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फलित ज्योतिष में फलादे श निकालने की अने क विधियां प्रचलित हैं , जिनमें से पराशरोक्त सिद्धांत, महादशाएं , अं तर
दशाएं , प्रत्यं तर दशाएं , सूक्ष्म दशायें इत्यादि के साथ, जन्म लग्न, चं दर् लग्न, नवां श लग्न के द्वारा, वर्ष, मास, दिन एवं
घं टों तक विभाजित कर, सूक्ष्म फलादे श निकालना सं भव हैं । ले किन इसके बावजूद भी फलादे श सही अवस्था में प्राप्त
नहीं होता है । फलादे श में सूक्षमता लाने के लिए ज्योतिष के सभी ग्रंथों में अष्टक वर्ग अपना एक विशे ष स्थान रखता
है । अष्टक वर्ग का वर्णन ज्योतिष के प्राचीन मौलिक ग्रंथों में सभी जगह मिलता है , वृ हद पाराशरी होरा शास्त्र में तो
उत्तर खं ड में अष्टक वर्ग का ही वर्णन किया गया है ।
ज्योतिष शास्त्र में अष्टक वर्ग एक अहम् भूमिका है । ज्योतिष में इसके बिना भविष्यवाणी करना असं भव तो नहीं, ले किन
कठिन अवश्य है । कभी-कभी दे खते हैं कि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में ग्रहों की स्थिति उच्च बल की है , परं तु वह
व्यक्ति एक साधारण सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा है , दस ू री ओर दे खने को मिलता है कि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली
में ग्रहों की स्थिति अति नीच की हैं , परं तु वह व्यक्ति उच्च एवं महान जीवन व्यतीत करता है , आखिर ऐसा क्यों? फलित
सिद्धांत के अनु सार कोई भी ग्रह अपनी नीच, शत्रु राशि, या छठे , आठवें तथा बारहवें भाव में अनिष्ट फल दे ता है ,
ले किन दे खने के लिए मिलता है कि ऐसे ग्रहों वाला व्यक्ति भी सं सार में उच्च पद पर नियु क्त है । ऐसे व्यक्ति की कुंडली
को दे ख कर कोई कल्पना नहीं कर सकता कि वह किसी ऊंचे पद पर होगा। इसके लिए अष्टक वर्ग का सिद्धांत अत्यधिक
आवश्यक है ।
कोई भी ग्रह उच्च का स्वक्षे तर् ी, या केंद्र आदि बलयु क्त षोडष बलयु क्त योगकारक ही क्यों न हो, यदि उसकी अष्टक
वर्ग में स्थिति बलयु क्त न हो, तो वह शु भ फल नहीं दे ता है और यदि, उसके विपरीत, वह ग्रह छठे , आठवें एवं बारहवें
भाव में स्थित हो, या शत्रुक्षे तर् ी, बलहीन हो, यदि वह अष्टक वर्ग में बलयु क्त हो, तो वह शु भ फल दे ता है । केवल किसी
एक ग्रह के आधार पर वास्तविक सत्य भविष्यवाणी नहीं की जा सकी है । इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि सारे
सौर मं डल में अन्य ग्रह उसे कितना प्रभावित करते हैं तथा उस ग्रह से अन्य ग्रहों की स्थिति क्या है एवं उसका
प्रभाव क्या है ?
इसका ज्ञान सिर्फ अष्टक वर्ग से ही हो सकता है । जन्म के समय किसी ग्रह की जो स्थिति केवल उस स्थिति के अनु रुप
फल कथन करते समय यह अत्यं त आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान में ग्रह की स्थिति क्या है , जन्म के समय उस ग्रह
की स्थिति उच्च बल की हो, ले किन वर्तमान में उस ग्रह की स्थिति न्यूनतम है , तो इसका निराकरण अष्टक वर्ग एवं गोचर
के द्वारा ही किया जाता है । गोचर के फल में स्थूलता है । क्योंकि एक ही राशि के अने क मनु ष्य होते हैं , इसलिए गोचर में
भी सूक्ष्मता लाने के लिए अष्टक वर्ग की उपयोगिता है ।
गोचर में , चं दर् राशि को प्रधान मान कर, शु भ स्थान की गणना कर, प्रत्ये क ग्रह को शु भ एवं अशु भ माना जाता है ।
परं तु अष्टक वर्ग में , प्रत्ये क ग्रह की राशि को प्रधान मान कर, उससे शु भ स्थान की गणना की जाती है । इसमें सूर्य,
चं दर् , मं गल, बु ध, गु रु, शनि 7 ग्रह एवं लग्न सहित 8 होते हैं । इन आठों के सं पर्ण
ू योग को ‘अष्टक वर्ग’ कहा जाता है ।
अष्टक वर्ग में 8 प्रकार से शु भ तत्वों की गणना की जाती है । इस कारण अष्टक वर्ग के द्वारा गोचर फल विचार में सूक्ष्मता
आ जाती है । इसके बिना फलित अधूरा है , जिस ग्रह की जिस राशि में लग्न सहित आठों ग्रहों की स्थिति अनु कूल
होगी, उसको 8 रे खाएं प्राप्त हां ेगी, उस राशि से भ्रमण करते समय वह शत-प्रतिशत फल दे ता है ।
4 से अधिक रे खाएं होने पर वह ग्रह शु भ फल ही दे गा। अष्टक वर्ग में इस बात पर विचार नहीं किया जाता है कि वह
राशि कौन से भाव में है , भले ही वह राशि जन्म लग्न, या चं दर् राशि से आठवी, बारहवीं, या केंद्र त्रिकोण में हो, यदि
उसे 4 से अधिक रे खाएं प्राप्त होंगी, तो गोचर का ग्रह उस राशि पर अवश्य ही शु भ फल दे गा। मान लीजिए, वृ श्चिक
राशि से द्वादश स्थान पर तु ला का गु रु है । यदि वह 4 से अधिक रे खाओं से यु क्त है , तो द्वादश में होता हुआ भी शु भ फल
दे गा। इसमें भी एक ग्रह अपने निर्धारित समय तक रहता है , जै से सूर्य। मास, चं दर् मा सवा 2 दिन, गु रु 13 मास इत्यादि।
इनमें और भी सूक्ष्मता लाने के लिए यह दे खते हैं कि उस ग्रह को कौन सा ग्रह उस राशि में शु भ फल प्रदान कर रहा
है ।
इसके लिए उस राशि को 8 से विभाजित कर दें गे । इनका क् रम शनि, गु रु, मं गल, सूर्य, शु क्र, बु ध, चं दर् मा और लग्न हो।
30 भाग 8 = 3-45 होगा, इसमें पहला भाग 3-45 तक शनि का, दस ू रा 7-30 तक गु रु का, तीसरा 11-45 तक मं गल का,
चै था 15 तक सूर्य का, पांचवां 18-45 तक शु क्र का, छठा 22-30 तक बु ध का, सातवां 26-15 तक चं दर् मा का और आठवां
30 तक लग्न का होगा। उस राशि में शु भ फल दे ने वाली रे खाओं को इसी क् रम से दे खेंगे । इस प्रकार अष्टक वर्ग की
जिस राशि के जिस भाग में शु भ रे खा होगी, उस ग्रह के उस अं श तक शु भता रहे गी। उस वक्त तक वह ग्रह शु भ फल
दे गा। इस प्रकार अष्टक वर्ग द्वारा गोचर में और भी सूक्ष्म फलित दे सकते हैं ।
जन्मकुंडली में प्रत्ये क ग्रह के प्रत्ये क भाव में फल भिन्न-भिन्न हैं । कुछ भावों में ग्रह अपना शु भ फल दे ते हैं और
कुछ घरों में बु रा फल प्रदान करते हैं । ले किन अष्टक वर्ग में ऐसा नहीं माना जाता है । अष्टक वर्ग में सब ग्रहों का किसी
भी भाव में शु भ एवं अशु भ फल एक समान होगा। अनिष्ट स्थान में भी ग्रह शु भ फल दे ता है और शु भ स्थान पर भी ग्रह
अनिष्ट फल दे सकता है । जन्मकुंडली में किसी भी भाव में समु दायक अष्टक वर्ग के अनु सार 32 से ऊपर रे खाएं होंगी, तो
उस भाव में स्थित ग्रह शु भ फल दे गा; चाहे वह ग्रह अनिष्टकारक ही हो। यदि 32 से कम रे खाएं होंगी, तो उतना ही वह
ग्रह अशु भ फल दे ता जाएगा।
उदाहरण के तौर पर मान लीजिए वृ श्चिक राशि लग्न की जन्म कुंडली में सूर्य दशमे श हो कर अष्टम मिथु न राशि पर
पड़ा है , तो उसका फल अशु भ होगा। ले किन यदि समु दायक अष्टक वर्ग में उसे 32 से ऊपर रे खाएं प्राप्त हो रही हों, तो
अष्टम भाव स्थित सूर्य के फल में शु भता आ जाएगी, अर्थात् इस प्रकार 32 रे खाओं से अधिक भाव वाले भाव में स्थित
अनिष्ट ग्रह भी शु भ फल प्रदान करें गे । समु दायक अष्टक वर्ग में दसवें भाव से एकादश भाव में अधिक रे खाएं हां े और
एकादश भाव से द्वादश भाव में कम रे खाएं हों तथा द्वादश भाव से लग्न में अधिक रे खाएं हों, तो वह सु खी, धनवान एवं
भाग्यवान योग बन जाता है ।
सूर्य और चं दर् मा अष्टक वर्ग में किसी राशि में 1, 2 या कोई भी रे खा न हो, तो उस राशि के गोचर के सूर्य और चं दर् मा में
कोई भी शु भ मां गलिक महत्वपूर्ण कार्य करना अच्छा नहीं होता है । इसके लिए जन्मकुंडली के आधार पर सूर्य, चं दर् , गु रु
के अष्टक वर्ग में दे खें कि उस राशि में उसे कितनी रे खाएं प्राप्त हुई हैं । यदि 4 से अधिक रे खाएं प्राप्त हों, तो उसमें
मां गलिक कार्य करना शु भ ही होगा। यदि 4 से कम रे खाएं हों, तो ठीक नहीं, परं तु यदि 4 रे खाओं से अधिक है , तो वह शु भ
है ; चाहे वह जन्म राशि से बारहवीं राशि ही क्यों न हो। गोचर का सूर्य, चं दर् , गु रु शु भ माना जाएगा। सूर्य अष्टक वर्ग से
आत्मा, स्वभाव, शक्ति और पिता का विचार किया जाता है । यदि सूर्य को 4 से कम रे खाएं प्राप्त हां ेगी, तो मनु ष्य
आत्मिक तौर पर निर्बल ही होता है । यदि 4 से अधिक रे खाएं हों, तो आत्मिक बल और राजतु ल्य वै भव से यु क्त होता है ।
सबसे कम रे खाएं हां ेगी, तो उस राशि के गोचर का सूर्य उसके लिए अनु कूल नहीं होगा। गोचर का शनि जब उस राशि में
आए, तो पिता इत्यादि को कष्ट होता है । उस मास में महत्वपूर्ण रे खाएं होंगी। उसमें गोचर का जब सूर्य और बृ हस्पति
आएगा, तो वह समय उसके लिए पै तृक सु ख एवं आत्मिक उन्नति और शु भ कार्यों के लिए विशे ष रहे गा। सूर्य अष्टक वर्ग
में सूर्य से नौंवे घर की रे खाओं को सूर्य अष्टक वर्ग की पिं ड आयु से गु णा कर के 27 का भाग दे ने के बाद जो शे ष आएगा,
उस नक्षत्र में , या (दसवें , या उन्नीसवें ) नक्षत्र में गोचर का शनि आएगा, तो पिता को कष्ट होगा। इसी प्रकार 12 का
भाग दे ने से जो शे ष राशि होगी, उस राशि, या राशि के त्रिकोण (दसवें , या उन्नीसवें ) में गोचर का शनि होगा, तो पिता
को कष्ट होगा और उसकी शु भता के लिए गोचर का गु रु जब इन नक्षत्रों, राशियों में आएगा, तो उसे निश्चित ही पै तृक
सु ख मिले गा।
चं दर् अष्टक वर्ग में जिस राशि में शून्य, या कम रे खाएं हां े उस राशि के चं दर् मा का शु भ कार्यों में परित्याग करना
चाहिए। जिस राशि में 5 से अधिक रे खाएं हों, उसमें शु भ कार्य करने चाहिएं । इसी तरह चं दर् की अष्टक वर्ग से कम
रे खाएं होंगी, तो वह राशियां उसके लिए अशु भ साबित होगीं एवं जिसमें अधिक रे खाएं हां ेगी, वह राशियां उसके लिए
शु भ हां ेगी। चं दर् मा से चतु र्थ भाव की राशि से माता एवं मन और बु दधि
् का विचार किया जाता है । चं दर् मा की पिं ड
आयु से गु णा कर के 27 का भाग दे ने से शे ष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण, या 12 से भाग दे ने पर शे ष राशि, या उसके
त्रिकोण में गोचर का शनि आने से माता इत्यादि को कष्ट होगा।
मं गल अष्टक वर्ग से भाई, पराक् रम का विचार होता है । मं गल से तृ तीय स्थान भाई का है । मं गल अष्टक वर्ग में मं गल से
तीसरे स्थान में जितनी शु भ रे खाएं हां ेगी, उतने भाई-बहनों का सु ख होगा। मं गल से तीसरे स्थान की रे खाओं का
मं गलाष्टक वर्ग की पिं ड आयु से गु णा कर के 27 का भाग दे ने पर शे ष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण में 12 का भाग दे ने से
शे ष राशि, या उसके त्रिकोण में गोचर का शनि आये , तो भाई को कष्ट होगा। उसके साथ ही जब इन राशियों में गोचर
का गु रु आएगा, तो भाई से भाई का लाभ होगा। बु ध से चतु र्थ भाव में कुटु ं ब, मित्र और विद्या आदि का विचार किया
जाता है ।
बु ध अष्टक वर्ग में किसी राशि में एक भी रे खा प्राप्त न हो, उस राशि में गोचर का शनि जब भ्रमण करे गा, तो सं पत्ति की
हानि, पारिवारिक समस्याएं बं धु-बां धवों से विवाद चलें गे । बु ध अष्टक वर्ग में जिस राशि में सबसे अधिक रे खाएं होंगी,
उस राशि में गोचर के बु ध में विद्या-व्यापार आरं भ करना शु भ होगा। बु ध के दस ू रे पर यदि पांच से अधिक रे खाएं हां ेगी,
तो उसके बोलने कि शक्ति होगी। बु ध के चतु र्थ स्थान की रे खा से बु ध के योग पिं ड से गु णा कर के 27 का भाग दे ने पर शे ष
नक्षत्र, या उसके त्रिकोण में 12 से भाग दे ने पर शे ष राशि या उसके त्रिकोण में गोचर का शनि आएगा, तो बं धु-बां धव
एवं कुटु ं ब को कष्ट होगा, उपर्युक्त राशियों में जब गोचर का गु रु आएगा तो लाभ दे गा।
गु रु अष्टक वर्ग में जिस राशि में सर्वाधिक रे खाएं होगीं, उसी लग्न में जातक के गर्भाधान करने से पु त्र सं तान की प्राप्ति
होगी और उस राशि की दिशा में धन सं पत्ति व्यवसाय से लाभ होगा। गु रु अष्टक वर्ग के जिस राशि में कम रे खाएं होंगी,
उस मास में कार्य करने से निष्फलता होती है । गु रु अष्टक वर्ग में गु रु के पं चम भाव की रे खाओं से गु रु की पिं ड आयु से
गु णा कर के 27 का भाग दे कर, उसके नक्षत्र, या त्रिकोण में , 12 का भाग दे कर, उसके शे ष राशि, या उसके त्रिकोणों में
जब गोचर का शनि आएगा, तो सं तान इत्यादि को कष्ट होगा। जब इन राशियों में गोचर का गु रु होगा, तो सं तान लाभ
होगा। शु क्राष्टक वर्ग में शु क्र से सप्तम स्थान में स्त्री का विचार होता है ।
जिस राशि में कम रे खाएं होंगी, उस राशि की दिशा में शयन कक्ष बनाने से लाभ होगा। जिसमें अधिक रे खाएं हां ेगी,
उस राशि की दिशा में स्त्री लाभ होगा। जिस राशि में सर्वाधिक रे खाएं हां ेगी, उस राशि में जब-जब गोचर का शनि
आएगा, तब-तब स्त्री लाभ होगा एवं स्त्री सु ख होगा। शु क्र से सातवें स्थान की रे खाओं से शु क्र की पिं ड आयु से गु णा
कर के, 27 का भाग दे ने से शे ष नक्षत्र, या उसके त्रिकोण 12 का भाग दे ने पर शे ष राशि, या उसके त्रिकोणों में गोचर का
शनि जब आएगा, तो स्त्री को कष्ट होगा। उपर्युक्त राशियों में जब गोचर का गु रु आएगा तो स्त्री लाभ होगा एवं सु ख
की प्राप्ति होगी।
शनि अष्टक वर्ग में जिस राशि में अधिक रे खाएं हों, उस राशि में गोचर का शनि शु भ फलदायक और जिस राशि में कम
रे खाएं हां ेगी, उस राशि में गोचर का शनि अशु भ फलदायी होता है । लग्न से ले कर शनि तक जितनी रे खाएं हां ेगी,
उनके योग तु ल्य वर्षों में कष्ट होगा। इसी प्रकार शनि से लग्न तक जितनी रे खाएं हां ेगी, उनके योग तु ल्य वर्षों में ही
कष्ट होगा। शनि से अष्टम शनि की रे खा सं ख्या के अष्टम स्थान को, शनि की पिं ड आयु से गु णा कर के, 27 से भाग दे
कर, शे ष नक्षत्र, या उसके त्रिकोणों में 12 से भाग दे ने पर शे ष राशियों या उनके त्रिकोणों में जब गोचर का शनि आता
है , तो कष्टमय होता है ।
अष्टक वर्ग के द्वारा फल उत्तम और सही अवस्था में ठीक-ठीक होता है । अष्टक वर्ग के फल कथन करने से जै से-जै से
् होगी, वै से-वै से वर्ष, मास, दिन एवं घड़ी के शु भ फल अनु भव में आने लगें गे और प्रतिष्ठा पर फलित
अनु भव में वृ दधि
ज्योतिष विज्ञान के महत्व की अनोखी छाप पड़े गी।
अक्सर दे खने में आता है कि कुंडली में ग्रह अपने शु भ स्थानों पर हैं , शु भ योगों में है , तो भी जातक को उस अनु सार फल
प्राप्त नहीं होता। यह क्यों नहीं होता, इसका खु लासा अष्टकवर्ग करता है । अष्टकवर्ग में यदि ग्रह को शु भ अं क अधिक
प्राप्त नहीं हैं भले ही वह उच्च का हो, स्वराशि में हो, मूलत्रिकोण पर हो, शु भ योगों में हो, वह ग्रह फल नहीं दे गा।
छः, सात, आठ अं क यदि ग्रह को भाव में प्राप्त हैं तो वह विशे ष शु भ फल दे गा। यदि ग्रह को चार अं कों से कम अं क
भाव में प्राप्त हैं तो ग्रह अपना शु भ प्रभाव नहीं दे पाता। पांच से आठ अं क प्राप्त ग्रह क् रमशः शु भ प्रभाव दे ने में
सक्षम होते हैं ।
अष्टकवर्ग का महत्व
जब हम किसी भाव के कुल अं कों की बात करते हैं , तो उनसे यह मालूम होता है कि उस भाव में सभी ग्रह मिलकर उस
भाव का कैसा फल दें गे और जब किसी भाव में किसी विशे ष ग्रह के फल को जानना चाहते हैं , तो उस ग्रह को प्राप्त
अं कों से जानते हैं । यदि किसी भाव में कुल 30 या अधिक अं क प्राप्त हैं तो यह समझना चाहिए कि उस भाव से सं बंधित
विशे ष फल जातक को प्राप्त होंगे और उसी भाव में यदि किसी ग्रह को 5 या उससे अधिक अं क प्राप्त हैं , तो यह
जानना चाहिए कि उस ग्रह की दशा में उस भाव से सं बंधित विशे ष फल प्राप्त होंगे । कुल अं क निश्चित करते हैं उस
भाव से सं बंधित उपलब्धियां और ग्रह के अपने अं क निश्चित करते हैं कि कौन सा ग्रह कितना फल दे गा, अर्थात अपनी
दशा-अं तर्दशा और गोचर अनु सार फल दे ते है
गोचर का फल अष्टकवर्ग के ही सिद्धांत पर आधारित है । जन्म राशि से ग्रह किस भाव में गोचर कर रहा है उसी अनु सार
फल दे ता है । यदि ग्रह गोचर में शु भ स्थानों पर गोचर कर रहा है और उस स्थान पर ग्रह को उसके शु भ 6 या अधिक
अं क प्राप्त हैं तो जातक को उस भाव से सं बंधित विशे ष शु भ फल प्राप्त होगा।
साढ़े साती में जातक के लिए हर समय एक सा प्रभाव नहीं रहता। यदि शनि कुंडली में शु भकारी हो जाए तो साढ़े साती
या ढइया का बु रा प्रभाव समाप्त हो जाता है । शनि शु भकारी हो कर अपनी उच्च राशि, स्वग्रही, मूल त्रिकोण में हो
और उसे अष्टकवर्ग में शु भ अं क प्राप्त हो, तो जातक को शु भ फल भी दे ता है । इसके विपरीत सभी फल अशु भ रहते हैं ।
शु भ भावों में अधिक अं क हैं तो कहा जा सकता है कि जातक का सामाजिक जीवन सामान्य से अच्छा है । कभी-कभी
ऐसा भी होता है कि जातक के पास धन तो बहुत है पर कोई निजी मकान इत्यादि नहीं होता या किसी चीज का अभाव
होता है । इसके लिए यदि धन भाव, एकादश भाव और त्रिकोण भावों में अं क अच्छे हं ै और चतु र्थ में कम तो ऐसा दे खने
में आया है कि धन होते हुए भी जातक अपना जीवन किराए के मकान में व्यतीत करता है या अपना मकान होते हुए भी
अपने मकान में नहीं रह पाता। केवल अष्टकवर्ग को दे खकर इतनी भविष्यवाणी की जा सकती है ।
अष्टकवर्ग से फलकथन
ज्योतिष शास्त्र में फलित करने की प्रायः तीन विधियां प्रचलन में रहती हैं - जन्म कुंडली, चन्द्र कुंडली तथा नवां श
कुंडली। लग्न से शरीर का विचार होता है , चं दर् मा से मन का। जन्म पत्रिका में चं दर् मा से मन की स्थिति दे खकर यह
निश्चय किया जाता है कि जातक अपनी सांसारिक यात्रा में कितना सफल या असफल होगा। यहाँ तक कि पारलौकिक
जीवन की स्थिति भी चं दर् मा से स्पष्ट की जाती है । इन्हीं कारणों से ही महर्षियों ने चन्द्र लग्न से फलित को महत्त्व
दिया, किन्तु प्रत्ये क जातक का चं दर् मा व्यक्तिगत रूप से अलग फल बताता है , इसलिए हम बारह राशियों का फलित
चं दर् मा के गोचरानु सार नहीं कर सकते - अर्थात चं दर् मा के स्थान से जिन-जिन राशियों में ग्रह भ्रमण करते हुए जाते हैं ,
वै सा-वै सा फल उसके जीवन में होता है , जिसे गोचर-फल कहते हैं । गोचर के अनु सार फल एक गौण फल विधि है , क्योंकि
यह पूर्णतः व्यावहारिक नहीं है । इसको गौण फल इसलिए कहा गया है क्योंकि बारह राशियों का फल सं सार के सभी
लोगों का समान नहीं हो सकता, इस कारण विद्वान् इस बात से सहमत हैं कि जन्म कालीन ग्रह स्थिति से जन्म समय में
जिस-जिस राशि में सात ग्रह स्थित हों व लग्न जिस राशि में स्थित हो, इन आठ स्थानों में गोचर का फल यदि किया
जाये तो यह विचार विश्वसनीय होगा। इसी विचार विधि को अष्टक-वर्ग विधि कहते हैं । उत्तरखण्ड में अष्टक वर्ग पर
अध्याय में गु रु पाराशर और उनके परम प्रिय शिष्य मै तर् े य के बीच सं वाद दिया गया है - कलौ पाप रतानां च, मन्दा
् र्ययोनणाम। अतोअल्प बु दधि
बु दधि ् गम्यं यत, शास्त्र मे त इव दस्थ में ।। तत्रत्काला ग्रहस्थित्या, मानवाना परि
स्फुटम। सु ख दुःख परिज्ञान मायु षो निर्णय तथा।। अर्थात मै तर् े य अपने गु रु पाराशर से निवे दन करते हैं कि कलियु ग में
पाप कर्म में व्यस्त मानव की बु दधि ् मं द हो जाती है । अतः मु झे बताएँ जिससे मनु ष्यों को उस ग्रह स्थिति से उस समय के
सु ख-दुख, लाभ-हानि, आयु का निर्णय हो सके। प्रत्यु त्तर में महर्षि पाराशर ने अष्टक वर्ग विधि की व्याख्या की। वास्तव
में अष्टक वर्ग एक ऐसी तकनीक है जो किसी भी पारं गत ज्योतिषी के लिए अचूक विधि है , जो वृ हत्पराशर होरा-शास्त्र
के किसी भी पूर्व अध्याय में नहीं दी गयी है । लग्न व चं दर् मा दोनों से ग्रहों के प्रभाव का अनु मान लगाना कठिन कार्य
है । हमारे विद्वान् महर्षियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान को स्थानान्तरित किया व इस कार्य को बड़ी सु गमता व सरलता से किया
और इस विद्या को अष्टक वर्ग नाम दिया। यह विधि इतनी मौलिक है कि इसके जै सी विधि विश्व भर में कहीं नहीं,
क्योंकि इसके द्वारा पल भर में त्वरित सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है । अष्टक वर्ग विधि के अनु सार चार प्रकार से
फलित विधि बतलाई गयी है -
1. मनु ष्य के आयु साधन की विधि,
2. भिन्न-भिन्न वर्गों में रे खाओं द्वारा अने क प्रकार के फल बताने की विधि।
3. त्रिकोण एवं एकाधिपत्य शोधनादि के पश्चात फलाफल जानने की विधि, तथा 4. अष्टक वर्ग की रे खाओं द्वारा गोचर
फल कहने की विधि।
अन्य विद्वानों के अनु सार -
1. स्थिर विश्ले षण - जातक के जीवन में बार-बार होने वाली घटनाओं के स्वरुप को बताता है , इसके अन्तर्गत विभिन्न
भावों में पड़े बिन्दुओं की सं ख्या का तु लनात्मक अध्ययन किया जाता है ।
2. दशा विश्ले षण - अष्टक वर्ग एक विशे ष विधि से दशा पर प्रकाश डालता है । स्थिर विश्ले षण से घटनाओं का होना व
दशा विश्ले षण से समय विशे ष को निकाला जाता है ।
3. गोचर विश्ले षण - पारम्परिक रूप से अष्टक वर्ग का उपयोग गोचर विश्ले षण से किया जाता है । सर्वप्रथम स्वयं
भगवान् शिव ने यामल में अष्टक वर्ग के विषय में बतलाया था, उसके बाद पाराशर, मणित्थ, वादरायण, यवने श्वर आदि
ने अनु करण किया।
कुंडली में प्रत्ये क ग्रह एवं लग्न का, सूर्य कुंडली में (सूर्य अष्टक वर्ग कहते हैं ) अपने -अपने स्थान में बल होता है । इसी
क् रमानु सार चन्द्र अष्टक वर्ग, मं गल अष्टक वर्ग, सभी सात ग्रहों व एक लग्न की कुंडली तै यार होती है । लग्न कुंडली
को लग्न अष्टक वर्ग से सम्बोध् िात किया जाता है । प्रत्ये क ग्रह अपने -अपने स्थान से जिन स्थानों में बल प्रदान
करता है , इसको बिं दु या रे खा द्वारा सं केत किया जाता है । बिं दु या रे खा में कोई अन्तर नहीं है । इस प्रकार प्रत्ये क अष्टक
वर्ग में उस ग्रह विशे ष का बल स्पष्ट हो जाता है । सर्वाष्टक वर्ग - कुल 337 सर्वाष्टक बिन्दुओं को 12(बारह) से भाग दे ने
पर औसत लगभग 28 (अट् ठाईस) आता है । अतः 28 वह औसत अं क है , जिससे तु लना करने पर किसी भाव में बिन्दुओं
का कम या अधिक होना पाया जाता है ।
सामान्य सिद्धांत -
1. कोई भी राशि या भाव जहां 28 से अधिक बिं दु हों - शु भ फल दे ता है । जितने अधिक बिं दु होंगे , उतना अच्छा फल
दे गा। व्यवहार में 25 से 30 के बीच बिन्दुओं को सामान्य कहा गया है और 30 से ऊपर बिं दु होने से विशे ष शु भ फल होंगे ।
2. ग्रह चाहे कुंडली में उच्च क्षे तर् ी ही क्यों न हों, पर अष्टक वर्ग में सर्वाष्टक में बिं दु कम होने पर फल न्यून ही होगा।
3. 6-8-12 भाव में भी ग्रह शु भ फल दे सकते हैं , यदि वहां बिं दु अधिक हों किन्तु कुछ विद्वानों का मत अलग भी है ।
4. सूतर् - यदि नवें , दसवें , ग्यारहवें और लग्न में इन सभी स्थानों पर 30 से ज्यादा बिं दु हों तो जातक का जीवन समृ दधि ्
कारक रहे गा। इसके विपरीत यदि इन भावों में 25 से कम बिं दु हों तो रोग और मजबूर जीवन जीना होगा।
5. यदि ग्यारहवें भाव में दसवें से ज्यादा बिं दु हों और ग्यारहवें में बारहवें से ज्यादा, साथ ही लग्न में बारहवें से ज्यादा बिं दु
हों तो जातक सु ख समृ दधि ् का जीवन भोगे गा।
6. यदि लग्न, नवम, दशम और एकादश स्थानों में मात्र 21 या 22 या इससे कम बिं दु हों और त्रिकोण स्थानों पर अशु भ
ग्रह बै ठे हों तो जातक भिखारी का जीवन जीता है ।
7. यदि चन्द्रमा सूर्य के निकट हो, पक्षबल रहित हो, चन्द्र राशि के स्वामी के पास कम बिं दु हों, जै से 22 और शनि
दे खता हो तो जातक पर दुष्टात्माओं का प्रभाव रहे गा। यदि राहु भी चं दर् मा पर प्रभाव डाल रहा हो तो इसमें कोई दो
राय नहीं है ।
8. जब-जब कोई अशु भ ग्रह ऐसे भाव पर गोचर करे गा, जिसमें 21 से कम बिं दु हों तो उस भाव से सम्बन्धित फलों की
हानि होगी।
9. इसके विपरीत जब कोई ग्रह ऐसे घर से विचरण करता है जहां 30 से अधिक बिं दु हों तो उस भाव से सम्बन्धित शु भ
फल मिलें गे , जो उस ग्रह के कारकत्व और सम्बन्धित कुण्डली में उसे प्राप्त भाव विशे ष के स्वामित्व के रूप में मिलें गे ।
10. ग्रह जिन राशियों के स्वामी होते हैं और जिन राशियों भावों में वे स्थित होते हैं , उन स्थानों से सम्बन्धित अच्छे फल
वे अपनी दशा-अन्तर्दशा में दें गे । सूक्ष्मतर विश्ले षण के लिए दशा-स्वामी के भिन्नाष्टक वर्ग का अध्ययन करना चाहिए।
मात्र सर्वाष्टक बिं दु दे खकर ही कुण्डली का फल नहीं कहना चाहिए। कुण्डली में राजयोग, धनयोग या दस ू रे योग होने भी
जरुरी हैं । अष्टक वर्ग उन्हीं को सु दृढ़ करे गा जो योग कुण्डली में उपस्थित हैं । अष्टक वर्ग द्वारा ऐसे योगों की वास्तविक
शक्ति का मूल्यांकन भी किया जाता है ।