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सेना, मिसाइल, मंदिर, धारा ३७० ये सब temporary समाधान हैं 

समस्या को जड़ से हल करना हो तो अखंड भारत के अपने सभी भाइयो कोउनके Indian origin
धर्म (सनातन, बुद्ध, जैन, सिक्ख आदि) मेंवापस लाओ, जाति छु आछू त ख़त्म करके शिक्षा, तकनीक, computerization और स्वदेशी पर ध्यान दो| Indian origin
religion काUGC से संबंध विश्वविद्यालय बनाओ पूजा-पाठ, कर्मकांड, यज्ञ, विधि-विधान आदि के पाठ्यक्रम, पीएचडी, शोध प्रकाशन शुरू हो| यहाँ से पढ़े लोगो का
पंजीकरण करो और उन्ही को मंदिरों में प्रतियोगी परीक्षा द्वारा मंदिरों, यज्ञ, पूजा आदि मेंनियोजित करे| बाकि समस्याये तो अपने आप हल हो जाएगी| आप कितने भी मंदिर
सरकारे बना लो महाराणा शिवाजी पैदा कर लो अगर सभी भाइयो कोउनके Indian origin धर्म (सनातन, बुद्ध, जैन, सिक्ख आदि) मेंवापस नहीं ला पाए तो कई सालो
बादभारत का हाल अफगानिस्तानबंगलादेश पाकिस्तान सिंध कश्मीर के रल जैसा हो जायेगा और JEHAD, GAURI & GAJNAVIAND JAICHAND
पैदा होते रहेगे| धर्मवापसी के बाद ये लोग अपनी जडो को पहचानेगे, स्वयं ही पाकिस्तान को ख़त्म करेंगे और मंदिर को तोड़कर बनायेधर्मस्थल को भी वापस करेंगे लेकिन इस काम
में धर्म और जाति के ठेके दार रुचि नहीं लेंगे |

2 ही धर्म की नीतियों के कारण उनका कई राष्ट्रों और क्षेत्रों पर दबदबाकायम है। उक्त धर्मों की छत्रछाया में कई जगहों पर अल्पसंख्‍यक अपनाअस्तित्व खो चुके हैं या खो रहे हैं तो
कु छ जगहों पर उनके अस्तित्व कोबचाने के प्रयास किए जा रहे हैं| भारतीय सभ्यता, संस्कृ ति और सनातन धर्म जो विश्व की प्राचीनतम और महानतमसभ्यता, संस्कृ ति और धर्मों
में से एक है, जो जियो और जीने दो, वसुधैवकु टुम्बकम और सत्यमेव जयते जैसे आदर्शों पर आधारित है

सिकन्दर शाह जैसे मुस्लिम शासकों ने कश्मीरी पंडितों के लिए तीन ही विकल्पदिए थे-इस्लाम कबूल करो, घाटी छोड़ो या मरो और उसने लाखों की संख्या मेंब्राह्मणों का कत्ल
करवाया था और यह की १८४६ में जब कश्मीर के महाराज गुलाबसिंह हुए तो १८४८ में हजारों की संख्या में धर्मान्तरित मुस्लिम उनके दरबार में उपस्थित हुए थे और अपने उपर
मुस्लिम अत्याचार और जबरन धर्मान्तरणका हवाला देकर वापस हिंदू धर्म में शामिल करने की प्रार्थना की थी. गुलाबसिंह इसके लिए आश्वाशन भी दिए थे पर उनके पुरोहित की
धर्मान्धता के कारण यहशुभ कार्य पूरा नही हो सका (My Frozen Turbulence of Kashmir- by Jagmohan).

https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/a-tribute-to-two-other-women-of-alauddin-
khiljis-time/articleshow/61788539.cms?from=mdr

http://kalchiron.blogspot.com/2007/03/memorable-love-story-of-khushro-khan.html

However most of the people claims Prithviraj Chauhan as last Hindu King but factually it is not correct.

After Prithviraj Chauhan, Khusro Khan (Converted Hindu) also ruled for short period (Khilji Dynasty Period)
and between Sharshah Suri and Akbar Period, Hemu (He ruled Delhi for almost a Month and later on faced defeat
from Mughal’ in second war of Panipat)become King of Delhi.chhatrapati shahu maharaj was last hindu king
who control largest part of india with peshwa bajirao he is son of chhatrapati Sambhaji Maharaj and grandson of
chhatrapati shivaji Maharaj, at time of chattrapati shahu maharaj maratha empire extends from Peshawar (Pakistan)
to Thanjavur (tamilnadu), In 1737 Battle of Delhi took place between maratha empire and Mughal empire and
Maratha empire won the battle and capture Delhi

भारत का विस्तार पूरे एशिया और, जर्मनी और रूस तक था| जन्म आधारित जाति/वर्ण व्यवस्था यापुराने/नए जमाने के आरक्षण, घर के भेदी और सिद्धांतों के कारण भारत सिमट
गया| भारत और सनातन धर्म का जाति और धर्म के ठेके दारों ने नाश किया

* जम्बूद्वीप:संपूर्ण एशिया (रशिया से श्रीलंका और इसराइल से चीन तक फै ला जम्बूद्वीप)


* भारतवर्ष:पारस (ईरान), अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्थान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया,
वियतनाम, लाओस तक भारतवर्ष।

https://hindi.webdunia.com/religious-article/conversion-in-india-115010800039_1.html

https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_massacres_in_India

https://en.wikipedia.org/wiki/Persecution_of_Hindus

https://www.sikhnet.com/news/islamic-india-biggest-holocaust-world-history
https://economictimes.indiatimes.com/blogs/jugglebandhi/hindu-conversion-how-hinduism-is-being-turned-more-
islamic-and-christian/

https://eksachchai.blogspot.com/2015/06/blog-post_64.html

http://sbseachadhrmhindu.blogspot.com/2016/06/blog-post_2.html

https://en.wikiquote.org/wiki/Conversion_of_non-Islamic_places_of_worship_into_mosques

https://hindugenocide.com/

https://en.wikipedia.org/wiki/Conversion_of_non-Islamic_places_of_worship_into_mosques

http://sindhusthan.blogspot.com/2012/

सिन्ध का नाम 'सप्त सैन्धव'था जहां सिन्धु सहित शतद्रु, विपाशा, चन्द्रभागा, वितस्ता, परुष्णी और सरस्वती बहती थीं। सिन्धु के तीन अर्थहैं- सिन्धु नदी, समुद्र और सामान्य
नदियां।ऋग्वेदकहता हैमधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। कालान्तर में इस भूभाग से सप्त सिन्धव लुप्त होकर सिन्ध रह गया है, जो खण्डित भारत यानी पाकिस्तान का सिन्ध
प्रदेश है। इस्लामी आतंक के चलते ब्राह्मण दाहर के पुत्रजयसिंह भी मुसलमान हो गए।यदि हिन्दू राजाओं ने जयसिंह की सहायता की होतीतो वे मतान्तरित न होते। भयाक्रांतता के
चलते हिन्दू इस्लाम को मानने के लिए मजबूर हुए।राजनीतिक अलगाववादी नीति के चलते मतान्तरित मुसलमानमुख्यधारा से आज तक जुट न पाए। ब्राह्मणवाद इस्लामवाद हो गया।

परशुराम ही थे, जिनके इशारों पर नदियोंकीदिशा बदल जाया करतीं, अपने बलसेआर्योंके शत्रुओंकानाश किया, हिमालयके उत्तरी भू-भाग, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, कश्यप भूमि
और अरब में जाकरशत्रुओंका संहारकिया। उसी फारस जिसे पर्शिया भी कहा जाता था, का नाम इनके फरसे पर किया गया.उन्होंनेभारतीय संस्कृ ति को आर्यन यानी ईरान के कश्यप
भूमि क्षेत्र और आर्यक यानीइराक में नई पहचान दिलाई. गौरतलब है कि पर्शियन भाषी पार्शिया परशुराम के अनुयायी और अग्निपूजक कहलाते हैं और परशुराम से इनका संबंध जोड़ा
जाता है.

India traces to the Soan Sakaser Valley between the Indus and the Jhelum rivers. Sindh and surrounding areas
contain the ruins of the Indus Valley Civilization. There are remnants of thousand-year-old cities and structures,
with a notable example in Sindh being that of Mohenjo Daro.

Literary evidence from the Vedic period suggests a transition from early small janas, or tribes, to many janapadas
(territorial civilizations) and gana-samgha societies.

These political entities were represented from the Rigveda to the Astadhyayi by Pāṇini.[4] Many Janapadas were
mentioned from Vedic texts and are confirmed by Ancient Greek historical sources. Most of the Janapadas that had
exerted large territorial influence, or mahajanapadas, had been raised in the Indo-Gangetic Plain with the exception
of Gandhara in what is now Afghanistan.

The very first mention of Sindh was found in the Mahabharata where the Aryan king of Sind Jayadratha fought
against Lord Krishna.धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृ त व्याकरणाचार्य पाणिनी और गुरु गोरखनाथ

आज भी अफगानिस्थान के अंदर 500 से ज्यादा स्थानों के नाम गुर्जरों के ऊपर हैं जिनमे गुर्जर नाला ,गुज्जर खान,गुज्जर बाग, गुज्जर घर, आदि स्थान हैं अफगानिस्थान के राष्ट्रगान
में भी गुर्जरो का विवरण नश्ल में किया गया है जो उधर ऊपरी दोआब में मौजूद है अफगानिस्तान के राष्ट्रगान का विवरण कु छ इस प्रकार है
"अरबों की और गुज्जरों की,
पामिरियों, नूरिस्तानीयों
ब्राहुइयों की और किज़िलबाशों की,
एमाक्यों और पाशाइयों की भी"
शीतयुद्ध के दौरान अफगानिस्तान को तहस-नहस कर दिया गया। यहां की संस्कृ तिऔर प्राचीन धर्म के चिह्न मिटा दिए गए। लेकिन धर्म बदलने के बाद भी आज तकये लोग "ये माना
पंथ बदला है मगर पुरखे नही बदले "की कहावत को सच साबितकरते हैं क्यों कि आज भी

अफगानिस्तान के गांवों में बच्चों के नाम आपको कनिष्क, आर्यन, वेद ,मिहिर, जयपाल, साही, देबपुत्र आदि नाम  मिलेंगे।दरअसल, अंग्रेजी शासन मेंपिंडारियों के रूप में जो अंग्रेजों
से लड़े, वे विशेषकर पठान  गुज्जर औरजाट  ही थे। पठान जाट और गुज्जरों  के समुदाय का ही एक वर्ग है।

हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह' या ‘महाराज धर्मपति' साही वंश ,देबपुत्र ,कहाजाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव खटाना, भीम खटाना, अष्टपाल खटाना, जयपाल खटाना,
आनंदपाल खटाना, त्रिलोचनपाल खटाना, भीमपाल खटाना,आदिउल्लेखनीय हैं।खटाना गुर्जर संभवतः मूल रूप से चीन के तारिम घाटी स्थित खोटान के मूल निवासी हैं|
इन राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्करदी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया, लेकिन 1019 मेंमहमूद
गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खागया।
गौतम बुद्ध अफगानिस्तान में लगभग 6 माह ठहरे थे। बौद्धकाल में अफगानिस्तान की राजधानी बामियान हुआ करती थी।
भारत पर इन विदेशियों ने किया था राज

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय ईरान से भारत आने के दो मार्ग थे पहला मार्ग जेड्रोसिया के विशाल रेगिस्तान से होकर आता था जबकि दूसराबैक्ट्रिया, सोग्डियाना तथा काबुल
घाटी होते हुए सिन्धु नदी तक पहुँचता था

1. हखामनी (पारसीक) आक्रमण (Hakimni (Parseek) Invasion):

A) सायरस-II(ईरानी, 588 से 530 ई०पू० )- प्रथमआक्रमण करने वाला |


साइरस ने जेड्रोसिया के रेगिस्तान से होकर भारत पर आक्रमण करने का प्रयासकिया था परन्तु उसे विनाशकारी असफलताओं का सामना करना पड़ा । मार्ग में उसकीसम्पूर्ण सेना
नष्ट-भ्रष्ट हो गयी तथा के वल सात सैनिकों के साथ वह जानबचाकर भागा ।इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि काबुल घाटी पर साइरस का अधिकार था । इसप्रकार साइरस ईरान
तथा भारत के मध्यवर्ती प्रदेशों को जीतने में सफल हुआ ।इस सम्बन्ध में एडवर्ड मेयर का निष्कर्ष सबसे अधिक तर्क संगत लगता है-‘साइरसने हिन्दूकु श तथा काबुल चाटी, विशेष
रूप से गन्धार की भारतीय जनजातियों कोजीत लिया था । दारा स्वयं सिन्धु नदी तक आया था ।’वह गृह-युद्धों में ही उलझा रहा और उसके समय में पारसीक साम्राज्य का विस्तार
भारत की ओर नहीं हो सका ।आक्रमण में सायरस को हालाँकि ज्यादा सफलता नहीं मिली लेकिन उसनेविदेशियों के भारत पर आक्रमण का रास्ता खोल दिया .जिसका सिलसिला
मुगलों सेहोता हुआ अंग्रेजों तक निर्बाध रूप से चलता रहा .इन आक्रमणों ने भारत की धनसंपदा को जम कर लूटा और सोने की चिड़िया कहे जाने वाले देश भुखमरी के कगारपर
पहुंचा दिया .
B)दारा प्रथम (522-486 ईसा-पूर्व): C) क्षयार्ष अथवा जरक्सीज (Xerxes)(लगभग 486-465 ईसा पूर्व):
आरबेला के युद्ध में सिकन्दर ने दारा तृतीय को बुरी तरह परास्त कर उसकीविशाल सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । इसी पराजय के साथ ही पारसीकआधिपत्य की समाप्ति हुई ।

आर. एस. शर्मा के अनुसार ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत कीमहान सम्पदा के विषय में ज्ञात हुआ जिसे प्राप्त करने के लोभ में न्तरमें यहाँ सिकन्दर ने आक्रमण किये
। व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में भीइस आक्रमण ने महत्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये ।
विक्रमादित्य - भारत के प्राचीनऋषि-मुनियों को खगोल विज्ञान की अधिक जानकारी थी। उन्होंने अपनी इस जानकारीको वास्तुरूप देने के लिए वहां-वहां मंदिर या मठ बनवाए, जहां
का कोई न कोईखगोलीय या प्राकृ तिक महत्व था। इसी क्रम में उन्होंने कर्क रेखा परज्योतिर्लिंगों की स्थापना की। उज्जैन के राजा वि‍क्रमादित्य ने उक्तज्योतिर्लिंगों को भव्य आकार
दिया था।विक्रमादित्य भारत के महान सम्राट थे।उनके काल में उज्जैन ही विश्व की राजधानी हुआ करती थी,लेकिन विक्रमादित्यके इतिहास को मिटा दिया गया। उनके द्वारा किए गए
महान कार्यों के पन्नोंको पहले बौद्धकाल, फिर मध्यकाल में फाड़ दिया गया। सम्राट विक्रमादित्य के काल में भारत विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, नक्षत्र आदि विद्याओं काविश्वगुरु
था। महान गणितज्ञ व ज्योतिर्विद वराह मिहिर उन्हीं के काल मेंहुए थे।विक्रम संवत के अनुसार विक्रमादित्य आज से 2285 वर्ष पूर्व हुए थे।विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था।
नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भीचक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। कलिकाल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का
जन्महुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।क्या अरब तक फै ला था विक्रमादित्य का शासन?विक्रमादित्य का शासनअरब तक
फै ला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णनमिलता है। विक्रमादित्य की प्रतिद्वंद्विता रोमन सम्राट से चलती थी। महानसम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस
सीजर को भी हराकर उसे बंदी बनाकरउज्जैन की सड़कों पर घुमाया था तथा बाद में उसे छोड़ दिया गया था। कारण थाकि उसके द्वारा यरुशलम, मिस्र और सऊदी अरब पर
आक्रमण और विक्रम संवत के प्रचलन को रोकना। बाद में रोमनों ने विक्रम संवत कै लेंडर की नकल करके रोमनों के लिए एक नया कै लेंडर बनाया जिसको ईसाई धर्म की उत्पत्ति के
बादईसाइयों ने ईसा कै लेंडर बना लिया।ज्योतिर्विदाभरण अनुसार (ज्योतिर्विदाभरणकी रचना 3068 कलि वर्ष (विक्रम संवत् 24) या ईसा पूर्व 33 में हुई थी)विक्रम संवत् के
प्रभाव से उसके 10 पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलियस सीजरद्वारा कै लेंडर आरंभ हुआ,यद्यपि उसे 7 दिन पूर्व आरंभ करने का आदेश था।विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्ता को
बंदी बनाकर उज्जैन में भी घुमाया था (78 ईसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया। रोमनों ने अपनी इस हार कोछु पाने के लिए इस घटना को बहुत घुमा-फिराकर इतिहास में दर्ज
किया जिसमेंउन्हें जल दस्युओं द्वारा उनका अपहरण करना बताया गया तथा उसमें भी सीजर कागौरव दिखाया है।विक्रमादित्य के काल में अरब में यमन, इराक में असुरी, ईरानमें
पारस्य और भारत में आर्य सभ्यता के लोग रहते थे। यह 'असुरी' शब्द ही 'असुर' से बना है। इराक के पास जो सीरिया है,वह भी असुरिया से प्रेरित है।
कर्क रेखाके आसपास 108 शिवलिंगों की गणना की गई है।विक्रमादित्य ने नेपाल के पशुपतिनाथ, के दारनाथ और बद्रीनाथ मंदिरों को फिर से बनवाया था। इन मंदिरोंको बनवाने के
लिए उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों, खगोलविदों और वास्तुविदों कीभरपूर मदद ली।नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन
के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने काउल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कविकालिदास थे। बौद्ध, मुगल, अंग्रजों के नष्ट करने के बाद भी राजा
विक्रम कीमहानता का भारत की संस्कृ त, प्राकृ त, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा
आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

प्राचीनकाल मेंहिन्दुओं का ही साम्राज्य था। उस काल में धर्म का कोई विशेष नाम नहीं होताथा,लेकिन सभी शिव या विष्णु के रूपों को मानने वाले लोग होते थे। अमेरिकाके रेड
इंडियन जाति के लोग हों या प्राचीन मिस्र के लोग या फिर पिरामिडोंको बनाने वाले लोग हों।इसराइल की प्राचीन जातियां,सीरिया,जॉर्डन के कबीलेहों या सऊदी अरब, इराक या
ईरान के स्थापित साम्राज्य हो, सभी पर वैदिकधर्म का प्रभाव था और सभी ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, कृ तु, स्वायम्भुव मनु, प्रचेता, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, कं दर्भ,
विश्‍वामित्र, वैवस्वत मनु आदि की ही संतानें हैं।इनमें से कु छ प्रमुख स्थानों का चयनकरके हमारे खगोलविदों,ऋषियों और वास्तु शास्त्रियों ने शिवलिंगों कीस्थापना कर भव्य मंदिरों
का निर्माण किया था

Did Vikramaditya build a Shiva temple in Mecca which later became the Kaabathe claims Kaaba was Shiva temple
or house of one God built by Abraham both are equally ridiculous. No Jewish or Christian source records that Kaaba
was built by Abraham. Early Muslims prayed towards Jerusalem or Petra.
ब्रह्माजी के पुत्र मरिचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप के पुत्र थेविवस्वान। विवस्वान के पुत्र थे वैवस्त मनु, जिनके दस पुत्रों में से एक कानाम इक्ष्वांकु था। राजा इक्ष्वांकु ने अयोध्या
को अपनी राजधानी बनाया औरउन्होंने ही इक्ष्वांकु वंश को स्थापित किया।इसी वंश में राजा युवनाश्व का जन्म हुआ लेकिन उनका कोई पुत्र नहीं थाच्यवन ऋषि ने राजा युवनाश्व के
लिए इष्टि यज्ञ करके एक मटके में अभिमंत्रित जल रखाजिसका सेवन राजा की पत्नी को करना था ताकि वह गर्भधारण कर पाए। थकान औरगहरी नींद में सोने की वजह से किसी ने
राजा की आवाज नहीं सुनी। ऐसे में राजा स्वयं उठे और पानी की तलाश करने लगे।ऋषि च्यवन ने कहा उनकी संतान अब उन्हीं के गर्भ से जन्म लेगी।इन्द्र ने अपनी अंगुली शिशु के
मुंह में डाली जिसमें से दूध निकल रहा था औरकहा “मम धाता” अर्थात मैं इसकी मां हूं। इसी वजह से उस शिशु का नाम ममधा| ये दुनिया के इतिहास का पहला मामला था जब
किसी पुरुष ने बच्चे को जन्म दिया हो, कहतेहैं राजा मांधाता से सूर्य उदय से लेकर सूर्यास्त तक के राज्यों परधर्मानुकू ल शासन किया था। इतना ही नहीं राजा 
मांधाता ने 100 अश्वमेघ औरइतने ही राजसूय यज्ञ करके 10 योजन लंबे और 1 योजन ऊं चे रोहित नामक सोने कीमछली बनवाकर ब्राह्मणों को दान दि थी। अयोध्यामें लवकु श
के द्वाराबनवाया राम मंदिर को विशालकाय नवनिर्माण राजा विक्रमादित्य ने ही कराया था|

कं बोज देश का विस्तारकश्मीर से हिंदूकु श तक था। वंश ब्राह्मण में कं बोज औपमन्यव नामक आचार्य काउल्लेख मिलता है। वैदिक काल में कं बोज आर्य-संस्कृ ति का कें द्र थामहाभारत
में कं बोज और गांधार के कई राजाओं का उल्लेख मिलता हैकालिदास ने रघुवंश में रघुके द्वारा कांबोजों की पराजय का उल्लेख किया है:- 'काम्बोजा: समरे सोढुंतस्य वीर्यमनीश्वरा:,
गजालान् परिक्लिष्टैरक्षोटै: सार्धमानता:'

People of Gill gotra came to known as Gilzai Pathans; Gill Jats at one time ruled the area of Hindukush Mountains.
The last ruler of Ghazni was Subhag Sen. At the time of Alexander's invasion king Chitra Verma ruled Baluchistan.
मुस्लिम धर्म के प्रचलित होने से पहले गौरवंशी जाटराजा सुभागसेनकाअफगानिस्तानपर शासन था। मुस्लिम बादशाहों ने इनसे अफगानिस्तान जीत लिया।

किश्‍तवाड़Kishtwar and Kashmir started around the year 490BC when Ajatashatru, the king of Magadh, wanted to
shift his capital from the hilly Rajagriha to a more strategically located place to combat the Licchavis of Vaishali.
He chose the site on the bank of Ganges and fortified the area. From that time, the city has had a continuous history,
a record claimed by few cities in the world. Gautam Buddha passed through this place in the last year of his life,
and he had prophesized a great future for this place, but at the same time, he predicted its ruin from flood, fire, and
feud.किश्तवाड़ कश्यप ऋषि का घर था। के शप वार, यानी कश्यप का घर। वही कश्यप ऋषि, जिन्होंने कश्मीर घाटी का सारा पानी निकाल उसे जीवन दिया था। यानी जबकश्मीर
नहीं था, किश्तवाड़ तब भी था।किश्तवाड़ किलाड़ का यह इलाका जंस्कार और पीरपंजाल पहाड़ियों का मेल है। देशकी दो सबसे दुर्गम पहाड़ी रेंज। हिमाचल-जम्मू बॉर्डर पर कभी
गुलाबगढ़ तकहिमाचल के राजा छत्तरसिंह का राज था। फिर जम्मू के राजा जोरावर सिंह ने इसपर कब्जा कर लिया। हिमाचल की मशहूर पांगी वैली का हेडक्वाटर किलाड़
हीहै। सरकारी मुलाजिम जिनकी यहां पोस्टिंग होती उन्हें फ्यूनरल अलाउंस दियाजाता था। माना जाता है कि कश्यप ऋषि के नाम पर ही कश्यप सागर (कै स्पियन सागर) और
कश्मीर का प्राचीननाम था।एक समय ऐसा था जब उज्जैन अखंड भारत की राजधानी हुआ करता था।

२.सिकं दरया अलेक्सेंडर (ग्रीक 336 B.C.E.  - 323 B.C.E.)-यूरोपीय विजेता सिकन्दर के नेतृत्व में होने वाला मैसीडोन आक्रमण था| तुर्की के फ़ारसी साम्राज्य को
हराकरअफ़गानिस्तानहोते हुएबसन्त के अन्त में एक विशाल सेना के साथ वह भारतीय विजय के लिये चल पड़ा ।बल्ख से चलकर काबुल के मुख्य मार्ग से होते हुए उसने हिंदूकु श
पर्वत पार किया ।एलेक्जोन्ड्रि या से निकै या को प्रस्थान किया । भारत के पश्चिमोत्तर भाग में इस समय अनेक छोटे-बड़े जनपद, राजतन्त्र एवंगणतन्त्र विद्यमान थे । पारस्परिक द्वेष
एवं घृणा के कारण वे किसी भीआक्रमणकारी का संगठित रूप में सामना नहीं कर सकते थे । राजतन्त्र, गणतन्त्रों को समाप्त करना चाहते थे जबकि गणतन्त्रों के लिये राजतन्त्रोंकी
सत्ता असह्य हो रही थी ।the Zoroastrian tradition is unanimous that Alexander ‘killed several high priests and judges and
priests and the masters of the Magians and upholders of the religion’ ।निकै या में सिकन्दर से तक्षशिला के राजा आम्भी के नेतृत्व में एक
दूतमण्डल मिला जिसने उसे सहायता का पूर्ण आश्वासन दियाउसनेआम्भी से संधि करके तक्षशिला पर अधिकार कर लिया।Alexander had to pay the King of
Taxiles, Omphis, (Ambi) 1000 talents of gold (more than 25 tons of gold) - to secure an alliance . To cement this
alliance, Alexander ‘gifted’ Ambhi with ‘a wardrobe of Persian robes, gold and silver ornaments, and 30 horses,
1000 talents in cash’. 1000 talents is anywhere between 25,000-60,000 kg of gold! Does this look like Ambhi
accepted Alexander as the conqueror of the world - or Alexander ‘persuading’ Ambhi to seal an alliance?

पुरु का नाम यूनानी इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है। इतिहास को निष्पक्षलिखने वाले प्लूटार्क ने लिखा- 'सिकं दर सम्राट पुरु की 20,000 की सेना के सामने तो ठहर नहीं पाया।
आगे विश्व की महानतम राजधानी मगध के महान सम्राटधनानंद की सेना 3,50,000 की सेना उसका स्वागत करने के लिए तैयार थी जिसमें 80,000 घुड़सवार, 80,000
युद्धक रथ एवं 70,000 विध्वंसक हाथी सेना थी। उसके क्रू र सैनिक दुश्मन के सैनिकों को मुर्गी-तीतर जैसा काट देते हैं।

ईरानी और चीनी इतिहास के नजरिए से देखा जाए तो यह छवि कु छ अलग ही दिखती है।'

सिकं दर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा औरसंस्कृ ति से मदद मिली, जो ये कहती है कि सिकं दर का अभियान उन पश्चिमीअभियानों में पहला था, जो
पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृ त बनानेके लिए किए गए। अब यह कहां होगा की बर्बर तो वे लोग थे जो आक्रमणकारी थे।
अजीब लगता है जबकि भारत में सिकं दर को महान कहा जाता है और उस परगीत लिखे जाते हैं। उस पर तो फिल्में भी बनी हैं जिसमें उसे महान बताया गयाऔर एक कहावत भी
निर्मित हो गई है- 'जो जीता वही सिकं दर'। ...यदि सचमुच हीभारतीयों ने पश्चिम नहीं, भारतीय इतिहासकारों को पढ़ा होता तो वे कहते... 'जो जीता वही पोरस'। लेकिन अंग्रेजों की
200 वर्षों की गुलामी ने अंग्रेजभक्त जो बना दिया है।

सिकं दर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने सौतेले व चचेरे भाइयोंका कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिन्हासन पर बैठा था। अपनीमहत्वाकांक्षा के कारण वह विश्व विजय को
निकला। यूनान के मकदूनिया का यहराजा सिकं दर कभी भी महान नहीं रहा। यूनानी योद्धा सिकं दर एक क्रू र, अत्याचारी और शराब पीने वाला व्यक्ति था।

इतिहासकारों के अनुसार सिकं दर ने कभी भी उदारता नहीं दिखाई। उसनेअपने अनेक सहयोगियों को उनकी छोटी-सी भूल से रुष्ट होकर तड़पा-तड़पाकर माराथा। इसमें उसका एक
योद्धा बसूस, अपनी धाय का भाई क्लीटोस और पर्मीनियन आदिका नाम उल्लेखनीय है। क्या एक क्रू र और हत्यारा व्यक्ति महान कहलाने लायकहै? गांधार के राजा आम्भी ने सिकं दर
का स्वागत किया। आम्भी ने भारत के साथगद्दारी की।

प्रसिद्ध इतिहासकार एर्रियन लिखते हैं, जब बैक्ट्रिया के राजा बसूसको बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकं दर ने उनको कोड़े लगवाए और उनकी नाक-कानकटवा डाले। इतने पर भी
उसे संतोष नहीं हुआ। उसने अंत में उनकी हत्या करवादी। उसने अपने गुरु अरस्तू के भतीजे कलास्थनीज को मारने में संकोच नहींकिया।

एक बार किसी छोटी-सी बात पर उसने अपने सबसे करीबी मित्र क्लीटोस को मारडाला था। अपने पिता के मित्र पर्मीनियन जिनकी गोद में सिकं दर खेला था उसनेउनको भी मरवा
दिया। सिकं दर की सेना जहां भी जाती, पूरे के पूरे नगर जला दिएजाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता और बच्चों को भालों की नोक परटांगकर शहर में घुमाया जाता
था।

ऐसा क्रू र सिकं दर अपने क्या, महान सम्राट पोरस के प्रति उदार होसकता था? यदि पोरस हार जाते तो क्या वे जिंदा बचते और क्या उनका साम्राज्ययूनानियों का साम्राज्य नहीं हो
जाता?

इतिहास में यह लिखा गया कि सिकं दर ने पोरस को हरा दिया था। यदि ऐसाहोता तो सिकं दर मगध तक पहुंच जाता और इतिहास कु छ और होता। लेकिन इतिहासलिखने वाले
यूनानियों ने सिकं दर की हार को पोरस की हार में बदल दिया।

हारे हुए सिकं दर का सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिएयूनानी लेखकों ने यह सारा झूठा जाल रचा। स्ट्रेबो, श्वानबेक आदि विदेशीविद्वानों ने तो कई स्थानों पर इस बात
का उल्लेख किया है कि मेगस्थनीज आदिप्राचीन यूनानी लेखकों के विवरण झूठे हैं। ऐसे विवरणों के कारण ही सिकं दरको महान समझा जाने लगा और पोरस को एक हारा हुआ योद्धा,
जबकि सचाई इसके ठीकउलट थी। सिकं दर को हराने के बाद पोरस ने उसे छोड़ दिया था और बाद मेंचाणक्य के साथ मिलकर उसने मगध पर आक्रमण किया था।

यूनानी इतिहासकारों के झूठ को पकड़ने के लिए ईरानी और चीनी विवरण औरभारतीय इतिहास के विवरणों को भी पढ़ा जाना चाहिए। यूनानी इतिहासकारों नेसिकं दर के बारे में झूठ
लिखा था,ऐसा करके उन्होंने अपने महान योद्धा औरदेश के सम्मान को बचाया।

इस भारतीय देशद्रोहियों द्वारा आश्वस्त हो जाने के पश्चात् सिकन्दर नेआगे प्रस्थान किया । उसने अपने सेना को दो भागों में विभक्त किया। एक भागको उसने हेफे स्तियान तथा
पेर्डियस नामक अपने दो सेनापतियों के नेतृत्व मेंकाबुल नदी के किनारे-किनारे खैबर दर्रे से होते हुए सिन्धु नदी तक पहुँचनेका आदेश दिया ।

दूसरे भाग का नेतृत्व स्वयं ग्रहण करउसने कु नार तथास्वात नदी घाटी के पर्वतीय दुर्गम क्षेत्रों में युद्ध किया । प्रथमसैन्य-दल को मार्ग में पुष्कलावती (पश्चिम गन्धार) के शासक
अष्टक (अस्टीज =हस्ति) के भीषण अवरोध का सामना करना पड़ा ।

गौरियनों के प्रदेश को जीतते हुए सिकन्दर ने अश्वकों के राज्य में प्रवेशकिया जिनकी राजधानी मसग में थी । भीषण प्रतिरोध के पश्चात् वे परास्त हुए ।यूनानी लेखकों के विवरण से
पता चलता है कि इस राज्य की स्त्रियों नेपुरुषों की मृत्यु के बाद युद्ध किया था । सिकन्दर ने इस नगर की सभीस्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया ।

सभी छोटे-छोटे प्रदेशों को जीतकर उसने निचली काबुल घाटी में अपनी स्थितिसुदृढ़ कर ली । सिन्धु पार करने के पूर्व कु छ स्थानीय सहायकों की मदद सेसिकन्दर ने एओर्नोस
(Aornus) के सुदृढ़ गढ़ पर कब्जा कर लिया ।यहाँ उसने शशिगुप्त को शासक नियुक्त कियायहाँ एक महीने विश्राम करने के पश्चात् 326 ईसा पूर्व के बसन्त में यूनानी-विजेता ने
सिन्धु नदी पार कर भारत-भूमि पर कदम रखे ।

सिन्धु नदी पार करने के बाद तक्षशिला के शासक आम्भी, जिसका राज्य सिन्धुतथा झेलम नदियों के बीच फै ला था, ने अपनी पूरी प्रजा तथा सेना के साथसिकन्दर के सम्मुख
आत्म-समर्पण कर दिया तथा अपनी राजधानी में सिकन्दर काभव्य स्वागत किया ।
तक्षशिला में एक दरबार लगा जहां पास-पड़ोस के अनेकछोटे-छोटे राजाओं ने सिकन्दर के सामने बहुमूल्य सामग्रियों के साथआत्म-समर्पण किया । इस प्रकार तक्षशिला में खुशियाँ
मनाते हुए सिकन्दर नेझेलम तथा चिनाब के मध्यवर्ती प्रदेश के शासक पोरस (पुरु) से आत्म-समर्पण कीमाँग की ।लेकिन झेलमनहीं के पर राजापोरुस ने सिकं दर के आगे झुकने से
इंकार कर दिया |

अंत में एक रात जब भीषण वर्षा हुई, सिकन्दर ने धोखे से अपनी सेना को झेलमनदी के पार उतार दिया । उसके इस कार्य से भारतीय पक्ष स्तम्भित रह गया |

इतिहास में यह लिखा गया कि सिकं दर नेपोरसको हरा दिया था। यदि सचमुच ऐसा होता तो सिकं दर मगध तक पहुंच जाता और तब भारत का इतिहास कु छ और होतापश्चिम जो
कहता है दुनिया उसे आंख मूंदकर मान लेती है। मगर ईरानी और चीनीइतिहास के नजरिए से देखा जाए तो यह छवि कु छ अलग ही दिखती है।उसकी खास दुश्मनी ईरानियों से थी।
सिकं दर ने ईरान के पारसी राजा दारा कोपराजित कर दिया और विश्व विजेता कहलाने लगा। यहीं से उसकी भूख बड़ गई।सिकं दर को ईरानी कृ ति 'शाहनामा' ने महज एक विदेशी
क्रू र राजकु मार माना हैमहान नहीं।सिकं दर और पोरस के बीच हुए युद्ध को ग्रीक 'Battle of the Hydaspes' कहतेहैं। यह युद्‍धल May326 ईसा पूर्व में लगा गया था।
सिकं दर की सेना में 50 हजार पैदल सैनिक, 7 हजार घुड़सवार थे तो वहीं पोरस के पास 20 हजार पैदलसैनिक, 4 हजार घुड़सवार, 4 हजार रथ और 130 हाथी थे। सिकं दर
अपने चुने हुए 11 हजार आम्भी की सेना भारतीय और सिकं दर की सेना के यूनानी सैनिकों को लेकरझेलम की ओर चला था।

पुरु के भाई अमर ने सिकं दर के घोड़े बुकिफाइलस (संस्कृ त-भवकपाली) को अपनेभाले से मार डाला और सिकं दर को जमीन पर गिरा दिया। ऐसा यूनानी सेना नेअपने सारे
युद्धकाल में कभी होते हुए नहीं देखा था।
सिकं दर जमीन पर गिरा तो सामने राजा पुरु तलवार लिए सामने खड़ा था। सिकं दर बसपलभर का मेहमान था कि तभी राजा पुरु ठिठक गया। यह डर नहीं था, बल्कि यहआर्य राजा
का क्षात्र धर्म था, कि किसी निहत्थे राजा को यूं न मारा जाए। यहसहिष्णुता पोरस के लिए भारी पड़ गई। पोरस कु छ समझ पाता तभी सिकं दर के अंगरक्षक उसे तेजी से वहां से
उठाकर भगा ले गए।

युद्ध में पोरुस हारा पर सिकं दर(costly victory) को बहुत हानि हुयी| सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भी को आत्म-समर्पण के संदेश के साथ पोरसके पास भेजा । देश-
द्रोही आम्भी को देखते ही घायल पोरस की भुजायें एक वारपुन: फड़क उठी तथा उसका वध करने के निमित्त उसने अपनी शेष शक्ति से उसके ऊपरभाले का अन्तिम प्रहार किया ।
सौभाग्यवश आम्भी बच गया ।

वह यूनानी सेना द्वारा वन्दी बना लिया गया तथा घायलावस्था में सिकन्दरके सामने लाया गया । उसके शरीर पर नौ धाव थे । सिकन्दर ने पोरस की वीरता कीप्रशंसा की तथा पूछा,
”तुम्हारे साध कै सा बर्ताव किया जाये ?” पोरस ने बड़ीनिर्भीकता एवं गर्व के साथ उत्तर दिया- “जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथकरता है ।”

इस उत्तर को सुनकर सिकन्दर बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने पोरसको न के वल उसका राज्य ही लौटाया, अपितु उसके राज्य का उससे भी अधिक विस्तारकर दिया

सके पश्चात सिकन्दर ने युद्ध में वीरगति पाने वाले सैनिकों काअन्त्येष्टि संस्कार किया तथा यूनानी देवताओं की पूजा की । उसने दो नगरोंकी स्थापना की ।

पहला नगर रणक्षेत्र में ही विजय के उपलक्ष्य मेंबसाया गया और उसका नाम “निकै या” (विजयनगर) रखा गया । दूसरा नगर झेलम नदी के दूसरे तट पर उस स्थान पर बसाया गया
जहाँ सिकन्दर का प्रिय घोड़ा ‘बउके फला’मरा था । घोड़े के नाम पर इस नगर का नाम भी ‘बउके फला’ रखा गया ।

व्यास नदी सिकन्दर के उत्कर्ष का चरम बिन्दु सिद्ध हुई । यहाँ एकविचित्र घटना घटित हुई । उसकी सेना में विद्रोह हो गया तथा उसके सैनिकों नेऔर आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया
। उनका उत्साह भंग हो चुका था तथा हिम्मतटूट चुकी थी । सिकन्दर ने अपने सैनिकों के बीच एक जोशीला भाषण दिया तथानाना प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उन्हें प्रेरित करने का
प्रयास किया ।

परन्तुउसके सारे प्रयास निष्फल रहे और उसके सैनिकों की हिम्मत फिर न बँध सकी ।सिकन्दर स्वयं बड़ा लज्जित हुआ और शर्म के मारे वह तीन दिनों तक अपने शिविरमें ही पड़ा
रहा । अंततोगत्वा उसने सैनिकों की वापसी का आदेश दे दिया ।

इस क्षेत्र को जिसका पूर्वी हिस्सा आज के हरियाणा में स्थित था और जिसे 'जाटप्रदेश' कहते थे, इस प्रदेश में पहुंचते ही सिकं दर का सामना जाट वीरों से (और पंजाबी वीरों से
सांगल क्षेत्र में) हो गया और उसकी अधिकतर पलटन कासफाया जाटों ने कर दिया। भागते हुए सिकं दर पर एक जाट सैनिक ने बरछा फें का, जो उसके वक्ष कवच को बींधता हुआ
पार हो गया। यह घटना आज के सोनीपत नगर के पास हुई थी। इस हमले में सिकं दर तुरंत नहीं मरा बल्कि आगे जाकर जाट प्रदेशकी पश्चिमी सीमा गांधार में जाकर उसके प्राण-
पखेरू उड़ गए। (यवनीइतिहासकारों ने लिखा- सिकं दर बेबीलोन (आधुनिक इराक) में बीमारी से मरा! -326 ई.पू.)
अगालसुसी जनजाति के 20 हजार महिलाओ और बच्चो ने जौहर किया था

After Alexander death, Sindh came under the domination of the empires of Seleucus I Nicator |

Ambhi (327 BC)


Ambhi was king of Taxila (now in Pakistan). He wanted to teach lesson to his rival King Porus so he took side of
Alexander's army when they invaded Porus and eventually Porus was defeated. Ambhi was later killed by
Chandragupta Maurya.किसी भारतीय नरेश द्वारा अपने देश के प्रति विश्वासघात किये जाने का लिखितइतिहास में यह पहला दृष्टान्त है । हिन्दूकु श के उत्तर में
शशिगुप्त नामकएक अन्य भारतीय नरेश ने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार की तथा उसकी सहायता कावचन दिया ।Ambhi laid foundation of short lived
European domination over northern Indian.

Takshashila University is the most famous and the world’s first university. During its times this university was the
IIT and MIT of the world. Takshashila University was established 2700 years ago in Taxila. Takshasila is also
known as Taxila or Takshila.  Between 600BC and 500AD, Taxila was in the kingdom of Gandhar, in Ancient
India before partition, but now Takshashila is in Rawalpindi district of the Punjab Pakistan after partition.
Takshashila University offered over sixty courses in various fields.The ancient Takshasila were declared a UNESCO
(United Nations Educational, Scientific and Cultural organization) world Heritage site. (More than 10,500 students
studied in Takshasila University. The campus accommodated for students who came from as far as Bablonisa,
Greece, Arabia and China.) It has boasted a massive library called Dharma Gunj or Mountain of Knowledge that
was set up in three buildings named Ratna Sagar, Ratnodavi and Ratnayanja. Its alumni included all the stars of the
Indian firmament -
Atreya, Pasenadi, Mahali, Patanajali, Jivaka, Panini, Kautilaya, Prasenjita.
Takshashila and Purushpura on either side of the Sindhu River were
Connected with the Indian trade routes on the Indian side and Central
Asian trade routes on the other. Strategically located, Takshashila,
the capital of Gandhar, was the terminus of several inland routes and
the starting points of the great trade routes connecting India and
Central Asia. The colonial narrative traces the destruction of Takshashila in 499 AD, by the Hunas. Takshashila
lying at the cross roads of the Uttarapatha (West calls it The Silk Route) - from Tibet, China, Central Asia, Iran -
and India, fell to this mindless savagery, goes the ‘modern’ narrative.

Greek writers report, that Alexander finally realized that it was the Indian
Brahmins who had influenced Indian princes to organize and support the Indian
war against Alexander . Greek sources cite, after this realization, at ‘The City of Brahmans’, Alexander
massacred an estimated 8000-10,000 of these non-
Combatant Brahmans. His question-answer sessions with the 10 Indian prisoners- Brahmans (called
Gymnosophists by the Greeks), related by Plutarch, shows Alexander asking inane questions - at sea, completely
lost.
And arising from this frustration, came Alexander’s wanton massacres at
Takshashila - which thereafter limped along for the next 1000 years, but never to fully recover.

Mauryan Dynasty - मगध साम्राज्य में नंद वंश का शासन था। मगध अच्छा खासा शक्तिशाली साम्राज्य था तथा उसके पड़ोसी राज्यों की आंखों का काँटा।
जबसिकं दरपंजाब की और से चढ़ाई कर रहा था। तबचाणक्यजो कौटिल्य के नाम से भी जाने जाते थे। उन्होनें इस बारे में मगधसाम्राज्य के सम्राट घनानन्द बताने की कोशिश की
ताकी मगध साम्राज्य खत्महोने से बच सके ।

लेकिन सम्राट घनानन्द ने उनकी बात को ठुकरा दिया। औरचाणक्यका अपमान किया तभी चाणक्य ने प्रतिज्ञा ली की घनानन्द को सबक सिखाना हैं और मगध साम्राज्य को एक
अच्छा राजा दिलाना हैं।

Chandragupta Maurya (322 – 298 B.C.)320 BCE - तक्षशिला के ही एक ब्राह्मण शिक्षक विष्णुगुप्त(आचार्य चाणक्य) के ही शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत
में सभी जनपदों को जोड़कर एक विशाल मौर्य साम्राज्य की नींव रखी जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
Bindusara (297 – 272 B.C.)
Ashoka the Great (268 – 232 B.C.) - Alexander लौट जाने के बाद grandson of Chandra gupta ASHOKA influenced by
Buddha’s teaching. The velley of cabul become great Buddhist centre. Ashoka died 232 BC

Greco-Bactrians
Following a century of Mauryan rule which ended by 232 BCE, the region came under the Greco-Bactrians based in
what is today Afghanistan and these rulers would also convert to and proliferate Buddhism in the region

Indo Scythians- short period until they were thrown away by Kushans.
Kushan Empire- Kushans ruled Sindh and called the land ''Scythia'' and in this period Buddhist developed in the
region.Kahu-jo-Daro stupa at mirpurkhas exhibits presence of buddhist practices in Sindh.

Sassanian Empire-Sassanians overthrow Kushans in 3rd century controlled Sindh until end of 5th century when
they were overthrown by Gupta empire

Gupta Empire-for a short period before they were defeated by Hephthalite or Hunas (Huns)

During the second half of the third century, the Zoroastrian high priest Kirder dominated the religious policy of the
state.[2] He ordered the destruction of several Buddhist monasteries in Afghanistan, since the amalgam of
Buddhism and Zoroastrianism manifested in the form of a "Buddha-Mazda" deity appeared to him as heresy.
[2] Buddhism quickly recovered after his death.

समुद्रगुप्त - राज 335/350-380)गुप्त राजवंशके चौथे राजा औरचन्द्रगुप्त प्रथमके उत्तराधिकारी थे एवं पाटलिपुत्र उनके साम्राज्य की राजधानी थी।समुद्रगुप्त को भारत का
नेपोलियन कहा जाता है । उसका साम्राज्य ब्रिटिश इंडिया से भी बड़ा था,जो की पूर्व में आसाम, पछिम में सिंध-बलूचिस्तान उत्तर-कश्मीर नेपाल तक फै ला हुआ था।लेकिन यह भी
सत्य है, की समुद्रगुप्त, फ्रांस के नेपोलियन से कही ज्यादा बेहतर विजेता था,नेपोलियन ने कई महत्वपूर्ण युद्ध हारे हैं, जबकि समुद्रगुप्त अंत तक दिग्विजयी रहे हैं।समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ
यज्ञ भी करवाया । वह वीणा बजाने में भी कु शल था । उसके दरबार में बुधघोष जैसे विद्वान् आश्रय पाते थे

जिस किसी इंसान ने महान सम्राटसमुद्रगुप्त की तुलना प्रथम बार नेपोलियन बोनापार्ट से की थी और उन्हेंभारत का नेपोलियन बोनापार्ट कहा था, वह निश्चित रूप से महामूरख है।
तुलना हमेशा पूर्वर्ती से नए की करीजाती हैं, जैसे कि उदाहरण के लिए हम विराट कोहली की तुलना महान सचिनतेंदुलकर से करते हैं ना कि तेंदुलकर की तुलना विराट कोहली से।
एक बार यदि ये कहा गया होता कि “नेपोलियन को फ्रांस का समुद्रगुप्त कहा जाता है” तो भी कोई बात होती।Samdragupt ko bharat ka nepolian unke
durdarsita aur sudridh samaj ke nirman vali yojna vicharon ke liye kiya jata हैंअन्य धर्मों के लिए सहिष्णु भावना रखने के लिए उन्हें
प्रतिष्ठित व्यक्ति कहा जाता था। बोधगयामें बौद्धतीर्थयात्रियों के लिए एक मठ बनाने के लिए सीलोन के राजा को दी जाने वाली अनुमति उनकीदयालुता काएक स्पष्ट उदाहरण है।
इसकी अनेक रानियों में पट्टमहिषी दत्त देवी थी, जिनसे सम्राट्चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने जन्म दिया था।

 सम्राट समुद्रगुप्त नेआजीवन शक अक्रं ता से युद्ध किया और उन्हें हमेशा भारत भूमि से दूर खडे़रावो एक अविजित योद्धा थे, वहीं दूसरी ओर बोनापार्ट ने अनगिनत
लड़ाई में हारका स्वाद चखा।
 सम्राट समुद्रगुप्त हमेशा मातृभूमि के लिए संघर्षकिया वही दूसरी ओर नेपोलियन बोनापार्ट ने हमेशा स्वयं को शक्तिशाली बनानेके लिए युद्ध किया
 बोनापार्ट फ़्रांस की जन क्रांति का नेता बन कर आगे आया लेकिन उसने वही गलत काम किया जिसके विरुध्द उसने अवाज़ उठाई थी
 सम्राट समुद्रगुप्त ने अपना अंतिम समय एक स्वतंत्र सम्राट के रूप में बिताया वही बोनापार्ट एक युद्ध बन्दी के रूप में मारा गया

समुद्रगुप्त के क्षेत्र उत्तर मेंहिमालय सेदक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर पश्चिममें यमुना नदी तक फै ले हुए हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि को भारत में
अधिकतरराजनीतिकएकीकरण के रूप में वर्णित किया जा सकता है जो एक दुर्जेय शक्ति है। उन्होंने महाराजधिराज (राजाओं का राजा) का खिताब ग्रहण किया।दक्षिण की
ओर, बंगाल की खाड़ी के किनारे के साथ उन्होंने अपनी महान शक्ति से आगे बढ़ाकर पीठापुरम के महेंद्रगिरि, कांची के विष्णुगुप्त, कु रला के मंत्रराज, खोसला के महेंद्र और
कई आगे कृ ष्णा नदी तक पहुँचाया।
52 The visit of St. Thomas is still a matter of Dispute

After the land scam, another controversy has erupted in the Syro Malabar Church. This time around, the ruckus is
over the historical validaity of THE CLAIM OF SAINT VISIT TO MALABAR.

https://timesofindia.indiatimes.com/city/kochi/fresh-row-in-church-over-st-thomass-visit-to-
kerala/articleshow/63742878.cms

Among waves of Christian refugees who later settled on the Malabar Coast was a community of 400 Syriac-
speaking Jewish-Christian families from Uruhu, near Babylon. That community—traditionally said to have been led
by Thomas Kināyi (also called Thomas of Cana), a merchant-warrior; Uruhu Mar Yusuf, a bishop; and four pastors
—settled on the south bank of the Periyar River. That arrival of the Malankara Nazarani, as they are referred to in
Malayalam (Nazarani is derived from a Syriac term for Nazarene, indicating a Christian.

भारत में संत थॉमस का मिथक...

ईसा की तीसरी शताब्दी में लिखी गई एक गल्प पुस्तक Acts of Thomas में लिखाहै कि जीसस क्राइस्ट का जुड़वा भाई थॉमस दासत्व में बेच दिया जाता है और
वहअन्द्रोपोलिस नामक पश्चिम एशियाई नगर में आता है, राजा को धोखा देता है, सुन्दर लौण्डे के लिये शैतान से भिड़ जाता है तथा अन्त में एक लम्बी विधिकप्रक्रिया के पश्चात
मृत्युदंड पाता है। उसकी मृत्यु के पश्चात पर्सिया, सीरिया आदि में उसके अनुयायी इसाई पैदा हो जाते हैं। जब उस क्षेत्र से उनसीरियाई ईसाइयों को भगा दिए जाते है तब चौथी सदी
में वे लोग एक 'थॉमस काना' नामक व्यक्ति के नेतृत्व में दक्षिण भारत में शरण लेते हैं।

सदियाँ बीतती हैं तथा दक्षिण भारत के कु छ भागों पर पुर्तगाली अधिकार होताहै। तब कृ तघ्नता की सेमेटिक परम्परा का निर्वाह करते हुये उन ईसाईयोंद्वारा झूठ का संचार आरम्भ
होता है, जिसके दो उद्देश्य होते हैं: (1) पुर्तगालियों द्वारा मन्दिर ध्वंस एवं धार्मिक अत्याचारों को छिपाना तथा (2) लोगों को मसीही / ईसाई बनाना।

इस झूठ के तहत थॉमस के नाम का एक मालाबरी चर्च दिखा कर उसे 52 ई. में भारतआया बताया जाने लगता है। मालाबार से पूर्वी तट पर आकर तमिल क्षेत्र मेंघुसपैठ कर
मइलापुर के प्रसिद्ध प्राचीन कपालीश्वर शिव मन्दिर को पुर्तगालीलोग तोड़ देते हैं तथा उसी स्थान पर चर्च बना कर तथा वहाँ थॉमस शहीद हुआ थाऐसा झूठ फै लाकर उसकी कब्र
भी बना दी जाती है! और उसे मारने वाला किसेबताया जाता है? एक ब्राह्मण को!!!
जो थॉमस तीसरी सदी का गल्प है, जो दक्षिण भारत तक कभी नहीं आया,जो कहानीमें भी सदियों पहले भारत के पश्चिमी सीमांत प्रदेश के पारसियों के सम्पर्क में आया बताया
जाता है जिसकी पुष्टि स्वयं पोप वेनेडिक्ट करता है, वह सुदूरदक्षिण में ‘सदियों पश्चात’ एक ब्राह्मण द्वारा मारा जा कर मन्दिर के गर्भगृह में शहीद होकर विराजमान हो जाता है!!
और भारत की सेकु लर जमात के समस्तवामपंथी इतिहासकार उसे 52 ई. का भारतीय बताने लगते हैं!!! सदियों की दूरीके एक कल्पित एवं एक समनामधारी, दो थॉमसों मिलाकर
तथा एक बना कर एक ऐसालुभावना मिथक गढ़ा जाता है जो भारत की आत्मघाती सेकु लर शिक्षा तंत्र सेनिकले लोगों को पसन्द आए और जिस पर वे सहज ही विश्वास कर लें।

इस थॉमस मिथक को वास्तविकता बताकर इतना प्रचारित किया जाता है कि कपालीश्वरमन्दिर के ध्वंस की कोई बात ही नहीं करता, लेकिन थॉमस को शहीद बताकर
इसाईसहानुभूति बटोर रहा है तथा दक्षिणी ब्राह्मण पर 'अत्याचारी’ का घृणित लेबललगा दिया जाता है!! यह आज के तमिलनाडु का यथार्थ है। समूचा दक्षिण भारतइसाई मिशनरियों
की चपेट में है।

यह ध्यान देने योग्य है कि ईसा, यीशु या जीसस भी एक काल्पनिक चरित्र है।उसके कश्मीर आने या वहाँ उसकी कब्र होने या पुनर्जीवन के पश्चात वहाँ उसकाविवाह होने आदि
आदि मिथ्या प्रचारों के पीछे भी इसाइयों का षडयंत्र है। यहवास्तविकता है कि काल्पनिक जीसस के काल्पनिक जन्मदिन (25 दिसम्बर -क्रिसमस) को ईसाईयों से अधिक हिंदू
सेलिब्रेट करने लगे हैं। वे ‘बच्चे’ जोसेण्ट थॉमस, सेण्ट पॉल, सेण्ट जेवियर्स आदि स्कू लों में पढ़कर निकले है यापढ़ते हैं, वे क्रिसमस पर प्रसन्नता के मारे फू ले नहीं समाते!
संत (?) थॉमस के मिथक और कपालीश्वर शिव मंदिर के विध्वंस की रोचक कहानी को जानने के लिए प्रस्तुत है...

The Myth of St Thomas and The Mylapore Shiva Temple (Editor : Ishwar Sharan)

https://girijeshrao.blogspot.com/2017/12/

15-65 C भारत में कु षाण साम्राज्य की स्थापनाकु जुल कडफिससया कडफिसस ने की थी. उसने लगभग 15 से 65 ईस्वी तक शासन कियाइसी वंश में आगे चलकर कनिष्क
कु षाण साम्राज्य का पहला सबसे शक्तिशाली शासक हुआ.

कु षाण साम्राज्य मौर्य साम्राज्य के बाद के शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था ,जिसने चीन तक अपनी विजय पताकालहराई और सिल्क रूट को काबू किया।कनिष्क, जिन्हें कनिष्क
प्रथम भी कहा जाता है, कु षाण वंश के महान शासक थे.पूर्व से पश्चिम की ओर होने वाला ज्यादातर व्यापार उन्हीं के राज्य से होकर किया जाता था. ज्यादातर व्यापारी चीन
के रेशम मार्गसे होकर गुजरते थे.हिंदुस्तान के उत्तर में ताजिकिस्तान और चीन सीमा परहिंदुकु श पहाड़ियोंतक कु षाण साम्राज्य फै ला हुआ था. इसके अलावा कु षाण की सेना ने पूर्व
मेंपामीर के दर्रों पर भी अपना कब्जा जमाया और वहां भारतीय कॉलोनी (उपनिवेश)बसाईं. यही मार्ग चीन को पश्चिम से जोड़ते थे.

हिंदुस्तान के चीन और अन्य देशों से व्यापार में वृद्धि हुई और विभिन्नसंस्कृ तियों का मिलन हुआ. उसी समय भारत सहित संपूर्ण एशिया में बौद्ध धर्मका प्रचार जोर-शोर से चल रहा
था. ऐसे में कु षाण सम्राट रहते हुए कनिष्क नेबौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया था.

कनिष्क ने कुं डलवन (जम्मू कश्मीर में श्रीनगर के पास हरवान) में चतुर्थबौद्ध संगीति का आयोजन कराया था. इसी संगीति में बौद्ध धर्म के अनुयायियोंमें दो फाड़ हो गए.कनिष्क ने
वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर शहर में (पहले पुरुषपुर कहा जाताथा) बौद्ध अवशेषों को संरक्षित कर एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया था.हालांकि ये बौद्ध प्रतीक समय के साथ
बर्बाद हो गया, लेकिन चीनी यात्रीफाह्यान ने अपने दस्तावेजों में इस जगह का जिक्र किया है.

इसके अलावाकनिष्क के शासनकाल में जारी किए गए सिक्कों पर बुद्ध के अलावा कई यूनानी, ईरानी और हिंदू देवी-देवताओं जैसे हेराक्लीज, सूर्य, शिव, अग्नि के चित्रखुदे हुए हैं.

कु षाणोंने वर्तमान पाकिस्तान के मुल्तान में हिंदुस्तान के पहले सूर्य मंदिर कीस्थापना की थी. माना जाता है कि उस समय में मुल्तान का नाम काश्तपुर था.

इतिहासकारों का मत है कि पैगंबर मुहम्मद के जन्म से पहले के समय मेंमुल्तान को काश्तपुर, हंसपुर, बागपुर, सनाहपुर और फिर मुलस्थान कहा जाता था. जिसका नाम सूर्य को
समर्पित मंदिर के नाम पर पड़ा था.कनिष्क ने भारत में भगवान शिव के पुत्र कार्तिके य पूजा की शुरूआत की थी.कनिष्क के सिक्कों पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है. बावजूद
इसके ऐतिहासिकतथ्यों से कनिष्क के धर्म के बारे में ज्यादा कु छ पता नहीं चलता. हालांकिउसके शासनकाल के समय के सिक्कों पर कार्तिके य के अन्य नाम जैसे विशाख, महासेना,
स्कन्द आदि खुदे पाए गए हैं.ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है किकनिष्क का साम्राज्यबंगाल और नेपाल तक फै ला हुआ था.

कनिष्कने उत्तर-पश्चिम हिंदुस्तान में अरब सागर से लेकर सिंध सहित आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक के विस्तृत भू भाग पर शासन किया था. कल्हण कीरचना
राजतरंगिणी और फारसी विद्वान् व लेखक अलबरुनी के साहित्य इस बात कोप्रमाणितकरते हैं.माना जाता है कि 101 या 102 ई. मेंकनिष्क की मौतहो गई. उसने कु ल मिलाकर
लगभग 23 साल तक कु षाण साम्राज्य पर शासन किया था.

चोल साम्राज्य ऐसा साम्राज्य था ,जिसके पास उस वक्त एक मजबूत नौसेना थी।जिसके दम पर वो भारत की ऐसी शक्तिबनी जिसने दक्षिण -पूर्वी एशिया को जीता।चोल शासन दक्षिण
भारत में पल्लवों के अधीनस्थ सांमतों के रूप में कार्यरतथे। 850 ई. में विजयालय ने तंजौर पर कब्ज़ा कर लिया। इसी चोल राजवंश की स्थापनाकी थी। उसने परके सरी की उपाधि
धारणकी। उसने पल्लव एवं पाण्ड्य शासकों के बीच संघर्ष कालाभ उठाकर अपनी स्थिति मजबूतकी। विजयालय के उत्तराधिकारी एवं उसके पुत्र आदित्यप्रथम (887 - 900 ई.)
ने पल्लव शासक अपराजित को (890 ई.) युद्ध में हराकरमार डाला। उसी ने पाण्ड्य (मदुरा) और गंग (कलिंग) शासकों को हराकर अपनेसाम्राज्य को और अधिकसुदृढ़ किया|
उन्होंने श्रीलंका और मालद्वीप पर भी अधिकार कर लिया. इनके पास एक विशाल औरशक्तिशाली नौसेना थी. ये दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव कायम करनेमें सफल हो सके .
चोल साम्राज्य निःसंदेह दक्षिण भारत का सर्वाधिक शक्तिशालीसाम्राज्य था. इस साम्राज्य के प्रथम (द्वितीय शताब्दी से आठवीं शताब्दी)चरण के जिन वर्षों में जब यह एक
प्रभावशाली साम्राज्य था, उन वर्षों मेंदक्कन भारत का विदेशी व्यापार बहुत समृद्ध था क्योंकि पेरिप्लस और ट्रालेमीजैसे विदेश यात्री और विद्वानों के विवरणों में चोल राज्य के बंदरगाहों
काउल्लेख मिलता है. इसके बादसंगम साहित्य (<<संगम साहित्य के बारे में पढ़ें) में अनेक चोल राजाओं का उल्लेख मिलता है जिनमेंकरिकाल सर्वाधिकविख्यात था. उसका शासन
संभवतः 190 ई. के आसपास शुरू हुआ. करिकाल के कु छसमय बाद पेरुनरकिल्लि नामक प्रसिद्ध राजा हुआ जिसने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में राजसूत्र यज्ञ भी किया था. उसके
बाद संभवतः प्राचीन चोल राज्यकी शक्ति शिथिल पड़ गई थी. उनके राज्य के अधिकांश भाग को संभवतः पल्लवों नेजीता | चोल साम्राज्य के २० राजाओं ने दक्षिण एशिया के एक
बड़े हिस्से पर लगभग ४००साल तक शासन किया। मेगस्थनीज की इंडिका और अशोक के अभिलेख में भी, चोलोंका उल्लेख किया गया है

Kaaba Theory: Vedic origins

In a 13-page pamphlet titled Was Kaaba a Hindu Temple?, Oak derives a claim of a "Vedic past of Arabia" based on
an inscription mentioning the legendary Indian king Vikramāditya that Oak claims was found inside a dish inside the
Kaaba. According to Oak, the text of the alleged inscription is taken from the page 315 of an anthology of poetry
entitled Sayar-ul-Okul (Se’-arul Oqul meaning the memorable words),[27] compiled in 1742 on the orders of a
"Sultan Salim" (the actual Sultan at the time being Mahmud I, sultan Selim III lived from 1761 to 1808) from the
earlier work of prophet Muhammed's uncle Amr ibn Hishām (poetic name "Abu al-Ḥakam" or ‫ ابوالحكم‬meaning the
"Father of wisdom") who had refused to convert to Islam, and, first modern version published in 1864 in Berlin
and a subsequent edition was published in Beirut in 1932.[28] Oak goes on to state that the anthology is kept in the
"Makhtab-e-Sultania Library" (Galatasaray Mekteb-i Sultani or Galatasaray Imperial School) in Istanbul in Turkey,
which is now also known as Galatasaray Lisesi school.[29]

The Sun temple at Multan, built by the Jauhla/JohlaJats under Toramana and Mihirakula. In 505 A.D.

606-647 A.D हर्षवर्धन (590-647 ई.)गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में (मुख्यतः उत्तरी भाग में) अराजकता की स्थिति बना हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन
ने राजनैतिक स्थिरता प्रदान की।|  प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। वह हिंदू सम्राट् था जिसने पंजाब छोड़कर
शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। शशांक की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल को भी जीतने में समर्थ हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो
ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्ट रचित संस्कृ त काव्य ग्रंथों में प्राप्त है। शासनकाल ६०६ से ६४७ ई.। वंश - थानेश्वर का पुष्यभूति
वंश (संस्थापक पुष्यभूति) (वर्धन राजवंश)।उसने साम्राज्य को सुंदर शासन दिया। धर्मों के विषय में उदार नीति बरती। विदेशी यात्रियों का सम्मान किया। चीनी यात्री युवेन संग ने
उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष वह सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में युवेन संग उपस्थित था।
हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। कादंबरीकार बाणभट्ट उसका अनन्य मित्र था। हर्ष स्वयं पंडित था। वह वीणा बजाता था।हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ
था। थानेसर, प्राचीन हिन्दुओं के तीर्थ के न्द्रों में से एक है | सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने
की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी।वहीं 7 वीं सदी में हर्ष ने कला
और संस्कृ ति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके
दोस्त की तरह रहे थे।हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कु रीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह
प्रतिबंध लगा दिया गया। कहा जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी बहन को भी सती होने से बचाया था।सम्राट हर्षवर्धन ने शिक्षा को देश भर में फै लाया। हर्षवर्धन के शासनकाल में
नालंदा विश्वविद्यालय एक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ के न्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ।प्रयाग का मशहूर ‘कु म्भ मेला’ भी हर्ष ने ही शुरु करवाया था। प्रयाग (इलाहबाद) में हर साल होने वाला
‘कु म्भ मेला’, जो सदियों से चला आ रहा है | After his death there was disorder in Northern India. During the period from the death
of Harshavardhana to the conquest of the Muslims Indian history circles around numerous kingdoms in the north
and south.

Rai Dynasty (c. 524–632 CE)


The emperors of this dynasty were great patrons of Buddhism. They established a formidable temple of Shiva in
present-day Sukkur, Pakistan, close to their capital in Aror. The Battle of Rasil in 644 played a crucial role in their
decline. The battle resulted in the Makran coast being annexed by Rashidun Caliphate

In the 7th century AD Rai Narsingdev, a Chhibber patriarch, was Dewan in the ruling principality of Mathura.
He had two sons named Rai Chach and Nahar Singh. the latter is referred as Chander by some muslim
chroniclers. After the death of Narsingdev, his sons became disenchanted with Mathura and migrated to Sind,
through Punjab and Rajasthan, en route of Bhatinda and Bikaner.

While in Sind. Rai Chach got a job in the court of Raja Sahsi. Sahsi, also known as Rai Sinhasana, was a
Brahmin (the various kings of the Rai dynasty have ruled for over 144 years). Raja Sahsi was a great connoisseur
of men and soon discerned the latent and patent qualities of Rai Chach and appointed him as his prime
minister. When Sahsi died after a prolonged illness, without leaving any issue to succeed him. His queen Sobhi
who was secretly in love with the nally Rai Chach. Kept the news of the king's death a closely guarded secret, to
pre-empt intrigues of the many aspirants to the vacant throne. She later married Rai Chach and proclaimed him
as the new ruler.
The brother of Sahsi, named Dhamrat. Who was the chief of a nearby state, challenged Chach and invited
him to a bout, and in the encounter was killed by Chach. Rai Chach is considered to be the founder of the
Chhibber sect and was the first man to use the appellation of Chhibber with his name. Chhibber is believed to be
derived from the Sanskrit word \'Shivi Var\' meaning a righteous person.

During the reign of Rai Chach. his broiller Nahar Singh (alias Chander) was the defacto ruler and their capital was at
Rawar. Chach himself was busy in fighting wars and conquering new territories viz. Brahmanabad, Thalia, Sohstan
and Multan (which was ruled by Rai Bechara, a kin of Sahsi). He extended his dominion upto Kannauj in the east.
Kashmir and Kabul in north. and Iran in the west.

Nearer hotne, he wanted to finish Samini. the Buddhist archbishop, who later played a treacherous role in the time of
Raja Dahir. but spared his life. Chach built a big fort at Rawar (also mentioned as Alwar in some rCC(Jrds) which
was subsequently completed by his son. Dahersia. He celebrated his second marriage with the widow queen of
Brahmanabad. the ruler named Akham Lohana having been earlier killed in a battle with Chach.

From his two wives he had two sons. Dahir and Dahersia, and two daughters (one named Mai while the name of
the other is not known). Chach celebrated the marriage of one of his daughters with Durlab Drohan, the Mohyal
(Mohan) king of Kashmir. This shows that even 1300 years ago, the genealogical purity of the Mohyal race was
being preserved in the highest echelons of the society.

Brahman dynasty (c. 632 – c. 724 CE) and Arab Conquests

https://mohyalwarriors.blogspot.com/2011/03/?view=classic

According to the Qissa-i Sanjan, the immigrants Parsi are granted permission to stay by the local ruler Jadi Rana

In Arab period the boundaries sometimes were greater and sometimes lesser. Internal management remained in
the hands of tribal chiefs. But for the collection of taxes from time to time, the Governors were appointed
from Damascus or Baghdad. The general policy remained in their hands who in the various centers of Sindh,
kept Arab cantonments at Multan, Alore, Barhmanabad etc., the governors used to stay in the cantonments.
During the days of Soomra and Samma dynasties the areas of Sindh cannot be clearly fixed. These were the best
periods of Sindh. But unfortunately the history of Sindh has not been given fair treatment.

Raid Chach died in 674 AD after a glorious rule of 40 years. After the death of Rai Chach. his brother Nahar
Singh was coronated as the king of Sind. He was totally devoted to Buddhism and spent all his time in
meditation and reading scriptures. Taking advantage of this situation. the ruler of Sohstan named Mehta.
Whose state had been usurped by Chach during his military exploitations?Declared a war on Sind with the
help of king of Kannauj (it could not be Harsha Vardhana as mentioned in some Mohyal histories because he had
demised in 647 AD) and, ironically, the ruler of Kashmir who was closely related to Chach family also sent a
crack force to fight against Nahar Singh. They tried to wean away Dahir also but their efforts proved abortive.
The clutch of foes had to beat a retreat after one month of concentration near fort Devbal (modern Karachi). Nahar
Singh died in 681 after a rule of 7 years and according to his will Dahir was made the ruler of Alwar and his
son Raj that of Brahmanabad (situated above Mir Pur Khas). Raj died after a year and was succeeded by
Dahersia, the brother of Dahir, who ruled over Brahmanabad for 5 years. He married the daughter of Akham
Lohana. the former ruler of the same state. His main achievement was the completion of the fort of Rawar
initiated by his father and since Dahir did not take any interest in its construction, his relations with him
became sour. When Dahersia died prematurely in 687. Dahir took over the charge of Brahmanabad as well as
the Rawar fort. However, the peace of his dominion was soon shattered by an unprovoked attack of Raja Ramal,
the hostile ruler of a neighbouring state. In a sudden swoop. Ramal overran the Rawar fort and headed towards the
capital city.

To punish him Dahir sent a big force under command of Mohammed Alafi. an Arab chief settled in Sind, who
over the years had become a confidant of Raja Dahir and was rewarded by him for his unstinted services in
the past. Alafi inflicted a crushing defeat on the impostor and was conferred yet more rewards and honours.
This victory proved only a brief interlude of relief for the beleaguered Raja Dahir of Sind, because a big Arab
invasion which was going to seal his fate. was looming on the horizon. It all started when a sailing boat coming
from Ceylon (known as Sarandeb in those days) carrying pilgrims for Arabia and a cargo of human slaves--
consisting mostly of women, was intercepted and pirated near the coast of Sind by the local ruffians. In
retaliation, HejajBin- Yusaf, the governor of Basra (Iraq), sent his legions but they were twice driven back, after
bitter fighting near Devbal fort, by the native forces led by Jai Singh, the son of Dahir (before 712)

After conquering the coastal town of Devbal, Kasim marched his army to the bridgehead of river Sind; the
mighty river had to be crossed to gain an entry into Sind. The bridge was being guarded by the two burly
brothers, Moka and Rasal, believed to be kiths of Dahir. They were bribed, the gates of the bridge were flung
open. and the Arab hordes crashed into Sind. The valiant Jai Singh defended the river front and kept the
intruders at bay for full 50 days, till he was forced to capitulate.

The Battle of Rawar(20th June, 712 A.D): The next target of Kasim’s devils was the Rawar fort where Dahir
and members of the royal family were taking refuge. Surrounded by a battery of astrologers and soothsayers,
bargaining for luck. On seeing his defences crumbling down, an anaemic Dahir himself stepped into the arena of
war, riding on an elephant whose niggling sluggishness hampered rather than help his actions, while the commandos
of Kasim were fighting with lightening speed on swift running horses. Finding the odds overwhelmingly stacked
against him, instead of facing the humiliation of a defeat and being killed in an ignominious manner, Dahir decided
to commit suicide. (according to R.C. Majumdar he was killed). HiS dead body was picked up by the brahmins and
buried in sand. One tarter carried the smitten head of Dahir to Kasim and claimed a big prize.In the mean while an
arrow attached with burning cotton struck Dahir’s ‘howdah’ and set it flame. At this the elephant got frightened and
rushed towards the river Indus. This made Dahir very much disturbed at the mid of the war. He became restless,
inconsistent and inattentive. At this moment he was injured by an arrow and fell from his elephant. He immediately
rode a horse and resumed fighting. But as he was not seen on the back of his elephant, his soldiers became panicky
and fled away from the field of battle. However, Dahir gave a heroic fight and laid down his life after two days of
his bloody battle. His widow Queen Ranibai refused to surrender the fort of Rawar and fought the invader to the
bitter end.

She performed jouhar along with some besieged ladies of the fort.

Sind had a heterogeneous population consisting of the Hindus, the Buddhists, the Jains, the Jats, the Meds etc. There
was no good relation among them as the subjects of Dahir lack unity at social level.

Betrayal and Treachery:: It was the betrayal and treachery of some Indian citizens that had contributed a lot for
the success of the Arabs. Debal fell because of a Brahmin traitor who exposed secrecy of the Temple and flag which
was inside fort of Debal. At Nirun the Buddhists played treacherous role by joining hands with the invader. At
Multan, a traitor informed the invador the source of water supply to the city.

Religious Enthusiasm of Arabs:


The Arabs were inspired by a new religion and had become fanatic. They thought that they were the forces of God
and were engaged in a mission to destroy the faiths of the infidel and spared the blessings of Islam. The Arabs had
also a great sense of patriotic feelings. The Indians on the other hand had no such religious enthusiasm or patriotism.
Rather they had an indifferent, tolerant and cosmopolitan attitude towards other faiths and other people.
Undoubtedly this had resulted, the Arab’s success in Sind.

https://defenceforumindia.com/forum/threads/arab-invasion-of-india-battle-of-raor.60512/page-4

A Court Backgrounder

Sind was lost due to internal dissentions and selfish traitors

मुसलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी- जब पैगंबर मुहम्मद इस दुनिया से कू च कर गए I उनकी मौत के बाद विवाद पैदा हो गया
सुन्नियों ने अबु बकर, उमर, उस्मान और फिर अली को अपना खलीफा मान लिया I जबकि शिया मुसलमान ने खिलाफत को मानने से इंकार कर दिया I सुन्नीशब्द 'अहल अल-
सुन्ना' से बना है जिसका मतलब है परम्परा को मानने वाले लोग , इस मामले में परम्परा का संदर्भ ऐसी रिवाजों से है जो पैग़ंबर मोहम्मद औरउनके क़रीबियों के व्यवहार या दृष्टांत
पर आधारित हो सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका ज़िक्र क़ु रान में किया गया है लेकिन अंतिम पैग़ंबर मोहम्मद ही थे

शियाओंका कहना है जो पहले तीन खलीफा बने वो गलत तरीके से बने I अली को सुन्नियोंने चौथा खलीफा माना, जबकि शिया ने अपना पहला इमाम माना, खिलाफत की
जगहशियाओं में इमामत ने ली, और फिर इस तरह शियाओं के 12 इमाम हुए| खिलाफत और इमामत के विवाद में सुन्नी और शिया में मतभेद | शियाओं का दावा है कि मुसलमानों
का नेतृत्व करने का अधिकार अली और उनके वंशजों का ही है. अली पैग़ंबर मोहम्मद के दामाद थे.ख़लीफ़ा कौन होगा, इसे लेकर हुए एक संघर्ष में अली मारे गए थे. उनके बेटे
हुसैन और हसन ने भी ख़लीफ़ा होने के लिए संघर्ष किया था.हुसैनकी मौत युद्ध क्षेत्र में हुई, जबकि माना जाता है कि हसन को ज़हर दिया गयाथा, इन घटनाओं के कारण शियाओं
में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्वदिया जाता है I हुसैन की शहादत को लेकर शिया मुस्लिम मातम करते| सुन्नीशियाओं के रोने को गलत बताते हैं. ताज़ियों को गलत
बताते हैं. कई बार तोआपको कई सुन्नी लोग ये भी कहते मिल जाएंगे कि ताज़ियादारी एक तरह की मूर्तिपूजा है. और इस तर्क पर वो ये भी कह देते हैं कि शिया तो आधे हिंदू होतेहैं
पांच वक़्त की नमाज़ पढ़नी दोनों पर फ़र्ज़ है I लेकिन नमाज़ पढ़ने के तरीके ने दोनों को अलग खड़ा कर दिया| सुन्नी मुस्लिम हाथ बांधकर नमाज़ पढ़ते हैं और शिया मुस्लिम हाथ
छोड़कर नमाज़ पढ़ते हैं|
शिया शुरू के तीन खलीफा को बिल्कु ल नहीं मानते. बस अली को मानते हैं. जबकि सुन्नी अली को भी मानते हैं.

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कर्बला की लड़ाई-यह लड़ाई हजरत मुहम्मद स० व० के नवासे हज़रत इमाम हुसैन इब्ने अली के समर्थकों और रिश्तेदारों के एक छोटे से समूह और उमय्या वंश के
अत्याचारीशासक यज़ीद की एक बड़ी सेना के साथ हुई थीइमाम हुसैन हजरत अली रज़ि० के बेटे थे और हजरत अली रज़ि० की शादी हजरतमुहम्मद स० व० की बेटी फातिमा
रज़ि० से हुई थी। उमय्या वंश के लोगों नेहजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो ताला अलेही वसल्लम की मौत के बाद राजनीतिक सत्ताहासिल करने की कोशिश की कई वर्षो बाद दुश्मनो ने
मौका मिलते ही मस्जिद मेंनमाज़ पढ़ते हुए हजरत मुहम्मद स०व० के दामाद हजरत अली रजि० को सर में तलवारमार कर शहीद कर दिया और उसके बाद दुश्मनों ने हजरत
मुहम्मद स० व० के बड़ेनाती हज़रत इमाम हसन रज़ि०शहीद किया| यजीद ने अपने पिता मुआविया की मौत के बाद खुद को खलीफा घोषित कर लिया और वहचाहता था हुसैन
रजि अल्लाहु ताला अन्हु उनकी खिलाफत को स्वीकार करें।यजीद को खलीफा कबूल करें। यजीद जो कहे वह इस्लाम में शामिल करें और जो वहहटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें
यानी मुहम्मद स० व० के लाए हुए दीनइस्लाम को बदल दे इमाम हुसैन पर दबाव इसलिए था क्योंकि वह मुहम्मद स० व० के चहेते नाती थे। क्योंकि इमाम हुसैन के बारे में मुहम्मद
स० व० ने कहा थाकि हुसैन मुझसे है और में हुसैन से यानी जिसने हुसैन को दुख दिया उसने मुझेदुख दिया।10 october680 ईसवी को सुबह की नमाज़ के समय से ही जंग
छिड़ गयी थी।

THE HUSSAINI Brahmins is a community that has an intertwined link with Hinduism and Islam. This dynasty
has ruled in Afghanistan for 120 years, from 830 AD to 950 AD. The dynasty was founded by Somanand who
himself ruled for 48 years. The Datts led a maverick life. They observed Hindu religious customs, including
worship of Shiva.The birth of the Hussaini Brahmin community has many versions. Sisir Kumar Mitra, in his book
‘The Vision of India’, talks about the presence of a large population of Hindus in Arabia before the Battle of
Karbala.  A large number of Hindu traders were living in Arabia chief among them one Rahab Sidh Datt. Dutt
was closely associated with Prophet Mohammad’s family as his wish for a son had materialized after he first met
Imam Hussain.

After the poisoning of Imam Hassan (was the eldest son of Ali and Muhammad's daughter Fatimah, and was the
older brother of Husayn , was the eldest son of Ali and Muhammad's daughter Fatimah, and was the older brother of
Husayn , CONSIDER AS grandson of the Prophet Muhammad) by the Omayyad’s his younger brother Hussain
refused to give allegiance to Yazid ibn Muawjyah (the new caliph).He left his home Medina for Mecca and
from there to Kufa (Iraq) to avoid confrontation.When he reached Karbala near city of Kufa, the army of Yazid
surrounded his force consisting of his family and a small group of followers.

The valiant Dutts and disciples of Imam Hussein did not lay down their arms till they saw the end of Yazid who
could rule longer after the Karbala tragedy.

While Rahab Dutt, distraught with loss of Imam said goodbye to Arabia remaining Brahmins, under the
leadership of one Bhurya Dutt stayed behind in Kufa (present day Iraq).Here Ameer Mukhtar arranged for
them to stay in a special part of the town, which even today is  known by the name of Dair-i-Hindiya or ‘the
Indian quarter’.

It is also significant to note that even before the Karbala incident, Imam Hussain's father Hazrat Ali had entrusted
the public exchequer to the regiment of the valiant Dutts, at the time of the Battle of Jamal (Camel) fought near
Basra between Ali and Omayad Caliph Muawiya, the father of Yazeed.
This provides impeccable evidence about the pragmatic role played by the Dutt Mohyals in the history of Karbala.

Later on, when Omayad’s let loose an orgy of vendetta on the disciples of Imam Hussain, the remaining Duttss
migrated to India along with many Sayeds (descendents of holy Prophet) in 778 AD. The Dutts settled at Dina
Nagar, District Sialkot and some drifted to as far as Pushkar in Rajasthan. Here they built up a community of their
own, calling themselves Hussaini Brahmins, keeping alive the memory of their links with the Imam

The Hussaini Brahmins believe that in the Bhagwadgita Krishna had foretold the event of the Imam's death at
Karbala. According to them, the Kalanki Purana, the last of eighteen Puranas, as well as the Atharva Veda, the
fourth Veda, refer to Imam Hussain as the divine incarnation or avatar of the Kali Yug, the present age.

(Saraswat Kingdom mentioned in Mahabharata. Sage Saraswat found by Dadhichi ,trained by Ang irasa ,stayed
along Saraswati river, preserved Vedas. Thus It seems Saraswat Brahmins are off shoots of
Mohyals(Brahmins)Mohyāl is a Brahmin (actually warrior-Brahmin) caste of India. Alternative spellings include
Muhiyal, Muhial, Mhial, Mohiyal or Mahjal. Most Mohyals are Hindus, but many are Sikhs as well.Datt or Dutt or
Dutta is a Mohyal clan from Jammu and Punjab.)

On their arrival in India, the descendants of Rihab (hindu) were received with great hospitality by the native
Mohyals They eventually settled near Nankana Sahib in the district of Sheikhupura in present-day Pakistan. It was
here that in the closing decades of the tenth century an interesting incident took place involving a pro-caliphate
Pir called Wahun - a trickster chess player, and Shiv Datt - the chief of the Datts. Wahun was known for his
knack of invariably winning the games. According to a bet fixed by him, the loser would either pay the price
with his head or embrace Islam. In this way, he converted a large number of Hindus to the Muslim faith until
he met his match in Shiv Datt. He challenged the Pir to a game of chess and defeated him three times in a row,
thereby claiming the heads of his wife and two sons as per the stakes. However out of sheer magnanimity, Shiv
Datt pardoned their life. When Wahun came to know that one of the ancestors of Shiv Datt had sacrificed his
seven sons for the sake of Muhammad in the battle of Karbala, he took a solemn vow that in the future he
would never convert any Hindu by coercion to Islam. It was on this occasion that the Pir echoed the famous
words: Wah Datt Sultan, Hindu ka Dharam Musalman ka Iman(Hail, O King Datt for Thou are endowed with the
Dharma of the Hindu and the Iman of the Muslim). Many direct descendants of Rahib Dutt use last names such
as Dutt, Datt, Sharma, Bharadwaj.

After some time, Shiv Datt along with a long number of followers left Nankana Sahib and moved to Dipalpur, where
they lived in peace and harmony until Mahmud Ghaznavi attacked Dipalpur in 1001 AD and uprooted them from
there. The Datts along with other Saraswat Brahmins fought against Ghaznavi's forces but they were vastly
outnumbered. There were 5,000 Brahmins fighting against 85,000 soldiers of Ghaznavi. Many were killed and
remaining Brahmins (mostly Datts) migrated to the Shahi kingdom of Raja Anandpal in Lahore. When Anandapala
and his successor died, Mahmud Ghaznavi captured Lahore.
Before Islam came into being Buddhism was the religion of Bactria, Parthia, Afghanistan, Gandhar, and Chinese
Turkestan, as it was of the whole of Asia. In all these countries Islam destroyed Buddhism.The Mussalman invaders
sacked the Buddhist universities of Nalanda, Vikramshila, Jagaddala, Odantapuri to name only a few.The
monks fled away in thousands to Nepal, Tibet and other places outside India.
fortress and city was a college, and in the Hindi tongue they call a college Bihar.' "Such was the slaughter of the
Buddhist priesthood perpetrated by the Islamic invaders. The axe was struck at the very root. For by killing the
Buddhist priesthood, Islam killed Buddhism. This was the greatest disaster that befell the religion of the Buddha in
India....

A number of the inhabitants of Afghanistan accepted Islam through Umayyad missionary efforts, particularly under
the reign of Hisham ibn Abd al-Malik and Umar ibn AbdulAziz

Arab traders used to visit the Malabar region, which was a link between them and the ports of South East Asia to
trade even before Islam had been established in Arabia. first ship bearing Muslim travelers was seen on the Indian
coast as early as 630 CE. The first Indian mosque is thought to have been built in 629 CE, purportedly at the behest
of an unknown Chera dynasty ruler, during the lifetime of Muhammad (c. 571–632) in Kodungallur, in district of
Thrissur, Kerala by Malik Bin Deenar. In Malabar, Muslims are called Mappila.

When in 629 AD (7th AH) Prophet Muhammad (s.a.w.w) sent a letter to Khosro Parviz, of Sassanian kings of
Iran inviting him to embrace Islam, he could not possibly imagine that not merely his dynasty but the whole
fabric of Iranian life will be engulfed and overwhelmed by Islam. Therefore, the king of Iran, contemptuously
refused the invitation pouring scorn on the Arabs for eating lizards and the practice of infanticide thus tore up the
letter. Although Abdullah; the ambassador of Islam explained that Arabs were even worse than what the king had
described, but by the Grace of Allah and under the divine teachings of Prophet Muhammad, they enjoy a sublime
monotheist culture.

The conquest of Islam brought to an end the last national Iranian dynasty for nearly a thousand years. About one
thousand years before the arrival of Islam into Iran, Iran was conquered by Alexander the Great. Nevertheless, the
influence of the Greek culture on Iran was rather shallow and temporary. The rise of Islam as a religion
replacing Zoroastrianism is one of the greatest events in world history.

After the demise of the Prophet, they refused to pay Zakat to the Islamic federal government in Madina. Abu-
Bakr; the first Muslim Caliph ruled from 632-634, dispatched his commander Khalid Ibn Walid to that area. n the
year 21 AH (642 AD) the Islamic army defeated the enemy in Nahawand. This battle was known as the ‘Conquering
of the Conquers.

When the Young Delegate from The Caliph was appointed on 8th century to go to India, it was the Monks that
welcomed him and his men.

अरबो ने पूर्वी ईरान स्थित सीस्तान को 650 ई. के लगभग जीत लिया था| सीस्तान को सैनिक ठिकाना बनाकर, अरबो ने सर्व प्रथम, पश्चिमीओत्तर भारत में काबुल-कपिशा तथा
गंधार क्षेत्र को जीतने का प्रयास किया| काबुल-कपिशा के शाही राजाओ ने 666 के लगभग अरबो के काबुल जीतने के प्रयासों को असफल कर दिया| अतः अरब साम्राज्यवाद की
आंधी को पहला झटका भारत में काबुल-कपिशा के शाही राजाओ से प्राप्त हुआ|

https://medium.com/@blindNelephant/a-short-history-of-zoroastrian-migration-to-india-4ec19ca29951

Zoroastrianism is one of the world's oldest monotheistic religions - Zoroastrians believe there is is one God called
Ahura Mazda (Wise Lord)
November 17 is celebrated as Sanjan day — the day the Parsi community is said to have landed in India. Known
in India as Parsis for being originally from Persia, they follow Zoroastrian religion. When they arrived at a little
town in Gujarat called Sanjan, the local Hindu king Jadi Rana or Jadav (Jadeja) Rana gave them shelter and
permitted them to practice their religion and traditions. The first migratory wave is estimated to have brought
18,000 migrants. Although the group that landed in Sanjan is believed to have been the first, the precise date of their
arrival is unclear. The only available account of their migration and early years in India — the epic poem Qissa-i-
Sanjan (Story of Sanjan) is vague so the year of arrival is estimated between the 8th and 10th century CE.
Zoroastrianism, or natively known as Mazdayasna is one of the world’s oldest religions. Until the mid-7th
century, Persia (modern-day Iran) was a politically independent state dominated by a Zoroastrian majority.
Zoroastrianism was the official state religion for more than 1000 years till the Sassanian Empire. Then Arabs
started the Islamic invasion.The first Muslim Caliph Abu Bakr sent Khalid to conquer a part of Persian Empire
Khalid wrote a letter to his opponents offering a choice:

“Submit to Islam and be safe. Or agree to the payment of the Jizya(tax), and you and your people will be under our
protection, else you will have only yourself to blame for the consequences, for I bring the men who desire death as
ardently as you desire life.
— Khalid ibn Walid”
When the Arab commander Sa’ad ibn Abi Waqqas conquered the Persian capital of Ctesiphon in province of
Khvârvarân, he wrote to Caliph Umar ibn al-Khatta-b asking what should be done with the books at Ctesiphon.
Umar wrote back: “If the books contradict the Qur’an, they are blasphemous. On the other hand, if they are in
agreement, they are not needed, as for us Qur’an is sufficient.”
‘Dhimmi’ status, originally offered only to the fellow monotheists — the Jews and the Christians — provided
protection under certain conditions. Followers of other religions, unfortunately, had the choice of conversion or
death, which later might be remitted to slavery. Due to their sheer numbers, Zoroastrians were given dhimmi
status Subsequently, however, when the population dwindled, they were reduced from dhimmi(‘People of the
Book’) status to ‘kafirs’ (non-believers). Dhimma contract provided peaceful means to pursue dhimmis in
accepting Islam. Jizya tax was levied on dhimmis as a condition for Jihad to cease. Failure to pay could result
in the dhimmi facing alternatives of conversion, enslavement, death or imprisonment.

Al-Zamakhshari, a Mu’tazili author of a commentary on the Qur’an, wrote:

“The Jizya shall be taken from them with belittlement and humiliation. The dhimmi shall come in person, walking
not riding. When he pays, he shall stand, while the tax collector sits. The collector shall seize him by the scruff of
the neck, shake him, and say “Pay the Jizya!” and when he pays it he shall be slapped on the nape of the neck.”

Criminal law under Sharia discriminated blatantly: An oath of a dhimmi against a Muslim had no validity. This gave
Muslims impunity against dhimmis, while helplessness and fear to dhimmis against even a wrong accusation. A
dhimmi was punished, even in the case of legitimate self-defense, for raising hand against a Muslim; whereas a
Muslim received only half the punishment for a crime if victim was a dhimmi.
Not only high positions in public offices were reserved for Muslims, many lucrative trades and professions
were dependent on state patronage. As the power and worldly-advantage lay with the followers of
Islam,nobility and city-dwellers were the first to convert.
Meanwhile, two specific laws targeted family ties: (i) Under inheritance law, if any male member of a dhimmi
family converted to Islam, he was entitled to all the inheritance. (ii) Muslim men were allowed to marry dhimmi
girls or women, but dhimmi man marrying a Muslim woman was punishable by death. Ruptures from the family —
of men converted for inheritance by greed, and of girls kidnapped, converted and married off by force — were
permanent since once converted to Islam, reverting was punishable by death. Such economic and social wounds
proved fatal for numerous families. Islam was adopted by many, by threat and extortion.

In Bukhara (in present-day Uzbekistan), resistance to Islam required the 9th-century Arab commander Qutaiba to
convert his province four times. The cities where Arab governors resided were particularly vulnerable to such
pressures, and in these cases the Zoroastrians were left with no choice but to either conform or migrate to other
regions.

Construction or restoration of non-Muslim place of worship was forbidden. Furthermore, there were many
instances of destroying non-Muslim religious places, or converting them to mosques as a reprisal. For example,
in the 9th century, a deeply venerated cypress tree in Khorasan (going by legend, planted by Zoroaster himself) was
felled for the construction of a palace in Baghdad, 2000 miles away. Zoroastrian fire temples, with their four axial
arch openings, were usually turned into mosques simply by setting a mihrab (prayer niche) on the place of the arch
nearest to qibla (the direction of Mecca). Zoroastrian temples converted into mosques in such a manner could be
found in Bukhara, as well as in and near Istakhr and other Persian cities. Another popular means to distress
Zoroastrians was to maltreat dogs, as these animals are semi-sacred in Zoroastrianism.

In 18th and 19th centuries, Zoroastrians were regarded as outcast and untouchable. Water or food once touched by a
Zoroastrian would turn impure and couldn’t be consumed by a Muslim. They neither could wear new or white
clothes, nor can ride a camel or a horse. Many foreign visitors to Iran of the time had commented on their pitiful
situation. Prof. Edward G. Browne in his ‘A Year Amongst The Persians’ (the year being 1887–88). “Only 6000 of
them are left and just a miracle may save them from extinction. These are the descendants of the people who one
day ruled the world.”

an organization founded in Bombay — went to Iran in 1854. He found Zoroastrian population reduced to less than
7,200 in all of Iran. At about the same time there were 110,544 Indian Zoroastrians in Bombay, about 20,000 in
Surat and about another 15,000 elsewhere in India. He sent a report on condition of Zoroastrians in Persia:

In Yazd, Hataria established a Council of Zoroastrians, which succeeded in convincing a number of Iranian
Zoroastrians to emigrate to India. These Zoroastrians who escaped to India mainly during the reign of the Qajar
dynasty are known as the Iranis; whereas, the Parsees are those Zoroastrians of India who escaped Iran earlier after
the Arab invasion

Zoroastrians are roughly split into two groups, Iranians and Parsis

गजवा-ए-हिंद का उल्लेख हदीस के संग्रह में मिलता है. हदीस पैगंबर मोहम्मदकी उन बातों का संग्रह है जो उन्होंने सहाबा (पैगंबर के सहयोगी) से कही थींया उनके किसी सवाल का
जवाब में कही थीं. हदीस, कु रआन के बाद इस्लाम मेंसबसे ज्यादा महत्व रखती हैं.गजवा-ए-हिन्दया गज़वा-ए-हिंद इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के कु छ व्याख्यान में की
गई एक भविष्यवाणी है जो मुसलमानों और काफिरों के बीच भारत में एक युद्ध की पूर्वकथन करती है जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानोंकी जीत होती है और एके श्वरवाद तथा शरिया
कानून लागु होगा।[1]

इस्लामिक इतिहास के जानकारों के मुताबिक पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के कम सेकम 100 साल बाद तक हदीस का कोई औपचारिक संग्रह नहीं मिलता. तब तक यहइस्लाम के
मानने वालों के बीच मौखिक इतिहास के तौर पर ही रही. इसके बाद इसवाचिक परंपरा का लेखन शुरू हुआ. मुस्लिम विद्वान मानते हैं कि इसमें वैसीही मुश्किलें आईंजैसी किसी भी
वाचिक इतिहास को लिपिबद्ध करने में आतीहैं.इस्लामिक इतिहास के शोधार्थी मुहम्मद फारुख खां के मुताबिक ये रवायतेंमुस्नद अहमद बिन हन्बल और निसाई की किताब ‘अल
फितन’ में आई हैं. आतंकवाद कावैचारिक ढांचा, गजवा-ए-हिंद के नाम से जिन हदीस का सबसे ज्यादा बखान करताहै, उसमें से एक का तर्जुमा कु छ यूं है-
हजरत अबू हुरैरा (सहाबी- पैगंबर के साथी) फरमाते हैं कि इस उम्मत (मुस्लिम) में सिंध और हिंद की तरफ एक लश्कर रवाना होगा. अगर मुझे इस गजवामें शिरकत का मौका
मिला तो शहीद कहलाऊं गा और अगर बच गया तो वह अबू हुरैराहोऊं गा, जिसे अल्लाह ने जहन्नुम की आग से आजाद कर दिया होगा.’
‘तुम्हारा एक लश्कर हिंद से जंग करेगा. मुजाहिदीन वहां के बादशाहको बेडि़यों में जकड़कर लाएंगे और फिर जब वह वापस पलटेंगे तो हजरत ईसा (जीसस क्राइस्ट, मुसलमान इन्हें
भी एकश्वेरवाद के तमाम पैगंबरों में से एकमानते हैं और यह भी मानते हैं कि कयामत से पहले उनका अवतरण होगा) को स्याम (वर्तमान सीरिया) में पाएंगे. इस पर अबू हुरैरा ने
कहा कि अगर मैं इस गजवामें शामिल हुआ तो मेरी ख्वाहिश होगी कि मैं हजरत ईसा के पास पहुंच कर यहबताऊं कि मैं आपका (पैगंबर मोहम्मद) सहाबी हूं. इस पर रसूल अल्लाह
मुस्कराएऔर कहा- बहुत मुश्किल, बहुत मुश्किल.’
गजवा-ए-हिंद के नाम से इन्हीं का आतंकी संगठनों के भाषण में जिक्र कियाजाता है और उसमें मौजूदा राजनीतिक बातों को जोड़कर नौजवानों को यह समझायाजाता है कि यह
गजवा-ए-हिंद दरअसल, भारत के खिलाफ जंग की बात है और जिसकीपेशेनगोई ( भविष्यवाणी) खुद पैगंबर ने की है. इन्हीं रवायतों का सहारा लेकरसाबित किया जाता है कि
भारत के खिलाफ जेहाद इस्लाम का काम है.
उस समय उन हदीसों का जिक्र किया जाता था जिनमें खुरासान से काले झंडे लेकरजत्थे निकलने और ऐलिया ( येरूशलम का मध्यकालीन नाम) में विजयी झंडे गाड़नेकी बात
कही जाती थी.
कश्मीर में जेहाद दीन का आदेश है और इसमें शहीद होने वाले को जन्नत नवाजीजाएगी. धर्म के नाम पर मौलवियों का एक पूरा नेटवर्क खड़ा किया गया जिसनेजेहाद के शहीद को
जन्नत में 72 हूरें मिलने जैसी बातें भी जोड़ीं.
लश्कर-ए-तैयबा तो उस समय गजवा-ए-हिंद की व्याख्या कश्मीर से भारत की आजादी के तौर पर करता था और इसे दीन का हुकु म बताता था.

मेरी उम्मा के दो समूह हैं जिन्हें अल्लाह आग से मुक्त करेगा:वह समूह जो भारत पर हमला करता है और दूसरा जो ईसा इब्न मरियम के साथ होगा"।

- सुन्नन नासाई, जिहाद की पुस्तक, 3175 [

"अल्लाह के दूत ने वादा किया था कि हम भारत पर आक्रमण करेंगे।अगर मैं यह देखने के लिए रहता हूं तो मैं खुद को और मेरी संपत्ति को निछावरकरूं गा। अगर मैं मर गया तो मैं
शहीदों में से एक बनूंगा और यदि मैं वापसआऊं गा तो मैं अबू हुरैरा अल-मुहरर (आग से मुक्त) हूँगा "।

- सुन्नन-नासाई, जिहाद की पुस्तक, 3173 और 3174 [3]


"इस उम्मा में सैनिक सिंध और हिंद की ओर बढ़ेंगे" ।

- किताब अल-फितन (नाइम इब्न हमाद)[4]

"उम्मतका एक समूह भारत को पराजय देगा, अल्लाह उनके लिए भारत को खोल देगा जब तककि वे वहां के राजाओं को जंजीरों के साथ बांध कर  नहीं लौटते- अल्लाह
उनयोद्धाओं को माफ कर देगा - जब वे वापस लौटेंगे (भारत से), उन्हें सीरियामें ईसा इब्न मरियम मिलेगा" ।

- किताब अल-फितन (नाइम इब्न हमाद)[5]

"यरूशलेम (बैतुल मकदीस) का एक सुलतानयोद्धाओं को हिंदुस्तान की तरफ आगे बढ़ेगा।योद्धा हिंद की भूमि को नष्ट कर देंगे और वहां के खजाने को जब्त कर लेंगेजिसे सुलतान
यरूशलेम की सजावट के लिए उपयोग करेगा। वह सेनाएं भारतीय राजाओंको यरूशलेम के सुलतान के सामने लाएंगी। सुलतान के आदेश से उनके योद्धापूर्व और पश्चिम के बीच के
सभी क्षेत्रों को पराजित करेंगे और दज्जल कीउपस्थिति तक हिंदुस्तान में रहेंगे" ।

- किताब अल-फितन (नाइम इब्न हमाद)

लोग मानते हैं कि गजवा-ए-हिंद अभी तक पूरी तरह से नहीं हुई है लेकिनऐसा तब होगा जब ईसा बिन मरियम (जीसस) और इमाम महदी विवरण की गई परंपराओं के अनुसार स्वर्ग
से उतर कर दज्जाल से युद्ध करते हैं
गजवा-ए-हिन्द की पुस्तकें कई शहरों में बिक रही हैं जिनमें लिखा है सभीहिन्दुओं को धर्म परिवर्तन करना जरूरी है। इसके अलावा अहमदिया, शिया, यजीदीजैसे अल्पसंख्यकों को
भी बुरी तरह से परेशान किया जा रहा है।

इस जंग में जो कु र्बान होंगे वे जन्नत जाएंगे और जो बच जाएंगे वे नर्क की आग में नहीं फें के जाएंगे। इस तरह यह जंग आगे चीन तक जाएगी और वहां भीइस्लाम का परचम लहरायेगी
और इस तरह इस खित्ते में खिलाफत कायम हो जाएगी।

मोहम्मद साहब को गये जमाना हो गया। इस बीच मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्धपर हमला किया। भारत में इस्लाम फै ला। सदियों तक मुस्लिम शासक रहे। मुस्लिमशासकों की पनाह
में सूफी संत आये और दोनों ही अपनी अपनी तईं गजवा ए हिन्दका फरमान लागू करते रहे। हजार साल की इन कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि हिन्दका आधा हिस्सा मुसलमान
हो गया। दो अलग अलग मुल्क बन गये। तीसरा बनने कीमांग कर रहा है। दुनिया की कु ल मुस्लिम आबादी का चालीस फीसद मुसलमान हिन्द (बांग्लादेश और पाकिस्तान सहित)
का वासी हो गया। तो क्या इतना सब होने के बाद भी गजवा ए हिन्द का ख्वाब पूरा नहीं हुआ जो मौलवी हजरात आज भी गजवा एहिन्द के हुक्म की तामील करने में लगे हुए हैं?

शायद सच्चाई यही है। अभी भी हिन्द की सौ करोड़ की आबादी ने कलमा नहीं पढ़ाहै। हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन जैसे मजहब अलग अलग तरह से बुतपरस्ती में लगेहुए हैं जिसे
आखिरकार खत्म किया जाना है। तो यह अधूरा काम पूरा कै से होगा? जवाब पाकिस्तान में बैठे मौलवी और इस्लामिक विचारक देते हैं। वे मानते हैंकि मुहम्मद बिन कासिम ने तो
महज जंग की शुरूआत की थी। उस जंग को अंजाम तकपहुंचाना पाकिस्तान का काम है।
पाकिस्तान के ज्यादातर मौलवी अपनी तकरीरों में अब यही दलील देते हैं किपाकिस्तान बना ही है गजवा ए हिन्द के लिए। यह इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान कीजिम्मेदारी है कि वह
हिन्दुस्तान के खिलाफ गजवा ए हिन्द की जंग लड़े औरमुसलमानों के आका (मोहम्मद साहब) की उस इच्छा को पूरा करे जो उन्होंनेहिन्द के बारे में जाहिर की थी। पाकिस्तानी
पंजाब के मौलाना इरफान उल हकअपनी तकरीरों में हमेशा यह कहते हैं कि सिर्फ दुनिया में भारत ही एक ऐसादेश है जहां बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) जिन्दा है इसलिए मोहम्मद साहब
के हुक्मका तालीम करने के लिए जरूरी है कि भारत से बुतपरस्ती और बुतपरस्तों कोनेस्तनाबूत कर दिया जाए। अब क्योंकि यह मोहम्मद साहब का हुक्म था इसलिए हरमुसलमान
इसी मिशन पर होना चाहिए।
पाकिस्तान बनने का और कोई मकसद ही नहीं है। इसका मकसद ही है गजवा ए हिन्द।”
पाकिस्तान और भारत में सुन्नी और सूफी भले ही बाकी सभी बातों पर अलग रायरखते हों लेकिन इस बात पर एक राय हैं कि “बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) औरबुतपरस्तों को खत्म
करना है। तहीरुल कादरी उसी परपंरा को आगे बढ़ा रहे हैं।जबकि बाबा इरफान उल हक इसे पाकिस्तानी फौज से जोड़कर इस वजूद को और मजबूतकर रहे हैं कि असल में
पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं बल्कि दूसरा मदीना है जिसेमूर्तिपूजकों को खत्म करने के लिए ही अल्लाह की मर्जी से अस्तित्व मेंलाया गया है।इरफान उल हक बड़ी साफगोई से बताते
हैं कि “यह दो कौमी नजरिया कोई आज वजूदमें नहीं आया है। यह दो कौमी नजरिया उस दिन वजूद में आया जिस दिन मक्का मेंपहला मुसलमान बना। वहां से दुनिया दो हिस्सों में
बंट गयी।” इसी बंटवारेमें एक एक करके दुनिया के दूसरे हिस्से को मक्का की तरफ खींचने की कोशिश हीइस्लाम है।
इसमें कश्मीर का सूफी आंदोलन उनकी मदद कर रहा है। कश्मीर के बाद यह जंगदूसरे हिस्सों की तरफ आगे बढ़ाई जाएगी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह जंग जारी रखीजाएगी और कयामत से
पहले वह दिन आयेगा जब हिन्दोस्तान से सभी मूर्तिपूजकखत्म कर दिये जाएंगे और गजवा ए हिन्द की जो गुहार मोहम्मद साहब ने लगायी थीउसे पूरा कर लिया जाएगा। आमीन।

इस्लाम incentive का भी मजहब है यह समझ लीजिये ।शुक्रवार को जुम्मे की नमाज से पहले एक लाइन कही जाती है कि अल्लाह हमें काफिरों पर जीत दिला| पाकिस्तान में
सूफी दरगाह पर हुए हमले में 70 से ज्यादा लोगों को आतंकियों ने मौत के घाट उतार दियाथा। मृतकों में संगीतकार, औरतें, बच्चे तथा बुजुर्ग भी शामिल थे। इनकाकसूर सिर्फ इतना
था के यह सब दरगाह पर जाते थे, संगीत से नफरत नहीं करते थेऔर कट्टरपंथी इस्लाम को नहीं मानते थे। पाकिस्तान में पीछे कु छ सालों सेअहमदिया, बलूची, सिन्धी, शिया,
आदि कई मुसलमानों की हत्या का दौर चला आ रहाहैएक बच्ची ने पर्यावरण को बचाने के लिए भोपाल में ईद पर बकरा ना काटने कीअपील की तो उसे दौड़ा-दौड़ाकर मस्जिद के
बाहर पीटा गया तथा उसके कपड़े फाड़दिए गए। यही नहीं अब्दुल कलाम और सानिया मिर्जा जैसे लोगों पर भी कु छ मौलवीफतवे देते नज़र आ जाते हैं।

चर्च जोमस्जिद बना अब एक स्मारक -


तुर्की का नाम आते ही यह तस्वीर जहन  में आती है। यह इमारत पहले एक चर्च थीजो बाद में मस्जिद हो गई। अब यह एक स्मारक है। इसका निर्माण हजिया सोफियाने छठी
शताब्दी में कराया था।तुर्की इस मामले में पहले से बदनाम है, क्योंकि तुर्की के महमत अली अगका ने 1982 में वैटिकन में पोप जॉन पाल द्वितीय को गोली मारकर घायल कर
दियाथा। पोप फ्रांसिस का हजिया सोफिया का दौरा प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्णमाना गया है।916 वर्षो तक कांस्टैंटिनोपल (तुर्की का पूर्व नाम) के एक ग्रीक ऑर्थोडॉक्सकै थ्रेडल
के रूप में सेवाएं देने के बाद इस स्थल को एक मस्जिद मेंपरिवर्तित कर दिया गया, लेकिन आज यह तुर्की में सभी के लिए एक धर्मनिरपेक्षसंग्रहालय है। पोप बाद में सिसली में होली
स्प्रिट कै थ्रेडल में धर्मसभाको संबोधित कर सकते हैं। सिसली तुर्की का यूरोपीय जिला है, जहां के अधिकांशनिवासी गैर मुस्लिम हैं।

THE ARAB INVASIONS

635- first Muslim invader in India is NOT Mohd Bin Quasim who attacked Alor under King Dahir in 711 AD but
Uthman Abul As Al Sakifi and his brothers who attacked Thane, Debal and Bharuch between 635–648 AD.
Modern day Baluchistan faced many expeditions starting 661. Kabul Shahi kings faced constant struggle but they
blocked access to Khyber and Gomal pass and kept Islamic power at bay till 870 AD.

भारत पर पहला असफल अरब आक्रमण 636 ई में खलीफा उमर के द्वारामुंबई के निकट ठाणे पर किया गया था
Qasim landed on the shores of Debal, a seaport of Sindh.

Dahir as ruler is not taught in indian history as in India generally the history is written from the leftist point of view
in which native rulers and their glory are not been glorified which could harm the secular envoiurment of the
country that is the only basic reason . Muslim Hero Should Raja Dahir Not Muhammad Bin Qasim, because Raja
Dahir supported and sheltered family of Prophet Mohammed and died for him. Hindu Brahmins and children gave
their lives to protect Imam Hussain. But muslim history wont tell you this. Imam Hussain head was severed in
karbala, Raja Dahir and Chandra Gupta army arrive karbala too late were not able to save Imam hussain.

Raja Dahir had given shelter in Sindh to a well-known follower and family member of Imam Hussian, Muhammad
Bin Allafi?a man much sought by the Umayyad in their deadly hunt for eliminating the last of the Ahl-e-Bait
(Prophet Muhammad?s immediate family). That, according to some very believable sources, Dahir had even offered
asylum to Hussain ibn Ali, the grandson of Prophet Mohammed, who was being persecuted by other muslim at
home. That as a result of this offer, Hussain was on his way to Sindh when he was seized at Karbala in Iraq and
killed most viciously. G.M. Syed, the grand old man of Sindh also says,? the Sindhis weep for Hussain ibn Ali and
they weep for Raja Dahir Sen.?

The reason for the conquest of Sindh by Umayyad Imperialism was Raja Dahir's refusal to return Muhammad Bin
Allafi, who had taken asylum under Raja Dahir's government. He had also given shelter to a well-known follower
Imam Hussain, Muhammad Bin Allafi, was given shelter in Sindh from the Ommayya enemies of Ahl al-Bayt
(Arabic: ‫أهاللبيت‬, Persian: ‫ )اهلِبیت‬is a phrase meaning, literally, "Family of the House"., the term refers to the family
of the Islamic prophet Muhammad.

It was against the social rule of the Sindhis in those days, to return the persons who had placed themselves
under their protection from their enemies. Raja Dahir's tolerance and liberal minded-ness was a well known fact,
or account of which people of various religions lived peacefully in Sindh, where Hindus had their temples and
Parsis had their fire temples, Buddhists had their pagodas, Muslims had their mosques. The Muslims had
settled in Sindh on account of the policy of the Arab rulers. These rulers had difference with the relations of
the Prophet, and being intolerant, wanted to kill them. How could this God-fearing ruler return these sheltered
people to the cruel and tyrant Arab rulers? It is said that Imam Hussain (Alahisalam), after being harassed by
Yazeed and his followers, wanted to come to Sindhi on the invitation of Raja Dahir. But instead of being given
permission to go to Sindhi, he was martyred at Karbala.

The fact is that the Arab Imperialism started during the days of Umer, who had started conquering other
countries. This was the 15th invasion of Sindh. How in the days of Waleed Bin Abdul Malik, the Arabs
succeeded. It will be proper if I elaborate on the 14th invasion of Sindh, since the days of Caliph Umer.They were
on their way to Hindustan via Karbala as Raja Dahir had sworn shelter to the family of prophet Mohammed.
He even sent his army for his protection but his army reached late by that time Imam Hussain was killed in war
of Karbala (October 680 AD).. You should also know Brahmins Fought to protect Imam Hussain in the Battle
of Karbala and this has been recorded by the historian Sisir Kumar Mitra, in his book ‘The Vision of India’. page
183.. Rahab Sidh Datt, a potentate of Datt sect, was a highly esteemed figure of Arabia due to his close
relations with the family of Prophet Mohammed. In the holy war when no Muslim King came to help
Hussain. Rahab fought on his side mld sacrificed his seven sons (named Sahas Rai. Haras Rai, Sher Khan,
Rai Pun, Ram Singh, Dharoo and Poroo) in the bloody war. This extracts from different books, there is no
record of this history written by Hindu or Buddhists, all the extracts are from Arab and Persian documents.
Meanwhile there are lot of Sindhi poems about Karbala battle as they were supporters and offered protection to
grandsons of prophet Mohammed,? This is because rich business community and they wanted power after
prof. mohammed so they corrupted religion and made stories to suit them.

So they wanted to be successors of Prophet Mohammed so they can have power. Muawiyah bin Abi-Sufyan was
born in Mecca to Abu Sufyan ibn Harb and Hind bint Utbah Banu Abd-Shams clan of the Quraysh tribe and his
supporters (sunni muslims) were involved in killing of Imam Hassan. Hence until today there is clashes
between Shia and Sunni.Hussain was fatally wounded by Shamer, the commander of Yazid, and died after
Shemr cut Hussain's head off in the desert on the tenth day of Muharram (Today observed as the Day of
Ashura)

Hajjaj bin Yusuf Saqafi was the Omayyad governor of Iraq, the rulers in Damascus at that time were chasing sadaat
(Syeds) the family members of Prophet (PBUP) who took refuge in Sindh and Raja Dahar refused to hand over them
to the Umayyads.

Previously Khalifa Umar sent Mughairah to launch a naval attack against Sindh, but it was repulsed on the Indian
side.

In 700-701, Abdur-Rahmān ibn Muhammad ibn Al-Ash’ath was dispatched with forty thousand men and was
able to collect considerable booty but failed to have any territorial gains – thus incurring the displeasure of
Hajjaj

The Chachnama Lists six more major attempts by land and/or by sea during the next 80 years till defeat of Raja
Dahir in 711AD , led by Hakam, Abdullah, Rashid, Munzir, Sinan, and Bazil, but they were all repulsed and the
invading commanders killed.

Sindh seems to have had a reputation of being wealthy, for in the time of the Khalifat of Baghdad several attacks
were made upon it. The Moslems used to carry off Hindu women as slave girls; and in an attack made by the Raja
on one of these convoys, some Muhammadans were killed and the remainder made prisoners

In 711, a Syrian Muslim military general, Hamim ibn Sama, came to Kashmir in the company of Jaisiya, the son of
the Sindh’s Hindu ruler Raja Dāhir.

Dahir’s kingdom was invaded by Ramal at Kannauj. After initial losses, the enemy advanced on Aror and he allied
himself with Alafi, an Arab. Alafi and his warriors (who were exiled from the Umayyad caliphate) were
recruited; they led Dahir’s armies in repelling the invading forces, remaining as valued members of Dahir’s
court. In a later war with the caliphate, however, Alafi served as a military advisor but refused to take an active
part in the campaign; as a result, he later obtained a pardon from the caliph.By enlisting the support of local
tribes (such as the Jats, Meds and Bhuttos) and Buddhist rulers,Muhammad bin Qasim defeated Dahir and
captured his eastern territories for the Umayyad Caliphate. Qasim crossed the indus river and defeated the forces led
by Jaisiah (Dahir’s son) at Jitor

Qutaybah ibn Muslim, the Arab general of Khorasan conquered a number of territories in Central Asia including
Samarkand where he broke a number of images.[15] Several instances of Buddhist shrines being destroyed by the
advancing Muslims are recorded though the religion continued to survive in some places for a considerable period of
time. Bertolf Spuler cites the writings of Narshakhi while stating that the residents of Bukhara had reconverted from
Islam to Buddhism four times until it was conquered by Qutayba in 712-13. A mosque was built in the city in
place of a Buddhist monastery. Buddhists continued to live there until the tenth century. Similarly, Buddhism
continued to exist in other places like Old Bukhara, Simingan in southern Tukharistan, Bamiyan and Kabul with
suburbs inhabited by "Indians" which were also home to Buddhists. However, the religion could no longer develop
as a power or distribute propaganda and its adherents also had to abandon the conversion of peoples in these regions

It is believed that Hajjaj Bin Yousif sent Mohammed Bin Qasim because Raja Dahir had given promise to protect
Protect Muhammad's grandson Hussein ibn Ali which eventually lead to a war between the Mohammed bin Qasim
and Raja Dahir.

Chachnama is an authentic document that recounts the history of Sindh in great details

सिन्ध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओंने 15 बार आक्रमण किया। 15 वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम नेकिया।

३. मुहम्मद बिन कासिम (इराक, 711)भारत पर पहला असफल अरब आक्रमण 636 ई में खलीफा उमर के द्वारा किया गया थाअरबो के १६ प्रयास असफल रहे| Debal,
bin Qasim moved on to Nerun for supplies; the city’s Buddhist governor had acknowledged it as a tributary
state of the Caliphate after the first campaign and capitulated to bin Qasim.|712 में इराकी शासक अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद
मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिन्ध पर कई युद्दो में असफल होने के बाद १७वां प्रयास 711 ई में राजा दाहिर (son of Chach of Aror)को हरा कर
अरबो के लिए भारत का मार्ग खोल दिया।Capture of Aror अरब लुटेरो ने सिंध और मुल्तान को जी भर कर लुटा। एक अनुमान के अनुसार 3 लाख से अधिक हिन्दुओ
औरतो के साथ बलात्कार किया गया था और इतनी ही औरतो को कासिम अपने साथ अरब ले गया था| मुहम्मद बिन कासिम अत्यंत ही क्रू र यौद्धा था। सिंध के दीवान गुन्दुमल
कीबेटी ने सर कटवाना स्वीकर किया, पर मीर कासिम की पत्नी बनना नहीं। इसी तरहवहां के राजा दाहिर (679 ईस्वी में राजा बने)और उनकी पत्नियों और पुत्रियोंने भी अपनी
मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी।Dahir’s wife immolated herself (with other women in her household) in
accordance with the Hindu tradition of JauharA historian madani confirms that when Dahir’s severed head was
presented to Hajjaj, a courtier sang: “we have conquered Sindh after enormous trouble. Betrayed is Dahir by
Mohammed Bin Qasim’s masterly strategy. Rejoice, the evil doers are disgraced. Their wealth has been brought
away . They are now solitary and brittle as eggs and their women, fair and fragrant as musk-deer, are now asleep in
our harems.” सिंध देशके सभी राजाओं की कहानियां बहुत ही मार्मिक और दुखदायी हैं। आज सिंध देशपाकिस्तान का एक प्रांत बनकर रह गया है। राजा दाहिर अके ले ही
अरब और ईरानके दरिंदों से लड़ते रहे। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कु छ लोगों नेउनके साथ गद्दारी की।
इसनेसर्वप्रथमभारतपरजजियाकरलगायाभारतीयराजाओंकोख़तलिखेकीवेइस्लामअपनालेंऔरआत्म-समर्पणकरदेंराजादाहिरसेनकीबेटियोंकोतोहफ़ाबनाकरख़लीफ़ाके पासभेजाथा।
जबख़लीफ़ाउनके पासआयातोउन्होंनेअपनेपिताकीमृत्युकाबदलालेनेके लिएकहाकिमुहम्मदबिनक़ासिमपहलेहीउनकीइज़्ज़तलूटचूकाहैऔरअबख़लीफ़ाके पासभेजाहै।
ख़लीफ़ानेमुहम्मदबिनक़ासिमकोबैलकीचमड़ीमेंलपेटकरवापसदमिश्क़मंगवायाऔरउसीचमड़ीमेंबंदहोकरदमघुटनेसेवहमरगया।
जबख़लीफ़ाकोपताचलाकिबहनोंनेउससेझूठकहाथातोउन्हेंज़िन्दादीवारमेंचुनवादिया।इस्लामिकखलीफाओंनेकईअभियानचलाए| पुजारियों और नागरिकों का क़त्लेआम किया. मंदिरों को
नष्ट किया, जिनमें एक बहुत ही प्राचीन मंदिर शामिल था| चचनामाके अनुसार अनेक लोगों को जबरन धर्मपरिवर्तन के लिए बाधित किया गया और बहुत सेजाटनागरिकों को गुलाम
बना के ईराक ले जाया गया।

#देवल-दाहिर ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए देवल की रक्षा नहीं की औरपश्चिमी किनारों को छोड़कर पूर्वी किनारों से बचाव की लड़ाई प्रारम्भ करदी। दाहिर के भतीजे ने
राजपूतों से मिलकर क़िले की रक्षा करने का प्रयासकिया, किन्तु असफल रहा
#नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित चराक के समीप था।देवल के बाद मुहम्मद कासिम नेऊन की ओर बढे दाहिर ने नेऊन की रक्षा कादायित्व एक पुरोहित
को सौंप कर अपने बेटे जयसिंह को ब्राह्मणाबाद बुलालिया। नेऊन में बौद्धों की संख्या अधिक थी। उन्होंने मुहम्मद बिन कासिम के सामने बिना युद्ध किये ही हथियार डाल दिए उन्होंने
मुहम्मद बिन कासिम कास्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही मीर क़ासिम का नेऊन दुर्ग परअधिकार हो गया।
#सेहवान —————- नेऊन के बाद -सेहवान (सिविस्तान) की ओर बढ़ा। इस समय वहाँ का शासक माझरा था। इसने भीमुहम्मद बिन कासिम की बहादुरी और कारनामो को
देखते हुए बिना युद्ध किए हीनगर छोड़ दिया और बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर मुहम्मद बिन कासिम काअधिकार हो गया।
# सीसम के जाटों पर अपना अगला आक्रमण किया। बाझरा यहीं पर मार डाला गया।जाटों ने भी अपने घुटने टेक दिए और मुहम्मद बिन कासिम की अधीनता स्वीकार करली।
#राओर- सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। इसी युद्ध में दाहिर मारा गया। दाहिर के बेटे जयसिंह ने राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपनी विधवा माँ पर छोड़करब्राह्मणाबाद चला
गया।लड़ाई का जोश और जीत की चमक आँखों में लिए इस नोजवान की सेना के सामने दुर्ग की रक्षा करने में अपने आप कोअसफल पाकर दाहिर की विधवा पत्नी नेआत्मदाह कर
लिया
# ब्राह्मणाबाद की सुरक्षा का दायित्व दाहिर के पुत्र जयसिंह के ऊपर था। उसको भी कासिम के आक्रमण के सामने मुह की खानी पड़ी
#आलोर प्रारम्भ में आलोर के निवासियों ने कासिम का सामना किया, किन्तु अन्त में विवश होकर आत्मसमर्पण कर दिया
#मुल्तान की तरफ कू च को यहाँ पर आन्तरिक कलह के कारण कासिम को सहायता मिलीजिस की वजह से आसानी से मुल्तान फतह कर लिया मोहम्मद बिन कासिम का नगर
परअधिकार हो गया। इस नगर से मीर क़ासिम को इतना माल ऐ गनीमत मिला की, उन्होंने इसे ‘स्वर्णनगर’ नाम दिया।

अरब की राजनीतिक स्थिति सामान्य न होने के कारण दाहिर ने अपने पुत्र जयसिंहको बहमनाबाद पर पुनः क़ब्ज़ा करने के लिए भेजा, परन्तु सिंध के राज्यपालजुनैद ने जयसिंह को
हरा कर बंदी बना लिया। कालान्तर में कई बार जुनैद नेभारत के आन्तरिक भागों को जीतने हेतु सेनाऐं भेजी, परन्तु नागभट्ट प्रथम, पुलके शी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) के
सामने जीत ना मिल सकी और पीछेहटना पड़ा | कालान्तर में उन्हें सिंध का भीत्याग करना पड़ा।मगर यहाँ से भारत में इस्लाम का सूर्य उदय होना सुरु हो चूका था
Qutaybah ibn Muslim, the Arab general of Khorasan conquered a number of territories in Central
Asia including Samarkand where he broke a number of images.[15] Several instances of Buddhist shrines being
destroyed by the advancing Muslims are recorded though the religion continued to survive in some places for a
considerable period of time. Bertolf Spuler cites the writings of Narshakhi while stating that the residents
of Bukhara had reconverted from Islam to Buddhism four times until it was conquered by Qutayba in 712-13. A
mosque was built in the city in place of a Buddhist monastery. Buddhists continued to live there until the tenth
century. Similarly, Buddhism continued to exist in other places like Old Bukhara, Simingan in
southern Tukharistan, Bamiyan and Kabul with suburbs inhabited by "Indians" which were also home to Buddhists.
In addition to discrimination, emigration, and the conversion of the laity, Buddhism and its monasteries also
declined with the Muslims taking over the trade along the Silk Road as well as in Sindh.
During their conquest of Sindh, the Arabs brought the non-Muslims into the category of ahl al-kitab, considering
them ahl al-dhimmah (protected subjects) and thus practicing a certain amount of non-interference in their religious
lives under the condition that they fulfil a number of obligations that came with this status. Since both Buddhism
and Hinduism are literate religions with scriptures, the precedent of assimilating Zoroastrians into the category
of ahl al-kitab was extended to them as well. The dhimmis were obligated to pay the jizya for following their
ancestral religion. The historian Al-Baladhuri notes a decision by Muhammad bin Qasim in relation to a
Buddhist vihara and Aror that after conquering the city through a treaty (sulh) he agreed not to kill the people and
enter their temple, in addition to imposing kharaj on them.[21] The Buddhists had petitioned the Arabs for the right
to restore one of their temples and it was granted by Al-Hajjaj ibn Yusuf. However, this decision was later violated
by the Pact of Umar and subsequent Muslim law codes which prohibited the restoration of existing non-Muslim
religious structures as well as the building of new ones.  The Buddhist monastery of Nava Vihara which had become
a symbol of national resistance was damaged under Muawiyah I in 663.[23] The Arabs allowed the non-Muslims to
practice their religion as long as they paid the poll-tax called jizya.[24] In addition to the destruction of Buddhist
temples, part of the old city was also destroyed during the Arab conquest.[25] Nava Vihara continued to remain
open according to historical accounts
The king of Kabul was captured and he then converted to Islam.[30] Per sources, when the Shah submitted to al-
Ma'mun, he sent his crown and bejeweled throne, later seen by the Meccan historian al-Azraqi to the Caliph who
praised Fadl for "curbing polytheists, breaking idols, killing the refractory" and refers to his successes against
Kabul's king and ispahabad. Other near-contemporary sources however refer to the artifacts as a golden jewel-
encrusted idol sitting on a silver throne by the Hindu Shahi ruler or by an unnamed ruler of "Tibet" as a sign of his
conversion to Islam.[31]

713 Capture of Multfin by the Muslim

714 ईस्वी में हज्जाज की और 715 ई. में मुस्लिम खलीफा की मृत्यु के उपरांतमुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। कासिम के जाने के बाद बहुत सेक्षेत्रों पर फिर से
भारतीय राजाओं ने अपना अधिकार जमा लिया, परंतु सिन्धके राज्यपाल जुनैद ने सिन्ध और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक शासन कोजमाए रखा। जुनैद ने कई बार भारत के
अन्य हिस्सों पर आक्रमण किए लेकिन वहसफल नहीं हो पाया। नागभट्ट प्रथम, पुलके शी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) नेइसे वापस खदेड़ दिया

717 Death of the Caliph Sulaimfm and accession of Umar II


724-743 Hisham Caliph Junaid governor of Sind

अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि बढ़ते हुए अरब आक्रमण को नाग भट | ने उज्जैन से पीछे धके ल दिया था और अरबो को सिंध तक सीमित कर दिया|जुनैद ने नेतृत्व में,724 ई. में
पश्चिमी भारत पर हुए अरब आक्रमण ने एक अभूतपूर्व संकट उत्पन्न कर दिया| इस संकट के समय भी हूण-गुर्जर समूह के राज्य एक साथ उठ खड़े हुए| इस बार इनका नेतृत्व
गुर्जर-प्रतीहार शासक नाग भट I ने किया| मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार प्रताड़ित जनता की प्रार्थना पर नाग भट नारायण के अवतार के रूप में प्रकट हुआ तथा
उसने मलेच्छो (अरबो) की सेना को पराजित किया| In 725 CE Junayad, the Arab governor of Sind, sent his armies to destroy the
second somnath temple.[15] TheGurjara Pratihara king Nagabhata II constructed the third temple in 815, a large
structure of red sandstone.

724 ई से 760 ई तक ललित आदित्य ने कश्मीर पर राज किया.कर्कोटयाकर्कोटककश्मीरका एक कायस्थ क्षत्रिय राजवंश था, जिसने गोनंद वंश के पश्चात् कश्मीर पर अपना
आधिपत्य जमाया। 'कर्कोट' पुराणोंमें वर्णित एक प्रसिद्ध नाग कानामहै। उसी के नाम पर इस वंश का नाम पड़ा।फिर उसके ज्येष्ठ पुत्र चंद्रापीड़ ने राज्य का भार सँभाला। इसने
चीनीनरेश के पास दूत भेजकर अरब आक्रमण के विरुद्ध सहायता माँगी थी। अरबों कानेतामहम्मद बिन कासिमइस समय तक कश्मीर पहुँच चुका था। यद्यपिचीनसे सहायता नहीं प्राप्त
हो सकी तथापि चंद्रापीड़ ने कश्मीर को अरबों सेआक्रांत होने से बचा लिया। चीनी परंपरा के अनुसार चंद्रापीड़ को चीनीसम्राट् ने राजा की उपाधि दी थी। संभवत: इसका तात्पर्य
यही था कि उसनेचंद्रापीड़ के राजत्व को मान्यता प्रदान की थी।कल्हणकीराजतरंगिणीके अनुसार चंद्रापीड़ की मृत्यु उसके अनुज तारापीड़ द्वारा प्रेषित कृ त्यासे हुई थी। चंद्रापीड़ ने
साढ़े साठ वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात् तारापीड़ने चार वर्ष तक अत्यंत क्रू र एवं नृशंस शासन किया। उसके बादललितादित्यमुक्तापीड़ ने शासनसूत्र अपने हाथ में ले लिया।साहस और
पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है।७३३ ई. में ललितादित्य ने चीनी सम्राट् की पास सहायतार्थ दूत भेजा।
सहायता नप्राप्त होने पर भी उसने पहाड़ी जतियों- कं बोज, तुर्क , दरद, खस तथातिब्बतियों-को पराजित कर कश्मीर में एकच्छत्र साम्राज्य की स्थापना की।

उल्लेख आता है. भारत भूभाग के अलावा ललित आदित्य ने तुर्क , मध्य एशिया के क्षेत्रों, तिब्बत, बाल्टिस्तान पर विजय पताका फहराई.कश्मीर के इतिहास पर लिखी पुस्तक
राजतरंगिणीके अनुसार ललित आदित्य के राज्य की सीमा उत्तर में कै स्पियन सागर, पूर्वमें बंगाल और दक्षिण में कर्नाटक तक थी. ललित आदित्य ने कश्मीर पर आक्रमणकरने वाले
अरब हमलावर मोमिन के विरोध चार युद्ध लड़े और चारों बार उसेहराया.उनका सबसे विशेष निर्माण, सूर्य भगवान कोसमर्पित मार्तंड मंदिर है. इस मंदिर को कश्मीर के सबसे
शक्तिशाली और सुंदरमंदिर परिसर के रूप में माना जाता है. हिंदू होने के बावज़ूद ललित आदित्यने कई बुध विहारों की स्थापना की.ललितादित्य ने पीकिं ग को भी जीता और 12
वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा।ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी।उनका साम्राज्‍य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम मेंतुर्कि स्‍तान
और उत्‍तर-पूर्व में तिब्‍बत तक फै ला हुआ था। कश्मीर में अनेकमंदिर बनाने वाले साम्राट थे ललितादित्य। कश्मीर का मार्ताण्ड मंदिर इन्हीके द्वारा बनाया गया था।चीन , अरब, मिस्र,
मैसिडोनिया देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने कीदृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कू टनीतिज्ञता का आभासभी दृष्टिगोचर होता हैजिससे
उनका साम्राज्यकाराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा।

तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा...' के बैकड्रॉप में फिल्माये गए मार्तंडमंदिर के अवशेष जम्मू-कश्मीर के हजारों ऐसे मंदिरों की कहानी सुनाने के लिएबचे हुए कु छ पत्थर भर हैं, जो
इतिहास के वहशियों की पूरी करतूतों को उनकीसंपूर्ण निर्ममता के साथ सामने लाते हैं.इसमें 84 विशाल स्तंभ थे. अनंतनाग में इस मंदिर को बनाने के लिए चूने के पत्थर की चौकौर
ईंटों का इस्तेमाल किया गया. कई सौ साल तक यह मंदिर इंसानोंको अपनी उंगलियां मुंह में देने के लिए विवश करता रहा, लेकिन समय का चक्काबदला और कश्मीर में इस्लाम का
आगमन हुआ. फिर उसके धर्मांध शासकों ने जनताको जमीन में उतार दिया और तीन ही विकल्प दिए... धर्मांतरण, देश निकाला याफिर मौत. इस 'खुरैंजी खेल' को दिल्ली के
पत्रकार खासतौर से दलाली के सिद्धहस्त और अंग्रेजी के पत्रकार लिखते हैं ऋषि इस्लाम.

अब इंसानों को तो बदला जा सकता था, लेकिन उन मंदिरों का क्या किया जाएजिनकी खूबसूरती रोज इन सुल्तानों और उन धर्मांधों की आंखों में गड़ती थी जोसिर्फ इस्लाम के
लिए ही वहां थे. तब लगा कि शिल्प के इस नायाब नमूने कोतोड़ना ही एकमात्र उपाय है. इस काम को हर बादशाह ने जोर-शोर से किया, लेकिनसुल्तान सिकं दर ने तो अपना नाम
ही सिंकदर बुतशिकन रख लिया था. हर शहर के मंदिर को धूल में मिलाते हुए सुल्तान की नजर विश्व प्रसिद्ध मार्तंड सूर्यमंदिर पर पड़ी. इस भव्य मार्तण्ड सूर्य मंदिर को तोड़कर
पूर्णत: बर्बादकरने में एक वर्ष का समय लगने के बाद भी सुल्तान जब अपने काम में सफल नहींहो सका, तब कला-संस्कृ ति और ईश्वरीय सौंदर्य से भरपूर इस मंदिर मेंलकड़ियों को
भरकर आग लगवा दी.मंदिर के चारों ओर के गांवों को इस्लाम कबूल करने के आदेश दे दिए गए. जो नहीं माने उन्हें परिवारों समेत मौत के घाट उतार दिया गया.

One of the oldest temple ruins, it is now called “Shaitan ki Gufa” (Devil’s cave) by Kashmiri Muslims. It was part of
the Karkot Empire (A Naga Kingdom) which was in continuous strife with Gandhara’s Suparna (A Garuda
Kingdom). Hence, even today, an eagle is taken for a sign of devil in Kashmiri folklore.

राजपूत कर्कोटक नागवंशी दिग्विजयी सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ जिनके काल में भारत रूस तक फ़ै ल गया था !!
विजीयते पुण्यबलैर्बर्यत्तु न शस्त्रिणम
परलोकात ततो भीतिर्यस्मिन् निवसतां परम्।

भारतवर्ष का Alexander कहा जाता है, । उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया से लेकर  रूस,पीकिं ग तक पहुंच गया ।
सन 439 (ईस्वी) में लड़ें गये सबसे लम्बा युद्ध था जिसे “Battle Of Caucasus” कॉकस या कौकसस जो की स्पेन का राजधानी थी प्राचीनकाल में जहाँ
सम्राटललितादित्य ने थियोडोरिक प्रथम को परास्त कर ललितादित्य ने कॉकस या कौकसस , स्पेन, दमास्कस पर भगवा परचम लहराया था । इस तरह से सम्राट
ललितादित्यकर्कोटक ने लगातार 18 युद्ध  लड़े  थे  बाल्टी साम्राज्य,  थियोडोसियाँसाम्राज्य, के साथ । सम्राट ललितादित्य से युद्ध में परास्त होने के बादयवनों ने सम्राट
ललितादित्य के साथ संधि कर स्पेन साम्राज्य अरब , सीसिली (sicily),मेसोपोटामिया, ग्रेटर अर्मेनिआ, कै रौअन (Kairouan) (वर्तमान मेंइसे तुनिशिया देश के नाम से
जाने जाते हैं ) तुर्क , कजाखस्तान , मोरक्को , अफ्रीका , पर्शिया एवं अनेक देश सामिल थे ये 72 प्रतिशत यवन साम्राज्य काभूभाग एवं पूरी अरब सागर , तिग्रिस , नील नदी पर
सम्राट ललितादित्य ने भगवाध्वज लहराया था –
Reference-: Historia Gothorum Page 89 Author-: Jordane

2) सन 452 (ईस्वी) पूर्वी यूरोप विजय करने निकले थे रणक्षेत्रमें अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय  प्राप्त किया  बाईज़न्टाइन साम्राज्यके राजा व्हॅलेंटिनियन तृतीय के साथ युद्ध
की व्याखान मिलता हैं इन्हेंहराकर सम्राट ललितादित्य ने क़ु स्तुंतुनिया, रूस पर कब्ज़ा किया आठवी सदी तकक़ु स्तुंतुनिया (कोंस्तान्तिनोपाल) राजधानी था यूरोप का । इसके
उपरांत डु कपोलिश राजा को परास्त कर पोलिश (पोलैंड) विजय कर भगवा झंडा लहरा था ।सम्राट ललितादित्य ने रूस के साथ साथ बॉस्निया के अधीन अन्य यूरोपी देशो
कोअपने विजय अभियान में सम्मिलित कर साम्राज्य को यूरोप तक फै लाया था एवंइसके उपरांत सम्राट ललितादित्य मुक्तापिड़ ने पश्चिम और दक्षिण मेंक्रोएशिया पूर्व में सर्बिया और
दक्षिण में मोंटेनेग्रो उत्तरपूर्वी यूरोपअल्बानिया उत्तर में कोसोवो पूर्व में भूतपूर्व यूगोस्लाविया और दक्षिण मेंयूनान तक सफलतापूर्वक सैन्य अभियान कर विश्व विजयता की उपाधि
हासिल करलिया था ।

ललितादित्य विश्व विजयी होकर लगभग 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा एवं तीन साल बाद अंतिम सांस लिया कश्मीर में ।
अंततः इनके शौर्य और पराक्रम को भूलने का नतीजा हुआ कश्मीर में आज एक भीकश्मीरी हिन्दू कश्मीर में नहीं रह पाए अगर कश्मीरी हिन्दू अपने पूर्वज कोएक बार के लिए पढ़
लिए आज यह दुर्दशा नहीं होता कश्मीरी पंडितो का होकर रहताकश्मीर ।

कु छ लोगों का कहना है कि अफघानिस्तान अभियान के दौरान हिमस्खलन के नीचे दबजाने के कारण उनकी मृत्यू हुई थी। वहीं कु छ और लोगों का कहना है कि वे सेनासे बिछड़ गये
थे और खुद को मुघलों के हाथ लगने से बचाने के लिए उन्होंनेखुद आत्म कर लिया।

कश्मीर के इस नागवंशी राजपूत कर्कोटक शाखा (टाक) महान राजा के बारे में अधिकांश लोगो को जानकारी ही नही है ।
न्यूज़ चैनलो पर डिबेट में पीडीपी के प्रवक्ता फ़िरदौस टाक जब घाटी मेंइस्लामिक विचारधारा का बचाव करते हैं और दबे शब्दों में आतंकी घटनाओ का भीसमर्थन करते हैं तो उन्हें
शायद अपने यशस्वी पूर्वज ललितादित्य मुक्तपीड कीकीर्ति का तनिक भी भान न होगा

[तत्कालीन राजा सहदेव के समय मंगोल आक्रमणकारी दुलचा ने आक्रमण किया। इसअवसर का फायदा उठा कर तिब्बत से आया एक बौद्ध रिंचन ने इस्लाम कबूल कर अपनेमित्र
तथा सहदेव के सेनापति रामचंद्र की बेटी कोटारानी के सहयोग से कश्मीरकी गद्दी पर अधिकार कर लिया। इस तरह वह कश्मीर (जम्मू या लद्दाख नहीं) कापहला मुस्लिम शासक
बनाशाह हमादान के बेटे मीर हमदानी के नेतृत्व में मंदिरों को तोड़ने और तलवारके दम पर इस्लामीकरण का दौर सिकन्दर के बेटे अलीशाह तक चला लेकिन उसके बाद 1420-
70 में ज़ैनुल आब्दीन (बड शाह) गद्दी पर बैठा।

16 october1586 को मुगल सिपहसालार कासिम खान मीर ने चक शासक याकू ब खान को हराकर कश्मीर पर मुगलिया सल्तनत को स्थापित किया।]

750 Overthrow of the Umayyads by the 'Abbasids. Musa, governor of Sind


754-775 Al-Mansur Caliph. Hishfun governor of Sind

मिहिर भोज (836-885 ई.) के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य
अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कु छ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया|इनका साम्राज्य अत्यन्त विशाल था औरइसके अन्तर्गत वे
क्षेत्र आते थे जो आधुनिक भारत के राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियांणा, उडीशा, गुजरात, हिमाचल आदि राज्यों हैं

मिहिरभोज गुर्जर प्रतिहारविष्णुभगवान के भक्त थे तथा कु छ सिक्कों मे इन्हे 'आदिवराह' भी माना गया है। मेहरोली नामक जगह इनके नाम पर रखी गयी थी।

सम्राटमिहिरभोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक 49 साल तक राज किया। मिहिरभोजप्रतिहार के साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक औरकश्मीर से
कर्नाटक तक फे ला हुआ था। ये धर्म रक्षक सम्राट शिव के परम भक्तथे। स्कं ध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। 50 वर्ष तक
राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटेमहेंद्रपाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।अरबयात्री सुलेमान ने भारत भ्रमण के दौरान लिखी पुस्तक
सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में सम्राट मिहिरभोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है, साथ हीमिहिरभोज प्रतिहार की महान सेना की तारीफ भी की है, साथ ही
मिहिरभोज के राज्य की सीमाएं दक्षिण में राजकू टों के राज्य, पूर्व में बंगाल के पालशासक और पश्चिम में मुलतान के शासकों की सीमाओं को छू ती हुई बतायी है
915 ईस्वीं में भारत आए बगदाद के इतिहासकार अल- मसूदी ने अपनी किताब मरूजुल महान मेें भी मिहिरभोज प्रतिहारकी 36 लाख सेनिको की पराक्रमी सेना के बारे में लिखा
है। इनकी राजशाही कानिशान “वराह” था और मुस्लिम आक्रमणकारियों के मन में इतनी भय थी कि वे वराहयानि सूअर से नफरत करते थे। मिहिरभोज की सेना में सभी वर्ग एवं
जातियों के लोगो ने राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार उठाये और इस्लामिक आक्रान्ताओं सेलड़ाईयाँ लड़ी।

प्रतिहारसम्राट मिहिरभोज के मित्र काबुल का ललिया शाही राजा कश्मीर का उत्पल वंशीराजा अवन्ति वर्मन तथा नैपाल का राजा राघवदेव और आसाम के राजा थे।
सम्राटमिहिरभोज के उस समय शत्रु, पालवंशी राजा देवपाल, दक्षिण का राष्ट्र कटू महाराज आमोधवर्ष और अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी थे।
अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके परशासक नियुक्त किया था। जिस पर अरबों का अधिकार रह गया था। सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को
पूरी तरह पराजित करके समस्त सिन्ध गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया था। के वलमंसूरा और मुलतान दो स्थान अरबों के पास सिन्ध में इसलिए रह गए थे कि
अरबोंने क्षत्रिय प्रतिहार सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिएअनमहफू ज नामक गुफाए बनवाई हुई थी जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाते थे।

सम्राटमिहिरभोज नही चाहते थे कि अरब इन दो स्थानों पर भी सुरक्षित रहें और आगेसंकट का कारण बने इसलिए उसने कई बड़े सैनिक अभियान भेज कर इमरान बिन मूसाके
अनमहफू ज नामक जगह को जीत कर गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की पश्चिमीसीमाएं सिन्ध नदी से सैंकड़ों मील पश्चिम तक पंहुचा दी और इसी प्रकार भारतदेश को अगली शताब्दियों
तक अरबों के बर्बर, धर्मान्ध तथा अत्याचारीआक्रमणों से सुरक्षित कर दियाथा। इस तरह सम्राट मिहिरभोज के राज्य कीसीमाएं काबुल से रांची व आसाम तक, हिमालय से नर्मदा
नदी व आन्ध्र तक, काठियावाड़ से बंगाल तक, सुदृढ़ तथा सुरक्षित थी।

The ruler of Kashmir at the time was probably Durlabhaka-Pratapaditya II (d. 724) of the Karkota dynasty; and
though his seat of power was in Kashmir, he ruled over a much larger empire. Kabul and Gandhar (the Peshawar-
Jalalabad region) had been under his rule before they were lost to the Muslim conquest. Hindu king Hamim was
warmly welcomed at Umayyads court and given a large plot of land, where he built Kashmir’s first mosques.

another Hindu king of Kashmir’s Karkota dynasty sent a letter to Abd Allah ibn Umar ibn Abd al-Azīz of Mansura,
asking him to send a knowledgeable Muslim to Kashmir to explain Islamic law in the local language

In 725 CE Junayad, the Arab governor of Sind, sent his armies to destroy the temple of Somnath.The
Gurjara Pratihara king Nagabhata II rebuilt the temple in 815, a large structure of red sandstone

In Bengal, Arab merchants helped found the port of Chittagong. Early Sufi missionaries settled in the region as early
as the 8th century.

Muslim missionaries played a key role in the spread of Islam in India with some missionaries even assuming
roles as merchants or traders. For example, in the 9th century, the Ismailis sent missionaries across Asia in all
directions under various guises, often as traders, Sufis and merchants. Ismailis were instructed to speak potential
converts in their own language. Some Ismaili missionaries traveled to India and employed effort to make their
religion acceptable to the Hindus. For instance, they represented Ali as the tenth avatar of Vishnu and wrote hymns
as well as a mahdipurana in their effort to win converts

primarily Buddhist region and a half century later in the Malacca's we see the first dynasty arise in the form of the
Sultanate of Malacca at the far end of the Archipelago form by the conversion of one Parameswara Dewa Shah into
a Muslim and the adoption of the name Muhammad Iskandar Shah[47] after his marriage to a daughter of the ruler of
Pasai.

813-833 Al-Ma'iniin Caliph. Rebellion of Bashar, son of Daud, in Sind. Musa Barmaki governor of Sind

830 Death of Musa and accession of his son 'Amran as governor of Sind

871 Virtual extinction of the authority of the Caliphs in Sind. Arab principalities of Multan and Mansurah

The Caliph Al-Ma'mun (r. 813–833 A.D.) was paid double the tribute by the Rutbil. His were the last Arab
expeditions on Kabul and Zabul.[11] The king of Kabul was captured by him and converted to Islam.
Meanwhile, the Hindu Shahi of Kabul were defeated under Mahmud of Ghazni.[15] Indian soldiers were a part of
the Ghaznavid army, Baihaki mentioned Hindu officers employed by Ma'sud.[16] The 14th-century scholar Muslim
scholar Ibn Battuta described that the Hindu Kush meant "slayer of Indians" because large number of slaves brought
from India died because of its treacherous weather.[
लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कु छ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| अरबी लेखक अल मसूदी
(900-940 ई.) के अनुसार सिन्धु नदी गुर्जर साम्राज्य के एक शहर के बीच से बहती थी

अरबी लेखक बिलादुरी कहता हैं कि अल-हाकिम इब्न-अवान्हा के समय ‘अल हिन्द’ में मुसलमानों को ऐसा कोई स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता था ज़हा भागकर वो अपनी जान
बचा ले| इसलिए उसने अल हिन्द की सीमा के बाहर झील के दूसरी तरफ मुसलमानों की पनाहगाह के रूप में अल मह्फू ज़ा नाम का शहर बसाया जहा मुसलमान सुरक्षित रह सके
और उसे अपनी राजधानी बना सके | मिहिर भोज ने अरबो को को शेष सिंध और मुल्तान से निकालने के प्रयास किये किन्तु अरब शासको द्वारा मुल्तान के सूर्य मंदिर को तोड़ने की
धमकी देने पर वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाता था|

मिहिर भोज (836-885 ई.)

851 ई. में सुलेमान नाम का अरब भूगोलवेत्ता और व्यापारी भारत आया| उसने अपने ग्रन्थ ‘सिलसिलात-उत तवारीख’ में गुर्जर साम्राज्य की समृधि और सैन्य शक्ति का शानदार
विवरण प्रस्तुत किया हैं| वह लिखता हैं कि हिन्द के शासको में एक गुर्जर हैं जिसके पास विशाल सेना हैं, हिन्द के किसी अन्य शासक के पास उसके जितनी अच्छी घुड़सवार सेना
नहीं हैं| वह अरबो का दुश्मन हैं

इन काबुलशाही राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों कोजबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिन्धु नदी पार करके भारत के मुख्‍य मैदान मेंनहीं घुसने दिया,
लेकिन 7 वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकू ब एलेसने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में
कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू औरबौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू हुआ। सैकड़ों सालों तक लड़ाइयांचलीं और अंत में
1019- में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथअफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया। 'काफिरिस्तान' को छोड़कर सारे अफगानीलोग मुसलमान बन गए।
9th century, a Persian Muslim traveler, Buzurg ibn Shahryar, recorded in his travelogue "The Wonders of India" that
the Hindu King in Kashmir had ordered for the Quran to be translated into the Kashmiri language. By the 12th
century, we find mention of Muslims serving in the royal court and army of the Kashmiri Hindu king Harshadeva.

Hindu Shahi (879–1026) was a Hindu dynasty that held sway over the Kabul Valley and Gandhara (modern-day
Pakistan, North India and North-Eastern Afghanistan) during the early medieval period in India. They succeeded the
Turk Shahis. There were two dynasties in Kabul Valley and Gandhara: the Kshatriya dynasty and the Brahmana
dynasty which replaced it.[2] Both used the title of Shahi

According to the Arab chronicler al-Biruni (973–1048 CE), the last Turk Shahi in the throne of Kabul was a certain
Lagaturman, who was deposed by his Brahman minister Kallar in the middle of the 9th century CE. In 814/815
CE the Kabul Shah suffered a critical defeat against the troops of the Abbasid caliph al-Ma'mun (813–833 CE) (No.
13) and was forced to convert to Islam.Ma'mun's troops had even pushed into Gandhara on the Indus River. The
annual tribute that the Kabul Shah subsequently had to pay the Abbasid governor of Khorasan entailed
1,500,000 dirhams and 2,000 slaves per year.

Bhimadeva (Hindu rule at Ghazni)

This may have happened in 903 during the reign of child king Gopalavarman (r. 902-904) ruling under the
guardianship of his mother Sugandha.[citation needed

Kamaluka has been identified as Kamalavarman, son of Lalliya (Samantadeva). He was succeeded by his son,
Bhimadeva
During the reign of Kamalavarman, the Saffarid rule weakened precipitately and ultimately Sistan became a part of
the Samanid Empire. The disorder generally prevailed and the control of Zabulistan changed hands frequently.
Taking advantage of the situation, the Shahis stepped up activities on their western frontier. The result was the
emergence of a small Hindu power at Ghazni, supported by the Shahis. "The authorities either themselves of early
date or enshrining early information mention Lawik" who was a Hindu as the ruler at Ghazni, before this
place was taken over by the Turkish slave governor of the Samanids.[13]

By the middle of the tenth century, Turkish slaves began to acquire power in the Samanid realm, as they were
holding principal offices in the court and kingdom. One of these, Alaptagin, a former Hajib or Door Keeper,
defeated the superior royal army near Khulm Pass and decided to carve out an independent kingdom for himself. He
first took over Bamian ‘the country of the infidel (Hindu) Shir Barak’. He next turned to Ghazni where
Lawik, its ruler, submitted after a prolonged siege of four months.

Substitution of Hindu potentates of Bamian and Ghazni by an emerging Turkish power posed a serious threat
to the Shahi kingdom which acted with ‘remarkable alacrity’ at this stage. The Lawik was sent back to Ghazni
with a huge armywhich ousted the Turks and sent Abu Ishaq flying to Bukhara. The Shahis had secured their
western frontier – for the time being. But the gathering storm had not blown away.

Bhimadeva had only one daughter named didda and no son. This daughter was married to Simhraja of the Lohara
dynasty

The Shahi state had successfully managed to ward off danger from the strong neighbouring kingdom of the
Samanids for more than a century. That Muslim kingdom was gradually decaying but its ambitious Turk officers
were acquiring power and setting up personal fiefdoms, menacing the Hindu states south of Koh Hindu Kush.
Though ruling with grandeur, unmolested by any neighbouring kingdom, Bhimadeva was getting old and must
have been weighing his options in the matter of succession, because he did not have a male heir. The Shahi
kingdom was strong and prosperous but not easy to govern - and protect. He could not count either on the Lawiks or
his granddaughter Didda of Kashmir for this onerous responsibility. He selected the allied kingdom of Punjab for
this honour and probably installed a successor in his own life for the succession seems to have been without ‘contest
or convulsion’

1011-10261026 to 1356 AD (SUMRA or SOOMRA)- Soomras are the first to wrest Sindh from the Arab rule.
They substituted the Arab Habari government of al-Mansurah (875-1025) after the episode of Sultan Mahmud
Ghaznavi's sack of al-Mansurah and unsuccessful hold over Sindh. The Soomras originally were a local Hindu
tribe. Some influential members of it had accepted Islam soon after the Arab conquest of Sindh. Even after
conversion they retained their old Hindu names and customs. The most prominent historical tradition of
Soomras was their ability to unite all Sindhi tribes to create a power of resistance against any foreign
occupation and rule. There were many devoted Islamic missionaries in Sindh during the Soomra rule, who were
patronized and provided security. Thus Islam spread by leaps and bounds during this period, to make Sindh a
Muslim majority land.   The Soomra dynasty ended when the last Soomra king was defeated by Alauddin
Khalji, the second king of the Khalji dynasty ruling from Delhi.[3][4]

Soomra king had two wives, a blacksmith’s daughter and a Rajput noblewoman. The former bore a son named
Kamaluddin Chanesar and a daughter named Bilqees “Bhaghi". Sometime later, the Rajput wife delivered a son, on
the same day the king died in a battle. This son was named Asad-ul-Millat Dodo.

A regency was appointed to rule till the princes came of age. They grew up wary of each other, amid palace intrigue
—but the beautiful and spirited Bhaghi was loved by both. Years later, prince Dodo was chosen as the sultan under
pressure from the nobles. Prince Chanesar was elder but lowborn and hence unacceptable to the Muslim Rajput
lords.
A seething Chanesar left for Delhi and sought the aid of Sultan Alauddin Khilji. In return, Chanesar would
acknowledge the Delhi sultan as his suzerain and also marry his sister to Khilji. The sultan agreed and a large
army led by general Zafar Khan invaded Sindh.

Sultan Dodo and the Rajput lords rebuffed the negotiation attempts; the traitorous pretender (who promised their
princess to a “caste-less Turk invader" at that) was beneath contempt. Despite heroic defence, the Sindh armies were
destroyed and Sultan Dodo fell, taunting Chanesar even as he was impaled high on Turkish spears. Most of the
noblewomen, including Princess Bhaghi, were evacuated from the capital and placed under the protection of Jam
Abro Samma, a prominent jam (lord) from the Samma Rajput clan. Zafar Khan sacked the capital and planned to
capture the princess to present her to Khilji. Then, understanding the vile nature of the Turks, Chanesar turned on
them and died fighting. Being Muslims, they did not follow Hindu twin-ritual of Saka-Jauhar; they instead set fire to
the fortress—with the assent of the women inside—and rode out to fight to the death. (Fantastic versions of the
legend say that Bhaghi also rode out, disguised as a man, to fight and die. As the women cried out in anguish the
earth split asunder and swallowed the fortress and the mountains surrounding it!)

The victorious Turks entered the fortress and all they found were ruins and charred bones. The aghast Zafar Khan
retreated to Delhi, lamenting the futility of it all and deeply mourning the dead. Some versions end with all the
Turks dying of thirst in the deserts of Sindh

(History, however, tells an entirely different story. Sources mention that the Soomra rulers had accepted
suzerainty of the Delhi Sultanate during the reign ofSultan Iltutmish (r. 1211-1236). Around 1297-1300, the
Soomra dominion), i.e. present day southern Sindh, was ruled by a certain Jam Chanesar. There was apparently no
Sultan Dodo in the picture, at that point of time.

In this period, Zafar Khan, one of the great generals of Alauddin Khilji (r. 1296-1316), did indeed lead an expedition
into Sindh. However, the objective was to intercept a Mongol army that had encamped itself in Sindh. The Mongols
were defeated and Zafar Khan withdrew from Sindh. It is not known if Chanesar had requested the sultanate’s aid
against the feared Mongol scourge—or if Sindh had allied with the Mongols thus warranting imperial
intervention. Similarly, the historical record of Khilji’s Chittor invasion is very different from the Padmavat. Khilji
understood that he had to neutralize his fierce Rajput neighbors. He also had dreams of becoming a great conqueror.
After the Rajput kingdoms of Gujarat and Ranthambor were conquered his eyes fell on Mewar, the most powerful
Rajput state of all.

https://thesindhuworld.com/lila-chanesar/

https://www.livemint.com/Sundayapp/diEHiKRTtaXp3Cjalpv3JJ/A-tale-of-two-legends-Padmavat-and-
DodoChanesar.html

980 ई. तक गान्धार इलाके परहिन्दु शाहीराजाओं का राज था जिनके आखिरीराजा जयपालको सबुक्ताजिन ने परास्त किया।"[6]इतिहासकारइब्न बतूताने लिखा है कि,
हिन्दूकु शपर्वत के नाम के पीछे वहाँ अनेकों हिन्दूओं की मौत है जो भारत से बंधुआगुलाम के तौर पर अरब देशों को ले जाते हुए, सर्द हवाओं और बर्फ से इनपहाडियों में हुयी थी।

जैसलमेरके इतिहास में एक बात और देखते हैं कि जैसल जो कि भाटी राजपूत था, जयपालके विरुद्ध महमूद-मजनबी के साथ मेल कर लेता है और भटिंडा के आसपास के जाट
जयपाल के लड़के आनन्दपालके साथ हजारों की तादाद में सिर्फ उनकी मान-रक्षा के लिए इकट्ठे हो जातेहैं और स्त्रियां अपने जेवर उतार करके युद्ध के खरचे के लिए दे डालती हैं।
फिर कै से माना जा सकता है कि वह जाट के सिवा कु छ और था? यही क्यों, मुल्तानके आसपास और झेलम के तटवर्ती जाट भी जब यह सुनते हैं किमहमूद आनन्दपाल का
सर्वनाशकरके लौट रहा है, तब वह उसके ऊपर बाज की तरह टूट पड़ते हैं। वे उसके प्राणले लेना चाहते थे। यदि वह मैदान में अकड़ के साथ डट जाता तो यह निश्चय थाकि वह
यहां से जिन्दा बच करके नहीं जाता।

अब हम जयपाल तथा उसके वंशजों के इतिहास पर थोड़ा-सा प्रकाश डालते हैं। जिस समयसुबुक्तगीनगुलाम की सूरत से निकल करके गजनी का शासकहुआ था और वह उत्तरोत्तर
अपने राज्य को बढ़ा रहा था, उस समयमहाराज जयपालने उसके देश पर चढ़ाई की। उनका राज्य सिंन्ध के प्रदेश तक फै ल चुका था औरवह अपने बुजुर्गों के राज्य गजनी और
काबुल, कन्धार पर भी अधिकार जमाने के इच्छु क थे। इसीलिए उन्होंने सुबुक्तगीन के ऊपर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई मेंसुबुक्तगीन को बड़ी हानि उठानी पड़ी और उसने महाराज को
कु छ दे लेकर के विदाकर दिया। कु छ ही वर्षो के बाद उन्हें सुबुक्तगीन पर फिर चढ़ाई करनी पड़ी।

कु छ ही वर्षो के बाद उन्हें सुबुक्तगीन पर फिर चढ़ाई करनी पड़ी। इस बारसुबुक्तगीन सुलह के बहाने से लड़ाई को टालता रहा। इतने में शीतकाल आ गया औरभारी बर्फ पड़ने के
कारण उनकी फौज को बड़ी हानि उठानी पड़ी। हजारों मनुष्यठिठु र कर मर गए। यह दुर्भाग्य की बात थी कि उस समय अत्यधिक पाला पड़ा। अबस्वयं महाराज को सुबुक्तगीन और
उसके लड़के महमूद से सुलह का प्रस्ताव करनापड़ा और हरजाने में कु छ देने का वायदा भी करना पड़ा।

भारत में आने के बाद, ब्राह्मण मंत्रियों की राय से, महाराज जयपाल ने अपनीप्रतिज्ञा को पूरा नहीं किया। जब महमूद, गजनी का मालिक हुआ तो उसने अपनेपिता का बदला लेने के
लिए तथा जयपाल की प्रतिज्ञा-भंग का स्मरण करके दसहजारसवार लेकर 391 हिजरी में, जयपाल के ऊपर चढ़ाईकर दी। चूंकिइधर कोई ऐसी भारी तैयारी न थी, इसलिए
जयपाल की हार हो जाना स्वाभाविक था।महमूद लूट-मार करके भारत से लौट गया। दूसरी बार लूट के लालच से और जयपाल के राज्य को अपने राज्य में मिलाने के लिए फिर से
भारत पर चढ़ाई की। इस बारमहाराज जयपाल ने खूब डटकर सामना किया। महमूद भाग जाने ही वाला था कि एकराजकु मार महमूद से जाकर के मिल गया और यही नहीं, किन्तु
मुसलमान भी हो गया।उसके मुसलमान होने का वर्णन इस प्रकार है - एक अत्यन्त सुन्दरी मुस्लिमबाला, जिसे पहली बार देखकर वह उस पर मोहित हो चुका था, के लोभ से
वहमुसलमान हो गया और उसने जयपाल की हार के तमाम तरीके महमूद को बता दिए।सम्भव है यह राजकु मारअभिषार का युवराज सुखपालरहा होगा। ‘गजनवीजहाद’ में मौलाना
हसन निजामी लिखता है कि - कु छ समय के बाद यह फिर मुसलमानसे हिन्दू हो गया। हिन्दू होने के बाद उसने महमूद के सूबेदारों कोहिन्दुस्तान से मार भगाया। जयपाल की हार का
कारण वह मुसलमान होने वालाराजकु मार ही था। चाहे वह सुखपाल रहा हो अथवा कोई और। महमूद इस लड़ाई को जीतअवश्य गया, किन्तु उसे तुरन्त ही हिन्दुस्तान से लौट जाना
पड़ा। इस लड़ाईकी हार से महाराज जयपाल को इतना बड़ा धक्का लगा कि उनका कु छ ही दिनों मेंप्राणन्त हो गया।

जयपालके पश्चात्, उनके बड़े पुत्रआनन्दपालराज्यधिकारी हुए। 396 हिजरी में आनन्दपाल को भी महमूद से युद्ध करना पड़ा।भाटनानामक स्थान में

विजयरावनाम का एक बड़ा वीर राजा राज्य करता था, जो कि जयपाल के सम्बन्धियों मेंसे था। उसने सरहद पर जो मुसलमान हाकिम रहते थे, उनको मार भगाया था। महमूदइसी
बात का बदला लेने के लिए उस पर चढ़के आया। उसकी बहादुरी और युद्ध के सम्बन्ध में ‘गजनवी जहाद’ में हसन निजामी को विवश होकर लिखना पड़ा है कि - “राजा अपनी
फौज और हाथियों की अधिकता के कारण बहुत अभिमान करता था। वह फौजलेकर मुकाबले के लिए निकला। दोनों फौजों में तीन दिन तक अग्नि वर्षा होतीरही।विजयरावकी फौज
ऐसी वीरता और साहस से लड़ी कि इस्लामियों के छक्के छू ट गए।” इस लड़ाई में सुल्तान महमूद को अपनी भुजाओं के बल काविश्वास छोड़कर दरगाह में खुदा और रसूल के आगे
घुटने टेकने पड़े। बेचारे कीडीढ़ा पर मिन्नत के समय टप-टप आंसू गिरते थे। गजनी उसे बहुत दूर दिखलाईदेता था।

विजयरावयुद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ।आनन्दपालने विजयराव के युद्ध में मारे जाने वाली घटना को सुना तो उसने यह निश्चयकर लिया कि अब की बार महमूद भारत पर
चढ़कर के आए, तो उससे अवश्य बदलालूंगा। यही कारण था कि जब 396 हिजरी में महमूद मुल्तान के हाकिम अबुल फतहपर चढ़कर आया तो आनन्दपाल ने अबुलफतह को
मदद दी किन्तु अबुलफतह महमूद के साथ मिल गया। फिर भीआनन्दपालने महाराज का सामना किया। महमूद भी चाहता था कि अब की बार आनन्दपाल के कु लराज्य पर अधिकार
कर लूं, किन्तु हिरात में बगावत हो जाने के कारण उसे लौटजाना पड़ा।

399 हिजरी में महमूद ने आनन्दपाल के राज्य को नष्ट करने के लिए भारतपर फिर से चढ़ाई की। मुसलमानी लेखकों ने इस लड़ाई को बड़ा तूल दिया है औरएक ही बार में महमूद
को सिकन्दर से भी बढ़कर विजेता ठहरा दिया है। मुसलमानलेखक लिखते हैं कि - इस समयआनन्दपालकी सहायताके लिएउज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, कन्नौज, देहली और
अजमेरके तमाम राजा अपनी-अपनी फौजें लेकर आए थे। विश्व विजयी सिकन्दर की सेना की अके लेपॉरुषसे लड़ने के बाद इतनी हिम्मत न रही थी कि वह कोई और दूसरी लड़ाई
लड़ सके , और महमूद जिसे किविजयरावके कारण ही दरगाह की शरण लेनी पड़ी थी, इतने राजाओं पर एक साथ विजयी होगया। जरा बुद्धि रखने वाला लेखक इस बात को सही
नहीं मान सकता है।अजमेरमें उस समयचौहानोंका राज्यथा। यदि वह अके ले भी आनन्दपाल के साथ होते तो यह कभी नहीं हो सकता कि आनन्दपाल हार जाता।आनन्दपालके साथ
जो कु छ भी फौज थी, वह उसके नव सिखुए प्रजाजनों की थी। खेद है किकु छ हिन्दुस्तानी लेखकों ने भी मुसलमान लेखकों की इस डींग को सही मान लियाहै। यह लड़ाई 40 रोज
तक होती रही।

अन्तिम दिन जयपाल के वीर सैनिक मुसलमानी फौज में घुस पड़े और 3-4 हजारमुसलमानों को आंख झपकते तलवारों और बर्छों की नौक पर रख लिया। महमूद के प्राण संकट में
थे, उसे अल्लाह और रसूल एक साथ याद आ रहे थे। वह चाहता थाकि आज लड़ाई मुल्तवी हो जाए कि अचानकआनन्दपाल का हाथी आतिशबाजी से डरकर भाग खड़ा हुआ।
महमूद की यह ऐसी विजय थी जो उसे दैवयोग से मिल गई। 400 हिजरी के करीब जबआनन्दपालमर गया तो उसके बेटेराजपालका पुत्रजयपालभटिंडा का मालिक हुआ। राजपाल
आनन्दपाल के आगे ही मर चुका था। महमूद ने 404 हिजरी में, जबकि जयपाल भटिंडा में मौजूद था, उसकी राजधानी को लूट लिया। जबजयपाल को इसकी खबर लगी तो उसने
महमूद को किलानूहकोटमें जा घेरा, किन्तु महमूद ने उसकी फौज पहुंचने से पहले ही गजनी को कू च करदिया था। इससे अगला आक्रमण महमूद का ग्वालियर का हमला हुआ, तो
जयपाल नेग्वालियरवालों की मदद की। इसे हमद्वितीय जयपालकह सकते हैं। यह जब तक जिन्दा रहा मुसलमानों का सामना करता रहा।

जीवितहैसदियोंपुरानीगूजरयुद्धनृत्यकला
जम्मू-कश्मीर के गूजर देश चेरीटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष मसूद चौधरी कहते हैं, "इस नृत्य मेंगीत संगीत है, युद्ध की गर्जना है, कहीं कोलाहल है तोकहीं गायन में कर्णप्रिय सुर भी...."
- "पेशावर के राजा जयपाल खटाना के पास एक ऐसीब्रिगेड थी जो ध्वनि के ज़रिेए दुश्मन को डराती थी. इसमें बिना हथियारों के जंग का माहौल जीवंतकिया जाता था. मुझे इस
कला पर फक्र है, मैंने खुद भी इसमें भाग लिया है."

973- गजनवी के साथ आया अलबरूनी ने भारतीय पुराणो धर्म विज्ञानका अध्यन किया था फिर‘तहकीक के हिन्द’लिखा|

सन् 1000 ई. से 1055 ई राजा भोजस्वयं बहुत बड़े विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि
विभिन्नविषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियोंको राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया।इनकी
विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुईकहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली।राजा भोजपंवार या परमार राजपूत वंश के नवें राजा थे।[1]परमार वंशीय राजाओं नेमालवाकी
राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था
भोजशाला, राजाभोजद्वारा निर्मितसंस्कृ तअध्ययन का के न्द्र तथासरस्वतीकामन्दिरथा। बीसवीं शदी के आरम्भिक दिनो सेमध्य प्रदेशके धारमें स्थित वर्तमान भोजशाला को विवादित
कामिल मौला मसजिद माना जाने लगा है।। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी कीप्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया जहाँ पर
माँसरस्वती की कृ पा से महराजा भोज ने ६४ प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कीमाँ सरस्वती का प्राकट्य स्थल भोजशाला हिन्दू जीवन दर्शन का सबसे बड़ाअध्यन एवं प्रचार प्रसार का
कें द्र भी थाजहाँ देश विदेश के लाखोंविद्यार्थियों ने १४०० प्रकाण्ड विद्वान आचार्यो के सानिध्य आलोकिक ज्ञानप्राप्त किया । इन आचार्यो में भवभूति, माघ, बाणभट्ट, कालिदास,
मानतुंग, भास्करभट्ट, धनपाल, बौद्ध संत बन्स्वाल, समुन्द्र घोष आदि विश्व विख्यातहै। महाराजा भोज के पश्चात अध्यन अध्यापन का कार्य २०० वर्षो तक निरन्तरजारी रहा।

1143- सूफ़ीवादईराक़के बसरानगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा।जो मुहम्मद के बिगड़े हुए साथियों का एक समूह था| 11 वीं और 12 वीं शताब्दी के बीच भारत में
सूफीवाद का प्रवेश हुआमुल्तान और पंजाब सूफीवाद का प्रारंभिक कें द्र था और 13 वीं और 14 वीं शताब्दी तक, यह कश्मीर, बिहार, बंगाल और दक्कन तक फै ल गया।लेकिन
बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ख़्वाजाबाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे।चिश्ती के बारे में बताते हैं।सिरत अल क़ु तुब के अनुसार इसने 7 लाखहिन्दुवों को अपने
जीवनकाल में मुस्लमान बनाया था।मजलिससूफिया नामक ग्रंथ के अनुसार जब वह मक्काहजकरने गया तो उसे ये निर्देश दिया गया कीवो हिंदुस्तान जाये और वहां पर कु फ्र के
अंधकारको दूरकरके वहां इस्लाम का राज स्थापित करे।मारकतइसरार नमक ग्रंथ के अनुसार इसने तीसरीशादी एक हिन्दू लड़की को जनरन धर्मान्तरित करके की थीवो बेचारी बेबस
किशोरी एक हिन्दू राजाकीपुत्री थी जिसे वह उसके पिता को हराकरजबरन उठा लाया था। इस बेचारी का नाम चिश्ती नेउम्मत अल्लाह रखा इससे हुयी पुत्री का नामहफिजा जमाल
रखा जिसकी मजार चिश्तीकीही दरगाह में मौजूद है।तारिख ए औलिया के मुताबिक ख्वाजा ने अजमेरनरेश पृथ्वीराज चौहान को मुस्लमान बनने कीदावतदी। चौहान के इंकार करने
पर ख्वाजा ने कहा येइस्लाम पर इमान नहीं लाता मैं इसे लश्करेइस्लाम के हवाले जिंदा गिरफ्तार करवा दूंगा। चिश्तीनेमोहम्मद गौरी को भारत पे आक्रमण करनेकोबुलाया। पृथ्वीराज
चौहान ने 16 बार गौरी कोयुद्ध में हराया और हर बार गौरी कु रान की कसमखा के पैरों में पड़ जाता और पृथ्वी उसे मा
कर देतेपर 17 वें युद्ध में वो जयचंद की गद्दारी के कारनपृथ्वी पराजित हुए।पृथ्वी के बाद चिश्ती ने अजमेर के सारेमंदिर तुड़वा दिए और उनके मलबे से एक मस्जिद
बनवाईजिसकानाम है ढाई दिन का झोपड़ा।A furlong beyond the dargah of Khwaja Moinuddin Chisti is the triple temple complex
built by an ancestor of Prithviraj Chauhan. The complex is, for the last 800 years, popularly known as “Adhai Din
Ka Jhopra” (the shed of two and a half days). So called, because the triple or three temples were converted into a
Masjid over only two and a half days चौहान की क़ब्र पर जो भी मुसलमान वहॉ जाता था प्रचलन के अनुसार उनके क़ब्र को वहॉ पे रखे जूते से मारता है।बाद में
शेर सिंह राणा ने अफगानिस्तान जाकर पृथ्वीराज चौहान की कब्र से शव निकालकर उसका अंतिम संस्कार किया और उनकी अस्थियों को हिंदुस्तान लाकर गंगा में प |

THE TURKISH INVASION

फ़िरदौसी (शाहनामा) का जन्म 920 ई. मेंखुरासानके तूस नामक कस्बे में हुआ।असदीनामक कवि ने उसे शिक्षा दी औरकविताकी ओर प्रेरित किया। उसने ईरान के पौराणिक
राजाओं के संबंध में उसे एकग्रंथ दिया जिसके आधार पर फ़िरदौसी ने शाहनामे की रचना की। इसमें 60,000 शेर हैं। वह 35 वर्ष तक इस महान कार्य में व्यस्त रहा और 25
फ़रवरी 1010 ई.को इसे पूरा किया। शाहनामा ) एक महाग्रंथ, जिसकी रचनाफ़िरदौसीने की थी। यहग्रंथफ़ारसी भाषामें लिखा गया है, जिसमेंईरानपर अरबी फ़तह (सन 636)
के पूर्व के शासकों का चरित लिखा गया हैफ़िरदौसी के जीवनकाल में ही उनके संरक्षक शहज़ादे समानीद को सुल्तानमहमूद ग़ज़नवीने हरा दिया था और वह स्वयं ख़ुरासान का
शासक बन गया था।इस समय वह 85 वर्ष का हो चुका था। उसने यह काव्यसुल्तान महमूद ग़ज़नवी को समर्पित किया जिसने 999 ई. में खुरासान विजय करलिया था।

शाहनामे में फ़िरदौसी ने ईरान के पौराणिक बादशाहों की, जिनके कारनामों सेवह अत्यधिक प्रभावित था, बड़ी की प्रशंसा की है। उसकी कविता से प्राचीनईरान के प्रति उसका प्रेम
एवं अरबों के प्रति घृणा का पूरा आभास मिलता है।सभवत: कट्टर मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए उसने बाद में युसुफ़ जुलैखानामक मसनवी लिखी जिसे बवहिद शासक
बहाउद्दौला तथा उसके पुत्र सुल्तानुद्दौलाको समर्पित किया

कहा जाता है किमहमूद गज़नवीने फिरदौसी को यह वचन दिया था कि वह 'शाहनामा' के हर शब्द के लिए एकदीनारदेगा। वर्षों की मेहनत के बाद जब 'शाहनामा' तैयार हो गया और
फिरदौसी उसेलेकर महमूद गज़नबी के दरबार में गया तो सम्राट ने उसे प्रत्येक शब्द के लिएएक दीनार नहीं बल्कि एकदिरहमका भुगतान करा दिया। कहा जाता है इस पर नाराज
होकर फिरदौसी लौट गया औरउसने एक दिरहम भी नहीं लिया। यह वायदा ख़िलाफ़ी कु छ ऐसी थी जैसे किसी कविके प्रति शब्द एक रुपये देने का वचन देकर प्रति शब्द एक पैसा
दिया जाये।फिरदौसी ने गुस्से में आकर महमूद गज़नबी के खिलाफ़ कु छ पंक्तियां लिखी। वेपंक्तियां इतनी प्रभावशाली थी कि पूरे साम्राज्य में फै ल गयीं। कु छ साल बादमहमूद गज़नवी
से उसके विश्वासपात्र मंत्रियों ने निवेदन किया कि फिरदौसीको उसी दर पर भुगतान कर दिया जाये जो तय की गयी थी। सम्राट के कारण पूछनेपर प्रधानमंत्री ने कहा कि हम लोग
साम्राज्य के जिस कोने में जाते हैं हमेंवे पंक्तियां सुनने को मिलती हैं जो फिरदौसी ने आपके विरुद्ध लिखी हैं औरहमारा सिर्फ शर्म से झुक जाता है।

सम्राट ने आदेश दे दिया। दीनारों से भरी गाड़ी जब फिरदौसी के घर पहुंची तोघर के अंदर से फिरदौसी का जनाज़ा निकल रहा था। पूरी उम्र गरीबी, तंगी औरमुफ़लिसी में काटने के
बाद फिरदौसी मर चुका था। कहते हैं कि फिरदौसी कीएकमात्र संतान उसकी लड़की ने भी यह धान लेने से इंकार कर दिया था। इस तरहसम्राट कवि का कर्जदार रहा और आज भी
है। शायद यही वजह है कि आज फिरदौसी काशाहनामा जितना प्रसिद्ध है उतनी ही या उससे ज्यादा प्रसिद्ध वे पंक्तियांहै जो फिरदौसी ने महमूद गज़नबी की आलोचना करते हुए
लिखी थीं।

4. महमूद गजनवी (तुर्की, 1000 AD)महमूद ग़ज़नवी के पिता नेकाबूलघाटी वगांधारको हिन्दुओं से मुक्त करने का प्रण लिया था जिसे उसके उत्तराधिकारी ने कायम रखा|
गजनी के रहने वाले महमूद गजनवी से सबसे पहले पेशावर के हिन्दुशाही राजा को पराजित करके पेशावर पर अधिकार किया। इसके बाद गजनवी ने मुल्तान पर अधिकार किया।
अपने 25 साल के काल में गजनवी ने भारत को लुटने और इस्लाम को फै लाने के लिए 17 आक्रमण किये। महमूद ने पंजाब के नगरकोट और दिल्ली के पास थानेसर नगर को लुटा
और वहां काफी रक्तपात किया। लुटेरा गजनवी यही तक शांत नहीं रहा उसने 1018 में कन्नौज पर भी आक्रमण करके लुटा और

सोमनाथ मंदिर, काठियावाड़, गुजरात - भारत के सबसे भव्य मंदिर गुजरात के सोमनाथ मंदिर का विध्वंस कर दिया। वहां की अकू त संपत्ति सोने जवाहरात को लुटने के लिए
गजनवी को सैकड़ो हाथी और ऊँ टो की आवश्यकता पड़ी थी। गजनवी सोमनाथ का प्रसिद्ध शिवलिंग भी लुट कर ले गया था जो चुम्बक का बना होने के कारण हवा में तैरता था।
गजनवी इसकी कलात्मकता देख कर मन्त्रमुग्ध हो गया था। लुटे गए धन से गजनवी ने अपनी राजधानी में कई भव्य इमारते और मस्जिदे बनवाई।महमूद के मंदिर तोड़ने और लूटने
के बाद गुजरात के राजा भीमदेव और मालवाके राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भीमंदिर निर्माण में सहयोग दिया। 1168 में विजयेश्वर
कु मारपाल और सौराष्ट्रके राजा खंगार ने भी सोमनाथ मंदिर के सौन्दर्यीकरण में योगदान किया था।

सन् 1297 में जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सेनापतिनुसरत खां ने गुजरात पर हमला किया तो उसने सोमनाथ मंदिर को दुबारा तोड़दिया और सारी धन-
संपदा लूटकर ले गया। मंदिर को फिर से हिन्दू राजाओं नेबनवाया। लेकिन सन् 1395 में गुजरात के सुल्तान मुजफ्‍फरशाह ने मंदिर को फिरसे तुड़वाकर सारा चढ़ावालूटलिया।
इसके बाद 1412 में उसके पुत्र अहमद शाह ने भी यही किया।बाद में मुस्लिम क्रू र बादशाह औरंगजेब के काल में सोमनाथ मंदिर को दो बारतोड़ा गया- पहली बार 1665 ईस्वी में
और दूसरी बार 1706 ईस्वी में। 1665 मेंमंदिर तुड़वाने के बाद जब औरंगजेब ने देखा कि हिन्दू उस स्थान पर अभी भीपूजा-अर्चना करने आते हैं तो उसने वहां एक सैन्य टुकड़ी
भेजकर कत्लेआमकरवाया। जब भारत का एक बड़ा हिस्सा मराठों के अधिकार में आ गया तब 1783 मेंइंदौर की रानी अहिल्याबाई द्वारा मूल मंदिर से कु छ ही दूरी पर पूजा-
अर्चनाके लिए सोमनाथ महादेव का एक और मंदिर बनवाया गया।

महमूद गजनवी ने बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करना शुरू किए।उसके आक्रमण धर्मस्थलों को तोडने, मूर्तियों को खण्डित करने के लिये
प्रसिद्ध थे। इनमें सोमनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर और मथुरा, थानेसर,उज्जैनके मन्दिर विशेष हैंदरबार के इतिहासकार अल-उत्बि के अनुसार वें आक्रमण इस्लाम के प्रसार और गैर-
इस्लामिक प्रथाओं के विरुध एकजिहादका हिस्सा थे।[2][3][4]के वलमथुरासे ही उसने ५००० हिन्दुओं को गुलाम बनाया
उसनेभारत पर 1001 से 1026 ई. के बीच 17 बार आक्रमण किए। उसने प्रत्येक वर्षभारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करने की प्रतिज्ञा की। आक्रमण कर वहां खूबलूटपाट,
मारकाट और धर्मान्तरण किया।

माना जाता है कि महमूद गजनवी नेअपना 16 वां आक्रमण (1025 ई.) सोमनाथ पर किया। उसने वहां के प्रसिद्धमंदिरों को तोड़ा और वहां अपार धन प्राप्त किया। इस मंदिर को
लूटते समयमहमूद ने लगभग 50,000 ब्राह्मणों एवं हिन्दुओं का कत्ल कर दिया।
https://www.speakingtree.in/allslides/somnath-temple-the-history-of-neverending-glory
अल बरुनी, जोकि महमूद का समकालीन था उसके अनुसार महमूद ने इस इलाके को इतना प्रभावित किया कि सभी हिन्दू इस इलाके को छोड़ कर चले गये औरकश्मीर,वाराणसीव
अन्य स्थानो में चले गये जहां हमारे हाथ नहीं पहुँच सकते

the conquest of Afghanistan in the year 1000 was followed by the annihilation of the Hindu population; the region is
still called the Hindu Kush, i.e. Hindu slaughter.”

The book ‘Tarikh-i-Yamini’ – written by his secretary documents several episodes of his bloody military
campaigns : “The blood of the infidels flowed so copiously [at the Indian city of Thanesar] that the stream was
discoloured, notwithstanding its purity, and people were unable to drink it…the infidels deserted the fort and tried to
cross the foaming river…but many of them were slain, taken or drowned… Nearly fifty thousand men were killed.”

कल्हण ने भीम देव शाही के बाद एक ठक्कन नाम के शाही शासक का ज़िक्र किया हैं| जिसका झुकाव कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक की तरफ था| यह संभवतः जयपाल शाही का
दादा था| मशहूर एथ्नोलोजिस्ट एच. ए. रोज के अनुसार पंजाब के खटाना गुर्जर जयपाल शाही और उसके पुत्र आनन्दपाल को अपना पूर्वज मानते हैं| फ़रिश्ता (1560-1620
ई.) के अनुसार महमूद गजनवी के आक्रमण के समय जयपाल शाही वंश का शासक था| उसके पिता का नाम इश्तपाल था| उसका राज्य लमघान से सरहिन्द तथा कश्मीर से
मुल्तान तक विस्तृत था| वह वाई हिन्द के किले में रहता था| 982-83 में लिखे गए एक अरबी ग्रन्थ हुदूद-उल-आलम के अनुसार जयपाल शाही (965-1001 ई.) कन्नौज के
शासक (राय) का सामंत था| ऐसा प्रतीत होता हैं कि अभी तक भी कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारो की उत्तर भारत के सम्राट के रूप में प्रतिष्ठा शेष थी| सभवतः इसी प्रतिष्ठा के आधार
गजनबीकापहलाआक्रमण 1001 ई o मेंशाहीराजवंशपरहुआ।गजनबीकासमकालीनएकभारतीयशासकजयपालथाजिसनेगजनबीसेहारनेके बादआत्महत्याकरलीथी।

1004 मेंउसनेमुल्तानपरआक्रमणकिया।

1010 मेंगजनबीनेनगरकोटकोलूटातथातलवाड़ीके युद्धमेंहिन्दूराजाओंके संघकोपराजितकिया।

1014 मेंथानेश्वरके मंदिरकोलूटा।

1015  मेंकश्मीरकादुर्गजीतनेकाप्रयासकियापरन्तुअसफलरहा।इसकासमकालीनशासकराजपालअपनीराजधानीकन्नौजछोड़करभागगया।

1019 मेंकालिंजरके दुर्गपरघेराडाला।

1022 मेंपंजाबकोअपनेगजनीसाम्राज्यमेंशामिलकरलिया।

1025 कासोमनाथकाआक्रमणमध्यकालीनइतिहासकीबहुतमहत्वपूर्णघटनाहैइसआक्रमणमेंगजनबीकोअपारधनकीप्राप्तिहुयीइसआक्रमणमेंमंदिरकोभीकाफीहदतकध्वस्तकरदियागया।
उससमयगुजरातकाशासकभीमप्रथमथाजिसनेबादमेंइसमंदिरकापुनर्निर्माणकराया।

1027 मेंजाटोंकाविद्रोहहुआजिसकादमनकरनेके लिएगजनबीअंतिमबारभारतआया।

1030 मेंगजनबीकीमृत्युहोगयी।

The Bahamani Sultans had an annual agenda of killing a minimum of 100,000 Hindus every year.

The Afghan ruler Mahmud al-Ghazni invaded India no less than seventeen times between 1001 – 1026 AD. The
book ‘Tarikh-i-Yamini’ – written by his secretary documents several episodes of his bloody military campaigns :
“The blood of the infidels flowed so copiously [at the Indian city of Thanesar] that the stream was discoloured,
notwithstanding its purity, and people were unable to drink it…the infidels deserted the fort and tried to cross the
foaming river…but many of them were slain, taken or drowned… Nearly fifty thousand men were killed.”

In the contemporary record – ‘ Taj-ul-Ma’asir’ by Hassn Nizam-i-Naishapuri, it is stated that when Qutb-ul- Din
Aibak (of Turko – Afghan origin and the First Sultan of Delhi 1194-1210 AD) conquered Meerat, he demolished all
the Hindu temples of the city and erected mosques on their sites. In the city of Aligarh, he converted Hindu
inhabitants to Islam by the sword and beheaded all those who adhered to their own religion.

मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसारहिन्दूशाही की लूट का माल जब गजनी में प्रदर्शित किया गया था तो पड़ोसीमुल्कों के राजाओं की आंखें फटी की फटी रह गईं। भीमनगर
(नगरकोट) से लूटकरले गए माल को गजनी तक लाने के लिए ऊं टों की कमी पड़ गई थी।

https://haribhakt.com/where-mohammad-ghazni-made-mythical-allah-slave-of-bhagwan-shiv/ शिवजी

5.  मुहम्मद गौरी (तुर्की, 1182 AD)तुर्कों का दूसरा आक्रमण 1182 में हुआ जब भारत की सम्पन्नता देख कर और इस्लाम के प्रचार प्रसार की चाहत में मुहम्मद गौरी ने
भारत पर आक्रमण किया। लेकिन दिल्ली व् अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को कई युद्धों में परास्त कर दिया। अपने 17 वे आक्रमण में मुहम्मद गौरी ने छल से पृथ्वीराज
चौहान को हरा कर नगर का नगर लुट लिया और भयानक नरसंहार करता हुआ पृथ्वीराज चौहान को बंदी बना कर अपने देश ले गया। पृथ्वीराज चौहान ने बड़ी ही चालाकी से गौरी
की हत्या करने के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली थी।  गौरी के आक्रमणों से तुर्कों ने गंगा के तराई क्षेत्र बिहार बंगाल तक अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया था।लालकिला उस
समय लालकोट के नाम से प्रसिद्घ था। पूरे दुर्ग में अपने महाराज के वीरगति प्राप्त हो जाने के कारण सन्नाटा छाया हुआ था।इसलिए उन्होंने जौहर के लिए तैयारियां करानी आरंभ कर
दीं। विशाल चिता कानिर्माण दिल्ली के इस लालकिले में होने लगा। उधर कु तुबुद्दीन ऐबक जो किमौहम्मद गोरी का सेनापति था दिल्ली के लालकिले को ध्वस्त कर उसमें छिपीमहारानी
संयोगिता सहित हजारों हिंदू महिलाओं को लेने का सपना संजोकर किलेकी ओर चल दियाकिले के चारों ओर आज भी एक गहरी खाई है, इस खाई में से उस समय यमुना की धारा
का प्रवाह होता था।कु तुबुद्दीन ने अपने सैनिकों को आदेशित किया कि जितने भर भी हिंदू नागरिकगुलाम के रूप में गिरफ्तार किये गये हैं, उन्हें सभी को खाई में डाल करइसका
भराव कर दो और उन जिंदा गुलामों की लाशों के ऊपर चढ़कर किले की दीवारलांघने का प्रयास किया जाए। ये गुलाम वही हिंदू थे में जिन्होंने अपना धर्मऔर अपनी संस्कृ ति ना
छोड़कर आजीवन गुलाम रहकर असीम यातनाओं का जीवन जीनाभी स्वीकार कर लिया था। आज उन्हें ही मृत्यु अपने सामने दीख रही थीपरंतु किसी भी हिंदू वीर ने खाई में
फें ककर अपने प्राणों की रक्षार्थस्वधर्म के परित्याग करने की बात नही कही। हैं ना रोमांचकारी क्षण।महारानी संयोगिता ने किले में प्रवेश के लिए बने पुल को तुड़वा दिया था,
जबमहारानी के आदेश से पुल तोड़ा जा रहा था, तब किसे पता थी कि नया पुल जोबनेगा उसके लिए कितने हिंदू वीरों को अनाम शहीद के रूप में शहादत का जामपीना पड़
जाएगा? यद्यपि इन वीरों को पता था कि तुम्हारी लाशों पर से गुजरकर रानी और उनकी हजारों सहेलियों का शीलभंग करने के लिए तुर्क भीतर जाएंगेहमारे कितने ही अनाम शहीदों
ने लालकिले के बाहर की खाई को अपने जिंदाशरीरों से भर दिया। उनकी जिंदा लाशों पर से हाथियों को निकालकर किले के दरवाजों को तोडऩे का प्रयास हाथियों से कराया गया।
परंतु किले के दरवाजोंमें भारी कीलें लगी होने के कारण हाथी भी लहूलुहान होकर किले के फाटकों मेंटक्कर मारने से पीछे हटने लगे। तब कु छ तुर्क सैनिकों ने किले की दीवार
परचढऩे का प्रयास किया, जिन्हें दूसरी ओर बैठे हमारे वीर हिंदू सैनिकों नेमार गिराया। अंत में किले के फाटकों में लगी, कीलों के सामने जयचंद के पुत्र धीरचंद को खड़ा किया गया
और धीरचंद्र के शरीर में हाथियों ने टक्करमारी। प्रबल प्रहार के कारण धीरचंद तो फाटकों में चिपक गया, पर किले काफाटक भी टूट गया।

हाथ मलता रह गया कु तुबुद्दीनपर भीतर तो कु छ भी नही था महारानी संयोगिता रानी पृथा और हजारों हिंदूवीरांगनाएं अपने अपने पतियों के पास स्वर्ग में जाकर शत्रु से अपने बचने
कीशौर्यपूर्ण कथायें बता रही थीं और शत्रु उनकी चिताओं पर खड़ा हाथ मल रहाथा।

काशी विश्‍वनाथ मंदिर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश - हाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। 1100 ईसा पूर्व राजा हरीशचन्द्र नेजिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था
उसका सम्राट विक्रमादित्य नेपुन: जीर्णोद्धार करवाया था। इस मंदिर को 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटनेके बाद तुड़वा दिया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे
सन्1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया।

इसके सिक्को पर एक ओर कलमा खुदा रहता था और दूसरी ओर लक्ष्मी की आकृ ति।

 इसका पहला आक्रमण 1175 में कर्मठी जाति के शियाओं(मुल्तान) पर हुआ।


 1178 में गुजरात पर आक्रमण किया तब यहाँ का शासक मूलराज/भीम द्वितीय थाजिसने गोरी को पराजित किया। यह भारत में गोरी की प्रथम पराजय थी।
 1179 में गोरी का अगला आक्रमण पंजाब पर हुआ जहाँ गजनी वंश का अंतिम शासक खुशरोशाह शासन कर रहा था।
 1185 में गोरी ने स्यालकोट पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया।
 1188 में गोरी ने भटिंडा अभियान किया और ताबिरहिंद के किले को जीत लिया।
 1191 में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ जिसमे गोरी हार गया और बुरी तरह घायल हो गया तब एक खिलजी अधिकरी ने गोरी की जान बचा ली।
 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई हुयी जिसमे गोरी विजयी हुआ और इसके बादपृथ्वीराज का क्या हुआ यह विवादस्पद मुद्दा है जिसके सम्बन्ध में 3 मतप्रचलित है।
 1194 में चंदावर की लड़ाई में कन्नौज के शासक जयचंद को हराया।
 1197 में ऐबक ने गुजरात की राजधानी अनिलहवाड़ को लूटा और इसी लूट के पैसे से उसने इल्तुतमिश को खरीदा।
 1202 में ऐबक ने चंदेल शासक परमर्दिदेव को पराजित किया।
 1205 में गोरीअँधखुद के युद्ध में ईरान के ख्वारिज्मशासक से बुरी तरह पराजित हो गया और अब इसने पूरी तरह से भारत पर सत्ताकायम करने का मन बना लिया
उसी समय पंजाब में खोक्खरों ने विद्रोह कर दियाजिसे दबाने गोरी भारत आया और खोक्खरों का नरसंहार किया।

मृत्यु-सिंधु नदी के तट परदमयकनामक स्थान पर नमाज पढ़ते समय 15 मार्च 1206 को किसी ने इसकी हत्या कर दी।

जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला–

बेला शूरवीर पृथ्वीराज चौहान की बेटी थी और कल्याणी जयचंद की पौत्री थी।पृथ्वीराज चौहान जहां देशभक्त और राष्ट्र प्रेमी थे, वही जयचंद एक गद्दारथा। लेकिन जयचंद की पौत्री
कल्याणी राष्ट्रभक्त थी, और पृथ्वीराज चौहान कीबेटी बेला की सखी थी। ये बात उन दिनों की है जब मुहम्मद गौरी भारत को लुटरहा था। हमारे देश के खजाने को लूट कर वह अपने
वतन ले जा रहा था। उस समयमुहम्मद गौरी की नजर बेला और कल्याणी पर पड़ी,  तो वह उन दोनों को जबरदस्तीअपने साथ अपने वतन ले गया।

गौरी जैसे ही अपने वतन पंहुचा तो उसके काजी ने कहा आओ गौरी हमें तुम परनाज है,  कि तुमने हिन्दुस्तान पर फतह करके इस्लाम का प्रचार किया है. बताओसोने की चिड़िया
हिंदुस्तान के कितने पर काट कर लाए हो। काजी निजामुल्क के पूछने पर गौरी ने कहा कि मै हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के , पचास लाख चार सौ मन
सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवानआभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रा और ढाके की मल-मल कीलूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं। मंदिरों को
लूटकर 17000 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमतीपत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों कोनेप्था
और आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है. बहुत से लोगों को इस्लाम कागुलाम बनाकर आया हूँ.

हिन्दूस्तान से बंदियों को गुलाम बनाकर भी लाया हूँ। इन गुलामो कीसार्वजनिक बिक्री की जाएगी, और कई मुस्लिम देशो में इन बंदियों को बेचाजायेगा. ये सुनते ही काजी ने गौरी की
तारीफ करी और कहा कि हमारे लिए कोईखास तोहफा लाए हो या नहीं. गौरी ने हा कहा और बताया कि दो जन्नत की हूरोंसे भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज
चौहान की पुत्री बेला कोबंदी बनाकर लाया हूँ.
काजी की इजाजत पाते ही शहाबुद्दीन गौरी ने कल्याणी और बेला को काजी के सामने लाकर खड़ा कर दिया। कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजीअचम्भे में आ
गया, उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं। उसने दोनों सेनिकाह करने को कहा और उनके मना करने पर उनसे जबरदस्ती सम्बन्ध बनाने कोबोला. तो बेला और कल्याणी ने
काजी से कहा हम दोनों आपसे निकाह करने के लिएतैयार है. लेकिन हमारी दो शर्तें हैं. काजी ने कहा कि कहो क्या शर्तें हैंतुम्हारी ?  तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त
मानने के लिए तैयारहूं। दोनों राज कु मारियों ने कहा. पहली शर्त तो ये है कि शादी होने तक हमेंअपवित्र न किया जाए, और दूसरी शर्त है कि हमारे यहां प्रथा है कि लड़के के लिए
लड़की के यहां से विवाह के कपड़े आते हैं। अतः दूल्हे का जोड़ा भारत सेआयेगा। काजी ने कहा की मुझे मंजूर है.

बेला और कल्याणी ने भारत में कवि चंद के नाम एक रहस्यमयी खत लिखा, औरभारत भूमि से काजी के लिए दूल्हे का जोड़ा मंगवा लिया। काजी के साथ बेला औरकल्याणी के
निकाह का दिन निश्चित हो गया। रहमत झील के किनारे बनाए गए नएमहल में निकाह की तैयारी शुरू हुई। कविचंद द्वारा भेजे गये कपड़े पहनकरकाजी  विवाह मंडप में आया।
निकाह को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठीहो गयी थी। तभी बेला ने काजी से कहा हमारे होने वाले सरताज हम कलमा औरनिकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से
दर्शन देना चाहती हैं, क्योंकि विवाहसे पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है, और फिर गजनी वालों कोभी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से
निकाह कर रहेहैं। निकाह के बाद तो हमें जीवन भर बुरका पहनना ही है. तब हमारी सुंदरताका होना न के बराबर ही होगा।

इस पर काजी ने कहा हां हां क्यों नहीं। काजी ने उत्तर दिया और कल्याणीऔर बेला के साथ राजमहल के कं गूरे पर गया, लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते हीकाजी के दाहिने कं धे से आग
की लपटें निकलने लगी, क्योंकि कविचंद ने बेला औरकल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजेथे। काजी विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-
उधर भागने लगा, तब बेला नेउससे कहा तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था, हमनेतुझे मारने का षड्यंत्र रचकर अपने देश को लूटने का बदला ले
लिया है। हमेहिंदुत्व प्यारा है, हम हिन्दू कु मारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जोजीते जी हमारे शरीर को हाथ भी लगा दे।

कल्याणी बोली तुम बड़े मजहबी बनते हो अपने धर्म को शांतिप्रिय धर्म बतातेहो. जेहाद का ढोल पीटने के नाम पर लोगों को लूटते हो और शांति से रहनेवाले लोगों पर जुल्म ढाहते
हो, थू धिक्कार है तुम पर इतना कहकर उन दोनोंबालिकाओं ने महल की छत के बिल्कु ल किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती मेंविष बुझी कटार जोर से भोंक दी और उनके
प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचेलुढ़क गये। पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी तड़प-तड़प कर मर गया।

भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पराधीन रहते हुए भीबलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह सराहने योग्य है आज सारा भारत इनबेटियों के बलिदान को
श्रद्धा के साथ याद करता है।

http://sudarshannews.in/samachar/national/know-who-was-bela-and-kalyani-who-had-killed-akhata-gauris-kazi-for-
the-sake-of-protecting-hindutva-she-committed-suicide-2073/

Jaichand (1192 AD)


Jaichand was ruler of Kannauj (UP). He had a daughter named Samyogita. Prithviraj Chauhan (King of Ajmer and
Delhi) and Samyogita fell in love. Prithviraj raided Kannauj and took Samyogita with him. Jaichand wanted to take
revenge so he helped Md. Ghori in second battle of Tarain. Prithviraj was defeated and killed.
Jaichand laid foundation of Muslim invaders (later rulers) in India.

गुलाम वंश (1206-1290)


क़ु तुबुद्दीन ऐबक़ लाहौर के शासक मोहम्मद गोरी का ग़ुलाम था। मोहम्मद गोरीकी मौत के बाद क़ु तुबुद्दीन ऐबक़ ने ख़ुद को लाहौर का शासक घोषित कर दिया। 24 जून 1206 को
लाहौर में उसकी ताजपोशी हुई। दिल्ली के प्रसिद्ध चिश्तीसन्त शेख क़ु तुबुद्दीन बख़्तियार काकी से अगाध प्रेम होने की वजह सेक़ु तुबुद्दीन ऐबक़ ने अपनी राजधानी को लाहौर से दिल्ली
लाने का फ़ै सलाकिया। इससे दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई।मुहम्मद गौरी खुद के द्वारा फतह किए गए राज्यों की जिम्मेदारी को उसने अपने गुलाम कु तुबुद्दीन ऐबक को सौंप दी और
वह खुद गजनी चला गया। 1206 से 1290 ई. के मध्य 'दिल्ली सल्तनत' पर जिन तुर्क शासकों द्वारा शासन किया गया उन्हें गुलाम वंश का शासक कहा जाता है। गुलाम वंश का
प्रथम शासक कु तुबुद्दीन ऐबक था। उसने 1194 ई. में अजमेर को जीतकर यहांयहां पर स्थित जैन मंदिर एवं संस्कृ त विश्वविद्यालय को नष्ट कर उनके मलबे पर क्रमशः ‘कु व्वल-
उल-इस्लाम’ एवं ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ का निर्माण करवाया। इसके अलावा उसने दिल्ली स्थित ध्रुव स्तंभ के आसपास कोनक्षत्रालयों को तोड़कर बीच के स्तंभ को 'कु तुबमीनार'
नाम दिया। आरामशाह, इल्तुतमिश, रुकु नुद्दीन फिरोजशाह, रजिया सुल्तान, मुइजुद्दीन बहरामशाह, अलाउद्दीन मसूद, नसीरुद्दीन महमूद। इसके बाद अन्य कई शासकों के बाद
उल्लेखनीय रूप से गयासुद्दीन बलबन (1250-1290) दिल्ली का सुल्तान बना। गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक शासन किया। दिल्ली पर यह प्रथम मुस्लिम शासक था। इस
वंश का संपूर्ण भारत नहीं, सिर्फ उत्तर भारत पर ही शासन था। DEATH OF 100,000 Hindu . मुस्लिम इतिहासकार मौलाना हाकिम सैयद अब्दुल हाजी के विवरण
के अनुसारऐबकके शासन में धर्मान्धता के अन्तर्गत हिन्दू,जैन,बौद्ध पूजास्थलों को तोडागया। दिल्ली की पहली मस्जिद क़ु व्वत अल इस्लाम के निर्माण में २० हिन्दू, जैन मन्दिरों के
अवशेषो का इस्तेमाल किया गया था।क़ु तुब मीनारके आसपास भी पुरातन मन्दिर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैंAibak had to face a serious rebellion in
Rajasthan that was suppressed. Thereafter Aibak attacked Anhilwara in Gujarat in 1197 A.D. and defeated
Bhima II. He also conquered Badaun, Benares and Chandawar and consolidated the conquest at Kannauj. One of the
most important conquests of Aibak was that of Bundelkhand. Aibak attacked in 1203 A.D. the fort of Kalinjar that
was regarded impregnable. Aibak was successful in ousting the Chandellas and occupying the region. He also
occupied Mahoba and Khajuraho

Qutb-ul- Din Aibak (of Turko – Afghan origin and the First Sultan of Delhi 1194-1210 AD) conquered Meerat, he
demolished all the Hindu temples of the city and erected mosques on their sites n the city of Aligarh, he converted
Hindu inhabitants to Islam by the sword and beheaded all those who adhered to their own religion

1. General Qutb-ud- din Aibak. - introduced coins of Tanka (silver) and Jital (copper). The famous Qutub Minar was
completed during his reign. इस टॉवर का नाम विष्णु ध्वज या विष्णु स्तम्भ याध्रुव स्तम्भके तौर पर जाना जाता था जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह खगोलीय प्रेक्षण
टॉवर था।पास में ही जंग न लगने वाले लोहे के खम्भे पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृ त में लिखा है कि विष्णु का यह स्तम्भविष्णुपाद गिरि नामक पहाड़ी पर बना था। इस विवरण से साफ
होता है कि टॉवर के मध्य स्थित मंदिर में लेटे हुए विष्णु की मूर्ति को मोहम्मद गोरी और उसके गुलाम कु तुबुद्दीन ने नष्ट कर दिया था। खम्भे को एक हिंदू राजा की पूर्व औरपश्चिम में
जीतों के सम्मानस्वरूप बनाया गया था।एक कट्‍टर मुस्लिम और विद्वान सैयद अहमदखान स्वीकार करते हैं कि यह मीनार एक हिंदू इमारत है। अगर आप टॉवर के शीर्षपर एक
एयरोप्लेन से देखें तो आपको विभिन्न गैलरियां ऊपर से नीचे तक एकदूसरे में फिसलती नजर आती हैं और ये एक 24 पंखुड़ी वाले किसी पूरी तरह सेखिले कमल की तरह दिखाई
देती हैं।  विक्रमादित्य के काल से भी पुरारना हैं

कु तुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और उदयपुर के 'राजकुं वर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया। कुं वर का 'शुभ्रक' नामकएक स्वामिभक्त घोड़ा था. जो
कु तुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ लेगया।

एक दिन कै द से भागने के प्रयास में कुँ वर सा को सजा-ए-मौतसुनाई गई.. और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया। यह तय हुआ किराजकुं वर का सिर काटकर उससे
'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने कातरीका कु छ और ही था) खेला जाएगा.कु तुबुद्दीन ख़ुद कुँ वर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के
साथ 'जन्नत बाग' में आया।

'शुभ्रक' ने जैसे ही कै दी अवस्था में राजकुं वर को देखा, उसकी आंखों से आंसू टपकनेलगे। जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँ वर सा की जंजीरों को खोला गया, तो'शुभ्रक' से
रहा नहीं गया.. उसने उछलकर कु तुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दियाऔर उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कु तुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए! इस्लामिक
सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए. मौके काफायदा उठाकर कुं वर सा सैनिकों से छू टे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए। 'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी. लाहौर से उदयपुर बिना
रुके दौडा और उदयपुर में महलके सामने आकर ही रुका!

राजकुं वर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्वको पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था..उसमें प्राण नहीं बचे थे। सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक'
का निष्प्राण शरीरलुढक गया.फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कु तुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

2. Iltutmish (1210 AD - 1236 AD), son-in-law of Aibak - जिस कुं ड में कभी 1400 से ज्यादा औरतें मुस्लिम सैनिकों से अपनीइज्जत बचाने के लिए
जौहर कर के जिंदा जल गई थीं, आज वहां कचरा फें का जा रहाहै। यह जौहर कुं ड ग्वालियर किले में बना हुआ है। यहां साल 1232 मेंअफगानिस्तान से आए इल्तुतमिश ने हमला
किया था। उस समय ग्वालियर में कच्छपघाट (कछवाहा) राजवंश का शासन था। इस युद्ध में हार की खबर मिलते ही रानियोंऔर सैनिकों की पत्नियों सहित कु ल 1400 महिलाओं
ने कुं ड में आग लगाकर जौहरकिया था।In 1234-35 A.D. lltutmish attacked Malwa and plundered Bhilsa and Ujjain. In 1229 the
Abbasid Caliph of Baghdad sent a robe of honour.

3. Iltutmish finally nominated his daughter Raziya (1236 AD - 1239 AD) to the throne. Raziya was the First and
only Muslim ladyto sit on Delhi Throne

The Rajput rulers of Jalore, Ranthambore Gwaliorand Ajmer became independent and Turkish power was
thrown out of the doab.

Bakthiyar's (illiterate tribal war-lord from Afghanistan & general of Qutubuddin Aibak) invasion of Bihar 1202-
was the first Muslim conqueror and ruler of the regions of Bengal and Bihar. the Islamic missionaries achieved their
greatest success in terms of dawah and number of converts to Islam.A contemporary historian, Minhaj-i-Siraj (1193
CE) , mentions how due to his ‘short stature’ and ‘‘arms extending beyond the knees’,Khilji was rejected from
military service. Undeterred, he tried his luck, first in the court of Ghazni, and after being rejected there toohe
approached Muhammad Ghori in Delhi. But he was turned away yet again. According to Minhaj, this was ‘due to
his slender appearance’.Khilji then went to Badaun, where he found employment with a local Turkic administrator,
Malik Mashamuddin, and to Awadh, where he was granted a jagir. एक घोड़े और चंद हथियारों के साथ अवध मेंनौकरी के लिए एक जाहिल
भिखारी की तरह आया बख्तियार बंगाल की लूट के दम परअब एक नई फौज खड़ी कर रहा था, जिसमें 10,000 सवार थे। ये सब स्थानीय लोग थे, जिनके लिए धर्मांतरण के
साथ ही ‘जॉब’ के नए अवसर खुल रहे थे। मिनहाज़सिराज ने इस इलाके में हुआ पहला धर्मांतरण दर्ज किया है–

“बंगाल से तिब्बत के बीच तीन जातियों के लोगपाए जाते हैं- कू च, मीच और तहारू। इनका रंग तुर्कीं लोगों जैसा है, लेकिनभाषा बिल्कु ल अलग है। कू च और मीच जाति के एक
प्रभावशाली नेता ने बख्तियारके कहने पर इस्लाम कु बूल कर लिया है। वह अली मीच के नाम से मशहूर है।”

धर्मांतरण का आत्मघाती असर कै से शुरू हुआ, अबयह देखिए। मीच जाति के ‘अली’ बने इस शख्स का नाम इस्लाम कु बूल करने के पहले क्या था, यह ज्ञात नहीं है। अब यह नया
मुसलमान अपना धर्म बदलवाने वालेमुहम्मद बख्तियार को आगे पहाड़ी इलाकों की फतह के लिए ‘लोकल गाइड’ बनने के लिए तैयार हो गया। मिनहाज़ सिराज की ‘ग्राउंड रिपोर्ट’-

“वह बख्तियार को बुरघन कोट नाम के एक शहर तकलेकर गया। इस शहर के सामने एक बहुत बड़ी नदी है, जिसका नाम बंगमती (ब्रह्मपुत्र या तीस्ता) है। यह गंगा नदी से तीन गुना
बड़ी और गहरी है। अलीमीच इस्लामी सेना को उस नदी के चढ़ाव की ओर ले गया।

10 दिन में पहाड़ के बीच एक ऐसी जगह पर पहुँचगया, जहाँ कटे हुए पत्थरों का एक बहुत पुराना पुल बना था। इस पुल में बीससे तीस मोरियां थीं। दो सरदारों को इस्लामी सेना की
वापसी तक उस पुल कीहिफाजत के लिए छोड़कर रखा गया। इनमें से एक सरदार तुर्क था और दूसरा खिलजी।बख्तियार ने सेना सहित पुल पार कर लिया है।”

बख्तियार ने बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया है, यहखबरें आज के असम (तब कामरूप) के तत्कालीन हिंदू राजाओं तक पहुँचीं। मगर वेसिर्फ हालातों पर नज़र बनाए रहे, क्योंकि अब
लखनौती जाकर करने को कु छ बचानहीं था।

अगर नबद्वीप के राजा या आम लोग पहले से सतर्क होते और कोई मदद कामरूप से मांगते तो मुमकिन है कि नालंदा को तबाह करके नबद्वीप की तरफ बढ़ रहे बख्तियार का सामना
बंगाल की सोने जैसी जमीन पर एकसंयुक्त हिंदू सेना से हुआ होता।

नबद्वीप वालों ने धोखे से ऐसे किसी हमले की कभी कल्पना ही नहीं होगी, इसलिएउनकी तात्कालिक तैयारी भी नहीं थी और एक झूठी अफवाह के साथ सिर्फ 18 सवारों को लेकर
नबद्वीप में दाखिल हुए बख्तियार ने वहाँ के राजा को भूखाभागने पर मजबूर कर दिया।

वह खुली डकै ती थी। कोई चुनौती देकर राज्य के सामने आया नहीं था। जंग की कोईवजह ही नहीं थी। बस खूनी लुटेरों का एक झुंड हथियार छु पाकर महल तक पहुँचाऔर
कत्लेआम शुरू कर दिया।

दिल्ली के पतन की खबरों ने बिहार को कोई सबकनहीं सिखाया। वहाँ बौद्ध विश्वविद्यालयों में 600 सालों से भारत अपनी नईपीढ़ी को गढ़ रहा था। एक ऐसी पीढ़ी जिसमें हिंसा की
जगह शांति के पाठ ऊपर थे।लालच की जगह त्याग के सबक पहले थे। बुद्ध की शिक्षाएँ मानव को महामानवबनाने की थीं। लेकिन अब दिल्ली की तरफ से ‘अति मानव’ झपट रहे थे।

बिहार-बंगाल के रिकॉर्ड में बख्तियार खिलजीपहला नामजद झपट्‌टेमार है। इन शैतानी ताकतों से उनकी ही भाषा में निपटने के कोई उपाय नालंदा-विक्रमशिला की लाखों
पांडु लिपियों में दर्ज नहीं हीहोंगे! वहाँ तो गौतम बुद्ध की करुणा और शांति हर तरफ महक रही थी, जिसेबख्तियार ने राख और धुएं के दमघोंटू बवंडर में बदल दिया।

अब आप तिब्बत की तरफ पहाड़ों तक जा पहुँचे बख्तियार के आसपास ध्यान दीजिए।वह जिस पुल को पार कर रहा है, वह कटे हुए पत्थरों से बना है। उसमें 20 सेअधिक मोरियाँ
हैं। ब्रह्मपुत्र या तीस्ता जैसी तेज बहाव वाली बड़ी पहाड़ी नदीपर ऐसा पुल 800 साल पहले बनाने की तकनीक और हुनर बंगालियों के पुरखों (आजके बंगाली मुसलमानों के पुरखे
यही हिंदू और बौद्ध थे) के पास था, जिससे 10,000 की एक फौज अपने हाथी-घोड़ों और भारी-भरकम साजो-सामान के साथ पार कररही है।

असम या कामरूप के राय को जब इस्लामी सेना के पार करने की खबर मिली तो उसने अपने भरोसेमंद नुमाइंदों के हाथों एक संदेशभेजा। बख्तियार के पास उन्होंने यह संदेश पढ़ा-
तिब्बत पर इस वक्त हमला ठीकनहीं है। इस वक्त आप लौट जाएँ। पुख्ता तैयारी करें। मैं कामरूप का राय इसबात का वचन देता हूँ कि दूसरे साल अपनी सेना तैयार करके मुसलमानों
की सेनासे आगे बढ़कर उस इलाके को जिता दूँगा।

लेकिन बख्तियार को ऐसी किसी सलाह की ज़रूरतनहीं थी, जो उसे पीछे हटने को कहे। वह तिब्बत की तरफ तेज़ी से बढ़ता गया।उसे और अधिक मालामाल इलाकों की तलाश
थी।
नदी पार करने के 15 दिन तक सेना पहाड़ीऊँ चे-नीचे और घुमावदार रास्तों को पार करती हुई, 16 वें दिन तिब्बत पहुँची।वो इलाके पूरी तरह आबाद थे। लोग खेती करते थे। वे
एक ऐसी जगह पहुँचे, जहाँएक मज़बूत किला था।

जैसा कि अब तक हर जगह होता आया था, इस्लामीसेना ने पहुंचते ही लूटमार मचा दी। ताबड़तोड़ स्थानीय लोग अपने बचाव के लिएइकट्‌ठा हो गए और अब वे एक थोपी गई
आमने-सामने की लड़ाई में दूसरा पक्ष थे, जिसे इन इस्लामी हमलावरों के बारे में कोई परिचय तक नहीं था। मिनहाज सिराजने उस दिन का ब्यौरा इन शब्दों में दर्ज किया है–

“सुबह से शाम की नमाज तक जबर्दस्त युद्ध हुआ।इस्लामी सेना की बहुत बड़ी संख्या मारी गई। बहुत लोग जख्मी हो गए। दुश्मनोंके पास बाँस के टुकड़ों के भाले थे। ढाल थे और वे
कच्चे रेशम से बांधकरबनाए हुए रक्षा कवच पहने हुए बहादुरी से लड़ रहे थे। सब धनुष चलाने मेंमाहिर और बड़ी-बड़ी कमानें संभाले हुए थे।”

बेफिक्र मुहम्मद बख्तियार को इस दूरदराजइलाके में ऐसे तगड़े जवाबी हमले का कतई अंदाज़ा नहीं था। वह अपनी आँखों के सामने हो रही इस्लामी सेना की फजीहत से परेशान हो
गया। फौरन उसने अपनेअमीरों से मशविरा किया। हालात को देखते हुए सबने एक ही राय दी कि इस वक्तलौटना ही मुनासिब है। दूसरे साल फिर हमला करना चाहिए।

कोई दूसरा रास्ता नहीं था। बुरी तरह मार खाकरजब वे बेदम होकर वापस हुए तो पूरे रास्ते में उनका इस्तकबाल भी गजब हुआ।वापसी के दो हफ्तों का हाल मिनहाज़ सिराज बता
रहा है-

“15 दिन में एक सेर अनाज और घास का एक तिनकाभी पशुओं और घोड़ों को नसीब नहीं हुआ। बची-खुची फौज के भूख से मर रहे लोगअपने घोड़े ही काट-काटकर खाने लगे।

जब लुटेरों का यह काफिला उसी पुल के पास आयातो पता चला पूरा पुल तोड़ दिया गया है। पुल की हिफाजत के लिए छोड़े गए वेतुर्क और खिलजी सरदार किसी बात पर आपस
में लड़-भिड़ गए और वह जगह ही छोड़करचले गए। इस मौके का फायदा उठाकर कामरूप के हिंदुओं ने आकर उस पुल को बर्बादकर दिया।”

साफ है कि जब पुल पार करके बख्तियार खिलजीआगे बढ़ा था तब स्थानीय हिंदू खामोश बैठकर इंतज़ार नहीं करते रहे थे। वेहालात पर नज़र बनाए हुए थे। उस पूरे एक महीने तक
उन्होंने वापसी के मार्गका सफाया करके रख दिया और आखिर में नदी के पुल को भी तोड़ डाला ताकि इनअजनबी हमलावर लुटेरों को पता चले कि बंगाल की ज़मीन कायरों की
नहीं है।

यह शक्ति के उपासकों की सदियों पुरानी परंपरावाला इलाका था। बौद्धों की शांति नालंदा वालों को ऐतिहासिक रूप से महंगीपड़ी थी। वे खत्म ही हो गए। लेकिन यहां ताकत और
चालाकी का जवाब पूरी शांतिके साथ दिया गया।

बख्तियार ने बीते सालों में अब तक की लगातारआदतन लूटमार, आगजनी, हमले और कत्लेआम में पहली बार यहाँ मुँह की खाई। एकदिन वह लुटी-पिटी हालत में अपनी हारी हुई
और भूख से बिलबिलाती फौजी भीड़ के साथ उस तेज बहाव वाली नदी के किनारे पर खड़ा दिखाई दिया।

बलवेग वाली उस चौड़ी नदी को पार करने का कोईजरिया नहीं था, क्योंकि पुल को इस हालत में छोड़ा ही नहीं गया था कि कोई नदीपार सके । कहीं एक नौका तक नज़र नहीं आ
रही थी। बख्तियार को उस पुल के आसपास एक मंदिर का पता चला, जो बहुत ऊँ चा और खूबसूरत था। उसमें बड़ी तादादमें सोने-चांदी की मूर्तियाँ थीं। एक बहुत बड़ी मूर्ति थी, जो
3,000 मिसकाल (एक माशा 8 रत्ती) सोने की परत की बनी थी। बख्तियार की फौज इस मंदिर मेंदाखिल हुई और नदी पार करने के सामान को तलाशने लगी।

अब बंगाली हिंदुओं का एक और गौरतलब कारनामादेखिए। कामरूप का राय चौंकाने वाले रूप में सामने आता है, जिसने एक महीनापहले बख्तियार के पास अपने कु छ लोग भेजकर
तिब्बत पर हमला न करने की बिनमांगी सलाह दी थी। यह खबर लगते ही कि बख्तियार खिलजी तिब्बत से हारकर लौटाहै और मंदिर के पास डेरा डाला हुआ है, उस राय ने फौरन
उस इलाके के हिंदुओंको मंदिर के पास इकट्‌ठा होने का हुक्म दिया।

चारों तरफ से हिंदुओं ने आकर मंदिर को घेरलिया और बांस के भालों को एक दूसरे से सटाकर ज़मीन में इस तरह गाड़ दिया किवे लकड़ी की मज़बूत दीवार जैसे दिखाई देने लगे।
पहले से ही पस्त इस्लामीसेना का जिहादी जज्बा यह नज़ारा देखकर हवा हो गया। मौत सिर पर नजर आई तोसबने बख्तियार को घेरकर कहा– “हम ऐसे ही बैठे रहे तो काफिर
हमें कै द कर लेंगे। हम कै से छु टकारा पाएँ?”

आखिरकार मुसलमान मंदिर से निकलकर मैदान मेंआए और नदी की तरफ बढ़ गए। चौकस हिंदुओं ने उनका नदी तक पीछा किया। थके -हारेऔर बदहवास लुटेरे नदी पर आकर
रुक गए। पीछे से हिंदुओं को आता देख कु छ नेनिकल भागने की आखिरी उम्मीद में अपने घोड़े नदी के तेज बहाव में उतार दिए।

उसी समय शोर मच गया कि नदी में रास्ता मिलगया है। नदी के हर हिस्से से वाकिफ हिंदुओं ने उनका पीछा जारी रखा। बीच नदीमें पानी गहरा था। बख्तियार के सभी फौजी डू बकर
मर गए। खिलजी कबीले का यहदुर्दांत हमलावर सिर्फ 100 सवारों के साथ बमुश्किल नदी पार करने में कामयाबहो पाया। मगर अभी लखनौती दूर थी। उसकी मौत ही उसे पहाड़ों
से टकराने के लिएलेकर आई थी। ऊँ ट पहाड़ के नीचे आ चुका था।

उस पार कू च और मीच जाति का वह ‘कन्वर्टेड’अली मीच अपने रिश्तेदारों के साथ बख्तियार के इस्तकबाल के लिए पहुँचा।खिलजी की हालत बाद में यह हुई कि वह शर्म के मारे
घोड़े पर नहीं बैठता थाक्योंकि मारे गए लोगों के घर की औरतें और बच्चे घरों और गलियों मेंरोना-चिल्लाना मचा देते थे, उसे गालियाँ देते थे।
वह अफसोस करते हुए कहता रहता था कि ऐसा लगताहै कि मेरे मालिक सुलतान गाजी पर कोई हादसा पेश आया है। इसी वजह से मेरीतकदीर खराब हो गई है। देवकोट नाम की
जगह पर आकर बख्तियार बीमार पड़ गया।

तीन दिन वह सख्त बीमार पड़ा रहा। कोई उसके पासपहुँचा नहीं था। एक अमीर अली मर्दान खिलजी उसका हाल सुनकर कू नी नाम की जगहसे आया। उसने बेदम लेटे हुए
बख्तियार के पास पहुँचकर उसे चादर से ओढ़ा दियाऔर एक कटार से काम तमाम कर दिया।

बिहार और बंगाल लोगों को ये विवरण अपनीयाददाश्त में शिलालेखों की तरह टांक लेने की ज़रूरत है। मेरा मानना है किकु छ और याद हो न हो, अपना इतिहास कभी नहीं भूलना
चाहिए। इतिहास के गौरवशालीअध्याय तो याद होने ही चाहिए, लेकिन जिन ताकतों ने हमारी हजारों साल कीसंचित संपदा लूटी, हमारे पुरखों के खून की नदियाँ बहाईं, उन्हें सदियाें
तकजलील किया, औरतों-बच्चों को गुलाम बनाया और कब्ज़े से हासिल ताकत और तलवारके ज़ोर से बेकसूर पीढ़ियों पर मजहब की गुलामी लाद दी, उन्हें हम भूल कै सेसकते हैं‌?

इतिहास का सही स्मरण ही आपको वर्तमान मेंचौकन्ना रखेगा और भविष्य में वैसा न हो, इस तरफ सोचने के लिए मजबूर करेगा।अगर यह इतिहास याद रखा गया होता तो बख्तियार
खिलजी इतिहास के एक दुर्दांतअपराधी की तरह सबके संज्ञान में होता। एक आज़ाद मुल्क में 72 साल बाद भी ‘बख्तियारपुर जंक्शन’ सबका स्वागत न कर रहा होता!

सदियों के फासले में इज़रायल से लगातार बेदखलहुए यहूदियों ने ओल्ड जेरूशलम में अपने महान पुरखों की हज़ारों साल पुरानीस्मृतियों को अपने दिल-दिमाग में पीढ़ियों तक
खाेदकर ताजा रखा। यही वजह हैकि वे अपने मामूली आकार के मुल्क में आज जहां हैं, वहाँ हैं। वे वहाँ होनेकी कु दरती काबिलियत रखते हैं।

उस मुहिम के बाद बख्तियार जिंदा लौटकर लखनौतीनहीं आया। उसकी शर्मनाक हार की खबरें ही आईं। लेकिन लखनौती से लेकर नालंदातक उसके शैतानी कारनामे सदियों की
याददाश्त में दर्ज हो गए। उसके साथ आएउसके कबीले के दूसरे खिलजी सरदारों ने बंगाल पर पंजे गाड़कर रखे।

बख्तियार का अंत वैसा हुआ, जैसा बहुत पहले हीहो जाना चाहिए था। संगठित हिंदुओं ने पूरी तैयारी से उसे टक्कर दी, लेकिनपढ़ाए गए इतिहास में इनके ब्यौरे कहीं नहीं हैं। हम
सिर्फ मुहम्मद बख्तियारखिलजी को ज्यादा जानते हैं। एक बख्तियार खत्म हो गया मगर बरबादी की यहकहानी कभी और कहीं खत्म नहीं हुई। हिंदुस्तान के कोने-कोने में बरबादी
कीदास्तानें भरी पड़ी हैं…

https://hindi.swarajyamag.com/digital-magazine/how-bakhtiyar-khilji-killed-islam-part-8/

Nalanda University, which was set up at Rajgir in Bihar in 413 AD during the Gupta dynasty, had emerged as a
world seat of learning before it was destroyed sometime in the 11th century.Nalanda University was destroyed by
the Muslim army led by the Turkish leader Bakhtiyar Khilji in 1193. REASON: It is said that Bakhtiyar Khilji had
fallen sick and doctors in his court failed to cure him. Then, someone advised him to get himself cured by Rahul
Sri Bhadra, the principal of Nalanda University.

Khilji was too proud of his Islamic culture and refused to get himself treated by a person outside his religion.
But his health worsened and he was left with no other option but to invite Bhadra from Nalanda.

But Khilji put a condition and asked Bhadra to cure him without any medicines. Bhadra then asked Khilji to read
some pages from the Koran as a remedy to his illness and to everyone’s surprise Khilji was cured.Rahul went
back and returned after a month or so with with the Quran segment and asked Khillji to read the Quran himself for a
month along with a placebo.

When Khillji read the Quran each day after a while he began to regain his strength and recovered fully. Only later
did Khillji get to know that Rahul had applied the medicine in liquid form all over the pages of the holy book.
When ever Khillji used to turn the page he used to lick his index finger to do so. This allowed the medinice to be
administered to him.

Disturbed by the fact that an Indian scholar and teacher knew more than the doctors (Haqims) of his court,
Khilji decided to destroy the roots of knowledge, Buddhism and Ayurveda, from the country. He set fire to the
great library of Nalanda and burned down nearly 9 million manuscripts.The library was so vast and strong that it
took three months to completely destroy it. The Turkish invaders also murdered monks and scholars in the
university.नालंदा की लाइब्रेरी में तकरीबन 90 लाख पांडु लिपियांऔर हजारों किताबें रखी हुई थीइस विश्वविद्यालय में भारत ही नहीं बल्किकोरिया, जापान, चीन, तिब्बत,
इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलियाआदि अन्य देशो के छात्र पढ़ने के लिए आते थे.
If you read "Tabqat-e-Nasiri" by Minhaj-e-Siraj, you will notice that Minhaj, who witnessed the destruction did not
approved of it, who was a Muslim scholar used call Nalanda as "madrasah" (college in persian language) and
interestingly used to call the monks as "brahman-alem", "alem" is a very revered title in islam given to those who
are knowledgeable person. Similarly, orientalist al-Biruni surmised that Buddha is actually a prophet called "Burxan
(or Burhaan)". During that time these minority scholars like Minhaj had no voice in the war decisions, they had to
survive solely by the stipend that they received from the ruling family.

The destruction of Nalanda took place between the establishment of Oxford university in 1167 and the
founding of Cambridge in 1209. By the time the first European university was established in Bologna in 1088,
Nalanda had been providing higher education to more than 1000 of students from Asian countries for more than six
hundred years.
This was around three years before the destruction of the Nalanda and Vikramshila universities.

battle-of-kamrupa-king-prithu-routed-the-army-of-bakhtiyar-khilji

RajaPrithu of the Khen 1185-1228 AD (North was the ‘forbidden land’ of Tibet). The Khen dynasty of Assam
replaced the Pala dynasty in the 12th century. Their accession marks the end of the Kamarupa kingdom, and the
beginning of the Kamata kingdom, when Sandhya moved his capital from Kamarupanagara to Kamatapur in about
1250. Historically, Bengal had trade relations with Tibet along the ‘Tea-Horse Route’, through Assam, Sikkim and
Bhutan. Tibet was a source of the most prized possession of any army – horses – and Khilji was keen to secure this
route and control the trade by conquering Tibet. Also, controlling Tibet would mean he would control a part of the
Silk Route, from China to Central Asia. But this was too much, even for him.Tibetans continued to carry out
relentless guerrilla-style attacks on the retreating army.1205 A.D On returning form Tibet to Bengal They were
ambushed by the Kamarupa army, and large numbers of them drowned while crossing the Brahmaputra and
Teesta rivers. It is said they were remain 100 from 10000.
Upon Ikhtiyar Khalji's return while he was lying ill at Devkot, he was assassinated by Ali Mardan, one of
Bakhtiyar’s principal generals.People are asking proofs about the authenticity/truth of this victory by Prithu.
Hence, I am adding this short note though the list of proofs is long. I post only after enough and effective research.
Here it is: Kanai Varasi rock inscription mentions Prithu of the Khen dynasty as the ruler of Kamrupa (Assam)
during Bhaktiyar Khilji’s attack of Assam. This inscription records the destruction of the Turks who invaded
Kamrupa in 1206 A.D. Inscriptions cannot be proved wrong. Besides Persian historian Minhaj-i-Siraj's book
'Tabaqat-i Nasiri' contains a detailed account of Khilji’s attack of Kamrupa and how he was defeated at the hands of
Prithu. Minhaj-i-Siraj has chronicled every account of Khilji in his book. There are other additional historical proofs
that prove the truth of the victory of Prithu against the Turkish Muslim invaders under Bakhtiyar Khilji. (Secular and
leftist historians may create stories that claim the opposite to this truth related to Raja Prithu).

इन महान दार्शनिकों और वैज्ञानिकोंका हश्र किया हुआ.उन का हश्र देख कर आप की आँखे खुली रह जाएगी.

• याकू ब अलकु ण्डी नाम से हर मुसलमान अच्छी तरह परिचित है। दर्शन, भौतिकी, गणित, चिकित्सा, संगीत, रसायन, खगोल विज्ञान आदि अध्ययन में इसविद्वान ने बहुमूल्य सेवा
अंजाम दी। कु छ खलीफा के दौर में कं दी को सरकारीसंरक्षण मिली लेकिन खलीफा मुस्तासमबिल्ला के सत्ता आते ही कट्टरपंथियों नेउसका जीना मुश्किल कर दिया। खलीफा ने कं दी
के पुस्तकालय कब्जे में ले लेनेका आदेश जारी कर दिया। यही नहीं बल्कि इस महान विचारक को साठ साल की उम्रमें बगदाद की सड़कों पर सरे आम पचास कोड़े मारे गए और हर
कोड के साथ भीड़खुशी से तालियां बजाते और नारे लगाता था।

• मुसलमानों के इतिहास का एक और दरख़शां सितारा इब्ने रुश्द है जो के बहुत बड़ा दार्शनिक था और उस की थ्योरी सच्चाई और खुदा बहुत मशहूर हुई थी औरउस की थ्योरी से
यूरोप समाज ने बहुत लाभ उठाया , लेकिन यह महान व्यक्ति भीबारहवें सदी के अंत में इमाम अबू यूसुफ के दरबार में सत्तारूढ़ होते हीलोग इस के खिलाफ हो गए । स्पेन की जामा
मस्जिद में एक बड़ा सभा आयोजित कियागया। उस समय के काजी, उच्च पदाधिकारियों और बड़े उलेमा और धर्मशास्त्रियोंने इस सभा में भाग लिया। इब्ने रुश्द अपने चेलों के साथ
उपस्थित हुआ। लंबीबहस और के बाद-विवाद के बाद खतीब मस्जिद ने फतवा दिया कि इब्ने रुश्दनास्तिक हो चुका है। सजा के रूप में इब्ने रुश्द और उसके चेलों को पास के एक
बस्ती में नजरबंद कर दिया गया। सिवाय कु छ पुस्तकों के इब्ने रुश्द सभीकिताबें जला कर राख कर दी गईं। इतिहासकारों ने यह भी लिखा है कि जब इब्नेरुश्द अपनी नजरबंदी को
तोड़कर भागने की कोशिश की तो उसे पकड़ कर जामामस्जिद के खंभे के साथ बांध दिया और हर आने जाने वाले से कहा गया के इस के मुंह पर थूके , इस तरह इब्ने रुश्द जलील
हो कर पूरी जिंदगी यु ही घूमता रहा .
• इब्न सिना का नाम हमारे अतीत समलैंगिक के शीर्ष व्यक्तियों में से एकहै। आधुनिक मेडिकल का नीव इब्ने सिंह के ही नाम है आज भी इस दौर में ह्यूमनबॉडी एनाटोमी की पुस्तक
मेडिकल कॉलेज में सब्जेक्ट में है हमदान मंत्री नेइब्न सिना को अपना मंत्री नियुक्त कर रखा था। कट्टरपंथियों के साथ मतभेदकी वजह से उसे छु पना पड़ा इस को खोजने में सेना ने
उसका घर तबाह कर डाला औरअमीर ने उसका सर काट करने का आदेश जारी कर दिया। इब्न सिना ने चिकित्सा परअपनी सब से मशहूर किताब इसी प्ोशि के बीच लिखी थी।
पूरी जिंदगी येकट्टरपंथियों से छु प कर भागता रहा और उसे सर छु पाने की जगह नहीं मिली, ऐसेचिकित्सक को सम्मान मिलना चाहिए था मगर जिंदगी भर दर बदर की ठोकरे खता
रहा !

* मोहम्मद ज़करिया अलराजि इतिहास में महानतम मुस्लिम चिकित्सक के रूपमें जाना जाता है। अलराजि ने इतिहास में पहली बार खसरा और चेचक के अंतर कोस्पष्ट किया,
प्रक्रिया गढ़ने में सुधार और शायद इतिहास में पहली बार उसनेमेडिकल एथिक्स की अवधारणा शुरू की। कहा जाता है कि अमीर समय अलराजि के पुस्तक में प्रस्तुत किए गए
विचारों से इतना गंभीर मतभेद था कि वह आदेशजारी किया कि अलराजि की यह किताब लेखक के सिर पर तब तक जोर से मारी जाए जबतक कि किताब या सिर दोनों कोई एक
फट न जाए। बुजुर्ग वैद्य ने यह सजा सहन करली लेकिन कु छ इतिहासकारों का मानना है कि वृद्धावस्था में इस दृष्टि चलेजाने के कारण इसी घटना से लगने वाली सिर और मस्तिष्क
की चोटें थीं।

• इब्ने -खलदून को ज्ञान इतिहास संस्थापक माना जाता है। हालांकि इसके साथ किसी दुर्व्यवहार के कोई सबूत तो नहीं मिलते लेकिन दिलचस्प बात यह हैकि उन्नीसवीं सदी तक
दुनिया में इस नाम से कोई परिचित भी न था। मुस्लिमसमाज ने सदियों तक इसकी परवाह नहीं की लेकिन भला हो पश्चिम कफारों औरमूर्तिपूजक का कि उन्होंने इस्लाम के इस
महान सपूत को गुमनामी के अंधेरे सेबाहर निकाला और दुनिया से परिचय। माशााललह अब मुसलमान इसका उल्लेख करतेहुए भी फू ल कर कपा जाते हैं।

खिलजी वंश (1290-1320 ई.) :जलालुद्दीन खिलजी (30,000 HINDU)


गुलाम वंश के बाद दिल्ली पर खिलजी वंश के शासन की शुरुआत हुई। इस वंश या शासन की शुरुआत जलालुद्दीन खिलजी ने की थी। खिलजी कबीला मूलत: तुर्कि स्तानसे आया
था। इससे पहले यहअफगानिस्तान में बसा था।  जलालुद्दीन खिलजी के बाद दिल्ली पर इन्होंने क्रमश: शासन किया- अलाउद्दीन खिलजी, शिहाबुद्दीन उमर खिलजी और कु तुबुद्दीन
मुबारक खिलजी। इसके अलावा मालवा के खिलजी वंश का द्वितीय सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी भीखिलजी वंश का था जिसने मरने के पहले ही अपने पुत्र को गद्दी पर बैठा दिया
था।  खिलजी इतिहासकार के अनुसार हिन्दूओं ने सल्तनत के कई हिस्सों जैसेपंजाब, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, में विद्रोह कर दिया। इन विद्रोहों को सामूहिक नरसंहार के
द्वारा कु चलदिया गया। सभी ८ साल व उस से ऊपर की उम्र के मर्दों को मार दिया गया।सन्दिग्धों की पत्नीयों को सार्वजनिक स्थलों पर सरेआम शोषित किया। बच्चोंको उनकी माँओ
के सामने काट दिया गया। पुरुषों के अपराध के बदले में उनकीबीवीयों और बच्चों को उठा ले जाने की ये प्रथा यहीं से शुरु हुयी।इस सेपहले दिल्ली में कभी भी औरतों और बच्चों को
उनके परिवार के पुरुषों की सज़ानही मिलती थी।प्रक्ररण न के वल सेना के द्वारा रचा गया, अपि तु मुफ्ती, क़ाज़ी और अन्यदरबारियों ने भी धार्मिक आधार पर इसे मान्यता दी। क़ाज़ी
मुघीसुद्दीन बयानाने अल्लाउद्दीन को सलाह दी कि "हिन्दूओं को कु चल कर अपने अधीन रखनाधर्मसंगत है क्योंकि वो पैगंबर(मोहम्मद) के सबसे बडे दुश्मन रहे हैं औरपैगंबर के
आदेशानुसार हमें उन्हें मारना, लूटना और क़ै द करना चाहिये। या वोइस्लाम को स्वीकार करें या मार दिये जायें, गुलाम बना दिये जाये और उनकीसंपत्ति को नष्ट कर दिया जाये।"
Modhera Sun Temple- The temple was plundered by Mahmud Ghazni who took the original idol that was carved
in gold, which was then housed in a deep pit covered with gold coins. The shrine was eventually destroyed by Khilji
before it was restored recently. However standing there and seeing it sparkling in the evening sun’s rays, I realize
that the sun may have set on the Solankis many centuries ago, but their monuments speak of their glory.Modhera’s
story dates back to the Ramayana according to legends. It is believed that Lord Rama arrived here on Sage
Vashistha’s advice to wash off his sins for committing Brahma-hatya as he had killed Ravana, a Brahmin by birth.
He came to a village called Modherak to perform a yagna and called it Sitapur. According to the Puranas, it is
believed that the region was called Dharamaranya and the village later came to be known as Modhera.

सोमनाथमंदिर को लूटकर वापस लौटते वक्त अलाउद्दीन की सेना को जालौर में वीरमदेवकी सेना का सामना करना पड़ा जिसमें अलाउद्दीन खिलजी की हार हुई थी।

शहजादी फिरोजा और जालौर के वीरमदेव सोनगरा चौहान:-

वि.सं.१३५५१२९८ ई.में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति अलुगखाखा और नसरतखां ने गुजरातविजय अभियान के लिए जालोर के कान्हड़ देव से रास्ता माँगा परन्तु कान्हड़देव
ने आक्रांताओं को अपने राज्य से होकर आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दी| अतःखिलजी के सेना अन्य रस्ते से गुजरात पहुंची और सोमनाथ में लूट पाट की ।वापसलौटती हुई खिलजी
सेना पर कान्हड़देव ने आक्रमण किया और सेना को भगायालेकिन उस समय खिलजी का ध्यान रणथम्बोर और चित्तोड़ विजय की और ज्यादा थाअतः उनको जीतकर खिलजी ने
विक्रमी संवत १३६२ ई.१३०५ में ऍनउलमुल्क सुल्तानके साथ सेना जालोर भेजी लेकिन खिलजी के सेनानायक ने आदरपूर्वक संधि काआश्वासन दिलाकर कान्हड़ देव को दिल्ली
भेज दिया , और फिर उनके पुत्रवीरमदेव भी दिल्ली दरबार में रहने लगे।

इधर से शुरू होती हैवीरमदेव और फिरोजाकी प्रेम दास्तान


कान्हड़देव का पुत्र वीरमदेव एक सुडौल शरीर का तेजवान राजवंशी था।

उनकी वीरता में एक दोहा प्रसिद्ध है:-


सोनगरा वंको क्षत्रिय अणरो जोश अपार ।
झेले कु ण अण जगत मे वीरम री तलवार ।।"

दिल्ली दरबार में रहने के दौरान वंहा की एक शहजादी फिरोजा को उनसे प्रेम हो गया।
चूँकि उस समय इस तरह के राजनैतिक विवाह सम्बन्ध प्रचलन में नहीं थे।

इसलिए फिरोजा और वीरमदेव का विवाह संभव नहीं हो पाया।


लेकिन फिरोजा का वीरमदेव के प्रति प्रेम बहुत ज्यादा बढ़ गया था वह मन हिम वीरमदेव को अपना पति मान चुकी थी।

शहजादी कहने लगी, 'वर वरूं वीरमदेव ना तो रहूंगी अकन कुं वारी' अर्थात निकाह करूं गी तो वीरमदेव से नहीं तो अक्षत कुं वारी रहूंगी। , इधरवीरमदेव ने सामाजिक और कु ल की
परम्पराओ को ध्यान में रखते हुए फिरोजा सेविवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। कहते हैं कि वीरमदेव ने यह कहकरप्रस्ताव ठुकरा दिया कि...

'मामो लाजे भाटियां, कु ल लाजे चौहान,

जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान…।''

अर्थात : अगर मैं तुरकणी से शादी करूं तो मामा (भाटी) कु ल और स्वयं का चौहान कु ललज्जित हो जाएंगे और ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे,
और जिस कारण वश युद्ध की सम्भावना और प्रबल हो गयी।

फिरखिलजी ने जालोर पर आक्रमण के लिए 5 वर्षो तक कई सैन्य टुकड़ियां भेजी, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी और आख़िरकार ईस्वी १३१० में स्वयं खिलजी एक बड़ीसेना
लेकर जालौर के लिए रवाना हुआ और पहले उसने सिवाना पर आक्रमण किया औरएक विश्वासघाती के जरिये सिवाना दुर्ग के सुरक्षित जल भंडार में गौ-रक्त वमांस डलवा दिया
जिससे पीने का पानी दूषित हो गया। इसलिए सिवाना के शासकसातलदेव ने अन्तिम युद्ध की घोषणा करके के सरिया बाना पहन लिया। जिससेरानियों ने अन्य क्षत्रिय स्त्रियों के साथ
जौहर किया व सातलदेव आदि वीरशाका करके अन्तिम युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

इसके बाद खिलजी ने अपनी सेना को जालौर पर आक्रमण का हुक्म देकर स्वयं दिल्ली आगया | उसकी सेना ने मारवाड़ में लूटपाट व अत्याचार किए सांचोर के प्रसिद्धजय मन्दिर के
अलावा कई मंदिरों को खंडित किया| फिर कान्हड़ देव ने कु छ जगहखिलजी सेना पर आक्रमण कर उसे हराया और दोनों सेनाओ के बीच कई दिनों तकयुद्ध चलता रहा ।
आखिरकार खिलजी ने जालौर के लिए सेनापति कमालुद्दीन कोविशाल सैन्यदल के साथ जालौर भेजा फिर सेनापति ने जालौर दुर्ग के चारों औरबड़ा घेरा डाल युद्ध किया लेकिन
जालौर नहीं जीत सका और अपनी वापस जाने लगातभी कान्हड़ देव के एक सरदार विका ने जालौर से लौटती खिलजी सेना को दुर्गके गुप्त और खुले रस्ते का रहस्य बता दिया |
विका के इस विश्वासघात के कारणविका की पत्नी ने विका को जहर देकर मार दिया । इस तरह विश्वासघाती की वजहसे जालौर पर खिलजी सेना का कब्जा हो गया |

वि.स.१३६८में कान्हड़ देव ने विरमदेव को गद्दी पर बैठाकर अंतिम युद्ध किया| जालौरदुर्ग में रानियों के अलावा अन्य औरतों ने जौहर किया और कान्हड़ देव शाकाकरते हुए वीरगति
को प्राप्त हुए |

वीरमदेव ने अपने शाशनकाल में साढ़े तीन साल युद्ध में बिताए | और फिर वीरमदेव ने भी के सरिया बाना पहन कर अंतिम युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए । तथा दुर्ग की
महिलाओं ने जौहर कर लिया | विरमदेवके वीरगति को प्राप्त होने के बाद शाहजादी फिरोजा की सनावर नाम की धाय भीयुद्ध में सेना के साथ आई थी वो वीरमदेव का मस्तक काट
कर उसे सुगन्धितपदार्थों में रख कर दिल्ली ले गई | और कहते है कि जब विरमदेव का मस्तक जबस्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सामने लाया गया तो मस्तक उल्टा घूम गया |
तब व्यथित शहजादी फिरोजा ने अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाई..
"तज तुरकाणी चाल हिंदूआणी हुई हमें |
भो-भो रा भरतार , शीश न धूण सोनीगरा ||"

फिरोजा ने उनके मस्तक का अग्नि सं्कार किया और स्वयं माँ से आज्ञा प्राप्त कर यमुना नदी के जल में प्रविष्ट हो गयीये कथा स्वयं में एक भव्यता लिए हुए है |

रुद्र महालय, पाटन, गुजरात 1410-1444 के दौरान अलाउद्दीन खिलजी ने इसका कई बार विध्वंस करवाया और उसके बाद अहमद शाह ने इसे तुड़वाया था। विभिन्न आततायी
आक्रमणकारी लुटेरेबादशाहों ने 3 बार इसे तोड़ा और लूटा। इसके बाद एक भाग में मस्जिद बना दी।इसके एक भाग को आदिलगंज (बाजार) का रूप दिया। इस बारे में वहां फारसी
ओरदेवनागरी में शिलालेख हैं। वर्तमान में रुद्रमहल के पूर्व विभाग के तोरणद्वार, चार शिव मंदिर और ध्वस्त सूर्य कुं ड हैं। यह पुरातत्व विभाग के अधीनहै।रुद्र महालय मंदिर (गुजरात)
का पूर्ण निर्माण चोथी पीढ़ी में महाराज जयसिंहने किया । इस समय महाराज जयसिंह द्वारा प्रजा का ऋण माफ किया गया ओर इसीअवसर पर नव संबत चलवाया जो आज भी
सम्पूर्ण गुजरात मे चलता हे । इस रुद्रमहालय में एक हजार पाँच सो स्तभ थे, माणिक मुक्ता युक्त एक हजार मूर्तियाँथीं, इस पर तीस हजार स्वर्ण कलश थे। जिन पर पताकाएँ फहराती
थी । रुद्रमहालय में पाषाण पर कलात्मक "गज" एवं "अश्व" उत्कीर्ण थे, अगणित जालियाँपत्थरो पर खुदी थीं । कहा जाता हे यहाँ सात हजार धर्मशालाएँ थीं इनके रत्नजटित द्वारों
की छटा निराली थी, मध्य में एकादश रुद्र के एकादश मंदिर थे ।वर्ष 995 में मूलराज ने रुद्रमहालय की स्थापना की थी। वर्ष 1150(ई॰स॰1094) में सिद्धराज ने रुद्र महालया
का विस्तार करके "श्री स्थल" का "सिद्धपुर"नामकरण किया था । महाराज मूलराज महान शिव भक्त थे । अपने परवर्ती जीवन मेंअपने पुत्र चावंड को राज्य सोप कर श्री स्थल
(सिद्धपुर) में तपश्चर्या मेंव्यतीत किया। वहीं उनका स्वर्गवास हुआ ।साफ दिख रहा है दोनों तरफ़ मंदिर बीच में ज़बरन मस्जिद घुसेड़कर बना दी ।

"If the revenue collector spits into a Hindu's mouth, the Hindu must open hismouth without hesitation"
-- Qazi Mughisuddin legal officer of  Sultan Alauddin Khilji

(REF:ELLIOT and DOWSON, The History of India, as  Told by Its Own Historians;
The Muhammadan Period (  1876-77)).

‘Tazjiyat-ul-Amsar wa Tajriyat ul Asar’ that when the Alaul-Din Khilji (An Afghan of Turkish origin and second
ruler of the Khilji Dynasty in India 1295-1316 AD) captured the city of Kambayat at the head of the gulf of
Cambay, he killed the adult male Hindu inhabitants for the glory of Islam, set flowing rivers of blood, sent the
women of the country with all their gold, silver, and jewels, to his own home, and made about twentv thousand
Hindu maidens his private slaves.

This ruler once asked his spiritual advisor (or ‘Qazi’) as to what was the Islamic law prescribed for the Hindus. The
Qazi replied:

“Hindus are like the mud; if silver is demanded from them, they must with the greatest humility offer gold. If a
Mohammadan desires to spit into a Hindu’s mouth, the Hindu should open it wide for the purpose. God created the
Hindus to be slaves of the Mohammadans. The Prophet hath ordained that, if the Hindus do not accept Islam, they
should be imprisoned, tortured, finally put to death, and their property confiscated.”

सन १३०५ मे इस्लामी आक्रान्ताअलाउद्दीन खिलजीने भोजशाला पर आक्रमण कर माँ वाग्देवी की प्रतिमा को खंडित कर दिया तथाभोजशाला को के कु छ भाग को भी ध्वस्त
किया।१२०० आचार्यो की हत्या कर यज्ञकु ण्ड में डाल दिया। राजा मेदनीराय ने वनवासी धर्मयोधाओ को साथ ले करमुस्लिम आक्रान्ताऔ को मार भगाया गया। तत्पश्चात १९०२

में से वाग्देवी कीप्रतिमा को मेजर किनकै ड अपने साथ इंग्लेंड ले गया, जो, आज भी लन्दनसंग्रहालय में कै द है।चिन्मयके मुताबिक  दो शताब्दी पहले तहस-नहस हो चुके शहर को
दोबारा खड़ा करने के दौरान ही बिखरे पत्थरों से एक मस्जिद को खड़ा किया जिसे बाद में कमालमौलाना दरगाह का नाम दिया गया। चिन्मय की मानें तो मस्जिद को देखकर
यहबिल्कु ल नहीं कहा जा सकता कि इसे मंदिर तोड़कर बनाया गया है क्योंकि इसके निर्माण में वह आकर्षण ही नहीं है जो कि राजा भोज की वास्तुकला में नज़रआता है। इसके बाद
से ही आमतौर पर शांत रहने वाला यह स्थल अलग अलग मौकों परराजनीति और धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा अपने मकसद पूरा करने के लिएइस्तेमाल किया जाता है और कई लोग
भोजशाला की तुलना ‘ अयोध्या’  के रामजन्‍मभूमि और बाबरी मस्जिद मामले से कर बैठते हैं।1456 में मालवा के शासक महमूद खिलजी ने इस इमारत से सटाकर मौलाना
कमालुद्दीन का मक़बरा बनवा दिया. और दरगाह भी.धार स्टेट ने ही 1935 में भोजशाला परिसर में नमाज पढऩे की अनुमति दी थी।स्टेट दरबार के दीवान नाडकर ने तब
भोजशाला को कमाल मौला की मस्जिद बतातेहुए शुक्रवार को जुमे की नमाज अदा करने की अनुमति वाला ऑर्डर जारी किया था।फिर दोनों समुदायों की ओर से नमाज और पूजा
होने लगी।धार स्टेट ने ही 1935 में भोजशाला परिसर में नमाज पढऩे की अनुमति दी थी।स्टेट दरबार के दीवान नाडकर ने तब भोजशाला को कमाल मौला की मस्जिद बतातेहुए
शुक्रवार को जुमे की नमाज अदा करने की अनुमति वाला ऑर्डर जारी किया था।फिर दोनों समुदायों की ओर से नमाज और पूजा होने लगी।

.He was the one who patronized Amir Khusro, the legendary sufi poet, and even took him along on war
tourism in Rajasthan.
His armies also defeated the Parmar dynasty in Malwa, where “the earth was moistened with Hindu blood” as
per Khusro.

Khilji always gave away the land he conquered to a local governor to rule. This practice was the precursor to the
zameendari system later perfected in the Mughal era
Khilji was the first global champion of LGBT rights. His love affair with Malik Kafur is documented in Tarikh-e-
Firozshahi. Khilji kept 50,000 slave boys in his harem. In Gujrat, he abducted 20,000 “beautiful” maidens and
children

He promoted self help in society. Wassaf says in a 1310 book quoting Khilji’s officially appointed chief Kazi – “If a
Muhammadan decides to spit, Hindu must open his mouth”.

Devagiri- After a couple of battles, Rama Deva threw in the towel and emptied his treasury for Khilji. The invader
took away:

 2400 kilos of gold


 4,000 kilos of silver
 28 kilos of pearls
 8 kilos of precious stones including rubies, sapphires, diamonds and emeralds
 4,000 pieces of silk and other valuables

And typical of Muslim rulers who coveted Hindu women – especially from royal families –  Alauddin asked for the
hand of Jyeshthapalli, the daughter of Rama Deva. With his family, people and land being held hostage, the Yadava
king had no other option.

Unlike Hindu rulers, who would not even gaze in the direction of the enemy’s womenfolk, to the Mohammadens the
enemy’s women were war booty. These foreign invaders introduced a highly detestable element of coveting,
capturing and raping women – whether in the aftermath of war or its prelude

Seige of Warangal: Treasures of paradise - Khilji wasn’t going to stay satisfied for long. He was a mere
freebooter with just 8000 troops when he defeated Devagiri. Now he had murdered his uncle and father-in-law
Jalaluddin and become the sultan..

Warangal. This ancient kingdom was ruled by Pratap Deva who lived in an impregnable stone fortress surrounded
by a much larger mud fortress which in turn was ringed by a moat.

The Devagiri king Rama Deva had provided fodder, food and supplies for this massive army all the way from the
doorstep of his fort to the border of Warangal. Critical intelligence about Warangal’s defences and treasures may
well have been provided by the Devagiri king.

The fort at Warangal was extremely difficult to conquer because of its layered defences. Plus, unlike Devagiri, the
defenders put up a strong fight. Also, very unlike other sieges in India, where no outside help arrived, at Warangal a
small but determined Hindu force arrived at night to attack the besieging army. However, attack itself wasn’t very
well directed and wily Kafur’s forces cut down this band of soldiers before they could create further panic in the
Sultanate army. Kafur had to erect high fences to shield his army from the stones being thrown from the citadel,
suggesting that the defenders too weren’t lacking in technology.
Unable to scale the fort’s ramparts because the Hindu defenders were picking them off with arrows, spears and
stones, Kafur ordered his soldiers to start digging at the base of the fort’s wall. Although countless men must have
perished in this seemingly suicidal approach, the diggers managed to create a cavity large enough which was packed
with explosives to blow up a section of the massive mud wall. The breach was enough for the Muslim army to pour
inside where they met fierce resistance. In the meantime, the rest of the defenders retreated into the stone citadel.At
this point the Raja offered to negotiate. In many sieges in the past the normal Muslim policy was to spurn all
truce offers and go in for the kill because the Hindu was not to be negotiated with. Serious negotiations commenced,
at the end of which Rudra Deva agreed to offer 100 elephants, 12,000 horses and every item of value in his treasury.
Further, he would offer an annual tribute of a similar number of elephants and horses to the Sultan.

In Khazainul Futuh or ‘The Campaigns of Alauddin Khilji’, Alauddin’s court poet Amir Khusrau describes the
incredulous faces of the assembled Maliks (chiefs), mostly natives of central Asia and Afghanistan, as the war booty
was paraded: “The Maliks sat while the elephants passed; you could have thought the planets had become stationary
while the constellations had begun to move….And when they move together in a row, there is an earthquake…”

“The boxes were full of valuables and gems, the excellence of which drove the onlookers mad. Every emerald
sparkled in the light of the sun, or rather the sun reflected back the light of the emerald. The rubies dazzled the eye
of the sun and if a ray from them had fallen on a lamp of fire, the lamp would have burst into flames. The cat’s eye
was such that a lion after seeing it would have looked with contempt at the sun; and the cock’s eye were so brilliant
that cat’s eye was afraid to look at it. The lustre of the rubies illuminated the darkness of the night and mine, as you
might light lamp from another. The emeralds had a fineness of water that could eclipse the lawn of paradise. The
diamonds would have penetrated into an iron heart like an arrow of steel, and yet owing to their delicate nature,
would have been shattered by the stroke of a hammer. The other stones were such that the sun blushed to look at
them. As for the pearls you could not find the likes of them even if you kept diving into the sea through all eternity.
The gold was like the full moon of the twelfth night; it seemed that in order to ripen it, the alchemist the sun, had
lighted its fire, and the morning had blown its breath, for years.”

Khusrau adds, “When the horses were brought, the prestige of all that the ambassadors had previously displayed
flew away like the wind. Lest the struggle should be further prolonged, every horse in the Rai’s palace and stables
had been brought; even the wind of them was not in his hands. The sight of these fleet-footed animals captivated
every heart – the heart of the Mussalman was broken, and the soul of the Hindu flew away from his heart; for the
horses were such as their eyes had never seen.”

The treasures were carried off on the back of thousands of animals and carts to Delhi. On the day of Muharram in
1310, Alauddin invited the kings and princes of Arabia and Persia who were treated to this unprecedented display of
loot. A massive black pavilion was erected which Khusrau describes as appearing “like the Ka’ba on the navel of the
earth” and the “day looked like a second Id for the people”.

Target HoyasalaHoyasalas who ruled from Dwarasamudra and the ancient Pandya kingdom of Madurai. but
Khusrau says “now with a sincere motive” the Sultan thought of sending an expedition to the south “so that the light
of the sharia may reach there”. As per the terms of the treaty, the Hoyasalas would pay a yearly tribute and give
Kafur all the treasures of the fort. The entire night was spent clearing out the treasures, and by morning it was
loaded on 53 elephants.

Despite Ballala Deva’s submission, Amir Khusrau writes that after overpowering the raja of the Carnatic, the army
“plundered his country, broke the temples and seized all idols which were set with pearls”. They also built a small
mosque using stone and plaster. Ironically, while Dwarasamudra in now under the sea, the mosque still stands.
Khusrau says without an iota of gratefulness that “the infidels out of respect due to a house of God, have refrained
from destroying the mosque”. The defeated Hoyasala chief had but to agree to what the victorious general
said, and prepared to lead Kafur towards the destruction of a sister state.”

Wild chase in the Pandya kingdom


The Khilji army entered the Pandya kingdom in March 1311. Kafur “broke the temples and seized the cash and
jewels which the Rais had hoarded for thousands of years”.

Kafur had a stroke of luck when 20,000 Muslim soldiers who were employed in the Pandyan army deserted the
Hindus to his side Information provided by these disloyal soldiers led Kafur to Kannanur near Srirangam but Vira
Pandya gave him the slip. The enraged Kafur ordered general massacre of the town’s civilian population.

Kafur then marched towards Madurai, where he was told Vira Pandya was staying. But by the time Muslim army
arrived there in April 1311, the king and his family had left with the royal treasures. This infuriated Kafur who set
fire to the Sokkanatha (Shiva) Temple. At another temple, the Muslim army destroyed a large temple in order to dig
out its golden foundations.

Vira Pandya may not have won any battle laurels but he achieved something improbable – he had worn down
Kafur and his army. Chasing the quick moving Pandyan king while carrying an immense booty may have also
unnerved the Muslim chiefs, who only wanted to reach the safety of Delhi.

Kafur decided that he had acquired enough wealth to last generations, and ordered the army to march back to Delhi.
Before the army set off, he ordered all the spoils to be arranged and classified. His loot consisted of 512 elephants,
5000 Arabian horses and 2000 kilos of gold and jewels. (Another account says the quality of gold was  384,000
kilos but this may well have been a later day embellishment.) Muslim chroniclers comment that two generations
(approximately 50 years) after Alauddin’s death, the Delhi treasury still had remnants of this booty.

The expedition was launched “with a view of holy war, and not for the lust of conquest”, points out Persian historian
Wassaf in his book Tarikh-i-Wassaf, adding: “They went by daily marches through the hills, from stage to stage, and
when they arrived at their destination at early dawn they surrounded Kambayat (Cambay) and the idolaters were
awakened from their sleepy state of carelessness and were taken by surprise, not knowing where to go, and mothers
forgot their children and dropped them from their embrace.”

“The Muhammadan forces began to ‘kill and slaughter on the right and on the left unmercifully, throughout the
impure land, for the sake of Islam,’ and blood flowed in torrents. They plundered gold and silver to an extent greater
than can be conceived, and an immense number of brilliant precious stones, such as pearls, diamonds, rubies, and
emeralds, etc. as well as a great variety of cloths, both silk and cotton, stamped, embroidered, and coloured.” (‘The
History of India as Told by its Own Historians, Vol III, by Henry Miers Elliot.)

According to ‘The Legacy of Jihad: Islamic Holy War and the Fate of Non-Muslims’ (edited by Andrew Boston),
during the sack of Somnath, the Muslim army “took captive a great number of handsome and elegant maidens,
amounting to 20,000, and children of both sexes… and the Muhammedan army brought the country to utter ruin,
and the destroyed the lives of inhabitants, and plundered the cities and captured their offspring….”

The Persian Wassaf describes the destruction of Somnath. “The Muhammadan soldiers plundered all those jewels
and rapidly set themselves to demolish the idol. The surviving infidels were deeply affected with grief, and they
engaged to pay a thousand pieces of gold as ransom for the idol, but they were indignantly rejected, and the idol was
destroyed, and its limbs, which were anointed with ambergris and perfumed, were cut off. The fragments were
conveyed to Dehli, and the entrance of the Jami Masjid was paved with them, that people might remember and talk
of this brilliant victory. ‘Praise be to God, the Lord of the worlds. Amen’.”

The supposedly tolerant Amir Khusrau writes: “So the temple of Somnath was made to bow towards the Holy
Mecca, and as the temple lowered its head and jumped into the sea, you may say the building first said its prayers
and then had a bath. The idols, that had fixed their abode midway to the House of Abraham (Mecca) and waylaid
stragglers, were broken to pieces in pursuance of Abraham’s traditions. But one idol, the greatest of them all, was
sent by the maliks to the Imperial Court, so that the breaking of their helpless God may be demonstrated to the idol
worshiping Hindus.”

With Alauddin’s army setting his kingdom on fire, the Vaghela ruler Rai Karan sought refuge in a fort. However, his
ministers advised him to leave the kingdom until the invaders left.

Meanwhile, the Khilji army had captured one of Rai Karan’s queens named Kamala Devi and forced her into
Alauddin’s harem

As she was led away, the queen had to abandon her infant daughter Devala Devi.

After the Khilji army returned to Delhi, Rai Karan came back to claim his kingdom. Little did he know that his
former wife would be the cause of his and his family’s misfortune.

Eight years after being inducted into Alauddin’s harem, Kamala Devi requested Alauddin to get her daughter Devala
Devi from Gujarat. Alauddin ordered his army to invade Gujarat for a second time.

Knowing that the Khilji army had come for the young princess, Rai Karan sent her off to Warangal escorted by
300 soldiers. Unfortunately, a group of Turkic soldiers ran into this escort quite by accident and attacked it. They
abducted Devala Devi and triumphantly took her to Delhi, where she was married to Khizr Khan, the eldest son of
Alauddin. The princess was just 10 years old.

http://indiafacts.org/terror-unlimited-staggering-loot-lust-alauddin-khilji/

policy towards Hindus

Alauddin once summoned Kazi Mughisuddin of Bayana and asked him: “How are Hindus designated in the law, as
payers of tribute or givers of tribute?”

The Kazi replied: “They are called payers of tribute, and when the revenue officer demands silver from them, they
should without question and with all humility and respecr, tender gold. If the officer throws dirt into their mouths,
they must without reluctance open their mouths wide to receive it. By doing so they show their respect for the
officer. The due subordination of the zimmi (tribute payer) is exhibited in this humble payment and by this throwing
of dirt into their mouths. The glorification of Islam is a duty….God holds them in contempt, for he says, ‘Keep them
in subjection.’ To keep the Hindus in abasement is especially a religious duty, because the Prophet has commanded
us to slay them, plunder them, and make them captive, saying, ‘Convert them and spoil their wealth and property.’
No doctor but the great doctor (Hanifa) to whose school we belong, has assented to the imposition of the jaziya (poll
tax) on Hindus. Doctors of other schools allow no other alternative but ‘Death or Islam’.”
Alauddin remarked: “Oh doctor, thou art a learned man, but thou hast had no experience; I am an unlettered man,
but I have seen a great deal; be assured then that the Hindus will never become submissive and obedient till they are
reduced to poverty. I have therefore given orders that just sufficient shall be left to them from year to year, of corn,
milk and curds but that they shall not be allowed to accumulate hoards and property.”

K.S. Lal offers a glimpse of two sides of Alauddin’s attitude towards Hindus. In ‘The Legacy of Muslim Rule in
India’ he says the sultan started by raising the land tax to 50 per cent. Under the previous sultans Iltutmish and
Balban, the rate was one-third of the produce. “This measure automatically reduced the chiefs practically to the
position of peasants. The king also levied house-tax and grazing tax. According to the contemporary chronicler
Ziyauddin Barani, all milk-producing animals like cows and goats were taxed. According to Farishtah, animals up to
two pairs of oxen, a pair of buffaloes and some cows and goats were exempted. This concession was based on the
principle of nisab, namely, of leaving some minimum capital to enable one to carry on with one’s work. But it was
hardly any relief, for there were taxes like kari, charai and jiziyah.”

Barani quotes Maulana Shamsuddin Turk, a religious scholar from Egypt, who is happy to learn that Alauddin had
made the wretchedness and misery of the Hindus so great and had reduced them to such a despicable condition that
Hindu women and children went out begging at the doors of the Musalmans.  “Such a submission on the part of the
Hindus has neither been seen before nor will be witnessed hereafter,” Barani crows in Fatawah-i-Jahandari.

All classes of Hindus were made destitute. The zamindars, who had been accustomed to a life of comfort and
dignity, were reduced to a deplorable position. The poor peasants suffered the most because the Sultan had left to
them bare sustenance and had taken away everything else in taxes. In general, says Lal, the Hindus were
impoverished to such an extent that there was no sign of gold or silver left in their houses, and the wives of
(noblemen) used to seek sundry jobs in the houses of the Muslims, work there and receive wages.

At the same time, when it came to diplomacy, Alauddin was an entirely different person. Lal writes in ‘History of
the Khaljis’: “Alauddin was the first Muslim ruler who left Hindu kings in their positions provided they paid
tribute.” In this respect he was a forerunner of Akbar – the only other Muslim ruler who incorporated Hindu
kingdoms in his empire instead of attempting to destroy the ancient royal lineages of India.

In fact, after Alauddin’s death a joint Khilji-Tughlak army marched south, stormed Warangal and erased the
Kakatiya dynasty from the map, heralding a new era of Islamic fundamentalism.

१३०९, १३११ ई - मलिक काफू र, Similar to Malik Kafur, a good looking Hindu boy was captured and presented to sultan
Allah-ud-din to serve him. Homosexuality was rampant in those days in higher classes of society. This kid was
originally Hindu. He belonged to untouchable caste (Bhangi or Pariya). He was captured, forcibly converted to
Islam and was christened HASAN. he was molested sexually by many Sardars of Sultan. It is said that he was so
popular among these big-shot Sardars of Sultan's court that many became his close friends.

After the death of Allah-Ud-Din Khilji in 1316 AD, Malik Kafur became the de-facto ruler of the empire. Even
Kafur was Hasan's great fan, and gave him the title of [b]Khushro-Khan.
After death of kafur, Khushro-Khan helped Mubarik to capture throne. Consequentially, Khushro-Khan became the
second in command of Khilji Empire. Mubarik was having time of his life, enjoying his days as monarch to fullest.
He left administration at the descretion of Khushro-Khan. He was Sultan's most trusted man.

खुद एक जबरन धर्मांतरित हिन्दू था, के नेतृत्व में खिलजी की सेना नेदक्षिण भारतमें दो (१३०९, १३११ ई:) अभियान किये जिन में हज़ारों हिन्दू मारे गये।हैलेबिडु मन्दिर के
अलावा कई मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया। वहां से लूटागया खज़ाना इतना अधिक था कि उसको लाने के लिये १,००० ऊं ट लगाये गये, इस लूटमें प्रसिद्धकोहिनूर हीराभी था जो
कि वहॉं के भद्रकालीमन्दिर की देवी की आँखों में जडा था। | मलिक ने अलाउद्दीन खिलजी की चाहत में इस्लाम धर्म भी कबूल कर लिया थाऔर इसकी सहायता से खिलजी ने
दक्षिण भारत के हिंदू राज्यों पर चढ़ाई की और गैर इस्लामी लोगोंको मौत की घाट उतारा. बाद में मलिक काफू र में रामेश्वरम में मस्जिद भीबनवाई. मलिक काफू र के चर्चे अब दूर-
दूर तक फै ल गए थे. मलिक से संधि करनेके बाद काकतिया राजा ने उन्हें एक कोहिनूर हीरा उपहार में दिया,खिलजी का जब मलिक काफू र से मोह भंग हुआ तो उसे उसने जान से
मरवा दिया.कु छ इतिहासकारों का ये भी मत कि काफू र ने ही धीमा जहर देकर खिलजी को मौत तक पहुंचाया

1294 के आसपास की बात है. देवगिरी के संधि के बाद वहां के राजा खिलजी को एकतयशुदा रकम भिजवाते थे. सन 1307 में इसी रकम को लेने के लिए खिलजी ने
अपनेविश्वासपात्र मलिक को देवगिरी भेजा. देवगिरी से रकम वसूलने के बाद मलिक नेवहां के शासक की दो राजकु मारियों को भी उठा लिया और उपहार के तौर पर खिलजीको
भिजवा दिया. खिलजी ने जब उन राजकु मारियों को अपनी हवस का शिकार बनानाचाहा तो बड़ी राजकु मारी ने चाल चलते हुए कहा-मलिक काफू र पहले उनके साथसंबंध बना चुका
है. ये सुनकर अलाउद्दीन के गुस्से का ठिकाना नहीं रहा. उसनेजल्द ही मलिक को गाय के मांस में बांधकर लाने का आदेश दिया. जिसमें दमघुटकर मलिक काफू र की मौत हो गई.
जब अलाउद्दीन का गुस्सा शांत हुआ तो उसेलगा मलिक तो किन्नर है चाहकर भी संबंध नहीं बना सकता. लेकिन तब तक देर होचुकी थी. अलाउद्दीन ने बाद में झूठ की सजा के
तौर पर दोनों राजकु मारियों के हाथ-पैर बांधकर ऊं ची पहाड़ी से गिरा दिया.

1297 ईसवी में अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात परचढ़ाई की. इतिहासकार बरनी के अनुसार, इस अभियान में गुजरात में पाटन के राजा कर्ण सिंह ने भागकर पड़ोस के राज्य में
शरण ली. मगर कर्ण सिंह की रानीकमला देवी को सेना ने गिरफ्तार करके सुल्तान खिलजी के सामने पेश किया.खिलजी ने कमला देवी से शादी करके उन्हें हरम में भेज दिया. ये
किसी मुसलमानबादशाह से हिंदू रानी/राजकु मारी की पहली शादी थी. इसी दौरान खिलजी की नज़रएक खूबसूरत जवान लड़के मलिक मानिक पर पड़ी. खिलजी ने उस गुलाम को
लानेवाले को हज़ार दीनार दिए और मानिक को बंध्या बनवाकर अपने पास रख लिया.उसे नया नाम दिया गया मलिक काफू र.

एक घटना को उनके कवि, अमीर खुसरो ने दर्ज किया है। यह 1301 में रणथंभौर मेंहुआ था. जब अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने राजा हम्मीर देव के रणथंभौर के किले पर
आक्रमण किया, और खिलजी ने छल कपट से यह युद्ध जीत लिया जिसके बादउनकी पत्नी, बेटी और अन्य रिश्तेदारो ने जौहर कर लिया.इसका वर्णन मालिक मुहम्मद जायसी ने
अपनी प्रसिद्ध रचना पद्मावत में भी किया है.

एक ब्राह्मण जो रतन सिंह से नाराज था, जाकर दिल्ली के सुलतान को अपने तोतेहीरामन की ज़ुबानी रतन सिंह की रानी की खूबसूरती बयां करवाता है. आठ August1302 को
खिलजी चित्तौड़ के लिए कू च करता है.चित्तौड़ का पहला जौहर सन 1303 में हुआ, जब अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। किवदंति है कि रूपवान रानी पद्मिनी
को देखने की लालसा में अलाउद्दीके कारण हुआ 16 हजार रानियों, दासियों व बच्चों के साथ जौहर की अग्नि में स्नान किया था। गोरा और बादल जैसे वीरों ने भी इसी समय
पराक्रम दिखाया था। आज भी विजय स्तंभ के |

Expedition to Dwarasamudra & Mabar

While at Warangal he had learnt of the fabulous wealth of these kingdoms which had remained outside the pale
of Muslim domination so far.Kafur set out on November 17, 1310, arriving at Devagiri on February 3, 1311. As
on previous occasions, Ramadeva gave all possible help to the invading army including the setting up of
markets where all the necessities of life were provided.

Ramadeva also sent his commander-in-chief on southern frontier, Parasuram Dalavay by name to help Kafur’s army
for the conquest of “Bhir Dhul and Bir Pandi” (Dwarasamudra and the country of Vira Pandya).

Ramadeva had his own reasons for assisting Kafur in his invasion of Dwarasamudra. The ruler of this kingdom,
Ballala III, had repeatedly invaded Seunas territory and had tried to capture some of the towns.

They had been constantly on war and, therefore, Ramadeva was happy at the prospect of Ballala’s defeat at the
hands of Kafur. The Imperial army reached Bandri or Bandar in Satari taluk of North Kanara district after five
days’ march.

Four officers along with interpreters were sent in the Ballala’s dominions to get the necessary intelligence. It was
learnt that Ballala had marched towards Mabar to take advantage of the civil war which had broken out between the
sons of Kulasekhara, Sundara Pandya and Vira Pandya.

Vira Pandya was a favourite of the king whom he nominated to the throne. Sundara Pandya killed his father in rage.
Vira Pandya defeated his brother who fled northwards and asked for assistance from the sultan of Delhi or his
general Kafur.

Ballala wanted to plunder the rich mahajans or bankers and if possible to recover his ancestral possessions in the
Tamil country which had been captured during the time of his predecessors by Jatavarman Sundara Pandya and
Maravarman Kulasekhara. As soon as he heard about the arrival of the Delhi army, he hastened back to the capital to
meet the invader.

On learning from his spies, that Ballala was away, Kafur thought the time to be very opportune to capture the citadel
of Dwarasamudra by surprise attack before the Raya could make preparations. He reached Dwarasamudra on
February 25, 1311 A.D. Ballala had already arrived there and held a council of war.

His nobles and officers were all determined to resist the invader with all their might. They preferred death to ignoble
submission

पांड्य साम्राज्य पर हमला कर के काफू र नेघेराबंदी कर ली थी. भीषण गर्मियों में की गई इस घेराबंदी में कावेरी नदी भीशामिल थी. मगर एक रात पांड्य सेना ने अचानक हमला कर
के काफू र की आधी सेज़्यादा सेना को खत्म कर दिया. काफू र ने हार मानने की जगह पांड्य राजा सेसमझौता किया अगर राजा वीर पांड्यन उसे वापस जाने दें वो अपने कब्ज़े में
आएमीनाक्षी मंदिर और शहर को छोड़ देगा. कमज़ोर सेना के बाद भी काफू र नेमंदिर वापस देने का वादा कर वीर पांड्यन का पूरा खजाना, आधा राशन और सारेहाथी ले लिए.
खिलजी ने खुश होकर इसके बाद काफू र को ‘मलिक नायक’  बना दिया.वैसे समझौता होने के पहले तक मीनाक्षी मंदिर का बड़ा हिस्सा तोड़ा जा चुकाथा जो 15 वीं शताब्दी में
दुबारा बना.असल में इस मंदिर का निर्माण 6 ठी शताब्दी में कु मारी कं दम के उत्तरजीवीद्वारा किया गया था। कहा जाता है कि 14 वीं शताब्दी में मुगल मुस्लिम कमांडरमलिक काफू र
ने मंदिर को तोड़ा और लूटा था। वो मंदिर से मूल्यवान आभूषण औररत्न लूटकर ले गया था। इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप को 1623 और 1655 ईस्वीके बीच बनाया गया था।
बाद में 16 वीं शताब्दी में ही नायक शासक विश्वनाथनायकर द्वारा इसे पुनर्निर्मित करवाया गया था। विश्वनाथ नायक ने ही इसेशिल्प शास्त्र के अनुसार पुन: बनवाया था।

रुद्रमहालय (अर्थ : रुद्र का विशाल घर) गुजरातके पाटण जिलेके सिद्धपुरमें स्थित एक ध्वस्त मन्दिर परिसर है। इसका निर्माण ९४३ ई मेंमूलराजने आरम्भ कराया था तथा ११४०
ई मेंजयसिंह सिद्धराजने इसे पूरा कराया। इस मन्दिर को पहलेअलाउद्दीन खिलजीने 1410 तोड़ा तथा बाद मेंअहमद शाह प्रथमनेइसकोजमी मस्जित में परिवर्तित किया।

Meanwhile, Shah Mīr, a Hindu Rajput from modern-day Afghanistan, had also arrived in Kashmirfor
unknown reasons. He may have been seeking a better job; he served in the administration of Raja Suha Dev. Lha
and Shah Mīr, a Buddhist and a Hindu, were to play key roles in the impending rise of Muslim rule in
Kashmir
In 1319, the Mongol warlord Zulchu invaded Kashmir and spent eight long months making a bloody mess in
Kashmir. He massacred thousands of Kashmiri men, enslaved the women and children, and razed entire towns to the
ground. Zulchu was, after all, a direct descendent of Genghis Khan and the grandson of Hulugu Khan. Raja Suha
Dev packed up and fled to Kishtwar, leaving his military commander-in-chief, Rawanchandra, in charge. This
proved to be a fatal mistake, as Raja Suha Dev lost all respect and legitimacy in the eyes of his subjects. Many
Kashmiris fought valiantly against the Mongols, including Lha and Shah Mīr. Once the Mongols eventually
retreated and the smoke cleared, Lha emerged as a leader with strong public support in Kashmir.

1303- Lha recognized that he was in a position to take control, and in 1320 he deposed Rawanchandra and
became the first Buddhist king of Kashmir after centuries of Brahmin rule. He then made his comrade Shah
Mīr his chief minister. Shah Mīr was a Hindu, but during Raja Suha Dev’s time he would often disguise
himself as a Muslim in the evening and sit inside a small inn in Srinagar that served as the local mosque. There he
would listen to the lectures by Muslim preachers, and gradually he began to become more and more interested in
Islam. Sufi dervish from Kabul visited Srinagar and delivered a lecture that really moved Shah Mīr.

The Sufi dervish encouraged Shah Mīr to reveal his new faith to Raja Suha Dev. Shah Mīr was convinced that he
would lose his job as soon as he did so, but he went ahead and did it anyway. To his surprise, neither the Raja nor
his advisors at the royal court thought Shah Mīr’s Islam would affect his dedication and excellence as an
administrator. Later on, Lha recognized the same qualities in Shah Mīr, which is why he appointed him as his chief
minister. Bulbul Shah performing the fajr (dawn) prayer on the banks of the river Jhelum. Then 1323 he accepted
Islam and changed his name to Malik Sadr ad-Din (history records him more often as Lha or Rinchen Shah,
after his original Buddhist name). The first-ever Buddhist ruler of Kashmir now became the first-ever Muslim
ruler of Kashmir.
Malik’s family converted to Islam after him, and many other Kashmiri leaders, notably Rawanchandra, soon
followed. More low-caste Hindus and Buddhists started to embrace Islam during this time as well, convinced that it
would free them of the remaining shackles of the Brahminical system. It is said that Bulbul Shah was thus
ultimately responsible for the conversion of 10,000 Kashmiris to Islam, though this figure is almost certainly a
wild exaggeration. Nevertheless, the impact he had on the history of Islam in Kashmir is undeniable. Malik (Lha) set
up for him a khanqah (a Sufi center where Sufi clerics and their students could retreat for traditional education) in
the heart of Srinagar, and also built two mosques nearby.

After several years of political struggle, Malik’s chief minister, Shah Mīr, came to power in 1339, rebranding
himself as Sultan Shams ad-Dīn. He consolidated Muslim rule in Kashmir; part of this involved appointing Mullah
Ahmad as the sheikh al-Islam (i.e. chief religious authority) of Kashmir.

Khusro Khan was a Hindu Pawar (Hindu Kshatriya community called the Baradu, )Khusro Khan, or Khusru
or Khusraw Khan was a medieval Indian military leader, and ruler of Delhi, as Sultan Nasir-ud-din, for a short
period of time.He was a Dalit (Parwari-Mahar) caste from Gujrat. He converted to Islam from Hinduism at the time
of his capture. He was a untouchable in his own religion, but became a first SC to sit on the throne of Delhi.

Alauddin Khilji attacked Gujarat in 1297 AD under the command of Ulugh Khan and Nusrat Khan, defeating the
last Hindu Ruler of Gujarat, Karan Vaghela. Before the Khilji forces killed leaders Hamirji Gohil and Vegado
Bhil near Somnath, Vagedo took a promise from one of his loyal to escape and take revenge on Khilji. This loyal
came to Delhi as a war prisoner and converted to Islam. He was given the name ‘Hasan’ and later Qutubuddin
Mubarak Shah of Khilji dynasty gave him the name ‘Khusro Khan.’ It is said that Khusro Khan got Alauddin
Khilji killed through his friend Jahiriya and later managed to kill his master Mubarak Shah, declaring himself the
king of Delhi

After death of kafur, Khushro-Khan helped Mubarik to capture throne. Consequentially, Khushro-Khan
became the second in command of Khilji empire. Mubarik was having time of his life, enjoying his days as monarch
to fullest. He left administration at the descretion of Khushro-Khan. He was Sultan's most trusted man. Khusro
Khan was a Hindu Pawar (Hindu Kshatriya community called the Baradu, ) boy captured during an expedition to
Gujarat by Qutubuddin Mubarak Shah, the last ruler of the Khilji dynasty in Sultanate of Delhi.
In his teen/youth Khusro Khan was very fair, gazelle-eyed and his posterior as large as a woman. The Sultan, who
was a known pervert, fell in love with this boy. He slaved him and made him his sex companion. Their homosexual
escapades and adventures with role playing were very famous that time. Sultan was very famous for his debauchery.
He was sodomized by his Turkish captors and soon became the male concubine of Khilji’s son Mubarak Khan. And
well, Turks converted him to Islam and gave him the name Khusru - and he craved for revenge and bided his time.
Qutubuddin Mubarak Shah gave him the name Khusro Shah.

It’s said that he killed Alauddin Khilji through the help of his friend Jahriya and later killed his master Mubarak
Shah to claim the throne of Delhi,which also brought the end of Khilji Dynasty.

In 1320, Khusro Khan killed the Sultan (his lover).[1] The murder of Sultan was very horrifying and gruesome. It is
said that during love making, Khusro Khan crushed the testicles of Sultan with his hands, and when Sultan was
writhing in pain, Khusro Khan cut off his head and threw his body down from the ramparts (this part can be
fictitious slander).

Anyway he soon rose to become a general. Now he started plotting destruction of Khilji empire. He deliberately
sabotaged Turkish military operations in South India which helped Hindu resistance there. Once Mubarak Khan
became the Sultan, he killed him and seized the throne and passed a series of orders which aimed to ill treat and
humiliate the Muslim Turks. He ruled a period of months where he tried to abolish tax system based upon
religion.He was against women who were being treated as war booty.He took strong steps to prevent sex slaves.But
this did not please his nobles.

Khusro Khan proclaimed himself the emperor of Hindustan, and assume the throne of Delhi for a brief time.He was
emperor of delhi for 1 year. later he was killed with his wife who also was hindu princess. He gave himself the title
Sultan Nasiruddin Mohammed Khusro Shah. Turkish nobles ganged up and raised an army and fought Khusru’s
army. He was defeated and killed.

Ghiyasuddin Tughlaq had Khusro Khan torn limb from limb and his torso thrown over the ramparts, as he had done
with the Sultan.

Deval-Devi and Bibi Nanchari Amma

One is about Deval Devi, the Vaghela princess whose father was defeated by Khilji and mother taken into his
harem, but who ended up marrying the Sultan’s beloved eldest son Khizr Khan. The other is about Bibi Nanchari
Amma, a Khilji princess who became a devotee of Venkateswara and journeyed south to be with her divine lord and
died there. The story goes that when he defeated Rai Karna Dev II (who fled with his daughter Deval to Devagiri)
Alauddin married the Vaghela queen Kaula Devi. She eventually won his trust and a decade later on her plea to
bring her daughter Deval back, Alauddin despatched his general Malik Kafur, the infamous Gujarati Hindu convert
to Deogiri (later Daulatabad), to do so. And that’s where the story of Bibi Nanchari Amma comes in: a Khilji
princess (some aver she was Kafur’s daughter) who fell in love with a looted idol of Lord Venkateswara brought
back to Delhi and given to her as a toy. It was during the reign of Mubarak Shah Khilji that Bibi Nanchari Amma
expressed a wish to marry Lord Venkateshwara – like the legendary 8th century Vishnu devotee Andal and 16th
century Meerabai.

The fratricidal Mubarak was actually a rather lax monarch by the standard of those times, so maybe that’s why he
agreed to it, not because he saw Lord Venkateswara in a dream as some said later. Interestingly, he also apparently
agreed to return other idols looted by Malik Kafur to the temples of the south.

So Ramanujacharya, head of the SriVaishnava Matha in Melkote in Karnataka (who also supposedly dreamt he
must go to Delhi to retrieve the idol and bring the princess), headed north to do so. The journey took a toll on the
princess, who died soon ‘marriage’ in 1316. But her samadhi is there at the Chellapillaraya temple in Melkote,
where she is worshipped along with Lord Venkateshwara.

Interestingly, there is also a story that a Muslim princess travelled to the magnificent Ranganathaswamy temple at
Srirangam. Kafur’s army did loot the temple so Bibi Nanchari may well have been that royal bhakt especially as a
tradition at Srirangam points to a Muslim connection. Inside the complex there is a temple to ‘Thulukka Nachiyar’, a
consort of the Lord.

He is draped in a lungi when he visits her and the prasadam there is of wheat parathas, an ode to her northern link.
There is also an idol of her in Tirumalai and a temple in Kadapa where thousands of Muslims come to
worship, as do many devotees of Venkateswara before they go to Tirupati.

Surely the incredible tales of these two women deserve to be told as much as their contemporary, Padmini?

Memorable Love Story of Khushro Khan and Deval Devi


Deval devi was also from Gujarat. She also was Hindu before her capture and forcible conversion. In fact she was a
princess of some kingdom in Gujarat before her capture. Her mother Kamal-Devi, was captured in Allah-ud-din's
gujrat invasion in 1298 AD. Her father, king of gujrat, fleed with his teen-age girl, deval-devi. Her mother was taken
as wife by Allah-ud-din himself. She however married Shankardev Rao of Devgiri, Maharashtra. However, she was
again captured by Kafur and at her tender age, was converted and married away to Sultan's elder son, Khijar Khan
Her Rise to Power...

With the help of Khushro Khan, Mubarik captured throne and became king. He then added Deval Devi to his own
harem by marrying her. Deval Devi became the Sultana of Khilji empire..
Mubarik was a typical Spoilt brat. His sexual fantasies were outrageous. One of the habit that he enjoyed most and
which is documented is that he liked to dress up as women and dance as courtesan himself.. Amusing character...
Khushro Khan was the one strong piller of the empire. His memories of Hindu past were not vanished. Deval
Devi and Khushro Khan came closer. Emotionally. Here begins one of the great love story.

Great Love story... Khushro-Khan and Deval devi

It is not hard to understand why these two characters came close. They both were Hindus. They both were
forcibly converted to Islam. They both were sexually molested since tender age by Muslims. They both had
witnessed slaughter. And most importantly, they both were burning from within.. Destiny brought two souls together
and gave them power. It is obvious that they will fall in love with each other.. And they did fall in love.

The Conspiracy begins..


Two lovers, who are ambitious and politically powerful, accompanied by a foolish king.. It is an ideal recipe for a
revolution..

Exactly what stimulated both these individuals to do what they did is unknown. Even History has to speculate..
However there was a conspiracy, nonetheless..

Following events lead us to that suspicion.


1) Khushro Khan appointed his own brother who was also a Hindu Convert as governor of Gujarat.
2) He trained his personal general's Bodyguard, an extremely elite legion, about 30,000 men strong and kept them in
Delhi under his own direct command.. Almost all of them were Hindus..
3) His moves were not at all welcomed by Muslim Sardars. History does not know whether these two even knew
what they wanted to do.. There is a reason to speculate that a hazy picture was starting to form in their minds about
what they wanted to do..
4) The reason of this speculation is that during this time, Khushro Khan quelled the Hindu Rebellions in
Maharashtra by Harpal Dev Rao Yadav of Devgiri.. And he quelled this rebellion violently by torturing Harpal Dev
Rao and killing thousands of Hindus.

History becomes hazy..

This period is extremely ill-documented in Indian History. Khushro Khan again undertook a Deccan conquest.
however, the Unease in Hindus was beginning to boil. And few contemporary Muslim sources say that Khushro
Khan was instrumental in initiating and propagating this unease against Sultan of Delhi. Muslim historians and
Sources speak of Khushro Khan with utter disgust.. as a person to cut the nose of Muslims and one who will burn in
hell for eternity.

Khushro Khan returns to Delhi from his Malabar conquest...

Rana Hamir of Mewar was spear head of Hindu unease.. Hindus of delhi and North were beginning to believe that
Khushro Khan was up to some revolution with aide of Hindu rulers and rajputs. And Deval Devi, and Khushro
Khan, were supporting this unease by ignoring it.
No one could point Khushro Khan as he was the one who defeated Hindu kingdoms in South India and extended the
boundaries of Empire.. No one could Imagine that this person will not only capture throne on Delhi, but also convert
this Islamic Sultanate into Hindu Empire. However this ambition was beginning to take root in minds of Khushro
Khan and Deval Devi.
Sultan Mubarik was so pleased by Khushro's success that he gave all rights to Khushro Khan.. He made him the de
facto ruler.. He eased the atrocities against Hindus. he gave them religious freedom to worship. He educed taxes on
Hindu farmers which were in act since days of Allah-Ud-Din.. Slowly and steadily, Khushro Khan starting to rise as
a messiah for Hindus. He became immensely popular among masses..
Truth is Stranger than Fiction...

The situation was so much in favor of Khushro Khan and Deval Devi that they decided to act and execute their
plan.. This change was so dramatic and unforeseen that it took time for people to understand what is happening.
Khushro Khan requested Mubarik that he had captured about 30,000 hindu people from Gujrat and he wishes to
bring them to delhi to convert them to Islam.. In April of 1319 AD, these people, who were in fact Khushro's
personal guards, started to execute their plan, and Sultan Mubarik Was slain..

Khushro Khan declared himself as Sultan.. He married his love Deval Devi..

On 15 April 1319 AD, Khushro Khan declared.. Following are his own words translated in english..

" Till date, Even though I was forced to live as a Muslim, I am still a Hindu in spirit. Hence, I, Sultan of the
throne, declare that I am no longer a Muslim. I hereby declare that I am a Hindu. I am the Hindu Samrat
(Emperor) of India.. Deval Devi, who also was hindu before she was captured and forcibly converted, is my Wife
and henceforth be called as empress of India."

Khuskro Khan Started calling himself [b]Naasir-ud-din.[/b] It is interesting that he chose a Muslim name..

Hindu emperor Naasir-ud-din Khushro Khan..

Hindu Emperor Nasir-Ud-Din dissolved Jaziya tax. He liberated Hindus from the status of secondary citizens in
their own country. He rebuilt many temples. Many of his regiments were deployed for the protection of Hindus from
Muslim attrocities. In short, he established a comparatively Just rule in India.

His allies, Rajputs, and other Hindu kings were not at all opposing him. In turn, Khushro Khan gave them
opportunities to strengthen themselves.. This according to me, was the one of the biggest mistakes committed by
Hindus. This was the chance to up root Islam from Indian soil.. however, Hindu kings remained confined to their
own territories and nobody actively participated in this revolution by Khushro Khan and Deval Devi..

He facilitated reconversion of many converted Muslims to Hinduism.. He reinstated Rule of Peace in Indian
subcontinent. His empire stretched from Afghanistan to Karnataka...

Downfall of Nasiruddin Khushro Khan..

Ghias-ud-din Muhammad Tughlaq was instrumental in Nasiruddin's Downfall.. He forged alliance with
Muslims lords against an Infidel, a Kaafir, who had proclaimed himself as Hindu and had become the emperor of
India. He called for a Jihad against Nasiruddin Khushro Khan.

The battle Proper..


The battle took place in Punjab when Nasiruddin committed few tactical and strategic blunders and was defeated by
Ghiasuddin Tughlaq. He was Captured by Ghiasuddin tughlaq and was tortured to death. Deval Devi met the same
fate..

1301 में कश्मीर में सहदेव नामक शासक गद्दी पर बैठा।उसके शासन में उसके दो महत्वपूर्ण सहयोगी थे, एक था लद्दाख का विद्रोहीराजकु मार रिन्चिन और दूसरा था स्वात घाटी
से आया हुआ शाहमीर! और उसकासेनापति था राम चंद्र। इसी रामचंद्र की बेटी थी कोटा रानी। रिन्चिन बौद्धथा, और शाहमीर मुसलमान। उथलपुथल वाले युग में सन 1319 में
राजा सहदेव परतातार सेनापति डु लचू ने 70,000 सैनिकों के साथ आक्रमण किया। इस आक्रमण मेंराजा सहदेव अपने भाई उदयन देव के साथ किश्तवाड़ भाग गया।

रामचंद्र, रिन्चन और शाहमीर ने मिलकर डु लचू का मुकाबला किया, मगर डु लचूघाटी में ही टिका रहा और उसने घाटी में कत्लेआम का आदेश दिया। हज़ारों लोगमारे गए, हज़ारों
लोग गुलाम बनाकर तातार भेज दिए गए और आठ महीने घाटी मेंरहने के बाद वह हज़ारों ब्राह्मणों को दास बनाने के बाद जब वापस जा रहा थातो देवकर दर्रा पार करते हुए बर्फ के
तूफ़ान से उसकी और उसके साथ जा रहे सभीलोगों की मौत हो गयी। मगर उसके जाने के बाद कश्मीर एकदम बर्बाद कश्मीर होगया। उसके बाद किश्तवाड़ के गद्दियों ने कश्मीर पर
आक्रमण किया, मगररामचंद्र के द्वारा भेजी गयी सेना ने उन्हें वापस खदेड़ दिया और राम चंद्रने खुद को राजा घोषित कर दिया।कोटा रानी की साम,दाम, दंड, भेद नीति
इधर रिन्चिन भी इन परिस्थितियों का फायदा उठाकर गद्दी हासिल करना चाहता था।रिन्चिन ने विद्रोह कर दिया और रामचंद्र का धोखे से क़त्ल करा दिया। इसप्रकार बौद्धधर्मी
रिन्चिन का कश्मीर के शासन पर अधिकार हुआ और उसने कोटारानी से विवाह कर लिया। कहा जाता है कि इस विवाह का प्रस्ताव कोटा रानी कीतरफ से ही दिया गया था। कोटा
रानी कश्मीर में प्राचीन संस्कृ ति को जीवितरखना चाहती थी, और हर कीमत पर हिन्दू शासन चाहती थी

उसे पता था कि कश्मीर को तभी बचाया जा सकता है जब उसके विचारों मेंपरिवर्तन लाकर पूरी तरह से भारतीय किया जा सके । इसलिए कोटा रानी ने रिन्चिनसे विवाह करना
उचित समझा और विवाह के उपरान्त पूरी दूरदर्शिता के साथ शासनकरने लगी। और धीरे धीरे उसने रिन्चिन को हिन्दू धर्म के प्रति भी आकर्षितकर लिया और उसे भारतीय धर्म
और संस्कृ ति का इतना प्रेमी बना दिया किरिन्चिन हिन्दू धर्म स्वीकार करने की भी योजनाएं बनाने लगा था।

दुर्भाग्य ही था कि हिन्दू धर्म में प्रवेश करने की उसकी योजना को हिन्दूधर्म के ठेके दारों ने स्वीकार नहीं किया और जिस प्रकार उसका दिल टूटा औरबेचैन हुआ, वह इस अस्वीकृ ति
से इतना विचलित हुआ कि उसने इस्लाम अपना लियाऔर अपना नाम मलिक सदरुद्दीन रख लिया। इस प्रकार वह कश्मीर का पहला मुस्लिमशासक हुआ, परन्तु वह वहीं की मिट्टी
का इंसान था, इसलिए वह कट्टर नहीं थाऔर वह अपनी हिन्दू पत्नी के कारण भी प्रजा के जबरन धर्मांतरण जैसी घटनाओंमें शामिल नहीं था।

सहदेव के भाई उदयन देव ने रिन्चिन के खिलाफ विद्रोह कर दिया और उस परआक्रमण कर दिया। लड़ाई में रिन्चिन गंभीर रूप से घायल हुआ और उसके कारण सन 1326 में
उसकी मृत्यु हो गयी

रिन्चिन की मृत्यु के समय उसका बेटा हैदर छोटा था, तो रानी ने राजकाजसम्हाला। मगर उसके सामने सेना के साथ उदयन देव आ गया। अपने राज्य के सुरक्षा को ध्यान में रखते
हुए, और अपनी संस्कृ ति को बनाए रखने की ललक नेएक बार फिर कोटा रानी को फै सला लेने पर विवश किया और उसने उदयन देव कोराज्य के साथ साथ स्वयं को भी समर्पित
कर दिया, और पूरे प्रशासन कोसम्हालने लगी। उसके दो विश्वासपात्र थे, एक था उसका भाई भिक्षण भट्ट औरदूसरा शाहमीर।

कश्मीर पर एक और तातारी सरदार ने सैकड़ों तातारी लोगों के साथ आक्रमण करदिया। अपने भाई सहदेव की तरह उदयनदेव भी इस भीषण परिस्थितियों में अपनीपत्नी और राज्य
को छोड़कर तिब्बत की तरफ भाग गया। मगर रानी भागी नहीं, उसनेअपनी सेना में जोशीला भाषण दिया, सेना को उसके कर्तव्य याद दिलाए, उनमेंजीत के लिए जूनून पैदा किया
और अपने भाई भिक्षण भट्ट और शाहमीर की मदद सेउस सेना को भगा दिया। उसकी देशभक्ति की अपील ने स्थानीय नागरिकों पर असरकिया और उसकी आवाज़ पर स्थानीय
नागरिक भी युद्धका हिस्सा बन गए। उनआक्रमणकारियों का खतरा टलने के बाद उदयन देव वापस आया और उसनेशाहमीर औरउसके बेटों को महत्वपूर्ण पद दिए। इस प्रकार
कश्मीर पर हिन्दू शासन बनाएरखने में रानी सफल रही।

सन 1341 में उद्यन देव की मृत्यु हो गयी और कश्मीर पर एक बार फिर से खतरामंडराने लगा। उस समय कोटा रानी और उदयन देव का बेटा छोटा था, अत: रानी नेएक बार
फिर से राजकाज सम्हाला।She became the ruler in her own right later on and appointed Bhatta Bhikshana, as her prime
minister. मगर इस समय तक शाहमीर में कश्मीर का पहलामुस्लिक शासक होने की हवस जाग चुकी थी और उसे माहौल भी अपने अनुकू ल लगा।उसने पहले तो भिक्षण भट्ट को
अपनी योजना में शामिल करने के लिए लालच दिया, जब वह नहीं माना तो पहने उसने भिक्षण भट्ट की धोखे से हत्या कराई और फिरउसने कोटा रानी के खिलाफ विद्रोह कर दिया
और पराजित किया। इस प्रकार कश्मीरपर इस्लाम का शासन काबिज़ हुआ।

कहा जाता है कि शाहमीर ने कोटा रानी को विवाह का प्रस्ताव दिया था, और उसेनिकाह के लिए मजबूर भी कर दिया था। जब वह रात में उसकी प्रतीक्षा कर रहाथा, तो उसके
सामने पूरे सिंगार में आई रानी ने अपने पेट में खंजर घुसेड करआत्महत्या कर ली थी, और उसके आख़िरी शब्द थे, “यह है मेरा जबाव!”
As per historians Kota Rani committed suicide and offered her intestines to Rinchan's son Shah Mir as a wedding
gift. However, it is still not known what happened to her sons.

he legacy that she left behind was that she saved Srinagar from frequent floods by getting a canal constructed, which
was named after her and called "Kute Kol". This is that canal which gets water from Jhelum River at the entry point
of city and then again merges with Jhelum river beyond the city limits.
She was the 14th queen of Kashmir and was well known be a great administrator and able military strategist.

जगन्नाथ पुरी: 18 आक्रमणों का गवाह


http://indiafacts.org/jagannath-puri-survivor-18-invasions-hindi/

पहला आक्रमण 9 वीं शताब्दी में, राष्ट्रकू ट राजा – गोविंद तृतीय द्वारा किया गया था राष्ट्रकू ट आक्रमण का अर्थ के वल शासक परिवर्तन था, संस्कृ ति बदलने का प्रयास नहीं।

1340 ई में, बंगाल के सुल्तान इलियास शाह ने मंदिर पर हमला किया। इलियासशाह वह व्यक्ति था जिसने “बंगाल सल्तनत” की स्थापना की – जो कि विभिन्नरूपों में और
विभिन्न शासकों के अधीन, दिल्ली के पक्ष या विरोध में, 1757 ई. में प्लासी के युद्ध तक कायम रहा। आक्रमण से बहुत विनाश हुआ, लेकिनमूर्तियों को छिपा दिया गया और इसलिए
मूर्त्तियां बच गयीं।

बीस साल बाद, फिरोज शाह तुगलक ने आक्रमण किया। कु छ का मानना है कि उसनेवास्तव में मूर्तियों को हथिया लिया और उन्हें समुद्र में फें क दिया, लेकिनइसकी पुष्टि नहीं हुई है।
फिरोज शाह तुगलक ने बाराबती में भी कु छ मंदिरोंको नष्ट किया।
आठवां आक्रमण- कु छ साल बाद, ओडिशा के मुगल सूबेदार कासिम खान ने मंदिर पर हमला किया।मूर्तियों को छिपाकर खुर्दा ले जाया गया, जहां उन्हें गोपाल मंदिर मेंस्थापित
किया गया। मुगल शासक जहाँगीर को संतुष्ट करने को उत्सुक कासिम खानने इस मंदिर के शहर में भरी लूटपाट मचाया| मूर्तियों को फिर एक बार पुरीलाया गया जब इस आक्रमण से
उड़ी धूल बैठ गई।

कासिम खान के इस वफादार सेवक नौवाँ आक्रमण के सोदारमारू ने पुरी में जगन्नाथ मंदिर क्षेत्र पर हमलाकिया और वहां कब्जा कर लिया। वह इस आक्रमण के दौरान जगन्नाथ पुरी
रथों कोआग लगाने के लिए भी कु ख्यात है। मंदिर में वह आठ महीने तक कब्ज़ा जमाये रहा, इस दौरान पुरुषोत्तम देव ने उनका विरोध करने की कोशिश की। अंत में, जहाँगीर को
तीन लाख रुपये की घूस देने के कारण जगन्नाथ पुरी में मूर्तियोंको पुनःस्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।अंत में, जहाँगीर को तीन लाख रुपये की घूस देने के कारण जगन्नाथ पुरी
में मूर्तियों को पुनःस्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

तुगलक वंश(12,000 Hindu ascetics)


खिलजी वंश के बाद दिल्ली सल्तनत तुगलक वंश के अधीन आ गई। गयासुद्दीन तुगलक 'गाजी' सुल्तान बनने से पहले कु तुबुद्दीन मुबारक खिलजी के शासनकाल में उत्तर-पश्चिमी
सीमांत प्रांत का शक्तिशाली गवर्नरगवर्नर नियुक्त हुआ था। उसे 'गाजी' की उपाधि मिली थी। गाजी की उपाधि उसे ही मिलती है, जो काफिरों का वध करने वाला होता है। जिसमें
क्रमश: गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक,
फिरोजशाह तुगलक (1353 180,000 heads of Hindus massacred by his soldiers),
नसरत शाह तुगलक और महमूद तुगलक आदि ने दिल्ली पर शासन किया। यद्यपि तुगलक 1412 तक शासन करता रहा तथापि 1399 में तैमूरलंग द्वारा दिल्ली परआक्रमण के साथ
ही तुगलक साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए।  The "Tarikh-i-Firuz Shah" is a historical record written. An order was
accordingly given to the Brahman and was brought before Sultan. The true faith was declared to the
Brahman and the right course pointed out. but he refused to accept it. A pile was risen on which the Kaffir
with his hands and legs tied was thrown into and the wooden tablet on the top. The pile was lit at two places
his head and his feet. The fire first reached him in the feet and drew from him a cry and then fire completely
enveloped him.

। तारीख-ए-फिरोज़ शाही में वर्णन है कि -

एक फरमान के तहत एकब्राह्मणको सुलतान के समक्ष पेश किया गया। उसको सच्चे धर्म(इस्लाम) के बारे मेंबताया गया, लेकिन उसने उसे स्वीकार नहीं किया। उस काफ़िर के हाथ-
पैर बांधकर लकडियों के ढेर पर फ़ें क दिया गया और दोनों और से आग लगा दी गयी। आगपहले उसके पैरों पर पहुँची जिस से वो चीखा। जल्द ही आग उसके चारों और फ़ै लगयी।-
तारीख-ए-फिरोज़ शाही

तुगलक़ के शासनकाल में हिन्दूओं से जबरन जज़िया कर वसूला जाता थाउनको काफिर के तौर पर दर्ज किया जाता था और उनकी निरन्तर निगरानी की जातीथी। जो हिन्दू
मुर्तिस्थापन या मन्दिर निर्माण करते थे या फिर सार्वजनिकतौर पर अपने धर्म का अनुसरण कु ण्ड के आसपास करते थे, उनको क़ै द करके महलमें मार दिया जाता था।

फ़िरोज़ शाह तुगलक़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि-

कु छ हिन्दूओं ने गॉंव कोहाना में एक मूर्तिस्थल स्थापित करके वहॉंमूर्तिपूजा आदि करनी शुरू कर दी। इन लोगों को पकड़ कर मेरे सामने पेश कियागया। मैंने इसे सार्वजनिक तौर पर
विकृ त प्रथा करार देते हुए उन लोगों कोमहल के दरवाजे के बाहर मार दिये जाने का निर्देश दिया। इसके अलावा उन सभीगैर-इस्लामिक पुस्तकों, मूर्तियों और पूजासामग्री को जला
देने का हुक़्मदिया। बचे हुए लोगों को दण्ड और धमकी के द्वारा काबू कर लिया, ताकि सब कोये पता चल जाये कि, एक मुसलमान राज्य में ऐसी गैर-इस्लामिक प्रथाऍं वर्जितहैं।

- फिरोज़ शाह तुगलक़, फु तुहात-ए-फिरोज़ शा

उलूघ खान ने दक्षिण भारत पर हमला करके श्रीरंगपट्टनम१२००० निहत्थे साधुओं को मार दिया और मन्दिर को ध्वस्त कर दिया। वैष्ण्व दार्शनिक श्रीवेदान्त देशिकने लाशों के बीच
छु प कर अपने-आप, श्री सुदर्शन सूरी कृ त ग्रंथ व उनके २ पुत्रों को बचाया।

The jauhar phenomenon was also observed in other parts of India, such as in the Kampili kingdom of northern
Karnataka when it fell in 1327 to Delhi Sultanate armies
1325-1351 ग़यासुद्दीन तुग़लक़की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'जूना ख़ाँ', मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम 'उलूग
ख़ाँ' था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) कोदुनिया का ख़ान कहा गया है। सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मदतुग़लक़ सर्वाधिक
शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी सनक भरीयोजनाओं, क्रू र-कृ त्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखनेके कारण इसे 'स्वप्नशील', 'पागल' एवं 'रक्त-
पिपासु' कहा गया है1327 ईस्वी में राजधानी दिल्ली से हटाकर वहा ले जाने का आदेश दिया और देवगिरी का नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया |देवगिरीमें बड़े बड़े सरकारी
कर्मचारियों के बसने से वह स्थान इस्लामी सभ्यता काकें द्र बन जाएगा और इससे दक्षिण पर नियन्त्रण रखने में सफलता मिलेगी
Thus it was that in 1327, the tiny kingdom of Kampili, ranging over a few districts in modern day Karnataka, found
itself standing all alone against the might of the Tughlaq Sultanate. Tughlaq demanded Gurshasp from the Raya of
Kampili. The Raya replied that he had sworn to protect Gurshasp with his life and was willing to fight unto death for
his word. The war between the kingdom of Kampili and the Tughlaq empire lasted over a year during which three
expeditions were sent by the sultan against Anegundi. Kampili Deva Raya knew that the end was near. However
even in the face of certain defeat, death, or even worse - given the notorious reputation of Muhammad Tughlaq for
the most horrific forms of torture - the Raya was not willing to compromise with his honour. From Anegundi he
arranged to have Gurshasp smuggled to the Hoysala capital of Dwarasamudra where a greatly weakened Veer
Ballala 3rd still held some semblance of control. A letter of commendation from Kampili Deva Raya was enough for
Gurshasp to be welcomed into the court of the ageing Veer Ballala 3rd. According to the Portuguese historians,
Domingo Paes and FernaoNuniz who wrote an account of the Vijayanagara kingdom in the 16th century, a funeral
pyre was then lit into which jumped all the women and children of the assembled warriors. Finally the gates of the
besieged fortress were opened and the warriors of the kingdom of Kampili fell upon their besiegers, embracing
death with swords in their hands than surrendering to the enemy.

Today’s history mentions that Adina mosque was built by Sikandar Shah in 1358-90 AD, over a grand ancient
Hindu temple. Adina mosque is said to be one of India’s biggest mosques.

It was also an ancient Shiva temple and also had a temple dedicated to Lord Vishnu . There is damaged slab
with an image of Lord Ganesha and an idol of Lord Nataraja (the dancing form of Shiva) which are remnants of the
temples glorious past and reminders of the deliberate destruction, plunder, loot of wealth and theft of Hindu
cultural heritage.Carvings and motifs of the lotus flower, which is sacred to Hindus as symbols of wealth, Goddess
Lakshmi and prosperity are found in the central prayer hall of the Adina mosque.

The Gazetteer of Jaunpur district dated 1908, written by H.R. Nevill, the district collector of Jaunpur, confirms
that the temple was demolished by Ibrahim Naib Barbak, the brother of Sultan Firoz ShahTughlaq who erected
the Jhanjharimasjid in honour of a saint called Hazrat Ajmali. Not far from Jhanjhari is what is popularly known as
the Atala Devi masjid. On two sides, in front of this rectangular edifice, are rows of two-storeyed cloisters.
Opposite the mosque is also a similar cloister, which now houses a madrassa. According to the gazetteer, there
stood an equally large temple built by Raja Vijaya Chandra of Kannauj, the father of Jaichand. Khwaja
Kamal Khan demolished the temple in 1364 AD and Ibrahim completed the mosque in 1408 AD

Vijayanagara by the Bahmani Sultanate1365–1367 500,000 Hindus

हरिहर और बुक्का नाम के दो भाई दक्षिण भारत के कम्पिली राज्य मेंमंत्री थे.मुहम्मद तुगलक ने इस राज्य को जीतकर बंदी बना लिया और दोनोंभाइयों को मुस्लमान बनाकर अपने
साथ दिल्ली ले गया.जल्द ही कम्पिली मेंविद्रोह हो गया तो तुगलक ने इन दोनों भाइयों को इस विद्रोह को दबाने के लिएभेज दिया .हरिहर और बुक्का जैसे ही कम्पिली पहुंचे उन्होंने
फिर से हिन्दूधर्म अपना लिया और तुगलक के खिलाफ विद्रोह कर दिया. 1336 में हरिहर नेकम्पिली का नाम विजयनगर कर दिया और उसका राजा बन बैठा .हरिहर एक योग्य
शासकसाबित हुआ .उसने आसपास के कई राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लियाऔर एक विशाल साम्राज्य की नींव रखी.
1356 में उसकी मृत्यु के बाद उसका भाई बुक्का गद्दी पर बैठा .उसनेतुगलक द्वारा मुसलमान बनाये गए सारे राजाओं को हिन्दू धर्म अपनाने के लिएमजबूर कर दिया और इस तरह
वो एक शक्तिशाली हिन्दू राजा के रूप में मशहूर होगया. उसने हरिहर के साम्राज्य विस्तार की नीति को आगे बढाते हुए रामेश्वरमतक फै ला दिया और महाराजा की उपाधि धारण की
.1377 में उसकी मृत्यु हो गई .तीन पीढ़ियों बाद इस वंश में कृ ष्णदेव राय जैसा प्रतापी राजा हुआ जिसनेदक्षिण भारत में हिन्दुओं की धाक जमा दी .

In 1375 CE, the somnath temple was once again destroyed by Muzaffar Shah I, the Sultan of Gujarat

1336 - Harihara and Bukka rai - Vijayanagar Empire was founded by two brothers, Harihara and Bukka rai in
1336 to ward off increasingly aggressive invasions by Delhi sultanates in southern India. Founding the Capital
Vijayanagar at the southern banks of Tungbhadra river to guard against attacks from north from its foes. From their
it ruled for over two centuries. While northern India fell to Islamic conquests and native rulers were increasingly
marginalized to nook and crannies in Himalayan hills or desert of Thar, Southern India saw not only preserved
Indian civilization but saw minor revival under increasingly hostile situation. Vijayanagar empire contributed in
architecture, literature and economy and at its heyday under krishnadev Raya it could bring anywhere between a
million to 2 million soldiers into battlefield.
The Battle of Talikota (23 January 1565) n 1520 Krishna Deva Raya completely routed the army of Adil Shah in
battle of Raichur. The battle started because Adil Shah was massacring Hindu population.After that Muslims of
Deccan started forming alliance andFive Deccan sultanate kingdoms (Bidar, Berar, Golconda, Bijapur and
Ahmednaga) united and launched attack on from north. Rama Raya, a powerful king of Vijayanagar empire at the
the time, came to battlefield with a large army under his command numbering about 150,000.

Rama Raya was on the verge of winning the war when two Muslim commanders (GhilaniBrothers) in his
army suddenly launched subversive attack against their own master. They captured Rama Raya and with help
of king of Ahmednagar, Hussain Nizam Shah, they beheaded Rama Raya on the battlefield. And as happened
umpteen times in medieval era, Loss of the King / Commander sapped the morale of the army and they took to
heels. Islamic armies entered richest city of its times and with fire and sword and hammers, turned it into ruins. That
day the last of the great Indian indigenous kingdom saw its end.

But Aliya Rama paid a heavy price for believing in myslims at the time when whole Deccan was called upon to
do jihad against kafir Hindus.

Muslim commanders were fighting in close proximity to Aliya Rama and all of a sudden they started attacking the
Hindus of Vijayanagar empire army. Aliya Rama was entraped by Muslim men with no scope of breaking
out of the enclosure.

He was captured and beheaded on spot. This created chaos and non Muslims were massacred, for the coming 3
months massacre continued and they destroyed each and every temple in the Hampi city. Today also you will find
idols without nose, hands and legs in Hampi. That was all done by Muslim army to desecrate Hindu believes.

Betrayal of two key commanders in Vijaynagar kingdom known as Gilani brothers.

Robert Sewell, in his book The Forgotten Empire, concludes thus – "With fire and sword, with crowbars and axes,
they carried on day after day their work of destruction. Never perhaps in the history of the world has such havoc
been wrought, and wrought so suddenly, on so splendid a city; teeming with a wealthy and industrious population in
the full plenitude of prosperity one day, and on the next seized, pillaged, and reduced to ruins, amid scenes of savage
massacre and horrors beggaring description

Sikandar Butshikan (सिकं दर बुतशिकन, Sikandar the Destroyer of idols)1389–1413.


मूर्ति-पूजा का विरोधी होने के कारण प्रतिमाओं को तोड़ने के कारणबुतशिकन की उपाधि मिली| सुल्तान बुतशिकन (सन् 1393) ने पंडितों को सबसे ज्यादा दबाया। उसने 3
खिर्बार (7 मन) जनेऊ को इकट्ठा किया था जिसका मतलब है कि इतने पंडितों नेधर्म परिवर्तन कर लिया। हजरत अमीर कबीर (तत्कालीन धार्मिक नेता) ने ये सबअपनी आंखों से
देखा। ...उसने मंदिर नष्ट किया और बेरहमी से कत्लेआम किया उसने एक सेना की टुकड़ी मंदिरों में मूर्ति तोड़ने के कम में लगा राखी थी|लाखो कश्मीरी हिन्दुओ कीहत्या करने के
बाद उनके जनेऊ के सात टीले जलाये हिन्दुओ के अंतिम संस्कार पर रोक लगायी| मंदिरों को तोड़कर उनके अवशेष से सिकं दार्पुरा शहर बसाया | destroyed the
temples of Maha-Shri built by Praversena and another by Tarapida. The material from these was used for
constructing a 'Jami' mosque in the middle of the city
गैर-इस्लामिक लोगों के रिवाज़ जैसे पूजा-अर्चना, नृत्य, गायन, संगीत, शराब पीने और धार्मिक उत्सवों पे पाबंदी लगा दी| 8 वीं शताब्दी में बने ऐतिहासिक और विशालकाय
मार्तण्ड सूर्य मंदिर कोमुस्लिम शासक सिकं दर बुतशिकन (Sikandar Butshikan) ने तुड़वाया थारीनगर से 60 किलोमीटर दूर दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग जिले में है। यह
मंदिरअनंतनाग से पहलगाम के बीच मार्तण्ड नाम के स्थान पर स्थित एक पठार पर हैजिसे मटन कहा जाता है।

1451 CE, the somnath temple was once again destroyed by Mahmud Begda, the Sultan of Gujarat.

सय्यद और लोदी वंश (1451 से 1426 ईस्वी) :


कई अफगान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। इन सरदारों में सबसे महत्वपूर्ण बहलोल लोदी था। दिल्ली के शासक पहले तुर्क थे, लेकिन लोदी शासक अफगान
थे। बहलोललोदी के बाद सिकं दर शाह लोदी और इब्राहीम लोदी ने दिल्ली पर शासन किया। इब्राहीम लोदी 1526 ई. में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर के हाथों मारा गया और
उसी के साथ ही लोदी वंश भी समाप्त हो गया।
मुगल, Purtgaliese और अफगान (1525-1556)

6. चंगेज खान and हलाकु खान (1200, मूलत: मंगोल) - भारतपरसबसेबड़ाहमलाचंगेजखानने12 वीशताब्दीमेंकिया।चंगेजखानमूलत:


मंगोलकाबोद्धथाजोअपनीबर्बरताके लिएप्रसिद्धथा।कु छऐतिहासिकसाक्ष्योंके अनुसारचंगेजखानहिन्दूथाजोगणेशऔरदेवीकाबड़ाउपासकथा।
उसकीसमाधीपरलगात्रिशूलकाचिन्हउसके हिन्दूहोनेके कईप्रमाणदेताहै।चंगेजखानअपनेजीवनकासबसेक्रू रव्बर्बरलुटेराथाजिसनेपुरेबगदादकोलुटकरलाखोमुसलमानोकाक़त्लकियाथा।
चंगेजखानकोमुसलमानोंसेबहुतनफरतथीजिसकारणउसनेअभियानचलाकरईरान, काबुल, पेशावर, कश्मीरपरअधिकारकरके लाखोमुसलमानोंकोमौतके घातउताराथा।
चंगेजनेऐसेहीएकअभियानमेंसिन्धुपारकरके भारतपरआक्रमणकरनेकीयोजनाबनाईथीपरदुष्करमौसमके कारणवहअपनाअभियानपूरानकरसकाथा।चंगेजनेअपनेआक्रमणोंसेतुर्क , ईरान,
इराक, अफगानिस्तान, बर्मा, दक्षिणरूसमेंबड़ीआबादीकासफायाकरदियाथा।चंगेजके बादउसकावंशजहलाकू खानभीबहुतबर्बरऔरअत्याचारीथा।
हलाकू खानकीमौतके बादमुसलमानोंनेमंगोलपरअधिकारकरके अधिकतरखानवंशके लोगोंकोमुसलमानबनादियाथा।

मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था।
क्रू रता के मामले में वह चंगेज खान की तरह ही था। कहते हैं, एक जगह उसने दो हजार जिन्दा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया। दिल्ली में वह
15 दिन रहा और उसने इस बड़े शहर को कसाईखाना बना दिया। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह समरकं द वापस लौट गया। तैमूर के जाने के बाद दिल्ली मुर्दों का शहर रह गया
था।

7. तैमुर लंग (१३९८)100,000 Hindu captives

तैमूरएक कट्टरपंथी था जो पूरे विश्व मे इस्लाम की स्थापना चाहता था। इसीलिए वोजहां भी हमला करता था वहां ‘काफिरों’ को मार कर इस्लामी धर्म पूरा करता था।तैमूरकी नज़र
जब भारत की दौलत पर पड़ी तो वो ललचा गया और हार्ट पर आक्रमण करने के लिए सेनापतियों से राय मांगी,ज्यादातर मुकर गए। फिर उसने कहा हिंदुस्तानकाफिरों का देश है और
उसपर हमला करके हम इस्लाम धर्म निभा रहे हैं, और इतनाकहते ही पूरी सेना भारत पर हमले के लिए निकल पड़ी।

तैमूरसिंधु नदी के रास्ते भारत मे घुसा और सबसे पहले तुलुम्बा नगर में घुसकरवहां के सभी नागरिकों की हत्या कर महिलाओं को बंदी बना लिया और सभी मंदिरनष्ट कर दिए

इसके बाद वो कश्मीर के कटोर नामक राजपूती किले पर हमला कर सभी पुरुषों को मौतके घाट उतार दिया और स्त्रियों को बंदी बना लिया। उसने हत्या किए गए सभीपुरुषों के सर
से मीनार बनवाई। उसने अपनी जीवनी में लिखा है; थोड़े ही समयदुर्ग के सारे काफिर पुरुष मौत के घाट उतार दिए गए,उनकी महिलाओं पर हमनेकब्ज़ा कर लिया और उनके द्वारा
जमा किये हुए सभी रत्नों और अनाज को मेरीसेना ने लूट लिया

दिल्लीका शासक उस वाट तुग़लक़ सुल्तान महमूद था जो नकारा था, एक बड़ी सेना के साथलड़ाई करने के बावजूद बुरी तरह हर गया और मैदान छोंड़कर भाग गया।तैमूर मंगोलों की
फौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कत्ल किए गए। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह वापस
समरकं द लौट | तैमुर के आक्रमण से दिल्ली एक खँडहर बन चुकी थी।He crossed the Indus River at Attock on 24 September. The capture
of towns and villages was often followed by the massacre of their inhabitants and the raping of their women,
as well as pillaging to support his massive army. Timur wrote many times in his memoirs of his specific
disdain for the 'idolatrous' Hindus......

When Timur invaded India in 1398-99, collection of slaves formed an important object for his army. 100,000
Hindu slaves had been seized by his soldiers and camp followers. Even a pious saint had gathered together
fifteen slaves. Regretably, all had to be slaughtered before the attack on Delhi तैमुर हर कोस पर काफिरों के नरमुंड का टीला
बनवाता था|

They said that on the great day of battle these 100,000 prisoners could not be left with the baggage, and that it
would be entirely opposed to the rules of war to set these idolaters and foes of Islam at liberty.

“In fact, no other course remained but that of making them all food for the sword’

Timur thereupon resolved to put them to death. He proclaimed:

“throughout the camp that every man who has infidel prisoners was to put them to death, and whoever neglected to
do so should himself be executed and his property given to the informer. When this order became known to the
ghazis of Islam, they drew their swords and put their prisoners to death. 100,000 infidels, impious idolaters, were
on that day slain. Maulana Nasir-ud-din Umar, a counselor and a man of learning, who, in all his life had never
killed a sparrow, now, in execution of my order, slew with his sword fifteen idolatrous Hindus, who were his
captives“.

“In a short space of time all the people in the [Delhi] fort were put to the sword, and in the course of one hour the
heads of 10,000 infidels were cut off. The sword of Islam was washed in the blood of the infidels, and all the goods
and effects, the treasure and the grain which for many a long year had been stored in the fort became the spoil of
my soldiers.

“They set fire to the houses and reduced them to ashes, and they razed the buildings and the fort to the ground….All
these infidel Hindus were slain, their women and children, and their property and goods became the spoil of the
victors. I proclaimed throughout the camp that every man who had infidel prisoners should put them to death, and
whoever neglected to do so should himself be executed and his property given to the informer. When this order
became known to the ghazis of Islam, they drew their swords and put their prisoners to death.”

अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' मेंतैमूरलंग कु रान कीइस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालोंसे युद्ध करो और उन पर सखती बर्तों।' वह आगे
भारत पर अपने आक्रमण का कारणबताते हुए लिखता है-

हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना, आगे वर्णित है क्है (जिससे)  इस्लाम  की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान
वस्तुएँ मिल जायें।

आगे वर्णित है कि 'थोड़े ही समय मेंदुर्गके तमाम लोगतलवारके घाट उतार दिये गये। घंटे भर में १०,००० (दस हजार) लोगों के सिर काटेगये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के
रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकठ्ठा किया गया था, मेरेसिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया।
इमारतों औरदुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।

दूसरा नगर सरसुती था, जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल करदिये गये। उनके स्त्री और बच्चें और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जबजाटों के प्रदेश में प्रवेश किया।
उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भीमिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगरआया, उसे लूटा गया। पुरुषों का कत्ल कर दिया गया
और कु छ लोगों, स्त्रियोंऔर बच्चों को बंदी बना लिया गया।'

दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। उसके पास बंदियों की संख्या एक लाख हो चुकी थी, किन्तु कु छ मुसलमान भी बंदियोंमें थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष
सभी हिन्दू बंदीइस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दूबंदियों की संख्या एक लाख हो गयी थी। जबयमुनापार कर दिल्ली पर आक्रमण की
तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससेकहा कि, इन बंदियों को शिबिर में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के
विरुद्ध होगा। तैमूरलिखता है-

इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहींथा। मैंने कै म्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इसआदेश के पालन में जो भी
लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकीसम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों काकत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को
यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारेंसूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्रमूर्ति-पूजक काफिर कत्ल कर दिये गये।

एक अनुमान के मुताबिक उसने अपने शासन काल में 2 करोड़ हत्याएं करवाईं जो कि उस वक़्त की कु ल आबादी का पांच प्रतिशत था।

एक जगह उसने 2 हजार जिंदा आदमियों की मीनार बनवाई और उन्हें ईट और गारे में चुनवा दिया |

the Aina or Friday mosqueis situated on National Highway No. 34 between Raiganj in West Dinajpur district of
West Bengal and Malda. There are some 20 alcoves in the northen wall. They all give the impression of temple
carvings. If there be any doubt, it is set at rest by what was used as mimbar or the pulpit for the Imam. The face of
the last step is covered with carvings of two female figures, which, of course, have been defaced but are still
unmistakably human statuettes.
January 17, 1405Dhar is the Lat Masjid- The other well known monument in Dhar is the Lat Masjid named after
a square metal pillar whose total height must have been about 41 feet and which is preserved in three pieces of 7, 11
and 23 feet in a small compound next to the mosque. There is no rust anywhere, which is an indication that it may be
made of metal not different from the iron pillar near Qutab Minar. According to Luard, the inscriptions on the
eastern and northern gates indicate that the mosque was inaugurated by Amid Shah Daud Ghori, also known as
Dilawar Khan, on January 17, 1405. The word “inaugurated” has been intentionally used, instead of Luard’s use of
“erected” because, evidently, the edifice is a mandir converted into a masjid. The Lat masjid has neither minarets
nor the traditional hauz in which the devotee can wash his hands and feet before performing namaz. It is a large
rectangular pavilion with a great deal of open space in the center. The four-sided pavilion originally stood on some
300 square shaped stone pillars.

१४९९लोधी वंश के सिकदंर लोधीवबहलोल खानके शासन में हिन्दुओं को जला के मारने जैसी घटना हुयी, १४९९ ई ː में एकबंगाली ब्राह्मण के उदार विचारों से प्रभावित हो कर
बहुत से हिन्दू वमुसलमान उसके अनुयायी बन गये, उसका मत था कि हिन्दू व इस्लाम, दोनों धर्मसच्चे हैं के वल ईश्वर तक पहोंचने का इनका मार्ग अलग-अलग है।

सिकदंर ने इस बारे में अपने इस्लामिक विशेषज्ञों से सलाह लीजिन्होंने ऐसी धारणा को गलत बताया और सिकदंर को उस ब्राह्मण को इस्लामअपनाने या मारे जाने में से एक चुन
लेने के लिये कहा। सिकदंर ने जब ऐसा हीकिया पर ब्राह्मण ने अपना मत बदलने से इन्कार कर दिया और तब उसे मार दियागया।[26]

उसने काफिरों के पूजास्थलों को बड़े पैमाने पर नष्ट किया। मथुरा जो किमूर्तिपूजा का प्रमुख गढ़ था, वहां के मन्दिरों को पूरी तरह नष्ट कर दिया।वहां स्थापित मूर्तियों को कसाईयो
को मांस तौलने के काम में लेने के लियेदे दिया। सभी हिन्दुओं के सिर और दाढ़ी मूण्डने पर पाबन्दी लगा दी। इस तरहपूरा शहर इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार चलने लगा। -
तारीख-ए-दाउदीउसने हिंदू मंदिरो को नष्ट किया और हिंदूओ पर जज़िया लगाया।उसने ग्वालियर के किले पर पांच बार आक्रमण किया लेकिन राजा मानसिंह ने हर बार उसे हरा
दिया

इब्राहिम लोदी इतना अलोकप्रिय हो गया कि उसकाज़मींदार व चाचा आलम खान काबुल भाग गया और बाबर को भारत पर हमला करने कान्यौता दिया । जल्द ही बाबर ने भारत
पर आक्रमण करके इब्राहिम लोदी को हरादिया।

1412–1414.According to Goron and Goenka, Raja Ganesha seized control over Bengal soon after the death of
Sultan Bayazid (1412–1414). Facing an imminent threat of invasion at the behest of a powerful Muslim holy man
named Qutb al Alam, he appealed to the saint to call off his threat. The saint agreed on the condition that Raja
Ganesha's son Jadu would convert to Islam and rule in his place. Raja Ganesha agreed and Jadu started ruling
Bengal as Jalal al-Din in 1415 AD. Nur Qutb died in 1416 AD and Raja Ganesha was emboldened to depose his son
and accede to the throne himself as Danujamarddana Deva. Jalaluddin was reconverted to Hinduism by the Golden
Cow ritual. After the death of his father he once again converted to Islam and started ruling his second phase.There
are conflicting reports of Jalaluddin policies towards Hindus. Jalaluddin played a distinguished role in
converting the Hindus of Bengal to Islam. Dr. James Wise wrote in the Journal of the Asiatic Society of Bengal
(1894) that the only condition he offered was either the Koran or death. Many Hindus fled to Kamrup and the
jungles of Assam, but it is nevertheless possible that more Mohammedans were added to Islam during these
seventeen years (1414–31) than in the next three hundred years.

१५२६-१५३५ और फ़िर दोबारा १५३६-१५३७क़ु तुबुद्दीनबहादुर शाह नाम सुनते ही आपको बहादुर शाह जफर यानी आखिरी मुगल बादशाह की दास्तान याद आ जाना लाजमी
है.बहरहाल, आज हम एक दूसरे बहादुर शाह की बात करने जा रहे हैं, जिसे गुजरात सल्तनत का सुल्तान कहा जाता है.इसकी पैदाइश गुजरात की गद्दी पर काबिजशमसुद्दीन
मुजफ्फर शाह द्वितीय के यहां हुईजिसनेमुगल सुल्तान हुमायूं से जंग लड़ी. हालांकि, वह पराजित हुआमुगलों के हाथ से अपने खोए हुए साम्राज्य को वापस हासिल किया. उसने
अपने बड़े बेटे सिकं दर शाह को अपना वारिस घोषित कर दिया था. इससे बहादुर शाह के उनके भाई और पिता के साथ संबंध तनावपूर्ण हो गए. औरमौके की नजाकत को समझते
हुए शमसुद्दीन का छोटा बेटा बहादुर शाह अपनीसमझदारी दिखाते हुए गुजरात छोड़कर चला गया.पहले उसने चित्तोड़ में पनाह ली और फिर वो शेरशाह सूरी के पास गया.मुगलों
के राजनीतिक शरणार्थियों को शरण देकर बहादुर शाह ने हुमायूं से दुश्मनी मोल ले ली थी.सन 1531 में पुर्तगाली गवर्नर निनो-डि कु न्हा ने गुजरात सल्तनत के अतर्गत आने वाले
दीव पर आक्रमण कर दियाफिर पुर्तगालियों ने उसकी हत्या कर दी.
चित्तौड़ का दूसरा जौहर सन 1535 में हुआ, जब गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। तब रानी कर्णावती ने संकट में दिल्ली के शासक हूमायूं कोको राखी
भेज मदद मांगी। कर्णावती ने शत्रु की अधीनता स्वीकार नहीं की और 13 हजार रानियों के साथ जौहर किया।

The Cuncolim revolt involved the massacre of Christianpriests and civilians by Kshatriyas in Cuncolim, Goa on
Monday, 25 July 1583, as a protest against attempts by the colonial Portuguese administration to demolish Hindu
temples in the locality and forcibly convert the local population to Christianity.[1]

Five Jesuit priests along with one European and 14 Indian Christians were killed in the incident.[2] The Portuguese
government retaliated by summarily executing most of the Gaonkar leaders without trial, and destroying the
economic infrastructure of Cuncolim. Goa supported the mission with incentives for baptised Christians. They
offered rice donations to the poor, good positions in the Portuguese colonies to the middle class and military support
for local rulers.[5]

A campaign was launched in Bardez in North Goa resulting in the destruction of 300 temples

कृ ष्णदेव राय ने 1509 से 1529 (हम्पी के मंदिर, हम्पी डम्पी, कर्नाटक)के बीच हम्पी में शासन किया था। विजयनगरम्साम्राज्य के अंतर्गत कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के
राज्य आते थे।कृ ष्णदेव राय की मृत्यु के बाद इस विशाल साम्राज्य को बीदर, बीजापुर, गोलकुं डा, अहमदनगर और बरार की मुस्लिम सेनाओं ने 1565 में क्रू रतम हमलाकरके नष्ट
कर दिया। भयंकर लूटपाट और कत्लेआम हुआ और संपूर्ण शहर को खंडहरऔर लाशों के ढेर में बदल दिया गया। यह इतिहास का सबसे क्रू रतम हमला था, जैसा कि दिल्ली में
नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने क्रू रतम हमला किया था। नगर यूनेस्को द्वारा 'विश्व विरासत स्थलों' की सूची में भी शामिल है।यहां दुनिया के सबसे बेहतरीन और विशालकाय
मंदिर बने थे, जो अब खंडहर मेंबदल चुके हैं। यह माना जाता है कि एक समय में हम्पी रोम से भी समृद्ध नगरथा।यहां मंदिरों की खूबसूरत श्रृंखला है इसलिए इसे 'मंदिरों का शहर'
भीकहा जाता है।

Konark temple and kala pahad- इसकी ख्याति उत्तर में जब मुग़लों तक पहुँची तो उन्होंने इसे नष्ट करने मेंकोई कसर नहीं छोड़ी। 16 वीं सदी के मध्य में मुग़ल
आक्रमणकारी कालापहाड़ नेइसके आमलक को नुक़सान पहुँचाया व कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारणमन्दिर का परित्याग कर दिया गया।आईने अकबरी मेंअबुल
फ़ज़लने इस मन्दिर का भ्रमण करके इसकी कीर्ति का वर्णन किया है। कु छ विद्वानोंका मत है कि काफ़ी समय तक यह मन्दिर अपने मूल स्वरूप में ही था| The temple fell
into disuse after an envoy of Jahangir desecrated the temple in the early 17th century.

Portuguese voyagers took away the load stone, which was acting as the central stone and keeping all the stones,
and the iron columns used to hold them walls together, of the temple wall in balance. Due to its displacement, the
temple walls lost their balance and eventually fell down.

भारत का पहला ज्ञात लव जिहाद Kalachand Roy or Kala Pahad के साथ हुआ| इसके रिश्ते के सामाजिक विरोध के कारण, उन्होंने अपना धर्मांतरण कर लिया
और हिंदुओं के लिए स्वधर्मत्यागी बन गया।A General of Bengal Governor Suleiman Kirrani, named Kalachand Roy or Kala
Pahadfell in love with the daughter of kirrani and got married on the condition that he converted to Islam. But
repentance came who wanted to come back to Hinduism. For this he came to Puri to convert himself again to
Hinduism-but the orthodox pandas of Puri Jagannath temple refused him to accept as Hindu In tune with the dictates
of this new faith, he now believed that idol worship was a heathen activity, and went about destroying all Hindu
idols in the region and embraced the new faith with the passion of the convert.This Kalapahad was a blck character
in the history of Orissa & the Hindus. He was a brahmin, changed his religion, started destroying all the religion
places of Hindus According to the history of Orissa, Kalapahada invaded Orissa in 1508. He destroyed Konark
temple, as well as a number of Hindu temples in Orissa. The Madala Panji of Puri Jagannath temple describes how
Kalapahada attacked Orissa in 1568. Including Konark temple, he broke most of the images in most of the Hindu
temples in Orissa. Though it was impossible to break the Sun temple of Konark, the stone walls of which are of 20
to 25 feet (7.6 m) thick, he somehow managed to displace the Dadhinauti (Arch stone) and thus made a way for the
temple to collapse. He also broke most of the images and other side temples of Konark. Due to displacement of the
Dadhinauti, the temple gradually collapsed and the roof of the Mukasala was also damaged, due to the stones falling
down from the temple top.
Orissa came under the Muslim administration in 1568 and there were constant attempts to destroy the Hindu
temples. The Pandas of Puri, to save the sanctity of the Puri temple, took away the Lord Jagannath from the
Srimandir and kept the image in a secret place. Similarly, it is said that the Pandas of Konark took away the
presiding deity of the Sun temple out of the temple and put under sand for some years. Latter on the said image was
removed to Puri and kept in the temple of Indra in the compound of the Puri Jagannath temple. According to others,
the Puja image of the Konark temple is yet to be discovered. But others hold the view that the Sun image now kept
in the National Museum, Delhi was the presiding deity of the Konark Sun temple. 1568 and marched up to Puri.
Kaala Pahaad wanted to burn the idols of Lord Jagannath, Balabhadra and Goddess Subhadra, and in one of his
attacks on the temple at Puri he did succeed in wrenching the idols from the temple. He threw the idols
unceremoniously on the street and kicked them around a bit before carting them all the way to the banks of Hooghly
and set fire to them. However, the ’brahmapinda’ or the core saligram stone (considered a sacred stone that is alive)
had been removed from the idols beforehand by the priests who had anticipated the attack and had been hidden at
Sonpur. When the priests of Lingaraj temple at Bhubaneswar apprehended his attack they filled the sanctum
sanctorum with husk. Kala Pahad tried his best to take it out, but in the end set fire to the dump. After he left, the
priests put the fire out, but by then the sivalingam had cracked and been disfigured. After the defeat in the Battle of
Tribeni, Sulaiman Karrani was forced to make peace. He realized that he would never be able to conquer
Bhurishrestha unless he could defeat Rajiv Lochan Ray in the battlefield, which was next to impossible. So he
invited him to his palace and trapped him into a love affair with his daughter. He offered Rajiv Lochan Ray to
convert to Islam to which he offered to convert his daughter toHinduism and marry her. However, King Gajapati
Mukunda Deva was opposed to such a matrimonial alliance and wrongly decreed that conversion to Hinduism was
illegal. Enraged, Rajiv Lochan Rayconverted and married Karrani's daughter taking the name of Kalapahad
(Black Hill - the destroyer). He led Karrani's revenge over Mukundadeva and attacked Odisha. He defeated
Mukundadeva and sacked major towns and religious places of Orissa including Hijli , Cuttack , Jajpur , Sambalpur ,
Konark,Ekamrakhsetra,Puri etc. in 1568 (src wiki)

Islam first arrived in the Eastern Indian state of Orissa in the 16th century after the invasion of a Brahman named
Kala Paharh, and a Hindu convert to Islam, a vassal of Suleiman Kirrani the Sultanate of Bengal, after defeat
and death of Raja Mukund Dev of Cuttack in 1568 CE. Suleiman Kirrani was the Governor of Bengal appointed
by Mughal Emperor Akbar the Great. Kirrani was invited by Raja Mukund Dev to defeat Raja Ramchandra Bhanja
the Gajapati King of Orissa, his arch enemy

It is said that in 16th century Kala Pahad, the general of the King of Bengal, attacked Orissa and defeated and
killed the last Hindu emperor, Gajapati Mukunda Dev, in the 16th century.

Myth says that he had his camp along with his soldiers here in a ground.It is said that, Goddess Samleswari, after
whom Sambalpur city is named as Sambalpur, came in the form of a woman selling butter milk. This, they
purchased , drank & died. He was buried right there and a 'tomb' was built .
The legend goes that Kala Pahad was defeated due to Maa Samaleswari. Kala Pahad's tomb and those of his soldiers
are located on the outskirts of Sambalpur.
Not ever Orissa he destroyed many temples of Mandar Hill or Mandrachal Parvat which is known as Churning of
Ocean or Samudra Manthan.

स्वर्ण मंदिर- वास्तु कलामान्यताओं के अनुसार इस गुरुद्वारे का नक्शा लगभग 400 साल पहले गुरुअर्जुन देव जी ने तैयार किया था। यह गुरुद्वारा वास्तु कला की बहुत हीसुंदर
मिसाल है।पुराने समय में स्वर्ण मंदिर को कई बार नष्ट किया गया। हर बार भक्तों नेइसे फिर से बनाया। मंदिर को कब-कब नष्ट किया गया और कब-कब बनाया गया, येजानकारी
मंदिर में देखी जा सकती है। 19 वीं शताब्दी में अफगान हमलावरों नेइस मंदिर को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। इसके बाद महाराजा रणजीत सिंह ने इसेदोबारा बनवाया और सोने
की परत से सजाया था

1510 (वास्को डी गामा 1498 में भारत आए और 12 वर्षों में पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्ज़ा जमा लिया)
गोवाकाप्रथमवरदानहिन्दूधर्ममेंरामायणकालमेंमिलताहै । पौराणिकलेखोंके अनुसारसरस्वतीनदीके सुखजानेके कारणउसके किनारेबसेहुए ब्राम्हणोंके पुनर्वासके लियेपरशुरामऋषिनेसमंदरमें
शरसंधानकिया।ऋषिकासम्मानकरतेहुएसमंदरनेउसस्थानकोअपनेक्षेत्रसेमुक्तकरदिया।येपूरास्थानकोंकणकहलायाऔरइसकादक्षिणभागगोपपूरीकहलायाजोवर्तमानमेंगोवाहै। सन 1510 
मेंगोवापरकब्जेके लियेयुशुफआदिलखानऔरअलफांसोदअल्बुबर्क कीसेनाओमेकईबारयुद्धहुआऔरअंततः  अंततोगत्वाअलफांसोदअल्बुबर्क काकब्ज़ागोवापरहोगया।
1809 - 1815 के बीचनेपोलियननेपुर्तगालपरकब्ज़ाकरलियाऔरएंग्लोपुर्तगालीगठबंधनके बादगोवास्वतःहीअंग्रेजीअधिकारक्षेत्रमेंआगया।1815 से 1947 (भारतकीआजादी)
तकगोवामेंअंग्रेजोकाशासनरहाऔरपुरेहिंदुस्तानकीतरहअंग्रेजोंनेवहांके भीसंसाधनोंकाजमकरशोषणकिया।

1583 में हुआ विद्रोह सही मायने में विदशी शासन के खिलाफ भारत का पहलाविद्रोह था। जो शक्तिशाली ईसाईयों पादरियों के विरूद्ध हुआ था जिसमें पांचपादरी और दर्जनों अन्य
लोग मारे गए थे।उनके मुताबिक 1857 की क्रांति पहली क्रांति नहीं थी। विदेशी शासन के खिलाफपहली लड़ाई कनकोलिम में हुई थी। इसे पाठ्य पुस्तक में आना चाहिए | 1583
के कनकोलिम विद्रोह में रोमन कै थोलिक के नव-शिष्य और उनके हथियारबंदअंगरक्षक मारे गए थे। जो गांववालों का धर्म परिवर्तन करने के तरफ उन्मुख थेऔर हिंदू मंदिरों को
अपवित्र कर रहे थे। इस नरसंहार ने पुर्तगालीप्रशासकों के प्रतिरोध को जन्म दिया जिसमें गांव वालों को बगैर मुकदमा चलाएफांसी की सजा दी गई।

बलपूर्वक धर्मान्तरण हेतु ईसाई चर्च द्वारा नरसंहार- ईसाई मिशनरी भारत में शरणार्थी के तौर पर आए थे। सीरिया के ईसाई मालाबार के अंदर अपने ही धर्म के लोगों से प्रताड़ित
होते थे।यूरोप में ईसाई धर्म का ही वर्चस्व था और इसलिए वह भारत आए। राजा चेरामन नेके वल शरण ही नहीं दिया अपितु अपने धर्म का स्वतंत्रता पूर्वक पालन करने काके वल
अधिकार ही नहीं दिया आपको जानकर खुशी होगी कि भारत में पहला चर्च एकहिंदू राजा ने बनवाया था। उन्हें बहुत सम्मान दिया गया लेकिन 1498 मेंवास्कोडिगामा आता है।
आप लोग गोवा गए होंगे वहां वास्को के नाम से बहुतसारी जगह है। वह यहां पर सिर्फ पर्यटन के लिए नहीं आया था। वक्त पुर्तगालीराजा के आदेश पर भारत की खोज में निकला था।
पुर्तगाली राजा को पोप ने आदेशदिया था कि भारत को ढूंढो और वहां धर्मांतरण करो| आश्चर्य की बात यह है कि जब वह अपनी सेना लेकर भारत आया तो जिन सीरिया के ईसाइयों
को हमने शरण दिया था वह वास्कोडिगामा के साथ खड़े हो गए। वह सबमिलकर नरसंहार करते हैं और धर्मांतरण करते हैं। यह कु छ मात्रा में होता रहालेकिन 1542 में जब सेंट
जेवियर आते हैं, सेंट शब्द उनके लिए ही ज्यादाप्रयोग किया जाता है जिन्होंने ज्यादा धर्मांतरण किए हैं। सबसे अधिकअत्याचारी इनके यहां सबसे अधिक पूज्य व्यक्ति रहा है।

जब सेंट जेवियर भारत आते हैं, तो थोड़े दिन में उनके साथ फौज आती है औरउसके बाद हिंसा का नंगा नाच शुरू हो जाता है। वह गोवा इनक्विजिशन कीस्थापना करते हैं (धर्म
न्यायालय)। गोवा इनक्विजिशन की स्थापना करने काउद्देश्य है यही था कि जो ईसाई बनने से इंकार करता है, उस इनक्विजिशन के माध्यम से उसको सजा मिलेगी। सब को सजा
मौत की मिलती थी और मौत भी बहुतप्रताड़ित तरीके से किया जाता था।

पांडिचेरी की तरफ हम चलते हैं। वहां 50-60 मंदिर एक साथ तोड़ दिए जातेहैं और वह दृश्य देखकर सेंट जेवियर कहता है कि आज मेरी आंखों में ठंडक पड़गई है। भाइयों बहनों
ढाई सौ साल तक इस गोवा इनक्विजिशन के कारण समस्तदक्षिण भारत सीसकता रहा, रक्त के आंसू रोता रहा।

आज आप जाएं वहां पर के वल पर्यटन स्थल ही नहीं घूमे थोड़ा अंदर में भीदेखें। आपको वहां पर एक हथकतरा खंब दिखाई देगा। यह खंबा सेंट जेवियर के समयका है। जो ईसाई
बनने से इनकार करता था, उस खंबे के पीछे उसके हाथ बांधकरके उसे खड़ा कर देते थे । महीने डेढ़ महीने तक उसे खाना पानी नहीं दियाजाता था और फिर उसके बाद उससे
पूछा जाता था कि क्या वह ईसाई बनने के लिएतैयार है। अगर वह धर्मांतरण के लिए तैयार नहीं होता था तो उसके हाथ काट दिएजाते थे दोनों और इसीलिए उस खंभे का नाम
हथकतरा खंभ पड़ा पड़ा।

वहां एक बाग है पास में, मैं कु छ दिन पूर्व गया मुझे बताया गया कि उसे वहांका जलियांवाला बाग कहते हैं । गांव के सब लोगों को उस बाग में एकत्रितकिया गया और पूछा गया कि
धर्मांतरण करते हैं कि नहीं गांव के लोगों ने मनाकर दिया और वहां सब लोगों को गोलियां मार दी गई। चारों तरफ सिपाही खड़े थेतो लोग बचके नहीं भाग सके , सब को गोलियों से
मार दिया गया। वह बाग आज भीउपस्थित है वहां पर।

चाहे पुर्तगाली आए हो, चाहे फ्रें च आए हो, चाहे डच आए हो, चाहे अंग्रेजआए हो, चाहे ईस्ट इंडिया कं पनी आई हो यह सब अपना ईसाई साम्राज्य के विस्तारके लिए ही हिंसा का
प्रयोग करते रहे । सब प्रकार के षड्यंत्र करते रहे। बसएक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है भारत के साथ पूरी दुनिया में जहां कहीं भीईसाइयों ने अत्याचार किए हैं वहां के लिए पोप बार-बार
माफी मांग रहे हैं।क्यों ? क्योंकि वहां का समाज राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ खड़ा है और वहकहते हैं कि हम आपके साथ तब जुड़ेंगे जब आप हमारे ऊपर किए गए अपनेअत्याचारों
के लिए माफी मांगेंगे। कभी मैक्सिको के लिए, कभी चिल्ली के लिएकभी अफ्रीकन देशों के लिए कई पोपो ने बहुत बार माफी मांगी है।

लेकिन भारत में जो अत्याचार किए उसके लिए माफी मांगने की बात छोड़ो उनकोस्वीकार तक नहीं किया कारण भारत में जो ईसाई थे या है वह सभी राष्ट्रीयस्वाभिमान से ओतप्रोत
नहीं है

विदेशी यात्री इब्नबतूता के अनुसार पन्द्रहवीं शताब्दी में भारत के पश्चिमी तट पर अधिकांश शासक हिन्दू थे, परंतु उनकी प्रजा मुसलमान थी।हिन्दू राजाओं ने मुसलमानों को हर
प्रकार की स्वतंत्रता दी हुई थी। इसीक्षेत्र में एक यहूदी बस्ती भी बसी हुई थी। जहां सब शांति और सद्भाव सेरहते थे। परंतु इसी बीच वहां पुर्तगाल से एक यात्री वास्को डि गामा का
आगमनहुआ। वास्को डि गामा ने न के वल समुद्री मार्ग से होने वाले व्यापार परकब्जा जमाया बल्कि वहां ईसाई राज्य की भी स्थापना की।1510 से शुरू हुआ पुर्तगाली शासन गोवा
के लोगों को 451 सालों तक झेलनापड़ा. भारत के आज़ाद होनेके करीब साढ़े 14 साल बाद 1961 में 19 दिसंबर को उन्हें आज़ादी मिली यानी.गोवा के पुर्तगाली विरसे पर
कै थोलिक अब भी गर्व करते हैं लेकिन यहाँ किअधिकतर हिन्दू और मुस्लिम आबादी पुर्तगाली काल को ज़ुल्म और बर्बरता का दौरमानती है
सन् 1540 में पुर्तगाल सरकार ने गोवा के हिन्दू मन्दिर, जमीन आदि सभी अपनेअधिकार में ले लिए। 26 मार्च, 1559 को पुर्तगाल की रानी लिस्वानल ने घोषणाकी कि 6
अक्तू बर, 1559 तक शहर के भीतर कोई भी मन्दिर न रहे। हिन्दू बाहर याघर के भीतर कोई धार्मिक कृ त्य न करें। आज्ञा भंग करने वाले को कारावासहोगा तथा उसकी जमीन,
जायदाद जब्त कर ली जाएगी। 2 अप्रैल, 1560 को वायसरायका हुक्म हुआ कि जितने भी सारस्वत ब्राह्मण हैं, सीमा से बाहर कर दिए जाएं।हिन्दुओं के सामने दो मार्ग थे- ईसाई
मत अपनाएं या सर्वस्व त्याग कर बाहरचले जाएं। ब्राह्मणों ने दूसरा मार्ग अपनाया। कु छ कारवार, कु छ मालाबार औरकु छ कर्नाटक चले गए। उस समय गोवा में अघना, जिसे अब
जुआरी नदी कहते हैं, के तट पर भीषण नरसंहार हुआ। लोगों ने उस समय एक गुप्त बैठक की और एकमहत्वपूर्ण निर्णय लिया। वे देव प्रतिमाओं को पालकी में रख कर, अंधेरी रातमें
भूख, प्यास की परवाह किए बिना चल पड़े। आज जिस स्थान पर मंगेश-मन्दिरहै, वहां मूर्तियों को प्रतिष्ठित करके पूजा-अर्चना करने लगे

1 मई, 1560 को एक पुर्तगाली पादरी मन्दिर के पुराने भवन में पहुंचा और वहांईसाइयों का पहला सम्मेलन किया। एक हिन्दू को पकड़ कर ईसाई बनाया गया।मन्दिर से देव-
मूर्तियां पहले ही निकाल ली गई थीं। मन्दिर की जमीन, सम्पत्ति आदि उसने अपने अधिकार में कर ली। 1566 ई. में कु शावती के भवन कोतोड़कर चर्च बना लिया गया। पुर्तगालियों
द्वारा हिन्दुओं पर किए गएअत्याचारों व हिन्दुओं द्वारा धर्म के लिए मर मिटने की व्यथा-गाथा बहुतलम्बी है। परिचय-पुस्तिका के अन्त में लिखा है- स्वामी विवेकानंद ने मंगेशमंदिर में
पूजा की थी। ले.जन. कैं डथ व पं. जवाहर लाल नेहरू कई बार भगवानमंगेश के दर्शन करने आए थे।

गोवा में पुर्तगाली आक्रमण से पहले सैकड़ों प्रसिद्ध मंदिर हुआ करते थे। यहएक हिंदू बहुल इलाका हुआ करता था। पर पुर्तगाली शासन में ज्यादातर मंदिरोंपर पुर्तगालियों का कहर
बरपा। इनमें से ज्यादातर मंदिरों को नष्ट कर दियागया। फिर भी गोवा के कु छ मंदिर अब भी मूल रूप में सुरक्षित हैं। अगर गोवाराज्य के सबसे पुराने मंदिर की बात करें तो यह 13 वीं
सदी का है। महादेव शिवका यह मंदिर तांबड़ी सुरला गांव में स्थित है।यह मंदिर कदंबा और देवगिरी के यादव शासन काल (9 वीं शताब्दी से 14 वींशताब्दी तक) की वास्तुकला का
सुंदर नमूना है। तांबड़ी सुरला-शिव मंदिर अपनेकलात्मक शिल्प एवं वैभव के कारण जाना जाता है। चौदहवीं शताब्दी में कदंबराजाओं के समय इसका निर्माण हुआ।यह गोवा का
एकमात्र मंदिर है, जो मुस्लिम आक्रमण और पुर्तगाली आक्रमण के बाद भी सुरक्षित रहा। यह गोवा में कदंबा और यादव शासनकाल की एकमात्र निशानीहै

डॉक्टर लोहिया अपने मित्र डॉक्टर जूलियाओ मेनेज़ेस के निमंत्रण पर गोवा गएथे. लोहिया गोवा के असोलना में डॉ. मेनेज़ेस के घर पर रुके , जहां उन्हेंपता चला कि पुर्तगालियों ने
किसी भी तरह की सार्वजनिक सभा पर रोक लगा रखीहै.आज़ादी की अलख गोवा में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने 1946 की गर्मियों में जलाई थी."उनका इरादा तो बीमार शरीर
को आराम देने का था, लेकिन गोवा जाकर उन्होंनेदेखा कि पुर्तगाली शासन, ब्रितानियों से भी अधिक वहशी है. लोगों के किसी भीतरह के नागरिक अधिकार नहीं थे. डॉक्टर
लोहिया ने 200 लोगों को जमा करके एकबैठक की, जिसमें तय किया गया कि नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ाजाए."पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज़ उठाई. उन्हें
गिरफ़्तार कर लिया गया और मड़गांव की जेल में रखा गया.लोहिया के गोवा में प्रवेश पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया गया| पुर्तगाली दमन से परेशान गोवा के हिंदुओं और
कै थोलिक ईसाइयों ने भारतीयस्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ली और ख़ुद को संगठित करना शुरू किया.

"लोहियाअपनेवादेकोनहींभूले, वेदोबारागोवागएलेकिनउन्हेंरेलवेस्टेशनपरहीगिरफ़्तारकरलियागया. इसबारभीगांधीलोहियाकीगिरफ़्तारीपरलगातारबोलतेरहे.


दसदिनतकजेलमेंरखेजानेके बादलोहियाकोदोबारागोवाकीसीमासेबाहरलेजाकरछोड़दियागया."आजादीके समयपंडितजवाहरलालनेहरुनेयेमांगरक्खीकीगोवाकोभारतके अधिकारमेंदेदिया
जाए।वहीँपुर्तगालनेभीगोवापरअपनादावाठोकदिया। अंग्रेजोकीदोगलीनीतिवपुर्तगालके दबावके कारणगोवापुर्तगालकोहस्तांतरितकरदियागया.
गोवापरपुर्तगालीकब्जेकातर्क यहथाकीगोवापरपुर्तगालके अधिकारके समयकोईभारतगणराज्यअस्तित्वमेंनहींथा.
'लोहिया एक जीवनी' में लिखा है, "फ़रवरी 1947 में नेहरू ने यहां तक कह दियाकि गोवा का प्रश्न महत्वहीन है. उन्होंने इस पर भी संदेह जताया कि गोवा के लोग भारत के साथ
आना चाहते हैं. इसके बाद गोवा की स्वतंत्रता का आंदोलनमुरझाने लगा. लेकिन गोवा के लोगों का मन बदल चुका था, उनकी स्वतंत्र आत्माके प्रतीक बन चुके थे डॉक्टर
राममनोहर लोहिया."

गोवा से पुर्तगालियों को हटाने के काम में एक क्रांतिकारी दल सक्रिय था, उसका नाम था- आज़ाद गोमांतक दल. विश्वनाथ लवांडे, नारायण हरि नाईक, दत्तात्रेय देशपांडे और
प्रभाकर सिनारी ने इसकी स्थापना की थी.

भारत सरकार ने 1955 में गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए. इन प्रतिबंधों के जवाब में पुर्तगाल ने क्या किया,भारतीय प्रतिबंध के बाद नीदरलैंड्स से आलू, पुर्तगाल से वाइन,
पाकिस्तान सेचावल और सब्ज़ियां और श्रीलंका (तब सीलोन) से चाय भेजी जाने लगी."

इन लोगों में सबसे अहम नाम मधु लिमये काहै जिन्होंने गोवा की आज़ादी के लिए 1955 से 1957 के बीच दो साल गोवा की पुर्तगाली जेल में बिताए, जहांउन्हें कई तकलीफ़ों का
सामना करना पड़ा. उन दिनों गोवा की जेलेंसत्याग्रहियों से भर गई थी और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इनआंदोलनकारियों की रिहाई के लिए पोप से हस्तक्षेपकरने की
अपील की थी.दिसंबर. साल 1961. दिल्ली में दस हज़ार प्रदर्शनकारी पुर्तगाल से मांग करते हैं कि गोवा छोड़ कर जाओ

पुर्तगालआसानीसेगोवाकोछोड़नेके मूडमेंनहींथा, वहनॉर्थअटलांटिकट्रीटीऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो)


कासदस्यथाउसनेसजगतादिखातेहुएब्राज़ीलइंग्लैंडअमेरिकाऔरमैक्सिकोके सरकारोंकोमध्यस्थताके लिएकहा,
बातबनतीनदेखपुर्तगालसंयुक्तराष्ट्रमेंभीगयावहभीउसकीदालनहींगली। अमेरिकानेअपनीदोगलीनीतिअपनाईरक्खी।शुरूमेंवोभारतके साथ, फिरमध्यस्थरहामग
रभारतीयसैनिककार्यवाहीकीस्थितिमेंउसनेसंयुक्तराष्ट्रमेंभारतकासाथनदेनेकीधमकीदेडाली। नेहरूकिसीसैनिकटकरावसेहिचकरहेथे.1961
के नवंबरमहीनेमेंपुर्तगालीसैनिकोंनेगोवाके मछु आरोंपरगोलियांचलाईंजिसमेंएकव्यक्तिकीमौतहोगई, इसके बादमाहौलबदलगया
गोवा, दमन और दीव के भारत में शामिल होने के पीछे अनेक लोगों की भूमिका थी जिनके बारे में लोगों को शायद ही पता हो.पुर्तगालियों ने वास्को के पास का पुल उड़ा
दिया..भारतीय सेना के ऑपरेशन विजय के 36 घंटों के भीतर पुर्तगाली जनरल मैनुएलएंटोनियो वसालो ए सिल्वा ने "आत्मसमर्पण" के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए

पुर्तगाली प्रधानमंत्री ने तत्कालीन गवर्नर मैं ये भी कहा की युद्ध मैं 7-8 दिनों तक खीच लो तब तक पुर्तगाल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से दबाव डलवाकर भारत को रोक देगा । पुर्तगाली
सेना की गोवा में 4000 प्रशिक्षित और 2000 अर्धप्रशिक्षित या सामान्य सैनिको की क्षमता थी लगभग। पुर्तगाल से कु छ गोला बारूद 17 दिसम्बर को वायु सेना द्वारा भेजने की
योजना बाकी देशों के असहयोग के कारण पुर्तगाल को स्थगित करनी पड़ी क्यूंकि पुर्तगाली सैन्य विमान को किसी भी देश ने उतरने और ईंधन भरने की अनुमति नहीं दी।
हालाकिं खाने की आपूर्ति करने वाले विमान के साथ कु छ पुर्तगाल ने कु छ गोला बारूद व ग्रेनेड गोवा में भेज दिया.. गोवा की पुर्तगाल में 2-3 असैनिक विमान व 2-3 एंटी एयर
क्राफ्ट गन थे
18 दिसम्बर को दीव में विंग कमांडर मिकी ब्लेक ने हमला किया और दीव में पुर्तगाली सेना के मुख्या स्थलों को तबाह कर दिया,वहां का रनवे भी नष्ट कर दिया।  कु छ नौकाएं
पुर्तगाली गोला बारूद लेकर दीव से भागने का प्रयास कर रही थी वो भारतीय वायु सेना ने नष्ट कर दिया,बाद में पुरे दिन भारतीय सेना के वायुयान आकाश में मंडराते रहे और थल
सनिकों को आवश्यक सहयोग देते रहे॥
18 दिसम्बर को भारतीय वायु सेना ने गोवा में भी धावा बोला और विंग कमांडर एन बी मेमन एवं विंग कमांडर सुरिंदर सिंह ने अलग अलग गोवा के डाबोलिम हवाई अड्डे पर भीषण
बम वर्षा कर के उसके रनवे को बर्बाद कर डाला ।  बाम्बोलिन हवाई अड्डे का वायरलेस कें द्र भी हवाई हमले में ध्वस्त हो गया। वहीँगोवा के दो विमान काफी नीची उड़न भरते हुए रात
को पाकिस्तान भाग गए । अबतक भारतीय वायु सेना का गोवा के पूरे आकाश पर कब्ज़ा हो चुका था । भारतीय जल थल और वायु सेना के चौतरफा हमलों से पुर्तगाली देना की
कमर टूट गयी। 2 सिख लाइट इन्फैं ट्री 19 दिसम्बर 1961 की सुबह पणजी के सचिवालय भवन पर तिरंगा फहरा दिया । ऑपरेशन विजय में भारत के जवान शहीद हुए 35

https://www.myindiamyglory.com/2017/12/29/goa-inquisition-portugese-massacre-of-innocent-hindus-and-
destruction-of-temples/

शेरशाह सूरी (1472 - मई 1545) (फारसी/पश्तो: ‫فريدخانشيرشاہسوري‬, जन्म का नाम फ़रीद खाँ)भारतमें जन्मेपठानथे, जिन्होंनेहुमायूँको 1540 में हराकर उत्तर भारत
मेंसूरी साम्राज्यस्थापित किया था। शेरशाह सूरी ने पहलेबाबरके लिये एक सैनिक के रूप में काम किया था जिन्होंने उन्हें पदोन्नत कर सेनापति बनाया और फिरबिहारका राज्यपाल
नियुक्त किया। 1537 में, जबहुमायूँकहीं सुदूर अभियान पर थे तब शेरशाह नेबंगालपर कब्ज़ा कर सूरी वंश स्थापित किया था।[2]सन् 1539 में, शेरशाह को चौसा की लड़ाई में
हुमायूँ का सामना करना पड़ाजिसे शेरशाह ने जीत लिया। 1540 ई. में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकरभारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया और शेर खान की उपाधि लेकर
सम्पूर्णउत्तर भारतपर अपना साम्रज्य स्थापित कर दिया।

उसने उत्तर भारत में चल रही डाक व्यवस्था को दोबारा संगठित किया था, ताकिलोग अपने संदेशों को अपने करीबियों और परिचितों को भेज सकें ।शेरशाह सूरी का जन्म साल
1486 के आस-पास बिहार में हुआ था,

ग्रांड ट्रंक रोड बहुत पुरानी है. प्राचीन काल में इसे उत्तरापथ कहाजाता था. ये गंगा के किनारे बसे नगरों को, पंजाब से जोड़ते हुए, ख़ैबरदर्रा पार करती हुई अफ़ग़ानिस्तान के कें द्र
तक जाती थी. मौर्यकाल मेंबौद्ध धर्म का प्रसार इसी उत्तरापथ के माध्यम से गंधार तक हुआ. यूँ तो यहमार्ग सदियों से इस्तेमाल होता रहा लेकिन सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली
के सुल्तान शेरशाह सूरी ने इसे पक्का करवाया, दूरी मापने के लिए जगह-जगह पत्थरलगवाए, छायादार पेड़ लगवाए, राहगीरों के लिए सरायें बनवाईं और चुंगी कीव्यवस्था की. ग्रांड
ट्रंक रोड कोलकाता से पेशावर (पाकिस्तान) तक लंबी है.पाटलीपुत्र का नाम पटना रखा. बाद में ग्रांट ट्रंक रोड को चित्तागोंग सेविस्तृत करते हुए पश्चिमी भारत से अफगानिस्तान
के काबुल तक ले गये और देशोंके रास्तों को आपस में जोड़ा.

सूरी द्दारा बनाई गई यह विशाल रोड बांग्लादेश से होती हुई दिल्ली औरवहां से काबुल तक होकर जाती थी। वहीं इस रोड का सफ़र आरामदायक बनाने के लिए शेरशाह सूरी ने कई
जगहों पर कुं ए, मस्जिद और विश्रामगृहों का निर्माणभी करवाया था।इसके अलावा शेर शाह सूरी ने यातायात को सुगम बनाने के लिए कई और नएरोड जैसे कि आगरा से जोधपुर,
लाहौर से मुल्तान और आगरा से बुरहानपुर तकसमेत नई सड़कों का निर्माण करवाया था।शेरशाह ने अपने शासनकाल के दौरान मस्जिद के मौलवियों एवं इमामों के द्धाराइस्लाम धर्म
के नाम पर किए जा रहे भ्रष्टाचार पर न सिर्फ लगाम लगाई बल्किउसने मस्जिद के रखरखाव के लिए मौलवियों को पैसा देना बंद कर दिया एवंमस्जिदों की देखरेख के लिए मुंशियों
की नियुक्ति कर दी।

अगले सालहुमायूँने खोये हुये क्षेत्रो पर कब्ज़ा वापिस पाने के लिये शेरशाह की सेना परफिर हमला किया, इस बार कन्नौज पर। हतोत्साहित और बुरी तरह से प्रशिक्षितहुमायूँ की सेना
17 मई 1540 शेरशाह की सेना से हार गयी। इस हार ने बाबरद्वारा बनाये गयेमुगल साम्राज्यका अंत कर दिया और उत्तर भारत परसूरी साम्राज्यकी शुरुआत की जो भारत में
दूसरा पठान साम्राज्य थालोधी साम्राज्यके बाद

शेरशाह ने अपने राज्य में प्रशासन को हाई लेवल का रखा था, अकबर से पहले टोडरमल को शेरशाह ने अपना रेवेन्यु मिनिस्टर बनाया था।

वो शेरशाह सूरी जिसके किये कामों का क्रे डिट चुराकर अकबर महान हो गए।

1501–1556 (Hemu Vikramaditya or simply Hemu (Hindi: सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य))
भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य
According to Hawa Singh Sangwan real name of Hemu was Basant Rai who was born at Deoti village of Rajgarh
tahsil in Alwar district in Rajasthan in the family of Pranapala, a Jat Zamindar.हेमू का उदय बहुत ही सामान्य परिवार से हुआ था. उनका
बचपन दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के एक शहर रेवारी में बिता था.अपनेपरिवार की आर्थिक सहायता के लिए हेमू ने दस्ताकर के तौर पर काम करना शुरूकर दिया. पर सन 1545 में
शेर शाह सूरी की मृत्यु के बाद उनके बेटे इस्लामशाह गद्दी पर बैठे और हेमू को बाज़ार का नियंत्रक बना दिया.धीरे-धीरे अपने काम की बदौलत हेमू मुख्य सलाहकार के पद तक
पहुंच गए.फिर इस्लाम शाह की मौत के बाद आदिल शाह के हाथों में शासन की बागडोर चलीगई. हेमू आदिल के मुख्यमंत्री बन गए. इसी दौरान हेमू ने अफ़गानी विद्रोहियोंका सामना
डट कर किया और कई युद्ध लड़े. लगभग 22 युद्धों में उनकी जीत हुई.मुगलों से भी सूरी शासकों का पुराना बैर था. हुमायूं के नेतृत्व में एकसेना ने आदिल शाह के साले सिकं दर
शाह सूरी को हराया था. जब 1555 मेंहुमायूं की मौत हुई, तो हेमू ने इसे एक अच्छा मौका मान कर मुगलों पर हमलाबोल दिया. हेमू ने एक सेना को बस मार्च पर लगा दिया और
मुग़लों को बयाना सेलेकर आगरा तक ख़ूब भगाया. आगरा में मुगलों के गवर्नर ने लड़ाई लड़ने के बजायवहां से भाग जाना ठीक समझा.हेमू ने अपनी जीत तब मानी, जब उन्होंने
मुग़लसेना को तुगलकाबाद में हराया. ये लड़ाई उन्होंने तरदी बेग खान को हराकरजीती थी. फिर अगले दिन हेमू ने दिल्ली पर हमला बोल दिया और जीत भी हासिलकी. इसी जीत
से उन्हें विक्रमादित्य की उपाधि मिल गई.

7- october –1556 को राज तिलक हुआ था

इन पराजयों से आहत होकर अकबर अपने दस हज़ार सैनिकों के साथ निकल पड़ा था. 5 नवम्बर 1556 को हेमू की सेना और अकबर की सेना का आमना-सामना हुआ, ये
युद्धपानीपत में हुआ था.अकबर की सेना ने हेमू की कमज़ोर सेना को काफ़ी घायल करदिया. पर फिर भी हेमू सब पर भारी पड़ रहे थे. जब वो जीत के बहुत करीब थे, तभी एक तीर
आकर उनकी दायीं आंख में फं स गया और उनकी मौत हो गई. तब अकबर के रक्षक बैरम खान ने हेमू का सिर काटने के लिए कहा, तो अकबर ने मृत आदमी कासिर कलम करने से
मना कर दिया.इसलिए बैरम खान ने हेमू का सिर काट कर काबुल भिजवा दिया.

https://makingindiaonline.in/online-news-in-hindi/2017/01/31/leftist-historians-ignored-last-hindu-emperor-
hemu-hemchandra-vikramaditya/

https://hindimedia.in/hemchandra-vikramditya/

https://www.myindiamyglory.com/2019/06/03/hemu-vikramaditya-hindu-emperor-who-defeated-akbar-
ruled-delhi/

8.बाबर (1526)

मुग़लों ने हिंदुओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया और मंदिरों को गिराकर 3,000 मस्जिदें बनायीं. उन्होंने कहा, ‘मुग़लकाल में हिंदुओं के सम्मान के साथखिलवाड़ किया गया,
मंदिर तोड़े गए… मस्जिदें बनाई गईं 3,000 से ज्यादा.’

मध्यएशियाके समरकं दके फरगानामेंजन्माबाबरएकलुटेराथाजोतैमुरकीहीतरहकईदेशोपरआक्रमणकरके लुटकरताथा।


राजपुतानाके शासकराणासांगानेबाबरकोइब्राहीमलोधीसेलड़नेके लिएबुलाया।1526
मेंपानीपतके पहलेयुद्धमेंबाबरनेइब्राहीमलोधीकोहरादियापरमहत्वकांक्षीबाबरनेबादमेंराणासांगासेभीविद्रोहकरलियाऔरराणासांगासेकईयुद्धोंके बादअंतमेंखांडवाके युद्धमेंबाबरकोविजयमिली।
बाबरनेतुजुकएबाबरीयाबाबरनामामेंअपनेजिहादके युद्धोंकावर्णनदियाहैउसने राणा सांगा के साथ युध्ध को एकइस्लामिक जिहादके तौर पर
लिखाजिसमेउसनेभारतके कईमंदिरोंकोतोड़करखुदकोगाजीबतायाहै।बाबरनेअपनेयुद्धकोजिहादकानामदेकरकईएतिहासिकमंदिरोंकोध्वस्तकियाबाबर को गाजी की उपाधि प्राप्त की। गाजी
वह जोकाफिरों का कत्ल करे। जिसमेराममंदिरऔरचंदेरीके एतिहासिकमंदिरभीशामिलहै।
राममंदिरउसके मुख्यसिपहसलारमीरबांकीनेध्वस्तकियाथाजिसपरकईयुद्धोंके बादहिन्दुओकाअधिकारहोगयाथा।

मुगलवंश का संस्थापक बाबर एक लूटेरा था। उसने उत्तर भारत में कई लूट कोअंजाम दिया। बाबर ने अपने विजय पत्र में अपने को मूर्तियों की नींव काखण्डन करने वाला बताया।
बाबर ने अमानुषिक ढंग से तथा क्रू रतापूर्वक हिन्दुओंका नरसंहार ही नहीं किया, बल्कि अनेक हिन्दू मंदिरों को भी नष्ट किया। बाबरकी आज्ञा से मीर बाकी ने अयोध्या में राम
जन्मभूमि पर निर्मित प्रसिद्धमंदिर को नष्ट कर मस्जिद बनवाई, मंदिर तोड़ते वक्त 10,000 से ज्यादा हिन्दू उसकी रक्षा में मारे गए थे।Babur raised towers of
Hindu skulls at Khanua when he defeated Rana Sanga in 1527 | इसी भांति ग्वालियर के निकट उरवा में अनेकजैन मंदिरों को नष्ट किया।उसने
चंदेरी के प्राचित और ऐतिहासिक मंदिरों को भी नष्ट करवा दिया था

अनेक नरसंहार हुए और मुस्लिम शिविर 'काफिरों के सिरों की मीनारों'के रूप में जाने जाने लगे।

The Mughal emperor Babur (who ruled India from 1526 -1530 AD) writing in his memoirs called the ‘Baburnama’
– wrote : ” In AH 934 (2538 C.E.) I attacked Chanderi and by the grace of Allah captured it in a few hours. We got
the infidels slaughtered and the place which had been Daru’l-Harb (nation of non-muslims) for years was made into
a Daru’l-Islam (a muslim nation).”

In Babur’s own words in a poem about killing Hindus (From the ‘Baburnama’ ) he wrote :
“For the sake of Islam I became a
wanderer,
I battled infidels and Hindus,
I determined to become a martyr
Thank God I became a Killer of
Non-Muslims!”

january1528 में, बाबर की आक्रमणकारी सेनाओं ने उनके किले पर कब्जा कर लियाथा। चंदेरी किले की महिलाओं और बच्चों ने जौहर कर लिया, पुरुष भगवा वस्त्रपहने और
सका के अनुष्ठान के लिये चल दिये।

बाबरनामा के विभिन्न पृष्ठों से लिए गए निम्नलिखित अंश पढ़िए


१.पृष्ठ १२०-१२१ पर बाबर लिखता है कि वह अपनी पत्नी में अधिक रूचि नहीं लेताथा बल्कि वह तो बाबरी नाम के एक लड़के का दीवाना था. वह लिखता है कि उसनेकभी
किसी को इतना प्यार नहीं किया कि जितना दीवानापन उसे उस लड़के के लिएथाइन तथ्यों से पता चलता है कि बाबरऔर उसके साथी समलैंगिक और बाल उत्पीड़क थे.

पृष्ठ२३२- वह लिखता है कि उसकी सेना ने निरपराध अफगानों के सिर काट लिए जो उसके साथ शान्ति की बात करने आ रहे थे. इन कटे हुए सिरों से इसने मीनार बनवाई.ऐसा
ही कु छ इसने हंगू में किया जहाँ २०० अफगानियों के सिर काट कर खम्बेबनाए गए.

पृष्ठ ३७०- क्योंकि बाजौड़ में रहने वाले लोग दीन (इस्लाम)को नहीं मानते थे इसलिए वहां ३००० लोगों का क़त्ल कर दिया गया और उनके बीवी बच्चों को गुलाम बना लिया गया.

पृष्ठ ३७१- गुलामों में से कु छों के सिर काटकर काबुल और बल्ख भेजे गए ताकि फतह की सूचना दी जा सके .

पृष्ठ ३७१- कटे हुए सिरों के खम्बे बनाए गए ताकि जीत का जश्न मनाया जा सके .

पृष्ठ३७१- मुहर्रम की एक रात को जश्न मनाने के लिए शराब की एक महफ़िल जमाई गयीजिसमें हमने पूरी रात पी. (पूरे बाबरनामा में जगह जगह ऐसी शराब की महफ़िलोंका वर्णन
है. ध्यान रहे कि शराब इस्लाम में हराम है.)

पृष्ठ ३७३-बाबर ने एक बार ऐसा नशा किया कि नमाज पढने भी न जा सका. आगे लिखता है कियदि ऐसा नशा वह आज करता तो उसे पहले से आधा नशा भी नहीं होता.

पृष्ठ३७४- बाबर ने अपने हरम की बहुत सी महिलाओं से बहुत से बच्चे उत्पन्न किये.उसकी पहली बेगम ने उससे वादा किया कि वह उसके हर बच्चे को अपनाएगी चाहे वेकिसी भी
बेगम से हुए हों, ऐसा इसलिए क्योंकि उसके पैदा किये कु छ बच्चे चलबसे थे. यह तो जाहिर ही है कि इसके हरम बनाम मुर्गीखाने में इसकी हवसमिटाने के लिए कु छ हजार औरतें तो
होंगी ही जैसे कि इसके पोते स्वनामधन्यअकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं जो इसकी ३६ (छत्तीस) पत्नियों से अलगथीं. यह बात अलग है कि इसका हरम अधिकतर समय
सूना ही रहता होगा क्योंकि इसकोस्त्रियों से अधिक पुरुष और बच्चे पसंद थे! और बाबरी नाम के बच्चे में तोइसके प्राण ही बसे थे.

इसी गांव में मीर बाकी की मजार है,कु समाहा गांव है, जो दर्शननगर में हैसन् 1856 में मिर्जाजान ने अपनी किताब 'हदीकाए शहदा' (पृष्ठ-4-7) में लिखाहै कि सुल्तानों ने इस्लाम
के प्रचार और प्रतिष्ठा को शह दी। कू फ्र (हिन्दूविचार) कोकू चला। फै जाबाद और अवध को कू फ्र से छु टकारा दिलवाया। अवध रामके पिता की राजधानी थी। जिस स्थान पर मंदिर था
वहां बाबर ने सरबलंद मस्जिदबनवाई।हाजी मोहम्मद हसन ने 1878 में छपी अपनी किताब 'जियाए अख्तर' (पृष्ठ 38-39) में लिखा है कि अलहिजरी 923 में राजा राम चन्दर
के महल सराय तथा सीता रसोईको ध्वस्त कर दिल्ली के बादशाह के हुक्म से बनाई गई मस्जिद में अब दरारेंपड़ गई हैं।मौलवीअब्दुल करीम ने 1885 में 'गुमगश्ते हालत अयोध्या
अवध' में कहा है किराम जन्म स्थान और रसोई की जगह बाबर ने एक अजीम मस्जिद बनवाई। कमालुद्दीनहुसनीअल हुसैनी अल मशाहदी ने 1896 में लिखी किताब 'कै सरूल
तवारीख' के खंड 2 (पृष्ठ 100-112) में मंदिर तोड़े जाने का जिक्र किया है। अल्लामा मुहम्मदनजमुलगनीखान रामपुरी ने 1909 में लिखी गई 'तारीखे अवध' के खंड 2 (पृष्ठ
570-575) में भी मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद की तामीर का जिक्र किया है।'आइने अकबरी' में लिखा है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि को वापस पाने के लिएहिन्दूओं ने कई
हमले किए। औरंगजेब की 'आलमगीर' में कहा गया है कि मुतवातिर 4 साल तक खामोश रहने के बाद रमजान की सातवीं तारीख पर शाही फौज ने फिरअयोध्या की जन्मभूमि पर
हमला किया, जिसमें 10 हजार हिंदू मारे गए।With lakhs of temples destroyed how many black days should Hindus observe ?

In the 6.7.1924 issue of Modern Review, Swami Satyadev Parivrajak published a translation of a royal decree (a
shahi firman) by Babur. It read…

‘By the order of the Shahenshah-e-Hind, Malikul jahan, badshah Babur and hazrat Jalalshah, permission is hereby
granted to destroy Rama’s birthplace in Ayodhya and replace it with a mosque built with the recovered materials.
You are hereby ordered to ensure that no Hindu from other parts of Hindusthan be allowed into Ayodhya. If any
Hindu should find himself in Ayodhya and you have cause to doubt his intentions then you will be duty bound to
capture and execute such Hindus’.

Sir Alexander Cunningham, in the Lucknow Gazetteer speaks about the carnage that Mir Banki, a governor under
Babur, unleashed on Ayodhya. Over 1.74 lakh Hindus who had gathered to protect the Shriram temple site were
ruthlessly slaughtered; their bodies piled high and wide. Mir Banki’s canons fired into the temple and reduced it to
rubble.

Hamilton writes in the Barabanki Gazetteer ‘Jalalshah used stones from Lahore coloured with the blood of
Hindus in the construction of the mosque. Kajal Abbas Musa Ashikan Kalandarsahib a zealous Muslim fakir was
the ‘inspiration’ for the destruction of the temple and the construction of a grand mosque in its place. He had plans
to turn Ayodhya into a Mecca of the east.

In his memoirs, Babur recounts the destruction of the Ram Mandir (in Ayodhya) on the orders of Abbas Musa
Ashikan Kalandar and how the materials from the temple were reused to build a mosque in its place.

10,000 suryavamshi Kshatriya warriors of Sirsinda and Rajepur near Ayodhya, geared up to fight for Ram
Janmabhoomi. They destroyed all Mughal structures surrounding the tempe area. They even managed to destroy the
entrance to the Babri masjid. Three days after this started, the Mughal army engaged the kshatriya warriors and
killed them. The Mughal army also had their revenge by destroying and burning down the villages from which the
warriors hailed.

हुमायूं - बाबर के वल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका। उसके बाद उसका बेटा नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं दिल्ली के तख्त पर बैठा। हुमायूं के बाद

Humayun's Tomb– (Original Name: Vishnupada Temple) after his death on 27 January 1556, Humayun's body
was first buried in his palace in Purana Quila at Delhi. Thereafter it was taken to Sirhind, in Punjab by Khanjar Beg
and, in 1558, it was seen by Humayun's son, the then Mughal Emperor, Akbar. Akbar subsequently visited the tomb
in 1571, when it was about to be completed.

The tomb of Humayun was built by the orders of his first wife and chief consort, Empress Bega Begum (also known
as Haji Begum). Construction began in 1565 and was completed in 1572

राणा सांगा को ‘संग्राम सिंह’ के नाम से भी जाना जाता है. वह राणा रायमल के पुत्र थे.- भरतपुर-धौलपुर रोड पर रूपवास के निकट गांव खानवा, जहां 17 मार्च 1527 मेंबाबर
और राणा सांगा के बीच युद्ध लड़ा गया। यह मैदान पहली बार युद्ध मेंइस्तेमाल की गई तकनीक का भी गवाह है। बाबर ने तोपखाने और बंदूकों के बल परसिर्फ 10 घंटे में राणा सांगा
की सेना को हरा दिया। इस युद्ध में हुई तबाहीके निशान 490 साल बाद आज भी पहाडिय़ों पर मौजूद हैं। तोपखाने और बंदूकोंने पहाड़ियों को छलनी कर दिया था।20 हजार से
अधिक सैनिक मारे गएलेकिन अंत में बाबर ने गोला बारूद का जमकर इस्तेमाल कर लड़ाई का रूख अपने पक्ष में मोड़ दिया औरयुद्ध को जीतलिया

17 march1527 ई. इतिहास के पन्नों में वह तारीख दर्ज हुई. जहां दोनोंखानवामें भिड़ गए. इस युद्ध में राणा सांगा के साथ हसन ख़ाँ मेवाती, बसीनचंदेरी एवं इब्राहिम लोदी का
भाई महमूद लोदी भी डटे हुए थे. राणा सांगा कीफौज का मुकाबला करने के लिए बाबर अपने लश्कर के साथ फतेहपुर सिकरी के निकटखानवा जगह पर पहुंचा.
And at Khanwa, the future of India was decided! By all accounts a closely fought thing, the Rajputs had numbers
and they had their warrior lineage with all it’s traditions of bravery and skill. But they lacked organisation, and had
never faced cannons before.

Babur defeated them, and with that victory founded the Mughal empire, of the battle he would say -

Rana Sanga would lose an eye, and an hand, earning him his classical depiction of the wounded, defiant rajput king

Rana Sanga was the king of the Rajput kingdom of Mewar, founded at fall of the Gupta empire, in 530, at the end of
India’s classical age.[2]The kingdom would fall at the hands of Mohammed bin-Tughlaq, the sultan of Delhi, but
following his death, an ancestor of Rana Sanga, Rana Hamir would recapture it, starting the Sisodia dynasty. They
would face a long struggle in front of them, against the Sultanate, but even more - against each other!

According to historical records and Babarnama(autobiography written by Babur himself) Rana Sanga invited him
to attack on Delhi where Ibrahim Lodi was ruling at that time.Rana Sanga thought that Babur would return to
Kabul after attacking and luting just like his ancestor Taimur ‘ lung' and then on The ruins of Lodi dynasty Rana
sanga would be able to establish a vast Hindu empire. But Rana didn't succeeded in it.

He invited Babur with a cunning plan of letting him destroy Lodhis of Delhi and thus when both are weaken by war,
Rana would then attack Delhi to concur Lodhi kingdom and destroy the invading army of Babur too. Of course as it
is evident, the plans failed. Babur was too clever, strong and skillful in military manoeuvring than any other general
of his time

After first ascending to the throne of his home kingdom, Mewar, then consolidating power there, Rana Sanga moved
his army against the internally troubled neighbouring kingdom of Malwa.

Under the rule of Mehmod Khilji, Malwa was torn by dissension. Wary of his Rajput Wazir Medini Rai's power, the
politically weak Mehmod sought outside assistance from both SultanIbrahim Lodi of Delhi and Bahadur Shah of
Gujarat; whereas Rai, on his part, requested Sanga to come to his aid. Thus began the prolonged war between
Mewar against the Muslim sultans of North India.

Joined by Rajput rebels from within Malwa, Sanga's troops from Mewar beat back invading armies from Delhi,
ultimately defeating Malwa's army in a series of hotly contested battles. Khilji was himself taken prisoner, only to be
freed after leaving his sons as hostages in Mewar's capital, Chittor. Through these events, Malwa fell under Rana’s
military power.

Sanga counterattacked, invading enemy territory. Rajputs fought ethnic Afghans under Lodi at Khatoli (Gwalior) in
1517-18. Although Sanga lost his left arm and was crippled in one leg, he also won and captured land.

It was at this juncture that he heard that Babur had defeated and slain Ibrahim Lodi and was now master of the Delhi
Sultanate.

As a first move, he coerced Afghan fugitive princes like Mehmud Lodi and Hasan Khan Mewati to join him. Then
he ordered Babur to leave India. Initially he hoped to attain this by sending his vassal SardarSilhadi of Raisen as his
emissary. Silhadi who went to Babur’s camp was won over by Babur. Babur accepted that to rule North India he
may have to engage in battle with Rana Sanga and hence had no desire for retreat. Babur and Silhadi hatched a plot.
Silhadi, who held a large contingent of 30,000 men would join Babur’s camp at critical moment of battle and
thus defeat Rana Sanga. Silhadi who went back to Chittor, told Rana that war is a must.

Rana Sanga was whisked away to safety by the Rathore contingent from Marwar and once he became conscious he
learnt of the defeat. But Rana Sanga, unwilling to admit defeat, set out once more to rebuild his military and renew
war with Babur. He vowed not to set foot in Chittor till Babur was defeated by him. In 1528, he once more set out to
fight Babur at Chanderi to help Medini Rai who was attacked by Babur. But he fell sick at Kalpi and died in his
camp. It is widely believed that he was poisoned by some of his nobles who quite rightly thought his renewal of war
with Babur was suicidal.

Battle of Khatoli

It was fought against Ibrahim Lodi in 1518. Both the armies met near the village of Khatoli on the borders of
Haravati (Haraoti). The Sultan’s army gave up and left the battleground after fighting for five hours. Rana Sanga
captured a Lodi prince as a prisoner and released him after a few days on payment of a ransom. It was during this
battle that the Maharana lost an arm by a sword cut, and an arrow made him lame for life

Battle of Khanwa

It was the second major battle fought in modern-day India, after the Battle of Panipat. Rana united the Rajput and
fought against the invading forces of the Mughal Emperor Babur. The fight was intense, but the Rajputs lost in the
end.

 Maharana Sangram Singh died soon after, on January 30, 1528. It is believed that he was poisoned by
some of his own chiefs who held his plans of renewing the fight with Babur to be suicidal

 Though he lost the battle to Babur, his tenacity and courage inspired many other kings including Rana
Pratap

एकआदर्श राजा की तरह इन्होने अपने राज्य रक्षाकी ‍तथा उन्नति की। राणासांगा अदम्य साहसी (indomitable spirit) थे एक भुजा,एक आँख खोने व अनगिनतजख्मो के
बावजूद भी उन्होंने अपना महान पराक्रम नही खोया,सुलतान मोहम्मदशासक माण्डु को युध्द ,मे हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हे उनका राज्यपुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह
उनकी बहादुरी को दर्शाता है।

राणासांगा ने दिल्ली और मालवा के नरेशों के साथ अठारह युद्ध किये। इनमे से दोयुद्ध दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान इब्राहीम लोदी के साथ लड़े गए। कहा जाताथा कि मालवा के
सुल्तान मुजफ्फर खान को युद्ध में कोई गिरफ्तार नहीं करसकता था क्योंकि उसकी राजधानी ऐसी मजबूत थी कि वह दुर्भेद्य थी। परन्तुपराक्रमी राणा सांगा ने के वल उसके दुर्ग पर
ही अधिकार न किया किन्तुसुल्तान मुजफ्फर खान को बंदी बनाकर मेवाड़ ले आया। फिर उसने सेनापति अली सेरणथम्भोर के सुदृढ़ दुर्ग को छीन लिया।

जिहाद का नारा :Babur had declared the struggle with Rana as a holy war of the Muslims against the Hindus. His stirring
speech infused a new vigour among his soldiers. Everyone swore of the holy Quran.

राणासाँगा की प्रसिद्धि और बयाना जैसी बाहरी मुग़ल छावनियों पर उसकीप्रारम्भिक सफलताओं से बाबर के सिपाहियों का मनोबल गिर गया। उनमें फिर सेसाहस भरने के लिए बाबर
ने राणा साँगा के ख़िलाफ़ 'जिहाद' का नारा दिया।लड़ाई से पहले की शाम उसने अपने आप को सच्चा मुस्लिम सिद्ध करने के लिएशराब के घड़े उलट दिए और सुराहियाँ फोड़ दी।
उसने अपने राज्य में शराब कीख़रीद-फ़रोख़्त पर रोक लगा दी और मुसलमानों पर से सीमा कर हटा दिया। बाबरने बहुत ध्यान से रणस्थली का चुनाव किया और वह आगरा से
चालीस किलोमीटर दूरखानवा नामक स्थान पर पहुँच गया। पानीपत की तरह ही उसने बाहरी पंक्ति मेंगाड़ियाँ लगवा कर और उसके साथ खाई खोद कर दुहरी सुरक्षा की पद्धति
अपनाई।इन तीन पहियों वाली गाड़ियों की पंक्ति में बीच-बीच में बन्दूक़चियों के आगे बढ़ने और गोलियाँ चलाने के लिए स्थान छोड़ दिया गया।

'खानवाकी लड़ाई' (1527) में ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। बाबर के अनुसार साँगा की सेनामें 200,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफ़ग़ान घुड़सवार और
इतनीसंख्या में हसन ख़ान मेवाती के सिपाही थे। यह संख्या भी, और स्थानों कीभाँति बढ़ा-बढ़ा कर कही गई हो सकती है, लेकिन बाबर की सेना निःसन्देह छोटीथी। साँगा ने बाबर
की दाहिनी सेना पर ज़बर्दस्त आक्रमण किया और उसे लगभगभेद दिया। लेकिन बाबर के तोपख़ाने ने काफ़ी सैनिक मार गिराये और साँगा कोखदेड़ दिया गया। इसी अवसर पर बाबर
ने के न्द्र-स्थित सैनिकों से, जोगाड़ियों के पीछे छिपे हुए थे, आक्रमण करने के लिए कहा। ज़जीरों सेगाड़ियों से बंधे तोपख़ाने को भी आगे बढ़ाया गया।

1. महाराणा सांगा हाथी पर युद्ध लड़ रहे थे, कि तभी एक सख्त तीर महाराणा के चेहरे पर लगा, जिससे वे बेहोश हो गए हलवद के झाला अज्जा महाराणा के छत्र-चंवर वगैरह धारण
कर हाथी पर बैठकर युद्ध लड़ने लगे झाला अज्जा के भाईसज्जा व कु छ और सर्दार महाराणा सांगा को युद्धभूमि से दूर ले गए

2. इस लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से मेदिनीराय जीवित रहा


3. युद्ध के बाद बाबर ने हिन्दुओं के कटे हुए सिरों की एक मीनार बनवाई

4. बाबर को खानवा के युद्ध में जीतने की कोई आस नहीं थी | तुजुक-ए-बाबरी मेंबाबर लिखता है "मैं इस्लाम के लिए इस लड़ाई के जंगल में आवारा हुआ और मैंनेअपना शहीद
होना ठान लिया था, लेकिन खुदा का शुक्र है कि गाज़ी बनकर जीतारहा"

47 वर्ष की आयु में अप्रैल, 1527 ई. में महाराणा सांगा का देहान्त हुआ।

There is a total of 106 Vishnu temples across India and Nepal known as Divya Desams. All these temples from
Muktinath in Nepal to Tirumala in South India have the holy “feet” of Lord Vishnu inside the Garbha
Graha.

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1560), 48,000 Hindu peasants and Rajputs 1568 में फू लकं वर का : मुगलसम्राट अकबर के आक्रमण के समय 8,000
महिलाओ ने जौहर किया|अकबर ने जवाला माई हिमाचल का तेज देखने के लिए लोहे के सात मोटे-मोटे तवों से ज्वाला कोढंककर बुझाना चाहा, पर माई सातों तवों को तोड़कर
प्रकट हो गई। अकबर ने फिरनहर से पानी लाकर डाला, पर माई का बाल भी बांका न हो सका।Akbar ordered a general massacre of 30,000 Rajputs
after he captured Chithorgarh in 1568. The Bahamani Sultans had an annual agenda of killing a minimum of
100,000 Hindus every year.
चित्तोड़ तीसरा जौहर 1567 में हुआ जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। रानी फू लकं वर ने हजारों रानियों के साथ जौहर किया। जयमल-फत्ता भी इसी युद्ध में शहीद हुए।
महान लेखक अबुल फज़ल ने अपनी कृ ति आइन-ए-अकबरी में चित्तौड़ में सन् 1567 में हुए जौहर का जिक्र किया हैकहते हैं कि अकबर ने जब चित्तौड़ विजय के समय तीस
हज़ार निर्दोषलोगों के कत्ले आम के आदेश दिए (और उतनी स्त्रियों को या जल मरने के लिए याअपने सैनिको कि हवस पूर्ती के लिए छोड़ दिया), और उनके सिरों को
काटकरउनसे मीनार बनवायीं तो फिर वह एकता का प्रतीक कै से हुआ

रानी दुर्गावती(5 october, 1524 – 24 june, 1564) 5 october जयंतीवीरांगनारानीदुर्गावतीजिन्होंनेउसअत्याचारीतथाकामुकअकबरकी 10,000 सैनिकों की
सेनाकोतीनबारयुद्धमेंहरायाजिसेबतायाजाताहैमहान|नरसिंहपुर जिले में चौरागढ़ (चौगान) किले का निर्माण भी उनने ही कराया थाजो रानी दुर्गावती के पुत्र वीरनारायण की वीरता का
मूक साक्षी हैसन्् 1564 में अकबर के सिपहसलार आतफ खां से युद्ध करते हुये रानी ने वीरगतिपाई। नरसिंहपुर जिले में स्थित चौरागढ़ एक सु.ढ़ पहाड़ी किले के रूप मेंथा जहां
पहुंच कर आतफ खां ने राजकु मार वीरनारायण को घेर लिया और अंतत:कु टिल चालों से उनका वध कर दिया।काफी समय से यह किवदंती चर्चित है कि यहां के तालाब में पारस
का पत्थर हैअंग्रेजो ने इसे ढूंढने के लिए हाथी की सहायता ली थी तब जिस चेन से हाथीबांधा गया था तब पारसमणि तो नही मिली परन्तु उस चेन की दो कडियां सोने कीहो गई
थी।चौरागढ़ किले को जब अंग्रेजो ने मराठा पेशवाओ से छीना तो उन्होने इस डर सेकि कही फिर से मराठा पेशवा इस पर कब्जा न कर ले तोप से इस किले को ध्वस्तकर दिया। यह
खंडहर आज भी अपने वैभवशाली अतीत की कहानी कह रहा है

रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य परमालवाके मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। महान मुगल शासक अकबर भी
राज्य को जीतकर रानी को अपनेहरममें डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफे दहाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप
में अपने पासभेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठु करा | इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोण्डवानासाम्राज्य पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ
खां पराजित हुआ, पर अगली बारउसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुतकम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे
मोर्चा लगाया तथास्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगलसैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।

अगले दिन 24 june1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी कापक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेजदिया। तभी एक तीर
उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फें का। दूसरे तीरने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रहगयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन
में आकर धंस गया।

रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनीतलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानीअपनी कटार स्वयं
ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं।महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवानेसे पहले पंद्रह वर्षों तक शासन
किया था।

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नामबरेलाहै, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग जाकर
अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं

अकबरके हरममेंबच्चेक्योंरखेजातेथे!अकबरनेअपनेबेटेकीबहूसेहीज़बरदस्तीकीथी!अकबरने५,०००औरतों (औरबच्चियों) सेअपनाहरमभराथा!


1570 Fatehpur Sikri - Around 27 kilometers from Agra’s beautiful Taj Mahal,Original name: Vijaypur SikriName
as a symbol of Islamic atrocities: Fatehpur Sikri. What we have been taught in our history classes is that this
beautiful city called Fatehpur Sikri was built between 1571 and 1585 by the Mughal emperor Akbar. However,
the walls and palaces of Fatehpur Sikri stand as silent witnesses to a bygone era much before the times of Akbar.
The walls, corridors, and large building complexes have clearly visible tell-tale signs of different history that is
contradictory to today’s textbooks. This city was once known as Vijaypur Sikri and belonged to the Rajput
kings of Mewar.It is said that Akbar had “conceptualized” the idea of Fatehpur Sikri in 1569, and two years later in
1571 he started the construction. The city was built within a short span of just 14-15 years. The historian V. A.
Smith mentions in his translations of Abu-I Fazl that Akbar moved his capital to Fatehpur Sikri in 1571, which at
that time would have been a small and quiet village surrounded by deserts.

In Sanskrit ‘sikta’ means sand. Also, a place in Rajasthan called “Sikar” that lies midway between Agra and
Bikar gets its name from the sandy desert that surrounds it.A lot of Hindu style designs of elephants at the entrance
gates (Hathi Pol), pillars for Hindu lamps or diyas or deepas (Deep Sthambhs), broken Hindu and Jain statues and
idols, picture paintings, murals and other artifacts are evidence that were excavated by the ASI (Archeological
Survey of India). 11TH CENTURY JAIN TEMPLE ALSO.

The ain-i-akbari (the chronicles of Akbar’s reign) documents this in the following words..

‘The Hindus tried 20 times to reclaim Ram Janmabhoomi. On the insistence of Raja Birbal and Raja Todarmal,
Jalal-ud-din Akbar ordered that the construction of a platform be allowed in front of the Babri masjid and
that a small Ram temple can be built on top of it. It was furthered proclaimed that no harm should come to the Hindu
worship in the temple.’

रामसिंह अंग्रेज इतिहास बिनसेंट स्मिथ का हवाला देते हुए अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हैं कि सारंगपुर विजय के बाद मुगल सिपहसालार आसफ खां नेअकबर को चिट्ठी लिखी थी
कि मालवा और निमाड़ को हिन्दूविहीन कर दिया गयाहै। इस चिट्ठी का उल्लेख स्मिथ की पुस्तक में है। ( और अशोक द्वारा कलिंगको जनविहीन करने पर विद्वान् लेखक के क्या
विचार हैं ?)

शेखावत कहते हैं कि अकबर के लिए पहली बार महान शब्द का संबोधन एकपुर्तगाली पादरी ने किया था।अकबर इतना क्रू र था कि आत्मसमर्पण करने वालेलोगों को भी मौत के घाट
उतार देता था, जो इस्लाम कबूल नहीं करते थे। वेकहते हैं कि टीवी और ‍फिल्मों में अकबर और जोधाबाई के प्रेम प्रसंग दिखाएजाते हैं, जबकि हकीकत में जोधा से अकबर की शादी
ही नहीं हुई थी। उसका भाईयानी भारमल का बेटा भूपत उसका डोला अकबर के खेमे में छोड़ गया था। शेखावतकहते हैं कि अबुल फजल ने भी एक जगह उल्लेख किया है कि जोधा
को एक बार हीआगरा के महल से बाहर निकलने दिया गया, जब उसका भाई भूपत अकबर को बचाते हुएमारा गया था। (जोधा से नहीं लेकिन अनेक राजपूत कु मारियाँ, मुग़ल
रानियाँअबनिं थीं . राजपूत अगर इतने ही बहादुर थे तो मुगलों के खिलाफ लादे क्योंनहीं ?शादियाँ क्यों कीं ? मानसिंह और बीरबल जैसे लोग चाटुकार बन कर पदक्यों भोगते
रहे ? )

अकबर के बारे में संपूर्ण जानकारी.. ( दो लाइनों में सम्पूर्ण जानकारी ? कै से महोदय ?)

अपने गुरु का हत्यारा अकबर 'महान' अकबर महान नहीं हत्यारा था। ..

हिन्दुस्तानी परंपरा में गुरु को ईश्वर के समकक्ष माना गया है। बैरमखां न सिर्फ अकबर का संरक्षक था, बल्कि उसका गुरु भी था और उसने मुगलसाम्राज्य को भारत में फै लाने में
अहम भूमिका निभाई थी। मगर उसका हश्र क्याहुआ। अकबर ने बैरम खां को बुरी तरह मारा था। ( लेखक ने अजात शत्रु के बारेमें नहीं पढ़ा शायद. उसने राज्य सत्ता के लिए अपने
मां -बाप को बंदी बनाकर मार डाला था , तब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था)खां ने जीवनभरहुमायूं की और 18 वर्ष तक अकबर की सेवा की थी। अकबर ने उसकी सुंदर पत्नी
कोउससे छीना और उस पर राजद्रोह के झूठे आरोप लगाए। दरअसल, बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, औरंगजेब ने उत्तर और मध्य भारत में कत्लेआम कर भारतीय जनताको
मुसलमान बनाया और उन्हें अपनों के खिलाफ ही खड़ा कर दिया।

जल्लालुदीन मुहम्मद के इस्लाम विरोधी हो जाने के अनोखे किस्से इतिहास के पन्नो में मिलते हैं| इस्लामिक इतिहासकारबिल्ली ग्रामीइस घटना के बारे में विस्तृत रूप से लिखते हैं |
दरअसल जल्लालुदीन के इसबदलाव का कारण इस्लाम से नफरत कम और उलेमाओं तथा मौलानाओं के द्वारा अल्लाहके नाम पे आम नागरिकों का भगवान बनने के अंधे प्रतिस्पर्धा
के कारण था|

एकघटना का वर्णन करते हुए कहा गया कि अकबर जब अलाहाबाद भ्रमण के लिए गए तोउन्होंने एक खंडित मंदिर देखा जिसे देखकर उन्हें अपने पूर्वजन्म { पिछलेजन्म } कि याद
आ गई, जिसमे वह उसी मंदिर के पुजारी थे और उन्होंने अपनेजीवन के ४० साल वहां बिताए थे| हालाँकि ऐसे किस्सों पर विश्वास करनाअत्यंत कठिन है |
आइन-ए-अकबरी जो जल्लालुदीन का जीवन वर्णन कम और प्रशंसा पत्र ज्यादा है { कृ पया आहात न हों} में ऐसी घटनाओं का जिक्र नहीं मिलता है|

यहाँ तक जिक्र मिलता है कि उन्होंने सारे मस्जिदों को बंद करवा दिया और उन्हें भंडार गृह में परिवर्तित करवा दिया |हालाँकि इन सारी घटनाओं पे पूर्णतः विशवास करना थोड़ा
कठिन है

नूरुद्दीन सलीम जहांगीर- जहाँगीर के बारे में मशहूर था कि वो औरतों और शराब के शौकीन थे. वो अपनीआत्मकथा 'तुज़ूके -जहाँगीरी' में लिखते हैं कि एक समय वो दिन में
शराब के 20 प्याले पीते थे, 14 दिन में और 6 रात में. बाद में उसे घटा कर वो एक दिनमें 6 प्याले पर ले आए थे.अकबर के बाद जबजहांगीरमुग़ल सम्राट बना तो अकबर के कु छ
नवरत्नों ने उसका विरोध किया। जवाब में जहांगीर ने नवरत्नों में से एकअब्दुल रहीम खाने-खानाके दो लड़कों को इस दरवाजे पर मरवा डाला और इनके शवों को यहीं सड़ने के
लिये छोड़ दिया गया।[1]

जहाँगीर ने अकबर के बहुत करीबी और उनके जीवनीकार अबुल फ़ज़ल को ओरछा के राजा बीर सिंह देव के हाथों उस समय कत्ल करवा दिया था, जब वो दक्कन से आगराकी तरफ़
आ रहे थेअबुल फ़ज़ल की नज़र में जहाँगीर कोई बहुत ऊं ची जगह नहीं रखते थे. लेकिन क्या सिर्फ़ यही वजह थी उनको मरवाने की?

"जब अकबर को अबुल फ़ज़ल के देहांत के बारे में ख़बर मिली तो वो मूर्छितहो गए. जहाँगीर इसके बारे में बिना किसी ग्लानि के अपनी आत्मकथा में लिखतेहैं कि ये मैंने किया. और
अंतत: जहाँगीर जब अबुल फ़ज़ल के बेटे से मिलतेहैं तब भी उनके मन में कोई अपराध बोध नहीं रहता. वो साफ़ लिखते हैं कि मेराउद्देश्य था बादशाह बनना. अगर अबुल फ़ज़ल
वापस दरबार में पहुंचते तो मैंबादशाह नहीं बन पाता."

वो कहती हैं, "दिलचस्प बात ये है कि अबुल फ़ज़ल के बेटे बाद में जहाँगीर के बहुत विश्वसनीय मंत्री के तौर पर उभरते हैं."

17 October, 1605 को अकबर के देहावसान के बाद जहांगीर मुग़ल तख़्त पर आसीनहुए. उनके बारे में कहा जाता है कि वो बहुत 'मूडी' बादशाह थे. कभी बहुतदरियादिल
तो कभी बहुत ख़ूंख़ार.

"जहाँगीर ने अपने एक नौकर का अंगूठा सिर्फ़ इसलिए कटवा दिया था, क्योंकिउसने नदी के किनारे लगे चंपा के कु छ पेड़ काट दिए थे. उसने नूरजहाँ की एककनीज़ को एक गड्ढ़े
में आधा गड़वा दिया था. उसका कसूर था एक किन्नर काचुंबन लेते पकड़े जाना. एक आदमी को उसके पिता की हत्या करने की सज़ा देतेहुए जहाँगीर ने उसे एक हाथी की पिछली
टांग से बंधवा कर कई मीलों तकखिंचवाया था."

"अपने ख़ुद के बेटे ख़ुसरो के बग़ावत करने पर जहाँगीर ने उसे मौत की सज़ा न दे कर उसकी आँखें फु ड़वा दी थीं."

"एकबार इस तरह की सज़ा देने के बाद शायद ही जहाँगीर ने उसे बदला हो. हाँ अपनेबेटे ख़ुसरो को अंधा किए जाने के बाद, जहाँगीर ने उसकी आँखों का इलाजज़रूर करवाया
था, लेकिन उसकी आँखों की रोशनी कभी वापस नहीं आई."

जहाँगीर ने शेरशाह सूरी की पुरानी परंपरा बरक़रार रखी थी जहाँ बादशाहअपनी महत्वपूर्ण बैठकें अपने ग़ुसलख़ाने यानी स्नानघर में करता था.

इसकाकारण ये था कि शेरशाह के बाल बहुत घुंघराले थे, जिन्हें सूखने में बहुतवक्त लगता था. जहाँगीर तो अपने बाल भी ग़ुसलख़ाने में कटवाया करते थे.

जहाँगीर सिख गुरु अर्जन देव से इस बात पर नाराज़ हो गए थे कि उन्होंने बग़ावत कर रहे उनके बेटे ख़ुसरो की सहायता की थी.

मशहूरइतिहासकार मुनी लाल जहाँगीर की जीवनी में लिखते हैं, "ग़ुस्से में लालजहाँगीर ने गुरु अर्जन देव से कहा, 'आप संत हैं और एक पवित्र शख़्स हैं. आपके लिए अमीर और
ग़रीब सब बराबर है. तब आपने मेरे दुश्मन ख़ुसरो को क्योंपैसे दिए? गुरु ने कहा, 'मैंने उसको इसलिए पैसे दिए, क्योंकि वो सफ़र पर जारहा था, न कि इसलिए कि वो आपका
विरोधी था. अगर मैं ऐसा न करता तो सब लोगमुझे धिक्कारते और कहते कि मैंने ऐसा आपके डर की वजह से किया है और मैंसारे संसार में गुरु नानक का शिष्य कहलाए जाने
लायक नहीं रह जाता."

वोलिखते हैं, "गुरु नानक का जिक्र आते ही जहाँगीर नाराज़ हो गए. उन्होंनेगुरु अर्जन देव पर 2 लाख रुपयों का जुर्माना किया और कहा कि वो गुरुग्रंथसाहब से उन हिस्सों को हटा
दें, जिनसे हिंदुओं और मुसलमानों कीभावनाओं को चोट पहुंचती है."

इस पर गुरु अर्जन देव ने जवाब दिया, "मेरे पास जो कु छ भी पैसा है वो ग़रीबों के लिए है. अगर आप मुझसे मेरे पैसेमांगे तो वो सब मैं आपको दे सकता हूँ. लेकिन जुर्माने के रूप में
मैं आपकोएक पैसा भी नहीं दूंगा, क्योंकि जुर्माना तो कपटी और सांसारिक लोगों परलगाया जाता है, साधुओं और संतों पर नहीं."

"जहांगीर ने इसका कोईजवाब नहीं दिया. वो दरबार से उठ कर चले गए. दो दिन बाद अर्जन देव कोगिरफ़्तार कर एक काल कोठरी में ठूंस दिया गया. तीन दिन बाद उन्हें रावी
के तट पर ले जा कर मार डाला गया."
"जो वर्णन मिलते हैं, उससे लगता है कि उन्हें दमे की बीमारी थी. उत्तरभारत की जो धूल और गर्मी थी, उसको वो सहन नहीं कर पाते थे. इससे बचने के लिए अपनी ज़िंदगी के
आख़िरी सालों में वो अक्सर कश्मीर की तरफ़ गए.

, "चंगेज़घट्टी नाम की जगह थी, जहाँ जहाँगीर इस दुनिया को अलविदा कहते हैं.जब उनकी मौत हुई तो उनके शरीर पर लेप लगाया गया. उनकी अंतड़ियों को उनके शरीर से
निकाल कर वहीं दफ़ना दिया गया. फिर जहाँगीर के शरीर को बैठी हुईमुद्रा में पालकी में बैठा कर लाहौर लाया गया जहाँ उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हुआ."

5th Sikh Guru, Shri Arjun Dev. Our guru sacrificed his life for us and that is why, we have gathered at gurudwara
to pay our respects. It was on this day in 1606 AD that the Guru was tortured to death at Lahore in Pakistan
during the reign of Mugal Emperor Jahangir,” said Balbir Singh, a devotee at Bistupur gurudwara. Guru Arjun
Dev was arrested, and tortured for five days on the orders of Emperor Jehangir. गुरु जी के भाई पृथ्वी चंद ने जहांगीर से नजदीकियां
बढ़ानी शुरू कर दीं। जहांगीर गुरु जी की बढ़ती लोकप्रियता को पसंद नहीं करता था। उसे यह बातपसंदनहीं थी कि गुरूजी ने खुसरो कि मदद क्यों की|

30 may1606 गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर में 30 May1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा व सियास्त’ कानून के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर
दियागया। ‘यासा व सियास्त’ के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिनाउसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेतडाली गई। जब गुरु
जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी कोठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा

गुरु अर्जन देव के पुत्गुरु हरगोबिन्द सिंह सिखों के छठे गुरु थेपांचवें गुरु अर्जन को फांसी दिए जाने के बाद उन्होंने गद्दी संभाली।उन्होंने एक छोटी-सी सेना इकट्ठी कर ली थी। इससे
नाराज होकर जहांगीर नेउनकोग्वालियर के किले में12 साल तक कै द में रखा। लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया।बाबा बुड्डाव भाई
गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया।जहांगीर ने के वल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्किउन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे
52 राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकतेहैं। इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता हैरिहा होने के बाद उन्होंने शाहजहां के खिलाफ़बगावत कर दी
और 1628 ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फौज को हरादिया। सन् 1644 ई. में कीरतपुर, पंजाब में उनकी मृत्यु हो गई।

शाहबउद्दीन मुहम्मद शाहजहांThe atrocities of the Mughal ruler Shah Jahan (who ruled India between 1628 – 1658 AD) are
mentioned in the contemporary record called : ‘Badshah Nama, Qazinivi & Badshah Nama , Lahori’ and goes on to
state : “When Shuja was appointed as governor of Kabul he carried on a ruthless war in the Hindu territory beyond
Indus…The sword of Islam yielded a rich crop of converts….Most of the women (to save their honour) burnt
themselves to death. Those captured were distributed among Muslim Mansabdars (Noblemen)”(He seized and
remodeled a great Shiva Temple, the Tejo Mahila, and turned it into a graveyard for one of his dead wives and
renamed it Taj Mahal. )के बाद
The plaque put the archealogy department outside the Taj Mahal describes the edifice as a mausoleum built by
Shahjahan for his wife Mumtaz Mahal , over 22 years from 1631 to 1653. Taj Mahal original name was Tejo
Mahalaya built in 1155 AD. aurangzeb letter taj mahal repair If one observes history, Mumtaz-ul-Zamani .कि शाहजहां
(1627-1658) ने जो कारनामा तेजोमहल के साथ किया वही कारनामा लाल कोट के साथ।

1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान परफिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 मेंशाहजहां ने
आदेश पारित कर विश्वनाथ मंदिर तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के कें द्रीय मंदिर को तो तोड़ नहींसकी, लेकिन काशी के
63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए

लालकोट गुर्जर शासक- अनंगपालदिल्लीके तोमर वंशके संस्थापक राजा थे। इन्होंने सन ७३६ ईस्वी में इसतोमर राजवंशकीदिल्लीके लालकोटमें स्थापना की थी।मुगल लाल किले को
कभी लाल किला नहीं लालहवेली कहते थे। क्यों? कु छ इतिहासकारों के अनुसार इसे लालकोट का एक पुरातनकिला एवं हवेली बताते हैं जिसे शाहजहां ने कब्जा करके इस पर तुर्क
छापछोड़ी थी। दिल्ली का लालकोट क्षेत्र हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान की 12 वींसदी के अंतिम दौर में राजधानी थी। लालकोट के कारण ही इसे लाल हवेली यालालकोट का किला
कहा जाता था।बाद में लालकोट का नाम बदलकर शाहजहानाबाद करदिया गया।इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि तारीखेफिरोजशाही में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में
जब अलाउद्दीन खिलजीअपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कु श्क-ए-लाल (लाल प्रासाद/महल ) की ओरबढ़ा और वहां उसने आराम किया।11 march1783 को सिखों ने
लाल किले मेंप्रवेश कर दीवान-ए-आम पर कब्जा कर लिया था। नगर को मुगल वजीरों ने अपने सिखसाथियों को समर्पित कर दिया। उसके बाद इस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया।
पांडवों की राजधानी कहां :दिल्ली के इतिहास को खंगालेंगेतो पहुंचेंगे महाभारतकाल में। कहते हैं, पुराना किले के पास इंद्रपत नामका गांव था। वहीं थी पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ।
ऐसी मान्यता है किपहले इंद्रप्रस्थ को पांडवों ने बसाया था। पर अभी तक इसके पुख्ता प्रमाणनहीं मिले हैं। इधर से मिट्टी के काले बर्तन मिले चुके हैं, जिनके बारे मेंकहा गया था कि
ये महाभारत कालीन हैं
सभी के बीच मुमताज उनकी पसंदीदा पत्नी थी। उसके साथ के वल बच्चे थे। कईजन्मों तक जटिलताओं के कारण रानी की मृत्यु हो गई। ताजमहल उसका मकबरा था।लेकिन उनकी
मृत्यु के तुरंत बाद, शाहजहाँ ने विवाहों का मार्ग देखा।उन्होंने अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए 8 और महिलाओं से शादी की। अबप्यार कहाँ है?

शहज़ादा सलीम (जहांगीर) ने अपने बेटे की आँखें अपने हाथों से निकालीं!शाहजहाँ ने अपनी ही बेटी से ज़बरदस्ती की!

मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब (killing his brothers and imprisoned his father in Agra fort till his death. vigorously enforced the
Jaziya Tax on all non-muslims with severity and destroyed many temples. Shivaji, the Maratha King, stopped
Aurangzeb's mission of expanding towards the south. However after Shivaji's death Aurangzeb accomplished his
mission of southward expansion. ), भारत में मुगल शासकों में सबसे क्रू र औरंगवेब था हिन्दुस्तान के इतिहास के सबसे जालिम शासक जिसने, अपने पिता को
कै द किया, अपने सगे भाइयों और भतीजोंकी बेरहमी से ह्त्या की(Muslim saint Sarmad , his own brother Dara Shikoh were killed for doing
acts which he found against the teachings of Muslim religion),

1682 - The Bija Mandal Mosqueis another example of the Hindu temples that were robbed, plundered, demolished,
destroyed and converted into mosques using the same raw materials from the demolished temples. Bijamandal
mosque was constructed using the raw materials of a demolished Hindu temple, dedicated to honor Goddess
Charchika, was built by the erstwhile Paramar Kings.original temple was dedicated to the presiding deity Vijaya, the
goddess, and granter of victory, and was built by King Naravarman of Malwa. On a stormy monsoon night in
1991, the wall on the northern border of the Bijamandal mosque collapsed due to heavy rains.  The broken
and capsized wall exposed and brought to light more than 300 years old buried treasures of the Bijaya Rani
temple. A number of sculptures, exquisite treasures and statues were excavated, retrieved and approved by
the ASI (Archeological Survey of India).मंदिरऔरंगजेब की सेना ने विजय मंदर के शीर्ष भाग को नष्ट कर दिया था। गर्भगृह कोसमतल कर उसी पर मंदिर से
निकले पत्थरों से मीनारें बनाकर मस्जिद का स्वरूपदे दिया था। मंदिर नजर न आए इसलिए मंदिर के चारों ओर दीवारें खड़ी कर उसेअंदर दबा दिया गया था।
- लंबे समय तक विवादग्रस्त रहने के कारण पुरातत्व विभाग द्वारा विशेष कर नागपंचमी पर ऊपर बने हाल के दरवाजे नहीं खोले जातेSultan Bahadur Shah of
Gujarat, 1526-37, was the iconoclast of Vidisha, preceding Aurangzeb. He captured the town and about the first
thing he did was to desecrate the Vijay Mandir claiming that the conquest of Bhilsa was in the service of Islam. The
episode is recorded in Mirat-I-Sikndri. About 200 years earlier, Sultan Alauddin Khilji, 1293, had also enjoyed
the “devout” pleasure of damaging Vijay Mandir. The honour of being the first iconoclast, went to Sultan
Shamsuddin Iitutmish, 1234, yet another half a century earlier. This episode is described with relish in Tabqat-I-
Nasiri. Not many temples have had the misfortune of having been desecrated four times. Being a huge structure,
built in solid stone, it was able to survive and be restituted a mandir, three times.

गुरू हरगोविन्द साहिब जी ने मृत्यू से पहले, अपने पोते हरराय जी को १४ वर्षकी छोटी आयु में ३ march १६४४ को 'सप्तम्‌नानक'के रूप में घोशित कियाथा।अपने राष्ट्र के न्द्रित
विचारों के कारण मुगल औरंगजेब को परेशानी हो रही थी। औरंगजेब का आरोप था कि गुरू हरराय साहिब जी नेदारा शिकोह (शाहजहांके सबसे बड़े पुत्र) की सहायता की है। दारा
शिकोह संस्कृ त भाषा के विद्वान थे। और भारतीय जीवन दर्शन उन्हें प्रभावित करने लगा था।एक बार गुरू हरराय साहिब जी मालवा और दोआबा क्षेत्र से प्रवास करके लौट रहेथे, तो
मोहम्मद यारबेग खान ने उनके काफिले पर अपने एक हजार सशस्त्रसैनिकों के साथ हमला बोल दिया। इस अचानक हुए आक्रमण का गुरू हरराय साहिब जीने सिख योद्धाओं के
साथ मिलकर बहुत ही दिलेरी एवं बहादुरी के साथप्रत्योत्तर दिया। दुश्मन को जान व माल की भारी हानि हुई एवं वे युद्ध के मैदान से भाग निकले। आत्म सुरक्षा के लिए सशस्त्र
आवश्यक थे, भले हीव्यक्तिगत जीवन में वे अहिंसा परमो धर्म के सिद्धान्त को अहम मानते हों | गुरू हरराय साहिब जी ने कीरतपुर में एक आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी दवाईयों का
अस्पताल एवंअनसुधान के न्द्र की स्थापना भी की| दारा शिकोह किसी अनजानी बीमारी से ग्रस्त हुआ।गुरू साहिब की कृ पा से उसका ईलाज हुआ। इस प्रकार दारा शिकोह को मौत
के मुंह से बचा लिया गया।

मुगल शासक औरंगजेब ने सत्ता संघर्ष की स्थितियों में, गुरू हरराय साहिब जीद्वारा की गई दारा शिकोह की मदद को राजनैतिक बहाना बनाया। उसने गुरू साहिबपर बेबुनियाद
आरोप लगाये। उन्हें दिल्ली में पेश होने का हुक्म दिया गया।गुरू हरराय साहिब जी के बदले रामराय जी दिल्ली गये। उन्होंने धीरमल एवंमिनहास द्वारा सिख धर्म एवं गुरू घर के प्रति
फै लायी गयी भ्रांतियों कोस्पष्ट करने का प्रयास किया। रामराय जी ने मुगल दरबार में गुरबाणी कीत्रुटिपूर्ण व्याख्या की। उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों एवं गुरुमर्यादा की दृष्टि
से यह सब निन्दनीय था।
Guru Teg Bahadur Sahibwas the 9th guru of the Sikhs. His was a vision that transcended all barriers of caste,
creed, race, religion and gender to bring all humanity under a single umbrella of common brotherhood. With this
motive in mind, a delegation of 500 Kashimi Pandits led by Pandit Kirpa Ram, reached Anandpur Sahib, the place
where Guruji resided. Aurangzeb had given them a deadline to accept Islam or be prepared for execution. They
pleaded for help. Then added that a great soul needs to sacrifice his life, to stop this oppression. The young
Gobind Rai who was just 9 years of age at the time responded by saying who could be more worthy of this cause
than his father himself. Guruji realized that Gobind Rai was now capable to take on the responsibilities of Guruship
He did so after appointing his son the successor-Guru. He asked the delegation to go and tell Aurangzeb that if the
Emperor is able to convert Guruji to Islam, the Hindus would follow suit willingly.leaving his base of
Makhowal and entering Ropar where he was promptly arrested. Mughal administration kept a close watch on his
activities.[33] Guru Tegh Bahadur was kept in jail for four months in Sarhind, then transferred to Delhi in November
1675. Guruji and his followers who had accompanied him were subjected to various types of physical torture for
5 days.

Following this, and in order to bring Guruji to submission, one of his followers, Bhai Mati Das was sawn alive,
the second Bhai Dyala was boiled live in a cauldron while the third Bhai Sati Das was burnt alive before
Guruji.

When Teg Bahadur Sahib still did not relent, he was beheaded in public, in broad daylight in the middle of a
public square, in Chandni Chowk, Delhi on November 11, 1675. Guruji was charged with being a stumbling
block in the spread of Islam.

In these circumstances, one disciple of Guruji, Bhai Jaita dared and picked up the Sis (severed head) and with great
devotion wrapped it up in his clothes. Taking his 2 associates along, the group of three traversed over a period of 5
days to reach Kiratpur Sahib, ensuring they stayed safe from the prying eyes of the Mughals.

गुरु तेग बहादुर का सर कटवाया, गुरु गोविन्द सिंहके बच्चो (the age of 7 and 9 were bricked alive for not becoming a Muslim)को जिंदा दीवार में
चुनवाया,

With a heavy heart Bhai Jaita now presented Guruji's head to his son Gobind Rai. Guruji's head was consigned to
the flames with full respect. Today, at the spot in Anandpur sahib where Guruji's head was consigned to the flames,
stands a beautiful Gurudwara, also by the name of Sis Ganj.

In the meanwhile in Delhi, another disciple of Guruji, Lakhi Shah along with his son reached the site with cotton
and other stuff loaded on bullock carts and quickly piercing the crowd picked up Guruji's beheaded body, loaded
and hid it in the cotton bales in the bullock cart and rode away to their house in Raisina.

The Mughal forces were flabbergasted at the disappearance of the Guruji's head and body. Fearing that the Mughal
soldiers would find them out, Lucky Shah took Guruji's body to his house and after a hurried prayer set fire to his
house itself to avoid detection. The Mughal soldiers thought fire had engulfed Lakhi Shah's house and so didn't press
further.

Today, Gurudwara Sis Ganj stands at the spot where Guru Teg Bahadur Sahib was executed and Gurudwara Rakab
Ganj, stands at the site where Lakhi Shah performed Guruji's last rites by burning down his house.
24 November 1675 - Shaheedi Divas of Guru Tegh Bahadur every year
जिसने सैकड़ों मंदिरों को तुडवाया, जिसने अपनी प्रजा पर वे-इन्तहा जुल्म किए और अपने शासन क्षेत्र मेंगैर-मुस्लिमों के लिए मुनादी करावा दी थी कि या तो आप इस्लाम कबूल
कर लेंया फिर मरने के लिए तैयार रहें। औरंगजेब एक तुर्क था। उसके काल में हीउत्तर भारत का तेजी से इस्लामिकरण हुआ। अधिकतर ब्राह्मणों को या तो मुसलमानबनना पड़ा
अपनी सेना को सन् 1669 में जारी अपने एक हुक्मनामे पर हिंदुओंके सभी मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया था। औरंगजेब ने हिन्दू त्योहारों कोसार्वजनिक तौर पर मनाने पर
प्रतिबन्ध लगाया और उसने हिन्दू मंदिरों कोतोड़ने का आदेश दिया. औरंगजेब दारुल हर्ब (काफिरों का देश भारत) को दारुलइस्लाम (इस्लाम का देश) में परिवर्तित करने को
अपना महत्त्वपूर्ण लक्ष्यबनाया था। 1669 ई. में औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मंदिर एवं मथुरा के के शव राय मदिंर को तुड़वा दिया थाonstructed the Katra
Masjid mosque।18 april1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया |मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद
बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब कोमंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।औरंगजेब ने प्रतिदिनहजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित
किया था। आजउत्तरप्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राह्मण हैं।
He sent his general Jabaz Khan on a campaign to Ayodhya. The Hindus of Ayodhya got wind of the impending
attack and ferried the idol of Shriram and all the temple articles to safety. The surrounding villages, which had been
warned of the attack, gathered a formidable Hindu force to protect the temple.

कृ ष्ण जन्मभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश


मथुरा में भगवान कृ ष्ण की जन्मभूमि है और उसी जन्मभूमि के आधे हिस्से परबनी है ईदगाह। औरंगजेब ने 1660 में मथुरा में कृ ष्ण मंदिर को तुड़वाकरईदगाह बनवाई थी। 1669
मेंइस ईदगाह का निर्माण कार्य पूरा हुआ।इस भव्य मंदिर को सन् 1017-18 ई. में महमूद गजनवी ने तोड़ दिया था। बादमें इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150
ई. में जज्ज नामक किसीव्यक्ति ने बनवाया। यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था जिसे 16 वींशताब्दी के आरंभ में सिकं दर लोदी ने नष्ट करवा डाला।

ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जूदेव बुंदेला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान परएक भव्य और पहले की अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया। इसके संबंध में कहा जाताहै कि यह इतना
ऊं चा और विशाल था कि यह आगरा से दिखाई देता था। लेकिन इसे भीमुस्लिम

जहां भगवान कृ ष्ण का जन्म हुआ, वहां पहले वह कारागार हुआकरता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध मेंमहाक्षत्रप सौदास के समय के एक
शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत काल के बाद दूसरा मंदिरविक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था।इस ईदगाह के पीछे
ही महामना पं. मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से पुन: एकमंदिर स्थापित किया गया है, लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है, क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है
और आधे पर मंदिर।

मदन मोहन मंदिर, वृंदावन, उत्तर प्रदेश


उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले के वृंदावन नगर में वैष्णव संप्रदाय का मदनमोहन नामक मंदिर स्थित है। इसका निर्माण 1590 ई. से 1627 ई. के बीच मुल्तानके रामदास खत्री या
कपूरी द्वारा करवाया गया था। भगवान श्रीकृ ष्ण का एकनाम मदन मोहन भी है। भगवान मदन गोपाल की मूल प्रतिमा आज इस मंदिर में नहींहै। मुगल शासन के दौरान इसे राजस्थान
स्थानांतरित कर दिया गया था। आज मंदिरमें उस प्रतिमा की प्रतिकृ ति की पूजा की जाती है, जबकि मूल प्रतिमा आज भीराजस्थान के कारौली में है, क्योंकि औरंगजेब काल में इस
मंदिर को तोड़ दियागया था।

In Kashmir, the Brahmins or Pandits, the Hindu religious scholars, were being forcibly stripped of their Tilak and
janeu.

After trying almost for 27 long years Aurangzeb never could overcome the Marathas and died at Ahmednagar. his
10000 men could not defeat 600 Mavalas for 4 long months. Finally in 1689 he captured Sambhaji Maharaj (14 May
1657 – 11 March 1689) by bribing certain Maratha chieftains and Sambhaji was betrayed by Shirke clan
(relatives of his wife Yesubai), It is also learnt that the traitor Ganoji Shirke was annoyed with Sambhaji at the loss
of hereditary WATAN that was abolished. mperor offered to release him if he accepted Islam and gave out details
of wealth. He made him sit on a camel dressed with a needle gown. Sambhaji's procession was carried out. Anyone
would just pull the camel's tail from the crowd and the camel shaked resulting into pricking of the numerous
needles into his body. He was asked to convert to Islam but he asked Aurangzeb the hand of his daughter as a
condition. This is seen as a negative aspect of Sambhaji Maharaj's character but let me tell you that at that time
Aurangzeb’s youngest daughter was 46 and Sambhaji was just 31. hot rods to be inserted into Sambhaji's eyes , his
tongue was cut and nails pulled out. He was tied to a pole and anyone would chop his flesh to feed a dog or a crow
but the Maratha Chhattrapati was hesitant to die. For 40 days he sustained. He continued breathing through that 40
days for his people. Finally on the eve of Gudi Padwa his head was cut and was hung at the confluence of Bhima
and Indrayani rivers.

Sambhaji was then blinded and finally hanged on 11 March 1689 at Tulapur. His head was cut off and stuffed and
then it was paraded in towns. It is believed that the people of the Tulapur collected the pieces of Sambhaji as many
they could, stitched them together and cremated him at Vadhu.

Some of the historians have depicted Sambhaji in most derogatory terms based on the writings of Muslim historians.
Even eminent historian Sir Jadunath Sircar depicted him as wayward, alcoholic and fallen. His depiction is most
tragic by the pseudo historians and Sambhaji’s greatness is no way reduced by such irresponsible writings

when GuruJi asked Bhai Daya Singh "How do you now want that Aurunga, the Emperor of India to be killed. By a
arrow in the battle or by the tip of the mighty Kalam(pen)." Bhai Daya singh replied ..." We had many battles
now.Better to kill him in writing". Listening to Bhai Daya Singh request, Guru Gobind Singh penned down a letter
in Farsi to Aurangzeb, now known as ZafarNama among Sikhs.He could not subdue the Marathas and the Sikhs
completely

Thereafter , Aurangzeb health started deteriorating. He was unable to digest food and filth used to come out of his
mouth.Like a man who have lost everything in this life, before his death in year 1707 he wrote a very miserable
letter to his sister in which he expressed remorse and felt guilty conscience of all the atrocities he did on the general
population.he began his journey towards Delhi. On 31st January 1706 he camped at Ahmednagar exactly at the
same spot where he had camped 22years ago. He was Burried near South Capital Aurangabad.20 February
1707 at the age of 89. While some historians believe that Veer Chhatrasal had attacked them with the dagger given
by his master, Pranath, while there is also a mention of such medicines in dagger, which can not fill Aurangzeb's
wounds ever And then Aurangzeb died agonizing with pain.
According to J. N. Sarkar, Gokal’s limbs were hacked off one by one on the platform of the police office of Agra.”
His family was forcibly converted to Islam, 5,000 Jats lost their lives and 4,000 Mughal Soldiers were killed.

औरंगज़ेब ने अपने भाई का सिर काट कर अपने पिता के पास उपहार में भेजा!लगभग हर मुग़ल सुल्तान ने अपने भाई और बच्चों को क़त्ल किया!

Deccan Sultanates (1565 Vijayanagara) Widespread destruction of Hindu temples and buildings also took place in
the city, destroying most of the large temple centres.

औरंगज़ेबने अपने बड़े भाईदारा शिकोहको सिंहासन की लड़ाई में हरा कर उसके सिर को इस दरवाजे पर लटकवा दिया।[1]

वजीर खान ने १७०५ मेंगुरु गोबिंद सिंहके युवा बेटों (साहिबजादा फतेह सिंह और साहिबजादा ज़ोरावर सिंह) की हत्याकर दी थी। परिमाणस्वरूप May १७१० में छापर चिड़ी के
युद्ध मेंबांदा सिंह बहादुरके नेतृत्व में सिख सेना द्वारा वजीर खान की हत्या कर दी थी।[3][4]
1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रु ख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समदख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकटगुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक
घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारणउन्होंने 7 december को आत्मसमर्पण कर दिया। मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17
december, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी परलादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गयावीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले
की नोक पर टांगकर दिल्ली लायागया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का मांस नोचा जाता रहा।फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वहदिल्लीलाये गए | काजियों ने बन्दा
और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यहप्रस्ताव ठुकरा दिया। दिल्ली में आज जहां हॉर्डिंग लाइब्रेरी है,5 march से 12 march १७१६ तक सात दिनों
प्रतिदिन 100 वीरों की हत्या की जाने लगी। 16 june को बादशाह फ़ार्रु ख़शियार के आदेश सेबन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़ेकर
दिये गये।
इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का मांस बन्दा के मुंहमें ठूंस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से मांस नोचेजाने के कारण उनके
शरीर में के वल हड्डियां शेष थी। फिर 9 june, 1716 को उसवीर को हाथी से कु चलवा दिया गया

बन्दा बैरागी का जन्म 27 october, 1670 को ग्राम तच्छल किला, पुंछ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास थाशिकार खेलते समय उन्होंने एक
गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया।उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल
दिये।अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कु टिया बनाकर रहने लगे।गुरु गोविन्दसिंह जी माधोदास की कु टिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदानहो चुके थे।
उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश मेंव्याप्त आतंक से जूझने को कहा

The Alamgir Mosque in Varanasi was constructed by Mughal Emperor Aurnagzeb built atop the ancient 100 ft high
Bindu Madhav (Nand Madho) Templeafter its destruction in 1682.

सन 1687 मेंनादौन की लड़ाईमें, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं कीसेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया
था। विचित्रनाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे औरविभिन्न
महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।

भंगानी के युद्धके कु छ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी सेआनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का
अनुरोधकिया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिबपहुंच गये।

1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खानको आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। मुगल सेना हार गई और हुसैनखान मारा गया। हुसैन
की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझारहाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह सेहार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के
घटनाक्रम मुगल सम्राटऔरंगज़ेबलिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।
सिक्ख धर्म में महिलाओं 'कौर'और पुरूषों 'सिंह' क्यों लगाया जाता है?

औरंगज़ेबके शाषण के दौरान हिन्दुओं पर अत्याचार आम थे, किन्तु हिन्दू समाज जातिपाति के भेद में इस प्रकार विघटित था - सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी - की मुख्यरूप से
के वल क्षत्रिय वर्ण के लोग को ही हथियार चलाने या रखने का अधिकार था, कु छ अपवादों कोछोड़, अधिकांश भारतीय घुटने टेक कर मुग़ल सम्राट एवं उसके नवाबों को
नतमस्तकहोने को मजबूर थे.

क्षत्रियभी कितने दिन अके ले लड़ते. एक के बाद एक इतने हमले हुए की मुग़ल साम्राज्यआते आते, अपने आप को क्षत्रिय कहने वाले राजपूत समाज ने भी मुग़लों के साथगठबंधन
कर लिया था. दिल्ली से ले कर कं धार तक एक भी राजपूत ऐसा नहीं बचा थाजो की मुग़ल नवाबों के बढ़ते अत्याचारों से समाज को रक्षित करता.

सिखपंथ के दो गुरु (गुरु अर्जुन देव एवं गुरु तेग बहादुर) भी मुग़लों द्वाराक़त्ल किये जा चुके थे एवं सिख पंथ के अनुयायी भी शिथिलता से ग्रस्त थे एवंअसंघटित प्रतीत होते थे.

1966 - वैसाखी का वह दिन - सिखों के दसवें गुरु -गुरु गोबिंद रायजी ने आनंदपुर साहिब की घाटियों में एक समागम किया, जिसमें समस्त भारत सेआये पुरुष और महिला
सम्मिलित हुए. मुग़लों के बढ़ते अत्याचारों की दुहाई देते |

गुरुने लोगों को ललकारा की कब तक यह ज़ुल्म सहेंगे. कब तक सर झुका के रहेंगे.और उन्होंने मांगी कु र्बानी, उन्होंने मांगी बलि. आवाज़ दी की ऐसे कौन हैंजो धर्म की रक्षा के लिए
अपने सर की बलि देंगे.

1. सबसे प्रथम लाहौर का एक दुकानदार बनिया इस बलि के लिए खड़ा हुआ - ‘दया राम’. (दया राम को गुरूजी अपने खेमे के भीतर ले गए. कु छ समय बाद खून से
सनी तलवार ले कर बाहर आये एवं एक और बलि मांगी.)
2. मेरठकाएकजाटकिसान - धरमदास
3. ओडिशाके जगन्नाथपूरीसेआयाएकमशकी - हिम्मतराय
4. द्वारकागुजरातसेआयाएकदर्जी - मुखमचंद
5. बिदर, कर्नाटकसेआयाएकनाई - साहिबचंद.

समागममें मौजूद व्यक्तियों ने सोचा की पाँचों की बलि हो गयी है, किन्तु गुरुभीतर से पाँचों को बाहर लाये, जीवित, और घोषित किया की यह पांच - जिन्होंनेअपनी बलि तक की
परवाह नहीं करी - उनके पहले ‘सिंह’ हैं - उनके ‘पांच प्यारे’. जिस तरह सिंह (यानि शेर) निडर हो सारे जंगल में विचरण करता है, इसी तरह यहसिंह, अपने पूर्व के डरे सहमे
जीवन को त्याग कर शस्त्र धारण कर समाज कीरक्षा करेंगे एवं ‘खालसा’ कहलायेंगे.

गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 march1699 को आनंदपुर, पंजाब में अपनेअनुयायियों के साथ मिलकर राष्ट्र हित के लिए बलिदान करने वालों का एक समूहबनाया, जिसे उन्होंने
नाम दिया खालसा पंथ। खालसा फारसी का शब्द है, जिसकामतलब है खालिस यानि पवित्र। यहीं पर उन्होंने एक नारा दिया 'वाहे गुरु जीका ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह'।

उन्हेंतलवार से घोटा हुआ परशाद स्वरूपी अमृत दिया एवं उन्हें सौंपी एक एक लम्बीतलवार जिसे नाम दिया गया किर्पाण का. आदेश किया की सभी खालसा अपने पुरानेनाम त्याग
कर‘सिंह’नाम धारण करेंगे. खालसा फाज़ के पहले पांच सिख बने -

 भारत के उत्तर में लाहौर से सरदार दया सिंह


 भारत के मध्य में मेरठ से सदरार धरम सिंह
 भारत के पश्चिम में बंगाल की खाड़ी से सरदार हिम्मत सिंह
 भारत के पूरब में अरब महासागर से सरदार मुखम सिंह एवं
 भारत के दक्षिण से सरदार साहिब सिंह.

स्वयं -गुरु गोबिंद रायने भी अपना नाम घोषित किया -गुरु गोबिंद सिंहऔर कहा की मैं इन पांच प्यारों का गुरु हूँ, और ये पांच मेरे गुरु हैं -आपे गुरु चेला -एकऐसा सिद्धांत जो
समाज को पञ्च स्वरुप सामूहिक जिम्मेवारी ग्रहण करने कासिद्धांत है. कहा की यह पांच जो कहेंगे मैं मानूंगा, और सारा खालसा समाजमानेगा. समस्त समागम में घोषणा की कि जो
भी अनुयायी - पुरुष एवं स्त्री -उनके इस संघर्ष में शामिल होना चाहते हैं, वे सभी अपने पुराने वर्ण, जातियां या नाम त्याग करें, एवं धारण करें नयी खालसा फौज के पांच नियम
-कछेर, कं घा, कड़ा, के श एवं किर्पाण.

 हर पुरुष‘सिंह’का नाम धारण करे एवं सिंह की तरह गौरवान्वित हो हमलावर पर टूट पढ़े
 हर स्त्री‘कौर’का नाम धारण करे एवं एक राजकु मारी (कौर - यानि कँ वर) की तरह गौरवान्वित होकिसी पुरुष से कम न समझ अपने और दूसरों के सम्मान की रक्षा
करे.

सर्बलोह ग्रन्थ में गुरु गोबिंद सिंह ने लिखा है, एक सिंह के रुप का कारण
सदियोंसे भारतीय समाज एक ऐसी वर्ण व्यवस्था में ग्रसित था की थोड़े से विदेशीहमलावर मुट्ठी भर सैनिक ले, भारत पर हमला कर उसे हरा देते थे. कारण स्पष्टथा, हम सब
मिल कर अपने देश की रक्षा का दायित्व नहीं उठा रहे थे.
सभी जातियों का विभाजन समाप्त कर एक ऐसे समाज का निर्माण जहां

 हर पुरुष या स्त्री अपने कर्म करे - धर्म और कमज़ोर की रक्षा के दायित्व का बोझ एक वर्ण विशेष पर न छोड़, स्वयं दायित्व ग्रहण करें.
 हर पुरुष या स्त्री ज्ञान ग्रहण कर ब्राह्मण-वाद में खो गए ज्ञान सागर में विचरण करे.

जब जाति व्यवस्था को गुरुयों ने समाप्त करने का आदेश दे

27december सन्‌1704 - छोटे साहिबजादे और जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गयाजब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को
एक जफरनामा (विजय कीचिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्यनष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।

सरसा नदी पार करते बिछु ड़ गए थे दोनों बेटे

कई मुग़ल शासकों की सयुक्त फौज ने आनंदपुर साहिब को 6 महीने तक घेरेरखा। उनका सोचना था की जब आनंदपुर साहिब में राशन-पानी खत्म हो जाएगा तबगुरु जी स्वयं मुगलों
की अधीनता स्वीकार कर लेंगे। पर ये मुग़लों की नासमझीथी, जब आनंदपुर साहिब में राशन-पानी खत्म हुआ तो एक रातगुरु गोविंद सिंहजी आनंदपुर साहिब में उपस्तिथ अपने
सभी साथियों को लेकर वहां से रवाना होगए।पर कु छ ही देर बाद मुगलों को पता चल गया की गुरु जी यहां से प्रस्थानकर गए है तो वो उनका पीछा करने लगे।उधर गुरु गोविंद सिंह
जी अपने सभीसाथियों के साथ सरसा नदी की और बढे जा रहे थे।

जिस समय सिक्खों का काफिला इस बरसाती नदी के किनारे पहुँचा तो इसमेंभयँकर बाढ़ आई हुई थी और पानी जोरों पर था। इस समय सिक्ख भारी कठिनाई मेंघिर गए। उनके
पिछली तरफ शत्रु दल मारो-मार करता आ रहा था और सामने सरसा नदीफुँ कारा मार रही थी, निर्णय तुरन्त लेना था। अतः श्री गुरू गोबिन्द सिंहजी ने कहा कि कु छ सैनिक यहीं
शत्रु को युद्ध में उलझा कर रखों और जो सरसापार करने की क्षमता रखते हैं वे अपने घोड़े सरसा के बहाव के साथ नदी पारकरने का प्रयत्न करें।

ऐसा ही किया गया। भाई उदय सिंह तथा जीवन सिंह अपने अपने जत्थे लेकरशत्रु के साथ भिड़ गये। इतने में गुरूदेव जी सरसा नदी पार करने में सफल होगए। किन्तु सैकड़ों सिक्ख
सरसा नदी पार करते हुए मौत का शिकार हो गएक्योंकि पानी का वेग बहुत तीखा था। कई तो पानी के बहाव में बहते हुए कई कोसदूर बह गए। जाड़े ऋतु की वर्षा, नदी का बर्फीला
ठँडा पानी, इन बातों नेगुरूदेव जी के सैनिकों के शरीरों को सुन्न कर दिया। इसी कारण शत्रु सेना नेसरसा नदी पार करने का साहस नहीं किया।

सरसा नदी पार करने के पश्चात 40 सिक्ख दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह तथाजुझार सिंह के अतिरिक्त गुरूदेव जी स्वयँ कु ल मिलाकर 43 व्यक्तियों कीगिनती हुईं। नदी के इस
पार भाई उदय सिंह मुगलों के अनेकों हमलों को पछाड़तेरहे ओर वे तब तक वीरता से लड़ते रहे जब तक उनके पास एक भी जीवित सैनिक थाऔर अन्ततः वे युद्ध भूमि में गुरू
आज्ञा निभाते और कर्त्तव्य पालन करते हुएवीरगति पा गये।

इस भयँकर उथल-पुथल में गुरूदेव जी का परिवार उनसे बिछु ड़ गया। भाईमनी सिंह जी के जत्थे में माता साहिब कौर जी व माता सुन्दरी कौर जी और दोटहल सेवा करने वाली
दासियाँ थी। दो

December1704 में गुरु गोबिंद सिंह सिखों के साथ मुगलों की सेना चीरते हुए, चमकौर की गढ़ी से जाना पड़ा था। सरसा नदी पार करते समय माता गुजरी अपने दोपोतों,
साहिबजादा जोरावर सिंह और फतेह सिंह के साथ थी। गुरु गोबिंद सिंह जीउनसे बिछु ड़ गए थे।
पैसों के लालच में करवा दिया था गिरफ्तार
माता गुजरी और गुरु गोबिंद सिंह के दोनों पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंहको अपने यहां बीस वर्ष से रसोइए का कार्य करने वाले ब्राह्मण हिन्दू गंगूके घर रहना पड़ा। माता गुजरी के
पास गहने और सोने के सिक्के थे। गंगू का मनलालच से भर आया। उसने वह सब कु छ चुराने और पाने की सोची। गंगू मोरिण्डानगर गया और उसने शहर के कोतवाल बताकर उन्हें
गिरफ्तार करवा दिया।उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया।| रात भर ठंड में ठिठु रने के बाद सुबह होते ही
दोनों साहिबजादों को वजीर खांके सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने कोकहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के
दोनोंसाहिबजादों ने ज़ोर से जयकारा लगा “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल”।यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर
सकता

दो साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म कबूल न करने परसरहिंद के नवाब ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया था, माता गुजरी को किले कीदीवार से गिराकर शहीद
कर दिया गया था। उनकी इस शहादत के लिए फतेहगढ़ साहिबमें शहीदी जोड़ मेले का आयोजन हर वर्ष किया जाता है।। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के
सामने सिर झुकाकरसलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबनेचुप्पी साध ली।वे ना डरेदोनों ने सिर ऊं चा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल
पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा कीकु र्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया
तोहम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवानासही समझा, लेकिन झुकना नहीं’।

ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कु छ समय के बाद तोड़ागया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनोंसाहिबजादों के कु छ श्वास
अभी बाकी थे, लेकिन मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भीजिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया

चमकौर का युद्ध 1704 में 21, 22, और 23 December कोगुरु गोविंद सिंहऔर मुगलों की सेना के बीच पंजाब के चमकौरमें लड़ा गया था।

गुरूदेव जी अपने चालीस सिक्खों के साथ आगे बढ़ते हुए दोपहर तक चमकौरनामक क्षेत्र के बाहर एक बगीचे में पहुँचे। यहाँ के स्थानीय लोगों नेगुरूदेव जी का हार्दिक स्वागत किया
और प्रत्येक प्रकार की सहायता की। यहींएक किलानुमा कच्ची हवेली थी जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थीक्योंकि इसको एक ऊँ चे टीले पर बनाया गया था। जिसके चारों ओर
खुला समतलमैदान था। हवेली के स्वामी बुधीचन्द ने गुरूदेव जी से आग्रह किया कि आप इसहवेली में विश्राम करें।

गुरूदेव जी ने आगे जाना उचित नहीं समझा। अतः चालीस सिक्खों को छोटीछोटी टुकड़ियों में बाँट कर उनमें बचा खुचा असला बाँट दिया और सभी सिक्खोंको मुकाबले के लिए
मोर्चो पर तैनात कर दिया। अब सभी को मालूम था कि मृत्युनिश्चित है परन्तु खालसा सैन्य का सिद्धान्त था कि शत्रु के समक्ष हथियारनहीं डालने के वल वीरगति प्राप्त करनी है।

अतः अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सभी सिक्ख तत्पर हो गये।गरूदेव अपने चालीस शिष्यों की ताकत से असँख्य मुगल सेना से लड़ने की योजनाबनाने लगे। गुरूदेव जी ने
स्वयँ कच्ची गढ़ी (हवेली) के ऊपर अट्टालिका मेंमोर्चा सम्भाला। अन्य सिक्खों ने भी अपने अपने मोर्चे बनाए और मुगल सेना कीराह देखने लगे।

इस युद्ध में सिक्खों के दसवें गुरुगोविंद सिंह जी के नेतृत्व में 40 सिक्खों का सामना वजीर खान के नेतृत्व वाले 10 लाख मुग़ल सैनिकों से हुआथा।वजीर खान किसी भी सूरत में
गुरु गोविंद सिंह जी को ज़िंदा या मुर्दापकड़ना चाहता था क्योंकि औरंगजेब की लाख कोशिशों के बावजूद गुरु गोविंदसिंह मुग़लों की अधीनता स्वीकार नहीं कर रहे थे।

जैसे ही बरसाती नाला सरसा के पानी का बहाव कम हुआ। मुग़ल सेना टिड्डी दलकी तरह उसे पार करके गुरूदेव जी का पीछा करती हुई चमकौर के मैदान मेंपहुँची। देखते ही देखते
उसने गुरूदेव जी की कच्ची गढ़ी को घेर लिया। मुग़लसेनापतियों को गाँव वालों से पता चल गया था कि गुरूदेव जी के पास के वलचालीस ही सैनिक हैं। अतः वे यहाँ गुरूदेव जी को
बन्दी बनाने के स्वप्नदेखने लगे। सरहिन्द के नवाब वजीर ख़ान ने भोर होते ही मुनादी करवा दी कियदि गुरूदेव जी अपने आपको साथियों सहित मुग़ल प्रशासन के हवाले करें
तोउनकी जान बख्शी जा सकती है। इस मुनादी के उत्तर में गुरूदेव जी ने मुग़लसेनाओं पर तीरों की बौछार कर दी।

इस समय मुकाबला चालीस सिक्खों का हज़ारों असँख्य (लगभग 10 लाख) कीगिनती में मुग़ल सैन्यबल के साथ था। इस पर गुरूदेव जी ने भी तो एक-एक सिक्खको सवा-सवा
लाख के साथ लड़ाने की सौगन्ध खाई हुई थी। अब इस सौगन्ध को भीविश्व के समक्ष क्रियान्वित करके प्रदर्शन करने का शुभ अवसर आ गया था।

गए। गुरु गोविंद सिंह ने इस युद्ध का वर्णनज़फ़रनामामें किया है

” चिड़ियों से मै बाजलडाऊगीदड़ोंकोमैंशेरबनाऊ.सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोबिंद सिंह नाम कहउँ,”

वजीर खां गुरु गोबिंद सिंह को जीवित या मृत पकड़नाचाहता था। चमकौर के इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह की सेना में के वल उनके दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह एवं जुझार सिंह
और 40 अन्य सिंह थे। इन 43 लोगों ने मिलकर ही वजीर खां की आधी से ज्यादा सेना का विनाश कर दिया था।

वजीर खान गुरु गोविंद सिंह को पकड़ने में असफल रहा, लेकिन इस युद्ध में गुरु जी के दो पुत्रोंसाहिबज़ादा अजीत सिंहवसाहिबज़ादा जुझार सिंहऔर 40 सिंह भी शहीद हो

22 दिसम्बर सन 1704 को सँसार का अनोखा युद्ध प्रारम्भ हो गया। आकाश में घनघोर बादल थे और धीमी धीमी बूँदाबाँदी हो रही थी

मुग़ल सेनापतियों को अविश्वास होने लगा था कि कोई चालीस सैनिकों कीसहायता से इतना सबल भी बन सकता है। सिक्ख सैनिक लाखों की सेना में घिरेनिर्भय भाव से लड़ने-
मरने का खेल, खेल रहे थे। उनके पास जब गोला बारूद औरबाण समाप्त हो गए किन्तु मुग़ल सैनिकों की गढ़ी के समीप भी जाने की हिम्मतनहीं हुई तो उन्होंने तलवार और भाले का
युद्ध लड़ने के लिए मैदान मेंनिकलना आवश्यक समझा।

सर्वप्रथम भाई हिम्मत सिंह जी को गुरूदेव जी ने आदेश दिया कि वहअपने साथियों सहित पाँच का जत्था लेकर रणक्षेत्र में जाकर शत्रु से जूझे।तभी मुग़ल जरनैल नाहर ख़ान ने सीढ़ी
लगाकर गढ़ी पर चढ़ने का प्रयास कियाकिन्तु गुरूदेव जी ने उसको वहीं बाण से भेद कर चित्त कर दिया। एक और जरनैलख्वाजा महमूद अली ने जब साथियों को मरते हुए देखा तो
वह दीवार की ओट मेंभाग गया। गुरूदेव जी ने उसकी इस बुजदिली के कारण उसे अपनी रचना में मरदूदकरके लिखा है।
सरहिन्द के नवाब ने सेनाओं को एक बार इक्ट्ठे होकर कच्ची गढ़ी परपूर्ण वेग से आक्रमण करने का आदेश दिया। किन्तु गुरूदेव जी ऊँ चे टीले कीहवेली में होने के कारण सामरिक दृष्टि
से अच्छी स्थिति में थे। अतःउन्होंने यह आक्रमण भी विफल कर दिया और सिँघों के बाणों की वर्षा सेसैकड़ों मुग़ल सिपाहियों को सदा की नींद सुला दिया।

सिक्खों के जत्थे ने गढ़ी से बाहर आकर बढ़ रही मुग़ल सेना को करारेहाथ दिखलाये। गढ़ी की ऊपर की अट्टालिका (अटारी) से गुरूदेव जी स्वयँ अपनेयोद्धाओं की सहायता शत्रुओं
पर बाण चलाकर कर रहे थे। घड़ी भर खूब लोहे परलोहा बजा। सैकड़ों सैनिक मैदान में ढेर हो गए। अन्ततः पाँचों सिक्ख भी शहीदहो गये।

फिर गुरूदेव जी ने पाँच सिक्खों का दूसरा जत्था गढ़ी से बाहररणक्षेत्र में भेजा। इस जत्थे ने भी आगे बढ़ते हुए शत्रुओं के छक्के छु ड़ाएऔर उनको पीछे धके ल दिया और शत्रुओं का
भारी जानी नुक्सान करते हुए स्वयँभी शहीद हो गए। इस प्रकार गुरूदेव जी ने रणनीति बनाई और पाँच पाँच के जत्थेबारी बारी रणक्षेत्र में भेजने लगे। जब पाँचवा जत्था शहीद हो गया
तो दोपहरका समय हो गया था।

सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान की हिदायतों का पालन करते हुए जरनैलहदायत ख़ान, इसमाईल खान, फु लाद खान, सुलतान खान, असमाल खान, जहान खान, खलीलख़ान और
भूरे ख़ान एक बारगी सेनाओं को लेकर गढ़ी की ओर बढ़े। सब को पता थाकि इतना बड़ा हमला रोक पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए अन्दर बाकी बचेसिक्खों ने गुरूदेव जी के
सम्मुख प्रार्थना की कि वह साहिबजादों सहित युद्धक्षेत्र से कहीं ओर निकल जाएँ।

यह सुनकर गुरूदेव जी ने सिक्खों से कहा: ‘तुम कौन से साहिबजादों (बेटों) की बात करते हो, तुम सभी मेरे ही साहबजादे हो’ गुरूदेव जी का यहउत्तर सुनकर सभी सिक्ख
आश्चर्य में पड़ गये। गुरूदेव जी के बड़े सुपुत्रअजीत सिंह पिता जी के पास जाकर अपनी युद्धकला के प्रदर्शन की अनुमति माँगनेलगे। गुरूदेव जी ने सहर्ष उन्हें आशीष दी और अपना
कर्त्तव्य पूर्ण करने कोप्रेरित किया।

साहिबजादा अजीत सिंह के मन में कु छ कर गुजरने के वलवले थे, युद्धकलामें निपुणता थी। बस फिर क्या था वह अपने चार अन्य सिक्खों को लेकर गढ़ी सेबाहर आए और मुगलों
की सेना पर ऐसे टूट पड़े जैसे शार्दूल मृग-शावकों परटू टता है। अजीत सिंघ जिधर बढ़ जाते, उधर सामने पड़ने वाले सैनिक गिरते, कटते या भाग जाते थे। पाँच सिंहों के जत्थे ने
सैंकड़ों मुगलों को काल काग्रास बना दिया।

अजीत सिंह ने अविस्मरणीय वीरता का प्रदर्शन किया, किन्तु एक एक नेयदि हजार हजार भी मारे हों तो सैनिकों के सागर में से चिड़िया की चोंच भरनीर ले जाने से क्या कमी आ
सकती थी। साहिबजादा अजीत सिंह को, छोटे भाईसाहिबज़ादा जुझार सिंह ने जब शहीद होते देखा तो उसने भी गुरूदेव जी सेरणक्षेत्र में जाने की आज्ञा माँगी। गुरूदेव जी ने उसकी
पीठ थपथपाई और अपनेकिशोर पुत्र को रणक्षेत्र में चार अन्य सेवकों के साथ भेजा।

गुरूदेव जी जुझार सिंघ को रणक्षेत्र में जूझते हुए, को देखकरप्रसन्न होने लगे और उसके युद्ध के कौशल देखकर जयकार के ऊँ चे स्वर में नारेबुलन्द करने लगे– “जो बोले, सो
निहाल, सत् श्री अकाल”। जुझार सिंह शत्रुसेना के बीच घिर गये किन्तु उन्होंने वीरता के जौहर दिखलाते हुए वीरगतिपाई। इन दोनों योद्धाओं की आयु क्रमश 18 वर्ष तथा 14 वर्ष
की थी। वर्षाअथवा बादलों के कारण साँझ हो गई, वर्ष का सबसे छोटा दिन था, कड़ाके कीसर्दी पड़ रही थी, अन्धेरा होते ही युद्ध रूक गया।

गुरू साहिब ने दोनों साहिबजादों को शहीद होते देखकर अकालपुरूख (ईश्वर) के समक्ष धन्यवाद, शुकराने की प्रार्थना की और कहा:

‘तेरा तुझ को सौंपते, क्या लागे मेरा’।

शत्रु अपने घायल अथवा मृत सैनिकों के शवों को उठाने के चक्रव्यूहमें फँ स गया, चारों ओर अन्धेरा छा गया। इस समय गुरूदेव जी के पास सात सिक्खसैनिक बच रहे थे और वह
स्वयँ कु ल मिलाकर आठ की गिनती पूरी होती थी। मुग़लसेनाएँ पीछे हटकर आराम करने लगी। उन्हें अभी सन्देह बना हुआ था कि गढ़ी के भीतर पर्याप्त सँख्या में सैनिक मौजूद हैं।

रहिरास के पाठ का समय हो गया था अतः सभी सिक्खों ने गुरूदेव जी के साथ मिलकर पाठ किया तत्पश्चात् गुरूदेव जी ने सिक्खों को चढ़दीकला में रहकरजूझते हुए शहीद होने के
लिए प्रोत्साहित किया। सभी ने शीश झुकाकर आदेश कापालन करते हुए प्राणों की आहुति देने की शपथ ली किन्तु उन्होंने गुरूदेव जीके चरणों में प्रार्थना की कि यदि आप समय की
नज़ाकत को मद्देनज़र रखते हुएयह कच्ची गढ़ीनुमा हवेली त्यागकर आप कहीं और चले जाएँ तो हम बाजी जीत सकतेहैं क्योंकि हम मर गए तो कु छ नहीं बिगड़ेगा परन्तु आपकी
शहीदी के बाद पँथका क्या होगा ?

इस प्रकार तो श्री गुरू नानक देव जी का लक्ष्य सम्पूर्ण नहीं होपायेगा। यदि आप जीवित रहे तो हमारे जैसे हज़ारों लाखों की गिनती में सिक्खआपकी शरण में एकत्र होकर फिर से
आपके नेतृत्त्व में सँघर्ष प्रारम्भ करदेंगे।

गुरूदेव जी तो दूसरों को उपदेश देते थे: जब आव की आउध निदान बनै, अति ही रण में तब जूझ मरौ। फिर भला युद्ध से वह स्वयँ कै से मुँह मोड़ सकतेथे ? गुरूदेव जी ने सिंघों को
उत्तर दिया– मेरा जीवन मेरे प्यारे सिक्खोंके जीवन से मूल्यवान नहीं, यह कै से सम्भव हो सकता है कि मैं तुम्हें रणभूमिमें छोड़कर अके ला निकल जाऊँ । मैं रणक्षेत्र को पीठ नहीं
दिखा सकता, अब तोवह स्वयँ दिन चढ़ते ही सबसे पहले अपना जत्था लेकर युद्धभूमि में उतरेंगे।गुरूदेव जी के इस निर्णय से सिक्ख बहुत चिन्तित हुए। वे चाहते थे किगुरूदेव जी
किसी भी विधि से यहाँ से बचकर निकल जाएँ ताकि लोगों को भारीसँख्या में सिंघ सजाकर पुनः सँगठित होकर, मुगलों के साथ दो दो हाथ करें।
सिक्ख भी यह मन बनाए बैठे थे कि सतगुरू जी को किसी भी दशा में शहीदनहीं होने देना। वे जानते थे कि गुरूदेव जी द्वारा दी गई शहादत इस समय पँथके लिए बहुत हानिकारक
सिद्ध होगी। अतः भाई दया सिंह जी ने एक युक्ति सोचीऔर अपना अन्तिम हथियार आजमाया। उन्होंने इस युक्ति के अन्तर्गत सभी सिंहोंको विश्वास में लिया और उनको साथ लेकर
पुनः गुरूदेव जी के पास आये।

और कहने लगे: गुरू जी, अब गुरू खालसा, पाँच प्यारे, परमेश्वर रूपहोकर, आपको आदेश देते हैं कि यह कच्ची गढ़ी आप तुरन्त त्याग दें और कहींसुरक्षित स्थान पर चले जाएं
क्योंकि इसी नीति में पँथ खालसे का भला है।

गुरूदेव जी ने पाँच प्यारों का आदेश सुनते ही शीश झुका दिया और कहा:मैं अब कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता क्योंकि मुझे अपने गुरू की आज्ञा कापालन करना ही है।

गुरूदेव जी ने कच्ची गढ़ी त्यागने की योजना बनाई। दो जवानों को साथचलने को कहा। शेष पाँचों को अलग अलग मोर्चो पर नियुक्त कर दिया। भाई जीवनसिंघ, जिसका डील-डौल,
कद-बुत तथा रूपरेखा गुरूदेव जी के साथ मिलती थी, उसेअपना मुकु ट, ताज पहनाकर अपने स्थान अट्टालिका पर बैठा दिया कि शत्रु भ्रममें पड़ा रहे कि गुरू गोबिन्द सिंघ स्वयँ
हवेली में हैं, किन्तु उन्होंनेनिर्णय लिया कि यहाँ से प्रस्थान करते समय हम शत्रुओं को ललकारेगें क्योंकिचुपचाप, शान्त निकल जाना कायरता और कमजोरी का चिन्ह माना जाएगा
औरउन्होंने ऐसा ही किया।

देर रात गुरूदेव जी अपने दोनों साथियों दया सिंह तथा मानसिंह सहितगढ़ी से बाहर निकले, निकलने से पहले उनको समझा दिया कि हमे मालवा क्षेत्रकी ओर जाना है और कु छ
विशेष तारों की सीध में चलना है। जिससे बिछु ड़ने परफिर से मिल सकें । इस समय बूँदाबाँदी थम चुकी थी और आकाश में कहीं कहीं बादलछाये थे किन्तु बिजली बार बार चमक रही
थी। कु छ दूरी पर अभी पहुँचे ही थेकि बिजली बहुत तेजी से चमकी।

दया सिंघ की दृष्टि रास्ते में बिखरे शवों पर पड़ी तो साहिबज़ादाअजीत सिंह का शव दिखाई दिया, उसने गुरूदेव जी से अनुरोध किया कि यदि आपआज्ञा दें तो मैं अजीत सिंह के
पार्थिव शरीर पर अपनी चादर डाल दूँ। उस समयगुरूदेव जी ने दया सिंह से प्रश्न किया आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं।दयासिंघ ने उत्तर दिया कि गुरूदेव, पिता जी आप के लाड़ले
बेटे अजीत सिंह कायह शव है।

गुरूदेव जी ने फिर पूछा क्या वे मेरे पुत्र नहीं जिन्होंने मेरे एकसँके त पर अपने प्राणों की आहुति दी है ? दया सिंह को इसका उत्तर हाँ मेंदेना पड़ा। इस पर गुरूदेव जी ने कहा यदि तुम
सभी सिंहों के शवों पर एक एकचादर डाल सकते हो, तो ठीक है, इसके शव पर भी डाल दो। भाई दया सिंह जीगुरूदेव जी के त्याग औरबलिदान को समझ गये और तुरन्त आगे बढ़
गये।

योजना अनुसार गुरूदेव जी और सिक्ख अलग-अलग दिशा में कु छ दूरी पर चलेगये और वहाँ से ऊँ चे स्वर में आवाजें लगाई गई, पीर–ऐ–हिन्द जा रहा है किसीकी हिम्मत है तो
पकड़ ले और साथ ही मशालचियों को तीर मारे जिससे उनकीमशालें नीचे कीचड़ में गिर कर बुझ गई और अंधेरा घना हो गया। पुरस्कार के लालच में शत्रु सेना आवाज की सीध में
भागी और आपस में भिड़ गई। समय का लाभउठाकर गुरूदेव जी और दोनों सिंह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगे और यह नीतिपूर्णतः सफल रही। इस प्रकार शत्रु सेना आपस में
टकरा-टकराकर कट मरी।

अगली सुबह प्रकाश होने पर शत्रु सेना को भारी निराशा हुई क्योंकिहजारों असँख्य शवों में के वल पैंतीस शव सिक्खों के थे। उसमें भी उनको गुरूगोबिन्द सिंह कहीं दिखाई नहीं दिये।
क्रोधतुर होकर शत्रु सेना ने गढ़ी परपुनः आक्रमण कर दिया। असँख्य शत्रु सैनिकों के साथ जूझते हुए अन्दर के पाँचों सिक्ख वीरगति पा गए।

भाई जीवन सिंह जी भी शहीद हो गये जिन्होंने शत्रु को झाँसा देने के लिए गुरूदेव जी की वेशभूषा धारण की हुई थी। शव को देखकर मुग़ल सेनापति बहुतप्रसन्न हुए कि अन्त में गुरू
मार ही लिया गया। परन्तु जल्दी ही उनकोमालूम हो गया कि यह शव किसी अन्य व्यक्ति का है और गुरू तो सुरक्षित निकलगबोलेगी।।

मुग़ल सत्ताधरियों को यह एक करारी चपत थी कि कश्मीर, लाहौर, दिल्लीऔर सरहिन्द की समस्त मुग़ल शक्ति सात महीने आनन्दपुर का घेरा डालने के बावजूद भी न तो गुरू गोबिन्द
सिंह जी को पकड़ सकी और न ही सिक्खों से अपनीअधीनता स्वीकार करवा सकी। सरकारी खजाने के लाखों रूपय व्यय हो गये। हज़ारोंकी सँख्या में फौजी मारे गए पर मुग़ल अपने
लक्ष्य में सफलता प्राप्त न करसके ।

यह गर्दन कट तो सकती है मगर झुक नहीं सकती।कभी चमकौर बोलेगा कभी सरहिन्द की दीवार बोलेगी।।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की।गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद कानवाब वजीत खाँ घबरा
गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इनपठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 october1708 मेंगुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड
साहिब में दिव्य ज्योति में लीन होगए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा वखुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने
सिक्ख बनायाबंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंटसे ईंट बजा दी।
एक हत्यारे से युद्ध करते समय गुरु गोबिंद सिंह जी के छाती में दिल के ऊपरएक गहरी चोट लग गयी थी। जिसके कारण 18 october, 1708 को 42 वर्ष की आयु मेंनान्देडमें
उनकी मृत्यु हो गयी
सम्वत् 1731 में गुजरात में मुगल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवन्त सिंह जीने अपनी जान दे दी| उनकी दोनों पत्नियाँ गर्भवती थीं। दोनों पत्नियों ने एक-एक पुत्र
को जन्म दिया। एक पुत्र जन्म के तुरन्त बाद परलोक सिधार गया। वहीं दुर्गादास राठोड़ नेशासन और राजा के दूसरे पुत्र अजीत सिंह कोसंरक्षित कियाइस बीच करीब 25 वर्षों के
संघर्ष के दौरान औरंगजेब का बल या अपार धन का लालच वीर दुर्गादास राठौर को नहीं डिगा सकाउन्होंने जोधपुर की गद्दी को बचाने के लिये औरंगजेब के द्वारा संचालित तमाम
षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते हुये कई लड़ाईयाँ लड़ी

Afzal Khan (died 10 November 1659) was a 17th-century general who served the Adil Shahi dynasty of Bijapur in
present-day Karnataka, and fought against Shivaji. He was killed at a meeting with Shivaji by Shivaji's lieutenant
Sambhaji Kavji, and his army was defeated in the Battle of Pratapgad .1639, Afzal Khan had murdered Raja
Kasturi Ranga after inviting him for a meeting where he could safely make a submission.[1] Therefore, Shivaji was
wary of Afzal Khan's real intentions. When Afzal Khan sent his envoy Krishnaji Bhaskar Kulkarni to Shivaji,
Shivaji solemnly appealed to him as a Hindu priest to tell him if Afzal Khan was making any treacherous plans.
According to the Maratha chronicles, Krishnaji hinted that Afzal Khan harbored mischief. Shivaji then sent his own
envoy Pantaji Gopinath Bokil to Afzal, agreeing to a meeting; Pantaji's real mission was to find out the strength of
Afzal's forces. These are graves of 60 wives of Afzal khan whom he murdered to prevent them from
remarrying post his death.

Vaishnavdas (a disciple of Samarth Ramdas Swami) used to live in the Parashuram monastery on the Ahalya ghat in
Ayodhya. He had the support of 10,000 tong-wielding sadhus. When they learned of the attack by Jabaz Khan’s
attack on Ram Janmabhoomi, they rushed to join and fight alongside the Hindus. For seven days the Hindus and
the Mughal forces clashed at Urvashikund. At the end of a fierce battle the Mughal forces took their heels.

The news of the royal army’s defeat in the hands of sadhus spread. A livid Aurangzeb had Jabaz Khan’s command
removed. With an intense desire to crush the Hindus guarding Ayodhya, he sent a 50,000 strong force under the
command of Sayyid Hasan Ali to Ayodhya.

The sadhus guarding Ayodhya were also on alert. Vaishnavdas sent word to Guru Gobind Singh seeking His help in
guarding Ayodhya. Guru Gobind Singh obliged and led a huge force of Sikh warriors to Brahmakund. Under
the able command of Guru Gobind Singh, the united force of Hindus and Sikhs routed the Mughal army. Hasan Ali
did not live to face Aurangzeb to tell him about the defeat. It would be four more years before Aurangzeb tried to
attack Ayodhya again.

After Four years of peace, in 1664 Aurangzeb attacked Ayodhya again and slaughtered 10000 Hindus. Their
bodies were dumped into a well (भागात स्थित असलेल्यानवकोणातील कर्न्दप विहीरी) to the west of the temple and walled in. The
well has stood the sands of time to tell the story of the cruelty of Aurangzeb and the Mughals. Today the Muslims
claim ownership of the well too. It was after this war that the royal army destroyed the platform on which the Ram
Mandir was built and fortified the area (याच युद्धानंतरशाही सेनेने रामजन्मभूमीचा कट्टा खोदून त्याला गडाचे रूप दिले.). Now each year, on
Ramanavami, the Hindus offer flowers and other offerings to this destroyed platform.

After Aurangzeb, Lukhnow came under the rule of the Nawabs. The Hindus tried again to wrest control of Ram
Janmabhoomi during the rule of Nawab Nasiruddin Haider. Many Hindu kings joined forces and the battle raged for
8 long days. The Nawab’s army reached Hanumangadh. There, the Hindu forces received help from the tong-
wielding sadhus. Together they managed to make the nawab’s army flee and took control of Ram Janmabhoomi.
This victory was short-lived though, the Nawab’s forces recaptured Ram Janmabhoomi in few days.

Reign of Nawab Wajid Ali Shah- The battle raged for two days. Houses, crypts and mosques were destroyed, even
livestock was not spared. Blinded by rage as they may have been, the Hindus did not cross certain lines; they did not
attack or molest the Muslim women and children. The Muslims began to flee Ayodhya. Worried that the situation
may go out of control, the Nawab’s army imposed travel restrictions in Ayodhya. Maharaja Mansingh conferred
with the Nawab and directed the Hindus to rebuild a platform in Ayodhya and install the idol of Shriram there. A
makeshift temple was also erected.
अयोध्या / 105 गांवों के क्षत्रिय अब पगड़ी और चमड़े के जूते पहनेंगे, मंदिर पर हमले के विरोध में 500 साल से नंगे सिर-पैर रह रहे थे | अयोध्या से सटे पूरा बाजार ब्लाॅक व
आसपास के 105 गांव के सूर्यवंशीक्षत्रिय परिवार 500 साल बाद फिर एक बार पगड़ी बांधेंगे और चमड़े के जूतेपहनेंगे। कारण- राम मंदिर निर्माण का इनका संकल्प पूरा हुआ। इन
गांवों मेंघर-घर जाकर और सार्वजनिक सभाओं में क्षत्रियों को पगड़ियां बांटी जा रहीहैं। सूर्यवंशी समाज के पूर्वजों ने मंदिर पर हमले के बाद इस बात की शपथ लीथी कि जब तक
मंदिर फिर से नहीं बन जाता, वे सिर पर पगड़ी नही बांधेगें, छाते से सिर नहीं ढकें गे और चमड़े के जूते नही पहनेंगे। सूर्यवंशी क्षत्रियअयोध्या के अलावा पड़ोसी बस्ती जिले के 105
गांव में रहते हैं। ये सभी ठाकु रपरिवार खुद को भगवान राम का वंशज मानते हैंइलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस डीपी सिंह के मुताबिक उनके पूर्वजोंने 16 वीं सदी में मंदिर
बचाने के लिए ठाकु र गजसिंह के नेतृत्व में मुगलोंसे युद्ध लड़ा। उसमें वे हार गए। उसके बाद गजसिंह ने पगड़ी व जूते न पहनने कीप्रतिज्ञा ली थी। कवि जयराज ने लिखा था-
‘जन्मभूमि उद्धार होय ता दिन बड़ीभाग। छाता पग पनही नहीं और न बांधहिं पाग।’महंत ओमश्री भारती का कहना है, ‘सूर्यवंशियों ने सिर न ढंकने का जो संकल्पलिया था, उसका
पालन करते हुए शादी में अलग तरीके से मौरी सिर पर रखते रहेहैं, जिसमें सिर खुला रहता है। पूर्वजों ने जब जूते और चप्पल न पहनने कासंकल्प लिया था, तब चमड़े के बने होते
थे। लिहाजा खड़ाऊ पहनने लगे। फिर बिनाचमड़े वाले जूते-चप्पल आए तो उन्हें भी पहनने लगे, लेकिन चमड़े के जूते कभीनहीं पहने गए।

https://www.bhaskar.com/national/news/verdict-on-ayodhya-kshatriyas-of-105-villages-will-now-wear-turban-and-
leather-shoes-01690143.html?ref=ht

1671 लाचित बरफू कनसम्पुर्ण नाम-चाउ लासित फु कनलुंग (असमिया:লাচিত বৰফু কন), आहोम साम्राज्यके एक सेनापति औरबरफू कनथे, जो कि सन 1671 में
हुईसराईघाट की लड़ाईमें अपनी नेतृत्व-क्षमता के लिए जाने जाते हैं, ये असम का इतिहास तय करने वाली रात थी. मुगल असम की सीमा से कु छ दूर थे. मुगलों और असम के
सैनिकों के बीच युद्ध चरम पर था.1667 में एक सेनापति ने औरंगज़ेब को चुनौती दी थी. इस सेनापति ने मुगल सैनिकोंको गुवाहाटी से बाहर धके ला था. औरंगज़ेब ने गुवाहाटी को
वापस पाने के लिएप्रतिनिधि के तौर पर अपने सबसे शक्तिशाली सहयोगी राजपूतों के राम सिंह कोभेजा. लेकिन उसे इस बात का बिल्कु ल अंदाज़ा नहीं था कि ‘आहोम’ ने अपनेबेड़े
में शेर पाला हुआ है- आहोम का सेनापति, लचित बोरफु कन. जिसने अपने खुदके मामा की जान ली थी. सिर्फ इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि असमसफलतापूर्वक मुगलों
को हरा दे. ये 1671 का प्रसिद्ध सराईघाट का युद्ध था.इसरात असम और मुगल दोनों का नसीब तय होना था. ये वो कहानी है जो असम के बच्चे-बच्चे को मुंह ज़ुबानी याद है. वो
कहानी जो हर पीढ़ी को ज़िंदगी मेंरोज़ की मुश्किलों का सामना करने की हिम्मत देती है. ये एक निर्णायक लड़ाईथी, लेकिन इससे पहले वीर लचित बीमार पड़ गया. वो फिर भी डटा
रहा अपने राजाचक्रध्वज सिंह को मिले उस कर्तव्य के लिए, जो उनके पिता जयधज सिंह नेउन्हें दिया था. राजा जयधज सिंह ने बेटे को अपने देश के खोए सम्मान को
वापसहासिल करने का काम दिया था. लचित ने मिट्टी से तटबंधों का निर्माण करने काआदेश दिया.लचित ने मिट्टी से तटबंधों का निर्माण करने का आदेश दिया.

लचित ने इसे एक रात में बनवाने का ज़िम्मा अपनेमामा मोमाई तामुलीको दिया थामामापर बहुत गुस्सा आया. जो अपने सैनिकों को काम करने के लिए उत्साहित भी नहींकर पाए.
जिसकी वजह से देरी तो हुई ही, इसके साथ ही लचित की बनाई रणनीति परभी संकट आ गया.‘मेरा मामा मेरे देश से बड़ा नहीं है. लचित के ऐसा करने से सैनिकों में एक जोश भर
गया.लचित ने अपने सैनिकों से कहा, ‘जब मेरे देशपर आक्रमणकारियों का खतरा बना हुआ है, जब मेरे सैनिक उनसे लड़ते हुए अपनीज़िंदगी दांव पर लगा रहे हैं, तब मैं महज़
बीमार होने के कारण कै से अपनेशरीर को आराम देने की सोच सकता हूं. मैं कै से सोच सकता हूं अपने बीवी औरबच्चों के पास घर वापस चले जाने के बारे में, जब मेरा पूरा देश खतरे
मेंहै. लड़ाई के पहले चरण में मुग़ल सेनापति राम सिंह, लाचित की सेना के विरुद्ध सफलता पाने में असफल रहा.

इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10 हजार सैनिक मारे गए और लचित बोरफु कनबुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गए। अहोम सेना का बुरी तरह नुकसानहुआ। राजाराम सिंह
ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण के लिए कहा, जिसको राजाचक्रध्वज ने “आखरी जीवित अहोमी भी मुग़ल सेना से लड़ेगा” कहकर प्रस्तावअस्वीकार कर दिया।

यहभी कहा जाता है कि रामसिंह के एक पत्र के साथ 'अहोम शिविर' की ओर एक तीरछोड़ा गया था, जिसमें लिखा था कि लाचित को एक लाख रूपये दिये गये थे औरइसलिए उसे
गुवाहाटी छोड़कर चला जाना चाहिए. जब यह पत्र अहोम राजा चक्रध्वजसिंह के पास पहुंचा तो राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर शक होने लगाथा, लेकिन उनके
प्रधानमंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचितके ख़िलाफ एक चाल है. रामसिंह के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना में 30,000 पैदल सैनिक, 15,000 तीरंदाज़,
18,000 तुर्की घुड़सवार, 5,000 बंदूकची और 1,000 से अधिक तोपोंके अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था. इसके बाद राम सिंह ने भी कबूला कि उनके दुश्मनों की सेना
उनसे बेहतरथी.जैसे ही सेना आई तो कहा जाता है कि लचित के एक सैनिक ने कई सौ औरंगजेब के सैनिकों को मारा था. जब सामने वालों नेलचित बोरफू कनके सैनिकों का
मनोबल देखा तो सभी में भगदड़ मच गयी थी.

इस युद्ध के बाद फिर कभी उत्तर-पूर्वी भारत पर किसी ने हमला करने का सपने में भी नहीं सोचा

जोरहाटसे16 कि.मी. की दूरी पर स्थित लाचित मैदान में लाचित के अंतिमअवशेष संरक्षित हैं। यह वर्ष 1672 में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वाराहूलुंगपारा में निर्मित कराया गया था।
हर साल 24 नवंबर को सामान्यतया लाचितबोड़फु कन को श्रद्धांजलि देने के लिए असम राज्य में लाचित दिवस मनाया जाताहै।

अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा, "महाराज की जय हो! सलाहकारों की जयहो! सेनानायकों की जय हो! देश की जय हो! के वल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियोंका नेतृत्व
करता है! यहां तक कि मैं राम सिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थलपर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका! आपकी सेना कोपराजित करने का."

NDA में जो बेस्ट कै डेट होता है, उसको एक स्वर्ण पदक से नवाज़ा जाता है, लेकिन बहुत कम ही लोगों को यह ज्ञात होगा कि उस पदक का नाम “लचित बोरफु कन”है
24 November being celebrated each year as Lachit Divas (Lachit Day) statewide in Assam where they
commemorate the heroism of Lachit Borphukan.

Assam was invaded several times by the armies of the Delhi Sultanate in the 16th century with no succcess. Bengal
Governer Mir Gumla the only invadore who took some parts of North East Ahom kingdom.
August 1667, the Ahom general Lachit Borphukan had recaptured Guwahati.
Read More at https://www.livehistoryindia.com/snapshort-histories/2018/02/27/lachit-borphukan
Somnath temple- By 1665, the temple, one of many, was ordered to be destroyed by Mughal emperor Aurangzeb.
[37]
In 1701, he ordered the destruction of temple in such a manner that it can't be reconstructed again.[38] So, In 1701
CE, the temple was once again destroyed by Mughal Emperor Aurangzeb.[15] Aurangzeb built a mosque on the site
of the Somnath temple, using some columns from the temple, whose Hindu sculptural motifs remained visible. [19].
This Mosque existed until 1950 when it was removed by Sardar Patel and shifted to another location. The ruins were
pulled down in October 1950 and the mosque present at that site was shifted few miles away

Later on a joint effort of Peshwa of Pune, Raja Bhonsle of Nagpur, Chhatrapati Bhonsle of Kolhapur, Queen
Ahilyabai Holkar of Indore & Shrimant Patilbuwa Shinde of Gwalior rebuilt the temple in 1783 AD at a site
adjacent to the ruined temple which was already converted to a mosque.[19]

The following extract is from “Wonders of Things Created, and marvels of Things Existing” by Zakariya al-
Qazwini, a 13th century Arab geographer. It contains the description of Somnath temple and its destruction:[16]

“Somnath: celebrated city of India, situated on the shore of the sea, and washed by its waves. Among the wonders of
that place was the temple in which was placed the idol called Somnath. This idol was in the middle of the temple
without anything to support it from below, or to suspend it from above. It was held in the highest honor among the
Hindus,
“When the Sultan Yaminu-d Daula Mahmud Bin Subuktigin went to wage religious war against India, he made
great efforts to capture and destroy Somnat, in the hope that the Hindus would then become Muhammadans. As a
result thousands of Hindus were forcibly converted to Islam. He arrived there in the middle of Zi-l k’ada, 416 A.H.
(December, 1025 A.D.). “The king looked upon the idol with wonder, and gave orders for the seizing of the spoil,
and the appropriation of the treasures. There were many idols of gold and silver and vessels set with jewels, all of
which had been sent there by the greatest personages in India. The value of the things found in the temples of the
idols exceeded twenty thousand dinars."

In 1782-83 AD, Maratha king, Mahadaji Shinde (Ruler of North India: Ujjain/ Gwalior/ Mathura) victoriously


brought the Three Silver Gates from Lahore, after defeating Muhammad Shah of Lahore. After refusal from
Pundits of Guzrath and the then ruler Gaekwad to put them back on Somnath temple, these silver gates were placed
in temples of Ujjain. Today they can be seen in Two Temples of India Mahakaleshwar Jyotirlinga Mandir &
Gopal Mandir of Ujjain.[20]

In 1842, Edward Law, 1st Earl of Ellenborough issued his famous 'Proclamation of the Gates' in which he ordered
the British army in Afghanistan to return via Ghazni and bring back to India the sandalwood gates from the
tomb of Mahmud of Ghazni in Ghazni, Afghanistan. These were believed to have been taken by Mahmud
from Somnath. There was a debate in the House of Commons in London in 1843 on the question of the gates of the
Somanatha temple.[28] After much cross-fire between the British Government and the opposition, the gates were
uprooted and brought back in triumph. But on arrival, they were found to be of replicas of the original.[20] So they
were placed in a store-room in the Agra Fort where they still lie to the present day.
In the 19th Century novel, The Moonstone by Wilkie Collins, the diamond of the title is presumed to have been
stolen from the temple at Somnath and, according to the historian Romila Thapar, reflects the interest aroused in
Britain by the gates.

Puri temple औरंगजेब के उल्लेख के बिना आक्रमणों की सूची कै से पुरी हो सकती है? 1692 ई.में, सह्याद्री में मराठों से लड़ते हुए, उसने मंदिर को जमींजोद कर देनेका
आदेश जारी कियाजगन्नाथ पुरी उसके घोषित उद्देश्यों में से एक था। तबज़िरत उल नाज़रीन औरमडाला पणजी दोनों कहते हैं कि औरंगज़ेब ने मंदिरों और मूर्तियों को नष्टकरने के
आदेश जारी किया। बनर्जी द्वारा उड़ीसा का इतिहास इस घटना के वर्षको 1697 ई. बताता है। लेकिन, यह तथ्य कि, ओडिशा का मुगल कमांडर  एकराम खानवास्तव में मंदिर में
घुसकर इसे क्षतिग्रस्त किया, कई वृत्तांतों मेंउल्लेख मिलता है। ब्रह्मपदार्थ को बचाकर बिमला मंदिर ले जाया गया और खुर्दाके शासक दिव्यसिंह प्रथम द्वारा संरक्षित किया गया। लकड़ी
के मूर्त्तियोंको जिसमें ब्रह्मपदार्थ रखा गया था, एकराम खान द्वारा नष्ट कर दिया गया था, हालांकि एक सूत्र से यह भी उल्लेख मिलता है कि वे चिल्का झील के पासबानापुर में
स्थानांतरित कर दिए गए थे।
जे गोर्डन मेल्टन ने अपनी बुक 'फे थ्स अक्रॉस टाइम : 5,000 इयर्स ऑफरिलीजियस हिस्ट्री'(5,000 Years of Religious History) में लिखा है कि एकजैन मंदिर
को अपवित्र करने के बाद बादशाह औरंगजेब ने मंदिर परिसर में ही एकगाय की हत्या कराई थी।
बहादुरशाहद्वितीय / जफ़र (1837-57 ई o) - आधिकारिक रूप सेमुग़ल साम्राज्य का अंत 1 नवंबर 1858 ई o के महारानीविक्टोरियाके घोषणापत्र से हुआ। बहादुरशाह
जफ़र को निर्वासित कर रंगून भेज दिया गया। लालकिला स्थितहीरा महलइसी ने बनवाया था। वहां पर 1862 ई o में उनकी मृत्यु हो गयी। वह एक अच्छा गजल लेखक था। उसने
लिखा है –

“न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का करार हूँ।


जो किसी के काम न आ सका, मैं वो बुझता हुआ चिराग हूँ।।”

औरंगजेब के बाद बहादुर शाह प्रथम, बहादुर शाह प्रथम के बाद अंतिम मुगल बहादुर शाह जफर दिल्ली का सुल्तान बना।

1700 The Taẕkirah is a genre of literature written about Sufi Muslim saints in Altishahr. Written sometime in the
period from 1700-1849, the Eastern Turkic language (modern Uyghur) Taẕkirah of the Four Sacrificed
Imams provides an account of the Muslim Karakhanid war against the Khotanese Buddhists, containing a story
about Imams, from Mada'in city (possibly in modern-day Iraq) came 4 Imams who traveled to help the Islamic
conquest of Khotan, Yarkand, and Kashgar by Yusuf Qadir Khan, the Qarakhanid leader.[59] Accounts of the
battles waged by the invading Muslims upon the indigenous Buddhists takes up most of the Taẕkirah with
descriptions such as "blood flows like the Oxus", "heads litter the battlefield like stones" being used to describe
the murderous battles over the years until the "infidels" were defeated and driven towards Khotan by Yusuf Qadir
Khan and the four Imams, but the Imams were assassinated by the Buddhists prior to the last Muslim victory so
Yusuf Qadir Khan assigned Khizr Baba, who was born in Khotan but whose mother originated from western
Turkestan's Mawarannahr, to take care of the shrine of the 4 Imams at their tomb and after Yusuf Qadir Khan's
conquest of new land in Altishahr towards the east, he adopted the title "King of the East and China".[60] Due to
the Imams deaths in battle and burial in Khotan, Altishahr, despite their foreign origins, they are viewed as local
saints by the current Muslim population in the region.[61]
Muslim works such as Ḥudūd al-ʿĀlam contained anti-Buddhist rhetoric and polemic against Buddhist Khotan,
[62] aimed at "dehumanizing" the Khotanese Buddhists, and the Muslims Kara-Khanids conquered Khotan just 26
years following the completion of Ḥudūd al-ʿĀlam.[62]
Muslims gouged the eyes of Buddhist murals along Silk Road caves and Kashgari recorded in his Turkic
dictionary an anti-Buddhist poem/folk song.[63]
Satuq Bughra Khan and his son directed endeavors to proselytize Islam among the Turks and engage in military
conquests.[64] The Islamic conquest of Khotan led to alarm in the east and Dunhuang's Cave 17, which contained
Khotanese literary works, was closed shut possibly after its caretakers heard that Khotan's Buddhist buildings were
razed by the Muslims, and Khotan had suddenly ceased to be Buddhist.[65]
In 1006, the Muslim Kara-Khanid ruler Yusuf Kadir (Qadir) Khan of Kashgar conquered Khotan, ending Khotan's
existence as an independent state. The war was described as a Muslim Jihad (holy war) by the Japanese
Professor Takao Moriyasu. The Karakhanid Turkic Muslim writer Mahmud al-Kashgari recorded a short Turkic
language poem about the conquest:
English translation:
We came down on them like a flood,
We went out among their cities,
We tore down the idol-temples,
We shat on the Buddha's head!

1724 (महाराजा अजीत सिंह ओर मुगल बादशाह फ़रूख सियार का युद्ध) - अजीत सिंह (जन्म: २४ जून १७२४लाहौर, पाकिस्तान) राजस्थानके मारवाड़क्षेत्र के शासक थे।
वेमहाराजा जसवंत सिंहके पुत्र थे।अजीत सिंह के जन्म से पहले ही उसके पिता की मृत्यु हो चुकीथी। कु छ समय पश्चात अजीत सिंह को दिल्ली लाया गया, जहाँ पर मुग़ल
बादशाहऔरंगज़ेबउन्हेंमुस्लिमबना लेना चाहता था।राठौड़सरदार दुर्गादास व रुपसिंह तथा रघुनाथ भाटीने बड़े साहस के साथ अजीत सिंह को दिल्ली से निकाल कर मारवाड़ लाया।

अजीत सिंह के मामले को लेकर मारवाड़ के राठौड़ सरदारों औरमेवाड़के राणा तथा औरंगज़ेब में एक लम्बा युद्ध छिड़ गया, जो १७०९ ई. तक चला। जबऔरंगज़ेब की मृत्यु हो गई
तब उसके लड़के और मुग़ल साम्राज्य के अगलेउत्तराधिकारी बादशाह बहादुर शाह (प्रथम) नेराजपूतोंसे सुलह कर ली। अजीत सिंह ने अपनी कन्या का विवाह बादशाह फ़र्रु ख़सियर
सेकिया और उससे सुलह कर ली, मुगल बादशाह फर्रखुसियर ने उनकी किसी पुत्री सेसादी करने की बात पर जोधपुर राज्य देना स्वीकार किया।तो महाराजा अजीत सिंहने अपनी
पुत्री इंद्र कं वरी की शादी मुगल बादशाह सेकरादी । और बाद मेंजिसे चूड़ामन जाट ने फरुख्शियर के पंजे से आज़ाद करवाया और उसे पुन शुद्धकरके हिंदू धर्म मे लायाउनके पुत्र
बख्तसिंह ने रहस्यमय अंदाज़ से उनकीहत्या कर दी। उनकी मृत्यु पर कई मोर व बंदर जल कर भस्म हो गए| अजीतसिंह ने सुना की मुगलों ने उनके सरदारों पर हमला किया है,तो
इनकी आँखोंमें लाल रक्त बहाने लगा। तलवार को मरोड़ कर दिल्ली पर हमला करने का आदेशदेने ही वाले थे की महल में बैठे राजपुरोहितों ने महाराज को यह कहकर रोकदिया की
अभी का समय मारवाड़ के लिए अशुभ है।

राजपुरोहितों ने कहा की एक बार फरुख सियर से मिल लिया जाए,राजपुरोहितों का आदेश मानकर अजीत सिंह दिल्ली पहुंच जाते हैं।

फरुखसियरअजीतसिंहकोबोलतेहैंकीमैंतुम्हेंअजमेरतोदेदूंगा,लेकिनतुम्हारीपुत्रीइन्द्रकं वरीकाविवाहमुझसेकरवानाहोगा।
जैसेहीमहाराजअजीतसिंहनेयेसुनातोउनके हाथतलवारकीतरफजातेहैं, लेकिनवहींएकजाटसरदारचुड़ामलउन्हेरोकलेतेहैं।
वोकहतेहैंकीआपसमझदारहैं,मैंजनताहूँकीआपकाजवाबआपकीतलवारदेतीहै, आपइसमुगलकीगर्दनउड़ाएबिनानहींरहनेवाले, लेकिनयहाँसोचसमझकरउतरदीजिएगा।
वैसेभीआपके महलमेंखूबदासियाँहैं।

जाटसरदारकीबातअजीतसिंहकोसमझआजातीहै।ओरएकदासीकाविवाहअजीतसिंहनेफरुखसियरसेकरदिया।

अबआतीहैअसलीकहानी......

महाराजाअजीतसिंहपहेलेसेहीमुगलोंके कट्टरदुश्मनथे,अबउनकोमुगलोंपरआक्रमणकाकारणभीमिलगयाथा।

अजीतसिंहअपनीतलवारकोदेखतेहुयेकसमखातेहैंकी'जिसभरेदरबारमेंमेराअपमानहुआहैउसदरबारकीमैंनीवहिलादूंगा'।
ओरएकपत्रजाटसरदारचुडामलकोलिखतेहैं,कीमैंयुद्धकाआगाजकरनेवालाहूँ।

चुडामलभीइसपत्रकाजवाबलिखतेहुयेबोलतेहैंकीअगरआपनेनिश्चयकरहीलियाहैतोयेजाटसरदारभीआपके साथहै।

हरहरमहादेवके जयघोषके साथजाटओरराजपूतोंकीसञुंक्तसेनादिल्लीकीतरफरवानाहोतीहै।

हाथमेंभगवा,मुखमेंभवानीमस्तकपरके शरीमुकु टयेवीरथा "अजीतसिंह"

आजके लालकिलेपरहिंदवीसेनाके हमलेकीखबरसम्पूर्णराजपूतोंसेलेकरअफगानतकपहुचगई।


इसीके साथमहाराजभीमसिंहहाड़ा,महाराजगजसिंहओरअफगानसरदारनज्जामुद्दीनअलीखाननेभीअपनीसेनाएँदिल्लीकीतरफमोडदी।

किलेके हरकिलेमेंमुगलोंके सैनिकोंकोकाटदियागया,यहमहानसेनाकिलेके कोनेकोनेमेंफ़े लगयी।जाटसरदारचुडामलनेलालकिलेके मुगलेध्वजकोहटाकरभगवाध्वजलहरादिया।

तभी 50000 कीमराठासेनाहरहरमहादेवकीललकारके साथलालकिलेमेंघुसजातीहै।हरतरफखूनीसंग्रामसुरूहोजाताहै,लालकिलेमेंहरहरमहादेवओरजयशिवाजीकीललकारगूंजरहीथी।

मारठाओनेसम्पूर्णदिल्लीकोघेरलियाओरके शरीध्वजफहरादिया।तभीमोहम्मदअमीनखान,ओरजकारियाखाननेअपनीविशालसेनासेमराठाओपरहमलाकरदिया।

इसीके साथघमासानयुद्धशुरूहोगया,सारीहिंदवीसेनामाल्यछोपरकालबनकरटू टपड़ी।जाटोंनेकिलेके ऊपरसेमुगलोंकोखदेड़नाशुरूकिया,वहीनीचेराजपूतओरमराठामोर्चासंभालेहुयेथे।

मुगलोंकोकरारेजवाबमिलरहेथे।लालकिलारक्तसेवास्तवमेंलालहोगया।
तभीहाथोंमेंतलवारलेकरहरहरमहादेवकीललकारके साथमहाराजाअजीतसिंहनेकिलेमेंप्रवेशकिया।अजीतसिंहनेमुगलबादशाहफरुखसियरकीआँखेंफोड़करसरधड़सेअलगकरदिया।
ओरमुगलेतख्तपरखुदविराजमानहोगए।

17 February1719 कोदिल्लीराठोरोंके अधीनहोगयी।हिंदवीसेनानेलालकिलेके दीवानेआममेंअपनानिवासस्थानबनाया।

अंतमेंमुस्लिमसैनिकोंके निवेदनकोमानतेहुये3 दिनबादअजीतसिंहनेरफीउद्दरजातकाहाथपकड़करमुगलेतखतपरबैठादिया।

अजीतसिंहके आदेशपरजज़ियाकरहटालियागया।ओरयुद्धरोकदियागया।जातेजातेअजीतसिंहनेफरुखसियरकोदरवाजेपरलटकादिया

इससंपूर्णघटनाकाविवरणएकअंग्रेज़अधिकारीनेअपनीआँखोंदेखाहाललिखाहै।

मराठा साम्राज्य-
"Jawaharlal Nehru once called Shivaji a 'lootera' but later apologised for his comment. He is repeating his
family's mistake," Ranjit Savarkar added.

"शिवाजी के दौर में मराठा प्रभुत्वशाली समुदाय था लेकिन ज़्यादातर लोगनिज़ामशाही में काम करते थे. उनसे पहले मराठा समुदाय में किसी ने राजा बननेकी कोशिश नहीं की थी.
समुदाय को शूद्र माना जाता था.वो मराठों में राजा का ओहदा पाने वाले पहले थे. इसीलिए उनके लिए येज़रूरी था कि हिंदू परंपरा के मुताबिक उनका राज्याभिषेक हो और लोगों
सेमान-सम्मान के अलावा उनकी राजशाही को धार्मिक मान्यता मिले.

धर्म के अनुसार राजा बनने का अधिकार सिर्फ़ क्षत्रियों को था. ऐसे में उन्होंने जाति प्रथा की इस व्यवस्था से निकलने की कोशिश की.इसके पीछे कु छ पुराणों में बताया गया एक
मिथक था. इसके मुताबिक विष्णुके अवतार माने जाने वाले परशुराम और क्षत्रियों के बीच लड़ाई हो गई औरउसमें सब क्षत्रिय मारे गए.

पीछे सिर्फ विधवाएं और बच्चे रह गए, जिन्हें प्रजा यानी शूद्र माना गया.

इस ग़लत मान्यता के चलते और जाति प्रथा को क़ायम रखने के लिए ब्राहमणों ने शिवाजी का राज्यभिषेक करने से मना कर दिया

उन्होंनेकाशी के मान्य ब्राह्मण गागाभट्ट को बुलवाया जिन्होंने आकर दावा किया किशिवाजी दरअसल राजस्थान के क्षत्रिय जाति के सिसोदिया परिवार के वंशज हैं.इस बात को मान
लिया गया और शिवाजी की बदौलत पूरे मराठा समुदाय को क्षत्रिय होने का दर्जा मिला.

इतिहास के सबसे रोचक इस स्वर्णिमसत्य को देखिये की जिस मतान्ध औरंगजेब नेवीर शिवाजी महाराज को पहाड़ी चूहा कहता थाउन्ही शिवाजी के वंशजों को उसीऔरंगजेब के
वंशजों ने “महाराजधिराज “और “वज़ीरेमुतालिक” के पद से सुशोभितकिया था। जिस सिंध नदी के तट पर आखिरी हिन्दू राजापृथ्वी राज चौहान के घोड़े पहुँचे थे उसी सिंध नदी
पर कई शताब्दियों के बाद अगर भगवाध्वज लेकरकोई पहुँचा तो वह मराठा घोड़ा था।

तंग आकर इंग्लैंड के महाराजा ने कोमोडोर मैथयू के नेतृत्व में एक बड़ा बेड़ामराठों से लड़ने के लिए भेजा। इस बार पुर्तगाल की सेना को भी साथ में लेलिया गया।बड़ा भयानक युद्ध
हुआ। कोमोडोर मैथयू स्वयं आगे बढ़ बढ़ कर नेतृत्वकर रहा था। मराठासैनिक ने उसकी जांघ में संगीन घुसेड़ दी, उसने दोगोलियाँ भी चलाई पर वह खाली गईक्यूंकि मराठों के
आतंक और जल्दबाजी में वहउसमें बारूद ही भरना भूल गया। अंत मेंअंग्रेजों और पुर्तगालियों कीसंयुक्त सेना की हार हुई। दोनो एक दूसरे को कोसते हुएवापिस चले गए। डचलोगों के
साथ युद्ध में भी उनकी यही गति बनी। मराठे थल से लेकर जलतक के राजा थे।

सिद्दी कोंकण में राज करते थे मराठोंके विरुद्ध पुर्तगालीयों , अंग्रेजोंऔर डच आदि की सहायता से उनके इलाकों पर हमलेकरते थे। इसके अलावा उनका एकपेशा निर्दयता से हिन्दू
लड़के और लड़कियों को उठा कर लेजाना और मुसलमानबनाना भी था। इसी सन्दर्भ में सिद्दी लोगों ने भगवान परशुराम के मंदिर कोतोड़ डाला। यह मंदिर ब्रह्मेन्द्र स्वामी को बहुत
प्रिय था। उन्होंनेनिश्चय किया की वह कोंकण देश में जब तक वापिस नहीं आयेंगे जब तक उनके पीछेअत्याचारी मलेच्छ को दंड देने वाली हिन्दू सेना नहीं होगी क्यूंकि सिद्दीलोगों
नेमंदिर और ब्राह्मण का अपमान किया हैं। स्वामी जी वहाँ से सताराचले गए और अपनेशिष्यों शाहू जी और बाजीराव को पत्र लिख कर अपने संकल्प कीयाद दिलवाते रहे।
मराठेउचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। सिद्दी लोगोंका आपसी युद्ध छिड़ गया, बस मराठे तोइसी की प्रतीक्षा में थे। उन्होंनेउसी समय सिद्दियों पर आक्रमण कर दिया। जल
मेंजंजिरा के समीप सिद्दियों के बेड़े पर आक्रमण किया गया और थल पर उनकी सेना पर आक्रमणकिया गया। मराठोंकी शानदार विजय हुई और कोंकण प्रदेश मराठा गणराज्य का
भाग बन गया।ब्रह्मेन्द्र स्वामी ने प्राचीन ब्राह्मणों के समान क्षत्रियों की पीठथप-थपा करअपने कर्तव्य का निर्वाहन किया था। वैदिक संस्कृ ति ऐसे हीब्राह्मणों की त्याग औरतपस्या के
कारण प्राचीन काल से सुरक्षित रही हैं।
गोआ में पुर्तगाली अत्याचार- गोआ में पुर्तगाली सत्ता ने भी धार्मिक मतान्धता में कोई कसर न छोड़ी थी।हिन्दू जनता को ईसाई बनाने के लिए दमन की निति का प्रयोग किया गया
था।हिन्दू जनताको अपने उत्सव बनाने की मनाही थी। हिन्दुओं के गाँव के गाँवईसाई न बनने के कारणनष्ट कर दिए गये थे। सबसे अधिक अत्याचार ब्राह्मणोंपर किया गया था। सैकड़ों
मंदिरोंको तोड़ कर गिरिजाघर बना दिया गया था।कोंकण प्रदेश में भी पुर्तगाली ऐसे हीअत्याचार करने लगे थे।ऐसे में वह कीहिन्दू जनता ने तंग आकर बाजीराव से गुप्त पत्रव्यवहार
आरंभ किया और गोवाके हालात से उन्हें अवगत करवाया। मराठों ने कोंकण मेंबड़ी सेना एकत्र करली और समय पाकर पुर्तगालियों पर आक्रमण कर दिया। उनके एक एक करकई
किलोंपर मराठों का अधिकार हो गया। पुर्तगाल से अंटोनियो के नेतृत्व में बेड़ालड़ने आया पर मराठों के सामने उसकी एक न चली। वसीन के किले के चारों औरमराठों नेचिम्मा जी
अप्पा के नेतृत्व में घेरा दाल दिया था। वह घेरा कईदिनों तक पड़ा रहा था।अंत में आवेश में आकार अप्पा जी ने कहा की तुम लोगअगर मुझे किले में जीते जी नहींले जा सकते तो
कल मेरे सर को तोप से बांधकर उसे किले की दिवार पर फें क देना कम सेकम मरने के बाद तो मैं किले मैंप्रवेश कर सकूँ गा। वीर सेनापति के इस आवाहन से सेनामें अद्वितीय जोश
भरगया और अगले दिन अपनी जान की परवाह न कर मराठों ने जो हमलाबोला कीपुर्तगाल की सेना के पाँव ही उखड़ गए और किला मराठों के हाथ में आ गया। यहआक्रमण गोआ
तक फै ल जाता पर तभी उत्तर भारत पर नादिर शाह के आक्रमण की खबरमिली।

(शिवाजी 1627 ई. – 12- April 1680)ईऔरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियां, और मराठा संत कवियों की प्रेरणा महत्त्वपूर्ण करक हैं।प्रारंभ में मराठा, सिपहसलार और
मनसबदार के रूप में बीजापुर और अहमदनगर राज्य में नौकरी करते थे।मराठा संघ के उदय में राजाराम द्वारा मराठा सरदारों को जागीरें प्रदान करने के कदम का महत्वपूर्ण योगदान
था.शिवाजी का जन्म पूना के निकट शिवनेर के किले में 20 april, 1627 को हुआ था। शिवाजी शाहजी भोंसले और जीजाबाई के पुत्र थे।शिवाजी के संरक्षक और शिक्षक
कोंणदेव तथा समर्थ गुरु रामदास थे। 1656 ई. में रायगढ़ को मराठा राज्य की राजधानी बनाया।शिवाजी की बढती शक्ति से घबराकर औरंगजेब ने शाइस्ता खां को दक्षिण कागवर्नर
नियुक्त किया। शिवाजी ने 1663 ई. में शाइस्ता खां को पराजित किया।औरंगजेब ने शाइस्ता खां के असफल होने पर शिवाजी की शक्ति का दमन करने के लिए आमेर के मिर्जा
राजा जय सिंह को दक्षिण भेजा।।जयसिंह के नेतृत्व में पुरंदर के किले पर मुगलों की विजय तथा रायगढ़ कीघेराबंदी के बाद june1665 में मुगलों और शिवाजी के बीच पुरंदर की
संधि हुई।

दक्षिण में विजयनगर का हिन्दू साम्राज्यथा, जो शिवाजी के 100 साल पूर्व अस्तित्व में था। यह साम्राज्य दो सौ वर्षटिका। किन्तु इस राज्य की अवधारणा सीमित थी। हिन्दू जाति
एवं हिन्दुस्थानको समेटने वाली न थी। मुसलमान राजाओं के पास अ·श्व दल था। विजय नगर के राजाने सोचा कि अपने पास भी अ·श्व दल होना जरूरी है। उसने दो हजार
अरबीघुड़सवारों को अपनी सेना में दाखिल किया। ये अरबी घुड़सवार जब दरबार में आतेतो उन्हें भी प्रथा के अनुसार राजा को सलाम करना पड़ता था। इस्लाम के मतावलम्बियों ने
हिन्दू राजा को सलाम करना अवमानना ठहराया। राजा ने इसका भीइलाज ढूंढ निकाला।

आज हिन्दुत्व के नामपर यह हितोपदेश दिया जाता है कि यहां सभी उपासना पद्धतियों का आदर है।महिम्न स्तोत्र की यह पंक्ति-"रूचीनां वैचित्र्यात् ऋजुकु टिल नानापथजुषाम'- का
हवाला देकर यह कहा जा रहा है कि इस्लाम एवं ईसाई उपासना पद्धति से भीई·श्वर प्राप्ति हो सकती है।

औरंगजेब ने संभाजी महाराज का वध किया। लेकिन वह शिवाजी का राज्य समाप्तनहीं कर सका। बाद में शाहू को मुक्त कर दिया गया। औरंगजेब ने संभाजी का वधकर जो गलती की,
उसे उसने दोहराया नहीं। अपनी गलती सुधारी। कई साल तक वहशाहू का अभिभावक बना। शिवाजी महाराज के पोते छत्रपति शाहू ने पहले बाजीरावको मुगल पानशाही की रक्षा का
जिम्मा देते हुए कहा था-"हमने बादशाह औरंगजेबको वचन दिया है कि मुगल सत्ता पर संकट आने पर हम आपकी सहायता करेंगे।' लेकिन बाजीराव की मुसलमानों के प्रति धारणा
कु छ अलग ही थी। वह "मूले कु ठार' के पक्ष में था। बादशाही खत्म करने का शिवाजी महाराज का उद्देश्य अगली दोपीढ़ियों के मराठा सत्ताधारियों की आंखों से ओझल हो गया। बाद
में पानीपत मेंमराठा सरदार लड़े किन्तु वह लड़ाई हिन्दू राज्य के लिए नहीं की, अपितुअहमदशाह अब्दाली से दिल्ली के मुगल तख्त की रक्षा करने के लिए की गई।हिन्दुओं का कट्टर
शत्रु नजीब खान रोहिला को मल्हारराव होलकर ने अपनामानसपुत्र मानकर उसे अभय प्रदान किया।शिवाजी की हिन्दू राष्ट्र की अवधारणाही लुप्त हो गई। राज्य का विस्तार हुआ,
भगवा अटक से कटक तक फहरा, किन्तुदुर्भाग्य से हिन्दुत्व समाप्त हुआ और यथावकाश राज्य का भी अवसान हुआ।

4 फरवरी 1670 (तानाजी मालूसरे का सिंहगढ़ युद्ध)- ऋषि कौंडिन्या के बाद सिंहगढ़ किले को शुरू में “कोंढाणा” के नाम से में जाना जाता था। ईस्वी 1328 में दिल्ली के
सम्राटमुहम्मद बिन तुगलकने कोली आदिवासी सरदार नाग नायक से किले पर कब्जा कर लिया था।1649 में शहाजी महाराज को आदिल शाह के कै द से छु ड़ाने के लिए उन्हें इस
किले को आदिल शाह को सौपना पड़ा।

1670 में, तानाजी, जो महाक, कोंकणके पास "उमरथ" से थे, अपने बेटे, रायबा की शादी की तैयारी में व्यस्त थे, जब उन्हें शिवाजी ने एक बैठक के लिए बुलाया। तानाजी ने
शादी की योजना कोताक पर रख दिया और तुरंत बैठक के लिए चले गए। मुगलों से पुणे के पास कोंधनाकिले को फिर से प्राप्त करने की शिवाजी की योजना को सुनने के बाद,
तानाजीने अभियान की कमान संभाली और अपनी तैयारी शुरू कर दी।

किले के पायदान तक पहुँचने पर, तानाजी और उनकी 300 टुकड़ियों की टुकड़ी ने कहा थाकि एक अंधेरी रात में पश्चिमी बंगाल की ओर से किले को एक घरेलू बंगालमॉनिटर
छिपकली (जिसे मराठी में घोरपाद कहा जाता है) की मदद से यशंती नामदिया गया था। "यशवंती"गोह वह रस्सी मुह में दबाकर सीधी दीवार पर चढ़ गई और ऊपर जाकर मजबूत
बुर्जीको फे रा देकर नीचे आ गई. इस प्रकार "यशवंती" गोह ने कई रस्से ऊपर पहुंचादिए. उन रस्शों के सहारे कु छ सैनिक बड़ी खामोशी के साथ किले पर चढ़ गए औरउन्होंने कई
सारे और रस्से मजबूत स्थानों पर बांधकर नीचे लटका दिए.उन्होंने उस प्रशिक्षित गोह को एक रस्सी पकड़ाकर, उसे ऊपर बांधकरआने को कहा.
किले का नियंत्रण मुगल सेनापति जय सिंह प्रथम द्वारा नियुक्त राजपूत अधिकारी उदयभान राठौड़ ने किया था।
तानाजी और उदयभान की सेनाओं के बीचभयंकर युद्ध हुआ। लड़ाई के दौरान, तानाजी ने अपनी ढाल को तोड़ दिया लेकिनउन्होंने उदयभान के वार को रोकने के लिए अपने बचाव
के लिए अपने ऊपरी वस्त्रको बांधकर लड़ाई जारी रखी। किले को अंततः जीत लिया गया था, लेकिन इसप्रक्रिया में, तानाजी गंभीर रूप से घायल हो गए और युद्ध के मैदान मेंलड़ते
हुए मर गए।

संभाजी महाराजकी मृत्यु के बाद, मुगलों ने किले का नियंत्रण पुनः प्राप्त किया। “सरदारबलकवडे” की अध्यक्षता में मराठों ने 1693 में इसे पुनः कब्जा कर लिया।इसके बाद अंग्रेजों
ने इसे जीत लिया। इस किले पर कब्जा करने के लिएअंग्रेजों ने 3 महीने का समय लगा, उन्हें महाराष्ट्र में कोई किला जीतने के लिए इतना समय नहीं लगा।

इस किले के भीतर "वीर तानाजी" और शिवाजी महाराज के एक पुत्र "राजाराम जी"की समाधि बनी हुई है.
किले में काली माँ और हनुमान जी की भव्य मूर्ति हैजिनको इस किले का रक्षक माना जाता है. यह किला "खादकवासला : राष्ट्रियसुरक्षा अकै डमी" का ट्रेनिंग स्थल भी है. इस
किले में मांस मदिरा पूरी तरहसे बर्जित है.
कहा जता है कि- अंग्रेजों ने हिन्दुओं की मान्यताओं को नकारते हुए किले मेंशराब की भट्ठी बनाई थी और गौ हत्या भी की. परन्तु अचानक कु छ ऐसी घटनाएं /दुर्घटनाए हुई कि-
अंग्रेजो ने भी किले में मांस / मदिरा पर प्रतिबन्ध लगादिया और शराब भट्ठी को बंद कर दिया. शराब की उस भट्ठी के अवशेष आज भी किलेमें मौजूद हैं.

शंभाजी (1680 ई. से 16 89 ई.)

राजाराम (1689 ई. से 1700 ई.)

शाहू (1707 ई. से 1748 ई.)

पेशवाओंके अधीनमराठासाम्राज्य- शिवाजीमराठा के आखिरी राजा साहू जी महाराज ने पेशवा पद कि स्थापना कि थी| जो कि वाजीराव प्रथमसेप्रारंभ हुयी| पेशवा कभी कोई लड़ाई
नहीं हारे|

बालाजीविश्वनाथ (1713 ई. से 1720 ई.), उसने मुगलोँ की राजधानी मेँ अपनी एक बड़ी सेना भेज कर सैय्यद बंधुओं कीसहायता की थी, जो मुगल इतिहास मेँ
‘किं गमेकर’ के रुप मेँ प्रसिद्ध हैं।इतिहासकार टोपल ने मुग़ल सूबेदार हुसैन अली तथा बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719 मेँ हुई संधि को मराठा साम्राज्य के मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी
है।

बाजीरावप्रथम (1720 ई. – 1740 ई.) - बालाजीबाजीराव (1740 ई. – 1761 ई.)- माधवराव (1761 ई. – 1772 ई.)  - नारायणराव (1772 ई. – 1774
ई.)-

माधवनारायण (1774 ई. – 1796)  17 May1782 कोसालबाईकीसंधिद्वारा प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हो गया। यह संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कं पनी और मराठा
साम्राज्य के बीच हुई थी।टीपू सुल्तान को 1792 मेँ तथा हैदराबाद के निजाम को 1795 मेँ परास्त करने के बाद मराठा शक्ति एक बार फिर पुनः स्थापित हो गई।

बाजीरावद्वितीय (1796 ई. से- 1818 ई.)- बाजीराव द्वितीय द्वारा पूना प्रदेश को अंग्रेजी राज्य मेँ विलय कर पेशवा पद को समाप्त कर दिया गया।पेशवाओं ने विधवा के
पुनर्विवाह पर ‘पतदाम’ नामक कर लगाया था।

1752-Marathas sign the historic Badshah agreement.The Marathas became protectors of Hindusthan from
foreign powers. By virtue of this agreement, they get absolute political right to collect Chauth from Cuttack to
Attock and Kashmir to Kanykumari.

By October 1758, the Marathas, along with the Mughals and Sikhs, commenced their march westwards. Adina Beg
Khan, a Mughal officer supported them and was appointed the Governor at Lahore.

A nephew of Abdali named Abdur Rehman went to Pune where he met the Peshwa. Nanasaheb promised him
support and sent him back to Raghunath rao with instructions to give him charge of the captured territories on their
behalf. Meanwhile, Attock was captured and crossing the Indus, Maratha armies under Tukoji Holkar and Sabaji
Scindia reached Peshawar from where the last vestiges of the Afghans were evicted.

Map of modern day Pakistan that shows Peshawar , Attock is 98 kms away.
Najib Khan Rohilla - होलकर ने Najib Khan Rohilla को अपना भतीजा बनाया . Najib Khan Rohilla n few other princess invite
Abdali for another raid n end “Kafir” Maratha rule in North Hindusthan..Ahmed Shah Abdali raids
Hindusthan once again on call of Najib Khan for religious war. In battle near Burari Ghat, north of Delhi, the
Rohillas defeat Marathas.

10 January,1760 was Martyrdom day of Dattaji Shinde (Scindhia),Hindu Warrior n guardian of North Hindusthan
for d Maratha Empire.The death of Dattaji Shinde was a huge blow to the Maratha Empire.

Death of Dattaji forced Nanasaheb to send his cousin brother Sadshivrao Bhau, son of Chimaji Appa along with
about 70 thousand fighting force and civilians to North India for defeating Abdali.

1740 - शमशेर बहादुर प्रथम (उर्फ कृ ष्णा रावउर्फ कृ ष्णासिंह) (१७३४ - १७६१) उत्तरी भारत मेंकालपीऔरबांदाके एक मराठा शासक थे। वह पेशवाबाजीराव प्रथमऔर उनकी
दूसरी पत्नीमस्तानीके पुत्र थे | बुंदेलखंडके हिंदू राजाछत्रसालऔर उनकी एक फारसी मुस्लिम पत्नी रुहानी बाई की बेटी मस्तानी से पेशवाबाजीराव प्रथम ने शादी की। पेशवा परिवार
और पुणे के ब्राह्मणों ने इस शादीको स्वीकार नहीं किया1761 में पानीपत के तृतीय युद्ध में लड़ने के लिए शमशेर बहादुर ने भी मराठासेना को समर्थन किया और वह भी पानीपत के
तृतीय युद्ध में अहमद शाह के खिलाफ लड़ने के लिए पानीपत पहुंचे जहां उन्हें काफी घाव हो गए और 14 january 1761 को युद्ध से भाग निकले और दीग में आते-आतेउनकी
मौत हो गई ।

१८१७ में यहाँब्रिटिश राजने कब्जा कर लिया। तब ब्रिटिशों ने इस राज्य के शासक की वार्षिक पेंशन ४ लाख रुपये कर दी थी।अली बहादुर द्वितीयने अंगेजो के खिलाफ लडाई लडी
1857 में|

Often considered as a victim of discrimination and unfair treatment, this hero endured a lot of difficulties in his
life while proving loyal to the Maratha Empire to which his father served as the Peshwa.

Bajorao wanted his son Shamsher Bahadur to be brought up as a Hindu. At birth, he was named Krishna Rao.
However, Bajirao’s mother Radhabai was always hostile to Mastani and her child and therefore wished to maintain
the boy’s Muslim identity. Due to this, she renamed him as Shamsher Bahadur. He was never accepted into the
portals of the Hindu family and therefore was subjected to discriminatory treatment from the elders.

The growing hostility between Mastani and the family members of Peshwa posed a severe threat to her life.
Therefore, Bajirao made a separate palace for her in the campus. However, in the absence of Peshwa, Mastani was
house arrested. Due to several conspiracies and murder attempts on his mother going on in the palace, Shamsher
Bahadur’s childhood remained very unhappy and disturbed.

Bajirao I died in the year 1740 near Delhi. Both Mastani, the mother of Shamsher Bahadur and Kashibai attended
the last rites. Mastani either plunged into the pyre of her husband or consumed poison and succumbed to death
following the Peshwa. Shamsher Bahadur, an orphaned child at the age of six was then fostered by Kashibai along
with her own sons.Shamsher Bahadur was given a portion of his father’s dominion namely Banda and Kalpi to rule
over

“बाजीराव-मस्तानी के चार वंशजों में शामिल अवैज बहादुर (49) ने कहा, ‘‘भंसाली की फिल्म का प्रोमो और गाने के सामने आने के बाद हमें पता चला “

सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हाररावहोलकर ने काशी विश्‍वनाथ मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 August1770 ई. में महादजी
सिंधियाने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने काआदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कं पनी का राज हो गयाथा
इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया।

महाराजा सूरजमल ( 1707-1763 ) भरतपुरराज्यके दूरदर्शीमहाराजाथे। उनके पिता बदन सिंह नेडीगको सबसे पहले अपनी राजधानी बनाया और बाद में सूरजमल ने भरतपुर
शहर की स्थापना की। सूरजमल ने सन्१७३३में खेमकरण सोगरिया की फतहगढी पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त कर यहाँ१७४३में भरतपुर नगर की नींव रखी जो
सन्१७५३से उनका निवास हुआ। जयपुर राज के जागीरदार थे।मई १७५३ में महाराजा सूरजमल नेफिरोजशाह कोटलापर कब्जा कर लिया। दिल्ली के नवाब गाजी-उद-दीनने फिर
मराठों को सूरजमल के खिलाफ भड़काया और फिर मराठों ने JANUARAY 1754 से MAY 1754 तक भरतपुर जिले में सूरजमल के कु म्हेर किले को घेरे रखा। मराठे
किले पर कब्जा नहीं पर पाए और उस लड़ाई मेंमल्हार रावका बेटाखांडे राव होल्करमारा गया। मराठों ने सूरजमल की जान लेने की ठान ली थी परमहारानी किशोरीने सिंधियाओं की
मदद से मराठाओं और सूरजमल में संधि करवा दी।
देशद्रोही नजीब ने उस समय वजीर गाजीउद्दीन खां और मराठों के कोप से बचने के लिए अब्दाली को हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए सन् 1759 में पुनःआमंत्रित किया था।
पानीपत के अंतिम युद्ध से पूर्व बरारी घाट के युद्ध मेंमराठों की प्रथम पराजय के बाद सूरजमल के कट्टर शत्रु वजीर गाजीउद्दीनखां नेभी भागकर जाटों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया
था। वेंदेल के अनुसार 'मुगलअहंकार की इतनी कठोर और इतनी सटीक पराजय इससे पहले कभी नहीं हुई थी'।वस्तुतः मुगल सत्ता का गर्वीला और भयावह दैत्य धराशायी हो चुका
था

बाद में 1760 मेंसदाशिव राव भाऊऔर सूरजमल में कु छ बातों पर अनबन हुई थी।मथुराकी नबी मस्जिद को देखकर भाऊ ने गुस्से में कहा - सूरजमल जी, मथुरा इतनेदिन से
आपके कब्जे में है, फिर इस मस्जिद को आपने कै से छोड़ दिया? सूरजमलने जवाब दिया - अगर मुझे यकीन होता कि मैं सारी उम्र इस इलाके का बादशाहरहूंगा तो शायद मैं इस
मस्जिद को गिरवा देता, पर क्या फायदा? कल मुसलमानआकर हमारे मंदिरों को गिरवायें और वहीं पर मस्जिदें बनवा दें तो आपको अच्छालगेगा? बाद में फिर भाऊ नेलाल किलेके
दीवाने-खास की छत को गिरवाने का हुक्म दिया था, यह सोच कर कि इस सोनेको बेचकर अपने सैनिकों की तनख्वाह दे दूंगा। इस पर भी सूरजमल ने उसे मनाकिया, यहां तक
कहा कि मेरे से पांच लाख रुपये ले लो, पर इसे मत तोड़ो, आखिरनादिरशाहने भी इस छत को बख्श दिया था। पर भाऊ नहीं माना - जब छत का सोना तोड़ा गयातो वह मुश्किल
से तीन लाख रुपये का निकला। सूरजमल की कई बातों को भाऊ नेनहीं माना और यह भी कहा बताते हैं - मैं इतनी दूर दक्षिण से आपकी ताकत के भरोसे पर यहां नहीं आया हूं

, exactly 252 years ago. Forces of the Maratha confederacy had measured swords with Afghan raiders of Ahmad
Shah Abdali. On that winter afternoon in 1761, 40,000 Maratha troops were cut down in the killing fields of Panipat
while countless camp followers were slain by Afghan soldiers hunting for war spoils.

At Delhi, Najib Khan Rohilla was captured by the Marathas. However, not realising his potential for mischief,
Holkar let him off when the Rohilla said that he was like a son.

January 14 - 1761 (Makar Sankranti) मेंपानीपत की तीसरी लड़ाईमराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई।पानीपत के तीसरे युद्ध 14 जनवरी 1761
में जब मराठे युद्ध हार गए थे, तबअहमदशाह अब्दाली के डर से देश के किसी राजा ने उनकी मदद नहीं की।On that winter afternoon in 1761, 40,000
Maratha troops were cut down in the killing fields of Panipat while countless camp followers were slain by Afghan
soldiers hunting for war spoils.The north Indian cold definitely played a part in the Maratha debacle at Panipat.
The army wasn’t sufficiently provisioned to beat the chill. In comparison, the Afghans came from a colder climate
and could easily fight in the Indian winter. But I think, it was the dwindling supplies that seriously impaired the
Marathas’ ability to fight. With Abdali crossing the Yamuna at Baghpat on October 25, 1760, the Marathas found
the enemy right at their back, blocking their access to Delhi and the rest of Hindustan. The Afghans, too, found the
Marathas blocking their route to Kabul; but they had allies in Najib Khan Rohilla and Shuja ud-Daulah, who took
care of supplies and commissariat . heir last hope, Govind Pant Bundele, who led lightning forays to cut off Afghan
supplies, was intercepted and killed मराठों के एक लाख सैनिकों में सेआधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें
भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिवराव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग मेंसाझीदार बनाता, तो आज
भारत की तस्वीर और ही होती| महाराजा सूरजमल ने फिर भीदोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगेतो सूरजमल के इलाके में
पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मीहालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी मेंभी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे।
दस दिन तक सूरजमल नेंउन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजामकिया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि
इक्ट्ठा किया। सुनाहै कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमीको एक रुपया, एक सेर अनाज और कु छ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का
खर्चनिकाल सकें । कु छ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे औरउन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएंवापस नहीं गईं। बाद
में वे परिवार हरयाणा की संस्कृ ति में रम गए।महाराष्ट्र में 'डांगे' भीजाटवंशके ही बताये जाते हैं औरहरयाणामें 'दांगी' भी उन्हीं की शाखा है।

मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जरके इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेजयुद्धभूमि ही है। 25
December1763 को नवाब नजीबुदौला के साथ युद्ध मेंमहाराज सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए।

मुगलों से दिल्ली जीतने वाले एक मात्र हिन्दू राजा थे। उनके खौफ के कारण हीमुगल बादशाहों ने अपने राज्य में हिंदुओं की आस्था का कें द्र बने पीपल के पेड़ को काटने और गाय
काटने पर प्रतिबन्ध लगाया था।सूरजमलका मुगलों में इतना खौफ था कि उनके नाम से ही उनकी नींद उड़ जाया करती थी।उनके नाम का मुगलों में कितना डर था तब एक कहावत
प्रचलित हुई थी-
'तीर चले तलवार चले, चाहे इशारे से, अल्लाह अबकी बार बचाए जाट भरतपुर वारे से'
सूरजमल ने दिल्ली के मुस्लिम शासक बख्शी सलामत खान को मेवात के युद्ध, 1 January1750 में हरादिया। सलामत उस वक्त मेवात में हिंदुओं को जबरन इस्लाम स्वीकार
करा रहा था।हारे हुए सलामत से सूरजमल शर्तें रखीं, जिनको मजबूर होकर मीरबख्शी नेस्वीकार कर लिया -
(1) मीरबख्शी की रियासत में कोई भी व्यक्ति उनके प्रदेश में पीपल का वृक्ष नहीं काटेगा, न ही गाय को काटा जाएगा।
(2) क्षेत्र के किसी भी मन्दिर का अपमान नहीं किया जायेगा, न हिन्दुओं की उपासना के सम्बन्ध में किसी तरह की कभी आपत्ति की जायेगी।
एकबार अहमद शाह नाम के मुगल ने हिन्दुओ को काटते हुए मथुरा की और आगे बढ़रहा था, तब उसको सूरजमल ने बल्लबगढ़ और मथुरा के चोमुहा में चुनौती दी।जहां पर उसको
धूल चटा दी। अहमदशाह अब्दाली के साथ युद्ध में महाराजा सूरजमलके 5000 सैनिक शहीद हुए, लेकिन सूरजमल जीते और अब्दाली से हज़ारोंब्राह्मण और लड़कियों को मुक्त
करवाया गया। इसका वर्णन प्रो. गेंडासिंहराजपूत ने अपनी किताब अहमद शाह अब्दाली में किया है।
महाराजासूरजमल के नेतृत्व में ही 9 MAY से 4 JUNE1753 के बीच जाटों ने मुगलों के कब्जे वाली पुरानी दिल्ली को खूब लूटा। जिसका कारण वज़ीर सफरजंग
द्वाराहिन्दुओं की लड़कियों को उठा लेना जाना था।

मध्यकालीन भारत में मुख्य रूप से तीनही शक्तिशाली साम्राज्य थे जो किसी भी विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लेसकते थे .ये थे राजपूत ,मराठा और जाट.लेकिन दिक्कत ये थी
कि इन तीनों मेंहमेशा एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी रहती थी. इसका फायदा उठाकरविदेशी आक्रमणकारी भारत में घुस आते थे और मनचाही लूट मचा देते थे.
शक्तिका ये संतुलन तब बिगड़ा जब राजपूत और जाट एक हो गए जिसका नतीजा ये निकला कीमराठा साम्राज्य ख़त्म हो गया .पानीपत की लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली औरमराठों
के बीच जो युद्ध हुआ उसकी हार ने मराठा साम्राज्य की कमर तोड़ दी.आखिर क्या वजह थी की अब्दाली के विरोधी होने के बावजूद मराठों ने जाटों औरराजपूतों का समर्थन नहीं
लिया .इसके पीछे एक बड़ी दिलचस्प कहानी है
माधो सिंह अपने राज्य का विस्तारकरने में लग गया और राजा ईश्वरी सिंह के लिए खतरा बनने लगा। ऐसे में राजाईश्वरी सिंह को जाट राजा सूरजमल की याद आई और उन्होंने
उनसे मदद के गुहारलगाईं. सूरज-मल्ल जाट  10000 जाट सैनिकों के साथ मदद के लिए आ पहुंचे. जैसे ही सूरजमल जयपुर पहुंचे, उन्होंने राजा ईश्वरी सिंह के साथ मिलकर
मराठा-पेशवा के साथ हुआ समझौता संधि-पत्र फाड़ कर फिं कवा दिया।
इस हिमाकत की सुन मराठा पेशवाओंका लहू खौल उठा और मल्हार राव होल्कर की अगुवाई में 80000 धुरंधर मराठासैनिकों को भेज दिया।  ब्राह्मण-पेशवाओं ने महाराजा
सूरजमल की मान ली होती तो तीसरा मैदान-ए-पानीपत हिन्दुस्तानियों के नाम रहता।

हकीकत राय (1719-1743 (बंसत पंचमी) -

पंजाब के सियालकोट में सन् 1724 में जन्‍में वीर हकीकत राय जन्‍म से हीकु शाग्र बुद्धि के बालक थे। यह बालक 4-5 वर्ष की आयु में ही इतिहास तथासंस्कृ तआदि विषय का
पर्याप्‍त अध्‍ययन कर लिया था। क्चमुगल काल में उस समय सरकारी कामकाज की भाषा फारसी और व्यापारियों की भाषा महाजनी थी।| 10 वर्ष की आयु मेंफारसीपढ़ने के लिये
मौलबी के पास मस्जिद में भेजा गया,वहॉं के मुसलमान छात्रहिन्‍दू बालको तथा हिन्‍दू देवी देवताओं को अपशब्‍द कहते थे।पढऩे में तेज होने के कारण मुस्लिम विद्यार्थी उससे ईष्र्या
करने लगे। एकदिन घर में धार्मिक अनुष्ठान के बाद माथे पर तिलक लगाकर जब हकीकत राय मदरसेमें गया तो मुस्लिम बच्चे उसकी खिली उड़ाने लगे और देवी भगवती के बारे
मेंअपशब्द कहे। इस पर गुस्से में आकर हकीकत राय ने भी उसे मुंह तोड़ जवाब देदिया।बालक हकीकत उनसब के कु तर्को का प्रतिवाद करता और उन मुस्लिम छात्रों को वाद-विवाद
मेंपराजित कर देता। एक दिन मौलवी की अनुपस्थिति में मुस्लिम छात्रों ने हकीकतराय को खूब मारा पीटा। बाद में मौलवी के आने पर उन्‍होने हकीकत की शियतक करदी कि इसने
बीबी फातिमा को गाली दिया है। यह बाद सुन कर मौलवी बहुत नाराजहुऐ और हकीकत राय को शहर के काजी के सामने प्रस्‍तुत किया। बालक के परिजनोंके द्वारा लाख सही बात
बताने के बाद भी काजी ने एक न सुनी और निर्णयसुनाया कि शरियत के अनुसार इसके लिये मृत्युदण्ड है या बालक मुसलमान बनजाये।

बालक हकीकत को खूंखार अपराधियों की तरह हथकडिय़ां डालकर सख्त पहरे में लाहौरले जाया गया। मां-बाप, सगे संबंधी सब साथ चल रहे थे। सिपाही घोड़ों पर औरहकीकत
नंगे पांव चल रहा था। लोगों पर हुकू मत का डर बैठाने के लिए रास्तेमें हकीकत राय पर सख्ती की जाती रही और वे शांत रहा। लोग बालक की यह हालतदेखकर खून के आंसू रो रहे
थे।दिनों के सफर के बाद लाहौर के नवाब जकरिया खां के सामने हकीकत को पेश किया गया।

माता पिता व सगे सम्‍बन्धियों के कहने के यह कहने के बाद कि मेरे लालमुसलमान बन जा तू कम से कम जिन्‍दा तो रहेगा। किन्‍तु वह 14 साल काबालक अपनेनिश्‍चय पर अडि़ग
रहा और [[बंसत पंचमी सन 1734 को जल्‍लादों ने उसे फॉंसीदे दी।

1947 मेंभारत के विभाजनसे पहले, हिन्दू बसंत पंचमी उत्सव परलाहौरस्थित उनकी समाधि पर इकट्ठा होते थे। विभाजन के बाद उनकी एक और समाधिहोशियारपुर जिलाके
"ब्योली के बाबा भंडारी" में स्थित है। यहाँ लोगों बसंत पंचमी के दौरान इकट्ठा हो कर हकीकत राय को श्रद्धा देते हैं।

सन् 1733 से 1782 तक राजा रंजीत देवने जम्मू पर शासन किया किं तु उनके उत्तराधिकारी दुर्बल थे, इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू को पंजाब मेंमिला लिया।सुदूर
उत्तर में कश्मीर के महाराजा की सत्ता कराकोरम पर्वत श्रेणी तकफै ली हुई थी। उत्तर में अक्साई चिन और लद्दाख भी इस राज्य के अंतर्गत था।

महाराजा रणजीत सिंह(13 November1780)- महाराजा रंजीत सिंह जी के झंडे में शूरता की प्रतीक चंडी देवी, बल औरब्रह्मचर्य के प्रतीक वीर हनुमान बजरंग बली और
शत्रुओं को रुलाने वाले कालभैरव का चित्र अंकिता था। अफगानिस्तान के शासक शाहशुजा ने महाराजा रंजीतसिंह के समक्ष अपने राज्याधिकार को वापिस दिलाने की जब अपील
की थी तबमहाराजा रंजीत सिंह जी ने दो शर्तें उनके समक्ष रखी थी। पहली की वे अपनेराज्य में गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाए। दूसरी की सोमनाथ मंदिर से लूटे गएविशालकाय कवाड़
वापिस किये जाये। रणजीत सिंह जी ने जहां अमृतसर के स्वर्णमंदिर को स्वर्ण से मंडित किया था वहीं पूरी के जगन्नाथ मंदिर और बनारस के विश्वनाथ मंदिर को दान देकर अपने
कर्त्तव्य का निर्वाहन भी किया था।
सैनिको ने कहा - नमक का भी क्या मूल्य देना।तभी महाराजा ने कहा तत्काल नमक का मूल्य दे कर आओ। यदि राजा मुफ्त मे नमक लेगा तो उसके सिपाही तो पूरा गाँव ही लूट
लेंगे।
रणजीत सिंह पर 13 साल की कोमल आयु में प्राण घातक हमला हुआ था। हमला करनेवाले हशमत खां को किशोर रणजीत सिंह ने खुद ही मौत की नींद सुला दिया।

27 जून को उनकी पूण्यतिथि पर पाकिस्तान में लाहौर में महाराजा रणजीत सिंहकी मूर्ति लगाने का मौलवियों ने बहुत अधिक विरोध किया।मौलवियों ने कहा किहम महमूद गजनवी
की विरासत मानते हैं रणजीत सिंह की नहीं।

9. नादिरशाहअब्दालीऔर अहमद शाह अब्दाली (300,000 Indians)


Nadir Shah Abdali in 1729 AD and Ahmed Shah Abdali in 1747-61 AD
१७३९ में जबनादिर शाहने दिल्ली पर चढ़ाई की तो इस दरवाजे के पास काफ़ी खून बहा।[2]लेकिन कु छ सूत्रों के अनुसार यह खून-खराबाचाँदनी चौकके दड़ीबा मुहल्ले में स्थित इसी
नाम के दूसरे दरवाजे पर हुआ Ahmed Shah Abdali also known as Ahmed Shah Durrani is considered as father of
Afghanistan.

ईरान के दुर्दांत शासक नादिरशाह ने भारत पर कई आक्रमण किये और यहाँ की संपत्ति को लुटा। नादिरशाह के दिल्ली आक्रमण के समय मुगल बादशाह मुहम्मदशाह शासक था जिसे
मुहम्मद शाह रंगीला भी कहते थे। मुहम्मद शाह अपनी अय्याशी के लिए प्रसिद्ध था। मुहम्मद शाह को नादिरशाह ने करनाल के युद्ध में हराकर दिल्ली में प्रवेश किया और भयानक
नरसंहार करते हुए उसने दिल्ली को लुटा। उसने प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा और लाल किले का तख़्त ए हाउस भी लुट लिया और अपने साथ ईरान ले गया। बाद में वह कोहिनूर हीरा
अंग्रेजो के पास पहुँच गया था जो महारानी एलिजाबेथ के हार में गढ़ा गया था।अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का एक योग्य सेनापति था।  इन दोनों आक्रमणों ने हिन्दुस्तान को
हिलाकर रख दिया। असंख्य नगरों और राज्यों को लूटा गया, अनगिनत मनुष्यों को मौत के घाट उतार दिया गया। स्त्रियों की आबरू लूटी गई, और न जाने कितनी ही स्त्रियों को
आक्रमणकारी अपने साथ ले गये।
अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण ने मथुरा, वृन्दावन और आगरा को बुरी तरह से बर्बाद कर दिया। भारत पर अहमदशाह अब्दाली के सात आक्रमण हुए थे।
। मराठों की इस चुनौती को तोड़ने के लिए अहमदशाह अब्दाली को पुनः भारत आना पड़ा। 14 january, 1761 को
Nanasaheb Peshwa decided to send his brother Raghnath rao to North to drive out Abdali out #Panipat3 .Raghunath
rao join Shindes n Malharrao Holkar who were in central Hindusthan to fight abdali n secure Punjab.
28th April, 1758-Marathas win battle of Attock against Abdali’s Durrani forces.The saffron flag is hoisted on
Attock fort on Afghanistan border. Raghunathrao left Punjab after three months appointing Maratha Sardar
Narsoji Pandit with 4000 Maratha troops 2 guard d fort from Afghans.
It was the battle between 80000 low on food Marathi Soldiers V over One lakh well fed Indo Afghan alliance
of Muslim Soldiers.

अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ।पेशवा का पुत्र 'विश्वासराव' और 'सदाशिवराव' दोनों में मारे गये।फलस्वरूप मराठों की पूर्णतः पराजय हुई।
अहमदशाह अब्दाली का छठा आक्रमण 1767 में सिक्खों को सज़ा देने के उदेश्य से हुआ था। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति बढ़ा ली थी। लाहौर के  अफ़ग़ान गर्वनर 'ख़्वाजा
आबिद' को भी उन्होंने मार दिया था। अब्दाली का सातवाँ आक्रमण march, 1767 में हुआ था परन्तु यह आक्रमण असफल रहा, क्योंकि वह सिक्खों को कु चल नहीं पाया।

Abdali who had to run back to Afghanistan was called back by Najeeb and Shuja in the name of "Islam"by July
1760.

Marathi forces camped on banks of Yamuna. Abdali crossed the river n succeeded in cutting the supplies of
Marathi forces. Marathi forces ran out of food completely by December end. Cattle started dying.
Frustrated by resistance, Abdali tried to negotiate terms with Sadashivrao Bhau. Najeeb Khan prevented Abdali
from doing so.
n the battle day, initial Marathi attack was led by Ibrahim Khan Gardi and his Artillery forces.First 2-3 hours it was
Ibrahim's artillery all the way. Durani was stunned and shaken by this unexpected attack. 8000 Gardi Forces killed
over 10000 Afghan soldiers in first Attack.
Morally boosted Bhau committed the mistake here. He forwarded his Horsemen for fatal attack.Sun was straight
ahead. The starved Horses couldn't run properly. Many collapsed midway.
Till 12 it was Marathi forces all the way. All Marathi leaders were on the battlefield leading from the front.There
were NO reserved forces in Marathi Army.
A gun shot took down Vishwasrao.Stunned by the death of Vishwasrao, Bhau got down from the elephant, took a
horse and penetrated into the Abdali forces.Unable to see the Leaders, and fearing attack from back side, Marathi
forces were shocked and began to flee.
Gardi forces were surrounded by Abdali's reserved army. They fought till last drop of blood. Remained loyal to
Peshwas.Forces of Gaikwad, which were assigned to Guard Gardi artillery, in excitement left them and joined the
main battle

Ibrahimkhan was captured alive. Jankoji Shinde, Samsherbahaddar - Son of Bajirao-Mastani, Sadashivrao died
fighting. Mahadji Shinde, though lost his leg, succeeded in fleeing. He later successfully led the revenge forces of
Madhavrao.

Ibrahimkhan Gardi was brutally murdered on the 14th Night in Abdali camp for refusing to SELL his
loyalty.Surajmal Jat was REWARDED by Abdali for NOT participating in the battle or helping Marathi
Forces.But the civilians in Surajmal's territory offered shelter to Marathas.

Marathi Forces recaptured Delhi within 10 years under the leadership of Madhavrao Peshwa.
Marathas lost over One Lakh people.Madhavrao I, who became Peshwa after the demise of Nanasaheb, covered all
the financial losses in 10 years.

30 days after the war, Abdali came to Delhi and leftThe only big impact of war was that Hindus lost Punjab
forever apart from loss of life.

Sadshivrao Bhau does not have any memorial named after him in Maharashtra. But is still remembered and
adored as a savior in Haryana

Abdali writes in his victory declaration "The shaitan like Vishwas rao's head was cut and Bhau, the leader of
the KAFIR dogs and one with poor destiny was caught under the Ghazis horses.This victory is extremely
special of all of Islam"

अपने पिता की तरह अब्दाली ने भी भारत पर सन् 1748 से 1758 तक कई बार आक्रमणकिए और लूटपाट, मारकाट और धर्मान्तरण करके अपार धन संपत्ति को इकट्ठाकिया।
(22,000 HINDU)
सन 1757 में january के माह में दिल्ली पर किया। उसने अब्दाली सेबहुत ही शर्मनाक संधि की, जिसमें एक शर्त दिल्ली को लूटने की अनुमति देनाभी था। अहमदशाह एक माह
तक दिल्ली में ठहरकर लूटमार और कत्लेआम करता रहा।उसके बाद अहमदशाह ने अपने पठान सैनिकों को मथुरा लूटने और हिन्दुओं के सभीपवित्र स्थलों को तोड़ने के साथ ही
हिन्दुओं का व्यापक पैमाने पर कत्लेआमकरने का आदेश दिया। उसने अपने सिपाहियों से कहा प्रत्येक हिन्दू के एक कटेसिर के बदले इनाम दिया जाएगा।
जब नादिर शाह ने दिल्ली पे कब्ज़ा किया था तो जामा मस्जिद के ऊपर चढ़कर एक तलवार छत पर गाड़ दी थी और अपने जिहादियों को हुक्म दिया कि जब तक ये तलवार ना उठे,
क़त्ल-ए-आम ना रुके
और रुका भी नहीं ।अहमद शाह अब्दाली जब लाहौर से निकला तो ये हुक्म दिया की वापिस आऊं तो शहर के चारो तरफ छकड़ों में नरमुंड का सैलाब हो और ये हुआ भी|

भद्रकाली हिंदू मंदिरजामा मस्जिद 1424 सीई के दौरान अहमदाबाद (मूलतः कर्णावती) में अहमद शाहद्वारा बनाया गया था, मूलतः देवी भद्रकाली का एक हिंदू मंदिर है।
अहमदाबादशहर का मूल नाम भिन्न-भिन्न युगों में भद्र, कर्णावती, राजनगर और असवल था। 7 वीं सदी से 16 वीं शताब्दी के रूप में शुरू होने पर, भारत को अनगिनतइस्लामी
आक्रमणकारियों पर हमला किया गया, जिन्होंने धन को लूट लिया औरमध्यस्थता हॉल, हिंदू मंदिर, वैदिक अनुसंधान कें द्र, संस्कृ त गुरुकु ल औरविश्वविद्यालयों सहित कई विरासत
स्थलों को नष्ट कर दिया।भद्रा का नाम देवी के बाद किया गया था, जिसका मंदिर राजपूत परमार नेमालवा (राजस्थान) के राजाओं द्वारा बनाया था, जिन्होंने इस क्षेत्र को 9 वीं
-14 वीं शताब्दी के बीच शासन किया था और हम किसी भी धर्म या संस्कृ ति के लिए किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से यह नहीं कह रहे हैं,

The name of Bhadra was done after the Goddess, whose temple was built by Rajput Parmar kings of Malwa
(Rajasthan), who ruled this region during the 9th-14th century and we can not do any religion or culture for any It’s
not saying by type bias,

कुं डलिनी, खगोलीय नर्तकियों और घंटियों का प्रतिनिधित्व करने वाले फू लोंऔर पेसली रूपांकनों, कमल के फू लों और लताएं, मंडल, हाथियों, तार वालेसांपों की तंतुओं की
नक्काशियां, मंदिर के परिसर की रेखा के 100 से अधिकजीवित खंभे पर उत्कीर्ण होती हैं।यदि यह मूल रूप से सामूहिक प्रार्थना के लिए एक बड़े हॉल के साथ अहमदाबाद को
मुजफ्फरदाय वंश के अहमद शाह 1 के नाम पर रखा गया था जिन्होंने 1411 में कनवती पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने गुजरात सल्तनत की नई राजधानीके रूप में अहमदाबाद
की स्थापना की और साबरमती नदी के पूर्वी तट पर भद्राकिला बनाया।निर्मित एकमस्जिद माना जाता है, तो बीच में इतने सारे खंभे होने का क्या उद्देश्यहोगा?

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Jama Masjid was builtby Ahmad Shah in Ahmedabad (originally in Karnavati) during 1424 CE, originally a Hindu
temple of Goddess Bhadrakali. The original name of Ahmedabad city was Bhadra, Karnavati, Rajnagar and Asval in
different eras. Upon the start of the 7th century to the 16th century, India was attacked by countless Islamic
invaders, who looted money and destroyed many heritage sites including mediation halls, Hindu temples, Vedic
research centers, Sanskrit Gurukul and universities. done.Original name: Bhadrakali temple Renamed as a
symbol of Islamic atrocities: Jama Masjid Original name of the city: Bhadra” or “Karnavati, Gujarat

If Jama Masjid was indeed a mosque, it is interesting to note that in Islam it is stricter forbidden and punishable
under Sharia law to worship or give a physical representation or the form of an idol, figure, figurine, animal,
etc. to God.
“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every
horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the
slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then
the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.

“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the
shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had
been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought
in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of
Agra, nor was any part of the country spared.”

Banda Singh Bahadur was tortured to death after being imprisoned for 3 months. The heart of Banda Singh’s son
was put in his mouth in an attempt to humiliate him

It was the festival of Holi for the Hindus and many writers have written how that year, it was played with their very
blood in the Yamuna.

A fortnight later a Muslim eyewitness described the scene thus

Everywhere in lane and bazar lay headless trunks of the slain and the whole city was burning. Many buildings had
been knocked down. The water of the Jamuna flowing past was of yellowish colour as if polluted by blood. The man
(a Muslim jeweler of the city who was robbed of his all and fasting for several days) said that for seven days
following the general slaughter the water flowed of a blood red colour and then the water had turned yellow. At the
edge of the stream I saw a number of huts of Vairagis and Sanyasis in each of which lay a severed head with a head
of a dead cow applied to its mouth and tied to it with a rope around its neck.

Further Jahan Khan advanced to Vrindavan where a similar scene was created.

Wherever you gazed, you beheld only heaps of the slain. You could only pick your way with difficulty, owing to the
quantity of bodies lying around and the amount of blood spilt. At one place we saw about 200 dead children in a
heap. Not one of the dead bodies had a head. The stench and fetor and effluvium in the air were such that it was
painful to open your mouth or even draw a breath. Everyone held his nose and stopped his mouth with his
handkerchief as he spoke.

Next it was Gokul's turn where Abdali himself had arrived.

Four thousand naked Vairagis came out to fight him, all of whom perished.

A Maratha news-writer reported,

All the Vairagis perished but Gokulnath (the deity of the city) was saved.

Many such accounts further describe the gruesome misery he brought upon the Indian people. The Muslim
eyewitness further narrates,

.. One horseman mounted a horse and took ten to twenty others each attached to the tail of the horse preceding and
drove them just like a string of camels. When it was one watch after sunrise I saw them come back. Every horseman
had loaded up his horses with the plundered property and atop of it rode girl captives and the slaves. The severed
heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives.. then the heads were stuck
upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment. It was an extraordinary display ! Daily did this
manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being
ravished, deafened the ears of the people.. all those heads that had been cut off were built into pillars and the
[captive] men upon whose heads the bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their
heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared..

Finally it was the outbreak of cholera in Abdali's camp that forced him to retreat. The Yamuna had become polluted
by the so many mutilated corpses in it. Abdali's camp which was located downstream compared to Mathura and
Vrindavan had to depend on this water and his soldiers were, consequently, dying daily. A clamor of rebellion made
him order a retreat towards Kandahar.

The booty that Abdali gained was immense - estimated at around 12 crores of rupees which had to be carried back
on thousands of elephants and other animals. A contemporary account says,

Even a washerman's donkey was not left behind.

Sikh holocaust of 1746- massacre of a significant proportion of the Sikh population by the Mughal EmpireDiwan of
Lahore
Mir Jafar (1757 AD)
Mir Jafar betrayed Siraj-ud-Dowla in first battle of Plessey. Robert Clive of East India Company had only 700 men
and Siraj-ud-Dowla had an army of more than 35,000 men. But Mir Jafar who was head of army took the side of
Britishers in battle. Nawab Siraj-ud-Dowla ran away from battle field. But was later caught and beheaded by Mir
Jafar. Mir Jafar is known as Gaddar-e-Abrar (Betrayer of true faith)
Mir Jafar laid the foundation of East India Company rule in India.
1763 – KILLED 25,000–30,000 Sikhs- Perpetrated by Afghan Muslim forces of Ahmad Shah Durrani

The Nizam of Hyderabad (1724-1948)


Belonged to the Turkic dynasty from around Samarkand in today’s Uzbekistan. Grandfather of the First Nizam was
a person named Khwaja Abid a learned man and warfare techniques expert who hailed from a village called
Aliabad, which was close to Samarkand, Bukhara kingdom. He visited the Mughal India in 1655 AD and Impressed
with his skill sets, the emperor granted him favours and a position in the Imperial service. This connection between
the Mughals and the later Nizams continued till the end of the Mughal rule. Later in 1657, Khwaja Abid entered
into the Imperial service under Aurangzeb, who was at that time the Viceroy of the Deccan. Aurangzeb appointed
Khwaja Abid to an important position in the Moghul army. Aurangzeb became the Mughal Emperor, he gave the
governorship of Ajmer. Subsequently, he was made the governor of Multan and was also given the title Kilich
Khan.At this stage, Kilich Khan had a grandson named Qamaruddin.

Khaja Abid’s grandson Qamaruddin-

The Hindu majority were denied fundamental rights by the Nizams of Hyderabad state. Hindus were called gaddaar
(traitor) by Muslims in the Nizam state of Hyderabad. Many Hindus were murdered, looted and thrown to jail.
Construction of temples were declared illegal and Hindu scriptures like Bhagavad Gita, Ramayana were banned

1784–1799 Tipu Sultan.मतान्ध हैदर अली की म्रत्यु के बाद उसका उस से भी बड़ा क्रू र और धर्मांध पुत्र टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठा।गद्दी पर बैठते ही टीपू ने
मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया।मुस्लिम सुल्तानों की परम्परा के अनुसार टीपू ने एक आमदरबार में घोषणा की ---"मै सभी काफिरों को मुस्लमान बनाकर रहूंगा। "तुंरतही
उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर दिया.उसने मैसूर के गाव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना भिजवादी कि, "सभी हिन्दुओं कोइस्लाम में दीक्षा दो।
जो स्वेच्छा से मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमानबनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल करवा दो.उनकी स्त्रिओं को पकडकरउन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट
दो। "टीपू सुल्तान की तलवार पर खुदा है ,"मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि, में संसार से काफिरों(गैर मुसलमान) को समाप्त कर दूँ| टीपू सुल्तान ने अपने शासन का प्रयोग
हिंदुओं का धर्मांतरण करने के लिएकिया और यही उनका मिशन था. इसके साथ ही उन्होंने हिंदुओं के मंदिरों कोतोड़ा, हिंदू महिलाओं की इज़्ज़त पर प्रहार किया और ईसाइयों के
चर्चों परहमले किये| वह औरंगजेब की तरह कट्‍टर सांप्रदायिक था और हिंदुओं का सबसे बड़ा दुश्मन भी।राके श सिन्हा ने कहा, "किसी भी शासक के सामाजिक दर्शन का मूल्यांकन
उस अवसरपर होता है जब आपकी ताक़त चरम पर होती है. टीपू सुल्तान ने अपने अंतिम समयमें लाचारी की स्थिति में अपने ज्योतिषी के कहने पर श्रृंगेरी मठ की मददकी.कोम्बाई
के जमींदारों ने टीपू सुल्तान की सेना के लिए प्रशिक्षित  कोम्बाई कु त्तों को मदद के लिए भेजा थाउनके इस भाव से प्रभावित होकर सुल्तान ने भगवान रंगनाथस्वामी की मूर्ति को
भेजा था| लेकिन उनका पूरा काल धर्मांतरण से भरा हुआ हैलड़ाई के दौरान पकड़े गए दुश्मन के सैनिकोंको श्रीरंगपट्‍टनम भेजा जाता था, उन्हें इस्लाम कबूल करवाया जाता और
तबउन्हें पैदल सेना में भर्ती किया जाता था। टीपू ने मैसूर में कन्नड़ के स्‍थान पर फारसी को प्रशासनिक भाषा बनाकर इस्लाम को फै लायावे बेहद चालाक शासक थे. उन्होंने मैसूर
सम्राज्य के भीतर अपनी हिंदूप्रजा पर कोई अत्याचार नहीं किया और न ही उनके मंदिरों को नुकसान पहुंचाया.लेकिन तटीय क्षेत्रों और के रल के मलाबार इलाक़े पर हमले में हिंदुओं
के लिए बहुत क्रू र थे."

"वे क्रू र और पक्षपाती शासक थे. वे जिहादी थे.उन्होंने हज़ारों हिंदुओं को ज़बदरदस्ती मुस्लिम बना दिया, वे अपनी धार्मिकपुस्तक का पालन करता था जिसमें लिखा था मूर्तिपूजकों
का वध करो."धर्म रक्षा के विचार से हजारों हिंदू स्त्री पुरुषों ने अपने बच्चों सहिततुंगभद्रा आदि नदिओं में कू द कर जान दे दी। हजारों ने अग्नि में प्रवेश करअपनी जान दे दी

रवि वर्मा ने सैंकड़ों मंदिरों की एक सूची भी प्रस्तुत की है जो उनके अनुसार टीपू ने नष्ट की है.

लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब 'मालाबारमैनुअल' में लिखा है कि कै से टीपू सुल्तान ने अपने 30,000 सैनिकों के दल के साथ कालीकट में तबाही मचाई थी. टीपू
सुल्तान हाथी पर सवार था और उसके पीछेउसकी विशाल सेना चल रही थी. पुरुषों और महिलाओं को सरेआम फांसी दी गई.उनके बच्चों को उन्हीं के गले में बांध पर लटकाया
गया.शहर के मंदिर और चर्चों को तोड़ने के आदेशदिए गए. यहीं नहीं, हिंदू और इसाई महिलाओं की शादी जबरन मुस्लिम युवकों सेकराई गई. पुरुषों से मुस्लिम धर्म अपनाने को
कहा गया और जिसने भी इससेइंकार किया उसे मार डालने का आदेश दिया गया.टीपू सुल्तान ने सईद अब्दुल दुलाई और अपने एकअधिकारी जमान खान के नाम लिखा है. पत्र
के अनुसार टीपू सुल्तान लिखता है, 'पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिंदूओं को मुसलमान बनादिया है. के वल कोचिन स्टेट के सीमवर्ती इलाकों के कु छ
लोगों का धर्मपरिवर्तन अभी नहीं कराया जा सका है. मैं जल्द ही इसमें भी कामयाबी हासिल करलूंगा.'किताब 'लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान' का जिक्र भीजरूरी है. इसमें लिखा गया है
कि उसने तब मालाबार क्षेत्र में एक लाख सेज्यादा हिंदुओं और 70,000 से ज्यादा ईसाइयों को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिएमजबूर किया.जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया,
उन्हेंमजबूरी में अपने बच्चों की शिक्षा भी इस्लाम के अनुसार देनी पड़ी. इनमें सेकई लोगों को बाद में टीपू सुल्तान की सेना में शामिल किया गया और अच्छेओहदे दिए गए.उसने फ्रें च
शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजोंको भगाने और फिर उनके साथ भारत के बंटवारे की बात की. ऐसा भी जिक्र मिलताहै कि उसने तब अफगान शासक जमान शाह को भारत पर
चढ़ाई करने का निमंत्रणदिया, ताकि यहां इस्लाम को और बढ़ावा मिल सके . Tipu sent a letter on 19 January 1790 to the Governor of Bekal,
Budruz Zuman Khan. It says:
Don't you know I have achieved a great victory recently in Malabar and over four lakh Hindus were converted to
Islam? I am determined to march against that cursed Raman Nair (Rajah of Travancore) very soon. Since I am
overjoyed at the prospect of converting him and his subjects to Islam, I have happily abandoned the idea of going
back to Srirangapatanam now.

Mai Karmo
Like the Marathas who had Rani Lakshmi Bai, the Mohyals too had their lady warrior in Karmu Mai Dattani. The
Misls were later consolidated by Maharaja Ranjit Singh into the army of the Sikh Kingdom of the Punjab, when he
became the Maharja of the province after capturing Lahore in 1799. Jai Singh appointed Mai Karmo as the chief of
the Katra branch of the Kanhaiya Misl. The intrepid lady held her court in the open, in a jostling market square in
Amritsar which is known by her name till today: Karmo Ki Deod. She was a terror to local ruffians and used to
administer justice without any fear or favour. She once took part in a battle wearing the coat of arms. The seal of her
high office is believed to be still in the possession of her progeny.

वेल्लोर विद्रोह : 10 जुलाई 1806 कोमद्रास राज्य (अबतमिलनाडु ) राज्य के शहरवेल्लोरमेंईस्ट इंडिया कं पनीके खिलाफ भारतीय सिपाहियों द्वारा बड़े पैमाने पर और हिंसक
विद्रोह का पहला उदाहरण था, जिसने1857 के भारतीय विद्रोहको आधी सदी तक भविष्यवाणी की थी। दक्षिण भारतीय शहर वेल्लोर में हुए विद्रोह ने एक पूर्ण दिन चला, जिसके
दौरान विद्रोहियों नेवेल्लोर किलेको जब्त कर लिया और 200 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला या घायल कर दिया।विद्रोह को आर्कोट से घुड़सवार और तोपखाने से घटा दिया गया
था। प्रकोप के दमन के दौरान लगभग 100 विद्रोहियों का सारांश निष्पादन हुआ, इसके बादऔपचारिक अदालत- छोटी संख्याओं के मार्शल के बाद।

विद्रोह के तत्काल कारण मुख्य रूप से भारतईय सैनिक नाराज हो गए थे, जोनवंबर 1805 में पेश किए गए सिपाही ड्रेस कोड में बदलाव की ओर इशारा करतेथे। हिंदुओं को उनके
माथे पर धार्मिक अंक पहनने से मना कर दिया गया था औरमुस्लिमों को अपने दाढ़ी दाढ़ी और अपने मूंछों को ट्रिम करने की आवश्यकताथी। इसके अलावा मद्रास सेना के कमांडर-
इन-चीफ जनरल सर जॉन क्रै डॉक ने[1]उस समय एक दौर टोपी पहनने का आदेश दिया जो उस समय से जुड़े थे, दोनों यूरोपीय और सामान्य रूप से ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए
थे।[1]इन्ग्लिस्तानी फौज का इरादा था कि सरों पर पहनने की नई टोपियों में चमड़ेके कॉकड़े शामिल थे और मौजूदा पगड़ी को बदल दें। इन उपायों ने हिंदू औरमुस्लिम दोनों सिपाही
की संवेदनशीलताओं को नाराज कर दिया और एक सैन्य बोर्डद्वारा पहले की चेतावनी के विपरीत चला गया कि समान परिवर्तनों को सीपॉय "हर विचार को दिया जाना चाहिए जो
उस नाजुक और महत्वपूर्ण प्रकृ ति का विषयआवश्यक है"।[1]ईस्ट इंडिया कं पेनी द्वारा औपचारिक परीक्षण के बाद, भारत के छह विद्रोहियोंको बंदूक चला कर उनको मार दिया गया,
उन में से फायरिंग दस्ते द्वारा पांचशॉट, आठ फांसी और पांच परिवहन द्वारा मार दिये गए

1817 कापाइका (ओडिशा) विद्रोहभारतीय स्वतंत्रता संग्राम

 पाइका विद्रोह 1817 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कं पनी की शोषणकारी नीतियोंके विरुद्ध उड़ीसा में पाइका जाति के लोगों द्वारा किया गया एक सशस्त्र, व्यापक आधार
वाला और संगठित विद्रोह था।
 पाइका उड़ीसा की एक पारंपरिक भूमिगत रक्षक सेना थी। वे योद्धाओं के रूपमें वहाँ के लोगों की सेवा भी करते थे। पाइका विद्रोह के नेता बक्शी जगबंधुथे। पाइका
जाति भगवान जगन्नाथ को उड़ीया एकता का प्रतीक मानती थी।

विद्रोह के कारण

 पाइका विद्रोह के कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण थे।  1803 मेंईस्ट इंडिया कं पनी द्वारा खुर्दा (उड़ीसा) की विजय के बाद पाइकों की शक्तिएवं
प्रतिष्ठा घटने लगी।
 अंग्रेज़ों ने खुर्दा पर विजय प्राप्त करने के बाद पाइकों की वंशानुगतलगान-मुक्त भूमि हड़प ली तथा उन्हें उनकी भूमि से विमुख कर दिया। इसके बादकं पनी की सरकार
और उसके कर्मचारियों द्वारा उनसे जबरन वसूली और उनकाउत्पीड़न किया जाने लगा।
 कं पनी की जबरन वसूली वाली भू-राजस्व नीति ने किसानों और ज़मींदारों को एक समान रूप से प्रभावित किया।
 नई सरकार द्वारा लगाए गए करों के कारण नमक की कीमतों में वृद्धि आम लोगों के लिये तबाही का स्रोत बनकर आई।
 इसके अलावा कं पनी ने कौड़ी मुद्रा व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया था, जोकि उड़ीसा में कं पनी के विजय से पहले अस्तित्व में थी और जिसके तहत चांदीमें कर
चुकाना आवश्यक था। यही इस असंतोष का सबसे बड़ा कारण बना।
 यह विद्रोह बहुत तेज़ी से प्रांत के अन्य इलाकों जैसे पुर्ल, पीपली औरकटक में फै ल गया। इसके बाद दमन का व्यापक दौर चला, जिसमें कई लोगों को जेलमें डाल
दिया गया तथा कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।
 बक्शी जगबंधु को अंतत: 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और कै द में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गई।
1 जनवरी 1818- कोरेगाँव भीमा वो जगह है जहाँ ठीक दौ सौ साल पहले 1 जनवरी 1818 को 'अछू त' कहलाए जाने वाले लगभग आठ सौ महारों ने चितपावन ब्राह्मण पेशवा
बाजीरावद्वितीय के 28 हज़ार सैनिकों को घुटने टिका दिए थे. ये महार सैनिक ईस्टइंडिया कं पनी की ओर से लड़े थे और इसी युद्ध के बाद पेशवाओं के राज का अंतहुआ था.सवाल
पूछा ही जाना चाहिए कि आख़िर महार अँग्रेज़ों के साथ मिलकर ब्राह्मण पेशवाओं के ख़िलाफ़ क्यों लड़े?

महारोंके लिए ये अँग्रेज़ों की नहीं बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी. ये उनके लिए चितपावन ब्राह्मण व्यवस्था से प्रतिशोध लेने का एक मौक़ा था क्योकि दोसौ साल पहले पेशवा
शासकों ने महारों को जानवरों से भी निचले दर्जे में रखाथा.वर्णव्यवस्था से बाहर माने गए 'अस्पृश्यों' के साथ जो व्यवहार प्राचीन भारतमें होता था, वही व्यवहार पेशवा शासकों ने
महारों के साथ किया.इतिहासकारों ने कई जगहों पर ब्यौरे दिए हैं कि नगर में प्रवेश करते वक़्तमहारों को अपनी कमर में एक झाड़ू बाँध कर चलना होता था ताकि उनके 'प्रदूषितऔर
अपवित्र' पैरों के निशान उनके पीछे घिसटने इस झाड़ू से मिटते चले जाएँ.उन्हें अपने गले में एक बरतन भी लटकाना होता था ताकि वो उसमें थूक सकें औरउनके थूक से कोई
सवर्ण 'प्रदूषित और अपवित्र' न हो जाए. वो सवर्णों के कु एँ या पोखर से पानी निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे.फ़ौज में शामिल होकर लड़े तो वो पेशवा के सैनिकों के साथ
साथ चितपावनब्राह्मण शासकों की क्रू र व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रतिशोध भी ले रहे थे.

15 june1819 इन अत्याचारों से तंग आकर एक कश्मीरी पंडित बीरबल धर ने सिख राजा रणजीतसिंह से मदद मांगी।उन्होंने अपने उत्तराधिकारी खड़क सिंह के नेतृत्व मेंहरि
सिंह नलवा सहित अपने सबसे काबिल सरदारों के साथ तीस हजार की फौज रवानाकी। आज़िम खान अपने भाई जब्बार खान के भरोसे कश्मीर को छोड़कर काबुल भाग गया, इस
तरह 15 june1819 को कश्मीर में सिख शासन की स्थापना हुई। 1839 मेंरणजीत सिंह की मौत के साथ लाहौर का सिख साम्राज्य बिखरने लगा. अंग्रेज़ों के लिए यह
अफगानिस्तान की ख़तरनाक सीमा पर नियंत्रण का मौक़ा था तो जम्मू के राजा गुलाब सिंह के लिए खुद को स्वतंत्र घोषित करने का।

1883- भारत में अंग्रेज़ों द्वारा बनाये गये एक मात्र शिव मंदिर- अंग्रेजोंने अपने लंबे शासनकाल में देश में कई चर्च तो बनवाए लेकिन एक मंद‍िर ऐसाभी है ज‍िसके लिए माना जाता है
कि उसका पुन: निर्माण ब्रिटिशर्स ने करवायाथा। ये है मध्‍य प्रदेश के आगर मालवा का श्री बैजनाथ महादेव मंद‍िर जिसकीलोगों के बीच आज भी बड़ी श्रद्धा है|

मंद‍िर के पीछे एक कमलकुं ड भी है जहां ख‍िलते कमल के फू लों की खूबसूरती देखते ही बनती है।बतायाजाता है कि एक अंग्रेज कर्नल मार्ट‍िन अफगान युद्ध पर गया हुआ था और
वहांसे अपनी कु शलता का संदेश अक्‍सर पत्रों के जर‍िए अपनी पत्‍नी को भेजता थातो आगर मालवा में रहती थीं। कई द‍िनों के बाद ये पत्र का स‍िलस‍िला टूट गयाऔर अनहोनी की
आशंका ने मिसेज मार्टिन की सेहत भी खराब करनी शुरू कर दी।

अपनेपति की कु शलता कहां से पूछे की उधेड़बुन में एक द‍िन मिसेज मार्टिन आगरमालवा के बैजनाथ मंदिर के पास से गुजरीं। मंद‍िर से आती शंख और मंत्रों कीआवाज ने उनका
ध्‍यान खींच ल‍िया और उन्‍होंने अंदर जाकर पुर‍िहतों को अपनीसमस्‍या बताई। पुजार‍ियों ने उनको ओम नम: श‍िवाय मंत्र का लघुरुद्रीअनुष्ठान करने को कहा। बताया जाता है कि इस
अनुष्‍ठान को करने से पहलेमिसेज मार्टिन ने ये मनौती मांगी थी कि उनके पति सकु शल लौट आए तो वह मंद‍िरका जीर्णोद्धार करवाया

अनुष्‍ठानपूरा होते ही मिसेज मार्टिन के पास उनके पति का खत पहुंच गया और उनको येपढ़कर हैरानी हुई क‍िउसमें लिखा था क‍िकै से शेर की खाल पहले और हाथ मेंत्रिशूल लिए
एक योगी ने अफगानों की चंगुल से उनके पति को बचाया। पत्र मेंकर्नल मार्टिन ने लिखा था क‍िउस योगी ने उनको बताया क‍िवह उनकी पत्‍नी कीतपस्‍या और लगन से प्रसन्‍न
होकर उनको बचाने आए हैं। ये कहानी श्री बैजनाथमंदिर में पत्‍थरों पर उके री हुई है और सभी की श्रद्धा का के न्‍द्र है।

कर्नलमार्ट‍िन के वापस आने के बाद जब दंपत्‍त‍िने आपस में एकदूसरे की कहानीसुनी तो दोनों के मन में श‍िव भक्‍त‍िजाग गई। बताया जाता है क‍िउन्‍होंने 1883 में 15 हजार
रुपये देकर मंद‍िर का रेनोवेशन करवाया और इंग्‍लैंड जातेसमय वहां भी श‍िव पूजा का वचन देकर गए।

12 February1824- 30 October1883 (स्वामी दयानन्द सरस्वती) - आर्य समाज के संस्थापक के रूप में पूज्यनीयहैं. यह एक महान देशभक्त एवम मार्गदर्शक थे,
जिन्होंने अपने कार्यो सेसमाज को नयी दिशा एवं उर्जा दी.महात्मा गाँधीजैसे कई वीर पुरुष स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे.स्वामी जी का जन्म 12 फरवरी
1824 को हुआ. वे जाति से एक ब्राह्मण थे औरइन्होने शब्द ब्राह्मण को अपने कर्मो से परिभाषित किया. ब्राह्मण वही होताहैं जो ज्ञान का उपासक हो और अज्ञानी को ज्ञान देने
वाला दानी. स्वामी जीने जीवन भर वेदों और उपनिषदों का पाठ किया और संसार के लोगो को उस ज्ञान सेलाभान्वित किया. इन्होने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया | 1857 की
क्रांतिमें भी स्वामी जी ने अपना अमूल्य योगदान दिया. अंग्रेजी हुकू मत से जमकरलौहा लिया और उनके खिलाफ एक षड्यंत्र के चलते 30 अक्टू बर 1883 को उनकीमृत्यु हो
गई.उन्होंने राष्ट्र में व्याप्त कु रीतियों एवम अन्धविश्वासो का सदैव विरोध किया

एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिताने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ ही रात्रिजागरण व्रत का पालन करने कहा. पिता के
निर्देशानुसार मूलशंकर ने व्रत कापालन किया, पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिये वे शिव मंदिर मेंही पालकी लगा कर बैठ गये. अर्धरात्रि में उन्होंने मंदिर में एक
दृश्यदेखा, जिसमे चूहों का झुण्ड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं और साराप्रशाद खा रहे हैं.  तब मूलशंकर जी के मन में प्रश्न उठा, यह भगवान कीमूर्ति वास्तव में एक पत्थर की
शिला ही हैं, जो स्वयम की रक्षा नहीं करसकती, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? उस एक घटना ने मूलशंकर के जीवनमें बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्म ज्ञान की
प्राप्ति के लिए अपनाघर छोड़ दिया और स्वयं को ज्ञान के जरिये मूलशंकर तिवारी से महर्षि दयानंदसरस्वती बनाया.उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे, उन
मेंतात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि थे, इन लोगो ने स्वामीजी के अनुसार कार्य किया. लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया,
जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आये. इस कार्य के लिये उन्होंने रोटीतथा कमल योजना भी बनाई और सभी कोदेश की आजादीके लिए जोड़ना प्रारम्भ किया. इन्होने
सबसे पहले साधू संतो को जोड़ा, जिससेउनके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके .
वर्ष 1875 में इन्होनेगुड़ी पड़वा के दिनमुंबई में आर्य समाज की स्थापना की. आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्मही था. इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य
आधार बतायाजिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था

उन्होंने सदैव कहा शास्त्रों में वर्ण भेदशब्द नहीं, बल्कि वर्ण व्यवस्था शब्द हैं, जिसके अनुसार चारों वर्ण के वलसमाज को सुचारू बनाने के अभिन्न अंग हैं, जिसमे कोई छोटा बड़ा नहीं
अपितुसभी अमूल्य हैं. उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी औरवर्ण भेद का विरोध किया.

स्वामी जी के खिलाफ षड़यंत्र :अंग्रेजी हुकू मत को स्वामी जी से भय सताने लगा था.अंग्रेजी हुकू मत स्वामी जी के सामने स्वयमकी शक्ति पर संदेह करने लगी और इस कारण उनकी
हत्या के प्रयास करने लगी. कईबार स्वामी जी को जहर दिया गया, लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे| 1883 में स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर के महाराज के यहाँ गये |
अपने स्पस्ट वादिता के कारण उन्होंने इसकाविरोध किया और शांत स्वर में यशवंत सिंह को समझाया कि एक तरफ आप धर्म सेजुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की
विलासिता से आलिंगन हैं, ऐसे मेंज्ञान प्राप्ति असम्भव हैं. स्वामी जी की बातों का यशवंत सिंह पर गहरा असरहुआ और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म किये. इस कारण
नन्ही जानस्वामी जी से नाराज हो गई और उसने रसौईया के साथ मिलकर स्वामी जी के भोजनमें कांच के टुकड़े मिला दिए, जिससे स्वामी जी का स्वास्थ बहुत ख़राब हो
गया.उसी समय इलाज प्रारम्भ हुआ, लेकिन स्वामी जी को राहत नही मिली. रसौईया नेअपनी गलती स्वीकार कर माफ़ी मांगी. स्वामी जी ने उसे माफ़ कर दिया. उसके बादउन्हें
26 अक्टू बर को अजमेर भेजा गया, लेकिन हालत में सुधार नहीं आया औरउन्होंने 30 अक्टू बर 1883 में दुनियाँ से रुक्सत ले ली.

महारानी विक्टोरिया ने कहाथा- 'हम चेतावनी देते हैं कि यदि किसी ने हमारी प्रजा के धार्मिक विश्वासोंपर, पूजा पद्धति में हस्तक्षेप किया तो उसे हमारे तीव्र कोप का शिकार
होनापड़ेगा।' इस लोक लुभावनी घोषणा के अंतर्निहित भावों को समझ कर उसकाप्रतिकार करते हुएऋषि दयानंदसत्यार्थ प्रकाशमेंघोषणा करते हैं- 'मतमतांतरों के आग्रह से रहित,
अपने-पराए का पक्षपातशून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृ पा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियोंका राज पूर्ण सुखदायक नहीं है।'

गाँधीजी के 'नमक आंदोलन' के बीज महर्षि ने तभी डाल दिए थे, जबकि गाँधीजी मात्र 6 वर्ष के बालक थे सन्‌ 1857 में स्वामीजी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं- 'नोंन के बिना
दरिद्र काभी निर्वाह नहीं, किं तु नोंन सबको आवश्यक है। वे मेहनत मजदूरी करके जैसे-तैसे निर्वाह करते हैं, उसके ऊपर भी नोंन का 'कर' दंड तुल्य ही है।इससे दरिद्रों को बड़ा क्ले श
पहुँचता है, अतलवण आदि से ऊपर 'कर' नहीं रहनाचाहिए।'

महर्षि की इसी स्वदेशी भावनाका परिणाम था कि भारत में सबसे पहले सन्‌1879 में आर्य समाज लाहौर के सदस्यों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का सामूहिक संकल्प लिया था,
जिसकाविवरण 14 अगस्त, 1979 में स्टेट्स मैन अखबार में मिलता है महर्षि दयानंद के राष्ट्रीय विचारों के महत्व को अंग्रेज बहुत गहराई से अनुभव करते थे।

वामी दयानन्द जी का शरीर सन् १८८३ मेंदीपावलीके दिन पंचतत्व में विलीन हो गया

बड़ा पतन क्या होगा कि कु छ पश्चिमी मूर्ख जो खुद को संस्कृ त का विद्वानकहा करते थे (मैक्समूलर जैसे दुष्ट) वेदों का गलत ट्रांसलेशन किया और भाड़ेके इतिहास कारो कि मोज
हो गई आंग्रेजो के भाड़े के इतिहासकारों नेकम्युनिस्ट इतिहासकारों ने इस गलत जानकारी को हाथों हाथ लिया और एक गलतप्रचार शुरू कर दिया कि वेदों में बलि प्रथा आदि
लिखी हैं।

इन्हींबातों के कारण मुसलमान और ईसाइयों की चांदी हो गई वह वेदों का सहारा लेकरभारत वासियों का धर्म परिवर्तन करवाने लगे। वह तो भला हो ऋषि दयानंद काजिन्होंने हमें
फिर से वेदों का सच्चा ज्ञान दिया

http://dhunt.in/3ZpkW?ss=gpls&s=dw
1831-सैय्यद अहमद बरेलवी मौजूदा उत्तरप्रदेश के रायबरेली कस्बे का रहने वाला था। उसका जन्म 1786 में हुआ था| कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति का था। उसका मुख्य मकसद
इस्लामी राज्य की स्थापना करना था| काफिर राजाओं के खिलाफ जिहाद शुरू करने का फै सला किया था। पाकिस्तान के नॉर्थ-वेस्टर्न फ़्रं टियर प्रोविंस से जिहाद शुरू करने का
फै सला कियासैय्यद अहमद पक्का इरादा करके सिंध, क्वे टा और कं धार होते हुए पेशावरपहुंचा, जहां उसके साथ दिल्ली वाले शाह वली उल्लाह का पोता शाह इस्माइल भीथा। पेशावर में
उसने स्थानीय पठानों व खानों के साथ लड़ाका गठबंधन बनाया।1831 में सैय्यद अपने जत्थे के साथ बालाकोट पहुंचा। सैय्यद अहमद ने बालाकोटमें सिखों पर हमला करके
उनको हराने की रणनीति बनाई।25 april, 1831 को टोंक के नवाब लिखा कि मैं पाखली के पहाड़ों में हूं। यहां के लोगों ने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया, रहने की जगह दी
और जिहाद मेंशामिल होने का आश्वासन भी दिया। फिलहाल मैं बालाकोट कस्बे में डेरा जमाएहुए हूं। यह कस्बा कु नहर (नदी) दर्रे पर है। काफिरों की सेना यहां से बहुतदूर नहीं है।
160 साल पहले अंग्रेजों ने सैय्यद अहमद शाह को महाराजा रणजीत सिंह के खिलाफ शह दी थी।सैय्यद अहमद इंतजार कर रहा था कि सिख सेना वहां से उतर कर हमला करने
आएगी।उसने पहाड़ी के नीचे धान के खेतों में पानी भरवा दिया था, ताकि सिख सैनिकबालाकोट आते समय इन दलदली खेतों में फं स जाएं और उस समय मुजाहिद उनकोगाजर-
मूली की तरह काट देंगे। लेकिन सिख भी कम होशियार न थे।सैयद अहमद शाह और उसके साथियों की कब्रें आज भी बालाकोट में मौजूद हैं।इन्हें बहुत पवित्र भी माना जाता है।
बालाकोट की एतिहासिक पृष्ठभूमि कोदेखते हुए ही शायद जैश ने अपने आतंकवादियों के प्रशिक्षण के लिए यहां अपनाप्रशिक्षण कें द्र खोला था।

कं पनी का राज :
अंग्रेजों ने मुस्लिमों के साथ मिलकर भारत की सत्ता छत्रियों, राजपूतों, सिखों आदि से छीनी थी, लेकिन प्लासी के युद्ध और मैसूर के युद्धकी ज्यादा चर्चा की जारी है और इस युद्ध
के माध्यम से यह दर्शाया जाता हैकि मुस्लिमों ने अंग्रेजों से टक्कर ली थी। हालांकि इतिहास के अधूरे सच कोबताने से विवाद की स्थित उत्पन्न होती है। एक समय था जबकि
राजपूतों, मराठाओं और सिखों ने अंग्रेजों से लोहा लिया और अंग्रेजों का साथ उस समयमुस्लिम शासकों ने दिया। फिर एक समय ऐसा आया कि मुस्लिम शासकों को हटाने के लिए
अंग्रेजों ने राजपूतों और सिखों को अपने साथ लिया और इस तरह अंग्रेजोंने दोनों की पक्ष को अपने लिए कार्य करने पर मजबूर कर दिया।

दरअसल, अंगरेजों ने हिन्दुओं को भरमाने के लिए यह दुष्प्रचार बड़े पैमानेपर किया कि अगर वे भारत छोडक़र गए तो मुसलमान अतीत की भांति उन पर हुकू मतकरना फिर शुरू
कर देंगे। उन्होंने मुसलमानों को यह कहकर बहकाया कि हिन्दूअतीत के मुसलमानी शासन का बदला तुमसे चुकाएंगे। अंग्रेजों द्वारा लिखे गएइतिहास को लेकर आज भी भारत के लोग
आपस में लड़ते झगड़ते हैं, लेकिन सच कोईजानना नहीं चाहता। लेकिन सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों के भारत में लेकरकौन आया?

ईस्ट इण्डिया कम्पनी को 1600 ई. में ब्रिटेन का शाही अधिकार पत्र द्वाराव्यापार करने का अधिकार प्राप्त हुआ था। यह लन्दन के व्यापारियों की कम्पनीथी, जिसे पूर्व में व्यापार
करने का एकाधिकार प्रदान किया गया था। उत्तरभारत में 1615-18 ई. में सम्राटजहांगीरनेईस्ट इण्डिया कं पनी को विशेषाधिकार देकर भारत में व्यापार करने की छू ट देदी। दूसरी
ओर यह देखते हुए दक्षिण भारत में 1640 ईस्वी में विजयनगर शासकोंके प्रतिनिधि चन्द्रगिरि के राजा ने इस कं पनी को चेन्नई के एक भूभाग परकारखाना लगाने की अनुमति देती।
कं पनी ने यहां पर शीघ्र ही सेण्ट जार्ज किलेका निर्माण किया और अपनी व्यापार नीति के साथ ही रणनीति की शुरुआत की।

661 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कं पनी को एक और सफलता मिली। चेन्नई के अलावाउसे बम्बई का एक टापू भी मिल गया। हुआ यूं कि ब्रिटेन के राजा चार्ल्सद्वितीय को पुर्तगाली
राजकु मारी से विवाह के उपलक्ष में दहेज में बम्बई काटापू मिल गया। चार्ल्स ने 1668 ई. में इसको के वल 10 पाउण्ड सालाना किराए परईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके
बाद 1669 और 1677 ईस्वी के बीचकम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली। यहक्षेत्र में बाद में अंग्रेजों के व्यापार और युद्ध का गढ़ बन गया।

अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की अनुमति सबसे पहले जहांगीर ने दी थीइसमें जहांगीर की भी रणनीति थी। जहांगीर और अंग्रेजों ने मिलकर 1618 सेलेकर 1750 तक भारत
के अधिकांश हिंदू रजवाड़ों को छल से अपने कब्जे में लेलिया था। बंगाल उनसे उस समय तक अछू ता था और उस समय बंगाल का नवाब थासिराजुद्दौला। बाद में 1757 उसे भी
हरा दिया गया। सिराजुद्दौला औरअंग्रेजों की लड़ाई को प्लासी के युद्ध के नाम से जाना जाता है।

1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मं‍डप का क्षेत्र है जिसे आजकलज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है।
30 december1810 को बनारस के तत्कालीन जिलादंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकरज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के
लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभीसंभव नहीं हो पाया। | 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर द्वारा इस मंदिर काजीर्णोद्धार करवाया गया था।
अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथमंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया।ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का
मंडप बनवाया और महाराजा नेपालने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।

The British who came to Sindh also as traders became so powerful in rest of the sub-continent that in 1843 Sindh
lost its independence falling prey to the British imperialistic policy. The Talpurs were defeated on the battlefields of
Miani, Dubba and Kunhera and taken prisoners. The conquerors behaved inhumanly with the vanquished as they did
with the Muslim rulers in India. Charles Napier who commanded the troops subsequently became the first Governor
of the province of Sindh.

The British had conquered Sindh from their bases in Bombay and Kutch and their supporters were Hindus.
Therefore, Sindh was annexed to the Bombay Presidency in 1843 a

22 February1847 नरसिम्हा रेड्डी - नरसिम्हा रेड्डी जब बगावत पर उतरे, तो अंग्रेजो को भारत में आकर सैंकड़ोसाल हो चुके थे। धीरे-धीरे अंग्रेजी हुकु मत पैर पसार रही
थी। किसानों परउनके जुल्म दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। इसी दौर में नरसिम्हा रेड्डी नेकिसानों के लिए लड़ाई लड़ने का फै सला किया।मद्रासप्रेसिडेंसी जो आज आंध्र प्रदेश का
हिस्सा है, वहां अंग्रेजों नेरैयतवाड़ी व्यवस्ता की शुरूआत की, इस व्यवस्ता के जरिए अंग्रेजो को कर के रूप में खूब सारा पैसा मिलने लगा। जिसके बाद मुनरों ने इसे साल 1820
मेंपूरे मद्रास में लागू कर दिया। इसके तहत किसानों और कं पनी के बीच सीधासमझौता होता था।

राजस्व के निर्धारण और लगान वसूली में किसी जमींदार और बिचौलियें कीभूमिका नहीं होती थी। कै प्टन रीड और थॉमस मुनरों द्वारा हर पंजीकृ तकिसानों को भूमि का स्वामी माना
जाता था, लेकिन कर ना देने पर उन्हें अपनीजमीन देनी पड़ती थी। इस व्यवस्था के चलते किसानों को बहुत नुकसान पहुंचताथा। इसके चलते अनेक किसानों ने खुदकु शी कर ली।

उन्होंने सबको एकजुट करके अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ने का फै सला लिया।पहले तो किसानों को एकजुट करने में नरसिम्हा रेड्डी को बहुत ही मुश्किलोंका सामना करना पड़ा। कु छ
समय बाद अंग्रेजों से प्रताड़ित किसान नरसिम्हा के साथ आंदोलन में शामिल हो गये। लगभग पांच हजार किसानों को साथ लेकरनरसिम्हा रेड्डी हक की लड़ाई लड़ने लगे। नरसिम्हा
रेड्डी अंग्रेजों के खजाने को लूटकर गरीबो में बांटने लगे।नरसिम्हा रेड्डी के आंदोलन देख अंग्रेजों ने उन्हें जान से मारने कीकोशिश की। अंग्रेजों ने नरसिम्हा की टोली के एक हजार लोगों
के खिलाफगिरफ्तार वारंट जारी किया गया था। इनमें से 412 लोगो को बिना कोई मामलादर्ज किये छोड़ दिया गया। कु छ लोगों को जमानत पर छोड़ा गया। 112 लोगो कोमौत की
सजा सुनाई गई, जिसमें नरसिम्हा रेड्डी भी शामिल थे।
22 फरवरी 1847 को अंग्रेजों ने सरेआम आस-पास गांव के दो हजार लोगों के सामनेनरसिम्हा रेड्डी को फांसी पर लटकाया गया। नरसिम्हा रेड्डी को अंग्रेजों नेभले ही फांसी पर
लटका दिया था, लेकिन लोगों के दिल में अंग्रेजों के खिलाफलड़ने की चिंगारी जलाकर गए थे। साल 1857 का विद्रोह ही लोगों के दिलों मेंजल रहे इसी आग का नतीजा था।

The last Mughal emperor Bahadur Shah Zafar was imprisoned by the Britishers after the 1857 mutiny.

17 वीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कं पनी ने बंबई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर कब्जा कर लिया। उधर फ्रांसीसियों की ईस्ट इंडिया
कं पनी ने माहेपांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज जब भारत पर कब्जा करने में लगे थे तब भारत में मराठों, राजपूतों, सिखों और कई छोटे-मोटे साम्राज्य के साथ
ही कमजोर मुगल शासक बहादुर शाह जफर का दिल्ली परशासन था तो हैदराबाद में निजामशाही वंश का शासन था। अंग्रेजों को सबसे कड़ा मुकाबला मराठों, सिखों और राजपूतों से
करना पड़ा।
ब्रिटिश राज : 1857 के विद्रोह के बाद कं पनी के हाथ से भारत का शासन बिटिश राज के अंतर्गत आ गया। 1857 से लेकर 1947 तक ब्रिटेन का राज रहा। इससे पहले कं पनी
ने लगभग 100 वर्षों तक भारत पर राज किया। कु ल 200 वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत पर राज किया। 1947 में अंग्रेजों ने शेष भारत का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया।

भारत में ब्रिटेन का दो तरह से राज था- पहला कं पनी का राज और दूसरा 'ताज' का राज।1857 से शुरू हुआ ताज का राज 1947 में खत्म हो गया। इससे पहले 100 वर्षों तक
कं पनी का राज था। इतिहासकार मानते हैं कि 200 वर्षों के ब्रिटिशकाल के दौरान संभवत: 1904 में नेपाल को अलग देश की मान्यता दे दी गई। फिरसन् 1906 में भूटान को
स्वतंत्र देश घोषित किया गया। तिब्बत को 1914 मेंभारत से अलग कर दिया गया। इसके बाद 1937 में बर्मा को अगले देश की मान्यतामिली। इसी तरह इंडोनेशिया, मलेशिया भी
स्वतंत्र राष्ट्र बन गए। बाद में 1947 को भारत का एक और विभाजन किया गया। हालांकि इस पर कई इतिहासकारों मेंमतभेद हैं।

27 Jun 1857 Kanpur

अंग्रेज सरकारकीक्रू रताके चलते 1857 मेंमेरठमेंविद्रोहकीज्वाला भड़की थी, जिसकी आग कानपुर तक पहुंच गई थी। क्रांतिकारियों के लगातार हमलों सेअंग्रेजोंनेकानपुरछोड़ने का
फै सला कर लिया था। 14 मई 1857 की दोपहर को सैकड़ोंअंग्रेजीअफसरऔरउनके परिवारके सदस्य इलाहाबाद जानेके लिए नाव पर सवार हो रहे थे।घाट पर हजारों लोग मौजूद
इस नजारेकोदेख रहे थे। तांत्या टोपे, बाजीराव पेशवा और अजिजमल भी यहांमौजूद थे, जबकि नानाराव

1857 अमृतसर से चौबीस किलोमीटर दूर अजनाला

10 मई 1857 कोमेरठछावनीसेईस्टइंडियाकं पनीके ख़िलाफ़शुरूहुईभारतीयसैनिकोंकीबग़ावतकीख़बरआनन-फ़ाननमेंपंजाबपहुंचगई।13 मई, 1857 कीसुबहपरेडके दौरान,


बंगालनेटिवइंफ़ें ट्रीकी26 रेजिमेंटके सिपाहियोंसेएहतियातनहथियारलेकरइन्हेंबैरकोंमेंबंदकरदियागया,हालांकितबतकउन्होंनेकिसीविद्रोहमेंहिस्सानहींलियाथा।
अमृतसरसेचौबीसकिलोमीटरदूरअजनालामेंतीनदिनोंतकचलीखुदाईके बाद 1857 कीआज़ादीकीपहलीलड़ाईके एकमहत्वपूर्णअध्यायकाख़ुलासाहुआहै।

एकगुरुद्वारेके नीचेदबेकु एंकीखुदाईके बादसबूतमिलेहैंकि1857 के सैनिकविद्रोहके बादब्रिटिशशासकोंने282 'भारतीयसैनिकों' कोइसकु एंमेंगाड़दियाथा।

पिछलेकईवर्षोंसेइसअभियानमेंलगेसुरेंदरकोछड़काकहनाहैकिखुदाईके बादक़रीब 90 खोपड़ियाँ, 170 साबुतजबड़े, 26 खोपड़ियोंसमेतकं कालऔर 5000 सेअधिकदाँतमिलचुके हैं।

इसके अलावावर्ष 1830-40 के समयके ईस्टइंडियाकं पनीके 70 सिक्के , दोब्रिटिशसेनापदक, 3 सोनेके बाज़ूबंद, 4 अंगूठियाँऔरकु छगोलियाँभीखुदाईमेंमिलीहैं।

लाहौरकीमियाँवालीछावनीकीनिहत्थीएकपलटनने30 जुलाई 1857 कोबग़ावतकरदी।पलटनकाएकसैनिकप्रकाशपांडे,


मेजरस्पेंसरकोउसीकीतलवारसेमारकरअपनीपलटनके सैनिकोंसमेतवहाँसेभागनिकला।

भागनेसेपहलेउन्होंनेएकऔरअंग्रेज़औरदोभारतीयअधिकारियोंकीभीहत्याकरदी।

30 जुलाई 1857 कोलाहौरसेभागेनिहत्थेहिंदुस्तानीसिपाहियोंकाजत्था31 जुलाईकोसुबहआठबजेअजनालासे6-7 मीलपीछेरावीनदीके किनारेबसेगाँवडड्डीयाँके पासबालघाटआपहुँचा।


उन्होंनेगाँवके ज़मीदारोंसेपैदलनदीपारकरनेकारास्तापूछा।

ज़मीदारोंनेउनभूखे-प्यासेसैनिकोंकोरोटी-पानीकालालचदेकरवहींरोकलियाऔरगाँवके एकचौकीदारसुल्तानख़ाँके हाथयेसूचनासौढ़ियाँके तहसीलदारप्राणनाथकोभेजदी।

उन्होंनेयेख़बरतुरंतअमृतसरके डिप्टीकमिश्नरफ़्रे डरिकहेनरीकू परकोभिजवादी।साथहीथानेऔरतहसीलमेंमौजूदसभीसैनिकोंकोइकट्ठाकरदोनावोंमेंइनबाग़ीसिपाहियोंके ख़ात्मेके लिएभेजदिया

इनसैनिकोंनेपहुंचतेहीनिहत्थे, थके -मांदेसिपाहियोंपरगोलियांचलानीशुरूकरदी।करीब 150 सैनिकबुरीतरहज़ख़्मीहोकररावीनदीके तेज़बहावमेंबहगएऔर 50


सैनिकोंनेगोलियोंसेबचनेके लिएखुदहीरावीनदीमेंछलांगलगादी। (फ्रे डरिकहेनरीकू पर, क्राइसिसइनदपंजाब, पृष्ठ 155)

शामचारबजेतकफ्रे डरिककू परभीअपने80 घुड़सवारसैनिकोंके साथमौके परपहुंचगए।साथहीकर्नलबॉयड, रिसालदारसाहिबख़ाँटिवाणा, रिसालदारबरक़तअली,


जनरलहरसुखरायऔरराजासांसीसेशमशेरसिंहसंघावालियाभीअपने-अपनेसैनिकलेकरवहाँपहुंचे।

गांवके लोगोंकीसहायतासेज़िंदापकड़ेगएइनहिंदुस्तानीसिपाहियोंकोरस्सोंसेबाँधकरआधीरातके समयअजनालालायागया।इनमेंसे237 सिपाहियोंकोजेलमेंबंदकरनेके बादबाकीबचे45


सैनिकोंकोअजनालाके एकछोटेसेबुर्जमेंठूंस-ठूंसकरबंदकरदियागया।

इनसबकोपहले31 जुलाईकोहीफाँसीपरचढ़ायाजानाथालेकिनभारीबारिशके चलतेफांसीअगलेदिनके लिएस्थगितकरदीगई।1 अगस्त, 1857 कोबक़रीदथी।अगलेदिनपौफटतेही237


सैनिकोंको10-10 के समूहमेंथानेके सामनेवालेमैदानमेंलायागया।

48 घंटे, 500 सैनिककीहत्या

फु लवाड़ीपत्रिकाके संपादकज्ञानीहीरासिंहदर्दने1928 मेंइसीगाँवके एकबुज़ुर्ग,


इसकांडके चश्मदीदगवाहरहेबाबाजगतसिंहसेसारीजानकारीलेकरइलाहाबादसेप्रकाशितहोनेवालीपत्रिकाफु लवाड़ीऔरचांदके नवंबर 1928 के अंकमेंइसघटनाकापूराविवरणछपवायाहै।

हीरासिंहदर्दलिखतेहैं, "उसतेज़बारिशमेंहीज़बरदस्तीउनसिपाहियोंके धार्मिकचिन्हमालाऔरजनेऊवगैरहतोड़करपानीमेंफें कदिएगए।अगलेदिनउनमेंसेजोसैनिकअभीज़िंदाथे,


उनकोमारेगएसैनिकोंके साथहीकु एंमेंफें ककरदबादियागया।"

इसघटनाके बारेमेंदर्दऔरफ़्रे डरिककू परके विवरणमेंकाफ़ीसमानताहैजबकिइसबातकीसंभावनानहींके बराबरहैकिज्ञानीहीरासिंहदर्दकोकू परकीपुस्तकपढ़नेकामौकामिलपायाहोगा।

बाबाजगतसिंहभीउसपुस्तककोनहींपढ़सकतेथेक्योंकिवोनिरक्षरथे।

गुरुनानकदेवविश्वविद्यालय, अमृतसरके प्रोफ़े सरसुखदेवसिंहसोहलकाकहनाहैकिइसघटनाकाज़िक्र 1857


के विद्रोहकोकु चलनेमेंअहमभूमिकानिभानेवालेचीफ़कमिश्नरसरजॉनलॉरेंसके फ्रे डरिककू परकोलिखेगएपत्रोंमेंभीमिलताहैजिसमेंउन्होंनेकू परद्वाराउठाएगएक़दमोंकीकाफ़ीतारीफ़कीहै।

इसकाज़िक्र 1911 मेंप्रकाशितम्यूटिनीरिकॉर्डसमेंभीहै।

जवाहरलालनेहरूनेभीअपनीपुस्तकविश्वइतिहासकीझलकमेंलिखाहैकि1857 मेंब्रिटेनकीतरफ़सेक्रू रताके कहींअधिकउदाहरणमिलतेहैं, जिनकोबयानतकनहींकियागयाहै।

ब्रिटेनकीतरफ़सेहोनेवालीक्रू रतासंगठितब्रिटिशअफ़सरोंकीतरफ़सेहोतीथीजबकिइसीदौरानअसंगठितलोगोंकीतरफ़सेकीगईक्रू रताकोबहुतबढ़ा-चढ़ाकरपेशकियागयाहै।

1857 के विद्रोह में ठाकु र शिव सिंह ने अंग्रेजों का विरोध किया इस पर अंगेजोंने बिकानेर कि सेना लेकर चुरू दुर्ग को चारों और से घेर कर तोपों से गोलाबारी की बरसात की
जबाव में दुर्ग से गोले बरसाए गये लेकिन जब दुर्ग में तोपके गोले समाप्त होने गले तो लुहारों ने नये गोले बनाये लेकिन कु छ समयपश्चात गोला बनाने के लिए सीसा समाप्त हो गया।
इस पर सेठ साहुकारों औरजनसामन्य ने अपने घरों से चांदी लाकर ठाकु र को समर्पित किया। लुहारों वसुनारों ने चांदी के गोले बनाये जब तोप से चांदी के गोले निकले तो शत्रुसेना
हेरान हो गयी। और जनता की भावनाओं का आदर करते हुए दुर्ग का घेरा हटालिया।इस किला का निर्माण ठाकु र कु शाल सिंह ने 1739 में करवाया था

इस पर एक लोकोक्ति प्रचलित है -
धोर ऊपर नींमड़ी धोरे ऊपर तोप।
चांदी गोला चालतां, गोरां नाख्या टोप।।
वीको-फीको पड़त्र गयो, बण गोरां हमगीर।
चांदी गोला चालिया, चूरू री तासीर।

JAYAJIRAO SCINDIA:

He was among the weak rulers and the most treacherous of all Indian traitors who chose the wrong side in the
Rebellion of 1857. Despite his efforts to keep his army on a tight leash, a large segment of the contingent responded
to the clarion call of the rebels. When asked for a little help of refuge for rest and recovery by leaders such as Rao
Sahib, Jayajirao was egged on by the de-facto power holders of Gwalior- Dinkar Rao and Sir Robert Hamilton, to
use this opportunity to capture the Rani of Jhansi, Lakshmi Bai himself. In an open confrontation at Morar, Scindia
realized he was misled about the strength of the rebel forces, and narrowly managed to escape capture. Much later,
when a battered Lakshmibai left with little options, sought him again for help, he granted her the same and yet again
betrayed her by alerting the British. In an attempted cover-up, he then let the queen escape with a weak horse.
Complicated person or smart diplomacy?
1857- भारत के educational advisor &पहले शिक्षामंत्रीमौलाना अबुल कलाम आज़ादका जन्म 11 नवंबर 1888 को सऊदी अरब के मक्का में हुआबाबर के समय
हेरात से आये परिवार के वंशज हैंमौलाना आज़ादअफग़ानउलेमाओंके ख़ानदान से ताल्लुक रखते थेउनकी माँअरबीमूल की थीं| अकबर के समय मौलाना जमालुद्दीन प्रसिद्द धार्मिक
व्यक्तिथे| शाहजहाँ के समय मोहम्मद हादी आगरा किला के गवर्नर नियुक्त किये गए| इनके नाना मुग़ल काल के अंतिम रुक्न-उल मुदारास्सिन थे| नाना ने इनके पिता का लालन
पालन शिक्षा दी| | भारत में 1857 की असफ़ल क्रांति के बाद इनके पिता का परिवार मक्का चला गया था.पिता ने मदीना के शेख (मुसलिम विद्वान) की बेटी से शादी की और
इस्लामिक संसार में प्रसिद्द हो गयेAGYPT में अरबी में प्रकाशन भी हैं| मक्का में बेगमजुवेदा द्वारा पानी आपूर्ति का मुख्य श्रोत बनाया गया जो कालांतर में क्षीण हो गया था और
पानी कि किल्लत हो गयी थी हज में भी दिक्कत हुयी | कालाम के पिता ने भारत आदि देशोसे 20 लाख रू. एकत्रित कर पानी के श्रोत को ठीक कराया इससे खुस होकर तुर्की के
सुल्तान ने इन्हें प्रथम श्रेणी का मजीदी पदक दिया| इनके पिता जेद्दा शहर में चोट से हड्डी में दिक्कत आई जिसके इलाज के लिए कोलकाता आना पड़ा| वो वापस मदीना जाना कहते
थे पर नहीं जा पाए |.पिता मौलाना खैरुद्दीन साल 1898 में परिवार सहित भारत लौट आए और कलकत्ता में बस गए.परिवार के रूढ़िवादी पृष्ठभूमि के कारणपिता ने सोचाआधुनिक
शिक्षा RELIGIOUS FAITH को नष्ट कर देगी इसलिए उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर तरीकों से हुई। घर पर या मस्ज़िद में उन्हें उनके पिता|विशेष शिक्षा और
ट्रेनिंग दी गई थी जो एक मौलवी बनने के लिए जरूरी थीं।उन्होंने अपने शुरुआती कै रियर में कई पत्रिकाओं में काम किया वे देवबन्दीविचारधारा के करीब थे।उन्होंने जमालुद्दीन
अफगानी और अलीगढ के अखिल इस्लामी सिद्धांतो और सरसैय्यद अहमद खान के विचारो में अपनी रूचि बढ़ाई। अखिल इस्लामी भावना सेओतप्रोत होकरउन्होंने अफगानिस्तान,
इराक, मिस्र, सीरिया और इजिप्त तुर्की फ्रांस का दौरा किया|वह इराक में निर्वासित क्रांतिकारियों से मिले जो ईरान में संवैधानिक सरकारकी स्थापना के लिए लड़ रहे थे। मिश्र में
उन्होंने शेख मुहम्मद अब्दुह औरसईद पाशा और अरब देश के अन्य क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं से मुलाकात की।उन्हें कांस्टेंटिनोपल में तुर्क युवाओं के आदर्शों और साहस का
प्रत्यक्षज्ञान हुआ।वह लीडर के साथ-साथ पत्रकार और लेखक भी थे।|रिहाई के पश्चात आज़ाद ने खिलाफत आंदोलन के माध्यम से मुस्लिम समुदाय को जगाया।अंग्रेजी हुकू मत के
खिलाफ़ थे| कर्मयोगी पेपर पढकर उन्हें श्री अरबिन्दो और श्यामसुन्हर चक्रवर्ती जैसे क्रांतिकारियों से समर्थन मिलावेखिलाफ़त आन्दोलनके भी प्रमुख थे। खिलाफ़ततुर्कीके उस्मानी
साम्राज्यकीप्रथम विश्वयुद्धमें हारने पर उनपर लगाए हर्जाने का विरोध करता था। उस समय ऑटोमन (उस्मानी तुर्क ) मक्का पर काबिज़ थे औरइस्लामके खलीफ़ावही थे। इसके कारण
विश्वभर के मुस्लिमों में रोष था और भारत में यहखिलाफ़त आंन्दोलन के रूप में उभरा जिसमें उस्मानों को हराने वाले मित्रराष्ट्रों (ब्रिटेन, फ्रांस, इटली) के साम्राज्य का विरोध हुआ
था। सर सय्यद अहमद खान से प्रभावित होकर आधुनिक शिक्षा के प्रति रूचि जागी फिर चूरन सरकार की किताब से इंगलिश सीखी बाइबिल, न्यूज़ पेपरपढकर उसमे सुधर किया|
founder of Jamila Milia Islamia University. He was also awarded with the highest civilian honour, the Bharat
Ratna in 1992.

इन्होने भारत की पुस्तकों में मुगलों/ जेहाद का सच छु पाया औरभारतीय महापुरुषो का वर्णन नहीं किया. India Wins Freedom by Abdul Kalam Azad:
why 30 pages of India Wins Freedom were not released by Azad. These pages expose Jinnah berators and the
reality of freedom and secularism in India.

The brain child of Jamsetji Nusserwanji Tata, a successful businessman and philanthropist, the Indian Institute of
Science (IISc) was conceived in the late 1800s. To this end, Tata set up a provisional committee under the leadership
of Burjorji Padshah, an educationist, to come up with a blueprint for the proposed university. TIFR Mumbai was
also from TATA. Sagar University by Dr. Gaur

The concept of the IITs was first introduced in a report in the year 1945 by Sh. N.M.Sircar, then member of
Education on Vicerory’s Executive Council. Following his recommendations, the first Indian Institute of Technology
was established in the year 1950 in Kharagpur. In his report, Shri Sircar had suggested that such Institutes should
also be started in different parts of the country. The Government having accepted these recommendations of the
Sircar Committee decided to establish more Institutes of Technology with the assistance of friendly countries who
were prepared to help. The first offer of help came from USSR who agreed to collaborate in the establishment of an
Institute through UNESCO at Bombay. This was followed by the Institutes of Technology at Madras, Kanpur and
Delhi with collaborations with West Germany, USA and UK respectively. Indian Institute of Technology, Guwahati
was established in 1995 and the University of Roorkee was converted into an IIT in 2001.From nuclear physicist
Homi Bhabha, founder of India’s space programme Vikram Sarabhai.

The farsighted leadership of Satish Dhawan as Director of the Institute and also Chairman of the Indian
Space Research Organisation (ISRO), helped the Indian Space Programme enter the big league of space-
faring nations.यशवंत

1861 - ताज-उल-मस्जिद, भोपाल यह निश्चित रूप से मंदिर या राजा का किला था जिसके सबसे ऊं चे दीवारों परगुंबद बना दी गई। मुगल अरब,दमिश्क तुर्क से भारत को
लूटने आए थे उन्होंनेशिल्पकला सीखी कब? उनको यहां के सोने,चांदी,हीरे ,लड़कियां,रानियां,राजकु मारियों को अरब,तुर्क भेजने के लिए बड़े महल कीजरूरत होती थी। ये
जरूरतमहल पूरा करते थे। इस मस्जिद का निर्माण कार्य (मंदिर के शिखर तोड़कर गुंबद बनाने का)भोपाल के आठवें शासक शाहजहां बेगम के शासन काल में प्रारंभ हुआ था, लेकिन
धन की कमी के कारण उनके जीवंतपर्यंतयह बन न सकी सिंकदर बेगम 1861 में दिल्ली की जामा मस्जिद में गईं तो उन्होंने देखा किजामा मस्जिद को ब्रिटिश सेना की घुड़साल में
बदल दिया गया है। तब उन्होंनेअपनी वफादारी के चलते इस मस्जिद को हासिल कर लिया और यहां शाही इमाम कीस्थापना की। जामा मस्जिद से प्रेरित होकर उन्होंने भोपाल में
एक ऐसी हीमस्जिद बनाने का संकल्प लिया।भोपाल की ताज-उल मस्जिद भारत ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे बड़ी मस्जिदोंमें से एक है। ताज-उल मस्जिद एशिया की दूसरी
सबसे बड़ी मस्जिद मानी जाती हैताज-उल मस्जिद का निर्माण भोपाल की नवाब शाहजहां बेगम द्वारा मुगल सम्राटबहादुर शाह जफर के शासनकाल के दौरान शुरू हुआ था। बता दें
कि शाहजहां बेगमबांकी मोहम्मद की पत्नी थीं। उनके बाद अपने जीवनकाल में इस मस्जिद कानिर्माण उनकी बेटी सुल्तान जहां बेगम ने जारी रखा। हालांकि फं ड की कमी के कारण
इस मस्जिद का निर्माण पूरा नहीं हो सका और शाहजहां बेगम का ये सपनाअधूरा रह गया। 1857 के युद्ध के लंबे समय बाद भोपाल के अलामा इमरान मोहम्मदखान और मौलाना
शहीद हाशमत अली साहब के प्रयासों से 1971 में इसका निर्माणएक बार फिर शुरू हुआ, जो 1985 तक चला। हालांकि इसके निर्माण में भारत सरकारका भी दखल था

17 September1879

इनके पिताजी का नाम वेंकटप्पा नायकर तथा माताजी का नाम चिन्नाबाई था।वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र, वेंकटप्पा नायकर एक बड़े व्यापारी थे।धार्मिक कार्यों, दान व परोपकार के
कार्यों में अत्यधिक रुचि रखने के कारणउन्हें उस क्षेत्र में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था| वे अक्सर अपने अस्पृश्य मित्रों को परिवार की परम्परा के विरुद्ध अपने घर बुलाते और साथ में
भोजन करते।एकसफल व्यापारी होने के कारण उनके पिताजी ने जो सम्मान और श्रद्धा अर्जित कीथी, वह धीरे–धीरे घटने लगी। विशेष रूप से उनके पिताजी वेंकटप्पा नायकर
कोअपने धर्माचरण तथा विश्वास इतने प्रिय थे, कि वे अपने पुत्र तथा व्यापारसभी को तिलांजलि दे सकते थे। मतभेदों ने शीघ्र ही छिट–पुट कहासुनी तथाविरोधों का रूप धारण कर
लिया। अन्ततः रामास्वामी ने पितृगृह छोड़ने कानिश्चय कर लिया।पेरियार युगपुरुष थे। जब देश में पाखंड, अंध विश्वास और जातिवाद से गरीबअछू त समाज के लोग कराह रहे थे,
उस समय पेरियार ने इसके विरुद्ध संघर्ष कारास्ता अख्तियार किया। आलोचनात्मक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया और तर्क के आधार पर हर हिंदू धर्म में व्याप्त कु रीतियों को सीधे
चुनौती दी।पेरियाररामास्वामी किशोरावस्था से ही तार्कि क पद्धति से चिन्तन–मनन करने लगे थे।इनके घर पर अक्सर धार्मिक अनुष्ठान एवं प्रवचन होते रहते थे। रामास्वामीअपने
तार्कि क प्रश्नों से अनुष्ठानकर्ताओं को अक्सर संकट में डाल देते थे।उम्र बढ़ने के साथ–साथ पेरियार अपनी वैज्ञानिक सोच पर और दृढ़ होते गये।परिणामस्वरूप परिवार की
अन्धविश्वास–युक्त एवं ढकोसले वाली बातें, एक के बाद एक रामास्वामी के प्रहार का निशाना बनने लगी।

कांग्रेसकी नीतियों और कार्यक्रमों, यथा– राजनैतिक स्वतंत्रता, सामाजिक पुनर्गठन, आर्थिक विकास आदि से प्रभावित होकर रामास्वामी कांग्रेस के सदस्य बने। सन् 1920 ई. में
महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन का दक्षिण भारत में पेरियाररामास्वामी को नेतृत्व का दायित्व सौंपा गया

कांग्रेसद्वारा चलाये गये नशाबंदी आंदोलन के कारण अपने बाग के एक हजार से भी अधिकताड़ के पेड़ कटवा दिया, क्योंकि नशाबंदी आंदोलन के नेतृत्वकर्ता का ताड़ के पेड़ों का
मालिक बने रहना हास्यास्पद था। इसी प्रकार ‘अदालतों का बहिष्कार’आंदोलन में रामस्वामी ने सहर्ष भारी आर्थिक हानि उठाना पसंद किया।रामास्वामी के पास उस समय लगभग
पचास हजार रूपये के प्रोनोट व दस्तावेज आदिथे, जिन्हें सरकारी अदालतों की सहायता से ही प्राप्त किया जा सकता था।उन्होंने ‘अदालतों का बहिष्कार’ आंदोलन को सार्थकता
प्रदान करने के लिएप्रोनोट व दस्तावेजों को फाड़कर फें क दिया। इस आर्थिक हानि की उन्होंने कभीचर्चा भी नहीं की। ‘वाइकोम–आंदोलन’, जो अछू तों के अधिकारों के लिए
कांग्रेसने चलाया था, का नेतृत्व भी रामास्वामी नायकर ने ही किया तथा उनके गिरफ्तार होने के पश्चात् उनकी पत्नी नागम्मई एवं एस. रामनाथन ने नेतृत्वकी बागडोर संभाली। इस
आंदोलन के परिणामस्वरूप अछू तों के अधिकारों कोस्वीकार किया गया और उनके स्वतंत्र आवागमन पर लगे सारे प्रतिबंध हटा लिएगये।

इसके बादकांग्रेस के प्रशिक्षण शिविर में ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मणछात्रों के प्रति भेदभाव बरतने के चलते उनका कांग्रेस से मन मुटाव हो गया.इसके बाद उन्‍होंने कांग्रेस के
नेताओं के समक्ष दलितों तथा पीड़ितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भी रखा जिसे मंजूरी नहीं मिल सकी. इसके बादउन्‍होंने कांग्रेस छोड़ दी.

1904 उन्हीं दिनोंबनारसकीयात्रापर जाना हुआ. उस समय तकपेरियारकी धर्म में आस्था शेष थी., काशी में ब्राह्मणों ने उनके साथ क्या किया था.?| बनारसके बारे में उनका
मानना था कि वह हिंदुओं की पवित्रतम नगरी है.बनारसपहुंचकर वे कई दिनों तक शंति की खोज में यहां से वहां भटकते रहे.ई.वी. रामास्वामी नायकरजाति-व्यवस्था इतने धुर-
विरोधी थे कि उन्होंने 1929 में अपना उपनाम ‘नायकर’त्याग दिया।

Sardar Vallabhbhai PatelHe was born on 31 October, 1875 at Karamsand, Gujarat and died on 15 December 1950
in Mumbai, Maharashtra. He is known as Iron Man of India or Bismarck of India. By profession, he was barrister
(lawyer) and had successfully practiced law. Later he left law practice and joined the Indian national movement
under leadership of Mahatma Gandhi. Rashtriya Ekta Diwas (National Unity Day) is observed every year across
India on 31 October to commemorate birth anniversary of Sardar Vallabhai Patel who had played important role in
unifying the country.

Mahatma Gandhi

At the request of Gopal Krishna Gokhale, conveyed to him by C. F. Andrews, Gandhi returned to India in 1915. He
brought an international reputation as a leading Indian nationalist, theorist and community organiser.

Gandhi joined the Indian National Congress and was introduced to Indian issues, politics and the Indian
people primarily by Gokhale. Gokhale was a key leader of the Congress Party best known for his restraint and
moderation, and his insistence on working inside the system. Gandhi took Gokhale's liberal approach based on
British Whiggish traditions and transformed it to make it look Indian.[91]
Gandhi took leadership of the Congress in 1920 and began escalating demands until on 26 January 1930 the Indian
National Congress declared the independence of India.

At the Calcutta session in 1901 Gandhi had an opportunity to meet Congress Leaders like Sir Pherozeshah
Mehta, Lokmanya B. G. Tilak, G. k. Gokhale, and others. He was not impressed with the way the Congress was
functioning. He noticed a lack of unity among the delegates.

Gandhi wanted to teach them a lesson. On his own he quietly started cleaning the bathroom and latrine. No one
volunteered to join him.
'Why do you undertake an untouchable's job?' they asked.
'Because the caste people have made this an untouchable place,' replied Gandhi

Gandhi settled down in Bombay and started practice as a lawyer. He did well, much better than he had expected. In
December 1902, however, a cable reached him from South Africa requesting him to return as promised. Joseph
Chamberlain, the Colonial Secretary, was arriving from London on a visit to Natal and the Transvaal, and the natal
Indian Congress wanted Gandhi to present their case to him.

In April 1893, Gandhi aged 23, set sail for South Africa to be the lawyer for Abdullah's cousin.[61][62] He spent 21
years in South Africa,

Gandhi faced discrimination because of his skin colour and heritage, like all people of colour.[65] He was not allowed
to sit with European passengers in the stagecoach and told to sit on the floor near the driver, then beaten when he
refused; elsewhere he was kicked into a gutter for daring to walk near a house, in another instance thrown off a train
at Pietermaritzburg after refusing to leave the first-class.[66][67] He sat in the train station, shivering all night and
pondering if he should return to India or protest for his rights.[67] He chose to protest and was allowed to board the
train the next day.[68] In another incident, the magistrate of a Durban court ordered Gandhi to remove his turban,
which he refused to do.[69] Indians were not allowed to walk on public footpaths in South Africa. Gandhi was kicked
by a police officer out of the footpath onto the street without warning.[70]

When Gandhi arrived in South Africa, according to Herman, he thought of himself as "a Briton first, and an Indian
second".[71] However, the prejudice against him and his fellow Indians from British people that Gandhi experienced
and observed deeply bothered him. He found it humiliating, struggling to understand how some people can feel
honour or superiority or pleasure in such inhumane practices.[67] Gandhi began to question his people's standing in
the British Empire.[72]

The Abdullah case that had brought him to South Africa concluded in May 1894, and the Indian community
organised a farewell party for Gandhi as he prepared to return to India.[73] However, a new Natal government
discriminatory proposal led to Gandhi extending his original period of stay in South Africa. He planned to assist
Indians in opposing a bill to deny them the right to vote, a right then proposed to be an exclusive European right. He
asked Joseph Chamberlain, the British Colonial Secretary, to reconsider his position on this bill.[63] Though unable to
halt the bill's passage, his campaign was successful in drawing attention to the grievances of Indians in South Africa.
He helped found the Natal Indian Congress in 1894,[26][68] and through this organisation, he moulded the Indian
community of South Africa into a unified political force. In January 1897, when Gandhi landed in Durban, a mob of
white settlers attacked him[74] and he escaped only through the efforts of the wife of the police superintendent.
However, he refused to press charges against any member of the mob.[26]

1885 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना


ए.ओ.ह्यूमने 1885 ई. में भारतीयों में बढ़ते हुएअसन्तोष को रोकने तथा भारत में ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के उद्देश्य सेभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। ह्यूम एक
सेवानिवृत्त आई.सी.एस.अधिकारी थे।लाल लाजपतराय ने लिखा है, इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापनाका मुख्य कारण यह था कि ह्यूम ब्रिटिश साम्राज्य की इन संकटों से
रक्षाकरना और उसे छिन्न-भिन्न होने से बनाचा चाहते थे।

इस उद्देश्य से ह्यूम ने 1 मार्च, 1883 ई. को कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम एक पत्रलिखा, जिसमें उन्होंने 50 निःस्वार्थ, स्वतन्त्र प्रेमी तथा नैतिक साहसरखने वाले
युवकों की माँग की। पत्र में ह्यूम ने लिखा था, इस स्मरणीय पत्रके कु छ अंश नीचे उद्धत किए जा रहे हैं ः

"यदि पचास आदमी भी आगे आएँ, तो सच्चे और सच्चमित्र हों, तो इस संस्था कोनिर्माण किया जा सकता है और बाद में इस संस्था का विकास भी सुगम एवं सहज होसकता हैं। इस
संस्था का संविधान लोकतान्त्रिक होगा। इसमें व्यक्तिगतमहत्त्वकांक्षा की कोई गुंजाईश नहीं होगी और इस संस्था में नेतृत्व का यहसिद्धान्त लागू होगा कि जो तुम लोगों में सबसे बड़ा
हो वह तुम्हारा सेवकहोगा।

लार्ड डफरिन ने ह्यूम द्वारा प्रस्तावित संगठन पर अपनी स्वीकृ ति देते हुएकहा था, भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं, जो इंग्लैण्ड के विरोधी दल की भाँतियहाँ भी कार्य कर सके और
सरकार को यह बता सके कि शासन में क्या त्रुटियाँहैं तथा उनको कै से दूर किया जा सकता है। लार्ड डफरिन ने यह भी कहा था, गवर्नर को भी ऐसी संस्थाओं की अध्यक्षता नहीं
करनी चाहिए, क्योंकि गर्वनरकी उपस्थिति में लोग अपने विचार स्वतन्त्रापूर्वक प्रकट नहीं कर सकें गे।ह्यूम समाज सुधार के इच्छु क थे, अतः उन्होंने कहा था, यह बहुत अच्छा
होगाकि यदि भारत के मुख्य राजनीतिक एक स्थान पर इक्टेट हों, सामाजिक मामलों परविचार करें और एक-दूसरे के मित्र बनें वह नहीं चाहता था कि ये लोग इकट्ठेहोकर
राजनीतिक मामलों पर बहस करें। कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष उमेशचन्द्रबनर्जी ने लिखा, ह्यूम का विचार था कि भारत के प्रमुख व्यक्ति वर्ष में एकबार एकत्र होकर सामाजिक विषयों पर
चर्चा कर लिया करें। वे नहीं चाहते थे किउनकी चर्चा का विषय राजनीति रहे, क्योंकि मद्रास, कलकत्ता और बम्बई मेंपहले से ही राजनैतिक संस्थाएं विद्यामान थीं। लार्ड डफरिन ने
ह्यूम के विचारों को राजनैतिक दिशा प्रदान की। उन्होंने कहा कि इच्छा व्यक्त की कियहां की रानीतिज्ञ प्रतिवर्ष सम्मेलन में मिलें और सरकार को बताए कि शासनमें क्या-क्या कमियाँ
हैं, और उनमें क्या-क्या सुधार करने चाहिएँ। ह्यूम नेरिपन, डलहौजी, जॉन ब्राइट, क्ले म आदि से इंग्लैण्ड में जाकर भावी संगठन के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। उन्होंने इंग्लैण्ड में
भारत संसदीय समितिका गठन किया। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सांसदों में भारतीय मामलों के प्रतिरूचि उत्पन्न करना था।

कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 ई. को बम्बई के तेजपाल संस्कृ तभवन में प्रारम्भ हुआ। इसमें 72 प्रतिनिधि शामिल हुए, जिसमें दादा भाईनौरोजी, फीरोजशाह
मेहता, दीनशा एदलची वाचा, काशीनाथ तैलंग, एन जीचन्द्रवरकर, बी. राधावचार्या, एस. सुब्रहण्यम आदि प्रमुख थे। इसके अध्यक्षविख्यात बैरिस्टर उमेशचन्द्र बनर्जी थे। इसमें कई
सरकारी अधिकारी भीसम्मिलित हुए। अधिवेशन के अन्त में कांग्रेस के सदस्यों ने महारानीविक्टोरिया की जय के नारे लगाए

फीरोजशाह मेहता ने 1890 में घोषणा की, मुझे विश्वास है कि अन्ततः ब्रिटिशराजनीतिज्ञ हमारी बात मान लेगें। मुझे अंग्रेजी सभ्यता और अंग्रेजीसंस्कृ ति के जीवन और सफलता
के सिद्धान्तों में अट्टू विश्वास है। स्वागतसमिति के अध्यक्ष सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 1893 के काग्रेंस के अध्यक्षआनन्दमोहन बोस ने कहा, शिक्षित वर्ग अंग्रेजों के शत्रु नहीं,
मित्र हैं।इस प्रकार अम्बिकाचरण मजूमदार ने कहा, भारत में प्रत्येक हृदय ब्रिटिश शासनके प्रति समानरूप से श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक धड़कता है तथा ब्रिटिशराजनीतिज्ञता के प्रति नव
जागृत विश्वास एवं आभार की भावना से ओत-प्रोतहै...हममें से कु छ का, हमारी परीक्षा और विप्लव की बुरी से बुरी घड़ियों मेंभी, यह अडिग विश्वास रहा है कि अन्ततः विजय
ब्रिटिश न्यायप्रियता की होगीऔर सब उस पर विश्वास करने लगेंगे।1896 में 12 वें अधिवेशन के सभापतिमोहम्मद रहीमतुल्ला सयानी ने तो यहाँ तक कह डाला, इस आकाश के
नीचे अंग्रेजीराष्ट्र के अधिक ईमानदार एवं सुदृढ राष्ट्र विद्यामान नहीं है।

कांग्रेसकीस्थापनाके उद्देश्यसम्बन्धीविवाद
कांग्रेसकी स्थापना के उद्देश्य के सम्बन्धमें विद्वानों में भारी विवाद है। इस सम्बन्ध में दो धारणाएँ हैं। पहलीधारणा के अनुसार कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए
तथादूसरी के अनुसार भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए हुई थी।

ह्यमू 1870 से 1879 ई. तक भारत सरकार के मन्त्री रहे, किन्तु उनकी ईमानदारप्रकृ ति के कारण उन्हें पदच्युत कर दिया गया। भारत की सेवा करने के उद्देश्य से उन्होंने
लेफ्टिनेन्ट गवर्नर पद भी ठु करा दिया। उनकी गृह सचिवबनने की इच्छा को इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री लार्ड सेलिसबरी ने ठु करादिया, अतः 1882 ई. में नौकरी से त्याग-पत्र देकर वे
सार्वजनिक सेवा में लगगए। 1857 के पश्चात् भारत में बढ़ते हुए असन्तोष को रोकने व आक्रोश कीभावनाओं को दबाने के लिए ह्मूम ने लार्ड डफरिन के कहने पर कांग्रेस
कीस्थापना की थी। डॉ. रघुवंशी का माना है कि, ह्यूम द्वारा कांग्रेस कीस्थापना का प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को बचाना था

1) सुरक्षावाल्वदृष्टिकोण
प्रथमधारणा के अनुसार ह्यूम एक सेवानिवृत्तअंग्रेज अधिकारी तथा तथा उसे भय था कि कहीं अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयोंका असंतोष विद्रोह का रूप धारण न कर ले। श्री वेडरवर्न ने
लिखा है, भारत के विभिन्न भागों से ब्रिटिश साम्राज्य के हितेषियों से ह्यूम को ब्रिटिशसरकार तथा भारत के भविष्य के लिए खतरे की चेतावनी मिल गई थी, क्योंकि जनताके कष्ट बढ़
गए थेऔर बुद्धिजीवी सरकार के विरूद्ध हो गए थे। उसने आगे लिखाहै, दक्षिण बारत के दंगे कु छ गिरोहों की छु ट-पुट डकै तियों से प्रारम्भहुए...यहाँ तक कि बाद में डाकु ओं के जत्थे
इकट्ठे मिल गए और पुलिस के लिएअत्यन्त शक्तिशाली सिद्ध हुए और पूना की सारी सेना को उसके विरूद्ध लड़नापड़ा।...उनमें से एक वर्ग के नेता ने अपने को शिवाजी द्वितीय
कहना प्रारम्भकर दिया। उसने सरकार की शक्ति को ललकारा अथवा चुनौती दी। बम्बई के राज्यपालमिस्टर रिचर्ड टेम्पल के सर को काटकर लाने के लिए 500 रूपये का
पुरस्कारघोषित किया गया और इस प्रकार राष्ट्रीय आधार पर विद्रोह करने का दावा किया, जिस तरह कि मूलपूप से छत्रपति शिवाजी के समय मराठा शक्ति की नींव रख दींगई थी।
प्रथम धारणा के अनुसार ह्यूम एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी तथा तथा उसेभय था कि कहीं अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयों का असंतोष विद्रोह का रूपधारण न कर ले। श्री वेडरवर्न ने
लिखा है, भारत के विभिन्न भागों से ब्रिटिशसाम्राज्य के हितेषियों से ह्यूम को ब्रिटिश सरकार तथा भारत के भविष्य के लिए खतरे की चेतावनी मिल गई थी, क्योंकि जनता के कष्ट बढ़
गए थेऔरबुद्धिजीवी सरकार के विरूद्ध हो गए थे। उसने आगे लिखा है, दक्षिण बारत के दंगे कु छ गिरोहों की छु ट-पुट डकै तियों से प्रारम्भ हुए...यहाँ तक कि बादमें डाकु ओं के जत्थे
इकट्ठे मिल गए और पुलिस के लिए अत्यन्त शक्तिशालीसिद्ध हुए और पूना की सारी सेना को उसके विरूद्ध लड़ना पड़ा।...उनमें से एकवर्ग के नेता ने अपने को शिवाजी द्वितीय
कहना प्रारम्भ कर दिया। उसने सरकारकी शक्ति को ललकारा अथवा चुनौती दी। बम्बई के राज्यपाल मिस्टर रिचर्डटेम्पल के सर को काटकर लाने के लिए 500 रूपये का पुरस्कार
घोषित किया गयाऔर इस प्रकार राष्ट्रीय आधार पर विद्रोह करने का दावा किया, जिस तरह किमूलपूप से छत्रपति शिवाजी के समय मराठा शक्ति की नींव रख दीं गई थी।

एनीबेसेण्ट ने लिखा है, ह्मयू यह अच्छी तरह जानता था कि लाखों भारतीयअत्यन्त दुःखी होकर भूखों मर रहे थे और इतना होने पर भी वे थोड़े से शासकवर्क के लिए सब प्रकार
का भोग साधन और विलास की सामग्री उत्पन्न कर रहे थे।उनको पुलिस की गुप्त रिपोर्ट पढ़ने का अवसर मिला था और वह अन्दरूनी असन्तोषकी कहानी को जानता था तथा उसे
भूमिगत षड्यन्त्र गतिविधियों और सार्वजनिकअसंतोष की लहर का आभास था, जो 1877 के अकाल के पश्चात् एक बुहत बड़ा खतरा बनगया था।
इस समय भारतीयों में गहरा असन्तोष था। ह्यूम जानता था कि भारतीयों में यदिराष्ट्रीयता को रोका नहीं गया, तो यह घातक हो सकती है। ह्मयू ने कहा, जिन्होंने इस आन्दोलन
(कांग्रेस की स्थापना) को प्राम्भिक वेग (गति) प्रदानकी, उनके सामने कोई विकल्प नहीं रह गया था। पश्चिमी शिक्षा, आविष्कारोंतथा यन्त्रों से उत्पन्न हुई उत्तेजना बहुत तेजी से
अपना काम कर रही थी औरयह परम महत्त्व की बात की गई उस असन्तोष तथा उत्तेजना को अन्दर ही अन्दरफै लने देने बजाय संवैधानिक ढंग से प्रकट करने के लिए कोई मार्ग
ढूंढा जाए।
इस प्रकार कांग्रेस का निर्माण जनता के असन्तोष को रोकने के उद्देश्य से भयके रूप में हुआ। सर विलियम वेडरबर्न ने एक बार ह्यूम से कहा था, भारत मेंअसन्तोष की बढ़ती हुई
शक्तियों से बचने के लिए एक अभय दीप की आवश्यकता है औरकांग्रेस आन्दोलन से बढ़कर अभय दीप दूसरी चीज नहीं हो सकती। लाला लाजपतरायतथा नन्दलाल चटर्जी ने इस
मत की पुष्टि की है। ह्यूम ने कु छ समय पश्चात्कहा था, हमारे कार्यों के परिणामस्वरूप उत्पन्न असन्तोष की बढ़ती हुईशक्तियों से बचाव के लिए सुरक्षा साधन की आवश्यकता थी,
जिसकी रचना हमनेइण्डियन नेशनल कांग्रेस के रूप में की। इससे अधिक प्रभावशाली सुरक्षा साधनका आयोजन असम्भव था। लाला लाजपतराय ने लिखा है, भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेसकी स्थापना का मुख्य कारण यह था कि इसके संस्थापकों की उतकं ठा ब्रिटिशसाम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाना था। लाला लाजपतराय ने यंग इण्डियामें लिखा है,
राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य अंग्रेजीसाम्राजय को खतरे से बचाना था। भारत की राजनैतिक स्वतन्त्र के लिए प्रयासकरना नहीं, अंग्रेजी साम्राज्य के हितों की पुष्टि
करना था, और इस सत्य सेइन्कार भी नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस ने इसका पालन नहीं किया। मि.वेडरबर्न ने लिखा है, ह्यूम साहब की यह योजना क्रान्ति का भय दूर करने
तथाभारतीयों मं उमड़ती राष्ट्रीयता की भावना को रोकने के उद्देश्य से बनाई गईथी।
डॉ. अयोध्या सिंह लिखते हैं, कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि भारतीय क्रान्ति को रोकने का अस्त्र बनाने के लिए पैदा कीगई। ब्रिटिश शासको ने अपने
साम्राज्य की रक्षा के लिए ऐसा अस्त्र पैदा करनाजरूरी समझा था।(GANDHI AND NEHRU)

डॉ. नन्दलाल चटर्जी के अनुसार, मि. ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना काविचार उस समय देशवासियों के सम्‌ुख प्रस्तुत किया, जबकि भारत पर रूसीआक्रमण का विशेष भय था।
अतः यह स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य भारतीय आान्दोलनको ठीक दिशा में परिवर्तित कर देना तथा इस देश में रूसियों के हथकण्डे तथाशरारतें रोक देना था। जब रूस के आक्रमण
का भय समाप्त हो गया, तो भारतसरकार का व्यवहार कांग्रेस के प्रति एकदम बदल गया। रजनीपम दत्त ने लिखा है, कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की एक पूर्व निश्चित गुप्त
योजना के अनुसार की गई थी। अयोध्या सिंह लिखते हैं, कांग्रेस का जन्म इसलिए हुआ किब्रिटिश शासक और उनके पैरोकार इसकी जरूरत समझते थे। वह राष्ट्रीय आन्दोलनके
स्वाभाविक विकास नहीं, राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्राज्यवादियों औरउपनिवेशवादियों के हस्तक्षेप का परिणाम था।
इस प्रकार कांग्रेस शिक्षित भारतीयों के असन्तोष का अभिव्यक्त करने काशान्तिपूर्ण माध्यम बन गई। 1889 की कांग्रेस की रिपोर्ट में कहा गया था, कांग्रेस आन्दोलन की यह महत्ता
है कि उसने भारत में फै ली हुई छोटी-मोटीक्रांतिकारी संस्थाओं को दबा दिया और राजनीतिक असन्तोष को वैधानिक उपायोंद्वारा व्यक्त करने का साधन उपस्थित किया।
2. भारतीयहितोंकीरक्षाकरनेवालीसंस्थाके रूपमें
दूसरेमत के समर्थकों के अनुसार अनेक भारतीयोंने भी कांग्रेस की स्थापना में भाग लिया। एनीबेसेण्ट ने लिखा है, राष्ट्रीयकांग्रेस का जन्म मातृभूमि की रक्षा के हित में 17 प्रमुख
भारतीयों तथाह्यूम के द्वारा हुआ था। श्री गुरूमुख निहालसिंह ने लिखा है, यह सम्भव हैकि ब्रिटिश साम्राज्य को बचाने तथा कांग्रेस का प्रयोग एक अभय दीप की तरहकरने के विचार
ह्यूम तथा वेडरबर्न के हृदयों में थे, किन्तु इस बात परविश्वास करना असम्भव है कि दादाभाई नौरोजी, सुरेन्दनाथ बनर्जी, फीरोजशाहमेहता था रानाडे जैसे भारतीय नेता उनके
हाथो के साधन मात्र थे या वे भीब्रिटिश साम्राज्य को क्रान्ति के खतरे से बचाने का विचार रखते थे। डॉ.ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारतीयों के हितकी दृष्टि
से की गई थी।

राष्ट्रीयआन्दोलनएवंकांग्रेस
जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि क्रांगेस एकराष्ट्रीय संस्था थी, जो सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करती थी। इतना ही नहीं, उसे ब्रिटिश सरकार का समर्थन भी प्राप्त था। आरम्भ में
यह संस्था सरकार के समक्ष राष्ट्रीय समस्याओं पर अपना पक्ष प्रस्तुत करती थी और इसकी भक्तिब्रिटिश सरकार के प्रति थी। इसलिए यह संस्था भारत में ब्रिटिश राज्य कीस्थापना,
भारतीयों के लिए हितकारी समझती थी। कांग्रेस के सम्मेलनों मेंअंग्रेज अधिकार भाग लेते ते और सरकार बी कांग्रेस के प्रतिनिधियों कासम्मान करती थी। धीरे-धीरे कांग्रेस के उद्देश्यों
में परिवर्तन होता गया।नौकरियों की माँग से आरम्भ होकर उनकी माँग स्वराज्य में परिणित हो गई। अबकांग्रेस प्रतिनिधि सरकार की आलोचना करने लगे। अंग्रेज कांग्रेस के बढ़तेहुए
प्रभाव के कारण उसके विरोधी बन गई। अब कांग्रेस ने सरकार में विश्वासकरना व उसके साथ सहयोग करना छोड़ दिया और संघर्ष के माध्यम से स्वराज्यप्राप्त करने का प्रयास
किया। कांग्रेस ने आरम्भ से लेकर स्वतन्त्रताप्राप्ति तक राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया

कांग्रेस के प्रथम तीन अधिवेशनों में ब्रिटिश सरकार ने पूर्णरूप से सहयोगदिया था, किन्तु 1888 ई. से सरकार ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएँ उपस्थितकरना प्रारम्भ कर दिया।
1888 ई. में इलाहाबाद में कांग्रेस के अधिवेशन के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार ने उचित स्थान देने से इन्कार कर दिया, लेकिनदरभंगा नरेश ने लौदर कौंसिल हाऊस खरीदकर
अधिवेशन के लिए कांग्रेस दे दिया।उस पश्चिमी सीमा प्रान्त के गवर्नर जनरल सर लाककै ण्ड ने एक आदेश-पत्रद्वारा अंग्रेजों और सरकारी कर्मचारियों का कांग्रेस के अधिवेशनों में
भागलेना निषिद्ध कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने देशी नरेशों तथा मुसलमानों से भीकांग्रेस से दूर रहने के लिए कहा।

अंग्रेजों ने 1888 ई. में सर सैयद अहमद खाँ से एंग्लो मुस्लिम डिफें सएसोसियेशन की स्थापना इसलिए करवाई, ताकि कांग्रेस को निर्बल बनाया जा सके ।अंग्रेजों ने कांग्रेस को
हिन्दुओं की संस्था कहकर मुसलमानों को अपने हितोंकी रक्षा करने के लिए पृथक् संगठन बनाने की आवश्यकता पर जोर देकर उक्तसंस्था बनवाई। इस प्रकार, अंग्रेजों ने भारत में
फू ट डाला और राज करो कीनीति अपनाई।
12 september1897 - सारागढ़ी का युद्ध ब्रिटिश भारतीय सेना की 36 वीं सिख रेजिमेंट के 21 सैनिकों और 10,000 से अधिक पश्तून आदिवासियों के बीच लड़ा
गया था। द्वितीयएंग्लो-अफगान युद्ध के लगभग दो दशक बाद यह लड़ाई हुई।अफगानिस्तान में फोर्ट गुलिस्तान और फोर्ट लॉकहार्ट दो किले थेकिले का निर्माण रणजीत सिंह करवाया
था। सारागढ़ी कोइन दोनों किलों के बीच सिगनल स्टेशन के रूप में स्थापित किया गया था ताकिएक सिरे से दूसरे सिरे तक संदेशों को रिले किया जा सके । यहां पर 36 वीं
सिखबटालियन के 21 सैनिकों को इस पद की सुरक्षा के लिए प्रतिनियुक्त किया गयाथा।लेकिन समय रहते ही ब्रिटिश सेना वह पहुँच गई थी और वहां जाकर लड़ाई कामोर्चा संभाल
लिया और इस युद्ध पर जीत हासिल की। जिस तरह इन 21 सिपाहियोंने इन अफगानों को रोके रखा वो सच में काबिले तारीफ है। इन सिपाहियों की वजहसे ब्रिटिश सेना में इन
हमलावरों को आसानी से हरा दिया। सबसे खास बात तोयह है कि जब इन सिख सिपाहियों की बदुकों में गोलियां खत्म हो गई थी तोउन्होंने उन 10000 दुश्मनों का सामना चाक़ू
की मदद से किया।जिसके बाद गुरमुख सिंह ने लोकहार्ट किले में कर्नल हौथटन को इस बात कीसुचना दी की उन पर हमला हो गया है। लेकिन कर्नल हौथटन उस समय तुरंत
सेनानहीं भेज पाए थे। जिसके बाद ब्रिटिश सेना में एक हवलदार के रूप में ईशरसिंह की अगुवाई में यह युद्ध लड़ा गया। सिख सैनिकों ने फै सला लिया कि वो इसलड़ाई को अंतिम
सांस तक लड़ेंगे| अफ्गान सेना सिख सैनिकों को आत्मसमर्पण के लिये लुभा रही थी और लेकिन सैनिकहार मानने नहीं वाले थे। दुश्मनों ने दो बार मुख्य द्वार क तोड़ने काप्रयास
किया, लेकिन वो लोग असफल रहे इसके बाद उन्होंने दीवार तोड़ थी और फिरशुरू हुआ आमने-सामने का युद्ध| अफ्गानों ने उन्हें मारने के लिए लिए आग के गोलों से हमला किया।
लेकिन वोमरते दम तक लगातार “बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” बोलते रहे।लेकिन बचाव दल के वहां पहुंचने पर करीब 600 शव वरामद हुए।सारागढ़ी युद्ध में शहीद हुए सभी
21 सैनिकों को ब्रिटिश इंडिया द्वारा ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ अवार्ड से सम्मानित किया गया था। यह अवार्ड आज के परमवीर चक्र के समान है। सबसे खास बात तो यह है कि
इतिहास में ऐसा पहली बारहुआ है कि जब किसी बटालियन के हर सदस्य को युद्ध में वीरता का पुरूस्कारदिया गया था।12 september को Saragarhi Day घोषित
किया गया और यह आज भी हर वर्ष ब्रिटेन, इंग्लैंड में मनाया जाता है. भारत में सिख रेजीमेंट इसे Regimental Battle Honours Day के रूप में मनाती है.

29 January 1904 (जोगेंद्रनाथमंडल , पाकिस्तानके कानूनमंत्री)

जिसने 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान संविधान सभा के ऐतिहासिक सत्र की अध्यक्षता की।वो नेता जिसने बाबा साहब का हाथ पकड़ा और उन्हें बंगाल के रास्ते संविधानसभा
तक पहुंचाया। मोहम्मद अली जिन्ना के उस विश्वासपात्र के बारे में, जोपाकिस्तान का पहला कानून मंत्री हुआ। अविभाजित भारत के सबसे बड़े दलित नेताके बारे में जिसने
पाकिस्तान में उन्हीं लोगों का शोषण देखा, जो उसके कहनेपर भारत छोड़कर वहां गए थे। उस वफादार साथी के बारे में जिसे जिन्ना कीमौत के बाद भारत में शरणार्थी बनकर वापस
लौटना पड़ा। 13 साल के उस राजनीतिकसफर के बारे में जो 1937 में पश्चिम बंगाल की बाकारगंज उत्तर-पूर्वविधानसभा सीट से शुरू होकर पाकिस्तान के कानून मंत्री के पद
तक पहुंचा औरफिर साल 1950 में गुमनामी में जा मिला।कांग्रेस बाबा साहब को हर हाल में रोकने में जुटी थी। उन्हें राजनीतिक तौरपर स्थापित नहीं होने देना चाहती थी। दलितों
और दलित नेताओं के प्रतिकांग्रेस के इस रवैये से नाराज जोगेंद्र बाबू ने कांग्रेस छोड़ मुस्लिम लीगका दामन थाम लिया और दलित-मुस्लिम राजनीतिक एकता का नारा दिया। यह
भारतीयराजनीति में ऐसा पहला प्रयोग था।

 जोगेंद्र नाथ मंडल का जन्म 29 जनवरी 1904 को पूर्ववर्ती बंगाल (अब बांग्लादेश) में एक दलित समुदाय में हुआ था।
 शायद यही वजह थी कि उन्होंने अपनीराजनीति को हमेशा पिछड़ी जातियों के इर्द-गिर्द रखा। जोगेंद्र नाथ सुभाषचंद्र बोस से काफी प्रभावित थे।
 दलितों के लिए कु छ करने की लालसा नेउन्हें कांग्रेस का भी करीबी बनाया। जिसके कु छ समय बाद उन्हें लगा किकांग्रेस के पास समाज कल्याण के लिए कोई एजेंडा
ही नहीं है।
 इस वजह से उन्होंने कांग्रेस से दूरीबनानी शुरू कर दी। दूसरी ओर मुस्लिम लीग बाहें पसारे उनका स्वागत करने के लिए बेकरार थी, क्योंकि दलितों में जोगेंद्र की
अच्छी पकड़ थी।
 जिन्ना समेत सभी मुख्य नेताओं का मानना था कि जोगेंद्र के पार्टी में आने से दलित समाज में भी पार्टी की स्वीकार्यता हो जाएगी।
 कई इतिहासकारों का मानना है कि जोगेंद्रको पार्टी में सम्मान और पद देने के पीछे सोची समझी साजिश थी। इसी वजह सेमंडल बहुत कम समय में ही जिन्ना के बेहद
करीबी हो गए थे।


आंबेडकर का संविधान सभा में प्रवेश- कहा जाता है कि कांग्रेस कभी नहीं चाहतीथी कि आंबेडकर किसी भी कीमत पर संविधान सभा में शामिल हों। इसके
लिएकांग्रेस ने दांव-पेंच भी लगाए। कांग्रेस ने तो यहां तक भी कह दिया था किसंविधान सभा के दरवाजे ही नहीं उसकी खिड़कियां भी डॉ. आंबेडकर के लिए बंदहैं।
 शुरू में, संविधान सभा में भेजे गए प्रारंभिक 296 सदस्यों में अंबेडकर कोजगह तक नहीं मिली थी लेकिन इस व्यक्ति ने जैसे ही अंबेडकर के कं धे पर हाथरखा,
इतिहास ने हाशिये के तरफ धके ल दिए गए अंबेडकर को भारत के संविधाननिर्माता के तौर पर पहचाने जाने की कहानी लिखना शुरू कर दिया.
 नतीजा यह हुआ कि आंबेडकर बंबई से चुनावहार गए। इसके बाद मंडल ने उन्हें बंगाल के जैसोर-खुलना चुनाव क्षेत्र सेचुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया। मंडल, डॉ.
आंबेडकर की उम्मीदवारी के प्रस्तावक बने।
 मंडल के प्रभाव के चलते मुस्लिम लीग नेइस चुनाव में आंबेडकर को नैतिक समर्थन दिया। चुनाव हुए, नतीजे आए और डॉ.आंबेडकर के संविधान सभा में जाने का
रास्ता साफ हो गया।

भारत-पाक बंटवारे में मंडल की भूमिका

 मंडल और उनके सर्मथकों का मानना था किमुस्लिम लीग, कांग्रेस की तुलना में ज्यादा धर्म-निरपेक्ष है। उनका माननाथा कि पाकिस्तान में दलितों के लिए बेहतर
भविष्य है।
 अब वे खुलकर ‘पाकिस्तान मूवमेंट’ के समर्थन में आ गए थे। बाकि दलितों को भी इस आंदोलन के साथ जोड़ना शुरू कर दिया था।
मंडल और आंबेडकर के बीच फर्क

 एक चीज जो आंबेडकर और जोगेंद्र नाथ मंडल को अलग करती थी, वो थी विभाजनको लेकर उनकी सोच। जहां जोगेंद्र पूरी तरह से पाकिस्तान के पक्ष में थे।वहीं
अंबेडकर विभाजन के खिलाफ थे।
 आंबेडकर का मानना था कि दलितों के लिए भारत ही उपयुक्त है। उनका कहनाथा कि अगर भारत का बंटवारा धर्म के आधार पर हो रहा है तो जरूरी है कि कोईभी
मुसलमान भारत में ना रहे और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को भी भारतआ जाना चाहिए, वरना समस्याएं बनी रहेंगी।
 इसके बाद मंडल ने मुस्लिम लीग की तरफ से बंटवारे के वक्त अहम किरदारनिभाया। बंगाल के कु छ इलाकों में जहां हिन्दू और मुसलमानों की आबादी समानथी, वहां
पाकिस्तान या हिंदुस्तान में शामिल होने के लिए चुनाव करवाए गए।जिन्ना ने इसका जिम्मा जोगेंद्र को दिया।
 यहां उन्हें मंडल की दलित समाज में अच्छी पकड़ का फायदा हुआ। बतायाजाता है कि उन्होंने पिछड़ी जाति के वोटों को पाकिस्तान के पक्ष में करादिया और इसी
वजह से मुस्लिम लीग भारत के एक बड़े हिस्से को पाकिस्तान मेंमिलाने में कामयाब रही

बंटवारे के बाद मंडल और पाकिस्तान

 बंटवारे के बाद मंडल एक बड़ी दलित आबादी लेकर पाकिस्तान चले गए। जिसकाइनाम उन्हें मिला पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री काे पद के रूपमें।
 धीरे-धीरे चीजें बदलने लगी। दलित जिस पाकिस्तान में अपना भविष्य देख रहे थे, उसी ने अपना मुंह दूसरी ओर करना शुरू कर दिया था।
 आए दिन दलित हिंदुओं पर अत्याचार की घटनाएं होनी शुरू हो गईं। दलितोंकी निर्ममतापूर्वक हत्या, जबरन धर्म-परिवर्तन, संपत्ति पर जबरन कब्जा औरदलित बहन-
बेटियों की आबरू लूटना आम बात हो गई थी।

1950 में करीब 10,000 दलितों को मौत के घाट उतार दिया गया

 मंडल ने मोहम्मद अली जिन्ना और अन्य नेताओं से कई बार बात भी की, लेकिन किसी के भी कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।
 मैंने ख्वाजा नजीममुद्दीन से बात कर ईस्ट बंगाल की कै बिनेट में दोपिछड़ी जाति के लोगो को शामिल करने का अनुरोध किया । उन्होंने मुझसे ऐसाकरने का वादा किया
। लेकिन इसे टाल दिया गया जिससे मै बहुत हताश हुआ ।
 मंडल ने अपने खत में पाकिस्तान में दलितों पर हुए अत्याचार की कईघटनाओं जिक्र किया उन्होंने लिखा, 'गोपालगंज के पास दीघरकु ल (Digharkul ) में
मुस्लिम की झूटी शिकायत पर स्थानीय नमोशूद्राय लोगो के साथ क्रू रअत्याचार किया गया । पुलिस के साथ मिलकर मुसलमानों ने मिलकर नमोशूद्रायसमाज के लोगो
को पीटा, घरों में छापे मारे । एक गर्भवती महिला की इतनीबेरहमी से पिटाई की गयी कि उसका मौके पर ही गर्भपात हो गया निर्दोष हिन्दुओविशेष रूप से पिछड़े
समुदाय के लोगो पर सेना और पुलिस ने भी हिंसा कोबढ़ावा दिया । सयलहेट जिले के हबीबगढ़ में निर्दोष पुरुषो और महिलाओं कोपीटा गया । सेना ने न के बल लोगो
को पीटा बल्कि हिंदू पुरुषो को उनकीमहिलाओं सैन्य शिविरों में भेजने के मजबूर किया ताकि वो सेना की कामुकइच्छाओं को पूरा कर सके । मैं इस मामले को आपके
संज्ञान में लाया था, मुझेइस मामले में रिपोर्ट के लिये आश्वस्त किया गया लेकिन रिपोर्ट नहीं आई ।
 खुलना (Khulna) जिले कलशैरा (Kalshira) में सशस्त्र पुलिस, सेना औरस्थानीय लोगो ने निर्दयता से पुरे गाँव पर हमला किया । कई महिलाओं कापुलिस,
सेना और स्थानीय लोगो द्वारा बलात्कार किया गया । मैने 28 फरवरी 1950 को कलशैरा और आसपास के गांवों का दौरा किया । जब मैं कलशैरा में आयातो देखा
यहाँ जगह उजाड़ और खंडहर में बदल गयी । यहाँ करीबन 350 घरों कोध्वस्त कर दिया गया । मैंने तथ्यों के साथ आपको सूचना दी ।
 ढाका में नौ दिनों के प्रवास के दौरान में दंगा प्रभावित इलाकों कादौरा किया । ढाका नारायणगंज और ढाका चंटगाँव के बीच ट्रेनों और पटरियों परनिर्दोष हिन्दुओ की
हत्याओं ने मुझे गहरा झटका दिया । मैंने ईस्ट बंगाल के मुख्यमंत्री से मुलाकात कर दंगा प्रसार को रोकने के लिये जरूरी कदमों कोउठाने का आग्रह किया । 20 फरवरी
1950 को मैं बरिसाल (Barisal) पहुंचा ।यहाँ की घटनाओं के बारे में जानकार में चकित था । यहाँ बड़ी संख्या मेंहिन्दुओ को जला दिया गया । उनकी बड़ी संख्या
को खत्म कर दिया गया । मैंनेजिले में लगभग सभी दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया । मधापाशा (Madhabpasha) में जमींदार के घर में 200 लोगो की मौत
हुई और 40 घायल थे ।एक जगह है मुलादी (Muladi ), प्रत्यक्षदर्शी ने यहाँ भयानक नरक देखा । यहाँ 300 लोगो का कत्लेआम हुआ । वहां गाँव में शवो के
कं काल भी देखे नदी किनारेगिद्द और कु त्ते लाशो को खा रहे थे । यहाँ सभी पुरुषो की हत्याओं के बादलड़कियों को आपस में बाँट लिया गया । राजापुर में 60 लोग
मारे गये ।बाबूगंज (Babuganj) में हिन्दुओ की सभी दुकानों को लूट आग लगा दी गयी ईस्टबंगाल के दंगे में अनुमान के मुताबिक 10000 लोगो की हत्याएं हुई ।
अपनेआसपास महिलाओं और बच्चो को विलाप करते हुए मेरा दिल पिघल गया । मैंने अपनेआप से पूछा, 'क्या मै इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान आया था ।''
 मंडल ने अपने खत में आगे लिखा, 'ईस्ट बंगाल में आज क्या हालात हैं? विभाजन के बाद 5 लाख हिन्दुओ ने देश छोड़ दिया है । मुसलमानों द्वारा हिंदूवकीलों, हिंदू
डॉक्टरों, हिंदू व्यापारियों, हिंदू दुकानदारों के बहिष्कारके बाद उन्हें आजीविका के लिये पलायन करने के लिये मजबूर होना पड़ा । मुझेमुसलमानों द्वारा पिछड़ी जाति
की लडकियों के साथ बलात्कार की जानकारी मिलीहै । हिन्दुओ द्वारा बेचे गये सामान की मुसलमान खरीददार पूरी कीमत नहीं देरहे हैं । तथ्य की बात यह है
पाकिस्तान में न कोई न्याय है, न कानून काराज इसीलिए हिंदू चिंतित हैं ।
 पूर्वी पाकिस्तान के अलावा पश्चिमी पाकिस्तान में भी ऐसे ही हालातहैं । विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब में 1 लाख पिछड़ी जाति के लोग थे उनमेसे बड़ी संख्या को
बलपूर्वक इस्लाम में परिवर्तित किया गया है । मुझे एकलिस्ट मिली है जिसमे 363 मंदिरों और गुरूद्वारे मुस्लिमों के कब्जे में हैं। इनमे से कु छ को मोची की दुकान,
कसाईखाना और होटलों में तब्दील कर दियाहै मुझे जानकारी मिली है सिंध में रहने वाली पिछड़ी जाति की बड़ी संख्या कोजबरन मुसलमान बनाया गया है । इन
सबका कारण एक है । हिंदू धर्म को मानने के अलावा इनकी कोई गलती नहीं है ।
 जोगेंद्र नाथ मंडल ने अंत में लिखा, 'पाकिस्तान की पूर्ण तस्वीर तथाउस निर्दयी एवं कठोर अन्याय को एक तरफ रखते हुए, मेरा अपना तजुर्बा भी कु छकम दुखदायी,
पीड़ादायक नहीं है । आपने अपने प्रधानमंत्री और संसदीय पार्टीके पद का उपयोग करते हुए मुझसे एक वक्तव्य जारी करवाया था, जो मैंने 8 सितम्बर को दिया था ।
आप जानतें हैं मेरी ऐसी मंशा नहीं थी कि मै ऐसे असत्यऔर असत्य से भी बुरे अर्धसत्य भरा वक्तव्य जारी करूं । जब तक मै मंत्री के रूप में आपके साथ और आपके
नेतृत्व में काम कर रहा था मेरे लिये आपके आग्रहको ठु करा देना मुमकिन नहीं था पर अब मै इससे ज्यादा झूठे दिखाबे तथा असत्यके बोझ को अपनी अंतरात्मा पर
नहीं लाद सकता । मै यह निश्चय किया कि मैआपके मंत्री के तौर पर अपना इस्तीफे का प्रस्ताव आपको दूँ, जो कि मै आपके हाथों में थमा रहा हूँ । मुझे उम्मीद है आप
बिना किसी देरी के इसे स्वीकारकरेंगे । आप बेशक इस्लामिक स्टेट के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस पदको किसी को देने के लिये स्वतंत्र हैं ।
 पाकिस्तान में मंत्रिमंडल से इस्तीफे के बाद जोगेंद्र नाथ मंडल भारतआ गये । कु छ वर्ष गुमनामी की जिन्दगी जीने के बाद 5 अक्टू बर, 1968 कोपश्चिम बंगाल में
उन्होंने अंतिम सांस ली ।

 सितंबर, 1948 में जिन्ना चल बसे। इसके बाद मंडल की अहमियत भी खत्म कर दी गई। बात इतनी आगे बढ़ गई कि फरवरी, 1950 में पाकिस्तान में करीब
10,000 दलितों को मौत के घाट उतार दिया गया। जिसकाजिक्र खुद मंडल ने अपने त्यागपत्र में किया है।
 उन्होंने दलितों की स्थिति सुधाने के लिए पाकिस्तान सरकार को कई खत लिखे। पर सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
 अब पाकिस्तान के नौकरशाहों ने मंडल की नाक में दम कर दिया। उन्हें पल-पल अपमान सहना पड़ा।
 उन्होंने इस दलित-मुस्लिम राजनीतिक एकताके असफल प्रयोग के लिए खुद को कसूरवार समझा और 8 अक्टू बर 1950 को पाकिस्तानके तत्कालीन प्रधानमंत्री
लियाकत अली खान को अपना इस्तीफा सौंपा औरशरणार्थी बनकर भारत लौट आए।कम्युनिस्टों ने उन्हें जोगेंद्र अली मुल्ला नाम दिया।5 October1968 को
पश्चिम बंगाल के बानगांव में उन्होंने अंतिम सांस ली।

जब जोगेंद्र नाथ मंडल दलितों को लेकर पाकिस्तान जाने लगे, तो बाबा साहबआंबेडकर ने उन्हें बहुत रोका, पर मंडल नहीं माने। वहां जाकर कु छ ही दिनोंमें मंडल के दिल से
दलित-मुस्लिम एकता का भ्रम टूट गया। यह प्रयोग अपनेदर्दनाक अंजाम तक जा पहुंचा और इसकी परिणति जोगेंद्र बाबू के इस्तीफे मेंहुई, जो उन्होंने 8 अक्तू बर,1950 को
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अलीखां को सौंपा था और वापस भारत लौट आए। अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा किकिस तरह पाकिस्तान सरकार में मंत्री रहते हुए भी वह
दलितों को बहुसंख्यकोंके अत्याचार से नहीं बचा पाए। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे ज्यादातरदलित या तो मार दिए गए या फिर मजबूरी में उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया।
अपनी ही हुकू मत में वह चीखते-चिल्लाते रहे, लेकिन पाकिस्तान सरकार न तोदलितों की मदद के लिए आई, न ही अल्पसंख्यक हिंदुओं की हिफाजत के लिए उसनेकोई कदम
उठाया। दलित-मुस्लिम राजनीतिक एकता के असफल प्रयोग के संताप, क्षोभ, अभाव व गुमनामी में प्रखर कानूनविद्, मुखर और विद्वान दलित नेताजोगेंद्र बाबू ने 5 अक्तू बर,
1968 को पश्चिम बंगाल के बनगांव में अंतिमसांस ली।

मंडल के त्यागपत्र के शब्द कु छ इस तरह थे:

“बंगाल में मुस्लिम और दलितों की एक जैसीहालात थी. दोनों ही पिछड़े, मछु आरे, अशिक्षित थे. मुझे आश्वस्त किया गयाथा कि लीग के साथ मेरे सहयोग से ऐसे कदम उठाये
जायेंगे जिससे बंगाल की बड़ीआबादी का भला होगा. हम मिलकर ऐसी आधारशिला रखेंगे जिससे सांप्रदायिक शांतिऔर सौहादर्य बढ़ेगा. इन्हीं कारणों से मैंने मुस्लिम लीग का साथ
दिया.

1946 में पाकिस्तान के निर्माण के लियेमुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ मनाया. जिसके बाद बंगाल में भीषण दंगेहुए. कलकत्ता के नोआखली नरसंहार में पिछड़ी जाति समेत
कई हिंदुओं कीहत्याएँ हुई, सैकड़ों ने इस्लाम कबूल लिया. हिंदू महिलाओं का बलात्कार, अपहरण किया गया. इसके बाद मैंने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया. मैंनेहिंदुओं के
भयानक दुःख देखें जिनसे अभिभूत हूँ लेकिन फिर भी मैंने मुस्लिमलीग के साथ सहयोग की नीति को जारी रखा.

14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनने के बादमुझे मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. मैंने ख्वाजा नजीममुद्दीन से बात करईस्ट बंगाल की कै बिनेट में दो पिछड़ी जाति के लोगों को
शामिल करने काअनुरोध किया. उन्होंने मुझसे ऐसा करने का वादा किया. लेकिन इसे टाल दियागया जिससे मैं बहुत हताश हुआ.

गोपालगंज के पास दीघरकु ल में एक मुस्लिमकी झूठी शिकायत पर स्थानीय नमोशूद्राय लोगों के साथ क्रू र अत्याचार कियागया. पुलिस के साथ मिलकर मुसलमानों ने नमोशूद्राय
समाज के लोगो को पीटा, घरों में छापे मारे. एक गर्भवती महिला की इतनी बेरहमी से पिटाई की गयी किउसका मौके पर ही गर्भपात हो गया. निर्दोष हिंदुओं विशेष रूप से
पिछड़ेसमुदाय के लोगों पर सेना और पुलिस ने भी हिंसा को बढ़ावा दिया. सयलहेट जिलेके हबीबगढ़ में निर्दोष पुरुषों और महिलाओं को पीटा गया.

सेना ने न के वल लोगों को पीटा बल्किहिंदू पुरुषों को उनकी महिलाओं को सैन्य शिविरों में भेजने के लिए मजबूरकिया ताकि वो सेना की कामुक इच्छाओं को पूरा कर सकें . मैं इस
मामले को आपके संज्ञान में लाया था, मुझे इस मामले में रिपोर्ट के लिये आश्वस्त किया गयालेकिन रिपोर्ट नहीं आई.

खुलना जिले कलशैरा में सशस्त्र पुलिस, सेना और स्थानीय लोगो ने निर्दयता से पुरे गाँव पर हमला किया. कई महिलाओंका पुलिस, सेना और स्थानीय लोगो द्वारा बलात्कार किया
गया. मैंने 28 फरवरी 1950 को कलशैरा और आसपास के गांवों का दौरा किया. जब मैं कलशैरा में आया तोदेखा यह जगह उजाड़ और खंडहर में बदल गयी है. यहाँ करीबन
350 घरों कोध्वस्त कर दिया गया. मैंने तथ्यों के साथ आपको सूचना दी.

ढाका में नौ दिनों के प्रवास के दौरानमैंने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया. ढाका-नारायणगंज और ढाका-चंटगाँवके बीच ट्रेनों और पटरियों पर निर्दोष हिंदुओं की हत्याओं ने मुझे
गहराझटका दिया.

मैंने ईस्ट बंगाल के मुख्यमंत्री से मिलकर कर दंगों को रोकने के लिये जरूरी कदम उठाने का आग्रह किया.
20 फरवरी 1950 को मैं बरिसाल पहुंचा.यहाँ की घटनाओं के बारे में जानकर में चकित था. यहाँ बड़ी संख्या मेंहिंदुओं को जला दिया गया. उनकी बड़ी संख्या को खत्म कर दिया
गया. मैंनेजिले में लगभग सभी दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया. मधापाशा में जमींदारके घर में 200 लोगो की मौत हुई और 40 घायल थे. एक जगह है मुलादीप्रत्यक्षदर्शी ने
यहाँ भयानक नरक देखा. यहाँ 300 लोगो का कत्लेआम हुआ.वहां गाँव में शवों के कं काल भी देखे. नदी किनारे गिद्द और कु त्ते लाशों कोखा रहे थे. यहाँ सभी पुरुषों की हत्याओं के
बाद लड़कियों को आपस में बाँटलिया गया.

राजापुर में 60 लोग मारे गये. बाबूगंजमें हिंदुओं की सभी दुकानों को लूट आग लगा दी गयी. ईस्ट बंगाल के दंगे मेंअनुमान के मुताबिक 10000 लोगो की हत्याएँ हुई. अपने
आसपास महिलाओं औरबच्चों को विलाप करते हुए मेरा दिल पिघल गया.

मैंने अपने आप से पूछा, क्या मैं इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान आया था!

मंडल ने अपने खत में आगे लिखा, ‘ईस्टबंगाल में आज क्या हालात हैं? विभाजन के बाद 5 लाख हिंदुओं ने देश छोड़दिया है. मुसलमानों द्वारा हिंदू वकीलों, हिंदू डॉक्टरों,
हिंदूव्यापारियों, हिंदू दुकानदारों के बहिष्कार के बाद उन्हें आजीविका के लियेपलायन करने के लिये मजबूर होना पड़ा.

मुझे मुसलमानों द्वारा पिछड़ी जाति कीलड़कियों के साथ बलात्कार की जानकारी मिली है. हिंदुओं द्वारा बेचे गयेसामान की मुसलमान ख़रीददार पूरी कीमत नहीं दे रहे हैं. तथ्य की
बात यह हैपाकिस्तान में न कोई न्याय है, न कानून का राज इसीलिए हिंदू चिंतित हैं.

पूर्वी पाकिस्तान के अलावा पश्चिमीपाकिस्तान में भी ऐसे ही हालात हैं. विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब में 1 लाखपिछड़ी जाति के लोग थे उनमें से बड़ी संख्या को बल-पूर्वक
इस्लाम मेंपरिवर्तित किया गया है. मुझे एक लिस्ट मिली है जिसमे 363 मंदिरों औरगुरुद्वारे मुस्लिमों के कब्ज़े में हैं.

इनमे से कु छ को मोची की दुकान, कसाईखानाऔर होटलों में तब्दील कर दिया है. मुझे जानकारी मिली है कि सिंध में रहनेवाली पिछड़ी जाति की बड़ी संख्या को जबरन मुसलमान
बनाया गया है. इन सबकाकारण एक है. हिंदू धर्म को मानने के अलावा इनकी कोई गलती नहीं है.

पाकिस्तान की पूर्ण तस्वीर तथा उसनिर्दयी एवं कठोर अन्याय को एक तरफ रखते हुए, मेरा अपना तजुर्बा भी कु छ कमदुखदायी, पीड़ादायक नहीं है. आपने अपने प्रधानमंत्री और
संसदीय पार्टी के पद का उपयोग करते हुए मुझसे एक वक्तव्य जारी करवाया था, जो मैंने 8 सितम्बरको दिया था.

आप जानतें हैं मेरी ऐसी मंशा नहीं थी किमैं ऐसे असत्य और असत्य से भी बुरे अर्धसत्य भरा वक्तव्य जारी करूँ . जब तकमैं मंत्री के रूप में आपके साथ और आपके नेतृत्व में काम
कर रहा था मेरेलिये आपके आग्रह को ठु करा देना मुमकिन नहीं था पर अब मैं इससे ज्यादा झूठेदिखावे तथा असत्य के बोझ को अपनी अंतरात्मा पर नहीं लाद सकता. मैंने
यहनिश्चय किया है कि मैं आपके मंत्री के तौर पर अपना इस्तीफ़े का प्रस्तावआपको दूँ, जो कि मैं आपके हाथों में थमा रहा हूँ. मुझे उम्मीद है आप बिनाकिसी देरी के इसे स्वीकार
करेंगे. आप बेशक इस्लामिक स्टेट के उद्देश्य कोध्यान में रखते हुए इस पद को किसी को देने के लिये स्वतंत्र हैं”

1913 - Savarkar's prison -

He was clever in doing that. What good can you do for your country by simply rotting in a prison island? He was
inspired from Mazzini’s 'Giovani Italia' and founded 'Abhinav Bharat'. While in Britain, he organised groups to
collect knowledge about bomb making. He provided the Bomb making know-how, and weapons to India for the
armed struggle.He was caught in England and charged with conspiracy. He made a heroic attempt for an escape on
the way back to India. After being brought to India he was sentenced to 50 years in prison.. Savarkar was a true
disciple of Chattrapati Shivaji and Advocate. Shivaji too had sent similar letters and petitions to deceive the enemy
as before the killing of Afzal Khan, during Siddi Johar’s siege and during his imprisonment at Agra. He had also
accepted some humiliating conditions during the treaty made at the time of the siege of Purandar fort.  However,
Shivaji bid his time and avenged all insults when he became powerful enough.  This is clever political stratagem. 
Vietnam’s Communist leader ‘Ho Chi Minh’ rescued himself from Kuomintang prison by sending similar kind of
petition and assuring cooperation. He expressed his desire to Marshal Chang to work for ‘Dong Minh Hoi’ which
was formed in Indochina with the help of Kuomintang government (‘Dong Minh Hoi’ was formed to oppose Ho Chi
Minh’s ‘Viet Minh’ party).Savarkar’s apology to the British was practically and tact wise the only way for him to
move out to accomplish his vision of Akhand Bharat (unlike Shaheed Bhagat Singh who knew that his contribution
to his country was done and chose martyrdom by hanging). Savarkar also chose his own death through Sallekhana
(fasting) when he knew his contribution was over at age 83 and that he had nothing more to offer. When World War
I broke out, Savarkar sent petition to the Government of India in 1914.  He averred that were the British to grant
Colonial Self-Government to Hindusthan and majority in Central Legislative Council, revolutionaries would help
Britain in the War. He gave instances of European Governments setting their political prisoners free and even those
of the liberation of  political prisoners in Ireland to prove his point.   Also, he added “I offered to do without any
release for myself personally. Let them release all the political prisoners in the country leaving me alone in my own
cell in the Andamans. I shall rejoice in their freedom as if it was my own.” (ibid, p.187).  This proves that his
demands were selfless and made on behalf of all political prisoners in Andamans, without regard to personal
welfare.

http://savarkar.org/en/encyc/2017/5/29/Q-A3.html#/q8

Indira Gandhi was Savarkar’s follower: Savarkar’s grandson defends BJP’s Bharat Ratna push
20th century (c.1836–1921)- Mappila Riots or Mappila Outbreaks refers to a series of riots by the Mappila
(Moplah) Muslims of Malabar, South India in the 19th century and the early 20th century (c.1836–1921) against
native Hindus and the state.but Malabar Rebellion of 1921 against the British is often considered only as the
culmination of Mappila riots. Mappilas committed several atrocities against the Hindus during the outbreak. [3][4]
Muslim Mappilas forcibly converted many Hindus to Islam and killed or drove away all Hindus who would not
apostatise, totalling the driven people to one lakh (100,000).

These riots started on 1st of August, 1921, exactly one year after the death of Sh. Bal Gangadhar Tilak. After his
death, M.K. Gandhi had acquired prominence in Congress and along with the notorious Ali brothers had started
what is known as Khilafat movement.. What is ironic is that the word 'moplah' means son-in-law in Malayalam.
The reason for the name of the community is that the muslim traders came from Arab in eighth century and settled
in Kerala. With time, they married the local women and became permanent settlers there. Hence the name. For
them self rule meant rule of Islam and for Islam all those who are not muslims are kafir. They are either to be killed
or converted to Islam. Their wives, children and properties belong to the killer of 'kafirs'.

In India, two Muslim bigots Muhammad Ali and Shaukat Ali went around barking loudly about restoring the
Khilafat. For them the Khalifa represented and provided the means to bring about unity among the Indian Muslims.
For the Ali Brothers the restoration of the Khalifa also meant restoration of the supremacy of the minority Muslim in
India. At that time the Khilafat Movement consisted of only these two yahoos.

Things changed in 1920, when Gandhi decided to combine the call for Swaraj with the Khilafat movement that
sought to preserve the Ottoman Empire and authority of the Turkish Caliph as the spiritual leader of the Islamic
world. The Railways has removed a painting of the 1921 Moplah Rebellion from the station of Tirur town in
Kerala’s Malappuram after the Bharatiya Janata Party protested. In October 2017 the BJP’s state chief Kummanam
Rajasekharan said the rebellion should not be celebrated. “If it were an agitation against British rule, why were
thousands of people butchered and temples destroyed?” he asked. “It is high time we stopped glorifying this
massacre depicting it as freedom struggle. If anyone is given pension on behalf of this rebellion, it should be
given to those who had to flee their homes during the riot and the dependents of the victims of the jihadi
massacre.” A part of the Khilafat Movement, which demanded that the British preserve the Ottoman sultan as
the Caliph of Islam, the revolt took place in Kerala’s Malabar and involved the Moplah or Mappila Muslims of the
region. One incident in August 1921 lead to a widespread rumour that the police and Gurkha regiments of the army
had raided a prominent mosque in Thirurangadi. Angry mobs clashed with the security forces, leading to the death
of nine Muslims and two British officers. By evening, martial law had been declared. In the following months, the
rebels would attack and loot even non-landlord Hindus and perform forcible conversions.

The rebellion was short-lived, though. By January 1922, the government had taken back the areas held by the rebels
and captured all their key leaders

 1836: Kallingal Kunholan from Panthalur, Manjeri kills Cakku Panikkar, a Kanishan (Hindu Jyothishi),
and injures another three Hindus by stabbing. Kunhlolan was killed two days later by police.
 1836–1840: Five minor riots, killing or injuring at least six Hindus.
 1841: An eight-member gang under Tumbamannil Kunhunnyan kills Perumbali Nambudiri, a Hindu lord,
and another Moplah burns Nambudiri's house at Pallippuram, Valluvanad. These people were subsequently
killed by the police.
 Kaitottippadil Moitin Kutti with a seven-member gang kills Tottasseri Tacupanikkar and his assistant. The
rioters, hiding in a mosque, later joined by another three, were killed by the police after 4 days. A burial of
these Muslims faced skirmishes with a 2000 angry Moplah Muslim crowd.
 Melemanna Kunhyattan from Eranad with his seven assistants kills Talappil Cakku Nair and another
person. Rioters were subsequently killed by Government officers and local people.
 1843: A gang under Kunnatteri Ali Attan kills the adhikari of Tirurangadi. Later all Muslims, only after a
skirmish in which three Government forces were killed, were killed by the Government employees and
natives. Natives sung various heroic songs about this incident in later years.
 Body of a Government employee, brutally murdered, is found.
 1919: A nine-member armed gang kills 5 landlords in Mankada and 2 relatives of an adhikari in
Pandalore[13]
https://www.myindiamyglory.com/2018/12/26/moplah-riots-how-gandhi-maintained-silence-on-cruel-attacks-
on-hindus/

‘Khilafat Movement’ during which Indian National Congress took up agitation for the restoration of Islamic
Caliphate (the Caliph being the Turkish Sultan who was considered as the worldwide head of Muslims. He was
deposed and disarmed following the First World War in which Turkey was defeated). A ‘Khilafat Kingdom’
was established in Malabar and Dar-ul-Islam proclaimed. Thousands of Hindus were killed during this ‘anti-British’
rebellion. Why was this fact ignored by the Mahatma? Even if he did not have ‘exact figures’, he could have stated
that anti-British jihad had turned into ‘anti-Kafir’. It appears that ‘truth need not be stated sometimes’ was a policy
of Mahatma when it comes to Hindu-Muslim unity.
http://creative.sulekha.com/origin-of-muslim-appeasement-mahatma-gandhi-and-moplah-
rebellion_419746_blog

Petition of Malabar Ladies to Lady Reading


http://realkhilafat.blogspot.com/2010/10/petition-of-malabar-ladies-to-lady.html
http://ghatotkacha-nair.blogspot.com/2009/12/second-jihad-against-hindus-of-malabar.html

23 - September 1918 प्रथम विश्व युद्ध के दौरान (1914-1918)भारतीय सैनिकों ने अप्रतिम साहस कापरिचय देते हुए इजरायल के हाइफा शहर को आजाद कराया
था। भारतीय सैनिकों कीटुकड़ी ने तुर्क साम्राज्य और जर्मनी के सैनिकों से मुकाबला किया था। मानाजाता है कि इजरायल की आजादी का रास्ता हाइफा की लड़ाई से ही खुला था,
जबभारतीय सैनिकों ने सिर्फ भाले, तलवारों और घोड़ों के सहारे हीजर्मनी-तुर्की की मशीनगन से लैस सेना को धूल चटा दी थी।भारतीय सैनिकसीधे मौत के मुँह में जाने की इजाजत
माँग रहे थे। काफी समझाने के बाद भी जबभारतीय सैनिक नहीं माने, तब ब्रिटिश सेना के अधिकारी समझ गए कि यह असलीयोद्धा हैं, इन्हें रोका नहीं जा सकता। भारतीय योद्धाओं
के दृढ़ संकल्प औरअदम्य साहस को देखकर उन्हें हमले की अनुमति दे दी गई।इस युद्ध में भारतके 44 सैनिक शहीद हुए थे।विश्व युद्ध की जिसमे अंग्रेजो की ओर से जोधपुर
रियासत की सेना ने भीहिस्सा लिया। इतिहास में इस लड़ाई को हाइफा की लड़ाई के नाम से जाना जाताहै।हाइफा की लड़ाई 23 सितंबर 1918 को लड़ी गयी।भारत के तीन
राज्यों (जोधपुर, हैदराबाद और मैसूर) से इजरायल में भेजे गएसैनिकों के नाम पर तीन मूर्ति चौक का नाम रखा गया था। अब तीन मूर्ति मार्गका नाम बदलकरतीन मूर्ति हाइफा
मार्गकिया गया है।आज तक, 61 वीं कै वलरी ब्रिगेड 23 सितंबर को स्थापना दिवस या ‘हैफा दिवस’ मनाती है।इजरायल की सरकार आज तक हाइफा, यरुशलम, रमल्लाह और
ख्यात के समुद्री तटों पर बनी 900 भारतीय सैनिकों की समाधियोंकी अच्छी तरह देखरेख करती है.इजरायल के बच्चों को इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय सैनिकों के शौर्य
औरपराक्रम की कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं। प्रत्येक वर्ष 23 सितंबर को भारतीययोद्धाओं को सम्मान देने के लिए हाइफा के महापौर, इजरायल की जनता और भारतीयदूतावास के
लोग एकत्र होकर हाइफा दिवस मनाते हैंहैदराबादके निजाम द्वारा भेजी गई टुकड़ी में लगभग सभी सैनिक मुस्लिम थे, इसलिएब्रिटिश सेना के अधिकारियों ने उन्हें सीधे युद्ध के मैदान
में नहीं उतारा।निजाम के सैनिकों को युद्ध बंदियों के प्रबंधन और देखरेख का कार्य सौंपागया। जबकि मैसूर और जोधपुर की घुड़सवार सैन्य टुकडिय़ों को मिलाकर एक विशेषइकाई
बनाई गई थी।तुर्की, ऑस्ट्रिया और जर्मनी की संयुक्त साधन सम्पन्न शक्तिशाली सेना के विरुद्धभारतीय सैन्य दल का नेतृत्व जोधपुर के मेजर दलपत सिंह शेखावत ने किया था, जो
इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। अदम्य साहस और सैन्य रणनीति काप्रदर्शन करके वाले मेजर दलपत सिंह शेखावत को हाइफा के नायक के रूप मेंजाना जाता है। हाइफा का युद्ध
इसलिए बड़े युद्धों में शामिल है, क्योंकि इसयुद्ध में इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास की विजय हुई थी।यह दुनिया के इतिहास में घुड़सवार सेना का अंतिम महान अभियान था।तलवार
और भालोंसे सज्जित घुड़सवार एवं पैदल भारतीय सेना ने 23 सितंबर को सुबह 5 बजे हाइफाकी ओर बढ़ना प्रारंभ किया। भारतीय सेना का मार्ग माउंट कार्मल पर्वतश्रृंखला के साथ
लगता हुआ था और किशोन नदी एवं उसकी सहायक नदियों के साथदलदली भूमि की एक पट्टी तक सीमित था। जैसे ही सेना 10 बजे हाइफा पहुँची, वहमाउंट कार्मल पर तैनात
77 एमएम बंदूकों के निशाने पर आ गए। परंतु, भारतीयसेना का नेतृत्व कर रहे जवानों ने यहाँ बहुत सूझबूझ दिखाई।उन्होंनेदुश्मनों पर अचानक आश्चर्यचकित कर देने वाला हमला
कर कार्मल की ढलान पर दोनौसैनिक तोपों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने दुश्मनों की मशीनगनों के खिलाफभी वीरता के साथ आक्रमण किया। उधर, 14:00 बजे ‘बी’ बैटरी
एचएसी के समर्थनसे जोधपुर लांसर्स ने हाइफा पर हमला किया। मजबूत प्रतिरोध के बावजूद भीलांसर्स ने बहादुरी के साथ दुश्मनों की मशीनगनों पर सामने से आक्रमण किया।
15:00 बजे तक भारतीय घुड़सवारों ने उनके स्थानों पर कब्जा कर तुर्की सेनाको पराजित कर हाइफा पर अधिकार कर लिया।लगभग 2000 वर्षसे अपनी जन्मभूमि से बेदखल,
दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाओं के शिकारयहूदियों के लिए 23 सितंबर, 1918 को तुर्की साम्राज्य से हाइफा शहर कीमुक्ति का महत्त्व बहुत अधिक था। यूरोप सहित दुनिया के
अन्य हिस्सों में रहरहे यहूदियों ने जब हाइफा की मुक्ति का समाचार सुना तो वे खुशी से झूमउठे। हाइफा शहर की मुक्ति के बाद भी भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश, ऑस्ट्रेलिया और
न्यूजीलैंड के सैनिकों के साथ मिलकर पूरे इजरायल को मुक्तकरावाने के लिए कु छ और लड़ाइयाँ भी लड़ीं। इजरायल की आजादी के लिए लड़े गएविभिन्न युद्धों में लगभग 900
साहसी भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों काबलिदान दिया है।चार सौ साल पुराने ओटोमैन साम्राज्य का अंत हो गया। रणबाँका राठौड़ो की इसबहादुरी के प्रभावित होकर भारत में
ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ़ नेफ़्लैग-स्टाफ़ हाउस के नाम से अपने लिए एक रिहायसी भवन का निर्माण करवाया।भवन एक चौराहे से लगा हुआ बना है,

1914 -18 विश्व युद्ध अंग्रेजो के 7 लाख जवान मरे गये | इतनी हालत खराब हुयी कि भारत में भेजने के लिए सिविल सर्विस के लोग नहीं थे और इस सेवा में भारतीय लोगो को
अवसर देना पड़ा औरअंग्रेज अधिकारी पहले से आधे रह गये 1918 की रिपोर्ट में भारतीय राजाओ द्वारा विश्व युद्ध में की गयी मदद की तारीफ की गयी

1st December, 1915The 'first' Indian government

Interestingly, Azad Hind was not India’s first provisional government either. The credit for establishing that –
formally known as the ''Hukumat-i-Moktar-i-Hind" – in Kabul on 1st Dec, 1915,  goes to Raja Mahendra Pratap
and Maulana Barkatullah who served as its President and Prime Minister respectively. Others members included
Ubaid al Sindhi as Minister for India,  Maulavi Bashir as War Minister and Champakaran Pillai as Foreign Minister.
Its purpose was to enroll support from the Afghan Emir as well as Tsarist (and later Bolshevik) Russia, Turkey and
Japan for the Indian freedom struggle.

The prime mover of this (forgotten) enterprise was Raja Mahendra Pratap Singh (1886 – 1979) prince of the
native state of Hatras and alumnus of the Aligarh Muslim University (where his portrait adorns the library
wall). An uncompromising man, Mahendra Pratap travelled far and wide for enlisting support for India’s
freedom.  He met the German Kaiser Wilhelm II in Berlin, travelled to Istanbul to contact the Ottomans and
had discussions with both Leon Trotsky and Vladimir Lenin in Moscow.In Afghanistan, he negotiated the
support of the anti-British sections of Afghan elite who helped in recruiting an Afridi tribe-based force that
hoped to attack British India from the North-West. In this, he was assisted by Maulana Barkatullah, a
founder of the Gadar Party, whose rousing articles in the newspapers were widely appreciated. Resistance
from the pro-British Afghans and the changing course of war blockaded it and finally, in 1919, British diplomacy
succeeded in shutting down the provisional government. Overall, the effort can be considered part of the
global efforts by Bagha Jatin, Rashbehari Bose, Lala Hardyal, Sachin Sanyal, Bhupendranath Dutt, Kartar
Singh Sarabha and others of the Gadar Party, the Jugantar, and the Berlin ‘Aid-India’ committee to take
advantage of WWI to uproot British rule. In their approach –although not in scale or success – they can be
considered to be strategic predecessors of Bose.

[Pratap - a true internationalist - escaped to Japan and continued his travels through China, Mongolia and
South Asia. A sincere believer in universal fraternity, he addressed himself as 'servant of mankind’, founded the
'World Federation Center' in Tokyo and strove for a 'happiness society'. His efforts earned him a Nobel nomination
in the 1930s. Nehru, who met him in Switzerland, has written, '' ... a Don Quixote who had strayed into the
twentieth century. But he was absolutely straight and thoroughly earnest''. Although settled in Japan in the 1940s,
Pratap could never bring himself to accept Japan's imperialist arrogance and stayed away from the Azad
Hind. He returned to India in 1946, composed his enjoyable (although rather haphazard) memoirs and won the
1957 Lok Sabha seat from Mathura defeating Jan Sangh's AB Vajpayee.  It is a pity that he has been all but
forgotten today].

13 April1919, Jallianwala Bagh (उधम सिंह): दिन थाबैसाखी (Baisakhi) का. हज़ारों की संख्या में लोग अमृतसर के गोल्डन टेम्पल (Golden
Temple) से डेढ़ किलोमीटर दूर बने जलियांवाला बाग (Jalian Wala Bhag) में मेले में आए थे

1920 – असहयोग आन्दोलन में जब लोग गोली लाठी खा रहे थे तब जोधपुर राज्य ने प्रिंस ऑफ़ वेल्स के स्वागतमेंलेटबाथ मेंचाँदी के शानदार फर्नीचर बनवाया|

17-19 December 1940 – (ठाकु र रौशन सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकु ल्ला खान और राजेंद्र लाहिरी को फाँसी)

न ये बताया जाता है कि आखिर एक डकै ती के लिए किसी को भी फाँसी क्यों हुई, नये कि उन्हीं चारों ठाकु र रौशन सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकु ल्ला खानऔर राजेंद्र लाहिरी
को ही फाँसी क्यों हुई।

दक्षिणेश्वर समूह

वर्तमान 24 परगना जिले में दक्षिणेश्वर काली मंदिर के नाम पर बने इस संगठनका इतिहास एक तरह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की प्रतिध्वनिहै। हथियारबंद क्रांति में
विश्वास करने वाले इसके सदस्य गाँधी के आभामण्डलसे प्रभावित होकर अपना रास्ता छोड़ दिए और 1920-22 के अहिंसापूर्ण असहयोगआंदोलन में शरीक हो गए। लेकिन गाँधी
के अचानक से अपने चरम पर और अंग्रेजीशासन को चरमरा रहे इस आंदोलन को एक चौरी-चौरा के चलते वापिस खींच लेने सेइन्हें ‘सत्याग्रह’ के सत्य का अहसास हो गया था।

1923 में क्रांतिकारी ऑरोबिन्दो घोष के भाई और ‘अग्नियुग’ किताब के लेखकबारीन्द्र घोष इस आंदोलन के ध्वजवाहक बनकर उभरे। इसके बाद ‘जुगान्तर’ नामकसंगठन
(ऑरोबिन्दो और बारीन्द्र व अन्य द्वारा शुरू किया हुआदूसराक्रांतिकारीदल; पहला था ‘अनुशीलन समिति’) ने अंग्रेजी हुकू मत पर दबाव बरकरार रखते हुएडकै तियों से लेकर के
कलकत्ता के आततायी कमिश्नर चार्ल्स टेगार्ट की हत्याके दो प्रयासों तक कारनामे किए। टेगार्ट की हत्या के प्रयास में पहचान कीगफ़लत में गोपीमोहन साहा ने एर्न्स्ट डे की हत्या
कर दी, और एक अन्य नेअंग्रेज अधिकारी मिस्टर ब्रूस को टेगार्ट समझ कर गोली मार दी।

बंगाल प्रदेश कॉन्ग्रेस ने देशबंधु चितरंजन दास की अध्यक्षता के अधिवेशनमें गोपीमोहन साहा (जिनमें मार्च, 1924 में फाँसी दे दी गई) के समर्थन मेंप्रस्ताव पास किया। लेकिन यह
प्रस्ताव ऑल इंडिया कॉन्ग्रेस कमेटी में पासनहीं हो पाया ‘महात्मा’ गाँधी की वजह से;बल्कि उन्होंने तो इसके खिलाफबयान को कॉन्ग्रेस का आधिकारिक बयान बनवाया। उसमें
चितरंजन दास और बंगालकॉन्ग्रेस ने एक संशोधन लाने का प्रयास किया, जो एक छोटे अंतर से गाँधी-गुटसे हार गया। अपने आग्रह के जीतने के बावजूद गाँधी जीत अंतर छोटा होने
से, अपनी कट्टर अहिंसा का सशक्त विरोध होने-भर सेभकु र कर बैठ गएऔर घोषणा कर दी, “यह मेरी जीत नहीं, हार है।”

हज़रतगंज स्थित वर्तमान जीपीओ भवन में अदालत लगी, और चोटी के 4 क्रांतिकारियों राजेंद्र लाहिरी, ठाकु र रौशन सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकु ल्ला खान को फाँसी की
सजा सुनाई गई।
जनविद्रोह के डर सेबिस्मिल को गोरखपुर, लाहिरी को गोंडा, अशफाकु ल्ला खान को फै ज़ाबाद और ठाकु ररौशन सिंह को इलाहाबाद जेल भेज दिया गया। इनकी फाँसी की तारीख
19 दिसंबर, 1927 तय हुई थी, लेकिन जेल प्रशासन ने लाहिरी को 17 को ही मौत के घाटउतारने का निर्णय लिया। अपनी मौत की सुबह लाहिरी व्यायाम कर रहे थे। जेल
के एक अधिकारी ने पूछा कि इसकी क्या ज़रूरत है, क्योंकि कु छ ही घंटे बादउन्हें फाँसी दी जानी है। लाहिरी ने जवाब दिया- हिन्दू हूँ। पुनर्जन्म मेंविश्वास रखता हूँ। अगले जन्म में
भारत माँ की सेवा करने के लिए और तंदरुस्तहोकर लौटना चाहता हूँ।

उनकी मौत के बाद उनका पार्थिव शरीर भीअंग्रेज सरकार ने उनके परिवार को वापिस नहीं किया। उस समय के वृत्तांतों के अनुसार मरते समय आज ‘साम्प्रदायिक’ माना जाने वाला
“वन्दे मातरम”उनके अंतिम शब्द थे।

13 march1940 उधम सिंह- सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पररहने लगे. उन्होंने वहां यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी
और साथ मेंअपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली. 6 सालबाद 1940 में सैकड़ों भारतीयों का बदला लेने का मौका
मिला.जलियांवालाबाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटीकी लंदन के काक्सटन हाल में एक बैठक थी, जहां माइकल ओ डायर भी
वक्ताओं मेंसे एक था. उधम सिंह उस बैठक में एक मोटी किताब में रिवॉल्वर छिपाकरपहुंचे. इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उसतरह से काट लिया
था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपायाजा सके .  उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी. उनपर मुकदमा चला. 4
june1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 july1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई.ऊधम सिंह का जन्म 26
december1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ।31 july, 1974 कोब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधम सिंह की अस्थियां
सम्मानसहित भारत लाई गईं। उनके गांव में उनकी समाधि बनी हुई है।

जलियांवाला बाग हत्याकांड में 1000 लोगों (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुताबिक) को गोलियों से भून दिया गया था, जिससे पूरे भारत में आक्रोश कामाहौल था. इनमें से एक थे
उधम सिंह, जिन्हें बचपन में शेर सिंह का नाम शेरसिंह था. बचपन में ही अपने माता-पिता को खो चुके उधम सिंह ने इस हत्याकांडसे बेघर हो गए. जिस वजह से उन्हें अपने
एकलौते भाई के साथ अमृतसर के एकअनाथालय में शरण लेनी पड़ी.उधमसिंह के भाई का भी देहांत हो गया. बाद में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया औरक्रांतिकारियों के साथ
मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए. अनाथ होने के बाद और इस हत्याकांड में लोगों कि लाशों को देख उधम सिंह जलियांवाला बागकी मिट्टी हाथ लेकर कसम खाई थी,
कि हत्याकांड के जिम्मेदार जनरल डायर को वोमौत के घाट उतारेंगे.

Dyer did not look upon Jallianwala Bagh massacre as an isolated event, but as an integral part of the Amritsar
disturbances. Three days before, on the 10th, the city had been the scene of widespread violence following the arrest
of local leaders from Punjab—Dr Saifuddin Kitchlew, Dr Satya Pal, Bugga and Ratto; five Europeans had been
murdered; and a lady missionary, Miss Sherwood, had been assaulted. I would say that the assault on Miss
Sherwood provided the context for Jallianwala Bagh incident to happen.

Read more at: https://www.deccanherald.com/specials/10-lesser-known-facts-on-jallianwala-bagh-massacre-


728503.html

Hans Raj, an aide to Dr. Kitchlew, announced on the 11th that a public protest meeting would be held at 16:30 the
following day in the Jallianwala. Witnesses have testified that Hans Raj escaped and went missing for days after
what came to be known as the Jallianwala Bagh massacre. Almost a week later, Hans Raj emerged as a British
approver in the Amritsar Conspiracy trials, and helped the British authorities convict Kitchlew and Pal,
among other leaders. According to the historian VN Datta, the British authorities helped Hans Raj move to West
Asia, while a crowd burnt down his house in Amritsar.

Hans Raj was a British spy who collaborated with Dyer, who wanted to punish Indians for the violence that had
preceded the massacre, including the molestation of the British missionary Marcella Sherwood.

Dyer passed an order banning the right to public assembly in all of Amritsar’s significant spots, except one—
Jallianwala Bagh. Datta goes as far as to suggest Hans Raj even waved a “white handkerchief” to signal Dyer
and his men to start shooting. The nationalist leader Madan Mohan Malviya, along with writers such as Pandit
Preary Mohan and Raja Ram, also raised questions about Hans Raj’s background and conduct during and after the
shootings.

Jalhewalas who hailed from the Jalla village. You may not recall Pandit Jalla, the unpopular Brahmin deputy in
Hira Singh’s court.

https://historicalleys.blogspot.com/2017/11/hans-raj-british-approver.html
23 december, 1926 (स्वामी श्रद्धानंद जयंती)-हजारों भूले भटकों की घर वापसी कराने वाले धर्मरक्षक स्वामीश्रद्धानंद जयंती. इनके हत्यारे अब्दुल रशीद को गांधी ने
कहा था "भाई" | कभी धर्मरक्षक व धर्मजागृति के लिए पूरे भारत मे सबसे आगे रहे स्वामी श्रद्धानंद जी के हत्यारे के साथ जो रहम अपनाया गया था आज कमोबेश उसी परंपरा का
निर्वहन करते तमाम उसी मानसिकता के लोग दिख जाएंगे.. यद्द्पि खुशी की बात ये रही कि कानून ने अक्सर अपना काम किया लेकिन उन घटनाओं ने कई चेहरे उजागर कर
डाले..23 December को तथाकथित अल्पसंख्यक व नसरुद्दीन शाह के हिसाब से डरे हुए अब्दुल रशीद जैसे एक उन्मादी ने बीच जनता के स्वामी जी के धर्म कार्यो से द्वेष
रखते हुए स्वामी जी की हत्या कर डाली थी..नाथूराम गोडसे के नाम को आज तक रटने वालों ने कभी अब्दुल रशीद का नाम भी नही लिया क्योंकि उसका नाम लेने से वो सच
बाहर आता है जो उनके स्वरचित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों में फिट नहीं बैठता है ..
श्रद्धानंद का जन्म आज के ही दिन अर्थात 2 February1856 (फाल्गुन कृ ष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालंधर जिले के पास बहने वाली सतलुज
नदी के किनारे बसे प्राकृ तिक सम्पदा से सुसज्ज्ति तलवन नगरी में हुआ था। उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर
प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे।वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुया| महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने
स्वयं को स्वदेश, स्व-संस्कृ ति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के
कार्यों को आगे बढ़ाने मे पूर्णत समर्पित कर दिया। गुरुकु ल कांगड़ी की स्थापना, अछू तोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद
पढने व पढ़ाने की ब्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना,
23 December 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी युवक ने धोखे से गोली चलाकर स्वामी जी की हत्या कर दी. यह युवक स्वामी जी से मिलकर इस्लाम पर चर्चा
करने के लिए एक आगंतुक के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके निवास गया था. उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को गोहाटी में आयोजित कांग्रेस
के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कु छ कहा वह स्तब्ध करने वाला था. गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है "मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा
और मैं इसे दोहराता हूँ. मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ. वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना पैदा किया.
इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है."
स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेछा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलखान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई. शासन की तरफ से कोई
रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था

अब्दुल रशीद को भाई मानते हुए उसे निर्दोष कहा. इतना ही नहीं गांधी ने अपने भाषण में कहा,". मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता.. हमें एक आदमी के
अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए. मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ." उन्होंने आगे कहा कि "समाज सुधारक को तो ऐसी
कीमत चुकानी ही पढ़ती है. स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कु छ भी अनुपयुक्त नहीं है. "अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि ".ये हम पढ़े,
अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया. स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सके गा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव
परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सके गा." (यंग इण्डिया, December30, 1926).

महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होंने स्वदेश, स्व-संस्कृ ति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खंडन,
अंधविश्वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने के कार्य किए।
स्वामी श्रद्धानन्द पर जारी डाक टिकट---
स्वामी श्रद्धानन्द ने दलितों की भलाई के लिए निडर होकर काम किया। और साथ ही कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन का बढ़-चढ़कर नेतृत्व भी किया। कांग्रेस में उन्होंने 1919 से
लेकर 1922 तक महत्त्‍वपूर्ण भागीदारी अदा की। 1922 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी कांग्रेस के नेता होने की वजह से नहीं हुई थी, बल्कि वे
सिक्खों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए बंदी बनाये गए थे। स्वामी श्रद्धानन्द कांग्रेस से अलग होने के बाद भी स्वतंत्रता के लिए कार्य लगातार करते रहे।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए स्वामी जी ने जितने कार्य किए, उस वक्त शायद ही किसी ने अपनी जान जोखिम में डालकर किए हों।
महत्त्वपूर्ण तथ्य--
काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा की रानी के लिए खोलने और साधारण जनता के लिए बंद किए जाने और एक पादरी के व्यभिचार का दृश्य देखकर मुंशीराम जी का धर्म
से विश्वास उठ गया था और वे बुरी संगत में पड़ गए थे। किन्तु स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने उन्हें जीवन का अनमोल आनंद दिया, जिसे उन्होंने सारे
संसार को वितरित किया।

लेकिन सत्य और कर्म के मार्ग पर चलने वाले इस महात्मा की 23 December, 1926 को चांदनी चौक, दिल्ली में गोली मारकर हत्या कर दी। उस दिन अब्दुल रशीद नाम का
शख्स उनके घर में सामान्य मिलने वाले लोगों की तरह मिलने आया, और उसने गोली मारकर स्वामी जी की हत्या कर दी। इस तरह धर्म, देश, संस्कृ ति, शिक्षा और दलितों का
उत्थान करने वाला यह युगधर्मी महापुरुष सदा के लिए अमर हो गया।

किसी ने चंदा नहीं दिया तो पहले अपनी हवेली दान की

स्वामीजीगुरुकु ल खोलना चाहते थे। गांव गांव जाकर चंदा मांगा लेकिन किसी ने सहयोग नहीं दिया। जालंधर में उनके पुरखों की खूब जमीन जायजाद जो थी। जिसकी मलकियत
स्वामीजी के नाम थी। अपने बेटों से विमर्श के बाद सारी जमीन आर्य समाज को दान दे दी। फिर कांगड़ी के सरपंच ने गांव की सारी जमीन स्वामी जी को दान कर दी। आज उस
जगह विश्व का सबसे बड़ा गुरुकु ल स्थापित है। 23 december1926 को अब्दुल राशिद नाम के एक कट्टरवादी ने उनसे समाज सेवा पर चर्चा के लिए समय लिया। स्वामीजी
उस वक्त निमोनिया से पीड़ित थे। राशिद ने लोई में छिपा रखी पिस्तोल से उनपर गोलियां दाग दीं और शहीद कर दिया। राशिद को मौके पर ही पकड़ लिया गया था।

स्वामी श्रद्धानंद : पत्नी को जिंदा दफनाने वाला लोभी जो दंड विधान में एक अहम बदलाव का जरिया बना
बीते सितंबर में ही सर्वोच्च न्यायालय ने 10 मामलों में मौत की सजा को उम्रकै द में बदला है और इनमें से कु छ मामलों में श्रद्धानंद मामले को ही नजीर माना गया है

1902 में Swami Shraddhananda ने देश के परम्परागत शिक्षा पद्दति के अनुरूप नए रूप में हरिद्वार में  एक आंतरिक विश्वविद्यालय ”गुरुकु ल कागड़ी ” की स्थापना
की. उन्होंने जालन्धर में एक महिला कॉलेज की स्थापना की  तथादिल्ली में एक सामाजिक एकता व समरसता लाने के लिए दलित उद्धार सभा कीस्थापना की.आर्य समाज संगठन
की ओर से स्थापित शुद्धि सभा के अध्यक्ष भी चुने गये.ताकि जोर जबरदस्ती से चल रहे हिन्दू से मुस्लिम तथा इसाई धर्म में हो रहेस्थान्तरण को रोका जा सके .वर्ष 1919 में
कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में स्वागत समिति के अध्यक्ष नियुक्त किये गये थे.

JaiGopal (1931)
Jai Gopal was a member of HSRA along with Bhagat Singh. He turned approver in the trial of Bhagat Singh case
and agreed to record his false statement under the pressure of British police.
His statement, along with some other such traitors like Hans Raj Vohra, Phaninder Gosh and Sobha Singh became
the reason for hanging of Bhagat Singh, Sukhdev and Rajguru.

Fanindranath Gosh should actually be named first in this list of traitors. He had been the witness against
“Bhagat Singh” in the Assembly Bomb issue. And it was sad that based on this Bhagat Singh, Raj guru and
Sukhdev –the three of them were declared culprits and hanged to death

But having revenge in mind against Gosh, Bhagat Singh’s supporters Yogender Sukla and Gulab Chandra were
jailed in 1932. However, they escaped from there at the Diwali Night. They had taken an oath to punish Gosh for his
insane deeds, the minute they stepped out of jail.

This oath was fulfilled by Yogender Sukla’s nephew, Baikunt Sukla, who brutally killed Gosh. Later Baikunt Sukla
was taken into custody for this on 6th of July, 1933 and was hanged to death. However he had made his uncle,
Yogender proud by then.

23 march1931 अंग्रेज भयभीत थे कि कहीं विद्रोह न हो जाए। इसी को मद्देनजर रखते हुएउन्होंने एक दिन पहले यानी 23 march1931 की रात को ही भगत सिंह,
सुखदेव औरराजगुरु को फांसी दे दी और चोरी-छिपे उनके शवों को जंगल में ले जाकर जलादिया। जब लोगों को इस बात का पता चला तो वे गुस्से में उधर भागे आए। अपनीजान
बचाने और सबूत मिटाने के लिए अंग्रेजों ने उन वीरों की अधजली लाशों कोबड़ी बेरहमी से नदी में फिकवा दिया। छोटी उम्र में आजादी के दीवाने तीनोंयुवा अपने देश पर कु र्बान हो
गए

The anniversary of the deaths of Bhagat Singh, Sukhdev Thapar and Shivaram Rajguru on 23 March 1931, in
Lahore (Pakistan), is declared to be Martyr's Day.[3]

21 june1931 - अब्दुल क़ादिर- नामक एक व्यक्ति अचानक मंच पर आया और उसनेबेहद भड़काने वाला साम्प्रदायिक भाषण देते हुए “इस्लाम ख़तरे में है” के नारेके साथ
महाराजा के शासन को इस्लाम विरोधी बताते हुए ईंट का जवाब पत्थर सेदेने की अपील की और ज्ञापनों तथा मांगपत्रों को बेकार की बात बताते हुए कहाकि पवित्र क़ु रान के अपमान
का मसला ऐसी चीज़ों से हल नहीं हो सकता.मुसलमानों से अपने पैरों पर खड़े होकर हथियारों का मुक़ाबला लाठियों औरपत्थरों से करने की अपील करते हुए उसने महाराजा के
महल की ओर इशारा किया औरकहा कि “अन्याय, क्रू रता और ग़ुलामी के इस प्रतीक को नेस्तनाबूद कर दोब्रिटिश अधिकारी का खानसामा बनकर कश्मीर में प्रवेश वहाँ उसकी
योजना काहिस्सा था. और यह योजना उस समय पूरी होती भी नज़र आती है. अब्दुल कादिर के   भाषण के बाद इस आन्दोलन का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया.सरकार ने इस
भाषण को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखते हुए 25 june1931 को अब्दुल कादिर को गिरफ़्तार कर लियाजामा मस्जिद में एक विशाल सभा हुई जिसमें शेख़ अब्दुल्ला ने कहा कि
अब्दुलक़ादिर इस्लाम की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं और उन्हें रिहा किया जाना चाहिए. 13 july1931 को श्रीनगर जेल के भीतर अब्दुल कादिर का मुक़दमे के दौरानप्रशासन ने
बड़ी संख्या में पुलिस तैनात की. जेल के बाहर बड़ी संख्या में लोगएकत्र होकर अब्दुल कादिर की जगह ख़ुद को गिरफ़्तार करने के नारे लगा रहे थे.सेशन जज ने जब भीड़ को जाने
के लिए कहा तो लोगों ने नमाज़ के बाद जाने कीबात कही. ख्वाज़ा अब्दुल ख़ालिक शोरा ने नमाज़ पढ़नी शुरू की तो उसी समय पुलिसने पाँच लोगों को गिरफ़्तार कर लिया.
अफ़रातफ़री मच गई और पुलिस ने फायरिंगशुरू कर दी. सबसे पहले मरने वाले थे ख्वाज़ा अब्दुल खालिक़ शोरा. नारे तेज़ होगए औरकश्मीर के इतिहास में पहली बार पत्थरबाज़ी
की घटना हुई. बदले मेंपुलिस ने लगातार गोलियाँ चलाईं 22 लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए| “क्रू सिबल ऑफ़ कश्मीर” में प्रेमनाथ बज़ाज़ ने लिखा है कि मरने वालों में
सेकिसी को भी पीठ पर गोली नहीं लगी थी. भागने की जगह भीड़ जेल में घुस गई औरवहाँ रखी चारपाइयों पर शवों को लेकर जामा मस्ज़िद की तरफ़ चले. रास्ते मेंतोड़ फोड़ और
हिन्दू दुकानों की लूट की भी घटनाएँ हुईं. हसनैन ने एकप्रत्यक्षदर्शी के हवाले से बताया है कि ऐसी महाराजगंज में घटना नहीं हुई, लेकिन शहर के दूसरे हिस्सों में बीस-बाईस दुकानों
के लूटे जाने की बातबताते हैं. शेख़ अब्दुल्ला लिखते हैं कि आन्दोलनकारियों ने हिन्दूदुकानदारों से दुकाने बंद कराने के लिए कहा और उनके मना करने पर असामाजिकतत्त्वों ने
लूट-पाट की घटना को अंजाम दिया| यहविलय उपरांतकश्मीर के इतिहास में इस तरह का पहला साम्प्रदायिक संघर्ष था
23 September 1932 - Pritilata Waddedar (5 May 1911 – 23 September 1932)[1] was a Bengali revolutionary
nationalist from the Indian subcontinent who was influential in the Indian independence movement.[2][3] After
completing her education in Chittagong and Dhaka, she attended Bethune College in Kolkata. Pritilata graduated in
philosophy with distinction. She is known for participating in the murder of 5 and injury of 7 through a shootout at a
country club. Inspired by Rani Lakshmi Bai, she joined a revolutionary group in 1932. There was a European club in
Chittagong, where it was written “Indians and dogs are not allowed”. The group was planning an attack on this
club. Priti was assigned the duty to lead this attack. She along with her companions attacked the club where they
fought with British police. Firing was going on and one policemen shot her. That was minor but in order to avoid
arrest she consumed cyanide and gave up her life.

22–24 March 1940 - Theresolution for the establishment of a separatehomeland for the Muslimsof British India
passed in the annual session of the All India Muslim League held in Lahore on 22–24 March 1940 is a landmark
document of Pakistan's history. But After weeks of behind-the-scene negotiations, on July 29, 1946, in protest of
Jawahar Lal Nehru’s ‘statement’ the Muslim League adopted a resolution rejecting the May 16th plan and called on
Muslims throughout India to observe a “Direct Action Day” in protest on August 16.
1942 - Cripps Mission - The Cripps Mission was a failed attempt in late March 1942 by the British government to
secure full Indian cooperation and support for their efforts in World War II. Cripps was sent to negotiate an
agreement with the nationalist Congress leaders, who spoke for the majority Indians and Muhammad Ali Jinnah and
the Muslim League. Congress moved towards the Quit India movement whereby it refused to cooperate in the war
effort; in response, the British imprisoned practically the entire Congress leadership for the duration of the war.
Jinnah and the Muslims, to whom Cripps had offered the right to opt out of a future Union, supported the
war effort and gained in status in British eyes. He was surprised to see that the right to opt out of a Future Union
was undertaken.

21ST OCTOBER 1943: SUBHAS CHANDRABose announced the Provisional Government of Free India
(northeast). Its army, currency, flag, Anthem, Cabinet members and bankwith recongnition of 11 countries.
October 21, not August 15, is India's Independence-Day.21 अक्‍टू बर, 1943 को सिंगापुर में आजाद भारत की अस्‍थाई सरकार की स्‍थापना की
घोषणा की तथा जापानी सेना की सहायता से अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह पर अधिकार करते हुए, 1944 में भारतीय सीमा के इम्‍फाल क्षेत्र में प्रवेश किया. He ordered
his general to host Indian i flag on LALA quila Delhi on 21 October. We do not know where the army general and
subhash Chandra went. Indian government signed deal with British government that BOSE is war criminal
whenever he will be found they will be handover to British government.
26 januray was merely thransfer of power from Britain to Jawahar and Jinnah.

Out of 14 Patel was elected by 13 province state presidence but Gandhi wanted jawahar. They partitioned India and
because of Gandhi, Jawaghar become PM of Indian so Jawahar titled Gandhi as father of Nation. Actual Jawahar
and Gandhi both was father of Pakistan because partitioned accepted they them.

Zamindars of India
Gandhiji once said, if all Indians decide to throw out British, it is possible as an easiest thing. But still they ruled us
centuries. It's because of the massive support they got from rich and socially higher peoples especially Zamindars. I
am not saying all Zamindars were traitors, but most of them were.

1943 - Bengal Famine a ‘manmade disaster’ arising out of Churchill’s policies which were directly responsible for
the hunger and the disaster.Let me put things into perspective, it took Hitler a decade, starting from the mid-
1930s to kill six million Jews, gypsies, and other communities under the ‘extermination list’ of the Nazis. But
it took just one year (1943), for British policies to accomplish the mass murder of four million Indians by
killing them through starvation and diseases. It is on record that Bengal had an enormous harvest in 1942, but
the British started diverting vast quantities of food grain from India to Britain, to supply their war efforts,
contributing to a massive food shortage in the areas comprising present-day West Bengal, Odisha, Bihar, and
Bangladesh.

Author Madhushree Mukerji writes in her book, Churchill’s Secret War:

‘Parents dumped their starving children into rivers and wells. Many took their lives by throwing themselves
in front of trains. Starving people begged for starchy water in which rice has been boiled as a food
supplement. Children ate leaves, grass, and stems. People were too weak to cremate their loved ones.

Bengal was considered the richest and most prosperous region in the world by the father of the economics, Adam
Smith, in his book ‘The Wealth of Nations’. That shows what cruel heart is takes to turn a rich into rag to an extent
where millions of people died mercilessly out of famine.

When Viceroy, Lord Wavell, pleaded with London to release food from the reserves which the British already had,
there was no action. To all messages and telegrams, Churchill’s only reply was, ‘So why hasn’t the Gandhi died
yet?’

He would tell his secretary of State of India, Leopold Amery, ‘I hate Indians. They are a beastly people with a
beastly religion.’

When British came to India, India’s share of world income stood at 27%, while when they left it was reduced to
3%. That’s how they had sucked the Indian blood with hardly any empathy, forget about sympathy.

Churchill was equally horrific, pathetic and obnoxious as Hitler

18 february, 1946- रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह - इसे भारतीय इतिहास में 'रॉयल इंडियन नेवी म्यूटिनी' या 'बॉम्बे म्यूटिनी' के नाम से भी जाना जाता
हैइतिहासकारों का मानना है कि 1946 में रॉयल नेवी के 200 ठिकानों और जहाज़ोंपर हुए विद्रोह ने ब्रिटेन की सरकार को भारत जल्द छोड़ने पर मजबूर कर दियाथा.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शाही भारतीय नौसेना का विद्रोह संभवतः सबसे सीधाऔर साम्राज्य विरोधी टकराव था।ये भारतीय नौसैनिक विभिन्न देशों मेंप्रस्थापित होने के क्रम में शेष
विश्व से भलीभांति परिचय प्राप्त कर चुके थे,अपने आला अधिकारियों के नस्लभेदी,अहंकारवादी प्रवृति को बर्दास्त नहींकर पा रहे थे।इसके अतिरिक्त जनसाधारण से अलग-थलग
रहते हुए भी देश मेंव्याप्त अशांति ;खासकर आज़ाद हिन्द फौज के सिपाहियों के विरुद्ध चल रहेमुकदमें के प्रति पूर्णतः सजग थे।उनके अंदर धीरे -धीरे जल रहा लावा अचानकउस
भोजन को लेकर प्रस्फु टित हो गया जो उन्हें वर्षों से दिया ज रहाथा।18 फ़रवरी 1946 को बम्बई बंदरगाह में नौसैनिक प्रशिक्षण पोत 'तलवार'परपदस्थापित नाविक खराब भोजन
और नस्लवादी बर्ताव के विरोध में भूख हड़ताल परबैठ गए ।अगले दिन उस क्षेत्र में लंगर डाले 22 अन्य जहाज इस हड़ताल मेंशामिल हो गए और तुरंत ही यह विरोध प्रदर्शन समुद्र
तट पर कै सल और फोर्ट कीबैरकों तक फाइल गया।विरोधी बेड़ों के मस्तूलों परतिरंगे(कांग्रेस)चाँद(मुस्लिम लीग)तथा हंसिया-हथोड़े(कम्युनिस्ट पार्टी)के निशान वाले झंडे लगाकर
अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करने लगे।विद्रोहियों नेएम.एस.खान के नेतृत्व में एक नौसेना कें द्रीय समिति का गठन किया और अपनीमांगे तैयार की ।इस प्रारूप में राष्ट्रीय मांगों को
उतनी ही तरजीह दी गयीथी जितनी उनकी स्वयं की मांगें थी।उनकी मांगों में सभी आज़ाद हिन्द फौजियोंकी रिहाई,हिन्द-चीन एवं जावा से भारतीय सैन्य टुकडियों की
वापसी,बेहत्तरभोजन,सभ्य व्यवहार और भारतीय एवं यूरोपीय नाविकों को बराबर वेतन आदि शामिलथी।
शाही सेना के विरोध को शांत करने का प्रथम प्रयास 20 फ़रवरी 1946 को कियागया तथा उन्हें शांतिपूर्वक अपनी अपनी बैरकों में लौट जाने का आदेश सुनायागया।लेकिन इस
क्रम में उन्हें सशस्त्र सुरक्षा गार्डो ने घेर रखा था;जोउनकी मर्यादा के खिलाफ था।संघर्ष अगले दिन तब शुरू हुआ जब बैरक में छिपेभारतीय सैनिकों ने आत्मसमर्पण के बजाय बंदूक
उठाने का निर्णय लिया।इसके वावजूद कि जहाज के अंदर विद्रोहियों के साथियों को ब्रिटिश हवाई बमबर्षकविमानों सेउन्हें नष्ट किये जाने की लगातार चेतावनियाँ प्रसारित की जा
रहीथी।18 फ़रवरी की बम्बई के नाविकों के विद्रोह की खबर 19 फ़रवरी को करांचीपहुँच गयी थी।जिसके बाद एच एम आई एस हिन्दुस्तान और एक अन्य जहाज के नाविकों तथा
तीन तटवर्ती प्रतिष्ठानों के कर्मचारियों ने हड़ताल करदी।मद्रास,विशाखापत्तनम,कलकत्ता,दिल्ली,कोचीन,जामनगर,अंडमान,बहरीन और अदनमें भी सांके तिक हड़तालें हुई।इनमें 78
जहाजों एवं 20 तटवर्ती प्रतिष्ठानोंके 20 हजार लोग शामिल थे।मेरीन ड्राइव,अंधेरी,शीव,पूना,कलकत्ता,जैसोर औरआवला कें द्रों के एयरफोर्स के सैनिकों ने भी इनकी सहानुभूति में
हड़तालेंआयोजित की।जबलपुर के सैनिकों ने हड़ताल कर दी और कोलावा छावनी में भीसैनिकों की वेचैनियां काफी बढ़ चली थी।
1946 के इस नौसैनिक विद्रोह को अभूतपूर्व रूप से जनसमर्थन लगातार हासिल होरहा था।जनता का उत्साह और सैनिकों का जोश सड़कों पर भी दिखाई पड़ने लगा।कराचीमें
हिन्दू और मुस्लिम छात्रों एवं मजदूरों ने भारतीय सैनिकों के समर्थनमें प्रदर्शन किये और सेना एवं पुलिस की टुकड़ियों से जमकर लोहा लिया।बम्बईमें भी नाविकों के प्रति आम
सहानुभूति की भावना फै ल गयी थी।लोग उनके लिएभोजन सामग्री पहुचाने लगे और दुकानदारों ने उनसे सामूहिक अपील की कि उन्हेंजो भी सामान की जरूरत हो बेझिझक बिना
किसी दाम के उठा ले जाय।22 फ़रवरी के दिन कम्युनिस्टों एवं कांग्रेसी सोशलिस्टों ने एक आम हड़ताल रखी।इस दिन 3 लाख मजदूरों ने अपने-आपने कं धे झुकाये इन नाविकों के
समर्थन में सड़कों पर आखड़े हुए।जनता का उत्साह चरम पर था;सरकारी आकड़ों के अनुसार 30 सार्वजनिकदुकानों,10 डाकघरों,10 पुलिस चौकियों,64 अनाज की दुकानों एवं
200 बिजली के खम्भों को या तो लूट लिया गया या पूर्णतः बर्बाद कर दिया गया।शहर कीसामान्य दिनचर्या पूर्णतः अस्त-व्यस्त हो गया,जन-जीवन पर व्यापक असरपड़ा।
दुकानदारों,व्यापारियों,होटल मालिकों,छात्रों,मजदूरों और सार्वजनिकपरिवहन के कर्मचारियों के शामिल हो जाने से सारा शहर जैसे एक बिंदु पर ठहरगया।सम्पूर्ण गत्यारोध में कोई
कमी रह गयी थी तो वह रेल की पटरियों परसामूहिक धरने द्वारा रेलगाड़ियों के आवागमन रोक देने,पुलिस और सेना कीलॉरियों में आग लगा देने से और रास्तों पर अवरोध खड़ी
कर देने से पूरी होगयीं।

16 August1946'डायरेक्ट एक्शन' - जिन्नाकीमुसलिम लीग ने August, 1946 को उन्होंने हिंदुओं के खिलाफ 'डायरेक्ट एक्शन' (सीधी कार्रवाई) का फरमान जारी
कर दियाजिसे भारतीय इतिहास का Black Day भी कहा जाता है|

लगभग सभी जानते हैं कि जिन्ना का “डायरेक्ट एक्शन” यहाँ लागू होगा, परहिन्दुओं में शांति है। आत्मरक्षा की भी कोई तैयारी नहीं। कु छ गाँधी जी के भरोसे बैठे हैं। कु छ को मुस्लिम
अपने भाई लगते हैं, उन्हें भरोसा है किमुस्लिम उनका अहित नहीं करेंगे।
सुबह के दस बज रहे हैं, पर सड़क परनमाजियों की भीड़ अब से ही इकट्ठी हो गयी है। बारह बजते बजते यह भीड़ तीसहजार की हो गयी, सभी हाथों में तलवारें हैं।
मौलाना मुसलमानों को बार बार जिन्ना साहब का हुक्म पढ़ कर सुना रहा है- “बिरदराने इस्लाम! हिंदुओं पर दस गुनी तेजी से हमला करो…”
मात्रपचास वर्ष पूर्व ही हिन्दू से मुसलमान बने इन मुसलमानों में घोरसाम्प्रदायिक जहर भर दिया गया है, इन्हें अपना पाकिस्तान किसी भी कीमत परचाहिए।एक बज गया। नमाज हो
गयी। अब जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन का समय है।

इस्लाम के तीस हजार सिपाही एक साथ हिन्दू बस्तियों पर हमला शुरू करते हैं।एक ओर से, पूरी तैयारी के साथ, जैसे किसान एक ओर से अपनी फसल काटता है।जबतक एक
जगह की फसल पूरी तरह कट नहीं जाती, तबतक आगे नहीं बढ़ता।
जिन्नाकी सेना पूरे व्यवस्थित तरीके से काम कर रही है। पुरुष, बूढ़े और बच्चे काटेजा रहे हैं, स्त्रियों-लड़कियों का बलात्कार किया जा रहा है।हाथ जोड़ कर घिसटता हुआ पीछे बढ़ता
कोई बुजुर्ग, और छप से उसकी गर्दन उड़ाती तलवार…
माँ माँ कर रोते छोटे छोटे बच्चे, और उनकी गर्दन उड़ा कर मुस्कु रा उठती तलवारें…
अपनेहाथों से शरीर को ढंकने का असफल प्रयास करती बिलखती हुई एक स्त्री, औरराक्षसी अट्टहास करते बीस बीस मुसलमान… उन्हें याद नहीं कि वे मनुष्य भीहैं। उन्हें सिर्फ
जिन्ना याद है, उन्हें बस पाकिस्तान याद है,इस्लाम यादहै,काफिर याद है,
शाम हो आई है। एक ही दिन में लगभग 15000 हिन्दू काट दिए गए हैं, और लगभग दस हजार स्त्रियों का बलात्कार हुआ है।
जिन्ना खुश है, उसके “डायरेक्ट एक्शन” की सफल शुरुआत हुई है।

अगला दिन, सत्रह अगस्त….


मटियाबुर्ज का के सोराम कॉटन मिल! जिन्ना की विजयी सेना आज यहाँ हाथ लगाती है। मिल के मजदूर और आस पास के स्थान के दरिद्र हिन्दू….आजसुबह से ही तलवारें निकली
हैं। उत्साह कल से ज्यादा है। मिल के ग्यारह सौमजदूरों, जिनमें तीन सौ उड़िया हैं को ग्यारह बजे के पहले ही पूरी तरह काटडाला गया है। मोहम्मद अली जिन्ना जिन्दाबाद के नारों
से गगन गूंज रहा है…
पड़ोस के इलाके में बाद में काम लगाया जाएगा, अभी मजदूरों की स्त्रियों के साथ खेलने का समय है।
कलम कांप रही है, नहीं लिख पाऊं गा। बस इतना जानिए, हजार स्त्रियाँ…

हिंदुओं का व्यापक कत्लेआम हुआ था.कलकत्ता में 72 घंटों के भीतर 6 हजार से अधिक लोग मारे गए थे. 20 हजार से अधिक घायल हो गए थे. 1 लाख से अधिक बेघर हो गए
थे. इसेग्रेट कलकत्ता किलिंगभी कहा जाता है| पंद्रह दिन तक तो बाकी दुनिया को इस नरसंहार की कानोकान खबर तक नहींपहुंची. इसे नियति की विडंबना ही कहेंगे कि जिन
मुसलमानों ने यह बर्बरकृ त्य किया, दरअसल नोआखाली के वे गरीब, अशिक्षित, बहकाए हुए मुसलमानमुश्किल से पचास वर्ष पूर्व के धर्म-परिवर्तित हिंदू थे.

अगले एक सप्ताह में रायपुर, रामगंज, बेगमपुर, लक्ष्मीपुर…. लगभग एक लाखलाशें गिरी हैं। तीस हजार स्त्रियों का बलात्कार हुआ है। जिन्ना ने अपनीताकत दिखा दी है….
हिन्दू महासभा “निग्रह मोर्चा” बना कर बंगाल में उतरी है, और सेना भी लगा दी गयी है। कत्लेआम रुक गया है।

6 September 1946…
गुलाम सरवर हुसैनी लीग का अध्यक्ष बनता है, और सात को शाहपुर में कत्लेआम दुबारा शुरू…
वह 7 September1946 का दिन था ,जब गुलाम हुसैनी ने सरेआम बंगाल के मुसलमानों सेहिंदुओ को खत्म करने को कहा।इसके लिए उसने 12 अक्टू बर 1946 का दिन
चुना।
10 October 1946
कोजागरीपूर्णिमा की लक्ष्मीपूजा के दिन ही कत्लेआम की तैयारी है। नोआखाली के जिलामजिस्ट्रेट M J Roy रिटायरमेंट के दो दिन पूर्व ही जिला छोड़ कर भाग गएहैं। वे जानते
हैं कि जिन्ना ने दस अक्टू बर का दिन तय किया है, और वेहिन्दू हैं।
जो लोग भाग सके हैं वे पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और आसाम के हिस्सों में भाग गए हैं, जो नहीं भाग पाए उनपर कहर बरसी है। नोआखाली फिर जलउठा है।
लगभग दस हजार लोग दो दिनों में काटे गए हैं। इस बार नियम बदलगए हैं। पुरुषों के सामने उनकी स्त्रियों का बलात्कार हो रहा है, फिरपुरुषों और बच्चों को काट दिया जाता है। अब
वह बलत्कृ ता स्त्री उसी राक्षसकी हुई जिसने उसके पति और बच्चों को काटा है।
एक लाख हिन्दू बंधक बनाए गए हैं। उनके लिए मुक्ति का मार्ग निर्धारित है, “गोमांस खा कर इस्लाम स्वीकार करो और जान बचा लो”।एक सप्ताह में लगभग पचास हजार हिंदुओं का
धर्म परिवर्तन हुआ है।
https://medium.com/@ajaat_shatru/jinnah-ek-kutta-c8195e2b864c

Why Pakistani Hindus leave their homes for India


Cleansing Pakistan of Minorities
https://www.bbc.com/news/world-asia-india-34645370
https://www.hudson.org/research/9781-cleansing-pakistan-of-minorities
https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/Outraged/truth-half-truth-and-statistics/

Muhammad Ali Jinnah


Jinnah was a well accepted young freedom fighter in his initial times like Jawaharlal Nehru. But later, to establish a
Muslim country where he wanted to be a self portraited crown, he ignited communal violence and iinflamed hatred
feel among Indians.
A man who was once declscribed as 'Ambassador of Hindu-Muslim unity in India' by Sarojini Naidu, Jinnah became
one of the most dangerous man in Indian history.
Though he tried to spread Anti Hindu feelings among Muslims in India through Muslim league, most of the
Muslims didn't support him. As a result when elections were done in the provinces in 1937, not a single seat was
won by Muslim league. Indian national Congress led by Nehru made a massive victory and formed government.
This really irritated Jinnah. Quit India, when most of our leaders including Gandhiji were in jail, Jinnah took
advantage of this period and ignited communal feelings where Muslim league had its roots especially in NWFP
areas. This lead to the massive gory violence between Hindu and Muslim peoples and then to Indian partition.
Later Sarojini Naidu quoted,  'had we had at least one Jinnah in Indian side rather  than hundreds of Nehru, India
would never have divided'.

Politicians who use religious and cate feelings as well as linguistic and regional identities for cheap political gains
are also one of the greatest traitors in Indian history of Modern time. They do no less than once Jinnah done to this
land.

Terrorists.
Terrorists like Dawood Ibrahim, who born in India and works against this motherland are like trading his own
legacy for cheap gains. How can a person cheat and sell  his mother who gave birth to him? I agree that there may be
issues between siblings. But what the mistake did the mother have done?

1947- Riots, in fact, had erupted in Punjab in March 1947 itself. Rawalpindi and Jhelum were the most affected,
where many Hindu and Sikh women jumped into wells to save themselves from rape and kidnapping. Lahore
became a battleground between Hindus and Sikhs on the one side joining hands, and Muslims on the other.

First of all Hindu was 37% in Pakistan during 1947. They were forced out. U can see documentary on national
geographic how marauders were roming on Lahore streets killing & threatening Hindus & sikh. Even on Radio
Pakistan propoganda was carried out asking all non Muslim to quit.
9 August 1947 - India attained freedom at midnight just as the clock ticked 12.00 on August 15, 1947. India's
Legislative Council had taken over the power from the crown through and Act passed by British Parliament on July
4 the same year.

The celebrations had begun earlier the previous day. Even at the Parliament building, the official function had
started at 11 pm. Vande Mataram was sung as the National Anthem. There was yet no controversy about
singing Vande Mataram. Later it was declared as the National Song.There were 13 ministers. The most notable
non-Congressmen were BR Ambedkar and Shyama Prasad Mukherjee.

Gandhi refused to participate in any festivities - along with his protege Abdul Ghaffar Khan. On 9 August, Gandhi
arrived in Calcutta (as Kolkata was known then) with plans to move to Naokhali (now in Bangladesh) - a district
torn by communal massacre and violence. Gandhi then decided to stay at Hyderi Manzil, close to a Muslim
dominated slum called Miabagan. There, he received hundreds of visitors and held prayer meetings. There were
constant protests of "Gandhi go back" outside, as some felt Gandhi unduly sympathised with Muslims.

From 13 August onwards, Gandhi began efforts to personally pacify people from either community and urge them to
end the violence. On many occasions, angry mobs refused to bow down, but Gandhi continued his efforts. Within
days, the result was visible for everyone to see. Lord Mountbatten, noting this, wrote "In the Punjab we have 55
thousand soldiers and large-scale rioting on our hands. In Bengal our forces consist of one man, and there is no
rioting."

On 15 August Gandhi marked the day with a 24 hour fast, prayer, and spinning yarn. "My way of celebrating great
events, such as today's, is to thank God for it and, therefore, to pray," he wrote to his Quaker friend Agatha Harrison.
When C Rajagopalachari visited and congratulated Gandhi for restoring peace in the city, Gandhi said he will not be
satisfied "until Hindus and Muslims felt safe in one another's company and returned to their own homes to life as
before."

31 October, 1947 कश्मीर में पहली बारपाकिस्तानी झंडा–(इतिहासकार मारूफ़ रज़ा द्वारा लिखी गई किताब ‘कश्मीर -द अनटोलड स्टोरी-डीकलासीफ़ाईड’ ) इस
समस्या को उभारने में पाकिस्तान, चीन और यहाँ तक कि अंग्रेज़ी साम्राज्यका योगदान रहा है।अंग्रेज़ी साम्राज्य के योगदान संबंधी बात करते हुयेउन्होंने कहा कि आज़ादी से एक दम
बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने कश्मीर में भारतके खि़लाफ़ भावानाओं को भडक़ाने में बड़ा योगदान डाला। उन्होंने कहा किकश्मीर में पारसी, रूसी और चीनी सभ्यताओं का बहुत (प्रभाव)
पाया जाता है, रणनीतक तौर पर बड़ी अहमीयत रखता है।उन्होंने बताया कि कश्मीर में पहली बारपाकिस्तानी झंडा 31 अक्तू बर, 1947 को एक अंग्रेज़ फ़ौजी अफ़सर के
नेतृत्वअधीन लहराया गया था, जिसको बाद में पाकितसान ने इस काम के लिए देश का बड़ासम्मान दिया। साथ ही यह भी बताया गया स्वतंत्रता के उपरांत कश्मीर में पहलीघुसपैठ
भी अंग्रेज़ फ़ौजी अफसरों की रणनीति का हिस्सा था, जिसके अंतर्गतउन्होंने स्वतंत्रता से एक दम बाद भारतीय फ़ौज को जम्मू कश्मीर में से बाहरजाने का आदेश दिया जिससे इन
घुसपैठियों को किसी तरह की कोई मुश्किल न आए।उन्होंने कहा कि मन्दभागी बात है कि कश्मीर के राजनैतिक नेतृत्व अपने निजीहितों के कारण बहुकोणी राजनीति खेलते रहे हैं,
जिससे यह समस्या गहरी हुईहै। उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या दिल्ली सरकार की नीतियों की असफलता कोभी दर्शाता है|

María Teresalina Sánchez, F.M.M. (13 July 1918 – 27 October 1947) was a Spanish FranciscanReligious Sister
who served as a missionary to Kashmir. She was murdered on the grounds of St. Joseph's Catholic Church in
Baramulla by invading tribesmen during the Indo-Pakistani War of 1947.[1] She is considered the first Christian
martyr in Jammu and Kashmir. they looted the church and convent, stealing everything that appeared to be
valuable. They went to the hospital and began to destroy everything inside, whereupon they met the Mother
Superior. The mercenaries pulled off her eyeglasses, ring, and veil. Sánchez interceded, speaking up for her
Superior. At that moment the mercenaries shouted: "Kill them!" She put herself in front of the Superior to defend
her and received three bullet wounds. The shots hit her in the lung, abdomen, and leg. The mercenaries then dragged
her to a room in the hospital that had already been sacked.
10th of November- Rajouri where the population swell from 6000 to 11000 with the influx of refugees from the
adjoining villages. Most of population was done to death and less than 100 could escape the jaw of death. PoK
Refugees the heroic Pohwari tribe who fought the foreign invaders from the ancient times are now living in abject
poverty in camps and are told to be repatriated as soon as India takes back PoK areas which are the integral part of
India through a resolution of Indian Parliament of 1994 . The sacrifices of PoK Refugees of Muzaffarabad kept
the enemy engaged for four days till the Indian army was air dropped in Srinagar andsacrifices of people of
Mirpur delayed the enemy for a month till the besieged Poonch was freed and a vital link of Poonch to
Jammu and western Punjab was saved from falling into the hands of Pakistan.

23/24/25 November 1947 मीरपुर हिन्दू सिख नरसंहार- As the offer of accession by Maharaja was accepted by Govt of
India on 26th of October 1947merger with India as its integral part was celebrated like “Diwali” in Mirpur
with lighting of candles and bursting of crackers. for strategic reasons of importance, of Jhelum bridge,
irrigation/hydroelectric potentials of Mangla dam in Mirpur for the economic needs and air base in western
J&K close to Russia and China Pakistan conceived a military plan to attack Jammu and Kashmir. Code named
“Gulmarg” it was placed under the close guidance of British military officers. Pashtun tribes Lashkers from Dir and
Waziristan areas were roped in under the direct command of Col. Akbar Lone of Pak army code named Gen. Tariq
and soon armed attacks and looting started in early Septempber in Poonch and Kotli area, about 400 looters entered
Owen on 2nd and 3rd September, followed by Pak regular army and ex army men. The town of Bhimber fell at the
same time when Indian troops were air lifted of Srinagar on 27th of October. 1947.Soon, other areas fell one after
another and the focus of attention and sending the Indian reinforcement was valley centric as Pt. Nehru completely
gave the command of troops movement to Sheikh Mohd Abdulla side lining Sardar Patel. The population of Mirpur
swelled from 10000 to 25000 with Hindus and Sikhs migrating form nearby areas and Jhelum. A garrison of
Maharaja Forces were stationed in the town. People made the fortified defences on the roof tops and on the ground
by digging trenches and groups of youths were assigned the job of vigilance round the clock with primitive
weapons. Many advances of the enemy were repulsed till the town fell on 25th November 1947. Pakistan army
started using modern weapons and artillery to break the walls of town. There were no supply as the town was
already cut off by the fall of Bhimber in October itself; the only hope was the air dropping of supplies of food and
ammunition by air. In a bad luck the only wireless equipment with the state forces broke down and the fresh stronger
attack by the enemy forces on 24th morning frightened the state forces who left the battle scene with the information
to the civil population to move to safer places. The blood thirsty Pak army and tribal marauder entered the city
around 8 a.m. in the morning. Under chaos and confusion people ran around terrified and the city was set on fire by
the invaders. Soon poison was distributed to the women to end their lives and not to fall into the hands of enemy.
Many who didn’t get the poison were done to deaths with swords by their fathers and bothers. The dance of death
continued till afternoon and at the end of day 18000 people were slaughtered in most barbaric way of the human
history by Pak army and tribls. Five thousand people most of them women and children were taken hostages and
taken to Alibeg Gurudawara Sahib which was converted to a concentration camp. Only 2000 people could reach
Janger on foot and then escorted by Indian army to Jammu refugee camp. The hapless women and young girls
abducted went thorough worst sex orgies of rape and violence. The whole of Mirpur was latter dugout to loot the
wealth worth billions of Rupees beside gold and silver. आजाद भारत का हिस्सा बनने के वाद भी ३० दिन वाद ही धार्मिक हिंसा ने उग्र रूप धारण
कर लिया था|मीरपुर में नेहरू ने 18 हजार हिंदुओं को पाकिस्तानी के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया था, “गोलियों की बौछार से मैं बच कर भागी। इस वजह से मैं अपनेपरिवार से
बिछड़ गई। मेरे साथ मेरे पति थे। हम कस्बे से कु छ दूर ही गएहोंगे, तभी दंगाइयों ने हमें घेर लिया। उनके हाथों में कु ल्हाड़ी, तलवार, फरसा आदि हथियार थे। महिलाओं और पुरुषों
को अलग कर दिया गया। मेरे साथ करीब 30 से 40 महिलायएं थी जो एक अंधेरे कमरे में रहम की भीख मांग रही थीं। हमसब के साथ बारी-बारी कई बार यौन शोषण किया गया।
चार दिन तक मुझे पाकिस्तानके कई हिस्सो में रखा गया, फिर मुझे मंडी ले जाया गया, जहां मुझे 20 रुपएमें बेच दिया गया।” मीरपुर की रहने वाली हरभजन कौर की कहानी|
यहां करीब 18 हजार से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। यहीनहीं, 5 हजार से अधिक महिलाओं को अगवा कर खाड़ी के देशों और पाकिस्तान के अलग-अलग
हिस्सों में मंडी लगाकर 10-20 रुपयों में बेच दिया गया।कश्मीर में मीरपुर से एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधानमंत्रीजवाहरलाल नेहरू से मिला। उनसे वहां बिगड़ रहे हालात की
चर्चा की गई, लेकिनभारत की तरफ से इस पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। इसके मुताबिक, यहप्रतिनिधिमंडल महात्मा गांधी से भी मिला था, लेकिन गांधीजी ने कहा
किमीरपुर में बर्फ पड रही है, इसलिए वहां सेना को नहीं भेजा जा सकता। जबकि, हकीकत यह थी कि मीरपुर में कभी बर्फ पड़ती ही नहीं।
पाकिस्तान की फौज नेचौतरफ़ा घेराबंदी कर रखी थी। किसी को भी नहीं बख्शा गया। जो भी मिला, उसका कत्लेआम कर दिया। जान बचाने के लिए हज़ारों की तादात में पलायन
कर गए।इधरपाकिस्तानी सेना ने लूटपाट मचाना शुरू कर दिया।
75 हजार से एक लाख महिलाओं का अपहरण हत्या और बलात्कार के लिए हुआ. जबरनशादी, गुलामी और जख्म ये सब बंटवारे में औरतों को हिस्से आया.
सरला दत्ता को एक पाकिस्तानी सैनिक ने बंधक बना कर रखा| जब हिंदुओं और सिखों की बस्ती पर मुसलमानों ने कब्जा किया तो वह अपना घरछोड़ कर भाग निकलीं. उन लोगों
को वहां से जाने की धमकियां दी जा रही थीं किजो भी बचा उसकी हत्या कर दी जाएगी.उस रात जब हम भागे, तब हमने खेतों में पड़े बच्चों को देखा, जो रो रहे थे.पुरुष अपने बच्चों
को छोड़ दे रहे थे और महिलाओ को डर था कि उनके साथ अगरतेजी से नहीं चलीं तो पीछे छू ट जाएंगी. बहुत सी महिलाएं कमजोर भी थीं.इंसानियत बिल्कु ल खत्म हो गयी थी.
बहुत बुरा वक्त था." हथियारबंद गुट ने उन पर हमला किया. लड़कों और पुरुषों को गोली मार दी गयी, बूढ़ों को छोड़ दिया गया और महिलाओं को उन्होंने अगवा कर लिया.
सरला कोकालू नाम के एक सैनिक ने बंधक बना लिया. वह बताती हैं, "चार दिन तक पैदलचलने के बाद हम उसके गांव पहुंचे. मुझे एक मुस्लिम नाम अनवारा दे दिया गयाऔर
उसने मुझे कु रान पढ़ने को कहा. मुझसे कहा गया कि मेरी कालू के छोटे भाईसे शादी होगी." अपनी कहानी सुनाते सुनाते वह सबूत के तौर पर अचानक कु रान कीआयतें सुनाने
लगीं.

तत्कालीन भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार के भाग्यविधाता अपने इननागरिकों की जान बचाने और उनके इलाके की रक्षा के लिए पुलिस, फौज औरप्रशासन की तैनाती ही
भूल गए थे।कबायली हमलावरों ने मीरपुर और आसपास वाले इलाके से खदेड़कर भगा दिया था। बादमें शेख अब्दुल्ला की सरकार ने इन लोगों को यह कहते हुए राज्य से बाहरभागने
पर मजबूर कर दिया कि उसके पास इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों कापुनर्वास करने की सुविधा नहीं है।कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा के लिए बदनाम हो चुके शेख अब्दुल्ला ने
इनलोगों को जम्मू-कश्मीर से बाहर महज इस कारण भगा दिया था क्योंकि ये सभीशरणार्थी या तो हिंदू थे या सिख | 23 नवंबर के पहले हमले के बाद जो बचे खुचे हिंदू और सिख
शरणार्थी श्रीनगरपहुंचे, उन्हें राज्य के तत्कालीन प्रीमियर शेख अब्दुल्ला ने यह कहते हुएकश्मीर घाटी में नहीं रुकने दिया कि घाटी में इन लोगों के बसने से कश्मीरघाटी की
कश्मीरियत फीकी हो जाएगी। लेकिन अपने पुश्तैनी जम्मू-कश्मीर से भगाए जाने के बाद शेष भारत में बसे ऐसे शरणार्थियों की संख्या आज 12 लाख के करीब है

जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों द्वारा तय किए गए कानूनोंके कारण इस समाज के सदस्य अपने इस पुश्तैनी राज्य की नागरिकता हासिल नहींकर सकते। स्टेट-
सब्जेक्ट (राज्य का नागरिक) न होने के कारण उन्हें वहांजमीन खरीदने का अधिकार भी नहीं है। नतीजतन, इस समाज के बच्चे राज्य के शिक्षा संस्थानों में एडमिशन नहीं ले सकते,
वहां नौकरी के लिए आवेदन करनेका भी उन्हें अधिकार नहीं है, वे किसी को-आॅपरेटिव का सदस्य भी नहीं बनसकते, अपना काम धंधा शुरू करने के लिए राज्य सरकार के किसी
वित्तीय संस्थानसे उधार मांगने का भी उन्हें अधिकार नहीं है और यहां तक कि वे किसीस्थानीय पंचायत का सदस्य नहीं बन सकते।

सोने पर सुहागा यह है कि 111 सीटों वाली जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस समाजके पुश्तैनी इलाके , पीओके के नाम की 24 सीटें खाली रखी जाती हैं। लेकिन इससमाज के 12
लाख लोगों को वोट देने का अधिकार तक नहीं है।

महाराजा हरि सिंह द्वारा राज्य के भारत में विलय की घोषणा पर हस्ताक्षरकरने के तुरंत बाद नेहरू ने उन्हें राज्य से बाहर निकाल दिया और शेखमोहम्मद अब्दुल्ला को बिना कोई
चुनाव कराए राज्य का प्रीमियर नियुक्त करदिया। उन्होंने शेख को राज्य की चुनाव प्रणाली और नियम तय करने का अधिकारभी दे दिया। 1951 में शेख के फार्मूले पर बनी
विधानसभा में 100 सीटें थींजिनमें से कश्मीर घाटी को 43, जम्मू क्षेत्र को 30 और लद्दाख क्षेत्र को 2 सीटें दी गई थीं।

राज्य असेंबली ने कश्मीरी बहुमत के आधार पर एक और कानून पास किया जिसमें 1947 में राज्य के भारत में विलय के बाद पाकिस्तान में जा बसे उन पूर्वकश्मीरियों को वापस
आकर राज्य की नागरिकता लेने और अपनी पुश्तैनीसंपत्तियों पर कब्जा लेने का निमंत्रण दिया गया था।

यह मात्र संयोग नहीं है कि रियासत के जिन शरणार्थियों से उनकी पहचान औरमूलभूत अधिकार छीने रखने के प्रयास पिछले 68 साल से श्रीनगर और कें द्रसरकार के स्तर पर
चलते आ रहे हैं, वे सब हिंदू और सिख हैं। यह भी मात्रसंयोग नहीं है कि जिन लोगों को पाकिस्तान से बुलाकर उन्हें राज्य कीनागरिकता देने को घाटी की सरकार उतावली है, वे
सभी मुसलमान हैं।लेकिन सीज फायर और सरकार की गलत नीतियों के कारण उन्हें अपनी मातृभूमि मीरपुर कोटली आदि क्षेत्र को छोड़ना पड़ा।भारतीय संसद में पाक अधिकृ त
कश्मीर को वापस लेने के लिए बिल भी पास कियागया, लेकिन सरकार की ओर से कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए और न ही 66 सालबाद आज भी कोई मुआवजा देने का
सेटलमेंट किया गया। इसके लिए मीरपुर के लोगसंघर्ष जारी रखें हैं।

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ये अपनी मिट्टी,अपने ज़मीन,अपनी दुनिया से अलग हुए लोगों का दर्द है|ऐसेकरीब ३.5 लाख कश्मीरी पंडित है जो अपनी मिटटी से अलग होकर देश और दुनिया के अलग
अलग हिस्सों में ज़िन्दगी बिता रहे है| हिन्दु मिटाओ-हिन्दू भगाओ अभियान चलाने से पहले 1984 से 86 के बीच मेंपाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के मुस्लिम
जिहादियों को भारतीय कश्मीर मेंबसाया गया और घाटी में जनसंख्या संतुलन मुस्लिम जिहादियों के पक्ष मेंबनाकर हिन्दुओं पर हमले शुरू करवाए गए| जब मुस्लिम जिहादियों
द्वारा प्रशासन में बैठे अपने आतंकवादी साथियों के सहयोग से हिन्दुओं पर अत्याचारों का सिलसिला बेरोकटोक जारी था। इस दौरानजान-माल के साथ-साथ हिन्दुओं की
मां-बहन–बेटी भी सुरक्षित नहीं थूं।सैकड़ों हिन्दुओं का कत्ल किया जा चुका था। दर्जनों महिलाओं की इज्जत कोतार-तार किया जा चुका था। मस्जिदों व उर्दू प्रेस के माध्यम
से मुस्लिमजिहाद का प्रचार-प्रसार जोरों पर था।इन्हें मारने वाले स्थानीय मुस्लिम भी थे। वे समूहों में कत्ल से पहलेहिन्दुओं के अंग-भंग करना, आंखें निकालना, नाखुन
खींचना, बाल नोचना, जिंदाजलाना, चमड़ी खींचना खासकर महिलाओं के स्तनों को गाड़ी से बांधकर घसीटतेहुए तड़पा-तड़पा कर मारना आम बात थी। कु ल मिलाकर
मुस्लिम जिहादियों द्वाराचलाए जा रहे हिन्दू मिटाओ-हिन्दू भगाओ अभियान की सफलता के पीछेजम्मू-कश्मीर की देशविरोधी सेकु लर सरकारों का योगदान पाकिस्तान से
कहींज्यादा है।तत्कालीन राज्य एवं कें द्र सरकारों ने इस गंभीर विषय पर कु छ नहीं किया !
Going further back in time, Kabu narrated an account of when Pakistani tribal raiders entered Kashmir in
October 1947 and raided their village in Baramulla. He talked for hours, until midnight, even forgetting to have
his dinner. It was a tragic tale of persecution of the Pandits of Baramulla at the hands of the marauders. Kabu
told us: ‘They seized Baramulla and torched the houses of Pandits. When they entered our village, they started
killing people and robbing the houses. They forced the Pandits at gunpoint to recite the Kalima to convert them
to Islam. Those who dared to resist were hacked to death inside their homes. Many Muslims joined the raiders
to save themselves.

Brahmin Masacre of 1948-31 january सेलेकर 3 february तक-गांधीकीहत्याके बादहुएब्राह्मण-विरोधीदंगोंमेंथाकांग्रेसकाहाथ|


आज़ादभारतकापहलानरसंहार।अहिंसाके मसीहामहात्मागांधीके अनुयायियोंकीउन्हेंहिंसकश्रद्धांजलि।| महाराष्ट्रमें गांधीहत्याकीआड़मेंकांग्रेसकाजनाधारमराठाजाति,
ब्राह्मणोंके खिलाफनफरतनिकालनेनिकलपड़ाथाक्योंकिगोडसेब्राह्मणथातोउसके मार्गदर्शकसावरकरगांधी-विरोधीथे।
तिलकऔरगोखलेजैसेब्राह्मणकांग्रेसके नेताथेमगरहिंदूमहासभाऔरराष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघके उदयके बादजातीयसमीकरणबदलनेलगे।अपनेआपकोक्षत्रियकहनेवालेऔर 35
फीसदीजनसंख्यावालेमराठाकांग्रेसकाजनाधारबनगए।ब्राह्मणहिंदूसंगठनोंके साथजुड़गए।महाराष्ट्रके ब्राह्मणोंनेशिवाजीके राज्याभिषेककाइसआधारपरविरोधकियाथाकिवेक्षत्रियनहींहैं।
मगरशिवाजीस्वराज्यकीस्थापनामेंसफलहुएऔरराज्याभिषेककरानेमेंभी।मगरउनकीमृत्युके बादअसलीसत्ताउनके ब्राह्मणमंत्रीजोपेशवाकहलातेथेके हाथोंमेंचलीगई|
कईक्षेत्रोंमेंतोब्राह्मणोंसेईर्ष्याकरनेवालेजैनऔरलिंगायतभीहमलोंमेंशामिलहोगए।महाराष्ट्रके हज़ारों-लाखोंब्राह्मणके घर-मकान-दुकानें-स्टॉलफूँ कदिएगए।सैंकड़ोंब्राह्मणमारेगए,
हज़ारोंज़ख्मीहुए, ब्राह्मणस्त्रियोंके साथदुष्कर्मकिएगए।वृद्धहोंयाकिशोर, सबके नामपूछ-पूछकरचितपावनब्राह्मणोंकोचु- चुनकरजीवितहीजलादियागया।
कईदिनोंतकपुणेजलतारह l यहहिंसागाँव-गाँवतकफै ली।वहाँनारेलगतेथे- “ब्राह्मणों…यदिजानप्यारीहो, तोगाँवछोड़करभागजाओ…”।
बहुतसेलोगमानतेहैंकियहस्वतंत्रभारतमेंभीड़द्वाराहत्या (लिंचीग) कीपहलीघटनाथीजिसेकांग्रेसनेअंजामदियाथा।
जिसमहाराष्ट्रके चित्पावनब्राह्मणसम्पूर्णभारतमेंधर्मतथाराष्ट्रकीरक्षाहेतुसजगरहतेथे... उन्हेंवर्षोंतकसत्तासेदूररखागया, अब 67
वर्षोंबादकोईप्रथमचित्पावनब्राह्मणदेवेन्द्रफडनवीसके रूपमेंमनोनीतहुआहैl

अधखुलीऔरनींद-भरीआँखोंसेवहव्यक्तिअभीनउन्हेंपहचानपायाथा, नहीकु छसमझपायाथा...


किउसपरकांग्रेसके अहिंसावादीआतंकवादीमिटटीकातेलछिडककरचारपाईसमेतआगलगादेतेहैंl

चित्पावनब्राह्मणोंकोनौकरीदेनाहीबंदकरदियाl उनकीदुकानोंसेलोगोंनेसामानलेनाबंदकरदियाl

चित्पावनभूरीआँखोंवालेब्राह्मणोंकापुणेमेंसामूहिकबहिष्कारकरदियागयाथागोडसेजीके परिवारसेजुड़ेलोगोने50 वर्षोंतकयेनिर्वासनझेला. सारेकार्ययेस्वयंकियाकरतेथे

जोबड़ेव्यवसायीथेउनके पासनजानेएकहीवर्षमेंऔरकितनेवर्षोंतकआयकरके छापे, विक्रयकरके छापे, आदिनजानेक्याक्याडालकरउन्हेंप्रताड़ितकियागयाl

चुनावोंके समयभीजोव्यवसायी, व्यापारी, उद्योगपतिआदियदिहिन्दूमहासभाके प्रत्याशियोंकोचंदादेताथातोअगलेदिनवहांपरआयकरविभागके छापेपड़जायाकरतेथेl

गांधीवधपुस्तकछापनेवालेदिल्लीके सूर्यभारतीप्रकाशनके ऊपरभीनजानेकितनीहीबार... आयकर, विक्रयकर, आदिके छापेमारमारकरउन्हेंप्रताड़ितकियागया,


येउनकाजीवटहैकिवेआजभीगांधीवधकाप्रकाशननिर्विरोधकररहेहैं

https://www.theindiapost.com/articles/massacre-of-chitpavan-brahmins/

http://lovybhardwaj.blogspot.com/2015/02/genocided-chitpawan-brahmins-by-gandhis.html

https://hindi.theprint.in/opinion/nathuram-godse-killed-mahatma-gandhi-but-next-morning-gandhians-killed-
gandhism/43165/

October 1, 1949 - The People's Republic of China was founded with Mao Zedong as Chairman.

26 January 1950 - the Constitution of independent India was ratified and Prasad was elected the nation's first
president. Rajendra Prasad (3 December 1884 – 28 February 1963) was the firstPresident of India, in office from
1950 to 1962 . When Prasad was five years old, his parents placed him under the tutelage of a Moulavi, an
accomplished Muslim scholar, to learn the Persian language, Hindi and arithmetic. After the completion of
traditional elementary education, he was sent to the Chapra District School. In 1916, he joined the High Court of
Bihar and Odisha. In 1917, he was appointed as one of the first members of the Senate and Syndicate of the Patna
University. He also practiced law at Bhagalpur, the famous silk town in Bihar.
He also responded to the call by Gandhi to boycott Western educational establishments by asking his son,
Mrityunjaya Prasad, to drop out of his studies and enrol himself in Bihar Vidyapeeth, an institution he along
with his colleagues founded on the traditional Indian model.[12]

1934 में वेभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके मुंबईअधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये।नेताजी सुभाषचंद्र बोसके अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन:
1939 में सँभाला था।राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों मेंप्रधानमंत्रीया कांT ग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप
सेकार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुखअपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बादमें उनके परवर्तियों के लिए
मिसाल के तौर पर काम करते रहे।

पंडित नेहरूगवर्नर जनरल के पद पर पहले से तैनात 'राजाजी' यानी सी. राजगोपालाचारी कोराष्ट्रपति बनाना चाहते थे और उन्हें ज़बान भी दे चुके थे, लेकिन उन्हें तबनिराशा हुई
जबसरदार पटेलनेदूसरा नाम आगे कर दिया. वो नाम था राजेंद्र प्रसाद का. डॉ. राजेंद्रप्रसाद (Rajendra Prasad) की कांग्रेस संगठन के अंदर पकड़ और स्वीकार्यतातो थी
ही, उससे कहीं ज्यादा वे शहरी पृष्टभूमि से आने वाले राजाजी के मुकाबले जमीन पर मजबूत थे. और इसका उन्हें फायदा मिला. 26 जनवरी 1950 कोउन्होंने देश के पहले
राष्ट्रपति के तौर पर भव्य समारोह की सलामी ली.

12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हेंभारत सरकारद्वारा सर्वोच्च नागरिक
सम्मानभारत रत्नसे नवाज़ा गया।

पहलेराजेंद्र प्रसाद (Rajendra Prasad) का नाम राष्ट्रपति पद के लिए आगे करनेऔर इसके कु छ दिनों बाद ही धुर दक्षिणपंथी पुरुषोत्तम दास टंडन का नामकांग्रेस अध्यक्ष पद
के लिए आगे बढ़ाने के बादनेहरू और पटेलमें मतभेद गहरा गए. दोनों मौकों पर सरदारपटेलका पलड़ा भारी रहा. हालांकि अगस्त 1950 में कांग्रेस की अध्यक्षी का चुनाव हुआ
और 4 महीनों के अंदर हीसरदार पटेलका निधन हो गया. अब कांग्रेस के अंदर और बाहर, दोनों जगह नेहरू को टक्करदेने वाला पटेल के कद का शायद ही कोई बचा था.
हां...पटेल के दो 'खास', डॉ.राजेंद्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) और पुरुषोत्तम दास टंडन अब भी मैदानमें थे और नेहरू से उनका मतभेद जारी रहा. साल भर के
अंदर ही खासकरपंडित नेहरूऔर डॉ. प्रसाद (Rajendra Prasad) के बीच मतभेद सतह पर आ गए. इसके पीछे थासोमनाथ मंदिर. कभी अपनी संपदा और ऐश्वर्य के लिए
ख़्यात सोमनाथ मंदिर मेंजब 1947 मेंसरदार पटेल (Vallabhbhai Patel) पहुंचे तो इसकी हालत देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई.  इसके बादउन्होंने सोमनाथ के
जीर्णोद्धार का निर्णय लिया और अपने सहयोगी के एम मुंशीको इसकी जिम्मेदारी सौंप दी. 1951 में जब मंदिर का पुननिर्माण पूरा हुआ तोखुदसरदार वल्लभभाई पटेलइसके उद्घाटन
समारोह में शामिल होने के लिए मौजूद नहीं थे. राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद (Rajendra Prasad) को मंदिर के उद्घाटन करने का न्योतादिया गया और उन्होंने इसे स्वीकार
भी कर लिया, लेकिन जवाहरलाल नेहरू को यहपसंद नहीं आया.

पंडित नेहरू का तर्क और राजेंद्र प्रसाद का जवाब 


जवाहरलाल नेहरूमानते थे कि जनसेवकों को कभी भी आस्था या पूजा स्थलों से अपने आपको नहींजोड़ना चाहिए. जबकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद (Rajendra Prasad) की राय
थी किसभी धर्मों को बराबरी और आदर का दर्जा दिया जाना चाहिए. पंडित नेहरू (Jawaharlal Nehru) का तर्क था कि बंटवारे के बाद जिस तरह का माहौल बना था,
उसमें सोमनाथ में विशाल मंदिर बनाने पर जोर देने का यह उचित समय नहीं था.विख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब'इंडिया आफ्टर गांधी'में लिखते हैं
किनेहरूनेप्रसाद को सलाह दी ''वे सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में न जाएं, इसके दुर्भाग्यवश कई मतलब निकाले जाएंगे''. डॉ. राजेंद्र प्रसाद  (Rajendra Prasad) ने
नेहरू की सलाह नहीं मानी और वे सोमनाथ गए. बकौल रामचंद्र गुहा, राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ में कहा 'मैं एक हिंदू हूं, लेकिन सारे धर्मोंका आदर करता हूं. कई मौकों पर चर्च,
मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारा भी जातारहता हूं'.

सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने 8 may1940 को सोमनाथ के नवनिर्मित मंदिर की आधारशिला रखी तथा 11 may 1951 को भारत के प्रथमराष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र
प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया था.सोमनाथ मंदिर 1962 में पूर्ण निर्मित हो गया था.

के एम मुंशी के निमंत्रण पर मई, 1951 में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्रप्रसाद सोमनाथ मंदिर पहुंचे थे और उन्होंने कहा था, ''सोमनाथ मंदिर इस बातका परिचायक है कि
पुनर्निर्माण की ताक़त हमेशा तबाही की ताक़त से ज़्यादाहोती है.''

महात्मा गांधी ने इस फै सले का स्वागत किया था लेकिन उन्होंने इसके लिएसरकारी खजाने का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह भी दी. लेकिन महात्मा गांधी औरसरदार पटेल की
मृत्यु के बाद मंदिर के पुनरुद्धार की जिम्मेदारी नेहरूसरकार में खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री के एम मुंशी पर आ गई|

नेहरू ने खुद को सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार से पूरी तरह अलग रखा था. नेहरूने सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखकर सोमनाथ मंदिर परियोजना के लिए सरकारी फं ड का
इस्तेमाल नहीं करने का निर्देश दिया था.
डा.राजेन्द्र प्रसादसे पंडित नेहरू हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंनेराजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया।जवाहर लाल नेहरू
चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने‘‘झूठ’’तक का सहारा लिया था। नेहरू ने 10 सितंबर, 1949 को डा.
राजेंद्र प्रसाद कोपत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फै सला किया है किसी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होगा।
नेहरूजी ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डॉ.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्टहुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्तबम्बई में थे। कहते हैं
कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू जी से उनकी कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डॉ. राजेंद्र प्रसाद में से किसे
राष्ट्रपति बनाया जानाचाहिए, न ही उन्होंने नेहरू जी के साथ मिलकर यह तय किया था किसी.राजगोपालाचारी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यहबात उन्होंने
राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहाथा कि ‘‘पार्टी में उनकी (डॉ0 राजेन्द प्रसाद
की) जो स्थिति रही है, उसेदेखते हुए वह बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू जी को जब यह पत्र मिला तोउन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले
उन्होंने अपनीगलती स्वीकार करने का निर्णय लिया। नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालातउनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंधमें रातभर
जाग कर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा।
पंडित नेहरू के विरोध के बाद भी दो कार्यकाल तक रहे राष्ट्रपति
राजेन्द्रबाबू, पंडित नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुनेगए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी जी को देश का पहला राष्ट्रपति बनानाचाहते थे, लेकिन
सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा.राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू जी को कांग्रेस नेताओंसर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के
तौर पर डॉ. राजेन्द्रप्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा। जवाहर लाल नेहरू और डॉ. राजेंद्रप्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरूसे ही थे,
लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो
दोनों की सोच और विचारों में था अंतर
नेहरूपश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंदथा, वहीं नेहरू लन्दन और
पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के धुले कपड़े तकपहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारणसरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता
थी। सोमनाथ मंदिरमुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यहभारतीय अस्मिता का कें द्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए।
लंबेसमय तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपनेकिसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरूइसके ठीक
विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहनविजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवड़ि़यां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया।
एकबार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशीविश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर छू लिए तो नेहरू नाराज हो गए औरसार्वजनिक रूप से इसके लिए
विरोध जताया, और कहा की भारत के राष्ट्रपति कोऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरू कीआपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा।
चीन और तिब्बत नीति पर भी नेहरू से असहमत थे
राजेन्द्रप्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे।नेहरू की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी।इसी
प्रकार राजेन्द्र बाबू और नेहरू में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भीमतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजाकि अगर भारत की सभी भाषाएं
देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभीभाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी।सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया,
किन्तु कें द्र सरकारने इसे नहीं माना ।
नहीं पहुंचे तो उनके अंतिम संस्कार में
डॉ.राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ मंदिर जाने की वजह नेहरू उनसे इतना चिढ़ने लगेकि जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त हुए तो उन्हें दिल्ली
में घर तक नहीं दिया गया। एकपूर्व राष्ट्रपति को सम्मान मिलना चाहिए, उनका जो अधिकार था उससे उन्हेंवंचित कर दिया गया। उन्हें पटना लौटना पड़ा। पटना में भी उनके पास
अपनामकान नहीं था। वह पटना के सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में रहने लगे।इस बीच में उन्हें दम की बीमारी ने जकड़ लिया, लेकिन नेहरू जी और उनके करीबियों ने
कभी उनकी सुध लेने की कोशिश नहीं की। उसी कमरे में रहते हुएराजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई.
अंत्येष्टि में नेहरू शामिल नहीं हुए और राधा कृ ष्णन से कहा वो भी न जाये
नेहरूजी उनकी अंत्येष्टि तक में शामिल तक नहीं हुए। जिस दिन उनकी आखिरी यात्राथी उस दिन नेहरू जयपुर चले गए। राजस्थान के राज्यपाल डाॅ. संपूर्णानंद पटनाजाना चाह रहे
थे लेकिन जब नेहरू जी को मालूम चला कि संपूर्णानंद जी पटनाजाना चाहते हैं तो उन्होंने संपूर्णानंद जी से कहा कि यह कै से मुमकिन है किदेश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए
और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो।इस पर डॉ. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया. इससनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद ने स्वयं किया था।
उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वह राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं करसके । वह राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डॉक्टर सम्पूर्णानंद नेराजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद
पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनीव्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुखलोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं गया,
(किसके डर से?) सबलोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में नहीं आया, यहअच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकु ल ठीक है कि उनके जाने न जाने से
उस महापुरुषका कु छ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निश्चय ही अपने कर्तव्य सेविमुख रहे।

1952 के चुनाव में अभी वक्त था. इस बीचहिंदू कोड बिल पर बहस लगातार जारी थी. डॉ. अंबेडकर इसको लेकर आग्रही थे.उनकी इस विषय पर नेहरू से अंदरखाने तीखी झड़प
होने लगी थीं. गुस्सा सिर्फ बिल को लेकर नहीं था. डॉ. अंबेडकर लंदन से इकॉनमिक्स में पीएचडी करके आएथे. वह देश के आर्थिक नियोजन से जुड़े मसलों में भी अपनी भूमिका
चाहते थे.मगर नेहरू उन्हें इसमें शामिल नहीं कर रहे थे.

इन सबके बीच संसद के बाहर के आंदोलन भी उग्र हो रहे थे. धार्मिक मोर्चेपर विरोध का नेतृत्व संत करपात्री जी महाराज कर रहे थे. इसी दौर में एक बारउन्होंने हजारों साधु संतों
और श्रद्धालुओं के साथ संसद तक मार्च निकाला.यहां पुलिस ने उन्हें रोका. विरोध तीखा हो गया और लाठीचार्ज हुआ. इसमेंकरपात्री जी महाराज का दंड टूट गया.

राजेंद्र प्रसाद का खत – कॉमन सिविल कोड की प्रस्तावना


सदन के अंदर राजेंद्र प्रसाद का धैर्य भी टूट रहा था. उन्होंने बतौरराष्ट्रपति एक खत लिखा. प्रधानमंत्री नेहरू को. इसका मजमून कु छ यूं था किमौजूदा प्रतिनिधि सभा देश का सही
ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं करती है. 1952 में देश में पहले आम चुनाव होंगे. लोकसभा का गठन होगा. उस सभा को हिंदू कोडबिल के मसौदे पर बात करनी चाहिए. डॉ. प्रसाद ने
यह भी लिखा कि अगर सरकारको बिल पास करना ही है, तो सिर्फ हिंदुओं को ही क्यों लक्ष्य किया जा रहाहै. सभी धर्मों को इसमें शामिल किया जाए. सभी के लिए विवाह,
विरासत के एकजैसे नियम बनाए जाएं.

आज के संदर्भों में देखें तो प्रसाद की ये बात कॉमनसिविल कोड की प्रस्तावना थी. मगर नेहरू का सेकु लरिज्म बोध यह कहता था किएक नए बने देश में हिंदू बहुसंख्यकों के
मुकाबले अल्पसंख्यकों को अतिरिक्तसेफगार्ड दिए जाने चाहिए. इसलिए उन्होंने प्रसाद का यह सुझाव नहीं माना.फिर प्रसाद ने लिखा कि मैं संसद में इस मसले पर हो रही संसद की
दैनंदिनकार्यवाही पर नजर रखूंगा. अगर उसके बाद भी बिल पास हुआ तो मैं बतौरराष्ट्रपति अपने स्तर पर इसका परीक्षण करूं गा.

https://www.ichowk.in/politics/dr-rajendra-prasad-first-president-of-india-jawaharlal-nehru/story/1/2129.html

ARTICLE 370 - Among the most prominent voices against Article 370 being recalled from the past, Dr BR
Ambedkar’s is one. It is being circulated that Ambedkar refused to write that part of the Constitution and the burden
shifted to N Gopalaswami Ayyangar. Dr BR Ambedkar differed with Sheikh Abdullah on the very rationale of
this Article of the Indian Constitution. at Aurangabad, in 1953, where Ambedkar quite brusquely pointed out that it
was unfair on the part of Kashmir to expect India to provide military and other necessary services to the state and yet
decide not to merge with it. His October 12, 1951 statement, where he announced his resignation from
Jawaharlal Nehru’s cabinet as the law minister can help us understand Ambedkar’s relationship with the very
situation of Kashmir, and not one Article alone. The constitution was adopted on 17 November 1956 and came into
force on 26 January 1957.अनुच्छेद 370 लागू होना दो लोगों, शेख अब्दुल्ला और नेहरू के बीच का समझौता था।  भीमराव अंबेडकर को भी अनुच्छेद 370 मंजूर
नहीं था। उन्होंने इसका काफीविरोध किया। जवाहर लाल नेहरू के कहने पर शेख अब्दुल्ला ने अंबेडकर सेमुलाकात की थी।अंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला से कहा था कि आप हमसे
सुरक्षा, खाना सब देने कीउम्मीद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी भारत की जनता, कश्मीर की जनता नहींहोगी। कानून मंत्री होने के नाते मुझे ये मंजूर नहीं है

अनुच्छेद 35A, 14 May1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद नेएक आदेश पारित किया था. इस आदेश के जरिए भारत के संविधान में एक नयाअनुच्छेद 35A
जोड़ दिया गया.अनुच्छेद 35A, जम्मू-कश्मीर को राज्य के रूप में विशेष अधिकार देता है.इसके तहत दिए गए अधिकार 'स्थाई निवासियों' से जुड़े हुए हैं.  इसका मतलब हैकि
राज्य सरकार को ये अधिकार है कि वो आजादी के वक्त दूसरी जगहों से आएशरणार्थियों और अन्य भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में किस तरह कीसहूलियतें दे अथवा नहीं
दे.ये बना 1954 में और इसको 1947 से भी पहले से लागू किया गया ताकि बटवारे के बाद आये हिन्दू कोवहाँ की नागरिकता या अधिकार नहीं दिए जाये|

NEHRU/Gandhi`s policies against Indian religion and culture.

September 8, 1958 (Gwadar Port) - At the time of independence from Britain, Gwadar was a principality that had
been in the possession of the Sultan of Oman for almost 200 years. Gwadar was given as a gift to Oman by the Khan
of Kalat in 1783. From 1863 up to independence in 1947, it was administered by a British assistant political agent.
At that time, the enclave was not much more than a number of fishing villages.

After independence, according to the diplomatic community grapevine, Gwadar was administered by India on
behalf of the Sultan of Oman as the two countries enjoyed excellent relations. When the Khan of Kalat asked
the Sultan to return Gwadar to Pakistan, reportedly, the Sultan first offered it to India, but India declined to
accept the gift.

This offer was probably made verbally. While senior diplomats confirm that such an offer was made, its authenticity
could not been verified independently. Oman then sold Gwadar to Pakistan for $3 million on September 8, 1958.
Since December 1958, it has been an integral part of the Balochistan province of Pakistan.

Whether the government of independent India declined to accept the deep water port in keeping with its policy of
shunning imperial inheritances, or due to the lack of contiguity and the inability to defend it, or simply because of a
lack of appreciation of its potential, will not be known till the diplomats concerned decide to write their memoirs.
India would have had not only an enclave on Pakistan’s Makran coast, but also a deep water port. In hindsight, not
accepting the priceless gift from the Sultan of Oman was a huge mistake at par with the long list of post-
independence strategic blunders.

When Pakistan gained independence in 1947, Gwadar was still under Omani rule. With the independence of
Pakistan and accession of all Baloch states to Pakistan, including the Chief Commissioner's Province of British
Baluchistan on 15 August 1947 , the States of Kharan, Makran and Lasbela on 17 March 1948 and the Kalat State
on 27 March 1948, the residents of Gwadar began raising the demand to join Pakistan.

In 1954, Pakistan engaged the United States Geological Survey (USGS) to conduct a survey of its coastline. The
USGS deputed the surveyor, Worth Condrick, for the survey, who identified the hammerhead-shaped peninsula of
Gwadar as a natural and suitable site for a new deep-sea port. This finding, coupled with the rising demands of the
residents of Gwadar to join Pakistan, prompted Pakistan to make a formal request to the Sultan of Muscat and
Oman, Said bin Taimur, for the transfer of Gwadar to Pakistan. On 7 September 1958, after four years of
negotiations, including six months of intense negotiations, Pakistan purchased the Gwadar enclave from the
Sultanate of Muscat and Oman for USD $3 million. Gwadar formally became part of Pakistan on 8 December 1958,
after 174 years of Omani rule.

1959 - Indian government repealed and replaced the 1932 Act (only for HUJ), enacting Haj Committee Act, to
establish a Committee in the Port of Bombay for assisting Muslim pilgrims to Saudi Arabia, Syria, Iraq, Iran
and Jordan and for matters connected therewith. The purpose of this Act was to manage all affairs of pilgrims
like disseminating information, to negotiate travel arrangements, arranging guides, helping the needy and to address
grievances of pilgrims.[2] Article 16 of the 1959 law also created a taxpayer financed Haj Fund to cover overhead
expenses.From sea travel to air travel.

The Haj subsidy was modified in 1973, when the Indian government abolished sea travel as a means of making the
Hajj for two reasons - rising oil prices after formation of OPEC and a ship accident that killed 39 pilgrims in June
1973 during the government managed Haj trip.[16] The government of India replaced the means of travel to Saudi
Arabia from ships to aircraft. The government simultaneously increased the subsidy to cover the difference between
sea and air fares.

In 2012, the Supreme Court of India ordered that Haj subsidy must end by 2022.[22] The Supreme Court found that
Hajj by Indian Muslims is funded to a substantial extent by the Indian Government. The Court ruled that this
subsidy is not only unconstitutional but inconsistent with the teachings of Quran. The Court cited Quran verse
97 in Surah 3, Al-e-Imran ordains as under: "In it are manifest signs (for example), the Maqam (place) of Ibrahim
(Abraham); whosoever enters it, he attains security. And Hajj (pilgrimage to Makkah) to the House (Ka’bah) is a
duty that mankind owes to Allah, those who can afford the expenses (for one’s conveyance, provision and
residence); and whoever disbelieves [i.e. denies Hajj (pilgrimage to Makkah), then he is a disbeliever of Allah], then
Allah stands not in need of any of the Alamin (mankind, jinn and all that exists).".India's most Renowned Islamic
Scholars, Dr. Zafarul Islam Khan states that,"Muslims, in general, are not in favour of the Hajj subsidy. We consider
the subsidy as a subsidy to Air India and not to the Muslim community."[12]
21 October1959 is Police Martyrs' Day (or Police Commemoration Day), observed by police departments
nationwide. On this date in 1959, a Central Reserve Police Force patrol at the Indo-Tibetan border in Ladakh was
ambushed by Chinese forces as part of the ongoing Sino-Indian border dispute.[4] . At a height of 15,300 feet above
sea level, in temperatures much below zero at Hot Springs in Ladakh,10 policemen were killed in an unequal
combat with heavily armed Chinese troops. Because of the hill feature along the bank of the Chang Chenmo River
where the hoof –prints continued, the two parties lost contact. At about midday, Chinese Army personnel who had
the advantage of height by camping on a hillock, opened fire and threw grenades at Karam Singh’s party. The bodies
of the ten brave CRPF men were returned by the Chinese at the Sino-Indian border on November 13, 1959. At 8:00
AM on November 14, 1959, the bodies of the CRPF men were cremated with full police honors at Hot Springs.
Karam Singh received a national hero’s welcome.

1961; February 4–9: Jabalpur (Madhya Pradesh) - Justice Shiv Dayal Shrivastava Commission of Inquiry report,
the suicide of a young Hindu girl after her rape by two Muslims youths on February 3 triggered communal tensions.
With the support of the ABVP (Akhil Bharatiya Vidyarthi had, All India Students Forum, a Hindu nationalist
student union), students conducted a peaceful procession on February 4 to condemn the rape. Trouble started when
some of them stopped near the Anjuman Islamia School and forced Muslim students to join the procession. Stones
were thrown and violence erupted.

1961, October 3: Aligarh (Uttar Pradesh) - During the student-union elections of October 1961, not a single
Hindu student was elected. Muslims held a victory procession, provoking counter-demonstrations by activists from
the BJS (Bharatiya Jan Sangh, Indian People’s Alliance) and the ABVP. A clash subsequently broke out between
Muslim and Hindu students in a university hostel.

1961, October 5–8: Meerut (Uttar Pradesh)- Hindu student, a native of the town, was severely beaten by Muslim
boys during clashes at the Aligarh Muslim University. Back in his hometown and supported by his father, a police
officer, he led a procession of 150 supporters who targeted an old Muslim college and some Muslim-owned shops.

Jaswant Singh Rawat A Soldior Who Save Arunachal Pardesh  (जन्म-19 August1941, Mahavir Chakra) - इंडो-चाइना
वॉर 20 October, 1962 से 21 November, 1962 तक चला.इतिहास में सबसे खतरनाक अके ला सैनिक कौन थानूरानांग,

अपनेतीसरे हमले में अरुणांचल प्रदेश के तवांग नामक स्थान से महात्मा बुद्ध कीमूर्ति के हाथो को काटकर ले जाने वाले चीनी सैनिको ने जब 17 November1962
कोअरुणांचल प्रदेश पर कब्ज़ा करने के लिए अपना चौथा और आखिरी हमला किया तो उसवक़्त वहाँ भारतीय सेना ना तो युद्ध के लिए तैयार थी न कोई रणनीति थी और नही
ज्यादा जवान थे और न ही उनके पास कोई युद्ध करने की कोई मशीने,गाडीया,औरअन्य यंत्र सिर्फ एक रायफल थी ।और इसका कारण थे सिर्फ उस वक़्त के रक्षामंत्री v.k
कृ ष्णमेनन ।जिन्होंने उस दौरान हमारी सेना को बहुत कमजोर औरहारने पर मजबूर कर दिया था,दरअसल V.K कृ ष्णमेनन उस वक़्त के एक ऐसे गृहमंत्री थे जिन्होंने फ़ौज की
नफरी (strength) कम कर दी और गोला बारुत बननेवाली फक्ट्रियो को बंद करवा दिया। कारण ये था की जवाहर लाल नेहरु चीन से एकनारा लेकर आए थे कि “हिन्दी चीनी
भाई भाई “।उस वक़्त पकिस्तान के साथ भीहमारा समझौता हो चुका था और ऐसे में मेनन को लगा की अब तो भारत पर हमलाकरने वाला कोई नहीं है तो फिर फ़ौज पर पैसा खर्च
करके क्या फायदा ।फिर गोलाबारूद बनाने वाली फक्ट्रिया बर्तन बनाने लग गयी और जब यह बात चीन को पताचली तो उसने भारत पर हमला करने की सोची और अरुणांचल
प्रदेश से कब्ज़ा करनाशुरू कर दिया क्योंकि अरुणांचल प्रदेश की सीमा पर जवानों की तैनाती नहीं थी ,इसलिए चीन की सेना ने इसका फायदा उठाया और भारत पर हमला बोल
दिया।उस वक़्तचीन की सेना ने यहाँ बहुत तबाही मचाई वे महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथोको काटकर ले गएमाँ बहनों की इज्जत लूटने लग गये,अब हालत जब काबू से बाहरहो गये तो
यहाँ से गढ़वाल रायफल की 4th बटालियन को वहाँ भेजा दिया गया।औरगढ़वाल रायफल की इसी बटालियन के एक वीर साहसी जवान थे जसवंत सिंह रावत ।इसहार का मुख्य
कारण रहे रक्षा मंत्री v.k मेनन की वजह न तो उस वक़्त हमारेपास फ़ौज थी न हथियार और न ही कोई ठोस रणनीति ,दूसरी तरफ से चीन अपनी पूरीताकत के साथ जोरो से
हमला करता जा रहा था हर मोर्चे पर चीनी सैनिक हावीहोते जा रहे थे ।और इस कारण भारत ने अपनी हार को स्वीकार करते हुए नुरानांगपोस्ट पर डटी गढ़वाल रायफल की 4th
बटालियन को भी वापस बुलाने का आदेश देदिया । आदेश का पालन कर पूरी बटालियन वापस लौट गयी और पोस्ट पर वहा रह गएगढ़वाल रायफल के सिर्फ 3 जवान

1. रायफल मैन जसवंत सिंह रावत


2. लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी
3. रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं
उस समय इस बटालियन मेंजसवंत सिंह,गोपाल गोसाईऔरलांस नायक त्रिलोकीऑर्डर ना मानते हुए सीमा पर ही रह गए |इस लड़ाई मेंगोपाल गोसाईऔरलांस नायक त्रिवेदीचीनी
सेना के साथ संघर्ष करते हुए शहीद हो गए| इसके बावजूद मात्र 21 सालकी उम्र में जसवंत रावत ने चीनी सेना को खदेड़ने का मोर्चा संभाला और 72 घंटे तक वह बॉर्डर पर टिके
रहे और चीनी सेना को ठोकते रहे |

इसवक़्त जसवंत सिंह रावत ने एक कड़ा और अदम्या फै सला लिया की कु छ भी हो जायेवो वापस नहीं जायेंगे और उन्होंने lance naik त्रिलोक सिंह नेगी और रायफलमैन
गोपाल सिंह गुसाईं को वापस भेज दिया और खुद नूरानांग की पोस्ट पर तैनातहोकर दुश्मनों को आगे न बढ़ने देने का फै सला किया,जसवंत सिंह रावत ने अके लेही 72 घंटो तक
चीन के 300 दुश्मनों को मौत के घाट उतारा और किसी को भी आगेनहीं बढ़ने दिया ,यह उनकी सूझबूझ के कारण ही संभव हो सका।क्यूंकि उन्होंनेपोस्ट की अलग अलग जगहों
पर रायफल तैनात कर दी थी और कु छ इस तरह से फायरिंगकर रहे थे की चीन की सेना को लग रहा था की यहाँ पूरी की पूरी बटालियन मौजूदहैं।इस बीच रावत के लिए खाने पीने
का सामान और उनकी रसद (supply) आपूर्तिवहाँ की दो बहनों शैला और नूरा ने की जिनकी शहादत को भी कम नहीं आँका जासकता। 72 घंटे तक चीन की सेना ये नहीं
समझ पाई की उनके साथ लड़ने वाला एकअके ला सैनिक है । फिर 3 दिन के बाद जब नूरा को चीनी सैनिको ने पकड़ दिया तोउन्होंने इधर से रसद (supply) आपूर्ति करने
वाली शैला पर ग्रेनेड से हमलाकिया और वीरांगना शैला शहीद हो गयी और उसके बाद उन्होंने नूरा को भी मारदिया दिया और इनकी इतनी बड़ी शहादत को हमेशा के लिए जिंदा
रखने के लिए आज भीनूरनाग में भारत की अंतिम सीमा पर दो पहाड़िया है जिनको नूरा और शैला के नाम से जाना जाता है,इसके बावजूद भी जसवंत सिंह रावत दुश्मनों से लड़ते
रहेपर रसद आपूर्ति (supply) की कड़ी कमजोर पड गयी थी और फिर जसवंत सिंह ने 17 नवम्बर 1962 को खुद को गोली मार कर अपने प्राण न्योछावर कर दिए और
भारत माँकी गोद में हमेशा के लिए अमर हो गए,क्या किया फिर चीनी सैनिको ने-

फिरजब चीनी सैनिको ने देखा की वो 3 दिन से एक ही सिपाही के साथ लड़ रहे थे तोवो भी हैरान रह गए । वो जसवंत सिंह रावत का सर काटकर अपने देश ले गए।

उनके बाद भारतीय सेना की और Group सीमा पर पहुंच गई और उन्होंने उन्होंनेचीनी सैनिक को को खदेड़ कर वापस भेज दिया इस बहादुरी के लिए जसवंत सिंह कोमहावीर
चक्र और त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह को वीर चक्र दिया गया था

20 नवम्बर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गयी और चीनी कमांडर ने जसवंतसिंह की इस साहसिक बहादुरी को देखते हुए न सिर्फ जसवंत सिंह का शीश वापसलौटाया
बल्कि सम्मान स्वरुप एक कांस की बनी हुई जसवंत सिंह की मूर्ति भीभेंट की ।जसवंत के नाम के स्मारक-

हमेशाड्यूटीपररहताहैयहशहीदजवान, मिलतेहैंछु ट्टीऔरप्रमोशनभी

सम्मान
जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अबजसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है।मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को
आज भी सुरक्षित रखा गया है। पांच सैनिकोंको उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है। वे पांच सैनिक रात कोउनका बिस्तर करते हैं, वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की
पॉलिश तक करते है।सैनिक सुबह के 4.30 बजे उनके लिए बेड टी, 9 बजे नाश्ता और शाम में 7 बजेखाना कमरे में रख देते हैं।

1964; March: Calcutta (West Bengal), Jamshedpur (Bihar), Rourkela (Orissa)

11 January 1966, Tashkent, Uzbekistan - Lal Bahadur Shastri’s untimely demise on account of a heart attack in
1966 in Tashkent was shocking. In 2009, Indian journalist Anuj Dhar made an unusual request to the Prime Minister
of India. Using the country’s new Right to Information Act, he sought the publication of classified information
relating to the death of Shastri.  Although the request was turned down, the wording of the refusal, which cited
raised issues of India’s foreign relations, makes one pause. USSR had signed a peace declaration that ended the
Indo-Pakistan war. After the pact was signed, a buffet-style banquet was held. The KGB was called in immediately
and they placed the head waiters who had served the distinguished guests at the banquet under temporary arrest
on suspicion of poisoning the Prime Minister of India.However, the doctor who accompanied the Prime Minister
on his trip and the Soviet doctors, having examined the body, came to the conclusion that he died of a heart attack,
which was already his fourth. The waiters were released, and the suspicion of the poisoning was said to be
groundless.Lalita, the wife of Shastri, pointing to strange bluish marks on his body and claiming that he never
had any heart problems in the past, said that her husband was indeed poisoned. The purpose of these
negotiations would have been to make the Ayub Khan promise to “never to use force against India,” and to finally
renounce all territorial claims in Kashmir. Given India's tacit support from the Soviet Union, as well as several
major failures of Pakistan in the war (for example, the battle of Asal Uttar), which demonstrated the weakening of
the Pakistani military, Shastri could have counted on his demands being me. Some radical adherents consider Indira
Gandhi, who became prime minister of India after the death of Shastri, to be a “Soviet stooge.
Early in the morning, The KGB officer said that they suspected the Indian prime minister had been poisoned. They
handcuffed me and three other head waiters, of which I was senior, and loaded us into a Chaika automobile. We four
had served the most senior officials, and so we immediately came under suspicion. After a while, they brought the
Indian chef who had cooked the Indian dishes for the banquet. We thought that it must have been that man who
poisoned Shastri. We were so nervous that the hair on the temple of one of my colleagues turned gray before our
eyes, and ever since I stutter. After six hours lockup, delegation led by Kosygin entered. He apologized to us, and
said that we were free to go. Shastri’s personal secretary, Jagan Nath Sahai, told me that Shastri had knocked on
their door at around midnight and wanted water. Two stenographers and Jagan Nath helped him walk back to
his room. This was fatal, Dr Chugh said. After attending the farewell reception, reached his dacha around 10 pm.
Shastri told (his personal servant) Ram Nath to bring him his food(dish of spinach and potatoes and a curry.) which
came from Ambassador (T.N.) Kaul’s house, prepared by his cook, Jan Mohammed. Shastri told Ram Nath to
retire to his room and get some sleep because he had to get up early to leave for Kabul. The assistants were packing
the luggage at 1.20 am (Tashkent time), Jagan Nath recalled, when they suddenly saw Shastri at the door. With great
difficulty Shastri asked: “Where is doctor sahib?” It was in the sitting room that a racking cough convulsed Shastri,
and his personal assistants helped him to bed. Jagan Nath gave him water and remarked: “Babuji, now you will be
all right.” Shastri only touched his chest and then became unconscious. (When Lalita Shastri was told by Jagan Nath
in Delhi that he had given him water, she said: “You are a very lucky person because you gave him his last cup of
water.”) When I returned from Tashkent, Lalita Shastri asked me why Shastri’s body had turned blue. I replied: “I
am told that when bodies are embalmed, they turn blue.” She then inquired about “certain cuts” on Shastri’s body. I
did not know about those because I had not seen the body. Even so, her remark that no post-mortem had been
conducted either at Tashkent or Delhi startled me. It was indeed unusual.

In 1970, on October 2 (Shastri’s birthday), Lalita Shastri asked for a probe into her husband’s death. The family
seemed to be upset that Jan Mohammed, T.N. Kaul’s cook at the time, had cooked the food, not Ram Nath,
his own personal servant. This was strange as the same Jan Mohammed had prepared food for Shastri when he
visited Moscow in 1965.

7 November 1966 - (Kartik Shukla Ashtami/Gopa Ashtami)शास्त्री कि मौत के बाद चुनाव में हर का डर के कारणस्वामी करपात्री से जीत का
आशिर्वाद लिया और गौ-वध बंद करने का बचन दिया फिर प्रदर्शकारियो पर गोली चलवाकर प्रेस मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाया| Hindu saints, men and women
and a political party agitated to demand a ban on the slaughter of cows in India, as enshrined in the Directive
Principles of State Policy in the Constitution of India. Among others, the Shankaracharya fasted for the cause. The
agitation culminated in a massive demonstration outside the parliament house in New Delhi. After lathi charges and
tear-gas shells failed to disperse crowds, police guarding Parliament House opened fire on the swelling mob.
Casualty reports differed, but according to The Hindu, seven were killed and about 100 were injured.[contradictory][3]It is
reported that approx 10 lakh people including 20 thousand women participated in that rally on 7th November 1966
in Delhi among which 5000 person died and approx 50000 jailed. The development did not have any immediate
fallout but in 1967, Indira saw rise of regional parties who were backed by RSS-Jan Sangh across the country. For
the first time, nine Indian states had non-Congress governments. Legal Aspect : It is utterly shameful that even after
53 Years of this Mass Massacre of the 5000 Hindu sadhus and saints, Their souls are still waiting for Justice.
research didn't find any official reference about this massacre and the entire incident was buried by the then Home
Minister Mr. Gulzari Lal Nanda and the Then Prime Minister Smt. Indira Feroz Gandhi.

1969 - The Organisation of Islamic Cooperation (OIC) is the second largest inter-governmental organization after
the United Nations with a membership of 57 states spread over four continents.

The Organization is the collective voice of the Muslim world. It endeavors to safeguard and protect the interests of
the Muslim world

According to the OIC web site, the council was created in 1969 following a summit in Morocco in the wake of the
"criminal arson of Al-Aqsa Mosque in occupied Jerusalem." Though the act was perpetrated by an Australian
Christian fanatic, the incident became emblematic of the struggle for control of Muslim holy sites in Jerusalem.
The organization was originally formed around the idea of Muslim solidarity, particularly protecting the Islamic
holy sites, assisting the Palestinian cause, eradicating racial discrimination, and improving economic cooperation.

Safeguarding the Rights of Muslim Communities and Minorities in Non-OIC Member States

India’s External Affairs Minister (EAM) Sushma Swaraj addressed the inaugural session of the 46th Organization of
Islamic Cooperation (OIC) meeting of the Council of Foreign Ministers on March 1, 2019, in Abu Dhabi as a
“guest of honor” invited by this year’s OIC host country, the United Arab Emirates (UAE).

India was invited to attend the first summit of the OIC 50 years ago in 1969 in Morocco. But the Indian
delegation had to return midway due to a withdrawal of the invitation after Pakistan’s objection. It was a
setback for Indian diplomacy, as it could not further become a part of the second largest inter-governmental
organization in the world (after the United Nations). Pakistan’s adamant stance toward India’s non-entry in the
grouping has ensured even today that India is neither a member nor an observer of the OIC, despite having one of
the largest Muslim populations in the world. Countries like Thailand and Russia are observer members, despite
having a significant minority Muslim population.

1971 में पाकिस्तान के साथ हुए बांग्लादेश युद्ध मेंभारतीय वायु सेना के उत्तरी सेक्टर को एकमुस्लिम (एयर मार्शल लतीफ) ही कमांड कर रहे थे, आर्मी के कमांडर एक पारसी
(जेन.मानेकशॉ) थे, बांग्लादेश की ओर march करने वाली टुकड़ी को कमांड कर रहे जनरलऑफिसर सिख (Lt Gen अरोरा) थे और पूर्वी बंगाल में पाकिस्तानी फ़ौज
काआत्मसमर्पण करा कर मामले को निपटाने के लिए गए जनरल एक यहूदी (Maj Gen जैकब) थे.

http://www.genocidebangladesh.org/(WAR CRIME) liberation war of 1971, Pakistani occupation army led by


General Yahya Khan and his colleagues in collaboration with the anti liberation forces (Jamat, Muslim League, and
other religious political parties) of Bangladesh killed a total of 3 million unarmed Bangalees, molested and raped
about 450,000 Bangalee women and, on the eve of the independence, murdered hundreds of leading intellectuals to
spiritually cripple the nation. A crime far exceeds, in its atrocity and inhumanity, the crimes of Hitler,
Melosovitch, the nazis and the fascists.The mass killings in Bangladesh (then East Pakistan) in 1971 vie with the
annihilation of the Soviet POWs, the holocaust against the Jews, and the genocide in Rwanda as the most
concentrated act of genocide in the twentieth century. Awami League won an overwhelming victory across
Bengali territory. On February 22, 1971 the generals in West Pakistan took a decision to crush the Awami League
and its supporters

The Guinness Book of Records lists the Bangladesh Genocide as one of the top 5 genocides in the 20th century

London, 6/13/71). The Sunday Times…..”The Government’s policy for East Bengal was spelled out to me in the
Eastern Command headquarters at Dacca. It has three elements:

1. The Bengalis have proved themselves unreliable and must be ruled by West Pakistanis;
2. The Bengalis will have to be re-educated along proper Islamic lines. The – Islamization of the masses – this is the
official jargon – is intended to eliminate secessionist tendencies and provide a strong religious bond with West
Pakistan;
3. When the Hindus have been eliminated by death and fight, their property will be used as a golden carrot to
win over the under privileged Muslim middle-class. This will provide the base for erecting administrative and
political structures in the future.”

April 30, 1982 - when the CPM-led Left Front was in power in West Bengal, 16 monks and one sanyasin of the
Ananda Marga were massacred in broad daylight in the heart of Kolkata. The first attack on the Marga was at its
Purulia global headquarters in 1967, in which five Margis were murdered, allegedly by CPM cadres.

Who might be summoned? Ananda Margis from all over the country were headed to an “educational  conference”
at the Tiljala centre. The way was through what is now known as Bijon Setu in the Ballygunge area of south
Kolkata. Taxis carrying monks and sanyasins were intercepted at at least three separate locations, doused in petrol
and kerosene, and set on fire. At least 17 Margis were charred to death, several others were severely injured.

Kolkata rally organised by Muslim groups in support of Bangladeshi war criminals

In 1971, a massive relief and solidarity effort was undertaken in West Bengal for the millions trying to escape a
veritable genocide. The then leaders of the Jamaat-e-Islami in East Bengal and its students wing organised murder
and rape squads in collaboration with the Pakistani forces. Their crimes included mass murder, rape as a weapon of
war, arson and forced conversions.

In West Bengal, a few meetings have happened around Shahbag, mostly expressing support. But, shockingly, the
largest was a massive rally held in Kolkata on March 30, explicitly against the Shahbag protests and in support of
the war criminals already convicted. Various Muslim groups, including the All Bengal Minority Council, the All
Bengal Minority Youth Federation, the Madrassa Students Union, the Muslim Think Tank and the All Bengal Imam
Muazzin Association, organised the rally. People arrived in buses from distant districts of Murshidabad and Nadia,
as well as from neighbouring districts. Students of madrassas and the new Aliah Madrassa University were
conspicuous at the gathering. The old rallying cry, “Islam is in danger in Bangladesh,” was heard. We heard a
similar cry in 1952 during the mother-language movement, in 1954 when Fazlul Haq and Maulana Bhashani
challenged the Muslim League, in 1969 when the Awami League made its six demands and during the 1971
liberation struggle — basically during every secular movement for rights and justice

4 August, 1972 -अफ्रीकी देश युगांडा में बड़ी तादाद में भारतीय मूल के लोग रहते हैं. लेकिनएक समय ऐसा भी आया था जब भारतीयों समेत एशियाई मूल के लोगों को
युंगाडा सेचुन चुन कर निकाला गया था.यह वह दौर था जब युंगाडा में तानाशाह ईदी अमीन का राज चलता था. 1972 मेंईदी अमीन ने 'आर्थिक युद्ध' का ऐलान किया और युगांडा
में मौजूद एशियाई औरयूरोपीय लोगों की संपत्तियों पर जब्त करना शुरू कर दिया.युंगाडा में उस वक्त एशियाई मूल के लगभग 80 हजार लोग रहते थे जिनमेंज्यादातर भारतीय मूल
के लोग थे और उनका संबंध गुजरात से था. यह वे कारोबारीलोग थे जिनके पूर्वज ब्रिटिश राज में भारत से युगांडा में जाकर बस गए थे.इन लोगों के हाथ में युगांडा के बड़े उद्योग थे
जो देश की अर्थव्यवस्था कीरीढ़ थे.इस शख्स ने अपने पूरे शासन काल में करीब 6 लाख लोगों को मौत के घाटउतरवाया। ये शख्स इतना क्रू र था कि इंसानों का मांस भी खा जाता
था। इसके फ्रिज में इंसानों के कटे हुए सिर और अन्य अंग भी बरामद हुए थे। अपनी इसीक्रू रता के कारण ही इसे 'मैड मैन ऑफ अफ्रीका'भी कहा जाता है।उन्हें मारने के लिये जिंदा
ही जमीन में गड़वा देता था या फिर भूखेमगरमच्छों को खिला देता था। 1979 में तंजानिया और अमीन विरोधी युगांडा सेनाने अमीन के शासन को जड़ से उखाड़ फें का। युगांडा के
भीतर असंतोष और 1978 में तंजानिया के कं गेरा प्रांत को जीतने काप्रयास युगांडा-तंजानिया युद्ध उसके शासन के पतन का कारण बना। अमीन बादमें लीबिया तथा इसके बाद
सऊदी अरब के शाह ने उसे राजकीय अतिथि का दर्जा दे कर अपने देश में शरण दी, जहां 16 अगस्त 2003 को उसकी मृत्यु हो गई।

जब 1986 में योवेरी मुसेवेनी युंगाडा के राष्ट्रपति बने, तो हजारों कीतादाद में गुजराती युंगाडा लौटे। मुसेवेनी ने ना सिर्फ ईदी अमीन की नीतियोंकी कड़ी आलोचना की, बल्कि देश
से निकाले गए कारोबारियों, खास करगुजरातियों से वापस लौटने को कहा। मुसेवेनी के मुताबिक, "गुजरातियों नेयुंगाडा के सामाजिक और आर्थिक विकास में बहुत अहम योगदान
दिया है।"गुजरातियों ने फिर से युगांडा की अर्थव्यवस्था को खड़ा किया और वहीं बस गए।

1976 - 1950 के भारत के मूल संविधान में 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द का उपयोग करनाआवश्यक नहीं समझा गया. इमरजेंसी के दौरान 1976 में, इंदिरा गांधी की सरकारने
42 वां संशोधन किया. इसी के माध्यम से अन्य दूरगामी परिवर्तनों के साथ, संविधान की प्रस्तावना में, 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़ा गया—भारत अब के वल एक 'संप्रभु, लोकतांत्रिक
गणराज्य' नहीं रहा; अब यह एक 'संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य' हो गया था! लेकिन क्या भारत 1947 और 1976 के बीच कोई कम धर्मनिरपेक्ष था,
या अब हम अधिक धर्मनिरपेक्ष हैंक्योंकि संविधान अब ऐसा कहता है?

Sikh Masacre of 1984 – Started after PM Indira killing. Dr Salman Khurshid has written a book called "At Home
In India: A restatement of Indian Muslims" in which he writes that what Sikhs (and Hindus) suffered during 1984
riots was only due to their SINS committed against Muslims during 1947 partition. "There was also a terrible
satisfaction amongst Muslims, who had not completely forgotten the Partition’s unpleasant aftermath. Hindus and
Sikhs were alike paying for their ‘sins’

DECEMBER 2, 1984 Bhopal - On this day, the world’s worst industrial disaster took place exposing more than
500,000 people to toxic fumes. And Rajiv Gandhi had allowed safe passage to the key accused in Bhopal gas
tragedy case "Warren Anderson" . Rajiv Gandhi allowed Anderson to escape from India in exchange for the
release of his childhood friend Adil Shahryar, the son of Muhammad Yunus, who was a close family friend of
the Gandhis and also a former ambassador to Spain, Indonesia and Turkey.
According to a report published in The New York Times on 15 August, 1985, Shahryar was granted clemency by
President Ronald Reagan on 11 June, 1985, the same day Rajiv landed in the USA.

 This is not something that is just being spoken for the hate purpose, even late congress leader Arjun Singh
showcased the same in his biography.

9-November-1989 में शिलान्यास को याद करते हुए उन्होंने कहा कि शिलान्यास के लिए देश के दो लाख गांवो से ईंटें आईं थीं।  1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री
राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान सरकार कीअनुमति से अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया गया था। इस शिलान्यासमें पहली ईंट रखने वाले विश्व हिंदू परिषद के
तत्कालीन संयुक्त सचिवकामेश्वर चौपाल ने राम मंदिर फै सले पर प्रतिक्रिया दी।  बिहार के दलित समुदाय से नाता रखने वाले कामेश्वर चौपाल ने मीडिया से कहाहै कि आज का
दिन ऐतिहासिक है। साल 1989 में शिलान्यास की तारीख 9 नवंबर कोयाद करते हुए उन्होंने कहा कि शिलान्यास के लिए देश के दो लाख गांवो सेईंटें आईं थीं।

1989 - कश्मीर में हिंदुओं पर हमलों का सिलसिला 1989 में जिहाद के लिए गठितजमात-ए-इस्लामी ने शुरू किया था। जिसने कश्मीर में इस्लामिक ड्रेस कोड लागूकर दिया।
आतंकी संगठन का नारा था-'हम सब एक, तुम भागो या मरो'| करोड़ों के मालिक कश्मीरी पंडित अपनी पुश्तैनी जमीन जायदाद छोड़कर शरणार्थीशिविरों में रहने को मजबूर हो गए।
हिंसा के उस दौर में 300 से अधिक हिंदूमहिलाओं और पुरुषों की हत्या हुई थी। घाटी में कश्मीरी पंडितों के बुरेदिनों की शुरुआत 14 सितंबर 1989 से हुई थी।वकील कश्मीरी
पंडित, तिलक लाल तप्लू की जेके एलएफ ने हत्या कर दी गई। इसके बाद जस्टिस नीलकांत गंजू की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई। आतंक के उस दौरमें अधिकतर हिंदू नेताओं
को मौत की नींद सुला दिया गया।january19, 1990 सारे कश्मीरी पंडितो के घर के दरवाजो पर नोट लगा दिया गया, जिसमे लिखा था "या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर
छोड़ कर भाग जाओ या फिरमरने के लिए तैयार हो जाओ"हर गली हर तरफ से पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे थे,सब जलाया जा रहाथा,मस्जिदों में से आज़ान की जगह
ऐलान हो रहा था, कश्मीर छोड़कर चले जायोवरना मारे जायोगे,जिसको यहाँ रहना है निज़ामे मुस्तफा पढ़ के रहना है|On january, 04, 1990, a local Urdu
newspaper, Aftab, published a press release issued by Hizb-ul-Mujahideen, asking all Pandits to leave the Valley
immediately. Al Safa, another local daily repeated the warning. Your children will be harmed- we are not
scaring you but this land is only for Muslims, and is the land of Allah. Sikhs and Hindus cannot stay here’. The
threatening note ended with a warning, ‘If you do not obey, we will start with your children. Kashmir Liberation,
Zindabad.”1Tens of thousands of Kashmiri Muslims poured into the streets of the Valley, shouting ‘death to India’
and death to Kafirs.

Ironically, as some memoirs affirm, in several cases, the masked youngsters were mostly adjacent neighbours. As
Meenakshi Raina recounts in her autobiographical Nights of Terror: ‘On a cold December night in 1989, a bunch of
masked youngsters threw stones at our house in Srinagar. We suspected some of them to be our neighbours. They
knew who we were and what we did. They shouted our names and jeered at us. We switched off the lights in the
rooms and huddled inside. The din of the stones smashing against the rooftop was so loud that it felt as if it was
raining stones from the sky. Most of the window-panes shattered and pieces of glass lay scattered everywhere inside
the house… That night none of us slept as fear gripped each one of us. Even before this incident, my father had
received a threatening letter from a militant organisation, warning him to leave Kashmir.

As Meenakshi Raina points out, her father handed over a satchel containing her mother’s jewellery to her
grandmother: “My grandmother held the satchel close to her chest while travelling to Jammu. While handing it over
to my mother she mentioned ‘Moklaye Kashmir’ (Kashmir is finished)”.

how they had spent the night of 19 January 89 in terror, apprehension and deep insecurity. She was haunted by the
slogans cried by the local militants to hassle the Kashmiri Pandits: Assigacchipanunuy Pakistan,
Batavrostuybatinensaan. (We want our Pakistan, without the Pandit men, but with their women). Similarly, in
her memoir The Day I became a Tourist in My Own Home, Minakshi Watts iterates the sufferings inflicted on the
elderly: “What pains me the most is how it changed the lives of my elders ~ my parents and grandparents.

Hundreds of Kashmiri Pandits phoned everyone in authority at Jammu, Srinagar and Delhi, to save them from the
sure catastrophe that awaited them.
Broadcasting vicious Jehadi sermons and revolutionary songs, interspersed with blood curdling shouts and shrieks,
threatening Kashmiri Pandits with dire consequences, became a routine ‘Mantra’ of the Muslims of the Valley, to
force them to flee from Kashmir. Some of the slogans used were:

Ralive, Tsaliv ya Galive (either convert to Islam, leave the land, or die). shouting  'death to India' and death to
Kafirs... they would have to vacate the place before they met the same fate as Tikka Lal Taploo and many others.
Different accounts give different statistics of the total number of Kashmiri Pandits who fled their homes for their life
in the 1990s. While some say around 1,00,000 of them had left the valley, others suggest figures as high as 1,50,000
to 1,90,000.

A report by the Jammu and Kashmir government says as many as 219 people from this community were killed in
the region between 1989 and 2004.

Zalimo, O Kafiro, Kashmir harmara chod do”.


(O! Merciless, O! Kafirs leave our Kashmir)
“Kashmir mein agar rehna hai, Allah-ho-Akbar kahna hoga”
(Any one wanting to live in Kashmir will have to convert to Islam)
a Sharqia la gharbia, Islamia! Islamia!
From East to West, there will be only Islam
“Musalmano jago, Kafiro bhago”,
(O! Muslims, Arise, O! Kafirs, scoot)
“Islam hamara maqsad hai, Quran hamara dastur hai, jehad hamara Rasta hai”
(Islam is our objective, Q’uran is our constitution, Jehad is our way of our life)
“Kashmir banega Pakistan”
(Kashmir will become Pakistan)
Kashir banawon Pakistan, Bataw varaie, Batneiw saan”
(We will turn Kashmir into Pakistan alongwith Kashmiri Pandit women, but without their men folk)
“Pakistan se kya Rishta? La Ilah-e- Illalah”
(Islam defines our relationship with Pakistan)
Dil mein rakho Allah ka khauf; Hath mein rakho Kalashnikov.
(With fear of Allah ruling your hearts, wield a Kalashnikov)
“Yahan kya chalega, Nizam-e- Mustafa”
(We want to be ruled under Shari’ah)
“People’s League ka kya paigam, Fateh, Azadi aur Islam”
(“What is the message of People’s League? Victory, Freedom and Islam.”)

1989, at National High School, in Srinagar, I confided in my classmates that my father owned a copy of The Satanic
Verses. It had been brought for us secretly by a Melbourne-based uncle, who knew my father’s admiration for
Salman Rushdie and his novels. That afternoon, as I returned home, some boys stopped me and introduced me to a
lanky youth who claimed to be the Area Commander of a militant organisation. The boys accused me of blasphemy
and said that I had insulted the Prophet by talking about The Satanic Verses. They ordered me to apologise and
recite some verses from the Quran. I resisted initially, but feared for my parents when the youth lifted the hem of his
pheran and showed me the nozzle of a pistol. I did what they asked: Apologised, repeated the words they recited,
and upon being threatened, swore never to lie again (they refused to believe that I had the banned book at home).
After slapping me, they let me go.

In the so-called Bangladeshi Markets in Iqbal Park – Hazuri Bagh area of Srinagar the things looted from temples
and homes were being openly bought and sold…

Three and a half lakhs of human beings arrived in Jammu as displaced persons and for many months the
government did not provide shelters or relief or even register their names, why was that… The camps at Purkhoo,
Muthi, Mishriwallah, Nagrota were built on the banks and beds of nullahas, dry seasonal waterways, and when the
water came the camps were flooded, why was that…The pandits of Kashmir were left to rot in their slum camps.
Thousands of people came out on the streets and celebrated the killing of Justice Ganjoo. ‘Maqbool Bhat’s death has
been avenged,’ our neighbour said. People in our neighbourhood chanted pro-Pakistan slogans, waved Pakistani
flags, and burnt effigies of Indian leaders.

At the onset of the New Year in 1990, I witnessed a strange turn of events in Khankah-i-Sokhta, my locality. Known
for the abiding friendships between Muslims and Pandits who lived there, the locality resounded with cries of
Muslim men and women whose teenaged boys started disappearing from their homes to join militant outfits and
wage war against the security forces deployed in Srinagar

वर्ष 1985 के बाद सेधमकियां मिलने लगीं। आखिरकार 19 january1990 को कट्टरपंथियों ने 4 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से भागने के लिए मजबूर कर दिया।
कश्मीर से भागे सैंकड़ों पंडितों ने फरीदाबाद में शरण ली। सेक्टर दो, तीन, 55, 37, 14, 15 में ऐसे 12 सौ से ज्यादा परिवार हैं, जो आज भी 1990 के मंजरको याद कर
सिहर उठते हैं। सोपोर कस्बे में स्टेशनरी और सेबों के थोकविक्रे ता रहे पंडित परिवार अब एक कमरे के  मकान में रहते हैं।उनके  30 एकड़ जमीन में सेब के बागान थे, चार
मंजिला मकान था, किराएदार थे।लेकिन आंतकवादियों ने सब बर्बाद कर दिया। बताया कि जब आंतकवादियों ने हमलाकिया तो घर का दरवाजा नहीं खुला। छह महीने के बेटे अमित
और उसकी मां कोजमीन के नीचे तहखाने में छु पाया।उस रात रिश्तेदार कन्हैयालाल को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। सेक्टरतीन में बंसीलाल और कृ ष्णा कौल अपने पूरे
परिवार के साथ रैनाबारी में रहतेथे। 1990 में चरमपंथियों ने ऐसा तनाव पैदा किया कि पड़ोसी भी उनके दुश्मनहो गए।बड़े भाई मोतीलाल कौल को छह गोली मारकर हत्या करने
का प्रयास किया। लेकिनवे बच गए। धमकी दी गई कि पूरा परिवार कश्मीर छोड़ दे। दस दिनों के भीतर ही घर-बार, सामान सब पीछे छू ट गया।दो कपड़ों में बिना चप्पल पहने ही
कौल परिवार ने रात के घने अंधेरे में घर छोड़ दियाकृ ष्णा ने बताया कि कपड़े खरीदने के लिए उसने अखबार बेचा। उन्हें बेचकर तीसरा कपड़ा खरीदा।उन्होंने बताया कि जब बच्चियों
की इज्जत लूटने की बात सुनी, तो पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई।वहीं एक कश्मीरी पंडित ने बताया कि आज भी वह पल याद है कि किस तरह उन्हेंअपने ही घर से निकाल दिया
गया था। आंखों के सामने ही लोगों को जिंदा जलादिया गया था।

सरेआम हुए थे बलात्कार


*मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक कश्मीरी पंडित नर्स के साथ आतंकियों नेसामूहिक बलात्कार किया और उसके बाद मार-मारकर उसकी हत्या कर दी। घाटी मेंकई कश्मीरी
पंडितों की बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरणकिए गए। हालात और बदतर हो गए थे।
*एक स्थानीय उर्दू अखबार, हिज्ब उल मुजाहिदीन की तरफ से एक प्रेसविज्ञप्ति जारी की गई थी कि 'सभी हिंदू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़कर चले जाएं'।
*एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र अल सफा ने इस निष्कासन के आदेश को दोहराया।
*मस्जिदों में भारत एवं हिंदू विरोधी भाषण दिए जाने लगे। सभी कश्मीरियों को कहा गया कि इस्लामिक ड्रेस कोड ही अपनाएं।
*कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया गया, जिसमें लिखा था या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो।
*पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने टीवी पर कश्मीरी मुस्लिमों को भारत से अलग होने के लिए भड़काना शुरू कर दिया।
* सिनेमा और विडियो पार्लर वगैरह बंद कर दिए गए ! लोगो को मजबूर किया गया कि वो अपनी घड़ी पाकिस्तान के समय के अनुसार कर लें !

He further said 550 temples in the valley were destroyed during mufti administration. 1 Lakh rohngiya Muslim
fot adhar and voter in Kashmir. J& K government passed around 40 anithinu bills in assembly.

September 1989 - Pandit political activist, Tika Lal Taploo is shot dead by armed men outside his residence.

4.10.89 – Srinagar Terrorists shot dead N.K. Ganjoo, ex-Sessions Judge who had tried and passed a death sentence
on the JKLF leader Mohd. Maqbool Butt. A note left by the killers warned people against picking up the dead body.

January1990 - Ompura, Badgam - Pandit Bhan and his 12 year old son onboard on bus. Two Youngman who had
probably already boarded the bus came near Pandit Bhan and placed themselves closer to him. All of a sudden one
ot the youths fired two shots at Pandit Bhan. He was shot at his temples. He died instantly. His son was shocked. He
wailed and cried for help. But none of the passengers cared to listen to him. Nor did they try to console the little
child. They seemed to jeer at the boy. The terrorists asked the driver to stop the bus. As the vehicle stopped, they
threw away tbe body and pushed his son out of the bus. He was screaming for help

19- January 1990 Massive crowds assemble in mosques across valley, shouting anti-india, anti-pandit slogans. The
exodus of Kashmiri Pandits begins. In the next few months, hundreds of innocent Pandits are tortured, killed and
raped. By the year-end, about 350,000 Pandits have escaped from the Valley and taken refuge in Jammy and
elsewhere. Only a handful of them stay back.
In February 1990, militants killed Lassa Kaul, Director of Doordarshan Kendra, outside his house in Bemina.
He was my father’s friend. Some militants had visited him in his office and ordered him to stop broadcasting Indian
TV programmes in Kashmir. Ignoring the demands and threats, he had continued to work although many of his
colleagues had advised him to leave Kashmir. He had been taking care of his ailing father.

Soom Nath Saproo -worked in the Defence Estates Office of the Government of India and was posted at Shivpor,
Saproo had gone to buy milk when he was kidnapped.Two days later, at the behest of influential people in the
locality, the militants released Saproo. He reached home with a gash on his head. He wouldn’t talk. He fled to
Jammu the next day. He died a few years ago. His last wish – to return home – remained unfulfilled.

12- February 1990 - Tej Krishen Razdan (Age: 30s) , Resident of: Yachgam (District Budgam) Profession:
Central Govt. Service, An old colleague of his - a Muslim - who had been working with him while he was in
Kashmir - came to pay a visit on the fateful day. Both of them boarded a mini-bus bound for Lal Chowk. When the
matador (mini van) halted at Gao Kadal, Razdan's companion suddenly took out a pistol and shot him in the chest.
Not content, he dragged the still breathing Razdan out of the vehicle and ordered other passengers to kick the dying
man repeatedly. His body was then dragged through the street like sweepers drag a dead dog. Taken to the nearest
mosque, the dead body was put on display for hours before the police came to take control of the body.

24- February 1990- Ashok Kumar Qazi (Age: 30s), Resident of: Shashyar, Srinagar, Profession: Worked in the
Handicrafts Deptt, - A group Muslims shot him on the knuckles. He fell down and cried in agony for help. None
among the passers by or the shopkeepers responded. They just looked the other way despite the fact that they knew
the man as he belonged to their locality and was an energetic social worker. In their sadistic frenzy, the three
murderes tarted a death dance around the helpless Qazi. Theyy pulled his hair out. They slapped him continuously
and they spat on his face. One of them even unfastened his trousers and urinated on him. Dying and profusely
bleeding, the militants did not kill him immediately but enjoyed the writhing and twitching of his body. They
wanted him to die by inches. The siren of a distant police van, however, mercifully ended his agony as, in panic, the
terrorists pumped bullets into his stomach and chest leaving his dead body on the frozen road.

27- February 1990 - Navin Saproo (Age:30s), Resident of: Habba Kadal, Srinagar, Profession:Central Govt.
Service
He was returning from his office when, near Kanya Kadal, terrorists sprayed him with bullets in broad day-light and
in full view of the passersby; he fell down but was still breathing. A Hindu woman, who happened to be there,
frantically pleaded with the terrorists to spare the young man's life. She was pushed back. Dancing around him in
glee, they shot at him over and over again avoiding any vital organ just to prolong his agony bleeding
profusely. For the terrorists, the sadism was yet to come. As the wailing relatives of the young man took away his
body in a police van - yes in a police van - the terrorists followed in a truck right up to the cremation ground,
dancing and singing all the way. The singing and dancing continued till his body was reduced to ashes.

22- march 1990 - P. N. Kaul Resident of: Bijbihara, District Anantnag , Profession: Shopkeeper, He was skinned
off alive and left to die. His putrified body was discovered three days later.
B. K. Ganjoo (Age:30s), Resident of: Chota Bazar, Srinagar, Profession: Central Govt. Service - a telecom
engineer, was coming home during the curfew relaxation period. He never suspected that he was being followed by
the terrorists as he had no reason to be a suspect. When he reached the vicinity of his house, his wife, however,
observed that he was being pursued. As Ganjoo entered his house, she quickly bolted and locked the door. But the
terrorists were undeterred and crashed through. The pursued man ran up to the third floor of his house and hid
himself in a rice bin. The terrorists ransacked the entire house and were ready to leave as they could not locate
their victim. But the fate willed otherwise. Ganjoo's muslim neighbors, who had seen Ganjoo hide himself in
the bin, called the militants back and pointed towards the container. Out they pulled him, pumped him with
bullets and left him bleeding on the rice. While leaving, they shouted, "Let your blood be soaked in the rice and
let your children eat it. Ah, what a tasty meal it would be

Dina NathKilled on 13.4.1990


In April 1990, Hizb-ul-Mujahideen, through the columns of an Urdu daily, Al Safa, issued an ultimatum to Pandits
to leave Kashmir in 36 hours. On the same day, the newspaper also carried an ominous column referring to Pandits
as untrustworthy and informants of the Indian intelligence agencies. This was the second time a pro-Pakistan
militant outfit had issued an ultimatum to Pandits. The first had appeared in Aftab, in January. At that time, Pandits
had persisted and lingered.

11 April 1990Indu Bushan Zutshi’s memoir She was killed because she was an informant; no harm will come to
you provides a poignant narrative of the persecution of a Pandit family in Anantnag .

15 April 1990 Shambu Nath Bhat, a teacher by profession, mourns the death of her lone daughter Sarla Bhat (in her
twenties), a staff nurse at the Sher-I Kashmir Institute of Medical Sciences in Soura. Having been abducted from her
hostel on 15 April, four days later, her mutilated body was found in the downtown area of Srinagar. The trauma of
confronting the reality is aptly summed up by Zutshi as the police force handed over the body of Sarla to her family:
“We were horrified to see the body when it was handed over to Sambhu Nath. It was bullet-ridden and covered with
blood. There were torture marks all over the body. It became clear to us that she had been violated and sexually
assaulted before being killed”. her family members were helpless in their inability to provide a dignified cremation.
The impact of Sarla’s death is reminiscent of Rushdie’s portrayal of horror in Shalimar the Clown: “Kill one, scare
ten…and ten were indeed scared”. A handwritten note attached to the body accused her of being a police informant

One day, our neighbour, Professor Nilla Kanth Raina, a retired professor of history, was loading his luggage in a
truck and about to leave with his wife for Jammu, when he was shot dead by his own students who had joined a
militant group. Professor Raina was in his sixties that time

24 April1990- Bansi Lal Saproo R/O: Gulab Bagh, Choni Lal Koul R/O: Churath, Kulgam

28 April1990 - Bhushan Lal Raina (Age: 29 years) Resident of: Ompora, District Budgam, Profession: Worked in
Sher-i-Kashmir Medical Institute, Soura , Scared by the terrorists' violence in the valley, Raina had finally decided
to leave Kashmir along with his mother. He wanted to leave on April 29 and started packing his belongings a day
earlier. While he was busy, a group of terrorists gate-crashed into his house. Seeing them, the aged mother of
Raina implored them to spare the life of his son as he was about to be married. "They could kill her instead if
kill they must", she pleaded. But they would not listen to her. With a sharp pointed iron rod, they pierced his
skull. They dragged him out and nailed him to a tree after stripping off his clothes. They killed him by inches
while he begged to be shot.

30 April1990 - Sarwanand Kaul Premi (Age: 64 years), Virender Kaul (Age: 27 years) - Son Resident of: Soaf
Shali, District Anantnag, Profession: Retired Teacher, Central Govt. Service respectively
Premi was a well-known Kashmiri poet and a scholar. Even though his family requested him to leave the village in
view of the mounting terrorist activities and unabated killings of his community members, he refused, believing in
the "secular traditions" of his beloved Kashmiri. He was deeply religious and also deeply liberal. He thought he was
respected widely in the area predominated by the Muslims. evening of 29th April, three terrorists entered his house
and ordered the entire family to collect in one room. The terrorists ordered that they should collect all their valuable
- gold, jewelery, cash, pashmina garments, saris, shawls etc. - in the room. The other gold women and the men were
wearing was torn off their bodies. Packing all these in an emptied suitcase, they asked the frail and soft-spoken
Premi to carry the suitcase and follow them. "We mean no harm to him and he will return", the terrorists told the
wailing and weeping family members. Then fate intervened and Virender Kaul, his son, volunteered to accompany
his father so that he could lead the old man back in the dark night. "Come on you too, if you so desire", they told
Virender. What followed would put to shame even Hitler's secret agents. When the dead bodies were found after
two days, the scene was apalling and nauseating. The place in between the eyebrows, where Premi used to apply the
sandal wood mark commonly known as "Tilak" was found pierced by an iron and skin peeled off. The entire body
bore the marks of cigarette burns. The limbs were found broken and eyes of both father and the son gouged out.
They were later hanged and to be doubly sure shot too. This, to a man, in whose house a rare manuscript of the
holy Quran was found placed with reverence in his prayer room.

20 May 1990 C.L. Pandita Resident of: Kawoosa Khalisa (District Bodgam) - Chaman Lal Pandita, a teacher was
kidnapped on Sunday, May 20, 1990 at 9:15 am. On Monday, he was found dead. Pandita had been hanged to death.
But before that he was beaten. His body bore the marks. There was dust even in his nails indicating that he must
have struggled. Proviously, Pandita's neighbours had discouraged him from leaving the village. They had promised
protection. Some had even gone to the extent to say that they would sacrifice their children to protect the family. But
at the time of the need, nobody came forward.

28 may 1990 -Ramesh Kumar Raina - Resident of: Rainawari, Srinagar, Ramesh Kumar Raina, 27, martyred in
Rainawari, has left behind two children, two young sisters and aged parents. He ran a small shop repairing stoves.
Raina was kidnapped on May28, 1990. On June 1, his body was fished out from river Jehlum. His family came to
know through the newspapers. Before dumping his body into the river, he had been strangulated.

24 June 90 Ashwani Kumar Garyali Resident of: Chattabal, Srinagar fateful day of 24.6.90, Ashwani Kumar was
sitting at his home with his friend Ashok Kumar Kotha. In the meantime five gun wielders thronged into his house
and pumped five bullets into his chest. After this they shot at his friend Ashok Kumar who died on spot. The martyr
Ashwani was then dragged upto the outer gate of the house and his knees were broken. Father of the deceased went
to Police Station for getting a vehicle for taking Ashwani to hospital. The SHO at the station taunted the
deceased's father by saying, "Should we have got a helicopter for your son? Let him die, I can do nothing."
After his return from the Police Station, he found his son lying in a pool of blood with his face deshaped and all the
joints of his body broken.

25th June, 1990: Brutal Killing of Kashmiri Woman Girija Tickoo- Girija worked as a laboratory assistant at
Government High School, Trehgam in velley. She had left the valley and had settled in Jammu in the wake of the
“Azadi Movement”. One fine day, she received a call from someone who told her that the hostile movement in the
valley had ebbed and she can come to Bandipora and collect her salary. She was assured that she would return home
safe and that the territory was now harmless. She was kidnapped from the home of her Muslim colleague and taken
to an unknown place. People watched silently when she was being abducted for, they believed that she was a Kafir
and that she deserved it. Postmortem revealed that she was gang-raped, and cut into two halves using a mechanical
saw while. she was still alive. It is also said that it was a carpenter saw. The human right activists and the
government did not respond to the gory killing and the only mention it has received is in the book “Beyond
Terrorism- A New Hope for Kashmir”

7 june 1990 - Chota Lal Maisuma

8 june 1990 - Raju Sharma

14 june 1990 - Avtar Krishan

https://ikashmir.net/atrocities/11.html

26 june 1990B. L. Raina (Age: 35 years) Resident of: Dambeloo (Anantnag), Profession: Govt. employee - Raina
was out of the valley but went back on hearing the news of the kidnapping of his father. For 25 days, they waited
with the security forces guarding him, his family and other relatives who had come from Jammu after hearing the
news of kidnapping of Mr. Saroop. On 26th June, police told them that it was futile to wait as there was no chance
of his recovery dead or alive. Accompanied by a posse of security men, the family was despatched in a vehicle to
Jammu. Raina accompanied them up to Qazigund leaving behind his wife and two children in his native village.
After the other members of the family were safely despatched, he returned to Anantnag and then to his village in
spite of the warning of the police that there was danger and he also should move to Jammu. But he could not do so,
for he had left his family at Dambeloo. Just a kilometer from his home, the vehicle was ambushed by terrorists
and Raina was one of the three victims. So within a span of 23 days, two members of the family - father and
son - fell victims to the terrorists. The father had already lost another son two years ago.

1-7 July 1990 –Mujoo, Omkar Nath Raina, Shuban Lal Kullan three were kidnapped and told to donate blood for
the wounded terrorists. They agreed for fear of their lives not knowing that they were going to a sudden death. The
barbarians drained the entire blood from their bodies till they were dead.

7 July 1990 - Dina Nath Mujoo (Age: 75 years), Resident of: Rawalpora, Srinagar, Profession : Retired Govt
employee.  Pandit Dina Nath Muju, (78) a saintly scholar, was brutally murdered by some unknown assailants at his
residence at '71, Rawalpora Housing Colony, Srinagar, Kashmir during the night of 6/7 July, 1990 when he and his
wife were alone over there, after having vehementally pursuaded their children to leave Srinagar on account of
threats from the militants. Though some arrests were reportedly made in connection with the murder of Pandit
D.N. Muju, no progress has been reported so far. His well wishers are demanding that the case be handed over to
C.B.I.

An efficient teacher dedicated to his profession, but was also a guide and friend to one and all who came in contact
with him. He was a retired Headmaster of the Teacher's Training School, Srinagar. A follower of the principles of
Universal Brotherhood as enshrined in the basic principles of the theosophical thought, and very considerate lo all
living beings

Pandit Dina Nath Muju was also a life-long member of the Women's Welfare Trust, Kashmir, the first institution to
set up educational institutions for women in Kashmir under the aegies of the Theosophical Society.

9 July 1990 Hridaya Nath and Radha Krishen Habba Kadal, Srinagar, heir bodies were found with chopped heads.
Janki Nath Killed on 26 July 1990

Rattan Lal Raina Killed on 18 august 1990

13 september 1990 - Dwarika Nath

October-1990 - An elderly Kashmiri Pandit lady, Pitti Kaul, shot dead by Islamist terrorists in Srinagar in October
1990. Burhan Wani can kill to seek revenge for an imaginary slap by police. But if a Pandit thanks govt for
revocation of Article 370, he becomes communal hatemonger......Tweet by Rahul Pandita

Rajinder Prasad Killed on 15 December 1990

Name: Shri Ashok Kumar


Age: 30s
Resident of: Pulwama
Profession: Not known
Date of Killing: Not available

Ashok Kumar was kidnapped by Jamat-i-Islami militants. The kidnappers broke his limbs and then brought him to
the main square of the town. There, he was forced to confess/being a member of the CPI (M). He was then asked to
beg for mercy which he did. Even then the militants did not let him off. They gouged out his eyes and shot him
dead.

Name: Ashok Suri& brother, Resident of: Kralpora, Profession: DriverSuri, who was a driver, used to carry
newspapers to the western news stand in Lal Chowk, Srinagar. On the fateful day, he was kidnapped by the militants
on his way to Srinagar. They very sevely tortured him and his body bore the marks of cigarette burns which
bears the testimony of the extent to which he was subjected to. When he was almost half dead they told him
that they actually wanted to kill his brother and had caught hold of him by mistake. At this stage, the militants
let him off. On reaching home somehow, Suri narrated the incident to his brother, an employee of SBI,
Srinagar. He begged of him to flee as his life was in danger. But the latter did not agree. At about midnight, the
militants came again and gate crashed in his house. They attacked Ashok Suri with a sharp edged weapon
cutting his neck and left him to die.

Another victim of fundamentalist brutalities, Shri Tapoo, who was burnt alive in a house after being
abducted.

Sarla Bhat, a nurse working in Sher-i-Kashmir Institute of Medical Sciences - Soura, was tortured, gang-raped and
then murdered by militants of Jammu & Kashmir Liberation Front (JKLF).

जब 1992 में बाबरी मस्जिद के ढांचे को गिरायागया था, तब पाकिस्तान में कई मंदिरों को तोड़ दिया गया था. बाबरी मस्जिद के बाद पाकिस्तान में तक़रीबन 100 मंदिर या तो
ज़मींदोज़ कर दिए गए थे या फिरउन्हें भारी नुकसान पहुंचाया गया था.6 december1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिदका ढांचा गिराया गया. तो जवाब में 8
december1992 को लाहौर के एक जैन मंदिरको उन्मादियों ने ध्वस्त कर दिया. यहां अब के वल मंदिर का खंडहर ही बाकी रहगया है. पाकिस्तान के रावलपिंडी में तो कृ ष्ण
के मंदिर को ही तोड़ दिया गया.इस मंदिर में कई हिन्दू परिवार रहते थे

More than forty years later in 1989, the remaining Pandits in Kashmir, by then consisting of less than five percent of
the population, lived under the same continue threat as epitomized by the Islamist slogan “Assi gacchi panu’nuy
Pakistan, batav rostuy, batenein saan.” meaning “We are going to make our own Pakistan [Land of the Pure].
Without your men. But with your women.”

In Kashmir, the situation was no different. Rahul Pandita, a Hindu refugee from Kashmir, describes in his book, Our
Moon Has Blood Clots: The Exodus of the Kashmiri Pandits, how many of his Muslim neighbors and family friends
willingly partook in the slaughter and violence to usurp their property and possessions. In other cases, local hospitals
largely administered by Muslims in Kashmir, would deny medical aid outright for Kashmiri Hindus, particularly
those who had been wounded by militants. One Kashmiri Hindu elder recalled, “Our people were killed. I saw a girl
tortured with cigarette butts. Another man had his eyes pulled out and his body hung on a tree... It wasn’t just the
killing but the way they tortured and killed.”

Historic Hindu landmarks have been islamicized by government bodies. For example, the famous
Shankarcharya Hill, originally named after revered Hindu theologian who visited it in the 9th century, was renamed
as Takht-e-Suleiman or “Tomb of Solomon” by the state’s tourism board. With no local Hindu populace present,
there is little that can be done.

कश्मीर में हुए बड़े नरसंहार


1. डोडा नरसंहार- August14, 1993 को बस रोककर 15 हिंदुओं की हत्या कर दी गई।
2. संग्रामपुर नरसंहार- march21, 1997 घर में घुसकर 7 कश्मीरी पंडितों को किडनैप कर मार डाला गया।
3. वंधामा नरसंहार- January25, 1998 को हथियारबंद आतंकियों ने 4 कश्मीरी परिवार, including women and children के 23 लोगों को गोलियों से भून
डाला।
4. प्रानकोट नरसंहार- april17,
को उधमपुर जिले के प्रानकोट गांवमें एक कश्मीरी हिन्दू परिवार के 27 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, इसमें 11 बच्चे भी शामिल थे। इस नरसंहार के बाद डर से पौनी
और रियासी के 1000 हिंदुओं ने पलायन किया था।

5.1 जम्मू-कश्मीर के छत्तीसिंहपुरा गांव में साल 2000 में हुए सिखों के नरसंहार के पीछे आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का हाथ था...

5. 2000 में अनंतनाग के पहलगाम में 30 अमरनाथ यात्रियों की आतंकियों ने हत्या कर दी थी।
6. 20 march2000 चित्तीसिंघपोरा नरसंहार, होला मोहल्ला मना रहे 36 सिखोंकी गुरुद्वारे के सामने आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी।
7. 2001 में डोडा में 6 हिंदुओं की आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी।
8. 2001 में जम्मू रेलवे स्टेशन नरसंहार, सेना के भेष में आतंकियों नेरेलवे स्टेशन पर गोलीबारी कर दी, इसमें 11 लोगों की मौत हो गई।
9. 2002 में जम्मू के रघुनाथ मंदिर पर आतंकियों ने दो बार हमला किया, पहला 30 march और दूसरा 24 नवंबर को, इन दोनों हमलों में 15 से ज्यादा लोगों कीमौत हो
गई।
10. 2002 में कासिम नगर नरसंहार में 29 हिन्दू मजदूरों को मार डाला गया। इनमें 13 महिलाएं और एक बच्चा शामिल था।
11. March2003 में नंदीमार्ग नरसंहार, पुलवामा जिले के नंदीमार्ग गांव में आतंकियों ने 24 हिंदुओं including infants को मौत के घाट उतार दिया था।
12. march1998 में मुस्लिम जिहादियों ने एक दूध पीते बच्चे का कत्ल कियाजोकि निकृ ष्टता की पराकाष्ठा थी लेकिन छोटे बच्चे व महिलाएं, लड़कियांआतंकवादियों के सॉफ्ट
टारगेट होते हैं क्योंकि वे अपने बचाव के उपाय भीनहीं कर सकते हैं।
13. 2 February1990 को सामाजिक कार्यकर्ता सतीश टिक्कु की हत्या कर दी गई।
14. 23 february को कृ षि विभाग के कर्मचारी अशोक की टांगों में गोली मारकरउन्हें घंटों तड़पाने के बाद सिर में गोली मारकर उनका कत्ल कर दिया गया। एकसप्ताह बाद इन
मुस्लिम जिहादियों द्वारा नवीन सपरू का कत्ल कर दिया गया।
15. 27 February को तेजकिशन को इन जिहादियों ने घर से उठा लिया और तरह-तरह कीयातनाएं देने के बाद उसका कत्ल कर उसे बड़गाम में पेड़ पर
लटका दिया।
16. 19 march को इखवान-अल-मुसलमीन नामक संगठन के जिहादियों ने टेलीकामइंजीनियर बीके गंजु को घर में घुसकर पड़ोसी मुसलमानों की सहायता से मारा।उसके बाद
राज्य सूचना विभाग में सहायक उपदेशक पीएन हांडा का कत्ल किया गया।
17. 70 वर्षीय स्वरानंद और उनके 27 वर्षीय बेटे बीरेन्दर को मुस्लिमजिहादी घर से उठाकर अपने कैं प में ले गए। वहां उनकी पहले आंखें निकाली गईं, अंगुलियां काटी गईं फिर
उनकी हत्या कर दी गई।

3 August2001 का खूनी इतिहास- जब इस्लामिक आतंकियों ने 17 बेकसूर चरवाहों को लाईन में खड़ाकर के गोलियोंने छलनी कर दिया था। ये कहानी है, किश्तवाड़ के
समीप लूडर गांव की। जहांज्यादातर संख्या में हिंदू चरवाहे रहते थे,उस घटना में बचे देवराज (उस वक्त देवराज की उम्र 14 साल थी) के मुताबिकउन्होंने सभी चरवाहों को एक
लाइन में खड़ा कर दिया था। आतंकियों ने सभी 21 लोगों को बंदूक के दम पर अपने सामने झुकने को कहा। फिर आतंकियों ने एकचरवाहे पन्ना लाल को बंदूक दिखा कर पूछा कि
जानते हो ये क्या है? पन्ना लालने कहा ये बंदूक है, फिर उस आंतकी ने पूछा क्या जानते हो कि इसमें से क्यानिकलता है ? पन्ना लाल ने जवाब दिया गोली। फिर उसके बाद
आतंकियों ने कु छनहीं पूछा.. और लाईन में खड़े बेकसूर चरवाहों पर अंधाधुंध गोलियां चलानाशुरू कर दिया। सभी खून से लथपथ ज़मीन पर गिर पड़े। कु छ तुरंत मारे गये,
कु छघायल हुए और कु छ मारे जाने का नाटक कर वहीं लेट गये। आतंकी सभी को मराछोड़कर और छीना हुआ कीमती सामान लेकर फरार हो गये।उस खौफनाक रात के इस
नरसंहार में 21 लोगों में से सिर्फ देवराज समेत 4 लोगबचे थे। देवराज सहित वो सभी अपनी जान उस अपने साथियों के लाशों के बीच मेंछु प कर बचाई थी।लेकिन प्रशासन ने
स्थानीय लोगों को सुरक्षा या कार्रवाई को का कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया।

https://www.amarujala.com/photo-gallery/delhi-ncr/painful-story-of-hindu-refugees-from-pakistan?src=hl

13 दिसंबर 2001- संसद पर हुए आतंकी हमले में संसद भवन के गार्ड, दिल्लीपुलिस के जवान समेत कु ल 9 लोग शहीद हुए थे.नौ शहीद : 1.शहीद जे.पी.यादव, 2.घनश्याम,
3.ओम प्रकाश, 4.नानक चंद, 5.राम पाल, 6.बिजेंद्र सिंह, 7.कमलेश कु मारी, 8.देशराज और 9.मताबर सिंह।

3-4 January 2002 at Marad, three Hindus and two Muslims were killed in a sudden breach of peace due to scuffles
between two groups that began as a trivial altercation over drinking water at the public tap.

24 September 2002, two armed men attacked the Akshardham Temple complex at Gandhinagar, Gujarat, India.
They killed 30 people and injured more than 80. National Security Guards intervened and ended the siege the next
day, killing both attackers. Six accused were later arrested by Gujarat Police

2 May 2003-The Marad beach, a fisherfolk's colony a few miles off Kozhikode also known as Calicut, Kerala.
The Marad massacre was the killing of eight Hindus by a Muslim mob on 2 May 2003 at the Marad Beach of the
Kozhikode district, Kerala, India.[1] One attacker, Mohammed Ashker was hit by accident and was also killed. .[2]
The commission affirmed "a clear communal conspiracy, with Muslim fundamentalist and terrorist organisations
involved" eport notes the submission of then Kozhikode Police Commissioner T K Vinod Kumar that hundreds of
local Muslim women converged on the mosque to prevent the police from entering it to catch the attackers [Later, the
government troops unearthed a huge cache of weapons including 17 bombs
26 November 2008 - 9/11 attack killed only 3000 people. 9/11 attack killed only 3000 people. 9/11 attack killed
only 3000 people. लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकी समुद्री रास्ते से भारत की व्यावसायिक राजधानीमें दाखिल हुए और 164 बेगुनाह लोगों की जान ले ली. हमले में
308 लोग जख्मीभी हुए. हमले में जिंदा पकड़े गए एकमात्र कसूरवार अजमल कसाब को 21 नवंबर 2012 को फांसी दे दी गई.मेजर संदीप उन्नीकृ ष्णन की. जो इस हमले में 28
नवंबर 2008 को शहीद हो गए थे. उस समय वह 31 साल के थेआतंकवादियों से भिड़ने के दौरान इस जवान ने अपने साथियों से कहा था 'तुमऊपर मत आना, मैं संभाल
लूंगा'. उनके कहे हुए शब्द दूसरे  जवानों पर गहरीछाप छोड़ गए.करकरे और अशोक कामटे भी हुए थे शहीद | मुंबई पुलिस के अतिरिक्त आयुक्त अशोक कामटे और वरिष्ठ पुलिस
निरीक्षक विजय सालस्कर भी 26/11 हमले में शहीद हो गए थे.अजमल कसाब को 21 November2012 को फांसी दे दी गई.

According to an estimate (by an eminent historian) Muslims killed 100 million Hindus in their long 524 years rule
and in 1947 500,000 people killed during India partition. After partition many terror attacked killed Indians. 26/11
Terror Attack, Mumbai Serial Bomb, (12 places), Akshardham Temple, Delhi Serial Bomb, Mumbai Train
Blast (7 stations), Jaipur Blasts(6 places), Assam Bombings, Indian Parliament Attack, Samjhauta
Express,Coimbatore Bombings, Jammu and Kashmir Legislative Assembly Attack, Pulwama attack.

According to an estimate (by an eminent historian) Muslims killed 100 million Hindus in their long 524 years rule
and in 1947 500,000 people killed during India partition. After partition many terror attacked killed Indians. 26/11
Terror Attack, Mumbai Serial Bomb, (12 places), Akshardham Temple, Delhi Serial Bomb, Mumbai Train
Blast (7 stations), Jaipur Blasts(6 places), Assam Bombings, Indian Parliament Attack, Samjhauta
Express,Coimbatore Bombings, Jammu and Kashmir Legislative Assembly Attack, Pulwama attack.

According to an estimate (by an eminent historian) Muslims killed 100 million Hindus in their long 524 years rule
and in 1947 500,000 people killed during India partition. After partition many terror attacked killed Indians. 26/11
Terror Attack, Mumbai Serial Bomb, (12 places), Akshardham Temple, Delhi Serial Bomb, Mumbai Train
Blast (7 stations), Jaipur Blasts(6 places), Assam Bombings, Indian Parliament Attack, Samjhauta
Express,Coimbatore Bombings, Jammu and Kashmir Legislative Assembly Attack, Pulwama attack.

2012 - Thousands of Pandits still languish in refugee settlements of 8 x 8

28 February 2013 – 22 June 2013 – (Bangladesh anti-Hindu violence) 28 February 2013, the International Crimes
Tribunal sentenced Delwar Hossain Sayeedi, the Vice-President of the Jamaat-e-Islami to death for war crimes
committed during the 1971 Bangladesh Liberation War. Following the sentence, activists of Jamaat-e-Islami and its
student wing Islami Chhatra Shibir attacked Hindus in different parts of the country. Hindu properties were looted,
Hindu houses were burnt into ashes and Hindu temples were desecrated and set on fire.

List of temples attacked (around 40)

https://en.wikipedia.org/wiki/2013_Bangladesh_anti-Hindu_violence

18 September2016 की तारीख थी. जम्मू-कश्मीर के उरी कैं प में सुबह के 5.30 बजे जैश-ए-मोहम्मद के चार आतंकवादियों ने भारतीय सेना के ब्रिगेडहेडक्वॉटर्स पर
हमला कर दिया. इस हमले में 19 जवान शहीद हो गए और कई जवानघायल हो गए. आतंकवादियों ने 3 मिनट में 17 हैंड ग्रेनेड फें के . उसके बादआतंकवादियों के साथ सेना की
6 घंटे तक मुठभेड़ चली और चारों को मौत के घाटउतार दिया गया.

We are sepening almost 100 crors on providing facilities to अलगाववादी नेता of Kashmir.
1900
July 2010 - TJ Joseph, a professor at in Newman College in the town of Thodupuzha, Kerala, India said the passage
did not refer to the Prophet and was using the name of a film director also called Muhammed (state languages book
citing the 1999 film Garshom) but July 2010 with his mother and sister when their car was stopped.

“As the car was locked from inside, they broke the glass and pulled me out,” he told NDTV. “The attackers injured
me all over and severed my right hand.” He was taken to hospital, where doctors managed to re-attach the hand in
several rounds of surgery.

A group of Islamists who cut off a teacher’s hand in revenge for “blasphemy” against the Prophet Mohamed have
been jailed in India.

Arakan Salvation Rohingya Army (ARSA) Year: 2017-now Number: 120 Myanmar Hindus murdered or
abducted, ~30000 forced Hindu refugees, 11700 Hindus and Buddhists displaced internally, unknown number of
women raped. Much has been said about the “Rohingya refugee crisis,”

July 22, 2019 - बांग्लादेशहिन्दू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल (एचबीसीयूसी) की आयोजन सचिवप्रिया साहा ने ट्रंप से मुलाकात में कहा था कि, बांग्लादेश से
अल्पसंख्यकसमुदाय के ३.७ करोड़ लोग लापता हैं! इसलिए उनके खिलाफ बांग्लादेश मेंदेशद्रोह का मामला दर्ज किया जाएगा !

17 October 2019 -लखनऊ के खुर्शीद बाग मेंहिंदूवादी नेता कमलेश तिवारी की दिनदहाड़े गला रेतकर हत्या कर दी गई | भगवा कपड़ा पहने दोनों आरोपी अशफाक और
मोइनुद्दीन बदमाशमिठाई के डिब्बे में हत्यारे चाकू और तमंचा लेकर आए थे. शरीर में चाकू के 15 से अधिक वार किए हैं.A few days ago Samajwadi Party
leader Azam Khan called RSS leaders homosexuals, the next day Tiwari responded by making a controversial
remark on Prophet Mohammed. Akhilesh Yadav led state government decided to book him under the National
Security Act (NSA) and lodged him in Lucknow District Jail. पैगंबर साहब पर टिप्पणी की वजह से कमलेश पर रासुका भी लग चुका है. उस
समयएक मुस्लिम संगठन ने सर कलम करने का फतवा भी जारी किया था. बिजनौर के उलेमाअनवारुल हक और मुफ्ती नईम कासमी पर कमलेश तिवारी का सिर कलम करने का
फतवाजारी करने का आरोप लगा था.कमलेश तिवारी ने सीतापुर में अपनी पैतृक जमीन पर नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने का ऐलान किया था | नागपुर में हार्डवेयर बिजनेस से
जुड़ा आसिम अली नेकु छ दिन पहले कमलेश तिवारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था और यूट्यूबवीडियो के जरिए कमलेश तिवारी को चेतावनी दी थी.मौलाना मोहसिन शेख,
फै जान पठान और राशिद पठान. यूपी पुलिस के मुताबिक राशिदपठान इस कत्ल का मास्टरमाइंड है. राशिद कु छ महीने पहले ही दुबई से इंडियाआया था. दुबई में राशिद का
मालिक एक पाकिस्तानी व्यक्ति था | अशफाक ने रोहित सोलंकी नाम की फर्जी फे सबुक आईडी से फिक्स की थी मीटिंग| अशफाक ने इस फे सबुक आईडी की प्रोफाइल पिक पर
हिंदू समाज पार्टी का बैनर भीलगा रखा था, जिसकी टैगलाइन थी, 'एक कदम हिंदुत्व की ओर'। इस तरह कमलेशतिवारी की हत्या की पूरी प्लानिंग की गई थी।मौलाना अनवारुल
हक बिजनौरनेकमलेश तिवारी की हत्या पर रखा था 51 लाख का इनाम|

In Muzaffarnagar one lakh Muslims gathered in a major demonstration demanding the death penalty for Tiwari.

The protest which involved a Samajwadi Party leader Javed Ansari conveyed that their demands were simple. Death
penalty should be imposed on anyone who insulted the Prophet . Delhi and Bhopal huge crowds marched through
the streets demanding capital punishment against Tiwari. One of the biggest flareups happened in Kalichak, falling
under West Bengal’s Malda. On 3 January 2016 a huge Muslim protest rally passing through National Highway 34
turned violent and went on a rampage burning buses, BSF vehicles and a police station.

“I saw thousands of people, carrying kerosene, sharp-edged weapons, fire arms and Islamic flags throng Kaliachak’s
Chowringhee area on 3 January. It was a really frightening scene”, a resident was quoted as saying.

All this while Tiwari kept languishing in jail and the National Security Act was revoked against him in September
2016.

October 22, 2019 - 500 sued for attack on Bhola temple, Hindu houses in Bangladesh.
https://bdnews24.com/bangladesh/2019/10/24/after-deadly-clashes-with-police-muslims-also-attacked-hindu-
homes-temple-in-bhola

65094

10-November-2019 - Ayodhya Issue created by Mirbaki (General of Humayun) and solved by Supereme court.

Pakistan Afghanistan, Bangladesh, POK, Sindh, Burma, Thailand, Indonesia, Malay Peninsula, Cambodia and
Vietnam, Singapore, Uzbekistan

Five Islamic Republics of the erstwhile Soviet or Western Central Asia, Tadjikistan, Uzbekistan, etc., did not
witness the prevalence of Hindu gods and goddesses. flourished the region anciently called Sogdiana, covering
largely the state of Uzbekistan. There were centres where great works of art and architectures flourished, viz.
Varaksha, located near Bukhara, Afrasiab, the ancient site of the capital city of Sogdiana, in the outskirts of
Samarkand, and Penjikent, an ancient small city, around 60 kms east of Samarkand. Their flourishing period is
bracketed between 5th century A.D. and 9th century A.D. It may be noted that the Arab Muslims entered this area in
the 8th century, often destroying non-Muslim art and architectural remains. The most important site for our study is
Penjikent, a commercial town with bazaars, covering an area of 13.5 hectares, in which around 130 houses and
shops have been excavated. The structural remains of these two to three storied houses, some of them very large,
including wooden posts and walls, have yielded many sculptural remains. It is in them that we get the
representations of Hindu gods and goddesses as well as many decorative elements and narrative scenes. In other
words, as we see in south India, the north Indian Kartikeya became Murgan but the iconography remained the same,
in Penjikent also the people who adopted the Hindu gods and goddesses have them local names.

पहलेहमेंजन्म आधारित जाति में बांटा गया और विदेशियों ने बोला आर्य बाहर से आये और हम मान गए अरे बाहरसे क्या ? भारत का विस्तार तो पूरे एशिया और, जर्मनी और रूस
तक था |अबएक और नफरत की खाई बन रही कु छ लोग अपने को मूलनिवासी बोल रहे और अपनों को बाहरी या आर्य|

No religion teaches to destroy the pilgrimage of other religion and slaughter/convert people just to loot or win.

चाइनाके सस्तेहथियार, खाड़ीदेशों/हक्कानीनेटवर्क कापैसा, धार्मिकतलाक/दो-तीनशादीसेजनसंख्याविस्फोटऔरजिहादहैंतोइंसानियतरहमकीअपेक्षाकरनाबेकारहैं|


इनकोशांतिविकाससेकोईमतलबनहीं| धर्मके नामपरदेशके टुकड़े-टुकड़े (भारतपाकिस्तानअफगानिस्तान POK etc. Pakistan Afghanistan, Bangladesh,
POK, Sindh, Burma, Thailand, Indonesia, Malay Peninsula, Cambodia and Vietnam, Singapore
)करदिएफिरभीभूखनहींमिटी| येअपनेहीभाईबहनहैजोधर्मांतरणकाशिकारहोकरऐसेक्रू रहोगए|
हमपाकसेशक्तिशालीहैंलेकिनएकदिनअगरवोहमसेशक्तिशालीहोगयातोयहकलामजैसोकोसत्तानदेकरआदिलअहमदडार/साजिदभटजैसेभारतीयलोगोंकोहीयहकीसत्तादेदेगाऔरएकनयापा
किस्तानबनादेगा|636 ईमेंखलीफाउमरके द्वाराभारतपरपहलाजिहादकियागयाथाअरबोंके १६प्रयासअसफलरहेलेकिनमुहम्मदबिनकासिमनेकईयुद्धोंमेंअसफलहोनेके बाद१७वांप्रयास
711 ईमेंराजादाहिरकोमारा| गजनवीनेभारतकोलुटनेऔरइस्लामकोफै लानेके लिए 17 आक्रमणकिये| 17 वेआक्रमणमेंमुहम्मदगौरीनेछलसेपृथ्वीराजचौहानकोहरादिया| इसके बाद
2019 तकहजारोंबलात्कार, धर्मान्तरण, हमलेहुएऔरअंतिमहमलापुलवामामेंहुआ| अबभारतपृथ्वीराजजैसीगलतीनहींकरेगा|
पहलेसेनाकोहमलेसेबचानेके लियेउपयोगकियाजाताथाअबआतंकवादी/हमलावरकोखोजोऔरमारोहमलेकाइंतजारमतकरो|

खलीफाउमर, बिनकासिम, गजनवी, मुहम्मदगौरीआदिनेलगभग 16 बारपराजितहोनेके बादहीपृथ्वीराजऔरराजादाहिरआदिकोमारा| ऐसेहीक्यापाकिस्तान 16 बारहारनेके बाद .....
.......

अहिंसापरमोधर्मः धर्महिंसातथैवच:
पाकिस्तानीमंत्रीनेदी‘गजवा-ए-हिन्द’कीधमकीभारतकोन्यूक्लियरहमलेकीधमकीदेतेहुएकहाकि‘गजवा-ए-हिन्द’करदेंगे. इसके लिएहमके वल 20
करोड़पाकिस्तानीहीनहींहैंभारतसेभीखड़ेहोजायेंगेइस्लामके नामपरजिहादके लिए|

==========================================================
मांडू प्राचीनशहरहैऔरइसकाजिक्र 555 ईसवींके संस्कृ तअभिलेखोंमेंभीहै. इनअभिलेखोंसेपताचलताहैकिमांडू छठीशताब्दीकाखूबसूरतशहरहुआकरताथा.
दसवींऔरग्यारहवींशताब्दीमेंपरमारवंशके शासकोंनेइसपरअधिकारकियाऔरइसकानाममांडवगढ़रखा.

13 वींशताब्दीमेंपरमारोंनेअपनीराजधानीधारसेमांडू स्थानांतरितकरदीऔरइसशहरकामहत्वबढ़गया. 1305 मेंखिलजीवंशसेपराजितहोनेके बादपरमारोंकामांडू सेआधिपत्यसमाप्तहोगया.

अलाउद्दीन ख़िलजी के माण्डू पर आक्रमण के पश्चात यहाँ से हिन्दू राज्य सत्ता ने विदा ली। यह आक्रमण अलाउद्दीन के सेनापति आइरन-उलमुल्क ने किया था। इसने यहाँ पर
क़त्ले-आम भी करवाया था।
मुगलोंके साम्राज्यके पतनके बादमालवाके अफगानगवर्नरदिलावरखाननेमांडू कोस्वतंत्रराज्यके रूपमेंस्थापितकिया.

उन्होंनेमांडू कानामबदलकरसादियाबादयानीखुशियोंकानगररखा.
दिलावरखानगौरीके पुत्रहरशंगशाहनेमांडू काविकासकियाऔरइसेसंपन्नबनाया. सोलहवींशताब्दीमेंबाजबहादुरद्वाराबनायागयामहलयहांके प्रमुखदर्शनीयस्थलोंमें

 1401 ई. में माण्डू (मंडू ) दिल्ली के तुग़लकों के आधिपत्य से स्वतंत्र हो गया और मालवा के शासक दिलावर ख़ाँ ग़ोरी ने माण्डू के  पठान शासकों की वंश परम्परा
प्रारम्भ की। इन सुल्तानों ने माण्डू में जो सुन्दर भवन तथा प्रासाद बनवाए थे, उनके अवशेष माण्डू को आज भी आकर्षण का के न्द्र बनाए हुए हैं। दिलावर ख़ाँ का पुत्र
होशंगशाह 1405 ई. में अपनी राजधानी धार से उठाकर माण्डू में ले आया। माण्डू के क़िले का निर्माता भी यही था। इस राज्य वंश के वैभव-विलास की चरम सीमा 15 वीं
शती के अन्त में ग़यासुद्दीन के शासन काल में दिखाई पड़ी। ग़यासुद्दीन ने विलासता का वह दौर शुरू किया जिसकी चर्चा तत्कालीन भारत में चारों ओर थी। कहा जाता है कि
उसके हरम में 15 सहस्र सुन्दरियाँ थीं।
 1531 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने माण्डू पर हमला किया और 1534 ई. में हुमायूँ ने यहाँ पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

1554 ई. में माण्डू बाज़बहादुर के शासनाधीन हुआ। किन्तु 1570 ई. में अकबर के सेनापति आदमखाँ और आसफ़ख़ाँ ने बाज़बहादुर को परास्त कर माण्डू पर अधिकार कर
लिया। कहा जाता है कि बाज़बहादुर के इस युद्ध में मारे जाने पर उसकी प्रेयसी रूपमती ने विषपान करके अपने जीवन का अन्त कर लिया। माण्डू की लूट में आदमख़ाँ ने बहुत सी
धनराशि अपने अधिकार में कर ली, और उसने अकबर के कार्यवाहक वज़ीर को छु रा घोंप दिया। जिससे क्रु द्ध होकर अकबर ने आदमख़ाँ को आगरा के क़िले की दीवार से दो बार
नीचे फ़िकवाकर मरवा दिया। यह अकबर का कोका भाई (धात्री पुत्र) था।

यहयुगमांडू कास्वर्णकालकहाजाताहै. इसके बादकईमुगलशासकोंनेमांडू परराजकियाफिर 1732 मेंमराठोंनेइसपरअधिकारकरलिया.


बाजबहादुरऔररानीरूपमतीकीप्रेमकहानीकीवजहसेभीमांडू कीअलगपहचानहै.

बाजबहादुरसंगीतज्ञथेजबकिरानीरूपमतीगायिकाथीं. वहरूपमतीसेगायिकीसीखनाचाहतेथे.कहते हैं कि रानी रूपमती नर्मदा नदी को देखे बिना भोजन ग्रहण नहीं करती थीं, इसलिए
राजा बाज बहादुर ने रानी रूपमती की इच्छा का ध्यान रखते हुए रानी रूपमती किले का निर्माण करवाया़  रानी रूपमती के किले से नर्मदा नदी नजर आती है़

कहाजाताहैजबउन्होंनेरानीरूपमतीकोजंगलमेंस्नानकरतेदेखातोउनपरफिदाहोगये. उन्होंनेरूपमतीकोमांडू आनेकान्यौतादियालेकिनरूपमतीनर्मदानदीके दर्शनकरके हीगानागातीथीं.

इसलिएबाजबहादुरनेउनकाआश्रयऐसेस्थानपरबनायाजहांसेनर्मदानदीकोआसानीसेदेखाजासके

रूपमतीके सौन्दर्यकीचर्चादूर-दूरतकफै लचुकीथीऔरइसीचर्चासेप्रभावितहोकरअकबरनेमांडू परआक्रमणकरदिया. इसकीभनकलगतेहीरूपमतीनेजहरखाकरअपनीजानदेदी.


बादमेंबाजबहादुरअकबरके दरबारमेंसंगीतज्ञबनगये

उन्होंने हीरा निगल कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली़ जब रानी की मौत का समाचार अकबर को मिला तो उसे बहुत दुख हुआ़  वह पछतावे की अाग में जलने लगा़  उसने बाज
बहादुर को कै द से आजाद कर दिया़  बाज बहादुर ने कहा कि वह वापस अपनी राजधानी सारंगपुर जाना चाहते हैं.

सारंगपुर वापस आने पर बाज बहादुर ने रानी की मजार पर सिर पटक-पटक कर अपने प्राण त्याग दिये़ इस घटना के बाद अकबर को अपने किये पर काफी शर्मिंदगी हुई़   उसने
पश्चाताप करने के लिए सन 1568 में सारंगपुर के समीप एक मकबरे का निर्माण कराया़  बाज बहादुर के मकबरे पर अकबर ने ‘आशिक-ए-सादिक’ और रूपमती की समाधि पर
‘शहीद-ए-वफा’ लिखवाया़
किसी समय बुंदेलखंड के आल्हा-उदल अपने पिता की हत्या का बदला लेने मांडू के राजा कडांगा राय से लेने यहां आए, तब उन्होंने बबरी वन (बिजासन) में मिट्टी-पत्थर के
ओटले पर सज्जित इन सिद्धिदात्री नौ दैवीयों कोदैवीयों को अनुष्ठान कर प्रसन्न किया और मां का आशीर्वाद प्राप्त किया। तब से देवी को बिजासन माता के नाम से जाना जाता है।
मंदिर के पिछले उतार पर नाहर खोदरा नामक जलाशय है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहां शेर पानी पीने आता था और देवी मंदिर के नजदीक कु छ देर खड़े रहने के बाद
बिना किसी को सताए लौट जाता था।

“वतन की फ़िक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है


तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में
ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तांवालो
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में’

समस्या का एक ही समाधान अपने भारतीय भाइयों को अपने Indian origin धर्म मेंवापस लाओ जाति छु आछू त ख़त्म करो| धर्मवापसी के बाद ये लोग अपनी जडो को
पहचानेगे, स्वयं ही पाकिस्तान को ख़त्म करेंगे और मंदिर को तोड़कर बनायेधर्मस्थल को भी वापस करेंगे लेकिन इस काम में धर्म और जाति के ठेके दार रुचि नहीं लेंगे |

अलकायदा सरगना जवाहिरी ने अपने भाषण में जिहादी रास्ता छोड़ने वालो की आलोचनाकी, जो ये कहते हैं कि 9/11 जैसे हमले नहीं होना चाहिए, क्योंकि इनमें आमलोग मारे
जाते हैं।मुस्लिमों से कहा- अमेरिका, यूरोप, रूस और इजराइल को तबाह कर दोऔर इनकी सेना को धीरे-धीरे खत्म करते रहें। इसके बाद पाकिस्तान की मदद से भारत चीन से तो
कभी भी निपट लेंगे|

Malasiya: - Malasiya few years ago passed one law which says “No Muslim can accept any other religion than
Islam, butnon-Muslims are welcome in Islam”. This is because many Muslims are started to following Hinduism
and Malasiyan government is frightened by this. Internationally Malaysia government facing strong criticism for
this.

आज तुम्हारे पास मान्धाता का वो भूभाग नही रहा जहां कभी सूर्य अस्त नही होता था ।गांधारी का गांधार नहीं रहा, लव कु श का लाहौर नहीं रहा ।सिंध, ननकाना साहिब, हिंगलाज
आज नही है ढाके श्वरी भी नहीं हैंतक्षशिला, नालंदा, विक्रम, भोजशाला भी नहीं रहा| बुद्ध की मूर्तियों को तोप से उड़ा दिया, पाक तो पाक जब काश्मीर में हजारों मन्दिर तोड़ दिए
तो क्या हुआ ?

Both the Congress and the Muslim League had rejected the proposal for an exchange of population and had
insisted on Muslims and non-Muslims staying back in their homes. Jinnah remained sullen for a few days and then
accused India of seeking to undermine Pakistan.

इस्लाम-

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https://www.facebook.com/islamparcharcha/

http://mohammadalvi.blogspot.com/2015/03/blog-post.html

http://navsancharsamachar.com/ घर-वापसी-पर-विवाद-क्यों-इस/
इस्लाम से पहले मूर्ति पूजा होती थी काबा में

वैदिक संस्कृ ति कहती थी कि-”समानो अध्वा प्रवता मनुष्यो”-अर्थात संसार मेंविचरने वाले सब प्राणियों को समान अधिकार हैं और विदेशी आक्रांताओं कासंप्रदाय (इस्लाम)
कहता था कि काफिरों को कत्ल करो और उनके बीवी, बच्चों, धनमाल इत्यादि पर कब्जा करो। क्योंकि खुदा ने तुम्हें इस धरती पर इसी कामके लिए भेजा है।

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भोलेनाथ ने रावण की तपस्या से खुश होकर लड़ाई जीतने का आशीर्वाद देते हुएये शिवलिंग दिया और कहा कि इसे जहां भी तुम धरती पर रखोगे ये वहीं सदा-सदाके लिए स्थापित
हो जाएगा। जब रावण आसमान के रास्ते अपने महल लंका की ओर जारहा था तो रास्ते में उसे अचानक पेशाब आई जिसके चलते उसे वह शिवलिंग किसीको पकड़वाना पड़ा।
जिसे  वह शिवलिंग पकड़ने के लिए दिया वो देवताओं के हीपक्ष का था क्योंकि ये  शिवलिंग यदि लंका में स्थापित हो जाता तो देवतारावण से कभी विजयी नहीं होते। इसलिए ये
शिवलिंग रावण से लेकर उसी स्थान पररखना पड़ा और ये शिवलिंग हमेशा के लिए यहां स्थापित हो गया। ये जगह और कोईनहीं मक्का ही थी। शिव की संगिनी गंगा भी यहां मौजूद
है- भगवान शिव और गंगाका साथ एक रहा है। जहां शिव होंगे वहां पावन गंगा और चंद्रमा अवश्य मौजूदहोंगे। ठीक इसी तरह काबा में एक झील भी बहती है। जिसके पानी को यहां के
लोगबहुत ही पाक मानते हैं। जिसे ये अबे जम-जम कहते हैं, जिसका अर्थ पाक होताहै।’’
विक्रमादितय का शासनकाल और क्षेत्र अरब देशों तक फ़ै ला था, तब क्या मक्काजैसी पवित्र जगह पर उन्होंने शिव का पुरातन मन्दिर स्थापित नहीं कियाहोगा? जैसे-जैसे
इस्लामीश्रद्धालु काबा की ओर बढ़ता है, उस भक्त को अपना सिर मुंडाने और दाढ़ी साफ़कराने को कहा जाता है। इसके बाद वह सिर्फ़ “बिना सिले हुए दो सफ़े द कपड़े”लपेट कर ही
आगे बढ़ सकता है। जिसमें से एक कमर पर लपेटा जाता है व दूसराकं धे पर रखा जाता है। यह दोनों ही संस्कार प्राचीन काल से हिन्दूमन्दिरों को स्वच्छ और पवित्र रखने हेतु
वैदिक अभ्यास के तरीके हैं, यहमुस्लिम परम्परा में कब से आये, जबकि मुस्लिम परम्परा में दाढ़ी साफ़ करने कोतो गैर-इस्लाम- क बताया गया है
1. काबा के एक शिलालेख में महादेव और राजा विक्रामादित्य का उल्लेख
2. पैगम्बर मौहम्मद के एक चाचा जो उन्हें नबी नहीं मानते थे ने एक कविता ‘सैर-उल-ओकु ल’’ में भारत को पृथ्वी पर सबसे पवित्र स्थान क्हा है। यह कविताइस्तांबुल की एक
इस्लामिक लाईब्रेरी में मौजूद है।
3. काबे कीतीर्थयात्रा अरबों में पैगम्बर मौहम्मद के जन्म से पहले से होती थी। औरहालांकि उन्होंने इस प्रथा को बदल कर मक्का से येरूश्लम की ओर इबादत कामरकज कर दिया
लेकिन फिर इसे बदल कर काबे की ओर इबादत शुरू की और के वलमूर्तिपूजा को छोड़ कर हिन्दू और हिन्दुओं जैसे बुतपरस्तों की प्रथाओं कोजारी रखा। यहां तक कि हज पर तुम
जो कपड़े पहनते हो वे भी हिन्दु ऋषियोंद्वारा पहने जा रहे कपड़ों के समान होते हैं।
4. किन अकली दलीलों कीबुनियाद पर आप कहते हैं कि कु रान जो आज हम जानते हैं वह वही है जो अल्लाहने जिबरील के माध्यम से पैगम्बर मौहम्मद को बताया था? आप जानते
हैं कि कईकु रान प्रचलित थे जिन्हें खलीफा उस्मान ने जलवा दिया और के वल एक ही कु रानरहने दिया जिस के कारण आएशा गुस्सा हो गईं और आखिरकार उस्मान को इसी
कारणमारा गया। इस वजह से हमें पता नहीं है कि असली कु रान कौन सा था।’’

मक्काशहर से कु छ मील दूर एक साइनबोर्ड पर स्पष्ट उल्लेख है कि “इस इलाके मेंगैर-मुस्लिमों का आना प्रतिबन्धित है…”। यह काबा के उन दिनों की याद ताज़ाकरता है, जब नये-
नये आये इस्लाम ने इस इलाके पर अपना कब्जा कर लिया था। इसइलाके में गैर-मुस्लिमों का प्रवेश इसीलिये प्रतिबन्धित किया गया है, ताकिइस कब्जे के निशानों को छिपाया जा
सके ।”

ये हुक्म कु रआन में दिया गया कि गैर-मुस्लिमों को काबे से दुर कर दो….उन्हे मस्जिदे-हराम के पास भी नही आने देना
ये सारे प्रमाण ये बताने के लिए हैं कि क्यों मुस्लिम इतना डरे रहते हैं

पीएन ओक ने एक किताब लिखकर समझाया है कि मक्का और उस इलाके में इस्लाम के आने से पहले से मूर्ति पूजा होती थी. हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर थे. गहनरिसर्च के बाद
उन्होंने यह भी दावा किया कि काबा में भगवान शिव काज्योतिर्लिंग है. पैगंबर मोहम्मद ने हमला कर मक्का की मूर्तियां तोड़ी थीं.

हज करने वाले लोग काबा के पूर्वी कोने पर जड़े हुए एक काले पत्थर के दर्शनको पवित्र मानते हैं. इस पत्थर के बारे में ही कहा जाता है कि यह शिवलिंगथा. जो इस्लाम के वहां आने
से पुराना है. हालांकि, मुस्लिम मानते हैं कि इसपत्थर को आदम और ईव के साथ जन्नत से भेजा गया था. इस पत्थर के आसपास अबचांदी की फ्रे मिंग कर दी गई है. वैसे ही जैसे
कई शिवलिंग के आसपास जलाधरीकी होती है.कहा जाता है कि यहां भगवान मक्के श्वर महादेव का मंदिर हुआ करता था

इस्लाम से पहले मिडिल-ईस्ट में पीगन जनजाति रहती थी. वह हिंदू रीति-रिवाजको ही मानती थी. मूर्ति पूजा उसमें से एक थी. पैगंबर मोहम्मद का मक्का मेंइन्हीं लोगों से विवाद
हुआ और वे मदीना चले गए. फिर वहां से ताकतवर होकरलौटे और मक्का में इस्लाम कायम किया. और मूर्ति पूजा बंद करा दी.

हिंदू पूजा के दौरान बिना सिला हुआ वस्त्र या धोती पहनते हैं, उसी तरह हजके दौरान भी बिना सिला हुआ सफे द सूती कपड़ा ही पहना जाता है. यह परंपराइस्लाम के आने से
पहले से जारी है.

काबा मतलब किबला होता है जिसका मतलब है- वह दिशा जिधर मुखातिब होकर मुसलमान नमाज़ पढने के लिए खडे होते है, वह काबा की पूजा नही करते.

हज़रत मुहम्मद सल्ल. के ज़माने में लोग काबे पर खड़े हो कर लोगों को नमाज़ के लिए बुलाने वास्ते अजान देते थे.उनसे जो ये इल्जाम लगाते हैं कि मुस्लिम काबा कि पूजा करते है,
से एक सवाल है कि कौन मूर्तिपूजक होगा जो अपनी आराध्य मूर्ति के ऊपर खडे हो उसकी पूजा करेगा. जवाब दीजिये?

हदीस में एक जगह लिखा है कि "हज़रत उमर (र.अ.) यह फ़रमाते हैं कि मैं इसे चूमता हूँ, क्यूंकि इसे हमारे प्यारे नबी (स.अ.व.) ने चूमा था, वरना यह सिर्फ एक पत्थर ही है
इसके सिवा कु छ नहीं, यह मेरा ना लाभ कर सकता है, ना ही नुकसान."

सबसे पहली बात जो इसमें ध्यान देने योग्य है, वो ये कि इस पत्थर का कोई भी ज़िक्र कु रान में नहीं आया है. ये सबसे अहम्हिस्सा है, जिस पर सबसे पहले गौर करना चाहिए.
इसका ज़िक्र कु रान में न होनाइस बात की तरफ़ इशारा करता है कि इस पत्थर को पूज्य या तो पैगंबर के इसदुनिया से जाने के कु छ ही दिनों पहले के दिनों में बनाया गया या फिर
जानेके बाद. इसका ज़िक्र कु रान में न होकर सिर्फ हदीसों में मिलता है. और हदीसेंबस कही-कहाई बातें हैं, जिनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है. इसी वजह सेहदीसों में क्या
सच है, क्या झूठ कोई बिलकु ल दावे से नहीं बता सकता है.काबा में और आज के काबा में बहुत अंतर है.पहले काबा आयताकार था, जबकि आजकल क्यूब के आकार का है. कहा
जाता है कि उससमय काबा की दीवारें आज के मुकाबले इतनी छोटी होती थीं कि एक बकरी भी छलांगमारकर उसे पार कर सकती थी.काबा बिना किसी छत के , पत्थरों की
चारदीवारों से बना हुआ था. जो कि एक दूसरे के ऊपर फं साकर रखे गए थे. छत की जगहइसे बड़े से कपड़े से ढका जाता था. जैसा कि आज भी है मगर आजकल छत है.
इसमेंभीतर प्रवेश करने के लिए दो छोटे दरवाज़े थे.भीतर प्रवेश करने पर अंदर देवताओं और देवियोंकी मूर्तियां थीं. जिनमें प्रमुख थे अरब देवता हबल, सीरियन चंद्र देवीअल-
उज्ज़ा, मिस्र की देवी ईसिस जिसे ग्रीस के लोग  Aphrodite के नाम सेजानते थे. नबाती देवी कु त्बा के साथ-साथ ईसाईयों के ईसा और मरियम कीमूर्तियां भी भीतर थीं.बाहर
की तरफ से काबा तीन सौ साठ देवी-देवताओंकी मूर्तियों से घिरा हुआ था. वो अरब के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवताथे. हर अरबी कबीले और कु ल का अपना अलग देवता या देवी
होती थी. काबा के आसपास अरबियों ने लगभग हर उस देवी देवता को जगह दे रखी थी, जो किसी कु ल याकबीले के लिए पूजनीय था.
Before Muhammad the Arabs had 365 gods - one for each day of the year. Muhammad picked Allah (the Arab
moon god).

They claim the founder of Islam is a prophet named Muhammad...however Muhammad himself says he is not a
prophet and has never personally heard from God...in fact Muhammad who heard voices thought himself it was
from evil spirits....his wife encouraged him to change his mind and claim God had spoken to him...

Muhammad was a pedophile, having sexual relations with a 6 year old and 9 year old girl.

Muhammad performed no miracles, spoke no prophecies, and died like all mortal men.

Islam claims the Prophet Muhammad was foretold in the Torah and Bible
The coming of Prophet Muhammad had been foretold in the Torah. God had said to Moses: "I will raise them up a
Prophet from among their brethren, like unto thee, and I will put My words in his mouth; and he shall speak to them
all that I shall command him" Deuteronomy 18:18

This was fulfilled in John 1:45, "We have found him, of whom Moses in the law, and the prophets, did write, Jesus
of Nazareth, the son of Joseph." Nope..not Muhammad! It was Jesus of Nazareth!

अगर हजरत जीसस कोई पैगम्बर थे और उनकी बाइबिल बदल दिया गया है और आखरी पैगम्बर मोहम्मद है ?तोये बताये की अल्लाह परमेश्वर का नाम बाइबिल में क्यों नहीं है ?
बाइबिल का ईश्वर यहुवा क्यों है ? चलो मान ले बाइबिल ही बदल दिया गया।

आज जो भी क़ु रान है वो नबी मोहम्मद के मरने के ३०० साल बाद फिर से लिखी गयी वाली है। आज की कु रआन पूरी की पूरी मिलावट है -बिलकु ल भी नबी मोहम्मद के समय की
नहीं है।

बाइबिल नहीं बदला गया है बल्कि क़ु रान में सारे पात्र बाइबिल से चुराई गयीहै और नई कहानी लिखी गयी है सच्चाई यही है की क़ु रान बदल दिया गया है , क्योकिक़ु रान की कई
अध्याय युद्ध में खो गयी थी जैसे सूरा रमजान , और बची हुई कु छ बकरी खा गयी थी और उसके बाद भी जो बचा उसको जला दिया गयाथा।

मोहम्मद साहब एक नास्तिक थे , उसने सिर्फ क़ु रान का दुरूपयोग किया , ईश्वर पर उनका कोई विस्वास नहीं था।

क़ु रान में दोगलापन किया गया है , क़ु रान की अच्छी शिक्षा ‘innocent’ को मत मारो , आगे अल्लाह ये भी कहते है की innocent तो वो है , जो ईमान वाले है ?

दूसरा सबसे बड़ा दोग़लापन सूरा अल -मायदा आयत ३२ “की बेवजह हत्या न करो , तुमने एक बेगुनाह को मारा तो समझो सारे इंसानियत को मार दिया और एक बेगुनाहबचा
लिया तो समझो सारे इंसानियत को बचा लिया। इसमें दोगलापन ये ये पूरीआयत नहीं है ? “इससे पहले इसी आयत में ये है की ‘अल्लाह इज्यायल की संतानोसे कहता है कीकिसी
का खून का बदला लेने या धरती पर फसाद/बिगाड़ /mischief फै लाने के अलावा अगर किसी ओर कारण से तुम किसी बेगुनाह की हत्या किये …… …. ….. etc etc.

आज isis जो भी कर रहा , उसके सारे कु कर्मो क़ु रान ,हदीस और मोहम्मद साहब की जीवनी से बिलकु ल १००% मिलती है।

इस्लामिक हदीस और क़ु रान से पता चलता है की मोहम्मद साहब और उनके सहाबीलूटेरों का एक गिरोह था , जिसमे सहाबियों को लूट में मिले धन और बलात्कारकरने के लिए
छोटी बच्ची , लौंडिया या औरतें मिलती थी। और बाद में लोंडियोको दासी बना के खरीद बिक्री करते था। जैसे क़ु रान में भी कई जगह बताया गयाहै कीदासी से जबरदस्ती हमबिस्तरी
कर सकते हो, यहाँ तक की पत्नी सेभी जबरदस्ती करने की शिक्षा क़ु रान देता है और अगर हमबिस्तरी करने से मनाकरे तो तुम उसको पिट/मार भी सकते फिर भी न माने तो एक
कमरे में बंद कर दो , जबतक की वो मर न जाए ? क़ु रान में अल्लाह ये भी शिक्षा देता कीलूट के बाद जो भी हाथ लगे (औरत ,बच्ची ,लौंडिया) वो अल्लाह के द्वारा दिया हुआ
तोहफा है।

क़ु रान के अनुसारहर वो इंसान अल्लाह का दुश्मन है जो अल्लाह , उसके रसूल ,जिब्राइल ,मिकाइल को नहीं मानता , और अपने दुश्मनो से लड़ते रहो जबतककी सारी दुनियां में
इस्लाम न फ़ै ल जाए।अगर ऐसे चला तो इस्लाम या तो सबको मिटा देगा या खुद मिट जाएगा ?

दुनियां का सबसे बड़ा सत्य है। जिनते तेज़ी से धोखे से इस्लाम कबूलवाया जा रहा ? उससे ६ गुना तेज़ी से लोग इस्लाम को छोड़ भी रहे है।

मुहम्मद सहब के समय अरब में कागज नहीं था कु रान को हड्डियों चमड़ो पर लिखा कु छ तो बकरी खा गयी इसको खलीफाओ ने अपने हिसाब से लिखा|
इस्लामका सबसे महत्वपूर्ण मिशन पूरे विश्व को दारुल इस्लाम बनाना है। कु रान, हदीस, हिदाया, सीरतुन्नबी इस्लाम के बुनयादी ग्रन्थ है.इन सभी ग्रंथों मेंमुसलमानों को दूसरे धर्म
वालो के साथ क्रू रतम बर्ताव करके उनके सामनेसिर्फ़ इस्लाम स्वीकार करना अथवा म्रत्यु दो ही विचार रखने होते है। इस्लाममें लूट प्रसाद के रूप में वितरण की जाती है...
मानव एकता और भाईचारे के विपरीत कु रान का मूल तत्व और लक्ष्य इस्लामी एकता व इस्लामी भाईचारा है.गैर मुसलमानों के साथ मित्रता रखना कु रान में मना है. कु रान
मुसलमानों कोदूसरे धर्मो के विरूद्ध शत्रुता रखने का निर्देश देती है । कु रान के अनुसारजब कभी जिहाद हो ,तब गैर मुस्लिमों को देखते ही मार डालना चाहिए।
कु रान में मुसलमानों कोके वल मुसलमानों से मित्रता करने का आदेश है। सुरा ३ की आयत ११८ में लिखा हैकि, "अपने (मजहब) के लोगो के अतिरिक्त किन्ही भी लोगो से मित्रता
मत करो। "
लगभग यही बात सुरा ३ कि आयत २७ में भी कही गई है, "इमां वाले मुसलमानों को छोड़कर किसी भी काफिर से मित्रता न करे। "
सन १९८४ में हिंदू महासभाके दो कार्यकर्ताओं ने कु रान की २४ आयातों का एक पत्रक छपवाया । उस पत्रकको छपवाने पर उनको गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु तुंरत ही कोर्ट ने
उनकोरिहा कर दिया। कोर्ट ने फ़ै सला दिया,"कु रान मजीद का आदर करते हुए इन आयतोंके सूक्ष्म अध्यन से पता चलता है की ये आयते मुसलमानों को गैर मुसलमानों के प्रति
द्वेषभावना भड़काती है............."उन्ही आयतों में से कु छ आयतेंनिम्न है.....

सुरा ९ आयत ५ में लिखाहै,......."फ़िर जब पवित्र महीने बीत जायें तो मुशरिकों (मूर्ती पूजक) कोजहाँ कहीं पाओ कत्ल करो और उन्हें pakdo व घेरो और हर घाट की जगह
उनकी ताकमें बैठो। यदि वे तोबा करले ,नमाज कायम करे,और जकात दे तो उनका रास्ता छोड़दो। निसंदेह अल्लाह बड़ा छमाशील और दया करने वाला है। "

सुरा ९ की आयत २३ में लिखाहै कि, "हे इमां वालो अपने पिता व भाइयों को अपना मित्र न बनाओ ,यदि वेइमां कि अपेक्षा कु फ्र को पसंद करें ,और तुमसे जो मित्रता का नाता
जोडेगातो ऐसे ही लोग जालिम होंगे। "
इस आयत में नव प्रवेशीमुसलमानों को साफ आदेश है कि,जब कोई व्यक्ति मुस्लमान बने तो वह अपने माता , पिता, भाई सभी से सम्बन्ध समाप्त कर ले।

सुरा ४ की आयत  ..........."जिन लोगो ने हमारी आयतों से इंकार किया उन्हें हम अग्नि मेंझोंक देगे। जब उनकी खाले पक जाएँगी ,तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगेताकि वे
यातना का रसा-स्वादन कर लें। निसंदेह अल्लाह ने प्रभुत्वशाली तत्वदर्शाया है।"

सुरा ३२ की आयत २२ मेंलिखा है "और उनसे बढकर जालिम कोन होगा जिसे उसके रब की आयतों के द्वाराचेताया जाए और फ़िर भी वह उनसे मुँह फे र ले।निश्चय ही ऐसे
अप्राधिओं से हमेबदला लेना है। "

सुरा ९ ,आयत १२३ में लिखा है की," हे इमां वालों ,उन काफिरों से लड़ो जो तुम्हारे आस पास है,और चाहिए कि वो तुममे शक्ति पायें।"

सुरा २ कि आयत १९३ ............"उनके विरूद्ध जब तक लड़ते रहो, जब तक मूर्ती पूजा समाप्त न होजाए और अल्लाह का मजहब(इस्लाम) सब पर हावी न हो जाए. "

सूरा २६ आयत ९४ ..................."तो वे गुमराह (बुत व बुतपरस्त) औन्धे मुँह दोजख (नरक) की आग में डाल दिए जायंगे."

सूरा ९ ,आयत २८ ......................."हे इमां वालों (मुसलमानों) मुशरिक (मूर्ती पूजक) नापाक है। "
गैर मुसलमानों को समाप्तकरने के बाद उनकी संपत्ति ,उनकी औरतों ,उनके बच्चों का क्या किया जाए ? उसके बारे में कु रान ,मुसलमानों को उसे अल्लाह का उपहार समझ कर
उसका भोगकरना चाहिए।
सूरा ४८ ,आयत २०में कहा गया है ,....."यह लूट अल्लाह ने दी है। "
सूरा ८, आयत ६९..........."उन अच्छी चीजो का जिन्हें तुमने युद्ध करके प्राप्त किया है,पूरा भोग करो। "
सूरा १४ ,आयत १३ ............"हम मूर्ती पूजकों को नष्ट कर देंगे और तुम्हे उनके मकानों और जमीनों पर रहने देंगे।"

सूरा ४ ,आयत२४.............."विवाहित औरतों के साथ विवाह हराम है , परन्तु युद्ध मेंमाले-गनीमत के रूप में प्राप्त की गई औरतें तो तुम्हारी गुलाम है ,उनके
साथविवाह(बलात्कार) करना जायज है। "

'फिर, जब पवित्र महीने (रमजान का महीना) बीत जाऐं, तो 'मुश्रिको' (मूर्तिपूजको ) को जहाँ-कहीं पाओ कत्ल करो, और पकड़ो और उन्हें घेरो और हरघातकी जगह उनकी ताक
में बैठो। यदी वे नमाज कायम कर ले (इस्लाम कबुल कर ले )और जकात (दान) दे दे तो उन्हे छोड दो. ( कु रान मजीद, पा० १०, सूरा. ९, आयत५,२ख पृ. ३६८) (कु रान
9:5) . quran.com/9/5

जज़िया ( Jizya or Jizyah )और धार्मिक यात्रा कर एक प्रकार काधार्मिक करहै। इसे मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर मुस्लिम जनता से बसूल किया जाताहै। क्योंकि
इस्लामिक राज्य में सिर्फ मुस्लिमों को ही रहने की इजाजत थीयदि इस धर्म के सिवाय कोई और रहेगा तो उसे धार्मिक कर देना होगा। इसे देनेके बाद गैर मुस्लिम लोग इस्लामिक
राज्य में अपने धर्म का पालन कर सकते थे।
ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों ने ही गैर मुस्लिमों से इस प्रकार का धार्मिक कर बसूला। गहड़वालों ने भी अपने राज्य मेंतुरुष्कदण्डनामक एक कर लगाया। जोकि उनके राज्य में रहने वाले
मुस्लिमों पर लगाया गया था।

भारत में इसका प्रथम साक्ष्यमुहम्मद बिन कासिमके आक्रमण के बाद देखने को मिलता है।सर्वप्रथम मुहम्मद बिन कासिम ने ही भारत में सिंध प्रांत के देवल मेंजजिया कर लगाया।
इसके बाद जजिया कर लगाने वाला दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तानफिरोज तुगलकथा। इसने जजिया को खराज (भूराजस्व) से निकालकर पृथक कर के रूप में बसूला।इससे पूर्व
ब्राह्मणों को इस कर से मुक्त रखा गया था। यह पहला सुल्तान थाजिसनेब्राह्मणों पर भीजजिया कर लगा दिया। फिरोज तुगलकके ऐसा करने के विरोध में दिल्ली के ब्राह्मणों ने भूख
हड़ताल कर दी। फिर भीफिरोज तुगलक तुगलक ने इसे समाप्त करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अंत मेंदिल्ली की जनता ने ब्राह्मणों के बदले स्वयं जजिया देने का
निर्णयलिया। इसके बाद लोदी वंश के शासकसिकं दर लोदीने जज़िया कर लगाया।

इसे भी पढ़ें...  विदेशी आक्रमण और विदेशी शासक व आक्रमणकारी

सल्तनत के बाहर के राज्यों में भी जजिया का प्रचलन हो गया था। कश्मीर में सर्वप्रथम जजिया करसिकं दरशाहद्वारा लगाया गया। यह एक धर्मांध शासक था और चार किये। इसके
बाद इसका पुत्रजैनुल आबदीन (1420-70 ई o) शासक बना और पिता द्वारा लगाए गए जजिया को समाप्त कर दिया।जजिया कर को समाप्त करने वाला यह पहला शासक
था। यह अत्यंत उदार शासक था।इसकी उदारता के लिए ही इसे कश्मीर का अकबर कहा गया। गुजरात में जजियासर्वप्रथमअहमदशाह (1411-42 ई o) के समय लगाया गया।

शेरशाहके समय जजिया को नगर-कर की संज्ञा दी गयी। जजिया कर को समाप्त करने वाला पहला मुग़ल शासक अकबर था।अकबरने 1564 ई o में जज़िया कर समाप्त किया,
1575 ई o में पुनः लगा दिया। इसके बाद 1579-80 ई o में पुनः समाप्त कर दिया।औरंगजेबने 1679 ई o में जजिया कर लगाया। 1712 ई o मेंजहाँदारशाहने अपने वजीर
जुल्फिकार खां व असद खां के कहने पर विधिवत रूप से समाप्त कर दिया। इसके बादफर्रू खशियरने 1713 ई o में जज़िया कर को हटा दिया और 1717 ई o में इसने जजिया
पुनः लगा दिया। अंत में 1720 ई o मेंमुहम्मद रंगीलाने जयसिंह के अनुरोध पर जजिया कर को सदा के लिए समाप्त कर दिया।

संतों के समक्ष हार चला था असहिष्णु इस्लाम

https://www.pravakta.com/saints-had-lost-to-the-intolerant-islam/

दीर्घकालतक इस्लाम की आंधी से हिन्दुस्थान ने टक्करली है। इस प्रक्रिया में जहां एक ओर हिंदू समाज को मर्मांतक पीड़ा मिली औरउसका सामाजिक एवं आर्थिक जीवन बुरी तरह
से अस्त-व्यस्त हो गया वहीं इस्लामको भी हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने अपने रंग में गहरे रंग देने में कोईकसर बाकी नहीं रखी। भक्ति आंदोलन को अगर इस रूप में देखें तो उस
कालखण्डमें एक बार ऐसा लगने लगा था कि इस्लाम का असहिष्णु जीवन प्रवाह भक्ति कीमहान सुरसरिता में समाहित हो जाएगा।

संतों के निर्मल और साधनापूर्ण जीवन ने देश में हमेशा सभी को प्रभावितकिया। उनके चिंतन, आदर्श व्यवहार, सेवाभाव, त्यागमय जीवन और भगवद्भक्ति नेएक ओर जहां हिंदुओं में
कोई भेदभाव नहीं माना वहीं इस्लाम को मानने वाले भीइसके आकर्षण में खिंचे चले आए। इन संतों के सत्संग, भजन, कीर्तन, प्रवचनआदि कार्यक्रमों में ऐसी रसधारा बहती थी कि
जो इसके निकट आया वही उस मेंसराबोर हो गया। भक्ति को कभी कोई भेदभाव स्वीकार नहीं था। इसी के प्रभावमें आकर बहुत से मुसलमान भी हिंदू संतों के शिष्य बन गए और
संतों के समानही जीवन जीने लगे। मध्यकाल में हम देखें तो पाएंगे कि ऐसे हजारों मुस्लिमसंत थे जिन्होंने हिंदुत्व के अमर तत्व को अपने इस्लाम मतावलंबियों के बीचबांटना शुरू
कर दिया था। यहां हम कबीर, संत रज्जब, संत रोहल साहेब और संतशालबेग के अतिरिक्त ऐसे संतों की चर्चा करेंगे जिन्होंने भारतीय इस्लाम कोएक नवीन चेहरा दिया। इस्लाम के
परंपरागत असहिष्णु चेहरे से कहीं अलग भक्तिके मधुर रस से आप्लावित और सभी को आनंद देने वाला यह चेहरा था।

सोलहवीं सदी में रसखान दिल्ली के समृद्ध पठान परिवार से ताल्लुक रखतेथे। लेकिन उनका सारा जीवन ही कृ ष्ण भक्ति का पर्याय बन गया। लोकपरंपरा मेंकथा आती है कि एक बार वे
गोवर्धनजी में श्रीनाथ जी के दर्शन को गए तोद्वारपार ने उन्हें मुस्लिम जानकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया। भक्तरसखान तीन दिनों तक बिना कु छ खाए-पिए मंदिर के पास पड़े रहे
और कृ ष्ण भक्तिके पद गाते रहे। बाद में लोगों को पता चला कि ये तो कृ ष्ण को अनन्य भक्तहैं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जो को रसखान की कृ ष्णभक्ति के बारे में पता चला तोउन्होंने उन्हें
बाकायदा गोविन्द कु ण्ड में स्नान कराकर दीक्षा दी। रसखानने भी अपना अगला जन्म भी प्रभु के श्रीचरणों में ही पाने की प्रार्थना गाई।

मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकु ल गांव के ग्वारन।


जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कू ल कदंब की डारन।।

मथुरा में यमुनातट पर रमणरेती मेंनिर्मित इस महान कृ ष्ण भक्त की समाधि आज भी करोड़ों कृ ष्ण भक्तों के ह्दयोंको लुभाती और आनन्दमय प्रवाह से भर देती है।

ऐसे ही थे बाबा फरीद। पंजाब के कोठिवाल नामकग्राम के रहने वाले। भक्त फरीद भक्ति में तल्लीन अपनी प्रार्थना में कहतेहैं- हे काग अर्थात कौवे, तू मेरा सारा शरीर चुन-चुन कर खा
लेना किं तु मेरीदो आंखें मत खाना क्योंकि मुझे ईश्वर के दर्शन करने हैं- कागा सब तनखाइयो, मेरा चुन-चुन मांस। दो नैना मत खाइयो, मोहि पिया मिलन की आस।।

राजस्थान के अलवर में सोलहवीं सदी में पैदा हुए संत लालदास भी मुसलमानथे। उनका जन्म मेव मुस्लिम जाति में हुआ था। लकड़हारे के रूप में उनकाप्रारंभिक जीवन व्यतीत
हुआ। और इसी जीवन के कारण वे साधुओं की संगत में आगए, मुसलमान से भक्त लालदास होगए। ऊं च-नीच और हिंदू-मुस्लिम के भेद को तोउन्होंने अपने जीवन में जाना तक
नहीं। कब उन्होंने मांस खाना छोड़ा और नमाजभुला दी, ये भी उन्हें पता न चला। गांव-गांव हरि का सुमिरन करने का उपदेशकरने लगे। हिरदै हरि की चाकरी पर, घर कबहुं न जाए।
ऐसे पद गाते हुएउन्होंने लालपंथ की नींव रखी और भरतपुर क्षेत्र के नगला ग्राम में उनकीसमाधि आज भी लालदासी पंथियों की प्रमुख दर्शन स्थली है।

भक्ति आंदोलन और मुस्लिम राजवंश

हिंदू भक्ति आंदोलन ने सामान्य मुस्लिमों से लेकर मुस्लिम सम्राटों तकके परिजनों को हिलाकर रख दिया। रहीम, अमीर खुसरो और दारा शिकोह इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और के वल
पुरूष ही नहीं मुस्लिम शहजादियां भी भक्तिके रंग में रंग गईं। इसी कड़ी में औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसां बेगम तथाभतीजी ताज बेगम का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।

इनमें ताज़बीबी के कृ ष्णभक्ति के पदों ने तो पूरी मुस्लिम सियासत में हीहलचल मचा दी। ताज़ दोनों हाथ ऊं चे कर भावविभोर होकर जिस तरह से कृ ष्णभक्तिके पद गाती थी, उसकी
तुलना मीरा के साथ सहज ही की जा सकती है। ताज़बीबी काएक प्रसिद्ध पद है-

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला


बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कु ण्डल मन मोहै, लाल मुकु ट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कं स को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृ ष्ण साहेब हमारा है।।
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कु रान साड़े गुननि गहूंगी मैं।।
नन्द के कु मार, कु रबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं।।

तो कृ ष्णभक्ति में विह्वल ताज़ मुगल सल्तनत से जुड़ी होने के बावजू़दहिंदुवानी रौ में बहने की प्रतिज्ञा करती है। ताज़ ने बाद में गोस्वामीविट्ठलनाथ से विधिवत् वैष्णव मत की दीक्षा
ली।

ऐसे ही थे भक्त कारे बेग जिनका पुत्र मरणासन्न हो गया तो उसे मंदिर की देहरी पर लिटाकर वह आंसू बहाते हुए कृ ष्ण से कहने लगे-

एहौं रन धीर बलभद्र जी के वीर अब।


हरौं मेरी पीर क्या, हमारी बेर-बार की।।
हिंदुन के नाथ हो तो हमारा कु छ दावा नहीं,
जगत के नाथ हो तो मेरी सुध लिजिए।

काशी में जन्मे थे कबीर से कमाल। कमालसाहेब का अड़ोस-पड़ोस और सगे-संबंधी मुसलमान थे लेकिन कबीर साहेब के कारणउन्हें घर में बचपन से अलग माहौल मिला था। बचपन
में ही भक्ति की धार उनमेंप्रबल हो गई और राम के प्रति वे अति आसक्त हो गए। गाने लगे-

राम नाम भज निस दिन बंदे और मरम पाखण्डा,


बाहिर के पट दे मेरे प्यारे, पिंड देख बह्माण्डा ।
अजर-अमर अविनाशी साहिब, नर देही क्यों आया।
इतनी समझ-बूझ नहीं मूरख, आय-जाय सो माया।

मराठवाड़ा क्षेत्र में जन्में कृ ष्णभक्त शाही अली कादर साहेब ने तो गजबभक्तिपूर्ण रचनाएं की हैं। उन्हीं की सुप्रसिद्ध पदावली है- चल मन जमुना के तीर, बाजत मुरली री मुरली री।।

दाराशिकोह का नाम भला किसने नहीं सुना। मुगलिया सल्तनत के उत्तराधिकारसंघर्ष में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा। वे शाहजहां के ज्येष्ठ पु्त्र थे लेकिन उनमें हिंदुत्व के
उदात्त विचारों ने इतना ज्यादाप्रभाव डाला कि वे वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करने लगे। उपनिषदों काज्ञान फारसी में अनुदित हुआ तो इसके पीछे दारा शिकोह की तपस्या थी
जोउन्होंने प्रयाग और काशी में गंगा तट पर रहते हुए की थी। उनके हिंदुत्वप्रेम के कारण ही औरंगजेब ने उनका वध करवा डाला।

अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्ररहीम खानखाना को भी जहांगीर ने इसीकारण परेशान किया। अपने जीवन की संझाबेला में वे चित्रकू ट आ गए और भगवानराम की भक्ति करने लगे।
चित्रकू ट में रमि रहे रहिमन अवधनरेश, जा पर विपदापरत है, सो आवत एहि देश।

राम और कृ ष्ण दोनों के प्रति ही रहीम के मन में गहरा अनुराग था। वेमुसलमान थे लेकिन उन्होंने सच्चे अर्थों में भारत की सहिष्णु परंपरा काअवगाहन किया। मुगलिया सल्तनत में एक
समय उनका प्रभाव वर्तमान प्रधानमंत्रीऔर के बिनेट सचिव जैसा हुआ करता था। लेकिन उनका निर्मल मन सदा ही राजनीति के छल-प्रपंचों से दूर भगवद्दभक्ति में रमता था। यही
कारण है कि जो पद, दोहेऔर रचनाएं वह कर गए वह हमारी महान और समृद्ध विरासत का सुंदर परिचय है।

भारतीय जीवनदर्शन और मूल्यों को रहीम ने व्यक्तिगत जीवन में न सिर्फ जिया वरन् उसे शब्द देकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। एक बार किसी ने रहीम सेपूछा कि यह हाथी
अपने सिर पर धूल क्यों डालता है तो रहीम ने उसे उत्तरदिया- यह उस रजकण को ढूंढता फिरता है जिसका स्पर्श पाकर अहिल्या तर गई थी।

धूर धरत निज सीस पर, कहु रहीम के हि काज।


जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूंढत गजराज।

गुरू नानक के शिष्य मरदाना, संत रविदास के शिष्य सदना, महाराष्ट्र के संत लतीफ शाह, अमेठी के पास जायसी ग्राम के मलिक मोहम्मद जायसी, नर्मदा तटपर रमण करने वाले
संत बाबा मलेक, गुजरात के ही भक्त बाबा दीन दरवेश, दरियासाहेब, अनाम जैसे संत यारी साहेब, ग्वालियर के संत बुल्ला शाह, मेहसाणा के रामभक्त मीर मुराद, नज़ीर अक़बराबादी,
बंगाल के संत मुर्तजा साहेब, और तोऔर सम्राट शाहजहां तक के जीवन में भक्ति आंदोलन ने ऐसी लहर पैदा की इनके पगभक्ति के महान पथ पर चल पड़े।

यह भक्ति की भावना सभी को आत्मसात करने वाली थी। आज़ भी जब हम डागरबंधुओं से ध्रुवपद सुनते हैं तो हमें उस भक्ति परंपरा का अनायास स्मरण होउठता है जिसने इस्लाम
के तूफान को गंगा की लहरों के सामने नतमस्तक होने परमजबूर कर दिया था।

यही कारण था कि इस्लाम के हिंदुत्व के साथ बढ़ते तादात्मीकरण नेकट्टरपंधी मुल्लाओँ की नींद हराम कर दी। मौलाना हाली ऐसे ही एक कट्टरपंथीमुसलमान थे जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम
समन्वय के इस महान कार्य पर चिंताजताई। उन्होंने कहा-

वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,


निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कु लज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डु बा दहाने में गंगा के आकर।।

यानी मौलाना हाली दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस्लाम का जहाज़ीबेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जबहिंदुस्थान पहुंचा और उसका
सामना यहां की संस्कृ ति से हुआ तो वह गंगा कीधारा में सदा के लिए डू ब गया।

मुस्लिम समाज़ पर हिंदू तथा मुस्लिम संतों की भगवद्भक्ति का इतना प्रभावबढ़ता गया कि इस्लामी मौलवी लोगों को लगने लगा कि इस प्रकार तो हिंदुत्वइस्लाम को निगल जाएगा।
इस कारण प्रतिक्रिया में आकर भारतीय मुसलमान संतोंपर मौलवियों ने कु फ्र अर्थात नास्तिकता के फतवे ज़ारी कर दिये। मौलानाओं नेसाधारण मुसलमानों को सावधान किया-

हमें वाइजों ने यह तालीम दी है।


कि जो काम दीनी है या दुनियावी है,
मुखालिफ़ की रीस उसमें करनी बुरी है,
निशां गैरते दीने हक का यही है,
न ठीक उसकी हरगिज़ कोई बात समझो,
वह दिन को कहे दिन तो तुम रात समझो।।
तो इस प्रकार अठारहवीं सदी आते आतेहिंदु-मुस्लिम समन्वय की महान भक्ति परंपरा पर कट्टरपंथियों का ग्रहण लगनातेज़ हो गया। धूर्त और चालाक अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों
में पनपरहे प्रेम को भी अपने लिए गंभीर खतरा माना।येन-के न-प्रकारेण वे मुसलमानोंको उन हिंदुओं से सांस्कृ तिक तौर पर भी अलग करने में सफल हो गए जिन हिंदुओंके साथ
मुसलमानों का नाभि-नाल का सम्बंध था। आज यह पक्के तौर पर कहा जासकता है कि यदि निर्मल भक्ति, प्रेम तथासंतों के पवित्र एवं त्यागमयी आचरण के दैवीय आकर्षण से करोड़ों
मुसलमानअपने पुरखों की संस्कृ ति, धर्म और परंपरा से उसी भांति जुड़ जाते और आनन्दमानते जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोदी में सुख का अनुभव करता है।

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - END OF भक्ति आंदोलन- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

यदि हमारे पूर्वज युद्ध हारते ही रहे तो हम जिंदा कै से हैं...

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"कु छ लोग जीतकर भी हार जाते हैं, कु छ हारकर भी जीत जाते हैं"
असल बात ये है कि हमें वही इतिहास पढ़ाया जाता है, जिनमें हम हारे हैं --
*मेवाड़ के राणा सांगा ने 100 से अधिक युद्ध लड़े, जिनमें मात्र एक युद्धमें पराजित हुए और आज उसी एक युद्ध के बारे में दुनिया जानती है,* उसीयुद्ध से राणा सांगा का इतिहास
शुरु किया जाता है और उसी पर ख़त्म
राणा सांगा द्वारा लड़े गए खंडार, अहमदनगर, बाड़ी, गागरोन, बयाना, ईडर, खातौली जैसे युद्धों की बात आती है तो शायद हम बता नहीं पाएंगे और अगर बताभी पाए तो उतना
नहीं जितना खानवा के बारे में बता सकते हैं
भले ही खातौली के युद्ध में राणा सांगा अपना एक हाथ व एक पैर गंवाकर दिल्लीके इब्राहिम लोदी को दिल्ली तक खदेड़ दे, तो वो मायने नहीं रखता, बयाना के युद्ध में बाबर को भागना
पड़ा हो तब भी वह गौण है
मायने रखता है तो खानवा का युद्ध जिसमें मुगल बादशाह बाबर ने राणा सांगा को पराजित किया
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की बात आती है तो, तराईन के दूसरे युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया
तराईन का युद्ध तो पृथ्वीराज चौहान द्वारा लडा गया आखिरी युद्ध था, उससेपहले उनके द्वारा लड़े गए युद्धों के बारे में कितना जानते हैं हम ?
*इसी तरह महाराणा प्रताप का ज़िक्र आता है तो हल्दीघाटी नाम सबसे पहले सुनाई देता है*
हालांकि इस युद्ध के परिणाम शुरु से ही विवादास्पद रहे, कभी अनिर्णित मानागया, कभी अकबर को विजेता माना तो हाल ही में महाराणा को विजेता माना
बहरहाल, महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा, चावण्ड, मोही, मदारिया, कु म्भलगढ़, ईडर, मांडल, दिवेर जैसे कु ल 21 बड़े युद्ध जीते व 300 से अधिक मुगलछावनियों को ध्वस्त किया
महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ में लगभग 50 दुर्ग थे, जिनमें से तकरीबन सभीपर मुगलों का अधिकार हो चुका था व 26 दुर्गों के नाम बदलकर मुस्लिम नाम रखेगए, जैसे उदयपुर
बना मुहम्मदाबाद, चित्तौड़गढ़ बना अकबराबाद
फिर कै से आज उदयपुर को हम उदयपुर के नाम से ही जानते हैं ?... ये हमें कोई नहीं बताता
असल में इन 50 में से 2 दुर्ग छोड़कर शेष सभी पर महाराणा प्रताप ने विजयप्राप्त की थी व लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर दोबारा अधिकार किया था
दिवेर जैसे युद्ध में भले ही महाराणा के पुत्र अमरसिंह ने अकबर के काकासुल्तान खां को भाले के प्रहार से कवच समेत ही क्यों न भेद दिया हो, लेकिनहम तो सिर्फ हल्दीघाटी युद्ध
का इतिहास पढ़ेंगे, बाकी युद्ध तो सब गौण हैंइसके आगे!!!!
*महाराणा अमरसिंह ने मुगल बादशाह जहांगीर से 17 बड़े युद्ध लड़े व 100 सेअधिक मुगल चौकियां ध्वस्त कीं*, लेकिन हमें सिर्फ ये पढ़ाया जाता है कि 1615 ई. में महाराणा
अमरसिंह ने मुगलों से संधि की | ये कोई नहीं बताएगा कि 1597 ई. से 1615 ई. के बीच क्या क्या हुआ |
*महाराणा कु म्भा ने 32 दुर्ग बनवाए, कई ग्रंथ लिखे, विजय स्तंभ बनवाया, येहम जानते हैं, पर क्या आप उनके द्वारा लड़े गए गिनती के 4-5 युद्धों के नामभी बता सकते हैं ?*
महाराणा कु म्भा ने आबू, मांडलगढ़, खटकड़, जहांजपुर, गागरोन, मांडू , नराणा, मलारणा, अजमेर, मोडालगढ़, खाटू, जांगल प्रदेश, कांसली, नारदीयनगर, हमीरपुर, शोन्यानगरी,
वायसपुर, धान्यनगर, सिंहपुर, बसन्तगढ़, वासा, पिण्डवाड़ा, शाकम्भरी, सांभर, चाटसू, खंडेला, आमेर, सीहारे, जोगिनीपुर, विशाल नगर, जानागढ़, हमीरनगर, कोटड़ा,
मल्लारगढ़, रणथम्भौर, डूंगरपुर, बूंदी, नागौर, हाड़ौती समेत 100 से अधिक युद्ध लड़े व अपने पूरे जीवनकाल में किसी भीयुद्ध में पराजय का मुंह नहीं देखा
*चित्तौड़गढ़ दुर्ग की बात आती है तो सिर्फ 3 युद्धों की चर्चा होती है :-*
1) अलाउद्दीन ने रावल रतनसिंह को पराजित किया
2) बहादुरशाह ने राणा विक्रमादित्य के समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग जीता
3) अकबर ने महाराणा उदयसिंह को पराजित कर दुर्ग पर अधिकार किया

वर्ण कै से बदल गया जातिवाद में?

http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-history/hindu-caste-or-varnashrama-116012000060_1.html

क्षत्रिय कु ल वधु मीरा के गुरु एक शुद्र जाति के थे नाम है संत रैदास!


भगवान् राम के पिता दशरथ के मंत्री सुमंत शुद्र थे!
महर्षि वाल्मीकि जिन्होंने कालजयी ग्रन्थ रामायण की रचना की वो शुद्र ही थे!
अयोध्या में 1990 में राममंदिर की शिला रखने वाले कामेश्वर शुद्र थे!
वाराणसी में शंकराचार्य ने डोम के घर खाना खाया था!
विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर में पूजा का अधिकार शबर यानी शुद्र को ही है!
महाभारत में जिस मत्रिमंडल का वर्णन है जिसमे 54 सदस्य है!
उनमे 4 ब्राह्मण 18 क्षत्रिय ,21 वैश्य और 3 शुद्र और 1 सूत के लिए आरक्षित था!

नाम संबंधित घटनाएं सज़ा


खुदीराम बोस 1908 में सेशन जज किं ग्‍जफोर्ड की गाड़ी पर बम फे कने के कारण बेणी रेलवे स्‍टेशन 11August, 1908 को फांसी दे दी गई
पर गिरफ्तार हुए.
अशफाकउल्‍ला खां 19August, 1925 को काकोरी डाकगाड़ी डकै ती के स के अभियोग में बंदी बनाया 18 December1927 ई. को फांसी दे दी गई
गया.
ऊधम सिंह 13March1940 ई. को सर माइकल-ओ-डायर को कै क्‍सटन हॉल लंदन में गोली 12 jun1940 को फांसी दी गई.
मारने के कारण गिरफ्तार हुए.
भगत सिंह सान्‍डर्स की हत्‍या तथा 8 April, 1929 को कें द्रीय विधानसभा में बम फे कने के सान्‍डर्स की हत्‍या के के स में मौत की सजा हुई तथा
सिलसिले में गिरफ्तारी. 23March1931 को फांसी पर चढ़कर शहीद हुए.
सुखदेव सान्‍डर्स की हत्‍या के के स में मौत की सजा हुई. 15April1929 को गिरफ्तार हुए. 23 March1931 को भगत सिंह के साथ फांसी दी
गई.
बटुके श्‍वर दत्त भगत सिंह के साथ्‍ज्ञ कें द्रीय असेम्‍बली में बम फें कने के आरोप में गिरफ्तार हुए. इन्‍हें आजीवन कारावास का दंड मिला.
चंद्रशेखर आजाद काकोरी डाकगाड़ी डकै ती के स के मुख्‍य अभियुक्‍त तथा अंग्रेजी सरकार ने इन्‍हें जिंदा 23February1931 को एल्‍फ्रे ड पार्क (इलाहाबाद)
या मुर्दा पकड़ने के लिए तीस हजार रुपये पुरस्‍कार की घोषणा की. में शहीद हुए.
मास्‍टर अमीचंद दिल्‍ली षड्यंत्र के प्रमुख क्रान्तिकारी अमीचंद February, 1914 में वायसराय लॉर्ड 8May, 1915 को चार साथियों के साथ इन्‍हें फांसी
हार्डिंग की हत्‍या करने के आरोप में बंदी बनाए गए. दी गई.
अवध बिहारी दिल्‍ली षड्यंत्र के स और लाहौर बम कांड के आरोप में February, 1914 में इन्‍हें 8May, 1915 को चार साथियों के साथ इन्‍हें फांसी
बंदी बनाया गया. दे दी गई.
मदन लाल धींगरा 1july, 1909 में कर्नल विलियम कर्जन वाइली की हत्‍या करने के कारण गिरफ्तार 16 August, 1909 ई. को इन्‍हें फांसी दे दी गई.
हुए.
दामोदर चापेकर 22Jun, 1897 ई. को प्‍लेग कमिश्‍नर रैंड और लेफ्टिनेंट एयर्स्‍ट हत्‍या सिलसिले में 18April, 1898 ई. को फांसी के तख्‍ते पर चढ़कर
अपने भाइयों के साथ गिरफ्तार हुए. शहीद हो गए. इनके भाई बालकृ ष्‍ण चापेकर को
12May, 1899 तथा वासुदेव चापेकर को 8May,
1899 को फांसी पर लटका दिया गया.
राजगुरु 17December, 1928 को सौन्‍डर्स की हत्‍या में भाग लेने के कारण 23 March, 1931 को कें द्रीय जेल लाहौर में भगत
30December1929 को पूना में एक मोटर गैराज में गिरफ्तार हुए. सिंह और सुखदेव के साथ फांसदी दे दी गई.
वासुदेव बलवंत फड़के एक सशस्‍त्र सेना बनाकर ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के कारण 21July, कालापानी की सजा के सिलसिले में अदन में आमरण
1879 को गिरफ्तार हुए. अनशन करके 17February, 1883 को प्राण
त्‍याग दिए.
करतार सिंह सराबा गदर पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता तथा लाहौर सैनिक षड्यंत्र के नेता की हैसियत से 16November, 1915 को फांसी के तख्‍ते पर
गिरफ्तार किए गए. झूलते हुए शहीद हो गए.
राजेंद्र लाहिड़ी दक्षिणेश्‍वर बम कांड तथा काकोरी डाक गाड़ी डकै ती कांड के सिलसिले में गिरफ्तार 17December, 1927 को गोंडा की जेल में इन्‍हें
हुए. फांसी दे दी गई.
अनंत कान्‍हरे नासिक के जैक्‍सन हत्‍याकांड के प्रमुख अभियुक्‍त होने के कारण बंदी बनाए गए. 19 April1910 को फांसी दे दी गई.
सुभाषचंद्र बोस 21October, 1943 को सिंगापुर में आजाद भारत की अस्‍थाई सरकार की 18August1945 को वायुसेना दुर्घटना में इनकी
स्‍थापना की घोषणा की तथा जापानी सेना की सहायता से अंडमान एवं निकोबार द्वीप मौत हो गई. लेकिन इस हादसे को अभी तके प्रमाणिक
समूह पर अधिकार करते हुए, 1944 में भारतीय सीमा के इम्‍फाल क्षेत्र में प्रवेश किया. नहीं माना गया है.
विष्‍णु गणेश पिंगल 23march1915 को विस्‍फोटक बमों के साथ गिरफ्तार कर लिए गए. 17November1915 को इन्‍हें फांसी दे दी गई.
ब्रजकिशोर चक्रवर्ती मिदनापुर के जिला मजिस्‍ट्रेट बर्ज पर गोली चलाने के आरोप में 26October1934 को फांसी दी गई.
2September1933 को गिरफ्तार कर लिए गए
कु साल कोंवर 9October1942 को ब्रिटिश सैनिक गाड़ी को पटरी से उतारने के संदेह में 16Jun1943 को इन्‍हें फांसी दे दी गई.
गिरफ्तार हुए.
असित भट्टाचार्य 13march, 1933 को हबीबगंज में हुई डाक डकै ती तथा हत्‍या के अन्‍य मामले के 2July1934 को सिलहट जेल में इन्‍हें फांसी दे दी
सिलसिले में गिरफ्तार किए गए. गई.
जगन्‍नाथ शिंदे शोलापुर थाने पर हुए हमले का अभियोग लगाकर इन्‍हें बंदी बनाया गया. 12January1931 में इन्‍हें फांसी दे दी गई.
हरकिशन 23 December1930 को पंजाब के गवर्नर पर गोली चलानेके आरोप में गिरफ्तार 9Jun1931 को इन्‍हें फांसी दे दी गई.
हुए.
सूर्यसेन 18April1930 में चटगांव स्थित ब्रिटिश शस्‍त्रागार पर आक्रमण में भाग लेने के 11January1934 को इन्‍हें फांसी पर लटका दिया
कारण गिरफ्तार हुए.| उन्होनेइंडियन रिपब्लिकन आर्मीकी स्थापना की| उन्होने आखिरी गया.बर्बर ब्रिटिश जल्लादों ने हथौड़े के साथ उनके सभी
पत्र अपने दोस्तों को लिखा था जिसमें कहा था: "मौत मेरेदरवाजे पर दस्तक दे रही है। दांतों को तोड़ दिया, औरसभी नाखूनों को निकाल फें का।
मेरा मन अनन्तकाल की ओर उड़ रहा है ... ऐसेसुखद समय पर,ऐसे गंभीर क्षण में, मैं उनके सभी अंगों और जोड़ों को तोड़ दिया गयाऔर
तुम सब के पास क्या छोड़ जाऊं गा ? के वल एक चीज, यह मेरा सपना है, एक सुनहरा उनके अचेतन शरीर को फांसी की रस्सी तक घसीटा
गया था
सपना- स्वतंत्र भारत का सपना| एक बार उन्होंने नेत्र सेन नाम के एक आदमी के घर में
शरण ली। लेकिन नेत्रसेन ने उनके साथ छल कर धन के लालच में ब्रिटिशों को उनकी
जानकारी दे दी औरपुलिस ने फरवरी 1933 में उन्हें पकड़ लिया। इससे पहले कि नेत्र
सेन कोअंग्रेजों ने पुरस्कृ त किया हो, एक क्रांतिकारी उनके घर में आया और दा
(एकलंबी चाकू ) के साथ उसका सिर काट डाला। नेत्र सेन की पत्नी सूर्य सेन के
एकबड़ी समर्थक थी, इसलिए उन्होंने कभी भी उस क्रांतिकारी के नाम का खुलासानहीं
किया जिन्होंने नेत्र सेन की हत्या की थी।
लाला लाजपत राय 17 November1928 के साइमन कमीशन का विराध करने पर पुलिस की लाठी
लाठियों का शिकार हुए

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