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आर्यभटीय - गणित एवं खगोल की विवादित किताब

आर्यभट ने आर्यभटीय में पृ थ्वी के बारे में जो तथ्य रखे वे उस समय की धार्मिक मान्यताओं के विपरीत थे ।
इसलिए तत्कालीन ज्योतिषियों ने आर्यभटीय की पांडुलिपियों के साथ तथ्यात्मक तोड़-मरोड़ शु रू कर दी।
कितना कठिन होता है । लोगों की सोच में किसी भी प्रकार का परिवर्तन ला पाना। आर्यभटीय सिर्फ खगोल
की चर्चा तक ही सीमित नहीं है , इसमें गणित के भी कई पहलू उभारे गए हैं ।

1. गीतिकापाद 
भारत में बहुत प्राचीन काल से सं ख्याओं के लिए शब्दों को प्रयोग होता रहा है , जै से, चं दर् = 1, कर्ण = 2,
गु ण = 3 आदि। ईसा की पहली या दस ू री सदी में भारत में शून्ययु क्त दाशमिक स्थानमान अं क-पद्धति की
खोज हुई। अर्थात ऐसी पद्धति जिसमें शून्य का इस्ते माल होता हो, जिसका दस का आधार हो और जिसमें
इस्ते माल होने वाले सं केतों का मान उनके स्थान पर निर्भर करता हो। फिर उसके बाद पद्यबद्ध ग्रंथों में भी
स्थानमान के शब्दों का प्रयोग शु रू हुआ। तत्पश्चात जब दे खा गया कि शब्दांकों (अं कों को दर्शाने वाले
शब्द) की स्थापना दाई ओर से बाईं ओर करते जाने में पद्य-रचना में सु विधा होती है , तब यह प्रथा शु रू हुई
और नियम बना दिया गया : अंकानां वामतो गतिः यानी शब्दांक दाईं ओर से बाईं ओर चलते हैं । जै से,
खचतु ष्क रद-अर्णवाः का अर्थ होगा (ख यानी आकाश अर्थात शून्य - चतु ष्क यानी चार - रद यानी दांत
अर्थात 32 - अर्णवाः यानी समु दर् अर्थात 4); दाई ओर से लिखते हुए चार शून्य, बत्तीस और फिर से चार -
4320000.  

लघु ता और सं क्षिप्ता को पसं द करने वाले आर्यभट ने सं ख्याओं के लिए शब्दों के बजाए अक्षरों का उपयोग
करने का निश्चय किया। सं स्कृत व्याकरण के विशिष्ट शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने अपनी नई अक्षरांक
पद्धति यानी अक्षरों से सं ख्याओं को व्यक्त करने की व्यवस्था के सारे नियम एक श्लोक में भर दिए : 

वर्गाक्षराणि वर्गेऽवर्गेऽवर्गाक्षराणि कात् ङमौ यः। 


खद्विनवके स्वरा नव वर्गेऽवर्गे नवान्त्यवर्गे वा।।

आर्यभट की यह अक्षरांक पद्धति काफी जटिल है , इतनी कि इसमें कुछ अक्षर-सं ख्याओं का उच्चारण भी कर
पाना सं भव नहीं है । इसलिए इस पद्धति का उपयोग आर्यभट तक ही सीमित रह गया। यूनानी लोग भी
अपनी वर्णमाला के अक्षरों से ही सं ख्याओं को व्यक्त करते थे । बहुत सं भव है कि यूनानी अक्षरांकों को
दे खकर ही आर्यभट को अपनी अक्षरांक पद्धति की प्रेरणा मिली हो।

काल का मापन 
ग्रंथ के आरं भ में ही अपनी नई अक्षरांक पद्धति को स्थापित कर दे ने के बाद आर्यभट अब ग्रहों की
परिक् रमाओं की बड़ी-बड़ी सं ख्याओं को अत्यं त सं क्षिप्त रूप में प्रस्तु त कर दे ने में समर्थ थे । आर्यभट के
अनु सार, एक यु ग (महायु ग) में 4320000 बार पृ थ्वी सूर्य का चक्कर (सूर्य-भगण) लगाती है , इसलिए यु ग में
वर्ष भी इतने ही हैं । पृ थ्वी भगण की सं ख्या वे 1582237500 दे ते हैं । इसका स्पष्ट अर्थ है कि पृ थ्वी पश्चिम से
पूर्व की ओर एक यु ग में 1582237500 बार अपनी धु री पर भ्रमण करती है । जै सा कि हमने पहले बताया है ,
भूभर् मण का प्रतिपादन करने वाले आर्यभट पहले भारतीय ज्योतिषी थे । उन्होंने नाक्षत्र दिन का मान 23
घं टे 56 मिनट 4.1 से कंड दिया है । आधु निक मान 23 घं टे 56 मिनट 4.091 से कंड है । आर्यभट के अनु सार,
नाक्षत्र वर्ष 365.25868 दिनों का और चांदर् मास 27.32 1 67 दिनों का था। आधु निक गणना के अनु सार
इनके क् रमशः मान हैं : 365.25636 दिन

आर्यभट की अक्षरांक पद्धति

एक ही श्लोक में वर्णित आर्यभट की अक्षरांक पद्धति अपने सरल रूप में इस प्रकार है :
अ = 1 
इ = 100
उ = 10000 
ऋ = 1000000
औ =10000000000000000 
नृ = 100000000 
ए = 10000000000 
ऐ =1000000000000 
ओ =10000000000000

इस व्यवस्था में जहां व्यं जन के साथ स्वर मिला हो, वहां समझना चाहिए कि व्यं जनांक के साथ स्वरांक का
गु णन हुआ। जै से, कु = क् + उ = 1 X 10000 = 10000, और डि = ड् + इ = 5 x 100 = 500। ह्रस्व और दीर्घ
स्वरों में कोई भे द नहीं किया गया है । जहां सं युक्त व्यं जन के साथ स्वर मिला हो, वहां समझना चाहिए कि
वह स्वर उस सं युक्त व्यं जन के प्रत्ये क घटक के साथ मिला हुआ है । जै से, ख्षृ = ( + ऋ) + (ष् + ऋ ) = (2
X 1000000) + (80 x 1000000) = 82000000. श्लोक के अनु सार य = ङ् + म् (ङमौ यः) = 5 + 25 = 30

एक उदाहरण लीजिए : आर्यभट की मान्यता थी कि पृ थ्वी अपनी धु री पर घूमती है , इसलिए वे कहते हैं कि
'कु' यानी पृ थ्वी पूर्व की ओर एक महायु ग (= 4320000 वर्ष) में डिशिबु ण्लृ ख्षृ बार घूमती है । 

ङि = ङ् + इ = 5 X 100                    =             500


शि = श् + इ = 70 x 100                 =            7000
बु = ब् + उ = 23 X 1000                 =        230000 
एनृ = ण् + लृ = 15 x 1 00000000    =  1500000000 
ख्षृ = (2 + 80) x 1000000               =     82000000      
डिशिबु लूख्यृ                                   = 1582237500 

और 27.32166 दिन।*

मनु स्मृ ति और सूर्य-सिद्धांत की यु ग-पद्धति, इसमें 14 मनु , एक


मनु में 71 यु ग (चतु र्युग) और एक यु ग में 4320000 वर्ष होते हैं ।
साथ ही, मनु संधियों की कल्पना करके एक कल्प (ब्रह्मा का एक
दिन) में 1000 यु ग माने गए हैं । आगे यु ग या महायु ग को चार
छोटे यु गों - कृत, त्रेता, द्वापर और कलि - में विभाजित कर के
इन की कालावधियों को 4 : 3 : 2 : 1 के अनु पात में रखा गया,
यानी इन्हें क् रमशः 17 2 8 0 0 0 , 1 2 9 6 0 0 0 , 864000 और
432000 वर्षों के बराबर माना गया है । 

परन्तु आर्यभट ने इस कृत्रिम यु ग-पद्धति को स्वीकार नहीं


किया। उनके अनु सार :
1 कल्प = 14 मनु या 1008 यु ग (महायु ग) या 4354560000 वर्ष

1 मनु = 72 यु ग

1 यु ग = 4320000 वर्ष

आर्यभट की इस यु ग-पद्धति में मनु संधि के लिए कोई स्थान नहीं है । ब्रह्मांड के सृ ष्टि काल को उन्होंने
स्वीकार नहीं किया। सृ ष्टि और प्रलय की मान्यताओं में उनकी आस्था नहीं थी। वे काल को अनादि और
अनं त मानते थे (कालोऽयमनाद्यन्त:)। आर्यभट ब्रह्मा की आयु की भी बात नहीं करते । 

आर्यभट ने भी यु ग (महायु ग) को चार छोटे यु गों (यु गपादों) में विभक्त किया है । मगर ये यु गपाद समान
कालावधि के हैं , यानी प्रत्ये क यु गपाद 1080000 (0 वर्षों का है । स्पष्ट है । कि आर्यभट की यह यु ग पद्धति
अधिक तर्क सं गत है । उन्होंने कल्प और यु ग के आरं भ को किसी पार्थिव घटना के साथ नहीं जोड़ा है । उनके
मतानु सार ये आकाश में ग्रहों की स्थितियों से सं बंधित विशु द्ध गणित ज्योतिषीय घटनाएं है ।

*नाक्षत्र वर्ष का मान वे दां ग ज्योतिष में 366 दिन, वराहमिहिर द्वारा उल्ले खित पु राने सूर्य सिद्धांत में
365,25875 दिन, रोमक सिद्धांत में 365.2467 दिन और पै तामह सिद्धांत में  365.3569 दिन दिया गया है । नए
सूर्य सिद्धांत में वर्ष का मान 365.258756 दिन है । ताले मी (15) ई.) ने नाक्षत्र वर्ष 365.24 666 दिनों का और
चांदर् मास 27.32167 दिनों का दिया है ।

आर्यभट ने भूभर् मण का प्रतिपादन किया, इसलिए पृ थ्वी-भगणों की सं ख्या दी। साथ ही, गीतिकापाद में ही
उन्होंने यह भी लिख दिया कि पृ थ्वी एक प्राण या उछ्वासकाल में एक कला घूमती है (प्राणे नैति कलां
भूः)*। 

2 गणितपाद   
आर्यभटीय भारतीय गणित ज्योतिष का पहला ग्रंथ है जिसमें गणित से सं बंधित एक स्वतं तर् प्रकरण है ।
आर्यभट का अनु करण बाद के कई गणितज्ञ-ज्योतिषियों ने किया। आर्यभटीय का दस ू रा खं ड (गणितपाद),
जिसमें कुल 33 श्लोक हैं , गणित से सं बंधित है । आर्यभट ने गणित से सं बंधित केवल महत्वपूर्ण विषयों की ही
चर्चा की है , और वह भी सं क्षिप्त सूतर् ों में । उन्होंने केवल नियम और निष्कर्ष दिए हैं । उनके सूतर् ों की रचना
इतनी सं क्षिप्त और गठी हुई है कि कई बार समझने में काफी कठिनाई होती है । आर्यभट ने नियमों के प्रमाण
नहीं दिए हैं , उदाहरण भी नहीं दिए हैं । सूतर् ों का स्पष्टीकरण और उससे सं बंधित उदाहरण टीकाकारों ने
प्रस्तु त किए है ।

फिर भी, आर्यभट ने उनके समय तक ज्ञात गणित के सभी प्रमु ख विषयों को सं क्षेप में प्रस्तु त कर दिया है ।
मं गलाचरण के बाद के कुल 32 श्लोकों में उन्होंने अं कगणित, क्षे तर् मिति, त्रिकोणमिति और बीजगणित से
सं बंधित प्रमु ख और महत्वपूर्ण नियमों तथा निष्कर्षों को समे ट लिया है । इसमें से कुछ नियम पहले से ज्ञात
थे , कुछ स्वयं आर्यभट ने खोजे ।
सर्वप्रथम आर्यभट सं ख्या-स्थानों के नाम बताते हैं - एक, दश, शत, सहस्र,

अयु त             10000 
नियु त            100000 
प्रयु त             1000000 
कोटि             10000000 
अर्बुद             100000000 
वृं द               1000000000 

ये स्थान-नाम क् रमशः दाएं से बाएं गिनाए गए हैं और प्रत्ये क अगला स्थान पिछले स्थान से दस गु ना है ,
इसलिए आर्यभट लिखते  हैं ---
स्थानात् स्थानं दशगु णं स्यात् ।

*आर्यभट के अनु सार एक दिन = 60 नाड़ी = 3600 विनाड़ी = 21 600 प्राण या उछ्वास या सांस और एक
चक् र = 12 राशि = 360 अं श = 21600 कला इसलिए पृ थ्वी एक प्राण में एक कला घूमती है ।

तात्पर्य यह कि, आर्यभट नई स्थानमान-यु क्त अं क -पद्धति से भलीभां ति परिचित थे । 


आर्यभट ने त्रैराशिक* का जो नियम दिया है वह उनके पहले से भारतीयों को ज्ञात रहा है । उन्होंने भिन्नों के
समच्छे दीकरण** को ‘सवर्णत्व' कहा है और इसके लिए नियम दिया है । उन्होंने विलोम विधि*** का भी
नियम दिया है । 

भारत में पहली बार शु ल्वसूतर् ों में हमें कुछ ज्यामितीय नियम दे खने को मिलते हैं । परन्तु प्राचीन भारत में
यूनानी ज्यामितिकारों की तरह प्रमे यों के प्रमाण प्रस्तु त करने की परं परा विकसित नहीं हुई। 

यूक्लिड (300 ई. पू.) ने जिस तरह ज्यामिति को तार्कि क आधार प्रदान किया, उस तरह भारतीय क्षे तर् मिति
के लिए सं भव नहीं हुआ। ज्यामितीय आकृतियों के बीजगणितीय हल प्रस्तु त करने में भारतीय गणितज्ञों
की ज़्यादा दिलचस्पी रही।

आर्यभट ने गणितपाद में वर्ग, धन, त्रिभु ज, समलं ब, पिरामिड (सूचीस्तं भ), वृ त्त और गोल की चर्चा की है ।
उन्होंने पिरामिड के आयतन के लिए जो सूतर् दिया है वह शु द्ध नहीं है ।

वृ त्त का वर्ग उर्फ पाई का मान 


ज्यामिति में वृ त्त की परिधि और उसके व्यास के अनु पात (C) का बड़ा महत्व है । सर्वसामान्यतः हम यह भी
कह सकते हैं कि जिस दे श में जिस काल में 7 का जितना अधिक शु द्ध मान प्राप्त किया गया, वह दे श उस
काल में गणित के क्षे तर् में उतना ही

आगे था। आर्यभट के पहले हमारे दे श में TC के लिए 3, वर्गमूल 10 और 3.09 जै से स्थूल मानों का प्रयोग
होता था। आर्यभट ने इस अनु पात के लिए काफी शु द्ध मान प्रस्तु त किया। वे कहते हैं : "62832 उस वृ त्त कि
परिधि का आसन्न मान है जिसका व्यास 20000 है । 
अर्थात, 
परिधि/व्यास = 62832/20000 
3.1416 
पाई का यह मान चार दशमलव स्थानों तक शु द्ध है । विशे ष महत्व की

* त्रैराशिक उदाहरण - यदि 20 रुपए में एक किलो प्याज मिलती है तो 168 रुपए में कितने किलो मिले गी? 
**भिन्नों का समच्छे दीकरण - भिन्नों के हर स्थानों यानी नीचे की सं ख्याओं को समान करना। 
*** विलोम विधि का उदाहरण - वह कौन-सी सं ख्या है जिसमें 3 से गु णा करें , फिर 1 घटाएं , फिर आधा करें ,
फिर 2 जोड़े , फिर 3 से भाग दें और 2 घटाएं , तो अं त में 1 प्राप्त होगा? 

बात यह है कि आर्यभट ने इसे ‘आसन्न' यानी सन्निकटन मान कहा


है । अर्थात् , आर्यभट जानते थे कि इस अनु पात का यथार्थ मान ज्ञात
करना असं भव है । आज हम जानते हैं कि 7 एक अबीजीय
(ट् रांसेंडें टल) सं ख्या है , और इसलिए वृ त्तक्षे तर् को वर्गक्षे तर् में
बदलना सं भव नहीं है । यानी कि किसी भी वृ त्त के क्षे तर् फल जितना
क्षे तर् फल रखने वाला वर्ग नहीं बनाया जा सकता। 

आर्यभट द्वारा 1 के लिए एक बे हतर मान प्रस्तु त किए जाने पर भी


ब्रह्मगु प्त पु राने 3 तथा वर्गमूल 10 मानों का ही उपयोग करते रहे ।
यूनानी गणितज्ञों के पाई के मान आर्यभट के मान से बे हतर नहीं थे ।
मगर आर्यभट के लगभग समकालीन एक चीनी ग्रंथ में पाई के लिए जो 3.14 15929 मान है वह जरूर
बे हतर है । 

कुछ और सूतर्  
शु ल्बसूतर् ों में पाइथे गोरस के प्रसिद्ध प्रमे य की जानकारी है । आर्यभट ने भी इस प्रमे य को प्रस्तु त किया
है । आर्यभट के समय तक अभी 'रे खागणित' शब्द रूढ नहीं हुआ था, न ही ‘बीजगणित शब्दां प्राचीन भारत
में रे खागणित के लिए शु ल्वगणित, रज्जु गणित, क्षे तर् मिति जै से शब्दों का प्रयोग होता था। बीजगणित के
लिए प्राचीन भारत में प्रचलित शब्द थे - कुट् टक गणित या अव्यक्त गणित। ब्रह्मगु प्त ने 628 ई. में
अनिर्णीत या अनिर्धार्य समीकरणों के लिए ‘कुट् टक गणित' का प्रयोग किया है । ‘कुट् टक' का अर्थ है -
कू टना, कुट् टी करना। आर्यभट ने प्रथम घात के अनिर्णीत समीकरण हल करने के लिए तरीका बताया है ।
उन्होंने श्रेढियों के लिए भी नियम दिए हैं । आर्यभटीय में श्रेणियों की भी चर्चा है । 

आर्यभट ने वृ त्त के क्षे तर् फल और गोल के घनफल (आयतन) के लिए सूतर् दिए हैं । वृ त्त के क्षे तर् फल का
उनका सूतर् तो सही है , मगर गोल के घनफल का उनका सूतर् सही नहीं है । आर्यभट के काफी पहले यूनानी
ज्यामितिकार गोल के घनफल के लिए शु द्ध सूतर् प्राप्त कर चु के थे । 

भारत में ब्याज ले ने की प्रथा बहुत पु रानी है । सं स्कृत में ‘ब्याज' शब्द का मूल अर्थ है -- छल, कपट,
चालाकी आदि। परं तु प्राचीन भारत में सु द के अर्थ में यह ब्याज शब्द नहीं, बल्कि ‘वृ दधि ् ' तथा 'कुसीद'
(दुःख दे ने वाला) शब्द प्रयु क्त होते थे । आर्यभट ने गणितपाद के एक श्लोक में मूलधन पर ब्याज की रकम
जानने का भी नियम दिया है । 

3 कालक्रियापाद
आर्यभटीय का तीसरा अध्याय है - कालक्रिया। कुल 25 श्लोकों के इस अध्याय का प्रयोजन है , ग्रहों की
स्पष्ट (यथार्थ) स्थितियां निर्धारित करने के लिए आवश्यक सिद्धांत प्रस्तु त करना। चूंकि काल निर्धारण से
ही ग्रहों की स्थितियां स्पष्ट हो सकती हैं , इसलिए कालक्रिया यानी काल-गणना एक सार्थक शीर्षक है । 

इसी अध्याय के एक श्लोक में आर्यभट काल-सं बंधी अपनी विशिष्ट धारणा को भी स्पष्ट कर दे ते हैं । लिखते
हैं : ‘यु ग, वर्ष, मास और दिवस सभी का प्रारं भ एक ही समय चै तर् शु क्ल प्रतिपदा से हुआ। काल अनादि
और अनं त है । आकाश के ग्रहों के गमन को जानकर काल-गणना की जाती है ।'' 

आर्यभट के इस कथन का आशय यह है कि, वस्तु तः काल तो अनादि एवं अनं त है , केवल लोगों के उपयोग
के लिए ही इसके आरं भ और अं त को निर्धारित किया जाता है । काल का यह निर्धारण ग्रहों और नक्षत्रों की
स्थितियों से होता है । जै से, यु ग का आरं भ उस समय से माना जाता है । जब सभी ग्रह एक साथ मे षादि
(प्रथम मे ष राशि के आरं भिक बिं दु) में लं का* के क्षितिज पर थे । 

आर्यभट ने अध्याय के आरं भ में ही काल और खगोल की इकाइयां प्रस्तु त कर दी। जै से, एक दिन = 60
नाड़ी = 3600 विनाड़ी = 21600 प्राण। इसी प्रकार, एक चक् र = 12 राशि = 360 अं श = 21600 कला।
इसलिए प्रथम अध्याय में ही उन्होंने कह दिया था :

प्राणेनेति कलां भूः

(एक प्राण में पृ थ्वी एक कला घूमती है )।

आगे के श्लोकों में आर्यभट काल की बड़ी इकाइयां प्रस्तु त करते हैं । उनके अनु सार, सूर्य आकाश में पु नः
उसी नक्षत्र के आदि में पहुंचने में जो समय ले ता है यानी जितने समय में वह आकाश का चक्कर पूरा करता
है वह एक सौरवर्ष है । फिर वे बताते हैं कि यु ग में वर्ष, चांदर् मास, सावन दिन** और नाक्षत्र दिन कितने
होते हैं । 
* लं काः विषु व-वृ त्त पर स्थित वह काल्पनिक स्थान जहां उज्जै न से गु जरने वाली याम्योत्तर यानी रे खां श
रे खा आकर मिलती है । 
** एक सूर्योदय से दस ू रे सूर्योदय तक का समय सावन दिन कहलाता है ।

आर्यभट के अनु सार पृ थ्वी घूमती है और नक्षत्र अचल हैं , इसलिए नक्षत्र के एक उदय से दस ू रे उदय तक
का काल नाक्षत्र दिन वस्तु तः पृ थ्वी के एक बार घूमने के तु ल्य होता है । अतः पृ थ्वी एक यु ग में जितनी बार
घूमती है वही यु ग में नाक्षत्र दिनों की सं ख्या है । वे स्पष्ट लिखते हैं : यु ग में नाक्षत्र दिनों की सं ख्या
(1582237500) पृ थ्वी के अपनी धूरी पर भ्रमणों की सं ख्या के तु ल्य होती है --- 

क्वावर्ताश्चापि नाक्षत्राः 

आगे आर्यभट ने यु ग में अधिमासों और क्षय तिथियों की भी सं ख्याएं दी हैं । फिर वे अपनी विशिष्ट यु ग-
पद्धति को पु नः दोहराते हैं । जै सा कि पहले बताया गया है , आर्यभट दे वता ब्रह्मा के केवल एक दिन (कल्प)
की ही चर्चा करते हैं , अन्य ज्योतिष-ग्रंथों की तरह ब्रह्मा के वर्ष या ब्रह्मा की आयु (महाकल्प) की कोई
बात नहीं करते । 

इसी अध्याय के एक श्लोक में आर्यभट अपने जन्म वर्ष (476 ई.) की स्पष्ट जानकारी दे ते हैं और बताते हैं कि
कलियु ग के 3600 वर्ष बीत जाने पर यानी 499 ई. में उनकी आयु 23 साल की थी। आर्यभट ने स्पष्ट शब्दों में
यह नहीं कहा है कि उन्होंने 23 साल की आयु में आर्यभटीय की रचना की है ।

धरती ही है ब्रह्मांड का केंद्र 


कालक्रियापाद के आगे के कुछ श्लोकों में आर्यभट ने ग्रह कक्षाओं की परिधियां दी हैं । पर यह सब बातें
परिकल्पित हैं । भारतीय ज्योतिषियों ने , आर्यभट ने भी माना कि सभी ग्रह पृ थ्वी के चारों ओर समान गति
से परिक् रमा करते हैं । परं तु वास्तविकता यह नहीं है । वस्तु तः सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं और
उनके वे ग समान नहीं हैं । सूर्य से अधिक दरू के ग्रह अधिक धीमी गति से घूमते हैं ।

आर्यभट ने एक श्लोक में ग्रहों की कक्षाओं का क् रम स्पष्ट कर दिया है : सबसे ऊपर नक्षत्र-मं डल है । उसके
नीचे क् रमशः शनि, बृ हस्पति, मं गल, सूर्य, शु क्र, बु ध तथा चं दर् मा की कक्षाएं हैं । ग्रहों के क् रम के बारे में
सभी भारतीय ज्योतिषियों की यही मान्यता रही है । 

मगर सप्ताह के वारों का क् रम यह नहीं है । वस्तु तः आज प्रचलित सात वारों के नाम वै दिक साहित्य,
वे दां ग-ज्योतिष तथा महाभारत में कहीं दे खने को नहीं मिलते । भारत में सात वारों और बारह राशियों का
आगमन, खल्दियाई यूनानी* फलित-ज्योतिष के साथ, ईसा की आरं भिक सदियों में हुआ। ग्रहगति के
भारतीय सिद्धांत भी यूनानी ज्योतिष से ही ग्रहण किए गए हैं । 

प्राचीन काल के ज्योतिषियों की, यूनानी ज्योतिषियों की भी दृढ़ मान्यता रही है कि पृ थ्वी ही केन्द्र-स्थान
में है और ग्रह व सूर्य भी, इसी की परिक् रमा करते हैं । परन्तु पृ थ्वी को केंद्र में मानकर ग्रहों की स्पष्ट
गतियों को जानने में कई कठिनाइयां हैं । इसके लिए यूनानी गणितज्ञ-ज्योतिषियों ने कुछ कृत्रिम योजनाएं
तै यार की थीं, जिन्हें उत्केंद्री और अधिचक् री (Eccentric and Epi cyclic) के नाम से जाना जाता है । ईसा
की आरं भिक सदियों में भारतीय गणितज्ञ-ज्योतिषी अपनी परं परागत मान्यताओं में सं शोधन करने में जु टे
हुए थे । उसी दौरान उन्होंने उत्केन्द्री और अधिचक् री योजनाओं को भी ग्रहण किया। इनकी जानकारी
सूर्य-सिद्धांत में है । आर्यभट ने भी कालक्रियापद में इनका वर्णन किया है । 

आर्यभट एक वे धकर्ता ज्योतिषी और कुशल गणितज्ञ थे । उन्होंने बे बीलोनी-खल्दियाई और यूनानी ज्योतिष


की कई मान्यताओं को अपनाया और उन्हें सु व्यवस्थित रीति से प्रस्तु त किया। उनके इस प्रस्तु तीकरण में
मौलिकता है । कहा जा सकता है । कि यूनानी गणित-ज्योतिष में जो स्थान ताले मी (लगभग 150 ई.) का है ,
वही स्थान भारतीय गणित-ज्योतिष में आर्यभट का है । 
4 गोलपाद 
आर्यभटीय का चौथा और अं तिम अध्याय है - गोलपाद/पचास श्लोकों के इस सबसे बड़े अध्याय में तारा
मं डल (भगोल) पर सूर्य, चं दर् तथा ग्रहों की गतियों को समझाया गया है । भगोल** के प्रमु ख वृ त्तों को भी
परिभाषित किया है । पृ थ्वी की स्थिति और दै नंदिन गति को भी इसी अध्याय में स्पष्ट किया गया है । इसी
अध्याय में आर्यभट ने ग्रहणों का भी विवे चन किया है । सं क्षेप में , इस अध्याय का विषय गोलीय खगोलिकी
(Spherical Astronomy) है । 
ू रे को जिन दो बिन्दुओं पर
सूर्य के आकाश-मार्ग को क् रां तिवृ त्त कहते हैं । क् रां तिवृ त्त और विषु वत्-वृ त्त एक दस
काटते हैं उन्हें सं पात-बिन्दु कहते हैं । पहले से ज्ञात होने के कारण आर्यभट 

* खल्दियाई -- मे सोपोटे मिया के बे बीलोनियों के लिए उनके शासन के अं तिम दौर (626 - 639 ई. पू.) में
प्रयु क्त नाम है Chaldean. 
**भ यानी नक्षत्र, भगोल यानी नक्षत्र-मं डल।

इनकी चर्चा नहीं करते । वे सं पात


बिन्दुओं के पश्च-गमन यानी अयन
चलन की भी कोई चर्चा नहीं करते ।

अन्य भारतीय ज्योतिषियों की तरह


आर्यभट की भी यह मान्यता रही कि
समूचे विश्व में अकेला सूर्य ही प्रकाश
का स्रोत है और सूर्य के प्रकाश से ही
आकाश के सभी पिं ड, तारे भी,
प्रकाशित होते हैं । परं तु आज हम
जानते हैं कि तारे स्वप्रकाशित पिं ड हैं । 

आर्यभट पृ थ्वी के बारे में जो मत व्यक्त करते हैं वे मौलिक और अत्यं त महत्वपूर्ण हैं । शु रू में ही वे स्पष्ट कर
दे ते हैं कि पृ थ्वी किसी आधार पर स्थित नहीं है , यह निराधार है । वराहमिहिर, भास्कराचार्य आदि को भी यही
मत रहा है । मगर आर्यभट का यह मत कि पृ थ्वी चार महाभूतों - मिट् टी, जल, अग्नि और वायु से निर्मित है ,
दस ू रे ज्योतिषियों से भिन्न है । उन्होंने पांचवें तत्व 'आकाश' को स्वीकार नहीं किया। 

चूंकि आर्यभट की चार महाभूतों की मान्यता स्मृ ति-परं परा और आस्तिक मतों के विरुद्ध थी, इसलिए परं परा
के पोषक पु रोहित वर्ग द्वारा इसका जबरदस्त विरोध हुआ वराहमिहिर ने ज्योतिषशास्त्र में पु नः पं चमहाभूत
की स्थापना की। 

विरोध के स्वर 
आर्यभट की जिस मान्यता का, सही होने पर भी, सबसे ज्यादा
विरोध हुआ वह है भू-भ्रमण। गोलपाद के एक श्लोक में वे कहते
हैं : “जिस तरह नाव में बै ठा हुआ कोई मनु ष्य जब पूर्व दिशा में
जाता है तब तट की अचल वस्तु ओं को उलटी दिशाओं में जाता
हुआ अनु भव करता है , उसी तरह अचल तारागण लं का (भूमध्य
रे खा पर वह स्थान जहां उज्जै न से गु जरने वाला रे खां श आकर
मिलता है ) में पश्चिम की ओर जाते प्रतीत होते हैं ।' तारा मं डल
स्थिर है , पृ थ्वी ही अपनी धु री पर घूमती है , यह बात आर्यभट
अपनी पु स्तक में और भी तीन-चार स्थानों पर स्पष्ट कर दे ते हैं । 
न केवल भारतीय ज्योतिष के इतिहास में , अपितु उस समय तक की समूची भारतीय चिं तन-परं परा में
आर्यभट का भूभर् मणवाद एक नया क् रां तिकारी सिद्धांत था। उनकी यह मान्यता सही थी, परन्तु श्रुति-
स्मृ ति परं परा के विरुद्ध थी, इसीलिए आर्यभट के जीवनकाल में ही इसका विरोध भी शु रू हो गया
था। आर्यभट के भू-भ्रमण वाद पर हमला करने वाले पहले ज्योतिषी वराहमिहिर (मृ त्यु : 587 ई.) हैं ।
आर्यभट के भूभर् मणवाद पर कठोर प्रहार करने वाले दस ू रे गणितज्ञ-ज्योतिषी ब्रह्मगु प्त हैं । उन्होंने आर्यभट
के दोष दिखाने के लिए अपने ‘ब्राह्मस्फुट-सिद्धांत' में तं तर् परीक्षा नामक एक स्वतं तर् अध्याय ही लिखा।
ब्रह्मगु प्त ने आर्यभट के, न केवल भूभर् मणवाद का बल्कि उनकी यु ग पद्धति और ग्रहणों सं बंधी सही
मान्यताओं का भी खं डन किया। उन्होंने और भी दोष गिनाए और अं त में यह भी लिख दिया कि आर्यभट के
दोषों की सं ख्या बताना सं भव नहीं है - आर्यभट दूषणानां संख्या वक्तु ं न शक्यते !* 

गोलपाद के ही एक श्लोक में ग्रहणों के कारण बताते हुए आर्यभट लिखते हैं : ‘‘सूर्य को जब चं दर् की छाया
ढक ले ती है तो सूर्य-ग्रहण होता है और जब पृ थ्वी की बड़ी छाया चं दर् को ढक ले ती है तब चं दर् -ग्रहण
होता है ।'' आर्यभट राहु को ग्रहणों का कारण नहीं मानते । मगर ब्रह्मगु प्त श्रुति-स्मृति के अनु सार राहु को
ग्रहणों का कारण मानते हैं और इसलिए आर्यभट के मत का विरोध करते हैं । 

परं तु ब्रह्मगु प्त की दृष्टि में आर्यभट का सबसे बड़ा अपराध था - श्रुति स्मृ ति की अवहे लना करके भूभर् मण

*आर्यभट के भू-भ्रमण के खिलाफ ब्रह्मगु प्त ने निम्न तर्क दिए : यदि पृ थ्वी घूमती है , तो मनु ष्य अपने -अपने
स्थान पर पु नः कैसे लौट पाते हैं , और ऊंचे -ऊंचे मकान नीचे क्यों नहीं गिरते ? वराहमिहिर, लल्ल आदि अन्य
ज्योतिषियों ने कहा कि यदि पृ थ्वी घूमती है , तो पक्षी अपने घोसलों में कैसे लौट आते हैं ? यदि पृ थ्वी पूर्व की
ओर घूमती है , तो आकाश की ओर छोड़ा गया तीर पश्चिम की ओर गिरे गा और बादल भी पश्चिम की ओर
चलें गे । यदि कहा जाए कि पृ थ्वी धीरे घूमती है , तो यह एक दिन में एक परिक् रमा कैसे पूरी कर ले ती है ? 

का नया सिद्धांत प्रतिपादित करना। उन्होंने अपने ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है : ‘आर्यभट ... आदि के विचार
लोक विश्वास के विरुद्ध और वे दों, स्मृ तियों और सं हिताओं (गर्ग आदि की सं हिताओं) की मान्यताओं के
विपरीत हैं ।” 

भूः को बना भं
मगर बात केवल दोष दिखाने तक ही सीमित नहीं रही। आर्यभटीय की रचना के करीब सवा सौ वर्षों में
आर्यभट के भूभर् मण को बलपूर्वक भम्रमण (तारागण-भ्रमण) में बदल दे ने के प्रयास हुए। आर्यभटीय में
जहां भूः और कु (पृ थ्वी) शब्द थे वहां उन्हें भं (तारा-मं डल) में बदल दिया गया! सर्वप्रथम यह परिवर्तन
भास्कर प्रथम के आर्यभटीय-भाष्य (629 ई.) में ही दे खने को मिलता है , ब्राह्मस्फुट सिद्धांत की रचना के
ठीक एक साल बाद। बड़े आश्चर्य की बात है कि भास्कर-प्रथम अपने को आर्यभट का अनु यायी बताते हैं ,
उन्हें 'प्रभु ' कहते हैं , मगर अपने आर्यभटीय-भाष्य में अत्यं त महत्वपूर्ण मूल शब्द भूः को भं में बदल दे ते हैं ।
बाद में आर्यभटीय के सभी टीकाकारों ने , दक्षिण भारतीय टीकाकारों ने भी, यही किया - भूभर् मण को
भभ्रमण में बदल दिया। जिन्होंने बाद में आर्यभट के सिद्धांत के अनु सार स्वतं तर् ग्रंथ लिखे उन्होंने भी
टीकाकारों का हीं अनु करण किया, हालां कि सभी जानते थे कि आर्यभट ने वस्तु तः भूभर् मण का ही प्रतिपादन
किया है । 

मगर केवल तीन ही ज्योतिषी सचाई को खु लकर कह पाए, बौद्धिक ईमानदारी और भरपूर साहस का परिचय
दे पाए। ये हैं - पृ थद
ू क स्वामी (854 ई.), उदयदिवाकर (1073 ई.) और मक्किभट् ट (1377 ई.)। मजे की बात
यह है कि इन तीनों ने ही आर्यभटीय पर कोई भाष्य नहीं लिखा है । ब्राह्मस्फुट-सिद्धांत के भाष्यकार पृ थदू क
स्वामी लिखते हैं : आर्यभट ने भूभर् मण को स्वीकार किया है । उनका कहना भी है -- प्राणे नेति कलां भूः।
परन्तु लोकभय के कारण भास्कर-प्रथम और दस ू रों ने इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है । 
आर्यभटीय के भूः और के शब्दों को भं में यानी भूभर् मण को
भभ्रमण में बदल दे ने की यह व्यवस्था 629 ई. के पहले ही
हो चु की थी। यह व्यवस्था इतनी बलशाली और
प्रभावकारी थी कि आधु निक काल तक कोई भी भारतीय
ज्योतिषी इसे बदलने का साहस नहीं जु टा पाया।
भास्कराचार्य (1150 ई.) पृ थ्वी के गु रुत्वाकर्षण की तो चर्चा
करते हैं , किन्तु भूभर् मण को स्वीकार नहीं करते । 

लोकभय! किन लोगों का भय? 


यह तो पता चल गया कि यह सब लोक भय के कारण हुआ।
मगर बु नियादी सवाल है - यह भय किन लोगों का था? यह
भय सामान्य जनों का कदापि नहीं हो सकता। यहां
लोकभय का अर्थ है , समाज के उस विशिष्ट वर्ग का भय
जिसके हितसाधन में आर्यभट द्वारा प्रतिपादित भूभर् मण
का सिद्धांत बाधक बनता था। यह था पु रोहित-वर्ग, जिसका
हित वे दों, धर्मशास्त्रों और आर्यभट के एक-दो सदी पहले से लिखे जा रहे नए-नए पु राण-ग्रंथों के वचनों
की रक्षा के साथ जु ड़ा हुआ था। मगर आर्यभट का भूभर् मण का नया वै ज्ञानिक सिद्धांत पृ थ्वी-सं बंधी श्रुति-
स्मृ ति की परम्परागत मान्यताओं का खं डन करता था। पु रोहित वर्ग के लिए एक नई चु नौती थी।
‘परमभागवत' गु प्तों के शासनकाल में यह वर्ग काफी बलशाली बन गया था। पृ थद ू क स्वामी ने जिसे लोक
भय कहा है वह वस्तु तः शक्तिशाली पु रोहित वर्ग का भय था। वे दों और धर्मशास्त्रों के हवाले दे कर अचला
पृ थ्वी का जो लोकविश्वास कायम किया गया था उसे टिकाए रखने में सबसे ज्यादा हित पु रोहित वर्ग का ही
था। इसलिए समाज के इस प्रभावशाली वर्ग ने आर्यभट के भूभर् मणवाद के उन्मूलन के लिए हर सं भव
प्रयास किया हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । 

मगर उनके इस प्रयास को पूर्ण सफलता नहीं मिली। आर्यभट के भूभर् मण से सं बंधित मूल शब्द बदले गए,
दे श के अधिकतर भागों से ‘आर्यभटीय' की हस्तलिपियां भी गायब हो गईं, उनका एक अन्य ग्रंथ 'आर्यभट
सिद्धांत' आज भी अप्राप्य है , फिर भी आर्यभट के इस सिद्धांत की चोटी के प्रायः सभी ज्योतिषियों को
जानकारी रही है । 

परन्तु धर्माचार्यों द्वारा भूभर् मण का विरोध भी सतत जारी रहा। जब दे खा गया कि, दबी जु बान में ही सही,
आर्यभट का भूभर् मणवाद जीवित है , तो कट् टर वे दांती अप्पय दीक्षित (1530-1600 ई.) अं ततः ‘व्यवस्था
दे ते हैं : ‘‘वे द में पृ थ्वी को प्रतिष्ठा यानी स्थिर कहा गया है । आर्यभट आदि द्वारा प्रतिपादित
भूभर् मणादिवाद श्रुति और न्याय के विरुद्ध होने के कारण हे य है ।

आर्यभटाद्यभिमतभूभ्रमणादिवादानां शृ तिन्यायविरोधेन हे यत्वात्।''*

ज्योतिष एक प्रत्यक्ष शास्त्र है , विज्ञान है । ज्योतिषशास्त्र और धर्मशास्त्र की परम्पराएं अलग-अलग हैं ।


ग्रहों उपग्रहों और नक्षत्रों की गतियों को धर्मशास्त्र के उपदे शों के अनु सार नहीं बदला जा सकता। मगर
अप्पय दीक्षित ने ठीक यही किया : भूभर् मण को हे य सिद्ध करने के लिए 'वे दवाक्य' का सहारा लिया।
अथर्ववे द में पृ थ्वी को ‘प्रतिष्ठा' यानी अचला यानी स्थिर कहा गया है । (अथर्ववे द 6.77) 

अप्पय दीक्षित जब भू-भ्रमण को हे य करार दे रहे थे , तब तक यूरोप में भू-भ्रमण की अच्छी तरह स्थापना
हो चु की थी। कोपर्निकस (1473-1543 ई.) का सूर्यकेंद्र सिद्धांत भी अस्तित्व में आ चु का था और ज्योर्दानो
ब्रूनो (1517-1600 ई.) यूरोप के शहरों में घूम-घूमकर उसका प्रचार कर रहे थे । रोम के ईसाई धर्माचार्यों के
आदे श से 1600 ई. में ज्योर्दानो ब्रूनो को जिन्दा जला दे ना और वे दप्रामाण्य' का आश्रय ले कर आर्यभट के
भूभर् मणवाद के उन्मूलन के लिए हर सं भव प्रयास करना, इन दोनों बातों में ज्यादा अं तर नहीं है । 
आर्यभट भी द्विज कुल में ही पै दा हुए थे , परन्तु वे श्रुति-स्मृ ति और पु राणों के अं धभक्त नहीं थे ।
आर्यभटीय के अं त में उन्होंने लिखा भी है “मैं ने यथार्थ और मिथ्या ज्ञान के समु दर् में से स्वबु दधि
् से यथार्थ
ज्ञान का उद्धार किया है ।'' मगर ब्राह्मण-पु रोहितों के वर्ग ने एक उच्च वर्गीय गणितज्ञ ज्योतिषी के मतों को
हे य क्यों करार दिया? 

इसके लिए भी प्रेरणाएं पहले से मौजूद थीं। मनु स्मृ ति की व्यवस्था है : “श्रुति और स्मृ ति में बताए गए
धर्म का अनु ष्ठान करने वाले मनु ष्य की इस लोक में कीर्ति होती है और परलोक में जाने पर उसे अत्यु त्तम
सु ख मिलता है । श्रुति का अर्थ है वे द और स्मृ ति का अर्थ है धर्मशास्त्र। इन दोनों के प्रतिकू ल तर्क नहीं
करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं से सं पर्ण ् का सहारा ले कर श्रुति-
ू धर्म प्रकट हुआ है । जो द्विज तर्क बु दधि
स्मृ ति परम्परा का तिरस्कार करता है उसे साधु जनों द्वारा नास्तिक और वे दनिन्दक मानकर बहिष्कृत कर दे ना
चाहिए।'' (अध्याय 2,9-11) 

् वादी आर्यभट ने भी श्रुति-


मनु की यह व्यवस्था' प्रमु खतः ब्राह्मण लोकायतिकों के लिए थी। मगर बु दधि
स्मृ ति की अवहे लना की थी, इसलिए उन पर भी इसे लागू कर दिया गया! आर्यभट की मान्यताओं को
बदलने और मिटा दे ने के लिए सभी सं भव प्रयास किए गए, सतत कई सदियों तक। 

इतना ही नहीं, आर्यभट को लोक

परशु राम कृष्ण गोड़े का ले ख ‘अप्पयदीक्षित'स क्रिटिसिज्म ऑफ आर्यभट् स थ्योरी ऑफ द डायूर्नल मोशन
ऑफ द अर्थ' ABORI, Vol 19 (1938) page 93-95। 

परम्परा से भी बहिष्कृत कर दे ने के प्रयास हुए। परम्परा से हमें चन्द्रगु प्त विक् रमादित्य के दरबार के नौ
रत्नों के बारे में जानकारी मिलती है । तथाकथित रूप से कवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध, परन्तु दरअसल
12 वीं सदी में लिखी गई ‘ज्योतिर्विदाभरण' नामक जाली पोथी के एक श्लोक में भी इन नौ रत्नों की सूची है
- धन्वं तरि, क्षपणक, अमरसिं ह, शं कु, वे तालभट् ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि।

हम जानते हैं कि ये सारे पं डित चं दर् गु प्त-विक् रमादित्य के समय (376-41 4 ई.) के नहीं हैं । महत्व की बात
यह है कि इस सूची में कुसु मपु र यानी पाटलिपु त्र में पूजित ज्ञान को प्रतिष्ठित करने वाले गु प्तकाल के ही
प्रथम महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट का नामोल्ले ख नहीं है ! क्या यह भारतीय विज्ञान के प्रथम
पौरुषे य कृतित्व को और उसके रचनाकार को लोक-परम्परा से ही बहिष्कृत कर दे ने वाला प्रयत्नपूर्वक किया
गया प्रयास नहीं है ? 

अतः यह सु स्पष्ट हो जाता है कि समाज के किस वर्ग ने , किस समय से , श्रुति-स्मृ ति परम्परा का खं डन करने
वाले नये ज्ञान-विज्ञान का जबरदस्त विरोध शु रू कर दिया था। कालांतर के हमारे वै ज्ञानिक अवनति के स्रोत
तथाकथित ‘स्वर्णयु ग' में ही मौजूद हैं । 

आर्यभटीय

आर्यभटीय ( IAST : ryabha Arya ) या आर्यभटियाम ( ryabhaṭīyaṃ  ), एक सं स्कृत खगोलीय ग्रंथ ,५वीं


शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ आर्यभट् ट की महान रचना और एकमात्र ज्ञात जीवित कार्य है । खगोल विज्ञान
के दार्शनिक रोजर बिलार्ड ने पाठ में सट् टा मापदं डों के आधार पर 510 सीई के आसपास पु स्तक के ग्रंथ का
अनु मान लगाया।
आर्यभटीय में कुट् टक का सं दर्भ
संरचना और शैली
आर्यभटीय सं स्कृत में लिखा गया है और चार खं डों में विभाजित है ; इसमें कुल १२१ छं द शामिल हैं जो भारत
में इस तरह के कार्यों के लिए विशिष्ट एक स्मरणीय ले खन शै ली के माध्यम से विभिन्न नै तिकता का वर्णन
करते हैं (नीचे परिभाषा दे खें):
1. गीतिकापाद (13 छं द): समय की बड़ी इकाइयाँ - कल्प, मन्वं तर और यु ग - जो पहले के ग्रंथों से अलग
ब्रह्मांड विज्ञान प्रस्तु त करती हैं जै से कि लगध का वे दां ग ज्योतिष (सी। पहली शताब्दी ईसा पूर्व)।
[साइन] (ज्या) की एक तालिका भी एक ही श्लोक में दी गई है । एक महायु ग के दौरान ग्रहों की परिक् रमा
की अवधि 4.32 मिलियन वर्ष बताई गई है ।
2. गणितपद (३३ श्लोक): क्षे तर् मिति (क्षे तर् व्यवहार) को कवर करना; अं कगणित और ज्यामितीय प्रगति;
सूक्ति/छाया (शं कु-छाया); और सरल, द्विघात, यु गपत, और अनिश्चित समीकरण ( कुसाका )।
3. कलाक्रियापाद (२५ छं द): समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति
निर्धारित करने की एक विधि, अं तराल मास (अधिकासा), क्षय-तिथि, और दिनों के नामों के साथ एक सात-
दिवसीय सप्ताह से सं बंधित गणना सप्ताह का।
4. गोलापाद (५० छं द): आकाशीय गोले के ज्यामितीय/त्रिकोणमितीय पहलू, अण्डाकार की विशे षताएं ,
आकाशीय भूमध्य रे खा, नोड, पृ थ्वी का आकार, दिन और रात का कारण, क्षितिज पर राशियों का उदय
आदि। इसके अलावा, कुछ सं स्करण अं त में जोड़े गए कुछ कॉलोफ़ोन का हवाला दे ते हैं , जो काम के गु णों
की प्रशं सा करते हैं , आदि।
यह अत्यधिक सं भावना है कि आर्यभटीय का अध्ययन एक अच्छे शिक्षक की शिक्षाओं के साथ किया जाना
था। जबकि कुछ छं दों में तार्कि क प्रवाह होता है , कुछ में नहीं होता है , और इसकी सहज सं रचना एक
आकस्मिक पाठक के लिए अनु सरण करना मु श्किल बना सकती है ।
भारतीय गणितीय कार्यों में अक्सर आर्यभट् ट से पहले शब्द अं कों का उपयोग किया जाता है ,
ले किन आर्यभटीय दे वनागरी अं कों के साथ सबसे पु राना मौजूदा भारतीय काम है । अर्थात्, उन्होंने सं ख्या-
शब्द बनाने के लिए दे वनागरी वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, जिसमें व्यं जन अं क दे ते थे और स्वर
स्थानीय मान दर्शाते थे । यह नवाचार उन्नत अं कगणितीय सं गणनाओं की अनु मति दे ता है जो इसके बिना
काफी अधिक कठिन होता। साथ ही, अं कन की यह प्रणाली ले खक की पसं द की सं ख्याओं में भी काव्यात्मक
लाइसें स की अनु मति दे ती है । सी एफ आर्यभट् ट अं कगणित , सं स्कृत अं क।
अं तर्वस्तु
आर्यभटीय 4 वर्गों, या शामिल Adhyā yā s । पहले खं ड को गीतकापन कहा जाता है , जिसमें १३ श्लोक
हैं । आर्यभटीय एक परिचय के साथ शु रू होता है जिसे "दसगीतिका" या "दस श्लोक" कहा जाता है । यह हिं द ू
धर्म में "ब्रह्मांडीय आत्मा" ब्राह्मण ( ब्राह्मण नहीं ) को श्रद्धांजलि अर्पित करने से शु रू होता है । इसके
बाद, आर्यभट काम में प्रयु क्त अं क प्रणाली का वर्णन करते हैं । इसमें खगोलीय स्थिरांक और साइन टे बल
की सूची शामिल है । फिर वह अपने खगोलीय निष्कर्षों का अवलोकन दे ता है ।
अधिकां श गणित अगले खं ड, "गणितपद" या "गणित" में निहित है ।
गणितपद के बाद, अगला खं ड "कलाक्रिया" या "समय की गणना" है । इसमें आर्यभट् ट आकाशीय पिं डों की
गति के अनु सार दिनों, महीनों और वर्षों को विभाजित करते हैं । वह इतिहास को खगोलीय रूप से विभाजित
करता है ; इसी प्रदर्शनी से  आर्यभटीय के सं कलन के लिए ४९९ ईस्वी की तिथि की गणना की गई है
। [१] पु स्तक में  सनकी और महाकाव्यों का उपयोग करके ग्रहों के दे शांतर की गणना करने के नियम भी
शामिल हैं ।
अं तिम खं ड में , "गोला" या "स्फीयर," आर्यभट पृ थ्वी और ब्रह्मांड के बीच आकाशीय सं बंध का वर्णन करते
हुए बहुत विस्तार से जाता है । यह खं ड अपनी धु री पर पृ थ्वी के घूर्णन का वर्णन करने के लिए विख्यात है ।
यह आगे  शस्त्रागार क्षे तर्  का उपयोग करता है और त्रिकोणमिति की समस्याओं और ग्रहणों की गणना से
सं बंधित नियमों का विवरण दे ता है ।
महत्व
यह ग्रंथ सौर मं डल के एक भू- केंद्रीय मॉडल का उपयोग करता है , जिसमें सूर्य और चं दर् मा प्रत्ये क
को चक् रों द्वारा ले जाया जाता है जो पृ थ्वी के चारों ओर घूमते हैं । इस मॉडल में , जो
कि पै तामहासिद्धांत (सीए। 425 ईस्वी) में भी पाया जाता है , ग्रहों की गति प्रत्ये क दो चक् रों द्वारा
नियं त्रित होती है , एक छोटा मं डा (धीमा) चक् र और एक बड़ा अघरा (ते ज) चक् र। [2]
कुछ टिप्पणीकारों, विशे ष रूप से  बीएल वै न डे र वे र्डन द्वारा यह सु झाव दिया गया है कि आर्यभट् ट के भू-
केंद्रित मॉडल के कुछ पहलू एक अं तर्निहित सूर्यकेंद्रित मॉडल के प्रभाव का सु झाव दे ते हैं । [३] [४] इस
दृष्टिकोण का अन्य लोगों द्वारा खं डन किया गया है और विशे ष रूप से , नोएल स्वे रडलो द्वारा कड़ी आलोचना
की गई है , जिन्होंने इसे पाठ के प्रत्यक्ष विरोधाभास के रूप में चित्रित किया है । [५] [६]
हालां कि, काम के भू-केंद्रित दृष्टिकोण के बावजूद, आर्यभटीय कई विचार प्रस्तु त करता है जो आधु निक
खगोल विज्ञान और गणित के लिए आधारभूत हैं । आर्यभट् ट ने जोर दे कर कहा कि चं दर् मा, ग्रह
और तारक परावर्तित सूर्य के प्रकाश से  चमकते हैं , [७] [८] सूर्य और चं दर् मा के ग्रहणों के कारणों को सही
ढं ग से समझाया, और π के लिए गणना मूल्यों और बहुत करीब आने वाले  नक्षत्र वर्ष की लं बाई आधु निक
स्वीकृत मूल्यों के लिए।
३६५ दिन ६ घं टे १२ मिनट ३० से कंड पर नाक्षत्र वर्ष की लं बाई के लिए उनका मान ३६५ दिन ६ घं टे ९ मिनट
१० से कंड के आधु निक वै ज्ञानिक मूल्य से केवल ३ मिनट २० से कंड अधिक है । π के निकट सन्निकटन इस
प्रकार दिया गया है : "एक सौ में चार जोड़ें , आठ से गु णा करें और फिर बासठ हजार जोड़ें । परिणाम लगभग
बीस हजार व्यास के एक वृ त्त की परिधि है । इस नियम से परिधि का सं बंध व्यास दिया गया है ।" दस ू रे शब्दों
में , ६२८३२/२०००० = ३.१४१६, चार पूर्णांकित दशमलव स्थानों के लिए सही।
इस पु स्तक में , दिन को एक सूर्योदय से दसू रे सूर्योदय तक गिना गया था, जबकि अपने "आर्यभट् ट-सिद्धांत"
में उन्होंने दिन को एक मध्यरात्रि से दसू री तक ले लिया था। कुछ खगोलीय मापदं डों में भी अं तर था।
प्रभाव
आर्यभट् ट के सं कलन के बाद लिखने वाले सबसे उल्ले खनीय भारतीय गणितज्ञों ने इस पर टीकाएँ लिखीं।
कम से कम बारह उल्ले खनीय टिप्पणियों के लिए लिखा गया आर्यभटीय आर्यभट् ट के जीवनकाल (सी।
525) 1900 के माध्यम से ( "आर्यभट् ट मैं " 150-2) से ले कर। टिप्पणीकारों में  भास्कर I और ब्रह्मगु प्त , अन्य
उल्ले खनीय शामिल हैं ।
याकिब इब्न तारिक के तारकीब अल-अफ़्लाक में २,१०० फ़र्सख़ में पृ थ्वी के व्यास का अनु मान १०५० योजन
के आर्यभटीय में पृ थ्वी के व्यास के अनु मान से निकला प्रतीत होता है । [९]
820 के आसपास अल-ख्वारिज्मी द्वारा काम का अरबी में अनु वाद किया गया था , जिसका हिं द ू अं कों के साथ
गणना पर 12 वीं शताब्दी से यूरोप में  हिं द-ू अरबी अं कों को अपनाने में प्रभावशाली था।
पं चां ग (हिं द ू कैलें डर) को ठीक करने के व्यावहारिक उद्दे श्यों के लिए आर्यभट् ट की खगोलीय गणना के तरीके
निरं तर उपयोग में रहे हैं ।
पितामह सिद्धान्त

पितामह सिद्धान्त एक खगोल संबन्धी प्राचीन भारतीय ग्रन्थ है जिसके रचयिता पितामह थे। इस ग्रन्थ में  सूर्य की
गति व चन्द्र संचार की गणनाओं का उल्लेख किया गया है । यह शास्त्र आज अधूरा ही उपलब्ध है ।

सूर्यसिद्धान्त की भमि
ू का में 'पितामह' नाम इस प्रकार आया है -
सर्य
ू ः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः।
कश्यपो नारदो गर्गो मारीचिर्मनुरङ्गिराः॥
लोमशः पुलिशश्चैव च्यवनो यवनो भग
ृ ुः।
शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्त्तकाः॥

अर्थात वैदिक ज्योतिष को ऊंचाईयों पर ले जाने वाले ऋषियों में सूर्य, पितामह, व्यास, वशिष्ठ, अत्रि,
पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगीरश, लोमश, पोलिश, चवन, यवन, भग
ृ ु, शौनक आते हैं।

पितामह सिद्धान्त ज्योतिष् के पौराणिक काल 8300 ईसा पूर्व से 3000 वर्ष ईसा के पूर्व तक माना जाता है . इस काल में
ज्योतिष के क्षे तर् में अने क ऋषियों ने विशे ष कार्य किया. इन महान ऋषियों का नाम निम्न है .

सिद्धान्त ज्योतिष के 18 ऋषियों के नाम- Siddhanta Jyotish : Name of 18 Rishi


 
सूर्य: पितमहो व्यासो वशिष्ठोअत्रि पराशर: ।
कश्यपो नारदो गर्गो मरिचिमनु अं गिरा ।।
लोमश: पोलिशाशचै व च्यवनो यवनों मृ गु: ।
शोने को अष्टादशाश्चै ते ज्योति: शास्त्र प्रवर्तका ।।
अर्थात वै दिक ज्योतिष को ऊंचाईयों पर ले जाने वाले ऋषियों में ऋषि सूर्य, ऋषि पितामह, ऋषि व्यास, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि
अत्रि, ऋषि पराशर, ऋषि कश्यप, ऋषि नारद, ऋषि गर्ग, ऋषि मरीचि, ऋषि मनु , ऋषि अं गीरश, ऋषि लोमश, ऋषि
पोलिश, ऋषि चवन, ऋषि यवन, ऋषि भृ ग ् ु , ऋषि शौनक आते हे .

पितामह सिद्वान्त वर्णन | Pitahma Siddhanta Description


पितामह सिद्वान्त को बनाने वाले ऋषि पितामह थे . पितामह सिद्धान्त एक खगोल सं बन्धी शास्त्र है . इस शास्त्र में सूर्य की
गति व चन्द्र सं चार की गणनाओं का उल्ले ख किया गया है . यह शास्त्र आज अधूरा ही उपलब्ध है .

सं स्कृत शब्द का शाब्दिक अर्थ, सिद्धांत बस तय राय या सिद्धांत, हठधर्मिता, स्वयं सिद्ध, प्राप्त या स्वीकृत सत्य है ; किसी भी विषय पर
कोई निश्चित या स्थापित या विहित पाठ्य-पु स्तक" (<सिद्ध, adj. mfn.- निपु ण, पूर्ण; जिसने उच्चतम उद्दे श्य प्राप्त किया है , पूरी तरह से
कुशल या पारं गत)। [1] (विकिपीडिया से )
हालां कि शास्त्रीय खगोल विज्ञान का अर्थ शास्त्रीय काल में भारत का "गणितीय खगोल विज्ञान" हो गया है (गु प्त यु ग,
परं परागत रूप से , हिं द ू धर्म सभी ज्ञान को दो व्यापक प्रकारों में वर्गीकृत करता है :
1. लौकिका, या यह सांसारिक। परं परागत रूप से , ज्योतिष/खगोल विज्ञान, गणित, चिकित्सा को इस-सांसारिक या लौकिका के रूप में
दे खा जाता है । लौकिका ज्ञान से तात्पर्य उन तथ्यों से है जो सं वेदी धारणा और तर्क के सामान्य साधनों द्वारा प्राप्त किए जाते हैं । यह
ज्ञान अपे क्षाकृत अस्थायी है - गलत या सही हो सकता है
2. अलौकिका विद्या, या दिव्य ज्ञान जिसके लिए आध्यात्मिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है और इं द्रियों और बिना सहायता प्राप्त
मानवीय कारण से सु लभ नहीं है । यह दिव्य ज्ञान है , और क्योंकि यह दिव्य है , गलत नहीं हो सकता है , और इसे लौकिका ज्ञान द्वारा
चु नौती नहीं दी जा सकती है ।
भारत में खगोल विज्ञान के इतिहास को समझने के लिए यह विभाजन इस कारण से महत्वपूर्ण है : ब्रह्मांड सं बंधी अनु मान लोकिका
(धर्मनिरपे क्ष) और अलौकिका (दिव्य) साहित्य दोनों में दिखाई दे ते हैं । दस ू रे शब्दों में , दो डोमे न स्पष्ट रूप से अलग नहीं हैं : पवित्र
पु स्तकें, विशे ष रूप से पु राणों में ब्रह्मांड की रचना और सं रचना का विस्तृ त विवरण है ; जै सा कि धर्मनिरपे क्ष, यह-सांसारिक ले खन करते
हैं ।
तो अनिवार्य रूप से , भारतीय ब्रह्मांड विज्ञान के दो मु ख्य स्रोत हैं :
1. पु राण, जिन्हें दिव्य ज्ञान या विद्या का दर्जा प्राप्त है । पं डितों और विद्वान ब्राह्मणों ने इन कार्यों को श्रुति, या वै दिक रहस्योद्घाटन के
रूप में पवित्र माना।
2. लौकिका या धर्मनिरपे क्ष क्षे तर् ों में सिद्धांत। यहां "सिद्धां तिक" शब्द का अर्थ भारत के सबसे प्रसिद्ध गणितज्ञों द्वारा विकसित गणितीय
खगोल विज्ञान है , जिसमें आर्यभट् ट और वरहमिहिर के सभी परिचित नाम शामिल हैं । गणितज्ञ।

भारतीय खगोल विज्ञान के इतिहास को दो मॉडलों के बीच तनाव की कहानी के रूप में समझा जा सकता है । क्योंकि ब्रह्मांड के पौराणिक
मॉडल में दै वीय अधिकार था, हम पाएं गे कि सिद्धांतवादी खगोल विज्ञान पौराणिक मॉडल के साथ बार-बार समझौता करता है । हम दे खेंगे
कि जब सिद्धांतवादी खगोलविदों को ग्रहण का सही कारण पता था, तब भी वे खु ले तौर पर पौराणिक मॉडल के राहु और केतु की भूमिका
पर सवाल नहीं उठाएं गे। वास्तव में समझौता आज भी जारी है : नवग्रह की पूजा आज भी की जाती है , और पढ़े -लिखे लोग सब कुछ
छोड़ दे ते हैं जब उनके ज्योतिषी उन्हें राहु-काल बताते हैं ।

इससे पहले कि हम दो मॉडलों के विवरण में आएं , याद रखें :


• ये दोनों पूरी तरह से भू-केंद्रित हैं । आर्यभट् ट या किसी अन्य सिद्धांत में हे लियो-सें ट्रिज्म का कोई सं केत नहीं है ।
• ब्रह्मांड के केंद्र में पृ थ्वी पौराणिक मॉडल में एक सपाट डिस्क है , जबकि सिद्धांत ब्रह्मांड के केंद्र में एक गोलाकार पृ थ्वी को स्वीकार
करते हैं ।

ब्रह्मांड का पौराणिक मॉडल

पु राण: पु राण हिं द ू पवित्र ग्रंथों का हिस्सा हैं , जिन्हें 'स्मृ ति' के रूप में वर्गीकृत किया गया है , शाब्दिक रूप से जो याद किया जाता है , वह
"श्रुति" के विपरीत है , जो कि "श्रुति" के विपरीत है , अर्थात ऋषियों द्वारा दिव्य रहस्योद्घाटन "सु ना"। भले ही स्मृ ति को श्रुति की
तु लना में कम आधिकारिक माना जाता है , पु राणों ने मध्ययु गीन काल में "पांचवें वे द" का दर्जा हासिल किया और श्रुति के रूप में
आधिकारिक माने जाते हैं ।

पु राणों की रचना कब हुई? दो चरण, पहले महाभारत के समय के आसपास और फिर बाद में गु प्त काल में , 4-6 ई. मध्ययु गीन काल में ,
भक्ति विषयों पर हावी होना शु रू हो गया, और सभी लोकप्रिय दे वी-दे वता - विशे ष रूप से ब्रह्मा, विष्णु और शिव और उनकी पत्नियाँ
सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती - प्रकट हुईं।

सभी पु राण पांच विषयों से सं बंधित हैं :


ब्रह्मांड का निर्माण (सरगा); ब्रह्मांड का विघटन (प्रतिसर्ग); यु ग, या ब्रह्मांड के यु ग; वं श, या राजाओं और राजवं शों की वं शावली, और
अं त में वं श चरित, दे वताओं और राजाओं के कार्यों के बारे में कहानियां ।

ब्रह्मांड की पौराणिक तस्वीर:


• पृ थ्वी एक चपटी डिस्क है , जिसका व्यास 500 मिलियन योजन है । एक योजन लगभग 10 किमी है )। तो पृ थ्वी का व्यास 5 अरब किमी
है ।
• इस डिस्क के केंद्र में मे रु, या सु मेरु मास है , जो 84,000 योजन लं बा है
• पृ थ्वी की सतह सात महासागरों से विभाजित सात महाद्वीपों के सं केंद्रित वलयों से ढकी है ।
• सूर्य, चं दर् मा, नक्षत्र और ग्रह मे रु के चारों ओर घूमते हैं जिससे वे उदय और अस्त होते दिखाई दे ते हैं ।
• ध्रुव तारा मे रु के शिखर के ठीक ऊपर है , जिस पर दे वताओं की नगरी है ।
• चं दर् मा सूर्य से ऊंचा है ; पांच दृश्यमान ग्रह नक्षत्रों से ऊंचे हैं ।
• चं दर् मा के चरणों के साथ-साथ सूर्य और चं दर् ग्रहणों को एक राक्षस राहु द्वारा समझाया गया है ।
पु राणों में समय: पु राण समय के विशाल चक् रों की बात करते हैं । इस बार का पै माना कितना ही शानदार क्यों न हो, यह जानना
महत्वपूर्ण है क्योंकि सिद्धांत इसका उपयोग करते रहे ।
• ब्रह्मा के एक कल्प में ब्रह्मांड का निर्माण और विनाश होता है , ब्रह्मा के दिन और रात, 4,320 मिलियन वर्ष या 4.32 बिलियन वर्ष।
• महायु ग नामक एक छोटी अवधि है , जो "केवल" 4,320,000 वर्ष लं बी है ।
• महायु गों को 4:3:2:1 के अनु पात में चार छोटी इकाइयों में बांटा गया है , जिसमें दुनिया अच्छे से बु रे की ओर बढ़ती है । आखिरी सबसे
खराब उम्र कलियु ग कहलाती है , जो 432,000 साल तक चलती है ।
• मन्वन्तर नामक काल में 71 महायु ग होते हैं ; 14 मन्वं तर और कुछ अतिरिक्त वर्ष एक कल्प बनाते हैं ।
• वर्तमान कलियु ग शु क्रवार, 18 फरवरी, 3102 ईसा पूर्व को शु रू हुआ माना जाता है ।
सै द्धां तिक खगोल विज्ञान
ग्रीक प्रभाव:
सिकंदर के बाद हमें भारत पर यूनानी खगोल विज्ञान/ज्योतिष के प्रमाण मिलते हैं । प्रमु ख प्रमाण स्फू जिध्वज नाम के किसी व्यक्ति द्वारा
यवनजतक नामक ग्रंथ से मिलता है ।
यह एक ग्रीक पाठ के सं स्कृत में पहले के अनु वाद का एक छं द है , जिसे अले क्जें ड्रिया में 120 ईसा पूर्व के आसपास लिखा गया था।
यवनजातका के माध्यम से क्या प्रेषित किया गया था?

• गोलाकार पृ थ्वी,
• भूकेन्द्रित मॉडल,
• ग्रह (वे दां ग ज्योतिष में केवल सूर्य और चं दर् मा)
• एपिसाइकिल ले किन कोई समान नहीं। तो यह टॉले मिक नहीं है । पिं गर् ी द्वारा खोजे गए साक्ष्य हमें विश्वास दिलाते हैं कि यह हिप्पार्क स
का काम था जिसे भारत में पे श किया गया था।
• भारत में 12 राशियों का पहला ज्ञात उल्ले ख
• राशि चक् र का 360 अं शों में विभाजन। (हम अभी भी मु हर्त
ू और अर्ध-मु हर्त ू को कामु क रूप से व्यक्त करते हैं ।) यवनजातक से पहले
इसका कोई सं केत नहीं है ।

इन नई अवधारणाओं को समय के पौराणिक विचारों के साथ जोड़ा गया, जो ब्रह्म या पै ता-महा-सिद्धांत की ओर ले गए, जो बाद के सभी
सिद्धांतों का आधार है । मे रु पर्वत का अस्तित्व भी कायम रहा।

विभिन्न पक्षों का मूल स्रोत ब्रह्म-सिद्धांत नामक एक ग्रंथ है , जिसे पै तामहा सिद्धांत भी कहा जाता है (पितामह ब्रह्मा का दस ू रा नाम
है )। यह पाठ केवल एक टु कड़े के रूप में जीवित है और पु राणों (विष्णु -धर्मोत्तर-पु राण) में से एक में समाहित हो गया है । इस पाठ की
तिथि आर्यभट् ट के समय के आसपास कहीं है , क्योंकि उनकी पहुंच इस तक थी और इसके उद्धरण थे ।
चूंकि यह अन्य सभी सिद्धांतों के लिए आदर्श है , आइए दे खें कि यह क्या कहता है :
यह ब्रह्मा और भृ गु के नाम से एक ऋषि के बीच एक सं वाद के रूप में तै यार किया गया है जो समय की गणना के बारे में निर्देश चाहता है ।
ब्रह्म सिद्धांत ऊपर वर्णित पु राण काल के पै माने को स्वीकार करता है । यह बाकी गणनाओं के लिए मौलिक है :
सभी खगोलीय पिं ड - सूर्य और चं दर् मा सहित सात ग्रह, अपसाइडल बिं दु (नीचे फुटनोट दे खें) और उनकी कक्षाओं के आरोही नोड्स,
और स्थिर तारे - एक कल्प में पृ थ्वी के चारों ओर क् रां तियों की पूर्णांक सं ख्या को पूरा करने के लिए माने जाते हैं । .
उन सभी को आकाशीय दे शांतर और अक्षां श के शून्य बिं दु पर एक सं योजन से शु रू करना चाहिए, या क् रां तिवृ त्त की शु रुआत (नीचे
फुटनोट दे खें)
इस समय सीमा को बाद के सिद्धांतों में रखा गया है , जो मानते हैं कि वर्तमान यु ग कल्प के सातवें मन्वं तर के 28 वें महायु ग का कलियु ग
है । माना जाता है कि वर्तमान कलियु ग महाभारत के साथ शु रू हुआ था, जो ठीक शु क्रवार, 18 फरवरी, 3102 ईसा पूर्व का है !! (यह तिथि
कैसे स्थापित हुई? वास्तव में कोई नहीं जानता। ले किन स्वीकृत दृष्टिकोण यह है कि पहली सहस्राब्दी सीई में खगोलविदों ने उस समय
के आसपास के ग्रहों के अनु मानित सं योजन को पूर्ववत किया था। यह आसान प्रारं भिक बिं दु बन गया जिससे समय की गणना की जा
सके।)

ब्रह्म सिद्धांत के कुछ ही समय बाद, सै द्धां तिक खगोल विज्ञान विभिन्न विद्यालयों, या पक्षों में विभाजित हो गया, उनमें से सबसे
उल्ले खनीय आर्य पक्ष (आर्यभट् ट से जु ड़े) और ब्रह्म पक्ष (ब्रह्मगु प्त से जु ड़े) और सौर पक्ष हैं ।
ये पक्ष समय के विभाजन और आकाश के चक् रों के लिए उपयोग किए जाने वाले मापदं डों के मूल्यों के आधार पर एक दस ू रे से अलग हैं ।
हालाँ कि, सभी पक्ष मूल पितामह सिद्धांत के समय के पै माने को साझा करते हैं , जै सा कि हमने दे खा है , कल्प और यु ग के पौराणिक समय
के पै माने को अपनाते हैं ।
आइए नजर डालते हैं प्रमु ख पक्षों पर:
1. आर्य पक्ष: आर्यभट् ट (जन्म 476 सीई) के नाम पर रखा गया है
यह पक्ष एक कल्प को 1000 महायु गों के स्थान पर 1008 दे ता है । वह एक कल्प को समान महायु गों में विभाजित करता है ।
आर्यभटीय नामक उनके प्रसिद्ध कार्य में , एक कलियु ग एक दसवें के बजाय एक महायु ग का एक चौथाई है और प्रत्ये क कलियु ग की
शु रुआत और अं त में क् रां तिवृ त्त की शु रुआत में ग्रहों का एक सं योजन होता है । जबकि यह एक बड़ा बदलाव है , आर्यभट् ट का दावा है कि
वह पितामह सिद्धांत के खगोल विज्ञान के लिए सही है ।
इस परं परा के अन्य प्रमु ख खगोलविद हैं :
पं चसिद्धां तिका के लिए प्रसिद्ध वराहमिहिर (500 सीई),
भास्कर प्रथम (7 वीं शताब्दी की शु रुआत) जिन्होंने महा-भास्करिया और लघु -भास्करिया नामक दो ग्रंथों की रचना की।
लल्ला (शायद 8 वीं सी) ने भी आर्य पी का अनु सरण किया, हालां कि वे महायु ग के अधिक पारं परिक विभाजन में वापस आ गए।
2. ब्रह्म पक्ष:
मु ख्य प्रस्तावक ब्रह्मगु प्त (598 सीई) हैं जो एक काम लिखते हैं जिसका अं गर् े जी में अर्थ है "ब्रह्मा का सही सिद्धांत" वह स्मृ तियों का
उल्लं घन करने और सभी यु गों को समान बनाने के लिए एबी की आलोचना करता है । उनका कहना है कि नहीं हैं ।

इस पक्ष में प्रसिद्ध हैं :


श्रीपति
12 वीं के मध्य में भास्कर II सी।
10-11 वीं सदी के अं त में आर्यभट् ट द्वितीय।
3. सौर पक्ष:
यह स्कू ल ब्रह्म या पितामह एस के बजाय सूर्य सिद्धांत का अनु सरण करता है । यह ब्रह्म पक्ष के पारं परिक समय विभाजनों को आर्य पक्ष
से लिए गए ग्रहों के सं योजन के साथ जोड़ता है । दावा है कि यह सूर्य दे व सूर्य का वचन है और इसलिए इसे सही होना चाहिए।
वे क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे थे ??
1. भविष्य और अतीत की खगोलीय घटनाओं के समय, स्थान और उपस्थिति की गणना, यानी भविष्य कहने वाला खगोल विज्ञान
2. गणनाओं को ज्यामितीय रूपों में समझाने के लिए
3. गणित पढ़ाओ।
तो क्या सिद्धांतवादी खगोल विज्ञान ने ब्रह्मांड के पौराणिक दृष्टिकोण को गलत साबित करने और खारिज करने का प्रबं धन किया?
ज़रुरी नहीं।
जबकि पौराणिक ब्रह्मांड विज्ञान के कुछ महत्वपूर्ण पहलु ओं को चु नौती दी गई थी, एक साथ कई समझौते किए गए थे ।

पौलिष सिद्धांत
पौलिष सिद्धांत (शाब्दिक अर्थ- "पौलिष मुनि का वैज्ञानिक ग्रंथ") कई भारतीय खगोलीय ग्रंथों (astronomical texts)
को संदर्भित करता है , जिनमें से कम से कम एक किसी पश्चिमी स्रोत पर आधारित है ।

यह अक्सर गलती से एक ही काम समझा जाता है और इसका श्रेय अलेक्जेंड्रिया के पॉल (c. 378 CE) को दे दिया
जाता है ।[1] हालांकि, इस धारणा को गणित के इतिहासकारों द्वारा खारिज कर दिया गया है । विशेष रूप से डेविड
पिंग्री ने यह कहा है कि "... पाउलस अलेक्जेंड्रिनस की पौलिष सिद्धांत के लेखक के रूप में पहचान पूर्णतः गलत है "।
[2]
 इसी तरह, भारतीय गणित-इतिहासकार के वी शर्म लिखते हैं कि यह एक ग्रीक स्रोत से है , जिसे केवल पौलिष नाम
से जाना जाता है  [3]

इस सिद्धांत का पुराना रूप तीसरी या चौथी शताब्दी से और नया रूप आठवीं शताब्दी का बताया जाता है ।[4]

यह हमारे युग की पहली शताब्दियों के दौरान भारत को पश्चिमी खगोलीय ज्ञान (विशेषकर अलेक्जेंड्रियन स्कूल) के
प्रसारण के उदाहरण के रूप में  यवनजतका ("यूनानी/ग्रीक लोगों के कथन") का अनुसरण करता है ।

पौलिष सिद्धांत का भारतीय खगोलशास्त्री वराहमिहिर के काम पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा था। इसे 5 वीं शताब्दी
में भारत में "पाँच खगोलीय ग्रंथों" में से एक के रूप में माना जाता था।

वशिष्ठ सिद्धान्त
वसिष्ठसिद्धान्त भारत में प्रयुक्त प्राचीनतम खगोलीय प्रणालियों में से एक है । इस सिद्धान्त का सार वराहमिहिर ने
अपनी पञ्चसिद्धान्तिका (६ठी शताब्दी में रचित) में दिया है । ऐसा माना जाता है कि यह सिद्धान्त ऋषि
वसिष्ठ द्वारा प्रतिपादित है । इसमें इसकी रचना १,२९९,१०१ ईसापूर्व होना कहा गया है जो अविश्वसनीय लगता है ।
मूल ग्रन्थ सम्भवतः ४थी शताब्दी में रचित था जो अब अप्राप्त है । इसके बारे में जो कुछ ज्ञात है वह वराहमिहिर
के पञ्चसिद्धान्तिका से ही पता चला है । 'वशिष्ठसिद्धान्तिका' नामक एक अन्य ग्रन्थ भी है जो अपेक्षाकृत नया ग्रन्थ
है ।

वसिष्ठ सिद्धान्त में सर्य


ू और चन्द्रमा की गति का विवरण दिया गया है । इसमें मंगल, बध
ु , गरु
ु , शनि की गतियों
को वर्णय किया गया है । यह शास्त्र यह बताने में भी समर्थ है कि इससे पर्व
ू व्यतीत हो चक
ु े वर्षों में ग्रहों की
गतियां क्या रही थी तथा इन ग्रहों ने पिछले यग
ु ों में किस प्रकार भ्रमण किया है । इस सिद्वान्त शास्त्र में ग्रहों
की गति के अलावा राशियों का उल्लेख भी किया गया है । यह सिद्वान्त पितामह सिद्धान्त के समान होने पर भी
उससे कई स्तर में शुद्ध सिद्धान्त शास्त्र है । पितामह सिद्वान्त की तरह विशिष्ठ सिद्वान्त में भी माना गया है ,
कि जब दिन बढता है , तो प्रतिदिन बराबर व ृ ्द्धि होती है .।

इसके अलावा वसिष्ठ सिद्धान्त लग्न का भी वर्णन करता है जिससे पता चलता है , कि सूर्य का कौन सा भाग पूर्वी
क्षितिज में उदित हुआ है । लेकिन उस समय के शास्त्रियों को सूर्य व चन्द्र की मध्य व स्पष्ट गतियों का अन्तर
का ज्ञान नहीं था।

सूर्यसिद्धान्त
सूर्यसिद्धान्त के प्रथम श्लोक्क में रचनाकार ने ब्रह्म को नमस्कार करते हुए उसे अचिन्त्य, अव्यक्तरूप, निर्गुण, गुणात्मन, और समस्त जगत का
आधार बताया है ।

सूर्यसिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कई सिद्धान्त-ग्रन्थों के समूह का नाम है । वर्तमान समय में
उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो
६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं।

भारतीय गणितज्ञों और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है , जैसे आर्यभट्ट और वाराहमिहिर, आदि.


वाराहमिहिर ने अपने पंचसिद्धांतिका में चार अन्य टीकाओं सहित इसका उल्लेख किया है , जो हैं:
 पैतामाह सिद्धान्त, (जो कि परम्परागत वेदांग ज्योतिष से अधिक समान है ),
 पौलिष सिद्धान्त
 रोमक सिद्धान्त (जो यन
ू ानी खगोलशास्त्र के समान है ), और
 वशिष्ठ सिद्धान्त

सूर्य सिद्धान्त नामक वर्णित कार्य, कई बार ढाला गया है । इसके प्राचीनतम उल्लेख बौद्ध काल (तीसरी शताब्दी,
ई.पू) के मिलते हैं। वह कार्य, संरक्षित करके और सम्पादित किया हुआ (बर्गस द्वारा १८५८ में ) मध्य काल को
संकेत करता है । वाराहमिहिर का दसवीं शताब्दी के एक टीकाकार, ने सूर्य सिद्धांत से छः श्लोकों का उद्धरण किया है ,
जिनमें से एक भी अब इस सिद्धांत में नहीं मिलता है । वर्तमान सूर्य सिद्धांत को तब वाराहमिहिर को उपलब्ध
उपलब्ध पाठ्य का सीधा वंशज माना जा सकता है ।[1] इस लेख में बर्गस द्वारा सम्पादित किया गया संस्करण ही
मिल पायेगा. गुप्त काल के जो साक्ष्य हैं, उन्हें पठन करने हे तु दे खें पंचसिद्धांतिका।

इसमें वे नियम दिये गये हैं, जिनके द्वारा ब्रह्माण्डीय पिण्डों की गति को उनकी वास्तविक स्थिति सहित जाना
जा सकता है । यह विभिन्न तारों की स्थितियां, चांद्रीय नक्षत्रों के सिवाय; की स्थिति का भी ज्ञान कराता है । इसके
द्वारा सूर्य ग्रहण का आकलन भी किया जा सकता है ।

वर्ण्य विषय[संपादित करें ]

सूर्य सिद्धान्त में खगोलीय समय चक्रों का विस्तत


ृ वर्णन है ।

खगोलशास्त्र[संपादित करें ]
इस ग्रन्थ में विषयों की सूची निम्न है :

1. मध्यमाधिकारः -- ग्रहों की चाल


2. स्पष्टाधिकारः -- ग्रहों की स्थिति
3. त्रिप्रश्नाधिकारः -- दिशा, स्थान और समय
4. चन्द्रग्रहणाधिकारः -- चंद्रमा और ग्रहण
5. सूर्यग्रहणाधिकारः -- सूर्य और ग्रहण
6. छे द्यकाधिकारः -- ग्रहणों का पूर्व अनुमान/ आकलन
7. ग्रहयुत्यधिकारः -- ग्रहीय संयोग
8. भग्रहयत्ु यधिकारः -- तारों के बारे में
9. उदयास्ताधिकारः -- उनका उदय और अस्त
10.चन्द्रशंग
ृ ोन्नत्यधिकारः -- चंद्रमा का उदय और अस्त
11.पाताधिकारः -- सूर्य और चंद्रमा के एकई अहितकर पक्ष
12.भूगोलाध्यायः -- विश्वोत्पत्ति/ब्रह्माण्ड सज
ृ न, भूगोल और सज
ृ न के आयाम
13.ज्यौतिषोपनिषदध्यायः -- सूर्य घड़ी का दण्ड
14.मानाध्यायः -- लोकों की गति और मानवीय क्रिया-कलाप

सौर घड़ी द्वारा समय मापन के शद्ध


ु तरीके अध्याय 3 और 13 में वर्णित हैं।

ग्रहों की चाल[संपादित करें ]


भगण
- 12 राशियो का एक भगण होता है ।
- 60 विकला की एक कला ।
- 60 कला का - 1 अंश ।
- 30 अंश को - 1 राशी ।
- शीघ्र्‍गति वाले ग्रह अल्पकाल मे तथा मंद गतिवाले अधिक काल मे 27 नक्षत्र का भोग करते है ।
- अश्विनी नक्षत्र सें भ्रमण करते हुये रेवती नक्षत्र तक ग्रहो का भगण पुरा होता है ।
- पुर्वाभिमुख गमन करने वाले सुर्य-बुध और शुक्र और मंगल शनि और गुरू की भगण संख्या 4320000 होती है ।
- एक महायुग मे चंद्रमा कि भगण संख्या – 57753336,
- एक महायुग मे मंगल कि भगण संख्या – 2296832,
- एक महायुग मे बुध कि भगण संख्या – 17937060,
- एक महायुग मे गुरु की भगण संख्या – 364220
- एक महायुग मे शुक्र की भगण संख्या – 7022376
- एक महायुग मे शनि की भगण संख्या – 146568
- चंद्र की भगण संख्या – 488203
- राहु-के तु की विपरीत गति से भगणों कि – 232236 संख्या होती है ।
- एक महायुग मे नक्षत्रो की भगण संख्या – 1582237828 होती है ।
- नाक्षत्र भगण मे से ग्रहो के अपने अपने भगण घटाने पर शेष ग्रहों के सावन दिन होते है
- एक महायुग मे सुर्य और चंद्रमा के भगणों के अंतर के समान चांद्रमास होते है ।
- युग चांद्रमास से युग सुर्य मास घटाने पर अधिमास मिलता है ।
- एक महायुग में 1577917828 सावन दिन होते है ।
- 1603000080 तिथियाँ होती है ।
- 1593336 आधिमास होते है ।
- 25082252 क्षय दिन होते है ।
- 51840000 सौर मास होते है ।
नक्षत्र भगण से सौर भगण घटाने पर सावन होता है ।
समय चक्र[संपादित करें ]
इस ग्रंथ में वर्णित समय-चक्र विलक्षण रूप से विशुद्ध थे। हिन्दू ब्रह्माण्डीय समय चक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं।[2]:
(श्लोक 11) - वह जो कि श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ श्वासों
से एक नाड़ी बनती है।
(श्लोक 12) - और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है।
(श्लोक 13) - एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वरष बनाते हैं। एक वरष को देवताओं का एक दिवस कहते
हैं।
(श्लोक 14) - देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं।
(श्लोक 15) - बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। एक चतुर्युग तिरालीस लाख बीस हज़ार सौर वर्षों का होता है।
(श्लोक 16) - चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयग
ु  या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:
(श्लोक 17) - एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄ तयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है।
(श्लोक 18) - इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होते हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है।
(श्लोक 19) - एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।
(श्लोक 20) - एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है।
(श्लोक 21) - इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
(श्लोक 22) - इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके , अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) का सत्तैसवां चतुर्युगी बीत चुका है।
(श्लोक 23) - वर्तमान में, अट्ठाईसवां चतुर्युगी का कॄ तयुग बीत चुका है।........
इस खगोलीय समय चक्र का आकलन करने पर, निम्न परिणाम मिलते हैं

 उष्णकटिबनधीय वर्ष की औसत लम्बाई है 365.2421756 दिवस, जो कि आधनि


ु क आकलन से केवल 1.4 सैकण्ड ही
छोटी है । (J2000). यह उष्णकटिबन्धीय वर्ष का सर्वाधिक विशुद्ध आकलन रहा कम से कम अगली छः शताब्दियों
तक, जब मुस्लिम गणितज्ञ उमर खय्याम ने एक बेहतर अनुमान दिया. फ़िर भी यहआकलन अभी भी विश्व में
प्रचलित ग्रेगोरियन वर्ष के मापन से अति शुद्ध ही है , जो कि वर्शः की अवधि केवल 365.2425 दिवस ही बताता है ,
यथार्थ 365.2421756 दिवस के स्थान पर.
 एक नाक्षत्रीय वर्ष की औसत अवधि, पथ्
ृ वी के द्वारा, सूर्य की परिक्रमा में लगे समय अवधि 365.2563627 दिवस
होती है , जो कि आधनि
ु क मान 365.25636305 दिवस (J2000) के एकदम बराबर ही है । यह नाक्षत्रीय वर्ष का
सर्वाधिक परिशुद्ध कलन यहा सहस्रों वर्ष तक.

नाक्षत्रीय वर्ष का दिया गया यथार्थ मान, वैसे उतना शद्ध


ु नहीं है । इसका मान 365.258756 दिवस दिया गया
है , जो कि आधनि
ु क मान से 3 मिनट और 27 सैकण्ड कम है । यह इसलिये है , क्योंकि लेखक, या सम्पादक ने
बाद में किये गये कलनों में हिन्द ू ब्रह्माण्डीय समय चह्र की गणना से थोड़ा भिन्न हो कर यहां गणना की है ।
उसने शायद समय चक्र के जटिल गणना के आकलन को सही समझा नहीं है । सम्पादक ने सर्य
ू की औसत
गति और समान परिशुद्धता का प्रयोग किया है , जो कि हिन्द ू ब्रह्माण्डीय समय चक्र के आकलन से निम्न
स्तर का है ।

पथ्ृ वी गोल है [संपादित करें ]


सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानम ् उपरि स्थितम ् ।
मन्यन्ते खे यतो गोलस ् तस्य क्वोर्धवम ् क्व वाधः ॥ (सूर्यसिद्धान्त १२.५३)

अनुवाद : (अनुवादक: स्कॉट एल मॉण्टगोमरी, आलोक कुमार) इस गोलाकार धरती पर लोग अपने स्थान
को सबसे ऊपर मानते हैं। किन्तु यह गोला तो आकाश में स्थित है , उसका उर्ध्व (ऊपर) क्या और नीचे
क्या?

ग्रहों के व्यास[संपादित करें ]

सूर्य सिद्धान्त में  ग्रहों के व्यास की गणना भी की गयी है । बुध का व्यास ३००८ मील दिया गया है जो
आधुनिक स्वीकृत मान (३०३२ मील ्) से केवल १% कम है । इसके
अलावा शनि, मंगल, शुक्र और बहृ स्पति के व्यास की गणना भी की गयी है । शनि का व्यास ७३८८२ मील
बताया गया है जो केवल १% अशुद्ध है । मंगल का व्यास ३७७२ मील बताया गया है जो लगभग ११%
अशद्ध
ु है । शक्र
ु का व्यास ४०११ मील तथा बह
ृ स्पति का व्यास ४१६२४ मील बताया गया है जो वर्तमान
स्वीकृत मानों के लगभग आधे हैं।

त्रिकोणमिति[संपादित करें ]

सर्य
ू सिद्धान्त आधनि
ु क त्रिकोणमिति का मल
ू है । सर्य
ू सिद्धान्त में वर्णित ज्या और कोटिज्या फलनों से ही
आधनिु क साइन (sine) और कोसाइन (cosine) नाम व्यत्ु पन्न हुए हैं ( जो भारत से अरब-जगत होते
हुए यरू ोप पहुँचे)। इतना ही नहीं, सर्य ृ ीय अध्याय (त्रिप्रश्नाधिकारः) में ही सबसे पहले
ू सिद्धान्त के तत
स्पर्शज्या (tangent) और व्युकोज्या (secant) का प्रयोग हुआ है । निम्नलिखित श्लोकों में  शंकुक द्वारा
निर्मित छाया का वर्णन करते हुए इनका उपयोग हुआ है -

शेषम ् नताम्शाः सूर्यस्य तद्बाहुज्या च कोटिज्या।


शंकुमानांगुलाभ्यस्ते भुजत्रिज्ये यथाक्रमम ् ॥ ३.२१ ॥
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णाव ् अहर्दले।
क्रान्तिज्या विषुवत्कर्णगुणाप्ता शंकुजीवया ॥ ३.२२ ॥
Of [the sun's meridian zenith distance] find the jya ("base sine") and kojya (cosine or
"perpendicular sine"). If then the jya and radius be multiplied respectively by the measure of the
gnomon in digits, and divided by the kojya, the results are the shadow and hypotenuse at mid-
day.
उपरोक्त सूत्र से, आधुनिक प्रतीकों का उपयोग करते हुए, दोपहर के समय शंकुक (gnomon) की छाया की
लम्बाई यह होगी-

तथा, दोपहर के समय, शंकुक के विकर्ण (hypotenuse) की लम्बाई यह होगी-

जहाँ  शंकुक की लम्बाई (उं चाई) है ,  शंकुक की त्रिज्या है ,  शंकुक की छाया की लम्बैइ है , और  शंकुक का
विकर्ण है ।

कैलेण्डरीय प्रयोग[संपादित करें ]

१८७१-७२ ई का हिन्द ू पञ्चाङ्ग

मुख्य लेख:  हिन्द ू पंचांग

भारत के विभिन्न भागों में भारतीय सौर पंचांग तथा चन्द्र-सौर पंचांग प्रयुक्त होते हैं। इनके आधार पर ही
विभिन्न त्यौहार, मेले, क्रियाकर्म होते हैं। भारत में प्रचलित आधुनिक सौर तथा चान्द्रसौर पंचांग, सूर्य के
विभिन्न राशियों में प्रवेश के समय पर ही आधारित हैं।

परम्परागत पंचांगकार, आज भी सूर्यसिद्धान्त में निहित सूत्रों और समीकरणों का ही प्रयोग करके अपने
पंचांग का निर्माण करते हैं। भारतीयों के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन पर पंचांग का बहुत अधिक प्रभाव
है तथा अधिकांश घरों में पंचांग रखने की प्रथा है ।

यंत्र[संपादित करें ]

पारदाराम्बुसूत्राणि शुल्वतैलजलानि च।
बीजानि पांसवस्तेषु प्रयोगास्तेऽपि दर्ल
ु भाः ॥१३.२२ ॥
अर्थ : ताड़ियों (spokes) में पारद भरा हुआ, जल, धागा (सूत्र), रस्सी, तेल और जल आदि से ये यंत्र बनाये जाते हैं।
इसके अलावा बीज और महीन रे त भी इन यंत्रों में प्रयुक्त होती हैं। ये यन्त्र दर्ल
ु भ हैं।

सूर्य सिद्धांत के अध्याय


अध्याय # शीर्षक सं दर्भ
1 ग्रहों की औसत गतियों में से [43]
2 ग्रहों के सच्चे स्थानों पर [44]

3 दिशा, स्थान और समय का [45]

4 ग्रहणों की, और विशे ष रूप से चं दर् ग्रहण की [46]

5 सूर्य ग्रहण में लं बन का Of [47]

6 ग्रहण का प्रक्षे पण [43]

7 ग्रहों की यु ति [48]

8 क्षु दर् ग्रहों के [49]

9 हे लियाकल (सूर्य) राइजिं ग और से टिंग्स की [50]

10 चं दर् मा की राइजिं ग और से टिंग्स, उसकी cusps [51]

11 सूर्य और चं दर् मा के कुछ घातक पहलु ओं पर [52]

12 ब्रह्मांड विज्ञान, भूगोल, और निर्माण के आयाम [53]

१३ शस्त्रागार क्षे तर् और अन्य उपकरणों की [54]

14 गणना समय के विभिन्न तरीकों में से [55]

सूक्ति द्वारा डाली गई छाया का उपयोग करके समय की गणना करने के तरीकों की चर्चा अध्याय 3 और 13 दोनों में की गई है ।

रोमक सिद्धान्त क्या है . | What is Romaka Siddhanta 


यह प्राचीन् काल का गणितीय सिद्धान्त शास्त्र है . यह शास्त्र यमन ज्योतिष के नियमों पर आधारित है . यमन ज्योतिष
मु ख्यत: यूनान, मिश्र आदि दे शों में विशे ष रुप से प्रचलित था. 

रोमक सिद्धान्त शास्त्र में क्या है . | Romaka Siddhanta Scripture


रोमक सिद्वान्त में सूर्य व चन्द्र के बारे में आं कडे दिए गये है . इसके अतिरिक्त यह शास्त्र अधिक मास, क्षय मास, तिथि और
क्षय तिथि का विस्तार से वर्णन् किया गया है . 

बे बीलोन के निवासी ग्रहों में पांच ग्रह दे वताओं का पूजन करते थें . ये पांच ग्रह बु ध, शु क्र, मं गल, गु रु  व शनि ग्रह थे .
इन्हीं सभी ग्रहों की पूजा का वर्णन रोमक सिद्धान्त में भी मिलता है .  

रोमक सिद्धान्त लोमश सिद्धान्त का ही अपभ्रन्श रुप है , प्राचीन शास्त्रों में रोग दे श के नागरिको के लिए रोमक शब्द
प्रयु क्त किया गया है .  यह शास्त्र ज्योतिष की गणना से जु डे प्रमु ख सिद्धान्त शास्त्रों में से एक है . इस सिद्धान्त का जन्म
रोमण से होने के कारण इसे रोमक सिद्धान्त का नाम  दिया गया.  

रोमका सिद्धांत, खगोलीय सिद्धांत


रोमका सिद्धांत मुख्य रूप से रोमन खगोल विज्ञान से प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक के रूप में लिया गया था। रोमका सिद्धांत मुख्य
रूप से युग, अहरगना, चंद्र महीनों के अंतर्संबंध से संबंधित है जो खगोल विज्ञान और उष्णकटिबंधीय वर्ष के तत्वों को उजागर करता है।

रोमका सिद्धांत, जैसा कि नाम से पता चलता है, एक ऐसा सिद्धांत है जो रोम के खगोलविदों द्वारा खोजे जाने के बाद भारत आया था। रोमका सिद्धांत एक चंद्र-सौर
चक्र का परिचय देता है जिसमें 2850 वर्ष होते हैं जिसमें 1050 अंतर महीने होते हैं और 16547 चंद्र दिवस छोड़े जाते हैं। यह गणना को सिनोडिक महीनों के
साथ-साथ नागरिक दिनों 3 के दो खंडों में विभाजित करता है, जिनकी गणना आगे की जाती है क्योंकि इस अवधि में कु ल 2850 x 12+ 1050 सिनोडिक
महीने होंगे जो 35, 250 सिनोडिक महीनों के बराबर होंगे। दूसरा खंड नागरिक दिनों की संख्या की गणना करेगा जिसकी गणना 35,250 x 30 - 16,547 के
रूप में की जाती है जो कि 1040,953 नागरिक दिनों के बराबर है। इस गणना की तुलना हिपरकस और टॉलेमी की गणनाओं से की जाती है, जिन्होंने अनुमान
लगाया था कि विसंगति के महीने 3031/110 के बराबर हैं जो 27.554 दिनों के बराबर है जो चंद्रमा की क्रांति की गति को 13 3' 53 "58111 55IV
51V 45V1 के रूप में कम कर देता है जो करीब है टॉलेमी के आकलन की गणना के लिए जिसे 13 3' 53" 56'" 291V 38V 38VI के रूप में
सेक्सजेसिमल इकाइयों में दर्शाया गया है।

रोमका सिद्धांत सूर्य और चंद्रमा के माध्य की गणना करने के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धांत रहा है जो टॉलेमी के साथ छोटे समीकरण के साथ भिन्न था। रोमका सिद्धांत
सूर्य और चंद्रमा के समीकरण की गणना करने में अधिक सफल रहा है, जहां औसत सूर्य के देशांतर और अपभू के देशांतर के बीच का अंतर 75 डिग्री बताया गया है,
जो टॉलेमी से अलग है, जिन्होंने इसकी गणना 65 डिग्री 30 के रूप में की थी। इंच। सूर्य और चंद्रमा के कें द्र का निम्न समीकरण हर 15 डिग्री के बाद आता है।
रोमका सिद्धांत भारतीय खगोल विज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक रहा है जो कि हम चंद्रमा के रूप में पुत्र के अक्षांश और देशांतर को विशिष्ट रूप से चिह्नित
करने में सक्षम हैं और सौर मंडल के बारे में अन्य विवरणों को चिह्नित करते हैं।

रोमका सिद्धांत जो प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञान में खगोलीय सिद्धांतों का दूसरा सिद्धांत है, इसके लेखक के बारे में कु छ संदेह हैं जहां इसे कभी-कभी श्रीसेना के
साथ जोड़ा गया है, जो कु छ इसे मूल कार्य ब्रह्मगुप्त के रूप में पहचानते हैं। एक सावधानीपूर्वक अध्ययन के साथ यह पता चला है कि मूल कार्य वराहमिहिर के नवाचारों
से बहुत प्रभावित हुआ है- एक प्रमुख हिंदू खगोलविद जो एकमात्र खगोलीय कार्य रहा है जो उष्णकटिबंधीय अध्ययनों पर आधारित है और जिसे पांच में से एक माना
गया है। पांचवीं शताब्दी की खगोलीय तोपें।

रोमका सिद्धांत इस प्रकार दूसरी सबसे महत्वपूर्ण खगोलीय पद्धति है जो प्राचीन भारतीय गणित पर आधारित है। रोमन गणित से प्रभावित होकर यह सूर्य और चंद्रमा
की उनके देशांतर और अक्षांशों की स्थिति का पता लगाने में अधिक सटीक साबित हुआ है।

वशिष्ठ सिद्धांत (सिद्धांत ज्योतिष) ज्योतिष का इतिहास | रोमका सिद्धांत


एस्ट्रोबिक्स |

भारत में ज्योतिष की शुरुआत की तारीख बताना मुश्किल है। ज्योतिष का परिचय देने वाले विद्वानों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। प्रमुख विद्वानों में सूर्य, पितामह, व्यास,
वशिष्ठ, अत्रि, पाराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मारीचि, मनु, अंगिरा, लोमेश, पोलिश, चयन, यवन, भृगु, शोणक, भारद्वाज हैं।

इन विद्वानों द्वारा लिखी गई सभी पुस्तकें अपने पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं हैं। सबूत भी खंडित हिस्से में हैं।

वशिष्ठ सिद्धांत विवरण


वशिष्ठ सिद्धांत सौर मंडल में सूर्य और चंद्रमा की गति के बारे में वर्णन करता है। मंगल, बृहस्पति, शनि और बुध की गति का उल्लेख किया गया है। ये पुस्तकें यह बताने
में सक्षम हैं कि पिछले वर्षों में ग्रहों की गति क्या थी, और ये ग्रह पिछले युगों में कै से घूमते थे।

वशिष्ठ सिद्धांत महत्व


पच्छसिद्धांतिका में वशिष्ठ सिद्धांत का संक्षेप में उल्लेख किया गया है। इस सिद्धांत में ग्रहों की गति के अलावा ग्रहों की राशियों का भी उल्लेख किया गया है। यह पितामह
सिद्धांत के समान है, लेकिन कई स्तरों में अधिक शुद्ध सिद्धांत हैं। पितामह सिद्धांत की तरह ही वशिष्ठ सिद्धांत ने भी माना है कि जब सूर्य उदय होता है, तो वह
प्रतिदिन समान रूप से बढ़ता है।

वशिष्ठ सिद्धांत की अन्य से तुलना


धर्मग्रंथों
इसके अलावा वशिष्ठ सिद्धांत भी लग्न के बारे में बताते हैं। इससे पता चलता है कि सूर्य का कौन सा हिस्सा पूर्वी क्षितिज में उभरा है। लेकिन उस समय के विद्वानों को
सूर्य और चंद्रमा के बीच अंतर और उनकी स्पष्ट गति के बारे में पता नहीं था। वर्तमान में प्रयुक्त वशिष्ठ सिद्धांत का वराहमिहिर के समय के वशिष्ठ सिद्धांत से कोई संबंध
नहीं है।

यह माना जाता है कि वशिष्ठ सिद्धांत पितामह सिद्धांत की तुलना में अधिक विकसित था, लेकिन सूर्य सिद्धांत की तुलना में निम्न स्तर का था।

रोमक सिद्धांत
प्राचीन काल में ज्योतिष अपने चरम पर था। मध्यकाल में इन शास्त्रों के गलत संचालन के कारण, आज हमारे पास इन पुस्तकों के प्रतिस्पर्धी संस्करण नहीं हैं। उस
समय के ज्योतिषी ग्रहों की गति, समय अवधि आदि का आकलन करने में माहिर थे।

उस युग के गणितीय नियमों को सिद्धांतों का नाम दिया गया था। ज्योतिष के सिद्धांतों पर कई किताबें लिखी गई हैं। उनमें से कु छ हैं: सूर्य सिद्धांत, पाराशर सिद्धांत,
वशिष्ठ सिद्धांत, आदि। आज हम रोमक सिद्धांत के बारे में अध्ययन करेंगे:

रोमका सिद्धांत क्या है


यह प्राचीन काल के गणितीय सिद्धांत के सिद्धांतों पर एक पुस्तक है। यह यमना ज्योतिषी के सिद्धांतों पर आधारित है। यमन ज्योतिष विशेष रूप से ग्रीस, मिस्र आदि
देशों में प्रचलित था।

रोमका सिद्धांत शास्त्र


रोमका सिद्धांत सूर्य और चंद्रमा पर डेटा देता है और महीनों, समाप्त महीने, तिथियों और समाप्त तिथियों के बारे में भी विस्तार से वर्णन करता है।
बेबीलोन के नागरिक 5 ग्रह देवताओं की पूजा करते हैं। ये पांच ग्रह बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि हैं। रोमका सिद्धांत में इन पांच ग्रहों की पूजा का उल्लेख है।

रोमका सिद्धांत लोमश सिद्धांत का ही एक रूप है। रोगा देश के नागरिकों के लिए प्राचीन शास्त्रों में रोमका शब्द की शुरुआत हुई थी। ज्योतिषीय गणना से जुड़ा विज्ञान
शास्त्रों के प्रमुख सिद्धांतों में से एक है। चूंकि ये सिद्धांत पुस्तकें रोमन में रची गई थीं, इसलिए इसके नाम पर उनका नाम रोमनक रखा गया।

पौलिसा सिद्धांत, खगोलीय सिद्धांत


पौलिसा सिद्धांत पहला खगोलीय सिद्धांत है जो खगोलीय सिद्धांतों के नए तरीकों के भीतर आया है। पौलिसा सिद्धांत सीधे गणितीय गणनाओं पर आधारित है।

पौलिसा सिद्धांत प्राचीन हिंदू खगोल विज्ञान में प्रासंगिक था क्योंकि इसने पृथ्वी की गोलाकार गति का आकलन करने के लिए आवश्यक डिग्री की सटीक गणना
प्रदान की थी। इस सिद्धांत के तत्व में अहरगना की गणना शामिल है, जिसका अर्थ है कि एक निश्चित युग से एक निश्चित तिथि तक बीत चुके नागरिक दिनों की
संख्या, सूर्य और चंद्रमा के औसत स्थानों और उनके स्थान का आकलन करने के लिए अहरगना का निर्धारण। पौसिल सिद्धांत में चंद्रमा के देशांतर की गणना करने
की विधि भी शामिल है और इसमें दिशाओं, समय और स्थान, साइन टेबल और ग्रहण की सरल गणना के लिए विविध नियम शामिल हैं।

पौलिसा सिद्धांत वास्तविक स्थानों को प्राप्त करने के लिए, कें द्र या कें द्र के ज्ञान और कें द्र के समीकरण को प्रकट करने के लिए माध्य सूर्य से जोड़े या घटाए जाने
वाली मात्राओं की गणना करने के तरीके प्रदान करता है। थाईबॉट की व्याख्या के अनुसार यह एक अलग डिग्री प्रदान करता है जो सही समीकरण बनाने के अनुरूप है।
पौलिसा सिद्धांत साइन टेबल प्रदान करता है जो तीनों सिद्धांतों के लिए एक सामान्य विशेषता होगी। यह तारों और ग्रहों की गति की गणना में शुद्ध गणित का परिचय
देता है। मूल पाठ में यह एक अंकगणितीय सूत्र प्रदान करता है जिसमें त्रिज्या 120' और 3438 'के साथ तय की जाती है जिसका उपयोग बाद की खगोलीय
गणनाओं में किया जाता है।

पौलिसा सिद्धांत हालांकि गणितीय रूप से सूर्य और चंद्र ग्रहण की गणना करने की पहली विधि बनी हुई है, लेकिन रोमका और सूर्य सिद्धांत के मामले में इतनी सटीक
नहीं होने के कारण इसकी निंदा की गई है। पौलिसा सिद्धांत अल बिरूनी और भारत के बाहर के कई विद्वानों के लिए प्रभाव का एक बड़ा स्रोत रहा है, जिन्होंने हिंदू
खगोल विज्ञान और इसके सिद्धांतों से जानकारी प्राप्त की है, जिसे वराह और ब्रह्मगुप्त ने अपने ब्रह्मस्फु ट-सिद्धांत में संक्षेपित किया है। पौलिसा सिद्धांत की कई
व्याख्याएं और सारांश थे, जिनके बारे में माना जाता है कि उनमें भट्टोत्पाल और पृथुदक-स्वामी द्वारा दिए गए तत्व शामिल हैं। ये वराह के संस्करण से भिन्न हैं जो
इसकी सटीकता को अलग तरह से समान करता है।

कु ल मिलाकर पौलिसा सिद्धांत सितारों और ग्रहों की गति और सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति का मूल्यांकन करने के लिए उपयोग की जाने वाली पहली खगोलीय
विधि है जो ग्रहण का समय आदि तय करेगी।

सूर्य सिद्धांत, खगोलीय सिद्धांत


सूर्य सिद्धांत तीसरा खगोलीय सिद्धांत रहा है जो किसी भी अन्य सिद्धांत से अधिक सटीक माना जाता है। पंचसिद्धतिका में इसका संक्षेप में वर्णन किया गया है। सूर्य
सिद्धांत में मुख्य रूप से ब्रह्मांड विज्ञान, भूगोल और खगोल विज्ञान के अन्य तत्व शामिल हैं जिन्हें समय के साथ संकलित किया गया है।

सूर्य सिद्धांत खगोलीय सिद्धांतों में से एक रहा है जिसे समय-समय पर कई खगोलविदों द्वारा तैयार किया गया है। अध्याय 9-11, 16, 17 के भीतर पंचसिद्धांतिका
पुस्तक में सूर्य सिद्धांत के कार्य को सारांशित किया गया है। जबकि अध्याय I सूर्य और चंद्रमा के युग तत्वों की चर्चा करता है, अध्याय 13 से 15 में ब्रह्मांड, भूगोल
और पर चर्चा की गई है। हिंदू खगोल विज्ञान में सूर्य और चंद्रमा की प्रासंगिकता। सूर्य सिद्धांत के कार्य का पता तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध युग तक लगाया जा
सकता है, जो 10 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में वराहमिहिर द्वारा चर्चा किए जाने तक हर युग में संरक्षित और उन्नत किया गया है। यह लेख गुप्त काल का एक प्रमुख पाठ
रहा है जहां यह प्रकाशमानियों की वास्तविक गतियों पर चर्चा करता है जो आकाश में उनकी वास्तविक स्थिति की पुष्टि करते हैं; यह चंद्र नक्षत्र के अलावा कई सितारों
की वास्तविक स्थिति का पता लगाने में मदद करता है और सूर्य ग्रहण की गणना करता है।

सूर्य सिद्धांत का पुराना संस्करण जिसे वराहमिहिर द्वारा संक्षेपित किया गया था, वह सूर्य सिद्धांत के वर्तमान संस्करण से बहुत अलग था जिसे 400AD में विकसित
किया गया था। सूर्य सिद्धांत को समय-समय पर कई खगोलविदों द्वारा संदर्भित किया गया है जिसमें आर्यभट्ट प्रथम भी शामिल हैं जिन्होंने पाठ का उल्लेख किया है।
पाठ इस तथ्य को धारण करता है जो वराहमिहिर के संस्करण से आ रहा है, कि दुनिया में कु ल 180,000 वर्ष हैं जिनमें 66389 इंटरकै लेरी महीने और 1,045,
095 छोड़े गए चंद्र दिन हैं। यह एक युग में 65,746,575 दिन देता है। तुलना जो पाठ के पुराने और नए संस्करण में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करती है, कहती है कि
180,000 दिनों की अवधि को 4,430,000 वर्षों के महायुग में परिवर्तित किया जा सकता है जो पूर्व को 24 से गुणा करेगा और दिनों की कु ल संख्या में वृद्धि
करेगा। ग्रहों की क्रांति के मामले में भी पाठ आर्यभट्ट द्वारा चिह्नित किए गए परिवर्तनों की संख्या और अंतरों को प्रकट करता है। अन्य खगोलीय गणनाओं के मामले में
सूर्य सिद्धांत का आधुनिक संस्करण बहुत भिन्नता दिखाता है।
सूर्य सिद्धांत का आधुनिक संस्करण लता द्वारा शामिल किया गया था जो आर्यभट्ट प्रथम के समकालीन हैं जिन्होंने हिंदू खगोल विज्ञान की बुनियादी गणनाओं के बीच
अंतर को चिह्नित किया। यह संस्करण खगोलीय तत्वों और गणनाओं का एक संक्षिप्त संस्करण है जो युगों से यात्रा करता रहा है। नए सिद्धांत में 500 छंद शामिल हैं
जो विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विभिन्न खंडों में विभाजित हैं, यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ग्रह गति के भीतर ग्रह एक दूसरे के साथ हवा की डोरियों से जुड़े होते हैं जो
अदृश्य रास्तों में स्थित होते हैं जिनका वर्णन सभी खगोलविदों द्वारा अलग-अलग तरीके से किया गया है। ग्रह समान रूप से अपनी गति से प्रेरित होते हैं। आधुनिक
सूर्य सिद्धांत ऐसे सिद्धांतों का निर्माण करता है जो हमारे वर्तमान खगोल विज्ञान के बहुत करीब हैं जो सौर मंडल को परिभाषित करते हैं।

इस प्रकार, सूर्य सिद्धांत को भारतीय खगोल विज्ञान पर सबसे सटीक और वर्तमान सिद्धांतों में से एक माना जा सकता है।

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