाग गए। इस घटना
से उन्होंने सीख ग्रहण की कि डर कर भागने की अपे क्षा मु सीबत का सामना करना चाहिए। कई सालों बाद उन्होंने एक
सं बोधन में कहा भी, ‘यदि कभी कोई चीज तु म्हें डराए तो उससे भागो मत। पलटो और सामना करो।

दूसरों के पीछे मत भागो


एक व्यक्ति विवे कानं द से बोला, ‘मे हनत के बाद भी मैं सफल नहीं हो पा रहा।’ इस पर उन्होंने उससे अपने डॉगी को
सै र करा लाने के लिए कहा। जब वह वापस आया तो कुत्ता थका हुआ था, पर उसका चे हरा चमक रहा था। इसका कारण
पूछने पर उसने बताया, ‘कुत्ता गली के कुत्तों के पीछे भाग रहा था जबकि मैं सीधे रास्ते चल रहा था।’ स्वामी बोले ,
‘यही तु म्हारा जवाब है । तु म अपनी मं जिल पर जाने की जगह दस ू रों के पीछे भागते रहते हो। अपनी मं जिल खु द तय
करो।’
श्रे ष्ठ है सादा जीवन
सादा जीवन जीने के पक्षधर थे स्वामी विवे कानं द। वह भौतिक साधनों से दरू रहने के की सीख दस ू रों को दिया करते थे ।
वे मानते थे कि कुछ पाने के लिए पहले अनावश्यक चीजें त्याग दे नी चाहिए और सादा जीवन जीना चाहिए।
भौतिकतावादी सोच लालच बढ़ाकर हमारे लक्ष्य में बाधा बनती है ।

एकाग्रता सफलता की कुंजी


अमरीका में भ्रमण करते हुए स्वामी विवे कानं द ने एक जगह दे खा कि पु ल पर खड़े कुछ लडक़े नदी में तै र रहे अं डे के
छिलकों पर बं दकू से निशाना लगाने की कोशिश रहे हैं । किसी का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था। तब वे एक

लडक़े से बं दक ले कर खु द निशाना लगाने लगे । उन्होंने पहला निशाना बिलकुल सही लगाया। फिर एक के बाद एक
उन्होंने 12 निशाने सही लगाए।
लडक़ों ने आश्चर्य से पूछा, ‘आप यह कैसे कर ले ते हैं ?’ स्वामी विवे कानं द बोले , ‘तु म जो भी कर रहे हो, अपना पूरा
दिमाग उसी एक काम में लगाओ। अगर तु म निशाना लगा रहे हो तो तु म्हारा पूरा ध्यान अपने लक्ष्य पर ही होना
चाहिए। फिर कभी चूकोगे नहीं। अगर अपना पाठ पढ़ रहे हो, तो केवल पाठ के बारे में सोचो। एकाग्रता ही सफलता
की कुंजी है ।’

1. स्वामी विवे कानंद की परीक्षा


विवे कानं द अपने गु रु से विशे ष लगाव रखते थे । जब उनके गु रु रामकृष्ण परमहंस की मृ त्यु हुई उसके पश्चात उन्होंने
अपने गु रु के कार्यों को आगे बढ़ाने उनकी शिक्षा उनके आदर्शों को जन-जन तक पहुंचाने का सं कल्प ले ते हुए विदे श
जाने का निश्चय किया। वह आशीर्वाद और विदाई ले ने अपनी माता के पास पहुंचे। माँ को अपने गु रु के उद्दे श्यों को
बताया।
मां ने अपने पु त्र तत्काल आदे श नहीं दिया। वह दुविधा में थी कि वह अपने पु तर् को विदे श भे जे या नहीं?
वह चु पचाप अपने कार्यों में लग गई, जब वह सब्जी बनाने की तै यारी कर रही थी तब उन्होंने विवे कानं द से चाकू मां गा।
विवे कानं द उस चाकू को ले कर आते हैं और मां को बड़े ही सावधानी से दे ते हैं । मां उसके इस व्यवहार से अति प्रसन्न
होती है और मु स्कुराते हुए आशीर्वाद के साथ अपने गु रु के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए कहती है ।
विवे कानं द जी को आश्चर्य होता है वह उनकी प्रसन्नता और इस कृत्य पर प्रश्न करते हैं आखिर उन्होंने पु तर् को
विदे श भे जने के लिए कैसे निश्चय किया? तब उनकी मां ने बताया तु मने मु झे जिस प्रकार चाकू दिया चाकू की धार
तु मने अपनी और पकड़ा और उसका हत्था मु झे सावधानी से थमाया, इससे यह निश्चित होता है कि तु म स्वयं कष्ट
सहकर भी दस ू रों की भलाई की सोचते हो। तु म किसी का अहित नहीं कर सकते हो, तु म अपने गु रु के कार्यों को कठिनाई
सहकर भी आगे बढ़ा सकते हो।
मां की इस परीक्षा के आगे स्वामी विवे कानं द नतमस्तक हुए और मां शारदा से आशीर्वाद ले कर वह जन कल्याण के लिए
गु रु के कार्यों के लिए मां से विदा ले कर घर से निकल गए।

3. फ् रांसीसी विद्वान का घमंड चूर


यह उन दिनों की बात है जब स्वामी विवे कानं द जी अमे रिका के शिकागो शहर में अपना ऐतिहासिक भाषण दे ने गए हुए
थे । अपने भाषण को सफलतापूर्वक पूरे विश्व के पटल पर रख कर, अन्य दे शों का भ्रमण करने निकले ।
इसी क् रम में वह फ् रांसीसी प्रसिद्ध विद्वान के घर अतिथि हुए।
स्वामी विवे कानं द ने उस विद्वान का आतिथ्य स्वीकार किया और उनके घर पहुंचे।
स्वामी जी का स्वागत घर में सम्मानजनक हुआ। स्वामी जी के रुचि अनु सार भोजन की व्यवस्था थी। विदे श में इस
प्रकार का भोजन मिलना सौभाग्य की बात थी।
भोजन के उपरांत वे द-वे दांत और धर्म की बड़ी-बड़ी रचनाओं पर शास्त्रार्थ आरं भ हुआ।
शास्त्रार्थ जिस कमरे में हो रहा था, वहां एक मे ज पर लगभग डे ढ़ हजार पृ ष्ठ की एक धार्मिक पु स्तक रखी हुई थी।
स्वामी जी ने उस पु स्तक को दे खते हुए कहा –  यह क्या है ?
मैं इसका अध्ययन करना चाहता हं ।ू फ् रांसीसी विद्वान आश्चर्यचकित हो गया।
उसने कहा स्वामी जी कहा यह दस ू रे भाषा की पु स्तक है , आप तो भाषा को जानते भी नहीं है ।
आप इतने पृ ष्ठों का अध्ययन कैसे कर सकेंगे ?
मैं इसका अध्ययन स्वयं एक महीने से कर रहा हं ू !
स्वामी जी – यह आप मु झ पर छोड़ दीजिए एक घं टे के भीतर में आपको अध्ययन करके लौटा दं ग ू ा।
फ् रांसीसी विद्वान को अब क् रोध आने लगा, स्वामी जी इस प्रकार का मजाक मे रे साथ क्यों कर रहे हैं ?
किंतु स्वामी जी ने विश्वास दिलाया, इस पर फ् रांसीसी विद्वान ने मनमाने ढं ग से वह पु ःतक स्वामी जी को सौंप दिया।
स्वामी जी उस पु स्तक को अपने दोनों हाथों में रखकर एक घं टे के लिए योग साधना में बै ठ गए।
जैसे ही एक घंटा बीता होगा , फ् रांसीसी विद्वान उस कमरे में आ गया।
स्वामी जी क्या आपने पु स्तक का अध्ययन कर लिया
हां अवश्य !
आप कैसा मजाक कर रहे हैं ?
मैं इस पु स्तक को एक महीने से अध्ययन कर रहा हं ।ू
अभी आधा भी अध्ययन नहीं कर पाया हं ,ू और आप कहते हैं आपने अध्ययन कर लिया।
हां अवश्य!
स्वामी जी आप मजाक कर रहे हैं !
नहीं तु म किसी भी पृ ष्ठ को खोल कर मु झसे जानकारी ले सकते हो!
उस विद्वान ने ऐसा ही किया।
पृ ष्ठ सं ख्या बत्तीस बोलने पर स्वामी जी ने उस पृ ष्ठ पर लिखा प्रत्ये क शब्द अक्षरसः कह सु नाया।
फ् रांसीसी विद्वान के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी।
वह स्वामी जी के चरणों में गिर गया। उस विद्वान ने स्वामी जै सा व्यक्ति आज से पूर्व नहीं दे खा था।
उसे यकीन हो गया था, यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है ।

एक विदे शी महिला स्वामी विवे कानं द के समीप आकर बोली: “ मैं आपस शादी करना चाहती हँ ू “
विवे कानं द बोले : ” क्यों?
मु झसे क्यों ?
क्या आप जानती नहीं की मैं एक सन्यासी हँ ?ू ”
औरत बोली: “मैं आपके जै सा ही गौरवशाली, सु शील और ते जोमयी पु तर् चाहती हँ ू और वो वह तब ही सं भव होगा
जब आप मु झसे विवाह करें गे ”
विवे कानं द बोले : “हमारी शादी तो सं भव नहीं है , परन्तु हाँ एक उपाय है ”
औरत: क्या?
विवे कानं द बोले “आज से मैं ही आपका पु त्र बन जाता हँ ,ू आज से आप मे री माँ बन जाओ…
आपको मे रे रूप में मे रे जै सा बे टा मिल जाये गा.
औरत विवे कानं द के चरणों में गिर गयी और बोली की आप साक्षात् ईश्वर के रूप है .
इसे कहते है पु रुष और ये होता है पु रुषार्थ…
एक सच्चा पु रुष सच्चा मर्द वो ही होता है जो हर नारी के प्रति अपने अन्दर मातृ त्व की भावना उत्पन्न कर सके
2. अपनी भाषा पर गर्व
एक बार स्वामी विवे कानं द विदे श गए जहाँ उनके स्वागत के लिए कई लोग आये हुए थे उन लोगों ने स्वामी विवे कानं द
की तरफ हाथ मिलाने के लिए हाथ बढाया और इं ग्लिश में HELLO कहा जिसके जवाब में स्वामी जी ने दोनों हाथ
जोड़कर नमस्ते कहा... उन लोगो को लगा की शायद स्वामी जी को अं गर् े जी नहीं आती है तो उन लोगो में से एक ने
हिं दी में पूछा "आप कैसे हैं "?? तब स्वामी जी ने कहा "आई एम् फ़ाईन थैं क यू"
उन लोगो को बड़ा ही आश्चर्य हुआ उन्होंने स्वामी जी से पूछा की जब हमने आपसे इं ग्लिश में बात की तो आपने हिं दी
में उत्तर दिया और जब हमने हिं दी में पूछा तो आपने इं ग्लिश में कहा इसका क्या कारण है ??
तब स्वामी जी ने कहा........जब आप अपनी माँ का सम्मान कर रहे थे तब मैं अपनी माँ का सम्मान कर रहा था और जब
आपने मे री माँ का सम्मान किया तब मैं ने आपकी माँ का सम्मान किया.
यदि किसी भी भाई बहन को इं ग्लिश बोलना या लिखना नहीं आता है तो उन्हें किसी के भी सामने शर्मिं दा होने की
जरुरत नहीं है बल्कि शर्मिं दा तो उन्हें होना चाहिए जिन्हें हिं दी नहीं आती है क्योंकि हिं दी ही हमारी राष्ट् र भाषा है हमें
तो इस बात पर गर्व होना चाहिए की हमें हिं दी आती है .....

5. गंगा हमारी माँ है और उसका नीर, जल नहीं,  अमृ त है


एक बार स्वामी विवे कानन्द जी अमे रिका में एक सम्मले न में भाग ले रहे थे . सम्मले न के बाद कुछ पत्रकारों ने उन से
भारत की नदियों के बारे में एक प्रश्न पूछा.
पत्रकार ने पूछा – स्वामी जी आप के दे श में किस नदी का जल सबसे अच्छा है ?
स्वामी जी का उत्तर था – यमु ना का जल सभी नदियों के जल से अच्छा है .
पत्रकार ने फिर पूछा – स्वामी जी आप के दे शवासी तो बोलते है कि गं गा का जल सब से अच्छा है .
स्वामी जी का उत्तर था – कौन कहता है गं गा नदी है , गं गा हमारी माँ है और उस का नीर जल नहीं है , –  अमृ त है .
यह सु न कर वहाँ बै ठे सभी लोग स्तब्ध रह गये और सभी स्वामी जी के सामने निरुत्तर हो गये .

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