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एकाग्रता का रहस्य

स्वामी वििेकानन्द हृविकेश के बाद मेरठ आए। अपने स्वास्थ्य-सु धार के विए विश्राम
हे तु िे मेरठ में रुके। वििे कानन्दजी को अध्ययन का अत्यं त शौक था। अध्यात्म एिं
दशशनशास्त्र की पुस्तकें िे बडे चाि से पढ़ते थे। उनके एक वशष्य अखंडानं दजी
उनके विए स्थानीय पु स्तकािय से पु स्तकें िे आया करते थे।

एक बार वििेकानन्दजी ने प्रवसद्ध विचारक एिं दाशश वनक सर जॉन िबाक की पुस्तकें
पढ़ने हे तु मँगिाईं। उन्ोंने एक ही वदन में सब पु स्तकें पढ़ िीं। दू सरे वदन अखंडानं द
जी िे पुस्तकें जमा करिाने िे गए तब ग्रंथपाि को विस्मय हुआ क्ोंवक वपछिे कई
वदनों से अखं डानंदजी बडी-बडी पु स्तकें पढ़ने के विए िे जाते एिं दू सरे वदन पुनः
जमा करिा दे ते। ग्रंथपाि ने अखंडानं द जी से पू छा, "महाशय! आप पु स्तकें पढ़ते हैं
या केिि उनके पन्ने पिटकर ही िापस कर दे ते हैं ? प्रवतवदन मुझसे अिग-अिग
पुस्तकें ढुँ ढिाकर मेरा दम वनकाि दे ते हैं ।"
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यह बात स्वामी वििे कानन्द के पास पहुँ ची तब िे स्वयं पु स्तकािय में आए एिं उन्ोंने
विनम्रतापूिशक ग्रंथपाि से कहा, "अखण्डानन्दजी प्रवतवदन मेरे विए पु स्तकें िाते हैं ।
मैं पुस्तकें पू री-की-पूरी पढ़कर दू सरे वदन उन्ें जमा कराने के विए िापस भे जता हँ ।
क्ा आपको शंका होती है वक मैं पढ़े वबना ही पु स्तकें िापस भे जता हँ ?"

ग्रंथपाि ने कहा, "स्वामी जी! सर जॉन िबाक जैसे गहन तत्त्ववचंतक की पु स्तकें एक
ही वदन में कैसे पढ़ी जा सकती हैं ? इसे मैं नहीं मानता।"

स्वामी वििेकानन्द जी ने कहा, "मैंने एक ही वदन िे सब पु स्तकें पढ़ डािी हैं विर भी
आपको शंका हो तो उनकी पुस्तकों में से चाहे वजस वििय पर मुझसे कोई भी प्रश्न
पूछ सकते हैं ।"

ग्रंथपाि के वदमाग में यह बात नहीं उतर पाई। वििे कानन्दजी िास्ति में पु स्तकें पढ़ते
हैं वक नहीं, इसकी जाँ च करने के विए ग्रंथपाि उन पु स्तकों में से एक के बाद एक
प्रश्न पूछने िगा। वििे कानन्दजी िटािट उनके उत्तर दे ने िगे। इतना ही नहीं, प्रश्न
का उत्तर पुस्तक के वकस पृष्ठ पर हैं , यह भी बताने िगे।

ग्रंथपाि उन्ें िटी आँ खों दे खता रह गया! िह अत्यन्त आश्चयश में डूब गया!
वििेकानन्दजी की मेधािी स्मृ वतशक्ति एिं उनके ज्ञान के प्रवत उसे असीम श्रद्धा हुई।
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उसने प्रणाम करके कहा, "स्वामी जी! आपकी बात को सत्य माने वबना आपके साथ
मैंने जो संशययुि व्यिहार वकया, उसके बदिे में क्षमा माँ गता हँ । िास्ति में आप
कोई महान योगी पु रुि हैं ... परन्तु मुझे यह समझाइए वक इतनी शीघ्रता से पुस्तकें
पढ़कर उसे आप अक्षरशः याद कैसे रख िेते हैं ?"

वििेकानन्दजी ने कहा, "यह तो वबल्कुि सामान्य बात है । छोटा बािक पहिे एक-
एक अक्षर अिग-अिग करके पढ़ता है । विर समझदार होता है तब पू रे शब्द पढ़ता
है । बाद में पू रे िाक् िटािट पढ़ िेता है ।

पढ़ा हुआ पाठ याद रखने के विए-

एकाग्रता की आिश्यकता है । एकाग्रता प्राप्त करने के विए इक्तियसंयम


चावहए। संयम न हो तो मन की शक्तियाँ वबखर जाती हैं और इन सबकी नी ंि
में सबसे महत्त्वपूणश साधना है ब्रह्मचयश। भैया! यह सब ब्रह्मचयश से ही सम्भि
बनता है । आपको मेरी स्मरणशक्ति चमत्काररक िगती है परन्तु इसमें कुछ
भी चमत्कार नहीं है । यह सब ब्रह्मचयश का ही प्रताप है । इसका पूरा यश
ब्रह्मचयश को ही जाता है ।"

वििेकानन्दजी की बात सु नकर ग्रंथपाि के हृदय में उनके प्रवत अहोभाि जाग उठा।
िह स्वामीजी के चरणों में नतमस्तक होकर उनका भि बन गया।

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